विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अट

विक्षनरी से

अटंबर
संज्ञा पुं० [सं० अट्ट = अधिक, फा० अँबार = ढेर] अटाला । ढेर । राशि । उ०—लागि हए अंबर लौँ अखिल अटंबर पै, द्रुपद- सुना कौ अजौँ न अखूटयौ है । —रत्नाकर, भा० २, पृ० १११ ।

अट
संज्ञा स्त्री० [हिं० अटक] शर्त । कैद । प्रतिबंध । रुकावट । उ०—तुम तो हर बात में एक अट लगा देते हो ।—(शब्द०) ।

अटक (१)
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+टिक=चलना अथवा सं० आ+ टक=बंधनअथवा सं० हठ+क (प्रत्य०), प्रा० *अटक] [क्रि० अटकना, वि० अटकाऊ] १. रोक । रुकावट । अड़- चन । विघ्न । बाधा । उलझन । उ०—करि हियाव, यह सौंज लादि कै, हरि कै, पुर लै जाहि । घाट बाट कहुँ अटक होइ नहिं सब कोउ देहि निबाहि ।—सूर० (शब्द०) । २. संकोच । हिचक । उ०—तुमको जो मुझसे कहने में कोई अटक न हो तो मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ ।—ठेठ० (शब्द०) । ३. सिंध नदी पर एक छोटा नगर जहाँ प्राचीन तक्षाशिला का होना अनुमान किया जाता है । ५. अकाज । हर्ज । बड़ी आवश्यकता । क्रि० प०—पड़ना । उ०—ह्वाँ ऊधो काहे को आए कौन आए सी अटक परी ।—सूर (शब्द०) ।

अटक (२)
वि० [सं० अट] घूमनेवाला । चंक्रमणशील [को०] ।

अटकन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अटक' ।

अटकन बटकन
संज्ञा पुं० [देश०] छोटे लड़कों का एक खेल । विशेष—इसमें कई लड़के अपने दोनों हाथों की उँगलियों को जमीन पर टेककर बैठ जाते है । एक लड़का सबके पंजों पर एक एक करके उँगलि रखता हुआ यह कहता जाता है—'अटकन बटकन दही चटक्कन, अगला झूले बगला झूले, सावन मास करेला फूले, फूल फूल की बलियाँ, बाबा गए गंगा, वाए सात पिय- लियाँ, एक पियाली फूट गई, नेबुले की ठाँग टूट गई, खंडा मारूँया झुरी ।' पूरब में इसको इस प्रकार कहते हैं—'उक्का बुक्का तीन तलुक्का, लौवा लाठी चंदन काठी, चंदन लावै दूली दूला, भादों मास करेला फूला, इजइल बिजइल पान फूल पचक्का जा ।' जिस लड़के पर अंतिम शब्द पडता है वह छूटता जाता है । जो सबसे पीछे रह जाता है उसे चोर समझकर खेल खेला जाता है ।

अटकना
कि० अ० [सं० अ=नहीं+टिक=चलनाअ] १. रुकना । ठहरना । अड़ना । उ०—(क) तुम चलते चलते अटक क्यों जाते हो ?—(शब्द०) । २. फँसना । उलझना । लगा रहना । उ०—इहीं आस अटक्यों रहतु अलि गुलाब कै मूल ।— बिहारी र०, दो० ४३७ । प्रेम में फँसना । प्रीति करना । उ०—फिरत जू अटकत कटनि बिनु, रसिक सुरस न खियाल । अनत अनत नित नित हितनु, चित सकुचत कत लाल ।—बिहारी र०, दो० ५२८ ।४. विवाद करना । झगड़ना । उलझना । उ०—जब गजराज ग्राह सौं अटक्यौं, बली बहुत दुख पायो । नाम लेत ताही छिन हरि जुगरुड़हिं छाँडि छुड़ायौ ।—सूर०, १ । ३२ ।

अटकर †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अटकल' । उ०—(क) जैसें तैसें ब्रज पहिचानत । अटकरहीं अटकर करि आनत ।—सूर०, १०५० (राधा०) । (ख) अपनी अपनी सब कहै अटकर परै न कोई ।—सुदंर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७९० ।

अटकरना पु
क्रि० स० [हिं० 'अटकर' से नाम०] दे० 'अटकलना' । १७उ०—बार बार राधा पछितानी । निकसे श्याम सदन तैं मेरे इनि अटकरि पहिचानी ।—सूर (शब्द०) ।

अटकल
संज्ञा स्त्री० [सं० अट=घूमना+कल्=गिनना] १. अनुमान । कल्पना ।२. अंदाज । तखमीना । कूत । उ०—वह करोंड़ों रुपए के अटकल अकेले दान विषय में व्यय करना है ।—प्रेमघन० भा० २, पृ० २२८ । क्रि० प्र०—करना ।—बैठना ।—लगाना ।

अटकलना †
क्रि० स० [हिं० 'अटकल' से नाम०] अटकल लगाना । अंदाज करना । अनुमान करना ।

अटकलपच्चू (१)
संज्ञा पुं० [हिं०अटकल+देश० पच्चू=पकाना] मोटा अंदाज । कपोल कल्पना । अनुमान । जैसे—इस अटकलपच्चू से काम न चलेगा ।—(शब्द०) ।

अटकलपच्चू (२)
वि० अंदाजी । खयाली । ऊटपटाँग; जैसे—ये अटकलपच्चू बातें रहने दीजिए ।—(शब्द०) ।

अटकलपच्चू (२)
क्रि० वि० अंदाज से । अनुमान से । जैसे,—रास्ता नहीं देखा है, अटकलपच्चू चल रहे हैं ।—(शब्द०) ।

अटकलबाज
वि० [हिं० अटकल+फा० बाज (प्रत्य०)] अंदाज लगानेवाला । निराधार बात करने में निपुण ।

अटकलबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अटकल+बाजी] अंदाज लगाना । कल्पना करना ।

अटका (१)
संज्ञा पुं० [सं० अट=खाना; उड़ि० आटिका] जगन्नाथ जी को चढ़ाया हुआ भात जो दूर देशों में भी सुखाकर प्रसाद की भाँति भेजा जाता है । जगन्नाथ जी के भोग के निमित दिया हुआ धन । उ०—अटका द्विशत रुपैया केरो । तुमहिं चढ़ैहौं अस प्राण मेरो ।—रामरसिक०, पृ० ८५४ ।

अटका † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अटक] दे० 'अटक' ।

अटकाना
क्रि० स० [ हिं० अटकना' का प्रे० रूप] [ संज्ञा अटकाव ] १. रोकना । ठहराना । अड़ना । लगाना । उ०—गए तबहिं तैँ फेरि न आए । सूर स्याम वै गहि अटकाए ।—सूर०, १० । २२७८ । २. फँसाना । उलझाना । उ०—तबहिं साम्य इक बुद्धि उपाई । जुवती गईं घरनि सब अपनै गृह कारज जननी अटकाई ।—सूर०, १० । ३८३ । ३. डाल रखना । पूरा करने में बिलंब करना । जैसे,—उस काम को अटका मत रखना ।— (शब्द०) ।

अटकाव
संज्ञा पुं० [ हिं० अटक+आव (प्रत्य०)] १. रोक । रुकावट । प्रतिबंध । अड़चन । बाधा । विघ्न । उ०—था समर्पण में ग्रहण का एक सुनिहित भाव; थी प्रगति, पर अड़ा रहता था सतत अटकाव ।—कामायनी, प० ८१ । २. मासिक धर्म । उ०—ता पाछे कछूक दिन में सास को अटकाव भयो ।— दो सौ बावन०, पृ० २९८ ।

अटखट पु
वि० [ अनुध्व० ] अट्टसट्ट । अंडबंड । टूटा फूटा । उ०— बाँस पुरान साज सब अटखट सरल तिकोन खटोला रे ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५५३ ।

अटखेली
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ] दे० 'अठखेली' ।

अटट पु †
वि० [ हिं० अटूट] निपट । नितांत ।

अटन
संज्ञा पुं० [सं०] घूमना । चलना फिरना । डोलना । यात्रा । भ्रमण । उ.—चले राम बन अटन पयादे ।—मानस, २ । ३१० ।

अटना पु (१)
क्रि० अ० [सं०अट्=चलना अथवा अटन] १. घूमना । चलना । फिरना । उ.—जीव जलथल जिसे वेष धरि धरि तिते अटत दुरगम अचल भारे ।—सूर०, १ । १२० । २. यात्रा करना । सफर करना । उ.—जोग जाग जप बिराग तप सुतीरथ अटत ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२० । ३. पूरा पड़ना । काफी होना । अँटना ।

अटना (२)
क्रि० अ० [सं०उट=घास फूस अथवा हिं०ओट] । पड़ना । आड़ करना । ओट करना । छेकना । उ.—(क) फाटौ जो घूँघट ओट अटै, सोइ दीठि फुरौं अधिकौ जु धँसाई ।—केशव (शब्द०) । (ख) नेकु अटे पट फूटन आँखि सु देखत हैं कबको ब्रज सोनो ।—केशव (शब्द०) ।

अटनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'अटन' । २. दे. 'अटनी' ।

अटनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनुष के सिरे का वह भाग या खाँचा जहाँ प्रत्यंचा या डोरी बाँधी जाती है [को०] ।

अटनी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०अटन=घूमना] अटन की क्रिया कलाबाजी । उ.—जैसे बरत बाँस चढ़ि नटनी । बारंबार करे नहाँ अटनी ।—सुदंर० ग्रं०, भा० १, पृ० ९८ ।

अटपट
वि० [सं०अट=चलना+पत्=गिरना अथवा अनुध्व] [स्त्री० अटपटी । क्रि० अटपटाना] १. टेढ़ा । विकट । कठिन । मुश्किल । दुरुस्त । २. गूढ़ । जटिल । गहरा । अनोखा । उ.—सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे ।—तुलसी (शब्द०) । ३. ऊटपटाँग । अंड बंड । उलटा सीधा । बैठिकाने । उ.—अटपट आसन बैठि कै, गोथन कर लीन्हौं । धार अनत ही के देखि कै ब्रजपति हँसि दीन्हौं ।—सूर० १० । ४० ९ । ४. गिरता पड़ता । लड़खड़ाता । उ.—वाही की चित चटपटी धरत अटपटे पाई ।—बिहारी र., दो० ३३ ।

अटपटा †
वि० [हिं०] दे. 'अटपट' ।

अटपटाना
क्रि० अ० [हिं० अटपट से नाम०] १. अटकना । अंडबंड होना । लड़खड़ाना । घबड़ाना । उ.—आलस हैं भरे नैन, बैन अटपटात जात, ऐड़ात जम्हात गात अंग मोरि बहियाँ झेलि ।—सूर (शब्द०) । २. हिचकना । संकोच करना । आगा पीछा करना । जैसे—आप कहने में अटपटाते क्यों हैं ?—(शब्द०) ।

अटपटी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०अटपट+ई (प्रत्य०)] नटखटी । अनरीति । उ.—सूधै दान न काहे लेत । ओर अटपटी छाँड़ि नंदसुत रहहु कँपावत बेत ।—सूर०, १० । १४६८ ।

अटपटी (२)
वि. [हिं. अटपट] बेढंगी । उलटी सीधी । उ.—मधुकर छाँडि़ अटपटी बाते ।—सूर०,१० ।३५४७ ।

अटब्बर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० आडम्बर] आडंबर । दर्प । उ.—बाँधत पाग अटब्बर की ।—श्रीपति (शब्द०) ।

अटब्बर पु (२)
संज्ञा पुं० [पं० टब्बर=परिवार] खानदान । परिवार । कुटुंब । उ.—बब्बर के बंश के अटब्बर के रच्छक हैं तच्छक अलच्छन सुलच्छन के स्वच्छ घर ।—सूदन (शब्द०) ।

अटम
संज्ञा पुं० [सं० अट्ठ] ढेर । अंबार ।

अटरनी
संज्ञा पुं० [अं० एटर्नी] १. एक प्रकार का मुख्तार जो कलकत्ता और बंबई हाइकोर्टों में मुअक्किलों से मुकदमे लेकर उन्हें ठीक करना है और उनकी पैरवी के लिये बैरिस्टर नियुक्त करता है । २. उच्च न्यायालयों में सरकारी मुकदमों की पैरवी करनेवाला वकील ।

अटरिया † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०अटारी+इया (प्रत्य०)] दे. 'अटरी' । उ.—पिया ऊँची रे अटरिया तोरी देखन चली ।—कबीर श०, पृ० ५५ ।

अटरुष
संज्ञा पुं० [सं०] अड़ूसा नास का क्षपष वासक [को०] ।

अटरूष
संज्ञा पुं० [सं०] दे. 'अटरूष' [को०] ।

अटरूषक
संज्ञा पुं० [सं०] दे. 'अटरूष' [को०] ।

अटल
वि० [सं०] १. जो न टले । जो न डिगे । स्थिर । निश्चल । उ.—तुलसीस पवन नंदन अटल क्रुद्ध युद्ध कौतुक करै ।— तुलसी (शब्द.) । २. जो न मिटे । जो सदा बना रहे । नित्य । चिरस्यायी । उ.—करि किरपा दीन्हे करुनानिधि अटल भक्ति, थिर राज ।—सूर (शब्द०) । ३. जो अवश्य हो । जिसका होना निश्चित हो । अवश्यभआव । जैसे—यह बात अटल है, अवश्य होगी ।—(शब्द०) । ४. ध्रुव । पक्का । जैसे—उसका इस बात में अटल विश्वास है ।—(शब्द०) ।

अटलस
संज्ञा पुं० [अ० ऐटलस] वह पुस्तक जिसमें पृथ्वी के भिन्न भिन्न भआगों के मानचित्र हों ।

अटवाटी खटवाटी
संज्ञा [अनुध्व+हिं खाट+पाटी] खाट खटोला । बोरिया बँधना । साज सामान । मुहा.— अटवाटी खटवाटी लेकर पड़ना या लेना=खिन्न और उदासीन होकर अलग पड़े रहना । रूठकर अलग बैठना ।

अटवि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे. 'अटवी' [को०] ।

अटविक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली । आटविक [को०] ।

अटवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगल । बन । उ.—अटवी हिल डोलने लगी, सरसी सौरभ घोलने लगी ।—साकेत, पृ० ३४८ । २. लंबा चौड़ा साफ मैदान ।

अटवीबल
संज्ञा पुं० [सं०] बनावासियों की सेना ।

अटसट पु †
वि० [अनु०] दे० 'अट्टमट्ट' ।

अटहर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०अट्ट=ऊंचा ढेर, अटाला] १. अटाला । ढेर । २. फेंटा । लपेट । पगड़ी । उ.—आप चढ़ी शीशा मोहिँ दीन्ही बकसीस औ हजार शीशा बारे की लगाई अटहर है ।— (शब्द.) ।

अटहर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० अटक] कठिनाई । अड़चन अटकाव । दिक्कत ।

अटा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अट्टा] घर के ऊपर की कोठरी या छत । अटारी । कोठा । उ.—छिनकु चलति, ठठुकति छिनकु, भुज प्रीतम गल डारि । चढ़ी अटा देखति घटा बिज्जु छटा सी नारि ।—बिहारी र० दो० ३८४ ।

अटा (२)
संज्ञा पुं० [सं० अट्ट=अतिशय] अटाला । ढेर । राशि । समूह । उ.—एरी । बलबीर के अहीरन के भीरन में सिमिटि समीरन अबीर को अटा भयो ।—पद्माकर (शब्द०) ।

अटा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ्रमणशीलता (संन्यासियों की भाँति) । भ्रमण की क्रिया । घूमना [को०] ।

अटाउ पु०
संज्ञा पुं०[सं अट्ट=अतिकमण करना+ हि० आउ (प्रत्य०)] १. बिगाड़ । बुराइ । २. नटखटी । शरारत । उ०— आप ही अटाउ कै ये लेत नाम मेरो, वे तो बाहपुरे मिलाप के सँताप कर दाने हैं (शब्द०) ।

अटागर
संज्ञा पुं० [सं० अट्ट+आरार] समुह । अटाल । ढेर । उ०— हुऔ साँमेलै जुहार । पान अटोगर काथ श्री कार ।—बीसल०, पृ १८ ।

अटाटूट
वि० [सं० अट्ट= ढेर+हि०अटूट अथवा सं० अट्ट+हिं० अटूट] नितांत । बिल्कुलष ।

अटाना (१)
क्रि० स० [हि० अटक=रोक, बाधा] रोक या बाधा आ पड़ना । उ०— आगे आइ सिंधु नियराना । पार जाइ कह गाढ़ अटाना ।— इंद्रा०,२९ ।

अटाना (२)
क्रि० स०[हिं० अटना का प्र० रूप] किसी वस्तु को किसी वस्तु में समा देना । रखनाअँटा देना ।

अटारी
संज्ञा स्त्री०[सं० अट्टालिका] कोठा । दीवारों पर छत पाटकर बनाई हुई कोठरी । सहके ऊपर की कोठरी या छत । चौबारा । उ०—निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारी । भई सभीत लिसाचर । नारी ।— मानस ५ ।२५ ।

अटाल
संज्ञा पुं०[सं० अट्टाल] बुर्ज । धरहर (ड़िं०) ।

अटाला
संज्ञा पुं०[सं० अट्टाल] १.ढेर । कूरा । राशि । अंबार । २. समान । असबाब । सामग्री । ३. कसाइयों की बस्ती या मुहल्ल ।

अटाव
संज्ञा पुं०[सं० अट्ट+ हिं० आव(प्रत्य०)] १.बैर । वैम- नस्य । द्वेष ।२. शरारत । पाजीपन । दुष्टता । ३.अँटना समान ।पूरा पड़ने का भाव ।

अटित (१)
वि०[सं० आटा] जिसमें आटा या आटारी हो । आटारीवाला ।

अटित (२)
वि०[सं० आटन] धुमावदार । धुमा हुआ ।

अटिहार पु०
वि०[हि० + हार (प्रत्य०)] आँटनेवाला । पुरी पड़नेवाला ।उ० — आटिहार कोई पुज्जै नहीं बल अभुत आतम करयौ ।— पृ० रा०, २४०१९७ ।

अटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अड़ी] एक चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है । चहा ।

अटुट
वि० [सं०अ=नहीं+त्रुट=टुटना] १. न टुटने योग्य । आखंड़नवीय । अछेध । दुढ़ । पुष्ट । मजबूत । २य जिसका पतन नहो । अजेय । ३. अखंड । लगातर । उ०— छुटै जटाजूट सौं आटूट गंगधार धौल मौलि सुधागर कौ अधार दरसत है ।—रत्नाकर, भा० २,पृ० २१० ।

अटेरन
संज्ञा पुं०[सं०अहिण्जड़ना, प्रा०*अहण्डन*अइडरन *अटइरन* अटेरन; अथवा अट=घुमना एकत्र करना] [क्रि० अटेरना] १. सूत की अँटी बनाने का बनाने का लकड़ी का यंत्र । ओयना । विशेष—६ इंच की एक लकड़ी के दोनों सिरकों पर सूत लपेटने के लिये दो आड़ी लकड़ियाँ लगाइ जाती हैं जो दोनों ओर प्राय?तीन इंच रहती हैं । इनलकड़ियों में से नीचे का लकड़ी कुछ हड़ी और ऊपर की लकड़ी पृषठ के बल रखे हुए धनु । के आकार की होती हैं ।मुहा.— अटेरन होमा=हड्ड़ी हड्ड़ी निकलना । अत्यंत दुर्ल दोना । २. घोड़े को कावा या चककर देने का एक ढंग या तरीका । क्रि० प्र०—फेरना । ३. कुँश्ती का एक पेंच । मुहा०.— अटेरन कर देना में ड़ालकर देना=दाँव में ड़ालकर चकर देना । दाम न लेना देना ।

अटेरना
क्रि० स० [हिं० अटरिन से नाम०] १. अटेरन से सुर की आँटी बानाना ।२. मात्रा से अधिक मध या नषा पीना । जैसे,—क्या कहना है लाला जी खुब अटेरे हैं ।—(शब्द०) ।

अटोक पु०
वि०[सं०अ+तर्क, पा० तक्क=टोकना] बिना रोक टोक का । उ० —(क)अरू अटोक ड़्यीढ़ी करी, पैठत बखत तमाम ।— नतिराम(शब्द०) ।(ख) मोद भरी ननदी अटोक टोना टारै लगी ।—कबिता कौ०, २ ।१०२ ।

अटोट
वि० [हिं०] दे० 'अटुट' । उ० —चोली चारू छीट की छजिति उपमा देत अटूट ।—सूर०, परि० १,पृ० ८५ ।

अटोप पु०
संज्ञा पुं० [सं०अटोप]दे० 'आटोप' । उ०— अलोप टोप कै अटोप चाई सें धरैं—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८४ ।

अट्ट पु०
संज्ञा पुं०[सं०हट्ट=बाजार] १. हाट । बाजार । उ०—देव दंपति अट्ट देख सराहते ।—साकेत, पृ०३ ।

अट्ट (२)
संज्ञा पुं०[सं०] १. बुर्ज । उ०—अट्टों पर चढ़ चढ़कर सब ओर पथों मों बढ़कर बडज़कर— साकेत, पृ० १५२ अटारी । कोठा । ३. एक यक्ष का नाम । ४. प्राधान्य । अधिकता । अतिशयता । ५. पका हुआ चावुल । भात ।६.भोज्य पदार्थ । ७. पहरा देने का उंचा स्थान या मीनार ।८. महल । प्रसाद ।९.रेशमी वस्त्र । १०.दुर्ग में सेना के रहने का, स्थान या भाग (को०) ।

अट्ट (२)
वि० १.ऊँचा । २. शुष्क । सूखा । सूखाया हुआ ।३. उच्च स्वर से युत्क[को०] ।

अट्टक
संज्ञा पुं०[सं०] १.छत के ऊपरवाला कमरा । बँगला ।२. प्रसाद । महल[को०] ।

अट्टट्ट
वि०[सं०] १.बहुत ऊँचा । २. बहुत जोर का [को०] ।

अट्टट्ट हास
संज्ञा पुं०[सं०] बडे़ जोर की हँसी । ठठाकर हँसना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

अट्टन
संज्ञा पुं०[सं०] १. एक प्रकार का चक्र की आकृतिं का अस्त्त । २. अपमान । अवमानना । उपेक्षा । तिरस्कार [को०] ।

अट्टसट्ट
वि०[अनुध्व०] १. ऊटपटाँग । अंडबंड । जैसो— तुम तो सदा यों ही अट्टसट्ट बका करते हो ।—(शब्द०) ।२. बहुत ही साधारण या निम्न कोटि का । इधर उधर का । जैसे,— उस के ठरी में बहुत सा सामना पड़ा हैं ।—(शब्द०) ।

अट्टहसित
संज्ञा पुं०[सं०] 'अट्टहास'[को०] ।

अट्टहास
संज्ञा पुं०[सं०] ठहाका । जोर की हाँसी । खिलखिलाना उ०— अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा— मानस, ६ ।३९ । क्रि० प्र—करना —होना ।

अट्हासक (१)
संज्ञा पुं०[सं०] १. खिलखिलाकर हाँसना । ठहाका ।२. कुंद का फुल और पेड़ ।

अट्टहासक (२)
वि० जोर से हँसनेवाला । ठहाका मारकरक हँसनेवाला ।

अट्टहासी (१)
संज्ञा पुं०[सं० अटुटहासिन्] शिव [को०] ।

अट्टहासी (२)
वि० अट्टहास करनेवाला [को०] ।

अट्टहास्य
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'अट्टहास'[को०] ।

अट्टा
संज्ञा पुं०[सं अट्ट=बुर्ज] मचान ।

अट्टाट्ट हास
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'अट्टट्टहास' ।

अट्टाल
संज्ञा पुं०[सं०] १. ऊपरी मंजिल का कोठा २. बुर्ज । उच्च स्थान ।३. प्रासाद । महल [को०] ।

अट्टालक
संज्ञा पुं० [सं०] किले का बुर्ज ।

अट्टालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अटारी । कोठा ।

अट्टी
संज्ञा स्त्री० [सं० अट्ट=धूमना, बड़ाना] १. अटेरन पर लपेटा हुआ सूत या ऊन । लच्छा । पोला । किरचा । २. आटा उ०—जमंदढ्ढ दट्टी । मनौं नोन अट्टी ।—पृ० रा०, १० ।२१ ।

अट्ठ
वि० [सं० अष्ट] आठ की संख्या । ८ । उ० धन सिकार राजन करिया हनि बराहु अनि अट्ठ । पृ० रा०, २४ ।३५१ ।

अट्ठा
संज्ञा पुं० [सं०अष्टक, प्रा० अट्ठय] तास का एक पत्ता जिसपर किसी भी रंचग की आठ बूटियाँ होती हैं ।

अट्ठाइस
वि० [अप०]दे० 'अट्ठाइस' ।

अट्ठाइसवाँ
वि० [सं०अष्टाविंशतिम्, हि० अट्ठाइस] जिसका स्थान सत्ताइसवें के उपरांत हो । क्रम या गिनती में जिसका स्थान अट्ठाइसवाँ हो ।

अट्ठाइस
वि० [सं०अष्टाविंशति; पा० अट्ठावीस; प्रा० अट्ठाईस, अप० अट्ठाइस] एक संख्या । बीस और आट ।२८ ।

अट्ठानबे
वि० [सं० अष्टानवति, पा० अट्ठानवति, पा० अट्ठाणवइ] एक संख्या । नब्बे और आठ । ९८ ।

अट्ठानबेवाँ
वि० [सं० अष्टानवतितम; देश० अट्ठानबे] जिसका स्थान सत्तानबे के उपरांत हो । क्रम या संख्या जिसका स्थान अट्ठानहेवाँ हो ।

अट्ठारह
वि० [सं० अष्टादश, प्रा० अट्ठारस, अट्ठारह] दे० 'अठारह' ।

अट्ठावन
वि० [सं० अष्टपञ्चाशत्, प्रा० अट्ठावण्ण, अट्ठावन्न] एक संख्या । पचास और आठ । ५८ ।

अट्ठावनवाँ
वि० [सं० अष्टपञ्चाशतम्, देश० अट्ठावण्ण] जिसका स्थान सत्तावन के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अट्ठावनवाँ हो ।

अट्ठासिवाँ
वि० [सं० अष्टाशीति, अप०अट्ठसी़>हि० अट्ठसी़ +वाँ (प्रत्य०)] जिसका, स्थान सतद्तासिवें के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अट्ठासिवाँ हो ।

अट्ठासी
वि० [सं० अष्टाशीति, अप० अट्ठासि, अट्ठासीइ]दे० 'अठासी' ।

अट्ठे
वि० [हि० आठसे] आठगुन । जैसे, पाँच अट्ठे चालीस, सात अट्ठे छप्पन ।

अठंग पु०
संज्ञा पुं०[सं० अष्टांग] अष्टांग योगी । उ० —उठत उरोजन उठाए उर ऐंठ भुज ओठन अमेठै अमेठै अंग आठ हू अठंग सी ।— देव (शब्द०) ।

अठ
वि०[सं० अष्ट, प्रा० अट्ठ] आठ । (हिदी समास ये प्रयुक्त) जैसे— अठपतियाँ, अठपहल, अठकोना आदि ।

अठएँ
वि०[हिं०]दे० 'आठवाँ' । उ०—अठएँ आठ अष्ट कँवल में, उरध लिरखै सोई । —धरम०, पृ७७ ।

अठइसी
संज्ञा स्त्री० [हि०अट्ठाइस] २८ गाहियों अर्थात् १४० फलों की संख्या जिस फलों लेनेदेने में सैकड़ा मानते है ।

अठई पु० †
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टमी] अष्टमी तिथि । उ० —सतमी पूनिउँ वा सब आछी । अठई अमावस ईसन लाछी ।— जायसी (शब्द०) ।

अठकठ पु०
वि० [हिं०]दे० 'अठखट' । उ०—अठक ठ साज बरनि नहि जाई । संगी इक एक सोहाई ।—भीखा श०, पृ० ७४ ।

अठकपाली
वि० [सं०अष्ट+कपाल] अठगुनी बुद्धिवाल । चतुर । धूर्त । चालाक । उ०— बड़े बड़े अठकपाली हमारे सामने अपना अठकपालीपिन भूल गए । —चुभते चौ०(भू०), पृ २ ।

अठकरी
संज्ञा स्त्री० [हि०]दे० 'अठवाली'२ ।

अठकोन
वि० [हि०]दे० 'अष्टकोण'२ । उ०— अंकुस अरध रेख अब्ज अठकोन अमलतर ।—भारतेंदु ग्रं०,भा० ३, पृ० ६६० ।

अठकौशल
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'अठकौसल' ।

अठकौसल
संज्ञा पुं० [हिं० आठ+कौसिल] १. गोष्ठी । पंचायत । २. सलाह । मंत्रणा । उ०— हेरन फिरत वारि बृच्छ कहलाने सबै होति अठकौसल कुरंगी औ अलाका मैं ।— रत्नाकर, भा० २. पृ ११८ । क्रि० प्र०— करना । —होना ।

अठखेलपन
संज्ञा पुं० [सं० अष्टक्रिड़ा, या* अष्टखेल,प्रा०अट्ठखेल, अट्ठखेल्ल] चंचलता । चपलता । चुलबुलापन ।

अठखेली
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टकीड़ा या *अष्टखेल, प्रा० अट्ठखेल, अट्ठखेल्ल] १ विनोद । क्रिड़ा । चपलता । कल्लोल । चंचलता । चुलबुलापन । २. मतवाली चाल । मस्तानी चाल । क्रि० प्र०—करन । मुहा.—अठखेलियाँ सूझना=चुलबुलीपन करना । उ० — तुझे अठखेलियँ सूझी हैं हम बेजार बैठे हैं ।— कविता कौ०, भा०४, पृ०२६३ ।

अठताल पु०
संज्ञा पुं० [सं० अष्टताल] १.एक प्रकार का गीत । उ०—यो अठतालो गीत उचारैं, कहै मंछ प्रभु गुण इक धारैं—रघु० रू०, पृ२०६ । पिशेष—इसमें आठ चरण होते हैं ।प्रथम तीन चरण चौदह मात्राओं के होते हैं और चौथा चरण दास मात्राओं का रहता है जिसके तुकांत में लघु गुरू रहता हैं । इसी प्रकार चार चरणों का दुसरा द्वाला बनाया जाता हैं । इसमें चौथे और आठवें चरण का तुकां प्रथम, द्वितीय, तृतीय, पंचम और सप्तम के साथ मिलता हैं । प्रथन द्वाले क प्रथम पद में अठारह मात्राएँ होती हैं । २. दे० 'अष्ठताल' । वाध । उ० —बाजत बैनु ह बिषान बाँसुरी डफ मृदंग अठताल ।—नंद० ग्रं०, पृ०२९६ ।

अठत्तर
वि०[हि०]दे० 'अठहत्तर' ।

अठन्नी
संज्ञा स्त्री० [हि०अठ+अन्नी=आनावाली] १.सन् १९५९ तक भारत में प्रचलित आठ आने के मूल्य का सिक्का ।२. पचास पैसे का सिक्का ।

अठपतिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टपत्रिका, पा० अठ्टपत्तिका, प्रा० अट्ठपत्तिया, अठपत्तिया] एक प्रकार की पत्थर की नक्काशी जिसमें आठ गलों के बनाए जाते हैं ।

अठपहरा पु०
वि० [सं० अष्टप्रहर] रात दिन का । आठो पहर का । लगातार । उ०— सबर तखत पर बैठ तूर अठपहर बाजै पलट्ट०, पृ० ७५ ।

अठपहला
वि० [सं० अष्टपटल, प्रा० अष्टपहल अथवा सं० अष्ट+फा० पहल] आठ कोनेवाला । जिसमें आठ पार्श्व हों ।

अठपाव पु०
संज्ञा पुं० [सं०अष्टपाद, पा० अट्ठपाद; प्रा० अट्ठपाव] उपद्रव । ऊधम । शरारत । उ०— भूषन क्यों अफजल्ल बचै अठपाव कै सिंह को पाँव उमैठो । —भूषन ग्रं०, पृ० २५३ ।

अठवन्ना
संज्ञा पुं०[सं अट=धूमना+बन्धन] वह बाँस जिसपर जुलाहगे करघे की लंबाई से बढ़ा हुआ ताने का सूत लपेट रखते हैं और ज्यों ज्यों बुनते जाते हैं, उसपर से सूत खींचते जाते हैं ।

अठमासा
संज्ञा पुं० [सं० अष्टमासिक, प्रा० अट्ठ+मासअ] १. वह खेत जो आषाढ़े से माघ तक समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख बोई जाय । अठवाँसा । २. गर्भ के आठवें मास में होनेवाला सीमंत संस्कार ।३. आठ मास पर होनेवाला प्रसव ।

अठमास (२)
वि० दे० 'अठवाँसा' ।

अठमासी
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टमास] आठ मासे का सोने का सिक्का । सावरेन । गिनी ।

अठयौ पु०
बि० [हिं०]दे० 'आठवाँ' । उ० — अठयौ गर्भ सु तेरौ हंता ।— नंद० ग्रं०, पृ० २२१ ।

अठलाना पु
क्रि० अ० [हि,० ऐठ+लाना] १. ऐंठ दिखाना । इतराना । गर्व जताना । ठसक दिखाना । उ०— काहे को अठि- लात कान्ह, छाँड़ौ लरिकाई । —सूर (शब्द०) ।२. चोचला करना । नखरा करना । उ०— जैये चले अठिलैये उतैइत कान्ह ।खरी वृषभानुकमारि हैं ।—संभ (शब्द०) ।३. मदे- न्मत्त होना । मस्ती दिखाना । उ०— देखौ जौय और काहू को हरि पै सबै हरित मँडरानी । सूरदास प्रभु मेरी नान्हो तुम तरूणी डोलति अठिलानी ।— सूर (शब्द०) ।४. छेड़ने के लिये जान बुझकर अनजान बनना ।

अठवना पु०
क्रि० अ० [सं० आस्थापन, पा० ठान=ठहराव अथवा सं० आस्थान] जमना । ठनना । उ० — मैं आवत या थान दुग्ग की होय तयारी । करो मोरचा सबै तोपखानो सब जारी । सब जारी करि देहु सत्रु आवत है अठयो । सिंह बहादुर पास साँड़िया को लिख पठयो ।—सुदन (शब्द०)

अठवाँस (१)
संज्ञा पुं०[सं० अष्टपार्श्व] अठपहली वस्तु । अठपहले पत्थर का टुकड़ा ।

अठवाँस (२)
वि० अठपहला । अठकोना ।

अठवाँसा (१)
वि० [सं० अष्टमास, पा० अट्ठमास] वह गर्भ जो आठ ही महीने में उत्पन्न हो जाय ।

अठवाँसा (२)
संज्ञा पुं०१. सीमंत संस्कार ।२.वह खेत जो आषाड़ से माघ तक समय समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख बोई जाय । अठमास ।

अठवारा
संज्ञा पुं० [सं० अष्ट, प्रा०अट्ठ >अठ+सं वार] १. आठ दिन का समय ।पक्ष का आधा भाग सप्ताह । हफ्ता ।२. अनिश्चित दिनों तक । — नहिँ धन अठवारन लौं वैसी झरी लगावै ।—प्रेमधन, पृ०५५१ ।

अठवारी
संज्ञा पुं०[सं० अष्ट, प्रा० अट्ठ, अठ+सं० वार+हिं० ई (प्रत्य०)] वह रीनि जिसके अनुसार असामी जोताई के समय प्रति आठव् दिन आपना हल बैल जमीदार का खेत जोतने के लियै देता हैं ।

अठवाली
संज्ञा स्त्री० [हि० अठ+वाली] १. वह लकड़ी का टुकड़ा जो किसी भारी चीज में बाँधा जाता है और जिसमें सेंगर लगाकर पेशराज लोग उस भारी चीज को उठाते हैं । २. वहपालकी जिसे आठ कहार उठाते हैं । अठकरी ।

अठसठ
वि० [हिं०] दे० 'अठसठ' । उ० — अड़सठ तीरथ सध के बरनन कोट गाया और कासी ।— कबीर रा०, पृ७८ ।

अठसिल्या पु०
संज्ञा पुं० [सं०अष्टशिला, पा० अट्ठसिला] सिंहासन । उ०— देखि सखिन हाँसि पाँव पखारे । मणिंमय अठसिल्या बैठारे ।— विश्राम (शब्द०) ।

अठहत्तर
वि० [सं०अष्टसप्तति, प्रा० अठहत्तरि] एक संख्या । सत्तर और आठ । ७८ ।

अठहत्तरवाँ
वि० [हि० अठहत्तर+वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान सतहत्तरवें के उपरोत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अठहत्तरयाँ हो ।

अठाई पु०
वि० [सं० अस्थायी अथवा सं० अ+स्थालिक] उपद्रवी । उत्पाती । शरीर । उ०— हैं हरि ऐठहु गाँठ अठाई ।— केशव(शब्द०) ।

अठान पु०
संज्ञा पुं० [सं अ=नहीं+हिं ठानना] १. न ठानने योग्य कार्य । अकरणीय कर्म ।अयोग्य या अनुचिन कर्म । उ०(क) तजतु अठान न, हठ परयो सठमति, आठौ जाम ।— बिहारी रा०, पृ० १७० ।(ख) हनुमान परोसिन हू हित की कहती तो अठान न ठानती मैं । —हनुमान (शब्द०) ।२. बैर । शत्रुता । विरोध । झगड़ा । उ०— खाँ संगै करत उमगै ठानि अठान पठान चढ़ै ।— सूदन (शब्द०) ।

अठाना पु० (१)
क्रि० स० [सं० अति=पीड़ा, प्रा० अट्टि+अट्ट से नाम.] १. सताना । पीड़ित करना । उ०— प्रजु सुन्यो अपने प्रिय प्यारे को काम महा रघुनाथ अठाए । —रघुनाथ (शब्द०) ।

अठाना पु० (२)
क्रि० स० [सं० स्थान=स्थति, ठहराव, ठानना, प्रा० ठान] मचाना । ठानना । जमाना । छेड़ना । उ० —(क) जानि जुद्ध अमनैक अठायो । तहवर खाँ इहि देस पठायो ।— लाल (शब्द०) ।(ख) घासहरै था कुँर जी रन रंग अठाया । तिस कागज के बाँचते सुरज मुसकाया ।— सूदन (शब्द०) ।

अठानी पु०
वि० [हि० अठान+ई (प्रत्य०)] अयोग्य या अनुचित कार्य करनेवाला । उ०— द्रोन के प्रबोध दुरजोधन के आयु औधि दिवस जयद्रथ अठानी के ।—रत्नाकर, भा० २पृ० १४५ ।

अठार पु०
वि० [सं० अष्टटादश, हि० अठारह, अट्ठार] अठारह की संख्या । दस और आठ । १८ ।उ०— प्रव्व अठार सवालष लष्षै, तौ भारथ गुर तत्त विसष्षै ।—पृ रा०, १ ।८७ ।

अठारह (१)
वि० [सं० अष्टादश, पा० अट्ठादास, प्रा० अट्ठारस, अट्ठारह] एक संख्या । दस और आठ । १८ । उ० —पदुम अठारह जुथप बंदर ।— मानस, ५ ।५५ ।

अठाराह (२)
संज्ञा पुं० १. काव्य में पुराण सुचक संकेत या शब्द । २.चौसर का एक दांव । पासे की एक संख्या । उ०—ढारि पासा साधु संगति केरि रसना सारि । दाँव अबके पररयो पूरो कुमति पिछली हारि । राखि सत्रह सुनि अठारह चोर पाँर्चों मान । —सूर० (शब्द०) ।

अठारहवाँ
वि० [सं० अष्टादशम, प्रा० अट्ठारसवँ, अप० अट्ठारहवँ, अठ्ठारहवाँ] जिसका स्थान सत्रहवें के उपरांत हो । क्रम या गिनती में जिसका स्थान अठारह पर हो ।

अठासिवाँ
वि० [सं० अष्टाशीति + हिं० वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान सत्तासिवें के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अठासिवाँ हो ।

अठासी
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टाशीति, प्रा० अट्टासीइ, अप० अट्ठासि] एकसंख्या । अस्सी और आठ । ८८ ।

अठिलाना पु
क्रि० अ० [हिं० ] दे० 'अठलाना' । उ०—रहिमन निज मन की व्यथा मनहीं राखौ गोय । सुनि अठिलैहं लोग सब बाँटि न लैहैं कोय । —कविता कौ० भा० १, पृ० १६५ ।

अठिल्ला
संज्ञा पुं० [सं० ] प्राकृत का एक छंद । दे० ' अरिल्ल' [को०] ।

अठेल पु
वि० [सं० अ = नहीं + हिं०ठेलना] बलवान् । मजबूत । जोरावर (ड़ि०) ।

अटेसा पु
वि० [हिं० ] दे० 'अट्ठाइस' । उ०—विनसत सबै मया बिस चारि अठसा । सो सब पलटू देखिया हम जैसे क तैसा । —पलटू०, भा० ३, पृ० ९९ ।

अठोठ पु
संज्ञा पुं० [देश०] ठाट । आडंबर । पाखंड । उ०— लाज के अठोठ कै कै, बैठती न ओट दै दै, घूँघट कै काहे को कपट पट तानती । डारि देती डर कर एचेंती न कोप करि डीठै चोरि पीठि मोरि हौं न हठ ठानती । — देव (शब्द०) ।

अठोतरसो
वि० [सं० अष्टोत्तरशत, प्रा० अट्ठुत्तरसत] आठ के ऊपर सौ । एक सौ आठ ।

अठोतरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टोत्तरी] एक सौ आठ दानों की जपमाला ।

अठोर
वि० [सं० अ = नहीं + हिं० ठोर] जिसमें धार न हो । कुंद । भौतरा । उ०—अठोर धार बनस्पति । मालनी छिन में करोडा मेघमाला पानी हरिया । —दक्खिनी०, पृ० ३० ।

अठौड़ी
संज्ञा पुं० [सं० अष्टपदी] एक प्रकार का आठ पैरोंवाला कीड़ा जो पशुओं के शरीर में लगता है ।

अठौरा
संज्ञा पुं० [सं० अष्ट, प्रा० अट्ठ०, अठ + हिं० औरा (प्रत्य०)] लगे हुए पान के आठ बीड़ों की खोंगी ।

अड़ंग पु
वि० [हिं० ] दे० 'अडिग' । उ०—तपसीरो रुप धरो अतताई अडंग कुटी गई सीत उठाई । —रघु० रु०, पृ० १३५ ।

अड़ंग पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'अड़ंगा' । उ०—धक्कों की धड़ाधड़ अड़ंग की अड़ाअड़ में ह्वै रहै कड़ाकड़ सुदंतों की कड़ाकड़ी । — पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०७ ।

अड़ँगबड़ँग †
वि० [हिं० अड़ंग + बेढंग] टेढ़ा मेढ़ा । अंडबंड । अव्यवस्थित । उ०—अड़ँग बड़ँग कर आत्मा मेटै साँची सूध ।—दरिया० बानी, पृ० ३४ ।

अड़ंगा
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ + अंग = (अंगवाला) रुकावट डालने वाला] टाँग अड़ाना । अटकाव । रुकावट । अड़चन । हस्तक्षेप । उ०—क्रुद्ध ह्वै मलेच्छनि की सुद्धि के विरुद्ध बने जाल जे कुबुद्धि तनैं उद्धत अड़ंगा कौ । —रत्नाकर, भा० २, पृ० १९५ ।

अडंड पु
वि० [सं० अड्य + दे० = न दंड देने योग्य] १. अदंडनीय । जिसको दंड न दे सकें । २. निर्भय । निर्द्वद्व ।

अडंबर पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'आडंबर' । उ०—(क) मुंडन की माल दीबो भाल पर ज्वाल कीबो छीन लीबो अंबर अडंबर जहाँ जैसो । —पद्माकर ग्रं०, पृ० २०१ । (ख) धारि कै हिमंत कै सजीले स्वच्छ अंबर कौं, आपने प्रभाव कौ अडंबर बढ़ाए लेति । —रत्नाकर, भा० २, पृ० १२८ ।

अडंमर पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'आडंबर' । उ०—धूप अडंमर धुंधरिय झलमल जल सम ढार । —पृ० रा०, १४ । ६५ ।

अड़
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं० हठ = जिद अथवा अड़ड = समाधान = अभि- योग] [क्रि० अड़ना, अडाना; वि० अड़दार, अड़ियल] हठ । टेक । जिद । अड़न । अड़ने की स्थिति ।

अडंकाना †
क्रि० स० [हिं० ] दे 'अड़ाना' ।

अडग पु
वि० [हिं० अडिग+अंग] अडिग । न डिगनेवाला । अटल । अचल । —(डिं०) । उ०—अजोध्यानाथ दशमाथ रावण अडग महा बे ओर भाराथ मातो । —रघु० रु०, पृ० २० ।

अड़गड़ा
संज्ञा पुं० [अनुध्व] १. बैलगाड़ियों और सग्गड़ों आदि के ठहरने का स्थान । २. वह जहाँ बिक्री के लिये घोड़े, बैल आदि रहते हों ।

अडगरिध पु
वि० [हिं० ] दे० 'अडगरिधू' ।

अडगरिधू पु
वि० [हिं० अडिग + पु० रिधू] स्थिर (डिं०) ।

अड़गोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ =रोक + हिं० गोड़ = पाँच] एक लकड़ी का टुकड़ा जिसे एक सिरे पर छेदकर नटखट चौपायों के गले में बाँधते हैं जो दौड़ते समय उनके अगले पैरों में लगता है जिससे वे बहुत ते़ज भाग नहीं सकते । ठंगुर । ठेकुर । डेंगना ।

अडंचन
संज्ञा पुं० [देश०] १. रुकावट । अंडस । बाधा । आपत्ति । कठिनाई । दिक्कत । उ० —आगे चलकर इस काम में बड़ी बड़ी अड़चने पड़ेंगी । —(शब्द०) ।

अडंचल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'अड़चन' । उ०—क्रोध, भय जुगुप्सा और करुणा के संबंध में साहित्यप्रेमियों को शायद कुछ अड़चल दिखाई पड़ । —रस०, पृ० २७३ ।

अडट पु
वि० [हिं० अ = नहीं + डाँट] डाँट में न रहनेवाला । न दबनेवाला । उ०—अडटनि डटत सुदंड थप्पि थिर करत अप्पवर । —पृ० रा०, ३ । ५५ ।

अड़डंडा
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ = टिकाव + डंडा] वह लकड़ी या बाँस का डंडा जिसके दोनों छोरों पर लट्टू बने रहते हैं । यह डंडा मस्तूल पर चिड़ियों के अड्डे की तरह बँधा रहता है और इसी पर पाल चढ़ाई जाती हैं ।

अड़ड़पोपो
संज्ञा पुं० [देश० ] १. सामुद्रिक विद्या जाननेवाला । हाथ देखकर जीवन की घटनाओं को बतलानेवाला । २. पाखंड़ी । धर्मध्वजी । झूठमूठ आडंबर करनेवाला । ३. वृथालापी । बकवादी । गप्पी ।

अड़तल
संज्ञा पुं० [हिं० आड़ + सं० तल] १. ओट । ओझल । आड़ २. छाया । शरण । ३. बहाना । हीला । उज्र । मुहा०—अड़तल पकड़ना या अड़तल लेना =(१) पनाह लेना । शरण में जाना । (२) बहाना करना ।

अड़तालिस
वि० [हिं० ] दे० 'अड़तालीस' ।

अड़तालिसवाँ
वि० [सं० अष्टचत्वारिंशत्, प्रा० अट्ठ= अत्तालिस < हिं० अड़तालिस + वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान सैंतालीस के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अड़तालिसवाँ हो ।

अड़तालीस
वि० [सं० अष्टचत्वारिंशत्; प्रा० अट्ठचत्तालीस, अट्ठ- तालीस] एक संख्या । चालीस और आठ । ४८ ।

अड़तीस
वि० [अष्टत्रिंशत्, प्रा० अट्ठतीस, अठतीस] एक संख्या । तीस और आठ । ३८ ।

अड़तीसवाँ
वि० [हिं० अड़तीस + वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान सैंतीसवें के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अड़तीसवाँ हो ।

अड़दार
वि० [हिं० अड़ + फा० दार (प्रत्य०)] १. अड़ियल । रुकनेवाला । उ०—अली चली नवलाहि लै पिय पै साजि सिंगार । ज्यों मतंग अड़दार को लिए जात गड़दार —मति*— राम (शब्द०) । २. ऐड़दार । मस्त । मतवाला । उ०— दाबदार निरखि रिसानौं दीह दलराय, जैसे गड़दार अडदार गजराज को । —भूषण ग्रं०, पृ० ६ ।

अड़न
संज्ञा स्त्री० [हिं० अड़ना] अड़ने का भाव या क्रिया । अड़ने की स्थिति । उ०—साधु को ऐसा चाहिए ज्यों सिसु अड़न अड़ै । —पलटू०, पृ० ५४ ।

अड़ना
क्रि० अ० [देश० अथवा सं० हठ, प्रा० ०अठ> हिं० अड़ से नाम०] १. रुकना । अटकना । ठहरना । उ०— इहिं उर माखन चोर गड़े । अब कैसे निकसत सुनि ऊधौ तिरछे ह्वै जु अड़े । —सूर, १० । ३७३१ । २. हठ करना । टेक बाँधना । ठानना । उ०— बिरहा सेती मति अड़ैं, रे मन मोर सुजान ।—कबीर (शब्द०) ।

अड़पायल
वि० [हिं० अड़ + पाँव + ल (प्रत्य०)] जोरावर । बलवान् (डिं०) ।

अड़बंग पु †
वि० पुं० [हिं० अड़ना + सं० वक्र, प्रा० बंक = टेढ़ा] १. टेढ़ा मेढ़ा । ऊँचा नीचा । अड़बड़ । अटपट । उ०— बेद कौं न मानैं ना पुरान भेद जानै कछू ठानैं ठान आपने लबेद अड़बंगा की । —रत्नाकर, भा० २, पृ० १९६ । २. विकट । कठिन । दुर्गम । जैसे रास्ता अड़बंग है । —(शब्द०) । ३. विलक्षण । अनोखा अदभुत । उ०—नहिं जागत उपाय कछु लागत कुंभकरण अड़बंगा । —रघुराज (शब्द०) ।

अड़बंद
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० आड़बंद । उ०—दया प्रेम का अड़बंद बाँधो आतम खोल लगाई । — कबीर श०, भा० ३, पृ० ४९१ ।

अड़बड़ †
वि० [हिं० अटपट अथवा अंडबंड] टेढ़ा । बिकट । कठिन । मुश्किल । दुस्तर । उ०— आगमपुरी की है सँकरी गलियाँ अड़बड़ है चढ़ना । — कबीर श०, भा० १, पृ० ६७ ।

अड़बल
वि० [हिं० ] अड़नेवाला । अड़ियल । हठी ।

अड़भंग
वि० [हिं० ] दे० 'अड़बंग' । उ०— मुल्काँ पो चड़के दुश्मन धाँतल मँचाया देखो अड़भँगे पन से पड़को मुर्दार आया देखो ।—दक्खिनी०, पृ० २९६ ।

अड़भंगी
वि० [हिं० ] १. टेढ़ा मेढ़ा । अड़बड़ । २. बिकट । कठिन । दुर्गम । ३. विलक्षण ।

अडर पु (१)
वि० [सं० अ. = नहीं + दर = भय] निडर । निर्भय । बेडर । बेखौफ । उ०—अडर भेष धरि चढ़त जो अंगा । —कबीर सा०, पृ० ३०९ ।

अडर † (२)
संज्ञा पुं० [अँ० आर्डर] राजकीय आदेश । राजाज्ञा । सरकारी आदेश ।

अड़व
संज्ञा पुं० [सं० औडव, औडव] वह राग जिसमें षडज, गांधार मध्यम, धैवत और निषाद ये पाँचों स्वर आवें ।

अड़वा
संज्ञा पुं० [सं० अडु = रोक, बाधा] मनुष्य का आकार जो जानवरों को डराने के लिये खेत में खड़ा किया जाता है । उ०—दरिया ऐसा भेष है जैसा अडवा खेत । बाहर चेतन की रहन, भीतर जड्ड अचेत । —दरिया० बानी, पृ० ३६ ।

अडवोकेट
संज्ञा पुं० [अँ० ऐडवोकेट] वह वकील जिसे वकालत— नामा दाखिल करने की जरुरत नहीं होती । निचले न्यायालयों से उच्च न्यायालय तक वादी या प्रतिवादी के पक्ष में बहस करने का कानूनी अधिकार रखनेवाला व्यक्ति । वकील । अब सब वकील ऐडवोकेट होते हैं ।

अड़सठ
वि० [सं० अष्टषष्ठि; प्रा० अठ्ठसट्ठि] एक संख्या । साठ और आठ की संख्या । ६८ ।

अड़सठवाँ
वि० [हिं० अड़सठ + वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान सड़सठवें के उपरांत हो । क्रम या संख्या में जिसका स्थान अड़सठवाँ हो ।

अड़हुल
संज्ञा पुं० [सं० ओण + फुल्ल, हिं० ओणहुल्ल] जपा वा जवा पुष्प । देवी फल । गुडहर । विशेष— इसका पेड़ ६—७ फुटतक उँचा होता है और पत्तियाँ हरसिंगार से मिलती जुलती होती हैं । फूल इसका बहुत बड़ा और खूब लाल होता है । इसके फूल में महक (गंध) नहीं होती ।

अड़ाअड़
संज्ञा पुं० [हिं० ] अड़ने की क्रिया या भाव । उ०—धक्कों की धड़ाधड़ अड़ंग की अड़ाअड़ में ह्वै रहैं कड़ाकड़ सु दंतों की कड़ाकड़ी । —पद्माकर ग्रं० पृ० ३०७ ।

अड़ाक
वि० [हिं० ] अड़नेवाला । अड़ियल । उ०—साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर, दिवान नकारो । —इतिहास, पृ० २०३ ।

अड़ाकी पु
वि० [हिं० अड़ाक] अड़नेवाला । उ०—आखेटा मजबूत अड़ाकी जीत किया खल जेर । —रघु० रू० पृ० ६३ ।

अड़ाड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० आड़] चौपायों के रहने का हाता जो प्राय? बस्ती के बाहर होता है । लकड़ियों का घेरा जिसमें रात को चौपाए हाँक दिए जाते हैं । खरिक ।

अड़ाड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० दे० 'अड़ार२'] ।

अड़ाड़ (३)
संज्ञा पुं० [अनु० ] टूटने या गिरने की आवाज । उ०— एक ऊँचा टीले का टीला अड़ाड़ करके फट पड़ा । —सैर कु०, पृ० ३८ ।

अड़ान
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ + आन (प्रत्य०)] १. रुकने की जगह । २. पड़ाव । वह स्थान जहाँ पथिक लोग विश्राम लें ।

अड़ाना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ान] खड़ी या तिरछी लकड़ी जो गिरती हुई छत, दीवार या पेड़ आदि को गिरने से बचाने के लिये लगाई जाती है ।डाट ।चाँड़ ।थूनी । ठेवा टेका ।

अड़ाना (२)
संज्ञा पुं० एक राग जो कान्हड़ा का भेद है ।

अड़ाना (३)
क्रि० स० [हि० अड़ाना] १. टिकना । ठहरना । फँसाना । उलझाना ।२. टेकना । ड़ाट लगाना । ३. कोई वस्तु बीच में देककर गति रोकना । जैसे०—पहिए में रोड़ा अड़ा दे । —(शब्द०) । ४. ठुँसना । भरना । जैसे, —इस बिल में रोड़ा अड़ा दे- (शब्द०) । ५. गिरना । ढरकाना ।

अड़ानी (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. बड़ा पंखा । उ०—बहु छत्र अड़ानी कलस धुज, रालत राजत कनक के ।—गिरिधरदास (शब्द०) ।

अड़ानी (१)
संज्ञा स्त्री [हि० अड़ाना] १. कुश्ती का एक पेंच । अड़ंगा । दूसरे की टाँग में अपनी टाँग अड़ाकर पटकने का दाँव । २. लकड़ी की रोक जो खिड़की या दरबाजे के पल्लों को रोकने के लिय़े लगाई जाती है ।

अड़ायती
वि० [हि० आड़ या अड़+आयती (प्रत्य०)] [स्त्री० अड़ायती (ब्रज०)] जो आड़ करे । ओट करनेवाला । अड़ैतो । उ०— कयों न गड़ि जाहु गाड़ गहिरी गड़ति जिन्हे गोरी गुरुजन लज निगड़ गड़ायती । ओड़ी न परति री निगोड़िन की औड़ी दीठि लागे उठि अगे अठि होत है अड़ायती ।—देव (शब्द०) ।

अड़ार (१)
वि० [सं० अराल] । १. अड़नेवाला । स्थिर रहनेवाला । उ०—जग ड़ोलै ड़ोलव । नैनाहाँ । उलटि अड़ार जाहि पल माहाँ । —जायसी ग्रं० पृ० ४२ । २. टेढ़ा । तिरछ ।

अड़ार (२)
संज्ञा पुं० [सं० अट्टाल=बुर्ज ऊँचा स्थान] १. समूह । राशी । ढेर । उ०— पम पितु अन्न अड़ार जुहायो । क्रम क्रम ते सब जनन बड़ायो । —विश्राम (शब्द०) । २. ईंधन का ढ़ेर जो बेचने के लिये रखा हो । ३. लक़ड़ी या ईंधन की दूकान । ४. गायों भैसों के रहने का घेरा या बाड़ा ।

अड़ारना पु
क्रि०सं० [हि० ड़ालना] ड़ालना । देना । उ०— पीउ सुनत धनि आपु बिसारे । चित्त लखँ तनु खाइ अड़ारे ।— जायसी (शब्द०) ।

अड़ाल
संज्ञा पुं०[सं०] नृत्य का एक भेद । चिडियों के पंख कि तरह हाथ फटफटाकर एक हि स्थान पर चक्कर काटना । मयूरनृत्य ।

अड़ाव
संज्ञा पुं० [हि० अड़] १. स्तंभ । आधार । २. ऊँचाई । उ०—राजमहलूँके अड़ाव अरस सेती अड़े ।—रधु० रु०, पृ० २३८ ।

अड़िग पु
वि० [सं० अ=नहीं +हि० ड़िगना] जो हिले ड़ुले नही । निश्चल । स्थिर ।

अड़िग्ग
वि० [हि०] दे० 'अड़िग' । उ०—धिरजवंत अड़िग्ग जितोंद्रिय निर्मल ज्ञान गाह्यो दृढ़ आदु ।—सुंदर ग्र० भा०२. पृ० ३८४ ।

अड़ियल
वि० [हि० अड़ना+ इयल (प्रत्य०)] १. रुकनेवाला । अड़ अड़कर चलनेवाला । चलते चलते रुक जानेवाला । उ०— मधुबन अड़ियल टट्टु की तरह रुक गया ।—तितली, पृ० २२९ । २. सुस्त । काम में देर लगनेवाला । मट्टर । ३. जिद्दी । हठी ।

अड़िया
संज्ञा स्त्री० [हि० अड़ना] अड़्ड़े के आकार की एक लकड़ी जिसे टेककर साधु लोग बैठते है । साधुओं की कुबड़ी या तकिया ।मुहा.—अड़िया करना—=जहाज के लंगर की रस्सी खींचना ।

अड़िल्ल
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अरिल्ल' ।

अड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० अड़ाना] १. अड़ान । जिद । हठ । आग्रह । २. रोक । क्रि० प्र०—करना=हिरन की तरह छलाँग मारना । ३. ऐसा अवसर जब कोई काम रुका हो । जरुरत का वक्त । मौका । ४. पास या चोपड़ के खेल में एक ही घर में दो गोटियों के पहुँचने पर अन्य खेलाड़ीयों की चालों का रुकना । उ०— चौरासी घर फिरै अड़ी पौ बारह नावाँ ।—पलटू० पृ० ३४ ।

अड़ी (२)
वि० अड़नेवाला । टेकी । जिद्दी ।

अड़ीखंभ पु
वि० [हि० अड़ी+संभ] जोरावर । बली ।—डि० ।

अड़िठ
वि० [सं अददृष्ट, पा० अदृष्ट प्रा, अड़िट्ठ] १. जो दिखाई न पड़े । लुप्त । २. छिपा हुआ । अंतहित । गुपचुप ।

अड़ुक
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन । मृग [को०] ।

अड़ुचल
संज्ञा पुं० [सं०] हलचल का एक भाग [को०] ।

अड़ु लना पु
क्रि० सं० [देश० अथवा हि० उँड़ेलना] ढालना । उड़ेलना । ड़ालना । गिराना । उ०—जहाँ आठ हु भाँति के कंज फुलै । मनोनीर आकास तारे अड़ुलै ।—सूदन (शब्द०) ।

अडू़सा
संज्ञा पुं० [सं० अटरूष, प्रा० अठरूस] एक ओषाधी विशेष । विशेष—इसका पेड़ ३-४ फुट तक ऊँचा होता है । इसका पत्ता हलके हरे रंग का आम के पत्ते से मिलता जुलता होता है । इसकी प्रत्येक गाँठ पर दोदो पत्ते होते है । इसके सफेद रंग के फूल जटा में गुथे हुए । निकलते है जिनमें थोड़ा सा मीठा रस होता है जो कास, शवास,क्षय आजि रोगों में दिया जाता है ।

अड़ैच †
संज्ञा स्त्री० [देश०] शत्रुता । द्बेष । मनमुटाव ।

अड़ैता पु
वि० [हि०] दे० 'अड़ायती' ।

अड़ैल पु
वि० [हि०] दे० 'अड़ियल' । उ०—ऐल परी गैल मै मतंग मतवारनि की, भीड़ अड़त अड़ैलनि तुरंग तरजत है ।— हम्मारी० पृ० २४ ।

अड़ोर
संज्ञा पुं० [सं० आन्दोल=हलचल] तुमुल शब्द० । शोर । गूल । दे० 'अंदोर' उ०—बाजन बाजे होय अड़ोरा । आवहि बहल हस्ति ओ घोरा ।—जयसी (शब्द०) ।

अड़ोल
वि [सं० अ=नहीं+ हिं० डो़लना] १. अ़टला । जो हिले नहीं । निश्चल । उ०—प्रेम अड़ोलु ड़ूलै नही, मुँह बोलं अनखाई । चित उनकी मुरति बसी, चितवन माँहि लखाई । —बिहारी । र० दो० ६३१ ।२. स्तब्ध । ठकमारा । उ०— त्यों पदमाकर खोलि रही दृग बोलै न बोल अड़ोल दशा है ।—पदमाकर ग्रं०, पृ० १५१ । ३. स्थिर । ध्रुव । उ०— मुख बोल कहत अड़ोल है गज बाजि देत अमोल है ।—पदमाकर ग्रं० पृ० ६ ।

अड़ोस पड़ोस
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिवेत (=पड़ोस) से बि० द्बि० मु०] आसपास करीब ।

अड़ोसी पड़ीसी
संज्ञा पुं० [हि० अड़ोस पड़ोस] आसपास का रहनेवाला । हमसाया ।

अड़ड़ पु
वि० [देश० अड़ड=आड़े आनेवाला] बाधा रोक । आड़ । उ०—काल पहुँच्यों सीस पर नाहिन कोऊ अड़ड़ ।— भिखारी ग्रं० भा० १. पृ० २३३ ।

अड़्ड़न
संज्ञा पुं० [सं० अड़डनम्] ढ़ाल । एक प्रकार का शस्त्र । अट्टन [को०] ।

अड्ड़ा
संज्ञा पुं० [सं० अट्टाल=ऊँची जगह] १. टिकने की जगह । ठहरने का स्थान । २. मिलने या इकट्टा होने की जगह । ३. बदमाशों के मिलने या बैठने की जगह । ४. वह स्थान जहाँ सवारी या पालकी उठानेवाले कहार भाड़े पर मिलें । ५. रंड़ियों के इकट्ठा होने का स्थान या कुटनियों का ड़ेरा जहाँ व्यभि- चारिणी स्त्रियाँ इकट्ठी होती है । ६. कैंद्र । प्रधान स्थान । जैसे—वही तो इन सब बुराइयों का अड्ड़ा है (शब्द०) । ७. लकड़ी या लाहे की छड जो चिड़ियों के बैठने के लिये पिजड़े के भीतर आड़ी लगाई जाती है । ८. बुलबुल, तोता आदि चिड़ियों के बैठेने के लिये लोहे की एक छड़ जिसका एक सिरा जमीन में गड़ने के लिये नुकीला होता है और दूसरे सिरे पर एक छोटी आड़ी छड़ लगी रहती है । ९. पचास आठ तह के कपड़े का गद्दा जिसको छीपी चोकी पर बिछाकर उसी के ऊपर कपड़ा रखकर छापते है । १०. चाँखूटा लकड़ी का ढ़ाँचा जिसपर इजारबंद वगैरह बुने जाते है ओर कारचोबी का काम भी होता है । चाँकठा । ११. चार हाथ लंबी, चार अंगुल चोडी ओर चार अंगुल मोटी लकड़ी जिसके किनारे पर बहुत सी खूँटियाँ, जिनपर बादले का ताना ताना जाता है लगी रहती है । १२. ऊँचे बाँस पर बंधी हुई एक टट्टी जि कबुतरों के बैठने के लिये होती है । कबुतरों की छतरी । १३. एक लंबा बाँस जो दो बाँसों को गाड़कर उनके सिरों पर आड़ा बाँध दिया जाता है । १४. लाहे या काठ की एक पटरी जो बीचीबीच लगी हुई एक लकड़ी के सहारे पर खड़ी की जाती है । इसी पर रुखानी को टिकाकर खरादनेवाले खरादते है । १५. खँड़साल में काम आनेवालो बाँस की टट्टी । १६. एक लकड़ी जो रँहट में इसी अभिप्राय से लगाई जाती है कि वह उलटा न घुम सके । १७. जुलाई का करघा । उन लकड़ियों का समुह जिनपर जुलाई सुत चढ़ाकर कपड़ा बुनते है । १८. एक लकड़ी जिसपर नेवार बुनकर लपेटी जाती है ।

अड्ड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० अड़्ड़ा] १. एक बरमा जिससे गड़गड़ा आदि लंबी चीजों मे छेज करते है । २. जूते का किनारा ।

अड्रेस
संज्ञा पुं० [अं० एड़्रेस] १. अभिनंदनपत्र । वह लेख या प्रार्थना- पत्र जो किसी महापुरुष के आगमन के समय़ उसे संबोघन करके सुनाया जाय । २. पता । ठीकना । ३. भाषण । बक्तृता ।

अढ़उल
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अड़हुल' ।

अढ़तिया
संज्ञा पुं० [हि० आढ़त+इया (पत्य०)] १. वह दुकानदार जो ग्राहकों या दूसरे महाजनों को माल खरीदकर भेजता है ओर उनका माल मँगाकर बैचता है । इसके बदले में वह कुछ कमीशन या आढ़त पाता है । आढ़त करनेवाला । आढ़त का व्यवसाय करनेवाला । २. दलाल । एजेंट ।

अढ़न पु
संज्ञा पुं० [देश०] धाक । मर्यादा । उ०— — चारिउ बरन चारि आश्रम हुँ मानत श्रुति की अढन—देवस्वामि (शब्द०) ।

अढ़र पु
वि० [सं० अ=नहीं+ हि० ढरना] न ढलनेवाला । उ०— अढर ढुरहि गढ़ रुरहि मेर षरभर सुपरहि भर ।—पृ० रा०, ५५ ।८ ।

अढ़वना पु
क्रि० स० [सं० आ+ √ ज्ञा =बोध कराना, आज्ञापन; प्रा० आणपनं] आज्ञा देना । कार्य में नियुक्त कतना । काम में लगाना । उ०— कैसे बरजों करन को समरनीति की बात । आति साहस के काम को अढ़पत हियो सकात । —उत्तर- चरित (शब्द०) ।

अढ़वायक पु
संज्ञा पुं० [हि० अढ़वना] वह जो दूसरों की काम में लगाता हो । दूसरों से काम लेनेवाला । उ०— पहिलेई रचे चारि अढ़वायक । भए सब अढ़वैयन के नायक । —जायसी ग्रं० पृ० ३०६ ।

अढ़वैया पु
संज्ञा पुं० [हि० अढ+वा +ऐसा (प्रत्य०)] दे० 'अढ़वायक' । उ०—भे सब अड़वैयन के नायक ।—जायसी ग्रं० पृ० ३०६ ।

अढ़ाई
वि० [सं० अर्धतूतीय; प्रा० अड़ढाइय] दो ओर आधा । ढाई । उ०— मुनि कह उचित कहत रधुगई । गएउ बीति दिन पहर अढ़ाई ।—मानस, २ । २७७ ।

अढ़ार पु †
वि० [सं० अ०=नहीं +हि० ढरना=ढलना] १. किसी की और न ढलने या अनुस्कत होनेवाला । २. कठोर । निमोंही निर्दय ।

अढ़ारटंकी पु
संज्ञा पुं० [?] धनुष (ड़ि०) ।

आढ़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० आधानिका, प्रा० आढाइया>अढ़इया] १. काठ, पत्थर आदि का बना हुआ छोटा बरतन । २. काठया लोहे का पात्र जिसमें मजदूरों के लड़के गारा या कपसा उठाकर ले जाते है ।

अढ़ी पु
वि० [प्रा० अड़ढाई] ढाई । दो ओर आधे की संख्या । उ०—तिन झुझत निरभै गयो अढी़ कोस चहुआन—पृ० रा०, ६१ ।२२१६ ।

अढ़ुक
संज्ञा पुं० [देश०] ठोकर । चोट । उ०—फोरहि सिल लोढ़ा सदन लगे अढ़ुक पहार । कायर कूर कपूत कली घर घर सहस ड़हार ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १५१ ।

अढ़ुकना
क्रि० अ० [सं० आ=अच्छी तरह+=टक्=बंधन या रोक अथवा हि० अढुक से नाम०] १. ठोकर खाना । उ०—अढुकि परहि फिरि हेरहि पीछे । राम बिय़ोग बिकल दुख तीछे ।—मानस, २ ।१४३ । २. सहारा लेना । टेकना ।

अढैया (१)
संज्ञा पुं० [हि० अढाई,ढाई] १. एक तोल जो ढाई सेर की होती है । पंसेरी का आधा २.ढाई गुने का पहाडा़ ।

अढैया (२)
संज्ञा पुं० [हि० अढवना] काम करानेवाला । अढ़वैया ।

अढ़ौना
संज्ञा पुं० [हि० अढ़वाना] करने के लिये कहा गया या दिया हुआ काम । उ०— छोटा या अढौता भी करेगी तो भनुभुना कर । —गोदान, पृ० ३० ।

अणक (१) पु
वि० [सं०] कुत्सित । निंदित । अधम । नीच (ड़ि०) ।

अणक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार काप क्षी [को०] ।

अणकरता †
वि० [सं० अन्; प्रा० अण+हि० करता] अकर्ता । निष्त्तिय । न करनेवाला । उ०—करता है सो करेगा दादू साखी भूत । कोतिगहारा ह्यै रह्या अणकरता ओधूत ।—दादू०, पृ० ४५७ ।

अणकीय
वि० [सं०] कुत्सित, निदित, नगण्य, अधम आदि से संबिधित [को०] ।

अणद पु
संज्ञा पुं० [सं० आनन्द] आनंद । उल्लास । चित्त की प्रसन्नता (ड़ि०) ।

अणमण पु
वि० [अन्यमनस्, प्रा० अण्ण+मण] १० अप्रसन्न । दु?खित । नाराज । २. बीमार । रोगी (डि०) ।

अणरता पु
वि० [प्रा० अण+रत्त] जो अनुरक्त न हो । अना- सक्त । उ०— अणरता सुख सोबणां रातै नींद न आइ ।— कबीर ग्रं० पृ० ५१ ।

अणरस पु
वि० [प्रा० अण+रस] दे० 'अनरस१' । उ०— रस कौ अणरस अणरस को रस मीठा खारा होइ । —दादू०, पृ० ५५४ ।

अणव्य
संज्ञा पुं० [सं०] चीना, साँवाँ आदि धान्य उगाने का क्षेत्र [को०] ।

अणसंक पु
वि० [सं० अन्= नहीं+शंका=ड़र, प्रा, अण+ संक] जो ड़रे नहीं । निर्भय । नि?शंक । निड़र (ड़ि०) ।

अणास पु
संज्ञा पुं० [हि० अंड़स] अंड़स । कठिनाई (डि०) ।

अणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोर । नोक । मुनई । २. धार । बाढ़ । ३. वह कील जिसे धुरे के दोनों छोरं पर चक्के की नाभि में इसालिये ठोकते है जिसमें चक्का धुरी के छोरों पर से बाहर न निवल जाय । धुरकीली । धुरी की कील । ४. सीमा । हद । सिवान । मेंड़ । ५. किनारा । ६. अत्यंत छोटा । ७. गाड़ी के बम के अगले सिरे पर लगी कीली या बाल्टु ।

अणिमांडव्य
संज्ञा पुं०[सं०अणिमांडव्य] एक ऋषि नाम जो एक कील या नोकाली डंडा चुभाए रहते थे जिसके कारण उनका यह नाम लोक मे प्रसिद्ध हुआ[को०] ।

अणिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अष्ठ सिद्धियों में पहली सिद्धि । विशेष—इस सिद्धि के द्बारा योगी अणुवत् सूक्ष्म रुप धारण कर लेते है ओर किसी को दिखाई नहीँ पड़ते । इसी सीद्धि के द्बारा योगी तथा देवता लोग अगोचर रहते है ओर समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते तथा कठिन से कठिन अभेद्य पदार्थ में प्रवेश कर जाते है । २. सूक्ष्मता । ३. अणुता या अणु का भाव ।

अणिमादिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] अष्ठसिद्बियां ।—प्रर्थात् १. अणिमा, २. माहिमा, ३. लघिमा, ४. गरिमा,०५, प्राप्ति, ६. प्राकाम्य 7. ईशित्व ओर ८. वशित्व ।

अणियाली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अणि=धार+हि, ०याली=वाली (प्रत्य०) । कटारो (ड़ि०) ।

अणी (१)
पु—संबो० [देश०] अरी अनी । एरी । हेरी । उ०— ड़ोलती ड़रानी खतरानी बतरानी बेबे, कुंड़ियन पेखो अणी माँ गारुन पाव हाँ ।—सूदन (शब्द०) ।

अणी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अणि' ।

अणीय
वि [सं० अणु+ईयस्=अणीयस्] अतिसूक्ष्म । वारीक । झीना ।

अणु (१)
१. संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वयणु क से सूक्ष्म, परमाणु से बड़ा कण जिसका बिना किसी विशेष यंत्र के खंड़ नहीं किया जा सकता । २. ६० परमाणु ओं का संधात या बना हुआ कण । ३, छोटा टुकड़ा । कण ।४. परमाणु । ५. सूक्ष्म कण । ६. रज । रजकण । 7. संगीत में तिन ताल कें काल का चतुर्थाशकाल । ८. अत्यंत सूक्ष्म मात्रा । ९. एक मुहूर्त का ५,४६, 7५,००० वाँ भाग ।

अणु (२)
वि० १. अतिसूक्ष्म । क्षुद्र । २. अत्यंत छोटा । ३. जो दिखाई न दे या कठिनाई से दिखाई पड़े ।

अणूक
वि० [सं०] अणु संबंघी । अतिसूक्ष्म । उ०—अमु क द्वयणु क जड़ जीव आदि जितने है, देखा ।—अनामिका, पृ० ३८ ।२. एक प्रकार का छोटे दानोंवाला अन्न (को०) । ३. चतुर (को०) ।

अणुतर
वि० [सं०] बहुत बारीक या सूक्ष्म । कोमल [को०] ।

अणुता
वि०—[सं०] दे० 'अणुक' [को०] ।

अणुतैल
संज्ञा पुं० [सं०] एक औषध का तेल [को०] ।

अणुत्व
वि० [सं०] अतिसूक्ष्मता । अणु जैसी सूक्ष्मता [को०] ।

अणुबम
संज्ञा पुं० [सं० अणु+ अं० बाँम्ब] एक विनाशक अस्त्र । दें० 'परमाणु' बम ।

अणुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली । विद्युत् ।

अणुभाष्य़
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मसुत्र पर वल्लभाचार्य द्बारा कृत पुष्ठिमार्गीय भाष्य [को०] ।

अणुमात्र
वि० [सं०] अणु के समान छोटे आकारवाला [को०] ।

अणुमात्रिक
वि० [सं०] १.दे० 'अणुमात्र' ।२. अणु के अंश या मात्रा से य़ुक्त [को०] ।

अणुरेणु
संज्ञा पुं० [सं०] आणविक या अणु संबंधी धूल जैसी सूर्य की किरणों में दिखाई पड़ती है [को०] ।

अणुरेण जाल
संज्ञा पुं० [सं०] आणविक धूलिकणों समूह [को०] ।

अणुरेवती
संज्ञा पुं० [सं०] देती नामक क्षुप । करोटन का वृक्ष [को०] । विशेष—इसकी अनेक जातीयाँ होती है ओर उनके पत्ते भी भिन्न भिन्न आकार तथा रंग के होते है ।

अणुवंत
संज्ञा पुं० [सं० अणुवन्त] बाल की भी खाल निकालनेवाला प्रश्न [को०] ।

अणुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दर्शन या सिद्बांत जिसमें जीव या आत्मा अणु माना गया हो । वल्लभाचार्य का मत । २. वह शास्त्र जिसमें पदार्थो के अणु नित्य माने गए हों । वैशेषिक दर्शन ।

अणुवादी
संज्ञा पुं० [सं० अनुवादिन्] १. नैयायिक । वैशेषिक शास्त्र का माननेवाला । २. वल्लभाचार्य का अनुयायी वाँणव ।

अणुवीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] जिसके द्बारा सूक्ष्म पदार्थ देखे जाते है । सूक्ष्मदर्शकयंत्र । खुर्दबीन । माइक्रोस्कोप । उ०—बिखर गया मानव का मन अनुबिक्षण पथ से । —य़ुगपथ, पृ० १२० । २. बाल की खाल नीकालाना । छिद्रन्वेषण ।

अणुवेदांत
संज्ञा पुं० [सं०] एक ग्रंथ का नाम [को०] ।

अणुव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्नानुसार गृहस्थ धर्म का एक अंग । विशेष—इसके ५ भेद है— १. प्राणातिपात बिरमण, (२) मृषावाद विरमण, (३) अदत्तदान विरमण, (४) मैथुन विरमण ओर (५) परिग्रह विरमण । पातंजलि योगशास्त्र में इनको 'यम' कहते है ।

अणुव्रीहि
संज्ञा पुं० [सं०] । एक प्रकार धान जिसका चावल बहुत बारिक होता है और पकाने से बढ़ जाता है यह खाने मे स्वादिष्ट होता हे महॅगा बिकता हे मोतीचूर ।

अणुह
संज्ञा पुं० [सं०] विभ्राज के एक पुत्र का नाम [को०] ।

अणोरणीयन् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् के उस मंत्र का नाम जिसके अदि में ये शब्द आते है । वह मंत्र यह है— अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितं गुहायाम । तमक्रुत? पश्यति वीतशोको धातु? प्रसादान्महिनमात्मन? ।

अणोरणीयान् (२)
वि० १. सूक्ष्म मे सूक्ष्म । अत्यंत सूक्ष्म २. छोटे । से छोटा ।

अतंक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आतंक' । उ०—संक सौं सिमिटि चित्र अंक से भए है सबै बंक अरि उर पै अतंक इमि छोयो है ।—रत्नाकर, भा० २० पृ० १४१ ।

अतंका (२)पु
वि० [आतङ्कित, प्रा० आतंकिअ] आतंकित । भयभीत । उ०—बाढ़ी सीत संका काँपै कर है अतंका ।—गंग ग्रं, पृ० २३६ ।

अतंका (२)पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० ' आतंक' । उ०—सौहै अज ओड़े जे न छोड़े सीम संगर की लंगर लँगुर उच्च ओज के अतंका में ।—पद्याकार ग्रं, पृ० २२४ ।

अतंत †
वि० [हि०] दे० 'अत्यंत' । उ०—मन पंछी सो एक है पार- ब्रह्म को अतंत ।—केशव० अमी० पृ० १३ ।

अतंत्र
वि० [सं० अ+तन्त्र] १. अनियंत्रित । २. सिद्धांतराहित । ३. तंत्र या तंतु से रहित [को०] ।

अतंत्रत्व
संज्ञा भा [सं०अनन्त्तत्व] अर्थराहित्य । अर्थशुन्यता ।

अतंद्र
वि० [सं० अतन्द्र] १. तंद्रारहित । सजग । २. सतर्क [को०] ।

अतंद्रमा पु
वि० [सं० अतन्द्रिम] तंद्रारहित । निरालस्य । सजग । उ०—देत छवि को है कोकनद में नदी में कही नखत बिराजै कोन निसि में अतंद्रमा । —पद्माकर ग्रं० पृ० ८० ।

अतंद्रिक
वि० [सं० अतन्द्रिक] १. आलस्यरहित । निरालस्य । चुस्त । चंचल । उ०—विखारि जात पखुरी गरूर जनि करि अतंद्रिका । सुकावि दसा सब ह्रै है हरि सिर मोरचंद्रिका । —व्यास (शब्द०) । २. व्याकुल । बिकल । बेचैन ।

अतंद्रित
वि० [सं० अतन्द्रित] आलस्यरहित । चपल । निद्रारहित चंचल । उ०—पहुँच नहीँ पाया जनमन का नीरव रोदन, हृदय संगीत रहा उच्छवसित अतंद्रित ।—रजत शि० पृ० ११४ ।

अतंद्रिल
वि० [सं० अतंद्रिल] तंद्राविहीन । अतंद्र [को०] ।

अत?
क्रि० वि० [सं०] इस कारण से । इस वजह से । इसालिये । इस वास्ते । इस हेतु । उ०—शुचिते, पहनाकर चिनांशुक, कर सका न तुझे अत? दधिमुख ।— अनामिका, पृ, ११० ।

अत पु
वि० [हि०] दे० 'अति' । 'सहचरि सरँन' मयंक बदन कौ मदनमोहिनी अत है ।—पोद्दार अभि० गे०, पृ० ३९४ ।

अतऊर्ध्वम्
अव्य० [सं०] इसके आगे या बाद में [को०] ।

अतएव
क्रि० वि० [सं०] इसलिये । इस हेतु से । इस वजह से । इसी कारण ।

अतक
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रा करनेवाला यात्री [को०] ।

अतट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत का शिखर । चोटी । टीला । २. जमीन का निचला भाग । अतल (को०) ।

अतट (२)
वि० तटहीन । खड़ी ढालवाला [को०] ।

अटतप्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] सीधा गिरनेवाला झरना [को०] ।

अतत (१)पु
वि० [सं० अतथ्य, अथवा अतत्वा प्रा० अतत्त] दे० 'अतथ्य' । उ०—चित्तंग राव रावर कहै अतत मंत मंत्री कहै ।—पु० रा० ५ ६ । ५ ० ।

अतत (२) पु
वि० [सं० अतत्व, प्रा० अतत्त] दे० 'अतत्व' । उ०—अतत निरसन कीजिए तौ दुंत नही ठहराई ।—सुंदर० ग्रं० भा० २, पृ० ८४० ।

अतताई पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आततायी' । उ०— तपसी रो रुप धरे अतताई अड़ग कुटी गई सति उठाई ।—रघु० रु०, पृ० १३५ ।

अतत्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० अ+तत्व] असार वस्तु [को०] ।

अतत्व (२)
वि० सारहीन । तत्वरहित [को०] ।

अतथ्य
वि० [सं०] १. अन्याथा । झुठ । असत्य । अययार्थ । २. अनद्वत । असमान ।

अतदुगुण
संज्ञा पुं० [सं०] एक अलंकार जिसमें एक वस्तु का किसी ऐसी दूसरी वस्तु के विशेष्ठ गुणो को न ग्रहण करना दिखलाया जाय जिसके की वह अत्यंत निकट हो । जैसे—गंगाजल सित अरु असित जमुना जलहु अन्हात । हंस रहत तब शुभ्राता तैसिय बढ़ि न घटात (शब्द०) ।

अतद्बत्
वि० [सं०] जो उसके समान नहो [को०] ।

अतद्बान्
वि० [सं०] अतद्बत् । असमान । जो (उसके) सदृश न हो ।

अतन पु
संज्ञा पुं० [सं० अतनु] कामदेव । अनंग । उ०—धूम धमारिन की मची अंगन अतन उमंग । अरी आज बरसत घनो ब्रजबीथिन रसरंग । —सं० सप्तक, पृ० ३६१ ।

अतनु (१)
वि० [सं०] १. शरीररहित । बिना देह का । बीना अंस का । उ०— रति अति दुखित अततु पति जानी ।—मानस १ ।२४६ । २. मोटा । स्थुल ।

अतनु (२)
संज्ञा पुं० अनंग । कामदेव ।

अतप
वि० [सं०] १. जोतप्त नहो । ठंढा । शांत । २. दिखावा न करनेवाला । आड़ंबररहित । बेकार । निठल्ला [को०] ।

अतत्प
वि० [सं०] १. जो तपा न हो । ठंढ़ा । २. जो पका न हो ।

अतप्ततनु (१)
वि० [सं०] रामानुज संप्रदाय के अनुसार जिसने तप्तमुद्रा न धारण का हो । जिसने विष्णु के चार आयुधों के चिह्न अपने शरीर पर गरम धातु से न छपवाए हों । बिना छाप या चिह्न का ।

अतप्ततनु (२)
संज्ञा पुं० बिना छाप का मनुष्य ।

अतमा
वि० [सं० अतमस्] अंधकार रहित [को०] ।

अतमाविष्ट
वि० [सं० अ+तम+अविष्ट (असाधु प्रयोग)] जो अंधकाराच्छन्न न हो या अंधकार से ढका न हो । [को०] ।

अतमिस्त्र
वि० [सं०] जो अंधकार से ढका न हो [को०] ।

अतरंग
संज्ञा पुं० [देश०] लंगर को जमीन से उखाड़कर उठाए रखने की क्रिया । क्रि० प्र०— करना ।

अतर (१)
संज्ञा पुं० [अ० इत्र] निर्यास । पुष्पसार । भमके द्बारा खिचा हुआ फूलों की सुगंध का सार । उ०—करि फुलेल कौ आचमन मीठी कहत सराहि । रे गंधी, मतिअंध तूँ अतर दिखावत काहि । —बिहारी र० दो० ८२ । विशेष—ताजे फुलों को पानी के साथ एक बंद देग आग पर रखते है जो नल के द्बारा उस भभके से मिला रहता है जिसमें पहले से चंदन का तेल, जिसे जमीन या मावा कहते हैं, रखा रहता है । फुलों से सुगंधित भाप उठकर उस चंदन के तेल पर टपककर इकट्ठा होती है ओर तेल (जमीन) ऊपर आ जाता है । इसी तेल को काछकर रख लेते है और अतर या इतर कहते है । जिस फूल के भाप से यह बनता है उसी का अतर कहलाता है । जैसे—गुलाब का अतर, मोतिया का अतर इत्यादि ।

अतर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्न्र, प्रा०अत्र] दे० 'अस्त्र' उ०—कनक पाट जनु बइठेउ राजा । सबइ सिंगार अतर लेइ साजा— पदुमा० पृ० ४६ ।

अतरक पु
वि० [हिं०] दे० 'अतर्क्य' । उ०— अगम अगोचर अच्छर अतरक निरगुन अंत अनंदा ।—रै० बा० पृ० ४५ ।

अतरज पु †
संज्ञा पुं० [सं० आश्चर्य] दे० 'अचरज' । उ०—आजु की बात कहा कहूँ राजा । अतरज मेरे गात, परसराँम की बानु कुँमरि नें धरयौ एकई हात ।—पोददार अभि० ग्र० पृ० ९७१ ।

अतरदान
संज्ञा पुं० [अ०. इत्त+फा०. दान (तुल. वै० 'धान')] सोने, चाँदी या गिलट का फूलदान के आकार का एक पात्र जिसमें इतर से तर किया हुआ रुई का फाहा रखा होता है ओर महफिलों में सत्कारार्थ सबके सामने उपस्थित किया जाता है । उ०—सब राजा बराबर कुर्सियों पर बैठे है, सरोजनी नाचती है, मंत्ती ने अतरदान ले रक्खा है ।— श्रिनिवास ग्रं० पृ० १६२ ।

अतरल
वि०[सं०] जो तरल या पतला न हो । गाढा ।

अतरवन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर] १. पत्थर की पटिया जिसे घोड़िए के ऊपर बैठाकर छज्जा पाटते है । २. वह खर या मूंज जिसे ठाट पर फैलाकर उपर से खपड़ा या फूस छाते है ।

अतरसों
कि० वि०[सं० *इतर+श्व; ] १. परसों के आगे का दिन । वर्तमान दिन से आनेवाला तीसरा दिन । उ०—खेलत में होरी रावरे के कर परसों जो भीजी है अतर सों सो आइहै अतरसों । —रघुनाथ (शब्द०) । २. गत परसों से पहले का दिन । वर्तमान से तीसरा व्यतित दिन ।

अतराफ
संज्ञा स्त्री० [अ०] तरफ का बहुवचन । उ०—उस अतराफ में था जिसे तख्तो ताज इताअत करे मालिक देवे खिराज ।— दक्खिनी० पृ० १५९ ।

अतरिख
संज्ञा पुं० [सं० अंतरिक्ष, प्रा, अंतरिख] दे० "अंतरिक्ष' ।

अतरौटा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अँकरौटा' । उ०—'दास' उलटीयै बैदी उलटीयै आँगी उलटोई अतरौटा पहिरे हौ उतलाई में ।— भिखारो ग्रं० पृ० २७३ ।

अतर्क (१)
वि० [सं०] तर्कहीन । असंगत [को०] ।

अतर्क (२)
संज्ञा पुं० तर्कहीन बात करनेवाला [को०] ।

अतर्कित
वि० [सं०] १. जिसका पहले सै अनुमान न हो । २. आकस्मिक । ३. बे सोचा समझा । जो विचार में न आया हो । जिसपर विचार न किया गया हो ।

अतर्क्य
वि० [सं०] जिसपर तर्क वितर्क न हो सके । जिसके विषय में किसी प्रकार की विवेचना न हो सके । अनिर्वचनोय । अचिंत्य । उ०—राम अर्तक्य बुद्धि मन बानी । भत हमार अस सुनहि सयानी ।—मानस, १ । १२० ।

अतर्स पु
वि० [सं० अ+त्रास; अथवा हि० अ०+फा० तर्स] निर्भय । निष्ठुर । उ०—यह जम तीन लोक का राजा बाँधे अतर्स होई ।—कबीर श० पृ० १४ ।

अतल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सात पातालों में दूसरा पाताल । २. शिव [को०] ।

अतल (२)
वि० तलविहीन । पथाह [को०] ।

अतलता (१)
वि० तलरहित । अथाह । उ०—अतल सिंधु में लगा लगा कर जीवन की बेड़ी बाजी ।—झरना, पृ० ५१ ।

अतलता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गहराई ।उ०—ये किन स्वच्छ अतलताओं की मौन निलिमाओं में बहते ।—अतिमा, पृ० १२ ।

अकलस
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो बहुत नरम होता है । उ०—अतलम लहँगा जरद रँग सारी । चोलिअन्हि बंद सँवारी री ।—सं० दरिया, पृ० १७० ।

अतलस्पर्शी
वि०[सं०] अतल को छूनेवाला अत्यंत गहरा । अयाह अतलस्पुक् ।

अतलस्पृक्
वि [सं०] अत्यंत गहरा ।

अतलांत
वि० [सं० अतल+अंत] जिसके तल का अंत न हो । अत्यंग गहरा । उ०—अतलांत मह गंभीर जलधि तजकर अपनी वह नियत अवधि ।—लहर, पृ०१२ ।

अतवान पु
वि०[सं० अतिवान्] अधिक । अत्यंत । उ०—सावन बरस मेह अतवानी । भरन परी हों । बिरह झुरानी ।—जायसी (शब्द०) ।

अतवार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० "अत्तवार' । उ०—दरबार के दिन जो अतवार और मंगल को था, वे, नदी के उस पार जाते थे ।—हुँमयूं० पृ० ५७ ।

अतस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । पवन । २. आत्मा । ३. अतसी के रेशों से बना हुआ वस्त्र ।४. एक प्रकार का अस्त्न । ५. एक क्षुप [को०] ।

अतस (२)पु
वि० [सं० 'अतिशय' का संक्षिप्त रूप] बहुत अधिक । अतिशय— ।उ०—तौ पण प्रताप मेछा तणो अतस दाप बाघे अकस ।—राज० रू०, पृ० २१ ।

अतसबाजी पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अतिसबाजी' । उ०—छुटत अतसबाजी रंगरंगी । —भारतेंगदु ग्रं० भाग २, पृ०,७०५ ।

अतसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अलसी । तीसी ।

अतहार (१)
संज्ञा पुं० [अ० तुह्व का बहुव०] पवित्रता । उ०—मुज कू दर बाबे इज्जत इतहार ।—दाक्खिनी० पृ० २१८ ।

अतहार (२)
वि० [अ० ताहिर का बहुव०] पवित्र [को०] ।

अता
स्त्री० [अ० अता=अनुग्रह] अनुग्रह । दान । क्रि० प्र०— करना, फरमाना=देना । — होना= दिया जाना । मिलना ।

अताबख्श
वि० [अ० अता+फा० बख्श] दान देनेवाले । दाता । उदार [को०] ।

अताई (१)
वि० [अ०] १. दक्ष । कुशल । प्रवीण । २. धूर्त । चालाक । ३. अर्धशिक्षित । अशिक्षित । जो किसी काम को बिना सीखे हुए करे । पंडितंमन्य ।

अताई (२)
संज्ञा पुं० वह गवैया जो बिना नियमपूर्वक सीखे हुए गावे बजावे । उ०—और स्वतंत्र व्यसनशील वा अताई उन्से भी बढ़ जाते हैं ।—प्रेमधन०, भाग २, पु० ३५३ ।

अताई (३)
वि० [हिं०] दे० 'आततायी' ।

अतान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अथान' । उ०—कुंज गई न विथा गई कुसुमित ताकि अतान । बहुरि दई दूनी भई लगे अतन के बान ।— स० सप्तक, पृ० २६४ ।

अताना
संज्ञा पुं० [?] मालकोस राग की एक रागिनी ।

अतानामा
संज्ञा पुं० [अ० अता+फा० नामह] दानपत्र [,को०] ।

अतापता
संज्ञा पुं० [हि० पता का अनु० वि० द्व०] हालचाल । ठौर ठिकाना । उ०—दूसरे दिन खोज करते करते एक स्थान पर अतापता मिला ।— सुनीता पृ० ४४ ।

अतापी पु
वि० [सं०] तापरहित । दु?खरहित । शांत ।

अताब
संज्ञा पुं० [अ० इताब] गुस्सा । क्रोध । उ०—लाखों लगाव एक चुराना निगाह का । लाखों बनाव एक बिगड़ना अताव का ।—शेर०, भा० १, पृ० १२ ।

अतार
संज्ञा पुं० [अ० अत्तार] दे० 'अत्तार' ।

अतालिक
संज्ञा पुं० [अ०] शिक्षक । गुरु । उस्ताद । अध्यापक ।

अतिंत पु
वि० [सं० अत्यंत] दे० 'अत्यंत' । उ०—ज्यौं कोउ रुप की रासि अतिंत कुरुप कहै भ्रम भैचक आन्यो—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८१ ।

अति (१)
वि० [सं०] बहुत । अधिक । ज्यादा । उ०—अति डर तें अति लाज तें जो न चहै रति बाम ।—पझाकर ग्रं०, पृ० ८६ ।

अति (२)
संज्ञा स्त्री० अधिकता । ज्यादती । सीमा का उल्लंघन या अतिक्रमण । उ०—(क) गंगा जू तिहारो गुनगान करै अजगैब आनिहोति बरखासु आनँद की अति है ।—पदमाकर ग्रं०, पृ० २५८ । (ख) उनके ग्रंथ में कल्पना की अति है ।—व्यास (शब्द०) ।

अतिअंत पु
वि० [हिं०] दे० 'अत्यंत' । उ०—लाभ होत अतिअंत किसोरी कृष्न चरन को ।—ब्रजनिधि ग्रं०, पृ० ११ ।

अतिउकुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अति+उक्ति, हिं० उकति] दे० 'अत्युत्त्कि' । उ०—सुनि अतिउकुति पवनसुत केरी ।—मानस, ६ ।१ ।

अतिउक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० अति+उक्ति] अत्युक्ति ।

अतिकंदक
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिकंद नाम का पौधा [को०] ।

अतिकथ
वि० [सं०] १. अविश्वनिय । अतिरंजित । २. अक्षद्धेय । ३. सामाजिक नियमों का उल्लंघन करनेवाला । ४. मृत । नष्ट [को०] ।

अतिकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिरंजित कथा । निरर्थंक बाता [को०] ।

अतिकर्षण
संज्ञा वि० [सं०] अत्यधिक परिश्रम [को०] ।

अतिकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार उतना काल जितने में एक ब्रह्मा की आयु पूरी होती है; अर्थात् ३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष । ब्रह्मकल्प । उ०—सत्य संकल्प, अतिकल्प, कल्पांतकृत ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८५ ।

अतिकांत
वि० [सं० अतिकान्त] अत्यधिक प्रिय [को०] ।

अतिकाय (१)
[सं०] वि० दीर्घकाय । बहुत लंबा चौड़ा । बड़े डीलडौल का । स्थूल । मोटा ।

अतिकाय (२)
संज्ञा पुं० रावण का एक पुत्र जिसे लक्ष्मण ने मारा था । उ०—भट अतिकाय अकंपन भारी ।—मानस, ६ ।६१ ।

अतिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलंब । देर । २. कुसमय । ३. काल का अतिक्रमण करनेवाला महाकाल । काल के भी काल । शिव । उ०—काल अतिकाल, कलिकाल, व्यालादखग, त्रिपुर- मर्दन भीम कर्म भारी ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६० ।

अतिकिरट
वि० [सं०] बहुत छोटे दाँतोंवाला [को०] ।

अतिकिरीट
वि० [सं०] दे० 'अतिकिरिट' [को०] ।

अतिकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १ बहुत कष्ट । २. छह दिन का एक ब्रत । विशेष—इस ब्रत में पहले दिन एक ग्रास प्रात?काल, दूसरे दिन एक ग्रास सायंकाल और तीसरे दिन यदि बिना माँगे मिल जाय तो एक ग्रास किसी समय खाकर शेष तिन दिननिराहार रहते हैं ।

अतिकृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पचीस वर्ण के वृत्तों की संज्ञा । जैसे—सुंदरी सवैया और कौंच । २. मर्यादा का अतिक्रम (को०) ।

अतिकृति (२)
वि० जिसे करने में अति या मर्यदा का अतिक्रमण किया गया हो [को०] ।

अतिकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] कुब्जक नाम का पौधा [को०] ।

अतिकोप
वि० [सं०] क्रोधरहित । शांत [को०] ।

अतिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] नियम या मर्यदा का उल्लंघन । विपरीत व्यवहार । उ०—देवपाल का क्रोध सीमा का अतिक्रम कर चुका था, उसने खड्ग चला दिया ।—आकाश०, पृ० ६९ ।

अतिक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. उल्लंघन । पार करना । हद के बाहर जाना । उ०—बाधाओं का अतिक्रमण कर जो अबाध हो दौड़ चले ।—कामायनी, पृ० २०८ । २. प्रबल आक्रमण (को०) । ३. जीतना । अधिकार करना (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

अतिक्रांत (१)
वि० [सं० अतिक्रांत] १. सीमा का उल्लधंन किए हुए । हद के बाहर गया हुआ । बढ़ा हुआ । २. बीता हुआ । व्यतीत । गया हुआ ।

अतिक्रांत (२)
संज्ञा पुं० बीती हुई वातों या कथन [को०] ।

अतिक्रांतनिषेध
वि० [सं० अतिक्रान्तनिषेध] निषेधाज्ञा का उल्लंघन करनेवाला [को०] ।

अतिक्रांतभावनीय
संज्ञा पुं० [सं० अतिक्रान्ततभावनीय] योग दर्शन के अनुसार चार प्रकार के योगियों में से एक । वैराग्य— संपन्न योगी ।

अतिक्रामक
संज्ञा पुं० [सं०] क्रम या नियम का उल्लघंन करनेवाला । उ०—कृतियों में इस कमी के रहते हुए भी अनेक अतिक्रामक गुण हैं ।— शुक्ल० अभि० ग्रं० पृ० १० ।

अतिक्रुद्ध (१)
वि० [सं०] अत्यंत रष्ट । अधिक नाराज [को०] ।

अतिक्रुद्ध (२)
संज्ञा पुं० तंत्रोकत एक मंत्र [को०] ।

अतिक्रूर (१)
वि० [सं०] अत्यधिक निष्ठुर [को०] ।

अतिक्रूर (२)
संज्ञा पुं० १. एक तंत्रोक्त मत्रं । २. शनि आदि क्रूर ग्रह [को०] ।

अतिक्षिप्त (१)
वि० [सं०] सिमा के पार या बहुत दूर फेंका हुआ [को०] ।

अतिक्षिप्त (२)
संज्ञा पुं० मोच । मुरकन [को०] ।

अतिखट्व
वि० [सं०] चारपाई से रहित । बिना खाट के काम चलानेवाला ।

अतिगंड (१)
वि० [सं० अतिगण्ड] बड़े या फूले गलोंवाला [को०] ।

अतिगंड (२)
संज्ञा पुं० १ बड़ा कपोल या गाल । २. बड़े कपोलवाला व्यक्ति । ३. एक नक्षत्र या तारा । ४. एक योग [को०] ।

अतिगंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० अतिगन्ध] १. चंपा का पेड़या फूल । २. भुततृण । मुदगर, बटगोरा आदि (को०) ।

अतिगंध (२)
वि० तीक्ष्ण गंधवाला [को०] ।

अतिगंधालु
संज्ञा पुं० [सं० अतिगन्धालु] एक लता का नाम । पुत्रदात्रीं [को०] ।

अतिगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अतिगन्धिका] दे० 'अतिगंधालु' [को०] ।

अतिगत
वि० [सं०] बहुतायत को पहुँचा हुआ । बहुत । अधिक । ज्यादा । अत्यंत । उ०—अतिगत आतुर मिलन को जैसे जल बिनु मीन ।— दादू (शब्द०) ।

अतिगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तम गति । मोक्ष । मुक्ति । उ०— जनक कहत सुनि अतिगति पाई । तृणावर्त को हौ मुनिराई ।—गि० दा० (शब्द०) ।

अतिगव
वि० [सं०] १. अत्यंत मुर्ख । २. वर्णन के परे । वर्णना- तीत [को०] ।

अतिगहन
वि० [सं०] अधिक गहरा । प्रवेश करने में दुष्कर [को०] ।

अतिगह्वर
वि० दे० 'अतिगहन' [को०] ।

अतिगुण (१)
वि० [सं०] १. सदगुणी । बहुत अच्छे गुणवाला । २. आयोग्य । निकम्मा [को०] ।

अतिगुण (२)
संज्ञा पुं० सदगुण । बहुत अच्छा गुण [को०] ।

अतिगुरु (१)
वि० [सं०] अत्यंत भारी । बहुत वजनी [को०] ।

अतिगुरु (२)
संज्ञा पुं० अत्यंत आदरणीय व्यक्ति । पिता माता आदि [को०] ।

अतिगुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृशिनपर्णी नाम की लता [को०] ।

अतिग्रह (१)
दे० [सं०] बोधागम्य । दुर्बोंध [को०] ।

अतिग्रह (२)
संज्ञा पुं० १. ज्ञानेंद्रियों का विषय । २. उपयुक्त या सही ज्ञान । ३. आगे बढ़ जाना । ४. अधिक ग्रहण करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

अतिग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिग्रह' [को०] ।

अतिग्राह्य (१)
वि० [सं०] नियंत्रण में रखने योग्य [को०] ।

अतिग्राह्य (२)
संज्ञा पुं० ज्योतिष्टोम यज्ञ में लगातार तीन बार किया- जानेवाला तर्पण [को०] ।

अतिध
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का आयुध । २. क्रोध [को०] ।

अतिघ्न
वि० [सं०] अधिक विनाश करनेवाला [को०] ।

अतिघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी सुखद निद्रा या विस्मृति जिसमें अतित की अप्रिय बातें भुल जाएँ [को०] ।

अतिचमू
वि० [सं०] सेनाओं का विजेता [को०] ।

अतिचर
वि० [सं०] अधिक परिवर्तनशील [को०] ।

अतिचरण
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक करने का अभ्यास । जितना करना हो उससे अधिक करना [को०] ।

अतिचरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्रियों का एक रोग जिसमें कई बार मैथुन करने पर तृप्ति होती है । २. वैद्यक मतानुसार वह योनि जो अत्यंत मैथुन से तृप्त न हो ।

अतिचरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थलपझिनी नाम की लता [को०] ।

अतिचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीमा से आगे बढ़ जाना । अतिक्रमण करना । उ०—मेरा अतिदार न बंद हुआ उन्मत रहा सबको धेरे ।—कामायनी, पृ० ७१ । २. ग्रहों की शीघ्र चाल । विशेष—जब कोई ग्रह किसी राशि के भोगकाल को समाप्त किए बिना ही दूसरी राशि में चला जाता है तब उसकी मति को अतिचार कहते हैं । ३. जैनमतानुसार एक विघात? व्यतिक्रम । ४. तमाशबीनी और मर्यादा भंग करने का जुर्म । नाचरंग के समाजों में अधिक संमिलित होने का अपराध । विशेष—चंद्रगुप्त के समय में जो रसिक और रँगीले बार बार निषेध करने पर भी नाचरंग के समाजों में संमिलित होते थे, उनपर तिन पण जुर्माना होता था । ब्राह्मण को जूठी या अपवित्र वस्तु खिला देने या दूसरे के घर में घुसने पर भी अतिचार दंड होता था ।

अतिचारी
वि० [सं० अतिचारिन्] [स्त्री० अतिचारिणी] अतिक्रमण करनेवाला । अतिचार करनेवाला । उ०—अतिचारी मिथ्या मान इसे परलोक वंचना से भर जा ।—कामायनी, पृ० १६६ ।

अतिच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अतिच्छता] भूतृण । छत्रक [को०] ।

अतिच्छत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अतिच्छत्रिका] दे० 'अतिच्छत' [को०] ।

अतिच्छादन
संज्ञा पुं० [सं०] सीमा से इस पार आगे बढ़ा हुआ होना कि आसपास की मिलती जुलती चीजें भी उसके क्षेत्र में आ जायँ [को०] ।

अतिजगती
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेरह वर्ण के वृत्तों की संज्ञा । जैसे— तारक, मंजुभाषिणी, माया आदि ।

अतिजन
वि० [सं०] जो आबाद न हो । जनावासरहित [को०] ।

अतिजव (१)
वि० [सं०] बहुत तेज चलनेवाला । अत्यंत वेगवान् ।

अतिजव (२)
संज्ञा पुं० असाधारण गति । अतिशय वेग [को०] ।

अतिजागर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बगला । नील बक ।

अतिजागर (२)
वि० १. निरंतर जागते रहनेवाला । २. जागरुक [को०] ।

अतिजात
वि० [सं०] पिता से आगे बढ़ा हुआ [को०] ।

अतिडीन
संज्ञा पुं० [सं०] (पक्षियों की) असधारण उड़ान [को०] ।

अतितत
वि० १. [सं] १. अत्यंत दुर फेंकनेवाला । २. अपने को अधिक बडा दिखानेवाला । ३. आडंबरी [को०] ।

अतितरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पार करना । २. पराभुत या पराजित करना [को०] ।

अतितारी
वि० [सं० अतितारिन्] पार कर जानेवाला । विजयी [को०] ।

अतितीक्ष्णा (१)
वि० [सं०] अत्यंत तेज [को०] ।

अतितीक्ष्ण (२)
संज्ञा पुं० शोभांजन नाम का वृक्ष [को०] ।

अतितीव्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में वह स्वर जो तीव्र से भी कुछ अधिक ऊँचा हो ।

अतितीव्र (२)
वि० अत्यंत तेज [को०] ।

अतितीव्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दुब [को०] ।

अतितृणा
वि० [सं०] अत्यधिक चोटवाला । जिसे अत्यधिक चोट पहुँची हो [को०] ।

अतितृष्णा (१)
वि० [सं०] १. अधिक प्यासा । २. अत्यंत लोभी [को०]

अतितृष्णा (२)
संज्ञा स्त्री० १. तेज प्यासा । अत्यधिक लोभ [को०] ।

अतित्रस्नु
वि [सं०] अत्यधिक डरनेवाला [को०] ।

अतिथि
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर में आया हुआ अज्ञातपूर्व व्यक्ति । वह जिसके आने का समय निश्चित न हो । अभ्यागत । मेह- मान । पाहुन । उ०—उस अनोखे अतिथि को आतिथ्य में चुपचाप ।—शकुं०, पु० ५ । २. वह संन्यासी जो किसी स्थान पर एक रात से अधिक न ठहरे । व्रत्य । ३. मुनि (जैनसाधु) । ४. अग्नि का एक नाम । ५. अयोध्या के राजा सुहोत्र जो कुश के पुत्र और रामचंद्र के पोत्र थे । ६. यज्ञ में सोमलता को लानेवाला व्यक्ति ।

अतिथिक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] आतिथ्य । अतिथि की आव- भगत [को०] ।

अतिथिगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह भवन जो केवल अतिथियों के ठहरने के लिये बना हो । अतिथिशाला [को०] ।

अतिथिग्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. आतिथेय । २. राजा दिवोदास की उपाधि । उ०—राजा दिवोदास अतिथियों का ऐसा स्वागत करता था कि उसे अतिथिग्व की उपाधि दी गई थी ।— हिंदु० सभ्यता, पु० ५९ ।

अतिथिदेव
वि [सं०] अतिथी को देवता के समान जानने और मनानेवाला [को०] ।

अतिथीद्धेष
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथि के प्रति धृणा का भाव [को०] ।

अतिथिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] आतित्य प्राप्त करने का अधिकार [को०] ।

अतिथिधर्मी
वि [सं० अतिथिधर्मिन्] आतिथ्य का अधिकारी [को०] ।

अतिथिपाति
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथेय । मेजबान [को०] ।

अतिथिपूजन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिथिपूजा' । उ०—अतिथिपूजन भली भाँति हुई (आ) और चलने समय मधुकर के हात गरम कर दिए ।—श्यामा०, पु० ७६

अतिथिपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिथि का आदर सत्कार । मेहमान- दारी । अतिथिसत्कार ।विशेष—यह पंचमहायज्ञों में से एक है और गृहस्थ के किये नित्य कर्तव्य कहा गया है ।

अतिथिभवन
संज्ञा पुं० [सं० अतिथि+भवन] दे० 'अतिथिगृह' ।

अतिथयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथि का आदर सत्कार जो पंच— महायज्ञों में पाँचवाँ है । नृयज्ञ । अतिथिपूजा । मेहमानदारी ।

अतिथिशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अतिथिगृह' [को०] ।

अतिथिसंविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्र के अनुसार चार शिक्षाब्रतों में से एक जिसमें बिना अतिथि को दिए भोजन नहीं करते । विशेष—इसमें पाँच अतिचार हैं—(१) सचित निक्षेप (२) सचित पीहण (३) कालातिचार (४) परव्यपदेश मत्सर और (५) अन्योपदेश ।

अतिथिसत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] अभ्यागत अतिथि की आवभगत । मेहमान की खातिरदारी [को०] ।

अतिथिसत्क्रिया
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिथिसत्कार' ।

अतिथिसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अतिथिसत्कार' ।

अतिदंतुर
वि [सं०] जिसके दाँत अधिक बड़े होंया मुँह से बाहर निकले हों [को०] ।

अतिदर्प (१)
वि० [सं०] अतिशय अभिमानी [को०] ।

अतिदर्प (२)
संज्ञा पुं० १ अत्याधिक गर्व या अभिमान । २. एक सर्प [को] ।

अतिदर्शी
वि [सं० अतिदर्शिन्] अधिक दुरंदेश । अत्यत दुरदर्शी [को०] ।

अतिदाता
संज्ञा पुं० [सं० अतिदातु] अत्याधिक दान देनेवाला व्यक्ति [को०] ।

अतिदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यधिक दान । २. अति उदारता [को०] ।

अतिदाह
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक ताप या जलन [को०] ।

अतिदिष्ट
वि [सं०] १. जिसमें या जिसका अतिदेशन हुआ हो । २. जो अवधि, क्षेत्र, सीमा आदि से आगे बढ़ा हुआहो । ३. प्रभाव्युक्त । प्रभावित । ४. आकृष्ट । खिंचा हुआ । ५. किसी अन्य की जगह पर रखा हुआ [को०] ।

अतिदीप्य (१)
वि० अतिशय प्रकाशमान [को०] ।

अतिदीप्य (२)
संज्ञा पुं० लाल चित्तक का वृक्ष [को०] ।

अतिदु?सह
वि [सं०] जिसको सहना अत्यंत कठिन हो । असह्य [को०] ।

अतिदुर्गत
वि० [सं०] जिसकी बहुत बुरी गती हों । अत्यंत दुर्दशा ग्रस्त [को०] ।

अतिदुर्धर्ष
वि० [सं०] १. जिसका दमन करना बहुत कठिन हो । २. अतिप्रबल । प्रचंड । बहुत उग्र । अत्यधिक उद्दंड [को०] ।

अतिदुर
वि [सं०] देश, काल या संबंध आदि के विचार से बहुत दुरी या अंतर पर [को०] ।

अतिदेव
संज्ञा पुं० [सो०] श्रेष्ठ या देवता अर्थात् विष्णु, शिव ।

अतिदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक स्थान के धर्म या नियम का दुसरे स्थान पर आरोपणा । २. वह नियम जो साधारण नियम से कुछ विशेष स्थानों में काम आवे । बह नियम जो अपने निर्दिष्ट विषय के अतिरिक्त दुसरे विषयों में भी काम आए । ३. विस्तारण (को) । ४. भिन्न तथा विरोधी विषयों या वस्तुओं में कुछ विशेष तत्वों की होनेवालि समानता या सादृश्य । (को०) विशेष—यह अतिदेश शास्त्र, कार्य निर्मित्त, व्यपदेश और रुपभेद से पाँच प्रकार का कहा गया है । जैमिनि मीमांसासुत्र के सातवें और श्राठवें अध्याय में इसका विवेचन है ।

अतिदेशन
संज्ञा पुं० [सं०] अतिदेश करने की क्रिया या भाव [को०] ।

अतिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत बड़ा अवगुणा या अपराध [को०] ।

अतिद्धय
वि० [सं०] १. दनों से आगे बढ़ा हुआ । २. अद्धितीय । अतुलनिय [को०] ।

अतिधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० अतिधन्वन्] १. अद्धितीय धनुर्धर या योद्धा । २. वह व्यक्ति कि जो मरुस्थल का आतिक्रमण कर गया हो । ३. एक वैदिक आचार्य का नाम [को०] ।

अतिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] उत्कृष्ट धर्म [को०] ।

अतिधृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उन्नीस वर्णा के वृत्तों की संज्ञा । जैसे— शार्दुलविक्रिड़ित । २. उन्नीस की संख्या (को) ।

अतिधेनु
वि० [सं०] अपनी गायों के कारण अत्पँत प्रासिद्ध [को०] ।

अतिनाठ
संज्ञा पुं० [सं०] सकिर्ण नामक मिश्रित राग का एक भेद ।

अतिनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] हिरण्याक्ष दैत्य के नाँ पुत्रों में से एक ।

अतिनाष्ट्र
वि० [सं०] भय से परे खतरे बाहर से बाहर [को०] ।

अतिनिद्र
वि [सं०] १. अत्यंत निद्रालु । २. बिना निद का । निद्रा- हिन [को०]०

अतिनिर्हारी
वि [सं०] बहुत ही आकर्षण (गंध) [को०] ।

अतिनु
वि [सं०] नौका से से पृथ्वी पर उतरा हुआ [को०] ।

अतिनौ
वि० [सं०] दे० 'अतिन्' [को०] ।

अतिपंचा
संज्ञा स्त्री० [सं० अति+पञ्वा पाँच] वर्ष की वय पुरी करनेवाली लडकी [को०] ।

अतिपंथ
संज्ञा पुं० [सं० अतिपन्थ] सन्मार्ग । अच्छी राह । सुपंथ ।

अतिपटीक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक के अंतर्गत पर्दे रे उठाने या न उठाने का परित्याग [को०] ।

अतिपतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अतिपात' । २. सीमा से बाहर उड़ना (को) । २. गिरना (को०) । ३. अतिक्रमण (को) । ४. भुल [को०] ।

अतिपतित
वि [सं०] १. अतिक्रांत । २. मर्यादा से च्युत । ३. भुलाहुआ [को०] ।

अतिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतिक्रमण । २. समय का बीत जाना । ३. कार्य को पुर्ण न करना [को०] ।

अतिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिकंद वृक्ष [को०] ।

अतिपथी
संज्ञा पुं० [सं० अति+पथिन्] सामान्य मार्ग से उत्तम मार्ग । सन्मार्ग [को०] ।

अतिपद
वि० [सं०] १. पदरहित । जिसके पैर नहों । २. वर्ण- वुत के अनुसार अधिक पदवालो । जैसे, अतिपदा गायत्री या जगती । को० । ।

अतिपन्न (१)
वि० [सं०] १. अतिक्रांत । २. विस्मृत । ३. बीता हुआ [को०] ।

अतिपर (१)
वि० [सं०] शत्रुओं को जीतनेवाला । जिसने अपने शत्रुओं को परास्त किया हो । शत्रुजित ।

अतिपर (२)
संज्ञा पुं० भारी शत्रु । बढ़ा प्रतिद्धंद्धी ।

अतिपरोक्ष
वि० [सं०] १. दृष्टि से बहुत दुर । अदृश्य । २. जोगुप्त न हो प्रकट [को०] ।

अतिपांड़ुकंबला
संज्ञा स्त्री० [सं० अतिपाण्डकम्बाला] जैन मतानुसार सिद्धशिला के दक्षिण के सिहासन का नाम जिसपर तीर्थकर बैठते हैं ।

अतिपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतिक्रम । अव्यवस्था । गड़वड़ी । २. बाधा । विघ्न । हानि । ३. बीतना । व्यतीत होना (काल या समय) । उ०—विद्यार्जन के लिये प्राणपण से अतिपात- अर्ध आयु का किया ।—अनामिका, पु० १६९ । ४. उपेक्षा । दुर्व्यवहार । (को) । ५. विरोध (को) । ६. लगादार होना या गिरना (को) । ७. विध्वंस । नाश (को०) ।

अतिपातक
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र में कहे हुए नौ पातकों में सबसे बढ़ा पातक । विशेष—पुरुष के लिये माता । बेटी और पतोहु के साथ गमन और स्त्री के लिये पुत्र, पिता और दामाद के साथ गमन अतिपातक है ।

अतिपातित (१)
वि [सं०] १. स्यगित । रोका हुआ । २. पुरी तरह से तोड़ा हुआ [को०] ।

अतिपातित (२)
संज्ञा पुं० हड्डी का पुरी तरह टुट जाना [को०] ।

अतिपाती
वि० [सं०+अतिपातिन्] १. अतिपात करनेवाला । २. गति में आगे बढ़ जानेवाला [को०] ।

अतिपात्य
वि [सं०] कुछ विलंब से करने योग्य । स्थगित कर देने योग्य [को०] ।

अतिपाप
वि० [सं० अति+पाप] महापापी । उ०—कौन हैं मुझ सा पतित अतिपाप ।—साकेत, पृ १८१ ।

अतिपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] महापुरुष । बीर पुरुष [को०] ।

अतिपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिपुरुष' [को०] ।

अतिप्रकाश
वि० [सं०] १. प्रसिद्ध प्राप्त । अत्यंत प्रसिद्ध । २. बुरे कार्यो के लिये मशहुर । कुख्यात [को०] ।

अतिप्रकृत
वि [सं०] प्रकृत या सामान्य रुप से अधिक बढ़ा हुआ [को०] ।

अतिप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० अतिप्रबन्ध] अविच्छित्रता । निरंतरता [को०] ।

अतिप्रभंजनवात
संज्ञा पुं० [सं० अतिप्रभञ्जनवात] अत्यंत प्रचंड और तीव्र वायु जिसकी गति एक घंटे में ४० या ५० कोस होती हैं ।

अतिप्रमाण
वि [सं०] १. प्रमाण से परे । जो प्रमाण का अतिक्रमण कर गया हो । २. बहुत अधिक प्रमाणयुक्त [को०] ।

अतिप्रबुद्ध
वि० [सं०] अत्यधिक अहंकारी । २. बहुत अधिक बढ़ा हुआ [को०] ।

अतिप्रश्न
[पुं० सं०] अमर्यादिन प्रश्न । उपयुक्त उत्तर प्राप्त होने पर भी क्रिया गया प्रश्न । अनावश्यक प्रश्न [को०] ।

अतिप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं०अतिप्रड्ग] १. अत्यधिक आसक्ति [को०] । २.बहुत ही धनिष्ठ संबंध । ३. धृष्टता । ढिठाई । अशिष्टता । ४. किसी नियम की अतिव्याप्ति । ५. प्रचुरता । आधिक्य । विस्तार [को०] ।

अतिप्रसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अतिप्रसंग' [को०] ।

अतिप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] असामान्य जीवन । प्रसाधारण व्यक्तित्व [को०] ।

अतिप्रौढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विवाह करने योग्य लड़की । युवावस्था प्राप्त कन्या [को०] ।

अतिबरवै
संज्ञा पुं० [सं० अति+हि० बरवै] बरवै छंद का एक भेद । विशेष—इसके पहले और तिसरे चरणों में बारह तथा दुसरे और चौथे चरणों में नौ मात्राएँ होती हैं । इसके बिषम पदों के आदि में जगण न आना चाहिए और सम पदों अंत का वर्ण लघु होना चाहिए ।

अतिबरसण पु
संज्ञा पुं० [सं० अतिवर्षण] मेघमाला । घटा (डि०) ।

अतिबल (१)
वि० [सं०] प्रबल । प्रचंड । बली । उ०—नारी अतिबल होत है, अपने कुल को नाम ।—गिरधर (शव्द०) ।

अतिबल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्याधिक शक्ति । २. शक्तिसंपत्र सेना [को०] ।

अतिबला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन युद्धविद्दा । विशेष—इस विद्दा के सीखने से श्रम और ज्वर की बाधा का भय नहीं रहता था और पराक्रम बढ़ता था । विश्वामित्र ने इसे रामचंन्द्र को सिखाया था । २. एक ओषधि । कँगही या ककही नामक पौधा ।

अतिबात
संज्ञा पुं० [सं० अतिवात] तेज हवा । तुफान । उ०— प्रतिमा रुदहिं पविपात नभ अतिबात वह डोलति मही ।— मानस ६ ।१०० ।

अतिबालक (१)
वि० [सं०] बालकों जैसा । बच्चों जैसा । बाल्य [को०] ।

अतिबालक (२)
संज्ञा पुं० छोटी वय का बालक । शिशु [को०] ।

अतिबाला
संज्ञा स्त्री [सं०] दो वर्ष की गाय (को०) ।

अतिबाहु (१)
वि [सं०] १. असाधारण बाहोंवाला । आजानुबाहु [को०] ।

अतिबाहु (२)
संज्ञा +पुं० १. चौदहवें मन्वंतर के एक ऋषि का नाम । २. एक गंधर्व का नाम [को०] ।

अतिब्रह्माचर्य (१)
वि० [सं०] ब्रह्माचर्य व्रत का अतिक्रमण करनेवाला । ब्रह्माचर्य व्रत को तोड़नेवाला [को०] ।

अतिब्रह्माचर्य (२)
संज्ञा पुं०[सं० [ब्रह्माचर्य व्रत का अत्याधिक पालन ] [को०] ।

अतिभर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत अधिक बोझ । उ०—माति डिग परै दबै सब ब्रज जन भयो है हाथ पै अतिभर ।—नंद० ग्र०, पु० ३६२ । २. दे० 'अतिभार' [को०] ।

अतिभव
संज्ञा पुं० [सं०] आगे बढ़ जाना । पराजित करना । विजय करना । [को०]

अतिभार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यधिक बोझ । २. गति । चाल । ३. वाक्य की अस्पष्टता [को०] ।

अतिभारग (१)
वि० [सं०] अधिक मात्रा में बोझ ढोनेवाल [को०] ।

अतिभारग (२)
[सं०] [खच्चर [को०] ।

अतिभारारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्र के अनुसार पशुऔं पर अधिक बोझ लादने का अत्याचार ।

अतिभारिक
वि [सं०] बहुत भारी [को०] ।

अतिभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र के वज्र की ज्वाला । विद्दुत की चमक [को०] ।

अतिभु (१)
वि० [सं०] सबको पार कर जानेवाला [को०] ।

अतिभु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम । २. दे० 'अतिमव' [को०] ।

अतिभुमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधिकता । २. श्रेष्ठता । ३. मर्यादा का अतिक्रमण । ४. अधिक विस्तृत भुमि [को०] ।

अतिभोग
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपयुक्त या नियम समय के अतिरिक्त भी किसी वस्तु अथवा विषय का उपभोग । २. स्वत्व की भाँति किसी वस्तु अथवा विषय का उपभोग ।[को०] ।

अतिभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] आवश्यकता से अधिक खाना । पेटुपन [को०] ।

अतिमंगल्य (१)
वि [सं० अतिमङ्गल्य] अत्यधिक शुभ [को०] ।

अतिमंगल्य (२)
संज्ञा पुं० विल्व वृक्ष [को०] ।

अतिमत
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वमान्य समझा जानेवाला विचार या सिद्धांत [को] ।

अतिमाति (१)
वि० [सं०] अत्याधिक घमंड़ी । अहंकारी । उ०—जौ अतिमाति चाहसि सुगति तौ तुलसी करु प्रेम—स० सप्तक, पु २० ।

अतिमाति (२)
संज्ञा स्त्री० १. अहंकार । अत्याधिक गर्व । २. हठ [को] ।

अतिमध्यंदिन
संज्ञा पुं० [सं० अतिमध्यन्दिन] प्रखर मध्याह्न । खड़ी दुपहरी [को] ।

अतिमर्त्य
वि [सं०] १. इस लोक से परे । अलौकिक । २. मान— बीय शक्ति से परे । आमानुषिक [को०] ।

अतिमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यधिक संपर्क । अत्यंत निकट का संबंध [को०] ।

अतिमांस
वि [सं०] अत्यधिक मांसवाला । [को०] ।

अतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० अतिमान] अपरिमेय वह मन? स्थिति जो आज के भौतिक, मानसिक, सांस्कृति परिवेश को अतिक्रम कर चेतना की नवीन श्रमता से अनुप्राणित हो । उ०—यह अतिमा, तन से जा बाहर, जगजीवन की रज लिपटाकर ।—अतिमा, पु ४४ ।

अतिमात्र
वि [सं०] अतिशय । बहुत । ज्यादा । मात्रा से अधिक ।

अतिमान (१)
वि० [सं०] अपरिमेय । अति विस्तृत [को०] ।

अतिमान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिमाति' [को०] ।

अतिमानव
संज्ञा पुं० [सं०] अलौकिल शक्ति तथा गुणों से संपन्न मनुष्य [को०] ।

अतिमानवी
वि० [सं० अतिमानव+ई (प्रत्य०)] मानव से संबंध न रखनेवाली । अलौकिक । देवी । उ०—उनकी अत्यंत हार्दिक नम्रता अतिमानवी थी ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २५९ ।

अतिमानष (१)
वि० [सं०] मनुष्य की शक्ति से बाहर । अमानुषी । दैवी

अतिमानुष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिमानव [को०] ।

अतिमाय
वि० [सं०] जो मायावी न हो । माया से रहित । वीतराग मायातिक्रांत [को०] ।

अतिमित (१)
वि० [सं०] अपरिमित । अतुल । बेअंदाज । बहुत अधिक । बेहिसाब । बेठिकाना ।

अतिमित (२)
वि० [सं०] जो तिमित या गीला न हो [को०] ।

अतिमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत घनिष्ठ मित्र । २. अत्यधिक शुभ ग्रह [को०] ।

अतिमिर्मिर
वि० [सं०] तेजी से पलकें गिरानेवाला [को०] ।

अतिमुक्त (१)
वि० [सं०] १. जिसकी मुक्ति हो गई हो । निर्वाणप्राप्त । २. निःसंग । विषयवासनारहित । वीतराग ।

अतिमुक्त (२)
संज्ञा पुं० १. माधवी लता । २. तिगुना । तिरिच्छ । ३. मरुआ का पौधा ।

अतिमुक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिमुक्त (२)' [को०] ।

अतिमुक्ति
संज्ञा पुं० [सं०] परम निर्वाण । मोक्ष [को०] ।

अतिमुशल
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नक्षत्र में मंगल अस्त हो और उसके सत्रहवें या अठारहवें नक्षत्र से अनुवक्र हो तो उस वक्र को अतिमुशल कहते हैं । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इससे चोर और शस्त्र का भय तथा अनावृष्टि होती है ।

अतिमूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में आत्रेय मत के अनुसार छह प्रकार के प्रमेहों में से एक । बहुमूत्र । विशेष—इसमें अधिक मूत्र उतरता है और रोगी क्षीण होता जाता है । इसे बतुमूत्र भी कहते हैं ।

अतिमैथुन
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यधिक संभोग [को०] ।

अतिमृत्यु
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष । मुक्ति ।

अतिमोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुगंध की बहुत अधिक मात्रा । २. नवमल्लिका । नेवारी । मोगरी ।

अतियव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जौ [को०] ।

अतियात
वि० [सं०] बहुत तेज चलनेवाला । तीव्र गतिवाला [को०] ।

अतियोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिकता । अतिशयता । २. किसी मिश्रित औषधि में किसी द्रव्य की नियत मात्रा से अधिक मिलावट ।

अतिरंजन
संज्ञा पुं० [सं० अतिरंजन] दे० 'अतिरंजना' ।

अतिरंजना
संज्ञा स्त्री० [सं० अतिरंजना] अत्युक्ति । बढ़ा चढ़ाकर कहने की रीति ।

अतिरंजित
वि० [सं० अतिरञ्जित] १. अतिरंजना से युक्त । अत्यु- क्तिपूर्ण । उ०—वह अतिरंजित सी तूलिका चितेरी सी फिर भी कुछ कम थी ।—लहर, पृ० ७१ । २. अत्यंत रागमय । उ०—देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन विश्व का नव एकांत ।—कामायनी, पृ० १४ ।

अतिरक्त
वि० [सं०] १. बहुत अधिक लाल । २. अत्यधिक अनुरक्त [को०] ।

अतिरक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की एक जीभ का नाम । अग्नि की सात जीभों में से एक । [को०] ।

अतिरथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिरथी' [को०] ।

अतिरथि पु
संज्ञा पुं० [सं० अतिरथिन्] दे० 'अतिरथी' । उ०— अमरन करि जु न जीते जाहीं । भीषमादि अतिरथि जिनि माहीं ।—नंद ग्रं०, पृ० २१९ ।

अतिरथी
संज्ञा पुं० [सं० अतिरथिन्] रथ पर चढ़कर लड़नेवाला योद्धा । वह जो अकेले रथियों से लड़ सके । उ०— अतिरथी महारथी सरब कालानल चारा ।—राम० धर्म० पृ० १४७ ।

अतिरभस
संज्ञा पुं० [सं०] असामान्य गति । अत्यधिक शीघ्रता [को०] ।

अतिरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विभिन्न प्रकार के पौधों के नाम जैसे मूर्क, रास्ना और क्लीतनक [को०] ।

अतिराग
संज्ञा पुं० [सं०] प्रबल उत्सुकता [को०] ।

अतिरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का एक गोण अंग । २. वह मंत्र जो अतिरात्र यज्ञ के अंत में गाया जाय ३. चाक्षुष मनु के एक पुत्र का नाम । ४. मध्य रात्रि ।

अतिराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराण के अनुसार एक नाग या सर्प ।

अतिरिक्त (१)
क्रि० वि० [सं०] सिवाय । अलावा । जैसे—इसे हमारे अतिरिक्त कोई नहीं जानता (शब्द०) ।

अतिरिक्त (२)
वि० १. अधिक । ज्यादा । बढ़ती । शेष । बचा हुआ । जैसे खाने पहनेन से अतिरिक्त धन को अच्छे काम में लगाओ (शब्द०) । २. न्यारा । अलग । जुदा । मित्र । जैसे०—जो सब में पूर्णपुरुष और जीव से अतिरिक्त है वही जगत् का बनानेवाला है (शब्द०) ।

अतिरिक्तकंवला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मत के अनुसार सिद्धशिला के उत्तर का सिंहासन जिसपर तीर्थंकर बैठते हैं ।

अतिरिक्तपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह विज्ञापन समाचार या सूचना आदि जो अलग से छापकर किसी समाचार पत्र के साथ बाँटा जाय । विशेष पत्र । कोड़पत्र ।

अतिरिक्तलाभ
संज्ञा पुं० [सं० अतिरिक्त+लाभ] वह लाभ जो नियत या उचित मात्रा से अधिक हो ।

अतिरुचिर
वि० [सं०] अत्यधिक प्रिय [को०] ।

अतिरुचिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिजगती और चूड़िलिका नामक दो वृत्त [को०] ।

अतिरुक्ष (१)
वि० [सं०] १. बहुय रुखा । २. क्रूर । ३. प्रेमहीन । ४. अत्यधिक स्नेही [को०] ।

अतिरुक्ष (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का अन्न [को०] ।

अतिरुप (१)
वि० [सं०] १. आकृतिहीन, जैसे वायु । २. परम रुपवान । अत्यंत सुंदर । ३. रुप से परे, जैसे ईश्वर [को०]०

अतिरुप (२)
संज्ञा पुं० अद्वितीय सौंदर्य [को०] ।

अतिरेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवश्यकता से अधिक होने का भाव, गुण या स्थिति । २. आधिक्य । अतिशयता । उ०—प्राणों में विस्मृति है उर में सुख श्री का अतिरेक । ३. भेद । अंतर (को०) ।

अतिरोग
संज्ञा पुं० [सं०] राजयक्ष्मा । क्षयी रोग ।

अतिरोमश (१)
वि० [सं०] बहुत अधिक बालोंवा [को०] ।

अतिरोमश (२)
वि० १. एक प्रकार का जंगला बकरा । २. एक तरह का बड़ा बंदर [को०] ।

अतिरोहण
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन । जिंदगी ।

अतिलंघन
संज्ञा पुं० [सं० अतिलङ्घन्] १. दीर्घ काल तक का उपवास । २. अतिक्रमण । उल्लंघन [को०] ।

अतिलंघी
वि० [सं० अतिलङ्घिन्] भूल करनेवाला (को०) ।

अतिलोमश
वि०, संज्ञा पुं० [संज्ञा०] दे० 'अतिरोमश' [को०] ।

अतिलोमशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीलबुहना, शंखवेल नाम का पौधा [को०] ।

अतिलौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्कट इच्छा । अतिलोभ । अतिचांचल्य । २. जैन सिद्धांत के अनुसार भोग के समय अधिक आसक्ति । उ०—भोगोपभोग व्रत के भी पाँच अतिचार हैं— अनुप्रेक्षा, अनुस्मृति, अतिलोल्य, अतितृष्णा और अनुभव ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २३१ ।

अतिवंत पु
वि० [सं० अत्यंत, प्रा० अतिअंत, अतिवंत]दे० 'अत्यंत' । उ०—फिरि वेषिय रवन्न मुर्ष । अतिवंत दुषी दुष मानी सुषं ।—पृ० रा०, ६१ । २०९५ ।

अतिवक्ता
वि० [सं० अतिवक्तृ] बहुत अधिक बोलनेवाला । बक- वादी [को०] ।

अतिवक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवल के मत से बुध ग्रह की चार गतियों में से एक । विशेष— इसका एक राशि पर वर्तमान काल २४ दिन का होता है और यह धन का नाश करनेवाली मानी जाती है ।

अतिवय
वि० [सं० अतिवयस्] १. अतिशय बृद्ध २. पुरानी वय का । ३. कई वर्षों आगे का [को०] ।

अतिवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षमा करने योग्य अपराध । २. दंड से छुटकारा । ३. अधिक आगे बढ़ जाने का क्रिया या भाव । ४. किसी वस्तु का वहुत अधिक मात्रा में होनेवाला उपयोग या व्यवहार [को०] ।

अतिवर्ती
वि० [सं० अतिवर्तिन्] १. अधिक्रमण करनेवाला । २. सबसे आगे बढ़ जानेवाला । ३. क्षम्य अपराध के दोषवाला [को०] ।

अतिवर्तुल (१)
वि० [सं०] अत्यधिक गोल [को०] ।

अतिवर्तुल (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का अन्य । कलाय [को०] ।

अतिवात
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक वेगपूर्ण वायु । प्रचंड आँधी [को०] ।

अतिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरी बात । सच्ची बात । २. परुष वचन ३. बढ़ी चढ़ी बात । डींग । ४. औचित्य या मर्यादाका अतिक्रमण कर जाने का सिद्धांत । उ०—छोड़कर जीवन के अतिवाद मध्य पथ से लो सुगति सुधार ।—लहर, पृ० १३ ।

अतिवादिक
वि० [सं०] अतिवाद संबंधी [को०] ।

अतिवादी
वि० [सं० अतिवादिन्] १. सत्यवक्ता । खरी बात कहनेवाला । २. कटुवादी । ३. बढ़ बढ़कर बातद करनेवाला । डींग मारनेवाला । ४. पर पक्ष का खंडन कर अपने मत को स्थापित करनेवाला (को०) ।

अतिवास
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध के एक दिन पूर्व किया जानेवाला उपवास [को०] ।

अतिवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूक्ष्म शरीर का अन्य शरीर में प्रवेश करना । २. परलोकवास । ३. आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकलनेवाली नाली [को०] ।

अतिवाहक
संज्ञा पुं० [सं०] सूक्ष्म शरीर को अन्य देह के अंतर्गत प्रवेश कराने में सहायक देवता । [को०] ।

अतिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिताना । गुजरना । २. बहुत अधिक बोझ ढौना । ३. भेजना । [को०] ।

अतिवाहिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिंग शरीर । २. पाताल निवासी ।

अतिवाहित (१)
वि० बिताया हुआ । [को०] ।

अतिवाहित (२)
संज्ञा पुं०दे० 'अतिवाहिक' [को०] ।

अतिविकट (१)
वि० [सं०] अतिशय भीषम [को०] ।

अतिविकट (२)
संज्ञा पुं० दुष्ट हाथी [को०] ।

अतिविपिन
वि० [सं०] १. घने जंगलोंवाला । २. प्रवेश में कठिन या दुर्गम [को०] ।

अतिविश्रब्ध नवोढा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रसमंजरी के अनुसार वह मध्या नायिका जिसे पति पर अतिशय प्रेम हो । विशेष—यह नायिका धैर्ययुक्त, अपराधी नायक के प्रति व्यंग्य और अधीर अपराधी नायक के प्रति कटु वचन का व्यवहार करती है ।

अतिविष (१)
वि० [सं०] अत्यधिक विषवाला । बहुत अधिक जहरीला । विषैला (साँप) (को०) ।

अतिविष (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अतिविषा' ।

अतिविषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जहरीली औषधि । अतीस ।

अतिविस्तार
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक वीस्तार । व्याप्ति [को०] ।

अतिहिवृंत
वि० [सं०] दृढ़ । पुष्ट । मजबूत ।

अतिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आगे बढ़ जाना । २. अतिक्रमण । ३. अतिरंजना । ४. वेग से निकलना (रक्त)

अतिवृद्ध (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अतिवृद्धा] १. बहुत अधिक बूढ़ा २. अधिक वय का [को०] ।

अतिवृद्ध (२)
संज्ञा पुं० तंत्र में प्रयुक्त एक मंत्र [को०] ।

अतिवृद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घास चबाने तक में असमर्थ अत्यधिक बूढ़ी गाय [को०] ।

अतिवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ६ ईतियों में से एक । पानी का बहुच बरसना जिससे खेती को हानि पहुँचे । अत्यंत वर्षा । उ०— अनवृष्टि अतिवृष्टि होति नहिं यह जानत सब कोई ।—सू०, १० । ४१९१ ।

अतिवेगित
वि० [सं०] १. तेजी से चलाया हुआ । २. तीव्र गति से चलनेवाला [को०] ।

अतिवेध
संज्ञा० पुं० [सं०] १. अधिक निकट की संबंध । २. दशमी और एकादशी का योग [को०] ।

अतिवेल
वि० [सं०] १. अत्यंत । असीम । बेहद । २. मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला (को०) । ३. उद्वेलित (को०) ।

अतिवेला
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १. विलंब । देर । २. अनुपयुक्त समय [को०] ।

अतिव्यथन
संज्ञा० पुं० [सं०] तीव्र यातना अत्यधिक पीड़ा [को०] ।

अतिव्यथा
संज्ञा० स्त्री० [सं०]दे० 'अतिव्यथन' ।

अतिव्यय कर्म
संज्ञा० पुं० [सं०] फजूलखर्ची का काम ।

अतिव्याप्ति
संज्ञा० स्त्री० [सं०] न्याय में एक लक्षण का एक दोष । किसी लक्षण या कथन के अंतर्गत लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य वस्तु के आ जाने का दोष । विशेष—जहाँ लक्षण या लिंगी के सिवाय अन्य पदार्थों पर भी घट सके वहाँ 'अतिव्याप्ति' दोष होता है । जैसे—'चौपाए सब पिंडज है', इस कथन में मगर और घड़ि- याल आदि चार पैरवाले अंडज भी आ जाते है । अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष है ।

अतिशक्करी
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १५ वर्ण के वृत्तों की १. । इसके संपूर्ण भेद ३२७६८ हो सकते हैं । उ०—पंद्रह अतिशक्करी सहस बत्तीस सात सै अठसठी कीय ।—भीखारी० ग्रं० भा० १, पृ० २३६ ।

अतिशय (१)
वि० [सं०] बहुत । ज्याता । अत्यंत ।

अतिशय (२)
संज्ञा० पु० प्राचीन शास्त्रकारों के अनुसार । एक अलंकार । विशेष— इसमें किसी वस्तु की उत्तरोत्तर संभावना या असंभवना दिखलाई जाती है जैसे—'ह्वै न, होय तो थिर नहीं, थीर तो बिन फलवान । सत्पुरुषन को कोप है, खल की प्रीति सभान; (शब्द०) । कोई कोई इस अलंकार को अधिक अलंकार के अंतर्भुक्त मानते हैं ।

अतिशयता
संज्ञा० स्त्री० [सं० अतिशयता] आधिक्य । प्राचुर्य । बहुतायत उ०—स्वर्गिक सुख की सी आभास अतिशयता में अचिर महान् ।—पल्लव, पृ० ३२ ।

अतिशयन
संज्ञा० पुं० [सं०]दे० 'अतिशयता' ।

अतिशयनी
संज्ञा० स्त्री० [सं०] चित्रलेखी नामक एक छंद [को०] ।

अतिशयालु
वि० [सं०] अति की और वा आगे बढ़ जाने का चेष्टा करनेवाला [को०] ।

अतिशयित
वि० [सं०] १. अत्यधिक । २. आगे बढ़ा हुआ [को०] ।

अतिशय
वि० [सं० अतिशयिन्] १. प्राधान । श्रेष्ठ० २. बहुत अधिक [को०] ।

अतिशयोक्ति
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १. किसी बात को बढ़ा चढ़ाकर कहना । २. एक अलंकार । विशेष—इसमें उपमान से उपमेय का निगरण लोकसीमा का उल्लंधन प्रधान रुप दिखाया जाता है । जैसे—'गोपिन के अँसुवान के नीर पनारे भए पुनि ह्वै गए नारे । नारे भए नदियाँबढ़िकै, नदियाँ नद ह्वै गई काटि किनारे । बेगि चलो तो चलो ब्रज में कवि तोख कहै ब्रजराज हमारे । वे नद चाहत सिंधु भए अरु सिंधु ते ह्वै हैं हलाहल सारे' (शब्द०) । इसके पाँच मुख्य भेद माने गए हैं; यथा—(१) रुपकातिशयोक्ति (२) भेद कातिशयोक्ति, (३) संबंधातिशयोक्ति (४) असंबंधातिशयक्ति और (५) पंचम भेद के अंतर्गत अक्रमातिशयोक्ति, चपला- तिशयोक्ति तथा अत्यातिशयोक्ति हैं ।

अतिशयोपमा
संज्ञा० स्त्री० [सं०] उपमा अलंकार का भेद । विशेष—इसमें यह दिखाना जाता है कि कोई वस्तु सदा अपने विषय में एक है, दूसरी वस्तु से उसकी उहमा नहीं दी जा सकती । जैसे—'केसोदास प्रगट प्रकास सों अकास पुनि, ईस हु के सीस रजनीस अवरेखिऐ । थल थल जल जल अचल अमल अति, कोमल वहु बरन बिसेखिऐ । मुकुर कठोर बहु नाहिनै अचल जस बसुधा सुधा हू तिय अधरन लेखिऐ । एकरस एकरुप जाकी गीता सीता सुनि, तेरा सो बदन तैसा तोही बिषै देखिऐ ।—केशव ग्रं० भा०१, पृ० १९२ ।

अतिशस्त्र
वि० [सं०] शस्त्र से भी तेज या बढ़ा हुआ [को०] ।

अतिशायन
संज्ञा० पुं० [सं०] १. प्रधानता । श्रेष्ठता । २. आधिक्य । ३. आगे बढ़ जाना [को०] ।

अतिशायी
वि० [सं० अतिशायिन्] १. प्रधान । श्रोष्ठ । २. अत्यधिक । आगे बढ़ जानेवाला [को०] ।

अतिशायनी
संज्ञा० स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वृत्त [को०] ।

अतिशीत
संज्ञा० पुं० [सं०] ठंढ का अतिक्रमण । भयंकर जाड़ा [को०] ।

अतिशीलन
संज्ञा० पुं० [सं०] अभ्यास । मश्क । बारंबार मनन या संपादन ।

अतिशूद्र
संज्ञा० पुं० [सं०] वह शूद्र जिसके हाथ का जल उच्चवर्ण के लोग न ग्रहण करें । अंत्यज ।

अतिशेष
संज्ञा० पुं० [सं०] बहुत थोड़ा बचा हुआ अंश [को०] ।

अतिश्रुत
वि० [सं० अति+श्रुत] अतिप्रसिद्ध । विख्यात । उ०— माधव ब्रह्मचारी ने ज्योंही वह अतिश्रुत नाम सुना वह अचक- चाकर अंबपाली की और ताकता रह गया ।—वै० न०, पृ० २५५ ।

अतिश्रेष्ठ
वि० [सं०] सर्वोत्कृष्ट । सबसे उत्तम [को०] ।

अतिश्व
वि० [स० अतिश्वन्] कुत्तों से गौड़नेवाला सूअर । उ०— जो सूकर अपनी द्रुतगति से कुत्तों को बहुत पीछे छोड़ देते थे वे अतिश्व पदवी के अधिकारी होते थे ।—सपू० अभि० ग्रं०, पृ० २४८ ।

अतिसंध
संज्ञा० पुं० [सं०] प्रतिज्ञा या आज्ञा का भंग करना । विधि या आदेशविरुद्ध आचरण । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

अतिसंधान
संज्ञा० पुं० [स० अतिसनव्वन्] १. अतिक्रमण । २. विश्वास- घात । धोखा । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

अतिसंधि
संज्ञा० स्त्री ।[सं०अतिसव्वने] १. सामर्थ्य से अधिक सहायता देने की शर्त । २. एक मित्र की सहायता से दूसरे मित्र या सहायक की प्राप्ति [को०] ।

अतिसंधित
वि० [सं० अतिसन्धित] १. अतिक्रांत । २. धोखा खाया हुआ । जिसके साथ विश्वासघात किया गया हो [को०] ।

अतिसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अतिसन्ध्या] सूर्योदय के कुछ पूर्व और सूर्यास्त के कुछ बाद का समय [को०] ।

अतिस पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अतसी' । उ०—साँबरी स्याम मूरति सुबर अतिस पुहुप संमान बर ।—पृ० रा०, २ ।३४७ ।

अतिसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अत्यधिक अनुरक्ति । विशेष आशक्ति [को०] ।

अतिसय पु
वि० [सं०] दे० 'अतिशय' । उ०—रहे मोलबी साहब जहाँ के अतिशय सज्जन ।—प्रेमघन, पृ० २०८ ।

अतिसर (१)
वि० [सं०] अतिक्रमण करनेवाला । सबसे आगे बढ़ जानेवाला । नेता [को०] ।

अतिसर (२)
संज्ञा पुं० प्रयास । चेष्टा । प्रयत्न [को०] ।

अतिसर्ग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अभिलाषा पूर्ण करना । देना । २. इच्छा नुसार काम करने की आज्ञा देना । ३. पृथक् करना [को०] ।

अतिसर्ग (२)
वि० १. स्थायी । नित्य । २. मुक्त [को०] ।

अतिसर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिक दान । दान । २. उदारता । त्याग (को०) । ३. धोखा । वंचना (को०) । ४. पार्थक्य । बिल- गाव (को०) । ५. बध (को०) ।

अतिसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीव्र गति । बहुत तेज चलना । २. गर्भाशय में बच्चे का इधर उधर हिलना डुलना [को०] ।

अतिसर्व (१)
वि० [सं०] दे० 'अतिश्रेष्ठ' [को०] ।

अतिसर्व (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर [को०] ।

अतिसांतपन कृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं० अतिसान्तपनकृच्छ्र] प्रायश्चित के निमित्त एक व्रत । विशेष—इसमें दो दिन गोमुत्र, दो दिन गोबर, दो दिन दूध, दो दिन दही, दो दिन घी और दो दिन कुशा का जल पीकर तीन दिन तक उपवास करने का विधान है ।

अतिसांवत्सर
वि० [सं०] एक वर्ष से अधिक का [को०] ।

अतिसामान्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जो बात वक्ता के अभिप्रेत अर्थ का अतिक्रमण या उल्लंघन करे । विशेष—न्याय के अनुसार यह ऐसे स्थलों पर प्रयुक्त होता है, जैसे—किसी ने कहा कि 'ब्राह्मणत्व विद्याचरण संपत्' । पर विद्याचरण संपत्ति कहीं ब्राह्मण में मिलती है और कहीं नहीं । इस प्रकार यह वाक्य वक्ता के अभिप्रेत अर्थ का उल्लंघन करनेवाला है; अतः अतिसामान्य ।

अतिसामान्य (२)
वि० अत्यंत साधारण । मामूली । सहज ।

अतिसाम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मघृयष्टि नामक पौधा [को०] ।

अतिसार
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक दस्त होने का एक रोग । विशेष—इसमें मल बढ़कर उदराग्नि को मंद करके शरीर के रसों को लेता हुआ बार बार निकलता है । इसमें आमाशय की भीतरी झिल्लियों शोथ हो जाने के कारण लाया हुआ पदार्थ नहीं ठहरता और अँतडियों में से पतले दस्त के रुप में निकल जाता है । यह भारी, चिकनी, रुखी, गर्म पतली चीजों के खाने से, एक भोजन के पचे बिना फिर भोजन करने से, बिष से, भय और शोक से, अत्यत मद्यपान से तथा कृमिदोषसे उत्पन्न होता है । वैद्यत के अनुसार इसके छह भेद हैं—(१) वायुजन्य, (२) पित्तजन्य (३) कफजन्य (४) संनिपातजन्य, (५) शोकजन्य और (६) आमजन्य । मुहा.—अतिसार होकर निकलना=दस्त के रास्ते निकलना । किसी न किसी प्रकार नष्ट होना । जैसे—'हमारा जो कुछ तुमने खाया है वह अतिसार होकर निकलेगा' (शब्द०) ।

अतिसारकी
वि० [सं० अतिसारकिन्] अतिसार से पीड़ित । अतिसार का रोगी [को०] ।

अतिसारी
वि० [सं० अतिसारिन्] दे० 'अतिसारकी' [को०] ।

अतिसी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अतसी] तीसी । अलसी । उ०—अतिसी कुसुम तन, दिरघ चंचल नैन, मानौ रिस भरि के लरति जुग झखियाँ ।—सूर० १० ।१३८५ ।

अतिसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्कृष्ट रचना [को०] ।

अतिसै पु
वि० [हिं०] दे० 'अतिशय' । उ०—कहयौ हरि कैं भय रबि ससि फिरै । वायु बेग अतिसै नहिं करै ।—सूर० ३ । १३ ।

अतिसौरभ (१)
वि० [सं०] अत्यधिक सुगंधित [को०] ।

अतिसौरभ (२)
संज्ञा पुं० १. अत्यधिक सुगंध ।२. आम [को०] ।

अतिसौहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक मात्रा में भोजन करना [को०] ।

अतिस्थूल (१)
वि० [सं०] १. बहुत मोटा । २. मोटाबुद्धिवाला । मूर्ख ।

अतिस्थूल (२)
संज्ञा पुं० मेद रोग का एक भेद जिसमें चरबी के बढ़ने से शरीर अत्यंत मोटा हो जाता है ।

अतिस्पर्श (१)
वि० [सं०] १. कंजुस । २. नीच प्रवृत्ति का अनुदार [को०] ।

अतिस्पर्श (२)
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में उच्चारण करते समय जीभ और तालु का अत्यल्प स्पर्श [को०] ।

अतिस्वप्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत अधिक स्वप्न देखना । २. अत्यधिक निद्रा [को०] ।

अतिहत
वि० [सं०] १. पूर्णतया नष्ट किया हुआ । २. अचल । स्थिर [को०] ।

अतिहसित
संज्ञा पुं० [सं०] हास के छह भेदों में से एक जिसमें हँसने वाला ताली पीटे, बीच बीच में अष्पष्ट वचन बोले, उसका शरीर काँपे और उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े ।

अतींद्रिय (१)
वि० [सं० अतीन्दिय] जो इंद्रियज्ञान के बाहर हो । जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा न हो । अगोचर । अप्रत्यक्ष । अव्यक्त । उ०—एक अतींद्रिय स्वप्नलोक का मधुर रहस्य उलझता था ।—कामायनी, पृ० ३५ ।

अतींद्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. आत्मा । २. प्रकृति । ३. मन [को०] ।

अती
वि० [सं०] दे० 'अति' । [को०] ।

अतीचार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिचार' [को०] ।

अतीत (१)
वि० [सं०] १. गत । व्यतीत । बीता हुआ । गुजरा हुआ । भूत । उ०—चिंता करत हूँ मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की ।—कामायनी, पृ० ६ । २. निर्लेप । असंग । विरक्त । पृथक् । गुदा । अलग । न्यारा । उ०—धनि धनि साँई तू बड़ा, तेरी अनुपम रीत । सकल भुवनपति साइयाँ ह्वै केर है अतीत ।—कबीर (शब्द०) । ३. मृत । मरा हुआ ।

अतीत (२)
क्रि० वि० परे । बाहर । उ०—गुन अतीत अविगत प्रवि- नासी सो ब्रज में खेलत सुखरासी ।—सूर (शब्द०) ।

अतीत पु (३)
संज्ञा पुं० वीतराग संन्यासी । यति । विरक्त साधु । उ०— (क) अजर धान्य अतीत की, गृही करै जु अहार । निश्चय होय दरिद्री, कहै कबीर विचार । कबीर (शब्द०) । (ख) अति सीतल अति ही अमल, सकल कामना हीन, तुलसी ताहि अतीत गनि, बृत्ति सांति लयलीन ।—तुलसी ग्रं० पृ० १४ ।

अतीत पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० अतिथि] १. अभ्यागत । अतिथि । पाहुन । मेहमान । उ०—आरत दुखी सीत भयभीता । आयो ऐसो गेह अतीता ।—सबल (शब्द०) । २. संगीत में वह स्थान जो सम से दो मात्राओं के उपरांत आता है । यह स्थान कभी कभी सम का काम देता है । उ०—सूर स्रुति तान बँधान अमित अति सप्त अतीत अनागत आवत ।— सूर०, १ । १२६६ । ३. तबले के किसी बोल या टुकड़े की सम से आधी या एक मात्रा के पहले समाप्ति ।

अतीतना (१)पु
क्रि० अ० [सं० अतीत] बीतना । गुजरना । गत होना । उ०—रोग-वियोग-सक-सम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५७४ ।

अतीतना (२)पु
क्रि० स० बिताना । व्यतीत करना । विगत करना । छोड़ना । त्यागना । उ०—कृच्छ्र उपवास सब इंद्रियन जीतहीं । पुत्र सिख लीन, तन जौ लगि अतीतहीं ।—केशव (शब्द०) ।

अतीति
संज्ञा स्त्री० [सं० अतीत] आधिक्य । प्राचुर्य । उ०—राजन की नीति गई पंच प्रतीति गई, अब तौ अतीति सों अनीत होन लागी है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३२ ।

अतीथ (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अतिथि' । उ०—बंधु कुबुद्धि पुरो हित लंपट चाकर चोर अतीथ धुतारो ।—इतिहास, पृ० २०१ ।

अतीथ (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अतीत' । उ०—कहै गुलाल अतीथ राम गुन गाइया ।—गुलाल०, पृ० ६० ।

अतीम पु
वि० [हि०] दे० 'यतीम' । उ०—रहै गरीब अतीम होई तिनकाँ कही फकीर । संत वाणी०, पृ० १३५७ ।

अतीव
वि० [सं०] अधिक । ज्यादा । बहुत । अतिशय । अत्यंत । उ०—हो के रुष्ट अतः अतीव मन में पाके वृथा ताप वे ।— शकु० पृ० २१ ।

अतीस
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा । विशेष—यह हिमालय के किनारे सिंध नदी से लेकर कुमाऊँ तक पाया जाता है । इसकी जड़ कई प्रकार की दवाओं में काम आती है और खाने में कुछ कड़वी तथा चरपरी होता है । यह पाचक, अग्निसंदीपक और विषघ्न है तथा कफ, पित्त, आम, अतिसार, खाँसी, ज्वर, यकृत और कृमि आदि रोगों को दूर करती है । बालरोगों के लिये यह बहुत उपकारी है । यह तीन प्रकार की होती है—(१) सफेद, (२) काली और (३) लाल । इनमें सफेद अधिक गुणकारी समझी जाती है । पर्याय—विषा, अतिविषा, काश्मीरा, श्वेता, अरुणा, प्रविषा, उपविषा, घुणवल्लभा, शृंगी महौषध, भृंगी, श्वेतकंदा, भंगुरा, मृद्वी, शिशुभैषज्य, शोकापहा, श्यामकंदा, विश्वा ।

अतीसार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतिसार' ।

अतुंग
वि० [सं०] जो ऊँचा न हो । ठिगना [को०] ।

अतुंद
वि० [सं०] जो हृष्ट पुष्ट न हो, क्षीणकाय [को०] ।

अतुकांत (१)
[हिं० अ+तुक+अंत] तुकरहित । जिसके अंतिम चरणों का तुक या अनुप्रास न मिलता हो । उ०—प्रसाद जी हिंदी में छायावाद के विधाता तो हैं ही, अतुकांत कविता के आरंभकर्ता भी वे ही हैं ।—करुणा० (प्रका०) ।

अतुकांत (२)
संज्ञा पुं० [हिं० अ+तुक+अंत] छंदोबद्ध कविता जिसमें तुक या अनुप्रास न हों ।

अतुर (१)
वि० [सं०] १. जो धनवार न हो । २. अनुदान [को०] ।

अतुर (२) पु
वि० [हिं०] दे० 'आतुर' । उ०—पांण जोड़े हुकुम पावै अतुर । वारैं भरथ आवै ।— रू०, पृ० ११६ ।

अतुर (३) पु
वि० [हिं०] दे० 'अतुल' ।—उ०—तब सुनि भान नरिंद सबद उम्मार अतुर वर ।—पृ० रा०, ३५ । १०४५ ।

अतुराई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आतुर+हिं पाई (प्रत्य०)] १ आतु- रता । जल्दी । शीघ्रता । उ०—कीरति महरि लिवावन आई । जाहु न स्याम, करहु अतुराई ।—सूर० । १ । १३७५ । २. घबराहट । हड़बड़ी । ३. चंचलता । चपलता । उ०—नैनन की अतुराई, बैनन की चतुराई गात की गोराई ना दुरति दुति चाल की ।—केशव (शब्द०) ।

अतुराना पु
क्रि० अ० [सं० आतुर, हिं० अतुर से नाम०] आतुर होना । घबड़ाना । हड़बड़ना । जल्दी मचाना । अकुलाना । उ०—(क) तुरत जाइ लै आउ, उहाँ ते, बिलंब न करि मो भाई । सूरदास प्रभु बचन सुनतहीं हनुमत चल्यौ अतुराई ।— सूर०, ९ । १४९ । (ख) आए अतुराने, बाँधे बाने, जे मरदाने समुहाने ।—सूदन (शब्द०) ।

अतुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आतुरता' ।

अतुल (१)
वि० [सं०] १. जो तोला या कूता न जा सके । जिसकी तौल या अंदाज न हो सके । २. अमित । असीम । अपार । बहुत अधिक । बेअंदाज । उ०— आवत देखि अतुल बलसीवा ।—तुलसी (शब्द०) । ३. जिसकी तुलना या समता न हो सके । अनुपम । बेजोड़ । अद्वितीय । उ०—मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी । भए मगन मन सके न रोकी ।—मानस ७ । ३२ ।

अतुल (२)
संज्ञा पुं० १. केशव के अनुसार अनुकूल नायक का दूसरा नाम । उ०—ये गुण केशव जाहि में, सोई नायक जान । अतुल, दक्ष, शठ, धृष्ट, पुनि, चौविध ताहि बखान ।—केशव (शब्द०) । २. तिल का पेड़ । ३. तिलक । तिलपुष्पी । ४० कफ । श्लेष्मा । बलगम ।

अतुलनीय
वि० [सं०] १. जिसका अंदाजा न हो सके । अपरिमित । अपार । बेअंदाज । बहुत अधिक । २. अनुपम बेजोड़ । बेजोड़ । अद्वितीय ।

अतुलित
वि० [सं०] १. बिना तौला हुआ । २. बे अंदाज । अपरिमित । अपार । बहुत अधिक । उ०—बनचर देह धरी छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन पाहीं ।—मानस, १ । १८७ । ३.—असंख्य । उ०— जो पै अलि अंत इहै करिबे हो । तौ अतुलित अहीर अबलनि को हटि न हिये हरिबै हो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४४४ । ४. अनुपम । बेजोड़ । अद्वितीय । उ०—कहहिं परस्पर सिधि समुदाई । अतुलित अतिथि राम लघुभाई । —मानस, २ । २१३ ।

अतुल्य
वि० [सं०] १. असमान । असदृश । २. अनुपम । बेजोड़ । अद्वितीय । निराला ।

अतुल्ययोगिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जहाँ कई वस्तुओं का समान धर्म कथन होने के कारण तुल्ययोगिता की संभावना दिखाई पड़ने पर भी किसी एक अभीष्ट वस्तु का बिरुद्ध गुण बतलाकर उसकी विलक्षणता दिखलाई जाय वहाँ इस अलंकार की कल्पना कविराजा मुरारिदान ने की है । उ०—हय चले हाथी चले संग छोड़ि साथी तले, ऐसी चलाचली में अचल हाड़ा ह्वै रहयो । —भूषण ग्रं०, पू० १३३ ।

अतुष
वि० [सं०] भूसी रहित । बिना भूसी का [को०] ।

अतुषार
वि० [सं०] जो ठडा न हो । गर्म [को०] ।

अतुषारकर
संज्ञा पुं० [स०] सूर्य [को०] ।

अतुष्टि
संज्ञा स्त्री० [को०] अतृप्ति । असंतोष [को०] ।

अतुष्टिकर
वि०[सं०] असंतोषजनक [को०] ।

अतुहिन
वि० [स०] जो ठंडा नहो । तृप्त [को०] ।

अतुहिनकर
संज्ञा पुं० [स०] सूर्य [को०] ।

अतुहिनधाम
संज्ञा पुं० [सं० अतुहिनधामन] दे० 'अतुहिनकर' [को०] ।

अतुहिनरश्मि
संज्ञा पुं० [स०] दे० 'अतुहिनकर' ।

अतुहिनरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अतुहिनरश्मि' [को०] ।

अतुथ पु
वि० [सं० अति=अधिक+उत्थ=उठा हुआ] अपूर्व । उ०—देखौ सखि अकथ रूप अतूथ । एक अंबुज मध्य देखियत बीस दधिसुत जूथ । —सूर० परि०,१ । ९ ।

अतूल (१)
वि० [हिं०] दे० 'अतुल' । उ०—नेह उपजावन अतूल तिल फूल कैधौं, पानिय सरोवरी की उरमि उतंग है । —भिखारी ग्रं० भा० १. पू० १०१ ।

अतूल (२)
वि० [हिं०] दे० 'अतुल्य' । उ०—हित हरषत करषत बसन परषत उरज अतूल । —पद्माकर ग्रं०, पृ० १९५ ।

अतूणाद
संज्ञा पुं०[सं०] तुरत का जन्मा बछड़ा [को०] ।

अतृपत पु
वि० [हि०] दे० 'अतृप्त' । उ०—अतृपत सुत जु छुभित तब भयौ । भाजत भाँजि भवन दुरि गयौ । —नंद० ग्रं, पृ० २४९ ।

अतृप्त
वि०[स०] १. जो तुप्त या संतुष्ट न हो । असंतुष्ट । जिसका मन न भरा हो । उ०—होकर अतृप्त तुम्हें देखने को नित्य नया रूप दिए देता हूँ पुराना छोड़ने के लिये । —झरना, पृ० ६४ । २. भूखा । बुभुक्षित ।

अतृप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] असंतोष । मन न भरने की अवस्था । उ०—यह अतृप्ति अधीर मन की क्षोभयुत उन्माद । —कामायनी पृ० ९१ ।

अतृष्णा
वि० [सं० ] तृष्णारहित । निस्पृह । कामनाहीन । निर्लोभ ।

अतें पु
वि० [सं अत्यंत] परम । अत्यधिक । उ०—अतेंरूपमूरति परगटी पुनिउँ ससि सो खीन होइ घटी । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ५१ ।

अतेज
वि० [सं० अतिजस्] १. तेजरहित । अंधकारयुक्त । मंद । धुँधला । २. हतश्री । प्रतापरहित ।

अतेव
वि० [हिं०] दे० 'अतीव' । उ०—या विथा फिरै निकुंज कुंज पुंज भामरो । कामधेनु पाय रो रहै अतेव चामरो ।—भिखारी ग्रं०, भाग १, पृ० १३९ ।

अतोर
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० तोड़=टूटना] जो न टूटे । अभंग दृढ़ । उ०—जनु माया के बंधन अतोर । —गुमान (शब्द०)] ।

अतोल
वि० [हि० अ+तोल] [स्त्री० अतोली] १. बिना तौला हुआ । बिना अंदाज किया हुआ । जो कूता न हो । उ०— साज साहित एक घुड़िला लैयो गैया दूध अतोली जू । —नंद ग्रं०, पृ० ३३७ । २. जिसकी तौल या अंदाज न हो सके । बे अंदाज । बहुत अधिक । उ०—चलै गोल गोली अतोली सनंकै, मनो भौर भीरैं उड़ातीं भनंकै । —पद्माकर ग्रं०, पृ० १० । ३. अतुल्य । अनुपम । बेजोड़ । उ०—पगति धरत मग घरनि धुजावैं धूरि, लावैं निज ऊपर अतोल बल धारे ते । — हम्मीर०, पृ० २३ ।

अतोषणीय
वि० [सं०] जो तोषणीय न हो [को०] ।

अतौल
वि० [हिं०] दे० 'अतोल' ।

अत्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथिक । २.अवयव । अंग । ३. जल । ४. बिजली । २. परिधान । पहनावा । ६. कवच । ७. घर का कोना [को०] ।

अत्त (१)पु
वि० [सं० आत] प्राप्त । उपलब्ध ।

अत्त (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अति] अति । अधिकता । ज्यादती । उ०—यह कन्या फली नहीं, मुद्राराक्षस की विषकन्या हो गई । अत्त भी तो बड़ी भई ।—भारतेंदु ग्रंथ, भाग १. पृ० ३६७ ।

अत्तवार †
संज्ञा पुं० [सं० आदित्यवार प्रा० आइच्चवार, * आइत्तवार <इत्तवार <अतवार] रविवार । सप्ताह का पहला दिन ।

अत्तव्य
वि० [सं०] खाने योग्य [को०] ।

अत्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चराचर का ग्रहण करनेवाला । ईश्वर का एक नाम ।

अत्ता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.जेठी बहिन । २. सास । माता । ३. मौसी । मातृष्वसा ।

अत्तार
संज्ञा पुं० [अ०] १. गंधी । सुगंध या इत्र बेचनेवाला । २. यूनानी दवा बनाने और बेचनेंवाल । उ०—परम पिता हमही वैद्यन के अत्तारन के प्रान । —भारतेंदु ग्रं०, भाग १. पृ० ४७९ ।

अत्ति (१)
वि० [हिं० दे० 'अति१' । उ०—ठिले अत्ति हैं मद्द मातंग माते । उमंगत तैयार तूरंग ताते । —पद्माकर ग्रं० पृ० २७० ।

अत्ति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दे० 'अत्त२' ।

अत्ति (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी बहन [को०] ।

अत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अति३' ।

अतिवारेपु
वि० [हिं अति+वाले] अत्यंत साहस का काम करनेवाले । उ०—चढ़ै हैं लिन्हौं पै महा बथ्थ भारे लसै यों किलाएँ मनौ अत्तिवारे । पद्माकार ग्रं०, पृ० २७० ।

अत्थ पु
संज्ञा [सं० अर्थ प्रा० अर्त्थ] प्रयोजन । हेतु । उ०—एकै रिपुन के जुत्थ जुत्थ करे उलथि बिन अत्थ के । —पद्माकर ग्रं०, पृ० २० ।

अत्थड़ी पु
संज्ञा स्त्री [सं० अर्थ, प्रा० अत्थ+ड़ी० (प्रत्य०)] धन । संपत्ति । उ०—उधम हत्थां अत्थड़ी कांणां सुणा निणा क्रीत ।— बाँकी० ग्रं० भाग १, पृ० ५१ ।

अत्थवना पु
क्रि० अ० [हिं] दे० 'अथबाना' । उ०—जो ऊगे सो अत्थवै फूलै सो कुम्हिलाय । —कबीर सा० सँ०, पृ० ७९ ।

अत्थि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्ति] अस्तित्व में आने की स्थिति सत्ता [को०] ।

अत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । २. सुर्य । ३. पथिक [को०] ।

अत्नु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अत्न'

अत्यंकुश
वि० [सं० अत्यङ्कुश] अंकुश कोन माननेवाला । नियंत्रण में न रहनेवाला [को०] ।

अत्यंत
वि० [सं० अत्यन्त] बहुत अधिक । बेहद । अतिशय । हद से ज्यादा ।

अत्यंतग
वि० [सं० अत्यन्तग] बहुत तेज चलनेवाला तीव्रगामी [को०] ।

अत्यंतगत
वि० [सं० अत्यन्तगत] जो सदा के लिये चला गया हो या पृथक हो गया हो [को०] ।

अत्यंतगति
सज्ञा स्त्री० [सं० अत्यन्तगति] पूर्णता [को०] ।

अत्यंतगामी
वि० [सं० अत्यन्तगामिन्] १. अत्यधिक तेज चलने वाला । २.बहुत अधिक [को०] ।

अत्यंतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आधिक्य । २. उग्रता । ३. प्रचंडता [को०] ।

अत्यंततिरस्कृत अर्थ
संज्ञा पुं० [सं० अत्यन्ततिरस्कृत अर्थ] दे० 'अत्यंत तिरस्कृत वाच्यध्वनि' । उ०—अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश ध्वनि कंपित करना बार बार ।—लहर, पृ० ३४ ।

अत्यंततिरस्कृत वाच्यध्वनि
संज्ञा स्त्री० [स० अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि] एक ध्वनि जिसमें वाच्यार्थ का पूर्णतया त्याग होता है । [को०] ।

अत्यंतनिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० सं० [अत्यन्तनिवृत्ति] पूर्णतया मुक्त हो जाना । पूर्ण रूप से पृथक् हो जाना [को०] ।

अत्यंतनिवृत्ति
संज्ञा पुं० [स० सत्यन्तभाव] किसी अवस्था में अभाव को न प्राप्त होनेवाला भाव । सदा बनी रहनेवाली सत्ता । अपरिमित अस्तित्व ।

अत्यंतवासी
संज्ञा पुं० [स० अत्यन्तवासिन्] आचार्य के समीप हमेशा रहनेवाला छात्र [को०] ।

अत्यंतसंपर्क
संज्ञा पुं० [स० अत्यन्त सम्पर्क] अत्याधिक सं भोग [को०] ।

अत्यंतसुकुमार (१)
वि० [स० अत्यन्तसुकुमार] अतिशय कोमल [को०

अत्यंतसुकुमार (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का धान्य [को०] ।

अत्यंतातिशयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [स० अत्यतिशयक्ति] दे० अतिशयोक्ति' । उ०—अत्यंतातिसयोकति चीतौ । जहँ पूरब पर क्रम विपरीतौ । —पद्माकर ग्रं०, पृ० ४० ।

अत्यंताभाव
संज्ञा पुं० [सं० अत्यन्ताभाव] १. किसी वस्तु का बिल्कुल न होना । सत्ता की नितांत शून्यता । प्रत्येक दशा में अनस्तित्व २. वैशोषिक के अनुसार पाँच प्रकार के अभावों में से चौथा जो प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव और अन्योन्याभाव से मिन्न अर्थात् जो तीनों कालों में संभव न हो । जौसे—आकाशकुसुम, वंध्यापुत्र, शशविषाण में आदि । ३. बिल्कुका कमी ।

अत्यंतिक
वि० [सं० अत्यान्तिक] १. समीपी । नजदीकी । २. जो बहुत घूमे । घुमक्कड़ । ३. बहुत चलनेवाला [को०] ।

अत्यंतिन
वि० [सं० अत्यन्तीक] १. बहुत अधिक चलनेवाला । २. अत्यधिक तीव्र गति से चलनेवाला । ३. चिरकालव्यापी । चिर- स्थायी [को०] ।

अत्य पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अति] दे० 'अति' । उ०—कमलपत्र दृग मत्त हैं रैन रति के अत्य । प्रीतम लखि थकि नित रहैं यहै कहति हौं सत्य । —ब्रज ग्रं०, पृ० ६३ ।

अत्यग्नि (१)
वि० [सं०] अग्नि से भी अधिक तापवाला [को०] ।

अत्यग्नि (२)
संज्ञ स्त्री० [सं०] अत्याधिक तेज पाचन शक्ति [को०] ।

अत्यधिक
वि० [सं० अति + अधिक] बहुत ज्यादा । सीमा से आगे [को०] ।

अत्यम्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं० अति + अम्ल] १. इमली का पेड़ । २. विषायिल । ३. बिजौरा नीबू ।

अत्यम्ल (२)
वि० बहुत खट्टा [को०] ।

अत्यम्लपरर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रामचना या खटुआ नाम की बेल ।

अत्यम्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली बिजौरा नीबू ।

अत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु । ध्वंस । नाश । २. अतिक्रमण । हद से बाहर जाना । ३. दंड । सजा । ४. कृच्छ्र । कष्ट । ५. दोष । ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अर्थदंड या जुर्माना ।

अत्ययिक
वि० [सं०] दे० 'आत्यायिक' ।

अत्ययी
वि० [सं० अत्ययिन्] १. अतिक्रमण करनेबाला । २. सबसे आगे बढ़ जानेवाला [को०] ।

अत्यर्थ
वि० [सं०] अचित परिणाम से अधिक । अत्याधिक [को०] ।

अत्याष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १७ वर्ण के वृत्तों की संज्ञा । शिखरिणी, पृथ्वी, हरिणी, मंदाक्रांता भाराक्रांता और मालाधार, आदि छंद इसके अंतर्गत हैं ।

अत्यह्न
वि० [सं० अति + अह्न] एक दिन से अधिक समय का [को०] ।

अत्याकार (१)
वि० [सं० अति=बड़ा+आकार] विशाल आकार का । भारी डीलडौलवाला [को०] ।

अत्याकार (२)
संज्ञा पु० १. अवज्ञा । २. घृणा । ३. निंदा । ४. विशाल डीलडौल [को०] ।

अत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण । स्वीकार । उ०—स्ववन-सुखद भव- भय—हरन त्यागिन को अत्याग ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग १, पृ० ४१४ ।

अत्यागी
वि० [सं० अत्यागिन्] दुर्गुणों को न छोड़नेवाला । विषयासक्त । दुर्व्यसनी ।

अत्याचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. आचार का अतिक्रमण । विरुद्धाचरण । अन्याय । निठुराई । ज्यादती । जुल्म । २. बुराचार । पापा ३. आचार की अधिकता । पाखंड । ढोंग । ढकोसला । आडंबर ।

अत्याचारी (१)
वि० [सं० अत्याचारिन्] १. अत्याचार करनेवाला । दुराचारी । अन्यायी । निठुर । जालिप । २. पाखंडी । दोंगी । ढकोसलेबाज । धर्मध्वजी ।

अत्याचारी (१)
संज्ञा पुं० वह जो अत्याचार करे । अन्यायी व्यक्ति ।

अत्याज्य
वि० [सं०] १. न छोड़ने योग्य । जिसका त्याग उचित न हो । २. जो कभी छोड़ा न जा सके ।

अत्यादित्य
वि० [सं०] सूर्य के पार जानेवाला [को०] ।

अत्याधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. रखने की क्रिया । २. अतिक्रमण । ३. होम की अग्नि को रक्षित न रखना [को०] ।

अत्यानंद
संज्ञा पुं० [अत्यानन्द] आनद का परम उत्कृष्ट आध्यात्मिक रूप । परमानंद [को०] ।

अत्यानंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० अत्यानन्दा] वैद्यक के अनुसार योनियों का एक भेद । विशेष—वह योनि जो अत्यंत मैथुन से भी संतुष्ट न हो । यह एक रोग है जिससे स्त्रियाँ वंध्या हो जाती हैं । इसका दूसरा नाम ' रतिप्रीता' भी है ।

अत्याय
संज्ञा पुं [सं०] १. सीमा का उल्लंघन । मर्यादा का अति क्रमण । अधिक आमदनी या लाभ [को०] ।

अत्यायु
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का पात्रविशेष [को०] ।

अत्यारूढ़
वि० [सं०] बहुत ऊँचे पद पर पहुँचा हुआ । अत्यंत प्रसिद्ध [को०] ।

अत्यारूढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अत्यंत ऊँचा पद । २. अतिप्रसिद्धि [को०] ।

अत्याल
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तचित्रक नामक वृक्ष [को०] ।

अत्यावाय
संज्ञा पुं० [सं०] राजद्रोहियों की अधिकता [को०] ।

अत्याहित (१)
वि० [सं०] असहमति के योग्य । अस्वीकार्य [को०] ।

अत्याहित (२)
संज्ञा पुं० १. अरुचि । अप्रियता । २. संकट । ३. भय । ४. दु?साहस [को०] ।

अत्याहितकर्मा
वि० [सं० अत्याहित+कर्मन्] दुष्ट । नीच । दुरा- चारी [को०] ।

अत्युक्त
वि० [सं०] बहुत बढ़ा चढ़ाकर कहा हुआ । अत्युक्ति— पूर्ण ।

अत्युक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अत्युक्था' [को०] ।

अत्युक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बढ़ा चढ़ाकर वर्णन करने की शैली । मुबालिगा । बढ़ावा । २. एक अलंकार जिसमें शूरता, उदारता । आदि गुणों का अद्भुत और अतथ्य वर्णन होता है । जैसे—जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भुप (शब्द०) ।

अत्युक्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो वर्णों के वृत्तों को संज्ञा । विशेष—इसके चार भेद कहे गए है० । कामा, मही, सार और मधु ।

अत्युग्र (१)
वि० [सं०] अति प्रचंड । अतिशय भयानक [को०] ।

अत्युग्र (२)
संज्ञा पुं० हींग [को०] ।

अत्युग्रगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा ।

अत्युत्तम
वि० [सं०] सबसे श्रेष्ट । अधिक अत्कृष्ट [को०] ।

अत्युपध
वि० [सं०] १. परीक्षित । अंदाजा हुआ । २. विश्व- स्त [को०] ।

अत्यूर्मि
वि० [स०] सीमा का अतिक्रमणा कर बहनेवाला [को०] ।

अत्युह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत अधिक ऊहापोह । तर्क वितर्क २. अधिक जोर से बोलनेवाल पक्षी । मोर [को०] ।

अत्यूहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीलिका या निगुँड़ी नामक पौधा [को०] ।

अत्र (१)
क्रि० वि० [सं०] यहाँ । इस स्थान पर ।

अत्र (२)पु
संज्ञा पुं [सं० अस्त्र, अप० अत्र] दे० 'अस्त्र' । उ०— सोहैँ अत्र जोड़े जे न छोड़ी सीम संगर की लंगर लँगुर उच्च औज की अतंका में ।—पद्माकर ग्रं० पृ० २२४ ।

अत्र (३)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अतर' ।

अत्र (४) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्र] अँतड़ी ।

अत्र (५)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस । २. भोजन [को०] ।

अत्रक
वि० [सं०] १. यहाँ का । २. इस लोक का । लौकिक । ऐहिक ।

अत्रत्य
वि० [सं०] यहाँ का । यहाँवाला ।

अत्रप
वि० [सं० अ=नहीं+त्रपा] निर्लज्ज । उदंड [को०] ।

अत्रभवान्
वि० [सं०] [स्त्री० अत्रभवती] माननीय । पूज्य । श्रेष्टे ।

अत्रय पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अत्रि' । उ०—पिरभू किता बासर पाय । अत्रय तणो आश्रम आय ।—रघु० रू, पृ० १२२ ।

अत्रस्त
वि० [सं०] निर्भीक । भयरहित । निडर [को०] ।

अत्रस्थ
वि० [सं०] यहाँ रहनेवाला । इस स्थान का यहाँवाला । यहाँ उपास्थित रहनेवाला । यहाँ का ।

अत्रस्नु
वि० [सं०] दे० 'अत्रस्त' [को०] ।

अत्रास
वि० [सं०] दे० 'अत्रस्नु' [को०] ।

अत्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सप्तर्षियों में से एक । विशेष—ये ब्रह्मा के पुत्र माने जाते हैं । इनकी स्त्री अनुसूया थीं । दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम इनके पुत्र थे । इनका नाम दस प्रजापतियों में भी है । २. एक तारा जो सप्तर्षिमंडल में है । ३. सात की संख्या (को०) ।

अत्रिगुण
वि० [सं० अ+त्रिगुण] त्रिगुणातीत । सत्ब, रज, तम नामक तीमों गुणों से पृथक् ।

अत्रिज
संज्ञा पुं० [सं०] अत्रि के पुत्र—१. चंद्रमा २. दत्तात्रेय । ३ दुर्वासा ।

अत्रिजात
संज्ञा पुं० [सं०]दे० १.'अत्रिज' । २. प्रथम तीन वर्णे में से किसी एक से संबंधित मनुष्य । द्विज [को०] ।

अत्रिदृग्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्रि के नेत्र से उत्पन्न चंद्रमा ऋषि । २. गणित में एक की संख्या [को०] ।

अत्रिनेत्रज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अत्रिदृग्ज' ।

अत्रिनेप्रभव
सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अत्रिनेत्रज [को०] ।

अत्रिनेत्रभू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अत्रिनेत्रप्रभाव' को ।

अत्रिनेत्रसूत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अत्रिनेत्रभू' [को०] ।

अत्रिप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्दम मुनि की कन्या अनसूया जो अत्रि ऋषि को ब्याही थीं । उ०—अत्रिप्रिया निज तपबल आनी ।—मानस, २ ।१३२ ।

अत्रिसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अत्रि ऋषि द्वारा प्रणीत धर्मशास्त्र [को०] ।

अत्रिस्मृति
सज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अत्रिसंहिता' [के०] ।

अत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अत्रिप्रिया' [को०]?

अत्री (२)
संज्ञा पुं० [सं० अत्रिन्] राक्षस [को०] ।

अत्रेयपु
संज्ञा पुं [सं० आत्रेय] दे० 'आत्रेय' ।

अत्रैगुण्य
संज्ञा पुं [सं०] सत्व, रज, तम, इन तीनों गुणों का अभाव । विरोष—सांख्य मतानुसार इस अवस्था का परिणाम मोक्ष या कैवल्य है ।

अत्वक्क
वि० [सं०] चर्मरहित [को०] ।

अत्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीघ्रता को कमी । मंदता [को०] ।

अथ
अव्य [सं०] १. एक मंगलसुचक शब्द जिससे प्राचीन काल में लोग किसी ग्रंथ या लेख का आरंभ करते थे । जैसे—(क) 'अथतो धर्म व्याख्यास्याम?' ।—वैशोषिक । [ख] 'आथातो ब्रह्माजिज्ञासा' ।—ब्रह्मासूत्र । पीछे से यह ग्रंथ के आरंभ में उसके नाम के पहले लिखा जाने लगा । जैसे—'अथ विनयपत्रिका लिख्यते' । २. अब । ३. अनंतर । तदनंतर ।

अथऊ †
संज्ञा पुं० [सं० अस्त; प्रा० अत्थ] वह भोजन जो जैन लोग सूर्यास्त के पहले करते हैं ।

अथक
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० थकना] जो न थके । अश्रांत । उ०—शासन कुमारिका से हिमालय शृंग तक अथक अबाध और तीव्र मेघ ज्योति सा चलता था ।—लहर, पृ० ७६ ।

अथकिम्
अव्य० [सं०] और क्या । हाँ [को०] ।

अथग
वि० [सं० अत्यग प्रा० अत्थग] अगाध । गंभीर । अथाह । उ०—अखंड सरोवर अथग जल हंसा सरवर न्हाहिं ।— दादू पृ० ९७ ।

अथच
अव्य० [सं०] और । और भी । इसके अतिरक्त ।

अथना पु
क्रि० अ० [सं० अस्त प्रा० अत्थ से नाम.] १. अस्त होना । डूबना । उ०—सूरुज उवै बिहानहि आई । पुनि सों अथैं कहा कह जाई । —जायसी [शब्द०] । २. कम होना । घट जाना । समाप्त हो जाना (को०) ।

अथमना †
संज्ञा पुं० [सं० अस्तमन; प्रा० अत्ममण] पश्चिम दिशा । उगमना का उलटा ।

अथरबन पु
संज्ञा पुं० [सं० अथर्वन्] चौथा वेद । अथर्ववेद । उ०— [क] यहु परमारथ कहौ हो पंडित, रुग जुग स्याम अथरबन पठिया ।—गोरख०, पृ० १०९ । [ख] रिग, जजु, साम, अथरबन माहाँ । —जायसी ग्रं०, पृ० ४४ ।

अथरा
संज्ञा पुं० [सं० आस्तर] मिट्टी का एक बरतन या नाँद । विशेष—इसमें रँगरेज कपड़ा रँगते हैं, सोनार मानिक रेत रखते है और जुलाहे सूत भिंगोते और ताने में लेई लगाते है ।

अथरी
संज्ञा स्त्री० [हिं 'अथरा का अल्पा.'] १. छोटा अथरा । २. मिट्टी का वह बरतन जिसमें कुम्हार हाँड़ी या घड़े को रखकर थापी से पीटते हैं । ३. मिट्टी का वह बर- तन जिसमें दही जमाते हैं ।

अथर्व
संज्ञा पुं० [सं० अथर्वन्] चौथा वेद । विशेष—इसके मंत्रद्रष्टा या ऋषि भृगु या अंगिरा गोत्रवाले थे जिस कारण इसको 'भृर्ग्वांगिरस' और 'अथर्वांगिरस' भी कहते हैं । इसमें ब्रह्मा के कार्य का प्रधान प्रतिपादन होने से इसे 'ब्रह्मादेव' भी कहते हैं । इस वेद में यज्ञकर्में का विधान बहुत कम है । शांति, पोष्टिक अभिचार आदि प्रतिपादन विशेष है । प्रायश्चित, तंत्र, मंत्र आदि इसमें मिलते हैं ।इसकी नौ शाखाएँ थीं—पैप्यला, दांता, प्रदांता, स्नौता, ब्रह्मादावला, शौनकी, देविदर्शती और चरण विद्या । कहीं कहीं इन नौं शाखाओं के नाम इस प्रकार हैं— पिप्पलादा, शौनकीया, दामोदा, तोतायना, जाजला, ब्रह्मप— लाशा, कौनखिना, देवदर्शिना और चारण विद्या । इन शाखाओं में से आजकल केवल शौनकीय मिलती है जिसमें २० कांड, १११ अनुवाक, ७३१ सूक्त और ४७९३ मंत्र हैं । पिप्पलाद शाखा की संहिता प्रोफेसर बुलर को काश्मीर में भोजपत्र पर लिखी मिलि थी पर वह छपी नहीं । इसका उपवेद धनुर्वेद है । इसके प्रधान उपनि्षद् प्रश्न, मुंडक और मांडूक्य हैं । इसका गोपथ ब्राह्मण आजकल प्राप्त है । कर्मकांडियों को इस वेद का जानना आवश्यक है । २. अथर्ववेद का मंत्र ।

अथर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. दे० 'अथर्व' [को०] ।

अथर्वणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अथर्ववेद के अनुसार कर्मकांड करनेवाला ब्राह्मण । २. यज्ञ करानेवाला पुरोहित । यज्ञ का ब्रह्म [को०] ।

अथर्वन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक मुनि जो ब्रह्म के पुत्र और अग्नि को स्वर्ग से लानेवाले समझे जाते हैं । २. दे० 'अथर्व' [को०] ।

अथर्वन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अथर्व' । उ०—नातर वेद अथर्वन हारू ।—कबीर सा०, पृ० ७७

अथर्वनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद' का मर्मज्ञ [को०] ।

अथर्वनी पु
संज्ञा पुं० [सं० आथर्वणि] दे० 'अथर्वाणि' । उ०—आपु बसिष्ट अथर्वनी महिमा जग जानी ।—तुलमी ग्रं०, पृ० २७० ।

अथर्वविद्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अथर्वनिधि' [को०] ।

अथर्वशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् [को०] ।

अथर्वशिर
संज्ञा पुं० [सं० अथर्वशिरस्] १. एक प्रकार की ईट जो तैत्तिरीय शाखा के समय में यज्ञ की वेदी बनाने के काम आती थी ।२. एक उपनिषद् [को०] ।

अथर्वशिरा
संज्ञा पुं० [सं० अथर्वशिरस्] १ वेद की एक ऋचा का नाम । २ एक उपनिषद् [को०] ।

अथर्वांगिरस
संज्ञा पुं० [सं० अथर्वाङ्गिरस] दे० 'अथर्व'

अथर्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अथर्वणि' [को०] ।

अथल †
संज्ञा पुं० [अ (उच्चा.)+स० स्थल; प्रा० थल] वह भूमि जो लगान पर जोतने के लिये दी जाय ।

अथवनापु †
क्रि० अ० [सं० अस्तमन=डूबना प्रा० अत्थमण अत्थवण] १. अस्त होना । डूबना । उ०—[क]—जो आगै सो अथवै फूलै सो कुम्हिलाय । जो चनिए सो ढहि परै. जामै सो मरि जाय ।—कबीर [शब्द] । [ख] केइ यह बसत बसंत उजारा । गा सों चाँद अथवा लेइ तारा ।—जायसी [शव्द०] । २. लुप्त होना । तिरोहित होना । नष्ट होना । गायब होना । चला जाना । उ०—कहत ससोक बिलोकि बंधु मुख बचन प्रीति गथए हैं । सेवक भगति, भायप गुन चाहत अब अथए हैं—तुलसी [शब्द०] ।

अथवा
अव्य० [सं०] एक वियोजक अव्यय जिसका प्रयोग उस स्थान पर होचा है जहाँ दो या कई शब्दों या पदों में से किसी एक का ग्रहण अभीष्ट हो । या । वा । किंवा । उ०—निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होइ अथवा अति फीका ।—मानस, १ ।८ ।

अथाई
संज्ञा स्त्री० [सं० *आरथायिका अथवा *प्रास्थायी, प्रा० अत्थाई] बैठने की जगह । घर का वह बाहरी चौपाल जहाँ लोग इष्ट मित्रों से मिलते वा उनके साथ बातचीत करते हैं । बैठक । चौबारा । उ०—हाट बाट घर गली अथाई । कहहिं परसपर लोग लुगाई ।—मानस, २ ।१० । २. वह स्थान जहाँ किसी गाँव या बस्ती के लोग इकट्ठे होकर बातचीत और पंचायत करते हैं । उ०—कहै पदमाकर अथाइन को तजि तजि, गोपगन निज निज गेह को पथै गयो ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २३७ । ३. घर के सामने का चबूचरा जिसपर लोग उठते बैठते हैं । ४. गोष्टी । मडली । सभा । जमावड़ा । दरबार । उ०—गजमनि माल बेच भ्राजत कहि जात न पदिक निकाई । जनु उडुगण मंडल बारिद पर नव ग्रह रची अथाई ।—तुलसी ग्रं०, पृ, .२१ ।

अथाग पु
वि० [सं० अस्ताघ, प्र० अत्थग्घ] दे० 'अथाह' । उ०— हुँकल दल गज हैबराँ अमरख नराँ अथाग ।—रा० रू०, पू० ५५३ ।

अथान
सज्ञा पुं० [सं अस्थाणु=स्थिर] अचार । कचूमर । उ०— विधि पाच अथान बनाइ कियो । पुनि द्वै बिधि क्षीर सो माँगि लियो ।—केशव (शव्द) ।

अथाना (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अथान' । उ०—निबुआ, सूरन आम अथानो और करौंदनि की रूचि न्यारी ।—सूर० १० ।२४१ ।

अथाना (२)पु
क्रि० अ० [सं० अस्तार्य, प्रा० अत्था, अत्थाअ] डूबना । अस्त होना । दे०'अथवना' ।

अथाना (३)
क्रि० स० [सं० आ+स्थापन] १. थहाना । थाह लेना । गहराई नापना । २. डूँढ़ना । छानना । उ०—फिरत फिरत बन सकल अथायो । कोऊ जीव हाथ नहिं आयो ।—सबल (शब्द) ।

अथाय पु
वि० [हिं०] दे० 'अथाह' । उ०—अद्रै अचल अखंड है, अगम अपार अथाय । ब्रज माधुरी०, पृ० २८० ।

अथार पु
वि० [सं० आ (उप०)+स्तार<थस्तृ] फैला या बिखरा हुआ ।

अथावत पु
वि० [सं० अस्तमित=डूबा हुआ] अस्त । डूबा हुआ । उ०—बेर लगी रघुनाथ रहे कित हे मन याको मैं भेद न पायो । चंदहु आयो अथावतो होत अजहुँ मनभावतो क्यों नहिं आयो ।—रघुनाथ (शब्द) ।

अथाह (१)
वि० [सं० अस्ताघ, प्रा० अत्याह अथवा सं० अ=नहीं+ √ स्था=ठहरना] १. जिसकी थाह नहो । जिसकी गह— राई का अंत न हो । बहूत गहरा । अगाध जैसे—यहाँ अथाह जल है (शब्द) । २. जिसका कोई पार या अंत न पा सके । जिसका अंदाज न हो सके । अपरिमित । अपार । बहुत अधिक । ३. गंभीर । गूढ़ । समझ में न आने योग्य । कठिन । उ०— (क) करै नित्य जप होम औ जानत वेद अथाह (शाब्द) । (ख) रमणी ह्रदय अथाह जो न दिखलाई पड़ता ।—कानन०, पृ० ७१ ।

अथाह (२)
संज्ञा पुं० १. गहराई गड्ढा । जलाशय । २. समुद्र । उ०—वा मुख के फिर मिलन को, आस रही कछु नाहिं । परे मनोरथ जाय मम अब अथाह के माहिं ।—शकुंतला, पू०११४ । मुहा.—अथाह में पड़ना=मुश्किल में पड़ना । जैसे—हम अथाह में पड़े हैं, कुछ नहीं सुझता [शब्द] ।

अथिर पु
वि० [सं० अस्थिर, प्रा० अत्थिर, अथिर] १. जो स्थिर न हो चलायमान । चंचल । उ०—काची काया मन अस्थिर थिर थिर काम करत । —कबीर ग्रं०, पृ० ७६ । २. क्षणस्थंयी । टिकनेवाला ।

अखीर पु
वि० [हिं०] दे० 'अथिर' । उ०—नहिं तर्कं वितर्क अधीर धीर । नहि शून्य अशुन्य अथीर थीर । —सुंदर ग्रं०, भा० १. पृ० ७८ ।

अथैव पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अथाई' । उ०—भाभी हमारे बुलबुल की अथैया इन देखिबे आइए ।—पोद्दार अभि० ग्र० पृ० .२७ ।

अथोर पु
वि० [सं० अ+स्तोक=थोड़ा प्र० थोक, अप० थोक+ड़ [प्रत्य०] [स्त्री० अथोरी] कम नहीं । अधिक । ज्यादा । बहुत । पूरा । उ०—भरति नेह नव नीर नित बरसत सुरस अथोर ।—भारतेंदु ग्रं० २ ।५७७ ।

अदंक पु
संज्ञा पुं० [सं० आतङ्क, हि० अतंक] डर । भय । त्रास । उ०—जसुमति बूझति फिरति गोपालहिं । जब ते तृणावर्त्त ब्रज आयो तब ते मोहिं जिय संक । नैननि ओट होत पल एकौ मैं मन भरति अदंक ।—सूर [शब्द] ।

अदंड (१)
वि० [सं० अदग्ङच] १. जो दंड के योग्य न हो । जिसे दंड देने की व्यवस्था न हो । सजा से बरी । २. जिसपर कर या महसूल न लगे । कररहित । ३ निर्द्रंद्र । निर्भय । स्वेच्छाचारी । उ०—उदधि अपार उतरत हुँ न लागी बार, केसरीकुमार सो अदंड ऐसो डाँड़िगो ।—तुलसी [शब्द०] ।

अदंड (२)
संज्ञा पुं० वह भूमि जिसकी मालमुजारी न लगे । मुआफी ।

अदंडनीय
वि० [सं० अदण्डनीय] जो दंड पाने के योग्य न हो । जिसके दंड का विधान न हो । अदंड्य ।

अदंडमान
वि० [सं० अदण्डमान] दंड के अयोग्य । दंड से मुक्त । सजा से बरी । उ०—अदंडमान दीन गर्व दंडमान भेद वै । अपठ्ठमान पाप ग्रंथ, पठ्ठमान वेद वै ।—केशव [सब्द] ।

अदंड्य
वि० [सं० अदण्डय] दंड न पाने योग्य । जिसे दंड न दिया जा सके । दंडमुक्त । सजा से बरी ।

अदंत (१)
वि० [सं० अदन्त] १. वेदाँत का । जिसे दाँत न हो । २. जिसे दाँत न निकला हो । बहुत थोड़ी अवस्था का । दुधमुहाँ । ३. जिसने दाँत न तोड़ा हो (चौपाया) ।

अदंत (२)
वि० १. बारह आदित्यों में एक । २. जोंक [को०] ।

अदंत्य
वि० [सं० अदन्त्य] जो दाँत संबंधी न हो । २. जो दाँतों के अनुकूल न हो । ३. दाँतों के लिये अहितकर [को०] ।

अदंब पु
वि० [सं० अदब्ध] पवित्र । शुद्ध । उ०—यौं पद्माकर मंत्र मनोहर जै जगदब अदंब अए री ।—पद्माकर ग्रं० पृ० ३२५ ।

अदंभ (१)
वि० [सं० अदम्भ] १. दंभरहित । पाखंडविहीन । सच्चा । बिना आडंबर का । २. निश्छल । निष्कपट । ३. प्राकृतिक । स्वाभाविक । अकृत्रिम । स्वच्छ । शुद्ध । उ०—भीति नग हीर, नग हीरन की कांति सों रतन खंभ पातिन अदंभ छबि छाई सी ।—देव [शाब्द] ।

अदंभ (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. दंभ का अभाव (को०) । ३. शुद्धता (को०) ।

अदंभित्व
संज्ञा पुं० [सं० अदम्भित्व] दंभशून्यता । दंभ का अभाव । पाखंड या आडंबर का न होना । सात्विक जनों का एक गुण ।

अदंष्ट्र (१)
वि० [सं०] दतहिन । बिना दाँत का [को०] ।

अदंष्ट्र (२)
संज्ञा पुं० १. बिना विषैले दाँत का सर्प । विषदंतहीन सर्प [को०] ।

अदक्ष
वि० [सं०] १. अकुशल । जो निपुण न हो । २. भद्दा । कुरूप [को०]

अदक्षिण
वि० [सं०] १. बायाँ । जो दाहिना न हो । २. प्रतिकूल । विरुद्ध । ३. बिना दक्षिणा का । दक्षिणारहित [यज्ञ इत्यादि] । ४. अकुशल अनाड़ी । अनुदार ।

अदक्षिणीय
वि० [सं०] जो दक्षिणा देने का पात्र या अधिकारी न हो [को०] ।

अदक्षिण्य
वि० [सं०] दे० 'अदक्षिणीय' [को०] ।

अदग
वि० [सं० अदग्घ प्रा० अदग्घ] १. बेदाग । नेष्कलंक । शुद्ध । २. निरपराध । निर्दोंष । जिसे पाप न छू गया हो । ३. अछूता । अस्पृष्ट । साफ । बचा हुआ । उ०— जेते थे तेते लियो, घूँघट माहँ समोय । कज्जल वाके रेख है, अदग गया नहिं कोय ।—कबीर [शब्द] ।

अदग्ध
वि० [सं०] १. न जला हुआ । २. जिसका दाह संस्कार न किया गया हो [को०] ।

अदत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु जिसके दिए जाने पर भी लेनेवाले को उसके रखने का अधिकार न हो । विशेष—नारद ने अदत्त के सोलह भेद किए हैं—[१] भय जो वस्तु डर के मारे दी गई हो । [२] क्रोध— लड़के आदि पर क्रोध निकालने के लिये । [३] शोकावेग में । [४] रुक्—असाध्य रोग से घबराकर [५] उत्कोच—घूस के रूप में । [६] परिहास—हँसी हँसी में । [७] व्यन्यास—बढ़ावे में आकर अथवा देखादेखी । [८] छल—जो धोखे में उचित से अधिक दे दिया गया हो । [९] बाल—देनेवाला यदि बालक या नाबालिग हो । [१०] मुढ़—जो धोखे में आकर बेवकूफी से दिया गया हो । [११] अस्वतंत्र—जो दास के द्वारा या ऐसे व्यक्ति के द्वारा दिया गया हो जिसे देने का अधिकार न हो । [१२] आर्त—जो बेचैनी या दु?ख से घबड़ाकर दिया गया हो । [१३] मत—जो नशे की झोंक में दिया गया हो । [१४] उन्मत्त—जो पागल होने पर दिया गया हो । [१५] कार्म्य—जो लाभ की झूठी आशा दिखाकर प्राप्त किया गया हो और [१६] अधर्म काम्य—धर्म के नाम पर जो अधर्म के लिये लिया गया हो ।

अदत्त (२)
वि० [सं० अदाता अथवा सं० अदत्त] जिसने दिया न हो । न देनेवाला । कृपण । उ०—कहूँ चोर कहुँ साह कहावत, कहुँ अदत्त, कहुँ दानी । —जग० बानी, पृ० ५३ ।

अदत्तदान
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्र के अनुसार बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण । अपहरण । चोरी । डकैती ।विशेष—कोई कोई आचार्य इसके तीन भेद—[१] द्रव्यादत- दान [२] भावादत्तदान, [३] द्रव्य भावादत्तदान और कोई चार भेद—(१) स्वामी अदत्तदान, (२) जीव अदत्तदान, [३] तीर्थंकर अदत्तदान और [४] गुरु अदत्तदान मानते हैं । इससे बचने का नाम अदत्तदान विरणाव्रत है ।

अदत्तपूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुँवारी कन्या । वह लड़की जिसकी मँगनी न हुई हो [को०] ।

अदत्ता (१)
वि० स्त्री० [सं०] न दी हुई ।

अदत्ता (२)
संज्ञा स्त्री० अविवाहिता कन्या ।

अदद
संज्ञा पुं० [अ०] १. संख्या । अंक । गिनती । २. संख्या का चिह्नन या संकेत ।

अदन (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. यहूदी, ईसाई और मुसलमान मत के अनुसार स्वर्ग का वह उपवन जहाँ ईश्वर ने आदम को बनाकर रखा था । उ०—अंजन की रेखा राजै कुच बिच चित्र साजै, एहैंबेली, रेली, ही, उचित अदन मैं ।—छीत०, पृ० ३९ । २. अरब सागर का एक बंदरगाह ।

अदन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] खाना । भक्षण उ० —[क] भारती बदन विष अदन सिव, ससि पतंग पावक नयन ।—तुलसी ग्रं० पृ० र२३६ । [ख] बहुरि बीरा सुखद सौरभ अदन रदन रसाल ।—घनानंद, पृ० ३०१ ।

अदना
वि० [अ०] [स्त्री० अदनी] १. तुच्छ । छोटा । क्षुद्र । नीच । उ०—हलाकु चंगेजो तैसूर, हमारे अदना, अदना सूर ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १. पृ० ४७४ । २. सामान्य । मामुली उ०—करना किसी पै रहम, इक अदना सी बात पर ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०९ ।

अदनीय
वि० [सं०] खाने योग्य । भक्ष्य ।

अदफर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अधफर' । उ०—नाउ जाजरी धार मैं अदफर भीर भुलान । —स० सप्तक, पृ० ३४४ ।

अदब
संज्ञा पुं० [अ०] १. शिष्टाचार । कायदा । बड़ों का आदर, संमान । उ०—दौलते दीवार जाए पर अदब जाने न पाए । —शेर०, पृ० ३०९ । मु.—अदब की जगह—वह व्यक्ति, स्थान या वस्तु जिसका लिहाज करना जरूरी होता है । क्रि० प्र०करना ।

अदबकायदा
संज्ञा पुं० [अ०] शिष्ट व्यवहार [को०] ।

अदब लिहाज
संज्ञा पुं० [अ०] आदर संमान [को०] ।

अदबदकर
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अदबदाकर' । उ०—मैं यों तो ये काच लेता या न लेता पर अब उनकी जिद से अदबदाकर लूँगा । श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १६३ ।

अदबदाकर
क्रि० वि० [सं० अधि+वद=बचन देना, कहना अथवा अनुध्व.] १. हठ करके । टेक बाँधकर अवश्य । जरुर । जैसे— यों तो हम न जाते, अब अदबदाकर जाएँगे (शब्द०) । विशेष—यह शब्द केवल इसी रूप में क्रि० वि० के समान आता है परंतु वास्तव में यह क्रि० अ० है ।

अदबुद (१)पु
वि० [हिं०] दे० 'अद् भुत' । उ०—अदबुद रूप जाति की बानी । कबीर बी०, पृ० २५ ।

अदबुद (२)पु
वि [हिं०] दे० 'अधबुध' । उ०—वाके बदन करू सब कोई । बुद अदबुद अचरज बड़ होई ।—कबीर बी०, पृ० २५८ ।

अदब्ब (१)पु
संज्ञा पुं० [अ० अदब] दे० 'अदब' । प्रादर अदब्ब सथ्थीन देत ।—पृ० रा०, १ ।७२१ ।

अदब्ब (२)
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० दबना] न दबनेवाला ।— अदब्ब गब्बियान के सरब्ब गब्ब को हरे ।—पद्माकर ग्रं० पृ० २८३ ।

अद्भुत पु
वि० [हिं०] दे० 'अद्भुत' । उ०—अद्भुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ।—मानस १ ।४३ ।

अदभू पु
[सं० अद्भूत] दे० 'अद्भुत' । उ०—रज्जब निपजहिं इंदर गुरु अदभू आदर ऐन । पहुप पत्र फल पूजिये सुर नर पावहिं चैन ।—रज्जब० बानी०, पृ० ८ ।

अदभ्र
वि० [सं०] १. बहुत । अधिक । ज्यादा । उ०—सुनु अदभ्र करदा, वारिज लोचन मोचन भय भारी ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५१५ । २. अपार । अनंत । उ०—अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सबदरसी अनबद्या अजीता । —मानस ७ ।१२ ।

अदम
संज्ञा पुं० [अ०] १. अनस्तित्व । अभाव । लोप । २. अनुप- स्थिति ।३. देवलोक । परलोक । जन्नत । उ०—प्रदम की राह सीधी है, बुलंदी है, न पस्ती है ।—शेर० भा १, पृ० २८९ । मुहा.—अदम की राह लेना, अदम को पधार या अदम की सिधारना=मर जाना ।

अदमआबाद
संज्ञ पुं० [अ०] वह स्थान जहँ लोग मरने के बाद जाते हैं । परलोक [को०] ।

अदमखाना
संज्ञा पुं० [अ० अदय+फा० खानह] दे० 'अदमप्राबाद' [को०] ।

अदमगाह
संज्ञा पुं० [अ० अदम+फा० गाह] दे० 'अदमआबाद' । [को०] ।

अदमतामील
संज्ञा स्त्री० [अ०] समन आदि का अमल में न आना [को०] ।

अदमपैरवी
संज्ञा स्त्री० [फा०] किसी मुकदमे में जरूरी कार्रवाई न करना । आभियोग में पक्षप्रतिपादन का अभाव । जैसे—वह मुकदमा तो अदमपैरवी में खारिज हो गया ।

अदमफुरसत
संज्ञा स्त्री० [फा०] अवकाश न होना । अनवकाश [को०] ।

अदममौजूदगी
संज्ञा स्त्री [अ०] अनुपस्थिति । गैरहाजिरी [को०] ।

अदमवसूली
संज्ञा स्त्री [अ०] मालगुजारी आदि का वसूल न होना ।

अदमवाकफीयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] अनुभवहीनता [को०] ।

अदमसबूत
संज्ञा पुं० [फा०] किसी मुकदमे में सबूत का न होना । प्रमाण का अभाव ।

अदमहाजिरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] गैरहाजिरी । अनुपस्थिति ।

अदम्य
वि० [सं०] जिसका दमन न हो सके । न दबने योग्य प्रचंड । प्रबल । अजेय ।

अदय
वि० [सं०] १. दयारहित । करुणाशून्य (व्यापार) । २. निर्दयी । निष्टुर । कठोरह्रदय (व्यक्ति) उ०—अनजानी भूलों पर भी वह अदय दंड तो देती है ।—पंचवटी, पृ० ७ ।

अदया
सज्ञा स्त्री० [स० अ+दया] कोप । नाराजी दया का अभाव । उ०—अदया अलह राम की, कुरलै ऊँणी कूब ।— कबीर ग्रं०, पृ० २५ ।

अदरक
संज्ञा पुं० [सं० आर्द्रक, फा० अदरक] तीन फुट ऊँचा एक पौधा जिसकी पत्तियाँ लबी जड़ या गाँठ तीक्ष्ण और चरपरी होती । विशेष—यह भारतवर्ष के प्रत्येक गर्म भाग में तथा हिमालय पर ४००० से २००० फुट तक की ऊँचाई पर होता है । इसकी गाँठ मसाल, चटनी, अचार और दवाओं में काम आती है । यह गर्म और कटु होता है तथा कफ, वात, पित्त और शूल का नाश करती है । अग्निदीपक इसका प्रधान गुण है । गाँठ को जब उबालकर सुखा लेते हैं तब उसे सोंठ कहते हैं । पर्याय—शृंगवेर, कटुभद्र, कटूत्कट, गुल्ममूल, मूलज, कंदर, वर, महीज, सैकतेष्ट, अनुपज, अपाकशाक, चद्राख्य, राहुच्छत्र, सुशाकक, शार्ङ्ग, आर्द्रशाक, सच्छाका ।

अदरकी
संज्ञा स्त्री० [सं० आर्द्र की] सोंठ और गुड़ मिलाकर बनाई हुई टिकिया । सोंठौरा ।

अदरख पु
सं० पुं० [हि] दे० 'अदरक' । उ०—हींग हरद म्रिच छौंके तेले । अदरख और आँवले मेले ।—सूर०, १० ।१० । १४ ।

अदरस (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अदरक' । उ०—भरत हरत दरसत सबहि, पुनि अदरस काहु । तुलसी सुगुरु प्रसाद बल होत परमपद लाहु ।—स० सप्तक, पृ० ३४ ।

अदरस (२)पु
वि० [हि०] दे० 'अदृश्य' ।

अदरा
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आर्द्रा' । उ०—(क) बरसै अदरा के बुँदवा, ठाढ़ि भीजै गुजरी । —प्रेमधन०, भाग २. पृ० ३४० । (ख) अदरा माहि जो बोवउ साठी । दुख के मार निकालउ लाठी ।—घाघ०, पृ० १२२ ।

अदराना (१)
क्रि० अ० [सं० आदर] बहुत आदर पाने से शेखी पर चढ़ना । फुलना । इतराना । आदर या मान चाहना । जैसे— वे आजकल अजराए हुए हैं, कहने से कोई काम जल्दी नहीं करते (शब्द) ।

अदराना (२)
क्रि० स० आदर देकर शेखी पर चढ़ाना । फुलाना । घमंडी बनाना ।

अदरु
संज्ञा पुं० [सं० आदर] दे० 'आदर' । उ०—राजे बिना बुलाई गति जाऊँ, अदरु नहिं होई ।—पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ९१७ ।

अदर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दिन जिसकी संध्या को चंद्रमा दिखाई न पड़े । २. आदर्श । दर्पण [को०] ।

अदर्शन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविद्यमानता । असाक्षात् । २. लोप । विनाश । ३. उपेक्षा [को०] । क्रि प्र.—करना ।—होना ।

अदर्शन (२)
वि० अदृश्य । लुप्त [को०] ।

अदर्शनोय
वि० [सं०] दर्शन के अर्याग्य । जो देखने लायक न हो । बुरा । कुरूप । भद्दा ।

अदल (१)
संज्ञा पुं० [अ० अदल] न्याय । इंसाफ । उ०—अदल कहो पुहुमी जस होई । चाटा चलत न दुखवै कोई ।—जायसी (शाब्द) ।

अदल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] हिज्जल नाम का एक पौधा [को०] ।

अदल (३)
वि० १. बिना दल या पत्ते का । पत्रविहीन । २. बिना फौज का । सेनारहित । ३. भागरहित (को०) ।

अदल (४)
वि० [हिं० अ+दल] जो किसी दल में न हो । तटस्थ ।

अदल (५)पु
संज्ञा स्त्री० [सं०अदल=अपर्णा] पार्वती । उ०—अदल- पति—रिपु पिता—पतिनी अब न जैहैं फेर ।—सा० लहरी, पृ० ११६ ।

अदलखाना
संज्ञा पुं० [अ० अदल+फा० खानह्] न्यायालय । कचहरी । उ०—मेरे ही अकेले गुन औगुन बिचारे बेना बदल न जैहे बड़े अदलखाने में ।—भिखारी ग्रं०, भाग १, पृ० ७६ ।

अदलतिहा †
वि० [अ० अदालत+हिं० हा (प्रत्य०)] मुकदमेबाज । मुकदमा लड़नेवाला ।

अदल बदल
संज्ञा पुं० [अ० बदल का अनुध्व० अदल] उलट पुलट । हेर फेर । परिवर्तन । उ०—अदल बदल भूषण प्रिया यातैं परत लखाइ नूपुर कटि ढीलो भयो सकसि किंकिनी पाइ ।— भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० ४५ ।

अदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] घृतकुमारी नामक पौधा [को०] ।

अदलाबदली
संज्ञा स्त्री० [हिं० अदल बदल] १. एक वस्तु लेने के लिय उसके बदले दूसरी वस्तु देना । २. एक चीज के स्थान पर दूसरी चीज रखना । क्रि० प्र०—करना । —होना ।

अदली (१)पु
संज्ञा पुं० [अ० अदल+हिं० ई (प्रत्य०)] न्यायी । इंसाफवर । उ०—कंप कदली में बारि बुंद बदली, सिवराज अदली के राज में यों राजनीति है ।—भूषण (शब्द) ।

अदली (२)पु
वि० [सं० अदल] बिना पत्ते का ।

अदलीय
वि० [सं० अ+दल+ईय (प्रत्य०)] जो किसी दल का सदस्य न हो । किसी दल से संबंध न रखनेवाला ।

अदवान
संज्ञा स्त्री० [सं० अध?=नीचे+वांम=रस्सी अथवा देशी] चारपाई के पैताने की वह रस्सी, जिसे बिनावट को कसी रखने के लिये करधनी के छेदों में से ले जाकर सीरो में तानकर लपेटते हैं । ओनचन ।

अदस
संज्ञा पुं० [अ०] मसूर [को०] ।

अदह पु
वि० [अदाय] न जलनेवाला ।

अदहन
संज्ञा पुं० [सं० आदहन] खौलता हुआ पानी । आग पर चढ़ा हुआ वह पानी जिसमें दाल, चावल आदि पकाते हैं ।

अदहय
वि० [सं०] न जलने योग्य । जो जल न सके ।

अदात
वि० [सं० अदान्त] १. जो इंद्रियों का दमन न कर सके । अजितेंद्रिय । विषयासक्त । २. जो वश में न किया जा सके । दुर्दांत (को०) ।

अदाँत पु
वि० [सं० अदन्त] बिना दाँत का । जिसे दाँत न आए हों (प्राय? पशुओं के लिये) । उ०—अदाँत बरदै, दो दांत व्याय । आप जाय खसमै खाय ।—कहावत (शब्द) ।

अदा (१)
वि [अ०] चुकता । बेबाक । दिया हुआ । उ०—जान दी, दी हुई उसी की थी । हक तौ यह है कि हक अदा न हुआ ।—शेर०, भा० १, ४९३ । क्रि० प्र०— करना । जैसे—उसने तुम्हारा सब रुपया अदा कर दिया (शब्द) ।—होना । जैसे—तुम्हारा कर्ज अदा हो गया (शब्द) । मुहा.—अदा करना=पालन करना या पूपा करना । जैसे— सबको अपना फर्ज अदा करना चाहिए । (शब्द) । यौ०—अदाए जर डिगरी=डिगरी के देने या रुपए को देना । अदाबंदी=किसी रुपए के बेबाक करने या देने के लिये किस्त या समय का नियत करना । किस्तबंदी । अदा या बेबाक करना=सब चुकता कर देना । कौड़ी कौड़ी दे डालना । अदाएमालगुजारी= मालगुजारी का देना । अदाए शहादत=गवाही देना ।

अदा (२)
संज्ञा स्त्री० १. भाव । हाव भाव । नखरा । मोहित करने की चेष्टा । उ०—सगरब गरब खिचैं सदा चतुर चितेरे आय । पर वाकी बाँकी अदा नेकु न खींची जाय ।— स० सप्तक०, पृ० २६५ । २. ढंग । तर्ज । आन । अंदाज । उ०—इस अदा से मुझे सलाम किया । एक ही आन में गुलाम किया ।—शेर०, भाग १. पृ० ३६२ ।

अदाइगी
संज्ञा स्त्री० [को०] दे० 'अदायगी' [को०] ।

अदाई (१
पु वि० [अ० अदा+हिं ई (प्रत्य०)] १.ढंगी । चालबाज । चतुर । उ०—ऊधौ नैंकु निहारो । हम सालोक्य, सरूप, सायुज्यौ रहति समीप सदाई । सो तजि कहत और की औरे, तुम अलि बड़े अदाई ।—सूर० १० ।३९०० ।

अदाई (२) पु
वि० [हिं०अ+दाय] वाम । प्रतिकूल । प्रेमवंचित । उ०—कहहु मोहिं अब बाल सुहाई । केहि अवगुन मोहि कीह्न अदाई ।—चित्रा०, पृ० ३०६ ।

अदाकार
संज्ञा पुं० [हिं० अद+फा० कार] अभिनेता । कलाकार[को०] ।

अदाग पु
वि० [हिं० अ=नहीं+अ० दाग=धब्बा] १. बेदाग । निर्मल । स्वच्छ । साफ । उ—ज्ञान को भूषन ध्यान है, ध्यान को भूषन त्याग । त्याग को भूषन शांतिपद तुलसी अमल अदाग ।—तुलसी (शब्द) । २. निष्कलंक । निर्दोष । ३. पवित्र । शुद्ध ।

अदागी पु
वि० [हिं०] दे० 'अदाग' ।

अदाता (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. न देनेवाला व्याक्ति । कृपणा । कंजूस । २. विवाह में (कन्या) न देनेवाला व्याक्ति को (को०) । ३. वह व्यक्ति जिसे किसी का कुछ देय न हो (को०) ।

अदाता (२)
वि० न देनेवाला । कंजूस ।

अदान (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अ+दान] १. अदाता । न देनेवाला व्यक्ति । कंजूस । कृपण । उ०—हरि को मिलन सुदामा आयो । पूरब जन्म अदान जानिकै ताते कछू मँगायो । मूठिक तंदुल बाँधि कृष्ण को बनिता बिनय पठायो ।—सूर (शब्द) ।२. वह हाथी जिसका दान अर्शात् मद स्रवित न होता हो (को०) ।

अदान (२)
वि० [सं० अ=नहीं+फा० दानह=जान र] अजान । नादान । नासमझ । उ०—ये अदान जानती नहीं, कछु पालेहु भूल बिसारी ।—रघुराज (शब्द०) ।

अदानियाँ पु †
वि० [हिं०] दे० 'अदानी' । उ०—(क) ठाकुर कहत ये अदानियाँ अबूझ भोंदू भाजन अजस के वृथा ही उपजाए तै ।—ठाकुर श०,पृ० २७ । (ख) ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के जालिम दमद है, अदानियाँ ससुर के ।—इतिहास, पृ० ३८२ ।

अदानीपु
वि० [सं० अ+दानिन्] जो दान न दे । कांजूस । सूम । कृपण । उ०—श्रवण नैन कोनही लौं आँसु को निवास होत जैसे सोन भौन कोन राखत अदानी है ।—रघुराज (शब्द०) ।

अदाबपु
संज्ञा पुं० [अ० आदाब] दे० 'आदाब' । उ०—अदब आदाब सलाम जो करई ।—दरिया बानी०, पृ० ४० ।

अदाय
वि० [सं०] दाय या हिस्सा पाने का अनधिकारी [को०] ।

अदायगी
संज्ञा स्त्री० [फा० अदाइगी] १. चुकता करना । भुगतान करना । २. पद्धति । तर्ज । प्रणाली । उ०—सिर्फ अदायगी अँगरेजी है ।—गीतिका (भू०) पृ० ५ ।

अदायाँ पु
वि० [हिं० अ+दायँ=दक्षिण, दाहिना] वाम । प्रतिकूल । बुरा । उ०—परिया नवमी पूर्व न भाए । दूइज दसमी उतर अदाएँ ।—जायसी (शब्द०) ।

अदाया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+दया] दया का अभाव । निष्ठुरता । अकृपा । उ०—साहस, अनृत चपलता माया । भय अबिबेक असोच अदाया ।—मानस, ६ ।१६ ।

अदायाद
वि० [सं०] १. जो सपिंड न हो । २. उत्तराधिकार रहित [को०] ।

अदायिक
वि० [सं०] १. दाय या उत्तराधिकार से संबंध न रखनेवाला । २ जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो । लावारिस [को०] ।

अदार
वि० [सं०] पत्निरहित । विधुर । रँडुआ [को०] ।

अदारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा [को०] ।

अदालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] न्यायालय । वह स्थान जहाँ बैठकर न्यायाधीश स्वत्व संबंधी झगड़ों पर विचार करता है । विरोष—आजकल इसके दो प्रधान विभाग हैं—(१) फोजदारी और (२) दीवानी । माल विभाग को दीवानी के अंतर्गत ही समझना चाहिए । यौ.—अदालत अपील=वह अदालत जहाँ किसी मातहत अदालत के फैसले की अपील हो । अदालत खफीफा=एक प्रकार की दीवानी अदालत जिसमें छोटे छोटे मुकदमे लिए जाते हैं । अदालत दीवाली=वह अदालत जिसमें संपत्ति या स्वत्व संबंधी बातों का निर्णय होता है । अदालत मराफाऊला=वह अदालत जिसमें पहले पहल दीवानी मुकदमा दायर किया जाय । अदालत मराफासामी=वहअदालत जिसमें अदालत मराफाऊल की अपील हो । अदालत मातहत=जिसके फैसले की अपील उसके ऊपर की अदालत में हुई हो । अदालत माल=वह अदालत, जिसमें मालगुजारी वा लगान संबंधी मुकदमे दायर किए जाते हैं । मुहा.—अदालत करना=मुकदमा लड़ना । अदालत होना= अभियोग चलना ।

अदालती
वि० [अ० अदालत+हिं० ई० (प्रत्य०)] १. अदालत विष्यक । न्यायालय संबंधी । २. जो अदालत करे । मुकदमा लड़नेवाला ।

अदावँ पु
संज्ञा पुं०—[सं० अ० बुरा+दावँ] बुरा दाँवपेंच । असमंजस । कठिनाई । उ०—यह ऐसा अदावँ परयो या घरी घरहाइन के परि पुंजन में । मिस कोउ न आनि चढ़े चितवै इनकी बतियाँत की गुंजन में ।—राम (शब्द०) ।

अदावत
संज्ञा स्त्री० [अ०] शत्रुता । दुश्मनी । लाग । बैर । विरोध । उ०—कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यों न हो ।—शेर० भाग १, पृ० ५२१ । कि० प्र०— करना । —रखना । —निकालना । —होना ।

अदावती
वि० [अ० अदावत+हिं० ई (प्रत्य.)] जो अदालत रखे । कसरी । जो लाग रखे । २. विरोधजन्य । द्वेषमूलक ।

अदास
वि० [सं०] जो दास या परतंत्र न हो । स्वाधीन [को०] ।

अदाह (१) पु
संज्ञा स्री० [अ० अदा] हाव भाव । नखरा । आन । मोहित करने की चेष्टा । उ०—एतो सरूप दियो तो दियो पर एती अदाह तैं आनि धरी क्यों । एती अदाह धरी तो धरी पर ये अखियाँ रिझवारि करी क्यों ।—(शब्द०) ।

अदाह (२)पु
वि० [सं अदाह] दाहरहित । जिसमें ताप या जलन न हो । उ०—कहा होइ जो त्री दुख तापा । सुखे जी अदाह औ झापा ।—इंद्रा०, पृ० १५१ ।

अदाहक
वि० [सं०] न जलानेवाला । जिसमें जलाने या भस्म करने का गुण न हो जैसे—जल ।

अदाह्य
[सं०] १. जो जलने योग्य न हो । २. जो चिता पर जलाने योग्य न हो । ३. आत्मा और परमात्मा का विशेषण [को०] ।

अदिक्
वि० [सं०] दिशाओं से परे । दिशारहित । उ०—तुम ही घर आए हो यह जग जंजाल रूप । पर तुम हो चिर अकाल, नित्य अदिक्, हे अनूप ।—क्वासि, पृ० ९१ ।

अदिढ़ पु
वि० दे० 'अदृढ़' । उ०—कछु मन दिढ़ कछु अदिढ़ लहीये, प्रौढ़ा धीराधीरा कहिये ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४८ ।

अदित पु
संज्ञा पुं० [सं० आदित्य] दे० 'आदित्य' ।

अदिति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रकृति । २. पृथ्वी । ३. दक्ष प्रजापति की कन्या और कश्यप ऋषि की पत्नी । विशेष—इनसे सूर्य आदि तैंतीस देवता उत्पन्न हुए थे ये देवताओं की माता कहलातीं हैं । ४. असीमता । ५. निर्धनता । ६. स्वतंत्रता । ७. सुरक्षा । ८. पूर्णता । ६. पुनर्वसु नक्षत्र । १०. गाय । ११. वाणी । १२. उत्पन्न करने की शक्ति । १३. दूध । १४ । माता । १५. द्युलोक । १६. अंतरिक्ष ।

अदिति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर का एक विशेषण । २. प्रजापति । ३. देवताओं का विश्वदेवा नामक गण । ४. काल । ५. मूत्यु [को०] ।

अदितिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. आदित्य । सूर्य [को०] ।

अदितिनंदन
संज्ञा पुं० [सं० अदितिनन्दन] दे० 'अदितिज' [को०] ।

अदितिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. सूर्य ।

अदिन
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा दिन । कुदिन । कुसमय । संकट या दुख का समय । अभाग्य । उ०—यों कही बार बार पाँयनि परि पाँवरि पुलकि लई है । अपनो अदिन देखि हों डरपत जेहि विष बेलि बई है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३५९ ।

अदिव्य (१)
वि० [सं०] १. लौकिक । साधारण । सामान्य । २. स्थूल जिसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा हो ।

अदिव्य (२)
संज्ञा पुं० तीन प्रकार के नायकों में से एक । वह नायक जो लौकिक हो ।मनुष्य नायक ।जैसे—मालती माधव नाटक में माधव ।

अदिब्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीन प्रकार की नायिकाओं में से एक । वह नायिका जो लौकिक हो । जैसे—मालती माधव में मालती ।

अदिष्ट (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अ+दिष्ट=भाग्य] अभाग्य । उ०— कन्या एक जु पाछै भई । सु पुनि अदिष्ट लई उड़ि गई ।— नंद० ग्रं०, २३६ ।

अदिष्ट (२) पु
वि० [सं० अदृष्ट] दे० 'अदृष्ट' ।

अदिष्टी पु
वि० [सं० अ+दिष्ट=भाग्य] अभाग्य । उ०— बदकिस्मत । २. अदूरदर्शी । मूर्ख । अविचारी । दुष्ट ।

अदिस्ट पु
वि० दे० 'अदृष्ट१' । उ०—पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा । ज्ञान दिस्टि सौं जाइ पहूँचा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १२२ ।

अदिस्स पु
वि० [सं० अदूश्य, प्रा० अदिस्स] लुप्त । गायब । ओझल । उ०—भूपतितप्रताप रिपु रन अदिस्स ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २६८ ।

अदीक्षित
वि० [सं०] जिसने दीक्षा न ली हो । जो दीक्षित न हो [को०] ।

अदीठ पु
वि० [वि० अदृष्ट प्रा० अद्दिठ्ठ] बिना देखा हुआ । अप्रत्यक्ष । अनदेख । गुप्त । छिपा हुआ । उ०—इस मन कौं बिसमल करौं दीठा करौं अदीठ ।—कबीर ग्रं०, पृ०, २८ ।

अदीत पु
पु० [सं० आदित्य] दे० 'आदित्य' । उ०—मोह महातम रहतु है, जो लौ ज्ञान न होत । कहा महातम रहि सकै भए अदीत उदोत ।—स० सप्तक, पृ० ३१९ ।

अदीदा पु
वि० [सं० अ+फा० दीदह] बिना आँख का । नेत्र- रहित । उ०—दादू देखा अदीदा । सब कोई कहत सुनीदा ।—घट०, पृ० १९८ ।

अदीठा
पुवि० [सं० अदृष्ट] जिसे देखा न गया हो । उ०— मारवणी कह कारणइ देस अदीठा दिट्ठ ।—ढोला०, पृ० १२५ ।

अदीन
वि [सं० अदीना] १. दीनतारहित । अनम्र । उग्र । अविनीत प्रचंड । निडर । २. उच्चाशाय । ऊँची तबीयत का । उदार । उ०—निठुर, ठुकराओ न मेरी इस अदीना याचना को ।—क्वासि, पृ० ५० । यौ.—अदीनात्मा=जो प्रकृत्या अदीन हो ।

अदीनवृत्ति
वि० [सं०] जो प्रकृया दीन न हो । तेजस्वी [को०] ।

अदीनसत्व
वि० [सं अदीनसत्व] दे० 'अदीनवृत्ति' [को०] ।

अदीनात्मा
विं० [सं०] दे० 'अदीनवृत्ति' [को०] ।

अदीपित
वि० [सं०] अप्रकाशित [को०] ।

अदीब (१)
वि० [सं०] १. अदब सिखानेवाला । २. सुशील [को०] ।

अदीब (२)
संज्ञा पुं० साहित्य और विद्या का ज्ञाता [को०] ।

अदीयमान
वि० [सं०] जो न दिया जाय । उ०—अदीयमान दु?ख सुख दीयमान जानिए ।—केशाव (शाब्द०) ।

अदीर्घ
वि० [सं०] जो बड़ा न हो । छोटा । सूक्ष्म [को०] ।

अदीर्घसूत्री
वि० [सं०] १. काम करने में विलंब न करनेवाला । २. आलस्य न करनेवाला ३. स्फूर्तिवाला [को०] ।

अदीर्घसूत्री
वि० [सं०] दे० 'अदीर्घसूत्री' [को०] ।

अदीह पु
वि० [सं० अ=नहीं+दीर्घ; पा० दीर्घ; प्रा० दीह] दे० अदीर्घ' । उ०—राधिका रूप विधान के पानिन आनि सबै छिति की छबि छाई । दीह अदीहन सूछम थूल गहै दूग गोरी की दौरि गोरई ।—केशाव (को०) ।

अदुंद पु
वि० [सं अद्रंद्र, प्रा० अदुंद] १. द्वंद्वरहित । निर्द्वद्व । बिना झंझट का । बाधारहित । २. शांत । निश्चिंत । ३. बैजोड़ । अद्वितीय । उ०—यौवन बनक पै कनक बसुधाधर सुधाधर बदन मधुकाधर अदुंद री । (शब्द०) ।

अदु?ख
वि० [सं०] जो दु?खी न हो । दु?ख से रहित [को०] ।

अदु?खनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्रंपद के शुकल पक्ष की नवमी तिथि [को०] । विशोष—इस दिन दु; ख निवारण के लिये स्त्रियाँ देवी की पूजा करती हैं ।

अदुइत पु
वि० [सं अद्रैत] दे० 'अद्रैत' । उ०—अदुइत ब्रह्म बिराग मत ब्रह्मज्ञान निर्लेप ।—सं० दरिया, पृ० ४० ।

अदुग्ध
वि० [सं०] १. दूधरहित । २. न दुही हुई [को०] ।

अदुर्ग
वि० [सं०] १. दुर्गरहित । २. दुर्गम न हो [को०]

अदुर्गविषय
संज्ञा पुं० [सं०] वह देश जिसमें किले का अभाव हो [को०] ।

अदुष्ट
वि० [सं०] १. दूषशरहित । निर्देष । शुद्ध । ठीक । यथार्थ । वास्तविक । उ०—सो स्लेष मुद्रालंकार करिकै बारह, लर- चत को नाम आन्यो चाहो तातें सब अदुष्ट हैं ।—भिखारीग्रं० भा० २. पृ० २४० । २. सज्जन । भला ।

अदू
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु । बैरी । दुश्मन । उ०—दोस्तों के लिये शादी ही अदू के लिये गम हो ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ७४७ ।

अदूजा
वि० दे० 'अद्वितीय' [को०] ।

अदूर (१)
क्रि० वि० [सं०] समीप । निकट । पास ।

अदूर (२)
वि० पास का । समीपी [को०] ।

अदूर (३)
संज्ञा पुं० सामीप्य [को०] ।

अदूरदर्शी
वि० [सं०] जो दूर तक न सोचे । अनग्रसोची । जो दूर के परिणाम का विचार न करे । अविचारी । स्थूलबुद्धि । नासमझ ।

अदूरदरसी पु
वि० [हिं०] दे० 'अदूरदर्शी' । उ०—हेरत हिरायेसे परसपर सचिंत्य चूर० पारथ औ सारथी अदूरदरसीनि लौं ।— रत्नाकर, भा० २, पृ० १४३ ।

अदूषण
वि० [सं०] दूषणरहित । निर्दोष । बेऐब । शुद्ध । स्वच्छ । अच्छा ।

अदूषन पु
वि० [हिं०] दे० 'अदूषण' । उ०—मनहु मारि मनसिज पुरारि दिय ससिहि चापसर मकर अदूषन ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१४ ।

अदुषित
वि० [सं०] जिसपर दोष न लगा हो । निर्दोष । शुद्ध । उ० वह पुर्णतया अदुषित और निर्विकार है ।—कबीर ग्रं० पृ० ३ ।

अदुषितधी
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि भ्रष्ट न हुई हो । शुद्ध बुद्धिवाला पवित्रात्मा । [को०] ।

अदृढ़
वि० [सं अ+दृढ़] १. जो दृढ़ न हो । कमजोर । अस्थिर । चंचल । यो.—अदृढ़चित्त ।

अदृप्त
वि० [सं०] दर्प या अभिमानशुन्य । निरभमान । सीधा सादा । सौम्य ।

अदृश्य
वि० [सं०] १. जो दिखाई न दे । अलख । २. जिसका ज्ञान पाँच इँद्रियों को न हो । अगोचर । परोक्ष । लुप्त । गायब । अंतधवि । क्रि० प्र०— करना ।—होना । उ०—लक्ष्मण तुरत अदृश्य उसी में हो गए ।—कानन०, पृ० १०१ ।

अदृष्ट (१)
वि० [सं०] १न देखा हुआ । अलक्षित । अनदेखा । २लुप्त । अंतधनि । तिरोहित । गायब । ओझल । उ०— यह कहिकै भगीरथी केशव भइ अदृष्ट ।—राम चं०; पृ० ९३ । क्रि० प्र०— करना । —होना ।

अदृष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. भाग्य । प्रारब्ध । किसमत । भावी । जन्मांतर का संस्कार । उ०—(क) केशव अदृष्ट साथ जीव जोति जैसी, तैसी लंकनाथ हाथ परी छाया जाया राम की ।—राम- चं०, पृ० ७५ । (ख) दिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से ।—लहर पृ० ५३ । २. अग्नि और जल आदि से उत्पन्न आपत्ति । जैसे,—आग लगाना, बाढ़ आना, तुफान आना ।

अदृष्टकर्मा
वि० [सं० अदृष्टकर्मन्] जिसे काम करने का अभ्यास न हो । कार्य संबंधी अनुभव से रहित [को०] ।

अदृष्टगति
वि० [सं०] १. जिसकी चाल लखी न जाय । जो चुपचाप कार्य करे । उ०—सहज सुवास सरीर की आकरषन विधि जानु । अति अदृष्टगति दुतिका, इष्ट देवता मानु ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० २६२ । २. चालबाज । कुटनीतिपरायण ।

अदृष्टनर
संज्ञा पुं० [सं०] वह संधि जिसे मध्यस्य के बिना ही दोनों पक्ष स्वीकार कर लें [को०] ।

अदृष्टनरसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अदृष्टतरसन्धि] वह संधि जो दुसरे के साथ इस आशय से किया जाय कि वह किसी तिसरे से कोई काम सिद्ध करा देगा ।

अदृष्टपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अदृष्टनर' [को०] ।

अदृष्टपूर्व
वि० [सं०] १. जो पहले न देखा गया हो । २. अदभुत् । विलक्षण ।

अदृष्टफल (१)
वि० [सं०] अज्ञात फलवाला । जिसका फल न ज्ञात हो [को०] ।

अदृष्टफल (२)
संज्ञा पुं० पुण्य अथवा पाप का भविष्य में उपलब्ध होनेवाला फल [को०] ।

अदृष्टरुप (१)
वि० [सं०] अदृशय आकारवाला । [को०] ।

अदृष्टरुप (२)
संज्ञा पुं० वह रुप जो दृष्टिगोचर न हो [को०] । २१ ।

अदृष्टलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं० अदृष्ट+ लिपि] भाग्यलिपि । भाग्य की रेखा । उ०—लोगों की अदृष्ट लिपि लिखि-पढ़ी जाती थी ।— लहर, पृ० ७६ ।

अदृष्टवाद
वह सिद्धांत जिसके अनुसार परलोक आदि परोक्ष बातों पर किसी प्रकार का तर्क वितर्क किए बिना केवल शास्रलेख के आधार पर विश्वास किया जाय । प्रारब्धवाद । नियतिवाद ।

अदृष्टवादी
वि० [सं०] अदृष्टवाद को माननेवाला । भाग्यवादी । उ०—आप बड़े अदृष्टवादी है ।—प्राँधी, पृ० १८ ।

अदृष्टाकाश
संज्ञा पुं० [सं० अदृष्ट+ आकाश] भाग्यरुपी आकाश । उ०—मुगल अदृष्टाकाश मध्य अति तेज से धुमकेतु से सुर्य- मल्ल समुदित हुए ।—कानन०, पृ० १०८ ।

अदृष्टाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी युक्ति से लिखे अक्षर जो बिना किसी विशिष्ट क्रिया के न पढ़े जाएँ । विशेष—ऐसे अक्षर प्राय? व्याज, नीबु आदि के रस से लिखे जाते है और सुखने पर दिखाई नहीं पड़ते । विशेषत? आँच पर रखने से उमड़ आते और पढ़े जाते हैं ।

अदृष्टार्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायदर्शन के अनुसार वह शब्दप्रमाण जिसके वाच्य या अर्थ का साक्षात् इस संसार में न हो । जैसे—स्वर्ग, मोक्ष, परमात्मा, आदि ।

अदृष्टार्थ (२)
वि० आध्याच्मिक या गुढ़ अर्थ का द्योतक । जिसका विषय इंद्रियों के ज्ञान से परे हो [को०] ।

अदृष्टि (१)
वि० [सं०] दृष्टिहीन । अंधा [को०] ।

अदृष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० १. दिखाई न पड़ने की स्थिति । २. क्रोध दुर्भाव आदि से युक्त दृष्टि । कुदृष्टि [को०] ।

अदृष्टि (३)
संज्ञा पुं० शिष्यों कि तीन भेदों में से एक । मध्यम अधिकारी शिष्य ।

अदृष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अदृष्ट' [को०] ।

अदेख पु
वि० [सं० अ=नहीं+हिं०<देख] १. जो न देखा जाय । अदृश्य । गुप्त । २. न देखा हुआ । अदृष्ट । उ०— (क) ऊहै अदेख केहु नहिं देखा, कवन फल दहुँ पापा ।—जग० बानी, पृ० १०६ । (ख) देखेउ करइ अदेख इव अनदेखेउ बिसुआस ।—स० सप्तक, पृ० २८ ।

अदेखी (१)
वि० [अ=नहीं+देखी] जो न देख सके । डाही । द्धेषी । इर्षालु । उ०—ए दई, ऐसी कछु करु ब्यौत जु देखें अदेखिन के दुग दागै । जामे निसंक ह्वै मोहन को भरिए निज अंक कलंक लागै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ९७ ।

अदेखी (२)
वि० स्त्री० बिना देखी हुई ।

अदेखे
क्रि० वि० [हिं०] बिना देखे । अनदेखए । उ०—अदेखे अकेले किते दिन ह्वैँ गए चाह गई चित सौं कढ़ि सोऊ ।—ठाकुर०, पृ० ७ ।

अदेय
वि० [सं०] १. न देने योग्य । जिसे न दे सकें । उ०—सकुच बिहगाइ माँगु नृप मोही । मोरे नहिं अदेय कछु अदेय कछु तोही ।— मानस, १ ।१४९ । २. (वह पदार्थ) जिसे देने को कोई बाध्य न किया जा सके । विशेष—नारद के अनुसार अन्वाहित, याचितक, रोग में प्रतिजात, सामान्य पदार्थ, स्त्री, पुत्र, परिवार होने पर सवस्व तथा निक्षेप, ये आठ पदार्थ नहीं देने चाहिए । इनको प्रतिज्ञा कर चुकने पर भी न दे । ऐसा करने पर वह राज्यापराधी समझा जाएगा । (नारद स्मृ० ४ ।४-५) । दक्ष के मन से स्त्री की संपत्ति को भी अदेय समझना चाहिए । मनु ने लिखा है कि जो लोग अदेय को ग्रहण करते है, या दुसरे व्यक्ति को देते है, उनको चोर के सदृश ही समझना चाहिए । यही बात नारद ने भी पुष्ट की है (ना० स्मृ० ४-१२) । याज्ञवल्कय ने कहा है कि स्त्री पु्त्र को छोड़कर अन्य पदार्थों को परिवार की आज्ञा से दे सकता है । या० स्मृति २-१७५ । इसी के सदृश वशिष्ट का मत है कि इकलौते पुत्र को न कोई दे सकता है न ले सकता है (व० स्मृ० १५, ३-४) । वशिष्ठ को दे कात्यायन भी पुष्ट करता है । वह लिखता है कि स्त्री पुत्र पर मिलकियत शासन के मामले है, न कि दान के मामले में ।

अदेयदान
संज्ञा पुं० [सं०] न देने योग्य दान । अवैध दान । अविहित दान [को०] ।

अदेव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अदेवी] १. वह जो देवता न हो । २. राक्षस । दैत्य । असुर । ३. जैनियों के अनुसार तीर्थकरों या जैनियों के देवताऔं के अतिरिक्त अन्य देवता ।

अदेव (२)
वि० १. जो देव संबंधी न हो । २. अनीश्वरवादी । ३. अधार्मिक । ४. अपवित्र अशु्द्ध [को०] ।

अदेवक
वि० [सं०] जो देवता के लिये न हो [को०] ।

अदेवता
संज्ञा पुं० [सं० अ+देवता] राक्षस । दैत्य । अदेव । उ०— देवता अदेवता नृदैवता जिते जहान ।—राम चं० पृ० ७५ ।

अदेवमातृक
वि० [सं०] १. जहाँ मेघ वृष्टि न करे । २ वर्षा के अभाव में अन्य साधनों से सींचा हुआ [को०] ।

अदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुपयुक्त स्थान या देश । २ बुरा देश [को०] । विशेष—स्मृत्यों में म्लेच्छ, आनर्तक, अंग मगध, सुराष्ट्र, दक्षिण- पथ, बंग, कलिंग, आदि निंदित देश कहे गए है ।

अदेश्य
वि० [सं०] १. जो उपयुक्त स्थल या अवसर से संबंद्ध न हो । २. जिसका निर्देश करना उचित न हो [को०] ।

अदेस (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० आदेश] १. आज्ञा । शिक्षा । उ०—(क) सिंघ द्धीप जाब हम माता देहु अदेश ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११ । २. प्रणाम । दंडवत । उ०—(ख) ओ महेस कहँ करौ अदेसु । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसु ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११२ ।

अदेस (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अंदेशा' । उ०—मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौ अहै अदेस पियारे ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३७ ।

अदेह (१)
वि० [सं०] बिना शरीर का । उ०—आप अदेह पुरुष रह जहावाँ, नर को रुप प्रगट भए तहवाँ ।—कबीर सा०, पृ० ७१ ।

अदेह (२)
संज्ञा पुं० कामदेव । उ०—द्धार लागि जाती फेरि ईठि ठहराती बोलै औरनि रिसाती माती आसव अदेह की ।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १४० ।

अद्रेश्य
वि० [सं०] अदृश्य [को०] ।

अदैन्य (१)
वि० [सं०] दैन्यरहित । जिसमें दीनता न हो [को०] ।

अदैन्य (२)
संज्ञा पुं० दीनता का अभाव [को०] ।

अदैव
वि० [सं०] १. जो देवता अथवा देवकार्य से संबंध न हो । २. जो भाग्य या दैव द्धारा पुर्वानिधारित न हो । ३. अभागा । बुरे भाग्यवाला [को०] ।

अदैवी
वि० [सं०] दे० 'अदैव' [को०] ।

अदोख पु
वि० [हिं०] दे० 'अदोष' ।

अदोखिल पु
वि० [हिं० अदोख+इल (प्रत्य०)] निर्दोष । बेऐब । अकलंक । उ०—टुनहाई सब टोल मैं, रही जु सौति कहाइ । सु तै ऐचि प्यौ आपु त्यौ फरी अदोखिल आइ ।—बिहारी ३४८ र० दो० ।

अदोग्धा
वि० [सं० अदोग्धु] शोषण न करनेवाला । विचारवान [को०] ।

अदोष
वि० [सं०] १. निर्दोष । दुषणहीन । निष्कलंक । बैऐव । उ०—छंद बस तें चरनांतर गत पद औ लोकोक्ति बस तें अपुष्टार्थ अदोष है ।—भिखारी, ग्रं० भार २ पृ० २३९ ।१. निरपराध । पापरहित । उ०—अद्रोष तेरी सुत मातु सोहै । सो कौन माया इनको न मोहै ।—राम चं० पृ० ६३ ।

अदोस पु
वि० [हिं०] दे० 'अदोष' ।

अदोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह समय जो दुहने के लिए उपयुक्त न हो । २. न दुहना (को०) ।

अदौरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्ध, प्रा० हिं० उर्द्द, अद+ सं० बटी, हिं० बरी] केवल उर्द की सुखाई हुइ बरी ।

अद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पुरोडास [को०] ।

अद्ध पु
वि० [सं० अर्द्ध, प्रा, अद्ध] दे० 'अर्द्ध' ।

अद्धरज
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अध्वर्यु' ।

अद्धा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अर्द्धक, प्रा, अद्धअ, हिं अद्धा] १. किसीवस्तु का आधा भाग या मान । २. वह बोतल जो पुरी बोतल की आधी हो । ३. आधी बोतल शरीब । ४. किसी भी रसीद, टिकट या वस्तु का आधा भागा । ५. आधी इंट का टुकड़ा । ६. प्रत्येक घंटे के मध्य में बजनेवाला घंटा । ७. चार मात्राओं का एक ताल । विशेष—यह कौआली का आधा होता है । इनमें तीन आधात और एक खाली होता है ।य़था— + + + धिन धिन ता, ता धिन ताना, तिरता ता धिन ता । धा । ८. एख छोटी सी नाव । यौ०—अद्धाखलासी=जहाज पर का साधारण मल्लाह ।

अद्धा (२)
क्रि० वि० [सं०] साक्षात् । तत्वत? । प्रत्यक्ष । वस्तुत? ।

अद्धामिश्रितवचन
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत के अनुसार काल संबंधी मिथ्या भाषण् । जैसे, सुर्योदय के पहले कहे कि दो घड़ो दिन चढ़ आया ।

अद्धी
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्द्ध] १. दमड़ी का आधा । एक पैसे का सोलहवाँ भाग । इसका हिसाब कौड़ियों से होता था । २. एक कपड़ा । बहुत बारीक और चिकनी तंजेब या नैनसुख जिसके थान की लंबाई साधारण तेंजब या नैनसुख के थान की आधी होती है ।

अद्भुत (१)
वि० [सं०] [संज्ञा अदभुतना अदभुतत्व] आशचर्यजनक । विस्मयकारक । विलक्षण । विचित्र । अनोखा । अजीब । अपुर्व । अलौकिक ।

अद्भुत (२)
संज्ञा पुं० १. आशचर्य । विस्मय (को०) । २. विस्मयपुर्ण घटना, पदार्थ या वस्तु (को०) । ३. किसी ऊँचाई की माप के ५ समभागों में से एक, जिसमें ऊँचाई चौड़ाई की अपेक्षा दुनी होती है (को०) । ४. काव्य के नौ रसों में से एक । विशेष—इसमें अनिवार्यत? विस्मय की परिपुष्टता दिखलाई जाती है । इसका वर्ण पीत, देवता ब्रह्मा, आलंबन असंभावित वस्तु, उद्दीपन उसके गुणों की महिमा तथा अनुभाव संभ्रमादिंक है । ५. केशव के अनुसार रुपक के तीन भेदों में एक । विशेष—इसमें किसी वस्तु का अलौकिक रुप से एक रस होना दिखनाया जाता है । जैसे—सोभा सरवर माहिं फल्पोई सखि, राजैं राजहंसिनी समीप सुखदानिऐ । केसोदस आस पास सौरभ के लो । धने, ध्राननि के देव और भ्रक्त बखानिऐ । होति ज्योति दिन दुनी किसी में सहज गुनी, सुरज सुहृद चारु चंद मन मानिऐ । राति को सदन छुइ सके न मदन ऐसी कोमलबदन जग जानकी को जानिऐ ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १८४ ।

अद्भुतकर्मा
वि० [सं० अदभुककर्मन्] आशचर्यजनक काम करनेवाला उ०—और सब लोग इनको अदभुतकर्मा कहते है ।— रसक०, पृ० ४२ ।

अद्भुतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विचित्रता । विलक्षणता । अनोखापन ।

अद्भुतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] विचित्रता । अनोखापन । उ०—चमत्कार से हमारा अभिप्राय यहाँ प्रस्तुत वस्तु के अदकुतत्व या वैलक्षण्य से नहीं ।—रस० पृ० ३३ ।

अद्भुतदर्शन
वि० [सं०] जो देखने में अदभुत या विवित्र लगे । विलक्षण ।

अद्भुतधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के नव अँगों में से एक [को०] ।

अद्भुतब्राम्हण
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद के एक ब्राम्हण का अंश [को०] ।

अद्भुतरस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अदभुत' । उ०—जाको थाई आच- रज सौ अदयुनरस गाव—पद्माकर ग्रं०, पृ० २३० ।

अद्भुतरामायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक रामायण जिसकी रचना का श्रेय वाल्लीकि को दिया जाता है [को०] ।

अद्भुतसार
सु० पु० [सं०] खदिर वृक्ष का फल [को०] ।

अद्भुतस्वन (१)
वि० [सं०] विवित्र स्वरवाला [को०] ।

अद्भुतस्वन (२)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम [को०] ।

अद्भुतालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ संसार के अदभुत पदार्थ दिखालाने के लिये रखे जाते है । अजायबधर ।

अद्भुतोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमा अलंकार का एक भेद । विशेष—इसमें उपमा के ऐसे गुणों का उल्लेख किया जाता है, जिनका होना उपमेय में त्रिकाल में भी संभवन हो । । जैसे— प्रीतम को अपमाननि गान सयाननि रिझि रिझावै । अंक बिलोकान बोलि अभोलनि बोलि के केशव मोद बढ़ावै ।हावइ भाव विभाव प्रभाव सुभाव के भाइनि चित्र चुरावै । ऐसे बिलास जु होहिं सरोज मैं तो उपमा मुख तेरे की पावै ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १८९ ।

अद्मनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

अद्मर
वि० [सं०] अत्याधिक खानेवाला । पेटु [को०] ।

अद्य (१)
क्रि० वि० [सं०] अब । अभी । आज ।

अद्य (२)
संज्ञा पुं० खाद्य पदार्थ । आहार [को०] ।

अद्य (३)
वि० खाने योग्य । भोज्य [को०] ।

अद्यतन
वि [सं०] [वि० अद्दानीय] आज के दिन का । वर्तमान ।

अद्यतन (१)
संज्ञा पुं० बीती हुई आधी रात से लेकर आनेवाली आधी रात तक का समय । कोई कोई बीती हुई रात के शेष प्रहर से लेकर आनेवालसी रात के पहले प्रहर तक के समय को अद्यतन कहते है ।

अद्यतनीय
वि० [सं०] आज का । आधुनिक युग का [को०] ।

अद्यदिन
अव्य० [सं०] आज का दिन [को०] ।

अद्यदिवस
अव्य० [पुं०] दे० 'अद्यदिन' [को०] ।

अद्यपूर्व
अव्य० [सं० अद्यपुर्वम्] अब अथवा आज से पहले [को०] ।

अद्यप्रभृति
क्रि० वि० [सं०] आज से । अब से ।

अद्यश्वीन
वि० [सं०] आज या कल के अंतर्गत घटित होनेवाला [को०] ।

अद्यश्वीना
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसका प्रसवकाल संनिकट हो । आसन्नप्रसवा [को०] ।

अद्यापि
क्रि वि० [सं०] आज भी । अब भई । इस समय भी । अब तक । आज तक । उ०—देवयानी और ययति के पावन चरित अद्यापि भुमंडल को पवित्र करते है ।—श्यामा०, पृ० ९१ ।

अद्यावधि
क्रि० वि० [सं०] आज तक । अब तक । इस समय पर्यंत । उ०—वह मंत्र जो इतने सिद्ध किया थआ, अद्याविधि इसी मीत पर गहरा खुदा है ।—श्यामा०, पृ० १४ ।

अद्यावधिक
वि० [सं०] आजकल का । आधुनिक [को०] ।

अद्याशव
संज्ञा पुं० [सं०] आज और कल का दिन [को०] ।

अद्यूत्य
वि० [सं०] जो जुए से प्राप्त न किया गया हो । इमान- दारी से उपार्जित [को०] ।

अद्यैव
क्रि० वि० [सं०] आज ही । इसी समय [को०] ।

अद्रव (१)
वि० [सं०] जो द्रव या पतला न हो । गाढ़ा । धना । ठोस ।

अद्रव (२)
संज्ञा पुं० ठीस पदार्थ [को०] ।

अद्रव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सत्ताहीन पदार्थ । अवस्तु । असन् । शुन्य । अभाव ।

अद्रव्य (२)
वि० द्रव्य या धनरहित । दरिद्र ।

अद्रा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आर्द्रा, हिं अर्द्रा] दे 'आर्द्रा' । उ०—(क) तपनि मृगसिरा जे सहै वै अद्रा पलुहंत ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५९ । (ख) अद्रा धान पुनर्कसु पैया, गया किसान जो बोवै चिरैया ।—धाध०, पृ० ७३ ।

अद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत । पहाड़ । २. पत्थर (को०) । ३. पेड़ । वृक्ष (को०) । ४. विद्युत । बिजली (को०) । ५. मेघों का समुह (को०) । ६. मेघ । बादल (को०) । ७. सुर्य (को०) । ८. एक प्रकार की माप (को०) । ९. सात की संख्या [को०] । १०. पृथु का एक पौत्र (को०) ।

अद्रिकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती [को०] ।

अद्रिकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपराजिता पौधा (को०) ।

अद्रिकील
संज्ञा पुं० [सं०] विष्कुंभ पर्वत [को०] ।

अद्रिकीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । धरती ।

अद्रिकुक्षि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुफा । कंदरा [को०] ।

अद्रिछिद्
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र । बिजली ।

अद्रिज (१)
वि० [सं०] पर्वत से उत्पन्न [को०] ।

अद्रिज (२)
संज्ञा पुं० १. शिलाजित । २. गेरु [को०] ।

अद्रिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती । २. गंगा नदी । ३. सिंह- पिप्पली । सिंहली पीपल [को०] ।

अद्रितनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती । गंगा । ३. २३वर्णों के एक वृत्त का नाम । इसे अशक्ललित भी कहते है । जैसे— न पति करै सनेह तिनसों कदापि मनसों न दु?ख भरतीं (शब्द०) ।

अद्रिद्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पहाड़ी घाटी । २. नदी का उदगम [को०] ।

अद्रिद्धिष
संज्ञा पुं [सं०] पर्वतों का शत्रु । इंद्र [को०] ।

अद्रिनंद्रिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अद्रिनन्दिनी] दे० 'अद्रिकन्या' [को०] ।

अद्रिपति
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों में श्रेष्ठ । पर्वतों का राजा । हिमालय ।

अद्रिभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०] ।

अद्रिभ
संज्ञा पुं० [सं०] अपराजिता या आखुकर्णा नामक पौधा [को०] ।

अद्रिमंडल
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत समुह । उ०—हिम सैनिन सों घिरयौं अद्रिमंडल यह रुरौ ।—का० सुषमा, पृ ५ ।

अद्रिराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अद्रिपति' [को०] ।

अद्रिवहिन
संज्ञा पुं० [सं०] दावाग्नि [को०] ।

अद्रिशय्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

अद्रिशिखर
पुं० पुं० [सं०] पर्वत की चोटी । उ०—वे डुब गए सब डुब गए दुर्दम उदग्रशिर अद्रिशिखर ।—युगांत, पृ० १२ ।

अद्रिशृंग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अद्रिशिखर' [को०] ।

अद्रिसानु
संज्ञा पुं० [सं०] अद्रिशृंग [को०] ।

अद्रिसार (१)
वि० [सं०] पर्वत जैसा दृढ़ [को०] ।

अद्रिसार (२)
संज्ञा पुं० १. लोहा । २. शिलाजीत ।

अद्रिसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पावती [को०] ।

अद्रींद्र
संज्ञा पुं० [सं० अन्द्रीद्र] हिमालय पर्वत [को०] ।

अद्रीश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अद्रींद' [को०] ।

अद्रोघ
वि० [सं०] १. सत्य । २. द्धेषविहीन । देषरहित [को०] ।

अद्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] द्रोह या द्धेष का अभाव । उदारता [को०] ।

अद्रोहवृत्ति
संज्ञा स्त्री० सं० द्रोह या द्धेषरहित आचरण [को०] ।

अद्रोही
वि० [सं० अद्रोहिन्] किसी से द्रोह या द्धेष न करनेवाला [को०] ।

अद्ल
संज्ञा पुं० [अ०] न्याय [को०] ।

अदलपरवर
वि० [अ०] न्याय करनेवाला । न्यायी । न्याय- मुर्ति [को०] ।

अद्वंद्व (१)
वि० [सं० अद्धु्न्द्ध] शत्रुता से रहित [को०] ।

अद्वंद्व (२)
संज्ञा पुं० विरोध का अभाव [को०] ।

अद्वय (१)
वि० [सं०] १. द्धिनीयरहित । एकाकी । अकेला । एक । २. अनुपम । अद्धितीय (को०) ।

अद्वय (२)
संज्ञा पुं० १. द्धैत का अभाव । ऐक्य । अद्धैत । २.परम सत्य । ३. बुद्ध का एक नाम [को०] ।

अद्वयवादी
वि० [सं० अद्धयवादिन्] अद्धैतवाद का अनुयायी । अद्धैतवादी [को०] ।

अद्वयानंद
संज्ञा पुं० [सं० अद्धयान्नद] अद्धैतानंद । परम आनंद [को०] ।

अद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह प्रवेशमार्ग जो नियमित रुप से द्धार के रुप में व्यवहृत न होता हो । २. द्धारविहीन स्थान । वह स्थान जहाँ द्धार न हो [को०] ।

अद्वितीय (१)
वि० [सं०] १. द्धितीयरहित । अकेला । एकाकी । एक । २. जिसके ऐसा दुसरा न हो । जिसके टक्कर का दुसरा न हो । बेजोड़ । अनुपम । ३. प्रधान । मुख्य । ४. विलक्षण । अदभुत । अजीब । विचित्र ।

अद्वितीय (२) पु
संज्ञा पुं० आत्मा । ब्रह्म [को०] ।

अद्वीत पु
वि० [सं० अद्धैत] दे० 'अद्धैत' । उ०—द्धीत भाव करी दुरि अद्धीतहि गायो ।—सुंदर ग्रं०, भा० १. पृ० १०९ ।

अद्वेष (१)
वि० [सं०] १. द्धेषरहित । जो वैर न रखे । २. शांत ।

अद्वेष (२)
संज्ञा पुं० द्धेष का अभाव । वैर का राहित्य [को०] ।

अद्वेषी
वि० [सं० अद्धेषिन्] द्धेषरहित । किसि से दोष न रखनेवाला [को०] ।

अद्वेष्टा
संज्ञा पुं० [सं० अद्धेष्ष्ट] दे० 'अद्धेषी' [को०] ।

अद्वैत (१)
वि० [सं०] १. द्धितीयरहित । एकाकी । अकेला । एक । २. अनुपम । बेजाड़ ।

अद्वैत (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्म । ईशवर । २. द्धैत या भेद का अभाव । जीव ब्रह्म का ऐक्य (को०) ।

अद्वैतवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सिद्धांत जिसमें ब्रह्म ही को जगत् का उपादन कारण मानकर संपुर्ण प्रत्याक्षादि सिद्ध शिश्व को ब्रह्म में आरोपित करते हैं । २. वह दार्शानिक सिद्धांत या मत जिसमें किसी एक तत्व या ब्रह्म अथवा शिव शक्ति आदि को सर्वमुल तत्व माने है, तदतिरिक्त समस्त प्रमेयों पदर्थों को उसका परिणाम, विवर्त, प्रकाश, रुपांतर या नुतन भुमिका स्वीकार करते है । शंकराचार्य द्धारा प्रतिपादित 'अद्धैतवेदांत' असमें सर्वाधिक प्रसिद्ध है । ब्रह्माद्धैतवाद (शांकर) वेदांत मत) शब्दाद्धयवाद (शब्द- ब्रह्माद्धैतवाद) के अतिरिक्त 'शिवाद्धैतवाद' शक्ति अद्धैतवाद आदि है । इसी के रुपांतरित प्रकार हैं । शुद्धाद्धैत, केवलाद्धैत आदि भी । ३. शंकराचार्य द्धारा प्रतिपादित वेदांत दर्शन । इस मत में 'ब्रह्म्' के अतिरिक्त सभी पदार्थ असत्य है अर्थात् 'ब्रह्म्' सत्य जगन्मिथ्या' के अनुसार 'एकमेवाद्धितीयं ब्रह्म्' अर्थआत् 'ब्रह्मम' ही एक और केवल अद्धैत तत्व सत्य माना गया है और 'ब्रह्मम' सत्-चित्-आनंदस्वरुप । मायावाद, अध्यासवाद, विवर्तवाद, उत्तारमीमांसा, शंकरवेदांत आदि पदों से प्राय? इसी दर्शन का बोध होता है । विशेष—इस सिद्धांत के अनुयायी कहते है कि जैसे रस्सी के स्वरुप को न जानने से सर्प का बोध होता है, वैसे ही ब्रह्मम के रुप को न जानने के कारण अध्यासवश ब्रह्मम ही संसार रुप में वस्तुत? दिखाई देता है । अंत में अज्ञान दुर हो जाने पर सब पदार्थ ब्रह्मममय प्रतीत होता है ।

अद्वैतवादी (१)
वि० [सं०] अद्धैत मत को माननेवाला । ब्रह्मम और जीव को एक मानेवाला । शांकरवेदांत का अनुयायी ।

अद्वैतवादी (२)
संज्ञा पुं० अद्धैतवाद का सिद्धांत माननेवाला व्यक्ति ।

अद्वैतसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मम और जीव के अभेद की सिद्धि । २. शांकर वेदांत का प्रकारणविशेष [को०] ।

अद्वैती
संज्ञा पुं० [सं० अद्धैतिन्] दे० 'अद्धैतवादी' [को०] ।

अद्वैध
वि० [सं०] १. जो दो भागों में विभक्त न हो । अवियुक्त । २. असद् भावना से रहित । ३. खरा । उत्तम [को०] ।

अद्वैध्यमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति, मित्र या राष्ट्र जिसकी मित्रता में किसी प्रकार का संदेह न हो । विशेष—वह जिसकी मैत्री स्वार्थपुर्ण न हो, जो स्थिरचित्ता, सुशील, और उपकारी हो तथा विपित्ति में जिसके साथ छोड़ने की आशंका न हो, वह अद्धैध्यमित्र है ।