विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/प्रि
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ प्रिंटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो किसी छापेखाने में रहकर छापने का काम करता हो। मुद्रण करनेवाला। छापनेवाला। २. वह जो किसी छापेखाने में छपनेवाली चीजों की छपाई का जिम्मेदार हो। मुद्रक।
⋙ प्रिंटिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] छापने का काम। छापाई। मुद्रण।
⋙ प्रिंटिंग इंक
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह स्याही जो प्रेस में सीसे के टाइप (अक्षर) से छापने के काम में आती है। टाइप के छापने की स्याही। यह कच्ची और पक्की दो प्रकार की तथा अनेक रंगों की होती है।
⋙ प्रिंटिंग प्रेस
संज्ञा स्त्री० [अं०] सीसा आदि धातु के ढले हुए या लकड़ी के अक्षर या टाइप छापने की वह कल जो हाथ से चलाई जाती है। हैंड प्रेस। दे० 'प्रेस'।
⋙ प्रिंटिग मशीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] सीसे धातु के अक्षर या टाइप छापने की वह कल जो साधारण हाथ की कल की अपेक्षा बहुत अधिक काम करती है और जो हाथ तथा इंजिन दोनों से चलाई जा सकती है। दे० 'प्रेस'।
⋙ प्रिंस
संज्ञा पुं० [अं०] १. राजा। नरेश। २. युवराज। राज- कुमार। शाहजादा। ३. राजपरिवार का कोई व्यक्ति। ४. सरदार। सामंत।
⋙ प्रिंस आफ वेल्स
संज्ञा पुं० [अं०] इंगलैड के राजा के ज्येष्ठ पुत्र की पदवी। इंगलैड का युवराज।
⋙ प्रिंसिपल
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी बडे़ विद्यालय या कालिज आदि का प्रधान अधिकारी। प्रधानाचार्य। २. वह मूल धन जो किसी को उधार दिया गया हो और जिसके लिये ब्याज मिलता हो।
⋙ प्रिआ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रिया] दे० 'प्रिया'। उ०— अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्वदा संकर प्रिआ।—मानस, १। ९८।
⋙ प्रिथिमी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पृथ्वी] पृथ्वी। जमीन। उ०— जों नहिं सीस पेम पथ लावा। सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ प्रियंकर (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रियङ्कर] एक दानव का नाम।
⋙ प्रियंकर (२)
वि० १. दया दिखानेवाला। २. स्नेह करनेवाला। स्नेहवान। ३. अनुकूल [को०]।
⋙ प्रियंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियङ्करी] १. सफेद कटेरी। २. बड़ी जीवंती। ३. असगंध।
⋙ प्रियंकार
वि० [सं० प्रियङ्कार] दे० 'प्रियंकार' [को०]।
⋙ प्रियंगु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियङ्गु] १. कँगनी नाम का अन्न। २. राजिका। ३. पिप्पली। पीपल। ४. कुटकी। ५. राई।
⋙ प्रियंगू
संज्ञा पुं० [सं० प्रियङ्गु] दे० 'प्रियंगु'।
⋙ प्रियंदद
वि० [सं० प्रियन्दद] प्रिय वस्तु देनेवाला। ईँप्सित वस्तु देनेवाला [को०]।
⋙ प्रियंवद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेचर। आकाशचारी। पक्षी। २. एक गंधर्व का नाम।
⋙ प्रियंवद (२)
वि० [स्त्री० प्रियंवदा] प्रिय वचन कहनेवाला। मीठा बोलनेवाला। प्रियभाषी।
⋙ प्रियंवदा
संज्ञा [स्त्री०] १. अभिज्ञान शाकुंतल में शकुंतला की एक सखी। २. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नगण, भगण, जगण और रगण (/?/) होता है और ४-४ पर यति होती है। जैसे—न भज रे हरिजु सों कबौं नरा। जिहि भजै हर विधी सुनिर्जरा।
⋙ प्रिय (१)
पुं० [सं०] [स्त्री० प्रिया] १. स्वामी। पति। २. जामाता। जँवाई। दामाद। कन्या का पति। ३. कार्तिकेय। स्वामि कार्तिक। ४. एक प्रकार का हिरन। ५. जीवक नाम की औषधि। ६. ऋद्धि। ७. धर्मात्मा और मुमुक्षुओं को प्रसन्न करनेवाला और सबकी कामना पूरी करनेवाला, ईश्वर। ८. कँगनी। ९. हित। भलाई। १०. बेंत। ११. हरताल। १२. धारा कदंब।
⋙ प्रिय (३)
१. जिससे प्रेम हो। प्यारा। २. जो भला जान पडे़। मनोहर। ३. महँगा। खर्चीला (को०)।
⋙ प्रियक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीतसालक। पियासाल नाम का वृक्ष। २. कदम का पेड़। ३. कँगनी नामक अन्न। ४. केसर। ५. धारा कदंब। ६. चितकबरा हिरन जिसके रोएँ रंग- बिरंगे, मुलायम, बडे़ और चिकने होते हैं। चित्र मृग। ७. शहद की मक्खी। ८. भ्रमर। भौंरा (को०)। ९. एक पक्षी।
⋙ प्रियकर
वि० १. आनंद देनेवाला। २. हितकर [को०]।
⋙ प्रियकलत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पति जो अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हो [को०]।
⋙ प्रियकांक्षी
वि० [सं० प्रियकाङ्क्षिन्] भाल चाहनेवाला। हितकारी। शुभाभिलाषी।
⋙ प्रियकाम
संज्ञा पुं० [सं०] भला चाहनेवाला। हितकारी। शुभ- चिंतक।
⋙ प्रियकारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रियकाम'।
⋙ प्रियकारी (१)
वि० [सं० प्रियकारिन्] दयापूर्ण व्यवहार करनेवाला।
⋙ प्रियकारी (२)
संज्ञा पुं० १. मित्र। २. हितकारी [को०]।
⋙ प्रियकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रिय करनेवाला मित्र। २. विष्णु का एक नाम।
⋙ प्रियजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सगा संबंधी। २. प्रिय व्यक्ति।
⋙ प्रियजात
देश० पुं० [सं०] अग्नि का एक नाम।
⋙ प्रियजानि
पुं० [सं०] दे० 'प्रियकलत्र' [को०]।
⋙ प्रियजीव
संज्ञा पुं० [सं०] सोनापाठा।
⋙ प्रियतम (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रियतमा] सबसे अधिक प्यारा। प्राणों से भी बढ़कर प्रिय।
⋙ प्रियतम (२)
संज्ञा पुं० १. स्वामी। पति। २. प्यारा। अत्यंत प्रिय व्यक्ति। ३. मोरशिखा नाम का वृक्ष।
⋙ प्रियतमता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियतम + ता (प्रत्य०)] अतीव प्रियता। अत्यंत प्रिय होने का भाव। उ०— नूतन प्रियता का प्रियतमता समता नूतन।—अपरा, पृ० २१२।
⋙ प्रियतमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी। २. प्रिया [को०]।
⋙ प्रियतमा (२)
वि० सबसे अधिक प्यारी। अत्यंत प्रिय (स्त्री)।
⋙ प्रियतर
वि० [सं०] अत्यंत प्रिय [को०]।
⋙ प्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रिय होने का भाव।
⋙ प्रियतोषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे प्रिय संतुष्ट हो। २. एक प्रकार का रतिबंध।
⋙ प्रियत्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्रिय होने का भाव।
⋙ प्रियद
वि० [सं०] जो प्रिय वस्तु दे।
⋙ प्रियदत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
⋙ प्रियदर्श
वि० [सं०] दे० 'प्रियदर्शन'।
⋙ प्रियदर्शन (१)
वि० [सं०] [स्त्री० प्रियदर्शना] जो देखने में प्यारा लगे। शुभदर्शन। सुंदर।
⋙ प्रियदर्शन (२)
संज्ञा पुं० १. खिरनी का पेड़। २. तोता। ३. एक गंधवं का नाम।
⋙ प्रियदर्शी (१)
वि० [सं० प्रियदर्शीन्] सबको प्रिय देखने या समझनेवाला। सबसे स्नेह करनेवाला। मनोहर।
⋙ प्रियदर्शी (२)
संज्ञा पुं० अशोक की एक उपाधि। अशोक का नाम।
⋙ प्रियदेवन
वि० [सं०] द्यूतक्रीड़ा का प्रेमी। जिसे जुए से प्रेम हो [को०]।
⋙ प्रियधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० प्रियधन्वन्] शिव।
⋙ प्रियनिवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] सुसमाचार [को०]।
⋙ प्रियपात्र
वि० [सं०] जिसके साथ प्रेम किया जाय। प्रेमपात्र। प्यारा।
⋙ प्रियबादिनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियवादिनी] राजवल्ली। उ०— अंबिष्टा प्रियबादिनी, राजपुत्रिका आहि।—नंद० ग्रं०, पृ० १०५।
⋙ प्रियब्रत पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रियव्रत] प्रियव्रत। उ०— मतिराम कहत प्रियब्रत प्रताप मैं, प्रबल बल पृथु, पारथहि वारौं पन मैं।—मति० ग्रं०, पृ० ३७३।
⋙ प्रियभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] मधुर वचन बोलना। ऐसी बात कहना जो प्रिय लगे।
⋙ प्रयभाषी
वि० [सं० प्रियभाषिन्] [स्त्री० प्रियभाषिनी] मधुर वचन बोलनेवाला। मीठी बात कहनेवाला।
⋙ प्रियमंडन
वि० [सं० प्रियमण्डन] जिसे आभूषण, शृंगार प्रिय हो [को०]।
⋙ प्रियमधु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलराम का एक नाम। २. वह जिसे मदिरा प्यारी हो (को०)।
⋙ प्रियमेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। २. भागवत के अनुसार अजमीढ़ के एक पुत्र का नाम।
⋙ प्रियरण
वि० [सं०] युद्धप्रिय। वीर [को०]।
⋙ प्रियरूप
वि० [सं०] मनोहर। सुंदर।
⋙ प्रियल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियवल्ली] दे० 'प्रियवर्णी'।
⋙ प्रियवक्ता
वि० [सं० प्रियवक्तृ] १. प्रिय वचन बोलनेवाला। मधुर- भाषी। २. चापलूस (को०)।
⋙ प्रियवचन (१)
वि० [सं०] मीठी बात करनेवाला। मधुरभाषी।
⋙ प्रियवचन (२)
संज्ञा पुं० १. कृपापूर्ण शब्द। २. प्रिय लगनेवाली बात [को०]।
⋙ प्रियवर
वि० [सं०] अति प्रिय। प्यारों में श्रेष्ठ। सबसे प्यारा। विशेष— इसका व्यवहार प्रायः पत्रों आदि में संबोधन के रूप में होता है।
⋙ प्रियवर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कँगनी नाम का अन्न।
⋙ प्रियवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियवर्णी [को०]।
⋙ प्रियवादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी [को०]।
⋙ प्रियवादिन्
वि० स्त्री० [सं०] मधुर बोलनेवाली।
⋙ प्रियवादी
संज्ञा पुं० [सं० प्रियवादिन्] [स्त्री० प्रियवादिनी] प्रिय बोलनेवाला। मधुरभाषी। मीठा बोलनेवाला।
⋙ प्रियव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र का नाम जो उत्तानपाद का भाई था। पुराणों के अनुसार इसके रथ दौड़ाने से पृथ्वी में जो गड्ढे हुए, वे ही पीछे समुद्र हो गए। २. वह जिसे व्रत प्रिय हो।
⋙ प्रियशालक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियासाल।
⋙ प्रियश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० प्रियश्रवस्] परमेश्वर का एक नाम।
⋙ प्रियसंगमन
संज्ञा पुं० [सं० प्रियसङ्गमन्] १. वह स्थान जहाँ प्रिय और प्रिया का मिलन हो। अभिसार का स्थान। संकेत स्थान। २. वह स्थान जहाँ अदिति और कश्यप का मिलन हुआ था।
⋙ प्रियसंदेश
संज्ञा पुं० [सं० प्रियसन्देश] १. खुशखबरी। अच्छा सँदेसा। २. चंपा का पेड़।
⋙ प्रियसंप्रहार
वि० [सं० प्रियसम्प्रहार] मुकदमा लड़ने का शौकीन। मुकदमेबाज [को०]।
⋙ प्रियसख
संज्ञा पुं० [सं०] १. खैर का पेड़। २. प्रिय मित्र (को०)।
⋙ प्रियसत्य
वि० [सं०] १. जिसे सत्य प्रिय हो। २. सत्य होने पर भी प्रिय [को०]।
⋙ प्रियसालक
संज्ञा पुं० [सं०] पियासाल नामक वृक्ष।
⋙ प्रियसुहृद्
संज्ञा पुं० [सं०] अंतरंग मित्र। दिली दोस्त [को०]।
⋙ प्रियस्वप्न
वि० [सं०] १. जिसे निद्रा प्रिय हो। २. आलस्ययुक्त। आलसी [को०]।
⋙ प्रियांबु
संज्ञा पुं० [सं० प्रियाम्बु] १. आम का पेड़। २. आम का फल। ३. वह जिसे जल बहुत प्रिय हो।
⋙ प्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नारी। स्त्री। २. भार्या। पत्नि। जोरू। ३. इलायची। ४. मल्लिका। चमेली। ५. मदिरा, शराब। ६. प्रेमिका स्त्री। माशूका। ७. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्यक चरण में रगण (/?/) होता है, इसका दूसरा नाम मृगी है। ८. १४ मात्रा का एक छंद। जैसे, तब लंकनाथ रिसाय कै। ९. कँगनी। १०. समाचार। खबर (को०)।
⋙ प्रियाख्य
वि० [सं०] प्रिय। प्यारा।
⋙ प्रियाख्यान
संज्ञा पुं० [सं०] सुखद समाचार। शुभ समाचार [को०]।
⋙ प्रियातिथि
वि० [सं०] अतिथि का आदर सत्कार करनेवाला [को०]।
⋙ प्रियात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] चरक के अनुसार पसह जाति का एक पक्षी।
⋙ प्रियात्मा
संज्ञा पुं० [सं० प्रियात्मन्] वह जिसका चित्त उदार और सरल हो।
⋙ प्रियान्न
संज्ञा पुं० [सं०] महँगा खाद्य पदार्थ [को०]।
⋙ प्रियापाय
संज्ञा पुं० [सं०] प्रिय वस्तु की हानि। प्रिय वस्तु का विश्लेष या अभाव [को०]।
⋙ प्रियाप्रिय (१)
वि० [सं०] प्रिय और अप्रिय। रुचिकर और अरुचिकर (भावना आदि)।
⋙ प्रियाप्रिय (२)
संज्ञा पुं० अनुकूलता और प्रितकूलता। हित और अहित [को०]।
⋙ प्रियार्ह (१)
वि० [सं०] १. प्रेम या कृपा के योग्य। २. सुशील। सुप्रिय [को०]।
⋙ प्रियार्ह (२)
संज्ञा पुं० विष्णु [को०]।
⋙ प्रियाल
संज्ञा पुं० [सं०] चिरौंजी का पेड़। प्रियाल।
⋙ प्रियाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाख। द्राक्षा।
⋙ प्रियाव पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय + हिं० आव(=आना)] आमंत्रण युक्त संबोधन। हे प्रिय, तूँ आ। उ०—वावहियउ नइ विरहिणी, दूहुवाँ एक सहाव। जव ही बरसाइ घण घणउ, तबही कहइ प्रियाव।—ढोला०, दू० २७।
⋙ प्रियासु
वि० [सं०] जिसे प्राण प्रिय हो। जिसे जीवन प्रिय हो [को०]।
⋙ प्रियाह् वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कँगनी नामक अन्न।
⋙ प्रियैषी
वि० [सं० प्रियैषिन्] १. प्रिय की इच्छा करनेवाला। २. किसी को प्रसन्न करने या किसी की सेबा करने का इच्छुक। २. मैत्रीपूर्ण। स्नेहपूर्ण [को०]।
⋙ प्रियोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाटुकारिता से भरी उक्ति। प्रिय लगनेवाली बात। चापलूसी [को०]।
⋙ प्रियविलेज लीव
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह छुट्टी जो, सरकारी तथा किसी गैर सरकारी संस्था या कंपनी के नौकर, कुछ निर्दिष्ट अवधि तक काम कर चुकने के बाद, पाने के अधिकारी या हकदार होते हैं।
⋙ प्रिवीकौंसिल
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी बडे़ शासक को शासन के काम में सहायता देनेवाले कुछ चुने हुए लोगों का वर्ग। २. इंगलैंड में वहाँ के राजा को परामर्श देनेवालों का वर्ग या परिषद्। विशेष— इसका संगठन १५ वीं शताब्दी में हुआ था। इस वर्ष में या तो कुछ पुराने पदाधिकारी और या राजा के चुने हुए कुछ लोग रहते हैं। आजकल इसमें राजकुल से संबंध रखनेवाले लोग, बड़े बड़े सरकारी कर्मचारी, रईस और पादरी आदी संमिलित हैं, जिनकी संख्या २०० से ऊपर है। इस वर्ग के दो विभाग हैं। एक विभाग शासनकार्य में राजा को परामर्श देता है जिनके नाम के साथ राइट आनरेबुल की उपाधि रहती है, और दूसरे विभाग में न्याय विभाग के सर्वप्रधान कर्मचारी होते हैं। कौंसिल का यह दूसरा विभाग अपील के काम के लिये अँगरेजी राज्य भर में अंतिम न्यायालय है और यहीं अंतिम निर्णय होता है। शासन कार्यों में अब प्रिवी कौंसिल का विशेष महत्व नहीं रह गया और उसका स्थान प्रायः मंत्रिमंडल ने ले लिया है।
⋙ प्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रीति। प्रेम। २. कांति। चमक। ३. इच्छा। ४. तृप्ति। ५. तर्पण।
⋙ प्री (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'प्रियतम'। उ०— बलि मालवणी बीनवइ, हुँ प्री दासी तुझ्झ। का चिंता चित अंतरे सा प्री दाखउ मुझ्झ।— ढोला०, दू० २३६।
⋙ प्रीअंक
संज्ञा पुं० [सं० प्रियक] कदंब। कदम। (अनेकार्य०)।
⋙ प्रीऊ पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] प्रियतम। प्यारा। उ०— बाबहिया निलपंखिया बाढत दइ दइ लूण। प्रिउ मेरा मइँ प्रीउ की तूँ प्रिउ कहइ स कूण।—ढोला०, दू० ३३।
⋙ प्रीछित पु †
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित] दे० 'परीक्षित'।
⋙ प्रीण
वि० [सं०] १. पुराना। २. पहले का। पूर्ववर्ती। ३. जो प्रसन्न हो। प्रीतियुक्त।
⋙ प्रीणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसन्न करना। २. वह जो संतोष दे या प्रसन्न करे [को०]।
⋙ प्रीणस
संज्ञा पुं० [सं०] गैंड़ा। खङ्गी [को०]।
⋙ प्रीणित
वि० [सं०] प्रसन्न। हर्षयुक्त [को०]।
⋙ प्रीत (१)
वि० [सं०] प्रीतियुक्त। प्रसन्न। हर्षित। तुष्ट।
⋙ प्रीत (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रीतिः] दे० 'प्रीति'। उ०— कठिन पडे़ सुख दुख सहै, प्रीत निभावै ओर।—धरम० श०, पृ० ७९।
⋙ प्रीतडी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० प्रीत + डी (प्रत्य०)] प्रीति। स्नेह। उ०— परब्रह्म सौं प्रीतडी सुंदर सुमिरन सार।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७८।
⋙ प्रीतम
संज्ञा पुं० [सं० प्रियतम] १. पति। भर्ता। स्वामी। उ०— ढाढी जइ प्रीतम मिलइ यूँ दाखविया जाइ।— ढोला०, दू० ११८। २. वह जिससे प्रेम या स्नेह हो। प्वारा। उ०— सुरत सज मिली जहाँ प्रीतम प्यारा।—तुरसी श०, पृ० २१। यौ०— प्रीतम गवनी = दे० 'प्रवत्स्यत्पतिका'। उ०— चित हीचित चिंता परि लहिए। सो तिय प्रीतमगवनी कहिए।— नंद० ग्रं०, पृ० १५८।
⋙ प्रीतमा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रियतमा] प्रेमिका। प्रियतमा। उ०— मानस भएउ प्रीतमा ठाऊँ। भूलि गएउ सुमिरन औ नाऊँ।— इंद्रा०, पृ० १६३।
⋙ प्रीतात्मा
संज्ञा पुं० [सं० प्रीतात्मन्] शिव का एक नाम।
⋙ प्रीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह सुख जो किसी इष्ट वस्तु को देखने या पाने से होता है। तृप्ति। २. हर्ष। आनंद। प्रस- न्नता। ३. प्रेम। स्नेह। प्यार। मुहब्बत। ४. मध्यम स्बर की चार श्रुतियों में से अंतिम श्रुति। ५. काम की एक पत्नी का नाम जो रति की सौत थी। विशेष— कहते हैं कि किसी समय अनंगवती नाम की एक वेश्या थी जो साघ में विभूतिद्वादशी का विधिपूर्वक व्रत करने के कारण दूसरे जन्म में कामदेव की पत्नी हो गई थी। मत्स्य पुराण में इसका आख्यान है। ६. फलित ज्योतिष के २७ योगों में से दूसरा योग। विशेष— इस योग में सब शुभ कर्म किए जाते हैं। इस योग में जन्म ग्रहण करने से मनुष्य नीरोग, सुखी, विद्वान् श्रौर धनवान् होता है। ७. कृपा। दया (को०)। ८. अभिलाषा। आकांक्षा। वांच्छा। (को०)। ९. अनुकूलता। सख्य। हितबुद्धि (को०)। १०. अनुरंजन। प्रसादन (को०)।
⋙ प्रीतिकर
वि० [सं०] प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। प्रेमजनक।
⋙ प्रातिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० प्रीतिकर्मन्] मैत्री अथवा प्रेम का कार्य। कृपापूर्ण कार्य।
⋙ प्रीतिकारक
वि० [सं०] दे० 'प्रीतिकर'।
⋙ प्रीतिकारी
वि० [सं० प्रीतिकारिन्] दे० 'प्रीतिकर'।
⋙ प्रीतिजुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनिरुद्ध की पत्नी उषा का नाम।
⋙ प्रीतितृट्
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रीतितृष्] कामदेव का एक नाम [को०]।
⋙ प्रीतिद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विदूषक। भाँड़।
⋙ प्रीतिद (२)
वि० सुख या प्रेम उत्पन्न करनेवाला।
⋙ प्रीतिदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेमपूर्वक दिया हुआ दान। २. वह पदार्थ जो सास अथवा ससुर अपने पुत्र या पुत्रवधू को, या पति अपनी पत्नी को भोग के लिये दे।
⋙ प्रीतिदान
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम या मैत्राविश दिया हुआ उपहार। प्रमोपहार (को०)।
⋙ प्रीतिदाय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रीतिदान'।
⋙ प्रीतिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] जिसके साथ प्रीति की जाय। प्रेमभाजन। प्रेमी।
⋙ प्रीतिभोज
संज्ञा पुं० [सं०] वह भोज या खान पान जिसमे मित्र और बंधु आदि प्रेमपूर्वक संमिलित हों।
⋙ प्रीतिमान्
वि० [सं० प्रीतिमत्] १. प्रेम रखनेवाला। जिसमें प्रेम हो। २. प्रसन्न। हर्षित (को०)। ३. अनुकूल (को०)।
⋙ प्रीतिय
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेम।
⋙ प्रीतिरीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेमपूर्ण व्यवहार। षरस्पर का प्रेम संबंध। प्रणयभाव।
⋙ प्रीतिवर्द्धन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
⋙ प्रीतिवर्द्धन (२)
वि० प्रेम बढ़ानेवाला। आनंदवर्धक।
⋙ प्रीतिबर्धन
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'प्रीतिवर्द्धन'।
⋙ प्रीतिविवाह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम के आधार पर होनेवाला विवाह। प्रेम विवाह [को०]।
⋙ प्रीतिस्निग्ध
वि० [सं०] प्रेम के कारण आर्द, जैसे, आँखें [को०]।
⋙ प्रीती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रीति] दे० 'प्रीति'। उ०— तिनकी तुम भाव प्रीती सहित सेवा करियो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७६।
⋙ प्रीत्पर्थ
अब्य० [सं०] १. प्रीति के कारण। प्रसन्न करने के वास्ते। जैसे, विष्णु के प्रीत्यर्थ दान करना। २. लिये। वास्ते।
⋙ प्रीमियम
संज्ञा पुं० [अं०] वह रकम जो जीवन या दुर्घटना आदि का बीमा कराने पर उस कंपनी को, जिसके यहाँ बीमा कराया गया हो, निश्चित समयों पर दी जाती है। किश्त। विशेष— 'दे० बीमा'।
⋙ प्रीमियर
संज्ञा पुं० [अं०] प्रधान मंत्री। बजीर आजम।
⋙ प्रीय पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'प्रिय'। उ०— उद्दित अधान सुभ गातनह जेम जलधि पुन्निम बढहि। हुलसंत हीय जे प्रीय त्रिय जिम सुजोति जनिता चढहि।— पृ० रा०, १। ६८४।
⋙ प्रीव पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'प्रिय'। उ०— पंच सखी मीली बइठी छई आई। निगुणी ! गुण होई तो प्रीव क्युं जाई।— बी० रासो, पृ० ३८।
⋙ प्रुषित
वि० [सं०] १. सिक्त। सिंचित। प्रोक्षित। २. तापक। दाहक। ज्वलित [को०]।
⋙ प्रुष्ट
वि० [सं०] जला हुआ। जो जल गया हो। दग्ध।
⋙ प्रुष्व पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्षा ऋतु या काल। २. सूर्य। ३. शिर। ४. जट की बूँद [को०]।
⋙ प्रुष्व (२)
वि० तप्त। ऊष्म। गरम [को०]।
⋙ प्रूफ
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी बात को ठीक ठहराने के लिये दिया जानेवाला प्रमाण। सबूत। २. किसी छपनेवाली चीज का वह नमूना जो उसके छपने से पहले अशुद्धियाँ आदि डूर करने के लिये तैयार किया जाता है। ३. किसी वस्तु का असर होने से पूरा बचाव। विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के उत्तर पद के रूप में हुआ करता है। जैसे, वाटर प्रूक, फायर प्रूफ आदि। वाटर प्रूफ से ऐसे पदार्थ का वोध होता है जिसके संबंध में इस बात की परीक्षा हो चुकी होती है कि उसपर जल नहीं ठहर सकता अथवा जल का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। जैसे, बाटरप्रूफ कपड़ा। इसी प्रकार फायर प्रूफ ऐसेपदार्थ को कहते हैं जिसकी अग्नि का प्रकोप सहन करने की परीक्षा हो चुकी होती है। जैसे, लोहे का फायर प्रूफ संदूक, प्रूफ, चिमनी, इमारत का फायर प्रूफ सामान।
⋙ प्रूफरीडर
संज्ञा पुं० [अं० प्रूफ + रीडर] प्रूफ को पढ़कर अशुद्धियाँ दूर करनेवाला। प्रूफ पाठक। प्रूफ शोधक।
⋙ प्रूम
संज्ञा पुं० [?] सीसे आदि का बना हुआ लट्टू के आकार का वह यंत्र जिसे समुद्र में डुबाकर उसकी गहराई नापते हैं। विशेष— यह रस्सी के एक सिरे में, जिसपर नाप के निशान लगे होते हैं, बाँधकर समुद्र में डाला जाता है। और इस प्रकार उसकी गहराई नापी जाती है। कभी कभी इसके नीचे के अंश में कुछ ऐसी व्यवस्था रहती है जिससे समुद्र की तह के कुछ कंकड़ पत्थर, बालू या घोंघे आदि भी उसके साथ लगकर ऊपर चले आते हैं जिससे समुद्र की गहरहाई के साथ ही साथ इस बात का भी पता लग जाता है कि यहाँ की नीचे की जमीन कैसी है।
⋙ प्रेंख (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेङ्ख] १. झूलना। पेंग लेना। २. एक प्रकार का सामगान।
⋙ प्रेंख (३)
वि० १. जो काँप रहा हो। २. हिलता या झूलता हुआ।
⋙ प्रेंखण
संज्ञा पुं० [सं० प्रेंङ्खण] १. अच्छा तरह हिलना या झूलना। २. झूला जिस पर झूलते हैं। ३. अठारह प्रकार के रूपकों में से एक प्रकार का रूपक। विशेष— इस खपक में सूत्रधार, विष्कंभक और प्रवेशक आदि की आवश्यकता नहीं होती और इसका नायक नीच जाति का हुआ करता है। इसमें प्ररोचना और नांदी नेपथ्य में होता है और यह एक अंक में समाप्त होता है। इसमें वीररस की प्रधानता रहती है।
⋙ प्रेंखणकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेङ्खणकारिका] नाचनेवाली। नर्तकी [को०]।
⋙ प्रेंखा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेङ्खा] १. हिलना। २. झूलना। झूला। ३. यात्रा। भ्रमण। ४. नृत्य। नाच। ५. एक प्रकार का गृह (को०)। ६. घोडे़ की चाल।
⋙ प्रेंखित
वि० [सं० प्रेङ्खित] झूला हुआ। काँपा हुआ [को०]।
⋙ प्रेंखोल
संज्ञा पुं० [सं० प्रेङ्खोल] दे० 'प्रेखोलन' [को०]।
⋙ प्रेंखोलन
संज्ञा पुं० [सं० प्रेङ्खोलन] १. झूलना। २. हिलना। ३. काँपना।
⋙ प्रेक्षक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] देखनेवाला। दर्शक।
⋙ प्रेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख। २. देखने की क्रिया। ३. दृश्य। नजारा (को०)। ४. खेल, तमाशा, अभिनय आदि (को०)।
⋙ प्रेक्षणक
संज्ञा पुं० [सं०] दृष्टिविषय। दृश्य। प्रदर्शन [को०]।
⋙ प्रेंक्षणकूट
संज्ञा पुं० [सं०] आँक की पुतली। आँख का डेला [को०]।
⋙ प्रेक्षणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तमाशा देखने की शौकिन स्त्री [को०]।
⋙ प्रेंक्षणीय
वि० [सं०] १. देखने के योग्य। दर्शनीय। २. देखने में सुंदर। ३. विचार योग्य। विचारणीय (को०)।
⋙ प्रेक्षणीयक
संज्ञा पुं० [सं०] दृश्य। नजारा [को०]।
⋙ प्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देखना। २. नाच तमाशा देखना। ३. दृश्य। नजारा (को०)। ४. कोई भी नाटक तमाशा आदि (को०)। ५. किसी विषय की अच्छी और बुरी बातों का विचार करना। ६. दृष्टि। निगाह। ७. वृक्ष की शाखा। डाल। ८. शोभा। ९. प्रज्ञा। बुद्धि।
⋙ प्रेक्षाकारी
वि० [सं० प्रेक्षाकारिन्] विचार कर काम करनेवाला। विवेकशील [को०]।
⋙ प्रेक्षागार
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजाओं आदि के मंत्रणा करने का स्थान। मंत्रणागृह। २. प्रेक्षागृह।
⋙ प्रेक्षागृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजाओं आदि के मंत्रणा करने का स्थान। मंत्रणागृह। २. थियेटर या नाट्य मंदिर में वह स्थान जहाँ दर्शक लोग बैठकर अभिनय देखते हैं। नाटयशाला में दर्शकों के बैठने का स्थान।
⋙ प्रेक्षाप्रपंच
संज्ञा पुं० [सं०] रूपक का अभिनय। नाटक।
⋙ प्रेक्षावान्
वि० [सं० प्रेक्षावत्] ज्ञानी। विवेकी। चतुर [को०]।
⋙ प्रेक्षावेतन
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्रानुसार लैसंस लेने का महसूल या फीस।
⋙ प्रेक्षासंयम
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार सोने से पहले यह देख लेना कि इस स्थान पर जीव आदि तो नहीं हैं।
⋙ प्रेक्षासमाज
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेक्षक समूह। दर्शकवृंद [को०]।
⋙ प्रेक्षास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रेक्षागृह'।
⋙ प्रेक्षित
वि० [सं०] देखा हुआ।
⋙ प्रेक्षिता
वि० [सं० प्रेक्षितृ] देखनेवाला। दर्शक [को०]।
⋙ प्रेक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेक्षिन्] बुद्धिमान्। समझदार।
⋙ प्रेक्षी (२)
वि० १. देखनेवाला। दर्शक। २. सावधानी से देखनेवाला। ३. (किसी के जैसी) आँखें या दृष्टि रखनेवाला। जैसे मृगप्रेक्षणी [को०]।
⋙ प्रेक्ष्य
वि० [सं०] दे० 'प्रेक्षणीय' [को०]।
⋙ प्रेण
संज्ञा पुं० [सं०] १. गक्ति। चाल। २. प्रेरणा करना।
⋙ प्रत (१)
वि० [सं०] मृत। मरा हुआ। गतप्राण [वि०]।
⋙ प्रत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरा हुआ मनुष्य। मृतक प्राणी। २. पुराणानुसार वह कल्पित शरीर जो मनुष्य को मरने के उपरांत प्राप्त होता है। विशेष—पुराणों में कहा है कि जब मनुष्य मर जाता है और उसका शरीर जला दिया जाता है तब वह अतिवाहिक या लिंग शरीर धारण करता है; और जब उसके उद्देश्य से पिंड आदि दिया जाता है, तब उसे प्रेत शरीर प्राप्त होता है। इसी प्रेत शरीर की भोग शरीर भी कहते हैं। यह शरीर मरने के उपरांत सपिंडी होने तक रहता है। और तब वह अपने कर्म के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है। जिन लोगों की श्राद्ध आदि या ऊर्ध्व दैहिक क्रिया नहीं होती, वे प्रेतावस्था में ही रहते हैं। कुछ लोग अपने कर्म के अनुसारऊर्ध्व दैहिक क्रिया हो जाने पर भी प्रेत ही बने रहते हैं। पुराणों में यह भी कहा है कि जो लोग आहुति नहीं देते, तीर्थ- यात्रा नहीं करते, विष्णु की पूजा नहीं करते, दान नहीं देते, पराई स्त्री हर लाते हैं, झूठे या निर्दय होते हैं, मादक पदार्थों का सेवन करते हैं, अथवा इसी प्रकार के और कुकर्म करते हैं, वे प्रेत होकर सदा दुःख भोगते हैं। यह भी कहा गया है कि प्रेतों का निवास मल, मूत्र आदि गंदे स्थानों में रहता है और वे निर्लज्ज होते तथा अपवित्र पदार्थ खाते हैं। ३. पितर (को०)। ४. नरक में रहनेवाला प्राणी। ५. पिशाचों की तरह की एक कल्पित देवयोनि जिसके शरीर का रंग काला, शरीर के बाल खडे़ और स्वरूप बहुत ही विकराल माना जाता है। यौ०—भूत प्रेत। ६. भयँकर आकृतवाला व्यक्ति। वह व्यक्ति जिसकी आकृति विकराल हो। ७. वह व्यक्ति जो बिना थके लगातार काम करता जाय। ८. बहुत ही चालाक और कंजूस आदमी।
⋙ प्रेतकर्म
संज्ञा पुं० [सं० प्रेतकर्म्मन्] हिंदुओं में दाह आदि से लेकर सपिंडी तक का वह कर्म जो मृतक के उद्देश्य से किया जाता है। प्रेतकार्य।
⋙ प्रेतकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रेतकर्म'।
⋙ प्रेतकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रेतकर्म'।
⋙ प्रेतगत
वि० [सं०] मरा हुआ। मृत [को०]।
⋙ प्रेतगृह
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मसान। भरघट। २. मृत शरीरों के रखे या गाडे़ जाने आदि का स्थान।
⋙ प्रेतगेह पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रेतगृह'।
⋙ प्रेतगोप
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेत का रक्षक। मृत्त शरीर का रक्षक [को०]।
⋙ प्रेतचारी
संज्ञा पुं० [सं० प्रेतचारिन्] महादेव। शिव।
⋙ प्रेततर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] वह तर्पण जो किसी के मरने के दिन से सपिंडी के दिन तक उसके निमित्त किया जाता है। विशेष—साधारण तर्पण से इसमें यह अंतर है कि यह केवल मृतक के उद्देश्य से किया जाता है और केवल सपिंडी के दिन तक होता है। इस तर्पण के साथ और पितरों का तर्पण नही हो सकता।
⋙ प्रेतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रेतत्व'।
⋙ प्रेतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेत का भाव या धर्म 'प्रेतता'।
⋙ प्रेतदाह
संज्ञा पुं० [सं०] मृतक के जलाने आदि का कार्य।
⋙ प्रेतदेह
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार किसी मृतक का वह कल्पित शरीर जो उसके मरने के सभय से सपिंडी तक उसकी आत्मा को प्राप्त रहता है। विशेष—इस शरीर की उत्पत्ति उन पिंडों से होती है जो सपिंडी के दिन तक नित्य दिए जाते है। कहते हैं कि यह शरीर एक वर्ष तक बना रहता है और उसके उपरांत उसे भोगदेह प्राप्त होता है।
⋙ प्रेतधूम
संज्ञा पुं० [सं०] चिता में से निकलनेवाला धूँआँ। वह धूँआ जो मृतक को जलाने से निकलता है।
⋙ प्रेतनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैतरणी नदी।
⋙ प्रेतनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेतपति। यमराज [को०]।
⋙ प्रेतनाह
संज्ञा पुं० [सं० प्रेतनाथ] यमराज।
⋙ प्रेतनिर्यातक
संज्ञा पुं० [सं०] धन लेकर प्रेत का दाह आदि करनेवाला। मुरदाफरोश।
⋙ प्रेतनिर्हारक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मृतक को उठाकर श्मशान तक ले जाय।
⋙ प्रेतनी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेत + हिं० नी (प्रत्य०)] भूतनी। चुडैल।
⋙ प्रेतपक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चांद्र आश्विन का कृष्ण पक्ष। पितृपक्ष।
⋙ प्रेतपक्ष (२)
वि० दे० 'पितृपक्ष'।
⋙ प्रेतपटह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो किसी के मरने के समय बजाया जाता था।
⋙ प्रेतपति
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज।
⋙ प्रेतपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह बर्तन जो श्राद्ध में काम आता है [को०]।
⋙ प्रेतपावक
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रकाश जो प्रायः दलदलों, जंगलों या कब्रिस्तानों में रात के समय चलता हुआ दिखाई पड़ता है और जिसे लोग भूतों और पिशाचों की लीला समझते हैं। शहाबा। लुक। उ०— उभय प्रकार प्रेतपावक र्ज्यो धन दुख प्रद श्रुति गायो।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ प्रेतपिंड
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न आदि का बना हुआ वह पिंड जो मृतक के उद्देश्य से उसके मरने के दिन से लेकर सपिंडी के दिन तक नित्य दिया जाता है और जिसके विषय में यह माना जाता है कि इससे प्रेतदेह बनती है।
⋙ प्रेतपुर
संज्ञा पुं० [सं०] यमपुर। यमालय।
⋙ प्रेतभाव
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु [को०]।
⋙ प्रेतभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्मशान [को०]।
⋙ प्रेतमेध
संज्ञा पुं० [सं०] मृतक के उद्देश्य से होनेवाला श्राद्ध।
⋙ प्रेतयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जिसके करने से प्रेतयोनि प्राप्त होती है।
⋙ प्रेतराक्षसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी। विशेष— कहते हैं कि जहाँ तुलसी रहती है, वहाँ भूत प्रेत नहीं आते। इसी से उसका यह नाम बड़ा है।
⋙ प्रेतराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. यमराज। २. महादेव। शिव।
⋙ प्रेतलोक
संज्ञा पुं० [सं०] यमपुर। यमालय।
⋙ प्रेतवन
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट।
⋙ प्रेतवाहित
वि० [सं०] प्रेताविष्ट। भूतबाधा पीड़ित [को०]।
⋙ प्रेतविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृतक का दाह आदि करना।
⋙ प्रेतविमाना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंच प्रेत के विमानवाली भगवती।
⋙ प्रेतशरीर
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रेतदेह'।
⋙ प्रेतशुद्धि, प्रेतशौच
संज्ञा स्त्री० [सं०] संबंधी के मरणाशौच से शुद्ध होना [को०]।
⋙ प्रेतश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के मरने की तिथि से एक वर्ष के अंदर होनेवाले सोलह श्राद्ध जिनमें सपिंडी, मासिक और षाण्मासिक आदि श्राद्ध संमिलित है।
⋙ प्रेतहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. संनिकट संबंधी जन (को०)। २. मृत शरीर को उठाकर श्मशान आदि तक ले जानेवाला। मुरदा उठानेवाला।
⋙ प्रेता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री प्रेत। पिशाची। २. भगवती कात्यायिनी का एक नाम।
⋙ प्रेतात्मिका
वि० [सं० प्रेत + आत्मिका] प्रेत से संबंधित। उ०— मुझे ऐसा लगा जैसे कोई प्रेतात्मिका छाया किसी रहस्यमय लोक ले आ धमकी हो।— जिप्सी, पृ० २५।
⋙ प्रेताधिप
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज।
⋙ प्रेतान्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जो प्रेत के उद्देश्य से दिया जाय।
⋙ प्रेतायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम [को०]।
⋙ प्रेतावास
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान [को०]।
⋙ प्रेताशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवती का एक नाम। २. मृतकों को खानेवाली।
⋙ प्रेताशौच
संज्ञा पुं० [सं०] वह अशौच जो हिंदुओं में किसी के मरने पर उसके संबंधियों आदि को होता हैं। मरने का अशौंच। सूचक।
⋙ प्रेतास्थि
संज्ञा पुं० [सं०] मुर्दे की हड़्डी। यौ०—प्रेतास्थिधारी।
⋙ प्रेतास्थिधारी
संज्ञा पुं० [सं० प्रेतास्थिधारिन्] मुरदों की हड्डियों माला पहननेवाले, रुद्र।
⋙ प्रेति
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरण। मरना। २. गमन। जाना। पलायन (को०)। ३. अन्न। अनाज। आहार। भोजन।
⋙ प्रेतिक
संज्ञा पुं० [सं०] सृतक। प्रेत।
⋙ प्रेतिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेत + हिं० नी (प्रत्य०)] प्रेत की स्त्री। प्रेतनी। पिशाचिनी।
⋙ प्रेती
संज्ञा पुं० [सं० प्रेत + हिं० ई (प्रत्य०)] प्रेत की उपासना करनेवाला। प्रेतपूजक। उ०— प्रजापति कहीँ पूजै जोई। तिनकर बास पक्षपुर होई। भूती भूतहि यक्षी यक्षन प्रेती प्रेतन रक्षी रक्षन।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ प्रेतीवाल
संज्ञा पुं० [देश०] वह मनुष्य जो कभी खास अपने लिये और कभी अपने मालिक के लिये काम करे। (बाजारू)।
⋙ प्रेतीवाला
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'प्रेतीवाल'।
⋙ प्रेतीषणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि का एक नाम।
⋙ प्रेतेश, प्रेतेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज।
⋙ प्रेतोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उन्माद या पागलपन जिसके विषय में यह माना जाता है कि यह प्रेतों के कोप से होता है। विशेष— इस उन्माद में रोगी का शरीर काँपता है और उसका खाना पीना छूट जाता है। लंबी लंबी साँसें आती है, वह घर से निकल निकलकर भागता है, लोगों को गालियाँ देता है और बहुत चिल्लाता है।
⋙ प्रेत्य
संज्ञआ पुं० [सं०] लोकांतर। परलोक। अमुत्र।
⋙ प्रेत्यजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रेत्यभाव' [को०]।
⋙ प्रेत्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जन्म लेकर मरने और मरकर जन्म लेने की परंपरा जो मुक्ति न होने के समय तक चलती है। बार बार जन्म लेना और मरना। (दर्शन)।
⋙ प्रेत्यभाविक
वि० [सं०] प्रेत्यभाव या इहलोक संबंधी।
⋙ प्रेत्वा
संज्ञा पुं० [सं० प्रेत्वन्] १. वायु। २. इंद्र [को०]।
⋙ प्रेप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्त करने की इच्छा। २. इच्छा। कामना। ३. कल्पना। धारणा [को०]।
⋙ प्रेप्सु
वि० [सं०] १. प्राप्त करने का इच्छुक। २. अनुमान करनेवाला। धारणा करनेवाला। ३. देने का इच्छुक [को०]।
⋙ प्रेम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मनोवृत्ति जिसके अनुसार किसी वस्तु या व्यक्ति आदि के संबंध में यह इच्छा होती है कि वह सदा हमारे पास या हमारे साथ रहे, उसकी वृद्धि, उन्नति या हित ही अथवा हम उसका भोग करें। वह भाव जिसके अनुसार किसी दृष्टि से अच्छी जान पड़नेवाली किसी चीज या व्यक्ति को देखने, पाने, भोगने, अपने पास रखने अथवा रक्षित करने की इच्छा हो। स्नेह। मुहब्बत। अनुराग। प्रीति। विशेष— परम शुद्ध और विस्तृत अर्थ में प्रेम ईश्वर का ही एक रूप माना जाता है। इसलिये अधिकांश धर्मों के अनुसार प्रेम ही ईश्वर अथवा परम धर्म कहा गया है। हमारे यहाँ शास्त्रों में प्रेम अनिवर्चनीय कहा गया है और उसे भक्ति का दूसरा रूप और मोक्षप्राप्ति का साधन बतलाया है। मुमुक्षुओं के लिये शुद्ध प्रेमभाव का ही विधान है। शास्त्रों में, और विशेषतः वैष्णव साहित्य में, इस प्रेम के अनेक भेद किए गए हैं। साहित्य में प्रेम, रति या प्रिति के तीन प्रकार माने गए हैं—(१) उत्तम, वह जिसमें प्रेम सदा एक सा बना रहे। जैसे, ईश्वर के प्रति भक्त का प्रेम। (२) मध्यम, जो अकारण हो। जैसे, मित्रों का प्रेम और (३) अधम, जो केवल स्वार्थ के कारण हो। २. स्त्री जाति और पुरुष जाति के ऐसे जीवों का, पारस्परिक स्नेह जो बहुधा रूप, गुण, स्वभाव, सान्निध्य अथाव कामवासना के कारण होता है। प्यार। मुहब्बत। प्रीति। जैसे— (क) वे अपनी स्त्री से अधिक प्रेम करते हैं। (ख) उस विधवा का एक नौकर के साथ प्रेम था। ३. केशव के अनुसार एक अलंकार। ४. माया और लोभ। ५. कृपा। दया। उ०—अतिहि आनंद कंद बानि हूँ सुनावै। सतगुरू जब दया जानि प्रेम हूँ लगावै।— गुलाल०, पृ०, ३५। ६. क्रीड़ा। नर्म (को०)। ७. हर्ष। आनंद (को०)। ८. विनोद (को०)। ९. वायु। हवा (को०)। १०. इंद्र (को०)।
⋙ प्रेमकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] प्रीति करनेवाला। प्रेमी।
⋙ प्रेमकलह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम के कारण हँसी दिलल्गी या झगड़ा करना।
⋙ प्रेमगरबिता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेम + गर्विता] दे० 'प्रेमगर्विता'। उ०— निज नायक के प्रेम कौं गरब जनावै बाल। प्रेमगर- बिता कहत हैं तासौं सुमति रसाल।— मति० ग्रं०, पृ० २९२।
⋙ प्रेमगर्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका जो अपने पति के अनुराग का अहंकार रखती हो। वह स्त्री जिसे इस बात का अभिमान हो कि मेरा पति मुझे बहुत चाहता है। उ०— आँखिन मैं पुतरी ह्वै रहै हियरा में हरा ह्नै सबै रस लूटै। अंगन संग बसै अँगराग ह्नै, जीव तें जीवनमूरि न टूटैं। देव जू प्यारे के न्यारे सबै गुन, मो मन मानिक तैं नहिं छूटै। और तियान तैं तौ बतियाँ करैं, मो छतियाँ तैं छिनो जनि छूटैं।—देव (शब्द०)।
⋙ प्रेमजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रस्वेद। पसीना। २. प्रेम के कारण आँखों से निकलनेवाले आँसू। प्रेमाश्रु।
⋙ प्रेमजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरीचि ऋषि की पत्नि का नाम।
⋙ प्रेमद पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय + मद] प्रेम का नशा। प्रेममद। उ०— कहवाँ मृग नेनी वह बाला। प्रेमद दीन्ह कीन्ह मतवाला।— इंद्रा०, पृ० ११।
⋙ प्रेमनीर
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम के कारण आँखों से निकलनेवाले आँसू। प्रेमाश्रु।
⋙ प्रेमपातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेम के आवेग में रोना। २. वह आँसू जो प्रेम के कारण आँखों से निकले। ३. नेत्र जिससे अश्रु गिरें (को०)।
⋙ प्रेमपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिससे प्रेम किया जाय। माशूक।
⋙ प्रेमपाश
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम का फंदा या जाल।
⋙ प्रेमपुत्तलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्यारी स्त्री। २. पत्नी। भार्या।
⋙ प्रेमपुलक
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह रोमांच जो प्रेम के कारण होता है।
⋙ प्रेमप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] वीणा आदि के शब्दों से जिनसे राग रागिनी निकलती है, प्रेम करना। (जैन)।
⋙ प्रेमबंध, प्रेमबंधन
संज्ञा पुं० [सं० प्रेमबन्ध, प्रेमबन्धन] प्रेम अथवा स्नेह का बंधन [को०]।
⋙ प्रेमभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण की वह भक्ति जो बहुत प्रेम के साथ की जाय।
⋙ प्रेमभगति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेम + हिं भगति < सं० भक्ति] दे० 'प्रेमभक्ति' ब०—प्रेमभगति जल बिनु रघुराई।—मानस, ७। ४९।
⋙ प्रेमभाव
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम का भाव। स्नेह। प्रेम [को०]।
⋙ प्रेमल
वि० [सं० प्रम + हिं० ल (प्रत्य०)] प्रेमी स्वभाववाला। स्नेही। सहृदय। उ०— इन स्वामी को कष्ट से मैं कैसे बचाऊँ इतने उदार, इतने निश्छल, इतने प्रेमल।-सुखदा, पृ० ११३।
⋙ प्रेमलक्षणाभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णव मतानुसार प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण के चरणों की भक्ति करना।
⋙ प्रेमलेश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों के अनुसार वह वृत्ति जिसके अनुसार मनुष्य विद्वान्, दयालु विवेकी होता और निस्वार्थ भाव से प्रेम करता है।
⋙ प्रेमवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी। २. प्रेमिका [को०]।
⋙ प्रेमवारि
संज्ञा पुं० [सं०] वह आँसू जो प्रेम के कारण निकले। प्रेमाश्रु।
⋙ प्रेमविह्वल
वि० [सं० प्रेम + विह्वल] प्रेम से व्याकुल। प्रेममय। उ०— भर अमृतधारा आज कर दो प्रेम विह्वल हृदयदल, आनंद पुलकित हों सकल तव चूप कोमल चरणतल।— अनामिका, पृ० ३३।
⋙ प्रेमांकुर
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + अङ्कुर] प्रेम का अंकुर। प्रेम का सूत्रपात। प्रेम की प्रारंभिक अवस्था। उ०— उगा रहा उर में प्रेमांकुर।—गीतिका, पृ० १५।
⋙ प्रेमांजली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेम % अञ्जलि] प्रेम से जुडे़ हुए हाथ, प्रेमभावपूर्ण अंजलि। उ०— अराधना, प्रार्थना, पूजा, प्रेमांजली, विलाप, कलाप। 'तेरा' हूँ, तेरे चरणों में हूँ, पर कहाँ पसीजे आप।—हिम०, पृ० ८८।
⋙ प्रेमा
संज्ञा पुं० [सं० प्रेमन्] १. स्नेह।२. स्नेही। ३. वासव। इंद्र। ४. वायु। ५. उपजाति वृत्त का ग्यारहवाँ भेद, जिसके पहले, दूसरे और चौथे चरण में (ज त ज ग ग)/?/और तीसरे चरण में (त त ज ग ग)/?/होता है।
⋙ प्रेमाक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के अनुसार आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें प्रेम का वर्णन करने में ही उसमें बाधा पड़ती दिखाई जाती है। जैसे, यदि नायक से नायिका यह कहे कि 'हमारा मन तुम्हें कभी छोड़ने को नहीं चाहता। पर जब तुम उठकर जाना चाहने हो, तब हमारा मन तुसमे आगे ही चल पड़ता है।' तो यह प्रेमाक्षेप हुआ क्योंकि इसमें पहले तो यह कहा गया है कि हमारा मन तुम्हें कभी छोड़ने को नहीं चाहता, पर नायिका के इस कथन में उस समय बाधा पड़ती है। जब वह यह कहती है कि 'जब तुम उठकर जाना चाहते हो तब हमारा मन (तुमको छोड़कर) तमसे आगे ही चल पड़ता है।' (कविप्रिया)।
⋙ प्रेमाख्यान, प्रेमाख्यानक
संज्ञा पुं० [सं०] सूफी कवियों की वह काव्यमय रचना जिसमें नायक नायिका के प्रेम की कथा वर्णित हो।
⋙ प्रेमाख्यानी
वि० [सं० प्रेमाख्यान + ई (प्रत्य०)] प्रेमाख्यान से संबंधित। प्रेमकथा संबंधी। उ०— गोस्वामी जी ने एकदूसरी काव्यपरंपरा का अनुसरण करते हुए कथा को 'प्रेमा- ख्यानी रंग (रोमैंचिक टर्न) देने के लिये....धनूषयज्ञ के प्रसंग में 'फुलवारी' के दृश्य का सन्निवेश किया।' —आचार्य०, पृ० १११।
⋙ प्रेमात्मक
वि० [सं० प्रेम + आत्मक] प्रेम संबंधी। प्रेम का। उ०— प्रेमात्मक रहस्यवाद और विरह की उदात्त कल्पना सूफी सिद्धांतों की देन है।— हिंदी काव्य, पृ० ८४।
⋙ प्रेमानंद
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + आनन्द] प्रेम का आनंद। प्रेम में अनुभूत आनंद। उ०— यद्यपि प्रेमदशा के भीतर सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों प्रकार के भाव पाए जाते हैं पर कान में 'प्रेमानंद' शब्द पड़ता है, 'प्रेमापन्न' नहीं।—रस०, पृ० ७४।
⋙ प्रमानल
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + अनल] प्रेम की आग। प्रेमाग्नि। उ०— तुझको न भले भाता हो प्रेमी का यह पागलपन। उर उर में दहक रहा पर तेरे प्रेमालन का कण।— मधुज्वाल, पृ० ९१।
⋙ प्रेमापन्न
वि० [सं० प्रेम + आपन्न] प्रेम से पीड़ित। प्रेम में व्याकुल। प्रेम की पीड़ा से दुखी। उ०— पर कान में प्रेमानंद शब्द ही पड़ता है; प्रेमापन्न नहीं। इससे 'प्रेम आनंद स्वरूप है' यह लोकधारणा प्रकट होती है, जो साहित्य मीमांसकों को भी मान्य है।—रस०, पृ० ७४।
⋙ प्रेमालाप
संज्ञा पुं० [सं०] वह बातचीत जो प्रेमपूर्वक हो। परस्पर प्रेमी जनों की बातचीत। उ०— विहग युग्म हो विह्वल सुख से आप। पंखों से प्रिय पंख मिला करते हैं प्रेमालाप।— युगवाणी, पृ० ७९।
⋙ प्रेमालिंगन
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + आलिङ्गन] १. प्रेमपूर्वक गले लगाना। २. कामशास्त्र के अनुसार नायक और नायिका का एक विशेष प्रकार का आलिंगन।
⋙ प्रेमाश्रु
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम के आँसू। वे आँसू जो प्रेम के कारण आँखों से निकलते हैं।
⋙ प्रेमास्पद
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + आस्पद] प्रिय। प्रेमी। उ०— मधुर चाँदनी सी तंद्रा जब फैली मूर्छित मानस पर, तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें अपना चित्र बना जाता।— कामायनी, पृ० १८०।
⋙ प्रेमिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो प्रेम करता हो। प्रेम करनेवाला। प्रेमी।
⋙ प्रेमी (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेमिन्] १. वह जो प्रेम करता हो। प्रेम करनेवाला। चाहनेवाला। अनुरागी। २. आशिक। आसक्त।
⋙ प्रेमी (२)
वि० प्रेमपूर्ण। स्नेहपूर्ण [को०]।
⋙ प्रेमोत्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम + उत्कर्ष] प्रेम की उच्चता। प्रेम की प्रबलता। प्रेम का आधिक्य। उ०—उसी प्रकार उदारता, वीरता, त्याग, दया, प्रेमीत्कर्ष इत्यादि कर्मों और मनोवृत्तियों का सौंदर्य भी मन में जगाती है।—रस०, पृ० ३१।
⋙ प्रेयःमार्ग
संज्ञा पुं० [सं० प्रेयसमार्ग] वह मार्ग जो मनुष्य को सांसारिक विषयों में फँसता है। अविद्यामार्ग।
⋙ प्रेय (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेयस्] एक प्रकार का अलंकार जिसमें कोई भाव किसी दूसरे भाव अथवा स्थायी का अंग होता है।
⋙ प्रेय (२)
वि० प्रिय। प्यारा।
⋙ प्रेयर
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. प्रार्थना। स्तुति। २. ईश्वरप्रार्थना।
⋙ प्रेयस् (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रेयसी] सबसे प्यारा। बहुत प्यारा। प्रियतम।
⋙ प्रेयस् (२)
संज्ञा पुं० १. प्यारा व्यक्ति। प्रियतम। २. पति (को०)। ३. प्रिय मित्र (को०)। ४. चापलूसी (को०)।
⋙ प्रेयान्
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रेयस्' [को०]।
⋙ प्रेयसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसके साथ प्रेम किया जाय। प्यारी स्त्री। प्रेमिका। २. पत्नी। स्त्री (को०)।
⋙ प्रेरक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेरणा करनेवाला। उत्तेजना देने या दबाव डालनेवाला। किसी काम में प्रवृत्त करनेवाला। २. भेजनेवाला (को०)। ३. निर्देश करनेवाला (को०)।
⋙ प्रेरकता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रेरक + ता (प्रत्य०)] प्रेरणा देने का भाव। उ०—शास्त्रनहू कछु प्रेरकता कहि उलटी दियो भुलाई। सब मैं मिल्यौ सबन सों न्यारो कैसे यह न बुझाई।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४३।
⋙ प्रेरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी को किसी काम में लगाना। कार्य में प्रवृत्त करना। २. फेंकना। प्रक्षेपण (को०)। ३. भेजना। प्रेषण (को०)। ४. आदेश। निर्देश (को०)। ५. सक्रियता। परिश्रमशीलता (को०)।
⋙ प्रेरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी को किसी कार्य में लगाने की क्रिया। कार्य में प्रवृत्त या नियुक्त करना। दबाव डालकर या उत्साह देकर काम में लगाना। उत्तेजना देना। २. दबाव। जोर। धक्का। झटका। ३. फेंकना (को०)। ४. भेजना। प्रेषण (को०)। ५. आदेश। निर्देश (को०)। ६. सक्रियता। परिश्रमशीलता (को०)।
⋙ प्रेरणार्थक क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रिया का वह रूप जिससे क्रिया के व्यापार के संबंध में यह सूचित होता है कि वह किसी की प्रेरणा से कर्ता के द्बारा हुआ है। जैसे,— लिखना का प्रेरणार्थक रूप है लिखाना या लिखावाना; देना का दिलाना या दिलवाना; पढ़ना का पढ़वाना।
⋙ प्रेरणीय
वि० [सं०] प्रेरणा करने के योग्य। किसी काम के लिये प्रवृत्त या नियुक्त करने के योग्य।
⋙ प्रेरना पु †
क्रि० स० [सं० प्रेरणा] १. प्रेरणा करना। चलाना। २. भेजना। पठाना। उ०—(क) तब उस शुद्ब आचारवाले काकुत्स्थ ने दुष्टों का प्रेरा हुआ दूषण न सहा।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०)। (ख) भूतन जान प्रेरि रघुवीरा। बिरह विवस भा सिथिल सरीरा।—रामाश्वमेध (शब्द०)।
⋙ प्रेरयिता
संज्ञा पुं० [सं० प्रेरयितृ] [स्त्री० प्रेरयित्री] १. प्रेरणाकरनेवाला। उभाड़नेवाला। २. भेजनेवाला। ३. आज्ञा देनेवाला।
⋙ प्रेरित
वि० [सं०] १. जो किसी कार्य के लिये प्रेरित या नियुक्त किया गया हो। २. भेजा हुआ। प्रचालित। प्रेषित। ३. ढकेला हुआ। धक्का दिया हुआ।
⋙ प्रेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेरणा। २. पीड़ा। कष्ट [को०]।
⋙ प्रेषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेजनेवाला। २. प्रेरक।
⋙ प्रेषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेरणा करना। २. भेजना। रवाना करना।
⋙ प्रेषणीय
वि० [सं०] १. भेजने योग्य। २. प्रेरित करने योग्य। ३. दूसरे तक पहुँचाने लायक। दूसरे के मन में जमाने योग्य। उ०—उसे प्रेषणीय बनाना के लिय,—दूसरों के ह्वदय तक पहुँचाने के लिये—भाषा का सहारा लेना पड़ता है।—चिंता- मणि, भा० २, पृ० १०४।
⋙ प्रेषणीयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेषित होने का भाव। दूसरे के ह्वदय तक पहुँचने की स्थिति। उ०—उनकी रचनाएँ स्वांतःसुखाय हैं, पर उनमें प्रेषणीयता बहुत है।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० २३९।
⋙ प्रेषना पु
क्रि० स० [सं० प्रेषण] प्रेषित करना। भेजना।
⋙ प्रेषित (१)
वि० [सं०] १. प्रेरित। प्रेरणा किया हुआ। २. भेजा हुआ। रवाना किया हुआ। ३. निर्वासित (को०)।
⋙ प्रेषित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में स्वरसाधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार है—सारे, रेग, गम, मप, पध, धनि, निसा। सानि, निध, धप, पम, मग, गरे, रेसा।
⋙ प्रेषितव्य
वि० [सं०] जो प्रेषण करने के योग्य हो।
⋙ प्रेष्ठ (१)
वि० [सं०] [स्त्री० प्रेष्ठा] अतिश्य प्रिय। प्रियतम। बहुत प्यारा।
⋙ प्रेष्ठ (२)
संज्ञा पुं० पति। प्रियतम [को०]।
⋙ प्रेष्ठतमा
वि० स्त्री० [सं० प्रेष्ठ + तम] सबसे अधिक प्रिय। सर्वा- धिक प्रिय। उ०—प्रेष्ठतमा नायिका के साथ इस...सुखो- पभोग के लिये वह कितना उत्कंठित है।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १४४।
⋙ प्रेष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो बहुत प्यारी हो। अत्यंत प्रिय स्त्री। २. जाँघ।
⋙ प्रेष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दास। सेवक। २. दूत। ३. सेवा (को०)।
⋙ प्रेष्य (२)
वि० १. जो प्रेषण करने के योग्य हो। जिसे भेजा जाय।
⋙ प्रेष्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] नौकर समूह। दाससमुदाय [को०]।
⋙ प्रेष्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दासत्व। २. दूतत्व।
⋙ प्रेष्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] दासत्व। गुलामी [को०]।
⋙ प्रेष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी। सेविका [को०]।
⋙ प्रेस
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह कल जिससे कोई चीज दबाई या कसी जाय। पेंच। २. हाथ से चलाने की वह कल जिससे छपाई का काम होता है। छापने की कल। ३. वह स्थान जहाँ पुस्तकों आदि की छपाई का काम होता हों। छापाखाना। मुहा०—(किसी चीज का) प्रेस में होना = (किसी चीज की) छपाई का काम जारी रहना। छपना। जैसे, अभी, वह पुस्तक प्रेस में है। यौ०—प्रेस ऐक्ट। प्रेस कम्यूनिक। प्रेस मशीन। प्रेस रिपोर्टर।
⋙ प्रेस ऐक्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वह कानून जिसके द्बारा छापाखानेवालों के अधिकारों और स्वतंत्रता आदि का नियंत्रण होता है। विशेष—ऐसा कानून उनको उच्छृंखल होने, राजकीय अथवा सामाजिक नियमों को तोड़ने, अथवा इसी प्रकार के और काम करने से रोकता है। जो छापाखानेवाले ऐसे नियमों का भंग करते हैं, उन्हें इसी कानून के द्वारा दंड दिया जाता है।
⋙ प्रेस कम्यूनिक
संज्ञा पुं० [अं० प्रेस + कम्यूनिक] किसी विषय के संबंध में वह सरकारी विज्ञाप्ति या वक्तव्य जो अखबारों को छापने के लिये दिया जाता है। जैसे,—सरकार ने प्रेस कम्यूनिक निकाला है कि अफसरों को डालियाँ आदि नजर न करें।
⋙ प्रेसमैन
संज्ञा पुं० [अं०] छापे की कल चलानेवाला मनुष्य। वह जो प्रेस पर कागज छापता हो।
⋙ प्रेस रिपोर्टर
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'रिपोर्टर'—१।
⋙ प्रेसिडेंट
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी सभा या समिति आदि का प्रधान। सभापति। अध्यक्ष। २. राष्ट्रपति। जैसे, अमेरिका के प्रेसिडेंट का निर्वाचन।
⋙ प्रेसिडेंसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. प्रेसिडेंट का पद या कार्य। सभापति का ओहदा या काम। २. ब्रिटिश भारत में शासन के सुबीते के लिये कुछ निश्चित प्रदेशों या प्रांतों का किया हुआ विभाग जो एक गवर्नर या लाट की अधीनता में होता था। बंगल प्रेसिडेंसी, मदरास प्रेसिडेंसी और बंबई प्रेसिडेंसी ये तीन प्रेसिडेंसियाँ उस समय भारत में थी।
⋙ प्रेस्क्रिप्शन
संज्ञा संज्ञा पुं० [अं०] रोगी के लिये डाक्टर की लिखी हुई औषध या दवा। औषध या दवा का पुरजा। नुसखा। उ०—डाक्टरी प्रेस्क्रिप्शन के एक अत्यंत कड़वे मिक्सचर की तरह उस भाव को चुपचाप एक घूँट में पी गया।—संन्यासी०, पृ० ४३९।
⋙ प्रैय
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रिय का भाव। स्नेह। प्रेम। २. कृपा। दया।
⋙ प्रैयव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो प्रियव्रत के वंश में हो।
⋙ प्रैष
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लेश। कष्ट। दुःख। २. मर्दन। ३. उन्माद। पागलपन। ४. प्रेषण। भेजना। ५. वह शब्द या वाक्य जिसमें किसी प्रकार की आज्ञा हो।
⋙ प्रैषणिक
वि० [सं०] आदेश माननेवाला (जैसे नौकर)।
⋙ प्रैष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दास। सेवक। २. दासत्व।
⋙ प्रोंछन
संज्ञा पुं० [सं० प्रोञ्छन] १. मिटाना। पोंछना। २. बचे हुए अंश का चुनना (को०)।
⋙ प्रोंठ
संज्ञा पुं० [सं० प्रोणठ] पीकदान। उगालदान।
⋙ प्रोक्त (१)
वि० [सं०] कथित। कहा हुआ। २.पूर्वाक्त। पूर्वसूचित (को०)।
⋙ प्रोक्त (२)
क्रि० वि० कथित या सूचना होने के बाद [को०]।
⋙ प्रोक्लेमेशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. राजाज्ञा या सरकारी सूचनाओं का प्रचार। घोषणा। एलान। २. ढिंढोरा। ड्डग्गी।
⋙ प्रोक्ष
वि० [सं० परोक्ष] दे० 'परोक्ष'। उ०—देह ई कौ बंध मोक्ष देइ ई अपोक्ष प्रोक्ष, देह ई क्रिया कर्म शुभाशुभ ठान्यौ है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५९२।
⋙ प्रोक्षणा
संज्ञा पुं० [सं०] पानी छिड़कना। २. यज्ञ में वध के पहले बलिपशु पर पानी छिड़कना। ३. पानी का छींटा। ४. वध। हिंसा। हत्या। ५. विवाह की परिछन नामक रीति। ६. श्रादुध आदि में होनेवाला एक संस्कार।
⋙ प्रोक्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ का वह पात्र जिसमें पशु पर छिड़कनेवाला जल रहता है। २. कुश की मुद्रिका जो होमादि के समय अनामिका में धारण की जाती है।
⋙ प्रोक्षणीय (१)
वि० [सं०] प्रोक्षण कार्य के योग्य। छिड़का जानेवाला [को०]।
⋙ प्रोक्षणीय (२)
संज्ञा पुं० प्रोक्षण कार्य में प्रयुक्त जल। वह जल जो छिड़का जाय [को०]।
⋙ प्रोक्षित (१)
वि० [सं०] १. सींचा हुआ। २. जल का छींटा मारा हुआ। ३. वध किया हुआ। मारा हुआ। ४. बलिदान किया हुआ।
⋙ प्रोक्षित (२)
संज्ञा पुं० वह मांस जो यज्ञ के लिये संस्कृत किया गया हो। विशेष—ऐसा मांस खाने में किसी प्रकार का दोष नहीं माना जाता है।
⋙ प्रोक्षितव्य
वि० [सं०] जो प्रोक्षण के योग्य हो।
⋙ प्रोग्राम
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी सभा, समाज, नाटक सगींत अथवा व्यक्ति के होनेवाले कार्यों की सिलसिलेवार सूची। होनेवाले कार्यों आदि का निश्चित क्रम। कार्यक्रम। उ०—वरंच, यात्रा के प्रोग्राम का निर्माण ही कठिन था।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३२। २. वह पत्र जिसमें इस प्रकार का कोई क्रम या सूची हो। कार्यक्रमसूचक पत्र।
⋙ प्रोच्चंड
वि० [सं० प्रोच्चण्ड] अत्यंत भयंकर। अत्यंत प्रचंड [को०]।
⋙ प्रोच्छून
वि० [सं०] १. फैला हुआ। विस्तुत। २. सूजा हुआ [को०]।
⋙ प्रोज
संज्ञा पुं० [अं०] गद्य। उ०—पोइट्री में बोलती थी प्रोज में बिलकुल अड़ी।—कुकुर०, पृ० १६।
⋙ प्रोज्जासन
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। वध [को०]।
⋙ प्रोज्ज्वल
वि० [सं० (उप०)प्र + उज्ज्वल] दीप्त। ज्योतिर्मय। प्रगट। स्पष्ट। उ०—उसके, भीतर का पुरूष प्रोज्ज्वल हुआ।—सुनीता, पृ० २४७।
⋙ प्रोज्झन
संज्ञा पुं० [सं०] त्याग। दूरीकरण [को०]।
⋙ प्रोज्झित
वि० [सं०] त्यक्त। तिरस्कृत [को०]।
⋙ प्रोटीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक पदार्थ जो प्राणियों और पौधों की शरीररक्षा के लिये आवश्यक होता है। इसमें कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन और नाइट्रोजन तथा थोड़ा गंधक रहता है।
⋙ प्रोटेस्टेंट
संज्ञा पुं० [अं०] ईसाइयों का एक संप्रदाय। विशेष—इसका आरंभ यूरीप में सोलहवीं शताब्दी में उस समय हुआ था जब लूथर ने ईसाई धर्म का संस्कार आरंभ किया था। इस संप्रदाय के लोग रोमन कैथोलिक संप्रदायवालों का और साथ ही पोप के प्रबल अधिकारों का विरोध और मूर्तिपूजा आदि का निषेध करते हैं। कुछ दिनों तक इस मत की बहुत प्रबलता थी, और अब भी ईसाई देशों में इस संप्रदाय के लोगों की संख्या अधिक है।
⋙ प्रोढ (१)
वि० [सं०] दे० 'प्रौढ़' [को०]।
⋙ प्रोढ † (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रोढ या देश०] एक प्रकार का डिंगल गीत। इसे सोरठिया भी कहते हैं। उ०—विषम वले सम विषम बले सम पद चहुँ द्बालों पूणजै, सूध अखरोट मंछ सरसावै गीत प्रोढ सो गुराजौ।—रघु० रू०, पृ० ८२।
⋙ प्रोढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रौढ़ा'।
⋙ प्रोढि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रोढि'।
⋙ प्रोत (१)
वि० [सं०] १. किसी में अच्छी तरह मिला हुआ। २. सीया या गाँठ दिया हुआ। गूँथा हुआ। ३. छिपा हुआ। घुसा हुआ। प्रविष्ट (को०)। ४. खचित। जड़ा हुआ (को०)।
⋙ प्रोत (२)
संज्ञा पुं० वस्त्र। कपड़ा।
⋙ प्रोत्कंठ
वि० [सं० प्रोत्कणठ] १. अत्याधिक उत्कंठित [को०]।
⋙ प्रोत्कट
वि० [सं०] बहुत बड़ा। अत्यंत महान्।
⋙ प्रोत्कट मृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रिय नौकर। २. ऊँचा पदाधिकारी।
⋙ प्रोत्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वप्रधान। सर्वोत्कृष्ट। सर्वश्रेष्ठ [को०]।
⋙ प्रोत्तुंग
वि० [सं० प्रोत्तुडग] बहुत ऊँचा [को०]।
⋙ प्रोत्तेजित
वि० [सं०] अत्यंत उत्तेजित। उत्तेजना से भरा हुआ। भड़काया हुआ। उ०—इसके उद्धार करने की प्रबल इच्छा से प्रोत्तेजित मंडली।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७०।
⋙ प्रोत्थित
वि० [सं०] आंधार पर रखा या टिका हुआ। उठाया हुआ। ऊँचा किया हुआ।
⋙ प्रोत्फल
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ की जाति का एक वृक्ष।
⋙ प्रोत्फुल्ल
वि० [सं०] अच्छी तरह खिला हुआ। विकसित।
⋙ प्रोत्सारण
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्त होना। पिंड छुड़ाना। हटाना। दूर करना [को०]।
⋙ प्रोत्सारित
वि० [सं०] १. हटाया हुआ। अलग किया हुआ। पिंड छुडाया हुआ। २. उत्साहित किया हुआ। उकसाया हुआ। ३. छोड़ा हुआ। परित्यक्त। ४. दिया हुआ। प्रदत्त [को०]।
⋙ प्रोत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक उत्साह या उमंग।
⋙ प्रोत्साहक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] उत्साह बढ़ानेवाला। हिम्मत बँधानेवाला।
⋙ प्रोत्साहकता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रोत्साहक + ता (प्रत्य०)] प्रोत्सा- हन का भाव। उत्साह। उ०—उल्लास या प्रोत्साहकता के संपर्क से शैली में एक प्रकार का बल, एक प्रकार का ओज उत्पन्न हो जाता है।—शैली, पृ० ८९।
⋙ प्रोत्साहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० प्रोत्साहित] खूब उत्साह बढ़ाना। हिम्मत बँधाना। उत्तेजित करना।
⋙ प्रोत्साहित
वि० [सं०] खूब उत्साहित। (जिसका) उत्साह खूब बढ़ाया गया हो। (जो) खूब उत्तेजित किया गया हो। (जिसकी) हिम्मत खूब बँधाई गई हो।
⋙ प्रोत्सिक्त
वि० [सं०] अत्यंत अभिमानी। बड़ा घमंडी [को०]।
⋙ प्रोथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े की नाक या नाक के आगे का भाग। २. सूअर का थूथन। ३. कमर। ४. नाभि के नीचे का भाग। पेड़। ५. स्त्री का गर्भाशय। ६. गड्ढा। गर्त। गड़हा। ७. कोटि का पश्चादभाग। नितंब। स्फिक् (को०)। ८.वस्त्र्। शाटक। साड़ी। ९. भीषण। भय। (को०)। १०. पथिक। यात्री (को०)।
⋙ प्रोथ (२)
वि० १. स्थापित। रखा हुआ। २. भीषण। भयानक। ३. विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर। ४. यात्रा पर गया हुआ (को०)।
⋙ प्रोथथ
संज्ञा पुं० [सं०] १.घोड़े का हिनहिनाना। २. अश्व की नाक या थूथन (को०)। ३. शूवर का थूथन (को०)।
⋙ प्रोथी
संज्ञा पुं० [सं० प्रोथिन्] घोड़ा। अश्व। (डिं०)।
⋙ प्रोदक
वि० [सं०] आर्द्र। गीला। तर [को०]।
⋙ प्रोदर
वि० [सं०] बड़े पेटवाला। तुंदिल [को०]।
⋙ प्रोदुगत
वि० [सं०] आगे को निकला हुआ। उन्नत। प्रलंब [को०]।
⋙ प्रोदुगोर्ण
वि० [स०] अपाकृत। नि?सृत [को०]।
⋙ प्रोदुघुष्ट
वि० [सं०] घ्वनित होनेवाला। जोर की ध्वनि करनेवाला।
⋙ प्रोदुघोषण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्रोदुघोषण] १.घोषणा करना। २. जोर की ध्वनी करना [को०]।
⋙ प्रोद्दीप्त
वि० [सं०] जलता हुआ। प्रज्वलित।
⋙ प्रोद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] ऊपर उठाना। उद्धार करना [को०]।
⋙ प्रोद्मिन्न
वि० [सं०] १. भेद कर बाहर निकाला हुआ। २. अंकुरित [को०]।
⋙ प्रोद्यत
वि० [सं०] १. उठाया हुआ। २. सक्रिय। उद्योगी [को०]।
⋙ प्रोनोट
संज्ञा पुं० [अं०] वह कागज जिसे कर्ज की शर्तों के साथ लिखकर कर्ज लेनेवाला महाजन को देता है।
⋙ प्रोन्नत
वि० [सं०] १.बहुत ऊँचा। २. आगे को निकला हुआ। ३.शक्तिशाली। बली [को०]।
⋙ प्रोपैगैंडा
संज्ञा पुं० [अं०] १. व्याख्यान, उपदेश, विज्ञापन, पुस्तिका, समाचारपत्र आदि के द्बारा किसी मत या सिद्धांत के प्रचार करने का ढंग या काम। प्रचार कार्य। जैसे,—(क) आजकल कांग्रेस की ओर से विदेशों में अच्छा प्रोपैगैंडा हो रहा है। (ख) आर्यसमाजियों ने वहाँ मिश्नरियों के विरुद्ध प्रोपैगैंडा किया।
⋙ प्रोपोज
क्रि० स० [अं०] १. तजवीज करना। २. प्रस्ताव करना।
⋙ प्रोपोजल
संज्ञा पुं० [अं०] प्रस्ताव।
⋙ प्रोप्राइटर
संज्ञा पुं० [अं०] मालिक। स्वामी। अध्यक्ष।
⋙ प्रोफेसर
स्त्री० पुं० [अं०] १. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता। भारी पंडित या विद्बान्। २. किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय आदि का अध्यापक। वह जो किसी कालिज आदि में शिक्षक हो।
⋙ प्रोफेसरी
संज्ञा स्त्री० [अं० प्रोफेसर + हिं० ई (प्रत्य०)] प्राघ्या- पन। पढ़ाने का कार्य। उ०—उन्नाव में उनकी खासी अच्छी जमींदारी है, और प्रोफेसर से उन्हें जो कूछ मिलता है वह एक तरह से घाते में ही समझो।—सन्यासी, पृ० ३७९।
⋙ प्रोबेशन
संज्ञा पुं० [अं०] वह परीक्षा या जाँच जो किसी व्यक्ति के कार्य के संबंध में निर्धारित की जाय। यह देखना कि यह व्यक्ति अमुक कार्य कर सकेगा या नहीं। काम करने की योग्यता के संबंध में जाँच। जैसे,—अभी तो वे तीन महीने के लिये प्रोबेशन पर रखे गए हैं, यदि ठीक तरह से काम करेंगे तो स्थायी रूप से उनकी नियुक्ति हो जायगी।
⋙ प्रोबेशनरी
वि० [अं०] १. प्रोबेशन के संबंध का। योग्यता की जाँच से संबंध रखनेवाला। २. जो कुछ निर्धारित समय तक इस शर्त पर रखा जाय कि यदि संतोषजनक कार्य करेगा तो स्थायी रूप से रख लिया जाएगा।
⋙ प्रोमिसरी नोट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'प्रामीसरी नोट'।
⋙ प्रोमोशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. कीसी पदाधिकारी का अपने पद से ऊँचे पद पर नियुक्त किया जाना। तरक्की। २. विद्यार्थी का कीसी कक्षा में से आगे की कक्षा में भेजा जाना। दर्जा चढ़ना।
⋙ प्रोयना पु (१)
क्रि० सं० [हिं० पिरोना] बेधना। उ०—खैंग लसक्कर- खान रा, प्रोया सेल प्रमांण। —रा० रू०, पृ० ३४२।
⋙ प्रोलेतेरियट
संज्ञा पुं० [अं० प्रोलिटेरियट] सर्वहारा वर्ग। श्रमिक वर्ग। मजदूर श्रेणी।
⋙ प्रोलेतेरियन
वि० [अं० प्रोलिटेरियन] सर्वहारा वर्ग से संबंधित। सर्वहारा वर्ग का। उ०—ईसा द्बारा प्रचारित कम्यूनिज्म में और मार्क्स द्बारा प्रचारित प्रोलेतेरियन क्रांति के स्वरूपों में बहुत अंतर था।—जिप्सी, पृ० २१५।
⋙ प्रोवाइसचांसलर
संज्ञा पुं० [अं०] उपकुलपति। वाइसचांसलर या या कुलपति का सहायक अधिकारी।
⋙ प्रोल्लाघित
वि० [सं०] १. निरामय। नीरुज। २. द्दढ़ांग। पुष्ट- शरीर [को०]।
⋙ प्रोल्लासी
वि० [सं० प्रोल्लासिन्] देदीप्यमान। कांतियुक्त [को०]।
⋙ प्रोल्लेखन
संज्ञा पुं० [सं०] खूरचना। कुरेदना [को०]।
⋙ प्रोष
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक दुःख या कष्ट। संताप। दाह।
⋙ प्रोषक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक देश का नाम।
⋙ प्रोषित
वि० [सं०] १. जो विदेश में गया हो। प्रवासी।जैसे, प्रोषितपति आदि। २. दूरगत। दूर गया हुआ [को०]।
⋙ प्रोषितनायक, प्रोषितपति
संज्ञा पुं० [सं०] वह नायक जो विदेश में अपनी पत्नी के वियोग से विकल हो। विरही नायक।
⋙ प्रोषितपतिका (नायिका)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति के विदेश जाने से दुःखित स्त्री। प्रवत्स्यत्प्रेयसी। वह नायिका जो अपने पति के परदेश में होने के कारण दुखी हो। विदेश गए हुए व्यक्ति की शोकातुर स्त्री या प्रेमिका। विशेष—साहित्य में इसके मुग्धा, मध्या, स्वकीया, परकीया आदि अनेक भेद माने गए हैं।
⋙ प्रोषितप्रेयसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रोषितपतिका'।
⋙ प्रोषितभर्तृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रोषितपतिका'।
⋙ प्रोषितभार्य
संज्ञा पुं० [सं० प्रोषितभार्य] वह नायक जो अपनी भार्या के विदेश के कारण दुःखी हो।
⋙ प्रोषितमरण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवास में मरण। विदेश में मृत्यु [को०]।
⋙ प्रोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की मछली। सौरी। २. गौ। गाय। ३. बैल। वृषभ (को०)। ४. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश का नाम जो दक्षिण में था।
⋙ प्रोष्ठपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्र। २. भाद्रपद मास। भादों का महीना।
⋙ प्रोष्ठपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्र।
⋙ प्रोष्ठपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्रपद मास की पूर्णिमा।
⋙ प्रोष्ठपाद
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वभाद्र्पद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्र।
⋙ प्रोष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौरी नाम की मछली।
⋙ प्रोष्ण
वि० [सं०] जो बहुत गरम हो। अत्यंत उष्ण।
⋙ प्रोसीडिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी सभा या समिति के अधिवेशन मे संपन्न हुए कार्यों का लेखा या विवरण। कार्यविवरण। जैसे,—गत अधिवेशन की प्रोसीडिंग पढ़ी गई।
⋙ प्रोसीडिंग बुक
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह वही या किताब जिसमें किसी सभा या समिति के अधिवेशनों में संपन्न हुए कार्यों का विवरण लिखा जाता है। कार्यविवरण पुस्तक। जैसे, प्रोसी- डिंग बुक में यह बात लिखी जानी चाहिए।
⋙ प्रोसेशन
संज्ञा पुं० [अ०] धुमधाम की सवारी। जुलूस। शोभायात्रा। जैसे,—महासभा के प्रेसिडेंट का प्रोसेशन बड़ी धूमधाम से निकला।
⋙ प्रोह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का पैर। २.तर्क। ३. पर्व।
⋙ प्रोह (२)
वि० १. बुद्धिमान्। चतुर। २. तार्किक। तर्क या विचार करनेवाला (को०)।
⋙ प्रोहित †
संज्ञा पुं० [सं० पुरोहित] दे० 'पुरोहित'। उ०—गुरु नृप, गुरु माता पिता, गुरु प्रोहित, गुरु छंद। बिहफे गुरु दीरध गूरू, सब के गुरु गोबिंद।—नंद० ग्रं०, पृ० ७४।
⋙ प्रौढ़ (१)
वि० [सं० प्रौढ] [वि० स्त्री० प्रौढ़ा] १. अच्छी तरह बढ़ा हुआ। २. जिसकी अवस्था अधिक हो चली हो। जिसकी युवावस्था समाप्ति पर हो। ३. पक्का। पुष्ट। मजबूत। दृढ़। ४. पुराना। ५. गंभीर। गूढ़। ६. निपुण। होशियार। चतुर। ७. घना। सघन। भरा हुआ। परिपूर्ण। (को०)। ८. उद्धत। प्रगल्भ। अभिमानी (को०)। ९. विलासी (को०)। १०. विवाहित (को०)। ११. उठाया था ऊपर किया हुआ। १२. तर्कित। विरोध किया हुआ (को०)। १३. बड़ा। महान् (को०)। १४. व्यस्त। लीन (को०)।
⋙ प्रौढ़ (२)
संज्ञा पुं० तांत्रिकों का चौबीस अक्षरों का एक मंत्र।
⋙ प्रौढ़जलद
संज्ञा पुं० [सं० प्रौढजलद] घने बादल [को०]।
⋙ प्रौढ़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढता] प्रौढ़ होने का भाव। प्रौढ़त्व।
⋙ प्रौढ़त्व
संज्ञा पुं० [सं० प्रौढत्व] प्रौढ़ होने का भाव। प्रौढ़ता।
⋙ प्रौढ़पाद
संज्ञा पुं० [सं० प्रौढ़पाद] पैर के दोनों तलुए जमीन पर रखकर बैठना। उकड़ूँ बैठना। विशेष—शास्त्रों में इस प्रकार बैठकर, भोजन, स्नान, तर्पण, पूजन, अध्ययन आदि कार्य करने का निषेध है।
⋙ प्रौढ़पुष्प
वि० [सं० प्रौढपुष्प] पुर्णतः विकसित। पूरा खिला हुआ [को०]।
⋙ प्रौढ़मताधिकार
संज्ञा पुं० [सं० प्रौढ़ + मत + अधिकार] प्रजातांत्रिक शासन की वह व्यवस्था जिसमें प्रत्येक प्रौढ़ (बालिग) माने गए व्यक्ति को चुनाव में अपना मत देने का अधिकार होता है।
⋙ प्रौढ़मनोरमा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढमनोरमा] सिद्धांतकौमुदी की एक टीका या व्याख्या।
⋙ प्रौढ़वाद
संज्ञा पुं० [सं० प्रौढवाद] दृढ़ कथन। प्रबल उक्ति [को०]।
⋙ प्रौढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढा] १. अधिक वयसवाली स्त्री। वह स्त्री जिसे जवान हुए बहुत दिन हो चुके हों। २. साहित्य में एक नायिका। वह नायिका जो कामकला आदि अच्छी तरह जानती हो। विशेष—साधारणतः ३० वर्ष से ५० या ५५ वर्ष तक की आयुवाली स्त्री प्रौढ़ा मानी जाती है। भावप्रकाश के अनुसार ऐसी स्त्री वर्षा और वसंत ऋतु में संभोग करने के योग्य होती है। साहित्य में इसके रतिप्रीता और आनंदसंमोहिता ये दो भेद माने गए है। मानभेदानुसार धीरा, अधीर और धीरा- धीरा ये तीन भेद तथा स्वाभावानुसार अन्यसुरतदुःखिता, वक्रोक्तिगर्विता और मानवती ये तीन भेद माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त स्वकीया, परकीया और सामान्या से तीन भेद इसमें लगते हैं।
⋙ प्रौढ़ाअधीरा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढाअधीरा] वह प्रौढ़ा नायिका जो अपने नायक में विलाससूचक चिह्न देखने पर प्रत्यक्ष कोप करे। वह प्रौढ़ा जिसमें अधीरा नायिका के लक्षण हों।
⋙ प्रौढ़ाधीरा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढाधीरा] वह प्रौढ़ा नायिका जो अपने नायक में विलाससुचक चिह्न देखने पर प्रत्यक्ष कोप न करकेर्व्यग्य से कोप प्रकट करे। ताना देकर कोप प्रकट करनेवाली प्रौढ़ा।
⋙ प्रौढ़ाधीराधीरा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढाधीराधीरा] साहित्य में वह नायिका जो अपने नायक में परस्त्रीगमन के चिह्न देखने पर कुछ प्रत्यक्ष और कुछ व्यंग्यपूर्वक कोप प्रकट करे। वह प्रौढ़ा जिसमें धीराधीरा के गुण हों।
⋙ प्रौढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढि] १. सामर्थ्य। शक्ति। २. धृष्टता। ढिठाई। ३. प्रौढ़ता। ४. वादविवाद। ५. पूर्ण वृद्धि (को०)। यौ०—प्रौढ़िवाद = प्रौढ़वाद।
⋙ प्रौढ़ोकत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रौढोक्ति] एक अलंकार। दे० 'प्रौढ़ोक्ति'। उ०—प्रौढ़ोकति तासों कहत, भूषन कवि बिरदेत। भूषन ग्रं०, पृ० ६०।
⋙ प्रौढ़ोक्ति
संज्ञा पुं० [सं० प्रढोक्ति] १. अलंकार विशेष जिसमें उत्कर्ष का जो हेतु नहीं है वह हेतु कल्पित किया जाय। २. दुढं कथन। हठोक्ति। ३. गूढ़ रचना। किसी बात को बहुत बढ़ाकर कहना।
⋙ प्रौण
वि० [पुं०] प्रवीण। चतुर। होशियार [को०]।
⋙ प्रौष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] सौरी मछली।
⋙ प्रौष्ठपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर के निधिरक्षकों में से एक का नाम। २. भाद्रमास का नाम। भादों। प्रोष्ठपंद।
⋙ प्रौष्ठपदिक
संज्ञा पुं० [सं०] भ्राद्रपद। भादों।
⋙ प्रौष्ठपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्रमास की पूर्णिमा।
⋙ प्रौइ
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रोह'।
⋙ प्लक
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का कमर के नीचे का भाग।
⋙ प्लक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाकर नाम का वृक्ष। पिलखा। २. पुराणानुसार सात कल्पित द्बीपों में से एक द्बीप का नाम। विशेष—कहते हैं, यह जंबुद्बीप के चारों ओर है। और दो लाख योजन विस्तुत है। इसमें शांतभव, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक और ध्रुव नामक सात वर्ष और गोमेद, चंद्र, नारद, दुंदुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राजक नाम के सात पर्वत माने जाते हैं। भागवत में इसके वर्षों का नाम शिव, वयस, सुभद्र, शांत, क्षेम, अमृत और तथा पर्वतों का नाम मणिकूट, वज्रकूट, इंद्रसोम, ज्योतिष्मानू, सुवर्ण, हिरण्यष्ठीन और मैघमाल लिखा है। विष्णुपुराण के अनुसार अनुतप्ता, शिखी, विपाशा, त्रिदिवा, क्रमू, अमृता और सुकृता नाम की सात नदियाँ हैं पर भागवत में उनका नाम अरुण, नृमला, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभात, ऋतंभरा और सत्यंभरा दिया है। कहते हैं, इस द्बीप में युगव्यवस्था नहीं है, इसमें सदा त्रेतायुग बना रहता है। यहाँ चातुर्वर्ण का नियम है। इस द्बीप में प्लक्ष का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, इसी से इसे प्लक्षद्बीप कहते हैं। ३. अश्वत्थ वृक्ष। पीपल। ४. बड़ी खिड़की या दरवाजा। ५. पाशर्वस्थ या पिछला दरवाजा (को०)। ६. द्बार के पास की भूमि (को०)। ७. एक तीर्थ का नाम।
⋙ प्लक्षजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी का एक नाम।
⋙ प्लक्षतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ प्लक्षप्रसवण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्लक्षराज'।
⋙ प्लक्षराज
संज्ञा पुं० [सं०] उस स्थान का नाम जहाँ से सरस्वती नदी निकलती है।
⋙ प्लक्षसमुद्नवाचका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी [को०]।
⋙ प्लक्षादेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी।
⋙ प्लक्षावतरण
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक स्थान का नाम जहाँ से सरस्वती नदी निकलती है।
⋙ प्लति
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।
⋙ प्लवंग
संज्ञा पुं० [सं० प्लवङ्ग] १.वानर। बंदर। २. साठ संवत्सरों में से इकतालीसवाँ संवत्सर। ३. मृग। हरिन। ४. प्लक्ष। पाकर।
⋙ प्लवंगम
संज्ञा पुं० [सं० प्लवङ्गम] एक छंद जिसके प्रत्येक पाद में ८ + १३ के विराम से २१ मात्राएँ , आदि का वर्ण गुरु और अंत में १ जगण और १ गुरु होता है। २. बंदर। वानर। कपि। ३. मेंढक।
⋙ प्लवंगमेंदु
संज्ञा पुं० [सं०] हनुमान [को०]।
⋙ प्लव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साठ संवत्सरों में से पैंतीसवाँ संवत्सर। २. मुरगा। ३. उछलकर या उड़कर जानेवाले पक्षी आदि। ४. कारंडव पक्षी। ५. मेंढक। ६. बंदर। ७. भेड़। ८. चांडाल (डिं०)। ९. शत्रु। दुश्मन। १०. नागरमोथा। ११. मछली पकड़ने का जाल या काठ का पाटा। १२. नहाना। १३. तैरना। १४. नदी की बाढ़। १५. एक प्रकार का बगला। १६. कोई जलपक्षी। १७. शब्द। आवाज। १८. अन्न। १९. गोपाल करंज। २०. छोटी नौका। बाँस, तृण आदि से बनी नाव। उडुप (को०)। २१. प्लक्ष का वृक्ष। (को०)। २२. ढाल। उतार (को०)। २३. कुदाना। उछाल (को०)। २४. वापस होना या लौटना (को०)। २५. प्रोत्साहन (को०)।
⋙ प्लव (२)
वि० १. तैरता हुआ। २. झुकता हुआ। ३. क्षणभंगुर। ४. कूदता या उछलता हुआ (को०)। ५. विशिष्ट। श्रेष्ठ। अत्कृष्ट (को०)।
⋙ प्लवक (१)
वि० [सं०] १. तैरनेवाला। तैराक। २. संतरणोपजीवी, जैसे मल्लाह (को०)।
⋙ प्लवक (२)
संज्ञा पुं० १. तलवार की धार पर नाच करनेवाला पुरुष। २. मेंढ़क। ३. पाकर वृक्ष। ४. चांडाल (को०)। ५. वानर। कपि (को०)।
⋙ प्लवग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरस का पेड़। २. बंदर। उ०— कपि, साखामृग, बलीमुख, प्लवग, कीस, लंगूर। बानर के कर नारियर, दयौ बिधाता कूर। नंद०, ग्रं०, पृ० ९३। ३. मेंढक। ४. हरिन। ५. जलपक्षी। ६. सूर्य का सारथी।
⋙ प्लवग (२)
वि० १. कूदनेवाला। उछलनेवाला। २. तैरनेवाला। यौ०—प्लवगराज = कपिराज। सुग्रीव। प्लवगेंद्र = हनूमान।
⋙ प्लवगति
संज्ञा पुं० [सं०] मेंढ़क [को०]।
⋙ प्लवगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या राशि या लग्न [को०]।
⋙ प्लवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उछलना। कूदना। २. तैरना। ३. बाढ़। जलप्लावन (को०)। ४. उड़ना (को०)। ५. घोड़े की एक चाल (को०)। ६. ढालवाँ जमीन (को०)।
⋙ प्लवन (२)
वि० नत। नीचे की ओर झुका हुआ (को०)। ढालू। ढालवाँ [को०]।
⋙ प्लवर्ग
संज्ञा पुं० १. अग्नि। आग। २. जलपक्षी।
⋙ प्लवाका
संज्ञा पुं० [सं०] नाव [को०]।
⋙ प्लविक
संज्ञा पुं० [सं०] नाव से पार करनेवाला केवट। माँझी [को०]।
⋙ प्लवित
संज्ञा पुं० [सं०] १.पैरना। तैरना। २. कूदना। उछ- लना [को०]।
⋙ प्लविता
वि० [प्लवितृ] [वि० स्त्री० प्लवित्री] तैरनेवाला। तैराक।
⋙ प्लांचेट
संज्ञा पुं० [अं०] मेस्मेरेज्म पर विश्वास रखनेवालों के काम की पान के आकार की लकड़ी की एक छोटी तख्ती। विशेष—इसके चौड़े भाग के नीचे दो पाए मढ़े हुए होते हैं। जिनके नीचे छोटे छोटे पहिए लगे हुए होते है और आगे की नोक की और एक छेद होता है जिसमें एक पेंसिल लगा दी जाती है। कहते हैं, जब एक या दो आदमी उस तख्ती पर धीरे से अपनी उंगलियाँ रखते हैं तब वह खसकने लगती है और उसमें लगी हुई पेंसिल से लकीरें, अक्षर, शब्द और वाक्य बनते है, जिनसे लोग अपने प्रश्नों का उत्तर निकाला करते है, अथवा गुप्त भेदों का पता लगाया करते हैं। इसका आविष्कार ईसवी १८५५ में हुआ था और इसके संबंध में कुछ दिनों तक लोगों में बहुत से झूठे विश्वास थे।
⋙ प्लाईवुड
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की हलकी लकड़ी जो तीन विभिन्न प्रकार की पतली लकड़ियों को मशीन से दबाकर बनाई जाती है। उ०—इसके अतिरिक्त सेमल, शीशम और सागौन से प्लाईवुड बनाने का उद्योग भी उल्लेखनीय है।-- अभि० ग्रं०, पृ० १५।
⋙ प्लाक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाखर का फल। २. प्लक्ष का भाव।
⋙ प्लाक्ष (२)
वि० प्लक्ष संबंधी। प्लक्ष का।
⋙ प्लाक्षायन
संज्ञा पुं० [सं०] प्लक्षि के गोत्र में उत्पन्न।
⋙ प्लाट
संज्ञा पुं० [अं०] १. इमारत बनाने या खेती आदि करने के लिये जमीन का टुकड़ा। २. ऐसी जमीन का बना हुआ नकशा। ३. कोई कार्य करने का निश्चित किया हुआ ढंग। मनसूबा। ४. उपन्यास, नाटक या काव्य आदि की वस्तु या मुख्य कथाभाग। वस्तु। ५. गुप्त और हानि करनेवालौ कार्रवाई। षड्यंत्र। साजिश।
⋙ प्लाटफार्म
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'प्लेटफार्म'।
⋙ प्लान
संज्ञा पुं० [अं० प्लैन] दे० 'प्लैन'।
⋙ प्लाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोता। ड़ुबकी। २. परिपूर्णता। ३. जल का उमड़कर बहना (को०)। ४. उछाल। कूर्दन (को०)। ५. किसी तरल पदार्थ को छानना (को०)।
⋙ प्लावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाढ़। सैलाब। जैसे जलप्लावन। उ०— नीचे प्लावन की प्रलय धार, ध्वनि हर हर।—तुलसी०, पृ० ४। २. खूब अच्छी तरह धोना। बोर। ३. किसी चीज को ऊपर फेंकना। ४. जल का उमड़कर बहना (को०)। ५. तैरना। ६. विस्तार। दीर्घ करना। जैसे, स्वरों का।
⋙ प्लावित (१)
वि० [सं०] १. जो जल में डूब गया हो। पानी में डूबा हुआ। २. दीधंकृत। दीर्धोच्चारित, जैसे, स्वर (को०)।
⋙ प्लावित (२)
संज्ञा पुं० बाढ़। जलप्लावन (को०)।
⋙ प्लाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] युक्तिकल्पतरु के अनुसार १४४ हाथ लंबी, १८ हाथ चौड़ी और १४ १/२ हाथ ऊंची नाव या जहाज।
⋙ प्लावी (१)
वि० [सं० प्लाविन्] १. फैलनेवाला। २. बहनेवाला [को०]।
⋙ प्लावी (२)
संज्ञा पुं० पक्षी [को०]।
⋙ प्लाव्य
वि० [सं०] जल में डुबाने के योग्य। जो जल में डुबाया जाय।
⋙ प्लाशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरूष के मूर्त्रेद्रिय की जड़ के पास की नाड़ी।
⋙ प्लाशुक
वि० [सं०] जो शीघ्र पक जावे। शीघ्र तैयार होनेवाला।
⋙ प्लास्टर
संज्ञा पुं० [अं०] १. डाक्टरी के अनुसार वह ओषधि जो शरीर के किसी रुग्ण अंग पर उसे अच्छा करने के लिये लगाई जाय। औषधलेप। क्रि० प्र०—लगाना।—चढ़ाना। २. ईंटों आदि की दीवारों पर लगाने कि लिये सुर्खी चूने आदि का गाढ़ा लेप। पलस्तर।
⋙ प्लास्टर आफ पेरिस
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का अँगरेजी मसाला जो बहुत ठोस और कड़ा होता है और जो धातु, चीनी, पत्थर और शीशे आदि के पदार्थों को जोड़ने और मूर्तियाँ आदि बनाने के काम में आता है। विशेष—जिस अवस्था में जोड़ने या छेद आदि बंद करने में और मसाले काम नहीं आते उस अवस्था में यह बहुत उपयोगी होता है। ज्योंही यह जल में मिलाकर कहीं लगाया जाता है त्योंही वह दृढ़तापूर्वक बैठ जाता और फैलकर संधियों आदि को भरने लगता है। प्लैस्टर डी पेरिस।
⋙ प्लास्तर
संज्ञा पुं० [अं० प्लास्टर] दे० 'प्लास्टर'।
⋙ प्लिहा
संज्ञा पुं० [सं० प्लिहन्] दे० 'प्लीहा' [को०]।
⋙ प्लीडर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो वकालत करता हो। वकील। २. किसी का पक्ष लेकर वादविवाद करनेवाला।
⋙ प्लीह
संज्ञा स्त्री० [सं० प्लीहन्] दे० 'प्लीहा'। उ०—विदाही और अभिष्यदी वस्तु खाय तो प्लीह (तापतिल्ली) होय।— माधव०, पृ० १९१।
⋙ प्लीहघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] रोहड़ा वृक्ष।
⋙ प्लीहशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] प्लीहध्न। रोहड़ा वृक्ष।
⋙ प्लीहा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्लीहन्] पेट की तिल्ली। बरवट। विशेष—दे० 'तिल्ली'। २. वहु रोग जिसमें रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है। दे० 'तिल्ली'।
⋙ प्लीहाकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग का नाम जो कान के पास होता है।
⋙ प्लीहारि
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थ।
⋙ प्लीहार्णवरस
संज्ञा पुं० [सं०] प्लीहा के एक औषध का नाम। विशेष—ईंगुर, गंधक, सोहागा, अभ्रक और विष आठ आठ तोले लेकर और उसमें चार चार तोला मिर्च और पीपल मिलाकर छह छह रत्ती की गोलियाँ बनाई जाती हैं। यह निर्गुंडी के रस और मधु के साथ दी जाती है।
⋙ प्लीहाविद्रधि
संज्ञा पुं० [सं०] तिल्ली का एक रोग जिसमें रुक रुककर साँस आती है।
⋙ प्लीहाशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] रोहड़ा।
⋙ प्लीहोदर
संज्ञा पुं० [सं०] प्लीहा रोग। तिल्ली। उ०—अब प्लीहोदर के लक्षण कहता हूँ तू सुन।—माधव०, पृ० १९५।
⋙ प्लीहोदरी
वि० [सं० प्लीहोदरिन्] [वि० स्त्री० प्लीहोदरिणी] जिसे प्लीहा रोग हुआ हो। प्लीहा रोगग्रस्त।
⋙ प्लुक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. गृहादि का जलना (को०)। ३. स्नेह। प्रेम। ४. तेल। स्नेह।
⋙ प्लुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े की एक चाल का नाम जिसे पोई कहते हैं। २. टेढ़ी चाल। उछाल। ३. स्वर का एक भेद जो दीर्घ से भी बड़ा और तीन मात्रा का होता है। ४. वह ताल जो तीन मात्राओं का हो। (संगीत)।
⋙ प्लुत (२)
वि० १. कंपगति युक्त। जो काँपता हुआ चले। २. प्लावित। ३. तराबोर। ४. जिसमें तीन मात्राएँ हों।
⋙ प्लुतगति (१)
वि० [सं०] जो कूद कूदकर चलता हो।
⋙ प्लुतगति (२)
संज्ञा पुं० खरगोश [को०]।
⋙ प्लुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उछल कूद की चाल। २. जल आदि का उमड़कर बहना (को०)। ३. फैल जाना। फैलना। ४. घोड़े की एक चाल जिसे पोई कहते हैं। ५. वह वर्ण जो तीन मात्राओं से बोला गया हो।
⋙ प्लुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाह। जलना। २.पूर्ति। ३. स्नेह। प्रेम।
⋙ प्लुष्ट
वि० [सं०] दग्ध। जला हुआ।
⋙ प्लेंट
संज्ञा पुं० [अं०] यह आवेदनपत्र जो किसी दीवानी अदालत में किसी पर नालिश या दावा करते समय दिया जाता है और जिसमें दावें के संबंध में अपना सब वक्तव्य रहता है। अर्जीदावा।
⋙ प्लेइंग कार्ड
संज्ञा पुं० [अं०] ताश।
⋙ प्लेग
संज्ञा पुं० [अं०] १. भयंकर और संक्रामक रोग जिसके फैलने पर बहुत अधिक लोग मरते हैं। ताऊन। २. एक संक्रामक रोग जो प्रायः जाड़े में फैलता है। विशेष—इसमें रोगी को बहुत तेज ज्वर आता है और जाँघ या बगल में गिलटी निकल आती है। यह रोग प्रायः३-४ दिन में ही रोगी के प्राण ले लेता है और कभी कभी इसके १०० में से ९०-९५ तक रोगी मर जाते हैं। कहते हैं, छठी शताब्दी में यह रोग पहले पहल लेवांट से युरोप में गया था और वहीं से अनेक देशों में फैला। इधर सन् १९०० से भारत में इसका विशेष प्रकोप था पर अब कम हो गया है।
⋙ प्लेट
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी धातु का पत्तर या पतला पीटा हुआ टुकड़ा। चादर। २. छिछली थाली। तश्तरी। रिकाबी। ३. सोने चाँदी आदि का बना हुआ प्याला या किसी प्रकार की तख्ती जो किसी (विलायती) खेल में बाजी जीतनेवाले को पुरस्कार और प्रमाण के रूप में दी जाय। जैस, घुड़दौड़ का प्लेट, क्रिकेट का प्लेट। ४. धातु का बना हुआ वह चौड़ा पत्तर जिसपर कोई लेख आदि खुदा या बना हो। यह कई कामों में आता है, जैसे, दरवाजे या साइनबोर्ड़ की जगह लगाने के लिये, लेखो आदि के चित्र छापने के लिये, पुस्तकों आदि की जिल्द पर नाम आदि का ठप्पा करने के लिये। ५. फोटो लेने का वह शीशा जो प्रकाश में पहुँचते ही अपने ऊपर पड़नेवाली छाया को स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है। पीछे से इसी शीशे से फोटो चित्र छापे और तैयार किए जाते हैं।
⋙ प्लेटफार्म
संज्ञा पुं० [अं०] १. कोई चौकोर और समतल चबूतरा, विशेषतः किसी इमारत आदि में इस उददेश्य से बना चबूतरा कि उसपर खड़े होकर लोग वक्तृता या उपदेश दें। २. रेलवे स्टेशनों पर बना हुआ वह ऊँचा और बहुत लंबा चबूतरा जिसके सामने आकार रेलगाड़ी खड़ी होती है और जिसपर से होकर यात्री रेल पर चढ़ते या उससे उतरते हैं।
⋙ प्लेयर
संज्ञा पुं० [अं०] खिलाड़ी। उ०—खुदा ने मुझे वैसा 'प्लेयर' नहीं बनाया जैसा तुम्हें दोस्त।—चंद०, पृ० ५२।
⋙ प्लैंटर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो विदेश में जमीन लेकर (चाय, गन्ने, नील आदि की) खेती करता हो। बड़े पैमाने में खेती करनेवाला। विशेष—हिंदुस्तान में 'प्लैंटर' शब्द से गोरे प्लैंटरों का ही बोध होता है; जैसे,—टी प्लैंटर (चाय बगान का साहब), इंडिगों प्लैंटर (निलहा गोरा या साहब) आदि।
⋙ प्लैकर्ड
संज्ञा पुं० [अं०] छपा हुआ बड़ा नोटिस या विज्ञापन जोप्रायः दीवारों आदि पर चिपकाया जाता है। पोस्टर। जैसे,—दीवारों पर थिएटर, सिनेमा आदि के रंग बिरंगे प्लैकर्ड़ लगे हुए थे। क्रि० प्र०—चिपकना।—चिपकाना।—लगना।—लगाना।
⋙ प्लैटिनम
संज्ञा पुं० [अं०] चाँदी के रंग की एक प्रसिद्ध बहुमूल्य धातु जो अठारहवीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण अमेरिका से युरोप गई थी। विशेष—यह धातु शुद्ध रूप में नहीं पाई जाती और इसमें कई धातुओं का कुछ न कुछ मेल रहता है। यह प्रायः सब धातुओं से अधिक भारी होती है और इसके पत्तर पीटे या तार खींचे जा सकते हैं। यह आग से नहीं पिघल सकती, बिजली अथवा कुछ रासायनिक क्रियाओं की सहायता से गलाई जाती है। इसमें मोरचा नहीं लगता और न इसपर तेजाबों आदि का कोई प्रभाव होता है। इसी लिये बिजली के तथा और अनेक रासायनिक कार्यों में इसका व्यवहार होता है। रूस में कुछ दिनों तक इसके सिक्के भी चलते थे। दक्षिण अमेरिका के अतिरिक्त यह युराल पर्वत तथा बोर्नियो द्बीप में भी पाई जाती है।
⋙ प्लैन
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी बननेवाली इमारत का रेखा- चित्र या नक्शा। ढाँचा। खाका। जैसे,—मकान का प्लैन म्युनिसिपैलिटी में दाखिल कर दिया है। मंजूरी मिलते ही काम में हाथ लग जायगा। २. किसी काम को करने का विचार या आयोजन। बंदिश। मनसूबा। तजवीज। योजना। स्कीम।जैसे,—तुमने यहाँ आकार मेरा सारा प्लैन बिगाड़ दिया।
⋙ प्लैनचट
संज्ञा पुं० [अं० प्लांचेट] दे० 'प्लांचेठ'।
⋙ प्लोत
संज्ञा पुं० [सं०] १. पट्टी। घाव पर बाँधने की पट्टी (को०)। २. कपड़ा (को०)। ३. पित्त का विकार जो मुँह से गिरता है।
⋙ प्लोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. भक से जल जाना। २. दाह। जलन। पित्तविकार।
⋙ प्लोषण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्लोषणी] जलनेवाला। जैसे, मदनप्लोषण। दहकनेवाला।
⋙ प्लोषण (२)
संज्ञा पुं० जलन। दाह [को०]।
⋙ प्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूख। बुभुक्षा। २. खाना। खाद्य वस्तु [को०]।
⋙ प्सात
वि० [सं०] १. भूखा। बुभुक्षित। २. भक्षित। खाया हुआ [को०]।
⋙ प्सान
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन। २. खाना। खाद्यपदार्थ।
⋙ प्सुर
वि० [सं०] १. सुंदर। सलोना। प्यारा। २. रूप या आकार युक्त [को०]।