विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/क
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ क
⋙ क
हिंदी वर्णमाला का पहला व्यंजन वर्ण । इसका उच्चारण कंठ से होता है । इसे स्पर्श वर्ण भई कहते हैं । ख, ग, घ और ङ इसके सवर्ण हैं ।
⋙ कं
संज्ञा पुं० [सं० कम्] १. जल । २. विष । ३. अग्नि । ४. कवंध । ५. रस । ६. मेघ । ७. पुष्प । उ०—मेघ पुष्प विस सर्वमुख कं कंबध रस तोय । नंद ग्रं०, पृ० ५० । ८. मस्तका । उ०— सिंभु भष के पत्र बन दो बनै चक्र अनूप । देख कं को छत्र छावत सकल सोभा रूप ।—सूर (शब्द०) । ९. सुख ।१०. काम । ११.सोना । उ०—कं० सुख, कं जल, कं अनल, कं शिर कं पुनि काम । कं कँचन ते प्रीति तजि, सदा कहो हरिनाम ।—नंददास (शब्द०) । १२. केश (को०) । १३. भय (को०) । १४. कृपणता । कंजूसी (को०) । १५. दुग्ध । दूध (को०) ।
⋙ कंक
संज्ञा पुं० [सं० कङ्क] [स्त्री० कंका, कंकी (हिं०)] १. एक मांसा- हारी पक्षी जिसके पंख बाणों में लगाए जाते थे । सफेद चील । काँक । उ०—खग, कंक, काक, श्रृगाल । कट कटहि कठिन कराल ।—तुलसी (शब्द०) । २. एक प्रकार का आम जो बहुत बड़ा होता है । ३. यम । ४. क्षत्रिय । ५. युद्धिष्ठिर का उस समय का कल्पित नाम जब वे ब्राह्मण बनकर गुप्त भाव से विराट के यहाँ रहे थे । ६. एक महारथी यादव जो वसुदेव का भाई था । ७. कंस के एक भाई का नाम । ८. एक देश का नाम ।—बृ० सं०, पृ० ८३ । ९. एक प्रकार के केतु जो वरुण देवता के पुत्र जाते हैं । विशेष—ये संख्या में ३२ हैं और इनकी आकृति बाँस की जड़ के गुच्छे की सी है । ये अशुभ माने जाते हैं । १०. बगाल । ११. शरीर । उ०—विषिकंत वीर अत्यंत बंक । जिन पिष्षि कंक अनसंक संक ।—पृ० रा०, ६ ।७७ । १२. युद्ध । उ०—करि कंक संक आसुरनि डर ।—पृ० रा०, २ ।२८५ १३. तीक्ष्ण लोहा । १४. वृक्षविशेष (को०) । १५. एक प्रकार का आम (को०) । १६. मिथ्या ब्राह्मण । अब्राह्मण होते हुए अपने को ब्राह्मण कहनेवाला व्यक्ति (को०) । १७. द्वीप । १८. विभागों में से एक (को०) । यौ०—कंकत्रोट । कंकपत्र । कंकपर्वा । कंकपृष्ठी । कंकमुख ।
⋙ कंकट
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कट] कवच । संनाह । वर्म । उ०—इह सु ध्रम्म राजेंद्र । दुष्ट कंकर सिर कहै ।—पृ० रा०, १ ।४१५ । २. अंकुश (को०) । ३. सीमा । हद [को०] ।
⋙ कंकटक
संज्ञा पुं० [सं० कंङ्कटक] १. कवच । वर्म । संनाह । २. अंकुश [को०] ।
⋙ कंकटकर्मांत
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कटकर्मान्त] तारों से कवच (बख्तर) । बनाने का कारखाना [को०] ।
⋙ कंकड़
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर, प्रा० कक्कर] [स्त्री० अल्पा० कंकड़ी] [वि० कंकड़ीला] १. एक खनिज पदार्थ । कंकड़ जो जलाकर चूना बनाया जाता है ।विशेष—यह उत्तरी भारत में पृथ्वी के खोदने से निकलता है । इसमें अधिकतर चूना और चिकनी मिट्टी का अंश पाया जाता है । यह भिन्न भिन्न आकृति का होता है, पर इसमें प्रायः तह या परत नहीं होती । इसकी सतह खुरदरी और नुकीली होती है । यह चार प्रकार का होता है ।—(क) तेलिया अर्थात् काले रंग का; (ख) दुधिया, अर्थात् सफेद रंग का । (ग) बिछुआ, अर्थात् बहुत खड़बीहड़ और (घ) छर्रा, अर्थात् छोटी छोटी कंकड़ी । यह प्रायः सड़क पर कुटा जाता है । छत की गच और दीवार की नींव में भी दिया जाता है । २. पत्थर का छोटा टुकड़ा । ३. किसी वस्तु का वह कठिन टुकड़ा जो आसानी से न पिस सके । अँकड़ा । ४. सूखा या सेंका हुआ तमाकू जिसे गाँजे की तरह पतली चिलम पर रखकर पीते हैं । ५. रवा । डला । जैसे,—एक कंकड़ी नमक लेते आओ । ६. जवाहिरात का छोटा अनगढ़ और बेडौल टुकड़ा । मुहा०—कंकड़ पत्थर = बेकाम की चीज । कूड़ा करकट ।
⋙ कंकड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंकड़ का अल्पा० रूप] १. छोटा कंकड़ । अँकटी । २. कण । छोटा टुकड़ा । विशेष—दे० 'कंकड़' ।
⋙ कंकण
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कण] १. कलाई में पहनने का आभूषण ककना । कड़ा । खडुवा । चूड़ा । उ०—है कर कंकण दर्पण देषै ।—सुंदर० ग्रं०, पृ० ५८६ । २. एक धागा जिसमें सरसों आदि की पुटली पीले कपड़े में बाँधकर लोहे के एक छल्ले के साथ विवाह के समय से पहले दुलहा या दुलहिन के साथ में रक्षार्थ बाँधते हैं । विशेष—विवाह में देशाचार के अनुसार चोंकर, सरसों, अजवायन आदि की नौ पोटलियाँ पीले कपड़ं में लाल ताँगे से बाँधते हैं । एक तो लोहे के छल्ले के साथ दूल्हा या दुलहिन के हाथ में बाँध दी जाती है और शेष आठ मूसल, चवकी, ओखली, पीढ़ा । हरिस, लोढ़ा कलश आदि में बाँधी जाती है । ३. एक प्रकार का षाड़व राग जो गांधार से आरंभ होता है और जिसमें पंचम स्वर वर्जित है । इसमें प्रायः मध्यम स्वर का अधिक प्रयोंग होता है । इसके गाने का समय दोपहर के उपरांत संध्या तक होता है । क्रि० प्र०—बाँधना ।—खोलना ।—पहनना ।—पहनाना । ४. ताल के आठ भेदों में से एक । ५. आभूषण । मंडल (को०) । ६. मुकुट । ताज (को०) ।
⋙ कंकणास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कणास्त्र] वाल्मीकि के अनुसार एक प्रकार का अस्त्र [को०] ।
⋙ कंकणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कणी] १. घुँघरूदार करधनी । क्षुद्र- घंटिका । २. आभूषण जिसमें घुँघरू हों [को०] ।
⋙ कंकणी (२)
वि० [सं० कङ्कणि] कंकड़ नामक आभूषणवाला [को०] ।
⋙ कंकणीका
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कणीका] दे० 'कंकणी' [को०] ।
⋙ कंकत
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कत] १. बाल सँवारने का कंधा ।२. एक प्रकार का विषाक्त जीव । ३. नागबला । अतिबला [को०] ।
⋙ कंकतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कङअकतिका] १. कंघी । २. केशप्रसाधिनी [को०] ।
⋙ कंकती
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती] दे० 'ककतिका' ।
⋙ कंकत्रोट
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कत्रोट] [स्त्री० कंकत्रोटी] एक प्रकार की मछली जिसका मुँह बगले के मुँह की तरह होता है । कौआ मछली ।
⋙ ककन पु
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कण] १. 'कंकण' (१) । उ०—दीन्हीं हार गरैं, कर 'कंकन' मौतिनि थार भरे—सूर० १० ।१७ । दे० 'कंकण' । उ०—कर कंपै कंकन छूटै ।—सूर० ९ ।२५ ।
⋙ ककपत्र
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कपत्र] १. कंक का पर । २. बाण ।
⋙ कंकपत्री
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कापत्रिन्] बाण । तीर ।
⋙ कंकपवा
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कपर्वन्] एक प्रकार का साँप ।
⋙ ककपृष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कपृष्ठी] एक प्रकार की मछली ।
⋙ कंकमुख
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कमुख] एक प्रकार की सँड़सी जिससे चिकित्सक किसी के शरीर में चुभे हुए काँटे को निकालते हैं ।
⋙ कंकर (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर] दे० 'कंकड़' ।
⋙ कंकर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० किङ्कर] सेवक । दास । उ०—बिनु गुर जम कंकर वशि परै । प्राण०, पृ० ३५ ।
⋙ कंकरीट
संज्ञा स्त्री० [ग्रं० कंक्रीटा] १. एक मसाला जो गच पीटने के समय छत पर डाला जाता है । चूना या सीमेंट, कंकड़, बालू इत्यादि से मिलकर बना हुआ गच पीटने का मसाला । छर्रा, बजरी । विशेष—चूने या सींमेंट में चौगुने या पंचगुने कंकड़, ईंट के टुकड़े, बालू आदि मिलाकर यह बनाया जाता है । २. छोटी छोटी कंकड़ी जो सड़कों में बिछाई और कूटी जाती है ।
⋙ कंकरोल
संज्ञा पुं० [सं० कङ्करोल] एक वृक्ष का नाम । निकोचक [को०] ।
⋙ कंकल
संज्ञा पुं० [सं० कृकल] चव्य या चाब का पौधा । विशेष—यह मलक्का द्वीप में बहुत होता है । भारतवर्ष के मलाबार प्रदेश में भी होता है । इसका फल गजपीपर है । लकड़ी भी दवा के काम में आती है । जड़ को चैकठ कहते हैं । बंगाल में जड़ और लकड़ी रँगने के काम में आती है । इसका अकेला रंग पकड़े पर पीलापन लिए हुए बादामी होता है और बक्कम के साथ मिलने से लाल बादामी रंग आता है ।
⋙ कंका
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्का] राजा उग्रसेन की लड़की जो कंक की बहिन थी । यह वसुदेव के भाई को ब्याही थी ।
⋙ कंकारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ कंकाल
संज्ञा पुं० [सं० कङ्काल] १. ठठरी । अस्थिपंजर । शरीर की हड्डियों का ढाँचा । यौ०—कंकालास्त्र ।
⋙ कंकालकाय
वि० [सं० कङ्कालकाय] १. हड्डियों के ढाँच से शरीरवाला । २. अत्यंत दुर्बल । उ०—वे दीन क्षीण कंकालकाय ।—तुलसी०, पृ० १७ ।
⋙ कंकालमाली (१)
वि० [सं० कङा्कालमालिन्] हड्डी की माला पहननेवाला । जो हड्डी की माला पहने हो ।
⋙ कंकालमाली (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० कङ्कालमालिनी] १. शिव । महादेव । २. भैरव ।
⋙ कंकालय
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कालथ] देह । शरीर [को०] ।
⋙ कंकालशर
संज्ञा पुं० [सं०] वह बाण जिसके सिर पर हड्डी लगी हो ।
⋙ कंकालशेष
वि० [सं० कङ्कालशेष] १. जो हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया हो । २. अतिकृश । उ०—कंकालशेष नर मृत्युप्राय ।—अनामिका, पृ० २४ ।
⋙ कंकालास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कालास्त्र] एक अस्त्र का नाम जो हड्डी से बनता था ।
⋙ कंकालिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [स० कङ्कालिनी] दुर्गा का एक रूप ।
⋙ कंकालिनी (२)
वि० उग्र स्वभाव की । कर्कशा । झगड़ालू । लड़ाकी । दृष्टा । उ०—कंकालिनि कूबरी, कलंकिनि कुरूप तैसी चेटकनि चेरी ताके चित्त को चहा कियो ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कंकाली (१)
संज्ञा पुं० [सं० कङ्काल+हिं० ई (प्रत्य०)] [स्त्री० कंकालिन] एक पिछड़ी जाति जो गाँव गाँव किंगरी बजाकर भीख माँगती फिरती है । उ०—यश कारण हरिचंद नीच घर नारि समर्प्यो । यश कारण जगदेव सीस कंकलिहि अर्प्यों ।— बैताल (शब्द०) ।
⋙ कंकाली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कालिनी] दुर्गा का एक रूप । उ०— कर गहि कपाल पीवै रुधिर कंकाली कौतुक करै ।— हम्मीर०, पृ० ५८ ।
⋙ कंकाली (३)
वि० कर्कशा । लड़ाकी ।
⋙ कंकु
संज्ञा पुं० [सं० कङ्क] कंगु नामक अन्न । कँगनी ।
⋙ कंकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कष्ठ] एक प्रकार की पहाड़ी मिट्टी । विशेष—भावप्रकाश के अनुसार यह हिमालय के शिखर पर उत्पन्न होती है । कहते हैं, यह सफेद और पीली दो प्रकार की होती है । सफेद को नालिक और पीली को रेणुक कहते हैं । रेणुक ही अधिक गुणवाली समझी जाती है । वैद्यक के अनुसार यह गुरु, स्निग्ध, विरेचक, तिक्त, कटु, उष्ण, वर्णकारक और कृमि, शोथ, गुल्म तथा कफ की नाशक होती है । पर्या०—कालकुष्ठ । विरंग । रंगदायक । रेचक । पुलक । शोधक । कालपालक ।
⋙ कंकूष
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कष] भीतरी शरीर । आभ्यंतर देह [को०] ।
⋙ कंकेर †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पान जो कड़ुआ होता है ।
⋙ कंकेरू
संज्ञा पुं० [सं० कङ्केरू] कौआ ।
⋙ कंकेल
संज्ञा पुं० [सं० कङ्केल] बथुआ ।
⋙ कंकेलि
संज्ञा पुं० [सं० कङ्केलि] अशोक का पेड़ ।
⋙ कंकेल्ल
संज्ञा पुं० [सं० कङ्केल्ल] दे० 'कंकेलि' [को०] ।
⋙ कंकेल्लि
संज्ञा पुं० [सं० कङ्केल्लि] दे० 'ककेलि' [को०] ।
⋙ कंकोल
संज्ञा पुं० [सं० कंङ्गोल] १. शीतल चीनी के वृक्ष का एक भेद । उ०—चंदन बंदन योग तुम, धन्य द्रुमन के राय, देत कुकुज कंकोल लों, देवन सीस चढ़ाय ।—दीनदयाल (शब्द०) ।२. कंकोल का फल । इसे कंकोल मिर्च भी कहते हैं । उ०—शशिद्युत डील जिती कंकोल ।—रत्नपरीक्षा (शब्द०) । विशेष—इसके फल शीतलचीनी से बड़े और कड़े होते हैं । ये दवा के काम में आते हैं और तेल के मसालों में पड़ते हैं ।
⋙ कंकोली
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कोली] दे० 'ककोल' [को०] ।
⋙ कंख
संज्ञा पुं० [सं० कङ्ख] १. आनंद । २. पाप का या फल का भोग [को०] ।
⋙ कंग पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कट] कवच । जिरह । बख्तर ।—डिं० ।
⋙ कंग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्ग] दे० 'कंकु' ।
⋙ कंगण
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कण] १. लोहे का एक चक्र जिसे अकाली सिक्ख सिर में बाँधते हैं । २. दे० 'कंकण' ।
⋙ कंगन
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कण] कंकण । मुहा०—कंगन बोहना = (१) दो आदमियों का एक दूसरे के पंजे को गठना । (२) पंजा मिलाना । पंजा फैसाना । हाथ कंगन को आरसी क्या = प्रत्यक्ष बात के लिये किसी दूसरे प्रमाण की क्या आवश्यकता है ।
⋙ कंगल (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] कंग । कवच । उ०—(क) कटै कंगल अंग ओ जीन बाजी ।—ह० रासो, पृ० १३२ । (ख) बहु फुट्टत पक्खर कंगलयं ।—ह० रासो, पृ० १०१ ।
⋙ कंगल (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कंग' । उ०—लै कंगल धावै तेग बचावै पैज बुरावै वीर छलं ।—पृ० रासो, पृ० १४९ ।
⋙ कंगारू
संज्ञा पुं० [अ० कैंगरू] एक प्रकार का जानवर जो आस्ट्रेलिया में पाया जाता है । विशेष—इसकी मादा के पेट में एक बहिर्मुखी थैली होती है जिसमें अपने बच्चे को रखकर वह चलती है ।
⋙ कंगाल
वि० [सं० कङ्काल] [स्त्री० कंगालिन (क्व०)] १. भुक्खड़ । अकाल का मार । उ०—तुलसी निहारि कपि भालु किलकत ललकत लखि ज्यों कंगाल पातरी सुनाज की ।—तुलसी० (शब्द०) । २. निर्धन । दरिद्र । गरीब । रंक । उ०—डाक्टरों प्रयन्त से वह फिर सचेत हुई और कंगाल से धनी हुई ।— सरस्वती (शब्द०) । यौ०—कंगाल गुंडा = वह पुरुष जो कंगाल होने पर भी व्यसनी हो । कंगाल बाँका = दे० 'कंगाल गुंडा' ।
⋙ कंगाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंगाल] निर्धनता । दरिद्रता । गरीबी । मुहा०—कंगाली में आटा गीला होना = अभाव की दशा में और अधिक संकट पड़ना । निर्धनता में घोर अभाव का अनुभव करना ।
⋙ कंगु
संज्ञा पुं० [सं० कङ्गु] कँगनी धान्य (भावप्रकाश में इसके चार प्रकार कहे गए हैं) ।
⋙ कंगुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गुनी] दे० 'कंगु' [को०] ।
⋙ कंगुर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कंगूरा' । उ०—बहु कंगुर कंगुर बीर अरे ।—ह० रासो०, पृ० ७७ ।
⋙ कंगुरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कंगूरा' ।—इस मसजिद में तीन कंगुरा ।—कबीर श०, पृ० ३२ ।
⋙ कंगुरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गुल+हिं० ई (प्रत्य०) = कङ्गुली+हिं इया (प्रत्य०)] कनगुरिया ।
⋙ कंगुल
संज्ञा पुं० [सं० कङ्गुल] हाथ [को०] ।
⋙ कंगुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० कंङ्गुष्ठ] दे० 'कङ्कुष्ठ' [को०] ।
⋙ कंगूरा
संज्ञा पुं० [फा० कगूरह] बुर्ज या गुंबद । यौ०—कंगूरेदार = जिसमें कंगूरा हो ।
⋙ कंघा
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कत० प्रा० कंकअ] [स्त्री० अल्पा० कंघी] १. लकड़ी, सींग आदि की बनी हुई चीज जिसमें लंबे पतले दाँत होते हैं । इससे सिर के बाल झाड़े या साफ किए जाते हैं । १. बड़े आकार की कंघी । ३. जुलाहो का एक औजार जिससे वे करघे में भरनी के तागों को कसते हैं । बय । बौला । बैसर । दे० 'कंघी'—२ ।
⋙ कंघी
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकई] १. छोटा कंघा । मुहा०—कंघी चोटी = बनाव सिंगार । कंघी चोटी करना = बाल सवारना । बनाव सिंगार करना । २. जुलाहों का एक औजार । विशेष—यह बाँस की तीलियों का बनता है । पतली, गज डेढ़ गज लंबी दो तीलियाँ चार से आठ अंगुल के फासले पर आमने सामने रखी जाती हैं । इनपर बहुत सी छोटी छोटी तथा बहुत पतली और चिकनी तीलियाँ होती हैं जो इतनी सटाकर बाँधी जाती हैं कि उनके बीच एक तागा निकल सके । करघे में पहले ताने का एक एक तार इन आड़ो पतली तीलियों के बीच से निकाला जाता है । बाना बुनते समय इसे जोलाहे राछ के पहले रखते हैं । ताने में प्रत्येक बाना बुनने पर बाने को गँसने के लिए कंघी को अपनी आर खींचते हैं जिससे बाने सीधे और बराबर बुने जाते हैं । बय । बौला । बैसर । ३. एक पौधे का नाम । विशेष—यह पाँच छह फुट ऊँचा होता है इसकी पत्तियाँ पान के आकार की पर अधिक नुकीला होती हैं और उनके कोर दंदानेदार होते हैं । पत्तियों का रंग भूरापन लिए हलका हरा होता है । फूल पीले पीले होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर मुकुट के आकार के ढेंढ़ लगते हैं जिनमें खड़ी खड़ी कमरखी या कँगनी होती है । पत्तों और फलों पर छोटे छोटे घने नरम रोएँ होते हैं जो छूने में मखमल की तरह मुलायम होते हैं । फल पक जाने पर एक एक कमरखी के बीच कई कई काले दाने निकलते हैं । इसकी छाल की रेशे मजबूत होते हैं । इसकी जड़, पत्तियाँ और बीज सब दवा के काम में आते हैं । वैद्यक में इसको वृष्य और ठंडा माना है । संस्कृत में इसे अतिबला कहते हैं । पर्या०—अतिबला । वलिका । कंकती । विकंकता । घंटा । शीता । शीतपुष्पा । वृष्यगंधा ।
⋙ कंच (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कंचन' । संत सो पूर है सूर माँडै रहै कंच कुच आदि नहिं ओर आवै ।—गुलाल०, पृ० १०९ ।
⋙ कंच (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० काच] दे० 'काँच' ।
⋙ कंचकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुकी] दे० 'कंचुकी' । उ०—पीत कंचकी संधि, षंडि कस अंग उपट्टिय । पृ० रा०, २४ । १६२ ।
⋙ कंचन
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चन] १. सोना । सुवर्ण । मुहा०—कंचन बरसना = (किसी स्थान का) समृद्धि और शोभा से युक्त होना । उ०—तुलसी वहाँ न जाइए कंचन बरसै मेह ।—तुलसी (शब्द०) । २. धन । संपत्ति । उ०—(क) चलन चलन सब कोउ कहै पहुँचै बिरला कोय । इक कंचन इक कामिनी दुर्गम घाटी दोय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) बंचक भगत कहाय राम के । किंकर कंचन कोह काम के ।—तुलसी (शब्द०) । ३. धतूरा । ४. एक प्रकार का कचनार । रक्त काँचन । ५. [स्त्री० कंचनी] एक जाति का नाम जिसमें स्त्रियाँ प्रायः वेश्या का काम करती हैं ।
⋙ कंचन (२)
वि० १. नीरोग । स्वस्थ । २. स्वच्छ । सुंदर । मनोहर ।
⋙ कंचनपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनपुरुष] सोने के पत्र पर खोदी हुई पुरुष की एक मूर्ति जो मृतक कर्म में महाब्राह्मण को दी जाती है । यज्ञपुरुष को भी कांचनपुरुष कहते हैं ।
⋙ कंचनिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचनार] एक छोटी जाति का कचनार । इसकी पत्तियाँ और फूल छोटे होते हैं ।
⋙ कंचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्जिनी = वेश्या अथवा सं० कंचन+हिं० ई (प्रत्य०)] वेश्या । उ०—सेवक द्विज दच्छिना, कंचनी कवि धन पावत ।—प्रेमघन, पृ० ३३ ।
⋙ कंचा पु
वि० [हिं० कच्चा] दे० 'कच्चा' । उ०—कहे दरिया परिपंच फंदा रचा इसिक मासूक बिनु रहत कंचा ।—सं० दरिया, पृ० ७३ ।
⋙ कंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिका] १. बाँस की शाखा । २. फुंसी । छोटा फोड़ा ।
⋙ कंची पु
वि० [हिं० कच्ची] दे० 'कच्ची' । उ०—रज औ बिंद की कंची काया ।—सं० दरिया, पृ० १६७ ।
⋙ कंचु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुक] दे० 'कंचुकी' । उ०—स्वर्ण सूत्र में रचत हिलोरे कंचु काढ़तीं प्रात ।—गुंजन, पृ० ८८ ।
⋙ कंचुक
संज्ञा पुं० [सं० कंचुक] [स्त्री० कंचुकी] १. जामा । चोलक । चपकन । अचकन । २. चोली । अँगिया । ३. वस्त्र ।४. बख्तर । कवच । ५. केंचुल । ६. कंचुक के आकार का कवच जो घुटने तक होता था (कौ०) । ७. भूसी या छिलका (को०) । ८. तसमा । चमड़े का पट्टा (को०) ।
⋙ कंचुकालु
संज्ञा पुं० [सं० कञ्चुकालु] सर्प । साँप [को०] ।
⋙ कंचुकित
वि० [सं० कञ्चुकित] १. जो कंचुकयुक्त हो । २. जो कवच धारण किए हो । ३. कई या अनेक पर्तोंवाला (मोतो) [को०] ।
⋙ कंचुकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुकी] १. अँगिया । चोली । उ०— कबहिं गुपाल कंचुकी फारी कब भए ऐसे जोग ।—सूर०, १० । ७७४ । २. केंचुल । उ०—सुंदर षाली कंचुकी नीकसि भागौ साँप ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७१० ।
⋙ कंचुकी (२)
संज्ञा पुं० [सं० कञ्चुकिन्] १. रनिवास के दास दासियों का अध्यक्ष । अंतःपुररक्षक । विशेष—कंचुकी प्रायः बड़े बूढ़े और अनुभवी ब्राह्मण हुआ करते थे जिनपर राजा का पूरा विश्वास रहता था । २. द्वारपाल । नकीब । ३. साँप । ४. छिलकेवाला अन्न, जैसे,— धान, जौ चना इत्यादि । ५. व्यभिचारी । लंपट (को०) ।
⋙ कंचुरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुली] केंचुल । उ०—नैना हरि अंग रूप लुबधेरे माई । लोक लाज कुल की मर्यादा बिसराई । जैसे चंदा चकोर, मृगी नाद जैसे । कंचुरि ज्यों त्यागि फनिक फिरत नहीं तैसे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कंचुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुलिका] अँगिया । चोली [को०] ।
⋙ कंचुली
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुली] केंचुल । उ०—(क) विषै कर्म की कंचुली पहिर हुआ नर नाग ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१ । (ख) माँग तैं मुकुतावलि टरि, अलक संग अरुझि रही उरगिनि सत फन मानौ कंचुलि तजि दीनी ।—सूर०, १० । १९६४ ।
⋙ कंचू पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कंचुकी'—१' । उ०—हेरे सिय एम उमंग हियो, कंचू कज श्रीपतनू कहियो ।—रघु रू०, पृ० ११३ ।
⋙ कंचूवा
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुक] दे० 'कंचुवा—२' । उ०—(क) सिर साड़ी गलि कंचुवउ हुवउ निचोरण जोग ।—ढोला० दू० ८३ । (ख) रतन जड़ित की कांचली औ कसी कंचूवउ षरड हो सुमीड़ ।—बी० रासो, पृ० ६६ ।
⋙ कंछा
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिका = बाँस की पतली टहनी या हिं० कनखा, मि० तु० 'कमचा'] पतली डाल । कनखा । कल्ला ।
⋙ कंज
संज्ञा पुं० [सं० कञ्ज] १. ब्रह्मा । २. कमल । यौ०—कंजज = ब्रह्मा । उ०—कंजज की मति सी बड़भागी । श्री रहि मंदिर सों अनुरागी ।—केशव (शब्द०) । ३. चरण की एक रेखा जिसे कमल या पद्म कहते हैं । यह विष्णु के चरण में मानी गई है । ४. अमृत । ५. सिर के बाला केश ।
⋙ कंज अवलि
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्ज+आवलि] दे० 'कंजावलि' ।
⋙ कंजई (१)
वि० [हिं० कंजा] कंजे के रंग का । धुएँ के रंग का । खाकी ।
⋙ कंजई (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का रंग । खाकी रंग । २. वह घोड़ा जिसकी आँख कंजई रंग की होती है ।
⋙ कंजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी विशेष । २. मैना [को०] ।
⋙ कंजड़
संज्ञा पुं० [देश० या हिं० कालंजर] [स्त्री० कंजड़िन, कंजड़ी, कंजरी] एक अनार्य जाति । विशेष—यह भारतवर्ष के अनेक स्थानों में विशेषकर बुंदेलखंड में पाई जाती है । इस जाति के रस्सी बटते, सिरकी बनाते और भीख माँगते हैं ।
⋙ कंजन
संज्ञा पुं० [सं० कञ्जन] १. कामदेव । २. पक्षीविशेष । ३. मैना [को०] ।
⋙ कंजनाभ
संज्ञा पुं० [सं० कञ्जनाभ] दे० 'पद्मनाभ' [को०] ।
⋙ कंजर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट । उदर । २. हाथी । ३. सूर्य । ४. ब्रह्मा । ५. मयूर । मोर । ६. संन्यासी [को०] ।
⋙ कंजर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'कंजड़' ।
⋙ कंजरवेटिव
वि० [अं० कंजर्वेटिव] १. परंपरावादी । २. अनुदार । ३. ब्रिटेन का एक राजनीतिक दल और उसका सदस्य ।
⋙ कंजरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. कंजड़ जाति की स्त्री । २. वेश्या ।
⋙ कंजल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी ।
⋙ कंजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० करंञ्ज] १. एक कँटीली झाड़ी । विशेष—इसकी पत्तियाँ मिरिस की पत्तियों से कुछ मिलती जुलती कुछ अधिक चौड़ी होती हैं । इसके फूल पीले पीले होते हैं । फलों के गिर जाने पर कँटीली फलियाँ लगती हैं । इनके ऊपर का छिलका कड़ा और कँटीला होता है । एक एक फली में एक से तीन चार तक बेर के बराबर गोल गोल दाने होते हैं । दानों के छिलके कड़े और गहरे खाकी धूएँ के रंग के होते हैं । के लड़के इन दानों से गोली की तरह खेलते हैं । वैद्य लोग इसकी गूदी को औषध के काम में लाते हैं । यह ज्वर और चर्मरोग में बहुत उपयोगी होती है । अँगरेजी दवाइयों में भी इसका प्रयोग होता है । इससे तेल भी निकाला जाता है जो खुजली की दवा है । इसकी फुनगी और जड़ भी काम में आती है । यह हिंदुस्तान और बर्मा में बहुत होता है और पहाड़ों पर २५००० फुट की ऊँचाई तक तथा मैदानों और समुद्र के किनारे पर होता है । इसे लोग खेतों के बाड़ पर भी रूँधने के लिये लगाते हैं । पर्या०—गटाइन । करंजुवा । कुवेराक्षी । कृकचिका । वारिणी । कंटकिनी । <num२. इस वृक्ष का बीज ।
⋙ कंजा (२)
वि० [देश० अथवा सं० कञ्ज सेवार के रंग का; काही या खाकी रंग का] [स्त्री० कंजी] १. कजे के रंग का । गहरे खाकी रंग का । जैसे,—कजी आँख । विशेष—इस विशेषण का प्रयोग आँख ही के लिये होता है । २. जिसकी आँख कंजे के रंग की हो । उ०—ऐंचा ताना कहे पुकार । कजे से रहियो हुशियार । (कहा०) ।
⋙ कंजार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर । २. उदर । ३. हाथी । ४. मुनि । ५. सूर्य । ६. ब्रह्मा [को०] ।
⋙ कंजावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, नगम और दो जगण और एक लघु (भ न ज ज ल) होता है । इसे पंकजवाटिका और एकावली भी कहते हैं । उ०—भानुज जल महँ आय परे जब । कंजअवलि विकसै सर में तब । त्यों रघुबर पुर आय गए तब । नारिरु नर प्रमुदे लखिके सब (शब्द०) ।
⋙ कंजास †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँजना] कूड़ा ।
⋙ कंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिका] १. ब्राह्मणयष्टिका वृक्ष । २. बह्मनेटी । दे० 'भारंगी' ।
⋙ कंजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिनी] वेश्या ।
⋙ कंजूस
वि० [सं० कण+हिं० चूस] [संज्ञा कंजूसी] जो धन का भोग न करे । जो न खाय और न खिलावे । कृपण । सूम । मक्खी- चूस ।
⋙ कंजूसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंजूस] कृपणता । सूमपन । उदारता का अभाव ।
⋙ कंट (१)
वि० [सं० कष्ट] काँटे से युक्त [को०] । यौ०—कंटपत्रफला=ब्रह्मदंडी नाम का पौधा । कंटफल=(१) कटहल । (२) धतूरा । (३) लताकरंज । (४) गोखरू ।
⋙ कंट पु
संज्ञा पुं० [हिं० काँटा] दे० 'काँटा' ।
⋙ कंटक
संज्ञा पुं० [सं० कण्टक] [वि० कंटकित] १. काँटा । उ०—ध्वज कुलिस अकुस कंज जुत बन फिरन कंटक किन लहे ।—मानस, ७ । १३ । २. सूई की नोक । ३. क्षुद्र शत्रु । ४. वाममार्गवालों के अनुसार वह पुरुष जो वाममार्गी न हो या वाममार्ग का विरोधी हो । पशु । ५. विघ्न । बाधा । बखेड़ा । ६. रोमांच । ७. ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली में पहला, चौथा, सातवाँ और दसवाँ स्थान । ८. बाधक । विघ्नकर्ता । उ०—जो निज गो—द्विज देव धर्म कर्मों का कंटक ।—साकेत पृ० ४१७ । ९. बख्तर । कवच ।—डिं० । यौ०—निष्कंटक ।
⋙ कंटकद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० कण्टद्रुकम] १. कँटीली वृक्ष । २. कँटीली झाड़ी । ३. शाल्मलि वृक्ष । सेमल का पेड़ [को०] ।
⋙ कंटकफल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकफल] १. कटहल । २. गोखरू । ३. एरंड या रेंड़ का पेड़ । ४. धतूरा [को०] ।
⋙ कंटकशोधन
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकशोधन] दे० 'कटकोद्धरण' ।—कौटिल्य अर्थ०, पृ० २०० ।
⋙ कंटकश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकश्रेणी] दे० 'कंटकारी' [को०] ।
⋙ कंटकार
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकार] [स्त्री० कंटकारी] १. सेमल । २. एक प्रकार का बबूल । विकंक । बैंची । ३. भटक्टैया । कटेरी ।
⋙ कंटकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारिका] दे० 'कंटकारी' [को०] ।
⋙ कंटकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारी] १. भटकटैया । २. कटेरी । छोटी कटाई । ३. सेमल ।
⋙ कंटकाल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकाल] १. कटहल । २. काँटों का घर ।
⋙ कंटकालुक
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकालुक] जवासा ।
⋙ कंटकाशन
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट ।
⋙ कंटकाष्ठील
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकाष्ठील] एक तरह की मछली ।
⋙ कंटकाह्वय
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकाह्वय] दे० 'कंटाह्वय' [को०] ।
⋙ कंटकित
वि० [सं० कण्टकित] १. रोमांचित । पुलकित । उ०— होति अति उससि उसासन तें, सहज सुवासन शरीर मंजु लागे पौन ।—देव (शब्द०) । २. काँटेदार । उ०—कमल कंटकित सजनी कोमल पाय । निशि मलीन यह प्रफुलित नित दरसाय । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कंटकिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकिनी] भटफटैया [को०] ।
⋙ कंटकिनी (२)
वि० १. कँटीली । २. व्यग्रकरी । ३. चुभनेवाली [को०] ।
⋙ कंटकिल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकिल] एक तरह का कँटीला बाँस [को०] ।
⋙ कंटकी (१)
वि० [सं० कण्टकिन्] काँटेदार । कँटीला ।
⋙ कंटकी (२)
संज्ञा पुं० १. छोटी मछली । कँटवा । २. खैर का पेड़ । ३. मैनफल का पेड़ । ४. बाँस । ५. बैर का पेड़ । ६. गोखरू । ७. काँचेदार पेड़ ।
⋙ कंटकी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकी] भटकटैया ।
⋙ कंटकोद्धरण
संज्ञा पुं० [सं० कण्टकोद्धरण] १. काँटा निकालना । २. विघ्ननिवारण । ३. शत्रु का दमन । ४. राष्ट्र या समाजद्रोहियों का अनुशासन ।—मनु०, अ० ९ ।
⋙ कंटर
संज्ञा पुं० [अं० डिकेंटर] १. शीशे की बनी हुई सुंदर सुराही जिसमें शराब और सुगंध आदि पदार्थ रखे जाते हैं । यह अच्छे शीशे की होती है, इसपर बेल बूटे भी होते हैं । इसकी डाट शीशे की होती है । कराबा । २. चौडे मुँह की शीशी या बोतल । ३. कनस्टर (बोल०) ।
⋙ कंटल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टल] बबूल [को०] ।
⋙ कंटा
संज्ञा पुं० [सं० कांड] डेढ बालिश्त की एक पतली लकडी़ जिलके एक छोर पर चमडे का एक टूकडा लगा रहता है जिससे चुरिहारे चूडी रंगते हैं ।
⋙ कंटाइन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टक + हिं० आइन (प्रत्य०)] १. चुडैल । भुतनी । डाइन । २. लडाकी स्त्री । दुष्टा स्त्री । कर्कशा स्त्री ।
⋙ कंटाइन (२)+
वि० [देश०] १. नकद । २. ठीक ठीक । पक्का ।
⋙ कंटाप
संज्ञा पुं० [सं० कंटोप] किसी वस्तु का अलग हिस्सा जो भारी हों भारी सिरा । यौ०—कंटापदार = जिसका आगा भारी हो । जैसे,—कंटापदार जूता ।
⋙ कंटाफल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टाफल] कटहल [को०] ।
⋙ कंटाल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टालु] एक प्रकार का रामबाँस या हाथीचक जो बंबई, मदरास, मध्यभारत और गंगा के मैदानों में होता है । इसकी पत्तियों के रेशे से रस्सियाँ बटी जाती हैं ।
⋙ कंटालु
संज्ञा पुं० [सं० कण्टालु] अनेक वनस्पतियों के नाम । जैसे, वार्तकी, वंश, बर्बुर और बृहती (को०) ।
⋙ कंटाह्वय
संज्ञा पुं० [सं० कण्टाह्वय] पद्म की जड़ [को०] ।
⋙ कंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टक] १. पतली छोटी नोकदार नत्थी करने की तीली । २. पिन । ३. आलपिन ।
⋙ कंटी (१)
वि० [सं० कण्टिन्] काँटेवाला । कंटकयुक्त [को०] ।
⋙ कंटी (२)
संज्ञा पुं० अनेक वृक्षों के नाम, जैसे,—आवामार्ग, खदिर, गोक्षुर आदि [को०] ।
⋙ कंटूनमेंट
संज्ञा स्त्री० [अं० कैंटूनमेंट] वह स्थान जहाँ फौज रहती हों । छावनी ।
⋙ कंटोप
संज्ञा पुं० [हिं० कान + तोप] एक प्रकार की टोपी जिससे सिर और कान ढके रहते हैं । इसमें एक चँदिया के किनारे छह सात अंगुल चौडी दीवाल लगाई जाती है जिसमें चेहरे के लिये मुहँ काट दिया जाता है ।
⋙ कंट्रैक्ट
संज्ञा पुं० [अं०] ठेका । ठीका । इजारा ।
⋙ कंट्रैक्टर
संज्ञा पुं० [अं०] ठेकेदार या ठीकादार ।
⋙ कंट्रोल
संज्ञा पुं० [अं०] १. नियंत्रण । काबू । जैसे—इतनी बड़ी सभा पर कंट्रोल करना हँसी खेल नहीं । २. किसी वस्तु के समुचित वितरण के लिये सरकारी अधिकार । यौ०—कंट्रोल आफिस = वह कार्यालय जहाँ से कंट्रोल की कार्यवाही का संचालन होता है । कंट्रोल शाँप = कंट्रोल की दूकान ।
⋙ कंठ
संज्ञा पुं० [सं०कण्ठ] [वि० कंठय] १. गला । टेंटुआ । उ०— मेली कंठ सुमन की माला ।—मानस, ४ ।८ । यौ०—कंठमाला ।मुहा०—कंठ सूखना = प्यास से गला सूखना । २. गले की वे नलियाँ जिनसें भोजन पेट में उतरता है और आवाज निकलती है । घाँटी । यौ०—कंठस्थ । कंठाग्र । मुहा०—कंठ करना या रखना—कंठस्थ करना या रखना । जबानी याद करना या रखना । कंठ खुलना = (१) रुँधे हुए गले का साफ होना । (२) आवाज निकलना । कंठ फूटना = (१) वर्णों के स्पष्ट उच्चारण का आरंभ होना । आवाज खुलना । बच्चों की आवाज साफ होना । (२) बकारी फूटना । बक्कुर निकलना । मुँह से शब्द निकलना । (३) घाँटी फूटना । युवावस्था आरंभ होना पर आवाज का बदलना । कंठ बैठना या गला बैठना = आवाज का बेसुरा हो जाना । आवाज का भारी होना । कंठ होना = कंठाग्र होना । जबानी याद होना । जैसे,—उनको यह सारी पुस्तक कंठ है । ३. स्वर । आवाज । शब्द । जैसे,—उसका कंठ बडा़ कोमल है । उ०—अति उज्वला सब कालहु बसे । शुक केकि पिकादिक कंठहु लसै ।—केशव (शब्द०) । ४. वह लाल नीली आदी कई रंगों की लकीर जो सुग्गों, पंडुक आदि पक्षियों के गले के चारों ओर जवानी ममें पड़ जाती है । हँमली । कक्ष । उ०—(क) राते श्याम कंठ दुइ गीवाँ । तेहि दुई फंद डरो सठ जीवाँ ।—जायसी (शब्द०) । मुहा०—कंठ फूटना = तोते आदि पक्षियों के गले में रंगीन रेखाएँ पड़ना । हँसली पडना या फूटना । उ०—हीरामन हौं तेहिंक परेवा । कंठ फूट करत तेहि सेवा ।—जायसी (शब्द०) । ५. किनारा । तट । तीर । काँठा । जैसे,—वह गाँव नदी के कंठ पर बसा है । ६. अधिकार में । पास । उ०—निज कंठन षुरसांन । पृ० रा०, १३ ।११० । ।७. मैनफल का पेड़ । मदन वृक्ष ।
⋙ कंठकुब्ज
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठकुब्ज] संनिपात रोग का एक भेद । विशेष—यह तेरह दिन तक रहता है । इसमें सिर में पीडा और जलन होती है; सारा शरीर गरम रहता और दर्द करता है ।
⋙ कंठकूजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ठकूजिका] वीणा ।
⋙ कंठकूणिका
संज्ञा [सं० कण्ठकूजिका] वीणा ।
⋙ कंठगत
वि० [सं० कण्ठगत] गले में प्राप्त । गले में स्थित । गले में आया हुआ । गले में अँटका हुआ । मुहा०—प्राण कंठगत होना = प्राण निकलने पर होना । मृत्यु का निकट आना । उ०—प्राण कंठगत भयउ भुवालू ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कंठतः
क्रि० वि० [सं० कण्ठतः] १. कंठ या गले से । २. खुले रूप में या स्पष्टतया [को०] ।
⋙ कंठतलासिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्तलासिका] रस्सी या चमडे़ की पट्टी जो घोडे़ के गले में रहती है [को०] ।
⋙ कंठतालव्य
वि० [सं० कण्ठतालव्य] (वर्ण) जिनका उच्चारण कंठ और तालु स्थानों से मिलकर हो [को०] । विशेष—शिक्षा में 'ए' और 'ऐ' को कंठतालव्य वर्ण या कंठतालव्य कहते हैं । इसका उच्चारण कंठ और तालु से होता है ।
⋙ कंठत्राण
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठत्राण] लडा़ई में गले की रक्षा के लिये बनी हुई लोहे की जाली या पट्टी (को०) ।
⋙ कंठदबाव
संज्ञा पुं० [हिं० कंठ + दबाव] कुश्ती का एक पेंच जिसमें खिलाड़ी एक हाथ से अपने प्रतिद्वंदी के कंठ पर थाप मारता है और दूसरे हाथ से उसका उसी तरफ का पैर उठाकर उसे भीतरी अडा़नी टाँग मारकर चित कर देता है । इसे कठभेद भी कहते हैं ।
⋙ कंठनीलक
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठनीलक] १. मशाल । २. लूक । लुकारी । लुक्क [को०] ।
⋙ कंठभंग
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठभग्ङ] हकलाना । हकलाहट [को०] ।
⋙ कंठमणि
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठमणि] १. गले में पहना गया रत्न । उ०—गजमुकुता कर हार कंठमनि मोहइ हो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४ । २. घोडे की एक भँवरी जो कंठ के पास होती है । ३. अत्यंत प्रिय वस्तु (को०) ।
⋙ कंठमाला
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठमाला] गले का एक रोग जिसमें रोगी के गले में लगातार छोटी गिल्टियाँ या फुडि़याँ निकलती हैं ।
⋙ कंठला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कंठ + ला (प्रत्य०)] १. गले में पहनने का बच्चों का एक गहना । कठुला । विशेष—नजरबट्ट, बाघ का नख, दो चार तावीज आदि को तागे में गूथकर बालकों को उनके रक्षार्थ पहनाते हैं । २. घेरा डालना । घेरा । उ०—ऊड़छा उप्परि कंठला करि षराभष्षुरि अख्खुरे ।—पृ० रा० ४ ।१४ ।
⋙ कंठला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कंठला] बेत की बनी डलिया [को०] ।
⋙ कंठली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंठला] दे० 'कंठला' —२ । उ०—दुसेन्या दरस्सी कडे़ कंठली सी ।—रा० रू०, पृ० ३२ ।
⋙ कंठशालुक
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठशालुक] एक रोग जिसमें गले के भीतरी कफ के प्रकोप से बेर बराबर गाँठ उत्पन्न हो जाती है । वह गाँठ खुरखुरी होती है और काँटे की नाई चुभती है ।
⋙ कंठशुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ठशुण्डी] गले की ग्रंथि का शोथ या सूजन [को०] ।
⋙ कंठशूल
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठशूल] घोडे़ के गले की एक भौंरी जो दूषित मानी जाती है ।
⋙ कंठशोभा
संज्ञा पुं० [सं० कंण्ठ + शोभा] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ अक्षर होते हैं और लघु अक्षरों की स्थानसमता बनी रहती है । जैसे,— फिर हय बख्खर से । मेने फिर इंदुज पंख कसे । पृ० रा०, ९ ।३२ ।
⋙ कंठशोष
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठशोष] १. कंठ सूखना । गला सूखना । २. व्यर्थ विवाद [को०] ।
⋙ कंठश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गले का एक गहना जो सोने का और जड़ाऊ होता है । २. पोत की कंठी । गुरिया । घूटा ।
⋙ कंठसरी
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठश्री] दे० 'कंठश्री' —१' । उ०—कंठसरी बहु क्रांति मिलि मुकताहलाँ ।— बाँकीदास ग्रं०, भा० ३, पृ० ३६ ।
⋙ कंठस्थ
वि० [सं० कण्ठस्थ] १. गले में अटका हुआ । कंठगत । २. जबानी । जिह्नाग्र । कंठ । कंठाग्र ।
⋙ कंठहार
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठहार] गले में पहनने का एक गहना । हार ।
⋙ कंठा
संज्ञा पुं० [हिं० कंठ] [स्त्री० अल्पा० कंठी] वह भिन्न भिन्न रंगों की रेखा जो तोते आदि पक्षियों के गले के चारों ओर निकल आती है । हँसली । २. गले का एक गहना जिसमें बडे़ बडे़ मनके होते हैं । ये मनके सोने, मोती या रूद्राक्ष के होते हैं । ३. कुरते या अँगरखे का वह अर्धचंद्राकार भाग जो गले पर आगे की ओर रहता है । (दर्जी) । ४. वह अर्धचंद्राकार कटा हुआ कपडा़ जो कुरते या अंगे के कंठ पर लगाया जाता है । ५. पत्थर या मोढे़ की पीठ का वह जो बाग उपान ओर कारनिस के हीच में हो ।
⋙ कंठाग्र
वि० [सं० कण्ठाग्र] कंठस्थ । जबानी । बरजबान ।
⋙ कंठग्रहण पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठग्रहण] कंठश्लेष । कंठालिंगन । गले लगाना । उ०—दूरि थकाँ ही सज्जणाँ कंठग्रहण करंति ।—ढोला०, दू०, २१४ ।
⋙ कंठारूँधन पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठ + रोध] १. साँस रुकना । २. मृत्यु के निकट की अवस्था । उ०—कंठारूँधन भए मोह में लागा अजहूँ । —पलटू०, भा० १, पृ० २६
⋙ कंठाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाव । नौका । २. कुदाल । बेलचा । ३. युद्ध । लड़ाई । ४. मंथन का पात्र । ५. ऊँट । ६. एक खाद्य । कंद । सूरन । ७. पटेला । सरावन । ८. थैला [को०] ।
⋙ कंठाला
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ठाला] वह पात्र जिसमें मथने का कार्य किया जाय [को०] ।
⋙ कंठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लड़ीवाला हार [को०] ।
⋙ कंठी (१)
वि० [सं० कण्ठिन्] कंठ या ग्रीवा संबंधी [को०] ।
⋙ कंठी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ठी] १. कंठ । गला । २. हार । छोटे दानों का हार । ३. घोडे़ की गर्दन की रस्सी [को०] ।
⋙ कंठी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंठा का अल्पा० रूप] १. छोटी गुरियों का कंठ । २. तुलसी चंपा आदि के छोटे छोटे मनियों की माला जिसे वैष्णव लोग गले में बाँधते हैं । मूहा०—कंठी उठाना या छुना = कंठी की सौगंध खाना । कसम खाना । कंठी तोड़ना = (१) वैष्णवत्व का त्याग । मांस मछली फिर खाने लगना । (२) गुरू छोड़ना । कंठी देना = चेला करना या चेला बनान । कंठी बाँधना = (१) चेला बनान । चेला मूँड़ना । (२) अपना अंधभक्त बनाना । (३) वैष्णव होना । भक्त होना । (४) मद्य, मांस छोड़ना । (५) विषयों को त्यागना । कंठी लेना = (१) वैष्णव होना । भक्त होना । (२) मझ, माँस छोड़ना । (३) विषयों को त्यागना । ३. तोते आदि पक्षियों के गले की रेखा । हँसली । कंठी ।
⋙ कंठीर पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठीख] दे० 'कंठीरव' । उ०—सीत मेह मारुत तप सहणों शकस बतो कंठीर रहैं ।—रघु रू०, पृ० १०२ ।
⋙ कंठीरव
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठीरव] १. सिंह । २. कबूतर । ३. मतवाला हाथी । ४. स्पष्ट उक्ति । स्पष्टर्थक शब्दों में कथन [को०] ।
⋙ कंठील
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठील] १. ऊँट । २. वह पात्र जिसमें मथने का काम किया जाय [को०] ।
⋙ कंठीला
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ठीला] मंथन का पात्र [को०] ।
⋙ कंठेकाल
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठेकाल] शिव । महादेव [को०] ।
⋙ कंठौष्ठय
वि० [सं०] ध्वनि या वर्ण जो एक साथ कंठ और ओठ के सहारे से बोला जाय । विशेष—शिक्षा में 'ओ' और 'औ' कंठौष्ठ्य वर्ण कहलाते हैं ।
⋙ कंठय (१)
वि० [सं०] १. गले से उत्पन्न । २. जिसका उच्चारण कंठ से हो । ३. गले या स्वर के लिये हितकारी । जैसे,—कंठय औषध ।
⋙ कंठय (२)
संज्ञा पुं० १. वह वर्ण जिसका उच्चारण कंठ से होता है । हिंदी वर्णमाला में ऐसे आठ वर्णं हैं— अ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग । २. वह वस्तु जिसके खाने से स्वर अच्छा होता है या गला खुलता है । गले के लिये उपकारी औषध । विशेष—सोंठ, कुलंजन, मिरेच, बच, राई, पीपर, पान । गुटिका करि मुख मेलिए, सुर कोकिला समान ।—वैद्यजीवन (शब्द०) ।
⋙ कंडन
संज्ञा पुं० [सं० कण्डन] १. कूटना । २. पिटाई । ३. कुटाई । ४. भूसी अलग करना [को०] ।
⋙ कंडनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्डनी] १. ऊखल । २. मूसल [को०] ।
⋙ कंडम
वि० [अं० कंडेम] १. बेकार । २. नष्ट । ३. भ्रष्ट । उ०— लाख मन चावल कंडम हो गया ।—अभिशप्त, पृ० ५२ ।
⋙ कंडरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोटी नस । मोटी नाडी़ । विशेष—सुश्रुत में सोलह कंडराएँ मानी गई हैं जिनसे शरीर के अवयव फैलते और सिकुडते हैं ।
⋙ कंडसरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्ठश्री] दे० 'कंठश्री' । उ०—कंडसरी ग्रीवा श्रृत कुंडल, चंदण निले तिलक दुत चंद । रघु० रू०, पृ० २५३ ।
⋙ कंडहार
संज्ञा पुं० [सं० कणधार] दे० 'कर्णधार' । उ०—करे जीव भव पार कंडहार सो ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३२ ।
⋙ कंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्दन = मलत्याग] [स्त्री० अल्पा० कंडी] १. १. सूखा गोबर जो ईंधन के काम में आता है । मुहा०—कंडा होना = (१) सूखना । दुर्बल होना । ऐंठ जाना । (२) मर जाना । जैसे,—ऐसा पटका कि कंडा हो गया । २. लंबे आकार में पथा हुआ सूखा गोबर जो जलाने के काम में आता है । ३. सूखा मल । गोटा । सुद्दा ।
⋙ कंडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कण्डा] मूँज के पौधे का डंठल जिसके चिक, कलम, मोढे़ आदि बनाए जाते हैं । सरकंडा ।
⋙ कंडानक
संज्ञा पुं० [सं० कण्डानक] शिव का एक अनुचर [को०] ।
⋙ कंडारी
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधारिन्] १. जहाज का माँझी । (लश०) । २. नाव खेनेवाला । कर्णधार ।
⋙ कंडाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० कण्डोल] लोहे और पीतल आदि की चद्दर का बना हुआ कूपाकर एक गहरा बरतन जिसका मुँह गोल और चौड़ा होता है । इसमें पानी रखा जाता है ।
⋙ कंडाल (२)
संज्ञा पुं० [सं० करनाल; फा० करनाय] एक बाजा जो पीतल की नली का बनता है और मुँह में लगाकर बजाया जाता है । नरसिंहा । तुरही । तूरी ।
⋙ कंडाल (३)
संज्ञा पुं० [हिं० कंड = मूँज] जोलाहों का एक कैंवीनुमा औजार जिसपर ताना फैलाकर पाई करते हैं । विशेष—यह दो सरकंडों का बनता है । दो बराबर बराबर सरकंडों को एक साथ रखकर बीच में बाँध देते हैं । फिर उनको आडे़ कर आमने सामने के भागों को पतली रस्सी से तानते और ऊपर के सिरों पर तागा बाँधकर नीचे के सिरों को जमीन में गाड़ देते हैं । इस तरह कई एक को दूर दूर पर गाड़कर उनके सिरे पर बँधे तागों पर ताना फैलाते हैं ।
⋙ कंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्डिका] १. वेद की ऋवाओं का समूह । २. वैदिक ग्रंथों का एक छोटा वाक्य, खंड या अवयव । पैरा ।
⋙ कंडिया
संज्ञा स्त्री० [सं० करण्ड] १. बाँस की डोलची । २. पिटारी ।
⋙ कंडिल
वि० [सं० कण्डिल] प्रमत्त । मधुमत्त [को०] ।
⋙ कंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंडा] १. छोटा कंडा । गोहरी । उपली । २. सूखा मल । गोटा । सुद्द । ३. वह पात्र जिसमें कंडी जलाई जाय । अँगीठी । उ०—दोनों बच्चे मुश्की और हफजा कंडी (अँगीठी) को घेरकर बैठे रहे ।—फूलो०, पृ० ८१ ।
⋙ कंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० करण्ड] पीठ पर बाँधी जानेवाली वह टोकरी जिसमें बैठकर या सामान लादकर लोग बदरीनाथ, हिमालय पहाड़ पर यात्रा करते हैं ।
⋙ कंडील
संज्ञा स्त्री० [सं० कंदील] मिट्टी, अबरक या कागज की बनी हुई लालटेन जिलका मुँह ऊपर है । इसमें दीया जलाकर लटकाते हैं ।
⋙ कंडींलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंडील या पुर्त० गडील] १. वह ऊँचा धरहरा जिसके ऊपर रोशनी की जाती है । विशेष—यह समुद्र में स्थानों पर बनाया जाता है जहाँ चट्टानें रहतीं हैं और जहाज के टकराने का डर रहता है । जहाजों का ठीक मार्ग बतलाने का काम भी इससे लेते हैं । प्रकाश स्तंभ (लाइट हाउस) । २. वह बाँस जिसपर कंदील लटकाई जाय ।
⋙ कंडु
संज्ञा स्त्री० [सं० कंण्डु] खुजली । खाज ।
⋙ कंडुक
संज्ञा पुं० [सं० कण्डुक] १. भिलावाँ । २.तमाल । उ०— कालकंध तापिच्छ पुनि कंडुक सोह तमाल ।—प्रनेक (शब्द०) ।
⋙ कंडुघ्न (१)
वि० [सं० कण्डुघ्न] खुजली मिटानेवाला [को०] ।
⋙ कंडुघ्न (२)
संज्ञा पुं० सफेद सरसों ।
⋙ कंडुर
वि० [सं० कण्डुर] खुजली पैदा करनेवाला [को०] ।
⋙ कंडू
संज्ञा [सं० कण्डू] दे० 'कंडु' ।
⋙ कंडूयन
समज्ञा पुं० [सं० कण्डूयन] खुजलाहट [को०] ।
⋙ कंडूयनक
वि० [सं० कण्डूयनक] खुजली पैदा करनेवाला [को०] ।
⋙ कंडूयनीं
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्डूयनी] रगड़ने का काम आनेवाला एक प्रकार का ब्रुश [को०] ।
⋙ कंडूया
संज्ञा स्त्री० [पुं० कण्डूया] खुजली [को०] ।
⋙ कंडूरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्डूरा] केवाँच [को०] ।
⋙ कंडूल (१)
वि० [सं० कण्डूल] खुजली पैदा करनेवाला । सुरसुरी उत्पन्न करनेवाला । [को०] ।
⋙ कडूल (२)
संज्ञा पुं० सूरन । ओल । जमीकंद [को०] ।
⋙ कंडोध
संज्ञा पुं० [सं०] कीडे़ की दशा के प्राप्त रोएँदार अपूर्ण पतंग । डिंभ । कमला । झाँझा । इल्ली [को०] ।
⋙ कंडोल
संज्ञा पुं० [सं० कण्डोल] १. बेत या बाँस का बना टोकरा । २. बडी़ दौरा । ३. भांडारगृह । ४. ऊँट [को०] ।
⋙ कंडोलक
संज्ञा पुं० [सं० कण्डोलक] १. डलिया । टोकरा । टोकरी । २.भांडारगृह [को०] ।
⋙ कंडोलवीणा
संज्ञा पुं० [सं० कण्डोलवीणा] चांडालवीणा । किंगरी ।
⋙ कंडोर
संज्ञा पुं० [सं० कण्डु या देश० अथवा हिं० काँढो] १. अन्न का एक रोग । विशेष—यह रोग प्राय? ऐसे अन्नों को होता है जिसमें बाल लगती है, जैसे धान गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि । बाल में काले रंग की चिकनी धूल या भुकडी़ बैठ जाती है । इससे बाल में दाने नहीं पड़ते और फसल को बडी़ हानि होती है । कँडुआ और कँजुआ भी कहते हैं । २. दे० 'कंडौरा' ।
⋙ कंडोष
संज्ञा पुं० [सं० कण्डोष] १. डिंभ । इल्ली । २. बिच्छू [को०] ।
⋙ कंडौरा
संज्ञा पुं० [हिं० कंडा + औरा (प्रत्य०)] १. वह स्थान जहाँ कंडा पाथा जाता है । गोहरौर । २. वह घर जिसमें कंडे रखे जाते हैं । गोठौला । २. कंडों का देर जिसके ऊपर से गोबर छोप देते हैं । बठिया ।
⋙ कंत (१)
वि० [सं० कन्त] प्रसन्न । आनंदित [को०] ।
⋙ कंत (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कान्त] १. पति । स्वामी । उ०—मदन लाजवश तिय नयन देखत बनत एकंत । इँचे खिंचे उत फिरत ज्यों दुनारि को कंत ।—पझाकर (शब्द०) । २. मालिक । ईश्वर । उ०—तू मेरा हौं तेरा गुरू सिष कीया मंत । दूनों भूल्या जात है दादू बिसरया कंत ।—दादू (शब्द०) ।
⋙ कंतरि पु
संज्ञा पुं० [सं० कान्तार] वन । जंगल ।
⋙ कंता पु †
संज्ञा पुं० [सं० कान्त] दे० 'कंत' । उ०—(क) तब जान्यो कमला के कंता ।— सूर० (राधा०), पृ० ४५० । (ख) जैसे कंता घर रहे वैसे रहे बिदेस (कहावत) ।
⋙ कंतार पु
संज्ञा पुं० [सं० कान्तार] जंगल । वन ।
⋙ कंति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्ता] दे० 'कांता' । उ०—कहै कंति सम कंत, तंत पावन बड़ कब्बिय । पृ० रा० १ ।७ ।
⋙ कंतित
संज्ञा पुं० [देश०] एक पुरानी राजधानी जिसके खंडहर मिर्जापुर के पश्चिम गंगा के किनारे पर हैं और जहाँ इस नाम का एक गाँव भी है । मिथ्यावासुदेव की राजधानी यहीं थी ।
⋙ कंतु (१)
वि० [सं० कान्त, कन्तु] प्रसन्न ।
⋙ कंतु (२)
संज्ञा पुं० १. कामदेव । २. ह्दय । ३. अन्न का भांडार । ४. प्रेमी [को०] ।
⋙ कंथ पु †
संज्ञा पुं० [सं० कान्त] दे० 'कंत (२)' । उ० कंथ बुलाय केकेई कहियो, आप बचन पूरीजै आस ।—रघु० रू०, पृ० १०० ।
⋙ कंथा
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्था] १. गुदडी़ । उ०—फारि पटोर सो पहिरौं कंथा । जो मोहिं कोउ दिखावै पंथा ।—जायसी (शब्द०) २. कथडी़ । कथरी (को०) । ३. भीत । दीवार (को०) । ४. नगर । शहर (को०) । ५. जोगियों का पहनावा या परिधान (ला०) ।
⋙ कंथाधारी
वि० [सं० कन्थाधारिन्] कंथा धारण करनेवाला योगी । जोगी [को०] ।
⋙ कंथारी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ कंथी
संज्ञा पुं० [सं० कन्थिन्] गुदडी़ पहननेवाला व्यक्ति । फकीर । उ०—जोगि जती अरु आवहिं कंथी । पूछै पियहि जान कोइ पंथी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कंद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जड़ जो गूदेदार और बिना रेशे की हो । जैसे—सूरन, मूली, शकरकंद इत्यादि । यौ०—जमीकंद । शकरकंद । बिलारीकंद । २. सूरन । ओल काँद । उ०—चार सवा सेर कंद मँगाओ । आठ अंश नरियर लै आओ ।—कबीर सा०, पृ० ५४९ । ३. बादल । घन । उ०—यज्ञोपवीत विचित्र हेममय मुत्तामाल उरसि मोहि भाई । कंद तडित बिच ज्यों सुरपति धनु निकट बलाक पाँति चलि आई ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—आनंदकंद । ४.तेरह अक्षरों का एक वर्णवत जिसके प्रत्येक चरण में चार यगण और अंत में एक लघु वर्ण होता हे (य य य य ल) । जैसे,—हरे राम हे राम हे राम हे राम । करो मो हिये में सदा आपनो धाम ।—(शब्द०) । ५. छप्पय छंद के ७१ भेदों में से एक जिसमें ४२ गुरु ६८ लघु, ११० वर्ण और १५२ मात्राएँ, अथवा ४२ गुरू ६४ लघु । १०६ वर्ण और १४८मात्राएँ होती हैं । ६. योनि का एक रोग जिसमें बतौरी कीं तरह गाँठ बाहर निकल आती है । ७. शोय । सूजन (को०) । ८. गाँठ (को०) । ९. लहसुन (को०) ।
⋙ कद (२)
संज्ञा पुं० [फा०] जमाई हुई चीनी । मिस्री । उ०—हक में आशिक के तुझल बाँका बचन । कंद है नेशकर है शक्कर है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३९ । यौ०—कलाकंद । गुलकंद ।
⋙ कंदक
संज्ञा पुं० [सं० कन्दक] पालकी [को०] ।
⋙ कंदगुडुची
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दगुडुची] एक प्रकार की गुडुची । पिंडालू । बहुच्चिन्ना [को०] ।
⋙ कंदन
संज्ञा पुं० [सं० कन्दन] नाश । ध्वंम ।
⋙ कंदमूल
संज्ञा पुं० [सं० कन्दमूल] १. कंद और मूल । २. तौन चार हाथ ऊँचा एक पौधा । विशेष—इसका पत्ता सेमल के पत्ते सा होता है । इसकी जडी़ मोटी, लंबी और गूदेदार होती है । इसकी डालियाँ जमीन में लगती हैं । नैपाल की तराई में पहाडों के किनारे यह बहत मिलता है । लकडी पोली और निकम्मी होती है । जड़ को लोग उबालकर या तरकारी बनाकर खाते हैं ।
⋙ कंदर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कन्दर] [स्त्री० कन्दरा] १. गुफा । गुहा । उ०—कंदर खोह नदी नद नारे । अगम अगाध न जाहिं निहारे ।—तुलसी (शब्द०) । २. अंकुश । ३. सोंठ । शुंठी (को०) । ४. मेघ । बादल (को०) ।
⋙ कंदर (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्द] मूल । जड़ ।
⋙ कंदरफ पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दर्प] दे० 'कंदर्प' । उ०—कठण लहरि कंदरफ की पलटूं गुर जी ।—रामानंद०, पृ० १५ ।
⋙ कंदरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दरा] १. गुफा । गुहा । उ०—मानहुँ पर्वत कदरा, मुख सब गये समाइ ।—सूर०, १० ।४३१ । २. घाटी । उपत्यका (को०) ।
⋙ कंदराकर
संज्ञा पुं० [सं० कन्दराकर] पर्वत ।—डिं० ।
⋙ कंदराल
संज्ञा पुं० [सं० कन्दराल] अखरोट ।
⋙ कंदरिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्द]दे० कंद । मूल । जूड़ ।
⋙ कंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दरी] दे० 'कंदरा' [को०] ।
⋙ कंदर्प
संज्ञा पुं० [सं० कंदर्प] १. कामदेव । यौ०—कंदर्पकूप = भग । योनि । कन्दर्पज्वर = काम का ज्वर । कंदर्पदहन = शिव । कंदर्पमथन = शिव । कंदर्पमुषल, कंदर्प- मुसल = लिंग । शिश्न । कंदर्पशृंखल = (१) रतिच्छद । (२) एक प्रकार का रतिबंध । २.संगीत में रूद्रताल के ११ भेदों में से एक । ३. संगीत में एक प्रकार का ताल जिसमें क्रम से दो द्रुत, एक लघु और दो गुरु होते । इसके पखावज के बोल इस प्रकार हैं — तक जग धिमि जक धीकृत धीकृत s । ४. प्रणय । प्यार (को०) ।
⋙ कंदल (१)
संज्ञा पुं० [सं० कन्दल] १. नया अँखुआ । उ०—नवल विकच कंदल कुल कलिका जगमोहन अकुलावै ।—श्यामा०, पृ० ११९ । २. कपाल । ३. सोना । ४. वादविवाद । कचतच । वाग्युद्ध । ५. निंदा । उ०—लगले मद्ये गारि कंदल धरहलि हरहलि चोट ।—वर्ण० पृ० २ ।६ । युद्ध । उ०—सालुले विदल कंदल ससत्र । —रा० रू०, पृ० ७३ । ७. मधुर ध्वनि या स्वर (को०) । ८. एक प्रकार का केला ।
⋙ कंदल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दरा] दे० 'कंदरा' । उ०—पग टोडर कंदल ही जु ठयो ।—पृ० रा०, १ ।५५३ ।
⋙ कंदला (१)
संज्ञा पुं० [सं० कन्दल = सोना] १. चाँदी की वह गुल्ली या लंबा छड़ जिससे तारकश तार बनाते हैं । पासा । रैनी । गुल्ली । विशेष—तार बनाने के लिये चाँदी को गलाकर पहले उसका एक लंबा छड़ बनाया जाता है । इस छड़ के दोनों छोर नुकीले होते हैं । अगर सुनहला तार बनाना होता है, तो उसके बीच में सोने का पत्तर चढा़ देते हैं, फिर असको यंत्री में खींचते हैं । इस छड़ को सुनार गुल्ली ओर तारकश कंदला, पासा ओर रैनी कहते हैं । मुहा०—कंदला गलाना = (१) चाँदी और सोना मिलाकर एक साथ गलाना । (२) सोने या चाँदी का पतला तार । यौ०—कंदलाकश । कंदलाकचहरी ।
⋙ कंदला (२)
संज्ञा पुं० [सं० कन्दल] एक प्रकार का कचनार । दे० 'कचनार' ।
⋙ कंदला (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दरा] कंदरा । गुफा । उ०—दिक्यौ सुवीर कंहला रोह ।—पृ० रा०, १ ।३९८ ।
⋙ कंदला कचहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन्दला + कचहरी] वह जगह जहाँ कंदलाकशी का काम होता है । तार का कारखाना । कंदले का कारखाना ।
⋙ कंदलाकश
संज्ञा पुं० [सं० कन्दला + फा० कश] तार खींचनेवाला । जो तारकशी का काम करता हो । तारकश ।
⋙ कंदलाकशी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन्दला + फा० कश +ई (प्रत्य०)] तार खींचने का काम ।
⋙ कंदलित
वि० [सं० कन्दलित] १. प्रस्फुटित । खिला हुआ । २. उद्गगत । निकला हुआ [को०] ।
⋙ कंदलिवास पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दल = सोना + वास = निवास] हिरण्यगर्भ । परमात्मा । ब्रह्म । उ०—काया माहैं कंदसिवासा । काया माहैं है कैलाशा । —दादू०, पृ० ६४१ ।
⋙ कदली
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दली] १. एक पौधा जी नदियों के किनारे पर होता है । बरसात में इसमें सफेद सफेद फूल लगते हैं । २. केला (को०) । ३. हिरन की एक किस्म (को०) । ४. पताका (को०) । ४. कमलगट्टा (को०) ।
⋙ कंदलीकुसुम
संज्ञा पुं० १. [सं० कन्दलीकुसुम] कुकुरमुत्ता । २. केले का फूल [को०] ।
⋙ कंदवधन
संज्ञा पुं० [सं० कन्दवर्धन] सूरन । ओल [को०] ।
⋙ कंदशूरण
संज्ञा पुं० [सं० कन्दशूरण] ओल । जमीकंद [को०] ।
⋙ कंदसार
संज्ञा पुं० [सं० कन्दसार] १. नंदनवन । इंद्र का बगीचा । २. हिरन की एक जाति ।
⋙ कंदा
संज्ञा पुं० [सं० कन्द] दे० 'कंद' । २. शकरकंद । गंजी । †३. घुइयाँ । अरूई ।
⋙ कंदाकारी
संज्ञा स्त्री० [फा० कन्दहकारी] वे बेलबूटे जो सोने, चाँदी लकडी़ या पत्थर पर बनते हैं । नक्काशी ।—पा० सा०, पृ० १२९ ।
⋙ कंदालु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दालु] वनकंद । जंगली कंद [को०] ।
⋙ कंदिरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्दिरी] लाजवंती । लजालू या लजाधुर नाम का पौधा [को०] ।
⋙ कंदी
संज्ञा पुं० [सं० कन्दिन्] १. सूरन । ओल । २. मूली ।—देशी०, पृ० ८० ।
⋙ कंदीत
संज्ञा पुं० [प्र०] जैन मत के अनुसार एक प्रकार के देवगण जो वारणव्यंतर के अंतर्गत हैं ।
⋙ कंदील (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कन्दील०] अबरक, कागद या मिट्टी का वह घेरा जिसमें रखकर दीपक जलाते हैं और ऊँचाई पर टाँग देते हैं ।
⋙ कंदील (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कंडाल] जहाज में वह स्थान जहाँ पानी रहता है और लोग पायखाना फिरते और नहाते हैं । सेतखाना ।
⋙ कंदीलची
संज्ञा पुं० [अ० कंदील + तु० ची (प्रत्य०)] वह आदमी जो मस्जिद में कंदल जलाने का काम करता हो ।
⋙ कंदु
संज्ञा पुं० स्त्री [सं० कन्दु] १. भट्ठी । भट्ठा । २. भाड़ ३. कडा़ही । ४. तवा । ५. गेंद । ६. पका हुआ अथवा भना हुआ अन्न [को०] ।
⋙ कंदुक
संज्ञा पुं० [सं० कन्दुक] १. गैंद । यौ०—कन्दुकतीर्थ । २. गोल तकिया । गलतकिया । गेंडुआ ।३. सुपारी । पुंगीफल । ४. एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार यगण और एक लघु होता है । जैसे,—यूचौ गाइ कै कृष्ण को राधिका साथ । भजो पाद पाथोज नैके सदा माथ ।—(शब्द०) ।
⋙ कंदुकतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० कन्दुकतीर्थ] ब्रज का एक तीर्थ जहाँ श्रीकुष्ण जी ने गेंद खेली थी ।
⋙ कंदुगृह
संज्ञा पुं० [सं० कन्दुगृह] पाकाशाला ।
⋙ कंदुपक्व
वि० [सं० कन्दुपक्व] भाड़ में भुना हुआ (अन्न) ।
⋙ कंदू पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम, प्रा० कद्दम, पु काँदो, पु कंदो] दे० 'काँदो' । कीचड़ । उ०—अगनि जु लागी नीर मैं, कंदू जलिया झारि ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११ ।
⋙ कंदूरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. कुँदरू के आकारवाला ।२. बवासीर का मसा ।—माधव०, पृ० ५५ ।
⋙ कंदूरी
संज्ञा पुं० [फा०] वह खाना जिससे मुसलमान बीबी फातमा या किसी पीर के नाम का फातिहा करते हैं ।
⋙ कंदेब
संज्ञा पुं० [देश०] पुन्नाग या सुलताना चंपा की जाति का एक वृक्ष । विशेष—यह उत्तरी और पूर्वी बंगाल में होता है । इसकी लकड़ी मजबूत होती है और नाव या जहाज का मस्तूल बनाने के काम में आती है ।
⋙ कंदोई
संज्ञा पुं० [सं० कान्दविक] १. एक जाति ।२. मिठाई बनानेवाला ।३. हलवाई ।—अर्ध०, पृ० ४ ।
⋙ कंदोट, कंदोट्ट
संज्ञा पुं० [सं० कन्दोट, कन्दोट्ट] १. सफेद कमल । २. नील कमल [को०] ।
⋙ कंदोत
संज्ञा पुं० [सं० कन्दोत] श्वेत कमल [को०] ।
⋙ कंदोरा
संज्ञा पुं० [प्रा० कणि+सं० दोरक] १. कमर में पहना सूत्र । करगता ।२. करधनी ।
⋙ कंद्रप पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दर्प] दे० 'कंदर्प' । उ०—सरस परस्पर मुदित, उदित कंद्रप तन चीने ।—हम्मीर रा०, पृ० ४३ ।
⋙ कंध (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध] १. दे० 'कंधा' । २. डाली । उ०— अव्यक्त मूलमनादि तरुत्वच चारि निगमागम भने षट्कंध शाखा पंचबीस अनेक पर्ण सुमन घने ।—तुलसी (शब्द०) । ३. योग शास्त्र में प्रसिद्ध नाड़ियों का एक पुतला जिसका शास्त्रीय नाम कंद है ।—प्राण०, पृ० २० ।
⋙ कंध (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्ध] १. मेघ । बादल ।२. मुस्ता । मोथा [को०] ।
⋙ कंधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कटिबन्धनी] कमर में पहनने का एक गहना । किंकिणी । मेखला ।
⋙ कंधर
संज्ञा पुं० [सं० कन्धर] १. गरदन । ग्रीवा । उ०—मैं रघुबीर दूत दसकंधर ।—मानस०, ६ । २० ।२. बादल ।३. मुस्ता । मोथा ।
⋙ कंधरा
संज्ञा स्त्री० [कन्धरा] दे० 'कंदर१' ।
⋙ कंधराबध
संज्ञा पुं० [सं० कन्धरावध] कंधा काटने का दंड (को०) । विशेष—किले में घुसने या सेंध लगाने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य आदि के समय में यह दंड प्रचलित था । प्रायः लोग २०० पण देकर इस दंड से बच जाते थे ।
⋙ कंधा
संज्ञा पुं० [सं० स्कंध, प्रा० कंध] १. मनुष्य के शरीर का वह भाग जो गले और मोढ़े के बीच में है । मुहा०—कंधा देना = (१) अरथी में कंधा लगाना । अरथी को कंधे पर लेना या लेकर चलना । शव के साथ श्मशान तक जाना । (२) सहारा देना । सहायता देना । मदद देना । कंधा बदलना = (१) बोझ को एक कंधे से दूसरे कंधे पर लेना । (२) बोझ को दूसरे कंधे पर से अपने कंधे पर लेना । कंधा भरना; कंधा भर आना = बोझ के कारण पालकी ढोनेवालों के कंधे का फूल जाना या भारीपन जान पड़ना । कंधा लगना = पहले पहल या दूर तक पालकी आदि ढोने से कंधे का कल्लाना । कंधे की उड़ान = मालखंभ की एक कसरत जिसमें कंधे के बल उड़ते हैं । २. बाहुमूल । मोढ़ा । मुहा०—कंधे से कंधा छिलना = बहुत अधिक भीड़ होना । जैसे,—मंदिर के फाटक पर कंधे से कंधा छिलता था, भीतर जाना कठिन था । ३. बैल की गर्दन का वह भाग जिसपर जुआ रखा जाता है । मुहा०—कंधा डालना = (१) बैल का अपने कंधे से जुआ फेंकना । जुआ डालना । (२) हिम्मत हारना । थक जाना । साहस छोड़ना । कंधा लगना = जूए की रगड़ से कंधे का छिल जाना । उ०—लग गया कंधा बला से लग गया ।—चुमते०, पृ० ३७ । कंधे से कंधा मिलाना = अवसर पड़ने पर पूर्ण सहयोग देना ।
⋙ कंधाना पु
क्रि० अ० [हिं० कंधा] १. कंधे पर लेना ।२. कंधा लगाना । उ०—भनत गणेश महापात्र को खिताब दै के, पालकी चढ़ाय लै अकबर कंधाते हैं ।—अकबरी०, पृ० ७५ ।
⋙ कंधार (१)
संज्ञा पुं० [सं० गान्धार, मि० फा० कंदहार] [वि० कंधारी] अफगानिस्तान के एक नगर और प्रदेश का नाम ।— हुमायूँ०, पृ० ५ ।
⋙ कंधार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार, प्रा० कण्णधार] [वि० कंधारी] केवट । मल्लाह । उ०—(क) जो लै भार निबाह न पारा । सों का गरब करे कंधारा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) राम प्रताप सत्य सीता को यहै नाव कंधार । बिनु अधार छन में अवलंब्यो आवत भई न बार ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कंधारी (१)
वि० [हिं० कंधार] जो कंधार देश में उत्पन्न हुआ हो । कंधार का (घोड़ा, अनार आदि) ।
⋙ कंधारी (२)
संज्ञा पुं० घोड़े की एक जाति जो कंधार देश में होती है ।
⋙ कंधारी (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण+धारिन्] मल्लाह । केवट । माँझी । यौ०—कंधारी जहाज = डाकुओं का जहाज (लश०) ।
⋙ कंधेला
संज्ञा पुं० [हिं० कंधा+एला (प्रत्य०)] स्त्रियों की साड़ी का वह भाग जो कंधे पर पड़ता है । मुहा०—कँधेला डालना = साड़ी के छोर को सिर पर से न ले जाकर बाएँ कंधे पर से ले जाना । उ०—डोलत दिमाग डूबी डग देत दीठि लागै डेरे कर डारन डरौवन कँधेला की ।— पजनेस (शब्द०) ।
⋙ कंन पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] कान । कर्ण । उ०—डुलै कंन नाहीं सिलीका सुग्रीवं ।—पृ०, रा०, २५ । २०९ ।
⋙ कंप (१)
पुं० [सं० कम्प] १. कँपकँपी । काँपना ।२. शृंगार के सात्विक अनुभावों में से एक । इसमें शीत, कोप और भय आदि से अकस्मात् सारे शरीर में कँपकँपी सी मालूम होती है ।३. शिल्पशास्त्र में मंदिरों या स्तंभों के नीचे या ऊपर की कँपनी । उभड़ी हुई कँगनी । यौ०—कंपज्वर = शीतज्वर । बुखार । कंपमापक = भूकंप मापक यंत्र । कंपवायु = एक प्रकार की वातव्याधि जिसमें मस्तक और सब अंगों में वायु के दोष से कंपन होता है ।—माधव०, पृ० १४६ । कंपविज्ञान = भूकंप संबंधी विज्ञान ।
⋙ कंप (२)
संज्ञा पुं० [सं० कंप] पड़ाव । लशकर । डेरा । उ०—साथ में कंप बहुत बड़ा है ।—हुमायूँ०, पृ० ८० ।
⋙ कंपति
संज्ञा पुं० [सं० कम्पति] समुद्र । उ०—सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीस ।—मानस, ६ । ५ ।
⋙ कंपन
संज्ञा पुं० [सं० कम्पन] [वि० कपित] १. काँपना । थरथराहट । कँपकँपी ।२. शिशिर काल (को०) ।
⋙ कंपना पु
क्रि० अ० [सं० कम्पन] १. काँपना । थरथराना ।२. हिल उठना । उ०—(क) भएउ कोप कंपेउ त्रैलोका ।— मानस, १ । ८७ । (ख) फागुन कंप्या रूख ।—बी० रासो, पृ० ६२ । (ग) कंपत चैतन रूप कहा जर जरत समूरे ।—हम्मीर रा०, पृ०२२ ।
⋙ कंपनी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. व्यापारियों का वह समूह जो अपने संयुक्त धन से नियमानुसार व्यापार करता हो ।२. इंगलैंड के व्यापारियों का वह समूह जो सन् १६०० ई० में बना था । विशेष—रानी एलीजाबेथ प्रथम की आज्ञा पाकर इस समूह ने भारतवर्ष में व्यापार करना प्रारंभ किया । इसने यहाँ पहले कोठियाँ बनाईं, फिर जमींदारी खरीदी और बढ़ते बढ़ते देश के बहुत से प्रांतों पर अधिकार कर लिया । यौ०—कंपनी कागद = प्रामिसरी नोट । ३. सेना का वह भाग जिसमें १८०० सैनिक होते हैं ।४. मंडली । जत्था ।
⋙ कंपमान
वि० [सं० कम्पमान] दे० 'कंपायमान' ।
⋙ कंपस पु
संज्ञा पुं० [अं० कंपास] दे० 'कंपास' । कुतुबनुमा । दिग्दर्शक । उ०—तोही सो अरुझे खरे कंपस से जुग नैन ।— श्यामा०, पृ० १७४ ।
⋙ कंपा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कम्(= गाँठ)+पाश या हिं० कंप] बाँस की पतली पतली तीलियाँ जिनमें बहेलिए लासा लगाकर चिड़ियों को फँसाते हैं । उ०—लीलि जाते बरही बिलीक बेनी बनिता की जो न होती गूंथनि कुसुमसर कंपा की ।—(शब्द०) । विशेष—यह दस पाँच पतली पतली तीलियों का कूँचा होता है । इसे पतले बाँस के सिरे पर खोंसकर लगाते हैं और फिर उस बाँस को दूसरे में और उसे तीसरे में इसी तरहखोंसते जाते हैं । इससे पेड़ पर बैठी हुई चिड़ियों को फँसाते हैं । बाँस को खोंचा और कूँचे को कंपा कहते हैं । मुहा०—कंपा मारना या लगाना = (१) चिड़ियों को कंपे से मारना या फँसाना । (२) धोखे से किसी को अपने वश में करना । फँसाना । दाँव पर चढ़ाना । उ०—अब तुम माशा अल्लाह से सयानी हो । नेक बद समझ सकती हो । अगर यहाँ कंपा न मारा तो कुछ भी न किया ।—सैर०, पृ० २८ ।
⋙ कंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्पा] १. काँपना ।२. भय । डर ।३. हिलना । आंदोलन [को०] ।
⋙ कंपाउंड
संज्ञा पुं० [अं०] १. अहाता । चहारदीवारी के भीतर की खुनी जगह । घेरा ।२. दवाइयों का मिश्रण ।
⋙ कंपाउंडर
संज्ञा पुं० [अं०] डाक्टर का सहायक जो औषधियों के मिलने का कार्य करता है । औषधियोजक ।२.डाक्टरी के कार्य में आवश्यक उपकरण जुटानेवाला और निर्देशक के अनुसार डाक्टर का सहायक ।
⋙ कंपाउंडरी
संज्ञा स्त्री० [अँ० कपाउंडर+वि० ई (प्रत्य०)] १. कंपाउंडर का कार्य ।२. कंपाउंडर की वृत्ति ।
⋙ कंपाक
संज्ञा पुं० [सं० कम्पाक] हवा । वायु [को०] ।
⋙ कंपाना पु
क्रि० सं० [हिं० कँपना का प्रे०] १. हिलाना । हिलाना- डोलाना ।२. भय दिखाना । डराना ।
⋙ कंपायमान
वि० [सं० कम्पायमान] हिलता हुआ । कंपति ।
⋙ कंपास
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार का यंत्र जिससे दिशाओं का ज्ञान होता है । दिग्दर्शक । कुतुबनुमा । विशेष—यह एक छोटी सी डिबिया होती है जिसमें चुंबक की एक छोटी सी सूई होती है जिसका सिरा सदा उत्तर को रहता है । इसमें लोगों को दिशाओं का ज्ञान होता है । यह समुद्र में माझियों और स्थल में नापनेवालों और नकशे बनानेवालों के लिये बड़ा उपयोगी है । यौ०—कंपासघर = जहाज में वह स्थान जहाँ कंपास रहता है । २. परकार । ज्यामिति के काम में आनेवाला एक मापयंत्र । ३. एक यंत्र जिससे पैमाइश में लैन डालते समय समकोण का अनुमान किया जाता है । अं० राइटैंगिल । मुहा०—कंपास लगाना = (१) नापना । (२) ताक झाँक करना । फँसाने की घात में रहना ।
⋙ कंपित
वि० [सं० कम्पित] काँपता हुआ । अस्थिर । चलायमान । चंचल । उ०—छोभित सिंधु, सेष सिर कंपित पवन भयो गति पंग ।—सूर० ९ । १५८ ।२. भय भीत । डरा हुआ ।
⋙ कंपिल
संज्ञा पुं० [सं० कम्पिल्ल, काम्पिल्य] फर्रुखाबाद जिले का एक पुराना नगर । कंपिला । विशेष—यह पहले दक्षिण पांचाल की राजधानी था और यहाँ द्रोपदी का स्वयंवर हुआ था ।
⋙ कंपिल्ल
संज्ञा पुं० [सं० कम्पिल्ल] कमीला ।—पृ० सं०, पृ० २५९ ।
⋙ कंपींटीशन
संज्ञा पुं० [अं० कंपिटीशन] प्रतिद्वंद्विता । स्पर्धा । उ०— अच्छी सरकारी नौकरी की राह में कंपीटीशन की कसौटियाँ हैं ।—प्रभिशप्त०, पृ० ७१ ।
⋙ कंपू
संज्ञा पुं० [अं० कैंप] १. वह स्यान जहाँ फौज रहती हो । छावनी । उ०—कंपू बन बाग के कदंब कपतान खड़े ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० ३२० ।२. वह स्थान जहाँ लड़ाई के समय फौज ठहरती है । पड़ाव । जनस्थान ।३. डेरा । खेमा ।४. फौज । सेना । दे० 'कंपनी' । मुहा०—कंपूका बिगड़ा हुआ = (१) लुच्चा या गुंडा । (लश०) । (४) बागी ।
⋙ कंपोज
संज्ञा पुं० [अं० कंपोज] शब्दों और वाक्यों के अनुसार टाइप के अक्षरों को जोड़ना । जैसे,—(क) आज प्रेस में कितना मैटर कंपोज हुआ । (ख) तुमने कल कितनी गेली कंपोज की थी ? क्रि० प्र०—करना । होना ।
⋙ कंपोजिंग
संज्ञा स्त्री० [अं० कंपोजिंग] १. कंपोज करने का काम । २. कंपोज करने की मजदूरी । कंपोज कराई ।
⋙ कंपोजिंग स्टिक
संज्ञा स्त्री० [अ० कंपोजिंग स्टिक] कंपोजिटर का एक औजार जिसपर अक्षर बैठाए जाते हैं ।
⋙ कंपोजिटर
संज्ञा पुं० [अं० कंपोजिटर] छापेखाने का वह कर्मचारी जो छापने के मैटर के अक्षरों कों छापने के लिये क्रम से बैठाता है ।
⋙ कंपोजिटरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंपोजिटर+ई (प्रत्य०)] कंपोजिटर का पद । जैसे,—कंपोजिटरी का खयाल छोड़ो ।२. कंपोजिटर का नाम ।
⋙ कंपौडर
संज्ञा पुं० [अं० कंपाउडर] दवा बनानेवाला । डाक्टर को दवा तैयार करने में सहायता पहुँचानेवाला ।
⋙ कंपौंडरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंपौडर+इ (प्रत्य०)] १. कंपौडर का काम ।२. कंपौंडर का काम करने की उजरत ।३. कंपौंडर का पद ।
⋙ कंप्र
वि० [फा० कम्प्र] काँपता हुआ । हिलता हुआ । चल । स्फूर्त । तेज [को०] ।
⋙ कंफहम
वि० [फा० कम+फ़हम] १. कम अकल ।२. मूर्ख । उ०— कंफहम आदमी की राय मुस्तहकिम नहीं होती ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१ ।
⋙ कंब पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बा] छड़ी । यष्टि । हाथ में शौक से रखने की छड़ी । उ०—धँण कँणयररी कंब ज्यउँ, सूकी तोइ सुरत्ति ।—ढोला०, दू० १३५ । मुहा०—कंब लगाना = छड़ी या लकड़ी से मरना । उ०—मारू मन चिंता धरइ करहइ कंब लगाइ ।—ढोला०, दू० ६३४ ।
⋙ कंबखत †पु
वि० [हिं०] दे० 'कमबख्त' ।
⋙ कंबड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बा+हिं० डी (प्रत्य०)]दे० 'कंब' । उ०—सड़ सड़ वाहि म कंबड़ी राँगाँ देह म चूरि ।—ढोला० दू०, ४९२ ।
⋙ कंबर (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल पु कम्पर] पुं० 'कंबल' । उ०— वैसैंई कंबर अंबर हार । वैसैंइ सहज आहार विहार ।—नंद ग्रं०, पृ० २६५ ।
⋙ कंबर (२)
वि० [सं० कर्वुर, कम्बु] अनेक वर्णों का चित्त । चितकबरा [को०] ।
⋙ कंबर (३)
संज्ञा पुं० टितकबरा रंग । मिश्रित रंग । चित्रवर्ण [को०] ।
⋙ कंबल
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] [स्त्री० अल्पा० कमली] १. ऊन का बना हुआ मोटा कपड़ा जिसे गरीब लोग ओढ़ते हैं । यह भेड़ों के ऊन का बनता है और इसे गड़ेरिए बुनते हैं । उ०— पहिरण ओढ़ण कबला साठे पुरिसे नीर ।—ढोला० दू० ६६२ । २. एक कीड़ा जो बरसात में दिखाई देता है और उसके ऊपर काले रोएँ होते हैं । कमला ।३. जलप्रवाह ।—अनेकार्थ०, पृ० ६१९ ।४. सास्ना । ललरी (को०) ।५. एक प्रकार का हिरन (को०) ।६. भीत । दीवार (को०) ।७. जल । पानी (को०) ।
⋙ कंबलक
संज्ञा पुं० [सं० कम्बलक] १. ऊनी वस्त्र या कपड़ा ।२. कंबल [को०] ।
⋙ कंबलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बलिका] १. कमली ।२. एक प्रकार की हरिणी [को०] ।
⋙ कंबली (१)
वि० [सं० कम्बलिन्] १. कंबल से ढँका हुआ ।२. कंबल- युक्त । कंबलवाला [को०] ।
⋙ कंबली (२)
संज्ञा पुं० बैल [को०] ।
⋙ कंबि
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बि] दे० 'कंबी' [को०] ।
⋙ कंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बिका] प्राचीन काल का एक बाजा जिससे ताल दिया जाता था ।
⋙ कंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बी] १. कलछी । २. बाँस की गाँठ ।३. बाँस का अंकुर [को०] ।
⋙ कंबु (१)
वि० [सं० कम्बु] चितकबरा । अनेक वर्णों का [को०] ।
⋙ कंबु (२)
संज्ञा पुं० १. शंख । उ०—उर मनिमाल कंबु कल ग्रीवा ।—मानस, १ । २३३ । यौ०.—कंबुकठ । कंबुग्रीव । २. शंख की चूड़ी़ ।३. घोंघा ।४. हाथी ।५. चित्रवर्ण (को०) । ६. कंकण । कँगना (को०) ।७. नलिका । नली (हड्डी की) (को०) ।
⋙ कंबुकंठ
वि० [सं० कम्बुकण्ठ] शंख जैसी गर्दनवाली [को०] ।
⋙ कंबुकंठी
वि० स्त्री० [सं० कम्बुकण्ठी] शंख की जैसी गर्दनवाली [को०] ।
⋙ कंबुक
संज्ञा पुं० [सं० कम्बुक] १. कंबु । शंख । उ०—जब तें तेरे कुच रुचिर, हरि हेरे भरि नैन । कनक कलस, कंबुक ककुद नीके तनक लगैं ने ।—राम चं०, पृ० २५७ । वह जो अधम हो० (को०) ।
⋙ कंबुका
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बुका] १. अश्वगंधा नाम का वृक्ष ।२. गर्दन । ग्रीवा [को०] ।
⋙ कंबुकाष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बुकाष्ठा] अश्वगंधा [को०] ।
⋙ कंबुग्रीव
वि० [सं० कम्बुग्रीब] शंख जैसी गर्दनवाला [को०] ।
⋙ कंबुग्रीवा
वि० [सं० कम्बुग्रीवा] शंख जैसी गर्दनवाली [को०] ।
⋙ कंबुपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बुपुष्पी] शंखपुष्पी [को०] ।
⋙ कंबुमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बुमालिनी] शंखपुष्पी [को०] ।
⋙ कंबू
संज्ञा पुं० [सं० कम्बू] १. चोर ।२. लुटेरा ।३. कंगन (को०) ।
⋙ कंबोज
संज्ञा पुं० [सं० कम्बोज] [वि० कांबोज] १. अफगानिस्तान के एक भाग का प्राचीन नाम । विशेष—यह गांधार के पास था । यहाँ के घोड़े प्रसिद्ध थे । २. सांत्रिक लोगों के मत से खंभा का नाम ।३. शंख (को०) । ४. हाथी (को०) ।
⋙ कंभारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्भारी] गँभारी का पेड़ ।
⋙ कंभु
संज्ञा पुं० [सं० कम्भु] खस । उशीर [को०] ।
⋙ कंमाल
संज्ञा पुं० [सं० कं+माल] मुंडभाल । उ०—किलकार काली किलकिलै, कंमाल धारक बिलकुलै ।—रघु० रू० पृ० २२३ ।
⋙ कंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँसा ।२. प्याला । छोटा गिलास या कटोरा ।३. सुराही ।४. मँजीरा । झाँझ ।५. काँसे का बना हुआ बर्तन या चीज ।६. मथुरा के राजा उग्रसेन का लड़का जो श्रीकृष्ण का मामा था और जिसको श्रीकृष्ण ने मारा था । यौ०—कंसजित्, कंसनिषूदन = कृष्ण ।
⋙ कंसक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसीस ।२. काँस का बना पात्र ।
⋙ कंसताल
संज्ञा पुं० [सं०] झाँझ । उ०—कंसताल कठताल बजावत शृंग मधुर मुँहचंग ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कंसपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँसे का बर्तन । उ०—कंसपात्र कौ होइ पुनि, सदन मध्य आभास ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, प० १८० । २. एक नाप जिसे आढ़क भी कहते थे । यह चार सेर की होती थी ।
⋙ कंसमथन
संज्ञा पुं० [सं०] कंसहता । श्रीकुष्ण । उ०—जामैं पुनि पुनि अवसरे, कसमथन प्रभु अंस ।—भूषण ग्रं०, पृ० २ ।
⋙ कंसरटिना
संज्ञा पुं० [अं०] सदूंक के आकार का एक अँगरेजी बाजा जिसमें भाथी होती है । और जो दोनों हाथों से खींच खींच कर बजाया जाता है ।
⋙ कंसरवेटिव
वि० [अं० कंजर्वेटिव] १. परंपरा से प्रचलित रीति के अनुसार ही कार्य करनेवाला और उसमें सहसा परवर्तन का विरोधी । पुरानी लकीर का फकीर । उ०— राजा साहिब यदि कंसर्वेटिव थे तो बाबू साहिब लिबरल ।—प्रेमघन०, पृ० ४११ ।२. इंगलैंड के पार्लामेंट में वह राजनीतिक दल जो निर्धारित राज्यप्रणाली में कोई परिवर्तन या प्रजातंत्र के सिद्धांतों का प्रसार नहीं चाहता ।
⋙ कंसर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. कई एक बाजों का एक साथ मिलकर बजना या कई एक गवैयों का स्वर मिलाकर गानाबजाना । २. भिन्न भिन्न प्रकार के बजते हुए बाजों का समूह ।३. कई गानेवालों या बजानेवालों के स्वर का मेल ।
⋙ कंसर्टीना
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कंसरटिना' ।
⋙ कंसासुर
संज्ञा पुं० [सं०] मथुरा का कंस नामक राजा जो असुर कहा जाता था । उ०—वही धनुष रावन संधारा । वहीं धनुष कंसासुर मारा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कँउधा पु
संज्ञा पुं० [हिं० कौंधना] बिजली की चमक । उ०— मनि कुंडल चमकहिं अति लोने । जनि कंउधा लउकहिं दुहुँ कोने ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कँकई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक नदी का नाम ।विशेष—यह नैपाल की पूर्वी सीमा है और यह सिक्किम से नैपाल को अलग करती है ।
⋙ कँकड़ीला
वि० [हिं० ककड़+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० कँकड़ीली] कंकड़ मिला हुआ । जिसमें कंकड हो । जैसे०—कँकड़ीली जमीन, कँकडीला घाट ।
⋙ कँकरीला
वि० [हिं० कंकड़] [स्त्री० कँकड़ीली] कंकड़ मिला हुआ । जिसमें कंकड़ अधिक हों । उ०—फिर फिर भूलि उहै गहै, पिय कँकरीली गैल ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कँकरेत (१)
वि० [हिं० काँकर+एत (प्रत्य०)] कँकरीला ।
⋙ कँकरेत (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० कांक्रीट] ककड़ जिसे छत पर डालकर गच पीटते हैं । छर्रा । बजरी ।
⋙ कँखवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख+वारी (प्रत्य०)] वह फुड़िया जो काँख में होती है । कँखवार । कँखवाली । कँखौरी । ककराली ।
⋙ कँखौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख+औरी (प्रत्य०)] १. काँख । कुक्षि ।२. दे० 'कँखवारी' ।
⋙ कँगना (१)
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कु] [स्त्री० कँगनी] १. दे०, 'कंकण' । उ०—गियँ अमरन पहिरैं जहँ ताई । औ पहिरै कर कँगन कलाई ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२२ ।२. वह गीत जो कंकण बाँधते या खोलते समय गाया जाता है ।
⋙ कँगना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्क] एक प्रकार की घास जिस बैल, घोड़े आदि बहुत खाते हैं । यह पहाड़ी मैदानों में अधिक होती है । साका ।
⋙ कँगनो (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कँगना] १. छोटा कँगना । आभूषण- विशेष । लाह ही मोटी लाल या पीला चूड़ी ।२. छत या छाजन के नीचे दीवार में रीढ़ सी उभड़ी हुई लकीर जो खूब- सूरती के लिये बनाई जाती है । कगर कानिस ।३. कपड़े का वह छल्ला जो नैचाबंद नैचे की मुहनाल के पास लगाते हैं । ४. गोल चक्कर जिसके बाहरी किनारे पर दाँत या नुकीले कँगूरे हों । दानेदार चक्कर ।५. ऐसे चक्कर पर गोल उभड़े हुए दाने ।
⋙ कँगनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गु] एक अन्न का नाम । विशेष—यह समस्त भारतवर्ष बर्मा, चीन, मध्य एशिया और योरप में उत्पन्न होता है । यह मैदानों तथा ६००० फुट तक की ऊँचाई पहाड़ों में भी होता है । इसके लिये दो मट अर्थात् हल्की सूक्खी जमीन बहुत उपयोगी है । आकृति, वर्ण और काल के भेद में इसकी कई जातियाँ होती हैं । रंग के भेद से कँगनी दे प्रकार की होती है—एक पीली और दूसरी लाल । यह अषाढ़ सावन में बोई और भादों क्वार में काटी जाती है । इसकी एक जाति चेना या चीनी भी है जो चैत बैसाख में बोई और जेठ में काटी जाती है । इसमें १२-१३ बार पानी देना पड़ता है; इसीलिये लोग कहते हैं—'बारह पानी चेन, नाहीं तो लेन का देन' । कँगनी के दाने सावाँ से कुछ छोटे और अधिक गोल होते हैं । यह दाना चिड़ियों को बहुत खिलाया जाता है । पर किसान इसके चावल को पकाकर खाते हैं । कँगनी के पुराने चावल रोगी को पथ्य की तरह दिए जाते हैं । पर्या०—काकन । ककुनी । प्रियंगु । कंगु । टाँगुन । टँगुनी ।
⋙ कँगनीदुमा (१)
वि० [हिं० कँगनी+फा० दुंम] जिसकी दुम में गाँठें हो । गठीली पूँछवाला ।
⋙ कँगनीदुमा (२)
संज्ञा पुं० वह हाथी जिसकी दुं में गाँठें हों । ऐसा हाथी ऐबी समझा जाता है ।
⋙ कँगल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कंग' ।—डिं० ।
⋙ कँगला
वि० [सं० कङ्काल] [स्त्री० कगली] दे० 'कँगाल' ।
⋙ कँगसी
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कनी = कँगही] पंजा गठना । कक्कन । कैंची । क्रि० प्र०—बाँधना । गठना । यौ०—कंगसी की उड़ान = मालखंभ में एक प्रकार की सादी पकड़ जिसमें दोनों हाथों से कँगसी बाँधकर या पंजा गठकर उड़ना पड़ता है ।
⋙ कँगही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकइ] दे० 'कंधी' । उ०— कँगही के देत प्यारी कसकत मसकत, पुलकि ललकि तन स्वेद बरसत है ।—ब्रज०, ग्रं० पृ० १४८ ।
⋙ कँगारू
संज्ञा पुं० [अ०] एक जंतु । विशेष—यह आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी आदि टापुओं में होता है । इसकी कई जातियाँ होती हैं । बड़ी जाति का कँगारू ६, ७ फुट लंबा होता है । मादा नर से छोटी होती है और उनकी नाभि के पास एक थैली होती है । जिसमें वह कभी अपने बच्चों को छिपाए रहती है । कँगारू की पिछली टाँगें लम्बी और अगली बिलकुल छोटी और निकम्मी होती हैं । इसकी पूँछ लंबी और मोटी होती है । पैरों में पंजे होते हैं । गर्दन पतली कान लंबे और मुँह खरगोश की तरह होता है । यह खाकी रंग का होता है, पर अगला हिस्सा कुछ स्याही लिए हुए और पिछला पीलापन लिए होता है । इसका आगे का धड़ पतला और निर्बल और पीछे का मोटा और दृढ़ होता है । यह १५ से २० फुट तक की लंबी छलाँग मारता ह्वै और बहुत डरपोक होता है । आस्ट्रेलियावाले इसका शिकार करते हैं ।
⋙ कँगुरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कँगुरी+इया (प्रत्य०)] दे० 'कनगुरिया' ।
⋙ कँगुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कानी अंगुली ।
⋙ कँगूरा
संज्ञा पुं [फा० कँगूरह] [वि० कँगूरेदार] १. शिखर । चोटी । उ०—कौतुकी कपीश कूदि कनक कँगूरा चढ़ि रावन भवन जाइ ठाढ़ो तेहि काल भो ।—तुलसी (शब्द०) । २. कोट या किले की दीवार में थोडी़ थोडी़ दूर पर बने हुए स्थान जिसका सिरा दीवार से कुछ ऊँचा निकला होता है । और जहाँ से छिपे सिपाही निशाना लगाते हैं । बुर्ज । उ०— कोट कँगूरन चढ़ि गए कोंटि कोटि रणधीर ।—तुलसी (शब्द०) ।३. मंदिर आदि का ऊपरी कलश आदि ।४. कँगूरे के आकार का छोटा रवा ।६. नथ के चंदक आदि पर का वह उभाड़ जो छोटे छोटे रवों को शिखराकार रखकर बनाया जाता है ।
⋙ कँगूरेदार
वि० [हिं० कँगूरा+फा० दार] जिसमें कँगूरे हों । कँगूरेवाला ।
⋙ कँगोई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकइ] दे० 'कँगही' । उ०—कधीं कपड़े कँगोई जो खोले बाल । हया माने हो कँगोई को देवे डाल । दक्खिनी०, पृ० २७१ ।
⋙ कँघेरा
संज्ञा पुं० [हिं० कंघा+एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कँधेरिन] कंघा बनानेवाला । ककहगर ।
⋙ कँचुआ
वि० [हिं० कच्चा] दे० 'कच्चा—१' । उ०—तितु लागे कँचुआ फल मोती ।—कबीर ग्रं०, पृ० २०५ ।
⋙ कँचुली †
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुली] केंचुल ।
⋙ कँचुवा †
संज्ञा पुं० [सं० कञ्चुक, प्रा० कंचुअ] १. कुर्ता । २. चोली ।
⋙ कँचेरा
संज्ञा पुं० [सं० काँच+एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कँचेरिन] काँच का काम करनेवाला । एक जाति जो काँच बनाती है और उसका काम करती है । इस जाति के प्रायः मुसलमान होते हैं पर कहीं कहीं हिंदू भी मिलते हां ।
⋙ कँचेली
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्चुक या देश०] एक वृक्ष का नाम । विशेष—यह हजारा, शिमला और जौंसार में होता ह्वै । वृक्ष मियाना कद का होता है । लकड़ी सफेद रंग की और मजबूत होती है, मकान में लगती है तथा खेत के औजार बनाने के काम आती है । पत्तो चौपायों को खिलाए जाते हैं । बरसात में इसके बीज बोए जाते हैं ।
⋙ कँचोरा पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कचोरा' ।—वर्ण०, ११ ।
⋙ कँजियाना
क्रि० अ० [हिं० कंडा] अंगारै का ठंढा पड़ना । झँवाना । मुरझाना ।
⋙ कँजुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कँड़वा' ।
⋙ कँटवाँस
संज्ञा पुं० [सं० कष्टक+वंश हिं० काँट+बाँस] एक प्रकार का बाँस जिसमें बहुत काँटे होते हैं और जो पोला कम होता है । इसकी लाठी अच्छी होती है ।
⋙ कँटाय
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्टाक] एक प्रकार का कँटीला पेड़ । विशेष—इसकी लकड़ी के यज्ञपात्र बनते हैं । इसकी पत्तियाँ छोटी- छोटी और फल बेर के समान गोल होते हैं, जो दवा के काम आते हैं ।
⋙ कँटाल
संज्ञा पुं० [हिं० काँट+आल (प्रत्य०)] दे० 'कटारा' । ऊँटकटारा । उ०—करहा नीरूँ जउ वरइ, कटालउ नइ फोग ।—ढोला०, दू० ४२८ ।
⋙ कँटिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकी, कण्टकिका, हिं० काँटी] १. काँटी । छोटी कील ।२. मछली मारने की पतली नोकदार अँकुसी । ३. अँकुसियों का गुच्छा जिससे कुएँ में गिरी हुई चीजें गगरा, रस्सा आदि निकलते हैं ।४. किसी प्रकार का अँकुसी जिससे वस्तु फँसाइ या उलझाई जाय ।६. एक प्रकार का गहना जो सिर पर पहना जाता है ।७. इमली की वे छोटी फलियाँ जिनमें बीज न पड़े हों । कतुलो ।
⋙ कँटियारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारी] भटकटैया ।
⋙ कँटोर
संज्ञा पुं० [सं० कठोरव] दे० 'कंठिरव' । उ०—संग मिलियौ जोधौ सिवौ, कजहण नवौ कोटीर ।—रा० रू०, पृ०५८८ ।
⋙ कँटीला
वि० [हिं० काँट+ईला ] (प्रत्य०) [स्त्री० कँटीली] काँटेदार । जिसमें काँटे हों । उ०—जिन दिन देखे वे कुसुम गई से बीत बहार । अब अलि रही गुलाब की अपत कटीली डार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कँटेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारि] भटफटैया ।
⋙ कँटेला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ +केला] एक प्रकार का केला जिसके फल बडे़ और रूखे होते हैं । यह हिंदुस्तान के सभी प्रातों में होता है । कचकेला । कठकेला ।
⋙ कँठ पु
संज्ञा पु० [सं० कण्ठ] दे० 'कँठ' । उ०— जेहिं किरिरा सो सोहाग सोहागी । चंदा जैस स्याम कँठ लागी । —जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३३५ ।
⋙ कँठला पु
संज्ञा पुं० [सं० कंठ + ला (प्रत्य०) ] गले में पहनने का बच्चों का एक गहना । उ०— मणि गन कँठला कँठ, मद्धि केहरि नख सोहत ।— पृ० रा०, १ ।७१७ ।
⋙ कँठहरिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कंठहार का अल्पा० रूप] कठी । उ०— सूर सगुन बाटि गोकुल में अव निर्गुन को ओसरो । तारी छार छार कँठहरिया जो ब्रज जातो दूसरो । — सूर (शब्द०) ।
⋙ कँठोर पु
संज्ञा पु० [सं० कष्ठीरव] दे० 'कंठीर' । उ०— मनो मदमत कँठीर गुजार । —पृ० रा०, २ ।२२८ ।
⋙ कँडरा
संज्ञा पुं० [सं० कन्दल ] मूली, सरमों आदि के बीच का मोटा डंठल जिसमें फूल निकलते हैं । इसरा लोग सांग बनाते और अचार डालते हैं ।
⋙ कँडहार पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार ] १. केवट । नाविक । माँझी । कर्णधार । उ०—(क) जा कहँ अइस होहिं कँडहारा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त०),पृ० १३२ ।(ख) चहत पार नहिं कोउ कँडहारू ।—मानस १ ।२६० ।
⋙ कँड़िया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कंडिया' । उ०— कँडिया बिच घाल्यो कमध । —नट०, पृ० १ ।२७२ ।
⋙ कँड़िहारा पु
संज्ञा पु० [सं० कर्णधार ] दे० 'कँडहार' । उ०— सतगुरु भव तारण कँडिहारा । — कबीर सा०, पृ० ४३० ।
⋙ कँडुवा
संज्ञा पुं० [हिं० काँदो या सं० कण्डु] बालवाले अन्नों का एक रोग । इसमें बाल पर काली काली एक चिकनी वस्तु जम जाती है जिससे उसके दाने मारे जाते हैं । यह रोग गेहूँ, ज्वार बाजरे आदि की बालों में होता है । कजुआ । झीटी । क्रि० प्र०—लगना । मारना ।
⋙ कँडेरा
संज्ञा पुं० [सं० कंड +हिं० एरा ] [स्त्री० कँडेरिन] एक जाति जो पहले तिर कमाने बनाति थी और अब रुई धुनती है । धुनिया ।
⋙ कँणयर पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिकार, हिं० कनेर] कनेर । उ०— धण कँणयर रीं कब ज्यउँ, सूकी तोइ सुरत्त । — ढोला०, दु० १३५ ।
⋙ कँदराना †
क्रि० अ० [सं० कर्दम] मैलयुक्त हो जाना ।
⋙ कँदरी †
संज्ञा स्त्री० [ सं० कर्दम ] १. गीली मिट्टी । २. कूटी बरी या सुर्खी ।
⋙ कँदारा
संज्ञा पुं० [प्रा० कडि + सं० धार ] कमर पर पहननेवाला एक तागा । करधनी । करगता ।
⋙ कँदु पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्दुक ] दे० 'कंदुक' ।
⋙ कँदुआ
संज्ञा पुं० [ हिं० काँदो ] बालवाले अन्नों का एक रोग जिससे बाल पर काली भुकड़ी जम जाती है और दाना नहीं पड़ता । कडौर ।
⋙ कँदूरी (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० कन्दूरी ] कुँदरू । बिंबा ।
⋙ कँदूरी (२)
संज्ञा पुं० [फा०] वह खाना जिसे मुसलमान बीबी फातमा या किसी पीर के नाम का फातीहा करते हैं ।
⋙ कँदेलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] कम दूध देनेवाली भैंस ।
⋙ कँदैला
वि० [हिं० काँदो, पू० हिं० कँदई + ऐला (प्रत्य०)] मलिन । गँदला । मलयुक्त । उ०— जनम कोटि को कँदैलो हृद हृदय थिरातौ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कँधाई †
संज्ञा पुं० [हिं० कन्हाई] दे० 'कन्हाई' । उ०— मोहिं नंद के कँधाई बोल भाई रे हरी ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५१० ।
⋙ कँधावर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंधा + आवर (= आवरण) (प्रत्य०)] १. वह चदर या दुपट्टा जो कधे पर डाला जाता है । मुहा०— कँधावर डालना = किसी पट या दुपट्टे को जनेऊ की तरह कधे पर डालना । विशेष—विवाह आदि में कपडे़ पहनाकर ऊपर से एक दुपट्टा ऐसा डालते हैं कि इसका एक पल्ला बाएँ कंधे पर रहता है और दूसरा छोर पिछे होकर दाहिने हाथ की बगल से होता हुआ फिर बाएँ कंधे पर आ पड़ता है । इसे कँधावर कहते हैं । २. जूए का वह भाग जो बैल के कंधे के ऊपर पहता है । ३. हुड्डक या ताशे की वह रस्सी जिससे उसे गले में लटकाकर बजाते हैं ।
⋙ कँधेली
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कंधा +एली (प्रत्य०) ] १. घोड़ागाड़ी का एक साज जिसे घोडे़ को जोतते समय उसके गले में डालते हैं । इसके नीचे कोई मुलायम या गुलगुली चीज टँकी रहती है जिससे घोडे़ के कंधे में रगड नहीं लगती है । २. घोडे़ या बैल को पीठ पर रखने का सुंड़का या गद्दी । यह चारजामे या पलाभ के नीचे इसलिये रखी जाती है कि उनकी पीठ पर रगड़ न लगे ।
⋙ कँधैया
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह, हिं० कान्ह, कन्हैया ] १ दे० 'कन्हैया' । उ०— हय दाबि कन्हैया, सुमिरि कँधैया, सुगज कँधैया पर पहुँची ।— हिम्मत०, छ० २०६ ।
⋙ कँधैया पु
संज्ञा पुं० [ सं० स्कन्ध, प्रा० कन्ध, हिं० कंध + ऐया (प्रत्य०)] दे० 'कंधा' ।
⋙ कँपकँपी
संज्ञा [ हिं० काँपना] थरथराहट । काँरना । संचलन ।
⋙ कँपना
क्रि० अ० [सं० कम्पन] १. हिलना । डोलना । संचलित होना । काँपना । २. भयभीत होना । डरना ।
⋙ कँबाना पु
क्रि० स० [ सं० कम्ब से नाम० ] छड़ी से मारना । उ०— ढोलह करइ कंबाइयउ, आयउ पूगल पासि ।— ढोंला०, दु० ५२२ ।
⋙ कँमलणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कमलिनी, प्रा० कमलिणी ] दे० 'कमलिनी' । उ०— धँण कँमलाणी, कमलणी सूरिज ऊगइ आइ ।— ढोला०, दू० १३० ।
⋙ कँमलाणी पु
कि० अ० [सं० कु+म्लान, प्रा० कुमण] कुम्हलाना । मुरझा जाना । उ०— (क) धँण कँमलाणी, कमदणी, सिसहर ऊगइ आइ ।— ढोला०, दू० १२६ । (ख) काटत बेलि कूप ले मेल्हीं, सींचताडी कंमलाणी ।—कबीर ग्र०, पृ० १४२ ।
⋙ कँरबुए
संज्ञा पु० [सं० कलम्बक, पु † करँबुआ, करेमुआ] दे० 'करेमू' । उ०— निकले कमल सरों में और कँरबुए लहरे ।— अपरा०, पृ० १९४ ।
⋙ कँलगीं पु
संज्ञा स्त्री० [ फा० कँलगी ] दे० 'कलगी' । उ०—कँलगी ओ नवरतन पन्हावा । ताह सचिव कै कोरि चढावा ।— हिंदी० प्रेमा०, पृ० २७२ ।
⋙ कँवरि
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमारी, पु † कुँअरि] दे० 'कुमाँरी' । उ०— चंद्रकला देवलि कँवरि, पारसि महिमा साह ।— हम्मीर रा० पृ० ११६ ।
⋙ कँवरी †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कोर ?] तमोलियों कि भाषा में पचास पान की एक गड्डी । (चार कंवरी की एक ढोली होती है ।)
⋙ कँवल
संज्ञा पु० [सं० कमल, पु † कँवल, केवल] दे० 'कमल' ।
⋙ कँवलककड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कँवल +ककड़ी] कमल की जड़ । भसींड़ । मुरार ।
⋙ कँवलगट्टा
संज्ञा पुं० [सं० कमला +ग्रन्थी >हिं० गट्टा] कमल का बीज ।
⋙ कँवलबाव
संज्ञा पुं० [हिं० कमल+वायु ] दे० 'कमलवायु' ।
⋙ कँवला
संज्ञा पुं० [सं० कमल] दे० 'कमल—१' । उ०— पदुमावति कँवला ससि जोती ।—जायसी ग्र० (गुप्त०), पृ० २८५ ।
⋙ कँवारी
वि० [सं० कुमारी] कुँआरी । क्वारी । उ०— वह भी तो दुलहन बनेगी कभी और खुल जायेंगी मेढ़ियाँ, उसकी कच्ची कँवारी सभी मेढ़ियाँ ।—बंदनवार, पृ०,५१ ।
⋙ कँवासा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० कँवासी] लड़की के लड़के का लड़का । नाती का लड़का ।
⋙ कँसुला
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा ] [स्त्री० अल्पा० कँसुली] काँसे का एक चौखूटा टुकड़ा जिसके पहलों में गोल गड्ढे होते हैं । इस पर सोनार घुँघरू आदि के बोरों की खोरिया बनाते हैं । पाँसा । किरकरा ।
⋙ कँसुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कँसुला का स्त्री०] दे० 'कँसुला' ।
⋙ कँसुवा
संज्ञा पुं० [ हिं० काँस] एक किड़ा जो ईख के नए पौधों को नष्ट करता है ।
⋙ कँसेरा
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+एरा (प्रत्य०)] दे० 'कसेरा' । उ०— हाट करे ओ प्रथम प्रवेश, अष्टधातु घटना पङ्गारे, कँसेरी पसराँ काँस्य कङ्गारा ।—कीर्ति०, पृ० २८ ।
⋙ कँहार †
संज्ञा पुं० [सं० कर्मधार>कम्महार>कँहार हिं० कहार ] दे० 'कहार' । उ०— चपल पालकी के कँहार सरबान महाउत । प्रेमघन०, पृ० १२ ।
⋙ क (१)
संज्ञा पु० [ सं०] १. ब्रह्मा । २. विष्णु । ३. कामदेव । ४. सूर्य । ५. प्रकाश । ६. प्राजापति । ७. दक्ष । ८. अग्नि । ९. वायु । १०. राजा । ११. यम ।१२. आत्मा ।१३. मन । १४. शरीर । १५. काल । समय । १६. धन । १७. मयूर ।१८. शब्द । १९. ग्रंथि । गाँठ । २०. जल । उ०— ति न नगर न नागरी, प्रतिपद हंस क हानि ।—केशव (शब्द०) । यौ० — कज = कमल ।कद = बादल । २१.गरुड़ (को०) । २२ आनंद । सुख (को०) । २३. मस्तक (को०) । २४. सुवर्ण (को०) । २५. पक्षी (को०) । २६. केश । बाल (को०) । २७. केशगुच्छ (को०) । २८. स्त्री का करण या क्रिया (को०) । २९. दुग्ध । दूध (को०) । ३०. कृपणता । (को०) । ३१. विष (को०) । भय (को०) ।
⋙ क (२) पु †
वि० [ हिं०] १. का । उ०— सुवा क बेल पवन होइ लागा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २७९ । २.को । उ०— राम निकाई रावरी, है सबही को नीक । जो यह साची है सदा, तौ नीको तुलसीक ।—मानस, १ ।२९ ।
⋙ क (३)
अव्य० [फा० कि] की । या । अथवा । उ०— कागल नहीं क मस नहीं, नहीं क लेखणहार ।— ढोला०, दू० १४० ।
⋙ कइ (१)पु
प्रत्य० [ हिं० की] १. की उ० — शोमा दशरथ भवन कइ, को कवि बरनै पार । — मानस, १ ।२९७ । । २. को । के लिये । उ०— तोहि सम हित न मोर संसारा । बहे जात कइ भइसि अधारा । — मानस,२ ।२३ ।
⋙ कइ (२)पु
वि० [सं० कति, प्रा० कइ ] १. कितनी । उ०— जनम लाभ कई अवधि अधाई ।—मानस०, २ ।५२ ।
⋙ कइ (३)पु
क्रि० वि० [ सं० कंदा, प्रा० कया,पु † कद] कब । उ०— कइ परणै रुषमणी किसान । — वेलि०, पृ० १९८ ।
⋙ कइ (४)पु
अव्य [फा० कि] या । अथवा । उ०— जइ तूँ ढोला नावियउ कइ फागून कइ चेत्रि । —ढोला०, दू० १४६ ।
⋙ कइक पु (५)
वि० [हिं० कई+ एक ] अनेक । कई । उ०— राम दिन कइक ता ठौर अवरो रहे, आइ बल्वल तहाँ दई देखाई ।—सूर० (राधा०), पृ०५८५ ।
⋙ कइकाँण पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] केकाण । घोड़ा । उ०— एहि भली न करहला, करहलिया कइकाँण ।— ढोला०, दू० ६२७ ।
⋙ कइकुल पु
संज्ञा पुं० [सं० कवि +कुल ] कविसमूह । कविदर्ग । उ०— अक्खर रस बुज्झनिहार नहि कहकुल मिक्खारि भउँ ।—किर्ति०, पृ० १८ ।
⋙ कइत (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कित] ओर । तरफ ।
⋙ कइत (२) †
संज्ञा पु० [सं० कपित्थ प्रा० कइत्थ] कैथ । कैथा ।
⋙ कइथिन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कायथ का स्त्री०] दे० 'कायथ' । उ० — कइथिनि चलि समाहिं न आँगा । — पदमावत, पृ० ८४ ।
⋙ कइन †
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिका] बाँस की टहनी या शाखा ।
⋙ कइर पु
संज्ञा पुं० [सं० कदर] दे० 'करील' । उ०—कइ कइराँ ही पारणउ, अइ दिन यूँ ही टाल । — ढोला०, दू० ४३० ।
⋙ कइलास
संज्ञा पुं० [सं० कैलास] दे० 'कैलास' । उ० — संभु कइलास पर मल्लिका गुबिंद कैधौं चंद मांझ बुध कुरबिंद रूप चेरो री ।—पजनेस०, पृ० २३ ।
⋙ कइलासवासो
संज्ञा पुं० [सं० कैलास + वासिन्] १. कैलास में रहने वाले । शंकर । उ०—कइलासवासी उमा करति खवासि दासी मुक्ति तजि कासी नाच्चौ राच्चौ कैयो राग पर —ब्रज० ग्रं०, पृं० ३२ ।
⋙ कइसे पु †
क्रि० वि० [हिं० कैसे] दे० 'कैसे' । उ०—कइसेहु विरह न छाडइ, भा ससि गहन गिरास ।— पदमावत, पृ० ११० ।
⋙ कई (१)
वि० [सं० कति, प्रा० कइ] एक से अधिक । अनेक । जैसे, —कई बार । कई आदमी । यौ०—कई एक=अनेक । बहुत से । कई बार= कितने बार । कई दफा ।
⋙ कई (२)
वि० [सं० कृत, पु किश्र, पु किय ] की हुई । उ०— अपराध छमिबो बोल पठए बहुत हौं ढिठयो कई ।— मानस, १ ।३२६ ।
⋙ कई (३)
क्रि० स० [हिं० कहना का भूत कृ०, † कैना (खड़ी)] कही । उ०—जा री जा सखि भवन आपुने लाख बात की एकु कई री ।—नंद ग्रं०, पृ० ३६७ ।
⋙ कई पु (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काई ] दे० 'काई' । उ०— सरिता संजम स्वच्छ सलिल सब, फाटी काम कई । सूर०, १० ।३३४२ ।
⋙ कउ पु
प्रत्य० [हिं०] का । को । की । उ०— राजमती कउ रचउ वीवाहो ।— बी० रा०; पृ० १५ ।
⋙ कउड़ा
वि० [हिं० कङुवा] दे० 'कडुवा' । उ०—वण तृण त्रिभवण बसिआ कउड़ा मिठा खाय । — प्राण०, २८३ ।
⋙ कउड़ि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौड़ी] दे० कौडी । उ०— कउड़ि पठऔले पावनहि घोर ।— विद्यापति, पृ० ५६ ।
⋙ कउण पु
सर्वं [हिं० कौन] कौन । उ०— कउण सुआवै कउण सुजाय ।— प्राण०, पृ० ७७ ।
⋙ कउतुक पु
संज्ञा पुं० [सं० कौतुक] दे० 'कौतुक' । उ०—भन विद्यापति कामे रमनि रति, कउतुक बुझ रसमंत ।—विद्यापति, पृ०३४ ।
⋙ कउल (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० कमल, पु कँवल, पु कवल ] दे० 'कौल' । कमल । उ०— धरहर बरषे सर भरे, सहज ऊपजे कउलु ।— प्राण०, पृ० ९९ ।
⋙ कउल (२)
संज्ञा पुं० [ अं० कौल] दे० 'कौल—२' । उ०— जनमत मरत अनेक प्रकार त्रसित कउल पुनि बार बार ।—भीखा० श०, पृ० ८२ ।
⋙ कउलति पु
संज्ञा पुं० [अ० कबूलियत ] अंगीकार । स्वीकार । उ०— कउलति कए हरि आनल गेह ।—विद्यापति, पृ० ४०४ ।
⋙ कउवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कौवा] दे० 'कौवा' । उ०— आँखि निमाँणी क्या करइ कउवा लवइ निलज्ज ।—ढोला०, दू० ५२० ।
⋙ ककंद †
संज्ञा पुं० [सं० ककन्द] सोना [को०] ।
⋙ ककई †
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकड] दे० 'कंघी' ।
⋙ ककडासींगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काकड़ासींगी] दे० 'काकडासींगी' ।
⋙ ककड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कटो, प्रा० कक्कटी] १. जमीन पर फैलनेवाली एक बेल जिसमें लंबे लंबे फल लगते हैं । विशेष — यह फागुन चैत में बोई जाती है ओर बैसाख जेठ में फलती है । फल लंबा और पतला होता है । इसका फल कच्चा तो बहुत खाया जाता है, पर तरकारी के काम में भी आता है । लखनऊ की ककड़ियाँ बहुत नरम, पतली और मिठी होती हैं । २. ज्वार या मक्के के खेत में फैलनेवाली एक बेल जिसमें लंबे लंबे और बडे़ फल लगते हैं । विशेष— ये फल भादों में पककर आपसे आप फूट जाते हैं, इसी से 'फूट' कहलाते हैं । ये खरबूजे ही की तरह होते हैं, पर स्वाद में फिके होते हैं । मीठा मिलाने से इनका स्वाद बन जाता है । मुहा०—ककड़ी के चोर को कटारी से मारना= छोटे अपराध या दो । पर कड़ा दंड देना । निष्ठुरता करना । ककड़ी खीरा करना= तुच्छ समझना । तुच्छ बनाना । कुछ कदर न करना । जैसे,— तुमने हमारे माल को ककड़ी खीरा कर दीया ।
⋙ ककना †
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कण] दे० 'कंगन' । उ० — नेह बिगरही दोहरी सजनी, ककना अकिल के ढार हो । —कबीर श०, पृ० १३४ ।
⋙ ककनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कँगनी] १. दे० कँगनी ' । २. गोल चक्कर जिसके बाहरी किनारे पर दाँत या नुकीले कँगूरे हों । दंदानेदार चक्कर । ३. कँगनो के आकार की एक मिठाई ।
⋙ ककनू पु
संज्ञा पुं० [अ० कु कनूस ] एक पक्षी । उ०— ककनूँ पंखि जैस सर साजा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५८ । विशेष— इसके संबंध में प्रसिद्ध है कि यह बहुत मधुर गाता है और अपने गान से ही उत्पन्न अग्नि में जल जाता है ।
⋙ ककमारी
संज्ञा स्त्री० [सं० काक =कौवा +मारना ] एक प्रकार की बड़ी लता, जो अवध, बंगाल ओर दक्षिण भारत में होती है । विशेष — इसकी पत्तियाँ चार से आठ इंच तक लंबी होती हैं । फूल नीलापन लिए पीले रंग के ओर बहुत सुगंधित होते हैं । इसमें छोटे छोटे तीक्ष्ण फल लगते हैं जो मछलियों और कौवों के लिये मादक होते है । विलायत में जौ की शराब में इसका मेल दिया जाता है ।
⋙ ककर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी । बाज [को०] ।
⋙ ककराली
संज्ञा स्त्री० [ सं० कक्ष, पा० कक्ख हिं० काँख+ वाली (प्रत्य०) ] काँख का एक फोड़ा । वह गिल्टी जो बगल में निकलती है । कंद्दराली । कंखवाली । कँखौरी ।
⋙ ककरासींगी †
संज्ञा स्त्री० [हि० काकडासींगो] दे० 'काकडासींगी ।
⋙ ककरी †
संज्ञा स्त्री० [हि० ककड़ी ] दे० 'ककडी' उ०—ककरी कचरी अरु कचनारयो । सुरस निमोननि स्वाद सँवारयो ।—सूर० (राधा०), पृ० ४२० ।
⋙ ककरेजा
संज्ञा पुं० [हि० काकरेजा ] दे० 'काकरेजा' ।
⋙ ककरेजी
संज्ञा पुं० [हि० ककरेजी] दे० 'काकरेजी' ।
⋙ ककरौल
संज्ञा पु० [सं० कर्कोटक, प्रा० कक्कोडक ] ककोड़ा । खेखसा ।
⋙ ककवा †
संज्ञा पुं० हिं० कक्ई का पुं०] दे० 'कंधा' ।
⋙ ककसा †
संज्ञा स्त्री० [सं० कक्षा, प्रा० कक्खा ] काँख ।
⋙ ककसी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कश, प्रा० कक्कसा ] एक प्रकार की मछली । विशेष — यह गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियों में होती है । इसका मांस रूखा होता है ।
⋙ ककहरा
संज्ञा स्त्री० [ क+ क+ह+रा (प्रत्य०)] क से इ तक वर्णमाला । बरतनिया । विशेष— बालकों को पढ़ाने के लिये एक प्रकार की कविता होती है जिसके प्रत्येक चरण आदि में प्रत्येक वर्ण क्रम से आता है । ऐसी कविताओं में प्रत्येक वर्ण दो बार रखा जाता है, जैसे— क का कमल किरन में पावै । ख खा चाहै खोरि मनावै ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ ककहा
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकइ, पु † ककही का पुं०] दे० 'कधा' ।
⋙ ककही (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकई] १. एक प्रकार की कपास जिसकी रुई कुछ लाल होती है । २. चौबगला ।
⋙ ककही (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकई] दे० 'कंघी' ।
⋙ कका पु †
संज्ञा पुं० [हिं० काका ] दे० 'काका' ।
⋙ ककाटिका
संज्ञा पुं० [सं०] सिर के पीछे का भाग [को०]
⋙ ककार
संज्ञा पुं० [सं०] व्यंजन का प्रथम वर्ण । 'क' अक्षर या उसकी ध्वनि ।
⋙ ककी
संज्ञा पुं० [सं० काकी ] मादा 'कौआ' । उ० —कंक ककी भृत पील कुरंगा । अंबर चर सर छेदे अंगा । — रा० रू०, पृं० ६७ ।
⋙ ककुंजल
संज्ञा पुं० [ककुञ्जल] चातक पक्षी [को०] ।
⋙ ककुंदर
संज्ञा पुं० [सं० ककुन्दर] जघनकूप [को०] ।
⋙ ककुत्सथ
संज्ञा पुं० [सं०] इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा । विशेष — पुराणानुसार एक समय देवताओं और राक्षसों में युद्ध हुआ था । देवताओं ने उस समय अयोध्या के राजा से सहायता माँगी । राजा की सवारी के लिये इंद्र बैल बनकर आया । राजा ते उस बैल कि पीठ पर चढ़कर लड़ाई में जा असुरों को परास्त किया । तबसे उसका नाम ककुत्सथ पड़ गया । वाल्मि- कीय रामायण में ककुत्सथ को भगीरथ का पुत्र लिखा है, पर कहीं उसे इक्ष्वाकु का पुत्र और कहीं सोंमदत्त का पुत्र भी लिखा है ।
⋙ ककुद् (१)
वि० [सं०] प्रधान । श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ ककुद् (२)
संज्ञा पुं० १ बैल के कंधे का कूबड़ । डिल्ला ।२. राजचिह्न । उ०— ककुद साधु के अंग । —केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ११९ ।
⋙ ककुद (१)
वि० दे० 'ककुद' [को०] ।
⋙ ककुद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ककुद्' [को०] ।
⋙ ककुदमान्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल । २. पर्वत । ३. ऋषभ नाम की एक औषधि ।
⋙ ककुदमी (१)
वि० [सं० ककुदिमन्] चोटीवाला । डिल्लेवाला [को०] ।
⋙ ककुदमी (२)
संज्ञा पु० १. डिल्लयुक्त बैल । २. विष्णु । ३. रैवतक नामक राजा कि पुत्री जो बलराम को ब्याही थी [को०] ।
⋙ ककुप् ककुभ
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दिशा । २. शोभा । सौंदर्य । ३. चंपक की माला । ४. शास्त्र । ५. एक रागिनी । ६. आकाश का चतुर्थांश । ७. श्वास । ८. अनलंकृत केश या पूँछ; जैसे लटकते हुए बाल [को०] ।
⋙ ककुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन का पेड़ । २. वीणा का एक अंग । वीणा के ऊपर का वह अंग जो मुड़ा रहता है । प्रसेक्क । विशेष — कोई कोई नीचे के तूबे को भी ककुभ कहते हैं । ३. एक राग । ४. एक छंद जो तीन पदों का होता है । इसके पहले पद में ८, दूसरे में १२ और तीसरे में १८ वर्ण होते हैं । ५. दिशा । ६. कुटज फूल (को०) । ७ दैत्यों के एक राजा का नाम [को०] ।
⋙ ककुभबिलावल
संज्ञा पुं० [सं० ककुभ+बिलाबल ] एक मिश्रित राग ।
⋙ ककुभा
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिशा । २. दक्ष की एक पुत्री जो धर्म की पत्नी थी । ३. मालकोस राग की पाँचवीं रागिनी जो संपूर्ण जाति की है । इसे दिन के दूसरे पहर में गाना चाहिए ।
⋙ ककुम्मती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक छंद जिसके तीन चरणों में पाँच पाँच और एक में छह वर्ण होते हैं ।
⋙ ककुल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० काका । उ०—ककुल बबुल सिब देखिए रे, बीरँनु,कहूँ न दिखाँइ, राजा भातई रे । — पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३३ ।
⋙ ककून
संज्ञा पुं० [अं ककूल] रेशम के कीडे द्वारा निर्मित कोवा ।
⋙ ककेड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कर्कटक, कक्कटक ] एक बेल जिसके फल साँप के आकार के होते हैं और तरकारी के काम कें आते हैं । चिचडा ।
⋙ ककेरुक
संज्ञा पु० [सं०] उदर में होनेवाला एक प्रकार का कीड़ा । उदरकृमि । —माधव०, पृ० ७१ ।
⋙ ककैया †
वि० [हिं० ककही] कंघी के आकार की (इँट) । विशेष— यह शब्द ईंट के एक भेद के लिये प्रयुक्त होता है जो बहुत छोटी होती है और जिसे लखावरी या लखौकी भी कहते हैं ।
⋙ ककोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कर्कोटक, प्रा० कक्कोडक] खेखसा । ककरौल । उ०— कुँदरु और ककोड़ा कौरे । कचरी चार चचेंड़ा सौरे ।— सूर० (शब्द०) ।
⋙ ककोणि
संज्ञा पुं० [सं० कोकमद, > प्रा० कोकमअ > (वर्णविपर्यय) ककोणय, > ककोणई = लाल अथवा देश०] रक्त । खून । उ० — श्रोणित रक्त ककोणि पुरि रुधिर असृक क्षतजात ।—नंद ग्र०, प० ९२ ।
⋙ ककोरना †
क्रि० स० [हिं० कोड़ना ] खरोचना । खुरचना । खुरेदना ।
⋙ ककोरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० ककोड़ा ] दे० 'ककोड़ा' । — सूर० (राधा०), पृ० ४२० ।
⋙ कक्कड़
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर] १. सूखी या सेंकी हुई सुरती का भुराभुरा चूर जिसमें पीनेवाला तमाखू मिला रहता है । इसे छोटि चिलम पर रखकर पीते हैं । २. दे० 'काकड़' । यौ०—कक्कडखाना = (१) जहाँ कई आदमी बैठकर हुक्का पीते हों । (२) चंडूखाना । भटियारखाना । बुरी जगह । कक्कजबाज । = जो बहुत तमाखू पिता हो । हुक्के कि लतवाला । कक्कङवाला = वह आदमी जो पैसे लेकर लोगों को हुक्का पिलाता फिरता हो ।
⋙ कक्का (१)
संज्ञा पुं० [सं० केकय] एक देश जिसे प्राचीन काल में केकय कहते थे । यह अब काश्मीर के अंतगंत एक प्रांत है । यहाँ के रहनेवाले कक्करवाले या गक्कर कहलाते हैं ।
⋙ कक्का (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नगाड़ा । दुंदुभी ।
⋙ कक्का † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० काका] दे० 'काका' ।
⋙ कक्का (४)
संज्ञा पुं० सिख जिनके यहाँ कर्द, केस कड़ा, कच्छ कड़ाह इर पंच ककारों का व्यवहार है ।
⋙ कक्को (१)पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा वृक्ष जिसकी पत्तियाँ चारे के काम आती हैं । वि० दे० 'कठसेमल' ।
⋙ कक्की (२)
संज्ञा पुं० [सं० कङ्क] दे० गाँसीदार बाण ।
⋙ कक्कोल
संज्ञा पुं० [ सं० कङ्कोल ] दे० 'कंकोल' ।
⋙ कक्खट
वि० [सं०] कठिन । कठोर ।
⋙ कक्खरो
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया [को०]
⋙ कक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँख । बगल । २. काँछ । कछोटा । लाँग । ३. कछार । कक्ष । ४. कास । ५. जंगल । ६. सूखी घास । ७ सूखा वन । ८. भूमि । ९. भीत । पाखा । १०. घर । कमरा । कोठरी । ११. पाप । १२. एक रोग । काँख का फोड़ा । कखरवार । १३. दुपट्टे का वह आँचल या छोर जिसे पीठ पर डालते हैं । आंचल । १४. दर्जा । श्रेणी । यौ०—समक्क्ष= बराबरी का । १५. तराजू का पल्ला । पलरा । पलड़ा । १६. बेल । लता । १७. पेटी । कमरबंद । पटुका । १८.अंतःपुर । रनिवास [को०] । १९. जंगल का भीतरी भाग (को०) । २०. दलदली भूमि (को०) । २१. सेना का दक्षिण और वाम पार्श्व (को०) । २२. कटिबंध (को०) । २३. नौका का एक भाग (को०) । २४. ग्रह का पथ । ग्रहकक्षा (को०) । २५. गुप्त या छिपने का स्थान (को०) । २६. प्राचीर । चहारदीवारी (को०) । २७. महिष । भौंसा (को०) । २८ तारा (को०) । २९. फाटक । द्वार (को०) ।
⋙ कक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.परिधि । २. ग्रह के भ्रमण करने का मार्ग । वह वर्तुलाकार मार्ग जिसमें कोई ग्रह या उपग्रह भ्रमण । करता है । उ०— इस ग्रहकक्षा की हलचल री, तरल गरल की लघु लहरी । —कामायनी, पृं० ५. । ३. तुलना । समता । बराबरी । ४. श्रेणी । दर्जा । ५. ड्योढ़ी । देहली । ६. काँख । ७. कखरवार । एक रोग जिसमें बगल में फोड़ा होता है । ८. किसी घर की दीवार या पाख । ९. काँछ । कछोटा । १०.हाथी बाँधने की रस्सी । ११. एक तौंल । रत्ती । १२. कमर । कटि (को०) । १३ पटुका । कटिबंध (को०) । १४. प्राचीर । चहारदीवारी (को०) । १५. प्रांगण । आँगन (को०) । १३. अंतःपुर (को०) । १७ । आपत्ति । विरोध (को०) । १८ शकट या छकडे़ का एक भाग (को०) । १९. पल्ला । पलड़ा (को०) ।
⋙ कक्षापट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कछौटा । २. कौपीन या कटिवस्त्र [को०]
⋙ कक्षावेक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंत?पुर निरीक्षक । २. चित्रकार । ३. अभिनेता । ४. कवि । ५. राजकिय माली या उद्यानपाल । द्वारपाल । दरवान । ७.लंप्ट । दुराचारी । ८. प्रेमी या प्रेमिका ।९. भाव वेश । भावशक्ति [को०] ।
⋙ कक्षी
संज्ञा पुं० [सं० कक्षिन्] दे० 'कच्छी' । उ०— इराकी अरब्बी तुरकर्क अ कक्षी ।—पृ० रा० (उ०), पृ० १६७ ।
⋙ कक्षीवत
संक्षा पुं० [सं० कक्षीवत्] दे० 'कक्षीवान्' ।
⋙ कक्षीवान्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम ।
⋙ कक्षोत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा ।
⋙ कक्ष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.आँगन । २. चमडे़ की रस्सी । ताँत । नाड़ी । ३. हाथी बाँधने की रस्सी । ४. महल । अंतःपुर । ५. ड्योढी । ६. हौदा । अमारी । ७. घुँघची । ८. समानता । सादृश्य । ९. रत्ती । १०. उद्योग । ११. अँगुली । उँगली (को०) । १२. आँचल । अंचल (को०) । १३. घेरा । प्राचीर (को०) । १४. उपरना । दुकून (को०) ।
⋙ कखवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कख +वाली (प्रत्य०)] दे० 'ककराली' ।
⋙ कखौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कख +वाली (प्रत्य०)] दे० 'काँख' । २. बगल का फोड़ा । काँख का फोडा ।
⋙ कगदही
सज्ञा स्त्री० [हिं० कागद + ही (प्रत्य०)] १. बस्ता जिसमें कागज पत्र बँधे हों । २. कागज, किताब आदि का ढेर ।
⋙ कगर (१)
संज्ञा पुं० [सं० क=जल +अग्र =काग्र > कगर] १. कुछ उठा हुआ किनारा । कुछ ऊँचा किनारा । २. बाट । औंठ । बारी । ३. मेंड़ । झाँड़ । ४. छत या छाजन के नीचे दीवार में रीढ़ सी उभड़ी हुई लकीर जो खूबसूरती के लिये बनाई जाती है । कारनिस । कँगनी ।
⋙ कगर (२)
क्रि० विं [हिं० कग्गर ] १. किनारे पर । किनारे । २. समीप । निकट । ३. अलग । दूर । उ० — जसुमति तेरो बारो अतिहि अचगरो । दूध, दही माखन लै डार दियो सगरो । लियो दियो कछु सोऊ डारि देहु कगरो । सूर० (शव्द०) ।
⋙ कगही पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कती, प्रा० कंकइ, पु ककही ] दे० 'कंघी' । उ०— लिये अतर कगही करन, सरस सुगंध समाज । चुटिया गुंथन कारनै हिय हुलसत ब्रजराज । —ब्रज०, ग्र०, पृ० १४८ ।
⋙ कगार
संज्ञा पुं० [हिं० कगर ] १. ऊँचा किनारा । २. नदि का कगरा । २. ऊँचा टीला ।
⋙ कगिरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसके दूध से रबड़ बनता है । वि० दे० 'रबड़ —२' ।
⋙ कगेड़ि
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ का नाम जो हिंदुस्तान में प्रायः सब जगह होता है । इसकी लकड़ी इमारतों में नहीं लगती ।
⋙ कगार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कगर' ।
⋙ कग्ग (१)पु
वि० [सं० काक, हिं० काग] धृष्ट । ढीठ । उ०— सकट ब्यूह सजि सुभग कग्ग चामंड अग्ग करि । — पृ० रा० (उ०), पृ० ६२२ ।
⋙ कग्ग (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० काका, प्रा० कग्ग] दे० 'काग्ग' । कौआ । वायस । उ०— धर कारन विक्रमं कीयौं कग्गामिख भख्खन । —पृ० रा०, १८ ।३२ ।
⋙ कग्गद पु
संज्ञा पुं० [हिं० कागद] दे० 'कागद' । — सुनिय राज चुहुआन वर दीय कग्गद फिर तेह ।— पृ० रा०, ५ ।१०६ ।
⋙ काग्गर पु
संज्ञा पुं० [हिं० कागद, कागर] दे० 'कागद' । उ०— समर सिंघ रावर दिसा दै कग्गर चहुआन । — पृ० रा०, २६ ।५२ ।
⋙ कघुतो
संज्ञा स्त्री० [हिं० कागज] मध्य और पूर्वी हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की झाड़ी । अरैली । विशेष— यह नेपाल, भूटान, बरमा, चीन और जापान में बहुत अधिक होती है । नेपाली कागज इसी के ड़ंठलों से बनता है और नेपाल में इसीलिये यह झाड़ी बहुत लगाई जाती है ।
⋙ कचंगन
संज्ञा पुं० [सं० कचङ्गन] मुक्त हाट । खुली बाजार । वह हाट जहाँ कोई सीमाशुल्क या कर न लागू हो [को०] ।
⋙ कचंगल
संज्ञा पुं० [सं० कचङ्गल] समुद्र । सागर [को०] ।
⋙ कच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाल (विशेषतया सिर का) । उ०— धरि कच विरथ कीन्ह महि गिरा ।— मानस, ३ ।२३ । २. सूखा फोड़ा या जख्म । पपड़ी । ३. झुंड़ । ४. अँगरखे का पल्ला । ५. बादल । ३. बृहस्पति का पुत्र । वि० दें० 'देवयानी' । ७. सुगंधवाला । ८. कुरती का एक पेंव जिसमें एक आदिमी दूसरे की बगल में से हाथ ले जाकर उसक कधे पर चढ़ाता है और गर्दन को दबाता है । मुहा०— कच बाँधना = किसी की बगल से हाथ ले जाकर उसके कंधे पर चढ़ाना और उसकी गरदन को दबाना । ९. मेघ । बादल (को०) ।
⋙ कच (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. धँसने या चुभने का शब्द । जैसे,— उसने कच से काच लिया । काँटा कच से चुभ गया । २. कुचले जाने का शब्द ।
⋙ कच (३)
वि० [हिं० कच्चा का अल्पा० समास रूप] दे० 'कच्चा' । जैसे, — कचदिला = कच्चे दिल का । कच्ची पेंदी का । ढुल- मुल । कचलहू = रक्त का पंछा । लसिका । कचपेंदिया = (१) कच्ची पेंदीवाल । (२) ढुलमुल । जिसकी बात का ठिकाना न हो ।
⋙ कचक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचट] वह चोच जो दबने से लगे । कुचल जाने की चोट । क्रि० प्र०— लगना ।
⋙ कचकच
संज्ञा पुं० [अनु०] वाग्युद्ध । बकवाद । झकझक । क्रि० प्र० करना ।—मचाना ।— लगाना ।—होना ।
⋙ कचकचाना
क्रि० अ० [अनु० कचकच] १. कचकच शब्द करना । धँसाने या चुभाने का शब्द करना । खूब दाँत धँसाना । जैसे,— उसने कचकचाकर दाँत से काट लिया । २. दाँत पीसना । दे० 'किचकिचान' ।
⋙ कचकड़
संज्ञा पुं० [हिं० कच्छ =कछुआ+सं० काण्ड़= हड़्डी] १. कछुए का खोपड़ा । २. कछुए या ह्वेल की हड़्ड़ी जिससे चीन जापान में खिलौने बनते हैं । ३. सेल्युलाड़ ।
⋙ कचकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कचकड़] दे० 'कचकड़' ।
⋙ कचकना †
क्रि० अ० [हिं० कचक+ ना(प्रत्य०)] १. कुचलना । दबना । २. ठेस लगना । ठोकर खाना । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।
⋙ कचकना †
क्रि० सं० [हिं० कचकना] १. कच से धँसाना । भोकना । २. किसी खरी पतली चीज हाथ से दबाकर तोड़ना या फोड़ना ।
⋙ कचकेला
संज्ञा पुं० [हिं० कठकेला] एक प्रकार का केला जिसके फल बड़े बड़े और खाने में रूथे या फीके होते हैं ।
⋙ कचकोल
संज्ञा पुं० [फा० कजकोल] १. दरियाई नारियाई नारियल का भिक्षापात्र जिसे फकीर लिये रहते हैं । उ०— सो कचकोल साबित तवक्कुल किया । — दक्खिनी०, पृ० १४६ । २. कपाल । कासा ।
⋙ कचग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] केश पकड़ना । कामकेलि की एक क्रिया । उ०— बिथरी अलक मुकताली छबि छाँड़ि माँग, मुख छबि अड़ी कला कचग्रह गेरे में ।— पजनेस०, पृ०१९ ।
⋙ कचट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचोट ] दे० १. 'कचक' । २. चुभन । उ०— उन गीतों आशा, उपालंभ, वेदना और स्मृतियों की कचट, ठेस और उदासी भरी रहती ।— आकाश०, पृ० १०७ ।
⋙ कचड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कचरा' ।
⋙ कचदिला
वि० [हिं० कच्चा+ फा० दिल+ हिं० आ (प्रत्य०)] कच्चे दिच का । जो कड़े का न हो । जिसे किसी प्रकार का कष्ट, पीड़ा आदि सहने का साहस न हो ।
⋙ कचनार
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनार] पतली पतली ड़ालियों का एक छोटा पेड़ । विशेष— यह कई तरह का होता है और भारतवर्ष में प्रायः हर जगह मिलता है । यह लता के रूप में होता हैं । इसकी पात्तियाँ गोल और सिरे पर दो भागों में कटी होती हैं । यह पेड़ अपनी कली के लिये प्रसिद्ध है । कली की तरकारी होती है ऐर अचार पड़ता है । कचनार वसंत ऋतु में फूलता है । फूलों में भीनी भीनी सुगंध रहती है । फलों के झड़ जाने पर इसमें लंबी लंबी चिपटी फलियाँ लगती हैं । कचनार कई प्रकार के फुलवाले होते हैं । किसी में लाल में फूल लगते हैं किसी में सफेद और किसी में पीले । लाल फूलवाले को ही संस्कृति में कांचनार कहा जाता हैं । कांचनार शीतल और कसैला समझा जाता हैं और दवा में बहुत काम आता है । कचनार की जाति के बहुत पेड़ होते हैं । एक प्रकार का कचनार कुराल या कंदला कहलाता है जिसकी गोंद 'सेम की गोंद' या 'सेमला गोंद' के नाम से बिकती है । यह कतीरे के तरह की होती है और पानी में घुलती नहीं । यह देहरादून की ओर से आती है ओर इंद्रिय जुलाब तथा रज खोलने की दवा मानी जाती है । एक प्रकार का कचनार बनराज कहलाता है जिसकी छाल के रेशों की रस्सी बनती है ।
⋙ कचप
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृण । २. शाकपत्र [को०] ।
⋙ कचपच
संज्ञा पुं० [अनु०] १.थोड़े से स्थान में बहुत सी चीजों या लोगों का भर जाना । गिचपिच । गुत्थमगुत्थ । २. दे० 'कचकच' ।
⋙ कचपचिया †
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० 'कचपची' । उ०— पहिरे खुंभी सिंहल दीपी । जानों भरी कचपचिया सीपी ।— जायसी ग्रं,० पृ० ४५ ।
⋙ कचपची
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचपच] १. बहुत से छोटे छोटे तारों का पुंज जो एक गुच्छे के समान दिखाई पड़ता है । कृत्तिका नक्षत्र । उ०— तेहि पर सीस जो कचिपतचि भरा । राजमँदिर सोने नग जरा— जायसी (शब्द०) ।२. दे० 'कचबची' ।
⋙ कचपेंदिया
वि० [हिं० कच्चा +पेंदी] १. पेंदी का कमजोर । २., अस्थिर विचार का । बात का कच्चा । जिसकी बात का कुछ ठीक ठिकाना न हो । ओछा ।
⋙ कचबची
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचपच] चमकीले बुंदे जिन्हें स्त्रियाँ शोभा के लिये मस्तक, कनपटी और गाल पर चिपकाती हैं । खोरिया । सितर । तारा । चमकी । उ०— घालि कचबची टीका सजा । तिलक जो देख ठाउँ जिउ तजा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ कचभार
संज्ञा पुं० [सं०] १. केश का भार या बोझ । उ०— सुमन भई महि में करै, जब सुकुमारि बिहार । तब सखियाँ संगहि फिरै, हाथ ल्ए कचभार ।— भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० १०९ ।
⋙ कचमाल
संज्ञा पुं० [सं०] धुआँ [को०] ।
⋙ कचरई अमौवा
संज्ञा पुं० [हिं० कचरी + अमौवा] एक प्रकार का अमौवा रंग जो आम की कचरी के रंग का सा अर्थात् हरापन लिये हुए बादामी होता है । विशेष— इसकी चाह लोग रंग के लिये उतनी नहीं करते जितनी सुगंध के लिये करते हैं । बड़े बड़े आदमियों के लिहाफ और रजाई के अस्तर इक रंग में प्रायः रँगे जाते हैं । पहले कपड़े को हल्दी के रंग में रँगकार हर्रे के जोशांदे में ड़ुबाते हैं । इसकी पीछे उसे कसीस में ड़ुबोकर फिटकिरी मिले हुए अनार के जोशांदे में रँगते हैं । इस रंग के तीन भेद होते हैं— संदली, सूफीयानी और मलयगिरि ।
⋙ कचर कचर (१)
संज्ञा पुं० [अनु० या देश०] १. कच्चे फल खाने का शब्द । जैसे— (क) आल् पका नहीं, कचर कचर करता हैं । (ख) वह सारी ककड़ी कचर कचर खा गया । २. कचकच । बकवाद । बतौझा ।
⋙ कचर कचर (२)
क्रि० वि० दे० 'कचरना' । कुचल कुचलकर । चबाकर । उ०— खूब मजे में मांस कचर कचर खाना और चैन करना ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०, पृ० ७१ ।
⋙ कचरकूट
संज्ञा पुं० [हिं० कचरना + कूटना] १. खूब पीटना और लतियानं । मारकूट । क्रि० प्र०— करना ।— मचाना । ३. खूब पेट भर भोजन । इच्छाभोजन । उ०— तो कोई गोश्त रोटी और कबाबा की कचरकूट मचा चला । — प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४२ । क्रि० प्र०— करना ।— होना ।— मचना । — मचाना ।
⋙ कचरघान
संज्ञा पुं० [हिं० कचरना + घान] १. बहुत सी ऐसी वस्तुओं का इकठ्ठा होना । जिनसे गड़बड़ी हो । २. बहुत से लड़के बाले । कच्चे बच्चे । ३. घमासान । ४. मारपीट ।
⋙ कचरना पु †
क्रि० स० [सं० कच्टचरण = बुरी तरह चलना या अनु० कच] १. पैर से कुचल्ना । रौंदना । दबाना । उ०—चलो चलु चली चलु बिचलु न बीच ही तें कीच बीच नीच तौ कुटुंब को कचरिहौं । एरे दगाबाज मेरे पातक अपार तोहि गंगा के कछार में पछारि छार करिहौं ।— पद्माकर (शब्द०) २. सानना । उ०— लोग समझते हैं कि साला मूँगफरी के तेल में आटा कचर कर ठगने लगा है ।—वो दुनिया०, पृ० १५५ । ३. खूब खाना । चबाना । मुहा०— कचर कचरकर खाना= खूब पेट भर खाना ।
⋙ कचर पचर
संज्ञा पुं० [अनु०] १ गिचपिच । २. दे० 'कचपच' ।
⋙ कचरा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा] १. कच्चा खरबूजा । २. फूट का कच्चा फल । ककड़ी । ३. सेमल का डेड़ा या ढोढ़ । ४. खूद- खाद । कूड़ा करकट । रद्दी चीज । ५. रुई का खूद या बिनौला जो धुनने पर अलगा कर दिया जाता है । ६. उरद या चने की पीठी । ७. सेवार जो समुदेर में होती हैं । पत्थर का झाड़ । जरस । जर ।
⋙ कचरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा] १. ककड़ी की जाति की एक बेल जो खेतों में फैलती है । पेंहटा । पेहँटुल । गुरम्हीं । सेंधिया । विशेष— इसमें चार पाँच अंगुल के छोटे छोटे अंड़ाकर फल लगते हैं जो पकने परपील और खटमीठे होता हैं । कच्चे फलों को लोग काटकर सुखाते हैं और भूनकर सोंधाई या तरकारी बनाते हैं । जयपुर की कचरी खट्टी बहुत होती हैं और कड़ुई कम । पच्छिम में सोंठ और पानी में मिलाकर इसकी चटनी बनाते हैं । यह गोश्त गलाने के लिये उसमें ड़ाली जाती हैं । २. कचरी या कच्चे पेंहटे के सुखाए हुए टुकड़े । ३. सूखी कचरी की तरकारी । उ०— पापरबरी फुलौरी कचौरी । कूरबरी कचरी औ मिथौरी । — सूर० (शब्द०) । ४. काटकर सुखाए हुए फल मूल आदि जो तरकारी के लिये रखे जाते हैं । उ०— कुँदरू और ककोड़ा कौर । कचरी चार चचेड़ सौरे । — सूर (शब्द०) । ५. छिलकेदार ढ़ाल । ६. रुई का बिनौला या खूद ।
⋙ कचलंपट
वि० [हिं० काछ + लंपट] दे० 'कछलंपट' ।
⋙ कचला †
संज्ञा पुं० [ सं० कच्चर= मलिन] १. गीली मिट्टी । गिलावा । २. कीचड़ ।
⋙ कचल
संज्ञा पुं० [देश०] एक पहाड़ी पेड़ । विशेष— इसकी कई जीतियाँ होती है । हिंदुस्तान में इसके चौदह भेद मिलते हैं जिनकी पहचान केवल पत्तियों से होती है, लकड़ियों में कुछ भेद नहीं होता । इसकी लकड़ी सफेद, चमकदार और कड़ी होता हैं । प्रति घनफुट २१ सेर वजन में होती है । यह पेड़ यमुना के पूर्व में हिमालय पर्वत पर ५००० से ९००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाती है । पेड़ देखने में बहुत सुंदर होता है । इसकी पत्तियाँ शिशिर में झर जाती हैं और वसत में पहले निकल आती हैं । इसके तख्ते मकानों में लगते हैं और चाय के सदूक बनाने के में आते हैं ।
⋙ कचलोंदा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + लोंदा] कच्चे आटे का पेड़ा । लोई । जैसे, — वह रोटी नहीं जानता, कचलोंदे उटाकर सामने रख देता हैं ।
⋙ कचलोन
संज्ञा पुं० [हिं० काँच + लोन] एक प्रकार का लवण । विशेष— यह काँच की भटि्टयों में जमे हुए क्षार से बनता हैं । यह पानी में जल्दी नहीं घुलता और पाचक होता है ।
⋙ कचलोहा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + लोहा] १. कच्चा लोहा । २. अनाड़ो का किया हुआ वार । हलका हाथ ।
⋙ कचलोही
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कचलोहा का स्त्री०] दे० 'कचलोहा' ।
⋙ कचलोहू
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + लोहू] वह पनछा या पानी जो खुले जख्म से थोड़ा थोडा़ निकलता हैं । रसधातु ।
⋙ कचवाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा = बहुत छोटा + अंश] खेत मापने का एक मान जो बीघे का आठ हजारवाँ भाग होता है । बीस कववाँसी का एक विश्वांसी होता है ।
⋙ कदवाठ †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कचाहट] १. खिन्नता । विराग । २. नफरत । चिढ़ ।
⋙ कचहरी
संज्ञा स्त्री० [देश० अथवा सं० कष+ गृह =कषगृह > कशघरी >कछहरी > कचहरी अथवा सं० कृत्य= कर्तव्य +गृह > कच्चघरी > कचहरी] १. गोष्ठी । जमावड़ा । जैसे,— तुम्हारे यहाँ दिल रात कचहरी लगी रहती है । २. दरबार । राजसभा । उ०— अमर सिंह राजा को नाम । नागी कचहरी बहु विधि धामा ।— कबीर सा०, पृ० ४५५ । क्रि० प्र०— अठना ।— करना । — बैठना । — लगना ।— लगाना । ३. न्यायालय । अदालत । क्रि० प्र०— उठना । — करना । — लगाना ।— मुहा०— कचहरी चढ़ना = अदालत तक मामला ले जाना । ४. न्यायालय का दफ्तर । ५. दफ्तर । कार्यालय ।
⋙ कचा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हथिनी । २. शोभा । सौंदर्य [को०] ।
⋙ कचा (२) पु
वि० [हिं० कच्चा] दे० 'कच्चा' । उ०— अद् भुत नर्तक नाहिं कछ कचै । सर्प फननि पर तांड़व नचे । — नंद० ग्रं०, पृ० २८१ ।
⋙ कचाई
संज्ञा स्त्री [हिं० कच्चा+ई (प्रत्य०)] १. कच्चापन । उ०— सनै सनै थल पंक पिटाई । वीरुध तुननि की गई कचाई । नंद० ग्रं० पृ० २९१ । २. नाताजुर्बकारी । अनुभव की कमी । उ०— ललन सलोने अरु रहे अति सनेह सों पागि । तनक कचाई देति दुख सूरन लो मुख लागि । —बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कचाकचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक दूसरे के बाल पकड़कर खींचना । केशाकेशी [को०] ।
⋙ कचाकु (१)
वि० [सं०] १. दुःशील । उद्दंड़ । २. कुटिल । ३. असह्य (को०) । ४. दुष्प्राय (को०) ।
⋙ कचाकु (२)
संज्ञा पुं० सर्प । साँप [को०] ।
⋙ कचाटुर
संज्ञा पुं० [सं०] बनमुरगी जो पानी या दलदल के किनारे की घासों में घूमा करती है ।
⋙ कचाना †
क्रि० अ० [हिं० कच्चा] १. कचियाना । पीछे हटना । सकपकान । हिम्मत हारना । भयभीत होना । डरना ।
⋙ कचायँध
संज्ञा स्त्री [हिं० कच्चा + गंध] कच्चेपन की महक ।
⋙ कचायन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचकच] किचकिच । लड़ाई झगड़ा ।
⋙ कचार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कछार] नदी के किनारे उस स्थान का जल जहाँ कीचड़ या दलदल के कारण बबूले उटते हैं और जहाँ नावा नहीं चढ सकती ।
⋙ कचार (२) †
संज्ञा स्त्री० [कचरा या कचड़ा] खाद । क्रि० प्र०— काढना । — ड़ालना । — फेंकना ।— हटान ।
⋙ कचार (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचारना] कचारने का काच या भाब ।
⋙ कचारना
क्रि० स० [अनु०] कपड़े को पटककर धोना । कपड़ा धोना ।
⋙ कचालू
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + आलू] १. एक प्रकार की अरुई । बंड़ा । २. एक प्रकार की चाट । उबाले हुए आलू या बंड़े के कतरे जिसमें नमक, मिर्च, खटाई आदि चरपरी चीजें मिली रहती हैं । ३. कमरख, अमरूद, खोरे, ककड़ी आदि के छोटे छोटे टुकड़े जिनमें नमक, मिर्च मिली रहती हैं । मुहा०— कचालू करना या बनाना । = खूब पीटना ।
⋙ कचावट
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + आवट (प्रत्य०)] कच्चे आम के पन्ने की अमावट की तरह जमाई हुई खटाई ।
⋙ कचाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा] कच्चापन । कचाई । कच्चे होने की अवस्था या भाव ।
⋙ कचाहिंद
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचायन] किचकिच । लड़ाई झगड़ा ।
⋙ कचिया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं काटना] दाँती । हँसिया ।
⋙ कचिया (२)
संज्ञा दे० [सं० काँच] एक प्रकार का नमक जो काच से बनाया जाता है । काच लवण । दे० 'कचलोन' ।
⋙ कचियाना
क्रि० अ० [हिं० कच्चा] १. दिल कच्चा करना । साहस छोड़ना । हिम्मत हारना । तप्पर न रहना । २. ड़र जाना । पीछे हटना । २. लज्जित होना । शर्माना । झेंपना । संयों० क्रि०— जाना ।
⋙ कचीची (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचपचो] कृत्तिका । २. कचपचिया । उ०— कानन कुंड़ल खूँटी औ खूँटी । जानहुँपरी कचीची टूटी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ कचीची (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा का अत्पा० ] कनपटी के पास दोनों जबड़ों का जोड़ जिससे मुँह खुलता और बंद होता है । है । जबड़ा । दाढ़ । मुहा०— कवीची बटना = दाँत पीसन । किचकिचान । कचीची लेना = मरने के समय का दाँत पीसना । कचीची बँधना = दाँत बैठना ।
⋙ कचु
संज्ञा पुं० [सं०] कंद शाक । घुईयाँ । बंड़ा [को०] ।
⋙ कचुल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० कसोरा, कचोरा + उला (प्रत्य०)] वह कटोरा जिसकी पैदी चौड़ी हो ।
⋙ कचू्मर (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कठूमर' ।
⋙ कचुमर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कुचलना ] १. कुचलकर बनाया हुआ अचार । कुचला । २. कुचली हुई वस्तु । भर्ता । भूर्ता । मुहा०— कचूमर कर या निकालना = (१) खूब कूटना । चूर चूर करना । कुचलना । २. असावधानी या अत्यंत प्रधिक व्यवहार के कारण किसी वस्तु को नष्ट करना । बिगाड़ना । नष्ट करना । —जैसे, तुम्हारे हाथ में चीज पड़ती है, उसी का कचूमर निकाल ड़ालते हो । ३. मारते मारते बेदम कर देना । खूब पीटना । भुरकुस निकालना ।
⋙ कचूर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्चूर] हल्दी की का एक पौधा । नर कचूर । जरंबाद उ०— परे पुहुमि पर होइ कचूरू । परै केदली महँ होइ कपुरू ।— जायसी (गुप्त), पृ० ३३१ । विशेष— यह ऊपर से देखने में बिलकुल हल्दी की तरह का होता है, पर हल्दी की जड़ और इसकी जड़ या गाँठ में भेद होता हैं । कचूर की जड़ या गाँठ सफेद होती है और उसमें कपूर की सी कड़ी महक होती है । यह पोधा सारे भारतवर्ष में लगाया जाता है और पूर्वीय हिमालय की तराई में आपसे आप होता है । वैद्यक के अनुसार कचूर रेचक, अग्निदीपक और वात तथा कफ को दूर करनेवाला है । यह साँस, हिचकीं और बवासीर में दिया जाता है । पर्या०— कर्चूर । द्राविड़ । गंधमूलक । गंधसार । वेध- मूख । जटाल । मुहा०— कचूर होना = कचूर की तरह हरा होना । खूब हरा होना (खेती औदि का) ।
⋙ कचूर (२)
संज्ञा पुं० [हि० कचोरा] [स्त्री० कचूरी] कचुल्ला कटोरा । उ०— (क) नयन कचूर प्रेम मद भरे । भई सुदिष्टि योगी सों ढरे ।— जायसी (शब्द०) । (ख) माँगी भीख खपर लइ मुए न छोड़े बार । बुझ जो कनक कचूरी भीख देहु नहिं मार ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कचेरा
संज्ञा पुं० [हिं० काँच] दे० 'कँचेरा' ।
⋙ कचेल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह डोर जिसमें कागजपत्र, ग्रंथ रखे जायँ । २, वह आवरण या जिल्द जिसमें कागजपत्र सुरक्षित रखे जायँ [को०] ।
⋙ कचेहरी
संज्ञा पुं० [हिं० कचहरी] दे० 'कचहरी' ।
⋙ कचैड़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचहरी ] दे० 'कचहरी' । उ०— चाड़ी करै कचैड़ी चढ़िया । — बाँकी० ग्रं० ३, पृ० १०९ ।
⋙ कचोक
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचोकना] कोई नोकदर चीज चुभने या गडने की क्रिया या भाव ।
⋙ कचोकना
क्रि० स० [अनु०] किसी नुकीली चीज को चुभाना या गड़ाना । चुभाना ।
⋙ कचोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचोटना] रह रहकर बार बार होनेवाली वेदना । कचोटने की क्रिया या भाव । उ०—उसे देखने के लिये उठता हुदय कचोट । — झरना, पृ० ७३ ।
⋙ कचोटना
क्रि० अ० [अनु०] मन के भीतर की वेदना का उभड़ना । किसी की याद में दुख का होना । उ०— हृदय कचोटने लगता है ।— कंकाल, पृ० १३ ।
⋙ कचोना
क्रि० स० [हिं० कच = धँसाने का शब्द] चुभाना । धँसाना ।
⋙ कचोरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा +औरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कचोरी] कटोरा । प्याला । उ०— (क) पान लिए दासी चहुँओर । अमिरित दानी भेर कचोरा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) मुकुलित केश सुदेश देखियत नील बसन लपटाए । भरि अपनें कर कनक कचोरा पीवत प्रियहि चखाए ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ कचोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचोरा +ई (प्रत्य०)] छोटा कटोरा । प्याली । कटोरी ।
⋙ कचौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कचौरी' ।
⋙ कचौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचरी] एक प्रकार की पूरी जिसके भीतर उरद आदि की पीठी भरी जाती है । यह कई प्रकार की होती है । जैसे— सादी, खस्ता आदि । उ०— पूरि सपूरि कचौरौ कौरी । सदल सु उज्वल सुंदर सौरी ।—सूर० (रांधा०), पृ० ४२० ।
⋙ कच्चट
संज्ञा पुं० [सं०] एक जलीय पौधा [को०] ।
⋙ कच्चपच्च
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'कचपच' । भीड़ा । शोरगुल । बच्चों का कोलाहल ।
⋙ कच्चर (१)
वि० [सं०] गर्द से भरा हुआ । मैला कुचैला । मल से दूषित ।
⋙ कच्चर (२)
संज्ञा पुं० पानी मिला मखनिया दूध ।
⋙ कच्चा (१)
वि० [सं० कषण = कच्चा] १. बिना पका । जो पका न हो । हरा और बिना रस का । अपक्व । जैसे— कच्चा फल । मुहा०— कच्चा खा जाना = मार ड़ालना । नष्ट करना । (क्रोध में लोंगों की यह ससाधारण बोल चाल है ।) जैसे, तुमसे जो कोई बोलेगा उसे मैं कचेचा खा जाऊँगा । उ०— क्या महमूद के अत्याचारों का वर्णन पढ़कर जी में यह नहीं आता है कि वह सामने आता तो उसे कच्चा खा जाते । — रस०,स पृ० १०१ । २. जो जाँच पर न पका हो । जो आँच खाकर गला न हो या खरा न हो गया हो । जैसे,— कच्ची रोटी, कच्ची दाल, कच्चा घड़ा, कच्ची ईट । ३. जो अपनी पूरी बाढ़ को न पहुँचा हो । जो पुष्ट न हुआ हो । अपरिपुष्ट । जैसे, — कच्ची कली, कच्ची लकड़ी, कच्ची उमर । मुहा०— कच्चा जाना = गर्भपात होना । पेय गिरना । कच्चा बच्चा = वह बच्चा जो गर्भ के दिन पूरे होने के पहले ही पैदा हुआ हों । ४. जो बनकर तैयार न हुआ हो । जिसके तैयार होने में कसर हो । ५. जिसके संस्कार या संशोधन की प्रक्रिया पूरी ना हुई हो । जैसे— कच्ची चीन कच्ची शोरा । ६. अदृ़ढ । कमजोर जल्दी टूटने या बिगड़नेवाला । बहुत दिनो तक न रहनेवाला । अस्थायी । स्थिर । जैसे,—(क) कच्ची धागा कच्चा काम, कच्चा रंग । उ०— (क) कच्चे बारह बार फिरासी । पक्के तौ फिर थिर न रहासी । — जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३३२ । (ख) ऐसे कच्चे नहीं कि हमपर किसी का दाँवपेंच चले ।— फिसाना०, भा० १, पृ०९ । मुहा०— कच्चा जी या दिल = विचलित होलेवाला चित्त । वह हृदय जिसमें कष्ट, पीड़ा आदि सहने का साहस न हो । 'कड़ा जी' का उलटा । जैसे, — (क) उसका बड़ा कच्चा जी है, चीर फाड़ नहीं देख सकता । (ख) लड़ाई पर जाना कच्चे जी के लोगों का काम नहीं है । कच्चा करना = (१) ड़राना । भयभीत करना । हिम्मत छुड़ा देना । (२) कच्ची सिलाई करना । लंगर ड़ालना । सलंगा भरना । कच्चा होना = (१) अधीर होना । हतोत्साह होना । हिम्मत हारना । (२) लंगर पड़ना । कच्ची सिलाई होना । ७. जो प्रमाणों से पुष्ट न हो । अप्रामाणिक । निःसार । अयुक्त । बेठीक । जैसे, कच्ची राय, कच्ची दलील, कच्ची जुगुत । मुहा०— कच्चा करना =(१) अप्रमाणिक ठहराना । झूठा साबित करना । जैसे, — उसने तुम्हारी सब बातें कच्ची कर दीं । (२) लज्जित करना । शरमाना । नीचा दिखलाना । जैसे, — उसने सबके सामने तुम्हें कच्चा किया । कच्चा पड़ना =(१) अप्रमाणिक ठहरना । निःसार ठहरना । झूठा ठहरना । जैसे,— (क) यहाँ तुम्हारी दलील कच्ची पड़ती है । (ख) यदि हम इस समय तुम्हों रुपया न देंगे तो हमारी बात कच्ची पड़ेगी । (२) सिटपिटाना । संकुचित होना । जैसे, हमें देखते ही वे कच्चे पड़ गए । कच्ची पक्की = भली बुरी । उलटी सीधी । दुर्वाक्य । दुर्वचन । गाली । जैसे, — बिना दो चार कच्ची पक्की सुने वह ठीक काम नहीं करता । कच्ची बात =अश्लील बात । लज्जाजनक बात । झूठी बात । उ०—(क) क्यों भला बात हम सुनें कच्ची, हैं न बच्चे नौ कान के कच्चे । चुभते०, पृ० १७ । (ख) कहै सेख तुम बेगम सच्चिय । ऐसी बात कहो मत कच्चिय । — हम्मीर रा०,पृ० ३९ । ८. जो प्रमाणिक तौल या माप से हो कम हो । जैसे, — कच्चा सेर, कच्चा मन, कच्चा बीघा, कच्चा कोस, कच्चा गज । विशेष— एक ही नाम के दो मानों में जो कम या छोटा होता है, उसे कच्चा कहते हैं । जैसे,—जहाँ नंबरी सेर से अधिक वजन का सेर चलता है, वहाँ नंबरी को ही कच्चा कहते हैं । ९. जो सर्वांगपूर्ण रूप में न हो । जिसमें काट छांच की जगह हो । जैसे,— कच्ची बही, कच्चा मसविद । १०. जो नियमा- नुसार न हो । जो कायदे के मुताबिक न हो । जैसे, कच्चा दस्तावेज । कच्ची नकल । ११ कच्ची मिट्टी का बना हुआ । गीली मिट्टी का बना हुआ । जैसे,— कच्ची घर । कच्ची दीवार । महा० — कच्चा पक्का = इमारत या जोड़ाई का वह काम जिसमें पक्की ईंटें मिट्टी के गारे से जोड़ी गई हों । १२. अपरिपक्व । अपटु । अव्युत्पन्न । अनाड़ी । जिसे पूरा अभ्यास न हो ।— (व्यक्तिपरक) । जैसे— वह हिसाब में बहुत कच्चा है । १३. जिसे अभ्यास न हो । जो मँजा न हो । जो किसी काम को करते करते जमा या बैठा न हो ।— वस्तु- परक) । जैसे, कच्चा हाथ । १४. जिसका पुरा अय़भ्यास न हो । जो मँजा हुआ न हो । जैसे,— कच्ची खेत, कच्चे अक्षर । जैसे,— जो विषय कच्चा हो उसका अभ्यास करो ।
⋙ कच्चा (२)
संज्ञा पुं० १. दूर दूर पर पड़ा हुआ तागे का वह ड़ोभ जिसपर दरजी बखिया करते हैं । यह ड़ोभ या सीवन पीछे खोल दी जाती हैं ।क्रि० प्र०— करना । होना । २. ढाचा । खाका । ढड़ुढा । ३. मसविद । ४. कनपटी के पास नीचे ऊपर के जबड़ों का जोड़ जिसमें मुँह खुलता और बंद होता है । ५. जबड़ा । दाढ़ । मुहा०— कच्चा बैठना = दाँत बैठना । मरने के समय ऊपर से नीचे के दाँतों का इस प्रकार मिल जाना कि वे अलग न हो सकें । ६. बहुत छोटा ताँबे का सिक्का जिसका चलना सब जगह न हो । कच्चा पैसा । ७. अधेला । ८. एक रुपए का एक दिन का ब्याज जो एक' कच्चा' कहलाता है । विशेष— ऐसे १०० कच्चों का ३ १/४ तक्का माना जाता है । पर प्रत्येक ३०० कच्चों का दस पक्का लिया जाता है । दोशी व्यापारी इसी रीति पर ब्याज फैलाते हैं ।
⋙ कच्चाअसामी
संज्ञा पुं० [ हिं० कच्चा + असामी] १. वह आदमी जो किसी खेत को दो ही एक फंसल जोतने के लिये ले । ऐसे असामी का खेत पर कोई अधिकार नहीं होता । २. जो लेनदेन के व्यवहार में दृढ न रहे । जो अपना वादा पूरा न करता हो । ३. जो अपनी बात पर दृढ न रहे । जो समय पर किसी बात से नट जाय ।
⋙ कच्चा कागज
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा +अ० कागज] १. एक प्रकार का कागज जो घोंटा हुआ नहीं होता । यह शरबत, तेल आदि के छानने के काम में आता है । २. वह दस्तावेज जिसकी रजिस्ट्री न हुई हो ।
⋙ कच्चा काम
संज्ञा पुं० [ हिं० कच्चा + काम] वह काम जो झठे सलमें सितारे या गोटे पट्टी से बनाया गया हो । झूठा काम ।
⋙ कच्चा कोढ़
संज्ञा पुं० [सं० कच्चा + कोढ़] १. खुजली ।२. गरमी । आतशक ।
⋙ कच्चा गोटा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + गोटा] झूठा गोटा ।
⋙ कच्चा घड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + घड़ा] १. वह घड़ा जो आवें में न पकाया गया हो । मुहा०— कच्चे घड़े में पानी भरना = अत्यंत कठिन काम करना । २. घड़ा जो खूब पका न हो । सेवर घड़ा । मुहा०— कच्चे घड़े की चढ़ना = शराब या ताड़ी आदि को पीकर मतवाला होना । नशे में चूर होना । गहागड़्ड़ नशा चढ़ना । पागल होना । उन्मत्त होना । बहकना ।
⋙ कच्चा चिट्ठा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + चिट्ठा] वह गुप्त वृत्तांत जो ज्यों का त्यों कहा जाय । पूरा और ठीक ठीक ब्यौरा । मुहा०— कच्चा चिटिठा खेलना = गुप्ता भेद खोलना । गुप्त बातों को पूरे ब्यौरे के साथ प्रकट करना । उ०— चलो, बस अब बहुत न बको । नहीं तो मैं जाके बेगम साहब से जड़ दूँगी कच्चा चिटि्ठा । — सैर०, पृ० २८ ।
⋙ कच्चा चुना
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + चूना] चूने की कली चो पानी में न बुझाई गई हो ।
⋙ कच्चा जिन
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + अं० जिन= भूत] १. जड़ । मूर्ख । २. हठी आदमी । ३. पीछे पड़ जानेवाला आदमी । वह जिसे गहरी धुन हो ।
⋙ कच्चा जोड़
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + जोड़] बर्तन वनानेवालें की बोली में वह जोड़ जो राँगे से जड़ा गया हो । कच्चा टाँका । विशेष—यह जोड़ उखड़ जाता है और बहुत दिनों तक रहता नहीं ।
⋙ कच्चा टाँका
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + टाँका] दे० 'कच्चा' जोड़ ।
⋙ कच्चा तागा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + तागा] १. कता हुआ तागा जो बटा न गया हो । २. कमजोर चीज । नाजुक चीज ।
⋙ कच्चा धागा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा +धागा] दे० 'कच्चा तागा' ।
⋙ कच्चा नील
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + नील] एक प्रकार का नील । नीलबरी । विशेष—कारखाने में मथाई के बाद हौज में परास का गोंद मिला कर नील छोड दिया जाता है । जब वह नीचे जम जाता है, तब ऊपर का पानी हौज के किनारे के छेद से निकाल दिया जाता है । पानी के निकल जाने पर नीचे के गड्ढे में नील के जमे हुए माँठ या कीचड़ कों कपड़े में बाँधकर रात भर लटकाते हैं । सबेरे उसे खोलकर राख पर धूप में फैला देते हैं । सूखने पर इसी कच्चा नील या नीलबरी कहते हैं । इसमें पक्के नील से कम मेहनत लगती है, इसी से यह सस्ता बिकता है ।
⋙ कच्चापन
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + पन (प्रत्य०)] कच्चे होने की स्थिति या भाव । कचाई । अपरिपक्वता । उ०—मुख के उस कच्चेपन से, में नहीं समझता वह पाउडर होगा, कौमार्य की पुष्टि हो रही थी ।—पिंजरे०, पृ० ४७ ।
⋙ कच्चा पैसा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + पैसा] वह छोटा ताँबे का सिक्का या पैसा जिसका प्रचार सब जगह न हो और जो राज्यानुमोदित न हो । जैसे, गोरखपुरी, बालासाही, मदधूसाही नानकसाही ।
⋙ कच्चा बाना
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + बाना] १. रेशम का वह डोरा जो बटा न हो । २. वह रेशमी कपड़ा जिसपर कलफ न किया गया हो ।
⋙ कच्चा माल
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + माल] १. वह रेशमी कपड़ा जिसपर कलफ न किया गया हो । २. झूठा गोटा पट्टा । ३. वे मूल द्रव्य जिनका उपयोग विविध शिल्पों में उत्पादन कार्य के लिये होता है । जैसे, चीनी मिल के लिये गन्ना, वस्त्र मिल के लिये रूई, कागज मिल के लिये बाँस, ईख की छोई, सन और लौह के कारखानों के लिये कच्चा लोह आदि 'कच्चा माल' हैं ।
⋙ कच्चा मोतियाबिंद
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + मोतियाबिंद] वह मोतियाबिंद जिसमें आँख की ज्योति बिलकुल नहीं मारी जाती, केवल धुँधला दिखाई देता है । ऐसे मोतिंयाबिंद में नश्तर नहीं लगता ।
⋙ कच्चा रेजा
संज्ञा पुं० [हिं० कट्टा + रेजा] दे० 'कच्चा माल—१' ।
⋙ कच्चा शोरा
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + शोरा] वह शोरा जो उबाली हुई नोनी मिट्टी के खारे पानी में जम जाती है । इसी को फिर साफ करके कलमी शोरा वनाते हैं ।
⋙ कच्चा हाथ
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + हाथ] वह हाथ जो किसी काम में बैठा न हो । बिना मँजा हुआ हाथ । अनभ्यस्त हाथ ।
⋙ कच्चा हाल
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + हाल] सच्ची कथा । पूरा और ठीक ब्योरा ।
⋙ कच्ची (१)
वि० [हिं० कच्चा का स्त्री०] कच्चा । अपरिपुष्ट । उ०— इस लौंडे की उम्र अभी कच्ची है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८७ ।
⋙ कच्ची (२)
संज्ञा स्त्री० कच्ची रसोई । केवल पानी में पकाया हुआ अन्न । अन्न जो दूध या घी में न पकाया गया हो । 'पक्की' का प्रतिलोम शब्द । सखरी । जैसे,—हमारा उनका कच्ची का व्यवहार है । विशेष—द्विजातियों में लोग अपने ही संबंध या बिरादरी के लोगों के हाथ की कच्ची रसोई खा सकते हैं ।
⋙ कच्ची असामी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + असामी] वह काम या जगह जो थोडे़ दिनों के लिये हो । चंदरोजा जगह ।
⋙ कच्ची कली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा = कली] १. वह कली जिसके खिलने में देर हो । मुँहबँधी कली । २. स्त्री जो पुरुष समागम के योग्य न हो । अप्राप्तयौवना । ३. जिस स्त्री से पुरुषसमागम न हुआ हो । अछूती । मुहा०—कच्ची कली टूटना = १. थोड़ी अवस्थावाले का मरना । २. बहुत छोटीं अवस्थावाली या कुमारी का पुरुष से संभोग होना ।
⋙ कच्ची कुर्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + कुर्की] वह कुर्की जो प्रायः महाजन लोग अपने मुकदमे का फैसला होने से पहले ही इस आशंका से जारी करते हैं जिसमें मुकदमे का फैसला होने तक मुद्दालेह अपना माल असबाब इधर उधर न कर दे । वि० दे० 'कुर्की' ।
⋙ कच्ची गोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + गोटी] चौसर के खेल में वह गोटी जो उठी तो हो पर पक्की न हो । चौसर में वह गोटी जो अपने स्थान से चल चुकी हो, पर जिसने आधा रास्ता पर न किया हो । उ०—कच्ची बारहि बार फिरासी । पक्की तो फिर थिर न रहासी ।—जायसी (शब्द०) । विशेष—चौसर में गोटियों के चार भेद हैं । मुहा०—कच्ची गोटी खेलना = नाताजुर्बेक रहना । अशिक्षित बने रहना । अनाड़ीपन करना । जैसे,—उसने ऐसी कच्ची गोटियाँ नहीं खेली हैं जो तुम्हारी बातों में आ जाय ।
⋙ कच्ची गोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + गोली] मिट्टी की गोली जो पकाई न हो । ऐसी गोली खेलने में जल्दी टूट जाती है । मुहा०—कच्ची गोली खेलना = नातजुरूबे रहना । नातजुरबेकार होना । अनाड़ीपन करना । उ०—यहाँ किसी ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं । क्या मुफ्त की अशर्फियाँ हैं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५५३ । दे० 'कच्ची गोटी खेलना' ।
⋙ कच्ची घड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + घड़ी] काल का एक माप जो दिन रात के साठवें अंश के बराबर होता है । २४ मिनट का काल । दंड ।
⋙ कच्ची चाँदी
संज्ञा स्त्री०[हिं० कच्ची +चाँदी] चोखी चाँदी । बिना मेल की चाँदी । खरी चाँदी ।
⋙ कच्ची चीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] वह चीनी जो गलाकर खूब साफ न की गई हो ।
⋙ कच्ची जबान
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची +फा़० जबान] दुर्वचन । गाली । अपशब्द ।
⋙ कच्ची जाकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची +जाकड़] वह बही जिसमें उस माल के लेनदेन का ब्योरा हो जो निश्चित रूप से न बिक गया हो ।
⋙ कच्ची नकल
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + अ० नक्ल] वह नकल जो सरकारी नियम के विरुद्ध किसी सरकारी कागज या मिसिल से खानगी तौर पर सादे कागज पर उतरवाई जाय । विशेष—यह नकल निज के काम में आ सकती है, पर किसी हाकिम के सामने या अदालत में पेश नहीं हो सकती ।
⋙ कच्ची निकासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + निकासी] वैसी कुल आमदनी जिसमें खर्च का अंश पृथक् न किया गया हो ।
⋙ कच्ची नींद
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + नींद] वह नींद जो पूरी न हो सके । झपकी । आरंभिक नींद ।
⋙ कच्ची पेशी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची = फा० पेशी] मुकद्दमे की पहली पेशी जिसमें कुछ फैसला नहीं होता ।
⋙ कच्ची बही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + बही] वह बही जिसमें किसी दुकान या कारखाने का ऐसा हिसाब लिखा हो जो पूर्ण रूप से निश्चित न हो ।
⋙ कच्ची मिती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + मिती] १. वह मिती जो पक्की मिती के पहले आवे । विशेष—लेनदेन में जिस दिन हुंडी का दिन पूजता है, उसे मिती कहते हैं । उसका दूसरा नाम पक्की मिती भी है । उसके पूर्व के दिनों को कच्ची मिती कहते हैं । २. रुपए के लेनदेन में रुपए की मिती और रुपए चुकाने की मिती । विशेष—इन दोनों मितियों का सूद प्रायः नहीं जोडा़ जाता ।
⋙ कच्ची रसोईं
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची = रसोई] केवल पानी में पकाया हुआ अन्न । अन्न जो दूध या घी में न पकाया गया हो ।
⋙ कच्ची रोकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + रोकड़] वह बही जिसमें प्रति दिन के आय व्यय का कच्चा हिसाब दर्ज रहता है ।
⋙ कच्ची शक्कर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची =शक्कर] वह शक्कर जो केवल राब की जूसी निकालकर सुखाने से बनती है । खाँड़ ।
⋙ कच्ची सड़क
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची = सड़क] वह सडक जिसमें कंकड़ आदि न पिटा हो ।
⋙ कच्ची सिलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्ची + सिलाई] १. वह दूर दूर पड़ा हुआ डोभ या टाँका जो बखिया करने के पहले जोडों को मिलाए रहता है । यह पीछे खोल दिया जाता है । लंगर । कोका । २. किताबों की वह सिलाई जिसमें सब फरमें एकसाथ हाशिए पर से सी दिए जाते हैं । इस सिलाई की पुस्तक के पन्ने पूरे नहीं खुलते । जिल्दबंदी में इस प्रकार की सिलाई नहीं की जाती । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कच्चू
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चू] १. अरुई । घुईयाँ । बंडा ।
⋙ कच्चे पक्के दिन
संज्ञा पुं० [हिं० ] १. चार पाँच महीने का गर्भकाल । २.दो ऋतुओं की सँधि के दिन ।
⋙ कच्चे बच्चे
संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा बच्चा का बहुव०] बहुत छोटे- छोटे बच्चे । बहुत से लड़के बाले । जैसे,—इतने कच्चे बच्चे लिए हुए तुम कहाँ फिरोगे । २. संतति । उ०—कला कल्पना की नूतन सृष्टि में है, प्रकृति के ज्यों के त्यों चित्रण में नहीं । काव्य कल्पना का लोक हैं । ये सब उक्त बेल बूटेवाली हलकी धारणा के कच्चे बच्चे हैं । —चितामणि, भा० २, पृ० १६९ । विशेष—यह शब्द बहुवचन के रूप में ही प्रचलित है ।
⋙ कच्छ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलप्राय देश । अनूप देश । २. नदी आदि के किनारे की भूमि । कछार । उ०—सीतल मृदुल बालुका स्वच्छ । इत ये हरे हरे तृन कच्छ ।—नंद ग्रं०, पृ० २६४ । (ख) आवहु बैठहु भोजन करें । इत ये बच्छ कच्छ में चरैं ।—नंद ग्रं०, पृ० २७४ ।(ग) गिरि कंदर सरवरह सरित कच्छह घन गुच्छह ।—पृ० रा० ६ ।१०२ । ३. [वि० कच्छी] गुजरात के समीप एक अंतरीप । कच्छभुज । उ०—(क) कुकन कच्छ परोट थट्ट सिंधू सरभंगा ।—पृ० रा० १२ ।१३०, (ख) चारण कच्छ देसां जाति कच्छिला कहाया ।—शिखर०, पृ० १०५ । ४. कच्छ देश का घोडा़ । ५. धोती का वह छोर जिसे दोनों टाँगों के बीच से निकालकर पीछे खोंस लेते हैं । लाँग । ६. सिक्खों का जाँघिया जो पंच क्कार (कंघी, केश, कच्छ, कडा़ और कृपाण) में गिना जाता है । मुहा०—कच्छ की उखेड़ = कुश्ती का एक पेंच जिसमें पट पडे़ हुए को उलटते हैं । इसमें अपने बाएँ हाथ को विपक्षी के बाएँ बगल से ले जाकर उसकी गर्दन पर चढा़ते हैं और दाहिने हाथ को दोनों जाँघो में से ले जाकर उसके पेट के पास लँगोट को पकड़ते हैं और उखेड़ देते हुए गिरा देते हैं । इसका तोड यह है—अपनी जो टाँग प्रतिद्वंद्वी की ओर हो, उसे उसकी दूसरी टाँग में फँसाना अथवा झट घूमकर अपने खुले हाथ से खिलाडी की गर्दन दबाते हुए छलाँग मारकर गिराना । ७. छप्प का एक भेद जिसमें ५३ गुरू, ४६ लघु, कुल ९९ वर्ण और १४२ मात्राएँ होती हां । ८. तुन का पेड़ । उ०—(क) राम प्रताप हुतासन कच्छ विपच्छ सभीर समीर दुलारो ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) हरी के अतिरिक्त बबूल, कच्छ की छाल, धावडा़ के पत्ते आदि उपयोगी चीजें यहाँ काफी पाई जाती हैं ।—शुक्ल० अभि० ग्रं० (विविध), पृ० १४ ।
⋙ कच्छ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप] कछुआ । उ०—नहिं तब मच्छ कच्छ बाराहा ।—कबीर श०, पृ० १४९ ।
⋙ कच्छप
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कच्छपी] १. कछुंआ ।२. विष्णु । के २४ अवतारों में से एक । उ०—परम रूपमय कच्छप सोई ।—मानस, १ ।२४७ । ३. कुबेर की नव निधियों में से एक निधि । ४. एक रोग जिसमें तालु में बतौडी निकल आती है । ५. एक यंत्र जिससे मध खींचा जाता है । ६. कुश्ती का एक पेंच । ७. एक नाग । ८. विश्वामित्र का एक पुत्र । ९. तुन का पेड़ । १०. दोह का एक भेद जिसमें ८ गुरु और ३२ लघु होते हैं । जैसे—एक छत्र एक मुकुट मणि, सब बरनन पर जोंइ । तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोइ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कच्छपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें पाँच छह फोडे़ निकलते हैं जो कछुए की पीठ ऐसे होते हैं और कफ और बात से उत्पन्न होते हैं ।—माधव०, पृ० १८७ । २. प्रमेह के कारण उत्पन्न होनेवाली फुडियों का एक भेद । ये फुडियाँ छोटी शरीर के कठिन भाग में कछुए की पीठ के आकार की होती हैं । इनमें जलन होती है । कच्छपी ।
⋙ कच्छपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कच्छप की स्त्री । कछुई । सरस्वती की वीणा का नाम । ३. एक प्रकार की छोटी वीणा । ४. दे० 'कच्छपिका—२' ।
⋙ कच्छशेष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के दिगंबर जैन ।
⋙ कच्छा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ = नाव का एक भाग] १. एक प्रकार की बडी नाव जिसके छोर जिपटे और बडे़ होते हैं । इसमें दो पतवारें लगती हैं । २. कई बड़ी बड़ी नावों, विशेषतः पटैलों को एक में मिलाकर तैयार किया हुआ बड़ा बेड़ा या नाव । मुहा०—कच्छा पाटना = कई कच्छों या पटैलों को एक साथ बाँधकर पाटना ।
⋙ कच्छा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ] दे० 'कच्छ ६.'
⋙ कच्छार
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश जो बृहत्संहिता के अनुसार शतभिष, पूर्वाभाद्रपद और उत्तरा भाद्रपद के अधिकृत देशों में है । कच्छ ।
⋙ कच्छिला
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ + हिं० इला (प्रत्य०)] कच्छ देश निवासी एक जाति । उ०—चारण कच्छ देसाँ जाति कच्छिला कहाया ।—शिखर०, पृ० १०५ ।
⋙ कच्छी (१)
वि० [हिं० कच्छ] १. कच्छ देश का । कच्छ देश सबंधी । २. कच्छ देश में उत्पन्न ।
⋙ कच्छी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कच्छ] घोडे़ की एक प्रसिद्ध जाति जो कच्छ देश में होती है । इस जाति के घोडों की पीठ गहरी होती है । उ०—तरक्कंत घायं परे कच्छी । मनौ नीर मुक्कै तरफ्फंत मच्छी ।—पृ० रा०, १२ ।१०५ ।
⋙ कच्छू †
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप] कछुआ ।
⋙ कछ (१)पु †
वि० [हिं० कुछ] दे० 'कुछ' । उ०—कहत रविदास तोहिं सूझत न कछ काम, धाँम, धँन, धरा धाम, धनि मँनि दुख दंद में ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३२ ।
⋙ कछ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कक्ष] दे० 'कक्ष' । उ०—नासिका कछ इंद्री के मूआ ।—प्राण०, पृ० २३ ।
⋙ कछना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काछना] घुटने के ऊपर चढाकर पहनी हुई धोती । क्रि० प्र०—काछना ।
⋙ कछना (२)
क्रि० स० [हिं० काछना] धोती को घुटने के ऊपर चढ़ाकरपहनना । उ०—स्याम रंग फुलही सिर दीन्हें श्याम रंग कछनी कछ लीन्हें ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ कछ़नि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कछ़नी] दे० 'कछनी'—१ । उ०—लाल की लाल कछनि छबि ऐसी ।—नंद० ग्रं०, पृ० १२९ ।
⋙ कछनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काछना] १. घुटने के ऊपर चढ़ाकर पहनी हुई धोती । उ०—पीतांबर की कछनी काछे मोर मुकुट सिर दीन्हे ।—गीत (शब्द०) । क्रि० प्र०—काछना ।—बाँधना ।—मारना । २. छोटी धोती । उ०—स्याम रंग कुलही सिर दीन्हें । स्याम रंग कछनी कछ लीन्हें ।—लाल (शब्द०) । ३. रासलीला आदि में पहनने का घाघरे की तरह का एक वस्त्र जो घुटने तक आता है । ४. वह वस्तु जिससे कोई चीज काछी जाय ।
⋙ कछमछाना †
क्रि० अ० [हिं० कसमसाना] दे० 'कसमसाना' । उ०— फिर भी जाने क्या बात थी कि दूल्हा रह रहकर कछमछा उठता था ।—नऊ०, पृ० ४३ ।
⋙ कछरा
संज्ञा पुं० [सं० क = जल + क्षरण = गिरना] [स्त्री० अल्प० कछरी] चौडे मुँह का घड़ा या बरतन जिसमें पानी, दूध या अन्न रखा जाता है । इसकी अँवठ उँची और दृढ़ होती है । उ०—बाँधे न मैं बछरा लै गरैयन छीर भरयो कछरा सिर फूटिहै ।— बेनि (शब्द०) ।
⋙ कछराली
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'ककराली' ।
⋙ कछरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचरा का अल्पा०] छोटा कछरा ।
⋙ कछवारा
संज्ञा पुं० [हिं० काछी + बाडा] १. काछियों की बस्ती या टोला । २. काछी का खेत जिसमें तरकारियाँ बोई जाती हैं ।
⋙ कछवाह
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ + हिं० वाह (प्रत्य०)] दे० 'कछवाह' । उ०—जानत जहान ऐंड करि सुलताननि सौं, कीनौ कचवाह कामधुन को बचाव है ।—मति० ग्रं०, पृ० ४३५ ।
⋙ कछवाहा
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ + हिं० वाहा (प्रत्य०)] राजपूतों की एक जाति ।
⋙ कछवी केवल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की काली मिट्टी जो चिखुरने से सफेद हो जाती है । भटकी ।
⋙ कछान
संज्ञा पुं० [हिं० काछना] घुटने के ऊपर चढाकर धोती पहनना ।
⋙ कछार
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ+ हिं०आर (प्रत्य०)] १.समुद्र या नदी के किनारे की भूमि जो तर या नीची होती है । नदियों की मिट्टी से पटकर निकली हुई जमीन जो बहुत हरी भरी रहती है । खादर । दियारा । उ०—एरे दगाबाज मेरे पातक अपार तोहि गंगा के कछार में पछारि छार करिहौं ।—पद्माकर (शब्द०) । २. आसान प्रांत का एक भाग ।
⋙ कछारना
संज्ञा पुं० [हिं० कचारना] दे० 'कचारना' । फींचना । प्रक्षालन करना । उ०—नल से पानी भरने, उनकी धोती कछार देने या रसोई के बरतन मल देने के सब काम छोटे जमादार लोग कर देते हैं ।—फूलो०, पृ० २४ ।
⋙ कछावतार पु
संज्ञा [सं० कच्छ + अवतार] कच्छपावतार । उ०— कछावतार किद्धयं । लछम्मि जीत लिद्ध यं ।—पृ० रा० १० ।१२०
⋙ कछियाना
संज्ञा पुं० [हिं काछी] १. वह स्थान जहाँ काछी लोग रहते हों । काछियों की बस्ती । २. वह स्थान जहाँ काछि लोग साग भाजी आदि बोते हों ।
⋙ कछु पु †
वि० [हिं० कुछ] दे० 'कुछ' । उ०—(क) तदपि कहीं गुर बारहि बारा । समुझि परत कछु मति अनुसारा ।—मानस, १ ।३९ । (ख) ता समै परमेसुरी कछु कार्यार्थ वहाँ आई ।—दो सौ बावन०, पृ० १ । मुहा०—कछु और पु = कुछ दूसरा ही । उ०—तब तौ सनेह कछु और हौ, अब तौ कछु औरे भई ।—पृ० रा०, ७ ।६५ ।
⋙ कछुआ
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप] [स्त्री० कछुई] एक जलजतु जिसके ऊपर बड़ी कड़ी ढाल की तरह खोपड़ी होती है । कच्छप । विशेष—इस खोपड़ी के नीचे वह अपना सिर और हाथ पैर सिकोड़ लेता है । इसकी गर्दन लंबी और दुम बहुत छोटी होती है । यह जमीन पर भी चल सकता है । इसकी खोपड़ी की ढाल खिलौने आदि बनते हैं ।
⋙ कछइक पु
वि० [हिं० कछु + एक] थोड़ा सा । किंचित् । कुछ कुछ । कुछ एक । उ०—(क) सुमना जाती मल्लिका, उत्तम गंधा आस । कछु इक तुव तन बास सौं, मिलति जासु की बास ।— नंद० ग्रं०, पृ० १०५ । (ख) दत्तात्रय सुकदेव जी कहे कछू इक बैन ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७८७ ।
⋙ कछक (१) पु
वि० [हिं० कछु + एक] कुछ थोडा । उ०—(क) कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।—मानस, ५ ।१६ । (ख) नाहिन कछुक दरिदता जाकै ।—नंद ग्रं०, पृ० २१२ ।
⋙ कछुक (२)
क्रि० वि० थोड़ा सा । कुछ कुछ । जरा सा । उ०—आँछल ऐंचि रहैं प्रिया हौं कछुक छुटाऊँ ।—घनानंद०, पृ० ३४३ ।
⋙ कछुवा
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप] दे० 'कछुआ' । उ०—कमठ ध्यान कछुवा मत ताकौ । ऐसी सुरत नाम से राखौ ।—घट०, पृ० २१७ ।
⋙ कछोटा
संज्ञा पुं० [हिं० काछ + ओटा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० कछोटी] कछनी । काछनी । क्रि० प्र०—बाँधना ।—मारना । उ०—अंचल पट कटि में खोंस कछोटा मारे । सीता माता थीं आज नई छबि धारे ।—साकेत, पृ० २०३ ।
⋙ कछौहा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० ' कछार' ।
⋙ कज (१)पु
अव्य० [सं० कार्य, प्रा० कज्ज] दे० 'काज' । उ०—हमहिं बहुत अभिलाष देव बीरानि दरस कज ।—पृ० रा० ६ ।१४८ ।
⋙ कज (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. टेढ़ापन । जैसे,—उनके पैर में कुछ कज है । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना । मुहा०—कज निकलना = टेढ़ापन दूर करना । सीधा करना । २. कसर । दोष । दूषण । ऐब । क्रि० प्र० —आना ।—पड़ना ।—होना । मुहा०—कज निकलना=(१) दोष दूर करना । (२) दोष बतलाना । दूषण दिखाना । यौ०—कजझबू = कुटिल । भ्रूवाला । धनुषाकार भौहवाला ।कजफहम = उलटी सीधी समझवाला । नासमझ । कजरपतार = टेढ़ी चालवाला । वक्रगामी ।
⋙ कजअदा
वि० [फा०] १. कुटिल हावभाववाला । बामुरौवत । २. दुःशील ।
⋙ कजअदाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] हावभाव का बाँकपन । दुःशीलता । बेमुरौवती । उ०—जुल्फों का बल बनाना, आखें चुरा के चलना । क्या कजअदाइयाँ हैं क्या कमनिगाहियाँ हैं ।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३ ।
⋙ कजक
संज्ञा पुं० [फा०] हाथी का अंकुश ।
⋙ कजकोल
संज्ञा पुं० [फा०] भिक्षुकों का कपाल या खप्पर ।
⋙ कजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काछना, कछनी] वह औजार जिससे ताँबे या पीतल के बरतनों को खुरचकर साफ करते हैं । खरदनी ।
⋙ कजपूती
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'कयपूती' ।
⋙ कजफहम
वि० [फा० कज + अ० फहम] उलटी समझवाला । वक्र— बुद्धि । नासमझ । मूर्ख [को०] ।
⋙ कजफहमी
संज्ञा स्त्री० [फा० कज + अ० फहम + फा० ई (प्रत्य०)] दे० 'कजफहम' । उलटी समझ । मूर्खता । उ०—पीसता है माहरूओं को सदा, कैसी कजफहमी पै चखें मीर है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८६१ ।
⋙ कजरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काजर] दे० १.'काजल' । २. काली आखों— वाला बैल ।
⋙ कजरा (२)
वि० [हिं० काजल] [स्त्री० कजरी] काली आँखोंवाला । जिसकी आँखों में काजल लगा हो या ऐसे मालूम हो कि काजल लगा है जैसे,—कजरा बैल ।
⋙ कजराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काजल + आई (प्रत्य०)] कालापन । उ०—(क) गई ललाई आधार ते कजराई अँखियान । चंदन पंक न कुचन में आवति बात तियान ।—शृं० सत०, (ख) सितारों की जलन से बादलों को आँच कब आई । न चंदा को कभी व्यापी अमा की घोर कजराई ।—ठंडा०, पृ० ७६ ।
⋙ कजरारा
वि० [हिं० काजर + आई (प्रत्य०)] [स्त्री० कजरारी] १. काजलवाला । जिसमें काजल लगा हो । अंजनयुक्त । उ०—(क) फिर फिर दौरत देखियत निचले नैकु रहै न । ये कजरारे कौन पै करत कजाकी नैन ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) कजरारे दृग की घटा जब उनवै जेहि ओर । बरसि सिरावै पुहुमि उर रूप झलान झकोर ।—रसमिधि (शब्द०) । २. काजल के समान काला । काला स्याह । उ०—(क) वह सुधि नेकु करो पिय प्यारे । कमल पात में तुम जल लीनो जा दिन नदी किनारे । तहँ मेरो आय गयो मृगछौना जाके नैन सहज कजरारे ।—प्रताप (शब्द०) । (ख) गरजैं गरारे कजरारे अति दीह देह जिनहिं निहारे फिरैं बीर करि धीर भंग ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ कजरियाना
क्रि० स० [हिं० काजर से नाम०] दे० 'काजर' । १. बच्चों को नजर लगाना बचाने के लिये माथे पर काजल की बिंदी लगाना । २. रात या अँधेरा दिखलाने के लिये चित्र में काला रंग भरना ।
⋙ कजरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कजली—१' उ०—ओरहु कजरी तन लपटानी मन जानी हम धोवत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४२ ।
⋙ कजरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० कज्जल] एक धान जो काले रंग का होता है । उ०—कपूर काट कजरी रतनारी । मधुकर, ढेला, जीरा सारी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कजरीआरन पु
संज्ञा पुं० [हिं० कजरी + आरन] दे० 'कजली बन' । उ०—वै पिंगला गए कजरी आरन ।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० २५१ ।
⋙ कजरी बन †
संज्ञा पुं० [हिं० कजरी + बन] दे० 'कजली वन' ।
⋙ कजरी बाज
संज्ञा पुं० [हिं० कजरी + फा़० बाज] कजली गाने या रचनेवाला । कजली प्रेमी ।
⋙ कजरौटा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० काजर + औटा (प्रत्य०)] दे० 'कजलौटा' ।
⋙ कजरौटा (२)
वि० [हिं० कजलौटा] काला । श्यामल । कजरारा । उ०—सो वाही समै वा वैष्णव के लरिका ने देख्यो तो प्रथम अनेक सोने रूपे की सिंगवारी और बडे़ बडे़ कजरौटे नेत्रवारी गायें दीखीं ।—दो सौ बहावन०, भा० १, —पृ० ३२५ ।
⋙ कजरौटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कजरौटा कास्त्री०] दे० 'कजलौटी' । उ०—भावने के रस रूपहि सोधि लै नीकें भरयौ उर कै कजरौटी ।—घनानंद, पृ० ५५ ।
⋙ कजलबाश
संज्ञा पुं० [तु०] मुगलों की एक जाति जो बडी लडा़की होती है ।
⋙ कजला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काजल] १. दे० 'कजरा' । २. एक काला पक्षी । मटिया ।
⋙ कजला (२)
वि० दे० 'कजरा' ।
⋙ कजलाना (१)
क्रि० अ० [हिं० काजल] १. काला पड़ना । साँवला होना । २. आग का झँवाना । आग का बुझना ।
⋙ कजलाना (२)
क्रि० स० काजल लगाना । आँजना ।
⋙ कजलित पु
वि० [सं० कज्जलित या हिं० कजलाना] दे० 'कज्जलित' । उ०— युवति वृंद कजलित नैनन सिंदूर दिये सिर ।— प्रेमघन, पृ० ३२ ।
⋙ कजली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काजल] १. कालिख । २. एक साथ पिसे हुए पारे और गंधक की बुकनी । ३. गन्ने की एक जाति जो बर्दवान में होती है । ४. काली आँखवाली गाय । ५. वह सफेद भेड़ जिसकी आँखों के किनारे काले बाल होते हैं । ६. पोस्ते की फसल का एक रोग जिसमें फूलते समय फूलों पर काली काली धूल सी जम जाती है और फसल को हानि पहुँचाती है । ७. एक प्रकार की मछली ।
⋙ कजली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कज्जली] १. एक त्योहार । विशेष—यह बुंदेलखंड में सावन की पूर्णिमा को और मिर्जापुर, बनारस आदि में भादों बदी तीज को मनाया जाता है । इसमें कच्ची मिट्टी के पिंडों में गोदे हुए जौ के अंकुर किसी ताल या पोखरे में डाले जाते हैं । इस दिन से कजली गाना बंद हो जाता है । २. मिट्टी के पिंडों में गोदे हुए जौ से निकले हुए हरे हरे अंकुर या पौधे जिन्हें कजली के दिन स्त्रियाँ ताल या पोखरे में डालतीहैं और अपने संबंधियों को बाँटती हैं । ३. एक प्रकार का गीत जो बरसात में सावन बदी तीज तक गाया जाता है । मुहा०—कजली खेलना = स्त्रियों का झुंड या घेरा बनाकर घूम घूमकर झूलते हुए कजली गाना ।
⋙ कजली तीज
संज्ञा पुं० [हिं० कजली + तीज] भादों बदी तीज ।
⋙ कजली बन
संज्ञा पुं० [सं० कदलीबन] १. केले का जंगल । २. आसाम का एक जंगल जहाँ हाथी बहुत होते थे ।
⋙ कजलीबाज
संज्ञा पुं० [हिं० कजली + फा० बाज] कजली गाने या रचनेवाला । कजली प्रेमी । उ०—कजलीबाज लोग अपनी बनाई कजलियों को ... ।—प्रेमघन०, पृ० ३५४ ।
⋙ कजलौटा
संज्ञा पुं० [हिं० काजल+औटा(प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० कजलौटी] १. काजल रखने की लोहे की छिछली डिबिया जिसमें पतली डाँड़ी लगी रहती है । २. डिबिया जिसमें गोदना गोदने की स्याही रखी जाती है ।
⋙ कजलौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कजलौटा] छोटा कजलौटा ।
⋙ कजही †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कायजा' ।
⋙ कजा (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्जी] काँजी । माँड़ ।
⋙ कजा (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० क़जा़] मौत । मृत्यु । उ०—कजा सो बच गया मरना नहीं तो ठाना था ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २२ । मुहा०—कजा करना = मर जाना । यौ०—कजा ए इलाही = ईश्वरीय इच्छा । ईश्वरेच्छा ।
⋙ कजाक (१)
संज्ञा पुं० [तु० क़ज्जाक़] १. लुटेरा । डाकू । बटमार । उ०—(क) प्रीतम रूप कजाक से समसर कोई नाहिं । छबि फाँसी दै दृग गरे मन धन को लै जाहि ।—रसनिधि (शब्द०) । (ख) मन धन तो राख्यो हतो मैं दीबे को तोहि । नैन कज़ाकन पै अरे कयों लुटवायो मोहि ।—रसनिधि (शब्द०) । २. कजाकिस्तान नामक प्रदेश का निवासी ।
⋙ कजाक (२) †
वि० १. धूर्त । छल कपट करनेवाला । २. चालाक । चालबाज ।
⋙ कजाकार
क्रि० वि० [अ० क़जा़ + फा़० 'ए०कार'] संयोगवश । अचानक । उ०—फकीराँ गरीबाँ विचारे तुम्हें । कजाकार अ ए हैं नाहक तुम्हें ।—दक्खिनी०, पृ० २०६ ।
⋙ कजाकी
संज्ञा स्त्री० [तु० क़ज्जाक़ + फा० ई (प्रत्य०)] १. लुटेरापन । लूटमार । उ०—फिरि फिरि दौरत देखियत निचले नेकु रहैं न । ये कजरारे कौन पै करत कजाकी नैन ।—बिहारी (शब्द०) । २. छल कपट । धोखेबाजी । धूर्तता । उ०—सहित भला कहि चित अली कजाकी माहिं । कला लला की ना लगी चली चलाकी नाहिं । शृं०—सत० (शब्द०) ।
⋙ कजात (१) † पु
क्रि० वि० [सं० कदाचित्] दे० 'कदाच' । उ०—जौ हारौ तौ देस दिय, अनुचर होई अपार । जौ कजात जीतहिं नृपति, तौ तुम हूजौ पार ।—प० रा०, पृ० १०५ ।
⋙ कजावा
संज्ञा पुं० [फा० कजावहु] ऊँट की वह काठी जिसके दोनों ओर एक एक आदमी के बैठने की जगह और असबाब रखने के लिये जाली रहती है । विशेष—कजावा वह जालीदार घेंरा है जिसे स्त्रियों के लिये बनाया जाता है ।
⋙ कजिया
संज्ञा पुं० [अं० कजिया] झगड़ा । लड़ाई । टंटा । बखेड़ा । दंगा । उ०—(क) कजिया में नित नवो कलेस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ११० । (ख) फारबिसगंजवालों का कजिया फैसला होनेवाला है । —मैला०, पृ० ३४४ ।
⋙ कजी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. टेढ़ापन । टेढ़ाई । २. दोष । ऐब । नुक्स । कसर । उ०—यहु बिचारि सिव पूजा तजी । लखी प्रगट सेवा में कजी ।—अर्ध०, पृ० २५ ।
⋙ कज्ज पु
अव्य० [सं० कार्य, प्रा० कज्ज] लिये । वास्ते । निमित्त । उ०—(क) विष से विषयन को तजियै तौ डूबन ही के कज्ज ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ५५१ । (ख) जब चालय प्रिथि- जरा नृप, महुबे कज्ज रिसाय ।—प० रा०, पृ० ५० ।
⋙ कज्जर पु
संज्ञा पुं० [सं० कज्जल] दे० 'कज्जल' । उ०—जनु सिखिर कज्जर स्रग ।—प० रा०, पृ० ५८ ।
⋙ कज्जल
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कज्जलित] १. अंजन । काजल । २. सुरमा । उ०—बंक अवलोकनि को बात औरई विधान, कज्जल कलित जामें जहर समान है ।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १०१ । ३. कालिख । स्याही । यौ०—कज्जलध्वज=दीपक । कज्जलगिरि । उ०—सोनित स्त्रवत सोह तन कारे । जनु कज्जलगिरि गेरु पनारे ।— मानस,६ ।६८ । ४. बादल । ५. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १४ मात्राएँ होती हैं । अंत में एक गुरु और एक लघु होता है । उ०—प्रभु मम ओरी देख जेव । तुम सम नाहीं और देव (शब्द०) ।
⋙ कज्जलध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] दीपक [को०] ।
⋙ कज्जलरोचक
संज्ञा पुं० [सं०] दीअट । दीपाधार [को०] ।
⋙ कज्जलवन पु
संज्ञा पुं० [संज्ञा कदली+वन] दे० 'कजली बन' । उ०—मारू चाली मंदिराँ, चदउ बादल माँहिं । जाँणै गयँद उलट्टियउ, कज्जलवन मँह जाहि । —ढोला०, दू० ५३८ ।
⋙ कज्जलित
वि० [सं०] १. काजल लगा हुआ । आँजा हुआ । अँजन युक्त । २. काला । स्याह ।
⋙ कज्जली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधक और पारे के योग से बना द्रव्य । २. मछली । ३. स्याही [को०] ।
⋙ कज्जाक
संज्ञा पुं० [तु० क़ज्जा़क़] १. डाकू । लुटेरा । उ०— कज्जाक अजल का लूटे है दिन रात बजाकर नक्कारा ।—राम० धर्म०, पृ० ८९ । †२. चालाक ।
⋙ कज्जांकी
संज्ञा स्त्री० [तु० क़जा़ज़+फा़० ई (प्रत्य०)] १. कज्जाक की वृति । लूटमार । मारकाट । † २. चालाकी ।
⋙ कञुसिस पु
संज्ञा पुं० [सं० कासीस] दे० 'कसीस' ।—वर्ण० पृ० ९ ।
⋙ कञोण पु
सर्व० [हिं०] दे० 'कौन' । उ—फरमान भेल कञोण चाहि, तिरहुति लेलि जन्हि साहि । —कीर्ति०, पृ० ५८ ।
⋙ कञोन
सर्व० [हिं०] दे० 'कौन' । उ०—हरि हरि कञोने एकल हमे पाप । जेसथे सुखद ताहि तह ताप । —विद्यापति, पृ० २४२ ।
⋙ कटंकट
संज्ञा स्त्री० [सं० कटड्कट] १. आग । अग्नि । २. सोना । सुवर्ण । ३. चित्रक वृक्ष । ४. गणेश । ५. शिव [को०] ।
⋙ कटंकटेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कटङ्कटेरी] दारुहल्दी [को०] ।
⋙ कटंब
संज्ञा पुं० [सं० कटम्ब] १. संगीत का एक वाद्य या बाजा । २. बाण । तीर [को०] ।
⋙ कटंभर
संज्ञा स्त्री० [सं० कटम्भर] कटभी वृक्ष [को०] ।
⋙ कटंभरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कटम्भरा] १. नागबला, रोहिणी, भूर्वा, कलंबिका आदि अनेक पौधों के नाम । २. हस्तिनी । हथिनी [को०] ।
⋙ कट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का गंडस्थल । २. गंडस्थल । ३. नर- कट या नर नाम की घास । ४. नरकट की चटाई । दरमा । उ०—आय गए शबरी की कुटी प्रभु नृत्य नटी सी करै जहँ प्रीती । टूटी फटी कट दीनी बिछाइ बिदा कै दई मनो विश्व की भीती ।—रघुराज (शब्द०) । ५. टट्टी । ६. खस, सरकंडा आदि घास । यौ०—कटाग्नि । ७. शव । लाश । ८. शव उठाने की टिकटी । अरथी । ९. श्मशान । १०. पाँसे की एक चाल । ११. लकड़ी का तख्ता । १२. समय । अवसर । १३. नितंब । श्रोणि (को०) । १४. कटि (को०) । १५. आधिक्य (को०) । १६. प्रथा । रीति (को०) । १७. शर नामक पौधा (को०) । १८. घास (को०) । १९. पुष्परस । पराग (को०) ।
⋙ कट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कटना] ३. एक प्रकार का काला रंग जो टीन के टुकड़ों, लोहचून, हर, बहेड़े, आँवले और कसीस आदि से तैयार किया जाता है । २. काट का संक्षिप्त रूप जिसका व्यवहार यौगिक शब्दों में होता है, जैसे,—कटखना कुत्ता ।
⋙ कट (३)
संज्ञा पुं० [अं०] काट । तराश । ब्योंत । कता । जैसे,— कोट का कट अच्छा नहीं । उ०—आज बहुत दिनों बाद उन्हें देखा था, वह भी स्वदेशी कट पोशाक में ।—संन्यासी०, पृ० ३२१ ।
⋙ कट (४)
वि० [सं०] १. अतिशय । बहुत । २. उग्र । उत्कट ।
⋙ कटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना । दल । फौज । २. राजशिविर । ३. चूड़ा़ । कंकड़ । कड़ा । उ०—(क) देव आदि मध्यांत भगवंत त्वम् सर्वगतमीश पश्यंत जे ब्रह्मवादी । यथा पटतंतु घट मृत्तिका सर्प स्त्रगदारु करि कनक कटकांगदादी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बिन अंगद बिन हार कटक के लखि न परे नर कोई ।—रघुराज (शब्द०) । ४. पैर का कड़ा ।—डि० । ५. पर्वत का मध्य भाग । ६. नितंब । चूतड़ । ७. सामुद्रिक नमक । ८. घास फूस की चटाई । गोंदरी । सथरी । ९. जंजीर की एक कड़ी । १०. हाथी के दाँतों पर चढ़े हुए पीतल के बंद या साम । ११. चक्र । १२. उड़ीसा प्रांत का एक प्रसिद्ध नगर । १३. पहिया । १४. समुह । उ०—सदाचार, जप, जोग, विरागा । समय विवेक कठक सबु भागा ।— मानस १ । ८४ । १५. स्वर्ण (को०) । १६. राजधानी (को०) । १७. समुद्र (को०) ।
⋙ कटकई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कटक+ई (प्रत्य०)] १. कटक । सेना । फौज । लशकर । उ०—मुख सूखहिं लोचन श्रवहिं शोक न हृदय समाइ । मनहु करुण रस कटकई उतरी अवध बजाइ ।—तुलसी (शब्द०) । २. चढ़ाई । सेना का साज । दे० 'कटकाई' । उ०—भइ कटकई सरद ससि आवा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १४७ ।
⋙ कटककारी
संज्ञा पुं० [सं० कटक+कारिन्] सेना संघटित या सज्जित करनेवाला व्यक्ति । सेनापति । उ०—विविध को सौध अति रुचिर मंदिर निकर सत्व गुन प्रमुख त्रय कटककारी ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४८८ ।
⋙ कटकट
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दाँतों के बजने का शब्द । उ०—तब लै खंभ मैं मारो भयो शब्द अति भारी । प्रगट भए नरहरि वपु धरि हरि कटकट करि उच्चारी ।—गोपाल (शब्द०) । लड़ाई झगड़ा । वाद विवाद ।
⋙ कटकटना पु
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'कटकटाना' ।
⋙ कटकटाना
क्रि० अ० [हिं० कटकट] दाँत पीसना । उ०— कटकटान कपि कुंजर भारी । दोउ भुजदंड तमकि महि मारी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कटकटिका
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटकट] एक प्रकार की बुलबुल । विशेष—जाड़े में यह पहाड़ से उतरकर मैदान में आ जाती है और पेड़ पर या दीवार के खोडरे में घोंसला बनाती है ।
⋙ कटकटिया
वि० [हिं० कटकट] १. कटकट ध्वनि करनेवाला । २. झगड़ालू ।
⋙ कटकना
संज्ञा पुं० [हिं०] १. अधिकार । इजारा । २. दे० 'कटखना' । ३. चालबाजी । मक्कारी ।
⋙ कटकनेदार
संज्ञा पुं० [हिं० कटकना+फा़० दार (प्रत्य०)] सिकमी काश्तकार ।
⋙ कटकबाला
संज्ञा पुं० [हि० कटना+अ० कबाला] मियादी बै ।
⋙ कटकरंज
संज्ञा पुं० [सं० कटकरञ्ज] कंजा नाम का पौधा । वि० दे० 'कंजा' ।
⋙ कटकाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटक+आई (प्रत्य०)] १. सेना । फौज । २. दलबल के साथ चलने की तैयारी । उ०—चहुँ दिसि सान साँटिया फेरी । भै कटकाई राजा केरी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ५४ ।
⋙ कटकाना
क्रि० स० [हिं० कटकटाना] फोड़ना । कड़कड़ाना । उ०— आँगलिया कटका करूँ । पाई तला सूमाझिअ रात । बी० रा०, पृ० ९९ ।
⋙ कटकार
वि० [सं०] वैश्य द्वारा शूद्र में उत्पन्न संतति ।—प्रा० भा० प०, पृ० ४०४ ।
⋙ कटकी
संज्ञा पुं० [सं० कटकिन्] पहाड़ [को०] ।
⋙ कटकीना
संज्ञा पुं० [हिं० कटकना] दे० ' कटखना' ।
⋙ कटकुट
वि० [हिं० कटना+कूटना] कटाकुटा । काटी गई (लिखावट, जो अधिक काटने के कारण अस्पष्ट हो गई हो । उ०—उनमंत्रों में किसी प्रकार का प्रभाव नहीं रहा । सब ग्रंथ कटकुट हो गए ।—कबीर मं०, पृ० ४५६ ।
⋙ कटकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तृणशाला । पर्णशाला । फूस की झोपड़ी ।
⋙ कटकोल
संज्ञा पुं० [सं०] पीकदान ।
⋙ कटक्कट पु
संज्ञा पुं० [हिं० कटकट] कटकट की ध्वनि । उ०—मिलेबर हिंदु तुरक्क सुतार, कटक्कट बज्जिय लोह करार ।—पृ० रा० २४ । २३३ ।
⋙ कटखना (१)
वि० [हिं० काटना+खाना] १. काट खानेवाल । दाँत से काटनेवाला । २. (ला०) हथकंडेबाज । चालबाज । मक्कार ।
⋙ कटखना (२)
संज्ञा पुं० कतर ब्योंत । युक्ति । चाल । हथकंडा । जैसे,— (क) वह वैद्यक के अच्छे कटखाने जानता है । (ख) तुम कटखने में मत आना । यौ०—कटखनेबाजी ।
⋙ कटखन्ना
संज्ञा पुं० [हिं०कटखाना] १. काढ़ने के लिये बनाया या छाया गया खाका । २. छात्रों के अभ्यासार्थ हलके बिंदुओं से अंकीत अक्षर ।
⋙ कटखादक
वि० [सं०] भक्ष्याक्ष्य का विचार न करनेवाला । अशुद्ध वस्तु को भी खा लेनेवाला । सर्वभक्षी ।
⋙ कट ग्लास
संज्ञा पुं० [अं०] मजबूत काँच जिसपर नक्काशी कटी हों ।
⋙ कटघरा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+घर] १. काठ का घर जिसमें जँगला हो । काठ का घेरा जिसमें लोहे वा लकड़ी के छड़ लगे हों । २. बड़ा भारी पिंजड़ा । ३. अदालत में वह स्थान जहाँ विचार के समय अभियुक्त और अपराधी खड़े किए जाते हैं ।
⋙ कटजीरा
संज्ञा पुं० [सं० कणजीरक] काला जीरा । स्याह जीरा । उ०—कूट कायकर सोठि चिरैता कटजीरा कहुँ देखत । आल मजीठ लाख सेंदुर कहुँ ऐसेहिं बुधि अवरेखत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कटड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कटार] भैंस का पँड़वा ।
⋙ कटत
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटती] दे० 'कटती' । १. कटने की क्रीया या भाव । २. बाजार में किसी चीज की होती खपत ।
⋙ कटताल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ताल] काठ का बना हुआ एक बाजा जिसे 'करताल' भी कहते हैं । उ०—(क) कंसताल कटताल बजावत शृंग मधुर मुंहचंग । मधुर खंजरी, पटह, पणव, मिलि सुख पावत रत भंग ।—सूर (शब्द०) । (ख) बचे सिर के करिकें कटताल । रचे जिनि तंडव नाच कराल ।— सुजान०, पृ० ३४ ।
⋙ कटयला
संज्ञा पुं० [हिं० कटताल] दे० 'कटताल' वा 'करताल' ।
⋙ कटती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटना] बिक्री । फरोख्त । जैसे, इस बाजार में माल की कटती अच्छी नहीं ।
⋙ कटनंस †
संज्ञा पुं० [हिं० काटना+नाश अथवा सं० काष्ठ+नाश] १. काटने और नष्ट करने की क्रीया । उ०—पेड़ तिलौरी और जल हंसा । हिरदय पैठि विरह कटनंसा ।—जायसी (शब्द०) । २. दे० 'कटनास' ।
⋙ कटन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मकान की छाजन या छत [को०] ।
⋙ कटन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० काटन] दे० 'कतरन' ।
⋙ कटना
क्रि० अ० [सं० कर्त्तन, प्रा० कट्टन] १. किसी धारदार चीज की दाब से दो टुकड़े होना । शस्त्र आदि की धार के धँसने से किसी वस्तु के दो खंड होना । जैसे,—पेड़ कटना, सिर कटना । मुहा०—कटती कहना = लगती हुई बात कहना । मर्मभेदी बात कहना । २. पिसना । महीन चूर होना । जैसे,—भाँग कटना, मसाला कटना । ३. किसी धारदार चीज का धँसना । शस्त्र आदि की धार का घुसना । जैसे, —उसका ओठ कट गया है । ४. किसी वस्तु का कोई अंश निकल जाना । किसी भाग का अलग हो जाना । जैसे, —(क) बाढ़ के समय नदी का बहुत सा किनारा कट गया । (ख) उनकी तनख्वाह से २५) कट गए । ५. युद्ध में घाव खाकर मरना । लड़ाई में मरना । जैसे, — उस लड़ाई में लाखों सिपाही कट गए । संयो० क्रि०—जाना ।—मरना । ६. कतरा जाना । ब्योंता जाना । जैसे,—मेरा कपड़ा कटा न हो तो वापस दो । ७. छीजना । छँटना । नष्ट होना । दूर होना । जैसे,—पाप कटना, ललाई कटना, मैल कटना, रंग कटना । ६. समय का बीतना । वक्त गुजरना । जैसे, —रात कटना, दिन कटना, जिंदगी कटना । जैसे, —किसी प्रकार रात तो कटी । ९. खतम होना । जैसे, —बातचीत करते चलेंगे, रास्ता कट जायगा । १०. धोखा देकर साथ छोड़ देना । चुपके से अलग हो जाना । खिसक जाना । जैसे—थोड़ी दूर तक तो उसने मेरा साथ दिया, पीछे कट गया । उ०—लोभ मोह दोऊ कट भागे सुन सुन नाम अजीत ।—कबीर श० पृ०, ८४ । क्रि० प्र०—जाना ।—रहना । ११. शरमाना । लज्जित होना । झेंपना । जैसे, —मेरी बात पर वे ऐसे कटे कि फिर न बोले । उ०—मैं तो कट गई । मेरा दिल ही जानता है कि किस कदर रंज हुआ ।— फिसाना० पृ०, ३५८ । १२. जलना । डाह से दुःखी होना । ईर्ष्या से पीड़ित होना । जैसे— उसको रुपया पाते देख ये लोग मन ही मन कट गए । १३. मोहित होना । आसक्त होना । जैसे—वे उसकी चितवन से कट गए । उ०—पूछो क्यों रूखी परति सगबग रही सनेह । मनमोहन छवि पर कटी कहै कटयानी देह ।—बिहारी (शब्द०) । १४. व्यर्थ व्यय होना । फजूल निकल जाना । जैसे—तुम्हारे कारण हमारे १०) यों ही कट गए । १५. बिकना । खपना । १६. प्राप्त होना । आय होना । जैसे—आजकल खूब माल कट रहा है । १७. कलम की लकीर से किसी लिखावट का रद होना । मिटना । खारिज होना । जैसे—उसका नाम स्कूल से कट गया है । १८. ऐसे कामों में तैयार होना जो बहुत दूर तक़ लकीर के रूप में चले गए हों । जैसे— नहर कटना । १९. ऐसी चीजों का तैयार होना जिसमें लकीर के द्वारा कई विभाग हुए हों । जैसे—क्यारी काटना । २०. बाँटनेवाले के हाथ पर रखी हुई ताश की गड्डी में से कुछ पत्तों को इसलिये उठाया जाना जिसमें हाथ में बची हड़्डी के अंतिम पत्ते से बाँट आरंभ हो । २१. ताश की गड्डी का पहले या इसप्रकार फेंटा जाना कि उसका पहले से लगा हुआ क्रम न बिगड़े ।—(जादू) । २२. एक संख्या के साथ दूसरी संख्या का ऐसा भाग लगना कि शेष न बचे । जैसे—यह संख्या सात से कट जाती है । २३. चलती गाड़ी में से माल चोरी होना या लुटना । जैसे—कल रात को उस सुनसान रास्ते में कई गाड़ियाँ कट गई । २४. श्रम करना । उ०—तुम दिन भर कम घिसते हो क्या कि और कटने की सोचते हो ।— सुखदा०, पृ० ७७ ।
⋙ कटनास
संज्ञा पुं० [देश० या सं० कीट+नाश या काष्ठ+नारी] नीलकंठ । उ०—बहु कटनास रहैं तेहि बासा । देखि सो पाव भाग जेहि पासा ।—उसमान (शब्द०) ।
⋙ कटनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटना] १. काट । उ०—करत जात जेती कटनि बढ़ि रस सरिता सोत । आलबाल उर प्रेम तरू तितो तितो दृढ़ होत ।—बिहारी (शब्द०) । २. प्रिति । आसक्ति । रीझन । उ०—फिरत जो अटकट कटनि बिन रसिक सुरस न खियाल । अनत अनत नित नित हितनि कत सकुचावत लाल ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटना] १. काटने का औजार । २. काटने का काम । फसल की कटाई का काम । उ०—कटनी के घूँघुर रुनझुन ।—वीणा०, पृ० १९ । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना ।—होना । मुहा०— कटनी मारना = वैशाख ज्येष्ठ में अर्थात् जोतने के पहले कुदाल से खेतों की घास खोदना । ३. एक ओर भागकर दूसरी ओर और फिर उधर से मुड़कर किसी और ओर, इसी प्रकार आड़े तिरछे भागना । कटनी । क्रि० प्र०—काटना ।—मारना । मुहा०—कटनी काटना = इधर से उधर और इधर से इधर भागना । दाहिनी से बाईं और बाईं से दाहिनी और भागना ।
⋙ कटपटना
क्रि० अ० [हिं० कटना+पटना] बन जाना । उ०— पुनि पुनि उठि चरनन लटपटे । क्रीटन के जुकोट कटपटे— नद ग्रं०, पृ० २२५ ।
⋙ कटपीस
संज्ञा पुं० [अं०] नए कपड़ों का वह टुकड़ा जो थान बड़ा होने के कारण उसमें से काट लिया जाता है ।
⋙ कटपूतन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रेत ।
⋙ कटफरेस
संज्ञा पुं० [अं० कट+फ्रेश] वह नया ताजा माल जिसमें समुद्र में गिरने के कारण दाग पड़ जायँ अथवा जो गाँठ वा बकस खोलते समय कहीं से कट जाय । ऐसे माल का दाम कुछ घट जाता है ।
⋙ कटभी
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष । विशेष—इसके पत्ते कुछ गोलाई लिए लंबे होते हैं और फल अंड खरबूजे के समान छोटेहोते हैं । इसका व्यवहार औषध में होता है । वैद्यक में यह प्रमेह, बवासीर, नाड़ीब्रण, विष, कृमि, कुष्ठ और कफ का नाशक कहा गया है । करभी । हरिसल ।
⋙ कटमकटा
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटना] मारकाट । कठोर युद्ध या संघर्ष । उ०—राजकुमार शेरसिंह उसका बेटा प्रतापसिंह आदि की अनसमझी से आपस में वह कटमकटा हुई कि पाँच बरस के भीतर भीतर उसके वंश में सिवाय दिलीपसिंह नामी बालक के कोई न रहा—श्रीनिवासी ग्रं०, पृ० २३४ ।
⋙ कटमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगूरी शराब [को०] ।
⋙ कटर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कट = नरकट वा घास फूस] एक प्रकार की घास जिसे पलवान भी कहते हैं ।
⋙ कटर (२)
वि० [अं०] काटनेवाला । जैसे, नेलकटर = नाखून काटने का एक औजार ।
⋙ कटर (३)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार की बड़ी नाव जिसमें डाँड़ा नहीं लगता, और जो तख्तीदार चरखियों के सहारे चलती है । २. पनसुइया । छोंटी नाव ।
⋙ कटरना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली ।
⋙ कटरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कटहरा] छोटा चौकोर बाजार ।
⋙ कटरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कटाह] भैंस का नर बच्चा ।
⋙ कटरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्तन्] छोटे छोटे टुकड़ों में कटा हुआ चौपायों का चारा । उ०— अचरा न चरै धेन कटरा न पाई ।— गोरख०, पृ० १४८ ।
⋙ कटरिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो आसाम में बहुतायत से होता है ।
⋙ कटरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] धान की फसल का एक रोग ।
⋙ कटरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कट = नरकट] किसी नदी के किनारे की नीची और दलदली जमीन जिसके किनारे नरकट आदि होता है ।
⋙ कटरेती
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना+रेतना] लकड़ी रेतने का औजार ।
⋙ कटलेट
संज्ञा पुं० [अं०] मांस की सेंकी या तली टिकिया । उ०— (क) बहुत से हैं, कहकर उसने काँटे स कटलेट का एक टुकड़ा मुँह में डाला ।—सन्यासी, पृ० २४२ । (ख) जमीन पर पड़े कटलेट के एक टुकड़े को उठाकर मुँह में डालने के लिये छटपटा रहा था ।—जिप्सी, पृ० १८६ ।
⋙ कटल्लू
संज्ञा पुं० [देश०] १. बूचड़ । कसाई । २. मुसलमान के लिये एक घृणासूचक शब्द ।
⋙ कटवाँ
वि० [हिं० कटना+वाँ (प्रत्य०)] जो काटकर बना हो । जिसमें कटाई का काम हो । कटा हुआ । मुहा०—कटवाँ ब्याज = वह ब्याज जो मूलधन का कुछ अंश चुकता होने पर शेष अंश पर लगे ।
⋙ कटवाँसी
संज्ञा पुं० [हि० काठ+बाँस या कोट+बाँस] एक प्रकार का प्रायः ठोस और कँटीला बाँस जिसकी गाँठें बहुत निकट निकट होती हैं । विशेष—यह सीधा बहुत कम जाता है और बहुत घना होता है तथा गाँव और कोट आदि के किनारे लगाया जाता है ।
⋙ कटवा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काँटा] एक प्रकार की छोटी मछली जिसके गलफड़ों के पास काँटे होते हैं । इन काँटों से वह चोट करती है ।
⋙ कटवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठक, हिं० कठुआ] गले का एक गहना जिसके किनारे कटे हुए होते हैं । उ०—गल मे कटवा, कंठा, हँसली । उर में हमेल, कल चंपकली ।—ग्राम्या, पृ० ४० ।
⋙ कटसरैया
संज्ञा स्त्री० [सं० कटसारिका] अडूसे की तरह का एक काँटेदार पौधा । विशेष—इसमें पीले, लाल, नीले और सफेद कई रंग के फूल लगते हैं । लाल फूलवाली कटसरैया को संस्कृत में 'कुरवक' पीले फूलवाली को 'कुरंटक', नीले फूलवाली को 'आर्त्तगल' और सफेद फूलवाली को 'सैरेयक' कहते हैं । कटसरैया कातिक में फूलती है ।
⋙ कटहर पु
संज्ञा पुं० [हिं० कण्टफल, कण्टकफल] दे० 'कटहल' ।
⋙ कटहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कटघरा] कटघरा । उ०—तमाशा करनेवालों में से एक शख्स ने, जिससे यह शेर हिले हुए थे, एक कटहरे का दरवाजा खोला ।—फिसाना०, पृ० १० ।
⋙ कटहरा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली जो उत्तरी भारत और आसाम की नदियों में पाई जाती है ।
⋙ कटहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटहल] छोटा कटहल । यौ०—कटहरी चंपा ।
⋙ कटहरी
वि० [हिं० कटहल] १. कटहल संबंधी । २. कटहल की गंधवाला ।
⋙ कटहरी चंपा
संज्ञा पुं० [हिं०] मधुर और तीव्र गंधवाला एक पुष्प जो हलके पीलेपन के साथ हरे रंग का होता है ।
⋙ कटहल
संज्ञा पुं० [सं० कण्टफल या कण्टकफल] १. एक सदा बहार घना पेड़ जो भारतवर्ष के सब गरम भागों में लगाया जाता है तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों की पहाड़ियों पर आपसे आप होता है । विशेष—इसकी अंडाकार पत्तियाँ ४-५ अंगुल लंबी, कड़ी मोटी और ऊपर की ओर श्यामता लिए हुए हरे रंग की होती हैं । इसमें बड़े बड़े फल लगते हैं जिनकी लंबाई हाथ डेढ़ हाथ तक की और घेरा भी प्रायः इतना ही होता है । ऊपर का छिलका बहुत मोटा होता है जिसपर बहुत से नुकीले कँगूरे होते हैं । फल के भीतर बीच में गुठली होती है जिसके चारों ओर मोटे मोटे रेशों की कथरियों में गूदेदार कोए रहते हैं । कोए पकने पर बड़े मीठे होते हैं । कोयों के भीतर बहुत पतली झिल्लियों में लपेटे हुए बीज होते हैं । फल माघ फागुन में लगते और जेठ असाढ़ में पकते हैं । कच्चे फल की तरकारी और अचार होते हैं और पके फल के कोए खाए जाते हैं । कटहल नीचे से ऊपर तक फलता है, जड़ और तने में भी फल लगते हैं । इसकी छाल से बड़ा लसीला दूध निकलता है जिससे रबर बन सकता है । इसकी लकड़ी नाव और चौखट आदि बनाने के काम में आती है । इसकी छाल और बुरादे को उबालने से पीला रंग निकलता है जिससे बरमा के साधु अपना वस्त्र रँगते हैं । २. इस पेड़ का फल ।
⋙ कटहला
संज्ञा पुं० [हिं० कटहल] कटहल के ऊपर के दानों जैसी कानेवाले आभूषण ।
⋙ कटहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कट+हा] महापात्र । महाब्राह्मण । अंत्येष्टि— क्रिया के समय का दान लेनेवाला व्यक्ति ।
⋙ कटहा (२)
वि० [हिं० काटना+हा (प्रत्य०)] [स्त्री० कटही] १. जिसका स्वभाव दाँतों से काट खाने का हो । काट खानेवाला (पशु) । २. बात बात पर बिगड़नेवाली (ला०) ।
⋙ कटा (१) पु
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] मार काट । बध । हत्या । क्त्ल- आम । उ०—(क) चोरे चख चोरन चलाक चित चोरी भयो, लूटि गई लाज कुलकानि को कटा भयो ।—पद्माकर (शब्द०) । (ख) घनघोर घटा की छटा लखिबे मिस, ठाढ़ी अटा पै कटा करती हौ ।—ठाकुर (शब्द०) ।
⋙ कटा (२)
वि० [हिं० 'कटना' का भूतकालिक रूप] कटा हुआ । जैसे, —कटा फल । दे० 'कटना' ।
⋙ कटाइक पु
वि० [हिं० 'कटना'] काटनेवाला । उ०—साँकरे में सेइबे सराहिबे सुमिरबे को, राम सो न साहिब न कुमति कटाइको ।—तुलसी (श्ब्द०) ।
⋙ कटाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना] १. काटने का काम । जैसे— सिक्के के कीनारे की कटाई रोकने के लिये उसे अब किटकिटी— दार बनाया गया है । २. फसल काटने का काम । ३. फसल काटने की मजदूरी ।
⋙ कटाई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकी] भटकटैया । कँटेरी ।
⋙ कटाऊ पु
संज्ञा पुं० [हिं० कट+आऊ (प्रत्य०)] दे० 'काट' । उ०— रचे हथौड़ा रूपइँ ढारी । चित्र कटाउ अनेग सँवारी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३७ ।
⋙ कटाकट
संज्ञा पुं० [हिं० कटा+कट] १. कटकट शब्द । २. लड़ाई ।
⋙ कटाकटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटा+कटी] १. मार काट । २. लड़ाई । झगड़ा । वाद विवाद ।
⋙ कटाकु
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी [को०] ।
⋙ कटाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिरछी चितवन । तिरछी नजर । उ०— कोए न लाँघि कटाक्ष सकै, मुसक्यानि न ह्वै सकै ओठनि बाहिर । २. व्यंग्य । आक्षेप । ताना । तंज । जैसे, —इस लेख में कई लोगों पर अनुचित कटाक्ष किए गए हैं । क्रि० प्र०—करना । ३. (रामलीला) काले रंग की छोटी छोटी पतली रेखाएँ जो आँख की दोनों बाहरी कोरों पर खींची जाती हैं । ऐसे कटाक्ष रामलीला में राम, लक्ष्मण आदि की आँखों के किनारे बनते हैं । हाथियों के शृंगार में भी कटाक्ष बनाए जाते हैं ।
⋙ कटाख पु
संज्ञा पुं० [सं० कटाक्ष] दे० 'कटाक्ष' । उ०—अगिन बान तिल जानहु सूझा । एक कटाख लाख दुइ जूझा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९२ ।
⋙ कटाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कट या घास फूस की आग । विशेष—प्राचिन काल में राजपत्नी वा ब्राह्मणी के गमन आदि के प्रायश्चित या दंड के लिये लोग कटाग्नि में जलते या जलाए जाते थे । कहते हैं, कुमरिल भट्ट गुरुसिद्धंत का खंडन करने के प्रायश्चित्त के लिये कटाग्नि में जल मरे थे ।
⋙ कटाच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० कटाक्ष, प्रा० कटाच्छ] दे० 'कटाक्ष' ।उ०—कृपाकटाक्ष कमल कर फेरत सूर जननि सुख देत ।— सूर०, १० ।१५४ ।
⋙ कटाछ पु
संज्ञा पुं० [सं० कटाक्ष, प्रा० कटाच्छ] दे० 'कटाक्ष' । उ०—अरु बंक बिसाल रँगीले रसाल विलोचन मैं न कटाछ कभी ।—घनानंद०, पृ० ११६ ।
⋙ कटाछनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मार काट' ।
⋙ कटाटंक
संज्ञा पुं० [सं० कटाटङ्क] शिव [को०] ।
⋙ कटान
संज्ञा स्त्री० [हिं० कट+आन (प्रत्य०)] कटने की क्रिया या भाव । कटाई ।
⋙ कटाना
क्रि० सं० [हिं० काटना का प्रे० रूप] १. काटने के लिये नियुक्त करना । काटने में लगाना । २. डसवाना । दाँतों से नोचवाना । ३. थोड़ा घूमकर आगे निकल जाना । बगल देकर आगे निकल जाना ।—(गाड़ीवान) ।
⋙ कटार
संज्ञा पुं० [सं० कट्टार] [स्त्री० अल्पा० कटारी] १. एक बालिश्त का छोटा तिकोना और दुधारा हथियार जो पेट में हूला जाता है । उ०—आधी रात सुरति जब आवति हूल विरह कटार ।—श्यामा०,पृ० ८५ । २. एक प्रकार का बनबिलाव । कटास । खीखर ।
⋙ कटारा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कटार] १. बड़ा कटार । २. इमली । इमली का फल ।
⋙ कटारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० काँटा] ऊँटकटारा ।
⋙ कटारिया
संज्ञा पुं० [हिं० कटार] एक रेशमी कपड़ा जिसमें कटार की तरह की धारियाँ बनी रहती हैं ।
⋙ कटारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटार] १. छोटा कटार । २. नारियल के हुक्के बनानेवालों का वह औजार जिससे वे नारियल को खरचकर चिकना करते हैं । ३. (पालकी उठानेवाले कहारों की बोली में) रास्ते में पड़ी हुई नोकदार लकड़ी ।
⋙ कटाली
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारी] भटकटैया ।
⋙ कटाव
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] १. काट । काट छाँट । कतर ब्योंत । २. काटकर बनाए हुए बेल बूटे । यौ०—कटाव का काम = (१) पत्थर या लकड़ी पर खोदकर बनाए हुए बेल बूटे । २. कपड़े के कटे हुए बेल बूटे जो दूसरे कपड़े पर लगाए जाते हैं ।
⋙ कटावदार
वि० [हिं० कटाव+फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिस पर खोद वा काट कर चित्र और बेल बूटे बनाए गये हों ।
⋙ कटावन
संज्ञा पुं० [हिं० कटना] १. कटाई करने का काम । मुहा०—कटावन पड़ना या लगना = (१) किसी दूसरे के कारण अपनी वस्तु का नष्ट होना या उसका दूसरे के हाथ लगना । (२) किसी ऐसी वस्तु का नष्ट होना या हाथ से निकल जाना जो दूसरे की नजर में खटकती हो । दे० 'कट्टे लगना' । २. किसी वस्तु का कटा हुआ टुकड़ा । कतरन ।
⋙ कटास
संज्ञा पुं० [हिं० कटाना] एक प्रकार का बनबिलाव । कटार । खीखर ।
⋙ कटासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुर्दों के गाड़ने की जगह । कब्रिस्तान ।
⋙ कटाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. कड़ाह । बड़ी कड़ाही । २. कछए का खपड़ा । ३. कूआँ । ४. नरक । ५. झोपड़ी । ६. भैंस का पँड़वा जिसके सींग निकल रहे हों । ७. ढूह । ऊँचा टीला । ८. कुआँ । कूप (को०) । ९.शूर्प । सूप (को०) । १०.टूटे घड़े का टुकड़ा या खंड (को०) । ११. पुंज । समूह । ढेर राशि (को०) । १२. नरक (को०) ।
⋙ कटाहक
संज्ञा पुं० [सं०] कड़ाह । कड़ाहा ।
⋙ कटिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. कतरन । २. किसी विवरण का काटकर संकलित अंश । उ०—लेखक कुछ अखबारों की कटिंग की बात करेगा । ३. काट छाँट ।
⋙ कटिंजरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कटिञ्जरा] संगीत में एक ताल का नाम ।
⋙ कटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर का मध्य भाग जो पेट और पीठ के नीचे पड़ता है । कमर । लंक । यौ०—कटिचालन । कटिजेब । कटितट । कटिदेश । कटिबंध । कटिबद्ध । कटिशूल । कटिसूत्र । २. देवालय का द्वार । ३. हाथी का गंडस्थल । ४. पीपल । पिप्पली । ५. नितंब । चूतड़ ।
⋙ कटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नितंब [को०] ।
⋙ कटिचालन
संज्ञा पुं० [सं० कटि +चालन] कमर लचकाना । कमर नचाना । कमर की गति व्यंजित करना ।
⋙ कटिजेब
संज्ञा स्त्री० [सं० कटि+ फा० जेब] किंकिणी । करधनी । उ०—पंजर की खंजरीट नैनन को किधौं मीन मानस को केशोदास जलु है कि जारु है । अंग को कि अंगराग गेडुआ कि गलसुई किधौं कटिजेब ही को उर को कि हारु है ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ कटितट
संज्ञा पुं० [सं०] कमर । कटिभाग [को०] ।
⋙ कटित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. करधनी । मेखला । २. धोती [को०] ।
⋙ कटिदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटि । कमर । २. नितंब [को०] ।
⋙ कटिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथिनी [को०] ।
⋙ कटिप्रोथ
संज्ञा पुं० [सं०] नितंब [को०] ।
⋙ कटिबंध
संज्ञा पुं० [सं० कटिबन्ध] १. कमरबंद । २. गरमी सरदी के विचार से किए हुए पृथ्वी के पाँच भागों में से कोई एक । जैसे, —उष्ण कटिबंध ।
⋙ कटिबद्ध
वि० [सं०] १. कमर बाँधे हुए । २. तैयार । तत्पर । उद्यत ।
⋙ कटिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना] १. नगों वा जवाहिरात को काट- छाँटकर सुडौल करनेवाला । हक्काक । २. छोटे छोटे टुकड़ों में कटा हुआ चौपायों का चारा ।
⋙ कटिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कँटिया' ।
⋙ कटियाना पु
क्रि० अ० [हिं० काँटा] हर्ष, प्रेम आदि में मग्न होने के कारण रोओं का काँटे के समान खड़ा हो जाना । कंटकित होना । पुलकित होना ।
⋙ कटियाली †
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारि] भटकटैया ।
⋙ कटिरोहक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के कटि भाग की ओर आसीन व्यक्ति जो फीलवान न हो [को०] ।
⋙ कटिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] लौकी का एक भेद [को०] ।
⋙ कटिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] करगता । कमर में पहनने का डोरा । मेखला । सूत की करधनी । उ०—कल किंकिण कटिसूत्र मनोहर । बाहु विशाल विभूषण सुंदर ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटि । कमर । २. पिप्पली [को०] ।
⋙ कटीतल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की टेढ़ी तलवार [को०] ।
⋙ कटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड्ढा । २. नितंब में पड़नेवाला गड्ढा [को०] ।
⋙ कटीरक
संज्ञा पुं० [सं०] नितंब [को०] ।
⋙ कटीरा
संज्ञा पुं० [हिं० कतीरा] दे० 'कतीरा' ।
⋙ कटील
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जिसे बरदी, निमरी औंर बँगई भी कहते हैं ।
⋙ कटीला (१)
वि० [हिं० काँटा या काट+ईला] [स्त्री० कोटली (प्रत्य०)] १. काट करनेवाला । तीक्ष्ण । चोखा । २. बहुत तीव्र प्रभाव डालनेवाला । गहरा असर करनेवाला । जैसे, —कटीली बात । उ०—आँखिया तोरि कटीली देखि के फाटे छतिया ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ३४२ । ३. मोहित करनेवाला । उ०—नासा मोरि नचाय दृग करी कका की सौंह । काँटेलौं कसकति हिये वहै कटीली भौंह ।—बिहारी (शब्द०) । ४. नोकझोंक का । आनबानवाला । जैसे, —कटोला जवान ।
⋙ कटीला (२)
वि० [हिं० काँटा] १. काँटेदार । काँटो से भरा हुआ । २. नुकीला । तेज ।
⋙ कटीला (३)
संज्ञा पुं० [हिं० काँटा] एक नुकीली लकड़ी जो दूध देनेवाले पशुओं के बच्चों की नाक पर इसलिये बाँध दी जाती है जिसमें वे अपनी माता का दूध न पी सकें ।
⋙ कटीला (४)
संज्ञा पुं० [हिं० कतीरा] दे० 'कतीरा' ।
⋙ कटु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छह रसों में एक जिसका अनुभव जीभ से होता है । चरपरा । कडुआ । विशेष—इंद्रायन, चिरायता, मिर्च, पीपल, मूली, लहसुन, कपूर आदि का स्वाद कटु कहलाता है । २. कड़वाहट । कड़वापन (को०) । ३. काव्य में रस के विरुद्ध वर्णों की योजना । चैसे,—शृंगार में ट, ठ, ड आदि वर्ण ।
⋙ कटु (२)
वि० १. कड़वा । २. जो मन को न भावे । बुरा लगनेवाला । अनिष्ट । जैसे,—कटु वचन । उ०—देखहि रात भयानक सपना । जागि करहिं कटु कोटि कल्पना ।—तुलसी (शब्द०) । ३. बुरा या उद्धेगजनक ।
⋙ कटुआ
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] १. काले रंग का एक कीड़ा जो धान की फसल को जमते ही काट डालता है । बाँका । २. नहर की बड़ी शाखाओं अर्थात् राजबहा में से काटकर लिए हुए पानी की सिंचाइ । ३. गले का एक गहना जिसके किनारे कटे हुए होते हैं । दे० 'कटवा' । ४. †मुसलमान ।
⋙ कटुआ (२) †
वि० [हिं० कटना] कई खंडों में कटा हुआ । टुकड़े टुकड़े । उ०—बटुआ कटआ मिला सुबासू । सीझा अनबन भाँति गरासू ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कटुई दही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना+ दही] वह दही जिसके ऊपर की साढ़ी काट या उतार ली गई हो । छिनुई दही । छिक्का । विशेष—इसका प्रयोग पूरब में होता है जहाँ दही को स्त्रीलिंग बोलते हैं ।
⋙ कटुकंद
संज्ञा पुं० [सं० कटकन्द] १. अदरक । आदी । २. लहसुन । लशुन । ३. मूली ।
⋙ कटुक
वि० [सं०] १. कडुआ । कटू । २. जो चित्त को न भावे । जो बुरा लगे । उ०—अरी मधुर अधरान ते कटुक बचन जनि बोल । तनक खटाई ते घटै लखि सुबरन को मोल ।— रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ कटुकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्कशता । उजड्डपन [को०] ।
⋙ कटुकत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च, सोंठ और पीपल, इन तीन वस्तुओं का वर्ग ।
⋙ कटुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटकी ।
⋙ कटुकीट
संज्ञा पुं० [सं०] मच्छर । डाँस । मसा ।
⋙ कटुक्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] टिट्टिभ [को०] ।
⋙ कटुग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० कटुग्रन्थि] १. सोंठ । २. पिपरा मूल ।
⋙ कटु चातुर्जातक
संज्ञा पुं० [सं०] चार कड़वी वस्तुओं का समूह, अर्थात् इलायची, तज, तेजपात और मिर्च ।
⋙ कटुच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] तगर बृक्ष [को०] ।
⋙ कटुछंदक
संज्ञा पुं० [सं० कटुछन्दक] उत्कट या तीक्ष्ण गंध अथवा स्वादवाला कंद । जैसे,—अदरक, मूली, लहसुन, प्याज आदि [को०] ।
⋙ कटुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़वापन । कड़वाई ।
⋙ कटुतिक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूनिंब । चिरायता । २. शण का पौधा । सनई [को०] ।
⋙ कटुतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तितलौकी [को०] ।
⋙ कटुतुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कटुतुण्डी] कटु तरोई [को०] ।
⋙ कटुतुंवीडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कटुतुम्बी] तितलौकी [को०] ।
⋙ कटुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] कड़वापन ।
⋙ कटुद्रला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्कटी नाम का पौधा [को०] ।
⋙ कटुपर्णीं
संज्ञा स्त्री० [सं०] भड़भाँड़ । सत्यानाशी [को०] ।
⋙ कटुफल
संज्ञा पुं० [सं०] कायफल ।
⋙ कटुबीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी पीपल [को०] ।
⋙ कटुभंग
संज्ञा पुं० [सं० कटुभङ्ग] सोंठ [को०] ।
⋙ कटुभंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० कटुभङ्गा] एक प्रकार की जंगली भाँग जिसकी पत्तियाँ खाने में बहुत कड़वीं होती हैं [को०] ।
⋙ कटुभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] अदरक । आदी ।
⋙ कटुभाषी
वि० [सं० कटुभाषिन्] कड़वीं बात बोलनेवाला [को०] ।
⋙ कटुमंजरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कटुमञ्जरिका] अपामार्गं । चिचिड़ा [को०] ।
⋙ कटुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छाछ । मट्ठा [को०] ।
⋙ कटुर (२)
वि० घृषित । हेय [को०] ।
⋙ कटुरस (१)
संज्ञा पुं० [सं० कटु+ रस] छह प्रकार के रसों में से एक । कड़वा रस [को०] ।
⋙ कटुरस (२)
वि० जिसका रस या स्वाद कड़वा हो [को०] ।
⋙ कटुरव
संज्ञा पुं० [सं०] मेंढक । दादुर ।
⋙ कटुवचन
संज्ञा पुं० [सं० कटु+ वचन] कड़वी बात । उ०—अति कटुवचन कहति कैकेयी ।—मानस, २३० ।
⋙ कटुविपाक
वि० [सं०] पाचन में अम्लरसवर्धक [को०] ।
⋙ कटुस्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद सरसों [को०] ।
⋙ कटूक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़वी बात । अप्रिय बात ।
⋙ कटूमर
संज्ञा स्त्री० [सं० कटु+ उदुम्बर अथवा हिं० कट या कठ+ ऊमर] जंगली गूलर का वृक्ष । कटगूलर ।
⋙ कटूरना
क्रि० अ० [हिं० कटु+घूरना] किसी को बुरे भाव से देखना । तीक्ष्ण दृष्टि से देखना ।
⋙ कटेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँटा] भटकटैया ।
⋙ कटेली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जो बंगाल प्रांत में बहुतायत से होती है ।
⋙ कटेहर
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+घर] हल के नीचे की वह लकड़ी जिसमें फाल बैठाया रहता है । खोंपा ।
⋙ कटैया † (१)
वि० [हिं० काठ x ऐया (प्रत्य०) काटना] १. काटनेवाला । जो काट डाले । उ०—एक कृपाल तहाँ तुलसी दसरत्य के नंदन बंदि कटैया ।—तुलसी (शब्द०) । २. फसल काटनेवाला ।
⋙ कटैया † (२)
संज्ञा पुं० १. काटनेवाल व्यक्ति । २. फसल काटनेवाला आदमी ।
⋙ कटैया (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टक] भटकटैया । उ०—दूध आक को पात कटैया, झाल अगिनि की जान ।—चरण० बानी, पृ० २९ ।
⋙ कटैया † (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटिया] लवनी । फसल की कटाई ।
⋙ कटैला
संज्ञा पुं० [देश०] एक कीमती पत्थर । उ०—लोहे और फिटकिरो की वहाँ खानें हैं, और माणक, लहसनिया, नीलम, कटैला, गोमेदक, बिल्लौर नदियों के बालू में मिलता है ।— शिवप्रसाद (शब्द०) ।
⋙ कटोर
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का एक छोटा छिछला पात्र या बरतन । कसोरा [को०] ।
⋙ कटोरदान
संज्ञा पुं० [हिं० कटोरा+ दान (प्रत्य०)] पीतल का एक ढक्कनदार बरतन जिसमें तैयार भोजन आदि रखते हैं ।
⋙ कटोरा
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+ ओरा (प्रत्य०) = कँसोरा या सं० कटोरा] एक खुले मुँह, नीची दीबार और चौड़ी पेंदी का छोटा बरतन । साधु का प्याला । बेला । मुहा०—कटोरा चलाना = मंत्रबल से चोर माल का पता लगाने के लिये कटोरा खसकाना । विशेष—इसमें एक आदमी मंत्र पढ़ता हुआ पीली सरसों डालता जाता है और औरों से कटोरे को खूब दबाने के लिये कहता जाता है । कटोरा अधिक दाब पड़ने से किसी न किसी ओर खसकता जाता है । लोगों का विशवास है कि कटोरा वहीं रुकता है जहाँ चोर या माल रहता है । कटोरा सी आँख = बड़ी बड़ी और गोल आँख ।
⋙ कटोरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटोरा+ इया (प्रत्य०)] दे० 'कटोरी' ।
⋙ कटोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कटोरा का अल्पा०] १. छोटा कटोरा । प्याली । बेलिया । उ०—कटोरीसा मुँह बाकर कहने लगे कि भाई..... । प्रेमघन०, भा०२, पृ० २०२ । २. अँगिया का वह जुड़ा हुआ भाग जो स्तन के नाप का होता है और जिसके भीतर स्तन रहते है । ३. कटोरी के आकार की वस्तु । ४. तलवार की मूठ के ऊपर का गोल भाग । ५. फूल में बाहर की ओर हरी पत्तियों का कटोरी के आकार का वह अंश जिसके अंदर पुष्पदल रहते हैं ।
⋙ कटोल (१)
वि० [सं०] कड़वा । कटु [को०] ।
⋙ कटोल (२)
संज्ञा पुं० १. कड़वापन । कटुता । २. चांडाल । निम्न वर्ग का एक व्यक्ति [को०] । यौ०.—कटोलवीण=एक प्रकार की वीणा जिसे चांडाल बजाते थे ।
⋙ कटौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना] १. किसी रकम को देते हुए उसमें से कुछ बँधा हक वा धर्मार्थ द्रव्य निकाल लेना । जैसे,— पल्लेदार या ठेकेदार का हक, डंडावन, मंदिर, गोशाला आदि । २. काटना या कमी करना । यौ०.—कटौति का प्रस्ताव= किसी विभाग के कार्य आदि के विषय में असंतोष व्यक्ति करने के अभिप्राय से उनकी माँग से घटाकर छोटी रकम देने का प्रस्ताव ।
⋙ कटौसी †
संज्ञा पुं० [हिं० कटवाँसी] दे० 'कटवाँसी' ।
⋙ कट्टर पु
वि० [हिं० काटना] १.काट खानेवाला । कटहा । उ०— मरन जानि भूनंगर कट्टर चढ़े तुषार ।—पृ० रा०, २५ । ५७८ । २. अपने विश्वास के प्रतिकूल बात को न सहनेवाला । अधैविश्वासी । ३. हठी । दुराग्रही ।
⋙ कट्टहा
संज्ञा पुं० [सं० कट=शव+हिं० हा (प्रत्य०)] महाब्राह्मण । कट्टिया महापात्र । उ०—कट्टहों (महाब्राह्मणों) को दान देने से इन तीनों बातों में से एक का भी साधन नहीं होता ।— श्यामबिहारी (शब्द०) ।
⋙ कट्टा (१)
वि० [हिं० काठ] १. मोटा ताजा । इट्टाकट्टा । २. बलवान । बली ।
⋙ कट्टा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] सिर का कीड़ा । जूँ । ढील ।
⋙ कट्टा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] कच्चा । जबड़ा । मुहा०—कट्टे लगना=(१) किसी दूसरे के कारण अपनी वस्तु का नष्ट होना या उसका दूसरे के हाथ लगना । स्वामी की इच्छा के विरुद्ध किसी वस्तु का दूसरे के हाथ आना । जैसे,— इतने दिनों की रखी चीज आज तेरे कट्टे लगी । (२) किसी ऐसी वस्तु का नष्ट होना या हाथ से निकल जाना जो दूसरे की नजर में खटकती हो । जैसे,—मेरे पास एक मकान बचा था, वह भी तेरे कटटे लगा ।
⋙ कट्टा † (४)
वि० [हिं० 'कटना' का भूतकालीन रूप] १. काटा हुआ । कटा हुआ । जैसे,—मुड़कट्टा वीर ।
⋙ कट्टारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कटारी । छुरी ।—देशी०, पृ० ८१ ।
⋙ कट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] कटार [को०] ।
⋙ कट्टारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कसाई की छुरी [को०] ।
⋙ कट्ठा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ] १. जमीन की एक नाप जो पाँच हाथ चार अँगुल की होती है । विशेष—इससे खेत नापे जाते है । यह जरीब का बीसवाँ भाग है । कहीं कहीं बिस्वाँसी को भी कट्टा कहते हैं । २.धातु गलाने की भट्ठी । दबका । ३. अत्र कूतने का एक बरतन जिसमें पाँच सेर अन्न आता है । ४. एक पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत कड़ी होती है । ५. लाल गेहूँ जो प्राय? मध्यम श्रेणी का होता है ।
⋙ कट्ठीर पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठीरव] दे० 'कंठीर' । उ०—लोहानौ कट्ठीर सेन बंधे भुअ लुक्की । —पृ० रा०, १२ ।७७ ।
⋙ कट्फल
संज्ञा पुं० [सं०] कायफल [को०] ।
⋙ कट्या †
संज्ञा पुं० [हिं०] महाब्राह्मण । कट्टहा । उ०—कट्या को खाय उकटया को न खाय (लोक०) ।
⋙ कट्याना पु
क्रि० अ० [हिं० कटियाना] [स्त्री० कठयानी] कटियाना । कंटिकित होना । रोमांचित होना । उ०—पूछे क्यों रूखी परति सगबग रही सनेह । मनमोहन छबि पर कटी कहै कटयानी देह ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कट्वर (१)
वि० [सं०] घणित हेय [को०] ।
⋙ कट्यर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १.द्वाद्व । २. चटनी । ३. अचार [को०] ।
⋙ कठंगर
वि० [हिं० काठ+ अंग] मोटा और कड़ा । यौ०.—काठकंठगर=कड़ी और कार्य में न आने योग्य वस्तु ।
⋙ कठंजर पु
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ+ पिञ्जर] काठ का पिंजरा । उ०— अठारह भार कोट कठंजरा ।—गोरख०, पृ० १२१ ।
⋙ कठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि । २. एक यजुर्वेदीय उपनिषद् जिसमें यम और नचिकेता के संवाद है । ३. कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा । ४. कठ का अनुगामी और शिष्य वर्ग (को०) ।
⋙ कठ (२)
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ हिं० काठ का समस्त रूप] १. काठ । लकड़ी । जैसे, कठपुतली, कठकीली (केवल समस्त पदों में) । २. एक पुराना बाजा जो कांठ का बनता था औऱ चमड़े से मढ़ा जाता था । ३. (केवल समस्त पदों फल आदि के लिये) जंगली । निकृष्ट जाति का । जैसे, कठकेला, कठजामुन, कठमूर ।
⋙ कठकरेज † (१)
वि० [हिं० काठ +कलेजा] दे० 'कटकरेजी' । उ०— वह तो बहुत दिनों से जानता था इस बात को कि कचहरीवाले काम पड़ने पर कैसे कठरेज बन जाते हैं ।—शराबी, पृ० ६० ।
⋙ कठकरेजी (२) कठकलेजी
वि० [हिं० काठ+ करेजी] १. कड़े दिलवाला । हिम्मती । साहसी । उ०—सच कहुँ, तुम बड़े कठ कलेजी हो । नाम०, भा०१, पृ० १० । २. निर्मम । क्रूर । हृदयहीन ।
⋙ कठकीली
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+ कीली] पच्चड़ ।
⋙ कठकेला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ केला] एक प्रकार का के केला जिसका फल रूखा और फीका होता है ।
⋙ कठकोला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ कोलना =खोदना] कठफोड़वा ।
⋙ कठगुलाब
संज्ञा पुं० [हिं० कठ+ गुलाब] एक प्रकार का जंगली गुलाब जिसके फूल छोटे छोटे होते हैं ।
⋙ कठघरा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+घर] १. काठ का जँगलेदार घर । २. बड़ा पिंजड़ा जिसमें जंगली जानवर रखा जा सके । दे० 'कटघरा' । उ०—जब जिम कठघरे से नीचे उतरे तो मुंशी जी आँखों में आँसू भरे उनके पास आए ।—काया०, पृ० २१५ ।
⋙ कठघोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+घोड़ा] १. काठ का बना घोड़ा । खेलतमाशे के लिये बना काठ का घोड़ा । १. लिल्ली घोड़ी [को०] ।
⋙ कठजामुन
संज्ञ पुं० [हिं० कठ+जामुन] छोटी और कसैली जामुन जो गला पकड़ती है । घटिया जामुन ।
⋙ कठठना पु †
क्रि० अ० [सं० कर्षण, पा० कडढन] दे० 'कढ़ना' । निकलना । आगे बढ़ना । उ०—कठठी बे घटा करे कालाहणि समुहे आयहौ सामुहै ।—बेलि०, दु० १८२ ।
⋙ कठड़ा
संज्ञा पु० [हिं० कठघरा] १. कटघरा । कटहरा । २. काठ का बड़ा संदूक । ३. काठ का बड़ा बरतन । कठौता ।
⋙ कठतार पु
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ सं० ताल] दे० 'करताल' । उ०— तैसिय मृदु पद पटकनि चटकनि कठतारन की । नंद ग्रं०, पृ० २२ ।
⋙ कठताल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+सं० ताल] दे० 'करताल' । उ०— बजत चटक कठताल, तार अस मृदुल मुजर ढँकार ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९३ ।
⋙ कठपुतला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ पुतला] १. काठ का पुतला । २. वह व्यक्ति जो दूसरों के निर्देश या संकेत पर किसी महत्वपूर्ण पद पर रहकर कार्य करे (ला०) ।
⋙ कठपुतली
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ पुतली] १. काठ की बनी हुई पुतली । काठ की गुड़िया या मूर्ति जिसको तार द्वारा नचाते हैं । यौ०.—कठपुतली का नाच=एक खेल जिसमें काठ की पुतलियाँ तार या घोड़े के बाल के सहारे नचाई जाती हैं । २. वह व्यक्ति जों दूसरे के कहे पर काम करे, अपनी बुद्धि से कुछ न करे । जैसे,—वे तो उन लोगों के हाथ की कठपुतली हो रहे । यौ०.—कठपुतली सरकार =वह सरकार जो किसी बाहरी शक्ति द्वारा प्रेरित हो ।
⋙ कठप्रेम
संज्ञा पुं० [हिं० कठ+ सं० प्रेंम] वह प्रेम जो प्रिय के उदासीन होने पर भी किया जाय । उ०—नेह कथैं सठ नीर मथै, हठ कै कठप्रेम को नेम निवाहैं ।—घनानंद, पृ० ११८ ।
⋙ कठफुला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ फूल] कुकुरमुत्ता । खूमी ।
⋙ कठफोड़वा
संज्ञा पु० [हिं० काठ+ फौड़ना] खाकी रंग की एक चिड़िया । विशेष—यह अपनी चोंच से पेड़ों की छाल को छेदती रहती है और छाल के नीचे रहनेवाले कीड़ों को खाती है । इसके पैजे में दो उँगलियाँ आगे और दो पीछे होती है । जीभ इसकी लंबी कीड़े की तरह की होती है । यह कई रंग का होता है । यह मोटी डालों पर पंजों के चिपक जाता है और चक्कर लगाता हुआ चढ़ता है । जमीन पर भी कूद कूदकर कीड़े चुगता है । दुम इसकी बहुत छोटी होती है ।
⋙ कठफोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ फोड़ना] दे० 'कठफोड़वा' ।
⋙ कठफोर †
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ फोड़] दे० 'कठफोड़वा' ।
⋙ कठबंदा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+सं० बन्ध] काठ का ढाँचा या ठाठ ।
⋙ कठबंधन
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ सं० बन्धना] काठ की वह बेड़ी जो हाथी के पैर में डाली जाती है । अँदुआ ।
⋙ कठबनिया
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बनिया] लोभी बनिया । हीन बनिया ।
⋙ कठबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बाँस] पास पास गाठोंवाला बाँस ।
⋙ कठबाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+ बाँस ई (प्रत्य०)] दे० 'कठवाँसी' ।
⋙ कठबाप
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बाप] सौतेला बाँप । विशेष—यदि कोई पुरुष किसी ऐसी ऐसी विधवा से विवाह करे जिसके पहले पति से कोई संतति हो तो वह पुरुष (विधवाविवाह- कर्ता) विधवा की उस संतति का कठबाप कहलाएगा ।
⋙ कठबेर
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बेर] घूँट नाम का पेड़ या झाड़ जिसकी छाल चमड़ा रँगने के काम में आती है । वि० दे० 'घूँट' ।
⋙ कठबेल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बेल] कैथ का पेड़ ।
⋙ कठबैठीं
संज्ञा पुं० [हिं० कठ+ बैठी] पहेली । बुझौवल । क्रि० प्र०— करना ।—बुझाना । —कहना ।
⋙ कठबैद
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ सं० वैद्य] अनाड़ी वैद्य । अताई बैद्य ।
⋙ कठबैस
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ बैस] बैसवाड़े का बाहर का बैस क्षत्रिय । वे क्षत्रिय जो अपने को बैस कहते हैं पर बैसवाड़ै में रहते नहीं ।—हीन क्षत्रिय ।
⋙ कठभगत
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ सं० भक्त] ढोंगी भक्त । वंचक भगत । भक्तों के लक्षण मात्र धारण करनेवाला व्यक्ति ।
⋙ कठभेमल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ भेमल] एक प्रकार का छोटा वृक्ष । कक्की । फिरसन । विशेष—प्राय? सारे उत्तरी भारत और बरमा में यह पाया जाता है । वह वर्षा ऋतु में फलता और जाड़े में फलता है । इसकी पत्तियाँ प्राय? चारे के काम में आती हैं ।
⋙ कठमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ कठमलिया
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+माला+इया (प्रत्य०)] १. काठ की माला या कंठी पहननेवाला वैष्णाव । २. झूठमूठ कंठी पहननेवाला । बनावटी साधु । झूठा संत । उ०—कर्मठ कठमलिया कहै, ज्ञानी ज्ञानविहीन । तुलही त्रिपथ विहाय गो रामदुवारे दीन ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कठमस्त, कठमस्ता
वि० [हिं० कठ+ फा़० मस्त] १. संडमुसंड । मस्त । २. व्यभिचारी ।
⋙ कठमस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठमस्त] मुसंडापन । मस्ती ।
⋙ कठमाटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+माटी] कीचड़ की मिट्टी जो बहुत जल्दी सूखकर कड़ी हो जाती है ।
⋙ कठमुल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ अ० मुल्ला] १. कट्टरपंथी मौलवी । २. अपने मत या सिद्धांत के प्रति अत्यंत आग्रहशीन या दुराग्रही व्यक्ति ।
⋙ कठमुल्लापन
संज्ञा पुं० [हिं० कठमुल्ला +पन (प्रत्य०)] कट्टरता । दुराग्रह । उ०—याद रखिए कठमुल्लापन जिस तरह धर्म में घातक सिद्ध हुआ है उसी तरह साहित्य में भी सिद्ध होगा ।—कुंकुंम (भठु०), पृ० ८ ।
⋙ कठमूरति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काष्ठ+ मूर्ति] १. काठ की मूर्ति । २. जगन्नाथ जी की मूर्ति । उ०—गयो जहाँ कठमूरति आहीं । कबीर का रूप भयो तेहिं पाहीं ।—कबीर सा०, पृ० ७० ।
⋙ कठर
वि० [सं०] सख्त । कड़ा [को०] ।
⋙ कठरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठगृह, हिं० कटहरा] दे० 'कटहरा' वा 'कटघरा' ।
⋙ कठरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कठ+रा (प्रत्य०) ] १. काठ का संदूक । २. काठ का बरतन । कठौता ।
⋙ कठरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठैली] दे० 'कठैली' ।
⋙ कठरेती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठ+ रेती] काठ या लकड़ी रेतने का औजार ।
⋙ कठला
संज्ञा पुं० [सं० कंठ +ला (प्रत्य०)] एक प्रकार की माला या कंठा जैसी चीज । विशेष—यह बच्चों को पहनाया जाता है और इसमें चाँदी या सोने की चैकियाँ तागे में गुथी होती हैं । बीच बीच में बाघ के नख, नजरबट्टु, तावीज आदि नजर से बचाने के लिये गुथे रहते हैं ।
⋙ कठलोनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठ+ लबनी] (पुं० कठलोना) कठौती । कठडी़ । उ०—कठलोनि बीस सोवन मटाइ । पल्लांन ऊच दावन चढ़ाइ ।—पृ० रा०, १४ । १२३ ।
⋙ कठवत
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कठौता' ।
⋙ कठवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा की एक उपनिषद् । विशेष—इसमें दो अध्याय हैं । पहले अध्याय में नचिकेता की गाथा है । नचिकेता के पिता 'विशवजित' यज्ञ करके सर्वस्वदान देते समय बूढ़ी गाय देने लगे । पुत्र ने पूछा—पिता मुझे किसको दोगे? तीन बार पूछने पर पिता ने चिढ़कर कहा— 'तुम्हें यमराज को देंगे । इतना सुनते ही लड़का यमलोक पहुँचा । वहाँ यमराज ने उसे ब्रह्मा विद्या का उपदेश दिया, उसी का वर्णन पहले अध्यान में है । दुसरे अध्याय में ब्रह्मा का लक्षण बतलाया गया है ।
⋙ कठवा †
संज्ञा पुं० [हिं० कठ+ वा (प्रत्य०)] १. काठ । २. तुलसी- दास (ला० तुलसी शब्द के कारण) । उ०—सार सार सब अँधरा कहि गा कठवौ कहिस अनूठी । बची खुची सब जोलहा कहि गा अवर कहै सब झूठी (लोक०) ।
⋙ कठसरैया †
संज्ञा स्त्री० [सं० कटसारिका] दे० 'कटसरैया' ।
⋙ कठसेमल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ +सेमल] सेमल की जाति का एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ कठसोला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ= सोला] सोला की जाति की एक प्रकार की झाड़ी या छोटा पौधा । विशेष—यह प्राय? सारे भारत, स्याम औऱ जापान में होता है । वर्षा ऋतु में इसमें सुंदर फूल लगते हैं ।
⋙ कठहंडी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठ+ हणडी] काठ की हंडी जो अचार आदि रखने के काम आती है । उ०—खँडरा खंठि खँडोई खंडी । परी एकोतर सै कठहंडी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१३ ।
⋙ कठहँसी
संज्ञा स्त्री० [हि० काठ+ हँसी] जबरदस्ती की हँसी । बनावटी हँसी । कठोर हँसी । ब्यंग हँसी । उ०—बावन कठ- हँसी हँसते हुए कहता—मैला०, पृ० २९८ ।
⋙ कठहुज्जत
संज्ञा पुं० [हिं० काठ +अ० हुज्जत] व्यर्थ का झगड़ा या वादविवाद । बतंगड़ ।
⋙ कठा (१) पु
क्रि० वि० [सं० कथम्] दे० 'कहा२' । उ०—(क) कठा तक जीव हिज जाणँ । रघु० रु० पृ० २४३ ।—(ख) कोटड़ियो बाधौ कठै, आसो डाभी आज ।—बाँकी०, ग्रं०, भा०१, पृ० ५८ ।
⋙ कठा (२) पु
वि० [सं० कष्ट+ प्रा० कट्ठ, हिं० कठ+ आ (प्रत्य०)] कष्टयुक्त । दुखी । उ०—अस परजरा विरह कर कठा । मेघ स्याम भै धुआँ जो उठा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), ।— पृ० ३७० ।
⋙ कठारा पु †
संज्ञा पुं० [सं० कष्ठ+किनारा+हिं० आरा (प्रत्य०)] नदी या ताल का किनारा ।
⋙ कठारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठ+ आरी (प्रत्य०)] १. काठ का बरतन । २. कमंडल । उ०—उसके ऊपर सब साधुओं ने अपनी गुदड़ी तथा कठारी इत्यादि लाद ली ।—कबीर मं०, पृ० १५४ ।
⋙ कठिंजर
संज्ञा पुं० [सं० कठिञ्जर] तुलसी वृक्ष [को०] ।
⋙ कठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेतखरी । खरिया [को०] ।
⋙ कठिन (१)
दे० [सं०] १. कड़ा । सख्त । कठोर । २. मुशिकल । दुष्कर । दु?साध्य । ३. क्रुर । निर्दय (को०) । ४. तीक्षण । उग्र (को०) । ५. कष्ट देनेवाला । कष्टकारक (को०) ।
⋙ कठिन (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कठिन] १. कठिनता । २. कष्ट । संकट । उ०—महा कष्ट दस मास गर्भ बसि अधोमुख सीस रहाई । इतनी कठिन सही तब निकस्यो अजहूँ न तू समुझाई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कठिन (३)
संज्ञा पुं० [सं०] झाड़ी [को०] ।
⋙ कठिनई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठिन] १. कड़ाई । २. कठोरता । उ०—(क) ऊधो जो तुम हमहिं बतायो । सो हम निपट कठिनई करि करि या मन को समुझायो ।—सूर (राधा०), पृ० ५५३ । (ख) पाई तुम मृदुताई भई कठिनई दूरि ।— दीन० ग्रं०, पृ० ९२ । ३. संकट ।
⋙ कठिनता
संज्ञा स्त्री० [सं० कठिन] १. कठोरता । कड़ापन । सख्ती । २. मुशि्कल । असाध्यता । ३. निर्दयता । बेरहमी । ४. मजबूती । दृढ़ता ।
⋙ कठिनताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कठिन+ हिं० ताई (प्रत्य०)] दे० 'कठिनाई' या 'कठिनता' ।
⋙ कठिनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कठिनता' ।
⋙ कठिनपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कच्छप' । कछुआ [को०] ।
⋙ कठिना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चीनी की बनी मिठाई । २. भोजन पकाने का मिट्टी का बरतन [को०] ।
⋙ कठिना (२)
वि० भोजन पकाने के मिट्टी के बर्तन संबंधी [को०] ।
⋙ कठिनाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कठिन+ हिं० आई (प्रत्य०)] १. कठोरता । सख्ती । २. मुश्किल । कि्लष्टता । ३. असाध्यता । दुःसाध्यता ।
⋙ कठिनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कानी उँगली । छिगुनी । कनिष्ठिका । २. खड़िया मिट्टी [को०] ।
⋙ कठिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कठिनिका' ।
⋙ कठियल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+यल (प्रत्य०)] खड़ाऊँ । उ०— कठियल दिय सिर धरिय, प्रणाम कर, झिल गय बल निज नगर मजार ।—रघु० रू०, पृ० १२० ।
⋙ कठिया (१)
वि० [हिं० काठ] जिसका छिलका मोटा और कड़ा हो । जैसे, —कठिया बादाम, कठिया गेहूँ, कठिया कसेरू । यौ०—कठिया गेहूँ=एक गेहूँ जिसका छिलका लाल और मोटा होता है । इसे 'ललिया' भी कहते हैं । इसके आँटे में चोकर बहुत निकलता है ।
⋙ कठिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भाँग जो झेलम जो झेलम नदी के किनारे बहुत होती है ।
⋙ कठियाना
क्रि० अ० [हिं० काठ से नाम०] काठ की तरह कड़ा हो जाना । सूखकर कड़ा हो जाना ।
⋙ कठी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ] मशाल । मशाल की लकड़ी । उ०— खेतों में पानी लगाने के लिये जो लोग कठी लिए रात रात भर भूतों की भाँति घूमते दिखाई पड़ते हैं ।—किन्नर०, पृ० ६६ ।
⋙ कठीर पु
संज्ञा पुं० [सं० कंठीरव] सिंह । —(डिं०) ।
⋙ कठुआना
क्रि० अ० [हिं० काठ से नाम०] काठ सा कठोर या कड़ा हो जाना ।
⋙ कठुर
वि० [सं०] क्रूर । कठोर [को०] ।
⋙ कठुला
संज्ञा पुं० [हिं० कंठ=ला० (प्रत्य०)] १. गले की माला जो बच्चों को पहनाई जाती है । दे० 'कठला' । उ०—कठुला कंठ ब्रज केहरि नख राजै लसि बिंदुका मृगमद भाल । देखत देत असीस ब्रज जन नर नारी चिरजीवी जसोदा तेरो बाल ।— सूर (शब्द०) । २. माला । हार । उ०—(क) भल भूँजि कै नेक सु खाक सी कै दुख दीरघ देवन के हरिहौं । सितकंठ के कंठन को कठुला दसकंठ के कंठन को करिहौं ।—केशव (शब्द०) । (ख) मधि हीरा दुहूँ दिशि मुकुतावलि कठुला कंठ विराजा । बंधु कंबु कहँ भुज पसारि जनु मिलन चहत द्विज राजा ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ कठुवाना
क्रि० अ० [हिं० काठ से नाम०] १. काठ की तरह कड़ा हो जाना । सूखकर कड़ा हो जाना । २. ठंढक से हाथ पैर आदि का ठिठुरना ।
⋙ कठूमर
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ, उदुम्बर, हिं०, कठ+ ऊमर] जंगली गूलर जिसके फल बहुत छोटे छोटे और फीके होते हैं ।
⋙ कठेठ, कठेठा † पु
वि० पुं० [हिं० काठ+ एठ (प्रत्य०), हिं० काठ+ऐठा (प्रत्य०)] [स्त्री० कठेठी] १. कड़ा । कठोर । कठिन । दृढ़ । सख्त । उ०—वैर कियो शिव चाहत हौं तब लौं अरि बाह्यौकटार कठेठो ।—भूषण (शब्द०) । २. अधिक बलवाला । दृढांग । तगड़ा ।
⋙ कठेठी
वि० स्त्री० [हिं० कठेठा] कठोर । कड़ी । उ०—(क) माखन सो मेरे मोहन मन काठ सी तेरी कठेठी ये बातैं ।— केशव (शब्द०) । (ख) माखन सी जीभ मुख कंज सो कुँवरि, कहु काठ सी कठेठी बात कसे निकरति है ।—केशव (शब्द०) । (ग) जी की कठेठी अमेठी गँवारिन नेकु नहीं हँसि कै हिय हेरी ।—ठाकुर (शब्द०) ।
⋙ कठेर (१)
वि० [सं०] कष्टग्रस्त । पीड़ित [को०] ।
⋙ कठेर (२)
संज्ञा पुं० निर्धन । रंक [को०] ।
⋙ कठेल
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+एल (प्रत्य०)] १. धुनियों की कमान जिसमें ऊन या रूई धुनते समय धुनकी को बाँधकर लटकाते हैं । २. कसेरों का काठ का एक औजार जिसमें एक गड्ढ़ा होता है । इस गड्ढ़े में धातु का पात्र रखकर उसे गोल करते हैं ।
⋙ कठैला
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ एला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० कठैली] कठौता । काठ का बरतन ।
⋙ कठैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठैला] काठ का एक छोटा बर्तन । कठैला की तरह छोटा बर्तन ।
⋙ कठोदर
संज्ञा पुं० [हिं० काठ+ उदर] पेट का एक रोग जिसमें पेट बढ़ता और कड़ा रहता है ।
⋙ कठोर
वि० [सं०] १. कठिन । सख्त । कड़ा । २. निर्दय । निष्ठुर । बेरहम । यौ०—कठोरगर्भा=वह स्त्री जिसका गर्भ पूर्ण विकसित हो । कठोरहृदय ।
⋙ कठोरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कड़ाई । सख्ती । २. निर्दयता । निष्ठुरता । बरहमी ।
⋙ कठोरताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठोरता+ ई (प्रत्य०)] (कठोरता का बिगड़ा हुआ रूप) १. कठोरता । कठिनता । २. निर्दयता ।
⋙ कठोरपन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठोर+ पन (प्रत्य०)] १. कठोरता । कड़ापन । सख्ती । २. निर्दयता । निष्ठुरता । उ०—जनु कठोंरपन धरे शरीरू । सिखइ धनुष विद्या बर बीरू ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कठोरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कठोरपन' । उ०—तब उनका वास्तविक, स्थूल, अप्रसाध्य, अव्याकृत कठोरत्व प्रकट हो जाता है ।—विश्वप्रिया पृ० ९० ।
⋙ कठोल
वि० [सं०] कठोर [को०] ।
⋙ कठौत
संज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठ+ पात्र, हिं० कठ+ औत (प्रत्य०)] छोटा कठौता ।
⋙ कठौता
संज्ञा पुं० [सं० काष्ट+ पात्र, हिं० कठ+ औता (प्रत्य०)] काठ का एक बड़ा बरतन जिसकी बारी बहुत ऊँची और ढालुआँ होती है । उ०—केवट राम रजायसु पावा । पानि कठौता भरि लै आवा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कठौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कठौता] छोटा कठौता ।
⋙ कठ्ठना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'कठठना' ।
⋙ कठि्ठया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ठा] १. सीमा । २. घेरा ।
⋙ कडंकर
संज्ञा पुं० [सं० कडङ्गर] तृण । मूँग आदि द्धिदल धान्यों का डठल [को०] ।
⋙ कडंग
संज्ञा पुं० [सं० कङङ्ग] एक तरह की शराब ।
⋙ कडंगर
संज्ञा पुं० [सं० कडङ्गर] दे० 'कडंकर' [को०] ।
⋙ कड़ंगा
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ा+ अंग +आ (प्रत्य०)] मोटा । तगड़ा । अक्खड़ ।
⋙ कड
वि० [सं०] १. वाणीविहीन । गूँगा । २. कर्कश । ३. श्रृतिकटु । ४. अबोध । मूर्ख [को०] ।
⋙ कड़ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. कुसुम । बर्रे । २. कुसुम का बीज ।
⋙ कड़ (२) † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कटि, प्रा० कडि] कटि । कमर । उ०— पाछे अवरँग हल्लियौ कड़ बाँधे समशेर ।—रा० रू०, पृ० ४१ ।
⋙ कड़क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री नमक [को०] ।
⋙ कड़क (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़कड़] १. कड़कड़ाहट का शब्द । कठोर शब्द । जैसे, —बिजली की कड़क । २. तड़प । दपेट । जैसे, — वीरों की कड़क । ३. गाज । वज्र । ४. घोड़े की सरपट चाल । क्रि० प्र—जाना ।—दौड़ना । ५. पटेबाजी का वह हाथ जो विपक्षी के दाहिने पैर की बाई ओर मारा जाय । क्रि० प्र—मारना । ६. कसक । दर्द जो रुक रुककर हों । ७. रुक रुककर और जलन के साथ पेशाब उतरने का रोग । क्रि० प्र—थामना ।—पकड़ना ।
⋙ कड़कड़
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दो वस्तुओं के आघात का कठोर शब्द । घोर शब्द । जैसे, —ताशे या बादल की गरज का । २. कड़ी वस्तु के टूटने या फूटने का शब्द । जैसे, —वह हड्डी को कड़कड़ चबा गया ।
⋙ कड़कड़ाता
वि० [हिं० कड़कड़] [स्त्री० कड़कड़ाती] १. कड़कड़ शब्द करता हुआ । २. कड़ाके का । बहुत तेज । घोर । प्रचंड । जैसे, —कड़कड़ाता जाड़ा, कड़कड़ाती धूप ।
⋙ कड़कड़ाना (१)
क्रि० अ० [सं० कड़] १. कड़ कड़ शब्द करना । घोर नाद करना । २. तोड़ना । चूर चूर करना । जैसे, —छाती पर चढ़कर तुम्हारी हड्डियाँ कड़कड़ा देंगे । उ०—जहाँ कड़कड़ै वीर गजराज हय हड़हड़ै, धड़हड़ै धरनि ब्रह्मांड गाजै ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ८८९ ।
⋙ कड़कड़ाना (२)
क्रि० स० [अनु०] घी को साफ और सोंधा करने के लिये थोड़ी देर तक हलकी आंच पर तपाना ।
⋙ कड़कड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हि० कड़कड़] १. कड़कड़ शब्द गाज । घोर नाद ।
⋙ कड़कना
क्रि० अ० [हिं० कड़कड़] १. कड़कड़ शब्द करना । गड़गड़ाना । जैसे,—बादल कड़कना । २. चिटकने का शब्द होना । ३. जोर से शब्द करना । दपेटना । जैसे, —इतना सुनते ही वे कड़ककर बोले । ४. चिटकना । फटना । दरकना । ५. आवाज के साथ टूटना । ६. कड़े रेशमी कपड़े का तह पर से कट जाना ।
⋙ कड़कनाल
संज्ञा पुं० [हिं० कड़क+नाल] वह चौड़े मुहड़े की तोप जिससे बड़ा भयंकर शब्द होता है और जो शत्रुसेना को डराने और भड़काने के लिये छोड़ी जाती है ।
⋙ कड़कबाँका
संज्ञा पुं० [हिं० कड़क+ बाँका] १. वह जवान जिसकी दपट से लोग हिल जायँ । २. नोंक झोंक का जवान । बाँका तिरछा जवान । छैला ।
⋙ कड़कबिजली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़क+ बिजली] १. एक गहना जिसे स्त्रियाँ कान में पहनती है । इसकी बनावट चंद्राकार होने से इसे 'चाँदवाला' भी कहते हैं । २. तोड़ेदार बिजली जिसकी आवाज बड़ी कड़ी हो । ३. एक यंत्र जिसके द्वारा बिजली उत्पन्न करके वात, लकवा आदि के रोगियों के शरीर में दौड़ाई जाती है ।
⋙ कड़कस पु
वि० [सं० कर्कश अथवा कड़ा+ कस] दे० 'कर्कश' । उ०—उठ कड़कस शत्रघण उप आए । आतुर उभै अयोध्या आए ।—रघु०, रू० पृ० ११२ ।
⋙ कड़का
संज्ञा पुं० [हिं० कड़क] कड़ाके की आवाज । उ०—बिजुली चमक भई उँजियारी । कड़वा घोर सोर अतिभारी ।—घट०, पृ० ३७८ ।
⋙ कड़खा
संज्ञा पुं० [हिं० कड़क] वीरों की प्रशंसा से भरे लड़ाई के गीत जिनको सुनकर बीरों को लड़ने की उत्तेजना होती है । उ०—(क) मिरदंग और मुहचंग चंग सुढंग संग बजावही । करताल दै दै ताल मारू ख्याल कड़खा गावहीं ।—गोपाल (शब्द०) । (ख) मोरा बैरी कड़खा गावै मनपथ विरद बखानि ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ५०२ ।
⋙ कड़च्छ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कलछी' ।—देशी०, पृ० ८२ ।
⋙ कड़छा
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० कड़छी] लोहे की बड़ी कलछुल या कलछी ।
⋙ कड़खैत
संज्ञा पु० [हिं० कड़खा+ ऐत (प्रत्य०)] १. कड़खा गानेवाला पुरुष । भाट । चारण । उ०—कोकिला कड़कि उधरत कड़खैत ही बदत बंदी बिरद भवँर आगे बढ़े । भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४७० ।
⋙ कडन्न
संज्ञा पुं० [सं०] कलत्र । पत्नी । २. नितंब । ३. एक प्रकार का पात्र [को०] ।
⋙ कड़बंध पु
संज्ञा पुं० [हिं० कटिबन्ध] किंकिणी । करधनी । उ०— छक कड़बंध सुचंगा छाजै । पट अंग राजै पुण पीत ।—रघु० रू० पृ० २५३ ।
⋙ कड़बड़ा (१)
वि० [सं० कर्बर =कबरा] जिसका कुछ भाग सफेद और कुछ दूसरे रंग का हो । कबरा । चितकबरा । जैसे, —कड़बड़ी दाढ़ी ।
⋙ कड़बड़ा (२)
संज्ञा पुं० वह मनुष्य जिसकी दाढ़ी के कुछ बाल काले और कुछ सफेद होते हों ।
⋙ कड़बा
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ा] कोई गोल वस्तु; जैसे पुराना तवा कड़ाही आदि जो हल के फाल के ऊपर इसलिए बाँध दी जाती है कि वह बहुत गहरा न धँसे ।
⋙ कड़बी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़बा] दे० 'कड़वी' । उ०—कहीं बल्ली टेकी थूनी है कहिं घास कड़ब की फूली है ।—राम० धर्म०, पृ० ९२ ।
⋙ कड़ला †
संज्ञा पु० [हिं०] १. 'कठुला' । २. बच्चों के हाथ या पाँव में पहनाया जानेवाला छोटा कड़ा ।
⋙ कड़वा (१)
वि० पु० [सं० कटुक, प्रा०, कडुअ] १. कड़आ । कटु । २. तीता । ३. अप्रिय ।
⋙ कड़वा (२)
संज्ञा पुं० [प्रा० कड़वक] गीत की टेक या कड़ी जिसे सब मिलकर गाते हैं । उ०—यह कड़वा संपूरन गोपालदास ने श्री गुसाईं जी के आगे गाइ सुनायो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५९ ।
⋙ कड़वाना
क्रि० अ० [हिं० कड़वा से नाम०] दे० 'कड़वाना' । स्वाद में कड़वा लगना ।
⋙ कड़बी (१)
वि० [हिं० कड़वा का स्त्री०] दे० 'कड़ुई' । यौ०—कड़वी खिचड़ी, कड़वी रोटी=मृत व्यक्ति के संबंधियों द्वारा उसके कुटुंबियों को भेजा जानेवाला खाना ।
⋙ कड़वी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] ज्वार का पेड़ जिसके भुट्टे काट लिए गए हों और जो चारे के लिये छोड़ दिया गया हो । उ०— श्याम और एशिया के पूर्वी देशों में घोड़े शाम और सुबह कड़वी और जौ खाते हैं और बीच में कुछ नहीं ।—शिवप्रसाद (शब्ज०) ।
⋙ कड़हन
संज्ञा पुं० [हिं० कठधान] एक प्रकार का धान । एक प्रकार का मोटा चावल ।
⋙ कड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कटक] [स्त्री० कड़ी] १. हाथ या पाँच में पहनने का चूड़ा़ । उ०—दुसेन्या दरस्सी कड़े काठली सी ।—रा० रु०, पृ० ३२ । २. लोहे और किसी धातु का चुल्ला या कुंडा । जैसे, कंडाल का कड़ा । ३. एक प्रकार का कबूतर ।
⋙ कड़ा (२)
वि० [सं० कड्ड] [स्त्री० कड़ी] १. कठोर । कठिन । सख्त । ठोस । जिसकी सतह दबाने से न देब या मुश्किल से देब । जो दबाने से जल्दी न दबे । जिसमें कोई वस्तु जल्दी गड़ न सके अथवा जिसे सहज में तोड़ वा काट न सकें । जो कोमल या मुलायम न हो । मुहा०—कड़ा लगाना=लदाव की छत बनाना । कड़ी छत या पाटन=लदाव की छत । वह छत जो केवल चूने चौर ईँटों से पीटी गई हो, कड़ी वा शहतीर के आधार पर न हो, जैसे, शिवाले का गुंबद । २. जिसकी प्रकृति कोमल न हो । रूखा । ३. जो नियम में किसी प्रकार का शील संकोच न करे । उग्र । दृढ़ । जैसे, कड़ा हाकिम । जैसे, —जरा कड़े हो जाओं रुपया मिल जाय । मुहा०—कड़ा पड़ना=दृढ़ता दिखाना । दबंगी से काम लेना । न दबना । जैसे, —कड़ा पड़ने से काम कहीं बनता भी है और कहीं बिगड़ता भी हैं । ४. कसा हुआ । चुस्त । जैसे, कड़ा जूता, कड़ा बंधन, कड़ी कमान । ५. जो गीला न हो । कम गीला । जैसे कड़ा आटा । ६. हृष्ट पुष्ट । तगड़ा । दृढ़ । जैसे, —उनकी अवस्था तो अधिक है, पर वे अभी कड़े हैं । ७. साधारण से अधिक । जोर का ।प्रचंड । तेज । अधिक । जैसे, कड़ा झोंका, कड़ी, धूप, कड़ी भूख, कड़ी प्यास, कड़ी मार कड़ा दाम, कड़ी आवाज, कड़ी चोट । ८. सहनेवाला । झेलनेवाला । धीर । विचलित न होनेवाला । जैसे, कड़ा जी, कड़ा कलेजा । जैसे—(क) जी कड़ा करके सब सहो । (ख) जी कड़ा करके दबा पी जाओ । ९. जिसका करना सहज न हो । दुष्कर । दुःसाध्य । मुश्किल । जैसे, कड़ा काम, कड़ा सवाल, कड़ा परचा, कड़ा परिश्रम, कड़ा कोस, कड़ी मंजिल । १०. तीव्र प्रभाव डालनेवाला । तेज । जैसे, कड़ी दवा, कडी, महक, कडी शराब । ११. असह्य । बुरा लगनेवाला । जैसे, कड़ी बात, कड़ा बरताव । १२. कठोर । कर्कश । जैसे, कड़ा स्वर । कड़ी बोली ।
⋙ कड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ा +आई (प्रत्य०)] कड़ा होने का भाव । कठोरता । कड़ापन । सख्ती ।
⋙ कड़ाकड़
क्रि० वि० [हिं० कड़कड़] कड़कड़ की लगातार ध्वनि करते हुए । उ०—धक्कों की धड़ाधड़ अडंग की अड़ाअड़ं में, ह्वै रहे कड़ाकड़ सुदंतों की कड़ाकड़ी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०७ ।
⋙ कड़ाकड़ी
वि० [हिं० कटा+ कटी] घोर । तुमुल । उ०—सुंदर बाढ़ाली बहै, होइ कड़ाकड़ि मार ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७४० ।
⋙ कड़ाका
संज्ञा पुं० [हिं० कड़कड़] १. किसी कड़ी वस्तु के टूटने या टकराने का शब्द । उ०—(क) रेवड़ी कड़ाका पापड़ पड़ाका ।—हरिश्चद्र (शब्द०) । (ख) कुंडन के ऊपर कड़ाके उठै ठौर ठौर ।—भूषण ग्रं०, पृ० ३३० । मुहा०—कड़ाके का=जोर का । तेज । प्रचंड । जैसे, कड़ाके का जाड़ा, कड़ाके की गर्मी, कड़ाके की भूख । २. उपवास । लंघन । फाका । जैसे, —कई कड़ाके के बाद आज खाने को मिला है ।
⋙ कड़ाकुल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कराँकुल' । उ०—पर वे तो नौकरी कर कड़ाकुल पक्षियों की भाँति... ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६८ ।
⋙ कड़ा प्रसाद
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ाह+ सं० प्रसाद] प्रसाद रूप में सिखों द्वारा बाँटने के लिये कड़ाह में बननेवाला हलुआ ।
⋙ कड़ाबीन
संज्ञा स्त्री० [तु०कराबीन] १.चौड़े मुँह की बंदूक जिसमें बहुत सी गोलियाँ भरकर छोड़ते हैं । २. छोटी बंदूक जिसे कमर में बाँधते हैं । इसे झोंका भी कहते हैं । उ०—(क) कड़ाबीन कर मन को बस कर मारो मोह निदाना ।—कबीर श०, पृ० ३८ । (ख) अष्टभुजा पर छोड़ से कड़ाबिनिया रे हरी ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४२ ।
⋙ कडार (१)
वि० [सं०] १. घमंडी । २. दंभी । ३. धृष्ट [को०] ।
⋙ कडार (२)
संज्ञा पुं० [सं० कटाह, प्रा० कडाह] दे० 'कड़ाहा' ।
⋙ कड़ाह †
संज्ञा पुं० [सं० कटाह, प्रा० कडाह] दे० 'कड़ाहा' ।
⋙ कड़ाहा
संज्ञा पुं० [सं० कटाह, प्रा० कडाह] [स्त्री०, अल्पा० कड़ाही] आँच पर चढ़ाने का लोहे बहुत बड़ा गोल बरतन जिसके दो ओर पकड़ने के लिये कुंडे लगे रहते हैं । इसमें पूरी, हलवा इत्यादि बनाते हैं । क्रि० प्र०—चढ़ना=आँच पर रखा जाना ।—चढ़ाना=आँच पर रखना ।
⋙ कड़ाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ाह] छोटा कड़ाहा, जो लोहे पीतल, चाँदी आदि का बनता है । क्रि० प्र—चढ़ना=आँच पर रखा जाना ।—चढ़ाना=आँच पर रखना । मुहा०—कड़ाही करना=कढ़ाही चढ़ना । मनौती पूरी होने पर किसी देवी देवता की पूजा के लिये हलवा पूरी करना । कड़ाही में हाथ डालना=अग्निपरीक्षा देना । यौ०—कड़ाही पूजन=किसी शुभ कार्य के निमित्त पकवान बनाने के लिये कड़ाही चढ़ाने के पहले उसकी पूजा करना ।
⋙ कड़ि (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कली] १. कली । उ०—कसतूरी कड़ी केवड़ी मसकत जाय महक्क ।—ढोला०, दू० ११३ । २. दे० 'कड़ी' ।
⋙ कड़ि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कटि, प्रा० कड़ि] कमर । उ०—अरि चौड़ौं कड़ि पातलो ।—बी०, रासो० पृ० ७७ ।
⋙ कड़ि (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ा] कंकण । उ०—घोड़ा बैसे ज्यो हाँसला । कडि सोनहरी, हाथे जोड़ी ।—बी० रासो, पृ० ११ ।
⋙ कड़िचाल पु †
संज्ञा पु० [सं० कटि+ चालन] दे० 'कटिचालन' । कमर लचकाना । कमर नचाना । उ०—कड़िचालउ गोरी करइ ।— बी० रासों०, पृ० १०१ ।
⋙ कड़ितम्
संज्ञा पुं० [कन्नड़] दक्षिण भारतीय व्यापारियों के हिसाब की बही ।—भा० प्रा० लि०, पृ० १४६ ।
⋙ कड़ितुल
संज्ञा पुं० [सं० कड़ितुल] १. खङ्ग । तलवार । २. बलि का चाकू या छुरी [को०] ।
⋙ कड़ियल (१)
संज्ञा पुं० [सं० काण्ड] ऊपर से फूटा हुआ मटके वा घड़े आदि का टुकड़ा जिसमें आग रखकर दबाई जाती है ।
⋙ कड़ियल (२)
वि० [हिं० कड़ा] कड़ा । हट्टा । कट्टा । यौ०—कड़ियल जवान=हट्टा—कट्टा जवान ।
⋙ कड़िया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड, हिं० काँडी] अरहर का सूखा पेड़ । जो फसल झाड़ लेने के बाद बच रहता है । काँड़ी । रहटा ।
⋙ कड़िया (२) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कर्णधार] १. करिया । केवट । २. पतवार । उ०—राम राम डगमगी छोड़ाई, निर्भय कड़िया लैया ।—मलूक०, पृ० ३ ।
⋙ कड़ियाली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करियारी] करियारी । लगाम । उ०—कबीर माया पापणीं हरि सूं करै हराम । मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२ ।
⋙ कड़िहर †
संज्ञा स्त्री० [प्रा० कड़ि +हर] कमर ।
⋙ कड़िहार (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार] २. दे० 'कर्णधार' । २. निकालने— वाला । उद्धारक । उ०—चत्रभुज बके जी सहते जी और चौके तुम सही चार ही कड़िहार जग में बचन यह निश्चय कही ।— कबीर सा०, पृ० १९६ ।
⋙ कड़िहार (२
पु संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार, प्रा० कर्णधार] कर्णधार ।केवट । पार लगानेवाला । उ०—(क) कौन नाम हँसन कहै, कौन देउँ कडिहार । कौन नाम नारिन कहँ, जाते होई उवार ।—कबीर श०, पृ० ४५४ ।
⋙ कड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कटकी, प्रा० कडई कड़ी] १. जंजीर या सिकड़ी की लड़ी का एक छल्ला । २. छोटा छल्ला जो किसी वस्तु को अटकाने वा लटकाने के लिये लगाया जाय । जैसे, पंखा कड़ियों में लटक रहा है । ३. लगाम । उ०—हरि घोड़ा ब्रह्मा कड़ी वासुकि पीठि पलान । चाँद सुरूज दोउ पायड़ा । चढ़ीसी संत सुजान ।—कबीर सा०, स०, भा० १, पृ० २४ । ४. गीत का एक पद । ५. खंड । विभाग । उ०—यही सोच में तो चौकड़ी की कड़ी बीत गई ।— श्यामा०, पृ० १०९ ।
⋙ कड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड] १. छोटी धरन । उ०—घर की कड़ी और किवाड़ तक बेंच दी गई ।—ठेठ०, पृ० ४३ । मुहा०—कड़ीबोलना=धरन से चिटकने की सी आवाज निकलना जो रहनेवाले के लिये अशकुन समझा जाता है । २. भेड़ बकरी आदि चैपायों की छाती की हड्डी ।
⋙ कड़ी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ा=कठिन] कठिनाई । दिक्कत । संकट । दुःख । मुसीबत । क्रि० प्र०—उठाना । झेलना ।—सहना ।
⋙ कड़ी (४)
वि० स्त्री० [हिं० कड़ा= कठिन] कठिन । कठोर । सख्त । मुहा०—कड़ी धरती=(१) वह प्रदेश जहाँ के लोग हट्टे कट्टे हों । (२) भूत प्रेत के रहने की जगह । कड़ी दृष्टि वा आँख रखना=पूरी निगरानी रखना । ताक में रहना । जैसे,— देखना उस लड़के पर कड़ी आँख रखना, कहीं जाने न पावे । कड़ी दृष्टि वा आँख का होना=(१) पूरी निगरानी होना । (२) कोप का भाव रहना । जैसे,—उन दिनों समाचारपत्रों पर सरकार की कड़ी आँख थी । कड़ी सुनाना=खोटी खरी सुनाना । यौ०—कड़ी कैद=सपरिश्रम कारागारा ।
⋙ कड़ीदार (१)
वि० [हिं० कड़ी+ दार (प्रत्य०)] जिसमें कड़ी हो । छल्लेदार ।
⋙ कड़ीदार (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कसीदा जो कड़ियों की लड़ी की तरह का होता है । विशेष—कपड़े के नीचे से सुई ऊपर निकालकर धागे के पिछले भाग में फंदा इस प्रकार बनावें कि तागा घूमकर अर्थात् फंदा बनाता हुआ धागे के पिछले भाग के नीचे से जाय । फिर सुई की नोक के नीचे तागे का दूसरा फंदा देकर सुई को बाहर निकाले ।
⋙ कड़ुआ
वि० [सं० कटुक, प्रा० कडुअ] [स्त्री० कड़ुई] १. कटु । स्वाद में उग्र और अप्रिय । जिसका तीक्ष्ण स्वाद जीभ को असह्य हो । जैसे, नीम, इंद्रायन, चिरायता आदि का । क्रि० प्र०—लगना । यौ०—कड़ुआ कसैला= अरुचिकर । कटु । बुरा । कड़ुआ जहर= (१) जहर सा कड़ुआ । बहुत कड़ुआ । (२) अत्यंत अरुचिकर । बहुत बुरा लगनेवाला । कड़ुआ जी=कड़ा जी । विपत्ति और कठिनाई में धीरचित्त । जैसे—यह कड़ए जी के आदमी का काम है । २. तीक्ष्ण । झालदार । जैसे, कड़आ तमाकु, कड़आ तेल । ३. तीखी प्रकृति का । गुस्सैल । तुदमिजाज । झल्ला । अक्खड़ । जैसे, —कडुआ आदमी । उ०—कड़ुए से मिलिए, मीठे से डरिए । मुहा०—कड़ुआ होना=नाराजा होना । बिगड़ना । जैसे, —इतनी ही बात पर वे मुझसे कड़ुए हो गए । ४. क्रोध से भरा । जैसे कड़ुआ मिजाज, कड़ुई निगाह । क्रि० प्र०—होना=नाराज होना । बिगड़ना । ५. अप्रिय । जो भला न मालूम हो । जो न भावे । जैसे, — कड़ई बात । मुहा०—कड़ुआ करना=(१) धन बिगाड़ना । रुपए लगाना । जैसे, —जहाँ इतना खर्च किया वहाँ दो रुपए और कड़ुए करेंगे । (२) कुछ दाम खड़ा करना । औने पौने करना । जैसे, — माल बहुत दिनों से पड़ा था, (५) कड़ुए किए । कड़ुवा मुँह= वह मुँह जिससे कटु शब्द निकले । कटुभाषी मुख । उ०— खीरा को मुँख काटि कै मलियत लोन लगाय । रहिमन कड़ुए मुखन को चहिए यही उपाय ।—रहीम (शब्द०) । कड़ुआ होना=बुरा बनना । जैसे,—तुम क्यों सबसे कड़ुए होते हो? ६. विकटय़ टेढ़ा । कठिन । जैसे,—उस पार जाना जरा कड़ुआ काम है । मुहा०—कड़ुए कसैले दिन=(१) बुरे दिन । कष्ट के दिन । (२) दोरसे दिन जिनमें रोग फैलता है ।—जैसे, —क्वार, कातिक या फागुन, चैत । (३) गर्भ का आठवाँ महीना जिसमें गर्भ गिरने का भय रहता है । कड़ुआ घूँट=कठिन काम ।
⋙ कड़ुआ तेल
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ुआ+तैल] सरसो का तेल जिसमें बहुत झाल होती है ।
⋙ कड़ुआना
क्रि० अ० [हिं० कड़ुआसे नाम०] १. कड़ुआ लगना । जैसे, —तरकारी में मेथी अधिक हो गई, इससे कड़ु आती है । २. बिगड़ना । रिसाना । खीझना । ३. नींद रोकने के कारण आँख में किरकिरी पड़ने का सा दर्द होना ।
⋙ कड़ुआहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ुआ हट +(प्रत्य०)] कड़ुआपन ।
⋙ कड़ुईरोटीया खिचड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] वह भोजन जो मृतक के घर के प्राणियों के पास उसके संबंधी दो तीन दिनों तक भेजते हैं ।
⋙ कड़वाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ुआ+ ई(प्रत्य०)] १. कटुता । २. बुराई । उ०—जगन्नाथ के दरस न करके अजहुँन न गई कड़ुवाई ।—कबीर सा०, पृ० ४६ ।
⋙ कड़ूँगा
वि० [हिं० कड़ा +अंग] मोटा । तगड़ा । अक्खड़ ।
⋙ कड़ू
वि० पुं० [सं० कटु या कटुक] दे० 'कड़ुआ' ।
⋙ कडूला †
संज्ञा पुं० [हिं० कड़+ऊता (प्रत्य़०)] हाथ या पैर में पहनने का बच्चों का, छोटा कड़ा ।
⋙ कड़ेदम
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ा+ अ० दम] दृढ़ । अविचल । उ०— आदमी कड़ेदम चाहिए, जिसका अन्याय देखे उसे डाँट दे ।— काया०, पृ० १२५ ।
⋙ कड़ेरा
संज्ञा पुं० [हिं० कैड़ा] खरादनेवाला । जो किसी वस्तु को खरादकर ठीक करे । उ०—ग्रीव मयूर केर जस ठाढ़ी । को़ड़े फेर कड़ेरै काढ़ी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कड़ेलोट
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ा+ लोटना] मालखंभ की कसरत । विशेष—इसमें ऊधंतरी करके हाथ को मोगरे पर लाते और उसी पर बदल तौलकर ऐसे उड़ते हैं कि सिर मोगरे के पास कंधे के आसरे रहता है और पाँव पीठ पर से उलटे उड़कर नीचे आता है ।
⋙ कड़ेलोटन
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ेलोट] दे० 'कड़ेलोट' ।
⋙ कड़ोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० करोड़ा] बहुत बड़ा अधिकारी जिसके अधीन बहुत से लोग हों । बहुत बड़ा अफसर ।
⋙ कड़ोर †
संज्ञा पुं० [हिं० करोड़] १. कोटि । करोड़ । २. बहुसंख्यक । उ०—पाँच भाइ रस भंग करतु हैं, इन बस परिय कडोरी ।—जग० श०, पृ० ८० ।
⋙ कड्ढना
क्रि० स० [हिं०] दे० . 'काढ़ना' । निकालना । उ०—कढड़ी हुसैन जो जीव आस । पृ० रा०, २९ ।
⋙ कड्ढा †पु
वि० [हिं० काढ़ना] ऋण लेनेवाला । कर्ज काढ़नेवाला ।
⋙ कड्ढू †
वि० [हिं०] दे० 'कडढा' ।
⋙ कढ्डेरना
क्रि० स० [हिं० काढ़ना] काढ़ना । निकालना ।
⋙ कढ़त
संज्ञा स्त्री० [हिं० 'कढ़ना'] १. निकासी । खपत । २. कढ़ने या काढ़ने की क्रिया या भाव । बाहर निकलने या निकालने की क्रीया या भाव ।
⋙ कढ़ना (१)
क्रि० अ० [सं० कर्षण, प्रा० कड्ढन] १. निकलना । बाहर आना । खिंचना । २. उदय होना । ३. बढ़ जाना । किसी बात में किसी से बढकर प्रमाणित होना । ४. (प्रतिद्वंद्विता में) निकल जाना (आगे) । बढ़ जाना (आगे) । मुहा०—कढ़ जाना=किसी के साथ चले जाना । यार के साथ चले जाना । कुटुबं छोड़कर उपपति करना । उ०—गोकुल के कुल को ताजिकै भजिकै बन बीथिन में बढ़ि जइए । ज्यौ पदमाकर कुंज कछार बिहार पहारन में चढ़ि जइए । हैं नँद- नद गोविंद जहाँ तहाँ नंद में मंदिर में मढ़ि जइए । यौं चित चाहत एरी भटू मनमोहनै लेके कहूँ कढ़ि जइए ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कढ़ना (२)
क्रि० अ० [हिं० गाढ़ा] दूध का औटाया जाकर गाढ़ा होना ।
⋙ कढ़नी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्षणी, प्रा० कड्ढ़नी] मथानी को घुमाने की रस्सी । नेती ।
⋙ कढ़नी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काढ़ना=निकलना] बरसात में जमीन की वह अंतिम जुताई जिसके बाद अनाज बोया जाता है । क्रि० प्र०—काढ़ना (जोतना) ।
⋙ कढ़नी (३)
वि० स्त्री० [हिं० काढ़ना=निकालना] निकालने वाली । यह प्रयोग समस्त पद के अंत में आता है । जैसै, —कसीदा- कढ़नी, खूँटकढ़नी ।
⋙ कढ़राना
क्रि० स० [हिं० कढ़लाना] दे० 'कढ़लाना' ।
⋙ कढ़लाना †पु
क्रि० स० [सं० काढ़ना+ लाना] घसीटना । घसीटकर बाहर करना । उ०—नाहिनै काँची कृपानिधि, करौ कहा रिसाइ । सूर तबहु न द्वार चाड़ै डारिहौ कढराइ ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ कढ़वाना
क्रि० स० [हिं० काढ़ना का प्रे० रूप] दे० 'कढ़ाना' ।
⋙ कढ़ाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ाही] दे० 'कड़ाही' ।
⋙ कढ़ाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काढ़ना] १. निकालने की क्रिया । २. निकालने की मजदूरी । निकलवाई । ३. बूटा कसीदा निकालने का काम । ४. बूटा कसीदा बनाने की मजदूरी ।
⋙ कढ़ाना
क्रि० स० [हिं० काढ़ना का प्रे० रूप] निकलवाला । बाहर कराना । खिंचवा लेना । उ०—सन इव खल पर बधन करई । खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कढ़ाव (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काढ़ना] १. बूटे कसीदे का काम । २. बेल बूटों का उभार ।
⋙ कढ़ाव (२) †
संज्ञा पुं० [सं० कटाह, प्रा०, कडाह] १. दे० 'कड़ाह' । २. सिखों का कड़ा प्रसाद अर्थात् हलुआ जो कड़ाह में बनता है । उ०—याही गुरु ने कढ़ाव बखानी ।—घट०, पृ० ३२२ ।
⋙ कढ़ावना पु †
क्रि० स० [हिं० काढ़ना का प्रे० रूप] निकलवाना । बाहर करना । खिंचवाना । उ०—पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी । तौ धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कढ़ाह प्रसाद
संज्ञा पुं० [हिं० कढ़ाङ+ सं० प्रसाद] दे० 'कड़ा प्रसाद' उ०—घी निचुड़ते कढाह प्रसाद (हलवे) के अपेक्षा चासनी में तैरते रसगुल्ले उसे अधिक लुभाने लगे ।—भस्मावृत०, पृ० ६९ ।
⋙ कढ़िराना पु
क्रि० स० [हिं० कढ़लाना] दे० 'कढ़लाना' ।
⋙ कढ़िलना
क्रि० अ० [सं० कल्ल] रोग या दुःख से कराहना । पड़े रहकर छटपटाना । लेटे हुए घुसना या रिघुरना । मुहा०—कढ़िल कढ़िलकर मरमा=घुल घुलकर मरना । उ०— कढ़िल कढ़िलकर मौत पा चुके ।—बंगाल०, पृ० ६२ ।
⋙ कढ़िहार
वि० [हिं० काढ़ना +हार (प्रत्य०)] १. उद्धारक । निकालनेवाला । उ०—अस अवसर नहिं पाइहौं, धरौ नाम कढ़िहार ।—कबीर सा०, पृ० ५ ।
⋙ कढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कढ़ना=गाढ़ा होना] एक प्रकार का सालन । उ०—दाल भात घृत कढ़ी सलोनी अरु नाना पकवान । आरोगत नृप चारि पुत्र मिलि अति आनंद निधान ।—सूर (शब्द०) । विशेष—इसके बनाने की रीति यों है—आग पर चढ़ी हुई कड़ाही में घी, हींग, राई और हलदी की बुकनी डाल दे । जब सुगंध उड़ने लगे तब उसमें नमक, मिर्च समेत मठे में घोला हुआ बेसन छोड़ दे और मंदी आँच से पकावे । कोई कोई इसमें बेसन की पकौड़ी भी छोड़ देते हैं । यह सालन पाचक दीपक, हल्का और रुचिकर है । कफ वायु और वद्धकोष्ठ का नाश करता है । मुहा०—कढ़ी का सा उबाल=शीघ्र ही घट जानेवाला जोश । (कढ़ी में एक ही बार उबाल आता है और शीघ्र ही दब जाता है) । कढ़ी में कोयला=(१) अच्छी वस्तु में कुछ छोटा सादोष, (२) दाल में काला । कुछ मर्म की बात । कोई भेद । बासी कढ़ी में उबाल आना=(१) बुढ़ापे में पुनः युवावस्था की सी उमंग आना । (२) छोड़े हुए कार्य को पुनः करने के हेतु तत्पर होना ।
⋙ कढ़आ (१)
वि० [हिं०] दे० 'कढ़ुवा (१)' ।
⋙ कढ़ुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कढ़ुआ (२)' ।
⋙ कढ़ुवा (१)
वि० [हिं० काढ़ना] निकाला हुआ ।
⋙ कढ़ुवा (२)
संज्ञा पुं० १. रात का बचा हुआ भोजन जो बच्चों के वास्ते सबेरे के लिये रख छोड़ते हैं । २. कर्जा । ऋण । क्रि० प्र०—काढ़ना ।—लेना ।—लेना । ३. मटके में से पानी निकालने का छोटा बरतन । बोरना । बोरका । पुरवा ।
⋙ कढ़ाई (१)
वि० [हिं० काढ़ना] कहीं से निकालकर या उड़ कर लाई स्त्री ।
⋙ कढ़ई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काढ़ना] वह लघु पात्र जिससे सामान निकालने का काम लिया जाय ।
⋙ कढ़ेरना
संज्ञा पुं० [हिं० काढ़ना] सोने चाँदी वा पीतल ताँबे इत्यादि में बर्तनों पर नक्कशी करनेवालों का एक औजार जिससे वे लोग गोल गोल लकीरें डालते हैं ।
⋙ कढ़ैया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़ाही] दे० 'कड़ाही' ।
⋙ कढ़ैया (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० काढ़ना] १. निकालनेवाला । २. उद्धार करनेवाला । उबारनेवाला । बचानेवाला ।
⋙ कढ़ैल (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कढ़ैया— (१)' ।
⋙ कढ़ैल (२) †
संज्ञा पुं० दे० 'कढ़ैया— (२)' ।
⋙ कढ़ोरना पु
क्रि० स० [सं० कर्षण, प्रा० कड्ढ] कढ़लाना । घसीटना । उ०—(क) तोरि यमकातरि मैदोदरी कढ़ोरि आनी रावन की रानी मेघनाथ महतारी है । भीर बाहु पीर की निपट राखी महाबीर कौन के सँकोच तुलसी के सोच भारी है । —तुलसी (शब्द०) । (ख) करषि कढ़ोरि दूरि लै गए । बहुत काठ दै दाहत बए ।—नंदं ग्रं०, पृ० २३९ । संयो क्रि०—डालना ।—लाना । मुहा०—कलेजा कढ़ोरना=हृदय कुरेदना । जी कढ़ोरना=मन को बेचैन करना ।
⋙ कढ़ोलना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'कढ़ोरना' ।
⋙ कण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किनका । रवा । जर्रा । अत्यंत छोटा टुकड़ा । २. चावल की बारीक टुकड़ा । कना । ३. अन्न के कुछ दाने । दो चार दाने । ४. भिक्षा । दे० 'कन' । उ०—कण दैबो सौंप्यों ससुर बहु थोरहथी जानि ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ कणकच †
संज्ञा पुं० [देश०] १. कैवाँच । कौंछ । कपिकच्छु । २. करंज । कंजा ।
⋙ कणगच
संज्ञा पुं० [हिं० कणकच] दे० 'कणकच' ।
⋙ कणगज
संज्ञा पुं० [हिं० कणकच] दे० 'कणकच' ।
⋙ कणजा
संज्ञा पुं० [हिं० कंजा] 'कंजा' या कंजा की गूदी जो ज्वर और चर्मरोग में उपयोगी है । उ०—काँसी कणजा काचलग बँधत ताई माँहिं । जन रज्जब शीतल समै अस्तक छाड़ै नाहिं ।—रज्जब०, पृ० १६ ।
⋙ कणजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद जीरा ।
⋙ कणजीरा
संज्ञा पुं० [सं० कणजीरक] दे० 'कणजीरक' ।
⋙ कणप
संज्ञा पुं० [सं०] बरछा । भाला [को०] ।
⋙ कणप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] गौरेया चिड़िया । बाह्मन चिरैया ।
⋙ कणभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वैशेषिक दर्शनकार कणाद मुनि [को०] ।
⋙ कणभक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कणाद मुनि । २. एक पक्षी [को०] ।
⋙ कणभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कणभक्ष' ।
⋙ कणभुज
संज्ञा पुं० [सं० कणभुक्] दे० 'कणभक्ष' ।
⋙ कणमणना
क्रि० अ० [हिं० कनमनाना] दे० 'कनमनाना (१)' । उ०— मारू तोइण कणमणइ, साल्हकुमर बहु साद ।—ढोला० दू० ६०५ ।
⋙ कणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीपल । पिप्पली ।
⋙ कणाच †
संज्ञा पुं० [देश०] केवाँच । करेंच । कौंछ ।
⋙ कणाटीन
संज्ञा पुं० [सं०] खंजन पक्षी [को०] ।
⋙ कणाटीर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कणाटीन' [को०] ।
⋙ कणाटीरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कणाटीन' [को०] ।
⋙ कणाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैशेषिक शास्त्र के रचयिता एक मुनि । उलूक मुनि । २. सुनार ।
⋙ कणामूल
संज्ञा पुं० [सं०] पिपरामूल ।
⋙ कणासुफल
संज्ञा पुं० [सं०] अंकोल ।
⋙ कणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कण । उ०—गुरु मुख कणिक प्रीति से पावै । ऊँच नीच के भरम मिटावै ।—कबीर सा०, भा०४, पृ० ४१० । २. अनाज की बाली । ३. गेहूँ का आटा । ४. शत्रु । ५. अग्निमंथ वृक्ष [को०] ।
⋙ कणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] किनका । टुकड़ा । जर्रा । उ०—जिसकी कृपाकणिका के प्रसाद से यह शुभ अवसर... । प्रेमघन०, पृ० ४६६ ।
⋙ कणियर †पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिकार] दे० 'कनेर' ।
⋙ कणिश
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज की बाल । जौ, गेहूँ आदि की बाल ।
⋙ कणिष्ठ
वि० [सं०] सबसे छोटा । अति सूक्ष्म [को०] ।
⋙ कणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कणिका । कनी । २. एक अन्न [को०] ।
⋙ कणीक
वि० [सं०] बहुत छोटा । अत्यल्प ।
⋙ कणीची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शब्द । ध्वनि । २. एक वृक्ष । ३. शकट । ४. पुष्पित लता [को०] ।
⋙ कणीसक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कणिश] अनाज की बाल । जौ, गेहूँ इत्यादि की बाल ।—(डिं० ।)
⋙ कणेर
संज्ञा पुं० [सं०] कनियार या कर्णिकार का पेड़ [को०] ।
⋙ कणेरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हस्तिनी । २. वेश्या [को०] ।
⋙ कणेरु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कणेर' ।
⋙ कणैठी पु
वि० [सं० कनिष्ठ] छोटा भाई । दे० 'कनिष्ठ' । उ०— राजा कै कणैठी वीर ऊदै षेत छोडया ।—शिखर० पृ० ४६ ।
⋙ कण्ण
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० कण्ण] कर्ण । कान । उ०—कण्ण समाइअ अमिय तुज्झु कहन्ते कन्त ।—कीर्ति०, पृ० ५६ ।
⋙ कण्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक मंत्रकार ऋषि जिनके बहुत से मंत्र ऋग्वेद में हैं । २. शुक्ल यजुर्वेद के एक शाखाकर ऋषि । इनकी संहिता भी है और ब्राह्मण भी । सायणाचार्य ने इन्हीं की संहिता पर भाष्य किया है । ३. कश्यप गोत्र में उत्पन्न एक ऋषि जिन्होंने शकुंतला को पाला था ।
⋙ कत (१)
संज्ञा [सं०] १. निर्मली । २. रीठा ।
⋙ कत (२)
संज्ञा पुं० [अ० कत] देशी कलम की नोक की आंड़ी काट । क्रि० प्र०—काटना ।—देना ।—मारना ।—रखना । लगान । यौ०—कतगीर ।—कतजन ।
⋙ कत (२)
अव्य० [सं० कुतः, पा० कुतो] क्यों । किसलिये । काहे को । उ०—कत सिख देइ हमहिं कोउ माई । गाल करब केहि कर बल पाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कत (४)
वि० [सं० कियत्] १. कितना । कितना । २. अधिक ।
⋙ कतअन्
अव्य० [अ० क़तअन्] सर्वथा । बिलकुल । हर्गिज [को०] ।
⋙ कतई (१)
क्रि० वि० [अं० क़तई] नितांत । निपट । बिलकुल । जैसे, — मैं उनसे कतई कोई तअल्लुक नहीं रखना चाहता । उ०— बादलों में सूरज का कहीं कही कतई कोई आभास ।—ठंडा० पृ० ३४ ।
⋙ कतई (२)
वि० [अं०] १. अंतिम । २. पूर्ण । ३. पक्का । यौ०—कतई इनकार=सर्वथा इनकार । कतई फैसला=अंतिम निर्णय । कतई हुक्म=पक्का आदेश ।
⋙ कतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्मली । २. रीठा ।
⋙ कतक (२)
वि० [हिं०] दे० 'कतिक' ।
⋙ कतकर
संज्ञा सं० [हिं० कातना +कर] कताई का काम करनेवाला । उ०—हिंदुस्थानी कतकरो और जुलाहो का सफाया कर दिया ।—मान०, पृ० ३२५ ।
⋙ कतकी †
वि० [सं० कार्तिकी] कार्तिका संबंधी । उ०—कतकी में गंगा नहान की बढ़ी उमंगे ।—अपरा, पृ० १९६ ।
⋙ कतगीर
संज्ञा पुं० [अ० कत+फा० गीर] दे० 'कतजन' ।
⋙ कतजन
संज्ञा पुं० [अ० क़तज़न] लकड़ी या हाथीदाँत का बना हुआ एक छोटा सा दस्ता जिसपर कलन की नोक रखकर उसपर कत रखते हैं ।
⋙ कतना (१)
क्रि० अ० [हिं० कातना] काता जाना ।
⋙ कतना † (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'कितना' । उ०—कतने जतने घर अए लाहु, केकर दधि दुध काजे ।—विद्यापति, पृ०, १६४ ।
⋙ कतनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कातना] १. सूत कातने की टेकुरी । ढेरिया । २. वह टोकरी जिसमें सूत काटने के सामान रखे जाते हैं ।
⋙ कतन्ना †
संज्ञा पुं० [हिं० कतरना] दे० 'कतरना' ।
⋙ कतन्नी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरनी] दे० १. 'कतरनी । २. दे० 'चरखी' ।
⋙ कतफल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कत (१)' [को०] ।
⋙ कतमाल
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।
⋙ कतरछाँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना+छाँटना] कतरब्योंत । कमी बेशी । काटछाँट ।
⋙ कतरन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना] कपड़े, कागज या धातु की चद्दर आदि के वे छोटे छोटे रद्दी टुकड़े जो काटछाँट के पीछे बच रहते हैं । जैसे, पान की कतरन । कपड़े की कतरन ।
⋙ कतरना (१)
क्रि० स० [सं० कर्तन] [संज्ञा कतरन, कतरनी] १. किसी वस्तु को कैंची से काट । २. (किसी औजार से) काटना ।
⋙ कतरना (२)
संज्ञा पुं० १. बड़ी कतरनी । बड़ी कैंची । २. बात काटनेवाला व्यक्ति । बतकट आदमी ।
⋙ कतरनाल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार घिन्नी जिसपर दोहरी गड़ारी होती है ।—(लश०) ।
⋙ कतरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना] १. बाल, कपड़े आदि काटने का एक औजार । कैंची । मिकराज । उ०—(क) कपट कतरानी पेट में, मुख बचन उचारी ।—धरम०, पृ० ७२ । मुहा०—कतरनी की जबान चलना=बकवाद करना । दूसरे की बात काटने की बहुत बकवाद करना । १. लोहारों और सोनारों का एक औजार जिससे वे धातुओं की चद्दर, तार, पत्तर आदि काटते हैं । यह सँड़सी के आकार की होती है, केवल मुँह की ओर इसमें कतरनी रहती है । काती । ३. तँबोलियों का एक औजार जिससे वे पान कतरते हैं । विशेष—इसमें लोहे की चद्दर क दो बराबर लंबे टुकड़े या बाँस या सरकंड़े के सोलह सत्रह अंगुल के फाल होते हैं जिन्हें दाहिने हाथ में लेकर पान कतरते हैं । ४. जुलाहों का एक औजार जिससे वे सूत कातते हैं । ५. मोचियों और जीनगरों की एक चौड़ी नुकीली सुतारी जिससे वे कड़े स्थान में छोटी सुतारी जाने के लिये छेद करते हैं । ६. सादे कागज या मोंमजामे का वह टुकड़ा जिसे छीपी बेल छापने समय कोना बनाने के लिये काम में लाते हैं । जहाँ कोने पर पूरा छाप नहीं लगाना होता, वहाँ इसे रख लेते हैं । चंबी । पत्ती । ७. एक मछली जो मलावार देश की नदियों में होती है ।
⋙ कतरब्योंत
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना+ ब्योंत] १. काटछाँट । २. उलटफेर । हेरफेर । इधर का उधर करना । क्रि० प्र०—करना ।—में रहना ।—होना । ३. उधेड़बुन । सोचविचार । क्रि० प्र०—करना ।—में रहना ।—होना । ४. दूसरे के सौदे सुलुफ में से कुछ रकम अपने लिये निकाल लेना । जैसे,—बाजार से सौदा लाने में नौकर कुछ न कुछ कतरब्योंत करते हैं । ५. हिसाब किताब बैठाना । युक्ति । जोड़तोड़ । जैसे, —ऐसी कतरब्योंत करो कि इतने ही में काम बन जाय ।मुहा०—कतरब्योंत से=हिसाब से समझ बूझकर । सावधानी से । जैसे,—वे ऐसी कतरब्योंत से चलते हैं कि थोड़ी आमदनी में अपनी प्रतिष्ठा बनाए हुए हैं ।
⋙ कतरवाँ
वि० [हिं० कतरना+ वाँ (प्रत्य०)] घुमावदार । औरेबदार । टेढ़ा । तिरछा । यौ०—कतरवाँ चाल=(१) ठेंढ़ी चाल । वक्र गति । (२) अटपटी चाल ।
⋙ कतरवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरवाना+ वाई (प्रत्य०)] कतरवाने की क्रिया । २. कतरवाने की मजदूरी ।
⋙ कतरवाना
क्रि० स० [हिं० कतरना] कतरने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को कतरने में प्रवृत्त करना ।
⋙ कतरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कतरना] १. कटा हुआ टुकड़ा । खंड । जैसे, —तीन चार कतरे सोहन हलुआ खाकर वह चला गया । २. पत्थर का छोटा टुकड़ा जो गढ़ाई में निकलता है ।
⋙ कतरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बड़ी नाव जिसमें माँझी खड़े होकर डाँड़ चलाते हैं । यह पटेले के बराबर लंबी पर उससे कम चैड़ी होती है । इसपर पत्थर आदि लादते हैं ।
⋙ कतरा (३)
संज्ञा पुं० [अ० कतरहू] बूँद । विंदु । उ०—गुज से कुल कतरे से दरिया बन जावै । अपने कों खोए तब अपने को पावै । —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६८ ।
⋙ कतराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतराना] १. कतरने का काम । २. कतरने की मजदूरी ।
⋙ कतराना (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना] १. किसी वस्तु या व्यक्ति को बचाकर किनारे से निकल जाना । जैसे, —वह मुझे देखते ही कतरा जाता है । उ०—अबासी इस मकान पर कतरा के एक गली में जाने लगीं । —फिसाना०, भा० ३, पृ० २९ । २. नाक भौं सिकोड़ना । आपत्ति करना । उ०—कभी इन सादे भावों को भोड़े और ग्राम्य कह कतराएँगे ।—प्रेमघन०, पृ० ३३९ । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ कतरारसाज
संज्ञा पुं० [सं० कतराना +रसा?] खँडरा नाम का पकवान जो बेसन से बनता है ।
⋙ कतरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्तरी=चक्र] १. कोल्हू का पाट जिसपर आदमी बैठकर बैलों को हाँकता है । कातर । २. पीपल का बना हुआ एक ढलबाँ जेवर जिसे नीच जाति का स्त्रियाँ हाथों में पहनती हैं । ३. लकड़ी का बना हुआ एक औजार जिससे राज कारनिस जमाते हैं । यह औजार एक फुट लंबा, तीन इँच चौड़ा और चौछाई इंच मोटा होता है ।
⋙ कतरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना] १. जमी हुई मिठाई का कटा हुआ टुकड़ा । उ०—बादशाह ने कहा डर नहीं है, हर एक एक एक लड्डु और एक एक कतरी माजून की खावे और वहाँ से बाहर आवे ।—हुमायूँ०, पृ० ५४ । २. कतरने या छाँटने का औजार । कैंची ।—(लश०) ।
⋙ कतरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह यंत्र जिसकी सहायता से जहाज पर नावें रखी जाती हैं । (लश०) ।
⋙ कतल
संज्ञा पुं० [अ० क़त्ल] वध । हत्या । क्रि० प्र०—करना । —होना ।
⋙ कतलबाज
संज्ञा पुं० [अ० कत्ल+फा० बाज] बधिक । जल्लाद । संहारक । मारनेवाला । उ०—आई तजिहौं तो ताहि तरनि- तनूजा तीर, ताकि ताकि तारापति तरफति ताती सी । कहै पदमाकर घरीक ही में घनश्याम काम को कतलबाज कुंज ह्वै है काती सी ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कतला
संज्ञा पुं० [देश० या अ० का़तिला] एक प्रकार की मछली जो बड़ी नदियों में पाऊ जाती है । विशेष—इसकी लंबाई छह फुट तक की होती है । यह मछली बड़ी बलबती होती है और पकड़ते समय कभी कभी मछुओं पर आक्रमण करके उन्हें गिरा देती और काट लेती है ।
⋙ कतलाम
संज्ञा पुं० [अ० कतले+ आम] सर्वसाधारण का वध । सबका वध । बिना बिचारे अपराधी, निपराध, छोटे बड़े सबका संहार । सर्वसंहार । उ०—जहा परै कतलाम करै सब नित नव जोबनवारी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४१४ ।
⋙ कतली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना] १. मिठाई पकवान आदि के चौकोर काटे हुए छोटे टुकड़े । २. चीनी की चाशनी में पागे हुए खरबूजे या पोस्त आदि के बीज ।
⋙ कतवाना
क्रि० स० [हिं० कातना का प्रे० रूप] किसी दूसरे से कातने का काम लेना । कातने में लगाना ।
⋙ कतवार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पतवार =पताई] १. कूड़ा करकट । उ०— मैली गली भरी कतवारन । —भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ०३३३ । २. बेकाम की वस्तु । काम में न आने लायक वस्तु ।
⋙ कतवार (२) पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कातना] [स्त्री० कतवारी] कातनेवाला । उ०—मन के मते न चालिए छोड़ि जीव की बानि । कतवारी के सूत ज्यों उलटि अपूठा आनि ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ कतवारखाना
संज्ञा पुं० [हिं० कतवार +फा० खानहू] वह स्थान जहाँ कूड़ा करकट फेंका जाता हो । कूड़ाखाना ।
⋙ कतहुँ पु †
अव्य० [हिं० कत+ हूँ] कहीं । किसी स्थान पर । किसी जगह । उ०—मूँदहु आँखि कतहुँ कोउ नाहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सखि हे कतहुँ न देखि मधाई ।—विद्यापति, पृ० १६४ ।
⋙ कतहूँ पु †
अव्य० [हिं० कतहुँ] दे० 'कतहुँ' ।
⋙ कता
संज्ञा स्त्री० [अ० कतअ] १. बनावट । आकार । उ०—छपन छपा के रवि इव भा के दंड उतंग उड़ाके । विधि कता के बँधे पताके छुँवें जे रवि रथ चाके़ ।—रघुराज (शब्द०) । २. ढंग । वजा । जैसे,—तुम किस कता के आदमी हो । ३. कपड़े की काट छाँट । जैसे,—तुम्हारे कोट की कता अच्छी नहीं हैं । ४. काट । उ०—उलही प्रीति लतासु, इश्क फूल सों डहडही ।—देखन प्रान कता सु, देखत ही जिय रह सही ।— ब्रज० ग्रं०, पृ० १ ।मुहा०—कता करना=कपड़े को किसी नाप के अनुसार काटना । कपड़े को ब्योंतना । जैसे,—दर्जो ने तुम्हारा अंगा कंता किया या नहीं । यौ०—कताकलाम=बात काटना । बात के बीच में बोल बैठना । कता तअल्लुक=संबंधविच्छेद । बिलगाव । कता नजर= संबंध तोड़ लेना । दृष्टि हटा लेना ।
⋙ कताई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कातना] १. कातने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. कातने की मजदूरी । कतौनी ।
⋙ कतान
संज्ञा पुं० [हिं० कत=कतना] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का बहुत बढ़िया कपड़ा जो अलसी की छाल से बनता था । विशेष—यह कपड़ा इतना कोमल होता था कि चंद्रमा की चाँदनी पड़ने से फट जाता था । २. एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा जो प्राय? बनारसी साड़ियों और दुपट्टों में होता है । ३. एक प्रकार का बढ़िया रेशम जिससे काशी शिल्क के कपड़े या बनारसी साड़ियाँ तैयार होती हैं ।
⋙ कताना
क्रि० स० [हिं० कातना का प्रे० रूप] किसी अन्य से कातने का काम कराना । कतवाना ।
⋙ कतार
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पंक्ति । पाँति । श्रेणी । लैना । उ०— कैधों विराट स्वरूप सुवृक्ष पै, मुक्ति मरालनि केरि कतार है ।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ५७९ । २. यूथ । समूह । झुंड । उ०—सुजन सुखारे करे पुणय उजियारे अति पतित कतारे भवसिंधु ते उतारे हैं ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कतारा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कान्तार, प्रा, कंतार] [स्त्री० अल्पा० कतारी] एक प्रकार की लाल रंग की ऊख जो बहुत लंबी होती है । इसका छिलका मोचाऔरगूदा नर्म होता है । इसका गुड बनता है । उ०— ऊख कतारे और पऔढ़े बहुत हुए ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० १७ ।
⋙ कतारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कटारा] इमली का फल ।
⋙ कतारी (१) पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'कतार' । [हिं० कतार+ई (प्रत्य०)] उ०—तैसी भूमि सबै हरियारी । तैसी सीतल बहत बयारी । डोलत कीर कतारी । तैसी दादुर की धुनि न्यारी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० १२४ ।
⋙ कतारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतारा] कतारे की जाति की ईख जो उससे छोटी और पतली होती है ।
⋙ कति पु
वि० [सं०] १. (गिनती में) कितने । उ०—(क) मीत रही तुम्हरे नहि दारा । अब दिखाहिं षोडसहि हजारा । कहहु मीत कुल की कुशलाई । सुना सुवन कति में सुखताई ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) आँचर चीर धरइ हँसि हेरी । नहि नहि वचन भनब कति बेरी ।—विद्यापति०, पृ० ७५ । २. किस कदर (तौल या माप में) । ३. कौन उ०—भरत कीन नृत पद पालन पै राम राय को थतिऊ । राम देव राजा नहिं दूसर इंद्र एक सुर कतिऊ ।—देवस्वामी (शब्द०) । ४. बहुत से । अगणित । उ०—जाहि के उदोत लहि जगमग होत जग जोत के उमंग जामें अनु अनुमाने है । चेत के निचय जाते चेतन अचेत चय, लय के निलय जामें सकल समाने हैं । विशवाधार कति जामें स्थिति है चराचर की, ईति की न गति जामें श्रुति परमाने हैं । ब्रह्मनंदमय ते अनामय अभय अंब तेरे पद मेरे अवलंब ठहराने हैं । —चरण (शब्द०) ।
⋙ कतिक पु †
क्रि० [सं० कति+ एक अथवा सं० कति+क] (प्रत्य०)] १. कितना । कितेक । किस कदर । दे० कितक' । २. थोड़ा । ३. बहुत । ज्यादा । अनेक ।
⋙ कतिधा (२)
क्रि० वि० [सं०] अनेक प्रकार का । बहुत भाँति का । कई किस्म का ।
⋙ कतिधा (२)
क्रि० वि० कई तरह से । अनेक प्रकार से । बहुत भाँति से ।
⋙ कतिपय
वि० [सं०] १. कितने ही । कई एक । २. कुछ थोड़े से । विशेष—संस्कृत में यह सर्वनाम माना गया है । हिंदी में यह संख्यासूचक विशेषण है ।
⋙ कतिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १कैंची । दे० 'काती' । २.छोटी तलवार । कत्ती । उ०—(क) वे पतियाँ लिखि भेजति याँ, मन की छतिया कतिया सी खगी है । —नट०, पृ० ४१ । (ख) मैं सुणी सजन की बतियाँ । मेरे चली कलेजे कतियाँ । —राम० धमं०, पृ०३१ ।
⋙ कती
संज्ञा स्त्री० [हिं० काती] दे० 'कतिया' । उ०—स्वर्ण के खडग्गं, पड़े हत्थ पग्गं । कती धार कैसी, जरी दंत जैसी ।—रा०, रू०, पृ० १९१ ।
⋙ कतीब पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कतेब' । उ०—बहुतक देखा पीर औलिया पढ़े कतीब पुराना ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३३८ ।
⋙ कतीरा
संज्ञा पुं० [देश०] गुलू नामक वृक्ष का गोंद । विशेष—यह खूब सफेद होता है और पानी में घुलता नहीं और गोदों की तरह इसमें लसीलापन नहीं होता । यह बहुत ठंडा समझा जाता है और रक्तविकार तथा धातुविकार के रोगों में दिया जाता है । बोतल में बंद करके रखने से इसमें सिरके की सी गंध आ जाती है ।
⋙ कतील
वि० [अ० क़तील] कत्ल किया गया । निहत । उ०—अब सुन हाल असहाबे फील । किस तरह किया हक उनको कतील ।—दक्खनी०, पृ० २२० ।
⋙ कतूहल पु
संज्ञा पुं० [सं० कुतूहुल] दे० 'कुतुहल' । उ०—ढोलउ मारु एकठा करइ कतूहल केलि ।—ढोला०, दू० ५५५ ।
⋙ कतेक पु †
वि० [सं० कति+ एक] १. कितने । कुछ । २. अनेक । थोड़े से ।
⋙ कतेब पु
संज्ञा स्त्री० [अ० किताब] १. पुस्तक । किताब । २. धर्म ग्रंथ । उ०—बेद कतेब पार नहिं पावत, कहन सुनन सों न्यारा ।—कबीर बा०, पृ० ४७ । (ख) कुरान कतेबा इलस सब पढ़ि करि पूरा होइ । दादू०, पृ० ४७ ।
⋙ कतोहर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुतूहल या कौतूहल] दे० 'कुतूहल' । उ०— चल्यो धरम तब मानसरोवर । बहुत बरष चित करत कतोहर ।—कबीर सा०, पृ० १२४ ।
⋙ कतौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कतावनी] १. कातने की क्रिया या भाव । २. कातने की मजदूरी । ३. किसी काम में अनावश्यक रूप से बहुत अधिक विलंब करना । ४. निरर्थक और तुच्छ काम ।
⋙ कत्तई †
वि० [अ० क़तई] १. दे० 'कतई'— (२) । २. बदमाश ।
⋙ कत्तर
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रियों की चोटी बाँधने की डोरी ।
⋙ कत्तरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्त्तरी] कैंची ।—देशी०, पृ० ३० ।
⋙ कत्तल
संज्ञा पुं० [हिं० कतरा] १. कटा हुआ टुकड़ा । २. पत्थर का छोटा टुकड़ा जो गढ़ाई में निकलता है । यौ०—कत्ताल का बघार=किसी तरल पदार्थ को पत्थर या इँट के तपाए हुए टुकड़े से छौंकना ।
⋙ कत्ता
संज्ञा पुं० [सं० या कर्तृ का बृहदार्थक रूप] १. बँसफोरों का एक औजार जिससे वे लोग बाँस वगैरह काटते या चीरते हैं । बाँका । बाँक । २. छोंटी टेढ़ी तलवार उ०—चौकत चकता जाके कत्ता के कराकनि सो सेल की सराकनि न कोऊ जुरे जंग है ।—सूदन (शब्द०) । ३. (चौपड़ का) पासा । कबतैन ।
⋙ कत्तार पु
संज्ञा स्त्री० [अ० क़तार] दे० 'कतार' । उ०—सैपंच दिन्न अति उंट अच्छ । कत्तार भार फक्कार कच्छ ।—पृ० रा०, ३ । ११ ।
⋙ कत्तारी
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले आकार का एक प्रकार का सदा- बहार वृक्ष । कत्तावा । वेशेष—यह हिमालय में हजारा से कुमाऊँ तक, ५००० फुट की ऊँचाई तक, और कहीं कहीं छोटा नागपुर और आसाम में भी पाया जाता है । इसकी टहनियाँ बहुत लंबी औऱ कोमल होती है और इसके पत्ते प्राय? एक बालिश्त लंबे होते हैं । इसके फूल, जो जाड़े में फूलते है, मधुमक्खियों के लिये बहुत आकर्षक होते हैं ।
⋙ कत्ताल
वि० [अ० कत्ताल] १. बहुत अधिक कतल करनेवाला । जल्लाद । उ०—रही ताबो ताकत न कत्ताल की । चला भाग तब काल पत्ताल को ।—कबीर मं०, पृ० ६८ । २. माशूक । प्रेमपात्र [को०] ।
⋙ कत्तावा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कत्तारी' ।
⋙ कत्तिन
संज्ञाल स्त्री० [हिं० कातना] कातने का काम करनेवाली । उ०—चाची जैसी कत्तिनों के सूत को कभी तो एक सौ दस नंबर का करार देते हैं ।—रति०, पृ० ९९ ।
⋙ कत्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्तरी] १. चाकू । छुरी । २. छोटी तलवार । ३. कटारी । पेशक । ४. सोनारों की कतरनी । ५. वह पगड़ी जो कपड़े को बत्ती के हमान बटकर बाँधी जाती है । उ०—कत्ती बटि कसीं पाग कत्ती सिर टेढ़ी लसै बढ़ी मुख रत्ती ऐसे पत्ती जदुपति के ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ कत्तेब पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कत्तेब] दे० 'कतेब' । २. उ०—कोइ वेद मस्त कत्तेब मस्त कोइ मक्के में कोइ काशी में ।—राम० धर्म०, पृ० ९५ ।
⋙ कत्थ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कत्था] कसेरे की स्याही । लोहे की स्याही ।—(रँगरेज) । विशेष—१५ सेर पानी में आध सेर गुड़ या शक्कर मिलाकर घड़े में रख देते हैं । फिर उस घड़े में कुछ लोहचून छोड़कर उसे धुप में उठने के लिये रख देते हैं । थोड़े दिनों में यह उठने लगता है और मुँह पर गाज जमा है, तब यह पक्का हो जाता है और रँगाई के काम के योग्य हो जाता है । इसे लोहे की स्याही—मायल भूरे रंग का हो जाता है, तब यब पक्का हो जाता है और रँगाई के काम के योग्य हो जाता है । इसे लोहे की स्याही कहते हैं ।
⋙ कत्थ (२)
संज्ञा पुं० [सं० कथा] कथा । बात । चर्चा ।उ०—तब बोल्यो दुजराज विचारं । सुनि ससिवृत कत्थ इक सारं ।—पृ० रा०, २५ । ७६ ।
⋙ कत्थई
वि० [हिं० कत्था> कत्थ+ई (प्रत्य०)] खैर के रंग का । खैरा (रंग) । विशेष—यह रंग हर्रे, कसीस, गेरू, कत्थे और चूने से बनता है । इसमें खटाई या फिटकरी का बोर नहीं दिया जाता ।
⋙ कत्थक
संज्ञा पुं० [सं० कथक] १. जाति जिसका काम गाना, बजाना और नाचना है ।२ नृत्य की एक शैली ।उ०—कत्थक हो या कथकली या बालडांस ।—कुकुर०, पृ० १० ।
⋙ कत्थन
संज्ञा पुं० [सं०] डींग मारना [को०] ।
⋙ कत्थना
संज्ञा स्त्री० [सं०] डींग [को०] ।
⋙ कत्था
संज्ञा पुं० [सं० क्वाथ] १. खैर के पेड़ की लकड़ियों को उबालकर निकाला हुआ रस जिसे जमाकर कतरे काटते हैं । ये कतरे पान में खाए जाते हैं । वि० दे० 'खैर' ।२. खैर का पेड़ । कथकीकर ।
⋙ कत्थित
वि० [सं०] डींग में कथित [को०] ।
⋙ कत्थितव्य
वि० [सं०] अभिमान के साथ कथन योग्य [को०] ।
⋙ कत्ल
संज्ञा पुं० [अ० क़त्ल] दे० 'कतल' ।
⋙ कत्ल—आम
संज्ञा पुं० [अ० कत्ल आम] सब लोगों की वह हत्या जो बिना किसी छोटे बड़े या अपराधी का विचार किए की जाय ।
⋙ कत्सवर
संज्ञा पुं० [सं०] कंधा [को०] ।