हि
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]हि ^१ एक पुरानी विभक्ति जिसका प्रयोग पहले तो सब कारकों में होता था, पर पीछे कर्म और संप्रदाय में ही ('को' के अर्थ में) रह गया । जैसे—रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ ।—मानस, १ ।२५५ । विशेष—पाली में तृतीया और पंचमी की विभक्ति के रूप में 'हि' का व्यवहार मिलता है । पीछे प्राकृतों में संबंध के लिये भी विकल्प से अपादान की विभक्ति आने लगी और सब कारकों का काम कभी कभी संबंध की विभक्ति से ही चलाया जाने लगा । 'रासो' आदि की पुरानी हिंदी में 'ह' रूप में भी यह विभक्ति मिलती हैं । अपभ्रंश में 'हो' और 'हे' रूप संबंध विभक्ति के मिलते हैं । यह 'हि' या 'ह' विभक्ति संस्कृत के 'भिस्' या 'भ्यस्' से निकली जान पड़ती है ।
हि ‡ ^२ अव्य॰ दे॰ 'ही' । उ॰—हरि कर पिचका निरखि तियन के नैना छबि हि ठराई ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰ ३८१ ।
हि ल संज्ञा पुं॰ [सं॰] हिमालय पहाड़ ।