सामग्री पर जाएँ

विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/स्वर

विक्षनरी से

स्वर्
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. परलोक। ३. आकाश। अंत- रिक्ष। ४. तीन महाव्याहृतियों में एक। तृतीय महाव्याहृति (को०)। ५. सूर्य के ऊपर और ध्रुव के मध्य का स्थान। सूर्य तथा ध्रुव का मध्यवर्ती क्षेत्र (को०)। ६. दीप्ति। प्रोज्वलता। कांति। प्रकाश (को०)। ७. जल। सलिल (को०)।

स्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणी के कंठ से अथवा किसी पदार्थ पर आघात पड़ने के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द, जिसमें कुछ कोमलता, तीव्रता, मृदुता, कटुता, उदात्तता, अनुदात्तता आदि गुण हों। जैसे,—(क) मैंने आपके स्वर से ही आपको पहचान लिया था। (ख) दूर से कोयल का स्वर सुनाई पड़ा। (ग) इस छड़ को ठोंकने पर कैसा अच्छा स्वर निकलता है। उ०—लै लै नाम सप्रेम सरस स्वर कौसल्या कल कीरति गावै।—तुलसी (शब्द०)। २. संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके। सुर। उ०— चारों भ्रातन श्रमित जानि कै जननी तब पौढ़ाए। चापत चरण जननि अप अपनी कछुक मधुर स्वर गाए।—सूर (शब्द०)। विशेष—यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुभीते के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं। हमारे यहाँ इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं। वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६. बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३. बार कंप होने पर ऋषभ, ३२०. बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८०. बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है। तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है। इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है। यदि प्रत्येक स्वर की कपनसंख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा। हमारे यहाँ यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है। भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है। जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि। ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है। इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नेहीं होता; पर शेष पाचों श्वर कोमल और तीव्र दो प्रकार के होते हैं। प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है। मुहा०—स्वर उतारना = स्वर नीचा या धीमा करना। स्वर चढ़ाना = स्वर ऊँचा या तेज करना। स्वर निकालना = स्वर उत्पन्न करना। स्वर भरना = अभ्यास के लिये किसी एक ही स्वर का कुछ समय तक उच्चारण करना। स्वर मिलाना = किसी सुनाई पड़ते हुए स्वर के अनुसार स्वर उत्पन्न करना। ३. व्याकरण में वह वर्णात्मक शब्द जिसका उच्चारण आपसे आप स्वतंत्रतापूर्वक होता है और जो किसी व्यंजन के उच्चारण में सहायक होता हैं। संस्कृत वर्णमाला में अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ और हिंदी वर्णमाला में ११. स्वर हैं—अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, और औ। ४. वेदपाठ में होनेवाले शब्दों का उतार चढ़ाव। ५. नासिका में से निकलनेवाली वायु या श्वास। ६. उच्चारण में होनेवाली स्पंदन की मात्रा। उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि। ७. सात की संख्या (को०)। ८. ध्वनि। आवाज। शब्द (को०)। ९. स्वरों की मृदुता। ध्वनि की कोमलता (को०)। १०. खर्राटा। खर्राटे की ध्वनि (को०)। ११. विष्णु का एक नाम (को०)। यौ०—स्वरग्राम = सरगम।

स्वर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्] आकाश। उ०—परब्रह्म अरु जीव जो महानाद स्वर चारि। पंचम विदु षष्ठरु अवर माया दिव्य निहारि।—विश्राम (शब्द०)।

स्वरकंप
संज्ञा पुं० [सं० स्वरकम्प] स्वरों का कंपन। स्वरों में कंप होना [को०]।

स्वरकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जिसके सेवन से गले का स्वर तीव्र और सुंदर होता है।

स्वरकर (२)
वि० ध्वनि या स्वर उत्पन्न करनेवाला [को०]।

स्वरकार
संज्ञा पुं० [सं० स्वर + कार] १. किसी भी गीत या कविता को संगीत के किसी राग में निबद्ध करनेवाला व्यक्ति। २. गायक। वादक। उ०—फूल ने खिल मौन माली को दिया जो, वीण ने स्वरकार को अर्पित किया जो।—मिलन०, पृ० ३९।

स्वरक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वरभंग'।

स्वरक्षु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वक्षु महानदी का एक नाम। विशेष—मार्कंडेय पुराण में लिखा है कि जब भगीरथ गंगा को स्वर्ग से इस लोक में लाए, तब उसकी चार धाराएँ हो गईं। उन्हीं में से एक धारा मेरु पर्वत के पश्चिमी भाग में चली गई जो स्वरक्षु या वक्षु कहलाती है।

स्वरगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्गङ्गा] दे० 'स्वर्गंगा'। उ०—स्वरगंगा का जलपान करो।—अर्चना, पृ० ४४।

स्वरग पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग] दे० 'स्वर्ग'। उ०—धरती लेत स्वरग लहि बाढ़ा। सकल समुद जानो भा ठाढ़ा।—जायसी (शब्द०)।

स्वरगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर की गुरुता, गोपनता या गंभीरता [को०]।

स्वरग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरों का सप्तक। सरगम।

स्वरघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] वायु के प्रकोप से होनेवाला गले का एक रोग। विशेष—सुश्रुत के अनुसार, इस रोग में गला सूखता है। आवाज बैठ जाती है, खाए हए पदार्थ जल्दी से गले के नीचे नहीं उतरते और श्वासवाहिनी नाड़ी दूषित हो जाती है।

स्वरच्छिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] वंशी के छिद्र जिनसे स्वर निकाले जाते हैं [को०]।

स्वरण पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण] दे० 'स्वर्ण' 'उ०—तिन देखि विप्र शतकोटि हिम दान काज मँगवाइव। दिय अर्ध पुन्य पथ भू स्वरण अद्ध अनुगहित जायव।—प० रासो, पृ० १६।

स्वरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर का भाव या धर्म। स्वरत्व।

स्वरतिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का अतिक्रमण कर वैकुंठ लोक जाना।

स्वरत्व
सं० पुं० [सं०] दे० 'स्वरता'।

स्वरदीप्त
वि० [सं०] जो स्वर के विचार से शुभ न हो [को०]।

स्वरधीत
संज्ञा पुं० [सं०] मेरु पर्वत [को०]।

स्वरनादी
संज्ञा पुं० [सं० स्वरनादिन] वह बाजा जो मूँह से फूँककर बजाया जाता हो। (संगीत)।

स्वरनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फुँककर बजाया जाता था।

स्वरपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद।

स्वरपरिवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि या स्व का परिवर्तन होना।

स्वरपात
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चारण करने में किसी स्वर पर रुक जाना [को०]।

स्वरपुरंजय
संज्ञा पुं० [सं० स्वरपुरञ्जय] शेष का एक पुत्र [को०]।

स्वरप्रक्रिया
स्त्री० स्त्री० [सं०] १. स्वरों की प्रक्रिया, उनकी विधि या क्रम। २. वैदिक स्वरों के संबंध में लिखित एक ग्रंथ का नाम।

स्वरप्रधान
संज्ञा पुं० [सं०] रागा का एक प्रकार। वह राग जिसमें स्वर का ही आग्रह या प्रधानता हो, ताल की प्रधानता न हो।

स्वरबद्ध
वि० [सं०] ताल और स्वर में निबद्ध [को०]।

स्वरब्रह्मा
संज्ञा पुं० [सं० स्वरब्रह्मन्] वेद आदि ग्रंथ [को०]।

स्वरभंग
संज्ञा पुं० [सं० स्वरभङ्ग] आवाज का बैठना। २. वैद्यक के अनुसार गले का एक रोग। विशेष—वैद्यक में कहा गया है कि बहुत जोर जोर से बोलने या पढ़ने, विषपान करने, गले पर भारी आघात लगने या शीत आदि के कारण, वायु कुपित होकर स्वरनली में प्रविष्ट हो जाती है, जिससे ठीक ठीक स्वर नहीं निकलता। इसी को स्वरभंग कहते हैं।

स्वरभंगी
संज्ञा पुं० [सं० स्वरभङ्गिन्] १. वह जिसे स्वरभंग रोग हुआ हो। वह जिसका गला बैठ गया हो और मुँह से साफ आवाज न निकलती हो। २. एक प्रकार का पक्षी।

स्वरभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] र् और ल् के उच्चारण में अंत- र्निविष्ट स्वर की ध्वनि। विशेष—जब र् और ल् अक्षरों के पश्चात् कोई ऊष्मवर्ण (क्ष् ष् स् ह्) या कोई व्यंजन हो तब स्वरभक्ति होती है। जैसे 'वर्ष' का 'वरिष' उच्चारण में।

स्वरभानु
संज्ञा पुं० [सं०] सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के दस पु्त्रों में से एक पुत्र का नाम।

स्वरभाव
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में भाव के चार भेदों में से एक। बिना अंगसंचालन किए केवल स्वर से ही दुःख सुख आदि का भाव प्रकट करना।

स्वरभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गला या आवाज बैठ जाना। स्वरभंग।२. उच्चारण में स्वरों की अस्पष्टता (को०)। ३. संगीत में स्वरों का भेद होना। संगीत में स्वरों का भेद या अंतर।

स्वरमंचनृत्य
संज्ञा पुं० [सं० स्वरमञ्चनृत्य] संगीतसार संग्रह के अनुसार एक प्रकार का नृत्य।

स्वरमंडल
संज्ञा पुं० [सं० स्वरमण्डल] १. एक प्रकार का वाद्य जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते हैं। विशेष—संगीत शास्त्रों के अनुसार ७. स्वर, ३. ग्राम, २१ मूर्छनाएँ और ४९ नाम, इन्हें स्वरमंडल कहा गया है।

स्वरमंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वरमण्डलिका] प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा।

स्वरमात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उच्चारण की मात्रा [को०]।

स्वरयोग
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। ध्वनि [को०]।

स्वरलहरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वरों की तरंग। स्वरों की लहर।

स्वरलासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशी या मुरली नाम का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है।

स्वरलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर + लिपि] संगीत में प्रयुक्त होनेवाले वे संकेत चिह्न जिनसे किसी राग में आरोह अवरोह का ज्ञान होता है। २. वह पाठ या गेय रचना जो उक्त चिह्नों के आधार पर पठित हो।

स्वरवान्
वि० [सं० स्वरवत्] १. ध्वनियुक्त। निनादी। २. सुरीला। ३. स्वरविषयक। ४. स्वराघात से युक्त [को०]।

स्वरवाही
संज्ञा पुं० [सं० स्वरवाहिन्] वह बाजा जिसमें से केवल स्वर निकलता हो और जो ताल आदि का सूचक न हो। केवल स्वर उत्पन्न करनेवाला वाद्य।

स्वरविकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर या आवाज में विकार आ जाना [को०]।

स्वरविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरों की विवेचना करनेवाला शास्त्र। स्वरों का विज्ञान [को०]।

स्वरविभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर का विभेद या पार्थक्य। स्वरों का पार्थक्य या पृथकग्भाव।

स्वरवेधी
संज्ञा पुं० [सं० स्वरवेधिन्] दे० 'शब्दवेधी'। उ०—स्वरवेधी सब शस्त्र विज्ञाता वेधक लक्ष विहीना। परमुख पेखि न पदहु प्रहारत कर लाघव लवलीना।—रामस्वयंवर (शब्द०)।

स्वरशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें स्वर संबंधी सब बातों का विवेचन हो। स्वरविज्ञान।

स्वरशुद्ध
वि० [सं०] संगीत में मात्रा आदि के विचार से शुद्ध। जिसके स्वर अशुद्ध न हों [को०]।

स्वरशून्य
वि० [सं०] संगीत के ताल और स्वरों से रहित। स्वरहीन। बेसुरा [को०]।

स्वरसंक्रम
संज्ञा पुं० [सं० स्वरसङ्क्रम] संगीत में स्वरों का आरोह और अवरोह। स्वरों का उतार ओर चढ़ाव। सरगम।

स्वरसंगति
संज्ञा पुं० [सं० स्वर सङ्गति] स्वरों का उपयुवत संयोजन या मेल [को०]।

स्वरसंदर्भ
संज्ञा पुं० [सं० स्वरसन्दर्भ] दे० 'स्वरसंक्रम'।

स्वरसंदेहविवाद
संज्ञा पुं० [सं०स्वरसन्देहविवाद] एक प्रकार की वृत्ताकार क्रीड़ा [को०]।

स्वरसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वरसन्धि] दो स्वरों में होनेवाली संधि या संयोग। स्वर वर्णों में अथवा स्वरांत और स्वारादि पदों में होनेवाली संधि [को०]।

स्वरसंपद्
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वरसम्पत्] स्वरों का मेल या संयोजन।

स्वरसंपन्न
वि० [सं० स्वरसम्पन्न] सुरीला। स्वरयुक्त [को०]।

स्वरसंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरों का मेल। ध्वनियों का मेल [को०]।

स्वरस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक के अनुसार पत्ती आदि को भिगोकर और अच्छी तरह कूट, पीस और छानकर निकाला हुआ शुद्ध रस। २. सहज रसात्मकता। स्वाभाविक स्वाद (को०)। ३. रचना में सहज आनंद या रसमयता (को०)। ४. एक विशेष प्रकार का तीक्ष्ण रस या कषाय (को०)। ५. किसी तैलीय पदार्थ को सिल पर पीसने से उसपर पड़ी हुई चिकनाई (को०)। ६. स्वजनों के प्रति उत्पन्न भाव। वह भावना जो अपनों के प्रति हो (को०)। ७. एक पर्वत का नाम (को०)। ८. अनुरुपता। समानता। तुल्यता (को०)। ९ . स्व अर्थात् आत्मरस या आनंद।

स्वरस (२)
वि० जो अपनी रुचि के अनुकूल हो [को०]।

स्वरसप्तक
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में सात स्वरों का समूह। विशेष दे० 'स्वर'। उ०—इसी अशब्द संगीत से स्वरसप्तकों की भी सृष्टि हुई।—गीतिका (भू०), पृ० १।

स्वरसमुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते थे।

स्वरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपित्थ पत्रक नाम की ओषधि। २. लाख। लाह।

स्वरसाद
संज्ञा पुं० [सं०] गला बैठ जाना। स्वरभंग।

स्वरसादि
संज्ञा पुं० [सं०] ओषधियों को पानी में औंटाकर तैयार किया हुआ काढ़ा। कषाय।

स्वरसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] सप्तक के स्वरों की साधना जिससे उनका शुद्ध उच्चारण किया जा सके। ठीक ठीक स्वर निकालने का अभ्यास [को०]।

स्वरसाम
संज्ञा पुं० [सं० स्वरसामन्] एक साम का नाम।

स्वरहा
संज्ञा पुं० [सं० स्वरहन्] गले का एक रोग। विशेष दे० 'स्वरघ्न' [को०]।

स्वरांक
संज्ञा पुं० [सं० स्वराङ्क] एक प्रकार की संगीतरचना [को०]।

स्वरांत
वि० [सं० स्वरान्त] (शब्द) जिसके अंत में कोई स्वर हो। जैसे,—माला, टोपी।

स्वरांतर
संज्ञा पुं० [सं० स्वरान्तर] दो स्वरों के उच्चारण का मध्य- वर्ती विराम, अवकाश या अंतर [को०]।

स्वरांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में स्वर का आधा या चौथाई स्वर। २. सप्तमांश [को०]।

स्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की बड़ी पत्नी का नाम जो गायत्री की सपत्नी कही गई है।

स्वराघात
संज्ञा पुं० [सं० स्वर + आघात] बोलने में स्वरविशेष पर वक्ता द्वारा डाला जानेवाला बल। उच्चारण प्रयत्न। उ०—जब इस वर्ग की अन्य भाषाएँ अस्तित्व में आने लगीं तो स्वर के साथ साथ स्वराघात का प्राबल्य होने लगा।—भोज० भा० सा०, पृ० ११। यौ०—स्वरघात चिह्व = वे चिह्न या निशान जिनके द्वारा स्वराघात का बोधन कराया जाय।

स्वराज्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वराट्'।

स्वराज
संज्ञा पुं० [सं०स्वराट्, स्वराज्] दे० 'स्वराज्य'।

स्वराजी
संज्ञा पुं० [हिं० स्वराज + ई (प्रत्य०)] स्वराज्य शासन प्रणाली के लिये आंदोलन करनेवाला व्यक्ति।

स्वराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह राज्य जिसमें कोई राष्ट्र या किसी देश के निवासी स्वयं ही अपना शासन और अपने देश का सब प्रबंध करते हों। अपना राज्य। >यौ०—स्वराज्यभोगी = स्वराज्य शासन प्रणाली का भोग करनेवाला। आत्मशासनप्राप्त।

स्वराट् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. ईश्वर। ३. एक प्रकार का वैदिक छंद। ४. वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों। ५. सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को०)। ६. विष्णु का एक नाम (को०)। ७. शुक्रनीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व ५० लाख से १ करोड़ कर्ष तक हो (को०)। ८. वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो। उ०—जो पिता के सदृश लब प्रकार से हमारा पालन करनेवाला स्वराट्...।—दयानंद (शब्द०)।

स्वराट् (२)
वि० जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो। उ०—जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश- रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, इसलिये परमेश्वर का नाम कालाग्नि है।— सत्यार्थ (शब्द०)।

स्वरापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशगंगा। मंदाकिनी।

स्वरामक
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट का वृक्ष।

स्वरारूढ़
वि० [सं० स्वरारूढ] स्वर्ग लोक गया हुआ। स्वर्गारूढ़ [को०]।

स्वरालु
संज्ञा पुं० [सं०] वचा या वच नाम की ओषधि।

स्वराष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का संकर राग जो बंगाली, भैरव, गांधार, पंचम और गुर्जरी के मेल से बनता है।

स्वराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना राष्ट्र या राज्य। यौ०—स्वराष्ट्रप्रेम = अपने राष्ट्र या राज्य के प्रति प्रेम एवं उत्सर्ग की भावना। २. प्राचीन सुराष्ट्र नामक देश का एक नाम। ३. तामस मनु के पिता का माम जो पुराणानुसार एक सार्वभौम और प्रसिद्ध राजा थे और जिन्होंने बहुत से यज्ञादि किए थे।

स्वराष्ट्रमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० स्वराष्ट्रमन्त्रिन्] दे० 'स्वराष्ट्रसचिव'।

स्वराष्ट्रसचिव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी देश की सरकार या मंत्रिमंडल का वह सदस्य जिसके अधीन पुलिस, जेलखाने, फौजदारी, शासनप्रबंध आदि हों। गुहमंत्री। होम मेंबर। होम मिनिस्टर। होम सेक्रेटरी।

स्वराष्ट्रसदस्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वराष्ट्रसचिव'।

स्वरिंगण
संज्ञा पुं० [सं० स्वरिङ्गण] आँधी। तेज हवा। तूफान [को०]।

स्वरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चारण के अनुसार स्वर के तीन भेदों में से एक। वह स्वर जिसमें उदात्त और अनुदात्त दोनों गुण हैं। वह स्वर जिसका उच्चारण न बहुत जोर से हो ओर न बहुत धीरे से। सध्यम रूप से उच्चरित स्वर।

स्वरित (२)
वि० १. जिसमें स्वर हो। स्वर से युक्त। २. गूँजता हुआ। ध्वनित। ३. जिसका उच्चारण किया गया हो। उच्चरित (को०)। ४. स्वरितबोधक उच्चारणचिह्न से युक्त (को०)।

स्वरितत्व
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरित का भाव या धर्म।

स्वरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र। २. यज्ञ। ३. वाण। तीर। ४. सूर्य की किरण। ५. एक प्रकार का बिच्छू। ६. धूप (को०)। यज्ञीय स्तंभ का एक अंश या भाग (को०)। ८. वृक्ष के तने से काटा हुआ काष्ठ का लंबा अंश, विशेषतः यज्ञस्तंभ (को०)।

स्वरुचि (१)
वि० [सं०] जो सब काम अपनी रुचि के अनुसार करे। स्वतंत्र। स्वाधीन। आजाद।

स्वरुचि (२)
संज्ञा स्त्री० अपनी रुचि। अपनी पसंद।

स्वरुमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञीय स्तंभ का वह भाग जो नीचे से। तीसरे हाथ पर तथा ऊपर से पंद्रहवें हाथ पर होता है [को०]।

स्वरुप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकार। आकृति। शक्ल। उ०—अपने अंश आप हरि प्रकटे पुरुषोत्तम निज रूप। नारायण भुव भार हरो है आति आनंद स्वरूप।—सूर (शब्द०)। २. किसी व्यक्ति की अपनी प्रतिकृति या मूर्ति। मूर्ति या चित्र आदि। उ०— हिय में स्वरूप सेवा करि अनुराग भरे ठरे ओर जीवनि की जीवन को दीजिए।—नाभा (शब्द०)। ३. देवताओं आदि का धारण किया हुआ रूप। ४. वह जो किंसी देवता का रूप धारण किए हो। ५. पंडित। विद्वान्। ६. स्वभाव। ७. आत्मा। ८. विशिष्ट लक्ष्य या उद्देश्य।

स्वरूप (२)
वि० १. सुंदर। खूबसूरत। २. तुल्य। समान। उ०—इतनि रूप भइ कन्या जेहि स्वरूप नहिं कोय। धन सुदेस रुपवंता जहाँ जनम अस होय।—जायसी (शब्द०)। ३. पठित। शिक्षित। विज्ञ (को०)।

स्वरूप (३)
अव्य० रूप में। तौर पर। जैसे,—उन्होने प्रमाण स्वरूप महाभारत का एक श्लोक कह सुनाया।विशेष—इस अर्थ में यह यौगिक शब्दों के अंत में ही आता है। जैसे,—आधारस्वरूप।

स्वरूप पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० सारूप्य] दे० 'सारूप्य'। उ०—हम सालोक्य स्वरूप सरोज्यो रहत समीप सहाई। सो तजि कहत और की औरै तुम अलि बड़े अदाई।—सूर (शब्द०)।

स्वरूपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपनी अवस्था, आकृति या प्रतिकृति। २. अपना स्वभाव अथवा विशेषता।

स्वरूपगत
वि० [सं०] १. आकृति या आकारगत। २. अपने समान विशेषता से युक्त। अपने ही सदृश विशेषताओंवाला [को०]।

स्वरूपज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो परमात्मा और आत्मा का स्वरूप पहचानता हो। तत्त्वज्ञ। उ०—...क्योंकि वह अपने स्वरूपज्ञों पर किस नाते दत्तचित्त होगा ?—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

स्वरूपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वरूप का भाव या धर्म।

स्वरूपदय
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार वह दया या जीवरक्षा जो इहलोक और परलोक में सुख पाने के लिये लोगों की देखा- देखी की जाय। विशेष—इस प्रकार की जीवरक्षा या दया यद्यपि ऊपर से देखने में दया ही जान पड़ती है, तथापि स्वभाव में, मन के भाव से नहीं बल्कि स्वार्थ के विचार से होती है।

स्वरुपप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीव का अपनी स्वाभाविक शक्तियों और गुणों से युक्त होना।

स्वरूपमान पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वरूपमत्] स्वरूपवान्। सुंदर। खूबसूरत। उ०—और स्वरूपमान लोगों के सहस्रों लघु-लघु समुह उडुगणों की भाँति यत्र तत्र छिटके हुए थे।—अयोध्या० (शब्द०)।

स्वरूपवान्
वि० [सं० स्वरूपवत्] [वि० स्त्री० स्वरूपवती] जिसका स्वरूप अच्छा हो। सुंदर। खूबसूरत। उ०—अर्थात् उस परम अद्भुत विशेष स्वरूपवान् परमात्मा के ...।—केनोपनिषद् (शब्द०)।

स्वरूपसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्वरूपसम्बन्ध] वह संबंध जो किसी के परस्पर ठीक अनुरूप होने के कारण स्थापित होता है।

स्वरूपात्मक
वि० [सं० स्वरूप + आत्मक] स्वरूपवाला। साकार। उ०—ता दिन तें यह ब्राह्मन श्रीयमुना जी को स्वरूपात्मक करि जानन लाग्यो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २८०।

स्वरूपाभास
संज्ञा पुं० [सं०] कोई वास्तविक स्वरूप न होने पर भी उसका आभास दिखाई देना। जैसे,—गंधर्वनगर, जिसका वास्तव में कोई स्वरूप नहीं होता, पर फिर भी स्वरुपाभास होता है।

स्वरूपासिद्ध
वि० [सं०] जो स्वयं अपने स्वरूप से ही असिद्ध जान पड़ता हो। कभी सिद्ध न हो सकनेवाला।

स्वरूपासिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] असिद्ध के तीन भेदों में से एक का नाम।

स्वरूपी (१)
वि० [सं० स्वरूपिन्] १. स्वरूपवाला। स्वरूपयुक्त। उ०—नमे नमो गुरुदेव जू, साध स्वरूपी देव। आदि अंत गुण काल के, जाननहारे भेव।—कबीर (शब्द०)। २. जो किसी के स्वरूप के अनुसार हो, अथवा जिसने किसी का स्वरूप धारण किया हो।—उ०—ज्योति स्वरूपी हाकिमा जिन अमल पसारा हो।—कबीर (शब्द०)।

स्वरूपी पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सारूप्य] दे० 'सारूप्य'।

स्वरूपोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

स्वरेणु
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्ग की पत्नी संज्ञा का एक नाम।

स्वरोचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपना प्रकाश या दीप्ति।

स्वरोचिस्
संज्ञा पुं० [सं०] स्वारोचिष् मनु के पिता का नाम। विशेष—पुराणानुसार ये कलि नामक गंधर्व के पुत्र थे और वरूथिनी नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

स्वरोद
संज्ञा पुं० [सं० स्वरोदय] एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते हैं।

स्वरोदय
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि नाड़ियों के श्वासों के द्वारा सब प्रकार के शुभ और अशुभ फल जाने जाते हैं। दाहिने और बाएँ नथने से निकलते हुए श्वासों को देखकर शुभ और अशुभ फल कहने की विद्या।

स्वरोपघात
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर का उपघात। स्वर बीच में का भंग होना [को०]।

स्वर्गंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्गङ्ग] स्वर्ग की नदी, मंदाकिनी।

स्वर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंदुओं के सात लोकों में से तीसरा लोक जो ऊपर आकाश में सूर्य लोक से लेकर ध्रुव लोक तक माना जाता है। उ०—(क) असन बसन पसु वस्तु विविध विधि सब मनिं महँ रहु जैसे। स्वर्ग नरक चर अचर लोक बहु बसत मध्य मन तैसे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) स्वर्ग, भूमि, पाताल के, भोगहिं सर्व समाज। शुभ संतति निज तेजबल, करत राज के काज।—निश्चल (शब्द०)।(ग) ... देवकी के आठवें गर्भ में लड़का होगा, सो न हो लड़की हुई; वह भी हाथ से छूट स्वर्ग को गई।—लल्लू (शब्द०)। विशेष—किसी किसी पुराण के अनुसार यह सुमेरु पर्वत पर है। देवताओं का निवासस्थान यही स्वर्गलोक माना गया है और कहा गया है कि जो लोग अनेक प्रकार के पुण्य और सत्कर्म करके मरते हैं, उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। यज्ञ, दान आदि जितने पुण्य कार्य किये जाते हैं, वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। कहते हैं, इस लोक में केवल सुख ही सुख है, दुःख, शोक, रोग, मृत्यु आदि का नाम भी नहीं है। जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक में निवास करने का अधिकारी होता है। परंतु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है, और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नहीं होजाती। यहाँ अच्छे अच्छे फलोंवाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है। स्वर्ग की कल्पना नरक की कल्पना के बिलकुल विरुद्ध है। प्रायः सभी धर्मों, देशों और जातियों में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई है। ईसाइयों के अनुसार स्वर्ग ईश्वर का निवासस्थान है। और वहाँ फरिश्ते तथा धर्मात्मा लोग अनंत सुख का भोग करते हैं। मुसलमानों का स्वर्ग बिहिश्त कहलाता है। मुसलमान लोग भी बिहिश्त को खुदा और फरिश्तों के रहने की जगह मानते हैं और कहते हैं कि दीनदार लोग मरनेपर वहीं जायँगे। उनका बिहिश्त इंद्रियसुख की सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है। वहाँ दूध और शहद की नदियाँ तथा समुद्र हैं, अंगूरों के वृक्ष हैं और कभी वृद्ध न होनेवाली अप्सराएँ हैं। यहूदियों के यहाँ तीन स्वर्गों को कल्पना की गई है। पर्या०—स्वर्। नाक। त्रिदिव। त्रिदशालय। सुरलोक। द्यौ। मेंदर। देवलोक। ऊर्ध्वलोक। शक्रभुवन। मुहा०—स्वर्ग के पथ पर पैर देना = (१) मरना। (२) जान जोखिम में डालना। उ०—कहो सो तोहिं सिंहलगढ़ है, खंड सात चढ़ाव। फेरि न कोई जीति जय, स्वर्ग पंथ दे पाव।— जायसी (शब्द०)। स्वर्ग जाना या सिधारना = मरना। देहांत होना। जैसे,—वे तीस ही वर्ष की अवस्था में स्वर्ग सिधारे (किसी की मृत्थु पर उसके संमानार्थ उसका स्वर्ग जाना या सिधारना कहा जाता है।) उ०—बहुते भँवर बवंडर भये। पहुँच न सके स्वर्ग कहँ गये।—जायसी (शब्द०)। यौ०—स्वर्गसुख = बहुत अधिक और उच्च कोटि का सुख। वैसा सुख जैसा स्वर्ग में मिलता है। जैसे,—मुझे तो केवल अच्छी अच्छी पुस्तकें पढ़ने में ही स्वर्गसुख मिलता है। स्वर्ग की धार = आकाशगंगा। उ०—नासिक खीन स्वर्ग की धारा। खीन लंक जनु केहर हारा।—जायसी (शब्द०)। २. ईश्वर। उ०—न जनों स्वर्ग बात धौं काहा। कहूँ न आयकही फिर चाहा।—जायसी (शब्द०)। ३. सुख। ४. वह स्थान जहाँ स्वर्ग का सुख मिले। बहुत अधिक आनंद का स्थान। ५. आकाश। उ०—(क) हौं तेहि दीप पतँग होइ परा। जिव जिमि काढ़ स्वर्ग ले धरा।—जायसी (शब्द०)। (ख) लाक्षागृह पावक तब जारा। लागी जाय स्वर्ग सों धारा।—सबल (शब्द०)। ६. प्रलय (क्व०)। उ०—भा परलै अस सबहीं जाना। काढ़ा खड्ग स्वर्ग नियराना।—जायसी (शब्द०)।

स्वर्गकाम
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो स्वर्ग की कामना रखता हो। स्वर्गप्राप्ति की इच्छा रखनेवाला।

स्वर्गगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्गगङ्गा] मंदाकिनी [को०]।

स्वर्गगत
वि० [सं०] मृत। मरा हुआ [को०]।

स्वर्गगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग जाना। मरना।

स्वर्गगमन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग सिधारना। मरना।

स्वर्गगामी
वि० [सं० स्वर्गगामिन्] १. स्वर्ग की ओर गमन करनेवाला। स्वर्ग जानेवाला। २. जो स्वर्ग की ओर गमन कर चुका हो। मरा हुआ। मृत। स्वर्गीय।

स्वर्गगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का पर्वत। मेरु पर्वत [को०]।

स्वर्गच्युत
वि० [सं०] स्वर्ग से पतित या गिरा हुआ [को०]।

स्वर्गजित् (१)
वि० [सं०] स्वर्ग को जीतने या आक्रांत करनेवाला [को०]।

स्वर्गजित् (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का यज्ञ जिसे करने से स्वर्ग प्राप्त होता है।

स्वर्गजीवी
वि० [सं० स्वर्गजीविन्] स्वर्ग में रहनेवाला। स्वर्गस्थ [को०]।

स्वर्गणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की गणिका। अप्सरा [को०]।

स्वर्गत
वि० [सं०] जो स्वर्ग चला गया हो। स्वर्गगत। मरा हुआ। स्वर्गीय।

स्वर्गतरंगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्गतरङ्गिणी] स्वर्ग की नदी। मंदाकिनी। स्वर्णदी।

स्वर्गतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्पतरु वृक्ष। २. पारिजात। परजाता।

स्वर्गतर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग की तृषा या उत्कट अभिलाषा [को०]।

स्वर्गति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गं की ओर जाने की क्रिया। स्वर्गगमन।

स्वर्गद
वि० [सं०] जो स्वर्ग पहुँचाता हो। स्वर्ग देनेवाला। उ०— (क) सतगुण, रजगुण, तमोगुण, त्रयविधि के मुनि वाच। मोक्षद, स्वर्गद, सुखद है, धरिहौं सुखप्रद साँच।—विश्राम (शब्द०)। (ख) स्वर्गद, नर्कद कर्म अनंता। साधन सकल कह्मौ मतिवंता।—रघुराज (शब्द०)।

स्वर्गदायक
वि० [सं०] दे० 'स्वर्गद'।

स्वर्गद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग का द्वार या दरवाजा। २. अयोध्या में सरयू तटवर्ती एक तीर्थ का नाम। ३. शिव।

स्वर्गधाम
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्गधामन्] स्वर्ग लोक [को०]।

स्वर्गधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु।

स्वर्गनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्ग + नदी] आकाशगंगा। उ०—पद्म- पाद सुनि गुरु आदेशा। स्वर्गनदी महँ कीन्ह प्रवेशा।—शंकर- दिग्वि० (शब्द०)।

स्वर्गपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

स्वर्गपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग का मार्ग। २. आकाशगंगा [को०]।

स्वर्गपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। स्वर्गलोक। २. एक तीर्थ [को०]।

स्वर्गपर
वि० [सं०] स्वर्ग की कामनावाला [को०]।

स्वर्गपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र को पुरी, अमरावती।

स्वर्गपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] लौंग।

स्वर्गप्रद
वि० [सं०] जिससे स्वर्ग प्राप्त हो। स्वर्गद [को०]।

स्वर्गभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्गभर्तृ] स्वर्ग का स्वामी इंद्र [को०]।

स्वर्गभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम। विशेष—यह जनपद वाराणसी के पश्चिम ओर था। कहते हैं, इसी स्थान पर भगवती ने दूर्ग नामक राक्षस का नाश किया था जिसके कारण उनका नाम दु्र्गा पड़ा था।

स्वर्गमंदाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्गमन्दाकिनी] स्वर्गगंगा। मंदाकिनी।

स्वर्गमन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग जाना। स्वर्गगमन। मरना।

स्वर्गमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग की राह। स्वर्गपथ [को०]।

स्वर्गयाण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का मार्ग [को०]।

स्वर्गयाण (२)
वि० स्वर्ग जाने या ले जानेवाला [को०]।

स्वर्गयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ, दान आदि वे शुभ कर्म जिनके कारण मनुष्य स्वर्ग जाता है।

स्वर्गलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग की प्राप्ति। स्वर्ग पहुँचना। मरना।

स्वर्गलोक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वर्ग—१'।

स्वर्गलोकेश, स्वर्गलोकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्गलोक के स्वामी, इंद्र। २. शरीर। तन।

स्वर्गवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा।

स्वर्गवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्ग + वाणी] आकाशवाणी। उ०— वेद वचन ते कन्या भयऊ। वेदन स्वर्गवाणि तौ कियऊ।— सबल (शब्द०)।

स्वर्गवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करना। स्वर्ग में रहना। २. स्वर्ग को प्रस्थान करना। मरना। जैसे,—परसों उनके पिता का स्वर्गवास हो गया।

स्वर्गवासी
वि० [सं० स्वर्गवासिन्] [वि० स्त्री० स्वर्गवासिनी] १. स्वर्ग में रहनेवाला। २. जो मर गया हो। मृत। जैसे,—स्वर्गवासी राजा शिवप्रसाद जी।

स्वर्गश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग का वैभव [को०]।

स्वर्गसंक्रम
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्गसङ्क्रम] स्वर्ग की सीढ़ी [को०]।

स्वर्गसद
संज्ञा पुं० [सं०] देवता [को०]।

स्वर्गसरिद्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गंगा। मंदाकिनी [को०]।

स्वर्गसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्गप्राप्ति के उपाय [को०]।

स्वर्गसार
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में चतुर्दश ताल के चौदह भेदों में से एक।

स्वर्गसुख
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का सुख। स्वर्गीय आनंद।

स्वर्गस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा।

स्वर्गस्थ
वि० [सं०] १. स्वर्ग में स्थित। स्वर्ग का। २. जो मर गया हो। मृत। स्वर्गवासी।

स्वर्गस्थित
वि० [सं०] दे० 'स्वर्गस्थ'।

स्वर्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदाकिनी। स्वर्गंगा।

स्वर्गापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गंगा। मंदाकिनी।

स्वर्गाभिकाम
वि० [सं०] स्वर्ग का इच्छुक। स्वर्गकाम [को०]।

स्वर्गामी
वि० [सं० स्वर्गामिन] जो स्वर्ग चला गया हो। स्वर्गवासी। स्वर्गगामी।

स्वर्गारूढ़
वि० [सं० स्वर्गारूढ] स्वर्ग सिधारा हुआ। स्वर्ग पहुँचा- हुआ। मृत। स्वर्गवासी।

स्वर्गारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग की ओर जाना या चढ़ना। २. स्वर्ग सिधारना। मरना। ३. महाभारत का एक पर्व या अंश।

स्वर्गार्गल
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग की अर्गला [को०]।

स्वर्गावास
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग में निवास करना। स्वर्गवास।

स्वर्गिक
वि० [सं० स्वर्ग + इक (प्रत्य०)] स्वर्ग से संबद्ध। स्वर्गतुल्य। स्वर्ग जैसा। उ०—आया बसंत, भर पृथ्वी पर, स्वर्गिक, सुंदरता का प्रवाह।—युगांत, पृ० ७।

स्वर्गिगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सुमे रुपर्वत, जिसके शृंग पर स्वर्ग की स्थिति मानी जाती है।

स्वर्गिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत [को०]।

स्वर्गिवधु, स्वर्गिस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा।

स्वर्गी (१)
वि० [सं० स्वर्गिन्] १. स्वर्ग का निवासी। स्वर्गवासी। २. स्वर्गगामी। ३. स्वर्ग संबंधी। स्वर्गीय।

स्वर्गी (२)
संज्ञा १. देवता। २. मृत व्यक्ति (को०)।

स्वर्गीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्वर्गीया] १. स्वर्ग संबंधी। स्वर्ग का। जैसे,—मुझे एकांतवास में स्वर्गीय सुख प्राप्त होता है। २. जिसका स्वर्गवास हो गया हो। जो मर गया हो। जैसे,— स्वर्गीय भारतेंदु जी। उ०—श्रीमान् स्मृतिमंदिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देंगे।—शिवशंभु (शब्द०)। ३. अलौकिक (को०)।

स्वर्गोपम
वि० [सं०] स्वर्गतुल्य। उ०—स्वर्गोपम हों ये ग्राम यहाँ।—ग्रामिका, पृ० १२४।

स्वर्गौका
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्गैकस्] देवता। सुर [को०]।

स्वर्ग्य
वि० [सं०] १. जिससे स्वर्ग प्राप्त हो। स्वर्ग दिलानेवाला। २. अलौकिक। स्वर्गीय [को०]।

स्वर्चन
संज्ञा पुं० [सं०] वह अग्नि जिसमें से सुंदर ज्वाला निकलती हो।

स्वर्जक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सर्जिक्षार। सज्जीखार। सज्जी मिट्टी।

स्वर्जारिघृत
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का घृत। विशेष—यह घृत गौ के घी में सज्जी, जवाखार, कमीला, मेंहदी, सुहागा और सफेद कत्थे के चूर्ण को खरल करने से बनता है। कहते हैं, इसे घाव पर लगाने से उसमें के कीड़े मर जाते हैं, सूजन कम हो जाती है और वह जल्दी भर जाता है।

स्वर्जि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा।

स्वर्जिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा।

स्वर्जिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वर्जिक' [को०]।

स्वर्जिकाक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी। सज्जीखार।

स्वर्जिकाद्य तैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल जो कर्णरोग में उपगोगी है। विशेष—यह तेल तिल के तेल में सज्जी, मूली, हींग, पीपल और सोंठ आदि औंटाकर बनाया जाता है। यह तेल कान के दर्द और बहरेपन आदि के लिये उपयोगी माना जाता है।

स्वर्जिकापाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी।

स्वर्जित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वर्गजेता। २. एक प्रकार का यज्ञ।

स्वर्जित
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्जित] एक प्रकार का यज्ञ।

स्वर्जी
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ज्जिन्] सज्जी मिट्टी।

स्वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु। २. पीत वर्ण का (स्वर्ण के रंग का) धतुरा। ३. गौर सुवर्ण नाम का साग। ४. नागकेसर। ५. पुराणानुसार एक नदी का नाम। ६. कामरूप देश की एक नदी का नाम। ७. स्वर्णमुद्रा। सोने का सिक्का (को०)। ८. हरिवंश के अनुसार एक प्रकार की अग्नि (को०)। ९. गेरु। गैरिक (को०)।

स्वर्णकंडु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णकण्डु] धूना। राल।

स्वर्णक (१)
वि० [सं०] १. स्वर्ण का। २. दे० 'स्वर्णिम'।

स्वर्णक (२)
संज्ञा पुं० एक वृक्ष।

स्वर्णकण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्णगुग्गुल। कणगुग्गुल। २. सोने का बारीक कण या रवा (को०)।

स्वर्णकणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने का कण या दाना [को०]।

स्वर्णकदली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोनकेला। सुवर्णकदली।

स्वर्णकमल
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।

स्वर्णकाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़।

स्वर्णकाय (२)
वि० जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का सा हो।

स्वर्णकार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की जाति जो सोने चाँदी के आभूषण आदि बनाती है। सुनार।

स्वर्णकूट
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी का नाम।

स्वर्णकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वर्णकार'।

स्वर्णकेतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली केतकी जिससे इत्र और तेल आदि बनाया जाता है।

स्वर्णसीरिका, स्वर्णसीरिणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भरभाँड। हेमपुष्पा। सत्यानाशी।

स्वर्णसीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हेमपुष्पा। सत्यानाशी। भरभाँड़।

स्वर्णक्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार पूर्व वंश के एक नद का नाम।

स्वर्णखचित
वि० [सं० स्वर्ण + खचित] जिसपर सोने का काम किया गया हो। स्वर्णमंडित। उ०—स्वर्णखचित यह शिर- स्त्राण है कह रहा, वर्म बना बहुमूल्य बताता विभव को।— करुणालय, पृ० ११।

स्वर्णगणपति
संज्ञा पुं० [सं०] गणपति का एक विशिष्ट रूप [को०]।

स्वर्णगर्भ
वि० [सं०] जिसके भीतर स्वर्ण हो।

स्वर्णगर्भाचल
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटि का नाम।

स्वर्णगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत।

स्वर्णगैरिक
संज्ञा पुं० [स०] सोना गेरू।

स्वर्णग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।

स्वर्णग्रीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक नदी का नाम जो नाटकशैल के पूर्वी भाग से निकली हुई और गंगा के समान पवित्र कही गई है।

स्वर्णचूड़, स्वर्णचूड़क
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णचूड़, स्वर्णचूड़क] १. नीलकंठ नामक पक्षी। २. कुक्कुट। मुर्गा (को०)।

स्वर्णचूल
संज्ञा पुं० दे० 'स्वर्णचूड़'।

स्वर्णज (१)
वि० [सं०] १. सोने से उत्पन्न। २. सोने से बना हुआ।

स्वर्णज (२)
संज्ञा पुं० १. वंग नाम की धातु। राँगा। २. सोनामक्खी।

स्वर्णजयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्ण + जयन्ती] किसी विशिष्ट व्यक्ति, संस्था, शासन या किसी महत्वपूर्ण घटना आदि के जीवन के पचासवें वर्ष मनाया जानेवाला उत्सव। विशेष—यह शब्द अंग्रेजी के 'गोल्डेन जुबिली' शब्द का अनुवाद है तथा इसका प्रयोग और व्यवहार भी अंग्रेजों के शासनकाल से संबद्ध प्रतीत होता है।

स्वर्णजातिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली चमेली।

स्वर्णजाती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वर्णजातिका'।

स्वर्णजीवंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णजीवन्तिका] दे० 'स्वर्णजीवंती'।

स्वर्णजीवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णजीवन्ती] पीली जीवंती।

स्वर्णजीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जीवंती।

स्वर्णजीवी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णजीविन्] वह जो सोने के आभूषण आदि बनाकर जीविका निर्वाह करता हो। सुनार।

स्वर्णजीवी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जीवंती। सुनहली जीवंती [को०]।

स्वर्णजूही
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णयूथिका, प्रा० जूहिआ] पीली जूही।

स्वर्णतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

स्वर्णद (१)
वि० [सं०] १. स्वर्ण या सोना देनेवाला। २. स्वर्ण या सोना दान करनेवाला।

स्वर्णद (२)
संज्ञा पुं० वृश्चिकाली। बरहंटा।

स्वर्णदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरहंटा। वृश्चिकाली [को०]।

स्वर्णदामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी [को०]।

स्वर्णदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मंदाकिनी। स्वर्गंगा। २. वृश्चिकाली। बरहंटा। ३. कामाख्या के पास की एक नदी का नाम।

स्वर्णदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्वर्णदुग्धा, स्वर्णदुग्धी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णक्षीरी। सत्यानाशी। भरभाँड़।

स्वर्णद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] आरग्वध। अमलतास।

स्वर्णद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] एक द्वीप का नाम जिसे आजकल सुमात्रा कहते हैं।

स्वर्णधातु
संज्ञा पुं० [पुं०] १. सुवर्ण। सोना। २. स्वर्णगैरिक। सोनागेरू।

स्वर्णनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का शालग्राम। २. एक प्रकार का अस्त्रमंत्र (को०)।

स्वर्णनिभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोनागेरू। स्वर्णगैरिक।

स्वर्णनिभ (२)
वि० सोने जैसा। सोने के समान।

स्वर्णपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़।

स्वर्णपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का पत्तर या तबक।

स्वर्णपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णमुखी। सोनामुखी। सनाय।

स्वर्णपद्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गंगा। मंदाकिनी।

स्वर्णपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जीवंती।

स्वर्णपर्पटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध औषध जो संग्रहणी रोग के लिये सवसे अधिक गुणकारी मानी जाती है। विशेष—इसके बनाने के लिये एक तोले सोने को पहले आठ तोले पारे में भली भांति खरल करते हैं और तब उसमें आठ तोले गंधक मिलाकर उसकी कजली तैयार करते हैं। इसके सेवन के समय रोगी की इतना अधिक दूध पिलाया जाता है जितना वह पी सकता है।

स्वर्णपाटक
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा, जिसके मिलाने से सोना गल जाता है।

स्वर्णपारेवत
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा पारेवत।

स्वर्णपुंख
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णपुड़्ख] वह वाण जिसके पिछले भाग में स्वर्णिम पंख लगा हो।

स्वर्णपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने की नगरी। लंका [को०]।

स्वर्णपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरग्वध। अमलतास। २. चंपा। चंपक। ३. बबूल। कीकर। ४. कपित्थ। कैथ। ५. सफेद कुम्हड़ा। पेठा।

स्वर्णपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। लांगली। २. सातला नाम का थूहर। ३. मेढ़ासिंगी। ४. सोनुली। विशेष दे० 'स्वर्णुली'। ५. स्वर्णकेतकी।

स्वर्णपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली चमेली [को०]।

स्वर्णपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्णकेतकी। पीला केवड़ा। २. सातला नाम का थूहड़। ३. अमलतास। आरग्वध।

स्वर्णप्रतिकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वर्णप्रतिमा'।

स्वर्णप्रतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने की प्रतिमा या मूर्ति।

स्वर्णप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबूद्वीप के एक उपद्वीप का नाम।

स्वर्णफल
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा।

स्वर्णफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णकदली। चंपा केला।

स्वर्णबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णबन्धक] सोना बंधक रखना [को०]।

स्वर्णबंधक
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णाबन्धक] दे० 'स्वर्णबंध'।

स्वर्णबणिक्
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति। स्वर्णकार। सोनार [को०]।

स्वर्णबीज
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरे का बीज।

स्वर्णभाक्, स्वर्णभाज्
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

स्वर्णभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्थान जहाँ सब प्रकार के सुख हों। बहुत उत्तम भूमि। २. दारचीनी। गुड़त्वक्।

स्वर्णभूमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ अदरक। आदी। २. एक प्रकार का तज। विशेष दे० 'दारचीनी' [को०]।

स्वर्णभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरग्वध। अमलतास। २. सोनागेरू। स्वर्णगैरिक।

स्वर्णभृंगार
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णभृङ्गार] १. पीला भँगरा। पीली भँगरैया। २. सोने की झारी। सोने का पात्र (को०)।

स्वर्णमंडन
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णमण्डन] सोनागेरू। स्वर्णगैरिक।

स्वर्णमय
वि० [सं०] जो बिलकुल सोने का हो। जैसे,—स्वर्णमय सिंहासन।

स्वर्णमहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कालिका पुराणोक्त एक नदी [को०]।

स्वर्णमाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामाखी नामक उपधातु। विशेष दे० 'सोनामक्खी'।

स्वर्णमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णमातृ] १. हिमालय की एक छोटी नदी का नाम। २. जामुन।

स्वर्णमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्णपत्री। सनाय। २. एक प्रकार की नाव। ६४ हाथ लंबी, ३२ हाथ ऊँची और ३२ हाथ चौड़ी नाव।

स्वर्णमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने का सिक्का। अशरफी।

स्वर्णमूल
संज्ञा पुं० [सं०] कथासरित्सागर के अनुसार एक पर्वत का नाम [को०]।

स्वर्णमूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा [को०]।

स्वर्णयुग
संज्ञा पुं० [सं०] सुख समृद्धि एवं शांति का काल।

स्वर्णयूथिका, स्वर्णयूथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जूही।

स्वर्णरंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णरम्भा] स्वर्णकदली। चंपा केला।

स्वर्णराग, स्वर्णराज
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कमल [को०]।

स्वर्णरीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपीतल। सोनापीतल।

स्वर्णरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सुवर्णरेखा'।

स्वर्णरेता
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णरेतस्] हिरण्यरेता। सूर्य [को०]।

स्वर्णरोमा
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णरोमन्] एक सूर्यवंशी राजा का नाम जो राजा महारोमा का पुत्र और ह्वस्वरोमा का पिता था।

स्वर्णलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। ज्योतिष्मती। २. पीली जीवंती। स्वर्णजीवंती।

स्वर्णलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त्र अभिमांत्रित करने का एक मंत्र। २. सोना मिलना। स्वर्ण की प्राप्ति [को०]।

स्वर्णली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोनुली नामक क्षुप। स्वर्णपुष्पी। विशेष दे० 'स्वर्णुली'।

स्वर्णलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सुवर्णरेखा' [को०]।

स्वर्णवंग
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णवङ्ग] राँगे या सीसे का एक प्रकार का भस्म [को०]।

स्वर्णवज्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा।

स्वर्णवणिक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सराफ। २. स्वर्णकार [को०]।

स्वर्णवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कणगुग्गुल। २. हरताल। ३. सोना- गेरू। स्वर्णगैरिक। ४. दारुहल्दी।

स्वर्णवर्ण (२)
वि० स्वर्णिम। सुनहला। सोने के रंग का [को०]।

स्वर्णवर्णांक
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णवर्णाङ्क] कंकुष्ठ। मुरदासंग।

स्वर्णवर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारुहलदी।

स्वर्णवर्णाभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती।

स्वर्णवल्कल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोनापाठा। श्योनाक। अरलू।

स्वर्णवल्कल (२)
वि० जिसकी ऊपरी तह या छिलक सुनहला हो [को०]।

स्वर्णवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोनावल्ली। रक्तफला। २. स्व- र्णुली नामक क्षुप। ३. पीली जीवंती।

स्वर्णविंदु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णविन्दु] १. विष्णु। २. महाभारत में वर्णित प्राचीन काल के एक तीर्थ का नाम।

स्वर्णविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णनिर्माण की विद्या। सोना बनाने की कला। कीमियागरी [को०]।

स्वर्णशिख
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णचूड़ या नीलकंठ नामक पक्षी।

स्वर्णशुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णद्वीप का सोना [को०]।

स्वर्णशृंग
वि० [सं० स्वर्णश्रृङ्ग] जिसकी सोंग सोने से मढ़ी या स्वर्णिम हो [को०]।

स्वर्णशृंगी
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णश्रृङ्गिन्] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो सुमेरु पर्वत के उत्तर ओर माना जाता है।

स्वर्णशेफालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आरग्वध। अमलतास। २. सँभालू। पीला सिंधुआर।

स्वर्णशैल
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत जो सोने का कहा गया है। हेमगिरि [को०]।

स्वर्णसिंदूर
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णसिन्दूर] दे० 'रससिंदूर'।

स्वर्णसू
वि० [सं०] जहाँ से सोना निकलता हो। सोना उत्पन्न करनेवाला [को०]।

स्वर्णस्थ
वि० [सं०] जो स्वर्ण में जड़ा हुआ हो [को०]।

स्वर्णहालि
संज्ञा पुं० [सं०] आरग्वध। अमलतास।

स्वर्णांग
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णाङ्ग] आरग्वध। अमलतास।

स्वर्णाकर
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ सोना उत्पन्न होता हो। सोने की खान।

स्वर्णाचल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वर्णाद्रि'।

स्वर्णातप
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण + आतप] पीली धूप जो सोने जैसी लगती है। उ०—पत्रों पुष्पों से टपक रहा स्वर्णातप, प्रातः समीर के मृदु स्पर्शों से कँप कँप।—युगांत, पृ० ११।

स्वर्णाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. उड़ीसा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक तीर्थ जो स्वर्णाचल भी कहलाता है। २. सुमेरु पर्वत (को०)।

स्वर्णाभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल।

स्वर्णाभ (२)
वि० सोने जैसी आभावाला। उ०—जो रजनी ने बिखराई थीं भू पर मंजुल मुक्तावलियाँ। लगीं लूटने उन्हें प्रात में दिनमणि की स्वर्णाभ रश्मियाँ।—ग्रामिका, पृ० १९।

स्वर्णाभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जूही।

स्वर्णारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधक। २. सीसा नामक धातु।

स्वर्णालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप। सोनुली। विशेष दे० 'स्वर्णु ली'।

स्वर्णाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णक्षीरी। सत्यानाशी। भरभाँड़।

स्वर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिया।

स्वर्णिम
वि० [सं०] १. सुनहला। सोने जैसा। उ०—बंधु, चाहता काल, तोड़ दे हमें, छोड़ कंकाल। यहो दैव की चाल, जगत स्वप्नों का स्वर्णिम जाल !—मधुज्वाल, पृ० ३९। २. सोने का (को०)।

स्वर्णुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप जो सोनुली कह- लाता है। विशेष—इसे हेमपुष्पी और स्वर्णपुष्पा भी कहते हैं। वैद्यक के अनुसार यह कटु, शीतल, कषाय और व्रणनाशक होता है।

स्वर्णोपधातु
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु।

स्वर्दंती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्दन्तिन्] स्वर्गलोक का हाथी। ऐरावत आदि हाथी [को०]।

स्वर्द
वि० [सं०] स्वर्लोक देनेवाला। स्वर्ग देनेवाला [को०]।

स्वर्धुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्लोक की नदी, गंगा।

स्वर्धनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गलोक की गाय, कामधेनु [को०]।

स्वर्न पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण]दे० 'स्वर्ण'।

स्वर्नसैल
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णशैल] सोने का पर्वत। सुमेरु पर्वत। उ०—स्वर्नसैल संकास कोटि रवि तरुन तेज घन। उर विशाल भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४६।

स्वर्नगरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती।

स्वर्नदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गंगा।

स्वर्पति
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी,इंद्र।

स्वर्भाण
संज्ञा पुं० [सं०] राहु [को०]।

स्वर्भानव
संज्ञा पुं० [सं०] गोमेद मणि। राहु का रत्न।

स्वर्भानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. राहु। २. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। यौ०—स्वर्भानुसूदन=सूर्य का एक नाम।

स्वर्मणि
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश के मणि। मुणि। सूर्य [को०]।

स्वर्मध्य
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश का मध्य भाग। खमध्य [को०]।

स्वर्यात
वि० [सं०] मृत। मरा हुआ। स्वर्गत [को०]।

स्वर्याता
वि० [सं० स्वर्यातृ] मुमूर्षु। मरणासन्न [को०]।

स्वर्यान
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु। मरण। मौत [को०]।

स्वर्योषित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा [को०]।

स्वर्लीन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम।

स्वर्लोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. मेरु पर्वत का एक नाम (को०)। ३. देवता (को०)।

स्वर्वधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा।

स्वर्वापी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।

स्वर्वारवामभ्रू
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा। स्वर्वधू [को०]।

स्वर्वासी
वि० [सं०] स्वर्ग में रहनेवाला (देवता)। उ०—हाय घ्राण ही नहीं, तुझे यदि होता, मांस लहू भी। ओ स्वर्वासी अमर ! मनुज सा निर्धिन होता। तू भी।—सामधेनी, पृ० २२।

स्वर्वाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदाकिनी [को०]।

स्वर्विद्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो यज्ञ आदि करके स्वर्ग जाता हो।

स्वर्वेश्या
संज्ञा स्त्री [सं०] अप्सरा।

स्ववैर्द्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार।

स्वर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] सम्यक् संमान। अत्यधिक आदर [को०]।

स्वर्हत्
वि० [सं०] जो बहुत संमान्य हो [को०]।

स्वलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] विशेष लक्षण या तत्व। विशेषता [को०]।

स्वलिखित
वि० [सं०] स्वयं लिखा हुआ [को०]।

स्वलीन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार एक दानव का नाम।

स्वल्प (१)
वि० [सं०] १. बहुत थोड़ा। बहुत कम। जैसे,—स्वल्प मात्रा में मकरध्वज देने से भी बहुत लाभ होता है। उ०—(क) अतिथि ऋषीश्व शापन आए शोक भयो जिय भारी। स्वल्प शाक ते तृप्त किए सब कठिन आपदा टारी।—सूर (शब्द०)। (ख) कल्प वर्ष भट चल्यो किए संकल्प विजय को। समुझि अल्प बल परन स्वल्पहू लेस न भय को।—गिरधरदास (शब्द०)। २. नगण्य। महत्वहीन। तुच्छ (को०)। ३. संक्षिप्त। लघु। अल्प (को०)। ४. बहुत छोटा (को०)।

स्वल्प (२)
संज्ञा पुं० नखी या हट्टविलासिनी नामक गंधद्रव्य।

स्वल्पकंक
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पकङ्क] छोटी चील पक्षी की एक जाति [को०]।

स्वल्पकंद
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पकन्द] कसेरू।

स्वल्पक
वि० [सं०] बहुत थोड़ा। बहुत कम या अत्यंत लघु [को०]।

स्वल्पकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] साँख आलू।

स्वल्पकेशरी
संज्ञा पुं० [सं०] कचनार।

स्वल्पकेशरी
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पकेशरिन्] कोविदार का वृक्ष। कचनार का पेड़ [को०]।

स्वल्पकेशी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पकेशिन्] भूतकेश नामक पौधा।

स्वल्पकेशी (२)
वि० जिसे बहुत कम केश हों [को०]।

स्वल्पघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वल्पघण्टा] बनसनई।

स्वल्पचटक
संज्ञा पुं० [सं०] गौरैया नामक पक्षी।

स्वल्पजंबुक
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पजम्बुक] लोमड़ी।

स्वल्पतंत्र
वि० [सं० स्वल्पन्त्र] जिसके अध्याय, तंत्र या खंड छोटे छोटे हों [को०]।

स्वल्पतर
वि० [सं०] बहुत थोड़ा या बहुत साधारण।

स्वल्पतरु
संज्ञा सं० [सं०] केमुक। केमुआँ।

स्वल्पदुःख
संज्ञा वि० [सं०] साधारण कष्ट। हलकी पीड़ा [को०]।

स्वल्पदृक्
वि० [सं० स्वल्पदृश्] जो दूरदर्शी न हो। अदूरदर्शी [को०]।

स्वल्पदेहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटे कद की लड़की जो विवाह के योग्य नहीं मानी जाती [को०]।

स्वल्पनख
संज्ञा पुं० [सं०] नखी या हट्टविलासिनी नामक गंधद्रव्य।

स्वल्पपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] गौरशाक। पहाड़ी महुआ।

स्वल्पपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेदा नाम की अष्टवर्गीय ओषधि।

स्वल्पफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपराजिता। हपुषा। हाऊबेर।

स्वल्पबल
वि० [सं०] दुर्बल। कमजोर। [को०]।

स्वल्पभाषी
वि० [सं० स्वल्पभाषिन्] जो मितभाषी हो। कम बोलनेवाला [को०]।

स्वल्पयव
संज्ञा पुं० [सं०] जौ नामक अन्न।

स्वल्परूपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शणपुष्पी। बनसनई।

स्वल्पवर्तुल
संज्ञा पुं० [सं०] मटर।

स्वल्पवल्कला
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेजबल। तेजोवती।

स्वल्पवयस्
वि० [सं०] छोटी अवस्था का [को०]।

स्वल्पविटप
संज्ञा पुं० [सं०] केमुक। केमुआ।

स्वल्पविराम ज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] ठहर ठहरकर थोड़ीं देर के लेये उतरकर फिर आनेवाला ज्वर।

स्वल्पविषय
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण बात या मामूली अंश [को०]।

स्वल्पव्यक्ति तंत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्वल्पव्यक्ति तन्त्र] वह सरकार जिसमें राजसत्ता इने गिने लोगों के हाथों में हो। कुछ लोगौं का राज्य या शासन। विशेष दे० 'ओलिगार्की'।

स्वल्पव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कम खर्च। २. कृपण [को०]।

स्वल्पव्ययी
वि० [सं० स्वल्पव्ययिन्] कम खर्च करनेवाला। अल्प या थोड़ा खर्च करनेवाला।

स्वल्पव्रीड
वि [सं०] बेशर्म। निर्लज्ज [को०]।

स्वल्पशब्दा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनसनई। शणपुष्पी।

स्वल्पशरीर
वि० [सं०] छोटे कद का। ठिंगना। नाटा [को०]।

स्वल्पश्रृगाल
वि० संज्ञा पुं० [सं०] रोहित मृग। बनरोहा।

स्वल्पांगुलि
संज्ञा स्री० [सं० स्वल्पाङ्गुलि] कनिष्ठिका। कानी उँगली [को०]।

स्वल्पांतर
वि० [सं० स्वल्पान्तर] जिनमें बहुत कम अंतर या फर्क हों।

स्वल्पायु
वि० [सं० स्वल्पायुम्] अल्पजीवी। अल्पायु [को०]।

स्वल्पाहार (१)
वि० [सं०] कम खानेवाला। अल्पाहारी।

स्वल्पाहार (२)
संज्ञा पुं० अल्पाहार। संयत भोजन [को०]।

स्वल्पस्मृति
वि० [सं०] जिसकी स्मरण शक्ति कम हो [को०]।

स्वल्पिष्ठ
वि० [सं०] १. अत्यंत थोड़ा या अल्प। २. बहुत छोटा। स्वल्पतर [को०]।

स्लल्पीयस
वि० [सं०] अत्यंत अल्प या छोटा। मामूली [को०]।

स्वल्पेच्छ
वि० [सं०] कम या मामूली इच्छाओंवाला। जिसकी कामना अल्प हो। संतोषी [को०]।

स्ववंश
संज्ञा पुं० [सं०] अपना कुल। अपना वंश।

स्ववशी
वि० [सं० स्ववंशिन्] अपने वंश का। परवर्ती पीढ़ी का।

स्ववंश्य
वि० [सं०] अपने खानदान का। अपने परिवार का [को०]।

स्ववच्छन्न
वि० [सं०] सम्यक् आवृत। अच्छी तरह ढँका हुआ [को०]।

स्ववरन पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण]दे० 'सुवर्ण'।

स्ववर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] अपना वर्ग। अपना समाज। अपना मित्रमंडल या परिवार।

स्ववर्गीय
वि० [सं०] जो अपने वर्ग का हो।

स्ववर्णी रेखा
संज्ञा स्त्री० [सं० सुवर्णरेखा] एक नदी जो छोटा नागपुर से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

स्ववश
वि० [सं०] १. जो अपने वश में हो। स्वतंत्र। स्वाधीन। २. जिसका अपने आप पर अधिकार हो। जो अपनी इंद्रियों को वश में रखता हो। जितेंद्रिय।

स्ववशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्ववण का भाव या धर्म।

स्ववशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद।

स्ववश्य
वि० [सं०] जो अपने ही वश में हो। अपने आपपर अधिकार रखनेवाला।

स्ववस पु
वि० [सं० स्ववश] १. जो अपने वश में हो। वशीभूत। उ०—देखा स्ववस करम मन बानी।—मानस, १।१६२। २. दे० 'स्ववश'।

स्ववहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ। त्रिवृत।

स्ववहित
वि० [सं०] जो भली भाँति अवहित हो। एकाग्र। २. सावधान। सतर्क।

स्ववार
संज्ञा पुं० [सं०] अपना घरबार। अपना घर [को०]।

स्ववार्त
संज्ञा पुं० [सं० स्ववार्त्त] अपनी वार्ता या बात। अपना हित। अपनी अवस्था या स्थिति।

स्ववासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या अथवा विवाहिता स्त्री जो अपने पिता के घर रहती हो।

स्ववासी
संज्ञा पुं० [सं० स्ववासिन्] एक साम का नाम।

स्वविकत्थन
वि० [सं०] अपनी हो बात कहनेवाला। सीटने या डींग मारनेवाला। सीटू।

स्वविक्षिप्त सैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] अपने ही देश में विद्यमान सेना। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि स्वविक्षिप्त और मित्रविक्षिप्त (मित्र के देश में स्थित) सेना में स्वविक्षिप्त उत्तम है, क्योंकि समय पड़ने पर वह तुरंत काम दे सकती है।

स्वविग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] अपना रूप या शरीर।

स्वविधेय
वि० [सं०] जो स्वयं करणीय हो। खुद ब खुद करने लायक।

स्वविनाश
संज्ञा पुं० [सं०] अपना विनाश। आत्महानि।

स्वविषय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना विषय। अपना क्षेत्र। २. अपना देश। स्वदेश [को०]।

स्ववीज (१)
वि० [सं०] जो अपना वीज या कारण आप ही हो।

स्ववीज (२)
संज्ञा पुं० आत्मा।

स्ववृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] व्यक्ति का अपना निजी कार्य, व्यापार या प्रयोजन [को०]।

स्ववृत्ति (१)
वि [सं०] अपने प्रयत्न से जीवनयापन करनेवाला। स्वाव- लंबी। आत्मनिर्भर [को०]।

स्ववृत्ति (२)
संज्ञा स्त्री० १. स्वकीय जीवनयापन करने का ढंग या पद्धति। २. आत्मनिर्भर होना। आत्मनिर्भरता।

स्वव्याज
वि० [सं०] जो छल कपट से रहित हो। निश्छल। ईमानदार। सच्चा [को०]।

स्वशुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्वसुर'।

स्वश्लाघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी बड़ाई। आत्मप्रशंसा।

स्वसंभव
वि० [सं० स्वसम्भव] जो आत्मा से उत्पन्न हो। आत्मसंभव।

स्वसंभूत
वि० [सं० स्वसम्भूत] जो आपसे आप उत्पन्न हो। स्वतः समुत्पन्न।

स्वसंवृत
वि० [सं०] आत्मरक्षण में शक्त। स्वर्य रक्षित [को०]।

स्वसंविद् (१)
वि० [सं०] जिसका ज्ञान इंद्रियों से न हो सके। अगोचर।

स्वसंविद् (२)
संज्ञा स्त्री० आत्मज्ञान। शुद्ध ज्ञान [को०]।

स्वसंवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वयं प्राप्त या अनुभूत ज्ञान [को०]।

स्वसंवेद्य
वि० [सं०] (ऐसी बात) जिसका अनुभव वही कर सकता हो जिसपर वह बीती हो। केवल अपने ही अनुभव होने योग्य।

स्वसंस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपने निश्चय या विचार पर स्थिर रहना। २. स्वयं स्थिर होने का भाव। आत्मस्थिरता। ३. आत्मलीनता [को०]।

स्वसन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वसन] वायु। दे० 'श्वसन'। उ०—स्वसन सदागति मरुत हरि मारुत जगत परान। अनेकार्थ०, पृ० ५४।

स्वसना पु
क्रि० अ० [सं० श्वसन, हिं० स्वसन] साँस लेना। उ०— खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरि भाथी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३९७।

स्वसमुत्थ
वि० [सं०] १. जो स्वयं उठा हुआ हो। अपने आप उत्थित या उठा हुआ। २. जो स्वयं उद्भूत हो। प्राकृतिक। नैसर्गिक। ३. अपने ही देश में उत्पन्न, स्थित या एकत्र होनेवाला। जैसे,—स्वसमुत्थ कोश। स्वसमुत्थ बल या दंड।

स्वसर
संज्ञा पुं० [सं०] १.घर। मकान २. दिन। दिवस। ३. नीड़। घोसला (को०)।

स्वसर्व
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी समग्र संपदा। अपना सब कुछ।

स्वसा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वसृ] भगिनी। बहिन। उ०—तेहि अवसर रावण स्वसा सूपनखा तहँ आई। रामस्वरूप मोहितबचन बोली गरब बढ़ाई '-विश्राम (शब्द०)।२. तेजबल। तेजफल। तेजोवती। ३. अंगुली। उँगली (को०)।

स्वसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी। धरती [को०]।

स्वसुर
संज्ञा पुं० [सं० स्वशुर, हिं० ससुर]दे० 'ससुर'।

स्वसुराल
संज्ञा स्त्री० [हिं० ससुराल]दे० 'ससुराल'।

स्वस्ता पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वस्थता] सुस्थिरता। स्वस्थता। उ०—स्वस्ता मन में आई जगत की भ्रमना भागी।—पलटू०, प० ७४।

स्वस्ति (१)
अव्य० [सं०] १. कल्याण हो। मंगल हो। (आशीर्वाद)। २. दान-स्वीकृति-परक वाक्य। विशेष—प्रायः दान लेने पर ब्राह्मण लोग 'स्वस्ति' कहते हैं, जिसका अभिप्राय होता है—दाता का कल्याण हो।

स्वस्ति (२)
संज्ञा स्त्री० १. कल्याण। मंगल। २. पुराणनुसार ब्रह्मा की तीन स्त्रियों में से एक स्त्री का नाम। उ०—ब्रह्मा कहँ जानत संसारा। जिन सिरज्यो जग कर विस्तारा। तिनके भवन तीनि रहैं इस्त्री। संध्या स्वस्ति और सावित्री।—विश्राम (शब्द०)।३. सुख।

स्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर जिसमें पश्चिम ओर एक दालान और पूर्व ओर दो दालान हों। विशेष—कहते हैं, ऐसे घर में रहने से गुहस्थ की स्वस्ति अर्थात् कल्याण होता है, इसी लिये इसे स्वस्तिक कहते हैं। २. शिरियारी। सुसना नाम का साग। ३. लहसुन। ४. रतालू। रक्तालु। ५. मूली। ६. हठयोग में एक प्रकार का आसन। ७. एक प्रकार का मंगल द्रव्य। विशेष—विवाह आदि के समय चावल को पीसकर और पानी में मिलाकर यह मंगल द्रव्य तौयार किया जाता है और इसमें देवताओं का निवास माना जाता है। ८. प्राचीन काल का एक प्रकर का यंत्र। विशेष—यह यंत्र शरीर में गड़े हुए शल्य आदि को बाहर निका- लने के काम में आता था। यह अठारह अंगुल तक लंबा होता था और सिंह, श्रृगाल, मृग आदि के आकार के अनुसार १८ प्रकार का होता था। ९. वैद्यक में फोड़े आदि पर बाँधा जानेवाला बंधन या पट्टी जिसका आकार तिकोना होता था। १०. चौराहा। चौमुहानी ११. साँप के फन पर की नीली रेखा। १२. प्राचीन काल का एक प्रकार का मंगल चिह्न जो शुभ अवसरों पर मांगलिक द्रव्यों से अंकित किया जाता था और जो कई आकार तथा प्रकार का होता था। आजकल इसका मुख्य आकार/?/यह प्रचलित है। प्रायः किसी मंगल कार्य के समय गणेशपूजन करने से पहले यह चिह्न बनाया जाता है। आजकल लोग इसे भ्रम में गणेश ही कहा करते हैं। १३. शरीर के विशिष्ट अंगों में होनेवाला उक्त आकार का एक चिह्न। उ०—स्वस्तिक अष्टकोण श्री केरा। हल मुसल पन्नग शर हेरा।—विश्राम (शब्द०)। विशेष—इस प्रकार का चिह्न सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार बहुत शुभ माना जाता है। कहते हैं, रामचंद्र जी के चरण में इस प्रकार का चिह्न था। जैनी लोग जिन देवता के २४ लक्षणों में से इसे भी एक मानते हैं। १४. प्राचीन काल की एक प्रकार की बढ़िया नाव जो प्रायः राजाओं की सवारी के काम में आती थी। १५. एक प्रकार के चारण जो जयजयकार करते हैं (को०)। १६. कोई भी शुभ या मंगल द्रव्य (को०)। १७. भुजाओं को वक्ष पर इस प्रकार रखना जिससे एक व्यत्यस्त चिह्व x बन जाय (को०)। १८. एक विशेष आकार का प्रासाद (को०)। १९. विषयी। व्यभिचारी (को०)। २०. एक विशेष प्रकार का पिष्टक, पूआ या रोट (को०)। २१. चौराहे से बना हुआ त्रिभुजाकार चिह्व (को०)। २२. देवता के लिये उपकल्पित आसन या पीठ (को०)। २३. मुकुटमणि जो त्रिकोमत्मक हो। त्रिकोण मुकुटमणि (को०)। २४. स्कंद का एक अनुचर (को०)। २५. एक दानव का नाम (को०)।

स्वस्तिककर्ण
वि० [सं०] जिसके कान पर स्वस्तिक का चिह्न निर्मित हो [को०]।

स्वस्तिकदान
संज्ञा पुं० [सं०] स्वस्तिक के आकार में हाथों को वक्ष पर रखना [को०]।

स्वस्तिकपाणि
वि० [सं०] १. स्वस्तिक के रूप में हाथों की मुद्रा बनानेवाला। २. जिसके हाथों में मंगलद्रव्य हो [को०]।

स्वस्तिकयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्वस्तिकयन्त्र] प्राचीन काल का एक प्रकार का यंत्र जिसका व्यवहार शरीर में धँसे हुए शल्य को निकालने के लिये होता था। विशेषदे० 'स्वस्तिक—८'।

स्वस्तिकर
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

स्वस्तिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० स्वस्तिकर्मन्] वह जिससे कल्याण हो। कल्याणकारक कर्म [को०]।

स्वस्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमेली।

स्वस्तिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के चारण। दे० 'स्वस्तिक'—१५। २. शुभ करना। कल्याण करना [को०]।

स्वस्तिकाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] चौलाई का साग।

स्वतिकृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

स्वस्तिकृत् (२)
वि० मंगल करनेवाला। कल्याणकारी।

स्वस्तिद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

स्वस्तिद (२)
वि० मंगल या कल्याण देने अथवा करनेवाला।

स्वस्तिदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायु की पत्नी, एक देवी [को०]।

स्वस्तिपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] स्वस्तिवाचक मंत्रों का पाठ [को०]।

स्वस्तिपुर
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

स्वस्तिभाव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। शंकर [को०]।

स्वस्तिमत्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्वस्तिमती] कल्याणयुक्त। सौभाग्यसंपन्न सुखी [को०]।

स्वस्तिमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।

स्वस्तिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। २. वह जो राजाओं की स्तुति करता हो। वंदी। स्तुतिपाठक। ३. पत्र। चिट्ठी [को०]।

स्वस्तिवचन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वस्ति अथवा कल्याणवाचक शब्द कहना [को०]।

स्वस्तिवाचक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मंगलसूचक बात कहता या मंत्रपाठ करता हो। २. वह जो आशीर्वाद देता है। ३. शुभ- कामना। आशीर्वाद (को०)।

स्वस्तिवाचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्मकांड के अनुसार मंगल कार्यों के आरंभ में किया जानेवाला एक प्रकार का धार्मिक कृत्य जिसमें गणेशपूजन के अनंतर। कलश स्थापित किया जाता है और कुछ मंगलसूचक मंत्रों का पाठ (प्रप्याह वाचन आदि) किया जाता है। उ०—एकदिना हरि लई करोटी सुनि हरषी नँदरानी। विप्र बुलाय स्वस्तिवाचन करि रोहिणी नैन सिरानी। —सूर (शब्द०)। २. द्रव्य आदि जो स्वस्तिवाचक को दिया जाय (को०)।

स्वस्तिवचनक, स्वस्तिवाचनिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वस्ति- वाचन' [को०]।

स्वस्तिवाच्य
संज्ञा पुं० [सं०] शुभ कामना। बधाई। कल्याण की कामना [को०]।

स्वस्तिश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्र के आरंभ में लिखा जानेवाला मंगल- सूचक शब्द।

स्वस्तेन पु
संज्ञा पुं० पुं० [सं० स्वस्त्ययन]दे० 'स्वस्त्ययन'।

स्वस्तीबचन पु
संज्ञा पुं० दे० 'स्वस्तिवाचन'। उ०—नंद राय घर ढोटा जायो महर महा सुख पायो। विप्र बुलाय वेद ध्वनि कीन्ही स्वस्तीबचन पढ़ायो।—सूर (शब्द०)।

स्वस्त्यक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना [को०]।

स्वस्त्ययन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धार्मिक कृत्य जो किसी विशिष्ट कार्य की अशुभ बातों का नाश करके शुभ की स्थापना के विचार से किया जाता है। उ०—पढ़न लगे स्वस्त्ययन ब्रह्म- ऋषि गाइ उठीं सब नारी। लैनरनाथ अंक रघुनाथहि रंगनाथ संभारी।—रघुराज (शब्द०)। २. शुभ, कल्याश, समृद्धि आदि की प्राप्ति का साधन (को०)। ३. दान स्वीकार करने के अनंतर ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिकथन (को०)। ४. मांगलिक कृत्य में आगे आगे ले जाया जानेवाला जलपूर्ण कलश (को०)।

स्वस्त्ययन (२)
वि० कल्याणकारक। मंगलप्रद। शुभद [को०]।

स्वस्त्यात्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।

स्वस्थ
वि० [सं०] १. जिसका स्वास्थ्य अच्छा हो। जिसे किसी प्रकार का रोग न हो। निरोग। तंदुरुस्त। भला चंग। जैसे,—इधर महीनों से वे बीमार थे; पर अब बिलकुल स्वस्थ हो गए हैं। २. जिसका चित ठिकाने हो। जो स्वाभाविक स्थिति में हो। सावधान। जैसे; —आप तो घबरा गए; जरा स्बस्थ होकर पहले सब बातें सुन तो लीजिए। ३. स्व में स्थित। अपने में स्थित (को०) ४. स्वाश्रित। स्वावलंबी (को०)। ५. स्वतंत्र। स्वा- धीन (को०) ६. संतुष्ट। प्रसन्न (को०)। यौ०—स्वस्थमुख=प्रसन्नवदन।

स्वस्थचित्त
वि० [सं०] जिसका चित्त ठिकाने हो। शांतचित्त।

स्वस्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वस्थ का भाव या धर्म। नीरोगता। तंदुरुस्ती। २. सावधानता।

स्वस्थवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. आयुर्वेद शास्त्र की एक अंगभूत शाखा। स्वस्थ रहने का उपचार। स्वास्थ्यरक्षा की विधि या नियम [को०]।

स्वस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] अपना निवासस्थान। अपना घर। अपना आवास अथवा क्षेत्र।

स्वस्थित
वि० [सं०] जो स्व में स्थित हो। आत्मस्थित। स्वाधीन [को०]।

स्वस्रीय
संज्ञा पुं० [सं०] (स्वसृ) बहिन का लड़का। भानजा।

स्वस्त्रीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहिन की लड़की। भानजी [को०]।

स्वस्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] भानजा। भगिना [को०]।

स्वस्रेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भानजी [को०]।

स्वस्वरूप
संज्ञा पुं० [सं०] व्यक्ति का अपना सच्चा रूप [को०]।

स्वहंता
संज्ञा पुं० [सं० स्वहन्तृ] १. आत्महत्या। आत्महनन। २. आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति [को०]।

स्वहरण
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वस्वहरण। समग्र संपत्ति का हरण [को०]।

स्वहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] व्यक्ति का अपना हाथ या हस्तलिपि। हस्त- लेख। हस्ताक्षर [को०]। यौ०—स्वहस्तगत=अपने हाथ में आया हुआ। अपने अधिकार में आया हुआ। स्वहस्तलिखित=अपने हाथ से लिखा हुआ।

स्वहस्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुल्हाड़ी [को०]।

स्वहाना पु
क्रि० अ० [हिं० सोहाना] शोभित होना। दे० 'सोहाना'। उ०—सब आचार्यन के मधि माहीं। रामानुज मुनि सरिस स्वहाहीं।—रघुराज (शब्द०)।

स्वहित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अपना कल्याण। अपना हित [को०]।

स्वहित (२)
वि० जो अपने लिये हितकर हो [को०]।

स्वांकिक
संज्ञा पुं० [सं० स्वाङ्किक] ढोल, पटह या मृदंग आदि वाद्य बजानेवाला व्यक्ति।

स्वांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वाङ्ग] अपना शरीर। अपना अंग। यौ०—स्वांगभंग=अपनी देह में चोट लगना या अपना अंगमंग होना। स्वांगशीत=जिसके अंग ठंढे हों।

स्वांग (२)
संज्ञा पुं० [सं० सु या स्व+अङ्ग] दे० 'स्वाँग'।

स्वांजल्यक
संज्ञा पुं० [सं० स्वाञ्जल्यक] प्रार्थना के लिये हाथ जोड़ना। सविनय प्रार्थना [को०]।

स्वांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वान्त] १. अंतःकरण। मन। २. अपना अंत या मृत्यु। ३. अपना राज्य या प्रदेश। ४. गुफा। गुहा।

स्वांत (२)
वि० शब्दित। ध्वनित [को०]।

स्वांतक
संज्ञा पुं० [सं० स्वान्तज] १. प्रेम। २. मनोज। कामदेव।

स्वांतवत्
वि० [सं० स्वान्तवत्] [वि० स्त्री० स्वांतवती] हृदयवाला। सहृदय [को०]।

स्वांतस्थ
वि० [सं० स्वान्तस्थ] १. हृदयस्थ। २. सावधान [को०]।

स्वांतसुख
संज्ञा पुं० [सं० स्वान्तः सुख] आत्मसुख। आत्मसंतुष्टि।

स्वाँग
संज्ञा पुं० [सं० सु+अङ्ग अथवा स्व+अङ्ग] १. कृत्रिम या बनावटी वेश जो अपना रूप छिपाने अथवा दूसरे का रूप बनाने के लिये धारण किया जाय। भेस। रूप। उ०—(क) अब चलो अपने अपने स्वाँग सजें।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ख) कै इक स्वाँग बनाइ कै नाचै बहु बिधि नाच। रीझत नहिं रिझवार वह बिना हिये के साँच।—रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—भरना।—बनना।—बनाना।—सजना। २. मजाक का खेल या तमाशा। नकल। उ०—(क) बहु बासना विविध कंचुकि भूषण लोभादि भरचौ। चर अरु अचर गगन जव थल में कौन र्स्वाग न करचौ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पै बहु विस्तृत ठाठ बाट निसि नाच स्वाँग सब। धन अधिकाई के अर लंपटता करतब के।—श्रेधर (शब्द०)। ३. धोखा देने को बनाया हुआ कोई रूप। जैसे,—वह बीमार नहीं है; उसने बीमारी का स्वाँग रचा है। ४. वह जुलूस जो होली पर निकलता है और जिसमें हास्यजनक वेशभूषा धारण की जासी है। क्रि० प्र०—रचना। मुहा०—स्वाँग लाना=धोखा देने या कोई कपटपूर्ण व्यवहार करने के लिये कोई रूप धारण करना।

स्वाँगना पु
क्रि० स० [हिं० स्वाँग+ई (प्रत्य०)] स्वाँग बनाना। बानवटी वेश या रूप धारण करना। उ०—भीम अर्जुन सहित विप्र को रूप धरि हरि जरासंध सों युद्ध माँग्यो। दियो उनपै कह्मौ तुम कोऊ क्षत्रिया कपट करि विप्र को स्वाँग स्वाँग्यो। सूर (शब्द०)।

स्वाँगी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० स्वाँग] १. वह जो स्वाँग सजकर जीविका उपार्जन करता है। नकल करनेवाला। नक्काल। उ०—(क) जैसे कि डोम, भाँड़, नट, वेश्या, स्वाँगो, बहुरूपी या प्रशंसक को देना।—श्रद्धाराम (शब्द०)। (ख) जिन प्रथमै करि पाछे छाँड़ा। तिन्हैं जानिए स्वाँगी भाँड़ा।—विश्राम (शब्द०)। २. अनेक रूप धारण करनेवाला। बहुरूपिया। उ०—स्वाँगी से ए भए रहत है छिन ही छिन ए और।—सूर (शब्द०)।

स्वाँगी (२)
वि० रूप धारण करनेवाला। उ०—साँची सी यह बात है सुनियौ सज्जन संत। स्वाँगी तौ वह एक है वा के स्वाँग- अनंत।—रसनिधि (शब्द०)।

स्वाँति पु, स्वाँती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वाति] एक नक्षत्र का नाम। दे० 'स्वाति'। उ०—जैसे चात्रिक रहै स्वाँति को सलिता निकट न आवै।—कबीर श०,भा० ३, पृ० १६।

स्वाँस
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वास, हिं० साँस]दे० 'साँस'। उ०—पंकज सों मुख गो मुरझाइ लगी लपटैं मिस स्वाँस हिया की।—रसखान (शब्द०)।

स्वाँसा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वह सोना जिसमें ताँबे का खोट मिला हो। ताँबे का खोट मिला हुआ सोना।

स्वाँसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० साँस]दे० 'साँस'। उ०—स्वाँसा सार रच्यौ मेरो साहब।—कबीर (शब्द०)।

स्वाकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति। स्वभाव [को०]।

स्वाकार (२)
वि० अपने रूपवाला। जिसका अपना रूप हो। २. सौम्य आकृतिवाला। जो देखने में शिष्ट एवं प्रिय हो [को०]।

स्वाकृति
वि० [सं०] देखने में सुंदर। प्रियदर्शन [को०]।

स्वाक्त
संज्ञा पुं० [सं०] आँख में लगाने का उत्कृष्ट अंजन [को०]।

स्वाक्षपाद
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायदर्शन को माननेवाला व्यक्ति [को०]।

स्वाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] हस्ताक्षर। दस्तखत। जैसे,—(क) उन्होंने उसपर स्वाक्षर कर दिए। (ख) उनके स्वाक्षर से एक सूचना निकली है।

स्वाक्षरयुक्त
वि० [सं०]दे० 'स्वाक्षरित'।

स्वक्षरांकित
वि० [सं० स्वक्षराङ्कित] १. दे० 'स्वाक्षरित'। २. अपने हाथ से लिखा हुआ।

स्वाक्षरित
वि० [सं०] अपने हस्ताक्षर से युक्त। अपना हस्ताक्षर किया हुआ। अपना दस्तखत किया हुआ। जैसे,—उनके स्वाक्ष- रित सूचनापत्र से सारी बातों का पता लगा है।

स्वाख्यात
वि० [सं०] जो अच्छी तरह व्यक्त, सुस्पष्ट एवं प्रकट हो। जैसे—धर्म [को०]।

स्वागत
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी अतिथिया विशिष्ट पुरुष के पधारने पर उसका सादर अभिनंदन करना। संमानार्थ आर्ग बढ़कर लेना। अगवानी। अभ्यर्थना। पेशवाई। जैसे,—उनका स्वागत लोगों ने बड़े उत्साह और उमंग से किया। २. एक बुद्ध का नाम।

स्वागत (२)
वि० १. सम्यक् रूप से स्वयं आया हुआ। २. सु अर्थात् सुंदर या विधिसंमत उपायों से प्राप्त। जैसे,—धन, द्रव्य आदि [को०]।

स्वागतकारिणी सभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थानीय लोगों की वह सभा जो उस स्थान में निमंत्रित किसी विराट् सभा या संमेलन आदि का प्रबंध करने और आनेवाले प्रतिनिधियों के स्वागत, निवासस्थान, भोजन आदि की व्यवस्था करने के लिये संघटित हो।

स्वागतकारिणी समिति
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'स्वागतकारिणी सभा'।

स्वागतकारी
वि० [सं० स्वागतकारिन्] स्वागत या अभ्यर्थना करनेवाला। पेशवाई करनेवाला।

स्वागतपतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवस्थानुसार नायिका के दस भेदों में से एक। वह नायिका जो अपने पति के परदेश मे लौटने से प्रसन्न हो। आगतपतिका।

स्वागतप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] किसी से मिलने पर कुशल प्रश्न पूछना [को०]।

स्वागतप्रिया
संज्ञा पुं० [सं०] वह नायक जो अपनी पत्नी के परदेश से लौटने से उत्साह पूर्ण और प्रसन्न हो।

स्वागतभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी विशिष्ट सामाजिक आयोजन के अवसर पर गठित स्वागतकारिणी सभा या समिति के अध्यक्ष का भाषण [को०]।

स्वागतवचन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के आगमन पर स्वागत अर्थात् 'स्वागत है' कहना [को०]।

स्वागतसमिती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वागतसमिति] दे० 'स्वागतकारिणी सभा'।

स्वागता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में (र, न, भ, ग, ग) SIS+II+SII+SS होता है। यथा— रानि ! भोगि गहि नाथ कन्हाई। साथ गोपजन आवत धाई। स्वागतार्थ सुनि आतुर माता। धाइ देखि मुद सुंदर गाता। छंदः प्रभाकर (शब्द०)।

स्वागतिक
वि० [सं०] स्वागत करनेवाला। आनेवाले की अभ्यर्थना या सत्कार करनेवाला।

स्वागम
संज्ञा पुं० [सं०] स्वागत। अभिनंदन।

स्वाचरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदर व्यवहार या आचरण। अच्छी चालचलन [को०]।

स्वाचरण (२)
वि० जिसका आचार व्यवहार सुंदर हो [को०]।

स्वाचांत
वि० [सं० स्वाचान्त] सम्यक् रूप से अचमन करनेवाला [को०]।

स्वाच्छंद्य
संज्ञा पुं० [सं० स्वाच्छन्द्य]दे० 'स्वच्छंदता'।

स्वाजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वजनता'।

स्वाजीव, स्वाजीव्य
वि० [सं०] (वह स्थान या देश आदि) जहाँ कृषि, वाणिज्य आदि जीविका का साधन सुलभ हो। जैसे,— स्वाजीव्य देश।

स्वाढ्यंकर
वि० [सं० स्वाढचङ्कर] जो सरलता सो असंपन्न व्यक्ति को संपन्न बना दे [को०]।

स्वातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्वातन्त्र्य]दे० 'स्वातंत्र्य'।

स्वातंत्र्य
संज्ञा पुं० [सं० स्वातन्त्र्य] १. स्वतंत्र का भाव या धर्म। स्वतंत्रता। स्वाधीनता। आजादी। जैसे,—उस देश में भाषण और लेखन स्वातंत्र्य नहीं है। २. स्वेच्छा। स्वतंत्र इच्छा अथवा संकल्प (दर्शन)।

स्वात पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वाति] दे० 'स्वाति'। उ०—स्वात बूँद चातक मुख परी। सीप समुँद मोती बहु भरी।—जायसी (शब्द०)।

स्वाति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंद्रहवां नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार शुभ माना गया है। उ०—(क) जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति। जिमि चातक चातकि त्रिषित वृष्टि सरद रितु स्वाति।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भेद मुकता के जेते, स्वाति ही में होतु तेते, रतनन हूँ को कहूँ भूलिहू न होत भ्रम।—रसकुसुमाकर (शब्द०)। विशेष—इस नक्षत्र में जन्मनेवाला कामदेव के समान रूपवान् स्त्रियों का प्रिय और सुखी होता है। कहते हैं,चातक इसी नक्षत्र में बरसनेवाला पानी पीता है और इसी नक्षत्र में वर्षा होने से सीप में मोती, बाँस में वंशलोचन और साँप में विष उत्पन्न होता है। २. खङ्ग। तलवार (को०)। ३. शुभ नक्षत्रों का एक समूह (को०) ४. सूर्य की एक पत्नी का नाम (को०)।

स्वाति (२)
संज्ञा पुं० उरु और आग्नेयी के एक पुत्र का नाम।

स्वाति (३)
वि० स्वाति नक्षत्र में उत्पन्न।

स्वातिकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार कृषि की देवी।

स्वातिगिरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नागकन्या का नाम [को०]।

स्वातिपंथ
संज्ञा पुं० [सं० स्वाति+पन्थ] आकाशगंगा। उ०— बंदी विदुषक वदन बहुनिधि सुयश उक्ति समेत। यह भानुकुल कीरति उदय जो स्वातपंथ सपेत—रघुराज (शब्द०)।

स्वातिबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० स्वातिबिन्दु] स्वाति नक्षत्र में बरसनेवाली जल की बूँद [को०]।

स्वातिमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की समाधि। २. एक किन्नर नरेश [को०]।

स्बातिमुख
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नागकन्या का नाम।

स्वातियोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार आषाढ़ के ज्ञुक्ल पक्ष में स्वाति नक्षत्र का चंद्रमा के साथ योग।

स्वातिसुत
संज्ञा पुं० [सं० स्वाति+सुत] मोती। मुक्ता। उ०— (क) स्वातिसुत माला विराजत श्याम तन यों भाइ। मनौ गंगा गौरि उर हर लिये कंठ लगाइ।—सूर (शब्द०)। (ख) श्रवन बिराजन स्वातिसुत करत न बन बखान। मनु कमल पत्र अग्रज रहै औस उडग्गन आन।—पृ० रा०, १।७५३।(ग) बेनी छूटि लटै बगरानी मुकुट लटकि लटकानो। फूल खसत सिर ते भए न्यारे सुभग स्वातिसुत मानों।—सूर (शब्द०)।

स्वातिसुवन
संज्ञा पुं० [सं० स्वाति+हिं० सुवन] मोती। मुक्ता। उ०—अतसी कुसुम कलेवर बूँदै प्रतिबिंबित निरधार। ज्योति प्रकाश सुघन में खोजत स्वातिसुवन आकार।—सूर (शब्द०)।

स्वाती
संज्ञा स्त्री [सं० स्वाति]दे० 'स्वाति'। उ०—सीय सुखहिं बरनिय कोहि भाँती। जनु चातकी पाइ जल स्वाती।— तुलसी (शब्द०)।

स्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ के खाने या पीने से रसनेंद्रिय को होनेवाला अनुभव। जायका। जैसे,—(क) इसका स्वाद खट्टा है या मीठा, यह तुम क्या जानो।(ख) आज भोजन में बिलकुल स्वाद नहीं है। २. काव्यगत रसाननभूति या आनंद। काव्य में चमत्कार सौंदर्य। जैसे,—उनकी कविता ऐसी सरस और सरल होती है कि सामान्य जन भी उसका स्वाद ले सकते हैं। ३. मजा। जैसे,—जान पड़ता है,आपको लड़ाई झगड़े मे बड़ा स्वाद मिलता है।क्रि० प्र०—लेना।—मिलना। मुहा०—स्वाद चखाना=किसी को उसके किए हुए अपराध का दंड देना। बदला लेना। जैसे,—मैं तुम्हें इसका स्वाद चखाऊँगा। ४. चाह। इच्छा। कामना। उ०—(क) गंधमाद रन स्वाद चल्यो घन सरिस नाद करि। लै द्विज आसिरवाद परम अहलाद हृदय भरि।—गोपाल (शब्द०)। (ख) द्विज अरपहिं आसिरबाद पढ़ि। नमत तिन्है अहलाद मढ़ि। नृप लसेउ सुरथ जय स्वाद चढ़ि। करत सिंह सम नाद बढ़ि।—गोपाल (शब्द०)। ५. मीठा रस। (डिं०)।

स्वादक
संज्ञा पुं० [सं० स्वाद] १. वह जो भोज्य पदार्थ प्रस्तुत होने पर चखता है। स्वादुविवेकी। उ०—स्वादक चतुर बतावत जाहीं। सुपकार वहु विरचत ताँहीं।—रामाश्वमेध (शब्द)। विशेष—राजा महाराजाओं की पाकशलाओं में प्रायः ऐसे कर्म- चारी होते हैं जो भोज्य पदार्थ प्रस्तुत होने पर पहले चख लेते हैं कि पदार्थ उत्तम बना है या नहीं। ऐसे ही लोग 'स्वादक' कहलाते हैं।

स्वादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चखना। स्वाद लेना। २. रसग्रहण। आनंद लेना। ३. मजा लेना। दे० 'स्वाद'।

स्वादनीय
वि० [सं०] १. स्वाद लेने के योग्य। २. रस लेने के योग्य। मजा लेने के योग्य। ३. जायकेदार। स्वादिष्ठ।

स्वादव
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका स्वाद रुचिकर हो।

स्वादित
वि० [सं०] १. चखा हुआ। रस लिया हुआ। २. स्वाद- युक्त। जायकेदार। ३. प्रीत। प्रसन्न।

स्वादित्व
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाद का भाव। स्वादु।

स्वादिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादिमन] १. मधुरिमा। माधुर्य। २. सुस्वादु होना। स्वादुता [को०]।

स्वादिष्ट
वि० [सं० स्वादिष्ठ] जायकेदार। स्वादिष्ठ। जैसे,— स्वादिष्ट भोजन।

स्वादिष्ठ
वि० [सं०] जो खाने में बहुत अच्छा जान पड़े। जिसका स्वाद अच्छा हो। जायकेदार। सुस्वादु।

स्वादी
वि० [सं० स्वादिन्] १. स्वाद चखनेवाला। उ०—बहु सुत मागध बंदी जन नृप बचन गुनि हरषित चले। पुनि वैद्य पौरानिक सभाचातुर विपुल स्वादी भले।—रामाश्वमेध (शब्द०)। २. मजा लेनेवाला। रसिक।

स्वादीयस्
वि० [सं०] बहुत अधिक स्वादिष्ठ [को०]।

स्वादीला
वि० [सं० स्वाद+हिं० ईला (प्रत्य०)] स्वादयुक्त। स्वादिष्ठ। उ०—घास के स्वादीले ग्रासों करके ........ वह राजेश्वर उसकी (नंदिनी गाय की) सेवा में तत्पर हुआ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।

स्वादु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर रस। मीठा रस। मधुरता। २. गुड़। ३. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ४. अगर। अगुरुसार। ५. महुआ। मधूक वृक्ष। ६. चिरौंजी। पियाल। ७. कमला नीबू। ८. काँस। काशतुण। ९. बेर। बदर। १०. सेंधा नमक। सैंधव लवण। ११. दूध। दुग्ध। १२. मनोहरता। चारुता। सौंदर्य (को०)।

स्वादु (२)
संज्ञा स्त्री० दाख। द्राक्षा।

स्वादु (३)
वि० १. मीठा। मधुर। मिष्ट। २. जायकेदार। मजेदार। स्वादिष्ठ। ३. अभीप्सित। इष्ट। मनोज्ञ। सुदर।

स्वादुकंट
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुकण्टक] दे० 'स्वादुकंटक'।

स्वादुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुकण्टक] १. विकंकत वृक्ष। २. गोखरू। गोक्षुर। ३. जवासा। विकंटक [को०]।

स्वादुकंद
संज्ञा वि० [सं० स्वादुकन्द] भूमि कुष्मांड। भूईं कुम्हड़ा। २. सफेद पिंडालू। ३. जवासा। विकंटक [को०]।

स्वादुकंद
संज्ञा वि० [सं० स्वादुकन्द] भूमि कुष्मांड। भुईं कुम्हड़ा। २. सफेद पिंडालू। ३. कोबी। केउँआ। केमुक।

स्वादुकंदक
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुकन्दक] कोबी। केउँआ। केमुक।

स्वादुकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादुकन्दा] विदारी कंद।

स्वादुकर
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की वर्णसंकर जाति जिसका उल्लेख महाभारत में है।

स्वादुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदंती।

स्वादुकाम
वि० [सं०] मीठी वस्तु दिसे प्रिय हो। मधुरप्रिय [को०]।

स्वादुकार
वि० [सं०] स्वादिष्ट करने या बनानेवाला [को०]।

स्वादुकोषातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तोरई।

स्वादुखंड
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुखण्ड] १. गुड़। २. किसी स्वादिष्ट पदार्थ का खंड या टुकड़ा (को०)।

स्वादुगंध
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुगन्ध] लाल सहिंजन। रक्त शोभांजन।

स्वादुगंधच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादुगन्धच्छदा] काली तुलसी। कृष्ण तुलसी।

स्वादुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादुगन्धा] १. भुई कुम्हड़ा। भूमि कुष्मांड। २. लाल सहिंजन। रक्त शोभांजन।

स्वादुगंधि
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुगन्धि] लाल सहिंजन। रक्त- शोभांजन।

स्वादुता
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वादु का भाव या धर्म। २. मधुरता।

स्वादुतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] पीलू फल।

स्वादुतिक्तफल
संज्ञा पुं० [सं०] नीबू का पेड़।

स्वादुधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुधन्वन्] कामदेव।

स्वादुपटोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] परवल की लता।

स्वादुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] परवल की लता।

स्वादुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूधी। दुग्धिका।

स्वादुपाक
वि० [सं०] जिसका पाक स्वादु हो। जो पकने या पचने में अच्छा हो [को०]।

स्वादुपाकफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मकोय। काकमाची।

स्वादुपाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकमाची। मकोय [को०]।

स्वादुपाकी
वि० [सं० स्वादुपाकिन्] दे० 'स्वादुपाक' [को०]।

स्वादुपिंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादुपिण्डा] पिंड खजुर। पिंडी खर्जुर।

स्वादुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] काली कटभी।

स्वादुपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूधी। दुग्धिका।

स्वादुपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटनी का पेड़।

स्वादुफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेर। बदरीफल। २. धामिन। धन्व वृक्ष। ३. कोई मधुर फल (को०)।

स्वादुफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर। बदरी वृक्ष। २. खजूर का पेड़। खर्जुर वृक्ष। ३. केले का पेड़। कदली वृक्ष। ४. मुनक्का। कपिल द्राक्षा।

स्वादुबीज
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल। अश्वत्थ वृक्ष।

स्वादुमज्जा
संज्ञा पुं० [सं० स्वादुमज्जन्] पहा़ड़ी पीलू। अखरोट।

स्वादुमन्
संज्ञा पुं० [सं०] मीठापन। मिठास। मधुरिमा। २. मीठा पेय या भोज्य पदार्थ (को०)।

स्वादुमस्तका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खजुर का पेड़। खर्जुरी वृक्ष।

स्वादुमांसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली नामक अष्टवर्गीय ओषधि।

स्वादुमाषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मषवन। माषपर्णी।

स्वादुमुस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल में होनेवाली एक लता [को०]।

स्वादुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] गाजर। गार्जर।

स्वादुयुक्त
वि० [सं०] मधुरता से पूर्ण [को०]।

स्वादुयोगी
वि० [सं० स्वादुयोगिन्] मीठा। मधुर [को०]।

स्वादुरस
वि० [सं०] स्वादिष्ठ। स्वादयुक्त [को०]।

स्वादुरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली। २. मद्य। मदिरा। शराब। ३. दाख। द्राक्षा। ४. सतावर। शतावरी। ५. अमड़ा। आम्रातक फला। ६. मरोड़फली। मूर्वा।

स्वादुल
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीर मूर्वा।

स्वादुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विदारी कंद।

स्वादुलुंगि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यादुरङ्गी] १. संतरा। २. मीठा नीबू। स्वादुमालुंग।

स्वादुवारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मीठे जल का सागर। २. वह जिसका जल मधुर या पीने योग्य हो। जैसे, कूप, बावड़ी आदि [को०]।

स्वादुविवेका
वि० [सं० स्वादुविवेकिन्] भोज्य पदार्थों में स्वाद का विवेक करनेवाला [को०]।

स्वादुशुंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वादुशुण्ठी] सफंद कटभी।

स्वादुशुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुद्घ और मोठा नमक। समुद्री नमक। २. सेंधा नमक (को०)।

स्वादूद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वादुवारि' [को०]।

स्वादूदक
वि० [सं०] जिसका जल मोठा हो। मीठे जलवाला [को०]।

स्वादेशिक
वि० [सं०] स्वदेश का। स्वदेश संबंधी [को०]।

स्वाद्य (१)
वि० [सं०] १. स्वाद लेने के योग्य। चखने के योग्य। उ०—पदार्थ वास्तव में रोधक और विस्तृत हैं, याने पहले ये स्पूश्य और दूश्य हैं और पीछे घ्रेय, स्वाद्य और पेय। —चंद्रधर० (शब्द०)। २. सरस और रुचिकर (को०)। ३. जो कलौला और नमकीन हो (को०)।

स्वाद्य (२)
संज्ञा पुं० कसैला एवं नमकीन स्वाद। २. रस [को०]।

स्वाद्वगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की अगर की लकड़ी।

स्वाद्वन्न
संज्ञा पुं० [सं०] मधुर एवं रुचिकर खाद्य पदार्थ [को०]।

स्वाद्वम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनार का पेड़। दाड़िम वृक्ष। २. नारंगी का पेड़। नागरंग बृक्ष। ३. कदंब वृक्ष।

स्वाद्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दाख। द्राक्षा। २. मुनक्का। कपिल- द्राक्षा। ३. फूट। चिर्भटिका। ४. खजुर का पेड़। खर्जुर वक्ष।

स्वाधिनपतिका पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वाधीनपतिका]दे० 'स्वाधीन- पतिका'। उ०—स्वाधिनपतिका, कहत कबि अभिसारिका सुनाम। कही प्रबच्छतिप्रेयसी, आगतपतिका बाम।—मति० ग्रं० पृ० २९४।

स्वाधिनबलभा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वाधीनवल्लभा]दे० 'स्वाधीन- वल्लभा'। उ०—अरग अरग इमि सखि सों कहै। मध्या स्वाधिनबलभा इहै।—नंद० ग्रं०, पृ० १५७।

स्वाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना अधिकार, पद या प्रभुत्व। २. धर्म, कर्तव्य अथवा कार्य [को०]।

स्वाधिपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] अपना आधिपत्य, अधिकार या प्रभुत्व [को०]।

स्वाधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हठ योग में माने हुए कुंडलिनी के ऊपर पड़नेवाले छह चक्रों में से दूसरा चक्र। विशेष—इस चक्र का स्थान शिश्न के मूल में, रंग पीला और देवता ब्रह्मा माने गए हैं। इसके दलों की संख्या छह और अक्षर ब से ल तक हैं। २. अपना अधिष्ठान, वासस्थान अथवा नगर (को०)।

स्वाधीन (१)
वि० [सं०] १. जो अपने सिवा और किसी के अधीन न हो। स्वतंत्र। आजाद। खुदमुख्तार। २. किसी का बंधन न माननेवाला। अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मनमाना काम करनेवाला। निरंकुश। अबाध्य। जैसे,—(क) वह लड़का आजकल स्वाधीन हो, किसी की बात नहीं सुनता। (ख) उसका पति क्या मरा, वह बिलकुल स्वाधीन हो गई। ३. जो अपने अधीन या वश में हो। स्ववश (को०)।

स्वाधीन (२)
संज्ञा पुं० समर्पण। हवाला। सपुर्द। जैसे,—अंत में लाचार होकर १९. जून को तीसरे पहर अपने को नवाब के स्वाधीन कर दिया।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्वाधीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वाधीन होने का भाव। स्वतंत्रता। आजादी। खुदमुख्तारी। जैसे,—स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

स्वाधीनपतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नायिका जिसका पति उसके वश में हो। पति को वशीभूत करनेवाली नायिका। साहित्य में इसके चार भेद कहे गए हैं; यथा—मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा। और परकीया।

स्वाधीनभर्तृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वाधीनपतिका'।

स्वाधीनवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वाधीनपतिका'।

स्वाधीनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वाधीन+हिं० ई (प्रत्य०)] स्वाधीनता। स्वतंत्रता। आजादी। उ०—शिल्पकलाओं से जन्मै है, विविध सौख्य संपत्ति प्रथा। धन, वैभव, व्यौपार, बड़प्पन, स्वाधीनी, संतोष तथा।—श्रीधर (शब्द०)।

स्वाध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदों की निरंतर और नियमपूर्वक आवृत्ति या अभ्यास करना। वेदाध्ययन। २. धर्मग्रंथों का नियमपूर्वक अनुशीलन करना। ३. किसी विषय का अनुशीलन। अध्ययन। ४. वेद। ५. अनध्याय के बाद का वह दिन जब स्वाध्याय प्रारंभ होता है।

स्वाध्यायवान्
वि० [सं० स्वाध्यायवत्] १. वेदाध्यायी। वेदा- ध्यययन करनेवाला। २. जो स्वाध्याय कर रहा हो। वेदपाठ या अध्ययन करता हुआ [को०]।

स्वाध्यायार्थी
संज्ञा पुं० [सं० स्वाध्यायार्थिन्] अध्ययन करते हुए जीविकार्थ अर्थोपार्जन करनेवाला छात्र। वह विद्यार्थी जो पढ़ता हुआ खुद कमाता भी हो [को०]।

स्वाध्यायी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वाधायिन्] १. विभिन्न शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन करनेवाला व्यक्ति। अध्ययनशील व्यक्ति। २. वह जो वेदाध्यन करता हो। वेदपाठी। ३. दूकानदार। वणिक्। व्यापारी।

स्वाध्यायी (२)
वि० वेदपाठ करनेवाला [को०]।

स्वानंद
संज्ञा पुं० [सं० स्वानन्द] आत्मपरक आनंद। अपनी सस्ती। आत्मानंद [को०]।

स्वान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। आवाज। घड़घड़ाहट।

स्वान (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्वान] दे० 'श्वान'। उ०—खर स्वान सुअर सृगाल मुख गन बेष अगनिन को गनें। बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनें।—मानस, १।९३।

स्वाना पु †
क्रि० स० [सं० √ स्वप्, स्वपन; पु० हिं० सुवाना, सोवाना; हिं० सुलाना] दे० 'सुलाना'। उ०—(क) सुख दै सखीनि बीच दै कै सौंहै दयाइ कै खवाइ कछु स्वाइ बस कीनी बरबसु है।— केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १२। (ख) इहि निसि धाइ सताइ लै स्वेदखेद तें मोहि। काल्हि लालिहूँ के किएँ संग न स्वाऊँ तोहि।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० १५। (ग) आजु हौं राखोंगी स्वाय उन्हैं रघुनाथ कृपा निशि मेरे करोगे। मैं उठि जाउँगी छोड़ि कै पास जगाइ कै सेज पै पायँ धरौगे।—रघुनाथ ! (शब्द०)।

स्वानुभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना अनुभव। निजी अनुभूति। अपनी वैयक्तिक अनुभूति। २. अपना ज्ञान। निज की जानकारी [को०]।

स्वानुभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अपने धर्म, गुण, स्वभाव, स्वत्व आदि के प्रति प्रेम [को०]।

स्वानुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वानुभव'। उ०—सूरदास आदि अष्टछाप कवियों ने प्रेम की इन स्वानुभूति मानसिक अवस्थाओं के बहुत ही प्रभावशाली चित्र उपस्थित किए हैं।—पोद्दार अभिं० ग्रं०, पृ० १०१।

स्वानुरूप
वि० [सं०] १. अपने अनुरूप। अपने सदृश। अपने योग्य २. नैसर्गिक। प्राकृतिक। स्वाभाविक। सहजात [को०]।

स्वाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. नींद। निद्रा। २. स्वप्न। ख्वाब। ३. अज्ञान। ४. निस्पंदता।

स्वापक
वि० [सं०] नींद लानेवाला। निद्राकारक।

स्वापतेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौटिल्य के अनुसार स्वकीय संपत्ति। निज की वस्तु। २. धन संपत्ति [को०]।

स्वापद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्वापद' [को०]।

स्वापन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे शत्रु निद्रित किए जाते थे। उ०—विद्याधर अस्त्र नाम नंदन जो ऐसौ। मोहन स्वापन समन सौम्यकर्षन पुनि तैसौ। पद्माकर (शब्द०)। २. नींद लानेवाली औषध। ३. निद्रित करना। सुलाना (को०)।

स्वापन (२)
वि० जिससे नींद आए। नींद लानेवाला। निद्राकारक।

स्वापराध
संज्ञा पुं० [सं०] निजका अपराध अपने प्रति किया हुआ अपराध। निजापराध [को०]।

स्वापव्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निद्रालुता। तंद्राग्रस्त होना। २. निश्चेष्टता। निष्क्रियता। जाडय [को०]।

स्वापी
वि० [सं० स्वपिन्] जिससे नींद आए। नींद लानेवाला [को०]।

स्वाप्त
वि० [सं०] १. जो स्वयं प्राप्त किया जाय। २. जो प्रचुरतर हो। बहुत ज्यादा। अत्याधिक। ३. जो पूर्ण विश्वस्त हो। ४. कुशल। चतुर [को०]।

स्वाप्न
वि० [सं०] १. स्वप्न संबंधी। स्वप्न का। स्वप्निल। २. निद्रा या तंद्रा संबंधी [को०]।

स्वाप्निक
वि० [सं० स्वाप्न+इक] दे० 'स्वाप्न'।

स्वाब
संज्ञा पुं० [अं०] कपड़े या सन की बुहारी या झाड़ू जिससे जहाज के डेक आदि साफ किए जाते हैं। (लश०)।

स्वाभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अपना अभाव। अपने अस्तित्व का न होना [को०]।

स्वाभाविक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० स्वाभाविकता] १. जो स्वभाव से उत्पन्न हुआ हो। जो आप ही आप हो। २. स्वभावसिद्ध। प्राकृतिक। नैसर्गिक। सहज। कुदरती। जैसे,—(क) जल में शीतलता होना स्वाभाविक है। (ख) उसका दुष्ट आचरण देखकर उनका क्रुद्ध होना स्वाभाविक था। (ग) उस कवि ने काश्मीर का क्या ही स्वाभाविक वर्णन किया है। ३. जन्मजात (को०)।

स्वाभाविक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का एक संप्रदाय, जो सभी वस्तुओं को प्रकृति के नियमानुसार बनी मानते हैं [को०]।

स्वाभाविकी
वि० [सं०] स्वभावसिद्ध। प्राकृतिक। जैसे—हे जल ! आपमें शीतलता का होना तो सहज बात है, स्वच्छता भी आपमें स्वाभाविकी है।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्वाभाविकेतर
वि० [सं०] जो स्वाभाविक से इतर हो। अनैसर्गिक। अप्राकृतिक। कृत्रिम [को०]।

स्वाभाव्य (१)
वि० [सं०] स्वयं उत्पन्न होनेवाला। आप ही आप होनेवाला।

स्वाभाव्य (२)
संज्ञा वि० १. स्वभावता। स्वभाव का भाव। २. वैयक्तिक गुण या विशेषता (को०)।

स्वाभास
वि० [सं०] अत्यंत तेजोमया या दीप्तिमान् [को०]।

स्वाभिमान
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का ध्यान। मान अपमान का ध्यान। आत्माभिमान [को०]।

स्वाभिमानी
वि० [सं० स्वाभिमानिन्] [स्त्री० स्वाभिमानिनी] अपने पर अभिमान करनेवाला। आत्माभिमानी।

स्वाभील
वि० [सं०] अति प्रचंड। अत्यंत भयानक [को०]।

स्वामि पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वामिन्, हिं० स्वामी]दे० 'स्वामी'। उ०—सेवक स्वामि सखा सिय पीके। हित निरुपधि सब विधि तुलसी के।—तुलसी (शब्द०)।

स्वामिकाज पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वामि+कार्य, प्रा०, अप० कज्ज]दे० 'स्वामिकार्य'। उ०—स्वामिकाज करिहउँ रन रारी। जस धनलिहउँ भूवन दसचारी।—मानस, २।१९०।

स्वामिकार्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के पुत्र कार्तिकेय। देव- सेनापति। विशेष दे० 'स्कंद'। उ०—धरे चाप इखु हाथ स्वामिकार्तिक बल सोहत।—गोपाल (शब्द०)। २. छह आघात और दस मात्राओं का ताल जिसका बोल इस प्रकार है— + १ १ १ १ १ १ धा धिं धा गे ना ग ति न तिरकिट तिं ना तिना तिना के त्ता धिंना।

स्वामिकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजा या स्वासी का काम [को०]।

स्वामिकार्यार्थी
वि० [सं० स्वामिकार्यार्थिन्] स्वामी के कार्य की सफ- लता चाहनेवाला [को०]।

स्वामिकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के पुत्र के कार्तिकेय का एक नाम। स्वामिकार्तिक।

स्वामिगुण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी के सद् गुण। राजा के विशिष्ट गुण [को०]।

स्वामिजंघी
संज्ञा पुं० [सं० स्वामिजङघिन्] परशुराम का नाम।

स्वामिजनक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी अर्थात् पति का जनक। श्वसुर।

स्वामिता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'स्वामित्व'।

स्वामित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वामी या राजा होने का भाव। प्रभुता। प्रभुत्व। २. अधिकारी होने का भाव। मालिकपन।

स्वामिन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० स्वामिनी] दे० 'स्वामिनी'।

स्वामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मालिकिन। स्वत्वाधिकारिणी। २. घर की मालिकिन। गृहिणी। ३. अपने स्वामी या प्रभु की पत्नी। ४. श्रीराधिका। (वल्लभ संप्रदाय)। उ०—सहित स्वामिनी अंतरजामी।—गोपाल (शब्द०)।

स्वामिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं का मालिक और रक्षक [को०]।

स्वामिभक्त
वि० [सं०] स्वामी के प्रति प्रेम भक्ति रखनेवाला। कर्तव्यपालक।

स्वामिभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वामी के प्रति अनुराग एवं भक्ति। मालिक के प्रति वफादारी।

स्वामिभट्टारक
संज्ञा पुं० [सं०] श्रेष्ठ स्वामी [को०]।

स्वामिभाव
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभुत्व। स्वामिता [को०]।

स्वामिमूल
वि० [सं०] १. स्वामी से उद्भूत या प्राप्त। २. जो स्वामी या पति पर निर्भर हो [को०]।

स्वामिवात्सल्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी या पति के प्रति अनुरक्ति [को०]।

स्वामिसद्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वामी या मालिक की सत्ता या अस्तित्व। २. स्वामी या मालिक का सद्गुण या अच्छाई [को०]।

स्वामिसेबा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वामी की सेवा। मालिक का आदर। २. पति का आदर संमान [को०]।

स्वामी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वामिन्] [संज्ञा स्त्री० स्वामिनी] १. वह जिसके आश्रय में जीवन निर्वाह होता हो। वह जो जीविका चलाता हो। मालिक। प्रभु। अन्नदाता। जैसे,—वे मेरे स्वामी हैं। मैं उनका नमक खाता हूँ। उनकी आज्ञा का पालन करना मेरा परम धर्म है। २. धर का कर्ताधर्ता। घर का प्रधान पुरुष। जैसे —वे ही इस घर के स्वामी हैं, उनकी आज्ञा के बिना कोई काम नहीं हो सकता। ३. स्वत्वाधिकारी। मालिक। जैसे,—इस नाट्यशाला के स्वामी एक बंगाली सज्जन हैं। ४. पति। शौहर। ५. ईश्वर। भगवान्। ६. राजा। नरपति। ७. कांर्तिकेय। ८. साधु, संन्यासी और धर्माचार्यों की उपाधि। जैसे,—स्वामी शंकराचार्य स्वामी दयानंद, तैलंग स्वामी, श्रीधर स्वामी। ९. सेना का नायक। १०. शिव। ११. विष्ण। १२. गरुड़। १३. वात्स्यायन मुनि का एक नाम। १४. गत उत्सर्पिणी के ११वें अर्हत् का नाम। १५. गुरु। आचार्य (को०)। १६. देवता का विग्रह। देवमूर्ति (को०)। १७. मंदिर। देवालय (को०)।

स्वामी (२)
वि० जिसे स्वत्वाधिकार हो। स्वत्वप्राप्त [को०]।

स्वाम्नाय़
वि० [सं०] जो परंपरा प्राप्त हो। परंपराप्राप्त। परंपरा- गत [को०]।

स्वाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वामी होने का भाव। स्वामित्व। प्रभुत्व। प्रभुता। मालिकपन। २. चल और अचल संपत्ति पर अधिकार या हक। स्वत्व (को०)। ३. राज्य। शासन (को०)। ४. (आत्मा और शरीर की) सबलता या दृढ़ स्थिति। स्वास्थ्य (को०)। यौ०—स्वाम्यकारक=स्वाम्य या प्रभुत्व का कारण।

स्वाम्युपकारक
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा। अश्व।

स्वायंभूव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणनुसार चौदह मनुओं में से फ्हले मनु जो स्वयंभू ब्रह्मा से उत्पन्न माने जाते हैं।विशेष—श्रीमद्भागवत में लिखा है कि ब्रह्मा ने इस संसार की सृष्टि करके अपने दाहिने अंग से स्वायंभुव मनु की और बाएँ अंग से शतरूपा नाम की स्त्री उत्पन्न की थी; और दोनों में पति-पत्नी का संबंध स्थापित किया था। इनसे प्रियव्रत ओर उत्तानपाद नाम के दो पुत्र तथा आकृति, देवहुति और प्रसूति नाम की तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। इन्हीं से आगे और सृष्टि चली थी। २. अत्रि ऋषि (को०)। ३. नारद मुनि (को०)। ४. मरीचि ऋषि (को०)। ५. एक शैव तंत्र का नाम (को०)।

स्वायंभुव (२)
वि० १. स्वयंभु संबंधी। ब्रह्मा संबंधी। २. स्वायंभुव मनु से संबद्ध [को०]।

स्वायंभुवी
संज्ञा वि० [सं० स्वायम्भुवी] ब्राह्मी।

स्वायंभू
संज्ञा पुं० [सं० स्वायम्भुव]दे० 'स्वायंभुव' (१)। उ०—स्वा- यंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्हतें भै नर सृष्टि अनुपा। —मानस, १।१४२।

स्वायत्त
वि० [सं०] जो अपने आयत्त या अधीन हो। जिसपर अपना ही अधिकार हो।

स्वायत्त शासन
संज्ञा पुं० [पुं०] १. वह शासन या हुकूमत जो अपने आयत्त या अधिकार में ही। स्थानिक स्वराज्य। जैसे,— म्युनिसिपैलिटी और जिला बोर्ड स्वायत्तशासन या स्थानिक स्वशासन के अंतर्गत हैं। २. लोक प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने देश का शासन परिचालित करने का अधिकार (अं० आटोनामी)।

स्वायत्तशासी
वि० [सं० स्वायत्तशासिन्] जिसे अपना शासन स्वयं करने का अधिकार प्राप्त हो। स्वायत्तशासन का अधिकार- प्राप्त। जैसे, राज्य, देश आदि।

स्वार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े के घर्राटे का शब्द। २. बादल की गड़गड़ाहट। मेघध्वनि।३. ध्वनि। स्वर (को०)। ४. स्वरित स्वर से समाप्त होनेवाला एक साम (को०)।

स्वार (२)
वि० १. स्वर संबंधी। २. स्वरित ध्वनि संबंधी (को०)।

स्वार पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० सवार] घुड़सवार। असवार। सवार।

स्वारक्ष्य
वि० [सं०] जिसकी सुरक्षा सरलता से की जा सके [को०]।

स्वारथ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वार्थ] दे० 'स्वार्थ'। उ०—सुर नर मुनि सबके यह रीती। स्वारथ लागि करहि सब प्रीती।—मानस, ४। १२। यौ०—स्वारथजड़ पु=स्वार्थसाधन ही एकमात्र लक्ष्य होने के कारण जो जड़ अर्थात् बुद्धिहीन हो गया हो। उ०—बोली सुर स्वारथजड़ जानी। —मानस, २।२९५। स्वारथविवश पु= जो अपने मतलब से विवश हो। जो स्वार्थ के लिये बेबस हो। उ०—स्वारथबिबस बिकल तुम्ह होहू। —मानस, २।२१९। स्वारथसाधक पु=दे०'स्वार्थसाधक'। उ०—स्वारथसाधक कुटिक तुम्ह सदा कपट ब्यौहारु। —तुलसी (शब्द०)।

स्वारथ (२)
वि० [सं० सार्थ] सफल। सिद्ध। फलीभूत। सार्थक। उ०— सेवा सबै भई अब स्वारथ। —सूर (शब्द०)।

स्वारथी पु
वि० [हिं० स्वार्थी]दे० 'स्वार्थी'। उ०—आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी। —तुलसी (शब्द०)।

स्वारब्ध
दे०[सं०] स्वयं प्रारंभ किया हुआ [को०]।

स्वारसिक
वि० [सं०] १. अंतर्वर्ती रस या माधुर्य से ओतप्रीत। स्वारस्यपुक्त (काव्य आदि) २. यादृच्छिक। अयत्नकृत। स्वाभाविक [को०]।

स्वारस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरसता। रसीलापन। लालित्य। उ०— कथाओं का स्वारस्य कम हो गया है। —द्बिवेदी (शब्द०)। २. स्वाभाविकता। ३. स्वाभाविक रसमयता या मिठास (कौ०)।

स्वाराज्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०]।

स्वाराजिस्ट
संज्ञा पुं० [हिं० स्वाराजी]दे० 'स्वाराजी'।

स्वाराजी
संज्ञा पुं० [सं० स्वराज्य] वह मनुष्य जो 'स्वराज्य' नामक राजनीतिक पक्ष या दल का हो। स्वराज्यप्राप्ति के लिये आंदोलन करनेवाले राजनीतिक दल का मनुष्य।

स्वाराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शासनप्रबंध जिसका संचालनसूत्र अपने ही देश के लोगों के हाथों में हो। वह शासन या राज्य जिसपर किसी बाहरी शक्ति का नियंत्रण न ही। स्वाधीन राज्य। २. स्वर्ग का राज्य। स्वर्ग लोक। ३. स्व में प्रकाशमान ब्रह्म से तादात्म्य भाव। ब्रह्मत्व (को०)। ४. इंद्र का एक नाम (को०)।

स्वाराट्
संज्ञा पुं० [सं० स्वाराज्] (स्वर्ग के राजा) इंद्र।

स्वाराधित
वि० [सं०] जिसकी अच्छी तरह सेवा की गई हो। जो भली भाँति सेवित हो [को०]।

स्वारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सवारी] दे० 'सवारी'।

स्वारूढ
वि० [सं०] १. जो सवारी करने या चढ़ने में प्रवीण हो। २. अच्छी तरह सवारी किया हुआ (अश्व) [को०]।

स्वरोचिष, स्वारोचिस्
संज्ञा पुं० [सं०] (स्वरोचिष के पुत्र) दूसरे मनु का नाम। विशेष—मार्कंडेयपुराण में इनका नाम द्युतिमान कहा गया है; श्रीमदभागवत के अनुसार ये अग्नि के पुत्र हैं। विशेष दे० 'मनु'।

स्वार्जित
वि० [सं०] जो स्वयं अर्जित किया गया हो। खुद कमाया हुआ। स्वयमार्जित [को०]।

स्वार्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना उद्देश्य। अपना मतलब। अपना प्रयोजन। जैसे,—वह ऊपर से उनका मित्र बनकर भीतर ही भीतर स्वार्थ साधन कर रहा है। २. अपना लाभ। अपनी भलाई। अपना हित। जैसे०—(क) इसमें उसका स्वार्थ है, इसी से वह इतनी दौड़धूप कर रहा है। (ख) वह अपने स्वार्थ के लिये जो चाहे सो कर सकता है। (ग) वे जिस काम में अपने स्वार्थ की हानि देखते हैं, उसमें कभी नहीं पड़ते। मुहा०—(किसी बात में) स्वार्थ लेना=दिलचस्पी लेना। अनुराग रखना। जैसे,—राजकीय बातों में स्वार्थ लेनेवाले जो लोग योरप में यह समझते हैं कि राजसत्ता की हद्द होनी चाहिए, वे बहुत थोड़े हैं। —द्बिवेदी (शब्द०)।विशेष—यह मुहा० अँगरेजी मुहा० का अविकल अनुवाद है, अतः प्रशस्त नहीं है। ३. अपना धन। ४. शब्द का अपना अर्थ। अभिधार्थ। वाच्यार्थ (को०)।

स्वार्थ (२)
वि० १. अपने ही स्वार्थ में रुचि रखनेवाला। स्वार्थपरायण। २. अपना अर्थ रखनेवाला। वाच्यार्थ से युक्त। ३. जिसका कोई निजी मतलब या प्रयोजन हो। ४. बहु अर्थ या शब्दयुक्त [को०]।

स्वार्थ (३)
वि० [सं० सार्थक] १. सार्थक। सफल। जैसे,—आपका दर्शन पाय जन्म स्वार्थ किया। —लल्लू (शब्द०)।

स्वार्थंता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वार्थ का भाव या धर्म। खुदगर्जी। उ०—वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है। —सत्यार्थप्रकाश (शब्द०)।

स्वार्थत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] (दुसरे के लिये कर्तव्यबुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछावर करना। किसी भले काम के लिये अपने हित या लाभ का विचार छोड़ना। जैसे,—देशबंधु दास ने देश के लिये बड़ा भारी स्वार्थत्याग किया कि २।।लाख वार्षिक आय की बैरिष्टरी छोड़ दी।

स्वार्थत्यागी
वि० [सं० स्वार्थत्यागिन्] जो (दूसरी के लिये कर्तव्य- बुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछ वर कर दे। दूसरे के भले के लिये अपने हित या लाभ का विचार न रखनेवाला। जैसे,—इस समय देश में स्वार्थत्यागी नेताओं की आवश्यकता हो।

स्वार्थपंडित
वि० [सं० स्वार्थपण्डित] १. अपना मतलब साधने में चतुर। २. बड़ा भारी स्वार्थी या खुदगरज।

स्वार्थपर
वि० [सं०] जो केवल अपना ही स्वार्थ या मतलब देखे। अपना स्वार्थ या मतलब साधनेवाला। स्वार्थी। खुदगरज।

स्वार्थपरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वार्थपर होने का भाव। खुदगरजी।

स्वार्थपरायण
वि० [सं०] स्वार्थपर। स्वार्थी। खुदगरज।

स्वार्थपरायणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वार्थपरायण होने का भाव। स्वार्थपरता। खुदगरजी।

स्वार्थप्रयत्न
संज्ञा पुं० [सं०] अपने मतलब की सिद्धि के लिये की जानेवाली चेष्टा। अपने लाभ की योजवा [को०]।

स्वार्थभाक्
वि० [सं०] अपना ही कामकाज देखनेवाला। स्वार्थी [को०]।

स्वार्थम्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] अपना मतलब सिद्ध न होना।

स्वार्थम्रंशी
वि० [सं० स्वार्थभ्रंशिन्] जो अपनी कार्यसिद्धि या हित के लिये घातक हो। जिससे स्वार्थसिद्धि में बाधा हो [को०]।

स्वार्थलिप्सा
संज्ञा पुं० [सं०] स्वार्थ की कामना। अपने कार्य या प्रयोजन की सिद्धि की तीव्र आकांक्षा।

स्वार्थलिप्सु
वि० [सं०] जो अपने मतलब की सिद्धि के लिये लाला- यित हो।

स्वार्थविघात
संज्ञा पुं० [सं०] स्वार्थ का सिद्ध न होना। अपना मतलब न निकल पाना। अपने हित की हानि होना [को०]।

स्वार्थसंपादन
संज्ञा पुं० [सं० स्वार्थसम्पादन] अपना मतलब साधना। अपना स्वार्थसाधन करना।

स्वार्थसाधक
वि० [सं०] अपना मतलब साधनेवाला। अपना काम निकालनेवाला। खुदगरज।

स्वार्थसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] अपना मतलब साधना। अपना प्रयोजन सिद्ध करना। अपना काम निकालना। यौ०—स्वार्थसाधन तत्पर=अपना मतलब साधने में लगा हुआ।

स्वार्थसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपना मतलब निकल जाना। अपने प्रयोजन की पूर्ति होना [को०]।

स्वार्थहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपना मतलब न निकल पाना। अपना स्वार्थ सिद्ध न होना।

स्वार्थांध
वि० [सं० स्वार्थान्ध] जो अपने स्वार्थ के वश अंधा हो जाता हो। अपने हित या लाभ के सामने और किसी बात का विचार न करनेवाला।

स्वार्थाभिप्रयात
संज्ञा पुं० [स०] कौटिल्य के अनुसार वह व्यक्ति जिसे अपना अर्थ साधने के लिये कोई दूसरा लाया हो। आवर्दा।

स्वार्थिक
वि० [सं०] १. अभिधेय अर्थ से युक्त। वाच्यार्थ से युक्त। २. स्वार्थ संबंधी। स्वार्थयुक्त। ३. अपने अर्थ या धन द्बारा किया हुआ (को०)। ४. व्याकरण में एक प्रत्यय।

स्वार्थी
वि० [सं० स्वार्थिन्] अपना ही मतलब देखनेवाला। मतलबी। खुदगरज।

स्वार्थोंपपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वार्थ की उपपत्ति अर्थात् सिद्धि। मतलब सिद्ध होना [को०]।

स्वाल पु
संज्ञा पुं० [हिं० सवाल] दे० 'सवाल'। उ०—नाथ कह्मो वकील करि दीजै। ज्वाब स्वाल तेहि मुख नृप कीजै। —रघुराज (शब्द०)।

स्वालक्षण
वि० [सं०] जो सरलता से ज्ञात या विदित हो।

स्वालक्षण्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाभाविक प्रवृत्ति। वृत्ति विशेषता [को०]।

स्वालक्ष्य
वि० [सं०]दे० 'स्वालक्षण'।

स्वाल्प (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्वाल्पी] १. कम। थोड़ा। कुछ। २. छोटा। लघु। अल्प।

स्वाल्प (२)
संज्ञा पुं० १. छोटापन। लघुता। अल्पता। २. संख्यागत न्यूनता [को०]।

स्वावना पु
क्रि० [सं० √ स्वप्, हिं० सुलाना] दे० 'सुलाना'। उ०—हँसि हँसि रवावत हौ छाँह नहीं छ्वावत हौ, जागि जागि स्वावत हौ आपै हू तेँ आन जू। —घनानंद, पृ० ११५।

स्वावमान
संज्ञा पुं० [सं०] अपना अपमान।

स्वावमानन
संज्ञा पुं० [सं०] अपने प्रति ग्लानि। आत्मग्लानि। आत्मभर्त्सना [को०]।

स्वावमानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वावमानन'।

स्वावलंब
संज्ञा पुं० [सं० स्वावलम्ब]दे० 'स्वावलंबन'। उ०— स्वावलंब की एक झलक पर न्यौधावर कुबेर का कोष। — पंचवटी, पृ० १०।

स्वावलंबन
संज्ञा पुं० [सं० स्वावलम्बन] अपना सहारा लेना। अपना भरोसा करना। अपने आधार पर ही कार्य करना।

स्वावलंबी
वि० [सं० स्वावलम्बिन्] जो अपना ही भरोसा करे। अपना ही सहारा लेनेवाला। आत्मनिर्भर।

स्वावश्य
संज्ञा पुं० [सं०] आत्म अवधारण। आत्मवशता [को०]।

स्वाशित
वि० [सं०] जो भली भाँति संतुष्ट एवं तृप्त किया गया हो। सम्यक् संतुष्ट [को०]।

स्वाशु
वि० [सं०] अत्यंत सत्वर या गतिमान् [को०]।

स्वाश्रय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अपना आश्रय। अपना ही आसरा।

स्वाश्रय (२)
वि० विचारणीय विषय से संबंध रखनेवाला [को०]।

स्वाश्रयी
वि० [सं० स्वाश्रयिन्] अपने भरोसे रहनेवाला।

स्वाश्रित
वि० [सं०] दे० 'स्वावलंबी'।

स्वास पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वास] साँस। श्वास। उ०—जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भरी।—मानस, १। २०४।

स्वासन
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदर आसन। उत्तम पीठ। बैठने का अच्छा आसन [को०]।

स्वासनस्थ
वि० [सं०] १. सुंदर आसन या पीठ पर बैठा हुआ। २. किसी को उत्तम आसन प्रदान करनेवाला। जो बैठने के लिये श्रेष्ठ आसन देता हो [को०]।

स्वासा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वास] साँस। श्वास। उ०—हुक्का सौं कहु कौन पै जात निबाहौ साथ। जाकी स्वासा रहत है लगी स्वास के साथ। —रसनिधि (शब्द०)।

स्वासीन
वि० [सं०] जो सुखपूर्वक बैठा हो। सम्यग् आसीन। आराम से बैठा हुआ [को०]।

स्वास्तर
संज्ञा पुं० [सं०] शय्या या आस्तरण के लिये अच्छा तुण या पुआल आदि [को०]।

स्वास्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीरोग या स्वस्थ होने की अवस्था। नीरीगता। आरोग्य। तंदुरुस्ती। जैसे,—उनका स्वास्थ्य आज कल अच्छा नहीं है। २. धृतिमत्ता। धैर्यशालिता। निरुद्रिग्नता (को०)। ३. सुखद होने का भाव। सुखप्रदायकता। सुखदता (को०)। ४. उत्साह। सुख। उल्लास (को०)।

स्वास्थ्यकर
वि० [सं०] स्वस्थ करनेवाला। तंदुरुस्त करनेवाला। आरोग्यवर्धक। जैसे,—देवघर बड़ा स्वास्थ्यकर स्थान है।

स्वास्थ्यदायक
वि० [सं०] दे० 'स्वास्थ्यकर'।

स्वास्थ्यनाश
संज्ञा पुं० [सं०] स्वास्थ्य का नष्ट होना। तंदुरुस्ती खराब हो जाना।

स्वास्थ्यप्रद
वि० [सं०] दे० 'स्वास्थ्यकर'।

स्वास्थ्यभंग
संज्ञा पुं० [सं० स्वास्थ्यभङ्ग] दे० 'स्वास्थ्यनाश'।

स्वास्थ्यरक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वस्थता की रक्षा करना। तंदुरुस्ती बनाए रखना।

स्वास्थ्यविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] स्वस्थ रहने के नियम, विधि आदि का बोधक शास्त्र। स्वास्थ्य संबंधी सिद्धांत [को०]।

स्वास्थ्यविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] लोगों की स्वास्थ्यरक्षा की व्यवस्था करनेवाला राज्य या स्वायत्तशासन प्राप्त क्षेत्र का विभाग। (अं० हेल्थ डिपार्टमेंट।)

स्वास्थ्यहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'स्वास्थ्यनाश'।

स्वाहा (१)
अव्य० [सं०] एक शब्द या मंत्र जिसका प्रयोग देवताओं को हवि देने के समय किया जाता है। जैसे,—इंद्राय स्वाहा। मुहा०—स्वाहा करना=नष्ट करना। फूँक डालना। जैसे,— उसने बाप दादे की सारी संपत्ति दो हो बरस में स्वाहा कर डाली। स्वाहा होना=नष्ट होना। बरबाद होना। जैसे,— उनका सारा धन मामले मुकदमें में स्वाहा हो गया।

स्वाहा (२)
संज्ञा स्त्री० १. अग्नि की पत्नी का नाम। २. सभी देवताओं को बिना किसी विचार के दी जानेवाली आहुति (को०)।

स्वाहाकरण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाहा शब्द का उच्चारण करते हुए अग्नि में हवि छोड़ना [को०]।

स्वाहाकार
संज्ञा पुं० [सं०] हवन में स्वाहा शब्द का उच्चारण करना। स्वाहाकरण [को०]।

स्वाहाकृत्
वि० [सं०] यज्ञ करनेवाला। यज्ञकर्ता।

स्वाहाकृत
वि० [सं०] स्वाहा शब्द के साथ उपकल्पित, विनियोजित या प्रदत्त [को०]।

स्वाहाकृति, स्वाहाकृती
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वाहा शब्द के साथ संस्कार या उत्सर्ग। स्वाहाकरण।

स्वाहाग्रसण
संज्ञा पुं० [सं० स्वाहा+ग्रसन] देवता। (डिं०)।

स्वाहापति
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्वाहाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्वाहाभुक्
संज्ञा पुं० [स्वाहाभुज्] देवता।

स्वाहार (१)
वि० [सं०] सरलता से आहृत। सुमगता से आनीत [को०]।

स्वाहार (२)
संज्ञा पुं० सुंदर आहार। अच्छा भोज्य पदार्थ [को०]।

स्वाहार्ह
वि० [सं०] स्वाहा के योग्य। हवि पाने के योग्य।

स्वाहावन
संज्ञा पुं० [सं०] एक वन का नाम [को०]।

स्वाहावल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्वाहाशन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता।

स्वाहिली
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. अफ्रीका महाद्विवीप में बोली जानेवाली एक भाषा। स्वाहिलियों की भाषा। २. अफ्रीका की एक जाति। —भोज० भा० सा०, पृ० ३।

स्वाहेय
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का एक नाम।

स्विच
संज्ञा स्त्री० [अं०] बिजली का वह बटन या खटका जिसे दबाकर प्रकाश, मशीन आदि चालू और बंद करते हैं। उ०—शांति ने स्विच दबाकर बत्ती जला दी। —संन्यासी, पृ० ४१४।

स्विदित
वि० [सं०] १. प्रस्वेद से युक्त। पसीने से तरबतर। २. द्रवीभूत। पसीजा हुआ। पिघला हुआ [को०]।

स्विध्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्विध्या] सूखी अच्छी लकड़ी या समिधा संबंधी। सूखी और अच्छी लकड़ी का [को०]।

स्विन्न
वि० [सं०] १. पसीने से युक्त। स्वेदविशिष्ट। २. सीझा हुआ। उबला हुआ। (जैसे अन्नादि)। ३. तरबतर। सिक्त (को०)।

स्विन्नांगुलि
वि० [सं० स्विन्नाङ्गुलि] जिसकी उँगलियाँ पसीने से तर या आर्द्र हों [को०]।

स्विषु
वि० [सं०] जिसके पास उत्तम कोटि के तीव्र, गतिशील एवं निशित बाण हों [को०]।

स्विष्ट
वि० [सं०] १. अत्यंत प्रिय या अभीष्सित। २. समादृत। संमानित। पूज्य [को०]।

स्विष्टकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ।

स्विष्टि (१)
वि० [सं०] अच्छी तरह यजन करनेवाला।

स्विष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० अच्छी तरह किया हुआ या सफल यज्ञ [को०]।

स्वीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना करना। अपनाना। अंगीकार करना। कबूल करना। २. पत्नी को ग्रहण करना। विवाह करना। ३. मानना। राजी होना। संमत होना। ४. वचन देना। प्रतिज्ञा करना।

स्वीकरणीय
वि० [सं०] स्वीकार करने के योग्य। मानने के योग्य।

स्वीकर्तव्य
वि० [सं०] स्वीकार करने के योग्य। मानने के योग्य।

स्वीकर्ता
वि० [सं० स्वीकर्तृ] स्वीकार करनेवाला। मंजूर करनेवाला।

स्वीकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपनाने की क्रिया। अंगीकार। कबूल। मंजूर। २. लेना। ग्रहण। ३. भार्या रूप में ग्रहण करना। परिग्रह। ४. प्रतिज्ञा। वचन। इकरार। कौल।

स्वीकारग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] डाका डालना। डकैती। बलपूर्वक ले लेना [को०]।

स्वीकारना
क्रि० [सं० सं० स्वीकार+हि० ना (प्रत्य०) ] ग्रहण करना। स्वीकार करना।

स्वीकारपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] लिखित वसीयतनामा अथवा अपनी संपत्ति का विनियोगपत्र।

स्वीकाररहित
वि० [सं०] जिसपर सहमति न हो। जिसे स्वीकार न किया गया हो [को०]।

स्वीकारंत
वि० [सं० स्वीकारान्त] जिसका समापन स्वीकार के साथ हो। स्वीकृतियुक्त [को०]।

स्वीकारात्मक
वि० [सं०] सहमतियुक्त। स्वीकृतिपरक।

स्वीकारोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कथन या बयान जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया जाय। अपराध की स्वीकृति। इकरारे जुर्म। जैसे,—अभियुक्तों में से दो ने मजिस्ट्रेट के सामने स्वीकारोक्ति की।

स्वीकार्य
वि० [सं०] स्वीकार करने के योग्य। मानने के योग्य।

स्वीकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक व्रत जिसमें तीन तीन दिन क्रमशः गोमूत्र, गोबर तथा जौ की लपसी खाकर रहते हैं।

स्वीकृत
वि० [सं०] १. स्वीकार किया हुआ। कबुल किया हुआ। माना हुआ। अंगीकृत। मंजूर। २. प्रतिज्ञात। वचन दिया हुआ (को०)।

स्वीकृति
वि० [सं०] १. स्वीकार का भाव। मंजूरी। संमति। रजांमदी। जैसे,— (क) वायसराय ने उस बिल पर अपनी स्वीकृति दे दी। (ख) उनकी स्वीकृति से यह नियुक्ति हुई है। २. ग्रहण करना। अपनाना।दे० 'स्वीकरण'। क्रि० प्र०—देना।—माँगना। मिलना।—लेना।

स्वीकृतिपरक
वि० [सं०] जिससे स्वीकृति सूचित हो। स्वीकारात्मक।

स्वीकृतियुक्त
वि० [सं०] जिससे किसी विषय या विचार पर किसी का स्वीकार सूचित हो। किसी के स्वीकार या संमति से युक्त।

स्वीट
वि० [अं०] १. मीठा। मधुर। स्वादु। २. चारु। ललित। मनोज्ञ। ३. मनोरम। मनोहर। रुचिकर।

स्वीडिश (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] स्वीडेन देश की भाषा।

स्वीडिश (२)
वि० स्वीडेन का।

स्वीय (१)
वि० [सं०] अपना। निज का।

स्वीय (२)
संज्ञा पुं० अपने आदमी। स्वजन। आत्मीय। संबंधी। नातेरिश्तेदार।

स्वीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपने ही पति में अनुराग रखनेवाली स्त्री। विशेष दे० 'स्वकीया'।

स्वीयाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] अपने हाथ के अक्षर। दस्तखत। हस्ताक्षर [को०]।

स्वे पु
वि० [हिं० स्व] दे० ' 'स्व'। उ०—जहँ अभेद करि दुहुन सों करत और स्वे काम। भनि भूषन सब कहत हैं तासु नाम परिनाम। —भूषण (शब्द०)।

स्वेच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी इच्छा। अपनी मर्जी। जैसे,—वे सब काम स्वेच्छा से करते हैं।

स्वेच्छाकृत
वि० [सं०] जो अपनी इच्छा से किया गया हो।

स्वेच्छाचार
संज्ञा पुं० [सं०] मनमाना काम करना। जो जी में आवे वही करना। ययेच्छाचार।

स्वेच्छाचारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वेच्छाचार का भाव या धर्म। निरंकुशता। उच्छृंखलता।

स्वेच्छाचारी
वि० [सं० स्वेच्छाचारिन्] अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मनमाना काम करनेवाला। निरंकुश। अबाध्य। जैसे, —वहाँ के पुलिस कर्मचारी बड़े स्वेच्छाचारी हैं।

स्वेच्छादत्त
वि० [सं०] जो अपनी इच्छा से किसी को दिया गया हो।

स्वेच्छापूर्वक
वि० [सं०] अपनी इच्छा के अनुकूल या माफिक। जैसे, —वे सब काम स्वेच्छापूर्वक करते हैं।

स्वेच्छाप्रेरित
वि० [सं०] अपनी आकांक्षा से कृत।

स्वेच्छामरण
संज्ञा पुं० [सं०] अपने इच्छानुसार मरण या मृत्यु।

स्वेच्छामृत्यु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भीष्म पितामह, जो अपने इच्छानुसार मरे थे।

स्वेच्छामृत्यु (२)
वि० अपने इच्छानुसार मरनेवाला।

स्वेच्छामृत्यु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी इच्छा से मरण। स्वेच्छा- मरण [को०]।

स्वेच्छासेवक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० स्वच्छासेविका] वह जो बिना किसी पुरस्कार या वेतन के किसी कार्य में अपनी इच्छा से योग दे। स्वयंसेवक।

स्वेच्छासैनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो बिना वेतन के अपनी इच्छा से फौज में सिपाही या अफसर का काम करे। वालंटियर बल्लमटेर। विशेष—स्वतंत्रताप्राप्ति के पूर्व हिंदुस्तान में स्वेच्छासैनिक या वालंटियर अधिकतर यूरोपियन और यूरेशियन होते रहे हैं। इनसे संकट काल में बंदरों, रेलों, छावनियों और नगरों की रक्षा करने का काम लिया जाता था।

स्वेच्छोपहार
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी इच्छा से भेंट की हुई वस्तु या उपहार।

स्वेटर
संज्ञा पुं० [अं०] ऊन की बुनी हुई बनियान, जाकिट या फतुही। उ० —रोओ मत ! यह देखो हम तुम्हारे लिये स्वेटर बुन रही हैं। —संन्यासी, पृ० २४।

स्वेत पु (१)
वि० [सं० श्वेत]दे० 'श्वेत'।

स्वेत पु (२)
वि० [सं० स्वेद] प्रस्वेद। पसीना। जैसे,—स्वेतरज= स्वेदज। —गोरख०, पृ० २०५।

स्वेतरंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेत+हिं० रंगी] कीर्ति। यश।(डिं०)। विशेष—कीर्ति का वर्णन श्वेत किया जाता है।

स्वेतरज पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्वेदज]दे० 'स्वेदज'। उ०—स्वेतरज अंडरज जेरज उदबीरज। —गोरख०, पृ० २०५।

स्वेद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पसीना। प्रस्वेद। उ०—भयौ तन स्वेद प्रकंपि जँभाति। ठगी मनु मूरि ठगोरी सिषाति। —पृ० रा० २। ४०२। २. भाप। वाष्प। ३. ताप। गरमी। ४. पसीना लानेवाली औषध।

स्वेद (२)
वि० पसीना लानेवाला।

स्वेदक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कांति लौह।

स्वेदक (२)
वि० पसीना लानेवाला। घर्मदायक।

स्वेदकण
संज्ञा पुं० [सं०] पसीने की बूँद।

स्वेदचूषक
संज्ञा पुं० [सं०] ठंढी हवा। शीतल वायु।

स्वेदच्छिद
वि० [सं०] स्वेद या पसीना को दूर करनेवाला। शीतलता प्रदायक [को०]।

स्वेदज (१)
वि० [सं०] १. पसीने से उत्पन्न होनेवाला। २. गर्भ भाप या उष्ण वाष्प से उत्पन्न होनेवाला।

स्वेदज (२)
संज्ञा पुं० वे जीव जो स्वेद से पैदा होते हैं। जैसे,—जूँ, लीक, खटमल, मच्छर आदि कीड़े मकोड़े।

स्वेदजल
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना। प्रस्वेद। यौ०—स्वेदजलकण, स्वेदजकणिका, स्वेदजलकन पु=पसीने की बूँद। उ०—तैसे अंग अंगन खुले हैं स्वेदजलकन, खुली अलकन खरी खुली छबि छलकैं। —भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १४३।

स्वेदज शाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शाक जो भूमि, गोबर, पाँस, लकड़ी आदि में उत्पन्न होता है। छतौना। छत्रक। छत्रा। छत्राक। भूइँछत्ता। भुईंफोड़। विशेष—वैद्यक में यह शीतल, दोषजनक, पिच्छिल, खारी तथा वमन, अतिसार ज्वर और कफ रोग को उत्पन्न करनेवाला माना गया है।

स्वेदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पसीना निकलना। २. वैद्यों का एक यंत्र जिसकी सहायता से ओषाधियाँ शोधी जाती हैं। विशेष—एक हँड़िया में तरल पदार्थ (जल, स्वरस, काढ़ा आदि) भरकर उसका मुँह कपड़े से भली भाँति बाँध देते हैं। फिर उस कपड़े के ऊपर उस ओषाधि की, जिसका स्वेदन करना होता है, पोटली रखकर हँड़िया का मुँह ढकने से अच्छी तरह ढँक देते हैं और बरतन को धी मी आँच पर चढ़ा देते हैं। इस क्रिया से भाप के द्बारा वह ओषाधि शोधी जाती है। ३. पारद की शुद्ध करना। पारद का शोधन (को०)। ४. इंद्रियमल। कफ। श्लेष्मा (को०)। ५. वह जिससे स्वेद उत्पन्न हो। स्वेद- जनक वस्तु। बफारा।

स्वेदन (२)
वि० प्रस्वेदजनक। पसीना लानेवाला [को०]।

स्वेदनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] स्वेदन का भाव।

स्वेदनाश
संज्ञा पुं० [सं०] हवा। वायु।

स्वेदनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तवा। २. रसोईघर। पाकशाला। ३. शराब चुआने का बरतन या भभका।

स्वेदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तवा। २. तसली। कड़ाही (को०)।

स्वेदबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० स्वेदबिन्दु] प्रस्वेद को विंदु। पसीने की बूँद।

स्वेदमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वेदमातृ] शरीर में का रस।

स्वेदलेश
संज्ञा पुं० [सं०] पसीने की छोटी कणिका। स्वेदविंदु।

स्वेदवारि
संज्ञा पुं० [सं] पसीना। प्रस्वेद।

स्वेदविप्रुट्
संज्ञा पुं० [सं० स्वेदविप्रुष्] स्वेदविंदु [को०]।

स्वेदायन
संज्ञा पुं० [सं०] रोमकूप। लोमछिद्र।

स्वेदित
वि० [सं०] १. स्वेद से युक्त। पसीने से युक्त। २. बफारा दिया हुआ। सेंका हुआ। उ०—इस प्रकार अपने मुख की भाप से नेत्रों को स्वेदित कर दो। —नुतनामृतसागर (शब्द०)। ३. प्रस्वेदयुक्त किया हुआ। जिसका स्वेदन किया गया हो (को०)।

स्वेदी
वि० [सं० स्वेदिन्] १. पसीना लानेवाला। घर्मकारक। २. जिसे पसीना हुआ हो। स्वेद से युक्त (को०)।

स्वेदोद, स्वेदोदक
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना। प्रस्वेद। स्वेदजल [को०]।

स्वेदोद् गम
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना होना [को०]।

स्वेद्य
वि० [सं०] स्वेद के योग्य। पसीने के योग्य।

स्वेष्ट
वि० [सं०] जो अपने को इष्ट या प्रिय हो [को०]।

स्वै पु (१)
वि० [सं० स्वीय] अपना। निज का। (डिं०)।

स्वै पु (२)
सर्व० [हिं० सो+ही] वही। वह ही।दे० 'सो'। उ०—सो सुकृती सुचिमंत सुसंत सुसील सयान सिरोमनि स्वै। —तुलसी (शब्द०)।

स्वैर (१)
वि० [सं०] १. अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मनमाना काम करनेवाला। स्वच्छंद। स्वतंत्र। स्वाधीन। यथेच्छाचारी। २. मंथर। शांत। सौम्य। मंद। ३. अनुद्योगी। सुस्त। आलसी (को०)। ४. यथेच्छ। मनमाना। ऐच्छिक।

स्वैर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वच्छंदता। स्वेच्छता २. यथेच्छता [को०]।

स्वैरकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वच्छंद वार्तालाप। निस्संकोच या असंयत वार्ता [को०]।

स्वैरगत (१)
वि० [सं०] स्वेच्छापूर्वक घूमनेवाला। जो स्वच्छंद भाव से भ्रमणशील हो।

स्वैरगत (२)
संज्ञा पुं० स्वच्छंदता या स्वतंत्रतापूर्वक गमन [को०]।

स्वैरगति
वि, संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वैरगत'।

स्वैरचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनमाना काम करनेवाली स्त्री। २. व्यभिचारिणी स्त्री।

स्वैरचारी
वि० [सं० स्वैरचारिन्] मनमाना काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी। निरंकुश।

स्वैरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यथेच्छाचारिता। २. स्वच्छंदता।

स्वैरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष्मत् के एक पुत्र का नाम। २. विष्णुपुराण के अनुसार एक वर्ष का नाम जिसके देवता स्वैरथ माने जाते हैं।

स्वैरवर्ती
वि० [सं० स्वैरवर्तिन्] अपने इच्छानुसार चलने या काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।

स्वैरविहारी
वि० [सं० स्वैरविहारिन्] इच्छानुसार विहरण करने या घूमनेवाला [को०]।

स्वैरवृत्त
वि० [सं०] अपने इच्छानुसार चलने या काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।

स्वैरवृत्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] यथेच्छाचारिता। स्वच्छंदता [को०]।

स्वैरवृत्ति (२)
वि० स्वच्छंद। स्वेच्छाचारी। स्वैरवर्ती [को०]।

स्वैराचार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जो जी में आवे वही करना। मनमाना काम करना। स्वेच्छाचार। यथेच्छाचार।

स्वैराचार (२)
वि० यथेच्छाचारी। दे० 'स्वैरी' [को०]।

स्वैराचारी
वि० [सं० स्वैराचारिन्] [वि० स्त्री० स्वैराचारिणी] अवाध्य। निरंकुश। स्वेच्छाचारी [को०]।

स्वैरालाप
संज्ञा पुं० [सं०] निस्संकोच वार्ता। स्वैरकथा [को०]।

स्वैराहार
संज्ञा पुं० [सं०] यथेच्छ भोजन।

स्वैरिंध्री
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वैरिन्ध्री]दे० 'सैरिंध्री'।

स्वैरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. असत्य। कुलटा। व्यभिचारिणी। २. गादुर। गेदुर। चमगादर। ३. मुनियों का समाज। तापसवर्ग। मुनिश्रेणी (को०)।

स्वैरिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यथेच्छाचारिता। स्वच्छंदता। स्वाधीनता।

स्वैरित्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वैरिता'।

स्वैरी
वि० [सं० स्वैरिन्] [वि० स्त्री० स्वैरिणी] स्वेच्छाचारी। स्वतंत्र। निरंकुश। अबाध्य।

स्वोक्त
वि० [सं०] स्वकथित। स्वयं कहा हुआ। स्वयं उक्त [को०]।

स्वोचित
वि० [सं०] जो अपने अनुकूल या योग्य हो [को०]।

स्वोजस्
वि० [सं०] अत्यंत दूढ़। अतीव शक्तिशाली [को०]।

स्वोत्थ
वि० [सं०] स्वयं उद् भूत। स्वाभाविक [को०]।

स्वोत्थित
वि० [सं०] स्वंय उठा हुआ। स्वयं उत्पन्न [को०]।

स्वोदय
संज्ञा पुं० किसी निश्चित स्थान पर नक्षत्र या आकाशीय पिंड का उदय होना [को०]।

स्वोदरपूरक
वि० [सं०] अपना ही पेट भरनेवाला। अपने ही खाने की चिंता करनेवाला।

स्वोदरपूरण
संज्ञा पुं० [सं०] अपना ही उदर या पेट भरना। उदरंभर। अघाकर खाना [को०]।

स्वोपज्ञ
वि० [सं०] स्वयं निर्मित। स्वयं रचित [को०]।

स्वोपधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. आत्मनिर्भरता। २. निश्चित तारा। अचल ग्रह [को०]।

स्वोपार्जित
वि० [सं०] अपना उपार्जन किया हुआ। अपना कमाया हुआ। जैसे, उनकी सारी संपत्ति स्वोपार्जित है।

स्वोरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'स्वरस'। २. तुष। छिलका। भूसी (को०)। ३. अपना वक्षस्थल (को०)।

स्वोवशीय
संज्ञा पुं० [सं०] विशेषतः भावी जीवन संबंधी आनंद, सुख या समृद्धि [को०]।