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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/सू

विक्षनरी से

सूँ पु
अव्य० [सं० सह, प्रा० सहुँ, सयँ० सउँ, सउ] करण और अपा- दान कारक का चिह्व। सों। से। उ०—(क) कह्यो द्विजन सूँ सूनहु पियारे। —रघुराज (शब्द०)। (ख) कहत थकी ये चरन की नई अरुनई बाल। जाके रँग रँगी स्याम सूँ विदित कहावत लाल। —शृंगारसतसई (शब्द०)।

सूँइस
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशुमार] दे० 'सूँस'।

सूँघना
क्रि० स [सं० √ शिङ्घ (=आघ्राण)=शिङ्घति; प्रा० सिंघ, देशी सुंघ] १. घ्राणेंद्रिय या नाक द्वारा किसी प्रकार की गंध का ग्रहण या अनुभव करना। आघ्रण करना। वास लेना। महक लेना। मुहा०—सिर सूंघना=बड़ों का मंगलकामना के लिये छोटों का मस्तक सूँघना। बड़ों का गद् गद् होकर छोटों का मस्तक सूँघना। जमीन सूँघना=(१) पिनक लेना। ऊँघना। (२) किसी अस्त्र के वार से जमीन पर गिर पड़ना। २. बहुत अल्प आहार करना। बहुत कम भोजन करना। (व्यंग)। जैसे,—आप तो खाली सूँघकर उठ बैठे। ३. साँप का काटना। जैसे, —बोलता क्यों नहीं ? क्या साँप सूँघ गया है ?

सूँघा
संज्ञा पुं० [हिं० सूँघना] १. वह जो नाक से केवल सूँघकर यह बतलाता हो कि अमुक स्थान पर जमीन के अंदर पानी या खजाना आदि है। २. सूँघकर शिकार तक पहुँचनेवाला कुत्ता। ३. भेदिया। जासूस। मुखबिर।

सूँठ †
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ठि, हिं० सोंठ] दे० 'सोंठ'।

सूँड़
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ड] हाथी की नाक जो बहुत लंबी होती है और नीचे की ओर प्रायः जमीन तक लटकती रहती है। शुंड। शुडादंड। विशेष—यह लंबाई में प्रायः हाथी की ऊँचाई तक होती है। इसमें दो नथने होते हैं। हाथी इसी से हाथ का भी काम लेता है। यह इतनी मजबूत होती है कि हाथी इससे पेड़ उखाड़ सकता है और भारी से भारी चीज उठाकर फेंक सकता है। इसी सें वह खाने की चीजें उठाकर मुँह में रखता है और दमकल की तरह पानी फेंकता और पीता है। इससे वह जमीन पर से सूई तक उठा सकता है।

सूँडडंड †
संज्ञा पुं० [हिं० सुँड+दंड] हाथी। (डिं०)।

सूँडहल †
संज्ञा पुं० [सं० शुण्ड+हल (प्रत्य० ?)] हाथी। (डिं०)।

सूँडा †
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डा] हाथी की सूँड़ या नाक। (डिं०)।

सूँडाल पु
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डाल]दे० 'शुंडाल'।

सूँड़ि †
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ड, प्रा० सुंड] दे० 'सूँड़'।

सूँड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डी] एक प्रकार का सफेद कीड़ा जो कपास, अनाज, रेंड़ी, ऊख आदि के पौधों को हानि पहुँचाता है।

सूँतना †
क्रि० स० [सं० सहस्त+हिं० ना (प्रत्य०)] सैंतना। साफ करना। काछना। उ०—श्रीनाथ जी की गाँइन तरेँ की वह पटेल कीच सूँतत रहे। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २१४।

सूँधी
संज्ञा स्त्री० [सं० शोधन] सज्जी मिट्टी।

सुँपना †
क्रि० स० [सं० समर्पण; प्रा० समप्पण, हिं० सउँपना, सौंपना] दे० 'सौंपना'। उ०—बनड़ा नूँ सूँपै बनी, हतलेवे मिल हाथ। —बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८।

सूँब
वि० [हिं० सूम] दे० 'सूम'। उ०—सूँब सूँब कहै सरब दिन, जाचक पाड़ै बूँब। —बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ० ३५।

सूँस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशुमार] एक प्रसिद्ध बड़ा जलजंतु जो लंबाई में ८ से १२ फुट तक होता है और जिसके हर एक जबड़े में तीस दाँत होते हैं। सूँस। सूसमार। उ०—लेन गया वह थाह सूँसि लै गा घिसिआई। —पलटू० पृ० ८८। विशेष— यह पानी के बहाव में पाया जाता है और एक जगह नहीं रहता। साँस लेने के लिये यह पानी के ऊपर आता है और पानी की सतह पर थोड़ी देर तक रहता है। शीतकाल में कभी कभी यह जल के बाहर निकल आता है। इसकी आँखें बहुत कमजोर होती हैं और यह मटमैले पानी में नहीं देख सकता। इसका आहार मछलियाँ और झिंगवा है। यह जाल में फँसाकर या बर्छियों से मार मारकर पकड़ा जाता है, इसका तेल जलाने तथा कई दूसरे कामों में आता है।

सूँस † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शपथ] सौंह। उ०—सूँस करे कवड़ी सटे, ते गुण घटे तमाम। —बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४२।

सूँह (१)
अव्य० [सं० सम्मुख, पु० हिं० सौहे] संमुख। सामने। उ०— साध सती औ सूरमा, दई न मोड़ै मूँह। ये तीनों भागे बुरे, साहेब जा की सूँह। —कबीर सा० सं०; भा० १, पृ० २४

सू (१)
वि० [सं०] उत्पन्न करने या पैदा करनेवाला। (समासांत में प्रयुक्त)। जैसे, बीरसू।

सु (२)
संज्ञा स्त्री० १. उत्पत्ति। पैदाइश। प्रसव। जन्म। २. माता। जननी [को०]।

सू (३)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] ओर। तरफ। दिशा। उ०—नजर आती हैं हर सू सूरतें ही सूरतें मुझको। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११९।

सू (४)
संज्ञा स्त्री० [तुर्की] शराब। मद्य। मदिरा [को०]।

सूअर
संज्ञा पुं० [सं० शूकर, सूकर; प्रा० सुअर, सूअर] [स्त्री० सुअरी, सूअरी] १. एक प्रसिद्ध स्तन्यपायी वन्य जंतु। वराह। शूकर। विशेष—यह मुख्यतः दो प्रकार का होता है। (१) वन्य या जंगली और (२) ग्राम्य या पालतू। ग्राम्य सूअर घास आदि के सिवा विष्ठा भी खाता है, पर जंगली सूअर घास और कंद मूल आदि ही खाता है। यह ग्राम्य शूकर की अपेक्षा बहुत बड़ा और बलवान् होता है। यह प्रायः मनुष्यों पर हो आक्रमण करता है, और उन्हें मार डालता है। इसके कई भेद हैं। इसका लोग शिकार करते हैं और कुछ जातियाँ इसका मांस भी खाती हैं। राजपूतों में जगली सूअरों के शिकार की प्रथा बहुत दिनों से प्रचलित है। इसके शिकार में बहुत अधिक वीरता और साहस की आवश्यकता होती है। कहीं कहीं इसकी चरबी में पूरियाँ पकाई जाती हैं; और इसका मांस पकाकार या अचार के रूप में खाया जाता है। वैद्यक के मत से जंगली सूअर मेद, बल और वीर्यवर्धक है। पर्या०—शूकर। सूकर। दंष्ट्री। भूदार। स्थूलनासिक। दंतायुध। वक्रवस्त्र। दीर्घतर। आखनिक। भूक्षित। स्तब्धरोया। मुखलां- गूल आदि। २. निकृष्टता सूचक एक प्रकार की गाली। जैसे,—सूअर कहीं का।

सुअरबियान †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूअर+बिआना (=जनना)] १. वह स्त्री जो प्रति वर्ष बच्चा जनती हो। बरस बियानी। बरसा- इन। २. हर साल अधिक बच्चे जनने की क्रिया।

सुअरमुखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूअर+मुखी] ज्वार का एक प्रकार। बड़ी जोन्हरी या ज्वार।

सूआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० शुक, प्रा० सुअ] सुग्गा। तोता। शुक। कीर। उ०—सूआ सरस मिलत प्रीतम सुख सिंधुवीर रस मान्यो। जानि प्रभात प्रभाती गायो भोर भयो दोउ जान्यो। —सूर (शब्द०)।

सूआ (२)
संज्ञा पुं० [सं० शूक (=नुकीला अग्रभाग)] १. बड़ी सूई। २. सींख। (लश०)।

सूआन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष बरमा, चटगाँव और स्याम में होता है इसके पत्ते प्रति वर्ष झड़ जाते हैं। इसकी लकड़ी इमारत और नाव के काम में आती है। इससे एक प्रकार का तेल भी निकलता है।

सुई
संज्ञा स्त्री० [सं० सूची] १. पक्के लोहे का छोटा पतला तार जिसके एक छोर में बहुत बारीक छेद होता है और दूसरे छोर पर तेज नोक होती है। छेद में तागा पिरोकर इससे कपड़ा सिया जाता है। सूची। यौ०—सूई तागा। सूई डोरा। सूई का काम=सूई से बनाई हुई कारीगरी जो कपड़ों पर होती है। सूई का रोका=सूई का छेद। क्रि० प्र०—पिरोना।—सीना। मुहा०—सूई का फावड़ा बनाना=जरा सी बात को बहुत बड़ा बनाना। बात का बतंगड़ करना। सूई का भाला बनाना= दे० 'सुई का फावड़ा बनाना'। उ०—जो लोग प्रिंस हुमायूँ फर के खिलाफ थे उन्होंने सूई का भाला और तिनके का झंडा बनाया। —फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०६। २. पिन। ३. महीन तार का काँटा। तार या लोहे का काँटा जिससे कोई बात सूचित होती है। जैसे,—घड़ी की सूई, तराजु की सूई। ४. अनाज, कपास आदि का अँखुआ। ५. सूई के आकार का एक पतला तार जिससे गोदना गोदा जाता है। ६. सूई के आकार का एक तार जिससे पगड़ी की चुनन बैठाते हैं।

सुईकार
संज्ञा पुं० [सं० सूचीकार] सूई से सिलाई करनेवाला दर्जी। उ०—जरकसी सूईकार के बहु भँति तन पै धारहीं। —प्रेमघन०, पृ० ११५।

सूईडोरा
संज्ञा पुं० [हिं० सूई + डोरा] मालखंभ की एक कसरत। विशेष—पहले सीधी पकड़ के समान मालखंभ के ऊपर चढ़ने के समय एक बगल में से पाँव मालखंभ को लपेटते हुए बाहर निकालना और सिर को उठाना पड़ता है। उस समय हाथ छूटने का बड़ा डर रहता है। इसमें पीठ मालखंभ की तरफ और मुँह लोगों की तरफ होता है। जब पाँव नीचे आ चुकता है; तब ऊपर का उलटा हाथ छोडकर मालखंभ को छाती से लगाए रहना पड़ता है। यह पकड़ बड़ी ही कठिन है।

सूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीर। वाण। २. वायु। हवा। ३. कमल। ४. ह्रद के एक पुत्र का नाम।

सूक पु † (२)
संज्ञा [सं० शुक्र] शुक्र नक्षत्र। शुक्र तारा। उ०—(क) जग सूझा एकै नयनाहाँ। उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ। — जायसी (शब्द०)। (ख) नासिक देखि लजानेउ सूआ। सूक आइ बेसर होइ ऊआ। —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १८२।

सूकछम †
वि० [सं० सूक्ष्म, पु० हिं० सूक्षम, सूच्छम] दे० 'सूक्ष्म'। उ०—गुरु जी ओ सूकछम का कुछ भेद पाऊँ। तुमारे चरन के तो बलिहार जाऊँ।—दक्खिनी०, पृ० २६०।

सूकना पु †
क्रि० अ० [सं० शुष्क, प्रा० सुक्क+हिं० ना (प्रत्य०)] दे० 'सूखना'। उ०—(क) मांगौ बर कोटि चोट बदलो न चूकत हैं, सूकत है मुख सुधि आये वहाँ हाल है। —भक्तमाल (शब्द०)। (ख) जैसे सूकत सलिल के बिकल मीन मति होय। —दीनदयाल (शब्द०)। (ग) सुनि कागर नृपराज प्रभु भौ आनंद सुभाइ। मानौं बल्ली सूकते बीरा रस जल पाइ।—पृ० रा०, १२। ६६।

सूकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूकरी] १. सूअर। शूकर। २. एक प्रकार का हिरन। ३. कुम्हार। कुंभकार। ४. सफेद धान। ५. एक नरक का नाम। ६. एक मछली (को०)।

सूकर (२)
संज्ञा पुं० [सं० सु+कर] सुकर्म करनेवाले। सुकर्मी। उ०— बहु न्हाइ न्हाइ जेहि जल स्नेह। सब जात स्वर्ग सूकर सुदेह। राम चं०, पृ० ४।

सूकरकंद
संज्ञा पुं० [सं० सूकर+कन्द] वाराहीकंद।

सूकरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शालिधान्य।

सूकरक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम जो मथुरा जिले में है और जो अब 'सोरों' नाम से प्रसिद्ध है।

सुकरखेत
संज्ञा पुं० [सं० सूकरक्षेत्र]दे० सूकरक्षेत्र। उ०—मै पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी नहिं तस बाल- पन तब अति रहेऊँ अचेत। —मानस, १। ३०।

सूकरगृह
संज्ञा पुं० [सं०] शूकरों के रहने का स्थान। खोभार।

सूकरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूअर होने का भाव। सूअर की अवस्था। सूअरपन।

सूकरदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकार का गुदभ्रंश (काँच निकलने का) रोग जिसमें खुजली और दाद के साथ बहुत दर्द होता है और ज्वर भी हो जाता है।

सूकरदष्ट्रक
संज्ञा [सं०] दे० 'सूकरदंष्ट्र' [को०]।

सूकरनयन
संज्ञा पुं० [सं०] काठ में किया जानेवाला एक प्रकार का छेद।

सूकरपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किवाँच। कपिकच्छु। कौंछ। २. सेम। कोलशिंबी।

सूकरप्रिया, सूकरप्रेयसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी का एक नाम।

सूकरमुख
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम।

सूकराक्रांता
संज्ञा स्त्री [सं० सूकराक्रान्ता] वराहक्रांता।

सूकराक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नेत्र रोग।

सूकरास्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक बौद्ध देवी का नाम जिसे वाराही भी कहते हैं।

सूकराह्या
संज्ञा पुं० [सं०] गठिवन। ग्रंथिपर्ण।

सूकरिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा।

सूकरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया।

सूकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूअरी। शूकरी। मादा सूअर। २. वरा- हक्रांता। ३. वाराहीकंद। गेंठी। ४. एक देवी का नाम। वाराही। ५. एक प्रकार की चिड़िया।

सूकरेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसेरू। २. एक प्रकार का पक्षी।

सूकशम पु †
वि० [सं० सूक्ष्म, पु० हिं० सूक्षम, सूच्छम] दे० 'सूक्ष्म'। उ०—ना सूल सूँ ना सूकशम सूँ है काम। है मूल सूँ तुज मेरा सरजाम। —दक्खिनी०, पृ० १७२।

सूका † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सपादक (=चतुर्थांश सहित)] [स्त्री० सूकी] १. चार आने के मुल्य का सिक्का। चवन्नी। २. सिक्कों के लिखने में चवन्नी का चिह्न जो एक खड़ी रेखा (I) के रूप में लगाते हैं।

सूका (२)
वि० [सं० शुष्क, पा० सुक्ख, प्रा० सुक्क] सूखा। शुष्क। नीरस। उ०—दादू सूका रूँखड़ा काहे न हरिया होइ। आपै खीचै अमीरस, सुफल फलिया सोइ। —दादू०, पृ० ४६१।

सूका पु (३)
संज्ञा पुं० अवर्षण। सूखा। उ०—अंति काल सूका पड़ै, तौ निरफल कदे न जाइ। —कबीर ग्रं०, पृ० ५८।

सूकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूका (=चवन्नी ?)] रिश्वत। घूस।

सूकूत
संज्ञा पुं० [अ०] चुप्पी। खामोशी। मौन। उ०—यह आपके बेजार होने का इजहार है और सूकूत के आलम का सुबूत है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४।

सूकृत पु
संज्ञा पुं० [सं० सुकृत] पुण्य। पुण्य कार्य। उ०—जगजिवन दास गुरु चरन गहि, सत सूकृत धन धाम। —जग० श०, भा० २, पृ० ९९।

सुक्त (१)
संज्ञा [सं०] १. वेदमंत्रों या ऋचाओं का समूह। वैदेक स्तुति या प्रार्थना। जैसे—देवीसुक्त, अग्निसूक्त, श्रीसूक्त आदि। २. उत्तम कथन। उत्तम भाषण। ३. महद् वाक्य।

सूक्त (२)
वि० उत्तम रूप से कथित। भली भाँति कहा हुआ। यौ०—सूक्तद्रष्टा=सूक्तदर्शी। सूक्तभाक्=जिसके लिये सूक्त कहे जायँ। सूक्तवाक=(१) मंत्र का पाठ। (२) एक यज्ञ। सूक्त- वाक्य=उत्तम वाणी। सूक्ति।

सुक्तचारी
वि० [सं० सूक्तदर्शिन्] उत्तम वाक्य या परामर्श माननेवाला।

सूक्तदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० सूक्तदर्शिन्] वह ऋषि जिसने वेदमत्रों का अर्थ किया हो। मंत्रद्रष्टा।

सूक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मैना। शारिका।

सूक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तम उक्ति या कथन। सुंदर पद या वाक्य आदि। बढ़िया कथन।

सूक्षितक
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में प्रयुक्त एक प्रकार का करताल या झाँझ।

सूक्षम पु (१)
वि० [सं० सूक्ष्म]दे० 'सूक्ष्म'। उ०—साँचे की सी ढारी अति सूक्षम सुधारि, कढ़ी केशोदास अंग अंग भाइ के उतारी सी। —केशव (शब्द०)।

सूक्षम पु (२)
संज्ञा पुं० एक काव्यालंकार। सूक्ष्म नामक अलंकार। उ०—कौनहु भाव प्रभाव ते जानै जिय की बा। इंगित ते आकार ते कहि सूक्षम अवदात। —केशव (शब्द०)।

सूक्ष्म (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सूक्ष्मा] १. बहुत छोटा। जैसे,—सूक्ष्म- जंतु। २. बहुत बारीक या महीन। जैसे,—सूक्ष्म बात। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। कलात्मक। उम्दा (को०)। ४. तेज। चोखा (को०)। ५. ठीक। सही (को०)। ६. कोमल। मृदु (को०)। ७. धूर्च। चालाक।

सूक्ष्म (२)
संज्ञा पुं० १. परमाणु। अणु। २. परब्रह्म। ३. लिंगशरीर। ४. शिव का एक नाम। ५. एक दानव का नाम। ६. एक काव्यालंकार जिसमें चित्तवृत्ति को सूक्ष्म चेष्टा से लक्षित कराने का वर्णन होता है।दे०'सूक्ष्म'। ७. निर्मली। ८. जीरा। जीरक। ९. छल। कपट। १०. रीठा। अरिष्टक। ११. सुपारी। पूग। १२. वह ओषधि जो रोमकूप के मार्ग से शरीर में प्रविष्ट करे। जैसे —नीम, शहद, रेंडी का तेल, सेंधा नमक, आदि। १३. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम। १४. जैनियों के अनुसार एक प्रकार का कर्म जिसके उदय से मनुष्य सूक्ष्म जीवों की योनि में जन्म लेता है। १५. योग की तीन शक्तियों में से एक (को०)। १६. दाँत का खोखला या खोढ़र (को०)। १७. सूक्ष्म होने का भाव। सूक्ष्मता (को०)। १८. बारीक, महीन या उत्तम डोरा (को०)।

सूक्षमकृशफला, सूक्ष्मकृष्णफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठजामुन। छोटा जामुन। क्षुद्र जंबू।

सुक्ष्मकोण
संज्ञा पुं० [सं०] वह कोण जो समकोण से छोटा हो।

सुक्ष्मघटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सूक्ष्मघण्टिका] सनई। क्षुद्र शणपुष्पी।

सूक्ष्मक्षक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चक्र।

सुक्ष्मतड्डल
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्मतंडुल] १. पोस्त दाना। खसखस। २. सर्जरस। धूना।

सूक्षमतंडुला
संज्ञा स्त्री० [सं० सूक्ष्मतण्डुला] १. पीपल। पिप्पली। २. राल। सर्जरस। ३. एक प्रकार की घास (को०)।

सूक्ष्मता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूक्ष्म होने का भाव। बारीकी। महीन- पन। सूक्ष्मत्व।

सूक्ष्मतुड
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्मतुण्ड] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा।

सूक्ष्मत्व
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'सूक्ष्मता'।

सूक्ष्मदर्शक यंत्र
संज्ञा पुं० [सं० सुक्ष्मदर्शक+यन्त्र] एक यंत्र जिसके द्वारा देखने पर सूक्ष्म पदार्थ बड़े दिखाई देते हैं। अणुवीक्षण यंत्र। खुर्दबीन।

सूक्ष्मदर्शिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूक्ष्मदर्शी होने का भाव। सूक्ष्म या बारीक बात सोचने समझने का गुण।

सूक्ष्मदर्शी
वि० [सं० सुक्ष्मदर्शिन्] १. सूक्ष्म विषय को समझनेवाला। बारीक बात को सोचने समझनेवाला। कुशाग्रबुद्धि। २. अत्यंत बुद्धिमान्। ३. तीव्र या तीखी दृष्टिवाला (को०)।

सूक्ष्मदल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सरसों। देवसर्षप।

सूक्ष्मदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] धमासा। दुरालभा।

सूक्ष्मदारु
संज्ञा पुं० [सं०] काठ की पतली पटरी या तख्ता।

सूक्ष्मद्दष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दृष्टि जिससे बहुत ही सुक्ष्म बातें भी दिखाई दें या समझ में आ जायँ।

सूक्ष्मद्दष्टि (२)
संज्ञा पुं० वह व्यक्ति जो सूक्ष्म से सूक्ष्म बातें भी देख या समझ लेता है।

सूक्ष्मदेह
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिंग शरीर। सूक्ष्म शरीर [को०]।

सूक्ष्मदेही (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्मदेहिन्] परमाणु जो बिना अणुवीक्षण के दिखाई नहीं पड़ता।

सूक्ष्मदेही (२)
वि० सूक्ष्म शरीरवाला। जिसका शरीर बहुत ही सूक्ष्म या छोटा हो।

सूक्ष्मनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

सूक्ष्मपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनिया। धन्याक। २. काली जीरी। वनजीरक। ३. देवसर्षप। ४. छोटा बैर। लघु बदरी। ५. माचीपत्र। सुरपर्ण। ६. जंगली बर्बरी। वन बर्बरी। ७. लाल ऊख। लोहितेक्षु। ८. कुकरौंदा। कुकुंदर। ९. कीकर। बबूल। १०. धमासा। मुरालभा। ११. उड़द। माष। १२. अर्कपत्र।

सूक्ष्मपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पित्तपापड़ा। पर्पटक। बनतुलसी। बनबर्बरी।

सूक्ष्मपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनजामुन। २. शतमूली। ३. बृहती। ४. धमासा। ५. अपराजिता या कोयल नाम की लता। ६. लाल अपराजिता। ७. जीरे का पौधा। ८. बला।

सूक्ष्मपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंफ। शतपुष्पा। २. सतावर। शतावरी। ३. लघु ब्राह्मी। ४. पीई। क्षुद्रपोदकी। ५. धमासा। मुरालभा (को०)। ६. आकाशमांसी (को०)।

सूक्ष्मपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाशमांसी। २. सतावर। शतावरी।

सूक्ष्मपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विधारा। वृद्धदारु। २. छोटी शण- पुष्पी। छोटी सनई। ३. बनभंटा। बृहती।

सूक्ष्मपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रामतुलसी। रामदूती।

सूक्ष्मपाद
वि० [सं०] छोटे पैरोंवाला। जिसके पैर छोटे हों।

सूक्ष्मपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली पीपल। बनपिप्पली।

सूक्ष्मपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सनई। शणपुष्पी।

सूक्ष्मपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शंखिनी। २. यवतिकता नाम की लता।

सूक्ष्मफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिसोड़ा। २. भूकर्बुदार। सूक्ष्म बदर।

सूक्ष्मफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूईं आँवला। भूम्यामलकी। २. तालीसपत्र। ३. मालकंगनी। महाज्योतिष्मती लता।

सूक्ष्मबदर
संज्ञा पुं० [सं०] लघुबदर। झरबेर [को०]।

सूक्ष्मबदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] झरबेर। भूबदरी।

सूक्ष्मबीज
संज्ञा पुं० [सं०] पोस्तदाना। खसखस।

सूक्ष्मबुद्धि (१)
वि० [सं०] सूक्ष्म या तलस्पर्शी बुद्धिवाला [को०]।

सूक्ष्मबुद्धि (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'सूक्ष्ममति' [को०]।

सूक्ष्मभूत
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशादि शुद्ध भूत जिनका पंचीकरण न हुआ हो। विशेष—सांख्य के अनुसार पंचतन्मात्र अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तन्मात्र; ये अलग अलग सूक्ष्मभूत हैं। इन्हीं पच- तन्मात्र से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई है। पंचीकृत होने पर आकाशादि भूत स्थूलभूत कहलाते हैं। विशेषदे० 'तन्मात्र'।

सूक्ष्ममक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूक्ष्ममक्षिका] मच्छड़। मशक।

सूक्ष्ममति
वि० [सं०] तीक्ष्णबुद्धि। जिसकी बुद्धि तेज हो।

सूक्ष्ममान
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठीक ठीक तौल या नाप। स्थूलमान का उलटा। २. वह मान जिससे सूक्ष्म अंतर भी ज्ञात हो सके [को०]।

सूक्ष्ममूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जयंती। जियंती। २. ब्राह्मी।

सूक्ष्मलोभक
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मतानुसार मुक्ति की चौदह अवस्थाओं में से दसवीं अवस्था।

सूक्ष्मवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ताम्रवल्ली। २. जतुका नाम की लता। ३. करेली। लघु कारवेल्ल।

सूक्ष्मशरीर
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच सूक्ष्म- भूत, मन और बुद्धि इन सत्रह तत्वों का समूह। विशेष—साँख्य के अनुसार शरीर दो प्रकार का होता है —स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर। हाथ, पैर, मुँह, पेट आदि अंगों से युक्त शरीर स्थूल शरीर कहलाता है। परंतु इस स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर इसी प्रकार का एक और शरीर बच रहता है। जो उक्त सत्रह अंगों और तत्वों का बना हुआ होता है। इसी को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह भी माना जाता है कि जब तक मुक्ति नहीं होती, तब तक इस सूक्ष्म शरीर का आवागमन बराबर होता रहता है। स्वर्ग और नरक आदि का भोग भी इसी सूक्ष्म शरीर को करना पड़ता है।

सुक्ष्मशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालू। बालुका।

सूक्ष्मशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की बबुरी जिसे जलबबुरी भी कहते हैं।

सूक्ष्मशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का महीन सुगंधित चावल जिसे सोरों कहते हैं। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह मधुर, लघु तथा पित्त, अर्श और दाहनाशक है।

सूक्ष्मषट्चरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सूक्ष्म कीड़ा जो पलकों की जड़ में रहता है।

सूक्ष्मस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ़। विचर्चिका रोग।

सूक्ष्मा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जूही। यूथिका। २. छोटी इलायची। ३. करुणी नाम का पौधा। ४. मूसली। तालमूली। ५. बालू। बालुका। ६. सूक्ष्म जटामांसी। ७. विष्णु की नौ शक्तियों में से एक।

सूक्ष्मा (२)
वि० स्त्री० दे० 'सूक्ष्म (१)'।

सूक्ष्माक्ष
वि० [सं०] सूक्ष्म दृष्टिवाला। तीव्रदृष्टि। तेज नजर का।

सूक्ष्मात्मा
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्मात्मन्] शिव। महादेव।

सूक्ष्माह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि।

सूक्ष्मेक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूक्ष्म दृष्टि। तेज नजर।

सूक्ष्मैला
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची।

सूख पु ‡
वि० [सं० शुष्क] दे० 'सुखा'। उ०—(क) कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहिं। सूख बेल के पात खात दिन गवनहिं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३२। (ख) धर्मपाश और कालपाश पुनि दुव दारुन दोउ फाँसी। सूख ओद लीजै असनी युग रघुनंदन सुखरासी।—रघुराज (शब्द०)। (ग) सूख सरोवर निकट जिमि सारस बदन मलीन।—शंकरदिग्विजय (शब्द०) ।

सूखना
क्रि० अ० [सं० शुष्क, हिं० सूख + ना (प्रत्य०)] १. आर्द्रता या गीलापन न रहना। नमी या तरी का निकल जाना। रसहीन होना। जैसे,—कपड़ा सूखना, पत्ता सूखना, फूल सूखना। उ०—बन में रूख सूख हर हर ते। मनु नृप सूख बरूथ न करते।—गिरिधर (शब्द०)। २. जल का बिलकुल न रहना या बहुत कम हो जाना। जैसे,—तालाब सूखना, नदी सूखना। ३. उदास होना। तेज नष्ट होना। जैसे,—चेहरा सूखना। ४. नष्ट होना। बरबाद होना। जैसे,—फसल सूखना। ५. आर्द्रता न रहने से कड़ा होना। ६. डरना। सन्न होना। जैसे,—जान सूखना। ७. दुबला होना। कृश होना। जैसे,—लड़का सूख गया। मुहा०—सूखकर काँटा होना = अत्यंत कृश होना। बहुत दुबला- पतला होना। उ०—बदन सूख के दो ही दिन में काँटा हो गया।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २३८। सूखे खेत लहलहाना = अच्छे दिन आना। सूखे धानों पानी पड़ना = पूर्णतः निराशा की हालत में अकस्मात् इच्छा पूरी होना। ईप्सित की प्राप्ति होना। उ०—(क) सूखत धानु परा जनु पानी।—मानस, १।२६३। (ख) बेगम समझी थीं कि सूखे धानों पानी पड़ा।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २२९। संयो० क्रि०—जाना।

सूखम पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सूक्ष्म'। उ०—कवन सूखम कवन अस्थूला।—प्राण०, पृ० १।

सूखमना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सुषुम्ना, पु० हिं० सुषमन] दे० 'सुषुम्ना'। उ०—सूखमना सुर की सरिता अघ ओघहि दीन- दयाल हरै।—दीन० ग्रं०, पृ० १७४।

सूखर
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्म (= शिव)] एक शैव संप्रदाय।

सूखा (१)
वि० [सं० शुष्क] [वि० स्त्री० सूखी] १. जिसमें जल न रह गया हो। जिसका पानी निकल, उड़ या जल गया हो। जैसे— सूखा तालाब, सूखी नदी, सूखी धोती। २. जिसका रस या आर्द्रता निकल गई हो। रसहीन। जैसे,—सूखा पत्ता, सूखा फूल। ३. उदास। तेजरहित। जैसे,—सूखा चेहरा। ४. हृदयहीन। कठोर। रूढ़। जैसे,—वह बड़ा सूखा आदमी है। ५. कोरा। जैसे,—सूखा अन्न, सूखी तरकारी। ६. केवल। निरा। खाली। जैसे,—(क) वह सूखा शेखीबाज है। (ख) उसे सूखी तनखाह मिलती है। मुहा०—सूखा टरकाना या टालना = आकांक्षी या याचक आदि को बिना उसकी कामना पूरी किए लौटाना। सूखा जवाब देना = साफ इनकार करना। उ०—वे भला आप सूख जाते क्या। मुख न सूखा जवाब सूखा सुन।—चुभते०, पृ० १३। सूखी नसों में लहू भरना = निराशों में आशा का संचार करना। उ०—हम/??/सूखी नसों में लहू भरते थे। चुभते० (दो दो०), पृ० २।

सूखा (२)
संज्ञा पुं० १. पानी न बरसना। वुष्टि का अभाव। अवर्षण। अनावृष्टि। उ०—बारह मासउ उपजई तहाँ किया परबेस। दादू सूखा ना पड़इ हम आए उस देस।—दादू (शब्द०)। क्रि० प्र०—पड़ना। २. नदी के किनारे की जमीन। नदी का किनारा। जहाँ पानी न हो। मुहा०—सूखे पर लगना = नाव आदि का किनारे लगना। ३. ऐसे स्थान जहाँ जल न हो। ४. सूखा हुआ तंबाकू का पत्ता जो चूना मिलाकर खाया जाता है। उ०—भंग तमाखू सुलफा गाँजा, सूखा खूब उड़ाया रे।—कबीर० श०, भा० १, पृ० २५। ५. भाँग। विजया। ६. एक प्रकार की खाँसी जो बच्चों को होती है, जिससे वे प्रायः मर जाते हैं। हब्बा डब् बा। ७. खाना अंग न लगने से या रोग आदि के कारण होनेवाला दुबलापन। मुहा०—सूखा लगना = सुखंडी नामक रोग होना। ऐसा रोग लगना जिससे शरीर बिलकुल सूख जाय।

सूखासण पु †
संज्ञा पुं० [सं० सुखासन] दे० 'सुखासन'। उ०—जाइ सूखासण बइठी छह राय।—वी० रासो, पृ० २७।

सूखिम पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सूक्ष्म'। उ०—गई द्वारिका सूखिम वेषा।—नंद० ग्रं०, पृ० १२८।

सूगंध पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सुगन्ध] दे० 'सुगंध'। उ०—दरबार भीर बरनी न जाइ, सूगंध बास नासा अघाइ। विगसंत बदन छत्तीस बंस, जदुनाथ जनम जनु जदुन बंस।—पृ० रा०, १।७१५।

सूधर पु
वि० [सं० सुघट] दे० 'सुघड़'।

सुच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कुश का अंकुर। दर्भांकुर।

सूच (२)
वि० [सं० शुचि] निर्मल। पवित्र। (डिं०)। उ०—चारि वरण सों हरिजन ऊँचे। भए पवित्तर हरि के सुमिरे। मन के उज्ज्वल मन के सूचे।—शब्दवर्णन, पृ० ३०८।

सूचक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सूचिका] १. सूचना देनेवाला। बतानेवाला। दिखानेवाला। ज्ञापक। बोधक। २. भेद की खबर देनेवाला।

सूचक (२)
संज्ञा पुं० १. सूई। सूची। २. सीनेवाला दरजी। ३. नाटककार। सूत्रधार। ४. कथक। ५. बुद्ध। ६. सिद्ध। ७. पिशाच। ८. कुत्ता। ९. बिल्ली। १०. कौआ। ११. सियार। गीदड़। १२. कटहरा। जँगला। १३. बरामदा। छज्जा। १४. ऊँची दीवार। १५. खल। विश्वासघातक। १६. गुप्तचर। भेदिया। १७. आयोगव माता और क्षत्रिय पिता से उत्पन्न पुत्र। १८. एक प्रकार का महीन चावल। सूक्ष्म शालिधान्य। सोरों। १९. चुगलखोर। पिशुन। २०. शिक्षक (को०)। यौ०—सूचक वाक्य = भेदिए द्वारा बताई गई बात। भेदिए से मिलनेवाली सूचना।

सूचन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूचनी] १. बताने या जताने की क्रिया। ज्ञापन। २. सुगंधि फैलाने की क्रिया। दे० 'सूचना'।

सूचना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बात जो किसी को बताने, जताने या सावधान करने के लिये कही जाय। प्रकट करने या जतलाने के लिये कही हुई बात। विज्ञापन। विज्ञप्ति। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।—मिलना। २. वह पत्र आदि जिसपर किसी को बताने या सूचित करने के लिये कोई बात लिखी हो। विज्ञापन। इश्तहार। ३. अभिनय। ४. दृष्टि। ५. बेधना। छेदना। ६. भेद लेना। ७. हिंसा। मारना। ८. गंधयुक्त करना।

सूचना पु (२)
क्रि० अ० [सं० सूचन] बतलाना। जतलाना। प्रकट करना। उ०—हृदय अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनो- हर हासा।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—सूचनापट्ट = वह पट्ट या तख्ती जिसपर आनश्यक निर्देश लगाए जायँ। नोटिस बोर्ड। सूचनापत्र। सूचनामंत्री = सूचना विभाग का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी। सूचना विभाग = आवश्यक जानकारी अकत्र करने और उन्हें संबद्ध जनों को विभिन्न प्रकारों से बतानेवाला विभाग।

सूचनापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र या विज्ञप्ति जिसके द्वारा कोई बात लोगों को बताई जाय। वह पत्र जिसमें किसी प्रकार की सूचना हो। विज्ञापन। विज्ञप्ति। इश्तहार।

सूचनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी ग्रंथ में क्या वर्णित है इसका सिल- सिलेवार विवरण देनेवाली सूची। विषयनिर्देशिका। उ०— या में इतनी कथा बखानौं। ताकी सूचनिका यह जानौ।—ब्रज०, पृ० ३।

सूचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूचनिका। सूची। विषयसूची।

सूचनीय
वि० [सं०] सूचना करने के योग्य। जताने लायक।

सूचयितव्य
वि० [सं०] दे० 'सूचनीय'।

सूचा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सूचना'।

सूचा † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूचित] जो होश में हो। सावधान। उ०— नागमती कहँ अगम जनावा। गई तपनि बरषा जनु आवा।रही जो मुह नागिन जस तूचा। जिउ पाएँ तन कै भइ सूचा।—जायसी (शब्द०)।

सूचा पु (३)
वि० [सं० शुद्ध] शुद्ध। साफ। सुच्चा। निखालिस। पवित्र। उ०—यह संसार सकल जग मैला। नाम गहे तेहि सूचा।—कबीर श०, भा०, पृ० ९।

सूचाचारी पु
वि० [हिं० सूचा + सं० आचारी] शुद्धता और आचार विचार माननेवाला। शौचाचारी। उ०—पंडित मिसरा सूचा- चारी। पाठ पढ़हिं अंतरि अहंकारी।—प्राण०, पृ० १८०।

सूचि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूई। २. एक प्रकार का नृत्य। ३. केवड़ा। केतकी पुष्प। ४. सेना का एक प्रकार का व्यूह जिसमें थोड़े से बहुत तेज और कुशल सैनिक अग्रभाग में रखे जाते हैं और शेष पिछले भाग में होते हैं। ५. कटहरा। जँगला। ६. दरवाजे की सिटकनी। ७. निषाद पिता और वैश्य माता से उत्पन्न पुत्र। ८. एक प्रकार का मैथुन। ९. सूप बनानेवाला। शूर्पकार। १०. करण। ११. कुशा। श्वेतदर्भ। १२. दृष्टि। नजर। १३. कोई भी सूई की तरह नुकीला सिरा। जैसे, कुशसूचि (को०)। १४. दे० 'सूची'। १५. नाटकीय कर्म। नाट्य अभिनय (को०)। १६. स्तूप (को०)। १७. अंगचेष्टा द्वारा संकेत। हावभाव (को०)। १८. वेधन या छेदन क्रिया (को०)।

सूचि (२)
वि० [सं० शुचि] पवित्र। शुद्ध। (डिं०)।

सूचिक
संज्ञा पुं० [सं०] सिलाई के द्वारा जीविका निर्वाह करनेवाला, दरजी। सौचिक।

सूचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूई। २. हाथी की सूँड़। हस्तिशुंड। ३. एक अप्सरा का नाम। ४. केवड़ा। केतकी।

सूचिकागृह, सूचिकागृहक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूचिगृहक'।

सूचिकाधर
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी। हस्ती।

सूचिकाभरण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की ओषधि जो संनिपात, विसूचिका आदि प्राणनाशक रोगों की अंतिम औषध मानी गई है। विशेष—इस औषध का बिलकुल अंतिम अवस्था में ही प्रयोग किया जाता है। यदि इससे फल न हुआ तो, कहते हैं, फिर रोगी नहीं बच सकता। इसके बनाने की कई विधियाँ हैं। एक विधि यह है कि रस, गंधक, सीसा, काष्ठविष और काले साँप का विष इन सबको खरल कर क्रम से रोहित मछली, भैंस, मोर, बकरे और सूअर के पित्त में भावना देकर सरसों के बराबर गोली बनाई जाती है, जो अदरक के रस के साथ दी जाती है। दूसरी विधि यह है कि काष्ठविष, सर्पविष, दारुमुच प्रत्येक एक एक भाग, हिंगुल तीन भाग, इन सबको रोहित मछली, भैंस, मोर, बकरे और सूअर के पित्त में एक एक दिन भावना देकर सरसों के बराबर गोली बनाते हैं जो नारियल के जल के साथ देते हैं। तीसरी विधि यह है कि विष एक पल और रस चार माशे, इन दोनों को एक साथ शरावपुट में बंद करके सुखाते हैं और बाद दो प्रहर तक बराबर आँच देते हैं। संनिपात के रोगी को-चाहे वह अचेत हो या मृतप्राय-सिर पर उस्तुरे से क्षत कर सूई की नोक से यह रस लेकर उसमें भर देते हैं। साँप के काटने पर भी इसका प्रयोग किया जाता है। कहते हैं, इन सब प्रयोगों के कारण रोगी के शरीर में बहुत अधिक गरमी आने लगती है; इसीलिये इनके उपरांत अनेक प्रकार के शीतल उपचार किए जाते हैं।

सूचिकामुख
संज्ञा पुं० [सं०] शंख।

सूचिगृहक
संज्ञा पुं० [सं०] सूई रखने का डब्बा या खोली [को०]।

सूचित
वि० [सं०] १. जिसकी सूचना दी गई हो। जताया हुआ। बताया हुआ। कहा हुआ। ज्ञापित। प्रकाशित। २. बहुत उपयुक्त या योग्य। ३. जिसकी हिंसा की गई हो। ४. संकेतित (को०)। ५. वेधन किया हुआ। छिद्रित (को०)।

सूचितव्य
वि० [सं०] सूचना के योग्य। सूच्य [को०]।

सूचिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूई। सूचिका। २. रात्री। रात [को०]।

सूचिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का ऊख। २. शिरियारी। चौपतिया। सिनिवार शाक। ३. दे० 'सुचीपत्र'।

सुचिपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूचिपत्र'।

सूचिपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा का फूल या केतकी वृक्ष।

सूचिभिन्न
वि० [सं०] फूलों की कली जो सूई जैसी नुकीली और ऊपर की ओर विभक्त हो [को०]।

सूचिभेद्य
वि० [सं०] १. सूई से भेदने योग्य। २. बहुत घना। जैसे,—सूचिभेद्य अंधकार।

सूचिमल्लिका
संज्ञा [सं०] नेवारी। नवमल्लिका।

सूचिमुख
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'सूचीमुख' [को०]।

सूचिरदन
संज्ञा पुं० [सं०] नेवला।

सूचिरोमा
संज्ञा पुं० [सं० सूचिरोमन्] सूअर। वराह।

सूचिवत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़। २. सूई की तरह नोकदार कोई वस्तु। नुकीली चीज (को०)।

सूचिवदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नेवला। नकुल। २. मच्छर। मशक। ५.

सूचिशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का महीन चावल। सूक्ष्म शालिधान्य। सोरों।

सूचिशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूई की नोक।

सूचिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सूई में पिरोने या सीने का धागा।

सूची (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूचिन्] १. चर। भेदिया। २. पिशुन। चुगुल- खोर। ३. खल। दुष्ट।

सूची (२)
संज्ञा स्त्री० १. कपड़ा सीने की सूई। २. दृष्टि। नजर। ३. केतकी। केवड़ा। ४. सेना का एक प्रकार का व्युह, जिसमें सैनिक सूई के आकार में रखे जाते हैं। दे० 'सूचि'। ५. सफेद कुश। ६. एक ही प्रकार की बहुत सी चोजों या उनके अंगों, विषयों आदि की नामावली। तालिका। फेहरिस्त। यौ०—सूचीपत्र। ७. साक्षी के पाँच भेदों में से एक भेद। वह साक्षी जो बिना बुलाए स्वयं आकार किसी विषय में साक्ष्य दे। स्वयमुक्ति। ८. पिंगल के अनुसार एक रीति जिसके मात्रिक छंदों की संख्या की शुंद्धताऔर उनके भेदों में आदि अंत लघु या आदि अंत गुरु की संख्या जानी जाती है। ९. सुश्रुत के अनुसार सुई के आकार का एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा शरीर की श्रतों में टाँके लगाए जाते थे।

सूची (३)
वि० [सं० सूचिन्] १. रहस्य खोज निकालनेवाला। भेद लेनेवाला। २. गुप्त बात, रहस्य या भेद बतानेवाला। ३. भेदन या छेदन करनेवाला। ४. बतानेवाला। जतानेवाला। व्यक्त या प्रकट करनेवाला। उ०—प्रधान सैनिक के आसन को छीन स्वयं विजय सूची चिह्नों को लगा...।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७०।

सूचीक
संज्ञा पुं० [सं०] मच्छर आदि ऐसे जंतु जिनके डंक सूई के समान होते हैं।

सूचीकटाहन्याय
संज्ञा पुं० [सं०] सहज काम पूरा करके कठिन काम करने का द्दष्टांत। विशेष दे० 'न्याय' (१०४)।

सूचीकर्म
संज्ञा पुं० [सं० सूचीकर्मन्] सिलाई या सूई का काम जो ६४ कलाओं में से एक है।

सूचीतुंड
संज्ञा पुं० [सं० सुचीतुण्ड] मशक। मच्छर [को०]।

सूचीदल
संज्ञा पुं० [सं०] सितावर या सुनिषण्णक नामक शाक। शिरियारी।

सूचीपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पत्र या पुस्तिका आदि जिसमें एक ही प्रकार की बहुत सी चीजों अथवा उनके अंगों की नामावली हो। तालिका। २. व्यवसायियों का वह पत्र या पुस्तक आदि जिसमें उनके यहाँ मिलनेवाली सब चीजों के नाम, दाम और विवरण आदि दिए रहते हैं। तालिका। फेहरिस्त। ३. दे० 'सूचिपत्र'।

सूचीपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूचीपत्र'।

सूचीपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाँडर दूब। गंड दूर्वा।

सूचीपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का एक प्रकार का व्यूह।

सूचीपाश
संज्ञा पुं० [सं०] सूई का छेद या नाका जिसमें धागा पिरोया जाता है।

सूचीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूचिपुष्प'।

सूचीभेद्य
वि० [सं०] दे० 'सूचिभेद्य'। उ०—सूचीभेद्य अंधकार में छिपनेवाली रहस्यमयी का—प्रज्वलित कठोर नियति का—नील आवरण उठाकर झाँकनेवाला।—स्कंद०, पृ० २४।

सूचीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूई का नोक या छेद जिसमें धागा पिरोया जाता है। २. एक नरक का नाम। उ०—सूचीमुख नरकहि कर नाऊँ। ते तहँ जाइ बसावैं गाँऊ।—कबीर सा०, भा० ४, पृ० १६५।३. हीरक। हीरा। ४. श्वेत कुश। ५. हाथ की एक मुद्रा (को०)। ६. मशक। मच्छर (को०)। ७. पक्षी। चिड़िया। (को०)।

सूचीरोमा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूचिरोमा'।

सूचीवक्त्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्कंद के एक अनुचर का नाम। २. एक असुर का नाम।

सूचीवक्त्र (२)
वि० १. सूई की तरह मुखवाला। २. अत्यंत सँकरा [को०]।

सूचीवक्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह योनि जिसका छेद इतना छोटा हो कि वह पुरुष के संसर्ग के योग्य न हो। वैद्यक के अनुसार यह बीस प्रकार के योनिरोगों में से एक है।

सूचीव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य द्वारा निर्दिष्ट वह व्यूह जिसमें सैनिक एक दूसरे के पीछे खड़े किए गए हों।

सूचीसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] धागा। दे० 'सूचिसूत्र' [को०]।

सूच्छम पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सूक्ष्म'। उ०—ब्रह्म लौं सूच्छम है कटि राधे कि, देखी न काहू सुनी सुन राखी। सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)।

सूच्य
वि० [सं०] १. सूचना के योग्य। जताने लायक। २. जो व्यंजित हो। व्यंग्य। जैसे, सूच्य अर्थ।

सूच्यग्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुई का अग्रभाग। सूई की नोक। २. कंटक। काँटा (को०)। ३. सूई की नोक के बराबर कोई भी वस्तु। (लश०)।

सूच्यग्रविद्ध
वि० [सं०] काँटा या सूई की नोक से छेदा हुआ।

सूच्यग्रस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० सूच्यग्रस्तम्भ] मीनार।

सूच्यग्रस्थूलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तृण। जूर्णा। उलूक। उलप।

सूच्याकार
वि० [सं० सूची+आकार] सूई के आकार का। जो लंबा और नुकीला हो।

सूच्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में किसी पद आदि का वह अर्थ जो शब्दों की व्यंजना शक्ति से जाना जाना है।

सूच्यास्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चूहा। मूषिक।

सूच्यास्य (२)
वि० [सं०] जिसका मुँह सूई की तरह पतला और नुकीला हो।

सूच्याह्व
संज्ञा पुं० [सं०] शिरियारी। सितिवर। सुनिषण्णक शाक

सूछम पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सूक्ष्म'। यौ०—सूछमतर।

सूछमतर पु
वि० [सं० सूक्ष्मतर] अत्यंत सूक्ष्म। उ०—किधौं वासुकी बंधु वासु कीनो रथ ऊपर। आदि शक्ति की शक्ति किधौं सोहति सूछमतर। —गिरिधर (शब्द०)।

सूछिम पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सक्ष्म'। उ०—जाके जैसी पीर है तैसी करइ पुकार। को सूछिम को सहज में को मिरतक तेहि बार। —दादू (शब्द०)।

सूगंध
संज्ञा स्त्री० [सं० सुगन्ध] सुगंध। खशबू। (डिं०)।

सूज पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूझ] दे० 'सूझ'। उ०—मन माँही सब सूज ज राखै, बाहरि के बंधन सब नाषै। —रामानंद०, पृ० ५३।

सूज पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सूच (=दर्भांकुर)] सूजा का लघु रूप। सूई।

सूज † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूजना] दे० 'सूंजन'।

सूजन
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूजना] १. सूजने की क्रिया या भाव। २. सूजने की अवस्था। फुलाव। शोथ।

सूजना (१)
क्रि० अ० [फा० सोजिश, तुल० सं० शोथ] रोग, चोट या वातप्रकेप आदि के कारण शरीर के किसी अंश का फूलना। शोथ होना।

सूजना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० सूझना] सूझना। दिखाई देना। उ०— गुरुदेव बिना नहि मारग सूजय, गुरु बिन भक्ति न जानै। — सुंदर ग्रं०, भा० १. (भू०), पृ० ११७।

सूजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सुजनी'।

सूजा
संज्ञा पुं० [सं० सूची, हिं० सूई, सूजी] १. बड़ी मोटी सूई। सूआ। उ०—तन कर गुन औ मन कर सूजा सब्द परोहन भारत। —कबीर श०, भा० ३, पृ० १०।२. लोहे का एक औजार जिसका एक सिरा नुकीला और दूसरा चिपटा और छिदा हुआ होता है। इससे कूचबंद लोग कूँचे को छेदकर बाँधते हैं। ३. रेशम फेरनेवालों का सूजे के आकार का लोहे का एक औजार जो 'मझेरू' में लगा रहता है। ४. खूँटा जो छकड़ा गाड़ी के पीछे की ओर उसे टिकाने के लिये लगाया जाता है।

सूजाक
संज्ञा पुं० [फा० सूजाक] मूत्रेंद्रिय का एक प्रदाहयुक्त रोग जो दूषित लिंग और योनि के संसर्ग से उत्पन्न होता है। औपस- र्गिक प्रमेह। विशेष— इस रोग में लिंग का मुँह और छिद्र सूज जाता है; ऊपर की खालर सिमट जाती हे तथा उसमें खुजली और पीड़ा होती है। मूत्रनाली में बहुत जलन होती है और उसे दबाने से सफेद रंग का गाढ़ा और लसीला मवाद निकलता है। यह पहली अवस्था है। इसके बाद मूत्रनाली में घाव हो जाता है, जिससे मूत्रत्याग करने के समय अत्यंत कष्ट और पीड़ा होती है। इंद्रिय के छेद में से पीब के समान पीला गाढ़ा या कभी कभी पतला स्त्राव होने लगता है। शरीर के भिन्न भिन्न अंगों में पीड़ा होने लगती है। कभी कभी पेशाब बंद हो जाता है या रक्तस्त्राव होने लहता है। स्त्रियों को भी इससे बहुत कष्ट होता है, पर उतना नहीं जितना पुरुषों को होता है। इसका प्रभाव गर्भाशय पर भी पड़ता है जिससे स्त्रियाँ बंध्या हो जाती हैं।

सूजी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शुचि (=शुद्ध) या सं० सूची (=सूई सा महीन)] गेहूँ का दरदरा आटा जो हलुआ, लड्डू तथा दूसरे पकवान बनाने के काम में आता है।

सूजी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सूची] १. सूई। उ०—ता दिन सों नेह भरे, नित मेरे गेह आइ गुथन न देत कहै मैं ही देऊँगी बनाय। बर- ज्यो न मानै केहू मोहि लागै डर यही कमल से कर कहूँ सूजी मति गड़ि जाय। —काव्यकलाप (शब्द०)। २. वह सूआ जिससे गड़ेरिए लोग कंबल की पट्टियाँ सीते हैँ।

सूजी (३)
संज्ञा पुं० [सं० सूची] कपड़ा सीनेवाला। दरजी। सूचिक। उ०—एक सूजी ने आप दडंवत कर खड़े होकर जोड़ के कहा, महाराज ! दया कर कहिए तो बागे पहराऊँ। —लल्ल (शब्द०)।

सूजी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का सरेस जो माँड़ और चूने के मेल से बनता है और बाजों के पुर्जे जोड़ने के काम में आता है।

सूझ
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूझना] १. सूझने का भाव। २. दृष्टि। नजर। यौ०—सूझबूझ=समझ। अक्ल। ३. मन में उत्पन्न होनेवाली अनुठी कल्पना। उद्भावना। उपज। जैसे—कवियों की सूझ।

सूझना
क्रि० अ० [सं० संज्ञान] १. दिखाई देना। देख पड़ना। प्रत्यक्ष होना। नजर आना। जैसे,—हमें कुछ नहीं सूझ पड़ता। उ०— आँखि न जो सूझत न कानन तैं सुनियत केसोराइ जैसे तुम लोकन में गाये हो।—केशव (शब्द०)। २. ध्यान में आना। खयाल में आना। जैसे,—(क) इतने में उसे एक ऐसी बात सूझी जो मेरे लिये असंभव थी । (ख) उसे कोई बात ही नहीं सूझती। उ०—असमंजस मन को मिटै सो उपाइ न सूझै।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—दिना।—पड़ना। ३. छुट्टी पाना। मुक्त होना। उ०—राजा लियो चोर सों गोला। गोला देत चोर अस बोला। जो महि जनम कियों मैं चोरी। दहै दहन तौ मोरि गदोरी। अस कहि सो गोला दै सूझ्यौ। साहु सिपाही सों द्रुत बूझ्यौ।—रघुराज (शब्द०)।

सूझबूझ
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूझना+बुझना] देखने और समझने की शक्ति। समझ। अक्ल।

सूझा
संज्ञा पुं० [देश०] फारसी संगीत में एक मुकाम (राग) के पुत्र का नाम।

सूट
संज्ञा पुं० [अं०] १. पहनने के सब कपड़े, विशेषतः कोट और पत- लून आदि। उ०—तन अँगरेजी सूट, बूट पग, ऐनक नैनन।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १४। यौ०—सूटकेस। २. दावा। नालिश। जैसे,—उसने हाईकोट में तुमपर सूट दायर किया है।

सूटकेस
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का चिपटा बक्स जिसमें पहनने के कपड़े रखे जाते हैं।

सूटना पु
क्रि० स० [देश०] चलाना। फेकना। उ०—हथियारन सूटैं नेकु न हूटैं खलदल कूटै लपटि लरैं।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७।

सूटा
संज्ञा पुं० [अनु०] मूँह से तंबाकू, चरस या गाँजे का घूँआ जोर से खींचना। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।

सूटन पु
संज्ञा पुं० [सं० शुक, प्रा० सुअ+ट (प्रत्य०); राज० सूट, सूड़ा, सूओ, सूअड़ो, सुवटी, सूअटो] सुग्गा। तोता। शुक। उ०—पाँच डार सूटन की आई, उतरे खेत मझारे।—कबीर श०, भा०, पृ० ३५।

सूठरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] भूसा। सठुरी।

सूड़
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ड] दे० 'सूँड़'।

सूड़ा, सूडो पु †
संज्ञा पुं० [सं० शुक] शुक पक्षी। तोता। उ०— (क) सुणि सूड़ा सुंदरि कहय, पंखी पड़गन पालि।—ढोला., दू० ३९७। उ०—(ख) साल्ह कुँवर सुड़उ कहइ मालवणी मुख जोइ।—ढोला०, दू० ४०२।

सूत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूत्र, प्रा० सुत्त, हिं० सूत] १. रूई, रेशम आदि का महीन तार जिससे कपड़ा बुना जाता है। तंतु। सूत्त। क्रि० प्र०—कातना।मुहा०—सूत सूत=जरा जरा। तनिक तनिक। सूत बराबर= बहुत सूक्ष्म। बहुत महीन। २. रूई का बटा हुआ तार जिससे कपड़ा आदि सीते हैं। तागा। धागा। डोरा। सूत्र। ३. बच्चों के गले में पहनने का गंडा। ४. करधनी। उ०—कुंजगृह मंजु मधु मधुप अमंद राजै तामै काल्हि स्यामैं विपरीत रति राची री। द्विडदेव कीर कीलकंठ की धूनि जैसी तैसियै अभूत भाई सूत धुनि माची री।—रसकुसु- माकरक (शब्द०)। क्रि० प्र०—पहनना। ५. नापने का एक मान। इमारती गज। विशेष—चार सूत की एक पइन, चार पइन का एक तसू, और चौबीस तसू का एक इमारती गज होता है। ६. पत्थर पर निशान डालने की डोरी। विशेष—संगतराश लोग इसे कोयला मिले हुए तेल में डुबाकर इससे पत्थर पर निशान कर उसकी सीध में पत्थर काटते हैं। ७. लकड़ी चीरने के लिये उस पर निशान डालने की डोरी। मुहा०—सूत धरना=निशान करना। रेखा खींचना। बढ़ई लोग जब किसी लकड़ी को चीरने लगते हैं, तब सीधी चिराई के लिये सूत को किसी रंग में डुबाकर उससे उस लकड़ी पर रेखा करते हैं। इसी को सूत धरना कहते हैं। उ०—मनहूँ भानु मंडलहि सवारत, धरचो सूत विधिसुत विचित्र मति।—तुलसी (शब्द०)।

सूत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूती] १. एक वर्णसंकर जाति, मनु के अनुसार जिसकी उत्पत्ति क्षत्तिय के औरस और ब्राह्मणी के गर्भ से है और जिसकी जीविका रथ हाँकना था। २. रथ हाँकनेवाला। सारथि। उ०—कर लगाम लै सूत धूत मजबूत बिराजत। देखि बृहदरथपूत सुरथ सूरज रथ लाजत।—गि० दास (शब्द०)। ३. बंदी जिनका काम प्राचीन काल में राजाओं का यशोगान करना था। भाट। चारण। उ०—(क) मागध सूत और बंदीजन ठौर ठौर यश गायो।—सूर (शब्द०)। (ख) बहु सूत मागध बंदिजन नृप बचन गुनि हरषित चले।—रामाश्व- मेध (शब्द०)। ४. पुराणवक्ता। पौराणिक। उ०—बाँचन लागे सूत पुराण। मागध वंशावली बखाना।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—सबसे अधिक प्रसिद्ध सूत लोमहर्षण हुए हैं, जो वेदव्यास के शिष्य थे और जिन्होंने नैमिषारण्य में ऋषियों को सब पुराण सुनाए थे। ५. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। ६. बढ़ई। सूत्र कार। ७. सूर्य। ८. पारा। पारद। ९. संजय का एक नाम (को०)। १०. क्षत्रिया स्त्री में उत्पन्न वैश्य का पुत्र (को०)।

सूत (३)
वि० १. प्रसूत। उत्पन्न। उ०—राम नहीं, कम के सूत कहलाए।—अपरा, पृ० २०२। २. प्रेरण किया हुआ। प्रेरित।

सूत (४)
संज्ञा पुं० [सं० सूत्र] थोड़े अक्षरों या शब्दों में ऐसा पद या वचन जो बहुत अर्थ प्रकाशित करता हो। उ०—केहि विधि करिय प्रबोध सकल दरसन अरुझाने। सूत सूत मँह सहस सूत किय फल न सुझाने।—सुधाकर (शब्द०)।

सूत † (५)
वि० [सं० सूत्र (=सूत)] भला। अच्छा। उ०—करमहीन बाना भगवान। सूत कुसूत लियो पहिचान।—कबीर (शब्द०)।

सूत पुं (६)
संज्ञा पुं० [सं० सुत] दे० 'सुत'। उ०—(क) कभुवक मेरा मित्र है कभुवक मेरा सूत।—सहजो० बानी, पृ० २३। (ख) उठ्यो सोच कै मनहि मैं लग्यो आइ धौं भूत। यहै बिचारत हूँ तदपि नृप न लहेहु सुख सूत।—पद्माकर (शब्द०)।

सूतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्म। २. अशौच जो संतान होने पर परिवारवालों को होता है। जननाशौच। ३. मरणशौच जो परिवार में किसी के मरने पर होता है। ४. सूर्य या चंद्रमा का ग्रहण। उपराग। क्रि० प्र०—छूटना।—लगना।

सूतक (२)
संज्ञा पुं० पारा। पारद।

सूतकगेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] रथ हाँकने का काम [को०]।

सूतका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने अभी हाल में प्रसव किया हो। सद्यः प्रसूता। जच्चा।

सूतकागृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतकादिलेप
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में फिरंग वात पर लगाने का एक लेप। विशेष—इस लेप में पारा, हिंगुल, हीरा कसीस तथा आँवलासार गंधक पड़ती है। इसके बनाने की विधि यह है कि उक्त चीजें शुद्ध करके खरल की जाती हैं। अनंतर सूखी बुकनी या पानी आदि में भिगोकर फिरंग वात पर लगाई जाती है।

सूतकात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह खाद्य पदार्थ जो संतानजन्म के कारण अशुद्ध हो जाता है। २. सूतकी के घर का भोजन।

सूतकाशौच
संज्ञा पुं० [सं०] वह अशौच जो संतान होने पर होता है। जननाशौच।

सूतकी
वि० [सं० सूतकिन्] १. घर या परिवार में संतानजन्म के कारण जिसे अशौच लगा हो।२. परिवार में किसी की मृत्यु होने के कारण जिसे सूतक लगा हो।

सूतग्रामणी
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव का मुखिया।

सूतज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्ण। २. संजय (को०)।

सूततनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. संजय। २. कर्ण। विशेष—अधिरथ सारथि ने कर्ण को पाला था; इसीलिये कर्ण सूततनय या सूतपुत्र कहलाते हैं।

सूतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूत का भाव, धर्म या कार्य। २. सारथि का कार्य।

सूतदार पगरना
संज्ञा पुं० [हिं० सूतदार + पगरना] सोने या चाँदी के नक्काशों की एक छनी जो तराशने के काम में आती है।

सूतधार
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रधार, हिं० सुतधार, सूतधार] बढ़ई। उ०—अगर चंदन को पालनो गढ़ई गुर ढार सुढार। लै आयौ गढ़ि ढोलनो विसकर्मा सो सूतधार।—सूर (शब्द०)।

सूतनंदन
संज्ञा पुं० [सं० सूतनन्दन] १. उग्रश्रवा। २. कर्ण। ३. संजय का एक नाम।

सूतना
क्रि० अ० [सं० शयन]दे० 'सोना'। उ०—(क) सूते सपने ही सहै संसृत संताप रे।—तुलसी (शब्द०) (ख) श्री रघुनाथ वशिष्ठ ते कह्यो स्वप्न के माहिं। देखत हौं मैं दशमुखै भयवश सूतत नाहिं।—विश्राम (शब्द०)। (ग) मोर तोर में सबै बिगूता। जननी उदर गर्भ महँ सूता।—कबीर (शब्द०)।

सूतपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारथि का पुंत्र। २. सारथि। ३. कर्ण। ४. विराट का साला जिसका वध भीम ने किया था। कीचक। ५. संजय।

सूतपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ण।

सूतफूल
संज्ञा पुं० [हिं० सूत + फूल] महीन आटा। मैदा। (क्व०)।

सूतराज
संज्ञा पुं० [सं०] पारा। पारद।

सूतरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूत]दे० 'सुतरी'।

सूतलड़
संज्ञा पुं० [हिं० सूत + लड़] अरहट। रहँट।

सूतवशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय जो एक बियान के बाद बच्चा न जने।

सूतसव
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।

सूतहार
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रधार] बढ़ई। सूतधार। उ०—विसकर्मा सूतहार रच्यौ काम ह्वै सुनार, मनिगन लागे अपार काज महर छेया।—सूर०, १०।४१।

सूता (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूत्र] १. कपास, रेशम, आदि का तार जिससे कपड़ा बुना जाता है। तंतु। सूत। २० एक प्रकार का भूरे रंग का रेशम जो मालदह (बंगाल) से आता है। ३. जूते में वह बारीक चमड़ा जिसमें ढूक का पिछला हिस्सा आकर मिलता है। (चमार)।

सूता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने बच्चा जना हो। प्रसूता।

सूता (३)
संज्ञा पुं० [सं० शुक्ति] वह सीपी जिससे डोडे में की अफीम काछते हैं।

सूतार पुं
वि० [सं० सुतार] १. चमकीला। २. सुंदर तलियोंवाला। उ०—एक गोरी दूजी साँमली। राई भतीजी नयण सूतार।— वी० रासो, पृ० ८८।

सूति पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्मृति] याद। सुधि। उ०—पंच संगी पिव पिव करै छठा जु सुमिरै मंन। आई सूति कबीर की पाया राम रतंन।—कबीर ग्रं०, पृ० ५।

सूति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जन्म। २. प्रसव। जनन। ३. उत्पत्ति का स्थान या कारण। उदगम। ४. फल या फसल की उत्पत्ति। पैदावार। ५. वह स्थान जहाँ सोमरस निकाला जाता था। ६. सोमरस निकालने की क्रिया। ७. सीना। सीवन। (क्व०)।

सूति (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। २. हंस।

सूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसने अभी हाल में बच्चा जना हो। सद्यः प्रसूता। जच्चा। २. वह गाय जिसने हाल में बछड़ा जना हो। ३.दे० 'सूतिका रोग'।

सूतिका काल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसव का समय। जननकाल।

सूतिकागार
संज्ञा पुं० [सं०] वह कमरा या कोठरी जिसमें स्त्री बच्चा जने। सौरी। प्रसनगृह। अरिष्ट। विशेष—वैद्यक के अनुसार सूतिकागार आठ हाथ लंबा और चार हाथ चौड़ा होनार चाहिए तथा इसके उत्तर और पूर्व की ओर द्वार होने चाहिए।

सूतिकागृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतिकागेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतिकाभवन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतिकामारुत
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसव की पीड़ा [को०]।

सूतिकारोग
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसूता को होनेवाले रोग। विशेष—वैद्यक के अनुसार सूतिकारोग अनुचित आहार विहार, क्लेश, विषमासन तथा अजीर्णावस्था में भोजन करने से होते हैं। प्रसूता के अंगों का टूटना, अग्निमांद्य, निर्बलता, शरीर का काँपना, सूजन, ग्रहणी, अतिसार, शूल, खाँसी, ज्वर, नाक, मुँह से कफ निकलना आदि सूतिकारोग के लक्षण हैं।

सूतिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसव करने या बच्चा जनने का समय।

सूतिकावल्लभ रस
संज्ञा पुं० [सं०] सूतिकारोग की एक औषध। विशेष—यह रस पारे, गंधक, सोने, चाँदी, स्वर्णमाक्षिक, कपूर, अभ्रक, हरताल, अफीम, जावित्री और जायफल के संयोग से बनता है। ये सब चोजें बराबर बराबर लेकर इनमें मोथे, खिरैंटी और मोचरस की भावना दी जाती है। अनंतर दो दो रत्ती की गोलियाँ बनाई जाती हैं। वैद्यक के अनुसार इसके सेवन से सूतिकारोग शीघ्र दूर हो जाता है।

सूतिकावास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतिकाषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संतान के जन्म से छठे दिन होनेवाली पूजा तथा अन्य कृत्य। छठी।

सूतिकाहर रस
संज्ञा पुं० [सं०] सूतिकारोग का एक औषध। विशेष—इस रस के निर्माश में हिंगुल, हरताल, शंखभस्म, लौह, खर्पर, धतूरे के बीज, यवक्षार और सुहागे का लावा बराबर बराबर पड़ता है। इन चीर्जीं में बहेड़े के क्वाथ की भावना देकर मटर के बराबर गोली बनाती हैं। कहते हैं, इसके सेवन से सूतिकारोग दूर हो जाता है।

सूतिग †
संज्ञा पुं० [सं० सूतक] दे० 'सूतक'।

सूतिगृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकागार'।

सूतिमारुत
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चा जनने की समय की पीड़ा। प्रसव- पीड़ा।

सूतिमास
संज्ञा पुं० [सं०] वह मास जिसमें किसी स्त्री को संतान उत्पन्न हो। प्रसवमास। वैजनन।

सूतिरोग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिकारोग' [को०]।

सूतिवात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूतिमारुत'।

सूती (१)
वि० [हिं० सूत + ई (प्रत्य०)] सूत का बना हुआ। जैसे— सूती कपड़ा। सूती गलीचा।

सूती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्ति प्रा० सुत्ति] १. सीपी। उ०—सूती मैं नहिं सिंधु समाई।—विश्राम (शब्द०)। २. वह सीपी जिससे डोडे में की अफीम काछते हैं।

सूती (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सूत] सूत की पत्नी। भाटिन।

सूतीगृह
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चा होने का स्थान। प्रसवगृह। उ०— अखुटत परत, सुविह्वल भयौ। डरत डरत सूतीगृह गयौ।— नंद० ग्रं०, पृ० २३१।

सूतीघर
संज्ञा पुं० [हिं० सूती + घर] दे० 'सूतीगृह'।

सूतीमास
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'सूतिमास'।

सूत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सीत्कार'।

सूत्तर
वि० [सं०] १. बहुत श्रेष्ठ। बहुत बढ़कर। २. माकूल या उचित (जवाब)। ३. अत्यंत उत्तर। धुर उत्तर [को०]।

सूत्थान (१)
वि० [सं०] चतुर। होशियार।

सूत्थान (२)
संज्ञा पुं० सम्यक् उत्थान या चेष्टा [को०]।

सुत्पर
संज्ञा पुं० [सं०] शराब चुवाने की क्रिया। सुरासंधान।

सूपत्लावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्कंडेयपुराण के अनुसार एक नदी का नाम।

सूत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सुत्य'।

सूत्यशौच
संज्ञा, पु० [सं०] 'सूतकाशौच' [को०]।

सूत्याशौच
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ के उपरांत होनेवाला स्नान। अवभृत। २. सोमरस निकालने की क्रिया। ३. सोमरस पीने की क्रिया।

सूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत। तंतु। तार। तागा। डोरा। २. यज्ञसूत्र। यज्ञोपवीत। जनेऊ। ३. प्राचीन कल का एक मान। ४. रेखा। लकीर। ५. करधनी। कटिभूषण। ६. नियम। व्यवस्था। ७. थोड़े अक्षरों या शब्दों में कहा हुआ ऐसा पद या वचन जो बहुत अर्थ प्रकट करता हो। सारगर्भित संक्षिप्त पद या वचन। जैसे,—ब्रह्ममूत्र, व्याकरणसूत्र। विशेष—हमारे यहाँ के दर्शन आदि शास्त्र तथा व्याकरण सूत्र रूप में ही ग्रथित हैं। ये सूत्र देखने में तो बहुत छोटे वाक्यों के रूप में होते हैं, पर उनमें बहुत गूढ़ अर्थ गर्भित होते हैं। ८. सूत्र रूप में रचित ग्रंथ। जैसे, अष्टाध्यायी, गृह्मसूत्र आदि (को०)। ९. कारण। निमित्त। मूल। १०. पता। सूराग। संकेत। ११. एक प्रकार का वृक्ष। ११. सूत का ढेर (को०)। १२. योजना। १३. तंतु। रेश। जैसे, मृणालसूत्र (को०)। १४. कठपुतली में लगी हुई वह डोरी जिसके आधार पर उन्हें नचाते हैं (को०)।

सूत्रकंठ
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रकण्ठ] १. ब्राह्मण। विशेष—सूत्र कंठस्थ रहने के कारण अथवा गले में यज्ञसूत्र पहनने के कारण ब्राह्मण सूत्रकंठ कहलाते हैं। २. कबूतर। कपोत। ३. खंजन। खंजरीट।

सूत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत। तंतु। तार। २. हार। ३. आटे या मैदे की बनी हुई सेवईं। ४. कौटिल्य के अनुसार लोहे के तारों का बना हुआ कवच।

सूत्रकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रकर्त्तू] सूत्रग्रंथ का रचयिता। सूत्रों का प्रणोता।

सूत्रकर्म
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रकर्मन्] १. बढ़ई का काम। २. मेमार या राज का काम।

सूत्रकर्मकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १.। २. गृहनिर्माणकारी। वास्तु- शिल्पी। मेमार। राज।

सूत्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने सूत्रों की रचना की हो। सूत्रों का रचयिता। २. बढ़ई। ३. जुलाहा। तंतुवाय। ४. मकड़ी।

सूत्रकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत्रों का रचयिता। सूत्रकार। २. बढ़ई। ३. मेमार। राज।

सूत्रकोण
संज्ञा पुं० [सं०] डमरू।

सूत्रकोणक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूत्रकोण'।

सूत्रकोश
संज्ञा पुं० [सं०] सूत की अंटी। पेचक। लच्छा।

सूत्रक्रीडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सूत का खेल, जो ६४. कलाओं में से एक है।

सूत्रगंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सूत्रगणिडका] एक प्रकार का लकड़ी का औजार जिसका उपयोग प्राचीन काल में तंतुवाय लोग कपड़ा बुनने में करते थे।

सूत्रग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रग्रन्थ] सूत्र रूप में रचित ग्रंथ। वह ग्रंथ जो सूत्रों में हो। जैसे—सांख्यसूत्र।

सूत्रग्रह
वि० [सं०] सूत धारण या ग्रहण करनेवाला।

सूत्रग्राही
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रग्राहिन्] राजगीर। वास्तुशिल्पी [को०]।

सू्त्रणा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत्र बनाने या रचने की क्रिया। २. सूत्र बटने की क्रिया। सूत्र बटने का काम। ३. क्रमबद्ध या सिलसिले से सजाना (को०)।

सूत्रतंतु
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रतन्तु] १. सूत। तार। २. अध्यवसाय। शक्ति [को०]।

सूत्र तर्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तकला। टेकुआ।

सूत्रदरिद्र
वि० [सं०] (वस्त्र) जिसमें सूत कम हो। सूत्रहीन। झँझरा। झिल्लड़।

सूत्रधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सूत्रों का पंडित हो। २. दे० 'सूत्रधार'—१। उ०—विधि हरि वंदित पाय, जग नाटक के सुत्रधर।—शंकर दि० (शब्द०)।

सूत्रधर (२)
वि० सूत्र या सूत धारण करनेवाला।

सुत्रधार
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाट्यशाला का व्यवस्थापक या प्रधान नट, जो भारतीय नाट्यशास्त्र के अनुसार, पूर्वरग अर्थात् नांदी- पाठ के उपरांत खेले जानेवाले नाटक की प्रस्तावना करता है। विशेष दे० 'नाटक'। २. बढ़ई। सुतार। काष्ठशिल्पी। ३. इंद्र का एक नाम। ४. पुराणनुसार एक वर्णसंकर जाति जो लकड़ी आदि बनाने और चीरने या गढ़ने का काम करती है। विशेष—ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार इस जाति की अत्पत्ति शूद्रा माता और विश्वकर्मा पिता से है।

सूत्रधारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूत्रधार अर्थात् नाट्यशाला के व्यवस्थापक की पत्नी। नटी।

सूत्रधारी (२)
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रधारिन्] सूत्र धारण करनेवाला।

सूत्रधृक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'सूत्रधार'। २. वास्तुशिल्पी। मेमार। राज।

सूत्रपदी
वि० स्त्री० [सं०] सूत के से अर्थात् पतले पैरोंवाली [को०]।

सूत्रपात
सज्ञा पुं० [सं०] १. प्रारंभ। शुरू। जैसे,—इस काम का सूत्रपात हो गया। २. नापना। मापना (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।

सूत्रपिटक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध सूत्रों का एक प्रसिद्ध संग्रह (पाली० सुत्तपिटक)। विशेष दे० 'त्रिपिटक'।

सूत्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] कपास का पौधा।

सूत्रप्रोत
वि० [सं०] सूत से ग्रथित या बद्ध [को०]।

सूत्रबद्ध
वि० [सं०] १. दे० 'सुत्रप्रोत'। २. सूत्र के रूप में लिखित वा रचित (को०)।

सूत्रभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़े सीनेवाला। दरजी।

सूत्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सुत्रधार'।

सूत्रमध्यभू
संज्ञा पुं० [सं०] यक्षधूप। शल्लकी निर्यास। कुंदुरु। धूना।

सूत्रयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रयन्त्र] १. करघा। २. ढरकी। भरनी। ३. सूत का बना जाल।

सूत्रयी
वि० [सं० सूत्र] सूत्र जानने या रचनेवाला। उ०—त्रिवेदः त्रिकालः त्रयी वेदकर्त्ता। त्रिश्रोता कृती सूत्रयी लोकभर्ता।— केशव (शब्द०)।

सूत्रला
संज्ञा स्त्री० [सं०] तकला। टेकुवा।

सूत्रवान कर्मांत
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रवान कर्मान्त] कपड़ा बुनने का कारखाना। विशेष—चंद्रगुप्त के समय में राज्य अपनी ओर से इस ढंग के कारखाने खड़ा करता था और लोगों को मजदूरी देकर उनसे काम लेता था।

सूत्रवाप
संज्ञा पुं० [सं०] सूत बुनने की क्रिया। वपन। बुनाई।

सूत्रविद्
संज्ञा पुं० [सं०] सूत्रों का ज्ञाता या पंडित।

सूत्रवीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा जिसमें तार की जगह बजाने के लिये सूत्र लगे रहते थे।

सूत्रवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. करघा। ढरकी। २. बुनने की क्रिया। वयन। बुनना। ३. सूत का बंधन।

सूत्रशाख
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर।

सूत्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूत कातने या इकट्ठा करने का कारखाना। विशेष—चंद्रगुप्त के समय में यह नियम था कि जो स्त्रियाँ बड़े तड़के अपना काता हुआ सूत सूत्रशाला में ले जाती थीं, उनकी उसी समय उसका मूल्य मिल जाता था। इस प्रकार स्त्रियों की जीविका का उपयुक्त प्रबंध हो जाता था।

सूत्रसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रसङ्ग्रह] १. वह व्यक्ति जो लगाम पकड़ता है। अश्व के निश्रित स्थान पर रुकने के समय बागडोर को थामनेवाला जिससे सवार नीचे उतर सके। २. सूत्रों का संग्रह (को०)।

सूत्रस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत का प्रथम अध्याय जिसमें शरीर और रोगादि का विवरण है [को०]।

सुत्रांग
संज्ञा पुं० [सं० सूत्राङ्ग] उत्तम काँसा।

सूत्रांत
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रान्त] बौद्ध सूत्र।

सूत्रांतक
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रान्तक] बौद्ध सूत्रों का ज्ञाता या पंडित।

सूत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० सूत्रकार] मकड़ी। (अनेकार्थ०)।

सूत्रात्मा
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रात्मन्] १. जीवात्मा। २. एक प्रकार की परम सूक्ष्म वायु जो धनंजय से भी सूक्ष्म कही गई है।

सूत्राध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़ों के व्यापार का अध्यक्ष।

सूत्रामा
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रामन्] इंद्र का एक नाम।

सूत्राली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माला। हार। २. गले में पहनने की मेखला।

सूत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हार। सूत्रक। २. सेवईं [को०]।

सूत्रित
वि० [सं०] १. सूत्र रूप में कथित या रचित। २. सूत से यूक्त। ३. सिलसिलेवार लगाया हुआ [को०]।

सूत्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रिन्] [वि० स्त्री० सूत्रिणी] १. कौआ। काक। २. दे० 'सूत्रधार'।

सूत्री (२)
वि० १. सूत्रयुक्त। जिसमें सूत्र हो। २. क्रम से युक्त। नियम- युक्त। सिलसिलेवार (को०)।

सूत्रीय
वि० [सं०] सूत्र संबंधी। सूत्र का।

सूथन (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पायजामा। सुथना। उ०—बेनी सुभग नितंबनि डोलत मंदगामिनी नारी। सूथन जघन बाँधि नाराबँद तिरनी पर छबिभारी।—सूर (शब्द०)।

सूथन (२)
संज्ञा पुं० बरमा, स्याम और मणिपुर के जंगलों में होनेवाला एक प्रकार का पेड़। विशेष—इसकी लकड़ी बहुत अच्छी होती है और इसका रस बारनिश का काम देता है। इसे 'खेऊ' भी कहते हैं।

सूथनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. स्त्रियों के पहनने का पायजामा। सुथना। २. एक प्रकार का कंद।

सूथार †
संज्ञा पुं० [सं० सूत्रकार प्रा० सुत्र + आर, पु० हिं० सुतार] बढ़ई। सुतार। खाती। उ०—जब बोल्यो वीदो सूथारू। है स्वामी की गती अपारु।—राम० धर्म०, पृ० ३६५।

सूद (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १ लाभ। फायदा। २. ब्याज। वृद्धि। क्रि० प्र०—चढ़ना।—देना।—पाना।—लगना।—लेना।— होना। मुहा०—सूद दर सूद = ब्याज पर ब्याज। चक्रवृद्धि। सूद पर लगाना = सूद लेकर रुपया उधार देना।

सूद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोइया। सूपकार। पाचक। २. पकी हुई दाल, रसा, तरकारी, आदि। ३. सारधि का काम। सारथ्य। ४. अपराध। पाप। ५. दोष। ऐब। ६. एक प्राचीन जनपद का नाम। ७. लोध्र। लोध। ८. विध्वंस। विनाश (को०)। ९. कूप। कूआँ (को०)। १०. कीचड़। कर्दम (को०)। ११. व्यंजन। १२. स्त्रोत। चश्मा। झरना (को०)। १३. गिराना। चुआना। ढालना (को०)।

सूदक
वि० [सं०] विनाश करनेवाला।

सूदकर्म
संज्ञा पुं० [सं० सूदकर्मन्] रसोइए का काम। रंधन। पाक- क्रिया। भोजन बनाना।

सूदकशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० सूदशाला] रसोईघर। पाकशाला। (डिं०)।

सूदखोर
संज्ञा पुं० [फा० सूदखोर] वह जो खूब सूद या ब्याज लेता हो।

सूदखोरी
संज्ञा स्त्री० [फा० सूदखोरी] सूदखोर का काम। सूद या ब्याज का कारोबार [को०]।

सूदता
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'सूदत्व'।

सूदत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सूद या रसोइएका पद या काम। रसोईदारी।

सूदन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सूदनी] १. विनाश करनेवाला। जैसे— मधुसुदन। रिपुसूदन। उ०—नमो नमस्ते बारंबार। मदन सूदन गोबिंद मुरार।—सूर (शब्द०)। २. प्यारा। प्रिय (को०)।

सूदन (२)
संज्ञा पुं० १. बध या विनाश करने की क्रिया। हनन। २. अंगीकार या स्वीकार करने की क्रिया। अंगीकरण। ३. फेकने की क्रिया।४. हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि का नाम जो मथुरा के रहनेवाले थे और जिनका लिखा 'सुजानचरित्र' वीर रस का एक प्रसिद्ध काव्य है।

सूदना पु
क्रि० स० [सं० सूदन] नाश करना। उ०—मुदित मन वर बदन सोभा उदित अधिक उछाहु। मनहुँ दूरि कलंक करि ससि समर सूदयो राहु।—तुलसी (शब्द०)।

सूदर †
संज्ञा पुं० [सं० शूद्र] शूद्र। (डिं०)।

सूदशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ भोजन बनता हो। रसोईघर। पाकशास्त्र।

सूदशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन बनाने की कला। पाकशास्त्र।

सूदा
संज्ञा पुं० [देश०] ठगों के गरोह का वह आदमी जो यात्रियों को फुसलाकार अपने दल में ले आता है। (ठग०)।

सूदाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रसोइयों का मुखिया या सरदार। पाक- शाला का अधिकारी।

सूदि
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'सूदी'।

सूदित
वि० [सं०] १. आहत। घायल। जख्मी। २. जो नष्ट हो गया हो। विनष्ट। ३. जो मार डाला गया हो। निहत।

सूदितृ (१)
वि० [सं०] वध या विनाश करनेवाला।

सूदितृ (२)
संज्ञा पु० रसोइया। पाककर्ता। पाचक।

सूदी
वि० [फा० सूद] १. (पूँजी या रकम) जो सूद या ब्याज पर हो। ब्याजू। २. ब्याज पर लिया हुआ (रुपया)।

सूदी (२)
वि० [सं० सूदिन्] उफनकर या ऊपर से बहनेवाला [को०]।

सूद्र
संज्ञा पुं० [सं० शूद्र]दे० 'शूद्र'।

सूध पु (१)
वि० [सं० शुद्ध, प्रा० सुध्ध]दे० 'सूधा'। उ०—(क) नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिय न कोहू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) काह करउँ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन वाम न जानउँ काऊ।—तुलसी (शब्द०)।

सूध (२)
वि० दे० 'शुद्ध'। उ०—माया सों मन बीगड़ा ज्यों काँजी करि दूध। है कोई संसार में मन करि देवइ सूध।—दादू (शब्द०)।

सूध (३)
क्रि० वि० सीधा। उ०—दूसर मारग सुनु मन लाई। देश विदर्भ सूध यह जाई।—सबलसिंह (शब्द०)।

सूधना पु
क्रि० अ० [सं० शुद्ध] सिद्ध होना। सत्य होना। ठीक होना। उ०—ऐसे सुतहि पिया जो दूधा गुन हरि तासु मनोरथ सूधा।—गिरिधरदास (शब्द०)।

सूधरा पु
वि० [सं० शुद्धतर] दे० 'सूधा'।

सूधा
वि० [सं० शुद्ध] [वि० स्त्री० सूधी] १. सीधा। सरल। भोला। निष्कपट। उ०—को अस दीन दयाल भयो दशरत्थ के लाल से सूधे सुभायन। दौरे गयंद उबारिवबे को प्रभु बाहन छोड़ि उबाहने पापन।—पद्माकर (शब्द०)। २. जो टेढ़ा न हो। सीधा। उ०—इमि कहि सबन सहित तब ऊधो। गए नंद गुह मग सूधो।—गिरिधरदास (शब्द०)। ३. इस प्रकार पड़ा हुआ कि मुँह, पेट आदि शरीर का अगला भाग ऊपर की ओर हो। चित। ४. संमुख का। सामने की। उ०—मुदित मन वर वदन सोभा उदित अधिक उछाह। मनहु दूरि कलंक करि ससि समर सूधो राहु।—तुलसी (शब्द०)। ५. जो उलटा न हो। जो ठीक और साधारण स्थिति में हो। ६. जो सीधी रेखा में चला गया हो। जिसमें वक्रता न हो। उ०—सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—सूधी सूधी सुनाना=खरी खरी कहना। सूधी सहना= खरी खरी सुनना। उ०—कबहुँ फिर पाँव न दैहौं यहाँ भजि जैहों तहाँ जहाँ सूधी सहौ।—पद्माकर (शब्द०)। विशेष—और अधिक अर्थों ताथा मुहावरों के लिये दे० 'सीधा'।

सूधि †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सुधि'। उ०—तातें इनकों देखि कै श्रीठाकुर जी को श्रीस्वामिनी जी की सूधि आवति हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०८।

सूधे
क्रि० वि० [हिं० सूधा] सीधे से। उ०—(क) सूधे दान काहे न लेत।—सूर (शब्द०)। (ख) हौं बड़ हौं बड़ बहुत कहावत सूधे कहत न बात। योग न युक्ति ध्यान नहिं पूजावृद्घ भए अकुलात।—सूर (शब्द०)। (ग) भावै सो तै करि वाको भामिनी भाग बड़े वश चौकड़ि पायो। कान्ह ज्यों सूधे जू चाहत नाहिनै चाहति है अब पाइ पाइ लगायो।—केशव (शब्द)। मुहा०—सूधे सूध=कोरा। साफ साफ। उ०—सूधै सुध जबाब न दीजै।—विश्राम (शब्द०)।

सून (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसव। जनन। २. कली। कलिका। ३. फूल। पुष्प। प्रसून। उ०—चुनते वे सुनि हेतु सून थे।— साकेत, पृ० ३४४। ४. फल। ५. पुत्र। उ०—(क) नंद सून पद लालन लोभै। रमा रसिकिनी पावति छोभै।—घनानंद, पृ० २६४। (ख) श्री बसुदेव सून है नंद कुमार कहावत।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ६१।

सून (२)
वि० १. खिला हुआ। विकसित (पुष्प)। २. उत्पन्न। जात। ३. रिक्त। खाली। शून या शून्य (को०)।

सून पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शून्य, प्रा० सुण्ण (सून)]दे० 'शून्य'। उ०— (क) तुलसी निज मन कामना चहत सून कहँ सेइ। बचन गाय सबके विविध कहहु पयस केहि देइ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नाम राम को अंक है सब साधन है सून। अंक गए कछु हाथ नहिं अंक रहे दस गून।—तुलसी (शब्द०)।

सून (४)
वि० १. निर्जन। जनशून्य। सूना। सुनसान। खाली। उ०— (क) इहाँ देखि घर सुन चोर मुसन मन लायो। हीरा हेरि निकारि भवन बाहर धरि आयो।—विश्राम (शब्द०)। (ख) हनकु सक्र हमको एहि काला। अब मोहि लगत जगत जंजाला। नहिं कल बिना शेषपद देखे। बिन प्रभु जगत सून मम लेखे।—रघुराज (शब्द०)। (ग) मँदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिर फिर डसा।—जायसी (शब्द०)। २. रहित। हीन। उ०— निरखि रावण भयावन अपावन महा जानकी हरण करि चलो शठ जात है। भन्यो अति कोप करि हनन की चोप करि लोप करि धर्म अब क्यों न ठहरात हैं। जानि थल सून नृप सूत रमणी हरी करी करणी कठिन अब न बचि जात है।—रघुराज (शब्द०)।

सून (५)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार पेड़ जो शिमले के आसपास के पहाड़ों पर बहुत है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और इमारतों में लगती है। इसे 'चिन' भी कहते हैं।

सूनशर
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।

सूनसान
वि० [सं० शुन्य स्थान] दे० 'सुनसान'। उ०—पर तनक थिर होकर सुनने से ऐसे सूनसान और सन्नाटे में भी किसी की दुःखभरी रुलाई सुनाई पड़ती है।—ठेठ०, पृ० ३२।

सूना (१)
वि० [सं० शून्य] [वि० स्त्री० सूनी] जिसमें या जिसपर कोई न हो। जनहीन। निर्जन। सुनसान। खाली। जैसे— सूना घर, सूना रास्ता, सूना सिंहासन। उ०—(क) जात हुती निज गोकुल में हरि आवै तहाँ लखिकै मग सूना। तासों कहौं पदमाकर यों अरे साँवरौ बावरे तै हमैं छू ना।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) राम कहाँ गए री माता। सून भवन सिंहासन सूनो नाहीं दशरथ ताता।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—पड़ना।—करना।—होना। मुहा०—सूना लगना या सूना सूना लगना = निर्जीव मालूम होना। उदास मालूम होना।

सूना (२)
संज्ञा पुं० [सं० शून्य] एकांत। निर्जन स्थान।

सूना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुत्री। बेटी। २. वह स्थान जहाँ पशु मारे जाते हैं। बूचड़खाना। कसाईखाना। ३. मांस का विक्रय। मांस की बिक्री। ४. गृहस्थ के यहाँ ऐसा स्थान या चूल्हा, चक्की, ओखली, घड़ा, झाड़ में से कोई चीज जिससे जीवहिंसा की संभावना रहती है। विशेष दे० 'पंचसूना'। ५. गलशुंडी। जीभी। ६. हाथी के अंकुश का दस्ता। ७. हत्या। घात। विध्वंसन। ८. प्रकाश की किरण (को०)। ९. नदी। सरिता (को०)। १०. गले की ग्रंथियों का शोथ (को०)। ११. हाथी की सूँड़ (को०)। १२. मेखला। शृंखला (को०)। यौ०—सूनाध्यक्ष—बूचड़खाने का निरीक्षक। सूनावत् = बूचड़खाने का मालिक।

सूनादोष
संज्ञा पुं० [सं०] चूल्हा, चक्की, ओखली, मूसल, झाड़ और पानी के घड़े से होनेवाली जीवहिंसा का दोष या पाप। विशेष दे० 'पंचसूना'।

सूनापन
संज्ञा पुं० [हिं० सूना + पन (प्रत्य०)] १. सूना होने का भाव। २. सन्नाटा। एकांत।

सूनिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस बेचनेवाला। व्याध। २. शिकारी। अहेरी (को०)।

सूनी
संज्ञा पुं० [सं० सूनिन्] १. मांस बेचनेवाला। व्याध। बूचड़। २. शिकारी (को०)।

सूनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र। संतान। २. छोटा भाई। अनुज। ३. नाती। दौहित्र। ४. एक वैदिक ऋषि का नाम। ५. सूर्य। ६. आक। अर्क वृक्ष। ७. वह जो सोमरस चुवाता हो।

सूनू
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या। पुत्री। बेटी। लड़की।

सूनृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सत्य और प्रिय भाषण (जो जैन धर्मा- नुसार सदाचरण के पाँच गुणों में से एक है)। २. आनंद। मंगल। कल्याण।

सूनृत (२)
वि० १. सत्य और प्रिय। २. अनुकूल। दयालु। ३. प्रिय (को०)। ४. सदाशापूर्ण (को०)।

सूनृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्य और प्रिय भाषण। २. सत्य। ३. धर्म की पत्नी का नाम। ४. उत्तानपाद की पत्नी का नाम। ५. एक अप्सरा का नाम। ६. ऊषा (को०)। ७. खाद्य। आहार (को०)। ८. उत्कृष्ट संगीत।

सून्मद
वि० [सं०] दे० 'सून्माद'।

सून्माद
वि० [सं०] जिसे उन्माद रोग हुआ हो। पागल।

सून्य पु
संज्ञा पुं० [सं० शून्य] दे० 'शून्य'। उ०—सून्य में जोति जगमग जगाई।—कबीर श०, भा० ४, पृ १६।

सूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल। २. दाल का जूस। रसा। ३. रसे की तरकारी आदि मसालेदार व्यंजन। ४. बरतन। भांड। भाँड़ा। ५. रसोइया। पाचक। ६. वाण। तीर। ७. मसाला।

सूप (२)
संज्ञा पुं० [सं० शूर्प] अनाज फटकने का बना हुआ पात्र। सरई या सींक का छाज। उ०—(क) देखो अदभुत अविगति की गति कैसे रूप धरयो है हो। तीन लोक जाके उदरभवन सो सूप के कोन परयो है हो।—सूर (शब्द०)। (ख) राजन दीन्हे हाथी रानिन्ह हार हो। भरिगे रतन पदारथ सूप हजार हो।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—फटकना । मुहा०—सूपभर = बहुत सा। बहुत अधिक। सूप क्या कहे छलनी को जिसमें नौ सौ छेद = जिसमें खुद ऐब हो वह दूसरे के ऐब एवं बुराई को दूर भगानेवाले से क्या कह सकता है। उ०—सूप क्या कहे छलनी को जिसमें नौ सौ छेद। तुम और हमको ललकारो।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४७१।

सूप (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. कपड़े या सन का झाडू जिससे जहाज के डेक आदि साफ किए जाते हैं। (लश०)। २. एक प्रकार का काला कपड़ा।

सूपक
संज्ञा पुं० [सं० सूप] रसोइया। उ०—धीर सूर विद्वान् जौ मिष्ट बनावै अन्न। सूपक कीजै ताहि जो पुत्र पौत्र संपन्न।— सीताराम (शब्द०)।

सूपकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सूपकर्त्त] दे० 'सूपकार'।

सूपकार
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन बनानेवाला। रसोइया। पाचक। उ०—तहाँ सूपकारन मुनिराई। मुनिन हेत किय पाक बनाई।—रामाश्वमेध (शब्द०)।

सूपकारी पु
संज्ञा पुं० [सं० सूपकारिन्] दे० 'सूपकार'। उ०—आसन उचित सबहि नृप दीन्हें। बोलि सूपकारी सब लीन्हें।—तुलसी (शब्द०)।

सूपकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूपकार'।

सूपच पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वपच] दे० 'श्वपच'। उ०—सूपच रस स्वादै का जानै।—विश्राम (शब्द०)।

सूपगंधि
वि० [सं० सूपगन्धि] जिसमें मसाला न हो। सादा [को०]।

सूपचर
वि० [सं०] १. शीघ्र नीरोग होनेवाला। २. शीघ्र आर्द्रचित्त होनेवाला (को०)।

सूपचार
वि० [सं०] दे० 'सूपचर'।

सूपझरना
संज्ञा पुं० [हिं० सूप + झरना] सूप की तरह का सरई का एक बरतन। विशेष—सूप से इसमें अंतर इतना ही है कि इसमें हर दो सरइयों के बीच में एक सरई नहीं होती जिसके कारण सूप के बीच में ही झरना सा बन जाता है। इससे बारीक अनाज नीचे गिर जाता है और मोटा ऊपर रह जाता है।

सूपट पु
संज्ञा पुं० [सं० सम्पुट] दे० 'संपुट'। उ०—प्रेम कँवल जल भीतरै, प्रेम भँवर लै बास। होत प्रात सूपट खुलै, भान तेज परगास।—संत० दरिया, पृ० ४३।

सूपड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० सूप + डा (प्रत्य०)] सूप। छाज। (डिं०)।

सूपतीर्थ
वि० [सं०] दे० 'सूपतीर्थ्य'।

सूपतीर्थ्य
वि० [सं०] स्नान के लिये अच्छी सीढ़ियों से युक्त [को०]।

सूपधूपक
संज्ञा पुं० [सं०] हींग।

सूपधूपन
संज्ञा पुं० [सं०] हींग।

सूपनखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शूर्पणखा] दे० 'शूर्पणखा'। उ०—सूपनखा रावण कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जसि अहिनी।— तुलसी (शब्द०)।

सूपना पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्न, प्रा० सुपण, पु० हिं० सुपन] दे० 'सुपना'। उ०—जागत में एक सूपना मुझको पड़ा है देख।— पलटू० पृ० ७।

सूपपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनमूँग। मुँगवन। मुदगपर्णी।

सूपरस
संज्ञा पुं० [सं०] सूप का स्वाद। रसे का जायका।

सूपशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन बनाने की कला। पाकशास्त्र।

सूपश्रेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] मूँग। मुदग।

सूपसंसृष्ट
वि० [सं०] मसालेदार। मसाले से युक्त।

सूपसास्त्र पु
संज्ञा पुं० [सं० सूपशास्त्र] पाकशास्त्र। सूदशास्त्र। उ०—भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस किछु व्यवहारा।—मानस, १।९९।

सूपस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] पाकशाला। रसोईंघर।

सूपांग
संज्ञा पुं० [सं० सूपाङ्ग] हींग। हिंगु।

सूपा †
संज्ञा पुं० [हिं० सूप] सूप। छाज। शूर्प।

सूपाय
संज्ञा पुं० [सं०] सूंदर ढंग, तरीका या उपाय [को०]।

सूपिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकी हुई दाल या रसा आदि। २. सूपकार। रसोइया।

सूपीय
वि० [सं०] दे० 'सूप्य'।

सूपोदन
संज्ञा पुं० [सं० सूप + ओदन] दाल और भात। उ०— सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत। छन महुँ सबके परसि ये चतुर सुआर विनित।—मानस, १।३२८।

सूप्य (१)
वि० [सं०] १. दाल या रसे के लायक। २. सूप संबंधी।

सूप्य (२)
संज्ञा पुं० रसेदार खाद्य पदार्थ।

सूप्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसूर या अरहर की दाल [को०]।

सूफ (१)
संज्ञा पुं० [अ० सूफ़] १. पश्म। ऊन। २. वह लत्ता जो देशी काली स्याहीवाली दावात में डाला जाता है। ३. गोटा बुनने के लिये बाना (को०)। ४. घाव के भीतर भरा जानेवाला वस्त्र जिसे बत्ती भी कहते हैं। ५. बकरी या भेड़ के बाल (को०)।

सूफ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० सूप] दे० 'सूप'।

सूफार
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूफ़ार] बाण का वह हिस्सा जिसे प्रत्यंचा पर रखकर चुटकी से खींचकर चलाते हैं [को०]।

सूफिया
संज्ञा पुं० [अ० सूफ़िया] सूफी का बहुवचन।

सूफियाना
वि० [फ़ा० सूफ़ियानह्] १. सूफी लोगों की तरह। २. अच्छे ढंग या प्रकृति का। ३. हलके रंग का [को०]।

सूफी (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सुफ़ी] [बहुव० सुफ़िया] १. मुसलमानों का एक धार्मिक संप्रदाय। इस संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं और साधारण मुसलमानों की अपेक्षा अधिक उदार विचार के होते हैं। २. इस संप्रदाय को माननेवाला व्यक्ति (को०)।

सूफी (२)
वि० १. ऊनी वस्त्र पहननेवाला। २. साफ। पवित्र। ३. निरपराध। निर्दोंष।

सूब
संज्ञा पुं० [देश०] ताँबा। (सुनार)।

सूबड़ा
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण] वह चाँदी जिसमें ताँबे और जस्ते का मेल हो। (सुनार)।

सूबड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पैसे का आठवाँ भाग। दमड़ी। (सुनार)।

सूबस पु
वि० [सं० स्ववश] अपने वश या अधिकार में। स्वाधीन। उ०—दादू रावत राजा राम का, कदे न बिसारी नाँव। आत्मा राम सँभालिए तौ सूबस काया गाँव।—दादू०, पृ० ३९।

सूबा
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूबह्] १. किसी देश का कोई भाग या खंड। प्रांत। प्रदेश। यौ०—सूबेदार। २. दे० 'सूबेदार'। उ०—कीन्हों समर बीर परिपाटी। लीन्हों सूबा का सिर काटी।—रघुराज (शब्द०)।

सूबेदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूबह् + दार (प्रत्य०)] १. किसी सूबे या प्रांत का बड़ा अफसर या शासक। प्रादेशिक शासक। २. एक छोटा फौजी ओहदा।

सूबेदार मेजर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सूबेदार + अं० मेजर] फौज का एक छोटा अफसर।

सूबेदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. सूबेदार का ओहदा या पद। २. सूबेदार का काम। ३. सूबेदार होने की अवस्था।

सूभर पु
वि० [सं० शुभ्र] १. सुंदर। दिव्य। उ०—दादू सहज सरोवर आत्मा, हंसा करै कलोल। सुख सागर सूभर भरया, मुक्ताहल मन मोल।—दादू० बानी, पृ० ९५। २.श्वेत। सफेद। उ०—हंस सरोवर तहाँ रमैं सूभर हरि जल नीर। प्रानी आप पखालिए निमल सदा हो सरीर।—दादू (शब्द०)।

सूम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूध। २. जल। ३. आकाश। ४. स्वर्ग।

सूम (२)
संज्ञा पुं० फूल। पूष्प। (डिं०)।

सूम (३)
वि० [अ० शूम (= अशुभ)] कृपण। कंजूस। बखील। उ०— मरै सूम जजमान मरै कटखन्ना टट्टू। मरै कर्कसा नारि मरै की खसम निखट्टू।—गिरिधरदास (शब्द०)।

सूम (४)
संज्ञा पुं० [अ०] लशुन। लहसुन [को०]।

सूमड़ा
वि० [हिं० सूम + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'सूम'। उ०—सूमड़े ताड़ आकाश में जा अपने कलकलाए।—प्रेमघन०, भा० २ पृ० १९।

सूमलू
संज्ञा पुं० [देश०] चित्रा या चीता नामक पौधा।

सूयाँ †
संज्ञा स्त्री० [देश०] टूटी हुई चारपाई की रस्सी।

सूमारग पु
संज्ञा पुं० [सं० सुमार्ग] सत्पथ। अच्छा मार्ग। उ०— भक्त काम देखि चलहि सूमारग, भजन नाहिं मन आनी।— जग० श०, भा० २, पृ० ९१।

सूमी
संज्ञा पुं० [देश०] एक बहुत बड़ा पेड़ जो मध्य तथा दक्षिण भारत के जंगलों में होता है। विशेष—इसकी लकड़ी इमारतों में लगती और मेज, कुर्सी आदि बनाने के काम में आती है। इसे रोहन और सोहन भी कहते हैं।

सूय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोमरस निकालने की क्रिया। २. यज्ञ।

सूरंजान
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूरिन्जान] केसर की जाति का एक पौधा जिसका कंद दवा के काम में आता है। विशेष—यह पश्चिमी हिमालय के समशीतोष्ण प्रदेशों में पहाड़ों की ढाल पर घासों के बीच उगता है और एक बालिश्त ऊँचा होता है। फारस में भी यह बहुत होता है। इसमें बहुत कम पत्ते होते हैं और प्रायः फूलों के साथ निकलते हैं। फूल लंबे होते हैं और सीकों में लगते हैं। इसकी जड़ में लहसुन के समान, पर उससे बड़ा कंद होता है जो कड़वा और मीठा दो प्रकार का होता है। कड़वे को 'सूरंजान तल्ख' और मीठे को 'सूरंजान शीरीं' कहते हैं। मोटा कंद फारस से आता है और खाने की दवा में काम आता है। कड़वा कंद केवल तेल आदि में मिलाकर मालिश के काम आता है। इसके बीज विषैले होते है; इससे बड़ी सावधानी से थोड़ी मात्रा में दिए जाते हैं। यूनानी चिकित्सा के अनुसार सूरंजान रूखा, रुचिकर तथा वात, कफ, पांडुरोग, प्लीहा, संधिवात आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।

सूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूरी] १. सूर्य। उ०—सूर उदय आए रही दृगन साँझ सी फूलि।—बिहारी (शब्द०)। २. अर्कवृक्ष। आक। मदार। ३. पंडित। आचार्य। ४. सोम (को०)। ५. जैन धर्म में वर्तमान अवसर्पिणी के सत्रहवें अर्हत् कुंथु के पिता का नाम। ६. मसूर। ७. राजा। नायक (को०)।

सूर (२)
संज्ञा पुं० [देशश्त] १. भक्त कवि सूरदास। उ०—कछु संछेप सूर बरनत अब लघु मति दुर्बल बाल।—सूर (शब्द०)। २. नेत्र- विहीन व्यक्ति। दृष्टिरहित व्यक्ति। अंधा। विशेष—सूरदास अंधे थे, इससे 'अंधा' के अर्थ में यह शब्द प्रचलित हो गया है। ३. छप्पय छंद के ७१ भेदों में से ५५वें भेद का नाम जिसमें १६ गुरु, १२० लघु, कुल १३६ वर्ण और १५२ मात्राएँ होती हैं।

सूर पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शूर, प्रा० सूर, अथवा सं० सूर (= नायक)] शूरवीर। बहादुर। उ०—सूर समर करनी करहिं कहिं न जनावहिं आप।—तुलसी (शब्द०)।

सूर पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० शुकर, प्रा० सूअर] १. सूअर। २. भूरे रंग का घोड़ा।

सूर पु (५)
संज्ञा पुं० [सं० शूल, प्रा० सूल (= सूर)] दे० 'शूल'। उ०—(क) कर बरछी विष भरी सूरसुत सूर फिरावत।— गोपाल (शब्द०)। (ख) दादू सिख स्त्रवनन सुना सुमिरत लागा सूर।—दादू० (शब्द०)।

सूर (६)
संज्ञा पुं० [देश०] पठानों की एक जाति। जैसे—शेरशाह सूर। उ०—जाति सूर औ खाँड़ै सूरा।—जायसी (शब्द०)।

सूर (७)
संज्ञा पुं० [सं० सूर (= सूर्य)] हठयोग साधना में चंद्रमा में स्रवित होनेवाले अमृत का शोषण करनेवाला द्वादश कला- युक्त सूर्य। पिंगला नाड़ी का दूसरा नाम। उ०—उलटिवा सूर गगन भेदन किया, नवग्रह डंक छेदन किया, पोबिया चंद जहाँ कला सारी।—रामानंद०, पृ० ४।

सूर (८)
संज्ञा पुं० [अ०] नरसिंहा नामक बाजा। उ०—कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका 'रसा'। चौंकनेवाले हैं कब हम सूर की आवाज से। विशेष—मुसलमानों के अनुसार हजरत असाफील प्रलय या कया- मत के दिन मुरदों को जिलाने के लिये इसे फूँककर बजाते हैं।

सूर (९)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. लाल वर्ण। लाल रंग। २. प्रसन्नता। मोद। हर्ष। ३. अफगानिस्तान का एक नगर और एक जाति [को०]।

सूरकंद
संज्ञा पुं० [सं० सूरकन्द] जमीकंद। सूरन। ओल।

सूरकांत
संज्ञा पुं० [सं० सूरकान्त] दे० 'सूर्यंकांत'।

सूरकुमार
संज्ञा पुं० [सं० शूर (= सूरसेन) कुमार (= पुत्र)] वसुदेव। उ०—तेज रूप ये सूरकुमारा। जिमि उदयस्थ सूर उजियारा।—गि० दास (शब्द०)।

सूरकृत
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।

सूरचक्षा
वि० [सं० सूरचक्षस्] सूर्य की तरह ज्योतिवाला [को०]।

सूरचक्षुस्
वि० [सं०] दे० 'सूरचक्षा' [को०]।

सूरज (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य] १. सूर्य। विशेष दे० 'सूर्य'। उ०— दरिया सूरज ऊगिया, नैन खुला भरपूर। जिन अंधे देखा नहीं, तिन से साहब दूर।—दरिया० बानी, ३७। क्रि० प्र०—अस्त होना।—उगना।—उदय होना।—निकलना।— डूबना।—छिपना। मुहा०—सूरज को चिराग दिखाना = दे० 'सूरज को दीपक दिखाना'। उ०—आगे मेरे फरोग पाना, सूरज को है चिराग दिखाना।—फिसाना, भा० ३, पृ० ६२४। सूरज पर थूकना = किसी निर्दोष या साधु व्यक्ति पर लांछन लगाना जिसके कारण स्वयं लांछित होना पड़े। सूरज को दीपक दिखाना = (१) जो स्वयं अत्यंत गुणवान् हो, उसे कुछ बतलाना। (२) जो स्वयं विख्यात हो उसका परिचय देना। सुरज पर धूल फेंकना = किसी निर्दोष या साधु व्यक्ति पर कलंक लगाना। २. एक प्रकार का गोदना जो स्त्रियाँ हाथ में गुदाती हैं। ३. दे० 'सूरदास'।

सूरज (२)
संज्ञा पुं० [सं० सूर + ज] १. शनि। २. सुग्रीव। उ०— (क) सूरज मुसल नील पट्टिस परिघ नल जामवंत असि हनु तोमर प्रहारे हैं। परसा सुखेन कुंत केशरी गवय सूल विभीषण गदा गज भिंदिपाल तारे हैं।—रामचं०, पृ० १३५। (ख) करि आदित्य अदृष्ट नष्ट यम करौं अष्टवसु। रुद्रनि वोरि समुद्र करौं गंधर्व सर्व पसु। बलित अबेर कुबेर बलिहिं गहि देहुँ इंद्र अब। विद्याधरनि अविद्य करौं बिन सिद्धि सिद्ध सब। लै करौं अदिति की दासि दिति अनिल अनल मिलि जाहि जल। सुनि सूरज सूरज उगत ही करौं असुर संसार सब।—केशव (शब्द०)। ३. कर्ण का एक नाम। ४. यमराज।

सूरज (३)
संज्ञा पुं० [सं० शूर + ज (प्रत्य०)] शूर या वीर का पुत्र। बहादुर का लड़का। उ०—डारि डारि हथ्यार सूरज जीव लै लै भज्जहीं।—केशव (शब्द०)।

सूरजतनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सूर्यतनया] दे० 'सूर्यतनया'। उ०— सुंदरि कथा कहै है अपनी। हौं कन्या हौं सूरजतनी। कालिंदी है मेरो नाम। पिता दियो जल में विश्राम।—लल्लूलाल (शब्द०)।

सूरजनरायन
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यनारायण] हिं० सूरजनरायन, नारायण स्वरूप सूर्य। उ०—और सूर्यनारायण को सूरजनरायन कहने लग पड़े थे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३९२।

सूरजबंसी
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यवंशीय] दे० 'सूर्यवंशी'।

सूरजभगत
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य + भक्त] एक प्रकार की गिलहरी जो लंबाई में १६ इंच होती है और भिन्न भिन्न ऋतुओं के अनुसार रंग बदलती है। यह नेपाल और आसाम में पाई जाती है।

सूरजमुख पु
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य, पु० हिं० सूरज + सं० मुख] सूर्यकांत नाम का प्रस्तर (स्फटिक)। उ०—सूरजमुख पषान एक होई। रबि सनमुख तेहि पावक जोई।—घट०, पृ० २१७।

सूरजमुखी
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यमुखिन्] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें पीले रंग का बहुत बड़ा फूल लगता हैं। विशेष—यह ४-५ हाथ ऊँचा होता है। इसके पत्ते डंठल की ओर पतले तथा कुछ खुरदुरे और रोईंदार होते हैं। फूल का मंडल एक बालिश्त के करीब होता है। बीच में एक स्थूल केंद्र होता है जिसके चारों ओर गोलाई में पीले पीले दल निकले होते हैं। सूर्यास्त के लगभग यह फूल नीचे की ओर झुक जाता है और सूर्योदय होने पर फिर ऊपर उठने लगता है। इसमें कुसुम के से बीज पड़ते हैं। बीज हर ऋतु में बोए जा सकते हैं, पर गरमी और जाड़ा इसके लिये अच्छा है। यह पौधा दूषित वायु को शुद्ध करनेवाला माना जाता है। वैद्यक में यह उष्णवीर्य, अग्निदीपक, रसायन, चरपरा, कड़ुवा, कसैला, रूखा, दस्तावर, स्वर शुद्ध करनेवाला तथा कफ, वात, रक्तविकार, खाँसी, ज्वर, विस्फोटक, कोढ़, प्रमेह, पथरी, मूत्रकृच्छ्र, गुल्म आदि का नाशक कहा गया है। पर्या०—आदित्यभक्ता। वरदा। सुवर्चला। सूर्यलता। अर्ककांता। भास्करेष्टा। विक्रांता। सुतेजा। सौरि। अर्कहिता।२. एक प्रकार की आतिशबाजी। ३. एक प्रकार का छत्र या पंखा। ४. वह हलकी बदली जो संध्या सबेरे सूर्य मंडल के आसपास दिखाई पड़ती है।

सूरजसुत पु
संज्ञा पुं० [हिं० सूरज + सं० सुत] सुग्रीव। उ०—अंगद जौ तुम पै बल होतो। तो वह सूरज को सुत को तो।—केशव (शब्द०)।

सूरजसुता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूरज + सं० सुता] यमुना नदी। दे० 'सूर्यसुता'।

सूरजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री, यमुना। उ०—जै जै श्री सूरजा कलिंद नंदिनी। गुल्म, लता, तरु, सुबास, कुंद कुसुम मोदमन भ्रमत मधुप, पुलिन सुरभि वायु नंदिनी।—छीत०, पृ० ८०।

सूरण
संज्ञा पुं० [सं०] सूरन। जमींकंद।

सूरत (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. रूप। आकृति। शक्ल। उ०—(क) इनकी सूरत तो राजकुमारी की सी है।—बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)। (ख) मन धन लै दृग जौहरी, चले जात वह बाट। छवि मुकता मुकते मिलै जिहि सूरत की हाट।—रसनिधि (शब्द०)। यौ०—सूरत शक्ल = चेहरा मोहरा। आकृति। सूरत सीरत = आकृति या रूप और गुण। मुहा०—सूरत बिगड़ना = चेहरा बिगड़ना। चेहरें की रंगत फीकी पड़ना। सूरत बिगाड़ना = (१) चेहरा बिगाड़ना। कुरूप करना। बदसूरत बनाना। विद्रूप करना। (२) अपमानित करना। (३) दंड देना। सूरत बनाना = (१) रूप बनाना। (२) भेस बदलना। (३) मुँह बनाना। नाक भौं सिकोड़ना। अरुचि प्रकट करना। (४) चित्र बनाना। सूरत दिखाना = सामने आना। २. छवि। शोभा। सौंदर्य। उ०—साँवली सूरत तुमारी साँवले। जब हमारी आँख में है घूमती।—चोखे०, पृ० १। ३. उपाय। युक्ति। ढंग। तदबीर। ढब। उ०—(क) कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती। मौत का एक दिन मुऐयन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।—कविता कौ०, पृ० ४७२। (ख) जाड़े में उनके जीने की कौन सूरत थी।— शिवप्रसाद (शब्द०)। क्रि० प्र०—देखना। जैसे,—वह उनसे छुटकारा पाने की कोई सूरत नहीं देखता।—निकालना। जैसे—रुपया पैदा करने की कोई सूरत निकालो। ४. अवस्था। दशा। हालत। जैसे—उस सुरत में तुम क्या करोगे। उ०—आपको खयाल न गुजरे कि हमारी किसी सूरत में तह- कीर हुई।—केशवराम (शब्द०)।

सूरत (२)
संज्ञा पुं० [सं० सौराष्ट्र] बंबई प्रदेश के अंतर्गत एक नगर।

सूरत (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार जहरीला पौधा जो दक्षिण हिमा- लय, आसाम, बरमा, लंका, पेराक और जावा में होता है। इसे चोरपट्टा भी कहते हैं। विशेष दे० 'चोरपट्ट'।

सूरत (४)
संज्ञा स्त्री० [अ० सूरह्] कुरान का कोई प्रकरण।

सूरत पु (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्मृति] सुध। स्मरण। ध्यान। याद। विशेष दे० 'सुरति'। जैसे,—सब आनंद में ऐसे मग्न थे कि कृष्ण की सूरत किसी को भी न थी।—लल्लू (शब्द०)।

सूरत (६)
वि० [सं०] १. अनुकूल। मेहरबान। कृपालु। २. शांत। सीधा [को०]।

सूरता पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शूरता] दे० 'शूरता'। उ०—विश्वासी के ठगन मैं नहीं निपुनता होय। कहा सूरता तासु हनि रहयो गोद जो सोय।—दीनदयाल (शब्द०)।

सूरता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीधी गाय।

सूरताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूरता + ई (प्रत्य०)] दे० 'शूरता'। उ०—गरजन घोर जोर पवन चलत जैसो अंबर सों सोभित रहत मिलि कै अनेक। पुत्र जे धरत तिन्है तोषत हैं भली भाँति सूर सूरताई लोप करत सहित टेक।—गोपाल (शब्द०)।

सूरति पु (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सूरत] छबि। दे० 'सूरत'। उ०—(क) मूरति की सूरति कही न परै तुलसी पै, जानै सोई जाके उर कसकै करक सी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) चद भलो मुख- चंद सखी लखि सूरति काम की कान्ह की नीकी। कोमल पंकज कै पदपंकज प्राणप्रियारे की मूरति पी की।—केशव (शब्द०)।

सूरति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्मृति] सुध। स्मरण ध्यान। याद। उ०— तुलसिदास रघुवीर की सोभा सुमिरि भई है मगन नहिं तन की सूरति।—तुलसी (शब्द०)।

सूरतीखपरा
संज्ञा पुं० [हिं० सूरती (= सूरत शहर का) + सं० खर्परी] खपरिया।

सूरदास
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तर भारत के प्रसिद्ध कृष्णभक्त महाकवि और महात्मा जो अंधे थे। विशेष—ये हिंदी भाषा के दो सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। जिस प्रकार रामचरित का गान कर गोस्वामी तुलसीदास जी अमर हुए हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीला कई सहस्र पदों में गाकर सूरदास जी भी। ये अकबर के काल में वर्त्तमान थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि बादशाह अकबर ने इन्हें अपने दरबार में फतहपुर सीकरी में बुलाया, पर ये न आए। इन्होंने यह पद कहा 'मोको कहा सीकरी सों काम'। इसपर तानसेन के साथ अकबर स्वयं इनके दर्शन को मथुरा गया। इनका जन्म संवत् १५४० के लगभग ठहरता है। ये वल्लभाचार्य की शिष्यपरंपरा में थे और उनकी स्तुति इन्होंने कई पदों में की है जैसे,—'भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिनु हो हिय माँझ अँधेरो'। इनकी गणना 'अष्टछाप' अर्थात् ब्रज के आठ महाकवियों और भक्तों में थी। अष्टछाप में ये कवि गिने गए हैं—कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, चतुर्भुजदास, नंददास और सूरदास। इनमें से प्रथम चार कवि तो वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे और शेष सूरदास आदि चार कवि उनके पुत्र विट्ठलनाथ जी के। अपने अष्टछाप में होने का उल्लेख सूरदास जी स्वयं करते हैं। यथा—'थापि गोसाईं करी मेरी आठ मध्ये छाप'। विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथजी ने अपनी 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में सूरदास जी को सारस्वत ब्राह्मण लिखा है और उनके पिता का नाम 'रामदास' बताया है। सूरसारावली में एक पद में इनके वंश का जो परिचय है, उसके अनुसार ये महाकवि चंद बरदाई के वंशज थे और सात भाई थे। पर उक्त पद के असली होने में कुछ लोग संदेह करते हैं। इनका जन्मस्थान भी अनिश्चित है। कुछ लोग इनका जन्म दिल्ली के पास 'सीही' गाँव में बतलाते हैं। जनश्रुति इन्हें जन्मांध कहती है, पर ये जन्मांध न थे। ऐसी भी किंवदंती है कि किसी परस्त्री के सौंदर्य पर मोहित हो जाने पर इन्होंने नेत्रों का दोष समझ उन्हें फोड़ डाला था। भक्तमाल में लिखा है कि आठ वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत हुआ और ये एक बार अपने माता पिता के साथ मथुरा गए। वहाँ से वे घर लौटकर न आए; कहा कि यहीं कृष्ण की शरण में रहूँगा। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के अनुसार ये गऊघाट में रहते थे जो आगरा और मथुरा के बीच में है। यहीं पर ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए और इन्हीं के साथ गोकुलस्थ श्रीनाथ जी के मंदिर में बहुत काल तक रहे। इसी मंदिर में रहकर ये पद बनाया करते थे। यों तो पद बनाने का इनका नित्य नियम था; पर मंदिर के उत्सवों पर उसी लीला के संबंध में बहुत सा पद बनाकर गाया करते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये एक बार कुएँ में गिर पड़े और छह दिन तक उसी में पड़े रहे। सातवें दिन स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने हाथ पकड़कर इन्हें निकाला। निकलने पर इन्होंने यह दोहा पढ़ा—'बाँह छुड़ाए जात हौ निबल जानि कै मोहिं। हिरदै सों जब जायहौ मरद बदौंगो तोहिं।' इसमें संदेह नहीं कि ब्रजभाषा के ये सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, क्योंकि इन्होंने केवल ब्रजभाषा में ही कविता की है, अवधी में नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी का दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था और उन्होंने जीवन की नाना परिस्थितियों पर रसपूर्ण कविता की है। सूरदास में केवल शृंगार और वात्सल्य की पराकाष्ठा है। संवत् १६०७ के पूर्व इनका सूरसागर समाप्त हो गया था; क्योंकि उसके पीछे इन्होंने जो 'साहित्य लहरी' लिखी है, उसमें संवत् १६०७ दिया हुआ है।

सूरन
संज्ञा पुं० [सं० सूरण] एक प्रकार का कंद जो सब शाकों में श्रेष्ठ माना गया है। जमींकंद। ओल। शूरण। सूरन। विशेष—सूरन भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र होता है पर बंगाल में अधिक होता हा। इसके पौधे २ से ४ हाथ तक के होते हैं। पत्तों में बहुत से कटाव होते हैं। इसके दो भेद हैं। सूरन जंगली भी होता है जो खाने योग्य नहीं होता और बेतरह कटैला होता है। खेत के सूरन की तरकारी, अचार आदि बनते हैं जिन्हें लोग बड़े चाव से खाते हैं। वैद्यक में यह अग्निदीपक, रूखा, कसैला, खुजली उत्पन्न करनेवाला, चरपरा, विष्टंभकारक, विशद, रुचिकारक, लघु, प्लीहा तथा गुल्म नाशक और अर्श (बवासीर) रोग के लिये विशेष उपकारी माना गया है। दाद, खाज, रक्तविकार और कोढ़वालों के लिये इसका खाना निषिद्ध है। पर्या०—शूरण। सूरकंद। कंदल। अर्शोघ्नि, आदि।

सूरपनखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शूर्प (हिं० सूरप) + सं० नखा] दे० 'शूर्पनखा'। उ०—सूरपनषहु तहँहि चलि आई। काटि श्रवन अरु नाक भगाई।—पद्माकर (शब्द०)।

सूरपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] (सूर्य के पुत्र) सुग्रीव। उ०—सूरपुत्र तब जीवन जान्यो। बालि जोर बहु भाँति बखान्यो।—केशव (शब्द०)। २. शनि (को०)। ३. कर्ण का एक नाम (को०)।

सूरबार
संज्ञा पुं० [देशज] पायजामा। सूथन।

सूरबीर पु
संज्ञा पुं० [सं० शूरवीर] दे० 'शूरवीर'।

सूरबीरता
संज्ञा स्त्री० [सं० शूरता + वीरता] दे० 'शूरता'। उ०— तब वा समै सूरबीरता कौ आवेस रहत है।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ९६।

सूरनस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद और उसके निवासी।

सूरमा
संज्ञा पुं० [सं० शूरमानी] योद्ध। वीर। बहादुर। उ०— और बहुत उमड़े सुभट कहौं कहाँ लगि नाउँ। उतै समद के सूरमा भिरे रोप रन पाउँ।—लालकवि (शब्द०)।

सूरमापन
संज्ञा पुं० [हिं० सूरमा + पन (प्रत्य०)] वीरत्व। शूरता। बहादुरी।

सूरमुखी पु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यमुखी शीशा। उ०—बहु साँग भल्लगन मधि लसत, सूरमुखी रथ छत्रवर। मनु चले जात मुनि दंड चढ़ि उड़गन मैं ससि दिवसकर।—गोपाल (शब्द०)।

सूरमुखीमनि पु
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यमुखीमणि] सूर्यकांतमणि। उ०—मुरछल चारहु ओर अमल बहु भृत्य फिरावहिं। सूरमुखी- मनि जटित अनेकन सोभा पावहिं।—गिरिधरदास (शब्द०)।

सूरय पु
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य, प्रा० सूरिअ] दे० 'सूर्य'। उ०—(क) सूरय करि कै देखिए तव आरसी होय। सूरय सूरय सौं हसे सुंदर समझे कोय।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८१२। (ख) तीनि लोक मैं भया तमासा सूरय कियो सकल अंधेर। मूरष होई सु अर्थहि पावै सुंदर कहै शब्द मैं फेर।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५१३।

सूरवाँ पु, सूरवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० सूरमा] दे० 'सूरमा'। उ०— जन हरिया गुरु सूरवा करै शब्द की चोट। सिख सूरा तन जो लहै आनि धरै नहिं ओट।—राम० धर्म०, पृ० ५४।

सूरस
संज्ञा पुं० [देश०] परिया की लकड़ी। (जुलाहा)।

सूरसागर
संज्ञा पुं० [हिं० सूर + सागर] हिंदी के महाकवि सूरदासकृत ग्रंथ का नाम जिसमें भागवत के आधार पर श्रीकृष्णलीला अनेक राग रागिनियों में वर्णित है।

सूरसावंत, सूरसाँवत पु
संज्ञा पुं० [सं० शूर + सामन्त] १. युद्धमंत्री। २. नायक। सरदार। उ०—धनुबिजुरी चमकाय बान जल बरषि अमोलो। गरजि जलद सम जलद सूरसावँत यह बोलो।—गिरिधरदास (शब्द०)।

सूरसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनिग्रह। २. सुग्रीव।

सूरसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री यमुना। उ०—ज्योति जगै जमुना सी लगै जग लोचन लालित पाप विपोहै। सूरसुता शुभ संगम तुंग तरंग तरंग सी सोहै।—केशव (शब्द०)।

सूरसूत
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के सारथि अरुण।

सूरसेन पु
संज्ञा पुं० [सं० शूरसेन] दे० 'शूरसेन'।

सूरसेनपुर पु
संज्ञा पुं० [सं० शूरसेन + पुर] मथुरा। उ०—चित्रसेन नृप चल्यो सेन सहसेन पुर। झपटि चलै जिमि सेन लेन जै देन चेन उर।—गोपाल (शब्द०)।

सूरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सुंडी] एक प्रकार का कीड़ा जो अनाज के गोले में पाया जाता है। यह किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाता। अनाज के व्यापारी इसे शुभ समझते हैं।

सूरा (२)
संज्ञा पुं० [अ० सूरह्] कुरान का कोई एक प्रकरण।

सूराख
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूराख़] १. छेद। २. छिद्र। २. शाला। खाना। घर। (लश०)।

सूरातन पु
संज्ञा पुं० [सं० शूरत्व, प्रा० सूरत्तण] वीरता। उ०— (क) सुंदर सूरातन बिना बात कहै मुख कोरि। सूरातन जब जाणिए जाइ देत दल मोरि।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३९। (ख) सूरातन सूराँ चढ़े, सत सतिया सम दोष।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३।

सूरिंजान
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूरिन्जान] दे० 'सूरंजान'।

सूरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करानेवाला। ऋत्विज्। २. पंडित। विद्वान्। आचार्य। (विशेषकर जैनाचार्यों के नामें के पीछे यह शब्द उपाधिस्वरूप प्रयुक्त होता है)। ३. बृहस्पति का एक नाम। ४. कृष्ण का नाम। ५. यादव। ६. अर्चना, पूजन करनेवाला व्यक्ति। ७. सूर्य।

सूरिवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं० सूरमा] दे० 'सूरमाँ'। उ०—समतगुरु साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्मा एक। लागत ही में मिलि गया, पड़्या कलेजै धेक।—कबीर ग्रं०, पृ० १।

सूरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूरिन्] [स्त्री० सूरिणी] १. विद्वान्। पंडित्। आचार्य।

सूरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदुषी। पंडिता। २. सूर्य की पत्नी। ३. कुंती। ४. राई। राजसर्षप।

सूरी पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूली] दे० 'सूली'। उ०—नृप कह देहु चोर कहँ सूरी। संतवेष यह चोर कसूरी। तुरत दूत पुर बाहिर लाई। सूरी महँ दिय मुनिहिं चढ़ाई।—रघुराज (शब्द०)।

सूरी पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० शूल] भाला। उ०—पटक्यो कंस ताहि गति रूरी। धेनुक भिरयौ तबै गहि सूरी।—गोपाल (शब्द०)।

सूरुज पु †
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य] दे० 'सूर्य'।

सूरुवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं० सूरमा] दे० 'सूरमा'। उ०—जीवहिं का संसा पड़ा को काको तारहिं। दादू सोई सूरुवाँ जो आप उबारहिं।—दादू० (शब्द०)।

सूरेठ
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस की हाथ की एक लकड़ी जिससे बहेलिए चोंगे में से लासा निकालते हैं।

सूर्क्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अनादर।

सूर्क्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द। माष।

सूर्क्ष्यण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूर्क्षण' [को०]।

सूर्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० सूर्य, प्रा० सूर, सूरिअ, सुज्ज] दे० 'सूर्य'। उ०—चाँद सूर्ज तारागन नाहीं, मच्छ कच्छ औतारा।— कबीर श०, भा० ३, पृ० ३।

सूर्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शूर्प'। सूप [को०]।

सूर्पनखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शूर्पणखा] दे० 'शूर्पणखा'।

सूर्मि, सूर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लोहे की बनी स्त्री की प्रतिमूर्ति। विशेष—मनु ने लिखा है कि गुरुपत्नी से व्यभिचार करनेवाला अपने पाप को कहकर तपी हुई लोहे की शय्या पर शयन करे अथवा तपी हुई लोहे की स्त्री की प्रतिमूर्ति का आलिंगन करे। इस प्रकार मरने से उसका पाप नष्ट होता है—'सूर्मी ज्वलन्तीं वाश्लिष्येन्मृत्युना स विशुद्धयति'। २. पानी का नल। ३. गुह का स्तंभ (को०)। ४. कांति। प्रकाश (को०)। ५. ज्वाला (को०)।

सूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सूर्या, सूर्याणी] १. अंतरिक्ष में पृथ्वी, मंगल, शनि आदि ग्रहों के बीच सबसे बड़ा ज्वलंत पिंड जिसकी सब ग्रह परिक्रमा करते हैं। वह बड़ा गोला जिससे पृथ्वी आदि ग्रहों को गरमी और रोशनी मिलती है। सूरज। आफताब। विशेष—सूर्य पृथ्वी से चार करोड़ पैसठ लाख मील दूर है। उसका व्यास पृथ्वी के व्यास से १०८ गुना अर्थात् ४,३३,००० कोस है। घनफल के हिसाब से देखें तो जितना स्थान सूर्य घेरे हुए है, उतने में पृथ्वी के ऐसे ऐसे १२,५०,००० पिंड आएँगे। सारांश यह कि सूर्य पृथ्वी से बहुत ही बड़ा है। परंतु सूर्य जितना बड़ा है, उसका गुरुत्व उतना नहीं है। उसका सापेक्ष गुरुत्व पृथ्वी का चौथाई है। अर्थात् यदि हम एक टुकड़ा पृथ्वी का और उतना ही बड़ा टुकड़ा सूर्य का लें तो पृथ्वी का टुकड़ा तौल में सूर्य के टुकड़े का चौगुना होगा। कारण यह है कि सूर्य पूथ्वी के समान ठोस नहीं है। वह तरल ज्वलंत द्रव्य के रूप में है। सूर्य के तल पर कितनी गरमी है, इसका जल्दी अनुमान ही नहीं हो सकता। वह २०,००० डिग्री तक अनुमान की गई है। इसीताप के अनुसार उसके अपरिमित प्रकाश का भी अनुमान करना चाहिए। प्रायः हम लोगों को सूर्य का तल बिलकुल स्वच्छ और निष्कलंक दिखाई पड़ता है, पर उसमें भी बहुत से काले धब्बे हैं। इनमें विचित्रता यह है कि एक निश्चित नियम के अनुसार ये घटते बढ़ते रहते हैं, अर्थात् कभी इनकी संख्या कम हो जाती है, कभी अधिक। जिस वर्ष इनकी संख्या अधिक होती है, उस वर्ष में पृथ्वी पर चुंबक शक्ति का क्षोभ बहुत बढ़ जाता है और विद्युत् की शक्ति के अनेक कांड दिखाई पड़ते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन लांछनों का वर्षा से भी संबंध है। जिस सालये अधिक होते हैं, उस साल वर्षा भी अधिक होती है। भारतीय ग्रंथों में सूर्य की गणना नव ग्रहों में है। आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार सूर्य ही मुख्य पिंड है जिसके पृथ्वी, शनि, मंगल आदि ग्रह अनुचर हैं और उसकी निरंतर परिक्रमा किया करते हैं। विशेष दे० 'खगोल'। सूर्य की उपासना प्रायः सब सभ्य प्राचीन जातियों में प्रचलित है। आर्यों के अतिरिक्त असीरिया के असुर भी 'शम्श' (सूर्य) की पूजा करते थे। अमेरिका के मेक्सिको प्रदेश में बसनेवाली प्राचीन सभ्य जनता के भी बहुत से सूर्यमंदिर थे। प्राचीन आर्य जातियों के तो सूर्य प्रधान देवता थे। भारतीय और पारसीक दोनों शाखाओं के आर्यों के बीच सूर्य को मुख्य स्थान प्राप्त था। वेदों में पहले प्रधान देवता सुर्य, अग्नि और इंद्र थे। सूर्य आकाश के देवता थे। इनका रथ सात घोड़ों का कहा गया है। आगे चलकर सूर्य और सविता एक माने गए और सूर्य की गणना द्वादश आदित्यों में हूई। ये आदित्य वर्ष के १२ महीनों के अनुसार सूर्य के ही रूप थे। इसी काल में सूर्य के सारथि अरुण (सूर्योदय की ललाई) कहे गए जो लँगड़े माने गए हैं। सूर्य का ही नाम विवस्वत् या विवस्वान भी था जिनकी कई पत्नियाँ कही गई हैं, जिनमें संज्ञा प्रसिद्ध है। पर्या०—भास्कर। भानु। प्रभाकर। दिनकर। दिनपति। मार्तंड। रवि। तरणि। सहस्रांशु। तिग्मदीधिति। मरीचिमाली। चंडकर। आदित्य। सविता। सूर। विवस्वान। दिवाकर। २. बारह की संख्या। ३. अर्क। आक। मंदार। ४. बलि के एक पुत्र का नाम। ५. शिव का एक नाम (को०)।

सूर्यक
वि० [सं०] सूर्य के समान। सूर्य जैसा [को०]।

सूर्यकमल
संज्ञा पुं० [सं०] सूरजमुखी फूल।

सूर्यकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरण।

सूर्यकरोज्ज्वल
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरणों से दीप्त।

सूर्यकांत
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यकान्त] १. एक प्रकार का स्फटिक या बिल्लौर, सूर्य के सामने रखने से जिसमें से आँच निकलती है। पर्या०—सूर्यमणि। तपनमणि। रविकांत। सूर्याश्मा। ज्वलनाश्मा दहनोपम। दीप्तोपल। तापन। अर्कोपल। अग्निगर्भ। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह उष्ण, निर्मल, रसायन, वात और श्लेष्मा को हरनेवाला और बुद्धि बढ़ानेवाला है। २. सूरजमुखी शीशा। आतशी शीशा। विशेष—यह विशेष बनावट का मोटे पेटे का गोल शीशा होता है जो सूर्य की किरनों को एक केंद्र पर एकत्र करता है, जिससे ताप उत्पन्न हो जाता है। इसके भीतर से देखने पर वस्तुएँ बड़े आकार की दिखाई पड़ती हैं। ३. एक प्रकार का फूल। आदित्यपर्णी। ४. मार्कंडेयपुराण के अनुसार एक पर्वत का नाम।

सूर्यकांति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सूर्यकान्ति] १. सूर्य की दीप्ति या प्रकाश। २. एक प्रकार का पुष्प। ३. तिल का फूल।

सूर्यकांति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सूर्यकान्ति] सूर्य कांत मणि। विशेष दे० 'सूर्यकांत'। उ०—चंद्रकांति अमृत उपजावै। सूर्यकांति में अग्नि प्रजावै।—रत्नपरीक्षा (शब्द०)।

सूर्यकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन का समय। २. फलित ज्योतिष में शुभाशुभ निर्णय के लिये एक चक्र।

सूर्यकालानलचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ज्योतिषचक्र जिससे मनुष्य का शुभाशुभ जाना जाता है।

सूर्यक्रांत
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यक्रान्त] १. संगीत में एक प्रकार का ताल। २. एक प्राचीन जनपद।

सूर्यक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यमंडल।

सूर्यगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बोधिसत्व का नाम। २. एक बौद्ध सूत्र का नाम।

सूर्यग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. नव ग्रहों में से प्रथम ग्रह—सूर्य। २. सूर्य- ग्रहण। ३. राहु और केतु। ४. जलपात्र या घड़े का पेंदा।

सूर्यग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का ग्रहण। विशेष दे० 'ग्रहण'।

सूर्यचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यचक्षुस्] रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम।

सूर्यज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि ग्रह। २. यम। ३. सावर्णि मनु। ४. रेवंत। ५. सुग्रीव। ६. कर्ण।

सूर्यजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना नदी।

सूर्यतनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि। २. सावर्णि मनु। ३. रेवंत। ४. सुग्रीव। ५. यम। ६. कर्ण।

सूर्यतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना।

सूर्यतपा
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यतपस्] एक मुनि का नाम।

सूर्यतापिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

सूर्यतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम। (महाभारत)।

सूर्यतेज
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का प्रकाश। धूप। घाम [को०]।

सूर्यदास
संज्ञा पुं० [सं०] १. संस्कृत के एक प्राचीन कवि का नाम। २. हिंदी के प्रसिद्ध कवि सूरदास।

सूर्यदृक्
वि० [सं० सूर्यदृश्] सूर्य की ओर देखनेवाला।

सूर्यदेव
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् सूर्य।

सूर्यदेवत
वि० [सं०] जिसके उपास्य सूर्य हों। जिसके देवता सूर्य हों [को०]।

सूर्यद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का मार्ग। उत्तरायण [को०]।

सूर्यध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम। यौ०—सूर्यध्वजपताकी = शिव।

सूर्यनंदन, सूर्यनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यनन्दन] १. शनि। २. कर्ण। दे० 'सूर्यज'।

सूर्यनगर
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन नगर का नाम।

सूर्यनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम। (हरिवंश)।

सूर्यनारायण
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य देवता।

सूर्यनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।

सूर्यपक्व
वि० [सं०] सूर्यातिप द्वारा पकाया हुआ [को०]।

सूर्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य देवता।

सूर्यपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संज्ञा। २. छाया।

सूर्यपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. इसरमूल। अर्कपत्री। २. हुरहुर। आदित्य- भक्ता। ३. मदार का पौधा।

सूर्यपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इसरमूल। अर्कपत्री। २. मखवन। बन उड़दी। माषपर्णी।

सूर्यपर्व
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यपर्वन्] वह काल जिसमें सूर्य किसी नई राशि में प्रवेश करता है।

सूर्यपाद
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरण।

सूर्यपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि। २. यम। ३. वरुण। ४. अश्विनी- कुमार। ५. सुग्रीव। ६. कर्ण।

सूर्यपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यमुना। २. विद्युत्। ३. बिजली। (क्व०)।

सूर्यपुर
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन नगर का नाम।

सूर्यपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक छोटा ग्रंथ जिसमें सूर्यमाहात्म्य वर्णित है।

सूर्यप्रदीप
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध धर्मानुसार एक प्रकार का ध्यान या समाधि।

सूर्यप्रभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के समान दीप्तिमान्।

सूर्यप्रभ (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार की समाधी। २. श्रीकृष्ण की पत्नी लक्ष्मण के प्रासाद या भवन का नाम। ३. एक बोधिसत्व का नाम। ४. एक नाग का नाम।

सूर्यप्रभव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य से उत्पन्न।

सूर्यप्रभव (२)
संज्ञा पुं० १. शनि। २. कर्ण।

सूर्यप्रशिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] जनक का एक नाम।

सूर्यफाणिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ज्योतिश्चक्र जिससे कोई कार्य आरंभ करते समय उसका शुभाशुभ फल निकालते हैं।

सूर्यबिंब
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यबिम्ब] सूर्य का मंडल।

सूर्यभ
वि० [सं०] सूर्य की तरह ज्योतियुक्त [को०]।

सूर्यभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुपहरिया। बंधूक-पुष्प-वृक्ष। २. सूर्य का उपासक व्यक्ति।

सूर्यभक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का उपासना करनेवाला व्यक्ति। २. दुपहरिया। बंधूक।

सूर्यभक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुरहुर। आदित्य भक्ता।

सूर्यभा
वि० [सं०] सूर्य के समान दीप्तिमान्।

सूर्यभागा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।

सूर्यभानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक यक्ष का नाम। २. एक राजा का नाम।

सूर्यभ्राता
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यभ्रातृ] ऐरावत हाथी का नाम।

सूर्यमंडल
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यमण्डल] १. सूर्य का घेरा। पर्या०—परिधि। परिवेश। मंडल। उपसूर्यक।

२. रामायण के अनुसार एक गंधर्व का नाम।

सूर्यमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यकांत मणि। २. एक प्रकार का पुष्पवृक्ष।

सूर्यमाल
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की माला धारण करनेवाले अर्थात् शिव। महादेव।

सूर्यमास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सौरमास'।

सूर्यमुखी
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यमुखिन्] दे० 'सूरजमुखी'। उ०—वह सूर्यमुखी प्रसन्न थी।—साकेत पृ० ३४८।

सूर्ययंत्र
संज्ञा पुं० [सं० सूर्ययन्त्र] १. सूर्य की उपासना में सूर्यस्थानीय प्रतिमा या चक्र। २. सूर्यवेध की प्रक्रिया में व्यवहृत एक प्रकार का यंत्र (को०)।

सूर्यरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरन। रविकिरण। २. सविता का एक नाम।

सूर्यरुच
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की प्रभा या दीप्ति [को०]।

सूर्यर्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह नक्षत्र जिसमें सूर्य की स्थिति हो।

सूर्यलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुरहुर। हुलहुल। आदित्यभक्ता लता।

सूर्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का लोक। विशेष—कहते हैं, युद्ध में मरनेवाले और काशीखंड के अनुसार सूर्य के भक्त भी इसी लोक को प्राप्त होते हैं।

सूर्यलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक गंधर्वी का नाम।

सूर्यवंश
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रियों के दो आदि और प्रधान कुलों में से एक जिसका आरंभ इक्ष्वाकु से माना जाता है। विशेष—पुराणानुसार परमेश्वर के पुत्र ब्रह्मा, ब्रह्मा के मरीचि, मरीचि के कश्यप, कश्यप के सूर्य, सूर्य के वैवस्वत मनु और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु थे। इक्ष्वाकु का नाम वैदिक ग्रंथों में भी आया है। ये इक्ष्वाकु त्रेता युग में अयोध्या के राजा थे। त्रेता और द्वापर की संधि में इसी वंश में दशरथ के यहाँ श्रीरामचंद्र जी ने जन्म लिया था। द्वापर के प्रारंभ में श्रीरामचंद्र के पुत्र कुश हुए। कुश के वंश ने सुमित्र तक द्वापर में एक हजार वर्ष राज्य किया। इसके बाद इस वंश की विश्रांति हुई।

सूर्यवंशी
वि० [सं० सूर्यवंशिन्] सूर्यवंश का। जो क्षत्रियों के सूर्यवंश में उत्पन्न हुआ हो।

सूयवंश्य
वि० [सं०] सूर्यवंश में उत्पन्न।

सूर्यवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ओषधि।

सूर्यवर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ओषधि।

सूर्यवर्चस् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवगंधर्व का नाम। २. एक ऋषि का नाम।

सूर्यवर्चस् (२)
वि० सूर्य के समान दीप्तिमान्।

सूर्यवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यवर्मन्] महाभारत में वर्णित त्रिगर्त के एक राजा का नाम।

सूर्यवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हुरहुर। आदित्यभक्ता। २. कम- लिनी। पदि्मनी।

सूर्यवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दधियार। अंधाहुली। अर्कपुष्पी। २. क्षीर काकोली।

सूर्यवान
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यवत्] रामायण के अनुसार एक पर्वत का नाम।

सूर्यवार
संज्ञा सं० [सं०] रविवार। आदित्यवार।

सूर्यविकासी
वि० [सं० सूर्यविकासिन्] सूर्योदय होने पर विकसित या प्रसन्न होनेवाला [को०]।

सूर्यविघ्न
संज्ञा पुं० [पुं०] विष्णु।

सूर्यविलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] एक मांगलिक कृत्य जिसमें बच्चे को सूर्य का दर्शन कराया जाता है। यह बच्चे के चार महीने के होने पर किया जाता है।

सूर्यवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक। मदार। अर्कवृक्ष। २. दधियार। अंधाहुली। अर्कपुष्पी।

सूर्यवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० सुर्यवेश्मन्] सूर्यमंडल।

सूर्यव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक व्रत जो सूर्य भगवान् के प्रीत्यर्थ रविवार को किया जाता है। २. ज्योतिष में एक चक्र।

सूर्यशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण में वर्णित एक राक्षस का नाम।

सूर्यशिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. याज्ञवल्क्य का एक नाम। २. जनक का एक नाम।

सूर्यशिष्यांतेवासी
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यशिष्यान्तेवासिन्] दे० 'सूर्य- प्रशिष्य'।

सूर्यशोभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्य का प्रकाश। धूप। २. एक प्रकार का फूल।

सूर्यश्री
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वेदेवा में से एक।

सूर्यसंक्रम
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यसङ्क्रम] दे० 'सूर्यसंक्रमण' [को०]।

सूर्यसंक्रमण
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यसङ्क्रमण] सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश। सूर्य की संक्रांति। विशेष दे० 'संक्रांति'।

सूर्यसंक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० सूर्यसङ्क्रान्ति] सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश। विशेष दे० 'संक्रांति'।

सूर्ययंज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. आक। अर्क वृक्ष। ३. केसर। कुंकुम। ४. ताँबा। ताम्र। ४. एक प्रकार का मानिक या चुन्नी।

सूर्यसदृश
संज्ञा पुं० [सं०] लीलावज्र का एक नाम। (बौद्ध)।

सूर्यसाम
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यसामन्] एक साम का नाम।

सूर्यसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का सारथि-अरुण।

सूर्यसावर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेय पुराण के अनुसार आठवें मनु का नाम। विशेष—ये सूर्य के औरस हैं और सूर्य की पत्नी संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न माने जाते हैं।

सूर्यसावित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वेदेवा में से एक। २. एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम। विशेष—इसके तत्व का उपदेश पहले पहल सूर्य से प्राप्त कहा गया है।

सूर्यसिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यसिद्धान्त] गणित ज्यौतिष का भास्कराचार्य द्वार विरचित एक ग्रंथ [को०]।

सूर्यसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि। २. कर्ण। ३. सुग्रीव। ४. यम।

सूर्यसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेद के एक सूक्त का नाम जिसमें सूर्य की स्तुति की गई है।

सूर्यसूत
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का सारथि, अरुण।

सूर्यस्तुत
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।

सूर्यस्तुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य का स्तवन। सूर्य की प्रार्थना [को०]।

सूर्यस्तोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सूर्यस्तुति'।

सुर्यहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का एक स्तोत्र [को०]।

सूर्यांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरण।

सूर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्य की पत्नी संज्ञा। विशेष—कई मंत्रों में यह सूर्य की कन्या भी कही गई हैं। कहीं ये सविता या प्रजापति की कन्या और अश्विनी की स्त्री कही गई हैं और कहीं सोम की पत्नी। एक मंत्र में इनका नाम ऊर्जानी आया हैं और ये पूषा की भगिनी कही गई हैं। सूर्या सावित्री ऋग्वेद के सूर्यसूक्त की द्रष्टा मानी जाती हैं। २. नवोढ़ा। नवविवाहिता स्त्री। ३. इंद्रवारुणी। ४. सूर्य के विवाह से संबद्ध सूक्त या ऋचाएँ (को०)।

सूर्याकर
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण में वर्णित एक जनपद का नाम।

सूर्याक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. महाभारत में एक राजा का नाम। ३. रामायण में वर्णित एक बंदर का नाम।

सूर्याक्ष (२)
वि० १. सूर्य के समान आँखोंवाला। २. जिसकी आँख सूर्य हो (को०)।

सूर्याणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी—संज्ञा।

सूर्यातप
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की गरमी। धूप। घाम। उ०—विद्रुम औ, मरकत की छाया, सोने चाँदी का सूर्यातप।—युगांत, पृ० ८९।

सूर्यात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि। २. कर्ण। ३. सु्ग्रीव। ४. यम (को०)।

सूर्याद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेय पुराण में आगत एक पर्वत का नाम।

सूर्यापाय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यास्त।

सूर्यापीड़
संज्ञा पुं० [सं० सूर्यापीड] परीक्षित के एक पुत्र का नाम।

सूर्यायाम
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यास्त का समय।

सूर्यार्घ्य
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य को दिया जानेवाला अर्घ्य [को०]।

सूर्यालोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का प्रकाश। २. गरमी। आतप।

सूर्यावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. हुलहुल का पौधा। हुरहुर। आदित्य- भक्ता। २. सूवर्चला। ब्रह्मसौचली। ३. गजपिप्पली। गजपीपल। ४. एक प्रकार की शिर की पीड़ा। आधासीसी। विशेष—यह रोग वातज कहा गया है। इसमें सूर्योदय के साथ ही मस्तक में दोनों भँवों के बीच पीड़ा आरंभ होती है और सूर्य की गरमी बढ़ने के साथ साथ बढ़ती जाती है। सूरज ढलने के साथ ही पीड़ा घटने लगती है और शांत हो जाती है।५. बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का ध्यान या समाधि। ६. एक प्रकार का जलपात्र।

सूर्यावर्तरस
संज्ञा पुं० [सं०] श्वास रोग की एक रसौषध जो पारे, गंधक और ताँबे के संयोग से बनती है।

सूर्यावर्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सूर्यावर्त' [को०]।

सूर्याश्म
संज्ञा पुं० [सं० सूर्याश्मन्] सूर्यकांत मणि।

सूर्याश्व
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का घोड़ा। वाताट हरित।

सूर्यास्त
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का डूबना। सूर्य के छिपने का समय। सायंकाल। क्रि० प्र०—होना।

सूर्याह्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताँबा। ताम्र। २. आक। मदार। अर्क- वृक्ष। ३. महेंद्रवारुणी। बड़ी इंद्रायन। ४. वह जो सूर्यसंज्ञक हो (को०)।

सूर्येंदुसंगम
संज्ञा [सं० सूर्य + इन्दु + सङ्गम] सूर्य और चंद्रमा का संगम या मिलन, अर्थात् दोनों की एक राशि में स्थिति। अमावस्या।

सूर्योज्ज्वल
वि० [सं०] सूर्य की तरह ज्योतित। उ०—भूत शिखर के चरम चूड़ सा, शत सूर्योज्ज्वल।—युगपथ, पृ० ११८।

सूर्योढ (१)
वि० [सं०] सूर्य द्वारा लाया हुआ। सूर्यास्त के समय आया हुआ।

सूर्योढ (२)
संज्ञा सं० १. सूर्यास्त का समय। २. वह अतिथि जो सूर्यास्त होने पर अर्थात् संध्या समय आता है।

सूर्योत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्योदय। सूर्य का चढ़ना।

सूर्योदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का उदय या निकलना। सूर्य के निकलने का समय। प्रातःकाल। क्रि० प्र०—होना।

सूर्योदया गिरि
संज्ञा पुं० [सं०] वह कल्पित पर्वत जिसके पीछे से सूर्य क उदित होना माना जाता है। उदयाचल।

सूर्योद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यवन नामक तीर्थ।

सूर्योपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

सूर्योपस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की एक प्रकार की उपासना। विशेष—प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल को संध्या करते समय सूर्याभिमुख हो एक पैर से खड़े होकर सूर्य की उपासना करने का विधान है।

सूर्योपासक
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की उपासना करनेवाला। सूर्यपूजक। सौर।

सूर्योपासना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की आराधना या पूजा।

सूल
संज्ञा पुं० [सं० शूल, प्रा० सूल] १. बरछा। भाला। साँग। उ०—(क) वर्म चर्म कर कृपान सूल सैल धनुषबान, धरनि दलनि दानव दल रन करालिका—तुलसी। ग्रं०, पृ० ४६२। (ख) लिए सूल सेल पास परिघ प्रचंड दंड भाजन सनीर धीर धरे धनुबान हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७१। २. कोई चुभनेवाली नुकीली चीज। काँटा। उ०—(क) सर सों समीर लाग्यो सूल सों सहेली सब विष सों बिनोद लाग्यो बन सों निवास री।— मतिराम (शब्द०)। (ख) ऐती नचाइ कै नाच वा राँड को लाल रिझावन को फल येती। सेती सदा रसखानि लिए कुबरी के करेजनि सूल सी भेती।—रसखान (शब्द०)। क्रि० प्र०—चुभना।—लगना। ३. भाला चुभने की सी पीड़ा। कसक। उ०—बसिहौं बन लखिहौं मुनिन भखिहौं फल दल मूल। भरत राज करिहैं अवधि मोहि न कछु अब सूल।—पद्माकर (शब्द०)। ४. दर्द। पीड़ा। जैसे—पेट में सूल। क्रि० प्र०—उठना।—मिटना। विशेष—इस शब्द का स्त्रीलिंग प्रयोग भी सूर आदि कवियों में मिलता है। जैसे—मेरे मन इतनी सूल रही।—सूर (शब्द०)। ५. माला का ऊपरी भाग। माला के ऊपर का फुलरा। उ०— मनि फूल रचित मखतूल की झूल न जाके तूल कोउ। सजि सोहे उघारि दुकुल वर सूल सबै अरि शूल सोउ।—गोपाल (शब्द०)।

सूलधर
संज्ञा पुं० [सं० शूलधर] दे० 'शूलधर'।

सूलधारी
संज्ञा पुं० [हिं० सूल + सं० धारिन्] दे० 'शूलधर'।

सूलना (१)
क्रि० स० [हिं० सूल + ना (प्रत्य०)] भाले से छेदना। २. पीड़ित करना।

सूलना (२)
क्रि० अ० भाले से छिदना। चुभना। २. पीड़ित होना। व्यथित होना। दुखना। उ०—फूलि उठ्यो बृंदावन, भूलि उठे खग मृग, सूलि उठ्यो उर, बिरहागि बगराई है।—देव (शब्द०)।

सूलपानि पु
संज्ञा पुं० [सं० शूलपाणि] दे० 'शूलपाणि'।

सूली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शूल] १. प्राणादंड देने की एक प्राचीन प्रथा जिसमें दंडित मनुष्य एक नुकीले लोहे के डंडे पर बैठा दिया जाता था और उसके ऊपर मुँगरा मारा जाता था। २. फाँसी। क्रि० प्र०—चढ़ना।—चढ़ाना।—देना।—पाना।—मिलना। ३. एक प्रकार का नरम लोहा जिसकी छड़ें बनती हैं।— (लुहार)।

सूली (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण दिशा। (लश०)।

सूली पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शूलिन्] महादेव। शिव। उ०—चंदन की वर चौकी पै बैठि जु न्हाई जुन्हाई सी जोति समूली। अंबर के धर अंबर पूजि वरंवर देव दिगंबर सूली।—देव (शब्द०)।

सूवना पु (१)
क्रि० अ० [सं० स्रवण] बहना। प्रवाहित होना। उ०— कहा करौं अति सूवै नयना उमगि चलत पग पानी। सूर सुमेर समाइ कहाँ धौ बुधिवासना पुरानी।—सूर (शब्द०)।

सूवना (२)
संज्ञा पुं० [सं० शुक] दे० सूआ। उ०—सेमर केरा सूवना सिहुले बैठा जाय। चोंच चहोरे सिर धुनै यह वाही को भाव।—कबीर (शब्द०)।

सूवर †
संज्ञा पुं० [सं० शूकर] दे० 'सूअर'।

सूवा (१)
संज्ञा पुं० [१] फारसी संगीत के अनुसार २४ शोभाओं में से एक।

सूवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० सुक, प्रा० सुअ, सुव] १. तोता। सुग्गा। सूआ। उ०—(क) सूवर, एक संदेसड़उ, वार सरेसी तुभझ।—ढोला०, दू० ३९८। (ख) सारो सूवा कोकिल बोलत बचन रसाल। सुंदर सबकौं कान दे बृद्ध तरुन अरु बाल।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३६। २. शुक की तरह हरा रंग। (लश०)। उ०—सूवा पाग केसरिया जामा जापर गजब किनारी।—नट०, पृ० १२३।

सूलूल
संज्ञा पुं० [अ०] स्तनाग्र। चूचुक। कुचाग्र [को०]।

सूस (१)
संज्ञा पुं० [अ०; मि० सं० शिंशुमार] मगर की तरह का एक बड़ा जलजंतु जो गंगा में बहुत होता है। सूइँस। उ०—सिर बिनु कवच सहित उतराहीं। जहँ तहँ सुभट ग्राह जनु जाही। बिनु सिर ते न जात पहिचाने। मनहुँ सूस जल में उतराने।—सबल (शब्द०)। विशेष—इसका रंग काला होता है और यह प्रायः जल के ऊपर आया करता है, पर किनारे पर नहीं आता। यह घड़ियाल या मगर के समान जल के बाहर के जंतु नहीं पकड़ता।

सूस (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. रेशम के कपड़ों में लगनेवाला कीट। २. मुलेठी का पेड़ [को०]।

सूसतौ पु
वि० [सं० स्वस्थ, प्रा० सुस्थ] दे० 'स्वस्थ (३)'। उ०— सूसतौ जी में वीरा जोगिया। पदमणि आगलि घालइ छइ वाई।—वी० रासो, पृ० ९३१।

सूसमार
संज्ञा पुं० [सं० शिंशुमार] सूस।

सूसला
संज्ञा पुं० [सं० शश] खरगोश।

सूसि पु
संज्ञा पुं० [अ० सूस] दे० 'सूस'। उ०—फिरत चक्र आवर्त्तं अनेका। उदरहिं शीश सूसि ढिग एका।—रघुनाथदास (शब्द०)। २. जलीय जंतु। मगर। नक्र। उ०—बीच मिला दरियाव अंध को ठाढ़ कराई। लेन गया वह थाह सूसि लैगा घिसियाई।—पलटू० बानी, पृ० ८८।

सूसी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धारीदार या चारखानेदार कपड़ा।

सूहटा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० सुअटा, सुवटा, सूवटा] उ०—मुक्तिकरी नानक गुरू, रंचक रामानंद। ना पिंजर ना सूहटा, ना बाणी ना बंद।—प्राण०, पृ० १९९।

सूहर †
संज्ञा पुं० [सं० शूकर, प्रा० सूअर (= सूहर)] शूकर। वराह। उ०—यह उल्लेख है कि उन्होंने सूहर, हिरन, बकरे तथा निविद्ध मोर का मांस खाया था।—प्रा० भा० प०, पृ० १९८।

सूहा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सोहना] १. एक प्रकार का लाल रंग। २. संपूर्ण जाति का एक संकर राग। विशेष—किसी के मत से यह विभास और मालश्री के मेल से और किसी किसी के मत से विभास और वागीश्वरी के मेल से बना है। इसमें गांधार, धैवत और निषाद तीनों कोमल लगते हैं। इसके गाने का समय ६ दंड से १० दंड तक है। हनुमत् के मत से यह दीपक राग का और अन्य मतों से हिंडोल या भैरव राग का पुत्र है। कुछ लोगों ने इसे रागिनी कहा है और भैरव की पुत्रवधू बताया है।

सूहा (२)
वि० [वि० स्त्री० सूही] विशेष प्रकार के लाल रंग का। लाल। उ०—(क) सूहा चोला पहिर अमोला पिया घट पिया को रिझाओ रे।—कबीर श०, भा० १, पृ० ७१। (ख) सजि सूहें दुकूल सबै सुख साधा।—पद्माकर (शब्द०)।

सूहाकान्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० सूहा + कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमें सब स्वर शुद्ध लगते हैं।

सूहाटोड़ी
संज्ञा पुं० [हिं० सूहा + टोड़ी] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।

सूहाबिलावल
संज्ञा पुं० [हिं० सुहा + बिलावल] संपूर्ण जाति का एक संकर राग।

सूहाश्याम
संज्ञा पुं० [सं० सूहा + श्याम] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

सूही
वि० स्त्री० [हिं० सूहा] दे० 'सूहा'। उ०—गावत चढ़ी हैं हिंडोरे सूही सारी सोहै।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५।

सृंका
संज्ञा स्त्री० [सं० सृङ्का] १. दीप्त या प्रकाशयुक्तरत्नों की माला। २. पथ। राह। रास्ता [को०]।

सृंखला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला] दे० 'शृंखला'। उ०—तुलसिदास प्रभु मोह सृंखला छुटहि तुम्हारे छोरे।—तुलसी (शब्द०)।

सृंग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्ग] दे० 'शृंग'।

सृंगवेर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेर]दे० 'शृंगवेर' [को०]।

सृंगवेरपुर पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेरपुर]दे० 'शृंगवेरपुर'। उ०— सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगवेरपुर पहुँचे आई।— तुलसी (शब्द०)।

सृंगार पु
संज्ञा पुं० [सं० शृंङ्गार] दे० 'शृंगार'। उ०—महा सुघट्ट पट्टियं। सृंगार भूमि फट्टियं।—ह० रासो, पृ० १३३।

सृंगी पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिन्]दे० 'शृंगी'।

सृजय
संज्ञा पुं० [सं० सृञ्जय] १. ऋग्वेद में देवरात के एक पुत्र का नाम। २. मनु के एक पुत्र का नाम। ३. पुराणोक्त एक वंश जिसमें धृष्टद्युम्न हुए थे और जिस वंश के लोग महाभारत युद्ध में पांडवों की ओर से लड़े थे। ४. ययातिवंश के कालनर के एक पुत्र का नाम।

सृंजंयी
संज्ञा स्त्री० [सं० सृञ्जयी] हरिवंश में वर्णित यजमान की दो पत्नियों का नाम।

सृंजंरी
संज्ञा स्त्री० [सं० सृञ्जरी]दे० 'सृंजयी'।

सृकंडु, सृकंडू
संज्ञा स्त्री० [सं० सृकण्डु, सृकण्डू] खाज। खुजली। कंडु।

सृक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूल। भाला। २. वाण। तीर। ३. वायु। हवा। ४. कैरव। कमल का फूल। ५. वज्र [को०]।

सृक पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रज्, स्त्रक्] माला। उ०—दरसन हू नासै जम सैनिक जिमि नह बालक सेनी। सूर परस्पर करत कुलाहल, गर सृक पहरावैनी।—सूर (शब्द०)।

सृकाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्रृगाल'। उ०—तुलसिदास हरिनाम सुधा तजि सठ हठि पियत विषम विष मागी। सूकर स्वान सृकाल सरिस जन जनमत जगत जननि दुख लागी।—तुलसी (शब्द०)।

सृक्क, सृक्कन्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सृक्व'।

सृक्कणी, सृक्किणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सृक्व'।

सृक्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक।

सृक्की
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक।

सृक्व सृक्वन्
संज्ञा पुं० [सं०] ओठों का छोर। मुँह का कोना।

सृक्वणी, सृक्विणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सृक्व'।

सृक्की सृक्वी
संज्ञा पुं० [सं० सृक्किन्, सृक्विन्] दे० 'सृक्क' [को०]।

सृग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बरछा। भाला। भिंदिपाल। २. तीर। वाण। शर।

सृग पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्रक्, स्रज्] माला। गजरा। हार। उ०— खेलत टूटि गए मुकता सृग मकुतबृंद छहराने। मनु अपार सुख लेन तारकन द्रार द्वार दरसाने।—रघुराज (शब्द०)।

सृगाल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सृगाली] १. सियार। श्रृगाल। २. एक प्रकार का वृक्ष। ३. एक दैत्य का नाम। ४. हरिवंश मैं करवीरपुर के राजा वासुदेव का नाम। ५. प्रतारक। धूर्त। धोखेबाज। ६. कायर। भीरु। डरपोक। ७. दुःशील मनुष्य। बदमिजाज। आदमी।

सृगालकंटक
संज्ञा पुं० [सं० सृगालकण्टक] सत्यानासी का पौधा। कटेरी। स्वर्णक्षीरी। भड़भाँड़।

सृगालकोलि
संज्ञा पुं० [सं०] बेर का पेड़ या फल।

सृगालघंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० सृगालघण्टी] तालमखाना। कोकिलाक्ष।

सृगालजंबु
संज्ञा पुं० [सं० सृगालजम्बु] १. तरबूज। गोडुंब। २. झड़बेरी। छोटा बेर।

सृगालरूप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

सृगालवदन
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश में वर्णित एक असुर का नाम।

सृगालवास्तुक
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ साग का एक भेद।

सृगालाविन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन। पृश्निपर्णी।

सृगालवृंता
संज्ञा स्त्री० [सं० सृगालवृन्ता] दे० 'सृगालविन्ना'।

सृगालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सियारिन। गीदड़ी। २. लोमड़ी। ३. विदारीकंद। भूमिकुष्मांड। ४. पलायन। भगदड़। ५. दंगा फसाद। हंगामा।

सृगालिनी
संज्ञा स्री० [सं०] सियारिन। गीदड़ी।

सृगाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सियारिन। गीदड़ी। २. लोमड़ी। ३. पलायन। भगदड़। ४. उपद्रव। हंगामा। ५. तालमखाना। कोकिलाक्ष। ६. बिदारीकंद।

सृग्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्त्रग्विणी'।

सृजक पु
संज्ञा पुं० [सं० √ सृज् + हिं० क (प्रत्य०)] सृष्टि करनेवाला। उत्पन्न करनेवाला। सर्जक।

सृजन पु
संज्ञा पुं० [सं० √ सृज् > सर्जन] १. सृष्टि करने की क्रिया। उत्पादन। २. सृष्टि। उत्पत्ति। ३. छोड़ना। निकालना। यौ०—सृजनधर्मा, सृजनधर्मो = दे० 'सृजनहार'। उ०—साहित्य उसी तरह सुजनधर्मी है।—सा० दर्शन, पृ० ५३। सृजन- शीलता = निर्माण या सृजन की क्षमता।

सृजनहार पु
संज्ञा पुं० [सं० √ सृज् > सर्जन + हिं० हार] सृष्टिकर्ता। सृष्टि रचनेवाला। उत्पन्न करनेवाला। बनानेवाला।

सृजना पु
क्रि० स० [सं० √ सृज् + हिं० ना (प्रत्य०)] सृष्टि करना। उत्पन्न करना। रचना करना। बनाना। उ०—(क) कत विधि सूजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जाके अंश मोर अवतारा। पालत सृजत हरत संसारा।—सबलसिंह (शब्द०)। (ग) मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता हो मधुमय विश्व एक।—कामायनी, पृ० १४८।

सृजय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।

सृजया
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीलमक्षिका।

सृजिकाक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जीखार [को०]।

सृज्य
वि० [सं०] १. जो उत्पन्न किया जानेवाला हो। २. जो छोड़ा या निकाला जानेवाला हो।

सृणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु। २. चंद्रमा।

सृणि (२)
संज्ञा पुं०, स्त्री० १. अंकुश। २. दाँती। हँसिया। हँसुआ [को०]।

सृणिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अंकुश।

सृणिक (२)
संज्ञा स्त्री० थूक। निष्ठीवन। लार।

सृणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सृणीका'।

सृणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दाँती। हँसिया। २. अंकुश (को०)।

सृणीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. अग्नि। ३. वज्र। ४. मदो- न्मत्त या उन्मत्त व्यक्ति।

सृणीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूक। लार।

सृत (१)
वि० [सं०] १. जो खिसक गया हो। सरका हुआ। २. विच- लित। २. गत। जो चला गया हो।

सृत (२)
संज्ञा पुं० पलायन। गमन या विचलना [को०]।

सृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गमन। पलायन।

सृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मार्ग। रास्ता। २. जन्म। ३. आवागमन। ४. निर्माण। ५. गमन। संसरण। गीत (को०)। ६. मारना। चोट पहुँचाना (को०)।

सृत्वन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रजापति। २. विसर्प रोग। ३. संसरण। सरकना। ४. बुद्धि।

सृत्वर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सृत्वरी] गमनोद्यत। गमनशील [को०]।

सृत्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माता। २. प्रवाह। धारा। ३. नदी (को०)।

सृदर
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। साँप।

सृदाकु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. अग्नि। ३. वनाग्नि। दावा- नल। ४. वज्र। ५. गोध। गोह। ६. मृग। हिरन। ७. परिधि। परिवेश। ८. सूर्यमंडल (को०)।

सृदाकु (२)
संज्ञा स्त्री० नदी। धारा।

सृप
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिवंश में वर्णित एक असुर। २. चंद्रमा।

सृपमन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। २. शिशु। ३. तपस्वी।

सृपाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूल के नीचे की छोटी पत्ती। २. एक प्रकार की माप (को०)।

सृपाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोंच। चंचु।

सृपाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चोंच। चंचु। २. एक प्रकार की माप (को०)। ३. उपानह। जूता (को०)। ४. मिश्रित धातु, काँसा आदि (को०)। ५. लघु पुस्तिका। छोटी पुस्तक (को०)।

सृप्त (१)
वि० [सं०] सरका हुआ। फिसला हुआ [को०]।

सृप्त (२)
वि० [सं०] १. चिकना। चिक्कण। स्निग्ध। २. जिसपर हाथ या पैर फिसले।

सृप्मा
संज्ञा पुं० [सं० सृप्मन्] दे० 'सृपमन्' [को०]।

सृप्र
संज्ञा पुं० १. चंद्रमा। २. मधु। शहद।

सृप्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम। सिप्रा नदी।

सृबिंद
संज्ञा पुं० [सं० सृबिन्द] ऋग्वेद में वर्णित एक दानव जिसे इंद्र ने मारा था।

सृम
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर का नाम।

सृमर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पशु। (किसी के मत से बाल मृग) २. एक असुर का नाम।

सृमर (२)
वि० गत्वर। गमनशील [को०]।

सृमल
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश में वर्णित एक असुर का नाम।

सृष्ट (१)
वि० [सं०] १. उत्पन्न। पैदा। उ०—सदा सत्यमय सत्य व्रत सत्य एक पति इष्ट। बिगत असूया सील सै ज्यौं अनसूया सूष्ट।—स० सप्तक, पृ० ३६९। २. निर्मित। रचित। ३. युक्त। ४. छोड़ा हुआ। निकाला हुआ। ५. त्यागा हुआ। ६. निश्चित। संकल्प में दूढ़। तैयार। ७. अगणित। बहुल। ८. अलंकृत। भूषित।

सृष्ट (२)
संज्ञा पुं० तेंदू। तिंदुक।

सृष्टमारुत
वि० [सं०] पेट की वायु को निकालनेवाला। (सुश्रुत)।

सृष्टमूत्रपुरीष
वि० [सं०] जिससे पेशाब और दस्त हों। मूत्र और दस्त लानेवाला [को०]।

सृष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पत्ति। पैदाइश। बनाने या पैदा होने की क्रिया या भाव। २. निर्माण। रचना। बनावट। ३. संसार की उत्पत्ति। जगत् का आविर्भाव। दुनिया की पैदाइश। ४. उत्पन्न जगत्। संसार। दुनिया। चराचर पदार्थ। जैसे,— सृष्टि भर में ऐसा कोई न होगा। ५. प्रकृति। निसर्ग। कुदरत। ६. दानशीलता। उदारता। ७. त्याग। विसर्ग। परित्याग (को०)। ८. संतान (को०)। ९. गंभारी का पेड़। खंभारी। १०. एक प्रकार की ईंट जो यज्ञ की वेदी बनाने के काम में आती थी।

सृष्टि (२)
संज्ञा पुं० उग्रसेन के एक पुत्र को नाम।

सृष्टिकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सृष्टिकर्त्तृ] १. सृष्टि या संसार की रचना करनेवाला, ब्रह्मा। २. ईश्वर।

सृष्टिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'सृष्टिकर्ता'। २. पित्तपापड़ा। पर्पटक।

सृष्टिदा
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋद्धि नामक एक अष्टवर्गीय ओषधि। २. दे० 'सृष्टिप्रदा'।

सृष्टिपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मंञशाक्ति।

सृष्टिप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भदात्री क्षुप। श्वेत कंटकारी। सफेद भटकटैया।

सृष्टिविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें सृष्टि की रचना आदि पर विचार किया गया हो।

सृष्टिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सृष्टिविज्ञान'।

सृष्टिसृज्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सृष्टिकर्ता' [को०]।

सृष्ट्यतर
संज्ञा पुं० [सं० सृष्ट्यन्तर] वह संतान जो अन्य जाति के विवाह से हुई हो [को०]।