भाव
संज्ञा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
भाव संज्ञा पुं॰ [सं॰] सत्ता । अस्तित्व । हाना । अभाव का उलटा ।
२. मन में उत्पन्न होनेवाला विकार या प्रवृत्ति । विचार । ख्याल । जैसे,— (क) इस समय मेरे मन में अनेक प्रकार के भव उठ रहे हैं । (ख) उस समय आपके मन का भाव आपके चेहरे पर झलक रहा था ।
३. अभिप्राय । तात्पर्य । मतलब । जैसे,— इस पद का भाव समझ में नहीं आता ।
४. मुख की आकृति या चेष्टा ।
५. आत्मा ।
६. जन्म ।
७. चित्त । ८ पदार्थ । चीज ।
९. क्रिया । कृत्य ।
१०. विभूति ।
११. विद्वान् । पडित ।
१२. जंतु जानवर ।
१३. रति आदि क्रिड़ा । विषय ।
१४. अच्छी तरह देखना । पर्यालोचन ।
१५. प्रेम । मुहब्बत । उ॰— रामहि चितव भाव जेहि सीया । सो सनेह मुख नहिं कथनीया । — तुलसी (शब्द॰) ।
१६. किसी धातु का अर्थ ।
१७. योनि ।
१८. उपदेश ।
१९. संसार । जगत् । दुनिया ।
२०. जन्मसमय का नक्षत्र ।
२१. कल्पना । उ॰— जैसे भाव न संभवै तैसे करत प्रकास । होने असंभावित तहाँ उपमा केशवदास । — केशव (शब्द॰) ।
२२. प्रकृति । स्वभाव । मिज्ज ।
१६. अंतःकरण में छिपी हुई कोई गूढ़ इच्छा ।
२०. ढंग । तरीका । उ॰— देखा चाँद सूर्य जस साजा । सहसहिं भाव मदन तन गाजा । — जायसी (शब्द॰) । २५० प्रकार । तरह । उ॰— गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव । —कबीर (शब्द॰) ।
२६. दशा । अवस्था । हालत ।
२७. भावना ।
२८. विश्वास । भरोसा । उ॰— अभू लगि जावों घर कैसे कैसे आवे डर बोली हरि जानिए न भाव पै न आयो है । — प्रियादास (शब्द॰) ।
२९. आदर । प्रतिष्ठा । इज्जत । उ॰— कहा भयौ जो सिर धरयौ तुम्हें कान्ह करि भाव । पंखा बिनु कछु और तुम यहाँ न पैहो नाव । — रसनिधि (शब्द॰) ।
३०. किसी पदार्थ का धर्मगुरु ।
३१. उद्देश्य ।
३२. किसी चीज की बिक्री आदि का हिसाब । दर । निर्ख । मुहा॰— भाव उतरना या गिरना =किसी चीज का दाम घट जाना । भाव चढ़ना =दर तेज होना ।
३३. ईश्वर, देवता आदि के प्रति होनेबाली श्रद्धा या भक्ति । उ॰— भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाय भक्त मम सब सुख खानी । — तुलसी (शब्द॰) ।
३४. साठ संवत्सरों में से आठवाँ सवत्सर ।
३५. फलित ज्योतिष में ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन आदि बारह चेष्टाओं में से कोई चेष्टा या ढंग जिसका ध्यान जन्मकुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है और जिसके आधार पर फलाफल निर्भर करता है । विशेष— किसी किसी के मत से दीप्त, दीन, सुस्थ, मुदित आदि नौ और किसी किसी के मत से दस भाव भी हैं ।
३५. युवती स्त्रियों के २८ प्रकार के स्वभावज अलंकारों के अंतर्गत तीन प्रकार के अंगज अलंकारों में से पहला । नायक आदि को देखने के कारण अथवा और किसी प्रकार नायिका के मन में उत्पन्न होनेवाला विकार । विशेष— साहित्यकारों ने इसके स्यौयी. व्यभिचारी और सात्विक ये तीन भेद किए हैं और रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भष, जुगुप्सा और विस्मय को स्थायी भाव के अंतर्गत, निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूचा, मद, भ्रम, आलश्य, दैन्य चिंता, मोह, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता गर्व, विषाद, उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विरोध, अमर्ष, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क को ब्यभिचारी भाव के अंतर्गत; तथा स्वेद, स्तंभ, रोमांच, स्वरभंग, वेपयु वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय को सात्विक भाव के अंतर्गत रखा हैं ।
३६. संगीत का पाँचवाँ अंग जिसमें प्रेमी या प्रेमिका के संयोग अथवा वियोग से होनेवाला सुख अथवा दुःख या इसी प्रकार का और कोई अनुभव शारीरिक चेष्टा से प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है । गीत का अभिप्राय प्रत्यक्ष कराने के लिये उसके विषय के अनुसार शरीर या अंगों का संचालन । विशेष— स्वर, नेत्र, मुख तथा अंगों की आकृति में आवश्यकता- नुसार परिवर्तन करके यह अनुभव प्रत्यक्ष कराया जाता हैं । जैसे, प्रसन्नता, व्याकुलता, प्रतीक्षा, उद्वेग, आकंक्षा आदि का भाव बताना । क्रि॰ प्र॰—बताना । मुहा॰— भाव बताना =कोई काम न करके केवल हाथ पैर मटकाना । व्यर्थ पर नखरे के साथ साथ हाथ पैर हिलाना । भाव देना =आकृति आदि से अथवा कोई अंग संचालित करके मन का भाव प्रकट करना । उ॰— श्याम को भाव दै गई राधा । नारि नागरि न काह लख्यो कोऊ नहीं कान्ह कछु करत है बहुत अनुराधा । — सूर (शब्द॰) ।
३७. नाज । नखरा । चोंचला ।
३८. वह पदार्थ जो जन्म लेता हो, रहता हो, बढ़ता हो, क्षीण होता हो, परिणामशील हो और नष्ट होता हो । छह भावों से युक्त पदार्थ । (सांख्य) ।
३९. बुद्धि का वह गुण जिससे धर्म और अधर्म, क्षान और अज्ञान आदि का पता चलता है ।
४०. वैशोषिक के अनुसा र द्र्व्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छह पदार्थ जिनका अस्तित्व होता है । अभाव का उल्टा ।
४१. कोख । कुक्षि (को॰) ।