हीर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]हीर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. हीरा नामक रत्न ।
२. वज्र । बिजली ।
३. सर्प । साँप ।
४. सिंह ।
५. मोती की माला ।
६. शिव का नाम ।
७. नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष के पिता का नाम (को॰) ।
८. छप्पय के ६२ वेँ भेद का नाम ।
९. एक वर्ण- वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, सगण, नगण, जगण, नगण और रगण होते हैं ।
१०. एक मात्रिक छंद जिसमें ६-६ और ११ के विराम से २३ मात्राएँ होती हैं ।
11. सार, अंश
हीर ^२ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ हीरा]
१. किसी बस्तु के भीतर का सार भाग । गूदा या सत । सार । जैसे,—जौ का हीर, गेहूँ का हीर, सौंफ का हीर ।
२. लकड़ी के भीतर का सार भाग जो छाल के नीचे होता है । जैसे,—इसके हीर की लकड़ी मजबूत होती है ।
३. शरीर की सार वस्तु । धातु । वीर्य । जैसे,—उसकी देह का हीर तो निकल गया ।
४. शक्ति । बल ।
हीर ^३ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की लता । विशेष—यह लता प्रायः सारे भारत में पाई जाती है और इसकी टहनियों और पत्तियों पर भूरे रंग के रोएँ होते हैं । यह चैत वैशाख में फूलती है । इसकी जड़ और पत्तियों का व्यवहार ओषधि रूप में होता है । इसके पके फलों के रस से बैंगनी रंग की स्याही बनती है जो बहुत टिकाऊ होती है ।
फारसी ; अग्नि, आतिष।