स्वाँग

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

स्वाँग संज्ञा पुं॰ [सं॰ सु+अङ्ग अथवा स्व+अङ्ग]

१. कृत्रिम या बनावटी वेश जो अपना रूप छिपाने अथवा दूसरे का रूप बनाने के लिये धारण किया जाय । भेस । रूप । उ॰—(क) अब चलो अपने अपने स्वाँग सजें ।—हरिश्चंद्र (शब्द॰) । (ख) कै इक स्वाँग बनाइ कै नाचै बहु बिधि नाच । रीझत नहिं रिझवार वह बिना हिये के साँच ।—रसनिधि (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—भरना ।—बनना ।—बनाना ।—सजना ।

२. मजाक का खेल या तमाशा । नकल । उ॰—(क) बहु बासना विविध कंचुकि भूषण लोभादि भरचौ । चर अरु अचर गगन जव थल में कौन र्स्वाग न करचौ ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) पै बहु विस्तृत ठाठ बाट निसि नाच स्वाँग सब । धन अधिकाई के अर लंपटता करतब के ।—श्रेधर (शब्द॰) ।

३. धोखा देने को बनाया हुआ कोई रूप । जैसे,—वह बीमार नहीं है; उसने बीमारी का स्वाँग रचा है ।

४. वह जुलूस जो होली पर निकलता है और जिसमें हास्यजनक वेशभूषा धारण की जासी है । क्रि॰ प्र॰—रचना । मुहा॰—स्वाँग लाना=धोखा देने या कोई कपटपूर्ण व्यवहार करने के लिये कोई रूप धारण करना ।