विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/साफ

विक्षनरी से

साफ (१)
वि० [अ० साफ़] १. जिसमें किसी प्रकार का मैल या कूड़ा करकट आदि न हो। मैला या गँदला का उलटा। स्वच्छ। निर्मल। जैसे,—साफ कपड़ा, साफ कमरा, साफ रंग। २. जिसमें किसी और चीज की मिलावट न हो। शुद्ध। खालिस। जैसे,—साफ पानी। ३. जिसकी रचना या संयोजक अंगों में किसी प्रकार की त्रुटि या दोष न हो। जैसे,—साफ लकड़ी। ४. जो स्पष्टतापूर्वक अंकित या चित्रित हो। जो देखने में स्पष्ट हो। जैसे,—साफ लिखाई, साफ छपाई, साफ तसवीर।५. जिसका तल चमकीला और सफेदी लिए हो। उज्ज्वल। जैसे,—साफ कपड़ा। ६. जिसमें किसी प्रकार का भद्दापन या गड़बड़ी आदि न हो। जिसे देखने में कोई दोष न दिखाई दे। जैसे,—साफ खेल। (इंद्रजाल या व्यायाम आदि के), साफ कुदान। ७. जिसमें किसी प्रकार का झगड़ा, पेच या फेरफार न हो जिसमें कोई बखेड़ा या झंझट न हो। जैसे,— साफ मामला, साफ बरताव। ८. जिसमें धुँधलापन न हो। स्वच्छ। चमकीला। जैसे,—साफ शीशा, साफ आसमान। ९. जिसमें किसी प्रकार का छल कपट न हो। निष्कपट। जैसे,— साफ दिल। साफ आदमी। मुहा०—साफ साफ सुनाना = बिल्कुल स्पष्ट और ठीक बात कहना। खरी बात कहना। १०. जो स्पष्ट सुनाई पड़े या समझ में आवे। जिसके समझने या सुनने में कोई कठिनता न हो। जैसे, साफ आवाज, साफ लिखावट, साफ खबर। ११. जिसका तल ऊबड़ खाबड़ न हो। समतल। हमवार। जैसे,—साफ जमीन, साफ मैदान। १२. जिसमें किसी प्रकार की विघ्न बाधा आदि न हो। निर्विघ्न। निर्बाध। १३. जिसके ऊपर कुछ अंकित न हो। सादा। कोरा। १४. जिसमें किसी प्रकार का दोष न हो। बेऐब। १५. जिसमें से अनावश्यक या रद्दी अंश निकाल दिया गया हो। १६. जिसमें से सब चीजें निकाल ली गई हों। जिसमें कुछ तत्व न रह गया हो। यौ०—साफ साफ = स्पष्ट रूप से। खुलकर। मुहा०—साफ करना = (१) मार डालना। वध करना। हत्या करना। (२) नष्ट करना। चौपट करना। बरबाद करना। न रहने देना। (३) खा जाना। मैदान साफ होना = किसी प्रकार की विघ्न बाधा न होना निर्द्वंद्ध होना। साफ बोलना = (१) किसी शब्द का ठीक ठीक उच्चारण करना। स्पष्ट बोलना। (२) साफ होना। समाप्त होना। खतम होना। ११. लेनदेन आदि का निपटना। चुकता होना। जैसे,—हिसाब साफ होना।

साफ (२)
क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के दोष, कलंक या अपवाद आदि के। बिना दाग लगे। जैसे,—साफ छूटना। २. बिना किसी प्रकार की हानि या कष्ट उठाए हुए। बिना किसी प्रकार की आँच सहे हुए। जैसे,—साफ बचना। साफ निकलना। ३. इस प्रकार जिसमें किसी को पता न लगे या कोई बाधक न हो। जैसे,—(माल या स्त्री आदि) साफ उड़ा ले जाना। ४. बिलकुल। नितांत। जैसे,—साफ इनकार करना। साफ बेवकूफ बनाना। ५. बिना अन्न जल के। निराहार।

साफगो
वि० [फ़ा० साफ़गो] स्पष्ट कहनेवाला। स्पष्टवक्ता [को०]।

साफगोई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साफ़गोई] स्पष्टवादिता। दो टूक या साफ साफ बात कहना [को०]।

साफदिल
वि० [फ़ा० साफ़दिल] निष्कपट हृदयवाला। सच्चे दिल का।

साफदिली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साफ़दिली] १. अंतःशुद्धि। मन का निष्कपट होना। २. किसी के प्रति द्वेषभाव न होना।

साफदीदा
वि० [फ़ा० साफ़दीदह्] निर्लज्ज। बेशरम। धृष्ट।

साफल पु
संज्ञा पुं० [सं० साफल्य] दे० 'साफल्य'। उ०—हरि भज साफल जीवना, पर उपचार समाइ। दादू मरणा तहुँ भला, जहाँ पसु पंखी खाइ।—संतवाणी०, पृ० ७८।

साफल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफल होने का भाव। सफलता। कृतकार्यता। २. सिद्धि। लाभ। ३. उत्पादकता। उपयोगिता।

साफा
संज्ञा पुं० [अ० साफ़] [स्त्री० साफी] १. सिर पर बाँधने की पगड़ी। मुरेठा। मुड़ासा। यौ०—साफेबाज = साफा पहननेवाला। उ०—चाहे साफेबाज, फेटेबाज या अम्मामेबाज।—प्रेमघन०, भा० ३, पृ० २७७। २. शिकारी जानवरों को शिकार के लिये या कबूतरों को दूर तक उड़ने के लिये तैयार करने के उद्देश्य से उपवास कराना। मु्हा०—साफा देना = उपवास करना। भूखा रखना। ३. नित्य के पहनने या ओढ़ने के वस्त्रों आदि को साबुन लगाकर साफ करना। कपड़े धोना। (बोल०)। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। यौ०—साफा पानी = अवकाश के समय इतमीनान के साथ कपड़ों का धोना और नहाना।

साफिर (१)
संज्ञा पुं० [अ० साफ़िर] १. दूर्बल घोड़ा। २. सफर करनेवाला यात्री [को०]।

साफी
संज्ञा स्त्री० [अ० साफ़ी] १. हाथ में रखने का रूमाल। दस्ती। २. वह कपड़ा जो गाँजा पीनेवाले चिलम के नीचे लपेटते हैं। ३. भाँग छानने का कपड़ा। छनना। उ०—साफी छानै सूरति अमल हरि नाम का।—पलटू०, भा० २, पृ० ९४। ४. एक प्रकार का रंदा जो लकड़ी को बिलकुल साफ कर देता है। ५. वह कपड़ा जिससे चूल्हे पर से कड़ाही आदि उतारी जाय।

साबका पु
संज्ञा पुं० [अ० साबिक़ह्] दे० 'साबिका'। उ०—बाप साबका करै लराई मयासद मतवारी।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२७।

साबत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त] सामंत। सरदार। (डिं०)।

साबत पु (२)
वि० [फ़ा० अ० सबूत] दे० 'साबूत'। उ०—मुसकनि मल्हिम लगाय घाव साबत करि दीन्हौं।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १४।

साबन
संज्ञा पुं० [अ० साबून, उर्दू साबुन] दे० 'साबुन'।

साबर
संज्ञा पुं० [सं० शम्बर] १. दे० 'साँभर'। २. साँभर मृग का चमड़ा जो मुलायम होता है। ३. शबर जाति के लोग। ४. थूहर वृक्ष। ५. मिट्टी खोदने का एक औजार। सबरी। ६. एक प्रकार का सिद्ध मंत्र जो शिवकृत माना जाता है। उ०— स्वारथ के साथी मेरे हाथ सो न लेवा देई काहू तो न पीर रघुबर दीन जन की। साप सभा साबर लबार भए दैव दिव्य दुसह साँसति कीजै आगे दै या तन की।—तुलसी (शब्द०)।

साबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साबर + ई (प्रत्य०)] साँभर मृग का मुलायम चमड़ा। उ०—दूजे पैं साबरी परतला परि मन मोहत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३।

साबल †
संज्ञा पुं० [सं० शबर] बरछी। भाला। उ०—सूरजमाल दुकाल नेज गज ढाल निहारे। फल साबर फोरियों, विडंग औरियौ बधारे।—रा० रू०, पृ० ८६। २. सबरी। साबर।

साबस ‡ (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाबास] वाहवाही देने की क्रिया। दाद। दे० 'शाबाश'।

साबस (२)
अव्य० वाह वाह। धन्य। साधु साधु। उ०—बोल्यौ बहुरि हमीर, साबस जग तेरी जनम।—हम्मीर०, पृ० ४८।

साबाध
वि० [सं०] अस्तव्यस्त। बाधायुक्त। अव्यवस्थित [को०]।

साबिक
वि० [अं० साबिक़] पूर्व का। पहले का। पुराने समय का। उ०—प्रभू जू मैं ऐसो अमल कमायो। साबिक जमा हुती जो जोरी मीजाँकुल तल लायो।—सूर (शब्द०)। यौ०—साबिक दस्तूर = जैसा पहले था, वैसा ही। पहले की ही तरह। जिसमें कुछ परिवर्तन न हुआ हो। जैसे,—उसका हाल वही साबिक दस्तूर है।

साबिका
संज्ञा पुं० [अ० साबिक़ह्] १. जान पहचान। मुलाकात। भेंट। २. उपसर्ग (को०)। ३. संबंध। सरोकार। व्यवहार। मुहा०—साबिका पड़ना = (१) काम पड़ना। वास्ता पड़ना। (२) लेन देन होना। (३) मेल मिलाप होना।

साबिग
वि० [अ० साबिग़] रँगनेवाला (को०)।

साबित (१)
वि० [अ०, फा़०] जिसका सबूत दिया गया हो। प्रमाणित। सिद्ध। २. मजबूत। दृढ़ (को०)। ३. ठहरा हुआ। स्थिर (को०)। ४. सबूत। समग्र। सब। साबूत। पूरा। ५. दुरुस्त। ठीक। उ०—द्वै लोचन साबित नहि तेऊ।—सूर (शब्द०)।

साबित (२)
संज्ञा पुं० वह नक्षत्र या तारा जो चलता न हो, एक ही स्थान पर सदा ठहरा रहता हो।

साबितकदम
वि० [अ० साबितक़दम] द्दढ़निश्चयी। दृढ़प्रतिज्ञ [को०]।

साबितकदमी
संज्ञा स्त्री० [अ० साबितक़दमी] इरादे की दृढ़ता। दृढ़प्रतिज्ञता [को०]।

साबिर
वि० [अ०] [स्त्री० साबिरा] १. सहनशील। धैर्यवान। २. जो प्रत्येक स्थिति में ईश्वरकृपा पर निर्भर हो [को०]।

साबुत
वि० [फ़ा० सबूत] १. जिसका कोई अंग कम न हो। साबूत। संपूर्ण। २. दुरुस्त। ३. स्थिर। निश्चल।

साबुन
संज्ञा पुं० [अ०] रासायनिक क्रिया से प्रस्तुत एक प्रसिद्ध पदार्थ जिससे शरीर और वस्त्रादि साफ किए जाते हैं। विशेष—यह सज्जी, चूने, सोड़ा तेल और चर्बी आदि के संयोग से बनाया जाता है। देशी साबुन में चर्बी नहीं डाली जाती, पर विलायती साबुन में प्राय; चर्बी का मेल रहता है। शरीर में लगाने के विलायती साबुनों मे अनेक प्रकार की सुगंधियाँ भी रहती हैं। यौ०—साबुनफरोश = साबुन बेचनेवाला। साबुनसाज = साबुन बनानेवाला। साबुनसाजी= साबुन बनाने का काम।

साबूत
वि० [फ़ा० सबूत] दे० 'साबुत'। उ०—संत सिलाह संतोख साबूत तुम पहिरु सहिदान मरदान यारा।—संत० दरिया, पृ० ८१।

साबूदाना
संज्ञा पुं० [अं० सैगो, हिं० सागू + दाना] दे० 'सागूदाना'।

साबूनी
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक प्रकार की मिठाई [को०]।

साब्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दाख। द्राक्षा।

साब्दो पु (२)
वि० [सं० शाब्दी] शब्द संबंधिनी। दे० 'शाब्दी'।

साभार
क्रि० वि० [सं०] आभार के साथ। एहसान प्रकट करते हुए।

साभाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति या स्वभाव की परख। प्रकृति की पहिचान [को०]।

साभिनय
क्रि० वि० [सं०] नाटकीयता के साथ। अभिनय मुद्रा के साथ [को०]।

साभिनिवेश
वि० [सं०] १.किसी वस्तु के लिये उत्कट अनुराग, रुचि, पक्षपात आदि से युक्त। अभिनिवेशयुक्त। २. अभिनि- वेशपूर्वक [को०]।

सभिप्राय
वि० [सं०] १. अभिप्राय के साथ। विशेष। अर्थ से युक्त। २. विशेष प्रयोजन से युक्त। सोद्देश्य। उ०—सकल साभिप्राय, समझ पाया था नहीं मैं, थी तभी यह हाय।—अपरा, पृ० १६४।

साभिमान (१)
वि० [सं०] अभिमानयुक्त। घमंडी।

साभिमान (२)
अव्य० अभिमान के साथ। अभिमानपूर्वक [को०]।

साभिवादन
वि० [सं० स + अभिवादन] अभिवादनयुक्त। अभिवादन के साथ उ०—नवीन नरेश महाराज बंधुवर्मा ने साभिवादन श्री चरणों में संदेश भेजा है।—स्कंद०, पृ० ७।

साभ्यसूय
वि० [सं०] डाह करनेवाला। ईष्यार्लु। द्वेषी [को०]।

सामंजस्य
संज्ञा पुं० [सं० सामञ्जस्य] १. औचित्य। २. यथार्थता। शुद्धता (को०)। ३. उपयुक्तता। ४. अनुकूलता। ५. वैषम्य या विरोध आदि का अभाव। मेल।

सामंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त] १. वीर। योद्धा। उ०—अजबेससामंत भगवान बौले त्याहीँ। सेस ज्वाला की सी पर सोनागिर ज्याहीँ।—रा० रू०, पृ० ११४। २. कीस राज्य का करद कोई बड़ा जमींदार या सरदार। शूक्रनीति के अनुसार वह नरेश जिसकी भूमि का राजस्व। ३. पड़ोसी। ४. श्रेष्ठ प्रजा। ५. समीपता। सामीप्य। नजदीकी। ६. पड़ोसी राजा। पड़ोस के राज्य का नरेश (को०)।

सामंत (२)
वि० १. समीपवर्ती। सीमावर्ती। सरहदी। २. अनुगत। सेवक। ३. सर्वव्यापक। विश्वव्यापक [को०]।

सामंतचक्र
संज्ञा पुं० [सं० सान्तचक्र] पड़ोसी अथवा करद राजाओं का मंडल [को०]।

सामंतज
वि० [सं० सामन्तज] जो पड़ोसी या करद राजाओं द्वारा उत्पन्न हो [को०]।

सामंतभारती
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त भारती] राग मल्लार और सारंग के मेल से बना हुआ एक संकर राग।

सामंतवासी
वि० [सं० सामन्तवासिन्] पड़ोस में रहनेवाला। पड़ोसी [को०]।

सामंतसारंग
संज्ञा पुं० [सं० सामन्तसरङ्ग] एक प्रकार का सारंग राग जिससे सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

सामंती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सामन्ती] एक प्रकार की रागिनी जो मेघ राग की प्रिया मानी जाती है।

सामंती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सामन्त + ई (प्रत्य०)] १. सामंत का भाव या धर्म। २. सामंत का पद।

सामंती (३)
वि० सामंत की। सामंत संबंधी। उ०—मध्यकाल के कवियों ने इस सामंती चाकरी के विरोध में लोक साहित्य की नींव डाली थी।—आचार्य०, पृ० १२।

सामंती † (४)
संज्ञा स्त्री० [देशी] समतल भूमि। सम भूमि [को०]।

सामंतेय
संज्ञा पुं० [सं० सामन्तेय] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

सामंतेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० सामन्तेश्वर] चक्रवर्ती सम्राट्। शाहंशाह।

सामंद पु †
संज्ञा पुं० [सं० समुद्र, प्रा० समुद्द] दे० 'समुद्र'। उ०— दुझल जिण भूजाँबलहूत आठूँ दिसाँ, लंघ सामंद कीधी लड़ाई—रघु० रू०, पृ० ३१।

सामंदर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अग्नि कीट। आग में रहनेवाला कीड़ा। समंदर [को०]।

साम (१)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्] १. वे वेद मंत्र जो प्राचीन काल में यज्ञ आदि के समय गाए जाते थे। छंदोबद्ध स्तुतिपरक मंत्र या सूक्त। २. चारों वेदों में तीसरा वेद। विशेष— दे० 'सामवेद'। ३. मीठी बातें करना। मधुर भाषण। ४. राजनीति के चार अंगों या उपायों में से एक। अपने वैरी या विरोधी को मीठी बातें करके प्रसन्न करना और अपनी ओर मिला लेना। (शेष तीन अंग चया उपाय दाम दंड और भेद हैं। ५. संतुष्ट करना। शांत करना (को०)। ६. मृदुता। कोमलता (को०)। ७. ध्वनि। स्वर। आवाज (को०)।

साम (२)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० श्याम] दे० 'स्याम'। उ०—धूम साम धौरे घन छाए।—जायसी ग्रं०, पृ० १५२।

साम (३)
संज्ञा पुं० [अ० शाम] दे० 'शाम' (देश)।

साम (४)
संज्ञा स्त्री० [फा़० शाम] सायंकाल। दे० 'शाम'। उ०—घुर- बिनिया छोड़त नहिं कबहीं होइ भोर भा साम।—गुलाल०, पृ० १९।

साम पु (५)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'शामी' (लोहे का बंद)। हथियार, उ०—सूरा के सिर साम है, साधों के सिर राम।—दरिया० बानी, पृ० १४।

साम पु (६)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सामान, सामाँ] दे० 'सामान'। उ०— बालमीकि अजामिल के कधु हुतो न साधन सामो।—तुलसी (शब्द०)।

साम (७)
वि० [सं०] जो पचा न हो। जिसका अच्छी तरह पाक न हुआ हो [को०]।

सामक (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्यामक, प्रा० सामय] साँवाँ नामक अन्न। विशेष दे० 'साँवाँ'।

सामक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मूल धन जो ऋण स्वरूप लिया या दिया गया हो। कर्ज का असल रुपया। २. सान धरने का पत्थर। ३. वह जो सामवेद् का अच्छा ज्ञाता हो। ४. समान धन।

सामक (३)
वि० सामवेद संबंधी। सामवेदीय [को०]।

सामकपुंख
संज्ञा पुं० [सं० सामकपुङ्ख] सरफोंका घास।

सामकल
संज्ञा पुं० [सं०] मृदु स्वर या मैत्रीपूर्ण वार्ता [को०]।

सामकारी
संज्ञा पुं० [सं० सामकारिन्] १. वह जो मीठे वचन कह कर किसी को ढाढ़स देता हो। सांत्वना देनेवाला। २. एक प्रकार का सामगान।

सामग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सामगी] १. वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो। २. विष्णु का एक नाम।

सामग (२)
वि० सामगायक। उ०—गर्जना के साथ वेदों को गानेवाले सामग ऋषि समाज ने राजसूय यज्ञ करवाया तो भी यज्ञपूर्ति का शंख नहीं बजा।—राम० धर्म०, पृ० २८०।

सामगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

सामगान
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का साम। २. वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो।

सामगानप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. मंगल ग्रह [को०]।

सामगाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सामगान का अच्छा ज्ञाता हो। २. सामगान।

सामगायक
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेदी ब्राह्मण [को०]।

सामगायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. साम का गान [को०]।

सामगायी
वि० [सं० सामगायिन्] साम गानेवाला। सामगायक [को०]।

सामग्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वे पदार्थ जिनका किसी विशेष कार्य में उपयोग होता है। जैसे,—यज्ञ को सामग्री। २. असबाब। सामान। ३. आवश्यक द्रव्य। जरूरी चीज। ४. किसी कार्य की पूर्ति के लिये आवश्यक वस्तु। साधन।

सामग्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त्र शस्त्र। हथियार। २. क्षेम। कुशल (को०)। ३. समग्रता। संपूर्णता (को०)। ४. समुदायत्व। समूहबद्धता (को०)। ५. भांडार। खजाना।

सामज (१)
वि० [सं०] १. जो सामवेद से उत्पन्न हुआ हो। २. साम नीति के कारण उत्पन्न।

सामज (२)
संज्ञा पुं० हाथी, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सामगान से मानी जाती है।

सामजात
वि० [सं०] दे० 'सामज' [को०]।

सामत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त] दे० 'सामंत'।

सामत (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० शामत] दे० 'शामत'।

सामता पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० समता] समत्व। साम्य। समता। उ०— दरिया साध और स्वांग का, क्रोड कोस या बीच। नाम रचा सो सामता स्वांग काल की कीच।—दरिया० बानी, पृ० ३३।

सामता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सामत्व'।

सामति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सामर्थ्य, प्रा० सामच्छ, सामत्थ] दे० 'सामर्थ्य'। उ०—जा घट जैसी सामति देषो ता घट तैसा मेलो।—रामानंद०, पृ० १६।

सामत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] हर्रे, सोंठ और गिलोय इन तीनों का समूह।

सामत्व
संज्ञा पुं० [सं०] साम का भाव या धर्म। सामता।

सामध पु
संज्ञा पुं० [सं० सम्बन्धी, हिं० समधी] विवाह के अवसर पर समधियों के परस्पर मिलने की एक रस्म। उ०— (क)सामध देखि देव अनुरागे।—(ख)पहिलहिं पवरि सु सामध भा सुखदायक। इत बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४०।

सामध्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद की ध्वनि। साम का गान [को०]।

सामन (१)
वि० [सं०] शांतिप्रिय। अनुद्विग्न। स्वस्थ। साम द्वारा उपचार करने योग्य [को०]।

सामन पु† (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रावण, हिं० सावन] दे० 'सावन'। उ०—सखी री सामन दूल्है आयौ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १४८।

सामना
संज्ञा पुं० [हिं० सामने, पु० हिं० सम्मुह, सामुँहे] १. किसी के समक्ष होने की क्रिया या भाव। जैसे,—जब हमारा उनका सामना होगा, तब हम उनसे बातें करेंगे। मुहा०—सामने आना = आगे आना। संमुख आना। जैसे,— अब तो वह कभी हमारे सामने ही नहीं आता। सामने का = (१) जो समक्ष हो। (२) जो अपने देखने में हुआ हो। जो अपनी उपस्थिति में हुआ हो। जैसे,—(क) यह तो हमारे सामने का लड़का है। (ख) यह तो हमारे सामने की बात है। सामने करना = किसी के समक्ष उपस्थित करना। आगे लाना। सामने की चोट = सीधी चोट। सामने से होनेवाली घातक मार। सामने की बात = आँखों देखी बात। वह बात जो अपनी उपस्थिति में हुई हो। सामने पड़ना = (१)दृष्टि के आगे आना। (२) बाधा खड़ी करना। मार्ग रोकना। सामने से उठ जाना = देखते देखते अस्तित्व समाप्त हो जाना। सामने होना = (१) (स्त्रियों का) परदा न करके समक्ष आना। जैसे,—उनके घर की स्ञियाँ किसी के सामने नहीं होती। २. भेंट। मुलाकात। ३. किसी पदार्थ का अगला भाग। आगे की ओर का हिस्सा। आगा। जैसे,—उस मकान का सामना तालाब की ओर पड़ता है। ४. किसी के विरुद्ध या विपक्ष में खड़े होने की क्रिया या भाव। मुकाबला। जैसे,—वह किसी बात में आपका सामना नहीं कर सकता। ५. भिडंत। मुठभेड़। लड़ाई। जैसे,—युद्धक्षेत्र में दोनों दलों का सामना हुआ। ६. उद्दंडता। गुस्ताखी। ढिठाई। मुहा०—सामना करना = धृष्टता करना। सामने होकर जबाब देना। गुस्ताखी करना। जैसे,—जरा सा लड़ाका, अभी से सबका सामना करता है।

सामनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पशुओं को बाँधने की रज्जु। पगहा [को०]।

सामने
क्रि० वि० [सं० सम्मुख, प्रा० सम्मुहे, पु० हिं० सामुहे] १. संमुख। समक्ष। आगे। २. उपस्थिति में। मौजूदगी में। जैसे— तुम्हारे सामने उन्हें कौन पूछेगा। ३. सीधे। आगे। जैसे,— सामने जाने पर एक मोड मिलेगा। ४. मुकाबले में। विरुद्ध।

सामन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामवेद का ज्ञाता ब्राह्मण। २. वह जो सामवेद का कुशलतापूर्वक गायन करे [को०]।

सामन्य (२)
वि० १. अनुकूल। जो विरुद्ध न हो। २. जो सामगायन में प्रवीण हो [को०]।

सामपुष्पि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

सामप्रधान
वि० [सं०] जिसमें साम निति मुख्य हो। मैत्रीपूर्ण। दोस्ताना (को०)।

सामप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] सान्त्वना प्रदायक वचन या कथन [को०]।

सामय पु
संज्ञा पुं० [सं० समय] दे० 'समय'। उ०—सामय समय पनीह बटा।—नंद० ग्रं०, पृ० ८४।

सामयाचारिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सामयाचारिकी] समयाचार संबंधी प्रचलित व्यवस्थाओं, निर्धारित मान्यताओं एवं स्वीकृत परंपराओं, या विधान संबंधी [को०]। यो०—सामयाचारिक सूञ = समयाचार संबधी एक ग्रंथ।

सामयिक (१)
वि० [सं०] १. समय संबंधी। समय का। २. वर्तमान। समय से संबंध रखनेवाला। यो०—समसामयिक। सामयिकपत्र = समाचार पत्र। ३. समय की दृष्टि से उपयुक्त। समय के अनुसार। समयोचित। ४. किसी एक निश्चित कालावधि का। नियंतकालिक (को०)। ५. जो तय हुआ हो उसके अनुसार। समय के अनुकूल (को०)। ६. ठीक समय पर होनेवाला (को०)। ७. अल्पकालिक। अस्थायी (को०)।

सामयिक (२)
संज्ञा पुं० समय या अवधि। नियत काल [को०]।

सामयिकपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्रनीति के अनुसार वह इकरारनामा या दस्तावेज जिसमें बहुत से लोग अपना अपना धन लगाकर किसी मुकदमे की पैरवी करने के लिये लिखापढ़ी करते है। २. समाचारपत्र। अखबार।

सामयीन पु
संज्ञा पुं० [अ० सामिईन] श्रीतागण। श्रीतृवृंद। सुननेवाले लोग। उ०—खबर सुन सामयीन ने मिल के सारे कल्हा भेजे हैं उसकूँ के। दक्खिनी०, पृ० १९०।

सामयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. हाथी।

सामर (१)
संज्ञा पुं० [सं० समर] दे० 'समर'।

सामर (२)
वि० [सं०] १. समर संबंधी। समर का। युद्ध का। १. अमर अर्थात् देवताओं से युक्त।

सामर पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शम्बर, सम्बर] एक मृग। दे० 'साँभर'। उ०—सिंह कोल गज रीछ बहुत सामर बलवते।—पृ० रा०, ६।९४।

सामर † (४)
वि० [सं० श्यामल] दे० 'साँवरा', 'साँवला'।

सामरथ †
संज्ञा स्त्री० [सं० सामरर्थ्य] दे० 'सामर्थ्य'।

सामरस्य
संज्ञा पुं० [सं०] हर स्थिति में एक ही प्रकार की अनुभूति करने का भाव। समरसता। जैसे,—उनका जीवन सामरस्य से भरा होता है।

सामरा पु
वि० [सं० श्यामल] दे० 'साँवला'। उ०—सामर बदन पर भाँवरे भरत है।—मति० ग्रं०, पृ० ३५०।

सामराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का प्रधान अधिकारी। सेनापति।

सामरिक
वि० [सं०] समर संबंधी। युद्ध का। जैसे,—सामरिक समाचार।

सामरिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समर या समर संबंधी कार्यों में लिप्त रहना। २. युद्ध। लड़ाई।

सामरिकवाद
संज्ञा पुं० [सं० सामरिक + वाद] वह सिद्धांत जिसके अनुसार राष्ट्र सामरिक कार्यों—सेना बढ़ाने, नित्य नए नए भयंकर और घातक युद्धोपकरण बनवाने आदि की ओर, अधिकाधिक ध्यान दे। शस्त्रसज्ज और विराट् सेना रखने का सिद्धांत।

सामरेय
वि० [सं०] समर संबंधी। युद्ध का।

सामर्घ्य
संज्ञा पुं० [सं०] सस्तापन। सस्ती [को०]।

सामर्थ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सामर्थ्य] समर्थता। दे० 'सामर्थ्य'। उ०—धर हरि अस हुवे धरपत्ती। सस्त्रबंध सामर्थ सकत्ती। रा० रू०, पृ० ९।

सामर्थी
संज्ञा पुं० [हिं० सामर्थ + ई (प्रत्य०)] १. सामर्थ्य रखनेवाला। जिसे सामर्थ्य हो। २. जो किसी कार्य के करने की शक्ति रखता हो। ३. पराक्रमी। बलवान।

सामर्थ्य
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं०] १. समर्थ होने का भाव। किसी कार्य के संपादन करने की शक्ति। बल। २. शक्ति। ताकत। ३. औचित्य। उपयुक्तता। योग्यता। ४. शब्द की व्यंजना शक्ति। शब्द की वह शक्ति जिससे वह भाव प्रकट करता है। ५. व्याकरण में शब्दों का परस्पर संबंध। ६. एक लक्ष्य या समान उद्देश्य होने का भाव (को०)। ७. अभिरुचि। लगाव (को०)। १०. धन (को०)।

सामर्थ्यवान †
वि० [सं० सामर्थ्यवत्] शक्तिशाली। समर्थ। उ०— जो श्री गुसौई जो सर्व सामर्थ्यवान हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २५८।

सांमर्थ्यहीन
वि० [सं०] जो सामर्थ्य से रहित हो। शक्ति, बल, योग्यता आदि से हीन।

सामर्ष
वि० [सं०] अमर्षयुक्त। कोपाकुल [को०]।

सामल पु
वि० [फ़ा० शामिल] एक साथ। साथ साथ। मिल जुलकर। उ०—सिंघ अजा सामल सलल पीवै इक थाला। तसकर दबे उलूक ज्यूँ ऊँगा किरणालाँ।—रघु० रू०, पृ० २७०।

सामवाद
संज्ञा पुं० [सं०] सांत्वनापूर्ण बात। मैत्रीपूर्ण बातचीत। सामनीति से युक्त कथन [को०]।

सामवायिक (१)
वि० [सं०] १. समवाय संबंधी। २. जो अटूट या अविच्छेद्य संबंध से युक्त हो। ३. समूह या झुंड संबंधी।

सामवायिक (२)
संज्ञा पुं० १. अमात्य। मंत्री। वजीर। २. किसी श्रेणी वर्ग, समाज या दल का प्रधान (को०)।

सामवायिकराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] वे राज्य जो जो किसी युद्ध के निमित्त मिल गए हों। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि सामवायिक शत्रु राज्यों से कभी अकेला न लड़े।

सामविद्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सामवेद चका अच्छा ज्ञाता हो।

सामविप्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने सब कर्म सामवेद के विधानों के अनुसार करता हो।

सामवेद
संज्ञा पुं० [सं० साम (न्) वेद] भारतीय आर्यों के चार वेदों में से प्रसिद्ध तीसरा वेद। विशेष—पुराणों में कहा है कि इस वेद की एक हजार संहिताएँ थीं, परंतु आजकल इनमें से केवन एक ही संहिता मिलती है। यह संहिता दो भागों में विभक्त है, जिनमें से एक 'आर्चिक' और दूसरा 'उत्तरार्चिक' कहलाता है। इन दोनों भागों में जो १८१० ऋचाएँ हैं, उनमें से अधिकांश ऋग्वेद में आई हुई हैं। ये सब ऋचाएँ प्रायः गायत्री छंद में ही हैं। यज्ञों के समय जो स्तोत्र आदि गाए जाते थे, उन्हीं स्तोत्रों का इस वेद में संग्रह है। भारतीय संगीतशास्त्र का आरंभ इन्हीं स्तोत्रों से होता है। इस वेद का उपवेद गांधर्ववेद है।

सामवेदिक (१)
वि० [सं०] सामवेद संबंधी।

सामवेदिक (२)
संज्ञा पुं० सामवेद का ज्ञाता या अनुयायी ब्राह्मण।

सामवेदी
संज्ञा पुं० [सं० सामवेदिन्] सामवेद का अध्येता एवम् जानकार ब्राह्मण [को०]।

सामवेदीय
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सामवेदिक'।

सामश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० सामश्रवस्] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

सामसर
संज्ञा० पुं० [देश०] एक प्रकार का गन्ना जो डुमराँव (बिहार) में होता है।

सामसाध्य
वि० [सं०] जो साम नीति के द्वारा साध्य हो।

सामसाली पु
संज्ञा पुं० [सं० साम + शाली] राजनीति के साम, दाम, दंड और भेद नामक अंगों को जाननेवाला। राजनीतिज्ञ। उ०—जयति राज राजेंद्र राजीवलोचन राम नाम कलि काम तरु सामसाली। अनय अंभोधि कुंभज निसाचर निकर तिमिर धनघोर वर किरिनिमाली।—तुलसी (शब्द०)।

सामसावित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सावित्री मंत्र।

सामसुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सामगान।

सामस्तंबि
संज्ञा पुं० [सं० सामस्तम्बि] बैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

सामस्त पु (१)
वि० [सं० समस्त] दे० 'समस्त'।

सामस्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दों के विन्यास, मिश्रण, रचना या संधि- संबंधी विद्या। शब्द विज्ञान [को०]।

सामस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] समस्तता। संपूर्णता [को०]।

सामहलि पु
क्रि० वि० [सं० सम्भाल्य ?] देखकर। समझ या जानकर। उ०—साँझी वेला सामहलि कंटलि थई अगासि। ढीलइ करह कँवाइयउ आयउ पूगल पासि।—ढोला०, दू० ५२२।

सामहिं पु
अव्य० [सं० सन्मुख] सामने। संमुख। समक्ष। उ०— तिन सामहिं गोरा रन कोपा। अंगद सरिस पाऊँ भुइँ रोपा।—जायसी (शब्द०)। (ख) कोप सिंह सामहिं रन मेला। लाखन सों ना मरै अकेला।—जायसी (शब्द०)।

सामाँ (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्यामाक] एक अन्न। दे० 'साँवाँ'।

सामाँ (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सामान] दे० 'सामान' उ०—चंद तस्बीरे बुताँ चंद हसीनों के खुतूत बाद मरने के मेरे घर से ये सामाँ निकला।—चंद०, पृ० १।

सामाँ (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामा] दे० 'श्यामा'।

सामा पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० सामान का संक्षिप्त रूप] सामग्री। सामान। सरंजाम। उ०—(क) भोजन की सामा सत्यभामा की भुलाई भले।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २४७। (ख) आखर लगाय लेत लाखन की सामा हो।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०९। यौ०—सामा सामाज = सामग्री, उपकरण और समाज या समूह। उ०—सामासमाज सबहीं वृथा सब सौ अद्भुत दैवगति ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७९.

सामाजिक (१)
वि० [सं०] १. समाज से संबंध रखनेवाला। समाज का। जैसे,—सामाजिक कुरीतियाँ, सामाजिक झगड़े, सामाजिक व्यवहार। २. सभा से संबंध रखनेवाला। ३. सह- दय। रसज्ञ।

सामाजिक (२)
संज्ञा पुं० १. सभासद। सदस्य। सभ्य। २. (नाटक) देख- नेवाला। (नाटक का) सहृदय पाठक या दर्शक। उ०—उन्होंने बतलाया कि सामाजिकों के हृदय में वासनारूप में स्थित स्थायी रति आदि भाव को ही रसत्व प्राप्त होता।—रसक०, पृ० २२।

सामाजिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामाजिक का भाव। लौकिकता।

सामाधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. शमन करने की क्रिया। शांति। २. शंका का निवारण। ३. किसी कार्य को पूर्ण करने का व्यापार। संपादन।

सामान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. किसी कार्य के लिये साधन स्वरूप आवश्यक वस्तुएँ। उपकरण। सामग्री। २. माल। असबाब। मुहा०—सामान बनना = (१) वस्तुओं का तैयार होना। (२) किसी प्रकार की तैयारी होना। सामान बाँधना = माल असबाब बाँधकर चलने की तैयारी करना। ३. औजार। ४. बंदोबस्त। इंतजाम। उ०—इसके नाम व निशान को भी मिटा देने का सामान कर रहे है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६२। क्रि० प्र—करना।—होना।

सामानग्रामिक
वि० [सं०] एक ही ग्राम में रहनेवाले। एक ही गाँव के निवासी।

सामानदेशिक
वि० [सं०] एक ही देश या गाँव से संबंधित। सामान- ग्रामिक।

सामानाधिकरण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समान अवस्था या परिस्थिति में होना। २. समान पद या समान कार्य। ३. एक ही कर्म से संबंधित होना (व्या०, नव्य न्याय)। एक ही कारक या समा- नाधिकरण में होना [को०]।

सामानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सामान्या] दे० 'सामान्या-१'। उ०— प्रथम स्वकीया पुनि परिकीया। इक सामानि बखानी तिया।—नंद० ग्रं०, पृ० १४५।

सामानिक
वि० [सं०] सामानपदीय। समान स्थिति या पद का [को०]।

सामान्य (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कोई विशेषता न हो। साधारण। मामूली। २. दे० 'समान'। ३. महत्वहीन। अदना। तुच्छ (को०)। ४. पूरा। संपूर्ण (को०)। ५. औसत दरजे का (को०)।

सामान्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समान होने का भाव। सादृश्य। समानता। बराबरी। २. वह एक बात या गुण जो किसी जाति या वर्ग की सब चीजों में समान रूप से पाया जाय। जातिसाधर्म्य। जैसे,—मनुष्यों में मनुष्यत्व या गौओं में गोत्व। विशेष—वैशेषिक में जो छहु पदार्थ माने गए हैं, सामान्य उनमें से एक है। इसी को जाति भी कहते हैं। ३. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार। यह उस समय माना है, जब एक ही आकार की दो या अधिक ऐसी वस्तुओं का वर्णन होता है जिनमें देखने में कुछ भी अंतर नहीं जान पड़ता। जैसे,—(क) एक रूप तुम भ्राता दोऊ। (ख) नाहिं फरक श्रुतिकमल अरु हरिलोचन अभिसेष। (ग) जानी न जात मसाल औ बाल गोपाल गुलाल चलावत चूकैं। ४. संपूर्णता। पूर्ण होने का भाव (को०)। ५. किस्म। प्रकार (को०)। ६. सार्वजनिक कार्य। ७. अनुरूपता। तुल्यता (को०)। ८. वह धर्म जो मनुष्य, पशु पक्षी आदि सभी में सामान्य रूप से पाया जाय (को०)। ९. पहचान। लक्षण। चिह्न (को०)। १०. वह अवस्था जिसमें किसी एक ओर झुकाव न हो। मध्य स्थिति। तटस्थता (को०)।

सामान्य छल
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का छल जिसमें संभावित अर्थ के स्थान में अति सामान्य के योग से असंभूत अर्थ की कल्पना की जाती है। जब वादी किसी संभूत अर्थ के विष य में कोई वचन कहै, तब सामान्य के संबंध से किसी असंभूत अर्थ के विषय में उस वचन की कल्पना करने की क्रिया। विशेष दे० 'छल'।

सामान्यज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्तुओं के सामान्य गुणों की जानकारी या ज्ञान। २. सब विषयों का साधारण या कामचलाऊ ज्ञान [को०]।

सामान्य ज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण ज्वर। मामूली बुखार।

सामान्यतः
अव्य० [सं०] सामान्य रूप से। साधारण रीति से। साधारणतः। जैसे,—राजनीति में सामान्यतः अपना ही स्वार्थ देखा जाता है।

सामान्यतया
अव्य० [सं०] सामान्य रूप से। साधारण रीति से। मामूली तौर से। सामान्यतः। साधारणतया।

सामान्यतोद्दष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. तर्क और न्यायशास्त्र के अनुसार अनुमान संबंधी एक प्रकार की भूल जो उस समय मानी जाती है जब किसी ऐसे पदार्थ के द्वारा अनुमान करते हैं जो न कार्य हो, न कारण। जैसे,—कोई आम को बौरते देखकर यह अनुमान करे कि अन्य वृक्ष भी बौरते होंगे। २. दो वस्तुओं या बातों में ऐसा साधर्म्य जो कार्यकारण संबंध से भिन्न हो। जैसे,—बिना चले कोई दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार दूसरे को भी किसी स्थान पर भेजना बिना उसके गमन के नहीं हो सकता।

सामान्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सामान्य या साधारण होने का भाव। सामान्यता। साधारणता। उ०—इस सामान्यत्व की स्थापना के कई हेतु होते हैं।—आ० रा० शुक्ल, पृ० ८९।

सामान्यनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामान्य वनिता। वेश्या [को०]।

सामान्यपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दो अतिसीमाओं के मध्य की स्थिति।

सामान्यभविष्यत्
संज्ञा पुं० [सं०] भविष्य क्रिया का वह काल जो साधारण रूप बतलाता है। जैसे,—आएगा, जाएगा, खाएगा।

समान्यभूत
संज्ञा पुं० [सं०] भूत क्रिया का वह रूप जिसमें क्रिया की पूर्णता होती है और भूतकाल की विशेषता नहीं पाई जाती है। जैसे,—खाया, गया, उठा।

सामान्यलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वह गुण या लक्षण जो किसी जाति या वर्ग में समान रूप से पाया जाय [को०]।

सामान्यलक्षण
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गुण जिसके अनुसार किसी एक सामान्य को देखकर उसी के अनुसार उस जाति के और सब पदार्थों का बोध होता है। किसी पदार्थ को देखकर उस जाति के और सब पदार्थों का बोध करानेवाली शक्ति। जैसे,—किसी एक गौ या घड़े को देखकर समस्त गौओं या घड़ों का जो ज्ञान होता है, वह इसी सामान्य लक्षण के अनुसार होता है।

सामान्यवचन (१)
वि० [सं०] सामान्य लक्षण बतानेवाला।

सामान्यवचन (२)
संज्ञा पुं० वस्तु या पदार्थबोधक शब्द [को०]।

सामान्यवनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंड़ी [को०]।

सामान्यवर्तमान
संज्ञा पुं० [सं०] वर्तमान क्रिया का वह रूप जिसमें कर्ता का उसी समय कोई कार्य करते रहना सूचित होता है। जैसे,—खाता है, जाता है।

सामान्यविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] साधारण विधि या आज्ञा। जैसे,— हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, किसी का अपकार मत करो, आदि सामान्य विधि के अंतर्गत हैं। परंतु यदि यह कहा जाय कि यज्ञ में हिंसा की जा सकती है, अथवा ब्राह्मण की रक्षा के लिये झूठ बोला जा सकता है तो इस प्रकार का विधि विशेष होगी और वह सामान्य विधि की अपेक्षा अधिक मान्य होगी।

सामान्य शासन
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी राजाज्ञा जो सबपर समान रूप से लागू हो [को०]।

सामान्य शास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] सबपर समान रूप से लागू होनेवाला विधि या शास्त्र।

सामान्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साहित्य के अनुसार वह नायिका जो धन लेकर किसी से प्रेम करती है। विशेष—इस नायिका के भी उतने ही भेद होते हैं जितने अन्य नायिकाओं के होते हैं। २. गणिका। वेश्या।

सामायिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार एक प्रकार का व्रत या आचरण जिसमें सब जीवों पर सम भाव रखकर एकांत में बैठकर आत्मचिंतन किया जाता है।

सामायिक (२)
वि० मायायुक्त। माया सहित।

सामाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वह भवन या प्रासाद आदि जिसके पश्चिम ओर वीथिका या सड़क हो।

सामासिक (१)
वि० [सं०] १. समास से संबंध रखनेवाला। समास का। २. सामूहिक। समुच्चयात्मक (को०)। ३. संहत। संक्षिप्त (को०)। ४. मिश्रित (को०)।

सामासिक (२)
संज्ञा पुं० समास।

सामि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] निंदा। शिकायत।

सामि (२)
वि० १. जो पूरा न हुआ हो। जो अपूर्ण या आंशिक रूप में हो। अधूरा। २. दोषावह। निंदनीय। ३. शीघ्रतापूर्वक [को०]।

सामि पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० स्वामि] स्वामी। पति। उ०—आवहु सामि सुलच्छना जीय बसै तुम्ह नाउँ।—जायसी ग्रं०, पृ० १०१।

सामिक
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष। पेड़ [को०]।

सामिकृत
वि० [सं०] आंशिक या अधूरा किया हुआ। (कार्य आदि) जो अंशतः कृत हो [को०]।

सामिग्री
संज्ञा स्त्री० [सं० सामग्री] दे० 'सामग्री'।

सामिञ पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० स्वामिन्] दे० 'स्वामी'। उ०—पुण्ण कहानी पिञ कहहु सामिञ सुनओ सुहेण।—कीर्ति०, पृ० १६।

सामित
वि० [सं०] गेहूँ के आटे के साथ मिश्रित [को०]।

सामित्त पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वामित्व] दे० 'स्वामित्व'।

सामित्त पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० साम्यत्व] दे० 'समता'। उ०—घटि बढ़ि पंच दिसा फिरि आयौ। कवि मुष तौ सामित्त करायौ।—पृ० रा०, २।४०७।

सामित्य (१)
संज्ञा [सं०] समिति का भाव या धर्भ।

सामित्य (२)
वि० समिति का। समिति संबंधी।

सामिधेन
वि० [सं०] यज्ञाग्नि प्रज्वलित करने से संबंधित (को०)।

सामिधेनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का ऋक् मंत्र जिसका पाठ होम की अग्नि प्रज्वलित करने के समय (अथवा सामिधा डालते समय) किया जाता है। २. समिधा (को०)।

सामिधेन्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सामिधेनी'।

सामिपीत
वि० [सं०] आधा पिया हुआ। अर्धपीत [को०]।

सामिभुक्त
वि० [सं०] आधा खाया हुआ [को०]।

सामियाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० शामियाना] दे० 'शामियाना'।

सामिल
वि० [फ़ा० शामिल] दे० 'शामिल (३)'।

सामिष
वि० [सं०] आमिष सहित। मांस मद्य आदि के सहित। निरामिष का उलटा। जैसे, —सामिष भोजन, सामिष श्राद्ध।

सामिष श्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पितरों आदि के उद्देश्य से किया जानेवाला वह श्राद्ध जिसमें मांस, मद्य आदि का व्यवहार होता है। जैसे,—मांसाष्टका आदि सामिष श्राद्ध हैं।

सामिसंस्थित
वि० [सं०] आधा किया हुआ। अर्धकृत [को०]।

सामी पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वामिन्] दे० 'स्वामी'।

सामी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'शामी'।

सामीची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंदना। प्रार्थना। स्तुति। २. नम्रता। सौजन्य। शिष्टता (को०)।

सामीचीकरणीय
वि० [सं०] शिष्टतापूर्वक नमन करने योग्य। जो नम्रतापूर्वक प्रणाम करने योग्य हो [को०]।

सामीचीन्य
संज्ञा पुं० [सं०] उपयुक्तता। समीचीनता [को०]।

सामीप पु
वि० [सं० समीप या सामीप्य] दे० 'समीप'। उ०—कहा धरम उपदेश है, मूढ़न के सामीप।—दीन० ग्रं०, पृ० ८४।

सामीप्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समीप होने का भाव। निकटता। २. एक प्रकार की मुक्ति जिसमें मुक्त जीव का भगवान् के समीप पहुँच जाना माना जाता है। उ०—निर्बान मारग को जो कोई ध्यावै, सो सामीप्य मुक्ति बैकुंठ को पावै।—कबीर सा०, पृ० ९०५। ३. पड़ोस। ४. पड़ोसी। प्रतिवेशी।

समीर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० समीर] समीर। पवन। (डिं०)। उ०— चरस करत लिषमण चमर, अरस अगर, सामीर। इस सिय जुत जन मंछ उर, बसो सदा रघुबीर।—रघु० रू०, पृ० १।

समीर (२)
वि० दे० 'सामीर्य'।

सामीरण
वि० [सं०] दे० 'सामीर्य'।

सामीर्य
वि० [सं०] समीर संबंधी। समीर का। हवा का।

सामुझि पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्बुद्धि] दे० 'समझ'। उ०—प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फीकी।—मानस, १।९।

सामुदायिक (१)
वि० [सं०] सामुदाय संबंधी। समुदाय का। सामूहिक।

सामुदायिक (२)
संज्ञा पुं० बालक के जन्म समय के नक्षत्र से आगे के अठारह नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार अशुभ माने जाते हैं और जिनमें किसी प्रकार का शुभ कार्य करने का निषेध है।

सामुद्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह संधि या जोड़ जिसमें कुछ गहरापन हो। खात या गर्तयुक्त संधि। जैसे,—काँख या कूल्हे की संधि। २. भोजन के पहले और बाद में ली जानेवाली औषधि [को०]।

सामुद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र से निकला हुआ नमक। वह नमक जो समुद्र के खारे पानी से निकाला जाता है। २. समुद्र- फेन। ३. वह व्यापारी जो समुद्र के द्वारा दूसरे देशों में जाकर व्यापार करता हो। ४. नारियल। ५. जहाजी। नाविक। माँझी (को०)। ६. एक प्रकार का मच्छड़। सूश्रुत के अनुसार सामुद्र, परिमंडल, हस्तिनाशक, कृष्ण और पर्वतीय इन पाँच मच्छड़ों में से एक (को०)। ७. करण और वेश्या से उत्पन्न संतति। एक जातिविशेष (को०)। ८. समुद्र की एक कन्या जो प्राचिनवर्हिष् की पत्नी थी (को०)। ९. आश्विन मास की वर्षा- विशेष का जल (को०)। १०. शरीर में होनेवाले चिह्न या लक्षण आदि जिन्हें देखकर शुभाशुभ का विचार किया जाता है। विशेष दे० 'सामुद्रिक'।

सामुद्र (२)
वि० १. समुद्र से उत्पन्न। समुद्र से निकला हुआ। २. समुद्र संबंधी। समुद्र का।

सामुद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्री नमक। २. सामुद्रिक विद्या। दे० 'सामुद्र'।

सामुद्रनिष्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रतट वासी [को०]।

सामुद्रनिष्कूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम। २. इस जनपद का निवासी।

सामुद्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० सामुद्र बन्धु] चंद्रमा [को०]।

सामुद्रमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र में होनेवाली बड़ी बड़ी मछलियाँ जिनका मांस सुश्रुत के अनुसार भारी, चिकना, मधुर, वातनाशक, कफवर्धक, उष्ण और वृष्य होता है।

सामुद्रविद्
संज्ञा पुं० [सं०] सामुद्रिक शास्ञ का ज्ञाता [को०]।

सामुद्रस्थलक
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र तट का प्रदेश। समुद्र के आसपास का देश।

सामुद्राद्य चूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जो, साँभर, साँचर और सेंधा नमक, अजवायन, जवाखार, बाय- विडंग, हींग पीपल, चीतामूल और सोंठ को बराबर मिलाने से बनता है। विशेष—कहते हैं कि इस चूर्ण का घी के साथ सेवन करने से उदर के सब प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। यदि भोजन के आरंभ में इसका सेवन किया जाय तो यह बहुत पाचक होता है और इससे कोष्ठबद्धता दूर होती है।

सामुद्रिक (१)
वि० [सं०] १. समुद्र से संबंध रखनेवाला। समुंदरी। सागर संबंधी। २. शरीरचिह्न संबंधी [को०]।

सामुद्रिक (२)
संज्ञा पुं० १. फलित ज्योतिष का एक अंग जिसके अनुसार हथेली की रेखाओं, शरीर के तिलों तथा अन्यान्य लक्षणों आदि को देखकर मनुष्य के जीवन की घटनाएँ तथा शुभाशुभ फल बतलाए जाते है; यहाँ तक कि कुछ लोग केवल हाथ की रेखाओं को देखकर जन्मकुंडली तक बनाते हैं। २. वह जो इस शास्त्र का ज्ञाता हो। हाथ की रेखाओं तथा शरीर के तिलों और लक्षणों आदि को देखकर जीवन की घटनाएँ और शुभाशुभ फल बतलानेवाला पंडित। ३. नाविक (को०)। ४. एक जलपक्षी। उ०—डुबकियाँ लगाते सामुद्रिक, धोती पीली चोंचें धोबिन।—ग्राम्या, पृ० ३७।

सामुहाँ पु † (१)
अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। संमुख।

सामुहाँ † (२)
संज्ञा पुं० आगे का भाग या अंश। सामना। (क्व०)।

सामुहेँ पु †
अव्य० [सं० सन्मुख] सामने। सन्मुख।

सामूना
संज्ञा स्त्री० [सं०] काले रंग का एक हिरन [को०]।

सामूर
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार बह्लव देश का चमड़ा [को०]।

सामूली
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य वर्णित बह्नव देशीय चमड़े का एक प्रकार [को०]।

सामूहाँ पु
अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। संमुख। उ०—जनु घुघची वह तिलकर मूहाँ। बिरहबान साँधो सामूहाँ।—जायसी (शब्द०)।

सामूहिक
वि० [सं०] १. समूह संबंधी। समूह का। २. जो समूहबद्ध हो [को०]।

सामृद्धय
संज्ञा पुं० [सं०] समृद्धि का भाव या समृद्धिता।

सामेधिक
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जो अद्रुत प्राकृतिक शक्ति से संपन्न हो [को०]।

सामोद
वि० [सं०] १. आनंदयुक्त। प्रसन्नतापूर्ण। २. आमोद या सुगंधियुक्त [को०]।

सामोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।

सामोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

साम्न
वि० [सं०] सामवेद के मंत्रों से संबंधित [को०]।

साम्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का छंद। २. जानवरों को बाँधने की रस्सी [को०]।

साम्नी अनुष्टुप्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें १४वर्ण होते हैं।

साम्नी उष्णिक्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें १४ वर्ण होते है।

साम्नी गायत्री
एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें १२ वर्ण होते हैं।

साम्नी जगती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें २२ संपूर्ण वर्ण होते है।

साम्नी त्रिष्टुप्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें २२ संपूर्ण वर्ण होते हैं।

साम्नी पंक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्नी पङक्ति] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें २० संपूर्ण वर्ण होते हैं।

साम्नी बृहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद जिसमें १८ संपूर्ण वर्ण होते हैं।

साम्मत्य
संज्ञा पुं० [सं०] संमति का भाव।

साम्मुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तिथि जो सायंकाल तक रहती हो।

साम्मुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. संमुख का भाव। सामना। २. उपस्थिति (को०)। ३. कृपा। अनुग्रह (को०)।

साम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समान होने का भाव। तुल्यता। समानता। जैसे,—इन दोनों पुस्तकों में बहुत कुछ साम्य है। २. दृष्टिकोण की समानता या एकता (को०)। ३. संगति। सामंजस्य (को०)। ४. अवधि। माप। काल। सम (को०)। ४. समता की स्थिति। उदासीनता। तटस्थता। निष्पक्षता (को०)। यौ०—साम्यग्राह = (१) घड़ियाल बजानेवाला। (२) संगीत में 'सम' को ग्रहण करने और ताल देनेवाला। साम्यताल- विशारद = लय और ताल का ज्ञात। जो लय और ताल का जानकर हो।

साम्यतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० साम्य + तन्त्र] वह शासनप्रणाली जो साम्यवाद के सिद्धांत पर हो। साम्यवादी सिद्धांत के अनुरूप चलनेवाला शासन। उ०—ये राज्य प्रजाजन, साम्यतंत्र, शासन चालन के कृतक मान।—युगांत, पृ० ६०।

साम्यता
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्य + ता] दे० 'साम्य'।

साम्यवाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पाश्चात्य सामाजिक (समाजवादी) सिद्धांत। समष्टिवाद। उ०—थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्यवाद, छल सम्य जगत के शिष्ट मान।—युगांत, पृ० ५८। विशेष—इस सिद्धांत का प्रवर्तन ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन कार्लमार्क्स ने किया है जो जर्मनी का निवासी था। इस सिद्धांत के प्रचारक समाज में साम्य स्थापित करना चाहते है और उसका वर्तमाने वैषम्य दूर करना चाहते हैं। वे लोग चाहते हैं कि समाज से व्यक्तिगत प्रतियोगिता उठ जाय और भूमि तथा उत्पादन के समस्त साधनों पर किसी एक व्यक्ति का अधिकार न रह जाय, बल्कि सारे समाज का अधिकार हो जाय। इस प्रकार सब लोगों में धन आदि का बराबर बराबर वितरण हो; न तो कोई बहुत गरीब रह जाय और न कोई बहुत अमीर रह जाय।

साम्यवादी
वि० [सं० साम्य + वादिन्] १. साम्यवाद से संबंधित। साम्यवाद का। २. जो साम्यवाद की मानता हो। साम्यवाद का अनुयायी।

साम्यावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अवस्था जिसमें सत्व, रज और तम तीनों गुण बराबर हों, उनमें किसी प्रकार का विकार, या वैषम्य न हो। प्रकृति।

साम्यावस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति। दे० 'साम्यावस्था' [को०]।

साम्राज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह राज्य जिसके अधीन बहुत से देश हों और जिसमें किसी एक सम्राट का शासन हो। सार्वभौम राज्य। सलतनत। २. आधिपत्य़। पूर्ण अधिकार। ३. आधिक्य। बाहुल्य (को०)। ४. प्रधानता (को०)।

साम्राज्यकृत्
वि० [सं०] साम्राज्य करनेवाला। साम्राज्य का शासक [को०]।

साम्राज्यलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक देवी जो साम्राज्य की अधिष्ठात्री मानी जाती है।

साम्राज्यवाद
संज्ञा पुं० [सं० साम्राज्य + वाद] साम्राज्य के देशों की रक्षा और वृद्धि या विस्तार का सिद्धांत। उ०—साम्राज्यवाद था कंस, बंदिनी मानवता पशु बलाक्रांत।—युगांत, पृ० ६०।

साम्राज्यवादी
संज्ञा [सं० साम्राज्यवादिन् अथवा हिं० साम्राज्यवाद + ई (प्रत्य०)] वह जो साम्राज्यशासन प्रणाली का पक्षपाती और अनुरागी हो। वह जो साम्राज्य की स्थापना और उसकी विस्तारवृद्धि का पक्षपाती हो।

साम्राणिकर्द्दम
संज्ञा पुं० [सं०] गंधमार्जार या गंधबिलाव का वीर्य जो गंधद्रव्यों में माना जाता है। जवादि नामक कस्तूरी।

साम्राणिज
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा पारेवत।

साम्हना †
संज्ञा पुं० [हिं० सामना] दे० 'सामना'।

साम्हने †
अव्य० [हिं० सामने] दे० 'सामने'।

साम्हर †
संज्ञा पुं० [सं० शाकम्भर या सम्भल, साम्भल] १. दे० 'शाकंबर'। २. दे० 'साँभर'। ३. साँभर झील का बना नमक। उ०—कोट यतन सों विजन करई। साम्हर बिन फीका सब रहई।—कबीर सा०, पृ० २०९।

साम्हें पु
अव्य० [सं० सम्मुख] दे० 'सामुहें'। उ०—कहिए अब लौं ठहरयौ कौन। सोई भाग्यो तुव साम्हें सो गयो परिछयौ जौन। भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २९८।

साय (१)
वि० [सं०] संध्या संबंधी। सायंकालीन। संध्याकालीन।

सायं (२)
अव्य० शाम के समय।

सायं (३)
संज्ञा पुं० १. दिन का अंतिम भाग। संध्या। शाम। २. वाण। तीर।

सायंकाल
संज्ञा पुं० [सं० सायङ्काल] [वि० सायंकालीन] दिन का अंतिम भाग दिन और रात की संधि। संध्याकाल। संध्या। शाम।

सायंकालिक
वि० [सं० सायङकालिक] संध्या के समय का। शाम का।

सायंकालीन
वि० [सं सायङ्कालीन] संध्या के समय का। शाम का।

सायंगृह
संज्ञा पुं० [सं० सायङ्गृह्] वह जो संध्यासमय जहाँ पहुँचता हो, वहीं अपना घर बना लेता हो।

सायंतन
वि० [सं० सायन्तन] सायंकालीन। संध्या संबंधी। संध्या का। यौ०—सायंतनमल्लिका = शाम को खिलनेवाली चमेली। सायंतन- समय = शाम। सायंकाल [को०]।

सायंतनी
वि० [सं० सायन्तनी] दे० 'सायंतन'।

सायंधृति
संज्ञा स्त्री० [सं० सायनधृति] सायंकालीन हवन [को०]।

सायंनिवास
संज्ञा पुं० [सं० सायन्निवास] वह स्थान जहाँ शाम को रहा जाय [को०]।

सायंपोष
संज्ञा पुं० [स० सायम्पोष] सायंकाल किया जानेवाला भोजन। ब्यालू [को०]।

सायंप्रातः
अव्य० [सं० सायम्प्रातर्] सुबह शाम।

सायंभव
वि० [सं० सायम्भव] संध्या का। शाम का।

सायंभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] शाम का भोजन। ब्यालू [को०]।

सायंमंडन
संज्ञा पुं० [सं० सायम्मण्डन] १. सूर्यास्त। २. सूर्य [को०]।

सायंसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सायम्सन्ध्या] १. वह संध्या (उपासना) जो सायंकाल में की जाती है। २. सरस्वती देवी जिसकी उपासना संध्या के समय की जाती है। ३. सूर्यास्त का काल। गोधूलि वेला (को०)।

सायंसंध्यादेवता
संज्ञा स्त्री० [सं० सायम्सन्ध्या देवता] देवी सरस्वती का एक नाम।

सायंस
संज्ञा स्त्री०[अं० साइंस] १. विज्ञान। शास्त्र। २. वह शास्त्र जिसमें भौतिक तथा रासायनिक पदार्थों के विषय में विवेचन हो। विशेष दे० 'विज्ञान'।

साय
संज्ञा पुं० [सं०] १. संध्या का समय। शाम। २. वाण। तीर। ३. समाप्ति। अंत [को०]।

सायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण। तीर। शर। उ०—लखि कर सायर अरु तुम्हे कर सायक सर चाप।—शकुंतला, पृ० ७। २. खङ्ग। उ०—धीर सिरोमनि बीर बड़े बिजई बिनई रघुनाथ सोहाए। लायकही भृगुनायक से धनु सायक सौंपि सुभाय सिंधाए।—तुलसी (शब्द०)। ३. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में सगण, भगण, तगण, एक लघु और एक गुरु होता है (???)। ४. भद्र मुंद। राम सर। ५. पाँच की संख्या। (कामदेव के पाँच बाणों के कारण। ६. आकाश का विस्तार। अक्षांश (को०)।

सायकपुंख
संज्ञा पुं० [सं० सायक्पुङ्ख] वाण का वह भाग जिसमें पंख लगा रहता है [को०]।

सायकपुंखा
संज्ञा स्त्री० [सं० सायकपुङ्खा] शरपुंखा। सरफोका।

सायका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंजदह। लाई।

सायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध आचार्य जिन्होंने चारों वेदों के बहुत उत्तम और प्रसिद्ध भाष्य लिखे हैं। विशेष—इनके पिता का नाम मायण था। पहले ये राज्यमंत्री थे पर पीछे से संन्यासी होकर शृंगेरी मठ के अधिष्ठाता हुए थे। उस समय इनका नाम विद्यारण्य स्वामी हुआ था। इनका समय ईसवी चौदहवीं। (१३७०) शताव्दी है। इनके नाम से और भी बहुत से संस्कृत ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

सायणवाद
संज्ञा पुं० [सं०] आचार्य सायण का मत या सिद्धांत।

सायणीय
वि० [सं०] १. सायण संबंधी। सायण का। २. सायण कृत (ग्रंथ)।

सायत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० साअत] १. एक घंटे या ढाई घडी़ का समय। २. दंड। पल। लमहा। ३. शुभ मुहूर्त। अच्छा समय। उ०— जलद ज्योतिषी बैन, सायत धरत पयान की।—श्यामा०, पृ० १२५।

सायत † (२)
अव्य० [फ़ा० शायद] दे० 'शायद'।

सायन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सायण] दे० 'सायण'।

सायन (२)
वि० [सं०] अयनयुक्त। जिसमें अयन हो (ग्रह आदि)। उ०—गोविंद ने मुहूर्त चिंतामणी के संक्रांति प्रकरण में सायन संक्रांति के ऊपर लिखा है।—सुधाकर (शब्द०)। (ख) भारतवर्ष के ज्योतिषाचार्यों ने जब देखा कि सायन दूसरे नक्षत्र में गया।—ठाकुर प्र० (शब्द०)।

सायन (३)
संज्ञा पुं० सूर्य की एक प्रकार की गति।

सायब
संज्ञा पुं० [फ़ा० साहब] पति। स्वामी। (डिं०)।

सायबान
संज्ञा पुं० [फ़ा० सायह्बान] १. मकान के सामने धूप से बचने के लिये लगाया हुआ ओसार। बरमदा। २. मकान के आगे की ओर बढी़ या निकली हुई वह छाजन या छप्पर आदि जो छाया के लिये बनाई गई हो।

सायम्
अव्य० [सं०] शाम को। शाम के समय।

सायमशन
संज्ञा पुं० [सं०] शाम का भोजन। ब्यालू [को०]।

सायमाहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह आहुति जो संध्या के समय दी जाय।

सायर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सागर, प्रा० सायर] १. सागर। समुद्र। उ०—(क) सायर मद्धि सुठाम करन त्रिभुवन तन अंजुल।—पृ० रा०, २।९२। (ख) जहँ लग चंदन मलय गिरी औ सायर सब नीर। सब मिलि आय बुझावहिं बुझै न आग सरीर।— जायसी (शब्द०)। २. ऊपरी भाग। शीर्ष।

सायर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह भूमि जिसकी आय पर कर नहीं लगता। २. मृतफर्रकात। फुटकर।

सायर (३)
वि० १. घुमक्कड़। सैर करनेवाला। घूमनेवाला। २. जो नियत या स्थिर न हो। अस्थायी। अनियत [को०]।

सायर † (४)
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह पटरा जिससे खेत की मिट्टी बराबर करते हैं। हेंगा। २. एक देवता जो चौपायों का रक्षक माना जाता है।

सायर † (५)
संज्ञा पुं० [अ० शाइर, शायर] कवि। कविता करनेवाला। दे० 'शायर'।

सायल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. सवाल करनेवाला। प्रश्नकर्ता। २. माँगनेवाला। याचना करनेवाला। ३. भिखारी। फकीर। ४. दख्वस्ति करनेवाला। प्रार्थना करनेवाला। ५. उम्मीदवार। आकांक्षी। ६. न्यायालय में फरियाद करने या किसी प्रकार की अरजी देनेवाला। प्रार्थी।

सायल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो सिलहट में होता है।

सायवस
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

साया (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सायह्] १. छाया। छाँह। उ०—छाँव सूँ मेरे हुए हैं बादशाह। साया परवरदा हैं मेरे सब मलूक।— दक्खिनी०, पृ० १८६। यौ०—सायेदार। २. आश्रय। संरक्षण। सहारा। मुहा०—साये में रहना = शरण में रहना। संरक्षण में रहना। साय उठना = संरक्षक का न रहना। देखभाल और परवरिश करनेवाले का मर जाना। ३. परछाई। अक्स। प्रतिबिंव। मुहा०—साये से भागना = बहुत दूर रहना। बहुत बचना। ४. जिन, भूत, प्रेत, परी आदि। मुहा०—साया उतरना = भूत, प्रेत का प्रभाव समाप्त होना। साया होना = प्रेताविष्ट होना। भूत, प्रेत का प्रभाव होना। साये में आना = भूत, प्रेतादि से प्रभावान्वित होना। ५. असर। प्रभाव। मुहा०—साया पड़ना = किसी की संगत का असर होना। साया डालना = (१) कृपा करना। (२) प्रभाव डालना।

साया (२)
संज्ञा पुं० [अं० शेमीज] १. घाघरे की तरह का एक पहनावा जो प्रायः पाश्चात्य देशों की स्त्रियाँ पहनती हैं। २. एक प्रकार का छोटा लहँगा जिसे स्त्रियाँ प्रायः महीन साड़ियों के नीचे पहनती हैं।

सायाबंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सायह्बंदी] मुसलमानों में विवाह के अवसर पर मंडप बनाने की क्रिया।

सायास
वि० [सं० स + आयास] आयासपूर्वक। प्रयत्नपूर्वक। श्रम- पूर्वक। उ०—सहज चुन चुन लघु तृण खर, पात। नीड़ रच रच निसि दिन सायास।—गुंजन, पृ० ७४।

सायाह्न
संज्ञा पुं० [सं०] दिन का अंतिम भाग। संध्या का समय। शाम।

सायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उचित क्रम में होना। क्रम के अनुसार स्थिति होना। २. छुरिका। कटार [को०]।

सायी
संज्ञा पुं० [सं० सायिन्] घोड़े का सवार। अश्वारोही।

सायुज
संज्ञा पुं० [सं० सायुज्य] दे० 'सायुज्य'। उ०—गुरुनानक का भेदाभेद ईश्वर और जीव में सायुज संबंध मानता है।—हिंदी काव्य०, पृ० ४६।

सायुज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक में मिल जाना। ऐसा मिलना कि कोई भेद न रह जाय। २. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति जिसमें जीवात्मा परमात्मा लीन हो जाता है। उ०—हरि भे कहत गरीयसि मेरी। भक्ति होई सायुज्य बड़ेरी।—गर्गसंहिता (शब्द०)। ३. समानता। एकरूपता।

सायुज्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सायुज्य का भाव या धर्म। सायुज्यत्व।

सायुज्यत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] सायुज्य का भाव या धर्म। सायुज्यता।

सायुध
वि० [सं०] आयुधयुक्त। शस्त्रसज्ज [को०]। यौ०—सायुध प्रग्रह = जो हाथ में शस्त्र ताने हुए हो।

सारंग,सारँग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मृग। २. को- किल। कोयल। उ०—वयन वर सारंग सम।—सूर (शब्द०)। ३. श्येन। बाज। ४. सूर्य। उ०—जलसुत दुखी दुखी हे मधुकर है पंछी दुख पावत। सूरदास सारँग केहि कारण सारंग कुलहि लजावत।—सूर (शब्द०)। ५. सिंह। उ०—सारंग सम कटि हाथ साथ विच सारँग राजत। सारँग लाए अंग देखि छबि सारँग लाजत। सारंग भूषण पीत पट सारँग पद सारंगधर। रघुनाथ दास वेदन करत सीतापति रघुवंशधर।—विश्राम (शब्द०)। ६. हंस पक्षी। ७. मयूर। मोर। ८. चातक। ९. हाथी। १०. घोड़ा। अश्व। ११. छाता छत्र। १२. शंख। उ०—सारँग अधर सधर कर सारंग सारँग जाति सारँग मति भोरी। सारँग दसन वसन पुनि सारँग वसन पीतपट डोरी।—सूर (शब्द०)। १३. कमल। कंज। उ०—(क) सारंग वदन विलास विलोचन हरि सारंग जानि रति कीन्हीं।—सूर (शब्द०)। (ख) सारँग दृग मुख पाणि पद सारँग कटि वपुधार। सारँगधर रघुनाथ छवि सारँग मोहनहार।—विश्राम (शब्द०)। १४. स्वर्ण। सोना। उ०—सारँग से दृग लाल माल सारँग की सोहत। सारँग ज्यों तनु श्यामवदन लखि सारँग मोहत।—विश्राम (शब्द०)। १५. आभूषण। गहना। १६. सर। तालाब। उ०—मानहु उमँगि चल्यो चाहत है सारँग सुधा भरे।—सूर० (शब्द०)। १७. भ्रमर। भौंरा। उ०—नचत हैं सारंग सुंदर करत शब्द अनेक।—सूर (शब्द०)। १८. एक प्रकार की मधुमक्खी। १९. विष्णु का धनुष। उ०—(क) एकहू बाण न आयो हरि के निकट तब गह्मो धनुष सारंगधारी।—सूर (श्बद०) (ख) सबै परथमा जौवन सोहैं। नयनबान औ सारँग मोहैं।—जायसी (शब्द०)। २०. कर्पूर। कपूर। उ०—सारंग लाए अंग देखि छबि सारँग लाजत।—विश्राम (शब्द०)। २१. लवा पक्षी। २२. श्रीकृष्ण का एक नाम। उ०— गिरिधर व्रजधर मुरलीधर धरनीधर पीतांबरधर मुकुटधर गोपधर उर्गधर शंखधर सारंगधर चक्रधर गदाधर रस धरें अधर सुधाधर।—सूर (शब्द०)। २३. चंद्रमा। शाशि। उ०—तमहि सारँग सुत भोभित है ठाढी़ सारंग सँभारि।—सूर (शब्द०)। २४. समुद्र। सागर। २५. जल। पानी। २६. वाण। शर। तीर। २७. दीपक। दीया। २८. पपीहा। २९. शंभु। शिव। उ०—जनु पिनाक की आश लागि शशि सारँग शरन बचे।—सूर (शब्द०)। ३०. सूगंधित द्रव्य। ३१. सर्प। साँप। उ०—सारँग चरन पीठ पर सारँग कनक खंभ अहि मनहुँ चढो री।—सूर (शब्द०)। ३२. चंदन। ३३. भूमि। जमीन। ३४. केश। बाल। अलक। उ०—शीश गंग सारँग भस्म सर्वाग लगावत।—विश्राम (शब्द०)। ३५. दीप्ति। ज्योति। चमक। २६. शोभा। सुंदरता। ३७. स्त्री। नारी। उ०—सूरदास सारँग केहि कारण सारँग कुलहिं लजावत सूर (शब्द०)। ३८. रात्रि। रात। विभावरी। ३९. दिन। उ०—सारँग सुंदर को कहत रात दिवस बड़ भाग।— नंददास (शब्द०)। ४० तलवार। खङ्ग। (डिं०)। ४१. कपोत। कबूतर। ४२. एक प्रकार का छंद जिसमें चार तगण होते हैं। इसे मैनावली भी कहते हैं। ४३. छप्पय छंद के २६ वें भेद का नाम। विशेष—इसमें ४५ गुरु, ६२ लघु कुल १०७ वर्ण या १५२ मात्राएँ अथवा ४५ गुरु, ५८ लघु कुल १०३ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती हैं। ४४. मृग हिरन। उ०—(क) श्रवण सुयश सारंग नाद विधि चातक विधि मुख नाम।—सूर (श्बद०)। (ख) भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सायक लोचना।—तुलसी (शब्द०)। ४५. मेघ। बादल। घन। उ०—(क) कारी घटा देखि अँधि- यारी सारँग शब्द न भावै।—सूर (शब्द०)। (ख) सारँग ज्यों तनु श्याम वदन लखि सारंग मोहत।—विश्राम (शब्द०)। ४६. मोती। (डि०)। ४७. कुच। स्तन। ४८. हाथ। कर। ४९. वायस। कौआ। ५०. ग्रह। नक्षत्र। ५१. खंजन पक्षी। सोनचिड़ी। ५२. हल। ५३. मेंढक। ५४. गगन। आकाश। ५५. पक्षी। चिड़िया। ५६. वस्त्र। कपड़ा। ५७. सारंगी नामक वाद्ययंत्र। ५८. ईश्वर। भगवान्। ५९. काजल। नयनांजन। ६०. कामदेव। मन्मथ। ६१. विद्युत्। बिजली। ६२. पुष्प। फूल। ६३. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। विशेष—शास्त्रों में यह मेघ राग का सहचर कहा गया है; पर कुछ लोग इसे संकर राग मानते और नट, मल्लार तथा देव- गिरि के संयोग से बना हुआ बतलाते हैं। इसकी स्वरलिपि इस प्रकार कही गई है—स रे ग म प ध नि स। स नि ध प म ग रे स। स रे ग म प प ध प प म ग म प म ग म ग रे स। स रे ग रे स।

सारँग, सारँग (२)
वि० १. रँगा हुआ। रंजित। रंगीन। उ०—सारँग दशन बसन पुनि सारँग वसन पीत पट डोरी।—सूर (शब्द०)। २. सुंदर। सुहावना। उ०—सारँग वचन कहत सारँग सो सारँग रिपु है राखति झीनी।—सूर (शब्द०)। ३. सरस। उ०—सारँग नैन बैन वर सारँग सारँग वदन कहै छवि को री। —सूर (शब्द०)। ४. अनेक रंगों से युक्त। चितकबरा (को०)।

सारंगचर
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गचर] काँच। शीशा।

सारगज
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गज] मृग। हिरन [को०]।

सारंगनट
सज्ञा पुं० [सं० सारङ्गनट] संगीत में सारंग और नट के संयोग से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग।

सारंगनाथ
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गनाथ] काशी के समीप स्थित एक स्थान जो सारनाथ कहलाता है। विशेष—यही प्राचीन मृगदाव है यह बौद्धों, जैनियों और हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थ है।

सारंगनैनी
वि० [सं० सारङ्ग + हि० नैन] सारंग के से नयनवाली। मृगनैनी। उ०—सारगनैनी री काहे कियौ एतौ मान।—नंद० ग्रं०, पृ०३६६।

सारंगपाणि
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गपाणि] सारंग नामक धनुष धारण करनेवाला विष्णु।

सारंगपानि पु
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गपाणि] दे० 'सारंगपाणि'। उ०—सुमिरत श्री सारंगपानि छन मैं सब सोचु गयो। चले मुदित कौसिक कौसलपुर सगुननि साथु दयो।—तुलसी (शब्द०)।

सारंगलोचना
वि० स्त्री० [सं० सारङ्ग लोचना] जिसकी आँखे हिरन की सी हों। मृगनयनी।

सारंगशबल
वि० [सं० सारङ्गशवल] घोड़ा जो रंग बिरंगा और चितकबरा हो [को०]।

सारंगहर पु
संज्ञा पुं० [सं० शार्ङ्गधर, प्रा० सारंगहर] विष्णु।

सारगा
संज्ञा स्त्री० [सं० सारङ्गा] १. एक प्रकार की छोटी नाव जो एक ही लकड़ी की बनती है। २. एक प्रकार की बड़ी नाव जिसमें ६००० मन माल लादा जा सकता है। ३. एक रागिनी का नाम जो कुछ लोगों के मत से मेघ राग की पत्नी है।

सारंगाक्षा
वि० स्त्री० [सं० सारङ्गाक्षा] जिसके नेत्र मृग की तरह हों। मृगनैनी [को०]।

सारंगिक
संज्ञा पुं० [सं० सारङिगक] १. वह जो पक्षियों को पकड़कर अपना निर्वाह करता है। चिड़ीमार। बहेलिया। २. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, यगण औ सगण (न, य, स) होते हैं। विशेष—कवि भिखारीदास ने इसे मात्रिक छंद माना है।

सारंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सारङिकका] १. दे० 'सारंगिका'। २. दे० 'सारंगी'। ३. बहेलिया की स्त्री।

सारंगिया
संज्ञा पुं० [हि० सारंगी + आ (प्रत्य०)] सारंगी बजाने वाला। सार्जिदा।

सारंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० सारङ्ग] एक प्रकार का बहुत प्रसिद्ध बाजा जिसका प्रचार इस देश में बहुत प्राचीन काल से है। उ— विविध पखावज आवज संचित बिचबिच मधुर उपंग। सुर सहनाई सरस सारंगी उपजत तान तरंग।—सूर (शब्द०)।विशेष—यह काठ का बना हुआ होता है और इसकी लंबाई प्रायः डेढ़ हाथ होती है। इसके सामने का भाग, जो परदा कहलाता है, पाँच छह अंगुल चौड़ा होता है, और नीचे का सि/?/अपेक्षाकृत कुछ अधिक चौड़ा और मोटा होता है। इसमें ऊपर की ओर प्रायः ४ या ५ खूँटियाँ होती है जिन्हें कान कहते है। उन्ही खूँटियों से लगे हुए लोहै और पीतल के कई तार होते है। जो बाजे की पूरी लंबाई में होते हुए नीचे की ओर बँधे रहते है। इसे बजाने के लिये लकड़ी का एक लंबा और दोनो ओर कुछ झुका हुआ एक टुकड़ा होता है। जिसमें एक सिरे से दूसरे सिरे तक घोड़े की दुम के बाल बँधे होते हैं। इसे कमानी कहते हैं। बजाने के समय यह कमानी दाहिने हाथ में ले ली जाती है और उसमे लगे हुए घोड़े के बाल से बाजे के तार रेते जाते हैं। उधर बायेँ हाथ की उँगलियाँ तारों पर रहती है जो बजाने के लिये स्वरों के अनुसार ऊपर नीचे और एक तार से दूसरे तार पर आती जाती रहती हैं। इस बाजे का स्वर बहुत ही मधुर और प्रिय होता है; इसलिये नाचने गाने का पेशा करनेवाला लोग अपने गाने के साथ प्रायः इसी का व्यवहार करते हैं।

सारड
संज्ञा पुं० [सं० सारणङ] साँप का अंड़ा।

सारंभ
संज्ञा पुं० [सं० सारम्भ] क्रोधपूर्ण वार्तालाप [को०]।

सार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ में का मूल, मुख्य, काम का, या असली भाग। तत्व। सत्त। २. कथन आदि से निकलनेवाला मुख्य अभिप्राय। निष्कर्ष। उ—तत्त सारं इहै आहै अवर नाहीं जान।—जग० बानी, पृ०१४। ३. किसी पदार्थ में से निकला हुआ निर्यास या अर्क आदि। रस। ४. चरक के अनुसार शरीर के अंतर्गत आठ स्थिर पदार्थ जिनके नाम इस प्रकार हैं।—त्वक्, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र और सत्व (मल)। ५. जल। पानी। ६. गूदा। मग्ज। ७. वह भूमि जिसमें दो फसलें होती हों। ८. गोशाला। बाड़ा। ९. खाद। १०. दूहने के उपरांत तुरंत औटाया हुआ दूध। ११. औटाए हुए दूध पर की साड़ी। मलाई। १२. लकड़ी का हीर। १३. परिणाम। फल। नतीजा। १४. धन। दौलत। १५. नवनीत। मक्खन। १६. अमृत। १७. लोहा। १८. वन। जंगल। १९. बल। शक्ति। ताकत। २०. मज्जा। २१. वज्र- क्षार। २२. वायु। हवा। २३. रोग। बीमारी। २४. जूआ खेलने का पासा। २५. अनार का पेड़। २६. पियाल वृक्ष। चिरौंजी का पेड़। २७. वंग। २८. मुद्ग। मूँग। २९. क्वाथ। काढ़ा। ३०. नीली वृक्ष। नील का पौधा। ३१. साल। सार। ३२. पना। पतला शरबत। ३३. कपूर। ३४. तलवार। (डिं०)। ३५. द्रव्य। (डिं०)। ३६. हाड़। अस्थि। (डिं०)। ३७. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसमें २८ मात्राएँ होती है और सोलहवीं मात्रा पर विराम होता है। इसके अंत में दो गुरु होते है। प्रभाती नामक गीत इसी छंद में होता है। ३८. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसमें एक गुरु और एक लघु होता है। इसे 'ग्वाल' और 'शानु' भी कहते है। विशेष दे० 'ग्वाल'। ३९. एक प्रकार का अर्थालंकर जिसमें उत्तरोत्तर वस्तुओं का उत्कर्ष या अपकर्ष वर्णित होता है। इसे 'उदार' भी कहते हैं। उ०—(क) सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए। तिन महँ द्विज, द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन महँ निगम निति अनुसारी। तिन महँ पुनि विरक्त पुनि ज्ञानी। ज्ञानहु ते अति प्रिय विज्ञानी। तिनतें मोह अति प्रिय निज दासा। जैहि गति मोरि न दूसरी आसा। (ख) हे करतार बिनै सुनो 'दास' की लोकनि को अवतार करयो जनि। लोकनि को अवतार करयो तो मनुष्यन को तो सँवार करयो जनि। मानुष हू को सँवार करयो तो तिन्हैं बिच प्रेम पसार करयौ जनि। प्रेम पसार करयो तो दयानिधि कैहूँ बियोग बिचार करयौ जनि। ४०. वस्त्र। कपड़ा। उ०—बगरे बार झीनें सार में झलकति अधर नई अरुनई सरसानि।—धनानंद, पृ०५०६। ४१. गमन। क्रमण। गति (को०)। ४२. मवाद। पस (को०)। ४३. गोबर। गोमय (को०)। ४४. प्रसार। फैलाव। विस्तृति (को०)। ४५. दृढ़ता। मजबूती। धैर्य। धीरता।

सार (२)
वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. ठोस। दृढ़। मजबूत। ३. न्याय्य। ४. आवश्यक। अनिवार्य (को०)। ५. सही। वास्तविक (को०)। ६. अनेक प्रकार का। रंग बिरंगा। चितकबरा (को०)। ७. भगानेवाला। दूर करनेवाला।

सार पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० सारिका] सारिका। मैना। उ०—गहबर हिय शुक सों कहेँ सारो।—तुलसी (शब्द०)।

सार (४)
संज्ञा पुं० [हि० सारना] १. पालन। पोषण। रक्षा। उ०— जड़ पंच मिलै जिहि देह करी करनी लषु धौं धरनीधर की। जनु को कहु क्यों करिहैं न सँभार जो सार करै सचराचर की।—तुलसी (शब्द०)। २. शय्या। पलंग। उ०—रची सार दोनों इक पासा। होय जुग जुग आवहिं कैलासा।—जायसी (शब्द०)। ३. खबरदारी। सँभाल। हिफाजत । उ०—भरत सौगुनी सारकरत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।—तुलसी (शब्द०)। ४. सुधबुध। अवसान। होश हवास। ५. खोजखबर।

सार (५)
संज्ञा पुं० [सं० श्याल, हि० साला] पत्नी का भाई। साला। विशेष—इस श्ब्द का प्रयोग प्रायः गाली के रुप में भी किया जाता है।

सार (६)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. उष्ट्र। ऊँट। २. एक चिड़िया [को०]।

सार (७)
प्रत्य० पदांत में प्रयुक्त होकर यह फारसी प्रत्यय निम्नांकित अर्थ देता है—१. वाला। जैसे,—शर्मसार। २. बहुतायत। जैसे,—कोहसार। ३. मानिंद। तुल्य। समान। जैसे,—देव सार [को०]।

सार† (८)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाला] पशुओं को बाँधने का स्थान। पशुशाला। जैसे, गो सार।

सारक (१)
वि० [सं०] रेचक। दस्तावर [को०]।

सारक (२)
संज्ञा पुं० जमालगोटा [को०]।

सारखदिर
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्गंध खदिर। बबुरी।

सारखा †
वि० [सं० सदृश, हिं० सरीखा] सदृश। समान। तुल्य। उ०—ता घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि।—कबीर ग्रं०, पृ०२५५।

सारगंध
संज्ञा पुं० [सं० सारगन्ध] चंदन। संदल।

सारगंधि
संज्ञा पुं० [सं० सारगन्धि] चंदन।

सारग
वि० [सं०] १. शक्तिशाली। सबल। २. सारगभिँत [को०]।

सारगराही पु
वि० [सं० सारग्राही] दे० 'सारग्राही'। उ०—औगुन छाँड़ै गुन गहै, सारगराही लच्छ।—कबीर सा०, पृ०९०।

सारगर्भ
वि० [सं०] दे० 'सारगर्भित'।

सारगर्भित
वि० [सं०] जिसमें तत्व भरा हो। सारयुक्त। तत्वपूर्ण। जैसे,—सारगर्भित पुस्तक, सार्गर्भित व्याख्यान।

सारगात्र
वि० [सं०] सारयुक्त या शक्तिशाली अंगों वाला। पुष्टांग। बलवान [को०]।

सारगुण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान या प्रमुख गुण। प्रधान धर्म [को०]।

सारगुरु
वि० [सं०] जो वजन में भारी हो। तौल में भारी।

सारग्राहिणी
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'सारग्राही'। उ०—रिपुदमन— और वो बुद्धि कैसी अच्छी होती हैच। रणधीर—सारग्राहिणी।—श्रीनिवास ग्रं० पृ०६२।

सारग्राही
वि० [सं० सारग्राहीन्] [वि० स्त्री० सारग्राहीणी] सार तत्व को ग्रहण करनेवाला। किसी वस्तु का मुख्य अंश ले लेनेवाला [को०]।

सारग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

सारध
संज्ञा पुं० [सं०] वह मधु जो मधुमक्खी तरह तरह के फूलों से संग्रह करती है। विशेष—वैध्यक में यह लघु, रुक्ष, शीतल, कमल और अर्श रोग का नाशक, दीपन, बलकारक, अतिसार, नेत्र रोग तथा घाव में हितकर कहा गया है।

सारजंट
संज्ञा पुं० [अं० सारजेंट] पुलिस के सिपाही का जमादार; विशेषतः गोरा या युरेशियन जमादार।

सारज
संज्ञा पुं० [सं०] नवनीत। मक्खन।

सारजासव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आसव जो धान, फल, फूल, मूल, सार, टहनी, पत्ते, छाल और चीनी इन नौ चीजों से बनता है। विशेष—वैद्यक में यह आसव मन, शरीर और अग्नि को बल देनेवाला, आनिद्रा, शोक और अरुचि का नाश करनेवाला तथा आनंदवर्धक बतलाया गया है।

सारटिफिकट
संज्ञा पुं० [अं० सर्टिफिकेट] १. प्रशंसापत्र। २. सनद। प्रामाणपत्र।

सारण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गंध द्रव्य। २. आम्रातक वृक्ष। अमड़ा। ३. अतिसार। दस्त की बीमारी। ४. भद्रबला। ५. पारा आदि रसों का संस्कार। दोषशुद्धि। ६. रावण के एक मंत्री का नाम जो रामचंद्र की सेना में उनका भेद लेने गया था। ७. आँवला। ८. गंधप्रसारिणी। ९. नवनीत। मक्खन। १०. गंध। महक। ११. घर की ओर ले चलना [को०]। १२. शरद् ऋतु की वायु (को०)। १३. तक्र। मट्ठा (को०)।

सारण (२)
वि० १. रेचक। प्रिवाहित करने या बहानेवाला। २. चिटका हुआ। फटा हुआ। ३. जिसके सिर पर बालों के पाँच गुच्छे हों [को०]।

सारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पारद आदि रसों का एक प्रकार का संस्कार। सारण। २. विस्तार करना। फैलाना (को०)। ३. ध्वनि या स्वर उत्पन्न करना [को०]।

सारणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधप्रसारिणी। २. पुनर्नवा। गदहपूरना। ३. छोटी नदी। ४. नाली। प्रणालिका। मोरी (को०)।

सारणिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सारणिकी] १. पथिक। राहगीर। बटोही। २. घूम घूमकर बेचनेवाला व्यापारी। फेरीवाला। बिसाती (को०)।

सारणिक (२)
वि० यात्रा करनेवाला [को०]।

सारणिकध्न
संज्ञा पुं० [सं०] पथिकों का विनाश करनेवाला, डाकू।

सारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधप्रसारिणी। २. छोटी नदी। ३. दे० 'सारिणी'।

सारणेश
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।

सारतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० सारतघडुल] चावल। हलका उबाला हुआ चावल जिसके सब दाने साबूत हों।

सारतः
अव्य० [सं० सारतस्] १. प्रकृति के अनुसार। प्रकृत्या। २. बलपूर्वक। ३. धन के अनुसार। वित्त के अनुसार [को०]।

सारतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. केले का पेड़। २. खैर का पेड़।

सारता †
संज्ञा स्त्री० [सं०] सार का भाव या धर्म। सारत्व।

सारति
संज्ञा स्त्री० [हिं० सारना] तैयारी। व्यवस्था। उ—तब वकील कर जोरि अरज करी कछु अरज की। तब सुजानि दृग मोरि मसलति की सारति करी।—सुजान०, पृ० ९।

सारतैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार अशोक, अगर, सरल, देवदारु आदि का तेल जिसका व्यवहार क्षुद्र रोगों में होता है।

सारथि
संज्ञा पुं० [सं०] १. रथादि का चलानेवाला। सूत। रथ- नागर। २. समुद्र। सागर। ३. साथी। सहयोगी (को०)।

सारथित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारथि का कार्य। २. सारथि का भाव या धर्म। ३. सारथि का पद।

सारथी
संज्ञा पुं० [सं० सारथि] दे० 'सारथि—१'। उ०—आपने बाण सो काटि ध्वज रुक्म के असुर औ सारथी तुरत मार्यो।—सूर (शब्द०)।

सारथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. रथ आदि का चलाना। गाड़ी आदि हाँकना। २. सवारी। ३. सहायता। मदद।

सारद पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शारदा] सरस्वती। शारदा। उ०—सुक से मुनी सारद सेवकता चिरजीवन लोमस ते अधिकाने। ऐसे भए तो कहा तुलसी जो पै राजिवलोचन राम न जाने।—तुलसी (शब्द०)।

सारद (२)
वि० [सं० शरद> शारद] शारदीय। शरद संबधी। उ०— सोहति धोती सेत में, कनक बरन तन बाल। सारद बारद बीजुरी, भा रद कीजत लाल।—बिहारी (शब्द०)।

सारद (३)
संज्ञा पुं० [सं० शरद] शरद ऋतु।

सारदर्शी
वि० [सं० सारदर्णिन्] सार तत्व को जाननेवाला। महत्वपूर्ण अंश को पहचाननेवाला [को०]।

सारदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'शारदा'। २. दूर्गा [को०]।

सारदा (२)
संज्ञा पुं० [सं० शरद्?] स्थल कमल।

सारदा (३)
वि० स्त्री० [सं०] सार देनेवाली। जो सार दे।

सारदातीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० शारदातीर्थ] एक प्राचीन तीर्थ।

सारदारु
संज्ञा पुं० [सं०] वह लकड़ी जिसमें सार भाग अधिक हो।

सारदासुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शारदासुन्दरी] दुर्गा का एक नाम।

सारदी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपीपल।

सारदी (२)
वि० [सं० शारदी] दे० 'शारदीय'। उ०—कहुँ कहुँ वृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी।— मानस, ४।१६।

सारदूल
संज्ञा पुं० [हिं० शार्दूल] दे० 'शार्दूल'। उ०—क्रीड़ा मृग जाको सारदूल। तन बरन कांति मनु हेम फूल।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३७३।

सारद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. खैर का पेड़। २. वह वृक्ष जिसकी लकड़ी में सारभाग अधिक हो।

सारधाता
संज्ञा पुं० [सं० सारधातृ] १. वह जो ज्ञान उत्पन्न करता हो। बोध करानेवाला। २. शिव।

सारधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम धान। बढि़या चावल। २. बढ़िया अन्न।

सारधू †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पुत्री। बेटी। कन्या।

सारना
क्रि० स० [हि० सरना का सक० रुप] १. पूर्ण करना। समाप्त करना। संपूर्ण रुप से करना। उ०—धनि हनुमंत सुग्रीव कहत है, रावण को दल मारयो। सूर सुनत रघुनाथ भयो मुख काज आपनी सारयो।—सूर (शब्द०)। २. साधना। बनाना। दुरुस्त करना। ३. सुशोभित करना। सुंदर बनाना। ४. देख रेख करना। रक्षा करना। सँभालना। ५. आँखों में अंजन आदि लगाना। ६. (अस्त्र आदि) चलाना। संचलित करना। उ०—ससि पर करवत सारा काहू। नख- तन्ह भरी दीन्ह बड दाहू।—जायसी (शब्द०)। ७. गलाना। सड़ाना। उ०—सन असंत है एक काट के जल में सारै।—पलटू०, भा० १, पृ० १७। ८. काढ़ना। लगाना। उ०— (क) जाताहि राम तिलक तेहि सारा।—मानस, ५।४९। (ख) सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा—मानस, ६।१०५।

सारनाथ
संज्ञा पुं० [सं० सारङ्गनाथ] बनारस से उत्तरपश्चिम चार मील पर एक प्रसिद्ध स्थान। विशेष—यह स्थान हिंदुओं, जैनियों और बौद्धों का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। यही प्राचीन मृगदाव है जहाँसे भगवान् बुद्ध ने अपना उपदेश आरंभ (धर्मचक्र प्रवर्तन) किया था। यहाँ खुदाई होने पर कई बौद्धस्तूप, बौद्ध मंदिरों का ध्वंसावशेष तथा कितनी ही हिंदू, बौद्ध और जन मूर्तियाँ पाई गई हैं। इसके अतिरिक्त अशोक का एक स्तंभ भी यहाँ पाया गया है।

सारपत्र
वि० [सं०] (वृक्ष) जिसकी पत्तियाँ मजबूत और कड़ी हो [को०]।

सारपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पक्षी जो चरक के अनुसार विष्किर जाति का है। २. वह पत्ता जिसमें सार अर्थात् खाद हो।

सारपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शालपर्णी' [को०]।

सारपाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विषैला फल जिसका उल्लेख सुश्रुत ने किया है।

सारपाढ
संज्ञा पुं० [सं०] धन्वंग वृक्ष। धामिन।

सारपादप
संज्ञा पुं० [सं०] धन्वंग वृक्ष। धामिन।

सारफल
संज्ञा पुं० [सं०] जँबीरी नीबू।

सारबंधका
संज्ञा स्त्री० [सं० सारबन्धका] मेथी।

सारबान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ऊँट पालनेवाला। ऊँटवाला [को०]।

सारभंग
संज्ञा पुं० [सं० सारभङ्ग] सार या शक्ति का अभाव [को०]।

सारभांड
संज्ञा पुं० [सं० सारभाणड] १. व्यापार की बहुमूल्य वस्तु। २. खजाना। ३. प्राकृतिक पात्र। प्रकृतिनिर्मित पात्र। जैसे, मृगनाभी। कस्तूरी। ४. चोखा माल। असली माल।

सारभाटा
संज्ञा पुं० [हि० ज्वार का अनु० + भाटा] ज्वारभटा का उलटा। समुद्र की वह बाढ़ जिसमें पानी पहले बढ़कर समुद्र तट से आगे निकल जाता है और फिर कुछ देर बाद पीछे लौटता है।

सारभुक्
संज्ञा पुं० [सं० सारभुज्] लोहे को खानेवाली, अग्नि। आग।

सारभूत (१)
वि० [सं०] १. सारस्वरुप। उ०—तामहिँ सारभूत द्वै साधै। सिद्धासन पद्मासन बाँधै।—सूंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १०६।

सारभूत (२)
संज्ञा पुं० प्रमुख तत्व या सर्वोत्तम वस्तु।

सारभृत्
वि० [सं०] सारग्रहण करनेवाला। सारग्राही।

सारमंडूक
संज्ञा पुं० [सं० सारमणडूक] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा जो मेढ़क की तरह का होता है।

सारमहत्
वि० [सं०] अत्यंत मृल्यवान्। बहुत कीमती।

सारमार्गण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मज्जा या मेद ढूँढ़ना। २. सार तत्व या अंश खोजना [को०]।

सारमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रुति। वेद।

सारमूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवदाली। घघरबेल। बंदाल।

सारमेय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सारमेयी] १. सरमा की संतान। २. कुत्ता। ३. सुफलक के पुत्र और अक्रूर के एक भाई का नाम। यौ०—सारमेयगणाधिप = कुबेर का एक नाम। सारमेय- चिकित्सा = कुत्ते की चिक्त्सा करने की कला।

सारमेयादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ते का भोजन। २. भागबत के अनुसार एक नरक का नाम।

सारमेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुतिया।

सारयोध
वि० [सं०] चुने हुए योद्धाओं से युक्त। अच्छे वीरों से युक्त [को०]।

साररुप
वि० [सं०] १. निचोड़। निष्कर्ष स्वरुप। २. सर्वोत्तम। प्रमुख। ३. अत्यंत सुंदर [को०]।

सारलोह
संज्ञा पुं० [सं०] लोहसार। इस्पात। लोहा। विशेष—वैद्यक में यह ग्रहणी, अतिसार, अर्द्धांग, वात, परिणा- मशूल, सर्दी, पीनस, पित्त और श्वास का नाशक बताया गया है।

सारल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरल होने का भाव। सरलता। उ— किंतु हा। यह कैसा सारल्य? सालता है जो बनकर शल्य।—साकेत, पृ० ३५। २. सत्यता। ईमानदारी। सचाई [को०]।

सारव
वि० [सं०] सरयू नदी से संबंधित [को०]।

सारवती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योग में एक प्रकार की समाधि। २. एक प्रकार का छंद जिसमें तीन भगण और एक गुरु होता है।

सारवती (२)
वि० स्त्री० [सं० सारवत्] दे० 'सारवान्'।

सारवत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सार ग्रहण करने का भाव। सारग्राहिता।

सारवना पु
क्रि० सं० [सं० स्राव करण] स्रवित करना। चुआना। ढालना। उ—ब्रम्ह अगनि जौवन जरै चेतन चितहि उजासो रे। सुमति कलाली सारवै कोइ पीवै बिरला दासो रे।—दादू०, पृ० ४९३।

सारवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वे वृक्ष या वनस्पतियाँ आदि जिनमें से किसी प्रकार का दूध या सफेद तरल पदार्थ निकलता हो। क्षीरवृक्ष।

सारवर्जित
वि० [सं०] जिसमें कुछ भी सार न हो। साररहित निःसार। रसहीन।

सारवस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारवान् वस्तु। महत्वपूर्ण चीज [को०]।

सारवान्
दे० [सं० सारवत्] १. महत्वपूर्ण। मूल्यवान। २. मजबूत। द्दढ़। ठोस। ३. पोषक। ४. सार अर्थात् द्रव, रस या निर्यासियुक्त। ५. सारयुक्त। घन। ससार। ६. उर्वर। उपजाऊ [को०]।

सारवाला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की जंगली घास जो तर जगहों में होती है। विशेष—यह घास प्रायः बारह वर्ष तक सुरक्षित रहती है। मुलायम होने पर पशुओं को खिलाई जाती है।

सारविद्
वि० [सं०] किसी वस्तु के सार का ज्ञाता। किसी के तत्व, मूल्य, अथवा महत्व को जाननेवाला [को०]।

सारवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] धामिन। धन्वंग वृक्ष।

सारशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सारसन'।

सारशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद खैर का पेड़। श्वेत खदिर।

सारशून्य
वि० [सं०] तत्वरहित। महत्वहीन। निरर्थक [को०]।

सारस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सारसी] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध सुंदर पक्षी जो एशिया, अफीका, आस्ट्रेलिया और युरोप के उत्तरी भागों में पाया जाता है। उ०—मोर हंस सारस परावत। भवननि पर सोभा अति पावत।—मानस, ७।२८। विशेष—इसकी लंबाई पुंछ के आखिरी सिरे तक ४ फुट होती है। पर भूरे होते हैं। सिर का उपरी भाग लाल और पैर काले होते हैं। यह एक स्थान पर नहीं रहता बराबर घूमा करता है। किसानों के नए बीज बोने पर यह वहाँ पहुँच जाता है और बीजों को चट कर जाता है। यह मेढ़क, घोंघा आदि भी खाता है। यह प्रायः घास फूस के ढेर में घोंसला बनाकर या खँडहरों में रहता है। यह अपने बच्चों का लालन पालन बड़े यत्न से करता है। कहीं कहीं लोग इसे पालते हैं। बाग बगीचों में छोड़ देने पर यह कीड़े मकोड़ों को खाकर उनसे पेड़ पौधों की रक्षा करता हैं। कुछ लोग भ्रमवश हंस को ही सारस मानते हैं। वैद्यक में इसके सांस का गुण मधुर, अम्ल, कषाय तथा महातिसार, पित्त, ग्रहणी और अर्श रोग का नाशक बताया गया है। पर्या०—पुष्कराह्न। लक्षमण। सरसीक। सरोद्भव। रसिक। कामी। २. हंस। ३. गरुड़ का पुत्र। ४. चंद्रमा। ५. स्त्रियों का एक प्रकार का कटिभूषण। ६. झील का जल। विशेष—नदी का जल पहाड़ आदि के कारण रुककर जहाँ जमा होता है, उसे सरस और उसके जल को सारस जल कहते हैं। ऐसा जल बलकारी, प्यास बुझानेवाला, लघु रुचिकारक और मलमूत्र को रोकनेवाला माना गया है। ७. कमल। जलज। उ०—(क) सारस रस अचवन को मानो तृषित मधुप जुग जोर। पान करत कहुँ तृप्ति न मानत पलक न देत अकोर।—सूर (शब्द०)। (ख) मंजु अंजन सहित जलकन चुवत लोचन चारु। स्याम सारस मग मनो ससि श्रवत सुधा सिंगारु।—तुलसी (शब्द०)। ८. खग। पक्षी। विहग (को०)। ९. संगीत में एक ताल (को०)। १०. छप्पय का ३७ वाँ भेद। इसमें ३४ गुरु, ८४ लघु, कुल ११८ वर्ण या १५१ मात्राएँ अथवा ३४ गुरु, ८० लघु कुल ११४ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती हैं।

सारस (२)
वि० १. तालाब संबंधी। २. सारस पक्षी संबंधी। ३. चिल्लानेवाला। बुलानेवाला [को०]।

सारसक
संज्ञा पुं० [सं०] सारस।

सारसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रीयों का कमर में पहनने का मेखला नामक आभूषण। करधनी। चंद्रहार। २. तलवार की पेटी। कमरबंद। ३. कवच। उरस्त्राण (को०)।

सारसप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारसी [को०]।

सारसा
संज्ञा पुं० [अं० सालसा] दे० 'सालसा'।

सारसाक्ष
वि० [सं०] एक प्रकार का रत्न। लाल [को०]।

सारसाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पद्यलोचना। कमलनैनी स्त्री [को०]।

सारसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारस पक्षी की मादा। सारसी [को०]।

सारसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आर्या छंद का २३ वाँ भेद जिसमें ५ गुरु और ४८ लघु मात्राएँ होती हैं। २. सारस पक्षी की मादा।

सारुसुता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सूरसुता] यमुना। उ०—निरखति बैठि नितंबिनि पिय सँग सारसुता की ओर।—सूर (शब्द०)।

सारुसुती पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सरस्वती] दे० 'सरस्वती'।

सारसेंधव
संज्ञा पुं० [सं० सारसैन्धव] सेंधा नमक।

सारस्य (१)
वि० [सं०] जिसमें बहुत अधिक रस हो। बहुत रसवाला।

सारस्य (२)
संज्ञा पुं० १. रसदार होने का भाव। रसीलापन। सरसता। २. जल का प्राचुर्य। जल की अधिकता (को०)। ३. उत्कोश। कलकल। निनाद (को०)।

सारस्वत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिल्ली के उत्तरपश्चिम का वह भाग जो सरस्वती नदी के तट पर है और जिसमें पंजाब का कुछ भाग संमिलित है। (प्राचीन आर्य पहले यहीं आकर बसे थे और इसे बहुत पवित्र समझते थे। सारस्वत प्रदेश। २. इस देश के निवासी ब्राह्मण। ३. सरस्वती नदी के पुत्र एक मुनि का नाम। ४. एक प्रसिद्ध व्याकरण। ५. बिल्वदंड। ६. वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जिसके सेवन से उन्माद, वायुजनित विकार तथा प्रमेह आदि रोगों का दूर होना माना जाता है। ७. वैद्यक में एक प्रकार का औषधयुक्त धृत जो पुष्टिकारक माना जाता है। ८. एक कल्प का नाम (को०)। ९. वक्तृत्व। वाग्मिता (को०)। १०. दे० 'सारस्वत' कल्प (को०)।

सारस्वत (२)
वि० १. सरस्वती (वाग्देवी) संबंधी। सरस्वती का। २. वाक्पटु। वाग्मी। विद्वान् (को०)। ३. सरस्वती नदी संबंधी (को०)। ४. सारस्वत देश का।

सारस्वतकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] सरस्वतीपूजन संबंधी एक उत्सव का नाम। सारस्वतीत्सव [को०]।

सारस्वतव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का व्रत जो सरस्वती देवता के उद्देश्य से किया जाता है। विशेष—कहते हैं कि इस व्रत का अनुष्ठान करने ने मनुष्य बहुत बड़ा पंडित, भाग्यवान् और कुशल हो जाता है और उसे पत्नी तथा मित्रों आदि का प्रेम प्राप्त हो जाता है। यह व्रत बराबर प्रति रविवार या पंचमी को किया जाता है और इसमें किसी अच्छे ब्राह्मण की पूजा करके उसे भोजन कराया जाता है।

सारस्वतीय
वि० [सं०] सरस्वती संबंधी। सरस्वती का।

सारस्वतोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] वह उत्सव जिसमें सरस्वती देवी का पूजन किया जाता है।

सारस्वत्य
वि० [सं०] सरस्वती संबंधी। सरस्वती का।

साराभस
संज्ञा पुं० [सं०] नीबू का रस।

सारांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. खुलासा। संक्षेप। सार। निचोड़। २. तात्पर्य। मतलब। अभिप्राय। ३. नतीजा। परिणाम। ४. उपसंहार। परिशिष्ट।

सारा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काली निसोथ। कृष्णात्रिवृत्त। २. दूब। दूर्वा। ३. शातला। ४. थूहर। ५. केला। ६. कुश। कुशा (को०)। ७. तालिसपत्र।

सारा (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु दूसरी से बढ़कर कही जाती है। जैसे,—ऊखहुते मधुर पियूषहु ते मधुर प्यारी तेरे ओठ मधुरता को सागर है।

सारा † (३)
संज्ञा पुं० [सं० श्यालक] दे० 'साला'।

सारा (४)
वि० [सं० सर्व] [वि० स्त्री० सारी] समस्त। संपूर्ण। समूचा। पूरा। उ०—के है पाकदामन तु नरियाँ में आज। बड़ाई बडी तुज है सारियाँ में आज।—दक्खिनी०, पृ० ८४।

सारा † (५)
संज्ञा पुं० [हि० ओसारा] दे० 'ओसारा'। उ०—जब सारे में धूप फैल जाए कहीं आँख खुले।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३६८।

सारादान
संज्ञा पुं० [सं०] सार वस्तु को ग्रहण करना। उत्कृष्ट या सर्वोत्तम को चयन करना [को०]।

सारापहार
संज्ञा पुं० [सं०] सार अंश या संपत्ति को लूटना [को०]।

सारामुख
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान या चावल [को०]।

साराम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जँबीरी नीबू। २. धामिन।

सारार्थी
वि० [सं० सारार्थिन्] सार भाग का इच्छुक। लाभ लेने का इच्छुक [को०]।

साराल
संज्ञा पुं० [सं०] तिल।

साराव
वि० [सं०] नादयुक्त। रवयुक्त [को०]।

सारावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छंद जिसे सारावली भी कहते हैं।

सारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पास, या चौपड़ खेलनेवाला। २. जुआ खेलने का पासा। उ०—ढारि पासा साधु संगति केरि रसना सारि। दाँव अब के परयो पूरी कुमति पिछली हारी।—सूर (शब्द०)। ३. गोटी। ४. एक पक्षी। मैना (को०)। यौ०—सारिक्रीड़ा = पाँसे का खेल। गोटियों का खेल। सारि- फलक = बिसात जिसपर गोटी खेलते हैं।

सारिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सारिका'।

सारिक (२)
संज्ञा पुं० [अ० सारिक] [स्त्री० सारिका] चोर। तस्कर [को०]।

सारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मैना नामक पक्षी। दे० 'मैना'। उ०—बन उपवन फल फुल, सुभग सर शुक सारिका हंस पारावत।—सूर (शब्द०)। २. सारंगी, सितार, वीण आदि तंत्र वाद्यों का ऊँचा उठा हुआ वह भाग जिसके ऊपर से होकर तार जाता है। घुड़िया। घोरिया (को०)। ३. चांडाल वीणा (को०)। ४. विश्वस्त व्यक्ति। चर (को०)।

सारिकामुख
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का क्रीड़ा।

सारिखा पु †
वि० [सं० सदृश या सदृक्ष] दे० 'सरीखा'। उ०—(क) तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरे।—मानस, ५। (ख) सतगुरु संग नसंचरा, सत्त नाम उर नाहि। ते घट मरघट सारिखा, भूत बसै ता माँहि।—दरिया० बानी, पृ० ६। (ख) सुंदर सदगुरु सारिखा उपकारी नहिं कोइ—सूंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६६७।

सारिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सहदेई। सहदेवी। महाबला। पीत- पुष्पा। २. कपास। ३. धमासा। दुरालभा। कपिल शिंशपा। काला सीसो। ४. गंध प्रसारिणी। ५. रक्त धुनर्नवा। ६. जल- प्रणाली। स्त्रोत की धारा (को०)।

सारिणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. दे० 'सारणी'। २. वह तालिका या ग्रंथ जिससे ग्रहों आदि की गति का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त होता हो। जैसे,—चंद्र सारिणी, सूर्यसारिणी। ३. सूची। तालिका। फेहरिस्त।

सारिव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान।

सारिवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनंतमूल। पर्या०—शारदा। गोपी। गोपकन्या। गोपबल्ली। प्रतानिका। लता। आस्फोता। काष्ठ शारिवा। गोपा। उत्पल सारिवा। अनंता। शारिवा। श्यामा। २. काला अनंतमूल। पर्या०—कृष्ण मूली। कृष्णा। चंदन सारिवा। भद्रा। चंदन गोपा। चंदना। कृष्णा वल्ली।

सारिवाद्वय
संज्ञा पुं० [सं०] अनंतमूल और श्यामा लता इन दोनों का समूह।

सारिष्ट
वि० [सं०] अरिष्ट अर्थात् अमंगल एवम् अशुभ लक्षणों से युक्त। मृत्यु के लक्षणों से युक्त [को०]।

सारिष्ठ
वि० [सं०] १. सबसे सुंदर। २. सबमें श्रेष्ठ।

सारिसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि जो ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के द्रष्टा थे।

सारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सारिका पक्षी। मैना। उ०—शुभ सिद्धांत वाक्य पढ़ते हैं शुक सारी भी आश्रम के।—पंचवटी,—पृ० ९। २. पासा। गोटी। ३. सातला। सप्तला। थूहर। ४. भौहों की भंगिमा या वक्रता (को०)।

सारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाटिका,शाटी, हि० साड़ी] १. दे० 'साड़ी'। उ०—तन सुरंग सारी, नयन अंजन बेंदी भाल। सजे रही जग जालिमा भामिनि देखहु लाल।—स० सप्तक, पृ० २५२।

सारी † (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० साला] स्त्री की बहन। पत्नी की बहन।

सारी पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० सार] मलाई। बालाई। साढ़ी।

सारी (५)
संज्ञा पुं० [सं० सारिन्] वह जो अनुकरण करनेवाला हो। वह जो अनुसरण करे।

सारी (६)
वि० [सं० सारिन्] १. गमनशील। जानेवाला। गंता। २. किसी वस्तु का सार भाग लेनेवाला (को०)।

सारीख, सारीखा पु
वि० [सं० सदृक्ष, प्रा० सारिक्ख] [वि० स्त्री० सारीखी] समान। तुल्य। सदृश। उ०—(क) जोध सूर असुर वो सरोवर जूटिया, बरोबर करै सारीख बाहाँ।—रघु० रु०, पृ० २१। (ख) सारीखी जोड़ो जुड़ी आ नारी अउ नाह।—ढोला०, दू० ६।

सारु पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सार'। उ०—संगर में सरजा शिवाजी अरि सैनन को, सारु हरि लेत चहिंदुवान सिर सारु दै।—भूषण ग्रं०, पृ० ५४।

सारुप
संज्ञा पुं० [सं०] समान रुप होने का भाव। सरुपता।

सारुप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति जिसमें उपासक अपने उपास्य देव के रुप में रहता है और अंत में उसी उपास्य देवता का रुप प्राप्त कर लेता है। २. समान रुप होने का भाव। एकरुपता सरुपता। ३. अनुकूल वस्तु की सरुपता अथवा रुपसादृश्य के कारण जन्य चित्तक्षोभ की वृद्धि अथवा क्रोधादि व्यवहार (को०)। ४. किसी पदार्थ को या उससे मिलती जुलती सूरत को देखकर होनेवाला आश्चर्य (को०)।

सारुप्य (२)
वि० समुपयुक्त। उचित। ठीक [को०]।

सारुप्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारुप्य का भाव या धर्म।

सारो पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० शालि] एक प्रकार का धान जो अगहन मास में तैयार हो जाता है।

सारो पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सारिका] दे० 'सारिका'।

सारोदक
संज्ञा पुं० [सं०] अनंतमूल का रस।

सारोपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का लक्षण जो उस स्थान पर होती है जहाँ एक पदार्थ में दूसरे का आरोप होने पर कुछ विशिष्ट अर्थ निकलता है। जैसे,—गरमी के दिनों में पानि ही जान है। यहाँ 'पानी' में 'जान' का आरोप किया गया है। पर अभिप्राय यह निकलता है कि यदि थोड़ी देर भी पानी न मिले तो जान निकलने लगती है।

सारोष्टिक, सारोष्ट्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष।

सारोह
वि० [सं०] १. आरोहयुक्त। ऊपर उठा हुआ। २. घोड़ेवाले या घुड़सवार के साथ [को०]।

सारौँ पु
संज्ञा स्त्री० [हि० सारो] सारिका। मैना।

सार्क
वि० [सं०] अर्क या सूर्य से युक्त। धूप या आतपयुक्त [को०]।

सार्गड, सार्गल
वि० [सं०] अगंलायुक्त। प्रतिवंधित। रोक या प्रतिबंध से युक्त। प्रतिरोधित [को०]।

सार्गल
वि० [सं० शार्गल?] श्रृगाल संबंधी। स्यार का।

सार्गिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सृष्टि करने में समर्थ हो। स्रष्टा। सृष्टिकर्ता।

सार्जंट
संज्ञा पुं० [अं० सार्जेंट] दे० 'सर्जंट'।

सार्ज
संज्ञा पुं० [सं०] राल। धूना।

सार्जनाक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

सार्टिफिकेट
संज्ञा पुं० [अ० सार्टिफिकेट] दे० 'सार्टिफिकेट'।

सार्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] घर। निवास [को०]।

सार्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंतुओं का समूह। पशुओं का झुंड। २. वणिकों का समुह। कारवाँ। ३. समूह। गरोह। झुंड। ४.व्यापारी माल (कौटि०)। ५. कारबार करनेवाला। व्यापारी। रोजगारी। ६. धनी व्यक्ति (को०)। ७. तीर्थयात्री (को०)। ८. समाज। समूह। भीड़। दल (को०)।

सार्थ (२)
वि० १. अर्थ सहित। जिसका अर्थ हो। २. उद्देश्ययुक्त। जिसका कुछ उद्देश्य हो (को०)। ३. समान अर्थ या महत्व का (को०)। ५. संपन्न। धनी (को०)। ६. जो उपयोगी या काम के लायक हो (को०)।

सार्थक
वि० [सं०] १. अर्थ सहित। २. सफल। सिद्ध। पूर्ण मनीरथ। ३. उपकारी। गुणकारी। मुफीद। ४. लाभकर। लाभदायक।

सार्थकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सार्थक होने का भाव। २. सफलता। सिद्धि। उ०—अधिक प्राणों के पास, अधिक आनंदमय, अधिक कहने के लिये प्रगति की सार्थकता।—आराधना, पृ० ८९।

सार्थध्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सार्थ या कारवाँ को नष्ट करता अथवा लूट लेता हो। डाकू [को०]।

सार्थज
वि० [सं०] सार्थ में उत्पन्न। कारवाँ में पला हुआ [को०]।

सार्थपति
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापार करनेवाला। वणिक्। रोजगारी। सार्थ का स्वामी। कारवाँ का प्रधान।

सार्थपाल
वि० [सं०] सार्थ की देखभाल करनेवाला। व्यापारियों के काफिले का रक्षक [को०]।

सार्थभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] सार्थ का संचालक या प्रधान [को०]।

सार्थवत्
वि० [सं०] १. जिसका कुछ अर्थ हो। अर्थयुक्त। २. यथार्थ। ठीक। ३. सार्थ या समूहवाला। विशाल समूह के साथ (को०)।

सार्थवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. सार्थ का प्रधान या नेता। २. व्यापारी। रोजगारी [को०]।

सार्थवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सार्थवाह'।

सार्थसंचय
वि० [सं० सार्थसञ्चय] धनी। मालदार [को०]।

सार्थहा (१)
वि० [सं० सार्थहन्] सार्थ का नाश करनेवाला [को०]।

सार्थहा (२)
संज्ञा पुं० डाकु [को०]।

सार्थहीन
वि० [सं०] अपने सार्थ से बिछुड़ा हुआ। जो अपने दल से बिछुड़ गया हो [को०]।

सार्थवान्
वि० [सं० सार्थवत्] १. अर्थयुक्त। २. अभिप्राय से युक्त। महत्वपूर्ण। ३. जिसके साथ बहुत बड़ा समूह [को०]।

सार्थातिबाह्य
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार माल की चलान। व्यापारिक माल को रवाना करना।

सार्थिक (१)
वि० [सं०] १. दे० 'सार्थक'। २. सहयात्री। साथ में यात्रा करनेवाला [को०]।

सार्थिक (२)
संज्ञा पुं० १. वणिक्। व्यापारी। २. सहयात्री [को०]।

सार्थी पु
संज्ञा पुं० [सं० सारथिन्] रथ हाँकनेवाला। कोचवान।

सार्दूल
संज्ञा पुं० [सं० शार्दूल] सिंह। केसरी। विशेष दे० 'शार्दुल'।

सार्द्ध
वि० [सं०] १. जिसमें पूरे के अतिरिक्त आधा भी मिला या लगा हो। अर्धयुक्त। २. सहित।

सार्द्र
वि० [सं०] भींगा हुआ। आर्द्र। गीला।

सार्ध
वि० [सं०] दे० 'सार्द्ध'।

सार्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सार्प्य'।

सार्पिष, सार्पिष्क
वि० [सं०] [स्त्री० सार्पिषी, सार्प्ष्की] १.धृत संबंधी। धृत का। २. घी में पकाया हुआ। धृतपक्व। २. जिसमें धी हो। घी से युक्त [को०]।

सार्प्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अश्लेषा नक्षत्र।

सार्प्य (२)
वि० सर्प संबंधी। साँप का।

सार्बभौम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सार्बभौम'। उ०—पुष्पदंत हू के दंत तोरयो ज्यों पुहुपसार, छीन लेत सार्बभौम हूँ के सदा मद है।— मति० ग्रं०, पृ० ४२७।

सार्य
वि० जिसका उच्चारण में लोप किया जा सके [को०]।

सार्वंसह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लवण [को०]।

सार्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० सार्ब] १. बुद्ध। २. जिन।

सार्व (२)
वि० [स्त्री० सार्वी] सबसे संबंध रखनेवाला। जैसे,—सार्वजनिक, सार्वकालीन, सार्वराष्ट्रीय। २. जो सबके लिये उचित या उपयुक्त हो।

सार्वकर्मिक
वि० [सं०] सभी कार्यों के लिये उपयुक्त [को०]।

सार्वकार्मिक
वि० [सं०] [स्त्री० सार्वकामिकी] सब प्रकार की कामनाओं के पूर्ण करनेवाला [को०]।

सार्वकाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] सभी कामनाओं का पूर्ण होना। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति [को०]।

सार्वकाल
वि० [सं०] प्रत्येक काल में होनेवाला। हर समय में होनेवाला [को०]।

सार्वकालिक
वि० [सं०] १. जो सब कालों में होता हो। सब समय का। २. सब कालों से संबंधित [को०]।

सार्वगण
संज्ञा पुं० [सं०] क्षारयुक्त भूमि। नोनावाली भूमि [को०]।

सार्वगुण (१)
वि० [सं०] सर्वगुण संबंधी।

सार्वगुण (२)
संज्ञा पुं० खारी नमक।

सार्वगुणिक
वि० [सं०] सर्वगुणसंपन्न। अच्छे गुणों से युक्त [को०]।

सार्वजनिक
वि० [सं०] १. सब लोगों से संबंध रखनेवाला। सर्वसाधारण संबंधी। उ०—क्या उसको अधिकार हमारे प्राण पर। क्या वह उतनी सार्वजनिक संपत्ति है।—करुणा०, पृ० ७। २. सब लोगों के लिये उपयोगी [को०]।

सार्वजनिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० सार्वजनिक + ता (प्रत्य०)] सार्वजनिक होने का भाव। सार्वजनीन होने का भाव। उ०—हो सार्व- जनिकता जयी अजित।—युगांत, पृ० ५७।

सार्वजनीन
वि० [सं०] १. सब लोगों से संबंध रखनेवाला। सब लोगों का। २. सर्वोपयोगी (को०)।

सार्वजन्य
वि० [सं०] १. सब लोगों से संबंध रखनेवाला। २. जिससे सब लोगों को लाभ हो। लोक हितकर।

सार्वज्ञ, सार्वज्ञ्य
संज्ञा पुं० [सं०] होने का भाव। सर्वज्ञता।

सार्वत्रिक
वि० [सं०] सब स्थानों से संबद्ध। सब स्थानों में होनेवाला। प्रत्येक स्थितियों एवं अवस्थाओं में होनेवाला। सर्वत्रव्यापी। जैसे, सार्वत्रिक नियम।

सार्वदेशिक
वि० [सं०] संपीर्ण देशों का। सर्वदेश या राष्ट्र संबंधी।

सार्वधातुक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० सार्वधानुकी] संस्कृत व्याकरण के अनुसार सभी धातुओं में व्यवहृत होनेवाला। गण विकरण लगाने के पश्चात् धातु के समग्र रुपों में व्यवहृत होनेवाला।

सार्वधातुक (२)
संज्ञा पुं० संस्कृत व्याकरण में चार लकारों (लट्, लोटु, लङ् और लिड़्) के तिङादि प्रत्यय या लिट् तथा आशीलीङ् को छोड़कर और सभी लकारों के विभक्तिचिह्न और 'श्' ध्वनि से प्रकट होनेवाले विकरण।

सार्वनामिक
वि० [सं०] सर्वनाम से संबधित'।

सार्वभौतिक
वि० [सं०] [स्त्री० सार्वभौतिको] सर्वभूत संबंधी। सर्व प्राणियों या भूतों से संबंध रखनेवाला।

सार्वभौम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सप्तद्वीपा वसुंधरा का नरेश। समस्त भूमि का राजा। चक्रवर्ती राजा। २. पुरुवेशी अहंयाति का पुत्र। ३. भागवत के अनुसार विदूरथ के पुत्र का नाम। ४. कुवेर की दिशा अर्थात् उत्तर दिशा की दिग्गज। हाथी। ५. शुक्रनीति के अनुसार वह राज्य जिसका कर या राजस्व प्रतिवर्ष ५० करोड़ वर्ष हो (को०)। ६. समग्र विश्व की भूमि। दुनियाँ का राज्य (को०)।

सार्वभौम (२)
वि० १. समस्त भूमि संबंधी। संपूर्ण भूमि का। जैसे,— सार्वभौम राजा। २. समग्र पृथ्वी का शासन करनेवाला (को०)। ३. जो संपूर्ण विश्व में विख्यात हो (को०)। ४. योग के अनुसार मन की सभी स्थितियों, अवस्थाओं से संबंध रखनेवाला (को०)। यौ०—सार्वभौमगृह, सार्वभौमभवन = चक्रवर्ती नरेश का प्रासाद।

सार्वभौमवाद
संज्ञा पुं० [सं० सार्वभौम + वाद] वह सिद्धांत जिसमें पृथ्वी के समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव रखा जाता है। सभी के साथ समान भाववाला सिद्धांत। उ०—उपनिषदिय सार्वभौमवाद और उस काल का प्रचलित वर्णधर्म इनका बेमेल सहवास क्योंकर निभ सकता था।—संत० दरिया (भू०), पृ० ६२।

सार्वभौमसत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] समग्र भूमि पर शासन करने की सर्वोच्च शक्ति। व्यापक शक्ति या अबाध अधिकार (अं० पैरामाउंट पावर)। उ०—निस्संदेह उन्हें महसूस करना चाहिए कि सार्वभौम सता न शिमला में है न ह्वाइट हाल (लंडन) में।—आज, १९५४।

सार्वभौमिक
वि० [सं०] संपूर्ण धरती संबंधी। विश्व में व्याप्त या फैला हुआ [को०]।

सार्वभौमिकता
संज्ञा पुं० [सं०] सार्वभौमिक होने का भाव। सर्व- व्यापकता।

सावर्यज्ञिक, सार्वयज्ञीय
वि० [सं०] जो सभी प्रकार के यज्ञों से संबद्ध हो [को०]।

सार्वयौगिक
वि० [सं०] प्रत्येक रोग में उपयोगी या उपकारक [को०]।

सार्वरात्रिक
वि० [सं०] पूरी रात चलने या टिकनेवाला। जैसे,— दीपक [को०]।

सार्वराष्ट्रिय
वि० [सं०] दे० 'सार्वराष्ट्रीय'।

सार्वराष्ट्रीय
वि० [सं०] जिसका दो या अधिक राष्ट्रों से संबंध हो। भिन्न भिन्न संबंधी। जैसे,—सार्वराष्ट्रीय प्रश्न। सार्वराष्ट्रीय राजनीति।

सार्वरुह
संज्ञा पुं० [सं०] शोरा। मृत्तिकासार। सूर्यक्षार।

सार्वरोगिक, सार्वरौगिक
वि० [सं०] दे० 'सार्वयौगिक'।

सार्वलौकिक
वि० [सं०] सब लोगों को ज्ञात। सारी दुनिया में फैला हुआ। सार्वदेशिक [को०]।

सार्ववर्णिक
वि० [सं०] १. हर किस्म का। हर प्रकार का। २. हर जाति या वर्ग से संबंधित [को०]।

सार्वविद्य
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वज्ञता [को०]।

सार्ववेदस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ में अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दे। २. किसी की समग्र संपत्ति। पूरी संपत्ति [को०]।

सार्ववैद्य
संज्ञा पुं० [दे०] १. वह ब्राह्मण जिसे चारों वेदों का ज्ञान हो। संपूर्ण वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण। २. समग्र वेद। चारो वेद [को०]।

सार्वसेन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पंचरात्र यज्ञ [को०]।

सार्षप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरसों। २. सरसों का तेल। ३. सरसों का साग।

सार्षप (२)
वि० सरसों संबंधी। सरसों का।

साष्टे
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साष्टि'।

साष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति।

साष्टि (२)
वि० जो तुल्य या समान स्थान, पद, अधिकार, शक्ति, श्रेणी आदि से युक्त हो [को०]।

साष्टिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पद या शक्ति की समानता। २. एक प्रकार की मुक्ति [को०]।

साष्टेय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साष्टिता' [को०]।

सालंकार
वि० [सं० सालङ्कार] अलंकारयुक्त। भूषित। आभूषण- युक्त। अलंकृत [को०]।

सालंग
संज्ञा पुं० [सं० सालङ्ग] संगीत में तीन प्रकार के रागों में से एक प्रकार का राग। वह राग जो बिलकुल शुद्ध हो, जिसमें किसी और राग का मेल न हो; पर फिर भी किसी राग का आभास जान पड़ता हो।

सालंब
वि० [सं० सालम्ब] जो सहारा लिए हो। आलंबयुक्त [को०]।

साल (१)
संज्ञा पुं०, स्त्री० [हि० सलना या सालना] १. सालने या सलने की क्रिया या भाव। २. छेद। सूराख। ३. चारपाई के पावों मेंकिया हुआ वह चौकोर छेद जिसमें पाटी आदि बैठाई जाती है। ४. घाव। जख्म। ५. दुख। पीड़ा। वेदना। कसक। चुभन। उ०—को जानि मात बिझनी पीर। सौति कौ साल सालै सरीर।—पृ० रा०, १।३७५ ।

साल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जड़। मूल। २. कूचवंदी की परिभाषा में खस की जड़। जिसमें कूच बनती है। ३. राल। धूना। ४. वृक्ष। पेड़। ५. प्राकार। परकोटा। ६. दीवार। ७. एक प्रकार की मछली जो भारत, लंका और चीन में पाई जाती है। ८. सियार। ९. कोट। किला। (डिं०)। १०. साल का वृक्ष। दे० 'साल'।

साल (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वर्ष। बरस। बारह महीने।

साल (४)
संज्ञा पुं० [सं० शालि] दे० 'शालि'।

साल (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाल] दे० 'शाला'।

साल † (६)
संज्ञा पुं० [सं० श्याल] दे० 'साला'।

साल † (७)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाल] दे० 'शाल'।

साल अमोनिया
संज्ञा पुं० [अं०] नौसादर।

सालइलाही
संज्ञा पुं० [फ़ा०] मुगल सम्राट अकबर द्वारा प्रचारित एक संवत् या वर्ष जिसका प्रारंभ उसके सिंहासन पर बैठने की तिथि से हुआ था [को०]।

सलाई †
संज्ञा [हि०] दे० 'सलई'।

सालक (१)
वि० [हि० सालना + क (प्रत्य०)] सालनेवाला। दुःख देनेवाला। उ०—जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक।—मानस, ३।१३।

सालक (२)
वि० [सं०] अलकों से युक्त। बालों से सुशोभित [को०]।

सालकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

सालक्षणय
संज्ञा पुं० [सं०] लक्षणों या चिह्नों की तुल्यता [को०]।

सालग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग। यौ०—सालमूडक = संगीत में एक ताल।

सालग † (१)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'सलई'।

सालगिरह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बरस गाँठ। जन्मदिन।

सालग्राम
संज्ञा पुं० [सं० शालग्राम] दे० 'शालग्राम'।

सालग्रामी
संज्ञा स्त्री० [सं० शालग्राम] गंड़क नदी। विशेष—इसका यह नाम इसलिये पड़ा कि उसमें शालग्राम की शिलाएँ पाई जाती हैं।

सालज
संज्ञा पुं० [सं०] सर्जरस। राल। धूना।

सालजक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सालज'।

सालद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] सागौन।

सालन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सलवण] मांस, मछली या साग सब्जी की मसालेदार तरकारी।

सालन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सर्जरस। धूना। राल। २. गोंद (को०)।

सालना (१)
क्रि० अ० [सं० शूल] १. दुःख देना। खटकना। कसकना। २. चुभना। गड़ना। संयों० क्रि० — जाना।

सालना (२)
क्रि० सं० १. दुःख पहुँचाना। व्यथित करना। उ०—सौति कौ साल सालै सरीर।—पृ० रा०, १।३७५। २. चुभाना। गड़ाना। ३. चारपाई की पाटी के दोनों छोर पर बने हुए पतले हिस्से को उसके गोड़ों के छेद में ठोक कर ठीक करना।

सालनियर्स
संज्ञा पुं० [सं०] राल। धूना। सर्जरस। करायल।

सालपान
संज्ञा पुं० [सं० शालिपर्णी] एक प्रकार का क्षुप। कस- रवा। चाँचर। विशेष—यह क्षुप देहरादून, अवध और गोरखपुर की नम भूमी में पाया जाता है। यह वर्षा ऋतु के अंत में फूलता है। इसकी जड़ का ओषधि के रुप में व्यवहार होता है।

सालपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरिवन। शालपर्णी।

सालपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थल कमल। २. पुंडेरी।

सालमंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सालभञ्जिका] पुतली। मूर्ति।

सालम मिश्री
संज्ञा स्त्री० [अ० सालव + मिस्त्री (मिश्र देश का)] सुधामूली। अमृतोत्य़ा। वीरकंदा। विशेष—यह एक प्रकार का क्षुप है जिसकी ऊँचाई पार्य? डेढ़ फुट तक होती है। इसके पत्ते प्याज के पत्ते के समान और फैले हुए होते हैं। डंडी के अंत में फूलों का गुच्छा होता है। फल पीले रंग के होते हैं। इसका कंद कसेरु के समान पर चिपटा, सफेद और पीले रंग का तथा कड़ा होता है। इसमें वीर्थ के समान गंध आती है और यह खाने में लसीला और फीका होता है। इसके पौधे भारत के कितने ही प्रांतों में होते हैं, पर काबुल, बलख, बुखारा आदि देशों की सालम मिश्री अच्छी होती है। इसका कंद अत्यंत पौष्टिक होता है और पुष्टिकर ओषधियों में इसका विशेष प्रयोग होता है। वैद्यक के अनुसार यह स्निग्ध, उष्ण, वाजीकरण, शुक्रजनक, पुष्टिकर और अग्नि- प्रदीपक माना जाता है।

सालर †
संज्ञा पुं० [सं० शल्लकी] दे० 'सलई'।

सालरस
संज्ञा पुं० [सं०] राल। धूना।

सालवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शक जाति का एक प्रसिद्ध राजा। विशेष दे० 'शलिवाहन'।

सालवेष्ट
संजा पुं० [सं०] करायल। धूना। राल [को०]।

सालशृंग
संज्ञा पुं० [सं० सालश्रृङ्ग] दीवार या प्राचीर के आगे का हिस्सा।

सालस (१)
संज्ञा पुं० [अ०] वह जो दो पक्षों के झगड़ों का निपटारा करे। पंच।

सालस (२)
वि० [सं०] १. आलसयुक्त। आलस के साथ। अलस। मंद। सुस्त। अलसित। उ०—दो एक टोलियां, मंद मंद औ सालस लालस प्रेम सनी, अरमान भरी, दो एक बोलियाँ।— चाँदनी पृ० ३४। २. थका हुआ। श्लथ। क्लांत (को०)।

सालसा
संज्ञा पुं० [अं०] खून साफ करने का एक प्रकार का अँग्रेजी ढंग का काढ़ा जो अनंतमूल आदि से बनता है।

सालसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. सालस होने की क्रिया या भाव। दूसरों का झगड़ा निपटाना। २. पंचायत।

सालहज
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सलहज'।

सालहासाल
क्रि० वि० [फ़ा०] वर्षों से। मुद्दतों से। वर्षानुवर्ष। काफी समय से। उ०—हिंदुओं से सालहासाल से बर्ताव एगानियत का चला आ रहा हैं।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ९।

साला (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्यालक] [स्त्री० साली] १. पत्नी का भाई। २. एक प्रकार की गाली।

साला पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सारिका] सारिका। मैना। उ—देखत ही गे सोइ कृपाला लखि प्रभात बोला तब साला।—विश्राम (शब्द०)।

साला (३)
संजा स्त्री० [सं०] १. दीवार। भित्ति। २. गृह। मकान। दे० 'शाला'।

साला (४)
वि० [फ़ा० सालह् (प्रत्य०)] साल का। वर्ष का। वर्षीय। साल पर होनेवाला। (समस्त पदों में प्रयुक्त)। जैसे,— एकसाल, पंचसाल।

सालाकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृह परिचारिका। २. युद्ध में प्राप्त पराजित पक्ष की स्त्री [को०]।

सालातुरीय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शालातुरीय'।

सालाना
वि० [फ़ा० सालनह्] साल का। वर्ष का। वार्षिक। जैसे,—सालाना चंदा।

सालार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दीवाल में गाड़ी हुई खूँटी। नागदंतिका [को०]।

सालार (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सेनापति। सिपहसालार। २. नायक। नेता। प्रधान [को०]।

सालारजंग
संज्ञा पुं० [फा़०] १. सेनापति। सेना का नायक। २. सैनिकों की एक उपाधि [को०]।

सालावृक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। श्वान। २. गीदड़। सियार। ३. वृक। भेड़िया।

सालवृकेय
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता, गीदड़, स्यार, भेड़िया आदि का बच्चा [को०]।

सालि (१)
संज्ञा पुं० [सं० शालि] दे० 'शालि'। उ०—भरत नाम सुमिरत मिटहीं, कपट, कलेस कुचालि। नीति प्रीति परतीति हित सगुन सुमंगलि सालि।—तुलसी ग्रं०, पृ० ७८।

सालि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शल्य] साल। पोड़ा। चुभन।

सालिक
वि० [अ०] १. पथिक। बटोही। मुसाफिर। राही। २. जो गृहस्थाश्रम में रहते हुए बहुत बड़ा साधक हो [को०]।

सालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँसुरी [को०]।

सालिगराम पु
संज्ञा पुं० [सं० शालग्राम] दे० 'शालग्राम'। उ०— (क) उठे थन थोर बिराजत बाम। धरे जनु हाटक सालिगराम।—पृ० रा०,। (ख) रुपे के अरधा मनों पौढ़े सालिगराम।—पौद्दार अभि०, ग्र०, पृ० ३८९।

सालिग्राम
संज्ञा पुं० [सं० शालग्राम] दे० 'शालग्राम'।

सालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शालिनी] दे० 'शालिनी'।

सालिब मिश्री
संज्ञा स्त्री० [अ० सालम मिस्त्री] दे० 'सालम मिश्री'।

सालिम
वि० [अं०] १. स्वस्थ। तंदुरुस्त (को०)। २. महफूज। सुरक्षित (को०)। ३. जो कही खंडित नहो। पूर्ण। संपूर्ण। पूरा उ०— बिन माँगे बिन जाँचे देय। सो सालिम बाजी जीत लेय। कबीर० श०, भा० २, पृ०१११।

सालियाना
वि० [फ़ा० मालियानह्] वार्षिक। दे० 'सालाना' २. जो प्रतिवर्ष देय हो। जैसे, वेतन, भृति आदि [को०]।

सालिस
वि० [अ०] १. तीसरा। तृतीय। २. दो पक्षों में समझौता करानेवाला। पंच। मध्यस्थ। बिचौलिया। उ०— से सालिस होय समुझि ले, जीम जहान बसीर। — धरनी०, पृ०४५।

सालिसिटर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वकील जो कलकत्ते, बंबई और मद्रास के हाइकोर्टों में होनेवाले मुकदमे लेता और उनके कागज पत्र तैयार करके बैरिस्टर को देता है। एटर्नी। एडवोकेट। विशेष—ये सालिसिटर हाईकोटों में बहस नहीं कर सकते, पर अन्य अदालतों में इन्हें बहस करने का परा अधिकार है। इनका दर्जा एडवोकेट के समान ही है।

सालिसी
संज्ञा [अ०] पंचायत [को०]।

सालिह
वि० [अ०] [स्त्री० सालिहा] सच्चरित्र। पुण्यात्मा [को०]।

सालिहोत्री
संज्ञा पुं० [सं० शालिहोत्रिन्] दे० 'शालिहोत्री'।

साली (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साल+ई (प्रत्य०)] १. वह जमीन जो सालाना देने का हिसाब से ली जाती है। २. खेती बारी के औजारों की मरम्मत के लिये बढ़ई को सालाना दी जानेवाली मजूरी।

साली (२)
संज्ञा पुं० [सं० शालि] दे० 'शालि'।

साली पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० साला] पत्नी की बहन।

सालु पु (१)
संज्ञा पुं० [हि० सालना] १. ईर्ष्या। २. कष्ट।

सालु पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सार] दे० 'सार'। उ०— चढ़िआ नजर सराफ की मोती मनु हैंम सालु। — प्राण०, पृ०१०५।

सालुल पु †
वि० [सं० सलावण्य ?] कोमल। मृदु। सलोना। उ०— कोतिक लखे हुए विकराल दीरध रद किया। सालुल बणे चंड सरीर, खावण कज सिया। रघु० रु०, पृ०१२९।

सालू
संज्ञा पुं० [पं०, मि० फ़ा० शाल] एक प्रकार का लाल कपड़ा जो मांगलिक कार्यों में उपयोग में आता हैं। (पश्चिमी)। उ०— कल; देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालु।— मधुकरी, भा० २, पृ०२३। २. साडी़। सारी (डि०)। ३. ओढ़नी।

सालुर
संज्ञा पुं० [सं०] मेढ़क। शालूर [को०]।

सालेय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शालेय' [को०]।

सालेया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंफ।

सालौगुग्गुल
संज्ञा पुं० [फ़ा० सालै + सं० गुग्गुल] गुग्गुल का गोंद या राल। विशेष दे० 'गुग्गुल'।

सालोक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँच प्रकार की मुक्ति में से एक जिसमें मुक्त जीव भगवान् के साथ एक लोक में वास करता है।सलोकता। २. किसी के साथ समान लोक में निवास करना (को०)।

सालोव पु
संज्ञा पुं० [सं० शालिहोत्र] दे० 'शालिहोत्र'। उ०— है लषै सक्क करि भेद छेद, दिष्षंत नयन सालोत्र षेद। गज चिगछ इच्छ जानंत सब्ब, नाटिक निवास सम सेस कब्व।— पृ० रा०, ६१९।

सालोहित
संज्ञा पुं० [सं०] सगोत्री। गीती [को०]।

साल्मली
संज्ञा पुं० [सं० शाल्मलि] दे० 'शाल्मली'।

साल्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक नगर और उसके निवासी लोग। दे० 'शाल्व'। २. एक दैत्य जिसे विष्णु ने मारा था (को०)।

साल्वहा
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

साल्विक
संज्ञा पुं० [सं०] सारिका पक्षी [को०]।

साल्वेय (१)
वि० [सं०] साल्व या शाल्व 'संबंधी'।

साल्वेय (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्राचीन देश का नाम। २. साल्व या शाल्व देश का रहनेवाला।

सावंत
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त] १. वह भूस्वामी या राजा जो किसी बड़े राजा के अधीन हो और उसे कर देता हो। करद राजा। २. योद्धा वीर। ३. अधिनायक। उ०— धत्र भंग मेरी भयो, मरे सूर सावंत। — हम्मीर०, पृ०३९। ४. उत्तम या श्रेष्ठ प्रजा।

सावंकरन
संज्ञा पुं० [सं० श्यामकर्ण] श्यामकर्ण घोड़ा जिसके सब अंग श्वेत, पर कान काले होते है। (साईस)। उ।— सोरह सहस घोर घोरसारा। सावंकरन बालका तुखारा। — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०१३७।

साव (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाव, प्रा० साव (=शावक, शिशु)] शिशु। शिशु। बालक। पुत्र। (डि०)।

साव (२)
संज्ञा पुं० [सं० साधु, प्रा० साहु] दे० 'साहु'।

साव पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० स्वादु,प्रा० साउ ?] दे० 'स्वाद'। उ०— चंगौ साव चखावसी, इभरमणी आखेट। बाँकी० ग्र० भ० १, पृ०३४।

साव (४)
संज्ञा पुं० [सं०] तर्पण। पितरों को जल देना।

सावक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० साविका] जन्म देनेवाला। उत्पत्र करनेवाला [को०]।

सावक (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'शावक'। २. पशु का बच्चा। छौना। बछवा। बछेरा। चउ०— (क) चौथ दीन्ह सावक सादूरु।— जायसी ग्रं०, पृ०१८५। (ख) सावक मोर बिछुड़ गयो, ढूँढत फिरौं बेहाल। — हिंदू० प्रेमा०, पृ०२४५।

सावक (३)
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] दे० 'श्रावक'।

सावकार †
संज्ञा पुं० [हिं० साहूकार] दे० 'साहूकार'। उ०— सईस ने बतलाया कुल्लू के सावकार ने कारखाना बनाया है।— किन्नर०, पृ०१२।

सावकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अवकाश। फुर्सत। छुट्टी। २. मौका। अवसर।

सावकाश (२)
वि० १. जिसे मौका या फुरसत हो। अवकाशयुक्त। २. अनुकूल। उचित। योग्य [को]।

सवकाश (३)
क्रि० वि० फुर्सत से। सुभीते से।

सावकास पु
क्रि० वि० [सं० सावकाश] दे० 'सावकाश (३)'। उ० — सावकास ह्नँ घनी घुटनि तें विसद पुलिन मँडराइ रुकौं।— घनानंद, पृ०४२३।

सावग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] दे० 'श्रावक'।

सावगी
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक, प्रा० सावग] दे० 'सरावगी'।

सावग्रह
वि० [सं०] १. 'अवग्रह' चिह्न से युक्त। २. नियंत्रित। संयमित। ३. जिसका विश्लेषण किया गया हो [को०]।

सावचेत पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० सा+हिं० चेत अथवा सं० साव हित+ हि० चेत] सावधान। सतर्क। होशियार। चौकन्ना। उ०—अब इससे सावचेत रहना चाहिए। — श्रीनिवास ग्रं०, पृ०६७।

सावचेती
संज्ञा स्त्री० [हि० सावचेत+ई (प्रत्य०)] सावधानी। सतर्कता। खबरदारी। चौकन्नापन।

सावज पु †
संज्ञा पुं० [सं० श्वापद, प्रा० सावय] जंगली जानवर जिसका शिकार किया जाता है।

सावज्ञ
वि० [सं०] १. अवज्ञा या तिरस्कार युक्त। २. अरुचि का अनुभव करनेवाला। घृणा करनेवाला [को०]।

सावणिक
संज्ञा पुं० [सं० श्रावणिक] श्रावण मास। सावन का महीना। [डिं०]।

सावत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० सापत्न्य; देशी सावक्क, सावत्त, सावत या हिं० सौत] १. सौतों में होनेवाला पारस्परिक द्वेष। सौति- याडाह। २. ईर्ष्या। डाह। उ०— तहूँ गए मद मोह लोभ अति सरगहूँ मिटति न सावत। — तुलसी (शब्द०)।

सावत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त, हि० सावंत] दे० 'सावंत'। उ०—बड़े सावतं उद्द कनकेश मारे। — प० रासो, पृ०४५।

सादद्य (१)
वि० [सं०] निंदनीय। दूषणीय। आपत्तिजनक।

सावद्य (२)
संज्ञा पुं० तीन प्रकार की योग शक्तियों में से एक शक्ति जो योगियों को प्राप्त होती है। विशेंष—अन्य दो शक्तियों के नाम निरवद्य और सुक्ष्म हें।

सावधान
वि० [सं०] १. सचेत। सतर्क। होशियार। खबरदार। सजग। चौकस। २. उद्यमी। परिश्रमी (को०)। ३. अवधान- युक्त। ध्यानपूर्वक। उ०— सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भवबंध विमोचनि। — मानस, २।२८७।

सावधानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सावधान होने का भाव। सतर्कता। होशियारी। खबरदारी। सावधानी।

सावधानी
संज्ञा स्त्री० [सं० सावधान+ई (प्रत्य०)] सावधान होने का भाव। दे० 'सावधानता'।

सावधारण
वि० [सं०] निश्चययुक्त। निश्चित। प्रतिबंधित [को०]।

सावधि
वि० [सं०] अवधि अर्थात् नियत काल या सीमा से युक्त। जिसके समय की सीमा निश्चित हो [को०]।

सावधि आधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गिरवी जो इस शर्त पर रखी जाय कि इतने दिनों के अंदर अवश्य छुड़ा ली जायगी।

सावन (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रावण] १. श्रावण का महीना। आषाढ़ के बाद का और भाद्रपद के पहले का महीना। श्रावण। मुहा०—सावन के अंधे को हरियाली सूझना= तुरा ही हरा दिखाई देना या सूझना। अच्छी परिस्थितीयों में रहने या उन्हें देखनेवाले व्यक्ति का प्रतिकूल स्थितियों को भी किसी कारणवश पूर्वर्वत् समझना या जानना। सावन का फोड़ = जल्दी ठीक न होनेवाला घाव। असाध्य रोग। उ०— पकपक कर ऐसा फुटा है, जैसा सावन का फोड़ा है। — आराधना, पृ०७३। सावन हरा न भादों सूखा = समान या तुल्य जानना। समान परिस्थिति का समझना। प्राकृतिक या लौकिक परिवर्तक के प्रभाव से रहित जीवन जीना। उ।— मगर यहाँ साव हरे न भादो सूखे दोनों बराबर हैं। — फिसाना०, भा०३, पृ०३७७। २. एक प्रकार का गीत जो श्रावण के महीने में गाया जाता है। (पूरब)। ३. कजली नामक गीत। ४. आधिक्य। प्रचुरता। राशि।

सावन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ कर्म का अंत। यज्ञ की समाप्ति। २. यज्ञ कर्म का यज्ञमान। ३. वरुण। ४. पूरे एक दिन और एक रात का समय। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय। ६० दंड का समय। विशंष—इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — 'सौर संवत्सरे दिन षट्काधिक? सावनो भवति'। अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है। विशेष— दे० 'वर्ष'। ५. तीस दिवस का मास (को०)। ६. एक विशेष वर्ष (को०)। यौ०—सावन मास = तीस दिस का महीना। सावनवर्ष = वह साल जो सावन मास या ३६० दिनों का होता है।

सावन (३)
वि० सवन यज्ञ संबंधी [को०]।

सावनी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सावन + ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का धान जो भादों में काटा जाता है। २. तंबाकू जो सावन भादों में बोया जा्ता है, कार्तिक में रोपा जाता है और फागुन में काटा जाता है। ३. एक प्रकार का फूल।

सावनी (२)
संज्ञा स्त्री० वह वायन जो सावन महीने में वर पक्ष से वधू के यहाँ भेजा जाता है।

सावनी (३)
संज्ञा स्त्री०[सं० श्रावणी] दे० 'श्रावणी'।

सावनी (४)
वि० सावन संबंधी। सावन का। जैसे, — सावनी समाँ = सावन मास की शोभा।

सावनी
संज्ञा स्त्री० [हि० सावन] १. श्रावण मास का गीत। २. कजली गीत।

सावमर्द
वि० [सं०] परस्परविरुद्ध। अरुचिकर। अप्रिय [को०]।

सावयव
वि० [सं०] अवयव युक्त। अंगोंसहित। सांग [को०]।

सावर (१)
संज्ञा पुं० [सं०शाबर] शिवकृत एक तंत्र का नाम। विशेष—इसके संबंध में इस प्रकार की कथा हैं — एक बार जब शिवपार्वती किरात देश में बन में विचरण कर रहे थे, तब पार्वतीजी ने प्रश्न किया कि प्रभो। आपने संपूर्ण मंत्र कील दिए हैं, पर अब कलिकाल है, इस समय के जीवों का उपकार कैसे होगा। तव शिवजी ने उसी वेश में नए मत्रों की रचना की जो शावर या सावर कहाते हैं। इन मंत्रों को जपने या सिद्ध करने की आवश्यकता नही, ये स्वयंसिद्ध हैं। न इनके कुछ अर्थ हो हैं। २. एक प्रकार का लोहे का लंबा औजार जिसका एक सिरा नुकीला और गुलमेख की तरह होता है। इसपर खुरपा रखकर हथौड़े से पीटा जाता है जिससे खुरपा पतला और तेज हो जाता है।

सावर (२)
संज्ञा पुं० [सं० शबर या साम्बर] एस प्रकार का हिरन। उ०— चीते सु रोझ सावर दबंग। गैडा गलीनु डोलत अभंग।— सूदन (शब्द०)।

सावर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोध्र। लोध्र। २. पाप। अपराध। सुनाह। ३. एक प्रकार का मृग।

सावरण
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद लोध।

सावरण
वि० [सं०] १. छिपा हुआ। गोपनीय। २. ढका हुआ। वंद। ३. जो घेरे के अंदर हो [को०]।

सावरणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्मार्जनी] वह बुहारी जो जैन यति अपने साथ लिए रहते हैं।

सावरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना जहरवाली जोंक।

सावर्ण (१)
वि० [सं०] सवर्ण संबंधी। समान वर्ण या जाति संबंधी।

सावर्ण (२)
संज्ञा पुं० दे० 'सावर्णि'।

सावर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सावर्णि'।

सावर्णलक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमड़ा। चर्म। २. एक ही वर्ण और जाति की तुल्यता का बोधक समान चिह्न (को०)।

सावर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] १. आठवें मनु जो सूर्य के पुत्र थे। विशेष—कहते हैं कि सूर्य की पत्नी छाया सूर्य का तेज सहन न कर सकने के कारण अपने वर्ण की (सवर्ण) एक छाया बनाकर और उसे पति के घर छोड़कर अपने पिता के घर चली गई थी। उसी के गर्भ से सावर्णि मनु की उत्पत्ति हुई थी। २. एक मन्वंतर का नाम। ३. एक गोत्र का नाम।

सावर्णिक
वि० [सं०] समान जाति या कुल से संबद्ध [को०]।

सावर्ण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. रंग की समानता। २. वर्ग या जाति की समानता। ३. आठवें मनु का युग अथवा मन्वंतर [को०]।

सावलेप
वि० [सं०] अवलेपयुक्त। गर्क से भरा हुआ। धृष्ट [को०]।

सावशेष
वि० [सं०] १. जिसका कुछ अंश शेष हो। २. जो पूरा न हो। अपूर्ण। अधूरा [को०]।यौ०—सावशेषजीवित = जिसकी आयु अभी बाकी हो। जिसका जीवनकाल अभी शेष हो। सावशेषबंधन = जिस पर कुछ प्रतिबंध शेष हो। जो अभी भी बंधन में हो।

सावष्टंभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० साबष्टम्भ] वह मकान जिसके उत्तरदक्षिण दिशा में सड़क हो। ऐसा मकान बहुत शुभ माना गया है।

सावष्टंभ (२)
वि० १. दृढ़। मजबूत। २. आत्मनिर्भर। स्वावलंबी। ३. गर्वोंद्धत। घमंडी। शानदार। गुमानी (को०)। ४. हिम्मती। साहसी (को०)। यौ०—सावष्टंभवास्तु = एक प्रकार का मकान। दे० 'साबष्टंभ'।।

सावहित
वि० [सं०] अवधान युक्त। सावधान [को०]।

सावहेल
वि० [सं०] अवहेला से युक्त। घृणा या तिरस्कार करनेवाला [को०]।

सावाँ †
संज्ञा पुं० [सं० श्यामक] दे० 'साँवां'।

साविका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धात्री। दाई [को०]।

साविका पु (२)
संज्ञा पुं० [अ० साबिकह्] आवश्यकता। व्यवहार। संबंध। सरोकार। प्रयोजन। उ।— सुनौ सपूतौ साविकौ सबकौं परै न रोज। लियौं जात याही समय, हित अनहित कौ खोज। — हम्मीर० , पृ०४४।

सावित्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. शिव। ३. वसु। ४. ब्राह्मण। ५. सूर्य के पुत्र। ६. कर्ण। ७. गर्भ। ८. यज्ञोपवीत। ९. उपनयन संस्कार। यज्ञोपवीत। ९. हस्त नक्षत्र [को०]। १०. अग्नि का एक रुप [को०]। १०. कलछा या चम्मचभर परिमाण (को०)। १२. दसवें कल्प का नाम (को०)। १३. मेरु पर्वत का एक शिखर (को०)। १४. एक प्रकार की आहुति या होम (को०)। १५. एक वन का नाम (को०)। १६. एक प्रकार का अस्त्र।

सावित्र (२)
वि० १. सविता संबंधी। सविता का। जैसे, — सावित्र होम। २. सूर्य से उत्पत्र। सूर्यवंशीय। ३. गायत्री से युक्त। गायत्री मंत्र से दीक्षित।

सावत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक शक्ति [को०]।

सावित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेदमाता गायत्री। २. सरस्वती। ३. ब्रह्मा की पत्नी जो सूर्य की पृश्नि नाम की पत्नी से उत्पत्र हुई थी। ४. वह संस्कार जो उपनयन के समय होता है और जिसके न होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य व्रात्य या पतित हो जाते है। ५. धर्म कीपत्नी और दक्ष की कन्या। ६. कश्यप चकी पत्नी। ७. अष्टावक्र की कन्या। ८. मद्र देश के राजा अश्वपति की कन्या और सत्यवान की सती पत्नी का नाम। विशेष—पुराणों में इसकी कथा यों है। मद्र देश के धर्मनिष्ठ प्रजाप्रिय राजा अश्वपति ने कोई संतान न होने के कारण ब्रह्मचर्यपूर्वक कठिन व्रत धारण किया। वह सावित्री मंत्र से प्रतिदिन एक लाख आहुति देकर दिन के छठे भाग में भोजन करता था। इस प्रकार अठारह वर्ष बीतने पर सावित्री देवी ने प्रसन्न होकर राजा को दर्शन दिए और इच्छानुसार वर माँगने को कहा। राजा ने बहुत से पुत्रों की कामना की। देवी ने कहा कि ब्रह्मा की कृपा से तुम्हारे एक कन्या होगी जो बड़ी तेजस्विनी होगी। कुछ दिनों बाद बड़ी रानी के गर्भ से एक कन्या हुई। सावित्री की कृपा से वह कन्या हुई थी, इसलिये राजा ने इसका नाम भी सावित्री ही रखा। सावित्री अद्वितीय सुंदरी थी, पर किसी को इसका वरप्रार्थीं होते न देखकर अश्वपति ने सावित्री से स्वयं अपनी इच्छानुसार वर ढूँढकर वरण करने को कहा। तदनुसार सावित्री वृद्ध मंत्रियों के साथ तपोवन में भ्रमण करने लगी। कुछ दिनों बाद वह तीर्थों और तपोवनों का भ्रमण कर लौट आई और उसने अपने पिता से शाल्व देश में ध्युमत्सेन नामक एक प्रसिद्ध धर्मात्मा क्षत्रिय राजा थे। वे अंधे हो गए हैं। उनका एक पुत्र है जिसका नाम सत्यवान् है। एक शत्रु ने उनका राज्य हस्तगत कर लिया है। राजा अपनी पत्नी और पुत्रसहित बन में निवास कर रहे हैं। मैंने उन्हीं सत्यवान् को अपने उपयुक्त वर समझकर उन्हीं को पति वरण किया है। नारदजी ने कहा— सत्यवान में और सब गुण तो हैं, पर वह अल्पायु है। आज से एक वर्ष पूरा होते ही वह मर जायागा। इसपर भी सावित्री ने सत्यवान् से ही विवाह करना निश्चित किया। विवाह हो गया, एक वर्ष बीतने पर सत्यवान् को मृत्यु हो गई यमराज जब उसका सूक्ष्म शरीर ले चला, तब सावित्री ने उसका पीछा किया। यमराज ने उसे बहुत समझा बुझाकर लौटाना चाहा, पर उसने उसका पीछा न छोड़ा। अंत में यमराज ने प्रसत्र होकर उसकी मनस्कामना पूर्ण की। मृत सत्यवान् जीवित होकर उठ बैठा। सावित्री ने मन ही मन जो कामनाएँ की थीं, वे पूरी हुई। राजा द्युमत्सेन को पुनः दृष्टी प्राप्त गई। उसके शत्रुओं का विनाश हुआ। सावित्री के सौ पुत्र हुए। साथ ही उसके वृद्ध ससुर के भी सौ पुत्र हुए। उसने यह भी वर प्राप्त कर लिया था कि पति के साथ मैं बैकुंठ जाऊँ। ९. यमुना नदी। १०. सरस्वती नदी। ११. प्लक्ष द्वीप की एक नदी। १२. धार के राजा भोज की स्त्री। १३. सधवा स्त्री। १४. आँवला। १५. प्रकाश की किरण (को०)। १६. पार्वती का एक नाम (को०)। १७. सूर्य की रश्मि (को०)। १८. अनामिका उँगली (को०)।

सावित्री तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

सावित्रीपतित, सावित्रीपरिभ्रष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति का वह व्यक्ति जिसका उचित समय पर उपनयन संस्कार न हुआ हो [को०]।

सावित्रीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रियों की एक उपजाति या वर्ग।

सावित्री व्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जो स्त्रियाँ पति की दीर्घायु की कामना से ज्येष्ठ कृष्णा १४ करती हैं। विशेष—कहते हैं कि यह व्रत करने से स्त्रियाँ विधवा नहीं होतीं।

सावित्रीव्रतक
संज्ञा [सं०] सावित्री व्रत।

सावित्रीसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञोपवीत जो सावित्री दीक्षा के समय धारण किया जाता है।

सावित्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] सविता के पुत्र, यम [को०]।

साविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरिता। नदी [को०]।

साविष्कार
वि० [सं०] १. शक्ति आदि का प्रदर्शन करनेवाला। उद्धत। घमंडी। २. प्रकट। व्यक्त [को०]।

सावेग
क्रि० वि० [सं०] वेगपूर्वक। शीघ्रता से। झटके से [को०]।

सावेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी (संगीत)।

साशंक
वि० [सं० शाशङ्क] आशंकायुक्त। भयभीत। शकित [को०]।

साशंकता
संज्ञा स्त्री० [सं० साशङ्कता] आशंका। डर। भय [को०]।

साशंस
वि० [सं०] आकाक्षापूरित। इच्छुक। आशान्वित [को०]।

साशायंदक
संज्ञा पुं० [सं० साशयन्दक] छोटी छिपकली [को०]।

साशिव
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। विशेष—अर्जुन के दिग्विजय के प्रकरण में यह उत्तर दिशा में बतलाया गया है। इसे जीतकर अर्जुन यहाँ से आठ घोड़े लाया था। २. ऋषीक। ऋषिपुत्र।

साशूक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊनी कंबल [को०]।

साश्चर्य
वि० [सं०] १. आश्चर्यन्वित। चकित। भौचक। २. आश्चर्य या कौतुहलजनक [को०]। यौ०—साश्चर्याचर्य = आश्चर्यजनक व्यवहारवाला।

साश्र, सास्त्र
वि० [सं०] १. अस्त्र या कोण युक्त। जिसमें कोण या कोने हों। कोणात्मक। २. अश्रुयुक्त। रोता हुआ। साश्रु [को०]।

साश्रु
वि० [सं०] अश्रुपुर्ण। आँसू बहता हुआ। रोता हुआ [को०]।

साश्रुधी
सज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी या पति की माता। सास।

साश्वत
वि० [सं० शाश्वत] दे० 'शाश्वत'।

साषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शाखा] दे० 'शाखा'। उ०— मुनि पुनि कर्म फलनि तजि जैसे। अप अपनी श्रुति साषा बैसें। — नंद० ग्रं०, पृ०२९५।

साषि पु
संज्ञा पुं० [सं० साक्षी] गवाह।

साषित पु
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त] वह जो शक्ति का उपासक हो। शक्ति को माननेवाला्। वि० दे० 'शाक्त'। उ०—साषित कै तूँ हरता करता, हरि भगतन कै चेरी। — कबीर ग्रं०, पृ०१५१।

साष्टांग
वि० [सं० साष्टाङ्ग] आठो अंग सहित। यौ०—साष्टांग प्रणाम=मस्तक, हाथ, पैर, हृदय, आँख, जाँघ, बचन, और मन से भूमि पर लेटकर प्रणाम करना। मुहा०— साष्टांग प्रणाम करना=बहुत बचना। दूर रहना। (व्यंग्य)। जैसे—हम यहीं से उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हैं।

साष्टांग योग
संज्ञा पुं० [सं० साष्टाङ्ग योग] वह योग जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठो अंग हों। विशेष दे० 'योग'।

साष्टी
संज्ञा पुं० [देशं०] एक टापू जो बंबई प्रदेश के थाना जिले में है। विशेष—इस टा्पू को बहाँवाले 'फालता' और 'शास्तर' तथा अँगरेज 'सालसीट' कहते हैं। यह बंबई से बीस मील ईशानकोण में उत्तर को झुकता हुआ समुद्र के तट पर बसा है। यहाँ एक़ किला भी बना है।

साध्यात पु
वि० [सं० साक्षात्=साक्षात] दे० 'साक्षात्'। उ०— करि स्नान दान सुचि रुचि कुँआर। होई देव रुप साध्यात चार।—पृ०, रा०, ६।१३२।

सास (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वश्रु] पति या पन्नी की माँ।

सास पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वास] दे० 'साँस'। उ०— झाबकि पइठी झालि, सुंदरि दीठी सास विण। — ढोला०, दू०६०४।

सास (३)
वि० [सं०] धनुषयुक्त। धनुष रखनेवाला [को०]।

सासण †
संज्ञा पु० [सं० शासन; डि०] दे० 'शासन'। उ०— सिधासण चढ़णै नर आसण सासण सह मानै संसार। — रघु० रु०, पृ०२२।

सासत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शास्ति] दे० 'साँसत'। उ०— चौरासी लख जिव तोहि दीन्हा। ले जीवन बड़ सासत कीन्हा। — कबीर, सा०, पृ०१३।

सासत पु (२)
वि० [सं० शाश्वत] निरंतर। दे० 'शाश्वत'। उ०— बणियो रहै बाड़ियाँ वागाँ बरसाणँ सासतो बसंत। — बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ०१२२।

सासतर ‡
संज्ञा पुं० [सं० शास्त्र] दे० 'शास्त्र'। उ०— सासतरों में कहा है। — गौदान, पृ०१०४।

सासन पु
संज्ञा पुं० [सं० शासन] दे० 'शासन'। उ०— पुत्र श्री दश्रत्थ के बनराज सासन आइयो। — केशव (शब्द०)।

सासनलेट
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का सफेद जालीदार कपड़ा।

सासना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शासन] १. दे० 'शासन'। उ०— — सासना न मानई जो कोटि जन्म नर्क जाय। — केशव (शब्द०)। २. कष्ट। त्रास। दुःख। पीड़ा। उ० — बहु सासना दई पैहलादै, तऊ निसंक लियौ। — पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ०२४०।

सासर बाड़ो
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वश्रू, बं०, हि० सासर+बाडी] ससुराल। उ०— करहा देस सुहामणँउ जे मूँ सासर बाड़ि। आँब सरीखउ आक गिणि जाति करीराँ झाड़ि। — ढोला०, दू०४३२।

सासरा †
संज्ञा पुं० [सं० श्वश्रू+आलय] दे० 'ससुराल'।

सासहि
वि० [सं०] १. सहन करने योग्य। सह्ना। २. जीतने या विध्वंस करनेवाला [को०]।

सासा पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० संशय, पुं० हि० संसा (कबीर)] संदेह। शक। उ०— आई बतावन हौं तुम्है राधिके लीजिए जानि न कीजिए सासा। — रसकुसुमाकर (शब्द०)।

सासा (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्वास] दे० 'श्वास' या 'साँस'।

सासार
वि० [सं०] १. आसार युक्त। मूसलाधार वृष्टि से युक्त। २. बरसाती [को०]।

सासि
वि० [सं०] असि या कृपाणयुक्त [को०]।

सासु (१)
वि० [सं०] असु या प्राणयुक्त। जीवित।

सासु पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वश्रू] दे० 'सास'। उ०— आया मन में भर आकर्षण, उन नयनों का, सासु ने कहा। — अनामिका, पृ०१२४।

सासुर †
संज्ञा पुं० [हि० ससुर] १. पति या पत्नी का पिता। ससुर। २. ससुराल। उ०—केलि करै मधुमत्त जहँ घन मधुपन के पुंज। सोच न कर तुव सासुरे, सखी ! सघन वनकुंज।—मति० ग्र०, पृ०२९०।

सासुसू
वि० [सं०] जिसमें बाण हो। बाणयुक्त [को०]।

सासूय
वि० [सं०] असूया युक्त। द्वेषी। ईष्यालु [को०]।

सारिथ
वि० [सं०] अस्थियुक्त। हड्डीवाला [को०]।

सास्थिताम्रार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा [को०]।

सास्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौओं आदि का गलकंबल।

सास्वत
वि० [सं० शाश्वत] शाश्वत। अमर। नित्य [को०]।

सास्मित
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध सत्व को विषय बनाकर की जानेवाली भावना।

सास्वादन
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मतानुसार निर्वाण प्राप्ति की चौदह अवस्थाओं में से दूसरी अवस्था [को०]।

साह (१)
संज्ञा पुं० [सं० साधु] १. साधु। मज्जन। भला आदमी। जैसे, — वह चोर है और तुम बड़े साह हो। उ— चुरी वस्तु दै कै जिमि कोई। चौरहि साह बनावत होई। — शकुंतला।, पृ०९२। २. व्यापारी। साहूकार। ३. धनी। महाजन। सेठ। ४. लकड़ी या पत्थर का वह लंबा टुकड़ा जो दरवाजै के चौखटे में देहलीज के ऊपर दोनों पार्वो में लगा रहता हैं। मुहा०—साहखर्ची = फइजूलखर्ची। अनावश्यक खर्च। शात शौकत के लिये धन का अपव्यय। उ०— पुराने ढरें की साहखर्ची और पास पड़ोस के लोगों से यश पाने की भूख — इन दोनों लतों ने खोखा पंड़ित को तबाह कर रखा था।—नई०, पृ०४।

साह (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाह] स्वामी। दे० 'शाह'। उ०—अति ही अयाने उपखानो नहि बूझँ लोग, साह ही की गोत गोत होत है गुलाम को। — तुलसी ग्रं०, पृ०२२०।

साह (३)
वि० [सं०] १. जो साहस और सफलतापूर्वक प्रतिरोध करे। २. निरोध या दमन करनेवाला [को०]।

साहचर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहचर होने का भाव। साथ रहने का भाव। सहचरता। २. संग। साथ।

साहजिक
वि० [सं०] सहज। नैसर्गिक। स्वाभाविक [को०]।

साहजिकध्रम
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्रनीति के अनुसार परितोषिक। वेतन, विजय आदि में मिला हुआ धन।

साहणहार पु
वि० [हि० सहना+हार (प्रत्य०)] झेलनेवाला। सहनेवाला। सहन करनेवाला। उ०— ज्यूँ ज्यूँ हरि गुण साँभलौं त्यूँ त्यूँ लागै तीर। लागै थै भागा नहीं साहणाहार कबीर। — कबूर ग्रं०, पृ०६४।

साहन
संज्ञा पुं० [सं०] सहन शक्ति। सहनशीलता [को०]।

साहना †
क्रि० सं० [सं० साहित्य (=मिलन)] भैसों का जोड़ा खिलाना। बुहाना।

साहनो
संज्ञा स्त्री० [सं० सेनानी या फ़ा० शह्नह्?] १. सेना। फौज। उ०— (क) आयकै आपने आश्रम में कियो यज्ञ अरंभ प्रमोद प्रफुल्ला। आय निशाचर साहनी साजै मरीच सुबाहु सुने मख गुल्ला। — रघुराज (शब्द०)। (ख) करत बिहार द्विरद मतवारे। गिरी सम बपुष झूलते कारे। कोचिन बाजि साहनी आवै। नीर पियाइ नदी अन्हवावै । — सबल (शब्द०)। २. साथी। संगी। उ०— हम खेलब तव साथ, होइ नीच सब भाँति जो। कह्नो बचन कुरुनाथ शकुनी तो सिरमौर मम। धरहु भार निज शीश, बैठारहु किन साहनी। हमहिं न ओछि महीश मैं खेलब नृप सदसि सहँ। — सबल (शब्द०)।३. परिषद। उ०— भरत सकल साहनी बोलाए। — तुलसी (शब्द०)। ४. कोतवाल। ५. सेनापति।

साहब (१)
संज्ञा पुं० [अ० साहिब] [स्त्री० साहिबा] १. मित्र। दोस्त। साथी। २. मालिक। स्वामी। ३. परमेश्वर। ईश्वर। ४. एक सम्मानसूचक शब्द जिसका व्यवहार नाम के साथ होता है। महाशय। जैसे, — मुं० कालिका प्रसाद साहब। यौ०—साहबजादा। साहब सलामत। ५. गोरी जाति का कोई व्यक्ति। फिरंगी। ६. अफसर। हाकिम । सरदार। ७. अंग्रेजोंकी तरह ठाट बाट से रहनेवाला व्यक्ति।

साहब (२)
वि० वाला। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार यौकिक शब्दों में होता है। जैसे, — साहबइकबाल। साहबतदवीर। साहबतिमाग।

साहबइसाफ
वि० [अ० साहिब ए इंसाफ] न्यायी। न्यायशील [को०]।

साहबखाना
संज्ञा पुं० [अ० साहिब+फ़ा० खानह्] घर का स्वामी। गृहपति [को०]।

साहबगरज
वि० [अ० साहिबगरज] गर्जु। स्वार्थी। खुदगरज [को०]।

साहबजा्दा
संज्ञा पुं० [अ० साहिब+फ़ा० जादह्] [स्त्री० साहबजादी] १. भले या बड़े आदमी का लड़का। २. पुत्र। बेटा। जैसे, — आज आपके साहबजादा कहाँ हैं ?

साहबदिल
वि० [अ० साहिव+फ़ा० दिल] सहृदय। साधु। सज्जन। मनस्वी [को०]।

साहबपन
संज्ञा पुं० [अ० साहिब+हिं० पन (प्रत्य०)] साहब होने का भाव। साहबी [को०]।

साहब बहादूर
संज्ञा पुं० [अ० साहिब+फा़० बहादुर] १. सम्मानित व्यक्ति या राजा का संबोधन। २. योरोपीय ढंग से रहनेवाला व्यक्ति।

साहबान
संज्ञा पुं० [अ० साहिब का बहु ब०] सज्जन वृंद। सत्पुरुष।

साहबाना
वि० [अ० साहिबानह्] साहबी ढंग का। साहबी।

साहब सलामत
संज्ञा स्त्री० [अ०] परस्पर मिलने के समय होनेवाला अभिवादन। बंदगी। सलाम। जैसे, — जब कभी वे रास्ते में मिल जाते हैं, तब साहबसलामत हो जाती है।

साहबी (१)
वि० [अ० साहिब+ई (प्रत्य०)] साहब का। साहब संबंधी। जैसे, — साहबी चाल। साहबी रंग ढंग।

साहबी (२)
संज्ञा स्त्री० १. साहब होने का भाव। २. प्रभुता। मालिकपन। ३. सर्वोच्चता। सर्बोपरि होने का भाव। ईश्वरत्व। ४. बड़ाई। बड़प्पन। महत्व। मुहा०—साहबी करना = (१) अफसरी दिखाना। अफसरों की तरह रहना। (२) रोब गाँठना। (३) सीमा से बाहर अधिक व्यय करके ठाटबाट से रहना।

सहबीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० साहिब+इयत (प्रत्य०)] साहबपन। साहबी। अफसरी ढंग।

साह बुलबुल
संज्ञा पुं० [अं० शाह+फ़ा० बुलबुल] एक प्रकार का बुलबुल जिसका सिर काला, सारा शरीर सफेद और दुम एक हाथ लंबी होती हैं।

साहय
वि० [सं०] सहन करने में प्रवृत्त करनेवाला [को०]।

साहस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मानसिक गुण या शक्ति जिसके द्वारा मनुष्य यर्थष्ट बल के अभाव में भी कोई भारी काम कर बैठता है या दृढ़तापूर्वक विपत्तियों या कठिनाइयों आदि का सामना करता है। हिम्मत। हियाव। जैसे, — वह साहस करके डाकुओ पर टूट पड़ा। क्रि० प्र०— करना। — दिखलाना। — होना। २. जबरदस्ती दूसरे का धन लेना। लूटना। ३. कोई बुरा काम। दुष्ट कर्म। ४. द्वेष। ५. अत्याचार। ६. क्रूरता। बेरहमी। ७. परस्त्री गमन। ८. बलात्कार। ९. दंड़। सजा। त१०. जुर्माना। ११. अविमृश्यकारिता। अविवेकिता। औद्धत्य। उतावलापन। १२. वह अग्नि जिसपर यज्ञ के लिये चरु पकाया जाता है।

साहसकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहस करना। बल प्रयोग। २. उग्रता। क्रूरता।

साहसकारी
वि० [सं० साहसकारिन्] १. साहस करनेवाला। साहसी। बहादुर। हिम्मती। २. उद्धत। अविवेकी [को०]।

साहसदंड
संज्ञा पुं० [सं० साहसदण्ज] १. सबसे बड़ा दंड। कठोर- तम दंड। प्राणदंड [को०]।

साहसलांछन
वि० [सं० साहसलाझ्छन] जिसकी पहचान साहस हो। जो अपने साहस से जाना पहचाना जाय [को०]।

साहसांक
संज्ञा पुं० [सं० साहसाङ्क] १. राजा विक्रमादित्य का एक नाम। २. एक कोशकार का नाम (को०)। ३. एक कवि का नाम (को०)।

साहसाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] पुलिस अफसर [को०]।

साहसाध्यवसायी
वि० [सं० साहसाध्यवसायिन्] किसी कार्य में उतावली यो जल्दीबाजी करनेवाला [को०]।

साहसिक
वि० सांज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसमें साहस हो। साहस करनेवाला। हिम्मतवर। पराक्रमी। २. डाकु। ३. चोर। तस्कर। ४. मिथ्यावादी। ५. कर्कश वचन बोलनेवाला। ६. परस्त्रीगामी। विशेष—शास्त्रों में डाका, चोरी, झूठ बोलना, कठीर वचन कहना और परस्त्रीगमन ये पाँचो कर्म करनेवाले साहसिक कहे गए हैं और अत्यंत पापी बतलाए गए हैं। धर्मशास्त्रों में इन्हें य़थोचित दंड देने का विधान है। स्गृतियों में लिखा है कि 'साहसिक व्यक्ति' की साक्षी नहीं माननी चाहिए क्योंकि ये स्वयं ही पाप करनेवाले होते हैं। ६. वह जो हठ करता हो। हठी। हठीला। ७. निर्भीक। निर्भय। निडर। ८. अविचारशील। अविवेकी (को०)। ९. क्रूर। अत्याचारी (को०)।

साहसिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० साहसिक+ता (प्रत्य०)] साहसिक होने का भाव दिलेरपन। हिम्मत। उ०—कितनी सरल, स्वतंत्र और साहसिकता से भरी हुई यह रमणी है। — आँधी, पृ०१६।

साहसिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहस दिखाने का भाव। साहसिकता। प्रचंड़ता। २. असमीक्ष्यकारिता। अविवेकिता। औद्धत्य [को०]।

साहसी (१)
वि० [सं० साहसिन्] १. वह जो साहस करता हो। हिम्मती। दिलेर। २. अविवेकी। उद्धत। ३. क्रूर। निष्ठुर (को०)। ४. असह्ना। ऊग्र। प्रचंड (को०)।

साहसी (२)
संज्ञा पुं० बलि का पुत्र जो शाप के कारण गधा हो गया था। इसे बलराम ने मारा था।

साहसैकरसिक
वि० [सं०] साहसिकता में ही आनंद या रस माननेवाला। अत्यंत अत्याचारी। उद्धत। उद्दंड। क्रूर [को०]।

साहस्त्र
वि० [सं०] १. सहस्त्र संबंधी। हजार का। २.(व्याज आदि) जो हजार पीछे दिया जाय (को०)। ३. जो हजार में क्रीत किया गया हो (को०)। ४. सहस्त्रगुणित। हजार गुना (को०)। ५. असंख्य। अत्यधिक संख्यायुक्त। असंख्येय (को०)। ६. हजार से युक्त (को०)।

साहस्त्र (२)
संज्ञा पुं० १. सहस्त्र का समूह। २. एक हजार सैनिकों की टुकड़ी (को०)।

साहस्त्रक (१)
वि० [सं०] जो एक हजार से युक्त हो। एक हजार की संख्यावाला [को०]।

साहस्त्रक (२)
संज्ञा पुं० १. एक हजार का समूह। एक सहस्त्र। २. एक तीर्थ का नाम [को०]।

साहस्त्रवेंधी
संज्ञा पुं० [सं० साहस्त्रवेधिन्] कस्तूरी।

साहस्त्रांत
संज्ञा पुं० [सं० साहस्त्रान्त] एक प्रकार का एकाह यज्ञ [को०]।

साहस्त्राद्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साहस्त्रांत'।

साहस्त्रिक (१)
वि० [सं०] सहस्त्र संबंधी। हजार का।

साहस्त्रिक (२)
संज्ञा पुं० किसी पदार्थ के एक सहस्त्र भागों में से एक भाग १/१०००।

साहा
संज्ञा पुं० [सं० साहित्य] १. वर्ष जो हिंदू ज्योतिष के अनुसार विवाह के लिये शुभ माना जाता है। २. विवाह आदि शुभ कार्यों के लिये निश्चित लग्न या मूहूर्त।

साहानसाह पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाहशाह] दे० 'शाहंशाह'। उ०— साहानसाह आलम निवाज। रनथंभ कोट चहुँप्रान राज। हम्मीर०, पृ०१६।

साहायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहयोग। मदद। सहायता। २. मित्रता। मैत्रो। ३. सहयोगियों या मित्रों का मंडल। ४. उपकारक या सहायक सेना [को०]।

सहाय्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहायता। मदद। २. दोस्ती। मैत्री। संग (को०)। ३. (नाटक में) एक दूसरे को संकट में मदद पहुँचाना [को०]।

साहाय्यकर
वि० [सं०] मदद करनेवाला। सहायक [को०]।

सहाय्यदान
संज्ञा पुं० [सं०] सहायता देना। मदद देना [को०]।

साहि पु † (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाह] १. राजा। उ०— भूषन भानि ताके भयो, भुव भूषन नृप साहि। रातौ दिन संकित रहैं, साहि सबै जग माहि। — भूषण ग्रं०, चपृ० ८।२ दे० 'साहु'।

साहित पु
संज्ञा पुं० [सं० साहित्य] दे० 'साहित्य'। उ०— मुरभूम पाठ पिंगल मता, साहित वोदग सार नै। — रघु० रु०, पृ०१४।

साहिती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'साहित्य'।

साहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकत्र होना। मिलना। मिलन। २. वाक्य में पदों का एक प्रकार का संबंध जिसमें वे परस्पर अपेक्षित होते है और उनका एक ही क्रिया से अन्वय होता है। ३. किसी एक स्थान पर एकत्र किए हुए लिखित उपदेश, परामर्श या विचार आदि। लिपिबद्ध विचार या ज्ञान। ४. अलंकार शास्त्र। रीतिशास्त्र । काव्यकला। काव्यशास्त्र आदि। ५. गद्य और पद्य सब प्रकार के उन ग्रंथों का समूह जिनमें सार्वजनिक हित संबंधी स्थायी विचार रक्षित रहते हैं। वे समस्त पुस्तकें जिनमें नैचिक सत्य और मानव भाव बुद्धिमत्त् तथा व्यापकता से प्रकट किए गए हों। बाङ्मय। विशेष—इस अर्थ में यह शब्द बहुत अधिक व्यापर रुप में भी बोला जाता है (जैसे, — समस्त संसार का साहित्य); और देश काल, भआषा या विषय आदि के विचार से परिमित रुप में भी (जैसे, — हिंदी साहित्य, वैज्ञानिक साहित्य, बिहारी का साहित्य आदि)। ६. संगति। सामंजस्य। तालमेल (को०)। ७. किसी वस्तु के उत्पादन या किसी कार्य की संपत्रता के लिए सामग्री का संग्रह (को०)।

साहित्यदर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य शास्त्र का एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ जिसके रचयिता विश्वनाथ कविराज है।

साहित्यशास्त्र
संज्ञा [सं०] वह शास्त्र जिसमें साहित्यिक विधाओं (अलंकार, रस, रुपक, छंद आदि) का शास्त्रीय ढंग से मुल्यांकन हो।

साहित्यिक (१)
वि० [सं० साहित्य+हि० इक (प्रत्य०)] साहित्य संबंधी। जैसे,—साहित्यिक चर्चा।

साहित्यिक (२)
संज्ञा पुं० वह जो साहित्य सेवा में संलग्न हो। साहित्य शास्त्र का विद्वान्। साहित्यसेवी। जैसे, — वहां कितने ही प्रसिद्ध साहित्यिक उपस्थित थे।

साहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सेनानी ?] दे० 'साहनी'।

साहिब
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० साहिबा] स्वामी। प्रभु। दे० 'साहब'। उ०— साहिब सीतानाथ से सेवक तुलसी दास। — मानस, १।२८।

साहिबिनी पु
संज्ञा स्त्री० [अ० साहिब+ इनी(प्रत्य०)] स्वामिनी। मलकिन। उ०— मेरी साहिबिनि सदा सीस पर बिलसति, देवि क्यों न दास को देखाइयत पाय जु। — तुलसी ग्रं०, पृ०२३१।

साहिबी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'साहबी'। उ०— (क) सुलभ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीता राम। — तुलसी ग्रं०, पृ०१५२। (ख) लै त्रिलोक की साहिबी दै धतूर कौ फूल। — स० सप्तक, पृ०१४९।

साहिब्ब पु
संज्ञा पुं० [अ० साहिब] दे० 'साहब'। उ०— साहिब्ब बचन इम उच्चरै अली औलिया पीर गनि। — ह० रासो, पृ०५७।

साहियाँ पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वामी, या फ़ा, शाह, हि० साह, साहि] दे० 'साँई'।

साहिर
संज्ञा पुं० [अ०] [बहु व० सहरा] जादूगर। उ।— अफसोस मार झटपट दिल को रखै है अटका। किस साहिरों से सीखा जुल्फों ने तेरी लटका। — कविता कौ०, भा० ४, पृ०१९।

साहिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० साहिर] जादुगरी।

साहिल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. किनारा। कूल। तट। २. समुद्र अथवा नदी का तट [को०]।

सहिल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शल्यकी] दे० 'साही'।

सहिली
संज्ञा स्त्री० [अ० साहिल (=समुद्र तट)] १. एक प्रकार का पक्षी जिसका रंग काला और लंबाई एक बलिश्त से अधिक होती है। विशेष— यह प्रायः उत्तरी भारत और मध्य प्रदेश में पाया जाता है। यह पेड़ की टहनियों पर प्याले के आकार का घोंसला बनाता है। इसके अंड़ों का रंग भूरा होता है। २. बुलबुल चश्म।

साही (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शल्यकी] एक प्रसिद्ध जंतु जो प्रायः दो फुट लंबा होता है। विशेष—इसका सिर छो्टा, नथुने लंबे, कान और आँखें छोटी और जीभ बिल्ली की तरह काँचेदार होती है। ऊपर नीचे के जबड़ में चार दाँतों के अतिरिक्त कुतरनेवाले दो दाँत ऐसे तीक्ष्ण होते है कि लकड़ी के मोटे तख्ते तक को काट डालते हैं। इसका रंग भूरा, सिर और पाँव पर काले काले सफेदी लिए छोटे छोटे बाल और गर्दन पर के बाल लंबे और भूरे रंग के होते हैं। पीठ पर लंबे नुकीले काँटे होते हैं। काँटे बहुधा सीधेऔर नोकें पूँछ की भाँति फिरी रहती हैं। जब यह क्रुद्ध होता है, तब काँटे सीधे खड़े हो जाते हैं। यह अपने शत्रुओं पर अपने काँटों से आक्रमण करता है। इसका किया हुआ घाव कठिनता से आराम होता है। इन काँटों से लिखने की कलम बनाई जाती है और चूड़ाकर्म में भी कहीं कहीं इनका व्यवहार होता है। ये जंतु आपस में बहुत लड़ते हैं, इसलिये लोगों का विश्वास है कि यदि इसके दो काँटे दो आदमियों के दरवाजों पर गाड़ दिए जाएँ, तो दोनों में बहुत लड़ाई होती है। यह दिन में सोता और रात में जगता है। यह नरम पत्ती, साग, तरकारी और फल खाता है। शीतकाल में यह बेसुध पड़ा रहता हैं। यह पार्य? ऊष्ण देशों में पाय जाता है। स्पेन, सिसिली आदि प्रयद्वीपों और अफ्रीका के उत्तरी भाग, एशिया के ऊत्तर , तातार, ईरान तथा हिंदुस्तान में यह बहुत मिलता है। इसे कहीं कहीं 'सेई' और 'स्याऊ' भी कहते हैं।

सही (२)
वि० [फ़ा० शाही] दे० 'शाही'। उ०— साही हुकुम्म किज्जिय सुवेग। प० रासो, पृ०९५।

साहु
संज्ञा पुं० [सं० साधु] १. सज्जन। भला मानस। उ।— ताहि न खोजहु साहु के पूता। का पाहन पूजहु अजगूता — कबीर सा०, पृ०३९९। २. महाजन। धनी। साहुकार। चोर का उलटा। विशेष— प्रायः वणिकों के नाम के आगे यह शब्द आता है। इसको कुछ लोग भ्रम से फारसी 'शाह' का अपभ्रांश समझते हैं। पर यथार्थ में यहब संस्कृत 'साधु' का प्राकृत रुप है।

साहुन ‡
संज्ञा पुं० [सं० श्रावण, हि० सावन] दे० 'सावन' (मास)। उ०— सदा दुरैया फूले नहीं, सदा न साहुन होय। सदा नै कंसा रन चढ़ै सदा न जीवे कोय। शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ०१५३।

साहुनि पु
संज्ञा स्त्री० [हि० साहु] साहु की स्त्री। साहुआइन। उ०— साहु के माल चोर धरि साँधा। साहुनि कूदि साहु कहँ बाँधा।— संत० दरिया, पृ०,३९९।

साहुरड़ा पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० श्वसुरालय या हिं० सासुर +ड़ा (प्रत्य०)] पति का घर। ससुराल। सासुर। उ०— पेवक दै दिन चारि है साहुरड़े जाणा। अंधा लोक न जाणाई मूरखु एयाणा।— कबीर ग्रं०, पृ०३०६।

साहुल
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाकूल] दीवार की सीध नापने का एक प्रकार का यंत्र जिसका व्यवहार राज और मिस्त्री लोग मकान बनाने के समय करते हैं। विशेष—यह पत्थर की गोली के आकार का होता है और इसमें एक लंबी डोरी लगी रहती है। इसी डोरी के सहारे से इसे लटकाकर दीवार की टेढ़ाई या सिधाई नापते हैं।

साहू
संज्ञा पुं० [सं० साधु, प्रा० साहु] दे० 'साहु'।

साहूकार
संज्ञा पुं० [हि० साहु + कार (प्रत्य०)] बड़ा महाजन या व्यापारी। कोठीवाल। धनाढय।

साहुकारा (१)
संज्ञा पुं० [हि० साहूकार+आ (प्रत्य०)] १. रुपयों का लेनदेन। महाजनी। २. वह बाजार जहाँ बहुत से साहूकार या महाजन कारबार करते हों। ३. साहूकारों का मुहल्ला।

साहूकारा (२)
वि० साहूकारों का। जैसे, — साहुकारा व्यवहार या व्याज।

साहुकारी
संज्ञा स्त्री० [हि० साहुकार+ई (प्रत्य०)] १. साहूकार होने का भाव। साहूकारपन। २. साहूकार का काम। साहूकारा। महाजनी (को०)।

साहेब
संज्ञा पुं० [अ० साहिव] दे० 'साहब'।

साहैं पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० बाँह] भुजदंड। बाजू। उ०— सकल भुअन मंगल मंदिर के द्वार बिसाल सुहाई साहैं। — तुलसी (शब्द०)।

साहै (२)
अव्य० [हि० सामुहें] सामने। सम्मुख।

साह्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. संयोजन। मेल। साथ। २. सहायता। मदद [को०]।

साह्यकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] साथी [को०]।

साहृ
वि० [सं०] १. दिन से संबद्ध। दिन सहित। दिनयुक्त। २. दिन पूरा करनेवाला। दिवस समाप्त करनेवाला [को०]।

साहृ
वि० [सं०] नामवाला [को०]।

साहृय
संज्ञा पुं० [सं०] १. जानवरों की लड़ाई कराकर जुआ खेलना। २. पशुओं के लड़ाने के लिये योजित करना।