हिरण्यगर्भ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]हिरण्यगर्भ ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. वह ज्योतिर्मय अंड जिससे ब्रह्मा और सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई ।
२. ब्रह्मा । उ॰—सृष्टि की समस्या के सुलझाव के लिये स्वभावतः एक स्त्रष्टा की कल्पना हुई और उसे पुरुष विश्वकर्मा, हिरण्य़गर्भ और प्रजापति की संज्ञाएँ दी गई ।—संत॰ दरिया (भू॰), पृ॰ ५४ । विशेष—ब्रह्मा ने जल या समुद्र की सृष्टि करके उसमें अपना बीज डाला, जिससे एक अत्यंत देदीप्यमान ज्योतिर्मय या स्वर्णमय अंड की उत्पत्ति हुई । यह अंड सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान् था । इसी अंड से सृष्टिनिर्माता ब्रह्मा प्रकट हुए जो ब्रह्मा के व्यक्त या सगुण रुप हुए । वेदांत की व्याख्या के अनुसार ब्रह्मा की शक्ति या प्रकृति पहले रजोगुण की प्रवृति से दो रुपों में विभ- क्त होती है—सत्वप्रधान और तमःप्रधान । सत्वप्रधान के भी दो रुप हो जाते हैं—शुद्ध सत्व । (जिसमें सत्वगुम पूर्ण होता है) और अशुद्ध सत्व (जिसमें सत्व अंशतः रहता है) । प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिबित होने के कारण ब्रह्मा कभी ईश्वर या हिरण्यगर्भ और कभी जीव कहलाता है । जब शक्ति या प्रकृति के तीन गुणों में से शुद्ध सत्व का उत्कर्ष होता है तब उसे 'माया' कहते हैं, और उस माया में प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्मा को सगुण या व्यक्त ईश्वर, हरिण्यगर्भ आदि कहते हैं । अशुद्ध सत्व की प्रधानता को 'अविद्या' सत्व कहते हैं उसमें प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्मा को जीव या प्राज्ञ कहते हैं ।
३. सूक्ष्म शरीर से युक्त आत्मा ।
४. एक मंत्रकार ऋषि ।
५. एक शिवलिंग ।
६. विष्णु ।
७. षोडश महादान के अंतर्गत द्धितीय महादान (को॰) ।
हिरण्यगर्भ ^२ वि॰ ब्रह्मा से संबद्ध । ब्रह्मा संबंधी [को॰] ।