विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ठ
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हिन्दी शब्दसागर |
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⋙ ठ
⋙ ठ
व्यंजनों में बारहवाँ व्यंजन जिसके उच्चारण का स्थान भारत के प्राचीन वैयाकरणों ने मूर्धा कहा है । इसका उच्चारण करने में बहुधा जीभ का अग्रभाग और कभी मध्य भाग तालु के किसी हिस्से में लगाना पड़ता है । यह अघोष महाप्राण वर्ण है ।
⋙ ठंकना पु †
क्रि० स० [हिं० ढाँकना, ढँकना] छुपाना । ढाँकना । उ०—(क) मावड़िया मुख ठंकिया, वैसे फाड़े बाक ।—बांकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १९ । (ख) गोरख के गुरु महा मछींद्रा तिन्है पकरि सिर ठंका ।—सं० दरिया, पृ० १३१ ।
⋙ ठंख †
संज्ञा पुं० [देश०] वृक्ष । पेड़ पौधा । उ०—बरुनि बान सब ओपहँ बेधे रन बन ठंख ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १८९ ।
⋙ ठंठ
वि० [सं० स्थाणु] १. जिसकी डाल और पत्तियाँ सूखकर या कटकर गिर गई हों । ठूँठा । सूखा (पेड़) । २. दूध न देने वाली (गाय) । ३. धनहीन । निर्धन ।
⋙ ठंठनाना (१)
क्रि० अ० [ठंठ से नाम०] ठंठ शब्द की ध्वनि होना ।
⋙ ठंठनाना (२)
क्रि० स० ठंठ की ध्वनि करना ।
⋙ ठंठस †
संज्ञा स्त्री० [सं० डिणिडश] ढेंढस । ढेंढसी ।
⋙ ठंठार पु
वि० [हिं० ठंठ + आर (प्रत्य०)] खाली । रीता । छूँछा । उ०—जसु कछु दीजे धरन कहँ आपन लेहु सँभार । तस सिंगार सब लीन्हेंसि कीन्हेसि मोंहि ठंठार ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठंठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठंठ + ई (प्रत्य०)] ज्वार, मूँग आदि का वह अन्न जो दाना पीटने के बाद बाल में लगा रहता है ।
⋙ ठंठी (२)
वि० स्त्री० (बूढ़ी़ गाया या भैंस) जिसके बच्चा और दूध देने की संभावना न हो । जैसे, ठंठी गाय ।
⋙ ठंठोकना †
क्रि० स० [हिं०] ठोकना । पीटना । उ०—तन कूँ जमरो लूटसी लूटै धन कूँ लोक । नान्हों करि करि बालसी हरिया हाड़ ठंठोक ।—रम० धर्म०, ७० ।
⋙ ठंड
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढ' ।
⋙ ठंडई
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढाई' ।
⋙ ठंडक
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढक' ।
⋙ ठंडा
वि० [हिं०]दे० 'ठंढा' ।
⋙ ठंडाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढाई' ।
⋙ ठंढ
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठंढा] शीत । सरदी । जाड़ा ।मुहा०—ठंढ पड़ना = शीत का संचार होना । सरदी फैलना । ठंढ लगना = शीत का अनुभव होना ।
⋙ ठंढई
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढाई' ।
⋙ ठंढक
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठंढा + क (प्रत्य०)] १. शीत । सरदी । उष्णता या गरमी का ऐसा अभाव जिसका विशेष रूप से अनुभव हो । मुहा०—ठंढक पड़ना = शीत का संचार होना । सरदी फैलना । ठंढक लगना = शीत का अनुभव होना । शीत का प्रभाव पड़ना । २. ताप वा जलन की कमी । ताप की शांति । तरी । क्रि० प्र—आना । ३. प्रिय वस्तु की प्राप्ति या इच्छा की पूर्ति से उत्पन्न संतोष । तुप्ति । प्रसन्नता । तसल्ली । क्रि० प्र०—पड़ना । ४. किसी उपद्रव या फैले हुए रोग आदि की शांति । किसी हलचल या फैली हुई बीमारी आदि की कमी या अभाव । जैसे,— इधर शहर में हैजे का बड़ा जोर था पर अब ठंढक पड़ गई है । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ ठंढा
वि० [सं० स्तब्ध, प्र० तद्ध, थडु, ठड्ड] [वि० स्त्री० ठंढी] १. जिसमें उष्णता या गरमी का इतना अभाव हो कि उसका अनुभव शरीर को विशेष रूप से हो । सर्द । शीतल । गरम का उलटा । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—ठंढे ठंढे = ठंढ के वक्त में । धूप निकलने कै पहले । तड़के । सबेरे । उ०—रात भर सोओ, सबेरे उठकर ठंढे ठंढे चले जाना । यौ०—ठंढी आग = (१) हिम । बरफ । (२) पाला । तुषार । ठंढी कड़ाही, ठंढी कढ़ाई = हलवाइयों और बनियों में सब पकवान बना चुकने के पीछे हलुआ बनाकर बाँटने की रीति । ठंढ़ी मार = भीतरी मार । ऐसी मार जिसमें ऊपर देखने में कोई टूटा फूटा न हो पर भीतर बहुत चोट आई हो । गुप्ती मार । (जैसे, लात घूसों आदि की) । ठंढी मिट्टी = (१) ऐसा शरीर जो जल्दी न बढ़े । ऐसी देह जिसमें जवानो के चिह्व जल्दी न मालूम हों । (२) ऐसा शरीर जिसमें कामो— द्दीपन न हो । ठंढी साँस = ऐसी साँस जो दुःख या शोक के आवेग के कारण बहुत खींचकर ली जाती है । दुःख से भरी साँस । शोकोच्छ्वास । आह । मुहा०—ठंढी साँस लेना या भरना = दुःख की साँस लेना । २. जो जलता हुआ या दहकता हुआ न हो । बुझा हुआ । बुता हुआ । जैसे, ठंढा दीया । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. जो उद्दीप्त न हो । जो उद्विग्न न हो । जो भड़का न हो । उदगाररहित । जिसमें आवेश न हो । शांत । जैसे, क्रोध ठंढा होना, जोश ठंढा होना । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग आवेश और आवेश धारण करनेवाले व्यक्ति दोनों के लिये होता है । जैसे, क्रोध ठंढा पड़ना, उत्साह ठंढा पड़ना, क्रुद्ध मनुष्य का ठंढा पड़ना, उत्साह में आए हुए मनुष्य का ठंढा पड़ना, आदि । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना ।—होना । मुहा०—ठंढा करना = (१) क्रोध शांत करना । (२) ढाढ़स देकर शोक कम करना । ढाढ़स बँधाना । तसल्ली देना । माता या शीतला ठंढी करना = शीतला या चेचक के अच्छे होने पर शीतला की अंतिम पूजा करना । ४. जिसे कामोद्दीपन न होता हो । नामर्द । नपुंसक । ५. जो उद्वेगशील या चंचल न हो । जिसे जल्दी क्रोध आदि न आता हो । धीर । शांत । गंभीर । ६. जिसमें उत्साह या उमंग न हो । जिसमें तेजी या फुरती न हो । बिना जोश का । धीमा । सुस्त । मंद । उदासीन । यौ०—ठंढी गरमी = (१) ऊपर की प्रीति । बनावटी स्नेह का आवेश । (२) बातों का जोश । उ०—बस बस यह ठंढ़ी गरमियाँ हमें न दिखाया करो ।—सैर०, पृ० १४ । ठंढा युद्ध, ठंढी लड़ाई = आधुनिक राजनीति में दाँव पेंच की लड़ाई । इसे शीत युद्ध भी कहते हैं । यह अंग्रेजी शब्द कोल्ड बार का अनुवाद है । ७. जो हाथ पैर न हिलाए । जो इच्छा के प्रतिकूल कोई बात होते देखकर कुछ न बोले । चुपचाप रहनेवाला । विरोध न करनेवाला । जैसे,—वे बहुत इधऱ उधऱ करते थे पर जब खरी खरी सुनाई तब ठंढे पड़ गए । क्रि० प्र०—पड़ना ।—रहना । मुहा०—ठंढ़े ठंढे = चुपचाप । बिना चूँ किए । बिना बिरोध या प्रतवाद किए । ८. जो प्रिय वस्तु की प्राप्ति वा इच्छा की पूर्ति से संतुष्ट हो । तृप्त । प्रसन्न । खुश । जैसे,—लो, आज वह चला जायगा, अब तो ठंढे हुए । क्रि० प्र०—होना ।मुहा०—ठंढे ठंढे = हँसी खुशी से । कुशल आनंद से । ठंढे ठंढे घर आना = बहुत तृप्त होकर लौटना (अर्थात् असंतुष्ट होकर या निराश होकर लौटना (व्यंग्य) । ठढे पेटों = हँसी खुशी से । प्रसन्नता से । बिना मनमोटाव या लड़ाई झगड़े के । सीधे से । ठंढा रखना = आराम चैन से रखना । किसी बात की तकलीफ न होने देना । संतुष्ट रखना । ठढे रहो = प्रसन्न रहो । खुश रहो । (स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त एवं आशीर्वादात्मक) । ९. निश्चेष्ट । जड़ । मृत । मरा हुआ । मुहा०—ठंढा होना = मर जाना । ताजिया ठंढा करना = ताजिया दफन करना । (मूर्ति या पूजा की सामग्री आदि को) ठंढा करना = जल में विसर्जन करना । डुबाना । (किसी पवित्र या प्रिय वस्तु को) ठंढा करना = (१) जल में विसर्जन करना । डुबाना । (२) किसी पवित्र या प्रिय वस्तु को फेंकना या तोड़ना फोड़ना । जैसे, चूड़ियाँ ठंढी करना । १०. जिसमें चहल पहल न हो । जो गुलजार न हो । बेरौनक । मुहा०—बाजार ठंढा होना = बाजार का चलता न होना । बाजार में लेनदेन खूब न होना ।
⋙ ठंढाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठंढा + ई (प्रत्य०)] १. वह दवा या मसाला जिससे शरीर की गरमी शांत होती है और ठंढक आती है । विशेष—सौंफ, इलायची, कासनी, ककड़ी, कददु, खरबूजे आदि के बीज, गुलाब की पँखड़ी, गोल मिर्च आदि को एक में पीसकर प्रायः ठढाई बनाई जाती है । क्रि० प्र०—पीना ।—लेना ।
⋙ ठंढा मुलम्मा
संज्ञा पुं० [हिं० ठंढा + अ० मुलम्मा] बिना आँच के सोना चाँदी चढ़ाने की रीति । सोने चाँदी का पानी जो बैटरी के द्वारा या तेजाब की लाग से चढ़ाया जाता है ।
⋙ ठंढ़ी (१)
वि० स्त्री० [हिं०]दे० 'ठंढा' और उसके मुहा० ।
⋙ ठंढी (२)
संज्ञा स्त्री० शीतला । चेचक (स्त्री०) । मुहा०—ठंढी लगना = शीतला के दानों का मुरझाना । चेचक का जोर कम होना । ठंढी निकलना = शीतला के दाने शरीर पर होना । शीतला या चेचक का रोग होना ।
⋙ ठंभन †
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भन, प्रा० ठंभन] रुकने की स्थिति । रुकावट । उ०—धिन यो ठंभन जग माहीं, एक हरि बिन दूजा नाहीं ।—राम० धर्म०, पृ० २५३ ।
⋙ ठंसरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तंत्रवाद्य [को०] ।
⋙ ठः
संज्ञा पुं० [सं० अनुध्व०] एक ध्वनि जो किसी धातुपात्र के कड़ी जमीन या सीढ़ियों पर गिरने से अंत में होती है [को०] ।
⋙ ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. महाध्वनि । ३. चंद्रमंडल या सूर्य— मंडल । ४. मंडल । घेरा । ५. शून्य । ६. गोचर । इंद्रियग्राह्य वस्तु ।
⋙ ठई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठह > ठही] स्थिति । थाह । अवस्था ।
⋙ ठउर †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठौर' । उ०—उहाँ सर्ब सुखा निधि अति बिलास है अनंत थानसम ठउरा ।—प्राण०, पृ० ६५ ।
⋙ ठऊवाँ †पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठाँव' । उ०—जंगम जोग विचारै जहूवाँ, जीव सीव करि एकै ठऊवाँ ।—कबीर ग्रं०, पृ० २२३ ।
⋙ ठक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० ठक] एक वस्तु पर दूसरी वस्तु को जोर से मारने का शब्द । ठोंकने का शब्द ।
⋙ ठक (२)
वि० [सं० स्तब्ध, प्रा० टढ्ढ] स्तब्ध । भौंचक्का । आश्चर्य या घबराहट से निश्चेष्ट । सन्नाटे में आया हुआ । मुहा०—ठक से होना = स्तब्ध होना । आश्चर्य में होना । उ०— उनकी सौम्य मूर्नि पर लोचन ठक से बँध जाते ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३८ । क्रि० प्र०—रह जाना ।—हो जाना ।
⋙ ठक (३)
संज्ञा पुं० [देश०] चंडूबाजों की सलाई या सूजा जिसमें अफीम का किवाम लगाकर सेंकते हैं ।
⋙ ठक † (४)
संज्ञा पुं० [हिं० ठग]दे० 'ठग' । जैसे, ठकमूरी (= ठपमूरी) । उ०—ठाकुर ठक भए गेल चोरें चप्परि घर लिज्झिअ ।— कीर्ति०, पृ० १६ ।
⋙ ठकठक
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० ठकठक्] १. लगातार होनेवाली ठकठक् की ध्वनि या आवाज । २. झगड़ा । बखेड़ा । टंटा । झंझट । उ०—ठकठक जन्म मरन का मेटैं जम के हाथ न आवै ।—कबीर० श०, पृ० २६ । (ख) उठि ठकठक एती कहा, पावस के अभिसार । जानि परैगी देखि यों दामिनि घन अँधियार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ ठकठकाना (१)
क्रि० स० [अनुध्व० ठकठक] १. एक वस्तु पर दूसरी वस्तु पटककर शब्द करना । खटखटाना । २. ठोंकना । पीटना ।
⋙ ठकठकाना † (२)
क्रि० अ० स्तब्ध होना । ठक से होना ।
⋙ ठकठकिया
वि० [अनुध्व० ठकठक + हिं० इया (प्रत्य०)] १. हुज्जती । थोड़ी सी बात के लिये बहुत दलील करनेवाला । तकरार करनेवाला । बखेड़िया ।
⋙ ठकठौआ
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. एक प्रकार की करताल । २. करताल बजाकर भीख माँगनेवाला । ३. एक प्रकार की छोटी नाव ।
⋙ ठकमूरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] स्तब्ध या निश्चेष्ट करनेवाली घड़ी । दे० 'ठगमूरी' । उ०—जा दिन का डर मानता ओइ बेला आई । भक्ति कीन्ही राम की ठकमूरी खाई ।—मलूल०, बानी, पृ० ११ ।
⋙ ठका पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठक (= आघात या धक्का)] धक्का । चोट । आघात । उ०—करै मार षग्गं ठका देत जावै ।— प० रासो, पृ० १४४ ।
⋙ ठकार
संज्ञा पुं० [सं०] 'ठ' अक्षर ।
⋙ ठकुआ †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठोंकवा' ।
⋙ ठकुरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठकुराई' ।
⋙ ठकुरसुहाती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर (= मालिक) + सुहाना]ऐसी बात जो केवल दूसरे को प्रसन्न करने के लिये कही जाय । लल्लोचप्पो । खुशामद । तोषमोद । उ०—हमहु कहब अब ठकुरसुहाती ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ठकुर सोहाती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ठकुरसुहाती' । उ०—ठकुर— सोहाती कर रहे हो कि एकाध पत्तल मिल जाय ।—मान०, भा० ५, पृ० ३० ।
⋙ ठकुराइन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठकुरायत' । उ०—जौ कहौ क्यौ गई दासी हमारी । तजि तजि गृह ठकुराइत भारी ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३२१ ।
⋙ ठकुराइति, ठकुराइती †
संज्ञा स्त्री० [हिं ठकुरायत + ई (प्रत्य०)] स्वामित्व । प्रभुत्व । आधिपत्य । उ०—रग उमा सी दासी जाकी । ठकुराइति का कहिये ताकी ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३० ।
⋙ ठकुराइन †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाकुर] १. ठाकुर की स्त्री । स्वामिनी । मालकिन । उ०—नहिं दासी ठकुराइन कोई । जहँ देखी तहँ ब्रह्म है सोई ।—सूर (शब्द०) । २. क्षत्रिय की स्त्री । क्षत्राणी । ३. नाइन । नाउन । नाई की स्त्री । उ०—देव स्वरूप की रासि निहारति पाँय ते सीस लों सीस ते पाइन । ह्वै रही ठौर ही ठाड़ी ठगी सी हँसे कर टोढ़ी दिए ठकुराइन ।—देव (शब्द०) ।
⋙ ठकुराइस †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठकुरायत' ।
⋙ ठकुराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर] १. आधिपत्य । प्रभुत्व । सरदारी । प्रधानता । उ०—अब तुलसी गिरधर बिनु गोकुल को करिहै ठकुराई ।—तुलसी (शब्द०) । २. ठाकुर का अधिकार । स्वामी होने के अधिकार का उपयोग । जैसे,—खेल में कैसी ठकुराई ? उ०—न्याव न किय कीनी ठकुराई । बिना किए लिखि दीनि बुराई ।—जायसी (शब्द०) । ३. वह प्रदेश जो किसी ठाकुर या सरदार के अधिकार में हो । राज्य । रियासत । ४. उच्चता । बड़प्पन । महत्व । बड़ाई । उ०— हरि कै जन की अति ठकुराई । महारज ऋषिराज राजहुँ देखत रहे लबाई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठकुरानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर] १. ठाकुर या सरदार की स्त्री । जमींदार की स्त्री । २. रानी । उ०—निज मंदिर लै गई रुकमणी पहुनाई विधि ठानी । सूरदास प्रभु तँह पग धारे जहँ दोऊ ठकुरानी ।—सूर (शब्द०) । ३. मालकिन । स्वामिनी । अशीश्वरी । ४. क्षत्रिय की स्त्री । क्षत्राणी ।
⋙ ठकुरानी तीज †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठकुरानी + तीज] श्रावण शुक्ल तृतीया को मनाया जानेवाला एक व्रत । हरियाली तीज ।
⋙ ठकुराय पु
संज्ञा पुं० [हिं० ठाकुर] क्षत्रियों का एक भेद । उ०— गहरवार परहार सकूरे । कलहंस और ठकुराय जूरे ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठकुरायत
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर] आधिपत्य । स्वामित्व । प्रभुत्व । उ०—ठकुरायत गिरधर की साँची । कौरव जीति जुधिष्ठिर राजा कीरति तिहुँ लोक में माँची ।—सूर०, १ ।१७ । २. वह प्रदेश जो किसी ठाकुर या सरदार के अधिकार में हो । रियासत ।
⋙ ठकुराल †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाकुर + आल (प्रत्य०)]दे० 'ठाकुर' । उ०—चल्या ठकुराल्या न लावीय वार । भोज तणाँ मिलिया असवार ।—बी० रासो०, पृ० १६ ।
⋙ ठकुरास
संज्ञा स्त्री० [हिं०] ठकुराइस । अधिकारक्षेत्र । रियासत । उ०—तुम्हें मिली है मानव हिय की यह चंचल ठकुरास । पर, हमको तो मिली अचंचल मस्ती की जागीर ।—अपलक, पृ० ७३ ।
⋙ ठकोरा
संज्ञा पुं० [हिं० ठक + ओरा (प्रत्य०)] टंकोर । आघात । चोट । उ०—कजर के पहर गजर ठकोरा बगे ।—रघु० रू०, पृ० २३८ ।
⋙ ठकोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेकना, ठेकना + औरी (प्रत्य०)] १. सहारा लेने की लकड़ी । उ०—(क) भक्त भरोसे राम के निधरक ऊँची दीठ । तिनको करम न लागई राम ठकोरी पीठ ।—कबीर (शब्द) । (ख) देखादेखी पकरिया गई छिनक में छूटि । कोई बिरला जन ठाहरै जासु ठकोरी पूठि ।— कबीर (शब्द०) । विशेष—यह लकड़ी अड्डे के आकार की होती है । पहाड़ी लोग जब बोझ लेकर चलते चलते थक जाते है तब इस लकड़ी को पीठ या कमर से भिड़ाकर उसी के बल पर थोड़ी देर खड़े हो जाते हैं । साधु लोग भी इसी प्रकार की लकड़ी सहारा लेने के लिये रखते है ओर कभी कभी इसी के सहारे बैठते है । इसे वे बैरागिन या जोगिनी भी कहते हैं ।
⋙ ठक्क
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापारी [को०] ।
⋙ ठक्कर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टक्कर' ।
⋙ ठक्कर (२)
संज्ञा पुं० [सं० ठक्कुर] गुजरातियों की एक जातीय उपाधि या अल्ल ।
⋙ ठक्कुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । ठाकुर । पूज्य प्रतिमा । २. मिथिला के ब्राह्मणों की एक उपाधि ।
⋙ ठग
संज्ञा पुं० [सं० स्थग] [ स्त्री० ठगनी, ठगिन ठगिनी] १. धोखा देकर लोगों का धन हरण करनेवाला व्यक्ति । वह लुटेरा जो छल और धूर्तता से माल लूटता है । भुलावा देकर लोगों का माल छीननेवाला । उ०—जग हटवारा स्वाद ठग, माया वेश्या लाय । राम नाम गाढ़ा गहो जनि कहुँ जाहु ठपाय ।—कबीर (शब्द०) । विशेष—डाकू और ठग में यह अंतर है कि डाकू प्रायः जबरदस्ती बल दिखाकर माल छीनते हैं पर ठग अनेक प्रकार की धूर्तता करते हैं । भारत में इनका एक अलग संप्रदाय सा हो गया था । मुहा०—ठग लगना = ठगों का आक्रमण करना या पीछे पड़ना । जैसे,—उस रास्ते में बहुत ठग लगते हैं । ठग के लाड़ू = दे० 'ठगलाड़ू' । यौ०—ठगमूरी । ठगमोदक । ठगलाड़ू । ठगविद्या । २. छली । धूर्त । धोखेबाज । वंचक । प्रतारक ।
⋙ ठगई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + ई (प्रत्य०)] १. ठंगपना । ठग का कम । २. धोखा । छल । फरेब ।
⋙ ठगण
संज्ञा पुं० [सं०] मात्रिक छंदों के गणों में से एक । यह पाँच मात्राओं का होता है इसके ८ उपभेद हैं ।
⋙ ठगना (१)
क्रि० स० [हिं० ठग + ना (प्रत्य०)] धोखा देकर माल लूटना । छल और धूर्तता से धन हरण करना । २. धोखा देना । छल करना । धूर्तता करना । भुलावे में डालना । मुहा०—ठग सा, ठगी सी = धोखा खाया हुआ । भूला हुआ । चकित । भौंचक्का । आश्चर्य से स्तब्ध । दंग । उ०—(क) करत कछु नाहीं आजु बनी । हरि आए हों रही ठगी सी जैसे चित्र धनी ।—सूर (शब्द०) । (ख) चित्र में काढ़ी सी ठाढ़ी ठगी सी रही कछु देख्यो सुन्यो न सुहात है ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । ३. उचित से अधिक मूल्य लेना । वाजिव से बहुत ज्यादा दाम लेना । सौदा बेचने में बेईमानी करना । जैसे,—यह दूकानदार लोगों को बहुत ठगता है । संयो० क्रि०—लेना ।
⋙ ठगना (२)
क्रि० अ० १. ठगा जाना । धोखा खाकर लुटना । २. धोखे में आना । चकित होना । आश्चर्य से स्तब्ध होना । ठक रह जाना । दंग रहना । उ०—(क) तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बिनु देखे बिन ही सुने ठगत न कोउ बाँच्यो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग] १. ठग की स्त्री । २. ठगनेवाली स्त्री । ३. धूर्त स्त्री । छलनेवाली स्त्री । ४. कुटनी ।
⋙ ठगपन
संज्ञा पुं० [हिं० ठग + पन (प्रत्य०)]दे० 'ठगपना' ।
⋙ ठगपना
संज्ञा पुं० [हिं० ठग + पन + आ (प्रत्य०)] १. ठगने का काम या भाव । २. धूर्तता । छल । चालाकी । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ठगमूरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + मूरि] वह नशीली जड़ी बूटी जिसे ठग लोग पथिकों को बेहोश करके उनका धन लूटने के लिये खिलाते थे । मुहा०—ठगमूरी खाना = मतवाला होना । होशहवाश में न रहना । उ०—(क) काहु तोहि ठगोरी लाई । बूझति सखी सुनति नहिं नेकहु तुही किधौं ठगमूरी खाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) ज्यों ठगमूरी खाइके मुखहि न बोलै बैंन । टुगर टुगर देष्या करै सुंदर बिरहा ऐँन ।—सुदंर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६८३ ।
⋙ ठगमूरी (२)
वि० स्त्री० ठगमूरी से प्रभावित । उ०—टक टक ताकि रही ठगमूरी आपा आप बिसारी हो ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ८४ ।
⋙ ठगमोदक
संज्ञा पुं० [हिं० ठग + सं० मोदक]दे० 'ठगलाड़ू' । उ०—चलत चितै मुसकाय कै मृदु बचन सुनाए । तेही ठगमोदक भए, मन धीर न, हरि तन छूछो छिटकाए ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठगलाड़ू
संज्ञा पुं० [हिं० ठग + लाड़ू (= खड्डू)] ठगों का लड्डू जिसमें नशीली या बेहोशी करनेवाली चीज मिली रहती थी । विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है कि ठग लोग पथिकों से रास्ते में मिलकर उन्हें किसी बहाने से अपना लड्डू खिला देते थे जिसमें विष या कोई नशीली चीज मिली रहती थी । जब लड्डू खाकर पथिक मूर्छित या बेहोश हो जाते थे तब वे उनके पास जो कुछ होता था सब ले लेते थे । मुहा०—ठगलाड़ू खाना = मतवाला होना । होशहवास में न रहना । बेसुध होना । उ०—सूर कहा ठगलाड़ू खायो । इत उत फिरत मोह को मातो कबूहुँ न सुधि करि हरि चित लायो ।—सूर (शब्द०) । ठगलाड़ू देना = बेसुध करनेवाली वस्तु देना । उ०—मनहु दीन ठगलाड़ू देख आय तस मीच ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठगलीला
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + लीला] ठगों का मायाजाल । वंचना । धोखाधड़ी । उ०—छूटेगी जग की ठगलीला होंगी आँखें अंतःशीलाः—बेला, पृ० ७६ ।
⋙ ठगवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठग' । उ०—कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो ।—कबीर० श०, भा० १, पृ० २ ।
⋙ ठगवाना
क्रि० स० [हिं० ठगना का प्रे० रूप] दूसरे से किसी को धोखा दिलवाना ।
⋙ ठगविद्या
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + सं० विद्या] ठगों की कला । धूर्तता । धोखेबाजी । छल । वंचकता ।
⋙ ठगहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + हाई (प्रत्य०)] ठगपना ।
⋙ ठगहारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + हारी (प्रत्य०)] ठगपना ।
⋙ ठगाइनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] ठगनेवाली स्त्री । ठगिनी । उ०— यदि परे नर काल के बुद्धि ठगाइनि जानि ।—कबीर० श०, भा० ४, पृ० ८८ ।
⋙ ठगाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + आई (प्रत्य०)]दे० 'ठगपना' ।
⋙ ठगाठगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग] धोखेवाजी । वंचकता । धोखाधड़ी ।
⋙ ठगाना †
क्रि० अ० [हिं० ठगना] १. ठगा जाना । धोखे में आकर हानि सहना । २. किसी वस्तु का अधिक मूल्य दे देना । दूकानदार की बातों में आकर ज्यादा दाम दे देना । जैसे,— इस सौंदे में तुम ठगा गए । ३. (किसी पर) आसक्त होना । मुग्ध होना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ ठगाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठगाई', 'ठगहाई' । उ०—नाहक नर सूली धरि तीन्हों । जिन बन माँहि ठगाही कीन्हों ।— विश्राम (शब्द०) ।
⋙ ठगिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + इन (प्रत्य०)] १. धोखा देकर लूटनेवाली स्त्री । लुटेरिन । २. ठग की स्त्री । ३. धूर्त स्त्री । चालबाज औरत ।
⋙ ठगिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + इनी (प्रत्य०)] १. लुटेरिन । धोखा देकर लूटनेवाली स्त्री । उ०—ठगति फिरति ठगिनी तुम नारी । जोई आवति सोइ सोइ कहि डारति जाति जनावति दै दै गारी ।—सूर (शब्द०) । २. ठग की स्त्री । ३. धूर्त स्त्री । चालबाज स्त्री ।
⋙ ठगिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ठग + इया (प्रत्य०)]दे० 'ठग' ।उ०—जुरे सिद्ध साधक ठगिया से बड़ो जाल फैलायो ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४९ ।
⋙ ठगिया (२)
वि० ठगनेवाला । छलनेवाला । उ०—ठगिया तेरे नैन ये छल बल भरे कितेब ।—स० सप्तक, पृ० १९३ ।
⋙ ठगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + ई (प्रत्य०)] १. ठग का काम । धोखा देकर माल लूटने का काम । २. ठगने का भाव । ३. धूर्तता । धोखेबाजी । चालबाजी ।
⋙ ठगोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठग + बौरी] ठगों की सी माया । मोहित करने का प्रयोग । मोहिनी । सुधबुध भुलानेवाली शक्ति । टोना । जादू । उ०—(क) जानहु लाई काहु ठगोरी । खन पुकार खन बाँधे बैरी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) दसन चमक अधरन अरुनाई देखत परी ठगोरी ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।—लगना ।—लगाना ।
⋙ ठगौरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठगोरी]दे० 'ठगोरी' । उ०—रूप ठगौरी डार मन मोहन लैगौ साथ । तब तैं साँसैं भरत हैं नारी नारी हाथ ।—स० सप्तक, पृ० १८५ ।
⋙ ठट
संज्ञा पुं० [सं० स्थाता (= जो खड़ा हो), या देश०] १. एक स्थान पर स्थित बहुत सी वस्तुओं का समूह । एक स्थान पर खड़े बहुत से लोगों की पंक्ति । मुहा०—ठट के ठट = झुंड के झुंड । बहुत से । उ०—रात का वक्त था मगर ठट के ठट लगे हुए थे ।—फिसाना०, भा० २, पृ० १०४ । ठठ लगना = (१) भीड़ जमना । भीड़ खड़ी होना । (२) ढेर लगना । राशि इकट्ठी होना । २. समूह । झुंड । पंक्ति । उ०—अंबर अमर हरखत बरखत फूल सनेह सिथिल गोप गाइन के ठट है ।—तुलसी (शब्द०) । ३. बनाव । रचना । सजावट । उ०—परखत प्रीति प्रतीति पैज पन रहे काज ठट ठानि हैं ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—ठटवारी = संजाववाली । बनाव वाली ।
⋙ ठटकीला
वि० [हिं० ठाट] [वि० स्त्री० ठटकीली] सजा हुआ । ठाटदार । सजीला । तड़क भड़कवाला । उ०—आछी चरननि कंचन लकुट ठटकील बनमाल कर टेके द्रुमड़ार टेढ़े ठाढ़े नंदलाल छबि छाई घट घट ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ ठटना (१)
क्रि० स० [सं० स्थाता (= जो खड़ा या ठहरा हो) । हिं० ठाट, ठाढ़] १. ठहराना । निश्चित करना । स्थिर करना । उ०—होत सु जो रघुनाथ ठटी । पचि पचि रहे सिद्ध, साधक, मुनि तऊ बढ़ी न घटी ।—सूर (शब्द०) । २. सजाना । सुसज्जित करना । तैयार करना । उ०—(क) नृप बन्यो विकट रन ठाट ठटि मारु मारु धरु मारु रटि ।— गोपाल (शब्द०) । (ख) कोऊ करि जलपान मुरोठा ठटि ठटि बान्हत ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४० । मुहा०—ठटकर बातें करना = बना बनाकर बातें करना । एक एक शब्द पर जोर देते हुए बातें करना । ३. (राग) छेड़ना । आरंभ करना । उ०—नव निकुंज गृह नवल आगे नवल बीना मधि राग गौरी ठटी ।—हरिदास (शब्द०) ।
⋙ ठटना (२)
क्रि० अ० १. खड़ा रहना । अड़ना । डठना । उ०—खैंचत स्वाद स्वान पातर ज्यों चातक रटत ठटी ।—सूर (शब्द०) । २. विरोध में जमना । विरोध में डटा रहना । ३. सजना । सुसज्जित होना । तैयार होना । उ०—जबहीं आइ चढ़ै दल ठटा । देखत जैस गगन घन घटा ।—जायसी (शब्द०) । ४. एकत्र होना । जमाव होना । पुंजीभूत होना । उ०— छत्तीस राग रागनि रसनि तंत ताल कंठन ठटहिं ।—पृ० रा०, ८ ।२ । ५. स्थित होना । धरना । करना । साधना । उ०—कोई नाँव रटै कोई ध्यान ठटै कोई खोजत ही थक जावता है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २९८ ।
⋙ ठटनि पु,ठटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठटना] बनाव । रचना । सजावट । उ०—नाभि भँवर त्रिवली तरंग गति पुलिन तुलिन ठटनी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठटया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली जानवर ।
⋙ ठटरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाट] १. हड्डियों का डाँचा । अस्थिपंजर । मुहा०—ठटरी होना = दुबला होना । कृशांग होना । २. घास भूसा आदि बाँधने का जाल । खरिया । खड़िया । ३. किसी वस्तु का ढाँचा । ४. मुरदा उठाने की रथी । अरथी ।
⋙ ठटु †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाठ] बनाव । रचना । सजावट ।
⋙ ठट्ट
संज्ञा पुं० [सं० तट, हिं० टट्टी वा सं० स्थाता] १. एक स्थान पर स्थित बहुत सी वस्तुओं का समूह । एक स्थान पर खड़े बहुत से लोगों की पंक्ति । २. समूह । झुंड । समुदाय । पंक्ति । उ०—(क) इअ रहहि गर्णता विरुद भणंता, भट्टा ठट्टा पेक्खीआ ।—कीर्ति०, पृ० ४८ । (ख) देखि न जाय कपिन के ठट्टा । अति विशाल तनु भालु सुभटटा ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) पियत भट्ट के ठट्ट अरुं गुजरातिन के वृंद ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ ठट्टना पु
क्रि० अ० [हिं० गठना] आयोजन करना । ठाटना । उ०—सु रोमराइ राजई उपंम कब्बि साजई । सुमेर शृंग कंद कै, चढ़ै पपील चंद कै । उमंग कब्बि ठट्टई धनक्क मुट्ठि चड्ढई ।—पृ० रा०, २५ ।१३९ ।
⋙ ठट्टो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाठ] ठटरी । पंजर । हड्डी का ढांचाँ । उ०— उर अंतर धुँधुआइ जरै जस काँच की भट्टी । रक्त मांस जरि जाय रहै पाँजर की ठट्टी ।—गिरधर (शब्द०) ।
⋙ ठट्ठ †
संज्ञा पुं० [हिं० ठट्ट]दे० 'ठट' और 'ठट्ट' ।
⋙ ठट्ठई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठट्ठा] ठट्ठा । दिल्लगी । हँसी ।
⋙ ठट्ठा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अट्टहास या सं० टट्टरी (= उपहास)] हँसी । उपहास । दिल्लगी । मसखरापन । खिल्ली । उ०— तब नीरू ने कहा कि लोग मुझको हसेंगे और ठट्ठा में उड़ावेंगे ।—कबीर मं०, पृ० १०४ । क्रि० प्र०—करना । यौ०—ठट्ठाबाज, टट्ठेबाज = दिल्लगीबाज । ठट्ठेबाजी = दिल्लगी । मुहा०—ठट्ठा उड़ाना = उपहास करना । दिल्लगी करना । उ०—और लोग तरह तरह की नकलैं करके उसका ठट्ठा उड़ाने लगे ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७६ । ठट्ठा मारना =खिलखिलाना । अट्टहास करना । ठट्ठा में उड़ाना = किसी की चर्चा या कथन को मजाक समझना । खिल्ली उडा़ना । ठट्ठा लगाना = खिलखिलाकर हँसना । ठठाकर हँसना । अट्ठहास करना ।
⋙ ठठ
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठट' । २. 'ठाठ' । उ०—करि पान गंगा जल बिमल फिर ठठे ठठ घमसान के ।—हिम्मत०, पृ० २२ ।
⋙ ठठई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० टट्टरी] हँसी । ठट्ठा । मसखरापन । उ०—हुतो न साँचो सनेह मिटयो मन को, हरि परे उघरि, संदेसहु ठठई ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४४३ ।
⋙ ठटकना पु †
क्रि० अ० [सं० स्थेय + करण] १. एकबारगी रुक या ठहर जाना । ठिठकना । उ०—(क) ठठकति चलै मटकि मुँह मोरै बंकट भौंह चलावै ।—सूर (शब्द०) । (ख) डग कुडगति सी चलि ठठकि चितई चली निहारि । लिये जाति चित चोरटी वहै गोरटी नारि ।—बिहारी (शब्द०) । २. स्तंभित हो जाना । क्रियाशून्य हो जाना । ठक रह जाना । उ०—मन में कछु कहन चहै देखत ही ठठकि रहै सूर श्याम निरखत दुरी तन सुधि बिसराय ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठठकान †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठकना] ठठकने का भाव ।
⋙ ठठना †
क्रि० स० क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठटना' । उ०—चौकि चलै, ठठि छैल छलै, सु छबीली छराय लैं छाँह न छवावै ।— घनानंद, पृ० २१२ ।
⋙ ठठरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठटरी' ।
⋙ ठठवा †
संज्ञा पुं० [हिं० टाट] एक प्रकार का रूखा और मोटा कपड़ा । इकतारा । लमगजा ।
⋙ ठठा †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठट्ठा' ।
⋙ ठठाना (१)
क्रि० स० [अनु० ठक् ठक्] ठोकना । आघात लगाना । पीटना । जोर जोर से मारना । उ०—फलै फूलै फैलें खल, सीदै साधु पल पल, बाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) दंत ठठाइ ठोठरे कीने । रहे पठान सकल भय भीने ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ ठठाना (२)
क्रि० अ० [सं० अट्टहास] खिलखिलाना । अट्टहास करना । कहकहा लगाना । जोर से हँसना । उ०—दुइ कि होइ इक संग भुआलू । हँसब ठठाई फुलाउब गालू ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ठठिया †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठट्ठ (= ढाँचा या ठठरी)] हड्डियों का ढाँचा । काया । शरीर । उ०—काह भए टठिया के भेटै । शीश दरस बिनु भरम न मेटै ।—कबीर सा०, पृ० ४१२ ।
⋙ ठठियार (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठरी (= ढाँचा)] ढाँचा । टट्टर अस्थिशेष । उ०—तस सिंगार सब लीन्हेसि मोहि कीन्हेसि ठठियारि ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४१ ।
⋙ ठठियार (२)
संज्ञा पुं० [देश०] जंगली चैपायों को चरानेवाला । चरवाहा ।—(नैपाल तराई) ।
⋙ ठठिरिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठेरा] ठठेरिन । ठठेरे की स्त्री । उ०—ठठिरिन बहुतइ ठाठर कीन्ही । चली महीरिन काजर दीन्ही ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठठुकना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठठकना', 'ठिठकना' । उ०— दूर ही से मुझै घाट में नहाते देख ठठुके ।—श्यामा०, पृ० ९७ ।
⋙ ठठेर मंजारिका
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठेरा + सं० मार्जारिका] ठठेरे की बिल्ली । उ०—अहे बजंत्री हरिन भ्रम कहा बजावै बीन । या ठठेर मंजरिका सुर सुनि मोहैगी न । —दीनदयाल (शब्द०) । विशेष—ठठेरों की बिल्ली के सामने रात दिन बरतन पीटे जाने से न तो वह थोड़ी खड़खड़ाहट से ड़रती है न किसी अच्छे शब्द पर मोहित होती है ।
⋙ ठठेरा (१)
संज्ञा पुं० [अनु० ठन ठन अथवा हि० टाठी + एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० ठठेरिन, ठठेरी] धातु को पीट पीटकर बरतन बनानेवाला । बरतन बनानेवाला । कसेरा । मुहा०— ठठेरे ठठेरे बदलाई = जैसे का तैसा व्यवहार । एक ही प्रकार के दो मनुष्यों का परस्पर व्यवहार । ऐसे दो आदमियों के बीच व्यवहार जो चालाकी, धूर्तता, बल आदि में एक दूसरे से कम न हों । ठठेरे की बिल्ली = ऐसा मनुष्य जो कोई अरुचिकर काम देखते देखते या सुनते अभ्यस्त हो गया ही । ऐसा मनुष्य जो कोई खटके की बात देखकर न चौके या न घबराय । विशेष— ठठेरे की बिल्ली दिन रात बरतन का पीटना सुना करती है । इससे वह किसी प्रकार की आहट या खटका सुनकर नहीं डरती ।
⋙ ठठेरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ठाँठ] ज्वार बाजरे का डंठल ।
⋙ ठठेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठेरा] १. ठठेरा की स्त्री । २. ठठेरा जाति की स्त्री । ३. ठठेरा का काम । बरतन बनाने का काम । यौ०— ठठेरी बाजार ।
⋙ ठठैरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टट्टर (= रोक)] अवरोध । रोक आड़ । उ०—बीस तीस गोलांसू ठठैरी तोड़ नाषी । सालै । तोप राजा की अचंका झोड़ नांखी ।— शिखर०, पृ० ७५ ।
⋙ ठठोल
संज्ञा पुं० [हिं० ठठ्ठा] [स्त्री० ठठोलिन] १. ठठ्टेबाज । विनोद प्रिय । दिल्लगीबाज । मसखरा । उ०—मूँछ मरोरत डोलई ऐठ्यौ फिरत ठठोल । सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३१६ । २. ठठोली । हँसी । दिल्लगी । उ०—याद परी सब रस की बातै बढ़ि गयो विरह ठठोलन सों ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३८५ ।
⋙ ठठोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० टट्टा] हँसी । दिल्लगी । मसखरापन । मजाक । वह बात जो केवल विनोद के लिये की जाय । उ०— ऐसी भी रही ठठोली ।—अर्चना, पृ० ३४ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ठड़कना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठठकना', 'ठिठकना' ।
⋙ ठड़ा †
वि० [सं० स्थातृ] खड़ा । दंडायमान । यौ०—ठड़िया ब्यौहार = वह सामाजिक व्यवहार जिसमें रुपयों का लेन देन न होता हो ।
⋙ क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ठड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० ठाड़] वह नैचा जिसकी निगाली बिलकुल खड़ी होती है । विशेष—ऐसा नैचा लखनऊ में बनता है और मिट्टी की फरशी में लगाया जाता है । मुसलमान इसका व्यवहार अधिक करते हैं ।
⋙ ठड़्डा
संज्ञा पुं० [हिं० ठड़ा] १. पीठ की खड़ी हड़्डी । रीढ़ । यौ०—ठड्डाटूटी = जिसकी कमर झुकी हो । कुबड़ी ।— (स्त्रि०) । २. पतंग में लगी हुई खड़ी कमाची । काँप का उलटा । ३. ढाँचा । टट्टर । उ०—दुर्बीन और केलों के ठड्डे खड़ा कर देते ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ६ ।
⋙ ठढ़ा †
वि० [सं० स्थातृ] खड़ा । दंडायमान । उ०—तरकि तरकि अति बज्र से डारैं । मदमत इंद्र ठढ़ौ फलकारैं ।—नद० ग्रं०, पृ० १९२ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ठढ़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाढ़ (= खड़ा)] १. काठ की वह ऊँची ओखली जिसमें पड़ें हुए धान को स्त्रियाँ खड़ी होकर कूटती हैं । २. मरसा नाम का शाक । ३. पशुओं का एक रोग ।
⋙ ठढ़ियाना †
क्रि० स० [हिं० ठढ़ा (= खान)] खड़ा करना ।
⋙ ठढ़ुई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठढ़िया' ।
⋙ ठन
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] धातुखंड पर आघात पड़ने का शब्द । किसी धातु के बजने का शब्द । यौ०—ठन ठन = चमड़े से मढ़े हुए बाजे का शब्द ।
⋙ ठनक
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० ठन ठन] १. मृदंगादि की ध्वनि । चमड़े से मढ़े बाजे पर आघात पड़ने का शब्द । उ०—खनक चुरीन की त्यौ ठनक मृदंगन की रुनुक झुनुक सुर नूपुर के जाल को ।— पद्माकर (शब्द०) । २. रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा । टीस । चसक । ३. धातुखंड़ पर आघात होने से उत्पन्न शब्द । ठन । मुहा०—ठनककर बोलना = कड़ी आवाज में कुछ कहना । उ०—सिंह ठवनि होए बोले ठनकि के, रन जीते फिरि आवै ।—सं० दरिया, पृ० ११५ ।
⋙ ठनकना
क्रि० अ० [अनुध्व० ठन ठन] १. ठन ठन शब्द० करना । धातुखंड़ अथवा चमड़े से मढ़े बाजे आदि का आघात पाकर बजना । जैसे, तबला ठनकना । २. रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा होना । जैसे, माथा ठनकना । मुहा०—तबला ठनकना = नृत्य गीत आदि होना । उ०—हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३२६ । माथा ठनकना = किसी बुरे लक्षण को देखकर चित्त में घोर आशंका उत्पन्न होना । जैसे, तार पाते ही माथा ठनका ।
⋙ ठनका
संज्ञा पुं० [हिं० ठनक] १. धातुखंड़ आदि पर आघात पड़ने का शब्द । २. आघात । ठोकर । ३. रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ी ।
⋙ ठनकाना
क्रि० स० [हिं० ठनकना] किसी धातुखंड या चमड़े से मढ़े बाजे पर आघात करके शब्द निकालना । बजाना । जैसे, तबला ठनकाना, रुपया ठनकाना । मुहा०—रुपया ठनका लेना =रुपया बजाकर ले लेना । रुपया वसूल कर लेना । उ०—जैसे, तुमने रुपए तो ठनका लिए मेरा काम हो या न हो ।
⋙ ठनकार
संज्ञा पुं० [हिं० अनुध्व ठन ठन] धातुखंड़ के बजने का शब्द ।
⋙ ठनकारना †
क्रि० अ० [हि० ठनकार] फुफकारना । क्रुद्ध सर्प का फन काढ़कर फुफकारना । उ०—सन सन करके रात खनकती झींगुर झनकारै । कभी कभी दादुर रट कर जिय व्याकुल कर डारैं । साँप खँडहर पर ठनकारैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४८९ ।
⋙ ठनगन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ठनना] विवाह आदि मंगल अवसरों पर नेगियों या पुरस्कार पानेवालों का अधिक पाने के लिये हठ या अड़ । उ०—ठनगन तैं सब बाम बसनन सजि सजि कै गई ।—नंद ग्रं०, पृ० ३३३ । क्रि० प्र०—करना ।—ठानना ।—होना । २. हठ । अड़ । मान । उ० बनि आएँ ठनगन ठानति है सर्बोपर राघे तोहि लहौं ।—घनानंद, पृ० ४५९ ।
⋙ ठनठन
क्रि० वि०[अनुध्व०] धातुखंड़ के बजने का शब्द ।
⋙ ठनठन गोपाल
संज्ञा पुं० [अनुध्व० ठनठन + गोपाल (= कोई व्यक्ति)] १. छूँछी और निःसार वस्तु । वह वस्तु जिसके भीतर कुछ भी न हो । २. खुक्ख आदमी । निर्धन मनुष्य । वह व्यक्ति जिसके पास कुछ भी न हो ।
⋙ ठनठनाना (१)
क्रि० स० [अनुध्व] किसी धातुखंड़ या चमड़े से मढ़े बाजे पर आघात करके शब्द निकालना । बजाना ।
⋙ ठनठनाना (२)
क्रि० अ० ठन ठन बजना या आवाज होना । ठनठन की ध्वनि होना ।
⋙ ठनना
क्रि० अ० [हिं० ठानना] १. (किसी कार्य का) तत्परता के साथ आरंभ होना । द्दढ़ संकल्पपूर्वक आरंभ किया जाना । अनुष्ठित होना । समारंभ होना । छिड़ना । जैसे, काम ठनना, झगड़ा ठनना, बैर ठनना, युद्ध ठनना, लड़ाई ठनना । २. (मन में) स्थिर होना । ठहरना । निश्चित होना । पक्का होना । द्दढ़ होना । चित्त में द्दढ़तापूर्वक धारण किया जाना । द्दढ़ संकल्प होना । जैसे, मन में कोई बात ठनना, हठ ठनना । उ०—हरिचंद जू बात ठनी तो ठनी नित की कलकानि ते छूटनो है ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ३. ठहरना । लगना । कल कोकिल कंठ बनी मृग खंजन मंजन भाँति ठनी ।— केशव (शब्द०) । ४. उद्यत होना । मुस्तैद होना । सन्नद्ध होना । उ०—रन जीतन काजै भटन निवाजै आनंद छाजैं युद्ध ठने ।—गोपाल (शब्द०) । मुहा०—किसी बात पर ठनना = किसी बात या काम को करने के लिये उद्यत होना ।
⋙ ठनमनाना
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ढनमनाना' ।
⋙ ठनाका
संज्ञा पुं० [अनुध्व० ठन] उन ठन शब्द । ठनकार ।
⋙ ठनाठन
क्रि० वि० [अनुध्व० ठन ठन] ठन ठन शब्द के साथ । झनकार के साथ । जैसे, ठनाठन बजना ।
⋙ ठप
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. खुले हुए ग्रंथ को एकाएक बंद करने से उत्पन्न शब्द या ध्वनि । २. किसी कार्य या ब्यापार का पूरी तरह बंद रहना या रुक जाना । क्रि० प्र०—करना ।—रहना ।—होना ।
⋙ ठपका †
संज्ञा पुं० [देश०] धक्का । ठोकर । ठेस । उ०—यह तन काजा कुंभ है लिया फिरै था साथ । ठपका लाग्या फूटि ग्या कछू न आया हाथ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ ठपाक †
संज्ञा पुं० [फा़० तपाक] जोश । आवेश । वेग । तेजी । उ०—रामसिह नशे में थे ठपाक से आल्हा की लड़ियाँ गाने लगे ।—काले०, पृ० २४ ।
⋙ ठपोरना
क्रि० स० [हिं० ठप ठप अनुध्व०] थपथपाना । ठोकना । उ०—जन दरिया बानक बना गुरू ठपोरी पूठ ।—दरिया० बानी, पृ० १६ ।
⋙ ठप्पा
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन, हिं० थापन, थाप, अथवा अनुध्व० ठप] १. लकड़ी, धातु मिट्टी आदि का खंड जिसपर किसी प्रकार की आकृति, बेलबूटे या अक्षर आदि इस प्रकार खुदे हों कि उसे किसी दूसरी वस्तु पर रखकर दबाने से या दूसरी वस्तु की उसपर रखकर दबाने से उस दूसरी वस्तु पर वे आकृतियाँ बेलबूटे या अक्षर उभर आवें अथवा बन जाँय । साँचा । क्रि० प्र०—लगाना । २. लकड़ी का टुकड़ा जिसपर उभरे हुए बेलबूटे बने रहते हैं ओर जिसपर रंग, स्याही आदि पोतकर उन बेलबूटों को कपड़े आदि पर छापते हैं । छापा । ३. गोटे पट्टे पर बेलबूटे उभारने का साँचा । ४. साँचे के द्वारा बनाया हुआ चिह्न, बेलबूटा आदि । छाप । नकश । ५. एक प्रकार का चौड़ा नक्काशीदार गोटा ।
⋙ ठबक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठपका] आघात । ठोकर । ठेस । उ०— या तनु को कह गर्व करत हैं ओला ज्यों गल जावै रे । जैसे बर्तन बनो काँच को ठबक लगे बिगसावै रे ।—राम० धर्म, पृ० ३६० ।
⋙ ठबकना
क्रि० अ० [हिं० ठमक] ठेस या ठोकर देते हुए चलना । ठसक के साथ चलना । उ०—हबकि बोलिबा, ठबकि न चालिबा धीरे धरिबा पावं । गरब न करिबा, सहजै रहिबा भणंत गोरख रावं ।—गोरख०, पृ० ११ ।
⋙ ठभोली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठोली वा देश०] दे० 'ठठोली' ।
⋙ ठमंकना पुं
क्रि० स० [अनु०] ठमु की ध्वनि के साथ गिरना, ठहरना या रुकना उ०— उरं फुट्ट सन्नाह धरनी ठमंकै ।—प० रासो, पृ० ४५ ।
⋙ ठमक
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठमकना] १. चलते चलते ठहर जाने का भाव । रुकावट । २. चलने की ठसक । चलने में हावभाव लचक ।
⋙ ठमकना
क्रि० अ० [स० स्तम्भन] १. चलते चलते ठहर जाना । ठिठकना । रुकना । जैसे,—तु्म चलते चलते ठमक क्यों जाते हो । २. ठसक के साथ रुक रुककर चलना । हाव भाव दिखाते हुए चलना । अंग मरोड़ते या मटकाते हुए चलना । लचक के साथ चलना । उ०—ठमकि ठमकि सरकौंही चालन आउ सामुहें मेरे ।—पोद्दार आभि० ग्रं०, पृ० ३८६ ।
⋙ ठमका † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनुध्व०] ठम् ठम् की स्थिति या क्रिया । ठक ठक । झंझट बखेड़ा । उ०—धमण धमंती रह गई सीला पड़या अंगार । अहरण का ठमका मिटया री लाद चले लोहार ।—राम० धर्म०, पृ० १६ ।
⋙ ठमक † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] झोंका । उ०—इसलिये कांग सेठानी नदी का ठमका ले रही थी ।—जनानी०, पृ० ३८ ।
⋙ ठमकाना
क्रि० स० [हिं० ठमकना] ठहराना । चलते चलते रोकना ।
⋙ ठमकारना
क्रि० स० [हिं०]दे० 'ठमकाना' ।
⋙ ठमठमाना †
क्रि० अ० [सं० स्तम्भन] ठमकना । ठिठकना । उ०—दूल्हा जू जरा जरा ठमठमाया ।—झाँसी०, पृ० ३१९ ।
⋙ ठमिकना पु †
क्रि० अ० [देश०]दे० 'ठमकना' । उ०—चौथा को लैहँगो झूना को ताव । ठमिक ठमिक धन देछइ पाव ।— वो० रासो, पृ० ११४ ।
⋙ ठमकड़ा पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठमूक(= ठमक) + ड़ा (प्रत्य०)] ठक ठक की आवाज । ठपका । ठमका । उ०—धबणि धवंती रहि गई, बुझि गए अँगार । अहरणि रह्या ठमूकड़ा जब उठि चले लुहार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७५ ।
⋙ ठयना
क्रि० स० [सं० अनुष्ठान] १. ठानना । द्दढ़ संकल्प के साथ आरंभ करना । छेड़ना । उ०—(क) दासी सहस प्रगट तँह भई । इंद्रलोक रचना ऋषि ठई ।—सूर (शव्द०) । (ख) जब नैननि प्रीति ठई ठग श्याम सों, स्यासी सखी हठि हौ बरजी ।—तुलसी (शब्द०) । २. कर चुकना । पूरी तरह से करना । (इसका प्रयोग संयो० क्रि० के रूप में हुआ है) । उ०—देवता निहोरे महामारिन सों कर जोरे भोरानाथ भोरे आपनी सी कहि ठई है ।—तुलसी (शब्द०) । ३. मन में ठह— राना । निश्चित करना । उ०—तुलसिदास कौन आस मिलन की ? कहि गए सो तो एकौ चित न ठई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) एहि बिधि हित तुम्हार मै ठएऊ ।—मानस, पृ० ७१ ।
⋙ ठयना (२)
क्रि० अ० १. ठनना । दृढ़ संकल्प के साथ आरंभ होना । २. मन में दृढ़ होना । ३. प्रयोग में आना । कार्य में प्रयुक्त होना ।
⋙ ठयना (३)
क्रि० स० [सं० स्थापन, प्रा० ठावन] १. स्थापित करना । बैठाना । ठहराना । २. लगाना । प्रयुक्त करना । नियोजित करना । उ०—बिधिना अति ही पोच कियो री । ...रोम रोम लोचन इक टक करि युवतिन प्रति काहे न ठयो री ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ठयना (४)
क्रि० अ० १. ठहरना । स्थित होना । बैठना । जमना । उ०—राज रूख लखि गुरु भूसुर सुआसनन्हि समय समाज कीठवनि भली ठई है ।—तुलसी (शब्द०) । २. प्रयुक्त होना । लगना । नियोजित होना ।
⋙ ठरना
क्रि० अ० [सं० स्तब्ध, प्रा० ठड्ढ, हिं० ठार + ना (प्रत्य०)] १. अत्यंत शीत से ठिठुरना । सरदी से अकड़ना या सुन्न होना । जैसे, हाथ पाँव ठरना । संयो० क्रि०—जाना । २. अत्यंत सरदी पड़ना । बहुत अधिक ठंढ पड़ना ।
⋙ ठरकना
क्रि० अ० [हिं० ठरूका (= ठोकर, टक्कर)] टकराना । उ०—चकमक ठरकै अगनि झरै यूँ दध मथि घृत करि लोया ।—गोरख०, पृ० २०८ ।
⋙ ठरमरुआ †
वि० [हिं० ठार + मारना] वि० स्री० ठरमरुई] वह फसल जिसे पाला मार गया हो ।
⋙ ठराना
क्रि० अ० [हिं० ठहरना] ठिक जाना । स्थिर होना । ठहरना । उ०—हरि कर चिपका निरखि तियन के नैना छबिहिं ठराई ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८१ ।
⋙ ठराना पु
क्रि० स० [हिं० ठढा = (खड़ा) + ना (प्रत्य०), या ठहराना] खड़ा करना । तैयार करना । बनाना । ठहराना । उ०—जमी के तले यक ठरा कर मकान ।—दक्खिनी०, पृ० ३३६ ।
⋙ ठरारा
वि० [हिं० ठार] सर्द । ठंढा । उ०—कबहुँ मनहि मन सोचत, मोचत स्वास ठरारे ।—नंद० ग्रं०, पृ० २०१ ।
⋙ ठरुआ †
वि० [हिं० ठार] [वि० स्त्री० ठरुई] फसल जिसे पाला मारा गया हो ।
⋙ ठरूका †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठोकर] ठोकर । आघात । उ०— जिनसौ प्रीति करत है गाढ़ी सो मुख लावै लूकौ रे, जारि बारि तन खेह करैंगे दे दे मूँड़ ठरूकौ रे ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९१० ।
⋙ टर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० ठड़ा (= खड़ा)] १. इतना कड़ा बटा हुआ मोटा सूत जो हाथ में लेने से कुछ तना रहे । मोटा सूत । २. बड़ी अधपकी इँट । ३. महुवे की निकृष्ट कड़ी शराब । फूल का उलटा । ४. अँगिया का बंद । तनी । ५.एक प्रकार का भद्दा जूता । ६. भद्दा और बेडौल मोती ।
⋙ ठर्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बिना अंकुर उठा हुआ धान का बीज जो छितराकर बोया जाता है । २. बिना अंकुर उठे हुए धान की बोआई ।
⋙ ठलवारि पु †
वि० पुं० [हिं० टिल्ला, टल्ल > टल्लेनवीसी (= बहाना, निठल्लापन)] बहाना करनेवाला । किसी बात को हँसी में उडा़ देनेवाला । ठट्ठेबाज । उ०—कहा तेरेइँ आयो राज लाज तजि खौरत औरे काज, कहा तोहि ठलवारि घरबसे न जानत बात बिरानी ।—घनानंद, पृ० ४२९ ।
⋙ ठलाना † (१)
क्रि० स० [प्रा० ठिल्ल] ठेलना । रखना । उ०—(क) ता पाछे रीति अनुसार सामग्री ठलाइ प्रभुन को पलना झुलाइ... आर्ति करि अनोसर करते ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०१ । (ख) पाछें वह सब अन्न तुमकों तुम्हारे बासनन में ठलाइ देहुँगी ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २५५ ।
⋙ ठलाना (२)
क्रि० स० [हिं० ढालना] गिराना । निकालना ।
⋙ ठलुआ
वि० [अप० ठल्ल (= रिक्त) या हि० ठाला + उआ (प्रत्य०)] निठल्ला । खाली । उ०—मधुवन की बातों ही में मालूम हुआ कि उस घर में रहनेवाले सब ठलुए बेकार हैं ।—तितली, पृ० २२७ ।
⋙ ठलुवा
वि० [अप० ठल्ल या हिं० ठाला + उक (प्रत्य०)]दे० 'टलुआ' ।
⋙ ठल्ल †पु०
वि० [अप० ठलिय ठल्ल] १. निर्धन । धनरहित । दरिद्र । २. खाली । शून्य । रिक्त । उ०—नमणी खमणी बहु गुणी सगुणी अनइ सियाई । जे धण एही संपजइ, तउ जिम ठल्लउ जाइ ।—ढोला०, दू० ४५६ ।
⋙ ठवँका पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठमक]दे० 'ठमक', 'ठसक' । उ०— चंदेलिनि ठवँकन्ह पगु ढारा । चली चौहानी होइ झन— कारा ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४६ ।
⋙ ठबक †
संज्ञा पुं० [हि० ठोंक] आघात । थपकी । ठोंका । उ०— पवन ठवक लगि ताहि जगावै । तब ऊरध को शीश उठावै ।— चरण० बानी, पृ० ८० ।
⋙ ठवन
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापण, प्रा० ठावण]दे० 'ठवनि' ।
⋙ ठवना †पु (१)
क्रि० स० [सं० स्थापन] १. स्थापित करना । रखना । उ०—वायस वीजउ नाम, ते आगलि लल्लउ ठवइ । जइ तूँ हुई सुजाँण तउ तूँ वहिलउ मोकलइ ।—ढोला०, दू० १४२ । २. योजना करना । ठानना । उ०—आठम प्रहर संझा समै धण ठव्वै सिणगार ।—ढोला०, दू० ५८९ ।
⋙ ठवना (२)
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठयना' ।
⋙ ठवनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापन, हिं० ठवना (= बैठना) वा सं० स्थान] १. बैठक । स्थिति । उ०—राज रुख लखि गुरु भूसुर सुआसनन्हि समय समाज की ठवनि भली ठई है ।— तुलसी (शब्द०) । २. बैठने या खड़े होने का ढंग । आसन । मुद्रा । अंग की स्थिति या संचालन का ढब । अंदाज । उ०— (क) कुंजर मनि कंठा कलित उर तुलसी की माल । बृषभ कंध केहरि ठवनि बलनिधि बाहु बिसाल ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) ठाढ़ भए उठि सहज सुभाए । ठवनि जुवा मृगराज लजाए ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ठबर †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठौर' । उ०—कथनी कथि कथि बहु चतुराई । चोर चतुर कहि ठवर ना पाई ।—स० दरिया, पृ० ८ ।
⋙ ठस
वि० [सं० स्थास्नु (= द्दढ़ता से जमा हुआ, द्दढ़)] १. जिसके कण परस्पर इतने मिले हों कि उसमें उँगली आदि न धँस सके । जिसके बीज में कहीं रेध्र वा अवकाश न हो । जो भुरभुरा, गीला या मुलायम न हो । ठोस । कड़ा । जैसे, बरफी का सूखकर ठस होना, गीले आटे का ठस होना । २. जो भीतर से पोला या खाली न हो । भीतर से भरा हुआ । ३. जिसके सूत परस्पर खूब मिले हों । जिसकी बुनावट घनी हो । गफ । जैसे, ठस बुनावट, ठस कपड़ा । उ०—इस टोपी का काम खूब ठस है ।—(शब्द०) । ४. द्दढ़ । मजबूत । ५. भारी । वजनी । गुरु । ६. जो अपने स्थान से जल्दी न टसके । जो हिले डोले नहीं । निष्क्रिय । सुस्त । मट्ठर । आलसी । ७.(रुपया) जिसकी झनकार ठीक न हो । जो खरे सिक्के के ऐसा न हो । जो कुछ खोटा होने के कारण ठीक आवाज न दे । जैसे, ठस रुपया । ८. भरा पूरा । संपन्न । घनाढय । जैसे, ठस असामी । ९. कृपण । कंजूस । १० । हृठी । जिद्दी । अड़ करनेवाला ।
⋙ ठसक
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठस] १. अभिमानपूर्ण हाव भाव । गर्वीली चेष्टा । नखरा । जैसे,—वह बड़ी ठसक से चलती है । २. अभिमान । दर्प । शान । उ०—कढ़ि गई रैयत के जिय की कसक सब मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की—भूषण (शब्द०) ।
⋙ ठसकदार
वि० [हिं० उसक + फा़० दार] १. घमंडी । अभि— मानी । २. शानदार । तड़क भड़कवाला । उ०—ठौर ठकुराई को जू ठाकुर ठसकदार नंद के कन्हाई सो सु नंद को कन्हाई है ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ठसका
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. वह खाँसी जिसमें कफ न निकले और गले से ठन ठन शब्द निकले । सूखी खाँसी । २. ठोकर । धक्का । क्रि० प्र०—खाना ।—मारना ।—लगना ।
⋙ ठसाठस
क्रि० वि० [हिं० ठस] ऐसा दबाकर भरा हुआ कि और भरने की जगह न रहे । ठूँसकर भरा हुआ । खूब कस— कर भरा हुआ । खचाखच । जैसे,—(क) वह संदूक कपड़ों से ठसाठस भरा हुआ है । (ख) इस कुप्पे में ठसाठस चीनी भरी हुई है । विशेष—इस शब्द का प्रयोग केवल चूर्ण या ठोस वस्तुओं के लिये ही होता है, पानी आदि तरल पदाथों के लिये नहीं । जो वस्तु भरी जाती है और जिस वस्तु में भरी जाती है दोनों के संबध में इस शब्द का व्यवहार होता है । जैसे, संदूक ठसाठस भरा है, कपड़े ठसाठस भरे हैं ।
⋙ ठस्सा
संज्ञा पुं० [देश०] १. नक्काशी बनाने की एक छोटी रुखानी । २. गवंपूर्णँ चेष्टा । अभिमानपूर्णँ हाव भाव । ठसक । ३. घमंड । अहंकार । ४. ठाट बाट । शान । ५. ठवनि । मुद्रा । अंदाज । मुहा०—ठस्से के साथ बैठना = घमंड के साथ बैठना । गर्व भरी मुद्रा में शान के साथ बैठना । उ०—कोचवान भी ठस्से के साथ बैठा है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३६ । ठस्से से रहना = ठाट बाट से रहना या जीवन बिताना । उ०—इस ठस्से से रहती हैं कि अच्छी अच्छी रईस जातियों से टक्कर लडें ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १ ।
⋙ ठह
संज्ञा पुं० [हिं०] ठाँव । ठही । स्थान ।
⋙ ठहक
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] नगारे का शब्द ।
⋙ ठहकना
क्रि० अ० [देश०] ध्वनि करना । बोलना । आवाज करना । उ०—पिक ठहकै झरणां पड़ै हरिए ड़ूँगर हाल ।— बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ८ ।
⋙ ठहकाना पु
क्रि० स० [हिं० ठह (= स्थान)] किसी वस्तु को उसके ठीक स्थान पर बैठाना या जमाना । उ०—तन बंदूक सुमति कै सिंगरा, ज्ञान के गज ठहकाई । सुरति पलीता हृरदम सुलगै, कसपर राख चढ़ाई ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ४० । (क) दम को दारू को सीसा ज्ञान के गज ठहकाई ।— कबीर० श०, भाग २, पृ० १३२ ।
⋙ ठहना (१)
क्रि० स० [अनुध्व०] १. हिनहिनाना । घोड़े का बोलना । २ घनघनाना । घंटे का बजाना ।
⋙ ठहना (२)
क्रि० अ० [सं० स्था, प्रा० ठा] किसी काम को करते हुए सोच विचार करने या बनाने सँवारने के लिये बीज बीज में ठहरना । धीरे धीरे घैर्य के साथ करना । बनाना । सँवारना । किसी काम को करने में खूब जमना । मुहा०—ठह ठहकर बोलना = हाव भाव के साथ रुक रुककर बोलना । एक एक शब्द पर जोर दे देकर बोलना । मठार मठारकर बोलना । ठहकर = अच्छी तरह जमकर ।
⋙ ठहनाना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. घोड़ों का बोलना । हिन— हिनाना । उ०—गज अरुढ़ कुरुपति छबि छाई । चहुँदिउ तुरग रहे ठहनाई ।—सबल (शब्द०) । घंटे का बजना । घनघनाना । ठनठनाना उ०—द्वंद्व घंट ध्वनि अति ठहनाई । मारु राग सहित सहनाई ।—सबल (शब्द०) । ३. दे० 'ठहना (२)' ।
⋙ ठहर
संज्ञा पुं० [सं० स्थल या स्थिर] १. स्थान । जगह । उ०—ठाकुर महेस ठकुराइनि उमा सी जहाँ लोक बेद हुँ विदित महिमा ठहर की ।—तुलसी (शब्द०) । २. रसोई के लिये मिट्ठी से लिपा हुआ स्थान । चौका । ३. रसोईघर आदि मिट्ठी की लिपाई । पोताई । चौका । उ०—नेम अचार षटकर्म नहीं नाँहीं पाँति को पान । चौका चंदन ठहर नहीं मीठा देव निदान ।—सं० दरिया०, पृ० ३८ । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—ठहर देना = रसोईघर वा भोजन के स्थान को लीप पोत— कर स्वच्छ करना । चौका लगाना ।
⋙ ठहरना
क्रि० अ० [सं० स्थिर + हिं० ना (प्रत्य०), अथवा सं० स्थल, हिं० ठहर + ना (प्रत्य०)] १. चलना बंद करना । गति में न होना । रुकना । थमना । जैसे,—(क) थोड़ा ठहर जाओ पीछे के लोगों को भी आ लेने दो । (ख) रास्ते में कहीं न ठहरना । संयो० क्रि०—जाना । २. विश्राम करना । डेरा डालना । टिकना । कुछ काल तक के लिये रहना । जैसे,—आप काशी में किसके यहाँ ठहरेंगे ? संयो० क्रि०— जाना । ३. स्थित रहना । एक स्थान पर बना रहना । इधर उधर न होना । स्थिर रहना । जैसे,—यह नौकर चार दिन भी किसी के यहाँ नहीं ठहरता । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—मन ठहरना = चित्त स्थिर और शांत होना । चित्त की आकुलता दूर होना । ४. नीचे न फिसलना या गिरना । अड़ा रहना । टिका रहना । बहने या गिरने रुकना । स्थित रहना । जैसे, (क) यहगोला डंडे की नोक पर ठहरा हुआ है । (ख) यह घड़ा फूटा हुआ है इसमें पानी नहीं ठहरेगा । (ग) बहुत से योगी देर तक अधर में रहते हैं । संयो० क्रि० —जान । ५.दूर न होना । बना रहना । न मिटना या न नष्ट होना । जैसे,—यह रंग ठहरेगा नहीं, उड़ जायगा । ६. जल्दी न टूटना फूटना । नियत समय के पहले नष्ट न होना । कुछ दिन काम देने लायक रहना । चलना । जैसे,—यह जूता तुम्हारे पैर में दो महीने भी नहीं ठहरेगा । ७. किसी धुली हुई वस्तु के नीचे बैठ जाने पर पानी या अर्क का स्थिर और साफ होकर ऊपर रहना । थिराना । ८. प्रतीक्षा करना । धैर्य धारण करना । धीरज रखना । स्थिर भाव से रहना । चंचल या आकुल न होना । जैसे,—ठहर जाओ, देते हैं, आफत क्यों मचाए हो । ९. कार्य आरंभ करने में देर करना । प्रतीक्षा करना । आसरा देखना । जैसे,—अब ठहरने का वक्त नहीं है झटपट काम में हाथ लगा दो । १०. किसी लगातार होनेवाली क्रिया का बंद होना । लगातार होनेवाली बात या काम का रुकना । थमना । जैसे, मेह ठहरना, पानी ठहरना । संयो० क्रि०—जाना । ११. निश्चित होना । पक्का होना । स्थिर होना । तै पाना । करार होना । जैसे, दाम या कीमत ठहरना, भाव ठहरना । बात ठहरना, ब्याह ठहरना । मुहा०—किसी बात का ठहरना = किसी बात का संकल्प होना । विचार स्थिर होना । ठनना । जैसे,—(क) क्या अब चलने ही की ठहरी ? (ख) गप बहुत हुई, अब खाने की ठहरे । ठहरा = है । जैसे,(क) वह तुम्हारा भाई ही टहरा कहाँ तक खबर न लेगा? (ख) तुम घर के आदमी ठहरे तुमसे क्या छिपाना ? (ग) अपने संबधी ठहरे उन्हें क्या कहें । विशेष—इस मुहा० का प्रयोग ऐसे स्थलों पर ही होता है जहाँ किसी व्यक्ति या वस्तु के अन्यथा होने पर विरुद्ध घटना या व्यवहार की संभावना होती है । †११. (पशुओं के लिये) गर्भ धारण करना ।
⋙ ठहराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठहराना] १. ठहराने की क्रिया । २. ठहराने की मजदूरी । कब्जा । अधिकार ।
⋙ ठहराउ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ठहराव' ।
⋙ ठहराऊ
वि० [हि० ठहरना] १. ठहरनेवाला । कुछ दिन बना रहनेवाला । जल्दी नष्ट न होनेवाला । २. टिकाऊ । चलने— वाला । दृढ़ । मजबूत । †३. टहरानेवाला । टिकानेवाला । किसी कार्य को निश्चित करानेवाला । किसी व्यक्ति को कहीं टिकानेवाला ।
⋙ ठहराना (१)
क्रि० स० [हिं० ठहरना का प्रे० रूप] १. चलने से रोकना । गति बंद करना । स्थिति कराना । जैसे,—(क) वह चला जा रहा है उसे ठहराओ । (ख) यह चलता हुआ पहिया ठहरा दो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । २. टिकाना । विश्राम कराना । डेरा देना । कुछ काल तक के लिये निवास देना । जैसे,—इन्हें अपने यहाँ ठहराओ । ३. इस प्रकार रखना कि नीचे न खिसके या गिरे । अड़ाना । टिकाना । स्थित रखना । जैसे, ठंडे की नोक पर गोला ठहराना । संयो० क्रि०—देना । ४. स्थिर रखना । इधर उधर न जाने देना । एक स्थान पर बनाए रखना । ५. किसी लगातार होनेवाली क्रिया को बंद करना । किसी होते हुए काम को रोकना । संयो० क्रि०—देना । ६. निश्चित करना । पक्का करना । स्थिर करना । तै करना । जैसे, बात ठहराना, भाव ठहराना, कीमत ठहराना, ब्याह ठहराना ।
⋙ ठहराना पु † (२)
क्रि० अ० [हिं० ठहरना] रुकना । टिकना । स्थिर होना । उ०—(क) रूप दुपहरी छाँह कब ठहरानी इक ठौर ।—स० सप्तक, पृ० १८३ । (ख) जबै आऊँ साधु संगति कछुक मन ठहराइ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठहराव
संज्ञा पुं० [हिं० ठहरना] ठहरने का भाव । स्थिरता । २. निश्चय । निर्धारण । नियति । मुकर्ररी । ३. दे० 'ठहरौनी' ।
⋙ ठहरू †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ठहर' ।
⋙ ठहरौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठहराना, पुं० हिं० ठहरावनी] १. विवाह में लेन देन का करार । २. किसी भी प्रकार का पारस्परिक करार या निश्चय ।
⋙ ठहाका (१) †
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] अट्टहास । जोर की हँसी । कहकहा । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना ।
⋙ ठहाका † (२)
वि० चटपट । तुरंत । तड़ से ।
⋙ ठहियाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठह, ठाँव] ठाँह । जगह । ठिकाना । स्थान ।
⋙ ठही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठह] स्थान । ठाँव । ठाँह ।
⋙ ठहोर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठहर] ठहरने योग्य स्थान । विश्राम योग्य स्थल । उ०—कतए भवन कत आगन बाप कतए कत माय । कतहु ठहोर नहिं ठेहर ककर एहन जमाय ।—विद्यापति, पृ० ३९८ ।
⋙ ठाँ (१)
संज्ञा स्त्री० पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठाण]दे० 'ठाँव' । उ०— यौ सब ठाँ दरसै बरसै घनआनंद भीजि अराधि कृपाई ।— घनानंद, पृ० १५० । यौ०—ठाँ ठाँ = स्थान स्थान पर । उ०—ठाँ ठाँ मधुर मथानो बजै । जनु नव आनंद बुद अंगजै ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ ठाँ (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] बंदूक की आवाज ।
⋙ ठाँई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाँव] स्थान । जगह । उ०—मीन रूप जो कीन बनाई । तीन छोड़ रह चौथे ठाँई ।—कबीर सा०, पृ० १७ । २. तई । प्रति । उ०—पान भखे मुख नैन रचीरुचि आरसी देखि कहैं हम ठाँई ।—केशव (शब्द०) । ३. समीप । पास । निकट ।
⋙ ठाँउँ, ठाँऊँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थान] १. ठौर । ठाँव । स्थान । जगह । ठिकाना । उ०—रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभयपद ठाँउँ ।—सूर०, १ ।१६४ । २. पास । समीप । उ०— चार मीत जो मुहमद ठाँऊँ । जिन्हहिं दीन्हि जग निरमल नाऊँ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठाँठ
वि० [सं० स्थाणु (= ठूँठा पेड़) वा अनु० ठन ठन] १. जो सूखकर बिना रख का हो गया हो । नीरस । २. (गाय या भैंस) जो दूध न देती हो । दूध न देनेवाला (चौपाया) । जैसे, ठाँठ गाय । दे० 'ठंठ' ।
⋙ ठाँठर † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] ठठरी । ढाँचा ।
⋙ ठाँठर (२)
वि० [हिं० ठाँठ]दे० 'ठांठ' ।
⋙ ठाँण †
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठाण] थान । जगह । उ०— खूँटइ जीण न मोजड़ी कडयाँ नहीं केकाँण । साजनिया सालइ नहीं, सालई आही ठाँण ।—ढोला०, दू० ३७५ ।
⋙ ठाँम †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] ठाँवँ । स्थान । उ०—ठगिया रूप निहारि, ठाँम ठाँमि ठाढ़ों खरो ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २ ।
⋙ ठाँयँ (१)
संज्ञा पुं० स्त्री०, [सं० स्थान, प्रा० ठाण] १. स्थान । जगह । ठिकाना । विशेष—दे० 'ठाँव' । २. समीप । निकट । पास । उ०—जिन लगि निज परलोक बिगारयो ते लजात होत ठाढ़े ठाँय ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ठाँयँ (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] बंदूक छूटने का शब्द । जैसे,—ठाँय से गोली मार दो ।
⋙ ठाँयँ ठाँयँ
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] १. लगातर बंदूक छूटने का शब्द । २. रगड़ा । झगड़ा । उ०—खैर अब इस ठाँयँ ठाँयँ से क्या मतलब ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ७७ ।
⋙ ठाँव
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठान] स्थान । जगह । ठिकाना । उ०—(क) निडर, नीच, निर्गुन निर्धन कहँ जग दूसरों न ठाकुर ठाँव ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) नाहिन मेरे और कोउ बलि चरन कमल बिनु ठाँव ।—सूर (शब्द०) । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः सब कवियों ने पुं० किया है और अधिक स्थानों में पुं० ही बोला जाता हैं पर दिल्ली मेरठ आदि पश्चिमी जिलों में इसे स्त्री० बोलते हैं । २. अवसर । मौका । उ०—इहै ठाँव हौं बारति रही ।—जायसी ग्रं०, पृ० ८४ । ३. रुकने या टिकने का स्थान । ठहराव । उ०—चार कोस लै गाँव, ठाँव एको नहीं ।—घरनी० श०, पृ० ४५ ।
⋙ ठाँसना (१)
क्रि० स० [सं० स्थास्नु (= द्दढ़ता से बैठाया हुआ)] १. जोर से घुसाना । कसकर घुसेड़ना । दबाकर प्रविष्ट करना । २. कसकर भरना । दबा दबाकर भरना । †३. रोकना । अवरोध करना । मना करना ।
⋙ ठाँसना (२)
क्रि० अ० ठन ठन शब्द के साथ खाँसना । बिना कफ निकाले हुए खाँसना । ढाँसना ।
⋙ ठाँहीँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठाँईँ' । उ०—मन माया काल गति नाहीं । जीव सहाय बसे तेहि ठाँहीं ।—कबीर सा०, पृ० ८२३ ।
⋙ ठाउर †
संज्ञा पुं० [हिं० ठावँ + र (प्रत्य०)] ठौर । आश्रयस्थान । ठिकाना । उ०—मनुवाँ मोर भइल रँग बाउर । सहज नगरिया लागत ठाउर ।—गुलाल० बानी, पृ० १०४ ।
⋙ ठाक †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्ताघ अथवा स्तम्भन अथवा हिं० थाक (= थकना) अथवा सं० स्था + क (प्रत्य०)] बाधा । रोक । रुकावट । उ०—(क) जब मन गाहि लेत खलवारा । छूटो ठाक मूए सिकदारा ।—प्राण०, पृ० ५० । (ख) जाके मन गुरु का उपदेश । ताँ कौ ठाक नहीं उह देश ।—प्राण०, पृ० ११ ।
⋙ ठाकना पु †
क्रि० स० [हिं० ठाक + ना (प्रत्य०)] ठीक करना । रोकना । स्थिर करना । उ०—द्दष्टि कौ ठाकि मन कौ समझावै । काम कौ साधि जाय महलि समावै ।—प्राण०, पृ० २९ ।
⋙ ठाकर †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाकुर, गुज० ठक्कर] प्रदेश का स्वामी । सरदार । नायक । उ०—इसलिये कहा गया कि पहले यहाँ कोई राजा या ठाकर रहता था ।—किन्नर०, पृ० ४९ ।
⋙ ठाकुर
संज्ञा पुं० [सं० टक्कुर] [स्त्री० ठकुराइन, ठकुरानी] १. देवता, विशेषकर विष्णु या विष्णु के अवतारों की प्रतिमा । देवमूर्ति । यौ०—ठाकुरद्वारा । ठाकुरबाड़ी । २. ईश्वर । परमेश्वर । भगवान् । ३. पूज्य व्यक्ति । ४. किसी प्रदेश का अधिपति । नायक । सरदार । अधिष्ठाता । उ०— सब कुँवरन फिर खैंचा हाथू । ठाकुर जेव तो जैंवै साथू ।— जायसी (शब्द०) । ५. जमींदार । गाँव का मालिक । ६. क्षत्रियों की उपाधि । ७.मालिक । स्वामी । उ०—(क) ठाकुर ठक भए गेल चोरें चप्परि घर लिज्झअ ।—कीर्ति०, पृ० १६ । (ख) निडर, नीच, निर्गुन, निर्धन कहँ जग दूसरो न ठाकुर ठाँव ।—तुलसी (शब्द०) । ८. नाइयों की उपाधि । नापित ।
⋙ ठाकुरद्वारा
संज्ञा पुं० [हिं० ठाकुर + सं० द्वार] १. किसी देवता विशेषतः विष्णु का मंदिर । देवालय । देवस्थान । २. जगन्नाथ जी का मंदिर जो पुरी में है । पुरुषोत्तम धाम । ३. मुरादाबाद जिले में हिंदुओं का एक तीर्थस्थान ।
⋙ ठाकुरप्रसाद
संज्ञा पुं० [हिं०] १. देवता की निवेदित वस्तु । नैवेद्य । २. एक प्रकार का धान जो भादों महीने के अंत और क्वार के आरंभ में हो जाया करता है ।
⋙ ठाकुरवाड़ा
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर + बाड़ा या बँ० बाड़ी (= घर)] देवालय । मंदिर ।
⋙ ठाकुरसेवा
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर + सेवा] १. देवता का पूजन । २. वह संपत्ति जो किसी मंदिर के नाम उत्सर्ग की गई हो ।
⋙ ठाकुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुर + ई (प्रत्य०)] ठकुराई ।स्वामित्व । आधिपत्य । शासन । उ०—बिस्नु की ठाकुरी दीख जाई ।—कबीर० श०, ४. पृ० १५ । (ख) जम के जसूस बिनय जस सों हमेशा करैं तेरी ठाकुरी को ठीक नेकु न निहारो है ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ठाट (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थातृ (= खड़ा होनेवाला)] १. फूस और बाँस की फट्टियों को एक में बाँदकर बनाया हुआ ढाँचा जो आड़ करने या छाने के काम में आता है । लकड़ी या बाँस की फट्टियों का बना हुआ परदा । जैसे,—इस खपरैल का ठाट उजड़ गया है । यौ०—ठाटबंदी । ठाटबाट । नवठट = छाने के काम में आने— वाले पुराने ठाट को पूरी तौर से नया करना । २. ढाँचा । ढड्ढा । पंजर । किसी वस्तु के मूल अंशों की योजना जिनके आधार पर शेष रचना की जाती है । मुहा०—ठाट खड़ा करना = ढाँचा तैयार करना । ठाढ खड़ा होना = ढाँचा तैयार होना । ३. रचना । बनावट । सजावट । वेशाविन्यास । शृंगार । उ०— (क) ब्रज बनवारि ग्वाल बालक कहैं कौनै ठाट रच्यो ।— सूर (शब्द०) । (ख) पहिरि पितंबर करि आडंबर बहु तन ठाट सिंगारयौ ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—ठटना ।—बनाना । मुहा०—ठाट बदलना = (१) वेश बदलना । नया रूप रंग दिखाना । (२) और का और भाव प्रकट करना । प्रयोजन निकालने या श्रेष्ठता प्रकट करने के लिये झूठे लक्षण दिखाना । (३) श्रेष्ठता प्रकट करना । झूठमूठ अधिकार या बड़प्पन जताना । रंग बाँदना । ठाट माँजना = दे० 'ठाट बदलना' । ४. आडंबर । तड़क भड़क । तैयारी । शान शौकत । दिखावट । धूमधाम । जैसे,—राजा की सवारी बड़े ठाट से निकली । यौ०—ठाट बाट । ५. चैनचान । मजा । आराम । मुहा०—ठाट मारना = मौज उड़ाना । मजे उड़ाना । चैन करना । ठाट से काटना = चैन से दिन बिताना । ६. ढग । शैली । प्रकार । ढब । तर्ज । अंदाज । जैसे,—(क) उसके चलने का ठाट ही निराला है । (ख) वह घोड़ा बड़े ठाट से चलत है । ७. आयोजन । सामान । तैयारी । अनुष्ठान । समारंभ । प्रबंध । बंदोबस्त । उ०—(क) पालव बैठि पेड़ एइ काटा । सूख मँह सोक ठाट धरि ठाटा ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) कासों कहौं, कहो, कैसी करौ अब क्यौं निबहै यह ठाट जो ठायो ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । उ०—रघुबर कहेउ लखन भल घाटू । करहुँ कतहुँ अब ठाहर ठाटू ।—मानस, २ ।१३३ । ८. सामान । माल असाबाब । सामग्री । उ०—सब ठाट पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा ।—नजीर (शब्द०) । ९. युक्ति । ढब । ढंग । उपाय । डौल । जैसे—(क) किसी ठाट से अपना रुपया वहाँ से निकालो । (ख) वह ऐसे ठाट से माँगता है कि कुछ न कुछ देना ही पड़ता है । उ०—राज करत बिनु काज ही ठटहिं जे कूर कु ठाट । तुलसी ते कुरुराज ज्यों जैहैं बारह बाट ।—तुलसी (शब्द०) । १०. कुश्ती या पटेबाजी में खड़े होने या वार करने का ढंग । पैतरा । मुहा०—ठाट बदलना = दूसरी मुद्रा से खड़ा होना । पैतरा बदलाना । ठाट बाँधना = वार करने की मुद्रा से खड़ा होना । ११. कबूतर या मुरगे का प्रसन्नता से पर फड़फड़ाने था झाड़ने का ढंग । मुहा०—ठाट मारना = पर फड़फड़ाना । पंख झाड़ना । १२. सितार का तार । १३. संगीत में ऐसे स्वरों का समूह जो किसी विशेष राय में ही प्रयुक्त होते हों । जैसे, ईमन का ठाट, भैरवी का ठाट । मुहा०—ठाट बाँधना = तंञ वाद्य में किसी राग में प्रयुक्त होने— वाले स्वरों को उस स्थान पर नियोजित करना जिससे अभीप्सित राय में प्रयुक्त स्वरों की ध्वनि प्राप्त हो । उ०— बाँधकर फिर ठाट, अपने अंक पर झंकार दो ।—अपरा, पृ० ७३ ।
⋙ ठाट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ठट्ट, ठाट] [स्त्री० ठाटी] १. समूह । झुंड । उ०—(क) दिने रजनी हेरए बाट, जनि हरिनी बिछुरल ठाट ।—विद्यापति, पृ० १९८ । (ख) गज के ठाट पघास हजारा । लक्ष सहस्र रहै असवारा ।—रघुराज (शब्द०) । † २. बहुतायत । अधिकता । प्रचुरता । ३. बैल या साँड़ की बरदन के ऊपर का डिल्ला । कूबड़ ।
⋙ ठाटना
क्रि० स० [हिं० ठाठ + ना (प्रत्य०)] १. रचना । बनाना । निर्मित करना । संयोजित करना । उ०—बालक को तन ठाटिया निकट सरोवर तीर । सुर नर मुनि सब देखहिं साहेब धरेउ सरीर ।—कबीर (शब्द०) । २. अनुष्ठान करना । ठानना । करना । आयोजन करना । उ०—(क) महतारी को कह्यो न मानत कपट चतुरई ठाटी ।—सूर (शब्द०) । (ख) पालव बैठि पेड़ एइ काढा । सुख मँह सोक ठाट धरि ठाठा ।—तुलसी (शब्द०) । ३. सुसज्जित करना । सजाना । सँवारना ।
⋙ ठाठबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाट + फा़० बंदी] छाजन वा परदे आदि के लिये फूस और बाँस कौ फट्टियों आदि को परस्पर जोड़कर ढाँचा बनाने का काम । २. इस प्रकार का ढाँचा । ठाट । टट्टर ।
⋙ ठाटबाट
संज्ञा पुं० [हिं० ठाट + बाट (= राह, तरीका)] १. सजावट । बनावट । सजधज । २. तड़क भड़क । आडंबर । शान शौकत । जैसे,—आज बड़े ठाट आठ से राजा की सवारी निकली ।
⋙ ठाटर
संज्ञा पुं० [हिं० ठाट] १. बाँस की फठ्ठियों और फूस आदि को जोड़कर बनाया हुआ ढाँचा जो छाजन या परदे के काम में आता है । ठाट । टट्टर । टट्टी । २. ठठरी । पंजर । ३. ढाँचा । ४. कबूतर आदि के बैठने की छतरी जो टट्टर के रूप में होती है । ५. ठाटबाट । बनाव । सिंगार । सजावट ।उ०—ठठिरिन बहुतय ठाटर कीन्ही । चली अहीरिन काजर दीन्हीं ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठाटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाट] ठट । समूह । श्रेणी । उ०—जस रथ रेंगि चलइ गज ठाटी । बोहित चले समु्द्र गे पाटी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठाटु †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाट]दे० 'ठाट' ।
⋙ ठाठ †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाट]दे० 'ठाठ' ।
⋙ ठाठना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'ठाटना' ।
⋙ ठाठर (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० ठाठरी] ढाँचा । ठठरी । उ०— पाए बीरा जीव चलावा । निकसा जिव ठाठरी पड़ावा ।— कबीर सा०, पृ० ५६३ । दे० 'ठाटर' ।
⋙ ठाठर (२)
संज्ञा पुं [देश०] नदी में वह स्थान जहाँ अधिक गहराई के कारण बाँस या लग्गी न लगे ।—(मल्लाह) ।
⋙ ठाड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ठाढ़] खेत की वह जोताई जिसमें एक बल जोतकर फिर दूसरे बल जोतते हैं ।
⋙ ठाड़ा (२)
वि० [वि स्त्री० ठाड़ी]दे० 'ठाढ़ा' । उ०—नंददास प्रभु जहीं जहीं ठाड़े होत, तहीं तहीं लटक लटक काहू सों हाँ करी औ ना करी ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३४३ ।
⋙ ठाढ़ †
क्रि० [हिं०]दे० 'ठाढ़ा' । उ०—ठाढ़ रहा अति कंपित गाता ।—मानस, ६ ।९४ ।
⋙ ठाढ़ा †पु
वि० [सं० स्थातृ (= जो खड़ा हो)] १. खड़ा । दंडायमान । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।—रहना । २. जो पिसा या कुटा न हो । समूचा । सावित । उ०— भूँजि समोसा घिउ मँह काढ़े । लौंग मिर्च तेहि भीतर ठाढ़े । जायसी (शब्द०) । ३. उपस्थित । उत्पन्न । पैदा । उ०— कीन चहत लीला हरि जबहीं । ठाढ़ करत हैं कारन तबहीं ।—विश्राम (शब्द०) । मुहा०—ठाढ़ा देना = स्थिर रखना । ठहराना । रखना । टिकाना उ०—बारह वर्ष दयो हम ठाढ़ो यह प्रताप बिनु जाने । अब प्रगटे वसुदेव सुवन तुम गर्ग बचन परिमाने ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठाढ़ा (२)
वि० हट्टा कट्टा । हष्ट पुष्ट । बली । द्दढांग । मजबूत ।
⋙ ठाढ़ेश्वरी
संज्ञा पुं० [हिं० ठाढ़ सं० ईशवर + ई (प्रत्य०)] एक प्रकार के साधु जो दिन रात खड़े रहते हैं । वे खड़े ही खड़े खाते पीते तथा दीवार आदि का सहारा लेकर सोते हैं ।
⋙ ठादर †
संज्ञा पुं० [देश०] रार । झगड़ा । मुठमेड़ । उ०—देव आपनों नहीं सँभारत करत इंद्र सो ठादर ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठान (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठाण, ठाणु] स्थान । ठाँव । जगह । उ०—तब तबीब तसलीम करि, लै घरि आइ लुहान । नव दीहे सिर झल्लयो, ढँढोलन गय ठान ।—पृ० रा०, ४ ।६ । (ख) राजे लोक सब कहे तू आपना ।—जब काल नहिं पाया ठाना ।—दक्खिनमी०, पृ० १०४ ।
⋙ ठान (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुष्ठान] १. अनुष्ठान । कार्य का आयो— जन । शुमारंभ । काम का छिड़ना । २. छोड़ा हुआ काम । कार्य । उ०—जानती इतेक तो न ठानती अठान ठान भूलि पथ प्रेम के न एक पग डारती ।—हनुमान (शब्द०) । ३. चेष्टा । मुद्रा । अंगास्थिति या संचालन का ढब । अंदाज । उ०— पाछे बंक चितै मधुरै हँसि घात किए उलटे सुठान सों ।—सूर (शब्द०) । ४. द्दढ़ निश्चय । द्दढ़ संकल्प । पक्का इरादा । उ०—क्यों निंर्दोषियों को हलाकान करेन की ठान ठानते हो ?—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४६७ । मुहा०—ठान ठानना = द्दढ़ निश्चय करना । पक्का इरादा कराना ।
⋙ ठानना †
क्रि० स० [सं० अनुष्ठान, हिं० ठान अथवा सं० स्थापन > आ० ठाअन, > ठान + ना (प्रत्य०)] १. किसी कार्य को तत्परता के साथ आरंभ करना । द्दढ़ संकल्प के साथ प्रारंभ करना । अनुष्ठित करना । छेड़ना । जैसे; काम ठानना, झगड़ा ठानना, बैर ठानना, युद्ध ठानना, यज्ञ ठानना । उ०— (क) तब हरि और खेल इक ठान्यौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २८५ । (ख) तिन सो कह्यो पुत्र हित हय मख हम दीनो हैं ठानी ।—रघुराज (शब्द०) । २. (मन में) स्थिर करना । (मन में) ठहराना । निश्चित या ठीक करना । पक्का करना । चित्त में द्दढ़तापूर्वक धारण करना । द्दढ़ संकल्प करना । जैसे, मन में कोई बात ठानना, हठ ठानना । उ०— (क) सदा राम एहि प्रान समाना । कारन कौन कुटिल पन ठाना ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मैंने मन में कुछ ठान उनका हाथ पकड़ बोली ।—श्यामा०, पृ० ९८ ।
⋙ ठाना † (१)पु
क्रि० स० [हिं० ठान] १. ठानना । द्दढ़ संकल्प के साथ आरंभ करना । छेड़ना । करना । उ०—काहे को सोहैं हजार करो तुम तो कबहुँ अपराध न ठायो ।—मतिराम (शब्द०) । २. मन में ठहराना । निश्चित करना । दृढ़ता— पूर्वक चित्त में धारण करना । पक्का विचार करना । उ०— विश्वामित्र दुःखी ह्वै तँह पुनि करन महा तप ठायो ।—रघुराज (शब्द०) । वि० दे० 'ठयना' । ३. स्थापित करना । रखना । धरना । उ०—मुरली तऊ गोपालहि भावति । अति आधीन सुजान कनौठे गिरिधर नार नवावति । आपुन पौढ़ि अधर सज्या पर करपल्लव पदपल्लव ठावति ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठान (२) †
संज्ञा पुं०[हिं०] दे० 'थाना' ।
⋙ ठाम †पु
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० स्थान] १. स्थान । जगह । उ०— (क) इधर बपुरा को करओ वीरत्तण निज ठाम ।—कीर्ति०, पृ० ६० । (ख) जो चाहत जित जान उतै ही यह पहुँचावत । बचे बीच के गाम ठाम को नाम भुलावत ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ७ । विशेष—दे० 'ठाँवें' । २. अंगस्थिति या अंगसंचालन का ढंग । ठवनि । मुद्रा । अंदाज । ३. अँगेट । अँगलेट ।
⋙ ठाँय (१)
संज्ञा पुं, स्त्री० [सं० स्थान]दे० 'ठाँव', ठाँयँ (१) ।
⋙ ठायँ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०]दे० 'ठाँयँ (२) ।
⋙ ठार
संज्ञा पुं० [सं० स्तब्ध, प्रा० ठड्ड, ठड या देश०] १. गहरा जाड़ा । अत्यंत शीत । गहरी सरदी । २. पाला । हिम । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ ठार †पु
[सं० स्थान, प्रा० ठाण; अप० ठाम, ठाव, ठाय] १. स्थान । ठौर । जगह । उ०—(क) राति दिवस करि चालीयउ, पुनरमइ दिवस पहुँतो तिणि ठार । बी० रासो, पृ० १०४ । (ख) आओ, तूँ सालिक राह दिवाने चलते न लाए बार । मुकाम राहे मंजिल बूझैं उलजा हे किस ठार ।— दक्खिनी०, पृ० ५४ । २. खेत या खलिहान का वह स्थान जहाँ किसान अपने सामान आदि रखता है और देखरेख करता है ।
⋙ ठार †
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० ठारि]दे० 'ठाढ़', 'ठाढ़ा' । उ०— (क) तन दाहत कर घींचहिं तूरत, ठार रहत है सोई । आसन मारि बिबौरी होवै, तबहूँ भक्ति न होई ।—जग० श०, भा० २, पृ० ३३ । (ख) ठारि भेलिहि धनि आँगो न डोले ।— विद्यापति, पृ० ४९ ।
⋙ ठारै †
संज्ञा पुं०, वि० [सं० अष्टादश, प्रा० अट्ठार, अट्ठारस, अट्ठारह] दे० 'अट्ठारह' । उ०—ठारै सेरु दुहोतरा अगहन मास सुजान ।—सुजान०, पृ० ७ ।
⋙ ठाल † (१)
संज्ञा स्त्री० [देशी ठलिय (= रिक्त); अथवा हिं० निठल्ला] १. व्यवसाय या काम धंधे का अभाव । जीविका का अभाव । बेकारी । बेरोजगारी । २. खाली वक्त । फुरसत । अवकाश ।
⋙ ठाल (२)
वि० जिसे कुछ काम धंधा न हो । खाली । निठल्ला ।
⋙ ठाला
संज्ञा पुं० [देशी ठल्ल (= निर्धन); वा हिं० निठल्ला] १. व्यवसाय या काम धंधे का अभाव । बेकारी । रोजगार का न रहना । २. रोजी या जीविका का अभाव । आमदानी का न होना । वह दशा जिसमें कुछ प्राप्ति न हो । रुपए पैसे की कमी । जैसे,—आजकल बड़ा ठाला है, कुछ नहीं दे सकते । मुहा०—ठाले पड़ना = शून्यता, रिक्तता या खालीपन का अनुभव होना । ठाला बताना = बिना कुछ दिए चलता करना । धता बताना (दलाल) । बैठे ठाले = खाली बैंठे हुए । कुछ काम धंधा न रहते हुए । जैसे,—बैठे ठाले यही किया करो, अच्छा है । यौ०—ठाला ठुलिया = खाली । रीता । छूँछा । उ०—नैन नचावत दधि मटुकिन की करिकै ठाला ठुलिया ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १९४ ।
⋙ ठाली †पु (१)
वि० [देशी० ठलिय (=रिक्त); वा हिं० निठल्ला] १. खाली । जिसे कुछ काम धंधा न हो । निठल्ला । बेकाम । उ०—(क) ऐसी को ठाली बैठी है तोसों मूड़ चरावै । झूठी बात तुसी सी बिनु कन फरकत हाथ न आवै ।—सूर (शब्द०) । (ख) ठाली ग्वालि जानि कठए अलि कह्यो पछोरन छूछो ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) प्लेटफार्म पर ठाली बैठे समय की बरबादी अनुभव करने लगे ।—भस्मा०, पृ० ४३ ।
⋙ ठाली †पु
संज्ञा स्त्री० [?] ढा़रस । भरोसा । आश्वासन । उ०— कहा कहौं आलौ खाली देत सब ठाली, पर मेरे बनमाली कौ न काली ते छुड़ावहीं ।—रसखान०; पृ० ३० ।
⋙ ठाँव
संज्ञा स्त्री०, पृं० [हिं०]दे० 'ठाँव' ।
⋙ ठाव
संज्ञा पुं० [हिं०] ठाँव । स्थान । उ०—होरी सब ठावन लै राखी पूजत लै लै रोरी । घर के काठ डारि सब दीने गावत गीत न गोरी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४०७ ।
⋙ ठावना
क्रि० स० [हिं० ठाना]दे० 'ठाना' ।
⋙ ठासा
संज्ञा पुं० [हिं० ठाँसना] लोहारों का एक औजार जिससे तंग जगह में लोहे की कोर निकालते और उभारते हैं । उ०— देवै ठासा बेहद परै सनबाती सीका । चारि खूँट में चलै जियत एक होय रती का ।—पलटू० बानी, पृ० ११५ । यौ०—गोल ठासा = गोल सिरे का ठासा जिससे लोहे की चद्दर को गढ़कर गोला बनाते हैं ।
⋙ ठाह (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थान वा हिं० ठहरना] धीरे धीरे और अपेक्षाकृत कुछ अधिक समय लगाकर गाने या बजाने की क्रिया । विशेष—जब गाने या बजानेवाले लोग कोई चीज गाना या बजाना आरंभ करते हैं, तब पहले धीरे धीरे और अधिक समय लगाकर गाते या बजाते हैं । इसी को 'ठार' या 'ठाह' में गाना बजाना कहते हैं । आगे चलकर वह चीज क्रमशः जल्दी जल्दी गाने या बजाने लगते हैं । जिसे दून, तिगून या चौगून कहतै हैं । वि दे० 'चौगून' । २. स्थान । ठँव । उ०—चल्यौ जहाँ सब हाथिनी ठाहीं । गज मकरंद देखि तेहि भाईं ।—घट०, पृ० २४१ ।
⋙ ठाह (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्ताघ (= छिछला)]दे० 'थाह' ।
⋙ ठाहर †
संज्ञा पुं० [सं० स्थल, हिं० ठहर] १. स्थान । जगह । उ०—शुक्रसुता जब आई बाहर । पाए बसन परे तेहि ठाहर ।—सूर (शब्द०) । २. निवास स्थान । रहने या टिकने का स्थान । डेरा । उ०—रघुबर कह्यो लखन भल घाटू । करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ठाहरना †
क्रि० अ० [हिं० ठाहर] दे० 'ठहरना' । उ०—घर में सब कोई बंकुडा मारहिं गाल अनेक । सुंदर रण मैं ठाहरै सूर बीर कौ एक ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३८ ।
⋙ ठाहरू †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठाहर' ।
⋙ ठाहरूपक
संज्ञा पुं० [सं० स्था + रूपक या देश०] मृदंग का एक ताल जो सात मात्राओं का होता है । इसमें और आड़ा चौताल में बहुत थोड़ा भेद हैं ।
⋙ ठाहीँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाह]दे० 'ठाँही' ।
⋙ ठिँगना
वि० [हिं० हेठ + अंग] [वि० स्त्री० ठिंगनी] जो ऊँचाई में कम हो । छोटे कद का । छोटे डील का । नाटा । (जीव— धारियों विशेषतः मनुष्य के लिये) ।
⋙ ठिक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकिया] धातु की चद्दर का कटा हुआ छोटा टुकड़ा जो जोड़ लगाने के काम में आवे । थिगली । चकती ।
⋙ ठिक (२)पु
वि० [हिं०] दे० 'ठीक' । उ०—यातें यह ठिक जान्यौ परै । अपनो बिभौ आप बिस्तरै ।—घनानंद, पृ० २७५ ।
⋙ ठिक (३)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थितिक] ठहराव । स्थिरता । उ०—जासों नहीं ठहरै ठिक मान को, क्यों हठ कै सठ रूठनो ठानति ।— घनानंद, पृ० १२४ ।
⋙ ठिकठान पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ठीक]दे० 'ठिकठैन' । उ०—एतेहूठिकठान पै देखति हौं उत सान । यह न सयानी देति हौ पाती माँगत पान ।—स० सप्तक, पृ० २४५ ।
⋙ ठिकठेक पु †
वि० [हि०] ठीक ठीक । ढंग से । उ०—एक शरीर मैं अँग भए बहु एक, धरा पर धाम अनेका । एक शिला महिं कोरि किए सब चित्र बनाइ धरे ठिकठेका ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६४६ ।
⋙ ठिकठैन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ठीक + ठयना] ठीक ठाक प्रबंध । आयोजन । उ०—आज कछू औरै भए ठए नए ठिकठैन । चित के हित के चुगल ये नित के होय न नैन ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ ठिकठौर †
संज्ञा पुं० [हिं० ठिकना या ठीक + ठौर] टिकने लायक स्थान । ऐसा स्थान जहाँ आश्रय लिया जा सके ।
⋙ ठिकड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठीकरा' ।
⋙ ठिकना †
क्रि० अ० [सं० स्थिति + √ कृ > करण] ठिठकना । ठहरना । रुकना । अड़ना । उ०—रस भिजए दोऊ दुहुनि तउ ठिकि रहैं टरैं न । छबि सों छिरकत प्रेम रँग भरि पिचकारी नैन ।—बिहारी (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।—रहना ।
⋙ ठिकरा †
संज्ञा पुं० [देशी ठिक्करिया]दे० 'ठीकरा' ।
⋙ ठिकरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठिकरा]दे० 'ठीकरी' ।
⋙ ठिकरौर
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह भूमि जहाँ खपड़े, ठीकरे आदि बहुत पड़े हों ।
⋙ ठिकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठीक] पाल के जमकर ठीक ठीक बैठने का भाव ।—(लश०) ।
⋙ ठिकान †
संज्ञा पुं० [हिं० टिकान]दे० 'ठिकाना' ।
⋙ ठिकाना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टिकान] १. स्थान । जगह । ठौर । २. रहने की जगह । निवासस्थान । ठहरने की जगह । यौ०—पत्ता ठिकाना । ३. आश्रय । स्थान । निर्वाह करने का स्थान । जीविका का अवलंब । मुहा०—ठिकाना करना = (१) जगह करना । स्थान निश्चित करना । स्थान नियत करना । जैसे,—अपने लिये कहीं बैठने का ठिकाना करो । (२) टिकना । डेरा करना । ठहरना । (३) आश्रय ढूँढना । जीविका लगाना । नौकरी या काम धंधा ठीक करना । जैसे,—इनके लिये भी कहीं ठिकाना करो, खाली बैठे हैं । (४) ब्याह के लिये घर ढूँढना । ब्याह ठीक करना । जैसे,—इनका भी कहीं ठिकाना करो, घर बसे । ठिकाना ढूँढ़ना = (१) स्थान ढूँढ़ना । जगह तलाश करना । (२) रहने या ठहरने के लिये स्थान ढूँढ़ना । निवास स्थान ठहराना । (३) नौकरी या काम धंधा ढूँढ़ना । जीविका खोजना । आश्रय ढूँढ़ना । (४) कन्या के ब्याह के लिये घर ढूँढ़ना । वर खोजना । (किसी का) ठिकाना लगना = (१) आश्रयस्थान मिलना । ठहरने या रहने की जगह मिलना । उ०—सिपाही जो भागे तो बीच में कहीं ठिकाना न लगा ।—(शब्द०) । (२) जीविका का प्रबंध होना । नौकरी या काम घंधा मिलना । निर्वाह का प्रबंध होना । जैसे,—इस चाल से तुम्हारा कहीं ठिकना न लगेगा । ठिकाना लगाना = (१) पता चलाना । ढूँढ़ना । (२) आश्रय देना । नौकरी या काम धंधा ठीक करना । जीविका का प्रबंध करना । ठिकाने आना = (१) अपने स्थान पर पहुँचना । नियत वा वांछित स्थान पर वास होना । उ०—जो कोउ ताको निकट बतावै । धीरज धरि सो ठिकाने आवै ।—सूर (शब्द०) । (२) ठीक विचार पर पहुँचना । बहुत सोच— विचार या बातचीत के उपरांत यथार्थ बात करना या सम— झना । जैसे, बुद्धि ठिकाने आना । उ०—हाँ इतनी देर के बाद अब ठिकाने आए ।—(शब्द०) । (३) मूल तत्व पर पहुँचना । असली बात छेड़ना या कहना । प्रयोजन की बात पर आना । मतलब की बात उठाना । ठिकाने की बात = (१) ठीक बात । सच्ची बात । यथार्थ बात । प्रामाणिक बात । असली बात । (२) समझदारी की बात । युक्तियुक्त बात । (३) पते की बात । ऐसी बात जिससे किसी विषय में जानकारी हो जाय । ठिकाने न रहना = चंचल हो जाना । जैसे, बुद्धि ठिकाने न रहना, होश ठिकाने न रहना । ठिकाने पहुँचाना = (१) यथास्थान पहुँचाना । ठीक जगह पहुँचाना । (२) किसी वस्तु को लुप्त वा नष्ट कर देना । किसी वस्तु को न रहने देना । (३) मार डालना । ठिकाने लगना = (१) ठीक स्थान पर पहुँचना । वांछित स्थान पर पहुँचना । (२) काम में आना । उपयोग में आना । अच्छी जगह खर्च होना । उ०—चलो अच्छा हुआ, बहुत दिनों से यह चीज पड़ी थी, ठिकाने लग गई ।—(शब्द०) । (३) सफल होना । फलीभूत होना । जैसे, मिहनत ठिकाने लगना । (४) परम धाम सिधारना । मर जाना । मारा जाना । ठिकाने लगाना = (१) ठीक जगह पहुँचाना । उपयुक्त वा वांछित स्थान पर ले जाना । (२) काम में लाना । उपयोग में अच्छी जगह खर्च करना । (३) सार्थक करना । सफल करना । निष्फल न जाने देना । जैसे, मिहनत ठिकाने लगाना । (४) इधर उधर कर देना । खो देना । लुप्त कर देना । गायब कर देना । नष्ट कर देना । न रहने देना । (५) खर्च कर डालना । (६) आश्रय देना । जीविका का प्रबंध करना । काम धंधो में लगाना । (७) कार्य को समाप्ति तक पहुँचाना । पूरा कराना । (८) काम तमाम करना । मार डालना । ४. निशिच्त अस्तित्व । यथार्थता की संभावना । ठीक प्रमाण । जैसे,—उसकी बात का क्या ठिकाना ? कभी कुछ कहता है कभी कुछ । ५. दृढ़ स्थिति । स्थायित्व । स्थिरता । ठहराव । जैसे,—इस टूटी मेज का क्या ठिकाना, दूसरी बनाओ । विशेष—इन अर्थों में इस शब्द का प्रयोग प्रायः निषेधात्मक या संदेहात्मक वाक्यों ही में होता है । जैसे,—रुपया तो तब लगावें जब उनकी बात का कुछ ठिकाना हो । ५. प्रबंध । आयोजन । बंदोबस्त । डैल । प्राप्ति का द्वार या ढंग । जैसे,—(क) पहले खाने पीने का ठिकाना करो, और बातें पीछे करेंगे । (ख) उसे तो खाने का ठिकाना नहीं है । उ०—दो करोड़ रुपए साल की आमदनी का ठिकाना हुआ ।— शिवप्रसाद (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—ठिकाना लगना = प्रबंध होना । आयोजन होना । प्राप्ति का डौल होना । ठिकाना लगाना = प्रबंध करना । डौल लगाना । ६. पारावार । अंत । हद । जैसे,—(क) वह इतना झूठ बोलता है जिसका ठिकाना नहीं । (ख) उसकी दौलत का कहीं ठिकाना है ? विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः निषेधार्थक वाक्यों ही में होता है ।
⋙ ठिकाना † (२)
क्रि० अ० [हिं० ठिकना] १. ठहराना । अड़ाना । स्थित करना । २. किसी अन्य की वस्तु को गुप्त रूप से अपने पास रख लेना या छिपा लेना ।
⋙ ठिकानेदार
संज्ञा पुं० [हिं० ठिकाना + दार (प्रत्य०)] १. किसी छोटे सूभाग का अधिपति । जागीरदार । २. स्वामी । मालिक ।
⋙ ठिगना
वि० [हिं० ठिंगना] नाटा । छोटे कद का । दे० 'ठिंगना' । उ०—इंस्पेक्टर अधेड़, साँवला, लंबा आदमी था, कौड़ी की सी आँखें, फूले हुए गाल और ठिगना कद ।—गबन, पृ० २८३ ।
⋙ ठिठकना
क्रि० अ० [सं० स्थित + करण या देश०] १. चलते चलते एकबारगी रुक जाना । एकदम ठहर जाना । उ०—तनिक ठिठक, कुछ मुड़कर दाएँ, देख अजिर में उनकी ओर ।—साकेत, पृ० ३६८ । २. अंगों की गति बंद करना । स्तंभित होना । न हिलना न डोलना । ठक रह जाना ।
⋙ ठिठरना
क्रि० अ० [सं० स्थित या हिं० ठार अथवा सं० शीत + स्तृ > सरण] अधिक शीत से संकुचित होना । सरदी से एँठना या सिकुड़ना । जाड़े से अकड़ना । बहुत अधिक ठंढ़ खाना । जैसे, हाथ पाँव ठिठरना ।
⋙ ठिठुरन
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठिठरना] ठिठरने या ठरने का भाव । जाड़े की अधिकता से अंगों की सिकुड़न । ठरन । उ०— दर व दीवार सब बरफ ही और बरफ और ठिठुरन इस कयामत की ।—सैर०, पृ० १२ ।
⋙ ठिठुरना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठिठरना' ।
⋙ ठिठोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठठौली]दे० 'ठठोली' । उ०—वाह का बोली है कि रोने में भी ठिठोली है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४ ।
⋙ ठिन (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थिति (= स्थान)] स्थान । स्थल । उ०— पाँच पचीस एक ठिन आहैं, जुगुति ते एइ समुझाव ।—जग० श०, भा० २, पृ० २० ।
⋙ ठिन † (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] छोटे बच्चों के द्वारा रह रहकर रोने की ध्वनि की तरह उत्पन्न आवाज । मुहा०—ठिन ठिन करना = रोने की सी ध्वनि करना । रह रह कर धीरे धीरे रुदन का प्रयास करना । (स्त्री०) ।
⋙ ठिनकना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. बच्चों कगा रहकर रोने का सा शब्द निकालना । २. ठसक से रोना । रोने का नखरा करना । (स्त्रि०) ।
⋙ ठिया †
संज्ञा पुं० [सं० स्थित] १. गाँव की सीमा का चिह्न । हद का पत्थर या लट्ठा । २. चाँड़ । थूनी । ३. दे० 'ठीहा' ।
⋙ ठिर
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिर वा स्तब्ध] १. गहरी सरदी । कठिन शीत । गहरी ठंड । पाला । क्रि० प्र०—पड़ना । २. शीत से ठिठुरने की स्थिति या भाव । क्रि० प्र०—जाना ।
⋙ ठिरन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठिर]दे० 'ठरन', 'ठिठरन' ।
⋙ ठिरना (१)
क्रि० स० [हिं० ठिर] सरदी से ठिठुरना । अड़े से अकड़ना ।
⋙ ठिरना (२)
क्रि० अ० गहरा जाड़ा पड़ना । अत्यंत ठंढ पड़ना ।
⋙ ठिलना
क्रि० अ० [हिं० ठेलना] १. ठेला जाना । ढकेला जाना । बलपूर्वक किसी ओर खिसकाया या बढ़ाया जाना । उ०—फिरै धर बज्जिय झार करार । ठिलें न ठिलाइ न मन्निय हार ।— पृ० रा०, १९ ।२२१ । २. बलपूर्वक बढ़ना । वेग से किसी ओर झुक पड़ना । घुसना । धँसना । उ०—दक्खिन ते उमड़े दोउ भाई । ठिले दीह दल पुहिम हिलाई ।—लाल (शब्द०) । †३. बैठना । जमना । स्थिर होना ।
⋙ ठिलाठिल †
क्रि० वि० [हिं० ठिलना] एक पर एक गिरते हुए । धक्कमधक्का करते हुए । घने समूह और बड़े बेग के साथ । उ०—झिलझिल फौज ठिलाठिल धावै । चहुँ दिस छोर छुवन नहिं पावै ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ ठिलाना
क्रि० अ० [हिं० ठिलना] ठेला जाना । हटाया जाना । उ०—फिरैं धर बज्जिय झार करार । ठिले न ठिलाइ न मन्निय हार ।—पृ० रा०, १९ ।२२१ ।
⋙ ठिलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाली, प्रा० ठाली (= हँड़िया)] छोटा घड़ा । पानी भरने का मिट्टी का छोटा बरतन । गगरी ।
⋙ ठिलुआ
वि० [हिं० निठल्ला] निठल्ला । निकम्मा । बेकाम । जिसे कुछ काम धंधा न हो । उ०—बहुत ठिलुए अपना मन बहलाने के लिये औरों की पंचायत ले बैठते हैं ।—श्रीनिवास दास (शब्द०) ।
⋙ ठिल्ला †
संज्ञा पुं० [हिं० ठिलिया] [स्त्री० ठिलिया, ठिल्ली] घड़ा । पानी भरने या रखने का मिट्टी का बड़ा बरतन । बड़ा गगरा ।
⋙ ठिल्ली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठिलिया' ।
⋙ ठिल्ही †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठिल्ली' ।
⋙ ठिवना पु †
क्रि० स० [सं० स्थापय, प्रा० ठव्व] ठोंकना । उ०— सिषराल वंस दूजो सिषर उरस ठिवंतो आवियो ।—शिखर०, पृ० ७७ ।
⋙ ठिहार †
वि० [सं० स्थिर अथवा हिं० ठीहा] १. विश्राम करने योग्य । एतबार के लायक । २. निवास योग्य । स्थिर होने योग्य ।
⋙ ठिहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठहरना] ठहराव । निश्चय । इकरार । उ०—जैसी हुती हमते तुमते अब होयगी वैसियै प्रीति बिहारी । चाहत जौ चित में हित तो जनि बोलिय कुंजन कुँजबिहारी ।— सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) ।
⋙ ठींगा †
वि० [हिं० धींगा] जबर्दस्त । बलवान् । उ०—सीह थयौ बन साहिब्रौ, ठींगारी सँकराँत ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६ ।
⋙ ठीक
वि० [सं० स्थितिक या देश०] १. जैसा हो वैसा । यथार्थ । सच । प्रमाणिक । जैसे,—तुम्हारी बात ठीक निकली । २. जैसा होना चाहिए वैसा । उपयुक्त । अच्छा । भला । उचित । मुनासिब । योग्य । जैसे,—(क) उनका बर्ताव ठीक नहीं होता । (ख) तुम्हारे लिये कहना ठीक नहीं है । मुहा०—ठीक लगना = झला जान पड़ना । ३. जिसमें भूल या अशुद्धि न हो । शुद्ध । सही । जैसे,—आठ में से तुम्हारे कितने सवाल ठीक हैं ? ४. जो बिगड़ा न हो । जो अच्छी दशा में हो । जिसमें कुछ त्रुटि या कसर न हो । दुरुस्त । अच्छा । जैसे,—(क) यह घड़ी ठीक करने के लिये भेज दो । (ख) हमारी तबीयत ठीक नहीं है । यौ०—ठीक ठाक । ५. जो किसी स्थान पर अच्छी तरह बैठे या जमे । जो ढीला या कसा न हो । जैसे,—यह जूता पैर में ठीक नहीं होता । मुहा०—ठीक आना = ढीला या कसा न होना । ६. जो प्रतिकूल आचरण न करे । सीधा । सुष्ठु । नम्र । जैसे,— (क) वह बिना मार खाए ठीक न होगा । (ख) हम अभी तुम्हें आकर ठईक करते हैं । मुहा०—ठीक बनाना = (१) दंड देकर सीधा करना । राह पर लाना । दुरुस्त करना । (२) तंग करना । दुर्गति करना । दुर्दशा करना । ७. जो कुछ आगे पीछे, इधऱ उधर या घटा बढ़ा न हो । जिसकी आकृति, स्थिति या मात्रा आदि में कुछ अंतर न हो । किसी निर्दिष्ट आकार, परिमाण या स्थिति का । जिसमें कुछ फर्क न पड़े । निर्दिष्ट । जैसे,—(क) हम ठीक ग्यारह बजे आवेंगे । (ख) चिड़िया ठीक तुम्हारे सिर के ऊपर है । (ग) यह चीज ठीक वैसी ही है । मुहा०—ठीक उतरना = जितना चाहिए उतना ही ठहरना । जाँच करने पर न घटना न बढ़ना । जैसे,—अनाज तौलने पर ठीक उतरा । ८. ठहराया हुआ । नियत । निश्चित । स्थिर । पक्का । तै । जैसे, काम करने के लिये आदमी ठीक करना, गाड़ी ठीक करना, भाड़ा ठीक करना, विवाह ठीक करना । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—ठीक ठीक ।
⋙ ठीक (२)
क्रि० वि० जैसे चाहिए वैसे । उपयुक्त प्रणाली से । जैसे, ठीक चलना, ठीक पौंड़ना । उ०—(क) यह घोड़ा ठीक नहीं चलता । (ख) यह बनिया ठीक नहीं तौलता । यौ०—ठीकमठाक †, ठीकमठीक = एकदम ठीक । पूर्णतःठीक । बिलकुल दुरुस्त ।
⋙ ठीक (३)
संज्ञा पुं० १. निश्चय । ठिकाना । स्थिर और असंदिग्ध बात । पक्की बात । दृढ़ बात । जैसे,—उनके आने का कुछ ठीक नहीं, आवें या न आवें । यौ०—ठीक ठिकाना । मुहा०—ठीक देना = मन में पक्का करना । दृढ़ निश्चय करना । उ०—(क) नीके ठीक दई तुलसी अवलंब बड़ी उर आखर दू की ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कर विचार मन दीन्हीं ठीका । राम रजायसु आपन नीका ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इस मुहावरे में 'ठीक' शब्द के आगे 'बात' शब्द लुप्त मानकर उसका प्रयोग स्त्रीलिंग में होता है । २. नियति । ठहराव । स्थिर प्रबंध । पक्का आयोजन । बंदोबस्त । जैसे,—खाने पीने का ठीक कर लो, तब कहीं जाओ । यौ०—ठीक ठाक । ३. जोड़ । मीजान । योग । टोटल । मुहा०—ठीक देना, ठीक लगाना = जोड़ निकालना । योगफल निश्चित करना ।
⋙ ठीकठाक (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ठीक] १. निश्चित प्रबंध । बंदोबस्त । आयोजन । जैसे,—इनके रहने का कहीं ठीक ठाक करो । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. जीविका का प्रबंध । काम धंधे का बंदोबस्त । आश्रय । ठौर ठिकाना । जैसे,—इनका भी कहीं ठीक ठाक लगाओ । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना । ३. निश्चय । ठहराव । पक्की बात । जैसे,—विवाह का ठीक ठाक हो गया ?
⋙ ठीकठाक (२)
वि०— अच्छी तरह दुरुस्त । बनकर तैयार । प्रस्तुत । काम देने योग्य ।
⋙ ठीकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० ठीकरा]दे० 'ठीकरा' ।
⋙ ठीकरा
संज्ञा पुं० [देशी ठिक्करिआ] [स्त्री० अल्पा० ठीकरी] १. मिट्टी के बरतन का फूटा टुकड़ा । खपरैल आदि का टुकड़ा । सिटकी । मुहा०—(किसी के माथे या सिर पर) ठीकरा फोड़ना = दोष लगना । कलंक लगाना । (जैसे किसी वस्तु या रुपए आदि को) ठीकरा समझना = कुछ न समझना । कुछ भी मूल्यवान् न समझना । अपने किसी काम का न समझना । जैसे,— पराए माल को ठीकरा समझना चाहिए । (किसी वस्तु का) ठीकरा होना = अंधाधुंध खर्च होना । पानी की तरह बहाया जाना । ठीकरे की तरह बेमोल एवं तुच्छ होना । २. बहुत पुराना बरतन । टूटा फूटा बरतन । ३. भौख माँगने का बरतन । भिक्षापात्र । ४. सिक्का । रुपया (सधु०) ।
⋙ ठीकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देशी ठिक्करिआ] १. मिट्टी के बरतन का छोटा फूटा टुकड़ा । २. तुच्छ । निकम्मी चीज । ३. मिट्टी का तवा जो चिलम पर रखते हैं ।
⋙ ठीकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी ठिक्क (= पुरुषेंद्रिय)] उपस्थ । स्त्रियों की योनि का उभरा हुआ तल ।
⋙ ठीका
संज्ञा पुं० [हिं० ठीक] १. कुछ धन आदि के बदले में किसी के किसी काम को पूरा करने का जिम्मा । जैसे, मकान बनवाने का ठीका, सड़क तैयार करने का ठीका । २. समय समय पर आमदनी देनेवाली वस्तु को कुछ काल तक के लिये इस शर्त पर दूसरे को सुपुर्द करना कि वह आमदनी वसूल करके और उसमें से कुछ अपना मुनाफा काटकर बराबर मालिक को देता जायगा । इजारा । क्रि० प्र०—देना ।—लेना ।—पर लेना ।
⋙ ठीकेदार
संज्ञा पुं० [हिं०] १. ठीके पर दूसरों से काम लेनेवाला ब्यक्ति । ठीका देनेवाला । २. किसी काम को कुछ निश्चित नियमों के अनुसार पूरा करा देने का जिम्मा लेनेवाला व्यक्ति ।
⋙ ठीटा
संज्ञा पुं० [हिं० ठेंठा]दे० 'ठेंठा' ।
⋙ ठीठी
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] हँसी का शब्द । यौ०—हाहा ठीठी । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ठीढ़ी ठाढ़ी पु
वि० [सं० स्थिति+ स्थ] जिस हालत में हो उसी में स्थित । स्पंदनहीन । निश्चेष्ट । उ०—सजि सिंगार कुंजन गई लह्यौ नहीं बलबीर । ठीढ़ी ठाढ़ी सी तरुन बाढ़ी गाढ़ी पीरं ।—स० सप्तक, पृ० ३८९ ।
⋙ ठीलना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'ठेलना' । उ०—मैं तो भूलि ज्ञान को आयो गयउ तुम्हारे ठीले ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठीवन पु
संज्ञा पुं० [सं० ष्ठीवन] थूँक । खखार । कफ । श्लेष्मा । उ०—आमिष अस्थिन चाम को आनन, ठीवन तामें भरों अधिकाई ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ठीस †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठोस] रह रहकर होनेवाली पीड़ा । टीस । उ०—मृतक होय गुरु पद गहै ठीस करै सब दूर ।— कबीर श०, भा० ४, पृ० २६ ।
⋙ ठीहँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घोड़ों की हींस । हिनहिनाहट का शब्द । उ०—दुहुँ दल ठीहँ तुरंगनि दीनी । दुहुँ दल बुद्धि जुद्ध रस भीनी ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ ठीह
संज्ञा पुं० [सं० स्था]दे० 'ठीहा' ।
⋙ ठीहा
संज्ञा पुं० [सं० स्था] १. जमीन में गड़ा हुआ लकड़ी का कुंदा जिसका थोड़ा सा भाग जमीन के ऊपर रहता है । विशेष—इस कुंदे पर वस्तुओं को रखकर लोहार, बढ़ई आदि उन्हें पीटते, छीलते या गढ़ते हैं । लोहार, कसेरे आदि धातु का काम करनेवाले इसी ठीहे में अपनी 'निहाई' गाड़ते हैं । पशुओं को खिलाने का चारा भी ठीहे पर रखकर काटा जाता है । २. बढ़इयों का लकड़ी गढ़ने का कुंदा जिसमें एक मोटी लकड़ी में ढालुआँ गड्ढा बना रहता है । ३. बढ़इयों का लकड़ी चीरने का कुंदा जिसमें लकड़ी को कसकर खड़ा कर देते और चीरते हैं । ४. बैठेने के लिये कुछ किया हुआ स्थान । बेदी । गद्दी । ५. दूकानदार के बैठने की जगह । ६. हद । सीमा । ७. चाँड़ । थूनी । ८. उपयुक्त स्थान ।
⋙ ठुंठ
संज्ञा पुं० [देश० ठुंठ वा सं० स्थाणु] १. सूखा हुआ पेड़ । २. ऐसे पेड़ की खड़ी लकड़ी जिसकी डाल पत्तियाँ आदि कट या गिर गई हों । ३. कटा हुआ हाथ । ४. वह मनुष्य जिसका हाथ कटा हो । लूला ।
⋙ ठुंड
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठुंठ]दे० 'ठुंठ' ।
⋙ ठुँकना †पु
क्रि० स० [हिं० ठोंकना] धीरे धीरे हथेली पटककर आघात पहुँचाना । हाथ मारना । उ०—दिन दिन देन उरहनो आवैं ठुँकि ठुँकि करत लरैया ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठुक
संज्ञा स्त्री० [अनुष्व०] किसी चीज पर कड़ी वस्तु से आघात करने का शब्द या ध्वनि ।
⋙ ठुकठुक
संज्ञा स्त्री० किसी वस्तु को ठोंकने से लगातर होने— वाली ध्वनि । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।
⋙ ठुकना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. ताड़ित होना । ठोंका जाना । पिटवा । आघात सहना । २. आघात पाकर धँसना । गड़ना । जैसे, खूँटा ठुकना । संयो० क्रि०—जाना । ३. मार खाना । मारा जाना । जैसे,—घर पर खुब ठुकोगे । ४. कुश्ती आदि में हारना । ध्वस्त होना । पस्त होना । ५. हानि होना । नुकसान होना । चपत बैठना । जैसे,—घर से निकलते ही (२०) की ठुकी । ६. काठ में ठोंका जाना । कैद होना । पैर में बेड़ी पहनना । ७. दाखिल होना । जैसे, नालिश ठुकना । ८. बजना । ध्वनित होना । उ०—कहुँ तिमत्त धर धुकत, लुकत कहुँ सुभट छात छल । ठुकत काल कहुँ पत्र, कुकुत कहुँ सेन पाइ जल ।—पृ० रा०, ८ ।४२ ।
⋙ ठुकराना
क्रि० स० [हिं० ठोकर] १. ठोकर मारना । ठोकर लगाना । लात मारना । २. पैर से मारकर किनारे करना । तुच्छ समझकर पैर से हटाना । ३. तिरस्कार या उपेक्षा करना । न मानना । अनादर करना । जैसे, बात ठुकराना, सलाह्व ठुकराना ।
⋙ ठुकराल †
संज्ञा पुं० [सं० ठक्कुर] १. दे० 'ठाकूर' । उ०—मनमानै जे पलाणजइ । हिव चालो ठकुराला साँमहा जानि ।—बी० रासो, पृ० १६ । २. नेपाल के एक वर्ग की उपाधि ।
⋙ ठुकबाना
क्रि० स० [हिं० ठोंकना का प्रे० रूप] १. ठोंकने का काम कराना । पिटवाना । २. गड़वाना । धँसवाना । ३. संभोग करावा (अशिष्ट) ।
⋙ ठुकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठुकना] ठोंके जाने या मार खाने की स्थिति, भाव या क्रिया । जैसे,—सुना आज बड़ी ठुकाई हुई ।
⋙ ठुठंकना पु
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठिठकना' । उ०—ठुठंकिय रुक्किय कायर पाय । रनकत रुंड खनंकत जाय ।—प० रासो, पृ० ४१ ।
⋙ ठुड्डी
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] चेहरे में होठ के नीचे का भाग । चिबुक । ठोढ़ी । हनु ।
⋙ ठुड्डी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठड़ा (= खड़ा)] बह भुना हुआ दाना जो फूटकर खिला न हो । ठोर्री । जैसे, मक्के की ठुड्डी ।
⋙ ठुनक ठुनक
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] ठिठककर चलने के कारण आभूषण से निकलनेवाली ध्वनि । उ०—ठुमक चाल ठठि ठाठ सो, ठेल्यो मदन कटक्क । ठुनक ठुनक ठुनकार सुनि ठठके लाल झटक्क ।—ब्रजनिधि ग्रं०, पृ० ३ ।
⋙ ठुनकना (१)
क्रि० अ० [हिं०] १. दे० 'ठिनकना' । २. प्यार या दुलार के कारण नखरा करना । उ०—सबको है आपको नहीं है ? उसने ठुनकते हुए कहा ।—आँधी, पृ० ३२ ।
⋙ ठुनकना (२)
क्रि० स० [हिं० ठोंकना] धीरे से उँगली से ठोंक या मार देना ।
⋙ ठुनकाना †
क्रि० स० [हिं० ठोंकना] धीरे से ठोंकना । उँगली से धीरे से चोट पहुँचाना ।
⋙ ठुनकार
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] ठुनक की आवाज । उ०—ठुनक ठुनक ठुनकार सुनि ठठके लाल झटक्क ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ३ ।
⋙ ठुनठुन
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. धातु के टुकड़ों या बरतनों के बजने का शब्द । २. बच्चों के रुक रुककर रोने का शब्द । मुहा०—ठुन ठुन लगाए रहना = बराबर रोया करना ।
⋙ ठुनुकना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ठुनकना' । उ०—वह बालिका के सद्दश ठुनुककर बोली ।—कंकाल, पृ० २१७ ।
⋙ ठुमक
वि० [अनुध्व०] १. (चाल) जिसमें उमंग के कारण जल्दी जल्दी थोड़ी थोड़ी दूर पर पैर पटकते हुए चलते हैं । बच्चों की तरह कुछ कुछ उछल कूद या ठिठक लिए हुए (चाल) । २. ठसकभरी (चाल) । जैसे, ठुमक चाल ।
⋙ ठुमक, ठुमक, ठुमुक, ठुमक
क्रि० वि० [अनुध्व०] जल्दी जल्दी थोड़ी थोड़ी दूर पर पैर पटकते हुए (बच्चों का चलना) । फुदकते या रह रहकर कूदते हुए (चलना) । जैसे, बच्चों का ठुमक ठुमक चलना । उ०—(क) कौशल्या जब बोलन जाई । ठुमकि ठुमकि प्रभु चलहिं पराई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चलत देखि जसुमति सुख पावै । ठुमुक ठुमुक धरनी पर रेंगत जननी देखि दिखावै ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठुमकना, ठुमूकना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. बच्चों का उमंग में जल्दी जल्दी थोड़ी थोड़ी दूर पर पैर पटकते हुए चलना । उ०—ठुमुकि चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ ।—तुलसी (शब्द०) । २. नाचने में पैर पटककर चलना जिसमें घुँघरू बजें ।
⋙ ठुमका † (१)
वि० [देश०] [वि० स्त्री० ठुमकी] छोटे डील का । नाटा । ठेगना । उ०—जाति चली ब्रज ठाकुर पै ठुमका ठुमकी ठुमकी ठकुराइन ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ठुमका (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] [स्त्री० ठुमकी] झटका । थपका ।—(पतंग) ।
⋙ ठुमकारना
क्रि० स० [देश०] उँगली से डोरी खींचकर झटका देना । थपका देना ।—(पतंग) ।
⋙ ठुमको (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. हाथ या उँगली से खींचकर दिया हुआ झटका । थपका ।—(पतंग) । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना । २. ठिठक । रुकावट । ३. छोटी और खरी पूरी ।
⋙ ठुमको (२)
वि० स्त्री० नाटी । छोटे डील की । छोटी काठी की । उ०—जाति चली ब्रज ठाकुर पै ठुमका ठुमकी ठुमकी ठकुराइन ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ठुमठुम
वि० क्रि० वि० [हिं०]दे० 'ठुमक ठुमक' । उ०—भाई बंद सकल परिवारा । ठुमठुम पाव चलै तेहि लारा ।—घट०, पृ० ३७ ।
⋙ ठुमरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. एक प्रकार का छोटा सा गीत । दौ बोलों का गीत जो केवल एक स्थान और एक ही अंतरे में समाप्त हों । यौ०—सिरपरदा ठुमरी = एक प्रकार की ठुमरी जो 'अद्धा' ताल पर बजाई जाती है । २. उड़ती खबर । गप । अफवाह । क्रि० प्र०—उड़ना ।
⋙ ठुरियाना (१)
क्रि० अ० [हिं० ठार (= शीत)] ठिठुर जाना । सिकुड़ जाना । शीत से अकड़ जाना ।
⋙ ठुरियाना † (२)
क्रि० अ० [हिं० ठुर्री] ठुर्री होना । भूने हुए दाने का न खिलना ।
⋙ ठुर्री
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठड़ा (= खड़ा) या देश०] वह भुना हुआ दाना जो भुनने पर न खिले ।
⋙ ठुसकना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. दे० 'ठिनकना' । २. ठुस शब्द करके पादना । ठुसकी मारना ।
⋙ ठुसकी
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] धीरे से पादने की क्रिया ।
⋙ ठुसना
क्रि० अ० [हिं० ठूसना] १. कसकर भरा जाना । इस प्रकार समाना या अँटना कि कहीं खाली जगह न रह जाय । जैसे,—इस संदूक में कपड़ें ठुसे हुए हैं । २. कठिनता से घुसना । ३. भर जाना । समाप्त हो जाना । न रहना । उ०— हिंदीपन भी न निकले, भाखापन भी ठुस जाय जैसे भले लोग अच्छों से अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न पड़े ।—ठेठ०, (उपो०), पृ० २ ।
⋙ ठुसवाना
क्रि० स० [हिं० ठूसना का प्रे० रूप] १. कसकर भरवाना । २. जोर से घुसवाना । ३. संभोग कराना । ठुकवाना (अशिष्ट०) ।
⋙ ठुसाना
क्रि० स० [हिं० ठूसना] १. कसकर भरवाना । २. जोर से घुसवाना । ३. खूब पेट भर खिलाना (अशिष्ट०) ।
⋙ ठूँग
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] १. चोंच । ठोर । २. चोंच से मारने की क्रीया । चोंच का प्रहार । ३. उँगली को मोड़कर पीछे निकली हुई जोड़ की हड्डी की नोक से मारने की क्रिया । टोला । क्रि० प्र०—लगाना ।—मारना ।
⋙ ठूँगना पु †
क्रि० स० [हिं० ठूँग + ना (प्रत्य०)] टूँगना । चुगना । उ०—चौदह तीन्यू लोक सब ठूँगे सासै सास । दादू साधू सब जरै, सतगुरु के बेसास ।—दादू० बानी, पृ० १५९ ।
⋙ ठूँगा
संज्ञा पुं० [हिं० ठूँग]दे० 'ठूँग' ।
⋙ ठूँठ
संज्ञा पुं० [हिं० टूटना, वा सं० स्थाणु, या देशी ठुँठ (= स्थाणु)] १. ऐसे पेड़ की खड़ी लकड़ी जिसकी डाल, पत्तियाँ आदि कट गई हों । सूखा पेड़ । २. कटा हुआ हाथ । ठुंडा । उ०— विद्या विद्या हरण हित पढ़त होत खल ठूँठ । कह्यो निकारो मीन को घुसि आयो गृह ऊँट ।—विश्राम (शब्द०) । ३. एक प्रकार का कीड़ा जो ज्वार, बाजारे, ईख आदि की फसल में लगता है ।
⋙ ठूँठा
वि० [हिं० ठूँठ वा सं० स्थाणु] [वि० स्त्री० ठूँठी] १. बिना पत्तियों और टहनियों का (पेड़) । सूखा (पेड़) । जैसे, ठूँठा पेड़ । २. बिना हाथ का । जिसका हाथ कटा हो । लूला ।
⋙ ठूँठिया †
वि० [हिं० ठूँठ + इया (प्रत्य०)] १. लूला । लँगड़ा । २. हिजड़ा । नपुंसक ।
⋙ ठूँठि
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठूँठ] ज्वार, बाजरे, अरहर आदि की जड़ के पास का डंठल जो काटने पर पड़ा रह जाता है । खूँटी ।
⋙ ठूँसना
क्रि० स० [हिं०]दे० 'ठूसना' ।
⋙ ठूँसा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'ठोसा' । २. मुक्का । धूँसा ।
⋙ ठूठ
वि० [देशी ठुँठ, हिं० ठूँठ, ठूठ] दे० 'ठूँठ' । उ०—दसा सुने निज बाग की लाल मानिहो झूठ । पावस रिंतु हूँ में लखे डाढ़े ठाढ़े ठूठ ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४९ ।
⋙ ठूठी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] राजजामुन नाम का वृक्ष । वि० दे० 'राजजामुन' ।
⋙ ठूनू
संज्ञा पुं० [देश०] पटवों की वह टेढ़ी कील जिसपर वे गहने अँटकाकर उन्हें गूँथते हैं । विशेष—यह कील पत्थर में बैठाए हुए खूँटे के सिरे पर लगी होती है ।
⋙ ठूसना
क्रि० स० [हिं० ठस] १. कसकर भरना । हतना अधिक भरना कि इधर उधर जगह न रहे । २. घुसेड़ना । जोर से घुसाना । ३. खूब पेट भरकर खाना । कसकर खाना ।
⋙ ठेँगना
वि० [हिं० हेठ + अंग] [वि० स्त्री० ठेंगनी] छोटे डील का । जो ऊँचाई में पूरा न हो । नाटा ।—(जीवधारियों, विशेषतः मनुष्य के लिये) ।
⋙ ठेंगा
संज्ञा पुं० [हिं० हेठ + अंग वा अँगूठा या देश०] १. अँगूठा । ठोसा । मुहा०—ठेंगा दिखाना = (१) अँगूठा दिखाना । ठोसा दिखाना । धृष्टता के साथ अस्वीकार करना । बुरी तरह से नहीं करना । (२) चिढ़ाना । ठेंगे से = बला से । कुछ परवाह नहीं । विशेष—जब कोई किसी से किसी बात की धमकी या कुछ करने या होने की सूचना देता है तब दूसरा अपनी बेपरवाही या निर्भीकता प्रकट करने के लिये ऐसा कहता है । २. लिंगेंद्रिय । (अशिष्ट) । ३. सोंटा । डंडा । गदका । जैसे,— जबरदस्त का ठेंगा सिर पर । मुहा०—ठेंगा बजाना = (१) मारपीट होना । लड़ाई दंगा होना । (२) व्यर्थ की खटखट होना । प्रयत्न निष्फल होना । कुछ काम न निकलना । उ०—जिसका काम उसी को साजे । और करें तो ठेंगा बाजे ।—(शब्द०) । ४. वह कर जो बिक्री के माल पर लिया जाता है । चुंगी का महसुल ।
⋙ ठेँगुर
संज्ञा पुं० [हिं० ठेंगा (= सोटा)] काठ का लंबा कुंदा जो नटखट चौपायों के गले में इसलिये बाँध दिया जाता है जिसमें वे बहुत दौड़ और उछल कुद न सकें ।
⋙ ठेंघा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ठेघा' ।
⋙ ठेँठ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ठोंठी' ।
⋙ ठेँठ (२)
वि० [हिं०] दे० 'ठेठ१' ।
⋙ ठेँठा †
संज्ञा पुं० [हिं०] सुका हुआ डँठल । उ०—रानी एक मजुर से बैलों के लिये जोन्हरी का ठेंठा कटवा रही थी ।—तितली, पृ० २३८ ।
⋙ ठेँठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] .१ कान की मैल का अच्छा । कान की मैल । २. कान के छेद में लगाई हुई रुई, कपड़ें आदि की डाट । कान का छेद मुँदने की वस्तु । मुहा०—कान में ठेंठी लगाना = न सुनना । ३. शीशी बोतल आदि का मुँह बंद करने की वस्तु । डाट । काग ।
⋙ टेँपी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ठेंठी' ।
⋙ ठेक
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकना] १. सहारा । बल देकर टिकाने की वस्तु । ओँठगावे की चीज । २. वह वस्तु जो किसी भारी चीज को ऊपर ठहराए रखने के लिये नीचे के लगाई जाय । टेक । चाँड़ । ३. वह वस्तु जिसे बीच में देने या ठोंकने से कोई ढीली वस्तु कस जाय, इधर उधऱ न हिले । पच्चड़ । ४. किसी वस्तु के नीचे का भाग जमीन पर टिका रहे । पेंदा ।तला । ५. टट्टियों आदि से घिरा हुआ वह स्थान जिसमें अनाज भरकर रखा जाता है । ६. घोड़ों की एक चाल । ७. छड़ी या लाछी की सामी । ८. धातु के बरतन में लगी हुई चकती । ९. एक प्रकार की मोटी महताबी ।
⋙ ठेकना
क्रि० स० [हिं० टिकना, टेक] १. सहारा लेना । आश्रय लेना । चलने या उठने बैठने में अपना बल किसी वस्तु पर देना । टेकतना । २. आश्रय लेना । टिकना । ठहरना । रहना । उ०—वौ, तौरह, चौबीस औ एका । पुरब दखिन कौन तेइ ठेका ।—जायसी (शब्द०) । वि० दे० 'टेकना' ।
⋙ ठेकवा बाँस
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस । विशेष—यह बंगाल और आसाम में होता है और छाजन तथा चटाई आदि के काम में आता है । इसे देवबाँस भी कहते हैं ।
⋙ ठेका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टिकना, टेक] १. ठेक । सहारे की वस्तु । २. ठहरने या रुकने की जगह । बैठक । अड्डा । ३. तबला या ढोल बजाने की वह क्रिया जिसमें पुरे बोल न निकाले जायँ, केवल ताल दिया जाय । यह बाएँ पर बजाया जाता है । क्रि० प्र०—बजाना ।—देना । मुहा०—ठेका भरना = घोड़े का उछल कुदल करना । ४. तबले का बायाँ । डुग्गी । ५. कौवाली ताल । ६. ठोकर ।धक्का । थपेड़ा । उ०—तरब तरंग गंग की राजहि उछलत छज लगि ठेका ।—ऱगुराज (शब्द०) ।
⋙ ठेका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ठईक] १. कुछ धन आदि के बदले में किसी के किसी काम को पुरा करने का जिम्मा । ठीका । जैसे, मकान बनावाने का ठेका । सड़क तैयार करने का ठेका । २. समय समय पर आमदनी देनेवाली वस्तु को कुछ काल तक के लिये इस शर्त पर दुसरे को सुपुर्द करना कि वह आमदनी वसुल करके और कुछ अपना निशिच्त मुनाफा काटकर बराबर मालिक को देता जायगा । इजारा । पट्टा । क्रि० प्र०—देना ।—लेना ।—पर लेना । यौ०—ठेका पट्टा । मुहा०—ठेका भैंट = वह नजर जो किसी वस्तु को ठेके पर लेनेवाला मालिक को देता है ।
⋙ ठेकाई
संज्ञा स्त्री० [देश०] कपड़ों की छपाई में काले हाशियों की छपाई ।
⋙ ठेकाना (१)
क्रि० स० [हिं० ठेकना का प्रे० रुप] ओंठघाना । किसी वस्तु को किसी वस्तु के सहारे करना । सहारा देना ।
⋙ ठेकाना † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ठिकाना] दे० 'ठिकाना' ।
⋙ ठेकुरीपु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंकली' । उ०—कहु ठेकुरी ढारि कै वारि ढारै ।—प० रासो, पृ० ५५ ।
⋙ ठेकेदार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ठीकेदार' ।
⋙ ठेकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] १. टेक । सहारा । २. चाँड़ । ३. विश्राम करने के लिये ऊपर लिए हुए बोझ को कुछ देर कहीं टिकाने या ठहराने की क्रिया । क्रि० प्र०—लगाना ।—लेना ।
⋙ ठेगड़ीपु
संज्ञा पुं० [देश०] कुत्ता ।—(ड़िं०) ।
⋙ ठेगनापु
क्रि० स० [हिं० टेकना] १. टेकना । सहारा लेना । उ०—पाणि ठेगि मंजुष । काहींष । रघुनायक चितयो गुरु पाहीं ।—रघुराज (शब्द०) । २. रोकना । बरजना । मना करना । उ०—भैवर भुजंग कहा सो पीया । हम ठेगा तुम कान न कीया ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ठेगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेगना] टेकने की लकड़ी ।
⋙ ठेघना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ठेगना' ।
⋙ ठेघनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेघना] टेकने का लकड़ी ।
⋙ ठेघा †
संज्ञा पुं० [हिं० टेक]टेक । चाँड़ । वह खंभा या लकड़ी जोसहारे कि लिये लगाई जाय । ठहराव । टिकान । उ०—(क) बरनहिं बरन गगन जस मेघा । उठहिं गगन बैठे जनु ठेघा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) घिरह बजागि बीज को ठेघा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १६१ ।
⋙ ठेघुना †
संज्ञा पुं० [सं० अष्ठीव, हिं० ठेहुना] दे० 'ठेहुना' ।
⋙ ठेठ (१)
वि० [देश०] १. निपटय़ निरा । बिलकुल । जैसे, ठेठ सगँवार । २. खालिस । जिसमें कुछ मेलजोल न हो । जैसे, ठेठ बोली, ठेठ हिंदी । ३. शुद्ध । निर्मल । निर्लिप्त । उ०—मैं उपकारी ठेठ का सतगुरु दिया सोहाग । दिल दरपन दिखलाय के दुर किया सब ताग ।—कबीर (शब्द०) । ४. आरंभ । शुरू । उ०—मैं ठेठ से देखता आता हूँ कि आप मुझकों देखकर जलते हैं ।—श्रीनिवास दास (शब्द०) ।
⋙ ठेठ (२)
संज्ञा स्त्री० सीधी सादी बोली । वह बोली जिसमें साहित्य अर्थात् लिखने पढ़ने की भाषा के शब्दो का मेल न हो ।
⋙ ठेठर †
संज्ञा पुं० [अं० थिएटर] दे० 'थिएटर' ।
⋙ ठेना †
क्रि० अ० [?] १. ठहरना । रुकना । २. अकड़ना । ऐंठना । उ०—नाहक का झगड़ा मोल लेना है, सेतमेत का ठेना है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५४ ।
⋙ ठेप (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सोने चाँदी का इतना बड़ा टुकड़ा जो अंटी में आ सके ।—(सुनार) । विशेष—सुनार सोना या चाँदी गायब करने के लिये उसे इस प्रकार अंटी में लेते हैं । क्रि० प्र०—चढ़ाना ।—लगाना ।
⋙ ठेप (२)
संज्ञा पुं० [सं० दीप] दीपक । चिराग ।
⋙ ठेपी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. डाट । काग जिससे बोतल वा किसी बरतन का मुँह बंद किया जाता है । २. छोटा ढँकना ।
⋙ ठेर †
संज्ञा पुं० [हिं० ठहर] ठहराव । रुकाव का स्थान । टेक । उ०—पद नवकल रो ठेर पुणीजै, गीत सतखणो मंछ गुणी जै ।—रघु० रू०, पृ० १३७ ।
⋙ ठेलना
क्रि० स० [हिं० टलना या अप० √ ठिल्ल] १. ढकेलना । धक्का देकर आगे बढ़ाना । रेलना । संयो० क्रि०—देना । यौ०—ठेलठाल, ठेलमठेल = धक्कम धक्का । ठेलाठेल । ठेलमेल = एक पर एक आगे बढ़ते हुए । ठेलाठेली = धक्कम धक्का । २. जबर्दस्ती करना । बलात् किसी को धकियाते हुए आगे बढ़ना ।
⋙ ठेला
संज्ञा पुं० [हिं० ठेलना] १. बगल से लगा हुआ धक्का जिसके कारण कोई वस्तु खिसककर आगे बढ़े । पार्श्व का आघात । टक्कर । २. छिछली नदियों में चलनेवाली नाव जो लग्गी के सहारे चलाई जाती है । ३. बहुत से आदमियों का एक के ऊफर एक गिरना पड़ना । धक्कम धक्का । ऐसी भीड़ जिसमें देह से देह रगड़ खाय । रेला । ४. एक प्रकार की गाड़ी जिसे आदमी ठेल या ढकेलकर चलाते हैं । यौ०—ठेलागाड़ी ।
⋙ ठेलाठेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेलना] बहुत से आदमियों का एक के ऊफर एक गिरना पड़ना । रेला पेल । धक्कम धक्का । उ०— ठानि ब्रह्म ठाकुर ठगोरिन की ठेलाठेलि मेला के मझार हित हेला कै भलो गयो ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ठेवका †
संज्ञा पुं० [सं० स्थापक] वह स्थान जहाँ सींचने के लिये पुरवट का पानी गिराया जाता है ।
⋙ ठेवकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेवका] किसी लुढ़कनेवाली वस्तु को अड़ाने या टिकाने की जगह या वस्तु ।
⋙ ठेस
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. आघात । चोट । धक्का । ठोकर । उ०— शीशए दिल पर संगोफिरका की ऐसी ठेस लगीं कि चकनाचूर हो गया ।—फिसाना०, भा० १, पृ० १२ ।क्रि० प्र०—देना ।—लगना ।—लगाना । २. सहारा । टेक ।
⋙ ठेसना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ठूसना' ।
⋙ ठेसमठेस
क्रि० वि० [हिं० ठेस] सब पालों को एकबारगी खोले हुए (जहाज का चलाना) ।—(लश०) ।
⋙ ठेहरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह छोटी सी लकड़ी जो पुरानी चाल के दरवाजों के पल्लों की चूल के नीचे गड़ी रहती है और जिस— पर चूल घूमती है ।
⋙ ठेही
संज्ञा स्त्री० [देश०] मारी हुई ईख ।
⋙ ठेहुका †
संज्ञा पुं० [हिं० ठेक] वह जानवर जिसके पिछले घुटने चलते समय आपस में रगड़ खाते हों ।
⋙ ठेहुना †
संज्ञा पुं० [सं० अष्ठीवान्] [स्त्री० ठेहुनी] घुटना ।
⋙ ठेहुनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेहुना] हाथ की कुहनी ।
⋙ ठैकर
संज्ञा पुं० [देश०] नीबू का सा एक खट्टा फल जिसे हलदी के साथ उबालकर हलका पीला रंग बनाते हैं ।
⋙ ठैन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थान, हिं० ठाँय] जगह । स्थान । बैठने का ठाँव । उ०—क्रीड़त सघन कुंज बृंदावन बंसीबट जमुना की ठैन ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठैयाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाँय]दे० 'ठाई' ।
⋙ ठैरना †
क्रि० अ० [हिं० ठहरना]दे० 'ठहरना' । उ०—उनकी कोई बात हिकमत से खाली नहीं ठैरती ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १८४ ।
⋙ ठैनाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठहराना]दे० 'ठहराई' ।
⋙ ठैराना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'ठहराना' । उ०—(क) मैं बीजक दिखाकर इन्सै कीमत ठैरा लूँगा ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १६० । (ख) हे सारथी, तपोवनवासियों के काम में कुछ विघ्न न पड़े इस्से रथ यहीं ठैरा दो हम उतर लें ।— शकुंतला, पृ० १२ ।
⋙ ठैलपैल
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेलना]दे० 'ठेलपेल' ।
⋙ ठैहैरना †
क्रि० अ० [हिं० ठहरना] रुकना । ठहरना । उ०—(कछु ठैहैरि कें) प्यारे, जो यैही गति करनी हीं तो अपनायौ क्यों ?—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९५ ।
⋙ ठोँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठोंकना] ठोंकने की क्रिया या भाव । प्रहार । आघात । २. वह लकड़ी जिससे दरी बुननेवाले सूत ठोंककर ठस करते हैं ।
⋙ ठोँकना
क्रि० स० [अनुध्व० ठक ठक] १. जोर से चोट मारना । आघात पहुँचाना । प्रहार करना । पीटना । जैसे,—इसे हथौड़े से ठोंको । संयो० क्रि०—देना । २. मारना । पीटना । लात, घूंसे डंडे आदि से मारना । जैसे,— घर घर जाओ खूब ठोंके जाओगे । संयो० क्रि०—देना । ३. ऊपर से चोट लगाकर धँसना । गाड़ना । जैसे, कील ठोंकना, पच्चर ठोंकना । ४. (नालिश, अरजी आदि) दाखिल करना । दायर करना । जैसे, नालिश ठोंकना, दावा ठोंकना । संयो० क्रि०—देना । ५. काठ में डालना । बेड़ियों से जकड़ना । ६. धीरे धीरे हथेली पटककर आघात पहुँचाना । हाथ मारना । जैसे, पीठ ठोंकना, ताल ठोंकना, बच्चे को ठोंककर सुलाना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । मुहा०—ठोंक ठोंककर लड़ना = ताल ठोंककर लड़ना । डट— कर लड़ना । जबरदस्ती झगड़ा करना । ठओंकना बजाना = हाथ से टटोलकर परीक्षा करना । जाँचना । परखना । जैसे,—लोग दमड़ी की हाँड़ी भी ठोंक बजाकर लेते हैं । उ०—(क) तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । कोउ काहू का है नहीं (सब) देखा ठोंक बजाय ।—कबीर सा० सं०, पृ० ६१ । (ख) ठोंकि बजाय लखे गजराज कहाँ लौ कहौं केहि सों रद काढ़े ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) नंद ब्रज लीजै ठोंकि बजाय । देहु विदा मिलि जाँहि मधुपुरी जँह गोकुल के राय ।—सूर (शब्द०) । पीठ ठोंकना = दे० 'पीठ' का मुहा० । रोटी या बाटी ठोंकना = आटे की लोई को हाथ से ठोंकते हुए बढ़ाकर रोटी बनाना । ७. हाथ में मारकर बनाना । जैसे, तबला ठोंकना । ८. कसकर अँटकाना । लगाना । जड़ना । जैसे, ताला ठोंकना । ९. हाथ या लकड़ी से मारकर 'खट खट' शब्द करना । खटखटाना ।
⋙ ठोँकवा †
संज्ञा पुं० [हिं० ठोंकना] मीठा मिले हुए आटे की मोटी पूरी । गूना ।
⋙ ठोँग
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] १. चंचु । चोंच । २. चोंच की मार । ३. उँगली झुकाकर पीछे की ओर निकली हुई नोंक से मारने की क्रिया । उँगली की ठोकर । खुदका ।
⋙ ठोँगना
क्रि० स० [हिं० ठोंग] १.चोंच मारना । २. उँगली से ठोकर मारना । खुदका मारना ।
⋙ ठोँगा †
संज्ञा पुं० [हिं० ठोंग] पतले कागज का नोकदार या गोला एक पात्र जिसमें दूकानदार सौदा देते हैं ।
⋙ ठोँचना †
क्रि० स० [हिं० ठोंग]दे० 'ठोंगना' ।
⋙ ठोँठ
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] चोंच का अगला सिरा । ठोर । उ०— चाटुकारी का रोचक जाल फैलाकर उनकी रणकुशल कठफोरे की सी ठोंठ को बाँध दूँ ।—वीणा, (विज्ञापन) ।
⋙ ठोँठा
संज्ञा पुं० [देश०] एक कीड़ा जो ज्वार, बाजरा और ईख को हानि पहुँचाता है ।
⋙ ठोँठी †
संज्ञा स्त्री० [सं तुण्ड] १. चने के दाने का कोश । २. पोस्ते की ढोंढ़ी ।
⋙ ठो †
अव्य० [देश या हिं० ठौर] एक शब्द जो पूरबी हिंदी में संख्याचाचक शब्दों के आगे लगाया जाता है । संख्या । अदद । जैसे, एक ठो, दो ठो । इस अर्थ के बोधक अन्य शब्द गो, ठे आदि भी चलते है । जैसे, एक ठे, दू गो आदि ।
⋙ ठोकचा
संज्ञा पुं० [देश०] आम की गुठली के ऊपर का कड़ा छिलका या आवरण ।
⋙ ठोक पुं० [हिं०] दे०
'ठोंक' । उ०—सुंदर मसकतिदार सौं गुरु मथि काढ़ै आगि । सदगुरु चकमक ठोकतें तुरत उठै कफ जागि ।—सुंदर० ग्रं०, भा०, २, पृ० ६७१ ।
⋙ ठोकना
क्रि० स० [हिं० ठोंकना]दे० 'ठोंकना' । यौ०—ठोक पीट करना = ठोकना पीटना । बारबार ठोकना । ठोक पीटकर गढना = ठोंक पीटकर दुरुस्त करना । तैयार करना । उ०—जब हम सोने को ठोंक पीट गढ़ते हैं, तब मान मूल्य, सौंदर्य सभी बढ़ते हैं ।—साकेत, पृ० २१३ ।
⋙ ठोकर
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठोकना] १. वह चोट जो किसी अंग विशेषतः पैर में किसी कड़ी वस्तु के जोर से टकराने से लगे । आघात जो चलने में कंकड़, पत्थर आदि के धक्के से पैर में लगे । ठेस । क्रि० प्र०—लगना । मुहा०—ठोकर उठाना = आघात या दुःख सहना । हानि उठाना । ठोकर या ठोकरें खाना = (१) चलने में एकबारगी किसी पड़ी हुई वस्तु की रुकावट के कारण पैर का चोट खाना और लड़खड़ाना । अढ़ुकना । अढुककर गिरना । जैसे,—जो सँभल— कर नहीं चलेगा वह ठोकर खाकर गिरेगा (२) किसी भूल के कारण दुःख या हानि सहना । असावधानी या चूक के कारण कष्ट या क्षति उठाना । जैसे,—ठोकर खावे, बुद्धि पावे (३) धोखे में आना । भूलचूक करना । चूक आना । (४) प्रयोजन सिद्धि या जीविका आदि कै लिये चारो ओर घूमना । हीन दशा में भटकना । इधर उधर मारा मारा फिरना । दुर्दशा— ग्रस्त हो कर घूमना । दुर्गति सहना । कष्ट सहना । जैसे,—यदि वह कुछ काम धंधा नहीं सीखेगा तो आप ही ठोकर खायगा । ठोकर खाता फिरना = इधर उधर मारा मारा फिरना । ठोकर लगना = किसी भूल या चूक के कारण दुःख या हानि पहुँचना । ठोकर लेना = ठोकर खाना । अढुकना । चलने में पैर का कंकड़ पत्थर आदि किसी कड़ी वस्तु से जोर से टक— राना । ठेस खाना । जैसे, घोड़े का ठोकर लेना । २. रास्ते में पड़ा हुआ उभरा पत्थर वा कंकड़ जिसमें पैर रुककर चोट खाता है । मुहा०—ठोकर जड़ाऊ कदम में = ठोकर बचाते हुए । रास्ते का कंकड़ पत्थर बचाते हुए । ठोकर पहाड़िया कदम में = घँसा हुआ पत्थर या कंकड़ बचाते हुए । विशेष—इन दोनों मुहावरों का प्रयोग पालकी ढोते समय पालकी ढोनेवाले कहार करते हैं । ३. वह कड़ा आघात जो पैर या जूते के पंजे से किया जाय । जोर का धक्का जो पैर के अगले भाग से मारा जाय । जैसे,—एक ठोकर देंगे होश ठीक हो जायँगे । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना । मुहा०—ठोकर देना या जड़ना = ठोकर मारना । ठोकर खाना = पैर का आघात सहना । लात सहना । पैर के आघात से इधर उधऱ लुढ़कना । ठोकरों पर पड़ा रहना = किसी की सेवा करके और मार गाली खाकर निर्वाह करना । अपमानित होकर रहना । ४. कड़ा आघात । धक्का । ५. जूते का अगला भाग । ६. कुश्ती का एक पेंच जो उस समय किया जाता है जब विपक्षी (जोड़) खड़े खड़े भीतर घुसता है । विशेष—इसमें विपक्षी का हाथ बगल में दबाकर दूसरे हाथ की तरफ से उसकी गरदन पर थपेड़ा देते है । और जिधर का हाथ बगल दबाया रहता है उधर ही की टाँग से धक्का देते हैं ।
⋙ ठोकरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह गाय जिसे बच्चा दिए कई महीने हो चुके हों । इसका दूध गाढ़ा और मीठा होता है । बकेना गाय ।
⋙ ठोकवा
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठोंकवा' ।
⋙ ठोका †
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रीयों के हाथ का एक गहना जो चूड़ियों के साथ पहना जाता है एक प्रकार की पछेली ।
⋙ ठोठ (१)
वि० [हिं० ठूँठ] १. जिसमें कुछ तत्व न हो । २. जड़ । मूर्ख । गाबदी ।
⋙ ठोठ (२)
वि० [हिं० ठोट] मूर्ख । जड़ । व्यवहारशून्य । उ०—(क) दादू आदर भाव का मीठा लागै मोठ । बिन आदर ब्यंजन बुरा जीमण वाला ठोठ ।—राम० धर्म०, पृ० २७१ । (ख) ठग कामेती ठोठ गुरु चुगल न कीजे सेण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४८ ।
⋙ ठोठरा
वि० [हिं० ठूँठ] [वि० स्त्री० ठोठरी] किसी जमी या लगी हुई वस्तु के निकल जाने से खाली पड़ा हुआ । खाली । पोपला । उ०—सात द्योस एहि बिधि लरे बान बाँधि बलवंत । रातिहु दिनहु ठठाइ कै करे ठोठरे दंत ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ ठोड †
संज्ञा पुं० [हिं० ठोर] स्थान । जगह । उ०—(क) आप ठोड जे उमंग न आया फिरता ठोड अनेक फिरे ।—रघु० रू०, पृ० २५१ । (ख) दोनूँ ठोड जैपुर जोधपुर नै जोर दीनूँ ।— शिखर०, पृ० ८२ ।
⋙ ठोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] चेहरे में ओठ के नीचे का भाग जो कुछ गोलाई लिये उभरा होता है । ठुड्डी । चिबुक । दाढ़ी । मुहा०—ठोड़ी पर हाथ धरकर बैठना = चिंता में मग्न होकर बैठना । ठोड़ी पकड़ना, ठोड़ी में हाथ देना = (१) प्यार करना । (२) किसी चिढ़े हुए आदमी को स्नेह का भाव दिखाकर मनाना । मीठी बातों से क्रोध शांत करना । ठोड़ी तारा = सुंदर स्त्री की ठुड्डी पर का तिल या गोदना ।
⋙ ठोढ़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठोडी़' । उ०—है मुख अति छबि आगरौ, कहा सरद कौ चंद । पै हित मान समान किय तुव ठोढ़ी को बुंद ।—स० सप्तक, पृ० ३४८ ।
⋙ ठोप †
संज्ञा पुं० [अनु० टप् टप्] बूँद । बिंदु । यौ०—ठोप, ठोप, ठोपैठोप = बूँद बूँद । उ०—त्यों त्यों गरुई होइ सुने संतन की बानी । ठोपै ठोप अघाय ज्ञान के सागर पानी ।—पलटू०, पृ० ६१ ।
⋙ ठोर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार मिठाई या पकवान जो मैदे की मोयनदार बढा़ई हुई लोई को घी में तलने और चाशानी में पागने से बनता है । वल्लभ संप्रदाय के मंदिरों में इसका भोग प्रायः लगता है ।
⋙ ठोर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] चोंच । चंचु । उ०—कँटिया दूध देवै नहिं कबहीं ठोर चलावै गोंछी ।—सं० दरिया, पृ० १२७ ।
⋙ ठोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठोर] कोल्हू का वह स्थान जहाँ से रस अथवा तेल टपककर गिरता है । टोंटी । उ०—उकडूँ झुक जाती, भरा टाड़ा हटाकर अलग रख लेती और खाली टाड़ा कोल्हू की ठोरी से लगा देती ।—नई०, पृ० ८१ ।
⋙ ठोलना पु †
क्रि० स० [हिं० डुलाना] डुलाना । चलाना । उ०— दासी होई करि निरवहुँ, पाय पखारसुँ ठोलसुँ बाई ।—बी० रासो, पृ० ४२ ।
⋙ ठोला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] रेशम फेरनेवालों का एक औजार जो लकड़ी की चौकोर छोटी पटरी (एक बिता लंबी एक बित्ता चौड़ी) के रूप में होता है । इसमें लकड़ी का एक एक खूँटा लगा रहता है जिसमें सूआ डालने के लिये दो छेद होते हैं ।
⋙ ठोला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० ढोली] मनुष्य । आदमी ।— (सपरदाई) । उ०—हम ठोली सायर रस जाना ।—घट०, पृ० ३६२ ।
⋙ ठोवड़ी †
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठाण; अप० ठाव; राज० ठावड़, ठोवड़ी] दे० 'ठौर' । उ०—सिंधु परइ सत जोअणे खिवियाँ बीजलियाँह । सुरहउ लोद्र महक्कियाँ, भीनी ठोवड़ियाँह ।—ढोला०, पृ० १९० ।
⋙ ठोस
वि० [हिं० ठस] जिसके भीतर खाली स्थान न हो । जो भीतर से खाली न हो । जो पोला या खोखला न हो । जो भीतर से भरापूरा हो । जैसे, ठोस कड़ा । उ०—यह मूर्ति ठोस सोने की है ।—(शब्द०) । विशेष—'ठस' और 'ठोस' में अंतर यह है कि 'ठस' का प्रयोग या तो चद्दर के रुप की बिना मोटाई की वस्तुओं का घनत्व सूचित करने के लिये अथवा गीले या मुलायम के विरुद्ध कड़ेपन का भाव प्रकट करने के लिये होता है । जैसे, ठस बुनावट, ठस कपड़ा, गीली मिट्टी का सूखकर ठस होना । और, 'ठोस' शब्द का प्रयोग 'पोले' या 'खोखले' के विरुद्ध भाव प्रकट करने के लिये अतः लंबाई, चौड़ाई, मोटाईवाली (घनात्मक) वस्तुओं के संबंध में होता है । २. दृढ़ । मजबूत ।
⋙ ठोस (२)
संज्ञा पुं० [देश०] धमक । कुढ़न । डाह । उ०—इक हरि के दरसन बिनु मरियत अरु कुबजा के ठोसनि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ठोसा
संज्ञा पुं० [देश०] अँगूठा । (हाथ का) ठेंगा । मुहा०—ठोसा दिखाना = अँगूठा दिखाना । इनकार करना । ठोसे में = बला से । ठेंगे से । कुछ परवाह नहीं ।
⋙ ठोहना पु †
क्रि० स० [हिं० टोहना, ढूँढ़ना] ठिकाना ढूँढ़ना । पता लगाना । खोजना । उ०—आयो कहाँ अब हौ कहि को हौं । ज्यौं अपनो पद पाउँ सो ठोहौ ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ ठोहर †
संज्ञा पुं० [हिं० निठोहर] अकाल । गिरानी । महँगी ।
⋙ ठौका
संज्ञा पुं० [सं० स्थानक, हिं० ठाँव + क (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ सिंचाई के लिये तालाब, गड्ढे आदि का पानी दौरी से ऊपर उलीचकर गिराते हैं । ठेक्का ।
⋙ ठौड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'ठौर' । उ०—दिल्ली गयौ कूच, मन दीधौ । किण ही ठौड़ मुकांम न कीधौ ।—रा० रू०, पृ० २६ ।
⋙ ठौनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'ठवनि' ।
⋙ ठौर पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठान, हिं० ठाँव + र (प्रत्य०)] १. जगह । स्थान । ठिकाना । यौ०—ठौर ठिकाना = (१) रहने का स्थान । (२) पता ठिकाना । मुहा०—ठौर कुठौर = (१) अच्छी जगह, बुरी जगह । बुरे ठिकाने । अनुपयुक्त स्थान पर । जैसे—(क) इस प्रकार ठौर कुठौर की चीज उठा लिया करो । (ख) तुम पत्थर फेंकते हो किसी को ठौर कुठौर लग जाय तो ? (२) बेमौका । बिना अवसर । ठौर न आना = समीप न आना । पास न फटकना । उ०—हरि को भजै सो हरिपद पावै । जन्म मरन तेहि ठौर न आवै ।—सूर (शब्द०) । ठौर न रहना = स्थान या जगह न मिलना । निराश्रय होना । उ०—कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु और हैं, गुरु रूठे नहिं ठोर ।—कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० ४ । ठौर मारना = तुरंत बध कर देना । उ०—तब मनुष्यन ने वाकों ठौर मारयौ । ता पाछें वाकौ सीस गाम के द्वार पैं बाँध्यो ।—दो सो बावन०, भा० २, पृ० ९६ । ठौर रखना = उसी जगह मारकर गिरा देना । मार डालना । ठौर रहना = (१) जहाँ का तहाँ रह जाना । पड़ रहना । (२) मर जाना । किसी के ठौर = किसी के स्थानापन्न । किसी के तुल्य । उ०—किबले के ठौर बाप बाद— शाह साहजहाँ ताको कैद कियौ मक्के आगि लाई है ।— भूषण (शब्द०) २. मौका । घात । अवसर । उ०—ठोर पाय पवनपुत्र डारि मुद्रिका दई । केशव (शब्द०) ।
⋙ ठौहर
संज्ञा पुं० [हिं० ठौर] स्थान । ठाँव । ठौर । उ०—सुंदर भटक्यौ बहुत दिन अब तू ठौहर आव फेरि न कबहूँ आइहैं यह औसर यहु डाव ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७०० ।
⋙ ठयापा †
वि० [देश०] उपद्रवी । शरारती । उतपाती ।