सोच
संज्ञा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
सोच ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ शोच]
१. सोचने की क्रिया या भाव । जैसे,— तुम अच्छी तरह सोच लो कि तुम्हारे इस काम का क्या फल होगा । यौ॰— सोचसमझ । सोचविचार । सोचसाच = दे॰ 'सोचविचार' । उ॰— हमें भी बहुत सोच साच के धन्यवाद देना पड़ा । — प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ॰२३ ।
२. चिंता । फिक्र । जैसे,— (क) तुम सोच मत करोष ईश्वर भला करेंगे ।(ख) तुम किस सोच में बैठे हो ? उ॰— (क) चल्यो अनखाइ समझाइ हारे बातनि सों, 'मन ! तु समझ, कहा कीजै ? सोच भारी है !'—भक्तमाल (प्रिया॰),पृ॰ ५०५ ।(ख) नारि तजी सुत सोच तज्यो तब ।—केशव (शब्द॰) ।
३. शोक । दुःख । रंज । अफसोस । उ॰—(क) तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं, ऐसी ठाउँ जाके मुए जिए सोच करिहैं न लरिको ।— तुलसी (शब्द॰) ।(ख) नेह कै मोहिं बुलायो इतै अब बोरत मेह महीतल को है । आई मझार महावत मै तन मैं श्रम सीकर की झलको है । न मिले अब नौल किसोर पिया हियो बेनी प्रवीन कहै कलको है । सोच नहीं धन पावन को सखि सोच यहै उनके छल को है । —बेनी प्रवीन (शब्द॰) ।
४. पछतावा । पश्चा- त्ताप । उ—देखिकै उमा कौं रूद्र लज्जित भए, कह्यो मैं कौन यह काम कीनो । इंद्रिजित हौं कहावत हुतो आपु कौं, समुझि मन माहिं ह्वै रह्यो खीनो । चतुरभुज रूप धरि आइ दरसन दियौ कह्यौ शिव सोच दीजै बिहाई । —सूर॰, ७ । २० ।