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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/द्

विक्षनरी से

द्यविद्यवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक दिन ।

द्याकार
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र । चतुर्थ वर्ण का व्यक्ति । उ०— ये सब राजकुमार इस समय द्याकारों (शूद्रों) और सुनारों के घरों में छिपे हैं ।—प्रा० भा०, पृ० १६२ ।

द्याना पु †
क्रि० स० [हिं० दिलाना] १. देना का प्रेरणार्थक रूप । दिलवाना । दिलाना । उ०— फिरि सुधि दै सुधि द्याइयों इहि निरदई निरास । नई नई बहुरयौ दई दई उसास उसास ।— बिहारी (शब्द०) । २. देना । प्रदान करना । उ०— अँब तजइ नहिं कोइलाँ, सलवलर सालूराह । राज हिवइ मा पाँतरउ, आ धण द्यउ अवराँह ।— ढोला०, दू० ८ ।

द्यावना †पु
क्रि० स० [हिं०द्याना] दे० 'दिलाना' ।

द्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन । २. आकाश । ३. स्वर्ग । ४. अग्नि ५. सूर्यलोक ।

द्युक
संज्ञा पुं० [सं०] उलूक । उल्लू [को०] ।

द्युकारि
संज्ञा पुं० [सं०] काक । कौआ । वायस [को०] ।

द्युग
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश में गमन करनेवाला प्राणी । २. पक्षी । खग ।

द्युगण
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों की मध्यगति के साधक अंग दिन ।

द्युचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रह । २. पक्षी ।

द्युज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अहोरात्र वृत्त की व्यासरूप ज्या ।

द्युत्
संज्ञा पुं० [सं०] किरण ।

द्युत
वि० [सं०] प्रकाशवान ।

द्युति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति । कांति । चमक । २. शोभा । छवि । ३. लावण्य । ४. रश्मि । किरण ।

द्युति (२)
संज्ञा पुं० एक ऋषि का नाम जो चतुर्थ मनु के समय में थे । (हरिवंश) ।

द्युतिकर (१)
वि० [सं०] प्रकाश उत्पन्न करनेवाला । चमकनेवाला ।

द्युतिकर
संज्ञा पुं० ध्रुव ।

द्युतित
वि० [सं०] दे० 'द्योतित' [को०] ।

द्युतिधर (२)
वि० [सं०] प्रकाश या कांति को धारण करनेवाला ।

द्युतिधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

द्युतिमंत
वि० [सं० द्युतिमत्] दे० 'द्युतिमान्' ।

द्युतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० द्युति + मा (प्रत्य०)] प्रभा । प्रकाश । तेज । उ०— अग जग मग बासी लखि कहई । द्युतिमा भवन कवन में अहई ।— विश्राम (शब्द०) ।

द्युतिमान् (१)
वि० [सं० द्युतिमत् ] [वि० स्त्री० द्युतिमती] प्रकाशवाला । जिसमें चमक या आभा हो ।

द्युतिमान् (१)
संज्ञा पुं० १. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र का नाम । २. शाल्व देश के एक राजा का नाम (महाभारत) । ३. प्रियव्रत राजा के पुत्र जिन्हें क्रौंच द्वीप का राज्य मिला था (विष्णुपुराण) ।

द्युधुनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदाकिनी । आकाशगंगा [को०] ।

द्युन
संज्ञा पुं० [सं०] लग्न से सातवाँ स्थान ।

द्युनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्युधुनि' [को०] ।

द्युनिवासी
संज्ञा पुं० [सं० द्युनिवासिन्] देवता [को०] ।

द्युनिश
संज्ञा स्त्री० [सं०] अहर्निश । दिन रात ।

द्युपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. इंद्र ।

द्युपथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशमार्ग ।

द्युमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २ मंदार । ३. परिशोधित ताँबा । शोधा हुआ ताँबा ।

द्यमत्सेन
संज्ञा पुं० [सं०] शाल्व देश के एक राजा जो सत्यवान् के पिता थे । ये दुर्भाग्यवश अँधे हो गए । जब सब लोगों ने षड्यंत्र करके इन्हें गद्दी पर से उतार दिय तब ये अपनी पत्नी और शिशु को लेकर बन में चले गए । वि० दे० 'सत्यवान्', 'सावित्री' ।

द्युमदगान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सामगान ।

द्युमयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विश्वकर्मा की कन्या । सूर्य की पत्नी ।

द्युमान्
वि० [सं० द्युमत्] [वि० स्त्री० द्युमती] प्रकाशवाला । कांतियुक्त । चमकीला ।

द्युम्न
संज्ञा पुं० [सं०] १ धन । २. सूर्य । ३. अन्न । ४. वल । ५. कांति (को०) ।

द्युयोषित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा । स्वर्वेश्या [को०] ।

द्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्गलोक । विशेष— वैदिक ग्रंथों में द्युलोककी तीन कक्षाएँ कही गई हैं, पहली 'उदन्वती', दूसरी 'पीलुमती' और तीसरी 'प्रद्यौ' है । इन तीन कक्षाओं को ही क्रमशः नाक, स्वर्ग और पुतृलोक कहते हैं । उदन्वती कक्षा में चंद्रमा हैं, पीलुमती कक्षा में सूर्यहैं और तीसरी प्रद्यौ कक्षा में अनेक लोक लोकांतर हैं । इन लोकों में जाना ही अश्वमेध आदि बडे़ बड़े यज्ञों का फल कहा गया है ।

द्युवन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. स्वर्ग ।

द्युषद
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. नक्षत्र । ३. ग्रह ।

द्युसह्य
संज्ञा पुं० [सं० द्युसह्यन्] स्वर्ग ।

द्युसरित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नदी मंदाकिनी ।

द्युसिंधु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्युसिन्धु] स्वर्ग की नदी मंदाकिनी ।

द्युर्सैधव
संज्ञा पुं० [सं० द्युसैन्धव] उच्चैश्रवा नामक घोड़ा । इंद्र का अश्व [को०] ।

द्यू
वि० [सं०] जुआ खेलनेवाला । जुआरी ।

द्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ । वह खेल जिसमें दाँव बदा जाय और हारनेवाला जीतनेवाले को कुछ दे । विशेष— मनु ने लिखा है कि राजा को चाहिए कि जुआ और पशु पक्षियों का दंगल अपने राज्य में न होने दे । जो जुआ खेले या खेलावे उसे राजा वध तक का दंड दे सकता है । याज्ञवल्क्य ने कूटद्यूत का इसी प्रकार निषेध किया है ।

द्यूतकर
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ खेलनेवाला । जुआरी ।

द्यूतकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्यूतकर' ।

द्यूतकारक, द्यूतकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्यूतकर' [को०] ।

द्यूतक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जुए का खेल । जुआ खेलना [को०] ।

द्यूतदास
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० द्यूतदासी] वह दास जो जुए की जीत में मिला हो ।

द्यूतपूर्णिमा
संज्ञा पुं० [सं०] कोजागरी । आश्विन की पूर्णिमा । इस दिन प्राचीन काल में जुआ खेला जाता था और लोग रात को जागते थे ।

द्यूतिप्रतिपदा
संज्ञा स्त्री० [सं० द्यूतप्रतिपत्] कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा । इस दिन लोग जुआ खेलते हैं ।

द्यूतफलक
संज्ञा पुं० [सं०] वह चौकी, तख्ता आदि जिसके ऊपर पासा बिछाया या खेला जाय । वह चौकी जिसपर जुए की कौड़ी फेंकी जाय ।

द्यूतबीज
संज्ञा पुं० [सं०] कौड़ी ।

द्यूतभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ जुआ खेला जाय । जुआखाना ।

द्यूतमंडल
संज्ञा पुं० [सं०] वह मंडली या स्थान जिसमें जुआ खेला जाय ।

द्यूतवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] जिसकी जीविका द्यूत हो । जुआ खेलनेवाला । २. जुआ खेलानेवाला [को०] ।

द्यूतासमाज
संज्ञा पुं० [सं०] वह मंडली या स्थान जिसमें जुआ खेला जाय ।

द्यताध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजकीय अधिकारी जो जूए का निरीक्षण करता था और जुआरियों से राजकीय भाग ग्रहण करता था । विशेष— कौटिल्य ने लिखा है कि स्थान पर बने हुए जुए के सरकारी अड्डे इसी के निरीक्षण में रहते थे । जो कोई किसी दूसरे स्थान पर जूआ खेलता था उसे १२ पण जुर्माना देना होता था ।

द्यूताभियोग
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ संबंधी मुकदमा ।—(को०) ।

द्यूतावास
संज्ञा पुं० [सं०] जुआखाना ।—(को०) ।

द्यून
संज्ञा पुं० [सं०] लग्न से सातवीं राशि ।

द्यो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्ग । २. आकाश । ३. शतपथ ब्राह्मण और देवीभागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक । विशेष— महाभारत, अग्निपुराण और भागवत में आठ वसुओं के के जो नाम दिए गए हैं उनमें यह नाम नहीं है । देवीभागवत में इस वसु के संबंध में यह कथा लिखी है । एक बार सब वसु अपनी स्त्रियों को लेकर क्रीड़ा कर रहे थे । वे घूमते, फिरते वसिष्ठ के आश्रम पर जा निकले । द्यो की स्त्री ने वसिष्ठ की गाय नंदिनी को देखा और अपने स्वामी से उसे लेने के लिये कहा । द्यो गाय को हर ले गया । इसपर वसिष्ठ ने क्रुद्ध होकर शाप दिया । इस शाप के कारण जो का पृथ्वीतल पर भीष्म के रूप में जन्म हुआ ।

द्योकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह कारीगर जो प्रासादादि बनाने का काम करता हो । थवई । राजगीर ।

द्योत
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश । २. आतप । धूप ।

द्योतक
वि० [सं०] १. प्रकाशक । प्रकाश करनेवाला । २. दर्शक । ३. बतलानेवाला ।

द्योतन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० द्योतित] १. दर्शन । २. प्रकाशन । प्रकाशित करने या जलाने का काम । ३. दिग्दर्शन । दिखाने का काम । ४. दीपक । ५. प्रकाश । ६. वह जो प्रकाश करे । प्रकाशक (को०) ।

द्योतन (२)
वि० १. प्रकाशमान् । चमकीला । २. बतलाने या दखानेवाला । सूचक (को०) ।

द्योति
संज्ञा स्त्री० [सं० द्योतिस्] १. ज्योति । आभा । २. तारा (को०) ।

द्योतित
वि० [सं०] प्रकाशित ।

द्योतिरिंगण
संज्ञा पुं० [सं० द्योतिरिङ्गण] खद्योत । जुगनू ।

द्योभूमि
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी ।

द्योषद
संज्ञा पुं० [सं०] देवता ।

द्योस पु
पुं० [सं० दिवस्] दे० 'द्यौस' ।

द्योहरा पु
संज्ञा पुं० [सं० देवगृह] दे० 'देवघर' ।

द्यौहड़ा
संज्ञा पुं० [सं० देवगृह या देवस्थान] देवस्थान । वह स्थान जहाँ देवता स्थापित हों । उ०— डागल उपरि दौडणां, सुख नीदड़ी न सोइ । पुनैं पाये द्यौंहडे़, ओछी ठौर न खोइ ।—कबीर ग्रं०, पृ० २७ ।

द्यौ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिवस । दिन । २. आकाश । व्योम । उ०— द्यौ अर्थात् आकाश एक देवता है ।— ३. अग्नि । ४.स्वर्ग । हिंदु० सभ्यता, पृ० ४१ ।

द्यौराँनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० देवरानी] देवर की स्त्री । देवरानी ।उ०— तुस लीजों द्यौराँनी हमारी मेरे हाथ अरमिया भारी ।— पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४ ।

द्यौस पु
संज्ञा पुं० [सं० दिवस्] दिन । उ०— राति गँवाई सोइ के, द्यौस गंवाया खाय । हीरा जनम अमोल है कौड़ी बदले जाय ।—कबीर (शब्द०) । यौ०— द्यौस निसि = दिवस निशि । दिन रात । उ०— दुःख देखि के देखिहौ तब मुख आनँदकंद । तपन ताप तपि द्यौस निसि, जैसे शीतल चद— केशव (शब्द०) ।

द्यौसक पु
संज्ञा पुं० [सं० दिवस, हिं० द्यौस + क (प्रत्य०)] दिन । दिवस । दो एक दिन । उ० (ग) औरै गति औरै बचन भयो बदन रँग और । द्यौसक तें पिय चित चढ़ी, कहै चढ़ौहै त्यौर ।—बिहारी (शब्द०) ।

द्रंक्षण
संज्ञा पुं० [सं० द्रङ्क्षण] तौलने का एक मान जो दो कष अर्थात् एक तोले के बराबर होता था । उ०— कोल को क्षुद्रभ वा वटक या द्रंक्षण नामों से भी बलोते हैं ।— शङ्गँधर सं० पृ० ७ । प्रर्या०—कोल । वटक । कर्षार्द्ध ।

द्रंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्रङ्ग] १. वह नगर जो पत्तन से बडा और कर्बर से छोटा हो । २. दुर्ग । गढ़ । किला । उ०— साहिब कछ्छन जाइयइ जहाँ परेरउ द्रंग ।—ढोला०, दू० २२९ ।

द्रकट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्रगड' ।

द्रग पु
संज्ञा पुं० [सं० दृग] नेत्र । आँख । चक्षु । उ०— मुहियत द्रगनि के अचरिज मारे । चलही आन तन आनहि मारे ।— नंद० ग्रं०, पृ० १२२ ।

द्रगड, द्रगण
संज्ञा पुं० [सं०] एक बाजा । दगड़ा ।

द्रढिमा
संज्ञा पुं० [सं० द्रढिमन्] दृढ़ता ।

द्रढिष्ठ
वि० [सं०] अधिक दृढ़ । बहुत दृढ़ ।

द्रप्पन पु
संज्ञा पुं० [सं० दर्पण] दर्पण । आइना । उ०— द्रपन सम आकास स्रवत जल अंमृत हिमकर । उज्जल जल सलिता सु सिद्धि सुंदर सरोज सर ।—पृ० रा०, ६१ । ४२ ।

द्रप्स (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जो गाढ़ा न हो । २. मट्ठा । ३. रस । ४. शुक्र । ५. दही । दधि (को०) ।

द्रप्स (२)
वि० १. द्रुतगति युक्त । तेज चलनेवाला । २. चूने या रिसने वाला । प्रस्रवणशील ।

द्रप्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जो गाढ़ा न हो । २. मट्ठा । ३. शुक्र । ४. रस ।

द्रमिल
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का नाम । दे० 'तामिल' ।

द्रम्म
संज्ञा पुं० [सं० मि० अ० फा० दिरम] १६ पण के मूल्य का चाँदी का एक प्राचीन सिक्का (लीलावती) । विशेष— मुसलमानों के आक्रमण के पूर्व इसका व्यवहर विशेष रूप से था । लीलावती में प्रश्न आदि निकालने में इसी का प्रयोग किया गया है । उसमें लिखा है कि २० कौड़ी बराबर एक काकिणी के, ४ काकिणी बराबर १ पण के, १६ पण बरा- बर १ द्रम्म के तथा १६ द्रम्म बराबर १ निष्क के होता है ।

द्रवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रवन्ती] १. नदी । २. मूषकपर्णी । मूसाकानी । छौंटा ।

द्रव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्रवण । २. बहाव । ३. पलायन । दौड़ । ४. वेग । ५. आसव । ६. रस । ७. परिहास । क्रीड़ा । ८. द्रवत्व ।

द्रव (२)
वि० १. तरल । पानी की तरह पतला । २. आर्द्र । गीला । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. पिघला हुआ । आँच खाकर पानी की तरह फैला हुआ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

द्रवक
वि० [सं०] १. भागनेवाला । भगेडू । २. बहनेवाला । प्रवाह- युक्त । ३. रसनेवाला । चूनेवाला । क्षरणशील ।

द्रवज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु जो रस से बनाई जाय । २. गुड ।

द्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० द्रवित] १. गमन । गति । दौड़ । २. क्षरण । बहाव । ३. पिघलने या पसीजने की क्रिया या भाव । ४. हृदय पर करुणापूर्ण प्रभाव पड़ने का भाव । चित्त के कोमल होने की वृत्ति । ५. पलायन । भागना (को०) ।

द्रवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्रवत्व' ।

द्रवत्पत्री
संज्ञा [सं०] एक पौधा जिसे कहीं कहीं चँगोनी कहते हैं । बंगाल में इसे शिमुड़ी भी कहते हैं । यह औषध के काम में आता है ।

द्रवत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहने का भाव । पानी की तरह पतला होने का भाव । विशेष— वैशेषिके के अनुसार यह एक गुण है जो द्रव्यों में रहता है । यद्यपि वैशेषिक दर्शन में गुणों की परिगणना में द्रवत्व गुण नहीं आया है तथापि प्रशस्तपाद भाष्य में इसे गुण लिखा है । इस गुण के होने से वस्तुओं का बहना होता है । प्राचीन काल के विद्वानों ने द्रवत्व को भूत और सामान्य गुण माना है और द्रवत्व के दो भेद किए हैं— सांसिद्धिक अर्थात् स्वाभाविक और नैमित्तिक अर्थात् जो कारणों से उत्पन्न हो । ऐसे लोगों का मत है, कि स्वाभाविक या सांसिद्धिक द्रवत्व केवल जल में है और पृथ्वी मे नैमित्तिक द्रवत्व है जो संसर्ग से आ जाता है । आधुनिक विद्वान् द्रवत्व को द्रव्य का एक रूप या उसकी अवस्था मात्र मानते हैं । उस पदार्थ का, जिसमें यह गुण होता है, कोई निज का आकार नहीं होता, किंतु जिस वस्तु के आधार में वह रहता है उसी के आकार का वह हो जाता है । वही पानी जब बोतल में भर दिया जाता है तब बोतल के आकार का और जब कटोरे, लोटे, गिलास आदि में रहता है तब उन उन पात्रों के आकार का हो जाता है । द्रवत्व और विभुत्व में भेद केवल इतना ही है कि द्रव पदार्थ परिमित अवकाश को घेरता है और विभु पदार्थ पूरे अवकाश में व्याप्त रहता है । २. बहना । ढलना ।

द्रवना पु
क्रि० अ० [सं० द्रवण] १. प्रवाहित होना । बहना । २. पिघलना । उ०— निज परिताप द्रवइ नवनीता । परदुख द्रवहिं सुसत पुनीता ।— तुलसी (शब्द०) । ३. पसीजना । दयार्द्र होना । दया करना । उ०— (क) मूक होइ वाचाल पंगु चढइ गिरिवर गहन । जासु कृपा, सो दयाल द्रवउ समल कलिमल दहन ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कहियत परमउदार कृपानिधि अंतर्यामी त्रिभुवन तात । द्रवत हैं आपु देत दासन को रीझत हैं तुलसी के पात ।— सूर (शब्द०) ।

द्रवरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाख । लाह ।

द्रवशील
वि० [सं०] द्रवित होनेवाला । द्रवणशील ।

द्रवाधार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंजलि । चुल्लू । २. लघु पात्र । छोटा बर्तन [को०] ।

द्रविड़
संज्ञा पुं० [सं० द्रविड, ता० तिरमिक] १. दक्षिण भारत का एक देश जो उड़ीसा के दक्षिण पूर्वीय सागर के किनारे रामेश्वर तक है । २. द्रविण देश का रहनेवाला । विशेष— मनु ने द्रविड़ों को सवर्णा स्त्री से उत्पन्न ब्रात्य क्षत्रियों की संतति कहा है । महाभारत में भी लिखा है कि परशुराम के भय से बहुत से क्षत्रिय दूर दूर के पहाड़ों और जंगलों में भाग गए । वहाँ वे अपने कर्म ब्राह्मणों के अदर्शन आदि के कारण भूल गए और वृषलत्व को प्राप्त हो गए । वे ही द्रविड़, आभीर, शवर, पुंड्र आदि हुए । दे० 'तामिल' । ३. ब्राह्मणों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत पाँच ब्राह्मण हैं— आंध्र, कर्णाटक, गुर्जर, द्राविड़ और महाराष्ट्र । मुहा०— द्रविड प्राणायाम = दे० 'द्राविड़ी प्राणायाम' ।

द्रविड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रविडी] एक रागिनी का नाम ।

द्रविण
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन । २. कांचन । सोना । ३. पराक्रम । बल । ४. पृथु राजा का एक पुत्र । ५. भागवत के अनुसार कुशद्वीप का एक सीमापर्वत । ६. क्रौंच द्वीप के अंतर्गत एक वर्ष । ७. महाभारत के अनुसार धुर नामक वसु के एक पुत्र का नाम । ८. पदार्थ । वस्तु (को०) । ९. आकांक्षा । अभिलाषा (को०) ।

द्रविणनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] शोभांजन । सहिजन का पेड़ । विशेष— स्मृतियों में शोभाजन भक्षण का निषेध है ।

द्रविणप्रद
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।

द्रविणाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर । धनपति [को०] ।

द्रविणेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर [को०] ।

द्रविणोदय
संज्ञा पुं० [सं०] धन की प्राप्ति [को०] ।

द्रविणोदा (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्रविणोदस्] वेद का एक देवता जो धन देनेवाला कहा गया है । अग्नि ।

द्रविणोदा (२)
वि० धन देनेवाला ।

द्रवित
वि० [सं०] दे० 'द्रवीभूत' ।

द्रवीभूत
वि० [सं०] १ जो द्रव हो गया हो । जो पानी की तरह पतला हो गया हो । २. पिघला हुआ । गला हुआ । ३. पसीजा हुआ । दयार्द्र । दयालु । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

द्रवेतर
वि० [सं०] द्रव पदार्थ से भिन्न । कड़ा । ठोस [को०] ।

द्रवोत्तर
वि० [सं०] अत्यधिक पतला या तरल [को०] ।

द्रव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्तु । पदार्थ । चीज । वह पदार्थ जो क्रिया और गुण अथवा केवल गुण का आश्रय हो । वह पदार्थ जिसमें गुण और क्रिया अथवा केवल गुण हो और जो समवायि कारण हो । विशेष— वैशेषिक में द्रव्य नौ कहे गए हैं—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । इनमें से पृथ्वी जल, तेज, वायु, आत्मा और मन ये छह द्रव्य ऐसे हैं जिनमें क्रिया और गुण दोनों हैं । आकाश, दिक् और काल ये तीन ऐसे हैं जिनमें क्रिया नहीं केवल गुण हैं । पाँच द्रव्यों में से केवल चार सावयव हैं— पृथ्वी, जल, तेज और वायु । ये चार द्रव्य उत्पत्ति धर्मवाले माने गए हैं । ये परमाणु रूप से नित्य और कार्य (स्थूल) रूप से अनित्य हैं । इन्हीं परमाणुओं के योग से सृष्टि होती है । प्रशस्तपाद भाष्य में लिखा है कि जीवों के कर्मफल भोग का समय जब आता है तब जीवों के अदृष्ट के बल से वायु के परमाणुओं में चलन उत्पन्न होता है । इस चलन से परमाणुओं में परस्पर संयोग होता है । दो दो परमाणुओं के मिलने से 'द्वयणुक' और तीन द्वयणुकों के मिलने से 'त्रसरेणु' उतन्न होता है । इस प्रकार एक महान् वायु की उत्पत्ति होती है । महान् वायु में पहमाणुओं के संयोग से क्रमशः जल द्वयणुक, जल त्रसरेणु और फिर महान् जलनिधि उत्पन्न होता है । इस जल में पृथ्वी परमाणुओं कै परस्पर संयोग द्वारा द्वयणुकादि क्रम से महापृथ्वी की उत्प्ति होती है । फिर उसी जलनिधि में तेजस परमाणुओं के परस्पर संयोग से तेजस द्वयणुकादि क्रम से महान् तेजोराशषि की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार वैशेषिक ने चार भूतों के अनुसार चार तरह के परमाणु माने हैं,— पृथ्वी परमाणु जल परमाणु तेज परमाणु और वायु परमाणु । इन्हीं परमाणुओं से ये चार भूत उत्पन्न होते हैं । पाचवाँ द्रव्य आकाश निरवयवप, विभु और नित्य है, न उसके टुकडे़ होते हैं और न उसका नाश होता है । आकाश की ही तरह काल और दिक् भी विभु और नित्य हैं । आत्मा एक अमूर्त द्रव्य है जो ज्ञान का अधिकरण और किसी किसी के मत से ज्ञान का समवायिकारण है । मन नित्य और मूर्त माना गया है, क्योंकि यदि मूर्त न होता तो उसमें क्रिया न होती । वैशेषिक मन को अणुरूप मानाता है क्योकि एक क्षण में एक ही इंद्रिय का संयोग उसके साथ हो सकता है । जैनों के अनुसार द्रव्य गुणों और प्रर्यायों का स्थान है और सदा एकरस रहता है, उसके भीतर भेद नहीं पड़ता । जैन ६ द्रव्य मानते हैं— जीव, धर्म अधर्म, पुड़गल, आकाश और काल । पदार्थज्ञान में आजकल पश्चिम के देशों में बहुत उन्नति हुई है । सावयव सृष्टि के वैशेषिक में चार मूल भूत कहे गए हैं और उसी के अनुसार चार प्रकार के परमाणु भी माने गए हैं पर आजकल की परीक्षाओं से ये चारों मूलभूत कहे जानेवाले पदार्थ कई मूल द्रव्यों के योग से बने पाए गए हैं । जल और वायु कई मूल द्रव्यों के योग से बने परीक्षा द्वारा सिद्ध हो चुके हैं । पाश्चात्य रसायन में शताधिक मूल द्रव्य माने गए हैं, जिनके परमाणुओं के रासायनिक संयोग से भिन्न भिन्न पदार्थ बने हैं । अतः इस हिसाब से भी परमाणु शताधिक प्रकार के हुए । मूल द्रव्यों परमाणुओं के गुरुत्व का यदि परस्पर मिलान किया जाय तो उनमें एक हिसाब से चलता हुआक्रम पाया जाता है जिससे सिद्ध होता है कि ये सब मूल द्रव्य भी एक ही परम द्रव्य से निकले हैं । ३. सामग्री । सामान । उपादान । वह जिससे कोई वस्तु बनी हो । ४. धन । दौलत । रुपया पैसा । ५. पीतल । ६. औषध । भेषज । ७. मद्य । ८. लेप । ९. गोंद । १०. गाय (को०) ।

द्रव्य (२)
वि० १. द्रुम संबंधी । पेड़ का । पेड़ से निकला हुआ । २. पेड़ के ऐसा ।

द्रव्यक
वि० [सं०] किसी द्रव्य या पदार्थ को उठाने या ले जानेवाला [को०] ।

द्रव्यकृश
वि० [सं०] गरीब । धनहीन [को०] ।

द्रव्यगण
संज्ञा पुं० [सं०] चिकित्सा शास्त्र नें सैंतीस समान द्रव्यों का समूह [को०] ।

द्रव्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] द्रव्य का भाव । द्रव्यपन ।

द्रव्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष के अनुसार भिन्न भिन्न द्रव्यों या पदार्थों की अधिपति भिन्न भिन्न राशियाँ । जैसे,— कंगल, मसूर, गेहूँ, शाल वृक्ष, जो इत्यादि की अधिपति मेष राशि है । इसी प्रकार धान, कपास, लता इत्यादि मिथुन राशि के अधीन हैं । २. द्रव्य का स्वमी । धनी । धनवाला ।

द्रव्यपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] धनसंचय । द्रव्य इकट्ठा करना [को०] ।

द्रव्यमय
वि० [सं०] १. धन से युक्त । धनवान् । २. किसी द्रव्य से निर्मित ।[को०] ।

द्रव्यवती
वि० स्त्री० [सं० द्रव्यवत्] धनवती । संपत्तिवाली [को०] ।

द्रव्यवन
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार लकड़ियों के लिये रक्षित वन । वह जंगल जहाँ से लकड़ी आती हो ।

द्रव्यवन भोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह जागीर या उपनिवेश जिसमें लकड़ी तथा और जांगलिक पदार्थों की बहुतायत हो । विशेष— प्राचीन आचार्य ऐसे ही उपनिवेश को पसंद करते थे जिसमें जांगलिक पदार्थ बहुतायत से हों । परंतु चाणक्य का मत है कि लकड़ियाँ तथा जांगलिक पदार्थ सभी स्थानों में पैदा किए जा सकते हैं । इसलिये उत्तम उपनिवेश वही है जिसमें हाथीवाले जंगल हों ।

द्रव्यवनादीपिक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार लकड़ी आदि के लिये रक्षित जंगल में आग लगानेवाला ।

द्रव्यवाचक
वि० [सं०] वह शब्द जिससे किसी द्रव्य का ज्ञान हो ।

द्रव्यवान्
वि० [सं० द्रव्यवत्] [वि० स्त्री० द्रव्यवती] धनवान् । धनी ।

द्रव्यशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी द्रव्य या वस्तु को निर्मल करना । किसी चीज को धोकर साफ करना [को०] ।

द्रव्यसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में प्रयुक्त होनेवाले वस्तुओं की सफाई [को०] ।

द्रव्यसार
संज्ञा पुं० [सं०] बहुमूल्य पदार्थ । उपयोगी पदार्थ ।

द्रव्यांतर
संज्ञा पुं० [सं० द्रव्यान्तर] दूसरा द्रव्य ।

द्रव्याधीश
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।

द्रव्यार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] धन पैदा करना । संपत्ति कमाना [को०] ।

द्रव्याश्रित
वि० [सं०] दौलत पर मुनहसर । द्रव्य में निहित [को०] ।

द्रष्टव्य
वि० [सं०] १. देखने योग्य । दर्शनीय । २. जिसे दिखाना जताना हो । जो दिखाया जानेवाला हो । ३. जिसे बतलाना या जताना हो । ४. साक्षात् कर्तव्य । ५. सुंदर । मोहक (को०) । ६. समझने योग्य । विचारणीय (को०) ।

द्रष्टा (१)
वि० [सं० द्रष्ट्ट] १. देखनेवाला । २. साक्षात् करनेवाला । ३. दर्शक । प्रकाशक ।

द्रष्टा (२)
संज्ञा पुं० १. साख्य के अनुसार पुरुष और योग के अनुसार आत्मा । विशेष— आत्मा द्रष्टा और अंतःकरण दृश्य मान जाता है । इन दोनों का संयोग ही दुःख कराण हैं । सुख, दुःख आदि यो बुद्धिद्रव्य के विकार हैं । इंद्रियों का संबंध होने से अंतःकरण या बुद्धिद्रव्य ही विषय या सुख दुःख रूप में परिणत होता है, आत्मा नहीं । आत्मा द्रष्टा के रूप में रहता है । २. निर्णायक । जज । विचारपति । न्यायाधिश (को०) ।

द्रष्टार
संज्ञा पुं० [सं०] विचारक । द्रष्टा [को०] ।

द्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. ह्रद । ताल । झील । २. वह स्थान जहाँ गहरा जल हो । दह ।

द्राक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाख । अंगूर ।

द्राघिमा
संज्ञा पुं० [सं० द्राघिमन्] १. दीर्घता । लंबाई । २. वे कल्पित रेखाएँ जो भूमध्य रेखा के समानांतर पूर्व पश्चिम को मानी गई हैं । इन रेखाओं से अक्षांश सूचित होता है ।

द्राघिष्ठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भालू । भल्लूक । रीछ [को०] ।

द्राघिष्ठ (२)
वि० सबसे लंबा । बहुत लंबा [को०] ।

द्राण (१)
वि० [सं०] १. सुप्त । सोया हुआ । २. पलायित । भगेडू ।

द्राण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वप्न । २. पलायन । भागना ।

द्राप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश । २. कौड़ी । ३. मूर्ख व्यक्ति (को०) । ४. शिव का एक नाम (को०) । ५. कर्दम । कीचड़ । पंक (को०) ।

द्राप (२)
वि० १. मूर्ख । २. सुप्त ।

द्रामिल (१)
वि० [सं० द्राविड] द्रमिल या द्रविड़ देशवासी ।

द्रामिल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चाणक्य का एक नाम ।

द्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गमन । २. क्षरण । ३. बहने या पसीजने की क्रिया । गलने या पिघलने की क्रिया । ४. अनुताप । ५. ताप । ऊष्मा (को०) ।

द्रावक
वि० [सं०] द्रवरूप में करनेवाला । ठोस चीज को पान की तरह पतला करनेवाला । २. बहानेवाला । ३. गलानेवाला । ४. पिघलानेवाला । ५. हृदय पर प्रभाव डालने वाला । जिससे चित्त आर्द्र हो जाय । ६. चतुर । चालाक । ७. पीछा करनेवाला । भगानेवाला । ८. चुरानेवाला । चोर । ९. हृदयग्राही ।

द्रावक (२)
संज्ञा पुं० १. चंद्रकांत मणि । २. जार । व्यभिचारी । ३. मोम । ४. सुहागा ।

द्रावककंद
संज्ञा पुं० [सं० द्रावककन्द] तैलकंद तिलकंदरा ।

द्रावकर
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा ।

द्रावण
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्रवीभूत करने का कार्य या भाव । गलाने या पिघलाने की क्रिया या भाव । २. भगाने का काम । ३. रीठा ।

द्राविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लार । २. मोम ।

द्राविड़ (१)
वि० [सं० द्राविड] [वि० स्त्री० द्राविड़ी] द्रविड़ देशवासी । द्रविड़ संबंधी ।

द्राविड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्रविड] १. द्रविड़ देश । २. कचूर । ३. आमिया हल्दी ।

द्राविड़क
संज्ञा पुं० [सं० द्राविडक] १. विट्लवण सोंचर नमक । २. कचिया हल्दी ।

द्राविड़गौड़
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो रात के समय गाया जाता है । इसमें शृंगार और वीर रस अधिक गाया जाता है ।

द्राविड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० द्राविडी] छोटी इलायची ।

द्राविड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रविड] १. द्रविड़ जाति की स्त्री ।

द्राविड़ी (३)
वि० द्रविड़ संबंधी । द्रविड़ देश का । मुहा०— द्राविड़ी प्राणायाम = किसी सीधी तरह होनेवाली बात को बहुत धुमाव फिराव के साथ करना । विशेष— इस मुहा० की उत्पत्ति ठीक ठीक नहीं मालूम होती । द्रविड़ लोग प्राणायाम करने में पहले दाहिने हाथ की चुटकी बजाते हुए सिर के आस हाथ घुमाते हैं, पीछे नाक दबाकर प्राणायाम करते हैं । शायद इसी में विशेषता देखकर उत्तरीय भारत के लोग ऐसा कहने लगे हों ।

द्रावित
वि० [सं०] १. द्रव किया हुआ । २. गलाया या पिघलाया हुआ । ३. भगाया हुआ ।

द्राह्यायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम । ये द्रह ऋषि के गोत्र में उत्पन्न हुए थे । सामवेद के कल्प, श्रौत और गृह्यमूत्र इनके बनाए हुए हैं ।

द्रिग पु
वि० [सं० दृक, दृग्] दे० 'दृग' । उ०—वर तर्प चंद अन दर्प करि तामस द्रिग विकरल मन । सम गवरि अंग अँग सिष उसिष नृपति समंतन असुर बन ।—पृ० रा०, १ । ५०५ ।

द्रिढ़ †
वि० [सं० दृढ़] दे० 'दृष्ढ़ि' । उ०— ज्यूँ सुख त्यूँ दुख द्रिढ़ मन राखै एकादसी इकतार करै ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५० ।

द्रिष्टि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० दृष्टि] दे० 'दृष्टि' । उ०— ज्यूँ षर सूँ षर बंधिया युँ बँधे सब लोई जाके आत्म द्रिष्टि है । साचा जन सोई ।—कबीर ग्रँ०, पृ० १४९ ।

द्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । २. शाखा । ३. लकड़ी । काष्ठ । (को०) । ४. काष्ठ निर्मित कोई भी यंत्र (को०) ।

द्रुकिलिम
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु ।

द्रुगंध पु
संज्ञा स्त्री० [सं०दुर्गन्ध] दे० 'दुर्गंध' । उ०— बहुत सुगंध द्रुगंध करि भरिये भाजन अंबु । सुंदर सब मैं देखिये सूरय कौ प्रतिबिंबू ।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७८१ ।

दुग्ध (१)
वि० [सं०] १. जिससे द्रोह किया गया हो । जिसके विरुद्ध चाल चली गई हो । २. आहत [को०] ।

दुग्ध (२)
संज्ञा पुं० बुरा कर्म । जुर्म । अपराध [को०] ।

द्रुधण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे का मुगदर । २. परशु या फरसे के आकार का एक अस्त्र, जिसका सिरा मुड़ा हुआ होता था । इससे झुकाने, गिरने, फोड़ने और चीरने का काम लेते थे । ३. कुठार, कुल्हाड़ी । ४. ब्रह्मा । ५. भूचंपा ।

द्रुध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुल्हाड़ी [को०] ।

द्रुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष । २. खड्ग । ३. बिच्छू । भृंगी कीड़ा । ५. दुष्ट या कुटिल व्यक्ति (को०) ।

द्रुणस
वि० [सं०] जिसकी नाक लंबी हो । लंबी नाकवाला [को०] ।

द्रुणह
संज्ञा पुं० म्यान । कोश [को०] ।

द्रुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनुष की ज्या । धनुष की डोरी ।

द्रुणि, द्रुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कछुही । कच्छपी । २. करख- जूरा । ३. कठवत । काष्ठापात्र ।

द्रुत (१)
वि० [सं०] १. द्रवीभूत । पिछला या गला हुआ । २. शीघ्रगामी । तेज । ३. भागा हुआ । ४. शीघ्रतायुक्त । त्वरायुक्त (को०) । ५. अस्पष्ट । विकीर्ण (को०) ।

द्रुत (२)
संज्ञा पुं० १. बिच्छू । २. वृक्ष । ३. बिल्ली । ४. ताल की मात्रा का आधा जिसका चिह्न है । इसके देवता शिव और इसकी उत्पत्ति जल से मानी जाती है । इसका उच्चारण चिड़िया की बोली के समान होता है । पर्या०— बिंदु । व्यंजन । सन्य । अर्धमात्रक । आकाश । व्यंजन । कूप । वलय । ५. वह लय जो मध्यम से कुछ तेज हो । दून ।

द्रुतगति (१)
वि० [सं०] शीघ्रगामी ।

द्रुतचगति (२)
संज्ञा स्त्री० तीव्र वेग । तेज गति [को०] ।

द्रुतगामी
वि० [सं० द्रुतगामिन्] [वि० स्त्री० द्रुतगामिनी] शीघ्रगामी । तेज चलनेवाला ।

द्रुतत्रिताली
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रुत + त्रिताल] दे० 'जल्द तिताला' ।

द्रुतपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में बारह अक्षर होते हैं, जिसमें चौथा, ग्यारहवाँ और बारहवाँ अक्षर गुरु और शेष लघु होते हैं ।

द्रुतपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] वह पाठ जो बच्चों की ज्ञानवृद्धि और मनोरंजन के लिये सहायक हो । तेजी से पढ़ना । उ०— द्रुतपाठ शिक्षण के उद्देश्य साधारण गद्यपाठ की अपेक्षा भिन्न होते हैं ।—भा० शिक्षण, पृ० १२७ ।

द्रुतमध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्धसमवृत्त का नाम । इसके प्रथम और तृतीय पाद में ३ भगण और २ गुरु होते हैं (/?/) तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में १ नगण, २ जगण और १ यगण (/?/) होता है । जैसे,— रामहिं सेवहु रामहिं गाओ । तल मन दै नित सीसनदाओ । जन्म अनेकन के अध जारों । हरि हरि गा निज जन्म सुधारो ।

द्रुतबिलंबित
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रुतबिलम्बित] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १ नगण, २ भगण और एक रगण (न भ भ र) (/?/) होता है । इसे सुंदरी भी कहते हैं । जैसे,— भज न जो सखि बालमुकुंद री । जग न सोहत यद्यपि सुंदरी ।

द्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्रव । २ गति ।

द्रुतै पु
क्रि० वि० [सं० द्रुत] जल्दी ही । शीघ्र ही ।

द्रुनख
संज्ञा पुं० [सं०] काँटा ।

द्रुपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभआरत के अनुसार उत्तर पांचाल का एक राजा । विशेष— यह चंद्रवंशी पूषत का पुत्र था । द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन में एक साथ खेला करते थे और दोनों में बड़ी मित्रता थी । पुषत के मर जाने पर द्रुपद पांचाल का राजा हुआ । हुआ । उस समय द्रोणचार्य जी उसके पास गए और उन्होंने अपनी बचपन की मित्रता का परिचय देना चाहा, पर द्रुपद ने उनाक तिरस्कार कर दिया । जब द्रोणाचार्य जी को भीष्म जी ने कौरवों और पांडवों को शिक्षा देने के लिये बुलाया और द्रोण जी ने उनको बाण विद्या की उत्तम शिक्षा दी तब गुरु- दक्षिणा में उन्होंने कौरवों और पांडवों से यही माँगा कि तुम द्रुपद को बाँदकर मेरे सामने ला दी । कौरव तो उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके पर पांडवों ने द्रुपद को जीता और उसे बाँधकर अपने गुपु को अर्पित किया । द्रोणाचार्य जी नो द्रुपद से कहा कि तुम गंगा के दक्षिण किनारे राज्य करों, उत्तर के किनारे का राज्य हम करेंगे । द्रुपद उस समय तो मान गया पर उसेक मन में द्रोणाचार्य की ओर से द्वेष बना रहा । उसने याज और उपयाज नामक दे ऋषियों की सहा- यता से ऐसे पुत्र की प्राप्ति के लिये, जो द्रोणाचार्य का नाश कर सके, यज्ञ करना प्रारंभ किया । यज्ञ के प्रसाद से धृष्टद्युम्न नाम का पुत्र और कृष्णा नाम की एक कन्या हुई । द्रुपद के एक ओर पुत्र था जिसका नाम शिखंडो था । कृष्णा अर्जुन आदि पांडवों से ब्याही गई थी । द्रुपद महाभारत के युद्ध में मारा गया । २. खंभे का पाय । ३. खड़ाऊँ ।

द्रुपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक ऋचा जिसके आदि में द्रुपद शब्द आता है ।

द्रुपदात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० द्रुपदात्मजा] १. शिखंडी । २. धृष्टद्युम्न ।

द्रुपदादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] काशीखड के अनुसार सूर्य की एक मूर्ति जिसे द्रौपदी ने स्थापित किया था ।

द्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । २. पारिजात । ३. कुबेर । ४. एक राजा का नाम जो पूर्वजन्म में शिवि नामक दैत्व था । ५. हरिवंश के अनुसार कृष्णचंद्र के एक पुत्र का नाम जो रुक्मिणी से उत्पन्न हुआ था ।

द्रुमकंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रुमकंटिका] सेमर का पेड़ ।

द्रुमनख
संज्ञा पुं० [सं०] काँटा ।

द्रुमपातन
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ गिराना । पेड़ काटना । उ०— ब्याध को पिता कह द्रुमपातन की शिक्षा ली ।— अपरा, पृ० २१३ ।

द्रुमव्याधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ का रोग । २. लाह । लाख । लाक्षा ।

द्रुममर
संज्ञा पुं० [सं०] काँटा । कंटक ।

द्रुमवासी
संज्ञा पुं० [सं० द्रुमवासिन्] बंदर । कपि ।

द्रुमशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ का सिरा । २. एक प्रकार की छत या गोल मंडप जो पेड़ की तरह फैला हुआ होता है । ३. ता़ड़ का पेड़ (को०) ।

द्रुमश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ का पेड़ ।

द्रुमषंड
संज्ञा पुं० [सं० द्रुमषण्ड] पेड़ों का झुरमुट । तरुनिकुंज । वृक्षावली [को०] ।

द्रुमसार
संज्ञा पुं० [सं०] दाड़िम । अनार । उ०— अस्तबीज हानीक कर सूक पीक द्रुमसार । ये दाड़िम इमि देख बिल कछु तुम दसनाकार ।— नँददास (शब्द०) ।

द्रुमसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौरवों के पक्ष का एक योद्धा जो धृष्टद्युम्न के हाथ से मारा गाय था । २. महाभारत के अनुसार एक राजा जो पूर्वजन्म में गविष्ट नाम का असुर था ।

द्रुमामय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ का रोग । २. लाक्षा । लाख ।

द्रुमारि
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी ।

द्रुमालय
संज्ञा पुं० [सं०] जंगल ।

द्रुमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृक्षों की पंक्ति । पेड़ों की कतार । उ०— उद्यानों की आज देखिए, कैसी छटा निराली है । नए पल्लवों से आभूषित मन मोहती द्रुमाली है ।—संचिता, पृ० १४४ ।

द्रुमाश्रव
संज्ञा पुं० [सं०] (जो पेड़ पर चले) गरिगिट ।

द्रुमिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन । जंगल ।

द्रुमिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक दानव का नाम । यह सौभ देश का राज था । २. नव योगेश्वरों में से एक ।

द्रुमिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद जिसे प्रत्येक चरण में ३२ मात्राएँ होती हैं । इसके प्रत्येक चरण के अंत में गुरु होता है तथा १० और १८ मात्रा पर यति होती है । जैसे,— उत्तरु यह दैके दूत पठै के असदखान यह रोस भयौ । बौल्यो सब बीरन कुल के धीरन, जिन न चरन रन उलटि धरयौ । तुम करो तयारी सब इस बारी, मैं दिल यह इतकाद करयौ । मुझको तो लरना देर न करना आहइ साह को काज करयौ ।—सूदन (शब्द०) ।

द्रुमेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. ताल । ताड़ का पेड़ । ३. पारिजात ।

द्रुमोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णिकार वृक्ष । कनकचंपा । कनियारी ।

द्रुवय
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़ी की माप । पैमाना । २. परिमाण ।

द्रुसल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] पियाल वृक्ष । चिरौंजी का पेड़ ।

द्रुह
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० द्रुही] १. पुत्र । २. वृक्ष । ३. झील ।

द्रुहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. शिव (को०) । ३. विष्णु (को०) ।

द्रुहिण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा । दे० 'द्रुहण' ।

द्रुहिन पु
संज्ञा पुं० [सं० द्रुहिण] ब्रह्मा । उ०— स्रष्टाचतुरानन धिषन द्रुहिन स्वयंभू सोइ ।— अनेकार्थ०, पृ० ६९ ।

द्रुही
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या ।

द्रुह्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन आर्यों का एक वंश या जनसमूह । उ०— राजवंशों की तालिका देते हुए पार्जिटर ने यादव, हैहय द्रुह्य, तथा दक्षिणी पंचाल को गिनाया है । —प्रा० भा०, प०, पृ० २१ । २. शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न ययाति राजा का ज्येष्ठ पुत्र, जिसने ययाति का बुढ़ापा लेना अस्वीकार किया था । विशेष— ययाति से इसने कहा था— जराग्रस्त मनुष्य, स्त्री, रथ, हाथी इत्यादि को नहीं भोग सकता । ययाति ने इसपर इसे शाप दिया कि तेरी कोई अभिलाषा पूरी नहीं होगी । जहाँ रथ, पालकी, हाथी, घोडे़ आदि की सवारी ही नहीं होती, जहाँ कूद फाँदकर चलना पड़ता है, जहाँ 'राजा' शब्द का व्यवहार ही नहीं है वहाँ तुझे रहना पडे़गा । द्रुह्य के वंश में कोई राजा नहीं हुआ (महाभारत) । पर आसाम के पास स्थित त्रिपुरा के राजवंश की जो वंशावली 'राजमाला' नाम की है उसमें त्रिपुरा राजवंश का चंद्रवंशी एक राजा द्रुह्यु से चलना लिखा गाया है । पर विष्णुपुराण और हरिवंश के अनुसार द्रुह्य को वभु और सेतु नामक दो पुत्र हुए । सेतु के पौत्र का नाम गांधार था जिसके नाम से देश का नाम पड़ा । अस्तु, पुराणों के अनुसार द्रुह्यु भारत के पश्चिमी कोने पर गया था न कि पूर्वी । राजमाला की कथा कल्पित है ।

द्रू
संज्ञा पुं० [सं०] सोना ।

द्रूघाण
संज्ञा पुं० [सं०] हथौड़ा । द्रुघण [को०] ।

द्रूण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृश्चिक । बिच्छू । २. धनुष । धन्वा (को०) ।

द्रूणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कतौटिल्य के अनुसार लकड़ी का धनुष ।

द्रेका
संज्ञा स्त्री० [सं०] महानिंब । बकायन ।

द्रेक्क
संज्ञा पुं० [यू० डेकनस] राशि का तृतीयांश । दे०'दृक्काण' ।

द्रेक्कण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्रेक्काण' [को०] ।

द्रेक्काण
संज्ञा पुं० [यू० डेकनस] राशि का तृतीयाँश । दे० 'दृक्काण' ।

द्रेष्काण
संज्ञा पुं० [यू० डेकनस्] राशि का तृतीयांश । दे० 'दृक्काण' । उ०— सूर्य चंद्र जिस ग्रह के राशि द्रेष्काण में बैठे हों ।—बृहत्०, पृ० ३३४ ।

द्रोण
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी का एक कलश या बरतन जिसमें वैदिक काल में सोम रखा जाता था । २. जल आदि रखने का लकडी का बरतन । कठवत । ३. एक प्राचीन माप जो चार आढ़क या १६ सेर और किसी किसी के मत से ३२ सेर की मानी जाती थी । पर्या०— घट । कलश । उन्मान । उल्वण । अर्मण । ४. पत्ते का दोना । ५. नाव । डोंगा । ६. अरणी की लकड़ी । ७. लकड़ी का रथ । ८. डोम कौआ । काला कौआ । उ०— करता रव दूर द्रोण था ।— साकेत, पृ० ३०६ । ९. बिच्छू । १०. वह जलाशय या तालाब जो चार सौ धनुष लंबा चौड़ा हो । यह पुष्करिणी और दीर्घिका से बड़ा होता है । ११ मेघों के एक नायक का नाम । जिस वर्ष यह मेघनायक होता । है उस बर्ष वर्षा बहुत अच्छी होती है । १२ वृक्ष । पेड़ । १३. द्रोणाचल नाम का पहाड़ । विशेष— रामायण के अनुसार यह पर्वत क्षीरोद समुद्र के किनारे है और जिसपर विशल्यकरिणी नाम की संजीवनी जड़ी होती है । पुराणों के अनुसार यह एक वर्षपर्वत है । १४. एक फूल का नाम । १५. नील का पौधा । १६. केला । १७. महाभारत के प्रसिद्ध ब्राह्मण योद्धा जिनसे कौरवों और पांडवों ने अस्त्रशिक्षा पाई थी । दे० 'द्रोणाचार्य' ।

द्रोणक
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रतट पर बसा हुआ चारों ओर से सुरक्षित नगर [को०] ।

द्रोणकलश
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी का एक पात्र जिसमें यज्ञों में सोम छाना जाता था । यह वैकंक की लकड़ी का बनाया जाता था ।

द्रोणकाक, द्रोणकाकल
संज्ञा पुं० [सं०] काला कौआ । डोम काआ ।

द्रोणक्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक दोना दूध देनेवाली गाय [को०] ।

द्रोणगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रोणगन्धिका] रास्ता ।

द्रोणगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम । विशेष—पुराणानुसार यह एक वर्षपर्वत है । वाल्मीकाय रामायण में इसे क्षीरोद समूद्र में लिखा है । हनुमान विशल्यकारिणी संजीवनी जड़ी लेने इसी पर्वत पर गए थे ।

द्रोणघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्रोणक्षीरा' [को०] ।

द्रोणदुग्धा, द्रोणदुधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्रोणक्षीरा' ।

द्रोणपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूकदली ।

द्रोणपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गूमा ।

द्रोणमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गाँव जो ४०० गाँवों के बीच प्रधान हो । २. चार सौ गावों के बीच का किला ।

द्रोणमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] गहरी वर्षा करनेवाला बादल । दे० 'द्रोण'—११ [को०] ।

द्रोणवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रोण नामक बादल से होनेवाली वर्षा [को०] ।

द्रोणशर्मपद
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम ।

द्रोणस
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम ।

द्रोणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गूमा ।

द्रोणाचल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत । द्रोणगिरि ।

द्रोणाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में प्रसिद्ध ब्राह्मण वीर जिनसे कौरवों और पांडवों ने अस्त्रशिक्षा पाई थी । विशेष— इनकी कथा इस प्रकार है । गंगाद्वार (हरद्वार) के पास भरद्वाज नाम के एक ऋषि रहते थे । वे एक दिन गंगा- स्नान करने जाते थे, इसी बीच घृताची नाम की अप्सरा नहाकर निकल रही थी । उसका वस्त्र छूटकर गीर पड़ा । ऋषि उसे देखकर कामार्त हुए और उनका वीर्यपात हो गया । ऋषि ने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र मे रख छोड़ा । उसी द्रोण से जो तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम द्रोण पड़ा । भरद्वाज ने अपने शिष्य अग्निवेश को जो अस्त्र दिए थे आग्निवेश ने वे सब द्रोण को दिए । भरद्वाज के शरीरपात के उपरांत द्रोण ने शरद्वान् की कन्या कृपी के साथ विवाह किया जिससे उन्हें अश्वत्थामा नामक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने जन्म लेते ही उच्चैःश्रवा घोडे़ के समान घोर शब्द किया । द्रोण ने महेंद्र पर्वत पर जाकर परशुराम से अस्त्र और शस्त्र की शिक्षा पाई । वहाँ से लौटने पर इनके दिन दरिद्रता में बीतने लगे । पृषत नामक एक राजा भरद्वाज के सखा थे । उनका पुत्र दुपद आश्रम पर आकर द्रोण के साथ खेलता था । द्रुपद जब उत्तर पांचाल का राजा हुआ तब द्रोण उसके पास गए और उन्होंने उसे अपनी बालमैत्री का परिचय दिया । पर द्रुपद ने राजमद के कारण उनका तिरस्कार कर दिया । इसपर दुःखित और क्रुद्ध होकर द्रोणा- चार्य हस्तिनापुर चले गए और वहाँ अपने साले कृपाचार्य के यहाँ ठहरे । एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार गेंद खेल रहे थे । उनका गेंद कूएँ में गिर पड़ा । बहुत यत्न करने पर भी वह गेंद नहीं निकलता था, इसी बीच में द्रोण उधर से निकले और उन्होंने अपने बाणों से मार मारकर गेंद को कूएँ के बाहर कर दिया । जब यह खबर भीष्म को लगी तब उन्होंने द्रोण को राजकुमारों की अस्त्रशिक्षा के लिये नियुक्त किया । तब से वे द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । इन्हीं की शक्षा के प्रताप से कौरव और पाडंव ऐसे बडे़ धनुर्धर और अस्त्रकुशल हुए । द्रोणाचार्य के सब शिष्यों में अर्जुन श्रेष्ठ थे । अस्त्रशिक्षा दे चुकने पर द्रोणाचार्यने कौरवों और पांडवों से कहा,—'हमारी गुरुदक्षिणा यही है कि द्रुपद राजा को बाँधकर हमारे पास लाओ । 'कौरवो और पांडवों ने पंचाल देश पर चढ़ाई की । अर्जुन द्रुपद को युद्ध में हराकर उसे द्रोणाचार्य के पास पकड़कर लाए । द्रोणाचार्य ने द्रुपद को यही कहकर छोड़ दिया कि 'तुमने कहा था कि राज का मित्र राजा ही हो सकता है, अतः भागीरथी के दक्षिण में तुम राज्य करो, उत्तर में मैं राज्य करूँगा ।' द्रुपद के मन में इस बात की बड़ी कसक रही । उन्होने ऋषियों की सहायता से पुत्रेष्टि यज्ञ द्रोण को मारनेवाले पुत्र की कामना से किया । यज्ञ के प्रभाव से उसे धृष्टद्युम्न नामक पुत्र और कृष्णा (द्रौपदी) नाम की कन्या हुई । कुरुक्षेत्र के युद्ध में द्रोणा- चार्य ने नौ दिन तक कौरवों की ओर से घोर युद्ध किया । अंत में जब युधष्ठिर के मुख से 'अश्वत्थामा मारा गया हाथी' यह सुना तब पुत्रशोक में नीचा सिर करके वे डूब गए । इसा अवसर पर धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट लिया ।

द्रोणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा । २. अष्टम मन्वंतर के एक ऋषि ।

द्रोणि (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'द्रोणी' ।

द्रोणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पौधा । २. पात्र । बाल्टी (को०) ।

द्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डोंगी । २. दोनियाँ । छोटा दोना । ३. लकड़ी का बना हुआ पात्र । कठपत । ४. काठ का प्याला । डोकिया । ५. दो पर्वतों के बीच की भूमि । टून । ६. केला । ७. दर्रा । ८. इंद्रायन । ९. एक नदी । १०. द्रोण की स्त्री, कृपी । ११. नील का पौधा । १२. एक परिमाण जो दो सूर्प या १२८ सेर का होता था । १३. एक प्रकार का नमक । १४. शीघ्रता ।

द्रोणीदल
संज्ञा पुं० [सं०] केतकी का फूल ।

द्रोणीलवण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लवण जो कर्णाटक देश के आसपास होता है । इसे बिरिया लोन भी कहते हैं । यह अति उष्ण, भेदक, स्निग्ध, शूलनाशक और अल्प पित्तवर्धक माना गया है । पर्या०— द्रोणेय । वधेंय । द्रोणीज । वारिज । वार्धिभव । द्रोणी । चित्रकूट । लवण ।

द्रोणोदन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहहनु के पुत्र का नाम जो शाक्य मुनि बुद्ध के चाचा थे ।

द्रोण्यामय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के भीतर का एक रोग ।

द्रोन पु †
संज्ञा पुं० [सं० द्रोण] दे० 'द्रोण' ।

द्रोनाकार पु
वि० [सं० द्रोणाकार] चारसौ धनुष लंबा और इतना ही चौड़ा जलाशय आदि । उ०— हिम स्रैनिन सों धिरयो अद्रि मंडल यह रूरौ । सोहत द्रोनाकार सृष्टि सुखमा सुख- पूरौ ।—का० सुषमा, पृ० ५ ।

द्रोपती, द्रोपदी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रौपदी] दे० 'द्रौपदी' । उ०— अहिल्या ब्राह्मनी से इंद्र ने छल किया । द्रोपदी पंच भरतार कीन्हाँ ।—कबीर रे०, पृ० ४५ । मुहा०— द्रोपदी (द्रोपती) का चीर होना = किसी चीज का अंत न होना । असीमितच होना । अपार होना । उ०— केता ही उड़ाया तो न पाया पार लोगो । देषो बंस कूरम द्रोपती को चीर होगी ।— शिखर०, पृ० ९० ।

द्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री०, द्रोही] दूसरे का अहितचिंतन । प्रतिहिंसा का भाव । बैर । द्वेष । अपराध । त्रुटि । हिंसन ।

द्रोहचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० द्रोहचिन्तन] किसी का अहित विचारना । अनिष्टचिंतन । बुरा सोचना [को०] ।

द्रोहबुद्धि (१)
वि० [सं०] शत्रुता की बुद्धि रखनेवाला । अनिष्ट चाहनेवाला [को०] ।

द्रोहबुद्धि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शत्रुता की बुद्धि । अनिष्ट करने की नीयत [को०] ।

द्रोहभाव
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुता की भावना । बुरी नीयत [को०] ।

द्रोहाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैडाल व्रतिक । ऊपर से देखने में साधु पर भीतर भीतर बुराई रखनेवाला व्यक्ति । २. मृगलुब्धक । शिकारी । व्याध । ३. वेद की एक शाखा । ४. ढोंगी या झूठा व्यक्ति (को०) ।

द्रोही (१)पु
[सं० द्रोहिन्] [वि० स्त्री० द्रोहिणी] द्रोह करनेवाला । बुराई चाहनेवाला । विरोध करनेवाला ।

द्रोही (२)
संज्ञा पुं० वह जो द्रोह रखे । वैरी । शत्रु ।

द्रौणायन
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थामा ।

द्रौणायनि
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थामा । द्रोणाचार्य का पुत्र ।

द्रौणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थामा । २.एक ऋषि जो पुराणा- नुसार उनतीसवें द्वापर में होंगे ।

द्रौणिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह खेत जिसमें एक द्रोण (३८ सेर) बीज बोया जाय ।

द्रौणिक (२)
वि० द्रोण संबंधी ।

द्रौणिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बरतन जिसमें एक द्रोण परिमाण की वस्तु आवे ।

द्रौणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काठ का पात्र । कठवत । २. पर्वत की घाटी [को०] ।

द्रौणेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नमक [को०] ।

द्रौनी पु
वि० [सं० द्रावणी] प्रवाहित करनेवाली । द्रवित करने वाली । उ०— कै बसुधा पै सुधाधार ब्रह्मद्रव द्रौनी ।—का० सुषमा, पृ० ६ । २. पर्वतों के बीच की । पर्वतों के मध्य में स्थित (भूमि) ।

द्रौपद
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० द्रौपदी] द्रुपद का पुत्र ।

द्रौपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा द्रुपद की कन्या कृष्णा जो पाँचो पांडवों को ब्याही गई थी । विशेष— राजा द्रुपद ने जब द्रोण को मारनेवाले पुत्र की कामना से पुत्रेष्टि यज्ञ किया था तब उसे धृष्टद्युम्न नाम का एक पुत्र और कृष्णा नाम की कन्या उत्पन्न हुई थई । जब कन्या बड़ी हुई तब द्रुपद ने उसका विवाह अर्जुन से करना विचारा । पर लाक्षागृह में आग लगने के उपरांत जब पांडवों का पता वहुत दिनों तक ल नगा तब द्रुपद ने उपयुक्त वर प्राप्त करने के लिये धूमधाम से एक स्वयंवर रचा । उसमें ऊपर एक मछली टाँग दी गई जिससे कुछ नीचे हटकर एक चक्र घूम रहा था । द्रुपद ने प्रतिज्ञा की कि जो कोई उस मछली की आँख को बाण से बेधेगा उसी को द्रौपदी दी जायगी । स्वयंवर में बहुत दूर दूर से राजा लोग आए थे, पाँचो पांडव भई घूमते घूमते ब्राह्मण के वेश में वहाँ पहुँचे । चब कोई क्षत्रिय लक्ष्यभेद न कर सका तब कर्ण उठा । पर द्रौपदी ने कहा कि मैं सूतपुत्र के साथ विवाह नहीं कर सकती । अंत में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने उठकर लक्ष्यभेद किया । पाँचो पांडव उन दिनों गुप्त रूप से एक ब्राह्मण के यहाँ माता सहित रहते थे । अतः द्रौपदी को लेकर पाँचो भाई ब्राह्मण के आश्रम पर गए और द्वार पर माता को पुकार कर बोले माँ, आज हग लोग एक रमणीय भिक्षा माँगकर लाए हैं । कुंती ने भीतर से कहा, अच्छी बात है, पाँचो भाई मिलकर भोग करो । माता के वचन की रक्षा के लिये पाँचो भाइयों ने द्रौपदी को ग्रहण किया । नारद के सामने यह प्रतिज्ञा की गई कि जिस समय एक भाई द्रौपदी के पास हौ उस समय दूसरा वहाँ न जाय, यदि जाय ते बारह वर्ष उसे बनवास करना पडे़ । दुर्योधन के सथ जुवा खेलते खेलते युधिष्ठिर जब सब कुछ हार गए तब द्रौपदी को भी हार गए । इसपर दुर्योधन ने भरी सभा में दुःशासन के द्वारा द्रौपदी को पकड़ बुलाया । दुःशासन भरी सभा के बीच उसका वस्त्र खींचना चाहता था पर वस्त्र न खिंच सका । इस अपमान पर कुपित होकर भीम ने प्रतिज्ञा की कि दुर्योधन, जिस जंघे को तूने द्रौपदी को दिखाया है उसे मैं अवश्य तोडूँगा और दुःशासन का बायाँ हाथ तोड़कर उसके कलेजे का रक्तपान करूँगा । कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीम ने अपनी यह प्रतिज्ञा पूरी की । पुराणों में द्रौपदी की गणना पंचकन्याओं में है । पर्या०— कुष्णा । पांचाली । सेरिंध्री । नित्ययौवना । याज्ञसेनी । बेदिजा ।

द्रौपदेय
संज्ञा पुं० [सं०] द्रौपदी के पुत्र ।

द्रौह्य
संज्ञा पुं० [सं०] द्रुह्य के गोत्र में उत्पन्न पुरुष ।

द्वंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्व] १. युग्म । मिथुन । जोड़ा । उ०— ध्वज कुलिश अंकुश कंजयुत बन फिरत कंटक जिन लहे । पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भाजमहे ।—तुलसी (शब्द०) । २. जोडा । प्रतिद्वंद्वो । ३. द्वंद्व युद्ध । दो आदमियों की परस्पर लड़ाई । ४. झगड़ा । कलह । बखेड़ा । उ०— धनि यह द्वैज लख्यौ अहो तज्यौ दृगनि दुख द्वंद । तुन भागनि पूरब उयौ जहाँ अपूरब चंद—बिहारी (शब्द०) । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना । ५. दो परस्पर विरुद्ध वस्तुओं का जोड़ा । जैसे, गर्मी सर्दी, राग द्वेष, सुख दुःख , दिन रात इत्यादि । उ०— रघुनंद निकंदय द्वंद घन । महिपाल विलोकिय दीनजनं ।—तुलसी (शब्द०) । ६. उलझन । बखेड़ा । झंझट । जंजाल । उ०— जो मन लागै रामचरन अस । देह गेह सुत वित कलत्र महँ मगन होत बिनु रामचरन अस । द्वंद रहित गतमान ज्ञानरत विषयाविरत खटाइ नानाकस ।—तुलसी (शब्द०) । ७. कष्ट । दुःख । उ०— सोरह सहस घोष कुमारि । देखि सबको श्याम रीझे रहीं भुजा । पसारि । बोलि लीन्हौं कदम के तर इहाँ आवहु नारि । प्रगट भए तहाँ सबनि को हरि काम द्वंद निवारि ।—सूर (शब्द०) । ८. उपद्रव । झगड़ा । ऊधम । उ०— कहा करों हरि बहुत सिखाई । सहि न सकी रिस ही रिस भरि गई बहुतै ढीठ कन्हाई । मेरी कह्यौ नेकु नहिं मानत करत आपनी टेक । भोर होत उरहन लै आवत ब्रज की बधू अनेक । फिरत जहाँ तहँ द्वंद मचावत घर न रहत छन एक । सूर श्यामत्रिभुवन को करता यशुमति कहति जनेक ।— सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—मचाना । ९. रहस्य । गुप्त बात । १०. आशंका । भय डर । ११. दुबिधा । दोचित्तापन । संशय । १२. वह घड़ियाल जिसपर घंटा बजाया जाय (को०) । १२. व्याकरण में समास का एक भेद । विशेष— दे० 'द्वंद' ।

द्वंद (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दुन्दुभी] 'दुंदुभी' । उ०— बाजे ढोल द्वंद औ भेरी । मंदिर तूर झाँझ चहु फेरी ।—जायसी (शब्द०) ।

द्वंदज
वि० [सं०] दे० 'द्वंद्वज' ।

द्वंदजुद्ध, द्वंदयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्वयुद्ध] दे० 'द्वंद्वयुद्ध' । उ०— बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गंभीर । द्वंदजुद्ध देखहु सकल स्रमित भए अति बीर ।—मानस, ६ । ८८ ।

द्वंदर पु
वि० [सं० द्वन्द्वालु] झागडालू । उ०— दीन गरीबी दीन को द्वंदर को अभिमान । द्वंदर तो विष से भरा दीन गरीबी जान ।—कबीर (शब्द०) ।

द्वंद्व
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्व] १. युग्म । दो वस्तुएँ जो एक साथ हों । जोड़ा । २. स्त्री पुरुष या नर मादा का जोड़ा । ३. दो परस्पर विरुद्ध वस्तुओं का जोड़ा । जैसे, शीत उष्ण, सुख दुःख, भला बुरा, पाप पुण्य, स्वर्ग नरक इत्यादि । ४. रहस्य । भेद की बात । गुप्त बात । ५. दो आदमियों की लड़ाई । ९. झगड़ा । बखेड़ा । कलह । क्रि० प्र०—मचना ।—नचाना । ७. एक प्रकार का समास, जिसमें मिलनेवाले सब पद प्रधान रहते हैं और उनका अन्वय एक ही क्रिया के साथ होता है जैसे, हाथ पाँव बाँधो, रोटी दाल खाओ । विशेष— यह समाम और आदि संयोजक पदों का लोप करके बनाया जाया हे । जैसे,— हाथ और पाँव से 'हाथ पाँव', रात और दिन से 'रात दिन' । ८. दुर्ग । किला । ९. शंका । संदेह (को०) । १०. मिथुन राशि (को०) । ११. एक प्रकार का रोग (को०) ।

द्वंद्वचर (१)
वि० [सं० द्वन्द्वचर] जोडे़ के साथ चलने या रहनेवाला ।

द्वंद्वचर (२)
संज्ञा पुं० चक्रवाक । चकवा ।

द्वंद्वचारी
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्वचारिन्] [स्त्री० द्वंद्वचारिणी] चकवा ।

द्वंद्वज
वि० [सं० द्वन्द्वज] १. सुख दुःख राग द्वेष आदि द्वंद्वों से उत्पन्न (मनोवृत्ति) । २. कलह से उत्पन्न । ३. वात, पित्त और कफ नाम के त्रिदोषों में से दो दोषों से उत्पन्न (रोग) । यौ०— द्वंद्वज गुलम = बात, पित्त और कफ आदि त्रिदोषों में से किन्हीं दो दोषों से उत्पन्न गुल्म रोग । उ०— गुल्म के मिश्र लक्षण को द्वंद्वज गुल्म कहते हैं ।—माधव०, पृ० १६७ । द्वंद्वज बवासीर = बवासीर नामक रोग जो दो दोषों के कराण होता है । उ०— दो दो दोषों के कारण और लक्षण मिलें तो द्वंद्वज बवासीर भई ।—माधव, पृ० ५४ ।

द्वंद्वतर्क
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्वतर्क] द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का तर्क या दतील । उ०— नवोद्भूत इतिहासभूत सक्रिय, सकरण, जड़ चेतन । द्वंद्वतर्क से अभव्यक्ति पाता युग युग में नूतन ।— युगवाणी, पृ० ३९ ।

द्वंद्वभि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० दुन्दुभि] दे० 'दुंदुभी' । उ०— पंचम घँटा नाद षष्ठ वीणा धुनि होई । सप्तम बज्जहिं भेरि अष्टमं द्वंद्वभि । दोई ।— सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ४९ ।

द्वंद्वभूत
वि० [सं० द्वन्द्वभूत] अनिश्चित । संदेहास्पद [को०] ।

द्वंद्वमोह
संज्ञा पुं० [सं०] दुबिधे के कारण उप्तन्न कष्ट । संदेहजन्य दुःख [को०] ।

द्वंद्वयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्वयुद्ध] वह लड़ाई जो दे पुरुषों के बीच, में हो । कुश्ती । हाथा पाई ।

द्वंद्वी
वि० [सं० द्वन्द्विन्] १. कलहप्रिय । झगड़ालू । २. जोड़ा तैयार करनेवाला । ३. विषम । परस्पर प्रतिकूल [को०] ।

द्वय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० द्वयी] १. दो । २. द्वैत संबंधी ।

द्वय (२)
संज्ञा पुं० १. युग्म । युगल । जोड़ा (समासांत में प्रयुक्त) । २. दो भिन्न प्रकार का स्वभाव या वृत्ति । ३. व्याकरण में पुं० और स्त्रीलिंग ।

द्वयवादी
वि० [सं० द्वयदादिन्] १. दुबधे की बातें करनेवाला । २. द्वैत वाद को माननेवाला [को०] ।

द्वयहीन
वि० [सं०] जो द्वय अर्थात् पुलिंग और स्त्रीलिंग न हो । नपुंसक लिंग का । नपुंसक (व्याकरण) ।

द्वयाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चीता ।

द्वयातिग
वि० [सं०] जिसके सत्वगुण ने शेष दो गुणों अर्थात् रजम् और तमोगुण को दबा लिया हो । जिसमें सत्वगुण प्रधान हो, और शेष दो गुण दबकर अधीन हो गए हों ।

द्वाःस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वारपाल । २. नंदिकेश्वर ।

द्वाःस्थित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वास्थ' ।

द्वाआ पु
संज्ञा स्त्री० [अ० दुआ] दे० 'दुआ' । उ०— द्वाआ दे दरवेस पाव नहिं गारि पारि जा ।— कीर्ति०, पृ० ४२ ।

द्वा
वि० [सं० द्वि] संस्कृत द्वि का समासगत रूप ।

द्वाचत्वारिंश
वि० [सं०] बयालीसवाँ ।

द्वाचत्वारिंशत् (१)
वि० [सं०] जो संख्या में चालीस से दो अधिक हो । बयालीस ।

द्वाचत्वारिंशत् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बयालीस की संख्या ।

द्वाज
संज्ञा पुं० [सं०] किसी स्त्री का वह पुत्र जो उसके पति से उत्पन्न न हो, दूसरे पुरुष से उत्पन्न हो । जारज । दोगला ।

द्वात्रिंश
वि० [सं०] बत्तीसवाँ ।

द्वात्रिंशत् (१)
वि० [सं०] जो संखाय में तीस और दो हो । बत्तीस ।

द्वात्रिंशत् (२)
संज्ञा पुं० बत्तीस की संख्या या अंक ।

द्वादश (१)
वि० [सं०] १. जो संख्या में दस और दो हो । बारह । २. बारहवाँ ।

द्वादश (२)
संज्ञा पुं० बारह की संख्या या अंक ।

द्वादशक
वि० [सं०] बारह का ।

द्वादशकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय । २. बृहस्पति । ३ कार्ति- केय का एक अनुचर । ४. हर्वण योग ।

द्वाद्वशपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का द्वादशाक्षर मंत्र । २. ब्रह्मा द्वारा सतत्कुमार को उपदिष्ट योगविशेष ।

द्वादशपवन
संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार वह साँस जो बारह अंगुल तक प्रसारित होती है । उ०— द्वादस पवन भर पीता । उलट घर शीश को चढ़ाना ।—रामानंद०, पृ० ९ ।

द्वादशभाव
संज्ञा पुं० [सं०] फलीत ज्योतिष मे जन्मकुंडली के बारह घर जिनेक क्रम से तनु आदि नाम फलानुसार रखे गए हैं । विशेष— जन्मकालीन लग्न से पहले घर से तनु (अर्थात् शरीर क्षीण होगा कि स्थूल, सबल कि निर्बल, नाटा कि लंबा इत्यादि), दूसरे घर से धन और कुटुंब; तीसरे से युद्ध और विक्रम आदि; चौथे से बंधु, वाहन, सुख और आलय; पाँचवें से बुद्धि, मंत्रणा और पुत्र; छठे से चोट और शत्रु, सातवें से काम, स्त्री और पथ; आठवें से आयु, मृत्य, अपवाद आदि; नवें से गुरु, माता, पिता, पुण्य आदि; दसवें से मान, आज्ञा और कर्म; ग्यारहवें से प्राप्ति और आय, बारहवें घर से मंत्री और व्यय का विचार किया जाता है ।

द्वादशरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] बारह दिनों में होनेवाला एक यज्ञ ।

द्वादशलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय ।

द्वादशवर्गी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष में निलकंठ ताजिक के अनुसार वर्षकाल में ग्रहों का फलाफल निकालने में बारह वर्गों की समष्टि । विशेष— बारह वर्ग ये हैं— क्षेत्र, होरा, द्रेक्काण, चतुर्थांश, पंचमांश, षष्ठांश, सप्तमांश, अष्टमांश, नवमांश, दशमांश, एका- दशांश और द्वादशांश ।

द्वादशवार्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] बारह वर्ष का एक व्रत जो ब्रह्महत्या लगने पर किया जाता है । विशेष— इसमें हत्यारे को वन में कुटी बनाकर, सब वासनाओं को त्याग करके रहना पड़ता है । यदि वनफलों से निर्वाह न हो तो एक चिह्न धारण करके बस्ती में भिक्षा माँगनी पड़ती है ।

द्वादशशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णव संप्रदाय में तंत्रीक्त बारह प्रकार की शुद्धि । विशेष— देवगृह परिष्कार, देवगृह गमन, प्रदक्षिणा, ये तीन प्रकार की पदशुद्धि हैं । पूजा के लिये फूल पत्ते तोड़ना, प्रतिमोत्तलन (स्वर्श आदि) यह हस्तशुद्धि हुई । भगवान् का नामकीर्तन वाक्यशुद्धि है । हरिकथा श्रवण, प्रतिमा उत्सव आदि का दर्शन नेत्रशुद्धि हुई । विष्णुपादोदक और निर्माल्यधारण तथा प्रमाम शिर की शुद्धि तथा निर्माल्य और गंध पुष्पादि का सूँघना घ्राणशुद्धि है ।

द्वादशांग (१)
वि० [सं० द्वादशाङ्ग] जिसके १२ अंग या अवयव हों ।

द्वादशांग (२)
संज्ञा पुं० १. बारह गंधद्रव्यों के योग से बनी हुई पूजा में जलाने की धूप । विशेष— बारह द्रव्य ये हैं— गुग्गुल, चंदन, तेजपात, कुट, अगर, केशर, जायफल, कबुर, जटामासी, नागरमोथा, तज और खस । २. जैनों का वह ग्रंथसमूह जिसे वे गणधरों का बनाया मानते हैं । विशेष— इसके बारह भेद हैं— आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समावायांग, भगवतीसूत्र, ज्ञानधर्मकथा, उपासक दशांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपत्तिकांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ।

द्वादसांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वंदशाङ्गी] जैनो के द्वादश अंगग्रंथों का समूह ।

द्वादशांगुल
संज्ञा पुं० [सं० द्वादशाङ्गुल] एक बालिश्त । एक बित्ता परिमाण । बारह अंगुल की नाप [को०] ।

द्वादशांशु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति ।

द्वादशा पु †
संज्ञा पुं० [सं० द्वादशाक्ष] १. कार्तिकेय । उ०—उभै अष्टदश द्वादशा अरु गहिए पुनि बीस । द्वै सहस्र लोचन थके सुंदर ब्रह्मा न दीस ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७६५ ।

द्वादशाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय । बुद्धदेव ।

द्वादशाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक मंत्र जिसमें बारह अक्षर हैं । वह मंत्र यह हैं, 'ओं नसो भगवते वासुदेवाय' ।

द्वादशाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव ।

द्वादशात्मा
संज्ञा पुं० [सं० द्वादशात्मन्] १. सूर्य । २. आक का पेड़ ।

द्वादशायतन
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के दर्शन के अनुसार पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों तथा मन और बुद्धि का समुदाय ।

द्वादशाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बारह दिनों का समुदाय । २. एक यज्ञ जो बारह दिनों में किया जाता था । ३. वह श्राद्ध जो किसी के निमित्त उसके मरने से बारहवें दिन किया जाय ।

द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रत्येक पक्ष की बारहवीं तिथि ।

द्वादस
वि० [हिं०] दे० 'द्वादश' । यौ०— द्वादसनगर = पाँच तत्व, तीन गुण, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार इन्हीं बारह से बना शरीररूपी नगर । द्वादशाय- तन । उ०— द्वादसनगर मंझार जो पुरुष विराजहीं ।— धरम०, पृ० ४१ । द्वादस नाड़ी = द्वादश कला युक्त नाड़ी । पिंगला नाड़ी । उ०— षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादशनाड़ी भानं । सहस्र नाड़ी प्राण का मेला जहाँ असंख कला सिव थानं ।— गोरख०, पृ० ३७ ।

द्वादसबानी पु
वि० [देश०] दे० 'बारहबानी' । उ०— वह पद- मिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ।— जायसी (शब्द०) ।

द्वादसा पु †
संज्ञा पुं० [सं० द्वादश] प्राणवायु । उ०—द्वादसा पलट करि सुरति दो दल धरी । दसो परकार अनहद बजायो ।—चरण० बानी, पृ० १३६ ।

द्वादसि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वादशी] दे० 'द्वादशी' । उ०— एक समै द्वादसि दिसि थोरी । उठे नंद कछु मति भई भोरी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१४ ।

द्वापर
संज्ञा पुं० [सं०] बारह युगों में तीसरा युग । पुराणों में यह युग ८, ६४, ००० वर्ष का माना गया है । विशेष— भादों की कृष्ण त्रयोदशी बृहस्पतिवार को इस युग की उत्पत्ति मानी गई है । मत्स्यपुराण के अनुसार द्वापर लगते ही धर्म आदि में घटती आरंभ हुई । जिनके करने से त्रेता में पाप नहीं लगता था वे सब कर्म पाप समझे जाने लगे । प्रजा लोभी हो चली । अज्ञान के कारण श्रुति स्पृति आदि का यथार्थ बोध लुप्त होने लगा । नाना प्रकार के भाष्य आदि बनने और मतभेद चलने लगे । उक्त पुराण के अनुसार द्वापर में मनुष्यों की परमायु दो हजार वर्ष की थी ।

द्वाव
संज्ञा पुं० [फा० दोआवा] दो नंदियों के बीच का भूभाग । उ०— प्रायः बीस वर्ष, तक गंगा यमुना का द्वाब का भूभाग दक्षिण भारत के शासक के हाखों में रहा ।—पृ० म० भा०, पृ० ४० ।

द्वाभा
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वि + आभा] रात दिन की संधिवेला । संध्या या उषःकाल । उ०— जाड़ों की सूनी द्वाभा में झूल रही निशि छाया गहरी । डूब रहे निष्प्रभ विषाद में खेत, बाग, गृह, तरु, तट लहरी ।—ग्राम्या, पृ० ६४ ।

द्वामुष्यायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पुरुष जो दो मनुष्यों का पुत्र हो (एक का औरस और दूसरे का दत्तक) । २. वह पुरुष जो दो ऋषियों के गोत्र में उत्पन्न हुआ हो । ३. उद्दालक मुनि का नाम । ४. गौतम मुनि का नाम ।

द्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी ओट करनेवाली या रोकनेवाली वस्तु (जैसे, दीवार परदा आदि) में वह छिद्र या खुला स्थान जिससे होकर कोई वस्तु आरपार या भीतर बाहर जा आ सके । मुख । मुहाना । मुहड़ा । जैसे, गांगाद्वार । २. घर में आने जाने के लिये दीवार में खुला हुआ स्थान । दरवाजा । मुहा०— (किसी बात के लिये) द्वार खुलना = किसी बात के बराबर होने के लिये मार्ग यो उपाय निकलना । द्वार द्वार फिरना = (१) कार्यसिद्धि के लिये चारों और बहुत से लोगों के यहाँ जाना । (२) घर घर भीख माँगना । द्वार लगना = (१) किवाड़ बंद होना । (२) किसी आसरे में दरवाजे पर खड़ा रहना । उ०— यह जान्यो जिय राधिका द्वारे हरि लागे । गर्व कियो जिय प्रेम को ऐसे अनुरागे ।— सूर (शब्द०) । (३) चुपचाप किसी बात की आहट लेने के लिये किवाड़ के पीछे छिपकर खड़ा होना । द्वार लगाना = किवाड़ बंद करना । ३. इंद्रियों का मार्ग या छेद । जैसे, आँख, कान, मुँह, नाक आदि । उ०— नौ द्वारे का पींजरा तामें पंछी पौन । रहने को आश्चर्य है, गए अचंभा कौन ।—कबीर (शब्द०) । ४. उपाय । साधन । जरिया । जैसे,— रुपया कमाने का द्वार । विशेष— सांख्यकारिका में अंतःकरण ज्ञान का प्रधान स्थान कहा गया है और ज्ञानेंद्रियाँ उसका द्वार बतलाई गई हैं ।

द्वारकंटक
संज्ञा पुं० [सं० द्वारकण्टक] १. किवाड़ । कपाट । २. द्वार की अर्गला या सिटकिनी ।

द्वारकपाट
संज्ञा पुं० [सं०] द्वार या दरवाजे का पल्ला [को०] ।

द्वारका
संज्ञा स्त्री० [सं०] काठियावाड़ गुजरात की एक प्राचीन नगरी । उ०— धर पिच्छम निरखण मनधारे । परसण हरि द्वारका पधारे ।— रा० रू०, पृ० १२ । विशेष— पुराणानुसार यह सात पुरियों में मानी गई है । यहाँ द्वारकानाथ जी का मंदिर है । हिंदू लोग इसे चार धामों में मानते हैं और बड़ी श्रद्धा से यहाँ आकर छाप लेते हैं । इसे द्वारावती भी कहते हैं । यहाँ श्रीकृष्णचंद्र जरासंध के उत्पातों के कारण मथुरा छोड़कर जा बसे थे । यही उस समय यादवों का राजधानी थी । पुराणों में लिखा है कि श्रीकृष्ण के देह- त्याग के पीछे द्वारका समुद्र में मग्न हो गई । पोरबंदर से १५ कोस दक्षिण समुद्र में इस पुरी का स्थान लोग अबतक बतलाते हैं । द्वारका का एक नाम कुशस्थली भी है ।

द्वारकाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्णचंद्र । २. कृष्ण की वह मूर्ति जो द्वारका में है ।

द्वारकानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्णचंद्र । २. कृष्णचंद्र की वह मूर्ति जो द्वारका में है ।

द्वारकेश
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारकानाथ ।

द्वारगोप
संज्ञा पुं० [सं०] द्वाररक्षक । द्वारपाल [को०] ।

द्वारचार
संज्ञा पुं० [सं० द्वार + चार (= व्यवहार)] वह रीति जो लड़कीवाले के दरवाजे पर बारात पहुँचने पर पर होती हैं । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

द्वारछेँकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० द्वार + छेंकना] १. विवाह में एक रीति । जब वर विवाह कर बधू समेत अपने घर आता है तब कोहबर के द्वार पर उसकी बहन उसकी राह रोकती है । उस समय वर कुछ नेग देता है तब वह राह छोड़ देती है । २. वह नेग जो द्वारछेंकाई में दिया जाता है ।

द्वारदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० द्वारदर्शिन्] द्वारपाल । दरवान [को०] ।

द्वारदारु
संज्ञा पुं० [सं०] सागौन की लकड़ी [को०] ।

द्वारनायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वारप' [को०] ।

द्वारपंडित
संज्ञा पुं० [सं० द्वारपण्डित] १. किसी राजा के यहाँ का प्रधान पंडित । २. विद्यार्थियों की जाँच पड़ताल करके उन्हें गुरुकुल या विद्यालय के द्वार के भीतर प्रवेश की अनुमति देनेवाला पंडित । उ०— द्वारपंडित (विद्यार्थियों को प्रवेश करानेवाले) धर्मकोष आदि प्रमुख विश्वविद्यालय के कर्म- चारी थे ।—आ० भा०, पृ० ४६३ ।

द्वारप
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वारपाल । उ०— द्रुपदभूप तब कोपित वेशा । दियो द्वारपन तुरत संदेशा ।— सबल (शब्द०) । २. विष्णु ।

द्वारपटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारपर टँगा हुआ परदा । चिक [को०] ।

द्वारपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वारपटी' [को०] ।

द्वारपाल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० द्वारपाली, द्वारपालिन] १. वह पुरुष जो दरवाजे पर रक्षा के लिये नियुक्त हो । इयोढ़ीदार । दरबान ।पर्या०—प्रतीहार । द्वाःस्य । द्वारप । दर्शक । दौःसाधिक । वर्त- रूप । गर्वाट । द्वारस्थ । क्षता । दौवारिक । दंड़ी । २. तंत्र के अनुसार वह देवता जो किसी मुख्य देवता के द्वार का रक्षक हो । इन देवताओं की पूज पहले की जाती है । ३. एक तीर्थ । महाभारत में इसे सरस्वती के किनारे लिखा है ।

द्वारपालक
संज्ञा पुं० [सं० द्वारपाल]

द्वारपिंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वारपिण्ड़ी] देहली । ड्योढ़ी । दहलीज ।

द्वारपिधान
संज्ञा पुं० [सं०] अरगल । दरवाजा बंद करने के लिये लगी हुई किल्ली [को०] ।

द्वारपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवाह में एक कृत्य जो कन्यावाले के द्वार पर उस समय होता है जब बारात के साथ वर पहले पहल आता है । कन्या का पिता द्वार पर स्थापित कलश आदि का पूजन करके अपने इष्ट मित्रों सहित वर को उतारता और मधुपर्क देता है । २. जैनों की एक पूजा ।

द्वारबलिभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बक । बगला । २. काक । कौआ ।

द्वारबलिभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वारबलिभुक्' ।

द्वारयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० द्वारयन्त्र] ताला ।

द्वारवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारावती । द्वारका ।

द्वारसमुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक पुराना नगर । विशेष— यहाँ कर्नाटक के राजाओं की राजधानी थी । इसके खंडहर अब तक श्रीरंगपट्टन से वायुकोण पर सौ मील पर हैं ।

द्वारस्थ (१)
वि० [सं०] जो द्वार पर बैठा हो ।

द्वारस्थ (२)
संज्ञा पुं० द्वारपाल ।

द्वारा पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्वार] १. द्वार । दरवाजा । फाटक । उ०— सुनि के शब्द मँडफ झनकारा । बैठेउ आय पुरुब के द्वारा ।— जायसी (शब्द०) । २. मार्ग । राह । उ०— साधन धाम मोच्छ करि द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।—तुलसी (शब्द०) ।

द्वारा (२)
अव्य० [सं० द्वारात्] जरिए से । वसिले से । साधन से । हेतु से । कारण से । कर्तृत्व से । मार्फत । मुहा०— किसी के द्वारा = (१) किसी के करने से । जैसे,—यह कार्य उसी के द्वारा हुआ है ।(२) किसी के योग या सहायता से । किसी की मध्यस्थता द्वारा । किसी के मारफत । जैसे,— चिट्ठी आदमी के द्वारा भेज दो । (३) किसी वस्तु के उपयोग से जैसे,— मशीन के द्वारा काम जल्दी होगा ।

द्वारचार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वारचार' ।

द्वारादेयशुल्क
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार द्वार पर देय कर । दरवाजे पर लिया जानेवाला महमूल । चुंगी ।

द्वराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल ।

द्वाराध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्वाराधिप' [को०] ।

द्वारापुर पु
संज्ञा पुं० [सं० द्वार + पुर] द्वारकापुरी । द्वारावती । उ०— हालहिं ते बेहाल, स्वप्न द्वारापुर आयो । चौंकि चकित ह्वै रहै रूप चेरी को छायो ।—नट०, पृ० ४२ ।

दारामती
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वारवती] दे० 'द्वारावती' । उ०— द्वारामती शरीर न छाड़ा । जगननाथ ले प्यंड नगाड़ा ।—कबीर ग्रं०, पृ० २४६ ।

द्वारावति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वारवती] दे० 'द्वारावती' । उ०— अही चंद रस कंद हो, जात अगहि उहि देख । द्वारवति नँद- नंद सों, कहियौ वलि संदेस ।—नंद०, ग्रं०, पृ० १६२ ।

द्वारावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारका ।

द्वारासन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वैकुंठ के द्वार पर स्थित आसन जिसके द्वारपाल जय और विजय कहे गए हैं । उ०— हिरनाकुश पर जन्म धराई । सो द्वारासन लेही भाई ।— कबीर सा०, पृ० ८४६ ।

द्वारिक
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल । दरबान ।

द्वारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्वारका' । उ०— पूर्व में सदिया परशुराम कुंड से द्वारिका तक ही पहुँच पाए ।—किन्नर०, पृ० १०२ ।

द्वारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वार + ई (प्रत्य०)] छोटा द्वार । दरवाजा । उ०— द्वारी निहारि पछीति की भीति में टेर सखी मुख घात मुनाई ।—प्रताप (शब्द०) ।

द्वारी (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्वारिन्] द्वारपाल ।

द्वाल
संज्ञा पुं० [फा० दुवाल] दे० 'दुवाल' ।

द्वालबंद
संज्ञा पुं० [फा० दुवालबन्द] दे० 'दुवालबंद' । उ०— द्वालबंद कर कसे कमाने तीर अचूक ना होई ।—सं० दरिया, पृ० ११० ।

द्वाला पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दल, छंद या गीत का चरण । उ०— बिच अवर अवर द्वाली बणैं जात विरूध सो जाण जै ।—रघु० रू०, पृ० १४ ।

द्वाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'दुवाली' ।

द्वाविंश
वि० [सं०] बाईसवाँ ।

द्वाविंशति
वि० [सं०] जो संख्या में बीस और दो हो । बाईस ।

द्वाषष्ठ
वि० [सं०] बासठवाँ ।

द्वाषष्ठि
वि० [सं०] जो गिनती में साठ और दो हो । बासठ ।

द्वासप्तत
वि० [सं०] बहतरवाँ ।

द्वासप्तति
वि० [सं०] जो गिनती में सत्तर और दो हो । बहत्तर ।

द्वास्थ
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल ।

द्विः
अव्य० [सं० द्विर्] दो दफा । दो बार [को०] ।

द्वि
वि० [सं०] दो ।

द्विक (१)
वि० [सं०] १. जिसमें दो अवयव हों । २. दोहरा । ३. दूसरा । द्वितीय (को०) ।

द्विक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काक । २. कोक । चकवा ।

द्विककार
संज्ञा पुं० [सं०] १. चक्रवाक । चकवा । २. कौवा [को०] ।

द्विकक्रुद्
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट ।

द्विकर
संज्ञा पुं० [सं०] दोनों हाथ । उ०— गहो मेरे द्विकर, अहो, मेरे प्रवर, वहो मेरे इतर, चही मेरे चयन ।—आराधना, पृ० ४७ ।

द्विकर्मक
वि० [सं०] (क्रिया) जिसके दो कर्म हों ।

द्विकल
संज्ञा पुं० [हिं० द्वि + कला] छंदशास्त्र या पिंगल में दो मात्राओं का समूह । विशेष— यह दो प्रकार का होता है । एक में तो तीनों मात्राएँ पृथक् पृथक् रहती हैं, जैसे,— जल, चल, बन, धन इत्यादि और दूसरे में एक ही अक्षर दो मात्राओं का होता है जैसे,— खा, जा, ला, आ, का इत्यादि ।

द्विक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] शोरा और सज्जी ।

द्विगु (१)
वि० [सं०] जिसे दो गाएँ हों ।

द्विगु (२)
संज्ञा पुं० वह कर्मधारय समास जिसका पूर्वपद संख्या- वाचक हो । विशेष— यह समास तीन प्रकार का होता है—तद्धितार्थ, जैसे— पंचगु अर्थात् जिसे पाँच गो देकर मोल लिया हो; उत्तरपद, जैसे,— पंचकोण अर्थात् जिसमें पाँच कोण हों; और समा- हार, जैसे, त्रिलोकी, अर्थात् तीनो लोक, त्रिभुवन । पाणिनि ने इस समास को कर्मधारय के अंतर्गत रखा है पर और वैयाकरण इसे एक स्वतंत्र सनाम मानते हैं ।

द्विगुण
वि० [सं० ] दुगना । दूना ।

द्विगुणित
वि० [सं०] १. दो से गुणा किया हुआ । जिसे दुगना किया गया हो । २. दूना । दुगना । उ०—नौका मेरी गति से चल पड़ी ।—झरना, पृ० ३४ ।

द्विगूढ़
संज्ञा पुं० [सं० द्विगूढ] लास्य के दस अंगों में से एक । वह गीत जिसमें सब पद सम और सुंदर हों, संधियाँ वर्तमान द्विगुणित हों तथा रस और भाव सुसंपन्न हों (नाट्यशास्त्र) ।

द्विघटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो घड़ियों के हिसाब से निकाला हुआ मुहूर्त । विशेष— यह मुहूर्त होरा के अनुसार निकाला जाता है । रात दिन की साठ घड़ियों को दो दो घड़ियों में विभक्त कर देते हैं और फिर शुभाशुभ का विचार करते हैं । इस मुहूर्त में दिन का विचार नहीं होता । सब दिन सब और की यात्रा हो सकती है । इसका व्यवहार उस स्थल पर होता है जहाँ कई दिन ठहलने या रुकने का समय नहीं रहता ।

द्विचत्वारिंश
वि० [सं०] बयालीसवाँ ।

द्विचत्वारिंशतू
वि० [सं०] जो चालीस से दो अधिक हो । बयालीस ।

द्विचरण
संज्ञा पुं० [सं०] दो पैरवाले प्राणी [को०] ।

द्विल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जो दो बार उत्पन्न हुआ हो । जिसका जन्म दो बार हुआ हो ।

द्विज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडज प्राणी । २. पक्षी । ३. हिंदुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है । मनु के धर्मशास्त्र के अनुसार यज्ञोपवीत मनुष्य का दूसरा जन्म माना गया है । ४. ब्राह्मण । उ०—जीवौ कोरि बरीस असीसत द्विज बंदी- जन बोलत बिरुदाय ।—घनानंद, पृ० ४८० । ५. चंद्रमा । विशेष— पुराणों में कथा है कि चंद्रमा का दो बार जन्म हुआ था । एक बार ये ऋषिपुत्र हुए थे और दूसरी बार समुद्र के मंथन के समय समुद्र से निकले थे । ६. दाँत । उ०— द्विज पंक्षी को कहत कवि, द्विज कहिए पुनि दंत । तीनि बहन द्विज तब भले, जब जानै भगवंत ।— अनेकार्थ०, पृ० १३५ । ७. तुंबुरु । नैपाली धनियाँ । ८. तारा । तारका (को०) । ९. अश्वचिकित्सा के अनुसार एक प्रकार का घोड़ा । अश्व का एक भेद (को०) ।

द्विजचक्र पु
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण वर्ग । ब्राह्मणों का समूह । उ०— मंद करी मुख रुचि चंद चकता की कियो भूषन भुषित द्विजचक्र खान पान सों ।—भूषण ग्रं०, पृ० ४९ ।

द्विजजानि
संज्ञा पुं० [सं०] दो पत्नीवाला पुरुष । वह जिसकी दो पत्नियाँ हों [को०] ।

द्विजता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मणत्व । द्विजत्व । उ०— द्विजता तक आततायिनी, वध में है कब दोषदायिनी ।—साकेत, पृ० ३७५ ।

द्विजदंपति
संज्ञा पुं० [सं० द्विज + दम्पती] चाँदी का एक पत्तर जिसपर स्त्री पुरुष या लक्ष्मीनारायण का युगल चित्र खुदा रहता है । यह स्त्रियों के मृतक कर्म में दशाह के बाद ब्राह्मण को दान में दिया जाता है ।

द्विजदेव
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्यानरेश महाराज मानसिंह का कविता में प्रयुक्त उपनाम । उ०— गिरिधरदास (भारतेंदु के पिता) और द्विजदेव (अयोध्यानरेश महाराज मानसिंह) और सेवक बहुत अच्छे कवी हुए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३९९ ।

द्विजनारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्विज + नारी] ब्राह्मणी । उ०— जसुमति महाप्रबीन एक द्विजनारि बुलाई ।— नंद० ग्रं०, पृ० १९४ ।

द्विजन्मा (१)
वि० [सं० द्विजन्मन्] जिसका दो बार जन्म हुआ हो ।

द्विजन्मा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'द्विज' ।

द्विजपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण । २. चंद्र । ३. कपूर । ४. गरुड़ ।

द्विजप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोम ।

द्विजबंधु
संज्ञा पुं० [सं० द्विजबन्धु] संस्कार या कर्महीन द्विज । नाममात्र का द्विज ।

द्विजब्रुव
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाममात्र का द्विज, जिसका जन्म तो द्विज माता पिता से हुआ हो पर वह स्वयं द्विजों के संस्कार और कर्म से हीन हो । २. ब्राह्मणब्रुव । नाम मात्र का ब्राह्मण ।

द्विजराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण । २. चंद्रमा । ३. कपूर । ४. गरुड़ । ५. श्रेष्ठ ब्राह्मण ।

द्विजलिंगी
संज्ञा पुं० [द्विजलिङ्गिन्] १. शूद्र या दूसरे वर्ण का होकर ब्राह्मण का वेश धारण करनेवाला मनुष्य । विशेष— मनु ने ऐसे मनुष्य का दंड वध लिखा है । २. क्षत्रिय ।

द्विजवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

द्विजव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत का एक रोग । दंताबुँद ।

द्विजशप्त
संज्ञा पुं० [सं०] वर्बट । भटवाँस । (ब्राह्मण इसे नहीं खाते) ।

द्विजसेवक
संज्ञा पुं० [सं०] द्विज का सेवक । शूद्र [को०] ।

द्विजांगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० द्विजाङ्गिका] कुटकी ।

द्विजांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० द्विजाङ्गी] कुटकी ।

द्विजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्राह्मण या द्विज की स्त्री । २. रेणुका । संभालू का बीज । यह गंधद्रव्यों में है । ३. पालक का शाक (यह एक बार काटे जाने पर फिर होता है । ४. भारंगी । ५. पान की बेल । उ०— तांबूली, अहिवल्लरी, द्विजा, पान की बेलि ।— नंद ग्रं०, पृ० १०६ ।

द्विजाग्रज
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण ।

द्विजाग्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण ।

द्विजाति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण, क्षत्रिय और बैश्य, जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है । द्विज । २. ब्राह्मण । ३. अंडज । ४. पक्षी । ५. दाँत ।

द्विजानि
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जिसके दो स्त्रियाँ हों ।

द्विजायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञोपवीत ।

द्विजिह्व (१)
वि० [सं०] १. जिसे दो जीभें हों । २. उधर उधर लगानेवाला । सूचक । चुगलखोर । ३. खल । दुष्ट । ४. चोर । ५. दुःसाध्य ।

द्विजेह्व (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप । २. एक रोग ।

द्विजेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० द्विजेन्द्र] १. चंद्रमा । २. ब्राह्मण । ३. गरुड़ ४. कपूर ।

द्विजेंद्रलाल
संज्ञा पुं० [सं०] बँगला भाषा के ख्यातनाम कवि और नाटककार का नाम ।

द्विजेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. ब्राह्मण । २. कपूर । ४. गरुड़ ।

द्विजोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] द्विजों में श्रेष्ठ । ब्राह्मणश्रेष्ठ ।

द्विट
संज्ञा पुं० [सं०] द्विष् शब्द का समासगत रूप ।

द्विट्सेवी
संज्ञा पुं० [सं० द्विट्सेविन्] राजशत्रुसेवी । वह जो राजा के शत्रु से म मिला हो या मित्रता रखता हो । विशेष— मनु ने ऐसे मनुष्य का दंड वध लिखा है ।

द्विठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विसर्ग । २. स्वाहा ।

द्वित
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवता का नाम । २. एक ऋषि का नाम जो तीन भाई थे— एकत, द्वित और त्रित ।

द्वितय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० द्वितयी] १. जिसके दो अंश हों । जो दो से मिलकर बना हो । २. दोहरा ।

द्वितय (२)
संज्ञा पुं० जोड़ा । मिथुन [को०] ।

द्वितिय पु
वि० [सं० द्वितीय] [वि० स्त्री० द्वितीया] दे० 'द्वितीय' । उ०— (क) बाएँ दाहिने है सहिदानी । इक द्विश धर्म द्वितिय धर्म धानी ।—कबीर सा०, पृ० ८१ । (ख) प्रथमा, द्वितिया, बहुरि तृतिया जानिए ।—पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ५२९ ।

द्वितीय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० द्वितीया] दूसरा ।

द्वितीय (२)
संज्ञा पुं० १. पुत्र । विशेष— आत्मा ही पुत्र रूप से जन्म ग्रहण करता है । इससे यह नाम पड़ा । २. साथी । सहायक । मित्र (विशेषतः समासांत में प्रयुक्त) । ३. जोड़ । समकक्ष (को०) । ४. वर्ग का दूसरा अक्षर —ख, छ, ठ, थ और फ (को०) । ५. मध्यम पुरुष (व्याकरण) । ६. आधा । अर्धभाग (को०) ।

द्वितीय
क्रि० वि० [सं० द्वितीयम्] दूसरी बार । फिर [को०] ।

द्वितीयक
वि० [सं०] दूसरा ।

द्वितीयत्रिफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गभारी ।

द्वितीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रत्येक पक्ष की दूसरी तिथि । दूज । २. वाम मार्ग के अनुसार मांस । ३. पत्नी । स्त्री । सहषर्मिणी (को०) ।

द्वितीयाकृत
वि० [सं०] खेत जो दो बार जोता गया हो ।

द्वितीयाभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहल्दी ।

द्वितीयाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] गार्हस्थ्य आश्रम ।

द्वित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो भाव । २. दोहरे होने का भाव । २. दो की संख्या (को०) ।

द्विदंत
वि० [सं० द्विदन्त] दो दाँतोंवाला । जिसे दो दाँत हों ।

द्विदल (१)
वि० [सं०] १. जिसमें दो दल या पिंड हों । जो दो ऐसे खंडों से मिलकर बना हो जो खूब जुडे़ हों, पर कूटने, दबाने आदि से अलग हो सकें । जैसे, अरहर, चना आदि अन्न । २. जिसमें दो पत्तें हों । ३. जिसमें दो पटल या र्पख- ड़ियाँ हों । ४. जिसमें दो दल हों । जिसमें दो गुट हों ।

द्विदल (२)
संज्ञा पुं० वह अन्न जिसमें दो दल हों । दाल ।

द्विदल शासनप्रणाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की शासन प्रणाली या सरकार जिसमें शासन अधिकार दो भिन्न व्यक्तियों के हाथ में रहता है । द्वैध शासनप्रणाली । दुहत्था शासन । वि० दे० 'डायचार्की' ।

द्विदश
वि० [सं० द्वि + दश] बारह । उ०— वे कार्य औ द्विदश वत्सर की अवस्था । ऊधो न क्यों फिर नृरत्न मुकुंद होंगे ।— प्रिय०, पृ० १६६ ।

द्विदामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्विदाम्नी' । २. दो रस्सियों से बँधी हुई घोड़ी । उ०— दो रस्सियों में बँधी हुई घोड़ी द्विदामा तथा खुली हुई घोड़ी उद्दामा कही जाती थी ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २८४ ।

द्विदाम्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो दो रस्सियों से बँधी हो । नटखट गाय ।

द्विदेवता (१)
वि० [सं०] १ दो देवताओं से संबंध रखनेवाला (चरु आदि) । जो दो देवताओं के लिये हो । २. जिसके दो देवता हों ।

द्विदेवता (२)
संज्ञा पुं० विशाखा नक्षत्र ।

द्विदेह
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश । विशेष— पुराणों में कथा है कि गणेश का सिर एक बार कट गया था, फिर हाथी का सिर जोड़ा गया था ।

द्विद्वादश
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष का एक योग । जब वर के जन्मलग्न से कन्या का जन्मलग्न दूसरे पडे़ और कन्या के जन्मलग्न से वर का जन्मलग्न बरहवें पडे़ तो उसे 'द्विद्वादंश' कहते हैं । यह विवाह की गणना में अतिशय अशुभ माना गया है ।

द्विध
वि० [सं०] दो भागों में बँटा हुआ ।

द्विधा (१)
क्रि० वि० [सं०] १. दो प्रकार से । दो तरह से । २. दो खंडों में । दो टुकड़ों में ।

द्विधा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दुबधा] दे० 'दुबधा' । उ०— द्विधा रहित अपलक नयनों की भूखभरी दर्शन की प्यास ।—कामायनी, पृ० १२ ।

द्विधाकरण
संज्ञा पुं० [सं०] दो हिस्सों में बाँटना । दो भागों में विभाजन [को०] ।

द्विधागति
संज्ञा पुं० [सं०] १. उभचर जंतु । २. मगर । ३. केकड़ा [को०] ।

द्विधातु (१)
वि० [सं०] जो दो धातुओं के संयोग से बना हो ।

द्विधातु (२)
संज्ञा पुं० १. दो धातुओं मेंल से बनी हुई मिश्रित धातु । २. गणेश ।

द्विधात्मक
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

द्विधाद्वंद्व
संज्ञा पुं० [सं० द्विधाद्वन्द्व] १. संदेह । भ्रम । २. विघ्न । बाधा [को०] ।

द्विधालेख्य
संज्ञा पुं० [सं०] हिंताल का पेड़ ।

द्विनग्नक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'दुश्चर्मा' ।

द्विनवति
वि० [सं०] बानबे ।

द्विनेत्रभेदी
संज्ञा पुं० [सं० द्विनेत्रभेदिन्] वह मनुष्य जिसने किसी की दोनों आँखें फोड़ दी हों । विशेष— कौटिल्य ने यह लिखा है कि जो लोग यह अपराध करते थे उनकी दोनों आँखें योगांजन लगाकर फोड़ दी जाती थीं । जुरमाने के रूप में ८०० पण देक लोग इस दंड से बच सकते थे ।

द्विपंचमूली
संज्ञा स्त्री० [सं० द्विपञ्चमूली] दशमूली ।

द्विपंचाशत्
वि० [सं०] बावन ।

द्विपंचाशत्तम
वि० [सं० द्विपञ्चाशत्तम] बावनवाँ ।

द्विप
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी । २. नागकेसर ।

द्विपक्ष (१)
वि० [सं०] १. जिसके दो पर हों । २. जिसमें दो पक्ष हों ।

द्विपक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. पक्षी । चिड़िया । २. महीना । मास ।

द्विपक्षमूली
संज्ञा पुं० [सं०] दशमूल ।

द्विपटवान
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार दोहरे अर्ज का कपड़ा ।

द्विपथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ दो पथ आकर मिलते हों । दोराहा ।

द्विपद (१)
वि० [सं०] १. जिसके दो पैर हों । जैसे, मनुष्य, पक्षी । २. जिसमें दो पद या शब्द हों ।

द्विपद (२)
संज्ञा पुं० १. वह जंतु जिसके दो पैर हों । २. मनुष्य । ३. ज्योतिष के अनुसार मिथुन, तुला, कुंभ, कन्या और धनु लग्न का पूर्व भाग । ४. वास्तुमंगल का एक कोठा ।

द्विपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह ऋचा जिसमें केवल दो पद या पाद हों ।

द्विपदिक
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्धराग का एक भेद ।

द्विपदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्विपदी' [को०] ।

द्विपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह छंद या वृत्ति जिसमें दो पद हों । २. दो पदों का गीत । ३. एक प्रकार का चित्र काव्य जिसमें किसी दोहे आदि को कोष्ठों की तीन पंक्तियों में लिखते हैं । विशेष— यह चित्रकाव्य इस प्रकार लिखते हैं कि दोहे के पहले चरण का आदि अक्षर पहले कोठे में, फिर एक एक अक्षर छोड़कर पहली पंक्ति के कोठों में भरते हैं, इसके, उपरांत छूटे हुए अक्षरों को दूसरी पंक्ति के काठों में एक एक करके रख देते हैं । इसी प्रकार तीसरी पंक्ति के कोठों में दोहे के दूसरे चरण के अक्षर, एक एक अक्षर छोड़ते हुए, रखते हैं । इन्हीं तीन कोष्ठ पंक्तियों से पूरा दीहा पढ़ लिया जाता है । पढ़ने का क्रम यह होना चाहिए कि पहले कोठे के अक्षर को पढ़कर उसके नीचेवाले कोठे के अक्षर को पढे़, फिर पहली पंक्ति के दूसरे अक्षर को पढ़कर उसके नीचे के (दुसरी पंक्ति के दूसरे) कोठे के अक्षर को पढे़ । तीसरी पंक्ति के कोठों के अक्षरों को नीचे से ऊपर इस क्रम से पढे़ अर्थात् प्रथम द्वितीय कोष्ठ के क्रम से पढ़कर फिर तृतीय द्वितीय कोष्ठ के अक्षरों को पढे़, जैसे,—/?/रामदेव नरदेव गति, परशु धरन मद धारि । वामदेव गुरदेव गति पर कुधरन हद धारि ।

द्विपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार के जंगली बेर का पेड़ । बनकोली ।

द्विपाद (२)
वि० [सं०] १. जिसे दो पैर हों । दो पैरोंवाला (पशु) । २. जिसमें दो पद या चरण हों (छंद आदि) ।

द्विपाद (२)
संज्ञा पुं० मनुष्य, पक्षी आदि दो पैरवाले जंतु ।

द्विपादवध
संज्ञा पुं० [सं०] दोनों पैर काटने का दंड । विशेष— कौटिल्य ने लिखा है कि जो लोग मृत पुरुष की जाय- दाद आदि की चोरी करते थे, उन्हें यह दंड दिया जाता था ।

द्विपाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] निर्दिष्ट दंड से दूना दंड [को०] ।

द्विपायी
संज्ञा पुं० [सं० द्विपायिन्] [स्त्री० द्विपायिनी] हाथी ।

द्विपास्य
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश (जिनका मुख हाथी के मुख के समान है) ।

द्विपृष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के नौ वासुदेवों में से एक ।

द्विबाहु (१)
वि० [सं०] जिसके दो बाहु हों । द्विभुज ।

द्विबाहु (२)
संज्ञा पुं० मनष्य आदि दो पैरवाले जीव ।

द्विबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० द्विबिन्दु] विसर्ग (?) ।

द्विभात
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाश । चमक । द्वाभा [को०] ।

द्विभाव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दो भाव । दुराव ।

द्विभाव (२)
वि० जिसमें दो भाव हों । कपटी । बुरे स्वभाव का ।

द्विभाषी
संज्ञा पुं० [सं० द्विभाषिन्] [स्त्री० द्विभाषिणी] वह पुरुष जो दो भाषाएँ जानता हो । दुभाषिया ।

द्विभुज (१)
वि० [सं०] जिसके दो हाथ हों । दो हाथवाला ।

द्विभुज (२)
संज्ञा पुं० कोण । वह स्थान जहाँ दो भुज मिलें ।

द्विभूम
वि० [सं०] दोतल्ला (घर) ।

द्विमातृ
संज्ञा पुं० [सं०] (दो माताओं के गर्भ से उत्पन्न) जरासंध ।

द्विमातृज
संज्ञा पुं० [सं०] (दो माताओं के गर्भ से उत्पन्न) १. जरा- संध । २. गणेश ।

द्विमात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह वर्ण जो दो मात्राओं का हो । दीर्घ । जैसे,— आ, ऊ, की इत्यादि ।

द्विमीढ
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार हस्तिनापुर बसानेवाले महाराज हस्ति का एक पुत्र । यह अजमीढ़ का भाई था ।

द्विमुख (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० द्विमुखी] जिसके दो मुँह हों ।

द्विमुख (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के कृमि जो पेट के मल में उत्पन्न हो जाते हैं । २. दो मुँहवाला साँप । गूँगी ।

द्विमुखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

द्विमुखी (१)
वि० स्त्री० [सं०] दो मुँहवाली ।

द्विमुखी (२)
संज्ञा स्त्री० १. वह गाय जो बच्चा दे रही हो । विशेष— बच्चा देते समय गाय के पीछे की ओर बच्चे का मुँह निकलता है, इससे देखने में गाय के दोनों ओर मुख दिखाई पड़ता है । ऐसी गाय के दान का बड़ा माहात्म्य समझा जाता है ।

द्वियजुष (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राकर की ईंट जो यज्ञों में यज्ञकुंड, मंडप आदि बनाने में काम आती थी ।

द्वियजुष (२)
संज्ञा पुं० यजमान ।

द्विर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्विरेफ' [को०] ।

द्विरद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी । १. दुर्योंधन का एक भाई । उ०— द्विरदहि बहुरि बोलाइ नरेशा । सौंपि गयंद यूथ उपदेशा ।— सबल (शब्द०) ।

द्विरद (२)
वि० दो रद अर्थात् दाँतोंवाला ।

द्विरदांतक
संज्ञा पुं० [सं० द्विरदान्तक] सिंह [को०] ।

द्विरदाशन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह ।

द्विरसन
संज्ञा पुं० [सं०] साँप ।

द्विरसना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साँपिन । सर्पिणी । २. दो प्रकार की बातें करनेवाली स्त्री । धूर्ता स्त्री । उ०— जी द्विरसने हम- को मार, कठिन तेरा उचित न्याय विचार ।—साकेत; पृ० १७९ ।

द्विरागमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुनरागमन । फिर दूसरी बार आना । २. वधू का अपने पति के घर दूसरी बार आना । दोंगा ।

द्विरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दो रातों में होनेवाला एक यज्ञ ।

द्विराप
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी ।

द्विरुक्त (१)
वि० [सं०] दो बार कहा गया । दुहराकर कहा गया ।

द्विरुक्त (२)
संज्ञा पुं० पुनरुक्त कथन । दो बार कही गई बात [को०] ।

द्विरुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो बार कथन ।

द्विरूढा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका एक बार एक पति से और दूसरी बार दूसरे पति से विवाह हुआ हो । पुनभूँ ।

द्वेरतस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो भिन्न भिन्न पशुओं से उत्पन्न पशु । जैसे, घोडे़ और गदहे से उत्पन्न खच्चर । २. दोगला ।

द्विरेता
संज्ञा पुं० [सं० द्विरेतस्] दोगला पशु [को०] ।

द्विरेफ
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमर । भौंरा । उ०— दुर्जन द्विरेफ दारुण झंकार के मचाने में कभई न चूकेंगे ।—श्यामा०, पृ० ४ ।

द्विवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोमुहाँ साँप । २. एक कृमिरोग ।

द्विवक्त्र (२)
वि० दो मुँहवाला [को०] ।

द्विवचन
संज्ञा पुं० [सं०] दो का बोध करानेवाला वचन (व्याकरण) ।

द्विवज्रक
संज्ञा पुं० [सं०] वह घर जिसमें सोलह कोण हों सोलहकोना घर ।

द्विवाहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] झूला । हिंडोला [को०] ।

द्विबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० द्विविन्दु] विसर्ग ।

द्विविंदु
संज्ञा पुं० [सं० द्विविन्दु] विसर्ग ।

द्विविद
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक बंदर जो रामचँद्र की सेना का एक सेनापति था । २. विष्णुपुराणादि के अनुसार एक बंदर । यह नरकासुर का मित्र था । इसे बलदेव जी ने मारा था ।

द्विविध (१)
वि० [सं०] दो प्रकार का ।

द्विविध (२)
क्रि० वि० दो प्रकार से ।

द्विविधा पु
संज्ञा पुं० [सं० द्विविध] दुबधा ।

द्विवेद
वि० [सं०] दो वेद पढ़नेवाला ।

द्विवेदी
संज्ञा पुं० [सं० द्विवेदिन्] ब्राह्मणों की एक उपजाति । दूबे ।

द्विवेशरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो पहियों की छोटी गाड़ी ।

द्विव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] दो प्रकार के व्रण या घाव । विशेष— सुश्रुत ने व्रण दो प्रकार के मान हैं । एक शारीर दूसरा आगंतुक । जो घाव वायु, रक्त, पित्त और कफ से फोडे़ आदि के रूप में होता है उसे शारीर व्रण और जो किसी जंतु के काटने आदि से हो उसे आगंतुक व्रण कहते हैं ।

द्विशत
वि० [सं०] दो सौ ।

द्विशत्य
वि० [सं०] दो सौ देकर खरीदा गया [को०] ।

द्विशफ
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसके खुर फटे हों । दो खुरवाला पशु । जैसे, गाय, भेंड़, हिरन इत्यादि ।

द्विशरीर
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार कन्या, मिथुन, धनु और मीन रासियाँ, जिनका प्रथमार्ध स्थिर और द्वितीयार्ध चर माना जाता है ।

द्विशिर
वि० [हिं० द्वि + शिर] दो शिरवाला । जिसके दो सिर हों । मुहा०— कौन द्विशिर है ? = किसे फालतू सिर है ? किसे अपने मरने का भय नहीं है ? उ०— तुम्हारे दुःख का कारण न जानने से हमको बड़ा क्लेश होता है । क्या हमसे कोई अपराध हुआ अथवा और किसी ने द्विशिर होना चाहा है ?— कादंबरी (शब्द०) ।

द्विशीर्ष (१)
वि० [सं०] जिसके दो सिर हों ।

द्विशीर्ष (२)
संज्ञा पुं० अग्नि ।

द्विषंतप
वि० [सं०] शत्रुओं को ताप देनेवाला [को०] ।

द्विष् (१)
वि० [सं०] द्वेष रखनेवाला ।

द्विष् (२)
संज्ञा पुं० शत्रु । वैरी ।

द्विष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु । दुश्मन ।

द्विष (२)
वि० दे० 'द्विष् (१)' ।

द्विषत्
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'द्विष' ।

द्विष्ट (१)
वि० [सं०] जिससे द्वेष हो ।

द्विष्ट (२)
संज्ञा पुं० ताम्र । ताँबा ।

द्विष्ठ
वि० [सं०] दो में संमिलित । उभयनिष्ठ [को०] ।

द्विसप्तति (१)
वि० [सं०] १. बहत्तर । २. बहत्तरवाँ ।

द्विसप्तति (२)
संज्ञा स्त्री० बहत्तर की संख्या ।

द्विसप्ताह
संज्ञा पुं० [सं०] पक्ष । पाख । पंद्रह दिन [को०] ।

द्विसम
वि० [सं०] दो समान अंश या भागवाला [को०] ।

द्विसमत्रिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह त्रिभुज जिसकी कोई दो रेखाएँ समान हों [को०] ।

द्विसहस्र
वि० [सं०] १. दो हजार में क्रीत । २. दो हजार [को०] ।

द्विसहस्राक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शेष नाग [को०] ।

द्विसाहस्र
वि० [सं० ] दे० 'द्विसहस्र' [को०] ।

द्विसीत्य
वि० [सं०] एक बार लंबाई और फिर चौड़ाई में जोता हुआ । दो बार जोता हुआ (खेत आदि) ।

द्विस्विन्नान्न
संज्ञा पुं० [सं०] उबाले हुए धान का चावन । भुजिया चावल । विशेष— ब्रह्मवैवर्त पुराण में यति, विधवा और ब्रह्मचारी के लिये इसका खाना निषिद्ध कहा गया है । देवपूजन आदि में भी इसका व्यवहार अच्छा नीहं कहा गया है ।

द्विहन्
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी ।(जो सूँड़ से मारता है) ।

द्विहरिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहल्दी ।

द्विहल्य
वि० [सं०] दे० 'द्विसीत्य' [को०] ।

द्विहा
संज्ञा पुं० [सं० द्विहन्] हाथी । करी ।

द्विहायन
वि० [सं०] दो वर्ष का [को०] ।

द्विहायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो वर्ष की गाय [को०] ।

द्विहृदया
वि० स्त्री० [सं०] गर्भिणी । गर्भवती ।

द्वींद्रिय
संज्ञा पुं० [सं० द्वीन्द्रिय] वह जंतु जिसके दो ही इंद्रियाँ हों ।

द्वीतय पु
संज्ञा पुं० [सं० द्वैत] दे० 'द्वैत' । उ०— सुंदर समुझै एक है अनसमझै कौ द्वीत । उभै रहित सदगुरु कहै सौहै बचना- तीत ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६७१ ।

द्वीपंती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० दीपवती] नदी । सरित् । उ०— शैवालनि, स्रोतस्विनी, द्वीपंती, जलमाल । आप गान को बार में, सोच कहा है बाल ।—नंद ग्रं०, पृ० ९८ ।

द्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थल का वह भाग जो चारों ओर जल से घिरा हो । विशेष— बडे़ द्वीपों को महाद्वीप कहते हैं । बहुत से छोटे छोटे द्वीपों के समूह को द्वोपपु ज या द्वीपमाला कहते हैं । द्वीप दो प्रकार के होते हैं— साधारण और प्रवालज । साधारण द्वीप दो प्रकार से बनते हैं—एक दो भूगभंस्थ अग्नि के प्रकोप से समुद्र के नीचे से उभड़ आते हैं । दूसरे आसपास की भूमि के धँस जाने से और वहाँ पानी आ जाने से बनते हैं । प्रवालज द्वीपों की सृष्टि मूँगों से होती है । ये बहुत सूक्ष्म कृमि हैं जो थूहर के पेड़ के आकार का पिंड बनाकर समुद्रतल में जमे रहते हैं । इन्हीं छोटे छोटे कीड़ों के शरीर से सहस्त्रों वर्ष में इकट्ठा होते होते बड़ा सा पर्वत बन जाता है और समुद्र के ऊपर निकल आता है जिसे प्रवालज द्वीप कहते हैं । इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार का द्वीप भी होता है जिसे सरिदभव कह सकते हैं । इस प्रकार के द्वीप प्रायः बड़ी बड़ी नदियों के मुहानों पर, जहाँ वे समूद्र में गिरती हैं, बन जाते हैं । उन द्वीपों में कितने तो इतने छोटे होते हैं कि समुद्र में एक छोटे से टीले से अधिक नहीं दिखाई पड़ते पर बडे़ द्वीप भी होते हैं जिनमें पेड़ पौधे होते हैं और पशु पक्षी मनुष्य आदि रहत हैं । २. पुराणानुसार पृथ्वी के सात बडे़ विभाग । विशेष— पुराणों में पृथ्वी सात सात द्वीपों में विभक्त की गई है । समुद्र और द्वीपों की उत्पत्ति के संबंध में यह कथा है । महाराज प्रियव्रत ने यह सोचा कि एक बार में सूर्य पृथिवी के एक ही और उजाला करता है जिससे दूसरी ओर अंधकरा रहता है । उन्होंने एक पहिए की एक चमचमाती गाड़ी पर सवार होकर सात बार पृथिवी की परिक्रमा की । गाड़ी के पहिये के धँसने से पृथिवी पर सात वर्तुलाकार गड्ढे पड़ गए जो सात समुद्र बन गए । इन्हीं सातों समुद्रों से वेष्ठित होने से सात द्वीपों की सृष्टि हुई । इनमें सबके बीच में जबूद्वीप है जो चारों ओर से क्षार समूद्र से वेष्ठित है और जिसके बीच में मेरु पर्वत है । क्षार समूद्र के उस पार दूसरा द्वीप प्लक्षद्वीप हैजो जंबूद्वीप से दूना बड़ा है । तीसरा द्वीप शाल्मली द्वीप है । यह प्लक्षद्वीप से भी द्विगुण है । चौथे द्वीप का नाम कुशद्वीप है जो शाल्मली का भी दूना है । पाँचवाँ द्वीप क्रौंचद्वीप है, जो कुशद्वीप का दूना है । छठवाँ द्वीप शाकद्वीप क्रौंच से दूना बड़ा है और सातवें द्वीप का नाम पुष्करद्वीप है । यह क्रौचद्वीप का दूना है । पर भास्कराचार्य जी का मत है कि पृथ्वी के आधे भाग में क्षारसमूद्र से वेष्ठित जंबूद्वीप है और आधे में शेष प्लक्षद्वीपादि छह द्वीप हैं । ये सातों द्वीप यथाक्रम क्षार, लवण, क्षीर, दधि, रस आदि समुद्रों से आवेष्ठित हैं । ३. अवलंबन का स्थान । आधार । ४. व्याघ्र चर्म ।

द्वीपकपूँर
संज्ञा पुं० [सं०] चीनी कपूर ।

द्वीपकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मतानुसार एक प्रकार का देवता । यह भुवनपति नामक देवगण के अंतर्गत है ।

द्वीपखर्जूर
संज्ञा पुं० [सं०] महा पारेवत ।

द्वीपवत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूद्र । २. नद ।

द्वीपवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी का नाम । २. भूमि ।

द्वीपवान् (१)
वि० [सं० द्वीपवत्] द्वीपोंवाला । जिसमें द्वीप हों [को०] ।

द्वीपवान् (२)
संज्ञा पुं० १. समूद्र । २. नद [को०] ।

द्वीपशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] शतावरी । शतावर ।

द्वीपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०,] शतावरी । सतावर ।

द्वीपिनख
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाघ का नख । २. एक सुगंध द्रव्य [को०] ।

द्वीपी
संज्ञा पुं० [सं० द्वीपिन्] १. व्याघ्र । बाघ । २. चीता । ३. चित्रक वृक्ष । चीता ।

द्वीप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदव्यास । २. एक प्रकार का कौआ । ३. रुद्र [को०] ।

द्वीप्य (२)
वि० द्वीप में उत्पन्न [को०] ।

द्वीश (१)
वि० [सं०] १. जो दो का स्वामी हो । २. जिसके दो स्वामी हों । ३. (चरु आदि) जो दो देवताओं के लिये हो ।

द्वीश (२)
संज्ञा पुं० विशाखा नक्षत्र ।

दवृच
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो ऋचाओं का समूह । ४. वह सूक्त जिसमें दो ही ऋचाएँ हों ।

द्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] चित्त को अप्रिय लगने की वृत्ति । चिढ़ । शत्रुता । वैर । विशेष— योगशास्त्र में द्वेष उस भाव को कहा गया है जो दुःख का साक्षात्कार होने पर उससे या उसके कारण से हटने या बचने की प्रेरणा करता है ।

द्वषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु । २. वैर । दुश्मनी । ३. घृणा । ४. शत्रुता [को०] ।

द्वेषण (२)
वि० द्वेष करनेवाला [को०] ।

द्वेषी (२)
वि० [सं० द्वेषिन्] [वि० स्त्री० द्वेषिणी] विरोधी । बैरी । चिढ़ रखनेवाल ।

द्वेषी (२)
संज्ञा पुं० शत्रु । वैरी ।

द्वेष्टा
वि० [सं० द्वेष्ट] [स्त्री० द्वेष्टी] द्वेप करनेवाला । विरोधी । वैरी । शत्रु ।

द्वेष्य (१)
वि० [सं०] जिससे द्वेष किया जाय ।

द्वेष्य (२)
संज्ञा पुं० शत्रु । वैरी ।

द्वेस पु
संज्ञा पुं० [सं० द्वेष] दे० 'द्वेष' । उ०—नेह दुरावत दुहुन कौ द्वेस देत सुख भूरि । राति मिलत है रति हँसत होत रुखाई दूरि ।—स० ससक, पृ० ३७७ ।

द्वै पु †
वि० [सं० द्वय] दो । दोनों । उ०—(क) पुर तें निकसी रघुबीर बधू धरि धीर दियो मग ज्यों डग द्वै ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) गुन गेह सनेह को भाजन सों सबही सों उठाइ कहों भुज द्वै ।—तुलसी (शब्द०) ।

द्वैक पु
वि० [हिं०] दो एक ।

द्वैगुणिक
वि० [सं०] द्विगुणग्राही । दूना व्याज लेनेवाला । दूना सूद खानेवाला (महाजन) ।

द्वैगुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में से किन्ही तो से गुक्त । २. द्वैत । ३. दूना द्रव्य या दूना परिमाण [को०] ।

द्वैज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वितीय, प्रा० दुइय] द्वितीय । दूज । उ०— द्वेज सुधा दीधित कला, यह लखि दीठ लगाय । मनौ अकास अगस्तिया, एकै कली लखाय ।—बिहारी (शब्द०) ।

द्वैत
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो का भाव । युग्म । युगल । २. अपने और पराए का भाव । भेद । अंतर । भेदभाव । उ०—सेवत साधु द्वैत भय भागै । श्री रघुबीर चरन चित लागै ।— तुलसी (शब्द०) । ३. दुबधा । भ्रम । उ०—सुख संगति सुख द्वैत सों समुझै नाहि गवाँर । बात करै अद्वैत की पढ़ि गुनि भया लबार ।—कबीर (शब्द०) । ४. अज्ञान । उ०— माधव अब न द्रवहु केहि लेखे । प्रणतपाल प्रण तोर, मोर प्रण जियहुं कमलपद देखे ।...जनक जननि गुरु बंधु सुहृद पति सब प्रकार हितकारी । द्वैत रूप तम कूप परों नहीं सो कछु जतन बिचारी ।—तुलसी (सब्द०) । ५. द्वैतवाद ।

द्वैतवन
संज्ञा पुं० [सं०] एक तपोवन, जिसमें युधिष्टिर ने बनवास के समय कुछ काल तक निवास किया था ।

द्वैतवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह दार्शनिक सिद्रांत जिसमें आत्मा और परमात्मा अर्थात् जीव और ईश्वर दो भिन्न पदार्थ मानकर विचार किया जाता है । विशेष—उत्तरमीमांसा या वेदांत को छोड़ शेष पाँचो दर्शन द्वेत- वादी माने जाते हैं । द्वेतवादियों का कथन है कि ब्रह्म और जीव का भेद नित्य है पर अद्वैतवादी कहते है कि यह भेदज्ञान भ्रम है । जिस समय जीव अपने को ब्रह्म स्वरूप समझ लेता है उस समय वह मुक्त हो जाता है । केवल उपाधि के कारण जीव अपने को ब्रह्म से भिन्न समझता है, उपाधि हट जानी पर वह ब्रह्म में मिल जाता है । द्वैत- वादी जीव की उपाधि को नित्य मानते हैं पर अद्वैतवादी उसे हटाने की चेष्टा करने का उपदेश देते हैं । जिस प्रकार अदैतवादी 'तत्वमसि' उपनिषद् के इस महावाक्य को मूलमानकर चलते हैं उसी प्रकार द्वैतवादी भी । पर दोनौं उससे भिन्न भिन्न अर्थ लेते हैं । अद्वैतवादी 'तत्वमसि' का सीधा अर्थ लेते है कि 'तुम वही (ब्रह्म) हो', पर द्वैतवादी मघ्वाचार्य ने खींच तानकर उसका अर्थ लगाया है 'तस्य त्वं असि' अर्थात् तुम उसके हो । न्याय और वैशेषिक में तीन नित्य पदार्थ माने गए हैं—जीवात्मा, परमेश्वर और पर- माणु । इस प्रकार के द्वैतवाद का खंडन ही शंकर ने अपने अद्वैतवाद द्वारा किया है । जिस प्रकार शंकराचार्य ने वेदांतसुत्र का भाष्य करके अपना अद्वैतवाद स्थापित किया है उसी प्रकार मध्वाचार्य ने उक्त सुत्र का एक भाष्य रचकर द्वैतवाद का मंडन किया है । उनके मत से परमेश्वर स्वतंत्र है और जीव परमेश्वर के अधीन है । वेदांती लोग जो जगत् को ईश्वर से अभिन्न अथवा रज्जु सर्पवत् मानते है और जीव में ईश्वर का आरोप करते हैं वह ठीक नहीं । जगत् और जीव सत्य है और ईश्वर से भिन्न हैं । 'एकमेवाद्वितीय' वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जैसा कि अद्वैतवादी करते हैं । उसका अर्थ है कि ईश्वर बहुत नहीं एक हो है । 'एव' शब्द से मध्वाचार्य यह ध्वनि निकालते हैं कि ईश्वर सदा एक ही रहता है, एकत्व उसका स्वभाव है वह अनेक हो नहीं सकता । अद्वितीय का अर्थ यह है कि द्वितीय जो जीव और जगत् है सो वह नहीं है । जीव और जगत् उसकी सृष्टि है । इस प्रकार सध्वाचार्य ने द्वैतभाव का मंडन किया है । रामानुज का विशिष्टाद्वैत वाद द्वैत और अद्वैन के बीच का मार्ग है, द्वैतवाद से उसमें बहुत अधिक भेद नहीं है । दे० वेदांत । २. वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें भूत और चित् शक्ति अथवा शरीर और अत्मा दो भिन्न पदार्थ माने जाते हैं ।

द्वैतवादी
वि० [सं० द्वैतवादिन्] [वि० स्त्री० द्वैतवादिनी] द्वैत- वाद को माननेवाला । ईश्वर और जीव में भेद माननेवाला ।

द्वैतात्मिका
वि० स्त्री० [सं०] द्विरूपात्मिका । द्वैतभाव से यु्क्त । उ०— लोकदृष्टि से ब्रह्म को अगोचर रखनेवाली कौतुकशीला द्वैतात्मिका माया की क्रीड़ा है ।—शैली, पृ० २ ।

द्वैती
वि० [सं० द्वैतिन्] द्वैतवादी ।

द्वैतीयीक
वि० [सं०] द्वितीय । दूसरा [को०] ।

द्वैध
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरोध । परस्पर विरोघ । राजनीति के षड्गुणों में से एक जिसमें परस्पर के व्यवहार में गुप्त और प्रकट स्वभाव रखना पड़ता है अर्थात् मुख्य उद् देश्य गुश रखकर दूसरा उद्देश्य प्रकट किया जाता है ।

द्वैधशासन प्रणाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'द्विदल शासनप्रणाली' ।

द्वैधीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी चीज के दो टुकड़े करना ।

द्वैधीभाव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्विधा भाव । अनिश्चय । २. भीतर कुछ और भाव, बाहर कुछ और भाव ।

द्वैधीभाव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक से लड़ना तथा दूसरे के साथ संघि करना । २. दोनों ओर मिलकर रहना । विशेष—कामंदक ने लिखा है कि जो राजा सबल न हो और जिसके इधर उधर बलवान राज्य हों वह द्वैधीभाव से काम चलावे अर्थात् अपने आपको दोनों पक्षीं का मित्र प्रकट करता रहे ।

द्वैप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाघ से संबंध रखनेवाली या बाध से निकली या बनी हुई वस्तु । २. व्याघ्रचर्म । बाघ का चमड़ा । ३. द्वीप से संबंधित या उत्पन्न (वस्तु आदि) ।

द्वैपायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यास जी का एक नाम । विशेष—वेदव्यास का जन्म यमुना नदी के एक द्वीप में हुआ था, इसी से उनका यह नाम पड़ा । २. एक हृद या ताल जिसमें कुरुक्षेत्र के युद्ध में दुयोंधन भागकर छिपा था ।

द्वैप्य
वि० [सं०] द्वीप संबंधी [को०] ।

द्वैमातुर (१)
वि० [सं०] जिसकी दो माताएँ हों ।

द्वैमातुर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणेश । विशेष—स्कंदपुराण के गणेशखंड में लिखा है कि गणेश वरेण्य नामक राजा के घर उनकी रानी पुष्पका देवी के गर्भ से त्रैलोक्य की विघ्नशांति के लिये उत्पन्न हुए । पर उनकी आकृति और तेज आदि को देखकर राजा डर गए और उन्हें पार्श्वमुनि के आश्रम के पास एक जलाशय में फेकवा दिया । वहाँ मुनि की पत्नी दीपवत्सला ने उन्हें पाला । इस प्रकार दो माताओं के द्वारा पलने के कारण गर्णश का नाम द्वैमातुर पड़ा । २. जरासंध ।

द्वैमातृक
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि या देश जहाँ खेती नदी के जल (सिंचाई) द्वारा भी की जाती है और वर्षा से भी होती हो ।

द्वैयह्निक
वि० [सं०] जो दो दिन में किया जाय या दो दिन का हो ।

द्वैराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक ही देश पर दो राजाओं का राज्य । विशेष—इसी को वैराज्य भी कहते थे । कौटिल्य ने इसे असंभव कहा है । परंतु कहीं कहीं इस प्रकार का राज्य होने का प्रमाण मिलता है ।

द्वैविध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो प्रकार होने का भाव । २. दुबधा ।

द्वैषणीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवल्ली का एक भेद ।

द्वैसमिक
वि० [सं०] दो वर्ष का [को०] ।

द्वैसात पु
वि० [सं० द्वि + सप्त] चौदह । उ०—चौदे (यह) एकरांत है, पुरुष लिंग विख्यात । क्रम सों धरे विभक्ति को रूप होत द्वैसात ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पु० ५३४ ।

द्वैहायन
संज्ञा पुं० [सं०] दो साल का समय [को०] ।

द्वौ पु (१)
वि० [हिं० दो + ऊ, दोउ] दोनों ।

द्वौ (२)
वि० दे० 'दव' ।

द्वायक्ष
वि० [सं०] दो नेत्रोंवाला । दो आँखवाल [को०] ।

द्वयगबल विभाग
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य द्वारा वर्णित वह व्यूह जिसके पक्ष में सैनिक, पार्श्व में हाथी, पीछे रथ और आगे शत्रु के व्यूह के अनुसार व्यूह बना हो ।

द्वयणुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह द्रव्य जो दो अणुओं के संयोग से उत्पन्न हो । दो अणुओं का एक संघात । एक मात्रा जो दो अणुओं की हो ।

द्वयर्थ
वि० [सं०] दो अर्थ रखनेवाला । दुहरे अर्थवाला [को०] ।

द्वयर्थक
वि० [सं०] दे० 'द्वयर्थ' [को०] ।

द्वयशीति
वि० [सं०] जो गिनती में अस्सी से दो अधिक हो । बयासी ।

द्वयष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] ताम्र । ताँबा ।

द्वयक्षायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।

द्वयाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चीता वृक्ष [को०] ।

द्वयात्मक
संज्ञा पुं० [सं०] दो स्व्रभाव की राशियाँ जो ये हैं— मिथुन, कन्या, धनु और मीन ।

द्वयामुष्यायण
संज्ञा पुं० [सं०] वह पु्त्र जो एक से तो उत्पन्न हुआ हो और दूसरे के द्वारा दत्तक के रूप में ग्रहण किया गया हो और दोनों पिता उसे अपना अपना पुत्र मानते हों । ऐसा पुत्र दोनों को पिंडदान देता है और दोनों की संपत्ति का अधिकारी होता है । वि० दे० 'दत्तक' ।