देवनागरी

विक्षनरी से

हिन्दी

नामोत्पत्ति

संस्कृत के 'देवनगरी' से, जो देव+नगर के संयोजन से बना है जिसका भावार्थ है "देवों की भाषा"।

विशेषण

  1. देवनागरी लिपि का या देवनागरी वर्णमाला का।

नामवाचक संज्ञा

  1. एक अबूगिदा लिपि जिसमें बहुत सी दक्षिण एशियाई भाषाएं लिखी जाती हैं, जैसे नेपाली, संस्कृत, मराठी, हिन्दी, भोजपुरी, कश्मीरी, सिन्धी, कोंकणी इत्यादि।

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

देवनागरी संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] भारतवर्ष की प्रधान लिपि जिसमें संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि देशभाषाएँ लिखी जाती हैं । विशेष—'नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है । कुछ लोग इसका केवल 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहत' ऐसा अर्थ करके पीछा छुड़ाते हैं । बहुत लोगों का यह मत है कि गुज- रात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम मड़ा । गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खंड़ का प्रमाण देते हैं । नागर खंड़ में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाना लिखा है । उसमें यह भी वर्णित है कि एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर' । गुजरात के नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनंदपुर) को ही 'नगर' और अपना स्थान बतलाते हैं । अतः नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मान लेने पर भी यही मानना पड़ता है कि ये अक्षर गुजरात में वहीं से गए जहाँ से नागर ब्राह्मण गए । गुजरात में दुसरी ओर सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं । गुजरात में सबसे पुराना प्रामाणिक लेख, जिसमें नागरी अक्षर भी हैं, मुर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ ( ई॰ स॰ ७०६) का ताम्रपत्र हैं । यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर ( स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरीय भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती जुलती है । एक बात और भी है । गुजरा त में जितने दानपत्र उत्तरीय भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं । राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यबह्वत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई । यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई । 'नागरी लिपि' का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता । इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में वह ब्राह्मी ही कहलाती थी, उसका कोई अलग नाम नहीं था । यदि 'नगर' या 'नागर' ब्राह्मणों से 'नागरी' का संबंध मान लिया जाय तो आधिक से अधिक यही कहना पड़ेगा कि यह नाम गुजरात में जाकर पड़ गया और कुछ दिनों तक उधर ही प्रसिद्ध रहा । बोद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में जो उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं । 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई॰ स॰ ३०८ में हुआ था । जैनों के 'पन्नवणा' सूञ और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है । उन्हीं के भगव्रतीसूञ का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि की नमैस्कार) से होता है । नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई॰ के पहले का बना है । 'नित्यासोडशिका- र्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणञयवदुद्भवी लेखो वस्य तत् । नागर लिप्या साम्प्र- दायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्) । यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' दना है । शेषकृष्ण नामक पंडित ने जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है । सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिंध नदी के पार के प्रदेशों (गाँधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है । अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं । इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध म्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंत्कि में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है । इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है । अतंर इतना ही है कि इनमें दार्घ म्वरचिह्नों का अभाव है । दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं । [ महा] वीर संवत् ८४ ( = ई॰ स॰ पूर्व ४४३) का हैं । यह स्तंभ पर खुर्दे हुए किसी बड़े लेख का खंड है । उसमें 'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है । जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है । जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा । जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है' । अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिंदी निकली है । अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई । मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है । ईसा की और नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है । किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरीं से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित होते होते बने हैं यह पंड़ित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला 'पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है । वह नकशा यहाँ अलग छापकर लगा दिया गया है जिससे नागरी लिपि का क्रमशः विकास स्पष्ट हो जायगा । इन अक्षरों का पहला रूप अशोक लिपि का है उसके उपरांत, दूसरे, तीसरे, चौथे क्रमशः पीछे के हैं जो भिन्न भिन्न प्राचीन लेखों से चुन गए हैं । मि॰ शामशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रकट किया है । उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे । ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे । उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे । इसी से इन अक्षरों का नाम ' देवनागरी' पड़ा' ।

यह भी देखें

विकिपीडिया
देवनागरी को विकिपीडिया,
एक मुक्त ज्ञानकोश में देखें।