विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/छ
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ छ
⋙ छ
हिंदि वर्णमाला में व्यंजनों के स्पर्श नामक भेद के अंतर्गत चवर्ग का दूसरा व्यंजन । इसके उच्चारण का स्यान तालु है । इसके उच्चारण में अघोष और महाप्राण नामक प्रयत्न लगते हैं ।
⋙ छंग पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्सङ्ग प्रा० उच्छंग, पुं० उछंग>छंग ] गोद । अंक । उ०—खर को कहाँ अरगजा लेपन मर्कट भूषण अंक । गज को कहा न्हवाये सरिता बहुरि धरै खहि छग (शब्द०) ।
⋙ छंगा
वि० [हिं० छह+उँगली] छह उंगलीयोंवाला । जिसके एक पंजे में छह उँगलियाँ हों ।
⋙ छंगू
वि० [छह+अंगु (= अंगुली)] दे० 'छंगा' ।
⋙ छंछ पु
संज्ञा पुं० [अनु० या० प्रा० छिंछोली > छिंछ > छंछ] छींटा । धार । प्रवाह । उ०—रूधि छंछ छुटि संमुह चलिय अति अद्भूत सुदिष्षियौ । पृ० रा०, ३ । २४ ।
⋙ छंछाल पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छंछ+आल (प्रत्य०)] १. हाथी । २. हाथी की सूँड । उ०—बहै जोर छंछाल तै मुक्ष नीरं । लगे गंड गुंजर सो भौर भीरं ।—प० रासो, पृ० १६७ ।
⋙ छंछाल पु (२)
वि० मस्त । मदमस्त । उ०—छकियो गज छंछाल, औरंग यूँ डाणाँ लग्यो ।—नट० पृ० १७२ ।
⋙ छंछौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँछ + बरी] एक पकवान । दे० 'छँछौरी' ।
⋙ छंडना पु †
क्रि० स० [हिं० छोडना] दे० 'छँडना' ।
⋙ छंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० छन्दस्] १. वेदों के वाक्यों का वह भेद जो अक्षरों की गणना के अनुसार किया गया है । विशेष—इसके मुख्य सात भेद हैं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती । इनमें प्रत्येक के आर्षी, दैवी, आसुरी, प्रजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची और ब्राह्मी नामक आठ आठ भेद होते हैं । इनके परस्पर संमिश्रण से अनेक संकर जाति के छंदों की कल्पना की गई है । इन मुख्य सात छंदों के अतिरिक्त अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति, अतिधृति कृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, संस्कृति, अभिकृति और उत्कृति नाम के छंद भी हैं जो केवल यजुर्वेद के यजुओं में होते हैं । वैदिक पद्य के छंदों में मात्राअथवा लघु गूरू का कुछ विचार नहीं किया गया है; उनमें छंदों का निश्चय केवल उनके अक्षरों की संख्या के अनुसार होता है । २. वेद । वि० 'वेद' । ३. वह वाक्य जिसमें वर्ण या मात्रा की गमना के अनुसार विराम का नियम हो । विशेष—यह दो प्रकार का होता है—वर्णिक और मात्रिक । जिस छंद के प्रति पाद में अक्षरों की संख्या और लघु गुरू के क्रम का नियम होता है, वह वर्णिक या वर्णवृत्त और जिसमें अक्षरों की गमना और लघु गुरू के क्रम का विचार नहीं, केवल मात्राओं की संख्या का विचार होता है, वह मात्रिक छंद कहलाता है । रोला, रूपमाला, दोहा, चौपाई इत्यादि मात्रिक छंद हैं । वंशस्थ, इंद्रवज्रा, उपेंद्रवज्रा, मालिनी, मंदाक्रांता इत्यादि वर्णवृत्त हैं । पादों के विचार से वृत्तों के तीन बेद होते हैं—समवृत्ति, अर्धसम वृत्ति और विषमवृत्ति । जिस वृत्ति में चारों पाद समान हों वह समवृत्ति, जिसमें वे असमानहों वह विषमवृत्ति और जिसके पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरम समान हों । वह अर्धसमवृत्ति कहलाता है । इन भेदों के अनुसार संस्कृत और भाषा के छंदों के अनेक भेद होते हैं । ४. वह विद्या जिसमें छंदों के लक्षण आदि का विचार हो । यह छह वेद गों में मानी गई है । इसे पाद भी कहते हैं । ५. अभिलाषा । इच्छा । ६. स्पैराचार । स्वच्छाचार । मनमाना व्यवहार । ७. बंधन । गाँठ । ८. जाल । संघात । समूह । उ०—बीज के वृद में है तम छंद कलिंदजा हुंद लसै दरसानी ।—(शब्द०) । ९. कपट । छल । मक्कर । उ०—(क) राजबार अस गुणी न चाही जेहि दूना कर कोज । यही छंद ठग विद्या छला सो राजा भोज ।—जायसी (शब्द०) । (ख) कहा कहति तू बात अयानी । वाके छंद भेंद को जानै मीन कबहुँ धौं पीवत पानी ।—सूर (शब्द०) । यौ०—छंदकपट = दे० 'छलछंद' । उ०—हम देखें इहि भाँति गुपाल । छंदकपट कछु जानति नाहिंन सूधी हैं ब्रज की सब बाला ।—सूर०, १० । १७७८ ।छलछंद = कपट । धोखेबाजी । चालबाजी । उ०—छोभ छल छंदन को बाढै पाप छंदन को फिकिर के फंदन को फारिहै पै फारिहै । पद्माकर (शब्द०) । १०.चाल । युक्ति । कला । उपाय । उ०—फंद की मृगी लौं छंद छुटिबे को नेकौ नाहिं, चारयौ ओर कोरि कोरि भाँतिन सों रोक है ।—घनानंद, पृ० २०७ । ११. चालबाजी । उ०—(क) योगिहि बहुत छंद ओराहीं ।बूंध सुआती जैसे पाहीं ।—जायसी (शब्द०) । (ख) सुनि नँद नंद प्यारे तेरे मुख चंद सम चंद पै नभयो कोटि छंद करि हारयो है— केशव (शब्द०) । १२. रंग ढंग । आकार । चेष्टा । उ०— गिरगिट छंद धरै दुख तेता । खन खन पीत रात खन सेता ।—जायसी (शब्द०) । १३. विष । जहर । १६. ढक्कन । आवरण । १७. पत्ती ।
⋙ छंद (२)
संज्ञा पुं० [सं० छन्दक] एक आभूषण जो हाथ में चूडियों के बीच पहना जाता है ।
⋙ छंद (३)
वि० [सं० छन्द] आकर्षक । मनोरम । २. ऐकांतिक । गोपनीय । अप्रकट । गुप्त ।३. प्रशंसक [को०] ।
⋙ छंदक (१)
वि० [सं० छन्दक] १. रक्षक । २. छली ।
⋙ छंदक (२)
संज्ञा पुं० १. कृष्ण चंद्र का एक नाम । २. बुद्धदेव के सारथी का नाम । ३. छल ।
⋙ छंदज
संज्ञा पुं० [सं० छन्दज] वैदिक देवता । ऐसा देवता जिनकी स्तुति वेदों में हो । वसु आदि देवता ।
⋙ छंदन
संज्ञा पुं० [सं० छन्दन] तुष्ट करना । प्रसन्न करना । रिझाना [को०] ।
⋙ छंदना पु
क्रि० अ० [सं० छंद (= बंधन)] पैरों में रस्सी लगाकर बाँधा जाना ।
⋙ छंदपातन
संज्ञा पुं० [सं० छंदपातन] बनाबटी साधु । साधु वेशधारी ठग । छली । धोखेबाज ।
⋙ छंदप्रबंध
संज्ञा पुं० [हिं० छंद + प्रबंध]दे० 'छंन्द; प्रबंध' ।
⋙ छंदबंद
संज्ञा पुं० [हिं० छंद + बंद] छल । कपट । धोखा ।
⋙ छंदवासिनी
वि० स्त्री० [सं० छन्दवासिनी] स्वतंत्र जीविकावाली । (स्त्री०) जो किसी दूसरे पर निर्भर न करती हो ।—(कौ०) ।
⋙ छंदस्कृत
संज्ञा पुं० [सं० छन्दस्कृत] [स्त्री० छंदस्कृता] १. वेद, जिसमें गायत्री आदि छंद हैं । २. वेदमंत्र ।
⋙ छंद?प्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० छन्द?प्रबन्ध] पद्यरचना । छंदरचना ।
⋙ छंद?शास्त्र
संज्ञा पुं० [छन्द?शास्त्र] वह शास्त्र जिसमें छंदरचना संबंधी नियमों का विवेचन हो ।
⋙ छंद?स्तुभ
संज्ञा पुं० [सं० छन्द?स्तुभ] १. वैदिक देवता जिनकी स्तुति वेदों में की गई है । २.ऋषि जो वैदिक छंदों द्वारा देवताओं की स्तुति करें ।३. सुर्य का सारथी । अरुण ।
⋙ छंदानुवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० छन्दनुवृत्ति] खुशामद । चापलूसी । प्रसन्न करना । संतुष्ट करना [को०] ।
⋙ छंदित
वि० [सं० छन्दित] संतुष्ट किया हुआ । तोषित । प्रसन्न । रीझा हुआ । [को०] ।
⋙ छंदी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छंद (= बंधन)] एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ हाथों में कलाई के पास पहनती हैं । विशेष—यह गोल कंगन की तरह होता है जिसपर रवे की जगह गोल चिपटी टिकिया वैठाई रहती है । यह कंगन और पछेले के बीच में पहना जाता है ।
⋙ छंदी (२)
वि० [हिं० छंद + ई (प्रत्य०)] कपटी । धोखेबाज । छली ।
⋙ छंदेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० छद + एली (प्रत्य०)] १. एक आभूषण । दे० 'छंदी' । २. छलछंद करनेवाली औरत ।
⋙ छंदोग
संज्ञा स्त्री० [सं० छन्दस् + ग] १. सामगान करनेवाला पुरुष सामम । सामवेदी । २. सस्वर छंद या पद्य पढनेवाला व्यक्ति (को०) । ३. सामवेद (को०) ।
⋙ छंदोगपरिशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं० छन्दोगपरिशिष्ठ] सामवेद के गोफिल सूत्र का परिशिष्ट भाग जो कात्यायन जी का बनाया हुआ है ।
⋙ छंदोदेव
संज्ञा पुं० [सं० छन्दोदेव] महाभारत के अनुसार मतंग नामक चांडाल । विशेष—इनकी उत्पत्ति नापित पिता और ब्राह्मणी माता से हुई थी । इन्होंने ब्राह्मणत्व लाभ करने के लिये जब बडी तपस्या की, तब इंद्र ने इन्हें वर दिया कि तुम कामरुप विहंग होगे । तुम्हारा नाम छंदोदेव होगा और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब वर्णो की स्त्रियाँ तुम्हारी पूजा करेंगी ।
⋙ छंदोदोष
संज्ञा पुं० [सं० छन्दोदोष] छंदरचना का एक दोष [को०] ।
⋙ छंदोबद्ध
वि० [सं० छन्दोबद्ध] श्लोकबद्ध । जो पद्य के रुप में हो । जैसे, छंदोंबद्ध ग्रंथ ।
⋙ छंदोभंग
संज्ञा पुं० [सं० छन्दोभङ्ग] छंद रचना का एक दोष जो मात्रा, वर्ण आदि की गणना या लघुगुरु आदि के नियम का पालन न होने के कारम होता है ।
⋙ छंदोम
संज्ञा पुं० [सं० छन्दोम] १. द्वादशाह याग के अंतर्गत एक कृत्य का नाम । विशेष—यह द्वादशाह याग के आठवें, नवें और दसवे दिन तीन दिन तक होता था और प्रतिदिन उन तीन स्तोमों का गान होता था जो इसी नाम से विख्यात हैं । इस यज्ञ का फल कोई कोई राज्यप्राप्ति मानते हैं । २. वे तीन स्तोम जिनका गान छंदोम में होता था ।
⋙ छंम पु †
वि० [सं० क्षम] समर्थ । जीवित । शक्तियुक्त । उ०—ज्यौं दब लग्गे जंगल रहै छंम कोइ घास । त्यौ मेवाड उबेलियौ मेट कमंधामास ।—रा० रु०, पृ० १७८ ।
⋙ छँगुनिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'छगुनी' ।
⋙ छगुलिया, छँगुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ]दे० 'छगुनी' ।
⋙ छँछार
संज्ञा पुं० [प्रा० छिछोली] १. धारा । फुहारा । स्त्राव उ०—सुनि सोर दान छुट्टे छँछार । जनु भूत भंति भयभीत भार । पृ० रा० , ५ ।१८ ।२. दे० 'छंछाल' (१) ।
⋙ छंछौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँछ + बरी] एक प्रकार का पकवान जो छाँछ में बनाया जाता है । उ०—डुभकौरी, मुँगछौरी, रिकवछ—इँडहर क्षीर, छँछौरी जी ।—रघुनाथ (शब्द०) ।
⋙ छँटना
क्रि० अ० [सं० चटन (= तोड़ना, छेदना)] १. कटकर अलग होना । किसी वस्तु के अवयवों का छिन्न होना । जैसे, पेड़ की ड़ाल छँटना, सिर के बाल छँटना । २. अलग होना । दूर होना । निकल जाना । जैसे, मैल छँटना । ३. समूह से अलग होना । तितर बितर होना । छितराना । जैसे, बादल छँटना, गोल के आदमियों का छँटना ।४. साथ छोड़ना । संग से अलग हो जाना । मुहा०—छँटे छँटे फिरना या रहना =दूर दूर रहना । साथ बचाना । कुछ संबंध या लगाव न रखाना । ५. चुना जाना । चुनकर अलग कर लिया जाना । जैसे,—इसमें से अच्छे अच्छे आम तो छँट गए हैं । मुहा०—छँटा या छँटा हुआ = (१) चुना हुआ । अलग किया हुआ । (२) चालाक । चतुर । धूर्त । ६. साफ होना । मैल निकलना । जैसे, धूआँ छेटना, पेट छँटना । ४. क्षीण होना । दुबला होना । जैसे, बदन छँटना ।
⋙ छंटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँटना] १. छाँटने का काम । छँटाई । २. काम करनेवालों में से कुछ को हटाना । कर्मचारियों की संख्या में कमी करना ।
⋙ छँटवाना
क्रि० स० [हिं० छाँटना] १. कीसी वस्तु का व्यर्थ या अधिक भाग कटवा देना । २. बहुत सी वस्तुओं में से कुछ वस्तुओं को पृथक् कराना । चुनवाना । ३. कटवाना । छिलवाना ।
⋙ छँटा
वि० [हिं० छाँटना] [वि० स्त्री० छँटी] (पशु) जिसके पैर छाने गए हों । जिसके पिछले पैर बाँधकर उसे चरने के लिये छोड़ा जाय । विशेष—यह शब्द प्रायः लददू घोड़ों और गदहों आदि के लिये आता है ।
⋙ छँटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँटना] १. छाँटने का काम । अलग अलग करने का काम । बिलगाने का काम । २. चुनाई । चुनने की क्रिया । ३. साफ करने का काम । ४. छाँटने की मजदूरी । ५. दे० 'छँटनी' २ ।
⋙ छँटाना
क्रि० स० [हिं० छाँटना] दे० 'छँटवाना' ।
⋙ छँटाव
संज्ञा पुं० [हिं० छाँटना] १.दे० 'छाँटन' । २. छाँटने का भाव और क्रिया । छँटाई ।
⋙ छँटैल
वि० [हिं० छाँटना + ऐल (प्रत्य०) ] १. छँटा हुआ । चालबाज । २. छाँटकर पृथक् किया हुआ ।
⋙ छँड़ना (१)पु
क्रि० स० [हिं० छोड़ना] १. छोड़ना । त्यागना । २. अन्न को ओखली में डालकर कूटना । छाँटना ।
⋙ छँड़ना (२)
क्रि० अ० [सं० छर्दन, प्रा० छड़्ड़ण] ओकना । कै करना । वमन करना ।
⋙ छँड़रना
क्रि० अ० [सं० √ छिद् या देश०] १. दे० 'छिनकना' ।२. छेद का फैलकर या दबाव में कट जाना ।
⋙ छँड़ाना पु †
क्रि० स० [हिं० छुड़ाना] छीनना । छुड़ाकर ले लेना । उ०—(क) लेहु छँड़ाइ सीय कहँ कोऊ । धरि बाँधहुनृप बालक दोऊ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सखन संग हरि जेवँत जात । सुबल सुदामा श्रीदामा सँग सव मिलि भोजन रुचि सों खात । ग्वालन कर ते कौर छँड़ावत मुख लै मेलि सराहत जात ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छँड़ुआ (१) †
वि० [हिं० छाँड़ना] १. जो छोड़ दिया गया हो । मुक्त ।२. जो दंड़ आदि से मुक्त हो । अदंड़्य । ३. जिसके ऊपर किसी प्रकार दबाव या शासन न हो ।
⋙ छँड़ुआ (१)
संज्ञा पुं० १. वह पशु जो किसी देवता के उद्देश्य से छोड़ा गया हो । देवता को उत्सर्ग किया हुआ पशु । २. ब्याज, कर या ऋँण आदि का वह भाग जिसे पानेवाले ने छोड़ दिया हो । छूट ।
⋙ छँदना
क्रि० अ० [सं० छन्द (= बंधन)] पैरों में रस्सी लगाकर बाँधा जाना ।
⋙ छँह पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाया] छाँह । छाया । आवरण । उ०—तत्तरि तुँअर नरिद भयौ तरु गहर पत्त छँह ।— पृ० रा०, ७ ।१६६ ।
⋙ छँहाना पु †
क्रि० अ० [हिं० छाँह] छाया में विश्राम लिना । सुस्ताना । शीतल होना । उ०—चला जात जस होइ बटोही । आइ छँहाइ बिरिछ तर वोही ।—इंद्रा०, पृ० ३ ।
⋙ छ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना । २. ढाँकना । आच्छादन । ३. घर । ४. खंड़ । टुकड़ा ।
⋙ छ (२)
वि० [सं०] १. निर्मल । साफ । २. तरल । चंचल ।
⋙ छ (३)
वि० [सं० षट्, प्रा० छ] गिनती में पाँच से एक अधिक । जो संख्या में पाँच और एक हो । छ? । छह ।
⋙ छ (४)
संज्ञा पुं० १. वह संख्या जो पाँच से एक अधिक हो । २. उस संख्या का सूचक अक जो इस प्रकार लिखा जाता है—६ ।
⋙ छइल
संज्ञा पुं० [अप० छल्ल] रसिक । छैला । उ०—धन सो जउवन छइलओ जाती । कामिनी बिनु कइसे गेलि मधुराती ।—विद्यापति, पृ० ८९ ।
⋙ छई
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षयी] दे० 'क्षयी' ।
⋙ छक
संज्ञा स्त्री० [सं० चकन (= तृप्ति)] १. तृप्ति । परिपूर्णता ।२. मद । नशा । ३. आकांक्षा । लालसा ।
⋙ छकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० शकट, प्रा० सगड़ो, छगड़ो] बोझ लादने की दुपहिया गा़ड़ी जिसे बैल खींचते हैं । बैलगाड़ी । सग्गड़ । लढी । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना । मुहा०—छकड़ा लादना = छकड़े में बोझ या सामान भरना ।
⋙ छकड़ा (२)
वि० जिसका ढाँचा ढीला हो गया हो । जिसके अंजर पंजर ढीले हो गए हों । टूटा फूटा । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ छकड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छह + करी] वह मालकी जिसे छह कहार उठाते हों ।
⋙ छकड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छह + कड़ा] १. छह का समूह । छह की राशि । २. वह पालकी जिसे छह कहार उठाते हों । छकडिया । ३. चारपाई बुनने का एक प्रकार जिसमें छह बाध उठाए और छह बैठाए जाते हैं ।
⋙ छकडी (२)
वि० जिसमें छह अवयव हो । छह से बना हुआ ।
⋙ छकना (१)
क्रि० अ० [सं० चकन (= तृप्त होना) ] [संज्ञा छाक] १. खा पीकर अघाना । तृप्त होना अफरना । जैसे,—उसने खूब छककर खाया । उ०—अब्बासी, हुजूर वह खूब छककर खा चुकी ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ६१ । संयो० क्रि०—जाना । २. तृप्तहोकर उन्मत्त होना । मद्यआदि पीकरनशे में चूर होना । उ०—(क) ते छकि नव रस केलि करेहीं । जोग लाइ अधरन रस लेहीं ।—जायसी (शब्द०) (ख) केशवदास घर घर नाचत फिरहिं गोप एक रहे छकि ते मरेई गुनियत हैं । केशव (शब्द०) ।
⋙ छकना (२)
क्रि० अ० [सं० चक (= भ्रांत)] १. चकराना । अचंभे में आना । २. हैरान होना । तंग होना । दिक होना । जैसे-वहाँ जाकर हम खूब छके, कहीं कोई नहीं था ।
⋙ छकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'छकडी' ।
⋙ छकाछक
वि० [हिं० छकना] १. तृप्त । अघाया हुआ । संतुष्ट । २. परिपुर्ण । भरा हुआ । क्रि० प्र०—करना । ३. उन्मत्त । नशे में चूर । मदमत्त ।
⋙ छकाना (१)
क्रि० स० [हिं० छकना] १. खिला पिलाकर तृप्त करना । खूब खिलाना पिलाना । संयो० क्रि०—देना । २. मद्य आदि से मदमत्त करना ।
⋙ छकाना (२)
क्रि० स० [सं० चक्र (= भ्रांत) ] १. अचंभे में डालना । चक्कर में डालना । २. हैरान करना । दिक करना । तंग करना । जैसे, तुमने तो कल हमें खूब छकाया । संयों क्रि०—डालना ।
⋙ छकिहारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाक + हारी (प्रत्य०)] छाक ले जाने— वाली । उ०—जित तित छकिहारी जुरि चलीं । लगति रवाँनी ब्रज की गली ।—घनानंद, पृ० २१७ ।
⋙ छकीला
वि० [हिं० √ छक = ईला (प्रत्य०) ] छका हुआ । मस्त । उ०—रंगनि ढरीले हौ छकीले मद मोह तें ।—घनानंद, पृ० ११२ ।
⋙ छकौंही पु
वि० [हिं० √ छक + औंही (प्रत्य०)] १. मस्त करनेवाली । छाक देनेवाली । २. छकी हुई । मस्त ।
⋙ छकुर
संज्ञा पुं० [हिं० छ + कूरा] फसल की वह बँटाई जिसमें उपज का छठा भाग जमींदार पाता है ।
⋙ छक्कवै पु
वि० [सं० चक्रवर्ती] दे० 'चक्कवै' । उ०—अनंगपाल छक्कवै बुद्धि जो इस उकिल्लिय ।—पृ० रा० (उ०), पृ० ८९ ।
⋙ छक्का
संज्ञा पुं० [सं० षट्क या षट्क, प्रा० छक्कौ] १. छह का समूह या वह वस्तु जो छह अवयवों से बनी हो । २. जूए का एक दाँव जिसमें कौडी या चित्ती फेंकने से छह कौडियाँचित्त पडे । यही दाँव दो, या दस, या चौदह कौडियों के चित्त पडने पर भी माना जाता है । मुहा०—छक्का पंजा = दाँवपेच । चालबाजी । छक्का पंजा भूलना = युक्ति काम न करना । चाल न चलना । कर्तव्य न सुझाई पडना । बुद्धि का काम न करना । ३. पासे का एक दाँव जिसमें पासा फेकने से छह बिंदियाँ ऊपर पडें । क्रि० प्र०—जालना ।—पडना ।—फेंकना । ४. जुआ । द्यूत । क्रि० प्र०—खेलना ।—फेंकना ।—डालना । ५. वह ताश जिसमें छह बूटियाँ हो । ६. पाँच ज्ञानेंद्रियों और छठे मन का समूह । होश हवास । सुध । संज्ञा । औसान । मुहा०—छक्के छूटना = (१) होश हवास जाता रहना । होश उडना । बुद्धि काम न करना । स्तब्ध होना । उ०— सुननेवालों के छक्के छूट जाते ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४० । (२) हिम्मत हारना । साहस छूटना । धबरा जाना । जैसे, नई सेना के आते ही शत्रुओं के छक्के छूट गए । छक्के छुडाना (१) चकित करना । विस्मित करना । हैरान करना । (२) साहस छुडाना । अधीर करना । घबरा देना । पस्त करना । पैर उखाड देना । जैसे,—सिखों ने काबुलियों के छक्के छुडा दिए । उ०—घोडे पर इस तरह सवार होते हैं जैसे किसी ने मेख गाड दी, मगर टट्टू ने इनके भी छक्के छुडा दिए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २३ ।
⋙ छग
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० छगी] छाग । बकरा ।
⋙ छगडा
संज्ञा स्त्री० [सं० छगल या छगलक] [स्त्री० छगडी] बकरा । उ०—(क) एक छगडी एक छगडा लीलिसि नौ मन लीलिसि केराँव । बारह भैसा सरसों लीलिसि औ चौरासी गाँव । कवीर (शब्द०) । (ख) ना मैं छगडी ना मैं भेंडी ना मैं छुरी गँडास में ।—कबीर श०, भा० १, पृ० १०२ ।
⋙ छगण
संज्ञा पुं० [सं०] सूखा गोबर । कंडा ।
⋙ छगन (१)
संज्ञा पुं० [सं० चङ्गट (= एक छोटी मछली)या चिड्गट (= झींगा मछली)] छोटा बच्चा । प्रिय बालक ।
⋙ छगन (३)
वि० बच्चों के लिये एक प्यार का शब्द । उ०—कहत मल्हाइ लाइ उर छिन छिन छगन कबीले छोटे छैया ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७७ । यौ०—छगन मगन, छगना मगना = छोटे छोटे बच्चे । प्यारे बच्चे । हँसते खेलते बच्चे । (बच्चों के लिये प्यार का शब्द) । उ०—(क) बछरु छबीलो छगन मगन मेरे कहति मल्हाइ मल्हाई । सानुज हिय हुलसति तुलसी के प्रभु की ललित लरिकाई ।—तुलसी ग्रं० पृ०१७७ । (ख) गिरि गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत खेलत हैं दोउ छगना मगना ।—सूर० १० । ११२ । (ग) कहा गाज मेरे छगन मगन को नृप मधुपुरी बुलायो । सुफलक सुत मेरे प्राण हतनको कार रुप ह्वै आयो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छगना पु
क्रि० अ० [सं० चकन, हिं० छकना] तृप्त होकर उन्मत्त होना । भर जाना । छकना । उ०—चहुआन कन्ह अग्गै सुबर ता पच्छै लोहन दग्यौ । जाजुलित सत्त बर बीर मति बीर बीर रस सौ छग्यौ ।—पृ० रा० ५ । ४३ ।
⋙ छगरी
संज्ञा स्त्री० [सं० छगली] छोटी बकरी ।
⋙ छगल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० छगला० छगली] १. छाग । बंकरा । २. वृद्धदारक नामक पेड । विधारा । ३. अत्रि ऋषि का नाम । ४. निले रंग का कपडा । ५. वह देश जहाँ बहुत बकरे होते हैं । यौ०—छगलाँत्रिका, छगलाँत्री = (१)भेडिया । (२) बिधारा या अजांत्री वृक्ष ।
⋙ छगलक
संज्ञा पुं० [सं०] छाग । बकरा [को०] ।
⋙ छगुन
वि० [हिं० छ + गुणा] छगुणा । छह गुना । उ०—छिप्यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छंद छल छीन्हो ।— श्यामा०, पृ० १२० ।
⋙ छगुनो
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटी + उँगली] हाथ के पजे की सबसे छेटी उँगली । कनिष्ठिका । काली उँगली । छिंगुनी ।
⋙ छग्गरु पु †
संज्ञा पुं० [सं० छत्रदणड या शकट (= गाडी, बोझ या देश०)] छत्र आदि सामान । उ०—अति गँभिर पहुपंग मन सु दब्बै दृग लज्जइ । कवन काज छग्गरह पानिग्राही भट कज्जइ ।—पृ० रा०, ६१ । ३५९ ।
⋙ छछंद पु †
संज्ञा पुं० [सं० छलछन्द] दे० 'छलछंद' । उ०—सो जोग्यंद्र जोग जुगता अविचल सार । छछंद मुक्ता भै भ्रमपारं ।—गोरख, पृ० १६१ ।
⋙ छछहा पु †
वि० [देश०] वेगवान । बननेवाला । गतिशील । उ०— छछहा दूत चहु दिस छडे, अवनी पत संडे आरंभ ।—रघु० रु०, पृ० १०० ।
⋙ छछिआ, छछिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँछ + इया (प्रत्य०)] १. छाँछ पीने या नापने का छोटा पात्र । उ०—ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरी छाछ पै नाच नचावै ।—कविता कौ०, भा० १, पृ० १७९ । २. छाछ । मट्ठा । तक्र ।
⋙ छछिहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँछ + हारी (प्रत्य०)] दही बिलोनेवाली । अहिरिन । उ०—इला च्यगुला सुषमन नारी । बेगि बिलोइ ठाढी छछिहारी ।—कबीर ग्रं०, पृ० २६० ।
⋙ छछीन पु †
वि० [सं० क्षीण] अति क्षीण । दुर्बल । कृश । उ०— छछीन हीन लंकयं । कमान काम अंकयं ।—पृ० रा०, २५ । १३८ ।
⋙ छछुंदर †
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं० चच्छुन्दर]दे० 'छछूँदर' ।
⋙ छछूँदर
संज्ञा पुं० [सं० छच्छुन्दर] [स्त्री० छछुंदरी] १. चूहे की जाति का एक जंतु । विशेष—इसकी बनावट चहे की सी होती है, पर इसका थुथन अधिक निकला हुआ और नुकीला होता है । इसके शरीर के रोएँ भी छोटे और कुछ आसमानी रंग लिए खाकी या राख के रंग के होते हैं । यह जंतु दिन को बिलकुल नहीं देखता और रात को छू छू करता चरने के लिये निकलता है और कीडे मकोडे खाता है । इसके शरीर से बडी तीव्र तीव्र दुर्गध आती है । लोगों का विश्वास है कि छछूँदर के छू जाने से तलवार का लोहा खराब हो जाता है और फिर वह अच्छी काट नहीं करता । यह भी कहा जाता है कि जब साँप छछूँदर को पकड लेता है, तब उसे दोनों प्रकार से हानि पहुँचती है? यदि छोड़ दे तो अधा हो जाय और यदि खा ले तो वह मर जाता है; इसी से तुलसीदास ने कहा है-धर्म सनेह उभयमति घेरी । भइ गति साँप छछूँदर केरी । छछूँदह तंत्रों के प्रयोगों में भी काम आता है । २. एक प्रकार का यंत्र या ताबीज जिसे राजपूताने में पुरोहित अपने यजमानों को पहनाता है । यह गुल्ली के आकार का सोने चाँदी आदि का बनाया जाता है । ३. एक आतिशबाजी जिस छोड़ने से छू छू का शब्द निकलता है । ४. वह व्यक्ति जो छछूँदर की तरह व्यर्थ इधर उधर घूमता हो । मुहा०—छछूँदर छोडना—ऐसी बात कहना जिससे लोगों में हलचल सच जाय । आग लगाना ।
⋙ छछेरु †
संज्ञा पुं० [हिं० छाछ + एरु (प्रत्य०)] घी का वह फेन या मैल जो खरा करते समय उसके ऊपर आ जाता है ।
⋙ छजना
क्रि० अ० [सं० सज्जन, हिं० सजना] १. शोभा देना । सजना । अच्छा लगना । सोहना । उ०—(क) बालम के बिछुरे ब्रजबाल को हाल कहयौं न परै कछु ह्याहीं । च्वै सो गई दिन तीन ही में तब औधि लौं क्यों छजिहै छहीं छाहीं ।—केशव (शब्द०) । (ख) कूबर अनुप रुप छती छजत तैसी छज्जन में मोती लटकत छबी छावने ।—गिरधर (शब्द०) । २. उपयुक्त जान पड़ना । ठीक जँचना । उचित जान पड़ना ।
⋙ छज्जा
संज्ञा पुं० [हिं० छाजना या छाना] १. छाजन या छत का वह भाग जो दीवार के बाहर निकला रहता है । ओलती । उ०—कूबर अनुप रुप छतरी छजत तैसी छज्जन में मोती लटकत छबि छावने ।—गिरधर (शब्द०) । २. कोठे या पाटन का वह भाग जो कुछ दूर तक दीवार के बाहर निकला रहता है और जिसपर लोग हवा खाते या बाहर का दृश्य देखने के लिये बैठते हैं । उ०—छज्जन तें छूटति पिचकारी । रँगि गई बाखरि महल अटारी ।—सूर (शब्द०) । ३. दीवार या दरवाजे के ऊपर लगी हुई पत्थर की पट्टी जो दीवार से बाहर निकली रहती है । ४. टोपी या हैट के किनारे का निकला हुआ भाग जिससे धूप से बचाव होता है । मुहा०—छज्जेदार = जिसका किनारा आगे की ओर निकला हुआ हो । जिसमें छज्जा हो । जैसे, छज्जेदार टोपी ।
⋙ छझा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छज्जा] दे० 'छज्जा' । उ०—अंबर अतर सौं तर हैं जिनसे सुमन झडे हैं । मखतूल के छझै हैं जिय में रहे अडे हैं ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ८९ ।
⋙ छटंकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छटाँक] १. छटाँक का बटखरा । वह बाट जिससे छटाँक वस्तु तौली जाय ।
⋙ छटंकी (२)
वि० १. बहुत छोटा । छटाँक भर का । दुबला पतला । कृशगात (व्यक्ति) । २. नटखट । चंचल (बालक) ।
⋙ छटक
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक ।
⋙ छटकना
क्रि० अ० [अनु० या ही० छूटना] १. किसी वस्तु का दाब या पकड़ से वेग के साथ निकल जाना । वेग से अलग हो जाना । सटकना । जैसे, हाथ के नीचे से गोली छटक गई । मुट्टी में से मछली छटक गई । २. दूर दूर रहना । अलग अलग फिरना । जैसे, वह कई दिनों से छटका छटका फिरता है । ३. वश में से निकल जाना । बहक जाना । दाँव से निकल जाना । हत्थे न चढ़ना । हाथ न आना । जैसे, देखना, उसे दम दिलासा देते रहना; छटकने न पावे । ४. कूदना । उछलना ।
⋙ छटका
संज्ञा पुं० [हिं० छटकना] मछलियों के फँसाने का एक गड़्ढा जो दो जलाशयों के बीच तंग मेंड़ पर खोदा जाता है । उ०—छटका परै छटकि कहाँ जइहो मीन बझा है जाले ।—सं० दरिया, पृ० १०६ । विशेष—यह गड़्ढा चार छह हाथ लंबा और हाथ दो हाथ चौड़ा तथा दो तीन हाथ गहरा होता है । मछलियाँ एक जलाशय से दूसरे में जाने के लिये कूदती हैं और इसी गड़्ढे में गिरकर रह जाती हैं । यह गड़्ढा प्रायः धान के खेतों की मेंड़पर पानी सूखने के समय खोदा जाता है । क्रि० प्र०—लगाना ।
⋙ छटकाना
क्रि० अ० [हिं० छटकना] १. छटक जाने देना । किसी वस्तु को दाब या पकड़ से बलपूर्वक निकल जाने देना ।
⋙ छटकाना (२)
क्रि० स० १. बलपूर्वक झटका देकर पकड़या बधन से छुड़ाना । छुड़ाना । जैसे, हाथ छटकाना । उ०—रिसि करि खीझि खीझि लट झटकति श्याम भुजनि छटकाए दीन्हों । — सूर (शब्द०) । २. खोलना । मुक्त करना । छोड़ देना । जैसे, गाय का बंधन छटकाना । ३. पकड़ या दबाव में रखनेवाली पस्तु का बलपूर्वक अलग करना । बंधन को जोर करके दूर करना । जैसे,—रस्सी छटकाना ।
⋙ छटना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छँटना' ।
⋙ छटपट (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] छटपटाने की क्रिया । बंधन या पीड़ा के कारण हाथ पैर फटकारने की क्रिया । उ०—गजराज पंक में धँसा हुआ । छटपट करता था फँसा हुआ । —साकेत, पृ० १५६ । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ छटपट † (२)
वि० चंचल । चपल । नटखट ।
⋙ छटपटाना
क्रि० अ० [अनु०] १. बंधन या पीड़ा के कारण हाथ पैर फटकारना । तड़फड़ाना । तड़फना । जैसे,—(क) देखो बछड़े का गला फँस गया है, वह छटपटा रहा है । (ख) वह दर्द के मारे छटपटा रहा है । २. बेचैन होना । ब्याकूल होना । विकल होना । अधीर होना । ३. किसी वस्तु के लिये आकुल होना । अधीनतापूर्वक उत्कंठित होना ।
⋙ छटपटो
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. घबराहट । व्याकुलता । बेचैनी । अधीनता । २. किसी वस्तु के लिये आकुलता । गहरी उत्कंठा । क्रि० प्र०—पड़ना ।—होना ।
⋙ छटाँक
संज्ञा स्त्री० [हिं० छ + टाँक, टक] एक तौल जो सेर का सोलहवाँ भाग है । पाव भर का चौथाई ।मुहा०—छटाँक भर = (१) तौल में पाव का चौथाई भाग । (२) बहुत थोड़ा । स्वल्प । कम ।
⋙ छटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति । प्रकाश । प्रभा । झलक । २. शोभा । सौंदर्य । छवि । ३. बिजली । उ०—चमकहिं खड़्ग छटा सी राजे । —रघुनाथ (शब्द०) । ४. न टूटनेवाली परंपरा या शृंखला । लड़ी (को०) । ५. ढेर । पुंज । राशि । संघात (को०) ।
⋙ छटाफल
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी का पेड़ । पूग का वृक्ष या फल ।
⋙ छटाभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विद्युत् । क्षणप्रभा । २. बिजली की चमक । २. चेहरे की कांति ।
⋙ छटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँटी (= छड़ी)] छड़ी । उ०—निर्तति देवनटी छबि जटी । लटकै जनु कि छटन की छटी । —नंद० ग्रं०, पृ० २२७ ।
⋙ छटूंद †
संज्ञा पुं० [देश०] राजस्व या कर के रूप में लिया जानेवाला आय का छठा भाग । उ०—छटूँद (खिराज) वास्तविक आय के छठे हिस्से की दर से लगाई और बराबर छहमाही किस्तों से अदा की जायगी । —राज०, पृ० १०४५ ।
⋙ छटूक पु
वि० [हिं० छ + टूक] छह टूकड़ों में विभक्त । क्षत— विक्षत । उ०—लाल तिहारे नैन सर अचिरज करत अचूक । वीन कंचुक छेदै करै छाती छेद छटूक । —मति० ग्रं०, पृ० ४५३ ।
⋙ छटैल
वि० [हिं० छँटना] १. छँटा हुआ । २. चालाक ।
⋙ छट्ठ †
संज्ञा स्त्री० [सं० षष्ठ] दे० 'छठ' ।
⋙ छट्ठी †
संज्ञा स्त्री० [सं० षष्ठी] दे० 'छठी' । यौ०—छट्ठी बरही = दे० 'छठी बारही' ।
⋙ छठ
संज्ञा स्त्री० [सं० षष्ठ, प्रा० छट्ठ] पखवारे का छठा दिन । प्रति पक्ष की छठी तिथि ।
⋙ छठई
वि० स्त्री० [हिं० छठवाँ] दे० 'छठा' ।
⋙ छठयाँ, छठवाँ
वि० पुं० [सं० षष्ठक] दे० 'छठा' । उ०—करी छठी छठयैं दित राती । नगरी सकल भई रँगराती ।—रस र०, पृ० २१ ।
⋙ छठा
वि० [सं० षष्ठक] [वि० स्त्री० छठी] जो क्रम में पाँच और वस्तुओं के उपरांत हो । गिनती के क्रम से जिसका स्थान छह पर हो । मूहा०—छठे छमासे = कभी कभी । बहुत दिनों पर ।
⋙ छठी
संज्ञा स्त्री० [सं० षष्ठी, प्रा० छठी] १. जन्म से छठे दिन की पूजा । छट्ठी । उ०—काजर रोरी आनहू (मिलि) करौ छठी कौ चार । ऐपन की सी पूतरी सब सखियनि कियाँ सिंगार—सूर०, १० । ४० । यौ०—छठी बरही = जन्म से छठे और बारहवें दिन का उत्सव उ०—छठी बारी लोक वेद विधि करि सुविधान विधानी । राम लखन रिपुदवन भरत धरे नाम ललित मुनि ज्ञानी ।— तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । उ०—करी छठी छठयैं दिन राती । रस र०, पृ० २१ । पूजना ।—पूजना । मुहा०—छठी का दूध निकलना = कठिन श्रम पड़ना । बहुत हैरानी होना । भारी संकट पड़ना । छठी का दूध याद आना = सब सुख भूल जाना । बचपन की सारी खिलाई पिलाई निकल जाना । घोर परिश्रम पड़ना । बहुत हैरानी होना । भारी संकट पड़ना । छठी का राजा = पुश्तैनी अमीर । पुराना रईस । २. भाग्य । नियति । तकदीर । उ०—पढ़िबो परयो न छठी छ मत ऋगु, जजुर अथर्वन, साम को ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३७ । मुहा० = छठी में नहीं पड़ना = (१) भाग्य में न होना । (२) प्रकृति में न होना । प्रकृतिविरुद्ध होना । स्वभाव के प्रतिकूल होना । जैसे,—देना तो उनकी छठी में ही नहीं पड़ा है । ३. एक दैवी जिनकी पूजा छठी के दिन होती है ।
⋙ छड़
संज्ञा स्त्री० [सं० शर] धातु या लकड़ी आदि का लंबा पतला बड़ा टुकड़ा । धातु या लकड़ी का ड़ंड़ा । जैसे, लोहे का छड़ बाँस की छड़ । विशेष—बहुत से स्थानों में यह शब्द पुं० भी बोला जाता है ।
⋙ छड़ना
क्रि० स० [हिं० छँटना] १. अनाज आदि को ओखली में कूटकर साफ करना । ओखली में रखकर अनाज कूटना जिसमें कनें निकल जायँ और अनाज साफ हो जाय । छाँटना । जैसे, चावल छड़ना । पु २. त्यागना । छाँड़ना । छोड़ना ।
⋙ छड़वालो †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छड़ियाल' ।
⋙ छड़ाई †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छुड़ाना' । उ०—जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेज तजि नयेउ पराई ।—मानस, १ । १५८ ।
⋙ छड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छड़] १. पैर में पहनने का चूड़ी के आकार का एक गहना । यह चाँदि की पतली छड़ या ऐंठे हुए तारों का बनाया जाता है और पाँच से लेकर दस बीस तक एक एक पैर में पहना जाता है । २. मोतियों के लड़ों का गुच्छा । लच्छा ।
⋙ छड़ा (२)
वि० [हिं०छाँड़ना] [वि० स्त्री० छड़ी] अकेला । एकाकी । यौ०—छड़ी सवारी । छड़ीं छटाँक ।
⋙ छड़ाना पु
क्रि० स० [हिं०] छीन लेना । अपने वश में कर लेना । उ०—जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तजि गयेउ पराई ।—मानस, १ । १५८ ।
⋙ छड़ाल †
वि० [हिं० छड़ियाल] कुंतधारी । भालावाला । उ०—मार लियौ कहतै मुहल, उर खीजियौ छड़ाल ।—रा० रू०, पृ० २४१ ।
⋙ छड़ाबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० छड़ + बाँस] जाहाज पर की झंड़ी । फरहरा (लश०) ।
⋙ छड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० छड़ी, छड़ (> छड़ी = दंड़) + इया (प्रत्य०)] छड़ीवाला । दंड़धारी ड़ेवढीदार । दरबान । द्वारपाल । उ०—(क) द्वार खड़े प्रभुक के छड़िया तहँ भूपति जान न पावत नेरै ।—कविता० कौ०, भा० १, पृ० १४९ । (ख) पटिया आंगन और की लट छट छड़िया काम । तिल जो चिबुक पर लसत है सो सिंगार रस धाम ।—मुबारक (शब्द०) ।
⋙ छड़ियाल
संज्ञा पुं० [हिं० छड़ी] एक प्रकार का भाला या बरछा ।
⋙ छड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छड़] १. सीधी पतली लकड़ी । पतली लाठी । २. लहँगे, पाजामे आदि में गोखरू, चुटकी आदि की सिधी टँकाई ।—(दरजी) । ३. झड़ी जिसे लोग मुसलमान पीरों की मजार पर चढ़ाते हैं । सद्दा । झंड़ी । जैसे, मदार की छड़ी । ४. गुड़िया पीटने या चौथी छुड़ाने की पतली लकड़ी ।
⋙ छड़ी (२)
वि० स्त्री० [हिं० छाँड़ना] अकेली । एकाकिनी । मुहा०—छड़ी छटाँक या छड़ी सवारी = (१) बिना किसी संगी साथी के । अकेले । एकाकी । (२) बिना कोई बोझ या असबाब लिए । तन तनहा ।
⋙ छड़ोदार (१)
वि० [हिं० छड़ी + दार (प्रत्य०)] १. जो छड़ी लिए हो । छड़ीवाला । २. जिसमें सीधी पतली लकीरें हों । लकीरदार । सीधी लकीरोंवाला ।—(कपड़ा) । जैसे, छड़ीदार छींट, छड़ीदार गलता ।
⋙ छड़ीदार (२)
संज्ञा पुं० चोबदार । आसाबरदार । द्वारपालक । रक्षक । उ०—छड़ीदार तब बचन सुनावा । कोउ नहिं साथ राय के भावा ।—कबीर सा०, पृ० ४८३ ।
⋙ छड़ीबरदार
संज्ञा पुं० [हिं० छड़ी + फा० बरदार] बड़े आदमियों की सवारी के साथ सोने चाँदि की छड़ी लिए हुए चलनेवाला । सेवक । चोबदार ।
⋙ छड़ीला
संज्ञा पुं० [सं० शैलेय] दे० 'छरीला' ।
⋙ छण
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] दे० 'क्षण' ।
⋙ छणदा
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षणदा] दे० 'क्षणदा' ।
⋙ छत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० छत्त, प्रा० छत्त] १. एक घर की दिवारों के ऊपर का पटिया, चूना, कंकड़ आदि डालकर बनाया हुआ फर्श । पाटन । उ०—छिति पर, छान पर, छाजत छतान पर, ललित लतान पर, लाड़िली की लट पै ।—पद्माकर (शब्द०) । विशेष—कच्चे मकान की छत कड़ियों पर पतले बाँस या उनकी खपचियाँ बिछाकर उसके ऊपर लसदार मिट्टी की तह बैठाने से तैयार होती है । ऐसी छत भीतरी होती है । जिसके ऊपर खपरैल आदि का छाजन रहता है । मुहा०—छत पटना या पड़ना = दीवार के ऊपर बैठाई हुई कड़ियों पर कंकड़, सुरखी, चुना आदि पीटा जाना । छत बनाना । २. घर के ऊपर की खुली हुई पाटन । ऊपर का खुला हुआ कोठा । जैसे,—गरमी में लोग छत पर सोते हैं । ३. ऊपर तानने की चादर । चाँदनी । छतगीर । मुहा०—छत बाँधना = बादलों का घेरकर छाना । ४. छत्र । उ०—जिन घर उदैसिंह छत जैहो । अबर न को जोड़ धर ऐहो ।—रा० रू०, पृ० १५ ।
⋙ छत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षत] घाव । जख्म । उ०—सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू । पाकें छत जसु लाग अंगारू ।—मानस १ । १६१ ।
⋙ छत (३)
क्रि० वि० [सं० सत्] होते हुए । रहते हुए । आछत । उ०— (क) गनती गनिबे ते रहे छतहू अछत समान । अलि अब ये तिथि औम लौं परे रहौ तन प्रान ।—बिहारी र०, दो० २७५ । (ख) प्रान पिंड़ को तजि चलै मुवा कहै सब कोय । जीव छतै जामें मरै सूछम लखै न सोय ।—कबीर (शब्द०) । (ग) पंख छता परबस परयो सूवा के बुधि नाहिं ।—संतवानी०, पृ० ३२ ।
⋙ छतगीर
संज्ञा स्त्री० [हिं० छत + फा० गीर] दे० 'छतगीरी' ।
⋙ छतगीरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छत + फा० गीर] १. वह कपड़ा या चाँदनी जो किसी कमरे में ऊपर की ओर शोभा के लिये छत से सटी हुई टँगी रहती है । २. वह कपड़ा जो रात को सोने के समय ओस आदि से रक्षित रहने के लिये पलँग के उपरी भाग में उसके पायों के ऊपर चारो ओर चार ड़ंडे लगाकर तान दिया जात है ।
⋙ छतज
संज्ञा पुं० [सं० क्षतज] १. रक्त । खून । लहू । उ०— रघुनंदन दसकंध के काटे मुंड़ कराल । छलक्यौ छतज कबंध तैं करयो भूमि नभ लाल । —स० सप्तक, पृ० ३६७ । २. रक्त के समान लाल । उ०—छतज नयन उर बाहु बिसाला । हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ।—मानस, ६ । ५२ ।
⋙ छतना पु
संज्ञा पुं० [सं० छादा, हिं० छाता, अव० छतौना] पत्तों का बना हुआ छाता । उ०—सौंहन सचाई बात करत रचाई दोऊ छबि सों बचाई छीटैं ओर छतनान की ।—रसकुसुमाकर (शब्द०) ।
⋙ छतनार †
वि० [हिं० छाता या छतना] छाते की तरह फैला हुआ । दूर तक फैला हुआ । विस्तृत । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः वृक्षों के लिये होता है ।
⋙ छतर पु
संज्ञा पुं० [सं० छत्र] दे० 'छत्र' । उ०—खाक रोबी सब सूँ बेहतर था मुझे । ना छतर हो तख्त यो अफसर मुझे ।—दक्खिनी०, पृ० १८८ ।
⋙ छतरना
क्रि० अ० [सं० स्तरण] दे० 'छितरना' । उ०—बाहर स्टेशन की तरफ नील फूल की लता चढ़ाई हुई सारे स्टेशन की दीवार पर छतर रही है ।—काले०, पृ० ३७ ।
⋙ छतारिया विष
संज्ञा पुं० [सं० छत्र +हिं० इया (प्रत्य०+)विष] एक प्रकार की खुमी जो बहुत विषैली होती है ।
⋙ छतरी
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं० छत्र] १. छाता । २. पत्तों का बना । हुआ छाता । उ०—लै कर सुघर खुरुपिया पिय के साथ । छइबै एक छतरिया बरखत पाथ । —रहीम (शब्द०) । ३. मंड़प । ४. राजाओं की चिता या साधु महात्माओं की समाधि के स्थान पर स्मारक रूप से बना हुआ छज्जेदार मंड़प । ५. कबूतरों के बैठने के लिये बाँस की फट्टियों का बना हुआ टट्टर जो एक ऊँचे बाँस के सिरे परबँधा रहता है । ६. कहोरों की ड़ोली के ऊपर छाया के लिये रखा हुआ बाँस की फट्टियों का ट्टर जिसपर कपड़ा ड़ालते हैं । ७. बहल या इक्के आदि के ऊपर का छाजन । ८. जहाज के ऊपर का भाग । ९. खुमी । कुकुरमुत्ता । १०. छोटा छाता । ११. एक प्रकार का गुब्बारा या छाता जिसके सहारे व्यक्ति वायुयान से कूदकर जमीन पर आ सकता है । पैराशूट ।
⋙ छतरीदार
वि० [हिं० छतरी + फा० दार] जिसके ऊपर छतरी लगी हो । छतरी से युक्त । यौ० —छतरीधारी = देखें 'छतरीबाज' ।
⋙ छतरीनुमा
वि० [हिं० छतरी + फा० नुमह्] छतरी के आकारवाला । छतरी जैसा ।
⋙ छतरीबाज
संज्ञा पुं० [हिं० छतरी + फा़० बाज] छतरी या (पैराशूट) के सहारे वायुयान से उतरकर आक्रमण करनेवाले सैनिक । छतरी के द्वारा वायुयान से उतरनेवाला ।
⋙ छतरीसेना
संज्ञा पुं० [हिं०] छतरी के सहारे वायुयानों से उतरनेवाली सेना ।
⋙ छतलाट
संज्ञा स्त्री० [हिं० छत + लोटना] एक प्रकार की कसरत जिसमें कच के ऊपर पेट के बल पट लेटकर लोटते हैं । इससे तोंद नहीं निकलती ।
⋙ छता †
संज्ञा पुं० [सं० छत्र] १. छाता । २. छत्रसाल । उ०— सीस भयो हरहार सुमेरु छता भयो आप सुमेरु को बासी ।— मतिराम (शब्द०) ।
⋙ छति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षति] हानि । त्रुटि । नुकसान । उ०— का छति लाभु जून धनु तोरे । देखा राम नए के भोरे ।— मानस, १ । २७२ ।
⋙ छतिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाती] छाती । वक्षस्थल । उ०— सुनहु श्याम तुमको ससि डरपत है कहत ए सरन तुम्हारी । सूर श्याम बिरुझाने सोए लिए लगाइ छतियाँ महतारी ।— सूर० (शब्द०) ।
⋙ छतियाना
क्रि० स० [हिं० छाती] १. छाती के पास ले जाना । २. बंदूक छोड़ने के समय कुंदे को छाती के पास लगाना । बंदूक तानना ।
⋙ छतिवन
संज्ञा पुं० [सं० सप्तवर्ण, प्रा० सत्तपणण, सत्तवणणसत्तिवणण, सत्तिवन्न; छत्तिवणण छत्तबणण] एक पेड़ जो भारत के प्रायः सभी तर प्रदेशों में थोड़ा बहुत मिलता है । सप्तपर्णी । सप्तच्छद । विशेष—इसके एक एक पत्ते में सात सात छोटी छोटी पत्तियाँ होती हैं । इसका पेड़ बड़ा होता है और इसकी टहनियों के तोड़ने से दूध निकलता है । इसकी छाल वृष्य, कृमिनाशक, पुष्टिकारक, ज्वरघ्न और संकोचक होती है । इसका दूध फोड़े पर लगाया जाता है और तेल में मिलाकर दर्द दूर करने के लिये कान में जाला जाता है । इसकी लकड़ी सदूक, अलमारी आदि बनाने के काम में आती है । दशमूल नामक काढे़ में इसकी छाल पड़ती है ।
⋙ छतीस पु †
वि० संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छत्तीस' ।
⋙ छतीश पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छतिस' । उ०—सप्तस्वर सों गाऊँ बजाऊँ सब राग रागिनी पुत्र बधून सहीत छत्तीश ।— अकबरी०, पृ० १०५ ।
⋙ छतीसा
वि० [हिं० छत्तीस] [वि० स्त्री० छत्तीसी] १. जिसे छत्तीस बुद्धि हो । चतुर । सयाना । चालाक । उ०—(क) पीसी है मनोज की सी छूटेगी छतीसी छँटी सुरत उड़ी सी भरी भाग की नदी सी है ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) आए हौ पठाए वा छतीसे छलिया के इतै बीस बीसै ऊधी बीरबावन कलोंव ह्वै ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १४५ । २. मक्कार । धूर्त । जैसे,—नाई की जाति बड़ी छतीसी होती है ।
⋙ छतीसापन
संज्ञा पुं० [हिं० छतीसा + पन] मक्कारी । चालाकी । धूर्तता ।
⋙ छतीसी
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'छत्तीसी' ।
⋙ छतुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छतरी] दे० 'छतारी' । उ०—कोउ कर पीकदान कोऊ के छतूरी छबी छाजत ।—प्रेमघन०, पृ० १२ ।
⋙ छतौना
संज्ञा पुं० [हिं० छाता] १. छाता । २. छत्रक । खुमी ।
⋙ छत्त (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छत' ।
⋙ छत्त (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० छत्र प्र० छत्त] दे० 'छत्र' । उ०—चलइ नें चामर परइ धरिअ छत्त तिरहुति उगाहिअ ।—कीर्ति०, पृ० ५८ ।
⋙ छत्तर †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'छत्र' । २. दे० 'सत्र' ।
⋙ छत्तरी †
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय] दे० 'क्षत्रिय' । उ०—मालूम होता हैं, छत्तरी बंस है ।—मान०, भा० ५, पृ० ६ ।
⋙ छत्ता
संज्ञा पुं० [सं० छत्र, प्रा० छत्त] १. छाता । छतरी । २. पटाव या छत जिसके नीचे से रास्ता हो । ३. मधुमक्खी, भिड़ आदि के रहने का घर जो मोम का होता है और जिसमें बहुत मे खाने रहते हैं । ४. छाते की तरह दूर तक फैली हुई वस्तु । छतनार चीज । चकत्ता । जैसे, दूब का छत्ता । दाद का छत्ता । ५. कमल का बीजकोश । पु ६. छत्रसाल राजा ।
⋙ छति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र में कथित चमड़े का कुप्पा आदि जिसके सहारे नदी पार उतरते थे ।
⋙ छत्ती पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय] क्षत्रिय । क्षत्री । उ०—रुघि घार षारं भूमि रत्ती । रमैं जानि बाँसत निस्संक छत्ती ।—पृ० रा०, १२ । १०६ ।
⋙ छत्तीस (१)
वि० [षटत्रिंशत्, प्रा० छत्तीसा] जो गिनती में तीस और छह हो । उ०—बिगसंत बदन छत्तीस बंस । जदुनाथ जन्म जनु जदुन बंस ।—पृ० रा०, १ । १७१५ ।
⋙ छत्तीस (२)
संज्ञा पुं० १. तीस और छह के योग की संख्या । २. इस संख्या को सूचित करनेवाला अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—३६ ।
⋙ छत्तीसवाँ
वि० [हिं० छत्तीस + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में पैतीस और वस्तुओं के उपरांत हो । क्रम में जिसका स्थान छत्तीस पर हो ।
⋙ छत्तीसा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छत्तीस] (छत्तीस जातियों की सेवा करनेवाला या जिसे छत्तीस बुद्धि हो) नाई । हज्जाम ।
⋙ छत्तीसा (२)
वि० [वि० स्त्री० छत्तीस] धूर्त । चालाक । चतुर ।
⋙ छत्तीसी
वि० [हिं० छत्तीस + ई (प्रत्य०)] १. गहरे छल छंदवाली (स्त्री०) । उ०—अरे यह छिनाल बड़ी छत्तीसी है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३१ । २. छिनाल ।
⋙ छत्तुर †
संज्ञा पुं० [सं० छत्र, प्रा० छत्त + उल, उर (प्रत्य०)] १. छाता । २. वह गोबर जो कंड़ों के ढेर (कंड़ौर) की चोटी पर छीपा जाता है । ३. वह गोबर जो खलियान में अनाज की राशि के सिर पर चोरी या नजर से बचाने के लिये रख या छोप दिया जाता है । ३. वह छप्पर जो भूसे की राशि के ऊपर छाया या रक्खा जाता है । ५. छोटा छाता । दे० 'छतरी' ।
⋙ छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाता । छतरी । २. राजाओं का छाता जो राजचिह्नों में से एक है । उ०—तिय बदलैं तेरो कियो, भीर भंग सिर छत्र ।—हम्मीर, पृ० ३८ । विशेष—यह छाता बहुमूल्य स्वर्णड़ंड़ आदि से युक्त रत्नजटित तथा मोती की झालरों आदि से अलंकृत होता है । भोजराज कृत 'युक्तिकल्पतरु' नाक ग्रंथ में छत्रों के परिमाण, वर्ण आदि का विस्तृत विवरण है । जिस छत्र का कपड़ा सफेद हो और जिसके सिरे पर सोने का कलश हो, उसका नाम कलकदंड है । जिसका ड़ंड़ा, कमानो, कील आदि विशुद्ध सोने की हों, कपड़ा और ड़ोरी कृष्ण वर्ण हो, जिसमें बत्तीस बत्तीस मोतियों की बत्तीस लड़ों की झालरें लटकती हों और जिसमें अनेक रत्न जड़े हों, उम छत्र का नाम 'नवदंड़' है । इसी नवदंड़ छत्र के ऊपर यदि आठ अंगुल की एक पताका लगा दी जाय तो यह 'दिग्विजयी' छत्र हो जाता है । यौ०—छत्रछाँह छत्रछाया = रक्षा । शरण । मुहा०—किसी की छत्रछाँह में होना किसी की संरक्षा में रहना । ३. खुमी । भूफोड़ । कुकुरमुत्ता । ४. बच की तरह का एक पेड़ । ५. छतरिया विष । खर विष । अतिच्छत्र । ६. गुरु के दोष का गोपन । बजों के दोष छिपाना ।
⋙ छत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खुमी । भूफोड़ । कुकुरमुत्ता । २. छाता । ३. तालमखाने की जाति का एक पौधा जिसके पत्ते और फल ललाई लिए होते हैं । ४. कौड़िल्ला नाम की चिड़िया । मछरंग । ५. शिव के पूजार्थ निर्मित मंदिर । मंडप । देवमंदिर । ६. शहद का छत्ता । ७. मिस्त्री का कूजा ।
⋙ छत्रकदेही
संज्ञा पुं० [सं० छत्रकदेहिन्] रावण चाकी नामक जलजंतु जिसके शरीर के ऊपर एक गोल छाता सा रहता है । यह समुद्र में होता है ।
⋙ छत्रचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुभाशुभ फल निकालने के लिये फलित ज्योतिष का एक चक्र । विशेष—इसमें नौ नौ घरों की तीन पंक्तियाँ बनाते हैं जिनमें क्रमशः अश्विनी से लेकर अश्लेषा तक, मघा से लेकर ज्येष्ठा तक और मूल से रेवती तकनौ नक्षत्रों के नाम रखते हैं । फिरनक्षत्र के नाम के अनुसार शुभाशुभ की गणना करते हैं ।
⋙ छत्रछाँह
संज्ञा स्त्री० [सं० छत्र + हिं० छाँह] रक्षा । शरण । उ०— या की छत्रछाँह सुख बसियत सकल समाधा है ।—घनानंद०, पृ० ५४९ ।
⋙ छत्रछाया
संज्ञा स्त्री० [सं० छत्रच्छाया] दे० 'छत्रछाँह' । उ०— व्यापारी निगमों की आर्थिक शक्ति उनकी छत्रछाया में उलटा बढ़ी ही दीखती है ।—भा० इ० रू०, पृ० ६२८ ।
⋙ छत्रधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. छत्र धारण करनेवाला व्यक्ति । २. राजा । ३. वह सेवक जो राजा के ऊपर छाता लगाता है ।
⋙ छत्रधार
संज्ञा पुं० [सं०] 'छत्रधारी' । उ०—छत्रधार देखत ढहि जाइ । अधिक गरब थैं खाक मिलाइ ।—कबीर ग्रं०, पृ० २०९ ।
⋙ छत्रधारी (१)
वि० [सं० छत्रधारिन्] [वि० स्त्री० छत्रधारिणी] जो छत्र धारण करे । जैसे, छत्रधारी राजा ।
⋙ छत्रधारी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छत्र धारण करनेवाला, राजा । २. वह सेवक जो राजाओं के ऊपर छाता लगावे ।
⋙ छत्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] छत्र का अधिपति, राजा । उ०—जस निर्मल थिर चिर जिवे छत्रपति साहि सलेमु ।—अकबरि०, पृ० ६८ । २. जंबूद्वीप का एक नरेश (को०) ३. शिवाजी की उपाधि ।
⋙ छत्रपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थलपद्य । २. भोजपत्र का वृक्ष । पदुम । ३. मानपत्ता । मानकच्चू । मान । ४. छतिवन ।
⋙ छत्रपुत पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्र + पुत्र] क्षत्रिय का पुत्र । राजपूत । उ०—तोहिं बुध कीन्ह छत्रपुत भारी । सुनहु दुःख जो अहै दुखारी ।—हिंदी प्रेम० पृ० २७७ ।
⋙ छत्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] तिलक पुष्प ।
⋙ छत्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रबन्धु] नीच कुल का क्षत्रिय । क्षत्रियाधम । उ०—छत्रबंधु तैं विप्र वोलाई । धालै लिये सहित समुदाई ।— मानस, १ । १७४ ।
⋙ छत्रभंग
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का नाश । २. ज्योतिष का एक योग जो राजा का नाशक माना गया है । ३. स्त्री की पति द्वारा परित्यक्तावस्था । बैधव्य । बिधवपन । ४. अराजकता । ५. हाथी को एक दोष जो उसके दोनों दाँतों के कुछ नीचे ऊपर होने के कारण माना जाता है । ६. परनिर्भरता । पराधीनता । पराश्रयता (को०) ।
⋙ छत्रमहाराज
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार आकाशस्थ चार दिक् पाल । विशेष—ये एक एक दिशाओं के अधिपति माने जाते हैं । इनके नाम और क्रम इस प्रकार हैं-प्रथम वीणाराज जो पूर्व दिशा के अधिपति हैं और हाथ में वीणा लिए रहते हैं; दूसरे खड़्गराज जो पश्चिम दिशा के अधिपति हैं और हाथ में खड़्ग लिए रहते हैं; तीसरे ध्बजराज जो उत्तर दिशा के अधिपति हैं और हाथ में ध्वाजा लिए रहते हैं; चौथे चैत्यराज जो दक्षिण दिशा के अधिपति हैं और हाथ में चैत्य धारण करते हैं । बौद्ध मंदिरों में प्रायः इनकी मूर्तियाँ रहती हैं ।
⋙ छत्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन राज्य जो पांचाल के उत्तर पड़ता था । इसे अहिच्छत्र या अहिक्षेत्र भी कहते थे । महाभारत, हरिवंश और विष्णु पुराण इत्यादि में इसका उल्लेख है ।
⋙ छत्रवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मुचकुंद का पेड़ ।
⋙ छत्रांग
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्राङ्ग] गोदंती हरताल ।
⋙ छत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खुमी । ढिंगरी । २. धमियाँ । ३. सोवा । सोआ । ४. मजीठ । ५. रास्ना । रासन । सुश्रुत के अनुसार एक रसायन औषधि ।
⋙ छत्राक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खुमी । ढिंगरी । २. कुमुरमुत्ता । ३. जलबबूल ।
⋙ छत्राकार
वि० [सं०] छाते के समान । उ०—अदभुत कर्म कान्ह जब करयौ । छत्राकार महागिरि धरयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१२ ।
⋙ छत्राकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रास्ना नाम की ओषधि । २. सर्पाक्षी । ३. छत्रिका (को०) ।
⋙ छत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] छाता लेकर चलनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ छत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खुमी । ढिंगरी ।
⋙ छत्री (१)
वि० [सं० छत्रिन्] [वि० स्त्री० छत्रिणी] छत्र धारण करनेवाला । छत्रयुक्त ।
⋙ छत्री (२)
संज्ञा पुं० नापित । नाई ।
⋙ छत्री (३)
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय] दे० 'क्षत्रिय' ।
⋙ छत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर । २. कुंज ।
⋙ छदंग पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत + अङ्ग] गंड़स्थल । उ०—पद लंगर जंजीर जरि, कज्जल गिरवर अग । दिग्ध देत बग घन बरन, झरत मदंग छदंग ।—पृ० रा०, ८ । ४० ।
⋙ छदंब पु †
संज्ञा पुं० [सं० छद्म] दे० 'छद्म' ।
⋙ छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढकनेवाली । वस्तु । आवरण (चादर, ढक्कन, छाल इत्यादि) । जैसे,—रदच्छद । उ०—चारु विधु मंड़ल में विद्रुम विराजै, छद मोतिन से छाजै ते छपाए छपते नहीं ।— (शब्द०) । २. चिड़ियों का पंख । पक्ष । ३. पत्ता । पत्र । पर्ण ।—अनेकार्थ०, पृ० ५२ । ४. ग्रंथिपर्णी वृक्ष । गँठिवन । ५. तमाल वृक्ष । ६. तेजपत्ता । ७. म्यान । खोल (को०) ।
⋙ छदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवरण । आच्छादन । ढक्कन । २. पत्ता । उ०—अमल कमल सा बदन अहा । अधर छगीले छदन अहा । उ०—साकेत, पृ० ७६ । ३. चिड़ियों का पंख । ४. तमालपत्र । ५. तेजपत्ता ।
⋙ छदपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'छदपद' [को०] ।
⋙ छदपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेजपत्ता । २. भोजपत्र ।
⋙ छदम पु
संज्ञा पुं० [सं० छद्म] दे० 'छद्म' ।
⋙ छदाम
संज्ञा पुं० [हिं० छ + दम] पैसे का चौथाई भाग ।
⋙ छदि, छदिस्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाड़ी के ऊपर की छत । उ०— वह युद्ध या सवारी के लिये रथ माल ढोने के लिये छकड़ें बनाता था, जिनकी छत छदिस् कहलाती थी ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ७८ । २. मकान की छत (को०) । विशेष—संस्कृत में छदि स्त्रीलिंग और छदिस् नपुंसक लिंग है ।
⋙ छद्दर †
संज्ञा पुं० [हिं० छ + सं० रद या हिं० दाँत] १. वह पशु जो छह दाँत तोड़ चुका हो । २. नटखट लड़का । शरीर लड़का ।
⋙ छद्म
संज्ञा पुं० [सं० छद्मन्] १. छिपाव । गोपन । २. ब्याज । बहाना । हीला । ३. छल । कपट । धोखा । जैसे, छद्मवेश । ४. मकान की छत या छाजन (को०) ।
⋙ छद्मतापस
संज्ञा पुं० [सं०] छली तपस्वी । बना हुआ तापस । कपटी साधु [को०] ।
⋙ छद्मवेश
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों को धोखा देने के लिये बनाया हुआ वेश । बदला हुआ वेश । कृत्रिम वेश ।
⋙ छद्मवेशी
वि० [सं० छद्मवेशिन्] जो वेश बदले हो । जो अपना असली रूप छिपाए हो ।
⋙ छद्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़ुव । गिलोय ।
⋙ छद्मी
वि० [सं० छद्मिन्] [वि० स्त्री० छद्मिनी] १. बनावटी धारण करनेवाला । अपना असली रूप छिपानेवाला । छली । कपटी ।
⋙ छन (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] १. पर्व का समय । पुण्यकाल । उ०—सागर उजागर की बहु वाहिनी को पति छन दान प्रिय किधौं सूरज अमल है ।—केशव (शब्द०) । २. उत्सव । ३. नियम । तेम । ४. मुहूर्त । उ०—छन उत्सव छन नेम पुनि छन मुहूर्त कहियंत ।—अनेकार्थ०, पृ० ५३ । ५. काल । समय । क्षण । उ०—सो को कबि जो छवि कहि सकै ता छन जमुना तीर— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५५ ।
⋙ छन (२)
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] जलती या तपती वस्तु पर पानी पड़ने से उत्पन्न शब्द । छनक ।
⋙ छनंकना (१)पु †
क्रि० स० [अनु०] किसी वस्तु को वेग से फेंकना । सनकाना । उ०—(क) करषि मुट्ठी कम्मान । तानि क्रन बान छनंकिय ।—पृ० रा०, १ । ६३९ ।
⋙ छनंकना (२)पु
क्रि० अ० छन छन शब्द करना । छनकना । उ०— खनंकत सेल बखत्तर तोर । छनंकत तेग जँजीरनु मोर ।— सुदन (शब्द०) ।
⋙ छनक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] छन छन करने का शब्द । झनझनाहट झनकार । उ०—कवि मतिराम भूषननि की छनक सुनि चाँद भो चपल चित रसिक रसाल की ।—मतिराम (शब्द०) । २. जलती या तपती हुई वस्तु पर पानी आदि पड़ने के कारण छन छन होने का शब्द ।
⋙ छनक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्का या हिं० सनक] किसी आशंका से चौककर भागने की क्रिया । भड़क ।
⋙ छनक (३)
संज्ञा पुं० [सं० क्षण, हिं० छन + एक] एक क्षण । उ०— अरि छोटो गनिए नहीं, जातें होत बिगार । तृन समूह को छनक में, जारत तनिक अँगार ।—वृंद (शब्द०) ।
⋙ छनकना (१)
क्रि० अ० [अनु० छन् छन्] १. किसी तपती हुई धातु (जैमे गरम तवा) पर से पानी आदि की बूँद का छन् छन् शब्द करके उड़ जाना । उ०—मैं लै दयो लयौ सुकर, छुवत छनिक गो नीर । लाल तुम्हारो अरगजा उर ह्वै लग्यो अबीर ।—बिहारी (शब्द०) । २. छन छन शब्द करना । झनकार करना । झन झनाना । झनकना । जैसे—यह गाय पास जाते ही छनकती है ।
⋙ छनकना
क्रि० अ० [सं० शङ्कन] चौकन्ना होकर भागना । भड़कना । जैसे,—यह गाय पास जाते ही छनकती है ।
⋙ छनक मनक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. गहनों के बजने का शब्द । आभूषणों की झनकार । २. साज बाज । ठसक । जैसे-न्योते में स्त्रियाँ बड़ी छनक मनक से जाती हैं । ३. दे० 'छगनमगन' ।
⋙ छनकान (१)
क्रि० स० [हिं० छनकना] १. पानी को आँच पर रखकर भाप बनाकर उड़ाना जिससे उसका परिमाण कुछ कम हो जाय । २. तपे हुए बरतन में पानी या और कोई द्रव पदार्थ डालकर गरम करना । बलकाना । ३. फेंकना । छोड़ना । छटकाना । ४. पैसे रुपए जैसी पस्तु को हिला डुलाकर छन् छन् झन् झन् शब्द उत्पन्न करना । उ०—जानेकिस किस की माताएँ जेबों में पैसे छनकाएँ ।—बंदन०, पृ० ६२ ।
⋙ छनकाना (२)
क्रि० स० [हिं० छनकना (= शंका करना)] चौंकाना । चौकना करना । भड़काना ।
⋙ छनकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० छनकना] १. छन् छन् की आवाज । छनछनाहट । २. वर्षा की रिमझिम । उ०—बिंदुओं की छनती छनकार, दादूओं के वे दुहरे स्वर ।—पल्लव, पृ० २१ ।
⋙ छनछनाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. किसी तपी हुई धातु (जैसे गरम तवा) पर पानी आदि पड़ने के कारण छन छन शब्द होना । २. खौलते हुए घी, तेल आदि में किसी गीली वस्तु (जैसे, आटे की लोई, तरकारी आदि) के पड़ने के कारण छन् छन् शब्द होना । छन्न छन्न शब्द होना । ३. झनझनाना । झनकार होना । †४. जलन होना । चुनचुनाना । लगना ।
⋙ छनछनाना (२)
क्रि० स० १. छन छन का शब्द उत्पन्न करना । २. झनकार करना ।
⋙ छनछवि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षणछवि] क्षणप्रभा । विजली । उ०—केसौदास ऐसें प्रीति छिपावति छलनि में जैसे छनछवि छटै छिपै जाइ घन में ।—केशव ग्रं०, पृ० ७८ ।
⋙ छनछेप
संज्ञा पुं० [सं० संक्षेप] थोड़े में कोई बात कहना । सारांश । निष्कर्ष । समास । उ०—गीता पुरान का बेद भने छनछेप में चीत चैतन्य हुआ ।—सं० दरिया, पृ० ६६ ।
⋙ छनदा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षणदा] १. रात । रात्रि । उ०—तज संक सकुचति न चित, बोलति बाकु कुबाकु । छिन छनदा छाकी रहत, छुटत न छिन छबि छाकु ।—बिहारी र०, दो० २१८ । २. बिजली । विद्युत् । उ०—नभमंडल ह्वै छितिमंडल ह्वै, छनदा की छटा छहरान लगी ।—मतिराम (शब्द०) ।
⋙ छननमनन
संज्ञा पुं० [अनु०] कड़ाह के खौलते घी या तेल में किसी तली जानेवाली गीली वस्तु के पड़ने का शब्द । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—छनन मनन होना = कड़ाह में पूरी कचौरी आदि निकलना । पूरी, पकवान आदि बनना ।
⋙ छनना
क्रि० अ० [सं० क्षरण] १. किसी चूर्ण (जैसे आटा) या द्रव पदार्थ (जैसे, दूध, पानी आदि) का किसी कपडे़ या जाली के महीन छेदों में से होकर इस प्रकार नीचे गिरना कि मैल, खूद, सीठी आदि अलग होकर ऊपर रह जाय । छलनी से साफ होना । २. छोटे छोटे छेदों से होकर आना । जैसे,—पेड़ की पत्तियों के बीच से धूप छनछनकर आ रही है । ३. किसी नशे का पिया जाना । जैसे,—भाँग छनना, शराब छनना । मुहा०—गहरी छनना =(१) खूब मेल जोल होना । गाढी मैत्री होना (२) परस्पर रहस्य की बातें होना । खूब घुट घुटकर बात होना । (३) आपस में चरना । बिगाड़ होना । लड़ाई होना । एक दूसरे के विरुद्ध प्रयत्न होना । जैसे—उन दोनों में आजकल गहरी छन रही है । ४. बहुत से छेदों से युक्त होना । स्थान स्थान पर छिद जाना । छलनी हो जाना । जैसे,—इस कपडे़ में अब क्या र गया हैह, बिलकुल छन गया है । ५. बिध जाना । अनेक स्थानों पर चोट खाना । जैसे,—उसका सारा शरीर तीरों से छन गया है । ६. छानबीन होना । निर्णय होना । सच्ची और झूठी बातों का पता चलना । जैसे, मामला छनना । ७. कड़ाह में से पूरी पकवान आदि तलकर निकलना । जैसे, पूरी छनना ।
⋙ छनना (२)
संज्ञा पुं० छनने की वस्तु । किसी वस्तु के छानने का साधन । जैसे, महीन छनना (कपड़ा) ।
⋙ छननी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षरण] वह छेददार वस्तु जिसमें कोई चीज छानी जाय । चलनी । उ०—भस्मीभूत अस्थियों के अनगिन, स्तर की छननी में छनकर । एक मनमोहक उन्मादक झिलमिल निर्झर रूप ग्रहण कर ।—इत्यलम्, पृ० ६८ ।
⋙ छनपरभा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षणप्रभा] बिजली । उ०—छनपरभा के छल रही चमकि गार करबार ।—स० सप्तम, पृ० २७२ ।
⋙ छनभंगु पु
वि० [सं० क्षणभङ्गु] नाशवान् । अनित्य । उ०—राम विरह तनु तजि छनभंगू ।—मानस, २ । २१० ।
⋙ छनभंगुर पु
वि० [सं० क्षणमङ्गुर] आनित्य । नाशवान् । क्षणस्थायी । उ०—तनु मिथ्या छनभंगुर जानौ । चेतन जीय सदा थिर मानौ ।—सूर०, ५ । ४ ।
⋙ छनभर
क्रि० वि० [हिं०] थोड़ी देर । लहमा भर ।
⋙ छनरुचि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षण + रुचि (= काँति, प्रभा)] क्षणप्रभा । बिजली । उ०—छनरुचि छटा अकाल की तड़ित चुंचला होइ ।—अनेकार्थ०, पृ० ३८ ।
⋙ छनवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छनाना' ।
⋙ छनाका
संज्ञा पुं० [अनु०] १. खनाका । ठनाका । झनकार । २. रुपयों के बजने का शब्द ।
⋙ छनाना
क्रि० स० [हिं० छानना] १. किसी दूसरे से छानने का काम कराना । २. नशा आदि पिलाना । जैसे,—भाँग छनाना । ३. कड़ाह में पकावान तलवाना ।
⋙ छनिक (१)पु
वि० [सं० क्षणिक] दे० 'क्षणिक' ।
⋙ छनिक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० छन + एक] एक क्षण । अल्प काल ।
⋙ छनिक (३)
क्रि० वि० दे० 'छन भर' ।
⋙ छन्न (१)
वि० [सं०] १. ढका हुआ । आवृत । आच्छादित । २. लुप्त । गायब ।
⋙ छन्न (२)
संज्ञा पुं० १. एकांत स्थान । निर्जन स्थान । गुप्त स्थान ।
⋙ छन्न (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. किसी तपी हुई चीज पर पानी आदि पड़ने से उत्पन्न शब्द । २. कड़कडा़ते हुए तेल या घी में तलने की वस्तु प़डने का शब्द । मुहा०—छन्न होना = सूख जाना । उड़ जाना । ३. धातुओं के पत्तरों की परस्पर टक्कर से उत्पन्न शब्द । छनकार । ठनकार । छोटी छोटी ककड़ियाँ । बजरी ।
⋙ छन्न (४)
संज्ञा पुं० [सं० छन्द] [स्त्री० छन्नी] छँद नाम का गहना । हाथ का एक आभूषण । उ०—चाहे उसके लिये माँ के हाथों के छन्न ककना ही क्यों न गिरबी रखने पडे़ ।—ज्ञानदान, पृ० ६७ ।
⋙ छन्नमति
वि० [सं०] जिसकी बुद्धी पर परदा पड़ा हो । जड़ । मूर्ख ।
⋙ छन्ना
संज्ञा पुं० [हिं० छन्ना] दे० 'छनना' ।
⋙ छप (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. पानी में किसी वस्तु के एकबारगी जोर से गिरने का शब्द । २. पानी के एकबारगी पड़ने का शब्द । पानी के छींटो के जोर से पड़ने का शब्द । यौ०—छपछप, छपाछप = (१) भरपूर । (२) छप् छप् की लगातार आवाज । (३) छप् छप् की ध्वनि के साथ ।
⋙ छप
वि० [हिं० छिपन, छपन] गायब । लुप्त । अदृष्ट । यौ०—छपलोक = अदृष्ट जगत् । उ०—तब तोहि जानौ पंडिता, मुक्ती कहि देहु आय । छपलोक की बात कहु तब मोर मन पतियाय ।—संतवाणी०, भा० १, पृ० १२५ ।
⋙ छपक (१)पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. तलवार आदि के चलने की आवाज । २. छप छप की आवाज । दे० 'छप' ।
⋙ छपक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिपना] छिपने या दुबकने की स्थिति ।
⋙ छपकना
क्रि० अ० [हिं० छिपना] दे० 'छिपने' । उ०—दबकत छपकत चीता आवै तीनु जने धरि खावै ।—सं० दरिया, पृ० १२६ ।
⋙ छपकना (२) †
क्रि० स० [हिं० छप से अनु०] १. पतली कमची से किसी को मारना । पतली लचीली छड़ी से किसी को पीटना । २. कटारी या तलवार के आघात से किसी वस्तु को काट डालना । छिन्न करना । ३. थोडे़ जल में छपछप की आवाज करना । थोड़े पानी में हाथ पैर चलाना ।
⋙ छपकली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिपकली' । उ०—छपकली से, चोर से, भूत से वह बहुत डरती है ।—सुनीता, पृ० ११३ ।
⋙ छपका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चपकना] सिर में पहनने का एक गहना जिसे लखनऊ में मुसलमान स्त्रियाँ पहनती है ।
⋙ छपका (२)
संज्ञा पुं० [हिं० छपकना] पतली कमची । साँटा ।
⋙ छपका (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चार + पका] खुरवाले पशुओं का एक रोग जिसमें पशुओं को खुर पक जाते हैं । खुरपका ।
⋙ छपका (४)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. पानी की भरपूर छींटा । २. एक प्रकार का जाल जिसमें कबूतर फँसाएँ जाते हैं । ३. लकड़ी के संदूक में ऊपर का वह पटरा जिसमें कुंडे की जंजीर लगी रहती है । ४. पानी हाथ पैर मारने की क्रिया या भावी । ५. दाग । धब्बा । ६. छापा । क्रि० प्र०—मारना ।—लेना ।
⋙ छपछपाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. पानी पर कोई वस्तु जोर से पटककर छप छप शब्द उत्पन्न करना । पानी पर हाथ पाँव पटकना । २. कुछ तैर लेना । जैसे,—वे तैरते क्या है, यों ही पानी पर छपछपाते हैं ।
⋙ छपछपाना (२)
क्रि० स० [अनु०] छड़ी या हाथ आदि पटककर पानी को इस प्रकार हिलाना जिसमें छप छप शब्द उत्पन्न हो ।
⋙ छपटना (१) †
क्रि० अ० [सं० चिपिट, हिं० चिपटना] १. चिपकना । किसी वस्तु से लगना या सटना । २. आलिंगित होना ।
⋙ छपटना पु
क्रि० अ० [हिं० झपटना] दे० 'झपटना' ।
⋙ छपटाना †
क्रि० स० [हिं० छपटना] १. चिपकाना । चिमटाना । २. छाती से लगाना । आलिंगन करना ।
⋙ छपटी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छपटना] लकड़ी का टुकड़ा जो छीलने से निकले । चैली ।
⋙ छपटी (२)
वि० पतला । दुबला । कृश ।
⋙ छपड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का भुजंगा पक्षी ।
⋙ छपद
संज्ञा पुं० [सं० षट, प्रा० छ + सं० पद] भ्रमर । भौंरा । उ०—(क) उलटि तहाँ पग धारिये जासों मन मान्यौ । छपद कंज तजि बेलि सों लटि प्रेम न जान्यौ ।—सूर (शब्द०) । (ख) छपद सुनहि वर बचन हमारे । बिनु ब्रजनाथ ताप नैनन की कौन हरै हरि अंतर कारे । —तुलसी (शब्द०) । (ग) सिंधुर मदझर सिद्धरा ऊखेड़ै वणराय । तजकावेरी कमलबन छपदाँ लीधा छाय ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ६९ ।
⋙ छपन (१) †
वि० [हिं० छिपना] १. गुप्त । गायब । लुप्त । (पश्चिम में प्रयुक्त) । उ०— न जाने कहाँ छपन हो गई । —श्रद्धाराम (शब्द०) ।
⋙ छपन (२)पु †
वि० [सं० षट्पच्चाशत्, प्रा० छपन्न] दे० 'छप्पन' । उ०—क्रोध काल प्रत्यक्ष ही कियौ सकल कौ नास । सुंदर कौरव पांड़ुवा छपन कोटि परभास ।—सुंदर ग्रं०, भा० पृ० ७०६ । यौ०—छपनकोट, छपनकोटि = छप्पन करोड़ । उ०—सागर कोट जाके कलसार । छपन कोट जाके पनिहार ।—दरिया० बानी, पृ० ४३ ।
⋙ छपन (३)
संज्ञा पुं० [सं० क्षपण] विनाश । नाश । संहार । उ०— छोनी में न छाँड़यौ छप्यौ, छोनिप को छौना छोटी छोनिप छपन बाँको बिरुद्ध हों ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १६० ।
⋙ छपनहार
वि० [हिं० छपन + हार (प्रत्य०)] विध्वंसकर्ता । विना— शक । उ०—कीन्हीं छोनी छत्री बिनु छोनिप छपनहार । कठिन कुठारपानि बीर बानि जानि कै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १८८ ।
⋙ छपना (१)
क्रि० अ० [हिं० चपना (= दबना)] १. छापा जाना । चिन्ह या दाब पड़ना । २. चिन्हित होना । अंकित होना । ३. मुद्रित होना । जैसे,—पुस्तक छपना । ४. शीतला का टीका लगना ।
⋙ छपना (२)पु †
क्रि० अ० [हिं० छिपना] दे० 'छिपना' । उ०—मार— तंड़ छपि अँधकार छायौ दिसानु दस ।—हम्मीर०, पृ० ४३ ।
⋙ छपर †
संज्ञा पुं० [हिं०] छप्पर । जैसे, चपरखट, छपरबंद, छपरिया ।
⋙ छपरखट
संज्ञा स्त्री० [हिं० छप्पर + खाट] वह पलंग जिसके ऊपर ड़ंड़ों के सहारे कपड़ा तना हो । मसहरीदार पलंग ।
⋙ छपरखाट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छपरखट' ।
⋙ छपरछपर (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'छप', 'छपछप' ।
⋙ छपर छपर (२)
तर । भींगा हुआ या गीला ।
⋙ छपरबंद
वि० [हिं० छप्पर + बंद] [संज्ञा छपरबंदी] १. जिनका घर बना हो । आबाद । बसे हुए । पाही का उलटा । जैसे, छपरबंद असामी, छपरबंद बाशिंदा । २. छप्पर छाने का काम करनेवाला । छप्पर छानेवाला ।
⋙ छपरबंद †
संज्ञा पुं० [देश०] पूना के आसपास बसनेवाली एक जाति जो अपने को राजपूत कुल से उत्पन्न बतलाती है ।
⋙ छपरबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छपरबंद + ई (प्रत्य०)] १. छप्पर छाने का काम । छवाई । २. छाने की मजदूरीं । छवाई ।
⋙ छपरा †
संज्ञा पुं० [हिं० छप्पर] १. बाँस का टोकरा जो पत्तों से मढ़ा होता है और जिसमें तमोली पान रखते हैं । २. दे० 'छप्पर' । ३. बिहार का एक जिला और नगर जिसको सारन भी कहते हैं ।
⋙ छपरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छप्पर + इया (प्रत्य०)] छोटा छप्पर । दे० 'छपरी' ।
⋙ छपरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छप्पर] झोपड़ी । मढ़ी । उ०— चंदन की कुटकी भली, बँबूर की अबराँड़ँ । बैश्नों की छपरी भवी, ना साषत का बड़ गाँउँ । कबीर ग्रं०, पृ० ५२ ।
⋙ छपवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छापना] दे० 'छपाई' ।
⋙ छपवाना
क्रि० स० [हिं० छपाना] दे० 'छपाना' ।
⋙ छपवैया †
संज्ञा पुं०, वि० [हिं० छापना] १. छापनेवाला । २. छपानेवाला । ३. मुद्रित करानेवाला (प्रकाशक) । उ०— मंगल सदाहीं करैं राम ह्वै प्रसन्न सदा राम रसिकावली या ग्रंथ छपवैया को ।—जुगलेश (शब्द०) ।
⋙ छपही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] सोने या चाँदी का एक गहना जिसे स्त्रियाँ हाथ की उँगलियों में पहनती है ।
⋙ छपा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षपा] १. रात्रि । रात । उ०—छपन छपा के, रवि इव भा के, दंड उतंग उड़ाके । विविध कता के, बँधे पताके, छुबै जे रवि रथ चाके ।—रघुराज (शब्द०) । २. हरिद्रा । हलदी ।
⋙ छपाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छापना] १. छापने का काम । मुद्रण । अंकन । २. छापने का ढ़ंग । ३. छापने की मजदूरी ।
⋙ छपाकर
संज्ञा पुं० [सं० क्षपाकर] १. चंद्रमा । चाँद । उ०—छिप्यो छपाकर छितिज छरनिधि छगुन छंद छल छीन्हो ।—श्यामा०, पृ० १२० । २. कर्पूर । कपूर ।
⋙ छपाका
संज्ञा पुं० [अनु०] १. पानी पर किसी वस्तु के जोर से पड़ने का शब्द । २. जोर से उछाला या फेंका हुआ पानी या तरल वस्तु का छींटा । क्रि० प्र०—मारना ।
⋙ छपाना (१)
क्रि० स० [हिं० छापना का प्रे० रूप] १. छापने का काम कराना । २. चिन्हित कराना । अंकित कराना । ३. छापे- खाने में पुस्तक आदि अंकित कराना । मुद्रित कराना । ४. शीतला का टीका लगवाना ।
⋙ छपाना (२)
क्रि० स० [हिं० छिपाना] दे० 'छिपाना' । उ०—जाहि लय गेलहुं, से चल आयल, तै तरु रहसि छपाइ ।—विद्यापति, पृ० ३५७ ।
⋙ छपाना (३)
क्रि० अ० [अनु० छपछ प या हिं० छोपना] जोतने के लिये खेत को सींचना ।
⋙ छपानाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षपानाथ] दे० 'क्षपनाथ' ।
⋙ छपाव पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छिपाव' ।
⋙ छप्पन (१)
वि० [सं० षट्पंचाशत्, प्रा० छप्पणण, छप्पन] जो गिनती में पचास और छह हो । पचास से छह अधिक ।
⋙ छप्पन (२)
संज्ञा पुं० १. पचास और छह की संख्या । २. इस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—५६ । मुहा०—छप्पन टके का खर्च = अधिक खर्च । उ०—पूछो, रोटी दाल में ऐसा कौन सा छप्पन टके का खर्च है ।—रंगभूमि, भा०२, पृ० ७०२ । यौ०—छप्पन भोग = (१) छप्पन प्रकार का व्यंजन । (२) मंदिरों में होनेवाला एक उत्सव जिसमें छप्पन प्रकार के भोज्य पदार्थ भगवान् को अर्पण किए जाते हैं । उ०—व्यंजन चार प्रकार के छप्पन भोग बिलास । रामा एकण भाव में जाणै हरि के दास ।—राम० धर्म०, पृ० २४ ।
⋙ छप्पय
संज्ञा पुं० [सं० षट्पद, प्रा० छप्पय] एक मात्रिक छंद जिसमें छह चरण होते हैं । विशेष—इस छंद में पहले रोला के चार पद, फिर उल्लाला के दो पद होते हैं । लघु गुरु के क्रम से इस छंद के ७१ भेद होते हैं । जैसे—अजय विजय बलकर्ण बीर बैताल बिहंकर । मर्कंट हरि हर ब्रह्म इद्र चंदन जु शुभंकर । श्वान सिंह शर्दूल कच्छ कोकिल खर कुंजर । मदन मत्स्य ताटंक शेष सारंग पयोधर । शुभकमल कंद वारण शलभ, भवन अजंगम सर सरस । गणि समर सु सारस मेरु कहि, मकर अली सिद्धिहि सरस ।
⋙ छप्पर
संज्ञा पुं० [हिं०छोपना] १. बाँस या लकड़ी की फट्टियों और फूस आदि की बनी हुई छाजन जो मकान के ऊपर छाई जाती है । छाजन । छान । क्रि० प्र०—छाना ।—ड़ालना ।—पढ़ना ।—रखना । यौ०—छप्परबंद । मुहा०—छप्पर पर रखना = दूर रखना । अलग रखना । रहने देना । छोड़ देना । चर्चा न करना । जिक्र न करना । जैसे,— तुम अपनी घड़ी छप्पर पर रखो, लाओ हमारा रुपया दो । छप्पर पर फूस न होना = अत्यंत निर्धन होना । कंगाल होना । अकिंचन होना । छप्पर फाड़कर देना = अनायास देना । बिना परिश्रम प्रदान करना । बैठे बैठाए अकस्मात् देना । घर बैठे पहुँचना । जैसे,—जब देना होता है तो ईश्वर छप्पर फाड़कर देता है । छप्पर रखना = (१) एहसान रखना । बोझ रखना । निहोरा लगाना । उपकृत करना । (२) दोषारोपण करना । दोष लगाना । कलंक लगाना । २. छोटा ताल या गड़्ढा जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा रहता है । ड़ाबर । पोखर । तलैया ।
⋙ छप्परबंद (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छप्पर + फा० वद] १. छप्पर छानेवाला । २. पूना के आसपास बसनेवाली एक जाति जो अपने को राजपूत कुल से उत्पन्न बतलाती है ।
⋙ छप्परबंद (२)
वि० जिसने घर बना लिया हो । जो बस गया हो । बसा हुआ । आबाद । जैसे,—छप्परबंद असामी ।
⋙ छप्परबंध
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छप्परबंद' । उ०—चितेरा विधेरा बारी लखेरा ठठेरा राज, पटुवा छप्परबंध नाई भारभुनिया ।—अर्ध०, पृ० ४ ।
⋙ छब †
संज्ञा स्त्री० [सं० छवि] दे० 'छबि' । उ०—जर इस बज्म छब की उरूसी दिखाय । तो जाहर हो ज्यों दिप मने जल्वागाय । दक्खिनी, पृ० १३८ ।
⋙ छबकाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का काव्यदोष । डिंगल काव्य में जब डिंगल भाषा से भिन्न और भी भाषाएँ प्रयुक्त हों, तब वहाँ छबकाल दोष होता है । उ०—रुलै उकतरो रूप, अंध सो नाम उचारैं । कहे वले छबकाल, विरुद्ध भाषा बिसतारें ।—रघु० रू०, पृ० १४ ।
⋙ छबड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० छबड़ी] १. टोकरी । डला । झाबा । छितना । २. खाँचा ।
⋙ छबतखती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छबि + अ० तक़तीअ] शरीर की सुंदर बनावट । सुंदरता । सज धज ।
⋙ छबबख्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छबतखती' ।
⋙ छबरा
संज्ञा पुं० [देश०] छबड़ा । डलिया । पिटारी । उ०—जैसे काहू सर्ष कौ छबरे पकरि धरच्यौ सु ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७३ ।
⋙ छबि
संज्ञा स्त्री० [सं० छवि] शोभा । कांति । दे० 'छवि' । उ०— सो को कबि छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर की ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४४ । यौ०—छविकद = शोभा का पुंज । अत्यंत सुंदर । उ०—पियत भए सुंदर नँदनंद । मुसकत जात मंद छबिकंद ।—नंद ग्रं०, पृ० २३८ । छबिरास = दे० 'छबिकंद' । उ०—रोवत आँसू रकत को, इंद्रावति छबिरास ।—इंद्रा०, पृ० ८९ ।
⋙ छबिलवा †
वि० [हिं०] दे० 'छबीला' ।—उ०—मोरा मन बाँधि लौ, तोरे गुन छैल छबिलवा रसिक रसिलवा ।—घनानंद, पृ० ४११ ।
⋙ छबीला
वि० [हिं० छबि + ईला (प्रत्य०) या सं० छबिमत्, प्रा० छबिल्ल] [वि० स्त्री० छबीली] शोभायुक्त । सुहावना । सुंदर सजधज का । बाँका । उ०—(क) छला छबीले लाल कौ, नवल नेह लहि नारि । चूँबति चाहति, लाइ उर, पहिरति धरति उतारि ।—बिहारी र०, दो० १२३ । (ख) अनु रे छबीली तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत संग जागी,—जायसी ग्रं०, पृ० १४३ ।
⋙ छबुँदकिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छबुंदा' ।
⋙ छबुंदा
संज्ञा पुं० [हिं० छह + बुंदकी] गुबरैले की तरह का एक कीड़ा । विशेष—इसकी पीठ पर छह काली बुँदकियाँ होती हैं । यह बड़ा विषैला होता है । कहते हैं, इसका काटा नहीं जीता ।
⋙ छब्बी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छबि] दलालों की बोली में पैसा ।
⋙ छब्बीस (१)
वि० [सं० षड़्विंश, प्रा० छब्बीसा] जी गिनती में बीस और छह हो ।
⋙ छब्बीस (२)
संज्ञा पुं० १. बीस से छह अधिक की संख्या । २. इस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२६ ।
⋙ छब्बीसवाँ
वि० [हिं० छब्बीस + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में पचीस अंक और वस्तुओं के उपरांत हो । जिससका स्थान छब्बीस पर हो ।
⋙ छब्बीसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छब्बीस] १. छब्बीस वस्तुओं का समूह । २. फलों की बिक्री का सैकड़ा जो प्रायः छब्बीस गाही या १३० का होता है ।
⋙ छमंड़
संज्ञा पुं० [सं० छमण्ड़] वह बालक जिसका पिता मर गया हो । पितृविहीन बालक ।
⋙ छम (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. घुँघरू आदि के बजने का शब्द । २. पानी बरसने का शब्द । यौ०—छमाछम ।
⋙ छम (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षम] दे० 'क्षम' ।
⋙ छम (३)
वि० क्षमयुक्त । शक्तियुक्त । समर्थ ।
⋙ छमक
संज्ञा स्त्री० [हिं० छम] चाल ढाल की बनावट । ठसक । ठाटबाट ।—(स्त्रियों के लिये) ।
⋙ छमकना
क्रि० अ० [हिं० छम + क] १. घुँघरू आदि हिलाकर छमछम करना । २. गहने आदि बजाना । गहनों की झनकार करना । ठसक दिखाना (स्त्रियों के लिये) । ३. दे० 'छौंकना' ।
⋙ छमच्छर पु †
संज्ञा पुं० [सं० संबत्सर] संबत्सर । संवत् । उ०— संमत मेक सयत्त मिले गुणसठौ छमच्छर ।—रा० रू०, पृ० ३७१ ।
⋙ छमछम
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. वह शब्द जो चलने में पैर में पहने हुए गहनों के बजने से होता है । नूपुर, पायल, घुँघरू आदि के बजने का शब्द । उ०—छमछम करि छिति चलति छटि पायल दोउ छाजी ।—सुकबि (शब्द०) । २. पानी बरसने का शब्द ।
⋙ छमछम— (२)
क्रि० वि० छम छम शब्द के साथ ।
⋙ छमछमाना
क्रि० अ० [अनु] १. छम छम शब्द करना । २. छम छम शब्द करके चलना ।
⋙ छमना †
क्रि० स० [सं० क्षमन, प्रा० छमन] क्षमा करना । उ०— छमिहँहिं सज्जन मोर ढिठाई । सुनिहहिं बाल बचन मन लाई ।—मानस, १ । ८ ।
⋙ छमनीय पु †
वि० [सं० क्षम] सामर्थ्यवान् । क्षम । उपयुक्त ।
⋙ छमवाना पु †
क्रि० स० [सं० क्षमापन] दे० 'छमाना' । उ० बहुरि बिधि जाइ छमवाइ कै रुद्र कौ बिस्नु बिधि रुद्र तहँ तुरत आए ।—सूर०, ४ । ६ ।
⋙ छमसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छ + मास] दे० 'छमासी' ।
⋙ छमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० छमा, प्रा० छमा] दे० 'क्षमा' ।
⋙ छमा (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्ष्मा] पृथिवी । धरती । अवनि । उ०—संत समाज पयोधि रमा सी । विश्व भार भर अचल छमा सी ।—मानस, १ । ३१ ।
⋙ छमाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षमा] दे० 'क्षमापन' ।
⋙ छमाछम (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. गहनों का बजने का शब्द । २. पानी बरसने का शब्द ।
⋙ छमाछम (२)
क्रि० वि० लगातार छम छम शब्द के साथ । जैसे,— छमाछम पानी बरसना ।
⋙ छमापन
संज्ञा पुं० [सं० क्षमापन] दे० 'क्षमापन' ।
⋙ छमावान
वि० [सं० क्षमावत्] दे० 'क्षमावान' ।
⋙ छमाशी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छ + माशा] छह माशे का बाट ।
⋙ छमासी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छ + सं० मास] वह श्राद्ध जो किसी की मृत्यु से छह महीने पर उसके संबंधी करते हैं ।
⋙ छमासी (२)
वि० छह मास की । छह महीने की अवधिवाली । उ०— एक टकटकी पंथ निहारू, भई छमासी रैन ।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ७२ ।
⋙ छमिच्छा †
संज्ञा स्त्री० [सं० समस्या] १. समस्या । २. इशारा । संकेत ।
⋙ छमी (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० शमी] एक वृक्ष । शमी । उ०—समिध पलास छमी न्याइय ।—संतवाणी०, भा० १, पृ० २३ ।
⋙ छमी (२) पु
वि० [सं० क्षमिन्] क्षमाशील । समर्थ । उ०—सुर हरिभक्त असुर हरिद्रोही । सुर अति छमि असुर अति कोही ।—सूर०, ३ । ९ ।
⋙ छमुख
संज्ञा पुं० [हिं० छ + मुख] षडागन । कार्तिकेय ।
⋙ छय पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षय] नाश । विनाश । उ०—जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ । भावी वश न जान कछु राऊ ।— मानस, १ । १७० । विशेष—दे० 'क्षय' ।
⋙ छयना (१)पु †
क्रि० अ० [सं० क्षयण] क्षय होना । नाश होना ।
⋙ छयना (२)पु
क्रि० अ० [सं० आच्छादन] १. छा जाना । घिर जाना । उ०—मायामद उनमद है गयौ । सझ न कछू अंध तम छयौ ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २७० । २. शोभित होना । छाजना । उ०—षट सत रथ कंचन के नए । गज सत चारि मत्त छबि छुए ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२१ ।
⋙ छयल पु
संज्ञा पुं० [प्रा० छयल्ल] दे० 'छैल' । उ०—तिन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सरिस षय राजकुमारा ।— मानस, १ । २९८ ।
⋙ छयल्ल पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० छविमत्, प्रा० छइल्ल, छविल्ल, छयल्ल] १. विदग्ध । चतुर । दे० 'छैल' या 'छैला' । उ०—छुटत गिलोला हथ्य तैं पारत चोट पयल्ल । कमल नयन जनु कामिनी करत कटाछ छयल्ल ।—पृ० रा०, १ । ७२८ ।
⋙ छयल्ल पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० छेलक] अज । बकरा । छाग । उ०— बहु ब्रषभ गाय महिषीन तुंग । छेली चयल्ल गडरन्न पुंग ।— पृ० रा०, १७ । ३३ ।
⋙ छर (१)
संज्ञा पुं० [सं० छल] दे० 'छल' । उ०—(क) पहिचानिय कवि चंद वीर बावन सूर बर । महाकाय मदमत्त अंत जनु अहित दनुज छर ।—पृ० रा०, ६ । ९३ । (ख) सहचरि चतुर तुरंत लै आई, बाँह बोल दै करिकै बहु छर ।—सूर०, १० । २४५५ ।
⋙ छर (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] छर्रों या कणों के वेग से निकलने या गिरने का शब्द । जैसे,—छरछर कंकड़ियाँ गिर रही है । यौ०—छर छर ।
⋙ छर (३)
संज्ञा पुं० [सं० क्षर] दे० 'क्षर' । — 1621A —
⋙ छर (४)पु
वि० [सं० क्षर] नश्वर । नाशवान् । उ०—छर ही नाद वेद अरु पंड़ित छर ज्ञानी अज्ञानी ।—चरण० बानी, पृ० १२७ ।
⋙ छरई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक तरह का ठप्पा ।
⋙ छरकना (१)
क्रि० अ० [अनु० छर छर] १. छर छर करके छिटकना या बिखरना । २. किसी पदार्थ का कभी तल को स्पर्श करते हुए और कभी उछलते हुए वेग से किसी ओर जाना ।
⋙ छरकना (२)
क्रि० अ० दे० 'छलकना' ।
⋙ छरकायल पु
वि० [हिं० छरकना] बिखरा हुआ । उ०—पाय लगों छोरो न अब हायल नंद कुमार । छूटत ही घायल करें छरकायल ये बार ।—सं० सप्तक, पृ० २६९ ।
⋙ छरकीला †
वि० [हिं० छरक + ईला (प्रत्य०)] छिटकनेवाला । दूर रहनेवाला । उ०—वे स्वभाव से ही छरकीले होते हैं और अपनी बातें छिपाने की व्याधि उनमें अधिक है ।— शुक्ल अभि० ग्रं०, (विविध) पृ० ३९ ।
⋙ छरछंद पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छलछद] दे० 'छलछंद' । उ०—इक अँबर के टूक कौं निसि मैं ओढत चंद । दिन मैं ओढ़त ताहि रबि तू क्यों कर छरछंद ।—ब्रज ग्रं०, पृ० १०९ ।
⋙ छरछंदी †
वि० [हिं० छरछंद + ई (प्रत्य०)] दे० 'छरछंदी' ।
⋙ छरछर
संज्ञा पुं० [अनु० छर] १. कणों या छर्रों के वेग से निकलने और दूसरी वस्तुओं पर गिरने का शब्द । उ०— तिहि फिर मंड़ल बीच परी गोली झर झर झर । तहँ फुट्टिय कर गौर श्रोन छुट्टिय छत छर छर ।—सूदन (शब्द०) । २. पतली लचीली छड़ी के लगने का शब्द । सट सट । उ०— काहे कौं हरि इतनौ त्रास्यौ । सुनि री मैया मेरैं भैया कितनौ गोरस नास्यौ । जब रजु सौं कर गाढे़ बाँधे छर छर मारि साँटि । सूने घर बाबा नँद नाहिं, ऐसैं करि हरि ड़ाँटि ।— सूर०, १० । ३७५ ।
⋙ छरछराना (१)
क्रि० अ० [सं० क्षार, हिं० छार से आम्रेड़ित नामिक धातु] १. नमक या क्षार आदि लगने से शरीर के घाव या छिले हुए स्थान में पीड़ा होना । जैसे,—हाथ छरछरा रहा है । २. क्षार, नमक आदि का शरीर के घाव या कटे हुए स्थान पर लगकर पीड़ा उत्पन्न करना । जैसे,—नमक घाव पर छरछराता है ।
⋙ छरछराना (२)
क्रि० अ० [अनु० छर छर] कणों का वेग से किसी वस्तु पर गिरना या बिखरना ।
⋙ छरछराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं०< छरछरा + हट (प्रत्य०)] १. छर्रों या कणों के वेगपूर्वक एक साथ निकलने और गिरने का भाव । २. घाव में नमक आदि लगने से उत्पन्न पीड़ा । उ०—छरछराहट जब कलेजे में हुई । मुस्कराहट होंठ पर कैसे रहे ।—चोखे० पृ० ५६ ।
⋙ छरद पु
संज्ञा पुं० [सं० छर्द] दे० 'छर्द' । उ०—जो छिया छरद करि सकल संतनि तजी नासु तैं मूकमति प्रीति ठानी ।— सूर०, १ । ११० ।
⋙ छरन पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षरण] विनाश । नाश । क्षरण । उ०— तबहि छरन जान अपछरा । भूषन लाग न बाँधै छरा ।— चित्रा०, पृ० ७४ ।
⋙ छरना (१)
क्रि० अ० [सं० क्षरण, प्रा० छाँरण] १. चूना । बहना । टपकना । झरना । उ०—ऊँची अटा घटा इव राजाहिं छरति छटा छिति छोरैं ।—रघुराज (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना । २. चकचकाना । चुचुवाना । उ०—बिथुरी अलक, शिथिल कटि होरी नखछत छरितु मरालगामिनी ।—सूर (शब्द०) । ३. छँटना । दूर होना । न रह जाना । उ०—जब हरि मुरली अधर धरत । थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं जमुना जल न बहत खग । मोहैं, मृगजूथ भुलाहीं, निरखि बदन छवि छरत ।—सूर०, १० । ६० । चावल का फटककर साफ किया जाना । ५. छँटकर अलग होना । दूर होना । उ०— जेहि जेहि मग सिय राम लषन गए तहँ तहँ नर नारि बिनु छट छरिगे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छरना (२) †
क्रि० स० [स०क्षरण] कन्ना अलग करने के लिये चावल को फटककर साफ करना । दे० 'छड़ना' ।
⋙ छरना (३)
क्रि० अ० [हिं० छलना] भूत प्रेत आदि द्वारा मोहित होना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ छरना पु (४)
क्रि० स० [हिं० छलना] १. छलना । धोखा देना । ठगना । उ०—जोगी कौन बड़ी संकर तैं, ताकौं काम छरै ।—सूर० १ । ३५ । २. मोहित करना । लुभाना । उ०— तूँ काँवरू पराबस टोना । भूला योग छरा तोहि सोना ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ छरपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शैल + हिं० फूल] १. छरीला । २. एक पुड़िया जिसमें छरपुरी आदि सुगंधित द्रव्य होते हैं जो विवाहों में चढ़ाए जाते हैं ।
⋙ छरभार पु †
संज्ञा पुं० [सं० सार + भार] १. प्रबंध या कार्य का बोझ । कार्य भार । उ०—(क) देस कोस परिजन परिवारू । गुरु पद रजहिं लाग छरभारू ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) लखि अपने सिर सब छरभारू । कहि न सकहिं कछ करहिं बिचारू ।—तुलसी (शब्द०) । २. झंझट । बखेड़ा ।
⋙ छररा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छर्रा] दे० 'छर्रा' । उ०—डारति भरि भरि मूठि छूटि छररा ज्यों लागत । सबही अंग अनंग पीर प्रानन मैं जागत ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १७ ।
⋙ छरहरा (१)
वि० [हिं० छल + हारा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० छरहरी, संज्ञा छरहरापन] १. क्षीणांग । सुबुक । छलका । जो मोटा या भद्दा न हो । जैसे, छरहरा बदन । उ०—राधिका सग मिलि गोप नारी । जुबति आनंद भरी, भई जुरि कै खरी नई छरहरि सुठि बैस थोरी । सूर प्रभु सुनी स्रवन, तहाँ कीन्हौ गवन, तरुनि मन रवन सब ब्रज किसोरी ।—सूर० १० । १७५१ । २. चुस्त । चालाक । तेज । फुरतीला ।
⋙ छरहरा (२)
वि० [हिं० छर (= छड़) + हारा (प्रत्य०) (= छड़) या सं० क्षीर—भार] बहुरूपिया ।
⋙ छरहरापन
संज्ञा पुं० [हिं० छरहरा + पन] १. क्षीणांगता । सुबुकपना । २. चुस्ती । फुरती ।
⋙ छरा
संज्ञा पुं० [सं० शर, हिं० छड़] १. छड़ा । उ०—कंचन पट — 1621B — पदिकनि के छरा । सुंदर गजमोतिन के हरा ।—नंद० ग्रं०, पृ० २३५ । २. लर । लड़ी । उ०—गुंजहरा के छरा उर में पेट पितंबर की छबि न्यारी ।—(शब्द०) । ३. रस्सी । ४. नारा । इजारबंद । नीवी । उ०—(क) कहै पद्माकर नवीन अधनीबी खुली अधखुले छहरि छरा के छोर छलकै ।— पद्माकर (शब्द०) । (स) तहँ प्रीतम ढीठ भए रस के बस हाथ चलावत जोरी करें । गिरि जच्छबधून के वस्त्र कछू खिचि, छोर छरान की डोरी परें ।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०) ।
⋙ छराना पु
क्रि० स० [हिं० छलना] छलना । डराना । मुग्ध करना । भुलाना । आविष्ट करना । उ०—टूटि तार अंगार बगावै । कामभूत जनु मोहिंछरावै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३४ ।
⋙ छरिंदा
वि० [अ० जरीदह्, हिं० छरीदा] दे० 'छरीदा' ।
⋙ छरिया
संज्ञा पुं० [हिं० छड़ी + इया (प्रत्य०)] छड़िया । छड़ीबरदार । चोबदार ।
⋙ छरिला
संज्ञा पुं० [हिं० छरीला] दे० 'छरीला' ।
⋙ छरी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छड़] दे० 'छड़ी' ।
⋙ छरी (२)
वि० [हिं० छाँड़ना] दे० 'छड़ी (२)' ।
⋙ छरी (३)
वि० [सं० छलिन > छली] दे० 'छली' ।
⋙ छरीदा
वि० [अ० जरीदह्] १. अकेला । तने तनहा । बिना किसी संगी साथी का । २. बिना कोई बोझ या असबाब लिए । विशेष—यात्रा के संबंध में इस शब्द का प्रयोग अधिक होता है ।
⋙ छरीदार पु
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० छड़ीदार] दे० 'छड़ीदार' । उ०— (क) छरीदार वैराग विनोदी झिटकि बाहिरै कीन्हें ।—सूर०, १ ।४० । (ख) इकइस पोंरि ठाढ़ जब भयऊ । छरीदार तब पृछन लयऊ ।—कबीर सा०, पृ० २५७ ।
⋙ छरीला
संज्ञा पुं० [सं० शैलेय] काई की तरह का एक पौधा जिसमें केसर या फूल नहीं लगते । पथरफूल । बुढना । विशेष—यह पौधा वास्तव में खुमी के समान परांगभक्षी (पारासाइट) पौधा है जो भिन्न भिन्न प्रकार की काइयों पर जमकर उन्हीं के साथ मिलकर अपनी वृद्धि करता है । यह सीड़वाली जमीन यथा कड़ी से कड़ी चट्टानों पर उभड़े हुए चकत्तों या बाल के लच्छों के रूप में फैलता है और कुछ भूरापन लिए होता है । यह पौधा अधिक से अधिक गर्मी या सर्दी सह सकता है; यहाँ तक कि जहाँ और कोई वनस्पति नहीं हो सकती, वहाँ भी यह पाया जाता है । सूखने पर इसमें से एक प्रकार की मीठी सुगंध आती है जिसके कारण यह मसालों में पड़ता है । औषध में भी इसका प्रयोग होता है । वैद्यक में यह चरपरा, कड़ुआ, कफ और वात का नाशक और तृष्णा या दाह को दूर करनेवाला माना जाता है तथा खाज, कोढ़, पथरी आदि रोगों में दिया जाता है । इसे पथरफूल और बुढ़ना भी कहते हैं । हिमालय पर यह चट्टानों, पेड़ों आदि पर बहुत दिखाई देता है । पर्या०—शैलेय । शैलाख्य । वृद्ध । शिलापुष्प । गिरिपुष्पक । शिलासन । शैलज । शिलेय । कालानुसार्य । गृह । पलित । जीर्णा । शिलादद्रु ।
⋙ छरेरा
वि० [हिं० छरहरा] [वि० स्त्री० छरेरी] दे० 'छरहरा' । उ०— बदन छरेरा हैया दुहरा ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५२ ।
⋙ छरार †, छरोरा †
संज्ञा पुं० [सं० क्षुर, पू० हिं० छिलोर, छिछोरवा, छिलोरा (= छिलना)] शरीर में काँटे या और किसी नुकीली वस्तु के चुभकर कुछ दूर तक खिंच जानी के कारण पड़ी हुई लकीर । खरोच । उ०—पैहों छरोर जो पात को फटिहै पटके हूँ तो हौं न डरैहों ।—(शब्द०) ।
⋙ छर्द
संज्ञा पुं० [सं०] उलटी । कै । वमन [को०] ।
⋙ छर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] वमन । कै करना ।
⋙ छर्दि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वमन । कै । उलटी । २. एक रोग जिसमें रोगी के मुँह से पानी छूटता है और उसे मचली औती है और वमन होता है । विशेष—वेद्यक में इस रोग के दो भेद माने गए हैं—एक साधारण जो कड़ुई, नमकीन, पतली या तेल की चीजें अधिक खाने तथा अधिक और अकाल भोजन करने से हो जाता है । अन्य रोगों के समान इसके भी चार भेद हैं—वातज, पित्ताज, श्लेष्मज और त्रिदोषज । दूसरा आगंतुक जो अत्यंत श्रम, भय, उद्वेग, अजीर्ण आदि के कारण उत्पन्न होता है । वेद्यक में यह पाँच प्रकार का माना गया है—वीभत्स, दौहृदज, आमज, असात्म्यज और कृमिज । इस रोग से कास, श्वास, ज्वर आदि भी हो जाते हैं । पर्यां०—प्रच्छर्दिका । छर्द । वमन । वमि । छर्दिका । वांति । उद्गगार । छर्दन । उत्कासिका ।
⋙ छर्दि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० छर्दिस] १. घर । २. आच्छादनयुक्त स्थान । सुरक्षित स्थान (को०) । ३. तेज । ४. उदगार । वमन ।
⋙ छर्दिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वमन । २. विष्णुक्रांता ।
⋙ छर्दिकारिपु
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची ।
⋙ छर्दिघ्न (१)
वि० [सं०] वमनरोधक । मिचली का नाशक ।
⋙ छर्दिघ्न (२)
संज्ञा पुं० [सं०] महानिंब । बकायन ।
⋙ छर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० छरना, झरना, या अनु० छरछर] [स्त्री० छर्रीं] १. छोटी ककड़ी । कंकड़ आदि का छोटा टुकड़ा । २. लोहे या सीसे के छोटे छोटे टुकड़ों का समूह जो बंदूक में भरकर चलाया जाता है । ३. वेग में फेकें हुए पानी के छोटे छोटे छोटों या कणों का समूह ।
⋙ छलंक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छलाँग] दे० 'छलाँग' । उ०—चंचलता वे चखन सी झषनहुँ माहिं हरी न । ऐसे कौन हरीन हैं जासु छलंक हरी न ।—स० सप्तक, पृ० २६९ ।
⋙ छलग पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छलाँग' ।
⋙ छल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वास्तविक रूप को छिपाने का कार्य जिससे कोई वस्तु या कोई बात और की और देख पड़े । वह व्यवहार जो दूसरी को धोखा देने या बहलाने के लिये किया जाता है । २. व्याज । मिस । बहाना । ३. धूर्तता । वंचना । ठगपन । यौ०—छलकपट । छलछद्म । छलछिद्र । छलछात । छलछेव । छलबल । छलविद्या= छलछिद्र । ४. कपट । दंभ । ५. युद्ध के नियम के विरुद्ध शत्रु पर शस्त्र- प्रहार । ६. न्याय शास्त्र के सोलह पदार्थों में से चौदहवाँ पदार्थ जिसके द्वारा प्रतिवादी वक्ता की बात का वाक्य के अर्थविकल्प द्वारा विधान या खंडन करता है । विशेष—न्याय में यह तीन प्रकार का माना गया है—वाक् छल, सामान्यछल और उपचारछल । जिसमें साधारणतः कहे हुए किसी वाक्य का वक्ता के अभिप्राय से भित्र अर्थ कल्पित किया जाता है, वह वाक् छल कहलाता है; जैसे किसी ने कहा कि 'यह बालक नव कंबल लिए है' । इसपर प्रतिवादी या छलवादी नव शब्द का वक्ता के अभिमत अर्थ से भिन्न अर्थ कल्पित करके खंडन करता है और कहता है कि 'बालक नब कंबल कहाँ लिए है, उसके पास तो एक ही है' । जिसमें संभावित अर्थ का अति सामान्य के योग से असंभूत अर्थ कल्पित किया जाय वह सामान्य छल है । जैसे, किसी ने कहा कि 'ब्राह्मण विद्याचरण संपन्न होता है' । इसपर छलवादी कहता है—'हाँ विद्याचरण संपन्न होना तो ब्राह्मण का गुण ही है; पर यदि यह गुण ब्राह्मण का है तो व्रात्य भी विद्याचरण संपन्न होगा; क्योंकि वह भी ब्राह्मण ही है । 'धर्मविकल्प (मुहाविरा, अलकार, लक्षणा व्यंजना आदि) द्वारा सूचित अभिप्रेत अर्थ का जहाँ शब्दों के मूल आदि को लेकर निषेध किया जाय, वहाँ उपचार छल होता है । जैसे, किसी ने कहा 'सारा घर गया है' । इसपर प्रतिवादी कहता है कि 'घर कैसे जायगा ? वह तो जड़ हैं' ।
⋙ छल (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] जल के छोटों के गिरने का शब्द । पानी की धार जो पथिकों को ऊपर से पानी पिलाने में बँध जाती है । मुहा०—छल पिलाना = कटोरे बजा बजाकर राह चलते पथिकों को पानी पिलाना ।
⋙ छलक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छलकना] छलकने का भाव या क्रिया । उ०—गिरैं करारे टूट के नदी छलक मारैं ।—भारतैदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४८९ ।
⋙ छलक (२)
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] छल करनेवाला ।
⋙ छलकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० छलकना] १. छलकने का भाव । पानी आदी की उछाल । पानी या और किसी पतले पदार्थ के हिलने और डोलने के कारण उछलकर बरतन मे बाहर आने का भाव । २. उदगार । स्फुरण । उ०—छवि छलकन भरी पीक पलकन त्योंही श्रम जलकन अधिकाने च्बै ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ छलकना
क्रि० अ० [अनु०] १. पानी या और किसी पतली चीज का हिलने डुलने आदि के कारण बरतन से उछलकर बाहर गिरना । आघात के कारण पानी आदि का बरतन से ऊपर उठकर बाहर आना । विशेष—इस शब्द का प्रयोग पात्र और पात्र में भरे हुए जल आदि दोनों के लिये होता है । जैसे, अधजल गगरी छलकत जाय । २. उमडना । बाहर प्रकट होना । उदगारित होना । उ०—(क)मनहुँ उमगि अँग अँग छबि छलकैं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) गोकुल में गोपिन गोबिंद संग खेली फाग राति भरि, प्रात समय ऐसी छबि छलकैं ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ छलकाना
क्रि० स० [हिं० छलकना] किसी पात्र में भरे हुए जल आदि को हिला डुलाकर बाहर उछालना ।
⋙ छलछद
संज्ञा पुं० [हिं० छल + छंद] [वि० छलछदी] कपट का जाल । कपट का व्यवहार । चालबाजी । धूर्तता ।
⋙ छलछदी
वि० [हिं० छलछद] कपटी । धूर्त । चालबाज । धोखेबाज ।
⋙ छलछदम
संज्ञा पुं० [सं० छल + छदम] छल कपट । छल का बाना ।
⋙ छलछल
संज्ञा पुं० [अनु०] छलछल का शब्द । जल के छिलकने की ध्वनि । छलकने का भाव । उ०—कल कल छलछल सरिता बहती छिन छिन ।—मधुज्वाल, पृ० ४१ ।
⋙ छलछलाना
क्रि० अ० [अनु०] १. आँखों में आँसू आ जाना । आँखे भर आना । २. छल छल शब्द करना । पानी आदि थोड़ा थोड़ा करके गिराना जिसमें छल छल शब्द उत्पन्न हो ।
⋙ छलछाया †
संज्ञा पुं० [सं० छल + छाया] मायाजाल । छलावा । उ०—कोऊ छली छलौंही मूरति छलछाया सो गयौ दिखाइ ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६२ ।
⋙ छलछिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] कपट व्यवहार । धूर्तता । धोखेबाजी । उ०—मोहिं सपनेहु छलछिद्र न भावा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छलछिद्री
संज्ञा पुं० [हिं० छलछिद्र] धोखेबाज । छली । कपटी ।
⋙ छलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० छलित] छल करने का कार्य । उ०— बिहरत पास पलास बास नहिं मोहत कामै । निरस कठोर छलील छलन की लाली जामै ।—दीन० ग्रं०, पृ० २०५ ।
⋙ छलना (१)
क्रि० स० [सं० छल] किसी को धोखा देना । भुलावे में डालना । दगा देना । प्रतारित करना ।
⋙ छलना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धोखा । छल । प्रतारण । उ०—किंतु वह छलना थी, मिथ्या अधिकार की ।—लहर, पृ ७८ ।
⋙ छलनी
संज्ञा स्त्री० [सं० चालनी, हिं० चालना या सं० क्षालिनी] महीन कपड़े या छेददार चमड़े से मढ़ा हुआ एक मँडरेदार बरतन जिसमें चोकर, भूसी आदि अलग करने के लिये आटा छानते हैं । आटा चालने का बरतन । चलनी । मुहा०—(किसी वस्तु को) छलनी कर डालना या कर देना= (१) किसी वस्तु में बहुत से छेद कर डालना । (२) किसी वस्तु को बहुत से स्थानों पर फाड़कर बेकाम कर डालना । (किसी वस्तु का) छलनी हो जाना = (१) किसी वस्तु में बहुत से छेद हो जाना । (२) किसी वस्तु का स्थान स्थान पर फटकर बेकाम हो जाना । छलनी में डाल छाज में उड़ाना= बात का बतंगड़ करना । थोड़ी सी बुराई या दोष को बहुत बढ़ाकर कहना । थोड़ी सी बात को लेकर चारों ओर बढ़ा चढ़ाकर कहते फिरना । (स्त्रियाँ) कलेजा छलनी होना= (१) दुख या झंझट सहते सहते हृदय जर्जर हो जाना । निरंतर कष्ट से जी ऊब जाना । (२) जी दुखानेवाली बात सुनते सुनते घबरा जाना ।
⋙ छलबल
संज्ञा पुं० [सं० छल + बल] दे० 'छलछंद' । उ०—महामत्त या प्रेम कौ जब तिय करत उदोत । तब वाके छलबल निरखि, विधि हूँ कायर होत । ब्रज० ग्रं०, पृ० १०५ ।
⋙ छलमलाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छलकना' । उ०—बंसी धुनि घनघोर रूप जल छलमलै ।—घनानंद पृ० १७६ ।
⋙ छलविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० छल + विद्या] मायाजाल । जादू । उ०— कोउ कहैं अहो दरस देत पुनि लेत दुराई । यह छलविद्या कहौ कौन पिय तुमहिं सिखाई ।—नंद० ग्रं०, पृ० १७९ ।
⋙ छलहाई (१)पु
वि० स्त्री० [सं० छल + हा (प्रत्य०)] छली । कपटी । चालबाज । धूर्त । उ०—ये छलहाई लुगाई सबै निसि द्यौस निवाज हमें दहती हैं ।—निवाज (शब्द०) ।
⋙ छलहाई (२) †
संज्ञा स्त्री० छल । कपट ।
⋙ छलाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० उछल + अंग] पैरों को एकबारगी दूर तक फेंककर वेग के साथ आगे बढ़ने का कार्य । कुदान । फलाँग । चौकड़ी । क्रि० प्र०—भरना ।—मारना ।
⋙ छलाँगना †
क्रि० अ० [हिं० छलाँग] चौकड़ी भरना । कूदकर आगे बढ़ना । फलाँग मारना ।
⋙ छला (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० छल्ली(=लता)] छल्ला उँगली में पहनने का गहना । उ०—छला परोसिनि हाथ तैं छल करि लियो पिछानि । पियहिं दिखायौ लखि बिलखि रिससूचक मुसकानि ।—बिहारी र०, दो ३७९ ।
⋙ छला (२)
संज्ञा स्त्री० [छटा] आभा । चमक । दीप्ति । झलक ।
⋙ छलाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छल + आई (प्रत्य०)] छल का भाव । कपट । उ०—पंडु के पूत कपूत सपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छलाना, छलावना पु
क्रि० स० [हिं० छलना का प्रे० रूप] धोख में डलवाना । धोखा दिलाना । प्रतारित करना । उ०— कुमुदिनि तुइ बैरिनि नहीं धाई । मोहि मसि बोलि छलावसि आई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छलाव
संज्ञा पुं० [हि० छल + आव(प्रत्य०)] दे० 'छलावा' । उ०— सिर ते द्वै अधसिर करै सिर सिर चहुँ चहुँ पाँव । ऐसै सिर चालीस हैं मन तहिये क छलाव—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७३० ।
⋙ छलावा
संज्ञा पुं० [हिं० छल] १. भूत प्रेत आदि की छाया जो एक बार दिखाई पड़कर फिर झट से अदृश्य हो जाती है । माया- दृश्य । उ०—छलावे की तरह भासित हुए उस रूपक की 'छायादृश्य' (फैन्टज्मेटा) कहते हैं ।—चिंतामणि भा० २, पृ० २०० । मुहा०—छलावा सा = बहुत चंचल । उ०—कर तें छटकि छटी छलकि छलावा सी ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । २. वह प्रकाश या लुक जो दलदलों के किनारे या जंगलों में रह रहकर दिखाई पड़ता और गायब हो जाता है । अगिया बैताल । उल्कामुख प्रेत । मुहा०—छलावा खेलना = अगिया बैताल का इधर उधर दिखाई पड़ना । इधर उधर लुक फिरता हुआ दिखाई देना । ३. चपल । चंचल । शोख । ४. इंद्रजाला । जादू ।
⋙ छलिक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटच शास्त्र में रूपक का एक भेद ।
⋙ छलित
वि० [सं०] जिसे धोखा दिया गया हो । छला हुआ । प्रतारित । वंचित ।
⋙ छलितक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक का एक भेद ।
⋙ छलिया
वि० [सं० छल + हिं० इया (प्रत्य०)] छल करनेवाला । कपटी । धोखेबाज । उ०—(क) यह छलिया सपने मिलि मोसों । गयो पराय कहौ सति तोसों ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) या छलिया ने बनाय के खासो पठायो है याहि न जाने कहाँ सों ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ छलिहारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छल + हारी (प्रत्य०)] दे० 'छलहाई' । उ०—लाख बात तक छरो करो पन साख दूर, और को सिखा के देखी केती छलिहीरी है ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (सा०) पृ० ३१ ।
⋙ छली
वि० [सं० छलिन्] छल करनेवाला । कपटी । धोखेबाज । उ०—ब्याजी बंचक कुटिल सठ छद्मो धूर्त छली जु ।— अनेकार्थ०, पृ० ४८ ।
⋙ छलीक पु
वि० [हिं० छली] दे० 'छली' । उ०—विहरत रास पलास बास नहिं मोहत कामै । निरस कठोर छलीक छलन की लाली जामै ।—दीन० ग्रं०, पृ० २०५ ।
⋙ छलौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाला] एक रोग जिसमें उँगलियों के नाखून के भीतर छाला पड़ जाता है । विशेष—लोगों में यह प्रवाद है कि यह रोग उस मिट्ठी के लगने से होता है जिसपर साँप का मद गिरा रहता है । इस रोग में उँगलियों में पीड़ा होने लगती है और कभी कभी नाखून पक भी जाता है ।
⋙ छलौंही
वि० [हिं० छल + औंही (प्रत्य०)] छलनेवाली । उ०— कोऊ छली छलौंहीं मूरति छलछाया सी गयो दिखाइ ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६२ ।
⋙ छल्ला
संज्ञा पुं० [सं० छल्ली(= लता)] १. वह सादी अँगूठी जो धातु के तार के टुकड़े को मोड़कर बनाई जाती है और हाथ पैर की उँगलियों में पहनी जाती है । मुंदरी । उ०—अँगूठी लाल की करती कयामत आज गर होती । जिन्हें की आन पहुँची लड़ मुए वह एक छल्ली पर ।—कबिता कौ०, भा० ४, पृ० २६ । २. अँगूठी की तरह की कोई मंडलाकर वस्तु । कड़ा । कुंडली । ३. नैचे की बंदिश में वे गोल चिह्न जो रेशम या तार लपेटकर बनाए जाते हैं । ४. वह पक्की पतली दीवार जो ऊपर से दिखाने या रक्षा के लिये कच्ची दीवार से लगाकर बनाई गई हो । ५. तेल की बूँदे जो नीबू आदि की अर्क की बोतल मे ऊपर से इसलिये डाल दी जाती है जिससे अर्क बिगड़ने न पावे । ६. एक प्रकार का पंजाबी गीत या तुकबंदी जिसे गा गाकर हिजड़े भीख माँगते हैं ।
⋙ छल्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'छल्ली' ।
⋙ छल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छल्ला] कच्ची दीवार की रक्षा के लिये उससे लगाकर उठाई हुई पक्की दीवार ।
⋙ छल्ली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छाल । २. लता । ३. संतति । ४.एक प्रकार का फूल ।
⋙ छल्लेदार
वि० [हिं० छल्ला + फा० दार] १. जिसमें छल्ले लगे हों । २. घुँघराला या पेंचदार (बाल) । ३. जिसमें मंडलाकार चिह्न या घेरे बने हों ।
⋙ छव †
संज्ञा पुं० [सं० छवि] रूप । छवि । उ०—घर कामची उर- धाक, अपछर छव धरे, हावाँ भावकर मृदु हरे बोली सुण हरे ।—रघु० रू, पृ० १२८ ।
⋙ छवना (१) †
संज्ञा पुं० [सं० शाव, शावक] [स्त्री० छवनी] १. बच्चा । छौना । उ०—भई हैं प्रकट अति दिव्य देह धरि मानो त्रिभुवन छबि छवनी ।—तुलसी (शब्द०) । २. सूअर का बच्चा ।
⋙ छवना (२)पु
क्रि० स० [सं० श्रवण, प्रा० सवण, माग० सवन] सुनना । उ०—गुरु मुखि भवना, गुरुमुखि छवना, गुरुमुखि रवना रे ।—दादू०, पृ० ५०० ।
⋙ छवा (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० शावक, प्र० सावय] किसी पशु का बच्चा । बछड़ा । उ०—(क) तैं रन केहरि केहरी के बिदले अरि कुंजर छैल छवा से ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) हय हंकि घमंकि उठाइ रनं । जिमि सिंह छवा कढ़ि सेन वनं ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ छवा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एँड़ी । उ०—(क) छवान की छुई न जाति शुभ साधु माधुरी ।—केशव (शब्द०) । (ख) ऐसे दुराज दुहूँ बय के सब ही को लगे अब चौचंद सूझन । लूटन लागी प्रभा कढ़ि कै बढ़ि केस छवान सों लागे अरूझन ।—रस कुसुमाकर (शब्द०) ।
⋙ छवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाना, छावना] १. छाने का काम । २. छाने की मजदूरी ।
⋙ छवाना
क्रि० स० [हिं० छाना का प्रे० ऱूप] छाने का काम कराना । उ०—पूछैं आनि लोग कौने छाई हो? छवाई लीजै, दीजै जोइ भावै, तन मन प्राण वरियै ।—भक्तमाल (प्रि०), पृ० ४९२.
⋙ छवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० छ + वाला] छोटी जठवाली जो पत्थर आदि उठाने के काम मे आती है ।
⋙ छवि (१)
संज्ञा स्त्री० [वि० छबीला] १. शोभा । सौंदर्य । २. कांति । प्रभा । चमक । ३. त्वचा । चमड़ी । खाल (को) । ४. त्वचा का रंग (को०) । ५. सामान्यतः कोई भी रंग (को०) । ६. प्रकाश की किरण (को०) ।
⋙ छवि (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० शबीह] चित्र । फोटो । प्रतिकृति ।
⋙ छवैया
संज्ञा पुं० [हिं० छाना] वह जो छप्पर आदि छाए । छाननेवाला ।
⋙ छह †
वि० संज्ञा पुं० [सं० षट् > षष् प्रा० छ, अप छह] दे० 'छ' । उ०—तब श्री गुसाई जी रामदास को आज्ञा करी जोत्तू 'दड़वती सिला' आगे बैठिं छह महीना ताई अष्टाक्षर मंत्र को जप करचौ करि ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ५६ ।
⋙ छहत्तर
वि० संज्ञा पुं० [सं० ष्टसप्तति, प्रा० छस्सयरि , छहत्तर] दे० 'छिहत्तर' । उ०—ताके दम की छहत्तर हजार की हुंडी भई ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १६३ ।
⋙ छहर, छहरन
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षरण अथवा देश०] बिखरने का भाव
⋙ छहरना पु
क्रि० अ० [सं० क्षरण, प्रा० खरण, छरण अथवा देश०] छितराना । बिखरना । छिटकना । फैलना । उ०—(क) छवि केसरि की छहरै तन तें कढ़ि बाहर से तन चोलिन पै ।— सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । (ख) जनु इंदु उयो अव नीतल ते चहुँ ओर छटा छबि की छहरी ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) ।
⋙ छहरा †
वि० [हिं० छ + हरा(प्रत्य०)] १. छह परत का । छह पल्लेवाला । २. उपज का छठा (भाग) ।
⋙ छहरना (१)पु
क्रि० अ० क्षरण, हिं० छहरना अथवा हिं० छहरना का प्रे० रूप] छितराना । बिखरना । चारों ओर फैलना । उ०—(क) कंचुकि चूर चूर भइ तानी । टूटे हार मौति छहरानी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) नीरज तें कढ़ि नीर नदी छबि छीजत छोरधि पै छहरानी । (ग) जेहि पहिरे छगुनी अरी, छिगुनी छबि छ़हराहिं (शब्द०) ।
⋙ छहराना (२)
क्रि० स० बिखराना । छितराना । फैलाना । उ०— सीखलै संग सखी सुमुखी छबि कोटि छपाकर को छहरावनि ।—देव (शब्द०) ।
⋙ छहराना (३)
क्रि० स० [सं० क्षार] क्षार करना । भस्म करना । उ०—न्यौछावर कै तन छहरावहुँ । छार होहुँ सँग बहुरि न आवहुँ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छहरीला
विं० [हिं० छरहरा] [वि० स्त्री० छहरीली] १. छरहरा । हलका । २. फुरतीला । चुस्त । ३. छहरनेवाला । बिखरने या फैलनेवाला ।
⋙ छहलना †पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छैहरना' । उ०—रहो छबि छाए एह छके मुनि देखि के रूप छहलत मनि कौन हेरा ।— सं० दरिया, पृ० ७९ ।
⋙ छहियाँ † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँहीं] छाँह । छाया । उ०—दशरथ कौशल्या के आगे लसत सुमन की छहियाँ । मानो चारि हंस सरवर ते बैठे आइ सदहियाँ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छही
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह चिड़िया (प्रायः कबूतर) जो अपने अड़ड़े से उड़कर दूसरे के अड़डे पर जा रहे और फिर कुछ दिनों में वहाँ की कुछ चिडियों को बहकाकर अपने अड्डें पर ले आए । कुट्टा । मुल्लाँ ।
⋙ छांदस (१)
वि० [सं० छान्दस] [वि० स्त्री० छांदसी़] १. वेदपाठी । वेदज्ञ । २. वेद संबंधी । वैदिक । ३. छद या वृत्त सबंधी । ४. रटटू । रटनेवाला । ५. मूर्ख ।
⋙ छांदस (२)
संज्ञा पुं० १. वेद । २. वेद में निष्णात ब्राह्मण [को०] ।
⋙ छांदसीय
वि० [सं० छान्दसीय] छदशास्त्र का ज्ञाता । पिंगल का जानकार [को०] ।
⋙ छांदिक
वि० [सं० छान्दिक] छंद संबंधी । छंद के अनुरूप । उ०— यह हमारे अनुभव की बात है कि निरर्थक शब्दों के प्रवाह से कवि ऐसी छांदिक गति पैदा कर देता है ।—पा० स० सि०, पृ० ६ । ।
⋙ छांदोग्य
संज्ञा पुं० [सं० छान्दोग्य] १. सामवेद का एक ब्राह्मण जिसके प्रथम दो भागों में विवाह आदि का वर्णन है और अंतिम आठ प्रपाठकों में उपनिषद् है । २. छांदोग्य ब्राह्मण का उपनिषद् । विशेष—इस उपनिषद् के प्रथम प्रपाठक (ब्राह्मण के तृतीय) में १३ खड हैं जिसमें प्रायः औ३म् का ही वर्णन है । दूसरे में २४ खंड हैं जिनमें यज्ञों की विधि और मांत्रों के गायन की शिक्षा बड़ें विस्तार से है । तीसरे प्रपाठक के १९ खंड हैं जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति आदि का वर्णन तथा ब्रह्म विद्या का सूक्ष्म विचार है । त्रिकाल संध्य और सूर्य के जप आदि का भी विवरण है । चौथे प्रपाठक में १७ खंड़ हैं जिनमें सत्यकाम जाबालि के प्रति उपदेश है, यज्ञों की विधियाँ बताई गई हैं और ऋक्, यजु, साम के भूः, भुवः, स्वः यथाक्रम तीन देवता मानकर तप के विधान का प्रतिपादन है । पाँचवें प्रपाठक के २४ खंड़ हैं । इसी में प्राण और इंद्रियों का वर्णन है और गाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि अग्निहोत्र से सृष्टि की वृष्टि होती है् उसी से मेघ होता है मेघ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता हैं, अन्न से रस होता है और रस से संतान आदि की वृद्धि होती है । छठे प्रपाठक में १६ खंड हैं जिनमें उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से सृष्टि की उत्पत्ति आदि का वर्णन करके कहा—'हे श्वेतकेतु ! तू ही ब्रह्म है' । इस प्रपाठक में वेदांत का महावाक्य 'तत्वमसि' कई बार आया है । सातवें प्रपाठक में, जिसमें २६ खंड हैं, सनत्कुमारों ने नारद को आतुर देख उन्हें ब्रह्माविद्या का उपदेश किया है । नारदजी ने कहा है कि मैंने वेद, इतिहास, पुराण, राशिविद्या, दैवविद्या, निधिविद्या, वाकोवाक्य विद्या, देवविद्या, ब्रह्माविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पदेवजनविद्या इत्यादि बहुत सी विद्याएँ सीखी हैं । इन विद्याओं से आजकल लोग भिन्न अभिप्राय निकालते हैं । आठवें प्रपाठक में ब्रह्माविद्या का स्पष्टता और विस्तार के साथ उपदेश देकर कहा गया है कि ब्रह्मज्ञान के पश्चात् जन्म नहीं होता ।
⋙ छाँ
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया, हिं० छाँह] दे० 'छाँह' ।
⋙ छाँक
संज्ञा पुं० [फ़ा० चाक] खंड़ । टुकड़ा । जैसे,—बदली का छाँक ।—(लश०) ।
⋙ छाँई
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया] परछाँही । छाया । उ०—बन्यो है मंजुल मोर चंद्र चलत देखत छाँई ।—नंद ग्रं०, पृ० ३९५ ।
⋙ छाँगना
क्रि० स० [सं० देश० अथवा हिं० छत + करना] काटना । छाँटना । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग प्रायः कुल्हाड़ी आदि से पेड़ की डाल, टहनी आदि के काटने के अर्थ में होता है । पूरबी हिंदी में इसे 'छिनगाना' कहते है ।
⋙ छाँगुर
संज्ञा पुं० [हिं० छ + अंगुल] वह मनुष्य जिसके पंजे में छह उँगलियाँ हों । छह उँगलियोंवाला ।
⋙ छाँछ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छाछ' ।
⋙ छाँट (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँटना] १. छाँटने की क्रिया । छिन्न करने की क्रिया । काटने या कतरने की क्रिया । यौ०—काट छाँट । २. काटने या कतरने का ढंग । ३. बेकाम टुकड़े जो किसी वस्तु के विशेष रूप से कटने पर निकलते हैं । कतरन । ४. भूसीया कना जो अनाज छाँटने पर निकलता है । ५. अलग की हुई निकम्मी वस्तु ।
⋙ छाँट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० छर्दि, प्रा० छड्डि] वमन । कै । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ छाँटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँटना] १. वह वस्तु जो छाँट दी जाय । कतरन । २. अलग की हुई निकम्मी वस्तु ।
⋙ छाँटना
क्रि० स० [सं० खण्डन] १. किसी पदार्थ से उसके किसी अंश को काटकर अलग करना । जैसे, कलम छाँटना, पेड़ छाँटना, सिर के बाल छाँटना । उ०—जे छाँटत, अरिमुंड समर मह पैठि सिंह सम ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५५ । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । विशेष—इस शब्द का प्रयोग अंग और दोनों के लिये होता है । जैसे,—डाल छाँटना, पेड़ छाँटना । २. किसी वस्तु को किसी विशेष आकार में लाने के लिये काटना या कतरना । जैसें, कपड़ा छाँटना ।—(दरजी) । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ३. अनाज में से कन या भूसी कूट फटकारकर अलग करना । अनाज को साफ करने के लिये कूटना फटकना । जैसे,— चावल छाँटना, तिल छाँटना । सयो० क्रि०—डालना ।—देना । ४. बहुत सी वस्तुओं में से कुछ को प्रयोजनीय या निकम्मी समझकर अवग करना । लेने के लिये चुनना या निकालने के लिये पृथक् करना । सयो० क्रि०—देना ।—लेना । विशेष—चुनने के अर्थ में सयो० क्रि० 'लेना' का प्रयोग होता है और निकालने के अर्थ में सयो० क्रि० 'देना' का प्रयोग होता है । जैसे (क) हम अच्छे अच्छे आम छाँट लेंगे । (ख) हम सड़े आम छाँट देंगे, आदि; पर जहाँ दूसरे के द्वारा छाँटने का काम कराना होना है, वहाँ संयो० क्रि० 'देना' का प्रयोग चुनने या ग्रहण करने के अर्थ में भी होता है । जैसे, मेरे लिये अच्छे अच्छे आम छाँट दो । ५. गंदी या बुरी वस्तु निकालना । दूर करना । हटाना । जैसे— (क) यह दवा खूब कफ छाँटती है । (ख) यह साबुन खूब मैल छाँटता है । ६. गंदी या निकम्मी वस्तुओं को निकालकर शुद्ध करना । साफ करना । जैसे,—कूआँ छाँटना । उस दवा ने खूब पेट छाँटा । ७. किसी वस्तु का कुछ अंश निकालकर उसे छोटा या संक्षिप्त करना । ८. गढ़ गढ़कर बातें करना । हिंदी की चिंदी निकालना । जैसे,—कानुन छाँटना, बातें छाँटना । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग अकेले नहीं होता, कुछ शब्दो के साथ ही होता है । ९. अलग रखना । दूर रखना । संमिलित न करना । जैसे,— तुम समय पर हमें इसी तरह छाँट दिया करते हो ।
⋙ छाँटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छींटा' । उ०—दादू सबही मृतक समान हैं, जीया तबही जाणि । दादू छाँटा अमी का, को साधू बाहैं आपि ।—दादू०, पृ० ३० ।
⋙ छांटा (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० छाँटना] धोखा । क्रि० प्र०—देना ।
⋙ छाँड़ चिट्ठी
संज्ञा स्त्री [हिं० छाँड़ना + चिट्ठी] वह पत्र या परवाना जिसे दिखकर उसके रखनेवाले व्यक्ति को कोई रोक न सके । रवन्ना ।
⋙ छाँड़ना पु †
क्रि० स० [सं० छर्दन, प्रा० छड्डन] छोड़ना । त्यागना । उ०—सप्त दीप भुज बल बस कीन्हें । लेइ लेइ दंड छाँड़ि सब दीन्हें ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छाँद
संज्ञा स्त्री० [सं० छन्द (= बंधन)] १. छोटी रस्सी जिससे घोड़े गदहे आदि के दो पैरों को एक दूसरे से सटाकर बाँध देते हैं जिसमें वे दूर तक भाग न सकें, केवल कूद कूदकर इधर उधर चरते रहें । उ०—जो मन घेरि बेन्हिए बाँधी, भाजै छाँद तुराई ।—धरनी०, पृ० ५ । २. वह रस्सी जिससे अहीर गाय दुहते समय गाय के पैर बाँध देते हैं । नोई । नोइड़ा ।
⋙ छाँदना
क्रि० स० [सं० छन्दन] १. रस्सी आदि से बाँधना । जकड़ना । कसना । यौ०—बाँधना छाँदना = बाँधना । जैसे—असबाब बाँध छाँदकर रख दो । २. घोड़े या गदहे के पिछले पैरों को एक दूसरे से सटाकर बाँध देना जिसमें वह दूर तक भाग न सके, आस ही पास चरता रहे । ३. किसी के पैरों को दोनों हाथों से जकड़कर बैठ जाना और उसे जाने न देना । जैसे—वह स्त्री अपने स्वामी का पैर छाँदकर बैठ गई और रोने लगी । मुहा०—पैर छाँदना = जाने से रोकना ।
⋙ छाँदा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छाँटना] हिस्सा । बखरा । भाग ।
⋙ छाँदा (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० छानना] उत्तम भोजन । पकवान । क्रि० प्र०—उड़ाना ।
⋙ छाँनी †पु
वि० [हिं० छाना] छिपी हुई । ढँकी हुई । दबाई हुई (बात) । उ०—केड़े पडी रहै आनदघन छानी बात उधाड़ै छै ।—घनानंद, पृ० ३२५ ।
⋙ छाँम
वि० [सं० क्षाम] दे० 'छाम' । उ०—पैहले मुसकाइ लजाइ कछू क्यों चितै मुरि मों तन छाँम कियौ ।—पोद्दार, अभि० ग्रं०, पृ० ४९५ ।
⋙ छांवँ
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया] दे० 'छाँह' ।
⋙ छाँवड़ा पु
संज्ञा पुं० [सं० शावक, प्रा० छावअ + ड़ा (स्वा० प्रत्य०) तुलनीय हिं०छौना] [स्त्री० छाँनड़ी, छौड़ी] १. जानवर का बच्चा । किसी पशु का छोटा बच्चा । इ०—धरिये नपाँव बलि जाँव राधे चंद्रमुखी वारौ गतिभंद पै गयंदपति छाँवड़े ।—देव (शब्द०) । २. छोटा बच्चा । बालक । शिशु
⋙ छाँस
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँटना] १. भूसी या कन जो अनाज चाँटने से निकलता है । २. कूड़ा करकट ।
⋙ छाँह
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया] १. वह स्थान जहाँ आड़ या रोक के कारण धूप या चाँदनी न पड़ती हो । छाया जैसे, पेड़ कीछाह । उ०—हरषित भये नँदलाल बैठि तरु छाँह में ।— सूर (शब्द०) । मुहा०—छाँह करना = आड़ करना । ओट करना । छाँह में होना = ओट में होना । छिपना । उ०—पंथ अति कठिन पथिक कौउ संग नहिं तेज भए तारागन छाँह भयौ रवि है ।—(शब्द०) । छाँह धूप न गिनना = आराम और तकलीफ न विचारना । उ०—ऐसौ अनुप मृदुला मरोरि मारी सुमन मुख सुबास मृगमद कदन । तिय रूप लखि छाँह धूप नहिं गिनत मन ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९१ । १. ऐसा स्थान जिसके ऊपर मेंह आदि रोकने के लिये कोई वस्तु हो । ऊपर से आवृत या छाया हुआ स्थान । जैसे—पानी बरस रहा है, छाँह में चलो । ३ बचाव या निर्वाह का स्थान । शरण । संरक्षा । जैसे—अब तो तुम्हारी छाँह में आ गए हैं; जो चाहो सो करो । यौ०—छत्रछाँह । ४. पदार्थें का छायारूप आकार जो उनके पिंडों पर प्रकाश रुकने के कारण धूम, चाँदनी या प्रकाश में दिखाई पड़ता है । परछाई । उ०—आँगन में आई पछताई ठाढ़ी देहली में, छाँह देखे अपती औ राह देखे पिय की ।—(शब्द०) । मुहा०—छाँह न छूने देना = पास न फटकने देना । निकट तक न आने देना । छाँह बचाना = दूर दूर रहना । पास न जाना । अलग रहना । छाँह छूना = पास जाना । पास फटकना । उ०—मुँह माहीं लगी जक नाहीं मुबारक, छाँहीं छुए छरकै उछलै ।—मुबारक (शब्द०) । ५. पदार्थों का आकार जो पानी, शीशे आदि में दिखाई पड़ता है । प्रतिबिंब । उ०—केहि मग प्रविसति जाति हँक ज्यों दरपन महँ छाँह । तुलसी त्यों जगजीव गति करी जीव के नाँह ।—तुलसी (शब्द०) । ६. भूत प्रेत आदि का प्रभाव । आसेब । बाधा । उ०—भाल की, कि काल की, कि रोष की, त्रिदोष की है, वेदना विषम पाप ताप छल छाँह की ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छाँहगीर
संज्ञा पुं० [हिं० छाँह + फा़० गीर] १. छत्र । राजछत्र । उ०—उयो सरद राका ससी करति क्यों न चित चेत । मनों मदन छितिपाल की छाँहगीर छबि देत ।—बिहारी (शब्द०) २. दर्पण । आइना । ३. छड़ी के सिरे पर बँधा हुआ एक आइना जिसके चारों ओर पान के आकार की किरनें लगी रहती हैं और जो विवाह में दुलहे के साथ आसा आदि की तरह चलता है ।
⋙ छाँहड़ी †
संज्ञा, स्त्री० [हिं० छाँह + ड़ी, (प्रत्य०)] दे० 'छाँह' । उ०— बासुरि गमि न रैंगि गनि, नां सुपनैंतर गम । कबीर तहाँ बिलंबिया जहाँ छाँहड़ी न घम ।—कबीर ग्र०, पृ० ५४ ।
⋙ छाँहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाह + री (प्रत्य०)] दे० 'छाँह' । (ख) सुंदर यों अभिमान करि भूलि गयौं निज रूप । कबहूँ बैठे छाँहरी कबहुँ बैठे धूप ।—सुंदर ग्रं०, भा० २. पृ० ७७४ ।
⋙ छाँही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाँह] दे० 'छाँह' । उ०—प्रभु सिय लखन बैठि बट छाँही । प्रिय परिजन वियोग बिलखाहीं ।— मानस, २ । ३२० ।
⋙ छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आच्छादन । छिपाना । २. शावक । छौना । शिशु । ३. पारा । ४. चिह्न [को०] ।
⋙ छाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षार] १. राख । उ० काहे को शिरि छाई पाई ।—प्राण० पृ० ८३ । २. पाँस । खाद । ३ बोयलर में पूरी तरह जलने के बाद निकला हुआ कोयले का छर्रा जिसे महीन करके ईटों की जोड़ाई की जाती है ।
⋙ छाक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छकना] १. तुष्टि । इच्छापूर्ति । जैसे, छाक भर खाना, प्यास भर पीना । २. वह भोजन जो काम करनेवाले दोपहर को करते हैं । दुपहरिया । उ० (क) बलदाऊ देखियत दूर ते आवत छाक पठाई मेरी मैया । तुलसी (शब्द०) । (ख) सुनो महाराज प्रात ही एक दिन श्रीकृष्ण बछड़े चरावने बन को चले, जिनके साथ सब ग्वालबाल भी अपने अपने घर से छाक ले ले हो लिए ।— लल्लू० (शब्द०) । (ग) आई छाक बुलायो श्याम ।—सूर (शब्द०) । ३. नशा । सस्ती । मद । उ० (क) सज्जशा मिलिया सज्जणाँ, तन मन नयन परत । अंणपीअइ पाणग्ग ज्यूँ नयणे छाक चढंत ।—ढोला०, दू० ५३४ । (ख) उर न टरै नींद न परै, हरै न काल बिपाक । छिन छाकै उछकै न फिर खरी विषम छबि छाक ।—बिहारी (शब्द०) । (ग) तजी संक सकुचति न चित बोलति वाक कुवाक । दिन छनदा छाकी रहति छुटति न छिन छबि छाक ।—बिहारी (शब्द०) । ४. मैदे के बने हुए बड़े बड़े सुहाल जो विवाहों में जाते हैं । माठ ।
⋙ छाकना (१)पु †
क्रि० अ० [हिं० छकना] १. खा पीकर तृप्त होना । अघान । अफरना । उ०—खटरस भोजन नाना बिधि के करत महल के माहीं । छाके खात ग्वाल मंडल में वैसो तो सुख नाहीं ।—सूर (शब्द०) । २. शराब आदि पीकर मस्त होना । उ०—सुख के निधान पाए हिय के पिधान लिए ठग के से लाडू खाए प्रेम मधु छाके हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छाकना (२)
क्रि० अ० [हिं० छकना(= हैरान होना)] चकित होना । भौचक्का रह जाना । हैरान होना । उ०—विविध कता के जिन्हैं ताके सुर बृंद छाके, वासव धनुष उपमा के तुंगता के हैं । रघुराज (शब्द०) ।
⋙ छाग
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० छागी] १. बकरा । विशेष—भावप्रकाश में इसके मांस को बलवर्धक और त्रिदोष— नाशक कहा है । भोजराज के युक्तिकल्पतरु में वर्णा के अनुसार इनका परीक्षण है तथा बृहत्संहिता के ६५ वै अध्याय में इनके शुभाशुभ लक्षण हैं । वि० दे० 'बकरा' । २. मेष राशि (को०) । ३. वह घोड़ा जो चल न सके । छिन्नगमन अश्व (को०) । ४. बकरी का दूध (को०) । ५. आहुति । पुरोडाश (को०) ।
⋙ छागण, छागन
संज्ञा पुं० [सं०] कंडी या उपली की आग ।
⋙ छागभोजी
संज्ञा पुं० [सं० छागभोजिन्] ३. वह जो बकरे का मांस खाता हो । २. भेड़िया ।
⋙ छागमय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो (आकृति आदि में) बकरे के समान हो, बकरा जैसा । २. कार्तिकेय का छठा मुख ।
⋙ छागमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम ।
⋙ छागमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय का छठा मुख जो बकरे का सा था । २. कार्तिकेय का एक अनुचर ।
⋙ छागर †
संज्ञा स्त्री० [सं० छागल] बकरी । उ०—छागर एक साधु ने खाया ब्राह्मन खाया गाई ।—पुं० दरिया, पृ० ११२ ।
⋙ छागरथ
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि ।
⋙ छागल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरा । बकरे के खाल की बनी हुई चीज । ३. एक प्रकार का मत्स्य [को०] ।
⋙ छागल (२)
संज्ञा स्त्री० १. चमड़े का डोल या छोटी मशक जिसमें पानी भरा या रखा जाता है । यह प्रायः बकरे के चमड़े का बनता है । २. मिट्टी का करवा ।
⋙ छागल (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँकल] एक गहना जिसे स्त्रियाँ पैरों में पहनती हैं । चाँदी की पटरी का गोलकड़ा जिसमें घुँघरू लगे रहते हैं । झाँजन ।
⋙ छागवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि का एक नाम [को०] ।
⋙ छागिका, छागी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकरी [को०] ।
⋙ छाछ
संज्ञा स्त्री० [सं० छच्छिका] १. वह पनीला दही या दूध जिसका घी या मक्खन निकाल लिया गया हो । मथा हुआ दही । मठा । मही । सारहीन तक्र । उ०—ताहि पहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं ।—रसखान (शब्द०) । २. वह मट्ठा जो घी या मक्खन तपाने पर नीचे बैठ जाता है ।
⋙ छाछठ †
वि० [हिं०] दे० 'छासठ' ।
⋙ छाछि †
स्त्री० [हिं०] दे० 'छाछ' ।
⋙ छाज
संज्ञा पुं० [सं० छाद] १. अनाज फटकने का सींक का बरतन । सूप । मुहा०—छाज सी दाढ़ी = बड़ी और चौड़ी दाढ़ी । छाजों मेंह बरसना = बहुत पानी बरसना । मूसलधार पानी बरसना । २. छाजन । छप्पर । ३. गाड़ी या बग्घी के आगे छज्जे की तरह निकला हुआ वह भाग जिसपर कोचवान के पैर रहते हैं ।
⋙ छाजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० छादन] आच्छादन । वस्त्र । कपड़ा । उ०— छाजन भोजन प्रीति सों दीजै साधु बुलाय । जीवन जस हो जगत में अंत परमपद पाय ।—कबीर (शब्द०) । यौ०—भोजन छाजन = खाना कपड़ा ।
⋙ छाजन (२)
संज्ञा स्त्री० १. छप्पर । छान । खपरैल । उ०—तपै लाग जब जेठ अषाढ़ी । भइ मोकहँ यह छाजन गाढ़ी ।—जायसी (शब्द०) । २. छाने का काम या ढंग । छवाई । ३. कोढ की तरह का एक रोग जिसमें उँगलियों के जोड़ के पास तलवा चिड़चिड़ाकर फटता है और उसमें घाव हो जाता है । यह रोग हाथियों को भी होता हैं । अपरस ।
⋙ छाजना
क्रि० अ० [सं० छादन] [वि० छाजित] १. शोभा देना । अच्छा लगना । भला लगना । फबना । उपयुक्त जाना पड़ना । उ०—(क) ओही छाज छत्र ओ पाटू । सब राजन भुइँ धरा ललाटू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) जो कछू कहहु तुमहि सब छाजा ।—तुलसी (शब्द०) । २. शोभा के सहित विद्यमान होना । विराजना । सुशोभित होना । उ०—मुकुट मोर पर पुंज मंजु सुरधनुष विराजत । पीत बसन छिन छिन नवीन छिनछबि छबि छाजत ।—मतिराम (शब्द०) ।
⋙ छाजा पु †
संज्ञा पुं० [सं० छाद] १. छज्जा । उ०—ऊँचे भवन मनोहर छाजा, मणि कंचन की भोति ।—सूर (शब्द०) । २. छाजन ।
⋙ छाजित पु
वि० [हिं० छाजना] शोभित ।
⋙ छाडना, छाड़ना (१) †
क्रि० अ० [सं० छर्दि] कै करना । उलटी करना । वमन करना ।
⋙ छाडना, छाड़ना (२)
क्रि० स० [हिं०] 'दे० छाँड़ना', 'छोड़ना' ।
⋙ छात (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० छत्र, प्रा० छत्त] १. छाता । छतरी । २. राजछत्र उ०—रूपवंत मनि दिए ललाटा । माथे छात बैठ सब पाटा—जायती (शब्द०) । ३. आश्रय । आधार । उ०—हम से ओछ कै पावा छातू । मूल गए सँग रहा न पातू ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छात (२)
वि० [सं] १. कटा हुआ । छिन्न । २. दुर्बल । कृश ।
⋙ छात (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० छत्र, प्रा० छत्त, हिं० छत] दे० 'छत' । उ०—सेवरा हराए बादी, आएनृप पास, ऊँचे छात पर बैठि एक माया फंद डारयो है ।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ४६६ ।
⋙ छाता
संज्ञा पुं० [सं० छत्र, प्रा० छत्त] १. लोहे, बाँस आदि की तीलियों पर कपड़ा चढ़ाकर बनाया हुआ आच्छादन जिसे मनुष्य धूप, मेंह आदि से बचने के लिये काम में लाते हैं । बड़ी छतरी । उ०—फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता । जायसी ग्रं०, पृ० १२ । मुहा०—छाता देना या लगाना = (१) छाते का व्यवहार करना । (२) छाता ऊपर तानना । २. छत्ता । खुमी । ३. चौड़ी छाती । विशाल वक्षस्थल । ४. वक्षस्थल की चौडाई की नाप ।
⋙ छाती
संज्ञा स्त्री० [सं० छादिन् छादी (= आच्छादन करनेवाला)] १. हड्डी की ठठरियों का पल्ला जो कलेजे के ऊपर पेट तक फैला होता है । पेट के ऊपर का भाग जो गरदन तक होता हैं । सोना । वक्षास्थल । विशेष—छाती की पसलियाँ पीछे की ओर रीढ़ और आगे की ओर एक मध्यवती अस्यिदंड से लगी रहती हैं । इनके अंदर के कोठे में फुप्फुस और कलेजा रहता है । दुध पिलानेवाले जीवों में यह कोठा पेट के कोठे से, जिसमें अँतड़ी आदि रहती है, परदे कै द्वारा बिलकुल अलग रहता है । पक्षियों और सरीसृपों में यह विभाग उतना स्पष्ट नहीं रहता । जलचरों तथा रेंगनेवाले जोवों में तो यह विभाग होता ही नहीं । मुहा०—छाती का जम = (१) दुःखदायक वस्तु या व्यक्ति; हर घड़ी कष्ट पहुँचानेवाला आदमी या वस्तु । (२) कष्ट पहुँचाने के लिये सदा घेरे रहनेवाला आदमी । (३) धूष्ट मनुष्य । ढीठ आदमी । छाती पर का पत्थर या पहाड़= (१) ऐसी वस्तु जिसका खटका सदा बना रहता हो । चिंता उत्पन्न करनेवाली वस्तु । जैसे,—कुआँरी लड़की, जिसके विवाह कीचिंता सदा बनी रहती है । (२ सदा कष्ट देनेवाली वस्तु । दुःख से दबाए रहनेवाली वस्तु । छाती कूटना= दे० 'छाती पीटना' । उ०—कूटते हैं तो बदों को कूट दें । कट मरें, क्यों कूटते छाती रहें ।—चुभते० पृ० ३९ । छाती के किवाड़ = छाती का पंजर । छाती का परदा या विस्तार । छाती का किवाड़ खुलना = (१) छाती फटना । (२) कंठ से चीत्कार निकलना । गहरी चोख निकलना । जैसे,—मैं तो आता ही था; तेरी छाती के किवाड़ क्या खुल गए । (३) हृदय के कपाट खुलना । हिए की आँख खुलना । हृदय में ज्ञान का उदय होना । अंतर्बोध होना । तत्व बोध का होना । (४) बहुत आनंद होना । छाती के किवाड़ खोलना= (१) कलेजा टुकड़े टुकड़े करना ।(२) जी खोलकर बाते करना । हृदय की बात स्पष्ट कहना । मन में कुछ गुप्त न रखना । (३) हृदय का अंधकार दूर करना । अज्ञान मिटाना । अंतर्बेंध करना । छाती खोलना = बातों द्वारा हृदय को बेधना । अपने कथन से किसी की पीड़ा । पहुँचाना । उ०—आकबाक बकि और भी वृथा न छाती छोल ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७३६ । छाती तले रखना = (१) पास से अलग न होने देना । सदा अपने समीप या अपनी रक्षा में रखना । (२) अत्यंत प्रिय करके रखना । छाती तले रहना = (१) पास रहना । आँखों के सामने रहना । (२) अत्यंत प्रिय होकर रहना । छाती दरकना = दे० 'छाती फटना' । छाती दरना = सताना । क्लेश देना । उ०— ब्रजवास ते ऊधौ प्रवास करो, अब खूब ही छाती दरी सो दरी ।—नट०, पृ० २३ । छाती निकालकर चलना = तनकर चलना । अकड़कर चलना । ऐंठकर चलना । छाती पत्थर की करना = भारी दुःख सहने के लिये हृदय कठोर करना । छाती पर मूँग या कोदो दलना (१) किसी को सामने हो ऐसी बात करना जिससे उसका जी दुखे । किसी को दिखा दिखाकर ऐसा काम करना जिससे उसे क्रोध या संताप हो । किसी के आँख के सामने हो उसकी हानि या बुराई करना । जैसे,— यह स्त्री बड़ी कुलटा हैं; अपने पति की छाती पर कोदो दलती है (अर्थात् अन्य पुरुष से बातचीत करती है) । (२) अत्यंत कष्ट पहुँचाना । खूब पीड़ित करना । (स्त्रियाँ प्रायः तेरी छाती पर मूँग दलूँ' कहकर गाली भी देती हैं) । छाती पर चढ़ना = कष्ट पहुँचाने के लिये पास जाना । छाती पर चढ़कर ढाई चुल्लू लहू पीना = कठिन दंड देना । प्राणदंड देना । छाती पर धरकर ले जाना= अपने साथ परलोक में ले जाना । -(धन आदि के विषय में लोग बोलते हैं कि 'क्या छाती पर धरकर ले जाओगे ?') । छाती पर पत्थर रखना = किसी भारी शोक या दुःख का आघात सहना । दुःख सहने के लिये हृदय कठोर करना । छाती पर बाल होना = उदारता, न्यायशीलता आदि के लक्षण होना ।—लोगों में प्रवाद है कि सूम या विश्र्वासघातक की छाती पर बाल नहीं होते) । छाती पर साँप लोटना या फिरना = (१) दुः ख से कलेजा दहल जाना । हृदय पर दु ख शोक आदि का आघात पहुँचना । मन मसोसना । मानसिक व्यथा होना । (२) ईर्ष्या से हृदय व्यथित होना । डाह होना । जलन होना । छाती पर होना = छाती पर चढ़जाना । उ०—अगर एक लफज एक कलमा भी तेरी जबान से निकला तो छाती पर हूँगा ।—फिसाना०, भा० ३. पृ० ४७४ । छाती पिलाकर पालना = मनोयोग से पालना । कष्ट सहकर पालन पोषण करना । उ०—जान को वारकर जिलाती हैं, पालती है पिला पिला छाती ।—चोखे०, पृ० ५ । छाती पीटना = (१) छाती पर जोर जोर से हाथ पटकना । (२) दुःख या शोक से व्याकुल होकर छाती पर हाथ पटकना । शोक के आवेग में हृदय पर आघात करना । (छाती परहाथ पटकना शोक प्रकट करने का चिह्न है) । जैसे छाती पीट पीटकर रोना । छाती फटना = (१) दु ख से हृदय व्यथित होना । दुःख शोक आदि से चित्त व्याकुल होना । अत्यंत मानसिक क्लेश होना । अत्यत संताप होना । (२) ईर्ष्या से हृदय व्यथित होना । चित्त में डाह होना । जी जलना । कुढ़न होना । जैसे,—दूसरे की बढ़ती देखकर तुम्हारी छाती क्यों फटती है । छाती फाटना पु = भय आदि से दहलना । काँपना । उ०— गरजनि तरजनि अनु अनु भाँती । फूटै कान अरू फाटै छाती ।—नंद० ग्र०, पृ० १९१ । छाती फाड़ना = जी तोड़ मेहनत करना । उ०—अब भी छाती फाड़ती हूँ, तब भी छाती फाडूगी ।—मान०, भा० ५, पृ० १६७ । छाती फुलाना = (१) अकड़कर चलना । तनकर चलना । इतराकर चलना । (२) घमड करना । अभिमान दिखलाना । (किसी की) छाती लोन से मीजना पु = कष्ट पर और कष्ट देना । किसी की पीड़ा को और बढ़ाना । उ०—नाँचै मोर कोलाहल कीजै । इंद्र की छाती लौंन सौं मीजै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९२ । छाती से पत्थर टलना = (१) किसी ऐसे भारी काम का हो जाना जिसका भार अपने ऊपर रहा हो । किसी कठिन वा बड़े काम के पूरे होने पर चित्त निश्चित होना । किसी ऐसे कार्य का पूरा हो जाना जिसका खटका सदा बना रहता हो । (२) बेटी का ब्याह हो जाना । छाती से लगना = आलिंगन होना । गले लगना । हृदय से लिपटना । छाती से लगाना = आलिंगन करना । गले लगाना । प्यार करना । प्रेम से दोनों भुजाओं के बीच दबाना । छाती से लगा रखना = (१) अपने पास से जाने न देना । प्रेमपूर्वक सदा अपने समीप रखना । २. अत्यंत प्रिय करके रखना । अपनी देखरेख और रक्षा में रखना । वज्र की छाती = ऐसा कठोर हृदय जो दुःख सह सके । अत्यंत सहिष्णु हृदय । २. कलेजा । हृदय । मन । जी । मुहा०—छाती उड़ी जाना = दुःख या आशंका से चित्त व्याकुल होना । कलेजा दहलना । जो घबराना । छाती उमड़ जाना = प्रेम या करूणा के आवेग से हृदय परिपूर्ण होना । प्रेम या करूणा से गदगद होना । छाती छलनी होना=कष्ट या अपमान सहते सहते हृदय जर्जर हो जाना । बार बार दुःख या कुढ़न से चित्त का अत्यंत व्यथित होना । दुःख झेलते झेलते या कुढ़ते कुढ़ते जी ऊब जाना । जैसे,—तुम्हारी बाते सुनते सुनते तो छाती छलनी हो गई । छाती जलना = (१) कलेजे पर गरमी मालूम होना । अजीर्ण आदि के कारण हृदय में जलन मालूम होना । (२) शोक से हृदय व्यथित होना । हृदय दग्धहोना । मानसिक व्यथा होना । संताप होना । (३) ईर्ष्या या क्रोध से चित्त संतप्त होना । डाहहोना । जलन होना । उ०— जौ वह भली नेक हू होती तै मिलि सबनि बताती । वह पापिनी दाहि कुल आई देखि जरत मोरि छाती ।—सूर (शब्द०) । छाती जलाना = (१) हृदय सतप्त करना । संताप देना । मानसिक व्यथा पहुँचाना । जी जलाना । कष्ट पहुँ चाना । (२) कुढ़ाना । चिढ़ाना । † छाती जुडाना = (१) [क्रि० अ०] दे० 'छाती ठढ़ी होना' । (२) [क्रि० स०] छाती ठंढी करना । हृदय शीतल करना । चित्तशांत और प्रसन्न करना । हृदय संतुष्ट और प्रफुल्लित करना । इच्छा या हौसला पूरा करना । कामना पूर्ण करना । मन का आवेग संग्रह करना । उ०— (क) लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती । हृदय लगाय जुड़ावहिं छाती ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) खोजत रहेउँ तोहिं सुत घाती । आजु निपाति जुड़ावहुँ छाती ।—तुलसी (शब्द०) । छाती ठढी करना = हृदय शीतल करना । वित्त शांत और प्रफुल्लित करना । मनका आवेगशांत करना । मनकी अभि- लाषा पूर्ण करना । होसला पूरा करना । छाती ठढी होना = हृदय शीतल होना । चित्त शांत और प्रफुल्लि होना । मन का आवेग शांत होना । कामना पूर्णा होना । होसला पूरा होना । छाती ठुकना = हिम्मत बँधना । साहसबँधना । चित्त में दृढ़ता होना । जैसे,—मुंशी चुन्नीलाल और बाबू बैजनाथ ने इनको हिम्मत बँधाने में कसर नहीं रखी; परंतु इनका मनकमजोर है, इससे इनकी छाती नहीं ठुकती ।—परीक्षागुरु (शब्द०) । छाती ठोकना = किसी कठिन कार्य के करने की साहसपूर्वक प्रतिज्ञ । करना । किसी भारी या कठिन कार्य को करने का दृढ़तापूर्वक निश्चय दिलाना । कोई; दुष्कर कार्य करने का साहस प्रकट करना । हिम्मत बाँधना । जैसे,—मैं छाती ठोककर कहता हूँ कि उसे आज पकड़ लाऊँगा । छाती धडकना = भय या आशंका से हृदय कंपित होना । कलेजा धक धक करना । खटके या डर से कलेजा जल्दी जल्दी उछलना । जी दहलना । छाती थामकर रह जाना = ऐसा भारी शोक या दुःख अनुभव करना जो प्रकट न किया जा सके । कोई भारी मानसिक आघात सहकर स्तब्ध हो जाना । शोक से ठक रह जाना । छाती पकड़कर रह जाना या बैठ जाना = दे० 'छाती थामकर रह जाना' । छाती पक जाना = दे० 'छाती छलनी होना' । छाती पत्थर की करना = अत्यंत शोक या दुःख सहने के लिये जी कड़ा करना । भारी कष्ट या संताप सह लेना या सहने के लिये प्रस्तुत होना । छाती पत्थर पत्थर की होना = अत्यंत शोक या दुः ख सहने के लिये जी कड़ा होता । हृदय इतना कठोर होना कि वह शोक या दुःख का आघात सह ले । छाती पर फिरना = घड़ी घड़ी ध्यान में आना । बार बार स्मरण होना । छाती मर आना = प्रेम या करुणा के आवेग से हृदय परिपुर्ण होना । प्रेम या करुण से गदगद् होना । उ०—वारि विलोचन बाँचत पाती । पुलकि गात भरि आई छाती ।— तुलसी (शब्द०) । छाती मसोसना = चुपचाप हृदय में ऐसा घोर दुःख होना जो प्रकट न किया जा सके । मन ही मन संतप्त होना । छाती में छेद होना या पड़ना=कष्ट या अपमान सहते सहते हृदय जर्जर होना । बार बार के दुःख या कुढ़न से चित अत्यंत व्यथित होना । कुढ़ते कुढ़ते या दुःख झेलते झेलते जी ऊब जाना । उ०—भेदिया सो भेद कहिबो छेद सो छाती परो ।—सूर (शब्द०) । ३. स्तन । कुच । उ०—छाइ रहे छद छाती कपोलनि आनन ऊपर ओप चड़ाई ।—कविराज (शब्द०) । मुहा०—छाती उमरना = युवावस्था आरंभ होने पर स्त्रियों के स्तन का उठना या बढ़ना । छाती देना = बच्चे के मुँह में पीने के लिये स्तन डालना । दूध पिलाना । छाती पकना = स्तनों पर क्षत होना । स्तनों पर घाव होना । छाती भर आना = (१) छाती में दूध भर आना । दूध उतरना । (२) दे० 'छाती उभड़ना' । (३) अत्यंत दुःख होना । आँखों में आँसू भर आना । छाती में दूध छलकना = प्यार से छाती उछलती ही रही, दूध छाती में छलकता ही मिला ।—चोखे०, पृ० ७ । छाती मसलना = छाती मलना । स्तन दबाना या मरोड़ना (संभोग का एक अंग) । ४. हिम्मत । साहस । दृढ़ता । जैसे,—किसी की छाती है जो उसका सामना करे । ५. एक प्रकार की कसरत जो दुबगली के ढंग की होती है । उ०—एक पेंच जो उस समय किया जाता है जब विपक्षी दोनों ओर से हाथ कमर पर ले जाकर कमर बाँधकर झोंका देना चाहता है । इसमें विपक्षी के हाथ को ऊपर से लपेटते हुए खेलाड़ी अपने हाथ मजबूत बाँधकर बाहरी या बगली टाँग मारता हैं ।
⋙ छात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिष्य । चेला । विद्यार्थी । अंतेवासी । २. मधु । ३. छतया नामक मघुमक्खी जो कुछ पीले और कपिल वर्ण की होती है । सरघा । ३. छतया नामक मधुमक्खी का मधु ।
⋙ छात्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छतया या सरघा नामक मधुमक्खी का बनाया हुआ मधु । २. विद्यार्थी । छात्र ।
⋙ छात्रगंड
संज्ञा पुं० [सं० छात्रगणड़] वह शिष्य जो श्लोक का एक चरण मात्र सुनकर सारे श्लोक का भाव समझ जाय । तीक्ष्ण बुद्धिवाला शिष्य । १. अल्पज्ञ छात्र (को०) ।
⋙ छात्रदर्शत
संज्ञा पुं० [सं०] ताजा मक्खन ।
⋙ छात्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह वृत्ति या धन जो विद्यार्थी को विद्याभ्यास की दश में सहायतार्थ मिला करे । स्कालरशिप ।
⋙ छात्रालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विद्यार्थियों के ठहरने का प्रबंध हो । बोर्डिंग हाउस ।
⋙ छात्रावास
संज्ञा पुं० [सं० छात्र + आवास] दे० 'छात्रालय' ।
⋙ छाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाजन । छप्पर । २. छत [को०] ।
⋙ छादक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. छाननेवाला । आच्छादन करने— वाला । २. खपरैलया छप्पर छानेवाला । छपरबंद । ३. कपड़ा लत्ता देनेवाला ।
⋙ छादन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० छादित] १. छाने या ढकने का काम । २. वह दिससे छाया या ढका जाया । आवरण । आच्छा- दन । ३. नीला म्लान वृक्ष । नीला कौरेया । ४. छिपाव । गोपन । ५. पत्ता । पत्र [को०] ।
⋙ छादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़ा । खाल [को०] ।
⋙ छादित
वि० [सं०] ढका हुआ । छाया हुआ । आच्छादित ।
⋙ छादी
वि० [सं० छादिन्] [वि० स्त्री० छादिनी] छादक । आवरणकारी । आच्छादन करनेवाला ।
⋙ छादि्मक (१)
वि० [सं०] १. जो वेश छिपाए हो । छद् म रूपधारी । २. पाखडी । मक्कार । ३. बहुरूपिया ।
⋙ छदि्मक (२)
संज्ञा पुं० ठग [को०] ।
⋙ छान
संज्ञा स्त्री० [सं० छादन, छाजन, प्रा० छायण छान] छप्पर । घास फूस की छाजन । उ०—टूटी छान मेघ जल बपसै टूटै पलँग बिछाइए ।—सूर (शब्द०) । यौ०—छान छप्पर = छाजन । खपरैल ।
⋙ छान (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० छन्द] वह रस्सी जिससे किसी पशु के पैर बाँधे जायै । बंधन ।
⋙ छान (३)
संज्ञा पुं० [हिं० छानना] छानना का समास में प्रयुक्त रूप । जैसे, छानपछोर छानफटक, छानबीन आदि ।
⋙ छानना (१)
क्रि० स० [सं० चालन या क्षारण] १. किसी चूर्ण या तरल पदार्थ को महीन कपड़े या और किसी छेरदार वस्तु के पार निकालना जिसमें उसका कूड़ा करकट अथवा खुरदुरा या मोटा अंश निकल जाय । जैसे, पानी छानना, शरबत छानना, आटा छानना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना । २. मिली जुली वस्तुओं को एक दूसरे से अलग करना । भली और बुरी अथवा ग्राहय और त्याज्य वस्तुओं को परस्पर पृथक् करना । बिलगाना । उ०—(क) जानि कै अनजान हुआ तत्व न लिया छानि ।—कबीर (शब्द०) । (ख) मज्जन पानि कियो को सुरसरि कर्मनाश जल छानि ?—तुलसी (शब्द०) । ३. विवेक करना । अन्वीक्षण करना । जाँचना । पड़तालना । ४. देखभाल करना । ढूँढ़ना । अनुसंधान करना । अन्वेषण करना । तलाश करना । खोज करना । जैसे,—सारा घर छान डाला, पर कागज न मिला । सयो० क्रि०—डालना ।—मारना । ५. भेदकर पार करना । किसी वस्तु को छेदकर इस पार से उस पार निकालना । उ०—जब ही मारचो खौचि के तन मैं मूवा जानि । लागी चोट जो सबद की गई करेजे छानि ।— कबीर (शब्द०) । ६. नशा पीना । जैसे,—भाग छानना, शराब छानना । ७. घृत या तेल आदि में काई खा द्यपदार्थ तलना ।
⋙ छानना (२)
क्रि० स० [सं० छन्दन, हिं० छावना] १. रस्सी से बाँधना रस्सी आदि से कसना । जकड़ना । यौ०—बाँधना छानना । जैसे, असबाबह बाँध छानकर पहले से रख दो । २. घोड़े, गदहे आदि के पैरों को रस्सी से जकड़कर बाँधना । उ०—कबीर प्रगटहि रामकहि छाने राम न गाय । फूस के जोड़ी दूर करु बहुरि न लागै लाय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) बहि चलत भयो है मंद पौन । मनु गदहा को छान्यो पैर ।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ३७५ ।
⋙ छानबीन
संज्ञा स्त्री० [हिं० छानना+बींनना] १. पूर्ण अनुसंधान या अन्वेषण । जाँच पड़ताल । गहरी खोज । २. पूर्ण विवेचना । विस्तृत विचार । पूर्ण समीक्षा । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ छानबे (१)
वि० [सं० षणणवति, प्रा० छणणवइ, अप० छाणवई > हिं० छानबे] जो संख्या में नब्बे और छह हो । नब्बे से छह अधिक ।
⋙ छानबे (२)
संज्ञा पुं० छानबे की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है । ९६ ।
⋙ छाना (१)
क्रि० स० [सं० छादन] १. किसी वस्तु के सिरे या ऊपर के भाग पर कोई दूसरी वस्तु इस प्रकार रखना या फैलाना जिसमें वह पूरा ढक जाय । ऊपर से आच्छादित करना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । २. पानी, धूप आदि से बचाव के लिये किसी स्थान के ऊपर कोई वस्तु तानना या फैलाना । जैसे,—छप्पर छाना, मंडप छाना, घर छाना । उ०—जायसी (शब्द०) । (ख) ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुँइ सुरँग बिछाव बिछावा ।—जायसी (शब्द०) । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग आच्छादन और आच्छादित दोनों के लिये होता है । जैसे; छप्पर छाना, घर छाना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना । ३. बिछाना । फैलाना । उ०—मायके की सखी सों मँगाय फूल मालती के चादर सों ढाँपे छाय तोसक पहल में ।—रघुनाथ (शब्द०) । ४. शरण में लेना । रक्षा करना । उ०—छत्रहिं अछत, अछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरिवरि पावा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ छाना (२)
क्रि० अ० १. फैलना । पसरना । बिछजाना । भर जाना । जैसे, बादल छाना, हरियाली छाना । उ०—(क) फूले कास सकल महि छाई ।—मानस, ४ ।१६ । (ख) बरषा काल मेघ नभ छाए । गर्जत लागत परम सुहाए ।—मानस, ४ ।१३ । (ग) कैसे धरों धीर वीर वीर पावस प्रबल आयो, छाई हरियाई छिति, नभ बग पाँती है ।—घासीराम (शब्द०) । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना । २. डेरा डालना । बसना । रहना । टिकना । उ०—(क) जब सुग्रीव भवन फिरि आए । राम प्रवर्षन गिरि पर छाए— मानस, ४ ।१२ । (रू) हम तौ इतनै ही सचु पायो । सुंदर स्याम कमलदल लोचन बहुरौ दर स दिखायौ । कहा भयो जो लोग कहत हैं कान्ह द्वारिका छायौ । सुनि कै बिरह दसा गोकुल की अति आतुर ह्वै घायौ ।—सूर० १० ।४२९६ ।
⋙ छाना (३)
वि० [सं० छन्न प्रा० छण] [वि० स्त्री० छानी] छिपा हुआ ।गुप्त । उ०—(क) सुंदर छाना क्यों रहै जग मैं जाहर होइ ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८९ । (ख) कस्तूरी कर्पूर छिपावै कैसे छानी रहै सुबास ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १५६ । यौ०—छाने छाने=गुप्त रूप से । चुपकें । लुक छिपकर ।
⋙ छानि पु, छाँनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० छादन, हिं० छान] १. ईख कें रस की नाँद के ऊपर का ढक्कन जो सरकंडे या बाँस की पतली फट्टियों का बनता है । २. छान । छप्पर । उ०—(क) कलि मैं नामा प्रकट ताकि छानि छबावै ।—सूर०, १ ।४ । (ख) या घर में हरि सो बिसरे सु तू वारि दे वाघरु बार ते बोरे । छानि बरेडि ओ पाट पछीनि मयारि कहा किहि काम के कोरे ।—अकबरी०, पृ० ३५४ ।
⋙ छाप (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छापना] १. वह चिह्न जो किसी रंग पुते हुए साँचे को किसी वस्तु पर दबाकर बनाया जाय । खुदे या उभरे हुए ठप्पे का निकान । जैसे, चंदन या गेरू क्री छाप, बूटी की छाप, हथेली की छाप । २. असर । प्रभाव । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।—लगना ।—लगना । ३. मुहर का चिह्न । मुद्रा । उ०—दान किए बिनु जान न पैहो । माँगत छाप कहा दिखराओ को नहिं हमको जानत । सूर श्याम तब कह्यो ग्वारि सों तुम मोकों क्यों मानत ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना ।—लगना ।—लगाना । ४. शंख, चक्र आदि के चिह्व जिन्हें वैष्णव अपने अंगों पर गरम धातु से अंकित कराते हैं । मुद्रा । उ०—(क) द्वारका छाप लगे भुज मूल पुरानन गाहिं महातम भौंन हैं ।—(शब्द०) । (ख) मेटे क्यों हूँ न मिटति छाप परी टटकी । सूरदास प्रभु की छबि हृदय मों अटकी ।—सूर (शब्द०) । ५. वह निशान जो साँचे में अन्न की राशि के ऊपर मिट्टी डालकर लगाया जाता है । चाँक । ६. एक प्रकार की अँगूठी जिसमें नगीने की जगह पर अक्षर आदि खुदा हुआ ठप्पा रहता है । उ०—विद्रुम अंगुरि पानि चरै रँग सुंदरता सरसानो । झाप छला मूँदरी झलकें, दमकैं पहुँची गजरा मिलि मानो ।—गुमान (शब्द०) । ७. कवियों का उपनाम ।
⋙ छाप (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेप(= खेप)] १. काँटे या लकड़ी का बोझ जिसे लकड़िहारे जंगल से सिर पर उठाकर लाते हैं । २. बाँस की बनी हुई टोकरी जिससे सिंचाई के लिये जलाशय से पानी उलीचकर ऊपर चढ़ाते हैं ।
⋙ छापना
क्रि० स० [सं० चयन] १. किसी ऐसी वस्तु को जिसपर स्याही, गीला रंग आदि पुता हो, दूसरी वस्तु पर रखकर या छुलाकर उसकी आकृति चिह्नित करना । २. किसी साँचे को किसी वस्तु पर इस प्रकार दवाना कि उसकी, अथवा उसपर के खुदे या उभरे हुए चिह्नों की आकृति उस वस्तु पर उतर आवे । ठप्पे से निशान डालना । मुद्रित भरना । अंकित करना । जैसे,—पुस्तक छापना, अखबार छापना । ४. टीका लगाना (विशेषत; चेचक का) ।
⋙ छापा
संज्ञा पुं० [हिं० छापना] १. ऐसा साँचा जिसपर गीला रंग या स्याही आदि पोतकर किसी वस्तु अर उसकी अथवा उसपर खुदे या उभरे हुए चिह्नों की आकृति उतारते हैं । ठप्पा । जैसे, छीपियों का छापा, तिलक लगाने का छापा । २. मुहर । मुद्रा ३. ठप्पे या मुहर से दबाकर डाला हुआ चिह्न या अक्षर । ४. व्यापार के राल पर डाला हुआ चिह्न । मारका । ५. शंख, चक्र आदि का चिह्न जिसे वैष्णव अपने बाहु आदि अंगों पर गरम धातु से अंकित कराते हैं । उ०—जप माला छापा तिलक सरे न एकौ काम ।—बिहारी (शब्द०) । ६. पंजे का वह चिह्न जो विवाह आदि शुभ अवसरों पर हलदी आदि से छापकर (दीवार, कपड़े आदि पर) डाला जाता है । ७. वह कल जिससे पुस्तकें आदिं छापी जाती हैं । छापे की कल । मुद्रा यंत्र । प्रेस । वि० दे० 'प्रेस' । यौ०—छापाकल । छापाखाना । ८. एक प्रकार का ठप्पा जिससे खलिहानों मे राशि पर राख रखकर चिह्न डाला जाता है । यह ठप्पा गोल या चौकोर होता है जिसमें डेढ़ दो हाथ का डडा लगा रहता है ।९. किसी वस्तु की ठीक ठीक नकल । प्रतिकृति । १०. रात में सोते हुए या बेखबर लोगों पर सहसा आक्रमण । रात्रि में असावधान शत्रु पर धावा या बार । क्रि० प्र०—मारना ।
⋙ छापाकल
संज्ञा स्त्री [हिं० छापा + कल] छापने या मुद्रण का कार्य करने की मशीन ।
⋙ छापाखाना
संज्ञा पुं० [हिं० खाना + फा़० खाना] वह स्थान जहाँ पुस्तकें आदि छापी जाती हैं । मुद्रणालय । प्रेस ।
⋙ छापामार
वि० [हिं०] अचानक बेखबर दुश्मन पर आक्रमण करनेवाला । छापा मारनेवाला (सैनिक) । यौ०—छापामार लड़ाई । छापामार युद्ध = गुरिल्ला युद्ध ।
⋙ छापित पु
वि० [हिं० छाप + इत (प्रत्य०)] छापों से भरा हुआ छापा हुआ । उ०—तन भीजि सारी रंग रँग के बारि बहत उदोत । सब रंग मिलि के बसन छापित मैं प्रगट मुख जोत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ११० ।
⋙ छाब
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छबड़ा' । उ०—फूलन छाब भरी दुई चारी । नाना विधि के फूल अपारी ।—कबीर सा०, पृ० ५४४ ।
⋙ छाबड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छबड़ा' । उ०—नैडो आवै नाग पकड़ीजै, छाबड़ पड़े ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६७ ।
⋙ छाम पु
वि० [सं० क्षाम] क्षीणा । पतला । कुश । उ०—सीस फूल सरकि सुहावने ललाट लाग्यो लाँबी लटैं लटकि परी हैं कटि छाम पै ।—द्विजदेव (शब्द०) ।
⋙ छामोदरी पु
वि० [सं० क्षामोदरी] छोटे पेटवाली । कृशोदरी । उ०—तै हैं सूच्छम छामोदरी कटि केहरि की हरि लक ना ऐसी ।—व्रत (शब्द०) । विशेष—छोटा पेट सौंदर्य का चिह्न माना जाता है ।
⋙ छायल †
संज्ञा पुं० [हिं० छाना] स्त्रियों का एक पहरावा । उ०—भय कटाव कस अँगिया राती । छायल बँद लाए गुजराती ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ छायांक
संज्ञा पुं० [सं० छापाङ्क] चंद्रमा ।
⋙ छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रकाश का अभाव जो उसकी किरणों के व्यवधान के कारण किसी स्थान पर होता है । उजाला डालनेवाली वस्तु और किसी स्थान के बीच कोई दूसरी वस्तु पड़ जाने के कारण उत्पन्न कुछ अंधकार या कालिमा । वह थोड़ी थो़ड़ी दूर तक फैला हुआ अँधेरा जिसके आस पास का स्थान प्रकाशित हो । साया । जैसे, पेड़ की छाया, मंडप की छाया । २. वह स्थान जहाँ किसी प्रकार की आड़ या व्यवधान के कारण सूर्य, चंद्रमा, दीपक या और किसी आलीकपद वस्तु का उजाला न पड़ना हो । ३. फैले हुए प्रकाश को कुछ दूर तक रोकनेवाली वस्तु की आकृति जो किसी दूसरी ओर अंधकार के रूप में दिखाई पड़ती है । परछाई । जैसे, खंभे की छाया । वि० दे० 'छाँह' । ४. जल, दर्पण आदि में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की आकृति । अक्स । ५. तद्रूप वस्तु । प्रतिकृति । अनुहार । सदृश वस्तु । पटतर । उ०—कहहु सप्रेम प्रगट को करई । केहि छाया कवि मति अनुसरई ।—तुलसी (शब्द०) । ६. अनुकरण । नकल । जैसे,—यह पुस्तक एक बँगला उपन्यास की छाया है । ७. सूर्य की एक पत्नी का नाम । विशेष—इसकी उत्पात्ति की कथा इस प्रकार है । बिवस्वान् सूर्य की पत्नी संज्ञी थी जिसके गर्भ से वैवस्वत, श्राद्ध देव, यम और यमुना का जन्म हुआ । सूर्य का तेज न सह सकने के कारण संज्ञा ने अपनी छाया से अपनी ही ऐसी एक स्त्री उत्पन्न की और उससे यह कहकर कि तुम हमारे स्थान पर इन पुत्रों का पालन करना और यह भेद सूर्य पर न खोलना, वह अपने पिता विश्वकर्मा के घर चली गई । सूर्य ने छाया को ही संज्ञा समझकर उससे सावर्णि और शनैश्चर नामक दो पुत्र उत्पन्न किए । छाया इन दोनों पुत्रों को संज्ञा की संतति की अपेक्षा अधिक चाहने लगी । इसपर यम क्रुद्ध होकर छाया को लात मारने चले । छाया ने शाप दिया कि तुम्हारा पैर कटकर गिर जाय । जब सूर्य ने यह सुना तब उन्होंने छाया से इस भेदभाव का कारण पूछा, पर उसने कुछ न बताया । अंत में सूर्य ने समाधि द्वारा सब बातें जान लीं और छाया ने भी सारी व्यवस्था ठीक ठीक बतला दी । जब सूर्य क्रुद्ध होकर विश्वकर्मा के यहाँ गए, तब उन्होंने कहा—संज्ञा तुम्हारा तेज न सह सकने के कारण ही यहाँ चली आई थी और अब एक घोड़ी का रूप धारण करके तप कर रही है । इसपर सूर्य संज्ञा के पास गए और उसने अपना रूप परिवर्तित किया । ८. कांति । दीप्ति । ९. शरण । रक्षा । जैसे—अब तुम्हारी छाया के नीचे आ गए है; जो चाहे सो करो । १०. उत्कोच । घूस । रिशवत । ११. पंक्ति । १२. कात्यायनी । १३. अंधकार । १४. आर्या छंद का भेद जिसमें १७ गुरु और लघु होते हैं ।१५. एक रागिनी । विशेष—संगीतसार के मत से यह हम्मीर और शुद्ध नट के योग से उत्पन्न रागिनी है । इसमें पंचम वादी, ऋषभ संवादी और अवरोहण में तीव्र मध्यम लगता है । दामोदर के मत से यह ओड़व है जिसका सरगम है—नि ध म ग सा । १६. भूत प्रेत का प्रभाव । आसेव । जैसे,—इसपर किसी की छाया है ।
⋙ छायाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाया करनेवाला । किसी के लिये छाता लेकर चलनेवाला । २. एक छंद [को०] ।
⋙ छायागणित
संज्ञा पुं० [सं०] गणित की एक क्रिया जिसमें छाया के सहारे ग्रहों की गति, अयनांश का गमनागमन आदि निरूपित किया जाता है । इसमें एक शंकु के द्वारा विषुवन्मंडल स्थिर करके छायाकर्ण निर्धारित किया जाता है ।
⋙ छायाग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] दर्पण । आइना ।
⋙ छायाग्राहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी जिसने फाँदते हुए हनुमान की छाया पकड़कर उन्हें खींच लिया था ।
⋙ छायाग्राहिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० छायाग्राहिणी] दे० 'छायाग्राहिणी' । उ०—या भव पारावार कौं उलँघि पार की जाय । तिय छबि छायाग्राहिनी ग्रहैं बीच हीं आय ।—बिहारी र०, दो० ३३ ।
⋙ छायाचित्र
संज्ञा पुं० [सं० छागा + चित्र] आलोक चित्र । अक्सी तसवीर । फोटो ।
⋙ छायातनय
संज्ञा पुं० [सं०] शनैश्चर ।
⋙ छायातप
संज्ञा पुं० [छाया + आतप] १. छाया और धूप । उ०—और बदलते रहते चलपट छायातप के ।—रजत०, पृ० १० ।
⋙ छायातरु
संज्ञा पुं० [सं०] सुरपुन्नाग । छतिवन । २. वह वृक्ष जिसकी छाया घनी और विस्तृत हो । छायादार वृक्ष । उ०— जीवन के मरु का छायातरु, लहराया, उत्कल जल निर्झर ।— बेला, पृ० ३७ ।
⋙ छायात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] छाया का पुत्र । शनैश्चर ।
⋙ छायात्मा
संज्ञा पुं० [सं० छायात्मन्] परछाई । प्रतिबिंब [को०] ।
⋙ छायादान
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहजन्य अरिष्ट के निवारणार्थ एक प्रकार का दान । विशेष—छायादान करनेवाला घी या तेल से भरे काँसे के कटोरे में अपनी छाया या परछाई देख और उसमें कुछ दक्षिणा डालकर दान करता है । यह दान ग्रहजनित शरीर के अरिष्ट की शांति के निमित्त किया जाता है और इसे कुलीन ब्राह्मण नहीं ग्रहण करते ।
⋙ छायादेह
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना शरीर की मूर्ति । काल्पनिक मूर्ति ।
⋙ छायाद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'छायातरु' [को०] ।
⋙ छायाद्वितीय
वि० [सं०] एकाकी । अकेला । जिसके साथ केवल अपनी छाया ही हो ।
⋙ छायानट
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक राग । विशेष—यह राग छाया और नट के योग से उत्पन्न है तथा केदार नट, कल्याण नट आदि नौ नटों के अंतर्गत है ।इसमें सा वादी और ग संवादी है और अवरोहण में तीव्र मध्यम लगता है । संगीतसार के मत से यह संपूर्ण जाति का राग है और इसका ग्रह तथा अश और न्यास धैवत है । यह संध्या के समय एक दंड से पाँच दंड तक गाया जाता है । इसकी स्वरलिपि इस प्रकार है-ध स स रे ग म प ध स नि ध प म म म रे ध ध प म प म म म म रे ध प स म म रे स रे स स स ।
⋙ छायान्वित
वि० [सं०] छायायुक्त । सायादार ।
⋙ छायापथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशगंगा । हाथी की डहर । आकाश जनेऊ । २. देवपथ । उ०—नील नभोमंडल सा जलनिधि, पुल था छायापथ सा ठीक । खींच दी गई एक अमिट सी पानी पर भी प्रभु की लीक ।—साकेत, पृ० ३९० । ३. आकाश । उ०—छायापथ में नव तुषार का सघन मिलन होता जितना ।—कामायनी, पृ० ८ ।
⋙ छायापद
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक यंत्र । इसमें बारह अगुल का शकु होता था जिसकी छाया से काल का ज्ञान होता था ।
⋙ छायापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शनैश्चर । उ०—छायापुत्र सहोदर छाकै, छोह न तापर छेलै ।—रघु० रू०, पृ० २५ ।
⋙ छायापुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार मनुष्य की छायारूप आकृति जो आकाश की ओर स्थिर दृष्टि से बहुत देर तक देखते रहने की साधना करने से दिखाई पड़ती है । विशेष—तत्र में लिखा है कि इस छायारूप आकृति के दर्शन से छह महीने के भीतर होनेवाली भविष्य बातों का पता लग जाता है । यदि पुरुष की आकृति पूरी पूरी दिखाई पड़े तो समझना चाहिए कि छह महीने के भीतर मृत्यु नहीं हो सकती । यदि आकृति मस्तकशून्य दिखाई पड़े़ तो समझना चाहिए कि छह महीने के भीतर अवश्य मृत्यु होगी । यदि चरण न दिखाई पड़े तो भार्या की मृत्यु और यदि हाथ न दिखाई पड़े तो भाई की मृत्यु निकट समझनी चाहिए । यदि छायापुरुष की आकृति रक्तवर्ण दिखाई पड़े तो समझना चाहिए कि धन की प्राप्ति होगी । इसी प्रकार की और बहुत सी कल्पनाएँ हैं ।
⋙ छायाभत्
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।
⋙ छायामय
वि० [सं०] छायायुक्त । छायादार [को०] ।
⋙ छायामान
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. छाया की माप (को०) ।
⋙ छायामित्र
संज्ञा पुं० [सं०] छाता । छतरी ।
⋙ छायामृगधर
संज्ञा पुं० [सं०] मृगलांछन । चंद्रमा [को०] ।
⋙ छायायंत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह यंत्र जिससे छाया द्वारा काल का ज्ञान हो । सूर्यसिद्धांत में शंकु, धनु, चक्र आदि इसके अनेक प्रकार बतलाए गए हैं । २. धूपघड़ी ।
⋙ छायालोक
संज्ञा पुं० [सं०] काल्पनिक जगत् ।
⋙ छायावाद
संज्ञा पुं० [सं० छाया + वाद] आधुनिक हिंदी की एक काव्यगत शैली । विशेष—सन् १९१८ ई० के आसपास दिवेदी युग की काव्यधारा के बीच रीतिकालीन काव्यप्रवृत्तियों के विरोध में इस नवीन काव्यधारा का जन्म हुआ । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार पुराने ईसाई संतों के छायाभास (फैटज्मैंटा) तथा यूरोपी काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगीं । इस धारा का हिंदी काव्य अँगरेजी के रोमाटिक कवियों तथा बँगला के रवींद्र काव्य से प्रभावित या । अतः हिंदी में भी इस नई काव्यधारा के लिये 'छायावाद' नाम प्रचलित हो गया । इस धारा के प्रमुख कवि प्रसाद, निराला और पंत आदि माने जाते हैं । बाद में स्वच्छंदतावाद का नाम भी अनेक हिंदी आलोचकों ने दिया ।
⋙ छायावेष्टित
वि० [सं० छाया + आवेष्टित] अस्पष्ट । धुँधला । उ०—कौन उसमें ऐसे छायावेष्टित रहः स्थल हैं ।—नदी०, पृ० ८ ।
⋙ छायावान्
वि० [सं० छायावत्] [वि० स्त्री० छायावती] १. छायायुक्त । सायादार । छाँहवाला । २. शांतियुक्त ।
⋙ छायाविप्रातिपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयुर्वेंद का एक प्रकरण जिसके अनुसार रोगी की कांति, आभा, चेष्टा आदि में उलट- फेर या परिवर्तन देखकर यह निश्चय किया जाता है कि अब यह आसन्नमरण है या नहीं अच्छा होगा ।
⋙ छायासुत
संज्ञा पुं० [सं०] छाया के पुत्र शनैश्चर ।
⋙ छार
संज्ञा पुं० [सं० क्षार] कुछजली हुई वनस्पतियों या रासायनिक क्रिया से धुली धातुओं की राख का नमक । क्षार । २. खारी नमक । ३. खारी पदार्थ । ४. भस्म । राख । खाक । उ०—(क) जो निआन तन होइहि छारा । माटी पोखि मरइ को भारा । जायसी (शब्द०) । (ख) तुरतहिं काम भयो जरि छारा ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—छार खार करना = भस्म करना । नष्ट भ्रष्ट करना । सत्यानाश करना । उ०—उपजा ईश्वर कोप ते आया भारत बीच । छार खार सब हिंद करूँ मैं तो उत्तम नहिं नीच ।— हरिश्चंद्र (शब्द०) । ५. धूल । गर्द । रेणु । उ०—(क) गति तुलसीस की लखै न कोऊ जो करति पब्बै ते छार, छार पब्बै सो उपलक ही ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मूढ़ छार डारे गजराजऊ पुकार करैं, पुंडरीक बूडयौ री, कपूर खायो कदली ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ छारकर्दम
संज्ञा पुं० [सं० क्षारकर्दम] एक नरक । दे० 'क्षारकर्दम' ।
⋙ छारछबीला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छरीला' ।
⋙ छाल
संज्ञा स्त्री० [सं० छल्ल, छाल अथवा सं० शल्क] १. पेड़ों के धड़, शाखा, टहनी और जड़ के ऊपर का आवरण जो किसी किसी में मोटा और कड़ा होता है और किसी में पतला और मुलायम । वृक्ष की त्वचा । बक्कल । जैसे, नीम की छाल । बल्कल । बबूल की छाल । २. छाल का वस्त्र, ३. त्वचा । चमड़ा । ४. एक प्रकार की मिठाई । उ०—भई मिठाई कही न जाई । मुख खन मेलत जाइ बिलाई । मतलडु, छाल और मरकोरी । माठ, पिराकें और बुँदौरी ।—जायसी (शब्द०) । ५. चीनी जो खूब साफ न की गई हो ।
⋙ छालटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाल + टी] १. छाल का बना हुआ वस्त्र । सन या पाट का बना हुआ कपड़ा । विशेष—यह पहले अलसी की छाल का बनता था और इसी को फारसी में कताँ कहते थे । २. सन या पाट का बना हुआ एक प्रकार का चिकना और फूलदार कपड़ा जो देखने में रेशम की तरह जान पड़ता है ।
⋙ छालना (१)
क्रि० स० [सं० चालन] १. छलनी में रखकर (आटा आदि) साफ करना । चालना । छानना । २. छेद करना । छलनी की तरह छिद्रमय करना । झँझरा करना ।
⋙ छालना (२)
क्रि० स० [सं० क्षालन] धोना । साफ करना । पखारना ।
⋙ छाला
संज्ञा पुं० [सं० छाल] १. छाल या चमड़ा । वर्म । जिल्द । जैसे, मृगछाला । उ०—(क) जरहिं मिरिग बनखँड तेहि ज्वाला । आते जरहिं बैठ तेहि छाला ।—जायसी ग्रं०, पृ० ८६ । (ख) सेस नाग जाके कँठ माला । तनु भभूति हस्ती कर छाला ।—जायसी ग्रं०, पृ० ९० । २. किसी स्थान पर जलने, रगड़ खाने या और किसी कारण से उत्पन्न चमड़े की ऊपरी झिल्ली का फूलकर उभरा हुआ तल जिसके भीतर एक प्रकार का चेप या पानी भरा रहता है । फफोला । आबला । झलका । उ०—पाँयन में छाले परे, बाँधिबे को नाले परे, तऊ, लाल, लाले परे रावरे दरस को ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना । ३. वह उभरा हुआ दाग जो लोहे या शीशे आदि में पड़ जाता है ।
⋙ छालित पु
वि० [सं० क्षालित] धोया हुआ । प्रक्षालित ।
⋙ छालियो
संज्ञा पुं० [सं० स्थाली हिं० थाली] काँसे का एक बरतन जिसमे घी तेल आदि भरकर छायादान दिया जाता है । छायो- पात्र । छायादान की कटोरी ।
⋙ छालिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छाली' ।
⋙ छाली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाला] १. कटी हुई सुपारी का चिपटा टुकड़ा । सुपारी का फल । २. सुपारी । पूगीफल ।
⋙ छालो पु †
संज्ञा पुं० [सं० छागल, प्रा० छाअलो, हिं० छेली] [स्त्री० छाली] बकरा । उ०—छाखी हंदा कांनडा, एवालां आधीन ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५५ ।
⋙ छावँ
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया] १. छाया । साया । जैसे,—बैठ जाता हूँ जैसे,—जहाँ छाँव घनी होती है । २. शरण । पनाह । जैसे— अब तो हम तुम्हारी छावँ में आ गए हैं, जो चाहो सो करो । ३. प्रतिबिंब । अक्स । वि० दे० 'छाँह' ।
⋙ छावन
संज्ञा पुं० [सं० छादन, प्रा० छायण, छावण] १. छाजन । छप्पर । उ०—सुन्न गुफा घरि छावन छाया ।—प्राण०, पृ० ५९ । २. डेरा । आवास । निवास । उ०—दोय मास इत छावन किज्जय ।—प० रासो, पृ० १८१ ।
⋙ छाबना पु †
क्रि० स० [हिं० छाना] दे० 'छाना' । उ०—चरण घोइ चरणोदक लीनों माँगिं देउ मनभावन । तीन पेंड़ बसुधा दहौ चाहौं परण कुटौ को छावन ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छावनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाना अथवा देशी छायणिया, छायणो] १. छप्पर । छाना । क्रि० प्र०—छाना । २. डेरा । पड़ाव । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना । ३. सेना के ठहरने का स्थान । फौज की बारिक ।
⋙ छावद
संज्ञा पुं० [सं० शावक] मछलियों के छोटे छोटे बच्चे जो झुंड बाँधकर एक साथ तैरते हैं ।
⋙ छाबरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० शावक] [स्त्री० छावरी] छौना । जानवर का बच्चा । उ०—भूषन भनत कीजै उत्तरीं भुवाल बस पूरब के लोजिए रसाल गज छावदे ।—भूषन (शब्द०) ।
⋙ छावला †
वि० [प्रा० छविल्ल, छइल्ल हिं० छैला] सुरूप । सुडौल । रूपवान । उ०—देह इसकी गोरी—मानो छोटे छावले की छोरी हो ।—श्याम०, पृ० ३१ ।
⋙ छावा
संज्ञा पुं० [सं० शावक] १. बच्चा । शिशु । २. पुत्र । बेटा— (डिं०) । ३. १० से २० वर्ष तक का हाथी । जवान हाथी ।
⋙ छासठ (१)
वि० [सं० षटषष्टि, प्रा० छछठि] जो गिनती में साठ और छह हो ।
⋙ छासठ (२)
संज्ञा पुं० साठ और छह की संख्या तथा उसका सूचक अक जो इस प्रकार लिखा जाता है—६६ ।
⋙ छाह (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छाछ' ।
⋙ छाह (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छाँह' । उ०—माह छाह ककरो नहिं भावय ग्रीसम प्रान पियारा ।—विद्यापति, पृ० १०० ।
⋙ छाहर (१)
संज्ञा पुं० [सं० छाया] छाया । उ०—चाहने छाहर आवहि बाहर गालिम गणएण पारीआ ।—कीर्ति०, पृ० ४६ ।
⋙ छाहर (२)
वि० [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह + ड़ (प्रत्य०)] मत । मतवाला । उ०—हय हथ्थिन घन हंकि बीर छूटयौ छकि छाहर । मरदन सों मिलि मरद मरद बुल्लयो मुख नाहर ।— पृ० रा०,७ ।११५ ।
⋙ छाहाँगीर †पु
संज्ञा पुं० [हिं० छाह + फा़० गीर (प्रत्य०)] छत्र । छाता । उ०—मुकुट कौ छाहाँगीर कियै ब्रजनिधि । ठाढ़ो, मुख की छटा की छबि छाकनि छकै रह्यौ ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १४७ ।
⋙ छिंछ, छिंछि पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] छीटा । धार । फौवारा । उ०—(क) स्रोनित छिंछ उछरि आकासहिं गज बाजिनि सिर लागि ।—सूर०, ९ ।१५८ ।(ख) शोन छिंछि छूटत बदन भीम भई तेहि काल । मानो कृत्या कुटिलयुत पावन ज्वाल कराल ।—केशव (शब्द०) । (ग) अति उच्छलि छिंछि त्रिकूट छायो । पुर रावण के जल जोर भयो ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ छिँकना
क्रि० अ० [हिं० छेंकना] छेंका जाना । रोका जाना । उ०—जो छिके जी की कचाई से नहीं । छेकने से छोंक के वे कब छिके ।—चुभते०, पृ० ४१ ।
⋙ छिंकाना
क्रि० स० [हिं० छोंकना का प्रे० रूप] छींकने की क्रिया कराना । छोंक लाना ।
⋙ छिँगुनिया, छिँगुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिगुनी' ।
⋙ छिँगुलिया, छिँगुलो
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिगुनी' ।
⋙ छिँटुआ, छिँटुवा
संज्ञा पुं० [हिं० छींटना] बीज बोने का एक ढंग जिसमें बीज को हाथों में लेकर खेत में बिखराते हैं । छींटा ।
⋙ छिँड़ाना
क्रि० स० [हिं० छीनना] जबरदस्ती ले लेना । छीनना । उ०—(क) श्याम सखन सों कहेउ टेर दै घेरौ सब अब जाय । बहुत ढीठ यह भई ग्वालिनी मटुकी लेहु छिड़ाय ।—सूर (शब्द०) । (ख) गोरस लेहु री कोउ आय । .....डरनि तुम्हरे जाति नाहीं लेत दहिउ छिड़ाय ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छिः, छि
अव्य० [अनु०] १. घृणसूचक शब्द । घिंन जताने का शब्द । जैसे, छि, छि ! देखी तो तुम्हारे हाथ में कितनी मैल लगी है । २. तिरस्कार या अरुचिसूचक शब्द । जैसे,— छि ! तुम्हे माँगते लज्जा नहीं आती ।
⋙ छिउँकहा †
वि० [हिं० छिउँका] [स्त्री० छिउँकही] लकड़ी, पेड़, पेड़ की डाल आदि जिसमें छिउँ के लगे हों या जिसे छिउँकों ने खा लिया हो ।
⋙ छिउँका
संज्ञा पुं० [हिं० चिउँटा] [स्त्री० छिउँकी, वि० छिउँकहा] एक प्रकार का चिउँटा जो साधारण चिउँटे से छोटा और पतला तथा भूरे रंग का होता है और बड़े जोर से काटता है । यह प्रायः पेड़ों पर होता है ।
⋙ छिउँकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चिउँटी] १. एक प्रकार की छोटी चींटी जो बड़े जोर से काटती है । २. एक छोटा उड़नेवाला कीड़ा जिसके काटने से बड़ी जलन होती है । ३. लोहे का एक औजार जो छवाली से छोटा होता है और धंधार में लगाया जाता है । यह लकडी उठाने के काम में आता है । ४. रस्सी की वह मुद्धी जो बोरों में इसलिये लगी रहती है कि घोड़ों की पीठ पर लादने पर उनमें एक लकड़ी फँसा दी जाय ।
⋙ छिउल
संज्ञा पुं० [देश०] पलाश । छीउल । ढाक ।
⋙ छिउला
संज्ञा पुं० [सं० क्षुप, हिं० छुप + ला (प्रत्य०)] छोटा पेड़ । पौधा ।
⋙ छिकनी
संज्ञा स्त्री० [सं० छिक्कनी] एक प्रकार की बहुत छोटी घास या बूटी का फूल जिसे सूँघने से छींक आती है । विशेष—यह जमीन ही पर फैलती है, ऊपर नहीं बढ़ती । इसमें छोटी छोटी घुड़ियों की तरह के मूँग के दाने के बराबर गोल फूल लगते हैं जिन्हें सूँघने से बहुत छींक आती हैं यह घास प्रायः ऐसे स्थानों पर अधिक होती है जहाँ कुछदिनों तक पानी जमा रहकर सूख गया हो; जैसे छिछलें ताल आदि । यह औषध के काम में आती है और वैद्यक में गरम, रुचिकारक अग्नि दीपक तथा श्वेत कुष्ठ आदि त्वचा के को दूर करनेवाली मानी जाती है । इसे नकछिकनी भी कहते हैं । पर्या०—छिक्कनी । क्षवकृत । तीक्ष्ण । उग्रा । उग्रगधा । क्षबक । क्रूरनासा । घ्राणदुःखदा ।
⋙ छिकरा
संज्ञा पुं० [सं० छिक्कर] हिरन की जाति का एक जानवर जो बहुत तेज होता है । बृहतसंहिता के अनुसार ऐसे मृग का दाहिनी ओर से निकलना शुभ है ।
⋙ छिकार
संज्ञा पुं० [सं० छिक्कार] दे० 'छिक्कार' । उ०—मिरगो एक पाँच है हरिणी जामें तीन छिकार । अपने अपने रस के लोभी चरत हैं न्यारा न्यार ।—राम० धर्म०, पृ० ४२ ।
⋙ छिकुला
संज्ञा पुं० [हिं० छिलका] छिलका । उ०—प्रेम बिकल, अति आनँद उर धरि कदली छिकुला खाए ।—सूर०, १ ।१३ ।
⋙ छिक्कर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मृग । छिकरा ।
⋙ छिक्कनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नकछिकनी बूटी । वि० दे० 'छिकनी' ।
⋙ छिक्का (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छोंक [को०] ।
⋙ छिक्का (२)
संज्ञा पुं० [हिं छींका] दे० 'छींका' । उ०—छिक्के पर छोटी सी हँडिया टँग रही थी, कोने में ।—नई०, पृ० १२६ ।
⋙ छिक्कार
संज्ञा पुं० [सं०] छिक्कर नामक मृग ।
⋙ छिक्काका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिकनी । नकछिकनी ।
⋙ छिगुनना †
क्रि० अ० [देश०] मसोसना । खिन्न होना । उ०— शेखर की याद सताती है वह छिगुन छिगुन रह जाती है ।— रेणुका, पृ० ५७ ।
⋙ छिगुनिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिगुनी] दे० 'छिगुनी' ।
⋙ छिगुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्र अङ्गली] सबसे छोटी उँगली । कनि- ष्ठिका । उ—(क) गोरी छिगुनी नख अरुन छला श्याम छबि देइ । लहत मुकति रति छिनेक यह नैन त्रिवेनी सेइ ।— बिहारी (शब्द०) । (ख) आपे आप भली करो मेट न मान मरोर । करो दूर यह देखिहै छाल छिगुनियाँ छोर ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ छिगुली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिगुनी' ।
⋙ छिचोरा †
वि० [हिं० छ्छिला] दे० 'छिछोरा' । उ०—जिन छिचोरों की तरफ कोई स्त्री प्रीति से नहीं देखती वो अपने सँगतियों में बैठकर झूठी बातें बनाने में अपनी बड़ाई समझते हैं । श्रीनिवास ग्रं० ६४ ।
⋙ छिच्छ पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बूँद । छींटा । सीकर । उ०—(क) राम शर लागि मनु आगि गिरि पर जरी उछलि छिच्छनि शरनि भानु छाए ।—सूर (शब्द०) । (ख) कहुँ श्रोन छिच्छ अति लाल लाल । मनु इंदुबधू करि रहिय जाल ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ छिछकारना †
क्रि० स० [अनु०] छिड़कना ।
⋙ छिछड़ा
संज्ञा पुं० [सं० तुच्छ, प्रा० छुच्छ] दे० 'छीछड़ा' ।
⋙ छिछड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिछड़ा] लिंगेद्रिय के ऊपर का वह अगला आवरण जो बाहर की ओर कुछ बढ़ा हुआ होता हैऔर जो मुसलमानों में खतने या मुसलमानी के समय काट दिया जाता है ।
⋙ छिछियाना †
क्रि० स० [अनु० छि छि] कुत्सा करना । निंदा करना । घिन करना ।
⋙ छिछलना
क्रि० अ० [हिं० छिछला] फिसलना । छटकना । छूते हुए निकल जाना । उ०—आजाद ने एक अनी लगाई, छिछलती हुई चोट पड़ी ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १३६ ।
⋙ छिछला
वि [हि० छूछा + ला (प्रत्य०) अथवा देश०] वि० स्त्री० छिछली (पानी की सतह) जो गहरी न हो । उथला । जैसे,—छिछला पानी, छिछला घाट, छिछली नदी । २. निम्न स्तर का अगंभीर । क्षुद्र । छिछोरा । जैसे,—वह छिछले स्वभाव का आदमी है ।
⋙ छिछिला
वि० [हिं०] दे० 'छिछला' ।
⋙ छिछिलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिछिला] छिछला होने का भाव ।
⋙ छिछिली (१)
वि० स्त्री० [हिं० छिछिला] दे० 'छिछला' ।
⋙ छिछली (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] लड़कों का एक खेल जिसमें वे एक पतले ठीकरे को पानी पर इस तरह फेंकते हैं कि वह दूर तक उछलता हुआ चला जाता है । क्रि० प्र०—खेलना ।
⋙ छिछोर †
वि० [हिं० छिछोरा] दे० 'छिछोर' । जैसे, चोरछिछोर ।
⋙ छिछोरपन
संज्ञा पुं० [हिं० छिछोरा + पन] छिछोरा होने का भाव । क्षुद्रता । ओछापन । नीचता ।
⋙ छिछोरा
वि० [हिं० छिछला] [वि० स्त्री० छिछोरी] क्षुद्र । ओछा । जो गंभीर या सौम्य न हो । नीच प्रकृति का ।
⋙ छिछोरापन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छिछोरपन' ।
⋙ छिजना †
क्रि० अ० [सं० विकरणविशिष्ट रूप क्षिद्य] दे० 'छीजना' ।
⋙ छिजाना
क्रि० स० [हिं० छीजना] किसी वस्तु, कों ऐसा करना कि वह छीज जाय । छीजने या नष्ट होने देना ।
⋙ छिटकना
क्रि० अ० [सं० क्षिप्त, प्रा० खित्त, या सं० छित्त + करण] १. इधर उधर पड़कर फैलना । चारों ओर बिखरना । छितराना । बगरना । संयो० क्रि०—जाना । २. प्रकाश की किरणों का चारों ओर फैलना । प्रकाश का व्याप्त होना । उजाला छाना । जैसे, चाँदनी छिटकना, तारे छिटकना । उ०—(क) जहँ जहँ बिहँसि सभा महँ हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) नखत सुमन नभ बिटप बौंड़िमनो छपा छिटकि छबि छाई ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २७७ । ३. छटकना । दूर भागना । अलग हो जाना । उ०—अब मत छिटको दूर, प्राणधन; देखो, होता है घन गर्जन ।—क्वासि, पृ० १८ ।
⋙ छिटकनी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] अर्गल । चटकनी । सिटकिनी ।
⋙ छिटका †
संज्ञा पुं० [हिं० छिटकना] पालकी के ओहार का वह भाग जो दरवाजे के सामने रहता है और जिसे उठाकर लोग पालकी में घुसते, निकलते या उसमें से बाहर देखते हैं । परदा ।
⋙ छिटकाना
क्रि० स० [हिं० छिटकना] चारों और फैलाना । इधर उधर डालना । बिखराना । २. छटकाना । दूर करना ।
⋙ छिटकी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'छींट', 'छींटा' ।
⋙ छिटकुनी †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पतली छड़ी । कमची ।
⋙ छिटनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिक्य या हिं० छेंटना] बाँस की फट्ठियों या पेड़ के डंठलों आदि की बनी हुई छोटी टोकरी । झौवा । डलिया ।
⋙ छिटवा
संज्ञा पुं० [सं० शिक्य या हिं० छिटना] [स्त्री० अल्पा० छिटनी] बाँस की फटि्ठयों आदि का टोकरा ।
⋙ छिटाका
संज्ञा पुं० [हिं० छिटकाना] एक बालिश्त लंबी मोटी लकड़ी जिसे धुनिए पैर के अँगूठे और उसके पास की उँगली से दबाकर और उसमें फटके की ताँत फँसाकर रूई धुनते हैं ।
⋙ छिट्टी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छींटा] छोटा छींटा । सीकर । सूक्ष्म जलकण ।
⋙ छिड़कना
क्रि० स० [हिं० छींटा + करना] १. पानी या किसी और द्रव पदार्थ को इस प्रकार फेकना कि उसके महीन छींटे फैलकर इधर उधर पड़ें । पानी आदि के छींटे डालना । भिगोने या तर करने के लिये किसी वस्तु पर जल बिखराना । जैसे, पानी छिड़कना, रंग छिड़कना, गुलाबजल छिड़कना । उ०— पानी छिड़क दो तो यहाँ की धूल बैठ जाया ।*—(शब्द०) । २. न्योछावर करना । जैसे, जान छिड़कना (स्त्री) । ३. भुरकना । भुरभुराना ।
⋙ छिड़कवाना
क्रि० स० [हिं० छिड़कना] छिड़कने का काम कराना ।
⋙ छिड़काई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिड़कना] २. छिड़कने की क्रिया या भाव । छिड़काव । २. छिड़कने की मजदूरी ।
⋙ छिड़काना
क्रि० स० [हिं० छिड़कना का प्रे० रूप] दे० 'छिड़कवाना' ।
⋙ छिड़काव
संज्ञा पु० [हिं० छिड़कना] पानी आदि छिड़कने की क्रिया । छोंटों से तर करने का काम । जैसे—यहाँ सड़कों पर छिड़काव नहीं होता । उ०—सड़क सफाई होत करि छिड़काव । बग्गी बैठि हवा खाते आवैं उमराव ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६८९ ।
⋙ छिड़ना
क्रि० अ० [हिं० छेड़ना] आरंभ होना । शुरू होना । चल पड़ना । जैसे, बात छिड़ना, झगड़ा छिड़ना, चर्चा छिड़ना, सितार छिड़ना ।
⋙ छिड़ाना
क्रि० स० [सं०/?/छिद्] १. मुक्त करना । छुड़ाना । छुड़ा देना । उ०—दृढ़ बंधन संसार तें गुह्यक दिए छिड़ाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५४ । २. छुड़ा लेना । छीन लेना । उ०—देखि सखी हरि कौ मुख चारु । मनहुँ छिड़ाइ लियौ नंदनंदन, वा ससि कौ सत सारु ।—सूर०, १० ।१७९६ ।
⋙ छिड़िआना पु
क्रि० अ० [देश०] छितरा जाना । बिखरना । विकीर्ण होना । उ०—करतल काँपु कुसुम छिड़िआउ । विपुल पुलक तनु वसन झँपाउ ।—विद्यापति, पृ० ५१३ ।
⋙ छिण पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] दे० 'क्षण' ।
⋙ छित (१)
वि० [सं०] १. विभक्त । २. कृश । दुर्बल [को०] ।
⋙ छित पु (२)
वि० [सं० सित] श्वेत । धवल ।
⋙ छित (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति] पृथ्वी । धरती । उ०—मध्यम हित आरात छित, बाल नारि इमि जानि ।—पोद् दार अभि० ग्रं०, पृ० ५३४ । यौ०—छितनायक = राजा । उ०—छाडा घरतीडौ छितनायक । सबलां घायक प्रजा सहायक ।—रा० रू०, पृ० १३ ।
⋙ छितना
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० छितनी] छिछला और बड़ा टोकरा ।
⋙ छितनार †
वि० [हिं० छतनार] छितराया हुआ । फैला हुआ । उ०—चिव्या चारि डाहँ छितनारा । सुर नर मुनि महि खोजनहारा ।—सं० दरिया, पृ० ९९ ।
⋙ छितनी
संज्ञा स्त्री० [सं० छत्र, प्रा० छत] छोटी और छिछली टोकरी ।
⋙ छितरना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छितराना' ।
⋙ छितरबितर
वि० [हिं०] दे० 'तितरबितर' ।
⋙ छितराना (१)
क्रि० अ० [सं० क्षिप्त+करण, प्रा० छितकरण, छित्तरण अथवा सं० संस्तरण] खंडों या कणों का गिरकर इधर उधर फैलना । बहुत सी वस्तुओं का बिना किसी क्रम के इधर उधर पड़ना । तितर बितर होना । बिखरना । जैसे,—(क) हाथ से गिरकर सब चने जमीन पर छितरा गए (ख) सब चीजें इधर उधर छितराई पड़ी हैं, उठाकर ठिकाने से रख दो ।
⋙ छितराना (२)
क्रि० स० १. खंडों या कणों को गिराकर इधर उधर फैलाना । बहुत सी वस्तुओं को बिना किसी क्रम के इधर उधर डालना । बिखराना । छींटना । २. सटी हुई वस्तुओं को अलग अलग करना । दूर दूर करना । घनी वस्तुओं को विरल करना । मुहा०—टाँग छितराना = दोनों टाँगों को बगल की ओर दूर दूर रखना । टँगों को बगल या पार्श्व की ओर फैलाना । जैसे, टाँग छितराकर चलना ।
⋙ छितराव
संज्ञा पुं० [हिं० छितराना] छितराने का भाव । बिखरने का भाव ।
⋙ छिति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति] १. भूमि । पृथ्वी । उ०—सुंदरि मनि मंदिर खरी छिति छलकत छबि जाल । लसत मंजु महँदी नखनि चखनि विलोकहु लाल ।—स० सप्तक, पृ० ३९० । २. एक का अंक । उ०—संवत् ग्रहु ससि जलधि छिति छठ तिथि वासर चंद । चैत मास पछ कृष्ण में पूपन आनंदकंद ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ छितिकांत पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिकान्त] भूपति । राजा ।
⋙ छितिज
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिज] दे० 'क्षितिज' । उ०—छिप्यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छंद छल छीन्हो ।—श्यामा०, पृ० १२० ।
⋙ छितिनाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिनाथ] भूपति । राजा ।
⋙ छितिपाल पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिपाल] दे० 'छितिनाथ' । उ०— छाँड़ि छितिपाल जो परीछित भए कृपालु ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४५ ।
⋙ छितिराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छितराना' । उ०—मानुष मरि धरती मों जाई । माटी होय हाड़ छितिराई ।—इंद्रा०, पृ० १३१ ।
⋙ छितिरुह पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिरुह] पेड़ । वृक्ष ।
⋙ छितीस पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितीश] राजा ।
⋙ छित्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] काटना । छेदन करना । विभाजित करना । खंड खंड करना [को०] ।
⋙ छित्ति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति, प्रा० छित्त] दे० क्षिति । उ०—तेग भारि पमार जैत जग हथ्थ बत्त किय । मंगै हैल सुगल्ह तात अविवेक छित्ति दिय ।—पृ० रा०, १२ ।३८ ।
⋙ छित्वर
वि० [सं०] १. छेदक । २. धूर्त । ३. वैरी ।
⋙ छिद पु
संज्ञा पुं० [सं० छिद्र] दे० 'छेद' । उ०—पंच सरन छिद डारि किए मनमथ को बेझा । —नंद० ग्रं०, पृ० २१० ।
⋙ छिदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का आयुध । बज्र । २. हीरा । [को०] ।
⋙ छिदना (१)
क्रि० अ० [हिं० छेदना] १. छेद से युक्त होना । सूराखदार होना । भिदना । बिंधना । जैसे—इस पतली सुई से यह कागज नहों छिदेगा । २. क्षतपूर्ण होना । घायलहोना । जख्मी होना । जैसे,—सारा शरीर तीरों से छिद गया था ।
⋙ छिदना (२)
क्रि० स० १. थाम लेना । सहारे के लिये पकड़ा लेना । २. छेदना । छेद करना । उ०—लटनि तैं चुवति जु जलकन जोती । जनु ससि छिदि छिदि डारत मोती । —नंद० ग्रं०, पृ० २९८ ।
⋙ छिदना (३) †
संज्ञा पुं० [सं० छन्द(=नियंत्रण)] वरच्छा । फलदान । मँगनी ।
⋙ छिदरा (१)
वि० [सं० छिद्र] [वि० स्त्री० छिदरी] १. छितराया हुआ । जो घना न हो । विरल । उ०—इस तेरौ छिदरी छाया में दो बँधे हुए मन देखे हैं । —दीप ज०, पृ० १४९ । २. झँझरीदार । छेददार । ३. फटा हुआ । जर्जर ।
⋙ छिदरा (२)
वि० [सं० क्षुद्र] ओछा ।
⋙ छिदवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छेदाना' ।
⋙ छिदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छेदने या काटने की क्रिया [को०] ।
⋙ छिदाना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छेदाना' ।
⋙ छिदि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुल्हाडी । २. वज्र । ३. उच्छेदन । काटना [को०] ।
⋙ छिदिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुल्हाड़ा । कुठार । २. तलवार । असि । ३. अनल । अग्नि । पावक । ४. रस्सा । डोरी [को०] ।
⋙ छिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० छिद्रित] १. छेद । सूराख । २. गड्ढ़ा । विवर । बिल । ३. अवकाश । जगह । ४. दोष । त्रटि । जैसे, छिद्रान्वेषण ।यौ०—छल छिद्र । छिदानुजीवी, छिद्रानुसंधानी, छिद्रानुसारी = दे० 'छिद्रान्वेषी' । ५. फलित ज्योतिष के अनुसार लग्न से आठवाँ घर । ६. नौ की संख्या । राजनीति में शत्रु का भेद्य या दुर्वल पक्ष । कमी । कमजोरी (को०) । ८. आकाश (को०) ।
⋙ छिद्रकर्ण
वि० [सं०] छिदे या बिंधे कानवाला । जिसके कान छिदे हों [को०] ।
⋙ छिद्रता
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिद्र + ता प्रत्य०] कलंक । दोष । हीनता । उ०—समुँद खार गंगा गदल, जल गुनवंता सीत । रवी तेज ससि छिद्रता, दरिया संता रीत । —दरिया० बानी, पृ० ३९ ।
⋙ छिद्रदर्शी (१)
वि० [स० छिद्रदर्शिन्] [वि० स्त्री० छिद्रदर्शिनी] पराया दोष देखनेवाला । नुक्स निकालनेवाला । खुचर निकालनेवाला ।
⋙ छिद्रदर्शी (२)
संज्ञा पुं० एक योगभ्रष्ट ब्राह्मण का नाम जो हरिवंश के अनुसार वाभ्रव्य का पुत्र था ।
⋙ छिद्रपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'छिद्रवैदेही' [को०] ।
⋙ छिद्रवैदेही
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली । गजपीपल ।
⋙ छिद्रांतर
संज्ञा पुं० [सं० छिद्र + अन्तर] बेंत । सरकंड़ा । नरकुल [को०] ।
⋙ छिद्रांश
संज्ञा पुं० [सं०] सरकंड़ा । नरकुल [को०] ।
⋙ छिद्रात्मा
वि० [सं० छिद्रात्मन्] १. खलस्वभाव । कुटिल । खल । २. अपनी त्रुटि कहनेवाला । दूसरो से अपना दोष व्यक्त करनेवाला (को०) ।
⋙ छिद्रान्वेषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० छिद्रान्वेषी] दोष ढूँढना । नुक्स निकालना । खुचर करना । उ०—इस छिद्रान्वेषण रत जग में सभी छिद्र लखते हैं, प्रियतम ।—अरलक, पृ० ६६ ।
⋙ छिद्रान्वेषी
वि० [सं० छिद्रान्वेषिन्] [वि० स्त्री० छिद्रान्वेषिणी] छिद्र ढूँढ़नेवाला । पराया दोष ढूँढनेवाला । खुचर निकालनेवाला ।
⋙ छिद्राफल
संज्ञा पुं० [सं०] माजूफल ।
⋙ छिद्रित
वि० [सं०] १. छेदा हुआ । वेधा हुआ । २. जिसमें दोष लगा हो । दूषित । ऐवी ।
⋙ छिद्रोदर
संज्ञा पुं० [सं०] क्षतोदर नामक पेट का रोग ।
⋙ छिन पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] दे० 'क्षण' । उ०—सखि, छिन धूप और छिन छाया । यह सब चौमासे की माया । —साकेत, पृ० २७६ ।
⋙ छिनक पु
क्रि० वि० [सं० क्षण+एक] एक क्षण । दम भर । थोड़ी देर । उ०—तृन समूह को छिनक में जारत तनिक अँगार ।—(शब्द०) ।
⋙ छिनकना (१)
क्रि० स० [हिं० छिड़नका] नाम का मल जोर से साँस बाहर करके निकालना । जैसे,—नाम छिनकना ।
⋙ छिनकना (२)
क्रि० अ० [हिं० चमकना] १. भड़ककर भागना । चमकना । दे० 'छनकना' । २. रंजक चाट जाना (बंदूक) ।
⋙ छिनछवि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षण + छवि] बिजली ।
⋙ छिनता पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीण+ता (प्रत्य०)] क्षीणता । दुर्बलता । कमजोरी । उ०—छिनता तन में बहुतै लावै । कबहीं सुख नाहीं दुख पावै ।—सं० दरिया, पृ० ४१ ।
⋙ छिनदा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षणदा] दे० 'क्षणदा' ।
⋙ छिनना (१)
क्रि० अ० [हिं० छीनना] छीन लिया जाना । हरण होना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ छिनना (२)
क्रि० स० [सं० छिन्न या हिं० छेनी] १. पत्थर का छेनी या टाँकी के आघात से कटना । २. सिल, चक्की आदि का छेनी के आघात से खुरदरी या गड्ढेदार होना । कुटना ।
⋙ छिनभंग पु
वि० [सं० क्षणमङ्ग] नश्र्वर । क्षणभंगुर । उ०— तप तीरथ तरुनी रमन विद्या बहुत प्रसंग । कहाँ कहाँ मुनि रुचि करैं पायौ तन छिनभंग । —ब्रज० ग्रं०, पृ० ११४ ।
⋙ छिन्नभिन्न पु
वि० [सं० छिन्नभिन्न] दे० 'छिन्न भिन्न' । उ०— तिन अग्ग परिग पहुँमान वीर । छिनभिन्न होय धारा सरीर । —पृ० रा०, १ ।६६४ ।
⋙ छिनरा
वि० पुं० [देशी छिणणाल, हिं० छिनार] [वि० स्त्री० छिनरी, छिनार, छिनाल] परस्त्रीगामी (पुरुष) । लंपट । वृषल ।
⋙ छिनवाना (१)
क्रि० स० [हिं० छीनना] [का प्रे० रूप] छीनने का काम कराना ।
⋙ छिनवाना (२)
क्रि० स० [सं० छिन्न] १. पत्थर की छेनी से कटवाना । २. सिल, चक्की आदि को छेनी से खुरदरी कराना । कुटाना ।
⋙ छिनहर †पु
[सं० छिन्नगृह, प्रा० छिनहर; या सं० छिद्र+हिं०+ हर (प्रत्य०)] छिन्न भिन्न । टूटा फूटा । जीर्ण शीर्ण । उ०—छिनहर घर अरु झिरहर टाटी । घन गरजत कंपै मेरा छाती ।—कबीर ग्रं०, पृ० १८१ ।
⋙ छिनाना (१)
क्रि० स० [हिं० छीनना का प्रे० रूप] छीनने का काम कराना ।
⋙ छिनाना (२) †
क्रि० स० १. छीनना । हरण करना । उ०—कामधेनु जमदग्नि की लै गयो नृपति छिनाय ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छिनाना (३)
क्रि० स० [सं० छिन्न] १. टाँकी या छेनी से पत्थर आदि कटाना । २. टाँकी या छेनी से सिल, चक्की आदि को खुरदुरी कराना ।
⋙ छिनार
वि० स्त्री० [हिं० छिनाल] दे० 'छिनाल' ।
⋙ छिनाल (१)
वि० स्त्री० [सं० छिन्ना+नारी; देशी छिणणालिआ, छिणणाली पू० हिं० छिनारि] व्यभिचारिणी । कुलटा । परपुरुषगामिनी । उ०—अरे यह छिनाल बड़ी छतीसी है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३१ ।
⋙ छिनाल (२)
संज्ञा स्त्री० व्यभिचारिणी स्त्री । कुलटा स्त्री ।
⋙ छिनालपन, छिनालपना
संज्ञा पुं० [हिं० छिनाल + पन] व्यभिचार । छिनाला ।
⋙ छिनाला
संज्ञा पुं० [हिं० छिनाल] स्त्री पुरुष का अनुचित सहवास । व्याभिचार ।
⋙ छिनु पु
संज्ञा पुं० [हिं० छिन] दे० 'छन' । उ०—छिनु छिनु बाढ़ैछवि कैसे कहै कोउ कवि तन के छिलर मानौं भए हैं काम रहित ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७७ ।
⋙ छिनौछवि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिनछवि' ।
⋙ छिन्न (१)
वि० [सं०] १. जो कटकर अलग हो गया हो । जो काटकर पृथक् कर दिया गया हो । खंडित । यौ०—छिन्नकर्ण = कनकटा (पशु) । छिन्नकेश = जिसके बाल काटे गए हों । मुंडित । छिन्नद्रुम = कटा हुआ वृक्ष । छिन्न- नासाछिन्ननासिक = नासिकाविहीन । नकटा । छिन्नभिन्न । छिन्नमस्त, छिन्नमस्तक = जिसका सिर कट गया हो । कटे सिरवाला । २. थका हुआ । क्लांत (को०) । ३. दूर किया हुआ ! नष्टभ्रष्ट (को०) । ४. ह्रासोन्मुख । क्षीण (को०) ।
⋙ छिन्न (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का मंत्र । १. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का फोड़ा । विशेष—इसका क्षत सीधी या टेढ़ी लकीर के रूप में होता है और इसमें मनुष्य का अंग गलने लगता है ।
⋙ छिन्नक
वि० [सं०] अंशतः कटा । जिसका कुछअंश कटा हो [को०] ।
⋙ छिन्नग्रंथिका
संज्ञा स्त्री० [सं० छिन्नग्रन्थिका] एक प्रकार का कंद । त्रिपर्णिका [को०] ।
⋙ छिन्नद्वैव
वि० [सं०] जिसकी द्विविधा मिट गई हो । जिसे असमंजस न हो [को०] ।
⋙ छिन्नधान्य (सैन्य)
संज्ञा पुं० [सं०] वह सेना जिसके पास धान्य न पहुँच सकता हो । विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि छिन्नधान्य तथा छिन्नपुरुषवीवध (जिसकी मनुष्य तथा पदार्थ संबंधी सहायता रुक गई हो) सैन्य में छिन्नधान्य उत्तम है; क्योंकि वह दूसरे स्यान से धान्य लाकर या स्थावर तथा जंगम (तरकारी तथा मांस) आहार कर लड़ाई लड़ सकता है । सहायता न मिलने के कारण छिन्न- पुरुषवीवध यह नहीं कर सकता ।
⋙ छिन्ननास्य
वि० [सं०] (पशु) जिसकी नाथ टूट गई हो [को०] ।
⋙ छिन्नपक्ष
वि० [सं०] (पक्षी) जिसके डैने टूट या कट गए हों ।
⋙ छिन्नपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा । पाढ़ा ।
⋙ छिन्नपुरुषवीवध (सैन्य)
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह सेना जिसकी मनुष्य तथा पदार्थ संबंधी सहायता रुक गई हो ।
⋙ छिन्नपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] तिलक वृक्ष ।
⋙ छिन्नबंधन
वि० [सं० छिन्ननन्द] जिसके बंधन कट गए हों । बंधनमुक्त [को०] ।
⋙ छिन्नभक्त
वि० [सं०] १. जिसके भोजन में बाधा आ पड़े । २. भूखों मरनेवाला । जिसे खाने का ठिकाना नही [को०] ।
⋙ छिन्नभिन्न
वि० [सं०] १. कटाकुटा । खंडित । टूटा फूटा । नष्टभ्रष्ट । ३. जिसका क्रम खंडित हो गया हो । अस्त- व्यस्त । तितर बितरा । उ०—संकेत किया मैंने अखिन्न जिस ओर कुंडली छिन्न भिन्न ।—अनामिका, पृ० १२५ ।
⋙ छिन्नमस्तका
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'छिन्नमस्ता' ।
⋙ छिन्नमस्ता (१)
वि० [सं०] जिसका माथा कटा हो ।
⋙ छिन्नमस्ता (२)
संज्ञा स्त्री० एक देवी जो महाविद्याओं में छठी हैं । विशेष—इनका ध्यान इस प्रकार है.... अपना ही कटा हुआ सिर अपने बाँए हाथ में लिए, मुँह खोले और जीभ निकाले हुए अपने ही गले से निकली हुई रक्तधारा को चाटती हुई, हाथ में खड्ग लिए, मुंडों की माला धारण किए और दिगंबरा । इनका नाम प्रचड चंडिका और प्रचंडिका भी है । तंत्रसार में इनका पूरा विवरण लिखा है ।
⋙ छिन्नमूल
वि० [सं०] मूलोच्छेद किया हुआ । जड़ से काटा हुआ । [को०] ।
⋙ छिन्नरुह
संज्ञा पुं० [सं०] तिलक वृक्ष । पुन्नाग ।
⋙ छिन्नरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुडुच । गिलोय ।
⋙ छिन्नवेशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा ।
⋙ छिन्नब्रण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी शस्त्र से कटा हुआ घाव । २. वह फोड़ा जो किसी ऐसे घाव पर हो जो शस्त्र से लगा हो ।
⋙ छिन्नश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जो श्वास का भेद माना जाता है । विशेष—इस रोग में रोगी का पेट फूलता है, पसीना आता है और साँस रुकता है तथा शरीर का रंग बदल जाता है ।
⋙ छिन्नसंशय
वि० [सं०] जिसका संदेह दूर हो गया हो । संशय- रहित [को०] ।
⋙ छिन्नांत्र
संज्ञा पुं० [सं० छिन्नान्त्र] कोष्ठभेद नामक एक उदर- रोग [को०] ।
⋙ छिन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुड़ुच । गिलोय । २. पुंश्चली । छिनाला । कुलटा ।
⋙ छिन्नोदभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुडुच । गिलोय [को०] ।
⋙ छिपकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चिपकना या देश०] १. पेट जमीन पर रखकर पंजों के बल चलनेवाला एक सरीसृप या जंतु । विशेष—यह एक बित्ते के लगभग लंबा होता है और मकान की दीवार आदि पर प्रायः दिखाई पड़ता है । यह जंतु गोधा या गोह की जाति का है और छोटे छोट कीड़े पकड़कर खाता है । छिपकली चिकनी से चिकनी खड़ी सतह पर सुगमता से दौड़ सकती है । पर्या०—पलभी । मुषली । गृहगोधा । विशंवरी । ज्येष्ठा । कुडयमत्स्य । गृहगोलिका । माणिक्या । भित्तिका । गृहोलिका । २. दुबली पतली स्त्री । कृश शरीर की औरत । विशेष—प्रायः दुबली पतली स्त्री को भी लोग विनोदवश छिपकली कह देते हैं । ३. कान का एक गहना ।
⋙ छिपका पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छिपकली] गृहगोधा । विसतुइया । छिपकली । उ०—माछर पखारी कांठै छांड़ि दे हमारो धाम नीर रु बिलाव छिपकाहू अपनायो है ।—राम धर्म०, पृ० ६६ ।
⋙ छिपना
क्रि० अ० [सं० क्षिप + डालना] १. आवरण या ओट में होना । ऐसी स्थिति में होना जहाँ से दिखाई न पड़े । जैसे,—(क) वह लड़का हमें देखकर छिपने का यत्न करता है । (ख) यहाँ न जाने कितने ग्रंथरत्न छिपे पड़े हैं । २. आवरण या ओट में होने के कारण दिखाई न देना । अदृश्य होना । देखने में न आना । जैसे, सूर्य का छिपना । ३. जो प्रकट न हो । जो स्पष्ट न हो । गुप्त । जैसे,—इसमें उनका कुछ छिपा हुआ मतलब तो नहीं है ।
⋙ छिपली †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाली] दे० छोटी थाली । रकाबी । उ०—चाची ने फूल की उसी चमचमाती छिपली में खाना परोस रखा था ।—रति०, पृ० ५७ ।
⋙ छिपाछिपी
क्रि० वि० [हिं० छिपना] चुपके से । छिपाकर । गुप्त रीति से । चुपचाप । गुपचुप ।
⋙ छिपाधिप पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षपाधिप] रात्रि का स्वामी । चंद्रमा । निशापति । उ०—रन नकिय पाइ कमल्ल भुअं : छिति मित्त छिपाधिप चित्त धुअं ।—पृ० रा०, १८ ।१०१ ।
⋙ छिपाना
क्रि० स० [सं० क्षिप + डालना] [संज्ञा छिपाव] १. आवरण या ओट में करना । ऐसी स्थिति में करना जिसमें किसी को दिखाई न पड़े या पता न चले । ढाँकना । आड़ में करना । दृष्टि से ओझल करना । गोपन करना । २. प्रकट न करना । सूचित न करना । गुप्त रखना । जैसे, बात छिपाना, दोष छिपाना ।
⋙ छिपारुस्तम
संज्ञा पुं० [हिं० छिपना + फा़० रुस्तम] १. वह व्यक्ति जो अपने गुण में पूर्ण हो, परंतु प्रख्यात न हो । उ०—अरी, तू तो छिपी रुस्तम है । आज तक हमको अपना गाना नहीं सुनाया था ।—सैर०, पृ० २९ । २. ऐसा दुष्ट जिसकी दुष्टता लोगों पर प्रकट न हो । गुप्त गुंड़ा । उ०—क्यों मियाँ, यह कहिए छिपे रुस्तम निकले मियाँ खलील ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १९९ ।
⋙ छिपाव
संज्ञा सं० [हिं० छिपना] किसी बात या भेद को छिपाने का भाव । बातों को एक दूसरे से गुप्त रखने का भाव । परस्पर के व्यवहार में हृदय के भावों का गोपन । दुराव । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।
⋙ छिपावना पु
क्रि० स० [हिं० छिपाया] गोपन करना । गुप्त रखना । छिपाना । उ०—तो सों न छिपावति हौं, एरी भटू, अपराध इतनो कीन्हो मैं जो कही हँसि के ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ छिपी पु
संज्ञा पुं० [देश०] १. छींट छापनेवाला । छीपी । † २. दर्जी । सीवक ।
⋙ छिपे छिपे
क्रि० वि० [हिं० छिपाना] अप्रकट रूप से । गुप्त रूप से ।
⋙ छिप्र (१)पु
क्रि० वि० [सं० क्षिप्र] दे० 'क्षिप्र' । उ०—सत्त सेर नृप लोह मगाँयव । लोहकार दह छिप्र बुलायव ।—प० रासो, पृ० ३ ।
⋙ छिप्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षिप्र] एक मर्म स्थान जो पैर के अँगठे और उसके पास की उँगलियों के बीच में होता है ।
⋙ छिबड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'छबड़ा' ।
⋙ छिबड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिविरथ] खटोली के आकार की एक डोली जिसपर रेतीले मैदानों में यात्रा करते है ।
⋙ छबडी़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिबडा़] १. छोटा टोकरा । २. खाँचा ।
⋙ छिबना (१)
क्रि० अ० [सं० स्पर्शन, प्रा० छिवण, हिं० छूना] लगना । स्पर्श करना । छूना । उ०—(क) ओ भाटी छिबता असमांणै । किलबाँ सं जूटा केवांणै ।—रा रू, पृ० २७७ । (ख) इंद्र- भाण मुकनेस रौ, ग्रह केवांण तरस्स । आसमांन छिब अकियौ, भाई भांण सरस्स ।—रा० रू० पृ० ७५ ।
⋙ छिमा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षमा] दे० 'क्षमा' । उ०—छिमा करवाल है विसाल धीर कर बीच, दरनै दयाल कोप नीच कों नसायो है ।—दीन० ग्रं०, पृ० १३४ ।
⋙ छिमाछिम पु
संज्ञा स्त्री० [सं० छमा से हिं० छिमा की द्विरुक्ति] क्षमा का आदर । क्षमा करने का अदब या आभार । तात्कालिक शांति । उ०—छिन एक छिमाछिम रष्षकें । चावद्दिसि नृप बिटयौ ।—पृ० रा०, । १० ।१७ ।
⋙ छिय छिय
अव्य० [अनु०] घृणासूचक उक्ति । तिरस्कार का शब्द । दे० 'छि' । उ०—क्षीर सिंधु तेजि कूपे बिलास । छिय छिय तोहार रभसमय भास ।—विद्यापति, पृ० ५८७ ।
⋙ छियना पु †
क्रि० स० [सं० स्पर्श] दे० 'छूना' ।
⋙ छिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिम, प्रा० छिब, हिं० छिः छिः] १. वह जिसे देखकर लोग छी छी करें । घृणित वस्तु । घिनौनी चीज । २. मल । गलीज । मैला । उ०—हौं समुझत, सांई द्रोह की गति छार छिया रे—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—छिया छरद करना = छी छी करना । मल और वमन के समान घृणित समझना । घिनाना । उ०—जो छिया छरद करि सकल संतन तजी तासु मतिमूढ़ रस प्रीति ठानी ।— सूर (शब्द०) । छीया छार होना = घिनौना होना । घृणित एवं मैला होना । घृणित और नष्ट होना । उ०—सो तन छिया छार होय जैहे, नाम न लेहैं कोई ।—कबीर श०, पृ० ४३ ।
⋙ छिया (२)
वि० मैला । मलिन । घृणित ।
⋙ छिया (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बछिया] छोकरी । लड़की । उ०—कौन की छाँह छिपौगी छिया छहिया तजि नाह की माह निसा में—सुंदर सर्व० (शब्द०) ।
⋙ छियाछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना+छिपाना] छूने और छिपने का खेल । आँख मिचौनी । उ०—चलो छिया छी हो अंतर में । तुम चदा मैं रात सुहागन । चमक चमक उट्टे आँगन में । चलो छिया छी हो अंतर में ।—हिम०, पृ० ११ ।
⋙ छियाज
संज्ञा पुं० [सं० क्षण + ब्याज] कटुआ ब्याज ।
⋙ छियानबे †
वि०, संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छानबे' ।
⋙ छियालिस
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० छियालीस] दे० 'छियालीस' ।
⋙ छियालीस (१)
वि० [सं० षटचत्वारिंश, हिं० छह+चालीस] जो संख्या मे चालीस और छह हो ।
⋙ छियालीस (२)
संज्ञा पुं० १. छह और चालीस की संख्या । २. उक्त संख्या का द्योतक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४६ ।
⋙ छियासी (१)
वि० [सं० षडशीति प्रा० छासीति प्रा० छासी ] छह और अस्सी । जो गिनती में अस्सी से छह अधिक हो ।
⋙ छियासी (२)
संज्ञा पुं० १. छह और अस्सी की संख्या । २. उक्त संख्या का द्योतक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—८६ ।
⋙ छिरकना
क्रि० स० [हिं० छिड़कना] दे० 'छिड़कना' । उ०— एकादशी एक सखि आई डारयो सुभग अबीर । एक हाथ पीतांबर पकरयौ छिरकत कुंकुम नीर ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छिरकाना
क्रि० स० [हिं० छिड़काना] दे० 'छिड़काना' ।
⋙ छिरना पु
क्रि० अ० [हिं० छिलना] दे० 'छिलना' । उ०—मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ छिरहटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छिरेटा' ।
⋙ छिरहा †
वि० [हिं० छेड़ना] हठी । जिद्दी ।
⋙ छिरेटा
संज्ञा पुं० [हिं० छिलहिंड] [स्त्री० अल्पा० छिरेटी] एक छोटी बेल जो मैदानों, नदी के करारों आदि पर होती है । विशेष—इसकी पत्तियों का कटाव सींके की ओर कुछ पान सा होता है, पर थोडी ही दूर चलकर पत्तियौं की चौडा़ई एक- बारगी कम हो जाती है और वो दूर तक लंबी बढ़ती जाती है । यह चौडा़ई सिरे पर भी उतनी ही बनी रहती है । इन पत्तियों की लंबीई ढाई तीन अंगुल से अधिक नहीं होती और इनका रस निचोड़कर जल, दूध आदि में डालने से जल या दूध गाढा़ होकर जम जाता है । इस बेल में बहुत छोटे छोटे फल गुच्छों में लगते हैं जो पकने पर काले हो जाते हैं । वैद्यक में छिरेटा मधुर, वीर्यवर्धक, रुचिकारक तथा पित्त,दाह और विष को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या०—छिलहिंड । पातालगरुड़ । महामूल । वत्सादिनी । वित्त्कांगा । मोचकाभिद्या । दार्क्षी । सौपर्णी । गारुडी । दीर्घ- कांडा । महावला । दिर्घवल्ली । दृढ़लता ।
⋙ छिलकना पु
क्रि० स० [हिं० छिड़कना] दे० 'छिड़कना' ।
⋙ छिलका
संज्ञा पुं० [सं० शल्क(=वल्कल, छाल), देशी छल्ली (=छाल)] फलों, कदों तथा इसी प्रकार की और वस्तुओं के ऊपर का कोश या बाहर आवरण जो छीलने, काटने या तोड़ने से सहज में अलग हो सकता है । फलों की त्वचा या ऊपरी झिल्ली । एक परत की खोल जो फलों, बीजों आदि के ऊपर होती है । जैसे, सेब का छिलका, कटहल का छिलका, गन्ने का छिलका, अंडे का छिलका । विशेष—छाल, छिलका और भूसी में अंतर हैं । छाल पेड़ों के धड़, डाल और टहनियों के ऊपरी आवरण को कहते हैं, जो काटने, छीलने आदि से जल्दी अलग हो जाता है । भूसी महीन दानों के सूखे हुए आवरण को कहते हैं जो कूटने से अलग होता है ।
⋙ छिलछिल
वि० [हिं०] दे० 'छिछिला' । उ०—जहँ नहिं नीर गंभीर तहाँ भल भँवरी परई । छिलछिल सलिल न परै परै तौ छबि नहिं करई ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३ ।
⋙ छिलछिला पु
वि० [देश] हिलता डुलता हुआ । जो जमा न हो । ढीला । उ०—औरन कों दह्यो छिलछिलो लागत मैंने तो औटाई जमायो रुचि रुचि भरि कै तमी ।—नंद० ग्रं० पृ० ३६१ ।
⋙ छिलना
क्रि० अ० [हिं० छीलना] १. इस प्रकार कटना जिसमें ऊपरी सतह या आवरण निकल जाय । छिलके या चमडे़ का कटकर अलग होना । उधड़ना । २. रगड़ या आघात से ऊपरी चमडे़ का कुछ भाग कटकर अलग हो जाना । खरोंच जाना । जैसे,—पैर में जरा सा छिल गया है । ३. गले के भीतर चुनचुनाहट या खुजली सी होना । जैसे,—सूरन से सारा गला छिल गया । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।
⋙ छिलर †
वि० [हिं० छिछला या सं० क्षीण] कृश । दुर्बल । उ०— छिनु छिनु बाढै़ छबि, कैसे कहैं कोउ कबि, तन के छिलर मानों भए हैं कामरहित ।—नंद ग्रं०, पृ० ३७७ ।
⋙ छिलवा
संज्ञा पुं० [हिं० छीलना] वह मनुष्य जो ईख के खेतों में ईख काटकर उसकी पत्ति यों को छीलकर दूर करता है ।
⋙ छिलवाना
क्रि० स० [हिं० 'छिलना' का प्रे० रूप] छीलने के लिये प्रेरित करना । छीलने का काम कराना जैसे, घास छिलवाना ।
⋙ छिलहिंड
संज्ञा पुं० [सं० छिलहिण्ड] छिरहटा । छिरेटा ।
⋙ छिलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीलन] १. छीलने का काम । २. छीलने की मजदूरी ।
⋙ छिलाना
क्रि० स० [हिं० छिलना] दे० 'छिलवाना' ।
⋙ छिलाव
संज्ञा पुं० [हिं० छीलना] छीलने का भाव या क्रिया । छिलाई ।
⋙ छिलावट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छिलाव' ।
⋙ छिलौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाला] छोटा छाला । आबला । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ छिल्लड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० छिलका] छिलका । भूसी ।
⋙ छिहत्तर (१)
वि० [सं० षटसप्तति, प्रा० छसत्तत्ति, पा० छसत्तरि, छहत्तरि] जो गिनती में सत्तर से छह अधिक हो । छह और सत्तर ।
⋙ छिहत्तर (२)
संज्ञा स्त्री० १. छह और सत्तर की संख्या । २. उक्त संख्या को सूचित करनेवाला अक जो इस प्रकार लिखा जाता है—७६ ।
⋙ छिहरना
क्रि० अ० [हिं० छितरना] बिखरना । फैलना । छितराना । वि० दे० 'छहराना' ।
⋙ छिहराना
क्रि० स० [हिं० छहराना] दे० 'छहराना' ।
⋙ छिहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिहाना] १. छिहाने का काम । २. चिता । सरा । ३. मरघट ।
⋙ छिहाना †
क्रि० स० [सं० चयन] [संज्ञा छिहानी] किसी वस्तु को तले ऊपर रखकर राशि या ढेर लगाना । गाँजना । ढेर लगाना ।
⋙ छिहानी
संज्ञा पुं० [हिं० छिहाना] श्मशान । मशान । मरघट ।
⋙ छिहारना †
क्रि० स० [सं० क्षरण; क्षार] दे० 'छहराना' ।
⋙ छीँक
संज्ञा स्त्री० [सं० छिक्का] नाक और मुँह से वेग के साथ सहसा निकलनेवाला वायु का झोंका या स्फोट ।विशेष—यह स्फोट नाक की झिल्ली में चुनचुनाहट होने से, या आँख में तीक्ष्ण प्रकाश पड़ने के कारण तिलमिलाहट होने से होता है । इसमें कभी कभी नाक और मुँह से पानी या श्लेष्मा भी निकलता है । हिंदुओं में एक प्राचीन रीति है कि जब कोई छींकता है तब कहते हैं 'शतं जीब' या 'चिरं जीव' । यह प्रथा यूनानियों, रोमनों और यहूदियों में भी थी । अँगरेजों में भी जब कोई छींकता है । तब पुरानी परिपाटी के लोग कहते हैं कि 'ईश्वर कल्याण करे' । हिंदुओं में किसी कार्य के आरंभ में छींक होना अशुभ माना जाता है । क्रि० प्र०—आना ।—होना ।—मारना ।—लेना । मुहा०—छींक होना = बुरा शकुन होना ।
⋙ छीँकना
क्रि० अ० [हिं० छींक] नाक और मुँह से वेग के साथ वायु निकालना जिससे शब्द होता है । उ०—जसुमति चली रसोई भीतर तबहिं ग्वालि इक छींकी ।—सूर०, १० ।५४० । मुहा०—छींकते नाक काटना = थोडी़ थोडी़ बात पर चिढ़ना या दंड देना । अत्याचार करना ।
⋙ छीँका
संज्ञा पुं० [हिं० छीका] दे० 'छीका' । उ०—कैसे कहति लियौ छींकै तै ग्वाल कंध दै लात ।—सूर०, १० ।२९० ।
⋙ छीँट
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिंप्त, प्रा० छित्त] १. पानी या और कीसी द्रव पदार्थ की महीन बूँद । जलकण । सीकर । उ०—राधें छिरकति छींट छबीली । कुच कुंकुम कंचुकि बँद टूटे, लटकि रही लट गीली ।—सूर (शब्द०) । २. पानी आदि की पडी़ हुई बूँद या कण का चिह्न जो किसी वस्तु पर पड़ जाय । ३. वह कपडा़ जिसपर रंग बिरंग के बेल बूटे रंगों से छापकर बनाए गए हों । उ०—संध्या घनमाला की सुंदर ओढे़ रंग बिरंगी छींट ।—कामयनी, पृ० ३० । विशेष—प्राचीन काल में कपडे़ पर रंग बिरंग के छीटे डालकर छींट बनाते थे । यौ०—मोमी छींट = एक प्रकार का छपा हुआ कपडा़ जो स्त्रियों के पहरावे के काम में आता है ।
⋙ छीँटना †
क्रि० स० [सं० क्षिप्त, प्रा० छित्त+हिं० ना (प्रत्य०)] किसी वस्तु के कणों को इधर उधर गिराकर फैलाना । बिखराना । छितराना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ छीँटा
संज्ञा पुं० [सं० क्षिप्त, प्रा० छित्त, हिं० छींटना] १. पानी (या और किसी द्रव पदार्थ) की महीन बूँद जो पानी को उछालने या जोर से फेंकने से इधर उधर पडे़ । जलकण । सीकर । क्रि० प्र०—उड़ना ।—पड़ना । यौ०—छींटा गोला = तोप का गोला, जिसके भीतर बहुत सी छोटी छोटी गोलियाँ या कील काँटे आदि भरे होते हैं । २. महीन महीन बूँदों की हलकी वृष्टि । झडी़ । जैसे,—मेंह का एक छींटा आया था । ३. किसी द्रव पदार्थ की पड़ी हुई बूँद का चिह्न । जैसे,—इन स्याही के छींटों को धोकर छुडा़ लो । ४. मदक या चंडू की एक मात्रा । दम । ५. व्यंगपूर्ण उक्ति जो किसी को लक्ष्य करके कही गई हो । हलका आक्षेप । छिपा हुआ ताना । क्रि० प्र०—कसना ।—छोड़ना ।—देना । यौ०—छींटाकसी । ६. किसी चीज पर पड़ा हुआ कोई छोटा दाग । जैसे,—इस नग पर कुछ छींटे हैं ।
⋙ छीँटाकसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीटा+कसना] आक्षेप करने की क्रिया । छिपा हुआ ताना देने की बान ।
⋙ छीँद †
संज्ञा पुं० [सं० छिद्र, हिं० छेद] छिद्र । छेद । सूराख । उ०—हुकुम तुम्हार जहाँन जहाँ ले काल कुबुद्धिहि कीन्हौ छौंद ।—सं० दरिया, पृ० ११८ ।
⋙ छीँदा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्मो, हिं० छीमी] छीमी । फली ।
⋙ छी (१)
अव्य० [सं० छिः] घृणासूचक शब्द । घिन प्रट करने का शब्द । अनादर या अरुचिव्यंजक शब्द । जैसे,—छी ! तुम्हें ऐसा करते लज्जा नहीं आती । मुहा०—छी छी करना = घिनाना । अनादर, अरुचि या घृणा प्रगट करना । उ०—वेष भये विष भावे न भूषत भोजन की कछुही नहिं ईछी । मीच के साधन सोंध सुधा, दधि दूध औ माखन आदिहु छी ! छी ।—(शब्द०) ।
⋙ छी (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] वह शब्द जो घाट पर कपड़ा धोते समय धोबियों के मुँह से निकलता है । उ०—घाट पर ठाढ़ी बाट पारति बटोहिन की चेटकी सी डीठ मन काको न हरति है । लटकि लटकि 'छी' करति खुले भुजमूल झुकि झुकि स्वेद कण फूल से झरति है ।—देव (शब्द०) ।
⋙ छीउल †
संज्ञा पुं० [देश०] पलाश । ढाक ।
⋙ छीका
संज्ञा पुं० [सं० शिक्य, हिं० सीका] १. गोल पात्र के आकार का रस्सियों का बुना हुआ जाल जो छत में इसलिये लटकाया जाता है कि उसपर रखी हुई खाने पीने की चीजों (जैसे, दूध, दही आदि) को कुत्ते, बिल्ली आदि न पा सकें । सीका सिकहर ।—अब कहि देउ कहत किन यों कहि माँगत दही धरयो जो है छीके । सूर (शब्द०) । मुहा०—छीक टूटना = अनायास ऐसी घटना होना जिससे किसी को कुछ लाभ हो जाय । जैसे—बिल्ली के भाग से छीका टूटा । २. जालीदार खिड़की या झरोखा । ३. रस्सियों का जाल जो काम लेते समय वैलों के मुँह में इसलिये पहनाया जाता है जिससेवे कुछ खाने के लिये इधर उधर मुँह न चला सकें । जाबा । मुसका । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना । ४. रस्सियों का बना हुआ झुलनेवाला पुल । झूला । ५. बाँस या पतली टहनियों को बुनकर बनाया हुआ टोकरा जिसमें बड़ें बड़े छेद छूटे रहते हैं । छिटनी । खँचिया ।
⋙ छीछड़ा
संज्ञा पुं० [सं० तुच्छ, प्रा० छुछ] १. मांस का तुच्छ और निकम्मा टुकड़ा । मांस का बेकाम लच्छा । जैसे,—बिल्ली को छीछडे़ ही भाते हैं । २. पशुओं की अँतड़ी का वह भाग जिसमें मल भरा रहता है । मल की थैली ।
⋙ छीछल †
वि० [हिं० ] दे० 'छिछला' ।
⋙ छीछालेदर
संज्ञा स्त्री० [हिं० छी छी ] दुर्दशा । दुर्गति । खराबी । फजीहत । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ छीछी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] मल । गू । विष्ठा । छिमा । उ०—धाएँ बच्चों को कमरों और आँगनों के फर्श पर जहाँ तहाँ छीछी करा देती थीं ।—जनानी०, पृ० १४७ ।
⋙ छीज
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीजना] ह्रास । घटाव । घाटा । कमी । उ०—रातहि दिवस रहै सब भीजा । लाभ न देखत देखी छीजा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छीजन
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीजना] दे० 'छीज' ।
⋙ छीजना
क्रि० अ० [सं० क्षयण या क्षीण] क्षीण होना । घटना । कम होना । ह्रास होना । अवनत होना । उ०—(क) छीजहिं निशिचर दिन औ राती । निज मुख कहे सुकृत जोहि भाँती ।—तुलसी (शब्द०) (ख) लहर झकोर उड़हिं जल भीजा । तौंहू रूप रंग नहिं छीजा ।—जायसी (शब्द०) । (ग) सखि ! जा दिन तें परदेस गए पिय ता दिन ते तन छीजत हैं ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ छीट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छींट' ।
⋙ छीटना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छींटना' ।
⋙ छीटा
संज्ञा पुं० [सं० शिष्य, हिं० छीका] [स्त्री० अल्फा० छिटनी] १. बाँस की कमचियों या पतली टहनियों को परस्पर जाल की तरह बुनकर बनाया हुआ टोकरा । खाँचा । यौ०—छेटा गोला = ढोल या पीपे के आकार का बना हुआ टोकरा । २. चिलमल ।
⋙ छीड़ †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीण] आदमियों की कमी । भीड़ का अभाव ।
⋙ छीत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति] दे० 'छति' । उ०—तब नहिं छीत न सेस महेसू ।—द० सागर, पृ० ६३ ।
⋙ छीतना
क्रि० स० [सं० छिद+हिं० ना (प्रत्य०)] १. बिच्छू, भिड़ आदि का डंक मारना । २. मारना । कूटना ।
⋙ छीतस्वामी
संज्ञा पुं० [हिं०] अष्टछाप कै एक वैष्णव भक्त । ये बल्लभाचार्य जी के शिष्य थे । इनके कृष्ण संबंधी रचे पद इनके संप्रदाय के लोग अबतक गाते हैं ।
⋙ छीता
संज्ञा पुं० [देश०] बहू के मायके या ससुराल जाने की साइत ।
⋙ छीति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षति] १. हानि । घाटा । २. बुराई । उ०—तेरो तन धन रूप महागुन सुंदर श्याम सुनी यह कीति । सु करि सूर जिंहि भाँति रहै पति, जनि बल बाँधि बढ़ाबहु छीति ।—सूर०, १० ।२७७५ ।
⋙ छीतीछान
वि० [सं० क्षति+छिन्न या छन्न] छिन्न भिन्न । तितर बितर । उ०—वह सब सेना असुरों की छीतीछान हो वहीं की वही बिलाय गई ।—लल्लू (शब्द०) ।
⋙ छीदा
वि० [सं० छिद्र] १. जिसमें बहुत से छेद हों । जिसके तंतु दूर दूर पर हों । जिसकी बुनावट घनी न हो । झाँझरा । छिदरा । २. जो दूर दूर पर हो । जो घना न हो । बिरल । उ०—ताल कई समचइ घूँघरी । माँहिली माँड़ली छीदा होइ ।—बी० रासो, पृ० ५ ।
⋙ छीन (१)
वि० [सं० क्षीण] १. दुबला । पतला । कृश । २. शिथिल । मंद । मलिन । उ०—पूँछ को तजि असुर दौरि कै मुख गह्यौ सुरन तब पूँछ की ओर लीन्ही । मथत भए छीन, तब बहुरि बिनती करी श्री महाराज निज सक्ति दीनी ।—सूर० ८ ।८ ।
⋙ छीन (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षण, हिं० छिन] क्षण । क्षण भर का समय । उ०—पलटू बरस और दिन पहर घड़ी पल छीन । ज्यों ज्यों सूखै ताल है त्यों त्यों मीन मलीन ।—पलटू०, पृ० २५ ।
⋙ छीनचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० क्षीणचन्द्र] द्वितीया का चंद्रमा ।
⋙ छिनता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'क्षीणता' ।
⋙ छीनना
क्रि० स० [सं० छिन्न+हिं० ना (प्रत्य०)] १. छिन्न करना । काटकर अलग करना । उ०—लोर हू तैं न्यारौ कीनौ चक्र बक्र सीस छीनौ देवकी के प्यारे लाल एँचि लाए थल में ।—सूर०,८ ।५ । २. किसी दूसरे की वस्तु जबरदस्ती ले लेना । किसी वस्तु के दूसरे के अधिकार से बलात् अपने अधिकार में कर लेना । हरण करना । उ०—काक कंक लै भुजा उड़ाहीं । एक ते एक छीनि लै खाहीं ।—मानस, ६ ।८७ । यौ०—छीनाखसोटी । छोना झपटी । छीनाछीनी । ३. अनुचित रूप से अधिकार करना । उ०—बलि जब बहु जज्ञ किए इंद्र सुनि सकायौ । छल करि लई छीनि मही, बामन है धायौ ।—सूर०, ९ ।११८ । ४. सिल, चक्की आदि की छेनी से खुरदुरा करना । कूटना । रेहाना । ५. छेनी से पत्थर आदि काटना या बराबर करना । ६. दे० 'छेना' ।
⋙ छीना (१) †
क्रि० स० [सं० छुप(=छूना) या सं० स्पृश, प्रा० छिव (=छूना)] छूना । स्पर्श करना । उ०—(क) ग्वालि बचन सुनि कहति जसोमति भले भूमि पर बादर छीवो । तुलसी (शब्द०) । (ख) हरि राधिका मानसरोवर के तट ठाढे़ री हाथ सो हाथ छिए ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ छीना (२)
संज्ञा पुं० [सं० छिन्न] १. घडे़ के नीचे का कपाल या गोल भाग जो फोड़कर अलग कर दिया गया हो । २. मिट्टी का वह साँचा जिसपर कुम्हार घडे़ कुंडे आदि की पेंदी या कपाल को रखकर थापी से पीटते हैं ।
⋙ छीनाखसोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीनना+खसोटना] दे० 'छीना झपटी' ।
⋙ छीनाछीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छीनना की द्विरुक्ति] दे० 'छीना- झपटी' ।
⋙ छीनाझपटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छिनना+झपटना] जबरदस्ती या झाड़ झपट के साथ किसी वस्तु को ले लेने की क्रिया ।
⋙ छीन्ह
संज्ञा पुं० [सं० क्षीण, हिं० छीन] दे० 'क्षीण' । उ० —छिप्यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छद छल छीन्हो ।— श्यामा०, पृ० १२० ।
⋙ छीप (१)
वि० [सं० क्षिप्र] तेज । वेगवान् । उ०—सात दीप नृप दीप छीप गति चहत समर सरि ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ छीप (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्ति, हिं० सीप] दे० 'सीप' । उ०—(क) सब तरवर चंदन नहीं सब कदली न कपूर । सब छीपन मुकता नहीं, सब दल नाहिन सूर ।—रस र०, पृ० २२३ । (ख) छीप रूपहि करी परकासा । स्वाति रूप इच्छा नीवासा ।—कबिर सा०, पृ० ९३ ।
⋙ छीप (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाप] १. छाप । चिह्व । दाग । ३. वह दाग या धब्बा जो छोटी छोटी बिंदियों के रूप में शरीर पर पड़ जाता है । सेहुआँ । एक प्रकार का चर्म रोग ।
⋙ छीप † (४)
संज्ञा पुं० [सं० क्षप, या क्षय] आक्रमण । नाश । बिनाश । उ०—छीप करै दल दुज्जणां जीप खड़ो रण जंग ।—रा० रू०, पृ० २३२ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ छीप (५)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह छड़ी जिसमें डोरी बाँधकर मछली फँसाने की कँटिया लगाई जाती है । डगन । बंसी । २. एक पेड़ का नाम जिसके फल की तरकारी होती है । इसे खीप और चीप भी कहते हैं ।
⋙ छीपक †
वि० [हिं० छाप] छपी हुई । छींटदार । उ०—घरीं तीर सब छीपक सारी । सरवर मँह पैठी सब बारी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६० ।
⋙ छीपना (१)
क्रि० स० [सं० क्षिप] कँटिया में मछली फँसने पर उसे बंसी के द्वारा खींचकर बाहर फेंकना ।
⋙ छीपना (२) †
क्रि० स० [सं० स्पर्शन, प्रा० छिवण] दे० 'छूना' । उ०—रैदास तूँ कावँच फली तुझे न छीपै कोइ ।—रै० बानी, पृ० १ ।
⋙ छीपा †
संज्ञा पुं० [सं० क्षेप] १. तंग मुँह का मिट्टी का एक बरतन जिसमें अहीर दूध दुहकर डालते जाते हैं । २. दे० 'छीपी' । उ०—बनिंया मोदी सगरे धाये, छीपा सेठ चौधरी आये ।— कबीर सा०, पृ० ९५७ ।
⋙ छीपिअरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छीपी' । उ०—ए भैना, काँहर के छीपिअरा बुलाऊँ काँहर बैठि रँगाइए ।—पोददार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४ ।
⋙ छिपी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० छिप] [स्त्री० छीपिन] वह व्यक्ति जो कपडे़ पर बैलबूटे छापता हो । छींट छापनेवाला । रँगरेज ।
⋙ छीपी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह लंबी छडी़ जिससे लोग कबूतर आदि उड़ाते हैं । इसके सिरे पर कपड़ा बँधा रहता है । २. धातु आदि की छोटी तश्तरि ।
⋙ छीबर
संज्ञा स्त्री० [देश०, हिं० छापना] मोटी छींट । वह कपड़ा जिसपर बेल बूटे छपे हों । उ०—हा हा हमारी सौं साँची कहो वह को हुती छोहरी छीबर वारी ।—(शब्द०) ।
⋙ छीमर पु
संज्ञा स्त्री० [देश० या हिं० छीप (=बूद)] दे० 'छीबर' । न०—ढीमर वह छीमर पहिरि लूमर मदन अरेर । चितहि चुरावत चाहि के बेचत बेर सुरेर ।—स० सप्तक०, पृ० ३८१ ।
⋙ छीमी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बी] १. फली । जैसे—मटर की उ०—मखमली पेटियों सी लटकीं छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी ।—ग्राम्या, पृ० ३५ । २. गाय भैंस आदि के स्तन के चूचुक जो फली की तरह होते हैं । स्तनों का चूचुक स्तनाग्र कुचाग्र ।—(अशिष्ट) ।
⋙ छीर (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षीर, प्रा० छीर] । उ०—(क) माता अछत छीर बिन सुत मरै, अजा कंठ कुच सेई ।—सूर०, १ ।२०० । (ख) छीर बही भूतल नदी त्रिबिध चले पवमान ।—प० रासो, पृ० १३ ।
⋙ छीर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिरा, प्रा० छिरा, हिं० छोर] १. कपड़ें आदि का वह किनारा जहाँ लंबाई समाप्त हो । छोर । मुहा०—छोर डालना=धोती आदि में किनारे का तागा निकालकर झालर बनाना । २. वह चिह्न जो कपड़ें पर डाला जाय । ३. कपडे़ के फटने का चिह्न । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ छीरज पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरज] दधि । दही ।
⋙ छीरधि पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरधि] क्षीरसागर । दूध का समुद्र । उ०—क्षय रही 'मतिराम' कहै छिति छोरनि छीरधि की छबि छाजै ।—मति० ग्रं०, पृ० ४११ ।
⋙ छिरनिधि पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरनिधि] क्षीरसागर । दूध का समुद्र । उ०—जब वृत्रासुर के भय सों सुर सब भागे, तब छीरनिधि के निकट जाइके यह कहत भए ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९२ ।
⋙ छीरप पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरप] दुधमुहाँ बालक । दूधपीता बच्चा ।
⋙ छिरफेन पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरफेन] दूध की मलाई । उ०— विविध बसन उपधान तुराई । छीरफेन मृदु बिसद सुहाई ।— मानस, । ९१ ।
⋙ छीरसागर—पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरसागर] दे० 'क्षीरसागर' ।
⋙ छीरसिंधु पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीर+सिन्धु] क्षीरसागर । दूध का समुद्र । उ०—क्षीरसिंधु गवने मुनिनाथा ।—मानस, १ ।१२८ ।
⋙ छीलक पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छिलका] दे० 'छीलका' । उ०—दीन हुतौ बिललात फिरै नित इंद्रिन कै बस छीलक छोले ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५८७ ।
⋙ छीलना
क्रि० अ० [हिं० छाल] १. किसी वस्तु का छिलका या छाल उतारना । लगी हुई छाल या ऊपरी आवरण को काट कर अलग करना । ऊपरी सतह की मोटाई काटकर अलग करना । जैसे, सेव छीलना, गन्ना छीलना, लकड़ी छीलना, पेंसिल छीलना । २. ऊपर लगी हुई या जमी हुई वस्तु को खुरचकर अलग करना । जैसे, चाकू से हरफ छिलना, घास छीलना । ३. खुरोचना । खरोंटना । ४. गले के भीतर चुनचुनाहट या खुजली सी उत्पन्न करना । जैसे,—सूरन ने गला छील डाला ।
⋙ छीलर
संज्ञा पुं० [प्रा० छिल्लर, हिं० छिछला अथवा सं० क्षीण] १.एक छोटा गड्ढा जो कुएँ पर इसलिये बना रहता है कि मोट का पानी उसमें डाला जाय । छिउला । लिलारी । २. छोटा छिछला गड्ढा । तलैया । उ०—(क) कबिरा राम रिझाइ ले जिह्वा सो करि मित्त । हरि सागर जनि बीसरै छीलर देखि अनित्त ।—कबीर (शब्द०) । (ख) अब न सुहात विषय रस छीलर वा समुद्र की आस ।—सूर (श्ब्द०) ।
⋙ छीलरी पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० छिल्लर ] दे० 'छीलर' । उ०—दादू हंस मोती चुर्ण, मानसरोवर जाइ । बगुला छीलरी बापुड़ा, चुणि चुणि मछली खाइ । —दादू०, पृ० ३२३ ।
⋙ छीव पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीव] दे० 'क्षीव' ।
⋙ छीवना पु
क्रि० स० [सं० स्पर्शन, प्रा० छवण, छिबण] दे० 'छूना' । उ०—प्रथिराज दिष्ट आवें नहीं चिकट कुंभ ज्याँ जल आभिद । लग्गै न नीर पत्रह कमल । भिदै न मति छोवै उछिद ।—पृ० रा०, २४ ।४८४ ।
⋙ छुंद्र
वि० [सं० क्षुद्र] दे० 'क्षुद्र' । उ०—मे जो छुंद्र जलाशयों के बचें बचाए यत्किंचित् शेष जल ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९ ।
⋙ छुँगली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छँगुली] एक प्रकार की अंगूठी जिसमें घुँघुरू लगे होते हैं । यह छोटी उँगली में पहनी जाती है ।
⋙ छुआना †
क्रि० स० [सं० स्पृश, प्रा० छिव, छुव] १. स्पर्श करना । छूना । २. चूना करना । सफेदी करना ।
⋙ छुआई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना] छूने, स्पर्श करने का भाव ।
⋙ छुआछूत
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना] १. अछूत को छूने की क्रिया । अस्पृश्य स्पर्श । अशुचि संसर्ग । जैसे,—यहाँ छुआछूत मत करो । २. स्पृश्य अस्पृश्य का विचार । छूत का विचार । जैसे,—वहाँ छुआछूत का बखेड़ा नहीं है ।
⋙ छुआना
क्रि० स० [हिं० छुलाना] १. दे० 'छुलाना' । २. दे० 'छुहाना' ।
⋙ छुई मुई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना + मुवना] एक छोटा कँटीला पौधा जिसकी पत्तियों बबूल की सी होती हैं । इसमें यह विशेषता है कि जहाँ पत्तियों को किसी ने छूआ कि वे बंद हो जाती हैं और उनके सींके लटक जाते हैं । लज्जालु । लज्जावंती । लजाधुर । लजारो । वि० दे० 'लज्जावंती' । २. अत्यंत कमजोर कोई चीज । ३. लजाधुर की तरह स्वभाव— वाला व्यक्ति । नाजुकमिजाज । मुहा०—छुई मुई बनना = संकुचित होना । कायल होना । मौन हो जाना । उ०—सब बातों में खोज तुम्हारी रट सी लगी हुई है । किंतु स्पर्श से तर्क करों के बनता छूई मुई है ।— कामायनी, पृ० १११ ।
⋙ छुगुनू †
संज्ञा पुं० [अनु० छुनछुन] घुँघुरू । उ०—कटि करधन छुगुनू छजत श्यामल बदन सुहाय । मनहु नीलमणि मंदिर बसेउ बासुकी आय ।—शृं० सत० (शब्द०) ।
⋙ छुग्गर पु †
संज्ञा पुं० [सं० छत्रदण्ड] छाता । छत्र । उ०—पान सु पात तुम्है गर थल्लिय । भट्ट कहै कर छुग्गर झल्लिय ।— पृ० रा०, ६१ ।८१८ ।
⋙ छुच्छ †
वि० [सं० तुच्छ, प्रा० छुच्छ] १. थोड़ा । स्वल्प । कम । उ०—राम किसन कित्ती सरस कहत लगै बहु बार । छुच्छ आव कबि चंद की सिर चहुआना भार ।—पृ० रा०, २ । ५८५ । २. दे० 'छूँछा' । उ०—गरजै छुच्छ होर सुख मारा ।—कबीर सा०, पृ० १५८७ ।
⋙ छुच्छा †
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० छुच्छी] दे० 'छूँछा' ।
⋙ छुच्छी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूँछा] १. पतली पोली छोटी नली । २. नरकट की चार पाँच अंगुल लंबी नली जिसमें जोलाहे तागा लपेटकर उसे ढरकी में लगाकर बुनते हैं । नरी । ३. नाक में पहनने का एक गहना । नाक की कील । लौग । विशेष—यह लौंग की तरह का होता है, पर इसमें फूल की जगह चारों ओर उभडे़ हुए रवे अथवा चंदक रहती है जिसपर नग जडे़ जाते हैं । इसके बीच में एक छेद भी होता है जिसमें नथ डालकर पहनी जाती है । ४. एक पतली नली जो एक तिकोनिए पर लगी होती है और जिसमें बत्ती लगाकर गिलाम में जलाई जाती है । ५. वह पतली नली जिसका एक छोर गिलास की तरह चौड़ा होता है और जिसे लगाकर एक बरतन से दूसरे बरतन में तेल आदि ढालते हैं । कीप ।
⋙ छुछंद पु
वि० [सं० स्वच्छन्द, हिं० सुछंद] स्वच्छंद । स्वतंत्र । मुक्त । उ०—जे बाँध्या ते छुछंद मुक्ता बाँवनहार बाँध्या ।— कबीर ग्रं०, पृ० १४६ ।
⋙ छुछका †
वि० [सं० तुच्छ, प्रा० छुछ] १. वह जो रिक्त हो । दे० २. स्वल्प । तुच्छ । छूँछा ।
⋙ छुछकारना
क्रि० स० [अनु०] १. कुत्ते को शिकार आदि के पीछे लगाना । ललकारना । २. झिड़कना । डाँट फटकार बताना ।
⋙ छुछमछरी †
वि०, संज्ञा स्त्री० [हिं० छुछमछली] दे० 'छुछमछली' ।
⋙ छुछमछली
संज्ञा स्त्री० [सं० सूक्ष्म, पु० हिं० छूछम+मछली अथवा सं० तुच्छ, आ० छुछ+हिं० मछली] मेढक के बच्चे का एक आरंभिक रूप जो लंबी पूँछवाले कीडे़ । या मछली के बच्चे का सा होता है । इसके उपरांत कई रूपांतर होने पर तब यह अपने असली चतुष्पद रूप में आता है ।
⋙ छुछमछली (२)
वि० अस्थिर । चंचल ।
⋙ छुछहँड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूछी+हंडी] छूछी हाँड़ी । मुहा०—छुछहँड़ दिखाना=(१) माँगने पर किसी वस्तु को देने से इनकार करना या उसका अभाव बतलाना । (२) छुछहेड़ मिलना=यात्रा के समय खाली घड़ा सामने दिखाई पड़ना । अपशकुन होना ।
⋙ छुछंदर
संज्ञा पुं० [सं० छुछुन्दर] [स्त्री० छुछंदरी] छछूँदर ।
⋙ छुछुआना
क्रि० अ० [अनु० छुछु] छछूँदर की तरहँ छू छू करते फिरना । व्यर्थ इधर उधर घूमते फिरना ।
⋙ छुछुमुक्ता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हठयोगियों के अनुसार वह सिद्धि जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य हलका या सूक्ष्म हो जाता है ।लघिमा नाम की सिद्धि । उ०—छुछुमुक्ता सिधि ताकौ लछिन, मन माने वहाँ शरीर छाडै ।—गोरख०, पृ० २४८ ।
⋙ छुट (१)पु
अव्य० [हिं० छूटना] छोड़कर । सिवाय । अतिरिक्त । उ०—जब ते जन्म पाय जीव है कहायो । तब ते छुट अवगुण इक नाम न कहि आयो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छुट (२)
वि० [हिं० छोटा] हिंदी छोटा का समासगत रूप । जैसे, छुटपन, छुटभैया ।
⋙ छुटक †, छुटका (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छुटकारा' । उ०—काम क्रोध अरु लोभ यह त्रिगुन बसे मन माँहि । सत्य नाम पाए बिना जम से छुटको नाहिं ।—कबीर सा०, पृ० ४५९ ।
⋙ छुटका † (२)
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० छुटकी] दे० 'छोटा' ।
⋙ छुटकाना पु
क्रि० स० [हिं० छटना] [संज्ञा छुटकारा] १. छोड़ना । अलग करना । पकडे़ न रहना । उ०—किलकि किलकि नाचत चुटकी सुनि डरपति जननि पानि छुटकाए ।— तुलसी (शब्द०) । २. छोड़ना । साथ न लेना । उ०—माधव जू गज ग्राह ते छुड़ायो । चितबत चित ही में चिंतामणि चक लए कर धायो । आते करुणा कारि करुणामय हरि गरूड़हि हूँ छुटकायो ।—सूर (शब्द०) । २. छुड़ाना । मुक्त करना । छुटकारा देना । उ०—(क) लागि पुकार तुरत छुटकायो काटयो बंधन वाको ।—सूर (शब्द०) । (ख) हौं बसि के बन भूपति को सुनु, कैकयि के ऋण ते छुटकाऊँ ।—हनुमान (शब्द०) । ४. खोलना । फैलाना । डालना । उ०—द्वार झरोखनि जवनिका रुचि लै छुटकाऊँ ।—घनानंद, पृ० ३१३ ।
⋙ छुटकारा
संज्ञा पुं० [हिं० छुटकाना या छूट] २. किसी वधन आदि से छूटने का भाव या क्रिया । मुक्ति । रिहाई । २. किसी बाधा, आपत्ति या चिंता आदि से रक्षा । निस्तार । जैसे, ऋण से छुटकारा, विपत्ति से छुटकारा । क्रि० प्र०—करना ।—पाना ।—मिलना ।—होना । ३. किसी काम मे छुट्टी । किसी कार्यभार से मुक्ति । क्रि० प्र०—देना ।—होना ।
⋙ छुटना (१)पु
क्रि० अ० [हिं० छूटना] दे० 'छूटना' ।
⋙ छुटना (२)पु
वि० [हिं०] छोटा । लघु उ०—देखत कौ तौ छुटनो बाल । ऐ परि आहि काल कौ काल—नंद० ग्रं०, पृ० २३८ ।
⋙ छुटपन †
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+पन (प्रत्य०)] १. छोटाई । लघुता । २. बचपन । लड़कपन ।
⋙ छुटभैया †
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+भैया] साधारण हैसियत का आदमी । छोटे दरजे का या निम्नवर्गीय व्यक्ति ।
⋙ छुटवाना †
क्रि० स० [हिं० छोड़ना] दे० 'छोड़वाना' ।
⋙ छुटाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटा] दे० 'छोटाई' । यौ०—छुटाई बड़ाई ।
⋙ छुटाना (१) †
क्रि० सं० [सं० छूट(=काटकर अलग करना)] छुड़ाना । उ०—(क) तब गज हरि की शरण आयो । सूरदास प्रभु ताहि छुटायो ।—सूर (शब्द०) । (ख) छुटे छुटावें ते सटकारे सुकुमार । मल बाँधत बेनी बधे नील छबीले बार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ छुटाना (२)
क्रि० अ० गाय या भैंस का दूध देना या बंद कर देना ।
⋙ छुटानी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूटना] दे० 'छूट' । उ०—सत गुरु मिलै तो होय छुटानो ।—कबीर सा०, पृ० १५८९ ।
⋙ छुटारा पु
संज्ञा पुं० [हिं० छूट] दे० 'छुटकारा' । उ०—यमराज ते भए छुटारा । निर्भय हसा लोक सिधारा ।—कबीर सा०, पृ० ४५३ ।
⋙ छुटैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूट] भाँड़ों और स्वाँग करनेवालों के चुटकुले ।
⋙ छुटौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूट] १. वह सूद या लगन जो छोड़दिया जाय । छँडुआ । २. छोड़ने या छुड़ाने के कार्य के एवज में दिया गया धन ।
⋙ छुट्टा
वि० [हिं० छूटना] [वि० स्त्री० छूट्टी] १. जो बँधा न हो । यौ०—छूट्टा पान = बना लगा हुआ पान । पान का पत्ता । छुट्टा साँड़ =(१) निर्बंध बैल । (२) बंधनविहीन व्यक्ति । बिना जोरू जाँता का आदमी । (२) एकाएकी एकाकी । अकेला । (३) जिसके साथ कुछ माल असबाब न हो । मुहा०—छुट्टा छरिंद = एकाकी । अकेला । जिसके साथ यात्रा में माल असबाब या साथी न हो । छुट्टे हाथ = खाली हाथ । हाथ में बिना छड़ी या हथियार आदि लिए ।
⋙ छुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूट] २. छुटकारा । मुक्ति । रिहाई । जैसे,—बिना लगान दिए छुट्टी नहीं है । क्रि० प्र०—देना ।— पाना ।—मिलना ।—होना । मुहा०—छुट्टी पाना = झंझट से बचना । पीछा छुड़ाना । जवाबदेही या जिम्मेदारी से अलग होना । जैसे,—तुम तो यह कहकर छुट्टी पा जाओगे, तंग होगे हम । छुट्टी होना = झंझट दूर होना । काम निबटना या समाप्त होना । २. वह समय किसमें कोई कार्य न हो । काम से खाली वक्त या समय । अवकाश । फुरसत । जैसे—(क) आजकल मेरे सिर इतना काम है कि खाने पीने तक की छुट्टी नहीं । (ख) उसने तीन महीने की छुट्टी ली है । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—मिलना ।—लेना । मुहा०—छुट्टी पर जाना या होना = नियत कार्य से अवकाश ग्रहण करना । ३. वह दिन जिसमें नियत कार्य बंद रहे । कार्यालय या स्कूल के बंद रहने का दिन । तातील । जैसे,—आज स्कूल में छुट्टी है । मुहा०—छुट्टी मनाना=अवकाश का दिन आनंद से बिताना । छुट्टी लेना=कार्य से अवकाश लेना । ४. काम से छुड़ाए जाने की क्रिया । मौकूफी । ५. प्रस्थान करने की अनुमति । जाने की आज्ञा । जैसे—अब छुट्टी दिजिए, बहुत देर हो रही है । ६. भाँड़ों का चुटकुला ।
⋙ छुड़वाना
क्रि० स० [हिं० छोड़ना का प्रे० रूप] छोड़ने का काम कराना । छोड़ने के लिये प्रेंरित या उद्यम करना । जैसे,— बहेलिए से निलकंठ छुड़वाना ।
⋙ छुड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छुड़ाना] १. छोड़ने की क्रिया । यौ०—छोड़ छुड़ाई=माफी । २. वह धन जो किसी व्यक्ति या वस्तु के छोड़ने के बदले में दिया या लिया जाय । जैसे,—पशुओं की छुड़ाई, नीलकंठ की छुड़ाई । ३. बडे़ कनकौप को दूर ले जाकर ऊपर उछालना जिससे कि पतंग ऊपर उड़ जाय । छुडै़या ।—(पतंग) । क्रि० प्र०—करना । देना ।
⋙ छुड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० छोड़ना] १. किसी वस्तु को ऐसा करना जिसमें वह छूट जाय । दूसरे की पकड से अलग करना । बँधी, फँसी उलझी या लगी हुई वस्तु को पृथक् करना । जैसे, वह हाथ छुड़ाकर भागा; लड़के का पैर चारपाई में फँस गया है, छुड़ा दो; गाँठ छुड़ाना आदि । उ०—बाँह छुड़ाए जात हो निबल जानि के मोहि । हिरदय में से जाइयो मरद बदूँगी तोहि ।—(शब्द०) । २. दूसरे के अधिकार से अलग करना जैसे,—रेहन रखा हुआ खेत छुड़ाना, माल छुड़ाना, बिल्टी छुड़ाना आदि । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ३. किसी वस्तु पर पुती हुई वस्तु को दूर करना । जैसे,—रंग छुड़ाना । दाग छुड़ाना, मैल छुड़ाना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना । ४. कार्य से अलग करना । नौकरी से हटाना । बरखास्त करना । जैसे,—उसने उस पुराने नौकर को छुड़ा दिया । संयो० क्रि०—देना । ५. किसी नियमित क्रिया का त्याग कराना । किसी प्रवृत्ति को दूर कराना । जैसे, अभ्यास छुड़ाना, मुक्त कराना । जैसे— हम उसका आना जाना छुड़ा देंगे ।
⋙ छुड़ाना (२)
क्रि० स० [छोड़ना का प्रे० रूप] छोड़ने का काम कराना । दे० 'छुड़वाना' ।
⋙ छुडै़या (१)
वि० [हिं० छुड़ाना+ऐया (प्रत्य०)] छुड़ानेवाला । बचानेवाला । रक्षक ।
⋙ छुडै़या (२)
संज्ञा [हिं० छोड़ना+ऐया (प्रत्य०)] किसी को गुड्डी या पतंग को उड़ाने के लिये कुछ दूर पर लाकर, दोनों हाथों से पकड़कर ऊपर आकाश की ओर छोड़ना या हवा में उड़ाना । क्रि० प्र०—देना । विशेष—जिस समय हवा कस होती है और गुड्डी या पतंग आदि के उड़ने में कुछ कठिनता होती है, उस समय एक दूसरा आदमी पतंग या गुड्डी को पकड़कर कुछदूर ले जाता है; और तब वहाँ से उसे ऊपर की और छोड़ता या उड़ाता है; जिससे वह सहज में और जल्दी उड़ने लगती है ।
⋙ छुडौ़ती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छुड़ाना] १. देनदार या असामी से पावना छोड़ देने की क्रिया । २. वह रुपया जो असामी या देनदार से दयावश या और किसी कारण से नलिया जाय, सब दिन के लिये छोड़ दिया जाय । छूट । २. वह धन जो किसी को बंधक मुक्त करने के लिये दिया जाय ।
⋙ छुत् पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुत्] क्षुधा । भूख ।
⋙ छुतहा †
वि० [हिं० छुत] दे० 'छुतिहा' । यौ०—छुतहा अस्पताल=वह चिकित्सालय जहाँ छूत से उत्पन्न और फैलनेवाले रोगों का इलाज होता है ।
⋙ छुतिया पु
वि० [हिं० छूत+इया (प्रत्य०)] १. दे० 'छुतिहा' । २. स्पर्श से रहित । उ०—यहि बिधि पिंड ब्रह्मंड समाना । ताको तुम छुतिहा कर जाना ।—घट०, पृ० २५९ ।
⋙ छुतिहर †
संज्ञा पुं० [हिं० छून+हंडी] १. वह घड़ा या बरतन जो किसी अशुचि वस्तु के संसर्ग से अशुद्ध हो गया हो और जिसमें खाने पीने की वस्तु न रखी जाती हो । २. कुपात्र । निंदनीय । तिरस्कार्य व्यक्ति । नीच आदमी ।
⋙ छुतिहा (१) †
वि० [हिं० छूत+हा (प्रत्य०)] १. छूतवाला । जिसमें छूत लगी हो । जो छूने योग्य न हो । अस्पृश्य । ३. कलंकित । दूषित । पतित । निकृष्ट ।
⋙ छुतिहा (२)
संज्ञा पुं० वह नमक जो नोनी मिट्टी से निकाला जाता है । शोरे का नमक ।
⋙ छुतेरिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० छुतिहर] अस्पृश्य । छूतवाली । छोटी जाति की स्त्री । उ०—यह किन छुतेरिनों को साथ लाई हैं आप ?—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३ ।
⋙ छुद्धित पु
वि० [सं० क्षुधित प्रा० छुधिय] दे० 'क्षुधित' । उ०—खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा वाजि समेत । खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भएउ अचेत ।—मानस, १ ।१५७ ।
⋙ छुद्र पु
वि० [सं० क्षुद्र] दे० 'क्षुद्र' । उ०—छुद्र पतित तुम तारि रमापति अब न जरौ जिय गारौ ।—सूर०, १ ।१३१ ।
⋙ छुद्रघंटि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्र+घण्टिका] दे० 'क्षुद्रघंटिका' । उ०—छुद्रघंटि मोहहि नर राजा । इंद्र अखार आइ जनु साजा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९७ ।
⋙ छुद्रघंटिका पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० क्षुद्रघणिटका] दे० 'क्षुद्रघंटिका' । उ०—छुद्र घंटिका पायल बाजै रतन जड़ाऊँ । रितु बसंत की आनी मोतिन माँग भराऊँ ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ८८ ।
⋙ छुद्रा पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्रा] दे० 'क्षुद्रा' ।— अनेकार्थ०, पृ० १३० ।
⋙ छुद्रावलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'क्षुद्रघटिका' । उ०—कटि क्षुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरे पायल चूरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छुद्रावली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छुद्रघटिका' ।
⋙ छध पु
संज्ञा स्त्री० [सं० छुधा, प्रा० क्षुध] भूख । बुभुक्षा । उ०— निद्रा पियास छुध मोह तजि, दुष्ष सुष्ष इवक न गनै ।—पृ० रा०, १२ ।५१ ।
⋙ छुधा
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुधा] [वि० छुधित] क्षुधा । भूख । उ०—देखि छुधा तै मुख कुम्हिलानौ अति कोमल तन स्याम ।—सूर०, १० ।३६१ ।
⋙ छुधित पु
वि० [सं० क्षुधित] भूखा । उ०—खेलहिं हलधर संग रंग रुचि नैन निरखि सुख पाऊँ । छिन छिन छुधित जानि पय कारन हँसि हँसि निकट बुलाऊँ ।—सूर०, १० ।७५ ।
⋙ छुनछुनाना
क्रि० अ० [अनु०] 'छुन छुन' शब्द करना । झनकार के साथ बजना ।
⋙ छुननमुनन
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दे० 'छुनमुन' ।
⋙ छुनमुन
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दे० 'छनन मनन' । २. बच्चों के पैर के आभूषण का शब्द ।
⋙ छुप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्पर्श । २. झाड़ी । क्षप । ३. वायु । ४. संघर्ष । युद्ध (को०) ।
⋙ छुप (२)
वि० चंचल ।
⋙ छुपना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छिपना' ।
⋙ छुपाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छिपाना' ।
⋙ छुबुक
संज्ञा पुं० [सं०] चिवुक । ठुड्डी ।
⋙ छुभित पु
वि० [सं० क्षुभित] १. विचलित । चंचल । उ०— चलत कटकु दिगसिंधुर डिगहीं । छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ।—मानस, ६ ।७८ । २. घबराया हुआ ।
⋙ छुभिराना पु
क्रि० अ० [हिं० क्षोभ] क्षोभ को प्राप्त होना । क्षुब्ध होना । चंचल होना । उ०—चैयाँ चैयाँ गहौ चैयाँ नैयाँ ऐसे बोलौ बढ़ि दैया करो दया हमें काहे छुभिराने हौ ।— सूदन (शब्द०) ।
⋙ छुमकना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'छमकना' । उ०—अब क्या रुमझुम से छुमकेगा, आँगन ग्वालिनियों का ।—हिम त०, पृ० ४२ ।
⋙ छुरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेपन । लेप करना । लेप लगाना । २. पसारना । फैलाना । (को०) ।
⋙ छुरधार पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुरधार] छुरे की धार । पतली धार जिससे छू जाते ही कोई वस्तु कट जाय । उ०—देव विकट तर वक्र छुरधार प्रमदा तीप्र दर्प कंदर्प खर खङ्ग धारा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छुरहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छुरा+धरना] नाऊ की पेटी जिसमें वह छुरे रखता है । किसबत ।
⋙ छुरा
संज्ञा पुं० [सं० क्षुर] [स्त्री० अल्पा० छुरी] १. वह हथियार जिसमें एक बेंट में लोहे का एक धारदार लंबा टुकड़ा लगा रहता है । यह आक्रमण करने या मारने के काम में आता है । यौ०—छुरेबाज=(१) छुरे द्वारा किसी की हत्या करनेवाला । छुरेबाजी = छुरा भोंकना । छुरा भोंकने का काम । (२) छुरा भोंकने की घटना । २. वह हथियार जिसमें नाई बाल मूँड़ते हैं । उस्तरा ।
⋙ छुरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चूना । एक प्रकार का तीक्ष्ण क्षार भस्म । वि० दे० 'चूना' ।
⋙ छुरिका
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'छुरी' ।
⋙ छुरिकार †
संज्ञा पुं० [सं० क्षुरि+कार] नाई । नापित उ०— गंधकार छुरिकार मल्ल आम्नायिक ।—वर्णरत्नाकर, पृ० ९ ।
⋙ छुरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लास्य नामक नृत्य का एक भेद । वह नृत्य जिसमें नायक और नायिका दोनों रसपूर्ण हो परस्पर प्रेमप्रदर्शनपूर्वक चुंबनादि करते हुए नृत्य करते हैं । २. बिजली की चमक । ३. कटाव । क्षत (को०) ।
⋙ छुरित (२)
वि० १. खचित । जड़ित । खुदा हूआ । २. लेप किया हुआ । पोता हुआ । लेपित (को०) । मिला हुआ (को०) । ४. कटा हुआ (को०) ।
⋙ छुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काटने या चीरने फाड़ने का छोटा हथियार जिसमें एक बेट में लोहे का लंबा धारदार टुकड़ा लगा रहता है । इससे नित्य प्रति के व्यवहार की वस्तु जैसे, फल, तरकारी, कमल आदि काटते हैं । २. लोहे का एक धारदार हथियार जिसमें बेंट लगा रहता है । मुहा०—छुरी चलना = (१) छुरी की लड़ाई होना । (२) चीरने आदि के लिये छुरी का प्रयोग होना । (किसी पर) छुरी चलाना=घोर कष्ट पहुँचाना । घोर दुःख देना । भारी हानि पहुँचाना । घोर अनिष्ट करना । बुराई करना । अहित साधन करना । छुरी देना=मारना । गला काटना । (किसी पर) छुरी तेज होना=अनिष्ट करने या हानि पहुँचाने की तैयारी होना । (किसी पर) छुरी फेरना=किसी का अनिष्ट करना । किसी को भारी हानि पहुँचाना । (किसी के) गले पर छुरी फेरना=दे० 'छुरी फेरना' । छुरी कटारी रहना=लड़ाई झगड़ा रहना । बिगाड़ रहना । बैर रहना । (किसी के) छुरियाँ कटावन पड़ना=(१) किसी के कारण या उसके द्वारा किसी वस्तु का नष्ट या खर्च होना । कट्टे लगना । जैसे,—यहाँ आम रखे थे, न जाने किसके छुरियाँ कटावन पडे़ (अर्थात् न जाने किसने ले लिए या खा लिए) । यह वाक्य प्रायः स्त्रियाँ क्रोध में शाप के रूप में बोलती हैं । (२) रक्ता- तिसार होना । लोहू गिरना ।
⋙ छुरीधार
संज्ञा स्त्री० [सं० छुरी+धार] छुरे के आकार का हाथीदाँत का एक औजार जिसमें जाली कटी रहती है ।
⋙ छुलकना
क्रि० अ० [अनु० छुल छुल] थोड़ा थोड़ा करके मूतना ।
⋙ छुलकी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] थोड़ा थोड़ा करके पेशाब करने की क्रिया ।
⋙ छलछल
संज्ञा पुं० [अनु०] थोड़ा थोड़ा करके मूतने से निकला हुआ शब्द ।
⋙ छुलछुलाना
क्रि० अ० [अनु० छुल छुल] थोड़ा थोड़ा करके मूतना । २. थोड़ा थोड़ा करके पानी डालना । ३. इतराना । इठलाना ।
⋙ छुलाना
क्रि० स० [हिं० छूना] एक वस्तु को दूसरी वस्तु के इतने पास ले जाना कि एक दूसरे से लग या मिल जाय । स्पर्श कराना । छुवाना ।
⋙ छुलिक्का
संज्ञा स्त्री० [सं० छुरिका, प्रा० छुरिया] की तरह का एक अस्त्र । छरी । चाकू । उ०*—जमंदड्ढ प्राहार छेदं छुलिक्का । उरा पार फुट्टे हबक्के क्रसक्का ।—पृ० रा, ९ ।१५१ ।
⋙ छवना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छूना' ।
⋙ छवाछूत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छूआछूत' ।
⋙ छुवाना
क्रि० स० [हिं० का छूना का सक० रूप] स्पर्श करना । छुलाना । उ०—चितई ललचौहैं चखनि डटि घूँघट पट माँहिं । छल सों चली छुवाय कै छिनुक छबीली छाँहि ।— बिहारी र०, दो०, १२ ।
⋙ छुवाव †
संज्ञा पुं० [हिं० छुवाना] लगाव । संबंध । संसर्ग । यौ०—छुवाव लगाव । लगाव छुवाव ।
⋙ छुवारो अजवायन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छुहारी अजवायन' ।
⋙ छुहना (१)पु
क्रि० अ० [हिं० छुवना] १. छू जाना । २. रँगा जाना । लिपना । पुतना । रंजित होना । उ०—कवि देव कहयो किन काहू कछ जब ते उनके अनुराग छुही ।—देव (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ छुहना (२)
क्रि० स० दे० 'छूना' । उ०—जयमाल गुलाल बनाइ गुही । घसि केसर कुंकुम मंडि छुही ।—रस र०, पृ०, १७९ ।
⋙ छुहाना (१)
क्रि० अ० [हिं० छोह] दे० 'छोहाना' ।
⋙ छुहाना (२)
क्रि० स० [हिं० छुहना] सफेदी कराना । पोतवाना । रँगाना ।
⋙ छुहारबेर
संज्ञा पुं० [हिं० छुहारा] पका हुआ बेर ।
⋙ छुहारा
संज्ञा पुं० [सं० क्षुत+हार ?] १. एक प्रकार का खजूर जिसका फल खाने में अधिक मीठा होता है । खुरमा । पिंड खजूर । खरिक खुरमा । विशेष—इसका पेड़ अरब, सिंध आदि मरु स्थानों में होता है । वैद्यक में यह पुष्टिकारक, शुक्र और बल को बढ़ानेवाला, तथा मूर्छा और वात पित्त का नाश करनेवाला माना गया है । २. पिंड खजूर का फल । विशेष—दे० 'खजूर' ।
⋙ छुहारी
संज्ञा स्त्री० [देश० छुहारा] छोटी और निकृष्ट जाति का छुहारा । उ०—कोइ कमरख कोइ गुवा छुहारी ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४७ ।
⋙ छुहारी अजवायन
संज्ञा स्त्री० [सं० चौहार+यवानी] फारस से आनेवाली अजमोदा ।
⋙ छुही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना] खरिया । सफेद मिट्टी ।
⋙ छूँछा †पु
वि० [हिं० छूँछा] दे० 'छूँछा' । उ०—आप छूँछ औरन ब्रत ठारै, बेद शास्त्र जिन नाहिं उचारे ।—कबीर सा०, पृ० ४६५ ।
⋙ छूँछना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दरी आदि की छोर पर निकला हुआ लंबा रेशा ।
⋙ छूँछा
वि० [सं० तुच्छ, प्रा० चुच्छ, छूँच्छ] [वि० स्त्री० छूँछी] १. जिसके भीतर कोई वस्तु न हो । खाली । रीता । रिक्त । जैसे, छूँछा घड़ा, छूँछी नली, छूँछा हाथ । उ०—(क) पैठे सखिन सहित घर सूने माखन दधि सब खाई । छूँछी छाँड़ि मटुकिया दधि को हँसि सब बाहिर आई ।—सूर (शब्द०) । (ख) जब विन प्रान पिंड है छूँछा । धर्म लाग कहिए जो पूँछा ।—जायसो (शब्द०) । मुहा०—छूँछा हाथ = (१) द्रव्य से खाली हाथ । (२) बिना हथियार का हाथ । हाथ जिसमें छड़ी या डंड़ा आदि न हो । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः छोटी वस्तुओं के लिये होता है, मकान आदि की बड़ी वस्तुओं के लिये नहीं; पर कहीं कहीं मकान के लिये भी इसका प्रयोग प्राप्त होता है । २. जिसके भीतर कुछ तत्व या सार न हों । निःसार । ३. जिसके पास रुपया पैसा न हो । निर्धन । जैसे,—छूछे को कौन पूछे ? ।
⋙ छूँछि †पु
वि० स्त्री० [हिं०] निष्फल । कोरा । बेकरा । उ०—अब सुठि मरौं छूँछि गै पाती प्रेम पियारे हाथ । भेंट होत दुख रोइ सुनावत जीउ जास जौं साथ ।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २७१ ।
⋙ छूँछी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छुच्छी' ।
⋙ छू
संज्ञा पुं० [अनु०] मंत्र पढ़कर फूंक मारने का शब्द । मंत्र की फूँक । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—छू बनना या होना=चलता बनना । चंपत होना । गायब होना । उड़ जाना । जाता रहना । न रहना । छू छू बनाना= उल्लू बनाना । बेवकूफ बनाना । छूमंतर=मंत्र की फूँक । छू मंतर होना=चट पट दूर होना । मिट जाना । गायब होना । जाता । रहना । न रहना । जैसे, दर्द का छू मंतर होना । विशेष—इंद्रजालिक या बाजीगर प्रायः मंत्र पढ़ते हुए छू कहकर वस्तुओं को गायब कर देते हैं ।
⋙ छूचक †
संज्ञा पुं० [सं० सूतक] १. अशौच । सूतक । २. बच्चा उत्पन्न होने पर छह दिन का काल ।
⋙ छूछा
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० खूछौ] दे० 'छूँछा' । उ०—नृप ने सशंक जो कुछ पूछा, बस उत्तर हुआ वही छछा ।—साकेत, पृ० १५७ । (ख) तेरी बात लगत मुहि छूछी ।—ह० रासो, पृ० ११५ ।
⋙ छूछू (१)
वि० [सं० तुच्छ, हिं० छूछा] मूर्ख । जड़ । अहमक । क्रि० प्र०—बनना ।—बनाना ।
⋙ छूछू (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बच्चों को खेलानेवाली स्त्री । दाई ।
⋙ छूट
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूटना] १. छूटने का भाव । छुटकारा । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—मिलना ।—होना । २. अवकाश । फुरसत । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—मिलना ।—लेना ।—होना । ३. देनदारों या असामियों के ऋण या लगान की माफी । उस रुपए या धन को अपनी इच्छा से छोड़ देना जो किसी के यहाँ चाहता हो । छुड़ौती । ४. किसी कार्य या उसके किसी अग को भूल से न करने का भाव । किसी कार्य से सबंध रखनेवाली किसी बात पर ध्यान न जने का भाव । उ०—करि स्नान अन्न दै दाना । एको तासै नाम बखाना । यहि के माँहिं छूट जो होई । एकादसि बिसरावा सोई ।—सबल (शब्द०) । क्रि० प्र०—देना ।—मिलना ।—पाना । ५. वह धन या रुपया जो किसी के यहाँ चाहता या बकाया हो पर किसी कारण से जमीदार या महाजन जिसे छोड़ दे । वह देना जो माफ हो जाय । ६. स्वतंत्रता । स्वच्छंदता । आजादी । ७. वह उपहास की बात जो किसी पर लक्ष्य करकेनिःसंकोच कही जाय । वह उक्ति जो बिना शिष्टता आदि का विचार किए किसी पर कही जाय । गाली गलौज । क्रि० प्र०—चलना ।—होना । ८. पटैत, फेंकैत बंकैत आदि की वह लड़ाई जिसमें जहाँ जिसे दाँव मिले वह बेधड़क वार करे । क्रि० प्र०—लड़ना । ९. स्त्री पुरुष का परस्पर संबंधत्याग । तिलाक । १०. वह स्थान जहाँ से कबूतरबाज शर्त बदकर कबूतर छोड़ें । ११. बौछार । छींटा । १२. मालखंभ की एक कसरत जिसमें कोई पकड़ करके हाथों के थपेडे़ देकर नीचे कूदते हैं । विशेष—यह दो प्रकार की होती है, एक 'दो हत्थी' दूसरी 'उलटी' । दो हत्थी में दोनों हाथों से बेंत पकड़ते हैं फिर जिस प्रकार उड़ान की थी उसी प्रकार पैरों को पीठ के पास ले जाकर उलटा उतारते हैं ।
⋙ छूटछुटाव
संज्ञा पुं० [हिं०] संबंधविच्छेद ।
⋙ छूट—हार
वि० [सं० √ छु(=छेद), प्रा० छुट्टण, हिं० छूटन+हार (प्रत्य०)] छूटनेवाला । उ०—तातें यह द्रव्य दिए आपुन छूटनहार नहीं ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २०२ ।
⋙ छूटना
क्रि० अ० [सं० छु/?/(=बंधनादि काटना)] १. किसी बँधी, लगी, फँसी, उलझी या पकड़ी हुई वस्तु का अलग होना । लगाव में न रहना । संलग्न न रहना । दूर होना । जैसे, (खूँटे से) घोड़ा छूटना, छीलका छूटना, (चिपका हुआ) टिकट छूटना, गाँठ छूटना, (पकड़ा हुआ) हाथ छूटना, आदि । उ०—साखि, सरद निसा विधुवदनि बधूटी । ऐसी ललना सलोनी न भई, न है होनी । रतिहु रची विधि जो छोलत छबि छटी ।—तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—शरीर छूटना=मृत्यु होना । प्राण छूटना=मृत्यु होना । साहस या हिम्मत छूटना=साहस न रहना । छूट पडना=किसी पकड़ी या बँधी हुई वस्तु का अलग होकर नीचे गिर जाना । जैसे,—गिलास हाथ से छूट पड़ा और फूट गया । २. किसी बाँधने या पकड़नेवाली वस्तु का ढीला पड़ना या अलग होना । जैसे, रस्सी छूटना, बंधन छूटना । ३. किसी पुती या लगी हुई वस्तु का अलग होना या दूर होना । जैसे,— रंग छूटना, मैल छूटना । संयो० क्रि०—जाना । ४. किसी बंधन से मुक्त होना । छुटकारा होना । रिहाई होना । किसी ऐसी स्थिति से दूर होना जिसमें स्वच्छद गति आदि का अवरोध हो । जैसे,—कैद से छूटना । संयो० क्रि०—जाना । ५. प्रस्थान करना । रवाना होना । चल पड़ना । चला जाना । जैसे,—चोरों को पकड़ने के लिये चारों ओर सिपाही छूटे हैं । ६. किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान का अपने से दूर पड़ जाता । वियुक्त होना । बिछडना । जैसे, घर छूटना, भाई बंधु छूटना । जैसे,—वह दूकान तो पीछे छूट गई । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—बंदुक छूटना = बंदूक से गोली निकलना और शब्द होना । बंदूक चलाना । विशेष—बंदूक, पडाके आदि के संबंध में केवल शब्द होने के अर्थ में भी इस क्रिया का प्रयोग होता है । ८. किसी बात का, जो रह रहकर बराबर होती रहे, बंद होना । किसी क्रिया का, जो समय समय पर बराबर होती रहे, दूर होना । न रह जाना । जैसे, आना जाना छूटना, आदत छूटना, अभ्यास छूटना, शराब (अर्थात् शराबी का पीना) छूटना, दम छूटना, बुखार छूटना, रोग छूटना, चौथिया छूटना । विशेष—फोडा, बवासीर, फीलपाव आदि बाहरी शरीर पर स्थायी लक्षण रखनेवाला रोगों के लिये इस क्रिया का व्यवहार प्रायः नहीं होता । इसी प्रकार समय समय पर होनेवाली बात का किसी एक विशेष समय में न होना छूटना नहीं कहलाता । जैसे, यदि किसी को बुखार चढा है या सिर में दर्द है और वह दवा देने से उस समय दूर हो गया तो उसे 'छूटना' नहीं कहेंगे 'उतरना' या 'दूर होना' ही कहेंगे । मुहा०—नाडी छूटना = (१) नाडी का चलना बंद हो जाना । (२) नाडि का गति का अपने स्थान पर न मिलना । ९. किसी वस्तु में से वेग के साथ निकलना । जैसे,— रक्त की धार छुटना । १०. रस रस कर (पानी) निकलना । जैसे— इस तरकारी में से पकाते वक्त पानी बहुत छूटता है । ११. किसी ऐसी वस्तु का अपनी क्रिया में तत्पर होना जिसमें से कोई वस्तु कणों या छींटों के रूप में वेग से बाहर निकले । जैसे,—पिचकारी छूटवा, फौवारा छूटना, आतिशबाजी छूटना । मुहा०—पेट छूटना = दस्त जारी होना । १२. काम आने से बचना । शेष रहना । बाकी रहना । जैसे,— उसके आगे जो छूटा है तुम खा लो । १३. किसी काम का या उसके किसी अंग का, भूल से न किया जाना । कोई काम करते समय उससे संबंध रखनेवाली किसी बात या वस्तु पर ध्यान न जाना । भूल या प्रमाद से किसी वस्तु का कहीं पर प्रयुक्त न होना, रखा न जाना या लिया न जाना । रह जाना । जैसे, लिखने में अक्षर छूटना, इकट्ठा करने में कोई वस्तु छूटना, रेल पर छाता छूट जाना, आदि । संयो० क्रि०—जाना । १४. किसी कार्य से हटाया जाना । नौकरी से अलग किया जाना । बरखास्त होना । जैसे, नौकरी से छूटना । १५. किसी वृत्ति या जीविका का बंद होना । रोजी या जीविका का न रह जाना । जैसे, नौकरी छुटना, बँधा हुआ सीधा छूटना । १६. पशुओं का अपनी मादा से संयोग करना । मुहा०—किसी पर छूटना = किसी मादा से संयोग करना ।
⋙ छूटिक पु †
संज्ञा पुं० [हिं० छूट] बंधन से मुक्ति । छुटकारा । उ०— जिन बातिन तेरी छूटिक नाहिं सोइ मन तेरे भायौ । कामीह्मै विषिया सँगि लाग्यौ रोम रोम लपटायो ।—दादू०, पृ० ५८८ ।
⋙ छुत
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूना] १. छूने का भाव । स्पर्श । संसर्ग । छुवाव । यौ०—छुआ छूत ।छूत छात । २. गंदी अशुचि या रोगसंचारक वस्तु का स्पर्श । अस्पृश्य का संसर्ग । जैसे,—(क) बहुत से रोग छुत से फैलते हैं । (ख) शीतला में लोग छूत बचाते हैं । यौ०—छूत का रोग, छूत की बीमारी = वह रोग जो किसी से छू जाने से हो । स्पर्शजन्य रोग । ३. अशुचि वस्तु के छूने का दोष या दूषण । जैसे,—इस बरतन में कौन सी छूत लगी है ? मुहा०—छूत उतारना = अशुचि स्पर्श का दोष दूर होना । ४. किसी मनहुस आदमी या भुत प्रेत की छाया । भूत आदि लगने का बुरा प्रभाव । मुहा०—छूत उतारना = भूत प्रेत की छाया का प्रभाव मंत्र से दूर करना । छूत झाडना = दे०'छूत उतारना' ।
⋙ छूति पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूत] भूत प्रेत या मनहूस अथवा कापालिक आदि की छाया । छूत । उ०—देखि भभूति छूति मोहिं लागै । काँपै चाँद, सूर सौं भागै ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३४ । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ छूना (१)
क्रि० अ० [सं० छुप, प्रा० छुव + हिं० ना (प्रत्य०), पूर्वी हिं० छूबना] एक वस्तु का दूसरी वस्तु के इतने पास पहुँचना कि दोनों के कुछ अंश एक दूसरे से लग जायँ । एक वस्तु के किसी अंश का दूसरी वस्तु के किसी अंश से इस प्रकार मिलना कि दोनों के बीच कुछ अंतर या अवकाश न रह जाय । स्पर्श होना । आंशिक संयोग होना । जैसे,—चारपाई ऐसे ढंग से बिछाओ कि कहीं दीवार से न छू जाय । सयो० क्रि०—जाना ।
⋙ छूना (२)
क्रि० स० १. किसी वस्तु तक पहुँचकर उसके किसी अंग को अपने किसी अंग से सटाना या लगाना । किसी वस्तु की और आप बढकर उसे इतना निकट करना कि बीच में कुछ अवकाश या अंतर न रह जाय । स्पर्श करना । संसर्ग में लाना । जैसे—धीरे धीरे यह डाल छत को छू लेगी । संयो क्रि०—देना ।—लेना । मुहा०—आकाश छूना = बहुत ऊँचे तक जाना । बहुत ऊँचा होना । २. हाथ बढाकर ऊँगलियों के संसर्ग में लाना । हाथ लगाना । त्वगिंद्रिय द्वारा अनुभव करना । जैसे,—(क) इसे छूकर देखो कितना कडा है । (ख) इस पुस्तक को मत छूओ । मुहा०—छूने से होना या छूने को होना = रजस्वला होना । ३. दान के लिये किसी वस्तु को स्पर्श करना । दान देना । जैसे, खिचडी छूना, बछिया छूना या छूकर देना । सोना छूना । विशेष—दान देने के समय वस्तु को मंत्र पढकर स्पर्श करने का विधान है । ४. दौड की बाजी में किसी को पकडना । ५. उन्नती का समान श्रेणी में पहुँचना । जैसे,—यह लडका अभी छठे दरजे में है पर दो बरस में तुम्हें छू लेगा । ६. धीरे से मारना । जैसे, तुम जरा सा छूने से रोने लगते हो । ७. थोडा व्यवहार करना । बहुत कम काम में लाना । जैसे, छुट्टी में तुमने कभी किताब छुई है । ८. पोतना । लगाना । जैसे,—चूना छूना, रंग छूना ।
⋙ छूही (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोई] सीठी । खोई । छोई । उ०—छानत द्वार फिरै निस बासर कौडी कौ सब भू ही । अमृत छाडि निलज्ज मूढ मति पकरत नीरस छूही ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८४० ।
⋙ छूही (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तूप ?] १. मिट्टी या ईंट की छोटी दीवाल । २. कुएँ की जगत पर कच्ची मिट्टी के बने हुए स्तूप ।
⋙ छूरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छुरा' ।
⋙ छूरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूरा] दे० 'छूरी' ।
⋙ छेँक
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] छेंकने का भाव । यौ०—छेंक छाँक । रोक छेंक ।
⋙ छेंकना
क्रि० स० [सं० √ छद्(= ढाँकना) + करण अथवा सं० छेदक (= काटनेवाला, ला० रोकना, घेरना, बाधक होना) प्रा० * छेअक > छेक > हिं० √ छेंक + ना (प्रत्य०)] १. आच्छादित करना । स्थान घेरना । जगह लेना । जैसे,—(क) कितनी जगह तो यह पेड छेंके है । (ख) इस रोग की दवा करो नहीं तो यह सारा चेहरा छेंक लेगा । २. घेरना । रोकना । गति का अवरोध करना । रास्ता बंद करना । जाने न देना । उ०—(क) प्रभू करुणामय परम विवेकी । तनु तजि रहत छाँह किमि छेंकी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मेघनाद सुनि स्रवन अस गढ पुनि छेका आइ । उतरि दुर्ग ते बीर बर सम्मुख चलेउ बजाइ ।—तुलसी (शब्द०) । ३. लकीरों से घेरना । रेखा के भीतर डालना । ४. लिखे हुए अक्षर को लकीर से काटना । मिटाना । जैसे,—इस पोथी में जहाँ जहाँ अशुद्ध हो छेंक दो । उ०—सोइ गोसाई विधि गति जेइ छेंकी । सकइ को टारि टेक जो टेकी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छेंवर
संज्ञा पुं० [देश०] एक घास जो चारे के काम आती है । घंटील ।
⋙ छेक (१)
वि० [सं०] १. पालतू । घरेलू । २. नागर । बिदग्ध । ३. शहरी । नागरिक [को०] ।
⋙ छेक (२)
संज्ञा पुं० १. घर के पालतू पशु पक्षी । २. नागर व्यक्ति । ३. छेकानुप्रास ।
⋙ छेक (३)
संज्ञा पुं० [हिं० छेद] १. छेद । सूराख । उ०—सत गुरु साँचा सूरमा शब्द जो मारा एक । लागत ही भय मिट गया परा कलेजे छेक ।—कबीर (शब्द०) । २. कटाव । विभाग । उ०—कबिरा सपने रैन में परा जीव में छेक । जैसे हुत्ती दुइ जना जो जागुँ तो एक ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ छेकनी †
वि० [हिं० छेंकना] छेकनेवाली । रोकनेवाली । उ०— यहै इस्क की रीति ऊँच नीच कह देखनी । कई स्याम सों प्रीति लोक लाज सब छेकनी ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ३५ ।
⋙ छेकानुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] एक शब्दालंकार । अनुप्रास अलंकार के पाँच भेदों में एक जिसमें एक ही चरण में दो या अधिक वर्णों की आवृत्ति कुछ अंतर पर होती है । जैसे—अभोज अंबक अंबु उमगी सुअग पुलकावलि छई ।—मानस, १ । ३१८ ।
⋙ छेकापहनुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अलंकार जिसमें दूसरे के ठीक अनुमान या अटकल का अयथार्थ उक्ति से खंडन किया जाता है । जैसे—सीसी कर न सिखात है करत अधर छत पीर । कहा मिल्यो नागर पिया ? नहिं सखि सिसिर समिर । यहाँ नायिका के अधर पर क्षत देखकर सखी अपना अनुमान प्रकट करती है कि क्या नायक मिला था ? इसपर नायिका ने यह कहकर कि 'नहीं शिशिर की हवा लगती है' उसके अनुमान का खंडन किया ।
⋙ छेकाल, छेकिल
वि० [सं०] दे० 'छेक' ।
⋙ छेकोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह लोकोक्ति जो अर्थांतर्गमित हो अर्थात जिससे अन्य अर्थ की भी ध्वनि निकले । जैसे,—जानत सखे भुजंग ही जग में चरण भुजंग ।—(शब्द०) ।
⋙ छेटा †
संज्ञा स्त्री० [सं०क्षिप्त, प्रा० छित्त] बाधा । रुकावट । उ०— कह्यो कुलिंद भूप कर बेटा । डाँड देत में डारत छेटा ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ छेड (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छेद] १. छू या खोद खादकर तंग करने की क्रिया । २. व्यंग्य, उपहास आदि के द्वारा किसी को चिढाने या तंग करने की क्रिया । हँसी ठठोली करके कुढाने का काम । चुटकी । यौ०—छेडखानी ।छेडछाड = हँसी ठठोली । चुटकी । ३. ऐसी बात या क्रिया जिससे दूसरा कोई चिढे । चिढानेवाली बात । मुहा०—छेड निकालना = चिढानेवाली बात स्थिर करना । जैसे,— उसे चिढाने के लिये तुमने अच्छी छेड निकाली है । ४. रगडा । झगडा । परस्पर की चोंटे । एक दूसरे के विरुद्ध दाँवपेच । विरोध । जैसे,—उन दोनों में खूब छेड चली है । ५. बाजे में गति या शब्द उत्पन्न करने के लिये उसे छुने की क्रिया । बजाने के लिये किसी (विशेषतः तारवाले, जैसे; सितार) वाद्ययंत्रः का स्पर्श ।
⋙ छेड (२) †
संज्ञा पुं० छेद । सूराख ।
⋙ छेडना
क्रि० स० [हिं० छेदना] १. छूना या खोदना खादना । दबाना । कोंचना । जैसे,—इस फोडे को छेडना मत, दवा लगाकर छोड देना । २. छू या खोद खादकर भडकाना या तंग करना । जैसे,—कुत्ते को मत छेडो, काट खायगा । ३. किसी को उत्तेजित करने या चिढाने के लिये उसके विरुद्ध कोई ऐसा कार्य करना जिससे वह बदला लेने के लिये तैयार हो । जैसे,—तुम पहले उसे न छेडते तो वह तुम्हारे पीछे क्यों पडता । ४. व्यंग्य, उपहास आदि द्वारा किसी को चिढाना या तंग करना । हँसी ठठोली करके कुढना । चुटकी लेना । दिल्लगी करना । ५. कोई बात या कार्य आरंभ करना । उठाना । शुरु करना । जैसे, काम छेडना, बात छेडना, चर्चा छेडना, राग छेडना आदि । ६. बाजे (विशेषतःतारवाले) में शब्द या गति उत्पन्न करने के लिये उसे छूना । वाद्ययंत्र में क्रिया या शब्द उत्पन्न करने के लिये स्पर्श करना । बजाने के लिये बाजे में हाथ लगाना । जैसे,—सितार छेडना, सारंगी छेडना । ७. छेद करना । † ८. नश्तर से फोडा चीरना ।
⋙ छेडवाना
क्रि० स० [हिं० छेडना का प्रे० रुप] छेडने का काम कराना ।
⋙ छेडा
संज्ञा पुं० रस्सी । साँट ।—(लश०) । जैसे, बारीक छेडा ।
⋙ छेतर पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्र]दे० 'क्षेत्र' । उ०—राजस तामस सातुकी, छेतर तीनहिं भाँति । छेत्रक आतम देव है सबको महिं ये क्रांति ।—चरण० बानि, भा० २, पृ० २२० ।
⋙ छेतरना पु
क्रि० स० [सं० छि √ दिर् (= विदारण, छेत)] १. दुःख देना । पीडा पहुँचाना । उ०—(क) हित विण प्यारा सज्जणा, छल करि छेतरिंयाह । पहिली लाड लडाइ करि, पाछइ परिहरियाह । —ढोला०, दू० ४७१ । (ख) आवि विदेसी वल्लहा छल छेतरियाह ।—ढोला०, दू० ४१८ । (ग) सोहणा, थे मने छेतरी वीजी भीजी खेल ।—ढोला०, दू० ५११ ।
⋙ छेती
संज्ञा स्त्री० [प्रा० छित्ती] १. विच्छेद । बिलगाव । रुकाव । उ०—तीरभूमि निहारि हिय तें जाति जड़ता चेति । द्रवित आनँदघन निरंतर परति नाहिन छेति ।—घनानंद, पृ० ४६२ । २. अंतर । फासला । दूरी । उ०—ऊँमर बिच छेती घणी घाते गयउ जिहाज । चारण ढोलइ साँमुहउ, आइ कियउ सुभ राज ।—ढोला० दू० ६४३ ।
⋙ छेत्ता
वि० [सं० छेतृ] १. काटनेवाला । छेदन करनेवाला । २. नष्ट करनेवाला । निवारण करनेवाला । दूर करनेवाला । (भ्रभादि) ३. लकडी काटनेवाला [को०] ।
⋙ छेत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्र] दे० 'क्षेत्र' ।
⋙ छेत्रक पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्रज्ञ] दे० 'क्षेत्रज्ञ' (२) । उ०—राजस तामस सातृकी छेतर तीनहिं भाँति । छेत्रक आतमदेव है, सबको महिं ये क्रांति ।—चरण० बानी, भा० २, पृ० २२० ।
⋙ छेद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छेदन । काटने का काम । २. नाश । ध्वंस । जैसे, उच्छेद, वंशच्छेद । ३. छेदन करनेवाला । ४. गणित में भाजक । ५. खंड । टुकडा । ६. श्वेतांबर जैन संप्रदाय के ग्रंथो का एक भेद । ७. विराम । अवसान । समाप्ति (को०) । ८. कोई परिचयात्मक चिन्ह । लक्षण (को०) । ९. कटने का घाव या चिन्ह (को०) ।
⋙ छेद (२)
संज्ञा पुं० [सं० छिद्र] १. किसी वस्तु में वह खाली स्थान जो फटने या सुई, काँटे हथियार आदि के आरपार चुभने से होता है । किसी वस्तु में वह शून्य या खुला स्थान जिसमें होकर कोई वस्तु इस पार उस पार जा सके । सूराख । छिद्र । रंध्र । जैसे, छलनी के छेद, कपडे में छेद, सुई का छेद । जैसे,—दीवार के छेद में से बाहर की चीजें दिखाई पडती हैं । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. वह खाली स्थान जो (खूदने, कटने, फटने या और किसीकारण से) किसी वस्तु में कुछ दूर तक पडा हो । बिल । दरज । खोखला । विवर । कुहर । ३. दोष । दूषण । ऐब । क्रि० प्र०—ढूँढना ।—मिलना ।
⋙ छेदक
वि० [सं०] १. छेदनेवाला । काटनेवाला । २. नाश करनेवाला । ३. विभाजक । भाजक । छेद ।
⋙ छेदकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकडी काटनेवाला । बढई [को०] ।
⋙ छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटने या आरपार चुभाने की क्रिया या भाव । काटकर अलग करने का काम । चीरफाड । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. नाश । ध्वंस । ३. छेदक । काटने या छेदने का अस्त्र । ५. वह औषध जो कफ आदि को छाँटकर निकाल दे ।
⋙ छेदनहार †
वि० [हिं० छेदन+हार (प्रत्य०)] छेदने या काटने— वाला ।
⋙ छेदना (१)
क्रि० स० [सं० छेदन] १. किसी वस्तु को सुई काँटे, भाले, बरछी आदि से इस प्रकार दबाना कि उसमें आरपार छेद हो जाय । सुई, कील या और कोई नुकीली वस्तु एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व तक चुभाकर किसी वस्तु को छिद्रयुक्त करना । बेधना । भेदना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । विशेष—यदि कैंची से कतरकर, या और किसी ढंग से किसी वस्तु में छेद बनाए जाएँ तो यह कार्य उस वस्तु को 'छेदना' नहीं कहलाएगा । २. क्षत करना । घाव करना । जैसे,—तीरों ने उसका सारा शरीर छेद डाला । ३. काटना । छिन्न करना ।
⋙ छेदना (२)
संज्ञा पुं० वह औजार जिससे छेद किया जाय । जैसे, सूआ, सुतारी, आदि ।
⋙ छेदनिहार पु
वि० [हिं०] दे० 'छेदनहार' । उ०—सहसबाहु भुज छेद- निहारा । परसु विलोकु महीपकुमारा । मानस, १ । २७२ ।
⋙ छेदनीय
वि० [सं०] छेदने के योग्य । छेद्य ।
⋙ छेदा
संज्ञा पुं० [हिं० छेदना] १. घुन नाम का कीडा । २. अन्न में वह विकार जो इस कीडे के कारण पैदा होता है । घुन द्वारा खाए जाने के कारण अनाज के खोखले होने का दोष । ३. छेद । सूराख । छिद्र ।
⋙ छेदि (१)
वि० [सं०] १. काटने या छेदन करनेवाला । २. तोडनेवाला । नष्ट करनेवाला [को०] ।
⋙ छेदि (२)
संज्ञा पुं० १. बढई । २. इंद्र का वज्र [को०] ।
⋙ छेदित
वि० [सं०] काटा हुआ । विभक्त । छिन्न [को०] ।
⋙ छेदी
वि० [सं० छेदिन्] १. काटनेवाला । विभाजन करनेवाला । २. नष्ट कनेवाला । हटानेवाला [को०] ।
⋙ छेदोपस्थानिकचारित्र
संज्ञा पुं० [सं०] गणाधिप के दिए हुए प्राणा- तिपातादि पाँच महाव्रतों का पालन । छेदोपस्थानीय । (जैन) ।
⋙ छेद्य (१)
वि० [सं०] छेदन करने योग्य । छेदनीय ।
⋙ छेद्य (२)
संज्ञा पुं० १. परेवा । कबूतर । २. वैद्यक में आँख के रोगों को चिकित्सा का एक ढंग । इसमें आँख में नमक का चूर्ण डालते हैं तथा कभी कभी शस्त्रचिकित्सा भी करते हैं । ३. अंगच्छेदन । चीर फाड़ । शल्य क्रिया (को०) ।
⋙ छेद्यकंठ
संज्ञा पुं० [सं० छेद्यकण्ठ] कबूतर । परेवा ।
⋙ छेना (१)
संज्ञा पुं० [सं०छेदन] १. फाडा हुआ दूध जिसका पानी निचोडकर निकाल दिया गया हो । फटे दूध का खोया । पनीर । विशेष—इसकी बनाने की रीति यह है की खौलते हुए दूध में खटाई या फिटकारी डाल देते हैं जिससे वह फट जाता है अर्थात उसेक पानी का अंश सफेद भुरभुरे अंश से अलग हो जाता है । फिर फटे हुए दूध को एक कपडे में रखकर निचोडते हैं जिससे पानी निकल जाता है और दूध का सफेद भुरभुरा अंश बच रहता है जो छेना कहलाता है । इस छेने से बंगाल अनेक प्रकार की मिठाईयाँ बनती है । दही गरम करके भी एक प्रकार का छेना बनाया जाता है । २. कंडा । उपला । गोईँठा । गोहरी ।
⋙ छेना (२)
क्रि० स० १. कुल्हाडी आदि से काटना या घाव करना । छिनगाना । २. छीजना । दे० 'छैना' ।
⋙ छेनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छेना] १. लोहे का वह औजार जिससे धातु, पत्थर आदि काटे या नकाशे जाते हैं । टाँकी । विशेष—यह पाँच छह अंगुल लंबा लोहे का टुकजा होता है जिसके एक और चौडी धार होती है । नक्काशी करते समय इसे नोक के बल रखकर ऊपर ठोंकते हैं । नक्काशी करने की छेनी सो सोलह भेद हैं—(१) खेरना । इससे गोल लकीर बनाई जाती है । (२) चेरना । इससे सीधी लकीर बनाई जाती है । (३) पगेरना । इससे लहर बनाई जाती है । (४) गुलसुम । इससे गोल गोल दाने बनाए जाते हैं । (५) फुलना । इससे फूल और पत्तियाँ बनाई जाती हैं । (६) बलिस्त । इससे बडी बडी पत्तियाँ बनाई जाते हैं । (७) दोन्नर्द । इससे छोटी पत्तियाँ बनाई जाती है । (८) तिलरा । (९) डिंगा । इन दोनों से गोल महराव काटा जाता है ।(१०) किर्रा । इससे बेल और पत्तियाँ बनाई जाती है । (११) मलकरना । इससे दोहरी लकीर बनती है । (१२) सूतदार पगेरना । इससे एक बार में दोहरी लहर बनती है । (१३) गोटरा । इससे गोल नक्काशी बनाई जाती है । (१४) पनदार गोटरा । इससे पान बनाया जाता है । (१५) चौकाना गुलुसुम । (१६) तिकोना गुलसुम । इन दोनों से चौकनी और तिकोनी नक्काशी बनाई जाती है । २. वह नहरनी जिससे पोस्ते से अफीम पोछकर निकाली जाती है ।
⋙ छेमंड
संज्ञा पुं० [सं० छेमण्ड] बिना माँ बाप का लडका । अनाथ या यतीम बच्चा ।
⋙ छेम पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेम] दे० 'क्षेम' । उ०—(क) जाय कहब करतूति बिनु जाय जोग बिनु छेम । तुलसी जाय उपासब बिना राम पद प्रेम ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बडि प्रतीतिगठबँध ते बडे जोग ते छेम । बडो सुसवेक साइँ ते बडो नाम ते प्रेम ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छेमकारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेमकारी] सफेद चील । उ०—(क) छेमकरी कह छेम बिसेखी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी । मानस, १ । ३०३ । (ख) लाभ लाभ लोका कहत छेमकरी कह छेम । चलत विभीषनु सगुन सुनि तुलसी पुलकत प्रेम— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छेमा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षमा, पुं० हिं० छिमा] दे० 'क्षमा' । उ०— छेमा कपाट का ताला, कुंजी सुरत निरत का तीर ।—रामा- नंद०, पृ० ३२ ।
⋙ छेरना †
क्रि० अ० [सं० क्षरण] अपच के कारण बार बार पाखाना फिरना ।
⋙ छेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० छेलिका] बकरी । अजा ।
⋙ छेल पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छैल' । उ०—तरतम तजेकर दूरे छेल इछहि छोडह मोर चीर ।—विद्यापति, पृ० २०३ ।
⋙ छेलक
संज्ञा पुं० [सं०] बकरा [को०] ।
⋙ छेल चिकनिया पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छैलचिकनिया' । उ०— तब चाचा हरिवंस जी ने कही जो यहाँ कहुँ वह छेल चिकनिया आयो होइगो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ५७ ।
⋙ छेली †
संज्ञा स्त्री० [सं० छेलिका] दे० 'छेरी' । उ०—बहु वृषभ गाय महिषीन तुंग । छेली छयल्ल गडरन्न पुंग । पृ० रा०, १७ । ३३ ।
⋙ छेव (१)
संज्ञा पुं० [सं० छेद, प्रा० छेव] १. काटने, छीलने आदि के लिये किया हुआ आघात । वार । चोट । उ०—तबै मेव यह कही बीर ठाढो । अब नहिं जीवत जाइलोह करिहौं रन गाढो । सुनत राव ह्वै क्रुद्ध जुद्ध में तेगहि झारी । तहीं मेव गहि छेव तुरंगम ते गहि डारी । भू परच्य़ो परी ह्वै तीन असि बडगुजर के अंग पर । लियो सीस काटि साथी सहित राव रुंड सोयो समर ।—सूदन (शब्द०) । क्रि० प्र०—चलाना ।—मारना ।—लगना ।—लगाना । २. वह चिन्ह काटने छीलने आदि से पडे । जखम । घाव । जैसे,—उसने इस पेड में कुल्हाडी से कई छेव लगाए हैं । उ०— अरिन के उर मोहिं कीन्ह्यो इमि छेव है ।—भूषण (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।—लगाना ।—पडना । मुहा०—छल छेव = कपट व्यवहार । कुटिलता का दाँव पेंच । छल छिद्र । उ०—जानत नहीं कहाँ ते सीखे चोरी के छल छेव ।—सूर (शब्द०) । ३. आनेवाली आपत्ति । होनहार । दुःख । ४. किसी दुष्कर्म या क्रुर ग्रह आदि के प्रभाव से होनेवाला अनिष्ट । क्रि० प्र०—उतरना ।—छूटना ।—टलना ।—मिटना ।
⋙ छेव (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टेव' ।
⋙ छेव (३)
संज्ञा पुं०[देशी छेअ] अत । समाप्ति । पर्यत । छोर ।
⋙ छेवन
संज्ञा पुं० [हिं० छेवना,=काटना] वह तागा जिससे कुम्हार चाक पर के बरतन को काटकर अलग करते हैं ।
⋙ छेवना (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छेना] ताडी ।
⋙ छेवना (२)
क्रि० स० [सं० छेदन] १. काटना । छिन्न करना । छिनगाना । २. चिन्हित करना । चिन्ह लगाना ।
⋙ छेवना (३)पु
क्रि० स० [क्षेपण] १. फेंकना । मिलाना । उ०— अंत भयो प्रारब्ध को पायो निश्चल गेह । आतम परमातम मिल्यो देह खेत महँ छेव ।—निश्चल (शब्द०) । २. ऊपर डालना । मुहा०—जी पर छेवना = अपने ऊपर विपत्ति डालना । जी पर खेलना । उ०—जो अस कोई जिउ पर छेवा । देवता आइ करहिं नित सेवा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिय पर छेवा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ छेवनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छेना(=काटना)] दे० 'छेनी' ।
⋙ छेवर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छेवना] १. छाल । बक्कल । २. छिलका । ३. चमडा । त्वचा । क्रि० प्र०—उधड़ना ।—उधेड़ना ।
⋙ छेवरा †
संज्ञा पुं० [हिं० छेवर] दे० 'छेवर' ।
⋙ छेवा †
संज्ञा पुं० [हिं० छेव] १. छीलने या काटने का काम । २. वह आघाता जो छीलने या काटने के लिये किया जाय । चोट । छीलने या काटने का चिन्ह । घाव । जखम । ४. अत्यंत वेग से बहने वाला जल ।—(मल्लाह) ।
⋙ छेह (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० छेव] १. दे० 'छेव' । २. खंडन । नाश । उ०—ब्रम्ह भिन्न मिथ्या सब भाख्यो । तिनको भेद हेत कहि राख्यो । उपजो यह मोको संदेहा । प्रभु ताको अब कीजै छेहा ।—निश्चल (शब्द०) ।
⋙ छेह (२)पु
वि० १. टुकडें टुकडे किया हुआ । खंडित । २. न्यून । कम । उ०—पूरा सहजै गुण करे गुण ना आवै छेह । सायर पोसे सर भरे दामन भीगे मेह ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ छेह (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षिप्] नृत्य का एक भेद ।
⋙ छेह (४)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षार] मिट्टी । राख । छार । वि० दे० 'खेह' ।
⋙ छेह (५) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छाया या छाँह] दे० 'छाया' ।
⋙ छेह (६)पु †
दे० [अप० छेह] छह । उ०—जलहि तत्व पै सूर्य सवारा । छेह मास आनंद बिचारा ।—कबीर सा०, पृ० ८७९ ।
⋙ छेह (७)पु
संज्ञा पुं० [प्रा० छेअ] अंत । समाप्ति । प्रांत । पर्यंत । किनारा । उ०—(क) साइधण हल्लण साँभलइ, ऊभी आँगण छेह । काजल जल भेजा करी, नाखी नाँख भरेह ।—ढोला०, दू०, ३३७ । (ख) खेता पूछो जीव सनेही । गिनत गिनत ना आवै छही ।—कबीर सा०, पृ० ५४९ ।
⋙ छेहडा पु †
वि० [हिं० छेह+ड (प्रत्य०)] न्यून । कम । दे० 'छेह' । उ०—सौदा सतगुरु सूँ दिया राम नाम धन काज । लाभ न कोई छेहडो तोटा सबही भाज ।—राम० धर्म०, पृ० ५८ ।
⋙ छेहर †
संज्ञा स्त्री० [सं० छाया] छाया । साया ।
⋙ छेहरा पु
संज्ञा पुं० [सं० छाया] अलगाव । व्यवधान । विच्छेद ।विरह । उ०—कह्यौ न परत कछु रह्यौ न परत है सहयौ न परत छिन छेहरा ।—घनानंद, पृ० ३३८ ।
⋙ छै (१) †
वि०, संज्ञा पुं० [सं० षट्] दे० 'छ' ।
⋙ छै (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षय] दे० 'क्षय', 'छय' । उ०—यह कहि पारथ हरि पुर गए । सुन्यो सकल जादव छै भए ।—सूर०, १ । २८६ ।
⋙ छैऊ पु †
वि० [हिं०] छहों । उ०—सार बेद चारौ कौ जोइ । छैऊ सास्त्र पुनि सोइ ।—सूर०, ७ । २ ।
⋙ छकार †
संज्ञा पुं० [हिं० छय, छै] क्षय । विनाश । उ०—होखे दुरमति वंश तुम्हारा । ताते होवे विंद छैकारा ।—कबीर सा०, पृ० २१० ।
⋙ छैना पु
क्रि० अ० [सं० क्षि √ क्षयण; हिं० छय + ना/?/(प्रत्य०)] १. छीजना । क्षीण होना । कम होना । २. नष्ट होना । मुहा०—छै जाना = छेद का फट जाना । किसी छेद का फैलकर इतना बढ जाना कि उसके आसपास का स्थान फट जाय । जैसे, कान छै जाना; अर्थात् कान में किए हुए छेद का इतना फैल जाना कि लौ फट जाना ।
⋙ छैया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छावँ' । उ०—(क) जाति पाँति हम तै बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।—सूर०, १० । २४५ । (ख) माई आजु तो हिंडोर झूलैं छैयाँ कदम की । गोपी सब ठाढी मानों चित्र सी सदन की ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७८ ।
⋙ छैया (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० शावक, हिं० छबना] बच्चा । वत्स । (प्यार का शब्द) । उ०—(क) कहत मल्हाइ लाइ उर छिन छिन छगन छबीले छोटे छैया—तुलसी ग्रं०, पृ० २७७ । (ख) बिसकर्मा सूतहार, रच्यो काम ह्मै सुनार, मनिगन लागे अपार काज महर छैया ।—सूर०, पृ० १० । ४१ ।
⋙ छैया †पु
वि० [सं०] १. क्षय होनेवाला । छोजनेवाला । २. नष्ट करनेवाला ।
⋙ छैल पु
संज्ञा पुं० [सं० छवि+प्रा० इल्ला (प्रत्य०), प्रा० छबिल्ल, छयल्ल, छइल्ल] सुंदर और बना ठना आदमी । सुंदर वेश- विन्यासयुक्त पुरुष । वह पुरुष जो अपना अंग खूब सजाए हो । बाँका । शौकीन । रँगीला । उ०—छरे छबीले छैल सब सूर सुजान नवीन । जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रवीन ।—मानस, १ । २९८ । यौ०—छैल चिकनियाँ । छैल छबीला ।
⋙ छैल चिकनियाँ
संज्ञा पुं० [देश०] शौकीन । बना ठना आदमी । उ०—छैल चिकनिया उभै घनेरे ।—कबीर० सा०, पृ० ३१ ।
⋙ छैलछबीला
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० छैलछबीली] १. सजाबजा और युवा पुरुष । रँगीला पुरुष । बाँका । उ०—उत नव नागरि राधिका, छैलछबीली सोय । फाग रंग रस रंग मैं, तामस और न कोय ।—ब्रज ग्रं०, पृ० २३ । २. छरीला नाम का पौधा ।
⋙ छैलपन
संज्ञा पुं० [हिं० छैल+पन (प्रत्य०)] बाँकापन । सजीला- पन । उ०—हमें अबला थिक अलप गेआन । तोहर छैलपन निदत आन ।—विद्यापति पृ० २८४ ।
⋙ छैला
संज्ञा पुं० [सं० छवि+प्रा० इल्ल (प्रत्य०), प्रा० छबिल्ल, छयल्ल, छइल्ल] सुंदर और बना ठना आदमी । सुंदर वेश- विन्यासयुक्त पुरुष । जो अपना अंग खूब सजाए हो । सजीला । बाँका । रँगीला । शौकीन ।
⋙ छोंकर
संज्ञा पुं० [सं० शङ्करा] शमी का वृक्ष । सफेद कीकर । उ०—छोंकर के वृक्ष बटुआ झुलाइ दियो, कियो जाय दरशन सुख भयो भारिए । —भक्तमाल, पृ० ५६९ ।
⋙ छोँकरा
संज्ञा पुं० [सं० शङ्करा] दे० 'छोंकर' ।
⋙ छोँडा पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्ष्वेड] वह लकडी जिससे दही मथा जाता है । मथानी ।
⋙ छोँडा
संज्ञा पुं० [सं० शावक] [स्त्री० छोंडि, छोंडी] दे० 'छौंडा' ।
⋙ छौंडि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्ष्वेडिका] मथानी ।
⋙ छोँडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षोणि] बडा बरतन ।
⋙ छोँत †
संज्ञा पुं० [हिं०] छिलका । उ०—ओगण सह कर एकठा, विदर वणाया वेह । ज्याँ मझ काँदा छोंत जिम, छिदराँ रो नहिं छेह । —बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ९१ ।
⋙ छो
संज्ञा पुं० [सं० क्षोभ, हिं० छोह] १. छोह । प्रेम । प्रीति । चाह । २. दया । कृपा । ३. क्रोधजनित दुःख । क्षोभ । कोप । गुस्सा । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।—रखना ।
⋙ छोंइआ †
संज्ञा स्त्री० [देशी०] दे० 'छोई' ।
⋙ छोई †
संज्ञा स्त्री० [ देशी छोइया, अथवा हिं० छोलना] १. ईख की पत्तियाँ जो उसमें से छीलकर फेक दी जाती है । २. गन्ने की वह गडेरि या गन्ना जिसका रसचूसकर या पेरकर निकाललिया गया हो । बिना रसकी गडेरी । सीठी । खोई । उ०—गाँडे की सी छोई कर डाले, रहन न देत मिठाई ।—कबीर० श०, पृ० ७ ।
⋙ छोकडा
संज्ञा पुं० [सं०शावक, प्रा० छावक + रा (प्रत्य०)] [स्त्री० छोकडी] लड़का । बालक । अनुभवशून्य या अपरिपक्व बुद्धि का युवक । लौंडा । (प्रायः बुरे भाव से) ।
⋙ छोकडापन
संज्ञा पुं० [हिं० छोकडा+पन (प्रत्य०)] १. लड़कपन २. छिछोरापन । नादानी ।
⋙ छोकडिंया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छोकडी' ।
⋙ छोकडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोकडा] लड़की । कन्या । बेटी ।
⋙ छोकर पु †
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'छोकडा' ।
⋙ छोकरा
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० छोकरी] दे० 'छोकडा' ।
⋙ छोकरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छोकरी' ।
⋙ छोकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छोकडी' ।
⋙ छोकला †
संज्ञा पुं० [सं० छल्ल] छोल । छिलका । बक्कल ।
⋙ छोगाल †
वि० [देश०] छैला । उ०—विदर बुराई बीटिया, विदर बड वाचाल । विदर पटा लावै सुरत, छोगाल चिरताल । — बाँकी० ग्रं०, भा०२पृ० ८५ ।
⋙ छोट †
वि० [सं० क्षुद्र हिं० छोटा, अथवा देशी छुट्ट] दे० 'छोटा' । उ०—को बड छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू । —मानस, १ । २९ ।
⋙ छोटका †
वि० [हिं० छोटा+का (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० छोटकी] छोटा ।विशेष—पूरबी प्रत्यय (का. की,) ऐसी विषय वस्तुओं के लिये आता है जो सामने होती है, जिनका उल्लेख पहले हो चुका रहता है, या जिनका परिचय सुननेवाला कुछ रहता है ।
⋙ छोटपन †
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+पन (प्रत्य०)] छोटापन । छोटाई
⋙ छोत्रफन्नी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटा+फन] कम चौडे मुँहवाली मटकी । छोटे मुँह की ठिलिया । तंग मुँह की गगरी ।
⋙ छोटभैया
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+भाई] पद या मान मर्यादा में छोटा आदमी । कम हैसीयत का आदमी ।
⋙ छोटा
वि० [सं० क्षुद्र या देशी छुट्ट, छुट] [वि० स्त्री० छोटी] १. जो बडाई या विस्तार में कम हो । आकार में लघु या न्यून । डीलडौल में कम । जैसे = छोटा वोडा. छोटा घर, छोटा पेड, छोटा हाथ । यौ०—छोटा मोटा = छोटा । जैसे, छोटा मोटा घर । २. जो विस्तार या परिधि में भी कम हो । जिसमें फैलाव न हो । उ०—असवार चलंते पाअ घलंते पुहवी भए जा छोटी । कीर्ति०, पृ० ९४ । ३. जो अवस्था में कम हो । जिसका वय अल्प हो । जो थोडी उम्र का हो । जैसे, छोटा भाई । उ०—हम तुमसे तीन बरस छोटे हैं । ३. जो पद और प्रतिष्ठा में कम हो । जो शक्ति, गुण, योग्यता मानमर्यदा आदि में न्यून हो । जैसे, बडे आदमियों के सामने छोटे आदमियों को कौन पूछता है ? उ०—अरि छोटो गनिए नहीं जातें होत बिगार । तिन समुह को छिनक में जारत तनक अँगार । —वृंद (शब्द०) । यौ०—छोटा मोटा । ४. जो महत्व का न हो । जिसमें कुछ सार या गौरव न हो । सामान्य । जैसे,—इतनी छोटी बात के लिये लडना ठीक नहीं । ५. जिसमें गंभीरता, उदारता या शिष्टता न हो । जिसका आशय महत् या उच्च न हो । ओछा । क्षुद्र । जैसे,— (क) किसी से कुछ माँगना बडी छोटी बात है । (ख) वह बडे छोटे जी का आदमी है । मुहा०—छोटे मुँह बडी बात—साधारण या ओछे व्यक्ति द्वारा किसी श्रेष्ठ या शिष्ट के प्रति अनुचित एवं निंदात्मक बातें कहना । यौ०—छोटा आदमी—ओछा व्यक्ति ।
⋙ छोटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटा+ई (प्रत्य०)] १. छोटापन । लघूता । २. नीचता । क्षुद्रता । यौ०—छोटाई बडाई ।
⋙ छोटा कचूर
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+कचूर] कपूर कचरी । गंधपाली ।
⋙ छोंटा कपडा
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+कपडा] अँगिया । चोली ।
⋙ छोटा कुवार
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+सं० कुमारी] एक जाती का घीकुँआर । विशेष—इसेक पत्ते छोटे होते हैं और चीनी में मिलाकर दस्त की बीमारी में खाए जाते हैं । यह मैसूर प्रांत से अधिक होता है ।
⋙ छोटा चांद
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+चाँव] एक लता जिसकी जड़ साँप के विष की उत्तम औषध कही जाती है । इस लता की जड़ को सुखाकर और चूर्ण करके साँप के काटे हुए स्थान पर लगाते और उसका काढा करके २४ घंटे में डेढ पाव तक पिलाते हैं ।
⋙ छोटापन
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+पन (प्रत्य०)] १. छोटा होने का भाव । छोटाई । लघुता । २. बचपन । बालपन । लडकपन ।
⋙ छोटा पाट
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+पाट] रेशम के कीडे का एक भेद ।
⋙ छोटा पीलू
संज्ञा पुं० [हिं० छोटा+पीलू] रेशम के कीडे का एक भेद ।
⋙ छोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगूठा तथा मध्यमा अँगुली को परस्पर मिलाकर ध्वनी करना । चुटकी [को०] ।
⋙ छोटी (१)
संज्ञा पुं० [सं० छोटिन्] मछली फँसानेवाला । मछुआ [को०] ।
⋙ छोटी (२)
वि० स्त्री० [देशी० छुट्ट] दे० 'छोटा' । यौ०—छोटी जात, छोटी जाति = समाज के निम्न जाति । नीची कौम । छोटी बात = ओछी बात । अभद्र वार्ता ।
⋙ छोटी इलायची
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटी+इलायची] सफेद या गुजराती इलायची । वि० दे० 'इलायची' ।
⋙ छोटी मैल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिडिया ।
⋙ छोटी रकरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटी+रकरिया] एक घास जो पंजाब के हिसार आदि स्थानों से मिलती है । यह पाँच चार साल तक रहती है इसे घोडे चाव से खाते हैं ।
⋙ छोटी सहेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटी+सहेली] एक छोटी चिडिया का नाम जो देखने में बडी सुंदर होती है ।
⋙ छोटी हाजिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोटी+हाजिरी] भारत में रहनेवाला अग्रेजों या यूरोपियन का प्रातःकाल का कलेवा (खानसामा) ।
⋙ छोड़
वि० [सं० छोरण, हिं० छोड़ना] (प्रायः समासंत में) छोड़नेवाला । त्यागनेवाला । जैसे, = 'रणछोड़ राय का मंदिर' में 'छोड़' शब्द ।
⋙ छोडचिट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोड़ना+चिट्ठी] वह लेख या कागज जिसके कारण कोई व्यक्ति किसी प्रकार के ऋण या बंधन से मुक्त समझा जाय । फारखती ।
⋙ छोड़ छुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोड़ना+छुट्टी] नाता टूटने या संबंध— त्याग । क्रि० प्र०—करना ।—बोलना ।—होना ।
⋙ छोड़ना
क्रि० स० [सं० छोरण] १. किसी पकडी हुई वस्तु को पृथक् करना । पकड से अलग करना । जैसे,—हमारा हाथ क्यों पकडे हो; छोड़ दो । संयो० क्रि०—देना । २. किसी लगी या चिपकी हुई वस्तु का उस वस्तु से अलग हो जाना जिससे वह लगी या चिपकी हो । उ०—बिना आँच दिखाए यह पट्टी चमडे को न छोडेगी । ३. किसी जीव या व्यक्ति को बंधन आदि से मुक्त करना । छुटकारा देना । रिहाई देना । जैसे, कैदियों को छोडना, चौपायों को छोड़ना । ४. दंड आदि न देना । अपराध क्षमा करना । मुआफ करना । जैसे,—(क) इस बार तो हम छोड देते हैं; फिर कभी ऐसा न करना । (ख) जज ने अभियुक्तों को छोड दिया । ५.न ग्रहण करना । न लेना । हाथ से जाने देना । जैसे,—मिलता हुआ धन क्यों छोडते हो । ६. उस धन को दयावश या और किसी कारण से न लेना जो किसी के यहाँ बाकी हो । देना । मुआफ करना । ऋणी या देनदार को ऋण से मुक्त करना । छूट देना । जैसे, = (क) महाजन ने सूद छोड दिया है, केवल मूल चाहत है । (ख) हम एक पैसा न छोडेंगे सब वसूल करेंगे । ७. अपने से दूर या अलग करना । त्यागना । परित्याग करना । पास न रखना । जैसे,—वह घर बार, लडके बाले छोडकर ,साधु हो गया । ८. साथ न लेना । किसी स्थान पर पडा रहने देना । न उठाना या लेना । जैसे,—(क) तुम हमें वहाँ अकेले छोडकर कहाँ चले गए । (ख) वहाँ एक भी चीज न छोडना, सब उठा लाना । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—ध्यान (घर, गाँव, नगर आदि) छोडना = स्थान से चला जाना या गमन करना । जैसे,—हमें घर छोडे आज तीन दिन हुए । ९. प्रस्थान करना । गमन करना । चलाना । दौडाना । जैसे,— गाडी छोडना, घोडा छोडना, सिपाही छोडना, सवार छोडना । मुहा०—किसी पर किसी को छोडना = किसी के पीछे किसी को दौडाना । किसी को पकडने, तंग करने या चोट पहुँचाने के लिये उसके पीछे किसी को लगा देना । जैसे, = हिरन पर कुत्ते छोडना, चिडिया पर बाज छोडना । मादा (पशु) पर नर (पशु) छोडना = जोडा खाने के लिये नर को मादा के सामने करना । १०. किसी दूर तक जानेवाला अस्त्र को चलाना या फेंकना । क्षेपण करना । जैसे, = गोली छोड़ना, तीर छोड़ना । विशेष—बंदूक, पडाके आदि के संबंध में केवल शब्द करने के अर्थ में भी इस क्रिया का प्रयोग होता है । ११. किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान से आगे बढ जाना । जैसे,— उसका घर तो तुम पिछे छोड आए । संयो० क्रि०—जाना । १२. किसी काम को बंद कर देना । किसी हाथ में लिए हुए कार्य को न करना । किसी कार्य में अलग होना । त्याग देना । जैसे,—काम छोडना, आदत छोडना, अभ्यास छोडना, आना जाना छोडना । जैसे,—(क) सब काम छोडकर तुम इसे लिख डालो । (ख) उसने नौकरी छोड दी । १३. किसी रोग या व्याधी का दूर होना । जैसे,—बुखार नहीं छोडता है । १४. भीतर से वेग से साथ बाहर निकलना । जैसे,—ह्वेल अपने मुँह सो पानी की धार छोडती है । १५. किसी एसी वस्तु को चलाना या अपने कार्य में लगाना जिसमें से कोई वस्तु कणों या छीटों के रूप में वेग से बाहर निकले । जैसे,—पिचकारी छोडना, फौवारा छोडना, आतशबाजी छोडना । १६. बचाना । शेष रखना । बाकी रखना । व्यवहार या उपयोग में न लाना । जैसे,—(क) उसने अपने आगे कुछ भी नहीं छोडा, सब खा गया । (ख) उसने किसी को नहीं छोडा है, सबकी दिल्लगी उडाई है । मुहा०—(किसी को) छोड या छोडकर = (किसी के) अतिरिक्त । सिबाय । जैसे,—तुम्हें छोड और कौन हमारा सहायक है । १७. किसी कार्य को या उसके किसी अंग को भूल से न करना । कोई काम करते समय उससे संबंध रखनेवाली किसी बात या वस्तु पर ध्यान न देना । भूल या विस्मृति से किसी वस्तु को कहीं से न लेना, न रखना या न प्रयुक्त करना । जैसे,—लिखने में अक्षर छोंडना इकट्ठा करने में कोई वस्तु छोडना, रेल पर छाता छोडना । १८. ऊपर से गिराना या डालना । जैसे,— (क) हाथ पर थोडा पानी तो छोड दो । (ख) इसपर थोडी राख छोड दो ।
⋙ छोडवाना (१)
क्रि० स० [हिं० छोडना का प्रे० रूप] छोडने का काम कराना ।
⋙ छोडवाना (२)
क्रि० स० [हिं० छुडाना का प्रें० रूप ] छुडाने का काम कराना ।
⋙ छोडाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'छुडाना' ।
⋙ छोत, छोति †; पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छूत] दे० 'छूत' । उ०—(क) पाप पुन्य नहिं तागे छोत ।—कबीर श०, पृ० १११ । (ख) जाकी छोति जगत कौं लागै तापरि तूँ ही धरै । अमर आप ले करे गुसाँई माखो हूँ न मरै । दादू०, पृ० ६०७ ।
⋙ छोती पु
वि० [हिं०] छूतवाला । अपवित्र । उ०—गिनै आन छोती इसै हेत तासी ।—राम० धर्म०, पृ० १८१ ।
⋙ छोना (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छौना' । उ०—मानो नाग छोना उडै होड मंडी ।—ह० रासो, पृ० १३१ ।
⋙ छोना पु
क्रि० स० [सं० क्षेप, प्रा० छोह] काटना । फेंकना । छोडना । उ०—धरनी मन मनिया, इक ताग में परोई । आपन करि जान लेहु, कर्म फंद छोई ।—संतावनी०, पृ० १२९ ।
⋙ छोनि पु
संज्ञा स्त्री० [क्षोणि] दे० 'छोनी' ।
⋙ छोनिप पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षोणिप] राजा । उ०—रहे असुर छल छोनिप बेखा । तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा ।—मानस, १ । २४१ ।
⋙ छोनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षोणीं] पृथ्वी । भूमि । उ०—सोक कनकलोचन मति छोनी । हरि विमल गुन गन गन जग जोनी ।— मानस, २ । २९६ ।
⋙ छोप
संज्ञा पुं० [सं० क्षेंप, हिं० खेप] १. किसी गाढी या गीली वस्तु की मोटी तह जो किसी वस्तु पर चढाई जाय । मोटा लेप । क्रि० प्र०—चढाना । २. गाढी या गीली वस्तु को मोटी तह चढाने का कार्य । ३. गीली मिट्टी या पानी में सनी हुई और किसी वस्तु का लौंदा जो दिवार अथवा और किसी वस्तु पर गड्ढे मूँदने या सतह बराबर करने आदि के लिये रखा और फैलाया जाय । क्रि० प्र०—चढाना ।—रखना । यौ०—छोप छाप = मरम्मत । ४. आघात । वार । प्रहार । उ०—जहाँ जात जूटी तहाँ टूटि परैबादर, त्यों ऊटि बल भट, सीस फूटि डारें छोप सों ।—गोपाल (शब्द०) । ५. छिपाव । बचाव । यौ०—छोप छाप (१) दोष आदि का छिपाव । (२) बचाव । रक्षा । (३) देख रेख ।
⋙ छोपना
क्रि० स० [हिं० छुपाना या हिं० छोप+ना (प्रत्य०) ] १. किसी गीली या गाढी वस्तु को दूसरी वस्तु पर इस प्रकार रखकर फैलाना कि उसकी मोटी तह चढ जाय । गाढा लोप करना । जैसे,—नीम की पत्ती पीसकर फोडे पर छोप दो । संयो, क्रि०—देना । २. गीली मिट्टी या पानी में सनी हुई और किसी वस्तु के लोंदे को किसी दूसरी वस्तु पर इस प्रकार फैलाकर रखना कि वह उससे चिपक जाय । गिलावा लगाना । थोपना । जैसे,— दीवार में जहाँ जहाँ गड्ढे हैं, वहाँ मिट्टी छोप दो । यौ०—छोपना छापना = गड्ढे आदि मूँदकर मरम्मत करना । फटे या गिरे पडे को दुरुस्त करना । संयो० क्रि०—देना । ३. किसी वस्तु पर इस प्रकार पडना कि वह बिलकुल ढक जाय । किसी पर इस प्रकार चढ बैठना कि वह इधर उधर अंग न हिला सके । धर दबाना । ग्रसना । जैसे,—शेर बकरी की छोपकर बैठा रहा । संयो० क्रि०—लेना । ४. आच्छादित करना । ढकना । छेंकना । ५. † किसी बात को छिपाना । परदा डालना । ६. किसी को वार या आघात से बचाना । आक्रमण आदि से रक्षा करना । † ७. कोई वस्तु किसी के मत्थे थोपना या बाध्य करके उसे दे देना ।
⋙ छोपा
संज्ञा पुं० [हिं० छोपना] पाल के चारों कोनों पर बँधी हुई रस्सियाँ जिनसे उसे ऊपर चढाते हैं ।
⋙ छोपाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोपना] १. छोपने का भाव । २. छोपने की क्रिया । ३. छोपने की मजदूरी ।
⋙ छोभ
संज्ञा पुं० [सं० क्षोभ] [वि० छोभित] १. चित्त की विचलता जो दुःख, क्रोध मोह करूणा आदि मनोवेगों के कारण होती है । जी की खलबली । उ०—तात तीनि अति प्रबल ये काम क्रोध अरू लोभ । मुनि विज्ञान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ।—मानस, ३ । ३२ । २. नदी, तालाब आदि का भरकर उमडना ।
⋙ छोभना पु
क्रि० अ० [हिं० छोभ+ना (प्रत्य०)] चित्त का विचलित होना । करुणा, दुःख, शंका, मोह, लोभ आदि के कारण चित्त का चंचल होना । जी में खलबली होना । क्षुब्ध होना । उ०—(क) जासु बिलोकि अलौकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु सोभा ।—मानस, १ । २३१ । (ख) नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पन सुमिरि बहुरि मनु छोभा ।—मानस, १ । २५८ ।
⋙ छोभित पु
वि० [सं० क्षोभित] क्षोभित । चंचल । विचलित । उ०—(क) छोभित सिंधु से सीर कंपित पवन भयौ गति पंग । इंद्र हँस्यो हर हिय विलखान्यो, जानि बचन कौ भंग ।—सूर०, ९ । १५८ । (ख) हे हरि छोभित करि दई पयन पयन सर मारि । हरिहि हरिनयनी लगी हेरनहार निहारी ।—श्रुं० सत० (शब्द०) ।
⋙ छोभ पु
[सं० क्षोभ (= अलसी का बना चिकना कपडा)] १. चिकना । २. कोमल । उ०—भीम सरिसमन छोम, खरे करि रोम भजहिं भट ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ छोर
संज्ञा पुं० [हिं० छोडना] १. किसी वस्तु का वह किनारा जहाँ उसकी लंबाई का अंत होता हो । आयत विस्तार की सीमा । चौडाई का हाशिया । जैसे,—दुपट्टें का छोर, तागे का छोर । उ०—काननि कनफूल उपवीत अनुकूल पियरे दुकूल विलसत आछे छोर हैं ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—और छोर = आदि अंत । २. विस्तार की सीमा । हद । ३. किनारे पर सूक्ष्म भाग । नोक । कोर । कोना । उ०—सिला छोर छुवत अहल्या भई दिव्य देह गुन पेशु पारस पंकरुह पाय के ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छोर छुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'छोड छुट्टी' ।
⋙ छोरटी, छोरडी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोरा+टी (प्रत्य०)] दे० 'छोरी' ।
⋙ छोरण
संज्ञा पुं० [सं०] छोडना । त्यागना [को०] ।
⋙ छोरदार
वि० [हिं० छोर(= किनारा, कोर)+दार (प्रत्य०)] छोरयुक्त । संपुर्ण । पूरा । उ०—'उरदाँम' सिसुता सहर चढि लूटि लीन्हों, सरंमधरँम, रह्यौ एकहू न छोरदार ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५७३ ।
⋙ छोरना †
क्रि० स० [सं० छोरण (= परित्याग)] १. बंधन आदि अलग करना । उलझन या फसाव आदि दूर करना । २. बंधन से मुक्त करना । उ०—जरासिंधु को जोर उघीरच्यौ, फारि कियो द्वै फाँको । छोरी बंदि बिदा किए राजा, राजा ह्वै गए राँको ।—सूर०, १ । ११३ । ३. हरण करना । छोनना । उ०—जोरि अंजलि मिले, छोरि तंदुल लए, इंद्र के विभव तैं अधिक बाढो ।—सूर०, १ । ५ । संयो० क्रि०—देना । लोना ।
⋙ छोरा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० शावक, हिं० छावक+रा (प्रत्य०)] [स्त्री० छोरी] छोकडा । लडका । बालक ।
⋙ छोरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक नाव को दूसरे नाव के साथ बाँधकर ले जाने का कार्य ।
⋙ छोराछोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोरना] १. छीनखसोट । छीना- छीनी । २. झगडा । बखेडा । झंझट । उ०—आतम देवराम नित विहरत यामें नहिं कछु छोराछोरी ।—देवस्वामी (शब्द०) ।
⋙ छोरावना पु
[हिं० छोडना का प्रे० रूप] अलग कराना । गुथी या मिली चीज को अलग अलग कराना । छोडवाना । उ०— तब भैरव भूवाल बीर वर । कीन हुकम कालिय ऊँच कर । छोरावहु गजराज पांनि गहि । बहुरि जरौ जंजीर थान कहि ।—पृ० रा०,६ । १६३ ।
⋙ छोरी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० छोर] किनारा । कोर छोर । उ०—बसन छोरि तैं छोरि, बिप्र श्रीधर कर दीनों ।—नंद० ग्रं०, पृ० २०४ ।
⋙ छोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोरा] लडकी । छोकडी ।
⋙ छोलंग
संज्ञा पुं० [सं० छोलङ्ग] नीबू [को०] ।
⋙ छोल (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोलना] १. छिल जाने का चिन्ह या घाव । २. साँप के काटने में उसके दाँत लगने का एक भेद जिसमें केवल चमडे में खरोंच लग जाता है ।
⋙ छोल (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. आवरण । घेरा । उ०—आठहू पहर मस्ताना माता रहै, ब्रम्ह की छोल में साध जीवै ।—तुरसी०, श०, पृ० ९५ । ३. क्रीडा । खेल । उ०—सीता बरी जनक पण साँचव, सुपह किया अपसोसै । छाता खलाँ उतोले छोलाँ, भ्राता तूझ भरोसै ।—रघु० रू०, पृ० १९१ । ३. तरग । लहर । उ०—इण विध आभरणांह मनूँ मुकता मिली । छक तरुणाई छोल पयोनिध ज्यों छिली ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ४० ।
⋙ छोलदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोरणा+धरना=छोरधरी] [या अं० सोलअरी (= सोना)] एक प्रकार का छोटा खेमा । छोटा तंबू ।
⋙ छोलना (१)
क्रि० स० [हिं० छाल] १. छीलना । सतह का ऊपरी हिस्सा काटना । उ०—सखि सरद बिमल बिधुबदनि बधूटी । ऐसी ललना सलोनी न भई, न है, न होनी, रत्यो रची बिधि जी छोलत छबि छूटि ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३३४ । २. खुरचना । जैसे,—कलेजा छोलना अर्थात् हृदय को अत्यंत व्यथित करना ।
⋙ छोलना (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० छोलनी] लोहे का एक औजार जिससे सिकलीगर हथियारों का मुरचा खुरचते हैं ।
⋙ छोलनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोलना] १. छोलने का औजार । २. ईख छीलने का औजार । ३. चिलम में छेद बनाने का औजार । ४. हलवाइयों का कहाडी खुरचने का औजार जो खुरपी के आकार को होता है । खुरचनी ।
⋙ छोला
संज्ञा पुं० [हिं० छोलना] १. वह पुरुष जो ईख को काटता और छीलता है । २. चना । बूट ।
⋙ छोवन
संज्ञा पुं० [हिं० छेवना] कुम्हारों का वह डोरा जिससे वे चाक पर चढे हुए बरतन को अलग करते हैं । विशेष—कुम्हार लोग इस डोरे को एक सरकंडे में बाँधकर पानी में रखे रहते हैं । चाक पर सामान तैयार हो जाने के बाद इसी डोरे से उसे अलग काटकर अलग करते और फिर उसी पानी में छोड देते हैं ।
⋙ छोंवना पु
क्रि० अ० [हिं०] सोना । नींद लेना । उ०—दादू गाफिल छोवतौं, मझे रब निहारि । मंझेई पिय पाण जौ मंझेई बिचार ।—दादू०, पृ० ८७ ।
⋙ छोवा पु
संज्ञा पुं० [सं०शावक] दे० 'छावा' । उ०—एहि वन बहुत जंतु सुख खोवा । औबिग खाँहि जो मानुष छोवा ।— चित्रा०, पृ० ३२० ।
⋙ छोह (१)
संज्ञा पुं० [हिं० क्षोभ] १. ममता । प्रेम । स्नेह । उ०— तजव छोभ जनि छाँडिय छोहु । करमु कठिन कछु दोसू न मोहु । मानस, २ । ६९ । २. दया । अनुग्रह । कृपा । उ०— पारबती सम पति प्रिय होहू । देवि न हम पर छाँडब छोहू ।—मानस, २ । ११८ ।
⋙ छोह (१)
संज्ञा पुं० [देशी] १. समूह । यूथ । जत्था । उ०—आरास सुब्रन बनि काच छोह । देषंत नैंन मुनि मगन मोह ।—पृ० रा०, १८ । ६२ ।
⋙ छोहगर (१)
वि० [हिं० छोह+गर (प्रत्य०)] प्रेंमी । स्नेही । ममता रखनेवाला ।
⋙ छोहगर † (२)
वि० [देश०] कम । थोडा ।
⋙ छोहना पु (१)
क्रि० अ० [हिं० छोह+ना (प्रत्य०)] विचलित होना । चंचल होना । क्षुब्ध होना । उ०—बडगूजरहुँ कोह्यौ । पंचानन ज्यों छोह्यो ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ छोहना (२) †
क्रि० अ० [हिं० छोह(= प्रेम+)ना (प्रत्य०)] प्रेम करना । अनुराग करना ।
⋙ छोहनार †
वि० [देश०] कम । थोडा । अल्प ।
⋙ छोहनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षौहिणी] दे० 'छोहिनी' । उ०—ज्ञान दल छोहनी भालु बानर लिहें । पलटू०, भा० २, पृ० १५ ।
⋙ छोहरा †पु
संज्ञा पुं० [सं० शावक, प्रा० छावक, छाव+रा (प्रत्य०)] [स्त्री० छोहरी] लडका । बालक । छोकडा । उ०—आपुस ही में कहत हँसत है प्रभु हिरदै यह सालत । तनक तनक से ग्वाल छोहरन कंस अबहि बधि घलत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ छोहरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोहरी] दे० 'छोहरी' ।
⋙ छोहरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोहरा] लडकी । बालिका । छोकडी । उ०—ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं ।—रसखान (शब्द०) ।
⋙ छोहाना पु
क्रि० अ० [हिं० छोह] १. मुहब्बत करना । प्रेम दिखाना । उ०—मग गोहुँ कर हिया चराना । पैसो पिता हिए छोहाना ।—जायसी (शब्द०) । २. अनुग्रह करना । दया करना । उ०—तुलसी तिहारे विद्यमान युवराज आज कोपि पाउँ रोपि बसि कै छोहाय छाडिगो ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—किस पर छोहाना = (१) किसी पर स्नेह प्रकट करना । (२) किसी पर दया या अनुग्रह करना ।
⋙ छोहारा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'छहारा' ।
⋙ छोहिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षौहिणी] दे० 'अक्षौहिणी' ।
⋙ छोही पु †
वि० [हिं० छोह] प्रेमी । स्नेही । ममता रखनेवाला । अनुरागी । उ०—कियो नेव यह वैष्णवद्रोही । राजा अहै साधु को छोही ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ छोही (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० छोलना] खोइया । चूसी हुई गँडेंरी की सीठी । उ०—रस छाँडि छोही गहै कोल्ह पेरत देख । गहै असार असार को हिरदे नाहिं विवेक ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ छौँक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बघार । तडका । यौ०—छौंक बघार ।
⋙ छौँकना
क्रि० स० [अनु० छायँ छायँ (= तपी हुई वस्तु पर पानी पडने का शब्द०)] १. हींग, मिरचा, जीरा, राई, लहसुन आदिसे मिले हुए कडकडाते घी को दाल आदि में डालना जिसमें वह सोंधी या सुगंधित हो जाय । बघारना । जैसे, दाल छौंकना । २. मेथी, मिरचा, हींग आदि से मिले हुए कडकडाते घी में कच्चीं तरकारी, अन्न के दले या भीगे दाने आदि को भूनने के लिये डालना । तडका देना । जैसे,—तरकारी छौंकना ।
⋙ छौँडा (१)
संज्ञा पुं० [ सं० चुण्डा (= गड्ढा)] जमीन में खोदा हुआ वह गड्ढा जिसमें अनाज रखते हैं । खत्ता । गाढ ।
⋙ छौँडा (२) †
संज्ञा पुं० [सं० सूनु या शावक, हिं० छौना] [स्त्री० छौंडी] लडका । बालक ।
⋙ छौँडी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] लडकी । बालिका । उ०—छीलन की छौंडी सो निगोडी छोटी जाति पाँति, कीन्ही लीन आपु में सुनारी भोंडे भील की ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छौँह, छौँहा
वि० [ सं० छाया (= कांति, सादृश्य)] सदृश । समान । (समासंत में प्रयुक्त) जैसे करछौंह । ललछौंहा ।
⋙ छौकना †
क्रि० अ० [ सं० चतुष्क, प्रा० चउक्क ] किसी जानवर (शेर, बिल्ली आदि) का चारों पैर उठाकर किसी की ओर कूदना या झपटना । चौकडी से साथ झपटना ।
⋙ छौना
संज्ञा पुं० [ सं० सूनु (= पुत्र अथवा सं० शावक, प्रा० छाव + औना (प्रत्य०) ] [ स्त्री० छौनी ] १. पशु का बच्चा । किसी जानवर का बच्चा जैसे—मृगछौना, सूअर का छौना । २. बालक । शिशु । छोटा बच्चा । उ०—बाछरू छबीले छौना छगन मगन मेरे कहतित मल्हाइ मल्हाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ छौनी पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० क्षोणि] दे० 'क्षोणी' । उ०—पृथ्वी, छिति, छौंनी, छिमा, धरनी, धात्रि, गाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० ९४ ।
⋙ छौर (१)
संज्ञा पुं० [ सं० क्षार, हिं० छौरा ] दे० 'छौरा' ।
⋙ छौर (२)
संज्ञा पुं० [ सं० क्षौर] दे० 'क्षौर' ।
⋙ छौर (३)
संज्ञा पुं० [ हिं० छेंवर (=चमडा) ] पुराने समय में सरहद के झगडों के संबंध में शपथ खाने की एक रीति । विशेष—शपथ खाने की इस रीति में वादी प्रतिवादी या किसी तीसरे व्यक्ति को, जिसके सत्यकथन पर झगडे का निपटेरा छोड दिया जाता था, गाय का चमडा सिर पर रखकर उसे सरहद या सिवान पर घूमना पडता था ।
⋙ छौरना †
क्रि० अ० [ हिं० छोडना ] दे० 'छोडना' । उ०—अपनो घर छौरि कै उहाँ क्यों पधार हते ।—दो सो बावन०, भा० १, पृ० १९२ ।
⋙ छौरा
संज्ञा पुं० [ सं० क्षर (= नाशवान्, नष्ट)] २. ज्वार या बाजरे का डंठल जो चारे के काम में आता है । डाँठ । कोयर । गर्री । खरई । २. कपास का डंठल ।
⋙ छौल पु †
संज्ञा स्त्री० [ देशी ] दे० 'छोल (२)' । उ०—करत कलोला दरियाव के बीच में ब्रम्ह की छौल में हस झूलै ।—संतवाणी०, भा० २, पृ० १९ ।
⋙ छवाना पु †
क्रि० स० [ हिं० छुवागा] छुलाना । स्पर्श करना । उ०— ह्नै कपूर मनिमय रही मिलि तन—दुति मुकुतालि । छिन छिन खरी बियच्छिनौ लखति छवाइ तिनु आलि ।—बिहारी (शब्द०)