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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/खि

विक्षनरी से

खिंकिर
संज्ञा पुं० [सं० खिङ्किर] लोमड़ी [को०] ।

खिंखिर
संज्ञा पुं० [सं० खिंङ्खिर] १. लोमड़ी । २. खटिया का पावा । ३. एक प्रकार का गंधद्रव्य [को०] ।

खिंग
संज्ञा पुं० [फा़० ख़िंग] वह सफेद रंग का घोड़ा जिसके मुंह पर का पट्टा और चारों सुम गुलाबीपन लिए सफेद हों । नुकरा । उ०—हरे हरदिया हंस खिंग गर्रा फुलवारी ।— सुजान, पृ० ८ ।

खिंगरो
संज्ञा स्त्री० [देश०] मैदे की बनी हुई बहुत पतली और छोटी खस्ता पूरी या मठरी ।

खिंचना
क्रि० अ० [सं० कर्षण] १. किसी वस्तु का इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना कि वह गति के समय अपने आधार से लगी रहै । घसिटना । जैसे,—यह लकड़ी कुछ उधर खिंच गई है । २. किसी कोश, थैले आदि में से किसी वस्तु का बाहर निकलना । जैसे,—दोनों तरफ से तलवारें खिंच गई । ३. किसी वस्तु के एक या दोनों छोरों का एक या दोनों ओर बढ़ना । तनना । ४. किसी ओर बढ़ना या जाना । आकर्षित होना । प्रवृत्त होना । मुहा०—चित्त खिंचना = मन मोहित होना । ५. सोखा जाना । खपना । चुसना । जैसे,—सोखता रखते ही उसमें सारी स्याही खिंच आई । ६. भमके आदि से अर्क या शराब आदि तैयार होना । ७. किसी वस्तु के गुण या तत्व का निकल जाना । जैसे,—उसकी सारी शक्ति खिंच गई । मुहा०—पोड़ा या दर्द खिंचना = (औषध आदि से) दर्द दूर होना । जैसे,—उस लेप के लगाते ही सारा दर्द खिंच गया । ८. कलम आदि से बनकर तैयार होना । चित्रित होना । जैसे,— तसवीर खिंचना । ९. रुक रहना । रुकना । मुहा०—हाथ खिंचना = देना आदि बंद होना जैसे,—अगर उधर से हाथ खिंचे, तो तुम भी बंद कर देना । १०. माल की चलान होना । माल खपना । जैसे,—इस देश का सारा कच्चा माल विलायत को खिंचा जाता है । ११. अनुराग कम होना । उदासीन होना । १२. भाव तेज होना । महँगा होना । जैसे,—वर्षा न होने के कारण दिन पर दिन भाव खिंचता जाता हैं । संयो० क्रि०— चुकना ।—जाना ।—पड़ना ।

खिंचवा
वि० [हिं० खींचना] खींचनेवाला । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः नाव की गून अथवा खराद की बद्धी खींचनेवालों के लिये होता है ।

खिंचवाना
क्रि० स० [हिं० 'खींचना' का प्रे० रूप] खींचने की प्रेरणा देना । खींचने का काम किसी अन्य से कराना ।

खिंचाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खींचना] १. खींचने की क्रिया । २. खींचने का भाव । ३. खींचने की मजदुरी ।

खिंचाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खिंचवाना' ।

खिंचाव
संज्ञा पुं० [हिं० खिंचना] १. खींचना का भाव । तनाव । २. नाराजगी ।

खिंचावट, खिंचाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिंचना] १. खींचने का भाव । २. खीचने की क्रिया ।

खिंचिया
वि० [हिं०] दे० 'खिंचवा ।

खिंडाना पु
क्रि० स० [सं० क्षिप्त] इधर उधर फैलाना । बिखेरना । बिखराना । छितराना ।

खिंथा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्था] दे० 'कथा' । उ०—मा तिसु खिंथा नी तिसु बस्तरु । नानक जोगो होया अस्यिरु ।—प्राण०, पृ० १०९ ।

खिंवना पु
क्रि० अ० [देश०] दे० 'खिवना' । उ०—खिंवि पार पखै, झड़ धार खगै । ललकार उचार अपार लगै ।—रा० रू०, पृ० ३५ ।

खिखिंद
संज्ञा पुं० [सं० किष्किन्ध] १. दक्षिण देश के एक पहाड़ का नाम, जहाँ वनवास के समय में कुछ दिन रामचंद्र जी ने निवास किया था । यह पहाड़ मैसूर राज्य के उत्तरी भाग में है । किष्किंध पर्वत । २. बीहड़ भूमि ।

खिखि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोमड़ी [को०] ।

खिचड़वार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खिंचड़ी+ वार] मकर संक्राति । इस दिन खिचड़ी दान की जाती है ।

खिचड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कृसर] १. एक में मिलाया या मिलाकर पकाया हुआ दाल और चावल । क्रि० प्र०—उतारना ।—चढ़ाना ।—डालना ।—भूतना ।— पकाना । मुहा०—पकना पकना = गुप्त भाव से कोई सलाह होना । ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकना = सब की समति के विरुद्ध कोई कार्य होना । बहुपत के विपरीत कोई काम होना । ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाना = सब की संमति के विरुद्ध कोई कार्य करना । बहुमत के विरुद्ध कोई काम करना । खइचड़ी खाते पहुँचा उतारना = अत्यंत कोमल होना । बहुत नाजुक होना । खिचड़ी छुवाना = नववधू से पहले पहल भोजन बनवाला । २. विवाह की एक रसम जिसे 'भात' भी कहते है । मुहा०—खिचड़ी खइलाना = वह और बरातियों को (कन्या पक्ष वालों का) कच्ची रसोई खिलाना । ३. एक ही में मिले हुए दो या अधिक प्रकार के पदार्थ । जैसे,— सफेद औऱ काले बाल, या रुपए और अशरिफिआँ; अथवा जौहरियों की भाषा में एक ही में मिले हुए अनेक प्रकार के जवाहिरात । ४. मकर संक्रांति । इस दिन खिचड़ी दान की जाती है । यौ०—खिचड़ी खिचड़वार । ५. बेरी का फूल । क्रि० प्र०—आना । वह पेशगी धन जो वेश्या आदि को नाच ठीक करने के समय दिया जाता है । बयाना । साई ।

खिच़ड़ी (१)
वि० [सं० कृसर] १. मिला जुला । गड्डमड्ड । २. गड़बड़ । जैसे,—खिचड़ी बोली या भाषा ।

खिचना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खिंचना' ।

खिचरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिचड़ी] दे० 'खिचड़ी' ।

खिचरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खेचरी] दे० 'खेचरी मुद्रा' । उ०—छव चक्र औ पाँचौ मुंद्रा । खिचरी भोचरी कहि अनुकारा ।—सं०, दरिया, पृ० ९ ।

खिचवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खिंचवाना' ।

खिचाव
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खिंचाव' ।

खिजना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खींजना' ।

खिचबार पु
वि० [हिं० खीझ+ वार (प्रत्य०)] खीजनेवाला । क्षुब्ध होनेवाला । उ०—दिन भर बाट बिलोकनहारे । गए बार खिजबार सिधारे ।—हिंदी प्रेमा०, पृ० २४२ ।

खिजमत, खिजमति
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खिदमत' उ०— साखिए ऊ गट माँजिँणउ खिजमति करइ अनंत ।—ढोला०, दु० ५३५ ।

खिजमतिया
संज्ञा पुं० [हिं० खिजमत+ इया (प्रत्य०)] खिदमत- गार । सेवक । टहलुवा । उ०—पहिरि पोसाक खास खिजमतिया सँग सँग बहुत जुरे ।—सं० दरिया, पृ० १५६ ।

खिजर
संज्ञा पुं० [अ० खिजर] १. पथप्रदर्शक । मार्गदर्शक । रहनुमा । २. एक पैगंबर । वि दे० 'खिज्र' । उ०—आबे- हयात जाकै किसू ने दिया तो क्या । मानिंद खिजर जग में अकेला जिया तो क्या ।—कविता०, कौ०, भा० क० पृ० ४१ ।

खिजल पु
संज्ञा पुं० संज्ञा [अ० वजल] लज्जा । शर्मिदगी । उ०— खुरशीद खिजल होके चिपा अब्र के अंदर ।—कबीर मं० पृ० ३८९ ।

खिजलाना (१)
क्रि० अ० [हिं० खीजना] झुँझलाता । चिढ़ना ।

खिजलाना (२)
क्रि० स० [हिं० खीजना] 'खींजना' का प्रेरणार्थक रूप । दुखी करना । चिढ़ना ।

खिंजाँ
संज्ञा स्त्री० [फा० खिजाँ] १. वह ऋतु जिसमें पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं । पतझड़ की ऋतु । २. अवनति का समय ।

खिजाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खिजाना' । उ०—देखी आज तुमने मुझको बहुत किजाया, पर चतेत रखो, फिर मुझसे ऐसी बातें करोगी ।—ठेठ०, पृ० १३ ।

खिजाब
संज्ञा पुं० [अ० खीजाब] सफेद बालों को काला करने की औषध । केश कल्प । मुहा०—खिजाब करना=बालों में खिजाब लगाना ।

खिज्र
संज्ञा पुं० [अ० खिज्र] १. मार्गदर्शक । २. एक पैगंबर जौ अमर माने जाते हैं ।विशेष—इनके बारे में कहा गया है कि अमृत पीकर अमर हो गए हैं । जाल इन्हीं के अधिकार में है और ये भूले भटकों को राह बनाते हैं । ३. एक समुद्र । कैस्पियन सागर । ४. दीर्घजीवी फरिश्ता [को०] ।

खिज्रसूरत
वि० [अ० ख़िज्र+ सूरत] साधु या संत की आकृति का । साधु संतों जैसे रूपवाला [को०] ।

खिझ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खीज' । उ०—अनु न मनावन कौ करौ देतु रुठाइ रुठाइ । कौतुक लाग्यौ प्यौ प्रिया खिझ हूँ रिझवति जाइ—बिहारी (शब्द०) ।

खिझना
क्रि० अ० [सं० खिद्यते, प्रा, खिज्जइत] खीजना । उ०— सुंदर सों कितो खिझिए न तजै तउ आपने शील सुभाइन ।—सुंदर (शब्द०) ।

खिजना
क्रि० स० [सं० खिद्यते, प्रा० खिज्जत] चिढ़ाना । दिक करना । उ०—मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो ।—सूर (शब्द०) ।

खिझावना पु †
क्रि० स० [हिं०] 'खिझाना' । उ०—निपट हमारे ख्याल परे हरि बन में नितहिं खिझावत ।—सूर (शब्द०) ।

खिझुवर
वि० [हिं० खोझना] शीघ्र अप्रसन्न होनेवाला । खीझने वाला । छिढ़नेवाला ।

खिझौना †
वि० [हिं० खीझ+ औना (प्रत्य०)] खिझानेवाला । चिढ़ानेवाला ।

खिड़कना
क्रि० अ० [हिं० खिसकना] चल देना । चला जाना । खिसक जाना । उ०—क्षोभ भरी तिय को निरखि खिड़की सहचरि सोय ।—नंददास (शब्द०) ।

खिड़काना
क्रि० स० [हिं० खिसकाना] १. अलग करना । टालना । टरकाना । हटाना । २. बेच डालना । औने पोने करना ।

खिड़की
संज्ञा स्त्री० [सं० खटक्किका, देशी खडक्किआ, खडक्की] १. किसी मकान या इमारत की दीवार में प्रकाश और वायु आने के लिये बना हुआ छोटा दरवाजा । जहाज, रेल, आदि के डब्बे में बनाया हुआ वातायन । दरीचा । झरोखा । मुहा०—खिचकी निकलना या फोड़ना = खिड़की बनाना । २. नगर या किले का चोर दरवाजा । ३. खिडकी के आकार का खाली स्थान । यौ०—खिड़कीदार अँगरखा = एक प्रकार का अँगरखा जो आगे ऊपर की ओर खुला रहता है । खिड़कीदार पगड़ी=एक प्रकार की पगड़ी जिसमें ऊपर की ओर कुछ भाग खुला रहता है । खिडकीबंद मकान=वह मकान जो पूरा का पूरा एक किराए— दार द्वारा लिया गया हो ।

खिड़ना पु
क्रि० अ० [सं० खेल् प्रा० खिड्ड] खिलना । विकसित होना । उ०—सखी री आज जन्मे लीलाधारी । तिमिर भजैगी भक्ति खिड़ैगो परायन पर नारी ।—सहजो०, पृ० ५८ ।

खित पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति] पृथ्वी । धरती । उ०—घणमाल ज्युँही असुरांग घड़ा । खित आवृत मेन किसेन खड़ा ।—रा०, रू०, पृ० ३३ ।

खितवा †
संज्ञा पुं० [अ० खुतबा] दे० 'खुतबा' । उ०—अकबर साह जलालदी, खितवा वली खुदाय ।—बाकी, ग्रं० भा०२, पृ० ९६ ।

खिताब
संज्ञा पुं० [अ० खिताब] १. पदवी । उपाधि । क्रि० प्र०—दैना ।—पाना ।—मिलना । २. मुखातिब होना । किसी की ओर मुँह करके उससे बातचीत करना (को०) ।

खिताबी
वि० [अ० खिताबी] खिताब पाया हुआ । जिसे पदवी मिली हो ।

खित्ता
संज्ञा पुं० [अ० खितह्] प्रांत । देश । इलाका ।

खिदमत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिद् मत] सेवा । टहल । सुश्रूषा ।

खिदमतगार
संज्ञा पुं० [फा० खिद्मतगार] खिदमत करनेवाला । सेवक । टहलुवा ।

खिदमतगारी
संज्ञा स्त्री० [फा० खिद्मतगारी] सेवा । टहल ।

खिदमती
वि० [अ० खिद्मती] १.खिदमत करनेवाला । जो खूब सेवा करे । २. सेवा संबंधी, अथवा जो सेवा के बदले में प्राप्त हुआ हो । जैसे —खिदमती माफी, खिदमती जागीर ।

खिदर पु †
संज्ञा पुं० [सं० खदिर] दे० 'खदिर' । उ० —कुतक खिदर धव काठरा, विदर प जाबण वेस । बांकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ९६ ।

खिदिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । हिमांशू । २. तपस्वी । तपसी । ३. दीन । ४. इंद्र [को०] ।

खिद्यमान
वि० [सं०] [वि० स्त्री० खिद्यमाना ] खेदयुक्त । दुःखित । उ०— आते ही वे निपतित हुई छिन्नमूला लता सी पाँवों के संनिकट पति के हो महा खिद्यमाना । —प्रिय०, पृ० ७३ ।

खिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याधि । रोग । २. दरिद्रता ।

खिन (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० खण] क्षण । लमहा । उ०—एकै खिन खिन साँझ पावैं पद साहिबी को एक खिन खिन माह होत लटपट हैं । —ठाकुर०, पृ०... । मुहा० —खिनखिन = प्रतिक्षण । हरदम ।

खिन (२)
वि० [सं० क्षीण, प्रा० क्षीण] क्षीण । खिन्न । दुर्बल । उ०— उष्णकाल अरु देह खिन, मगपंथी, तन ऊख । चातक बतिया ना रुचीं अन जल सीचें रूख । —तुलसी ग्रं०, पृ० १०८ ।

खिनु पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] दे० 'खिन' । उ०—मेलेसि चंदन मकु खिनु जागा । अधिकौ सूत सियर तन लागा ।—जायसी ग्रं०, पृ० २५२ ।

खिन्न
वि० [सं०] १. उदासीन । चिंतित । २. अप्रसन्न । नाराज । ३. दीन हीन । असहाय । उ०—गिरा अरथ जल बीचि सम, देखिअत भिन्न न भिन्न । बंदौ सीताराम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न । —मानस, १ ।१८ ।

खिपना पु
क्रि० अ० [सं० खिप्] १. खपना । २. मिल जुल जाना । तल्लीन होना । निमग्न होना । उ०—मदन महीपति के सदन समीप सदा दीपक ह्वै दूनी दिन दीपति से दिपि रहै । सरस सुजान के परस रस जानि जानु जघत नितंब तीन्यो खेलही में खिपि रहे । —देव (शब्द०) ।

खिपाना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खपाना' उ०—आगे लख दल किते भारि हरि असुर खिपाप् । —ह० राओ, पृ० १०५ ।

खिफ्फत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिफ्फत] १. न्यूनता । कमी । २. लाज । शर्म । संकोच । ३. पछतावा । पश्चाताप [को०] ।

खियानत
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'खयानत' ।

खियाना (१) †
क्रि० अ० [सं० खय या हिं० खाना ] रगड से या काम में आते आते कम हो जाना । घिस जाना । उ०—घास भुसा कहुँ ध्यान लगावहि दाँत खियाने चरते । —सं० दरिया पृ० १३५ ।

खियाना (२) †
क्रि० स० [हिं० खाना] भोजन कराना । खिलाना । उ०—भोग भुगुति बहु भौति उपाई । सबहिं खियावइ आपु न खाई । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ११३ ।

खियाबाँ
संज्ञा पुं० [फा० खियाबाँ ] १. उद्यान । बाग । २. फुल पत्ती लगाने की क्यारी ।

खियार
संज्ञा पुं० [अ० खियार ] एक प्रसिद्ध फल । खीरा [को०] ।

खियाल
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'ख्याल' ।

खिर
संज्ञा स्त्री० [देश०] जोलाहों की ढरकी जिसमें बाने का सून रहता है और जो बुनते समय एक ओर से दूसरी ओर चलाई जाती है । इसे 'नार' भी कहते हैं ।

खिरक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] गाय भैंस आदि रखने का बाडा । गोशाला । उ०—मंदिर ते ऊँचे यह मंदिर हैं द्वारिका के ब्रज के खिरक मेरे हिय खरकत हैं । —रसखान ०, पृ० २७ ।

खिरका
संज्ञा पुं० [अ० खिरकह्] गुदडी । कंथा [को०] ।

खिरकी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'खिडकी' । उ०—सेज ते बाल उठी हुरुए हरुए पट खोल दिए खिरकी के ।—मति० ग्रं०, पृ० ३०८ ।

खिरचा †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'खरका' ।

खिरडरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खैर + डली] सुगंधित मसाले मिलाकर बनाई हुई खैर की गांली ।

खिरद
संज्ञा स्त्री० [फा० खिरद] मेधा । बुद्धि । अक्ल । यौ० —खिरदमंद = बुद्धिमाल । मेधावी । उ०—ऐ खिर मेदो मुबारक नौ तुम्हे फजीनगी, हम हो औ सहारा हो औ बहशत हो औ दीवानगि । —कविता कौ०, भ० ४ पृ० ४३ ।

खिरना पु
क्रि० अ० [सं० क्षरण ] १. नष्ट होना । मिटना । उ०—जे अक्खर खिरि जाहिगे ओहि अक्खर इन महिं नाहि । —कबीर ग्रं०, पृ० ३१० । २. गिरना । चुना । बिखरना । झरना । उ०—(क) मेहाँ बूँठा अन बहल थल तादा जल रेस । करसण पाका, कण खिरा, तद कउ वलण करेस । —ढोला०, दू० २६४ । (ख) केहर कुंभ बिदारियौ गज मोती खिरियाह ।—बांकी० ग्रं०, भ० १. पृ० १८ ।

खिरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीरिणी ] १. एक प्रकार का ऊँचा और छतनार सदाबहार पेड जिसके हीर की लकडो लाल रंग की चिकनी, कडी और बहुत मजबूत होती है और कोल्हू बनाने तथा इमारत के काम आती है । यह बडी सरलता से खरादी भी जा सकती है । २. इस वृक्ष का फल जो निमकोड़ी के आकार का, दूधिया और बहुत मीठा हौता है और गरमी के दिनों में पकता है । ३. एक प्रकार का चावल । उ०—खरी (खिरनी) नामक विशेष चावल का मूल्य २०० दीनार से ३६ दीनार हो गया । — आदि०, पृ० ४९९ ।

खिरमन
संज्ञा पुं० [फा० खिरमन] खलिहान । ढेर । उ०— भाव सस्ता हो या महँगा नहीं मौकूफ गल्ले पर । य सब खिरमन उसी के हैं खुदा है जिसके पल्ले पर :— कविता कौ०, भा० ४. पृ० २५ ।

खिराज
संज्ञा पुं० [अ० खिराज] राजस्व । कर । मालगुजारी । उ०— पात न कँपावै लेत पराग खिराज, आवत गुमान भरयो समीरन राज ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६८७ । क्रि० प्र० —लगाना ।— बढाना ।— चढाना ।— देना ।— लेना ।

खिराम
संज्ञा पुं० [फा० खिराम] मस्त चाल । धीमी चाल ।

खिरामाँ
वि० [फा० खिरामाँ ] खिरामवाले । मस्ती की चालवाले । उ— अगो चलते थे यूसुफ शाद फरहाँ । खुशी करते हुए हँसते खिरामाँ ।— दक्खिनी०, पृ०३३८ ।

खिरिरना †
क्रि० वि० [अनु०] १. सींक के छाज में रखकर अनाज को छानना जिसमें खराब दाने नीचे गिर पडें । २. खुरचना । खरोचना । उ०— सोई रघुनाथ कपि साथ पाथनाथ बाँधि आयो, नाथ भागे ते खिरिरि खेह खाहिगो । तिलसी गरब तजि मिलिबे को साज सजि, देही सिय ना तो पिय पायमाल जाहिगो । — तुलसी (शब्द०) ।

खिरैंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० खरयष्टिका ] बला । बरियारा । बीजबंद ।

खिरौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खैर = कत्था + औरा (प्रत्य०) ] कत्थे की टिकिया । उ०—पुहुप पंक रस अमृत साँधे । कोइ यह सुरँग खिरौरा बाँधै । — जायसी (शब्द०) ।

खिलंदरा †
वि० [सं० खेल ] खिलाडी । खिलनेवाला ।

खिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊसर धरती । रेतीली भूमि । २. रिक्त स्थान । खाली जगह । ३. परिशिष्ट । ४. संकलन । ५. शून्यता । खालोपन । ६. शेष भाग । शेषांश । ब्रह्मा । ८. बिष्णु (को०) ।

खिलअत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलअत] वह वस्त्र आदि जो किसी बडे राजा या बादशाह की ओर से संमानसूचनार्थ किसी को दिया जाता है । क्रि० प्र० — देना ।— पाना ।— बखशना ।— मिलना ।— *लेना ।

खिलकत
संज्ञा स्त्री० [ अ० खिलकत] १. सृष्टि । संसार । उ०— बंदे खुदा की रीत क्या खिलकत फना खौवे खुदी ।— तुलसी श०; पृ० २४ ।२. बहुत से लागों का समुह । भीड ।

खिलकौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेल + कौरी (प्रत्य०) ] खेल । खिलवाड । उ०— बालकहू लगि लेयँ संग करि प्रिय खिलकौ- रिन ।—श्रीधर (शब्द०) ।

खिलखाना पु
संज्ञा पुं० [ अ० खिल = यार, आत्मीय + फा०खानह = घर ] पसारा । कुटुंब । उ०— दोस्त दिल तूँ ही मेरे किसका खिलखाना । नुरचश्म जिंद मेरे तूँ ही रहमाना । — दादू०, पृ० ६०४ ।

खिलखिलाना
क्रि० अ० [अनु०] खिलखिल शब्द करके हँसना । जोर से हँसना । अट्ठहास करना ।

खिलखिलाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] खिलखिलाकर हँसने का भाव ।

खिलजी
संज्ञा पुं० [देश०] १. अफगानिस्तान की सरहद पर रहनेवाली पठानों की एक जाति । २. भारतीय इतिहास का पठान राजवंश । विशेष—अलाउद्दीन इस वंश का बडा प्रसिद्ध सम्राट् हुआ है । इस वंश का राज्य भारत में सन् १२८८ ई० से सन् १३२१ ई० तक रहा ।

खिलत, खिलती †
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलअत] दे० 'खिलप्रत' । उ०— खिलत मिलति तिनकों नरपति सों । जिमि वर देत अमर वर रति सों । — गोपाल (शब्द०) ।

खिलना
क्रि० वि० [सं० स्खल ] १. कली के दल अलग अलग होना । कली से फूल होना । विकसित होना । २. प्रसन्न होना । प्रमुदित होना । ४. शोभित होना । उपयुक्त होना । ठीक या उचित जँचना । जैसे — यह गमला यहाँ पर खूब खिलता है । ४. बीच से फट जाना । जैसे, — दिवार का खिल जाना । ५. अलग अलग हो जाना । जैसे, — चावल खिलना । संयो० क्रि० —उठना ।— जाना ।उ०— हुस्नआरा खिली जाती थीं । —फिसाना०, भा० ३, पृ० २८३ । — पडना ।

खिलवत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलवत] जहाँ कोई न हो । एकांत । शून्य स्थान । यौ० —खिलवतखाना ।

खिलवतखाना
संज्ञा पुं० [फा० खिलवतखानह्] वह स्थान जहाँ कोई गुप्त मंत्रणा या विवाद हो । एकांत स्थान । उ०— *खडजी खजाने खरगोस खिलवतखाने खीसे खोले खसराने खाँसत खबीस हैं । — भूषण (शब्द०) ।

खिलवति
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलवत] दे० 'खिलवत' ।

खिलवती
संज्ञा पुं० [अ० खिलवत] मुसाहब । पारिषद । उ०— निज खिलवतिन में हास है, भय रुप दुर्जन पास है । पद्माकर ग्रं० पृ० ६ ।

खिलवाड
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खेलवाड' ।

खिलवाडिन
वि० स्त्री० [हिं० खोलवाड] क्रीडा करनेवाली । उ०— मित्र, खिलवाडिन मैना क्या कहती है, सुनो । — भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४०२ ।

खिलवाना (१)
क्रि० स० [ हिं० खाना का प्रे० रुप] किसी को दुसरे से भोजन कराना ।

खिलवाना (२)
क्रि० स० [हिं० खिलना का प्रे० रुप] विकसीत कराना । प्रकुल्लित कराना ।

खिलवाना (३)
क्रि० स० [हिं० खिल] खिलें बनवाना । जैसे,— भडभूँजे के यहाँ से धान अच्छी तरह खिलवा लेना ।

खिलवाना (४)
क्रि० स० [हिं० 'खीलना' का प्रे० रुप ] खोले लगवाना । खील या तिनके गोदकर दोने आदि का मुँह बंद करवाना ।

खिलवाना (५)
क्रि० स० [ हि० खेल] दे० 'खेलवाना' ।

खिलवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'खेलवाना' ।

खिलाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाना ] १. भोजन की क्रिया । खाने का काम । २. खिलाने का काम । यौ०—खिलाई पिलाई = (१) खाना पीना । (२) खिलाना पिलाना ।

खिलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेलाना (खेल) ] वह दाई या मजदूरनी जो बच्चों को खेलाती हो । यौ०— दाई खिलाई ।

खिलाड (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खिलाडी' ।

खिलाड (२)
वि० स्त्री० बदचलन । पुश्चली ।

खिलाडिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेल + आडी (प्रत्य०)] १. चुलबुली । नटखट । २. पुंश्चली । व्यभिचारिणी ।

खिलाडी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खेल + आडीं (प्रत्य०) ] [स्त्री० खिलाडिन] १. खेल करनेवाला । खेलनेवाला । २. कुश्ती लडने, पटा बनेठी खेलने या इसी प्रकार के और काम करनेवाला । ३. जादूगर । बाजीगर ।

खिलाडी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बैलों की एक जाति जो खानदेश, मैसूर और हैदराबाद के पहाडी भागों में होती है ।

खिलाना (१)
क्रि० स० [हिं० खेलना] किसी को खेल में नियोजित करना । खेल कराना ।

खिलाना (२)
क्रि० स० [हिं० खाना ] 'खाना' का प्रेरणार्थक रुप । भोजन कराना । यौ०—खिलाना पिलाना = भोजन कराना ।

खिलाना (३)
क्रि० स० [हिं० खिलना ] विकसित करना । फुलाना ।

खिलाफ (१)
संज्ञा पुं० [अ० खिलाफ] वेत्र । वेत का वृक्ष [को०] ।

खिलाफ (२)
वि० जो अनुकुल न हो । विरुद्ध । उलटा । यौ०—खिलाफकानुन = अवैध । विधिविरुद्ध । खिलाफबयानी = झुठ कहना । गलत बयान देना । खिलाफमरजी = इच्छा के प्रतिकूल । खिलाफवरजी = अवज्ञा । अवमानना ।

खिलाफत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलाफत] १. प्रतिनिधित्व । स्थानाप- न्नता । २. खलीफा का पद । ३. मुहम्मद साहब के बाद उनका प्रतिनिधित्व । ४.विरोध । यौ०—खिलाफत आंदोलन = सन् १९१८-२१ के बीच भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध छेडा गया एक आंदोलन जो खलीफा की गद्दीनशीनी के प्रश्न पर हुआ था ।

खिलार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खिलाड' । उ— उन पीतम सों यौं जा कहियो तुम बिन ब्याकुल नार । 'हरीचंद' क्यों सुरति बिसारी तुम तो चतुर निलार । — भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४८ ।

खिलारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खील = भुना हुआ दाना ] धनिया और खरबूजे, ककडी आदि के भुने हुए बिज जो भोजनोपरांत खाए जाते हैं ।

खिलाल (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० खिलाल] १. (ताश आदि के खेल में) पूरी बाजी की हार । दे० 'खलाल' ।२. मध्य । बीच । अंतर (को०) । ३. दाँत खोदने का तिनका । खरका (को०) ।

खिलौना
संज्ञा पुं० [हिं० खेल + औना (प्रत्य०) ] काठ, मोम, मिट्टी, कपडे आदि की बनी हुई मूर्ति या इसी प्रकार की और कोई चीज जिससे बालक खेलते हैं । मुहा०—हाथ का खिलौना = आमोद प्रमोद की वस्तु । वह व्यक्ति जिसमे मन बहले । प्रिय व्यक्ति । जैसे, — अपने गुणों कि बदौलत यह अमीरों के हाथ खिलौना बना रहता है ।

खिल्त (१)
संज्ञा पुं० [अ० खिल्तह्] मिश्रण । मिलावट । यौ०—खिल्तमिल्त = मिला हुआ । एकाकार ।

खिल्त (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० खिल्त] बात, पित, कफ आदि रस या धातु । यूनानी मत से शरीर की चार धातुओं में से कोई एक धातु (को०) ।

खिल्य (१)
वि० [सं०] खिल अर्थात् परिशिष्ट या पूरक अंश में कथित ।

खिल्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुस्थल । रेगिस्तान । २. सामान्य भूमि के बीच कोई चट्टन । ३. खारी नमक [को०] ।

खिल्ला
वि० [सं० खिल] परनी । खाली । इना जोते बोए हुए । उ०— कोई किसान यदि नजराना देता तो वो खेत उसके नाम दर्ज हो जाते, नहीं तो खिल्ले पडे रहते ।—फूलौ०, पृ० ८० ।

खिल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिलना] हँसी । हास्य । दिलागी । मजाक । क्रि० प्र०—उडाना ।—करना । यौ०—खिल्लीबाज = दिल्लगीबाज । खिल्लीबाजी = दिल्लगी- बाजी । विनोद ।

खिल्ली (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गिलौरी] पान का बीडा । गिलौरी ।

खिल्ली (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खील ] कील । काँटा ।

खिल्लो
वि० स्त्री० [हिं० खिलना = प्रसन्न होना ] बहुत अधिक हँसनेवाली (स्त्री) ।

खिवना पु
क्रि० अ० [क्षिप० प्रा० खिवण ] चमकना । उ०— (क) च्यारह पासइ घण घणउ बीजलि खिवइ अगास । हरियाली रुति तउ भलई घर संपति पिउ पास । — ढोला० । दू० २६० । (ख) बिरहा रवि सों घट व्योम तच्यौ बिजुरी सी खिवैं इक लौ छतियाँ । — घनानंद०, पृ० ८८ ।

खिवाही
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की इँट ।

खिश्त
संज्ञा स्त्री० [फा० खिश्त] १. छोटा नेजा । शक्ति । २. इस्टका । इँट [को०] ।

खिश्तक
संज्ञा स्त्री० [फा० खिश्तक] १. कपडे का वह टुकडा जो कुतें में बगल के नीचे लगाया जाता है । चौबगला । २. खौगी इँट । छोटी इँट [को०] ।

खिसकना
क्रि० अ० [हिं० या अनु०] दे० 'खसकना' । उ०— *भूलति नाहि, भुलाए भटू सुधि सों सुधि जात सबै खिसकी सी ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

खिसकाना
क्रि० स० [हिं० ] दे० 'खसकाना' ।

खिसना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खसना' । उ०—लोभी ठाकुर आवि घरि काँई करइ बेदेसि । दिन दिन जोवण तन खिसइ लाभ किसा कइ लेसि । — ढोला०, दू० १७७ ।

खिसलन †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'फिसलन' ।

खिसलना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'फिसलन' । उ०— बार बार ऊँचो करुँ खिसलि खिसलि यह जात । मुरवी हू की गूँथि दै नैक नहीं ठैरात । — शकुंतला, पृ० ५१ ।

खिसलाना
क्रि० स० [हिं०] खिसलना का प्रेरणा० रुप ।

खिसलाव †
संज्ञा पुं० [हिं० खिसलना या फिसल ना ] १. फिसलने या खिसलने का भाव । २. फिसलने या खिसलने की जगह ।

खिसलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिसलना या फिसलना] फिसलने या खिसलने का भाव ।

खिसाना †पु
क्रि० अ० [हिं० ] दे० 'खिसियाना' । उ०— (क) दुरि गए कीर कपोत मधुप पिक सारंग सुधि बिसरी । उड- पति विद्रुम बिंब खिसान्यो दामिनि अधिक डरी । — सूर (शब्द०) । (ख) करैह उपाय पात लता भूमि गाडै पाइ, रहे वे खिसाइ कहयौ इतनोइ लीजिए । — प्रिया० (शब्द०) । (ख) तिन मधि कौ रानौ । हो रानो पै निपट खिसानौ ।— नद० ग्रं० पृ० ३०९ ।

खिसाना (२)पु
क्रि० स० [हिं० खिसकाना ] १. सरकाना । हटाना । उ०— तो मो चरण खिसावै ताराँ सो वारै ते दीधी सीता ।—रघु० रु०, पृ० १८० ।२. हटाना । भगाना । उ०— ख्वाजे मीराँ पीर खेत अजमेरि खिसाए । — ह० रासी, पृ० ७३ ।

खिसारा
संज्ञा पुं० [फा०] घाटा । नुकसान । हानि । क्रि० प्र० — उठाना । — पडना ।— सहना ।

खिसारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खेसारी' ।

खिसिआनपन
संज्ञा पुं० [हिं० खिसिआना + पन] खिसियाना का भाव । खिसिआहट ।

खिसिआना (१)
क्रि० अ० [हिं० खिस = दाँत] १. लजाना । लच्चित होना । शरमाना । उ०— लाज लए प्रभु आवत नाहीं ह्वै जो रहै खिसिआने । — सूर (शब्द०) । २. खफा होना । क्रुद्ध होना । रिसिआना ।

खिसिआना (२)
वि० लज्जित । शरमिंदा । जैसे, — यह सुनकर वे तो खिसिआने से हो गए ।

खिसिआहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिसिआना +हट (प्रत्य०) ] खिसि- आना का भाव । खिसिआनपन ।

खिसियाना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खिसिआना' । क्रुद्ध होना । उ०— यासौं हमरौ कछु न बसाइ । यह कहि असुर रहयौ खिसियाइ । —सूर०, ७ ।७ ।

खिसी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिसिआना ] १. लज्जा । शरम । उ०— (क) सब सिथिल तन मुकुलित बिलोचन पुलक मुख शशि में खिसी । इमि निखिल निधुबन की कला पिय को हँसी तिय को खिसी । —गुमान (शब्द०) । (ख) खिसी दलेल खान उर छाई । याद अनूप अरथ की आई । — लाल (शब्द०) । २, ढिठाई । धृष्टता । उ०— दुरै न निघरघटौ दिए, ए रावरीकुचाल । बिख सि लागति है बुरी, हँसी खिसी की लाल ।— बिहारी (शब्द०) ।

खिसौंहाँ पु
वि० [हिं० खिस + औहाँ (प्रत्य०) ] खिसिआया हुआ । लज्जित और संकुचित । उ०— गहकि गाँसु औरे गहै रहे अधकहे बैन । देखि खिसों हैं पियनयन किए रिसौंहैं नैन ।— बिहारी (शब्द०) ।

खीँच
संज्ञा स्त्री० [हिं० खींचना ] खीचना का भाव ।

खीँचतान
संज्ञा स्त्री० [हिं० खींच + तान] १. किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये दो व्यक्तियों का एक दूसरे के विरुद्ध उद्योग । खींचा- खींची । २. क्लिष्ट कल्पना द्वारा किसी शब्द या बाक्य आदि का अन्यथा अर्थ करना ।

खिंचना
क्रि० स० [सं० कर्षण प्रा० कड्ढ ण, देशी र्खचण, प्रे० खिंचवाना] १. किसी वस्तु को इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर करना कि वह गति के समय अपने आधार से लगी रहे । घसीटना । जैसे— (क) चारपाई इधर खींच लाओ ।(ख) घडे में हाथ डालकर उस चीज को खींच लो । २. किसी कोश, थैले आदि में से किसी वस्तु को बाहर निकालना । जैसे, — म्यान से तलवार खींचना । ३. किसी ऐसी वस्तु को छोर या बीच से पकडकर अपनी ओर बढाना जिसका दूसरा छोर दूसरी ओर अथवा नीचे या ऊपर हो । ऐंचना । जैसे, पंखे या खिड़की की डोरी खींचना । कुएँ से पानी खींचना । जैसे—रस्सी को बहुत मत खींचो, टूट जायगी । ४. आकर्षित करना । बलपूर्वक किसी और और ले जाना । किसी ओर बढाना । किसी ओर प्रवृत्त करना । मुहा०—चित्त खींचना = मन को मोहित करना । ५. सोखना । चूसना । जैसे — (क) मैदा बहुत घी खींचता है । (ख) अभी सोखता रख दो सब स्याही खींच ले । ५. भभके से अकँ, शराब आदि टपकाना । अर्क चुआना । ७. किसी वस्तु के गुण या तत्व को निकाल लेना । जैसे — इस कपडे ने फूल की सारी सुगंध खींच ली । मुहा०—पीडा या दर्द खींचना = औषध आदि का दर्द दूर करना । जैसे— यह लेप सब दर्द खींच लेंगा । ८. कलम फेरकर लकीर आदि डालना लिखना । चित्रित करना । जैसे— तसबिर खिंचना । यौ०—खींच खाँचकर = झटपट टेढा सीधा लिखकर । जैसे — एक चिट्टी में घंटा भर लगा दिया खींच खाचकर किनारे करो । ९. रोंक रखना । जैसे— जितना वाजबी देना है, उसमें से भी वह कुछ खींच रखना चाहता है । मुहा० —हाथ खिंचना = देना या और कोई काम बंद करना । जैसे—(क) उसने एकदम अपना हाथ खींच लिया है; एक पैसा भी नहीं देता । (ख) हम अपना हाथ खींच लेते हैं, तुम अकेले सब काम करो । १०. माल की चलान लेना । व्यापार का माल मँगाना । जेसे— आजकल कलकत्ता बहुत अनाज खींच रहा है । संयो० क्रि० — डालना ।— *रखना ।— लेना ।

खीँ चाखौंची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खीचतान' ।

खींचातान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खींचतान' । उ०— जम द्वारे पर दूत सब, करते खींचातान । तिन ते कबहुँ न छूटता, फिरता चारो खान ।—कबीर सा०, पृ० ७ ।

खींचातानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खींचतान' ।

खीखर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बनबिलाव जिसे कटास भी कहते हैं ।

खीच पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खिचडी' उ०— करमाँबाई खीच पवायो उध परभात सबारे । शुचि संजम किरिया नहिं देखी प्रेम भक्ति के प्यारे । — राम० धर्म०, पृ० ५ ।

खीज
संज्ञा स्त्री० [हिं० खीजना] १. खीजने का भाव । झुँझलाहट । उ०— रिझ खीज मौज फौज दान औ कृपान ऊँचे जगत बखाने दोऊ हाथ गोपीनाथ के । — मतिराम (शब्द०) । २. चिढाने का शब्द या बाक्य । बह बात जिससे कोई चिढे । मुहा० — खीज निकालना = किसी को चिढाने के लिये कोई नई बात निकालना ।

खीजना
क्रि० अ० [सं० खिद्यते, प्रा० खिज्जइ ] दुखी और क्रृद्ध होना । झुँझलाना । खिजलाना ।

खीझ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खीज' । उ०— खीझहू में रीझिबे की बानि राम रीझत हैं, रीझे हवैहैं राम दोहाई रघुराय जू । — तुलसी (शब्द०) ।

खीज्ञना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खोजना' । उ०— दीन के दयाल की अनूठी यह चाल आली, खीझत है मान गरै रोझत नवनि पै ।— दिनदयालु (?शब्द०) ।

खोण पु
वि० [सं० क्षिण, प्र० खीण] दे० 'क्षीण' । उ०— हुए हिंदु बलहीण, धरा पण खीण सुरां ध्रम । मिठे वेद मरजाद, भेद गुण आदि पडे भ्रम । — रा० रु०, पृ० २२ ।

खीन पु †
वि० [सं० क्षीण ] [वि० स्त्री० खीनो] क्षीण । उ०— दीन मुहम्मद को करि खीन मलीन करौं मुख की छवि बाढी । — हम्मीर०, पृ १९ । उ० —बसा लंक बरनै जगा झीनी । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९७ ।

खीनता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीणता ] क्षीणता । कृशता ।

खीनताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खीनता + ई (प्रत्य०)] दे० खीनता ।

खीनि पु
विं० [हिं०] दे० 'क्षीण' । उ०— *भै ससि खीनि गहन । असि गही । बिधुरे नखत सेज भरि रही । — जायसी ग्रं० (गुप्त) , पृ० ३३९ ।

खीप
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का घना सीधा पेड । उ०— खीप पिंडारु कोमल भिंडी । — सूर (शब्द०) । विशेष—यह सिंध, पंजाब, राजपूत और अफगानिस्तान की पथरीली और बलुई जमीन में होता है । इसकी पत्तियाँ छोटी और लंबोतरी होती हैं और ईसमें जाडे के दिनों में छोटे लंबे फूल निकलते हैं । इसकी पत्तियां और टहूनियां शीतल होती हैं और राजपूताने में चारे के काम में आती हैं । पंजाब में इसके रेशे से रस्सियाँ बनाई जाती हैं । २. लज्जालु । लजाधुर । ३. गंधप्रसारिणी । गंधपसारा ।

खीपट पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षिप्त] बावला । पागल । उ०— ऊ दिन खीपट दूर गए अब सो दंड एकासी । — भारतेंदु ग्रं०, भा० १., पृ० ३३२ ।

खीमा
संज्ञा पुं० [हिं० खेमा ] दे० 'खेमा' ।

खीर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीर] दूध में पकाया हुआ चावल । विशेष — लोग प्रायः तीखुर, घीया (लौआ) या इसी प्रकार के और पदार्थ भी दूध में पकाते हैं, जिसे खीर कहते हैं । मुहा०—संज्ञा खीर चटाना = बच्चे को पहले पहुल अन्न खिलाना । अन्नप्राशन नामक संस्कार ।

खीर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीर ] दूध । उ०— (क) भरत बिनय सुनि सबहि प्रसंसी । खीर नीर बिबरन गति हँसी । — मानस, २ ।३१३ । (ख) खीर खडानन को मद केशव सो पल में करि पान लियोई — केशव (शब्द०) ।

खीरचटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खीर + चटाना] बच्चे को पहले- पहल अन्न खिलाने का संस्कार । अन्नप्राशन ।

खीरमोहन
संज्ञा पुं० [हिं० खीर + मोहन] छेने की बनी हुई एक प्रकार की बँगला मिठाई ।

खीरा
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरक] बरसात में होनेवाला ककडी की जाति का एक फल । विशेष—यह कुछ मोटा और एक बालिश्त तक लंबा होता है । इसकी तरकारी भी बनती है; परंतु अधिकतर लोग इसे नमक मिर्च के साथ कच्चा ही खाते हैं । इसके बीज दवा के काम में आते हैं । फल तथा बीजों कि तासीर ठंढी है । मुहा०— खीरा ककडी = अत्यंत तुच्छ वस्तु । गाजर मूली ।

खीरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीर ] चौपायों के थन के ऊपर का वह मांस जिसमें दुध बनता और रहता है । बाख ।

खीरी (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीरिणी] खिरनी नाम का फल । उ०— कोइ दारिउँ, कोइ दाख औ खीरी । कोई सदाफर तुरँग गँभीरी । — जायसी (शब्द०) ।

खीरोदक पु
संज्ञा पुं० [सं० खीरोदक ] दे० 'क्षीरोदक' । उ०— कहा भयो मेरो गृह माटी को । नवतन खीरोदक युवती पै भूषन हुतै न कहुँ माटी कौ । — सूर (शब्द०) ।

खील (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिलना ] भूना हूआ धान । लावा ।

खील (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कील] १. कील । काँटा । मेख । २. लौंग नाम का जेवर जिसे स्त्रीयाँ नाक में पहनती हैं । ३. मांसकील ।

खील (३) †
संज्ञा स्त्री० [देश०] भूमि जो बहुत दिनों तक परती पडी रहने के उपरांत पहले पहल जोती कई हो । नौतोड ।

खीलना
क्रि० स० [हिं० खील] तिनके गोदकर पत्ते के दोने आदि का मुँह बंद करना । खील लगाना ।

खीला †
संज्ञा पुं० [हिं० कील] काँटा । मेख । कील । उ०— दादू खीला गाडि का निहचल थिर न रहाइ । दादू पग नहिं साँच के भरमइ दह दिसि जाइ । — दादू (शब्द०) ।

खीली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खील] पान का बीडा । खिल्ली ।

खील्यौरी पु
संज्ञा पुं० [देश०] गडेरिया । उ०— ढोला, खील्यौरी कहइ सुँण कुढंगा वैणो । मारू म्हाँजी गोठणी सैं मारूदा सैण ।—ढोला०, दू० ४३८ ।

खीवन
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीबन] मतवालापन । मस्ती ।

खीवनि
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीबन] दे० 'खीवन' । उ०—मेरे माई स्याम मनोहर जीवनि । निरखि नयन भूले ते बदन छबि मधुर हँसनि पै खीवनि ।—सूर (शब्द०) ।

खीवर पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीब = मस्त] शूर । वीर । सुभट । बहादुर ।—(डिं०) ।

खीश
संज्ञा पुं० [फा० खेश] आत्मीय । स्वजन । उ०—सबी खीश बेगाना हमले खफा । जो थे बावफा हो गए बेवफा ।— दक्खिनी०, पृ० २११ ।

खीस (१)पु
वि० [सं० किष्क = वध, नाश] नष्ट । बरबाद ।— सती मरनु सुनि संमुगन, लगे करन मख खीस ।—मानस, १ ।६४ । मुहा०—खीस जाना = नष्ट होना । उ०—कान्ह कृपाल बडे नतयाल गए खल खेचर खीस खलाई ।—तुलसी (शब्द०) । खीस डालना = नष्ट करना । उ०—काहे को निगुँण ज्ञान गनत हौ जित तित डारत खीस ।—सूर (शब्द०) ।

खीस (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खीज] १. अप्रसन्नता । नाराजगी । २. क्रोध । रोष । गुस्सा ।

खीस (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खिसिआना] 'खिसिआना' का भाव । लज्जा । शरम । क्रि० प्र०—मिटाना ।

खीस (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० कीश = बंदर] ओंठ से बाहर निकले हुए दाँत । मुहा०—खीस काढना, खीस निकालना, खीस निपोरना = (१) बेढंग तौर से हँसना । (२) दीन होकर कुछ माँगना । (३) मर जाना ।

खीस (५)
संज्ञा स्त्री० [फा० खिसारह, खसारह्] घाटा । हानि । क्रि० प्र०-उठाना ।—पडना ।

खीस (६)
संज्ञा स्त्री० [देश०] गाय का वह दूध जो ब्याने के पीछे सात दिन तक निकलता है । पेउस ।

खीसा (१)
संज्ञा पुं० [फा० कीसह्] [स्त्री० अल्पा० खीसी] १. थैला । थैली । २. जेब । पाकेट । खलीता । ३. एक प्रकार की कपडे की थैली जिसे हाथ में पहनकर लोग बदन साफ करते हैं । क्रि० प्र०-करना = खीसे से शरीर मलना ।

खीसा †
संज्ञा पुं० [हिं० खीस] ओंठ के बाहर निकले हुए दाँत ।

खीहा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का पक्षी । उ०—पिउ पिउ लागै करै पपीहा । तुही तुही करू गुडुरू खीहा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २९ ।

खुँखणी
संज्ञा स्त्री० [सं० खुङ्खणी] वीणा का एक भेद [को०] ।

खुँगाह
संज्ञा पुं० [सं० खुङ्गाह] काले रंग का घोंडा [को०] ।

खुँटकढवा
संज्ञा पुं० [हिं० खूँट + काढना] कान की मैल निका- लनेवाला । कनमैलिया ।

खुँटफारी †
वि० [हिं० खूँटा + फाडना] बहुत दुष्ट या पाजी । शरारती (बालक) ।

खुँटिला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खुटिला' । उ०—मनि कुंडल खुँटिला औ खूँटी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३२३ ।

खुँटैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० खूँटी] एक प्रकार की दूब या घास जिसे चट्टू भी कहते हैं ।

खुँड
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार की मोटी घास । विशेष-यह काली मिट्टी की भूमि में अधिकता से होती है । यह एक गज तक ऊँची होती है और इसका डंठल बहुत मोटा होता है । सूखने पर तो कभी नहीं, पर हरी रहने पर कभी कभी पशु इसे खा लेते हैं । इसे गुंड या गूनर भी कहते हैं । २. एक प्रकार का पहाडी टट्टु जिसे गूँठ या गुंठा भी कहते हैं ।

खुँडला
संज्ञा पुं० [सं० खण्डल] टुटा फूटा घर । छोटा झोग्डा ।

खुँदवाना
क्रि० स० [सं० क्षुण्णन] कुचलवाना । दबवाना । रौंदवाना ।

खुँदाना
क्रि० स० [सं० खुर्द] (घोडा) कुदना ।

खुँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खूँद' ।

खुंबी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुमी' ।

खुंभी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुमी' ।

खुंभी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुमी' । उ०—पहिरे खुंभी सिंहल दीप । जानहुँ भरी कचपची सीपी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९३ ।

खुआर पु
वि० [फा० ख्वार] १. दुर्दशाग्रस्त । खराब । उ०— नतरू प्रजा पुरजन परिवारू । हमहिं सहित सब होत खुआरू ।—मानस, २ ।३०४ ।२. जिसकी कुछ भी प्रतिष्ठा न हो । बेइज्जत ।

खुआरी पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वारी] १. बरबादी । खराबी । नाश । २. अनादर । अप्रतिणष्ठा । बेइज्जती ।

खुक्ख
वि० [सं० शुष्क या तुच्छ, प्रा० छुच्छ] ४. जिसके पास कुछ न हो । छुँछा । खाली । उ०—नेम अचार करै कोउ कितनौ, कवि कोविद सब खुक्ख ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ११ ।२. (ताश के खेल में) जो खिलाल हो गया हो ।

खुक्खल
वि० [हिं० खुकिख + ल (प्रत्य०)] शून्य । खाली । रिक्त । उ०—जब तक रूपया पास है तब तक सब कुछ हैं और खुक्खल हो गए तो धता बोल दी ।—सैर०, पृ० २१ ।

खुखंड
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की राई ।

खुखंडा
संज्ञा पुं० [हिं० खुक्ख] वह पेड जो घुन गया हो या जिसका गूदा सडकर निकल गया हो ।

खुखडी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. तकुए पर चढाकर ऊपर लपेटा हुआ सूत या ऊन जो बुनने के काम आता है । कुकडी । २. एक प्रकार की बडी छुरी जो प्रायः नेपाल में बनती है । ३. काग की तरह व्यवहृत घास का सूखा डंठल ।

खूखला †
वि० [हिं०] दे० 'खोखला' ।

खुखुडी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खूखडी' ।

खुगीर
संज्ञा पुं० [फा० खगीर] १. वह ऊनी कपडा जो घोडों के चारजामें के नीचे लगाया जाता है । नमदा । २. चारजामा । जीन । मुहा०—खुगीर की भरती = बहुत ही अनावश्यक और व्यर्थ के लोगों या पदार्थो का संग्रह ।

खुचड, खुचर
संज्ञा स्त्री० [सं० कुचर = पराए दोष निकालनेवाला] व्यर्थ के दोष निकालने की क्रिया । झुठमुठ अवगुण दिख- लाने का कार्य । क्रि० प्र०—करना ।—निकालना ।—लगाना ।

खुचडी, खुचरी
वि० [हिं० खुचर] व्यर्थ के दोष निकालनेवाला ।

खुचुर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुचर' उ०—मुझे क्या पडी थी जो खुचुर करती ।—श्यामा०, पृ० ९४ ।

खुचुरी
वि० [हिं०] दे० 'खुचरी' ।

खजलाना (१)
क्रि० स० [सं० खर्जु, खर्जस] [संज्ञा, कुजलाहट, खुजली] खटमल, मच्छर आदि के काटने के कारण या यों ही किसी अंग में सुरसुराहट मालूम होने पर नाखून आदि से उसे रगडना । खुजली मिटाने के लिये अँगुली आदि को अंग पर फेरना । सहलाना । जैसे,—(क) वह सिर खुजला रहा है । (ख) हिरन सीगों से एक दूसरे को खुजला रहे हैं । संयो० क्रि०—डालना़ ।—देना ।—लेना ।

खुजलाना (२)
क्रि० अ० किसी अंग में सुरसुरी या खुजली मालूम होना । जैसे,—हमारे हाथ खुजला रहे हैं । मुहा०—किसी काम के लिये कोई अंग खुजलाना = किसी काम के करने या होने के लिये कीसी अंग का चंचल होना या फडकना । किसी काम के किए या हुए बिना न रहा जाना । जैसे,—(क) तुम्हें मारने के लिये हमारे हाथ खुजलाते हैं । (ख) मार खाने के लिये तुम्हारी पीठ खुजलाती है । (ग) बोले बिना तुम्हारा मुँह खुजलाता है ।

खुजलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुजलाना] अंग में खटमल, मच्छड, आदि के काटने या किसी कृमि के धीरे धीरे रेंगने का सा अनुभव । सुरसुरी । खुजली ।

खुजली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुजलाना] १. खुजलाहट । सुरसुरी । क्रि० प्र०—उठाना ।—होना । २. एक रोग जिसमें शरीर बहुत खुजलाता है और उसपर छोटे छोटे दाने निकल आते हैं । मुहा०-खुजली उठाना = (१) दंड पाने की इच्छा होना । शामत आना (बिशेषतः बालकों के लिये) (२) प्रसंग कराने की इच्छा होना (बाजारू) । खुजली मिटाना = (१) दंड मिलना । पिटना । (२) प्रसंग होना ।

खुजवाना
क्रि० स० [हिं०]दे० 'खोजवाना' ।

खुजाना
क्रि० स०, क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खुजलाना' । उ०—दग करसायर सींगतें बायों रही खुजाय ।—शकुंतला, पृ० ११६ ।

खुज्जाक
संज्ञा पुं० [सं०] देवताल वृक्ष [को०] ।

खज्झा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खूझा' ।

खुझडा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खूझा' ।

खुझना †
क्रि० अ० [हिं० खीझना] झुँझलाना । खींझना । उ०—कहैं गुलाल राम नहिं जानत खुझिहैं हमारी बलाई । गुलाल०, पृ० २५ ।

खुझर
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० जड] पेड की वह जड जो धरती के भीतर कम जाती है, उपर ही चारो ओर फैलती है ।

खुटक पु †
संज्ञा स्त्री० [अनु०, हिं० खटकना] खटका । आशंका । चिंता । उ०—मन में नेक खुटक जनि राखहु दीन बचन मुख ते तुम भाखहु ।—सूर (शब्द०) । (ख) सोच फेंकने से मों को खुटक होगी, इससे इनका हाथों ही में रहना अच्छा है ।— ठेठ०, पृ० १८ ।

खुटकना
क्रि० स० [सं० खुड् या खुण्ड] किसी वस्तु का शिरोभाग तोडना । किसी वस्तु को ऊपर ऊपर से तोड या लेना । खोंटना ।

खुटका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खटका' ।

खुटको पु
संज्ञा पुं० [हिं०] खटका । आशंका । उ०—मैं चंद्रावली की पाती वाके यारै सौंप देती तो इतनो खुटकोऊ न रहतो ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४४१ ।

खुटचाल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोटी + चाल] १. दुष्टता । पाजी- पन । उ०—करै क्यों न खुटचाल, पति सों पठै न कटुक तिय । चंद्रकला हरमाल, सदा एक परिवार है ।—गुमान (शब्द०) । २. कुस्तित आचरण । खराब चालचलन । ३. उपद्रव । बखेडा । टंटा ।

खुटचाली पु
वि० [हिं० खुटचाल + ई (प्रत्य०)] १. दुष्ट । पाजी । २. उपद्रवी । दुराचारी । बदचलन ।

खुटना (१)
क्रि० अ० [सं० खुड्] खुलना । उ०—तौ लगि या मन- सदन मैं, हरि आवै केहि बाट । निपट बिकट जौं लो जुटँ, खुटहिं न कपट कपाट ।—बिहारी (शब्द०) ।

खुटना (२) †
क्रि० अ० [सं० तुड्, प्रा० खुट्ट० हिं० छुटना] अलग होना । पृथक, होना । संबंध छोड देना ।

खुटना (३)
क्रि० अ० [सं० खुड् या खोट] समाप्त होना । खतम होना ।

खुटपन, खुटपना
संज्ञा पुं० [हिं० खोटा + पन, पना (प्रत्य०)] खोटापन । दोष । ऐव ।

खुटवा †
वि० [हिं० खोटा] खोटा । बुरा । उ०—दरिया जो कहै दरे दालि भई, दर देखि परा खुटवा किहा जाना ।—सं० दरिया, पृ० ६१ ।

खुटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोटाई] खोटापन । दोष । उ०—अरी मधुर अधरान तें, कटुक बचन मत बोल । तनक खुटाई तें घटे, लखि सुबरन को मोल ।—रसनिधि (शब्द०) ।

खुटाना †
क्रि० अ० [सं० खुण्ड = खोंडा होना, या खोट] समाप्त होना । खतम् होना । खुटना । उ०—जेहिं सुभाय चितवहिं हित जानी । सो जानै जनु आयु खुटानी । —तुलसी (शब्द०) ।

खुटिला
संज्ञा पुं० [देश०] करनफूल नामक कान का गहना । उ०— खुटिला सुभग जराइ के, मुकुतामनि छबि देत । प्रगट भयो घन मध्य ते, शशी मनु, नखत समेत ।—सूर (शब्द०) ।

खुटी पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] साँकल । जँजीर । सिकडी । उ०— खुटी सिकली सूता एकावली चुलिवलया मेषला चिका ।— वर्ण, पृ० ४ ।

खुटेरा
संज्ञा पुं० [सं० खदिर] खैर का पेड ।

खुट्ठी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुट से अनु०] १. रेवडी नाम की मिठाई जो तिल ओर चीनी या गुड से बनती है । २. बालकों की एक क्रिया जिससे वे परस्पर सबधविच्छेद करते हैं । कुट्टी ।

खुट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] घाव से निकला हुआ वह मवाद जो सूखकर घाव के ऊपर ही जम जाता है । घाव पर जमी हुई पपडी खुरंड ।

खुठमेरा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा या निकृष्ट धान ।

खुडदिया †
संज्ञा पुं० [हिं० खुदरा] सर्राफ । टके कौडी बेचनेवाला । उ०—ऐ दलाल ऐ खुडदिया हूँडो बाल बजाज ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६३ ।

खुडला
संज्ञा पुं० [देश०] मुर्गियों का दरबा । चिडियाखाना (लश०) ।

खुडआ †
संज्ञा पुं० [देश०] वर्षा या जाडे आदि से बचने के लिये विशेष प्रकार स सिर पर डाला हुआ कंबल या और कोई कपडा । घोघी । क्रि० प्र०—देना ।—मारना ।—लगाना ।

खुड्डी, खुड्ढी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड्ढा] १. पाखाने में पैर रखने के पायदान । २. पायखाना फिरने का गड्ढा । ३. छँटी या कटी हुई घास या दुब । उ०—जिसके नीचे की खुड्ढी घास में बैठकर एक दिन दो आने की विलायती मलाई की बर्फ खाई थी ।—इत्यलम्, पृ० १७१ ।

खुतका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुतका' ।

खुतबा
संज्ञा पुं० [अ० खुतवह्] १. तारीफ । प्रशंसा । २. सामयिक राजा की प्रशंसा जो हेतु से सर्वसाधारण को सुनाई जाय कि सब लोग उसकी सत्ता को मान लें । मुहा०—किसी के नाम का खुतबा पढा जाना = सर्वसाधारण को सूचना देने के लिये किसी के सिंहासनासीन होने की घोषणा होना (मुसल०) । ३. व्यख्यान । भाषण (को०) । ४. किसी कितीब की भूमिका (को०) ।

खुत्थ
संज्ञा पुं० [हिं० खुँटा या सं० कु (= पृथिवी) + उत्थित = कूत्थित] पेड की जड के उपर का भाग जो पेड काट लेने पर रह जाता है ।

खुत्थी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] सं० 'खुथी' ।

खुथी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुँटी] १. अरहर, ज्वार इत्यादि के पेडों का वह भाग जो फसल काट लेने पर पृथ्वी पर गडा रह जाता है । खुँथी । खुँटी । २. थाती । धरोहर । अमा- नत । ३. वह पतली लंबी थेला जिसमें रबपया भरकर कमर में बाँधते हैं । बसनी । हिमयानी । ४. घन । दौलत । संपति । उ०—द्रोपदी की देह में खुथी ही कहा दुःशासन करोई खिसानों खैंचि बसन छूटयो है ।—केशव (शब्द०) ।

खुद
अव्य० [फा० खुद] स्वयं । आप ।मुहा०—खुद ब खुद = आप से आप । बिना क्सी दूसरे के प्रयास, यत्न या सहायता के । उ०—किसी तरह यह कम- बख्त हाथ आता तो और राजपूत कुद ब खुद पस्त हो जाते ।—भारतेदु० ग्रं०, भा० १, पृ० ५२१ । यौ०-खुदआरइ, खुदइख्तियार = स्वतंत्र । स्वयं अधिकारप्राप्त खुदइख्तियारी = स्वतत्रता । मनचाह करने का अधिकार । खुदकाश्त । खुदगरज । खुददार । खुददारी = आत्माभिमान । खुदनुआई = आत्मगर्व और ऐश्वर्य का प्रदर्शन । खुदपरस्त । खुदफरामोश = गाफिल । खुद के प्रति विस्मृत । खुद ब खुद । खुदबी = घमंडी । गर्वीला । खुद मतलब । खुदमतलबी । खुद- मुश्तार । खुदरंग । खुदसर । खुदसिताई = आत्मप्रशस्ति ।

खुदका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुतका' ।

खुदकाश्त
संज्ञा स्त्री० [फा० खुद + काश्त] वह जमीन जिसे उसका मालिक स्वयं जोते बोए, पर वह सीर न हो ।

खुदकुशी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुद + कुशी] अपने हातों अपने के मार डालना । आत्महत्या । उ०—आज कुदकुशी करने पर आमोदा है आकाश ।—ठडा०, पृ० ६३ ।

खुदगरज
वि० [फा० खिद + गरज] [संज्ञा खुदगरजी] अपना मतलब साधनेवाला । स्वार्थी ।

खुदगरजी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुद + गरजी] स्वार्थपरता ।

खुददार
वि० [फा० खुद + दार (प्रत्य०)] १. स्वाभिमानी । आत्माभिमानी । २. आत्मनिग्रही (को०) ।

खुदना
क्रि० अ० [हिं० खोदना] खोदा जाना ।

खुदपरस्त
वि० [फा० खुद + परस्त] १. अहंकारी । घमंडी । २. मतलबी । स्वार्थी ।

खुदपसंद
वि० [फा० खुद + पसंद] अपनी बात या पसंद पर डटने वाला । अपनी रूचि को तर्जीह देनेवाला । हठी । खुदराय । उ०—मैं तो खुदपसंद नहीं हूँ भाई जान ।—सैर०, पृ० १२ ।

खुदलसदी
स्त्री० [फा० खुदपसंदी] १. आत्मानुराग । उ०—मगर ममन की तबीयत म खुदपसदी बहुत है ।—सैर०, पृ० १२ । २. हठ । जिद । ३. घमंड । गर्व । गरूर ।

खुदमुखतार
वि० [फा० खुद + मुख्तार] जिसपर किसी की दबाब न हो । अनिरूद्ध । स्वतंत्र । स्वच्छंद ।

खुदमुकतारो
संज्ञा स्त्री० [फा० खुद + मुख्तारी] स्वतंत्रता । निरंकुशता । स्वच्छंदता ।

खुदरग
बि० [फा० खुद + रंग] अपने स्वाभाविक रंगवाला । जिस रंग पर दुसरे रंग की आभा न हो । उ०—नीचे कुदरंग हो गई धोती का फोंटा घुटने तक कसा हुआ ।—भस्मावृत०, पृ० ५६ ।

खुदरा
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्र] थोक का उलटा । छोटी और साधारण वस्तु । फुटकर चीज । यौ०—खुदराफरोश = छोटी छोटी वस्तुएँ बेचनेवाला । फुटकर चीजें बेचनेवाला । मुहा०—खुदरा कराना = नोट या रूपया आदि भुनना ।

खुदराई
संज्ञा स्त्री० [फा० खुद + राई] स्वेच्छाचार ।—(क्व०) ।

खुदराय
वि० [फा० खुद + राय] स्वेच्छाचारी ।—(क्व०) ।

खुदरू
वि० [फा० खुद + रू] स्वयं उगा हुआ । बिना जोता, बोया या रोपा हुआ । उ०—फिर बिना बोया जोता (खुदरू) चावल प्रादुमदि हुआ ।—भा० इ० रू०, पृ० ४६ ।

खुदरो खुदरौ
वि० [फा० खुद + रू] दे० 'खुदरू' ।

खुदवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुदवाना] १. खुदवाने का भाव । २. खुदवाने की क्रिया । ३. खुदवाने की मजदूरी ।

खुदवाना
क्रि० स० [हिं० खोदना] 'खोदना' का प्रेरणार्थक रूप । खोदने का काम करना ।

खुदसर
वि० [फा० खुदसर] १. उजड्ड । अक्खड़ । २. बागी । ३. हुकम न माननेवाला ।

खुदसरी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुदसरी] १. अच्छूं खलता । उद्दडता । २. हुक्मउदूली । ३. बगावत [को०] ।

खुदा
संज्ञा पुं० [फा० खुदा] स्वयंभू । ईस्वर । उ०—अरे किताब कुरान को खोज ले । अलख लल्लाए खुद खुदा भाई ।— तुरसी० श०, पृ० १९ । यौ०—खुदा न ख्वास्ता (खास्ता) = ईश्वर ऐसा न करे । ईश्वर न करे ऐसा हो । खुदा हाफिज = ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे । यह पद विदा लेते देते समय कहा जाता है । मुहा०—खुदा खुदा करके = बहुत कठिनता से । बड़ी मुशकिल से । खुदा की मार = ईश्वरीय प्रकोप—(शाप) । खुदा झूठ न बुलाए = मेरी बात अतिशयोक्ति न हो । बात यथार्थ से परे न हो ।

खुदाई (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० खुदाई] १. ईश्वरता । २. सृष्ठि ।

खुदाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोदना] १. खोदने का भाव । २. खोदने का काम । ३. खोदने की मजदूरी ।

खुदावंद
संज्ञा पुं० [फा० खुदाबंद] १. ईश्वर । मालिक । अन्नदाता । ३. हुजूर । साहेब । जनाब । श्रीमान्—(संमानसूचक) ।

खुदाव
संज्ञा पुं० [हिं० खुदवाना] खुदाई का काम ।

खुदी
संज्ञा पुं० [फा० खुदी] १. अहंभाव । अहंकार । आपा । उ०— जहाँ से जो खुद को जुदा देखते हैं । खुदी को मिटाकर खुदा देखते हैं ।—हिमत०, पृ० ४८ । २. अभिमान । घमंड । शेखी ।

खुद्दक
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्रक] बौद्ध पिटकों में से सुत्त पिटक का एक निकाय । खुददक निकाय ।

खुददी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्र] १. चावल, दाल, आदि के बहुत छोटे छोटे टुकड़े । २. ऊख के रस की तलछट ।

खुधा †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुधा] दे० 'क्षुधा' । उ०—घर घर से चूटकी माँग लीजै । खुधा को चार डार दीजै ।—पलट्०, पृ० ५४ ।

खुधाल
वि० [सं० क्षुधालु] भूखा । क्षुधाग्रस्त । बुभुक्षित । उ०— बयाल सियाल उनाल बयाकुल वारि वषाल खुधाल सयू ।— राम० धर्म०, पृ० ३०४ ।

खुध्या पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुधा] दे० 'क्षुधा' । उ०—निस वासुरि लागै नहीं नहि, लगै सीतल घाम । खुध्या तृषा लागै नहीं घटि घटि आतम राम ।—दादू०, पृ० ६२० ।

खुनक
वि० [फा० खुनक] शीतल । ठंढा [को०] ।

खुनकी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुनकी] सरदी । ठंढक ।

खुनखुना
संज्ञा पुं० [अनु०] लड़कों का एक खिलौना जो झुनझुन या खुनखुन शब्द करता है । घुनघुन । झुनझुना । उ०—यह उमर ऐसी ही है जिसमें सिवाय खुनखुना, लट्टू, गुड़ियों के और कुछ नहीं सुहाता ।—श्यामा०, पृ० ५६ ।

खुनस पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खिन्नमनस्] [वि० खुनसी] क्रोध । गुस्सा । रिस । उ०—(क) खेलत खुनस कबहुँ नहिं देखी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) इश्क मुश्क खाँसी खुनस, खैर खुन मद पान । चतुर छिपावत है सही, आप परत हैं जान ।—कोई कवि (शब्द०) ।

खुनसना, खुनसाना पु †
क्रि० अ० [सं० खिन्नमनस्] क्रोध करना । गुस्सा होना । उ०—दुख सुख की बातैं सबै जानैं श्री रघुवीर । खुनसाने नहिं रह सके बोले कपि सब धीर ।— हनुमान (शब्द०) ।

खुनसी पु
वि० [हिं० खुनसाना] गुस्सा करनेवाला । क्रोधी ।

खुनियाँ †
वि० [फा० खूनी + हा (प्रत्य०)] जहाँ खून होता हो । खूनी । उ०—बहुत खूनियाँ जगह थी । इसी लिये साथ में सिपाही लोग थे ।—मैला०, पृ० ३४८ ।

खुनी पु †
वि० [फा० खूनी] खूनी । अपद्रवी । उ०—पाँच घोड़ चंचल घट भीतर मन गयंद बड़ खुनी ।—भीखा श०, पृ० २६ ।

खुफिया
वि [अ० खुफीयह] गुप्त । पोशीदा । छिपा हुआ । यौ०—खुफियाखाना = वह स्तान जहाँ कुटनियाँ स्त्रियों को बहकाकर व्यभिचार कराने के लिये ले जाती हैं ।

खुफिया पुलीस
संज्ञा स्त्री० [फा० खुफियह + अं० पुलीस] गुप्त पुलीस । भेदिया । जासूस ।

खुबना
क्रि० अ० [हिं० खुभना] दे० 'खुभना' । उ०—मगर साड़ी लेना जरूरी था । वह उसकी आँखों में खुब गई थी ।— सन्यासी, पृ० १३१ ।

खुब्बाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० खुब्बाजी] चंगेल नामक पौधे का फल जो दवा के काम में आता है । वि० दे० 'चंगेल' ।

खुभना
क्रि० अ० [अनु०] चुभना । घुसना । धँसना । उ०—सालति है नटसाल सी, क्यो हूँ निकसति नाहिं । मनमथ नेजा नोक सी, खुभी खुभी जिय माँहि ।—बिहारी र०, दो० ६ ।

खुभराना पु †
क्रि० अ० [सं० क्षुब्ध] उपद्रव के लिये घुमना । उमड़ना । इतराज फिरना । उ०—ऐयाँ गैयाँ बैयाँ लै लुगैयाँ लैयाँ पैयाँ चलो, बारौ ना अयैयाँ कहूँ जाट खुभराने हौ ।— सूदन (शब्द०) ।

खुभिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुभना] दे० 'खुभी' ।

खुभी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुभना] लौंग के आकार का, कान में पहनने का एक आभूषण जिसे लौंग भी कहते हैं । उ०— सालति है नटसाल सी क्यौं हूँ निकसति नाँहि । मनमथ नेजा नोक सी, खुभी खुभी जिय माहिं ।—बिहारी र०, दो० ६ ।

खुभी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुभी] दे० 'खुमी' ।

खुम
संज्ञा पुं० [फा़० खुम, तुल० सं० कुम्भ] १. घडा । मटका । २. मदिरा का मटका । उ०—निशिदिन थे खुम पर खुम ढलते । जी के सब अरमान निकलते ।—दीप०, पृ० ५६ । यौ०—खुमकदा = मदिरालय । शराबखाना । खुमकश = पूरी मटकी पी जानेवाला । खुमखाना = शराबखाना । ३. मुर्गियों का दरबा । ४. भट्ठी । मुहा०-खुम चढ़ाना = धोने के समय कपड़े को भट्ठी पर चढ़ाना ।

खुमताल †
संज्ञा पुं० [फा़० खुम + हिं० ताल] मदिरा का पात्र । शराब का बर्तन । उ०—बुला शाह मजलिस में सैफोर कूँ दोनों भाई खुमताल खबतूर कूँ ।—दक्खिनी०, पृ० २९० ।

खुमरा
संज्ञा पुं० [अ० कुन्बुर = अली (इमाम) का एक्रगुलाम] [भाव० खुमरी] १. एक प्रकार के भीख माँगनेवाले मुसल- मान फकीर जो प्रायः पश्चिम में होते हैं । २. एक मुसलमान जाति ।

खुमरिहा †
वि० [अ० खुमार] जो खुमार में हो । जिसपर नशे की खुमारी हो । जिसकी खुमारी दूर न हुई हो । उ०—जहँ मद तहाँ कहाँ संभारा । कै सो खुमारिहा कै मँतवारा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३३७ ।

खुमान पु †
वि० [सं० आयुष्मान्] बड़ी आयुवाला । दीर्घजीवी ।— (आशीर्वाद) ।

खुमानी
संज्ञा पुं० [फा़० खूबानी] दे० 'खूबानी' । उ०—अखरोट, खुमानी आदि भी प्रायः सभी पहाड़ों में सुगमता से उपजते हैं ।—भारत० नि०, पृ० १६० ।

खुमार
संज्ञा पुं० [अ० खुमार] दे० 'खूमारी' ।

खुमारी
संज्ञा स्त्री० [अ० खुमार] १. मद । नशा । उ०—जब जान्यो ब्रजदेव सुरारी । उतर गई तब गर्ब खुमारी ।—सूर (शब्द०) । २. वह दशा जो नशा उतरने के समय होती है और जिसमें कुछ हल्की थकावट मालूम होती है । उ०— ध्रुव प्रहलाद विभीषण माते, माती शिव की नारी । सुगुण ब्रह्म माते बृंदाबन, अजँहु न छूटि खुमारी । —कबीर (शब्द०) । ३. वह दशा जो रात भर जागने से होती है । इसमें भी शरीर शिथिल रहता है । क्रि० प्र०—उतरना ।—चढ़ना ।

खुमी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कुमा] पत्र—पुष्प—रहित क्षुद्र उदभिद की एक जाति जिसके अंतर्गत भूफोड़, ढिंगरी, कुकुरमुत्ता, गगनधूल आदि हैं । विशेष—इस जाति के पौधों में हरे कोशाणु नहीं होते, जिनके द्वारा और पौधे मिट्टी आदि निरवयव द्रव्यों को अपने शरीर के धातु रूप में परिवर्तित कर सकते हैं । इसी से खुमी जाती के पौधे, सफेद या मटमैले होते हैं और अपना आहार दूसरे पौधों या जंतुओं के जीवित या मृत शरीर से प्राप्त करते हैं । बरसात में भींगी, सड़ी लकड़ियों पर एक प्रकार की गोल और छोटी खुमी निकलती है, जिसे 'कठफूल' कहते हैं । यह प्रायः विषैली होती है । खुमी के शरीरकोश की बनावट और पौधों की सी नहीं होती । इसके कोशण सूत की तरह लंबे लंबे होते हैं; पर किसी किसी खुमी के कोशणु गोल भी होते हैं । खुमी के दो मुख्य भेद हैं—एक वह जो दूसरे जीवित पौधों के रस से पलती हैं; और दूसरी वह जो सड़े गले या मृत शरीर से आहारसंग्रह करती हैं । पहले प्रकार की खुमी गेरुई आदि के रूप में अनाज के पौधों में देखी जाती है । दूसरे प्रकार की खुमी भूँफोड़ कठफूल, कुकुरमुत्ता आदि हैं । खुमी के अधिकांश पौधे अंगुल डेढ़ अंगुल से लेकर आठ आठ, दस दस अंगुल तक के दिखाई पड़ते हैं । ये छूने में कोमल और छाते के आकार के होते हैं । छतरी, की बनावट पर्तदार होती है । खुमी के कई भेद गूदेदार और खाने लायक होते हैं । जैसे, भूँफोड़, ढिंगरी (पंजाब) आदि । कई दुर्गंधयुक्त और विषैले होते हैं । जैसे,—कुकुरमुत्ता, कठफूल आदि । वैंद्यक में खुमी विषैली और धर्मशास्त्र में अभक्ष्य मानी गई हैं । खाने योग्य खुमी (भूँफोड़) खूब गुदेदार और सफेद होती है । उसके डंठल में गोल गोल छल्ले से पड़े रहते हैं, और उसमें किसी प्रकार की गंध नहीं होती । खुमी बरसात में बहुत उपजती है । पर्या०—छत्राक । कवक । शिलींध्र । उच्छिलींध्र । कुकुरमुत्ता । गगनधूल । रामछाता ।

खुमी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुभना] १. वह सोने की कील जिसे लोग दाँतो में जड़वाते हैं । धातु का बना हुआ वह पोला छल्ला जो हाथी के दाँत पर चढ़ाया जाता है । उ०—गति गयंद कुच कुंभ किकणी मनहु घट झहनावै । मोतिन हार जलाजल मानी खुमी दत झलकावै ।—सूर (शब्द०) ।

खुम्हारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुमार] दे० 'खुमार' ।

खुरंट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खुरंड' ।

खुरंड
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुर(= खरोचना) + अण्ड अथवा देश०] घाव के ऊपर सूखकर जमा हुआ मवाद । सूखे घाव के ऊपर की पपड़ी ।

खुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सींगवाले चोपायों के पैर की कड़ी टाप जो बीच से फटी होती है । गाय, भैल आदि सींगवाले चौपायों के पैर का निचला छोर, जो खड़े होने पर पृथ्वी पर पड़ता है । सुम । टाप । यौ०—खुरणस = चिपटी टेढ़ी नाकवाला । खुरन्यास=(१) खुर का रखना । (२) खुर रखने से बना निशान । खुरत्राण = नाल । खुरपदवी = घोड़े के पैर का निशान । खुरप्र = क्षुरप्र वाण । खुरबंदी = घोड़े बैल आदि के खुरों में नाल जड़ना । २. चारपाई या चौको के पाए का निचला छोर जो पृथ्वी से लगा रहता है । ३. नख नामक गंध द्रव्य । ४. छुरा । उस्तरा । (को०) ।

खुरक (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुटक] साच । खटका । अंदेशा । उ०— सुआ न रहै खुरक जो अबहुँ काल सा आव । शत्रु अहै जेहि करिया काह सा बूड़ी नाव ।—जायसी (शब्द०) ।

खुरक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिल का पेड़ । २. एक प्रकार का नृत्य ।

खुरक राँगा
संज्ञा पुं० [सं० खुरक +हिं० राँगा] हिरनखु री राँगा जो नर्म, सफेद और जल्दी गल जानेवाला होता है । इस राँगे का बग उत्तम होता है ।

खुरका
संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक प्रकार की घास जो अफीम के पौधे को हानि पहुँचाती हैं ।

खरखुदं
[सं० खुर + हिं०, खुँदना] दुष्टता । बदमाशी । पाजोवन । उ०— करत रहै खुरखुँद बड़ा सैताना है ।— सलटू०, पृ० १०० ।

खुरखुर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो गले में कफ आदि रहने के कारण साँस लेते समय होता हैं । घरघर शब्द ।

खुरखुरा
वि० [हिं० अनु० खरोचना] जो चिकना न हो । जिसको छुने से हाथ में करण या रवे गड़े । जिसकी सतह बराबर न हो असमतल । नाहमवार । खुरदरा ।

खुरखुराना (१)
क्रि० अ० [हि० खुरखुर से अनु०] १. खुरखुर शब्द करना । २. गले में कफ के कारण घरघराहट होना ।

खुरखुराना (२)
क्रि० अ० [हि० खुरखुरा] खुरखुरा मालुम होना । कण या रवे आदि गड़ना ।

खुरखुराहट (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुरखुर + हट (प्रत्य०)] साँस लेते समय गले के शब्द में विकार, जो कफ आदि के कारण होता है ।

खुरखुराहट (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुरखुरा] खुरदरापन ।

खुरचन
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुरचना] १. जो वस्तु खुरचकर निकाला जाय । २. दुध पकाने के बरतन में से खुरचकर निकाली हुआ दुध का अंश जो जमा हुआ होता है । ३. कड़ाह से खुरचकर निकाल हुआ गुड़ा ।

खुरचना
क्रि० अ० [सं० क्षरण या ध्वन्यात्मक अनु०] किसी जमी हुई वस्तु को उसके आधार पर से कुरेदरक अलग कर लेना । करोचना । करोना ।

खुरचनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुरचना] १. छेनी की तरह का एक ओजार जिससे कसेरे बरतन छीलकर साफ करते है । २. चमारों एक ओजार । ३. खुरचने का कोई औजार ।

खुरचाल
संज्ञा स्त्री० [बिं० खोटी + चाल] दुष्टता । पाजीपन । बद- माशी । शरारत । क्रि० प्र०—करना ।—निकालना ।

खुरचाली
वि० [हिं० खुरचाल] खुरचाल करनेवाला । पाजी । दुष्ट ।

खुरजी
संज्ञा स्त्री० [फा०] वह झोला जिसमें जरूरी सामान रखकर घोड़ासवार अपनमे घोड़े पर रखता हैं । बडा थैला ।

खुरट
संज्ञा पुं० [हिं० खुर+ट (विकारार्थक प्रत्य०) चोपायों के खुर की एक बीमारी । खुरहा । खुरा । खुरपका । विशेष— दें० ' खुरपका' ।

खुरतार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुर+ताड़न या ताल] टाप या खुर की चोट । सुम का आघात । उ०— (क) धुरवा धूरि उड़त रथ पायक घोरन की खुरतार । — सूर (शब्द०) । (ख) दलत मलत खुरतारनि पहार हेय धुँधुरी सो भयो भानु नभ में नखल सो ।— गुमान (शब्द०) ।

खुरथर पुं
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० ' खुरहर' । उ०— कहुँ महिष लोटहिं विष भरा । कहुँ रोझ ड़ारहि खुरथर ।— चित्रा०, पृ० २४ ।

खुरथी †
संज्ञा स्त्री० [ हि०] दे० 'कुलथी' ।

खुरदनी
वि० [फा० खुदनी] खाने योग्य । खाने की वस्तु उ०— वे मिहर गुमराह गाफिल, गोश्त खुरदनी । — दादू०, पृ २५३ ।

खुरदरा
वि० [हि०] दे० ' खुरखुरा' ।

खुरदाँय †
संज्ञा पुं० [हिं० खुर+दाना] कटी हुई फसल को, अन्न के दाने अलग करने लिये, बैलों से कुचलवाना ।

खुरदादी
संज्ञा पुं० [फा० खुर+ दाद] भालू का जुलाब ।— (कलंदरों की भाषा) ।

खुरपका
संज्ञा पुं० [हिं० खुर+पकना] पशुओं का एक रोग । विशेष — इसमें उनके मुँह और खुरों में दाने निकल आते हैं , और मुँह से बहुत लार बहती है, सारा बदन गरम हो जाता है, बहुत गरम साँस चलती है और पशु लंगड़ा कर चलने लगता है । यह रोग संसर्ग से बहुत जलदी फैलता हैं ।

खुरपा
संज्ञा पुं० [सं० क्षुरप्र]स्त्री० अल्पा० खुरपी़] १. लोह का बना हुआ एक छोटा सा औजार जिसके एक सिरे पर पकड़ने के लिये लकड़ी की मुठिया लगी रहती हैं । इससे घास छीली और भुमि गोड़ी जाता है । २. चमारों का एक औजार जिससे वे चमड़े की सतह छीलकर साफ करते हैं ।

खुरपात पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खुराफात' । उ०— मेरे ही किसी पाप से यह सरब खुरपात उठ खड़ा हुआ । — नई,० पृ० ८३ ।

खुरपी
संज्ञा स्त्री० [हि० खुरपा] खुरवा का छोटा रूप । छोटे आकार का खुरपा । उ०—खुरपी लेकर आप निराती जब वे अपनी खेती हैं । — पंचवटी, पृ० १० ।

खुरफ
संज्ञा पुं० [फा० खुरपह्] लानिया की तरह का एक साग जिसे कुलफा भी कहते है ।

खुरफा
संज्ञा पुं० [फा० खुरफह] कुलफे का साग ।

खुरमा
संज्ञा पुं० [ अ० खुरमा] १. छोहार । उ०— मेरे घर कुँ मेहमान जो आयगा । क यो शीर खुरमँ बिने खायगा ।— दक्खिनी०, पृ० ३३१ । २. एक प्रकार का पकवान । विशष— *यह माठा ओर नमकीन दानों प्रकार का होता है । इसमें पहले माटे आटे का मोयन देकर दुध में सान लेते हैं । ओर सानत समय यथारूचि मिठा या नमक मिला लेता हैं । फिर माटी राटी साबलकर उसक छोटे, कड़े, लबे, तिकाने या चौकोर खड़ बनाकर घी में छान लेते हैं । कोई कोई इसे सादे हा बनाकर चीनी में पाग लेते हैं ।

खुरली
संज्ञा सस्त्री० [सं०] सैनिक व्यायाम । सैनिक अभ्यास । शस्त्राभ्यास [को०] ।

खुरशाल
संज्ञा पुं० [सं०] शालिहोत्र (परिशिष्ट) में कथित खुरशाल देश का घाड़ा [को०] ।

खुरशोद
संज्ञा पुं० [फा० खुरशीद] सूर्य । दिनकर । रवि । उ०— तुज हुस्न के खुरशीद का तिरलोक में ताबिश पड़े ।— दाक्खनी०, पृ ३२१ ।

खुरशेद
संज्ञा पुं० [फा०]दे० ' खुरशीद' ।

खुरसाँण
संज्ञा पुं० [फा० खुरासान] [खुरसाँणी] खुरासान के घोड़े । उ०— गया गलंती राति, परजलती पाया नहीं । से सज्जण परभाति , खड़हड़िया खुरसाँण ज्युँ ।— दोला०, दु ८८ ।

खुरसीटा †
संज्ञा पुं० [सं० खुर + सीदित = पीड़ित अथवा सं० खुर + देश० सोटा] पशुपों के खुरों का एक रोग जिसे खुरपका कहते हैं । विशेष—दे० 'खुरपका' ।

खुरहर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुर +हर (प्रत्य०)] १. खुर का चिहन । जंगल आदि पगड़ंड़ी की भाँति खुर से बना हुआ पतला रास्ता, जिसपर पशु चलते हैं । क्रि० प्र०—पड़ना ।—लगना । ३. तंग रास्ता । पगड़ंड़ी ।

खुरहा
संज्ञा पुं० [हिं० खुर+हा (प्रत्य०)] पशुओं का ' खुरपका' । नाम का रोग ।

खुरहुर †
संज्ञा पुं० [ हिं० खुर+ हर] दे० 'खुरूँ' ।

खुरा (१)
संज्ञा पुं० [हि० खुरहा] पशुओं के खुरो का ' खुरपका' नाम का रोग । खुरहा । वि० दें० ' खुरपका' ।

खुरा (२)
संज्ञा पुं० [ सं० खुर] लोहे का एक काँटा जो हल में फाल या कुर्सी की दृढ़ता के लिये लगाया जाता हैं ।

खुराई
संज्ञा स्त्री० [हिं०खुर] वह रस्सी जिससे पशुओं के दोनों पैर परस्पर बाँध दिए जाते हैं ।

खुराक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० खुराका] पशु [को०] ।

खुराक (२)
संज्ञा पुं० [फा० खुराक] भोजन । खाना ।

खुराकी (१)
संज्ञा स्त्री० [ फा० खुराक] वह नगद दाम जो खुराक के लिये दिया जाय ।

खुराकी
वि० अधिक खानेवाला ।

खुराघात
संज्ञा पुं० [सं० खुर+आघात] खुर का प्रहार । सुम या टाप की मार ।

खुराफात
संज्ञा स्त्री० [ अ० खुराफत का बहु व०] १. बेहुदा और रद्दी बात । ३. गाली गलौज । क्रि० प्र० —बकना । ३. झगड़ा ।— बखेड़ । उपद्रव । क्रि० प्र०— करना ।— मचना ।— मचाना ।—होना ।

खुराफाती
वि० [ अ० खुराफत] १. बेहुदा और रद्दी बात करनेवाला । २. गाली गलौज करनेवाला । ३. झगड़ा, बखेड़ा या उपद्रव करनेवाला ।

खुरायल †
संज्ञा पुं० [ हिं० खुर+आयल ] वह खेत जो बोने के लिये तैयार हो ।

खुरालक
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे का बाण [को०] ।

खुरालिक
संज्ञा पुं० [सं०] अस्तुरे का घर । नाई का सामान रखने की किसबत । २. लोहे का बाण । ३. तकिया [को०] ।

खुरासान
संज्ञा पुं० [फा० खुरासन] [वि० खुरासीनी] फारस खुश का एक बड़ा कूबा । विशेष—यह अफगामिस्तान के पश्चिम में बिलकुल सटा हुआ है । यहाँ की अजवाइन बहुत प्रसिद्ध और अच्छी होती है । खुरासानी घोड़ा और यहाँ की तलवार भी प्रसिद्ध थे ।

खुरासानी
वि० [फा०] खुरासान संबंधी । खुरासान का जैसे, खुरासानी अजवाइन ।

खुराही
संज्ञा स्त्री० [ हि० खुर+फा० रहा] कहारों की भाषा में रास्ते का ऊचानीचापन सुचित करनेवाला एक शब्द ।

खुरिया
संज्ञा स्त्री० [फा० (आब) खोरा] १. कटोरी । छोटी प्याली । २. घुटने के जोड़ पर गोल हड़्ड़ो ।

खुरी (१)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० खुर] टाप का विहन । सुम का निशान । मुहा०— खुरी करना = (१) घोड़े बैल आदि सुमवाले पसुशो का पैर से जमीन खोदना । उ०— बहु चचंल बाजि करंत करी ।— ह० रासो० पृ० ७८ । (२) बहुत जल्दी करना ।

खुरी (२)
संज्ञा स्त्री० [ देश०] इतना तेज बहनेवाला पानी जिसके विरूद्ध नाव न चल या चढ़ सके — (मल्लाहों की भषा) ।

खुरी (३)
संज्ञा पुं० [सं० खुरिन्] खुरवाला पशु ।

खुरूक
संजा पुं० [ हिं० खुटका] खुटका । खटका । आशंका । उ०— मोटे बड़े सोइ टोई धरे । ऊबर दुबर खुरूकन चरे ।— जायसी (शब्द०) ।

खुरूचन, खुरूचनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुरचना] १. किसी चीज का वह जमा हुआ भाग खुरचने् से अलग हो सके । २. खुरचने का औजार ।

खुरूहरा †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० ' खरहरा' ।

खुरू
संज्ञा पुं० [ हि० खुर ] १. खुर या टापवाले पशुओं की खुर से भूमि खोदने की क्रिया जिसमें वे प्रायः ड़कारते या रँभाते भी हैं । चौपाए ऐसा क्रोध या प्रसन्नता के समय करते हैं । २. उपद्रव । नटखटी । बखेड़ा । टंटा३. सत्यानाश । ध्वंस ।

खुरूरू
संज्ञा पुं० [ देश०] नारियल की गये ।— (बुं देलखड़) ।

खुर्द
वि० [फा० खुदँ] १. छोटा । लघु । ' कलाँ 'का उलटा । २. कण । जर्रा ।

खुर्दनी (१)
वि० [फ० खुर्दना] खाद्य । भोजन के योग्य ।

खुर्दनी (२)
संज्ञा स्त्री० खाद्य पदार्थ । भोजन की वस्तु ।

खर्दबीन
संज्ञा स्त्री० [फा० खुर्दबीन] एक विशेष प्रकार के शीशे का बना हुआ वह यंत्र जिससे छोटी वस्तु बहुत बड़ी देख पड़ती है । सुक्ष्मदर्शक यंत्र ।

खुर्दबुर्द
स्त्री० वि० [ फा० खुर्दबुर्द] १. नष्ट भ्रष्ट । २. समाप्त । ३. गायब । उ०— बस, अब माल खुर्दबुर्द करने की कोई तदबीर करनी चाहिए । श्री निवास ग्रं०, पृ १२० ।

खुर्दसाल
वि० [फा० खुर्दसाल] अल्पवस्क । कामसिन । उ०— जो पड़ते दर्स जब थे खुर्दसाल । मस्जिद के दरमियान तख्ती कतें ले ।— दक्खिनी०, पृ० ११५ ।

खुर्दसाली
संज्ञा स्त्री० [फा० खुर्दसाली] बाल्यावस्था । शिशुता । अल्पवयस्कता [को०] ।

खुर्दा (१)
संज्ञा पुं० [फा० खुर्दह्] १. छोटी मोटी चीज ।२. टुकड़ा । कण (को०) । २. रेजगारी । खेरीज (को०) । ३. अल्प मात्रा (को०) ।

खुर्दाफरोश
संज्ञा पुं० [फा० खुर्दहफरोश] छोटी मोटी फुटकर चींजे बेचनेवाला । फुटकरिया ।

खुर्दी
संज्ञा स्त्री० [ फा० खुर्दी] लघुता । छोटाई [को०] ।

खुर्रम
वि० [फा० खुर्रम] प्रसन्न । आनंदित । हर्षित । उ०— दिल सुँ खुर्रम, मुको सो खदाँ शादमाँ ।— दक्खिनी०, पृ० १८१ ।

खुर्रमी
संज्ञा स्त्री० [फा० ] प्रसन्नता । आनंद । हर्ष ।

खुरटि
वि० [देश०] १. बुढा । वृद्ध । २. अनुभवी । तजरूबेकार । ३. चालाक । काइयाँ । अ०— अनेक खुशामदी टट्टु और चापलुस खुर्राटें का वहीं जमघट रहता है ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८४ ।

खुर्राटा
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० ' खर्राटा' ।

खुर्रा
वि० [हिं० खुली, खुरी] जिसपर बिछावन न हो । बिना विस्तरवाली (खाट) । खरहरी । उ०— दिन के दिन बच्चा खुर्रा खाट पर पड़ा माता को नैराश्य दृष्टि से देखा करता ।— मान०, भा० ५, पृ० १०१ ।

खुर्शद
वि० [फा० खुर्शद] प्रसन्न । हर्षित । आनंदी । उ०— घर बार रूपए पैसे में मत दिल को तुम खुर्शद करो ।—रामधर्म०, पृ० ९३ ।

खुलती
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० ' कुलथी' ।

खुलना
क्रि० अ० [ सं० खुड़, खुल = भेदन] १. किसी वस्तु के मिले या जुड़े हुए भागों का एक दुसरे से इस प्रकार अलग होना कि उसके अंदर या उस पार तक आना, जाना, टटोलना, देखना आदि हो सके । छिपाने या रोकनेवाली वस्तु का हटना । अवरोध या आवरण का दुर होना जैसे, — किवाड़ खुलना, संदुक का ढ़क्कन खुलना । विशेष— आवरण और आवृत तथा अवरोधक और अवरूद्ध दोंनों के लिये इस क्रिया का प्रयोग होता है । जैसे— मकान खुलना, संदुक खुलना, ढक्कन खुलना, मोरी खुलना । संयो० क्रि०— जड़ना ।—पड़ना । मुहा०—खुलकर = बिन रूका्वट के । खुब अच्छी तरह । जैसे,— खुलकर भुख लगन? खुलकर दस्त होना । खुलकर बैठना । खुला स्थान = अनावृत्त स्थान । ऐसा स्थान जो घिरा न हो २. ऐसी वस्तु का हट जाना या तितरबितर हों जाना जो छाए या घेरे हे । जैसे — बादल खुलना । ३. दरार होना । शिगाफ होना । छेद हेना । फटना । जैसे — एक ही लाठी में सिर खुल गया । ४. बाँधनेवाली या जोड़नेवाली वस्तु का हटना । बंधन का छुटना । जैसे— बेड़ी खुलना, गाँठ, खुलना, सीवन खुलना, टाँका खुलना । ५. किसी बाँधी हुई वस्तु का छुट जाना, जैसे — धोती खुलना । घोड़ खुल गया । मुहा०— खुलजाना = (१) गाँठ से जाता रहना । खो जाना । जैसे — आज बैठते ही (१००) उसके भी खुल गए । (२) स्पष्ट हे जाना । छिपा न रहना । प्रकट हो जाना । उ०— वाह ! सीधापन दो चार दिन में खुल जाएगा ०— फिसाना० भा० ३. पृ० १४१ । ६. किसी क्रम का चलना या जारी होना । जैसे,— तनखाह खुलना । ७. ऐसी वस्तुओं का तैयर होना, जो बहुत दुर तक लकीर के रूप में चली गई हों और जिसपर किसी वस्तु का आना जाना हो । जैसे, — सड़क खुलना । नहर खुलना । उ०—यहाँ से रेल की एक नई लाइन खुलनेवाली है । ८. ऐसे नए कार्य का आरंभ होना जिसका लगाव सर्वसाधारण या बहुत लोगों के साथ रहे । जैसे,— कारखाना खुलना । स्कूल खुलना, दुकान खुलना । ९. किसी कारखाने, दूकान, दफ्तर या और किसी कार्यलय का नित्य सका कार्य आरंभ होना । जैसे— अब तो दुकान खुल गई होगी; जाओ कपड़ा ले आओ । १०. किसी ऐसी सवारी का रवाना हो जाना, जिसपर बहुत से आदमी एक साथ बैठें । जैसे,— नाव खुलना । रेलगाड़ी खुलना ।११. किसी गुढ़ या गुप्त बात का प्रगट हो जाना । जैसे, — (क) अब तो यह बात खुल गई, छिपाने से क्या लाभ, (ख) इसका अर्थ कुछ खुलता नहीं । मुहा०—खुले आम, खुले खजाने, खुले बाजार = सब के सामने । सब की जान में । छिपाकर नहीं । प्रकट में । १२. अपने मन की बात साफ साफ कहना । भेदल बाताना । जैसे,— (क) तुम ते कुछ खुलते ही नही, हम तुम्हारा हाल कैसे जानें ।(ख) मैं जब उससे खूब मिलकर बात करने लगा, तब वह खुल पड़ा । संयो क्रि०—पड़ाना । मुहा०— खुलकर = बेधड़क । साफ साफ । जैसे — जो कहना हो खुलकर कहो । खुल खेलना = लज्जा या कलंक का भय छोड़कर कोइ काम सबके सामने करना । उ०— जब मेरे सामने तुम्हारा यह हाल है तो वहाँ ... तो और भी खुल खेलोगे । — सैर०, पृ० २० । १३.— सोहावना जाना पड़ता । चटकीला लगता । देखने में अच्छा लगना । सुशोभित बोना । खिलना । सजान । जैसे— यह टोपी सफेद कपड़े पर खूब खुलती हैं । उ०— तेरे श्याम बिंदुलुया बहुत खुली । गोरे गोरे मुख पर श्याम बिदुलिया नैनन में य्य़ारे की घुली ।— भारतेंदु ग्रं, १. पृ० ३८६ । मुहां०— खुलता रंग = हलका सोहावना रंग । वह रंग जो बहुत गहरा न हो ।

खुलवा †
[देश०] गली हुई धातु को साँचे में भरने या ढ़ालनेवाला ।

खुलवाना
क्रि० स० [ हिं० खोलना] ' खोलना' क्रिया का प्रेयणा- थंक रूप ।

खुला
वि० पुं० [हिं० खुलना] [कौं खुली] १. बंधनरहित । जोबँधा न हो । २. आच्छादन रहित । ३. जिसे कोई रूकावट न हो । अवरोधहीन । ३. छिपा न हो । स्पष्ट । प्रकट । जाहिर । मुहा०— खुले खजाने = सबके सामने । किसी से छिपाकर नहीं । खुले दिल = उदारतापुर्वक । खुलेबंद = बेधड़क । नि? शंक । खुले मैदान = सबके सामने । खुले खजाने । खुला मैदान या स्थान = वह स्थान जहाँ चारों ओर से हवा आ सकती हो और दृष्टि के लिए कोई अवरोध नहो । खुली हवा = वह हवा जिसकी गति का अवरोध न होता हो ।

खुलापल्ला
संज्ञा पुं० [ हिं० खुला+पल्ला] दोनों हाथों से एक साथ या केवल बाएँ हाथ से तबले पर खुली थाप देकर बजाना आरंभ करना— (संगीत) ।

खुलासा
संज्ञा पुं० [अ०खुलासह्] सारांश । संक्षेप ।

खुलासा (२)
वि० [ हिं० खुलना] १. खुला हुआ । २. अवरोधरहित । बिना रूकावट का । जैसे — खुलासा दस्त होना । ३. साफ साफ । स्पष्ट । ४. संक्षिप्त । सारांशरूप । जैसे - खुलासा हाल ।

खुल्क
संज्ञा पुं० [ अ० खुल्क] सुशीलता । सज्जनता । अखलाक । उ०— निबेड़े अपस मुख हर तन के न्याव । वंदे खुल्क मरहम सूँहर दिल घाव ।— दक्खि्नी०, पृ० १४१ ।

खुल्त
संज्ञा पुं० [अ०] अच्छा स्वभाव । उत्तम प्रकृति । २. साझा । भागीदारी [को०] ।

खुल्द (१)
संज्ञा पुं० [ अ० खुल्द] १. स्वर्ग । उ०— आज तो यह तख्तये खुल्द बन गई हैं ।— प्रेमघन० भा० २, पृ० १३४ । २. अविनश्वरता ।— नित्यता ।

खुल्द (२)
संज्ञा स्त्री० छछूँदर [को०] ।

खुल्दा
संज्ञा पुं० [अ० खुल्दह्] कान का बुंदा । लटकन । झुमका [को०] ।

खुल्ल
वि० [सं०] १. क्षुद्र । नीच । ३. छोटा । लघु [को०] । यौ०— खुल्लतात = पिता को छोटा भाई । चाचा ।

खुल्लम
संज्ञा पुं० [सं०] चौड़ा मार्ग । सड़क [को०] ।

खुल्लमखुल्ला
क्रि० वि० [हि० खुलना] प्रकाश्य रूप से । खुले आम ।

खुवार †
सं० [ फा० ख्वार] दे० 'ख्वार' । बेद भेद सब खुवार पत्थल जल मानी ।— गुलाल० पृ० १२७ ।

खुवारी †
स्त्री० स्त्री० [फा० ख्वारी] दे० ' ख्वारी' ।

खुश
वि० [फा० खुश] १. प्रसन्न । मगन मुदित । आनंदित । २. अच्छा । विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल यौगिक शब्दों के आरंभ में ही आता हैं । यौ०— खुश आमदीद = भले पधारे । स्वागत वाक्य । खुश आवाज = अच्छे स्वरवाला । सुरीला । खुशआवाजी = सुरीला पन । सुस्वरता । खुश इंतिजाम = प्रबंध में दक्ष । प्रबंध- कुशल । खुशइंतिजामी— प्रबंधकौशल । प्रबंधक्षता । खश- खरामी— सुंदर चाल । मोहक गति । खुशखुश— प्रसन्न चित्त से । हँसी खुशी से । खुशखुराक— खाने पीने का शौकीन । खुशाखू- अच्छे स्वभाववाला । खुशगवार— (१) रूचिकर । (२) सुखद । आरामदेह । खुशगुजरान = संपन्न । खुशजायका— सुस्वादु । स्वादिष्ट ।

खुशकीस्मत
वि० [ फआ० खुश+किस्मत] भाग्यवान् । अच्छी किस्मतवाला ।

खुशकिस्मती
संज्ञा स्त्री० [फा०खुश+ किस्मत+ई(प्रत्य०)] सौभाग्य ।

खुशकी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुण्की] दें० ' खुश्की' ।

खुशखत
वि० [फा० खुशखत] १. जिसकी लिखावट सुंदर हो । २. सुंदर अक्षर लिखनेवाला ।

खुशखवरी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुश+खबरी] प्रसन्न करनेवाला समाचार । अच्छी खबर । क्रि० प्र०— देना ।— सुनना ।— सुनाना ।

खुशगुलू
वि० [फा० खुशगुलू] सुरील गलेवाला । खुश आवाज । मधुर कंठवाल । उ०— जहाँ कोई खुशगुण मिलै तुम वहाँ उसी का बोल सुनो ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० १९४ ।

खुशतर
[फ० खुशतर] बहुत अच्छा । श्रेष्ठतर [को०] ।

खुशदामन
संज्ञा स्त्री० [फा० खुश+ दामन] सास । श्वश्रू [को०] ।

खुशदिल
वि० [फा० खुशदिल] १. जो प्रत्येक दशा में आनंदित रहे । सदा प्रसन्न रहनेवाला । २. हँसोड़ । मसखरा ।

खुशदिलो
संज्ञा स्त्री० [फ० खुशदिली] १. आनंद । मस्ती । प्रस- न्नता । २. मसखरापन । हँसोड़पन ।

खुशनवीस
संज्ञा पुं० [ फ० खुशनवीस] सुंदर अक्षर लिखनेवाला व्यक्ति । वह जिसकी लिखावट बढ़िया हो ।

खुशनवीसी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशनवीसी] सुंदर अक्षर लिखने की कला ।

खुशनसीब
वि० [ फा० खुशनसीब] भाग्यवान् ।

खुशनसीबी
संज्ञा स्त्री० [फा० खश+ नसीबी] सौभाग्य ।

खुशनुमा
वि० [फा० खुशनुमा] जो देखने में भला मालूम हो । सुंदर । मनोहर ।

खुशानुमाई
वि० [फ० खुश+नुमाई (प्रत्य)] सुंदर होने का भाव । देखने में भला लगना [को०] ।

खुशनूद
वि० [फा० खुशनूद] प्रसन्न । संतुष्ट । रजामंद । उ०— वो खुशनूद अपना है कर जान शाह ।— दक्खिनी०, पृ० १६१ ।

खुशफाम
वि० [फा० खुशफम] सुंदर । प्रसन्नवदन । भव्य । उ०— वफादार खुशफाम, शीरीं कलाम । हुनर गैब के था समज में तमाम ।— दविखनी०, पृ० ८६ ।

खशबयान
वि० [फ० खुशबयान] अच्छा भाषण करनेवाला । सुवक्ता । भाषणमें कुशल [को०] ।

खुशबयानी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशबयान + ई (प्रत्य०)] सुंदर वार्ता माधुर्य । अच्छ भाषण [को०] ।

खुशबू
संज्ञा स्त्री० [ फा० खुशबु] सुगंध । सौरभ ।

खुशबूदार
वि० [फा० खुशबु+दार (प्रत्य०)] उत्तम गंधवाला । सुगंधयुत्क । सुगंधित ।

खुशमिजाज
वि० [फा० खुश+मिजाज] सदा प्रसन्न रहनेवाला । प्रसन्नचित्त । उ०— यद्यवि हँसमुख खुशमिजाज, मजाकपसंद थे ।— अकबरी०, पृ० ८७ ।

खुशमिजाजी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशमिजाज+ ई (प्रत्य०)] जिदादिली । प्रसन्नता ।

खुशरंग (१)
वि० [फा० खुश+ रंग] चटकीले रंगवाला । जिसका रंग बढ़िया हो ।

खुशरंग (२)
संज्ञा पुं० चटकीला रंग ।

खुशहाल
वि० [फा० खुश+ रंग] जिसकी स्थिति बहुत अच्छी हो । सुखी । संपन्न ।

खुशहाली
संज्ञा स्त्री० [फा० खुसी+ हाली] उत्तम दशा । अच्छी अवस्था । संपन्नता ।

खुशाब
संज्ञा पुं० [फा०] धान की निरौनी का एक ढंग, जिसका चलन कश्मीर देश में है ।

खुशामद
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशामद] वह झुठी प्रशंसा जो केवल दुसरे को प्रसन्न करने के लिये की जाय । चाटुता । चापलुसी ।

खुशामदी
वि० [फा० खुशामद+ ई (प्रत्य०)] १. खुशामद करनेवाला । चापलुस । चाटुकार । यौ०—खुशामदी टट्टु । २. सब प्रकार का काम करनेवाला । ऊँच नीच सब प्रकार की टहल वा सेवा करनेवाला ।—(बुँदेलखंड) ।

खुशामदी टट्टु
संज्ञा पुं० [हिं० खुशामदी+टट्टु] वह जिसकी जीविका केवल खशामद से ही चलता हो । भारी खुशामदी ।

खुशायाली †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशहाली] १. आनंद । खुशी । प्रसन्नता । २. कुशल क्षेम । खैर आफियत ।

खुशी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशी] १. आनंद । प्रसन्नता । क्रि० प्र०—करना ।—मानना । मुहा०—खुशी खुशी= प्रसन्नता से । आनंद सहित । २. ठगों की भाषा में, उनका निशान और कुल्हाड़ा जो उनके गरोह के आगे चलता है ।

खुश्क
वि० [फा० खुश्क, तुल० सं० शुष्क] १. जो तरंन हो । सुखा । शुष्क । यौ०—खुश्कसाली । २. जिसमें रसिकता न हो । सुखे स्वभाव का । ३. बिना किसी और प्रकार की आय या सहायता के । केवल । मात्र । जैसे,— नौकर को खुश्क ४) मिलते हैं । विशेष-इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल वेतन के लिये होता है ।

खश्कसाली
संज्ञा स्त्री० [फा० खुश्कसाली] अनावृष्टि ।—मेंह चाहे जिस कदर बरसे काल न पड़ेगा और खुश्कसाली हो तो काल कहीं लेने नहीं जाना है ।—फिसाना०, भा०३, पृ० ६१ ।

खुश्का
संज्ञा पुं० [फा० खुश्कह्] केवल पानी में उबालकर पकाया हुआ चावल । भात ।

खुश्की
संज्ञा स्त्री० [फा० खुश्की] १. रुखापन । रुखाई । शुष्कता । नीरसता । क्रि० प्र०—आना ।—लाना । २. स्थल वा भुमि । (जल का विरोधी) जैसे—खुश्की के रास्ते से जाने में दस दिन लगेंगे । ३. वह सुखा आटा जो गीले आटे की लोई या पेड़ें पर लगाया जाता है । पलेथन । ४. अकाल । अवर्षण । खुशकसाली ।

खुसटिया
वि० [हिं० खुसटX इया](प्रत्य०)] खुसट का अल्पा- र्थक । तुच्छ । उ०—डर से डबडब करते तारे देख तिमिर का सिंधु अथाह । वह छोटी सी जान खुसटिया, चौंक चीख हो गई तबाह ।—प्रवासी०, पृ० ६० ।

खुसफुसाहट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुसफुस+ आहट (प्रत्य०)] दे० 'खुसर फुसुर' । उ०—बाहर कुछ खुसफुसाहट और पैरों का शब्द सुनाई पड़ा ।—झाँसी०, पृ० ६२ ।

खुसफैली †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशफेली] आनंद । तफरीह । आराम । उ०—तो इतने में बड़ी खुशफैली से काम चल जायगा ।—गोदान, पृ० २६२ ।

खुसबोई पु
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशबु] दे० 'खुशबु' । उ०—है खुशबोई पास में जानि परै सोय । भरम लगै भटका फिरै तिरथ बरत सभ कोय ।—सं० दरिया, पृ० ३४ ।

खुसबोह †
संज्ञा स्त्री० [फा० 'खुशबु'] उ०—जाहर जस खुसबोई जुत, सुदरा कुसम सुसोह । काँटाँ सुँ भुडो, क्रपण वप अपजस बदबोह ।—बाँकीं० ग्रं० भा० ३, पृ० ४८ ।

खुसरंग
वि० [फा० खुशरंग] दे० 'खुशरंग' । उ०—कहैं दरिया गुन गुन खुसरंग है मस्त मन मगन दिल ऐन आनी ।—सं० दरिया, पृ० ७३ ।

खुलामत पु
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशामद] दे० 'खुशामद' । उ०— करत खुसामत तिनकी ।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ५६ ।

खुसाल
वि० [फा० खुशहाल] आनंदित । मुदित । खुश ।

खुसियाल पु
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशी+हाल] खुशी । प्रसन्नता । उ०—दाखी अरज टुरग्ग याँ, सब खेल करा सँघार । साहब मन खुसियाल सुँ जीवै साल हजार ।—रा०, रु०, पृ० १११ ।

खुसिहारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कोशकार हिं० कुसवारी] दे० 'कुसवारी' । उ०—खुसिहारी के किरिम महैं किन्ह दिया है ।—पलटु, पृ० ९९ ।

खुसुर
संज्ञा पुं० [फा० खुसुर] श्वसुर । पत्नी का पिता । उ०— नब्बाब साहिब के वालिदे माजिद के साले का दामाद हुँ ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ८६ ।

खुसिया
संज्ञा पुं० [अ० खुसियह्] अंडकोश । फीता । यौ०-खुसिया बरदार= खुशाकदी । चाटुकार खुसिनाबरदाही- बहुत अधिक खुशामद ।

खुसी पु
वि० [फा० खुश] प्रसन्न । खुश । ब०—जब तुम खुसी सुचित्त होत हौ, तब मैं सुरति मिलावौ ।—जग० वानी, पृ० ११ ।

खुसुरफुसुर (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बहुत धीमी आवाज से कही हुई बात । चुपके चुपके की बातचीत । कानाफुसी । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—होना ।

खुसुरफुसुर (१)
क्रि० वि० बहुत धीमी आवाज से । अस्फुट स्वर से । सायँ सायँ । फुसफुस ।

खुसुमत
संज्ञा स्त्री० [अ० खुसमत] १. शत्रुता । बैर । २. लड़ाई । झगड़ा [को०] ।

खुसुस
संज्ञा पुं० [अ० खुसुस] दे० 'खुसुसियत' ।

खुसुसियत
संज्ञा स्त्री० [अ० खुसुसियत] दे० १. विशेषता । खात बात । २. प्रेमभाव । मेल [को०] ।

खुसूसी
वि० [अ० खुसूसी] विशेष । खास [को०] ।

खुस्याल
वि० [फा० खुशहाल हिं, खुसियाल] दे० 'खुसाल' उ०— छुटन न पैंयत छिनह बसि नेह यह चाल । मारयो फिरि फिरि मारिए खुनी फिरत खुस्याल ।—बिहारी (शब्द०) ।

खुहार
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुही' ।

खुही
संज्ञा स्त्री० [सं० खोलक] इस प्रकार का लपेटकर बनाया हुआ कंबल या कपड़ा जिसे सिर पर डाल लेने से शरीर का ऊपरी भाग शीत या वर्षा से बचा रहता है । प्रायः अहीर, गड़ेरिए आदि इसका व्यवहार करते हैं) खोही । घोघी । खुड़आ । उ०—सांवरी कामरी की है खुही, बलि साँवरे पैचली साँवरी ह्यै के ।—पद्माकर (शब्द०) ।

खुँखार
वि० [फा० खुख्वार] १. रक्तपान करनेवाला । खुन पीनेवाला । २. भयंकर । डरावना । ३. क्रुर । निर्दय ।

खुँखारी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुखारी] निर्दयता । अत्याचार ।

खुंट (१)
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड] १. छोर । कोना । उ०—पीतांबर को खुँट लै आए अवध बिसेखि ।—विश्राम (शब्द०) ।२. भारी, चौकोर या गोल पत्थर जो मकान की मजबुती के लिये कोनों पर लगाया जाता है । ३. ओर । प्रात । तरफ । उ०— दुइ ध्रुव दुहुँ खुँट बैसारे ।—जायसी (शब्द०) । ४. भाग । हिस्सा । जैसे,—खुँटैत ।५. बहुत छोटी पुरी जो देवी, देवता को चढ़ाने कि लिये बनती है । ६. लकड़ी पर का महसुल । ७. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना । उ०— कानन्ह कुंडल खुँट औ खुँटी । जानहु परी कचपची टुटी ।— जायसी (शब्द०) ।

खुँट (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कान का एक बड़ा गहना जो गोल दीए के आकार का होता है । बिरिया । उ०—तेहि पर खुँट दीप दुई बारे । दुई ध्रुव दुहुँ खुँट बैसारे ।—जायसी (शब्द०) ।

खुट (३)
संज्ञा पुं० [देश०] आठ सेर की तौल जो घी, तेल आदि के लिये प्रचलित थी ।

खुँट (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुँटना] रोक । पुछताछ । जैसे,—वहाँ किसी तरह की खुँट पुछ नहीं होती; तुम डरते क्यों हो ।

खुँट (५)
संज्ञा पुं० [हिं०] कान का मैल । यौ०—खुँडकढ़वा ।

खुँटना
क्रि० स० [सं० खण्डन = तोड़ना] १. कुछ पुछताछ करना । टोकना । २. छोड़छाड़ करना । उ०—गागरि मारै काँकरी सो लागै मेरे गात री । गैल माँझ ठाढो रहै मोहिं खुँटै आवत जात री ।—(शब्द०) । १. कम होना । घटना । चुकना । ४. दे०'खोंटना' ।

खुँटा
संज्ञा पुं० [सं० क्षोड] [अल्पा० स्त्री० खुँटी] १. बड़ी मेख जिसको भुमि में गाड़कर उसमें किसी पशु को बाँधते हैं । २. कोई लकड़ी जो भुमि पर खड़ी गड़ी हो और जिसमें कोई वस्तु बाँधी या अटकाई जाय । ३. कोई खड़ी गड़ी हुई लकड़ी । मुहा०—खुँटा गाड़ना = (१) सीमा निर्धारित करना । हद बाँधना । केंद्र निर्धारित करना । (२) बराबर एक ही स्थान पर दिखाई पड़ना । अड्डा या ठिकना बना लेना । खुँटे के बल उछलना या कुदना = किसी आश्रय या आधार के बल पर कुदना ।

खुँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुँटा] १. छोटी मेख । २. नील, अरहर या ज्वार के पौधे का वह सुखा डठल जों फसल काट लेने पर खेत में गड़ा रह जाता है । ३. गुल्ली । अंटी । ४. बालों के कड़े अंकुर जो मुँडने के पीछे जाते हैं या निकलते हैं ।मुहा०—खुँटी निकालना या लैना = ऐसा मुड़ना कि बाल की जड़ तक न रह जाय । ५. नील की दुसरी फसल जो एक बार फसल काट लेने पर उसकी जड़ से पैदा होती है । इसे दोरेजी भी कहते हैं । ६. सीमा । हद । ७. मेख के आकार का लकड़ी आदि का वह छोटा टुकड़ा जो किसी चीज में किसी दुसरी चीज के चटकाने आदि के लिये लगा रहता है । जैसे,—खड़ाऊँ की खुँटी । सितार की खुँटी । मुहा०—खुँटी कसना = सितार आदि तंत्रवाद्यों के तार को खुँटी ऐठकर कसना ।

खुँटी उखाड़
संज्ञा पुं० [हिं० खुँटी+उखाड़ना] घोड़े की एक भौरी जो पैरों में पुट्ठे के पास होती है और जिसका मुंह ऊपर की ओर होता है । जिस घोड़े को यह भौरी होती है, वह बड़ा ऐबी समझा जाता है ।

खुँटी गाड़
संज्ञा पुं० [हिं० खुँटी+गाड़ना] घोड़े की एक भौरी जो पौरों में पुट्ठे के ऊपर होती है और जिसका मुह नीचे की ओर होती है । जिस घोड़े को यह भौरी होती है वह कुछ ऐबी समझा जाता है ।

खुँड़ा
संज्ञा पुं० [सं० क्षोड़=खुँटा] लोहे की वह पतली छड़ जिसमे नरा लगाकर जुलाहे ताना तनते हैं ।

खुँड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुँड़ा] एक पतली लकड़ी जिसके सिर पर काँच का एक चुल्ला फोड़कर बाँध देते हैं । इसी चुल्ले में रेशम के महीन तागे डालकर जुलाहे ताना तनते हैं ।

खुँथा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खुत्थां' ।

खूँद
संज्ञा स्त्री० [सं० खुर्द, हिं०, खुँदना] थोड़ी जगह में घोड़े का इधर उधर चलते रहना । उ—करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन । लाज नवाये तरफरत करत खुँद सीनैन ।— बिहारी (शब्द०) । विशेष—जब किसी घोड़े को सवार एक स्थान पर कुछ देर तक खड़ा रखना चाहता है, तब वह घोड़ा सीधा और चुपचाप खड़ा न रहकर थोड़ी सी जगह में ही आगे पीछे हटता और घूमता रहता है । इसी हटने और घुमने को खुँद कहते हैं ।

खूदना
क्रि० अ० [सं० क्षुणणन अथवा क्षुरण = पिसाया कुचला हुआ । अथवा खुण्डन =तोड़ना] १. पैर उठा उठाकर जल्दी जल्दी भुमि पर पटकना । उछल कुद करना । २. पैरों से रौदना । रौंद रौंदकर खराब कर देना । उ०—खमरो खाद खुँद छिमला सों । रौद राठ भज्या भौरा सों ।—लाल (शब्द०) । ३. कुचलना । कुटना ।

खु
संज्ञा स्त्री० [फा० खु] स्वभाव । प्रकृति । आदत । टेव (को०) ।

खूख
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक कीड़ा जो चैती फसल को जाड़े में नाश करता है इसे खुखी भी कहते हैं । कुकी । कुकुही । गेरुई ।

खूखू †'
संज्ञा पुं० [फा० खुक] शुकर । सुअर ।

खुच
संज्ञा स्त्री० [देश०] जल डमरुमध्य ।—(लश०) ।

खुझा
संज्ञा पुं० [सं० गुह्यय, प्रा० गुज्झ या सं० शुष्क] १. किसी फल आदि के अंदर का वह रेशेदार भाग जो निकम्मा समझकर फेंक दिया जता है । जैसे,—नेनुए का खुझा ।

खुटना (१)
क्रि० अ० [सं० खुण्डन] १. अवरुद्ध होना । रुक जाना । बद हो जाना । उ०—छोड़ दई सरिता सब काम मनोरथ के रथ की गति खुटी ।—केशव (शब्द०) २. कम हो जाना । चुक जाना । खतम हो जाना । उ०—कागज गरे मेघ मसि खुटी सर दौ लागि जरे । सेवक सुर लिखै ते आधो पलक कपाट अरे ।—सुर (शब्द०) ।

खुटना (२)
क्रि० स० [सं० खण्ड] छेड़ना । उ०—असनेहिन हित नगर में सकत न कोऊ खुट । चतुर जगाती लाल दृग लेत सनेहिन लुट ।—रसिनिधि (शब्द०) ।

खुद
संज्ञा पुं० [सं० क्षद्र] किसी वस्तु को छान लेने या साफ कर लेने पर निकम्मा बचा हुआ भाग । तलछट । मैल ।

खुदड़ †, खुदर †
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्र, हिं० खुद] दे० 'खुद,' ।

खुन
संज्ञा पुं० [फा० खुन] १. रक्त । रुधिर । लहु । क्रि० प्र०—गिरना ।—चलना ।—जमना ।—निकलना ।— निकालना ।—बहना ।—बहाना । मुहा०—खुन उबलना या खोलना = क्रोध से शरीर लाल होना । गुस्सा चढ़ना । आँखों में खुन उतरना = अत्यंत क्रोध के कारण आखों लाल हो जाना । खुन जमना = अत्यधिक शीत के कारण रक्त प्रवाह का रुक जाना । खुन के आँसु रोना = अत्यंत शोकार्त होना । खुन का प्यासा = वध का इच्छुक । खुन खुश्क होना या सुखना = अत्यंत भयभीत होना । खुन सफेद हो जाना = सुजनता या स्नेह आदि का नष्ट हो जाना । खुन सिर पर चढ़ना या सवार होना = किसी को मार डालने या किसी प्रकार का और कोई अनिष्ट करने पर उद्यत होना । खुन बिगड़ना = (१) रक्त में किसी प्रकार का विकार होना । (२) कोढ़ी हो जाना । खुन का जोश = वंश या कुल का प्रेम । खुन बहाना = मार डालना । खुन निकलवाना = फसल खुल वाना । खुन पीना = (१) मार डालना (२) बहुत तंग करना । सताना । (३) बहुत दुःख सहना । २. वध । हत्या । कतल । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—खुनखराबा ।

खुनखराबा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०खुन+खराबी] मारकाट ।

खुनखराबा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की वार्निश जो लकड़ी पर की जाती है ।

खुनखराबा (३) †
संज्ञा पुं० [देश०] मजीठ ।

खुनी
वि० [फा०] १. मार डालनेवाला । हत्यारा । घातक । उ०— छुटन न पैंयत छिनक बसि नेह नगर यह चाल । मारयो फिरि फिरि मारिये खुनी फिरत खुस्याल ।—बिहारी (शब्द०) । २. अत्याचारी । जालिम ।

खुब
वि० [फा० खुब] [संज्ञा खुबी] अच्छा । भला । उमदा । उत्तम । यौ०—खुबसुरत ।

खुब (२)
अव्य० साधुवाद । वाह । क्या । खुब । साधु ।

खब (३)
क्रि० वि० पुर्ण रीति से । अच्छी तरह से ।

खुबकलाँ
संज्ञा स्त्री० [फा० खुबकलाँ] फारस देश के माजिंदराँ नामक प्रांत में उत्पन्न होनेवाली एक प्रकार की घास के बीज, जो पोस्ते के दानों के समान और गुलाबी रंग के होते हैं । खाकसीर । विशेष—दे० 'खाकसीर' ।

खुबड़खाबड़ †
वि० [अनु०] जो बराबर या समथल न हो । ऊँचा नीचा । विषम ।

खुबरु
वि० [फा० खुबरु] [संज्ञा स्त्री० खुबरुई] सुंदर ।

खुबसुरत
वि० [फा० खुबसुरती] सुंदर । रुपवान ।

खुबसुरती
संज्ञा स्त्री० [फा० खुबसुरत] सौंदर्य । सुंदरता ।

खुबानी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुबानी] एक प्रकार का मेवा । जर- दालु । कुशमालु । विशेष—इसका पेड़ काबुल की पहाड़ियों पर होता है । वही से यह मेवा भारत में आता है । इसे जरदालु भी कहते हैं । इसके फल सुखा लिए जाते है और इसके बीजों से तेल निकाला जाता है, जिसे 'कड़ुए' बादाम का तेल' कहते हैं । इसके पेड़ से एक प्रकार का कतीरे की भाँति का गोंद निकलता है, जिसे 'चेरी गम' कहते है । इसके फल मई से सितंबर तक पकते हैं । इसका पेड़ मझोले डील का होता है और हर साल इसके पत्ते झड़ते हैं ।

खुबी
संज्ञा स्त्री० [फा० खुब] १. भलाई । अच्छाई । अच्छापन । उम्दगी । २. गुण । विशेषता । विलक्षणता ।

खुरन
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षर] हाथियों के पैरों के नाखुनों की एक बीमारी जिसमें हाथी लँगड़ाने लगता है ।

खुलिजान
संज्ञा पुं० [फा० खुलंजान] कुलंजन । पान की जड़ [को०] ।

खुसट (१)
संज्ञा पुं० [सं० कौशिक] उल्लु । घुग्घु । उ०—उँजियार बैठ जस तपै । खुसट मुँहन दिखावै छपै ।—जायसी (शब्द०) ।

खुसट (२)
वि० १. जिसे आमोद प्रमोद न भावे । शुष्कहृदय । अरसिक । मनहुस । २. बुड्ढा । खब्बास । डोकरा ।

खुशर (१) †
संज्ञा पुं० [हिं,० खुसट] दे० 'खुसट' । उ०—राजमराल को बालक पेलि के पालत लालत खुसर को ।—तुलसी (शब्द०) ।

खुसर (२)
वि दे० 'खुसट' ।

खृष्टीय
वि० [अ० क्राइस्ट> हिं० खृष्ट+सं० ईय (प्रत्य०) ] ईसा संबंधी । ईसा का । ईसाई ।

खेई
संज्ञा स्त्री० [देश०] झड़बैरी की सुखी झड़ी । झाड़ झंखाड़ ।

खउ
संज्ञा पुं० [देश०] बरमा, स्याम और मनीपुर के जगलों में होने वाला एक बड़ा पेड़, जिसकी लकड़ी बहुत अच्छी होती है । विशेष—इस पेड़ का रस बनी बनाई वारनिश का काम देता है । जुलाई से अक्टुबर तक इसके पेड़ों से जो रस निकाला जाता है, वह उत्तम समझा जाता है ।

खेकसा
संज्ञा पुं० [देश०] परवल के आकार का एक फल जो तरकारी के काम आता है । ककोड़ा । विशेष—इसकी बेल प्रायः जंगलों और झाड़ियों में आपसे आप उगती है । यह बेल कुँदरु की बेल के समान होती है और इसमें पीले फुल लगते हैं । इसका कच्चा फल हरा होता है और पकने पर लाल हो जाता है । इसका स्वाद करैले से मिलता जुलता होता है और इसके ऊपरी भाग में मोटे, कड़े काँटे या रोएँ होते हैं । वैद्यक में इसे चरपरा, गरम, पित्त, वात और विष का नाशक, दीपन और रुचिकारक कहा है; और कुष्ठ, अरुचि, खाँसी और ज्वर को दुर करनेवाला माना है । इसके पत्ते वीर्यवर्धक, त्रिदोषनाशक और रुचिकारक होते हैं तथा कृमि, क्षय, हिचकी ओर बवासीर तो दुर करते है ।

खेखसा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खेकसा' ।

खेचर (१)
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री० खेचरी] आकाशचारी ।

खेचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो आसमान मे चले । आकाशचारी । २. सुर्य चंद्रादि ग्रह । ३. तारागण । ४. वायु । ५. देवता । ६. विमान । ७. पक्षी । ८. बादल । ९. भुत प्रेत । १० राक्षस । ११. विद्याधर । १२. शिव । १३. पारा १४. कसीस । तूतिया ।

खेचरान्न
संज्ञा पुं० [सं०] खिचड़ी ।

खेचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम । २. आकाश- चारिणी स्त्री । परी । ३. आसमान में उड़ने की विद्या या शक्ति (को०) ।

खेचरी गुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार की योगसिद्ध गोली जिसके मुँह में रखने से आकाश में उड़ने की शक्ति आ जाती है ।

खेचरी मुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योगसाधन की एक मुद्रा । विशेष—योगी इस मु्द्रा में जबान को उलटकर तालु से लगाते है और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच मस्तक पर लगाते हैं । इस स्थित में चित्त और जीभ दोनों ही आकाश में स्थित रहते हैं, इसी लिये इसे 'खेचरी' मुद्रा कहते हैं । इसके साधन से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता । २. तंत्र के अनुसार एक प्रकार की मु्द्रा जिसमें दोनों हाथों को एक दुसरे पर लपेट लेते हैं ।

खेचरोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] सुर्य (को०) ।

खेजड़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] शमी का वृक्ष ।

खेट
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेतिहरों का गाँव । खेड़ा । खेरा । २. घास । ३. बारहों ग्रह । ४. घोड़ा । ५. मृगया । शिकार । आखेट । ६. कफ । ७८. ढाल । सिपर । ८. लाठी । छड़ी । ९. चमड़ा । १०. एक प्रकार का अस्त्र । ११. तृण । तिनका । १२. बलराम की गदा (को०) । विशेष—समास के अंत में आने पर यह शब्द सदोषता, क्षुद्रता; भाग्यहीनता तथा ह्यास आदि अर्थ देता है; जैसे,—नगर- खेटम्' अर्थात् अभागा नगर, क्षुद्र नगर ।

खेटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेड़ा । गाँव । २. सितारा । तारा । ३. बलदेव जी की गदा । ४. ढाल । ५. लाठी ।

खेटक (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० आखेटक] शिकार । मृगया ।

खेटकी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भड़्डरी । भड़ैरिया । भड्डर । उ०—कोई पुछे चेटकीन कोई पुछे खेटकीन कोई नैष्ठिकिन पुछै कोई पुछै काग तें ।—रघुराज (शब्द०) ।

खेटकी (२)
संज्ञा पुं० [सं० आखेटकी] १. शिकारी । अहेरी । २. वधिक ।

खेटितान
संज्ञा पुं० [सं०] गीत वाद्य के द्धारा स्वामी को जगानेवाला—वैतालिक । चारण बंदीजन [को०] ।

खेटिताल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खेटितान' ।

खेटी (१)
वि० [सं० खेटिन्] चरित्रहीन । कामी ।

खेटी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैतालिक । चारण । २. नागरिक । नगरवासी [को०] ।

खेड
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा गाँव । खेट । खेटक [को०] ।

खेड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० खेटक] छोटा गाँव । यो०—खेड़ापति । मुहा०—खेड़े की दुब = अत्यंत बलहीन । दु्र्वल या तुच्छ । उ०—ठ नंदनंदन ले गए हमारी सब ब्रजकुल की ऊब । सुरश्याम तजि औरौ सुझै ज्यौं खेड़े की दुब ।—सुर (शब्द०) ।

खेड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कई प्रकार का मिला हुआ रद्दी और सस्ता अनाज, जो प्रायः पालतु चिड़ियों विशेषतः कबुतरों को खिलाया जाता है । करकर ।

खेड़ापति
संज्ञा पुं० [हिं० खेड़ा+सं० पति] १. गाँव का मुखिया । ५. गाँव का पुरोहित ।

खेड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का देशी लोहा । विशेष—इसके बने हुए हथियार बहुत तेज होते हैं यह एक प्रकार फौलाद है और नेपाल में बहुतायत से बनता है । इसे कहीं कहीं झरकुटिया लोहा भी कहते हैं । २. वह मांसखंड जो जरायुज जीवों के बच्चों की नाल के दुसरे छोर में लगा रहता है ।

खेढ़ा †
संज्ञा पुं० [फा० खैल या हिं० खेड़ा] समुह । जमात । जैसे—साधुओं का खेढा ।

खेढ़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'खेड़ी' ।

खेत
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्र] २. वह भुमिखंड जो जोतनें बोने और अनाज आदि की फसल उत्पन्न करने के योग्य हो । जोतने बोने की जमीन । क्रि० प्र०—जोतना ।—निराना ।—बोना । मुहा०—खेत कमाना = खाद आदि डालकर खेत को उपजाऊ बनाना । खेत करना = (१) समथल करना । उ०—सोखि कै खेत कै बाँधि सेतु करि उतरिबो उदधि न बोहित चहिबो ।— तुलसी (शब्द०) उदय के समय चंद्रमा का पहले पहल प्रकाश फैलाना । खेत काटना = खेत में उपजी हुई फसल काटना । खेत रखना = खेत की रखवाली करना । उ०— राखति खेत खरी खरे उरोजन बाल ।—बिहारी (शब्द०) । २. खेत में खड़ी हुई फसल । क्रि० प्र०—काटना ।—खाना । ३. किसी चीज के विशेषतः पशुओं आदि के उत्पन्न होने का स्थान या देश । जैसे,—यह घोड़ा अच्छे खेत का है । ४. समरभुमि । रणक्षेत्र । उ०—हतौं न खेत खेलाइ खेलाई । तोहि अबहि का करौ बड़ाई ।—मानस, ६ । ३४ । मुहा०—खेत आना = युद्ध में मारा जाना । उ०—खड़गी न खेत आयो, कोपित करिदै धायो भरत बचायो गुहरायो रघुबीर को ।—रघुराज (शब्द०) । खेत करना = युद्ध करना । लड़ना । खेत छोड़ना = रणभुमि में परास्त होना । रणभुमि छोड़कर भाँगना । खेत पड़ना = दे०'खेत आना' खेत मारना = दे० 'खेत रखना' । खेत रखना = समर में विजय प्राप्त करना । खेत रहना=दे० 'खेत आना' । ५. तलवार का फल ।

खेतिहर
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्रधर या हिं० खेती + हर] खेती करनेवाला—कृषक । किसान ।

खेती
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेत+ई(प्रत्य०)] १. खेत में अनाज बोने का कार्य । कृषि । किसानी । काश्तकारी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—खेती बारी । २. खेत में बोई हुई फसल । जैसे—खेती सुख रही है । मुहा०—खेती मारी जाना = फसल नष्ट होना ।

खेतीबारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेती + बारी = बाग बगीचा] किसानी । कृषि ।

खेद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० खेदित, खिन्न] १. अप्रसन्नता । दुःख । रंज । २. चित्त ती शिथिलता । थकावट । ग्लानि । जैसे,— सरतिखेद ।

खेदना † (१)
क्रि० स० [सं० √ खिद् >खेदन] मारकर हटाना । भगाना । खदेरना ।

खेदना (२)
क्रि० स० [सं० खेटन] शिकार के पिछे दौ़ड़ना । शिकार का पीछा करना ।

खेदा
संज्ञा पुं० [हिं० खेदना] १. किसी बनैले पशु को मारने या पकड़ने के लिये उसे घेरकर एक उपयुक्त स्थान पर लाने का काम । २. शिकार । अहेर । आखेट ।

खेदाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेदना] १. खेदने का भाव । २. खेदने का काम । ३. खेदने की मजदुरी ।

खेदित
वि० [सं०] १. दुःखित । खिन्न । रंजीदा । २. परिश्रम से थका हुआ । शिथिल ।

खेना
क्रि० स० [सं० क्षेपण, प्रा० खेवण] १. नाव के डाँड़ों को चलाना जिसमें नाव चले । नाव चलाना । २. कालक्षेप करना । बिताना । काटना । गुजारना । जैसे—हमने भी अपने बुरे दिन खे डाले ।

खेप (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेप] १. उतनी वस्तु जितनी एक बार में ले जाई जाय । एक बार का बोझ । लदा माल । लदान । उ०—आयो घोष बड़ी व्यापारी । लादि खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आनि उतारी ।—सुर (शब्द०) । मुहा०—खेप भर = एक बार का बोझा । एक बार को लदाई जायक । खेप लदाना = एक बार ढोने योग्य माल को बैलगाड़ीआदि पर रखना । खेप लादना = गाड़ी पर सामान लादना या रखना उ०—यह खेप जो तुने लादी है सथ हिस्सों में बट जाएगी ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ३०९ । खेप हारना = माल में घाटा उठाना । २. गाड़ी नाव आदि की एक बार की यात्रा । जैसे,—दुसरी खेप में इसे भी लेते जाना ।

खेप (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० आक्षेप] दोष । ऐब । क्रि० प्र०—देना ।—धरना ।—लगना ।

खेप (३)
संज्ञा स्त्री० १. खोटा सिक्का । २. वह सिक्का जो कौढ़ा लगने की वजह से बाजार में न चल सके ।

खेपना
क्रि० स० [सं० क्षेपण] बिताना । काटना । गुजारना । उ०— कैसे दिन खेपब रे ।—कबीर (शब्द०) ।

खेपड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेपणी] नौका खेने का दंड । पतवार । डाँड ।—(डिं०) ।

खेम
संज्ञा पुं० [सं० क्षेम] सं० 'क्षेम' । यौ०—खेम करी = क्षेमकरी पक्षी । खेम कुसल = कुशल क्षेम । उ०—दानि कहाउब अरु कृपनाई । होई कि खेमकुशल रौताई ।—मानस, २ । ३५ ।

खेम कल्यानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'क्षेमकरी' ।

खेमटा
संज्ञा पुं० [देश०] १. बारह मात्राओं का एक ताल । विशेष—इस ताल में तीन आघात और एक खाली होता है । इसका बोल यह है? +  । । ।  ३  ०  १  + धा  के टे ना  धि ना ते टे धि ना धि ना । धा । कोई कोई इसे केवल आठ मात्राओं का ताल मानते हैं । उनके अनुसार इसका बोल इस प्रकार है? +   ३  ०  १  + धागेधि  नातिच  नागोधि  नातीन  धा +  ०  ँ  ३ँ  ४  ँ+ अथवा,  धाकेड़े,  धिन्  धिन्  ताकेड़े  तिन्    तिन् धा । २. इस ताल पर गाया जानेवाला गाना । ३. इस ताल पर होनेवाला नाच ।

खेमा
स्त्री० पुं० [अ० खमिह्] तंबु । डेरा । क्रि० प्र०—खड़ा करना ।—गाड़ना ।-डालना ।

खेय
वि० [सं०] खोदने के योग्य । जो खोदा जा सके । [को०] ।

खेय (२)
संज्ञा पुं० १. खंदक । खाई । २. पुल [को०] ।

खेरबा †
संज्ञा पुं० [हिं० केना] समुद्र में जहाज आदि चलानेवाला मल्लाह ।

खेरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खेड़ा' । उ०—बन प्रदेश मुनि बास घनेरे । जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे ।—तुलसी (शब्द०) ।

खेरापति †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खेड़ापति' ।

खेरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बंगाल में अधिकता से होनेवाला एक प्रकार का गेहुँ जो लाल रंग का और बहुत कड़ा होता है । २. एक प्रकार की घास जो आस्ट्रिलिया नामक देश में बहुतायतॉ से होती है । यह पशुओं के लिये बहुत अच्छा चारा है । ३. एक प्रकार का जलपक्षी जो प्रायः दलदलों में रहता है और ऋतुपरिवर्तन के साथ साथ अपना स्थान भी बदलता रहता है । यह उड़ता कम और दौड़ता अधिक है । इसका मांस स्वादिष्ट होता है; इसलिये लोग इसका शिकार भी करते हैं । ४. दे० 'खेड़ी' ।

खेरौरा
संज्ञा पुं० [हिं० खाँड+औरा (प्रत्य०) खँडौरा या ओला नाम की मिठाई । मिसरी का लड्डु । उ०—दुती बहुत पकावन साधे । मोतिलाडु औ खेरौरा बाँधै ।—जायसी (शब्द०) ।

खेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. केवल चित्त की उमंग से अथवा मन बहलाने या व्यायाम के लिये इधर उधर उछल कुद और दौड़ धुप या कोई साधारण मनोरंजक कृत्य, जिसमें कभी हार जीत भी होती है । जैसे,—आँख मिचौली, कबड्डी, ताश, गेंद शतरंज आदि । क्रि० प्र०—खेलना । मुहा०—खेल के दिन = बाल्यावस्था । खेल खेलना = बहुत तंग करना । खंब दिक करना । २. मामला । बात । मुहा०—खेल बिगड़ना = (१) काम खराब होना । (२) रंग में भंग होना । ३. बहुत हलका या तुच्छ काम । क्रि० प्र०—जानना । समझना । मुहा०—खेल करना = किसी काम को अनावश्यक या तुच्छ समझकर हँसी में उड़ाना । खेल समझना = साधारण या तुच्छ समझना । ४. कामक्रीड़ा । विषयविहार । ५. किसी प्रकार का अभिनय, तमाशा, स्वाँग या करतब आदि । ६. कोई अदभुत कार्य । विचित्र लीला । उ०—यह कुदरत का खेल— कहावत ।

खेल (२)
संज्ञा पुं० वह छोटा कुँड चौपाए पानी पीते हैं ।

खेलक पु
संज्ञा पुं० [हिं० खेलना या हिं० खेल+क (प्रत्य०)] । खेलनेवाला व्यक्ति । वह जो खेले । खिलाड़ी । उ०—व्योम विमाननि बिबुध विलोकत खेलक पेखक छाँह छंये ।—तुलसी (शब्द०) ।

खेलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाना डुलाना । नचाना (नेत्र) । २. खेलने का भाव । आमोद प्रमोद । मनबहलाव । ३. नाटक, स्वाँग, अभिनय आदि खेल (को०) ।

खेलना (१)
क्रि० अ० [सं०] [प्रे० रुप खेलना] १. केवल चित्त की उमंग से अथवा मन बहलाने या व्यायाम के लिये इधर उधर उछलना, कुदना, दौ़ड़ना आदि । जैसे,—लड़के बाहर खेल रहे हैं । मुहा०—खेलना खाना = आनंद से दिन बिताना । निश्चित होकर चैन से दिन काटना । जैसे,—अभी तुम्हारे खेलने खाने के दिन है; सोच करने के नहीं । उ०—(क) खेलत खात रहे ब्रज भीतर । नान्हीं जाति तनिक धन ईतर ।—सुर (शब्द०) ।(ख) खेलत खात लरिकपन गो जोबन जुबतिन लियो जीति ।—तुलसी (शब्द०) । २. कामक्रीड़ा करना । बिहार करना । मुहा०—खेली खाई = पुरुष समागत से जानकारी (स्त्री) । खुल खेलना = खुल्लमखुल्ला कोई ऐसा काम करना जिसके करने में लोगों को लज्जा आती हो । सबकी जान में कोई बुरी काम करना । ३. भुत प्रेत के प्रभाव से सिर और हाथ पैर आदि हिलाना । अभुआना । ४. दुर हो जाना । चले जाना । ५. विचरना । चलना । बढ़ना । उ०—भयो रजायसु आगे खेलहि । गढ़ तर छाँड़ि अंत होइ मेलहि ।—जायसी (शब्द०) ।

खेलना (२)
क्रि० स० १. ऐसी क्रिया करना जो केवल मनबहलाव या व्य़ायाम आदि के लिये की जाती है और जिसमें कभी कभी हार जीत का भी विचार किया जाता है जैसे,—गेंद खलना; जुआ खेलना, ताश खेलना इत्यादि । मुहा०—जान या जी पर खेलना = अपने जीने की बाजी लगाना । अपने प्राण भय में डालना । ऐसा काम करना जिसमें मृत्यु का भय हो । (जान या जी के समान सिर, धन, इज्जत आदि कुछ और शब्दों के साथ भी यह मुहाविरा प्रायःबोला जाता है ।) २. किसी वस्तु को लेकर अपना जी बहलाना । किसी वस्तु को मनोरंजन के लिये हिलाना डुलाना आदि । जैसे,—खिलौना खेलना । जैसे—कागज यहाँ न छोड़ा, नहीं तो लड़के खेल डालेंगे । ३. नाटक या स्वाँग रचना । अभिनय करना । जैसे,—यह नाटक कल खेला जायगा ।

खेलनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खेल का उपकरण । खेलने की वस्तु [को०] ।

खेलवाड़
संज्ञा पुं० [हिं० खेल+वाड़] खेल । क्रीड़ा । तमाश । मनबहलाव । दिल्लगी । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

खेलवाड़ी
वि० [हिं० खेल+वार (प्रत्य०)] १. खेलनेवाला । खेलाड़ी । जैसे,—वह बड़ा खेलवाड़ी लड़का है । २. विनोद- शील । कौतुकप्रिय ।

खेलवाना
क्रि० स० [हिं० खेलना] दुसरे को खेलने में प्रवृत्त करना ।

खेलवार (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० खेल+वार] खेल करनेवाला । खेलाड़ी । उ०—संपति चकई भरत चक मुनि आयसु खेलवार । तेहि निसि आश्रय पींजरा राखे भा भिनसार ।—तुलसी (शब्द०) ।

खेलवार (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खेलवाड़' ।

खेला
संज्ञा स्त्री० [पुं०] क्रीड़ा । खेल । मनबहलाव [को०] ।

खेलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेल] १. खेलने का कान । खेल । जैसे,— आजकल वहाँ शतरंज की खुब खेलाई हो रही है । १. खेलाने की मजदुरी ।

खेलाड़ी (१)
वि० [हिं०] खेल+आड़ी (प्रत्य०) १. खेलनेवाला । क्रीड़ाशील । २. विनोद ।

खेलाड़ी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खेल] १. खेल में संमिलित होनेवाला व्यक्ति । वह जो खेले । २. तमाशा करनेवाला । ३. ईशवर । जैसे,—उस खेलाड़ी के भी अजब खेल हैं ।

खेलाना
क्रि० स० [हिं० खेलना का प्रे० रूप] १. किसी दूसरे को खेल में लगाना । दे० 'खेलना' । २. खेल में शामिल करना । जैसे,—जाओ, हम अब तुम्हें नहीं खेलावेंगे । ३. उलझाए रखना । बहलाना । मुहा०—खेला खेलाकर मारना = दौडा दौड़ाकर धीरे धीरे मारना । साँसत से मारना । उ०—ततिहौ तोहिं खेलाइ खेलाई । अबहिं बहुत का करौं बडाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

खेलार पु
संज्ञा पुं० [हिं० खेल + आर (प्रत्य०) ] खेलाड़ी । उ०— खेलत फागु खेलार खरे अनुराग भरे बड़ भाग कन्हाई ।— सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) ।

खेलि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रीड़ा । खेल । २. ऋचा । गीत (को०) ।

खेलि (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्य । रवि । २. इषु । वाण । ३. पशु । जानवर । ४. पक्षी (को०) ।

खेलुआ
संज्ञा पुं० [हिं० खिलना या खिलना ] चमड़ा रँगनेवालो का रकाबी या थाली के आकार का काठ का एक औजार जिससे चमड़े को रँगने के पहले मुलायम करने और खिलाने के लिये उसपर खारी नमक आदि रगड़ते हैं ।

खेलौना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खेलौना' ।

खेवइया पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] खेनेवाला व्यक्ति । खेवैया ।

खेव
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास । विशेष—वर्षा ऋतु में पहला पानी पड़ते ही यह बहुत अधिकता से उगती है और इसे घोड़े बहुत प्रमन्नता से खाते हैं । इसे पलंजी या ऊसर की घास भी कहते हैं ।

खेवक पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेपक] नाव खेनेवाला । मल्लाह । केवट । माँझी । उ०—राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुवा परेवा ।—जायसी (शब्द०) ।

खेवट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खेत + बाँट] पटवारी का एक कागज जिसमें हर एक पट्टीदार के हिस्से की तादाद और मालगुजारी का विवरण लिखा रहता है । यौ०—खेवटराह = हिस्सेंदार । पट्टीदार ।

खेवट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खेना] नाव खेनेवाला । मल्लाह । माँझी ।

खेवटिया †
संज्ञा पुं० [हिं० खेवट] खेवट । मल्लाह ।

खेवणी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेपणी] नाव का डाँड़ ।—(डिं०) ।

खेवनहार
संज्ञा पुं० [हिं० खेना + हार (प्रत्य०)] १. खेनेवाला । मल्लाह । केवट । २. ठिकान तक पहुँचानेवाला । पार लगानेवाला ।

खेवना
क्रि० स० [हिं० छेना] दे० 'खेना' ।

खेवनाव
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । विशेष—यह उत्तर भारत में चनाब नदी के पूर्व और बंगाल तथा उड़ीसा की नदिओं के किनारे अधिकता में पाया जाता हैं । इसके गूदे से एक प्रकार के रेशे निकलते हैं । इसमें एक प्रकार की लाह भी लगती है । कहीं कहीं इसे दुँबरखेव भी कहते हैं ।

खेवरिया पु
संज्ञा पुं० [हिं० खेवट] पार उतारनेवाला । केवट ।

खेवरियाना †
क्रि० स० [देश०] १. एकत्र करना । संग्रह करना । बटोरना । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः चरवाहे अपनी गौओं के लिये करते हैं । २. धता करना । चलता करना ।—(वेश्या) ।

खेवा
संज्ञा पुं० [हिं० खेना] १. वह धन जो केवट को नाव द्वारा पार उतारने के बदले में दिया जाय । नाव खेने का किराया । २. नाव द्वारा नदी पार करने का काम । जैसे,—अभी यह पहला खेवा है । ३. बार । दफा । अवसर । जैसे, (क) पिछले खेवे उन्होंन कई भूलें की थीं । (ख) इस खेवे सब झगड़ा निपट जायगा । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल कार्य आदि करने के संबंध में होता है । ४. बोझ से लदी हुई नाव । उ०—राजा का भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुवा परेवा ।—जायसी(शब्द०) ।

खेवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेना] १. नाव खेने का काम । नाव चलाने की क्रिया । २. नाव खेने की मजदूरी । ३. वह रस्सी जो डाँड़ को नाव से बाँधने के काम में आती है ।

खेवैया
संज्ञा पुं० [हिं० खेना] खेनेवाला । केवट ।

खेस
संज्ञा पुं० [देश०] बहुत मोटे देशी सूत की बनी हुई एक प्रकार की बहुत लंबी चादर जो पश्चिम में अधिकता से बनती और प्रायः बिछाने के काम में आती है ।

खेसर
संज्ञा पुं० [सं०] खच्चर (को०) ।

खेसारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कृसर या खञ्जकारि] एक प्रकार की मटर जिसकी फलियाँ चिपटी होती हैं । इसकी दाल बनती है । दुबिया मटर, । चिपटैया मटर । लतरी । तेउरा । विशेष-यह अन्न वहुत सस्ता होता है और प्रायःसारे भारत में, और विशेषतः में मध्यभारत तथा सिंध में इसकी खेती होती है । यह अगहन में बोई जाती है और इसकी फसल तैयार होने में प्रायःसाढ़े तीन मास लगते हैं । लोग कहते हैं कि इसे अधिक खाने से आदमी लँगड़ा हो जाता है । वैद्यक में इसे रूखा, कफ-पित्त-नाशक , रुचिकारक , मलरोधक, शीतल, रक्तशोधक और पौष्टिक कहा गया है; और यह शूल, सूजन, दाह, बवासीर, ह्वदरोग और खंज उत्पन्न करनेवाली कही गई है । इसके पत्तों का साग भी बनता है, जो वैद्यक के अनुसार बादी , रुचिकारी और कफ-पित्त-नाशक होता है ।

खेह
संज्ञा स्त्री० [हिं०, मि० पं० खेह या अप० खेह] धूल । राख । खाक । मिट्टी । उ०—(क) कीन्हेसि आगिनि पवन जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) दादू क्योंकर पाइये उन चरनन की खेह ।—दादू (शब्द०) । मुहा०—खेह खान = (१) धूल फाँकना । मिट्टी छानना । झख मारना । व्यर्थ समय खोना । नष्ट जाना । उ०—सुनि सीता, पति सील सुभाऊ । मोद न मन तन पुलक नयन जल सो नर खेहहिं खाऊ ।—तुलसी (शब्द०) । (२) दुर्दशाग्रस्त होना । उ०—सोई रघुनाथ कपि साथ पाथनाथ बाँधि आयो नाथ भागे ते खिरिर खेह खाहिगो ।—तुलसी (शब्द०) ।

खेहर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेह] दे० 'खेह' । उ०—सो नर खेहर खाउ ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५०९ ।

खैंग
संज्ञा पुं० [फा० खिंग] घोड़ा ।—(डिं०) ।

खैंचना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खींचना' ।

खैंचनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खींचना] डेढ़ हाथ लंबी और एक वित्ता चौड़ी देवदार की लकड़ी की एक तख्ती जिसपर तेल लगाकर सैकल किए हए औजार साफ किए जाते हैं ।

खैंचाखैंची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खींचाखींची' ।

खैंचातान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खींचतान' ।

खैंचातानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खैंचातान + ई (प्रत्य०) ] खींचाखींची । खींचतान ।

खैबर
संज्ञा पुं० [देश०] भारत और आफगानिस्तान के बिच की एक घाटी का नाम ।

खैयात
संज्ञा पुं० [अ० खैयात] दर्जी । सूचीकार । सिलाई करनेवाला । सीवक [को०] ।

खैयाम (१)
वि० [अ० खैयाम] खेमा बनानेवाला । तंबू बनानेवाला [को०] ।

खैयाम (२)
संज्ञा पुं० फारसी का प्रसिद्ध कवि उमर खैयाम । विशेष—नैशापुर निवासी इस प्रसिद्ध कवि की रुबाइयाँ संसार की अनेक भाषाओं में अनू दित हो चुकी हैं । कवि होने के साथ ही यह बड़ा वैज्ञानिक, चिकित्सक, तथा ज्योतिषी भी था ।

खैर (१)
संज्ञा पुं० [सं० खदिर, प्रा० खइर, खयर] १. एक प्रकार का बबूल । कथकीकर । सोनकीकर । विशेष—इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में अधिकता से पाया जाता है । इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं,घुनती नहीं और घरतथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है । बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है । २. इस वृक्ष की लकड़ी के टुकड़ों को उबालकर निकाला और जमाया हुआ रस जो पान में चूने के साथ लगाकर खाया जाता है । कत्था ।

खैर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण भारत का भूरे रंग का एक पक्षी । विशेष—लंबाई में यह एक बालिश्त से कुछ अधिक होता है और झोपड़ियों या छोटे पेड़ों में घोसला बनाकर रहता हैं । इसका घोसला प्रायः जमीन से सटा हुआ रहता है । इसकी गरदन और चोंच कुछ सफेंदी लिए होती है ।

खैर (३)
संज्ञा स्त्री० [फा० खैर] कुशल । क्षेम । भलाई । यौ०—खैरअंदेश = हितचिंतक । शुभचिंतक । खैरअंदेशी = शुभचिंतन । भलाई चाहना । खैरआफियत । खैरख्वाह = दे० 'खैरखाह' । खैरख्वाही = दे० 'खैरखाही' । खैरोबरकत = कल्याण । समृद्धि । खैरोसलाह । खैरसल्ला = कुशलक्षेम ।

खैर (४)
अव्य १.कुछ चिंता नहीं । कुछ परवा नहीं । २. अस्तु । अच्छा ।

खैर आफियत
संज्ञा स्त्री० [फा० खैर—ओ—आफियत ] कुशल मंगल । क्षेंम कुशल । क्रि० प्र०—कहना ।—पूछना ।

खैरखाह
वि० [फा० खैरख्वाह] भलाई चाहनेवाला । शुभचिंतक ।

खैरखाही
संज्ञा स्त्री० [फा० खैरख्वाही] शुभचिंतन । भलाई सोचना ।

खैरवाल
संज्ञा पुं० [देश०] कोलियार नाम का वृक्ष ।

खैरसार
संज्ञा पुं० [सं० खदिर + सार ] कत्था । खैर ।

खैरा (१)
वि० [हिं० खैर] खेर के रंग का । कत्थई ।

खैरा (२)
संज्ञा पुं० १. वह कबूतर या घोड़ा जिसका रंग कत्थई हो । २. एक प्रकार का बगुला जिसका रंग कत्थई होता है ।

खैरा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. धान की फसल का एक रोग, जिसमें उसकी बाल पीली पड़ जाती है । २. तबला बजाने में एक- ताले (ताल) की दून । ३, एक प्रकार की छोटी मछली जो बंगाल की नदियों से अधिकता से पाई जाती है ।

खैरात
संज्ञा पुं० [अ० खैरात] [वि० खैराती] दान । पुणय । क्रि० प्र०—करना ।—चाहना ।—बाँटना ।—पाना ।—माँगना । यौ०—खैरातखाना = अन्नसत्र ।

खैराती
वि० [अ० खैरात ] दान या खैरात में प्राप्त । मुफ्त का । जैसे,—खैराती अस्पताल । खैराती दवाखाना । खैराती माल ।

खैरियत
संज्ञा स्त्री० [फा० खैरियत] १. कुशल क्षेम । राजीखुशी । २. भलाई । कल्याण ।

खैरीयत
संज्ञा स्त्री० [फा० खैरीयत] दे० 'खैरियत' ।

खैल
संज्ञा पुं० [अ० खैल] समुदाय । जमाव । जनसमूह [को०] । यौ०—खैलखाना = कुटुंब । खानदान । वंश ।

खैलर
संज्ञा स्त्री० [सं० क्ष्वेल] मथानी ।

खैला (१) †
संज्ञा पुं० [सं० क्ष्वेड ] वह बैल जिससे अभी तक कुछ काम न लिया गया हो । नाटा । बछड़ा ।

खैला (२) †
संज्ञा पुं० [सं० क्ष्वेल ] मथानी । उ०—मन माठा सम अरु को धोवै । तन खैला तेहि माहिं बिलोवै ।—जायसी (शब्द०) ।

खोइचा
संज्ञा पुं० [हिं० खूट वा कोंछअथवा सं०, कुक्ष्यञ्चल या देश०] (स्त्रियों के कपड़ों का) अंचल । किनारा । मुहा०—खोइचा भरना = शकुन के रूप से किसी (स्त्री) के आँचल में चावल; गुड़ आदि देना ।

खोंइछा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खोंइचा' ।

खोंखना †
क्रि० अ० [खों खों से अनु०] खाँसना ।

खोंखर † खोखल
वि० [हिं०] दे० 'खोखला' ।

खोंखी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोंखना] खाँसी । कास ।

खोंखों
संज्ञा पुं० [अनु०] १. खाँसने का शब्द । २. बंदरों के घुड़कने का शब्द । क्रि० प्र०—करना ।

खोंगा (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] अटकाव । रुकावट ।

खोंगा (२) †
संज्ञा पुं० [सं० खोङ्गाह] वह बैल जो अभी किसी काम में न लगाया गया हो । नाटा । बछड़ा ।

खोगाह
संज्ञा पुं० [सं० खोङ्गाह] पीलापन लिए सफैद रंग का घोड़ा ।

खोंगी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोंसना या देश०] लगे हुए पानों का चौघड़ा ।

खोंच (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्च या सं० कोणाञ्चन] १. किसी नुकीली चीज से छिलने का आघात । २. किसी मेख या काँटे आदि में फँसकर कपडें आदि का फट जाना । क्रि० प्र०—लगना ।

खोंच (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. मुट्ठी । २. उतना अन्न या और कोई पदार्थ जो एक मुट्ठी में आ जाय ।

खोंच (३)
संज्ञा पुं० [सं० कौञ्च] एक प्रकार का बगुला ।

खोंचा
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्च या हिं० खोंचा] १. बहेलियों का वह लबा बाँस जिसके सिरे पर लासा लगाकर वे पक्षियों को फँसाते हैं । उ०—पाँच बानकर खोंचा लासा भरे सो पाँच । पाँख भरा तन उरझा कित मारे बिन बाँच ।—जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—मारना । २. दे० 'खोंच' । † ३. छोटे बछेड़े या बैल के मुँह पर लगाने की एक प्रकार की जाली जिससे वे माय का दूध न पी सकें या दँवाई के समय खा न सकें ।

खोंचिया †
संज्ञा पुं० [हिं० खोंची] १. खोंची लेनेवाला । २. भिक्षुक । भिखमंगा ।

खोंची
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह थोड़ा अन्न, फल, तरकारी आदि जो दूकानदार मंडी या बाजार में छोटी छोटी सेवाएँ करनेवालों या भिखमंगों को देते हैं । उ०—खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे । तेरे बल बलि आजु लौं जग जागि जिया रे ।—तुलसी (शब्द०) ।

खोंटना
क्रि० स० [सं० खुणुन] किसी वस्तु का ऊपरी भाग तोड़ना । कपटना । नोचना । जैसे,—साग खोंटना ।

खोंटा
वि० [हिं० ] दे० 'खोटा' ।

खोंडर
संज्ञा पुं० [सं० कोटर] पेड़ का भीतरी पोला भाग ।

खोंड़हा
वि० [हिं०] दे० 'खोंड़ा' ।

खोंड़ा, खोंढ़ा †
वि० [सं० खुणड] जिसका कोई अंग भंग हो । सदोष । अपूर्ण । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः उस मनुष्य के लिये होता हैं, जिसके आगे के दो तीन दाँत टूटे हों ।

खोंतल †
संज्ञा पुं० [सं० कोटर, देश० कोत्थर] खोता । घोंसला । उ०—यह सुधि नहिं किहि को जटान में खंग कुल खोंतल लागे ।—प्रताप (शब्द०) ।

खोंता
संज्ञा पुं० [हिं० खोता] घास, फूस, बाल आदि का बना हुआ चिड़ियों का निवासंस्थान, जो प्रायः वृक्षों आदि पर होता है । घोंसला ।

खोंथा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खोंता' ।

खोंप
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोंपना] सिलाई में दूर दूर पर लगा हुआ टाँका । सलँगा । क्रि० प्र०—भरना ।—मारना ।

खोंपना †
क्रि स० [हिं० खोपना] धँसाना । गड़ाना ।

खोंपा
संज्ञा पुं० [हिं० खोंपना] [स्त्री० खोंपिया, खोंपी] १. हल की वह लकड़ी जिसमें फाल लगा रहता है । २. छाजन का कोहा । ३. भूसा रखने का घेरा जो छप्पर से छाया रहता है । ४. दे० 'खोपा'—३. ४ ।

खोंपी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोंपा] १. दे० 'खोंपा' । २. हजामत में खत का कोना ।

खोंसना
क्रि० स० [देश० या सं० कोश + ना (प्रत्य०) ] किसी वस्तु को कहीं स्थिर रखने के लिये उसका कुठ भाग किसी दूसरी वस्तु में घुसेड़ देना । अटकाना । उ०—सखी री मुरली लीजै चोर । कबहूँ कर कबहूँ अधरन पर कबहूँ कटि में खोंसत जोर ।—सूर (शब्द०) ।

खोआ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खोया' ।

खोइया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खोई' ।

खोइड़ार
संज्ञा पुं० [हिं० खोई + आर (प्रत्य०)] कोल्हौर में वह स्थान जहाँ खोई जमा की जाती है ।

खोइलर †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्ष्वेल] तीन चार हाथ लंबी बाँस की छड़ी जिससे कोल्हू में पड़े हुए गंडों को उलटते पलटते हैं ।

खोइहट †
वि० [हिं०] दे० 'खोई' ।

खोइहा
संज्ञा पुं० [हिं० खोई + हा (प्रत्य०)] कोल्हौर का वह मजदूर जो खाई उठाता या फेंकता है ।

खोई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्र] ऊख के गंडों के वे डंठल जो रस निकल जाने पर कोल्हू में शेष रह जाते हैं । छोई ।२ भुने हुए चावल या धान की खील । लाई । ३. कंबल की घोघी । ४. एक प्रकारकी घास जिसे 'बूर' भी कहते हैं । वि० दे० 'बूर' ।

खोई † (२)
वी० [हिं०] नटखट । शरारती ।

खोखर
संज्ञा पुं० [देश०] संपूर्ण जाति का एक राग जो मालकोश राग का पुत्र माना जाता है । इसके गाने का समय दिन का पहला पहर है ।

खोखरा
संज्ञा पुं० [हिं० खुक्ख, या खोखला] टूटा हुआ जहाज ।— (लश०) ।

खोखल †
वि० [हीं०] दे० 'खोखला' ।

खोखला (१)
वि० [हिं० खुक्ख + ला (प्रत्य०) ] जिसके भीतरी भाग में कुछ न हो । सारहीन । पोला ।

खोखला (२)
संज्ञा पुं० १. खाली स्थान । पोली जगह । २. बड़ा छेद । रंध्र ।

खोखा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खुक्ख] वह कागज जिसपर हुंडी लिखी हुई हो; विशेषतः वह हुंडी जिसका रुपया चुका दिया गया हो ।

खोखा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोख, बँ० खोका] [ स्त्री० खोंखी] बालक । लड़का ।

खोगीर
संज्ञा पुं० दे० [फा० खुगीर] दे० 'खुगीर' ।

खोचकिल †
संज्ञा पुं० [देश०] चिड़ियों का खोता । घोंसला ।

खोज
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोजना] १. अनुसंधान । तलाश । शोध । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—होना । मुहा०—खोज खबर लेना = हालचाल जानना । २. चिह्न । निशान । पता । उ०—(क) रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं । राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) राखौं नहिं काहू सब मारौं । ब्रज गोकुल को खोज निवारौं ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पाना ।—लगाना । मुहा०—खोज मिटाना = नष्ट करना । ध्वस्त करना । बरबाद करना । चिह्न तक न रहने देना । ३. गाड़ी के पहिए की लीक अथवा पैर आदि का चिह्न । उ०— चंदन माँझ कुरंभिन खोजू । ओहि को पाव को राजा भोजू । जायसी (शब्द०) । मुहा०—खोज मारना = लीक या पैर आदि का चिह्न इस प्रकार बचाना या नष्ट करना जिसमें कोई पता न लगा सके । उ०—खोज मारि रथ हाकहु ताता । आन उपाय बनहिं नहिं बाता ।—तुलसी (शब्द०) ।

खोजक
वि० [हिं० खोज + क (प्रत्य०)] खोज करनेवाला । ढूँढ़नेवाला । तलाश करनेवाला । —(क्व०) ।

खोजना
क्रि० स० [सं० खुज = चोराना] तलाश करना । पता लगाना । ढूँढ़ना । संयो० क्रि०—डालना ।—मारना ।—रखना ।

खोजमिटा
वि० [हिं० खोज + मिटना] [स्त्री०] जिसका चिह्न न रह जाय । जिसका नामनिशान न रह जाय । जो सत्या- नाश हो जाय । नष्ट (यह शब्द स्त्रियाँ परस्पर अधिक वोलती हैं ।) ।

खोजवाना
क्रि० स० [हिं० खोजना ] खोजना का प्रेरणर्थक रूप । पता लगवाना । ढुँढ़वाना ।

खोजा
संज्ञा पुं० [फा० ख्वाजह्] १. वह व्यक्ति जो मुसल- मानी हरमों में द्वाररक्षक या सेवक की भँति रहता है । २. सेवक । नौकर । ३. माननीय व्यक्ति । सरदार । ४. मुसलमानों की एक जाति जो अधिकांश महाहाष्ट्र प्रदेश में रहती है ।

खोजाना
क्रि० स० [हिं० खोजना] दे० 'खोजवाना' ।

खोजी पु †
वि०[ हिं० खोज + ई (प्रत्य०) ] १. खोजनेवाला । ढूँढ़नावाला । २. नौकर ।—(क्व०) । ३. शोधकर्ता । अन्वेषक (व्यंग्य) ।

खोट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खोट = खोड़ा (दूषित) ] १. दोष । ऐब । बुराई । उ०—सूरदास पारस के परसे मिटत खोह की खोट ।—सूर (शब्द०) । २. किसी उत्तम वस्तु में निकृष्ट वस्तु की मिलावट । ३. वह निकृष्ट वस्तु जो किसी उत्तम वस्तु में मिलाई जाय ।

खोट (२)
वि० दे० 'खोटा' ।

खोटत, खोटता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोट + ता (प्रत्य०) ] खोटाई । बुराई । खोटापन ।—(क्व०) । उ०—अमरापति चरणन पर लोटत । रही नहीं मन में कछु खोटत ।—सूर (शब्द०) ।

खोटपन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खोटापन' ।

खोटा
वि० [सं० क्षुद्र या खोट = खोड़ी (दूषित)] [स्त्री० खोटी] जिसमें कोई ऐब हो । दूषित । बुरा । 'खरा ' का उलटा । जैसे ,—खोटा रुपया, खोटा सोना, खोटा आदमी । मुहा०—खोटा खरा = भला बुरा । उत्तम और निकृष्ट । खोटा खाना = बेईमानी से या बुरी तरह से कमाकर खाना । उ०— फाटक दै कै हाटक माँगत भोरो निपट सुधारी । धुर ही ते खोटो खायो है लिए फिरत सिर भारी । सूर (शब्द०) । खोटी करना = खोटापन या बुराई करना । खोटी बोलना = बुरी बात बोलना । खोटी खरी सुनाना = दुर्वचन कहना । डाँटना । फटकारना ।

खोटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोटा + ई (प्रत्य०) ] १. बुराई । दुष्टता । क्षुद्रता । २. छल । कपट । उ०—अहह बंध तै कीन्ह खोटाई । प्रथमहिं मोंहिं न जगायसि आई ।—तुलसी (शब्द०) ।३. दोष । ऐब । नुक्स ।

खोटाना
क्रि० अ० [हिं० ] दे० 'खुटना' या 'खुटाना' ।

खोटापन
संज्ञा पुं० [हिं० खोटा + पन (प्रत्य०) ] खोटा होने का भाव । क्षुद्रता ।

खोटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चालाक औरत । चालबाज या चालू औरत । मक्कारा [को०] ।

खोड
वि० [सं०] छिन्नांग । अपंग । विकलांग । लँगड़ा लूला [को०] ।

खोड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोट ] देवता, पितर, भूत, प्रेत आदि का कोप । देवकोप । ऊपरी फेर । जैसे,—उसे किसी देवता की खोड़ है ।

खोड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोटर] वह छेद जो वृक्ष की लकड़ी के सड़ जाने से होता है । उ०—मानहु आयो है राज कछू चढ़ि ऐसे ही ऐसै पलास के खोड़े ।—मतिराम (शब्द०) ।

खोड़ (३)
वि० [सं० खोड] दे० 'खोड' ।

खोड़रा
संज्ञा पुं० [सं० कोटर] पुराने पेड़ का खोखला भाग ।

खोड़ा
वि० [हिं० खाँड़ा] दे० 'खोँड़ा' ।

खोद (१)
संज्ञा पुं०[फा० खोद ] लोवे का बना हुआ टोप जिसे योद्धा लड़ाई के समय पहनते थे । टोप । कूँड़ा । शिरस्त्राण ।

खोद †
संज्ञा पुं० [हिं० खोदना] जाँच परताल । पूछताछ । यौ०—खोद विनोद ।

खोदई
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा पेड़ जो हिमालय की तराई में होता है । यह रँगने और दवा के काम में आता है । विशेष—दे० 'लोध' ।

खोदना
क्रि० स० [सं० खुद = भेदन करना] १. किसी स्थान को गहरा करने के लिय वहाँ की मिट्टी आदि उखाड़कर फेकना । गड्ढ़ा करना । खनना । जैसे , जमीन खोदना, कुआ खोदना, । संयो० क्रि०—डालना ।—फेकना । २. खोदकर या उखाड़कर गिराना । जैसे,—कुश खोदना, घर खोद डालना । ३. किसी कड़ी वस्तु पर पैनी या नुकीली वस्तु से कुछ चिह्न अंक या बेल बूटे आदि बनाना । नककाशी करना । जैसे, मोहर खोदना । ४. उँगना छड़ी आदि से छूना या दबाना । उँगना या छड़ी आदि से हिलाना डुलाना । गड़ाना । जैसे,—(क) उसे खोदकर जगा दो । (ख) वह लड़का उसके गाल में खोदकर भागता हैं । लकड़ी थोड़ा खोद दो; आग जलने लगेगी । छेड़छाड़ करना । छेड़ना । मुहा०—खोद खोदकर पूछना = एक एक बात पर शंका करके पूछना । अच्छी तरह पूछना । ६. उत्तेजित करना । उसकाना । उभाड़ ना ।

खोदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोदना ] खोदने का छोटा औजार । यौ०—कनखोदनी = कान से खोदकर मैल निकालने की सींक या कील । दातखोदनी = दाँत से खोदकर मैल निकालने की सींक या कील ।

खोद बिनोद †
संज्ञा पुं० [हिं० खोद + बिनोद (अनु०)] बहुत अधिक छानबीन । जाँच पड़ताल । पूछ ताछ । छेड़छाड़ ।

खोदवाना
क्रि० स० [हिं० खोदना का प्रे० रूप] खोदने में लगाना । खोदने का काम करवाना ।

खोदाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोदना] १. खोदने का काम । २. खोदने की मजदूरी । ३. कड़ी वस्तु पर किसी नोकदार वस्तु से अंक, चिह्न, बेलबूटे आदि बनाने का काम । जैसे,—शाहजहाँपुर में लकड़ी पर खोदाई अच्छी होती है ।

खोना (१)
क्रि० स० [सं० क्षेपण, प्रा० खेवण सं० √ क्षी का प्रे० क्षप्] १. अपने पास की वस्तु को निकल जाने देना । व्यर्थ फेंक देना । गँवाना । जैसे,—उसने अपनी पुस्तक खो दी । २. भूल से किसी वस्तु को कहीं छोड़ आना । ३. खराब करना । बिगाड़ना । नष्ट करना । संयो० क्रि०—देना । —डालना ।

खोना (२)
क्रि० अ० पास की वस्तु का निकल जाना । किसी वस्तु का कहीं भूल से छूट जाना । संयो० क्रि०—जाना । विशेष—संयोज्य क्रिया के साथ ही यह क्रिया अकर्मक भाववाच्य रूप में आती है, अकेले नहीं । मुहा०-खोया जाना = चकपका जाना । सिटपिटा जाना । हक्का बक्का होना । घबराना । खोया खोया रहना = किसी विचार या चिंता में डूब जाना । सुध बुध न रहना ।

खोनचा
संज्ञा पुं० [फा० ख्वान्चा] १. एक बड़ी परात या थाल जिसमें मिठाई या और खाने पीने की वस्तुएँ भरी रहती हैं । वह थाल जिसमें रखकर फेरीवाले मिठाई आदि बेचते हैं । मुहा०—खोन्चा लगाना = बेचने के लिये खोन्चे में मिठाई सजाना या रखना ।

खोपड़ा
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] [स्त्रि० खोपड़ी] १. सिर की हड्डी । कपाल । २. सिर । ३. गरी का गोला । गरि । ४. नारियल । ५. भिक्षुकों का खप्पर जिसमें वे भिख लेते हैं । बहुधा यही दरियाई नारियल का आधा टुकड़ा होता है । ६. गाड़ी में वह मोटी लकड़ी जो दोनों पहियों के बिच में धुरों से मिली होती है ।

खोपड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोपड़ा] १. सिर की हड्डी । कपाल । २. सिर ।मुहा०-अंधी खोपड़ी का, औंधी खोपड़ी का = नासमझ । मूर्ख । खोपड़ी खा जाना = बहुत बात करके दिक करना । खोपड़ी खुजलाना = (१) कोई ऐसी बात या शरारत करना जिससे मार खाने की नौबत आवे । मार खाने को जी चाहना । जैसे,—तुम न मानोगे, तुम्हारी खोपड़ी खुजला रही है । (२) सिर पर जूता मारना । खोपड़ी गंजी होना = मार खाते खाते सिर के बाल झड़ जाना । सीर पर खूब जूते पड़ना । खोपड़ी गंजी करना = मारते मारते सिर के बाल न रहने देना । सिर पर खूब जूते लगाना । खोपड़ी चटकना = अधिक धूप, प्यास या पीड़ा के कारण सिर में गर्मी और चक्कर मालूम होना । सिर टनकना । खोपड़ी चाट जाना = बकवाद करके तंग करना ।

खोपरा
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] दे० 'खोपड़ा' ।

खोपरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'खोपड़ी' । उ०—फटो खोपरी गुँद फैलंत पिंडी । मनौ माथ मारग्ग फूटी दहिंडी ।—रसर०, पृ० २२७ ।

खोपा
संज्ञा पुं० [सं० खपंर, हिं० खोपड़ा] १. छप्पर का कोना । २. मकान का कोना जो किसी रास्ते की ओर पडे़ । ३. केश- विन्यास में वह तिकोनी बनावट जो ठीक ब्रह्मरंध्र पर पड़ती है । इसके सिरे का केना माँग से मिला रहता है और ठीक इसी के आधार पर जूड़ा बाँधा जाता है । ४. जुड़ा बँधी हुई वेणी । उ०— सरवर तीर पदमिनी आई । खोपा छोरि केस बिखराई ।— जायसी (शब्द०) । ५. गरी का गोला ।

खोवा
संज्ञा पुं० [देश०] गच या पलस्तर पीटने की थापी ।

खोभना
क्रि० स० [सं० क्षोभण] गड़ाना । धँसाना ।

खोभरना (१)
क्रि० अ० [हिं० खोभना] १. आड़ा पड़ना । २. बीच में पड़ना ।

खोभरना (२)
क्रि० स० [हिं०] समथल न रहने देना । खोदना ।

खोभराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खुभराना' ।

खोभार
संज्ञा पुं० [प्रा० खोभ + आर (प्रत्य०,)] १. गड्ढा जिसमें कूड़ा करकट फेंका जाय । २. सुअरों को बंद करने की झोपड़ी । ३. कोई तंग स्थान या कोठरी ।

खोम (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० कौम] समूह । झुंड । उ०— सिवाजी की धाक, मिले खल कुल खाक बसे खलन के खेरन खबिसन के खोम हैं, ।—भूषण (शब्द०) ।

खोम (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षोम] किले का बुर्ज ।— (डिं०) ।

खोम (३)
संज्ञा पुं० [सं० क्षोम] ऐसा कार्य जो अहित कर हो ।

खोय †
संज्ञा स्त्री० [फा० खू] आदत । बान । स्वभाव । क्रि० प्र०—पड़ना ।

खोया (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्र या देश०] १. आँच पर चढ़ाकर इतना गाढ़ा किया हुआ दूध कि उसकी पिंडी बाँध सकें । मावा । खोवा । २. ईंट पाथने का गारा ।

खोया (२)
क्रि० स० [हिं० खोना क्रिया का भूतकालिक रूप] गुम, गायब या बिगड़ा हूआ ।

खोर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुर] १. बस्तियों की तंग गली । सँकरी गली । कूचा । २. नाँद, जिसमे चौपायों को चारा दिया जाता है ।

खोर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बबूल की जाति का एक ऊँचा सुंदर पेड़ । विशेष—यह गिंध के रेगिस्तानों में होता है । इसकी लकड़ी पीलापन लिए सफेद, भारी और सख्त होती है और साफ करने पर खूब चिकनी हो जाती है । यह खेती के औजार बनाने के काम आती है । इसे खन, साहीकाँटा और बनरीठा भी कहते हैं ।

खोर (३)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षालन, हिं० खोरना] नहाने की क्रिया । नहाना । स्नान ।

खोरना †
क्रि० अ० [सं० क्षालन] स्नान करना । नहाना । उ०— ब्रज बनिता रवि को कर जोरैं । शीत भीत नहिं करत छहौं ऋतु विविध काल यमुना जल खौरैं ।—सूर (शब्द०) ।

खोरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोदनी] वह लकड़ी जिससे भड़भूँजे भाड़ झोंकते समय बाहर रह गए हुए ईंधन को भाड़ के अदर करते हैं ।

खोरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० खोलक, फा० आवखोरह् या खोरह्] [स्त्री० खोरिया] १. कटोरा । बेला । २. पानी पीने का बरतन । आबखोरा । गिलास ।

खोरा (२)पु †
वि० [सं० खोर या खोट] लँगड़ा । लूला । अंगभंग । उ०—काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि । तिय विशेष पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसुकानि ।—तुलसी (शब्द०) ।

खोराक †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुराक] [वि० खोराकी] १. भोजन सामग्री । २. खाने की मात्रा । जैसे,—उसकी खोराक बहुत है । ३. औषध की मात्रा जो एक बार सेवन की जाय । जैसे,—इतने में चार खोराक होगी ।

खोराकी (१)
वि० [हिं० खोराक+ ई (प्रत्य०)] खूब खानेवाला । अधिक भोजन करनेवाला ।

खोराकी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोराक] वह धन जो खोराक के लिये दिया जाय ।

खोरि (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुर] तंग गली । उ०—खेलत अवध खोरि, गोला भौंरा चकडोरि मूरति मधुर बसै तुलसी के हियरे ।—तुलसी (शब्द०) ।

खोरि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खोट या खोर] १. ऐब । दोष । नुक्स । उ०—(क) कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) साँकरी गैल वा खोरि हमै किन खौरि लगाय खिजैबो करो कोउ ।—देव (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगाना । २. बुराई । निंदा ।

खोरि (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खौर] दे० 'खौर' वा 'खौरि' । उ०— तनु अनुहरत सुचंदन खोरी । श्यामल गौर मनोहर जोरी ।— तुलसी (शब्द०) ।

खोरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोरा] १. छोटा कटोरा या बेलिया । छोटा आबखोरा या गिलास । पानी पीने का छोटा बरतन । २. छोटे चमकीले बुँदे जिन्हें स्त्रियाँ या लीलावाले शोभा के लिये मुँह पर चिपकाते हैं । ३. कुएँ की पैढ़ी का वह सबसे बिचला भाग जो चरसा खींचते खींचते बैलों के पहुँचने पर कुएँ के मुँह पर आ जाता है ।

खोल (१)
वि० [सं०] लँगड़ा । विकलांग ।

खोल (२)
संज्ञा पुं० [सं० ?खुड़, खुल्] शिरस्त्राण । कूँड । खोद [को०] ।

खोल (३)
संज्ञा पुं० [सं० खोल, शिरस्त्राण, तुल० फा० खोल= आवरण म्यान] १. ऊपर से चढ़ा हुआ ढकना । गिलाफ । उछाड़ । आवरण । २. कीड़ों का ऊपरी चमड़ा जिस समय समय पर वे बदला करते हैं । ३. ओढ़ने का मोटा कपड़ा । मोटी चादर ।

खोलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोद । शिरस्त्राण । २. बाँबा । बल्मीक । ३. सुपारी का आवरण या छिलका । ४. कटाह । कड़ाही । डेंगची [को०] ।

खोलना
क्रि० स० [सं० खुड, खुल=भेदन]हिं० खुलना का सक० रूप] १. किसी वस्तु के मिले या जुड़े हुए भागों को एक दूसरे से इस प्रकार अलग करना कि उसके अंदर या उसके पार तकआना, जाना, टटोलना, देखना आदि हो सके । छिपाने या रोकनेवाली वस्तु को हटाना । अवरोध या आवरण का दूर करना । जैसे—किवाड़ खोलना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । २. ऐसी वस्तु को हटाना या इधर उधर करना जो किसी दूसरी चीज को छाए या घेरे हो । ३. दरार करना । छेद करना । शिगाफ करना । जैसे,—फोड़े का मुँह खोलना । ४. बाँधने या जोड़नेवाली वस्तु को अलग करना । बंधन तोड़ना । जैसे,—टाँका खोलना गाँठ खोलना, बेड़ी खोलना । ५. किसी बँधी हुई वस्तु को मुक्त करना । जैसे,—धोती खोलना । ६. किसी क्रम को चलाना या जारी करना । जैसे,—तनखाह खोलना । ७. ऐसी वस्तुओं का तैयार करना जो दूर तक रेखा के रूप में चली गई हो और जिनपर किसी वस्तु का आना जाना हो । जैसे,—सड़क खोलना, नहर खोलना । ८. कोई ऐसा नया कार्य आरंभ करना जिसका लगाव सर्वसाधारण या बहुत से लोगों के साथ हों । जैसे,—कारखाना खोलना, पाठशाला खोलना, दूकान खोलना । ९. किसी कारखाने, दूकान, दफ्तर आदि का दैनिक कार्य आरंभ करना । जैसे,— वह नित्य बड़े तड़के दूकान खोलता है । १०. किसी ऐसी सवारी को चला देना, जिसपर बहुत आदमी एक साथ बैठ सकें । जैसे,—नाव खोलना । ११. किसी गुप्त या गुढ़ बात को प्रकट या स्पष्ट कर देना । जैसे,—आप के पूछते ही वे सब खोल देंगे । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । १२.किसी को अपने मन की बात कहने के लिये उद्यत करना । जैसे,—हमने उसे खोलना चाहा, पर वह नहीं खुला ।

खोलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरकश [को०] ।

खोलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पनालीदार रुखानी, जिससे बढ़ई लकड़ी पर फूल पत्ती या बेलबूटा खोदते हैं ।

खोली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खोल] १. तकिए आदि के ऊपर चढ़ाने की थैलीं । गिलाफ । २. मोटी चादर ।

खोली (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोल] छोटी कोठरी ।

खोला
संज्ञा पुं० [सं० ?क्षुदिप्रेणरणे?] ???

खोशा
संज्ञा पुं० [फा० खोशह्] १. गेहूँ या जौ की बाल । २. गुच्छा । मंजरी । गुच्छ [को०] । यौ०-खोशाची = (१) खेत में गिरे दाने बीननेवाला । उंछवृत्ति । सिला बीननेवाला । (२) लाभ उठानेवाला । खोशाचीनी = (१) सिला चुनना । उंछवृत्ति । (२) लाभ । प्राप्ति ।

खोशीदा
वि० [फा० खोशीदह्] सूखा । सुखाया हुआ [को०] ।

खोसना †
क्रि० [देश०] छीनना । झटकना ।

खोह
संज्ञा स्त्री० [सं० गोह?] १. गुहा । गुफा । कंदरा । २. पहाड़ के बीच गहरा गड्ढा । ३. दो पहाड़ों के बीच की तंग जगह ।

खोही
संज्ञा स्त्री० [सं० खोलक] १. पत्तों की छतरी । उ०— सिरनि जटा मुकुट सुमन मजुल युत तैसियै लसति नव पल्लव खोही ।—तुलसी (शब्द०) । २. घोघी । खुडुआ । †खेह । धूल ।

खौं० (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खन्] १. खात । गड्ढा । २. अन्न संचित करने का गहरा गड्ढा । इसका मुँह ऊपर कुएँ का सा होता है ।

खौं (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध, प्रा० खंध] वृक्ष में वह स्थान जहाँ डाल से टहनी या टहनी से पत्ती निकलती है ।

खौंचा
संज्ञा पुं० [फा० षट + च?] साढ़े छह का पहाड़ा । जैसे, ढौंचा, पौंचा, खौंचा इत्यादि ।

खौंचा (२)
संज्ञा पुं० [फा० ख्वान्चा] एक प्रकार का संदूक या थाली जिसमें मिठाई आदि खाने पीने की वस्तुएँ रखी जाती हैं ।

खौट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोटना] १. खोंटने की क्रिया या भाव । २. खौंटने या नोचने के कारण (शरीर आदि पर) पड़ा- हुआ चिह्न । खरोट । उ०—तिय निय हिय जु लगी चलत पिय नखरेख खरौंट । सूखन देति न सरसई खोंटि खोंटि खय खौंट ।—बिहारी (शब्द०) ।

खौंड़ा †
संज्ञा पुं० [खन् या खात अथवा देश०] १. अनाज रखने का गड्ढा । खौं । २. गड़हा । गर्त ।

खौंदना
क्रि० स० [हिं० खूदना] नष्टभ्रष्ट करना । एकदम बेकार कर देना । खूँदना । उ०—हय हिहिनात भागे जात, घहरात गज, भारी भीर ठेलि पेलि रौंदि खौंदि डारहीं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७४ ।

खौफ
संज्ञा पुं० [अ० खौफ] [वि० खौफनाक] डर । भय । भीति । दहशत । क्रि० प्र०—करना ।—लगना ।—होना ।

खौफनाक
वि० [फा० खौंफ़नाक] डरावना । भयानक । भीतिप्रद । दहशत उत्पन्न करनेवाला ।

खौर
संज्ञा स्त्री० [सं०क्षौर या क्षुर से हिं०] १. मस्तक पर लगे हुए चंदन का आड़ा या धनुषाकार तिलक । चंदन का आड़ा टीका । त्रिपुंड । विशेष—चंदन का मस्तक पर लेप करके उसपर उँगली से खरोंच कर चिह्न बनाते हैं । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना । २. स्त्रियों का एक गहना जो मस्तक पर पहना जाता है । ३. मछली फँसाने का एक प्रकार का जाल ।

खौरना
क्रि० स० [हिं० खौर + ना (प्रत्य०)] १. खौर लगाना । तिलक करना । चंदन का टीका लगाना । †२. उलट पलट देना । एक में मिला देना । बेतरतीब करना ।

खौरहा
वि० [हिं० खौरा + हा (प्रत्य०)] [स्त्री० खौरही] १. जिसके सिर के बाल झड़ गए हों २. जिसे खौरा रोग हुआ हो (पशु) । जिसके शरीर में खुजली का रोग हो (पशु) ।

खौरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षौर, फा० बालखोरह्] [वि० खौरहा] एक प्रकार की बुरी खुजली जिसमें चमड़ा बिलकुल रूखा हो जाता है और बाल प्रायः झड़ जाते हैं । यह रोग कुत्तों और बिल्लियों आदि को भी होता है ।

खौरा (२)
वि० जिसे खौरा रोग हुआ हो ।

खौरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खौर' । उ०—कंठ मनि माल कलेश्वर चंदन खौरि सुहाई ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९५ ।

खौरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोपड़ी] १. खोपड़ी । २. पु दे० 'खौरि' ।

खौरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] राख—(सोनारों की बोली) । मुहा०—खौरी करना = राख में मिला देना । राख के रूप में कर देना ।

खौरी (३)पु
वि० [हिं० खोरि] दोषयुक्त । दुष्ट । पीड़क ।

खौरु
संज्ञा पुं० [देश०] बैल या साँड़ की डकार या बोली ।

खैलना
क्रि० अ० [सं० क्ष्वेलन] (किसी तरल पदार्थ का) उबलना । अत्यत गरम होना । जोश खाना । मुहा०—मिजाज या दिमाग खोलना = बहुत अधिक क्रोध या आवेश आना । संयो०—क्रि० जाना ।

खौलाना
क्रि० स० [हिं० खौलना] गरम करना । उबालना

खौहड़ †
वि० [हिं०] दे० 'खौहा' ।

खौहा
वि० [हिं० खाना>खाउ + हा (प्रत्य०)] १. बहुत अधिक खानेवाला । जिसकी खुराक बहुत ज्यादा हो । २. जिसको खआने का लालच बहुत अधिक हो । ३. जो दूसरे की कमाई पर अपना जीवन व्यतीत करे । दूसरे की कमाई खानेवाला ।

ख्यात (१)
वि० [सं०] १. प्रसिद्ध । विदित । मसहूर । २. कथित । कहा हुआ । वर्णित ।

ख्यात †पु
संज्ञा पुं० [सं० ख्याति] वर्णन । कथन । कथा । आख्यान । जैसे,—मुहणोत नेणसी री ख्यात ।

ख्यात
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रसिद्धि । शोहरत । नामावरी । २. नाम । शीर्षक । अभिधान (को०) । ३. वर्णन । कथन (को०) । ४. प्रशंसा । प्रशस्ति (को०) । ५. दर्शन में उपर्युक्त पद द्वारा वस्तुओं की विवेचन की शक्ति । ज्ञान (को०) । क्रि० प्र०—फैलाना ।—होना ।

ख्यापक
वि० [सं०] ख्यापन करनेवाला । व्यक्त करनेवाला [को०] ।

यापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विख्यात करना । प्रसिद्ध करना । २. व्यक्त करना । खोजना । उदूघाटित करना । ३. अपराध स्वीकार करना । ४. घोषणा करना [को०] ।

ख्याल (१)
संज्ञा पुं० [अ० खयाल] [वि० ख्याली] १. ध्यान । मुहा०—ख्याल करना = सोचना । याद करना । ख्याल पड़ना = ध्याब में आना । याद आना । ख्याल पर चढ़ना = दे० 'खल पड़ना' । ख्याल में आना = समझ में आना । ख्याल में रखना = न 'ख्याल रखना । देखते भालतेर हना । याद रखना । स्मरण रखना । ख्याल रहना = याद रहना । ख्याल से उतरना या उतर जाना = भूल जाना । विस्मृत हो जाना । किसी के ख्याल पड़ना = किसी के पीछे पड़ना । किसी को दिक करने पर उतारू होना । उ०—राधा मन मैं यहै विचारति । ये सब मेरे ख्याल परी हैं अबहीं बातन लै निरुआरति ।—सूर (शब्द०) । २. अनुमान । अंदाज । अटकल । जैसे,—हमारा ख्याल है कि वह यहाँ नहीं आवेगा । मुहा०—ख्याल बाँधना = अनुमान लगाना । कल्पना करना । ३. विचार । भाव । संमति । जैसे,—उनके बारे में आपका क्या ख्याल है । ४. आदर । लिहाज । अदब । मुहा०—ख्याल करना = रिआयत करना । ख्याल में लाना = (१) रिआयत करना । (२) महत्वपूर्ण समझना । ख्याल रखना = (१) लिहाज रखना । (२) कृपादृष्टि रखना । ५. एक विशेष प्रकार का गान जिसमें केवल एक स्थायी पद और एक अंतरा होता है तथा अधिकतर शृंगार रस का वर्णन रहता है । यह अनेक राग रागनियों का होता है और तिल- वाड़ा तालपर गाया बजाया जाता है । जैसे,—ख्याल केदारा, ख्याल देश, ख्याल जैतश्री, ख्याल सिंदूरिया आदि । ६. लाघनी गाने का एक ढंग ।

ख्याल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खेल] खेल । क्रीड़ा । हँसी । दिल्लगी । उ०—(क) यह सुनि रुकमिनि भई बेहाल । जान परयो नहि हरि को ख्याल ।—सूर (शब्द०) । (ख) कंत बीस लोचन बिलोकिये कुमंत फल ख्याल लका लाई कपि राँड़ की सी झोपड़ी ।—तुलसी (शब्द०) ।

ख्यालिया
वि० [हिं० ख्याल + इया (प्रत्य०)] ख्याल गानेवाला । वह जो ख्याल गाता हो ।

ख्याली (१)
वि० [हिं० ख्याल] १. कल्पित । फजी । अनुमित । मुहा०-ख्याली पुलाव पकाना = असंभव बातें सोचना । मनोराज्य करना । कल्पित बातें सोचना । २. खब्ती । सनकी । वहमी ।

ख्याली (२)
वि० [हिं० खेल] किसी प्रकार का खेल या कौतुक करनेवाला । उ०—ब्याली कपाली है ख्याली चहूँ दिसि भाँग के टाटिन के परदा है ।—तुलसी (शब्द०) ।

खिष्टान
संज्ञा पुं० [हिं० ख्रीष्ट] ईसाई । क्रिस्तान ।

खिष्टीय
वि० [अ० क्राइस्ट] १. ईसाई । २. ईसा संबंधी । ईसाई धर्म संबधी ।

खीष्ट
संज्ञा पुं० [अं० क्राइस्ट] [वि० ख्रिष्टीय] हजरत ईसामसीह । यौ०—ख्रीष्टगीता = बाइबिल ।

ख्वाँ (१)
प्रत्य० [फा० ख्वाँ] पढ़नेवाला । जैसे, गजलख्बाँ ।

ख्वाँ (२)
संज्ञा पुं० [फा० ख्वान्] ख्वान का लघु रूप । दे० 'ख्वान' ।

ख्वादाँ
वि० [फा० ख्वाँदह्] १. पढ़ालिखा । शिक्षित । २. निमंत्रित ।

ख्वाजा
संज्ञा पुं० [तु० ख्वाजह्] १. मालिक । स्वामी । पति । २. सरदार । ३. कोई प्रसिद्ध पुरुष । ४. बड़ा व्यापारी । ५. ऊँचे दर्जे का मुसलमान फकीर । ६. रनिवास का नपुंसक भृत्य । ख्वाजासरा । खोजा ।

ख्वान्
संज्ञा पुं० [फा० ख्वान] थाल । परात । यौ०—ख्वानपोश = वह कपड़ा जिससे पकवान, मिठाई आदि से भरे ख्वान को ढक देते हैं ।

ख्वान्चा
संज्ञा पुं० [फा० ख्वान्चह्] एक बड़ी थाली (या शीशेदार संदूक) जिसमें मिठाई, पकवान आदि बेचने के लिये रखते है । दे० 'खोन्चा' ।

ख्वाना पु †
क्रि० स० [हिं० खवाना] खिलाना । उ०—छल कियौ पांडवनि कौरव कपट पासा ढरन । ख्वाय विष, गृह लाय दीन्हौं, तउ न पाए जरन ।—सूर०, १ ।२०२ ।

ख्वानी
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वानी] पढ़ना । सुनाना । विशेष—इसका व्यवहार समास के अंत में ही होता है; जैसे, गजलख्वानी ।

ख्वाब
संज्ञा पुं० [फा० ख्वाब] १. सोने की अवस्था । नींद । २. स्वप्न । यौ०—ख्बाबगाह = सोने का घर । शयनागार । मुहा०-ख्वाब होना या हो जाना = (१) स्वप्नदोष होना । स्वप्न में वीर्यपात हो जाना । (२) कभी प्राप्त न होना ।

ख्वार
वि० [फा० ख्वार] १. बर्बाद । खराब । नष्टभ्रष्ट । सत्यानाश । २. अनादृत । तिरस्कृत । बेइज्जत । अपमानित । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

ख्वारी
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्बारी] १. बर्बादी । खराबी । नष्टता । भ्रष्टता । २. अनादर । तिरस्कार । बेइज्जती । अपमान । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

ख्वास्त
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वास्त] चाह । इच्छा ।

ख्वास्तगार
संज्ञा पुं० [फा० ख्वास्तगार] [भाव० ख्वास्तगारी] चाहनेवाला । इच्छा करनेवाला ।

ख्वास्ता
वि० [फा० ख्वास्तह्] चाहा हुआ । इच्छिन । कांक्षित । वांछित ।

ख्वाह
अव्य० [फा० ख्वाह] या । अथवा । या तो । यौ०—ख्वाह म ख्वाह = (१) चाहे कोई चाहे या न चाहे । अपनो टेक से । जबरदस्ती । (२) जरूर । अवश्य ।

ख्वाहाँ
वि० [फा० ख्वाहाँ] १. इच्छा रखनेवाला । इच्छुक । चाहनेवाला । अनुरागी । प्रेमी ।

ख्वाहिर
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वाहिर] बहन । भगिनी । यौ०—ख्वाहिरजादा—भानेज । भानजा ।

ख्वाहिश
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वाहिश] [वि० ख्वाहिशमद] इच्छा । अभिलाषा । आकांक्षा । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—होना ।

ख्वाहिशमंद
वि०—[फा० ख्वाहिशमंद] ख्वाहिश रखनेवाला । इच्छुक । आकांक्षी ।

ख्वेंतर
संज्ञा पुं० [देश०] गोफना । ढेलवाँस ।—(लश०) ।