विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/न

विक्षनरी से




एक व्यंजन जो हिदी या संस्कृत वर्णमाला का बीसवाँ और तवर्ग का पाँचवाँ वर्ण है। इसका उच्तारणस्थान दंत् है। इसके उच्चारण में आभ्यंतर प्रयत्न और जीभ के अगले भाग का दाँतों की जंड़ से स्पर्श होता है। और बाहय प्रयत्न संवार, नाद, घोष और अल्पप्राण है। काव्य आदि में इस वर्ण का विन्यास सुखद होता है।

नंकना पु
क्रि० [सं० लङ्घन, हि० नाँघना] दे० 'नाँघना'। उ०— पढ़त वेद बानीन सह सब विद्या अवगाहि। धनै जनै नंकत गयौ जहाँ तँवरपति आहि।—प० रासी० पृ० ४।

नंखना
क्रि० सं० [सं० नड़क्ष, प्रा० णंख] फेकना। उ०— पारस मनि नृप नंखियो, करि कंचन के ग्राम। अंतरीछ उड़ि के गयो, नरवाहन के धाम।— प० रासो पृ० ३४।

नंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० नग्न] १. नग्नता। नवापन। नगें होने का भाव। २. गुप्त अंग। जैसे,—(क) उसने अपना नंग दिखा दिया। (ख) मैने उसका नंग देखा।

नंग (२)
वि० बदमाश और बेहया। लुच्चा। नंगा। जैसे,— उससे कौन वोले वह तो बड़ा नंग है।

नग (३)
संज्ञा पुं० [फा०] १. लज्या। शर्म। २. दोष [को०]। यौ०— नंगें इंसानियत=मानवता को कलंकित करनेवाला कार्य। नंगे खानदान=कुलांगार। नंगोनाम, नंगोनामुस=(१) लज्य़ा। गैरत। इस्मत। (२) मर्यादा। प्रतिष्ठा।

नंगघड़ग
वि० [हि० नगा + धंडंग (अनु०) अथवा धड़ + अंग(= ऊपरी शरीर और मुप्तान] विलकुल नंगा। जिसके शरीर पर एक भी वस्त्र न हो। दिनम्बर। विक्स्त्र। जैसे, आवाज सुनकर वह नंगधड़ं ग बाहर निकल आना।

नंगमुनंगा
वि० [हि०] दे० 'नंगधड़ग'।

नंगर
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'लंगर'।

नंगरवारी
संज्ञा स्त्री० [हि० लंगर+वाला] समुद्र में चलनेवाली वह साधारण नाव जो तूफान के समय किसी रकित स्वाथ पर लंगर ड़ालकर ठहर जाती हो। (लक०)।

नंगा (१)
वि० [सं० नग्न] १. जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। जो कोई कपड़ा न पहने हो। दिगंबर। विवस्त्र। वस्त्रहीन। यौ०— नंगा उधाड़=जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। विवस्त्र। अलिफ नंगा या नंगा मादरजाद =विलकुल नंगा। २. निर्लज्ज। वेहया। बेशर्म। ३. लूच्चा। पाजी। यौ०— नंगालुच्चा = बदमाश और पाजी । ४. जिसके ऊपर किसी प्रकार का आवरण न हो। जो किसी तरह ढंका न हो। खुला हुआ। जैसे, नंगासिर (जिस सिर पर पगड़ी या टोपी आदि न हो), नंगे पैर (जिन पैरों में जुता आदि न हो), नंगी तलवार (म्यान से बाहार निकली हुई तलवार), नंगी पीठ (जिस घोड़े आदि की पीठ पर जीन आदि न हो)।

नंगा (२)
संज्ञा पुं० [हि०] १. शिव। महादेव।२. काश्मिर की सीमा पर एक बहुत बड़ा पर्वत।

नंगाझोरी †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'नंगाझोली'।

नंगाझोली
संज्ञा स्त्री० [हि० नंगा + झोरहा(=किसी चीज को गिराने के लिये हिलाना)] किसी के पहने हुए कपड़ों आदि को उतरवाकर अथवा यों ही अच्छी तरह देखना जिसमें उसकी छिपाई हुई चीज का पता लग जाय। कपड़ों की तलाशी। जामातलाशी। जैसे—इस लड़के ने जरुर पेंसिल चुराई है, इसकी नंगाझीली ली। विशेष—जब यह संदेह है कि किसी मनुष्य ने अपने कपड़ों में कोई चीज छिपाई है, तब उसकी नंगाझोली ली जाती है। क्रि० प्र०—लेना।—देना।

नंगाबुंगा
वि० [हि० नंगा + बुंगा (अनु०)] १. जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। २. जिसके ऊपर कोई आवरण न हो।

नगाबुच्चा, नंगाबुचा
वि० [हि० नंगा + बूचा(= खाली)] जिसके पास कुछ भी न हो। बहुत दरिद्र।

नंगा मादरजाद
वि० [हि० नंगा+फा० मादरजाद] ऐसा नंगा जैसा मां कि पेट से निकलने के समय (बालक) होता है। जिसके शरीर पर एक सुत भी न हो। बिलकुल नंगा। अलिफ नंगा।

नंगामुनंगा
संज्ञा पुं० [हि० नंगा + मुनंगा (अनु०)] बिलकुल नंगा।

नंगालुच्चा
वि० [हि० नंगा + लुच्चा] नीच और दुष्ट। बदमाश।

नंचना पु
क्रि० अ० [सं० नृत्य, प्रा० नच्च, नंच + हि० ना नाचना] नृत्य करना। नाचना। उ०— करि मन कोप जंग को नेचे।—ह० रासी० पृ० ७४।

नंदंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० नन्दन्त] १. बेटा। २. राजा। ३. मित्र।

नंदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दन्ती] पुत्री। बेटी [को०]।

नंद
संज्ञा पुं० [सं० नन्द] १. आनंद। हर्ष। २. सच्चिदानंद पर- मेश्वर। ३. पुराणनुसार नौ निधियों में से एक। ४. स्वामी कार्तिक के एक अनुचर का नाम। ५. एक नाग का नाम। ६. घृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ७. वसुदेव के एक पुत्र का नाम जो मदिरा् के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ८. क्रौच द्बीप के एक वर्ष पर्वत का नाम। ९. विष्णु। १०. मेढ़क। ११. भाग- वत के अनुसार यज्ञेश्वर (परमात्मा) के एक अनुचर का नाम। १२. एक प्रकार का मृदंग। १३. चार प्रकार की वेणुओं या बाँसुरियों में से एक। विशेष— वह ग्यारह अंगुल की होती और उत्तम समझी जाती है। इसके देवता रुद्र माने जाते है। १. एक राग का नाम। विशेष— इसे कोई कोई मालकोस राग का पुत्र मानते है। १५. पिगल में ढगण को दुसरे भेद का नाम। विशेष— इसमें एक गुरु और एक लघु होता है।— (/?/) और जिसे ताल तथा ग्वाला भी कहते है। जैसे, राम। लाल। तान। १६. लड़का। बेटा। पुत्र। १७. गोकुल के गोपों के मुखिया। विशेष— इनके यहाँ श्रीकृष्ण को उनके जन्म के समय, वसुदेव जाकर रख आए थे। श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था इन्हों के यहाँ बीती थी। इनकी स्त्री का नाम यशोदा था। कंस के भय से ये पीछे श्रीकृष्ण को लेकर वृंदावन जा रहे थे। जब कृष्ण ने मथुरा में कंस को मारा था तब वे भी उनके साथ ही थे। इसके उपरांत जब कृष्ण मथुरा से वृदावन नहीं लौटे तब य़े बहुत दुःखी हुए थे। इसके बहुत दिन बाद जब हंस और ड़िभक का दमन करने के लिये वे गोवर्धन गए थे तब इन्होने उन्हें बहुत रोकना चाहा था, पर कृष्ण ने नहीं माना। भागवत में लिखा है के एक बार ये एकादशी का व्रत करके रात के समय य़मुना में स्नान करते गए थे। उस समय वरुण के दुत इन्हें पकड़कर वरुण की सभा में ले गए। उस समय कृष्ण ने वहाँ जाकर इन्हें छुड़ाया। इसके अतिरिक्त उसमें यह भी लिखा है कि नंद पूर्व जन्म में दक्षप्रजापति थे और यशोदा उनकी स्त्री थी। जब यज्ञ सती ने शिव जी की निंदा सुनकर अपने प्राण त्याग दिए तब दक्ष दुःखी होकर अपनी स्त्री सहित तपस्या करने के लिये चले गए। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर सती ने प्रकट होकर उनसे कहा था कि द्बापर में फिर एक बार में तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगी पर उस समय न मै अधिक समय़ तक तुम्हारे पास रहुँगी और न तुम मुझे पहचान सकोगे। तदनुसार सती ने कन्यारुप में नंद के यहाँ यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। श्रीकृष्ण को नंद के यहाँ रखकर वसुदेव इसी कन्य़ा को अपने साथ ले गए थे जिसे पीछे से कंस ने जमीन पर पटक दिया था और जो जमीन पर गिरते ही आकाश में चली गई थी। १८. महात्मा बुद्ध के भाई जो उनकी विमाता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। बुद्ध ने बोधिज्ञान प्राप्त करने के उपरांत कपिलवस्तु में आकार इन्हें दीक्षित किया था। विशेष— जब ये बुद्ध के साथ जा रहे थे तब कई बार अपनी स्त्री भद्रा की देखने के लिये ये लौटना चाहथे थे, पर बुद्ध ने इन्हें लौटने नहीं दिया था। बुद्ध ने इन्हें भिक्षु बनाकर सांसारिक बंधनों से छुड़ाकर स्वर्ग और नरक के द्दश्य दिखलाए थे। १९. मगध देश के कई राजाओं का नाम जिनका राज्य विक्रम संवत् से २५० वर्ष पहले तक रहा और जिनके पीछे मोर्य वंश का राज्य हुआ। दे० 'नंदवंश'।

नंदक
संज्ञा पुं० [सं० नन्दक] १. श्रीकृष्ण का खंग। २. मेंढक। ३. क्कंद का एक अनुचर। ४. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ५. एक नाग का नाम। ६. राजा नंद जिनके यहाँ कृष्ण बाल्या- वस्था में रहते थे। ७. प्रसन्नता।

नंदक (२)
वि० १. आनंददायक। २. कुलपालक। ३. संतोष देनेवाला।

नंदकि
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दकि] पीपल।

नंदकिशोर
संज्ञा पुं० [सं० नन्दकिशोर] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।

नंदकी
संज्ञा पुं० [सं० नन्दकिन्] विष्णु।

नंदकुँवर
संज्ञा पुं० [सं० नन्द + हि० कुंवर] दे० 'नंदकुमार'।

नंदकुमार
संज्ञा पुं० [सं० नन्दकुमार] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।

नंदगाँव
संज्ञा पुं० [सं० नन्दग्राम] वृंदावन का एक गाँव। विशेष— यह मथुरा से चौदह कोस पर है और यहाँ नंद गोप रहते थे।

नंदगोपिता
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दगोपिता] रास्ना या रायसन नामक ओषधि।

नंदग्राम
संज्ञा पुं० [सं० नन्दग्राम] १. नंदगाँव। २. नंदिग्राम। अयोध्या के समीप का एक गाँव जहाँ बैठकर राम के वनवास काल में भरत ने तपस्या की थी। उ०— अवधि में पूरन धरम रहै। नदिग्राम में नंदी वासे कै ये ही अरथ कहै।— देवस्वामी (शब्द०)।

नंदद
संज्ञा पुं० [सं० नन्दद] आनंद देनेवाला बुत्र। बेटा। लड़ंका।

नंददुलारी पु
संज्ञा पुं० [सं० नन्द + हि० दुलारी(=दुलारा)] कुष्ण। उ०— निकसो नंददुलारी आज बनि ठनि ब्रज खेलन फाग।— नंद०, ग्रं० ३९५।

नंदनंद
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनन्द] नंद के पुत्र, श्रीकृष्णचंद्र।

नंदनंदन
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनन्दन] नन्द के पुत्र, श्रीकृष्ण।

नंदनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दनन्दिनी] नंद की कन्या, दुर्गा। योगमाया। वसुदेव कंस के भय से श्रीकृष्ण को नंद के घर रखकर इसी कन्या को साथ ले गए थे, और जब कंस ने इसे पटका था तब उड़कर आकाश में चली गई थी। विशेष— दे० 'नंद' १७।

नंदनंदन पु
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनन्दन] दे० 'नंदनंदन'। उ०— नंददास दनँदन सुँ होनं लागे नयनाँ पलक की ओट मानु री बीते जुग चार। —नंद ग्रं०, पृ० ३५५।

नंदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र के उपवन का नाम जो स्वर्ग में माना जाता है। विशेष— पुराणनुसार यह सब स्थानों से सुंदर माना जाता है और जब मनुष्यों का भोगकाल पूरा हो जाता है तब वे इसी वन में सुखपूर्वक विहार करने के लिये भेज दिए जाते हैं। २. कामाख्या देश का एक पर्वत। विशेष—पुराणनूसार जिसपर कामाख्या देवा की सेवा के लिये इंद्र सदा रहते है। इस पर्वत पर जाकर लोग इंद्र की पूजा करते हैं। ३. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम। ४. एक प्रकार का विष। ५. महादेव। शिव। ६. विष्णु। ७. मेंढक। ८. वास्तु शास्त्र के अनुसार वह वह मकान जो षट्कोण हो, जिसका विस्तार बत्तीस हाथ हो और जितमें सोलह श्रुंग हों। ९. केसर। १०. चंदन। ११. लड़का। बेटा। जैसे, नदनदन। १२. एक प्रकार का अस्त्र। उ०— से यब अस्त्र देव धारत नित जौन तुम्हें सिखलाऊँ। महा अस्त्र विद्दाधर लौजै पुनि नंदन जेहि नाऊँ— रधुराज (शब्द०)। १३. मेघ। बादल। १४. एक वर्णवृत्त जिसमें प्रत्यंक चरण में क्रम से नगण, जगण, भगण, जगण और दो रगण (/?/) होते हैँ।— यथा— भजत सनेम सो सुमति जीत मोह के जाल को। १५. साठ संवत्सरों में से छब्बीसवाँ संवत्सर। विशेष— कहते है कि इस संवत्सर में अन्न खूब होता है, गौएँ खुब दुध देती है और लोग नीरोग रहते है। १६. आनंद (को०)।

नंदन (१)
वि० आनंद देनेवाला। प्रसन्न करनेवाला।

नंदनक
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनक] बेटा। पुत्र।

नंदनकातन
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनकानन] इंद्र का उपवन।

नंदनज
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनज] १. हरिचंदन। २. श्रीकृष्ण।

नंदनदा पु
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनन्दन] नंदनंदन। श्रीकृष्ण। उ०— उपमा कहै ना नटनागर वो नंदनदा, ताते ससि अंक बीच भौम सरमैदा है। नट० पृ० ६३।

नंदनद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० नन्दद्रुम] बंदन बन का वृक्ष [को०]।

नंदनप्रधान
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनप्रधान] नंदनवन के स्वामी, ईद्र।

नंदनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दनमाला] पुराणानुसार एक प्रकार की माला जो श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय थी।

नंदनवन
संज्ञा पुं० [सं० नन्दनवन] १. इद्र की वटिका। २. कपास।

नंदना पु (१)
क्रि० अं० [सं० नन्दन] आनंदित होना। प्रसन्न। होना।

नंदना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दना] पुत्री। लड़की। बेटी।

नंदनी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'नंदिनी'।

नंदपाल
संज्ञा पुं० [सं० नन्दपाल] वरुण।

नंदपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दपुत्री] दे० 'नंदनदिनी'।

नंदप्रयाग
संज्ञा पुं० [सं० नन्दप्रयाग] बदरिकाश्रम के निकट का एक तीर्थ जो सात प्रयागों में सें है।

नंदरानी
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्द + हि० रानी] नंद की स्त्री यशोदा।

नंदरूख
संज्ञा पुं० [हिं० नन्द + रूख] अश्वत्थ की जाति का एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ रेशम के कीड़ों के खाने के लिये दी जाती है।

नंदलाल
संज्ञा पुं० [सं० नन्द + हि० लाल (= बेटा)] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।

नंदवंश
संज्ञा पुं० [सं० नन्दवंश] मगध का एक विख्यात राजवंश जिसका अंतिम राजा उस समय सिंहासन पर था जिस समय सिकंदर ने ईसा से ३२७ वर्ष पूर्व पंजाब पर चढ़ाई की थी। विशेष— इस वंश का उल्लेख विष्णुपुराण, श्रीमदभागवत ब्रह्माड़ंपुराण आदि में मिलता है। विष्णुपुराण में लिखा है कि शुद्रा के गर्भ से महानंदि का पुत्र महापद्दानंद होगा जो समस्त क्षत्रियों का विनाश करके पृथिवी का एकछत्र भोग करेगा। उसके सुमालि आदि आठ पुत्र होगे जो क्रमशः सौ वर्ष तक राज्य करेंगे। अंत में कौटिल्य के हाथ से नंदों का नाश होगा ओर मौर्य लोग राजा होगे। इसी प्रकार का बर्णन भागवत में भी है। ब्रह्माड़पुराण में कुछ विशेष ब्योरा है। उसमें लिखा है कि राजा विद्दिसार (कदाचित् बिंबसार जो गौतमबुद्ध के समय तक था और जिसका पुत्र अजातशत्रु बुद्ध का शिष्य हुआ था) २८ वर्ष तक, उसका, पुत्र अजात- शत्रु ३५ वर्ष तक, फिर उदायी २३ वर्ष तक, नंदिवर्धन ४२ वर्ष तक और महानंदि ४० वर्ष तक राज्य करेगे। शुद्रा के गर्भ से उत्पन्न महानदि का पुत्र क्षत्रियों का नाश करनेवाला नंद होगा। वह और उसके आठ पुत्र मोटे हिसाब से १०० वर्ष तक राज्य करेंगों। अंत मे कौटिल्य के हाथ से सब मारे जायँगी। कथासरित्सगार में भी नंद का उपाख्यान एक रोचक कहानी के रुप में इस प्रकार दिया गया है। इंद्रदत्त, व्याड़ि और वररुचि अर्थापार्जन के लिये नंद की सभा मे पहुचे। पर उनके पहुँचने के कुछ पहले नंद मर गए। इंद्रदत्त ने बोगवल से नद के मृत शरीर में प्रवेश किया जिससे नंद जी उठे। ध्याड़ि ईद्रदत्त केशरीर की रक्षा करने लगे। राजा के जी उठने पर मंत्रि शकटार को कुछ संदेह हुआ और उसने आज्ञा दे दी कि नगर में जितने मुर्दे हों सब तुरंत जला दिए जायँ। इस प्रकार इंद्रदत्त का पहला शरीर जला दिया गया और उनकी आत्मा नंद के शरीर में ही रह गई। नंद देहधारी इंद्रदत्त योगनंद नाम से प्रसिद्द हुए। योगानंद ने ब्रह्महत्या का अपराध लगाकर शक- टार को सपरिवार कैद कर लिया और अनेक प्रकार के कष्ट देने लगा। शकटार क सब पुत्र तो यंत्रणा में मर गए, पर शकटार ने प्रतिकार की इच्छा ने अपने प्राणरक्षा की। वररुचि योगनंद के मंत्री हुए। उनके कहने से नंद ने शकटार को छोड़ दिया। धीरे धीरे नंद अनेक कहने के अत्याचार करने लगा। एक दिन उसने वररुचि पर क्रुद्ध होकर उन्हें मार ड़ालने की आज्ञा दी। शकटार ने उन्हें छिपा रखा। एक दिन राजा फिर वररुचि के लिये व्याकुल हुए। इसपर शकटार ने उन्हें लाकर उपस्थित किया। पर वररुचि ने उदास हो वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया। शकटार यद्यपि नंद के मंत्री रहे तथापि उसके विनाश का उपाय सोचते रहें। एक दिन उन्होंने देखा कि एक ब्रह्मण कुशों तो उखाड़ उखाड़कर गड़ढा खोद रहा है। पुछने पर उसने कहा 'ये कुश मेरे पैर में चुमें थे, इससे उन्हें विना समुल नष्ट किए न रहुँगा।' वह ब्रह्मण कौटिल्य चाणक्य था। शकटार ने चाणक्य को अपने कार्यसाधन के लिये उपयोगी समझकर उसे नंद के यहाँ जाने के लिये श्राद्ध का निमँत्रण दे दिया। चाणक्य नंद के प्रासाद में पहुँचे ओर प्रधान आसन पर बैठ गए। नंद को यह सब खबर नहीं थी? उसने वह आसन दूसरे के लिये रखा था। चाणक्य को उसपर बैठा देख उसने उठ जाने का इशारा किया। इसपर चाणक्य ने उत्यंत क्रुद्ध होकर कहा— 'सात दिन में नंद की मृत्यु होगी'। अकटार ने चाणक्य को घर ले जाकर राजा के विरुद्ध और भी उत्तेजित किया। अंत मे अभिचार क्रिया करके चाणक्य ने सात दिन में नंद को मार ड़ाला। इसके उपरांत योगनंद के पुत्र हिरण्यगुप्त को मारकर उसने नंद के पुत्र चंद्रगुप्त को राज- सिंहासन पर बैठाया और आप मंत्री का पद ग्रहण किया। बौद्ध और जैन ग्रंथों में नंद का वृत्तांत मिलता है पर भेद इतना है कि पुराणों में तो महापदमनंद को महानदि का पुत्र माना है, चाहे शुद्रा के गर्भ से सही; पर जैन और बोद्ध ग्रंथों में उसे सर्वथा नीच कुल का ओर अकस्मात् आकंर राज- सिंहासन पर बैठनेवाला लिखा है। कथासरित्सागर में चंद्रगुप्त को जो नंद का पुत्र लिखा है उसे इतिहासज्ञ ठीक नहीं मानते। मौर्यवंश एक दुसरा राजबंश था। कोई कोई इतिहासज्ञ 'नवनंद' शब्द का अर्थ नए नंद करते है जौ शुद्र थे। उनके अनुसार नंदवक शुद्ध क्षत्रियवंश था और 'नवनंद' शूद्र थे।

नंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दा] १.दुर्गा।२. बोरौ। ३. एक प्रकार की कामधेनु। ४. एक मातृका का बालग्रह। विशेष— इसके विषय में यह माना जाता है कि इसके कारण बालक अपने जीवन के पहले दिन, पहले मास और पहले वर्ष में ज्वर से पीड़ित होकर बहुत रोता और अचेत हो जाता है। ५. शुभ। उत्तम। किसी पक्ष की प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथि। उ०— परिवा, छट्ठि एकादसि नंदा। दुइजि, सप्तमी द्बादसि मंदा।—जायसी (शब्द०)। ६. संपत्ति। संपदा। ७. एक प्रकार की संक्रांति। ८. हर्ष की स्त्री। विशेष—यहाँ 'प्रसन्नता' से तात्पर्य है। ९. संगीत में एक मूर्च्छना का नाम। १०. एक अप्सरा का नाम। ११. विभीषण की कन्या का नाम। १२. वर्तमान अवसर्पिणी के दसवें अर्हत् की माता का नाम (जैन)। १३. पुराण- नुसार कुवेर की पुरी के निकट बहनेवाली नदी का नाम। १४. मिट्टी का घड़ा या झझर आदि जिसमें पानी रखते हैं। १५. पुराणनुसार शाकद्वौप की एक नदी का नाम। १६. पति की बहन। ननद। १७. एक तीर्थ का नाम। विशेष—दे० 'नंदातीर्थ'। १८. बरवै छंद का एक नाम। १९. आनंद देनेवाली।

नंदातीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० नन्दातीर्थ] एक नदी और तीर्थ जो हेमकूट पर्वत पर है। विशेष—महाभारत में लिखा है कि यहाँ सदा बहूत तेज हवा बहती रहती है, जोर से पानी बरसता रहता है, साधारण लोग पहुँच नहीं सकते, और सदा वेदध्वनि सुनाई पड़ती है पर कोई वेद पढ़नेवाला दिखाई नहीं देता। सबेरे और संध्या यहाँ अग्निदेव के दर्शन होते हैं। यहाँ बैठकर यदि कोई तपस्या करना चाहे तो उसे मक्खियाँ काटने लगती हैं। युधिष्टिर अपने भाइय़ों के साथ एक बार इस तीर्थ में गए थे।

नंदात्मज
संज्ञा पुं० [सं० नन्दात्मज] श्रीकृष्ण।

नंदात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दात्मजा] योगमाया।

नंदादेवी
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दादेवी] दक्षिणी हिमालय की एक चोटी। विशेष—यह २५००० फुट से अधिक ऊँची है और यमुनोत्तरी के पूर्व है।

नंदापुराण
संज्ञा पुं० [सं० नन्दापुराण] एक उपपुराण जिसमें नंदामाहात्मय दिया गया है। विशेष—इसके वक्ता कार्तिक हैं। मत्स्य और शिवपुराण के मत से यह तीसरा उपपुराण है।

नंदार्थ
संज्ञा पुं० [सं० नन्दार्थ] शाकद्बीपी ब्राह्मणों का एक संप्रदाय।

नंदालय
संज्ञा पुं० [सं० नन्दालय] नद का भवन। उ०—सो प्रेमलता की आसक्ति बाललीला में बहोत है। ताते ये नदालय में अष्ट प्रहर रहति हैं।—दो सो बावन०, भा० १, पृष्ठ १०८।

नंदाश्रम
संज्ञा पुं० [सं० नन्दाश्रम] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।

नंदि
संज्ञा पुं० [सं० नन्दि] १. आनंद। २.वह जो आनदमय हो। ३. सच्चिदानंद परमेश्वर। ४. शिव के द्बारपाल बैल कानाम। नँदिकेश्वर। ५. शिव। ६. विष्णु (को०)। ७. द्दूत कर्म (को०)। ८. वह जो नाटक में प्रस्तावना या भरतवाक्य का पाठ करता है (को०)। ९. समृद्धि। संपन्नता (को०)।

नंदिक
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिक] १. नंदीवृक्ष। तुन का पेड़। २. धव का पेड़। ३. आनंद। ४. जल का छोटा कलश (को०)। ५. शिव का एक गण। नंदी (को०)।

नंदिकर
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिकर] शिग।

नंदिका
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दिका] १.मिट्ठी को नाँद जिसमें पानी रखते हैं। २. नंदन वन जहाँ इंद्र क्रीड़ा करते हैं। ३. किसी पक्ष की प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथि। ४. हँसमुख स्त्री।

नंदिकावर्त
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिकावर्त] बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार का मणि।

नंदिकुंड
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिकुण्ड] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ।

नंदिकेश
संज्ञा पुं० [सं०नन्दिकेश] १.शिव के द्वारपाल, नंदिकेश्वर। २. शिव (को०)।

नंदिकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिकेस्वर] १. शिव के द्बारपाल बैल का नाम। २. एक उपपुराण जो नंदी का कहा हुआ और चौथा उपपुराण माना जाता है। इसे नंदीश्वर और नदिपुराण भी कहते हैं। ३. शिव (को०)।

नंदिग्राम
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिग्राम] अयोध्या से चार कोस पर एक गाँव। विशेष—यहाँ भरत ने राम के वियोग में चौदह वर्ष तक तप किया था।

नंदिघोष
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिघोष] १. अर्जुन के रख का नाम जिसे उन्हें अग्निदेव ने प्रसन्न होकर दिया था। उ०—सप्तपुत्र गांडिव धनु लीन्हों। नंदिघोष रथ हुतभुक दीन्हों।— सबल (शब्द०)। २. बंदीजनों की घोषणा। ३. किसी प्रकार की शुभ या मंगल घोषणा।

नंदित (१)
वि० [सं० नन्दित] आनंदित। सुखी। आनंदयुक्त। प्रसन्न। उ०—सूखी समीर नव गंधित, बह चली छंद से नंदित। उग आया सलिल कमल सित, कोमल सुगंध नभ छाया।— गीतगुंज, पृ० ४०।

नंदित पु (२)
वि० [हिं० नादना] बजता हुआ। क्रि० प्र०—करना। उ०—नाचि अचानक हीं उठे बिनु पावस बन मोर। जानति हों, नदित करी यह दिसि नंदकिसोर।— बिहारी र०, दो० ४६९।—होना।

नंदितरु
संज्ञा पुं० [सं० नन्दितरु] धव का पेड़।

नंदितूर्य
संज्ञा पुं० [सं० नन्दितूर्य] प्राचीनकाल का एक प्रकार का बाजा जो उत्सव या आनंद के क्षणों में बजाया जाता था।

नंदिन (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो बंगाल और आसाम में पाई जाती है। विशेष—यह तीन फुट तक लंबी होती है और तौल में आध मन तक की होती है।

नंदिन (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्द(= बेटा)] लड़की। बेटी। पुत्री।

नंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दिनी] १.कन्या। पुत्री। लड़की। बेटी। २. रेणुका नामक गंधद्रव्य। ३. जाटामासी। बालछड़। ४. उमा। ५. गंगा का एक नाम। ६. ननद। पति की बहन। ७. दुर्गा का एक नाम। ८. तेरह अक्षरों के एक वर्णवृत्त का नाम। विशेष—इसमें एक सगण, एक जगण, फिर दो सगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे कलहंस और सिंहनाद भी कहते हैं। जैसे,—सजि सी सिंगार कलहंस गती सी। चलि आइ राम छवि मंडप दीसी। ९. वशिष्ट की कामधेनु का नाम जो सुरभि की कन्या थी। विशेष—राजा दिलीप ने इसी गौ को वन में चराते समय सिंह से उसकी रक्षा की थी और इसी की आराधना करके उन्होंने रघु नामक पुत्र प्राप्त किया था। महाभारत में लिखा है कि द्यो नामक वसु अपनी स्त्री के कहने से इसे वसिष्ठ के आश्रम से चुरा लाया था जिसके कारण वसिष्ठ के शाप से उसे भीष्म बनकर इस पृथिवी पर जन्म लेना पड़ा था। जब विश्वामित्र बहुत से लोगों को अपने साथ लेकर एक बार वसिष्ठ के यहाँ गए थे तब वसिष्ठ ने इसी गौ से सब कुछ लेकर सब लोगों का सत्कार किया था। यह विशेषता देखकर विश्वामित्र ने वसिष्ठ से यह गौ माँगी; पर जब उन्होंने इसे नहीं दिया तब विश्वामित्र उसे जबरदस्ती ले चले। रास्ते में इसके चिल्लाने से इसके शरीर के भिन्न भिन्न अंगों में से म्लेच्छों और यवनों की बहुत सी सेनाएँ निकल पड़ीं जिन्होंने विश्वामित्र को परास्त किया और इसे उनके हाथ से छुड़ाया। १०. पत्नी। स्त्री। जोरू। ११. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। १२. व्याड़ि मुनि की माता का नाम। यौ०—नंदिनीतनय, नंदिनीसुत = व्याडि मुनि।

नंदिपटह
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिपटह] तूर्य [को०]।

नंदिपुराण
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिपुराण] देवी पुराण का एक उपपुराण [को०]।

नंदिमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिमुख] १. एक प्रकार का पक्षी। २. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का चावल। ३. शिव का एक नाम।

नंदिमुख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीमुख] दे० 'नांदीमुख'। उ०— किय स्त्राद्ध नंदिमुख बेद वृद्धि। सब जातकर्म किन्नौ सु सुद्ब।—हम्मीर०, पृ० ३२।

नंदिमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दिमुखी] १. तंद्रा। २. भावप्रकाश के अनुसार वह पक्षी जिसकी चोंच का ऊपरी भाग बहुत कड़ा और गोल हो। विशेष—ऐसे पक्षी का मांस पित्तनाशक, चिकना, भारी , मीठा, और वायु, कफ, बल तथा शुक्रवर्धक माना जाता है।

नंदिरुद्र
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिरुद] शिव का एक नाम।

नंदिवर्धन (१)
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिवर्धन] १. शिव। २. पुत्र। बेटा। ३. मित्र। दोस्त। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का विमान। ५. वास्तु शास्त्र के अनुसार एक प्रकार का मंदिर। विशेष—प्राचीन वास्तु शास्व के अनुसार वह मंदिर जिसका विस्तार चौबीस हाथ हो, जो सात भूमियों से युक्त हो ओर जिसमें २० शृंग हों। ६. मगध के राजा बिंबसार के लड़के अजातशत्रु के परपोते का नाम। ७. शुक्ल पक्ष की द्बितीया या पूर्णिमा तिथि (को०)।

नंदिवर्धन (२)
वि० आनंद बढ़ानेवाला। जो आनदं बढ़ावे।

नंदिवारलक
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिवारलक] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की मछली जो समुद्र में होती है।

नंदिषेण
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिषेण] कुमार के एक अनुचर का नाम।

नंदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० नन्दिन्] १. धव का पेड़। २. गर्दभांड वृक्ष। पाखर का पेड़। ३. वट वृक्ष। बरगद का पेड़। ४. तुन का पेड़। ५. शिव के एक प्रकार के गण। विशेष— ये तीन प्रकार के होते हैं—कनकनंदी, गिरिनंदी, और शिवनंदी। ६. शिव का द्बारपाल, बैल। विशेष—कहते हैं कि पूर्वजन्म में यह शालंकायण मुनि का पुत्र था। ७.शिव के नाम पर दागकर उत्सर्ग किया हुआ कोई बैल। ८. वह बैल जिसके शरीर पर गाँठें हों। विशेष—ऐसा बैल खेती के काम का नहीं होता। इसे फकीर लोग लेकर घुमाते और लोगों को उसके दर्शन कराके पैसे माँगते हैं। ९. विष्णु। १०. जैनों के एक श्रुतिपारग। ११. उड़द (ड़िं०)। १२. बंगाल की कायस्थ, तेली, नाई आदि कई जातियों की उपाधि।

नंदी (२)
वि० आनंदयुक्त। जो प्रसन्न हो।

नंदीगण
संज्ञा पुं० [हिं० नदी + सं० गण] १. शिव के द्बारपाल, बैल। २. दागकर उत्सर्ग किया हुआ बैल। साँड़।

नंदीघंटा
संज्ञा पुं० [हिं० नन्दी + घंटा] बैलों के गले में बाँधने का बीना डाड़ी का घंटा।

नंदोपति
संज्ञा पुं० [सं० नन्दीपति] शिव। महादेव।

नंदीमुख पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीमुखी] दे० 'नांदीमुख'।

नंदीमुख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नान्दिमुख] दे० 'नदिमुख'।

नंदीवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं० नन्दीवृक्ष] १. तुन का पेड़। २. मेढासिंगी।

नंदीश
संज्ञा पुं० [सं० नन्दीश] १.शिव। २. तालों के साठ भेदों में से एक (संगीत)। ३. नदी।

नंदीश्वर
संज्ञा पुं० [सं० नन्दीश्वर]। १.शिव। २. नंदीश ताल। ३. वृंदावन का एक तीर्थ। ४. शिव का एक गण। विशेष—यह पुराणानुसार तोटक का अवतार माना जाता है। कहते हैं कि यह वामन है, इसका रंग काला है और सिर मुँडा़ हुआ तथा मुँह बंदर का सा है।

नंदेऊ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० नंदोई] दे० 'नंदोई'।

नंदोई
संज्ञा पुं० [हिं० ननद + ओई (प्रत्य०)] ननद का पति। पति की बहन का पति। पति का बहनोई।

नंदोसी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नंदोई'।

नंद्यावर्त्त
संज्ञा पुं० [सं० नन्द्यावर्त्त] १. एक प्रकार की इमारत। ऐसी इमारत के पश्विम और द्बार नहीं रहना चाहिए। २. तगर का पेड़।

नंबर
वि० [अं०] १. संख्या। अंक। अदद। जैसे,—उसपर अँगरेजी में कुछ नंवर लिखा हुआ था। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. गिनती। गणना। ३.किसी सामयिक पत्र या पुस्तक आदि की कोई एक संख्या या अंक। जैसे,—(क) उस मासिक पत्र के अभी तीन ही नंबर निकले हैं। (ख) तुम्हारी पुस्तकमाला का चौथा नंबर अभी तक नहीं आया। ४. कपड़े आदि नापने का लोहे का वह गज जो ३ फुट या ३६ इंच लंबा होता है। ५. स्त्रीप्रसंग। भोग। (बाजारु)। मुहा०—नंबर दागना या लगाना = स्त्री प्रसंग करना।

नंबरदार
संज्ञा पुं० [अं० नंबर + फा़० दार] गाँव का वह जमीदार जो अपनी पट्टी के और हिस्सेदारों से मालगुजारी आदि वसूल करने में सहायता दे।

नंबरवार
क्रि० वि० [अं० नंबर + फा़० वार (प्रत्य०)] यथाक्रम। सिलसिलेवार। क्रमशः। एक एक करके। जैसे,—इन सब किताबों को नंबरवार लगा दो।

नंबारिंग मशीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार का यंत्र जिससे रसीदी, टिकटों आदि पर क्रमसंख्या छापते हैं।

नंबरी
वि० [अं० नंबर + ई (प्रत्य०)] १. नंबरवाला। जिस पर नंबर लगा हो। २. प्रसिद्ध।मशहूर। कुख्यात जैसे, नंबरी डाकू, नंबरी चोर।

नंबरी गज
संज्ञा पुं० [हिं० नंबरी + फा़० गज] दे० 'नंबर'- (४)।

नंबरी सेर
संज्ञा पुं० [हिं० नंबरी + सेर] तौलने का सेर जो अंगरेजी रुपयों से ८० भर का होता है। अँगरेजी सेर। बीसगंडी सेर।

नंबूदरी
संज्ञा पुं० [मल० नंपूतिरि] मालाबार प्रांत के ब्राह्मणों की एक जाति। विशेष— आद्य शंकराचार्य केरलीय ब्राह्मणों की इसी शाखा में पैदा हुए थे।

नंषना पु
क्रि० स० [हिं०] डालना। गिराना। छोड़ना। उ०— थप्पी सुवत्त अर्बुद उरग। सुरनि सीस नंषे सुमन।— पृ० रा०, १।९७।

नंस पु (१)
वि० [सं० नाश] जिसका नाश हुआ हो। नष्ट। स०— कैतुक केलि करहिं दुख नंसा। खूँदहिं कुरलाहिं जनु सर हंसा।—जायसी।

नंस (२)
संज्ञा पुं० नाश। बरबादी।

नंसना पु †
क्रि० सं० [सं० नाश] नाश करना। विनाश करना।

नंगटा †
वि० [हिं० नंग + टा (प्रत्य०)] दे० 'नंगा'।

नँगपैरा †
वि० [हिं० नंगा + पैर + आर (प्रत्य०)] जिसके पाँव नंगे हों। जिसके पैरों में जूता न हो।

नँगियाना (१)
क्रि० सं० [हिं० नंगा से नामिक धातु] १. नंगा करना। शरीर पर वस्त्र न रहने देना। २. सब कुछ छीन लेना। कुछ भी पास न रहने देता।

नँगियाना (२) †
क्रि० अ० १. नंगा होना। २. नंगेपन पर उतर आना। बेशर्म होना।

नँगियावाना †
क्रि० सं० [हिं० नंगा से नामिक धातु] नंगा करने की क्रिया।

नँन्याना पु
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'नँगियाना'।

नँग्यावना पु
क्रि० सं० [हिं०] नंगा करना। उ०—भीम कहा बपुरो अरु अर्जुन नारि नँग्यावत ही बल रीत्यों। —केशव ग्रं०, पृ० १४०।

नँदरानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नंदरानी। य़शोदा। उ०— नंददास प्रभु मुदित नँदरानी ही हो रस सागर में झेलत।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८७।

नँदलाल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नंदलाल'। उ०—आए तहाँ नँदलाल पहिरे फूल माला।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५।

नँदसुवन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] कृष्ण। उ०—नंददास नँदसुवन मुरलि सुर मगन होति ब्रजबाल। नंद० ग्रं०, पृ० ३७७।

नँदोला †
संज्ञा पुं० [हिं० नाँद + ओला (प्रत्य०)] मिट्टी की बड़ी अथवा छोटी नाँद।

न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपमा। २. रत्न। ३. सोना। ४. बुद्ध। ५. बंध। ६. मोती (को०)। ७. गणेश (को०)। ८. धन। संपत्ति (को०)। ९. युद्ब (को०)। १०. उपहार (को०)।

न (२)
वि० १. पतला। २.रिक्त। शून्य। ३. अनुऱूप। सदृश। वही। ४. अश्रांत। न थका हुआ। ५. प्रशांसित। ६. अविभक्त अविभाजित [को०]।

न (३)
अव्य० १, निषेधवाचक शब्द। नहीं। मत। जैसे,—तुम न जाओ तो कोई हर्ज है ? (ख) उसे कुछ न देना ही ठीका है। विशेष—विधि, अनुज्ञा, हेतुहेतुमद् भाव आदि कुछ विशेष स्थलों पर भी 'नहीं के स्थान में 'न' आता है। जैसे,—२. कि नहीं। या नहीं। (क) तुम वहाँ जाओगे न ? (ख) वे दिनभर तो वहाँ रहेंगे न ? विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग प्रश्नात्मक वाक्य़ के अंत में ही होता है।

नइ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नई] दे० 'नई'। उ०—कोउ तिनहूँ ते अधिक अमिस्तित सुर जुत गति नइ। सबको छेंकि छबीली अदुभुत गान करत भइ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४।

नइ (२)
प्रत्य० [हिं० कर्मकारक का प्रत्यय ने। अन्य रूप नूँ, कूँ, कों, कौ, कहुँ ] को। उ०—(क) उत्तर दिसि उपराठियाँ, दक्षिण साँमहियाँह। कुरझाँ एक सँदेसड़उ ढोलानइ कहियाँइ। ढोला०, दू० ६४। (ख) भाई कहि बतलावसूँ नागरबेल निरेल। हुउ हउ करहा, कुँवर नइ, मत ले जाय विदेस।—ढोला०, दू० ३२६।

नइ (३)
अ० [सं० अग्यत् ? ] निश्चयसूचक अव्यय। दे० 'ओर'। उ०— बाबहियउ नइ बिरहणी, दुहवाँ एक सहाव। जब ही बरसइ धण धणउ तबही कहइ प्रियाव।—ढोला०, दू० २७। विशेष—इसके अन्य रूप हैं—'अनइ', 'अने', 'ने'।

नइख पु †
संज्ञा पुं० [सं० नयन] दे० 'नयन' (१)। उ०—ऊनमि आई बद्दसी, ढोलउ आयउ चित्त। यो बरसइ रितु आपणी, नइण हमारे नित्त।—ढोला०, दु० ४१।

नइवा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० नोका] नाव। उ०—हौं अपराधी बहुत जुगन को नइया मोर उबारो।—धरम०, पृ० २५।

नइवेद पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नैवेद्य'। उ०—ज्वालनिय माल तृप्पय नृपति आति सुदेव नइवेद जुत।—पृ० रा०, २४।२७९।

नइहर †
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञातिगृह। हिं० नैहर] स्त्रियों की माता का घर। पीहर। मायका।

नई पु (१)
वि० पुं० [सं० नय + हिं० ई (प्रत्य०)] नीतिवान। नीतिज्ञ।

नई (२)
वि० स्त्री० [सं नव] 'नया' का स्त्री० रूप।

नई पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० नदी] दे० 'नदी'।

नई पु (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नवमी तिथि। उ०—काल जोगण भद्रा नहीं पुष नक्षत्र नई कातिक मास।—वी० रासो, पृ० ४०।

नउँजी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लीची] लीची नामक फल। उ०—कोई नारंग कोइ झार चिरउँजी। कोई कटहर बड़हर कोइ नउँजी।—जायसी (शब्द०)।

नउ पु
वि० [सं० नव] १. दे० 'नव'। उ०—ताकहँ गुरू करइ अस माया। नउ अउतार देइ नइ काया।—जायसी (शब्द०)। २. दे० 'नौ'। उ०—नउ पउरी बाँकी नउ खंड़ा। नउ ऊजो चढ़इ जाई ब्रह्मंड़ा।—जायसी (शब्द०)।

नउआ †
संज्ञा पुं० [हिं० नाऊ] [स्त्री० नउनियाँ] दे० 'नाऊ'। उ०—रोवत देखि जननि अकुलानी लियो तुरत नउआ को झरकी।—सूर (शब्द०)।

नउका पु †
वि०[हिं० नवना, नवत] नीचे की ओर झुका हुआ। उ०—विवछि गयो मन लागि ज्यों ललित त्रिभंगी संग। सूधो होत न और तनि नउत रहै वह अंग।—रसनिधि (शब्द०)।

नउतोया पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नेवतहरी'। उ०—राजमती कउ रचउ वीवाह, व्यारी खंड जीव नउतीया मिल्या हो चउरासिया अंत न पार।—बी रासो, पृ० ३७।

नउन †
वि० [हिं०] झुका हुआ। नभ्र। नत।

नउनियाँ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाइन'। उ०—अति बड़ भाग नउनियाँ छुए नख हाथ सों हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५।

नउनिया पु †
स्र्त्री० स्त्री० [हिं०] दे० 'नउनीयाँ'। उ०—नैन विसाल नउनिया भौं चमकावह हो।—तुलसी० ग्रं०, पृ० ४।

नउमि पु †
वि० स्त्री० [सं० नवमी] नौवीं। नवीं। उ०—नउमि दशा देखि गेलाहे नढा़ए दसमि दश उगपति भेलि आए।— विद्यापति, पृ० ५२८।

नउरंग †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नारंगी] दे० 'नारंगी'।

नउर †
संज्ञा पुं० [सं० नकुल] दे० 'नेवला'।

नउरता पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] नवरात्र। उ०—नव दिन पूँगा नउरतां बलि बाकुल पूजा रचौ ठाई।— बी०—रासो, पृ० ५०।

नउलि पु †
वि० [सं० नवल] नया। नवीन। ताजा। उ०—सबह नउलि पिय संग सोई। कँवल पास जनु बिगसी कोई।— जायसी (शब्द०)।

नऊढ़ा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नवोढ़ा] दे० 'नवोढा़'। उ०—प्रथमहि मुग्ध नऊढ़ा होय। पुनि बिश्रब्द नऊढा़ सोय।—नंद० ग्रं०, पृ० १४५।

नएपंज
संज्ञा पुं० [देश०] पाँच वर्ष की अवस्था का घोड़ा। जवान धोड़ा। (चाबुक सवार)।

नओढ़ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नवोढा] दे० 'नवोढा़'।

नकंद
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया चावल जो कांगड़े में होता है।

नककटा
वि० [हिं० नाक + कटना] [वि० स्त्री० नककटी] १. जिसकी नाक कटी हो। २. जिसकी बहुत दुर्दशा हुई हो। ३. जिसकी अप्रतिष्ठा या बदनामी हुई हो। ४. जिसके कारण अप्रतिष्ठा हो। ५. निर्लज्ज। बेहया। बेशर्म।

नककटापंथ
संज्ञा पुं० [हिं० नककटा + पंथ] एक कल्पित पंथ का नाम। विशेष—एक कहानी है कि एक बार किसी प्रकार एक आदमी की नाक कट गई। तब उसने और लोगों के भी अपनी ही समान बनाने के उददेश्य से लोगों से यह कहना आरंभ कर दिया कि नाक के कट जाने के कारण ही मुझे ईश्वर के दर्शन होने लगे हैं। उसकी बात पर विश्वास करके बहुत से लोगों ने नाक कटा डाली। ईश्वर के दर्शन तो किसी को न होते थे, पर नककटे होने के अपवाद से बचने और दूसरों को भी अपने समान बनने के लिये वे उस पहले नककटे की बात का खूब समर्थन करते थे। इसी कहानी के आधार पर लोगों ने इस 'नककटे पंथ' की कल्पना कर ली।

नककटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + कटना] १. नाक कटने की क्रिया। २. दुर्दशा, अप्रतिष्टा या बदनामी आदि।

नकघिसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + धिसनी] १. नाक को जर्मान पर रगड़ना। जमीन पर नाक रगड़ने की क्रिया। २.बहुत अधिक दीनता। आजिजी।

नकचिपटा
वि० [हिं० नाक + चिपटा] [वि० स्त्री० नकचिपटी] बैठी नाकवाला।

नकचढा़
वि० [हिं० नाक + चढ़ना] [वि० स्त्री० नकचढ़ी] चि़ड़चिड़ा। बदमिजाज।

नकछिकनी
संज्ञा स्त्री० [सं० छिक्कनी] एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ महीन महीन और कटावदार होतो हैं। विशेष—इसके फूल घुँड़ी के आकार के और गुलाबी होते हैं जिन्हें सूँघने से छींक आने लगती है। वैद्यक में इसे चरपरी, रूखी, गरम, रुचिकारक, अग्निदीपक, पित्तकारक और वात, कफ, कुष्ट, कृमि, रक्तविकार और दृष्टिदोष का नाशक माना है। पर्या०—क्षवकृत। तीक्ष्ण। छिक्किका। घ्राणदुःखदा। उग्रा। संवेदनापटु। उग्रगंधा। क्षवक। छिक्कनी।

नकटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + कटना] [वि० स्त्री० नकटी] १. वह जिसकी नाक कट गई हो। २. एक प्रकार का गीत। विशेष—इसे स्त्रियाँ विशेष अवसरों पर और विशेषतः विवाह के समय गाती हैं। ३. वह अवसर या उत्सव जब उक्त गीत गाया जाता है। ४.एक प्रकार की चिड़िया।

नकटा (२)
वि० १. जिसकी नाक कटी हो। २. निर्लज्ज। बेशर्म। बेहया। ३. अप्रतिष्ठित। जिसकी बहुत अप्रतिष्ठा या दुर्दशा हुई हो।

नकटेसर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो फूलों के लिये लगाया जाता है।

नकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० नाक] बैलों का एक रोग। विशेष—इसमें उनकी नाक सूज आती है और इसके कारण उन्हें साँस लेने में बहुत कठिनता होती है।

नकत पु †
संज्ञा पुं० [हिं० नक्त] नक्तव्रत। रात्रिकाल में किया जानेवाला व्रत। उ०—कतहु नकत कतहु रोजा।—कीर्ति०, पृ० ४२।

नकतोड़
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + तोड़ना] कुश्ती का एक पेंच।

नकतोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + तोड़ (= गति)] अभिमानपूर्वक नाक भौं चढ़ाकर नखरा करना अथवा कोई बात कहता। मुहा०—नकतोड़े उठाना = अनुचित अभिमान सहना। नखरा बरदाश्त करना। नकतोड़े तोड़ना = बहुत अधिक और अनुचित नखरा करना।

नकतोरा
संज्ञा पुं० [हिं० नकतोड़ा] दे० 'नकतोड़ा'। उ०— 'आबरु' कूँ नहीं कम जर्फ़ की सुहबत का दिमाग। किसको बरदाश्त है हर वक्त के नकतोरों की।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ९।

नकद (१)
संज्ञा पुं० [अ० नकद] तैयार रुपया। रुपया पैसा। धन जो सिक्कों के रूप में हो। जैसे,—उनके पास नकद बहुत है।

नकद (२)
वि० १. (रुपया) जो तैयार हो। (धन) जो तुरंत काम में लाया जा सके। प्रस्तुत (द्रव्य)। जैसे,—हम नकद रुपया लेंगे कोई चीज नहीं लेंगे। २. खास।

नकद (३)
क्रि० वि० तुरंत दिए हुए रुपए के बदले में। तुरंत रुपया पैसा। देकर या लेकर। 'उधार' का उलटा। जैसे—हमने सब माल नकद लिया है या बेचा है।

नकद (४)
संज्ञा पुं० [हिं० नगद] दे० 'नगद३'।

नकदाबा
संज्ञा पुं० [देश०] चने या मटर की दाल के साथ पकाई हुई बरी या कुम्हडौ़री।

नकदी
संज्ञा स्त्री० [अ० नकद + फा़० ई (प्रत्य०)] १. रोकड़।धन। रुपया पैसा। सिक्का। २. जमई। वह भूमि जिसका लगान नकद रुपयों में लिया जाय।

नकना पु † (१)
क्रि० सं० [सं० लङ्घल हिं० नाकना] १. उल्लंघन करना। लाँघना। डाँकना। फाँदना। उ०—(क) औरहु विविध जाति के बाजी नकत पवन की तेजी।—रघुराज (शब्द०)। (ख) धारी नकी गिरिन की ठाढी़। देखी तहाँ भीमरा बाढी।—लाल (शब्द०)। २. चलना। उ०— मारहु ते सुकुमार नंद के कुमार ताहि आए री मनावन सयान सब नकि कै।—केशव (शब्द०) ३. त्यागना। छोड़ना। तजना।

नकना (२)
क्रि० अ० [हिं० नकियाना] नाक में दम होना। हैरान होना।

नकन (३)
क्रि० स० नाक में दम करना।

नकन्याना †
क्रि० अ० [हिं०] नाकों दम होना। परेशान होना।

नकपोड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाक'।

नकफूल
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + फूल] नाक में पहनने की लौंग या कील। उ०—तन सुख सारी लाही अँगिया अतलस अँतरौटा छबि चारि चारि चूरी पहुँचीनि पहुँची झमकि बनी नकफूल जेब मुख बारि चौका कौधै संभ्रम भूली।—स्वामी हरिदास (शब्द०)।

नकब
संज्ञा स्त्री० [अ० नकब] चोरी करने के लिये दीवार में किया हुआ वह बड़ा छेद जिसमें से होकर चोर किसी कमरे या कोठरी आदि में घुसता है। सेंघ। क्रि० प्र०—देना।—मारना।—लगाना।

नकबजन
संज्ञा पुं० [अ० नक़ब + फा़० जन] वह जो चोरी करने के लिये दीवार में छेद करे। सेंध लगानेवाला।

नकवजनी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़ब + फा़० जनी] सेंध लगाने की क्रिया।

नकबानी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + बानी ? ] नाक में दम। हैरानी। उ०—जिनकै भाल लिखी लिपि मेरो सुख की नहीं निसानी। तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयो नकबानी।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—करना।—होना।

नकबेसर
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + बेसर] नाक में पहनने की छोटी नथ। बेसर। उ०—नकबेसर कनफूल बन्यों है छवि कापै कटि आवै जू।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४६।

नकमोती
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + मोती] नाक में पहनने का मोती जिसे लटकन भी कहते हैं।

नकल
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़ल] ? वह जो सच्चा, खरा या असल न हो बल्कि असल को देखकर रूप, रंग, आकृति आदि में उसी के अनुसार बनाया गया हो। वह जो किसी दूसरे के ढंग पर या उसकी तरह तैयार किया गया हो। अनुकृति। कापी। जैसे,—(क) वह मकान उस सामनेवाले ती नकल है। (ख) इस नकल ने तो असल को भी मात कर दिया। २. एक के अनुरूप दूसरी वस्तु बनाने का कार्य। अनुकरण क्रि० प्र०—उतारना।—करना।—बनाना।—होना। ३. लेख आदि की अक्षरशः प्रतिलिपि। कापी। जैसे,—(क) इस शिलालेख की एक नकल हमारे पास भी आई है। (ख) इस दस्तावेज की नकल करा लो तो बड़ा काम हो। क्रि० प्र०—उतारना।—करना।—होना।—होना। ४. किसी के वेश, हाव भाव या बातचीत आदि का पूरा पूरा अनुकरण। स्वाँग। जैसे,—(क) वह उनकी खूब नकल उता- रता है। (ख) कल महफिल में भाँड़ों ने नवाब साहब की एक बहुत अच्छी नकल की थी। क्रि० प्र०—उतरना।—उतारना।—करना।— बनना।— होना। ५. अद्भुत और हास्यजनक आकृति। जैसे,—आज तो आप बिल- कुल नकल बनकर आए है। उ०—नकल है कोई शख्स घरे सूँ उने शहर कूँ आया तमाशा देखने। —दक्खिनी०, पृ० ३८१। ६. हास्य़ रस की कोई छोटी मोटी कहानी या बात चीत। चुटकुला।

नकलची
वि० [हिं० नकल + ची (प्रत्य०)] नकल करनेवाला।

नकलनवीस
संज्ञा पुं० [अ० नकल + फा़० नवीस] वह आदमी, विशेषतः अदालता या दफ्तर आदि का मुहर्रिर जिसका काम केवल दूसरे के लेखों की नकल करना होता है।

नकलनवीसी
संज्ञा स्त्री० [अ० नकल + फा़० नवीसी] १. नकलनवीस का काम। २. नकलनवीस का पद।

नकलनोर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जिसे मुनिया भी कहते हैं। विशेष— दे० 'मुनिया'।

नकलपरवाना
संज्ञा पुं० [अ० नकल + फा़० परवाना] पत्नी का भाई। साला (हास्य)।

नकलबही
संज्ञा स्त्री० [हिं० नकल + बही] दफ्तरों या दूकानों की वह बही या कापी आदि जिसमें भेजी जानेवाली चिठ्ठियों की नकल रहती हैं।

नकली
वि० [सं० नक़ल + फा़० ई (प्रत्य०)] १. जो नकल करके बनाया गाया हो। जो असली न हो। कृत्रिम। बनावटी। जैसे, नकली हीरा, नकली केसर, नकली घड़ी। विशेष—नकली चीज प्रायः निकम्मी और निकृष्ट समझी जाती है और लोगों में इसका आदर नहीं होता। २. जो असली न हो। खोटा। जाली। झूठा। जैसे,—नकली दस्ता- वेज बनाने के अपराध में उसको दो बरस की सजा हो गई।

नकलेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + लेल (प्रत्य०)] १. नाव खींचने के लिये गोनरखे में बँधी हुई वह रस्सी जो और सब रस्सियों से आगे रहती है। २. दे० 'नकेल'।

नकलोल † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'नकलनोर'।

नकलोल † (२)
वि० [हिं०] १. भद्दी या बेडौल नाकवाला। बेवकूफ।

नकवाँनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नकवानी'। उ०—भरि भरि सूँड़नि डारत पानी डारत मोहि भरत नकवाँनी।—नंद० ग्रं०, पृ० १६७।

नकवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. नया अंकुर। कल्ला। २. सूई का वह छेद जिसमें तागा पिरोया जाता है। नाका। ३. तराजू की डंडी का वह छेद जिसमें पलड़े की रस्सियाँ पिरोकर बाँधी जाती है।

नकवानी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नकवानी'।

नकश
संज्ञा पुं० [अ० नकश] १. दे० 'नकश'। विशेष—नकश के यौगिक शब्दों के लिये दे० 'नक्श' के यौगिक। २. एक प्रकार का जूआ जो दो या अधिक आदमी ताश के पत्तों से खेलते हैं। विशेष—इसमें सब खिलाड़ियों को पहले एक एक पत्ता बाँट दिया जाता है और तब एक एक खिलाड़ी को अलग अलग उसके माँगने पर और पत्ते दिए जाते हैं। इसमें पत्तों की बूटियों को गिनकर हार जीत होती है।

नकशमार
संज्ञा पुं० [अ० नक्श + हिं० मारना] नकश नामक जूआ जो ताश के पत्तों से खेला जाता है। विशेष—दे० 'नकश'।

नकशा
संज्ञा पुं० [अ० नक्शह्] दे० 'नक्शा'।

नकशानवीस
संज्ञा पुं० [अ० नकश + फा़० नवीस] दे० 'नक्शानवीस'।

नकशी
वि० [अ० नकश + फा़० ई (प्रत्य०)] दे० 'नकशी'।

नकशीमैना
संज्ञा स्त्री० [हिं० नकशा + मैना] तेलिया नाम की एक प्रकार की मैना।

नकशोनिगार पु
संज्ञा पुं० [अ० नक़श + फा़० निगार] १. फूलपत्ती। बेलबूटा। २.मूर्ति। प्रतिमा। आकृति। उ०—हरमानी मतन में न बदर नकशोनिगार।—कबीर ग्रं०, पृ० ३९०।

नकसमार
संज्ञा पुं० [हिं० नकशमार] दे० 'नकशमार'।

नकसा †
संज्ञा पुं० [हिं० नक्शा] दे० 'नक्शा'।

नकसिक †
संज्ञा पुं० [सं० नखशिख] दे० 'नखशिख'। उ०— हुजूर नकसिक से कितनी दुरुस्त हैं।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५।

नकसीर
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + सं० क्षीर (= जल)] आपसे आप नाक से रक्त बहना जो प्रायः गरमी दिनों में होता है। विशेष—वैद्यक में इसे रक्तपित्त रोग के अंतर्गत माना है। रक्तपित्त में मुँह, नाक आँख, कान, गुदा और योनि या लिंग से रक्त बहता है। यदि यह रक्त अधिक मात्रा में बहें तो मनुष्य थोड़ी ही देर में मर भी सकता है। अधिक आँच या धूप लगने, रास्ता चलने और शोक, व्यायाम या मैथुन करने से भिन्न भिन्न मार्गो से रक्त बहने लगता है। स्त्रियों का रज रुक जाने से भी यह रोग हो जाता है। विशेष—दे०'रक्तरपित्त'। क्रि० प्र०—फूटना। मुहा०—नकसीर भी न फूटना = कुछ भी हानि न पहुँचना। जरा भी तकलीफ या नुकसान न होना।

नकाना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० नकियाना] नाक में दम होना। बहुत परेशान होना। उ०—तहँ आडो इक औघट आयो। दब करि चंपत राय नकायो—लाल (शब्द०)।

नकाना पु (२)
क्रि० सं० [हिं० नकियाना] नाक में दम करना। बहुत परेशान करना।

नकाब
संज्ञा स्त्री० पुं० [अ० नकाब] १. महीन रंगीन कपड़े या जाली का वह टुकड़ा जो मुँह छिपाने के लिये सिर पर से गले तक ड़ाल लिया जाता है। विशेष—इसका व्यवहार प्रायः अरब देश की स्त्रियों में ओर उनके संसर्ग से युरोप की स्त्रियों में भी होता है। मुसलमान स्त्रियों अपना चेहरा छिपाने के उद्देश्य से इसका व्यवहार करती है, पर युरोपियन स्त्रियाँ धूल और कीड़ों पतंगों आदि से बचने तथा शोभा बढ़ाने के लिये करती हैं। प्राचीन काल में कहीं कहीं आवश्यकता पड़ने पर पूरुष भी इसका व्यवहार करते थे। क्रि० प्र०—उठाना।—डालना। मुहा०—नकाब उलटना = चेहरे पर से नकाव हटाना। यौ०—नकाबपोश जिसके चेहरे पर नकाब हो। जो चेहरे पर नकाब डाले हो। २. साड़ी या चादर का वह भाग जिससे स्त्रियों का मुँह ढँका रहता है। घूँघट। क्रि० प्र०—उठाना।—डालना। मुहा०—नकाब उलटना = मुँह पर से घूँघट हटाना।

नकार
संज्ञा पुं० [सं०] न या नहीं का बोधक शब्द या वाक्य नहीं। २. इनकार। अस्वीकृति। ३. 'न' अक्षर।

नकारची
संज्ञा पुं० [हिं० नक्कारची] दे० 'नक्कासी'।

नकारना
क्रि० अ० [हिं० नकार + ना (प्रत्य०)] इनकार करना। अस्वीकृत करना।

नकारा †
वि० [फा़० नाकार] खराब। बुरा। निकम्मा। जो किसी काम का न हो।

नकारा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नक्कारा] दे० 'नक्कारा'। उ०— मुसाफिर उठ तुझे चलना है मंजिल। बजे है कूच का हरदम नकारा।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४१।

नकारात्मक
वि० [सं०] अस्वीकार्य। जो न मानने योग्य हो।

नकारात्मकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नकार। अस्वीकार।

नकाश
संज्ञा पुं० [हिं० नक्काश] दे० 'नक्काश'।

नकाशना †
क्रि० सं० [हिं० नकाश से नामिक धातु] किसी पदार्थ पर बेल बूटे आदि बनाना। धातु, पत्थर आदि पर खोदकर चित्र फूल पत्ती आदि बनाना।

नकाशी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नक्काशी] दे० 'नक्काशी'।

नकाशीदार
वि० [अ० नक्काशी + फा़० दार] जिसपर नक्काशी हो। बेल बूटेदार।

नकास † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नक्काश] दे० 'नक्काश'।

नकास † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नखास] दे० 'नखास'।

नकासना
क्रि० सं० [हिं० नकाशना] दे० 'नकाशना'।

नकासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नक्काशी] दे० 'नक्काशी'। उ०—रचितप्रभा सी भासी अवली मकानन की जिनमें अकासी फबै रतन नकासी हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

नकासीदार
वि० [हिं० नकाशीदार] दे० 'नकाशीदार'।

नकिंचन
वि० [सं० नकिञ्चन] जिसके पास कुछ न हो। अकिंचन। अत्यन्त दरिद्र [को०]।

नकियाना (१) †
क्रि० अ० [हिं० नाक + आना (प्रत्य०)] १. नाक से बोलना। शब्दों का अनुनासिकवत् उच्चारण करना। २. नाक में दम आना। बहुत दुःखी या हैराना होना। उ०— हाय बुढा़पा तुम्हारे मारे हम तो अब नकियाय गयन। करत धरत कछु बनतै नाहिंन कहाँ जान अरु कैस करन।—प्रतापना- रायण (शब्द०)।

नकियाना † (२)
क्रि० सं० नाक में दम करना। बहुत परेशान या तँग करना।

नकीब
संज्ञा पुं० [अ० नक़ीब] १.वह आदमी जो राजाओं आदि के आगे उनके तथा उनके पूर्वजों के यश का गान करता हुआ चलता हैं। चारण। बंदीजन। भाट। विशेष—बादशाहों या नवाबों के यहाँ के नकीब केबल सवारी के आगे विरुदावली का बखान करते ही नहीं चलते, बल्कि किसी को उपाधि या पद आदि मिलने के समय अथवा किसी बड़े पदाधिकारी के दरबार में आने के पूर्व उसकी धोषणा भी करते हैं। २. कड़खा गानेवाला पुरुष। कड़खैत।

नकुच
संज्ञा पुं० [सं०] मदार का पेड़।

नकुट
संज्ञा पुं० [सं०] नाक।

नकुनियाँ पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] तराजू की डंड़ी के दोनों सिरे। उ०—धाट बाट सोध लेइ सम रहै नकुनियाँ। बिसरै ना सुरति नाहिं फेरि होय तनियाँ।—मलूक०, पृ० २५।

नकुरा †
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + उरा (प्रत्य०)] नाक। नासिका।

नकुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नेवला नाम का प्रसिद्ध जंतु। विशेष दे० 'नेवाला'। २. पांड़ु राजा के चौथे पुत्र का नाम जो अश्विनीकुमार द्बारा माद्री के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विशेष—महाभारत में लिखा है कि जिस समय पांड़ु शाप के कारण अपनी दोनों स्त्रियों को साथ लेकर वन मे रहते थे उस समय जब कुंती को तीन लड़के हुए तब माद्री ने पांड़ु से पुत्र के लिये कहा था। उस समय कुंती ने माद्री से कहा कि तुम किसी देवता का स्मरण करो। इसपर माद्री। ने अश्विनीकुमारों का स्मरण किया जिससे दो बालक हुए। उनमें से बड़े का नाम नकुल और छौटे का सहदेव था। नकुल बहुत ही सुंदर थे और नीति, धर्मशास्त्र तथा युद्धविद्या में बड़े पारंगत थे। पशुओं की चिकित्सा की विद्या भी इन्हें ज्ञात थी। अज्ञातवास के समय जब पांडव बिराट के यहाँ रहते थे तब नकुल का नाम तंत्रिपाल था और ये गोएँ चराने का काम करते थे। युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ किया था तब इन्होंने पश्चिम की ओर जाकर महेत्थ और पंचनद आदि देशों को परास्त किया था, और तदुपरांत द्बारका मैं दूत भेजकर वासुदेव से भी युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकृत कराई थी। इनका विवाह चेदिराज की कन्य़ा करेणुमती से हुआ था जिसके गर्भ से निरमित्र नामक एक पु्त्र भी हुआ था। ३. बेटा। पुत्र। ४. शिव। महादेव। ५. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। ६. वह जो नीच कुल में उत्पन्न हुआ हो (को०)।

नकुल (२)
वि० १. जिसका कोई कुल न हो। कुलरहित। २. नीच कुल में उत्पन्न (को०)।

नकुल (३)
संज्ञा पुं० [अ० नुकल(= चाट)] वह जो दोपहर के समय पुर आदि चलानेवालों को पीने के लिये दिया जाता है।

नकुलकंद
संज्ञा पुं० [सं० नकुलकन्द] गंधनाकुली वा रास्ना नामक कंद।

नकुलक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का गहना। २. रुपया आदि रखने की एक प्रकार की थैली।

नकुलतैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल। विशेष—यह नेवले के मास में बहुत सी दूसरी ओषधियाँ मिलाकर बनाया जाता है। इसका व्यवहार पान, अभ्यंग और वस्तिक्रिया में होता है। वैद्यक के अनुसार इससे आमवात, शरीर के सब अंगों का कंप और कमर, पीठ, जाँघ आदि का वात का दरद दूर होता है।

नकुलांधता
संज्ञा स्त्री० [सं० नकुलान्धता] दे० 'नकुलांध रोग'।

नकुलांध रोग
संज्ञा पुं० [सं० नकुलान्ध रोग] सुश्रुत के अनुसार आँख का एक रोग। विशेष—इसमें आँखें नेवले की आँखों की तरह चमकते लगाती हैं। और चीजे रंग बिरंगी दिखाई देने लगती है। इस रोग में पित्तवर्धक पदार्थों का सेवन करना मना है।

नकुला
संज्ञा स्री० [सं०] पार्वती।

नकुला † (१)
संज्ञा पुं० [सं० नकुल] दे० 'नेवला'।

नकुला पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] वह जिसका कुल से संबंध न हो। अज। अजन्मा। उ०—नमी निकलंक नमो नकुला नमो नित्य नरायनम। नमो अमर नमो अधर नमो पीव परायनम।— राम० धर्म०, पृ० ५१।

नकुलाढ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधनाकुली। नकुलकंद।

नकुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जटामासी। २. केसर। ३. शंखिनी। ४. नेवले की मादा।

नकुलोश
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के एक भैरव का नाम।

नकुलीश पाशुपतदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] एक दर्शन जिसका उल्लेख सर्वदर्शनसंग्रह में है। विशेष—इसका कोई ग्रंथ नहीं मिलता। इसमें शिव ही परमेश्वर और सब प्राणी उनके पशु माने गए हैं। जीवों के अधिपति होने के कारण महादेव पशुपति कहलाते है। इस दर्शन में मुक्ति दो प्रकार की कही गई है—अत्यँत दुःखनिवृत्ति और परमैश्वर्यप्राप्ति। दृक्शक्ति और त्रियाशक्ति के भेद से परमैश्वर्यप्राप्ति भी दो प्रकार की होती है। द्दक्शक्ति वा ज्ञान द्बारा पदार्थ ज्ञानपथ में आते हैं और क्रियाशक्ति द्बारा वे संपन्न होते हैं।

नकुलेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नकुलीश'।

नकुलेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रास्ना। रायसन।

नकुलौष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो तारों से बजाया जाता था।

नकुवा †
संज्ञा पुं० [हिं नाक + उवा (प्रत्य०)] १. नाक। २. तराजू की डंडी का सूराख।

नकेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + एल (प्रत्य०)] १. ऊँट की नाक में बँधी हुई रस्सी जो लगाम का काम देती है और जिसके सहारे ऊँट चलाया जाता है। मुहार। मुहा०—किसी की नकेल हाथ में होना = किसी पर सब प्रकार का अधिकार होना। किसी से बलपूर्वक मनमाना काम करा लेने की शक्ति होना। जैसे,—उनकी चिंता मत कीजिए, उनकी नकेल तो हमारे हाथ में है।

नक्का (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाक] सूई का वह छेद जिसमें डो़रा पहनाया जाता है। सूई में डोरा पिराने का छेद। नाका।

नक्का (२)
संज्ञा पुं० १. ताशा के पत्तों में का एक्का। २. दे० 'नक्की' और 'नक्कीमूठ'। ३. कौड़ी।

नक्का दूआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नक्कीमूठ'।

नक्कार
संज्ञा पुं० [सं०] अवज्ञा। अपमान। तिरस्कार। अवहेलना।

नक्कारखाना
संज्ञा पुं० [अ० नक्कारहु + फा़० खानहू] वह स्थान जहाँ पर नक्कारा बजता है। नौबत बजने का स्थान। नौबतखान। विशेष—ऐसा स्थान प्रायः बड़े मकानों में बाहार के दरवाजे के ठीक ऊपर बना रहता है। मुहा०—नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है = (१) बहुत भीड़ भा़ड़ या शोर गुल में कही हुई बात नहीं सुनाई पड़ती। (२) बड़े बड़े लोगों कै समाने छोटे आदमियों की बात कोई नहीं सुनता।

नक्कारची
संज्ञा पुं० [अं० नक्कारह् + तु० ची (प्रत्य०)] नगाड़ा बजानेवाला। वह जो नक्कारा बजाता हो।

नक्कारा
संज्ञा पुं० [अ० नक्कारह] डुगड़ुगी या बाएँ की तरह का एक बहुत बड़ा बाजा जिसमें एक बहुत बड़े कूँडे के ऊपपर चमड़ा मढा़ रहता है। नगाड़ा। डँका। नौबत। दुदुभी। विशेष—इसके साथ में इसी प्रकार का पर इससे बहुत छोटा एक और बाजा होता है। इन दोनों क आमने सामने रखकर लकड़ी के दो दंड़ों से, जिन्हे से, जिन्हें चोब कहते है, बजाते है। मुहा०—नक्कारा बजाते फिरना = डुगडुगी पीटते फिरना। चारों ओर प्रकट करते फिरना। नक्कारा बजा के = खुल्लमखुल्ला। डंके की चोट। नक्कारा हो जाना = फूलकर बहुत बढ़ना। बहुत फूलना।

नक्काल
संज्ञा पुं० [अ० नक़्काल] १. अनुकरण करनेवाला। नकल करनेवाला। २. भाँड़। ३.बहुरूपिया।

नक्काली
संज्ञा स्त्री० [अ० नक्काली] नकल करने का काम। नकल करने की क्रिया या विद्या। २. भाँड़ का काम या विद्या। बहुरूपिए का काम या विद्या।

नक्काश
संज्ञा पुं० [अ० नक़्काश] नक्काशी का कारीगर। वह जो खोदकर बेल बूटे आदि बनाता हो।

नक्काशी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक्काशी] १. धातु या पत्थर आदि पर खोदकर बेल बूटे आदि बनाने का काम या विद्दा। २. वे बेल बूटे आदि जो इस प्रकार खोदकर बनाए गए हों।

नक्काशीदार
वि० [अ० नक्काशी + फा़० दार (प्रत्य०)] जिसपर खोदकर बेल बूटे बनाए गए हों।

नक्की (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक] १. नक्कीमूठ खेल में 'एक' का दाँव (दे० 'नक्कीमूठ')। ताश के पत्तों में का एक्का। (क्व०)। ३. जूए के किसी खेल में वह दाँव जिसके लिये 'एक' का चिह्न नियत हो अथवा जिसकी जीत किसी प्रकार के 'एक' चिह्न के आने से हो।

नक्की † (२)
वि० [हिं० एक] १.ठीक। दुरुस्त। २. पक्का। ३. पूरा। ४. चुकाया हुआ। चुकता। सफा (हिसाब)।

नक्कीपूर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नक्कीमूठ'।

नक्कीमूठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० नक्की + मूठ (= मुट्ठी) जूए का एक खेल जो प्रायः स्त्रियाँ और बालक कौड़ियों से खेलते हैं। नक्कीपूर। विशेष—इस खेल में एक दूसरी को कटती हुई दो सीधी लकीरें खींचते हैं और उनके चारों सिसें में से एक सिरे पर एक बिंदी, दूसरे पर दो, तीसरे पर तीन और चौथे पर चार बिंदियाँ बना दी जाती हैं। इनको क्रमशः नक्की, दूआ, तीया और पूर कहते हैं। इसमें दो से चार तक खिलाड़ी होते हैं जो एक एक दाँव ले लेते हैं। एक खिला़ड़ी अपनी मुट्ठी में कुछ कौड़ियाँ लेकर अपने दाँव पर मुट्ठी रख देता है। तब बाकी खिलाडी़ अपने अपने दाँव पर कुछ कौड़ियाँ लगते हैं। इसके उपरांत वह पहला खिलाड़ी अपनी मुट्ठी की कौड़ियाँ गिनकर चार का भाग देता है। जब भाग देने पर १ कौड़ी बचे तो नक्कीवाले की, २ बचें तो दूएवाले की, ३ बचें तो तीएवाले की और कुछ भी न बचे तो पूरवाले की जीत होती है।जिसकी जीत होती है दूसरी बार वही मूठ लाता है। यदि मूठ लानेवाले का दाँव आता है तो वह दाँव पर रखी हुई सबकी कोड़ियाँ जीत लेता है, नहीं तो जिसकी जीत होती है उसको उसे उतनी ही कौड़ियाँ देनी पड़ती हैं जितनी उसने दाँव पर लगाई हों।

नक्कू
वि० [हिं० नाक] १. बड़ी नाकवाला। जिसकी नाक बड़ी हो। अपने आपको बहुत प्रतिष्ठित समझनेवाला। जैसे,—यह भी बड़े नक्कू बनते हैं। (बोलचाल)। २. जिसके आचरण आदि सब लोगों के आचरण के विपरीत हों। सबसे अलग और उलटा काम करनेवाला, जो प्रायः बुरा समझा जाता हैं। जैसे,—हमें क्या गरज पड़ी है जो हम नक्कू बनने जायँ।

नक्ख पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक] दे० 'नाक'। उ०—नपुंसक बालक वृद्ब सु दीन। धरे मुख् नक्ख सुबैन सहीन।—ह० रासो, पृ० ८।

नक्तंचर (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्तञ्चर] [स्त्री० नक्तंचरी] १. गुग्गुल। गूगल। २, राक्षस। ३. चोर। ४. बिल्ली। ५. उल्लू।

नक्तंचर (२)
वि० रात के समय विचरण करनेवाला।

नक्तंचरी
वि० [सं० नक्तञ्चरी] राक्षसी।

नक्तंचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं० नक्तञ्चर्या] रात का विचरण [को०]।

नक्तंचारी
वि० पुं० [सं० नक्तञ्चारिन्] [वि० स्त्री० नक्तंचारिणी] दे० 'नक्तचारी'।

नक्तंजात
संज्ञा पुं० [सं० नक्तञ्जात] बहुत प्राचीन काल की एक प्रकार की ओषधि जिसका उल्लेख वेदों में है।

नक्तंदिन
अव्य० [सं० नक्तन्दिन] रात दिन।

नक्तंदिव
अव्य [सं नक्तन्दिव] दे० 'नक्त दिन'।

नक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह समय जब दिन केवल एक मुहूर्त ही रह गया हो। बिलकुल संध्या का समय। २. रात रात्रि। ३. एक प्रकार का व्रत जो अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है। विशेष—इसमें दिन से समय बिलकुल भोजन नहीं किया जाताः केवल रात को तारे देखकर भोजन किया जाता है। किसी किसी के मत से इस व्रत में ठीक संध्या के समय, जब दिन केवल मुहूर्त भर रह गया हो, भोजन करना चाहिए। यह व्रत प्रायः यति और विधवाएँ करती है। इस व्रत में रात के समय विश्णु की पूजा भी की जाती है। ४. शिव। ५. राजा पृथु के पुत्र का नाम।

नक्त (२)
वि० लज्जित। जो शरमा गया हो।

नक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १.मैला या गंदा कपड़ा। २. जीर्ण शीर्ण वस्त्र [को०]।

नक्तचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. रात को घूमनेवाला। २. महादेव। शिव। ३. राक्षस। ४. उल्लू।

नक्तचारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० नक्तचारिन्] [स्त्री० नक्तचारिणी] १. बिल्ली। २. उल्लू।

नक्तचारी (२)
वि० [वि० स्त्री० नक्तचारिणी] रात के समय विचरण करनेवाला।

नक्तभोजी
वि० [नक्तभोजिन्] १. रात को भोजन करनेवाला। २. नक्त नामक व्रत करनेवाला।

नक्तमाल
संज्ञा पुं० [सं०] करंज बुक्ष। कंजे का पेड़।

नक्तमुखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात।

नक्ताव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नक्ता'।

नक्तांध
संज्ञा पुं० [सं० नक्तान्ध] वह जिसे रात की दिखाई न दे। वह जिसे रतौंधी होती हो।

नक्तांध्य
संज्ञा पुं० [सं० नक्तान्ध्य] आँख का वह रोग जिसमें रात के समय कुछ भी दिखाई नहीं देता। रतौंधी।

नक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलियारी नामक विषैल पौधा। २. हलदी। ३. रात।

नक्ताह
संज्ञा पुं० [सं०] करंज वृक्ष। कंजा।

नक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात।

नक्द
संज्ञा पुं० [अ० नक़्द] दे० 'नकद'। उ०—छोड़ते कब हैं नक्द दिल को सनम। जब य करते हैं प्यार की बातें।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २४।

नक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाक नामक जलजंतु। ३. मगर नामक जल- जंतु। ३. घड़ियाल या कुंभीर नामक जलजंतु। ४. नाक। ५. पटाव। भरैठ (को०)। ६. वृश्र्चिक राशि (को०)। ७. चौखट की ऊपरी लकड़ी (को०)।

नक्रकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मकरकेतन' [को०]।

नक्रराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. घड़ियाल। २. मगर। ३. नाक नामक जलजंतु।

नक्रहारक
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत बड़ा जलजंतु। नाक।

नक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाक। नासिका। २. भौरों या भिड़ का झुंड (को०)।

नक्ल
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़्ल] दे० 'नकल'।

नक्लनवीस
संज्ञा पुं० [अ० नक़्ल + फा़० नवीस] दे० 'नकलनवीस'।

नक्लनवीसी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़्ल + फा़० नवीसी] दे० 'नकलनवीसी'।

नक्लपरवाना
संज्ञा पुं० [अ० नक़्ल + फा़० परवानह्] दे० 'नकल परवाना'।

नक्लबही
संज्ञा स्त्री [अ० नक़्ल + हिं० बही] दे० 'नकलबही'।

नक्श (१)
वि० [अ० नक़्श] जो अंकित या चित्रित किया गाया हो। खींचा, बनाया या लिखा हुआ। मुहा०—मन मे नक्श-करना या कराना = किसी के मन में कोई बात अच्छी तरह बैठना या बैठाना। किसी बात का निश्चय करना या कराना। जैसे,—हमने यह बात उनके मन में नक्श करा दी है। नक्श होना = किसी बात का अच्छी तरह मन में जम जाना। पूर्ण निश्चय हो जाना।

नक्श (२)
संज्ञा पुं० १. तसवीर। चित्र। २. खोदकर या कलम से बनाया हुआ बेलबूटे या फूलपत्ति आदि का काम।यौ०—नक्शनिगार। ३. मोहर। छाप। मुहा०—नक्श बैठाना = अच्छी तरह अधिकार जमाना। रंग जमाना। नक्श बिगाड़ना = अधिकार या प्रभाव न रह जाना। रंग उखड़ना ४. सारणी या कोष्ठक के रूप में बना हुआ यंत्र। तावीज। विशेष—यह अनेक प्रकार के रोगों आदि को दूर करने के लिये कागज, भोजपत्र आदि पर लिखकर बाँह या गले आदि में पहनाया जाता है। ५. जादू। टोना। ६. एक प्रकार का गाना जो प्रायः कव्वाल गाया करते हैं। ७.एक प्रकार का ताशः का जूआ। दे० 'नकश'। ८. सिक्का (को०)। ९. प्रभाव। असर (को०)। १०. चरणचिह्न (को०)।

नक्शदार
वि० [अ० नक़्श + फा़० दार (प्रत्य०)] जिसपर नक्श हो [को०]।

नक्शनिगार
संज्ञा पुं० [फा़० नक़्श व निगार] बनाए हुए बेल बूटे आदि। नकाशी।

नक्शबंद
संज्ञा पुं० [अ० नक़्श + फा़० बंद] नकशा या चित्र बनानेवाला व्यक्ति [को०]।

नक्शबंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़्श + फा़० बंद] नकशा या चित्र बनाने का काम [को०]।

नक्शमार
संज्ञा पुं० [अ० नक़्श + हिं० मार] दे० 'नकशमार'।

नक्शा
संज्ञा पुं० [अ० नक़्शहु] १. चित्र। प्रतिमूर्ति। तसवीर। रेखाओं द्बारा आकार आदि का निर्देश। क्रि० प्र०—उतारना।—खींचना।—बनाना। मुहा०—(आँखों के सामने) नक्शा खिंच जाना = किसी के सामने न रहने पर भी उसके रूप रंग आदि का ठीक ठीक ध्यान हो जाना। २. बनावट़। आकृति। शक्ल। ढाँचा। गढ़न। जैसे,—उनका रंग चाहे जैसा हो, पर नक्शा अच्छा है। ३. किसी पदार्थ का स्वरूप। आकृति। जैसे,—तुमने छह महीने में ही इस मकान का सारा नक्शा विगा़ड़ दिया। ४. चाल ढाल। तरज। ढंग। ५. अवस्था। दशा। हाल। जैसे,—(क) आजकल उनका कुछ और हीं नकशा है। (ख) एक ही मुकदमे ने उनका सारा नकशा बिगाड़ दिया। ६. ढाँचा। ठप्पा। मुहा०—नक्शा जमना = बहुत अधिक प्रभाव होना। खूब चलती होना। जैस,—आजकल शहर के रईसों में उनका नक्शा भी खूब जमा हुआ है। नक्शा जमाना = खूब प्रभाव डालना। रंग बाँधना। नक्शा तेज होना = दे० 'नक्शा जमना'। ७. किसी घरातल पर बना हुआ वह चित्र जिसमें पृथिवी या खगोल का कोई भाग अपनी स्थिति के अनुसार अथवा और किसी विचार से चित्रित हो। विशेष—साधारणतः पृथिवी या उसके किसी भाग का जो नक्शा होता है उसमें यथास्थान देश, प्रदेश, पर्वत, समु्द्र, नदियाँ, झीलें और नगर आदि दिखलाए जाते हैं। कभी कभी इस बात का ज्ञान कराने के लिये कि अमुक देश में कितना पानी बरसता है, या कौन कौन से अन्नादि उत्पन्न होते हैं अथवा इसी प्रकार की किसी और बात के लिये नक्शे में भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न रंग भी भर दिए जाते हैं। कभी कभी ऐसे न्कशी भी बनाए जाते हैं जिनमें केवल रेल लाइनें, नहरें अथवा इसी प्रकार की ओर चीजें दिखलाई जाती हैं। महाद्विपों आदि के अतिरिक्त छोटे छोटे प्रदेशों और यहाँ तक कि जिलों, तहलीलों और गाँवों तक के नक्शे भी बनते हैं। शहरों या गाँवों आदि के भिन्न भिन्न भागों के ऐसे नक्शे भी बनते है जिनमें यह दिखलाया जाता है कि किस गली या किस सड़क पर कौन कौन से मकान, खँड़हर, अस्तबल या कूएँ आदि हैं। इसी प्रकार खेतों और जीमन आदि के भी नक्शे होते हैं जिनसे यह जाना जाता है कि कौन सा खेत कहाँ है ओर उसको आकृति कैसी हौ। खगोल के चित्रों में इसी प्रकार यह दिखलाया जाता है कि कौन सा तारा किस स्थान पर है। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना।

नक्शानवीस
संज्ञा पुं० [अ० नक्शहु + फा० नवीसह्] किसी प्रकार का नक्शा लिखने या बनानेवाला।

नक्शानवीसी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक़्शह् + फा० नवीसी] नक्शा बनाने का काम।

नक्शी
वि० [अ० नक्श + फा० ई (प्रत्य०)] जिसपर बेल- बूटे बने हों।

नक्शोनिगार
संज्ञा स्त्री० [अ० नक्श + फा० व+ निगार] दे० 'निक्शानिगार'। उ०—मोर आया बाद अजाँ आपुस सवार। जिसके हर एक पर में कई नक्शोनिगार।— दक्खिनी०, पृ० १७५।

नक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा के पथ में पड़नेवाले तारों का वह समूह या गुच्छ जिसका पहचान के लिये आकार निर्दिष्ट करके कोई नाम रखा गया हो। विशेष—इन तारों को ग्रहों से भिन्न समझना चाहिए जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं ओर हमारे इस सीर जगत् के अंतर्गत हैं। ये तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सुर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस और और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर नक्षत्र चक्र कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं— नक्षत्र  तारासंख्या  आकृति और पहचान अश्विनी  ३  घोड़ा। भरणी  ३  त्रिकोण कृत्तिका  ६  अग्निशिखा रोहिणी  ५  गाड़ी मृगशिरा  ३  हरिणमस्तक वा विडालपद आर्द्रा  १  उज्वल पुनर्वसु  ५ या ६  धनुष या धर पुष्य  १ वा ३  माणिक्य वर्ण अश्लेषा  ५  कुत्ते की पूँछ वा कुलावचक्र मघा  ५  हल पूर्वाफाल्गुनी  २  खट्वाकारX उत्तर दक्षिण उत्तराफाल्गुनी  २  शय्याकारX उत्तर दक्षिण हस्त  ५  हाथ का पंजा चित्रा  १  मुक्तावत् उज्वल स्वाती  १  कुंकुं वर्ण विशाखा  ५ व ६  तोरण या माला अनुराधा  ७  सूप या जलधारा ज्येष्ठा  ३  सर्प या कुंडल मुल  ९या ११  शंख या सिंह की पूँछ पुर्वाषाढा  ४  सूप या हाथी का दाँत उत्तरषाढा  ४  सूप श्रवण  ३  बाण या त्रिशूल धनिष्ठा  ५  मर्दल बाजा शतभिषा  १००  मंडलाकार पूर्वभाद्रपद  २  भारवत् या घंटाकार उत्तरभाद्रपद  २  दो मस्तक रेवती  ३२  मछली या मृदंग इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त अभिजित् नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है, इससे अब २७ ही नक्षत्र गिने जाते हैं। इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। जिस महीने की पुर्णिमा चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्प पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए। जिस प्रकार चंद्रमा के पथ का विभाग किया गया है उसी प्रकार उस पथ का विभाग भी हुआ है जिसे सूर्य १२ महीनों में पूरा करता हुआ जान पड़ता है। इस पथ के १२ विभाग किए गए हैं जिन्हें राशि कहते हैं। जिन तारों के बीच से होकर चंद्रमा घूमता है उन्हीं पर से होकर सूर्य भी गमन करता हुआ जान पड़ता है; खचक्र एक ही है, विभाग में अंतर है। राशिचक्र के विभाग बड़े हैं जिनसें से किसी किसी के अंतर्गत तीन तीन नक्षत्र तक आ जाते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि यह राशि- विभाग पहले पहल मिस्त्रवालों ने किया जिसे यवन लोगों (यूनानियों) ने लेकर और और स्थानों में फैलाया। पश्चिमी ज्योतिषियों ने जब देखा कि बारह राशियों से सारे अंतरिक्ष के तारों और नक्षत्रों का निर्देश नहीं होता है तब उन्होंने और बहुत सी राशियों के नाम रखे। इस प्रकार राशियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती गई। पर भारतीय ज्योतिषियों ने खगोस के उत्तर और दक्षिण खंड में जो तारे हैं उन्हें नक्षत्रों में बाँधकर निर्दिष्ट नहीं किया। नक्षत्र या तारे ग्रहों की तरह छोटे छोटे पिंड नहीं हैं, वे बड़े बड़े सूर्य हैं जो हमारे इस सूर्य से बहुत दूरी पर हैं। इनकी संख्या अपरिमित है। वर्तमान काल के युरोपिय ज्योतिषियों ने बड़ी बड़ी दूरबीनों आदि की सहायता से खगोल का बहुत अनुसंधान किया है। उन्होंने तारों का वार्षिक लंबन (किसी नक्षत्र से एक रेखा सूर्य तक और दूसरी पृथ्वी तक खींचने से जो कोण बनाता है उसे उस नक्षत्र का लंबन कहते हैं) निका- लकर, उनकी दूरी निश्चित करने में बड़ा उद्योग किया है। यदि किसी नक्षत्र का यह कोण एक सेकंड है तो समझना चाहिए कि उसकी दूरी सूर्य की दूरी की अपेक्षा २०६०० गुनी अधिक है। कोई नक्षत्र कम दूरी पर हैं, कोई अधिक; जैसे स्वाती, धनिष्ठा और श्रवण नक्षत्र रविमार्ग से बहुत दूर है और रोहिणी, पुष्य और चित्रा उनकी अपेक्षा निकट हैं। जो तारे औरों की अपेक्षा निकट हैं उनके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में तीन साढ़े तीन वर्ष लग जाते हैं, दूरवालों का प्रकाश तीन तीन चार चार सौ वर्ष में पहुँचता है। प्रकाश की गति एक सेकंड में १८६००० मील ठहराई गई है। इसी से इनकी दूरी का अंदाजा हो सकता है। २. तारा। तारक (को०)। ३. मोती (को०)। ४. वह हार जिसमें २७ मोती गुहे गए हों (को०)।

नक्षत्रकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद का एक परिशिष्ट जिसमें चंद्रमा की स्थिति आदि का वर्णन है।

नक्षत्रकांतिविस्तार
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्राक्रान्तिविस्तार] सफेद ज्वार। ज्वार या यावनाल का सफेद गुच्छा।

नक्षत्रगण
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट नक्षत्रों का अलग अलग समूह या गण। विशेष—बृहत्संहिता में लिखा है कि रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद और उत्तरफाल्गुनी इन चारों नक्षत्रों कोध्रुवगण कहते हैं। ध्रुवगण में अभिचक्र, शांति, वृक्ष, नगर धर्म, बीज और ध्रुव कार्य का आरंभ करना उचित है। मुल, आर्दा, ज्येष्ठा और आश्लेषा के स्वामी तीक्ष्ण हैं इसलिये इनके समूह को तीक्ष्णगण कहते हैं। इनमें अभि- घात, मंत्रसाधन, वेताल, बंध, वध, और भेद संबंधी कार्य सिद्ध होते हैं। पुर्वाषाढ़ा, पूर्वफाल्गुनी, पूर्वभाद्रपद, मरणी और मघा ये पाँचो नक्षत्र उग्रगण कहलाते हैं, उजाड़ने, नष्ट करने, शठता करने, बंदन विष, दहन और शस्त्राघात आदि की सिद्धि के लिये इस गण के नक्षत्र बहुत उपयुक्त हैं। हस्त, अश्विनी और पुष्य के समूह को लघुगण कहते हैं, इसमें पुण्य, रति, ज्ञान, भूषण, कला, शिल्प आदि के कार्य की सिद्धि होती है। अनुराधा, चित्रा, मृगशिरा और रेवती को मृदुगण कहते हैं और ये वस्त्र, भूषण, मंगल गीत और मित्र आदि के संबंध में हितकारी और उपयुक्त हैं। विशाखा और कृतिका को मृदुतीक्ष्णगण कहते हैं, इनका फल मृदु और तीक्ष्ण गणों के फल का मिश्रण होता है। श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पुनर्वसु और स्वाति ये पाँचों 'चरगण' कहलाते हैं, और इनमें चरकर्म हितकारी होता है।

नक्षत्रचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तांत्रिकों के अनेक चक्रों में से एक। विशेष—इसके अनुसार दीक्षा के समय नक्षत्रों आदि के विचार से गुरु यह निश्चय करता है कि शिष्य को कौन सा मंत्र दिया जाय। २. राशिचक्र।

नक्षत्रचिंतामणि
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रचिन्तामणि] एक प्रकार का कल्पित रत्न। विशेष—इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उससे जो कुछ माँगा जाय वह मिलता है।

नक्षत्रदर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो नक्षत्र देखता हो। २. ज्योतिषी।

नक्षत्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार भिन्न भिन्न नक्षत्रों में भिन्न भिन्न पदार्थों का दान। विशेष—जैसे, रोहिणी नक्षत्र में घी, दूध और रत्न, मृगशिरा नक्षत्र में बछड़े सहित गौ, आर्द्रा में खिचड़ी, हस्त में हाथी और रथ, अनुराधा में उत्तरीय सहित वस्त्र, पूर्वाषिढ़ा में बरतन समेत दही और साना हुआ सत्तु, रेवती में काँसा, उत्तराभाद्रपद में मांस आदि। इस प्रकार के दान से बहुत अधिक पुण्य होता है और स्वर्ग मिलता है।

नक्षत्रनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। विशेष—पुराणानुसार दक्ष की अश्विनी आदि सत्ताईस (नक्षत्रों) कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ हुआ था, इसीलिये चंद्रमा को नक्षत्रनाथ कहते हैं।

नक्षत्रेनेमि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. चंद्रमा। ३. ध्रुवतारा [को०]।

नक्षत्रनेमि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] रेवती नामक नक्षत्र [को०]।

नक्षत्रप
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

नक्षत्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

नक्षत्रपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्रों के चलने का मार्ग। २. तारों भरा आकाश (को०)।

नक्षत्रपदयोग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक प्रकार का योग जो उस समय होता है जब सूर्य जन्म- राशि से छठे स्थान में अथवा मेष राशि में हो और चंद्रमा वृष राशि में हो। विशेष—कहते हैं, इस योग में यदि राजा युद्ध के लिये यात्रा करे तो वह अपने शत्रु को उसी प्रकार परास्त कर सकता है जिस प्रकार हवा बादलों को उड़ा देती हैं।

नक्षत्रपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिषी [को०]।

नक्षत्रपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] एक कल्पित पुरुष जिसकी कल्पना भिन्न भिन्न नक्षत्रों को उसके भिन्न भिन्न अंग मानकर की जाती है। विशेष—बृहत्संहिता में लिखा है कि मूल नक्षत्र को नक्षत्रपुरुष के पाँव, रोहिणी और अश्विनी को जाँघ, पुर्वाषाढा ओर उत्तरा- षाढा को उरु, उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी को गुह्य, कृत्तिका को कमर, उत्तराभाद्रपदा और पूर्वाभाद्रापदा को पार्श्व रेवती को कोख, अनुराधा को छाती, घनिष्ठा को पीठ, विशाखा को बाँह, हस्त को कर, पुनर्वसु को उंगलियाँ, अश्लेषा को नाखून, ज्येष्ठा को गरदन, श्रवण को कान, पुष्य को मुख, स्वाति को दाँत, शतभिषा को हास्य, मघा को नाक, मृगशिरा को आँख, चित्रा को ललाट, भरणी को सिर और आर्द्रा को बाल मानकर नक्षत्रपुरुष की कल्पना करनी चाहिए। वामन पुराण के अनुसार इसका व्रत सुंदरता प्राप्त करने के उद्देश्य से चैत्र के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को, जब चद्रमा मूल- नक्षत्रयुक्त हो, किया जाता है। व्रत के दिन विष्णु और नक्षत्रों की पूजा करके दिन भर उपवास करना चाहिए। नक्षत्रपुरुष के पौरेवाले नक्षत्र से आरंभ करके प्रतिमास हर एक अंग के नक्षत्र के नाम से भी करने का विधान है।

नक्षत्रभोग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नक्षत्र के रहने का समय। नक्षत्रकाल।

नक्षत्रमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह हार जिसमें सत्ताईस मोती हों। २. तारक समूह (को०)। ३. चंद्रमा के मार्ग के नक्षत्रों की स्थति। ४. हार जो हाथियों को पहनाया जाता है (को०)।

नक्षत्रमालिनी (१)
वि० [सं० नक्षत्र + मालिनी] नक्षत्रों का मालावाली। उ०—नक्षत्रमालिनी प्रकृति हीरे नीलम से जड़ी पुतली के समान उसकी आँखों का खेल बन गई।—आकाश०, पृ० १०१।

नक्षमालिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूलोंवाली एक लता का नाम। जाती [को०]।

नक्षत्रयाजक
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो ग्रहों और नक्षत्रों आदि के दोषों की शांति कराता है।विशेष—महाभारत के अनुसार ऐसा ब्राह्मण निकृष्ट और प्रायः चांडाल के समान होता है।

नक्षयोग
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों के साथ ग्रहों का योग।

नक्षत्रयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] वह नक्षत्र जो विवाह के लिये निषिद्ध हो।

नक्षत्रराज
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रों के स्वामी, चंद्रमा।

नक्षत्रलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वह लोक जिसमें नक्षत्र हैं। यह लोक चंद्रलोक से ऊपर माना जाता है। विशेष—काशीखंड में लिखा है कि जब दक्ष कन्या ने महादेव के लिये कठिन तपस्या की थी तब उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें ज्योतिषचक्र में चंद्रलोक से ऊपर स्वतंत्र लोक में रहने का वर दिया था।

नक्षत्रवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रवर्त्मन्] आकाश [को०]।

नक्षत्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष विद्या [को०]।

नक्षत्रवीथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों में गति के अनुसार तीन तीन नक्षत्रों के बीच का कल्पित मार्ग। विशेष—बृहत्संहिता के अनुसार तीन तीन नक्षत्रों में एक वीथि होती है। स्वाति, भरणी और कृतिका में नागवीथि होती है; रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा में गजबीथि; पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा में ऐरावत; मघा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफा- ल्गुनी में बृषभ; अश्विनी रेवती और पूर्वा एवं उत्तरा भाद्रापद में गोवीथि; श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा में जरद्गववीथि, अनुराध, ज्येष्ठा और मूल में मृगवीथि हस्त, विशाखा और चित्रा में अजावीथि, तथा पूर्वाषाढा औप उत्तरषाढा में दहना- वीथि। इस प्रकार २७ नक्षत्रों में ९ वीथियाँ होने पर प्रत्येक वीथि तीन बार होती है अतः इनमें तीन तीन वीथियाँ सूर्यमार्ग के उत्तर, मध्य और दक्षिण होती हैं। फिर इनमें से भी प्रत्येक यथाक्रम उत्तर, मध्य और दक्षिण होती हैं— जैसे, तीन नागवीथियाँ हैं, उनमें से प्रथम उत्तरमार्गस्था, दूसरी मध्यस्था और तीसरी दक्षिणामार्गस्था हुई। इन वीथियों का विचार फलित में होता है—जैसे शुक्र जिस समय उत्तर- वीथि में होकर उदित वा अस्त होता है उस समय सुभिक्ष और मँगल होता है, मध्यवीथि में होने से मध्यफल और दक्षिण वीथि में होने से मंदफल होता है।

नक्षत्रवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तारा टूटना। उल्कापात होना।

तक्षत्रव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में वह चक्रा जिसमें यह दिखलाया जाता है कि किन किन पदार्थों और जातियों आदि का स्वामी कौन नक्षत्र है। विशेष—बृहत्संहिता के १५ वें अध्याय में लिखा है—सफेद फूल, अग्निहोत्री, मंत्र जाननेवाले, भूत की भाषा जाननेवाले, खान में काम करनेवाले, हज्जाम, द्विज, कुम्हार, पुरोहित और वर्षफल जाननेवाले कृत्तिका नक्षत्र के अधीन हैं। सुव्रत, पुण्य राजा, धनी, योगी, शाकटिक, गौ, बौल, जलचर, किसान, और पर्वत रोहिणी के अधिकार में हैं। पद्म, कुसुम, फल, रत्न, वनचर, पक्षी, मृग, यज्ञ में सोमपान करनेवाले, गंधर्व, कामी और पत्रवाहक मृगशिरा के अधिकार में हैं। वध, बंध, परदारहरण, शठता और भेद करनेवाले आर्दा के अधिकार में हैं। इसी प्रकार और भी भिन्न भिन्न पदार्थों आदि के संबंध में यह बतलाया है कि वे किस नक्षत्र के अधिकार में हैं।

नक्षत्रव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार वह व्रत जो किसी विशिष्ट नक्षत्र के उद्देश्य से किया जाता है। विशेष—जिस नक्षत्र के उद्देश्य से व्रत किया जाता है, व्रत के दिन उस नक्षत्र के स्वामी देवता का पूजन भी किया जाता है।

नक्षत्रशूल
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में काल का वह वास जो किसी विशिष्ट दिशा में कुछ विशिष्ट नक्षत्रों के होने के कारण माना जाता है। विशेष—यदि पूर्व दिशा में श्रवण या ज्येष्ठा, दक्षिण में अश्विनी या उत्तराभाद्रापद, पश्चिम में रोहिणी या पुष्य और उत्तर में उत्तर फाल्गुनी या हस्त नक्षत्र हों तो उस दिशा में यात्रा आदि के लिये, नक्षत्रशूल माना जाता है।

नक्षत्रसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० नक्षत्रसन्धि] चंद्रमा आदि ग्रंहों का पूर्व नक्षत्र मास में से उत्तर नक्षत्र में संक्रमण।

नक्षत्रसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक विशेष प्रकार का यज्ञ जो नक्षत्रों के निमित किया जाता है। विशेष—यह यज्ञ नक्षत्रमास के अनुसार होता है।

नक्षत्रसाधक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

नक्षत्रसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह गणना जिसके अनुसार यह जाना जाता है कि किस नक्षत्र पर कौन सा ग्रह कितने समय तक रहता है।

नक्षत्रसूचक
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्योतिषी जो स्वयं भारी गणना आदि न कर सकता हो, केवल दूसरों के मत के अनुसार ज्योतिष संबंधी साधारण काम करता हो।

नक्षत्रसूची
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रसूचिन्] दे० 'नक्षत्रसूचक'।

नक्षत्रामृत
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में यात्रा आदि कार्यों के लिये एक बहुत ही उत्तम योग। विशेष—यह किसी विशिष्ट दिन में कुछ विशिष्ट नक्षत्रों के होने पर माना जाता है। जैसे, रविवार को हस्त, पुष्य, रोहिणी या मूल आदि नक्षत्रों का होना, सोमवार को श्रवण, धनिष्ठा, रोहिणी, मृगशिरा, अश्विनी या हस्त आदि का होना, मंगलवार को रेवती, पुष्य, आश्लेषा, कृत्ति- का या स्वाती आदि का होना, आदि आदि। ऐसे योग में व्यतीपात आदि के दोषों का नाश हो जाता है।

नक्षत्रिद्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक देवता जिनका नक्षत्रों में रहना माना जाता है।

नक्षत्रिय
वि० [सं०] १. नक्षत्र से संबंध रखनेवाला। २. क्षत्रिय से भिन्न। ३. सत्ताईस।

नक्षत्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रिन्] १. चंद्रमा। २. विष्णु।

नक्षत्री (२)
वि० [सं० नक्षत्र + ई (प्रत्य०)] जिसका जन्म अच्छे नक्षत्र में हुआ हो। भाग्यवान्। खुशकिस्मत्।

नक्षत्रेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

नक्षत्रेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

नक्षत्रेष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] वह यज्ञ जो नक्षत्रों के उद्देश्य से किया जाय।

नक्सगीरी पु
संज्ञा स्त्री० [फा० नक्श गीरी] धातु या पत्थर पर चित्र या बेल बूटे बनाने का काम। उ०—जड़ै पाथरे नक्सगीरी करावै।—धरनी०, पृ० ९।

नख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ या पैर का नाखून। विशेष— दे० 'नाखून'। पर्या०—पुनर्भव। कररुह। नखर। कामांकुश। करज। पाणिज कराग्रज। करकँटक। स्मरांकुश। रतिपथ। करचंद्र। करांकुश। २. एक प्रसिद्ध गंधद्रव्य जो सीप या घोंघे आदि की जाति के एक प्रकार के जानवर के मुँह का ऊपरी आवरण या ढकना होता है। विशेष—इसका आकार नाखून के समान चंद्राकार या कभी कभी बिलकुल गोल भी होता है। यह छोटा, बड़ा, सफेद, नीला कई प्रकार और रंम का होता है; जिनमें से छोटा और सफेद रँग का अच्छा माना जाता है। छोटे को वैद्यक ग्रंथों मे क्षुद्र- नखी और बड़े को शंखनकी, व्याघ्रमखी बृहन्नखी कहते हैं। किसी किसी का आकार घोड़े के सुम या हाथी के कान के समान भी होता है। इसे जलाने से बदबू निकलती है पर तेल में डालने से खुशबू निकलती है। इसका व्यवहार दवा के लिये होता है। वैद्यक के अनुसार यह हलका, गरम, स्वादिष्ट, शुक्र- वर्धक और व्रण, विष श्लेष्मा, वात, ज्वर, कुष्ट और मुख की दुर्गंध दूर करनेवाला है। ३. खंड। टुकड़ा। ४. बीस की संख्या (को०)। ५. क्लीब। नपुंसक (को०)।

नख (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० नख] १. एक प्रकार का बटा हुआ महीन रेशमी तागा जिससे गुड्डी उड़ाते और कपड़ा सीते हैं। २. गुड्डी उड़ाने के लिये वह पतला तागा जिसपर माँझा दिया जाता है। डोर।

नखकर्तनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाखून काटने का औजार। नहरनी।

नखकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] हज्जाम। नाई।

नखक्षत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दाग या चिह्न जो नाखून के गड़ने के कारण बना हो। २. स्त्री के शरीर पर का विशेषतः स्तन आदि पर का, वह चिह्न जो पुरुष के मर्दन आदि के कारण उसके नाखुनों से बन जाता है।

नखखादी
संज्ञा पुं० [नखखादिन्] वह जो दाँतों से अपने नाखून कुतरता हो। विशेष—मनु के अनुसार ऐसे मनुष्य का बहुत जल्दी नाश हो जाता है।

नखगुच्छफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की सेम।

नखचारी
संज्ञा पुं० [सं० नखचारिन्] पंजे के बल चलनेवाला जीव।

नखच्छत पु †
संज्ञा पुं० [सं० नखक्षत] दे० 'नखक्षत'।

नखछोलिया पु †
संज्ञा पुं० [सं० नख + हिं० छोलना] दे० 'नखक्षत'।

नखजाह
संज्ञा पुं० [सं०] नाखून का पिछला भाग। नखमूल।

नखत पु †
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'।

नखतपति पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रपति] दे० 'नक्षत्रपति'। उ०— जिमि फारि महातम निकर कौ निकरत नभ में नखतपति।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९४।

नखतर पु †
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'।

नखतराज पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रराज] चंद्रमा।

नखतराय
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रराज] दे० 'नखतराज'।

नखता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो भारत के सिवा और कहीं नहीं होती। विशेष—यह बरसात के आरंभ में दिन भर उड़ा करती है और भिन्न भिन्न ऋतुओं में भिन्न भिन्न स्थानों पर रहती है। यह कीड़े मकोड़े और फल आदि खाती है ओर पाली भी जा सकती है।

नखताली पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रावली] नक्षत्रपंक्ति। नक्षत्रसमूह। उ०—सरसी गंभीर भीर हँसनि को जासु तीर तहाँ उदय ह्वै रहीं विचित्र नखताली री।—दीन ग्रं०, पृ० ८।

नखदान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नखक्षत'। उ०—श्यामा का नखदान मनोहर मुक्ताओं से ग्रथित रहा।—स्कंद०, पृ० १९।

नखदारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नहरनी। २. बाज। श्येन पक्षी (को०)।

नखतेस पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्रेश] दे० 'नक्षत्रेश'।

नखत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'।

नखना (१)
क्रि० अ० [हिं० नाखना] उल्लंघन होना। डाँका जाना।

नखना (२)
क्रि० स० उल्लंघन करना। पार करना। उ०—मानहि मान ते मानिन केशव मानस ते कुछ मान टरैगी। मान है री सु जु मानै नहीं परिमान नखे अभिमान भरैगो।—केशव (शब्द०)।

नखना (३)
क्रि० स० [सं० नष्ट] नष्ट करना। उ०—जौ लौं इह तन प्रान पठान न रक्खिहौं। मऊ फरक्कावाद खोंदि कै नक्खिहौ।—सूदन (शब्द०)।

नखनिष्याव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सेम।

नखपद
संज्ञा पुं० [सं०] नाखून धँसने से बना चिह्न। नखक्षत [को०]।

नखपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिछुवा घास।

नखपुंजफला
संज्ञा स्त्री० [सं० नखपुञ्जफला] सफेद सेम।

नखपुष्पो
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृक्का या असवरग नाम का गंधद्रव्य।

नखपूर्विका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरी सेम।

नखफलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेम [को०]।

नखबान पु
संज्ञा पुं० [सं० नख] नख। नाखून। उ०—सेज मिलत सामी कहँ लावै उर नखबान। जेहि गुन सबै सिंध के सो संखिनि, सुलमान।—जायसी (शब्द०)।

नखबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० नखबिंन्दु] दे० 'नखविंदु' [को०]।

नखमुच
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिरौंजी का पेड़। २. धनुष (को०)।

नखरंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नखरञ्जनी] नहरनी।

नखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नख। नाखून। २. प्राचीन काल का एक अस्त्र।

नखरा
संज्ञा पुं० [फा० नखरहू] १. वह चुलबुलापन, चेष्टा या चंचलता आदि जो जवानी की उमंग में अथवा प्रिय को रिझाने के लिये की जाती है। चोचला। नाज। हाव भाव। जैसे,—उसे बहुत नखर आता है। यौ०—नखरातिल्ला। नखरेबाज। क्रि० प्र०—करना।—दिखाना।—निकालना। मुहा०—नखरा बघारना=नखरा करना। २. साधारण चंचलता या चुलबलापन। बनाबटी चेष्टा। ३. बनाबटी इनकार। जैसे,—(क) जब कहीं चलने का काम होता है तब तुम एक न एक नखरा निकाल बैठते हो। (ख) ये सब इनके नखरे हैं, ये करेंगे वही जो तुम कहोगे।

नखरातिल्ला
संज्ञा पुं० [फा० नखरा + हिं० तिल्ला (अनु०)] नखरा। चोचला। नाज।

नखरायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. शेर। २. चीता। ३. कुत्ता। ४. मुरगा (को०)।

नखराह्न
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर का पेड़।

नखरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नख नाम का गंधद्रव्य।

नखरीला †
वि० [फा० नखरा + हिं० ईला (प्रत्य०)] चोचलेबाज। नखरा करनेवाला।

नखरेख पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नख + रेखा] शरीर में लगा हुआ नखों का चिह्न जो संभोग का चिह्न माना जाता है। नखरौट। उ०—मरकत भाजत सालिलगत इंदुकला के बेख। झीन झगा मैं झलमले स्यामगात नखरेख।—बिहारी (शब्द०)।

नखरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नखक्षत। नाखून का दाग। २. कश्यप ऋषि की एक पत्नी जो बादलों की माता थी। उ०— दारा ते तृणवृक्ष जौन लागत पर काजै। नखरेखा सुत मेघ कोटि छप्पन उपराजै।—विश्राम (शब्द०)।

नखरेबाज
वि० [फा० नखरहु + बाज] जो बहुत नखरा करता हो। नखरा करनेवाला।

नखरेबाजी
संज्ञा स्त्री० [फा० नखरह् + बाजी (प्रत्य०)] नखरा करने की क्रिया या भाव।

नखरौट
संज्ञा स्त्री० [सं० नख + हिं० खरोट] नाखून की खरौट। शरीर पर का वह निशान जो नाखून चुभाने से होता है।

नखबिदु
संज्ञा पुं० [सं० नखविन्दु] वह गोल या चंद्राकार चिह्न जो स्त्रियाँ नाखून के ऊपर मेंहदी या महावर से बनाती है। उ०—जागत अनेक ताँमैं डावक को विंदु औ अनेक नखविंदुन की कला सरसत है।—चरण (शब्द०)।

नखविष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके नाखूनों में विष हो। जैसे, मनुष्य, बिल्ली, कुत्ता, बंदर, मगर मेंढक गोह, छिपकली आदि।

नखविष्किर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जानवर जो अपने शिकार को नाखून से फाड़कर खाता हो। जैसे, शेर, बाज आदि। विशेष—धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसे जानवरों का मांस नहीं खाना चाहिए।

नखवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] नील का पेड़।

नखव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] नाखून से बनी खरोंच। नखक्षत।

नखशंख
संज्ञा पुं० [सं० नखशङ्ख] छोटा शंख।

नखशस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] नहरनी।

नखशिख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नख से लेकर शिख तक के सब अंग। मुहा०—नकशिख से = सिर से पैर तक। ऊपर से नीचे तक। जैसे,—वह नखशिख से दुरुस्त है। २. वह काव्य जिसमें किसी देवता या नायक नायिका के सभी अंगों का वर्णन हो।

नखशिख (२)
क्रि० वि० अमूलचूल। पूर्णतया। उ०—विश्व संभ्यता का होना था नखशिख नव रूपांतर।—ग्राम्या, पृ० ५२।

नखशूल
संज्ञा पुं० [सं०] नाखून का वह रोग जिसमें उसके आस पास या जड़ में पीड़ा होती है।

नखसिख पु
संज्ञा पुं० [सं० नखशिख] दे० 'नखशिख'। उ०— नख सिख से रचि नैन नासिका, इसे बनाया को। उसी को खोज करो बासा।—धरम०, पृ० ५७।

नखहरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नहरनी।

नखांक
संज्ञा पुं० [सं० नखाङ्क] १. व्याघ्रनखी। व्याघ्रनख। विशेष—दे० 'नख'। २. नाखून गड़ने का चिह्न।

नखांग
संज्ञा पुं० [सं० नखाङ्ग] १. नख नामक गंधद्रव्य। २. नलिका या नली नामक गंधद्रव्य।

नखाघात
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाखून का आघात। नखक्षत।

नखानखि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी लड़ाई जिसमें दोनों दल परस्पर नाखून का प्रयोग करें।

नखायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. शेर। २. चीता। ३. कुत्ता। ४. मुरगा (को०)।

नखारि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम।

नखालि
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा शंख।

नखालु
संज्ञा पुं० [सं०] नील वृक्ष। नील का पेड़।

नखाशी (१)
संज्ञा पुं० [सं० नखाशिन्] उल्लू।

नखाशी (२)
वि० जो नाखूनों की सहायता से खाता हो।

नखास
संज्ञा पुं० [अ० नख्खास] १. वह बाजार जिसमें पशु, विशेषतः घोड़े बिकते हैं। २. साधारणतः कोई बाजार।मुहा०—नखास पर भेजना या चढ़ाना = बेचने के लिये बाजार भेजना। नकास की घोड़ी या नखासवाली = कसब कमानेवाली स्त्री। खानगी। (बाजारू)।

नखियाना पु् †
क्रि० स० [सं० नख + इयाना (प्रत्य०)] नाखून गड़ाना या नाखून से खरोंचना।

नखी (१)
संज्ञा पुं० [सं० नखिन्] १. शेर। २. चीता। ३. वह जानवर जो नाखून से किसी पदार्थ को चीर या फाड़ सकता हो। ४. बढ़े हुए नाखूनवाला। उ०—लाखों मौनी फिरौ लाखों बाघंबरी। उर्धमुखी औ नखी लाखों लोह लंगरी। लाखों जल में पड़े (लाखों) धूरि को छानतें। अरे हाँ पलटू जामें राजी राम औ कोउ नहिं जानते।—पलटू०, भा० २, पृ० ९२।

नखी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नख नामक गंधद्रव्य।

नखेदा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निषेध' (१)। उ०—ब्रह्मा हाथ चार छिय बेदा। तीन लोक महँ करत नखेदा।—कबीर सा०, पृ० २४८।

नखोटना पु †
क्रि० स० [सं० नख + औना (प्रत्य०)] नाखून से खरोचना या नोचना। उ०—कान्ह बलि जाउँ ऐसी आरि न कीजै।......बरजत बरजत बिरुझाने। करि क्रोध मनहि अकुलाने। धरत घरणि पर लोटे। माता को चीर नखोटे। अँग आभूषण सब तोरे। लवनी दधि भाजन फोरे।—सूर (शब्द०)।

नखोरी †
संज्ञा पुं० [हिं०] निमोना। हरी मटर आदि से बनाया गया सालन।

नख्खास
संज्ञा पुं० [अ० नख्खास] दे० 'नखास'।

नग (१)
वि० [सं०] १. न गमन करनेवाला। न चलने फिरनेवाला। अचल। स्थिर।

नग (२)
संज्ञा पुं० १. पर्वत। पहाड़। २. पेड़। वृक्ष। ३. सात की संख्या। ४. सर्प। साँप। ५. सूर्य। ६. कोई वनस्पति (को०)।

नग (३)
संज्ञा पुं० [फा० नगीना, सं० नग] १. शीशे या पत्थर आदि का रंगीन बढ़िया, टुकड़ा जो प्रायः अँगुठियों आदि में जड़ा जाता है। नगीना। मुहा०—नग बैठाना = नग जड़ना। २. अदत। संख्या। जैसे, पाँच नग लोटा।

नगचाना †
क्रि० अ० [हिं० नगीच से नामिक धातु] दे० 'नगिचाना'।

नगज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।

नगज (२)
वि० जो पहाड़ से उत्पन्न हो।

नगजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. पाषाणभेदा लता। पखानभेद।

नगण
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल शास्त्र में तीन लघु अक्षरों का एक गण (।।।)। जैसे, कमल, मदन, चरण, शरण, समर नयन आदि। विशेष—इस गण से छंद का आरंभ करना शुभ माना जाता है।

नगण
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालकँगनी।

नगण्य
वि० [सं०] जो गणना करेन के योग्य न हो। बहुत ही साधारण या गया बीता। तुच्छ। जैसे,—इस विषय पर केवल एक ही पुस्तक मिली; परंतु वह भी नगण्य ही है।

नगदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० नगदन्ती] विभीषण की स्त्री का नाम। उ०—नगदंती केहरि मुख जाई। सो बल्लभा विभीषण पाई।—विश्राम (शब्द०)।

नगद (१)
संज्ञा पुं० [अ० नकद] दे० 'नकद'।

नगद (२)
वि० १. तैयार (रुपया)। २. खास। उ०—हरीचंद नगद दमाद अभिमानी के।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

नगद (३)
संज्ञा पुं० [सं० नागदमनी] नागदमनी।

नगदनारायण
संज्ञा पुं० [अ० नक्द + सं० नारायण] द्रव्य। रुपया पैसा।

नगदी
संज्ञा स्त्री० [अ० नक्द + फा० ई (प्रत्य०)] दे० 'नकदी'।

नगधर
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत के धारण करनेवाले, श्रीकृष्णचंद्र। गिरिधर। उ०—कहा कहों अँग अँग की सोभा नगधर पिय सों तू अनुरागी।—छीत०, पृ० ७१।

नगधरन पु
संज्ञा पुं० [सं० नदघारण] दे० 'नगधर'।

नगनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नगनान्दिनी] पार्वती जो हिमालय की कन्या मानी जाती है।

नगन पु †
वि० [सं० नग्न] १. जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। नंगा। २. जिसके ऊपर किसी प्रकार का आवरण न हो।

नगनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नदी जो किसी पहाड़ से निकली हो।

नगना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नग्ना] दे० 'नग्ना'।

नगनिका
संज्ञा स्त्री० [?] १. संगीत में संकीर्ण राग का एक भेद। २. क्रीड़ा नामक वृत्त का एक नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक यगण और एक गुरु होता है। उ०—उगै चारो। हरी तारो। करौ क्रीड़ा। रखौ बीड़ा (शब्द०)।

नगनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नग्ना] १. वह कन्या जो रजोधर्म को प्राप्त न हुई हो। वह कन्या जिसके स्तन न उठे हों और जो अपना ऊपरी शरीर खोले गूम फिर सकती हो। २. कन्या। पुत्री। बेटी। उ०—ऋषि तनया कह्यो मोहि विवाहि। कच कह्यो तु गुरु नगनी आहि।—सूर (शब्द०)। ३. नंगी स्त्री।

नगन्निकाछंद
संज्ञा पुं० [हिं० नगनिका + छंद] दे० 'नगनिका'।

नगपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिमालय पर्वत। २. चंद्रमा (वृक्ष, वनस्पति, औषधि के स्वामी होने से)। ३. कौलाश के स्वामी, शिव। ४. सुमेरु। उ०—चतुरानन बल सँभारि मेघनाव आयो। मानो घन पावस में नगपति है छायो।—सूर (शब्द०)।

नगपेच पु
संज्ञा पुं० [हिं०] सिर या कपाल का एक गहना। उ०— किय सेखर सतचद जटित नगपेच बिंब परि। स्याम सचिक्कन चिकुर आम सों स्याम भए घिरि।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३३३।

नगफँग †
वि० [?] नटखट। शरीर। उ०—हौ भले नगफँग परे गढ़ीबै अब ए गढ़न महरि मुख जोए।—तुलसी (शब्द०)।

नगभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पखानभेद लता। २. प्राचीन काल का पत्थर तोड़ने का एक प्रकार का अस्त्र। ३. इंद्र। विशेष—पुराणनुसार इंद्र ने पहाड़ों के पर काटे थे, इसी से उनका यह नाम पड़ा।

नगभू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटी पखानभेद लता। २. पहाड़ी जमीन।

नगभू (२)
वि० जो पहाड़ से उत्पन्न हुआ हो।

नगमा
संज्ञा पुं० [अ० नग्मह्] १. मधुर स्वर। २. गीत। गाना। ३. राग। उ०—कोकिलो, तुमको नई ऋतु के नए नगमे मुबारक।—मिलन०, पृ० १२८।

नगमासंज
वि० [अ० नग्महु + फा० संज] गाना गानेवाला [को०]।

नगमासंजी
संज्ञा स्त्री० [अ० नग्ह + फा० संज + ई (प्रत्य०)] गाना। गीत [को०]।

नगमूर्धा
संज्ञा पुं० [सं० नगमूर्धन] पर्वत का शिखर। चोटी [को०]।

नगरध्रंकर
संज्ञा पुं० [सं० नगरन्ध्रकर] कार्तिकेय का एक नाम।

नगवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

नगर
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यों की वह बड़ी वस्ती जो गाँव या कस्बे आदि से बड़ी हो और जिसमें अनेक जातियों तथा पेशों के लोग रहते हों। शहर। विशेष—हमारे यहाँ के प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि जिस स्थान पर बहुत सी जातियों के अनेक व्यपारी और कारीगर रहते हों और प्रधान न्यायालय हो, उसे नगर कहते है। युक्तदिकल्प- तरु नामक ग्रंथ में लिखा है कि राजा को शुभ मुहुर्त में लंबा चौकोर, तिकानो या गोल नगर बसाना चाहिए। इसमें से तिकोना और गोल नगर बुरा समझा जाता है। लंबा नगर बहुत ही शुभ और स्थायी तथा चौकोर नगर चारों प्रकार के फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) का देनेवाला माना जाता है। पर्या०—पुर। पुरी। नगरी। पत्तन। पट्टन। पटभेदन। निगम। कटक। स्थानीय। पट्ट। यौ०—राजनगर। नगरबसेरा। नगरनारि। नगरकीर्तन, आदि।

नगरकाक
संज्ञा पुं० [सं०] नीच या कुत्सित व्यक्ति [को०]।

नगरकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] वह गाना बजाना या कीर्तन, विशेषतः ईश्वर के नाम का भजन या कीर्तन, जिसे नगर की गलियों और सड़कों में घूम घूमकर कुछ लोग करें।

नगरघात
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।

नगरतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] गुजरात प्रांत का एक प्राचीन तीर्थ जहाँ किसी समय शिव का निवास माना जाता था।

नगरनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० नगर + नायिका] वेश्या। रंडी।

नगरनारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नगरनारी] वेश्या।

नगरनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रंडी। वेश्या।

नगरपाल
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका काम सब प्रकार के उपद्रवों आदि से नगर की रक्षा करना हो।

नगरपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नगर की व्यवस्था आदि करनेवाली संस्था। अं० म्युनिसपैलिटी।

नगरप्रदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी मूर्ति के साथ नगर की परिक्रमा करना [को०]।

नगरप्रांत
संज्ञा पुं० [सं० नगरप्रान्त] नगर के समीप का भाग या भूमि [को०]।

नगरमंडना
संज्ञा पुं० [सं० नगरमण्डना] वेश्या। रंडी।

नगरमर्दी
संज्ञा पुं० [सं० नगरमर्दिन्] मस्त हाथी।

नगरमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] शहर में का बड़ा और चौड़ा रास्ता। राजमार्ग।

नगरमस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।

नगररक्षी
संज्ञा पुं० [सं० नगररक्षिन्] शहर की रक्षा करनेवाला। शहर का पहरेदार।

नगरवा
संज्ञा पुं० [देश०] ईख की एक प्रकार की बोआई जो मध्यप्रदेश के उन प्रांतों में होती है जहाँ की मिट्टी काली या करैली होती है। पलवार। विशेष—इसमें खेतों के सींचने की आवश्यकता नहीं होती; बल्कि बरसात के बाद ईख के अंकुर फुटते हैं तब जमीन पर इसलिये पत्तियाँ बिछा देते हैं जिसमें उसमें का पानी भाप बनकर उड़ न जाय।

नगरवासी
संज्ञा पुं० [सं० नगरवासिन्] नागारिक। शहर में रहनेवाला। पुरवासी।

नगरविवाद
संज्ञा पुं० [सं० नगर + विवाद] दुनिया के झगड़े बखेड़े। उ०—धनमद जोबनमद राजमद भूल्यो नगर विवादि।—स्वामी हरिदास (शब्द०)।

नगरसेठ
संज्ञा पुं० [सं० नगर + हिं० सेठ] नगर का प्रमुख घनपति या प्रधान व्यापारी। उ०—रूप नगर मैं बसत है नगरसेठ तुव नैन।—स० सप्तक, पृ० १८४।

नगरहा †
संज्ञा पुं० [हिं० नगर + हा (प्रत्य०)] शहर में रहनेवाला। नागरिक।

नगरहार
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन भारत का एक नगर जो किसी समय वर्तमान जलालावाद के निकट बसा था। विशेष—चीनी यात्री हुएनसांग ने अपनी यात्रा में इसका वर्णन किया है। उस समय यह नगर कपिशा राज्य के अधनी था। किसी समय इस नाम का एक राज्य भी था जो उत्तर में काबुल नदी और दक्षिण में सफेद कोह तक था।

नगरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] देशी हल का वह भाग जिसमें हरीस, मुठिया और फाल लगा रहता है।

नगरा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० नगर + हिं० आ (प्रत्य०)] छोटा गाँव।

नगराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नगर + आई (प्रत्य०)] १. नागरिकता। शहरातीपन। २. चतुराई। चालाकी। उ०—सूरदास स्वामी रति नागर नागरि देखि गई नगराई।—सूर (शब्द०)।

नगरादि, सन्निवेश
संज्ञा पुं० [सं०] नगर का स्थापन और निर्माण। शहर बनाना या बसाना। विशेष—अग्निपुराण में लिखा है कि शहर बसाने के लिये राजा को पहले एक या आधा योजन लंबा सुंदर स्थान चुनना चाहिए और बाजार आदि बनवाने चाहिए। नगर में अग्निकोण में सुनारों आदि के लिये, दक्षिण में नाचने गानेवालों और वेश्याओं आदि के लिये, नैऋर्त्य में नटों और कैवतों आदि के लिये, पश्चिम में रथ और शास्त्र आदि बनानेवालों के लिये वायुकोण में नौकर चाकरों और दासों आदि के लिये, उत्तर में ब्राह्मणों यति और सिद्धों आदि के लिये, ईशान कोण में फल फलहरी और अन्न आदि बेचनेवालों के लिये और पूर्व में योद्धाओं आदि के रहने कि लिये स्थान बनवाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पूर्व में क्षत्रियों के लिये, दक्षिण में वैश्यों के लिये और पश्चिम में शूद्रों के लिये स्थान बनाना चाहिए; और नगर के चारों ओर सेना रखनी चाहिए। दक्षिण में श्मशान, पश्चिम में गौओं आदि के रहने और चरने आदि के लिये परती जमीन और उत्तर में खेत होने चाहिए। नगर में स्थान स्थान पर देवमंदिर होने चाहिए।

नगराधिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] नगररक्षकों का प्रधान अधिकारी।

नगराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नगराध्यक्ष'।

नगराध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] नगर का स्वामी या रक्षक। वह जिसपर नगर की रक्षा आदि का पूरा पूरा भार हो। विशेष—महाभारत से पता चलता है कि प्राचीन काल में राजा की ओर से शासन और न्याय आदि के कामों के लिये जो अधिकारी नियुक्त किया जाता था वह नगराध्यक्ष कह- लाता था।

नगराभ्याश, नगराभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] नगर की निकटता या समीपता [को०]।

नगरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नगर। शहर।

नगरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० नगारिन्] शहर में रहनेवाला मनुष्य। नागरिक। शहराती।

नगरीकाक
संज्ञा पुं० [सं०] बगला।

नगरीबक
संज्ञा पुं० [सं०] काक। कौआ [को०]।

नगरीय
वि० [सं०] नगर का। नगर से संबंधित। नागरिक।

नगरोत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।

नगारोपांत
संज्ञा पुं० [सं० नगरोपान्त] नगर का बाहरी भाग। उपनगर।

नगरौका
संज्ञा पुं० [सं० नगरोकस्] शहर का निवासी। नागरिक।

नगरौषधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला।

नगवास पु
संज्ञा पुं० [सं० नागपाश] शत्रु को बाँधने या फँसाने के लिये एक प्रकार का फंदा। नागपाश।

नगवासी पु
वि० [हिं० नगवास + ई] नागपाश का। नागपाश संबंधी। उ०—जान पुद्वार जो भा बनबासी। रोंव रोंव परे फद नगवासी।—जायसी (शब्द०)।

नगवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।

नगस्वरूपिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्णवृत्त। विशेष—इसके प्रत्येक चरण में एक जगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु होता है। इसे प्रमाणी और प्रमाणिका भी कहते हैं। जैसे—जरा लगाव चित्त ही। भजो जु नंद नंद ही। प्रमाणिका हिये गहो। जु पार भौ लगा चहो। (शब्द०)।

नगा पु
वि० [हिं० नागा] दे० 'बग'। उ०—बग्ग साहिं नगा। सेन सेन अगा। सार धारं मगा। कूह कूहं बगा।—पृ० रा०, १। ६४९।

नगाटन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बंदर। कपि।

नगाटन (२)
वि० पहाड़ पर विचरण करनेवाला।

नगाड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० नगारा] दे० 'नगारा'।

नगाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिमालय पर्वत। २. सुमेरु पर्वत।

नगाधिपति, नगाधिराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नगाधिप' [को०]।

नगारा
संज्ञा पुं० [अ० नक्कारहू] डुगडुगी या बाएँ की तरह का एक प्रकार का बहुत बड़ा और प्रसिद्ध बाजा। नगाड़ा। डंका। धौंसा। उ०—गज ते आसन अधरहिं धारा। चले राथ तब बजे नगारा।—कबीर सा०, पृ० ४८७। विशेष—जिसमें एक बहुत बड़ी कूँड़ी के ऊपर चमड़ा मढ़ा रहता है। कभी कभी इसके साथ इसी प्रकार का पर इससे बहुत छोटा एक और बाजा भी होता है। इन दोनों को आमने सामने रखकर लकड़ी के दो डंडों से, जिन्हें चोब कहते हैं, बजाते हैं। मुहावरों के लिये दे० 'नक्कारा'।

नागारि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र, पुराणानुसार जिन्होंने पर्वतां के पर काटे थे।

नगावास
संज्ञा पुं० [सं०] मोर।

नगाश्रय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथीकंद।

नगाश्रय (२)
वि० [सं०] पर्वत पर रहनेवाला। पर्वतीय।

नगिचाना पु
क्रि० अ० [हिं० नगीच से नामिक धातु] नजदीक आना। समीप आना। उ०—गोता लीजै खाय नाम के सरवर माँही। अवधि आइ नगिचान दाँव फिर ऐसा नहीं।—पलटू०, भा० १, पृ० २४।

नगी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० नगीनहू से हिं० नंग + ई (प्रत्य०)] रत्न। मणि। नगीना। नग। उ०—कंचन की झख रूप डबीन मैं खोल घरी मानों नील नगी है।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)।

नगी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नग (= पर्वत)] १. पर्वत की कन्या। पार्वती। उ०—नगी किधों पन्नग की जाई। कमला किधौं देह धरि आई।—सबल (शब्द०)। २. पर्वत पर रहनेवाली स्त्री। पहाड़ी स्त्री। उ०—पन्नगी नगी कुमारि आसुरीनिहारि डारौं वारि किन्नरी नरी गमारि नारिका।—केशव (शब्द०)।

नगीच †
क्रि० वि० [फा० नजदीक] दे० 'नजदीक'। उ०—चंदन कीच चढ़ायहूँ बीच परै नहिं राँच। मीच नगीच न आ सकै लहि बिरहानल आँच।—स० सप्तक, पृ० २५७।

नगीना
संज्ञा पुं० [फा० नगीनहू, तुल० सं० नग] १. पत्थर आदि का वह रंगीन चमकीला टुकड़ा जो शोभा के लिये अँगूठी आदि में जड़ा जाता है। रत्न। मणि। मुहा०—नगीना सा = बहुत छोटा और सुंदर। २. एक प्रकार का चारखानेदार देशी कपड़ा।

नगीनागर
संज्ञा पुं० [फा० नगीनह् + गर (प्रत्य०)] दे० 'नगीनासाज'।

नगीनासाज
संज्ञा पुं० [फा० नगीनहू + साज (प्रत्य०)] वह जो नगीना बनाता या जड़ता हो। नगीना बनाने या जड़ने का काम करनेलाला।

नगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० नगेन्द्र] पर्वतराज। हिमालय।

नगेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नगेंद्र'।

नगेसरि पु †
संज्ञा पुं० [सं० नागकेशर] नागकेशर।

नगोच्छ्राय
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत की ऊँचाई [को०]।

नगौक
संज्ञा पुं० [सं० नगौकस्] १. पक्षी। चिड़िया। २. सिंह। शेर। ३. कौआ।

नग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० नाग] दे० 'नाग (६)'। उ०—सजे अग्ग पंती मदं मोष नग्गं। तिनं अग्ग आतरस झारं उतंगं।—पृ० रा०, १। ६३७।

नग्गर पु
संज्ञा पुं० [सं० नगर] दे० 'नगर'। उ०—ये ही बाजार है जिसे पहाड़ के लोग गर्व से नगर कहते हैं।—भस्मावृत०, पृ० १३०।

नग्न (१)
वि० [सं०] १. जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। नगा। २. जिसके ऊपर किसी प्रकार का आवरण न हो।

नग्न (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के दिगंबर जैन जो कौपीन और कषाय वस्त्र पहनते हैं। विशेष—ये पाँच प्रकार के होते हैं—द्विकच्छ, कच्छेशेष, मुक्तकच्छ, एकवासा और अवासा। २. पुराणानुसार वह जिसे शास्त्रों आदि का ज्ञान न हो और जिसके कुल में किसी ने वेद न पढ़ा हो। विशेष—ऐसे आदमियों का अन्न ग्रहण करना वर्जित है। ३. वह जो गृहस्थाश्रम के उपरांत बिना वानप्रस्थ ग्रहण किए ही संन्यासी हो गया हो। विशेष—पुराणनुसार ऐसा आदमी पातकी समझा जाता है।

नग्नक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नग्न'।

नग्नक्षपणक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बौद्ध संन्यासी या भिक्षु।

नग्नजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. गांधार के एक बहुत पुराने राजा का नाम जिसका उल्लेख शतपत ब्राह्मण में है। २. पुराणानुसार कोशल के एक राजा का नाम जिसकी सत्या या नाग्नजिती नामक कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ हुआ था।

नग्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नंगे होने का भाव। नंगापन। वस्त्र- विहीनता।

नग्नपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक देश का नाम।

नग्नमुषित
वि० [सं०] जिसका सब कुछ लुट गया हो, यहाँ तक कि उसके पास शरीर का वस्त्र भी न रह गया हो।

नग्नाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सदा नंगा रहता हो, २. दिगबंर संप्रदायी जैन या बौद्ध भिक्खु [को०]।

नग्नाटक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नग्नाट' [को०]।

नग्मा
संज्ञा पुं० [अ० नग्मह] दे० 'नगमा'। यौ०—नग्मासंज = दे० 'नगमासंज'। नग्मासाज = दे० 'नगमासाज'।

नग्र पु †
संज्ञा पुं० [सं० नगर] दे० 'नगर'। उ०—यसो नग्र रम्यं रचौ भूप केरो। किये चारु चौकंत यायंत हेरो।—हम्मीर रा०, पृ० १७६।

नग्री पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नगरी] दे० 'नगरी'। उ०—धार नग्री आयो बीसल राव। जानी बासउ दीपौ तिणि ठाव।—बी० रासो, पृ० १९।

नग्रोध पु
संज्ञा पुं० [सं० न्यग्रोध] वटवृक्ष। बड़ का पेड़।

नघना
क्रि० स० [सं० लंघन] नाँघना। लाँघना। डाँकना। पार करना। उ०—भीमसेन अर्जुन दोउ धाए। हेरत हेरत पुरत नधि आए।—रघुराज (शब्द०)।

नघाना †
क्रि० स० [सं० लङ्घन] लँघाना। उल्लंघन कराना। डंका देना। उ०—बोले बचन पुकारिकै विपिन जो देइ नघाय। द्वै सै मुद्रा ताहि हम दैहैं तुरत गहाय।—रघुराज (शब्द०)।

नघु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नहुष'। उ०—दुज्ज दोष नघु क्रत क्रित्त अप्पनौ सु हत्थौ।—पृ० रा०, ५५। ४६।

नघुअ पु
संज्ञा पुं० [सं० नहुष] दे० 'नहुष'। उ०—नघुअ राजसू जग्य कूर कर कुष्ट कूप जन।—पृ० रा०, ५५। ३९।

नचन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नृत्य] दे० 'नाच'। उ०—हरि की सी बनि बन ते आवनि गावनि रस रंगी। हरि की सी गेदुंक रचन नचन पुनि होन त्रिबंगी।—नंद० ग्रं०, पृ० २९।

नचना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० नाचना] नाचना। नृत्य करना। उ०—सजनी सज नीरद निरखि हरखि नचत इत मोर।—केशव (शब्द०)। (ख) काली की फनाली पै नचत बनमाली है।—पद्माकर (शब्द०)।

नचना (२)
वि० १. जो नाचता हो। नाचनेवाला। २. जो बरबार इधर उधर घूमता रहता हो, एक स्थान पर न रहता हो।

नचनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाचना] नाच। नृत्य।

नाचनिया †
संज्ञा पुं० [हिं० नाचना + इया (प्रत्य०)] नाचनेवाला। नृत्य करनेवाला।

नचनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाचना] करघे की वे दोनों लकड़ियाँ जो बेसर के कुलवाँसे से लटकती होती हैं।विशेष—इन्हीं के नीचे चकडोर से दोनों राछें बँधी रहती हैं। इन्हीं की सहायता से राछें ऊपर नीचे जाती और आती हैं। इन्हें चक या कल्हरा भी कहते हैं।

नचनी (२)
वि० स्त्री० [हिं० नाचना] १. नाचनेवाली। जो नाचती हो। २. बराबर इधर उधर घूमती रहनेवाली स्त्री (स्त्री०)।

नचवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाचना + वाई (प्रत्य०)] १. नृत्य। नाच। २. नाचने का ढग या पद्धति। ३. नाचने का परिश्र- मिक या ठहरौनी।

नचवाना
क्रि० स० [हं० नाचना का प्रे० रूप] दे० 'नचाना'।

नचवैया
संज्ञा पुं० [हिं० नाचना + वैया (प्रत्य०)] नाचनेवाला। जो नाचता हो।

नचाना
क्रि० स० [हिं० नाचना का प्रे० रूप] १. दूसरे को नाचने में प्रवृत्त करना। नाचने का काम दूसरे से कराना। नृत्य कराना। जैसे, रंडी नचाना, बंदर नचाना। २. किसी को बार बार उठने बैठने या और कोई काम करने कि लिये विवश करके तंग करना। अनेक व्यापार कराना। हैरान करना। उ०—(क) जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे। भृकुटि विलास नचावै ताही। अस प्रभु छाँड़ि भजिय कहु काही।—तुलसी (शब्द०)। (ख) देखा जीव नचावै जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—नाच नचाना = घूमने फिरने या और कोई काम करने के लिये विवश करके तग करना या हैरान करना। उ०—कबिरा बैरी सबल है, एक जीव रिपु पाँच। अपने अपने स्वाद को बहुत नचावै नाच।—कबीर (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना।—मारना। ३. किसी चीज को बार बार इधर उधर घुमाना या हिलाना। चक्कर देना। भ्रमण कराना। जैसे, हाथ में छड़ी या ताली लेकर नचाना। लट्ट नचाना। मुहा०—आँखें (या ठौन) नचाना = चंचलतापूर्वक आँखों की पुतलियों को इधर उधर घुमाना। उ०—(क) नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) कछु नैन नचाय नचावति भौह नचैं कर दोऊ और आप नचै (शब्द०)। ४. इधर उधर दौड़ना। हैरान या परेशान करना।

नचिंत पु
वि० [हिं०] दे० 'निश्चित'। उ०—चिंत लिखी सुरताण नूँ, हुवौ नचिंत नबाब।—र० रू०, पृ० ३३८।

नचिकेता
संज्ञा पुं० [सं० नचिकेतस्] १. वाजश्रवा ऋषि का पुत्र जिसने मृत्यु से ब्रह्मज्ञात प्राप्त किया था। विशेष—वाजश्रवा ने एक बार दक्षिणा में अपना सर्वस्व दे डाला था। उस समय नचिकेता ने अपने पिता से कई बार पूछा था कि मुझे किसको प्रदान करते हैं। पिता ने खिजलाकर कह दिया कि मै तुमको मृत्यु के अर्पित करता हूँ। इसपर वह मृत्यु के पास चला गया था और वहाँ तीन दिन तक निराहार रहकर उससे उसने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। २. अग्नि।

नचिर
वि० [सं०] थोड़ी देर रहनेवाला। अल्पकालवाला। क्षणस्थायी [को०]।

नचीत पु
वि० [हिं०] दे० 'निश्चिंत'। उ०—भक्तवछल को विरद सुनि रज्जब दीन्हो रोय। जब सुनियो पावन पतित रह्यो नचीतो सोय।—राम० धर्म०, पृ० २९७।

नचीला पु
वि० [हिं०] [स्त्री० नचीली] नाचनेवाला। अस्थिर। चचल।

नचौहाँ पु †
वि० [हिं० नाचना + औहाँ (प्रत्य०)] जो सदा नाचता या इधर उधर घूमता रहै। चंचल। अस्थिर उ०— देत रचौहैं चित्त कहँ नेह नचौहैं नैन।—बिहारी (शब्द०)।

नच्चना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'नाचना'। उ०—हरषी जु हरषि अच्छर हरषि, जुग्गिन बृंद सु नच्चियव।—हम्मीर रा०, पृ० १२३।

नच्छत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'। उ०—कि नील परबत की इक सिखर पर, गिरा है नच्छत्र टूट ऊपर।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८८९।

नच्यंत पु
वि० [हिं०] दे० 'निश्चिंत'। उ०—काल सिहणैं यों खड़ा जागि पियारे म्यंत। राम सनेही बाहिरा, तूँ क्यूँ सोवै नच्यंत।—कबीर ग्रं०, पृ० ७२।

नछत्तर पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'। उ०—भर्म भूत सबही छुटे री हेली सौन नछत्तर नाल।—चरण० बानी०, पृ० १४५।

नछत्र
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'।

नछत्री पु †
वि० [सं० नक्षत्र + ई (प्रत्य०)] भाग्यवान्। भाग्यशाली। जिसका जन्म अच्छे नक्षत्र में हुआ हो। उ०—परम नक्षत्री ख्यात जात छत्रीवर बरधर।—गोपाल (शब्द०)।

नछित्त पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'। उ०—सब सभा पूरि जैसे नछित्त। चहुआन बीच जनु चंद रत्त।—पृ० रा०, १। ३६८।

नजदीक
वि० [फा० नजदीक] [संज्ञा नजदीकी] निकट। पास। करीब। समपी।

नजदीकी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० नजदीकी] पास या नजदीक होने का भाव। सामीप्य।

नजदीकी (२)
वि० निकट का।

नजदीकी (३)
संज्ञा पुं० निकट का संबीधी।

नजम
संज्ञा स्त्री० [अ० नज्म] कविता। पद्य। छंद।

नजर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० नजर] १. दृष्टि। निगाह। चितवन। मुहा०—नजर अंदाज करना = ध्यान न देना। नजर हटा लेना। नजर आना = दिखाई देना। दिखाई पड़ना। दृष्टिगोचर होना। उ०—नजर आता है कोई अपना न पराया मुझकौ। —अमानत (शब्द०)। नजर करना = देखना। उ०— जब मैने उधर नजर की तब देखा कि आप खड़े हैं। नजर पर चढ़ना = पसंद आ जाना। भा जाना। भला मालूम होना। नजर पड़ना = दिखाई देना। देखने में आना। जैसे, कई दिन से तुम नजर नहीं पड़े। नजर फिसलना = चमक या चकाचौंध के कारण किसी वस्तु पर दृष्टि का अच्छी तरह न जमना। नजर फेंकना = (१) दूर तक देखना। दृष्टि डालना। (२) सरसरी नजर से देखना। नजर में आना = दिखलाई पड़ना। दिखाई देना। नजर में तौलना = देखकर किसी के गुण और दोष आदि की परीक्षा करना। नजर बाँधना = जादू या मंत्र आदि के जोर से किसी की दृष्टि में भ्रम उत्पन्न कर देना। कुछ का कुछ कर दिखाना। विशेष—प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि जादू के जोर से दृष्टि में भ्रम उत्पन्न किया जा सकता है। आजकल भी कुछ लोग इस बात को मानते हैं। २. कृपादृष्टि। मेहरबानी से देखना। जैसे, आपकी नजर रहेगी तो सब कुछ हो जायगा। मुहा०—नजर रखना = कृपादृष्टि रखना। मेहरबानी रखना। ३. निगरानी। देख रेख। जैसे, जरा आप भी इस काम पर नजर रखा करें। क्रि० प्र०—रखना। ४. ध्यान। खायाल। ५. परंख। पहचना। शिनाख्त। जैसे, इन्हें भी जवाहिरात की बहुत कुछ नजर है। ६. दृष्टि का वह कल्पित प्रभाव जो किसी सुंदर मनुष्य या अच्छे पदार्थ आदि पर पड़कर उसे खराब कर देनेवाला माना जाता है। विशेष—प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था और अब भी बहुत से लोगों का विश्वास है कि किसी किसी मनुष्य की दृष्टि में ऐसा प्रभाव होता है कि जिसपर उसकी दृष्टि पड़ती है उसमें कोई न कोई दोष या खराबी पैदा हो जाती है। यदि ऐसी दृष्टि किसी खाद्य पदार्थ पर पड़े तो वह खानेवाले को नहीं पचता और भविष्य में उस पदार्थ पर से खानेवाले ती रुचि भी हट जाती है। यह भी माना जाता है कि यदि किसी सुंदर बालक पर ऐसी दृष्टि पड़े तो वह बीमार हो जाता है। अच्छे पदार्थों आदि के संबंध में माना जाता है कि यदि उनपर ऐसी दृष्टि पड़े तो उनमें कोई न कोई दोष या विकार उत्पन्न हो जाता है। किसी विशिष्ट अवसर पर केवल किसी विशिष्ट मनुष्य की दृष्टि में ही नहीं बल्कि प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि ऐसा प्रभाव माना जाता है। मुहा०—नजर उतारना = बुरी दृष्टि के प्रभाव को किसी मंत्र वा युक्ति से हटा देना। नजर खाना या खा जाना = बुरी दृष्टि से प्रभावित हो जाना। नजर जलाना = दे० 'नजर झाड़ना'। नजर झाड़ना = बुरी दृष्टि का प्रभाव हटाना। नजर लगाना = बुरी दृष्टि का प्रभाव डालना। नजर होना या हो जाना = दे० 'नजर लगना'। ७. विचार। गौर (को०)।

नजर (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० नजर] १. भेंट। उपहार। जैसे, (क) सौदागर ने अकबर शाह को एक सौ घोड़े नजर किए। (ख) अगर यह किताब आपको इतनी ही पसंद है तो लीजिए यह आपकी नजर है। (ग) भरि भरि काँवरि सुधर कहारा। तिमि भरि शकटन ऊँट अपारा। शतानंद अरु सचिक लिवाई। कोशलपालहिं नजर कराई।—रघुराज (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—देना। २. अधीनता सूचित करने की एक रस्म जिसमें राजाओं, महाराजों और जमीदारों आदि के सामने प्रजावर्ग के या दूसरे अधीनस्थ और छोटे लोग दरबार या त्यौहार आदि के समय अथवा किसी विशिष्ट अवसर पर नगद रुपया या अशरफी आदि हथेली में रखकर सामने लाते हैं। विशेष—यह धन कभी तो ग्रहण कर लिया जाता है कभी केवल छूकर छोड़ दिया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—गुजारना।—देना।

नजरअंदाज
क्रि० वि० [अ० नजर + फा० अंदाज] दृष्टि का का हटना। ध्यान का न होना। उ०—मैने एहतराम कहीं नजरअंदाज नहीं होने दिया है।—गोदान, पृ० २३।

नजरअंदाजी
संज्ञा पुं० [अ० नजर + फा० अंदाजी] जाँच। छानबीन। परख [को०]।

नजरना पु
क्रि० अ० [अ० नजर से नामिक धातु] १. देखना। उ०—(क) कारीगरी मैं करी बहुतै नजरी गई तो कछुवै न भलाई।—बेनी प्रवीन (शब्द०)। (ख) नजरेई सब रहत हैं एक नजरिया और। उतनेही में चोर ही चित बित तुव दृगचोर।—रसनिधि (शब्द०)। (ग) न जरै जो नजरे रहे प्रीतम तुम मुख चंद।—रसनिधि (शब्द०)। २. नजर लगाना। दे० नजर।

नजरबंद (१)
वि० [अ० नजर + फा० बंद] जो किसी ऐसे स्थान पर कड़ी निगरानी मे रखा जाय जहाँ से वह कहीं आ जा न सके। जिसे नजरबंदी की सजा दी जाय। उ०—भूले लोभी नैन सों छबि रस आए चाख। दृग तारे देकै इन्हें नजरबंद कर राख।—रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।

नजरबंद (२)
संज्ञा पुं० जादू या इंद्रजाल आदि का वह खेल जिसके विषय में लोगों का यह विश्वास रहता है कि वह लोगों की नजर बाँधकर किया जाता है। लोगों की दृष्टि में भ्रम उत्पन्न करके किया जानेवाला खेल। जैसे, वह मदारी नजरबंद के बहुत अच्छे अच्छे खेल करता है।

नजरबंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० नजर + फा० बंदी] १. राज्य की ओर से वह दंड जिसमें दंडित व्यक्ति किसी सुरक्षित या नियत स्थान पर रखा जाता है और उसपर निगरानी रहती है। जिसे यह दंड मिलता है उसे कहीं आने जाने या किसी से मिलने जुलने की आज्ञा नहीं होती। २. नजरबंद होने की दशा। ३. लोगों की दृष्टि में भ्रम उत्पन्न करने की क्रिया। जादूगरी। बाजीगरी।

नजरबाग
संज्ञा पुं० [अ० नजर + फा० बाग] वह बाग जो महलों या बड़े बड़े मकानों आदि के सामने या चारों ओर उनके अहाते के अंदर ही रहता है।

नजरबाज
वि० [अ० नजर + फा० बाज (प्रत्य०)] आँखें लड़ानेवाला। प्रेम की दृष्टि से देखनेवाला।

नजरबाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० नजर + फा० बाजी] १. नजरबाज होने की क्रिया या भाव। २. आँखें लड़ाना।

नजरसानी
संज्ञा स्त्री० [अ०] किसी किए हुए कार्य या लिखे हुए लेख आदि को, उसमें सुधार या परिवर्तन करने के लिये फिर से देखना। पुनर्विचार या पुनरावृत्ति।

नजरहा
वि० [हिं० नजर + हा (प्रत्य०)] दे० 'नजरहाया'। उ०—नजरहा छैला रे नजर लगाये चला जाय, नजर लगो बेहोस भई मैं जिया मोरा अकुलाय।—भारतेदु ग्रं०, पृ० १८८।

नजरहाया
वि० [अ० नजर + हाया (प्रत्य०)] [स्त्री० नजरहाई] जो नजर लगावे। जिसकी नजर पड़ते ही कोई दोष उत्पन्न हो। नजर लगानेवाला।

नजरा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नजर'। उ०—नानक नजरा निहाल पलक में निहाला।—तुरसी श०, पृ० ३४६।

नजरानना पु †
क्रि० स० [हिं० नजर से नामिक धातु] १. भेंट में देना। उपहार स्वरूप देना। २. नजर लगाना। दे० 'नजर ६'।

नजराना (१)
क्रि० अ० [हिं० से नामिक धातु] नजर लग जाना। बुरी दृष्टि के प्रबाव में आना। जैसे, मालूम होता है कि यह लड़का कहीं नजरा गया है।

नजराना (२)
क्रि० स० नजर लगाना।

नजराना (३)
संज्ञा पुं० [अ० नज्राह] १. भेंट। डपहार। २. जो वस्तु भेंट में दी जाय।

नजरि पु
संज्ञा स्त्री० [अ० नजर] दे० 'नजर (१)'।

नजला
संज्ञा पुं० [अ० नज्लह्] १. यूनानी हिकमत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें गरमी के कारण सिर का विकारयुक्त पानी ढलकर भिन्न भिन्न अंगों की ओर प्रवृत्त होता और जिस अंग की ओर ढलता है उसे खराब कर देता है। विशेष—कहते हैं, यदि नजले का पानी सिर में ही रह जाय तो बाल सफेद हो जाते हैं। आँखों पर उतर आवे तो दृष्टि कम हो जाती है, कान पर उतरे तो आदमी बहरा हो जाता है, नाक पर उतरे तो जुकाम होता है, गले में उतरे तो खाँसी होती है और अंडकोश में उतरे तो उसकी वृद्धि हो जाती है। क्रि० प्र०—उतरना।—गिरना। २. जुकाम। सरदी।

नजलाबंद
संज्ञा पुं० [अ० नज्लह् + फा० बंद (प्रत्य०)] अफीम और चूने आदि का वह फाहा जो नजले को गिरने से रोकने के लिये दोनों कनपटियों पर लगाया जाता है।

नजाकत
संज्ञा स्त्री० [फा० नजाकत] १. नाजुक होने का भाव सुकुमारता। कोमलता। मृदुलता। २. सूक्ष्मता। बारीकी (को०)। ३. क्षीणता (को०)। ४. नाजुकमिजाजी (को०)।

नजात
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मुक्ति। मोक्ष। २. छुटकारा। रिहाई। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।

नजामत
संज्ञा स्त्री० [अ० नजामत] १. नाजिम का पद। २. नाजिम का मुहकमा या विभाग। ३. नाजिर का दफ्तर, जहाँ बैठकर नाजिर काम करता हो।

नजारत
संज्ञा स्त्री० [अ० नजारत] १. नाजिर का पद। २. नाजिर का मुहकमा। ३. नाजिर का दफ्तर, जहाँ बैठकर नाजिर काम करता हो।

नजारा
संज्ञा पुं० [अ० नज्जारह] १. दृश्य। २. दृष्टि। नजर। ३. दर्शन। दृश्य। ४. स्त्री या पुरुष का दूसरे पुरुष या स्त्री कौ लालसा या प्रेम की दृष्टि से देखना।—(बाजारू)। क्रि० प्र०—लड़ना।—लड़ाना।—मारना। ५. सैर। दृश्य। तमाशा (को०)।

नजारेबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नजारा + फा० बाजी] स्त्री या पुरुष का दूसरे पुरुष या स्त्री का प्रेम या लालसा की दृष्टि से देखना (बाजारू)।

नजिकाना पु †
क्रि० स० [हिं० नजीक (= नजदीक) + आना (प्रत्य०)] निकट पहुँचना। नजदीक पहुँचना। पास पहुँचना उ०—(क) जोर करि ज्यौं ज्यौं मृग बन नजिकात त्यौं त्यौं मो तें महीपति को मन नजिकात है।—रसकुसुमाकर (शब्द०)। (ख) सकल सुयोग सहिस सो सुदिवस आइ जबहिं नजिकना।—रघुराज (शब्द०)। (ग) बन पुर पहन गजरत नजिकाने निधि तीर।—हनुमान (शब्द०)। (घ) मरण अवस्था जब नजिकाई। ईश सखा के मन यह आई।—सूर (शब्द०)।

नजिस
वि० [अ०] मैला। गंदा। अपवित्र। अशुद्ध। उ०—मगर यहाँ तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं, यहाँ तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं।—कायाकल्प, पृ० ५०।

नजीक पु †
क्रि० वि० [फा० नजदीक] निकट। पास। समीप। उ०—है नजीक वही जहाँ छिति में विभूषित है खरै।— गुमान (शब्द०)। (ख) कौन की सीख धरी मन में चलि कै बलि काहे नजीक न जाति है।—प्रताप (शब्द०)।

नजीब
संज्ञा पुं० [अ०] कुलीन व्यक्ति जिसका शानदान शुद्ध हो। उ०—नजीबों का अजब कुछ हाल है दौर में यारो।—जहाँ पूछो वहीं कहते हैं हम बेकार बैठे हैं।—शेर०, पृ० २१०।

नजीम पु
संज्ञा पुं० [अ० नाजिम] दे० 'नाजिम'। उ०—बंगाली कूँम को नजीम नाँ कहायो। मेरो नाँम मुरतज्जा मोलबी बतायो।—शिखर०, पृ० ९३।

नजीर
संज्ञा स्त्री० [अ० नजोर] १. उदाहरण। दृष्टांत। मिसाल। २. किसी मुरदमें का वह फैसला जो उसी प्रकार के किसी दूसरे मुकदमे में वैसे ही फैसले के लिये उपस्थित किया जाय। क्रि० प्र०—दिखलाना।—देना।

नजूम
संज्ञा पुं० [अ०] ज्योतिष विद्या।

नजूमी
संज्ञा पुं० [अ०] ज्योतिषी।

नज्जारा
संज्ञा पुं० [अ० नज्जारहू] १. दर्शन। दीदार। २. सैर। दृश्य। तमाश [को०]। यौ०—नज्जारागाह = सौरगाह। विनोद का स्थल। नज्जारापसंद = जिसे नज्जाराबाजी पसंद हो। जो अच्छे अच्छे दृश्य देशने का शौकीन हो। नज्जाराफरेब = निगाह को लुभानेवाला। नज्जाराबाज = (१) नज्जारा देखने का शौकीन। (२) ताक झाँक करनेवाला। नज्जाराबाजी = ताक झाँक। ताकाझाँकी। आँखें लड़ना या सेकना।

नज्ल (१)
संज्ञा पुं० [अ० नुजूल] सरकारी जमीन। शहर की वह जमीन जो सरकार के अधिकार में हो।

नज्ल (२)
संज्ञा पुं० [अ० नज्लह] दे० 'नजला'।

नट
संज्ञा पुं० [सं०] १. दृश्य काव्य का अभिनय करनेवाला मनुष्य। वह जो नाट्य करता हो। नाट्यकला में प्रवीण पुरुष। २. प्राचीन काल की एक संकर जाति। विशेष—इसकी उत्पत्ति शौचकी स्त्री और शौंडिक पुरुष से मानी गई है और इसका काम गाना बजाना बतलाया गया है। ३. मनु के अनुसार क्षत्रियों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रात्य क्षत्रियों से मानी जाती है। ४. पुराणानुसार एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति मालाकार पिता और शूद्रा माता से मानी जाती है। ५. एक नीच जाति जो प्रायः गा बजाकर और तरह तरह के खेल तमाशे आदि करके अपना निर्वाह करती है। उ०—दीठि बरत बाँधी अटनि चढ़ि धावत न डरात। इत उत तें मन दुहुन के नट लों आवत जात।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—उत्तर प्रदेश में इस प्रकार के जो लोग पाए जाते हैं वे बाँसों पर तरह तरह की कसरतें करते और रस्सों पर अनेक प्रकार से चलते हैं। बंगाल में इस जाति के लोग प्रायः गाने बजाने का पेशा करते हैं। ६. एक नाग का नाम। विशेष—इसे भट नामक एक दूसरे नाग के साथ मथुरा के निकट उरुमुंड नामक पर्वत पर बुद्धदेव ने बौद्धधर्म में दीक्षित किया था। इसने तथा भट ने उस स्थान पर दो बिहार भी बनावाए थे। ७. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। विशेष—कुछ आचार्य इसे मालकोश राग का और कुछ आचार्य इसे श्री राग का पुत्र मानते हैम। कुछ लोगों का मत है कि यह वागीश्वरी, मधुमाध और पूरिया के मेल से बना हुआ है और किसी के मत से कुमकुम, पूरबी, केदारा और बिलावल के मेल से बना हुआ संकर राग है। रागमाला में इसे राग नहीं बल्कि रागिनी माना है। एक और शास्त्रकार ने इसे दीपक राग की रागिनी बतलाया है। उनके मत से यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और इस के गाने का समय तीसरा पहर और संध्या है। भिन्न भिन्न रागों के साथ इसे मिलाने से अनेक संकर राग भी बनते है। जैसे, केदारनट, छायानट, कामोदनट आदि। ८. अशोक वृक्ष। ९. श्योनाक वृक्ष। १०. नर्तक (को०)। ११. एक प्रकार का वेतस या बेत (को०)।

नटई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. गला। गरदन। २. गले की घँटी। घाँटी।

नटक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो नाट्य करता हो। अभिनेता [को०]।

नटखट
वि० [हिं० नट + अनु० खट] १. जो सदा कुछ न कुछ उपद्रव करता रहे। ऊधमी। उपद्रवी। चंचल। शरीर। २. चालाक। चालबाज। धूर्त। मक्कार।

नटखटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नटखट] बदमाशी। शरारत। पाजीपन।

नटचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभिनय।

नटता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नट का भाव। २. नट का काम।

नटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य करना। नाचना। २. अभिनय करना [को०]।

नटना (१)
क्रि० अ० [सं० नट] १. नाट्य करना। उ०—कहूँ नटत नट कोटि, भाँट वह गावत गुण गनि।—गुमान (शब्द०)। २. नाचना। नृत्य करना।

नटना पु † (२)
क्रि० अ० [हिं०] इनकार करना। कहकर बदल जाना। मुकरना। उ०—(क०) भौहन त्रासति मुख नटति आँखनि सो लपटाति।—बिहारी (शब्द०)। (ख) कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजि जात।—बिहारी (शब्द०)।

नटना (३)
क्रि० स० [सं० नष्ट] नष्ट करना। उ०—नटैं लोक दोऊ हठी पक ऐसे।—केशव (शब्द०)।

नटना (४)
क्रि० अ० नष्ट होना।

नटना (५)
संज्ञा पुं० [देश०] १. बाँस की भनी छलनी जिससे रस छाना जाता है। २. मछली पकड़ने का वह बड़ा टोकरा जिसका पेंदा कटा होता है। टाप।

नटनागर
संज्ञा पुं० [सं० नट + नागर] कृष्ण। उ०—जिन हठ करि री नटसागर सौं। भौरों ही है देव गान।—नंद० ग्रं०, ३६७।

नटनायक
संज्ञा पुं० [सं०] नटों में प्रधान, श्रीकृष्ण। उ०— नटनायक नंदलाल को मन पकरि नचावै।—घनानंद पृ० ४४५।

नटनारायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो हनुमत के मत से मेघ राग का तीसरा पुत्र और भरत के मत से दीपक राग का पुत्र है। लेकिन सोमेश्वर और कल्लिनाथ के मत से यह छह रागों में से एक है और कामोदी, कल्याणी, आभीरी, नाटिका, सारंगी और नट हंबीरा ये छह इसकी रागिनियाँ हैं। विशेष—यह संपूर्ण जाति का एक राग हैं, इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं और यह हेमंत ऋतु में रात के समय २१ दंड से २६ दंड तक गाया जाता है। कुछ लोग इसे मधुमाध, बिलावल के मेल से बान हुआ संकर राग भी मानते हैं।एक और शास्त्रकार के मत से यह षाड़व जाति का राग है। इसमें निषाद वर्जित है और यह बरसात में तीसरे पहर गाया गाया जाता है। उसके अनुसार बिलावल, कामोदी, सावेरी, सुहवी और सोरठ इसकी रागनियाँ और शुद्धनट, मेघनट, हम्मीरनट, सारंगनट, छायानट, कामोदनट, केदारनट, मेघनट, गौड़नट, भूपालनट, जयजयनट, शंकरनट, हीरनट, श्यामनट, वराड़ीनट, विभासनट, विहागनट, और शंकरा- भरणनट इसके पुत्र है। पर वास्तव में ये सब संकर राग हैं जो नट तथा भिन्न भिन्न रागों के मेल से बनते हैं।

नटनि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नटन] नृत्य। नाच।

नटनि (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नटना] इनकार। अस्वीकृत। उ०— समख हिये खिनखिन नटनि अनख बढ़ावत लाल।— बिहारी (शब्द०)।

नटनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नट+ नी (प्रत्य०)] १. नट की स्त्री। २. नट जाति की स्त्री। उ०—नटनी डोमिन ढाटिनि सहनायन परकार। निरतत नाद विनोद सौं बिहँसत खेलत नार।—जायसी (शब्द०)।

नटपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैगन। भाँटा।

नटबट्टा पु
संज्ञा पुं० [सं० नट + वट] नट का गेंद। उ०—आगे़ खबर फिरे ओहट्टा। बाटाँ दुतथ या नटबट्टा।—रा० रू०, पृ० ९५। विशेष—नट या बाजीगर खेल दिखाते समय कई गेंद हाथ में लेकर एक साथ हवा में उछालते हैं। गेंदों का ऊपर जाना और आना बड़ी तेजी से होता है और ऐसा लगता है मानो जो गेंद ऊपर जा रही थी वह बीच से ही वापस लौट आई हो।

नटबाजी
संज्ञा स्त्री० [सं० नट + हिं० बाजी] नट का कार्य। अभिनय। उ०—एह नटबाजी नट जेंव नाचे किमि करि या गति चीन्हा।—सं० दरिया, पृ० १६३।

नटभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल।

नटमंडल
संज्ञा पुं० [सं० नटमण्डन] हरताल। (डिं०)

नटमंडल
संज्ञा पुं० [सं० नटमण्डल] हरताल।

नटमल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का राग।

नटमल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग। विशेष—इसमें सब शुद्घ स्वर लगते हैं। यह नट और मल्लार के योग से बनता है।

नटरंग
संज्ञा पुं० [सं० नटरङ्ग] १. रंगमंच। २. वह वस्तु जो भ्रम हो (ला०) [को०]।

नटराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. निपुण नट। नटों में प्रधान या श्रेष्ठ नट। उ०—लरत कहूँ पायक सुभट कहुँ नर्तत नटराज।— केशव (शब्द०)। २. श्रीकृष्ण। ३. भगवान् शंकर। ४. शिव की एक प्रसिद्ध मूर्ति का नाम।

नटवना पु
क्रि० स० [सं० नट से नामिक धातु] नाट्य करना। अभिनय करना। स्वांग भरना। उ०—माधो जू सुनिये ब्रज ब्योहारा एक ग्वालि नटवति बहु लीला एक कर्म गुन गावति।—सूर (शब्द०)।

नटवर (१)
वि० [सं०] बहुत चतुर। चालाक।

नटवर (२)
संज्ञा पुं० १. प्रधान नट। नाट्यकला में बहुत प्रवीण मनुष्य। २. श्रीकृष्ण जो नाट्यकला और नाटक शास्त्र के आचार्य थे। ३. सूत्रधार (को०)।

नटवा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाटा] [स्त्री० नटिया] छोटे कद का या कम उमर का बैल।

नटवा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नट] नट। उ०—बिन पग नटवा निरत करत हैं, बिन कर बाजै ताल।—धरम०, पृ० ५९।

नटवासरसों
संज्ञा पुं० [हिं० नाटा (= छोटा) + सरसों] साधारण सरसों। विशेष—दे० 'सरसों'।

नटसंज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोदंती। हरताल। २. नट। अभिनेता।

नटसार पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाट्यशाला'।

नटसारा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाट्यशाला'।

नटसारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नटसार'। उ०—जिनि नटवै नटसारी साजी। जो खेले सो दीसै बाजी।—कबीर ग्रं०, पृ० २०७।

नटसाल
संज्ञा स्त्री० [सं० नष्ट (=निरोहित) + शल्य] काँटे का वह भाग जो निकाल लिए जाने पर भी टूटकर शरीर के भीतर रह जाता है। उ०—लगन जो हिए दुसार करि तऊ रहत नटसाल।—बिहारी (शब्द०)। २. बाण की गाँसी जो शरीर के भीतर रह जाय। ३. फाँस जो बहुत छोटी होने के कारण नहीं निकाली जा सकती। उ०— सालति है नटसाल सी क्यों हूँ निकसति नाहिं।—बिहारी। (शब्द०)। ४. कसम। पीड़ा। ऐसी मानसिक व्यथा जो सदा तो न रहे पर समय समय पर किसी बात या मनुष्य के स्मरण से होती हो। उ०—उठै सदा नटसाल सी सौतिन के उर सालि।—बिहारी (शब्द०)।

नटांतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० नटान्तिका] लज्जा। शरम। विशेष—लज्जा होने से नाट्य नहीं हो सकता, इसलिये इसे 'नटांतिका' कहते हैं।

नटाई
संज्ञा स्त्री० [देश०] जोलाहों का वह औजार जिससे किनारे का ताना ताना जाता है।

नटित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अभिनय। हावभाव [को०]।

नटित (२)
वि० ऊबा हुई। थका हुआ [को०]।

नटिन
संज्ञा स्त्री० [सं० या हिं० नट] १. नट की स्त्री। २. नट जाति की स्त्री।

नटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नट जाति की स्त्री। २. नाचनेवाली स्त्री। नर्तकी। उ०—बाजत ताल मृदंग धुनि, नाचति नटीनवीन।—हम्मीर० पृ० ३३। ३. अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री। ४. अभिनय करनेवाले नट की स्त्री। ५. वेश्या। ६. नखी नामक गंधद्रव्य। ७. मुख्य अभिन्तेरी जो सूत्रधार की पत्नी होती थी (को०)।

नटुआ † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नट + उआ (प्रत्य०)] दे० 'नट'।

नटुआ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नटई'।

नटुवा पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नट'। उ०—ब्रजनिधि नेह निधान निपट नव नागर नटुवा। रह्यौ रीझि मैं झूमि झूमि घूमत ज्यों लटुवा।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १८।

नटुवा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नटई'।

नटेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नटेश्वर'। उ०—देखा मनु ने निर्मित नटेश, हत चेत पुकार उठे विशेष।—कामायनी, पृ० २५४।

नटेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव। शिव।

नट्ट
संज्ञा पुं० [सं० नट या हिं० नट] [स्त्री० नट्टिन] दे० 'नट'।

नटया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संगीत में एक प्रकार की रागिनी जो प्रायः नट के समान होती है। २. नटों की मंडली।

नठना †पु (१)
क्रि० स० [सं० नष्ट] नष्ट करना। उ०—नठैं लोक दोऊ हठी एक ऐसे।—केशव (शब्द०)।

नठना †पु (२)
क्रि० अ० [सं० नष्ट] नष्ट होना।

नड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० नड] १. नरसल। नरकट। २. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि का नाम। ३. एक जाति जिसका पेशा शीशे की चुड़ियाँ वनाना है।

नड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० नद, हिं० नाला] दे० 'नाला'। उ०—मारू देस उपन्नियाँ, नड़ जन निसरे याँह।—ढोला०, दू० ४८३।

नड़क
संज्ञा पुं० [सं० नडक] १. कंधों के मध्य की हड्डी। २. हड्डी के भीतर का छेद [को०]।

नडनेरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०]।

नडप्राय
वि० [सं०] नरसल की अधिकता से पूर्ण [को०]।

नडभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ नरसल की बहुतायत हो [को०]।

नड़मीन
संज्ञा पुं० [सं० नडमीन] झिंगा मछली।

नडवन
संज्ञा पुं० [सं०] नरसल का वन [को०]।

नडश
वि० [सं०] नरसल से भरा हुआ या ढका हुआ [को०]।

नडह
वि० [सं०] लडह। सुदर। सुधर। खूबसूरत। सुरूप [को०]।

नड़िनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नडिनी] १. वह नदी जिसमें सरपत अधिक हो। नरसल का ढेर।

नडिल, नडवान्
वि० [सं० नडिल, नड्वत्] [वि० स्त्री० नड्वती] नरसल की बहुतायतवाला [को०]।

नड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नली?] एक प्रकार की आतिशबाजी।

नड्वल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरपत की चटाई। २. वह प्रदेश जहाँ पर सरपत या नरसल या घास बहुत अधिक हो। ३. एक वैदिक देवता का नाम।

नड़्वला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार वैराज मनु की स्त्री का नाम। २. नरसल की राशि या ढेरी (को०)।

नड्वाभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] तल। फर्श। कुट्टिम [को०]।

नढ़ना †
क्रि० स० [सं० नद्ध, प्रा० नड्ढ से नामिक धातु] १. गूँथना। पिरोना। २. बाँधना। कसना। उ०—छोटउ जन बैकुंठ जात को लागे परिकर नढ़न।—देव (शब्द०)।

नतंब पु
संज्ञा पुं० [सं० नितम्ब] उ०—कुटिल केस वय स्याम गौर गुन वाम काम रति। चोर धनी उन्नित नतंब (जानि) रवि बिंब बोय गति।—पृ० रा०, १२। २४८।

नत (१)
वि० [सं०] १. मुड़ा हुआ। टेढ़ा। २. नम्र। विनीत। झुका हुआ। ३. प्रणत। नमत करता हुआ। ४. पराजित। परास्त [को०]।

नत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तगर की जड़। तगरमूल। २. मध्याह्न रेखा से खमध्य या किसी ग्रह की दूरी। ६. झुकने की स्थिति। ४. नितंब। जैसे नततट [को०]।

नतइत †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नतैत'।

नतकाज
संज्ञा पुं० [सं०] याम्योत्तर या खमध्य से काल संबंधी दूरी (ज्यो०)।

नतकुर †
संज्ञा पुं० [हिं० नाती] बेटी का बेटा। बेटी की संतान नवासा। नाती।

नतगुल्ला †
संज्ञा पुं० [देश०] धोंधा।

नतघटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक घंटा या घड़ी का कोण (ज्यो०)।

नतद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शालवृक्ष जिसे लताशाल कहते हैं।

नतनाडिका, नतनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खमध्य से किसी तारे की कालगत दूरी। २. मध्याह्न के बाद और अर्धरात्रि के बीच जन्म की कोई घड़ी या जन्मकाल [को०]।

नतनासिक
वि० [सं०] चिपटी नाकवाला [को०]।

नतपाल
संज्ञा पुं० [सं० नत + पालक] प्रणाम करनेवाले का पालन करनेवाला। प्रणतपाल। शरणपाल। उ०—कान्ह कृपाल बड़े नतपाल गए खल खेचर खीस खलाई।—तुलसी (शब्द०)।

नतभ्र
वि० स्त्री० [सं०] तिरछी भौहोंवाली [को०]।

नतम
वि० स्त्री० [सं० नत (= टेढ़ा)] बाँका (ड़िं०)।

नतमी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो आसान प्रदेश में बहुत होता है। विशेष—इसकी लकड़ी चिकनी, मजबूत और लाल रंग की होती है, और उससे मेज, कुरसियाँ और नाव आदि बनाई जाती है।

नतर पु † (१)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'नतरु'।

नतर पु (२)
वि० [हिं०] निरंतर। नित्य। हमेशा। उ०—फागुनमास सुहावनों, ब्रजनिधि आए होत। नतर कुलाहल करत हैं, झौंर झौर पिक गोत।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २२।

नतरक पु
क्रि० वि० [हिं० न + तो] नहीं तो। उ०—कहत सबै कवि कमल से मो मत नैन पखान। नतरक कत इन विय लगत उपजत विरह कृशान।—बिहारी (शब्द०)।

नतरु पु †
क्रि० वि० [हिं० न + तो] नहीं तो। अन्यथा। उ०—(क) नतरु प्रजा पुरजन परिवारू। हमहिं सहित सब होत खुआरू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नतरु लखन सिय राम वियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा।—तुलसी (शब्द०)।

नतशिर
वि० [सं०] नम्र। विनीत। उ०—मेरे उस यौवन के मधु अभिषेक में नतशिर देख मुझे।—लहर, पृ० ६६।

नतांग
वि० पु० [सं० नताङ्ग] १. जिसका अंग या शरीर झुका हो। २. झुका हुआ। नत [को०]।

नतांगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नचाङ्गी] १. स्त्री। औरत।

नतांगी (२)
वि० झुके हुए अंगोंवाली। विनीता।

नतांश
संज्ञा पुं० [सं०] वह वृत्त जिसका केंद्र भूकेंद्र पर होता है और जो विषुवत रेखा पर लंब होता है। विशेष—यह वृत्त ग्रहों आदि को स्थिति निश्चित करने में काम आता है।

नतामुल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिमी घाट पर्वत पर बहुत होता है। विशेष—इसकी लकड़ी नरम होती है जिससे मेज कुरसी आदि बनती है। इसके रेशे मजबूत होते हैं जिनसे रस्से बनाते हैं। इसके पेड़ से एक प्रकार की जहरीली राल निकलती है जिसे तीरों में लगाकर उन्हें जहरीला बनाते हैं। इसे जसूँद भी कहते हैं।

नति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झुकाव। उतार। २. नमस्कार। प्रणाम। ३. विनय। विनती। ४. नम्रता। खाकसारी। ५. ज्योतिष में एक प्रकार की गणना। ६. वक्रता। टेढ़ाई (को०)।

नतिनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाती का स्त्री० रूप] लड़की की लड़की। नातिन।

नतीजा
संज्ञा पुं० [अ० नतीजह्] १. परिणाम। फल। उ०—तुम्हें देखि पावै, सुख पावै बहु भाँति, ताहि दीजै नेकु निरखि, नतीजा नेह नादे को।—कालिदास (शब्द०)। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।—पाना।—मिलना। २. परीक्षाफल (को०)। ३. अंत (को०)।

नतु पु
क्रि० वि० [हिं० न + तो अथवा सं० न + तु] नहीं तो। अन्यथा। उ०—कहि आपनो तू भेद। नतु चित उपजत खेद।—केशव (शब्द०)।

नतैत †
संज्ञा पुं० [हिं० नाता + ऐत (प्रत्य०)] संबंधी। रिश्तेदार। नातेदार। उ०—नाते हाते लिखि कै नतैतन ते आय गुरु लोगन देखाय कै करम केते केते डर के।—रघुनाथ (शब्द०)।

नत्थ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नथ'।

नत्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथ (= आभूषण) या नाथना] १. कागज या कपड़े आदि के कई टुकड़ों को एक साथ मिलाकर और आरपार छेद करके सबको डोरे या आलपीन आदि से एक ही में बाँधना वा फसाना। २. इस प्रकार एक ही में नाथे हुए कई कागज आदि जो प्रायः एक ही विषय से संबंध रखते हैं। मिस्ल।

नत्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कठफोड़वा नामक पक्षी।

नत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०]।

नथ
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाथना (=नाथ का अगला भाग)] एक प्रकार का गहना जिसे स्त्रियाँ नाक में पहनती है। उ०—(क) सहजै नथ नाक ते खोलि घरी करयो कौन धौं फंद या सेसरि को।—कमलापति (शब्द०)। (ख) इहि द्वै ही मोती सुगथ तू नय गरब निसाँक। जिहि पहिरे जग दृग ग्रसति हँसति लसत सी नाँक।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—यह बिल्कुल वृत्ताकार बाली की तरह का होता है और सोने आदि का तार खींचकर बनाया जाता है। इसमें प्रायः गूँज के साथ चंदक, बुलाक या मोतियों की जोड़ी पहनाई रहती है। छोटी नथ को बेसर कहते हैं। हिंदुओं में नथ सौभाग्य का चिह्न समझी जाती है।

नथना (१)
संज्ञा पुं० [सं० नस्त (=नाक)] १. नाक का अगला भाग। नाक का वह चमड़ा जो छेदों के परदे का काम देता है। मुहा०—नथना फुलाना = क्रोध करना। गुस्सा दिखलाना। नथना फूलना = क्रोध आना। २. नाक का छेद।

नथना (२)
क्रि० अ० [हिं० नाथना का प्रे० रूप] १. किसी के साथ नत्थी होना। नाथा जाना। एक सूत्र में बँधना। २. छिदना। छेदा जाना। जासे,—मेरे पैर काँटों से नथ गए हैं।

नथनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथ + नी (अल्पा० प्रत्य०)] १. नाक में पहनने की छोटी नथ। २. बुलाक। ३. तलवार की मुठ पर लगा हुआ छल्ला। ४. नथ के आकार की कोई चीज।

नथनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथना (=नाथा जाना)] बैल की नाक में नथी हुई रस्सी। नाथ।

नथिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथ + इया (प्रत्य०)] दे० 'नथ'।

नथुना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नथनी'।

नथुनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथनी] नाक में पहनने की नथ। उ०— बैनन मैन को बैन बजै यह नासिका रासथली नथुनी की।— गुमान (शब्द०)। मुहा०—नथुनी उतारना = कुमारी का कौमार नष्ट करना। कुमारी के साथ प्रथम समागम करना। चीरा उचारना। सिर ढँकाई करना। विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग केवल वेश्याओं की लड़कियों के संबंध में होता है।

नथुवा †पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नथुना'। उ०—नथुवा लै जाइ केरि बहुत सुँधावै फूल।—सुंदर०, ग्रं०, भा० २, पृ० ३९९।

नथूनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नथुनी'। उ०—छोटी नथूनी बड़े मुतियान बड़ी आँखियान बड़ी सुधरे हैं।—ठाकुर, पृ० ५।

नथूली पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नासाछिद्र। नथना। उ०— तनक तनक सी नाक नथूली। राजत नील सुपीत झँगूली।— नंद०, ग्रं०, पृ० २४५।

नथ्थ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नथ'। उ०—बनी कि कीर नासिका, सु गथ्थ नथ्थ भासिका।—ह० रासो, पृ० २४।

नद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ी नदी अथवा ऐसी नदी जिसका नाम पुल्लिंगवाची हो; जैसे सोन, दामोदर, ब्रह्मपुत्र। उ०— मिल्यो महानत सोन सुहावन।—तुलसी (शब्द०)। २. एक ऋषि का नाम। ३. समुद्र (को०)। ४. मेघ। बादल (को०)।

नदथु
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाद। गर्जन। २. बैल का डकरना। ३. रुदन [को०]।

नदन
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द करना। आवाजा करना।

नदनदीपति
संज्ञा पुं० [सं०] सागर। समुद्र।

नदना पु †
क्रि० अ० [सं० नदन (= शब्द करना)] १. पशुओं का शब्द करना। रँभाना। बँवाना। उ०—महिषी सुरभि पूर पय धारणि वृषभ नदत सानंदा।—रघुराज (शब्द०)। २. बजना। शब्द करना। उ०—(क) एक ओर जलद के माचे घहरारे मंजु एक ओर नाकन के नदत नगारे हैं।— रघुराज (शब्द०)। (ख) नदत दुंदुभि डंका बदत मारू हंका, चलत लागत धंका कहत आगे।—सूदन (शब्द०)।

नदनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. सिंह। शेर। ३. शब्द। आवाज। गर्जन। ४. स्तुति की ध्वनि (को०)। ५. युद्ध। संग्राम (को०)।

नदपति
[सं०] समुद्र [को०]।

नदम
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिण में पैदा होनेवाली एक प्रकार की कपास।

नदर (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] नद या नदी के आसपास का प्रदेश।

नदर (२)
वि० जिसे किसी प्रकार का भय न हो। निडर।

नदराज
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

नदान पु †
वि० [फा० नादान] बे समझ। बुद्धिहीन। उ०— दान दे रे जिय को नदान निर्दई कान्ह, बसी सब रैन मोहि अब घर जान दे।—देव (शब्द०)। २. छोटी उम्र का। इतनी छोटी उम्र का जो संसार का व्यवहार बिलकुल न समझ सकता हो। उ०—(क) जो जसुमति तें जाय पुकारें। लखि नदान तहँ हम ही हारै।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) भैया तोर निपट नदान छोटी ननदी।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४०।

नदामत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पश्चात्ताप। २. लज्जित होने का भाव। हया। उ०—खोजे खलक नहिं आप में। नाहक नदामत को सहे।—तुरसी०, श०, पृ० २७।

नदारत
वि० [फा० नदारद] दे० 'नदारद'।

नदारद
वि० [फा०] गायब। अप्रस्तुत। जो मौजूद न हो। लुप्त। जैसे,—जब बक्स खोला तब उसमें रुपया पैसा सब नदारद था।

नदाल
वि० [सं०] भाग्यशाली [को०]।

नदि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्तुति।

नदिआ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नदी] दे० 'नदी'। उ०—नदिया जोर भउ अथाह। भीम भुअंगम पथ चललाह।—विद्यापति, पृ० ३३३।

नदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी नदी या नाला [को०]।

नदिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० नवद्विप] बंगाल प्रांत का एक प्रसिद्ध नगर जो न्यायशास्त्र का विद्यापीठ माना जाता है।

नदिया † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नदिका, अथवा हिं० नदी + इया (प्रत्य०)] दे० 'नदी'।

नदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जल का वह प्राकृतिक और भारी प्रवाह जो किसी बड़े पर्वत या जलाशय आदि से निकलकर किसी निश्चित मार्ग से होता हुआ प्रायः बारहों महीने बहता रहता हो। दरिया। विशेष—(क) पहाड़ों पर बरफ के गलने या वर्षा होने के कारण जो पानी एकत्र होता है वह गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के अनुसार नीचे की ओर ढलता और मैदानों में से होता हुआ प्रायः समुद्र तक पहुँचता है। कभी यह पानी अपनी स्वतंत्र धारा में समुद्र तक पहुँचता है और कभी समुद्र तक जानेवाली किसी दूसरी बड़ी धारा में मिल जाता है। जो धारा सीधी समुद्र तक पहुँचती है वह भौगोलिक परिभाषा में मुख्य नदी कहलाती है और जो दूसरी धारा में मिल जाती है वह सहायक नदी कहलाती है। ऐसा भी होता है कि नदी या तो जाकर किसी झील में मिल जाती है और या किसी रेतीले मैदान आदि में लुप्त हो जाती है जिस स्थान से नदी का आरंभ होता है उसे उसका उदगम कहते हैं, जिस स्थान पर वह किसी दूसरी नदी से मिलती है उसे संगम कहते हैं और जिस स्थान पर वह समुद्र में मिलती है उसे मुहाना कहते हैं। नदी जिस मार्ग से बहती है वह मार्ग गति कहलाता है और उसके बहाव के कारण जमीन में जो गड्ढा बन जाता है गर्भ कहलाता है। साधारणतः नदियाँ बारहों महीने बहती रहती है, पर छोटी नदियाँ गरमी के दिनों में बिलकुल सूख जाती हैं। वर्षा में प्रायः सभी नदियों का जल बहुत अधिक बढ़ जाता है क्योंकि उन दिनों आस पास के प्रांत का वर्षा का जल भी आकर उनमें मिल जाता है। उससे उसका पानी बहुत अधिक मटमैला भी होता है। (ख) 'नदी' वाचक शब्द से ईश, नाथ, प, पति, वर इत्यादि 'पति' वाची शब्द या प्रत्यग लगाने से वह 'समुद्र' वाची शब्द हो जाता है। जैसे, नदीश, सरित्पति, अपगानाथ, तटिनीवर इत्यादि। पर्या०—सरि। सरिता। आपगा। तरंगिणी। शैवलिनी। तटिनी। ह्रदिनी। धुनी। स्त्रोतस्वती। स्रवंती। निम्नगा। निर्झरणी। सरस्वनी। समुद्रगा। कूलवती। कूलंकषा। कल्लोलिनी। स्रोतास्विनी। ऋषिकुल्या। स्रोतेवहा। यौ०—नदीश = समुद्र।मुहा०—नदी नाव संयोग = ऐसा संयोग जो बार बार न हो, कभी एक बार इत्तिफाक हो जाय। २. किसी तरल पदार्थ का बड़ा प्रवाह। जैसे,—रक्त की नदी बह निकली।

नदीकदंब
संज्ञा पुं० [सं० नदीकदम्ब] १. बड़ी गोरखमुंडी। २. नदियों का समूह (को०)।

नदीकांत
संज्ञा पुं० [सं० नदीकान्त] १. समुद्र। २. समुद्रफल। ३. सिंधुवार नामक वृक्ष। ४. वरुण (को०)।

नदीकाता
संज्ञा पुं० [सं० नदीकान्ता] २. जामुन का पेड़। २. काकजंधा।

नदीकूल
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का तट [को०]।

नदीकूलप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] जलबेत।

नदीकृकंठ
संज्ञा पुं० [सं० नदीकृकण्ठ] नौपाली बौद्धौ का एक तीर्थ। विशेष—कहते हैं कि एक विशिष्ट योग में यहाँ स्नान करने से एश्वर्य की वृद्धि और शत्रुओं का नाश होता है।

नदीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] नदी के दोनों किनारों के बीच का स्थान। वह गड्ढा जिसमें से होकर नदी का पानी बहता है।

नदीगूलर
संज्ञा पुं० [हिं०] लिसोड़ा।

नदीज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला सुरमा। २. सेधा नमक। ३. अर्जुन वृक्ष। ४. समुद्रफल। ५. महाभारत के अनुसार भीष्म जो गंगा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ६. कमल (को०)।

नदीज (२)
वि० जो नदी से उत्पन्न हुआ हो।

नदीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निमथ वृक्ष। अरणी का पेड़।

नदीजामुन
संज्ञा स्त्री० [सं० नदी + हिं० जामुन] छोटा जामुन।

नदीतर
संज्ञा पुं० [सं०] नदी पार करना [को०]।

नदीतरस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ से नदी पार की जाय। बाट।

नदीदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव का एक नाम।

नदीदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] नदी के बीच में या द्वीप में बना हुआ दुर्ग। ऐसा दुर्ग निकृष्ट माना गया है।

नदीदोह
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर जो नदी पार करने के बदले में दिया जाय। नदी पार होने का महसुल।

नदीधर
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा को मस्तक पर धारण करनेवाले, शिव। महादेव।

नदीन
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. वरुण देवता। ३. वरुण या बन्ना नामक जगली पेड़ जो पलाश की तरह का होता है।

नदीनिवास पु
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। उ०—नदीनिवासउ उत्तरइ, आणू एक अविंध।—ढोला, दू० २३०।

नदीनिष्पाव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान जिसका चावल कड़वा होता है। बोरो। विशेष—वैद्यक में यह कड़ुवा, कसैला, भारी, रूखा, वात और कफ उत्पन्न करनेवाल और विष-दोष-नाशक माना गया है।

नदीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. वरुण।

नदीपूर
संज्ञा पुं० [सं०] नदी जिसके किनारे बाढ़ आने से डूबे हों [को०]।

नदीभल्लातक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का भिलावाँ जो जल के किनारे होता है। विशेष—इसके पत्ते गूमा के पत्तों के समान होते हैं, और फल लाल रंग का होता है। वैद्यक में यह कड़ुआ, कसैला, मधुर, ठढा, ग्राही वातकारक और कफापित्त, रक्तपित्त तथा व्रणनाशक माना जाता है।

नदीभव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा नमक।

नदीभव (२)
वि० जो नदी में उत्पन्न हुआ हो।

नदीभाषक
संज्ञा पुं० [सं०] मानकंद या मानकच्चू नामक कद।

नदीमातृक
संज्ञा पुं० [सं०] वह देश जहाँ की खेती बारी का सारा काम केवल नदी के जल से होता और जहाँ वर्षा के जल की कोई आवश्यकता न हो। जैसे, मिस्र देश।

नदीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ समुद्र में नदी गिरती हो। नदी को मुहाना।

नदीरय
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का प्रवाह या धारा [को०]।

नदीवंक
संज्ञा पुं० [सं० नदीवङ्ग] नदी का मोड़ [को०]।

नदीवट
संज्ञा पुं० [सं०] बट या बड़ का पेड़।

नदीश
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

नदीष्ण
वि० [सं०] १. नदी में स्नान करनेवाला। २. नदी के संकटपूर्ण स्थलों, गहराई और धारा को जाननेवाला। ३. अनुभवी। दक्ष। कुशल। पारंगत (को०)।

नदीसर्ज
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन वृक्ष।

नदेया
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि जबू। छोटी जामुन।

नदोला
संज्ञा पुं० [हिं० नाँद + ओला (प्रत्य०)] मिट्टी की छोटी नाँद।

नद्द पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाद] दे० 'नाद'। उ०—हलकंत घाव वाहत घोर। किलकंत नद्द नारद्द बीर।—पृ० रा०, १। ६६०।

नद्द (२)
संज्ञा पुं० [सं० नद] दे० 'नदना'।

नद्दी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० नदी] दे० 'नदी'।

नद्ध (१)
वि० [सं०] १. बंधा हुआ। बद्ध। नढ़ा हुआ। नथा हुआ। २. छिपा हुआ। भीतरी तीर पर बुना हुआ या गुँथा हुआ (को०)। ३. संयुक्त। संबद्ध (को०)।

नद्ध (२)
संज्ञा पुं० बंध। बँधन। ग्रंथि। गाँठ [को०]।

नद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँधने या गाँठ देने की क्रिया या स्थिति (को०)।

नधी †
संज्ञा स्त्री० [सं० निद्धि] दे० 'नाधा'।

नध्द्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमड़े की डोरी। ताँत। २. चमड़े की पट्टी (को०)।

नद्य
वि० [सं०] १. नदी से उत्पन्न। २. नदी संबंधी [को०]।

नद्याम्र
संज्ञा पुं० [सं०] समष्ठिला। कोकुआ का पौधा।

नद्यावर्तक
संज्ञा [सं०] फलित ज्योतिष में यात्रा के लिये एक शुभ योग। विशेष—यह योग उस समय होता है जब बुध अपनी राशि पर हो और बृहस्पति या शुक्र लग्न में हो अथवा मंगल उच्चस्थित हो और शनि कुभ राशि में हो। कहते हैं, इस योग में यात्रा करने से सब प्रकार के शत्रुओं का बहुत सहज में नाश हो जाता है। इसे नद्यावर्तक भी कहतै हैं।

नद्यत्सृष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जो नदी के हट जाने से निकल आया हो। चर। गंगबरार।

नधना
क्रि० अ० [सं० नद्ध + हिं० ना (प्रत्य०)] १. रस्सी या तस्मे के द्वारा बैल, घोड़े आदि का उस वस्तु के साथ जुड़ना या बँधना जिसे उन्हें खींचकर ले जाना हो। जुतना। जैसे, बैल का गाड़ी या हल में नधाना। मुहा०—काम में नधना = काम में लगना। जैसे,—तुम तो दिन रात काम में नधे रहते हो। २. जुड़ना। संबंद्ध होना। ३. किसी कार्य का अनुष्ठित होना। काम का ठनना। जैसे,—जब यह काम नध गया है तब इसे पूरा ही कर डालना चाहिए।

नधाना पु
क्रि० स० [हिं० नाधना का प्रे० रूप] दे० 'नाधना'। उ०—तीरथ बरत के बेला हो, मन देहु नधाय।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ३६।

नधाव
संज्ञा पुं० [हिं० नधना] सिंचाई के लिये पानी ऊपर चढा़ने में ऊपर उलीचने के लिये जो कई गड्ढे बनाने पड़ते हैं उनमें सबसे नीचे का गड्ढा।