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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/स्

विक्षनरी से

स्कंक
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का काले रंग का जानवर। विशेष—यह जानवर अमेरिका में पाया जाता है। इसका शरीर अठारह तसू और पूँछ बारह तसू लंबी होती है। गरदन से पूँछ तक दो सफेद धारियाँ होती हैं और माथे पर सफेद टीका होता है। नाक लंबी, पर पतली तथा कान छोटे और गोल होते हैं। बाल लंबे और मोटे होते हैं। इसके शरीर से ऐसी दुर्गंध आती है कि पास ठहरा नहीं जाता।

स्कंत्ता
वि० [सं० स्कन्तृ] दे० 'स्कंत्तृ'।

स्कंत्तृ
वि० [सं० स्कन्तृ] जो उछले। उछलनेवाला। जो उछलता हो। छलाँग मारनेवाला।

स्कंद
संज्ञा सं० [सं० स्कन्द] १. उछलनेवाली वस्तु। २. निकलना। बहना। गिरना। ३. विनाश। ध्वंस। ४. पारा। पारद। ५. कार्तिकेय का एक नाम। देवसेनापति। विशेष—कार्तिकेय शिव के पुत्र, देवताओं के सेनापति और युद्ध के देवता माने जाते हैं। पुराणों में इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ दी हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है कि शिव जी एक बार पार्वती के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय उनका वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा। पर पृथ्वी उसे सहन न कर सकी और उसने अग्नि को दे दिया जिससे इनकी उत्पत्ति हुई। एक और पुराण में लिखा है कि शिव और पार्वती के विहार के समय अग्नि देवता ब्राह्मण का वेष धारण करके भिक्षा माँगने आए थे। शिव जी ने क्रोध में आकर अपना वीर्य उन्हें दे दिया। अग्नि देवता वह वीर्य पी गए, पर सहन न कर सके; अतः उन्होंने उसे गंगा जी में वमन कर दिया। गंगा में वह वीर्य छह भागों में पड़ा था; पर पीछे से वे छह भाग मिलकर एक शरीर हो गए जिसमें छह् मुख हुए। वहाँ से उन्हें छह् कृत्तिकाएँ उठा लाईं और ये छह मृहों से उन छह कृत्तिकाओं के स्तनपान करने लगे। इसी लिये ये षडानन और कार्तिकेय कहलाए। इसी प्रकार और भी कई कथाएँ हैं। स्कंद बहुत सुंदर कहे गए हैं और इनका वाहन मोर माना जाता है। इनके अस्त्र का नाम शक्ति है और इनकी कांति तपाए हुए सोने के समान कही गई है। यह भी कथा है कि पार्वती जी ने एक बार कहा था कि जो कोई सबसे पहले पृथ्वी की प्रदक्षिणा करके आवेगा, उसके साथ ऋद्धि सिद्धि का विवाह होगा। तदनुसार स्कंद मोर पर चढ़कर पृथ्वीप्रदक्षिणा करने निकले। गणेश जी ने सोचा कि माता ही पृथ्वी का रूप है; अतः उन्होंने पार्वती जी की प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम किया। पार्वती नेउनके साथ ऋद्धि सिद्धि का विवाह कर दिया। जब स्कंद लौटकर आए तब उन्होंने देखा कि गणेश का विवाह हो गया है; अतः उन्होंने सदा कुँवारे रहने का प्रण किया। पर तंत्रों में इनके विवाहित होने का भी उल्लेख मिलता है और इनकी पत्नी 'देवसेना' कही गई हैं जो षष्ठी देवी के नाम से पूजी जाती हैं। इन देवसेना के अस्त्र और वाहन आदि भी कार्तिकेय के अस्तों और वाहन के समान ही कहे गए हैं। स्कंद ने तारक और क्रौंच आदि अनेक राक्षसों का वध किया था। पर्या०—महासेन। षडानन। सेनानी। अग्निभू। विशाख। शिखिवाहन। षाण्मातुर। शक्तिधर। कुमार। आग्नेय। मयूर- केतु। भूतेश। कामजित्। कांत। शिशु। शुभानन। अमोघ। रौद्र। प्रिय। चंद्रानन। षष्ठीप्रिय। रेवतीसुत। प्रभु। नेता। सुव्रत। ललित। गांग। स्वामी। द्वादशलोचन। महाबाहु। युद्धरंग। रुद्रसूनु। गौरीपुत्र। गुह। ६. शिव जी का एक नाम। ७. पंडित। विद्वान्। चतुर व्यक्ति। ८. राजा। ९. शरीर। देह। १०. बालकों के नौ प्राणघातक ग्रहों या रोगों में से एक। विशेष—इस रोग में बालक कभी घबराकर और कभी डरकर रोता, नाखूनों और दाँतों से अपना शरीर नोचता, जमीन खोदता, दाँत पीसता, होंठ चबाता और चिल्लाता है। इसकी दोनों भौहें फड़का करतीं और एक आँख बहा करती है, मुँह टेढ़ा हो जाता है, दूध से अरुचि हो जाती है, शरीर दुर्बल और शिथिल हो जाता है, चेतना शक्ति नहीं रहती, नींद नहीं आती, दस्त हुआ करते हैं और शरीर से मछली तथा रक्त की दुर्गंध आती है। दे० 'बालग्रह' और उसका 'विशेष'। ११. उछलना। कूदना। १२. नदी का किनारा।

स्कंदक
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दक] १. वह जो उछले। उछलने या कूदनेवाला। २. सैनिक। सिपाही। ३. एक प्रकार का छंद।

स्कंदगुप्त
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दगुप्त] गुप्त वंश के एक प्रसिद्ध सम्राट् का नाम। विशेष—इनका सगय ई० ४५० से ४६७ तक माना जाता है। ये गुप्तवंश के प्रतापी सम्राट् समुद्रगुप्त के प्रपौत्र थे। इन्होंने पुष्यमित्र, हूणों तथा नागवंशियों को हराया था। इनका दूसरा नाम विक्रमादित्य था।

स्कंदगुरु
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दगुरु] शिव का एक नाम।

स्कंदग्रह
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दग्रह] एक बालग्रह। दे० विशेष 'स्कंद'-१०।

स्कंदजननी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्दजननी] स्कंद या कार्तिकेय की माता, पार्वती।

स्कंदजित्
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दजित्] स्कंद को जीतनेवाले—विष्णु का एक नाम।

स्कंदता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्दता] स्कंद का भाव या धर्म।

स्कंदत्व
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दत्व] दे० 'स्कंदता'।

स्कंदन
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दन] [वि० स्कंदित, स्कंदनीय] १. कोठा साफ होना। रेचन। २. सोखना। शोषण। ३. जाना। ४. निकलना। बहना। गिरना। ५. स्खलन। पतन। ६. खून का जमना।

स्कंदपुत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दपुत्र] स्कंद का पुत्र—तस्कर। चोर। 'क्षेमेंद्र' के मूलदेवचरित, 'विशाखदत्त' के मुद्राराक्षस आदि कृतियों में तस्करों के उपास्य स्कंद कहे गए हैं, अतः चोरों को स्कंदपुत्र कहा गया है।

स्कंदपुर
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दरपुर] राजतरंगिणी में उल्लिखित एक प्राचीन नगर का नाम।

स्कंदपुराण
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दपुराण] अठारह पुराणों में से एक प्रसिद्ध पुराण। विशेष—इस पुराण के अंतर्गत सनत्कुमार संहिता, सूत संहिता, शंकर संहिता, वैष्णव संहिता, ब्राह्म संहिता और सौर संहिता नामक छह संहिताएँ तथा माहेश्वर खंड, वैष्णव खंड, ब्रह्म खंड, काशी खंड, रेवा खंड, तापी खंड और प्रभास खंड नामक सात खंड तथा कितने ही माहात्म्य आदि माने जाते हैं। इनमें से काशी खंड ही सबसे अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है।

स्कंदफला
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्दफला] खजूर। खजुँर वूक्ष।

स्कंदमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कदमातृ] स्कंद की माता, दुर्गा।

स्कंदरेश्वर तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दरेश्वर तीर्थ] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

स्कंदविशाख
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दविशाख] शिव का एक नाम।

स्कंदषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्दषष्ठी] १. चैत सुदी छठ जो कार्तिकेय के देवसेनापति पद पर अभिषिक्त होने की तिथि मानी जाती है। विशेष—वाराह पुराण में लिखा है कि इस दिन जो लोग व्रत रहकर स्कंद की पूजा करते हैं, उनकी मनस्कामना सिद्ध होती है। २. कार्तिक या अगहन सुदी छठ। गुहषष्ठी। ३. तंत्र के अनुसार एक देवी का नाम जो स्कंद की भार्या कही गई है।

स्कंदांशक
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दांशक] पारा। पारद। विशेष—कहते हैं, शिव जी के वीर्य से पारे की उत्पत्ति हुई है; इसी से इसी स्कंदांशक या शिवांशक कहते हैं।

स्कंदापस्मार
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दापस्मार] एक बालग्रह या रोग। विशेष—इस रोग से बालक अचेत हो जाता है और उसके मुँह से फेन निकला करता है। चैतन्य होने पर वह पैर पटकता और बार बार जँभाई लेता है। उसके शरीर से खुन और पीब की सी दुर्गंध आती है।

स्कंदापस्मारी
वि० [सं० स्कन्दापस्मारिन्] स्कंदापस्मार ग्रह या रोग से आक्रांत। जिसपर स्कंदपस्मार ग्रह का आक्रमण हुआ हो।

स्कंदित
वि० [सं० स्कन्दित] निकला हुआ। गिरा हुआ। झड़ा हुआ। स्खलित। पतित। उ०—स्कंदित भव हर बीरज या तैं। स्कंद नाम देबन दिय तातै।—पद्माकर (शब्द०)।

स्कंदी
वि० [सं० स्कन्दिन्] १. बहनेवाला। २. गिरनेवाला। पतन- शील। ३. जम जानेवाला (को०)। ४. फूटनेवाला। स्फुटित होने या चिटकनेवाला (को०)। ५. उछलनेवाला। कूदनेवाला।

स्कंदेश्वर तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्देश्वर तीर्थ] एक तीर्थ का नाम [को०]।

स्कंदोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्दोपनिषत्] एक उपनिषद् का नाम।

स्कंदोल (१)
वि० [सं० स्कन्दोल] ठंढा। शीतल। सर्द।

स्कंदोल (२)
संज्ञा पुं० ठंढक। शीतलता।

स्कंध
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध] १. कंधा। मोढ़ा। उ०—घट वहन से स्कन्ध नत थे और करतल लाल।—शकुं०, पृ० ७। २. वृक्ष की पेड़ी या तने का वह भाग जहाँ से ऊपर चलकर डालियाँ निकलती हैं। कांड। प्रकांड। दंड। ३. डाल। शाखा। ४. समूह। गरोह। झुंड। ५. सेना का अंग। व्यूह। ६. ग्रंथ का विभाग जिसमें कोई पूरा प्रसंग हो। खंड। जैसे,—भागवत का दशम स्कंध। ७. मार्ग। पथ। ८. शरीर। देह। ९. राजा। १०. वह वस्तु जिसका राज्याभिषेक में उपयोग हो। जैसे,— जल, छत्र आदि। ११. मुनि। आचार्य। १२. युद्ध। संग्राम। १३. संधि। राजीनामा। १४. कंक पक्षी। सफेद चील। १५. महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम। १६. आर्या छंद का एक भेद। १७. बौद्धों के अनुसार रूप, वेदना, वेज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पाँचों पदार्थ। बौद्ध लोग इन पाँचों स्कंधों के अतिरिक्त पृथक् आत्मा श्वीकार नहीं करते। १८. दर्शनशास्त्र के अनुसार शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये पाँच विषय। १९. किसी बड़ी डाल से निकली हुई शाखा (को०)। २०. अंश। विभाग। खंड (को०)। २१. जैनों के अनुसार पिंड (को०)। २२. मानवीय ज्ञान की कोई शाखा या विभाग (को०)। बोझा ढोनेवाले बैलों के ककुद की ऊँचाई की समता (को०)।

स्कंधक
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धक] आर्या गीत या खंधा नामक छंद का एक नाम।

स्कंधचाप
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धचाप] बहँगी जिसपर कहार बोझा ढोते हैं। विहंगिका।

स्कंधज (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धज] १. सलई। शल्लकी वृक्ष। २. बड़। बट वृक्ष।

स्कंधज (२)
वि० स्कंध से निकलने या पैदा होनेवाला।

स्कंधतरु
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धतरु] नारियल का पेड़। नारिकेल वृक्ष।

स्कंधदेश
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धदेश] १. कंधा। मोढ़ा। २. पेड़ का तना या धड़। ३. हाथी की गरदन जिसपर महावत बैठता है। आसन।

स्कंधपथ
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धपथ] एक मनुष्य के चलने लायक तंग रास्ता। पगडंडी।

स्कंधपरिनिर्वाण
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धपरिनिर्वाण] बौद्धों के अनुसार शरीर के पाँचो स्कंधों का नाश। मृत्यु।

स्कंधपाद
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धपाद] मार्कंडेय पुराण के अनुसार एक पर्वत का नाम।

स्कंधपीठ
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धपीठ] कंधे की हड्डी। मोढ़ा।

स्कंधप्रदेश
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धप्रदेश] दे० 'स्कंधदेश'।

स्कंधफल
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धफल] १. नारियल का पेड़। नारिकेल वृक्ष। २. गूलर। उदुंबर वृक्ष। ३. बिल्व वृक्ष (को०)।

स्कंधबंधना
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धबन्धना] सौंफ। मधुरिका।

स्कंधबीज
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धबीज] वह वनस्पति या वृक्ष जिसके स्कंध से ही शाखाएँ निकलकर जमीन तक पहुँचती और वृक्ष का रूप धारण करती हों। जैसे,—बड़, पाकर आदि।

स्कंधमणि
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धमणि] एक प्रकार का जंतर या तावीज।

स्कंधमल्लक
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धमल्लक] कंक पक्षी। सफेद चील।

स्कंधमार
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धमार] बौद्धों के चार मारों में से एक।

स्कंधरुह
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धरुह] बड़ का पेड़। वट वृक्ष।

स्कंधवह
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धवह] दे० 'स्कंधवाह'।

स्कंधवाह
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धवाह] वह पशु जो कंधों के बल बोझ खींचता हो। जैसे,—बेल, घोड़ा आदि।

स्कंधवाहक (१)
वि० [सं० स्कन्धवाहक] कंधे पर बोझ उठानेवाला। जो कंधे पर बोझ उठाता हो।

स्कंधवाहक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'स्कंधवाह'।

स्कंधवाह्य
वि० [सं० स्कन्धवाह्य] कंधे पर ढोने योग्य [को०]।

स्कंधशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्धशाखा] किसी वृक्ष की मुख्य शाखा। पेड़ की प्रमुख डाल।

स्कंधशिर
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धशिरस्] कंधे की हड्डी। मोढ़ा।

स्कंधशृंग
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धश्रृङ्ग] भैंसा। महिष।

स्कंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्धा] १. डाल। शाखा। २. लता। बेल।

स्कंधाक्ष
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धाक्ष] कार्तिकेय के अनुचर देवताओं का एक गण।

स्कंधाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्धाग्नि] मोटे लक्कड़ों या वृक्ष के तने की आग।

स्कंधानल
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धानल] दे० 'स्कंधाग्नि'।

स्कंधावार
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धावार] १. राजा का डेरा या शिविर। कंपू। २. छावनी। सेनानिवास। उ०—पिता से स्कंधावार में जाने की आज्ञा माँगी।—गदाधर सिंह (शब्द०)। ३. राजा का निवासस्थान। राजधानी। (हेम)। ४. सेना। फौज। ५. वह स्थान जहाँ बहुत से व्यापारी या यात्री आदि डेरा डालकर ठहरे हों।

स्कंधिक
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धिक] कंधे परे बोझ ढोनेवाला बैल। वृष।

स्कंधी (१)
वि० [सं० स्कन्धिन्] [वि० स्त्री० स्कंधिनी] १. कांड से युक्त। तने से युक्त। २. कंधेवाला (को०)।

स्कंधी (२)
संज्ञा पुं० वृक्ष। पेड़।

स्कंधेमुख (१)
वि० [सं० स्कन्धेमुख] जिसका मुख कंधे पर हो।

स्कंधेमुख (२)
संज्ञा पुं० स्कंद के एक अनुचर का नाम।

स्कंधोग्रीवी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्धोग्रीवी] बृहती नामक वर्णवृत्त का एक भेद।

स्कंधोपनेय (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धोपनेय] राजाओं में होनेवाली एक प्रकार की संधि।

स्कंधोपनेय (२)
वि० कंधे द्वारा ढोने या वहन करने योग्य।

स्कंधोपनेयसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कन्धोपनेयसन्धि] कामंदक नीति के अनुसार वह संधि जिसके अनुसार नियत या निश्चित फल थोड़ा थोड़ा करके प्राप्त किया जाय।

स्कंध्य
वि० [सं० स्कन्ध्य] १. स्कन्ध या कंधे का। स्कंध संबंधी। २. स्कंध के समान।

स्कंभ
वि० [सं० स्कम्भ] १. खंभा। स्तंभ। २. विश्व को धारण करनेवाला, परमेश्वर। ३. टेक। सहारा। आलंबन (को०)। ४. एक वैदिक देवता (को०)।

स्कंभन
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भन] १. खंभा। स्तंभ। २. सहारा देना। सहारा देने की क्रिया (को०)।

स्कभसर्जन
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भसर्जन] दे० 'स्कंभसर्जनी'।

स्कंभसर्जनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कम्भसर्जनी] बैलगाड़ी के जुए की कील या खूँटी जिससे बैल इधर उधर नहीं हो सकते।

स्कन्न
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। पतित। च्युत। स्खलित। (जैसे, वीर्य)। २. गया हुआ। गत। ३. सूखा। शुष्क। ४. बूँद बूँद करके टपका हुआ। रिसा हुआ (को०)। ५. छिड़का हुआ। फैलाया हुआ (को०)। यौ०—स्कन्नभाग = जिसका अंश नष्ट हो गया हो।

स्कब्ध
वि० [सं०] १. टेक दिया हुआ। सहारा दिया हुआ। २. रोका हुआ (को०)।

स्कभन
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। आवाज।

स्कांद (१)
वि० [सं० स्कान्द] [वि० स्त्री० स्कांदी] १. स्कंद संबंधी। स्कंद का। २. शिव संबंधी (को०)।

स्कांद (२)
पुं० स्कंद पुराण।

स्कांदायन
संज्ञा पुं० [सं० स्कान्दायन] दे० 'स्कांदायन्य'।

स्कांदायन्य
संज्ञा पुं० [सं० स्कान्दायन्य] स्कंद के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।

स्कांदी
संज्ञा पुं० [सं० स्कान्दिन्] स्कंद के शिष्य या उनकी शाखा के अनुयायी।

स्काउट
संज्ञा पुं० [अं०] १. समाजसेवा के उद्देश्य से विद्यार्थियों का एक प्रकार का सैनिक ढंग का संघटन। बालचर। दे० 'बाय- स्काउट'। २. चर। भेदिया। प्रणिधि। ३. निरीक्षण करनेवालों का एक दल।

स्कालर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो स्कूल में पढ़ता हो। छात्र। विद्यार्थी। २. वह जिसने बहुत विद्याध्ययन किया हो। उच्च कोटि का विद्वान् व्यक्ति। पंडित। आलिम। ३. स्नातक।

स्कालरशिप
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह वृत्ति या निर्धारित धन जो विद्यार्थी को किसी स्कूल या कालेज में शिक्षा प्राप्त करने के लिये नियमित रूप से सहायतार्थ दिया जाय। छात्रवृत्ति। वजीफा। २. विद्वत्ता। पंडित्य।

स्कीम
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. किसी बड़े काम को करने का विचार या आयोजन। भावी कार्यों के संबंध में व्यवस्थित विचार। योजना। २. मंत्रणा। संकल्प (को०)। ३. कल्पना। विचार। ख्याल (को०)। ४. गुढ़ अभिसंधि (को०)।

स्कूल
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह विद्यालय जहाँ किसी भाषा, विषय या कला आदि की शिक्षा दी जाती हो। २. वह विद्यालय जहाँ एंट्रेंस या मैट्रिकुलेशन (हाई स्कूल) तक की पढ़ाई होती हो। ३. विद्यालय। मदरसा। मुहा०—स्कूल से निकलना = स्कूल की पढ़ाई समाप्त करके स्कूल छोड़ना। जैसे,—वह हाल में ही स्कूल से निकलकर कालेज में भर्ती हुआ है।

स्कूलटीचर, स्कूलमास्टर
संज्ञा पुं० [अं०] स्कूल या अँगरेजी विद्या- लय में पढ़ानेवाला। शिक्षक।

स्कूली
वि० [अं० स्कूल + हिं० ई (प्रत्य०)] १. स्कूल का। स्कूल संबंधी। जैसे,—स्कूली पढ़ाई, स्कूली किताबें। २. स्कूल में पढ़नेवाला। जैसे,—स्कूली लड़का।

स्कोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी, खंजन।

स्क्रू
संज्ञा पुं० [अं०] वह कील या काँटा जिसके नुकीले आधे भाग पर चक्करदार गड़ारियाँ या चूड़ियाँ बनी होती हैं और जो ठोंककर नहीं, बल्कि घुमाकर जड़ा या कसा जाता है। पेंच। क्रि० प्र०—कसना।—खोलना।—जड़ना।—निकालना।

स्क्वाड्रन
संज्ञा पुं० [अं०] १. रिसाले का मुख्य भाग जिसमें १०० से २०० तक जवान होते हैं। २. लड़ाकू जहाजों के बेड़े का एक भाग। लड़ाकू जहाजों का एक दल।

स्क्वायर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वर्ग। वर्गाकार। चतुष्कोण। २. दे० 'स्क्वेयर'।

स्क्वेयर
संज्ञा पुं० [अं०] १. दे० 'स्क्वायर'। २. चतुष्कोण या चौकोर स्थान जिसके चारों ओर मकान हों। जैसे,—कालेज स्क्वेयर।

स्खदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. फाड़ना। चीरना। टुकड़े टुकड़े करना। विदारण। २. हिंसा। हत्या। बध। ३. सताना। उत्पीड़न। ४. स्थिरता। स्थैर्य।

स्खल
संज्ञा पुं० [सं०] लुठन। पतन। लुढ़कना। गिरना।

स्खलद्वाक्य
वि० [सं०] बोलने में भूल करने या लटपटानेवाला। हकलानेवाला।

स्खलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरना। निकलना। २. फिसलना। सर- कना। ३. लड़खड़ाना। ४. गलती। चूकना। भूल। ५. सन्मार्ग से विचलन (को०)। ६. विफलता (को०)। ७. बोलने में लटप- टाना। हकलाना (को०)। ८. चूना। टपकना (को०)। ९. टकराना। उलझना (को०)। १०. घर्षण। रगड़ (को०)।

स्खलन्मति
वि० [सं०] अस्थिरबुद्धि। चपलमति। मंदबुद्धि [को०]।

स्खलित
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। निकला हुआ। पतित। च्युत। २. फिसला हुआ। सरका हुआ। ३. लड़खड़ाया हुआ। विच- लित। अस्थिर। ४. चूका हुआ। उ०—वे अपने को जितना भ्रांतिशील, स्खलितबुद्धि या सचूक समझते हैं।—महावीरप्रसाद (शब्द०)। ५. नशे में चूर। मदमत्त (को०)। ६. हकलानेवाला (को०)। ७. घबड़ाया हुआ। व्याकुल। विक्षुब्ध (को०)। ८. टपकनेवाला। चूनेवाला (को०)। ९. रोका या हस्तक्षेप किया हुआ। वारित (को०)। १०. बीता हुआ। व्यतीत (को०)। ११. अपूर्ण। अधूरा (को०)। यौ०—स्खलितगति = जो चलने में लड़खड़ाता या डगमगाता हो। स्खलितबुद्धि = (१) अवसर पर जिसकी बुद्धि काम न करे। (२) मंदबुद्धि। स्खलितवीर्य = (१) जिसका पराक्रम या शक्ति विफल हो गई हो। (२) जिसका वीर्य स्खलित या क्षरित हो गया हो।

स्खलित (२)
संज्ञा पुं० १. भूल। चूक। भ्रांति। २. धर्मयुद्ध के नियमों को छोड़कर, युद्ध में छल कपट या घात करना। ३. लड़ख- ड़ाना। डगमगाना (को०)। ४. सन्मार्ग से विचलन (को०)। ५. दोष। पाप (को०)। ६. झाँसा। कूट चाल (को०)। ७. क्षरण। स्राव (को०)। ८. विफलता (को०)। ९. हानि। क्षति (को०)।

स्टांप
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक प्रकार का सरकारी कागज जिसपर अर्जीदावा लिखकर अदालत में दाखिल किया जाता है या जिसपर किसी प्रकार की पक्की लिखापढ़ी की जाती है। यह भिन्न भिन्न मूल्यों का होता है; और विशिष्ट कार्यों के लिये विशिष्ट मूल्य का व्यवहृत होता है। ऐसे कागज पर की हुई लिखापढ़ी पक्की समझी जाती हैं। २. डाक का टिकट। ३. मोहर। छाप।

स्टाइल
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. ढंग। तरीका। २. शैली। पद्धति। ३. लेखन शैली।

स्टाक
संज्ञा पुं० [अं०] १. बिक्री या बेचने का माल। (दूकानदार)। जैसे,—उसकी दूकान में स्टाक कम है। २. वह धन या पूँजी जो व्यापारी लोग या उनका कोई समूह किसी काम में लगाता हो। किसी साझे के काम में लगाई पूँजी। ३. सरकारी कागज में ब्याज पर लगाया हुआ धन। सरकारी कर्ज की हुंडी। ४. रसद। सामान। ५. वह स्थान जहाँ बिक्री का सामान जमा हो। भंडार। गुदाम। गोदाम।

स्टाक एक्सचेंज
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह मकान, स्थान या बाड़ा जहाँ स्टाक या शेयर खरीदे और बेचे जाते हों। २. स्टाक का काम करनेवालों या दलालों की संघटित सभा।

स्टाक ब्रोकर
संज्ञा पुं० [अं०] वह दलाल जो दूसरों के लिये स्टाक या शेयरों की खरीद, बिक्री का काम करता हो।

स्टाफ
संज्ञा पुं० [अं० स्टाफ़] १. किसी संघटन या संस्थान का कार्य- कर्ता वर्ग। उ०—किसी कार्यालय के कार्यकर्ता वर्ग को 'स्टाफ' कहते हैं।—तारिका, पृ० ३५। २. फौजी अफसरों का दल। सैनिक अधिकारियों का समूह।

स्टाफ अफसर
संज्ञा पुं० [अं० स्टाफ़ आफ़िसर] वह अफसर जिसके अधीन सेना या सैन्यदल का स्टाफ अर्थात् अफसरों का समूह हो।

स्टाल
संज्ञा पुं० [अं०] १. प्रदर्शिनी, मेले, आदि में वह छोटी दुकान या टेबल जिसपर बेचने के लिये चीजें सजाई रहती हैं। २. वह स्थान जहाँ घोड़े रखे जाते हैं। अस्तबल। ३. थिएटर में पिट के आगे की बैठक या आसन।

स्टिच
संज्ञा पुं० [अं०] १. सीवन। २. टाँका। बखिया। ३. टाँका लगाने, बखिया करने या सोने का ढंग। ४. तोव्र पार्श्व शूल या पसली की पीड़ा [को०]।

स्टिचिंग मशीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] किताब या कापी सीने की एक प्रकार की कल जिसमें लोहे के तारों से सिलाई होती है।

स्टीम
संज्ञा पुं० [अं०] भाप। जलवाष्प। मुहा०—स्टीम भरना = जोश दिलाना। उत्साहित करना। उत्तेजन देना।

स्टीम इंजिन
संज्ञा पुं० [अं०] वह इंजिन जो खौलते हुए पानी में से निकलनेवाली भाप के जोर से चलता हो।जैसे,—रेल का इंजिन, जहाज का इंजिन।

स्टीमर
संज्ञा पुं० [अं०] स्टीम या भाप के जोर से चलनेवाला जहाज। धूम्रपोत।

स्टील
संज्ञा पुं० [अं०] इस्पात। पक्का लोहा। यौ०—स्टील ट्रंक = लोहे की पेटी। स्टील वर्क्स = इस्पात का कारखाना।

स्टुडेंट
संज्ञा पुं० [अं०] विद्यार्थी। छात्र। शिक्षार्थी।

स्टूल
संज्ञा [अं०] तीन या चार पायों की बिना ढासने की छोटी ऊँची चौकी जिसपर एक ही आदमी बैठ सकता है। तिपाई। टूल।

स्टेज
संज्ञा पुं० [अं] १. नाट्यमंदिर या थिएटर के अंदर जमीन से कोई तीन हाथ ऊँचा बना हुआ मंच जिसपर नाटक खेला जाता है। रंगमंच। रंगभूमि। रंगपीठ। २. मंच।

स्टेज मैनेजर
संज्ञा पुं० [अं०] रंगमंच का प्रबंधक या व्यवस्थापक।

स्टेट (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी देश की वह समस्त प्रजा या समाज जो अपना शासन आप ही करता हो। सभ्य या स्वतंत्र समाज या राष्ट्र। २. वह शक्ति जिसके द्वारा कोई सरकार किसी देश का शासन करती हो। ३. ऐसे राष्ट्रों में से कोई एक जिनका कोई संमिलित संघ हो और जो व्यक्तिशः स्वतंत्र होने पर भी किसी एक केंद्रस्थ शक्ति या सरकार से संबद्ध हों। जैसे,—अमेरिका के यूनाइटेड स्टेट्स। ४. ब्रिटिश शासन मेंभारत का कोई स्वतंत्र देशी राज्य। जैसे,—जयपुर एक बहुत बड़ा स्टेट है।

स्टेट (२)
संज्ञा पुं० [अं० एस्टेट] १. बड़ी जमींदारी। २. स्थावर और जंगम संपत्ति। मनकूला और गैर मनकूला जायदाद। जैसे,— वे पाँच लाख रुपयों का स्टेट छोड़कर मरे थे।

स्टेनलेस
वि० [अं०] १. दोषरहित। बेदाग। २. जिसपर दाग या जंग न लग सके। यौ०—स्टेनलेस स्टील = वह लौह धातु जिससे बने बर्तनों पर मोरचा आदि नहीं लगता और उनमें रखे या बनाए गए खाद्य पदार्थ विकृत नहीं होते।

स्टेशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ निर्दिष्ट समय पर नियमित रूप से रेलगाड़ियाँ ठहरा करती हैं। रेलगाड़ियों के ठहरने और मुसाफिरों के उनपर उतरने चढ़ने के लिये बनी हुई जगह। २. वह स्थान जहाँ कुछ लोगों की, रहने के लिये नियुक्ति हो। वह जगह जहाँ किसी विशिष्ट कार्य के लिये कुछ लोगों की नियुक्ति और निवास हो। जैसे,—पुलिस स्टेशन। ३. बस, मोटर आदि सवारियों के ठहरने का स्थान। यौ०—स्टेशन मास्टर = रेल के स्टेशन का प्रधान अधिकारी।

स्टेशनरी
संज्ञा स्त्री० [अं०] लेखन सामग्री। कार्यालयों के काम आनेवाला लिखने पढ़ने का सामान।

स्टैंड
संज्ञा पुं० [अं०] भाड़े की सवारियों के रुकने और रवाना होने की जगह। जैसे,—बस स्टैंड, रिक्शा स्टैंड, टैक्सी स्टैंड आदि।

स्टैंडर्ड
संज्ञा पुं० [अं०] १. शुद्धता या श्रेष्ठता के विचार से निश्चित गुण की उच्च मात्रा या स्वरूप जो प्रायः आदर्श माना जाता है और जिससे उस वर्ग के अन्यान्य पदार्थे की तुलना की जाती है। आदर्श। मानक। जैसे—(क) उनके पदत्याग करते ही पत्र का स्टैंडर्ड गिर गया। (ख) हिंदी में आजकल कितने ही ऐसे पत्र निकलते हैं जिनके लेख ऊँचे स्टैंडर्ड के होते हैं। २. दर्जा। श्रेणी। यौ०—स्टैंडर्ड सोना = स्वतंत्र होने के अनंतर भारत सरकार द्वारा घोषित स्वर्णनियंत्रण अधिनियम के अनुसार १५ कैरेट का सोना।

स्टैंडिंग कमिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'स्थायी समिति'।

स्टैंडिंग कौन्सल
संज्ञा पुं० [अं०] वह बैरिस्टर या ऐडवोकेट जो सरकार की ओर से मामला चलाने में ऐडवोकेट जनरल की सहायता करता है।

स्टैंडिंग मैटर
संज्ञा पुं० [अं०] किसी प्रेस में कंपोज की हुई वह सामग्री जो एक बार छपने के बाद कभी पुनः छापने के लिये रोक रखी जाय।

स्टैच्यू
संज्ञा पुं० [अं०] किसी प्रसिद्ध या विशिष्ट व्यक्ति की पत्थर, काँसे आदि की पूरे कद की प्रतिमा, मूर्ति या पुतला जो प्रायः स्मारक स्वरूप किसी सार्वजनिक स्थान पर स्थापित किया जाता है।

स्टोइक
संज्ञा पुं० [अं०] जीनो नामक एक यूनानी विद्वान् का चलाया हुआ संप्रदाय। विशेष—स्टोइक संप्रदायवालो का सिद्धांत है कि मनुष्य को विषय- सुखों का त्याग करके बहुत सयमपूर्वक रहना चाहिए। २. उक्त संप्रदाय को माननेवाला व्यक्ति। विषयसुखों का त्याग करनेवाला व्यक्ति। विषयविमुख व्यक्ति।

स्ट्राइक
संज्ञा स्त्री० [अं०] हड़ताल। जैसे,—रेलवे स्ट्राइक।

स्ट्रीट
संज्ञा स्त्री० [अं०] नगर के भीतरी भाग की पतली छोटी सड़क।

स्ट्रेट
संज्ञा पुं० [अं०] १. जलडमरूमध्य। २. वह जो टेढ़ामेढ़ा न हो, सीधा हो।

स्तंकु
संज्ञा पुं० [सं० स्तङ्कु] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढा़ होता था।

स्तंब
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्ब] १. ऐसा पौधा जिसकी एक जड़ से कई पौधे निकलें और जिसमें कड़ी लकड़ी या डंठल न हो। गुल्म। २. झाड़ी। भुरमुट (को०)। ३. घास की आँटी। ४. अन्न के पौधों की आँटी या पूली (को०)। ५. झुंड। पुंज। गुच्छा (को०)। ६. खंभा। स्तंभ (को०)। ७. असंवेद्यता। जड़ता। स्तंभ (को०)। ८. वह स्तंभ या खूँटा जिसमें हाथी बाँधे जाते है (को०)। ९. रोहिड़ा। रोहतक वृक्ष। १०. एक पर्वत का नाम।

स्तंबक
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बक] १. गुच्छ। गुच्छा। २. नकछिकनी। क्षचक वृक्ष। छिक्कनी।

स्तंबकरि (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बकरि] धान।

स्तंबकरि (२)
वि० अनाज के पौधों की पूली बनानेवाला [को०]।

स्तंबकरिता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्बकरिता] धान्यादि के पौधों की आँटी या पूली बनाना।—मुद्राराक्षस।

स्तंबकार
वि० [सं० स्तम्बकार] गुच्छे बनानेवाला।

स्तंबघन
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बघन] १. दाँती जिससे घास आदि काटते हैं। हँसिया। २. खुरपा (को०)। ३. तिन्नी या धान एकत्र करने की टोकरी (को०)।

स्तंबघात
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बघात] दे० 'स्तंबघन'।

स्तंबघ्न
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बघ्न] दे० 'स्तंबघन'।

स्तंबज
वि० [सं० स्तम्बज] गुच्छेदार। स्तबकित [को०]।

स्तंबपुर
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बपुर] ताम्रलिप्तपुर का एक नाम।

स्तंबमित्र
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बमित्र] महाभारत के अनुसार जरिता के एक पुत्र का नाम।

स्तंबयजु
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बयजुष्] घास और गुल्म अथवा गुच्छ को खनने और तोड़ने का एक धार्मिक कृत्य [को०]।

स्तंबहनन
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बहनन] [स्त्री० स्तंबहननी] घास आदि खोदने की खुरपी।

स्तंबी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बिन्] घास खोदने की खुरपी।

स्तंबी (२)
वि० झाड़ी या गुच्छेदार [को०]।

स्तंबेरम
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बेरम] हाथी। हस्ति।

स्तंबेरमासुर
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बेरमासुर] एक असुर का नाम। गजासुर।

स्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ] १. खंभा। थंभा। थूनी। २. पेड़ का तना। तरुस्कंध। ३. साहित्यदर्पण के अनुसार एक प्रकार का सात्विक भाव। किसी कारणविशेष से संपूर्ण अंगों की गति का अवरोध। जड़ता। अचलता। उ०—देखा देखी भई, छूट तब तैं सँकुच गई, मिटी कुलकानि, कैसो घूघुट को करिबो। लागी टकटकी, उर उठी धकधकी, गति थकी, मति छकी, ऐसो नेह को उघरिबो। चित्र कैसे लिखे दोऊ ठाढ़े रहे 'कासीराम' नाहीं परवाह लाख लाख करो लरिबो। बंसी को बजैबी नट- नागर बिसरि गयो, नागरि बिसरि गई गागरि को भरिबो।— रसकुसुमाकर (शब्द०)। ४. प्रतिबंध। रुकावट। ५. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी की चेष्टा या शक्ति को रोकते हैं। ६. काव्य के सात्विक भावों में से एक। ७. विष्णपुराण के अनुसार एक ऋषि का नाम। ८. अभिमान। गर्व। घमंड। दंभ। ९. रोग आदि के कारण होनेवाली बेहोशी। १०. स्थिरता। कड़ापन (को०)। ११. नियंत्रित करना। दमन (को०)। १२. भरना (को०)। १३. सहारा। आश्रय। टेक (को०)।

स्तंभक (१)
वि० [सं० स्तम्भक] १. रोकनेवाला। रोधक। २. कब्ज करनेवाला। ३. वीर्य रोकनेवाला।

स्तंभक (२)
संज्ञा पुं० १. खंभा। थंभा। २. शिव के एक गण का नाम।

स्तंभकर (१)
वि० [सं० स्तम्भकर] १. रोकनेवाला। रोधक। २. जड़ता उत्पन्न करनेवाला।

स्तंभकर (२)
संज्ञा पुं० घेरा। वेष्टन। टट्टी।

स्तंभकारण
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भकारण] रोक या बाधा का कारण।

स्तंभकी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भकिन्] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था।

स्तंभकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भकी] एक देवी का नाम।

स्तंभता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भता] १. स्तंभ का भाव। २. जड़ता।

स्तंभतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भतीर्थ] एक प्राचीन स्थान का नाम। विशेष—आजकल यह स्थान खभात के नाम से प्रसिद्ध है। किसी समय यह एक प्रसिद्ध तीर्थ और व्यापार का बहुत बड़ा केंद्र था।

स्तंभन
संज्ञ पुं० [सं० स्तम्भन] १. रुकावट। अवरोध। निवारण। २. विशेषतः वीर्य आदि के स्खलन में बाधा या बिलंब। ३. वह ओषध जिससे वीर्य का स्खलन विलंब से हो। वीर्यपात रोकनेवाली दवा। विशेष—इस अर्थ में लोग भ्रम से इस शब्द का स्तंभक के स्थान पर प्रयोग करते हैं। ३. सहारा। टेकान। टेक। ४. जड़ या निश्चेष्ट करना। जडीकरण। ५. रक्त के प्रवाह या गति का रोकना। ६. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी चेष्टा या शक्ति को रोकते हैं। ७. वह औषध जो रूखी, ठंढी और कसैली हो, जिसमें पाचन शक्ति कम हो और जो वायु करनेवाली हो। ८. कब्ज। मलाव- रोध। ९. कामदेव के पाँच वाणों में से एक। (शेष चार वाण ये हैं—उन्मादन, शोषण, तापन और संमोहन)। १०. शांत होना। स्वस्थचित्त होना (को०)। ११. दृढ़ या कड़ा करना (को०)। १२. दबाना। नियंत्रित करना (को०)। १३. स्तंभवत् करने की क्रिया। स्तंभ करना (को०)।

स्तंभनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भनी] एक प्रकार का इंद्रजाल या जादू।

स्तंभनीय
वि० [सं० स्तम्भनीय] स्तंभन के योग्य।

स्तंभपूजा
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भपूजा] विवाह, यज्ञ आदि के समय मंडप में गड़े खंभे की पूजा।

स्तंभमित्र
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भमित्र] एक महर्षि का नाम।

स्तंभवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भवृत्ति] प्राण को जहाँ का तहाँ रोक देना, जो प्राणायाम का एक अंग है।

स्तंभि
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भि] समुद्र। सागर।

स्तंभिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भिका] १. चौकी या आसन का पाया। २. छोटा खंभा। खँभिया।

स्तंभित
वि० [सं० स्तम्भित] १. जो जड़ या अचल हो गया हो। जड़ीभूत। निश्चल। निस्तब्ध। सुन्न। २. ठहरा या ठहराया हुआ। स्थित। ३. रुका या रोका हुआ। अवरुद्ध। निवारित। ४. एकत्रीकृत या भरा हुआ (को०)। यौ०—स्तंभितवाष्प = जिसका वाष्प या अश्रु रुक गया हो। स्तंभितवाष्पवृत्ति = उमड़ते आँसुओं को रोक लेनेवाला। स्तंभितवाष्पवृत्तिकलुष = उमड़ते आँसुओं को रोक लेने से जिसकी दूष्टि धूमिल या अस्पष्ट हो गई हो।

स्तंभिताश्रु
वि० [सं० स्तम्भिताश्रु] जिसके अश्रु आँखों में ही रुक गए हों। रुके हुए आँसुओंवाला।

स्तंभिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भिनी] १. योग के अनुसार पाँच धारणाओं में से एक। २. पंच तत्त्वों में से एक। क्षिति। पृथ्वी (को०)।

स्तंभी (१)
वि० [सं० स्तम्भिन्] १. स्तंभ या खंभों से युक्त। २. अवरुद्ध करने या रोकनेवाला। ३. दांभिक। ४. सहारा देनेवाला। स्थिर करनेवाला (को०)।

स्तंभी (२)
संज्ञा पुं० समुद्र।

स्तंभोत्कीर्ण
वि० [सं०] जो स्तंभ पर उत्कीर्ण हो। खंभों पर उकेरा हुआ (प्रतिमा, चित्र आदि)।

स्तत्क
संज्ञा पुं० [सं०] कतरा। बूँद। ठोप। विंदु [को०]।

स्तनंध
वि० [सं० स्तनन्ध] दे० 'स्तनंधय'।

स्तनंधय (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तनन्धय] [स्त्री० स्तनंधया, स्तनंधयी] १. दूधपीता बच्चा। स्तनपायी शिशु। २. बछड़ा। वत्स।

स्तनंधय (२)
वि० दूधपीता। स्तनपान करनेवाला।

स्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों के वक्ष पर उभरनेवाला विशेष अंग। कुच। २. मादा पशुओं का थन या छाती जिसमें दूध रहता है। जैसे,—गौ का स्तन। ३. कुच का अग्रभाग। चूचुक। स्तन की घुंडी (को०)। मुहा०—स्तन पिलाना = स्तन मुँह में लगाकर उसका दूध पिलाना। स्तन पीना = स्तन मुँह में लगाकर उसका दूध पीना।

स्तनकलश
संज्ञा पुं० [सं०] कलश के जैसे स्तन [को०]।

स्तनकील
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार स्त्रियों की छाती में होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा।

स्तनकुंड
संज्ञा पुं० [सं० स्तनकुण्ड] महाभारत में वर्णित एक प्राचीन तीर्य का नाम।

स्तनकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्तनकुम्भ] दे० 'स्तनकलश'।

स्तनकुड्मल
संज्ञा पुं० [सं०] नारी का कुच। स्तन [को०]।

स्तनकोटि
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन का अग्रभाग। चूचुक [को०]।

स्तनकोरक
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन जो कोरक या कली सदृश हो।

स्तनग्रह
संज्ञा पुं० [सं० स्तनपान] स्तन्यपान [को०]।

स्तनचूचुक
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन का अग्रभाग। कुच के ऊपर की घुंडी। चूँची। ढेपनी।

स्तनतट
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनों का तट भाग। स्तनों का ढालवाँपन या उभार [को०]।

स्तनत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चे का दूध पीना छोड़ देना [को०]।

स्तनथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोर या भीषण नाद। गड़गड़ाहट। २. (शेर की) दहाड़। गरज। गर्जन।

स्तनथु
संज्ञा पुं० [सं०] (शेर की) दहाड़। गरज।

स्तनदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाती का दूध पिलानेवाली।

स्तनद्वेषी
वि० [सं० स्तनद्वेषिन्] जो स्तन को ग्रहण न करे (शिशु)।

स्तनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वनि। नाद। शब्द। आवाज। २. बादलों की गड़गड़ाहट। मेघगर्जन। ३. गुर्राना (को०)। ४. कराह। आह। आर्तध्वनि। ५. जोर से साँस लेना। कठिनाई से साँस लेना (को०)। ६. कफ आदि के कारण साँस लेने में होनेवाली खरखराहट (को०)।

स्तनप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० स्तनपा, स्तनपायिका] स्तनपायी शिशु। दूधपीता बच्चा। शिशु।

स्तनप (२)
वि० स्तन पीनेवाला।

स्तनपतन
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनों का तनाव ढीला होना या लटक जाना [को०]।

स्तनपाता
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'स्तनप'।

स्तनपान
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन में का दूध पीना।

स्तनपायक
संज्ञा पुं० वि० [स्त्री० स्तनपायिका] दे० 'स्तनप' [को०]।

स्तनपायिक
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनपोषिक नाम का एक जनपद।

स्तनपायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूधपीती बच्ची। बहुत छोटी लड़की। दुग्धपोष्या।

स्तनपायी
वि० [पुं० स्तनपायिन्] जो माता के स्तन से दूध पीता हो। स्तनप।

स्तनपोषिक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद जिसे स्तनपायिक, स्तनपोषिक और स्तनयोधिक भी कहते थे।

स्तनबाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णुपुराण में वर्णित एक प्राचीन जनपद। २. इस देश का निवासी।

स्तनभर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थूल या सुपुष्ट स्तन। बड़ी और पुष्ट छाती। २. वह पुरुष जिसका स्तन या छाती स्त्री के समान हो।

स्तनभव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध या संभोग का आसन।

स्तनभव (२)
वि० स्तन से उत्पन्न।

स्तनमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोनों स्तनों के बीच का या मध्यवर्ती स्थान। २. कुचाग्र। चूचुक (को०)।

स्तनमुख
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन या कुच का अगला भाग। स्तन की घुंडी। चूचुक। चूची।

स्तनमूल
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन का मूल भाग या स्तन का तट।

स्तनयित्नु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघगर्जन। बादलों की गड़गड़ाहट। २. मेघ। बादल। ३. विद्युत्। बिजली। ४. मोथा। मुस्तक। ५. मृत्यु। मौत। ६. रोग। बीमारी। यौ०—स्तनयित्नु घोष = मेघनिर्घोष के समान गड़गड़ाहट।

स्तनरोग
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भवती और प्रसूता स्त्रियों के स्तनों में होनेवाला एक प्रकार का रोग। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह रोग वायु, पित्त और कफ के कुपित होने से होता है। इसमें स्तन का मांस और रक्त दूषित हो जाता है। इसके पाँच भेद हैं—वातज, पित्तज, कफज, सन्नि- पातज और आगंतुज।

स्तनरोहित
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन या कुच के अग्र भाग के ऊपर दोनों ओर का अंग जो सुश्रुत के अनुसार परिमाण में दो अंगुल होता है।

स्तनविद्रधि
संज्ञा पुं० [सं०] स्नन पर होनेवाला फोड़ा। थनैली।

स्तनवृंत
संज्ञा पुं० [सं० स्तनवृन्त] स्तन या कुच का अग्रभाग। चूचुक। चूची।

स्तनवेपथु
संज्ञा पुं० [सं०] छाती की धड़कन। स्तनों का कंपन या थरथराना [को०]।

स्तनशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्तन का अग्रभाग। चूचुक। ढेंपनी। कुचाग्र। चूची।

स्तनशोष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें स्तन सूख जाते हैं।

स्तनांगराग
संज्ञा पुं० [सं० स्तनाङ्गराग] स्तनों पर लगाने के लिये सुगंधित द्रव्यों का मिश्रित लेप या चूर्ण [को०]।

स्तनांतर
संज्ञा पुं० [सं० स्तनान्तर] १. हृदय। दिल। २. स्तनों का मध्यवर्ती भाग। ३. स्तन या छाती पर का चिह्न जो वैधव्य- सूचक समझा जाता है।

स्तनांशुक
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनों पर बाँधने का वस्त्र। कुचपट्टिका।

स्तनाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनों का अग्रवर्ती अंश। चूचुक। ढेपनी। स्तनशिखा (को०)।

स्तनाभुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्राणी जो अपने बच्चों को स्तन से दूध पिलाता हो।

स्तनाभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तन की पूर्णता या पूष्टता। २. स्तन का आभोग या घेरा (को०)। ३. वह व्यक्ति जिसके स्तन औरतों की तरह हों (को०)।

स्तनावरण
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन ढकने का कपड़ा। स्तनांशुक।

स्तनित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघगर्जन। बादलों की गरज। २. ध्वनि। शब्द। आवाज। ३. धनुष आदि की प्रत्यंचा की आवाज। धनुष की टंकोर (को०)। ४. करतल ध्वनि। ताली बजाने का शब्द।

स्तनित (२)
वि० १. ध्वनित। निनादिन। शब्दित। २. गर्जन किया हुआ। गर्जित।

स्तनितकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के देवताओं का वर्ग। इन्हें भुवना- धीश भी कहते हैं।

स्तनितफल
संज्ञा पुं० [सं०] कँटाय का पेड़। विकंकत वृक्ष।

स्तनितसमय
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों के गर्जन का काल।

स्तनितसुभग
क्रि० वि० [सं०] आनंददायक गर्जन के साथ। आंनद- प्रद गर्जन करते हुए [को०]।

स्तनी
वि० [सं० स्तनिन्] १. जिसके स्तन हो। स्तनयूक्त। स्तनवाला। जैसे, सुस्तनी, अर्थात् सुंदर स्तनोंवाली। २. एक प्रकार के विकृत रूपवाले अश्व के लिये प्रयुक्त।

स्तनोत्तरीय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्तनांशुक'।

स्तन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दूध। दुग्ध।

स्तन्य (२)
वि० जो स्तन में हो।

स्तन्यजनन
वि० [सं०] दूध उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला।

स्तन्यत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] शिशु द्वारा माता का दूध पीना छोड़ देना [को०]।

स्तन्यद
वि० [सं०] स्नन्य देनेवाला। अच्छा दुग्ध उत्पन्न करनेवाला [को०]।

स्तन्यदा
वि० स्त्री० [सं०] जिसके स्तनों में से दूध निकलता हो। दूध देनेवाली।

स्तन्यदान
संज्ञा० पुं० [सं०] १. स्तन से दूध पिलाना। स्तन्य का दान कराना। २. स्तन का दूध देना (को०)।

स्तन्यप (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्तन्यपा] स्तन या दूध पीनेवाला।

स्तन्यप (२)
संज्ञा पुं० दूधपीता बच्चा। शिशु।

स्तन्यपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तन का दूध पीना। २. स्तन्य पीने का काल। शिशु अवस्था।

स्तन्यपायी
वि० [सं० स्तन्यपायिन्] जो स्तन से दूध पीता हो। स्तन पीनेवाला। दूधपीता।

स्तन्यभूक्, स्तन्यभुज्
वि० [सं०] दुधमुहाँ। दूधपीता [को०]।

स्तन्यरोग
संज्ञा पुं० [सं०] अस्वस्थ या रोगिणी माता का दूध पीने से होनेवाला रोग।

स्तन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलमी शाक। कलंबी साग।

स्तबक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुच्छ। गुच्छा। २. गुलदस्ता। ३. मोर की पूँछ। मयूरपिच्छ। ४. रेशम का लच्छा। ५. समूह। ६. किसी पुस्तक का एक भाग या अध्याय (को०)।

स्तबकखंड
संज्ञा पुं० [सं० स्तबकखण्ड] एक कंद [को०]।

स्तबकफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक फल [को०]।

स्तबकसंनिभ
वि० [सं० स्तबकसन्निभ] गुच्छे के तुल्य। गुच्छे के समान। गुच्छे सा [को०]।

स्तबकाचित
वि० [सं०] स्तबक या पुष्पों से ढका हुआ [को०]।

स्तबकित
वि० [सं०] स्तबकों से युक्त। पुष्पों की राशि या ढेर से भरा हुआ [को०]।

स्तब्ध (१)
वि० [सं०] १. जो जड़ या अचल हो गया हो। जडीभूत। स्तंभित। स्पंदनहीन। निश्चेष्ट। सुन्न। २. मजबूती से ठह- राया या सहारा दिया हुआ। ३. दृढ़। स्थिर। ४. मंद। धीमा। सुस्त। ५. दुराग्रही। हठी। ६. अभिमानी। घमंडी। ७. निठुर। निष्ठुर (को०)। ८. रुद्ध। रोका हुआ (को०)। ९. मोटा। स्थूल। १०. बेडौल। भद्दा (को०)। ११. गतिहीन (को)। १२. कठोर। कड़ा।

स्तब्ध (२)
संज्ञा पुं० वंशी के छह दोषों में से एक जिसमें उसका स्वर कुछ धीमा होता है।

स्तब्धकर्ण
वि० [सं०] जिसके कान खड़े हों [को०]।

स्तब्धगात्र
वि० [सं०] जिसके अंग स्तब्ध हों या जिसने अपने अंगों को कठोर कर लिया हो [को०]।

स्तब्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्तब्ध भाव। जड़ता। २. निश्चेष्टता। स्पंदनहीनता। ३. स्थिरता। दृढ़ता। ४. गरबीलापन। घमंड। गर्व। ५. बहरापन। बधिरता।

स्तब्धतोय
वि० [सं०] जलाशय आदि जिसका पानी स्थिर या जम गया हो [को०]।

स्तब्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्तब्धता'।

स्तब्धदृष्टि
वि० [सं०] जिसकी टकटकी बँध गई हो। जिसकी पलकें न गिर रही हों [को०]।

स्तब्धनयन
वि० [सं०] दे० 'स्तब्धदृष्टि'।

स्तब्धपाद
वि० [सं०] १. जिसके पैर रोग आदि से जकड़ गए हों। २. खंज। लँगड़ा। पंगु।

स्तब्धपादता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्तब्धपाद होने का भाव। खंजता। पंगुता। लँगड़ापन।

स्तब्धबाहु
वि० [सं०] जिसकी भूजाएँ सुन्न या निष्क्रिय हो गई हों [को०]।

स्तब्धमति
वि० [सं०] मंदबुद्धि। कुंदजेहन।

स्तब्धमेढ्र
वि० [सं०] जिसकी पुरुषेंद्रिय में जड़ता आ गई हो। क्लीव। नपुंसक।

स्तब्ध रोमकूप
वि० [सं०] जिसके रोमछिद्र अवरुद्ध हों।

स्तब्धरोमा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तब्धरोमन्] सूअर। शूकर।

स्तब्धरोमा (२)
वि० जिसकी रोम या रोंगटे खड़े हो गए हों। स्तंभित।

स्तब्धलोचन
वि० [सं०] जिनकी पलकें नहीं गिरतीं (देवताओं के लिये मुख्यतः प्रयुक्त)। अनिमिषनेत्र। अपलकलोचन [को०]।

स्तब्धवपु
वि० [सं० स्तब्धवपुस्] जिसके शरीर की चेष्टाएँ रुक गई हों [को०]।

स्तब्धसंभार
संज्ञा पुं० [सं० स्तब्धसम्भार] एक राक्षस का नाम।

स्तबधसक्थि
वि० [सं०] जिसकी जाँघें बेकार हो गई हों। लँगड़ा।

स्तब्धहनु
वि० [सं०] जिसके जबड़े गतिशून्य हों [को०]।

स्तब्धाक्ष
वि० [सं०] दे० 'स्तब्धदृष्टि' [को०]।

स्तब्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थिरता। कड़ापन। २. दृढ़ता। अच- लता। ३. जड़ता। असंवेद्यता। ४. ढिठाई। धृष्टता [को०]।

स्तब्धोद
वि० [सं०] दे० 'स्तब्धतोय'।

स्तभ
संज्ञा पुं० [सं०] बकरा।

स्तभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. असवेद्यता। जड़ता। २. अठोरता। दृढ़ता [को०]।

स्तर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तह। परत। तबक। थर। २. सेज। शय्या। तल्प। ३. कोई वस्तु जो फैली हुई हो (को०)। ४. सतह। तल (को०)। ५. मानदंड। श्रेणी। कोटि। मान (अं० स्टैंडर्ड)। ६. भूगर्भ शास्त्र के अनुसार भूमि आदि का एक प्रकार का विभाग जो उसकी भिन्न भिन्न कालों में बनी हुई तहों के आधार पर होता है।

स्तर (२)
वि० [सं०] फैलनेवाला। विस्तृत होनेवाला [को०]।

स्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. फैलाने या बिखेरने की क्रिया। २. अस्तरकारी। पलस्तर। ३. बिछौना। बिस्तर।

स्तरणीय
वि० [सं०] १. फैलाने या बिखेरने योग्य। २. बिछाने योग्य।

स्तरिमा
संज्ञा पुं० [सं० स्तरिमन्] सेज। शय्या। तल्प।

स्तरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धूआँ। धूम्र। २. भाप। वाष्प (को०)। ३. बंध्या गौ (को०)। ४. वत्सतरी। बछिया (को०)।

स्तरीमा
संज्ञा पुं० [सं० स्तरीमन्] सेज। शय्या।

स्तरु
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु। बैरी।

स्तर्य
वि० [सं०] १. फैलाने या बिखेरने योग्य। २. बिछाने योग्य। स्तरणीय।

स्तव
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देवता का छंदोबद्ध स्वरूपकथन या गुणागान। स्तुति। स्तोत्र। जैसे,—शिवस्तव, दुर्गास्तव। २. ईश- प्रार्थना। ३. प्रशस्ति। प्रशंसा (को०)। ४. एक पदार्थ (को०)।

स्तवक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूलों का गुच्छा। गुच्छक। गुलदस्ता। २. समूह। ढेर। ३. पुस्तक का कोई अध्याय या परिच्छेद। जैसे,—प्रथम स्तवक, द्वितीय स्तवक। ४. मोर की पूँछ का पंख। ५. स्तव। स्तोत्र। ६. वह जो किसी की स्तुति या स्तव करता हो। गुणकीर्तन करनेवाला व्यक्ति। बंदी। स्तुतिपाठक।

स्तवक (२)
वि० स्तुति करनेवाला [को०]।

स्तवकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाक्षानिर्मित कुंडल। लाह से बने हुए कर्णाभूषण [को०]।

स्तवकित
वि० [सं०] पुष्पों या पुष्पगुच्छों से भरा हुआ [को०]।

स्तवथ
संज्ञा पुं० [सं०] स्तुति। स्तव। स्तोत्र।

स्तवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तुति करने की क्रिया। गुणकीर्तन। २. स्तव। स्तुति। स्तोत्र।

स्तवनीय
वि० [सं०] जो स्तव या स्तुति करने के योग्य हो। प्रशंसा के योग्य। प्रशंसनीय।

स्तवन्य
वि० [सं०] दे० 'स्तवनीय'।

स्तवरक
संज्ञा पुं० [सं०] आवरक। घेरा। बाड़। वेष्ठन।

स्तवि
संज्ञा पुं० [सं०] सामगान करनेवाला। सामगायक।

स्तवितव्य
वि० [सं०] स्तव के योग्य। प्रशंसा के योग्य।

स्तविता
संज्ञा पुं० [सं० स्तवितृ] स्तवन या स्तुति करनेवाला। गुणगान करनेवाला। स्तुतिपाठक।

स्तवेय्य
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम।

स्तव्य
वि० [सं०] स्तव या स्तुति के योग्य। स्तवनीय।

स्तांवेरम
वि० [सं० स्ताम्वेरम] हस्ति संबंधी। हाथी से संबंधित [को०]।

स्ताघ
वि० [सं०] जो थहाया जा सके। छिछला। उथला [को०]।

स्तायु
संज्ञा पुं० [सं०] चोर।

स्तारा
संज्ञा पुं० [देशज] एक प्रकार का पौधा।

स्ताव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तव। स्तुति। गुणगान। २. स्तव करनेवाला। गुणगान करनेवाला।

स्तावक
वि० [सं०] १. स्तव या स्तुती करनेवाला। गुणकीर्तन करनेवाला। प्रशंसक। २. बंदी। बंदीजन।

स्तावर
संज्ञा स्त्री० [देशज ?] एक प्रकार की बेल।

स्तावा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाजसनेयी संहिता के अनुसार एक अप्सरा का नाम।

स्ताव्य
वि० [सं०] स्तव के योग्य। प्रशंसा के योग्य।

स्तिंगीमूरा
संज्ञा पुं० [अं० स्टिंगी + मूर] जहाज का पाल और उसकी रस्सी। (लश०)।

स्तिंभि
संज्ञा पुं० [सं० स्तिम्भि] दे० 'स्तिभि' [को०]।

स्तिपा
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रितों की रक्षा करनेवाला। गुहपालक।

स्तिभि
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूलों का गुच्छा। गुच्छक। स्तवक। २. समुद्र। ३. अवरोध। प्रतिबंध।

स्तिभिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुच्छा। स्तवक।

स्तिमित (१)
वि० [सं०] १. भीगा हुआ। तर। नम। आर्द्र। २. स्थिर। निश्चल। उ०—सब सभा रही निस्तब्ध, राम के स्तिमित नयन।—अपरा, पृ० ४५। ३. शांत। ४. प्रसन्न। संतुष्ट। ५. कोमल (को०)। ६. बंद। मुकुलित (को०)। ७. अकड़ा हुआ। निश्चेष्ट (को०)।यौ०—स्तिमितगति, स्तिमितजव = धीरे धीरे बढ़नेवाला। स्तिमितनयन = एकटक देखनेवाला। जिसे टकटकी बँधी हो। स्तिमितप्रवाह = धीरे धीरे बहनेवाला। स्तिमितवायु = शांत वायु। शांत हवा। स्तिमितस्थिति = जो निश्चल खड़ा हो।

स्तिमित (२)
संज्ञा पुं० १. नमी। आर्द्रता। २. स्थिरता। निश्चलता।

स्तिमितत्व
संज्ञा पुं० [सं०] स्तिथरता। गतिहीनता। निश्चलता [को०]।

स्तिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थिर जल। प्रवाहहीन जल। शांत जल।

स्तीम
वि० [सं०] सुस्त। अलस। धीमा।

स्तीमित
वि० [सं०] दे० 'स्तिमित'।

स्तीर्ण (१)
वि० [सं०] फैलाया हुआ। बिखेरा हुआ। छितराया हुआ। विस्तृत। विकीर्ण।

स्तीर्ण (२)
संज्ञा पुं० शिव के एक अनुचर का नाम। (शिवपुराण)।

स्तीर्वि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अध्वर्यु। २. आकाश। ३. जल। ४. रुधिर। ५. शरीर। ६. भय। ७. तृण। घासपात। ८. इंद्र।

स्तुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपत्य। संतान। २. केशगुच्छ। केशसमूह। केशग्रंथि या वेणी (को०)।

स्तुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केशपाश। केशगुच्छ। २. बैल के सींग के बीच की भँवरी। ३. नितंब। ४. जघन। जाँघ [को०]।

स्तुटि
संज्ञा पुं० [सं०] भरदूल नामक पक्षी। भरद्वाज पक्षी।

स्तुत (१)
वि० [सं०] १. जिसकी स्तुति या प्रार्थना की गई हो। कीर्तित। प्रशंसित। २. चूआ हुआ। बहा हुआ।

स्तुत (२)
संज्ञा पुं० १. शिव का एक नाम। २. स्तव। स्तुति। प्रशंसा। स्तवन।

स्तुतस्तोम
वि० [सं०] जिसका गुणगान या प्रार्थना की गई हो। कीर्तित। प्रशंसित।

स्तुति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुणकीर्तन। स्तव। प्रशंसा। तारीफ। बड़ाई। क्रि० प्र०—करना। २. देवीपुराण के अनुसार दुर्गा का एक नाम। ३. भागवत के अनुसार प्रतिहर्ता की पत्नी का नाम। ४. चाटुकारिता (को०)। ५. स्तोत्र (को०)।

स्तुति (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम।

स्तुतिगीत
संज्ञा पुं० [सं०] स्तवन। स्तोत्र [को०]।

स्तुतिगीतक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रशंसा का गीत।

स्तुतिपद
संज्ञा पुं० [सं०] स्तुति या प्रशंसा का विषय [को०]।

स्तुतिपरक
वि० [सं०] जो प्रशस्ति या स्तवन का बोधक हो।

स्तुतिपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] बंदी जिसका काम प्राचीन काल में राजाओं की स्तुति या यशोगान करना था। स्तुतिपाठ करनेवाला। चारण। भाट। मागध। सूत।

स्तुतिप्रिय
वि० [सं०] जिसे प्रशंसा प्रिय हो। जो अपनी प्रशस्ति का आकांक्षी हो। खुशामद पसंद।

स्तुतिमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्तुतिमन्त्र] स्तवनबोधक मंत्र या ऋचाएँ। वह मंत्र जिसमें किसी की स्तुति की गई हो।

स्तुतिवाचन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्तुतिवाद'।

स्तुतिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रशंसात्मक कथन। यशोगान। गुणगान।

स्तुतिवादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तुति या प्रशंसा करनेवाला। प्रशं- सक। २. खुशामदी। चाटुकार। उ०—धनेश्वर भी स्तुतिवादक को यथार्थवादक जानकर उसी से वार्तालाप करता है।— गदाधर सिंह (शब्द०)।

स्तुतिव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो स्तुति करे। स्तुतिपाठक।

स्तुतिशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] प्रशंसात्मक वचन। स्तुतिपरक वचन। स्तुतिवाद। [को०]।

स्तुतिशील
वि० [सं०] जो स्तुति या कीर्तिगान के कार्य में पटु एवं कुशल हो [को०]।

स्तुत्य
वि० [सं०] स्तुति या प्रशंसा के योग्य। प्रशंसनीय।

स्तुत्यव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिरण्यरेता के एक पुत्र का नाम। २. भागवत के अनुसार एक वर्ष का नाम जिसके अधिष्ठाता देवता स्तुत्यव्रत माने जाते हैं।

स्तुत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नलिका नामक गंधदव्य। नली। पवारी। २. गोपीचंदन। सौराष्ट्री।

स्तुनक
संज्ञा पुं० [सं०] छाग। बकरा।

स्तुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की अग्नि। २. छाग। बकरा।

स्तुभ्वन
वि० [सं०] स्तुति करनेवाला।

स्तुव
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े के सिर का एक अंग।

स्तुवत् (१)
वि० [सं०] स्तुति करनेवाला या स्तुति करता हुआ।

स्तुवत् (२)
संज्ञा पुं० १. स्तावक। स्तुति करनेवाला व्यक्ति। २. उपा- सक। पूजक।

स्तुवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तुति करनेवाला। स्तावक। २. उपासक। पूजक। ३. यज्ञ।

स्तुवेय्य
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

स्तुषेण्य
वि० [सं०] दे० 'स्तुवेय्य' [को०]।

स्तुषेय्य
वि० [सं०] १. स्तुति करने योग्य। स्तुत्य। २. श्रेष्ठ। उत्तम। अच्छा।

स्तूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी आदि का ढेर। अटाला। राशि। २. ऊँचा ढूह या टीला। ३. मिट्टी, ईंट, पत्थर आदि का बना ऊँचा ढूह या टीला जिसके नीचे भगवान् बुद्ध या किसी बौद्ध महात्मा की अस्थि, दाँत, केश या इसी प्रकार के अन्य स्मृति- चिह्न संरक्षित हों। ४. केशगुच्छ। लट। ५. मकान में का सबसे बड़ा शहतीर। जोता। ६. शवदाह के लिये क्रम से एकत्रित लकड़ियों का ढेर। चिता (को०)। ७. शक्ति। क्षमता (को०)।

स्तूपपरिधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्तूप की परिधि या घेरा।

स्तूपपूष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] कच्छप। कछुआ।

स्तुपबिंब
संज्ञा पुं० [सं० स्तुपबिम्ब] दे० 'स्तुपमंडल'।

स्तूपमंडल
संज्ञा पुं० [सं० स्तूपमण्डल] स्तुप की परिधि। स्तुप का घेरा [को०]।

स्तूपभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तूप को ध्वस्त करना। २. स्तूपों का प्रकार, उनकी भिन्नता या भेद।

स्तूपभेदक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो स्तूप को ढहाता या नष्ट भ्रष्ट करता हो।

स्तृ
संज्ञा पुं० [सं०] तारा [को०]।

स्तृत
वि० [सं०] १. ढका हुआ। आवृत। आच्छादित। २. फैला हुआ। विस्तृत।

स्तृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ढाँकने की क्रिया। आच्छादन। २. विस्तार। फैलाव। विस्तृति (को०)। ३. फैलाने की क्रिया। फैलाना (को०)। ४. आच्छादन का वस्त्र (को०)।

स्तेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर। चौर। तस्कर। २. एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य। चोर नामक गंधद्रव्य। ३. चोरी करना। चुराना। यौ०—स्तेननिग्रह = (१) चोरों का निग्रह, शासन या दंड। (२) चोरी को बंद करना। चौरकार्य का दमन करना। स्तेनहृदय = पक्का चोर। शातिर चोर।

स्तेम
संज्ञा पुं० [सं०] नमी। गीलापन। आर्द्रता।

स्तेय (१)
स्त्री० पुं० [सं०] १. चोरी। चौर्य्य। रहजनी। २. गोप्य या सबसे चुरा छिपाकर रखने लायक वस्तु। ३. चोरी की जाने के लायक या चोरी गई वस्तु (को०)।

स्तेय (२)
वि० जो चोरी गया हो या चुराया जा सके।

स्तेयकृत्
वि० [सं०] चोरी करनेवाला। चोर।

स्तेयफल
संज्ञा पुं० [सं०] तेजबल का पेड़।

स्तेयी
संज्ञा पुं० [सं० स्तेयिन्] १. चोर। चौर। २. मूसा। वन- मूषिक। चूहा। ३. सुनार। स्वर्णकार।

स्तैन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्तैन्य'।

स्तैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर का काम। चोरी। २. चोर। तस्कर।

स्तैमित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थिरता। कठोरता। अटलता। २. जड़ता। सुन्नपना [को०]।

स्तोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बूँद। बिंदु। २. पपीहा। चातक। ३. जैनों के कालविभाग में उतना समय जितने में मनुष्य सात बार श्वास लेता है। ४. स्फुलिंग। चिनगारी (को०)।

स्तोक (२)
वि० १. अल्प। थोड़ा। २. लघु। छोटा। ३. किंचित्। कुछ। ४. अधम। निम्न। नीच [को०]।

स्तोकक (१)
वि० [सं०] १. स्वल्प। थोड़ा। २. किंचित् [को०]।

स्तोकक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चातक पक्षी। २. एक प्रकार का विष। दे० 'स्तोतक' [को०]।

स्तोककाय
वि० [सं०] लघु शरीरवाला। बौना। छोटा [को०]।

स्तोकतमस्
वि० [सं०] कुछ कुछ काला। श्यामल [को०]।

स्तोकनम्र
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्तोकनम्रा] थोड़ा झुका हुआ [को०]।

स्तोकपांडुर
वि० [सं० स्तोकपाण्डुर] कुछ कुछ पीला। पीताभ [को०]।

स्तोतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पपीहा। चातक। २. बछनाग विष। वत्सनाग विष।

स्तोतव्य
वि० [सं०] स्तव या स्तुति के योग्य। स्तुत्य।

स्तोता (१)
वि० [सं० स्तोतृ] स्तुति करनेवाला। उपासना करनेवाला। प्रार्थना करनेवाला।

स्तोता (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम।

स्तोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देवता का छंदोबद्ध स्वरूपकथन या गुणकीर्तन। स्तव। स्तुति। जैसे,—महिम्नस्तोत्र। २. स्तुति- परक रचना, छंद या श्लोक। ३. प्रशंसा। प्रशास्ति (को०)।

स्तोत्रार्ह
वि० [सं०] स्तवन या स्तुति का पात्र। स्तुत्य। स्तवनीय।

स्तोत्रिय (१)
वि० [सं०] स्तोत्र संबंधी। स्तोत्र का।

स्तोत्रिय (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पद्य। स्तोत्र का पद्य [को०]।

स्तोत्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्तोत्रिय२'।

स्तोत्रीय
वि० [सं०] दे० 'स्तोत्रिय'।

स्तोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामवेद का एक अंग। २. जड़ या निश्चेष्ट करना। स्तंभन। ३. तिरस्कार करना। उपेक्षा करना। अवज्ञा करना। ४. रोकना। बाधा खड़ी करना (को०)। ५. विराम। यति (को०)। ६. सूक्त। प्रशस्ति (को०)। ७. संनिविष्ट वस्तु (को०)। ७. अंगों की निश्चेष्टता। जड़ता।

स्तोभित
वि० [सं०] १. जिसकी स्तुति की गई हो। स्तुति किया हुआ। २. जिसका जयजयकार किया गया हो।

स्तोम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तुति। प्रार्थना। २. यज्ञ। ३. एक प्रकार का यज्ञ। ४. यज्ञकारी। यज्ञ करनेवाला। ५. समूह। राशि। ६. दस धन्वंतर अर्थात् चालीस हाथ की एक माप। ७. मस्तक। सिर। ८. धन। दौलत। ९. अनाज। शस्य। १०. एक प्रकार की ईंट। ११. लोहे की नोकवाला डंडा या सोंटा। १२. बड़ी मात्रा। विशाल राशि (को०)। १३. दूसरे को किराए पर मकान देना (को०)। १४. सोम का दिन। सोम दिवस (को०)।

स्तोम (२)
वि० टेढ़ा। वक्र।

स्तोमक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] साबुन [को०]।

स्तोमचिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञविशेष में प्रयुक्त स्तोम नाम की ईंटों की जोड़ाई या चुना जाना [को०]।

स्तोमायन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में बलि दिया जानेवाला पशु।

स्तोमीय
वि० [सं०] स्तोम संबंधी। स्तोम का।

स्तोम्य
वि० [सं०] स्तुति के योग्य। प्रार्थना के योग्य। स्तुत्य।

स्तौविक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्थि, नख, केश आदि स्मृतिचिह्न जो स्तूप के नीचे संरक्षित हों। बुद्धद्रव्य। २. वह मार्जनी जो जैन यति अपने पास रखते हैं।

स्तौभ
वि० [सं०] १. स्तोभ संबंधी। स्तोभ का। २. जो प्रसन्नता से चिल्लाता या नारे लगाता हो (को०)।

स्तौभिक (१)
वि० [सं०] स्तौभयुक्त। जिसमें स्तौभ हो।

स्तौभिक (२)
संज्ञा पुं० सामवेद की संहिता का द्रितीय अंश [को०]।

स्त्यान (१)
वि० [सं०] १. घना। २. कड़ा। कठोर। ३. चिकना। स्निग्ध। ४. शब्द या ध्वनि करनेवाला। ५. पुंजीभूत। राशीभूत। जमा हुआ (को०)। ६. मृदु। कोमल (को०)।

स्त्यान (२)
संज्ञा पुं० १. घनापन। घनत्व। २. प्रतिध्वनि। आवाज। ३. आलस्य। अकर्मण्यता। ४. सत्कर्म में चित्त का न लगना। ५. अमृत। ६. मार्दव। कोमलता। स्निग्धता (को०)।

स्त्यानर्द्धि
सं० स्त्री० [सं०] वह निद्रा जिसमें वासुदेव का आधा बल होता है। जिसे यह निद्रा होती है, वह उठकर कुछ काम करके फिर लेट जाता है और इस प्रकार वास्तव में सोता हुआ भी काम करता है, पर काम की उसे सुध नहीं रहती। (जैन)।

स्त्यायन
सं० पुं० [सं०] जनसमूह। भीड़। मजमा।

स्त्येन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर। डाकू। २. अमृत। सुधा।

स्तयैन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चोर। डाकू।

स्त्यैन (२)
वि० थाड़ा। कम। अल्प।

स्त्रियम्मन्य
वि० [सं०] जो अपने को स्त्री माने या समझे।

स्त्रींद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रीन्द्रिय] योनि। भग [को०]।

स्त्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नारी। औरत। जैसे,—लज्जाशीलता स्त्री जाति का आभुषण है। २. पत्नी। जोरू। जैसे,—वह अपनी स्त्री और बाल बच्चों के साथ आया है। ३. मादा। जैसे,—स्त्री पशु। ४. सफेद च्यूँटी। ५. प्रियंगु लता। ६. एक वृत्त का नाम जिसमें दो गुरु होते हैं। उसका दूसरा नाम 'कामा' है। उ०— गंगा धावो कामा पावो। ७. व्याकरण में स्त्रीलिंग या स्त्रीलिंग- बोधक कोई शब्द (को०)।

स्त्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तरी] दे० 'इस्तिरी'।

स्त्रीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग। मैथुन।

स्त्रीकाम
वि० [सं०] १. स्त्री की कामना या इच्छा करनेवाला। जिसे औरत की ख्वाहिश हो। २. स्त्रीसंभोग का इच्छुक (को०)।

स्त्रीकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों का व्यवसाय। २. स्त्रियों की सेवा। अतःपुर की सेवा [को०]।

स्त्रीकितव
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों को फुसलाने, बहकाने या धोखा देनेवाला पुरुष [को०]।

स्त्रीकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का मासिक धर्म। रजोधर्म [को०]।

स्त्रीकृत
संज्ञा पुं० [सं०] वह कार्य आदि जो स्त्री द्रारा किया गया हो। २. संभोग। मैथुन। यौनसंबंध [को०]।

स्त्रीकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड्ग। कटार। २. छुरा (को०)।

स्त्रीक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री के स्तन का दूध।

स्त्रीक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सम या युग्म संख्यक राशियाँ। जैसे दूसरी, चौथी, छठी आदि [को०]।

स्त्रीग
वि० [सं०] स्त्रियों से संभोग करनेवाला। परस्त्रीगामी।

स्त्रीगमन
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीसंसर्ग। संभोग। मैथुन।

स्त्रीगवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूध देनेवाली गाय। दुधार गौ [को०]।

स्त्रीगुरु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो दीक्षा या मंत्र देती हो। दीक्षा देनेवाली स्त्री। विशेष—तत्रों में सदाचारिणी और शास्त्रपारंगत स्त्रियों से दीक्षा या मंत्र लेने का विधान है।

स्त्रीगृह
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःपुर। दे० 'स्त्र्यगार' [को०]।

स्त्रीग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार बुध, चंद्र और शुक्र ग्रह। विशेष—ज्योतिष में पुरुष, स्त्री और क्लीव (नपुंसक) तीन प्रकार के ग्रह माने गए हैं जिनमें बुध, चंद्र और स्त्रीग्रह हैं। जातक के पंचम स्थान पर इन ग्रहों की स्थिति या दृष्टि रहने से स्त्री संतान होती है और लग्न आदि में रहने से संतान स्त्रीस्वभाववाली होती है।

स्त्रीग्राही
वि० [सं० स्त्रीग्राहिन्] किसी महिला या स्त्री का विधि- संमत अभिभावक बननेवाला [को०]।

स्त्रीघातक
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीघ्न' [को०]।

स्त्रीघोष
संज्ञा पुं० [सं०] प्रत्यूष। प्रभात। प्रातःकाल। तड़का।

स्त्रीघ्न
वि० [सं०] स्त्री या पत्नी की हत्या करनेवाला। स्त्रीघातक।

स्त्रीचंचल
वि० [सं० स्त्रीचञ्चल] कामी। लंपट।

स्त्रीचरित, स्त्रीचरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों द्रारा किया गया कार्य। स्त्रियों का चरित्र [को०]।

स्त्रीचित्तहारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीचित्तहारिन्] सहिंजन। शोभांजन।

स्त्रीचित्तहारी (२)
वि० औरतों या स्त्री का चित्त हरण करनेवाला।

स्त्रीचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. योनि। भग, स्तन आदि जो स्त्री होने के चिह्न हैं। २. स्त्री संबंधी चिह्न (को०)।

स्त्रीचौर
संज्ञा पुं० [सं०] कामी। लंपट। व्यभिचारी।

स्त्रीजन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्त्रीजाति' [को०]।

स्त्रीजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनु के अनुसार वह स्त्री जो केवल कन्या उत्पन्न करे। (मनुस्मृति)।

स्त्रीजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारि वर्ग। नारी समुदाय [को०]।

स्त्रीजित्
वि० [सं०] स्त्री या पत्नी के वश में रहनेवाला। जोरू का गुलाम।

स्त्रीतमा, स्त्रीतरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिजात या कुलीन स्त्री। श्रेष्ठा स्त्री। २. वह औरत जिसके स्त्रीत्वबोधक चिह्न पूर्ण हों। पूर्ण स्त्री। पूरी औरत [को०]।

स्त्रीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्त्रीत्व'।

स्त्रीत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री का भाव या धर्म। स्त्रीपन। जना- नापन। २. व्याकरण में वह प्रत्यय जो स्त्रीलिंग का सुचक होता है। ऐसा प्रत्यय जिस शब्द में लगता है, वह स्त्रीलिंग हो जाता है। ३. परिणीता या विवाहिता होने का भाव। पत्नीत्व (को०)। ४. नारीसुलभ कोमलता, दुर्बलता आदि (को०)।

स्त्रीदेहार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जिनके आधे अंग में पार्वती का होना माना जाता है।

स्त्रीद्घिट्
वि० [सं० स्त्रोद्धिष्] दे० 'स्त्रीद्घिषी'।

स्त्रीद्घेषी
वि० [सं० स्त्रीद्घेषिन्] स्त्रियों का द्घेषी या उनके प्रति द्वेष- भावना रखनेवाला।

स्त्रीधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन जिसपर स्त्रियों का विशेष रूप से पूरा अधिकार हो। विशेष—मनु के अनुसार यह छह प्रकार का है—(१) विवाह में होम के समय जो धन मिले वह अध्यग्निक, (२) पिता के यहाँ से जाते समय जो मिले वह अध्यावाहनिक, (३) पति प्रसन्न होकर जो दे वह प्रीतिदत्त, और (४) माता से प्राप्त मातृत्त, (५) पिता से प्राप्त पितृदत्त तथा (६) भ्राता से जो धन मिले वह भ्रातृदत्त कहलाता है। इस धन पर पानेवाली स्त्री का ही अधिकार होता है, और किसी आदमी का कुछ अधिकार नहीं होता।

स्त्रीधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री का रजस्वला होना। रजोदर्शन। २. मैथुन। ३. स्त्री का धर्म या कर्तव्य। ४. स्त्री संबंधी विधान।

स्त्रीधर्मिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो ऋतु से हो। रहस्वला स्त्री।

स्त्रीधव
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री का पति या भर्ता। पुरुष।

स्त्रीधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री को छलनेवाला पुरुष।

स्त्रीध्वज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गज। हाथी। हस्ती। २. किसी पशु की मादा (को०)।

स्त्रीध्वज (२)
वि० जिसमें स्त्रियों के चिह्न हों। स्त्री के चिह्नों से युक्त।

स्त्रीनाथ
वि० [सं०] जिसकी स्वामिनी औरत हो। स्त्री के द्रारा रक्षित [को०]।

स्त्रीनामा
वि० [सं० स्त्रीनामन्] जिसका स्त्रीवाचक नाम हो। स्त्री के सदूश नामवाला।

स्त्रीनिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीनिबन्धन] घर का काम धंधा जो स्त्रियाँ करती हैं।

स्त्रीनिर्जित
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीजित्'।

स्त्रीपण्योपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीपण्योपजीविन्] वह जो स्त्री या वेश्या की आय से अपनी जीविका चलावे। औरत की कमाई खानेवाला।

स्त्रीपर
संज्ञा पुं० [सं०] कामुक। विषयी।

स्त्रीपिशाची
संज्ञा पुं० [सं०] चुड़ैल जैसी स्त्री या पत्नी [को०]।

स्त्रीपुंधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पति तथा पत्नी के कर्तव्य से संबंधित विधि विधान [को०]।

स्त्रीपुंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री और पुरुष का एक स्थान पर होना या संयोग। २. ज्योतिष के अनुसार ग्रहों का एक योग।

स्त्रीपुंस
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्त्री जो पुरुष हो गई हो [को०]।

स्त्रीपुंसलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरुषोचित व्यवहार करनेवाली नारी। मरदानी औरत।

स्त्रीपुंसलिगी
वि० [सं० स्त्रीपुंसलिङ्गिन्] स्त्री और पुरुष के चिह्नों से युक्त [को०]।

स्त्रीपुर
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःपुर। जनानखाना।

स्त्रीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] रज। आर्तव।

स्त्रीपूर्व
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीजित्'।

स्त्रीप्रज्ञ
वि० [सं०] औरतों के समान बुद्धिवाला [को०]।

स्त्रीप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिये शब्द के अंत में जुड़नेवाला प्रत्यय [को०]।

स्त्रीप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीप्रसङ्ग] मैथुन। संभोग।

स्त्रीप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्त्रीजननी'।

स्त्रीप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम। आम्रवृक्ष। २. अशोक।

स्त्रीप्रिय (२)
वि० जिसे स्त्रियाँ प्यार करें। जो स्त्रियों को प्रिय हो।

स्त्रीप्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों को दिखाने योग्य खेल [को०]।

स्त्रीबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीबन्ध] संभोग। मैथुन।

स्त्रीबाध्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों के द्रारा तंग किया जानेवाला व्यक्ति [को०]।

स्त्रीबुद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों जैसी समझ। २. स्त्रियों की राय। जनानी राय [को०]।

स्त्रीभव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्त्रीत्व'।

स्त्रीभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा। केतकी।

स्त्रीभोग
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन। प्रसंग।

स्त्रीमंडल पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीमण्डल] एक प्रकार का वाद्य यंत्र। उ०—स्त्रीमंडल सुर औ जलतरंग।—ह० रासो, पृ०११०।

स्त्रीमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीमन्त्र] १. वह मंत्र जिसके अंत में 'स्वाहा' हो। २. स्त्रियों की तिकड़म या तरकीब (को०)। ३. स्त्री का परामर्श। औरतों की राय (को०)।

स्त्रीमय
वि० [सं०] स्त्रीरूप। जनाना। जनखा।

स्त्रीमानी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीमानिन्] मार्कंडेयपुराण के अनुसार भौत्य मनु के पुत्र का नाम।

स्त्रीमानी (२)
वि० अपने को स्त्री समझनेवाला। दे० 'स्त्रियम्मन्य' [को०]।

स्त्रीमाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारी का कौशल। नारी का छलबल [को०]।

स्त्रीमुखप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मौलसिरी। बकुल। २. अधरपान (को०)। ३. अशोक (को०)।

स्त्रीम्मन्य
वि० [सं०] दे० 'स्त्रियम्मन्य'।

स्त्रीयंत्र
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रीयन्त्र] मशीन के समान स्त्री। वह स्त्री जो व्यवहार में मशीन जैसी हो। यंत्रवत् व्यवहार करनेवाली औरत [को०]।

स्त्रीरंजन
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीरञ्जन] पान। तांबूल।

स्त्रीरज
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीरजस्] मासिक स्राव। मासिक धर्म।

स्त्रीरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. लक्ष्मी। श्री। २. स्त्रीरूपी रत्न। श्रेष्ठ स्त्री (को०)।

स्त्रीराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार प्राचीन काल का एक प्रदेश जहाँ स्त्रियों की ही बस्ती थी।

स्त्रीलंपट
वि० [सं० स्त्रीलम्पट] स्त्री की सदा कामना करनेवाला। कामी। विषयी।

स्त्रीराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सम संख्या की राशियाँ। दे० 'स्त्रीक्षेत्र'।

स्त्रीलक्षण१
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री संबंधी कोई चिह्न [को०]।

स्त्रीलक्षण (२)
वि० स्त्रियों के समान चिह्नों या कार्योंवाला [को०]।

स्त्रीलिंग
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीलिङ्ग] १. भग। योनि। २. हिंदी व्याकरण के अनुसार दो प्रकार के लिंगों में से एक जो स्त्री- वाचक होता है। जैसे घोड़ा शब्द पुलिंग और घोड़ी स्त्रीलिंग है।

स्त्रीलोल
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीलंपट'।

स्त्रीलौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री की आकांक्षा। औरतों की चाह [को०]।

स्त्रीवश
वि० [सं०] स्त्री के अनुसार चलनेवाला। औरत का गुलाम।

स्त्रीवश्य
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीवश'।

स्त्रीवार
संज्ञा पुं० [सं०] सोम, बुध और शुक्रवार। विशेष—ज्योतिष में चंद्र, बुध और शुक्र ये तीनों स्त्रीग्रह माने गए हैं; अतः इनके दिन भी स्त्रीवार कहे जाते हैं।

स्त्रीवास
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीवासस्] वह वस्त्र जो रतिबंध या संभोग के समय के लिये उपयुक्त हो। २. वल्मीक। बिमौट (को०)।

स्त्रीवाह्य
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक प्राचीन जनपद।

स्त्रीविजित
वि० [सं०] दे० 'स्त्रीजित्'।

स्त्रीवित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १.स्त्री का धन। दे० 'स्त्रीधन'। २. औरत द्रारा प्राप्त धन।

स्त्रीविधेय
वि० [सं०] जो पत्नी या स्त्री के द्रारा शासित हो [को०]।

स्त्रीविवाह
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री के साथ विवाह पक्का करना।

स्त्रीवियोग
संज्ञा पुं० [सं०] पत्नी से पृथक् होना [को०]।

स्तीविषय
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग। स्त्रीसंसर्ग। मैथुन।

स्त्रीवृत
वि० [सं०] स्त्रियों से घिरा हुआ या सेवित।

स्त्रीव्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीव्यञ्जन] स्तन आदि चिह्न जिनसे स्त्री होने का बोध होता है। यौ०—स्त्रीव्यंजनकृत=कन्या जिसमें स्त्रीत्व के व्यंजक चिह्न व्यक्त हों।

स्त्रीव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] योनि। भग।

स्त्रीव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी स्त्री के अतिरिक्त दूसरी स्त्री की कामना न करना। एकस्त्रीपरायणता। एकपत्नीव्रत। उ०— पातिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट होना"।—सत्यार्थ प्र० (शब्द०)।

स्त्रीशेष
वि० [सं०] जहाँ केवल औरतें ही रह गई हों [को०]।

स्त्रीशौंड
वि० [सं० स्त्रीशौण्ड] स्त्री में आसक्त। स्त्री के पीछे उन्मत्त। औरत के लिये पागल रहनेवाला। कामुक।

स्त्रीसंग
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीसङ्ग] १. संभोग। मैथुन। प्रसंग। २. स्त्रियों के साथ संबंध या संपर्क (को०)।

स्त्रीसंग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीसङ्ग्रहण] किसी स्त्री से बलात् आलिंगन या संभोग आदि करना। व्यभिचार।

स्त्रीसंज्ञ
वि० [सं०] जिसकी संज्ञा या नाम औरतों जौसा हो।

स्त्रीसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीसम्बन्ध] १. स्त्री के साथ विवाह तय होना। २. वैवाहिक संबंध निश्चित होना। ३. स्त्रियों से नाता, संपर्क या संबंध [को०]।

स्त्रीसंभोग
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीसम्भोग] मैथुन। प्रसंग।

स्त्रीसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग। मैथुन। प्रसंग।

स्त्रीसंस्थान
वि० [सं०] जनाने रूप का। औरत की तरह या जनानी शक्ल सूरतवाला [को०]।

स्त्रीसभ
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों की सभा [को०]।

स्त्रीसख
वि० [सं०] सस्त्रीक। स्त्रीयुक्त।

स्त्रीसमागम
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन। प्रसंग।

स्त्रीसुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैथुन। २. सहिंजन। शोभांजन।

स्त्रीसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग। मैथुन।

स्त्रीसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों के प्रति मोह या राग [को०]।

स्त्रीस्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोजा। अंतःपुर का रक्षक। २. औरतों का स्वभाव। स्त्रियों की प्रकृति (को०)।

स्त्रीहंता
वि० [सं० स्त्रीहन्तृ] स्त्री की हत्या करनेवाला।

स्त्रीहरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बलपूर्वक किसी स्त्री को भगाना या हरण करना। २. बलात्कार।

स्त्रीहारी
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीहारिन्] स्त्रियों को फुसलाने या बहकाने— वाला व्यक्ति [को०]।

स्त्रैण (१)
वि० [सं०] १. स्त्री संबंधी। स्त्रियों का। २. स्त्री के योग्य या अनुरूप। ३. स्त्रियों के कहने के अनुसार चलनेवाला। स्त्रियों का वशीभूत। स्त्रीरत। उ०—रहते घर नाथ, तो निरा, कहती स्त्रैण उन्हें यही गिरा।—साकेत, पृ० ३६२। ४. स्त्रियों के प्रति भक्ति या अनुरागयुक्त (को०)।

स्तैण (२)
संज्ञा पुं० १. नारीत्व। स्त्रीत्व। २. स्त्रियों की प्रकृति या स्वभाव। स्त्रीस्वभाव। ३. स्त्रियों का समूह। नारीवर्ग। ४. विषयजन्य आनंद। विषयानंद [को०]।

स्त्रैणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जनानापन। जनखापन। २. स्तियों की अत्यंत इच्छा या लालसा [को०]।

स्त्रैराजक
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीराज्य का निवासी।

स्त्र्यगार
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का आगार। अंतःपुर। जनानखाना।

स्त्र्यध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रानियों की देखभाल करनेवाला। अंतःपुर का प्रधान अधिकारी।

स्त्र्यनुज
वि० [सं०] जो बहन के बाद उत्पन्न हुआ हो।

स्त्र्यभिगमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलात्कार। २. संभोग। स्त्रीसंभोग। स्त्रीप्रसंग [को०]।

स्त्र्यर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीत्व। स्त्रीशक्ति। स्त्रीबल। उ०—यद्यपि एकबार जी में आया कि पत्नी पर अपने बल तथा पुरुषार्थ का प्रयोग करके उसे अपनी आज्ञाकारिणी बनाए रखें परंतु जब उन्होंने अपने शरीर को और उसके मुकाबिले पत्नी के शरीर को देखा तो उनका यह विचार भी बदल गया। उनकी पत्नी का स्त्र्यर्थ उनके पुरुषार्थ से अधिक बलवान् निकला।—माँ, पृ० १८६।

स्त्र्याख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंगु लता।

स्त्र्याजीव
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपनी या दूसरी स्त्रियों की वेश्यावृत्ति से अपनी जीविका चलाता हो। औरतों की कमाई खानेवाला।