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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/पच

विक्षनरी से


पच (१)
वि० [सं० पञ्च] हिंदी पाँच का समासगत रूप। जैसे, पच- कल्यान, पचमेवा, पचरतन, पचतोरिया, पचगुना आदि।

पच (२)
वि० [सं०] पाकर्ता। पाचक [को०]।

पचक
संज्ञा० पुं० [सं०] रसोइया [को०]।

पचकना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पिचकना'।

पचकल्यान
संज्ञा० पुं० [हिं० पंच + कल्यान] दे० 'पंचकल्याण'।

पचकल्यानी ‡
वि० [हिं०] पाँच का कल्याण करनेवाला। धूर्त। चाइयाँ। (व्यंग्य)।

पचखना (१)
वि० [हिं० पाँच + खंड] पाँच खंडोंवाला या पँचमंजिला (मकान आदि)।

पचखना (२)
क्रि० अ० [सं० पिच्च (= दबना)] दे० 'पिचकना'।

पचखा ‡
संज्ञा० पुं० [सं० पञ्चक] दे० 'पंचक-४'।

पचगुना
वि० [सं० पञ्चगुण] पाँच बार अधिक। पाँचगुना।

पचग्रह
संज्ञा० पुं० [सं० पञ्चग्रह] मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, और शनि का समूह।

पचड़ा
संज्ञा० पुं० [हिं० पच (= पँच = पंच = प्रपंच) + ड़ा (प्रत्य०)] १. झंझट। बखेड़ा। पँवाड़ा। प्रपंच। उ०—आज ब्राह्मणों में ऐसी मारपीट हुई कि नहीं कह सकता। वह बड़ा पचड़ा है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३५२। क्रि० प्र०—निकालना।—फैलाना। २. एक प्रकार का गीत जिसे प्रायः ओझा लोग देवी आदि के सामने गाते हैं। ३. लावनी या खयाल के ढंग का एक प्रकार का गीत जिसमें पाँच पाँच चरणों के टुकड़े होते हैं। ऐसे गीतों में प्रायः कोई कथा या आख्यान हुआ करता है।

पचत (१)
वि० [सं०] १. पकाया हुआ। २. पका हुआ। परिपक्व।

पचत (२)
संज्ञा० पुं० १. अग्नि। २. सूर्य। ३. इंद्र का नाम। ४. पकाया हुआ भोजन या खाद्य पदार्थ [को०]।

पचताना ‡
क्रि० अ० [हिं० पछताना] दे० 'पछताना'। उ०— खावते जुग सब चलि जावे खटा मिठा फिर पचतावे।— दक्खिनी०, पृ १०५।

पचतावा पु
संज्ञा० पुं० [हिं० पछतावा] दे० 'पछतावा'। उ०— साजनि आगे कि बोलब आओ। आगे गुनि जे काज न करए पाछे हो पचताओ।—विद्यापति, पृ० ८८।

पचतूरा
संज्ञा० पुं० [देश० अथवा सं० पंच तूर्य (= पंचसबद)] एक प्रकार का बाजा।

पचतोरिया
संज्ञा० पुं० [सं० पञ्च + तार या + सं ० पट + तार] एक प्रकार का कपड़ा। उ०—(क) पीरे पचतोरिया लसित अतलस लाल, लाल रद चंद मुखचंद ज्यों शरद को।—देव (शब्द०)। (ख) सेत जरतारी की उज्यारी कंचुकी की कसि अनियारी डीठि प्यारी उठि पैन्ही पचतोरिया।—देव (शब्द०)।

पचतोला †
संज्ञा० पुं० [हिं० पचतोरिया] एक प्रकार का कपड़ा। जरी का कपड़ा। उ०—हमन भावज रानी, अबसे बड़ी स्यानी बादल पो का पानी, पचतोला से छानी।—दक्खिनी०, पृ० ३९२।

पचतोलिया
संज्ञा० पुं० [हिं० पाँच + तोला + इया (प्रत्य०)] पाँच तोले का बाट।

पचतोलिया (२)
वि० पाँच तोले की अर्थात् हलकी। वजन में न मालूम पड़नेवाली। उ०—ऐसे पचतोलिया पाग नरायनदास प्रति- वर्ष श्री गुसाँई जी को पठावते।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १३१।

पचतोलिया (३)
संज्ञा० पुं० [हिं०] दे० 'तौलिया'।

पचन
संज्ञा० पुं० [सं०] १. पकाने की क्रिया या भाव। पाक। २. पकने की क्रिया या भाव। ३. पकाने का सामान। पकाने का साधन, पात्र, ईंधन आदि (को०)। ४. अग्नि। ५. वह जो पकाता हो। पकानेवाला।

पचना
क्रि० अ० [सं० पचन] १. खाई हुई वस्तु का जठराग्नि की सहायता से रसादि में परिणत होना। भुक्त पदार्थो का रसादि में परिणत होकर शरीर में लगने योग्य होना। हजम होना। जैसे,—(क) रात का भोजन अभी तक नहीं पचा। (ख) जरा सा चूरण खा लो, भोजन पच जायगा। २. क्षय होना। समाप्त या नष्ट होना। जैसे, बाई पचना, शेखी पचना, मोटाई पचना। ३. किसी चीज का मालिक के हाथ से निकलकर अनुचित रूप से किसी दूसरे के हाथ में इस प्रकार चला जाना कि फिर कोई उससे ले न सके। पराया माल इस प्रकार अपने हाथ में आ जाना कि फिर वापस न हो सके। हजम हो जाना। जैसे,—उनके यहाँ अमानत में हजारों रुपए के जेवर रखे खे, सब पच गए। ४. अनुचित उपाय से प्राप्त किए हुए धन या पदार्थ का काम में आना। जैसे—उन्होंने लावारसी माल ले तो लिया पर पचा न सके, सब चोर चुरा ले गए। ५. बहुत अधिक परिश्रम के कारण शरीर, मस्तिष्क आदि का गलना, सूखना या क्षीण होना। ऐसा परिश्रम होना। जिससे शरीर क्षीण हो। बहुत हैरान होना। दुःख सहना। उ०—ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।—तुलसी (शव्द०)। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—पच मरना = किसी काम के लिये बहुत अधिक परिश्रम करना। जीतोड़ मिहनत करना। परेशान ह्वोना। हैरान होना। उ०—जगत भेख माया के कारण पच्च मरै दिन रात रे। अंत बेर नागा हुय चालै ना कोई संग न साथ रे। राम० धर्म०, पृ० २१९। ६. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में पूर्ण रूप से लीन होना। खपना। जैसे,—जरा से चावल में सारा घी पच गया।

पचनागार
संज्ञा पुं [सं०] पाकशाला। रसोंईघर। बावरचीखाना।

पचनाग्नि
संज्ञा पुं [पुं०] जठराग्नि। पेट की आग जिससे खाया हुआ पदार्थ पचता है।

पचनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़ाही।

पचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिहारी नीबू। जंगली नीबू।

पचनीय
संज्ञा पुं० [सं०] पचने योग्य। जो पच सकता हो।

पचपच (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. पचपच शब्द होने की क्रिया या भाव। २. कीचड़।

पचपच (२)
संज्ञा पुं शिव का एक नाम [को०]।

पचपचा
वि० [हिं० पचपच] वह अधपका भोजन जिसका पानी ठीक तरह से सूखा या जला न हो।

पचपचाना †
[हिं० पचपच] १. किसी पदार्थ का आवश्यकता से आधिक गीला होना। कीचड़ होना (क्व०)।

पचपन (१)
वि० [सं० पञ्चपञ्चाशत्, पा० पंचपणणास] पचास और पाँच। पाँच कम साठ।

पचपन (२)
संज्ञा पुं० पचास और पाँच की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—५५।

पचपनवाँ
वि० [हिं० पचपन + वाँ (प्रत्य०)] क्रम में पचपन के स्थान पर पड़नेवाला। जो गिनने में चौवन के बाद पचपन की जगह पड़े।

पचपल्लव
संज्ञा पुं० [सं० पञ्च पल्लव] दे० 'पंच पल्लव'।

पचबीस ‡
संज्ञा पुं [हिं० पच्चीस] बीस और पाँच का जोड़। २५ की संख्या। पचीस प्रवृत्तियाँ। उ०—रहै पचबीस का पहरा।—घट०, पृ० ३०६।

पचमेल
वि० [वि० पाँच + मेल] जिसमें कई या सब प्रकार (के पदार्थ आदि) हों। जिसमें कई या सव मेल (की चीजें) हों। जैसे पचमेल मिठाई।

पचरंग (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच रंग] चौक पूरने की सामग्री। मेहदी का चूरा, अबीर, बुक्का, हल्दी और सुरवाली के बीज। विशेष—इस सामग्री में सर्वत्र ये ही ५ चीजें नहीं होतीं। इनमें से कुछ चीजों के स्थान पर दूसरी चीजें भी काम में लाई जाती हैं।

पचरंग (२)
वि दे० 'पचरंगा'।

पचरंगा (१)
वि० [हिं० पाँच + रंग] [वि० स्त्री० पचरंगी] १. जिसमें भिन्न भिन्न पाँच रंग हों। पाँच रंग का या पाँच रंगों वाला। २. (कपड़ा) जो पाँच रंगों से रँगा या पाँच रंगों के सूतों से बुना हुआ हो। ३. जिसमें कई या बहुत से रंग हों। कई रंगों से रंजित। उ०—अजब एक फूल पच- रंगा।—घट०, पृ० २४७।

पचरंगा (२)
संज्ञा पुं० नवग्रह आदि की पूजा के निमित्त पूरा जानेवाला चौक जिसके खाने या कोठे पचरंग के पाँच रंगों से भरे जाते हैं।

पचरा
संज्ञा पुं [हिं० पचड़ा] दे० 'पचड़ा'—२। उ०—गावहिं पचरा मूड़ कँपावहिं, बोरलहिं सकल कमाई हो।—गुलाल०, पृ० २२।

पचलड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + लड़ी] माला की तरह का एक आभूषण जिसमें पाँच लड़ियाँ होती हैं। विशेष—यह गले में पहना जाता है और इसकी अंतिम लड़ी प्रायः नाभि तक पहुँचती है। कभी कभी प्रत्येक लड़ी के और कभी कभी केवल अंतिम के बीचों बीच एक जुगनू लगा रहता है। इसके दाने सोने, मोती अथवा किसी अन्य रत्न के होते हैं।

पचलोना
संज्ञा पुं० [सं० पञ्च, हिं० पाँच + लोन (= लवण)] १. जिसमें पाँच प्रकार के नमक मिले हों। उ०—मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६२। २. दे० 'पंचलवण'।

पचवई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पचवाई'।

पचवना पु
क्रि० स० [हिं० पचाना] दे० 'पचाना'। उ०—बिस- खाय राय सो बीर जानि। पचवंत जहर जनु दूध पानि।— पृ० रा०, ६।७३।

पचवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + वाई] एक प्रकार की देशी शराब जो चावल, जौ, ज्वार आदि से चुआई जाती है।

पचहत्तर (१)
वि० [सं० पञ्च सप्तत, प्रा० पंचहत्तर] सत्तर और पाँच। अस्सी से पाँच कम।

पचहत्तर (२)
संज्ञा पुं सत्तर और पाँच के जोड़ने से बननेवाली संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—७५।

पचहत्तरवाँ
[वि० पचहत्तर + वाँ (प्रत्य०)] गिनने में पचहत्तर के स्थान पर पड़नेवाला। क्रम में जिसका स्थान पचहत्तर पर हो।

पचहरा
वि० [हिं० पाँच + हरा] १. पाँच परतों या तहोंवाला। पाँच बार मोड़ा या लपेटा हुआ। पाँच आवृत्तियोंवाला। २. पाँच बार किया हुआ (अप्रयुक्त)।

पचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पकाने या पकने की क्रिया [को०]।

पचानक
संज्ञा पुं [देश०] एक पक्षी जिसका शरीर एक बालिश्त लंबा होता है। इसके डैने और गर्दन काली होती हैं। दक्षिण भारत और बंगाल इसके स्थायी आवासस्थान हैं पर अफगानिस्तान और बलूचिस्थान में भी यह पाया जाता है।

पचाना
क्रि० स० [हिं० पचना] १. पचना का सकर्मक रूप। पकाना। आँच पर गलाना। २. खाई हुई वस्तु को जठराग्नि की सहायता से रसादि में परिणत कर शरीर में लगने योग्य बनाना। जीर्ण करना। हजम करना जैसे,—तुम चार चपातियाँ भी नहीं पचा सकते। संयो क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ३. समाप्त याँ नष्ट करना। जैसे, बाई पचाना, मोटाई पचाना आदि। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ३. किसी की कोई वस्तु अनुचित या अवैध उपाय से हस्तगत कर सदा अपने अधिकार में रखना। पराए माल को अपना कर लेना। हजम कर जाना। उगलने का उलटा। जैसे,—किसी का माल चुराना सहज है पर पचाना सहज नहीं है। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ४. अवैध उपाय से हस्तगत वस्तु को अपने काम में लाकर लाभ उठाना। जैसे,—ब्राह्मण का धन है, ले तो लिया पर तुम पचा न सकोगे। ५. अत्यधिक परिश्रम लेकर या क्लेश देकर शरीर मस्तिष्क आदि को गलाना, सुखाना या श्रय करना। जैसे—(क) तपस्या करके देह पचा डाली। (ख) बेवकूफ से बहस करके कौन व्यर्थ माथा पचावे ? संयो० क्रि०—डालना।—देना। ६. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ को अपने आपमें पूर्ण रूप से लीन कर लेना। खपाना। जैसे,—यह चावल बहुत घी पचाता है।

पचापच
संज्ञा स्त्री० [हिं० पचपच] बार बार मुख से थूकने का भाव। उ०—जैसी ही उनको पान सुरती की पचापच से नफरत है वैसी इधर चुरुट के धूम्र से।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ९६५।

पचाय ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पचवाई] एक प्रकार की शराब। पचवाई। उ०—जब पीएगा तो पचाय ही।—मैला०, पृ० २४३।

पचायन †
संज्ञा पुं० [पञ्चानन] सिंह। उ०—कोइक काल अभूत कै पचायन भारे।—पृ० रा०, २४।३४५।

पचार †
संज्ञा पुं० [हिं० पच्चर] बाँस या लकड़ी का वह छोटा डंडा जो जूए में बाई ओर होता है और सीढ़ी के डंडे की तरह उसके ढाँचे में दोनों ओर ढुका रहता है।

पचारना †
क्रि० स० [सं० प्रचारण] किसी काम के करने के पहले उन लोगों के बीच उसकी घोषणा करना जिनके विरुद्ध वह किया जानेवाला हो। ललकारना। जैसे, हाँक पचारकर कोइ काम करना। उ०—कोप कीन पंगुर कुंवर हंके वीर पचार।—प० रासो, पृ० १४२।

पचाव †
संज्ञा पुं० [हिं० पचाना + आव (प्रत्य०)] पचने की क्रिया या भाव।

पचास (१)
वि० [सं० पञ्चाशत्, प्रा० पञ्चासा] चालीस और दस। चालीस से दस आधिक। साठ से दस कम।

पचास (२)
संज्ञा पुं० वह संख्या या अंक जो चालीस और दस के जोड़ से बने। चालीस और दस की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—५०।

पचासवाँ
वि० [हिं० पाचस + वाँ (प्रत्य०)] गणना में पचास के स्थान पर पड़नेवाला।

पचासा
संज्ञा पुं [हिं० पचास] १. एक ही प्रकार की पचास वस्तुओं का समूह। जैसे, पजनेस पचासा (पचास पद्यों का समूह)। २. जेलखाने का घंटा। घड़ियाल। उ० बजे पर पचासा तीन ठे रोटियै के रहिगै आसा रामा।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३६०।

पचासी (१)
विं [सं० पञ्चाशीति, प्रा० पंचासीई, पच्चासी] अस्सी और पाँच। अस्सी से पाँच अधिक। पाँच ऊपर अस्सी।

पचासो (२)
संज्ञा पुं० वह संख्या या अंक जो अस्सी और पाँच के जोड़ से बने। अस्सी और पाँच के योग की फलस्वरूप संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—८५।

पचासीवाँ
विं [हिं० पचासी + वाँ (प्रत्य)] गणना में पचासी के स्थान पर पड़नेवाला। जो क्रम में पचासी के स्थान पर हो।

पचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] २. पकाने की क्रिया या भाव। पाचन। २. अग्नि। आग।

पचित
वि० [सं० पचित (= पचा हुआ, अच्छी, तरह घुलामिला हुआ)] १. पच्ची किया हुआ। जड़ा हुआ। बैठाया हुआ (क्व०)। उ०—हरी लाल प्रबाल पिरोजा पंगति बहुमणि पचित पचावनो।—सूर (शब्द०)। २. भली भाँति पचा हुआ। भली भाँति जिसका पाक हो गया हो। उ०—चर्वित उसका विज्ञान ज्ञान वह नहीं पचित। भौतिक मद से मानव आत्मा हो गई विजित।—ग्राम्पा, पृ० ९५।

पची
संज्ञा स्त्री० [सं० पचित] दे० 'पच्ची'।

पचीस (१)
वि० [सं० पञ्चविंशति, पा० पंचवीसति, अपभ्रंश प्रा० पचीस] पाँच और बीस। बीस से पाँच अधिक। पाँच ऊपर बीस।

पचीस (२)
संज्ञा पुं० वह संख्या या अंक जो पाँच और बीस के जोड़ने से प्रकट हो। ५ और २० के योगफल रूप संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२५।

पचीसवाँ
विं [हिं० पचीस + वाँ (प्रत्य०)] गणना में पचीस के स्थान पर पड़नेवाला। जो क्रम में पचीस के स्थान पर हो।

पचीसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पचीस] १. एक ही प्रकार की २५ वस्तुओं का समूह। जैसे, वैताल पचीसी (पचीस कहानियों का संग्रह)। २. किसी की आयु के पहले २५ वर्ष। जैसे,—अभी तो उन्होंने पचीसी भी नहीं पार की। ३. एक विशेष गणना जिसका सैकड़ा पचीस गाहियों अर्थात् १२५ का माना जाता है। आम, अमरूद आदि सस्ते फलों की खरीद बिक्री में इसी का व्यवहार किया जाता है। ४. एक प्रकार का खेल जो चौसर की बिसात पर खेला जाता है। विशेष—इसकी गोलियाँ भी उसी की सी होती हैं और उसी की तरह चली जाती हैं। अंतर केवल यह है कि इसमें पासे की जगह ७ कौड़ियाँ होती हैं जो खड़खड़ाकर फेंकी जाती हैं। चित और पट कौड़ियों की संख्या के अनुसार दाँव का निश्च होता है।

पचूका †
संज्ञा पुं [हिं० पिच से अनु०] पिचकारी।

पचेल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पछेली] पछेली नामक हाथ का आभू- षण जो पीछे की ओर पहना जाता है। उ०—भूषण देति जसोमति पहुँची पाँच पचेल। टीका टीक टिकावली, हीरा हार हमेल।—छीत०, पृ० २५।

पचेलिम (१)
वि० [सं०] १. शीघ्र पकनेवाला। अपने आप पकनेवाला। स्वयं परिपक्व होनेवाला [को०]।

पचेलिम (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. सूर्य [को०]।

पचेलुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो भोजन बनाता हो। रसोइया [को०]।

पचोतर
वि० [सं० पञ्चोत्तर] (किसी संख्या से) पाँच अधिक। पाँच ऊपर। जैसे, पचोतर सो।

पचोतर सो
संज्ञा पुं [सं० पञ्चोत्तरशत] सौ और पाँच की संख्या या अंक। एक सौ पाँच। यह अँकों में इस प्रकार लिखा जाता है—१०५।

पचोतरा
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चोतर] कन्या पक्ष के पुरोहित का एक नेग जिसमें उसे दायज में, विशेषकर तिलक के समय वर पक्ष को मिलनेवाले रुपयों आदि में से सैकड़े पीछे पाँच मिलता है।

पचौआ
संज्ञा पुं [देश०] किसी कपड़े पर छींट छप चुकने के पीछे ८ या १२ दिन तक उसे धूप में खुला रखना। विशेष—ऐसा करने से छापते समय सारे स्थान पर जो धब्बे आ जाते हैं वे छूट जाते हैं।

पचौनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाचन] १. पाचन। पाचक। २. आमाशय जहाँ खाए अन्न का पाचन होता है।

पचौर
संज्ञा पुं० [हिं० पंच या पचौली] गाँव का मुखिया। सरदार। सरगना। उ०—पहुँचे जाइ पचौर प्रवीन। छत्रसाल सो मुजरा कीन।—लाल (शब्द०)।

पचौली (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + कुली] गाँव का मुखिया। सरदार। पंच।

पचौली (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो मध्यभारत तथा बंबई में आधिकता से होता हैं। इसकी पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो विलायती सुगंधियों (एसेंस आदि), में पड़ता है।

पचौवर
विं [हिं पाँच + सं० आवर्त] जिसकी पाँच तहें की गई हों। पाँच परत का। पाँच तह या परत किया हुआ। पच- हरा। उ०—चौबर पचौवर कै चादर निचोरै है।—(शब्द्०)।

पच्चड़
संज्ञा पुं [हिं०] दे० 'पच्चर'।

पच्चर
संज्ञा स्त्रीं [सं० पचित या हिं० पच्ची] काठ का पैबंद। लकड़ी या बाँस की वह कट्टी या गुल्ली जिसे चारपाई, चौखट आदि लकड़ी की बनी चीजों में साल या जोड़ को कसने के लिये उसमें छूटे हुए दरार या रंध्र में ठोंकते हैं। विशेष—छेद या खाली जगह भरने के लिये इसके एक सिरे को दूसरे से कुछ पतला कर लेते हैं। परंतु जब इससे दो लकड़ियों को जोड़ने का काम लेना होता है तब इसे उतार चढ़ाव नहीं बनाते; एक फट्टी या गुल्ली बना लेते हैं। २. लकड़ी की बड़ी मेख या खूँटा (लश०)। क्रि० प्र०—ठोंकना।—देना।—करना। मुहा०—पच्चर अड़ाना = बाधक होना। बाधा खड़ी करना। रुकावट डालना। अड़ंगा डालना। जैसे,—तुम नाहक इस काम में कयों पच्चर अड़ाते हो। पच्चर ठोंकना = किसी को कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने के लिये कोई उपाय करना। ऐसा काम करना जिससे किसी को बहुत कष्ट पहुँचे या वह खूब तंग और परेशान हो। खूँटा ठोंकना। जैसे,—धबड़ाते क्यों हो, ऐसी पच्चर ठोकूँगा कि सारी आई बाई पच जायगी। पच्चर मारना = होते हुए काम को रोकना। बनती हुई बात को बिगाड़ देना। भाँजी मारना। जैसे,—अगर तुम पच्चर न डालते तो यह संबंध अवश्य बैठ जाता।

पच्चरी
वि० [सं० पचित] धारण किए हुए। उ०—इक सूही दूजी सोहणी, तीजी सो भावंती नारि। सुहने रुपे पच्चरी, नानक बिनु नावै कुड़चार।—संतवाणी०, पृ० ६८।

पच्ची
संज्ञा स्त्री० [सं० पचित] १. ऐसा जड़ाव या जमावट जिसमें जड़ी या जमाई जानेवाली वस्तु उस वस्तु के बिलकुल समतल हो जाय जिसमें वह जड़ी या जमाई जाय। किसी वस्तु के फैले हुए तल पर दूसरी वस्तु के टुकड़े इस प्रकार खोदकर बैठाना। कि वे इस वस्तु के तल (सतह) के मेल में हो जायँ और देखने या छूने में उभरे या गड़े हुए न मालूम हों तथा दरज या सीम न देखाई पड़ने के कारण आधार वस्तु के ही अंग जान पड़ें। जैसे, संगमर्मर पर रंगबिरंग के पत्थर के टुकड़ों को जड़ना। २. किसी धातुनिर्मित पदार्थ पर किसी अन्य धातु के पत्तर का जड़ाव। जैसे, किसी फर्शी या जस्ते की किसी चीज पर चाँदी के पत्तरों का जड़ाव। मुहा०—(किसी में) पच्ची हो जाना = बिलकुल मिल जाना या वही हो जाना। लीन हो जाना। हल हो जाना। जैसे,— वह कबूतर जब जब उड़ता है तब तब आसमान में पच्ची हो जाता है।

पच्चीकार
संज्ञा पुं [हिं० पच्ची + फ़ा० कार] पच्ची का काम करनेवाला व्यक्ति।

पच्चीकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पच्ची + फ़ा० कारी (= करना)] पच्ची करने की क्रिया या भाव। जड़ने जोड़ने की क्रिया या भाव।

पच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पच्छ] दे० 'पक्ष'। उ०—मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल।—भारतेंदु ग्रं० भा० १, पृ० ४५५।

पच्छकट
संज्ञा पुं० [देश०] आल की मझोली जड़ जो रँगाई के काम में आती है।

पच्छघात
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पक्षाघात'।

पच्छताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षता] दे० 'पक्षपात'।

पच्छति पु
अव्य० [सं० पश्चात्] पश्चात्। बाद में। उ०—उर मंदोदरि सुंदरियं, तिन पच्छति इंच्छिनि सुंमरयं। इति दष्षिया कग्गर वंचिनियं, तहाँ जैतकुमार उठयौ सुनियं।—पृ० रा०, १२।३७।

पच्छघर पु
संज्ञा पुं० [सं पक्ष + धर] पक्षधर। पक्षी। उ०—तनु विचित्र कायर बचन, अहि अहार, मन घोर। तुलसी हरि भए पच्छधर ताते कह सब मोर।—तुलसी ग्रं, पृ० ९४।

पच्छपात †
संज्ञा पुं० [सं० पक्षपात] दे० 'पक्षपात'। उ०—तुलसी सत सत यहि मत भाखा। या में पच्छपात नहीं राखा।-घट०, पृ० २२९।

पच्छपाय पु
वि० [सं० पश्चात् + पद] पीछे हटा हुआ। पीछे पैर देनेवाला। उ०—भई फौज चालुक्क की पच्छपायं। तबै बालुका राइ कीनी सहायं। पृ० रा०, १।४५३।

पच्छम
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'।

पच्छाघाता †
संज्ञा पुं० [सं० पक्षाघात] दे० 'पक्षाघात'।

पच्छि (१)
संज्ञा पुं० [सं० पक्षी प्रा० पच्छी] दे० 'पक्षी'। उ०—करै गाँन ताँन पसू पच्छि मोहैं।—ह० रासो, पृ० ३७।

पच्छि (२)
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष] दे० 'पक्ष'। उ०—तप सिद्धि मासअरु बहुत पच्छि। ऋतु सिसिर द्वादसी तिथि सुरच्छि।— ह० रासो, पृ० २९।

पच्छिउँ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'। उ०—पच्छिउँ कर बर पुरुष क वारी।—जायसी ग्रं०, पृ० ११९।

पच्छिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षिणी] दे० 'पक्षिणी'।

पच्छिम (१)
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'। उ०—पुव्वे सेना सज्जिअइ, पच्छिम हुअऊँ पयान।—कीर्ति०, पृ० ६२।

पच्छिम (२)
वि० [सं० पश्चिम] पिछला। पीछे का (डिं०)।

पच्छियान पु
विं [सं० पश्चिम] दे० 'पिछला'। उ०—रही जाम एकं निसा पच्छियान। बजे नद्द नीसान बीसान जानं।—पृ० रा०, १।६३१।

पच्छिराज पु
संज्ञा पुं [सं० पक्षिराज] गरुड़। उ०—पक्षिराज जच्छिराज प्रेतराज जातुधान।—केशव (शव्द०)।

पच्छिवँ
संज्ञा पुं [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'।

पच्छी
संज्ञा पुं० [सं० पक्षी] दे० 'पक्षी'।

पच्छैं
अव्य० [सं० पश्च] दे० 'पीछे'। उ०—बीर देव सम बीर लरि भग्गि सेन कमधज्ज। ता पच्छै सोमेस पर उड्डि सार बजरज्ज।—पृ० रा०, १।६५५।

पछ † (१)
वि० [सं० पश्च, हिं० पच्छ, पछ] पीछे। विशेष—योगिक पदों में ही यह रूप प्राप्त होता है। जैसे,—अग- पछ, पछलगा, पछलत्त।

पछ पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्ष] पक्ष। तरफदारी। उ०—दीना- नाथ दयाल भक्त की पछ करौ।—धरम०, पृ० २३।

पछ † (३)
संज्ञा पुं [सं० पक्ष] पंख। पर। उ०—एक भरोसा पाय दिया सिर भाइ लराई। पंछी को पछ गया रहा इक नाम सहाई।—पलटू०, भा० १, पृ० ७०।

पछइ पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'पीछे'। उ०—प्रीतम बीछुड़िया पछई, मुई न कहिजइ काइ।—ढोला०, पृ० ४०३।

पछटी पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] तलवार। (डिं०)।

पछड़ना
क्रि० अ० [हिं० पाछा] १. लड़ने में पटका जाना। पछाड़ा जाना। २. दे० 'पिछड़ना'।

पछताना
क्रि० अ० [हिं० पछताव] किसी किए हुए अनुचित कार्य के संबंध में पीछे से दुखी होना। किसी की हुई बात पर पीछे से खिन्न होना या खेद प्रकट करना। पश्चा- त्ताप करना। पछतावा करना। उ०—दो टूक कलेजे के करता पछताना पथ पर आता।—अपरा, पृ० ६९।

पछतानि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्चात्ताप] दे० पछताने का भाव। पछतावा। पश्चात्ताप।

पछताव †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्ताप] दे० 'पछतावा'।

पछतावना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पछताना'।

पछतावा
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्ताप, या, पच्छाताव] वह संताप या दुःख जो कीसी की, की हुई बात पर पीछे से हो। अपने किए को बुरा समझने से होनेवाला रंज। पश्चात्ताप। अनुताप। उ०—गैल जौवन पुनु पलटि न आयए केवल रह पछतावे।— विद्यापति, पृ०, १९५।

पछना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पाछना] १. वह अस्त्र आदि जिससे कोई चीज पाछी जाय। पाछने का औजार। २. वह उस्तरा जो सिंगी लगाने से पहले शरीर में घाव करने के काम आता है। ३. शरीर में से रक्त निकालने की क्रिया। फसद।

पछना (२)
क्रि० अ० पाछा जाना। पाछने की क्रिया होना।

पछमन पु
क्रि० वि० [हिं०] पीछे। अगमन या अगुमन का उलटा। दे० 'पीछे'।

पछरना †
क्रि० अ० [हिं०] पिछड़ जाना। पीछे पड़ना। २. पश्चातपद होना। वापस होना। लौटना।

पछरा †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पछाड़'। उ०—'इरीचंद' पिय बिनु अति ब्याकुल मुरि मुरि पछरा खात।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४००।

पछलगा
संज्ञा पुं० [हिं० पछ + लगना] दे० 'पिछलगा'। उ०—हीं पंडितन केर पछलगा। किछु कहि चला तबल देइ डगा।— जायसी (शब्द०)।

पछलागू पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पिछलागू'। उ०—अगुआ केर रोहु पछलागु।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३६।

पछवत
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीछे + वत] वह चीज जो फसिल के अंत में बोई जाय।

पछवाँ (१)
वि० [सं० पश्चिम] पश्चिम की। पश्चिम दिशा की। पश्चिमी। पश्चिम दिशा संबंधी।

पछवाँ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाछा] अँगिया का वह हिस्सा जो पीठ की तरफ मोढ़े के पीछे रहता है।

पछवाँ (३)
वि० दे० 'पछुआँ'।

पछाँ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहचान'। उ०—केतक दिवस कूँ जूँ हुआ वो जवाँ। सो वई बाप हँगाम उसका पछाँ। दक्खिनी०, पृ० ७८।

पछाँई †
वि० [हिं० पछाँह] पश्चिमी। पश्चिम का। पश्चिम में पैदा होने या रहनेवाला। उ०—वह पछाँई गाय लेगा।— गोदान, पृ० ३।

पछाँह
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] पश्चिम में पड़नेवाला प्रदेश। पश्चिम की ओर का देश।

पछाँहिया
वि० [हि० पछाँह + इया (प्रत्य०)] पछाहँ का। पश्चिम प्रदेश का।

पछाँही
वि० [हिं०] दे० 'पछाँई'।

पछाड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाछा] बहुत अधिक शोक आदि के कारण खड़े खड़े वेसुध होकर गिर पड़ना। अचेत होकर गिरना। मूर्छित होकर गिरना। मुहा०—पछाड़ खाना = खड़े खड़े अचानक बेसुध होकर गिर पड़ना। उ०—परित पछाड़ खाइ छिन ही छिन अति आतुर ह्वै दीन। मानहु सूर काढ़ि है लीनी वारि मध्य ते मीन।—सूर (शब्द०)।

पछाड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पछाड़ना] कुश्ती का एक पेंच। विशेष—जब शत्रु सामने रहता है तब एक हाथ उसकी जाँघों के नीचे से निकालकर पीछे की ओर से उसका लँगोट पकड़ते हैं और दूसरा हाथ उसकी पीठ पर से घुमाकर उसकी बगल में अड़ाते हैं और इस प्रकार उसे उठाकर चित फेंक देते हैं। इसमें अधिक बल की आवश्यकता होती है ।

पछाड़ना
क्रि० स० [हिं० पछाड़] १. कुश्ती या लड़ाई में पटकना। गिराना।२. वाद विवाद में हराना। किसी क्रिया या काम में मात करना। पराजित करना। उ०—भारतीय मुसलमानों के बीच, विशेषतः सूफियों की परंपरा में, ऐसी अनेक कहानियाँ चलीं, जिनमें किसी पीर ने किसी सिद्ध या योगी को करामात में पछाड़ दिया।—इतिहास, पृ० १५। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

पछाड़ना (२)
क्रि० सं० [सं० प्रक्षालन, प्रा० पक्खालन, पच्छाउन] धोने के लिये कपड़े को जोर से पटकना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

पछाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पिछाड़ी'।

पछान †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहचान'। उ०—जो आशिक का जिसकूँ अछेगा निशान। तो माशूक कूँ वाई चलेगा पछान।— दक्खिनी०, पृ० १५२।

पछानना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहचानना'। उ०—ज्यों संप त्यों विपत्ति पछानै, बेगम महिल लड़ावै।—प्राण०, पृ० ६६।

पछाया
संज्ञा पुं० [हिं० पाछा] किसी वस्तु के पीछे का भाग। पिछाड़ी। जैसे, अँगिया का पछाया।

पछार † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पछाड़'।

पछार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पछारना] पछारने की क्रिया या भाव।

पछारना (१)
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन, प्रा० पच्छाडन] कपड़े को पानी से साफ करना। धोना।

पछारना पु (२)
क्रि० स० [हिं० पछाड़] दे० 'पछाड़ना'। उ०— पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो। —मानस, ६।७३।

पछालना पु
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन] पखारना। धोना। उ०—जावक रचि क अँगुरियन मृदुल सुठारी हो। प्रभु कर चरन पछालत अति सुकुमारी हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५।

पछावर, पछावरि †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेय। (मट्ठा, कढ़ी, काँजी या पना और दूध आदि) जो रसेदार होता है। पछियावर। उ०—(क) जेइ अघाने जठर पर जल पिय फेरत पानि। तुच्छ खुधा पाछे रही तब लई पछवारि बानि। पृ० रा०, ६३। १०३। (ख) पुनि झारि सो ह्वै विधि स्वाद बने। बिधि दोइ पछावारि सात बने।—केशव (शब्द)।

पछाहों
वि० [हिं० पछाँह] पछाँह का। पश्चिम प्रदेश का। जैसे, पछाहीं पान, पछाहीं आदमी।

पछिआना †
क्रि० स० [हिं० पाछे + आना] १. पीछे हो लेना। पीछे पीछे चलना। पीछा करना। उ०—लीनो व्यासदेव पछिआई। बारहि बार पुकारत जाई।—रघुराज(शब्द)। २. किसी को पीछे छोड़ देना। अपने से पीछे कर देना।

पछिउँ †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम, प्रा० पच्छवँ] दे० 'पश्चिम'।

पछिता पु †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्ताप] दे० 'पछतावा'। उ०— केहि कारन पछिता करो भयौ रेन परभात।—हिंदी प्रेम- गाथा०, पृ० २७६।

पछिताना †
क्रि० अ० [हिं० पछताना] दे० 'पछताना'। उ०—ध्रुव धनु देखि मदन पछिता/?/। हर के समय समर किन भायो।—नंद० ग्रं०, पृ० १२२।

पछितानि पु
संज्ञा पुं० [हिं० पछिताना] पछताने का भाव। पछतानि। पछतावा। उ०—प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।—मानस, २।१०।

पछिताव
संज्ञा पुं० [हिं० पश्चात्ताप] दे० 'पछताना'। उ०— सुनि सीतापति सील सुभाव।...सिला साप संताप विगत भइ परसत पावन पाव। दई सुगति सो न हेरि हरख हिय चरन छुए कोप छिताव।—तुलसी (शब्द)।

पछितावना पु †
क्रि० अ० [हिं० पछताव] दे० 'पछताना'। उ०—जानति हों पछितावन हौ मन, लखि मो अँगन ओरे ही। रुप रसिक बिधना के सारे सबनं होत बरजोरे ही।— पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० २६४।

पछिनाव †
संज्ञा पुं० [देश०] पशुओं का एक रोग।

पछिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्चिम] दे० 'पछुप्राँ'। उ०—चल रहे ग्राम कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली लेकिन ले रही लहर पुरवाई में।—दिल्ली, पृ० २२।

पछियाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पछिया] दे० 'पछुवाँ'। उ०—रत्नों के फूल जड़े, लता चढ़ी जड़ पकड़े। लहरी पछियाई नहरों की खाड़ी।—आराधना, पृ० ७५।

पछियाउरि पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पछावरि'। एक प्रकार का पेय। सिखरन या शरबत।उ०—पुनि जाउरि पछियाउरि आई। घिरित खाँड़ कै बनी मिठाई।—जायसी ग्रं०, पृ० १२४।

पछियाना
क्रि० सं० [हिं० पीछे] दे० 'पछिआना'।

पछियाव
संज्ञा पुं० [हिं० पच्छिउँ + वाउ] पच्शिम की हावा।

पछियावर
संज्ञा स्त्री० [देश० या हिं० पीछे] १. दे० 'पछियाउरि'। २. छाछ से बना हुआ एक प्रकार का पेय पदार्थ जो भोज- नादि में परोसा जाता है। इससे भोजन शीघ्र पचता है। दे० 'पछावरि'।

पछिल पु
क्रि० वि० [हिं० पीछे] दे० 'पीछे'। उ०— बाँहहि अत्र अपार चंदले बीर हैं। पछिल न धारहीं पाय महा रनधीर हैं।—प० रासो०, पृ० ७।

पछिलगा †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पिछे + लगना] दे० 'पिछलगा'।

पछिलना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पिछड़ना'।

पछिला
वि० [हिं० पीछे] [वि० स्त्री० पछिली] दे० 'पिछला'।उ०—(क) भूलिगा वह शब्द पछिला मति मदरस पागी।—जग० बानी, ३९। (ख) वेदहु हरि के रुप स्वाँस मुख ते जो निसरे। कर्म क्रिया आसक्ति सबै पछिलो सुधि बिसरै—नंद० ग्र०, पृ० १७७।

पछिवँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'। उ०—जनु ससि उदौ पुरुब दिसि कीन्हा। औ रवि उठौ पछिवँ दिसि लीन्हा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५३।

पछिवाँ (१)
वि० [हिं० पच्छिम] पश्चिम की (हवा)।

पछिवाँ (२)
संज्ञा स्त्री० पश्चिम की हवा।

पछोत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०पश्चात, प्रा पच्छा] १. घर का पिछ- वाड़ा। मकान की पिछे का भाग। उ०—छानि बरेडि औ पाट पछीति मयारि कहा किहि काम के कोरे।—अकबरी०, पृ० ३५४।

पछीत (२)
क्रि० वि० पीछे। पीछे की ओर। उ०—आई अगीत, पछीत गई, नित टेरत मोहि सनेह के कूकन।—ठाकुर०, पृ० ३५४।

पछुवाँ (१)
वि० [हिं० पच्छिम] पच्छिम की (हवा)।

पछुवाँ (२)
संज्ञा स्त्री० पश्चिम की हवा।

पछुवा
संज्ञा पुं० [हिं० पाछा] कड़े के आकार का पैर में पहनने का एक गहना।

पछेड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० पाछ] पीछा। क्रि० प्र०—करना।—होना।

पछेलना †
संज्ञा पुं० [हिं० पाछ + एलना (प्रत्य०)] पीछे डालना। पीछे छोड़ना। आगे बढ़ जाना।

पछेला
संज्ञा पुं० [हिं० पाछ+एला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० पछेली] १. हाथ मे एक साथ पहने जानेवाले बहुत से चिपटे कड़ों मे से पिछला जो अगलों से बड़ा होता है। पीछे की मठिया। २. हाथ में पहनने का स्त्रीयों का एक प्रकार का कड़ा जिसमें उभरे हुए दानों को पंक्ति होती है।

पछेला (२)
वि० पीछे का। पिछला।

पछेलिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पछेल] दे० 'पछेली'।

पछेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० पछेल] दे० 'पछेला'। उ०—जाके चोप की चुनरी, ज्ञान पछेली चमक रही।—कबीर श०, पृ० ११।

पछेव
अव्य० [हिं० पीछा, प्रा० पच्छए] दे० 'पीछे'। उ०— फिरि व्यास कहै सुनि अनग राइ। भवतव्य बात मेटी न जाय। रघुनाथ हाथ त्रैलोक देव। ते कनक मृग्ग लागे पछेव।—पृ० रा०, ३।३४।

पछै पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पीछे'। उ०— आदि अगम अबिकार एक ईस्वर अविणासी। पछै प्रकृति ततपंच विविध सुर ईखजवासी।—रा० रू, पृ० ७।

पछोड़ना
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन, प्रा० पच्छाड़न] १. सूप आदि में रखकर (अत्र आदि के दानों को) साफ करना। फटकना। २. झटकारना। उ०—हाथ पछोड़ि गुरू विन ओह रोता।—प्राण, पृ०४७। संयो० क्रि०—डालना।—देना। मुहा०—फटकना पछोड़ना = उलट पलटकर परीक्षा करना। खूब देखना भालना। उ०—सूर जहाँ लौं श्यामगात हैं देखे फटकि पछोरी।—सूर (शब्द०)।

पछोरना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पछोड़ना'। उ०—कहो कौन पै कढै कनूका भुस की रास पछोरे।—सूर (शब्द०)।

पछौरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पिछौरा'।

पछ्छ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीछे'। उ०—सरकि सेन सबक धरकि, पछ्छ जंगल भए ठड्ढै।—पृ० रा०, २४।१९८।

पछि्छला पु
वि० [हिं०] दे० 'पछिला'। उ०—पछि्छलो वलन सुरतान दिषि, सिंघ लोक अविलर कपौ।—पृ० रा०, २४।२०५।

पछयावर †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का सिखरन या शरबत। उ०—भूतल के सब भूपन को मद भोजन तो बहु भाँति कियोई। मोद सो तारकनंद की मेद पछयावरि पान सिरायो हियोई। —केशव (शब्द)।

पजमुर्दगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० पजमुर्दगी] उदासीनता। खिन्नता [को०]।

पजमुर्दा
वि० [फ़ा० पजमुर्दा] शिथिल। उदास। मुरझाया हुआ। उ०—कहाँ हथेलि पर सिर रक्खे हक पर लड़नेवाला योद्धा। कहाँ हथेली से सिर ढाँपे पजमुर्दा माटी के धोधा। —बंगाल, पृ० ५४।

पजर †
संज्ञा पुं० [सं० प्रक्षरण] १. चूने या टपकने की क्रिया। २. झरना।

पजरन पु
क्रि० अ० [सं० प्रज्वलन] जलना। दहकना। सुलगना। उ०—(क) पजरि पजरि तनु अधिक दहत है सुमन तिहारे बैन। —सूर (शब्द०)। (ख) याके उर और कछू लगी विरह की लाय। पजरै नीर गुलाब के पिय की बात सिराय।—बिहारी (शब्द०)।

पजहर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का पत्थर जो पीलापन या हरापन लिए सफेद होता है और जिसपर नक्काशी होती है।

पजामा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पायजामा'।

पजारना पु
क्रि० स० [हिं० पजरना] जलाना। प्रज्वलित करना। दहकाना। सुलगाना।

पजावना
क्रि० स० [हिं० पजारना] हटाना। उजाड़ना। उ०—(क) गौ अजमेर मियाँ तज गुम्मर। आयौ दुँरग पजावे ऊपर। —रा० रू०, पृ० ३२३। (ख) जोधाणे उत्तर दिस जेती। अहनिस राम पजावै एती।—रा० रू०, पृ २१६।

पजावा
संज्ञा पुं० [फ़ा० पजा़वा] आवाँ। ईंट पकाने का भट्ठा।

पजूसण
संज्ञा पुं० [देश०] जैन मत का एक व्रत।

पजोखा
संज्ञा पुं० [?] किसी के मरने पर उसके संबंधियों से शोक- प्रकाश। मातमपुरसी।

पजोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पाजी + ओड़ा (प्रत्य०)] पाजी। दुष्ट।

पजौड़ापन
संज्ञा पुं० [हिं० पजोड़ा + पन (प्रत्य०)] पाजीपन। कमीनापन। उ०—जी हाँ खुदावद, क्या मानी, जो बात है वही पजौड़ेपन की।—सैर कु०, पृ० २३।

पज्ज
संज्ञा पुं० [सं० पद्य, या पज्ज] शूद्र।

पज्जर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जर] दे० 'पाँजर'।

पज्झटिका
संज्ञा पुं० [सं० पद्धटिका] एक छंद जिसके प्रसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ इस नियम से होती हैं कि ८वीं और छठी मात्रा पर एक गुरु होता है। इसमें जगण का निषेध है।

पझर †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसर(= फैलाव या वेग)] प्रसार। फैलाव। उ०—दहम एक चश्मा है लब खुश्क तर, गिर्द उसके पानी की भीगी पझर।—दक्खिनी०, पृ० ३०२।

पटंतर
वि० [हिं० पटतरना] उपमा। समानता। बराबरी। सादृश्य। उ०—रामनाम कै पटंतरै देवै कौ कुछ नाहिं। क्या ले गुरु संतोषिए हौंस रही मन माहिं।—कबीर ग्रं०, पृ० १।

पटंबर पु †
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट(= पाट) + अम्बर] रेशमी कपड़ा। कौषेय। उ०—जहँ देखौ जहँ पाट पटंबट, ओढन अंबर चीर।—धरम०, पृ० २७।

पटंभर पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० पटतर] सादृश्य। समानता। तुलना। उ०—सो बिरला संसार पटंभर उनका ऐसा। मिसरी जैहैर समान जैहैर है मिसरी जैसा।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३०।

पट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्र। कपड़ा। २. पर्दा। चिक। कोई आड़ करनेवाली वस्तु। क्रि० प्र०—उठाना।—खोलना।—हटाना। ३. लकड़ी धातु आदि का वह चिकना चिपटा टुकड़ा या पट्टी जिसपर कोई चित्र या लेख खुदा हुआ हो। जैसे, ताम्रपट। ४. कागज का वह टुकड़ा जिसपर चित्र खींचा या उतारा जाय। चित्रपट। उ०—लौटी ग्राम बधू पनघट से, लगा चितेरा अपने पट से।—आराधना० पृ० ३७।५. वह चित्र जो जगन्नाथ, बदरिकाश्रम आदि मंदिरों से दर्शनप्राप्त यात्रियों को मिलता है। ६. छप्पर। छान। ७. सरकंड़े आदि का बना हुआ वह छप्पर जो नाव या बहली के ऊपर डाल दिया जाता है। ८. चिरौंजी का पेड़। पियार। ९. कपास। १०. गंधतृण। शरवान। ११. रेशम। पट्ट। यौ०—पटबसतर = पट्टवस्त्र। पट्टांशुक। रेशमी वस्त्र। उ०— नहाते त्रिकाल रोज पंडित अचारी बड़े, सदा पटबस्तर सूत अंग ना लगाई है।—पलटू०, भा० २, पृ० १०९।

पट (२)
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट] १. साधारण दरवाजों के किवाड़। क्रि० प्र०—उघड़ना।—खुलना।—खोलना।—देना।—बंद करना।—भिड़ाना।—भेड़ना। मुहा०—पट उघड़ना = मंदिर का दरवाजा इसलिऐ खुलना कि लोग मूर्ति के दर्शन पा सकें। दर्शन का समय आरंभ होना। पट खुलना = दे० 'पट उघड़ना'। पट बंद होना = मंदिर का दरवाजा बंद हो जाना। दर्शन का समय बीत जाता। २. पालकी के दरवाजे के किवाड़ जो सरकाने से खुलते और बंद होते हैं। यौ०—पटदार = वह पालकी जिसमें पट हो। क्रि० प्र०—खुलना = खोलना।—देना।—बंद करना।— सरकना। मुहा०—पट मारना = किवाड़ बंद कर देना। ३. सिंहासन। राज्यसिंहासन। उ०—इन नछित्र चहुआन को पट अभिषेक समान।—पृ० रा०, ७। १७०। यौ०—पटरानी। ४. किसी वस्तु का तलप्रदेश जो चिपटा और चौरस हो। चिपटी और चौरस तलभूमि। ५. रंगमंच का पर्दा। पर्दा। यौ०—पटपरिवर्तन।

पट (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. टाँग। मुहा०—पट धुसना = दे० 'पट लेना'। पट लेना = पट नामक पेंच करने के लिये जोड़ की टागें अपनी और खींचना। २. कुश्ती का एक पेंच जिसमें पहलवान अपने दोनें हाथ जोड़ की आखों की तरफ इसलिऐ बढ़ाता है कि वह समझे के मेरी आखों पर थप्पड़ मारा जायगा और फिर फुरती से झुककर उसके दोनों पैर अपने सिर की और खींचकर उसे उठा लेता और गिराकर चित कर देता है। यह पेंच और भी कई प्रकार किया जाता है।

पट (४)
वि० ऐसी स्थिति जिसमें पेट भूमि की और हो और पीठ आकाश की और। चित का उलटा। औंधा। मुहा०—पट पड़ना = (१) औधा पड़ना। (२) कुश्ती में नीचे के पहलवान का पेट के वल पड़कर मिट्टी थामना। (३) मंद पड़ना। धीमा पड़ना। न चलना। जैसे—रोजगार पट पड़ना, पासा पट पड़ना, आदि। तलवार पट पड़ना = तलवार का औंधा गिरना। उस और से न पड़ना जिधर धार हो।

पट (५)
क्रि० वि० चट का अनुकरण। तुरंत। फोरन। जैसे, चट मँगनी पट ब्याह।

पट (६)
[अनु०] किसी हलकी छोटी वस्तु के गिरने से होनेवाली आवाज। टप। जैसे, पट पट बुँदे पड़ने लगीं। विशेष—खटपट, धमधम आदि अन्य अनुकरण शब्दो के समान इसका प्रयोग भी 'से' विभक्ति के साथ क्रियाविशेषण- वत् ही होता है। संज्ञा की भाँति प्रयोग न होने के कारण इसका कोई लिंग नहीं माना जा सकता।

पटइन †, पटइनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटवा] पटवा जाति की स्त्री। पटहार जाति की स्त्री। उ०—पटइनि पहिरी सुरँगतन चोला। औ बरइनि मुख खात तमोला।—जायसी ग्रं०, पृ०, ८१।

पटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुती कपड़ा। २. शिविर। तंबु। खेमा। ३. आधा गाँव (को०)।

पटकन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। २. चपत। तमाचा। क्रि० प्र०—देना। ३. छोटा डंडा। छड़ी। क्रि० प्र०—खाना।—मारना।

पटकना (१)
क्रि० स० [सं० पतन + करण या अनु०] १. किसी वस्तु को उठाकर या हाथ में लेकर भूमि पर जोर से डालना या गिराना। जोर के साथ ऊचाई से भूमि की ओर झोंक देना। किसी चीज को झोंके के साथ निचे की ओर गिरना। जैसे, हाथ का लोटा पटक देना, मेज पर हाथ पटकना। २. किसी खड़े या बैठे व्यक्ति को उठाकर जोर से निचे गिराना। दे मारना। उ०—पुनि नल नीलहिं अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकी भट मारेसि—तुलसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना। विशेष—'पटकना' में ऊपर से नीचे की और झोंका देने या जोर करने का भाब प्रधान है। जहाँ बगल से झोंका देकर किसी खड़ी या ऊपर रखी चीज को गिरावें वहाँ ढकेलना या गिराना कहेंगे। मुहा०—(किसी पर, किसी के ऊपर या किसी के सिर) पटकना = कोई ऐसा काम किसी के सुपुर्द करना जिसे करने की उसकी इच्छा न हो। किसी के बार बार इनकार करने पर भी कोई काम उसके गले मढ़ देना। जैसे, भाई तुम यह काम मेरे ही सिर क्यों पटकते हो। किसी और को क्यों नहीं ढ़ुढ़ लेते। २. कुश्ती में प्रतिद्वंद्वि को पछाड़ना, गिरा देना या दे मारना। जैसे,—मैं उन्हे तीन बार पटक चुका।

पटकना † (२)
क्रि० अ० १. सूजन बैठना या पटकना। वरम या आमास का कम होना। २. गेहुँ, चने, धान आदि का सील या जल से भीगकर फिर सुखकर सिकुड़ना। विशेष—ऐसी स्थिति को प्राप्त होने के पश्चात् अन्न में बीजत्व नहीं रह जाता। वह केवल खाने के काम में आ सकता हैं, बोने के नहीं। ३. पट शव्द के साथ किसी चीज का दरक या फट जाना। जैसे,—हाँड़ी पटक गई।

पटकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकना] पटकने की क्रिया या भाव। उ०—तैसिव मृदु पद पटकनि चटकनि कछतारन की लटकनि मटकनी झलकनि कल कुडल हारन की।— नंद० ग्रं०, पृ० २२।

पटकनिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। पटकान। क्रि० प्र०—देना। २. पटके जाने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—खाना। ३. भूमि पर गिरकर लोटने या पछाडे़ खाने की क्रिया या अवस्था। लोटनिया। पछाड़। क्रि० प्र०—खाना।

पटकनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। जैसे,—पहली ही पटकनी में बचा को छट्टी का दूध याद आ गया। क्रि० प्र०—देना। २. पटके जाने की क्रीया या भाव। क्रि० प्र० —खाना। ३. भूमि पर गिरकर लोटने या पछाड़ें खाने की क्रिया या अवस्था। क्रि० प्र०—खाना।

पटकरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बेल।

पटकर्म
संज्ञा पुं० [सं० पटकर्मन्] कपड़ा बुनने का काम। जुलाहे का धंधा [को०]।

पटका
संज्ञा पुं० [सं० पट्टक] १. वह दुपट्टा या रूमाल जिससे कमर बाँधी जाय। कमरबंद। कमरपेच। उ०—खैंचि कमर सौं बाँध्या पटका। अध पति हुआ बैठकर पटका।—सुंदर ग्र०, भा० १, पृ० ३५१। क्रि० प्र०—बाँधना। मुहा०—पटका बाँधना = कमर कसना। किसी काम के लिये तैयार होना। पटका पकड़ना = किसी को कार्यविशेष के लिये उत्तरदायी या अपराधी मानकर रोकना। कार्यविशेष से अपना असंबंध बताकर जान बचाने का प्रयत्न करनेवाले को रोक रखने और उस काम का जिम्मेदार ठहराना। दामन पकड़ना। ३. दीवार में वह बंद या पट्टी जो सुंदरता के लिये जोड़ी जाती है।

पटकान
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। जैसे,—मेरी एक ही पटकान मे उसके होश ठिकाने हो गए। क्रि० प्र०—देना। २. पटके जाने की क्रिया या अवस्था। क्रि० प्र०—खाना। ३. भूमि पर गिरकर लोटने या पछाड़ खाने की क्रिया या अवस्था। क्रि० प्र०—खाना।

पटकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़ा बुननेवाला। जुलाहा। २ चित्र- पट बनानेवाला। चित्रकार।

पटकुटि
संज्ञा स्त्री० [हिं० पट + कुटी] रावटी। छोलदारी। खेमा (डिं०)।

पटकूल
संज्ञा पु० [सं०] रेशमी वस्त्र। उ०—सब सबर नारि शृंगार कीन। अप अप्प झुंड़ मिलि चलि नवीन। थपि कनक थार भरि द्रव्य दूब। पटकूल जरफ जरकसी ऊब।—पृ० रा०, १। ७१३।

पटखनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटकन] दे० 'पटकनी'। उ०—रियासतों के नामी गरामी शहसवार इसपर सवार हुए और सवार होते हो पटखनी खाई।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २१।

पटचित्र
संज्ञा पुं० [सं० पट + चित्र] १. कपड़े पर बनाया हुआ चित्र। २. सिनेमा की फिल्म। उ०—उसके बाद सुनीता ने कुछ न कहा और मुँह मोड़कर पटचित्र ही देखती रही। सुनीता, पृ० १३४।

पटच्चर
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीर्ण वस्त्र। पुराना कपड़ा। उ०— तब लपेट तैलाक्त पटच्चर आग लगाई रिपुऔं ने।—साकेत, पृ० ३९०। २. चोर। तस्कर। ३. महाभारत और पुराणों मे वर्णित एक प्राचीन देश। विशेष—महाभारत के टिकाकार नीलकंठ के मत से यह देश प्राचीन चोल है। पर महाभारत सभापर्व में सहदेव का द्विग्विजय प्रकरण पढ़ने से इसका स्थान मत्स्य देश के दक्षिण चेदि के निकट कहीं पर जान पड़ता है। जैन हरिवंश के मत से यह मंत्र देश का ही अंशविशेष है।

पटड़ा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पटरा'।

पटड़ी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पटरी'।

पटण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्तन] दे० 'पत्तन'। उ०—हाट पटण देख रह्मा हैरान। नानक एह गढ़ छूटे निदान।—प्राण०, पृ० २८।

पटतर पु
संज्ञा पुं० [हिं० सं० पट्ट (= पटरी) + तल (= पटरी के समान चौरस)] १. समता। बराबरी। तुल्यता। समा- नता। उ०—महामधुर कमनीय जुगल बर। इनहीं कों दीजै इन पटतर।—घनानंद, पृ० ४१। २. उपमा। सादृश्य कथन। तशबीह। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—लहना।

पटतर (२)
वि० जिसकी सतह ऊँची नीची न हो। चौरस। समतल। बराबर।

पटतरना
क्रि० अ० [हिं० पटतर] बराबर ठहरना। उपमा देना। उ०—जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग अस जुवति कहाँ कमनीया।—मानस, १। २४७।

पटतारना (१)
क्रि० स० [हिं० पटा + तारना (= अंदाजना)] खङ्ग भाले आदि को उस स्थिति में पकड़ना जिसमे उनसे वार किया याता है। खाँड़ा, भाला आदि शस्त्रों को किसी पर चलाने के लिये पकड़ना या खींचना। सँभालना। उ०—फिर पठान सों जंग हित चल्यो सेल पटतारि।—सूदन (शब्द०)।

पटतारना (२)
क्रि० स० [हिं० पटतर] ऊँची नीची जमीन को चौरस करना। टीले को काटकर उसकी मिट्टी को इधर उधर इस प्रकार फैला देना कि जहाँ वह फैलाई जाय वहाँ का तल चौरस रहे। पड़तारना।

पटताल
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट + ताल] मृदंग का एक ताल। विशेष—यह ताल १ दीर्घ या २ ह्वस्व मात्राओं का होता है। इसमें एक ताल और एक खाली रहता है। इसका बोल यो   +  ० है—धा, केटे दिं ता, धा।

पटत्क
संज्ञा पुं [सं०] तस्कार। चोर [को०]।

पटद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कपास।

पटधारी (१)
वि० [सं० पटधारिन्] जो कपड़ा पहने हो।

पटधारी (२)
संज्ञा पुं० तोशाखाने का मुख्य अफसर। उ०—बोलि सचिव सेवक सखा पटधारि भँडारी। तेहु जाहिं जोह चाहिए सनमानि सँभारीं।—तुलसी (शव्द्०)।

पटन (१)
संज्ञा पुं [सं० पत्तन प्रा० पट्टण पट्टण] दे० 'पत्तन' उ०— धर्म पुरी एक नगर सुहावा। हाट पटन बहु देखि बनावा।— हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २०५।

पटन (२)
संज्ञा पुं [सं०] गुजरात देश, जहाँ की राजधानी का नाम पट्टन या पाटन था। उ०—अवतार लियो प्रिथिराज पहु ता दिन दान अनंत दिय। कनवज्ज देस गज्जन पटन किल- किलंत कालंकनिय।—पृ० रा०, १।६८७।

पटना (१)
क्रि० अ० [हिं० पट (= जमीन के सतह के बराबर)] १. किसी गड्ढे या नीचे स्थान का भरकर आस पास की सतह के बराबर हो जाना। समतल होना। जैसे,—वह झील अब बिलकुल पट गई है। २. किसी स्थान में किसी वस्तु की इतनी आधिकता होना कि उससे शून्य स्थान न दिखाई पड़े। परिपूर्ण होना। जैसे,—रणभूमि मुर्दों से पट गई । ३. मकान, कुएँ आदि कि ऊपर कच्ची या पक्की छत बनाना। ४. मकान की दूसरी मँजिल या कोठा उठाया जाना। ५. सींचा जाना। सेराब होना। जैसे,— वह खेत पट गया। ६. दो मनुष्यों के विचार, भाव, रुचि या स्वभाव में ऐसी समानता होना जिससे उनमें सहयोगिता या मित्रता हो सके। मन मिलना। बनना। जैसे,—हमारी उनकी कभी नहीं पट सकती। ७. विचारों, भावों या ठचियों की समानता के कारण मित्रता होना। ऐसी मित्रता होना जिसका कारण मनों का मिल जाना हो। जैसे,—आजकल हमारी उनकी खूब पटती है। ८. खरीद, बिक्री, लेन देन आदि में उभय पक्ष का मूल्य, सूद, शतों आदि पर सहमत हो जाना। तैं हो जाना। बैठ जाना। जैसे, सौदा पट गया, मामला पट गया, आधि। ९. (ऋण या देना) चुकता हो जाना। (ऋण) भर जाना। पाई पाई अदा हो जाना। जैसे,—ऋण पट गया। संयो० क्रि०—जाना।

पटना (२)
संज्ञा पुं [सं० पट्टन] दे० 'पाटलिपुत्र'।

पटनिया, पटनिहा
वि० [हिं० पटना + इया या इहा (प्रत्य०)] १. वह वस्तु जो पटना नगर या प्रदेश में बनी हो। जैसे, पटनिया एक्का। २. पटना नगर या प्रदेश से संबंध रखेनेवाला।

पटनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना] वह कमरा जिसके ऊपर कोई और कमरा हो। कोठे के नीचे का कमरा। पटौंहा।

पटनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटना (= तै होना)] १. जमींदारी का वह अंश जो निश्चित लगान पर सदा के लिये बंदोबस्त कर दिया गया हो। वह जमीन जो किसी को इस्तमरारी पट्टे के द्बारा मिली हो। यौ०—पटनीदार। विशेष—यदि काश्तकार इस जमीन या इसके अंशविशेष को वे ही अधीकार देकर जो उसे जमींदार से मिले है, दूसरे मनुष्य के साथ बंदोबस्त कर दे तो उसे 'दरपटनी' और ऐसे ही तीसरे बंदोबस्त के बाद उसे 'सिपटनी' कहते हैं। २. खेत उठाने की वह पद्धति जिसमें लगान और किसान या असामी के अधिकार सदा के लिये निश्चित कर दिए जाते हैं। इस्तमरारी पट्टो द्बारा खेत का बंदोबस्त करने की पद्धति। ३. दो खूँटियों के सहारै लगाई हुइ पटरी जिसपर कोई चीज रखी जाय।

पटपट (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० पट] हलकी वस्तु के गिरने से उत्पन्न शब्द की बार बार आवृत्ति। 'पट' शब्द अनेक बार होने की क्रिया या भाव। पट शब्द की बार बार उत्पत्ति।

पटपट (२)
क्रि० वि० बराबर पट ध्वनि करता हुआ। 'पटपट' आवाज के साथ। जैसे, पटपट बूँदे, पड़ने लगीं।

पटपटाना
क्रि० अ० [हिं० पटकना] भूख प्यास या सरदी गरमी के मारे बहुत कष्ट पाना। बुरा हाल होना। २. किसी चीज से पटपट ध्वनि निकलना। जैसे,—ये चने खूब पटपटा रहे हैं।

पटपटाना (२)
क्रि० स० १. किसी चीज को बजा या पीटकर पटपट शब्द उत्पन्न करना। जैसे,—व्यर्थ क्या पटपटा रहे हो ? २. खेद करना। शोक करना।

पटपर (१)
वि० [पिं० पट + अनु० पर] समतल। बराबर। चौरस। हमवार।

पटपर (२)
संज्ञा पुं० १. नदी के आसपास की वह भूमि जो बरसात के देनों में प्रायः सदा डूबी रहती है। इसमें केवल रबी की खेती की जाती है। २. ऐसा जंगल जहाँ घास, और पानी तक न हो। अत्यंत उजाड़ स्थान।

पटबंधक
संज्ञा पुं० [हिं० पटना + सं० बन्धक] एक प्रकार का रेहन जिसमें महाजन या रेहनदार रखी हुई संपत्ति के लाभ में से सूद लेने के बाद जो कुछ बच जाता है उसे मूल ऋण में मिनहा करता जाता है और इस प्रकार जब सारा ऋण वसूल हो जाता है तब संपत्ति उसके वास्तविक स्वामी को लौटा देता है। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लेना।—रखना।

पटबिजना
संज्ञा पुं० [हिं० पट + बिज्जु] दे० 'पटबीजना'। उ०— शून्य बिजन के पटबिजना से, चाँद सितारे आसमान के, जरा मरण मुक्त न देखे, देखा—अपने ही समान थे।—हंस०, पृ० ५४।

पटबीजना †
संज्ञा पुं० [हिं० पट (= बराबर) + बिज्जु(= बिजली)] जुगुनू। खद्योत।

पटभाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक यंञ जिससे आँख को देखने में महायता मिलती थी।

पटमंजरी
संज्ञा पुं० [सं० पटपञ्जरी] संपूर्ण जाति की एक शु्द्घ रागिनी जो हिंडोल राग की स्त्री है। विशेष—हनुमत के मत से इसका स्वरग्राम यह है—प ध नि सा रे ग म प। इसका गान समय दंड से १०दंड तक है। एक और मत से यह श्री राग की रागिनी हैं। और इसका गान समय एक पहर दिन के बाद हैं। कोई कोई इसे संकर रागिनी भी मानते हैं। इसमें से कुछ के मत से यह नट और मालश्री के मिलाने से बनी हैं। दूसरे इसे मारू, धूलश्री, गांधारी और धनाश्री के संयोग से बनी हुई मानते हैं।

पटमंडप
संज्ञा पुं० [सं० पटमण्डप] तंबू। खेमा। शिबिर।

पटम (१)
वि० [हिं० पटपटाना] वह जिसकी आँखें भूख से पटपटा या बैठ गई हों। जो भूख के मारे अंधा हो गया हो।

पटम पु (२)
संज्ञा पुं० [सं पटु] धोखा। छल। छद्म। पाखंड। पटुता। इन बातन मोहिं अचिरज आवै। पटम किए पिव कैसे पावै।—संतबानी० पृ० १०।

पटमय (१)
वि० [सं] कपडे़ से बना हुआ [को०]।

पटमय (२)
संज्ञा पुं० तंबू। खेमा।

पटरक
संज्ञा पुं० [सं०] पटेर। गोंदपटेर।

पटरा
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट + हिं रा (प्रत्य०) अथवा सं० पटल] [स्त्री० अल्पा० पटरी] १. काठ का लंबा चौकोर और चौरस चीरा हुआ हुआ टुकडा़ जो लंबाई चौड़ाई के हिसाब से बहुत कम मोटा हो। तख्ता। पल्ला। विशेष—काठ के ऐसे भारी टुकडे़ को जिसके चारो पहल बराबर या करीब बराबर हों अथवा जिसका घेरा गोल हो 'कुंदा' कहेंगे। कम चौडे़ पर मोटे लंबे टुकडे़ को 'बल्ला' या बल्ली कहेंगे। बहुत ही पतली बल्ली को छड़ कहेंगे। मुहा०—पटरा कर देना = (१) किसी खडी़ चीज को गिराकर पटरी की तरह जमीन के बराबर कर देना। (२) मनुष्य, वृक्ष आदि को काटकर गिरा देना। मार काट कर फैला। देना या बिछा देना। जैसे,—शाम तक उसने सारे का सारा जंगल काट कर पटरा कर दिया। (३) चौपट कर देना। तबाह कर देना। सर्वनाश कर देना। जैसे,—इस वर्ष के अकाल ने तो पटरा कर दिया। पटरा होना = मरकर गिर जाना। मर जाना। नष्ट हो जाना। स्वाहा हो जाना। जैसे,—इस साल हैजे से हजारों पटरा हो गए। २. धोबी का पाट। ३. हेंगा। पाटा।मुहा०—पटरा फेरना = किसी के घर को गिराकर जुते हुए खेत की तरह चौरस कर देना। ध्वंस कर देना। तबाह कर देना। पटरा हो जाना = मर कटकर नष्ट हो जाना।

पटरागिनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पटरानी'। उ०—पट- रागिनि पाँवार रूप रंभा गुन जुब्बन। प्रमुदा प्रान सामान नहीं विसरत्त एक छन।—पृ० रा०, १।३७०।

पटरानी
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्ट + रानी] वह रानी जो राजा के साथ सिहासन पर बैठने की अधिकारिणी हो। किसी राजा की विवाहिता रानियों में सर्वप्रधान। राजा की सबसे बडी़ रानी। राजा की मुख्य रानी। पट्टरानी। पाटमहिषी।

पटरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटरा] १. काठ का पतला और लंबोतरा तख्ता। मुहा०—पटरी जमना = धुड़सवारी में जीन पर सवार का रानों को इस प्रकार चिपकाना कि घोडे़ के बहुत तेज चलने या शरारत करने पर भी उसका आसन स्थिर रहे। रान बैठाना या जमाना। पटरी बैठना = मन मिलना। मिञता होना। मेल होना। पटना। जैस,—हमारी उनकी पटरी कभी न बैठेगी। २. लिखने की तख्ती। पटिया। १. वह चौड़ा खपड़ा जिसपर नरिया जमाते हैं। ४. सड़क के दोनों किनारों का वह कुछ ऊँचा और कम चौड़ा भाग जो पैदल चलनेवालों के लिये होता है। ५. नहर के दोनों किनारों पर के रास्ते। ६. बगीचों में क्यारियों के इधर उधर के पतले पतले रास्ते जिनके दोनों और सुंदरता के लिये घास लगा दी जाती है। रविश। ७. सुनहरे या रूपहले तारों से बना हुआ वह फीता जिसे साड़ी, लहँगे या किसी कपड़े की कोर पर लगाते हैं। ८. हाथ में पहनने की एक प्रकार की पट्टीदार चौड़ी चूड़ी़ जिसपर नक्काशी बनी होती हैं। ९. जंतर। चौकी। ताबीज।

पटल
संज्ञा पुं० [सं०] १.छप्पर। छान। छत। २. आवरण। पर्दा। आड़ करने य़ा ढकनेवाली कोई चीज। ३. परत। तह। तबक। ४. पहल। पार्श्र्व। ५. आँख की बनावट की तहें। आँख के पर्दे। ६. मोतियाबिंद नामक आँख का रोग। पिटारा। ७. लकडी़ आदि का चौरस टुकड़ा। पटरा। तखता। ८. पुस्तक का भाग य़ा अंशविशेष। परिच्छेद । ९. माथे पर का तिलक। टीका। १०. समूह। ढेर। अंबार। ११. लाव लश्कर। लवाजमा। परिच्छद। १२. वृक्ष। पेड़ (को०)। १३. पिटक। पिटारी (को०)। १४. पुस्तक। ग्रंथ। (को०)। १५. वृंत। डंठल (को०)।

पटलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवरण। पर्दा। झिलमिली। बुरका। २. कोई छोटा संदूक, डलिया या टोकरा। ३.समूह। राशि। ढेर। अंबार।

पटलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.पटल का काम। २. अधिकता। उ०—जौन अंग ढिग ह्वै कढ़ी हुई छेल की छाँह। अजहूँ लौं अवलोकिये, पुलक पटलता ताह।—मतिराम ग्रं०, पृ० २७५।

पटलप्रांत
संज्ञा पुं० [सं पटलप्रान्त] छप्पर का सिरा या किनारा।

पटला
संज्ञा स्त्री० [सं] भीमा के आकार की नौका। ६९४ हाथ लंबी, ३२ हाथ चौड़ी और ३२ हाथ ऊँची नाव। (युक्ति कल्पतरु)।

पटली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पटल] १. छप्पर। छान। छत। २. वृक्ष (को०)। ३. डंठल। वृत (को०)। ४. समूह। झुंड। पंक्ति। उ० —नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना।—मानस, ३।३४।

पटली † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पटरी'। उ०—उत्तम पटली' प्रेम की रे डोरी सुरति लगाई।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८२६। मुहा०—पटली बैठना = मित्रता होना। मन मिलना। पटरी बैठना। उ०—पटली है बैठने की गोरे की साँवले से।— बेला, पृ० ९०।

पटवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाट + वाह (प्रत्य०)] [स्त्री० पटइन] रेशम या सूत में गहने गूथनेवाला। पटाहार। उ०—कतहुँ तमोलिय पान भुलाने। कहुँ पटवा पाटहिं अरुझाने।—इंद्रा०, पृ० १५।

पटवा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बैल जिसका रंग नारंगी का सा होता हैं। यह बैल मजबूत और तेज चलनेवाला होता है।

पटवा (३)
संज्ञा पुं० [सं० पाट] पटसन की जाति का एक प्रकार का पौधा। लाल अंबारी। विशेष—यह पौधा बंगाल में अधिकता से बोया जाता है। कहीं कहीं यह बागों में शोभा के लिये भी लगाया जाता हैं। इसमें एक प्रकार की कलियाँ लगती हैं जो खाई जाती है। इसके तनों से एक प्रकार का रेशा निकलता हैं और इसके फल तथा बीज कहीं कहीं ओषधि रूप में काम में आते हैं।

पटवाद्य
संज्ञा पुं० [सं] झाँझ के आकार का एक प्राचीन बाजा जिससे ताल दिया जाता था।

पटवाना (१)
क्रि० स० [हिं० पाटना का प्रे० रूप] १. पाटने का काम दूसरे से कराना। २. आच्छादित कराना। छत डलवाना जैसे, घर पटवाना। ३.गड्ढे आदि को भरकर आसपास की जमीन के बराबर कराना। भरवा देना। पूरा करा देना। जैसे, गड्ढा पटवा देना। † ४. सिंचवाना। पानी से तर कराना। ५ ऋण आदि अदा करा देना। चुकवा देना। पटाना। दाम दाम दिलवा देना। जैसे—उसने अपने मित्र से वह ऋण पटवा दिया।

पटवाना (२)
क्रि० स० [हिं० 'पटाना का प्रे० रूप'] (पीड़ा या कष्ट) दूर कर देना। मिटाना। बंद करना। शांत करना।

पटवाप
संज्ञा पुं० [सं०] खेमा। तंबू [को०]।

पटवारगिरी
संज्ञा स्ञी० [हिं० पटवारी + फ़ा० गरी] १. पटवारी का काम। जैसे,—इन्होंने २०. साल तक पटवारगिरी की है। २. पटवारी का पद। जैसे,—उस गाँव की पटवारगिरी इन्हीं को मिलनी चाहिए।

पटवारी (१)
संज्ञा पुं० [सं पट्ट + कार, हिं० वार] गाँव की जमीन औरउसके लगान का हिसाब किताब रखनेवाला एक छोटा सरकारी कर्मचारी।

पटवारी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पट + हिं० वारी (प्रत्य०)] कपडे़ पहनानेवाली दासी। उ०—पानदानवारी केती पीकदानवारी चौर- वारी पंखावारी पटवारी चलीं धाय कैं।—रघुराज (शब्द०)।

पटवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्ञनिर्मित गृह। शिविर। तंबू। २. वह वस्तु या चूर्ण जिससे वस्ञ सुगंधित किया जाता। वे सुगंधियाँ या चूर्ण जिनसे कपड़ा वासित (सुगंधित) करने का काम लिया जाय। उ०—जल थल फल फूल भूरि, अंबर पटवास धूरि, स्वच्छ यच्छ कर्दम हिय देवन अभिलाषे।— केशव (शब्द०)। ३.लहँगा। साया।

पटवासक
संज्ञा पुं० [सं०] पटवास चूर्ण। वस्ञ बसानेवाली सुगं- धियों का चूर्ण।

पटवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० पटवेश्मन] खेमा। तंबू [को०]।

पटसन
संज्ञा पुं० [सं० पाट + हिं० सं० शरण सन] १.एक प्रसिद्ध पौधा जिसके रेशे से रस्सी, बोरे, टाट और वस्ञ बनाए जाते हैं। विशेष—यह गरम जलवायुवाले प्रायः सभी देशों में उत्पन्न होता है। इसके कुल ३६ भेद हैं जिनमें से ८ भारतवर्ष में पाए जाते हैं। इन ८ में से दो मुख्य हैं और प्रायः इन्हीं की खेती की जाती है। इसके कई भेद अब भी वन्य अवस्था में मिलते हैं। दो मुख्य भेदों में से एक को 'नरछा' और दूसरे को 'वनपाट' कहते हैं। 'नरछा' विशेषतः बंगाल और आसाम में बोया जाता है। वनपाट की अपेक्षा इसके रेशे अधिक उत्तम होते हैं। नरछे का पौधा वनपाट के पौधे से ऊँचा होता है। और पत्ती तथा कली लंबी होती है वनपाट की पत्तियाँ गोल, फूल नरछे से बडे़ और कली की चोंच भी नरछे से कुछ अधिक लंबी होती है। पटसन की बोआई भदईँ जिन्सौं के साथ होती है और कटाई उस समय होती है जब उसमें फूल लगते हैं। इस समय न काट लेने से रेशे कड़े हो जाते हैं। बीज के लिये थोड़े से पौधे खेत में एक किनारे छोड़ दिए जाते हैं, शेष काटकर और गट्ठों में बाँधकर नदी, तालाब या गड्ढे के जल में गाड़ दिया जाते हैं। तीन चार दिन बाद उसे निकालकर डंठल से छिलके को अलग कर लेते हैं। फिर छिलकों को पत्थर के ऊपर पछाड़ते हैं और थोडी़ थोडी़ देर के बाद पानी में धोते हैं जिससे कड़ी छाल कटकर धुल जाती हैं और नीचे की मुलायम छाल निकाल आती हैं। छिलके या रेशे अलग करने के लिये यंञ भी है, परंतु भार- तीय किसान उसका उपयोग नहीं करते। यंत द्वारा अलग किए हुए रेशों की अपेक्षा सड़ाकर अलग किए हुए रेशे अधिक मुलायम होते हैं। छुड़ाए और सुखाए जाने के अनंतर रेशे एक विशेष यंञ में दबाए अथवा कुचले जाते हैं। जबतक यह क्रिया होती रहती है, रेशों पर जल और तेल के छींटे देते रहते हैं जिससे उनकी रुखाई और कठोरता दूर होकर, कोमलता, चिकनाई और चमक आ जाती है। आजकल पटसन के रेशों से तीन काम लिए जाते हैं—मुलायम, लचीले रेशों से कपड़े तथा टाट बनाए जाते हैं, कड़े से रस्से, रस्सियाँ और जो इन दोंनों कामों के अयोग्य समझे जाते हैं उनसे कागज बनाया जाता हैं। रेशों की उत्त मता, अनुत्त- मता के विचार से भी पटसन के कई भेद हैं। जैसे, उत्तरिया, देसवाल, देसी, डुयौरा या डौरा, नारायनगंजी, सिराजगंजी आदि। इनमें उत्तरिया और देसवाल सर्वोत्तम हैं। पटसन के रेशे अन्य वृक्षों या पौधों के रेशों से कमजोर होते हैं। रंग इसके रेशों पर चाहे जितना गहरा या हलका चढ़ाया जा सकता है। चमक, चिकनाई आदि में पटसन रेशम का मुकाबला करता है, जिस कारखाने में पटसन के सूत और कपडे़ बनाए जाते हैं उनको जूट मिल और जिस यंत्र में दाब पहुँचाकर रेशों को मुलायम और चमकीला बनाया जाता हैं उसे 'जूट प्रेस' कहते हैं। २. पटसन के रेशे। पाट। जूट। विशेष—(क) पटसन से रस्से, रसिस्याँ टाट और टाट ही की तरह का एक मोटा कपड़ा तो बहुत दिनों से लोग बनाते रहे हैं, पर उसका बारीक रेशम तुल्य सूत और उनसे बहु- मूल्य वस्त्र तैयार करने की ओर उनका ध्यान नहीं गया था। अब उसका खूब महीन सूत भी बनने लग गया है। (ख) कुछ लोगों का यह अनुमान है कि नरछा नामक उत्तम जाति के पटसन के बीज भारत में चीन से लाए गए हैं। बंगाल और आसाम के जिन जिन भागों में नरछे की खेती सफलता- पूर्वक की जा सकती है वहाँ की जलवायु में चीन की जल- वायु से बहुत कुछ समानता है।

पटसाली
संज्ञा पुं० [सं० पट्टशाली] धारवाड़ प्रांत की जुलाहों की एक जाति जो रेशमी वस्त्र बुनती हैं।

पटहंसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। यह रागिनी १७ दंड से २० दंड तक के बीच में गाई जाती हैं।

पटह
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुंदुभी। नगाड़ा। डंका। आडंबर। २. बडा़ ढोल। ३. समारंभ। किसी कार्य को आरंभ करना (को०)। ४. हिंसन। नुकसान पहुँचाना (को०)।

पटहघोषक
संज्ञा पुं० [सं०] ढोल पीटकर घोषणा करनेवाला व्यक्ति।

पटहभ्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] (लोगों को एकत्र करने के लिये) धूम घूमकर डुग्गी या ढोल पीटना [को०]।

पटहबेला
संज्ञा पुं० [सं०] डुग्गी पीटे जाने का समय।

पटहार, पटहारा (१)
वि० [पाट + हिं० हार (प्रत्य०)] रेशम के डोरे बनानेवाला। रेशम के डोरों से गहना गूँथनेवाला।

पटहार, पटहारा (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० पटहारिन या पटेरिन] एक जाति जो रेशम या सूत के डोरे से गहने गूँथती हैं। पटवा।

पटहारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटहार] १. पटहार की स्त्री। २. पटहार जाति की स्त्री।

पटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पट] प्रायः दो हाथ लंबी किर्च के आकार की लोहे की फट्टी जिससे तलवार की काट और बचाव सीखेजाते हैं। उ०—पटा पवड़िया ना लहै, पटा लहै कोई सूर।— दरिया०, पृ० १५।

पटा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट] पीढ़ा। पटरा। उ०—चौकी पीढ़ी पटा झारी पनिगह, पलइठि तेआए आसन।—वर्ण- रत्नाकर, पृ० १२। मुहा०—पटाफेर = विवाह की एक रस्म जिसमें वर वधू के आसन परस्पर अदल बदल दिए जाते हैं। पटा बाँधना = पटरानी बनाना। उ०—चौदह सहस तिया में तोको पटा बँधाऊँ आज।—सूर (शब्द०)। २. (पट की तरह समतल होने के कारण) गंडस्थल। जैसे, कनपटा, कनपटी। यौ०—पटाझर।

पटा पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट] १. अधिकारपत्र। सनद। पट्टा। उ०—(क)विधि के कर को जो पटो लिखि पायो।— तुलसी (शब्द०)। (ख) सतगुरु साह साध सौदागर भक्ति पटो लिखवइयो हो।—धरम०, पृ० ११। २.पगडी़ या कलँगी की तरह का एक भूषण जो पहले राजाओं द्वारा किसी विशिष्ट कार्य में, सफलता प्राप्त करने या श्रेष्ठ वीरता- प्रदर्शन पर सामंतों को दिया जाता था। उ०—सिर पटा छाप लोहान होइ। लग्गें सु सरह सय पाइ लोइ।—पृ० रा०, ४।१५।

पटा पु (४)
संज्ञा पुं० [हिं पटना] लेन देन। क्रय विक्रय। सौदा। उ०—मन के हटा में पुनि प्रेम को पटा भयो।—पद्माकर (शब्द०)।

पटा (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १.चौड़ी लकीर। धारी। २. लगाम की मुहरी। ३. चटाई। ४. दे० 'पट्टा'।

पटाई (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटाना] पटाने की क्रिया या भाव। सिंचाई। आबपाशी। उ०—दूधे पटाइअ सींचीअ नीत, सहज तजे करइला तीत।—विद्यापति, पृ० २१३। २. सिंचाई की मजदूरी।

पटाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। २. पाटने की मजदूरी।

पटाक (१)
[अनु०] किसी छोटी चीज के गिरने का शब्द। जैसे,— वह पटाक से गिरा। विशेष—चटाक, धड़ाम आदि अनुकररण शब्दों के समान इसका व्यवहार भी सदा 'से' विभक्ति के साथ क्रियाविशेषणवत् होता है। संज्ञा की भाँति प्रयुक्त न होने कारण इसका कोई लिंग नहीं माना जा सकता।

पटाक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी [को०]।

पटाका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पट (अनु०)] १. पट या पटाक शब्द। २. पट या पटाक शब्द करके छूटनेवाली एक प्रकार की आतशबाजी। क्रि० प्र०—छोड़ना। ३. पटाके की ध्वनि। कोड़े या पटाके की आवाज। ४. तमाचा। थप्पड़। चपत।

क्रि० प्र०—जमाना।—देना।—लगाना।

पटाका (२)
संज्ञा स्त्री० युवती अथवा कम अवस्थावाली स्त्री (बाजारू)।

पटाका (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पताका' [को०]।

पटाक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] पर्दा गिरना या गिराना। जवनिका गिराना। जवनिकापात [को०]।

पटाखा
संज्ञा पुं० [हिं० पट अनुध्व०] दे० 'पटाका'।

पटाझर पु †
वि० [हिं० पटा + झरना] मदस्रावी। मतवाला (हाथी)। उ०—बस नहिं होत सुजान पटाझर गज हैं जैसे। कमल नाल के तंतु बँधे रुकि रहिहै कैसे।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७०।

पटान
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना] पाटने की क्रिया या भाव। पटाव।

पटाना
क्रि० स० [हिं० पट (= समतल)] १. पाटने का काम करना। गड़्ढे आदि को भरकर आसपास की जमीन के बराबर कराना। २. छत को पीटकर बराबर कराना।३. पाटन बनवाना छत बनवाना। जैसे, कोठा पटाना। ४. ऋण चुका देना। अदा कर देना। जैसे,—मैंने उनका सब पावना पटा दिया। ५. बेचनेवाले को किसी मूल्य पर सौदा देने के लिये राजी कर लेना। मूल्य तै कर लेना। जैसे, सौदा पटाना † ६. सींचना। जल से सिंचित करना। जैसे, खेत पटाना।

पटाना (२)
क्रि अ० शांत होकर बैठना। चुपचाप बैठना।

पटापट (१)
क्रि० वि० [अनु० पट] लगातार बारबार 'पट' ध्वनि के साथ। निरंतर पट पट शब्द करते हुए। 'पट पट' की ऐसी आवृत्ति जिसमें दो ध्वनियों के मध्य बहुत ही कम अवकाश हो और एक सम्मिलित ध्वनि सी जान पड़े। तेजी से। जैसे,— पटापट मार पड़ी। उ०—प्रेम की घटा में बुंद परै पटा- पट।—पलटू०, पृ० २७।

पटापट (२)
संज्ञा स्त्री० निरंतर पटपट शब्द की आवृत्ति। ऐसी 'पटपट' ध्वनि जिसमें दो ध्वनियों के बीज इतना काम अवकाश हो कि अनुभव में न आ सके। जैसे,—इस पटापट से तो तबीअत परेशान हो गई।

पटपटी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] वह वस्तु जिसमें अनेक रंगों अनेक रंगों के फूल पत्ते कढ़े हों। वह वस्तु जो कई रंगों से रंगी हुई हो। चित्र विचित्र वस्तु। उ०—सारी जरतारी भारी उत चटापटी की लागी जामै गोट तमामी पटापटी की।—रत्नाकर, भा० १. पृ० ९। मुहा०—पटापटी का पर्दा = वह पर्दा जितमें रंग विरंग के फूल पत्ते या समोसे आदि कढे़ हों। पटापटी की गोट = वह रंग बिरंगी गोट जिसमें सिंघाड़े आदि कढ़े हों।

पटार
संज्ञा स्त्री० [सं पिटक] १.पिटारा। पेटी। मंजूषा। २. पिंजडा़। ३. रेशम की रस्सी का निवार। ४. कनखजूरा। (बुंदेलखंडी)।

पटालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक। जलौका।

पटाव
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना] १ पाटने की क्रिया। २. पाटने का भाव। ३. पटा हुआ स्थान। पाटकर चौरस किया हुआ स्थान। ४. दीवारों के आधार पर पाटकर बनाया हुआ ऊँचा स्थान। पाटन। ५. लकड़ी का वह मजबूत तख्ता जिसे दरवाजे के ऊपरी भाग पर रखकर उसके ऊपर दीवार उठाते हैं। भरेठा।

पटि
संज्ञा स्त्री० [सं० पटी] १. कोई छोटा वस्त्र या वस्त्रखंड। २. जलकुंभी। ३. रंगमंच का पर्दा (को०)। ४. कनात (को०)।

पटिआ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पटिया'।

पटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोई छोटा वस्त्र या वस्त्रखंड।

पटिक्षेप
संज्ञा स्त्री० पुं० [सं०] यवनिकापात। रंगमंच का पर्दा गिराना [को०]।

पटिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्टिका] १. पत्थर का प्रायः चौकोर और चौरस कटा हुआ टुकडा़। जिसकी मोटाई लंबाई चौड़ाई के हिसाब से बहुत कम हो। चिपटा चौरस शिलाखंड। फलक। उ०—जहाँ मणिजटित पटिया बिछी हैं यही माधवी कुंज हैं।—शकुंतला, पृ० ११२। २. काट का छोटा तख्ता। ३. खाट या पलंग की पट्टी। पाटी। ४. पटरी। फुटपाथ। उ०—एक युवक पुल की लकडी़ से पटियी पर खडा़ पोस्ट आफिस की ओर मुख किए इस दृश्य को देख रहा था। पिंजरे०, पृ० १९।५. माँग। पट्टी। उ०—समुझ की पटिया पारो सजनी चुटिया गुहौ सम्हार हो।—कबीर श०, भा० २, पृ० १३४। क्रि० प्र०—काढ़ना।—पारना।—सँवारना। ५. हेंगा। पाटा। ६. कंबल या टाट की एक पट्टी। ७. लिखने की पट्टी। तख्ती। ८. सँकरा और लंबा खेत।

पटिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना + इया (प्रत्य०)] चिपटे तले की बड़ी और ऊपर से पटी हुई नाव जो बंदरगाहों में जहाज से बोझ उतारने और चढा़ने के काम में आती है (लश०)।

पटियैत †
संज्ञा पुं० [सं० पटि + ऐत (प्रत्य०)] दायाद। पट्टीदार। उ०—आज अखाडे़ जाते हुए पहलवान रामसिंह के पड़ोसी पटियैत से चार आँखें हुई, शीलवान मनोहर को उन्होंने चंग पर चढ़ाया, कहा जोर करने जा रहे हो।— काले०, पृ० २।

पटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पटि' [को०]।

पटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पट] १. कपडे़ का पतला लंबा टुकडा़। पट्टी। उ०—मीत बिरह की पीर को सकै न पलट्टग काँध। रूप कपूर लगाइ कै प्रीति पटी सो बाँध।—रसनिधि (शब्द०)। २. पटका। कमरबंद। उ०—पीट पटी लपटो कटि में अरु साँवरो सुंदर रूप सँवारे।—देव (शब्द०)।

पटीमा
संज्ञा पुं० [हिं० पट्टी] छीपियों का वह तख्ता जिसपर वे छापते समय कपड़े को बिछा लेते हैं।

पटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चंदन। उ०—लावति बीर पटीर घसि ज्यों ज्यों सीरे नीर। त्यौं त्यौं ज्वाल जगै दई या मृदु बाल सरीर।—स० सप्तक पृ० २३०। २. कत्था। ३. कत्थे या खैर का वृक्ष। ४. मूली। ५. वटवृक्ष। उ०— जटिल पटीर कृपाल बट रक्तफला न्यग्रोघ। यह बंसीबट देखु बलि सब सुख निरुपध बोध।—नंददास (शब्द०)। ६. कंदुक। गेंद (को०)। ७. कामदेव (को०)। ८. केश (को०)। ९. मेघ। बादल (को०)। १०. वातरोग (को०)। ११. प्रतिश्याय। ठंढक। जुकाम (को०)। १३. क्यारी (को०)। १४. ऊँचाई। उच्चता (को०)। १५. उदर (को०)।

पटीर (२)
वि० १. सुंदर। सौंदर्ययुक्त। २. ऊँचा। [को०]।

पटीरजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० पटीरजन्मन्] चंदन का वृक्ष [को०]।

पटिरमारुत
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन के संपर्क से सुगंधित हवा [को०]।

पटीलना
क्रि० अ० [हिं० पटाना] १. किसि को उलटी सीधी बातें समझा बुझाकर अपने अनुकूल करना। ढंग पर लाना। हत्थे चढ़ाना। उतारना। २. अर्जित करना। कमाना। प्राप्त करना। ३. ठगना। छलना। ४. मारना। पीटना। ठोंकना। ५.परास्त करना। नीचा दिखाना। ६. सफलतापूर्वक किसी काम को समाप्त करना। खतम करना। पूर्ण करना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना।

पटीला पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] चिपटा कड़ा। पछेला। पटेला। उ०—चाल की चुरिया पहिरो सजनी परख पटीला डार हो।—कबीर, श०, भा० २, पृ० १३४।

पटु (१)
वि० [सं०] १. प्रवीण। निपुण। कुशल। दक्ष। उ०—नदी नाव पटु प्रश्न अनेका। केवट कुसल उंतर सविवेका।—मानस, १।४१। २. चतुर। चालाक। होशियार। ३. धूर्त। छलिया। मक्कार। फरेबी। ४. निष्ठुर। अत्यंत कठोर ह्वदयवाला। ५. रोगरहीत। तंदुरुस्त। स्वस्थ। ६. तीक्षण। तीखा। तेज। ७. उग्र। प्रचंड। ८. स्फुट। प्रकाशित। व्यक्त। ९. सुंदर। मनोहर। उ०—(क) रघुपति पटु पालकी मँगाई। तुलसी (शब्द०)। (ख) पौढ़ाये पटु पालने सिसु निरखि मगन मन मोद।—तुलसी (शब्द०)।

पटु (२)
संज्ञा पुं० १. नमक। २. पांशुलवण। पाँगा नोन। ३. परवल। ४. परवल के पत्ते। ५. करेला। ६. चिरचिटा नाम की लता। ७. चीनी कपूर। ८. जीरा। ९. बच। १०. नक- छिकनी। ११. छत्रक। कुकुरमुत्ता (को०)।

पटुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पटुवा १ और २'।

पटुक
संज्ञा पुं० [सं०] परवल।

पटुकल्प
वि० [सं०] कुछ कम पटु। जो पूर्ण कुशल या चालाक न हो। कामचलाऊदक्ष।

पटुका
संज्ञा पुं० [सं० पटिका] १. दे० 'पटका'। उ०—हरीचंद पिय मिले तो पग परि गहि पटुका समझाऊँ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पु० ४६३। २. चादर। गले में डालने का वस्त्र। उ०—कटि काछनि सिर मुकुट विराजत, काँधे परसोहै पटुका लहरिया।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४३५। ३. धारीदार चारखाना।

पटुकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कमरबंद। पटका। पटुका। उ०—कोउ नगधर वर पिय की गहि रहि परिकर पटुकी। जनु नवधन ते सरकि दामिनी छटा सु अटकी।—नंद० ग्रं०, पृ० २०।

पटुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पटु होने का भाव। प्रवीणता। निपुणता। होशियारी। २. चतुराई। चालाकी।

पटुतूलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक घास। लवणतृण।

पटुतृणक
संज्ञा पुं० [सं०] लवणतृण नाम की घास।

पटुत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक का एक पारिभाषिक शब्द जिससे तीन नमकों का बोध होता है—बिड़ नोन, सेंधा नोन और काला नोन।

पटुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पटुता।

पटुपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटे चेंच का पौधा।

पटुपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की कटेहरी।

पटुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की कटेहरी। सत्या- नाशी। कटेहरी। स्वर्णक्षीरी। भँड़भाँड़।

पटुमात्
संज्ञा पुं० [सं०] आंध्रवंश का एक राजा। किसी किसी पुराण में इसका नाम पटुमान् या पटुमायि मिलता है।

पटुरूप
वि० [सं०] अत्यंत चतुर [को०]।

पटुली
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्ट] १. काठ की पटरी जो झूलों के रस्सों पर रखी जाती हैं। तख्ता। पटल। उ०—दोऊ हाथन की हथेली ताकौ पटुली कौ भाव करे तामें श्रीठाकुर जी को डोल झुलाए।—दो सो बाबन०, भा० १, पृ० २२९। २. चौकी पीढ़ी। उ०—पटुली कनक की तिही बानक की बनी मनमोहनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५। ३. गाड़ी या छकड़े में जड़ा हुआ लंबा चिपटा डंडा।

पटुवा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पटवा'। उ०—पटुवन्ह चीर आनि सब छोरे। सारी कंचुकी लहुरि पटोरे।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४४।

पटुवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाट] १. पटसन। जूट। २. एक साग। करेमू।

पटुवा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पटला] गून के सिरे पर बँधा हुघा डंडा जिसको पकड़े हुए भाँझी लोग गून खींचते हैं।

पटुवा (४)
संज्ञा पुं० [देश०] तोता। शुक।

पटूका पु †
संज्ञा पुं० [सं० पट या देश०] दे० 'पटका'।

पटेबाज
संज्ञा पुं० [हिं० पटा + फा़० बाज] १. पटा खेलनेवाला। पटे से लड़नेवाला। पटैत। २. एक खिलौना जो हीलाने से पटा खेलता है। ३. छिनाल स्त्री। कुलटा परंतु चतुरा स्त्री (बाजारू)। ४. व्याभिचारी और धूर्त पुरुष (बाजारू)।

पटेर
संज्ञा स्त्री० [सं० पटेरक] पानी में होनेवाली सरकंडे की जाति की एक प्रकार की घास। गोंद पटेर। उ०—फटत पटेरहिं लागत बार। अस कछु कीनों नंदकुमार।—नंद ग्रं०, पृ० २५८। विशेष—इसके पत्ते प्रायः एक इंच चौड़े और पाँच फुट तक लंबे होते हैं। पत्ते बहुत मोटे होते हैं और पत्तों में ये नए पत्ते निकलते हैं। इन पत्तों से चटाइयाँ आदि बनाई जाती हैं। इसमें बाजरे की बाल की तरह बालें लगती हैं, जिनके दानों का आटा सिंध देश के दरिद्र निवासी खाते हैं। वैद्यक में यह कसैली, मधुर, शीतल, रक्तपित्तनाशक और मूत्र, शुक्र, रज तथा स्तनों के दूध को शुद्ध करनेवाली मानी जाती है। पर्या०—गुंद्रु। पटेरक। रच्छ्। शृंगवेराभमूलक।

पटेरा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'पटेला'। २. दे० 'पटैला'।

पटेला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पट्टा + (प्रत्य०) ऐल (= वाला)] १. गांव का नंबरदार (मध्यप्रदेश)। २. गाँव का मुखिया। गाँव का चौधरी। एक प्रकार की उपाधि। विशेष—यह उपाधि धारण करनेवाले प्रायः मध्य और दक्षिण भारत में होते हैं।

पटेल (सरदार)
संज्ञा पुं० स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री जिनका पूरा नाम वल्लभ भाई पटेल था।

पटेलना
क्रि० स० [हिं] दे० 'पटीलना'।

पटेला
संज्ञा पुं० [हिं० पाटला स्त्री० अल्पा० पटेली] १. वह नाव जिसका मध्य भाग पटा हो। बैल घोड़े आदि को ऐसी ही नाव पर पार उतारते हैं। २. एक घास जीसकी चटाइयाँ बनाते हैं। वि० दे० 'पटेर'। ३. हेंगा। ४. सिल। पटिया। ५. कुशती का पेच जिससे नीचे पड़े हुए जोड़ को चित किया जाता है। विशेष—इसमें बाएँ हाथ से जोड़ की गरदन पर कलाई जमाकर उसकी दाहिनी बगल पकड़ लेते और दाहिने हाथ से उसकी दाहिनी ओर का जाँघियाँ पकड़कर स्वयं पीछे हटते हुए उसे अपनी ओर खींचते हैं जिससे वह चित हो जाता है। †६. हाथ का कड़ा। पछेला। पछेली।

पटेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटेला] छोटी पटेला नाव।

पटेवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पटवा'। उ०—मोराहिरे अँगना पाकड़ी सुनु बालहिया। पटेवा आउस बास परम हरि बाल- हिया। पटेवा भइया हीत नीत सुन बालहिआ। चोलरि एक बिनि देहि परम हरी बालहिआ।—विद्यापति, पृ० १५४। विशेष—इस उदाहरण से ज्ञात होता है कि गहना गूँथने के साथ ये लोग वस्त्र (रेशमी) बुनने का व्यवसाय भी करते थे।

पटैत
संज्ञा पुं० [हिं० पटा + ऐत (प्रत्य०)] पटा खेलने या लड़नेवाला पटेबाज।

पटैला
संज्ञा पुं० [हिं० पटरा] १. लकड़ी का बना हुआ चिपटा डंडा जो किवाड़ों को बंद करने के लिये दो किवाड़ों के मध्य आड़े बल लगाया जाता है। इसे एक ओर सरकाने से किवाड़बंद होते और दूसरी ओर सरकाने से खुलते हैं। डंडा। ब्योंड़ा। २. दे० 'पटेला'। उ०—कोई पटैले पर बाँसों के ठाट ठाटे हैं।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ११३।

पटोटज
संज्ञा पुं० [सं० पट + उटज] १. तंबू। खेमा। २. कुकुरमुत्ता [को०]।

पटोर
संज्ञा पुं० [सं० पटोल] १. पटोल। २. कोई रेशमी कपड़ा। उ०—पुनि पट पीत पटीरन पोंछत, धरि आगे समुहाइ।— नंद० ग्रं०, पु० ३८९। ३. परवल।

पटोरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाट + ओरी (प्रत्य०)] १. रेशमी साड़ी या धोती। २. रेशमी किनारे की धोती। उ०—घासि चंदन इक चोली कीनी कंचुकि पहिरि पटोरी लीनी।— हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १९१।

पटोल पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो प्राचीन काल में गुजरात में बनता था। यौ०—पाटपटोल। उ०—दीन्हउ सोनउ सोलहउ पाट पटोला बीड़ा पान।—बी० रासो, पृ० ९। २. परवल की लता। मोथा औ पटोल दल आनी। त्रिफला औ त्रीकुटा समानी।—इंद्रा०, पृ० १५१। ३. परवल का फल।

पटोलक
संज्ञा पुं० [सं०] सीपी। शुक्ति। सुतही।

पटोलपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की पोई। २. परवल की लता का पत्र।

पटोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद फूल की तुरई या तरोई।

पटोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'पटोलिका'। २. पु चादर। पटौरी उ०—फाड़ि पटोली धुज करों कामलड़ी फहराय। जेहि जेहि भेषे पिय मिलै सोइ सोइ भेष कराय। कबीर सा० सं०, पृ० ४१।

पटोसिर पु
संज्ञा पुं० [सं० पट + हिं० सिर] पगड़ी। साफा। उ० उ०—धन धावन, बगपाँति पटोसिर बैरख तड़ित सोहाई।— तुलसी ग्रं०, पु० ४४१।

पटौनी
संज्ञा पुं० [देश०] माँझी। मल्लाह।

पटौहाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० पाटना+ औहा (प्रत्य०)] १. पटा हुआ स्थान। २. पटाव के नीचे का स्थान। ३. वह कमरा जिसके ऊपर कोई और कमरा हो। ४. पटबंधक।

पट्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीढ़ा। पाटा। २. पट्टी। तख्ती। लिखने की पटिया। ३. ताँबे आदि धातुओं की वह चिपटी पट्टी जिसपर राजकीय आज्ञा या दान आदि की सनद खोदी जाती थी। ४. किसी वस्तु का चिपटा या चौरस तल भाग। ५. शिला। पटिया। ६. घाव पर बाँधने का पतला कपड़ा। पट्टी। ७. वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है। पट्टा। ८. ढाल। ९. पगड़ी। १०. दुपट्टा। ११. नगर। चौराहा। १२. चतुष्पथ। १३. राजसिंहासन। यौ०—पट्टमहिषी। ४. रेशम। १५. लाल रेशमी पगड़ी। १६. पाट। पटसन। १७. लड़ाई का वह पहनावा या कवच जिससे केवल धड़ ढका रहे और दोनों बाहें खुली रहें (कोटि०)। १८. उत्तम और बारिक रंगीन वस्त्र (को०)।

पट (२)
वि० [सं०] मुख्य। प्रधान।

पट्ट (३)
वि० [देश०] दे० 'पट' २।

पट्ट (४)
[अनु०] दे० 'पट' १।

पट्टक
संज्ञा पुं० [?] १. लिखने की पट्टी या पटिया। तख्ती। २. ताम्रपट पर खुदी हुई राजाज्ञा या अन्य विषय। ४. दस्तावेज। इकारारनामा। ५. वह रेशमी वस्त्र जिसकी पगड़ी बनाई जाय। ६. घाव पर बाँधने की पट्टी। ७. पटका। कमरबंद।

पट्टकीट
संज्ञा पुं० [सं०] रेशम का कीड़ा [को०]।

पट्टज
संज्ञा पुं० [सं०] टसर का कपड़ा। रेशमी वस्त्र।

पट्टण
संज्ञा पुं० [सं० पत्तन] दे० 'पट्टन'। उ०—काया माँहै पट्टण गाँव, काया मांहै उत्तम ठाँव।—दादू० ६४५।

पट्टदेवी
संज्ञा पुं० [सं०] राजा की प्रधान रानी। पटरानी।

पट्टदोल
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपड़े का बना हुआ झूल या पलना।

पट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर। २. बड़ा नगर।

पट्टनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नगरी। पुरी। (को०)।

पट्टमहिषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटरानी। प्रधान रानी।

पट्टरंग
संज्ञा पुं० [सं० पट्टरङ्ग] पटंग। वक्मम।

पट्टरंजक
संज्ञा पुं० [सं० पट्टरञ्जक] दे० 'पट्टरंग'।

पट्टरंजन
संज्ञा पुं० [सं० पट्टरञ्जन] दे० 'पट्टरंग'।

पट्टरंजनक
संज्ञा पुं० [सं० पट्टरञ्जनक] दे० 'पट्टरंग'।

पट्टराज
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट] महाराष्ट्र के उन ब्राह्राणों की उपाधि जो पुजारी का काम करते हैं।

पट्टराज्ञी
संज्ञा पुं० [सं०] पटरानी।

पट्टला
संज्ञा पुं० [सं०] जमपद। जिला [को०]।

पट्टवस्त्र
वि० [सं०] रंगीन वस्त्र या रेशमी वस्त्र पहननेवाला [को०]।

पट्टवासा
वि० [सं० पट्टवासस्] दे० 'पट्टवस्त्र'।

पट्टशाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का प्राचीन पहनावा। २. रेशमी कपड़ा (को०)।

पट्टा
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट, पट्टक] १. किसी स्थावर स्थावर संपत्ति विशेषतः भूमि के उपयोग का अधिकारपत्र जो स्वामी की ओर से आसामी, किरायेदार या ठेकेदार को दिया जाय। विशेष—मालिक अपनी जायदाद जिस काम के लिये और जिन शर्तों पर देता है और जिनके विरुद्ध आचरण करने से उसे अपनी वस्तु वापस ले लेने का अधिकार होता है वे इसमें लिख दी जाती हैं। साथ ही उसकी संपत्ति से लाभ उठाने के बदले आसामी से वह वार्षीक या मासिक धन या लाभांशउसे देने की जो प्रतिज्ञा करता है उसका भी इसमें निदेंश कर दिया जाता है। पट्टा साधारणतः दो प्रकार का होता है—(१) मियादी या मुद्दती और (२) इस्तमरारी। मियादी पट्टे के द्बारा मालिक एक विशेष अवधि तक के लिये असामी को अपनी चीज से लाभ उठाने का अधिकार देता है और उस अवधि के बीत जाने पर उसे उसको (आसामी को) बेदखल कर देने का अधिकार होता है। इस्तमरारी, दवामी, या सर्वकालिक पट्टे से वह असामी को सदा के लिये अपनी वस्तु के उपभोग का आधिकार देता है। आसामी की इच्छा होने पर वह इस अधिकार को दूसरो के हाथ कीमत लेकर बेच भी सकता है। जमींदारी का अधिकार जिस पट्टे के द्बारा एक निर्दिष्ट काल तक के लिये दूसरे को दिया जाता हैं उसे ठेकेदारी या मुस्ताजिरी पट्टा कहते हैं। आसामी जिस पट्टे के द्वारा असल मालिक से प्राप्त अधिकार या उसका अंशविशेष दूसरे को देता है उसे शिकमी पट्टा कहते हैं। पट्टे की शर्तों का स्वीकृतिसूचक जो कागज असामी की ओर से लिखकर मालिक या जमींदार को दिया जाता है उसे कबूलियत कहते हैं। पट्टे पर मालिक के और कबुलियत पर आसामी के हस्ताक्षर या सही अवश्य होनी चाहिए। कि० प्र०—लिखना। २. कोई अधिकारपत्र। सनद। ३. चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है। मुहा०—पट्टा तोड़ना या तोड़ाना = कुत्ते या बिल्ली का अपने पालनेवाले के यहाँ से भागकर अन्यत्र चला जाना। ४. एक गहना जो चूड़ियों के बीच में पहना जाता है। ५. पीढ़ा। ६. कामदार जूतियों पर का वह कपड़ा जिसपर काम बना होता है। ७. घोड़े के मुँह पर का वह लंबा सफेद निशान जो नथुनों से लेकर मत्थे तक होता है। ८. घोड़ों के मस्तक पर पहनाने का एक गहना। ९.पुरुषों के सिर के बाल जो पीछे की ओर गिरे और बराबर कटे होते हैं। १०. चपरास। ११. वह वृत्ताकार पट्टी जिसमें चपरास टँकी रहती है। १३. कन्यापक्ष के नाई, धोबी, कहार आदि का वह नेग जो विवाह में वरपक्ष से उन्हें दीलवाया जाता है। क्रि० प्र०—चुकाना।—चुकवाना। विशेष—देहात के हिंदुओं में यह रीति है कि नाई, धोबी, कहार, भंगी आदि की मजदूरी में से उतना अंश नहीं देते जितना पड़ते से अविवाहिता कन्या के हिस्से पड़ता है। कन्या का विवाह हो जाने पर यह सारी रकम इकट्ठी कर के पिता से उन्हें दिलवाई जाती है। १५. महाराष्ट्र देश में काम में लाई जानेवाली एक प्रकार की तलवार।

पट्टाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण देश में बसनेवाले प्राचीन पंडितों की उपाधि।

पट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचिन देश।

पट्टारक
वि० [सं०] पट्टार में उत्पन्न।

पट्टाही
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटरानी।

पट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी तख्ती। पटिया। २. छोटा ताम्रपट या चित्रपट। ३. कपड़े को छोटी पट्टी। ४. एक बीत्ता लंबा कपड़ा। ५. रेशम का फीता। ६. पठानी लोध। ७. पट्टी। घाव आदि पर बाँधने की पट्टी (को०)। ८. दस्तावेज। इकरारनामा (को०)।

पट्टिकाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] पठानी लोध।

पट्टिकालोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पठानी लोध। पट्टिकाख्य।

पट्टिल
संज्ञा पुं० [सं०] पूतिकरंज। पलँग।

पट्टिलोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पठानी लोध।

पट्टिलोध्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पट्टिलोध्र'।

पट्टिश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्राचीन शास्त्र या खाँड़ा। विशेष—इसकी लंबाई की तीन मापें थीं। उत्तम ४ हाथ, मध्यम ३। हाथ और अधम ३ हाथ लंबा होता था। मुठिया के ऊपर चलानेवाले की कलाई के बचाव के लिये लोहे की एक जाली बनी होती थी। धार इसमें दोनों ओर होती थी। आजकल जिसे 'पटा' कहते हैं वह इससे केवल लंबाई में कम होता है और सब बातें दोनों में समान हैं।

पट्टिशी
संज्ञा पुं० [सं०] १. पट्टिश बाँधनेवाला। २. पट्टिश से लड़नेवाला।

पट्टिस
संज्ञा पुं० [सं०] पट्टिश। पट्टा।

पट्टी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पट्टिका] १. लकड़ी की वह लंबोतरी, चौरस और चिपटी पटरी जिसपर प्राचीन काल में विद्यार्थियों को पाठ दिया जाता था और अब आरंभिक छात्रों को लिखना सिखाया जाता है। पाटी। पटिया। तख्ती। मुहा०—पट्टी पढ़ना = गुरु से पाठ प्राप्त करना। सबक पढ़ना। पट्टी पढ़ाना = छात्र को पट्टी लिखकर पाठ देना। सबक पढ़ा देना। २. पाठ। सबक। जैसे,—मैने यह पट्ट नहीं पढ़ी है। क्रि० प्र०— पढ़ना।—पढ़ाना। ३. उपदेश। शिक्षा। सिखावान। जैसे,—(क) यह पट्टी तुम्हें किसने पढ़ाई थी ? (ख) आजकल तुम किसकी पट्टी पढ़ते हो जी ? ४. वह शिक्षा जो बुरी नियत से दी जाय। वह उपदेश जो उपदेशक स्वार्थसाधन के लिये दे। बहकानेवाली शिक्षा। बहकावा। भुलावा। चकमा। झाँसा। दम। जैसे,—तुम उनको जरा पट्टी पढ़ा देना, फिर मेरा काम बन जायगा। कि० प्र०—देना। —पढ़ाना। मुहा०—पट्टी में आना = किसी धूर्त के गुप्त अभिप्राय को न समझकर जो कुछ वह कहे उसे मान लेना। किसी के चकमे में आ जाना। किसी के दम में आ जाना। ५. लकड़ी की वह बल्ली जो खाट के ढाँचे की लंबाई में लगाई जाती है। पाटी। ६. धातु, कागज या कपड़े की धज्जी।क्रि० प्र०—उतारना।—काटना।—तराशना। ७. कपड़े की वह धज्जी जो घाव या अन्य किसी स्थान में बाँधी जाय। क्रि० प्र०—बाँधना। ८. पत्थर का पतला, चिपटा और लंबा टुकड़ा। ९. लकड़ी की लंबी बल्ली जो छत या छाजन के ठाठ में लगाई जाती है। १०. ठाठ की ओर की बल्लियों की पाँती। ११. सन की बुनी हुहँ धज्जियाँ जिनके जोड़ने से टाट तैयार होते हैं। १३. कपड़े की कोर या किनारी। १३. वह तख्ता जो नाव के बीचों बीच होता है। १४. एक प्रकार की मिठाई जिसमें चाशनी में अन्य चीजें जैसे चना, तिल आदि मिलाकर जमाते और फिर उसके चिपटे, पतले और चौकोर टुकड़े काट लिए जाते हैं। १५. सूती या ऊनी कपड़े की धज्जी जिसे सर्दी और थकावट से बचने के लिये टाँगों में बाँधते हैं। विशेष—यह चार पाँच अंगुल चौड़ी और प्रायः पाँच हाथ लंबी होती है। इसके एक सिरे पर मजबुत कपड़े की एक और पतली धज्जी टँकी रहती है जिससे लपेटने के बाद ऊपर की ओर कसकर बाँध देते हैं। अन्य लोग इसे केवल जाड़े में बाँधते हैं, पर सेना और पुलिस के सिपाहियों को इसे सभी ऋतु्ओं में बाँधना पड़ता है। १६. पंक्ति। पाँती। कतार। १७. माँग के दोनों ओर के कंघी से खूब बैठाए हुए बाल जो पट्टी से दीखाई पड़ते है। पाटी। पटीया। उ०—तेल औ पानी से पट्टी है सँवारी सिर पर। मुँह पँ माँझा दीये जल्लादो जरी आती है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ७९०। विशेष—पट्टी अच्छी तरह बैठाने के लिये कुछ स्त्रियाँ बालों में भिगोया हुआ गोंद, अलसी का लुआब अथवा तेल और पानी भी लगाती हैं। क्रि० प्र०—बैठाना।—सँवारना। मुहा०—पट्टी जमाना = माँग के दोनों ओर के बालों को गोंद या लुआब आदि की सहायता से इस प्रकार बैठाना कि वे सिर में बिलकुल चिपक जायँ और पट्टी से मालूम होने लगें। पट्टी बैठाना या सँवारना। १८. किसी वस्तु, विशेषतः किसी संपत्ति का, एक एक भाग। हिस्सा। भाग। विभाग। पत्ती। १९. ऐसी जमींदारी का एक भाग जो एक ही मूल पुरुष के उत्तराधिकारियों या उनके द्बारा नियत किए हुए व्यक्तियों की संयुक्त संपत्ति हो। किसी जंमींदारी का उतना भाग जो एक पट्टीदार के अधिकार में हो। पट्टीदारी का एक मुख्य भाग। थोक का एक भाग। हिस्सा। यौ०—पट्टीदार। पट्टीदारी। मुहा०—पट्टी का गाँव = पट्टीदारी गाँव। वह गाँव जिसके बहुत से मालिक हों और इस कारण उसमें सुप्रबंध का अभाव हो। उ०—पट्टी का गाँव और टट्टी का घर अच्छा नहीं होता। २०. वह अतिरिक्त कर जो जमींदार किसी विशेष प्रयोजन के निमित्त आवश्यक धन एकत्र करने के लिये असामियों पर लगाता है। नेग। अबवाब।

पट्टी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पट] घोड़े की वह दौड़ जिसने वह बहुत दूर तक सीधा दौड़ता चला जाय। लंबी और सीधी सरपट। जैसे,—घोड़े को पट्टी दो।

पट्टी (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पठानी लोध। २. एक शिरोभूषण। एक गहना जो पगड़ी में लगाया जाता है। ३. तलसारक। तोबड़ा। ४. घोड़े की तंग। †५. एक आभूषण। उ०— बाहों में बहु बहुटे, जोशन बाजूबंद, पट्टी बाँध सुषम, गहने ले गँवारियों के धन।—ग्राम्या, पृ० ४०।

पट्टीदार
संज्ञा पुं० [हिं० पट्टी + फ़ा० दार] १. वह व्यक्ति जिसका किसी संपत्ति में हिस्सा हो। वह जो किसी संपत्ति के अंश का स्वामी हो। हिस्सेदार। २. पट्टीदारी के मालिकों में से एक। संयुक्त संपत्ति के अंशविशेष का स्वामी। ३. वह व्यक्ति जिसे किसी संपत्ति में हिस्सा बँटाने का अधिकार हो। हिस्सा बँटाने के लिये झगड़ा करने का अधिकार रखनेवाला। ४. वह व्यक्ति जो किसी विषय में दूसरे के बराबर अधिकार रखता हो। वह व्यक्ति जिसकी राय की उपेक्षा न की जा सकती हो। बराबर का अधिकारी। समान अधिकारयुक्त। जैसे,—क्या आप कोई मेरे पट्टीदार हैं कि जो मैं करूँ वह आप भी करें।

पट्टीदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पट्टीदार] १. पट्टी होने का भाव। बहुत से हिस्से होना। किसी वस्तु का अनेक की संपत्ति होना। जैसे,—इस गाँव में तो खासी पट्टीदारी है। २. पट्टीदार होने का भाव। बराबर अधिकार रखने का भाव। हिस्सेदारी। मुहा०—पट्टीदारी अटकना = ऐसा झगड़ा उपस्थित होना जिसका कारण पट्टी हो। पट्टीदारी विषयक या पट्टीदारी के कारण कोई झगड़ा खड़ा होना। पट्टीदारी के कारण विरोध होना। जैसे,—मेरे अपके कोई पट्टीदारी थोड़े ही अटकी है। पट्टीदारी करना = (१) किसी के बराबर अधीकार जताना। पट्टीदार होने के कारण किसी के काम में रुकावट करना। पट्टीदारी के बल पर किसी का विरोध करना। पट्टीदारी के हक पर अड़ना। जैसे,—आप तो बात बात में पट्टीदारी करते हैं। (२) बराबरी करना। जो कोई एक करे उसे आप भी करना। ३. वह जमींदारी जो एक ही मूल पुरुष के उत्तराधिकारियों या उनके नियत किए हुए व्यक्तियों की संयुक्त हो। वह जमींदारी जिसके बहुत से मालिक होने पर भी जो अविभक्त संपत्ति समझी जाती हो। भाई चारा। विशेष—पट्टीदारी जमींदारी में अनेक विभाग और उपविभाग होते हैं। प्रधान विभाग को 'थोक' और उसके अंतर्गत उपविभागों को 'पट्टी' कहते हैं। प्रत्येक पट्टी का मालिक अपने हिस्से की जमीन की स्वतंत्र व्यवस्था करता है और सरकारी कर देता है। पर किसी एक पट्टी में मालगुजारी बाकी रहजाने पर वह सारी जायदाद से वसुल की जा सकती है। प्रायः प्रत्येक थोक में एक एक 'लंबरदार' होता है। जिस पट्टीदारी की सारी जमीन हीस्सेदारों में बँट गई हो उसे मुकम्मल या पूर्ण पट्टीदारी और जिसमें कुछ जमीन तो उनमें बाँट दी गई हो पर कुछ सरकारी कर और गाँव की व्यवस्था का खर्च देने के लिये साझे में ही अलग कर ली गई हो उसे नामुकम्मल या अपूर्ण पट्टीदारी कहते हैं। नामुकम्मल पट्टीदारी में जब कभी अलग की हुई जमीन का मुनाफा सरकारी कर देने के लिये पूरा नहीं पड़ता तब पट्टीदारों पर अस्थायी कर लगाकर वह पूरा किया जाता है।

पट्टीवार (१)
क्रि० वि० [हिं० पट्टी + फ़ा० वार] प्रत्येक पट्टी का अलग अलग। पट्टी के भेद के अनुसार या साथ। इस प्रकार जिसमें हर पट्टी का हिसाब अलग अलग आ जाय। जैसे, मुझे एक पट्टीवार जमाबंदी तैयार कराना है।

पट्टीवार (२)
वि० (वही) जिसमें प्रत्येक पट्टी का हाल या हिसाब अलग अलग हो। (बही या लेख) जो पट्टी के भेद को ध्यान में रखकर तैयार किया गया हो। जैसे,—(क) पट्टीवार खतौनी या जमाबंदी। (ख) पट्टीवार वासिल बाकी।

पट्टीश, पट्टीस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पट्टिश' [को०]।

पट्टू (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पट्टी] १. एक ऊनी वस्त्र जो पट्टी के रूप में बुना जाता है। काश्मीर, अल्मोड़ा आदि पहाड़ी प्रदेशों में यह बनता है। यह खूब गरम होता है पर ऊन इसका कड़ा और मोटा होता है। उ०—डाकुओं ने सत्तू और पट्टु (ऊनी चादर) दखकर उसे छोड़ दिया।—किन्नर०, पृ० १०५। २. एक प्रकार का चारखाना जिसमें धारियाँ होती हैं।

पट्टू (२)
संज्ञा पुं० [देश०] सुवा। तोता। शुक।

पट्टेदार
वि० [हिं० पट्टी + दार] सँवारे सजाए हुए (बाल)। पट्टी से युक्त। पट्टी काट कर सजाए हुए। उ०—पटुदार बालों पर तेल से भरी पुरानी काली टोपी, कुटिलता से भरी गोल गोल आँखे किसी विकट भविष्य की सूचना दे रही थीं।—तितली पृ० ११८।

पट्टेपछाड़
संज्ञा पुं० [हिं० पट + पछाड़ना] कुशती का एक पेंच। विशेष—यह पेंच अस समय चित्त करने के लिये काम में लाया जाता है जिस समय जोड़ कुहनियाँ टेककर पट पड़ा हो ओर इस कारण उसे चित्त करने में कठिनाई पड़ती हो। इसमें इसके एक हाथ पर जोर से थाप मारी जाती है ओर साथ ही उसकी जाँध को इस जोर से सोंचा जाता है कि बह उलटकर चित हो जाता है। यादि थाप दाहिने हाथ पर मारी जाय तो बाईं जाँघऔर यदि बाएँ हाथ पर मारी जाय तो दाहीनी जाँध खोंचनी पड़ेगी।

पट्टीबैठक
संज्ञा पुं० [हिं० पट + बैठक] कुश्ती क एक पेंच जिसमें जोड़ का एक हाथ अपनी जाँधों में दबाकर ओर अपना एक हाथ उसकी जाँधों में ड़ालकर अपनी छाती का बल देने हुए उसे चित फेंक दिया जाता है।

पट्टैत (१)
संज्ञा पुं० [हि० पटैत] १. पटैत। २. बेवकुफ।

पट्टैत (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पट्टा + ऐत (प्रत्य०)] वह कबूतर जो बिलकुल लाल, काला या नीला हो और जिसके गले में सफेद कंठा हो।

पट्ठमान पु
वि० [सं० पट्यमान] पढ़ने योग्य। जिसका पढ़ना उचित हो। उ०—अपट्ठमान पाएग्रंथ पट्ठमान वेद वै।— केशव (शब्द०)।

पट्ठा
संज्ञा पुं० [सं० पुष्ट, प्रा० पुट्ठ] [स्त्री० पठिया] १. जवान। तरुण। पाठा। यौ०—जवान पट्ठा। २. मनुष्य, पशु आदि चर जीवों का वह बच्चा जिसमें यौवन का आगमन हो चुका हो पर पूर्णता न आई हो। नवयुवक। उदंत। जैसे,—अमी तो वह बिलकुल पट्ठा है। विशेष—चौपायों में घोड़े. पक्षियों में कबूतर, उल्लू और मुर्ग तथा सरीसृपों में साँप के यौवनोन्मुख बच्चे को पट्ठा कहते हैं। ३. कुशतीबाज। लड़का। जैसे,—उस पहलवान ने बहुत से पट्ठे तैयार किए हैं। ४. ऐसा पत्ता जो लंबा, दलदार या मोटा हो। जैसे, घीकुवार या तंबाकू का पट्ठा। ५. वे तंतु जो मांसपेशियों को परस्पर और हड़ियों के साथ बाँधे रहते हैं। मोटी नस। स्नायु। मुहा०—पट्ठा चढ़ना = किसी नस का तन जाना। नस पर नस चढ़ना। पट्ठों में घुसना = गहरी दोस्ती पैदा करना। अंत रंग बनना। ६. एक प्रकार का चोड़ा गोटा जो सुनहला और रुपहला दोनों प्रकार का होता है। उ०—झूठे पट्ठे की है मूबाफ पड़ी चोटी में। देखते ही जिसे आँखों में तरी आती है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९०। ७. अतलस, सासनलेट आदि की पट्ठी पर बेल बुनकर बनाई हुई गोट। ८. पेड़ू के नीचे कमर और जाँघ के जोड़ का वह स्थान जहाँ छूने से गिल्टियाँ मालूम होती हैं।

पट्ठापछाड़
वि० [हिं० पट्ठा + पछाड़ना] इतनी बलवती (स्त्री) जो पुरुष को पछाड़ दे। खूब हृष्टपृष्ट और बलवती (स्त्री)। जैसे,—वह तो खासी पट्ठे पछाड़ औरत है।

पट्ठी
संज्ञा पुं० [हिं० पट्ठा] दे० 'पठिया'।

पठंगा †
संज्ञा पुं० [देश०] अवलंब। आश्रय। सहारा। उ०— तीन लोक रिसियाय सकल सुरनर और नारि। मोर न बाँकै बार पठंगा पावा भारी।—पलटू०, भा० १, पृ० ५।

पठंत
वि० [सं० पठन] जिसमें पर रचित और कंठस्थी कृत काव्य आदि का पाठ हो। उ०—पठंत कविसंमेलन आदि की सहायता से छात्रों को काव्य पढ़ने और कविता कंठस्थ करने के लिये प्रोत्साहित और प्रेरित किया जा सकता है।—भाषा शि०, पृ० ९६।

पठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाठ] वह जवान बकरी जो ब्याई न हो। पाठ।

पठक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पढ़नेवाला। पाठ करनेवाला।

पठक (२)
संज्ञा पुं० [सं० पट्टकृत्] तहसील। तालुका। उ०—भुक्तियाँ अथवा प्रदेश कई विषयों (जिलों) में बँटे रहते थे, और ये विषय फिर कई पठकों (तहसील अथवा तालुकों) में विभा- जित थे।—आदि०, पृ० ४४५। यौ०—पठकपति = तहसीलदार। तालुकेदार। उ०—विषयों के मुख्य अधिकारी विषयपति तथा पठकों के पठकपति कहलाते थे।—आदि०, पृ० ४४५।

पठन
संज्ञा पुं० [सं०] पढ़ने की क्रिया। पढ़ना। यौ०—पठन पाठन = पढ़ना। पढ़ाना।

पठनीय
वि० [सं०] पढ़ने योग्य।

पठनेटा
संज्ञा पुं० [हिं० पठान + एटा(= बेटा) (प्रत्य०)] पठान का लड़का। वह जो पठान जाति में उत्पन्न हुआ हो। उ०—परे रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं।—भूषण (शब्द०)।

पठमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पठमञ्जरी] श्री राग की चौथी रागिनी। इसका गान समय एक पहर दिन के बाद है। विशेष—दे० 'पटमंजरी'।

पठरा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पटरा'। उ०—जहाँपर रेतकर लोहदंड को तितर बितर किया था—उस स्थान पर पठरे उग पड़े।—कबीर मं०, पृ० २४५।

पठवन †
वि० [प्रा० पट्ठवण] पठाया हुआ। प्रेषित। यौ०—अठवन पठवन † = स्थानिक और भेजा या पठाया हुआ प्रेत आदि। उ०—सतगुरु शब्द सहाई। निकट गए तन रोग न ब्यापै पाप ताप मिट जाई। अठवन पठवन दीठ न लागै उलटे तेहिं धर खाई।—कबीर श०, भा० २, पृ० २८।

पठवना †
क्रि० स० [सं० प्रस्थान] भेजना। रवाना करना।

पठवाना पु
क्रि० स० [हिं० पठाना का प्रे० रूप] भेजवाना। भेजने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को भेजने में प्रवुत्त करना।

पठान (१)
संज्ञा पुं० [पश्तो पुख्ताना] एक मुसलमान जाति जो अफगानिस्तान के अधिकांश और भारत के सीमांत प्रदेश, पंजाब तथा रुहेलखंड आदि में बसति है। इस जाति के लोग कट्टर, कूर, हिंसाप्रिय और स्वाधीनताप्रिय होते हैं। विशेष—यह जाति अनेक संप्रदायों और शाखाओं में विभक्त है जिनमें से प्रत्येक के नाम के साथ वंश या संप्रदाय का सूचक 'खेल', 'जई' आदि' कोई न कोई शब्द लगा रहता है। जैसे, जक्का खेल; गिलजई आदि। प्रत्येक संप्रदाय में एक सरदार होता है जिसको 'मलिक' कहते हैं। सीमांत प्रदेश के पठानों में यही सरदार शासक होता है। सीमांत प्रदेश के पठान प्रायः असभ्य हैं। आखेट, चोरी और डकैती ही उनकी जीविका के साधन हैं। अफगानिस्तान के पठान अपेक्षाकृत सभ्य हैं। भारत के पठान उपर्युक्त दोनों ही स्थानों के पठानों से अधिक सभ्य हैं और प्रायः खेती या नौकरी करके अपनी जीविका चलाते हैं। धर्म की अपेक्षा रूढ़ी और सम्यता की अपेक्षा स्वाधीनता पठानों को अधिक प्रिय है। नीति अनीति का वे बहुत कम विचार करते हैं। पठान प्रायः लंबे चौड़े, डील डौलवाले, गोरे और क्रूराकृति होते हैं। जातिबंधन इनमें विशेष दृढ़ है। एक संप्रदाय के पठान का दूसरे में ब्याह नहीं हो सकता। स्त्रियों को सतीत्वरक्षा का इन्हें बहुत ज्यादा ख्याल रहता है। इनके आपस के अधिकांश झगड़े स्त्रियों ही के लिये होते हैं। इनके उत्तराधिकार आदि के झगड़े कुरान के अनुसार नहीं, वरन् रूढ़ियों के अनुसार फैसल होते हैं, जो भिन्न भिन्न संप्रदायों में भिन्न भिन्न हैं। पठानों का प्राचीन इतिहास अनिश्चयात्मक है। पर इसमें कोई संदेह नही कि अधिकांश उन हिंदुओं के वंशज हैं जो गांधार, कांबोज, वाह्लीक आदि में रहते थे। फारस के मुसलमान होने के बाद इन स्थानों के निवासी क्रमशः मुसलमान हुए। इनमें से अधिकांश राजपूत क्षत्रिय थे। परमार आदि बहुत से राजपूत वंश अपनी कई शाखाओं को सिंधपार बसनेवाले पठानें में बतलाते हैं। पुर्वज कहाँ से आए और कौन थे, इस विषय में कोई कल्पना अधिक साधार नहीं है। इनकी भाषा 'पश्तो' आर्य प्राकृत ही से निकली है। पीछे तुर्क और यहूदी जातियाँ भी अफगनिस्तान में आकार बस गई और पुराने पठानों से इस प्रकार हील मिल गई कि अब किसी पठान का वंश निश्चय करना प्रायः असंभव हो गया है। पठान शब्द की व्युत्पत्ति भी अनिश्चयात्मक है। इस विषय में अधिक ग्राह्वा कल्पना यह है कि पहले पहल अफगानिस्तान के 'पुख्ताना' स्थान में बसने के कारण इस जाति को 'पुख्तून' और इसकी भाषा को 'पुख्तू' कहते थे। फिर क्रमशः जाति को पठान और भाषा को पश्तो कहने लगे।

पठान (२)
संज्ञा पुं० [?] जहाज या नाव का पेंदा। (लश०)।

पठाना पु
क्रि० स० [सं० प्रस्थान, प्रा० पटठान] भेजना।

पठानिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पठान + इन (प्रत्य०)] दे० 'पठानी'।

पठानी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पठान] १. पठान जाति की स्त्री। पठान स्त्री। २. पठान होने का भाव। ३. पठान जाति की चरित्रगत विशेषता। क्रूरता, शूरता, रक्तपातप्रियता आदि पठानों के गुण। पठानपन।

पठानी (२)
वि० [हिं० पठान] १. पठानों का। जैसे, पठानी राज्य। २. जिसका पठान या पठानों से संबंध हो। पठानों से संबंध रखनेवाला।

पठानीलोध
संज्ञा पुं० [सं० पट्ठिकालोध्र] एक जंगली वृक्ष जिसकी लकड़ी और फूल औषध के और पत्तियाँ और छाल रंग बनाने के काम में आती हैं। विशेष—यह उगाया या रोपा नहीं जाता, केवल जंगली रूप में पाया जाता है। इसकी छाल को उबालने से एक प्रकार का पीला रंग निकलता है जो कपड़ा रँगने के काम में लाया जाता है। बिजनौर, कुमाऊँ और गढ़बाल के जंगलों में इसके वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं। चमड़े पर रंग पक्का करने और अबीर बनाने में भी इसकी छाल का उपयोग किया जाता है। लोध के दो भेद होते हैं।एक को 'पठानी लोध' और दुसरे को केवल 'लोध' कहते है। औषध के काम में 'पठानी लोध' ही अधिक आता है। दोनों लोधों को वैद्यक में कसैला, शीतल, वातकफनाशक, नेत्रहितकारी, रुधिर और विष के विकारों का नाशक कहा है। लोध का फूल कसैला, मधुर, शीतल, कड़ुवा, ग्राहक और कफ- पित्तनाशक माना गया हैं। पर्या०—पट्टिकालोध्र। क्रमुक। स्थूलवल्कल। जीर्णपत्र। बृहत्पत्र। पट्टी। लाद्राप्रसादन। पट्टीकाख्य। पट्टीलोध्र। पट्टिका। पट्टिलोध्रक। वल्कलोध्र।, बृहद्दल। जीर्णबुध्न। बृहदुल्क। शीर्णपत्र। आद्राप्रसाद। वल्क।

पठार (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पहाड़ी जाति।

पठार (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्तार] ऊँचा और लंबा चौड़ा मैदान जिसके नीचे का भाग ढालवाँ होता है। उ०—तिसरा भाग दक्षिण का पठार कहलाता है। यहाँ पुराने समय से ही विभिन्न शासक राज्य करते थे।—पू० म० भा०, पृ० ६।

पठावन †
संज्ञा पुं० [हिं० पठावा] वह जो किसी के भेजने से कहीं जाय। वह मनुष्य जो किसी का भेजा हुआ कहीं गया या आया हो। दूत। संदेशवाहक।

पठावनि, पठावनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पठाना] १. किसी को कहीं भेजने का भाव। किसी को कहीं कोई वस्तु या संदेश पहुँचाने के लिये भेजना। २. किसी के भेजने से कहीं जाने का भाव। किसी के भेजने से कहीं कुछ लेकर जाना। ३. भेजने या पहुँचाने की मजुदूरी। उ०—तेई पाय़ँ पाइकै चढ़ाइ नाल धोए बिनु ख्वैहों न पठावनी कै ह्लाँहौं न हँसाइ कै।—तुलसी (शब्द०)।

पठावर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास।

पठि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पढ़ने की क्रीया। पठन। पढ़ना। अध्य- यन [को०]।

पठित
वि० [सं०] १. पढ़ा हुआ (ग्रंथ)। जिसे पढ़ जुके हों। अघीत। २. जिसने पढ़ा हो। पढ़ा लिखा। शिक्षित। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार कुछ लोग करते हैं। जैसे, पठित समाज। परंतु वास्तव में यह ठीक नहीं है।

पठियर †
संज्ञा पुं० [हिं० पाट] वह बल्ली या पटिया जो कुएँ के मुँह पर बीचोबीच या किसी एक ओर इसलिये रख दी जाती है कि पानी निकालनेवाला उसी पर पैर रखकर पानी नीकाले। इसपर खड़े होकर पानी नीकालने से घड़े के कुएँ की दीवार से टकराने का भय नहीं रहता।

पठिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पट्ठा + इया (स्त्रीबोधक प्रत्य०)] यौवनप्राप्त स्त्री। युवती और ह्रष्टपुष्ट स्त्री। जवान और तगड़ी स्त्री। युवती मादा।

पठोर
संज्ञा स्त्री० [हिं० पट्ठा + ओर (प्रत्य०)] १. जवान पर बिना ब्याई। २. जवान पर बिना ब्याई मुर्गी।

पठौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पठाना + औनी (प्रत्य०)] १. किसी को कुछ देकर कहीं भेजने की क्रीया या भाव। कोई वस्तु या संदेश पहुँचाने के लिये कहीं भेजना। उ०—खेल ले नैहरवाँ दिन चार। पहिली पठौनी तीन जने आए नौवा बाम्हन बार।—कबीर श०, भा० १, पृ० ४। क्रि० प्र०— भेजना। २. किसी की कोई चीज लेकर कहीं जाने की क्रीया या भाव। किसी के भेजने से कहीं जाना। क्रि० प्र०—आना।—जाना।

पठ्य
वि० [सं० पाठ्य] दे० 'पाठ्य'।

पठ्यमान पु
वि० [सं० पाठ्य + मान(प्रत्य०)] पढ़ा जाने के योग्य। सुपाठय।

पड़कुलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] पंडुक पक्षी। पेडुकी। उ०—चीड़ों की उध्वँग भुजाएँ भटका सा पड़कुलिया का स्वर।— इत्यलम्, पृ० ९९।

पड़छती
संज्ञा पुं० [सं० पटच्छदि] १. वह छौटा छप्पर या टट्टी जिसे बरसात के आरंभ में कच्ची दीवार पर इसलिये लगा देते हैं कि बौछार से वह कट न जाय। भीत की रक्षा के लिये लगाया जानेवाला छप्पर या टट्टी। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। २. कमरे शादि के बीच में लकड़ी के खंभो पर या दो दीवारों के बीच में तख्ते या लट्ठे आदि ठहराकर बनाई हुई पाटन जिसपर चिज असबाब रखते हैं। टाँड़।

पड़छत्ती
संज्ञा पुं० [सं० पटच्छदि] दे० 'पड़छती'।

पड़त पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ना] दे० 'पड़ता'।

पड़ता
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ना] १. किसी वस्तु की खरीद या तैयारी का दाम। किसी माल को खरीदने, तैयार कराने या लाने आदि में पड़ा हुआ खर्च। लागत। सर्फे की कीमत। मुहा०—पड़ता खाना या पड़ना = लगत और अभीष्ट लाभ मिल जाना। खर्च और मुनाफा निकल जाना। जैसे—(क) आपके साथ सौदा करने में हमारा पड़ता नहीं खायगा। (ख) इतने पर इस वस्तु के बेचने में हमारा पड़ता नहीं खाता। पड़ता फैलाना = किसी चीज को तैयार करने, खरीदने और मँगाने आदि में जो खर्च पड़ा हो उसे देखते हुए उसका भाव निशिचत करना। वस्तु की संख्या और उसके प्राप्त करने में पड़े हुए खर्च की रकम देखते हुए एक एक वस्तु का मूल्य मालूम करना। पड़ता निकालना या बैठाना = दे० 'पड़ता फँलाना'। ३. दर। शरह। ३. भूकर की दर। लगान की शरह। ४. सामान्य दर। औसत। सरदर शरह। एक एक वस्तु या एक एक निशिचत काल का मूल्य या आमदनी जो सब वस्तुओं के मूल्य या पूरे काल में वस्तु की संख्या या कालविभाग की संख्या को भाग देने से निकले। जैसे,—कलकत्ते में आपकी आय का कया पड़ता है। मुहा०—पड़ता रहना = औसत होना।

पड़ताल
संज्ञा स्त्री० [सं० परितोलन] १. पड़तालना क्रिया का भाव। किसी वस्तु की सूक्ष्म छानबीन। भली भाँति जाँच या देख भाल। गौर के साथ किसी चीज की जाँच। अन्वीक्षण। अनुसंधान। क्रि० प्र०—करना।—होना। विशेष—इस अर्थ में यह शब्द प्रायः 'जाँच' के साथ यौगिक रूप में बोला जाता है, अकेले क्वचित् प्रयुक्त होता है। जैसे,— वे हिसाब की जाँच पड़ताल करने आए थे। ३. गाँव अथवा नहर के पटवारी द्बारा खेतों की एक विशेष प्रकार की जाँच। विशेष—यह जाँच खरीफ, रबी और फस्ल जायद नामक तीनों कालों के लिये अलग अलग तीन बार होती है। खेत में कौन सी चीज बोई गई है, किसने बोई है, खेत सींचा गया है या नहीं, सींचा गया है तो कहाँ से जल लाकार सींचा गया है, आदि बातें इस जाँच में लिखी जाती हैं। गाँव का पटवारी प्रत्येक पड़ताल के बाद जिंसवार एक नकशा बनाता है। इस नकशे से माल के अधिकारियों को यह मालूम होता है कि इस वर्ष कोन सी चीज कितने बीघे बोई गई है, उसकी क्या अवस्था है और वह कितनी उपजेगी, आदि। ३. मार। (क्व०)। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग बहुधा बालकों को ही मारने पिटने के संबंध में होता है।

पड़तालना
क्रि० स० [हिं० पड़ताल + ना (प्रत्य०)] पड़ताल करना। जाँचना। अनुसंधान करना। छान बीन करना।

पड़ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ना] बिना जुती हुई भूमि। पड़ी हुई जमीन। भूमि जिसपर कुछ काल से खेती न की गई हो। विशेष—माल के कागजात में पड़ती के दो भेद किए जाते हैं— पड़ती जदीद और पड़ती कदीम। जो भूमि केवल एक साल से न जोती बोई गई हो उसको पड़ती जदीद और जो एक से अधिक सालों से न जोती बोई गई हो उसको पड़ती कदीम मानते हैं। क्रि० प्र०—छोड़ना।—पड़ना।—रखना। मुहा०—पड़ती उठना = (१) पड़ती का जोता जाना। पड़ती पर खेती होना। जैसे,—यह पड़ती बहुत दीनों पर उठी है। (२) पड़ती के जोते जाने का प्रबंध होना। पड़ती खेत का बंदोबस्त हो जाना। जैसे,—इस साल हमारी बहुत सी पड़ती उठ गई। पड़ती उठाना = (१) पड़ती को जोतना। पड़ती पर खेती आरंभ करना। जमींदार का इस आशा पर किसी पड़ती को खेती के योग्य बनाना और उसपर खेती आरंभ करना कि दो एक साल के बाद कोई असामी उसे ले लेगा। जैसे,—इस साल मैंने अपनी बहुत सी पड़ती उठाई है। (२) पड़ती का बंदोबस्त कर देना। पड़ती को लगान पर काश्तकार को देना। पड़ती छोड़ना = किसी खेत को कुछ समय तक यों ही छोड़ना, उसे जोतना बोना नहीं जिसमें उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ जाय। जैसे,—इस साल इस गाँव में बहुत सी जमीन पड़ती छोड़ी गई है।

पड़दक्षिणा †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रदक्षिण] दे० 'प्रदक्षिणा'। उ०—दे पड़दक्षिणा चढ़े अकाश। पारस परसु मिले प्रभ तास।— प्राण०, पृ० १६८।

पड़दार †
वि० [सं० प्रतिहार या देश०] सुनहली छड़ीबाले चोबदार। छड़ीदार। आसा बरदार। उ०—अत मिलताँ आदर अदब, करै कमँध विण पार। सेव खड़ा गिण देवसम, गुरजदार पड़दार।—रा० रू०, पृ० १०९।

पड़द्दा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परदा'। उ०—पड़द्दा जरी बाफतं कै बनाए। ध्वजा तोरणं सर्व कै गेइ छाए।—ह० रासो, पृ० १६।

पड़ना
क्रि० अ० [सं० पतन, प्रा० पड़न] एक स्थान से गिरकर, उछलकर अथवा और किसी प्रकार दूसरे स्थान पर पहुँचना या स्थित होना। कहीं से चलकर कहीं, प्रायः ऊँचे स्थान से नीचे आना। गिरना। पतित होना। जैसे,—जमीन पर पानी या ओला पड़ना, सिर पर पत्थर पड़ना, चिराग पर हाथ पड़ना, साँप पर निगाह पड़ना, कान में आवाज पड़ना, कुरते पर छींटा पड़ना, बिसात पर पासा पड़ना आदि। संयो० क्रि०—जाना। विशेष—'गिरना' और पड़ना के अर्थो में यह अंतर है कि पहली क्रिया का विशेष लक्ष्य गति व्यापार पर और दूसरी का प्राप्ति या स्थिति पर होता है। अर्थात् पहली क्रिया वस्तु का किसी स्थान से चलना या रवाना होना और दूसरी क्रिया किसी स्थान पर पहुँचना या ठहरना सूचित करती है। जैसे— पहाड़ के पत्थर गिरना और सिर पर पत्थर पड़ना। २.(कोई दुःखद घटना) घटित होना। अनिष्ट या अवांछ- नीय वस्तु या अवस्था प्राप्त होना। जैसे, डाका पड़ना, अकाल पड़ना, मुसीबत पड़ना, ईश्वरीय कोप पड़ना, इत्यादि। मुहा०—(किसी पर) पड़ना = विपत्ति या मुसीबत आना। संकट या कठिनाई प्राप्त होना। जैसे—(क) जैसी मुझ पर पड़ी इश्वर वैसी किसी पर न डाले। (ख) जिसपर पड़ती है वही जानता है। ३. बिछाया जाना। फैलाया जाना। रखा जाना। डाला जाना। जैसे, दीवार पर छप्पर पड़ना, जनवासे में विस्तर या भोज में पत्तल पड़ना। ४. छोड़ा या डाला जाना। पहुँचना या पहुँचाया जाना। दाखिल होना। प्रविष्ट होना। जैसे , पेट में रोटी पड़ना, दाल में नमक पड़ना, कान में शब्द या आँख में तिनका पड़ना, दूध में पानी पड़ना, किसी के घर में पड़ना (= ब्याही जाना), फेर में पड़ना, इत्यादि। संयो० क्रि०—जाना। ५. बीच में आना या जाना। हस्तक्षेप करना। दखल देना।जैसे,—तुम चाहे जो करो, हम तुम्हारे मामले में नहीं पड़ते। ६. ठहरना। टिकना। विश्राम करने या रात बिताने के लिये अवस्थानं करना। डेरा डालना। पड़ाव करना (बरात या सेना के लिये बोलते हैं)। जैसे,—आज बरात कहाँ पड़ेगी ? मुहा०—पड़ा होना = (१) एक स्थान में कुछ समय तक स्थित रहना। एक ही जगह पर बने रहना। जैसे,—(क) वे तिन रोज तक तो वहीं पड़े हुए थे, आज गए हैं। (ख) वह दस रुपए महीने पर बरसों से पड़ा है (२) एक ही अवस्था में रहना। रखा रहना। धरा रहना। अव्यबह्वत रहना। जैसे,—यह किताब तुम्हारे पास एक महीने से पड़ी है, पर शायद तुमने एक पन्ना भी न उलटा होगा। (३) बाकी रहना। शेष रहना। जैसे,—(क) सारी किताब पढ़ने को पड़ी है। (ख) अभी ऐसे सैकड़ों लोग पड़े होंगे जिनके कानों में यह शुभ संदेश नहीं पड़ा। ७. विश्राम के लिये सोना या लेटना। कल लेना। आराम करना। जैसे,—थोड़ी देर पड़े रहो तो तबीअत हलकी हो जायगी। संयो० क्रि०—जाना।—रहना। मुहा०—पड़े रहना या पड़ा रहना = बराबर लेटे रहना। बिना कुछ काम किए लेटे रहना। लेटकर बेकारी काटना। निकम्मा रहना। जैसे,—दिन भर पड़े रहते हो, क्या तुम्हारी तबीअत भी नहीं घबराति ? ८. बीमार होना। खाट पर पड़ना। जैसे,—(क) अबकी तुम किस बुरी साइत में पड़े कि अबतक न उठे। (ख) मैं तो आज चार रोज से पड़ा हूँ, तुमने कल बाजार में मुझे कैसे देखा ? संयो० क्रि०—जाना।—रहना। ९. मिलना। प्राप्त होना। जैसे,—तुम यह किताब लोगे, तभी तुम्हें चैन पड़ेगा। संयो० क्रि०—जाना। १०. पड़ता खाना। जैसे,—(क) चार आने में नहीं पड़ता, नहीं तो बेच न देता। (ख) हमें वह आलमारी १२) में पड़ी है। (ग) इकट्ठा सौदा सस्ता पड़ता है। सं० क्रि०—जाना। ११. आय, प्राप्ति आदि का औसत होना। पड़ता होना। जैसे—यहाँ मुझे एक रुपए रोज से अधिक नहीं पड़ता। सं० क्रि०—जाना। १२. रास्ते में मिलना। मार्ग में मिलना। जैसे—(क) तुम्हारे रास्ते में चार नदियाँ और पाँच पड़ाव पड़ेंगे। (ख) घर से निकलते ही काना पड़ा, देखें कुशल से पहुँचते हैं या नहीं। १३. उत्पन्न होना। पैदा होना। जैसे,—बाल में दाने पड़ना। फल में कीड़े पड़ना। १४. स्थित होना। जैसे— (क) बगीचे में डेरा पड़ा है। (ख) इस कुंडली के सातवें घर में मंगल पड़ा है। १५. संयोगदश होना। उपस्थित होना। प्रसंग में आना। जैसे, बात पड़ना, मौका पड़ना, साथ पड़ना, काम पड़ना, पाला पड़ना, साबिका पड़ना, इत्यादि। जैसे,—जब कभी बात पड़ती है वे तुम्हारी तारीफ ही करते हैं। विशेष—जिन जिन स्थलों में 'होना' क्रीया बोली जाती है उनमें से बहुत से स्थलों में 'पड़ना' का भी प्रयोग हो सकता है। 'पड़ना' के प्रयोग में विशेषता यही होती है कि इससे व्यापार का अधिक संयोगवश होना प्रकट होता है। 'साथ हुआ' और 'साथ पड़ा' में से पिछला क्रियाप्रयोग व्यापार में संयोग का भाव सूचित करता है। १६. जाँच या विचार करने पर ठहरना। पाया जाना। जैसे,— (क) दोनों में लाल घोड़ा कुछ मजबूत पड़ता है। (ख) यह धान उससे कुछ बीस पड़ता है। १७. (देशांतर या अवस्थांतर) होना। (पहली स्थिति या दशा त्यागकर नई स्थिति या दशा को) प्राप्त होना। (बदलकर) होना। जैसे, नरम पड़ना, ठंढा पड़ना, ढीला पड़ना, इत्यादि। विशेष—'पड़ना' के प्रयोग से जिस दशांतर की प्राप्ति सूचित की जाति है वह प्रायः पूर्वदशा से अपेक्षाकृत हीन या निकृष्ट होती है। जहाँ पहली स्थिति से अच्छी स्थिति में जाने का भाव होता है वहाँ इसका व्यवहार कम स्थलों पर होता है। ८. मैथुन करना। संभोग करना (पशुओं के लिये)। जैसे,— यह घोड़ा जब जब किसी घोड़ी पर पड़ता है तब तब बीमार हो जाता है। १९. अत्यंत इच्छा होना। धुन होना। चिंता होना। जैसे,—तुम्हें तो यही पड़ रही है कि किस प्रकार इस साल बी० ए० हो जायँ। मुहा०—कया पड़ी है = क्या प्रयोजन है। क्या मतलब है। जैसे,—तुमको क्या पड़ी है जो तुम उसके लिये इतना कष्ट उठाते हो। उ०—परी कहा तोहिं प्यारि पाप अपने जरि जाहीं।—सूर (शब्द०)। विशेष—यह क्रिया अनेक क्रियाओं विशेषतः अकर्मक क्रियाओं से संयुक्त होती है। यह जब धातुरूप के साथ संयुक्त होती है तब मुख्य किया के व्यापार में आकस्मिकता या संयोग सूचित करती है; जैसे, कह पड़ना, दे पड़ना, आ पड़ना, जा पड़ना आदि। और जब धातुरूप के बदले पूरी क्रिया ही से संयुक्त होती है तब उसके करने में कर्ता की बाध्यता, विवशता या परतंत्रता प्रकट करती है; जैसे, कहना पड़ा, देखना पड़ा, सहना पड़ा, आना पड़ा, जाना पड़ा इत्यादि। इसके अतिरिक्त कभी कभी किसी शब्द के साथ लगकर यह क्रिया कुछ विशेष अर्थ देने लगती है। जैसे,—(क) कुछ रुपया तुम्हारे नाम पड़ा है। (क) कई दिन से तुम उनके पीछे पड़े हो। (ग) सरदी के मारे गले पड़ गए हैं। (घ) अब तो यह किताब हमारे गले पड़ी है, आदि। ऐसी दशा में यह महाविरे का रूप धारण कर लेती है। ऐसे अर्थों के लिये मुख्य शब्द अथवा संज्ञाएँ देखो। जिस प्रकार व्यापार के घटित होने के लगभग या सदृश व्यापार सूचित करने के लिये क्रिया का रूप भूतकालिक करके तब उसके साथ 'जाना' लगाते हैं(जैसे, हाथ जला जाता है पैर कटा जाता था, चीज हाथ से गिरी जाती है) उसी प्रकार 'पड़ना' भी लगाते हैं, जैसे,— छड़ी हाथ से गिरि पड़ती है। उ०—चुनरि चारु चुई सी परै चटकीली हरी अँगिया ललचावै।—(शब्द०)।

पड़पड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १.निरंतर पड़पड़ शब्द होना। २. दे० 'पटपट'।

पड़पड़ (२)
संज्ञा पुं० [डिं०] पूँजी। मूलधन।

पड़पड़ाना
क्रि० अ० [अनु०] १. पड़पड़ शब्द होना। २. मिर्च, सोंठ आदि कड़वे पदार्थों के स्पर्श से जीभ पर जलन सी मालूम होना। अत्यंत कड़वे पदार्थ के भक्षण या स्पर्श से जीभ पर किंचित् दुःखद तीक्षण अनुमूति होना। चरपराना। जैसे,— तुमने ऐसी मिर्च खिलाई कि अब तक जीभ पड़पड़ा रही है।

पड़पड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़पड़ाना] पड़पड़ाने की क्रिया या भाव। चरपराहट। जैसे,—ऐसी तेज मिर्च खाई कि अबतक पड़पड़ाहट नहीं मिटी।

पड़पण †
संज्ञा स्त्री० [देश०] सहायता। उ०—जो राजा ऊपर खड़ जाऊँ पड़पण खान सुजायत पाऊँ।—रा० रू०, पृ० ३०७।

पड़पोता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रपौतृ] [स्त्री० पड़पोती] पुत्र का पोता। पोते का पुत्र। लड़के के लड़के का लड़का। प्रपौत्र।

पड़म
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा सूती कपड़ा जो प्रायः खेमे वगैरह बनाने में काम आता है।

पड़रू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पँड़वा'।

पड़वज ‡
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा। उ०—तुरक सुजायतखान री, सात कराँ सूँ बात। दाखै लिखै दुरग्ग नूँ, पड़वज संझ प्रभात।—रा० रू०, पृ० २४४।

पड़वा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा प्रा० पड़िवआ] प्रत्येक पक्ष की प्रथम तिथि।

पड़वा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पँड़वा'।

पड़वा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] घाट पर रहनेवाली वह नाव जो यात्रियों को पार ले जाती है। घटहा। (लश०)।

पड़वाना
क्रि० स० [हिं० पड़ना] गिरवाना। पड़ने का काम दूसरे से कराना।

पड़वी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ईख जो वैशाख या जेठ में बोई जाती है।

पड़साद †
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिशब्द; प्रा० पड़िसद्द, पड़िसाद] प्रति- शब्द। प्रतिध्वनि। उ०—(क) मारू तोइण कणमणइ साल्ह कुमर बहु साद। दासी तद दीवाधरी साँमलिया पड़साद।— ढोला०, दू० ६०५। (ख) वाँग विदल बराबर वादे विड़ गजियो गयण पड़सादे।—रा० रू० पृ० २५३।

पड़ह †
संज्ञा पुं० [सं० पटह] दे० 'पटह'। उ०—(क) साँमही चाली छइ आरती। वाजइ पड़ह पखावज भेर।—वी० रासो, पृ० ९४। (ख) सज्जण चाल्या हे सखी, पड़हउ वाज्यउ द्रंग।—ढोला० दू० ३५१।

पड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पड़वा'।

पड़ाइन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँडे] दे० 'पँड़ाइन'।

पड़ाका †
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'पटाका'। मुहा०—पड़ाके की गोट = दे० 'पटापटी' में 'पटापटी' की गोट।

पड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० पड़ना का सक० रूप] गिराना। झुकना। दूसरे को पड़ने में प्रवृत्त करना।

पड़ाना † (२)
क्रि० स० [हिं० फाड़ना का प्रे० रूप] फाड़ने का काम दूसरे से कराना। उ०—कन्न पड़ाय न मुंड मुड़ाया। घरि घरी फिरत न भूकणु वाया।—प्राण०, पृ० १११। विशेष—योगी, विशेषतः नाथपंथी अपनी दीक्षा के क्रम में हान की ललरी को चिरवाकर उसमें कुंडल पहनते हैं। इसी लिये इन योगियों को कनफटा भी कहा जाता है।

पड़ापड़ (१)
क्रि० विं० [अनु०] दे० 'पटापट'।

पड़ापड़ (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'पटापट'।

पड़ाव
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ना + आव (प्रत्य०)] सेना अथवा किसी यात्रीदल के यात्रा के बीच में प्रायः रात बिताने के लिये कहीं ठहरने का भाव। यात्रीसमूह का यात्रा के बीच में अवस्थान। जैसे,—आज यहीं पड़ाव पड़ेगा। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। २. वह स्थान जहाँ यात्री ठहरते हों। वह स्थान जो यात्रियों को ठहरने के लिये निर्दिष्ट हो। चट्टी। टिकान। जैसे,—आज हम लोग अमुक पड़ाव पर विश्राम करेंगे। मुहा०—पड़ाव मारना = (१) पड़ाव डाले हुए किसी यात्रीदल को लूटना। कारवान या काफिला लूटना। (२) कोई बड़ा साहसपूर्ण कार्य करना। भारी शौर्य प्रकट करना। जैसे,— कौन सा पड़ाव मार आए हो ? ३. चिपटे तले की बड़ी और खुली नाव जो जहाज से बोझ उता- रने और चढ़ाने के काम में आती है।

पड़ाशी
संज्ञा स्त्री० [सं० पड़ाशी] ढाक का पेड़।

पड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पँड़वा, पड़वा] भैस का मादा बच्चा।

पड़ियाना (१) †
क्रि० स० [हिं० पड़िया + आना (प्रत्य०)] भैस का भैसे से संयोग हो जाना। भैंसाना।

पड़ियाना (२)
क्रि० स० भैस का भैस से संयोग कराना। भैस को मैथुनार्थ भैंसे के समीप पहुँचाना।

पड़िवा †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा, प्रा० पड़िवआ] प्रत्येक पक्ष की प्रथम तिथि। पड़वा। प्रतिपदा।

पड़ीहार †
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिहार] दे० 'प्रतिहार'। उ०—राई कहई सुणि हो पड़ीहार। वेगि पलाँण भलाई तुषार।— बी० रासो, पृ० १३८।

पड़ुआ
संज्ञा पुं० [देश०] ऊख का खेत।

पड़ेरू †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पड़रू'।

पड़ोरा †
संज्ञा पुं० [हिं] दे० 'परवल'।

पड़ोस
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिवेश या प्रतिवास, प्रा० पडिवेस, पडिवास]१. किसी के घर के आसपास के घर। किसी के घर के समीप के घर। प्रतिवेश। यौ०—पास पड़ोस = आसपास। समीपवर्ती स्थान। मुहा०—पड़ोस करना = पड़ोस में बसना। पड़ोसी होना। जैसे,— पड़ोस तो मैंने आपका किया है, माँगने किससे जाऊँ। २. किसी स्थान के आसपास के स्थान। किसी स्थान के समीपवर्ती स्थान। जैसे,—घर के पड़ोस में चमार बसते हैं।

पड़ोसणा †, पड़ोसिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ोस] पड़ोस की रहनेवाली स्त्री। उ०—पाँच पडोसण बैठी छइ आय।—बी० रासो, पृ० ६४।

पड़ोसिया †
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ोस] दे० 'पड़ोसी'। उ०—हम जुवति पति गेलाह विदेस। लगनहिं बसए पड़ोसिया कलेस।— विद्यापति, पृ० ३८९।

पड़ोसी
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ोस + ई (प्रत्य०)] [स्त्री० पड़ोसिन] वह मनुष्य जिसका घर पड़ोस में हो। पड़ोस में रहनेवाला। जिसका घर अपने घर के पास हो। प्रतिवासी। प्रतिवेशी। हमसाया। यौ०—अड़ोसी पड़ोसी = पड़ोसी इत्यादि।

पड़ौसी †
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ोस] दे० 'पड़ोसी'।

पढ़ंत
संज्ञा स्त्री० [हिं० पढ़ना + अंत (प्रत्य०)] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। २. मंत्र। जादु। ३. निरंतर पढ़ने की क्रिया। पंठत। बराबर पढ़ना। जैसे, पढ़ंत कविसंमेलन।

पढ़ंता
वि० [हिं० पढ़ना] पढ़नेवाला। पाठ करनेवाला। उ०— वेद पढंता पाँड़े मारे पूजा करते स्वामी हो।—कबीर (शब्द०)।

पढ़त
संज्ञा स्त्री० [सं० पठन] पढ़ने की क्रिया या भाव।

पढ़ना (१)
क्रि० स० [सं० पठन] १. कीसी लिखावट के अक्षरों का अभिप्राय समझना। किसी पुस्तक, लेख आदि को इस प्रकार देखना कि उसमें लिखी बात मालूम हो जाय। जैसे,—इस पुस्तक को मैं तीन बार पढ़ गया। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। २. किसी लिखावट के शब्दों का उच्चारण करना। उच्चारण- पूर्वक पाठ करना। बाँचना। किसी लेख के अक्षरों से सूचित शब्दों को मुहँ से बोलना। जैसे,—जरा और जौर से पढ़ो कि हमको भी सुनाई दे। संयो० क्रि०—जाना।—देना। ३. उच्चारण करना। मध्यम या धीरे स्वर से कहना। जैसे,— तुम कौन सा मंत्र पढ़ रहे हो। संयो० क्रि०—जाना।—देना। ४. स्मरण रखने के लिये किसी विषय का बारबार उच्चारण करना। रटना। जैसे, पहाड़ा पढ़ना। संयो० क्रि०—जाना।—डालना। ५. मंत्र फूँकना। जादू करना। संयो० क्रि०—देना। ६. तोते, मैना आदि का मनुष्यों के सिखाए हुए शब्द उच्चारण करना। जैसे,—बूढ़ा तोता भला क्या पढ़ेगा। ७. विद्या पढ़ना। शिक्षा प्राप्त करना। अध्ययन करना। जैसे,—इस लड़के का मन पढ़ने में खूब लगता है। संयो० क्रि०—जाना।—लेना। यो०—पढ़ना लिखना = शिक्षा पाना। पढ़ना पढ़ाना। पढ़ने लिखने या पढ़ने पढ़ाने का काम। पढ़ा लिखा = शिक्षित। जिसने शिक्षा प्राप्त की हो। ८. नया पाठ प्राप्त करना। नया सबक लेना। जैसे,—तुमने आज पढ़ लिया या नहीं ? संयो० क्रि०—लेना।

पढ़ना (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाठीन] एक प्रकार की मछली। विशेष— दे० 'पढ़िना'।

पढ़नी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान।

पढ़नी उड़ी
संज्ञा स्त्री० [पढ़नी (?) + उड़ी (= उड़ान)] कसरत में एक प्रकार का अभ्यास जिसमें आदमी, टीला या अन्य कोई ऊँची चीज उछलकर लाँगी जाती है। विशेष—इस अभ्यास के दो भेद हैं—एक में सामने की और और दूसरे में पीछै की और उछलते हैं। उछलनेवालों के अभ्यास के अनुसार टीला एक, दो या तीन हाथ तक ऊँचा होता है।

पढ़वाना
क्रि० स० [हिं० पढ़ना तथा पढ़ाना का प्रे० रूप] १. किसी से पढ़ने की क्रिया कराना। किसी को पढ़ने में प्रवृत्त करना। बँचवाना। जैसे,—यह पत्र तुमने किससे पढ़वाया ? २. किसी से पढ़ाने की क्रिया कराना। किसी के द्वारा किसी को शिक्षा दिलाना। जैसे,—मैंने अमुक पंडित से अपने लड़के को पढ़वाया है।

पढ़वैया †
संज्ञा पुं [हिं० √ पढ़ + ऐसा (प्रत्य०)] पढ़नेवाला। शिक्षार्थी।

पढ़ाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पढ़ना + आई (प्रत्य०)] १. पढ़ने का काम। विद्याभ्यास। अध्ययन। पठन। २. पढ़ने का भाव। जैसे,—तुम्हारी पढ़ाई हमको तो ऐसी ही वैसी मालूम होती है। ३. वह धन जो पढ़ने के बदले में दिया जाय।

पढ़ाई (२)
संज्ञा स्त्रीं [हिं० पढ़ाना + आई (प्रत्य०)] १. पढ़ाने का काम। ओध्यापन। पाठन। पढ़ौनी। २. पढ़ाने का भाव। ३. पढ़ाने का ढंग। अध्यापनशौली। जैसे,—अमुक स्कूल की पढ़ाई बहुत अच्छी है। ४. वह धन जो पढ़ाने के बदले में दिया जाय।

पढ़ाकू
वि० [सं० पठ हिं० पढ़ + आकू (प्रत्य०)] बहुत पढ़नेवाला। जो पढ़ते न थके। उ०—उनके विद्यालय के साथियों ने उन्हें पढ़ाकू की उपाधि दे रखी थी।—अरस्तू०, पृ० ३।

पढ़ाना
क्रि० स० [हिं० पढ़ना का प्रे० रूप] शिक्षा देना। पुस्तक की शिक्षा देना। अध्यापन करना।संयो० क्रि०—डालना।—देना। यौ०—पढ़ाना लिखाना। २. कौई कला या हुनर सिखना। उ०—(क) कुलिस कठोर कूर्म पीठि ते कठिन अति हठि न पिनाक काहू चपरि चढ़ायो है। तुलसी सो राम के सरोज पानि परसत टूटचो मानो बारे ते पूरारि ही पढ़ायो है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) परम चतुर जिन कीन्हे मोहन अल्प बयस ही थोरी। बारे ते जेहि यहै पढ़ायो बुधि, बल कल बिधि चोरी।— सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना।—देना। ३. तोते, मैना आदि पक्षियों को बोलना सिखाना। उ०—सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पींजरन राखि पढ़ाए।— तुलसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना। ४. सिखाना। समझाना। उ०—जोहि पिनाक बिन नाक किए नृप सबाही बिषाद बढ़ायो। सोइ प्रभु कर परसत टूटयो जनु हुतो पुरारी पढ़ायो।—तुलसी (शब्द०)।

पढ़िना
संज्ञा पुं० [सं० पाठीन] एक प्रकार की बिना सेहरे की मछली जो तालाव और समुद्र सभी स्थानों में पाई जाती है। विशेष—यह मछली प्रायः अन्य सब मछलियों से अधिक दीर्घ- जीवी और डील डौलवाली होती है। किसी किसी पढ़िने का वजन दो मन से भी अधिक होता है। यह मांसाशी है और मछलियों के अतिरिक्त अन्य छोटे छोटे जीव जंतिओं को भी निगल लिया करती है। इसकी सारे शरीर के मांस में बारीक बारीक काँटे होते हैं जिन्हें दाँत कहते हैं। वैद्यक में इसे कफ पित्तकारक, बलदायक, निद्राजनक, कोढ़ और रक्तदोष पैदा करनेवाला लिखा है। पर्या०—पाठीन। सहस्त्रदंष्ट्र। बोदालक। वदालक। पढ़ना। पहीना।

पढ़ैया †
संज्ञा पुं० [हिं० पढ़ना + ऐसा (प्रत्य०)] पढ़नेवाला। पढ़वैया। पाठक। वह जो पढ़ सके। उ०—धोषासा कुराना का पढ़ैया नै बुलाया।—शिखर०; पृ० ६३।

पढ़ौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पढ़ाना] दे० 'पढ़ाई'। उ०—बाचो की अम्मा का पंड़ोस की बस्ती में जाकर यह पढ़ोनी करना बड़ा ही अखरा था।—नई०, पृ० ११५।

पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोई खेल जिसमें हारनेवाले को कुछ परिमित धन अथवा की निर्दिष्ट वस्तु जीतनेवाले को देनी पड़े। कोई कार्य जिसमें बाजी बदी गई हो। जूआ। द्यूत। २. प्रतिज्ञा। शर्त। मुआहिदा। कौल करार। संधि। उ०—मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी आधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझनेवाला पुरुष उसके लिये प्राणों का पण लगा सके।—ध्रुव०, पृ० २५। ३. वह वस्तु जिसके देने का करार या शर्त हो। जैसे, किराया, भाड़ा, परिश्रमिक आदि। ४. मोल। कीमत। मूल्य। ५। फीस। शुल्क। ६. धन। संपत्ति। जायदाद। ७. क्रय विक्रय की वस्तु। सौदा। ८. व्यवहार। व्यापार। व्यवसाय। ९. स्तुति। प्रशंसा। १०. किसी के मत से ११ और किसी के मत से २० माशे के बराबर ताँबे का टुकड़ा जिसका व्यवहार सिक्के की भाँति किया जाता था। ११. मद्यविक्रेता। कलाल (को०)। १२. गृह। घर। वेश्म (को०)। १३. प्राचीन काल की एक विशेष नाप जो एक मुट्ठी अनाज के बराबर होती थी।

पणग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० पणग्रन्थि] बाजार। हाट।

पणच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] अँगूठा काठने का दंड। विशेष—चंद्रगुप्त के समय में दूसरी बार गाँठ कतरने के अपराध में जो राजकर्मचारी पकड़े जाते थे, उनका अँगूठा काट दिया जाता था।

पणजित दास
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपने को जूए के दाव पर रखकर हारा और दास हुआ हो।

पणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कीमत। दाम। मूल्य [को०]।

पणत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पणता'।

पणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरीदने की क्रिया या भाव। २. बेचने की क्रिया या भाव। ३. शर्त लगाने या बाजी बदने की क्रिया या भाव। ४. व्यापार या व्यवहार करने की क्रिया या भाव।

पणनीय
वि० [सं०] १. धन देकर जिससे काम लिया जा सके। २. जिसे खरीदा या बेचा जा सके।

पणफर
संज्ञा पुं० [सं०] कुंडली में लग्न से २ रा, ३ रा, ५ वाँ ८ वाँ और ११ वाँ घर।

पणबंध
संज्ञा पुं० [सं० पणबन्ध] बाजी बदना। शर्त लगाना। शर्तबंदी।

पणयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिक्कों का चलाना (कौटि०)।

पणव
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा नगाड़ा। २. छोटा ढोल। ढोलकी। उ०—शंख भेरी पणव मुरज ढक्का बाद धनित घंटा नाद बीच बिच गुंजरत।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६०५। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण एक नगण, एक यगण ओर अंत में एक गुरु होता है। प्रत्येक चरण में १६, १६ मात्राएँ होने के कारण यह चोपाई के भी अंतर्गत आता है। उ०—मानौ योग कथित तैं मोरा। जीतोगे अर्जुन जी कोरा।

पणवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पणव'।

पणवानक
संज्ञा पुं० [सं०] नगाड़ा।

पणवी
संज्ञा पुं० [सं० पणविन्] शिव का एक नाम [को०]।

पणस
संज्ञा पुं० [सं०] क्रय विक्रिय की वस्तु। सौदा।

पणसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पणसुन्दरी] वारवनिता। बाजारी स्त्री। रंडी। वेश्या।

पणस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] रंडी। वेश्या।

पणस्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौड़ी। कपर्दक।

पणांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० पणाङ्गना] वेश्या [को०]।

पणास
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाश] विनाश। नाश।

पणासी
वि० [सं० प्रणाशी] विनाशक। नष्ट करनेवाला।

पणाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्यूत। जूवा। २. व्यापार का लाभ। ३. स्तुति। ४. बाजार। ५. व्यापार [को०]।

पणायित
वि० [सं०] १. खरीदा। बेचा हुआ। ३. जिसकी स्तुति की गई हो। स्तुत [को०]।

पणार्पण
संज्ञा पुं० [सं०] संधि। शर्तनामा [को०]।

पणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक संहिता कालीन एक जाति और उस जाति का आदमी।—प्रा० भा० प० (भू०), पृ० 'स'।

पणि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाजार। २. दूकान।

पणि (३)
वि० १. कंजूस। २. पाप करनेवाला [को०]।

पर्णिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूकानदारी। मोलभाव। उ०—पणि- कता जगबणिक की है, राणि जैसे कणिक की है।—अर्चना, पृ० ६३।

पणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पण। (कौटि०)।

पणित
वि० [सं०] जिसकी प्रशंसा की गई है। प्रशंसित। स्तुत। १. क्रीत। ३. विक्रीत। ४. बाजी। ५. जुआ।

पणितव्य
वि० [सं०] १. खरीदने योग्य। २. बेचने योग्य। ३. व्यबहार करने योग्य। ४. प्रशंसा करने योग्य।

पणिता
संज्ञा पुं० [सं० पणितृ] व्यापारी। सौदागर [को०]।

पणिहार
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिहार] क्षत्रियों की एक जाति। उ०— तीन पुरुष उपजे तहाँ चालुक प्रथम पँवार। दुजै तीजै ऊपजे, छत्र जाति पणिहार।—ह० रासो, पृ० १०।

पणी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पणिन्] क्रय विक्रय करनेवाला।

पणी (२)
संज्ञा पुं० एक ऋषि का नाम [को०]।

पण्य (१)
वि० [सं०] १. खरीदने योग्य। २. बेचने योग्य। ३. व्यापार या व्यवहार करने योग्य। ४. प्रशंसा करने योग्य।

पण्य (२)
संज्ञा पुं० १. सौदा। माल। २. व्यापार। व्यवसाय। रोजगार। ३. बाजार। हाट। ४. दूकान।

पण्यदासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन लेकर सेवा करनेवाला स्त्री। लौंड़ी। मजदूरनी। बाँदी। सेविका।

पण्यनिचय
संज्ञा पुं० [सं०] बिक्री का माल इकट्ठा करना। विशेष—इसमें भी चंद्रगुप्त के समय में धान्य के एकत्र करने के सदृश ही नियम प्रचलित था।

पण्यनिर्वाहण
संज्ञा पुं० [सं०] बिना चुंगी का महसूल दिऐ चोरी चोरी से माल निकाल ले जाना (कौटि०)।

पण्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारी व्यापारी। बहुत बड़ा रोज- गारी। २. बहुत बड़ा साहूकार। नगरसेठ।

पण्यपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के माल आकार बिकते हों। मंड़ी। (कौटी०)।

पण्यपंत्तन चरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] मंडी में प्रचलित नियन (कौटि०)।

पण्यपत्तन चरित्रोपधानिका
वि० स्त्री० [सं०] (वह नाव) जिसने बंदरगाह के नियमों का पालन न किया हो (कौटि०)।

पण्यपरिणीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुरैतिन। रखेली [को०]।

पण्यफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यापार में प्राप्त लाभ। मुनाफा। नफा।

पण्यफलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मुनाफा [को०]।

पण्यभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थान जहाँ माल या सौदा जमा किया जाता हो। कोठी। गोदाम। गोला।

पण्ययोषित
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी [को०]।

पण्यविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।

पण्यवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रय विक्रय का स्थान। बाजार। हाट।

पण्यशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूकान। वह घर जिसमें चीजें बिकती हों।

पण्यसंस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] माल रखने का गोदाम (कौटि०)।

पण्यसमवाय
संज्ञा पुं० [सं०] थोक बेचा जानेवाला माल।

पण्यस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंड़ी।

पण्यांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्याङ्गना] दे० 'पण्यस्त्री'।

पण्यांधा
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्याधान्य या पण्यान्नधान्य] कँगनी नाम का धान्य।

पण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालकँगनी।

पण्याजीव
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापार से जीविका करनेवाला। रोजगारी। व्यापारी।

पण्योपधात
संज्ञा पुं० [सं०] बिक्रि के माल का नुकसान। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि व्यापारियों को चंद्रगुप्त के राज्य से सहायता मिलती थी। जब उनके माल का नुकसान हो जाता था, तब उन्हें राज्य की और से सहायता मिलती थी।

पतंखा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बगला, जिसे 'पतोखा' कहते हैं।

पतंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्ग] १. पक्षी चिड़िया। २. शलभ। टिड्डी। ३. परवाना। पाँखी। भुनगा। फतिंगा। ४. कोई परदार कीड़ा। उड़नेवाला कीड़ा। ५. सूर्य। ६. एक प्रकार का धान। जड़हन। ७. जलमहुआ। जलमधूक वृक्ष। ८. एक प्रकार का चंदन। ९. कंदुक। गेंद। उ०—करहीं गान बहु तान तरंगा। बहु बिधि क्रिड़हि पानि पतंगा।— मानस, १। १२६। १०. पारद। पारा। ११. जैनों के एक देवता जो वाणव्यंतर नामक देवगण के अंतर्गत हैं। १२. एक गंधर्व का नाम। १३. एक पहाड़ का नाम। १४. तन। शरीर। जिस्म (अने०)। १५. नौका। नाव (अने०)। १६. चिनगारी। १७. कृष्ण या विष्णु (को०)। १८. अश्व। घोड़ा (को०)।

पतंग (२)
संज्ञा पुं० [सं० पत्रङ्ग] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिससे लाल रंग बनाते हैं। विशेष—यह वृक्ष मध्यभारत तथा कटक प्रात में अधिकता से होता है। बैसाख जेठ में जमीन को अच्छी तरह जोतकरइसके बीज बो दिए जाते हैं। प्रायः २० वर्ष में जब इसके पेड़ चालीस फुट ऊँचे हो जाते हैं तब काट लिए जाते हैं। इसके लकड़ी को छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर प्रायः दो पहर तक पानी में उबालते हैं, जिससे एक प्रकार का बहुत बढ़िया लाल रंग निकलता है। पहले इस रंग की खपत बहुत होती थी और यह बहुत आधिक मान में भारत से विदेशों को भेजा जाता था, परंतु जबसे विलायती नकली रंग तैयार होने लगे तबसे इसकी माँग बहुत घट गई है। आजकल कई प्रकार के विलायती लाल रंग भी 'पतंग' के नाम से ही बिकते हैं। कुछ लोग इसको 'लालचंदन' ही मानते है, परतुं यह बात ठीक नहीं है। इसको 'बक्कम' भी कहते हैं।

पतंग (३)
वि० उड़नेवाला।

पतंग (४)
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्ग (= उड़नेवाला)] हवा में ऊपर उड़ाने का एक खिलौना जो बाँस की तीलियों के ढ़ाँचे पर एक और चौकोना कागज और कभी कभी बारीक कपड़ा मढ़कर बनाया जाता है। गुड्डी। कनकोवा। चंग। तुक्कल। तिलंगी। विशेष—इसका ढाँचा दो तीलियाँ से बनता है। एक बिलकुल सीधी रखी जाती है पर दूसरी को लचाकर मिहराबदार कर देते हैं। सीधी तीली को 'ढड्ढ़ा' और मिहराबदार को 'कमाँच' या 'काप' कहते हैं। ढड्ढ़े के एक सिरे को 'पुछल्ला' और दूसरे को 'मुड़्ढ़ा' कहते हैं। पुछल्ले पर एक तिकोना कागज और मढ़ दिया जाता है। कमाँच के दोनों सिरे 'कुब्बे' कहलाते हैं। ढड़्ढे पर कागज की दो छोटी चौकोर चकतियाँ मढ़ी होती है। एक उस स्थान पर जहाँ ढड्ढ़ा और कमाँच एक दूसरे को काटते हैं, दूसरी पुछल्ले की और कुछ निश्चित अंतर पर। इन्हीं में सूराख करके 'कन्ना' अर्थात् वह डोरा बाँधा जाता है जिसमें चरखी या परेते की डोरी का सिरा बाँधकर पतंग उड़ाया जाता है। यद्यपि देखने में पतंग के चारों पार्श्वों की लंबाई बराबर जान पड़ती है, तथापि मुड़्ढ़े और कुब्बे का अंतर कुब्बे और पुछल्ले के अंतर से आधिक होता है। जिस डोरी से पतंग बढ़ाया जाता हे बह नख, बाना, रील आदि कई प्रकार की होती है। बाँस के जिस विशेष ढ़ाँचे पर डोरी लपेटी रहती है। उसके भी दो प्रकार है—एक 'चरखी' और दूसरा 'परेता'। विस्तारभेद से पतंग कई प्रकार का होता है। बहुत बड़े पतंग को 'तुक्कल' कहते हैं। बनावट का दोष, हवा की तेजी आदि कारणों से अक्सर पतंग हवा में चक्कर खाने लगता है। इसे रोकने के लिये पुछल्ले में कपड़े की एक धज्जी बाँध देते हैं, इसको भी 'पुछल्ला' कहते हैं। भारतवर्ष में केवल मनोरंजन के लिये पतंग उड़ाया जाता है परंतु पाश्चात्य देशों में इसका कुछ व्यावहारिक उपयोग भी किया जाने लगा है। क्रि० प्र०—उड़ाना।—लड़ाना। यौ०—पतंगबाज। मुहा०—पतंग काटना = अपने पतंग की ड़ोरी से दूसरे के पतंग की डोरी को रगड़कर काट देना। पतंग उड़ाना = डोरी ढीली करके पतंग को हवा में और ऊपर या आगे बढ़ाना।

पतंगछुरी †
स्त्री० [सं० पतङ्ग (= उड़ानेवाला अथवा चिनगारी) + हिं० छुरी] पीठ पीछे वुराई करनेवाला। दो व्यक्तियों या दलों में झगड़ा करानेवाला। चुगुलखोर। पिशुन। चताई।

पतंगबाज
संज्ञा पुं० [हिं० पतंग + फा० बाज] १. वह जिसको पतंग उड़ाने का व्यसन हो। वह जिसका प्रधान कार्य पतंग उड़ाना हो। वह जिसका आधिकांश समय पतंग उड़ाने में जाता हो। २. पतंग से क्रीड़ा करनेवाला। पतंग उड़ाकर मनोरंजन करनेवाला। पतंग का शौकीन।

पतंगबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतंगबाज] १. पतंगबाज होने का भाव। पतंग उड़ाने की क्रिया या भाव। पतंग उड़ाना। २. पतंग उड़ाने की कला। जैसे,—पतंगबाजी में वह अपना जो़ड़ नहीं रखता।

पतंगम
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्गम] १. पक्षी। चिड़ीया। २. पतंगा। सूर्य। ३. शलभ। पतंगा।

पतंगसुत
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्ग (= सूर्य) + सुत] १. सूर्य के पुत्र आश्विनीकुमार। २. यम। ३. शनि। ४. सुग्रीव। ५. कर्ण। राधेय। उ०—भजु पतंगसुत आदि कहँ मृत्युंजय अरि अंत। तुलसी पुकेर जग्यकर चरन पांसु इच्छन।—स० सप्तक, पृ० १९।

पतंगा
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्ग] १. पतंग। कोई उड़नेवाला कीड़ा मकोड़ा। फतिंगा या पाँखी आदि। २. परदार कीड़ों की जाति का एक विशेष कीड़ा जो प्रायः घासों अथवा वृक्ष की पत्तियों पर रहता है। फतिंगा। ३. चिनगारी। स्फुलिंग। अग्निकण। ४. दीए की बत्ती वह अंश जो जलकर उससे अलग हो जाता है। फूल। गुल।

पतंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पतङ्गिका] १. मधुमक्खियों का एक भेद। बड़ी मधुमकखी। पुत्तिका। २. छोटी चिड़िया (को०)। ३. दे० 'पतंचिका' (को०)।

पतंगी (१)
वि० स्त्री० [सं० पतङ्ग] रंग बिरंगी या महीन। उ०— गोरे तन पहिरि पतंगी सारी झपकि झपकि गावैं गारी, भिजावैं आनदघन पिय इसरंग।—घनानंद, ४४२।

पतंगी (२)
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्गिन्] पक्षी [को०]।

पतंगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० पतङ्गेन्द्र] पक्षिराज। गरुड़।

पतंचल
संज्ञा पुं० [सं० पतञ्चल] एक ऋषि का नाम [को०]।

पतंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पतञ्चिका] धनुष की डोरी। कमान की ताँत। चिल्ला।

पतंजलि
संज्ञा पुं० [सं० पतञ्जालि] १. एक प्रसिद्ध ऋषि जिन्होंने योग सूत्र की रचना की। २. एक प्रसिद्ध मुनि जिन्होंने पणिनीय सूत्रों और कात्यायन कुत उनके वार्तिक पर 'महाभाष्य' नामक बृहद् भाष्य का निर्माण किया था। एक किंवदंती के अनुसार चरक संहिता के रचयिता औरसंगृहीता के रूप में पतंजलि का नाम लिया जाता है, पर यह मत ऐतिहासिकों को मान्य नहीं हैं। विशेष—इनकी माता का नाम गोणिका और जन्मस्थान गोनर्द्द था। डा० सर रामकृष्ण भांडारकर के मत से आधुनिक गोंडा ही प्राचीन गोनर्द्द है। गोणिकापुत्र, गोनर्द्दीय आदि इनके नाम मिलते हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये कुछ समय तक काशी में भी रहे थे। जिस स्थान पर इनका रहना माना जाता है उसे आजकल नागकुआँ कहते हैं। नागपंचमी के दिन वहाँ मेला होता है और बहुत से संस्कृत के पंडित और छात्र वहाँ एकत्र होकर व्याकरण पर शास्त्रार्थ करते हैं। ये अनंत भगवान् अथवा शेषनाग के अवतार माने जाते हैं। अन्य सभी सूत्रग्रंथों की व्याखाएँ भाष्य कहीं गई है, केवल पतंजलिकृत भाष्य को महाभाष्य की संज्ञा और प्रतिष्ठा मिली। बहुत से लोग दर्शनकार पतंजलि और भाष्यकार पतंजलि को एक ही व्यक्ति मानते हैं। परंतु यह मत विवादास्पद और अनिर्णीत हैं। योग सूत्रकार पतंजलि भाष्यकार पतंजलि से बहुत पूर्व के माने गए हैं। महाभाष्य के रचनाकाल से सैकड़ों वर्ष पहले कात्यायन ने पणिनीय सूत्रों पर अपना वार्तिक बनाया था। कहते हैं कि उसमें योगसूत्रकार पतंजलि का उल्लेख हैं। कात्यायन के वार्तिक पर पतंजलि का भाष्य है। इस आधार पर कहा जाता है कि योग सूत्रकार पतंजलि महाभाष्यकार पतंजलि से पहले के हैं। उनका समय भी निश्चित हो चुका है। वे शुगवंश के संस्थापक पुष्यमित्र के समय में वर्तमान थे। मौर्य राजा को मारकर जव पुष्यमित्र राजा हुआ तब उसने पाटलिपुत्र में अश्वमेध यज्ञ किया। इस यज्ञ में पतंजलि जी ने भी भाग लिया था।

पत पु †
संज्ञा पुं० [सं० पति] १. पति। खसम। खाविंद। ३. मालिक। स्वामी। प्रभु।

पत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा] १. कानि। लज्जा। आबरू। विशेष—दे० 'पति'। उ०—मुख मेरा चूमत दिन रात। होठों लागत कहत न बात। जासे मेरी जग में पत। ए सखी साजन ना सखी नथ।—खुसरो (शब्द०)। २. प्रतिष्ठा। इज्जत। उ०—बोला है तुझे गम है ऊँटों का, कुछ गम नंई पत रहमाँ का।—दक्खनी०, पृ० २२३। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना।—जाना।—रखना। यौ०—पतपानी = लज्जा। आबरू। मुहा०—पत उतारना = किसी की प्रतिष्ठा नष्ट करनेवाला काम करना। दस आदमियों के बीच में किसी का अपमान करना। बेइज्जती करना। आबरू लेना। पत रखना = प्रतिष्ठा भंग न होने देना। इज्जत बनी रहने देना। इज्जत बचाना। पत लेना = दे० 'पत उतारना'।

पत (३)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, प्रा०, अप० पत्त, पत] पत्ता। पत्र। जैसे, पतझर।

पतई †
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र] पत्ती। पत्र।

पतउआ †
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, प्रा० पत्त] पत्ता। पर्ण। उ०—एक बान बेग ही उड़ाने जातुधान जात, सूखि गए गात हैं पतउआ भए वाय को।—तुलसी (शब्द०)।

पतउड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० पति + उड़ु] चंद्रमा।—(डिं०)।

पतखोपन
संज्ञा पुं० [हिं० पत + खोवन (= खोनेवाला)] वह जो अपने या अन्य के मान संभ्रम की रक्षा न कर सके। वह जो प्रायः ऐसे कार्य करता फिरे जिससे अपने या दूसरे की बेइज्जती हो।

पतग
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया। पखेरू। उ०—द्विज, सकुंत, पक्षी, शकुनि, अंडज, विहग, विहंग। वियग, पतत्री, पत्ररथ, पत्री, पतग, पतंग।—नंद० ग्रं०, पृ० १०१।

पतगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० पतगेन्द्र] पक्षिराज। गरुड़।

पतचौली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।

पतजिव †
संज्ञा पुं० [देश०] जिया पोता। पुत्रजीवक।

पतझड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पत (पत्ता) + झड़ना] १. वह ऋतु जिसमें पेड़ों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं। शिशिर ऋतु। माघ और फाल्गुन के महीने। कुंभ और मीन की संक्रांतियाँ। विशेष—इस ऋतु में हवा अत्यंत रूखी और सर्राठे की हो जाती है, जिससे वस्तुओं के रस और स्निग्धता का शोषण होता है और वे अत्यंत रूखी हो जाती हैं। वृक्षों की पत्तियाँ रूक्षता के कारण सूखकर झड़ जाती हैं और वे ठूँठे हो जाते हैं। सृष्टि का सौंदर्य और शोभा इस ऋतु में बहुत घट जाती हैं, वह वैभवहीन हो जाती है। इस से कवीयों को यह अप्रिय है। वैद्यक के मतानुसार इस ऋतु में कफ का संचय होता है और पाचकाग्नि प्रबल रहती है जिससे स्निग्ध और आहार इसमें सरलता से पचता है और पथ्य है। हलके, वातवर्धक और तरल भोजनद्रव्य इसमें अपथ्य हैं। सुश्रुत के मत से माघ और फाल्गुन ही पतझड़ के महीने हैं, पर अन्य अनेक वैद्यक ग्रंथों ने पूस और माघ को पतझड़ माना है। वैद्यक के अतिरिक्त सर्वत्र माघ और फाल्गुन ही पतझड़ माने गए हैं। २. अवनतिकाल। खराबी और तबाही का समय। वैभवहीनता या कंगाली का समय।

पतझर †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पतझड़'। उ०—पतझाड़ के पीछें नवल दल यथा देत वसंत हैं।—प्रेमघन, भा० १, पृ० १२२।

पतझार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतझड़] दे० 'पतझड़'। उ०—संसार वाटिका में जो वहार और पतझार के अनुसार नाना प्रसूनों के प्रस्फुटित और रहित होने के कारण शोभा का प्रकाश और ह्रास होता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४६८।

पतड़ो
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, हिं० पत्रा] पत्रा। पंचांग। उ०— पांडया तोहि बोलावइ हो राय, ले पतड़ो जोसी वेगो तुं आइ।—बी० रासो०, पृ० ६।

पतत् (१)
वि० [सं०] १. गिरता हुआ। उतरता हुआ। नीचे को जाता या आता हुआ। २. उड़ता हुआ।

पतत्
संज्ञा पुं० पक्षी। चिड़िया।

पततपतंग
संज्ञा पुं० [सं० पतत्पतङ्ग] डूबता हुआ सूर्य। वह सूर्य जो अस्त हो रहा हो। यौ०—पतत्पतंगप्रतिम = नीते की ओर गिरते हुए सूर्य के समान।

पततप्रकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में एक प्रकार का रसदोष।

पतत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्ष। पंख। डैना। २. पर। ३. वाहन। सवारी।

पतत्रि
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया।

पतत्रिकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

पतत्रिराज
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़। पक्षिराज [को०]।

पतत्री
संज्ञा पुं० [सं० पतत्रिन्] पक्षी। उ०—वियग (= विहग) पतत्री पत्ररथ पत्री पतग पतंग।—अनेकार्थ०, पृ० २५। २. वाण। तीर (को०)। ३. अश्व (को०)।

पतद्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिग्राह। पीकग्राह। पीकदान। २. वह कमंडलु जिसमें भिक्षुक भिक्षान्न लेते हैं। भिक्षापात्र। कासा।

पतद्भीरु
संज्ञा पुं० [सं०] बाज पक्षी। श्येन।

पतन्
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया।

पतन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरने या नीचे आने क्रिया या भाव। गिरना। २. नीचे जाने, धँसने या बैठने की क्रिया या भाव। बैठना या डूबना। ३. अवनति। अधोगति। जवाल। तबाही। जैसे,—दुष्टों की संगति करने से पतन अनिवार्य हो जाता है। ४. नाश। मृत्यु। जैसे,—अमुक युद्ध में कुल दो लाख सैनिकों का पतन हुआ। ५. पाप। पातक। ६. जातिच्युति। पातित्य। जाति से बहिष्कृत होना। ७. उड़ने की क्रिया या भाव। उड़ाना। उड़ना। ८. किसी नक्षत्र का अक्षांश।

पतन (२)
वि० १. गिरना हुआ या गिरनेवाला। २. उड़ता हुआ या उड़नेवाला।

पतनधर्मी
वि० [सं० पतनधर्मिन्] गिरने के स्वभाववाला। नश्वर [को०]।

पतनशील
वि० [सं०] जिसका पतन निश्चित हो। जो बिना गिरे न रह सके। गिरनेवाला।

पतना
संज्ञा पुं० [देश०] योनि का नट भाग। योनि का किनारा।

पतनारा
संज्ञा पुं० [हिं०] परनाला। नाबदान। मोरी।

पतनाला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पतनारा'। उ०—झर रगता था और वहीं पर बूँदें नाचा करती थीं। बाजे से बजते पत- नाले, सड़क लबालब भरती थी।—मिट्टी०, पृ० ६८।

पतनी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्नी] दे० 'पत्नी'। उ०—गुरु पतनी पठए तब कानन।—नदं० ग्रं०, पृ० २१४।

पतनी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] वह आदमी जो घाट पर की नाव इस पार से उस पार ले जाता और उस पार से इस पार ले आता हो। घाट पर से पार उतारनेवा्ला घटहा या माझी। (लश०)।

पतनीय (१)
वि० [सं०] १. जिसका गिरना अथवा अधोगत होना संभव हो। गिरने अथवा नष्ट, पतित या अधोगत होने के योग्य। गिरनेवाला। पतित होनेवाला। २. पतित करने वाला या अधोगत करनेवाला [को०]।

पतनीय (२)
संज्ञा पुं० वह पाप जिसके करने से जाति से च्युत होना पड़े। पतित करनेवाला पाप।

पतनोन्मुख
वि० [सं०] जो गिरने की और प्रवृत्त हो। जो गिरने के मार्ग पर लग चुका हो या बढ़ रहा हो। जिसका पतन, अधोगति या विनाश निकट आता जाता हो।

पतपच्छी †
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिपक्षी] विरोधी। शत्रु। उ०—पत- पच्छी जुग पाँण सरोरुह पल्लवाँ।—बाँकी०, ग्रं०, भा० ३, पृ० ३७।

पतपानी
संज्ञा पुं० [हिं० पत + पानी] १. प्रतिष्ठा। मान। इज्जत। २. लाज। आवरू।

पतम
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्र। २. पक्षी। ३. फातिंगा।

पतयाना पु †
क्रि० स० [हिं० पतियाना] दे० 'पतियाना' या 'पत्याना'। उ०—नेकि पठै गिरिधर कों मैया। रही भिल- साई पतयाइ न औरें, इनके हाँथ लगी मेरी गैया।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३४।

पतयालु
वि० [सं०] पतनशील। गिरनेवाला।

पतयिष्णु
वि० [सं०] पतनशील। पतयालु [को०]।

पतर पु †
वि० [सं० पत्र] १. पतला। कृश। २. पत्ता। पर्ण। उ०—पेट पतर जनु चंदन लावा। कुंकुँह केसर बरन सुहावा।—जायसी (शब्द०)। (ख) घड़ा ज्यों नीर का फुटा। पतर जैसे डार से टूटा।—कबीर मं०, पृ० १७३। ३. पत्तल। पनवारा।

पतरज
संज्ञा पुं० [सं० पत्रज] तेजपात। पत्रज। उ०—अजमोंदा चितकरना पतरज बायभिरंग। सेंधा सोंठ त्रीफला, नासहि मारुत अंग।—इंद्रा०, पृ० १५१।

पतरा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र] १. वह पत्तल जिसे तँबोली लोग पान रखने के टोकरे या डलिया में बिछाते हैं। २. सरसों का साग। सरसों का पत्ता।

पतरा (२)
वि० दे० 'पतला'।

पतराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतला + ई (प्रत्य०)] पतलापन। सूक्ष्मता। उ०—खाँडे चाहि पोनि पैनाई। बार चाहि पातरि पतराई।—पदमावत, पृ० १५०।

पतरिंग, पतरिंगा
संज्ञा पुं० [देश०] एक पक्षी, जिसका सारा शरीर हरा और ठोर पतली तथा प्रायः दो अंगुल लंबी होती है। यह मकाड़ियों को पकड़कर खाता है। इसकी गणना गानेवाले पक्षियों में की जाती है।

पतरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्री] दे० 'पत्तल'। उ०—बिरतच पतरी अरु दोने अपने कर सुंदर।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५६।

पतरैंगा
संज्ञा पुं० [देश०] पतरिंगा पक्षी।

पतरोला †
[अं० पेष्ट्रौल] गश्त लगानेवाला सिपाही।

पतला
वि० [सं० पात्रट, प्रा० पात्रड, अथवा सं० पत्र, हिं० पत्तर] [वि० स्त्री० पतली] १. जिसका घेरा, लपेट अथवा चौड़ाई कम हो। जो मोटा न हो। जैसे, पतली छड़ी, पतला बल्ला, पतला खंभा, पतली रस्सी, पतली धज्जी, पतली गोट, पतली गली, पतली नाला। विशेष—बहुत पतली वस्तुओं को महीन, बारीक या सूक्ष्म, भी कह सकते हैं, जैसे, पतली तार, पतला सुत, पतली सुई। इसी प्रकार कम चोड़ी बड़ी वस्तुओं के लिये पतला के स्थान पर 'संकीर्ण' या 'सँकरा' भी कह सकते हैं, जैसे, सँकरी गली, सँकरा नाला आदि। २. जिसके शरीर के इधर उधर का विस्तार कम हो। जिसकी देह का घेरा कम हो जो स्थूल या मोटा न हो। कृश। जैसे, पतला आदमी। यौ०—दुबला पतला = जो मोटा ताजा न हो। कृश शरीर का। ३. (पटरी, पत्तर या तह कते आकार की वस्तु) जिसका दल मोटा न हो। दबीज का उलटा। झीना। हलका। जैसे, पतला कपड़ा या कागज। ४. गाढ़े का उलटा। आधिक सरल। जिसमें जलांश आधिक हो, जैसे, पतला दूध या रसा। मुहा०—पतली चीज या पदार्थ = कोई तरल पदार्थ। कोई प्रवाही द्रव्य। ५. अशक्त। असमर्थ। कमजोर। निर्बल। हीन। जैसे,—भाई सभी मनुष्य मनुष्य ही है, किसी को इतना पतला क्यों समझते हो ? मुहा०—पतला पड़ना = दुर्दशाग्रस्त होना दैन्यप्राप्त होना। अशक्त या निर्बल पड़ जाना। पतला हाल = दुःख और कष्ट की अवस्था। शोचनीय या दयनीय दशा। करुणाजनक स्थिति। बुरा हाल। दुर्दशाकाल। दुर्दिन।

पतलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतला + ई (प्रत्य०)] पतला होने का भाव। पतलापन।

पतलापन
संज्ञा पुं० [हिं० पतला + पन (प्रत्य०)] पतला होने का भाव।

पतली
संज्ञा स्त्री० [लश०] जूआ। द्यूत।

पतलून
संज्ञा पुं० [अं० पैंटलून] वह पाजामा जिसमें मियावी नहीं लगाई जाती और पावँचा सीधा गिरता है। अंग्रजी पाजामा।

पतलूननुमा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पतलून + फा० नुमा (= दर्शक)] वह पाजामा जो पतलून से मिलता जुलता होता है।

पतलूननुमा (२)
वि० पतलून की तरह का। पतलून सा।

पतलो
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. सरकंडे की पताई। सरपत की पताई। २. सरकंडा। सरपत।

पतवर
क्रि० वि० [सं० पड़ि्क्त = पंति = हिं० पाँत + वार (प्रत्य०)] पंक्तिवार। पंक्तिक्रम से। बराबर बराबर। उ०—'हौथोरन' की झाड़ी छाया जासु मनोहर। परी भँई पीठिन की पंगति पतवर पतवर।—श्रीधर (शब्द०)।

पतवा
संज्ञा पुं० [हिं० पत्ता + वा (प्रत्य०)] एक प्रकार का मचान, जिसपर बैठकर शिकार खेलते हैं। विशेष—यह लकड़ी का बनाया जाता है और चार हाथ ऊँचा तथा उतना ही चौड़ा होता है। वंबा इतना होता है कि ८ आदमी रहकर निशाना मार सकें। चारों ओर पतली पतली लकड़ियों की टट्टियाँ लगी रहती हैं जिनमें निशाना मारने के लिये एक एक बित्ता उँचे और चौड़े सूराख बने रहते हैं। टट्टियों के ऊपर हरी हरी पत्तियों समेत टहनियाँ रख दी जाती हैं जिसमें बाध आदि शिकारियों को न देख सकें। क्रि० प्र०—बाँधना।

पतवार
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रवाल, पात्रपाल, प्रा० पात्तपड] नाव का एक विशेष और मुख्य अंग जो पीछे की ओर होता है। इसी के द्वारा नाव मोड़ी या घुमाई जाती है। कन्हर। कर्ण पतवाल। सुकान। विशेष—यह लकड़ी का और त्रिकोणाकार होता है। प्रायः आधा भाग इसका जल के नीचे रहता है और आधा जल के ऊपर। जो भाग जल के ऊपर रहता है उसमें एक चिपटा डंडा जड़ा रहता है जिसपर एक मल्लाह बैठा रहता है। पतवार को घुमाने के लिये यह डंडा मुठियों का काम देता है। यह डंडा जिस और घुमाया जाता है उसके विपरीत और नाव घूम जाती है।

पतवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाता, पत्ता] ऊख का खेत।

पतवारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतवार] दे० 'पतवार'।

पतवाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतवार] दे० 'पतवार'।

पतवास
संज्ञा स्त्री० [सं० पतत् या पतत्री (= चिड़िया) + वास] पक्षीयों का अड्ड़ा। चिक्कस।

पतस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। २. फतिंगा, टिट्टी आदि। ३. चंद्रमा।

पतसर
संज्ञा पुं० [सं० शरपत्र] सरपत। उ०—चारो और फैले पतसर के जंगल।—भस्मावृत०, पृ० १०६।

पतसाई †
संज्ञा स्त्री० [फा़० पादशाही] बादशाह का आधिकार। राज्य। उ०—कोटी करै वारै पतसाई।—राम० धर्म०, पृ० १९९।

पतसाह पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० पादशाह] सम्राट्। नृपति। उ०—इती जो न अब करूँ तौ न पतसाह कहाऊँ।—ह० रासो, पृ० ६४।

पतसाही
संज्ञा पुं० [हिं० पादशाही] दे० 'पादशाही'। उ०— सरू थया मारग सगला ही। सोच दलाँ मिटियौ पतसाही।—रा० रू०, पृ० २६२।

पतस्वाहा
संज्ञा पुं० [हिं०] अग्नि।

पता (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रत्यय, प्रा० पत्तअ (= ख्याति), या सं० प्रत्यायक, प्रा० प्त्ताअअ > पताअ > हिं० पता] १. किसी विशेष स्थान का ऐसा परिचय जिसके सहारे उस तक पहुँचा अथवा उसकी स्थिति जानी जा सके। किसी वस्तु या व्यक्ति के स्थान का ज्ञान करानेवाली वस्तु, नाम या लक्षण आदि। किसी का स्थान सूचित करनेवाली बात जिससे उसको पासकें। किसी का अथवा किसी के स्थान का नाम और स्थिति परिचय जैसे,—(क) आप अपने मकान का पता बतावें तब तो कौई वहाँ आवे। (ख) आपका वर्तमान पता क्या है। क्रि० प्र०—जानना।—देना।—बताना।—पूछना। यौ०—पता ठिकाना = किसी वस्तु का स्थान और उसका परिचय। २. चिट्टी की पीठ पर लिखा हुआ वह लेख जिससे वह अभीष्ट स्थान को पहुँच जाती है। चिट्ठी की पीठ पर लिखी हुई पते की इबारत। क्रि० प्र०—लिखना। ३. खोज। अनुसंधान। सुराग। टोह। जैसे,—आठ रोज से उसका लड़का गायब है, अभी तक कुछ भी पता नहीं चला। क्रि० प्र०—चलना।—देना।—मिलना।—लगना।—लेना। यौ०—पता निशान = (१) खोज की सामग्री। वे बातें जिनसे किसी के संबंध में कुछ जान सकें। जैसे,—अभी तक हमको अपनी किताब का कुछ भी पता निशान नहीं मिला। (२) अस्तित्वसूचक चिह्न। नामनिशान। जैसे,—अब इस इमारत का पता निशान तक नहीं रह गया। ४. अभिज्ञता। जानकारी। खबर। जैसे,—आप तो आठ रोज इलाहाबाद रहकर आ रहे हैं, आपको मेरे मुकदमें का अवश्य पता होगा। क्रि० प्र०—चलना।—होना। ५. गूढ़ तत्व। रहस्य। भेद। जैसे,—इस मामले का पता पाना बड़ा कठिन है। क्रि० प्र०—देना।—पाना। मुहा०—पते की = भेद प्रकट करनेवाली बात। रहस्य खोलनेवाली बात। रहस्य की कुंजी। जैसे,—वह बहुत पते की कहता है। पते की बात = भेद प्रकट करनेवाली बात। रहस्य खोलनेवाला कथन।

पता (२)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र] दे० 'पत्ता'। उ०—(क) मंजु वंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पता ऐसे सधन जो सूर्य की किरनों को भी नहीं निकलने देते।—श्यामा०, पृ० ४२। (ख) आनँदघन ब्रजजीवन जेंवत हिलिमिलि ग्वार तोरि पतानि ढाक।—घनानंद, पृ० ४७३।

पताई
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र] किसी वृक्ष या पौधे की वे पत्तियाँ जो सूखकर झड़ गई हों। झड़ी हुई पत्तियों का ढेर। मुहा०—पताई लगाना = दहकाने के लिये आग में सूखी पत्तियाँ झोंकना। (किसी के) मुँह में पताई लगाना = (किसी का) मुँह फूँकना। (किसी के) मुँह में आग लगाना। (स्त्रियों की गाली)।

पताक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पताक] दे० 'पताका'। उ०—नीच न सोहत मंच पर महि मैं सोहत धी। काक न सोह पताक पै सजै हंस सर तीर।—दीन ग्रं०, पृ० ७९।

पताकरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक वृक्ष जो बंगाल आसाम और पश्चिमी घाट में होता है। इसकी लकड़ी सफेद रंग की और मजबूत होती है और गृहनिर्माण में इसका बहुत उपयोग किया जाता है। इसके फल खाए जाते हैं।

पताकांक
संज्ञा पुं० [सं० पताकाङ्ग] दे० 'पताकास्थान'।

पताकांशु, पताकांशुक
संज्ञा पुं० [सं०] झड़ा। झंड़ी। पताका। पताका का कपड़ा।

पताका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लकड़ी आदि के डंडे के एक सिरे पर पहनाया हुआ तिकोना या चौकोना कपड़ा, जिसपर कभी कभी किसी राजा या संस्था का खास चिह्न या संकेत चित्रित रहता है। झंडा। झंड़ी। फरहरा। विशेष-दे० 'ध्वज'। उ०—धवल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२। विशेष—साधारणतः मंगल या शोभा प्रकट करने के लिये पताका का व्यवहार होता है। देवताओं के पूजन में भी लोग पताका खड़ी करते या चढ़ाते हैं। युद्धयात्रा, मंगलयात्रा आदि में पताकाऐँ साथ साथ चलती हैं। राजा लोगों के साथ उनके विशष चिह्न से चित्रित पताकाएँ चलती हैं। कोई स्थान जीतने पर राजा लोग विजयचिह्न स्वरूप अपनी पताका वहाँ गाड़ते हैं। पर्या०—कंदुली। कदली। कदलिका। जयंती। चिह्न। ध्वजा। वैजयंती। क्रि० प्र०—उड़ना।—उड़ाना।—फहराना। मुहा०—(किसी स्थान में अथवा किसी स्थान पर) पताका उड़ाना = अधिकार होना। राज्य होना। जैसे,—कोई समय था जब इस सारे देश में राजपूतों की ही पताका उड़ा करती थी। समकक्षरहित होना। सर्वप्रधान होना। सबसे श्रेष्ठ माना जाना। जैसे,—आज व्याकरण शास्त्र में अमुक पंडित की पताका उड़ रही है। (किसी वस्तु की) पताका उड़ाना = प्रसिद्ध होना। धूम होना। जैसे,—(क) आपकी दानशीलता की पताका चारों ओर उड़ रही है। पताका उड़ाना = आधिकार करना। विजयी होना। जैसे,—घबराने की बात नहीं, आज नहीं तो कल आप अवश्य ही इस दुर्ग पर अपनी पताका उड़ावेंगे। पताका गिरना = हार होना। परा- जय होना। जैसे,—दिन भर शत्रुओं के नाकों चने चबवाने के पीछे अंत को सायंकाल पराक्रमी राजपूतों की पताका गिर गई। पताकापतन या पताकापात = पताका गिरना। पताका फहराना = (१) पताका उड़ाना। (२) पताका उडाना विजय की पताका = विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाय। विजयसूचक पताका। २. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ३. सौभाग्य। ४. तीर चलाने में उँगलियों का एक विशेष न्यास या स्थिति। ५. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी--१०,००,००,००,००,०००,।६. नाटक में वह स्थल जहाँ किसी पात्र के चिंतागत भाव या विषय का समर्थन या पोषण आगंतुक भाव से हो। विशेष—जहाँ एक पात्र एक विषय में कोई बात सोच रहा हो और दूसरा पात्र आकर दूसरे संबंध में कोई बात कहे, पर उसकी बात से प्रथम पात्र के चिंतागत विषय का मेल या पोषण होता हो वहाँ यह स्थल माना जाता है। विशेष दे० 'नाटक'। ७. पिंगल के ९ प्रत्ययों में से ८ वाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गरुलघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय। विशेष—उदाहरणार्थ, प्रस्तार द्वारा यह मालूम हुआ कि ८ मात्राओं के कुल ३४ छंदभेद होते हैं और मेरु प्रत्यय द्वारा यह भी जाना गाया कि इनमें से ७ छंद १ गुरु और ६ लघु वर्ण के होंगे। अब यह जानना रहा कि ये सातों छंद किस किस स्थान के होंगे। पताका की क्रिया से यह ज्ञात होगा कि १३ वें, २१ वें, २६ वें, २९ वें, ३१ वें, ३२ वें, ३३ वें, स्थान के छंद १ गुरु और ६ लघु के होंगे। ८. नाटयशाल अनुसार प्रासंगिक कथावस्तु के दो भेदों में से एक। वह कथावस्तु जो सानुबंध हो और बराबर चलती रहे। प्रासंगिक कथावस्तु का दूसरा भेद 'प्रकरी' है।

पताकादंड
संज्ञा पुं० [सं० पताकादण्ड] पताका का डंडा। झंडे का डंडा। ध्वजदंड।

पताकास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में वह स्थान जहाँ पताका हो। दे० 'पताका—६'।

पताकास्थानक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पताकास्थान'।

पताकिक
संज्ञा पुं० [सं०] पताकाधारक। झंडाबरदार। झंडी उठानेवाला।

पताकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना। ध्वजिनी। २. एक देवी।

पताकी
संज्ञा पुं० [सं० पताकिन्] [स्त्री० पताकिनी ?] १. पताका- धारी। झंड़ी उठानेवाला। २. रथ। ३. एक योद्धा जो महाभारत में कौरवों की ओर से लड़ा था। ४. झंड़ा। ध्वज। ५. फलित ज्योतिष में राशियों का एक विशेष वेध जिससे जातक के अरिष्ट काल की अवधि जानी जाती है।

पतापत
वि० [सं०] अतिशय पतनशील। बहुत गिरा हुआ [को०]।

पतामी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव।

पतार पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाताल] १. दे० 'पाताल'। उ०— विक्रय धसाँ पेम के बाराँ। सपनावति कहँ गएउ पताराँ।—पदमावत, पृ० २७६। २. जंगल। सधन वन। उ०— निकसि ताड्डका बन ते रघुपति निरख्यो दूरि पहारा। ताके निकट मेघ इव मंडित देख्यो श्याम पतारा।—रघुराज (शब्द०)।

पतारी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बत्तख की जाति का एक जलपक्षी। विशेष—यह उत्तर भारत में जलाशयों के किनारे पाया जाता है। ऋतु के अनुसार यह अपने रहने के स्थान में परिवर्तन करता रहता है। इसका शिकार किया जाता है।

पतारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रावती] लताकुंज। पत्रावली। उ०— तैसी झुकी रही लतारी। तैसे सोभित नवल पतारी। तामै अटकी रहै सारी। तेही आप छुड़ावत व्पारी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १२४।

पताल
संज्ञा पुं० [सं० पाताल] दे० 'पाताल'। उ०—ल्यावै आसमान तैं पताल तैं पकरि, पारावार तैं कढ़ावै थाह लेत न थकन है।—हम्मीर०, पृ० ११।

पताल आँवला
संज्ञा पुं० [सं० पातालआमलकी अथवा भूम्यामल- की] औषध के काम में आनेवाला एक पौधा (क्षुप)। विशेष—यह बहुत बड़ा नहीं होता। पत्ते के नीते पतली डंडी निकलती है। इसी में फल लगते हैं। वैद्यक के अनुसार यह कडुवा, कषैला, मधुर, शीतल, वातकारक, प्यास, खाँसी, रक्तपित्त, कफ, पांडुरोग, क्षत विष का नाशक तथा पुत्र- प्रदायक है। पर्य्या०—भूम्यामलकी। शिवा। ताली। क्षेत्रामली। तामलकी। सूक्ष्मफला। अफला। अमला। बहुपुत्रिका। बहुवीर्या। भूधात्री, आदी।

पतालकुम्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पताल + कुम्हड़ा] एक प्रकार का जंगली पौधा जिसकी बेल शकरकंद की लता की तरह जमीन पर फैलती है और शकरकंद ही की तरह जिसकी गाँठों से कंद फूटते है। कंदों का परिमाण एक सा नहीं होता, कौई छोटा और कौई बहुत बड़ा होता है। यह दवा के काम में आता है।

पतालदंती
संज्ञा पुं० [सं० पातालदन्ती] वह हाथी जिसका दाँत नीचे की और झुका हो। वह हाथी जिसके दाँत का झुकाव भूमि की और हो। ऐसा हाथी ऐबी समझा जाता है।

पतावर
संज्ञा पुं० [हिं० पत्ता] पेड़ के सूखे हुए पत्ते।

पतासी
संज्ञा स्त्री० [देश०] बढ़इयों का एक औजार। छोटी रुखानी।

पतिंग
संज्ञा पुं० [पतङ्ग] पतंग। फतिंगा। भुनगा। उ०— इहाँ देवता अस गए हारी। तुम पतिंग को अहौ भिखारी। जायसी (शब्द०)।

पतिंवरा
वि० [सं० पतिम्वरा] १. (स्त्री) जो अपना पति स्वयं चुने। स्वेच्छा से पति को वरण करनेवाली (स्वयंवरा)। २. काला जीरा। कृष्णजीरक।

पति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पत्नी] १. किसी वस्तु का मालिक। स्वामी। आधिपति। प्रभु। जैसे, भूमिपति, गृहपति आदि। २. स्त्री विशेष का विवाहित पुरुष। किसी स्त्री के संबंध में वह पुरुष जिसका उस स्त्री ब्याह हुआ हो। पणिग्राहक। भर्ता। कांत। दूल्हा। शौहर। खाविंद। विशेष—साहित्य में पति या नायक चार प्रकार के होते हैं— अनुकूल, दक्षिण, धृष्ट और शठ। 'अनुकूल' वह पति है जो एक ही स्त्री पर पूर्णरूप से अनुरक्त हो और दूसरी की आकांक्षा तक न रखता हो। 'दक्षिण' वह है जिसके प्रणय का आधार अनेक स्त्रियाँ हों, पर जिसकी उन सबपर समान प्रीति हो अथवाजो अनेक स्त्रियों का समान प्रितिपात्र हो। 'धृष्ट' वह है जो तिरस्कार और अपमान सहकर भी अपना काम बनाता है, जिसके लज्जा और मान नहीं होता। 'शठ' वह कहलाता है जो छल कपट में निपुण हो, जो वचनचातुरी से या झूठ बोलकर अपना काम निकाले। इनके अतिरिक्त किसी-किसी आचार्य ने 'अनभिज्ञ' नाम से पति का पाँचवाँ भेद भी माना है। यह हाव भाव आधि शृंगार चेष्टाओं का अर्थ समझने में असमर्थ होता है। ३. पाशुपत दर्शन के अनुसार सृष्टि, स्थिति और संहार का वह कारण जिसमें निरतिशय, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति हो और ऐश्वर्य से जिसका नित्य संबंध हो। शिव या ईश्वर। ४. मर्यादा। प्रतिष्ठा। लज्जा। इज्जत। साख। दे० 'पत'। उ०—(क) अंब पति राखि लेहु भगवान।—सूर (शब्द०) (ख) तुम पति राखी प्रह्लाद दीन दुख टोरा।—गणेश प्रसाद (शब्द०)। ५. मूल। जड़। ६. गति। गमन (को०)।

पति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा] दे० 'पत'। यौ०—पतिपानी = दे० 'पतपानी'। उ०—सुमिरौं मैहर कै भवानी तूँ पतिपानी राख मोर।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४०१।

पतिआ †
संज्ञा स्त्री० [सं० पान्निका] पन्न। चिट्ठी। उ०—के पतिआ लऐ जाएत रे मोरा पियतम पास।—विद्यापति, पृ० ३६५।

पतिआना †
क्रि० स० [सं० प्रत्यय, प्रा० पत्तय + हिं० आना (प्रत्य०)] विश्वास करना। सच मानना। प्रतीत करना। एतबार करना। मानना।

पतिआर पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पतिआना] पतिआने का भाव। विश्वास। खास। एतबार। मातबरी।

पतिआर (२)
वि० दे० 'पतियार'।

पतिक
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिकः] कार्षापण नाम का एक प्राचीन सिक्का।

पतिकामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति की अभिलाषा करनेवाली (स्त्री)] । पतिप्राप्ति की इच्छा रखनेवाली (स्त्री)।

पतिखेचर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव [को०]।

पतिग पु
संज्ञा पुं० [सं० पातक] पाप। कल्मष। उ०—गंगा गया छै तीरथ योग, वाणारसी तिहाँ परसजे, तिणि दरसण जाई पतिग न्हासि।—वी० रासो, पृ० ३५।

पतिघातिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पति की हत्या करनेवाली स्त्री। पति को मार डालनेवाली स्त्री। २. वह स्त्री, जिसका ज्योतिष या सामुद्रिक के अनुसार विधवा हो जाना संभव हो। वैधव्य योग अथवा लक्षणवाली स्त्री। विशेष—कर्कट लग्न अथवा कर्कटस्थ चंद्रमा में मंगल के तीसवें अंश में जन्म ग्रहण करनेवाली, जिसकी हथेली पर अँगूठे के निचले भाग से छिंगुनी कें निचले भाग तक सीधी रेखा हो, जिसकी आँखें लाल हों अथवा जिसकी नाक के सिरे पर काला मसा हो, जिसकी छाती अधिक उभरी या फैली हुई हो, जिसके ऊपर के ओंठ पर रोएँ हों—ऐसी सब स्त्रियाँ पतिधातिनी कही गई हैं। ३. वैधव्यसूचक एक विशेष हस्तरेखा। स्त्री की हथेली पर वह रेखा जो अँगूठे की जड़ से छिंगुनी की जड़ तक होती है।

पतिध्न
वि० [सं०] वैधव्यसूचक लक्षण का योग।

पतिध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पतिध्न योग या लक्षणवाली स्त्री।

पतिजिया †
संज्ञा० स्त्री० [सं० पुत्रजीवा] जीयापोता नामक वृक्ष।

पतित
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। ऊपर से नीचे आया हुआ। २. आचार, नीति या धर्म से गिरा हुआ। आचारच्युत। नीतिभ्रष्ट या धर्मत्यागी। ३. महापापी। अतिपातकी। नरकदायक पाप का कर्ता। ४. जाति से निकाला हुआ। समाज द्वारा बहिष्कृत। जातिच्युत। जाति या समाज से खारिज। विशेष—हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार आपदकाल न होने पर भी स्वधर्म के नियमों का उल्लंघन करनेवाला पतित होता है। आग लगनेवाला, विष देनेवाला, दूसरे का अपकार करने की नीयत से फाँसी लगाकर, ड़ूबकर या जलकर मर जानेवावा, ब्रह्महत्याकारी, सुरा पान करनेवाला, गुरुपत्नी- गामी, नास्तिक, चोर, मद्यप, चांडाल स्त्री से मैखुन करने अथवा चांड़ाल का दान लेने या अन्न खानेवाला ब्राह्मण तथा किसी अन्य महा या अतिपातक का कर्ता पतित माना जाता है। शुद्धितत्व के अनुसार पतित का दाह, अंत्येष्टक्रिया, अस्थिसंचय, श्राद्ध यहाँ तक की उसके लिये आँसू बहाना तक अकर्तव्य है। पतित का संसर्ग, उसके साथ भोजन, शयन या बातचित करनेवाला भी पतित होता है। पर पतितसंसर्ग के कारण पतित व्यक्ति का श्राद्ध, तर्पण आदि निषिद्ध नहीं है। माता के अतिरिक्त अन्य सव व्यक्ति पतित दशा में त्याज्य हैं। गर्भधारण और पोषण के कारण माता किसी दशा में त्याज्य नहीं है। प्रायश्चित्त करने से पतित व्यक्ति की शुद्धि होती है। ५. अत्यंत मलीन। महा अपावन। ६. युद्धादि में पराजित या हारा हुआ (को०)। ७. अति नीच। अधम। यौ०—पतितउधारन। पतितपावन।

पतितउधारन पु (१)
वि० [सं० पतित + हिं० उधारन (सं० उद्धरण)] जो पतित का उद्धार करे। पतितों को गति देनेवाला।

पतितउधारन (२)
संज्ञा पु० १. ईश्वर। २. सगुण ईश्वर। पतित जानों के उद्धार के लिये अवतार लेनेवाला ईश्वर।

पतितता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पतित होने का भाव। जाति या धर्म से च्युत होने का भाव। २. अपवित्रता। ३. अधमता। नीचता।

पतितत्व
संज्ञा स्त्री० [सं० पतितत्त्व] पतित होने का भाव।

पतितपावन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पतितपावनी] पतित को पवित्र करनेवाला। पतित को शुद्ध करनेवाला।

पतितपावन (२)
संज्ञा पु० १. ईश्वर। २. सगुण ईश्वर।

पतितवृत्त
वि० [सं०] पतित दशा में रहनेवाला। जातिच्युत होकर जीवन बितानेवाला।

पतितव्य
वि० [सं०] पतन के योग्य। गिरनेवाला।

पतितसवित्रीक (१)
वि० [सं०] जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो या विधिपूर्वक न हुआ हो। सावित्रीभ्रष्ट (क्षत्रियादि)।

पतितसवित्रीक (२)
संज्ञा पु० प्रथम तीन प्रकार के व्रात्यों में से एक।

पतिव्य
संज्ञा पु० [सं०] १. स्वामी, प्रभु या मालिक होने का भाव। स्वामित्व। प्रभुत्व। २. पाणिग्राहक या पति होने का भाव। पाणिग्राहकता। वरत्व।

पतिदेव पु
वि० स्त्री० [सं० पतिदेवा] दे० 'पतिदेवता'। उ०—तेरे सुसील सुभाव भटू, कुल नारिन को कुलकानि सिखाई। तैही जनो पतिदेवत के गुन गौरि सबै गुनगौर पढ़ाई।—मति० ग्रं०, पृ० २७५।

पतिदेवता
वि० [सं०] जिस (स्त्री) के लिये केवल पति ही देवता हो। जिस (स्त्री) का आराध्य या उपास्य एक- मात्र पति हो। पतिव्रता। उ०—पतिदेवता सुतीय महँ मातु प्रथम तव रेख।—तुलसी (शब्द)।

पतिदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पतिदेवता'।

पतिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. पति का धर्म। स्वामी का कर्तव्य। २. पति के प्रति स्त्री का धर्म। पति के संबंध में पत्नी के कर्तव्य।

पतिधर्मवती
वि० [सं०] पतिसंबंधी कर्तव्यों का भक्तिपूर्वक पालन करनेवाली (स्त्री)। पति की भनी भाँति सेवा शुश्रूषादि करनेवाली (स्त्री)। पतिव्रता।

पतिध्रुक
वि० [सं०] पति को न चाहनेवाली (स्त्री)।

पतिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्नी] दे० 'पत्नी'। उ—पट कुचैल, दुरबल द्विज देखत, ता के तंदुल खाए हो। संपति दै वाकी पतिनी कौं मन अभिलाष पुराए हो।—सूर०, १। ७।

पतिप्राण
संज्ञा स्त्री० [सं०] पतिव्रता स्त्री।

पतिबरता †
वि० [सं० पतिव्रता] दे० 'पतिव्रता'। उ०—सब समर्थ पतिवरता नारी इन सम और न आन।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६७९।

पतिव्रत पु
संज्ञा पुं० [सं० पतिव्रता] दे० 'पतिव्रता'। उ०—रानी रमा को विसारि पतिव्रत दै मन गोपी सनेह बिसाहो।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९९।

पतिभक्ति
वि० स्त्री [सं०] पति की सेवा करना।

पतिभरता पु
वि० स्त्री [सं० पतिव्रता ] दे० 'पतिव्रता'। उ०—हम पतिभरता पुरुष बिन, कौन दिशा चित कौ धरै।—ह० रासो, पृ० १२०।

पतिमती
वि० स्त्री [सं०] सधवा। पतिवंती [को०]।

पतिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रिका] पत्री। चिट्टी। उ—रानी पतिया पठाय, जीव जनि मारिया।—धरम०, पृ० ४।

पतियान
वि० [सं०] पति का पदानुसरण करनेवाली। पति की अनुगामिनी।

पतियाना †
क्रि० स० [सं० प्रत्यय + हिं० आना (प्रत्य०)] विश्वास करना। सच मानना। प्रतीत करना। उ०—प्रिय बिना प्रिया से रहा नहीं याता था। पर उनको उसका हरिण न पतियाता था।—शंकु०, पृ० १५।

पतियार †
वि० [हिं० पतियाना] विश्वास करने के योग्य। विश्व— सनीय। उ०—तीन लोग भरि पूरि है नाँहीं है पतियार।—कबीर (शब्द०)।

पतियारा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पतियाना] पतियाने का भाव। विश्वास। एतबार। उ०—तुमसों और पास नहिं कोऊ मानहु करि पतियारे। हरीचंद खोजत तुमहीं को बेद पुरान पुकारे।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १३३।

पतियारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतियारा] विश्वास। एतबार। उ०—बेद पुरान सिधारौं तहाँ 'हरिचंद' जहाँ तुम्हारी पतियारी। मेरे तो साधन एक ही हैं जग नंदलला वृषभानु दुलारी।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९।

पतिरिपु
वि० [सं०] पति से द्वेष करनेवाली (स्त्री)। पति से बैर रखनेवाली।

पतिलंघन
संज्ञा पुं० [पुं० पतिलङ्घन] १. पति के नाँघना। पति के रहते अन्य से विविह कर लेना। २. पति की आज्ञा का उल्लंघन करना [को०]।

पतिलीन पु
वि० [हिं० पति (= प्रतिष्ठा) + सं० लीन] संमान- हीन। प्रतिष्ठाहीन। उ०—अति दीनन की गतिहीनन की पतिलीनन की रति के मन हौ। सब ही बिधि जान, करौ सुखदान, जिवावन प्रान कृपातन हौ।—घनानंद, पृ० ११०।

पतिलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पति को प्राप्त स्वर्ग जो पतिव्रता स्त्री को प्राप्त होता है। पतिव्रता स्त्री को मिलनेवाला बह स्वर्ग जिसमें उसका पति रहता है।

पतिवंती
वि० [सं० पतिवती] पतिवती। सधवा। सभर्तृका।

पतिवती
वि० [सं० पति + हि० वंती (प्रत्य०)] सधवा (स्त्री)। सौभाग्यवती।

पतिवत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौभाग्यवती स्त्री [को०]।

पतिवरत पु
संज्ञा पुं० [सं० पतिव्रत] दे० 'पतिव्रत'। उ०— जलबा काज नरुकी जादम। धुर ऊठी पतिवरत तणै ध्रम।—रा० रू०, पृ० १७।

पतिवर्त पु
संज्ञा पुं० [सं० पतिव्रत] दे० 'पतिव्रत'।

पतिवर्ता पु
वि० [सं० पतिव्रता] दे० 'पतिव्रता'।

पतिवेदन (१)
वि० [सं०] जो पति को प्राप्त करावे। पति का लाभ करानेवाला।

पतिवेदन (२)
संज्ञा पुं० महादेव। शिव।

पतिव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] पति में (स्त्री की) अनन्य प्रीति और भक्ति। पति में निष्ठापूर्वक अनुराग। पतिव्रत्य।

पतिव्रता
वि० [सं०] पति में अनन्य अनुराग रखनेवाली और यथाविधि पतिसेवा करनेवाली (स्त्री)। जिस (स्त्री) का प्रेमपात्र और उपास्य एकमात्र पति हो। सब प्रकार पति के अनुकूल आचरण करनेवाली (स्त्री)। सती।साध्वी। सच्चरित्रा। उ०—विमुख हुई मौनव्रत लेकर उस खल के प्रति पतिव्रता।—साकेत, पृ० ३८९। विशेष—मन्वादि स्मृतियों के अनुसार पतिव्रता स्त्री के आजन्म पति की आज्ञा का अनुसरण करना चाहिए। केई ऐसी बात न करनी चाहिए जो पति को अप्रिय हो। पति कितना ही दुश्शील क्यों न हो, पतिव्रता को सदा सर्वदा उसे अपना देवता मानना चाहिए। जो बातें पति को अप्रिय हो उसकी मृन्यु के पश्चात भी वे पतिव्रता के लिये अकर्तव्य है। पति की मृन्यु को अनंतर पतिव्रता स्त्री को फल, मूल आदि खाकर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। पति के विदेश होने की दशा में उसे शृंगार, हासपरिहास, क्रिड़ा, सैर तमाशे में वा दूसरे के घर जाना आदि कार्य त्याग देना चाहिए। संपूर्ण व्रत, पूजा, तपस्या और आराधना त्यागकर पतिसेवा में रत रहना ही पतिव्रता के लिये एकमात्र धर्म है। पुत्र की अपेक्षा पति को सौगुना अधिक प्यार करे। पति उसे सब पापों से छुड़ा देता है। परपुरुष पर प्रेम कर पातिव्रता का उल्लंघन करनेवाली स्त्री श्रृगालयोनि में जन्म पाती है।

पतिष्ठ
वि० [सं०] अत्यंत पतनशील। गिरनेवाला।

पतिसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति की सेवा। पतिभक्ति [को०]।

पतिस्याह पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पातशाह'। उ०—बादित खाँ पतिस्याह सों, करी सलाँम सु आय।—ह० रासो पृ० ८१।

पतिहारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिहारी] दे० 'पटतर'। उ०— रंगभूमि बहु भाँति सँवारी। ताल मिवाइ करै पतिहारी।—माधवानल०, पृ० १९४।

पती
संज्ञा सं० [सं० पति] दे० 'पति'।

पतीजना पु
क्रि० अ० [हिं० प्रतित + ना (प्रत्य०)] पति- आना। एतबार करना। भरोसा करना। विश्वास करना। प्रतीत करना। उ० (क) तब देवकी दीन ह्वै भाष्यो नृप को नाहिं पतीजै।—सूर (शब्द)। (ख) बोल्यो विहँग विहाँस रघुवर बलि कहौ सुभाव पतीजै।—तुलसी (शब्द०)।

पतीनना पु
क्रि० सं० [हिं० प्रतीत + ना (प्रत्य०)] विश्वास करना। सच मानना। यकीन करना। उ०—देवै गर्भ भई है कन्या राइ न बात पतीनी हो।—सूर (शब्द०)।

पतीर †
संज्ञा स्त्री० [सं० पंङित] पाँति। कतार। पंक्ति।

पतीरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चटाई।

पतील †
वि० [हिं० पतला] दे० 'पतला'।

पतीला ‡
वि० [हिं०] दे० 'पतला'।

पतीली
संज्ञा स्त्री० [सं० पतिली (= हाँड़ी)] ताँबे या पीतल की एक प्रकार की बटलोई जिसका मुँह और पेंदि साधारण बटलोई की अपेक्षा अधिक चौड़ी और दल मोटा होता है। देगची।

पतुकी
संज्ञा स्त्री० [सं० पतिली] हाँड़ी। उ०—पतुकी धरी स्याम खिसाइ रहे उत ग्वारि हँसी मुख आँचल कै।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ८३।

पतुरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० पातिली (= स्त्री विशेष)] १. नाचने गाने का व्यवसाय करनेवाली स्त्री। वेश्या। रंडी। २. व्यभिचारिणी स्त्री। छिनाल स्त्री।

पतुली
संज्ञा स्त्री० [देश०] कलाई में पहनने का एक आभूषण जिसको अवध प्रांत की स्त्रियाँ पहनता हैं।

पतुही
संज्ञा स्त्री० [हिं० पत्ता] मटर की वह फली जिसके दाने, रोग, आधिदैविक बाधा या समय से पहले तोड़ लिए जाने के कारण यथेष्ट पृष्ट न हो सके हों। नन्हें नन्हें दानोंवाली छीमी।

पतूख
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतोखा] दे० 'पतोखी'।

पतूखी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पतोखी'। उ०—अँखिया हरि दरसन की भूखी। .....बारक वह मुख आनि दिखावहु दुहि पय पियत पतूखी।—सूर०, १०। ३५५७।

पतेना
संज्ञा स्त्री० [देश०] पक्षी विशेष। उ०— सुनाती है बोली, नहीं फूल सुँघनी, पतेना सहेली लगाती हैं फेरे।—हरी घास०, पृ० १३९।

पतोई
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह फेन जो गुड़ बनाते समय खौलते रस में उठता है।

पतोखद (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रौषध] वह ओषधि जो किसी वृक्ष, पौधे या तृण का पत्ता या फूल आदि हो। घासपात की दवाई। खरबिरई।

पतोखद (२)
संज्ञा पुं० [सं० ओषधिपति] चंद्रमा। (डिं०)।

पतोखदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पौत्रौषधि] दे० 'पतोखद (१)'।

पतोखा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पत्त] [अल्पा० पतोखी] पत्ते का बना पात्र। दोना।

पतोखा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बगला जो मलंग बगले से छोटा और किलचिया से बड़ा होता है। इसका पर खूब सफेद, नरम, चिकना और चमकीला होता है। टोपियों आदि के बनाने में प्रायः इसी के पर काम में लाए जाते हैं। पतंखा।

पतोखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पतोखा] १. एक पत्ते का दोना। छोटा दोना। २. पत्तों का बना छोटा छाता। घोघी।

पतोरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पत्योरा'।

पतोह †
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्रबधू] दे० 'पतोहू'।

पतोहरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रोदरी] क्षीण कटिवाली स्त्री। उ०— सखिजन प्रेरंते, हसि हेरंते सआनी लारुमी पातरी, पतोहरी, तरुणी, तरहट्टी वन्ही विअष्खणी परिहास पेसणी सुंदरी साथ जवे देखिअ।—कीर्ति० पृ० ४। † २. पुत्रवधू।

पतोहू †
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्रवधू प्रा० पुत्तबहू] बेटे की स्त्री। पुत्रवधू।

पतौआ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, हिं० पत्ता] पत्ता। पर्ण।

पतौवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पतोआ'। उ०—(क) जाने, बिनु जाने, कै रिसाने, केलि कबहुँक सिवहिं चढ़ाए ह्वै हैं बेल केपतौवा द्वै।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२८। (ख) झारिकै पतौवा गए बाहिर लै डारिबै के दाखी भीर भार, रहे बैठिये रसाल हैं।—झक्तमाल (श्री०), पृ० ४५८।

पत्तंग
संज्ञा पुं० [सं० पत्तङ्ग] पतंग नामक लकड़ी। बक्कम।

पत्त पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, प्रा० पत्त] दे० 'पत्र'। उ०— पत्त पुरातन झरिग पत्त अंकुरिग उट्ठ तुछ। ज्यों सैसव उत्तरिय चढ़िय सैसव किसोर कुछ।—पृ० रा०, २५। ९६।

पत्त (२)
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट या पत्र (= लेखाधार)] पट्ट। पटरी। उ०— सुनि हंस बैन उर लगी बत्त। विधिना लिषंत क्यों मिटै पत्त।—पृ० रा०, २५। १२०।

पत्त पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पति'। उ०—साहाँ ऊथप थप्पणौ। यह नरनाहाँ पत्त राह दुहूँ हद रक्खणौ अभैसाह छतपत्त।—रा० रू०, पृ० १०।

पत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर। शहर। विशेष—प्राचीन समय में नगरों के नाम के साथ इस शब्द का प्रयोग होता था। जैसे, प्रभासपत्तन। अब इसका अपभ्रंश पाटन या पट्टन अनेक नगरों के नाम के साथ संयुक्त है। जैसे, झालरापाटन, विजगापट्टन, मुसलीपट्टन आदि। कभी कभी इस शब्द का प्रयोग उस नगर के लिये भी होता था जहाँ बंदरगाह होता था और जो समुद्री यात्रियों और व्यापारियों के कारण छोटा नगर हो जाता था। यौ०—पत्तनवणिक = नगर का वणिक। शहर का व्यापारी। २. मृदंग।

पत्तनाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बंदरगाह का अध्यक्ष या प्रधान अधिकारी (कौटि०)।

पत्तर
संज्ञा पुं० [सं० पत्र] १. धातु का ऐसा चिपटा लंबोतरा टुकड़ा जो पीटकर तैयार किया गया हो और पत्ते की तरह पतला होने पर भी कड़ा हो तथा जिसकी तह या परत की जा सके। धातु की चादर। जैसे,—(क) मंदिर के शिखर पर सोने का पत्तर चढ़ा है। (ख) यंत्र बनाने के लिये ताँबे का एक पत्तर ले आओ। विशेष—कागज की तरह महिन पत्तर जो झट मोड़ा और तह किया जा सके 'वर्क' कहलता है। २. दे० 'पत्तल'।

पत्तल
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र, हिं० पत्ता] १. पत्तों को सींकों से जोड़कर बनाया हुआ एक पात्र जिससे थाली का काम लिया जाता है। विशेष—पत्तल प्रायः बरगद, महुए या पलास आदि के पत्तों की बनाई जाती है। इसकी बनावट गोलाकार होती है। व्यास की लंबाई एक हाथ से कुछ कम या अधिक होती है। हिंदुओं के यहाँ बड़े भोजों में इसी पर भोजन परसा जाता है। अन्य अवसरों पर भी इसका थाली के स्थान पर उपयोग किया जाता है। जंगली मनुष्य तो सदा इसी में खाना खाते हैं। मुहा०—एक पत्तल के खानेवाले = परस्पर घनिष्ठ सामाजिक संबंध रखनेवाले। परस्पर रोटी बेटी का व्यवहार करनेवाले। अत्यंत सवर्गीय या सजातीय। किसी की पत्तल में खाना = किसी के साथ खानपान आदि का संबंध करना या रखना। जैसे,—बला से वह बुरा है, पर किसी के पत्तल में खाने तो नहीं जाता। जिस पत्तल में खाना उसी में छेद करना = उपकारक का अपकार करना। जिससे लाभ उठाना उसी की हानि करना। कृतध्नता करना। जैसे,—दुष्टों का यह स्वभाव ही है कि जिस पत्तल में खाँय उसी में छेद करें। पत्तल पड़ना = भोजन के लिये पत्तल बिछना। भोज के समय लोगों के सामने पत्तलों का रखा जाना। पत्तल पर- सना = (१) भोजन के सहित पत्तल सामने रखना। (२) पत्तल में भोजन की वस्तुएँ रखना। पत्तल में खाना परसना। पत्तल लगाना = दे० 'पत्तल परसना'। २. पत्तल में परसी हुई भोजन सामग्री। जैसे,—(क) उसने ऐसी बात कही कि सबके सब पतल छोड़कर उठ गए। (ख) पंडित जी तो आए नहीं, उनके घर पत्तल भेज दो। मुहा० —पत्तल खोलना = वह कार्य कर डालना जिसके करने के पहले भोजन न करने की शपथ हो। बँधी पत्तल खोलना। पत्तल बाँधना = कोई पहेली कहकर उसके बूझने के पहले भोजन न करने की शपथ देना। उ०—बाँधी पत्तल जो कोई खावे। मूरख पंचन माँह कहावे। (कहावत)। विशेष—कहीं कहीं विवाह में बरातियों के सामने पत्तल परस जाने के पीछे कन्या पक्ष की कोई स्त्री एक पहेली कहती या प्रश्न करती है और जबतक बरातियों में से कोई एक उसको बूझ न ले अथवा उसका उत्तर न दे दे तबतक उनको भोजन न करने की कसम देती है। इसी को पत्तल बाँधना कहते हैं। यौ०—जूठी पत्तल = उच्छिष्ट। जूठा। ३. एक आदमी के खाने भर भोजन सामग्री जी किसी को दी जाय या कहीं भेजी जाय। पत्तल भर दाल, चावल या पूरी, लड्डू आदि। परोसा। जैसे,—अमुक मंदिर से उसे प्रतिदिन चार पत्तलें मिलती हैं।

पत्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, पत्रक] [स्त्री० पत्ति] १. पेड़ या पौधे के शरीर का वह हरे रंग का फैला हुआ अवयव जो कांड या टहनी से निकलता है और थोड़े दिनों के पीछे बदल जाता है। पलास। पत्रक। पर्ण। छदन। छादन। वर्ह। वर्हन। विशेष—पत्ते के बीच की जो मोटी नस होती है वह पीछे की ओर टहनी से जुड़ी होती है। वह नस आगे की ओर उत्तरोत्तर पतली होती जाती है। इस नस के दोनों ओर अनेक पतली नसें निकलती हैं। ये खड़ी और ओड़ी नसें ही पत्ते का ढाँचा होती हैं। नसों का यह जाल हरे आच्छादन से ढका होता है। बहुत से वृक्षों और पौधों के पत्तों का अंतिम भाग नोकदार अथवा कुछ कुछ गावदुम होता है, पर कुछ के पत्ते बिलकुल गोल भी होते हैं। नया निकला हुआ पत्ता हरापन लिए लाल होता है। इस अवस्था में उसे 'कोपल' कहते हैं। कुछ पेड़ों के पत्ते प्रतिवर्ष पतझड़ के दिनों में झड़ जाते हैं। इस समय वे प्रायः वर्णहीन होते हैं। इन दो अवस्थाओं के अतिरिक्त अन्य सब समय पत्ता हरा ही होता है। पत्ता वृक्ष या पौधे के लिये बड़े काम का अंग है। वायु से उसे जो आहार मिलता है। वह इसी के द्वारा मिलता है। निरिंद्रिय आहार को सेंद्रिय द्रव्य में परिवर्तित कर देना पत्ते ही का काम हैं। कुछ वृक्षों के पत्ते हाथ का भी काम देते हैं। इनके द्वारा पौधे वायु में उड़ानेवाले कीड़ों को पकड़कर उनका रक्त चूसते हैं। महा० —पत्ता खड़ाना = किसी के पास आने की आहट मिलना। कुछ खटका या आशंका होना। आशंका की कोई बात होना। जैसे,—पत्ता खड़का, बंदा भड़का।—(कहावत)। पत्ता तोड़कर भागना = बड़े बेग से दौड़ते हुए भागना। सिर पर पैर रखकर भागना। पत्ता न हिलना = हवा में गति न होना। हवा का बिलकुल बंद होना। हब्स होना। जैसे,— आज सारे दिन पत्ता न हिला। पत्ता लगना = पत्ते में सटे रहने के कारण फल में दाग पड़ जाना वा उसका कुछ अंश सड़ जाना। पत्ता हो जाना = इतनी तेजी से दौड़कर जाना कि लोग वाग देख न सकें। क्षणमात्र में अदृश्य हो जाना। उड़न छू हो जाना। काफूर हो जाना। उड़ जाना। २. कान में पहनने का एक गहना जो वालियों में लटकाया जाता है। ३. मोटे कागज का गोल या चौकोर खंड। जैसे, ताश का पत्ता, गंजीफे का पत्ता, तागे का पत्ता। ४. धातु की चादर। पत्तर। ५. नाव के डाँड़े का वह अगला भाग जिसमें तख्ती जड़ी रहती है और जिसकी सहायता से पानी काटा जाता है। फन। (लश०)।

पत्ता (२)
वि० बहुत हलका।

पत्ति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैदल सिपाही। प्यादा। २. पैदल चलनेवाला। पत्तिक। पदातिक। २. शूरवीर पुरुष। योद्धा। बहादुर।

पत्ति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल में सेना का सबसे छोटा विभाग जिसमें एक रथ, एक हाथी, तीन घोड़े और पाँच पैदल होते थे। किसी किसी के मत से पैदलों की संख्या ५५ होती थी। २. गति (को०)।

पत्तिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल में सेना का एक विशेष विभाग जिसमें १० घोड़े, १० हाथी, १० रथ और १० प्यादे होते थे। २. उपर्युक्त विभाग का अफसर। विशेष—प्राचीन काल में दस पत्तिक की संज्ञा 'सेना' थी जिसका नायक सेनापति कहाता था। ऐसी १० सेनाओं का नाम 'बल' था। इसके अधिकारी को 'बलाध्यज्क्ष' कहते थे।

पत्तिक (२)
वि० पैदल चलनेवाला।

पत्तिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सेना।

पत्तिगणक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन सेना में एक विशेष अधिकारी जिसका कर्तव्य पैदल सैनिकों की गणना करना तथा उन्हें एकत्र करना होता था।

पत्तिप
संज्ञा पुं० [सं०] पत्तिपाल।

पत्तिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच या छह सिपाहियों के ऊपर का अफसर। विशेष— प्राचीन काल में सिपाहियों का पहरा बदलना इसी का काम होता था।

पत्तिय
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्री] चिट्ठि। पत्रिका। उ०— पत्तिय नहिं लिखि अल्ह कह, कहिय जुबानिय सक्त। म्हाँ पर सैन सु डारिया रीस नयन करि रक्त।—प० रासो, पृ० १३६।

पत्तिव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यूह जिसमें आगे कवचधारी सैनिक और पीछे धनुर्धर हों। (कौटि०)।

पत्ती (१)
संज्ञा पुं० [सं० पत्तिन्] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। पैदल यात्री। २. पदाति सैनिक। पैदल सिपाही। प्यादा [को०]।

पत्ती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पत्ता + ई (प्रत्य०) अल्पार्थक] १. छोटा पत्ता। २. भाग। हिस्सा। साझे का अंश। जैसे,—इस दुकान में मेरी भी एक पत्ती है। यौ०—पत्तीदार = साझीदार। हिस्सेदार। ३. फूल की पँखड़ी। दल। ४. भाँग। ५. पत्ती के आकार की लकड़ी, धातु आदि का कटा हुआ कोई टुकड़ा जो प्रायः किसी स्थान में जड़ने, लगाने या लटकाने आदि के काम में आता है। पट्टी। ६. दाढ़ी बनाने के काम प्रयुक्त होनेवाला लोहे का छोटा धारदार पत्तर जिसे अंग्रेजी में ब्लेड कहते हैं।

पत्ती (३)
संज्ञा पुं० [?] राजपूतों की एक जाति। उ०— पत्ती औ पँचनान बघेले। अगरवार चौहान चँदेले।—जायसी (शब्द०)।

पत्तीदार
संज्ञा पुं० [हिं० पत्ती + फ़ा० दार (= रखनेवाला)] जिसका किसी व्यवसाय में किसी के साथ साझा हो। साझीदार। हिस्सेदार।

पत्तूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शांति नामक शाक। शालिंच नामक शाक २. जलपीपल। ३. पाकड़ का वृक्ष। ५. पतंग की लकड़ी। ६. लाल चंदन (को०)।

पत्थ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पथ्य, प्रा० पत्थ] दे० 'पथ्य'।

पत्थ पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पार्थ] पृथा के पुत्र अर्जुन। उ०— हैमत हीत अग्गलौ पीथौ पत्थ प्रमाण— रा० रू०, पृ० २७७।

पत्थर
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्तर, प्रा० पत्थर] [वि० पथरीला, क्रि० पथराना] १. पृथ्वी के कड़े स्तर का पिंड या खंड। भूद्रव्य का कड़ा पिंड या खंड। विशेष— भूगर्भ शास्त्र के अनुसार पृथ्वी की बनावट में अनेक स्तर या तहें हैं। इनमें से अधिक कड़ी कलेवरवाली तहों का नाम पत्थर है। पत्थरों के मुख्य दो भेद हैं—आग्नेय और जलज। आग्नेय पत्थरों की उत्पत्ति, भूगर्भस्थ ताप के उद्भेद से होती है। पृथ्वी के गर्भ से जो तरल पदार्थ अत्यंत उत्तप्त अवस्था में इस उद्भेद द्वारा ऊपर आता है वह कालांतर में सरदी से जमकर चट्टानों का रूप धारण करता है। इस रीति पर पत्थर बनने की क्रिया भूगर्भ के भीतर होती है। उपर्युक्ततरल पदार्थ भूगर्भ स्थित चट्टानों से टकराकर अथवा अन्य कारणों से भी अपनी गरमी खो देता और पत्थर के रूप में ठोस हो जाता है। जलज पत्थर जल के प्रवाह से बनते हैं। मार्ग में पड़नेवाले पत्थर आदि पदार्थों को चूर्ण करके जल- धारा कीचड़ के रूप में उन्हें अपने प्रवाह के साथ बहा ले जाती है। जिस कीचड़ के उपादान में कड़े परमाणु अधिक होते हैं वह जमने पर पत्थर का रूप धारण करता है। जलज पत्थरों की बनावट प्रायः तह पर तह होती है पर आग्नेय पत्थरों की ऐसी नहीं होती। उपादन के भेद से भी पत्थरों के कई भेद होते हैं, जैसे आग्नेय में संगखरा, शालिग्रामी या संगमूसा आदि और जलज में बलुआ, दुधिया, स्लेट का पत्थर, संगमरमर, स्फटिक आदि। आग्नेय और जलज के अतिरिक्त अस्थिज पत्थर भी होता है। धोंघे आदि सामुद्रिक जीवों की अस्थियाँ विश्लिष्ट होने के पश्चात् दबाव के कारण पुनः घनीभूत होकर ऐसे पत्थर की रचना करती हैं। खड़िया मिट्टी इसी प्रकार का पत्थर है। जिस प्रकार साधारण कीचड़ कठिन होकर पत्थर के रूप में परिवर्तित हो जाता है उसी प्रकार साधारण पत्थर भी दबाव की अधिकता और आसपास की वस्तुओं तथा जलवायु के विशेष प्रभाव के कारण रासायनिक अवस्थांतर प्राप्तकर स्फटिक अथवा पारदर्शी पत्थर या मणि का रूप धारण करता है। पत्थर मानव जाति के लिये अत्यंत उपयोगी पदार्थ है। आज जो काम विविध धातुओं से लिए जाते हैं आदिम अवस्था में वे सभी केवल पत्थर से लिए जाते थे। जबतक मनुष्यों ने धातुओं की प्राप्ति का उपाय और उनका उपयोग नहीं जाना था तबतक उनके हथियार, औजार, बरतन झाँड़े सब पत्थर के ही होते थे। आजकल पत्थर का सबसे अधिक उरयोग मकान बनाने के काम में किया जाता है। इससे बरतन, मूर्तियाँ, टेबुल, कुर्सी, आदि भी बनती है। संगमरमर आदि मुलायम और चमकीले पत्थरों से अनेक प्रकार की सजावट की वस्तुएँ और आभूषण आदि भी बनाए जाते हैं। भारत- वासी बहुत प्राचीन काल से ही पत्थर पर अनेक प्रकार की कारीगरी करना सीख गए थे। बढ़िया मूर्तियाँ, बारीक जालियाँ, अनेक प्रकार के फूल पत्ते आदि बनाने में वे अत्यंत कुशल थे। बौद्धों के समय में मूर्तितक्षण और मुगलों के समय में जाली, बेलबूटे आदि बनाने की कलाएँ विशेष उन्नत थीं। यद्यपि मुगल काल के बाद से भारत के इस शिल्प का बराबर ह्रास हो रहा है, फिर भी अभी जयपुर में संगमरमर के बरतन और आगरे में अलंकार आदि बड़े साफ और सुंदर बनाए जाते हैं। भारत के पहाड़ों में सब प्रकार के पत्थर मिलते हैं। विंध्य पर्वत इमारती पत्थरों के लिये और अरावली पर्वत संगमरमर के लिये प्रसिद्ध हैं। विशेष दे० 'संगमरमर'। बोलचाल में पत्थर शब्द का प्रयोग अत्यंत कड़ी अथवा भारी, गतिशून्य अथवा अनुभूतिशून्य वस्तु, दयाकरुणाहीन, अत्यंत जड़बुद्धि अथवा परम कृपण व्यक्ति आदि के संबंध के होता है। पर्या०—पाषाण। ग्रावन्। उपल। अश्मन्। दृषत्। पादारुक काचक। शिला। यौ०—पत्थरकला। पत्थरचटा। पत्थरफोंड़ा। मुहा०—पत्थर का कलेजा, दिल या हृदय = अत्यंत कठोर हृदय। वह हृदय जिसमें, दया, करुणा, आदि कोमल वृत्तियों का स्थान न हो। किसी के दुःख पर न पसीजनेवाला दिल या हृदय। पत्थर का छापा = (१) छपाई का वह प्रकार जिसमें ढले हुए अक्षरों से काम नहीं लिया जाता, बल्कि छापे जानेवाले लेख की एक पत्थर पर प्रतिलिपि उतारी जाती है और उसी पत्थर के ऊपर कागज रखकर छापते हैं। लीथोग्राफ। लीथो की छपाई। विशेष दे० 'प्रेस' (२) पत्थर के छापे में छपा हुआ विषय या लेख। पत्थर के छापे का काम। पत्थर के छापे की छापाई। जैसे, —(किसी पुस्तक की छपाई के विषय में) यह ते पत्थर का छापा है। पत्थर की छाती = कभी न टूटनेवाली हिम्मत अथवा कभी न हारनेवाला दिल। असफलता या कष्ट से विचलित न होनेवाला हृदय। बलवान् और दृढ़ हृदय। मतबूत दिल। पक्की तबीयत। जैसे —सच- मुच उस मनुष्य की पत्थर की छाती है, इतना भारी दुःख सह लिया, आह तक नहीं की। पत्थर की लकीर = सदा सर्वदा बनी रहनेवाली (वस्तु)। सर्वकालिक। अमिट। पक्की। स्थायी। जैसे,—ओछों की मित्रता पानी की लकीर और सज्जनों की मित्रता पत्थर की लकीर है। (कहावत)। पत्थर को जोंक लगाना = अनहोनी या असंभव बात करना। वह कार्य करना जो औरों के लिये असाध्य हो। जैसे, अत्यंत कृपण से दान दिलाना, अत्यंत निर्दय के हृदय में दया उत्पन्न कर देना, वज्र मूर्ख को समझा देना, आदि। पत्थर चटाना = पत्थर पर घिसकर धार तेज करना। छुरी, कटार, आदि की धार पत्थर पर रगड़कर तेज करना। पत्थर तले हाथ आना = ऐसे संकट में फँस जाना जिससे छूटने का उपाय न दिखाई पड़ता हो। बुरी तरह फँस जाना। भारी संकट में फँस जाना। पत्थर तले हाथ दबना = दे० 'पत्थर तले हाथ आना'। पत्थर तले से हाथ निकालना = संकट या मुसीबत से छूटना। पत्थर निचोड़ना = (१) जो वस्तु जिससे मिलना असंभव हो वह वस्तु उससे प्राप्त करना। किसी से उसके स्वभाव के अत्यंत विरुद्ध कार्य कराना। (२) अनहोनी बात या असंभव कार्य करना। (विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग विशेषतः कृपण के मन में दान की इच्छा या निर्दय के हृदय में दया का भाव उत्पन्न करने के अर्थ में होता है।) पत्थर पर दूब जमाना = अनहोनी बात या असंभव काम होना। ऐसी बात होना जिसके होने की आशा सर्वथा छोड़ दी गई हो। जैसे, बंध्या समझी जानेवाली के पुत्र होना आदि। पत्थर पसीजना = अनहोनी बात होना। अत्यंत कठोर चित्त में नरमी, कृपण के मन में दानेच्छा, अत्याचारी के मन में दया उत्पन्न होना, आदि। जैसे,—तीन वर्ष की तपस्या सेयह पत्थर पसीजा है। पत्थर पिघलाना = दे० 'पत्थर पसीजना'। पत्थर मारे भी न मरना = मरने का कारण या सामान होने पर भी न मरना। बेहयाई से जीना। निहायत सख्त जान होना। पत्थर सा खींच या फेंक मारना = बहुत बड़ी बात कहना या उत्तर देना। ऐसी बात कहना जो सुननेवाले को असह्य हो। लट्ठमार बात कहना या उत्तर देना। पत्थर से सिर फोड़ना या मारना = असंभव बात के लिये प्रयत्न करना। व्यर्थ सिर खपाना। अत्यंत मूर्ख को समझाने में श्रम करना। २. सड़क के किनारे गड़ा हुआ वह पत्थर जिसपर मील के संख्यासूचक अंक खुदे होते हैं। सड़क की नाप सूचित करनेवाला पत्थर। मील का पत्थर। जैसे,—तीन घंटे से हमलोग चल रहे हैं, लेकिन सिर्फ चार पत्थर आए हैं। ३. ओला। बिनौली। इंद्रोपल। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—पत्थर पड़ना = (१) चौपट हो जाना। नष्टभ्रष्ट हो जाना। जैसे,—तुम्हारी बुद्घि पर पत्थर पड़ गया है। (२) कुछ न पाना। मनोरथ भंग होने का सामान मिलना। सियापा पड़ जाना या पड़ा पाना। जैसे,—भाग्य की बात है कि जहाँ जहाँ जाता हूँ वहीं पत्थर पड़ जाते हैं। पत्थर पड़े = चौपट हो जाय। मारा जाय। ईश्वर का कोप पड़े। (अभिशाप और अक्सर तिरस्कार या निंदा के अर्थ में भी बोलते हैं। जैसे,—पत्थर पड़े ऐसी ओछी समझ पर।) पत्थर पानी = महाभूतों की प्रतिकूलता अथवा प्रकोप का काल। आँधि पानी आदि का काल। तूफानी समय। जैसे,—भला इस पत्थर पानी में कौन जान देने जायगा ? ४. रत्न। जवाहिर। हीरा, लाल, पन्ना आदि। ५. पत्थर का का सा स्वभाव रखनेवाली वस्तु। पत्थर की तरह कठोर, भारी अथवा हटने, गलने आदि के अयोग्य वस्तु। जैसे, अत्या- चारी का हृदय, जड़बुद्धि का मस्तिष्क, बड़ा ऋण, दुंर्जर भोज्य, आदि। क्रि० प्र०—बनाना।—बन जाना।—होना। ३. कुछ नहीं। बिलकुल नहीं। खाक (तुच्छता या तिरस्कार के साथ अभाव सूचित करता है)। जैसे,—(क) तुम इस किताब को क्या पत्थर समझोगे। (ख) वहाँ क्या पत्थर रखा है ?

पत्थर कला
संज्ञा पुं० [हिं० + पत्थर कल] पुरानी चाल की बंदूक जिसमें बारूद सुलगाने के लिये चकमक पत्थर लगा रहता था। तोड़ेदार या पलीतेदार बंदूक। चाँपदार बंदूक। विशेष— दे० 'बंदूक'।

पत्थरचटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + अनु० चट चट या हिं० चाटना] १. एक प्रकार की घास जिसकी टहनियाँ नरम और पतली होती हैं। इसकी पत्ती को लड़के मुट्ठी के गड्ढे के मुँह पर मारते हैं तो चट चट शब्द होता है। २. एक प्रकार का साँप जो पत्थर चाटता है। ३. एक प्रकार की मछली जो सामुद्रिक चट्टानों से रहती है। ४. कंजूस। मक्खीचूस।

पत्थरचटा (२)
वि० जो घर की चारदीवारी से बाहर न निकला हो। कूपमंडूक।

पत्थरचूर
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + चूर] एक प्रकार का पौधा।

पत्थरपानी
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + पानी] दुर्भिक्ष। विनाश। मटियामेट।

पत्थरफूल
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + फूल] छरीला। शैलाख्य।

पत्थरफोड़
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + फोड़ना] १. हुदहुद पक्षी। २. बहुत छोटी जाति की वनस्पति। विशेष—यह प्रायः वर्षा ऋतु में दीवारों या पत्थर के जोड़ों के बीच से निकलती है। इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी होती हैं जो प्रयः फोड़ों को पकाने के लिये उनपर बाँधी जाती हैं। इसमें सफेद रंग के बहुत छोटे छोटे फूल भी लगते हैं।

पत्थरफोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + फोड़ना] पत्थर तोड़ने का पेशा करनेवाला। संगतराश।

पत्थरबाज
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + फ़ा० बाज़ (= खेलनेवाला)] १. पत्थर फेंककर किसी को मारनेवाला। २. वह जो प्रायः पत्थर या ढेला फेंका करे। ३. वह जिसे पत्थर फेंकने का अभ्यास हो। ढेलवाह।

पत्थरबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पत्थरबाज] पत्थर फेंकने की क्रिया। पत्थर फेंकाई। ढेलवाही।

पत्थल †
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्तर] दे० 'पत्थर'।

पत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विधिपूर्वक विवाहिता स्त्री। वह स्त्री जिसके साथ किसी पुरुष का शास्त्रानुसारी रीति से विवाह हुआ हो। पर्या०—जाया। भार्या। दयिता। कलत्र। वधू। सहधर्मिणी। दारा। दार। गृहिणी। पाणिगृहीता। क्षेत्र। जनि। सहचरी। गृह।

पत्नीमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० पत्नीमन्त्र] एक वैदिक मंत्र।

पत्नीयूप
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में देवपत्नीयों के लिये निश्चित स्थान।

पत्नीव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त और किसी स्त्री से गमन न करने का संकल्प या नियम।

पत्नीशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ में वह गृह जो पत्नी के लिये बनाया जाता है। यह यज्ञशाला के पश्चिम ओर होता है।

पत्नीसंयाज, पत्नीसंयाजन
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह के पश्चात् होनेवाला एक वैदिक कर्म।

पत्न्याट
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःपुर। पत्नी का वासगृह [को०]।

पत्य
संज्ञा पुं० [सं०] पति होने का भाव। जैसे, सैनापत्य।

पत्याना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पतिआना'। उ०—दरसतअति सुकुमार तन परसत मन न पत्यात।—बिहारी (शब्द०)।

पत्यारा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पतिआरा'। उ०—(क) नैनन ते निचुरयो पपरै नेह रुखाई के बैनन कौन पत्यारो।—देव (शब्द०)। (ख) पी को उठाय कह्मो हिय लाय कै है कपटीन को कौन पत्यारो।—देव (शब्द०)।

पत्यारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्क्ति] पंक्ति। कतार। उ०— (क) चूनरी सी छिति मानो बिछी इमि सोहति इंद्र- बधू की पत्यारी।—द्विजदेव (शब्द०)। (ख) अवलो- कति इंद्रबधू की पत्यारी, विलोकति है खिन कारी घटा।—द्विजदेव (शब्द)।

पत्योरा
संज्ञा पुं० [हिं० पत्ता + औरा (प्रत्य०)] एक पकवान जो अंच्चू के पत्तों को पीठी में लपेटकर घी तेल में तलने से तैयार होता है। एक प्रकार का रिंकवच।

पत्रंग
संज्ञा पुं० [सं० पत्रङ्ग] पतंग नाम की लकड़ी या पेड़। बक्कम।

पत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वृक्ष क पत्ता। फ्ती। दल। पर्ण। यौ०—पत्रपुष्प। २. वह वस्तु जिसपर कुछ लिखा हो। लेखाधार। लिखा हुआ कागज। विशेष—कागज का आविष्कार होने के पहले बहुत दिनों तक भारतवर्ष में ताड़ के पत्तों पर लेख, पुस्तकें आदि लिखी जाती थीं। इसी अभ्यासवश लेखयुक्त कागज, ताम्रपट आदि को भी लोग पत्र कहने लगे। ३. वह कागज या ताम्रपट आदि जिसपर किसी विशेष व्यवहार के प्रमाणस्वरूप कुछ लिखा गया हो। वह कागज जिसपर किसी खास मामले की सनद या सबूत के लिये कुछ लिखा हो। जैसे, दानपत्र, प्रतिज्ञापत्र आदि। क्रि० प्र०—लिखना। ४. वह लेख जो किसी व्यवहार या घटना के प्रमाण या सनद के लिये लिखा गया हो। कोई वसीका, पट्टा या दस्तावेज। क्रि० प्र०—लिखना। ५. चिट्ठी। पत्री। खत। क्रि० प्र०—लिखना। ६. समाचारपत्र। खबर का कागज या अखबार। क्रि० प्र०—चलाना।—निकालना। यौ०—पत्रसंपादक। ७. पुस्तक या लेख का एक पन्ना। पृष्ठ। पन्ना। ८. धातु की चद्दर। पत्तर। वरक। जैसे, स्वर्णपत्र। ९. तीर या पक्षी के पंख। पक्ष। १०. तेजपात। ११. चिड़िया। पखेरू। १२. कोई वाहन या सवारी। जैसे, रथ, बहल, घोड़ा, ऊँट आदि। १३. कस्तूरी, केशर, चंदन आदि द्रव्यों से कपोल या स्तनों की सजावट (को०)। १४. शस्त्र की धार। असि या कुठार आदि का फल (को०)। १५. कटार। छुरा (को०)।

पत्र (४)
संज्ञा पुं० [सं० पत्रपुट] दे० 'पात्र'। उ०—पत्र सुधारै जोगणी माल सुधारै रंभ थंभ चलेवौ सोमरवि देखे व्योम अचंभ।—रा० रू०, पृ० ३६।

पत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्ता। २. पत्तों की लड़ी। पत्रावली। ३. शांतिशाक। ४. तेजपत्ता। ५. दे० 'पत्रभंग'।

पत्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी सार्वजनिक समाचारपत्र या पत्रिका का संचालन करता हो। वह जो किसी अखबार को चलाता हो, संवाददाता हो, फिचर लिखता हो आदि पत्रसंचालक। पत्रसंपादक। अखबारनवीस। एडीटर। जरनलिस्ट। २. वह जो किसी समाचारपत्र या अखबार में नियमित रूप से लिखता हो। रिपोर्टर।

पत्रकारिता, पत्रकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पत्रकार का काम या व्यवसाय।

पत्रकाहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंख फड़फड़ाने या पत्तों के फड़कने की ध्वनि [को०]।

पत्रकृच्छ
संज्ञा [सं०] एक व्रत जिसमें पत्तों का काढ़ा पीकर रहा जाता है।

पत्रगान
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ के पत्तों से उत्पन्न ध्वनि। मर्मर शब्द। उ०—करुणा के दान पान, फूटे नव पत्रगान।—अर्चना, पृ० ५६।

पत्रगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] तिधारा। थूहर। त्रिकंटक।

पत्रघना, पत्रघ्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेहुँड़। थूहर।

पत्रज
संज्ञा पुं० [सं०] तेजपात।

पत्रझंकार
संज्ञा पुं० [सं० पत्रझङ्कार] नदी का वेग। नदी का प्रवाह [को०]।

पत्रतंडुली
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रतण्डुली] यवतिक्ता लता।

पत्रतरु
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्गंध खैर।

पत्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र + ता (प्रत्य०)] पत्तापन। उ०— डालियाँ बहुत सी सूख गई। उनकी न पत्रता हुई नई।—आराधना, पृ० २२।

पत्रतालक
संज्ञा पुं० [सं०] वंसपत्र। हरताल।

पत्रदारक
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी चीरने का आरा [को०]।

पत्रद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ का पेड़।

पत्रनाडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्ते की नस।

पत्रपारं
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णराक की छेनी [को०]।

पत्रपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लज्जा। संकोच [को०]।

पत्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] लंबा छुरा या कटार।

पत्रपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाण का पिछला भाग। शरपुंख। २. कैंची। कतरनी।

पत्रपाश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] माथे पर का एक आभूषण विशेष। टीका [को०]।

पत्रपिशाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्तों से बनाई गई छतरी [को०]।

पत्रपुट
संज्ञा पुं० [सं०] पत्ते का पात्र। दोना [को०]।

पत्रपुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ९६ हाथ लंबी, ४८ हाथ चौड़ी और ४७ हाथ ऊँची नाव (युक्तिकल्पतरु)।

पत्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल तुलसी। २. एक विशेष प्रकार की तुलसी। जिसकी पत्तियाँ छोटी छोटी होती है। ३. किसी के सत्कार या पूजा की बहुत मामूली सामग्री। लघु उपहार। छोटी भेंट। उ०—मेरा पत्रपुष्प स्वीकार कर मुझे कृतार्थ कीजिए (शब्द०)।

पत्रपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र।

पत्रपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तुलसी। २. छोटे पत्ते की तुलसी।

पत्रबेध
संज्ञा पुं० [सं० पत्रबन्ध] फूलों का शृंगार।

पत्रबाल
संज्ञा पुं० [सं०] डाँड़ा [को०]।

पत्रभंग
संज्ञा पुं० [सं० पत्रभङ्ग] १. वे चित्र या रेखाएँ जो सौदर्य- वृद्धि के लिये स्त्रियाँ, कस्तूरी, केसर, आदि के लेप अथवा सुनहले, रुपहले पत्तरों के टुकड़ों से भाल, कपोल, आदि पर बनाती हैं। माथे और गाल पर की जानेवाली चित्रकारी अथवा बेलबूटे। साटी। २. पत्रभंग बनाने की क्रिया।

पत्रभंगि
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रभङ्गि] दे० 'पत्रभंग'।

पत्रभंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र भङ्गी] दे० 'पत्रभंग'।

पत्रभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा।

पत्रमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रमञ्जरी] एक प्रकार का तिलक जो पत्रयुक्त मंजरी के आकार का होता है।

पत्रमाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेत। वेतस [को०]।

पत्रयौवन
संज्ञा पुं० [सं०] नया पत्ता। पल्लव। कोपल।

पत्ररचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्रभंग।

पत्ररथ
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया। उ०—वियग पतत्री पत्र- रथ पत्री पतंग पतंग।—अनेकार्थ०, पृ० २५। यौ०—पत्ररर्थेंद्र = गरुड। पत्ररर्थेंद्रकेतु = विष्णु।

पत्ररेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पत्ररचना'।

पत्रलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह लता जिसमें प्रायः पत्ता ही पत्ता हो। २. पत्रभंग। साटी। ३. लंबी छुरी (को०)।

पत्रलवण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नमक जो एरंड, मोरवा, अड़ूसा, कंज, अमिलतास और चीते के हरे पत्तों से निकाला जाता है। विशेष—इन सब पत्तों को खरल में कूटकर घी या तेल के किसी बरतन में रखते हैं और ऊपर से गोंबर लीपकर आग में जलाते हैं। यह नमक वात रोगों में लाभदायक होता है।

पत्रल (१)
वि० [सं०] पत्तोंवाला। घने पत्तोंवाला।

पत्रल (२)
संज्ञा पुं० हिली डुली या पतली दही [को०]।

पत्रलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्रभंग। साटी।

पत्रवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्रभंग। साटी।

पत्रवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शंकरजटा। २. पान। ३. पलासी लता। ४. पर्णलता। ५. पत्रभंग (को०)।

पत्रवाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। चिड़िया। २. बाण। तीर।

पत्रवाल
संज्ञा पुं० [सं०] डाँड़ा। चप्पू [को०]।

पत्रवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरकारा। चिट्ठीरसाँ। २. वाण। तीर। ३. पक्षी। चिड़िया।

पत्रवाहक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्र ले जानेवाला। चिट्ठीरसाँ। हरकारा।

पत्रविशेषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिलक। २. पत्रभंग। साटी।

पत्रविष
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्रों से निकलनेवाला विष।

पत्रवृश्चिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छोटा उड़नेवाला कीड़ा जिसके काटने से बड़ी जलन होती हे। पतबिछिया। पनबिछिया।

पत्रवेष्ट
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरकी। ताटंक। २. करनफूल नाम का कान में पहनने का गहना।

पत्रव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] चिट्ठी लिखते और उत्तर पाते रहने की क्रिया या भाव। चिट्ठी आने जाने का क्रम। पत्राचार। लिखापढ़ी। खत किताबत। जैसे,—साल भर से मैं उनसे पत्रव्यवहार कर रहा हूँ।

पत्रशवर
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक अनार्य जाति।

पत्रशाक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्तों का साग। वह पौधा जिसके पत्तों का साग बनाकर खाया जाता हो। जैसे, पालक, चौलाई, आदि।

पत्रशिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्ते की नस।

पत्रशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रश्रृङ्गी] मूसाकानी नाम की लता।

पत्रश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूसाकानी। २. पत्तों की पंक्ति। पत्रावली।

पत्रश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ हैं पत्ते जिसके अर्थात् बेल। विल्व। २. पत्तों में प्रधान। बेल का पत्ता। विल्वपत्र।

पत्रसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] काँटा। कंटक।

पत्रांक
संज्ञा पुं० [सं० पत्र + अङ्क] पत्तों की गोदी। पल्लव का मध्य- भाग। वृंत। उ०—जूही की कली, दृग बंद किए, शिथिल पत्रांक में।—अपरा, पृ० ४।

पत्रांग
संज्ञा पुं० [सं० पत्राङ्ग] १. लालचंदन। २. पतंग। बक्कम। ३. भोजपत्र। ४. कमलगट्टा।

पत्रांगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्राङ्गुलि] पत्रभंग। पत्ररचना [को०]।

पत्रांजन
संज्ञा पुं० [सं० पत्राञ्जन] १. स्याही। २. काजल [को०]

पत्रा
संज्ञा पुं० [सं० पत्रक, पत्रिका] १. तिथिपत्र। जंत्री। पंचांग। उ०—पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास।—बिहारी (शब्द)। २. पन्ना। वर्क। पृष्ठ। सफहा।

पत्राख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेजपात। २. तालीशपत्र।

पत्राचार
संज्ञा पुं० [सं०] पत्रव्यवहार।

पत्राढ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपलामूल। २. पर्वततृण। ३. तृणाख्य। ४. पतंग। बंकम। ५. नरसल। ६. तालीसपत्र।

पत्रान्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतंग। २. लालचंदन।

पत्रालु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कासालु। २. इक्षुदर्भ।

पत्रावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्तों की श्रेणी या कतार। २. गेरू। ३. पत्ररचना, जो पुराने समय में नारियों के मुख पर सौंदर्य- बृद्धि के लिये रची जाती थी। उ०—रचि पत्रावलि माँग सिंदूरी। भरि मोतिन औ मानिक पूरी।—जायसी (शब्द०)।

पत्रावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्ररचना। साटी। २. दुर्गापूजन में प्रयुक्त एक द्रव्य जो पीपल के नवीन कोपलों, मधु और यव से तैयार करते हैं। ३. गेरू। ४. पत्तों की पंक्ति या श्रेणी।

पत्राहार
संज्ञा पुं० [सं०] पत्तियों का आहार।

पत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चिट्ठी। खत। २. लिखने के लिये कागज का पन्ना (को०)। ३. कोई छोटा लेख या लिपि। जैसे, जन्मपत्रिका, लग्नपत्रिका आदि। ४. कोई सामयिक पत्र या पुस्तक। समाचारपत्र। अखबार। रिसाला। ५. जातिपत्री या जायपत्री (को०)। ६. एक प्रकार का कर्णभूषण (को०)।

पत्रिकाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कपूर। पर्णकर्पूर। पानकपूर।

पत्रिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा पत्ता। पल्लव। कोंपल।

पत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चिट्ठी। खत। २. कोई छोटा लेख या लिपिपत्रिका। जैसे, जन्मपत्री, लग्नपत्री। ३. दोना। ४. धमासा। हिंगुवा। जवासा। ५. खैर का पेड़। ६. ताड़। ७. महा तेजपत्र।

पत्री (२)
वि० [सं० पत्रिन्] जिसमें पत्ते हों। पत्रयुक्त। पत्रविशिष्ट।

पत्री (३)
संज्ञा पुं० १. बाण। तीर। उ०—लव के उर में उरझयो वह पत्री। मुरझाइ गिरयो धरणी महँ छत्रो।—रामचं० पृ० १७४। २. पक्षी। चिड़िया। ३. श्येन। बाज। ४. वृक्ष। पेड़। ५. रथी। ६. पर्वत। पहाड़। ७. ताड़। ८. कमल। उ०—पत्री तरु पत्री कमल पत्री बहुरि बिहंग। पत्री सर कर चित्त जिमि, इमि सेवहु श्रीरंग।—अनेकार्थ०, पृ० १३९।

पत्री (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पत्तर] हाथ में पहनने का जहाँगीरी नाम का गहना।

पत्रोपस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] कसौंदी।

पत्रोर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सोनापाठा।

पत्रोल्लास
संज्ञा पुं० [सं०] अँखुवा। अंकुर [को०]।

पत्सल
संज्ञा पुं० [सं०] पंथ। मार्ग [को०]।