विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ई

विक्षनरी से


हिंदी वर्णमाला का चौथा । यह यथार्थ में 'इ' का दीर्घ रूप है । इसकी उच्चारण का स्थान तालु है । इसको प्रत्यय की भाँति कुछ शब्दों में लगाकर संज्ञा और विशेषण, स्त्रीलिंग, क्रिया स्त्रीलिंग तथा भाववाचक संज्ञा आदि बानाते हैं । जैसे— घोड़ा से घोड़ी, अच्छा से अच्छी, गया से गई, स्याह से स्याही, क्रोध से क्रोधी, आदी ।

ईंखन
पुं० [सं० ईड़्खन] झूलना [को०] ।

ईंगुर
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुल, प्रा० इंगुल] एक खनिज पदार्थ जो चीन आदि देशों में निकलता हैं । इसकी ललीई बहुत चटकीली और सुंदर होती है । लाल वस्तुओं की उपमा ईगुर से दी जाती है । हिंदू सौभाग्यवती स्त्रियाँ माथे पर शोभा के लिये इसकी बिंदी लगाती हैं । इससे पारा बहुत निकाल जाता हैं । उ०—जहाँ जहाँ यह अपने चरनों को धरती ऐसा जाना पड़ता कि ईंगुर बगर गया हैं । — श्यामा०, पृ २८ । विशेष — अब कृत्रिम ईगुर बनाया जाता हैं । यह गीला और सूखा दो प्रकार का बनता है । पारा, गंधक, पोटास और पानी एक साथ मिलाकर एक लंबे बरतन में रखते हैं जिसमें मथने के लिये बेलन लगे रहते हैं । मथने के बाद द्रव्य का रंग काला हो जाता है, फिर ईट के रंग का होता है अंत में खासा गीला ईंगुर हो जाता है । सुखा ईंगुर इस प्रकार बनता है— ८ भाग पारा, १ भाग गंधक एक बंद बरतन में आँच पर चढाते हैं । यह बरतन घूमता रहता है, जिससे दोनों चीजें खूब मिल जाती हैं और ईंगुर तैयार हो जाता हैं । प्रक्रिया में थोड़ा फेरफार कर देने से यह ईंगुर कई रंगों का हो सकता है— जैसे प्याजी, गुलाबी और नारंगी इत्यादि । यह रंगसाजी और मोहर की लाह बनाने के काम में आता है ।

ईंचना पुं०
क्रि० स० [सं० अञ्चन =जाना, ले जाना, सिकोड़ना, खींचना] खींचना । ऐंचना । उ०—न कर्यास उस ईचने में फटी, न चारो के हाथों से चादर छुटी । — दक्खिनी०, पृ० ३०१ ।

ईंचमनौती †
संज्ञा स्त्री०[हिं० ईचना + मनौती] जमींदार का अपने काश्तकार के महाजन से लगान का रुपया वसूल कर लेना और उस रुपए को उस काश्तकार के नाम महाजन की बही में लिखवा देना ।

ईंचातानी
संज्ञा स्त्रीं [हिं० ईचना + तानना] दें 'ऐंचातानी' ।

ईंट
संज्ञा स्त्रीं [इष्टका, पा० इद्ट का, पा० इट्टआ] १.साँचे में ढ़ाल हुआ मिट्टा का चौखूँटा लंबा दुकड़ा जो पजावे में पकाया जाता हैं । इसे जोड़कर दीवार उठई जाती है । उ०— हीरा ईट कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै आवा । — जायसी ग्रं०, पृ १८ । विशेष— ईट के कई भेद हैं— (क) लखौरी, जो पुराने ढ़ंग की पतली ईंट है । (ख) नंबरी जो मोटी है और नए ढ़ंग की इमारतों में लगती । (ग) पुठ्ठी जो यथार्थ में मिट्ठी की एकचौड़ी परिधि के बराबर खंड़ करके बनाई जाती है । ये खंड या ईटें कूएँ की जोड़ाई में काम आती हैं । इनके सिवा और भी कई प्रकार की ईंटें होती हैं; जैसे ककैया ईट, नौतेरही ईट, ननिहारी ईट, मेज की ईंट, फर्रा ईट और तामड़ा ईंट । क्रि० प्र०— गढ़ना= ईट को हथौड़ो से काट छाँटकर जोड़ाई में बैठने योग्य करना । — चुनना = ईंटों की जोड़ाई करना । — जोड़ना= दीवार उठाते समय एक ईट के ऊपर या बगल में दूसरी ईंट रखना ।— पाथना या पारना = गीली मिट्टी को साँचे में ढ़ाल कर ईंट बनाना । यौ०.—ईंटकारी= ईंट का काम । ईंट की जोड़ी । ईंट का परदा = ईंट की एकहरी जोड़ाई की परली दीवार जो प्राय? विभाग करने के लिये उठाई जाती है । मुहा०—ईंट का छल्ला देना = कच्ची दीवार से सटाकर ईंट की एकहरी जोड़ाई करना । ईंट से ईंट बजना = (१) किसी नगर या घर का ढह जाना या ध्वंस होना । जैसे, — जहाँ कभी अच्छे अच्छे नगर थे, वहाँ आज ईट से ईट बज रही है । (२) ताबाह होना । घरबार तक ध्वस्त हो जाना । ईंट से ईंट बजाना= (१) किसी नगर या घर को ढहाना या ध्वस्त करना । (२) तबाह करना । बर्बाद करना । जैसे, — महमूद जहाँ गया वहाँ उसने ईंट से ईट बजा दी । डेढ़ या ढाई ईंट की मसजिद अलग बनाना = सबसे निरालां ढंग रखना । जो सब लोग कहते या करते हो; उसके विरूद्ध कहना या करना । गुड़ दिखाकर ईंट या ढेला मारना = भलाई की आशा देकर बुरीई करना । ईंट पत्थर = कुछ नहीं । जैसे, — (क) तुमने इतने दिनों तक क्या पढ़ा, ईंट पत्थर ? (ख) उन्हें ईट पत्थर भी नहीं । आता । २. धातु का चौखूँटा ढला हुआ टुकड़ा । जैसे, — सोने की ईट । चाँदी की ईंट ।३. ताश का एक रंग जिसमें ईंट का लाल चिहन बना रहता है ।

ईंटा
संज्ञा पुं० [सं इष्टका] दे० 'ईंठ' ।

ईंडरी †
संज्ञा स्त्री०[ सं० कुण्ड़ली ?] कपड़े की बनी हुई कुड़लाकर गद्दी जिसे घड़ा या और कोई बोझ उठते समय सिर पर रख लेते हैं । उ०— आई संग अलिन कें ननद पठाई नीठ सोहत सुहाई सूही ईडरी सुपट की । कहै पदमाकर गभीर जमुना के तीर लागी घट भरन नवेली नेह अटकी । —पदमाकर (शब्द०) ।

ईंड़ुरी पुं०
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ईंडरी' । उ०—काहू को हरत चीर, काहू को गिरावे नीर काहू की ईंडरी दुरावै । - भारतेंदु ग्रं, भा० २. पृ ४५४ ।

ईंढ
वि० [सं० ईदृश प्रा० * ईड़ह; * ईढ़] बराबर । समान । (ड़ि०) ।

ईंत
संज्ञा पुं० [हिं० ईंट] ईंट जो औजारों पर सान चढ़ाते समय सान के नीचे इसलिये रख दी जाती है जिसमें उसके कण लगकर धार को और तेज करें ।

कि० प्र०—लगाना ।

ईदर †
[देश०] आठ दस दिन की ब्याई हुई गाय के दूध को औटाकर बनाई हुई एक प्रकार की मिठाई । प्योसी । ईन्नर ।

ईंधन
संज्ञा पुं० [ सं० इन्धन] १. जलाने की लड़की, कोयला, कंड़ा आदी । जलावन । जरवनी । उ०— विधन ईंधन पाइए सायर जुरे न नीर । परे उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुवीर ।— तुलसी (शब्द०) ।२. किसी यंत्र को गतिशोल करने के लिये उसमें दी जानेवाली सामग्री या पदार्थ, जैसे- तेल, पेट़्रोल, कोयला आदि । ३. ऐसी बात जो क्रुद्ध व्याक्ति को और अधिक उत्ते जित करने में सहायक हो ।

ई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी ।

ई (२) पुं०
सर्व [सं० ई = निकट का संकेत] यह । उ०— (क) कहहिं० कबीर पुकारि कै ई लेऊ व्यवहार । एक राम नाम जाने बिना भव बूड़ि मुआ संसार । — कबीर (शब्द०) । (ख) विरल रसिक जन ई रस जान । — विद्यापति०, पृ० ३०८ ।

ई (३)
अव्य [सं० बिं०] जोर देने का शब्द । ही । उ०— पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास । नित प्रति पून्यो ई रहै आनन ओप उजास । — बिहारी (शब्द०) ।

ई (४)
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव [को०] ।

ईकार
संज्ञा पुं० [सं०] 'ई' स्वर अथवा दीर्घ ई का सूचक वर्ण [को०] ।

ईकारांत
वि० [सं० ईकारान्त] (शब्द०) जिसके अंत में 'ई' हो । वह शब्द जिसके अंत मनें ईकार हो ।

ईक्ष पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० इक्षु] दे० 'ईख' । उ०— भयौ सरकार ईक्ष रस व्यापि मिठाई माहिं । सुंदर ब्रह्म सु जगत है, जगत ब्रह्म द्वै नाहिं । — सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ ८०२ ।

ईक्षक
संज्ञा पुं० [सं० ] १. देखनेवाला । दर्शक । २. विचार या विमर्श करनेवाला [को०] ।

ईक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ईक्षणीय, ईक्षित, ईक्ष्य] १. दर्शन । देखना । २. आँख । उ०— पंकज के ईक्षण शरद हँसी । - बेला, पृ० २२ । ३. दो (२) की संख्या का सूचक शब्द (को०) । ४. विवेचन । विचार । जाँच । विशेष—इसमें अनु, नि, परि, प्रति, अभि, अप, उप, या सम् उपसर्ग लगाकर अन्वीक्षण, निरीक्षण, परीक्षण, प्रतीक्षण, अभी- क्षण, अपेक्षण, उपेक्षण, समीक्षण आदी शब्द बनाए जाते हैं ।

ईक्षणिक, ईक्षणीक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ईक्षणिका] १. दैवज्ञ । ज्योतिषी । २. सामुद्रिक जाननेवाला ।

ईक्षा
संज्ञा स्त्री०[सं०] १.दृष्टि । दर्शन । २. विवेचन । ३. आत्मज्ञान [कों०] । विशेष— इसमें परि, अप, सम्, उप, प्र, वि आदि लगाकर परीक्षा, समीक्षा, अपेक्षा, उपेक्षा, वीक्षा आदि शब्द बनाए जाते हैं ।

ईक्षिका
संज्ञा स्त्री०[सं०] देखने की इंद्रिय । आँख । दृष्टि [को०] ।

ईक्षित
वि० [सं०] १. दृष्ट । देखा हुआ । २. विवेचित [को०] ।

ईक्षिता
वि० [ईक्षितृ] देखनेवाला [को०] ।

ईख
संज्ञा स्त्री० [सं० इक्षु, प्रा० इक्खु] शर जाति का एक प्रकार जिसके डंठल में मीठा रस भरा रहता हैं । इसके रस से गुड़ चीनी और मिश्री अदि बनती हैं । ड़ंचल में ६-६ या ७-७ अंगुर पर गाँठें होता हैं और सिरे पर बहुत लंबी लंबी पत्तयाँ होती हैं, जिन्हें गेंड़ा कहते हैं ।विशेष— भारतवर्ष में इसकी बुआई चैत बैसाख में होती हैं । कार्तिक तक यह पक जाती हैं, अर्थात् इसका रस मीटा हो जाता है और कटने लगती है । ड़ंठलों को कोल्हू में पेरकर रस निकालते हैं । रस को छानकर कड़ाहे में औटाते हैं । जब रस पककर सूख जाता है तब गुड़ कहलाता है । यदि राब बनाना हुआ तो औटाते समय कड़ाहे में रेंड़ी की गूदी का पुट देते हैं । जिससे रस फट जाता है और ठंढा होने पर उसमें कलमें वा रवे पड़ जाते हैं । इसी राब से जूसी या चोटा दूर करके खाँड़ बनाते हैं । खाँड़ और गुड़ गला कर चीनी बनाते हैं । ईख के तीन प्रधान भेद माने गए हैं । ऊख, गन्ना और पौंढ़ा । (क) ऊख— इसका ड़ंठल पतला, छोटा और कड़ा होता है । इसका कड़ा छिलका कुछ हरापन लिये हुए पीला होता है और जल्दी छाला नहीं जा सकता । इसकी पत्तियाँ पतली, छोटी, नरम और गहरे हरे रंग की होती है । इसकी गाँटों में उतनी जटाएँ नहीं होतीं, केवल नीचे दो तीन गाँठों तक होती हैं । इसकी आँखें, जिनसे पत्तियाँ निकलती हैं, दबी हुई होती हैं । इसके प्रधान भेद धौल, मतना, कुसवार, लखड़ा, सरौती आदि हैं । गुड़ चीनी आदि बनाने के लिये अधिकतर इसी की खेती होती है । (ख) गन्ना- यह ऊख से मोटा और लंबा होता है । इसकी पत्तियाँ ऊख से कुछ अधिक लंबी और चौड़ी होती हैं । इसकी छिलका कड़ा होता है, पर छीलने से जल्दी उतर जाता है । इसकी गाँठों में जटाएँ अधिक होती हैं । इसके कई भेद हैं; जैसे, — अगौल, दिकचन, पंसाही, काला गन्ना, केतारा, बड़ौखा, तंक, गोड़ार । इससे जो चीनी बनती हैं । उसका रंग साफ नहीं होता । (ग) पोंढ़ा— यह विदेशी है । चीन, मारिशस (मिरच का टापू), सिंगापुर इत्यादि से इसकी भिन्न भिन्न जातियाँ आई हैं इसका ड़ंठल मोटा और गूदा नरम होता हैं । छिलका कड़ा होता है और छीलने से बहुत जल्दी उतर जाता है । यह यहाँ अधिकतर रस चूसने के काम में आता है । इसके मुख्य भेद थून, काल गन्ना और पौंठा हैं । राजनिघंटु में ईख के इतने भेद लिखे हैं- पौंड्रक (पौंढ़ा) भीरुक, वंशक (बड़ौखा), शतपोरक (सरौती), कांतार (केतारा), तापसेक्षु, काष्टेक्षु (लखड़ा), सूचिरपत्रक, नैपाल, दीर्घपत्र, नीलपोर (काल गेड़ा), कोशकृत (कुशवार या कुसियार) ।

ईखत पुं०
वि० [सं० ईषत्] दे० 'ईषत्' । - नंद० ग्रं०, पृ० १०० ।

ईखना पुं०
क्रि० स० [सं०, ईक्षण प्रा० इक्खण] देखना । अवलोकना ।— (ड़िं०) ।

ईखराज
संज्ञा पुं० [हिं० ईख + राज] ईख बोने का प्रथम दिन ।

ईच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] दे० 'इच्छा' । उ०— जो प्रभुन की ईच्छा भई सो सही । - दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२९ ।

ईछन पुं०
संज्ञा पुं० [सं० ईक्षण = आँख, प्रा० * ईच्छन] आँख । उ०— दृगनु लगत बेधत हियहिं, बिकल करत अँग आन । ये तेरे सबतैं बिशम ईछन तोछन बान । - बिहारी रा०, दो० ३४९ ।

ईछना पुं०
क्रि० स० [सं० इच्छन] इच्छा करकना । चाहना । उ०— बाहिर भीतर भीतर बाहिर ज्यौं कोउ जानै त्यौं ही करि ईछो । जैसो ही आपुनौ भाव है सुंदर तैंसोहि है दृग खालि कै पीछो ।- सुंदर० ग्रं० भा० २, पृ ५७७ ।

ईछा पु
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० 'इच्छा' । उ०—बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा । मानस, ६ ।४९ ।

ईछी पु
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० 'इच्छा' । उ०— बेष भये विष, भावे न भूषण भोजन को कुछ हूँ नहिं ईछी । देव (शब्द०) ।

ईजति पु
संज्ञा स्त्री [अ० इज्जत ] दे० 'इज्जत' । उ०—हिंदुवान द्रुपदी की ईजति बचैंबे काज झपटि बिराटपुर बाहर प्रमान कै । भूषण ग्रं०, पृ०९६ ।

ईजा
संज्ञा स्त्री [म० इज़ह् ] दुःख । तकलीफ । पीडा़ । कष्ट । उ०—जस मनसा तस आगे आवै, कहै कबीर ईजा नहि पावै । —कबीर सा०, पृ०४४४ । क्रि० प्र०—देना ।—पहुँचना ।— पहुँचाना ।

ईजाद
संज्ञा स्त्री [ अ० ] किसी नई चीज का बनाना । नया निर्माण । आविष्कार । क्रि०प्र०—करना । होना ।

ईजान
वि० [ सं० ] १. यज्ञ करनेवाला । यजमान ।२. यज्ञ करानेवाला [को०] ।

ईठ पु
वि० संज्ञा पुं० [ सं० इष्ट, प्रा०इट्ठ ] १. जिसे चाहें । प्रिय । मित्र । सखा । उ०—(क) यार दोस्त बोले जा ईठ ।— खूसरो (शब्द०) । (ख) ज्यों क्यों हुँ न मिलै कहुँ केशव दोऊ ईठ ।- केशव (शब्द०) । (ग) करै निरादार ईठ को निज गुमान गहि बाम ।-पद्माकर ग्रं० पृ०१७७ । २. चेष्टा । यत्न । उ०—केशव कैसहुँ ईठन दीठि है दीठ परे रति ईठ कन्हाई ।-केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ४६ ।

ईठना पु
क्रि० अ० [सं० इष्ट+हिं० ना (प्रत्य०) ] चाह करना । इच्छा करना ।

ईठा पु
वि०[ सं० इष्ट ] अभिलषित । उ०—नानक बारबाँ हाटु अनंत सुख ईठा ।—प्राण०, पृ० १४५ ।

ईठि पु
संज्ञा स्त्री [ सं० इष्टि, प्रा० इट्ठि ] १. मित्रता । दोस्तो, प्रीति । उ०—लहि सूनैं घर कर गहत दिठादिठी की ईठि । गडी़ सूचित नाहीं करति करि ललचौंही दीठि । -बिहारी र०, दो० ५८२ । २. चेष्टा । यत्न । उ०—सखियाँ कहैं सु साँच है लगत कान्ह की डीठि । कालि जु मो तन तकि रह्यो उमरचो आजु सो ईठि ।- भिखारी० ग्रं०, भा०१, पृ० ७ । ३. सखी । उ०—लोनै मुहुँ दीठि न लगै, यौं कहि दीनौ ईठि । दूनी है लागन लगी, दिऐं दिठौना दीठि ।- बिहारी र०, दो० २७ ।

ईठी (१
संज्ञा स्त्री० [ देश०] १. भाला । बरछा । २. दंड ।

ईठी (२
वि० [सं० इष्ट ] प्यारी ।

ईठी पु (३
संज्ञा स्त्री० [ सं० इष्टि ] प्रीति । उ०—लागै न बार मृनाल के तार ज्यौं टूटैगी लाल हमैं तुम्हैं ईंठी ।-केशव ग्रं०, भा० १, पृ० २५ ।

ईठादाडू पु †
सं० पुं० [हिं० ईठी+दंड] चौगान खेलने का डंडा ।

ईडन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रशंसा करना । प्रशंसना [को०] ।

ईडा़
संज्ञा स्त्री० [ सं० ईडा=स्तुती] [वि० ईडित, ईड्यत] स्तुति । प्रशंसा । उ०—(क) कीन्हि बिडौजा ईडि जिमि बार बार सिर नाय । कहुँ अभय बर दीन्ह हरि पठयौ त्यहि समुझाय-लल्लू(शब्द०) । (ख) रति माँगी तुमते करि ईडा़ । पारथ करहु संग मम क्रीडा़ ।— सबल (शब्द०) ।

ईडि़त
वि० [ सं० ईडित] जिसकी स्तुति की गई हो । प्रशंसित । उ०— तीखे अस्त्र अनेक हाथ गिरजा, लीन्हे महा ईडितै ।- भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २६२ ।

ईडुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं] दे० 'ईडुरी' ।

ईड्य
वि० [सं०] पूज्य । स्तुति के योग्य ।-प्रशंसित ।उ०—अहो ईडच नव घन तन स्याम । तडि़दिव पीत बसन अभिराम । नंद ग्रं०, पृ० २३८ ।

ईढ पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० इष्ट प्रा० इट्ट अथवा सं० हठ > प्रा० *अड, *अढ़*ईढ] [वि० ईढी़ ] जिद । हठ । उ०—बोलिये न झूठ ईढ मूढ़ पैन कीजई । दीजयै जो बिताहाथ भूलिहुँ न लीजई । केशव (शब्द०) ।

ईत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ईति ] दे० 'ईति' । उ०—ईत तणो नह भीत अंगजी मान दुजा मन मेर ।- रघु० रु, पृ० ६२ ।

ईतर (१) पु
वि० [ हिं० इतरना ] इतरानेवाला । ढीठ । शोख । गुस्ताख । उ०—गई नंद घर कौं सबै, जसुमति तहँ भीतर । देखि महरि कौं कहि उठीं सुत कीन्हौ ईतर ।-सूर०, १ । १ ।२१०४ ।

ईतर (२
वि० [सं० इतर] निम्न श्रेणी का । साधारण । नीच । उ०— कोटि बिलास कटाच्छ कलोल बढा़वै हुलासन प्रीतम हीतर । यों मनि यामैं अनूपम रूप जो मैनका मैन वधू कही ईतर । सूर०, १० ।१४८६ ।

ईतरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० इतरता] भेदभाव । अन्यत्व । परायापन । भिन्नता । उ०—ईहा और ईरषा भांनौं । ईतरता कबहूँ नहिं आनौं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २१९ ।

ईति
संज्ञा स्त्री०[सं०] १. खेति को हानी पहुँचानेवाला उपद्रव । ये छह प्रकार के हैं—(क) अतिवृष्टि ।(ख) अनावृष्टि । (ग) टिड्डी पड़ना । (घ) चूहे लगना । (च) पक्षियों की अधिकता । (छ) दूसरे राजा की चढा़ई । उ०—दसरथ राज न ईति भय नहिं दुख दुरित दुकाल । प्रभुदित प्रजा प्रसन्न सब सब सुख सदा सुकाल ।-तुलसी ग्रं०, पृ० ६८ । २. बाधा । उ०—अब राधे नहिनै ब्रजनीति । सखि बिनु मिलै तो ना बनि ऐहै कठिन कुराज राज की ईति ।-सूर (शब्द०) । ३. पीडा़ । दु?ख । उ०—बारुनी और की वायु बहै यह सीत की ईति है बीस बिसा मै । राति बडी़ जुग सी न सिराति रह्यौ हिम पूरि दिशा विदिशा मै । —गोकुल (शब्द०) ।

ईतिभय
संज्ञा पुं० [ सं० ईति+भय ] ईति नामक विपत्ति की आशंका ।

ईथर
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक प्रकार का अति सूक्ष्म और लचीला द्रव्य या पदार्थ जो समस्त शून्य स्थल में व्य़ाप्त है । यह अत्यंत घन पदार्थों के परमाणु के बीच में भी व्य़ाप्त रहता है । उष्णता और प्रकाश का संचार इसी के द्वारा होता है । २. एक रासायनिक द्रव पदार्थ जो अलकोहल और गंधक के तेजाब से बनता है । विशेष—बोतल में अलकोहल और गंधक का तेजाब बराबर मात्रा में मिलाकर भरते हैं । फिर आंच द्वारा उसे दूसरी बोतल में टपका लेते हैं; जो ईथर कहलाता है । यह बहुत शीघ्र जलनेवाला पदार्थ है । खुला रखा रहने से यह बहुत जल्द उड़ जाता है और बहुत शीत पैदा करता है; इसलिये बरफ जमाने में काम आता है । रासायनिक क्रियाओं में इससे बडे़ बडे़ कार्य होते हैं । सूँघने से यह थोडी बेहोशी पैदा करता है तथा क्लोरोफार्मं की जगह भी काम में लाया जाता है । यह जरमनी में बहुत ज्यादा बनता है ।

ईद (१)
संज्ञा स्त्री० [ अं ] मुसलमानो का एक त्योहार । रमजान महीने में तीस दिन रोजा (व्रत) रखने के बाद जिस दिन दूज का चाँद दिखाई पड़ता है, उसके दूसरे दिन यह त्यौहार मनाया जाता है ।उ०—ईद और नौरोज है सब दल के साथ । दिल नहीं हाजिरा तो दुनियाँ है उजाड़ । -शेर०,भा० १, पृ० ७३१ । मृहा०—ईद का चाँद=दुर्लभ । कम दृष्चिगोचर वस्तु या व्यक्ति । ईद का चाँद होना=बहुत कम दिख पड़ना । ईद मनाना= प्रसन्नता व्यक्त करना ।

ईद (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० ईन्दु] चंद्रमा । इंदु । उ०—हौं दरोग जो कहौं ईद उग्गमे कुहुँ निसि ।—पृ० रा०,६४ ।२०४४ ।

ईदगा पु
संज्ञा स्त्री० [फा० ईदगाह] दे० 'ईदगाह' । उ०—बडी मसीत ईदगावाली । रा० रू०, पृ० २८४ ।

ईदगाह
संज्ञा स्त्री० [ अ० ईद+फा० गाह] वह स्थान जहाँ मुसलमान ईद के दिन इकट्ठे होकर नमाज पढते हैं ।

ईदिया
संज्ञा पुं० [ अं ईदियह ] दे० 'ईदी' [को०] ।

ईदी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. त्यौहार के दीन हुई सौगात या तोहफा । २. किसी त्योहार की प्रशंसा से बनाई हुई कविता जो मौलवी लोग उस त्यौहार के दिन अपने शिष्यों को देते हैं । ३. वह बेलबूटेदार कागज जिसपर यह कविता लिखकर दी जाती है । ४. वह दक्षिणा जो इस कविता के उपलक्ष्य में मौलवियों को शिष्य देते हैं । ६. नौकरों या लडकों को त्यौहार के खर्च के लिये दिया हुआ रुपया पैसा । (मुसलमान) ।

ईदुज्जुहा
संज्ञा स्त्री० [ अ० ईदुज्जुह्ह् ] मुसलमानों का एक मुख्य त्यौहार जिसमें भेंड, बकरी आदि की कुर्बानी होती है । बकरीद [ को०] ।

ईदुलफितर
संज्ञा स्त्री० [अ० ईदुलफित्र] दे० 'ईद' ।

ईद्दश (१)
क्रि० वि० [सं०] [स्त्री० ईदृशी] इस प्रकार । इस तरह । इस भाँति । एसे ।

ईदृश (२)
वि० इस प्रकार का । ऐसा ।

ईद्नीजीत पु
वि० [हिं० इंद्रीजीत] दे० 'इंद्रियजित्' । उ०—मुज को आडवे दबजर कोपिन । ईस बिध जोगी ईद्रीजीत ।— रामानंद०, पृ० ४९ ।

ईप्सन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राप्त करने की अभिलाषा करना [को०] ।

ईप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [ वि० ईप्सित, ईप्सु ] १. इच्छा । वांछा । अभि- लाषा । उ०—मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा, जगत की उपलब्धियाँ सब है लुभानी भ्रांति ।—हरीघास०, पृ० १३ । २. प्राप्ति की इच्छा ।

ईप्सित
वि० [सं०] चाहा हुआ । अभिलषित । उ०—(क) अब अपनी नौका ईप्सित घाट पर आई ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११८ । (ख) सारे श्रम उसको फुलों के हार से लगते हैं जो पाता ईप्सित वस्तु को ।—करुणा०, पृ० १४ ।

ईप्सु
वि० [सं०] चाहनेवाला । वांछा करनेवाला ।

ईफाय
संज्ञा पुं० [ अ० ईफा़य ] वचनपालन । वचन पूरा करना [को०] ।

ईफायडिगरी
संज्ञा स्त्री० [अ० ईफा़य+अ० डिगरी ] डिगरी का रुपया अदा कर देना । जर डिगरी बेबाक कर देना ।

ईफायवादा
संज्ञा पुं० [ अ० ईफा़य+फा०ए—अ० वादह् ] प्रतिज्ञापालन । वादे को निभाना [को०] ।

ईबीसीबी पु
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] सिसकारी का शब्द । 'सीसी' शब्द जो संभोग के अत्यंत आनंद के समय मुँह से निकलता है । उ०—गूजरी बजावै रव रसना सजावै कर चूरी छमकावै गरो गहति गहकि कै । मुख मोरि त्योरि भौहैं नासिका मरोरि देव ईबीसीबी बोल बोलति बहकि कै ।—देव (शब्द०) ।

ईमन
संज्ञा पुं० [ फा० यमन ] संतूर्ण जाति की एक रागिनी । ऐमन । उ०—आसा करि लगि पिय सों रटपंचम सुर गावत ईमन ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, २८८ ।

ईमनकल्यान
संज्ञा पुं० [ हिं० ईमन +सं०कल्याण] एक मिश्रित राग का नाम ।

ईमाँ
संज्ञा पुं० [अ० ईमान ] दे० 'ईमान' । उ०—ईमाँ की कसम दुश्मने जानी है हमारा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ०६२२ ।

ईमा
संज्ञा पुं० [ अ०] १. इशारा । संकेत । आदेश । हुक्म । २. मतलब । ताप्तर्य [को०] ।

ईमान
संज्ञा पुं० [ अ०] १. विश्वास । आस्था । आस्तिक्व बुद्धि । उ०— दादू दिल अरवाह का को अपना ईमान । सोई साबित राखिए जहँ देखइ रहिमान ।—दादू (शब्द०) । क्रि० प्र०—लाना—=विश्वास या आस्था रखना । जैसे—ईसाई कहते हैं कि ईसा पर ईमान लाओ । २. चित्त की सदवृत्ति । अच्छी नीयत । धर्म सत्य । जैसे,— (क) ईमान से कहना, झूठ मत बोलना । (ख) ईमान ही सब कुछ है, उसे चार पैसे के लिये मत छोडो़ । (ग) यह तो ईमान की बात नहीं है । क्रि० प्र०—खोना ।—छोडना । —डिगना । —डिगाना ।—डोलना । —डोलाना । मुहा०—ईमान की कहना=सच कहना । न्याय की बात कहना । ईमान जाना=नीयत बिगड़ना । उ०—उधर है जेल की जहमत इधर हा कौम की लानत । उधर आराम जाता है ईधर ईमान जाता है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६६६ । ईमान ठिकाने न होना=धर्मभाव दृढ न रहना । ईमान देना=सत्य छोड़ना । धर्म विरुद्ध कार्य करना । ईमान में फर्क आना=धर्म भाव में ह्रास होना । नीयत बिगड़ना । ईमान लाना=दृढ विश्वास करना । ईमान से कहना=सच सच कहना ।

ईमानदार
वि० [ अ० ईमान+फा० दार] १. विश्वास करनेवाला । २. विश्वासपात्र । जैसे—ईमानदार नौकर । ३. सच्चा ।४. दियानतदार । जो लेनदेन या व्यवहार में सच्चा हो । ६. सत्य का पक्षपाती ।

ईमानदारी
संज्ञा स्त्री० [ अ० ईमान+फा०दारी ] १. ईमान की स्थिति । ईमानदार होने का भाव । २. सत्यनिष्ठा । दियानत— दारी [को०] ।

ईर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ईढ' ।

ईर (२)
संज्ञा पुं० [ सं०] वायु [को०] ।

ईरखा पु
संज्ञा स्त्री [ सं० ईर्षा ] उ०—करै ईरखा । सों जु तिय मनभावन सों मान ।-मतिराम ग्रं०, पृ० २९४ ।

ईरज
संज्ञा पुं० [सं०] वायुपुत्र हनूमान् [को०] ।

ईरण (१)
वि० [सं०] विक्षुब्ध करनेवाला । उत्तेजित करनेवाला [को०] ।

ईरण (२)
संज्ञा पुं० १. हवा । पवन । २. जाना । गमन । ३. भेजना । प्रेषित करना । प्रेषण । ४. कष्ट से मल का निकलना । ५. कहना । कथन [को०] ।

ईरपाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सर्प [को०] ।

ईरपुत्र
संज्ञा पुं०[ सं० ] हनूमान् [को०] ।

ईरमद पु
संज्ञा पुं०[ सं० इरम्मद ] दे० 'इरम्मद' ।

ईरान
संज्ञा पुं० [फा०] [वि० ईरानी] फारस देश ।

ईरानी (१)
वि० [फा०] ईरान से संबंधित । ईरान का [को०] ।

ईरानी (२)
संज्ञा पुं० ईरान का निवासी [को०] ।

ईरानी (३)
संज्ञा स्त्री० ईरान देश की भाषा [को०] ।

ईरिण (१)
संज्ञा पुं०[सं०] बलुप्रा मैदान । ऊसर जमीन ।

ईरिण (२)
वि० [सं०] ऊसर [को०] ।

ईरित पु
वि० [सं०] प्रेषित । प्रेरित । उ०—ऊधौ बिधि ईरित भई है भाग कीरति, लही रति जसोदा सुत पायनि परस की ।— घनानंद, पृ० २०२ । २. कहा हुआ(क०) । ३. काँपता हुआ । हिलता डुलता हुआ [को०] । ४. गया हुआ । गत [को०] ।

ईर्म (१)
वि० [सं०] १. क्षुब्ध । २. निरंतर गतिशील । ३. उत्तेजित करनेवाला [को०] ।

ईर्म (२)
संज्ञा पुं० १. बाहु । २. व्रण । फोडा़ [को०] ।

ईर्या
संज्ञा स्त्री [सं०] यतियों की भाँति भ्रमण करना [को०] ।

ईर्य़ासमिति
संज्ञा पुं० [ सं० ] जैनमतानुसार साढे़ तीन हाथ तक आगे देखकर चलने का नियम । यह नियम इस कारण रखा गया है कि जिसमें आगे पड़नेवाले कीडे़ फतिंगे दिखाई पडें ।

ईर्वारु
संज्ञा पुं० [ सं० ] ककडी़ [को०] ।

ईर्षणा पु
संज्ञा स्त्री [सं० इर्ष्यण] ईर्ष्या । हसद । डाह । उ— पर की पुण्य अधिक लखि सोई । तबै ईर्षणा मन में होई ।— विश्राम (शब्द०) ।

ईर्षा
संज्ञा स्त्री [सं०] [ वि० ईर्षालु, ईर्षित,ईर्षु ] दूसरे की बढ़ती देखकर होनेवाला जलन । डाह । हसद । उ०—तजु द्वेष ईर्षा द्रोह निंदा देश उन्नति सब चहैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५१४ ।

ईर्षारिति
संज्ञा पुं० [सं०] अर्धनपुंसक व्यक्ति [को०] ।

ईर्षालु
वि० [सं०] ईर्षा करनेवाला । दुसरे की बढती देखकर जलने वाला । दुसरे के उत्कर्ष से दु?खी होनेवाला ।

ईर्षाषंड
संज्ञा पुं० [सं० ईर्षाषंड] एक प्रकार का अर्धनपुंसक व्यक्ति । हिरसी टट्टू ।

ईर्षित
वि० [सं०] जिससे ईर्षा की गई हो ।

ईर्षु
वि० [सं०] डाह करनेवाला । ईर्षालु ।

ईर्ष्य
वि० [सं०] ईर्षालु [को०] ।

ईर्ष्यक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार के नपुंसक जिन्हें उस समय कामोत्तोजना होती है जिस समय वे किसी दूसरे को मैथुन करते हुए देखते हैं ।

ईर्ष्यक
वि० ईर्षालु । डाह करनेवाला [को०] ।

ईर्ष्या
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'ईर्षा' । उ०— ईर्ष्या हमारे चित से क्षण मात्र भी हटती नहीं ।—भारत०,पृ० १४६ ।

ईर्ष्यालु
वि० [सं०] दे० 'ईर्ष्यालु' [को०] ।

ईर्ष्य
वि० [सं०] दे० 'ईर्ष्य' [को०] ।

ईल (१)
संज्ञा पुं [देश०] एक बनैला जंतु ।

ईल (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की मछली । बाँग ।

ईलि
संज्ञा स्त्री० [ सं०] १. यष्टि । लाठी । लगुड । २. एक शस्त्र । छोटी असि या कटार [को०] ।

ईली
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'ईलि' [को०] ।

ईश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ईशा, ईशी] १. स्वामी । मानिक । उ०—जो सबते हित मोकहँ कीजत, ईश दवा करिकै बरु दीजत ।—रामचंद्र०,पृ० १६१ ।२. राजा । ३. ईश्वर । परमेश्वर । ४. महादेव । शिव । रुद्र । उ०—वंद्रहिं बदंत है सब केशब ईशत बंदनता अति पाई ।—रामचं०,पृ १६१ यौ० — ईशकोण । ५. ग्यारह की संख्या । ६. आर्दा नक्षत्र । ७. एक उपनिषद् जो शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयि शाखा के अंतर्गत है । इसका पहला मंत्र 'ईश' शब्द से प्रारंभ होता है । ईशावास्य उपनिषद् । यौ०—देवेश । नरेश । वागीश । सुरेश । ८. पारद । पारा ।

ईश (२)
वि० १. ऐश्वर्यशाली । २. सामर्थ्यवान् [को०] ।

ईशकोण
संज्ञा पुं [सं०] उत्तर और पूर्व का कोना [को०] ।

ईशता
संज्ञा स्त्री [सं०] स्वामित्व । प्रभुत्व ।

ईशत्व
संज्ञा पुं [सं०] ईश्वरत्व । स्वामित्व । प्रभुत्व । उ०— उस सृष्टिकर्ता ईश का ईशत्व क्या हममें नहीं ।—भारत०, पृ० १५५ ।

ईशदगरी
संज्ञा स्त्री [सं०] काशी [को०] ।

ईशपुरी
संज्ञा स्त्री० [ सं०] दे० 'ईशनगरी' [को०] ।

ईशबल
संज्ञा पुं [सं०] पाशुपत नामक ग्रस्त [को०] ।

ईशसख
संज्ञा पुं [सं०] कुबेर [को०] ।

ईशा
संज्ञा स्त्री [सं०] १. ऐश्वर्य । २. ऐश्वर्यसंपन्न स्त्री । ३. दुर्गा ।

ईशान (१)
संज्ञा पुं [सं०] [स्त्री० ईशानी] १. स्वामी । अधिति । प्रभु । २. शिव । महादेव । रुद्र । ३. ग्यारह की संख्या । ४. ग्यारह रुद्रों में से एक । ५. शिव की आठ मूर्तियों में से एक । सुर्य । ६. पूरब और उत्तर के बीच का कोना । ७. आर्दा नक्षत्र (को०) । ८. प्रकाश । ज्योति (को०) । ९. शमी वृक्ष (को०) ।

ईशान
वि० १. शास्ता । शासक । २. ऐश्वर्यशाली । ३. संपन्न [को०] ।

ईशानी
संज्ञा स्त्री [सं०] १. दुर्गा । २. सेमल का वृक्ष [को०] ।

ईशिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जिससे साधक सब पर शासन कर सकता है । २. ईश्वरत्व । ३. प्राधान्य ।

ईशित्व
संज्ञा पुं [सं०] दे० 'ईशिता' ।

ईशी (१)
वि० [सं० ईशिन्] १. शासन रखनेवाला । २. प्रधानता रखनेवाला [को०] ।

ईशी (२)
संज्ञा पुं १. देवता । २. पति । ३. मालिक । स्वामी [को०] ।

ईश्वर (१)
संज्ञा पुं [सं०] [स्त्री० ईश्वरी] १. मालिक । स्वामी । प्रभु । २. योगशास्त्र के अनुसार क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से पृथक् पुरुषविशेष । परमेश्वर । भगवान् । यौ०—ईश्वरप्रणिधान । ईश्वराधिष्ठान । ईश्वरधिष्ठिन । ईश्वराधीन । ३. महादेव । शिव । ४. रामानुजाचार्य के अनुसार तीन पदार्थों में से एक जो संसार का कर्ता, आपादान, अंतर्यामी और ऐश्वर्य तथा विर्य आदि से संपन्न माना जाता है । (शेष दो पदार्थ चित् और अचित् है) । ५. राजा । ६. यति । ७. पारद । पारा । ८. पीतल । ९. कामदेव । पुष्पधन्वा (को०) । १० एक संवत्सर [को०] ।

ईश्वर (२)
वि० समर्थ । शक्तिमान् । संपन्न ।

ईश्वरता
संज्ञा स्त्री० [ सं०] ईश्वर की भावना । ईश्वर भाव । उ०— (क) नाहिं ईश्वरता अटकी बेद में ।-भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १३४ । (ख) यदि जग में है ईश्वरता तो है मनुष्यता में ही ।— सागरिका, पृ० ८० ।

ईश्वरनिषेध
संज्ञा पुं [सं०] ईश्वर में अविश्वास । नास्तिकता [को०] ।

ईश्वरनिष्ठ
वि० [सं०] ईश्वर में विश्वास या निष्ठा रखनेवाला [को०] ।

ईश्वरपूजक
वि० [सं०] १. ईश्वर की उपासना करनेवाला । २. पवित्र [को०] ।

ईश्वरप्रणिधान
संज्ञा पुं [सं०] योगशास्त्र के अनुसार पाँच प्रकार के नियमों में से अंतिम एकाग्रध्यानात्मक । ईश्वर में अत्यंत श्रद्धा और भक्ति रखना तथा अपने सब कर्मो के फलों को उसे अर्पित करना ।

ईश्वरप्रसाद
संज्ञा पुं [ सं०] भगवान् की कृपा [को०] ।

ईश्वरभाव
संज्ञा पुं [सं०] १. प्रधान्य । २. ऐश्वर्य । ३. सामर्थ्य [को०] ।

ईश्वरवाद
संज्ञा पुं [सं० ईश्वर+वाद ] ईश्वर को जगत् का कर्ता माननेवाला मत जिसमें भगवान् के दया दाक्षिण्य की झलक जगत् के नाना रूपों और व्यापारों में रहस्य की दृष्टि से देखी जाती है ।उ०—ईसाइयो में जो रहस्यभावना प्रचलित थी वह ईश्वरवाद की भीतर थी ।-चिंतामणि, भा० २, पृ० १४० ।

ईश्वरवादी
वि० [सं० ईश्वर+वादिन्] ईश्ववाद का अनुयायी ।

ईश्वरविभूति
संज्ञा स्त्री [सं०] परमात्मा के विभिन्न स्वरूप (को०) ।

ईश्वरसख
संज्ञा पुं [सं०] शिवजी के सखा, कुबेर ।

ईश्वरसह्म
संज्ञा पुं [सं०] देवालय । मंदिर [को०] ।

ईश्वरसेवा
संज्ञा स्त्री [सं०] परमात्मा का पूजन अर्चन [को०] ।

ईश्वरा
संज्ञा स्त्री [सं०] १. दुर्गा । २. लक्ष्मी । ३. शक्ती [को०] ।

ईश्वराधीन
वि० [सं०] ईश्वर के इच्छानुसार होनेवाला [को०] ।

ईश्वरी (१)
संज्ञा स्त्री [सं०] १. दे० 'ईश्वरा' । २. नाकुली, क्षुद्रजटा, बंध्या कर्कटी, लिंगिनी आदि पौधे [को०] ।

ईश्वरी (२)
वि०, दे० 'ईश्वरीय' [को०] ।

ईश्वरीय
वि० [सं०] १. ईश्वर संबंधी । उ०—है भाव सबके आननों पर ईश्वरीय प्रसाद के ।—भारत०, पृ० ६५ ।

ईश्वरोपासना
संज्ञा स्त्री० [ सं०] ईश्वरसेवा । ईश्वर की पूजा [को०]

ईष
संज्ञा पुं [सं०] १. आश्विन मास । कुआर । २. शिव का एक गण । तृतीय मनु के एक पुत्र का नाम [को०] ।

ईषण
वि० [सं०] शीघ्रता या जल्दी करनेवाला [को०] ।

ईषणा
संज्ञा स्त्री [ सं०] १. शीघ्रता । तेजी । २. तेज गति । [को०] ।

ईषत् (१)
वि० [सं०] थोडा़ । कुछ । कम । अल्प । यौ०—ईषद उष्ण । ईषद हास्य ।

ईषत् (२)
क्रि० वि० कुछ कुछ । अल्प रूप में । आंशिक रूप में [को०] ।

ईषतकर्
वि० [सं०] १. आंशिक रुप में करनेवाला । कम करनेवाला । २. आसन [को०] ।

ईषत्कार्य
वि० [सं०] १. अत्यंत आसान । २. अल्पप्र भावयुक्त [को०] ।

ईषत्पुरुष
संज्ञा पुं [सं०] क्षुद्र व्यक्ति [को०] ।

इषत्स्पृष्ट
संज्ञा पुं [सं०] वर्ण के उच्चारण में एक प्रकार का आभ्यं- तर प्रयत्न जिसमें जिह्वा,तालु, मूर्धा और दंत को तथा दाँत, औष्ठ को कम स्पर्श करता है । 'य', 'र','ल','व' ईषत्स्पृष्ट वर्ण है ।

ईषद
वि० [ सं०] दे० 'ईषत' ।

ईषद
वि० [सं० ईषद्, हिं० ईषद] दे० 'ईषद' ।

ईषदहास पु
संज्ञा पुं [सं०ईषद्हास] हल्की हँसी । मुस्कराहट । उ०—ईषदहास दंत दुति बिगसित मानिक मोति धरे जनु पोई ।—सूर०, १० ।२१० ।

ईषदुष्ण
वि० [सं०] कुनकुना । कुछ कुछ गरम [को०] ।

ईषद्दर्शन
संज्ञा पुं [सं०] १. साधारण दृष्टि । स्वल्प दृकपात । २. चितवन [को०] ।

ईषद्धास
संज्ञा पुं [सं० ईषद+हास्य] हल्की मुसकान । मुस्कराहट [को०] ।

ईषना पु
संज्ञा स्त्री [सं०एषणा] प्रबल इच्छा । उ०—सुत बित लोक ईषना तीनी । केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी ।— मानस, ७ ।७१ ।

ईषल्लभ
वि० [सं०] अल्प मूल्य में उपलब्ध [को०] ।

ईषा
संज्ञा स्त्री [सं०] गाडी या हल में वह लंबी लकडी़ जिसके सिरे पर जुआ बाँध कर बैल को जोतते हैं । हरसा । हरिस ।

ईषादंड
संज्ञा पुं [ सं० ईषादंण्ड ] हल की मूठ [को०] ।

ईषादंत (१)
संज्ञा पुं [ सं०ईषादन्त] १. लंबे दाँत का हाथी । २. हल की मूठ । ३. हाथी के दाँत [को०] ।

ईषादंत (२)
वि० लंबे दाँतोवाला [ को०] ।

ईषिका
संज्ञा स्त्री [सं०] १. हाथी की आँख का खोंडरा या गोलक । २. चित्रकारी में रंग भरने की कलम । कैंची । ३. बाण । ४. सिरकी । सींक ।

ईषिर
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । आग । [को०] ।

ईषीका
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'ईषिका' [को०] ।

ईष्म
संज्ञा पुं० [ सं०] १. वसंत ऋतु । २. कामदेव । मदन [को०] ।

ईष्व
संज्ञा स्त्री [सं०] अध्यात्म की णिक्षा देनेवाले गुरु [को०] ।

ईस पु
संज्ञा पुं० [ सं० ईश, प्रा० ईस ] दे० 'ईश' । उ०—तेहि द्विज बटु आज्ञा करत अहह कठिन अति ईस ।-भारतेंदु ग्रं०, भा० १. पृ० ३०७ ।

ईसन पु
संज्ञा पुं० [ सं० ईशान ] ईशान कोण । पूरब और उत्तर के बीच का कोना । उ०—सतमी पूनिउँ पायब आछी । अठईँ अमावस ईसन लाछी । —जायसी(शब्द०) ।

ईसबगोल
संज्ञा पुं० [हिं] दे० 'ईसबगोल' ।

ईसर (१)पु
संज्ञा पुं० [ सं० ऐश्वर्य ] धनसंपत्ति । ऐश्वर्य । वैभव । उ०—कहेन्हि न रोव बहुत तैं रोवा । अब ईसर भा दारिद खोवा ।—जायसी(शब्द०) ।

ईसर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० ईश्वर प्रा० इस्सर, ईसर] दे० 'ईश्वर' । उ०—ईसर केर घंट रन बाजा । जायसी ग्रं०, पृ० ११७ ।

ईसरगोल
संज्ञा पुं० [हिं] दे० 'इसबगोल' ।

ईसरी पु
[सं० ईश्वरीय] दे० 'ईश्वरीय' ।

ईसवी
वि० [अ०] ईसा से संबंध रखनेवाला । यौं०—ईसवी सन्=ईसा मसीहा के जन्मकाल से चला हुआ संवत् । विशेष—यह संवत् पहली जनवरी से आरंभ होता है और इसमें प्राःय ३६५ दिन होते हैं । ठीक ठीक सौ वर्ष का हिसाब पूरा करने के लिये प्रति चौथे वर्ष जब सन की संख्या चार से पूरी विभक्त हो जाती है, तब फरवरी में एक दिन बढा दिया जाता है और वह वर्ष, ३६६ दिन का हो जाता है । इसमें और विक्रमीय संवत् में ५७ वर्ष का अंतर है ।

ईसा
संज्ञा पुं० [अ०] ईसाई धर्म के प्रवर्तक या आचार्य । यौ०—ईसामसीह=ईसा जिनका धर्माभिसिंचन किया गया था ।

ईसाई
वि० [फा०] ईसा को माननेवाला । ईसा के बताए धर्म पर चलनेवाला । क्रिश्चियन । उ०—मैं इससे घृणा करता हुँ क्योंकि यह ईसाई है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५६४ ।

ईसान पु
संज्ञा पुं० [सं० ईशान ] दे० 'ईशान' ।

ईसानी पु
संज्ञा स्त्री [ सं० ईशानी ] दे० 'ईशानी' ।

ईसार
संज्ञा पुं० [अ०] दूसरे के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना [को०] ।

ईसारपेशा
वि० [अ० ईसार+फा० पेशह्] परोपकारी । अपना स्वार्थत्याग करके दूसरों का हित करनेवाला [को०] ।

ईसुर पु †
संज्ञा पुं० [हि० ईश्वर ] दे० 'ईश्वर' । उ०— जौं ईसुर हो तो कहुँ सुनतो करुना बैन ।श्यामा०,पृ० १६९ ।

ईसुरी (१) पु
संज्ञा स्त्री [सं० ईश्वरी] दुर्गा । पार्वती । उ०—इनके नमक तें ईसुरी हमको करै रन में अदा ।- पद्माकर ग्रं०, पृ०१८ ।

ईसुरी (२)
वि० [सं० ईश्वरीय] दे० 'ईश्वरीय' । उ० -दस औतार ईसुरी माया करता करि जिन्ह पूजा । कहै कबीर सुनो हो साधो उपजै खपै सो दूजा ।— घ़ट०,पृ० २६४ ।

ईस्ट
संज्ञा पुं०[अं०] पूरब । पुर्व दिशा ।

ईस्वर पु
संज्ञा पुं० [हिं] 'ईस्वर' । उ०—ऐगैं सुजस मैं ईस्वर सबकौं देत ।—हम्मीर०, पृ० ४१ ।

ईस्वरता पु
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० ' ईश्वरता' । उ०—श्री गुसाईं जी वाकों समुझावत में अपनी ईस्वरता जताए ।- दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५६ ।

ईहग
संज्ञा पुं०[ सं० ईहा=इच्छा+ग=गमन करनेवाला] कवि । चारण ।—(डिं०) ।

ईहाँ पु
अब्य० [ हिं०] दे० 'यहाँ' । उ०—इह न कहइ अस ईहा ऐसे । जैसिन वस्तु प्रकासक तैसे ।— नंद०ग्रं०, पृ० ११७ ।

ईहा
संज्ञा स्त्री [सं०] [वि० ईहित] १. चेष्टा । उ०—सूछम समुझि परासयहि ईहा सभिप्राय । कर जोरत लखि हरिहि तिय लिय कज्जल दृग लाय ।— पदमाकर ग्रं०, पृ० ६३ । २. उद्योग ।३ इच्छा । वांछा । ४. लोभ ।—(डिं०)

ईहाम
संज्ञा पुं० [अ०] भ्रांति । भ्रम । वहम [को०] ।

ईहामृग
संज्ञा पुं०[सं०] १. नाटक का एक भेद जिसमें चार अंक होते हैं । इसका नायक इश्वर या किसी देवता का अवतार औऱ नायिका दिव्य स्त्री होती हैं जिसके कारण युद्ध होता है । इसकी कथा प्रसिद्ध और कुछ कल्पित होती है । कुछ लोग इसमें एक ही अंक मानते हैं । मृग के तुल्य अलभ्य कामिनी की नायक इसमें ईहा करते है । अत?इसे ईहामृग कहते हैं । २.भेडिया ।

ईहार्थी
वि० [सं० ईहार्थिन्] [वि० स्त्री० ईहार्थिनी] धनलाभ या उदेश्यपूर्ति के लिये यत्नशील [को०] ।

ईहावृक
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़बग्घा ।

ईहित
वि० [सं०] इच्छित । ईप्सित । चाहा हुआ । बांछित ।