धतूरा
भगवान शंकर का प्रिय पौधा माना गया है। इसके फल , फूल और पत्ते भगवान शिव पर अर्पित किए जाते हैं।
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]धतूरा संज्ञा पुं॰ [सं॰ धुस्तूर अथवा सं॰ धत्तूरक] दो तीन हाथ ऊँचा एक पौधा जिसके पत्ते सात आठ अंगुल तक लंबे और पाँच छह अंगुल चौड़े तथा कौनदार होते हैं । विशेष—इसमें घंटो के आकार के बड़े बड़े और सुहांवने सफेद फूल लगते हैं । फल इसके अंडी के फलों के समान गोल और काँटेदार पर उनसे बड़े बड़े होते हैं । अंडी के फल के उपर जो काँटे निकले होते हैं वे घने लंबे और मुलायम होते हैं, पर धतूरे के फल के ऊपर काँटे कम, छोटे और कुछ अधिक कड़े होते हैं । कंटकहीन फलवाला धतूरा भी होता है । फलों के भीतर बीज भरे होते हैं जो बहुत विषैले होते है । जब ये बीज पुष्ट हो जाते हैं तब फल फट जाते हैं । धतूरे कई प्रकार के होते हैं पर मुख्य भेद दो माने जाते है । सफेद धतूरा और काला धतूरा । कहीं कहीं पीला धतूरा भी मिलता है । इसके फूल सुनहले रंग के होते हैं । काले धतूरे के डंठल, टहनियाँ और पत्तों की नसे गहरे बगनी रंग की होते है तथा फूलों के निचले भाग भी कुछ दूर तक रक्तकृष्णाभ होते हैं । साधारणतः लोगों का विश्वास है कि काला घतूरा अधिक विषेला होता है, पर यह भ्रम है । औषध में लोग काले धतूरे का व्यवहार अधिक करते है । वैद्य लोग धतूरे के बीज तथा पते के रस का दमें सें सेवन कराते और वात की पीड़ा में उसका बाहरी प्रयोग करते हैं । डाक्टरों ने भी परीक्षा करके इन दोनों रोगों में धतूरे को बहुत उपकारी पाया है । सुखे पत्तों या बीजों के घुएँ से भी दय का कष्ट दूर होता है । पहले डाक्ट र लोग धतूरे के गुणों से अनभिज्ञ थे पर अब वे इसका उपयोग करने लगे हैं । पागल कुत्ते के काटने में भी धतूरा बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है । धतूरे के फूल फल शिव को चढ़ाए जाते हैं । वैद्यक में धतूरा कसैला, उष्ण, गुरु तथा मंदाग्नि और वातकारक माना जाता है । औषध के अतिरिक्त विषप्रयोग और मादकता के लिये भी धतूरे का प्रयोग होता है । इसके बीज भाँग और शराब को तेज करने के लिये कभा कभी मिलाए जाते हैं । धतूरा प्रायः गरम देशों में पाया जाता है । भारतवर्ष में यह सर्वत्र मिलता है । प्रदेशभेद से पौधों में थोड़ा बहुत भेद पाया जाता है । दक्षिण, देश का धतूरा उत्तराखंड के धतूरे से देखने में कुछ भिन्न मालूम होता है । काश्मीर, काबुल और फारस तक से इसके बीज हिंदुस्तान में आते हैं । फारस से ये ये बीज तागे में गूँथकर माला के रूप में आते हैं और बंबई में 'बर- मूली' के नाम से बिकतेक हैं । पर्या॰—उन्मत्त । कितव । धूर्त । कनक । कनकाह्वय । मातुल । मदन । धत्तूर । शाठ । श्याम । शिवशेखर । खर्जुघ्न । काहलापुष्प । लल । कंटफल । मौहन । कृलभ । मत्त । शैव । देविका । तूरी । महामोह । शिवप्रिय । मुहा॰—धतूरा खाए फिरना = पागल बना फिरना । उन्मत्त के समान घूमना । उ॰—सूरदास प्रभु दरसन कारन मानहुँ फिरत धतूरा खाए । —सूर (शब्द॰) ।