विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/म
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ म
⋙ म
हिंदी वर्णमाला का पचीसवाँ व्यंजन और प वर्ग का अंतिम वर्ण। इसका उच्चारण स्थान होंठ और नासिका है। जिह्वा के अगले भाग का दोनों होठों से स्पर्श होने पर इसका उच्चारण होता है। यह स्पर्श और अनुनासिक वर्ण हे। इसके उच्चारण में संवार, नादघोष और अल्पप्राण प्रयत्न लगते हैं। प, फ, ब और भ इसके सवर्ण हैं।
⋙ मंकणक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्कणक] १. एक ऋषि का नाम। २. महाभारत के अनुसार एक यक्ष का नाम।
⋙ मंकिल
संज्ञा पुं० [सं० मङ्किल] दावाग्नि। जंगल की आग। वनाग्नि [को०]।
⋙ मंकु
संज्ञा पुं० [सं० मङ्कु] ब्रण। धाव [को०]।
⋙ मंकुक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्कुक] एक वाद्य यंत्र [को०]।
⋙ मंकुर
संज्ञा पुं० [सं० मङ्कर] दर्पण। शीशा। आईना।
⋙ मंकुश
संज्ञा पुं० [सं० भङ्कुश] संगीत और नृत्य दोनों का ज्ञाता। नृत्य और गीत का जानकार। [को०]।
⋙ मंक्ता
वि० [सं० मङ्क्तृ] गोताखोर [को०]।
⋙ मंक्षण
संज्ञा पुं० [मङक्षण] जंघत्राण। जाँघ पर बाँधने का कवच [को०]।
⋙ मंक्षु
क्रि० वि० [सं० मङ्क्षु] तुरंत। जल्दी से। सत्वर। २. अत्य- धिक। ३. वास्तव में। वस्तुतः। यथार्थतः (को०)।
⋙ मंख
संज्ञा पुं० [सं० मङ्ख] १. भाट। बंदीजन। २. दवादारू। ३. एक विशेष औषध। ४. एक कोशकार का नाम [को०]।
⋙ मंखी
संज्ञा स्त्री० [देश०] बच्चों के कंठ में पहनाने का एक गहना।
⋙ मंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० मङ्ग] १. नाव का अगला भाग। गलही। २. नाव या जहाज का पार्श्व (को०)।
⋙ मंग (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँग] दे० 'माँग'। उ०—कुसुम फूल जस मरदै निरँग देख सब अंग। चंपावति भइ बारी चूम केस औ मंग।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मंग (३)
संज्ञा पुं० [देश०] आठ की संख्या। (दलाल)।
⋙ मंगत पु
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना] दे० 'मँगता'। उ०—मंगत जन परिपूरन भए। दारिदहू के दारिद गए।—नंद० ग्रं०, पृ० २३५।
⋙ मंगता
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना + ता (प्रत्य०)] भिखमंगा। भिक्षुक।
⋙ मंगन
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना] भिखमंगा। भिक्षुक। उ०—मँगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन दान नाना विधि पाए।—मानस, ७।१५।
⋙ मंगनहार पु
संज्ञा पुं० [हिं० मंगन + हार (प्रत्य०)] भिखमंगा। भिक्षुक। उ०—कवि गंग के अंगन मंगनहार दिना दस ते नित नृत्य करै।—अकबरी०, पृ० १२३।
⋙ मंगर †
संज्ञा पुं० [सं० मकर] दे० 'मगर'। उ०—जल बिच आस लगाइ कै, मगर तन पाई।—वरनी० श०, पृ० १०।
⋙ मंगल
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गल] १. अभीष्ट को सिद्धि। मनोकामना का पूर्ण होना। २. कल्याण। कुशल। भलाई। जैसे,— आपका मंगल हो। ३. सौर जगत् का एक प्रसिद्ध ग्रह जो पृथ्वी का पुत्र माना जाता है। भौम। विशेष—यह ग्रह पृथ्वी के उपरांत पहले पहल पड़ता है और सूर्य से १४, १५,००००० मील दूर है। यह हमारी पृथ्वी से बहुत ही छोटा ओर चंद्रमा से प्रायः दूना है। इसका वर्ष अथवा सूर्य की एक बार परिक्रमा करने का काल हमारे ६८७ दिनों का होता है और इसका दिन हमारे दिन की अपेक्षा प्रायः आध घंटा बड़ा होता है। इसके साथ दो उपग्रह या चंद्रमा हैं जिनमें से एक प्रायः आठ घटे में और दूसरा प्रायः ३० घंटे में इसकी परिक्रमा करता है। इसका रंग गहरा लाल है। अनुमान किया जाता है कि इस ग्रह में स्थल और नहरों आदि की बहुत अधिकता है और यहाँ की जलवायु हमारी पृथ्वी के जलवायु के बहुत कुछ समान है। पुराणानुसार यह ग्रह पूरुष, क्षत्रिय, सामवेदी, भरद्वाज मुनि का पुत्र, चतुर्भुज, चारों भुजाओं में शक्ति, वर, अभय तथा गदा का धारण करनेवाला, पित्तप्रकृति, युवा, क्रूर, वनचारी, गेरू आदि धातुओं तथा लाल रंग के समस्त पदार्थों का स्वामी और कुछ अंगहीन माना जाता है। इसके अधिष्ठाता देवता कार्तिकेय कहे गए हैं और यह अवंति देश का अधिपति बतलाया गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि एक बार पृथ्वी विष्णु भगवान् पर आसक्त होकर युवती का रूप धारण करके उनके पास गई थी। जब विष्णु उसका शृंगार करने लगे, तब वह मूर्छित हो गई। उसी दशा में विष्णु ने उससे संभोग किया, जिससे मंगल की उत्पत्ति हुई। पद्मपुराण में लिखा है कि एक बार विष्णु का पसीना पृथ्वी पर गिरा था जिससे मंगल की उत्पत्ति हुई। मत्स्यसपुराण में लिखा है कि दक्ष का नाश करने के लिये महादेव ने जिस बीरभद्र को उत्पन्न किया था, वही वीरभद्र पीछे से मंगल हुआ। इसी प्रकार भिन्न भिन्न पुराणों में इसकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार की कथाएँ दी हुई हैं। पर्या०—अंगारक। धरासुत। भौम। कुज। कुमार। वक्र। महीसुत। लोहितांग। ऋणांतक। आवनेय। ४. एक बार जो इस ग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। मंगलवार। ५. विष्णु। ६. सौभाग्य। ७०. अग्नि का नाम (को०)।
⋙ मंगल (२)
वि० १. शूभद। कल्याणकारी। २. संपन्न। धनधान्यादिसे युक्त। ३. शुभ लक्षणों से युक्त। अच्छे लक्षणवाला। ४. बहादुर। वीर [को०]।
⋙ मंगलकरण
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलकरण] दे० 'मंगलकर्म'।
⋙ मंगलकरन पु
वि० [सं० मङ्गल + हिं० करन] [वि० स्त्री० मंगल- करनि, मंगलकरनी] शूभद। कल्याण देनेवाला। उ०— मगलकरनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रधुनाथ की।— मानस, १।१०।
⋙ मंगलकर्म
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलकर्मन्] पूजन एवं प्रार्थना आदि। जो किसी कार्य की सफलता के लिये शुरू में की जाय [को०]।
⋙ मंगलकलश
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गनकलश] जल से भरा हुआ वहु धड़ा या कलश जो विवाह आदि शुभ अवसरों पर पूजा के लिये रखा जाता है।
⋙ मंगलकाम
वि० [सं० मङ्गलकाम] शुभेच्छु। कल्याणकांक्षी। शुभ की कामना करनेवाला [को०]।
⋙ मंगलकामना
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलकामना] शुभाकांक्षा। कल्याण की अभिलाषा [को०]।
⋙ मंगलकारक
वि० [सं० मङ्गल + कारक] शुभप्रद। कल्याणकर [को०]।
⋙ मंगलकारी
वि० [सं० मङ्गलकारिन्] दे० 'मंगलकारक'।
⋙ मंगलकार्य
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलकार्य] ब्याह, यज्ञोपवीत, जन्म आदि जैसे शुभकार्य या उत्सव [को०]।
⋙ मंगलकाल
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलकाल] शुभ वेला या शुभ धड़ी [को०]।
⋙ मंगलक्षौम
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलक्षौम] रेशमी वस्त्र जो शुभ अवसरों पर पहना जाता है [को०]।
⋙ मंगलगान
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलगायनम्] शुभ अवसरों पर होनेवाला गान। उ०—मगलगान करहि बर भामिनि। भइ सुखमूल मनोहर जामिनि।—मानस, १।३५५।
⋙ मंगलगीत
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलगीत] दे० 'मंगलगान'।
⋙ मंगलगृह
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलगृह] पवित्र स्थान। देवस्थान। मदिर [को०]।
⋙ मंगलग्रह
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलग्रह] १. शुभ ग्रह। २. दे० 'मंगल'—।
⋙ मंगलघट
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलघट] दे० 'मंगलकलश'। उ०— परिपूरण सिंदूर पूर कैधों मगलघट।—केशव (शब्द०)।
⋙ मंगलचंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलचण्डिका] दुर्गा का नाम।
⋙ मंगलचंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलचण्डी] दे० 'मगलचंडिका'।
⋙ मंगलचार पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मंगलाचार'। उ०—हथलेवा करि हरि राधा सों मगलचार गवाए।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४६।
⋙ मंगलच्छाय
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलच्छाय] १. प्लक्ष का वृक्ष (को०)। २. बड़ का पेड़। वट वृक्ष।
⋙ मंगलतूय
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलतूर्य] शुम अवसरों पर बजाए जानेंवाले तुरही, मृदंग आदि वाद्य [को०]।
⋙ मंगलदशा
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलदशा] कल्याण की अवस्था या मानसिक स्थिति। उ०—तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम और कृष्ण की सौंदर्यभावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर गए हैं जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता।—रस०, पृ० ३१।
⋙ मंगलदाय
वि० [सं० मङ्गलदायक] आनंद मंगल देनेवाला। शुभद। उ०—प्रथम दरस तेरो भयो, मोंहि आज ही आय। विनवति हों तू हूजियो, ऋतु को मगलदाय।—शकुंतला, पृ० १०५।
⋙ मंगलदेवता
पंज्ञा पुं० [सं० मङ्गलदेव] इष्ट देवता। शुभकर देवता [को०]।
⋙ मंगलद्वार
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलद्वार] मुख्य दरवाजा। प्रधान द्वार [को०]।
⋙ मंगलध्वनि
संज्ञा पुं० [मङ्गलध्वनि] मांगलिक अवसर के वाद्य, गीत आदि [को०]।
⋙ मंगलपत्र
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलपत्र] कल्याण के निमित्त पहनने का ताबीज [को०]।
⋙ मंगलपाठक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलपाठक] वह जो राजाओं की स्तुति आदि करता हो। वंदीजन।
⋙ मंगलपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलपुष्प] पूजनादि मंगलकार्यों में ग्राह्य पुष्प [को०]।
⋙ मंगलप्रतिसर
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलप्रतिसर] दे० 'मंगलसूत्र' [को०]।
⋙ मंगलप्रद
वि० [सं० मङ्गलप्रद] जिससे मंगल होता हो। मंगल करनेवाला।
⋙ मंगलप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलप्रदा] १. हरिद्रा। हलदी। २. शमी का वृक्ष।
⋙ मंगलप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलप्रस्थ] पुराणनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ मंगलभेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलभेरी] मांगलिक अवसर पर बजाने की भेरी या वाद्य [को०]।
⋙ मंगलमय
वि० [सं० मङ्गलमय] शुभस्वरूप। कल्याणरूप। उ०— मंगलमय कल्यानमय अभिमत फलदातार।—मानस, १।
⋙ मंगलमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलमालिका] विवाह के समय गाए जानेवाले गीत [को०]।
⋙ मंगलवाद
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलवाद] [वि० मंगलवादी] आशी- वदि। आशीष।
⋙ मंगलवार, मंगलवासर
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलवार, मङ्गलवासर] सात वारों में तीसरा वार जो सोमवार के उपरांत और बुधवार के पहले पड़ता है। भोमवार।
⋙ मंगलविधायनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गल + विधायिनी] मंगल का विधान करनेवाली। उ०—यदि बीज भाव की प्रकृति मंगलविधायिनी होती है तो उसकी व्यापकता और निर्विशे- षता के अनुसार सारे प्रेरित भाव तीक्ष्ण और कठोर होने पर भो सुंदर होते है।—रस०, पृ० ६५।
⋙ मंगलविधि
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलविधि] शुभसाधन विषयक कल्याण के लिये किया जानेवाला कृत्य [को०]।
⋙ मंगलशाक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलशक्ति] मंगल या कल्याण करनेवाली शक्ति। उ०—कवि जहाँ मंगलशक्ति की सफलता दिखाता है, वहाँ कला की दृष्टि से सौंदर्य का प्रभाव डालने के लिये।—रस०, पृ० ६१।
⋙ मंगलशब्द
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलशब्द] कल्याणकारक शब्द। मंगलकारक शब्द [को०]।
⋙ मंगलसूचक
वि० [सं० मङ्गलसूचक] कल्याण या शुभ की सूचना देनेवाला। भाग्योदय का द्योतक [को०]।
⋙ मंगलसूत्र
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलसूत्र] १. वह तागा जो किसी देवता के प्रसाद रूप में किसी शुभ अवसर पर कलाई में बाँधा जाता है। २. वह सूत्र या सिकड़ी जो सधवा स्त्रियाँ गले में पहनती हैं। अब इसका अधिकतर महाराष्ट्र में प्रचार है।
⋙ मंगलस्नान
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलस्नान] वह स्नान जो मंगल की कामना से अथवा किसी शुभ अवसर पर किया जाता है।
⋙ मंगला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गला] १. पार्वती। २. सफेद दूब। ३. पतिव्रता स्त्री। ४. एक प्रकार का करंज। ५. हलदी। ६. नीली दूब। यौ०—मगला गौरी = पार्वती की एक मूर्ति। मंगला आरती।
⋙ मंगला (२)
वि० [हिं० मंगल (ग्रह)] १. दे० 'मंगली'। २. मंगलवार को उत्पन्न।
⋙ मंगलाआरती
संज्ञा स्त्री० [हिं० मंगल + आरती] प्रातः काल की प्रथम आरती। उ०—ता पाछे समै भए भोग सराय मंगला- आरती किए।—दो सौ बावन०, पृ० ५८।
⋙ मंगलागुरु
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गलागुरु] अगर नामक सुगंधि- द्रव्य के चार भेदों में से एक [को०]।
⋙ मंगलाचरण
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलाचरण] वह श्लोक या पद आदि जो किसी शुभ कार्य के आरंभ में मंगल की कामना से पढ़ा, लिखा या कहा जाय। मंगलदायक देवस्तुति।
⋙ मंगलाचार
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलाचार] मंगलगान। शुभ कार्यों के पहले होनेवाला मांगलिक गायन।
⋙ मंगलाभोग
संज्ञा पुं० [हिं०] प्रातःकाल की प्रथम आरती (मगलाआरती) से पूर्व अर्पण किया जानेवाला भोग। उ०—पाछैं मगलाभोग धरि कै श्री गुसाईं जी सिंघद्वार पर पधारे।—दो सौ बावन०, पृ० २२३।
⋙ मंगलामुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गल + मुखी] वेश्या। रंडी।
⋙ मंगलायतन
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलायतन] कल्याण का स्थान। शुभदायक स्थान।
⋙ मंगलायन
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलायन] १. शुभकर मार्ग। सुख समृद्धि का मार्ग। २. वह जो शुभ मार्ग पर चलता हो।
⋙ मंगलारंभ
संज्ञा पुं० [सं० मङ्लारम्भ] गणेश।
⋙ मंगलालय
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलालय] परमेश्वर।
⋙ मंगलावह
वि० [सं० मङ्गलावह] शुभद। मंगलदायक [को०]।
⋙ मंगलावास
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलावास] देवमंदिर। देवस्थान।
⋙ मंगलाव्रत
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलाव्रत] १. शिव। २. एक व्रत जो स्ञियाँ पार्वती के उद्दश्ये से करती हैं।
⋙ मंगलाष्टक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलाष्टक] वर वधू के कल्याणार्थ विवाह के समय पाठ किए जानेवाले मंत्र विशेष [को०]।
⋙ मंगलाह्विक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलाह्विक] कल्याण के लिये की जानेवाली दैनिक अर्चना या साधना। दैनिक मंगल कृत्य [को०]।
⋙ मंगली
वि० [सं० मङ्गल (ग्रह)] जिसकी जन्मकुंडली के चौथे, आठवें या बारहवें स्थान में मंगलग्रह पड़ा हो। उ०—सबको जो अड़े प्रार्थना भर, नयनो में, पाने का उत्तर अनुकूल, उन्हें कहा निडर मैं हूँ मगली, मुड़ी सुनकर।—अनामिका पृ० १२४। विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार ऐसी स्त्री या पुरुष कई बातों में बुरा और अनुपयुक्त समझा जाता है; और वर या कन्या में से जो मंगली होता है, वह दूसरे पर भारी माना जाता है।
⋙ मांगलीक पु
वि० [सं० माङ्गलिक] दे० 'मांगलिक'। उ०—काहू तरवर दीन्ह उतारी। मंगलीक ससि सम सित सारी।—शकुंतला, पृ० ६९।
⋙ मंगलीय
वि० [सं० मङ्गलीय] मंगलयुक्त। भाग्यशील। भाग्यप्रद। शुभावह [को०]।
⋙ मंगलेच्छु
वि० [सं० मङ्गलेच्छु] कल्याण या शुभ की कामना करनेवाला। शुभेच्छु।
⋙ मंगलोत्सव
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गलोत्सव] शुभ उत्सव [को०]।
⋙ मंगल्य (१)
वि० [सं० मङ्गल्य] १. मंगलकारक। मंगल या कल्याण करनेवाला। २. सुंदर। ३. पवित्र। पूत। शुद्ध। ४. साधु।
⋙ मंगल्य (२)
संज्ञा पुं० १. त्रायमाण लता। २. अश्र्वत्थ। ३. बैल। ४. मयूर। ५. जीवक वृक्ष। ६. नारियल। ७. कैथ। ७. रीठा करंज। ९. दही। १० चंदन। ११ सोना। १२. सिंदूर। १३. अभिषेकार्थ विभिन्न तीर्थो से एकत्रित किया हुआ जल (को०)।
⋙ मंगल्यक
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गल्यक] मसूर [को०]।
⋙ मंगल्यकुसुमा
संज्ञा स्त्री० [सं० मङ्गल्यकुसुमा] शखपुष्पी।
⋙ मंगल्या
संज्ञा स्त्री० [स० मङ्गल्या] १. एक प्रकार का अगुरु जिसमें चमेली की सी गंध होती है। २. शमी। ३. सफेद बच। ४. रोघना। ५. शंखपुष्पी। ६. जीवंती। ७. ऋदि्ध लता। ८. हल्दी। ९. दूब। १० दुर्गा का एक नाम।
⋙ मंगिता पु
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना] पँगता। याचक। उ०—मै भिखारी मंगित, दरसन दहु दयाल।—दादू० बानी, पृ० ५९।
⋙ मंगिन पु
संज्ञा पुं० [हिं० मागना] मँगता। याचक। उ०—बैरम सुवन नित बकसि बकसि हथ देत मंगिनन।—अकबरी०, पृ० १४४।
⋙ मंगुर पु
संज्ञा पुं० [सं० मङ्गुर] मछली की एक जाति। माँगुर। उ०—धीमर जाल झीन एह डारा बाझे मंगुर मीना।—संत० दरिया, पृ० १४६।
⋙ मंगोल
संज्ञा पुं० [मंगोलिया प्रदेश से] मध्य एशिया और उसके पूरब की ओर (तातार चीन और जापान में) बसनेवाली एक जाति जिसका रंग पीला, नाक चिपटी ओर चेहरा चोड़ा होता है। विशेष—पृथ्वी के मनुष्यों के जो प्रधान चार वर्ग किए गए हैं उनमें एक मंगोल भी है जिसके अतर्गत नैपाल, तिब्बत चीन, जापान आदि के निवासी माने जाते हैं। आज से छह सात सौ वर्ष पहले इस जाति के लागो ने एशिया के बहुत बड़े ओर यूरोप के कुछ भाग पर भी आधिकार कर लिया था।
⋙ मंच
सज्ञा पुं० [सं० मञ्च] १. खाट। खटिया। २. खाट की तरह बुनी हुई बंठने की छोटी पीढ़ा। मंचिया। ३. सिहासन (को०)। ४. मैदान या खेतों आदि मे बना हुआ ऊँचा स्थान। मचान (को०)। ५. ऊँचा बना हुआ मँडल जिसप्रर बैठकर सर्वसाधारण के सामने किसी प्रकार की कार्य किया जाय। जैसे, रगमच। यौ०—मंचनृत्य = एक प्रकार का नाच, मचपत्री। मचपीठ = मच पर बैठने का आसन। मंचमंडप। मचयूप = वह स्तंभ जिसके आधार पर मच का ढाँचा टिका रहता है।
⋙ मंचक
संज्ञा पुं० [सं० मञ्चक] दे० 'मंच'।
⋙ मंचकाश्रय
सज्ञा पु० [सं० मञ्चकाश्रय] खटमल।
⋙ मंचकासुर
संज्ञा पु० [मञ्चकासुर] पुराणानुसार एक असुर का नाम।
⋙ मंचपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्चपत्री] सुरपत्री नाम की लता।
⋙ मंचमंडप
संज्ञा पुं० [सं० मञ्चमण्डप] १. खेतों में बनी हुई वह मचान जिसपर खेतिहर लाग बैठकर पशुओं आदि स खेतों का रक्षा करते है। २. विवाहादि के समय बना हुआ मच (को०)।
⋙ मंचातोड़
वि० [हिं० माँचा + तोड़] भारी भरकम। विशालकाय। बड़े डीलडौलवाला। उ०—बीस मचातोड़ रक्षक राजपूत उसके लिये वहीं मरने का निश्चय कर ठहरे हुए थे।—राज० इति०, पृ० ८६९।
⋙ मंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्चिका] १. मचिया। २. कठवत। द्रोणी [को०]।
⋙ मंछ (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य,० मच्छ] दे० 'मत्स्य'। उ०— कीन्हेसि नदी नार ओ झरना। कीन्हेसि मगर मंछ बहु बरना।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १।
⋙ मंछ † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] डिंगल रीति-ग्रथ-रचयिता कवि मनसा राम का उपनाम जिन्होंने विभिन्न गीतों में रघुनाथ रूपक गीतारों नाम से रामचरित लिखा है।
⋙ मंछर—पु
संज्ञा पुं० [सं० मत्सर] दे० 'मत्सर'। उ०—आदि अतलौ आइ करि सुकिरत कछू न कीन्ह। माया माद मद मंछरा स्वाद सबै चित द्रीन्ह।—संतवाणी०, पृ० ८५।
⋙ मंछला †
संज्ञा पुं० [सं० मतस्य] मत्स्य। मछला। उ०—परनारी कै राँचण ओगुण है गुण नाँहि। षार सर्मंद में मछला केता बहि बहि जाहि।—कबीर ग्रं०, पृ० ३९।
⋙ म़जन
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जन] १. वह चूण जिसकी सहायता से मलकर दाँत साफ किए जाते हैं। २. स्नान। नहाना। उ०— अंजन दे निकसै नित नैनन, मंजन कै अति अंग सँवारे।— मतिराम (शब्द०)। ३. दे० 'माँजना'। उ०—गुरू घाम कंजा मनी मैल मंजा'—घट०, पृ० ३८५।
⋙ मंजनीक
संज्ञा पुं० [?] युद्ध में पत्थरों की मार करने का एक मंत्र। उ०—किला बहुत उँचा होने से उसपर मंजनीक (मकरी यंत्र) काम नहीं दे सकते थे।—राज० इति०, पृ० ७३०।
⋙ मंजर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जर] १. मोती। २. मंजरी। ३. तिलक का पौधा।
⋙ मंजर (२)
संज्ञा पुं० [अ० मंजर] १. नज्जारा। द्दश्य। दर्शनीय वस्तु। २. मुखाकृति। ३. क्रीड़ास्थान। ४. दृष्टिसीमा [को०]।
⋙ मंजरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जरि] दे० 'मंजरी'। उ०—(क) मंजुल मंजरि तुलसि विराजा।—मानस, १।११०। (ख) जै श्री राधा रसिक रस मंजरि प्रिय सिर मौंर।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८१।
⋙ मंजरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जरिका] दे० 'मंजरी'।
⋙ मंजरित
वि० [सं० मञ्जरित] मंजरियों से भरा हुआ। मंजरी से पूर्ण। उ०—एक भी तरु मंजरित यदि ब्यर्थ कोयल का नहीं स्वर।—मधु०, पृ० ७२।
⋙ मंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जरी] १. छोटे पौधे या लता आदि का निकला हुआ कल्ला। कोपल। २. कुछ विशिष्ठ वृक्षों या पौधों में फूलों या फलों के स्थान में एक सीके में लगे हुए बहुत से दानों का समूह। जैसे, आम की मंजरी, तुलसी की मंजरी। ३. मोती। ४. तिल का पौधा। ५. लता। बेल ६. तुलसी। यौ०—मंजरीचामर = मंजरी के आकार की चँवर। मंजरीजाल = खूब घना मंजरी का समूह। मंजरीनम्र = बेत। वेतस।
⋙ मंजरीक
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जरीक] १. तुलसी। २. मोती। ३. तिल का पौधा। ४. बेत (लता)। ५. अशोक का वृक्ष।
⋙ मंजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जा] १. लता। वल्ली। २. बकरी। ३. मंजरी [को०]।
⋙ मंजा † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मज्जा] दे० 'मज्जा'। उ०—मंजा मुत्र अग्नि मल कृम जहँ, सहजै तहँ प्रतिपारो।—धरनी० बा०, पृ० २३।
⋙ मंजार †
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली। बिडाल। उ०—कहति न देवर की कुबत, कुलतिय कलह डराति। पंजर गत मंजार ढिग, सुक ज्यौं सूकति जाति।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मंजारड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जार, हिं० मंजार + डी (प्रत्य०)] दे० 'मार्जार'। उ०—बाट काटे मंजारड़ी सामही छींक हणई कपाल।—बी० रासो, पृ० ५९।
⋙ मंजारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जारी] दे० 'मार्जार'। उ०—जारी नाहीं जम अहै तू मत राचे जाय। मंजारी ज्यों बोलि कै, काढ़ि करेजा खाय।—संतवाणी०, पृ० ५९।
⋙ मंजि
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जि] दे० 'मंजरी'।
⋙ मंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जिका] वेश्या। रंडी।
⋙ मंजिफला
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जिफला] केला का पेड़।
⋙ मंजिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जिमा] सौंदर्य। मोहकता। सुंदरता [को०]।
⋙ मंजिल
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. यात्रा के मार्ग में ठहरने का स्थान। मुकाम। पड़ाव। २. वह स्थान जहाँ तक पहुँचना हो। गंतव्य स्थान। उ०—ये सराइ दिन चारि मुकामा। रहना नहिं मंजिल को जाना।—धरनी०, पृ० ३००। ३. मकान का खंड। मरातिब। ४. एक दिन को यात्रा। एक दिन का सफर। ५. लंबी यात्रा। दूर का सफर (को०)। ६. यात्रा। सफर। उ०—खर्चे की तदबीर करो तुम मंजिल लंबी जाना।—कबीर सा०, पृ० २। मुहा—मंजिल उठाना = मकान बनाना। मंजिल भारी होना = यात्राकार्य कठिन होना। मंजिल मारना = यात्रा पूर्ण कर लेना। कठिनाई समाप्त होना। मंजिर्लो भागना = बहुत दूर रहना। उ०—बस इस जूती पेजार से हम मंजिलों भागते हैं।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३। यौ०—मंजिलगाह = पड़ाव। यात्रा में उतरने की जगह। उ०—यहाँ का सांप्रदायिक उत्पात मंजिल नामी दो भवर्नों के कारण आरंभ हुआ।—भारत० नि०, पृ० ६७। मंजिले अव्वल = कब्र या श्मसान। मंजिले कमर = नक्षत्र। मंजिले मकसूद = आशय। उद्देश्य। लक्ष्य स्थान। मंजिले हस्ती = आयु। जीवनयात्रा।
⋙ मंजिष्ठ, मंजिष्ठक
वि० [सं० मञ्जिष्ठ, मञ्जिष्ठक] दीप्ति से युक्त लाल (वर्ण)।
⋙ मंजिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जिष्ठा] मजीठ।
⋙ मंजिष्ठामेह
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जिष्ठामेह] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मजीठ के पाने के समान मूत्र होता है।
⋙ मंजिष्ठाराग
संज्ञा पुं० [सं० मजिठाराग] १. मजीठ का रंग। २. (लाक्ष०) मजीठे के रंग सा सुंदर और टिकाऊ अनुराग। पक्का प्रेम [को०]।
⋙ मंजी
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जी] दे० 'मंजरी'।
⋙ मंजीर
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जीर] १. नूपुर। घुँघरू। २. वह खंभा। या लकड़ी जिसमें मथानी का डंडा बंधा रहता है। ३. एक पहाड़ी जाति जो पश्चिमी बंगाल में रहती है।
⋙ मंजील
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जील] धोबियों का गाँव। रजक ग्राम। गाँव जिसमें मुख्यतः धोबी रहते हों [को०]।
⋙ मंजु
वि० [सं० मञ्जु] सुंदर। मनोहर।
⋙ मंजुकेशो
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुकेशिन्] श्रीकृष्ण।
⋙ मंजुगति
वि० [सं० मञ्जुगति] सुंदर चालवाला [को०]।
⋙ मंजुगमना
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुगमना] हंसिनी [को०]।
⋙ मंजुगर्त
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुगर्त] नेपाल देश का प्रचिन नाम।
⋙ मंजुगुंज
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुगुञ्ज] मनोहर गुंजन [को०]।
⋙ मंजुघोप (१)
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुघोप] १. तांत्रिकों के एक देवता का नाम। विशेष—कहते हैं, इनका पूजन करने से मुर्खता दूर होती है। २. एक प्रसिद्ध बोद्ध आचार्य जो बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिये चीन गए थे। विशेष—कहा जाता है कि जिस स्थान पर आजकल नेपाल देश है उस स्थान पर पहले जल था। हन्होंने मार्ग बनाकर वह जल निकाला था और उस देश को मनुष्यों के रहने योग्य बनाया था। इन्हें मंजुदेव और मंजुओ भी कहते हैं।
⋙ मंजुघोष (२)
वि० मनोहर बोलावाला [को०]
⋙ मंजुघोषा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुघोषा] एक अप्सरा का नाम। उ०—चलि देखो दुति दामिनी दिपति मनौ दुतिरूप। मंजु मंजुघोषा भई जोषा जगन अनूप।—स० सप्तक, पृ० ३९१।
⋙ मंजुदेव
संज्ञा पुं० [सं० मज्जुदेव] दे० 'मंजुघोष-२'।
⋙ मंजुनाशो
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुनाशी] १. दूर्गा का एक नाम। २. इंद्राणी का एक नाम। ३. सुंदर महिला (को०)।
⋙ मंजुपाठक
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुपाठक] तोता।
⋙ मंजुप्राण
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुप्राण] ब्रह्मा।
⋙ मंजुभद्र
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुभद्र] दे० मंजुघोष'।
⋙ मंजुभाषिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुभापिणी] एक गणात्मक छंद जिसमें सगण, जगण, सगण, जगण और दो गुरु होते हैं।
⋙ मंजुभाषिणी (२)
वि० [सं० मञ्जुभाषिणी] मधुर बोलवाली [को०]।
⋙ मंजुभाषी
वि० [सं० मञ्जुभाषिन्] [वि० स्त्री० मञ्जुभाषिणी] मधुर बोलने या भाषण करनेवाला [को०]।
⋙ मंजुल (१)
वि० [सं० मञ्जुल] [स्त्री मञ्जुला] सुंदर। मनोहर। खुबसूरत। उ०—सुकृत पुंज मंजुल अलिमाला। ज्ञान बिराग बिचार मराला—मानस, १।३७।
⋙ मंजुल (२)
संज्ञा पुं० १. नदी या जलाशय का किनारा। २. कुंज। ३. सोता। कूप (को०)। ४. एक पक्षी। दात्यूह। कालकंठ (को०)।
⋙ मंजुला
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुला] एक नदी का नाम।
⋙ मंजुवक्त्र
वि० [सं० मञ्जुवक्त्र] सुंदर सुखवाला। सुंदर [को०]।
⋙ मंजुवज्र
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुवज्र] बौद्धों के एक देवता का नाम।
⋙ मंजुश्री
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जुश्री] दे० 'मँजुघोष—२'।
⋙ मंजुषा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जुषा] दे० 'मंजूषा' [को०]।
⋙ मंजुस्वन
वि० [सं० मञ्जुस्वन] मधुर आवाजवाला। मधुर। कंठवाला [को०]।
⋙ मंजुस्वर
वि० [सं० मञ्जुस्वर] दे० 'मंजुस्वन' [को०]।
⋙ मंजूर
वि० [अ०] १. जो मान लिया गया हो। स्वीकृत। पसंद। २. जो देखा गया हो। अवलोकित (को०)।
⋙ मंजूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मनूजूर + ई (प्रत्य०)] मंजूर होने का भाव। स्वीकृति।क्रि० प्र०—देना।—पाना।—माँगना।—मिलाना।—लेना।
⋙ मंजूषा
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जूषा] १. छोटा पिटारा या डिब्बा। पिटारी। उ०—सुंदर काले काठ की मंजूषा में एक सुरीला बाजा रक्खा हुआ था।—श्यमा०, पृ० ६४। २. पत्थर। ३. मजीठ। ४. बड़ा संदूक (को०)। ५. पु पिंजडा।
⋙ मंझ पु (१)
वि० [सं० मध्य, प्रा० मझझ, मझ] दे० 'मंझा'। उ०— मंझ महल की को कहै, बाँका पस्वा सोया।—कबीर सा० सं०, पृ० १९।
⋙ मंझ पु (२)
वि० [सं० मन्द] दे० 'मंद'। उ०—कबीर लहरि सगद की मोती बिखरे आइ। बगुला मझ न जाणई हस चुणो चुणि खाइ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७८।
⋙ मंझा पु (१)
वि० [सं० मध्य, पा० मज्झ] मध्य का। बीच का। जो दो के बीच में हो। मंझला। उ०—मंझा जोति राम प्रकासै गुर गमि बाणी।—कबीर ग्रं०, पृ० १४३।
⋙ मंझा (२)
संज्ञा पुं० १. सूत कातने के चरखे में वह मध्य का अवयव जिसके ऊपर माल रहती है। मुँडला। २. अटेरन के बीच की लकड़ी। मँझेरू।
⋙ मंझा (३)
संज्ञा स्त्री० वह भूमि जो गोयंड और पालों के बीच में हो।
⋙ मंझा (४)
संज्ञा पुं० [सं० मञ्चक] १. चौकी। २. पलंग। खाट। (पंजाब)।
⋙ मंझा (५)
संज्ञा पुं० [हिं० माँजना] वह पदार्थ जिससे रस्सी वा पतंग की डोर को माँजते हैं। माँझा। मुहा०—मंझा देना = माँजना। लेस चढ़ाना।
⋙ मंटि
संज्ञा पुं० [सं० मण्टि] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि [को०]।
⋙ मंठ
संज्ञा पुं० [सं० मण्ठ] प्राचीन काल का एक प्रकार का मैदे का बना हुआ पकवान जो शीरे में डुबोया हुआ होता है। माठ।
⋙ मंड
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड] १. उबले हुए चावलों आदि का गाढ़ा पानी। भात का पानी। माँड़। २. पिच्छ। सार। ३. एरंड वृक्ष। अंडी। ४. भूषा। सजावट। उ०—मनो मनिमंदिर तापर मंड। उदै रबि आप भयो परचंड।—हम्मीर०, पृ० ५१। ५. मेंढक। ६. एक प्रकार का साग। ७. सुरा (को०)। ८. मट्ठा (को०)। ९. दूध का सार भाग, मलाई, मक्खन आदि (को०)। १० शिर। शीर्ष (को०)।
⋙ मंडक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डक] १. एक प्रकार का पिष्टक। मैदे की एक प्रकार की रोटी। माँड़ा। २. माधवी लता। ३. गीत का एक अंग।
⋙ मंडन (१)
वि० [सं० मण्डन] शृंगारक। अलंकृत करनेवाला। उ०—गाढ़े भुजदंडन के बीच उर मंडन को धारि घनआनँद यौं सुखनि समेटिहौं।—धनानंद, पु० ९९।
⋙ मंडन (२)
संज्ञा पुं० १. शृंगार करना। अलंकरण। सजाना। सँवारना। २. आभूषण। अलँकार (को०) ३. युक्ति आदि देकर किसी सिद्धांत या कथन का पुष्टिकरण। प्रमाण आदि द्वारा कोई बात सिद्ध करना। 'खंडन' का उलटा। जैसे, पक्ष का मडन। ४. ख्यात दार्शनिक मंडन मिश्र। कहा जाता है आद्य शंकराचार्य ने इन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया या। यौ०—मडनकाल = सजने सँवरने का अवसर या मौका। गडनप्रिय = जिसे आभूषण प्रिय हो।
⋙ मंडना पु (१)
क्रि० स० [सं० मण्डन] १. मडिन करना। सुप्तज्जित करना। सँवारना। भूषित करना। शृंगार करना। २. युक्ति आदि देकर सिद्ध या प्रतिपादित करना। समर्थन या पुष्टिकरण करना। ३. परिपूरित करना। भरना। छाना। उ०—चड कोदंड रह्या मडि नवखड को।—केशव (शब्द०)।
⋙ मंडना (२)
क्रि० स० [सं० मर्दन] मर्दित करना। दलित करना। माँडना। उ०—(क) प्रबल प्रचड बरिबंड बाहुदंड खडि मडि मेदिनी को मंडलीक लीक लोपिहैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कुभ बिदारन गज दलन अब रन मडै जाइ।—हिं० क० का०, पृ० २२३।
⋙ मंडप (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] ऐसा स्थान जहाँ बहुत से लोग धूप, वर्षा आदि से बचंते हुए बैठ सकें। विश्रामस्थान। घर। जैसे, देदमडप। २. बहुत से आदमियों के बैठने योग्य चारों ओर से खुला, पर ऊपर से छाया हुआ स्थान। बारहदरी। विशेष—ऐसा स्थान प्रायः पटे हुए चबूतर के रूप में होता है जिसके ऊपर खभों पर टिकी छत या छाजन होती है। देव- मदिरों के सामने नृत्य, गीत आदि के लिये भी ऐसा स्थान प्रायः होता है। ३. किसी उत्सव या समागोह के लिये बाँस फूस आदि से छाकर बनाया हुआ स्थान। जैसे, यज्ञमंडप, विवाहमंडप। मुहा०—मंडप भरना = मंडप की शोभावृदि् करना। उ०— मिलि विधान मंडप भरिय।—पृ० रा०, २१।९३। ४. देवमंदिर के ऊपर का गोल या गावदुम हिस्सा। ५. चँदोवा। शामियाना। ६. लतादि से घिरा हुआ स्थान। कुंज।
⋙ मंडप
वि० १. माँड़ पीनेवाला। २. मक्खन, तक आदि पीनेवाला [को०]।
⋙ मंडपक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डपक] लघु मंडप। छोटा मंड्प [को०]।
⋙ मंडपिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डपिका] १. छोटा मँडप। २. नगर या ग्राम में वस्तु विक्रय का कर। उ०—व्यापारियों को नगर या ग्राम में वस्तु बेचने पर टैक्स देना पड़ता था। उसके लिये मंडपिका शब्द का प्रयोग मिलता है।—पू० म० भा०, पृ० ११३।
⋙ मंडपी
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डप] १. छोटा मडंप। २. मढ़ी।
⋙ मंडर पु
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] दे० 'मंडल'। उ०—(क) होइ मंडर ससि के चहुँ पासा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१६। (ख) सब रनिवास बैठ चहुँ पासा। ससि मडर जनु बैठ अकासा।—पदमावत, पृ० ३२६।
⋙ मंडरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पयाल की बनी हुई गोदरी या चटाई।
⋙ मंडल
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] १. चक्र के आकार का घेरा। किसी एक बिंदु से समान अंतर पर चारों ओर घूमी हुई परिधि। चक्कर। गोलाई। वृत्त। मुहा०—मडल बाँधना—(१) चारों ओर वृत्त की रेखा के रूप में फिरना। चक्कर काटना। जैसे, मंडल बाँधकर नाचना। (२) चारों ओर घेरना। चारों ओर से छा जाना। जैसे, बादलों का मंडल बाँधकर बरसना। (३) अँधेरे का चारों और छा जाना। २. गोल फैलाव। वृताकार या अंडाकार विस्तार। गोला। जैसे, भूमंडल। ३. चंद्रमा वा सूर्य के चारों ओर पड़नेवाला घेरा जो कभी कभी आकाश में बादलों की बहुत हलकी तह या कुहरा रहने पर दिखाई पड़ता है। परिवेश। ४. किसी वस्तु का वह गोल भाग जो अपनी द्दष्टि के संमुख हो। जैसे, चद्रमडल, सूयमडल, मुखमडल। ५. चारों दिशाओं का घे। जो गोल दिखाई पड़ता है। क्षितिज। ६. बारह राज्यों का समूह यौ०—मंडलेश्वर। ७. चालिस योजन लंबा और बीस योजन चौड़ा भूमिखंड वा प्रदेश। ८. समाज। समूह। समुदाय। जैसे, मित्रमडल। उ०— गोपिन मडल मध्य बिराजत निसि दिन करत बिहार।—सूर (शब्द०)। ९. एक प्रकार का ब्यूह। सेना की वृत्ताकार स्थिति। १०. कूकुर। कुत्ता। ११. एक प्रकार का सर्प। १२. एक प्रकार का गंधद्रव्य। व्याघ्रनखा। बघनही। १३. एक प्रकार का कुष्ट रोग जिसमें शरीरग में चकत्ते से पड़ जाते हैं। १४। शरीर की आठ संधियों में एक (सुश्रुत)। १५. ग्रह के घूमने की कक्षा। १६. खेलने का गेंद। १७. कोई गोल दाग वा चिह्न। १८. ऋग्वेद का एक खंड। १९. चक्र। चाक। पहिया। २०. राजा के प्रधान कर्मचारियों का समूह। वि० दे० 'अष्टप्रकृति'।
⋙ मंडलक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलक] १. दे० 'मंडल'। २. दर्पण। ३. घेरादार वरतु। उ०—ऊपरवाले किनारे पर एक घुंडी या मंडलक होता है—भोतिक०, पृ० ३९५।
⋙ मंडलकवि
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलकवि] कुकवि। बुरा कवि [को०]।
⋙ मंडलकार्मुक
वि० [सं० मण्डलकामुंक] जिसका धनुष झुका हुआ। वा मंडलाकार हो [को०]।
⋙ मंडलनृत्य
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलनृत्य] गतिभेदानुपार नृत्य का एक भेद। वृत्त की परिधि के रूप में घूपते हुए नाचना।
⋙ मंडलपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डलपत्रिका] रक्त पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।
⋙ मंडलपुच्छक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलपुच्छक] एक कीड़ा जिसकौ सुश्रुत में प्राणनाशक लिखा है। इसके काटने से सर्प का सा विष चढ़ता है।
⋙ मंडलवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलवर्तिन्] मंडल का शासक [को०]।
⋙ मंडलवर्ष
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलवर्ष] १. किसी शासक के पूरे मंडल में हुई वर्षा। प्रदेशव्यापी वर्षा [को०]।
⋙ मंडलव्यूह
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलव्यूह] कौटिल्य वर्णित वह व्यूह जिसमें सैनिक चारों ओर एक घेरा सा बनाकर खड़े किए जाँय।
⋙ मंडलाकार
वि० [सं० मण्डलाकार] गोल। मंडल के आकार का।
⋙ मंडलाकृत
वि० [सं० मण्डलाकृत] दे० 'मंडलाकार' [को०]।
⋙ मंडलाग्र
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलाग्र] १. चीर फाड़ में काम आनेवाला एक प्रकारा का शस्त्र या औजार (सुश्रुत)। २. खंजर। घुमावदार तलवार (को०)।
⋙ मंडलाधिप
संज्ञा पुं० [सं० मणलाधिप] दे० 'मंडलेश्वर'।
⋙ मंडलाना
क्रि० अ० [हिं० मंडल] दे० 'मँडराना'।
⋙ मंडलायित
वि० [सं० मण्डलायित] वर्तुल। गोल।
⋙ मंडलाधीश
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलाधीश] दे० 'मडलेश्वर'।
⋙ मंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डलिका] गोष्ठी। समुदाय। समूह। श्रेणी [को०]।
⋙ मंडलित
वि० [सं० मण्डलित] मंडलयुक्त। वर्तुलाकार बनाया। हुआ [को०]।
⋙ मंडली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डली] १. समूह। मोष्ठी। समाज। जमाअत। समुदाय। उ०—मराल मडली और सारस समूह। प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११। २. दूब। ३. गुड़च।
⋙ मंडली (२)
संज्ञा पुं० [सं० मणड़लिन्] १. एक प्रकार का साँप। सुश्रुत के गिनाए हुए साँप के आठ भेदों में से एक। विशेष—इनके शरीर में गोल गोल चित्तियाँ सी होती हैं और यह भारी होने के कारण चलने में उतने तेज नहीं होते। २. वटवृक्ष। ३. बिल्ली। बिड़ाल। ४. सर्प। साँप (को०)। ५. श्वान। कुत्ता (को०)। ६. प्रांत का शासक। मडलाधिप (को०)। ७. नेवले की जाति का बिल्ली की तरह का एक जंतु जिसे बंगाल में खटाश और उत्तरप्रदेश में कहीं कहीं सेंधुवार कहते हैं। ८. सूर्य। उ०—मुख तेज सहस दस मडली वुधि दस सहस कमडली।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मंडला (३)
वि० १. मंडल बनानेवाला। घेरा बनानेवाला। २. मडल का शासन करनेवाला [को०]।
⋙ मंडलीक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलीक] एक मंडल वा १२ राजाओं का अधिपति। उ०—बालक नृपाल जू के ख्याल ही पिनाक 000तो मंडलीक मंडली प्रताप दाप दाली री।—तुलसी (शव्द०)।
⋙ मंडलीकरण
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलीकरण] १. सर्प का कुडली बाँधना या मारना। २. वर्ग, श्रेणी वा समुह बनाना [को०]।
⋙ मंडलीश
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलीश] एक मडल का अधिपति। नरेश [को०]।
⋙ मंडलेश
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलेश] दे० 'मंडलेश्वर'।
⋙ मंडलेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० मण्डलेश्वर] एक मंडल का अधिपति। १२ राजाओं का अधिपति।
⋙ मंडहारक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डहारक] मद्य का व्यवसायी। कलवार।
⋙ मंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] भूमि का एक मान जो दो बिस्वे के बराबर होता है।
⋙ मंडा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बँगला मिठाई।
⋙ मंडा (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँड़ना(= गूँथना)] रोटी। दे० 'माँड़ा (३)'। उ०—तुम्हारे भी दो मडे सेक द्रँगी।—वो दुनियाँ, पृ० ११६।
⋙ मंडा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डा] १. सुरा। २. आमलकी।
⋙ मंडान
संज्ञा पुं० [हिं० मंडन] मंडन या मंडल करने का भाव। दे० 'मंडल' और मडन'। उ०—(क) गगन करू मंडान। जहँ आहि ससि गन भान।—जग० बानी, पृ० १२९। (ख) कबीर थोड़ा जीवणां, माड़े बहु मंडाण।—कबीर ग्रं०, पृ० २१।
⋙ मंडित
वि० [सं० मण्डित] १. विभूषित। सजाया हुआ। सँवार हुआ। २. आच्छादित। छाया हुआ। ३. पूरित। भरा हुआ।
⋙ मंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डपो] थोक बिक्री की जगह। बहुत भारी बाजार जहाँ व्यापार की चीजें बहुत आती हों। बड़ा हाट। जैसे अनाज की मंडी। मुहा०—मंडी लगना = बाजार खुलना।
⋙ मंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डल] भूमि मापने का एक मान जो दो बिस्वे के बराबर होता है।
⋙ मंडुआ ‡
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मँड़ आ'। उ०—कोद्रा भी है किंतु यह हमारे देश का कोदो नहीं मडुआ (रागी) है।— किन्नर०, पृ० ७०।
⋙ मडुक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डूक] दे० 'मंडूक'। उ०—खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी।—भारतेदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६९७।
⋙ मंडूक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डूक] १. मेंढक। उ०—मडूकों का टर टर करना भी कैसा डरावना मालूम होता है।—भारतैंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९८। २. एक ऋषि। ३. दोहा छंद का पाँचवाँ भेद जिसमें १८ गुरु और १२ लघु अक्षर होते हैं। ४. रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक। ५. प्राचीन काल का एक बाजा। ६. एक प्रकार का नृत्य। ७. एक प्रकार का रतिबंध (को०)। ८. घोड़े की एक जाति। यौ०—मंडूककुल = मेढकों का समूड़। मंडूकगति = (१) मेढक की सी चालवाला। (२) दे० 'मडूकप्लुति'। मंडूकपर्ण। मडूकपर्णा, मंडूकपर्णिका = दे० 'मंडूकपर्णीका'। मंडूकप्लुति। मडूकमाता। मंडूकसर = मेढ कों से भरा तालाब। मंडूकसूक्त।
⋙ मंडूकपर्णा
संज्ञा पुं० [मण्डूकपर्ण] श्योनाक वृक्ष [को०]।
⋙ मंडूकपर्णी
सं० स्त्री० [सं० मण्डूकपर्णीं] १. ब्राह्मी बूटी। २. मजिष्ठा।
⋙ मंडूकप्लुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेढक की उछाल। २. बीच बीच में की छूट (को०)।
⋙ मंडूकमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डूकमातृ] ब्राह्मी लता [को०]।
⋙ मंडूकसूक्त
संज्ञा पुं० [सं० मण्डूकसूक्त] ऋग्वेद का एक सूक्त जिसके ऋषि वशिष्ठ और देवता मडूक हैं। वर्षा के लिये इसका विनियोग है।
⋙ मंडूका
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डूका] मजिष्ठा। मजीठ।
⋙ मंडूकी
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डूकी] १. ब्राह्मी। २. आदित्यभक्ता। ३. स्वेच्छाचारिणी स्त्री। ४. मेढकी (को०)।
⋙ मडूर
संज्ञा पुं० [सं० मण्डूर] लोहकीट। गलाए हुए लोहे की मैल। सिंघान। विशेष—वैद्य लोग औषध में इसका व्यवहार शोधकर करते हैं। इसमें लोहे का ही गुण माना जाता है। मडूर जितना ही पुराना हो उतना ही व्यवहार के योग्य और गुणकारी माना जाता है। सौ वर्ष का मंडूर सबसे उत्तम कहा गया है। बहेड़े की लकड़ी में जलाकर सात बार गोमूत्र में डालने से मंडूर शुद्ध हो जाता है। इसके सेवन से ज्वर, प्लीहा, कँवल आदि रोग आराम होते हैं।
⋙ मंडौ पु †
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] दे० 'मंडप'। उ०—मडौ प्रेम अगन भई कामिनी, उमँगि उमाँगि रति भावन।—गुलाल०, पृ० ३२।
⋙ मंढा
संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ना] कमख्वाब वुननेवालों का एक औजार जो नकशा उठाने में काम आता है। यह लकड़ी का होता है जिसमें दो शाखें सी निकली होती हैं। सिरे पर एक छेद होता है जिसमें एक डंडा लगा रहता है।
⋙ मत पु †
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्र] १. सलाह। उ०—(क) कंत सुन मंत कुल अंत किय अत, हानि हातो किजै हिय ये भरोसो भुज बीस को।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मैं जो कहों कत सुनु मंत भगवत सों विमूख ह्वै बालि फल कौन लीन्हों।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—तंत मंत = (१) उद्योग। प्रयत्न। उ०—के जिय तंत मंत सों हेरा। गयो हेराय जो वह भा मेरा।—जायसी (शब्द०)। २. तंत्र मत्र। उ०—तत मंत उच्चार देवि दरसिय मझि हव्विय।—पृ० रा०, १।१२। २. मत्र। सिद्धिदायक शब्दों का समूह। दे० 'मत्र—४'। उ०— (क) सुनि आनंद्यौ चंद चित कीन मंत आरंभ। जप्प जाप हबि होम सब लाग्यो कज्ज असंभ।—पृ० रा०, ६।१४९। (ख) चुगली कानाँ सुणण सूँ, मैलौ व्है गुर मंत।—बाँकी० ग्रं०, भा० २. पृ० ४९।
⋙ मंतर †
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्र] दे० मत्र'। उ०—मुप्त प्रगट सत मतर आहै समझहू आपिहू माहि।—जग० श०, पृ० ८९। मुहा०—मंतर न होना = कोई उपचार न होना। उ०—खाना खाना मक्खियों की भिन्न के सबब से मुश्किल हो जाता है और खटमल के काटे का तो मंतर ही नहीं।—सैर कु०, पृ० ३९।
⋙ मंतव्य (१)
वि० [सं० मन्तव्य] मानने योग्य। माननीय।
⋙ मंतव्य (२)
संज्ञा पुं० विचार। मत।
⋙ मंता
संज्ञा पु० [सं० मन्तृ] मननकर्ता। विद्वान् [को०]।
⋙ मंतु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मन्तु] १. अपराध। गलती। २. मनुष्य जाति। ३. प्रजापति। ४. मंत्र। राय। सलाह। ५. राय देनेवाला। मंत्रणा देनेवाला। ६. अधिकारी। निर्देशक।
⋙ मंतु (२)
संज्ञा स्त्री० बुद्धि। समझ। अक्ल [को०]।
⋙ मंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्र] १. गोप्य या रहस्यपूर्ण बात। सलाह। परामर्श। उ०—मत्र कहैं निज मति मति अनुसारा। दूत पठाइय बालिकुमारा।—मानस, ९।१७। २. देवाधिसाधन गायत्री आदि वैदिक वाक्य जिनके द्वारा यज्ञ आदि क्रिया करने का विधान हो। विशेष—निरुक्त के अनुसार वैदिक मंत्रों के तीन भेद हैं— परीक्षकृत, प्रत्यक्षकृत और आध्यात्मिक। जिन मंत्री द्वारा देवता को परोक्ष मानकर प्रथम पुरुष की क्रिया या प्रयोग करके स्तुति आदि की जाती है, उसे परोक्षकृत मत्र कहते हैं। जिन मत्रों में देवता को प्रत्यक्ष मानकर मव्यम पुरुष के सर्वनाम और क्रिया का प्रयोग करके उसकी स्तुति आदि होती है, उसे प्रत्यक्षकृत कहते हैं। जिन मंत्रों में देवता का आरोप अपने में करके उत्तम पुरुष के सर्वनाम और क्रियाओं द्वारा उसकी स्तुति आदि की जाती है, वे आध्यात्मिक कहलाते हैं। मत्रों के विषय प्रायःस्तुति, आशीर्वाद, शपथ, अभिशाप, परिदेवना, निंदा आदि होते हैं। मीमांसा के अनुसार वेदों का वह वाक्य जिसके द्वारा किसी कर्म के करने की प्रेरणा पाई जाय, मत्रपद वाच्य है। मीमांसक मत्र को ही देवता मानते हैं और उसके अतिरिक्त देवता नहीं मानते। वैदिक मंत्र गद्य और पद्य दोनों रूपों में पाए जाते हैं। गद्य को यजु और पद्य को ऋचा कहते हैं। जो पद्य गाए जाते है, उन्हें साम कहते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के मंत्रों द्वारा यज्ञ के सब कर्म संपादित होते हैं। ३. वेदों का वह भाग जिसमें मत्रों का संग्रह है। संहिता। ४. तत्र के अनुसार वे शब्द वा वाक्य जिनका जप भिन्न भिन्न देवताओ की प्रसन्नता वा भिन्न भिन्न कामनाओं की सिद्धि के लिये करने का विधान हे। ऐसा शब्द या वाक्य जिसके उच्चारण में कोई दैवी प्रभाव वा शक्ति मानी जाती हो। विशेष—इन मत्रों में एकाक्षर मंत्र जो अविस्पष्टार्थ हों, वीज- मत्र कहलाते हैं। क्रि० प्र०—पढ़ना। यौ०—मंत्र यंत्र वा यंत्र मंत्र = जादू टोना। उ०—डाकिनी साकिनी खेचर भूवर यत्र मत्र भजन प्रबल कल्मसारी।— तुलसी (शब्द०)। मंत्र तंत्र वा तंत्र मंत्र = दे० 'तंत मत'।
⋙ मंत्रकार
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रकार] वेदमत्र रचनेवाला ऋषि। मंत्र- द्रष्टा ऋषि।
⋙ मंत्रकुशल
वि० [सं० मन्त्रकुशल] सलाह देने में निपुण [को०]।
⋙ मंत्रकृत् (१)
वि० [सं० मन्त्रकृत्] १. परामशंकारी। सलाह देनेवाला। २. दौत्यकारी। दौत्यकम करनेवाला।
⋙ मंत्रकृत् (२)
सज्ञा पुं० वेदमत्र रचनेवाला ऋषि। मंत्रकार।
⋙ मंत्रगूढ़
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रगूढ] गुप्तचर।
⋙ मंत्रगृह
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रगृह] वह स्थान जहाँ मत्र वा सलाह की जाती हो। पर मश करने के लिये नियत स्थान।
⋙ मंत्रजल
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रजल] मत्र से प्रभावित या पवित्र किया हुआ जल।
⋙ मंत्रजिह्व
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रजिह्व] अग्नि।
⋙ मंत्रज्ञ (१)
वि० [सं० मन्त्रज्ञ] १. मत्र जाननेवाला। २. जिसमें परामर्श देने की योग्यता हो। जो अच्छा परामर्श देना जानता हो। ३. भेद जाननेवाला।
⋙ मंत्रज्ञ (२)
संज्ञा पुं० १. गुप्तचर। २. चर। दूत।
⋙ मंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रण] परामर्श। मंत्रणा। सलाह। राय। मशवरा।
⋙ मंत्रणक
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रणक] आह्वान। आवाहन। अभ्यर्थना निगंत्रण [को०]।
⋙ मंत्रणा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रणा] १. परामर्श। सलाह। मशवरा। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लेना। २. कई आदमियों की सलाह से स्थिर किया हुआ मत। मंतव्य।
⋙ मंत्रद (१)
वि० [सं० मन्त्रद] परामर्श देनेवाला।
⋙ मंत्रद (२)
संज्ञा पुं० मंत्र देनेवाला, गुरु।
⋙ मंत्रदर्शी
वि० [सं० मन्त्रदर्शिन्] वेदवित्। वेदज्ञ।
⋙ मंत्रदाता
वि०, संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रदातृ] दे० 'मंत्रद'।
⋙ मंत्रदीधिति
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रदीधिति] अग्नि।
⋙ मंत्रदेवता
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रदेवता] मंत्रों द्वारा आवाहित देवता [को०]।
⋙ मंत्रद्रष्टा
वि० [सं० मन्त्रद्रुष्ट] वेदज्ञ। वेद मंत्रों का साक्षात्कार करनेवाला [को०]।
⋙ मंत्रद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रद्रुभ] चाक्षुष मन्वंतर के इंद्र का नाम।
⋙ मंत्रधर
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रधर] मंत्री।
⋙ मंत्रधारी
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रधारिन्] दे० 'मंत्रधर' [को०]।
⋙ मंत्रपति
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रपति] मंत्र का देवता। मंत्र का अधि- ष्ठाता देवता।
⋙ मंत्रपाठ
सज्ञा पुं० [सं० मन्त्रपाठ] मत्रों का पाठ या आवृत्ति [को०]।
⋙ मंत्रपूत
वि० [सं० मन्त्रपूत] जो मंत्र द्वारा पवित्र किया गया हो। उ०—वे आए याद दिव्य शर अगणित मंत्रपूत।—अपरा, पृ० ४०। यौ०—मंत्रपूतात्मा = गरुड़ का एक नाम।
⋙ मंत्रप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रप्रयाग] मंत्र द्वारा काम लेना [को०]।
⋙ मंत्रप्रयुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रप्रयुक्ति] दे० 'मंत्रप्रयोग' [को०]।
⋙ मंत्रफल
संज्ञा पुं० [सं० सं० मन्त्रफल] १. मंत्रणा वा परामर्श का परिणम। २. मंत्रविद्या का प्रभाव या फल।
⋙ मंत्रबल
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रबल] मंत्र की शक्ति या प्रभाव [को०]।
⋙ मंत्रबीज
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रबीज] मूल मंत्र।
⋙ मंत्रभेद
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रभेद] गुप्त वार्ता या रहस्य का प्रगट किया जाना [को०]।
⋙ मंत्रभेदक
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रभेदक] सरकारी गुप्त सलाह को प्रकाशित करनेवाला। विशेष—चंद्रगुप्त के समय में इस अपराध में अपराधियों की जीभ उखाड़ लेना दड़ था।
⋙ मंत्रमुग्ध
वि० [सं० मन्त्रसुग्ध] मंत्र द्वारा विमोहित। मंत्र से वश मे किया हुआ। अवसन्न [को०]।
⋙ मंत्रमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रमूर्ति] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ मंत्रमूल
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रमूल] १. राज्य। २. शिव। ३. जादू।
⋙ मंत्रयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रयन्त्र] मंत्रात्मक यंत्र वा ताबीज [को०]।
⋙ मंत्रयान
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध धर्म की एक शाखा जिसका प्रचार तिब्बत, नेपाल, भूटान आदि में है। विशेष—इस संप्रदाय के ग्रंथों में अनेक तंत्र ग्रंथ हैं जिनके अनुसार तांत्रिक उपासना होती है। इस मत के प्रधान आचार्य सिद्ध नागार्जुन माने जाते हैं। इसे वज्रयान भी कहते हैं।
⋙ मंत्रयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रयुद्ध] केवल बातचीत या बहस के द्वारा शत्रु को वश में करने का प्रयत्न। विशेष—कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इस विषय का एक अलग प्रकरण (१६३ वाँ) ही दिया है।
⋙ मंत्रयोग
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रयोग] मंत्र का प्रयोग। मंत्र पढ़ना।
⋙ मंत्रवादी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रवादिन्] १. मंत्रज्ञ। २. जो मत्रोच्चारण करे। पु ३. तंत्र एवं मंत्र आदि का जानकार। उ०—बिछी सर्प बिपंग मंत्रवादी मिलि लुट्टत।—पृ० रा०, ६। १०५।
⋙ मंत्रविद्
वि० [सं० मन्त्रविद्] १. मंत्रज्ञ। २. वेदज्ञ। ३. जो राज्य के रहस्यों को जानता हो।
⋙ मंत्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रविद्या] तंत्रविद्या। भाजविद्या। मंत्रशास्त्र। तंत्र।
⋙ मंत्रवीज
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रवीज] मूल मंत्र। मंत्र का प्रथमाक्षर या शब्द [को०]।
⋙ मंत्रशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रशक्ति] १. युद्ध में चतुराई या चालाकी। २. ज्ञानबल। ३. तंत्र-मंत्र-जन्य बल।
⋙ मंत्रश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रश्रुति] वह मंत्रणा या गुप्त परामर्श जिसे अन्य ने सुन लिया हो [को०]।
⋙ मंत्रसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रसंस्कार] १. विवाह संस्कार। यौ०—मंत्रसंस्कारकृत = विवाह करनेवाला। विवाहित। २. तंत्रानुसार मंत्रों का वह संस्कार जिसके करने का विधान मत्रग्रहण के पूर्व है और जिसके बिना मंत्र फलप्रद नहीं होते। विशेष—ऐसे संस्कार दस हैं जिनके नाम ये हैं— (१) जनन—मंत्र का मातृका यंत्र से उद्धार करना। इसे मंत्रोद्धार भी कहते हैं। (२) जीवन—मंत्र के प्रत्येक वर्ण को प्रणव से संपुट करके सौ सौ बार जपना। (३) ताडन—मत्र के प्रत्येक वर्ण को पृथक् पृथक् लिखकर लाल कनेर के फूल से वायुवीज पढ़ पढ़कर प्रत्येक वर्ण को सौ सौ बार मारना। (४) बोधन—मंत्र के लिखे हुए प्रत्येक वर्ण पर 'रं' बीज से सो सौ बार लाल कनेर के फूल से मारना। (५) अभिषेक—मंत्र के प्रत्येक वर्ण को लाल कनेर के फूल से 'रं' बीद द्वारा अभिमत्रित कर यथाविधि अभिषेक करना। (६) विमलीकरण—सुपुम्ना नाड़ी में मनोयोगपूर्वक मंत्र की चिंता करके मत्रों के प्रत्येक वर्ण के ऊपर अश्वत्थ के पल्लव से ज्योति मंत्र द्वारा जल सींचना। (७) अप्यायन—ज्योतिर्मत्र द्वारा सोने के जल, कुशोदक वा पुष्पोदक से मंत्र के वर्णों को सींचना। (८) तपंण—ज्योतिर्मत्र द्वारा जल से मंत्र के प्रत्येक वर्ण का तर्पण करना। (९) दीपन—ज्योतिर्मंत्र से दीप्ति साधन करना। (१०) गोपन—मंत्र को प्रकट न करके सदा गुप्त रखना और ओठों के बाहर न निकालना।
⋙ मंत्रसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रसंहिता] वैदिक संहिताओं के मंत्रों का ऐसा संकलन जिसमें केवल 'मंत्रभाग' का संग्रह किया गया है।
⋙ मंत्रसाधन
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रसाधन] मंत्रसिदि्ध का यत्न करना। मंत्र को सिद्ध करना [को०]।
⋙ मंत्रसिद्ध
वि० [सं० मन्त्रसिद्ध] [वि० स्त्री० मंत्रसिद्धा] जिसका प्रयोग किया हुआ कोई मंत्र निष्फल न जाता हो।
⋙ मंत्रसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रसिद्धि] मंत्र का सिद्ध होना। मंत्र की सफलता। मंत्र में प्रभाव आना।
⋙ मंत्रसूत्र
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रसूत्र] वह रेशम या सूत का तागा जो मंत्र पढ़कर बनाया गया हो। गंडा।
⋙ मंत्रस्नान
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रस्नान] वह स्नान या मार्जन जो केवल मंत्रों द्वारा किया जाय [को०]।
⋙ मंत्रहीन
वि० [सं० मन्त्रहीन] १. मंत्र से रहित। बिना मंत्र का २. मंत्र या दीक्षा से रहित। संस्कारविहीन [को०]।
⋙ मंत्रालय
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्र + आलय] शासन के किसी मंत्री वा उसके विभाग का कार्यालय। जैसे,—उद्योग मंत्रालय का अनुदान स्वीकृत।
⋙ मंत्रि
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रिः] दे० 'मंत्री' [को०]।
⋙ मंत्रिक
वि० [सं० मन्त्रिक] मंत्रियोंवाला। जैसे, बहुमंत्रिक।
⋙ मंत्रिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रिणी] १. मंत्री का काम करनेवाली स्त्री। २. मंत्री की पत्नी।
⋙ मंत्रित
वि० [सं० मन्त्रित] १. मंत्र द्वारा संस्कृत। अभिमंत्रित। निर्णीत। अवधारित (को०)। २. जिसपर मंत्रणा हो चुकी हो (को०)। ३. कथित। कहा हुआ (को०)। ४. निश्चित।
⋙ मंत्रिता
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्त्रिता] १. मंत्री का भाव वा पद। मंत्रित्व। २. मंत्री की क्रिया। मंत्री का काम। मंत्रित्व।
⋙ मंत्रित्व
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रित्व] मंत्री का कार्य वा पद। मंत्रिता। मंत्रीपन।
⋙ मंत्रिधुर
वि० [सं० मन्त्रिधुर] १. मंत्रियों में श्रेष्ठ। २. मंत्री का कार्य करने में समर्थ। जो मत्री का कार्य कर सकता हो [को०]।
⋙ मंत्रिपति
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रिपति] प्रधान अमात्य। पर्या०—मंत्रिपद। मंत्रिप्रधान। मंत्रिप्रमुख। मंत्रिमंडल। मंत्रिमुख्य। मत्रिवर। मत्रिश्रेष्ठ।
⋙ मंत्रिपद
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रि + पद] दे० 'मंत्रित्व'। उ०— निर्वाचन के पश्चात् कांग्रेस ने मंत्रिपद ग्रहण करने का निश्चय किया।—भारतीय०, पृ० १२४।
⋙ मंत्रिमंडल
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रिमण्डल] मंत्रियों की परिषद्। उ०—प्रत्येक प्रांत में एक मंत्रिमडल की व्यवस्था थी।—भारतीय०, पृ० १३।
⋙ मंत्री
संज्ञा पुं० [सं० मन्त्रिन्] १. परामर्श देनेवाला। सलाह देनेवाला। २. वह पुरुष जिसके परामर्श से राज्य के कामकाज होते हों। सचिव। पर्या०—अमात्य। सचिव। धीसख। स भवायिक। ३. शतरंज की एक गोटी का नाम। विशेष—यह गोटी राजा से छोटी मानी जाती है और पक्ष की शेष सब गोटियों से श्रेष्ठ होती है। यह टेढी सीधी सब प्रकार की चालें चलती है। इसे वजीर या रानी भी कहते हैं।
⋙ मंत्रेला †
वि० [सं० मन्त्र + एला (प्रत्य०)] मंत्र का प्रयोग करनेवाला। उ०—आपै मंत्र आपै मंत्रेला। आपे पूजै आप पूजेला।—कबीर ग्रं०, पृ० २४४।
⋙ मंथ
संज्ञा पुं० [सं० मन्थ] १. मथना। बिलोना। यौ०—मंथगिरि =दे० 'मंथपर्वत'। मंथगुण = मथनी की रस्सी। मंथदंड, मंथदंडक = मथानी का डंडा जिसमें रस्सी लगाकर मथते हैं। मंथविष्कंभ = वह खंभा या डंडा जिसमें मथानी की रस्सी बाँधी जाती है। मंथशैल =दे० 'मथपर्वत'। २. हिलाना। क्षुब्ध करना। ३. मर्दन। मलना। ४. मारना। ध्वस्त करना। ४. कंपन। ६. एक प्रकार की पीने की वस्तु जो कई द्रव्यों को एक साथ मथकर बनाते हैं। ७. दूध वा जल में मिलाकर मथा हुआ सत्तू। ८. मथानी। वह औजार जिससे कोई पदार्थ मथा जाता है। ९. मृग की एक जाति का नाम। १०. सूर्य (को०) ११. सूर्यरश्मि। सूर्य की किरण। १२. घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने का यंत्र। मंथा (को०)। १३. आँख का एक रोग जिसमें आँखों से पानी या कीचड़ बहता है। १४. एक प्रकार का ज्वर जो बालरोग के अंतर्गत माना जाता है। मथर। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह रोग ज्वर में घी खाने और पसीना रोकने से होता है। इसमें रोगी को दाह, भ्रम, मोह और मतली होती है, प्यास अधिक लगती है, नींद नहीं आती, मुँह लाल हो जाता है और गले के नीचे छोटे छोटे दाने निकल आते हैं। कभी कभी अतीसार भी होता है।
⋙ मंथक (१)
संज्ञा पुं० [सं० मन्थक] १. एक गोत्रकार मुनि का नाम। २. मंथक मुनि के वंश में उत्पन्न पुरुष।
⋙ मंथक (२)
वि० मथनेवाला। मंथन करनेवाला [को०]।
⋙ मंथज
संज्ञा पुं० [सं० मन्थज] नवनीत। ननूँ। मक्खन।
⋙ मंथन
संज्ञा पुं० [सं० मन्थन] १. मथना। बिलोना। २. अवगाहन। खूब डूब डूबकर तत्वों का पता लगाना। ३. मथानी। ४. रगड़ से आग पैदा करना (को०)।
⋙ मंथनघट
संज्ञा पुं० [सं० मन्थनघट] [स्त्री० मंथनघटी] दही मथने का घड़ा या मटका [को०]।
⋙ मंथनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्थनी] दही मथने का पात्र। मटकी या मटका [को०]।
⋙ मंथपर्वत
संज्ञा पुं० [सं० मन्थपर्वंत] मंदराचल। मंदर पर्वत।
⋙ मंथर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मन्थर] १. बाल का गुच्छा। २. कोष। खजाना। ३. फल। ४. बाधा। अवरोध। रोक। ५. मथानी। ६. कोप। गुस्सा। ७. दूत। गुप्तचर। ८. वैशाख का महीना। ९. दुर्ग। १०. भँवर। ११. हरिण। १२. एक प्रकार का ज्वर। मंथ ज्वर। विशेष दे० 'मथ'-१४। १३. कुसुंभ। वह्निशिख (को०)। १४. मक्खन।
⋙ मंथर (२)
वि० १. मट्ठर। मंद। सुस्त। २. जड़। मंदबुद्धि। ३. भारी। स्थूल। ४. झुका हुआ। टेढ़ा। ५. नीच। अधम। ६. बड़ा। लंबा चोड़ा (को०)। ७. व्यक्त करनेवाला। सूचक (को०)।
⋙ मंथरगति
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्थर + गाति] धीमी चाल। मद मंद संचरण [को०]।
⋙ मंथरविवेक
वि० [सं० मन्थरविवेक] जो शीघ्र निर्णय न कर पाए। शीघ्र निर्णय करने में धीमा [को०]।
⋙ मंथरा
संज्ञा स्त्री० [स० मन्थरा] १. रामायण के अनुसार कैकेयी की एक दासी। उ०—नाम मंथरा मंदमति चेरि कैकयी केरि।—मानस। विशेष—यह दासी कैकेयी के साथ उसके मायके से आई थी। इसी के बहकाने पर कैकेयी ने रामचंद्र को बनवास और भरत को राज्य देने के लिये महाराज दशरथ से अनुरोध किया था।२. युक्तिकल्पतरु के अनुसार १२० हाथ लंबी, ६० हाथ चौड़ी और ३० हाथ ऊँची नाव।
⋙ मंथरित
वि० [सं० मन्थरित] मंथर किया हुआ। मद किया हुआ [को०]।
⋙ मंथरु
संज्ञा पुं० [सं० मन्थरु] चँवर की वायु।
⋙ मंथा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्था] १. मेथी। २. यज्ञ में धर्षण द्वारा अग्नि उत्पन्न करने का एक यंत्र। मंथायत्र।
⋙ मंथाचल, मंथाद्रि
संज्ञा पुं० [सं० मन्थाचल, मन्थाद्रि] मदर पर्वत। मंदराचल [को०]।
⋙ मंथान
संज्ञा पुं० [सं० मन्थान] १. मथानी। २. मदर नामक पर्वत। ३. महादेव। ४. अमलतास। ५. एक वर्णिक छद जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण होते हैं। उ०—बाणी कही बान। कीन्ही न सो कान। अद्यापि आनीन। रे बादिका- नीन।—केशव (शब्द०)। ६. भैरव का एक भेद।
⋙ मंथानक
संज्ञा पुं० [सं० मन्थानक] एक तरह की घास।
⋙ मंथिता
वि० [सं० मन्थितृ] [स्त्री० मन्थित्री] मथनेवाला।
⋙ मंथिनी
सज्ञा स्त्री [सं० मन्थिनी] माठ। मटका।
⋙ मंथिप
वि० [सं० मन्थिप] मथा हुआ सोमरस पीनेवाला।
⋙ मंथी (१)
वि० [सं० मन्थिन्] १. मथनेवाला। २. पीड़ाकारक। ३. मंथनयुक्त।
⋙ मंथी (२)
संज्ञा पुं० १. मथा हुआ सोमरस। २. चंद्रमा। ३. मदन। ४. ग्राह। ५. राहु। उ०—मंथी ससि मथी मदन मंथी ग्राह प्रचड। मथी बहुरी राहु है जो हरि कियो विखंड।— अनेकार्थ०, पृ० १५०।
⋙ मंथादक, मंथोदधि
संज्ञा पुं० [सं० मन्थोदक, मान्थोदधि] क्षीर- समुद्र। क्षीरसागर [को०]।
⋙ मंद
वि० [सं० मन्द] १. धीमा। सुस्त। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—होना। २. ढोला। शिथिल। ३. आलसी। ४. मूर्ख। कुबुद्धि। ५. खल। दुष्ट। उ०—है प्रचड अति पोन तै, रुकत नहीं मन मद। जो लौं नाहीं कृपाकर, बरजत है ब्रज चद।—स० सप्तक, पृ० ३४३। ६. क्षाम। कृश। क्षीण। जैसे, मंदीदरी। ७. कमजोर। दुर्बल। जैसे, मदाग्नि। ८. मृदु। वीमा। जैसे, मंदभाषी। ६. अल्प।—अनेकार्थ०, पृ० १५१।
⋙ मंद (१)
संज्ञा पुं० १. वह हाथी जिसकी छाती ओर मध्य भाग की बलि ढीली हो, पेट लबा, चमड़ा मोटा, गला, कोख और पुंछ की चँवरी मोटी हो तथा जिसकी दृष्टि सिंह के समान हो। २. शनि। यौ०—मंदजननी= शनैश्चर की माता जो सूर्य की स्त्री थी। ३. यम। ४. अभाग्य। ५. प्रलप। ६. पाप।—अनकार्थ० पृ० १५१।
⋙ मंद † (३)
संज्ञा पुं० [सं० मघ, हिं० मद] दे० 'मद्य'। उ०—का वासंदर सेवियइ कइ तरुनी कइ मंद।—ढोला०, दू० २९४।
⋙ मंदऊ †
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़े का एक रोग जिसमें उसके गले के पास की हड्डी में सूजन आ जाती है।
⋙ मंदक
वि० [सं० मन्दक] १. मूर्ख। निर्बोध। २. जो राग, द्वेष, मान, अपमान आदि विकारों से शून्य हो (को०)।
⋙ मंदकर्णि
संज्ञा पुं० [सं० मन्दकर्णि] एक ऋषि का नाम।
⋙ मंदकर्मा
वि० [सं० मन्दकर्मन्] धोरे धीरे काम करनेवाला। आलसी [को०]।
⋙ मंदकांति
संज्ञा पुं० [सं० मन्दकान्ति] चंद्रमा [को०]।
⋙ मंदकारी
वि० [सं० मन्दकारिन्] १. मूर्खतापूर्ण कार्य करनेवाला। २. धीरे धीरे काम करनेवाला। आलसी [को०]।
⋙ मंदग (१)
वि० [सं० मन्दग] [स्त्री० मंदगा] धीमा चलनेवाला।
⋙ मंदग (२)
संज्ञा पुं० १. महाभारत के अनुसार शक द्वीप के अंतर्गत चार जनपदों में से एक। २. मदग्रह। शनि जिनकी गति धीमी है (को०)।
⋙ मंदगति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दगति] ग्रहों की गति की वह अवस्था जब वे अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य से दूर निकल जाते हैं।
⋙ मंदगति (२)
वि० धीमी चालवाला [को०]।
⋙ मंदगमन, मंदगामी
वि० [मन्दगमन, मन्दगामिन्] दे० 'मंदगति'।
⋙ मंदचेता
वि० [सं० मन्दचेतस्] बेबकूफ। मंदबुद्धि [को०]।
⋙ मंदच्छाय
वि० [सं० मन्दच्छाय] धुँधला। हृत्तेज [को०]।
⋙ मंदट
संज्ञा पुं० [सं० मन्दट] देबदारु।
⋙ मंदता
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दता] १. आलस्य। २. धीमापन। ३. क्षीणता।
⋙ मंदत्व
संज्ञा पुं० [सं० मन्दत्व] दे० 'मंदता'।
⋙ मंदधी
वि० [सं० मन्दधी] कमअक्ल। मोटी बुद्धिवाला [को०]।
⋙ मंदधूप
संज्ञा पुं० [हिं० मंद + धूप] काला धूप। काला डामर। दे० 'डामर'।
⋙ मंदन
संज्ञा पुं० [हिं० मंद + न (प्रत्य०)] धीमापन। उ०— ऊपर जाते समय वेग का मंदन होता है।—भोतिक०, पृ० ४६।
⋙ मंदपरिधि
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दपरिधि] मंदोच्च वृत्ति।
⋙ मंदफल
संज्ञा पुं० [सं० मन्दफल] १. गणित ज्योतिष में ग्रहगति का एक भेद। २. वह जिसका फल या परिणम विलंब से मिले (को०)।
⋙ मंदबुद्धि
वि० [सं० मन्दबुद्धि] दे० 'मंदधी'।
⋙ मंदभागी
वि० [सं० मन्दभागिन्] [वि० स्त्री० मंदभागिनी] अभागा। हतभाग्य। उ०—नातरु हम मंदभागी आपके स्वरूप कों कहा जानतें ?—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २६६।
⋙ मंदभाग्य
वि० [सं० मन्दभाग्य] दुर्भाग्य। अभाग्य।
⋙ मंदमंद
क्रि० वि० [सं० मन्दस् मन्दम्] धीमी गति से। धीरे धीरे।
⋙ मंदमति
वि० [सं० मन्दमति] कम अकल। हतबुद्धि। मीटीअकलवाला। उ०—सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा।—मानस, १। १००।
⋙ मदयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दयन्ती] दुर्गा।
⋙ मंदर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मन्दर] १. पुराणानुसार एक पर्वत जिससे देवताओं ने समुद्र को मथा था। मंथ पर्वत। मंदराचल। उ०—धारन मंदर सुंदर साँवरे, आय बसो मन मंदिर मेरे।—प्रेमघन०, भा० १, पु० २८९। २. मंदार। ३. स्वर्ग। ४. मोती का वह हार जिसमें आठ वा सोलह लड़ियाँ हों।—बृहत् संहिता, पृ० ३८५। ५. मुकुर। दर्पण। आईना। ६. कुशद्वीप के एक पर्वत का नाम। ७. बृहत्संहिता के अनुसार प्रासादों के बीस भेदों में दूसरा। वह प्रासाद जो छकोना हो और जिसका विस्तार तीस हाथ हो। इसमें दस भूमिकाएँ और अनेक कँगूरे होते हैं। ८. एक वर्ण वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण (S?I) होता है।
⋙ मंदर (२)
वि० १. मंद। धीमा। २. मठा।
⋙ मंदर पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिर] दे० 'मंदिर'। उ०—सुरति गही जब मंदर चीना।—प्राण०, पृ० ३१।
⋙ मंदरगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंदराचल पर्वत। २. एक छोटे पहाड़ का नाम जो मुँगर के पास है। विशेष—इस पर्वत पर हिंदुओं, जैनों और बौद्धों के अनेक मंदिर हैं और सीताकुंड नामक प्रसिद्ध गरम जल का कुंड है।
⋙ मंदरवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दरवासिनी] दुर्गा [को०]।
⋙ मंदरा
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] एक वाद्य। उ०—मंदरा तबल सुमरू खँजरी ढोलक धामक।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मंदल (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] दे० 'मंदरा'।
⋙ मंदल (२)
संज्ञा पुं० [फा०] घेरा। अहाता। मंडल [को०]।
⋙ मंदला पु
संज्ञा पुं० [हिं० मंदरा] दे० 'मंदरा'। उ०—सुनि मंडल मैं मंदला बाजै। तहाँ मेरा मन नाचै।—कबीर ग्रं०, पृ० ११०।
⋙ मंदविभव
वि० [सं० मन्दविभव] गरीब। दरिद्र। अकिंचन [को०]।
⋙ मंदवीर्य
वि० [सं० मन्दवीय] दुर्बल। कमजोर [को०]।
⋙ मंदसमीर, मंदसमीरण
संज्ञा पुं० [सं० मन्दसमीर, मन्दसमीरण] हलकी हलकी एवं सुखदायिनी वायु [को०]।
⋙ मंदसान
संज्ञा पुं० [सं० मन्दसान] १. अग्नि। आग। २. प्राण। ३. निद्रा। नींद।
⋙ मंदसानु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दसानु] १. स्वप्न। २. जीव। ३. दे० 'मंदसान' (को०)।
⋙ मंदस्मित
संज्ञा पुं० [सं० मन्दस्मित] हलकी मुसकान। उ०— प्रतिमा का मंदस्मित परिचय संस्मारक।—तुलसी०, पृ० ९।
⋙ मंदहास, मंदहास्य
संज्ञा पुं० [सं० मन्दहास, मन्दहास्य] दे० 'मंजस्मित' [को०]।
⋙ मंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दा] १. सूर्य की वह संक्रांति जो उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद ओर रोहिणी नक्षत्र में पड़े। ऐसी संक्रांति में संक्रमणानंतर तीन दंड तक पुण्य- काल होता है। २. वल्लीक रंज। लताकरंज।
⋙ मंदा (२)
वि० [सं० मन्द] [स्त्री० मन्दी] १. धीमा। मंद। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—होना। २. ढीला। शिथिल। ३. सामान्य मूल्य से कम मूल्य पर बिकनेवाला। जो महँगा न हो। जिसका दाम थोड़ा हो। सस्ता। उ०—मधुकर ह्याँ नाहिन मन मेरो......। को सीखै ता बिनु सुनुसूरज योगज काहे केरो। मंदो परेउ सिधाउ अनत लै यहि निर्गुण मत मेरो।—सूर (शब्द०)। ४. खराब। निकृष्ट। उ०—योग वियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रमफंदा।—तुलसी (शब्द०)। ५. बिगड़ा हुआ। नष्ट। भ्रष्ठ।
⋙ मंदाइण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दाकिनी] दे० 'मंदाकिनी'। उ०—काटल आवध मूझ कर मन मंदाइण ब्रन्न।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० २८।
⋙ मंदाक
संज्ञा पुं० [सं० मन्दाक] १. प्रवाह। धारा। २. प्रार्थना। स्तवन [को०]।
⋙ मंदाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दाकिनी] १. पुराणानुसार गंगा की वह धारा जो स्वर्ग में है। ब्रह्मवैवतं के अनुसार इसकी धार एक अयुत योजन लंबी है। २. आकाशगंगा। ३. एक छोटी नदी का नाम जो हिमालय पर्वत में उत्तर काशी में बहती है और भागीरथी में मिलती है। ४. महाभारत, रामायण आदि के अनुसार एक नदी का नाम जो चित्रकूट के पास बहती है। इसे अब पयस्विनी कहते हैं। उ०—राम कथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु। तुलसी सुभग सनेह बन, सिय रघुबीर बिहारु।—तुलसी (शब्द०)। ५. हरिवंश के अनुसार द्वारका के पास की एक नदी का नाम। ६. संक्रांति के सात भेदों में से एक। ७. बारह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और दो रगण होते हैं (/?/)।
⋙ मंदाक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दाक्रान्ता] सत्रह अक्षरों के एक वर्णावृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण और तगण तथा अंत में दो गुरु (/?/) होते हैं। अर्थात् ५, ६, ७, ८ ओर ९ तथा १२ और १३ अक्षर लघु और शेष गुरु होते हैं। जैसे,—मेरी भक्ती सुलभ तिहिं, को शुद्ध, है बुद्धि, जाकी।
⋙ मंदाक्षा (१)
वि० [सं० मन्दाक्ष] १. कमजोर दृष्टिवाला। २. संकुचित दृष्टिवाला। शर्मीला। लजीला [को०]।
⋙ मंदाक्ष (२)
संज्ञा पुं० लज्जा। शर्म।
⋙ मदांग्नि
स्त्री० [सं० मन्दाग्नि] एक रोग जिसमें रोगी की/?/शक्ति मंद पड़ जाती है और अन्न नहीं पचा सकती।/?/अपच। विशेष—हारीत का मत है कि मंदाग्नि वात और श्लेष्मा से होती है। माधवनिदान के अनुसार कफ की अधिकता सेमंदाग्नि होती है। इस रोग में अन्न न पचने के अतिरिक्त रोगी का सिर और उदर भारी रहता है, उसे मतली आती है, शरीर शिथिल रहता है और पसीना आता है। यह रोग दुःसाध्य माना जाता है।
⋙ मंदात्मा
वि० [सं० मन्दात्मत्] १. मंद विचारवाला। मूर्ख। निम्तीच [को०]।
⋙ मंदादर
वि० [सं० मन्दादर] उपेक्षा करनेवाला। आदर न करनेवाला [को०]।
⋙ मंदान
संज्ञा पुं० [?] जहाज का अगला भाग। (लश०)।
⋙ मंदानल
संज्ञा पुं० [सं० मन्दानल] मंदाग्नि।
⋙ मंदानिल
संज्ञा पुं० [सं० मन्दानिल] धीमी हवा। मंद वायु।
⋙ मंदाना †
क्रि० अ० [हिं० मंदा + ना (प्रत्य०)] मंद पड़ना। धीमा होना। मंदा होना।
⋙ मांदामणि
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दामणि] मिट्टी का बड़ा पात्र या झारी [को०]।
⋙ मंदार
सज्ञा पुं० [सं० मन्दार] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक देववृक्ष। २. फरहद का पेड़। नहसुत। ३. आक। मदार। ४. स्वर्ग। ५. हाथी। ६. धतुरा। ७. हिरश्यकशिपु के एक पुत्र का नाम। ९. मंदराचल पर्वत। १०. विंध्य पर्वत के किनारे के एक तीर्थ का नाम।
⋙ मंदारक
संज्ञा पुं० [सं० मन्दारक] दे० 'मंदार' [को०]।
⋙ मंदारमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दारमाला] १. बाईस अक्षरों के एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात तगण और अंत में एक गुरु होता है। जैसे,—मेरी कही मान ले मीत तू, जन्म जावै वृथा आपको तार ले। २. मंदार के पुष्पों की माला (को०)।
⋙ मंदारव
संज्ञा पुं० [सं० मन्दारव] मंदार का वृक्ष। मंदार [को०]।
⋙ मंदारषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दारषष्ठी] एक व्रत जो माघ शुक्ल षष्ठी के दिन पड़ता है।
⋙ मंदारसप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दारसप्तमी] माघ शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि [को०]।
⋙ मंदारु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दारु] मंदार। मदार [को०]।
⋙ मंदालसा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मदालसा'।
⋙ मंदिकुक्कुर
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिकुक्कुर] एक प्रकार की मछली।
⋙ मंदिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दिमन्] शिथिलता। सुस्ती। मंदता। ढीलापन [को०]।
⋙ मंदिर
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिर] १. वासस्थान। २. घर। उ०— जंसवे मंदिर देहली घनि पैक्खिअ सानंद।—कीर्ति०, पृ० ३२। ३. देवालय। ४. नगर। ५. शिबिर। ६. शालिहोत्र के अनुसार घोड़े की जाँघ का पिछला भाग। ७. समुद्र। ८. शरीर (को०)। ९. एक गंधर्व का नाम।
⋙ मंदिरपशु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिरपशु] बिल्ली।
⋙ मंदिरा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दिरा] १. घोड़साल। मंदुरा। अश्वशाला। २. मजीरा नामक बाजा।
⋙ मंदिल ‡पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिर] १. घर। उ०—धर्मराय की गति नहीं जानी। हर मदिल उपजाओ आनी।—कबीर सा०, पृ० १३। २. देवालय। ३. प्रत्येक रुपए या थान आदि के पीछे दाम में से काटा जानेवाला वह अल्प धन जो किसी मंदिर या धार्मिक कृत्य के लिये दूकानदार दाम देते समय काटते हैं। क्रि० प्र०—कटना।—काटना।
⋙ मंदिलरा †
संज्ञा पुं० [सं० मर्द्दंल] दे० मद्दंल। उ०—(क) मंदिलरा री बाजै अति ही गहगहे प्रगट भए या अवध नगर मैं रामचद्र बर आजै।—घनानद, पृ० ५५२। (ख) आजु मदिलरा दसरथ राय के बाजै रंग बधाई हैं।— घनानद, पृ० ५५१।
⋙ मंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मंद] भाव का उतरना। महँगी का उलटा। सस्ती।
⋙ मंदीर
संज्ञा पुं० [सं० मन्दीर] १. एक ऋषि का नाम। २. मंजीर।
⋙ मंदील
संज्ञा पुं० [हिं० मुंड] १. एक प्रकार का सिरबंद जिसपर काम बना रहता है। २. एक प्रकार का कामदार साफा।
⋙ मंदुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दुरा] १. अश्वशाला। घोड़साल। २. बिछाने की चटाई। यौ०—मंदुरापति, मंदुरापाल = अश्वशाला का प्रघान साईस। मंदुराभूपण =एक प्रकार का बंदर।
⋙ मंदुरिक
संज्ञा पुं० [सं० मन्दुरिक] साईस।
⋙ मंदोच्च
संज्ञा पुं० [सं० मन्दोच्च] ग्रहों की एक गति जिससे राशि आदि का संशोधन करते हैं।
⋙ मंदोदरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दोदरी] रावण की पटरानी का नाम। यह मय की कन्या थी। उ०—मदोदरी स्त्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका।—मानस, ६। १३।
⋙ मंदोदरी (२)
वि० सूक्ष्म पेटवाली। कृशोदरी।
⋙ मंदोष्ण
वि० [सं० मन्दोषण] आधा गरम। कुछ गरम। गुनगुना। कुनकुना [को०]।
⋙ मंद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० मन्द्र] १. गंभीर ध्वनि। २. संगीत में स्वरों के तीन भेदों में से एक। इस जाति के स्वर मध्य से अवरोहित होते हैं। इसे उदारा वा उतार भी कहते हैं। ३. हाथी की एक जाति का नाम। ४. मृदंग।
⋙ मंद्र (२)
वि० १. मनोहर। सुंदर। २. प्रसन्न। हृष्ट। ३. गंभीर। उ०—गरजो है मंद्र वज्र स्वर। थर्राए भूधर भूधर।—अपरा, पृ० ३०। ४. धीमा (शब्द आदि)। उ०— मंद्र चरण मरण ताल।—अर्चना, पृ० ४०। यौ०—मंद्रध्वनि = मंभीर या धीमी आवाज। मंद्रस्वन =दे० 'मंद्रध्वनि'।
⋙ मद्राज
संज्ञा पुं० [सं० मन्द्र] [स्त्री० मंद्राजिन] दक्षिण का एकप्रधान नगर जो पूर्वी घाट के किनारे पर है। मद्रास। इस नाम से दक्षिण का पूर्वी प्रदेश भी ख्यात है। उ०—अभी मंद्राज प्रदेश में।—प्रेमघन०, भा० २ पृ० २०९।
⋙ मंद्राजी
वि० [हिं० मद्राज] १. मंद्राज में उत्पन्न वा रहनेवाला। २. मद्राज सबंधी। ३. मद्राज का बना हुआ। जैसे, मद्राजी दुपट्टा।
⋙ मंनना पु ‡
क्रि० अ० [हिं० मानना] स्वीकार करना। दे० 'मानना'। उ०—(क) किहि मंनी अमनी सुकिहि त्रिविधि जानि संसार।—पृ० रा०, ६। १४६। (ख) कहीं चित्त मकवान नै नह मनी सुरतान।—पृ० रा०, १२। १४४।
⋙ मंशा
संज्ञा स्त्री० [अ०] कामना। इच्छा। इरादा। जैसे,—मेरी मंशा तो यही थी कि सब लोग वहाँ चलते।
⋙ मंषन †
संज्ञा पुं० [सं० म्रक्षण] दे० 'मक्खन'। उ०—लगै गुर्जं सीसं भजी भंति छुड्डै। मनो मंषन ददि्व मथान उड्ड।—पृ० रा०, १३। ९०।
⋙ मंस †
संज्ञा पुं० [सं० मांस] दे० 'माँस'। उ०—अप मप्त अप्प कर कट्टि कैं चील्हाँ हकि उड़ाइयाँ।—पृ० रा०, १। ६६८।
⋙ मंसना †
क्रि० स० [सं० मनस्] १. इच्छा करना। मन में संकल्प करना। २. दे० 'मनसना'।
⋙ मंसब
संज्ञा पुं० [अ०] १. पद। स्थान। पदवी। २. काम। कर्तव्य। ३. अधिकार।
⋙ मंसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मनस्] १. इच्छा। चाहना। अभिरुचि। उ०—कह गिरधर कविराय केलि की रही न मंसा।—गि० दा० (शब्द०)। २. संकल्प। ३. आशय। अभिप्राय। विशेष—यह शब्द संस्कृत 'मनस्' से निकला है पर कुछ लोग भ्रमवश इसे अरबी 'मंशा' से निकला हुआ समझते हैं।
⋙ संसा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो बहुत शीघ्रता से बढ़ती और पशुओं के लिये बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। विशेष दे० 'मकड़ा'।
⋙ मंसूख
वि० [अ०] खारिज किया हुआ। रद। काटा हुआ।
⋙ मंसूब
वि० [अ०] जिसकी किसी के साथ मँगनी हुई हो। संबधित। उ०—भाई की दुख्तरे नेक अख्तर मेरे साले के भतीजे से मसूब हुई है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८६।
⋙ मंसूबा
संज्ञा पुं० [अ० मन्सूबा] दे० मनसूबा।
⋙ मंसूर (१)
वि० [अ०] १. विजेता। विजयी। २. अनबिधा मोती। ३. विकीर्ण। बिखरा हुआ [को०]।
⋙ मंसूर (२)
संज्ञा पुं० एक प्रसिद्ध मुसलमान साधु। विशेष दे० 'मनसूर'। उ०—या कि फिर मंसूर सा दूल्हा मिले। मधुर यौवन फूल शूली पर खिले।—हिम कि०, पृ० १४६।
⋙ मँगता †
सज्ञा पुं० [हिं० माँगना] भिक्षुक। याचक। भिखमंगा।
⋙ मँगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मगिन + ई (प्रत्य०)] १. माँगने की क्रिया या भाव। २. वह पदार्थ जो किसी से इस शर्त पर भाँगकर लिया जाय कि कुछ समय तक काम लेने के उपरांत फिर लौटा दिया जायगा। जैसे, मँगनी की गाड़ी, मँगनी की किताब। ३. इस प्रकार माँगने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—लेना। ४. विवाह के पहले की वह रस्म जिसके अनुसार वर और कन्या का संबंध निश्चित होता है। जैसे, चट मँगती, पट ब्याह। उ०—धत् मेरी मँगनी हो गई है, देखते नहीं यह रिशमी बूटे का सालू।—गुलेरी। विशेष—साधारणतः वर पक्ष के लोग कन्या पक्षवालों से विवाह के लिये कन्या माँगा करते हैं, और जब वर तथा कन्या के विवाह की बात चीत पक्की होती है, तब उसे मँगनी कहते हैं। इसके कुछ दिनों के उपरांत विवाह होता है। मँगनी केवल सामाजिक रीति है, कीई धार्मिक कृत्य नहीं है। अतः एक स्थान पर मँगनी हो जाने पर संबंध छूट सकता है और दूसरी जगह विवाह हो सकता है।
⋙ मँगलाय
संज्ञा पुं० [दलाली मंग (=आठ) + आय (प्रत्य०)] अठारह की संख्या। (दलाल)।
⋙ मँगवाना
क्रि० सं० [हिं० माँगना का प्रे० रूप] १. माँगने का काम दूसरे से कराना। किसी को माँगने मे प्रवृत्त करना। जैसे,—तुम्हारे ये लक्षण तुमसे भीख मँगवाकर छोड़ेगे। २. किसी को कोई चीज मोल खरीदकर या किसी से माँगकर लाने में प्रवृत्त करना। जैसे,—(क) अगर में किताब मँगवाऊँ तो भेज दीजिएगा। (ख) एक रुपए की मिठाई मंगवा लो। संयो० क्रि०—देना।—रखना।—लेना।
⋙ मँगाना
क्रि० स० [हिं० माँगना का प्रे० रूप] १. दे० 'मँगवाना'। २. मँगनी का संबंध कराना। विवाह की बात- चीत पक्की कराना।
⋙ मँगेतर
वि० [हि० मँगनी + एतर (प्रत्य०)] जिसकी किसी के साथ मँगनी हुई हो। किसी के साथ जिसके विवाह की बातचीत एक्की हो गई हो।
⋙ मँगोल
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति। विशेष दे० 'मंगोल'।
⋙ मँजना
क्रि० अ० [सं० मज्जन] १. रगड़कर साफ किया जाना। माँजा जाना। २. किसी कार्य को ठीक तरह से करने की योग्यता या शक्ति आना। अभ्यास होना। मश्क होना। जैसे, लिखने में हाथ मँजना।
⋙ मँजल पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मंजिल] दे० 'मंजिल'। उ०—ये सराइ दिन चारि सुकामा रहना नाहिं मँजल को जाना।— घट०, पृ० ३००।
⋙ मँजाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँजना] १. माँजने की क्रिया या भाव। २. माँजने की मजदूरी।
⋙ मँजाना (१)
क्रि० स० [हिं० माँजना का प्रे० रूप] माँजने का काम दूसरे से कराना। किसी को माँजने में प्रवृत्त करना।
⋙ मँजाना (२)पु
क्रि० स० माँजना। मलकर साफ करना। उ०—सूतसूत सी कया मँजाई। सीझा काय बिनत सिधि पाई।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मँजारि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जार] दे० 'मार्जार'। उ०—पिंजर महँ जो परेवा घेरा। आइ मँजारि कीन्ह तहँ फेरा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३९।
⋙ मँजावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० मँजना] माँजने या मँजने का भाव। २. माँजने या मँजने की क्रिया। ३. किसी काम में हाथ का मँजना। हाथ की सफाई।
⋙ मँजीठ पु
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जीष्टा] 'मजीठ'। उ०—मए मजीठ पानन्ह रंग लागे। कुसुम रग थिर रहा न आगे।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९०।
⋙ मँजीरा
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जीर] १. दे० 'मजीरा'। २. नुपूर। उ०—पाइन बाजत, मंजु मँजीरा।—नंद० ग्रं०, पृ० १३६।
⋙ मँजूपा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जूषा] दे० 'मंजूषा'। उ०—कीरति कूख मँजूष प्रगट भई सुख सोभा सिधि है हो।—घनानंद, पृ० ४८७।
⋙ मंजूसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जूषा] दे० 'मंजूषा'। उ०—चोर पुकारि भेद गढ़ मूँसा। खोलै राजभँडार मँजूषा।—पदमावत, पृ० २८०।
⋙ मँझ †
अव्य० [सं० मध्य] बीच में। उ०—मझ पदमावति कर जो बेबानू। जनु परभात परै लखि भानू।—जायसी ग्रं०, पृ० १४७।
⋙ मँझदार †
संज्ञा स्त्री० [सं० मध्यधारा] दे० 'मझधार'। उ०—हमें मँझदार में छोड़कर सुरपुरी को सिधार गए।—मान०, पृ० २४४।
⋙ मँझधार
संज्ञा स्त्री० [हिं० मझ + धार] दे० 'मझधार'।
⋙ मँझला
वि० [सं० मध्य हिं० मझ + ला (प्रत्य०)] मध्य का। बीच का। जो दो के बीच में हो।
⋙ मँझार †
क्रि० वि० [सं० मध्य] मध्य में। बीच में। उ०—अहंकार कौन ते हैं जासौं महतत्व वहैं महतत्व कौन ते है प्रकृति मंझार तै।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५९४।
⋙ मँझियाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मझियाना'।
⋙ मँझियार
वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य का। बीच का। उ०—नव द्वारा राखे मँझियारा। दसवें मँदि के दिएउ किवारा —जायसी (शब्द०)।
⋙ मँझुवा
संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ + हिं० उवा (प्रत्य०)] दे० 'भझुआ'। उ०—कगने पहुँची, मृदु पहुँचों पर पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर चूड़ियाँ फूल की मठियाँ वर।—ग्राम्या, पृ० ४०।
⋙ मँझोली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक सवारी, जिसे बैल खींचते हैं। उ०—मंझोली न लइयौ, मेरौ गूँठौ पाँगन जाइ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७६।
⋙ मँडना
क्रि० स० [हिं० माँडना] 'मडना (१)'। उ०—कोने परा न छूटि हौ सुनु रै जीव अबूझ। कबिरा मंड मैदान में, करि इंद्रिन सों जूझ।—कबीर सं०, पृ० २६।
⋙ मँडप पु
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] दे० 'मंडप'। उ०—भीतर मँडप चारि खँभ लागे।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३१।
⋙ मँडर
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] दे० 'मंडल'। उ०—तारा मँडर पहिर भल चोला। पहिरै ससि जस नखत अगोला।— जायसी ग्रं०, पृ० २४५।
⋙ मँडरना
क्रि० अ० [सं० मण्डल] मंडल बाँधकर छा जाना। चारो ओर से घेर लेना। उ०—झाँझ ताल सुर मंडरे रंग हो हो होरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मँडराना
क्रि० अ० [सं० मण्डल] १. मंडल बाँधकर उड़ना। किसी वस्तु के चारो ओर घूमते हुए उड़ना। चक्कर देते हुए उड़ना। जैसे चील का मँडराना। उ०—हंस को मैं अंश राख्यो काग कित मँडराय ?—सूर (शब्द०)। २. किसी के चारो ओर घूमना। परिक्रमण करना। उ०—मडप ही में फिरै मँडरात है न जात कहूँ तजि को ओने।—पद्माकर (शब्द०)। ३. किसी के आस पास ही घूम फिरकर रहना। उ०—देखहु जाय और काहू को हरि पै सबै रहति मँडरानी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मँडरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पयाल की चटाई। दे० 'मंडरी'।
⋙ मँडवा
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप, प्रा० मंडव] मँडप।
⋙ मँडाण
संज्ञा पुं० [हिं० मण्डल] दे० 'मंडन'। उ०—माँडया सो दह जायगा, माटी तण मँडाण।—राम० धर्म०, पृ० ६५।
⋙ मँडान पु
संज्ञा पुं० [हिं० मंडल] देश० 'मंडन'। उ०—कबीर थोड़ा जीवना माँडै बहुत मँडान।—कबीर सा०, पृ० ९।
⋙ मँडाना ‡
क्रि० स० [देश०] लिखाना। उ०—उन वैष्णवन पास तै खत तो मँडाइ लेते।—दौ सौ बावन०, भा०, पृ० २३५।
⋙ मँडार †
संज्ञा पुं० [हिं० मंडल] १. गड्ढा। २. झाबा। डलिया। उ०—सुअहि को पूछ पतंग मंडारै। चल न देख आछे मन मारे।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मँड़ियार
संज्ञा पुं० [देश०] झरबेरी नामक कँटीली झाड़ी।
⋙ मँडुआ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कदन्न।
⋙ मँड़ुका
संज्ञा स्त्री० [सं० मृद्वीका] दाख। अगूर। उ०—माठी, मँडुका, मधुरसा, कालपेखका होइ।—नद० ग्रं०, पृ० १०४।
⋙ मँडैया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मणुपी] दे० 'मड़ैया'। उ०—धर्ती त्याग अकास की त्यागै अधर मँडैया छावै।—कबीर० श०, भा०, पृ० ४६।
⋙ मँढ़ा
संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ना] दे० 'मढ़ा'।
⋙ मँदचाल †
वि० [सं० मंद + चाल] मदचालवाला। खोटी चाल का। उ०—देखु यह सुअटा है मँदचाला।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १७६।
⋙ मँदरा
वि० [सं० मन्दर मि० पं० मदरा (=नाटा)][वि० स्त्री०मँदरी] नाटा। ठिंगना। उ०—स्त्रियाँ नाटी मंदरी और मर्दों से भी जियादा मजबूत होती हैं।—शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ मँदरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] खाजे के जाति का एक पेड़। विशेष—इसकी लकड़ी मजबूत होती है और खेती के सामान तथा गाड़ियाँ बनाने के काम आती है। छाल से चमड़ा सिझाया जाता है, फल खाए जाते हैं और पत्तियाँ पशुओं के चारे के काम आती हैं। इसी की जाति का एक और पेड़ होता है जिसे गेंड़ली कहते हैं। इसकी छाल पर, जब वे छोटे रहते हैं, काँटे होते हैं; पर ज्यों ज्यों यह बड़ा होता है, छाल साफ होती जाती है। इसकी लकड़ी की तौल प्रति घनफुट २० से ३० सेर तक होती है। इसके बीज बरसात मे बोए जाते हैं।
⋙ मँदरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] महीरों का एक खेल जिसमें वे लाठी के पैतरों के साथ, नगाड़ै की ध्वनि पर, विशेषतः कार्तिक मास की रात्रियों मे खेलते हैं और अन्नकूट महोत्सव के दिन खेलते हुए झुंड के साथ दुर्गा देवी का दर्शन करते हैं। (प्रचलित)।
⋙ मँदला †
संज्ञा पुं० [हिं० मंदल] दे० मंदरा।
⋙ मँदलिया †
संज्ञा पुं० [हिं० मंदल + इया (प्रत्य०)] मंदरा नामक वाद्य बजानेवाला। उ०—धौल मँदलिया बैल रबाबी कउवा ताल बजावै।—कबीर ग्र०, पृ० ९२।
⋙ मँदिर पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिर] दे० 'मंदिर'। उ०—मँदिर मँदिर फुलवारी चोवा चंदव बास।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १४९।
⋙ मँदिराचल पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दराचल] दे० 'मंदर'। उ०— मँदिराचल बल विपुल पुल थल थरहर हल पाल।—पृ० रा०, २। १०५।
⋙ मँदिल पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्दिर] दे० 'मंदिर'। उ०—दिया मँदिल निसि करै अजोरा।—जायसी ग्रं०, पृ० २१८।
⋙ मँनिरा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मनिहार'। उ०—कौंन दिसा ते मँनिरा आइ ए और कोंन दिसा कूँ जाइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९४३।
⋙ मँसुखवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० मांस + खाना] मांसाहारी।
⋙ मँहगा †
वि० [सं० महार्घ] अधिक मूल्य पर बिकनेवाला। उचित से अधिक मूल्य का।
⋙ मँहगाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मँहग + ई (प्रत्य०)] १. दे० 'महगी'। उ०—मँहगाई के जमाने में भूखों मरने की नौबत—फूलो०, पृ० ९८। २. वस्तुओं के बढ़े हुए भाव का ध्यान रखकर नौकरी पेशा के लोगों को अतिरिक्त मिलनेवाली रकम।
⋙ मँहदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मेंहँदी'। उ०—बिरी अधर अंजन नयन, मँहदी पग अरु पानि।—मति० ग्रं०, पृ० ४२९।
⋙ मँहैं पु
अव्य० [सं० मध्य] मध्य। में। उ०—पलटू ऐसे घर महैं, बड़े मरद जे जाहिं। यह तो घर हैं प्रेम का खाला का घर नाहिं।—पलटू० भा० १, पृ० ३३।
⋙ म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. चंद्रमा। ३. ब्रह्मा। ४. यम। ५ समय। ६. विष। जहर। ७. मधुसूदन। ८. छंदःशास्त्र में एक गण। मगण। ९. संगीत में एक स्वर। मध्यम। १०. जल। पानी (को०)। सौभाग्य। प्रसन्नता (को०)।
⋙ म पु (२)
अव्य० [हिं० महँ] दे० 'में'। उ०—ठाढ़ि जो हौं बाट म, साहेब चलि आवो।—धरम० श०, पृ० २३।
⋙ म (३)
अव्य० [सं० मा] न। नहीं। उ०—कवि भ्रम भमर म सोचकर, सिमरि नाम अभिराम।—रा० रू, पृ० १।
⋙ मअन †
संज्ञा पुं० [सं० मदन प्रा० मयण, मअण] दे० 'मदन'। उ०—आज मोयें देखलि बारा लुबुध मानस चालक मअन कर की परकारा।—विद्यापति, पृ० ३०।
⋙ मआज
संज्ञा स्त्री० [अ० मआज] शरण। आश्रय। उ०—बँदा हूँ उसी का वही ठार मआज।—दक्खिनी०, पृ० ७२।
⋙ मइँ ‡
सर्व० [अप०] दे० 'मैं'।
⋙ मइका ‡
संज्ञा पुं० [सं० मातृक] दे० 'मायका' या 'मैका'।
⋙ मइमंत पु
वि० [सं० मदमत्त, प्रा० मअमत्त] मदोन्मत्त। मतवाला। दे० 'मैमत'। उ०—जोबन अस मइमंत न कोई। नवँइ हसति जउ आँकुस होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मइया ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० माता] दे० 'मैया'। उ०—भूखे आहि बालि गई मइया। घर चलिहै मेरो भलो कन्हइया।—नंद० ग्र०, पृ० २५५।
⋙ मई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मयी] १. मय जाति की स्त्री। २. ऊँटनी।
⋙ मई (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० मे] अँगरेजी का पाँचवाँ महीना जो अप्रैल के उपरांत और जून से पहले आता है। यह सदा ३१ दिन का होता है और प्रायः वैशाख में पड़ता है।
⋙ मई पु (३)
प्रत्य० [सं० मय का स्त्री० रूप] तद्रूप, विकार और प्राचुर्य अर्थों मे प्रयुक्त एक तद्धित प्रत्यय। दे० 'मय (२)'। उ०—करम कौ गैह पंचभूत मई देह, नासमान एह, नेह काहे कौ बढ़ाइए।—पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ४२३।
⋙ मउनी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौना] काँस, मूज की बनी छोटा पिटारी। दे० 'मौनी (२)'।
⋙ मउनी ‡ (२)
वि० [सं० मौनी] दे० 'मौनी (१)'।
⋙ मउर †
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट] फूलों का बना हुआ वह मुकुट या सेहरा जो विवाह के समय दूल्हे के सिर पर पहनाया जाता है। मौर।
⋙ मउरछोराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मउर + छोड़ाई] १. विवाह के उपरात मोर खोलने की रस्म। विशेष—जब वर कोहबर में पहुँच जाता है, तब ससुराल कीस्त्रियाँ उसको कुछ देकर मौर उतार लेती हैं और उसे दही गुड़ खिलाकर कुछ नगद देकर बिदा करती हैं। २. वह धन जो वर को मौर खोलने के समय दिया जाता है।
⋙ मउरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौर] एक प्रकार का बना हुआ तिकोना छोटा मौर जो विवाह के समय कन्या के सिर पर रखा जाता है।
⋙ मउलसिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मौलसिरी'।
⋙ मउसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मासी] माता की बहिन। मासी। मौसी।
⋙ मकई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मक्का] ज्वार नामक अन्न।
⋙ मकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मकड़ी] बड़ी मकड़ी।
⋙ मकड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास। मधाना। खमकरा। मनसा। विशेष—यह बहुत शीघ्रता से बढ़ती है। यह पशुओं और विशेषतः घोड़ों के लिये बहुत पुष्टिकारक होती है। यह दस बरस तक सुखाकर रखी जा सकती है। कहीं कहीं गरीब लोग इसके बीज अनाज की भाँति खाते हैं।
⋙ मकड़ाना †
क्रि० अ० [हिं० मकड़ा या मक्कर] अकड़कर चलना। मकड़े की तरह चलना। इतराना।
⋙ मकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्कटक या मर्कटी] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध कीड़ा जिसकी सैकड़ों हजारों जातियाँ होती हैं और जो प्रायः सारे संसार में पाया जाता है। विशेष—इसका शरीर दो भागों में विभक्त हो सकता है। एक भाग में सिर और छाती तथा दूसरे भाग में पेट होता है। साधारणतः इसके आठ पैर और आठ आँखें होती हैं। पर कुछ मकड़ियों को केवल छह, कुछ को चार और किसी किसी को किवल दो ही आँखों होती हैं। इनकी प्रत्येत टाँग में प्रायः सात जोड़ होते हैं। प्राणिशास्त्र के ज्ञाता इसे कीट वर्ग में नहीं मानते; क्योंकि कीटों को केवल चार पैर और दो पंख होते हैं। कुछ जाति की मकड़ियाँ विषैली होती हैं और यदि उनके शरीर से निकलनेवाला तरल पदार्थ मनुष्य के शरीर से स्पर्श कर जाय, तो उस स्थान पर छोटे छोटे दाने निकल आते हैं जिनमें जलन होती है और जिनमें से पानी निकलता है। कुछ मकड़ियाँ तो इतनी जहरीली होती हैं कि कभी कभी उनके काटने से मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है। मकड़ी प्रायः घरों में रहती है और अपने उदर से एक प्रकार का तरल पदार्थ निकालकर उसके तार से घर के कोनों आदि में जाल बनाती है जिसे जाल या झाला कहते हैं। उसी जाल में यह मक्खियाँ तथा दूसरे छोटे छोटे कीड़े फँसाकर खाती है। दीवारों की संधियों आदि में यह अपने शरीर से निकाले हुए चमकीले पत्तले और पारदर्शीं पदार्थ का घर बनाती है और उसी में असंख्य अंडे देती है। साधारणतः नर से मादा बहुत बड़ी होती है और संभीग के समय मादा कभी कभी नर को खा जाती हा। कुछ मकड़ियाँ इतनी बड़ी होती हैं कि छोटे मोटे पक्षियों तक का शिकार कर लेती हैं। मकड़ीयाँ प्रायः उछलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती हैं। इनकी कुछ प्रसिद्ध जातियों के नाम इस प्रकार हैं—जंगली मकड़ी, जल मकड़ी, राज- मकड़ी, कोष्टी मकड़ी, जहरी मकड़ी आदि। २. मकड़ी के विष के स्पर्श से शरीर में होनेवाले दाने, जिनमें जलन होती है और जिनमें से पानी निकलता है।
⋙ मकतब
संज्ञा पुं० [अ०] छोटे बालकों के पढ़ने का स्थान। पाठशाला। चटसाल। मदरसा। मुहा०—मकतब का यार = बचपन का साथी।
⋙ मकतबखाना
संज्ञा पुं० [अ० मकतबखानह्] दे० 'मकतब'। उ०—यही ठौर हुतो हाय वह मकतबखाना।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९। विशेष—इसमें 'खाना' शब्द अधिक है क्योंकि मकतब का अर्थ ही पढ़ाई की जगह है, पर कुछ लोग लिख देते हैं। इसी तरह 'मकतबगाह' भी है।
⋙ मकतबा
संज्ञा पुं० [अ०] १. किताबों की दूकान। २. पुस्तकालय। लायब्रेरी।
⋙ मकतल
संज्ञा पुं० [अ० मकतल] कत्ल करने की जगह। वधस्थान। वधभूमि [को०]।
⋙ मकता (१)
संज्ञा पुं० [सं० मगध] भगध देश। विशेष—आईने अकबरी में मगध का यही नाम दिया गया है।
⋙ मकता (२)
संज्ञा पुं० [अ० मक्तअ] गजल या किसी कविता का अंतिम शैर या छंद।
⋙ मकतूब (१)
वि० [अ० मक्तूब] लिखित। लिखा हुआ।
⋙ मकतूब (२)
संज्ञा पुं० पत्र। चिट्ठी। उ०—य अश्क आँखों में कासिद किस तरह यकदम नहीं थमता। दिले बेताब का शायद लिए मकतूब जाता है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २१।
⋙ मकदूनिया
संज्ञा पुं० [अ० मक्दूनियह्] एक प्रदेश जो पहले तुर्कों के पास था। सिकंदर यहीं राज करता था।
⋙ मकदूर
संज्ञा पुं० [अ० मकदूर] १. सामर्थ्य। ताकत। शक्ति। २. धन दौलत। संपत्ति (को०)।
⋙ मकना (१)
संज्ञा पुं० [अ० मक्ना] एक महीन कपड़ा जो निकाह के समय दूल्हे को पहनाया जाता है [को०]।
⋙ मकना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मकुना'।
⋙ मकनातीस
संज्ञा पुं० [अ० मकनातीस] चुंबक पत्थर।
⋙ मकफूल
वि० [अ० मकफूल] रेहन किया हुआ। गिरों रखा हुआ।
⋙ मकबरा
संज्ञा पुं० [अ० मकबरह्] वह मकान या इमारत जिसके अंदर कोई कबर हो। कबर के ऊपर बनी हुई इमारत। समाधिमंदिर। रोजा। मजार।
⋙ मकबूजा
वि० [अ० मकबूजह्] कब्जा किया हुआ। अधिकत (माल, मिल्कियत आदि)।
⋙ मकबूल
वि० [अ० मकबूल] १. सर्वप्रिय। उ०—क्यों वह काबिल है बनता जिसमें पह मकबूल न हो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५७०। २. माना हुआ। स्वीकृत। मंजूर (को०)। ३. रुचिकर (को०)। यौ०—मकबूले खुदा = ईश्वर का प्यारा। मकबूले बारगाह = (१) ईश्वर का प्यारा। (२) किसी बड़े के यहाँ बहुत सम्मानित।
⋙ मकबूलियत
संज्ञा स्त्री० [अ० मकबूलियत] १. सर्वप्रियता। लोकप्रियता। २. रुचि। पसंद [को०]।
⋙ मकरद
संज्ञा पुं० [सं० मकरन्द] १. फूलों का रस जिसे मधुमक्खियाँ और भौरे आदि चूसते हैं। २. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण और एक यगण होता है। इसको 'राम', 'माधवी' और 'मजरी' भी कहते है। जैसे,—जुलोक यथामति वेद पढ़ै सह आगम औ दश आठ सयाने। ३. ताल के ६० मुख्य भेदों में से एक। ४. कुंद का पौधा। ५. किंजल्क। फूल का केसर। ६. भ्रमर। भौंरा (को०)। ७. कोकिल। कोयल (को०)। ८. एक प्रकार का सुगंधित आम (को०)।
⋙ मकरंदवत्
वि० [सं० मकरन्दवत्] [वि० स्त्री० मकरंदवती] पुष्प- रस या मधु से पूर्ण [को०]।
⋙ मकरंदवती
संज्ञा स्त्री० [सं० मकरन्दवती] पाटला नाम की लता या उसका फूल [को०]।
⋙ मकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मगर या घड़ियाल नामक प्रसिद्ध जलजतु। यह कामदेव की ध्वजा का चिह्न और गंगा जी तथा वरुण का वाहन माना लाता है। २. बारह राशियों में से दसवीं राशि जिसमें उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम तीन पाद, पूरा श्रवण नक्षत्र और धनिष्ठा के आरभ के दो पाद हैं। विशेष—इसे पृष्ठोदय, दक्षिण दिशा का स्वामी, रूक्ष, भूमि- चारी, शीतल स्वभान और पिंगल वर्ण का, वैश्य, वातप्रकृति और शिथिल अगोंवाला मानते हैं। ज्योतिष के अनुसार इस जाति में जन्म लेनेवाला पुरुष परस्त्री का अभिलाषी, धन उड़ानेवाला, प्रतापशाली, बातचीत में बहुत होशियार, बुद्धिमान और वीर होता है। ३. फलित ज्योतिष के अनुसार एक लग्न। ४. सुश्रुत के अनुसार कीड़ों और छोटे जीवों का एक वर्ग। ५. कुबेर की नव निधियों में से एक। ६. अस्त्र शस्त्र को निष्फल बनाने के लिये उनपर पढ़ा जानेवाला एक प्रकार का मंत्र। ७. एक पर्वत का नाम। ८. एक प्रकार का ब्यूह जिसमें सैनिक लोग इस प्रकार खड़े किए जाते हैं कि उनकी समष्टि मकर के आकार की जान पड़ती है। ९. माघ मास। मकर संक्रांति का महीना। उ०—अहो हरि नीको मकर मनाए।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ४४१। १. मछली। उ०—श्रुति मंडल कुंडल विधि मकर सुविलसत सदन सदाई।—सूर (शब्द०)। ११. छप्पय के उनतीसवें भेद का नाम जिसमें ३२ गुरु, ८८ लघु १२० वर्ण या १५२ मात्राएँ अथवा ३२ गुरु, ८४ लघु, १६६ वर्ण, कुल १४८ मात्राएँ होती हैं।
⋙ मकर (२)
सज्ञा सं० [फा० मकर, मक्र] १. छल। कपट। फरेब। धोखा। उ०—करहु बदगी असल करारा। सो तजि का तुम्ह मकर पसारा।—संत० दरिया, पृ० २२। २. नखरा। उ०—काम करते हैं मकर का किसलिये। इस मकर से प्यार प्यारा है कहो।—चोखे०, पृ० २४। क्रि० प्र०—रचना।—फैलाना।
⋙ मकरकर्कट
संज्ञा सं० [सं०] क्रांति वृत्त की वह सीमा जहाँ से सूर्य उत्तरायण या दक्षिणायन होकर लौट जाता है।
⋙ मकरकुंडल
संज्ञा पुं० [सं० मकर कुण्डल] मकर या मछली की आकृति का कर्णभूषण। उ०—श्रवण मकरकुंडल लसत मुख सुषमा एकत्र।—केशव (शब्द०)।
⋙ मकरकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। उ०—प्रेम का चिह्न मकर है। काम तभी मकरकेतन कहा गया है।—प्रा० भा० प०, पृ० ७४।
⋙ मकरकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मकरक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० मकरक्रान्ति] वह अक्षरेखा जो निरक्ष रेखा से २३ अंश दक्षिण में स्थित है [को०]।
⋙ मकरचाँदनी
संज्ञा स्त्री० [अ० मक्र या मकर + हिं० चाँदनी] १. वह चाँदनी जो सबेरा का भ्रम पैदा करे। उ०—पहर एक रजनी जब गई। तब तहाँ मकर चाँदनी भई।—अध०, पृ० ३८। २. भ्रामक वस्तु। धोखे की चीज।
⋙ मकरतेंदुआ
संज्ञा पुं० [सं० मकर + तिन्दुक] आबनूस। काकतिंदुक।
⋙ मकरतार
संज्ञा पुं० [हिं० मुक्कश] बादले का तार। उ०—चलु सखि चलु सखि प्रेम बिलास। झूमर खेलौ सतगुरु के पास। श्वेत सिंहासन छंत्र अँजोर। मकरतार पर लागी डोर।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मकरध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। कंदपं। उ०—विद्या सोइ बृहस्पति जानौ। रूपु सोई मकरध्वज मानौ।—माधवा- नल०, पृ० १८८। २. रससिंदूर। चंद्रोदय नामक रस। ३. इंद्रपुष्प। लौंग। ४. पुराणानुसार अहिरावण का एक द्वारपाल। मत्स्योदर। विशेष—यह हनुमान का पुत्र माना जाता है। कहते हैं, लंका को जलाने के उपरांत जब हनुमान ने समुद्र में स्नान किया था, तब एक मछली में उनके पसीसे से मिला हुआ जल पीकर गर्भ धारण किया था जिससे इसका जन्म हुआ।
⋙ मकरपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. ग्राह।
⋙ मकरलांछन
संज्ञा पुं० [सं० मकरलाञ्छन] कामदेव। मकरकेतु [को०]।
⋙ मकरवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण। प्रचेता। [को०]।
⋙ मकरव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्यूह या सेनारचना जिसमें सैनिक मकर के आकार में खड़े किए जाते हैं। दे० 'मकर'-८।
⋙ मकरसंक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० मकर सङ्क्राति] वह समय जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह एक पर्व माना जाता है।
⋙ मकरसप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी [को०]।
⋙ मकरांक
संज्ञा पुं० [सं० मकराङ्क] १. कामदेव। २. समुद्र। ३. एक मनु का नाम।
⋙ मकरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वरक] मड़ुवा नामक अन्न।
⋙ मकरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मकड़ा] १. भूरे रंग का एक कीड़ा जो दीवारों और पेड़ों पर जाला बनाकर रहता है। इसकी टाँगे बड़ी बड़ी होती हैं। २. हलवाइयों की एक प्रकार की घोड़िया या चौघड़िया जिससे सेव बनाया जाता है। विशेष—यह एक चौकी होती है जिसमें छाननी की तरह छेदवाला लोहे का एक पात्र जड़ा होता है। इसी पात्र में घोला हुआ बेसन भरकर ऊपर में एक दस्ते से दबाते हैं जिससे नीचे सेव बनकर गिरता जाता है।
⋙ मकराकर
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। (डिं०)।
⋙ मकराकार
वि० [सं०] मकर या मछली के आकार का।
⋙ मकराकृत
वि० [सं०] मकर या मछली के आकारवाला। यौ०—मकराकृत कुंडल=मछली के आकार का कुंडल।
⋙ मकराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] खर का पुत्र और रावण का भतीजा। विशेष—रामायण के अनुरसार यह कुंभ और निकुंभ के मारे जाने पर युद्ध में गया था और राम के द्वारा मारा गया था।
⋙ मकराज
संज्ञा स्त्री० [अ०] मिकराज कैंची।
⋙ मकरानन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ मकराना
संज्ञा पुं० [देश०] राजपूताने का एक प्रदेश जहाँ का संगमरमर बहुत प्रसिद्ध होता है। उ०—मारवाड़ के लोग इन्हें मकराने का ब्राह्मण मानते है। अकबरी०, पृ० ७८।
⋙ मकराराई
संज्ञा स्त्री० [मकरा ? + राई] काली राई।
⋙ मकरालय
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। उ०—पार किया मकरालय मैने, उसे एक गोष्पद सा मान।—साकेत, पृ० ३८८।
⋙ मकराश्व
संज्ञा पुं० [सं०] मकर पर सवार होनेवाले, वरुण।
⋙ मकरासन
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों का एक आसन जिसमें हाथ और पैर पीठ की आर कर लिए जाते हैं।
⋙ मकरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मकरिकापत्र' [को०]।
⋙ मकरिकापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मछली के आकार का बना हुआ चदन का चिह्न जो प्राचीन काल में स्त्रियाँ अपनी कनपटिर्यों पर बनाती थीं।
⋙ मकरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मकरिन्] समुद्र [को०]।
⋙ मकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मगर की मादा। मगरी। उ०— पोखरी विशाल बाहुबल वारिचर पीर मकरी ज्यों पकरि कै बदन बिदारिए।—तुलसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का वैदिक गीत। ३. चक्की में लगी हुई एक लकड़ी। विशेष—अनुमानतः यह आठ अंगुल की होती है और किल्ले की नोक पर रखकर और उसके दोनों सिरों पर जीती लगाकर जुए से बाँधी रहती है। इस जोती में दोनों ओर छोटी छोटी लकड़ियाँ लगी होती हैं जिनके घुमाने से ऊपर का पाट आवश्यकतानुसार ऊपर उठाया या नीचे गिराया जा सकता है। जब यह ऊपर कर दी जाती है, तब चक्की के ऊपर का पाठ भी कुछ ऊपर उठ जाता है जिससे आटा कुछ मोटा और दरदरा होने लगता है। और जब इसे घुमाकर कुछ नीचे करते हैं, तब पाट के नीते आ जाने के कारण आटा महीन होने लगता है। ४. जहाज में फर्श या खंभों आदि में लगा हुआ लकड़ी या लोहे का वह चौकोर टुकड़ा जिसके अगले दोनों भाग अँकुसे के आकार के होते हैं और जिनमें रस्सा आदि बाँधकर फँसा देते हैं। (लश०)। ५. मछली। उ०—हस स्वेत बक स्वेत देखिए समान दोऊ हंस मोती चुगै बक मकरी की खात है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५६५। यौ०—मकरीपत्र, मकरीलेखा=दे० 'मकरिकापत्र'।
⋙ मकरूज
वि० [अ० मक्रूज] ऋणी। कर्जदार। उ०—बल्कि मकख्ज होकर बदनाम और।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५६।
⋙ मकरूह
वि० [अ०] १. नापाक। अपवित्र। २. जिसे देखकर घृणा उत्पन्न हो। घृणित।
⋙ मकरेड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० मक्का + एड़ा (प्रत्य०)] ज्वार वा मक्के का डंठल।
⋙ मकरोण, मकरौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० मकड़ी] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो प्रायः आम के पेड़ों पर चिपका रहता है।
⋙ मकलई
संज्ञा स्त्री० [मकालिया बंदरगाह से] एक प्रकार का गोंद। विशेष—यह अदन से बंबई में आता है। यह सफेद या लाली लिए पीले रंग का होता है और इसके गोल गोल दाने होते हैं। यह मकालिया नामक बंदरगाह से आता है, इसलिये मकलई कहलाता है।
⋙ मकलूब
वि० [अ० मक्लूब] औंधा। उलटा हुआ।
⋙ मकसद
संज्ञा पुं० [अ० मकसद] १. मनोरथ। मनोकामना। २. अभिप्राय। तात्पर्य। मतलब। यौ०—मकसदवर=जिसकी कामना या मनोरथ पूर्ण हो चुका हो।
⋙ मकसूद (१)
वि० [अ० मकसूद] उद्दिष्ट। अभिप्रेत।
⋙ मकसूद (२)
संज्ञा पुं० १. अभिप्राय। मतलब। २. मनोरथ। उ०— हासिल हो मकसूद तब, हाफिज अमन अमान।—कबीर० श०, पृ० ३१।
⋙ मकसूदन ‡
संज्ञा पुं० [सं० मधुसूदन] दे० 'मधुसूदन'।
⋙ मकसूम (१)
वि० [अ० मक्सूम] विभाजित। तकसीम किया हुआ। बाँटा हुआ।
⋙ मकसूम (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. भाग। हिस्सा। २. किस्मत। ३. वह संख्या जो बाँटी जाय। भाज्य [को०]। यौ०—मक्सूम अलैह=वह संख्या जिसमे किसी संख्या में भाग दें। भाजक। मकसूम अलैह आजम=वह बड़ी संख्या जो कई संख्याओं को पूर्णतः बाँट दे। महत्तम समापवर्तक।
⋙ मकाँ
संज्ञा पुं० [फा०] गृह। घर। मकान। उ०—मेरे सनम का किसी को मकाँ नहीं मालूप। खुदा का नाम सुना है निशाँ नहीं मालूम।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३८०।
⋙ मकाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मक्का] बड़ी जोन्हरी। ज्वार।
⋙ मकाद
संज्ञा स्त्री० [अ० मक्अद] १. बैठने का स्थान। २. गुदा। मलद्वार [को०]।
⋙ मकान
संज्ञा पुं० [अ०] [बहु० व० मकानात] १. गृह। घर। २. निवासस्थान। रहने की जगह। यौ०—मकानदार=घर का मालिक। गृहस्वामी। मुहा०—मकान हिला देना=ऊधम करना। हल्ला गुल्ला मचाना।
⋙ मकाम
सज्ञा पुं० [अ० मकाम] दे० 'मुकाम'।
⋙ मकीं
वि० [अ० मकीन] घर में रहनेवाला। मकानदार। गृही। उ०—वजूद से हम अदम में आकर मकीं हुए ला मकाँ के जाकर।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५७।
⋙ मकुंद
संज्ञा पुं० [सं० मुकुन्द] दे० 'मुकुंद'।
⋙ मकु
अव्य० [सं० म] १. चाहे। उ०—(क) तिभिर तरुन तरनिहिं मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहिं मिलई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमद भरतहि भाई।—तुलसी (शब्द०)। २. बल्कि। वरन्। उ०—पाउँ छुवइ मकु पावउँ एहि मिस लहरइ देहु।—जायसी (शब्द०)। ३. कदाचित्। क्या जाने। शायद। उ०—मकु यह खोज होइ निसि आई। तुरइ रोग हरि माँथइ जाई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मकुआ
संज्ञा पुं० [हिं० मक्का] बाजरे के पत्तों का एक रोग।
⋙ मकुट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुकुट'।
⋙ मकुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्रों के संबंघ में सरकारी नियम, आदेश आदि। शूदशासन [को०]।
⋙ मकुना
संज्ञा पुं० [सं० मनाक (=हाथी)] १. वह नर हाथी जिसके दाँत न हों अथवा छोटे छोटे दाँत हों। २. बिना मूँछों का पुरुष।
⋙ मकुनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. आटे के भीतर बेसन या चने की पीठी भरकर बनाई हुई कचौरी। बेसनी रोटी। २. चने का बेसन और गेहूँ का आटा एक में मिलाकर उसमें नमक, मेथी, मंगरैला आदि मिलाकर बाटी की भाँति भूभल में सकी हुई बाटी या लिट्टी। ३. मटर के आटे की रोटी। ४. ‡ छोटी। उ०—कुछ चीजों को यह अपनी बताता है। यहाँ मकुनी अदालत में हाकिम को इसके रवइये का अंदाजा हो जायगा।—काले०, पृ० ७२।
⋙ मकुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुम्हार का डंडा जिससे वह चाक घुमाता है। २. बकुल। मौलसिरी। ३. शीशा। दर्पण। ४. कोरक। कली।
⋙ मकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कली। कोरक। २. बकुल। मौलसिरी [को०]।
⋙ मकुष्ट, मकुष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मकुष्ठ' [को०]।
⋙ मकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धान। २. मोठ नामक अन्न।
⋙ मकुष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] मोठ नामक अन्न।
⋙ मकूनी पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मकुनी'। उ०—मीठे तेल चना की भाजी। एक मकूनी दै मोहि साजी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मकूलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कली। कुड्मल। २. दंती नाम का वृक्ष [को०]।
⋙ मकूला
संज्ञा पुं० [अ०] १. कहावत। कहनूत। २. वचन। कथन।
⋙ मकेरा
संज्ञा पुं० [हिं० मक्का + ऐरा (प्रत्य०)] वह खेत जिसमें ज्वार या बाजरा बोया जाता है।
⋙ मकेरुक
संज्ञा पुं० [सं०] चरक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें मल के साथ कीड़े निकलते हैं। २. मल में उत्पन्न कीट। उ०—इन (कृमियों) के पाँच नाम हैं—ककेरुक; मकेरुक, सोसुराद, मलून, लेलिह।—माधव०, पृ० ७९।
⋙ मकी
संज्ञा स्त्री० [देश० या हिं० मकोय] दे० 'मकोय'।
⋙ मकोइचा
संज्ञा पुं० [देश० या हिं० मकोय] दे० 'मकोई'।
⋙ मकोइया
वि० [हिं० मकोय + इया (प्रत्य०)] मकोय के पके हुए फल के रंग का।
⋙ मकोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मकोय] जंगली मकोय जिसमें काँटे होते हैं। मकोचा। उ०—झाँखर जहाँ सो छाड़हु पंथा। हिलगि मकोइ न फारहु कंथा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मकोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कीड़ा का अनु०] कोई छोटा कीड़ा। जैसे,—बरसात में बहुत से कीड़े मकोड़े पैदा हो जाते हैं।
⋙ मकोय
संज्ञा स्त्री० [मं० काकमाता या काकमात्री से विपर्यय] १. एक प्रकार का क्षुप जिसके पत्ते गोलाई लिए लंबोतरे होते हैं और जिसमें सफेद रंग क छोटे फूल लगते हैं। क्बैया। विशेप—फल के विचार से यह क्षुप दो प्रकार का होता है। एक में लाल रंग के और दूसरे में काले रंग के बहुत छोटे छोटे, प्रायः काली मिर्च के आकार और प्रकार के, फल लगते हैं। इसकी पत्तियों और फलों का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। इसके पत्ते उबालकर रोगियों को दिए जाते हैं। इसके क्वाथ को मकीय की भुजिया कहते हैं। वैद्यक में इसे गरम, चरपरी, रसायन, स्निग्ध, वीर्यवर्धक, म्वर को उत्तम करनेवाली, हृदय और नैत्रों को हितकारी,रुचिकारक, दस्तावर और कफ, शूल, बवासीर, सूजन, त्रिदोष, कुष्ठ, अतिसार, हिचकी, वभन, श्वास, खाँसी और ज्वर आदि को दूर करनेवाली माना जाता है। २. इस क्षुप का फल। ३. एक प्रकार का कँटीला पौधा जिसके फल खटमिट्ठे होते हैं। विशेष—यह पौधा प्रायः सीधा ऊपर की ओर उठता है। इसमें प्रायः सुपारी के आकार के फल लगते हैं जो पकने पर कुछ ललाई किए पीले रग के होते हैं। ये फल एक प्रकार के पतले पत्तों के आवरण में बंद रहते हैं। फल खटमिट्ठा होता है और उसमे एक प्रकार का अम्ल होता है जिसके कारण वह पाचक होता है। ४. इस पौधे का फल। रसभरी।
⋙ मकोरना पु †
क्रि० स० [देश०] दे० 'मरोड़ना'। उ०—सुनि धन धनक भौंह कर फेरी। काम कटाछ मकोरत हेरी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मकोसल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जो सर्वदा हरा भरा रहता है। विशेष—इसकी लकड़ी अंदर से लाल और बहुत कड़ी तथा दृढ़ होती है। यह इमारत के काम में आती है। आसाम में इससे नावें भी बनाई जाती हैं।
⋙ मकोह
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कँटीली लताविशेष। दे० 'बमोलन'।
⋙ मकोहा †
संज्ञा पुं० [सं० मत्कुण या हिं० मकोय?] लाल रंग का एक प्रकार का कीड़ा जो अनुमानतः एक इंच लंबा होता है और फसल को बहुत हानि पहुँचाता है।
⋙ मक्कड़
संज्ञा पुं० [हिं० मकड़ी] बड़ा मकड़ा। नर मकड़ी। यौ०—मक्कड़ जाल=मकड़ी का जाला।
⋙ मक्कर †
संज्ञा पुं० [अ० मक्र] १. छल। कपट। धोखा। उ०— मक्कर मति करि मानि मन, मेरी मति गति भोरि।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ६। २. नखरा। क्रि० प्र०—दिखाना।—फैलाना।—बिछाना।—साधना= मक्कारी करना। बहानेबाजी करना। नकल बनाकर पड़े रहना। उ०—कासिम ने कहा हुजूर, यह औरत बदमाश है, मक्कर साध रही है।—पिंजरे०, पृ० ५९।
⋙ मक्कल्ल
संज्ञा पुं० [सं० मक्कल, मक्कल्ल] प्रसव के अनंतर होनेवाला एक प्रकार का स्त्रीरोग। विशेष—इस रोग में प्रसव के अनंतर प्रसूता की नाभि के नीचे, पसली में, मूत्राशय में वा उसके ऊपर वायु की एक गाँठ सी पड़ जाती है और पीड़ा होती है। इस रोग में पक्वाशय फूल जाता है और मूत्र रुक जाता है।
⋙ मक्का (१)
संज्ञा पुं० [अ० मक्कह्] अरब का एक प्रसिद्ध नगर जहाँ मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था। यह मुसलमानों का सबसे बड़ा तीर्थ स्थान है। हज करने के लिये मुसलमान यहीं जाते हैं। उ०—मक्का महजीत कोऊ हज्ज को जाते।— संत तुरसी०, पृ० ८६।
⋙ मक्का (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ज्वार। बड़ी जोन्हरी। मकई। वि० दे० 'ज्वार'।
⋙ मक्कार
वि० [अ०] मकर करनेवाला। फरेबी। कपटी।
⋙ मक्कारा
संज्ञा स्त्री० [अ० मक्कारह्] चालबाज औरत। धूर्ता स्त्री।
⋙ मक्कारी
संज्ञा स्त्री० [अ०] छल। धोखेबाजी। दगाबाजी। फरेब।
⋙ मक्की (१)
वि० [अ०] १. मक्के का निवासी। २. मक्के का। मक्का संबंधी। उ०—अहंपद्द कानी सूलं सु मक्की।—ह० रासो, पृ० ८५।
⋙ मक्की † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मक्का (२)'।
⋙ मक्कुल, मक्कूल
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजतु [को०]।
⋙ मक्कोल
संज्ञा पुं० [सं०] सुधा। खड़िया [को०]।
⋙ मक्खन
संज्ञा पुं० [सं० मन्थज या म्रक्षण?] दूध में की, विशेषतः गौ या भैस के दूध में की, वह चरबी या सार भाग जो दही या मठे को महने पर अथवा और कुछ विशेष क्रियाओं से निकाला जाता है और जिसके तपाने से घी बनता है। नवनीत। नैनूँ। विशेप—वैद्यक में इसे शीतल, मधुर, बलकारक, संग्राहक, कांतिवर्धक, आँखों के लिये हितकर और सब दोषों का नाश करनेवाला माना है। मुहा०—कलेजे पर मक्खन मला जाना=शत्रु की हानि देखकर शांति या प्रसन्नता होना। कलेजा ठंढा होना।
⋙ मक्खा
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खी] १. बड़ी जाति की मक्खी। २. नर मक्खी।
⋙ मक्खी
संज्ञा स्त्री० [सं० मक्षिका, प्रा० मक्खिआ] १. एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो प्रायः सारे संसार में पाया जाता है और जो साधारणतः घरों और मैदानों में सब जगह उड़ता फिरता है। मक्षिका। माखी। विशेष—मक्खी के छह पैर और दो पर होते हैं। प्रायः यह कूड़े कतवार और सड़े गले पदार्थों पर बैठती है, उन्हीं को खाती और उन्हीं पर बहुत से अंडे देती है। इन अंडों में से बहुधा एक ही दिन में एक प्रकार का ढोला निकलता है, जो बिना सिर पैर का होता है। यह ढोला प्रायः दो सप्ताह में पूरा बढ़ जाता है और तब किसी सूखे स्थान में पहुँचकर अपना रूप परिवर्तित करने लगता है। १०-१२ दिन में वह साधारण मक्खी का रूप धारण कर लेता है और इधर उधर उड़ने लगता है। मक्खी के पैरों में से एक प्रकार का तरल और लसदार पदार्थ निकलता है, जिसके कारण वह चिकनी से चिकानी चीज पर पेट ऊपर और पीठ नीचे करके भी चल सकती है। यौ०—मक्खीचूस। मक्खीमार। मुहा०—जीती मक्खी निगलना=(१) जान बूझकर कोई ऐसाअनुचित कृत्य या पाप करना जिसके कारण पीछे हानि हो। (२) अनौचित्य या दोष की ओर ध्यान न देना। दोष या पाप की उपेक्षा करके वह दोष या पाप कर डालना। नाक पर मक्खी न बैठने देना=किसी को अपने ऊपर एहसान करने का तनिक भी अवसर न देना। अभिमान के कारण किसी के सामने न दबना। मक्खी की तरह निकाल या फेंक देना=किसी को किसी काम से बिलकुल अलग कर देना। किसी को किसी काम से कोई संबंध न रखने देना। मक्खी छोड़ना और हाथी निगलना=छोटे छोटे पापों या अपराधों से बचना और बड़े बड़े पाप या अपराध करना। मक्खी मारना या उड़ाना=बिलकुल निकम्मा रहना। कुछ भी काम धंधा न करना। २. मधुमक्खी। मुमाखी। ३. बंदूक के अगले भाग में वह उभरा हुआ अश जिसकी सहायता से निशाना साधा जाता है।
⋙ मक्खीचूस
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खी + चूसना] घी आदि में पड़ी हुई मक्खी तक को चूस लेनेवाला व्यक्ति। बहुत अधिक कृपण। भारी कंजूस।
⋙ मक्खीमार
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खी + मारना] १. एक प्रकार का बहुत छोटा जानवर जो प्रायः मक्खियाँ उड़ाता है और मार मारकर खाया करता है। २. एक प्रकार की छड़ी जिसके सिरेपर चमड़ा लगा होता है और जिसकी सहायता से मक्खियाँ मारते हैं। ३. बहुत ही घृणित व्यक्ति।
⋙ मक्खीलेट
संज्ञा स्त्री० [हिं० मक्खी + लेट ?] एक प्रकार की जाली जिसमें बहुत छोटी छोटी बूटियाँ होती हैं।
⋙ मक्तब
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'मकतब'। उ०—दो दिन पीछे लड़कों का मक्तब करना, भांजी को भात देना।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१।
⋙ मक्दूर
संज्ञा पुं० [अ०] सामर्थ्य। ताकत। शक्ति। बल। जोर। जैसे,—यह अपने अपने मक्दूर की बात है। मुहा०—मक्दूर से बाहर पावँ रखना=सामर्थ्य या योग्यता से बढ़कर काम करना। २. वश। काबू। मुहा०—मक्दूर चलना=बस चलना। काबू चलना। ३. समाईं। गुंजाइश। ४. दौलत। धन। पूँजी। यौ०—मक्दूरवाला=धनवान। संपन्न । अमीर।
⋙ मक्र पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मकर] दे० 'मकर'। उ०—महा मक्र से सूर सावत पीनं।—हम्मीर०, पृ० ५९।
⋙ मक्र (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. छल। कपट। धोखा। उ०—ऐसा मालूम हो रहा था। कि मक्र किए पड़ी है, और देख रही है कि राजा साहब क्या करते हैं।—काया०, पृ० ४८९। २. नखरा। यौ०—मक्रचाँदनी=दे० 'मकर चाँदनी'।
⋙ मक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपने दोष को छिपाना। अपना ऐब जाहिर न होने देना। २. क्रोध। गुस्सा। ३. समूह।
⋙ मक्षदृग
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यदृग] एक प्रकार का मोती जिसके विषय में लोगों की यह धारण है कि इसके पहनने से पुत्र मर जाता है।
⋙ मक्षवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] पियार नाम का वृक्ष।
⋙ मक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधारण मक्खी। २. शहद की मक्खी। मुहा०—मक्षिका स्थाने मक्षिका=बिना बुदि्ध से काम लिए अधानुकरण। जैसे का तैसा। उ०—ग्रंथकर्ता की मानकर मक्षिका स्थाने मक्षिका लिखना अनुवादकर्ता अपना धर्म मानते हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४४१।
⋙ मक्षिकामल
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मक्षिकासन
संज्ञा पुं० [सं०] शहद की मक्खी का छत्ता।
⋙ मक्सी
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह सब्जा घोड़ा जिसपर काले फूल या दाग हों। २. बिल्लकुल काले रंग का घोड़ा।
⋙ मख
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ। उ०—सोधत मख महि जनकपुर, सीप सुमंगल खानि।—तुलसी० ग्रं०, पृ० ८३।
⋙ मखजन
संज्ञा पुं० [अ० मखजन] १. खजाना। भंडार। कोष। उ०—मखजन रहमो करम फनल के।—कबीर ग्र०, पृ० ४६। २. गोला बारूद आदि रखनै का स्थान (को०)।
⋙ मखतूल
सज्ञा पुं० [सं० महर्ध तूल] काला रेशम। उ०—नव मखतूल तूल तें कोमल दल बल कल अनुकूल महाई।—घनानंद, पृ० ४४०।
⋙ मखतूली
वि० [हिं० मखतूल + ई (प्रत्य०)] काले रेशम से बना हुआ। काले रेशम का।
⋙ मखत्राता
संज्ञा पुं० [सं० मखत्रातृ] १. वह जो यज्ञ की रक्षा करता हो। २. रामचंद्र जिन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की थी।
⋙ मखदूम (१)
संज्ञा पुं० [अ० मखदूम] १. वह जिसकी खिदमत की जाय। २. स्वामी। मालिक।
⋙ मखदूम (२)
वि० सेवा ते योग्य। पूज्य।
⋙ मखदूमी
संज्ञा पुं० [अ० मखदूम का संबोधन कारक] हे पूज्य। हे सेव्य।
⋙ मखदूश
वि० [अ० मखदूश] खतरनाक। डरावना। भयानक [को०]।
⋙ मखद्विष्
संज्ञा पुं० [सं० मखद्विष्] राक्षस [को०]।
⋙ मखद्वषी
संज्ञा पुं० [सं० मखद्वेषिन्] १. राक्षस। २. शिव (को०)।
⋙ मखधारी
सज्ञा पुं० [सं० मखधारिन्] यज्ञ करनेवाला। वह जो यज्ञ करता हो।
⋙ मखन पु
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खन] दे० 'मक्खन'।
⋙ मखना
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मकुना'।
⋙ मखनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु।
⋙ मखनिया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खन + इया (प्रत्य०)] मक्खन बनाशे या बेचनेवाला।
⋙ मखनिया (२)
वि० जिसमें से मक्खन निकाल लिया गया हो। जैसे, मखनिया दूध, मखनिया दही।
⋙ मखनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मक्खन] प्रायः एक बालिश्त बालिश्त लंबी एक प्रकार की मछली जो मध्य भारत की नदियों में पाई जाती है।
⋙ मखप्रभु
संज्ञा पुं० [सं०] सोम लता [को०]।
⋙ मखफी
वि० [अ० मख्फी] छिपा हुआ। पोशीदा। गुप्त। उ०— बाद अज जिक्रे कल्बी लेने दिल में मखफी बूझ।—दक्खिनी०, पृ० ५६।
⋙ मखमय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मखमल
संज्ञा स्त्री० [अ० मखमल] १. एक प्रकार का बहुत बढ़िया रेशमी कपड़ा जो एक ओर से रूखा और दूसरी ओर से बहुत चिकना और अत्यत कोमल होता है। इस और छोटे छोटे रेशमी रोएँ भी उभरे रहते हैं। २. एक प्रकार की रगीन दरी जिसकै बीचोबीच एक गोल चंदोआ बना रहता है।
⋙ मखमली
वि० [अ० मखमल + ई (प्रत्य०)] १. मखमल का बना हुआ। जैसे, मखमली टोपी। २. मखमल का सा। मखमल की तरह का। जैसे, मखमली किनारे की धोती।
⋙ मखमसा
संज्ञा पुं० [अ० मखमसह] १. बखेड़ा। झंझट। झमेला। २. चिंता। ३. भय (को०)।
⋙ मखमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मखमूर
वि० [अ० मखमूर] मदोन्मत्त। नशे में चूर। उ०— नशीली आँखें वहाँ नहीं जहाँ मेरा मखमूर नहीं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १९४।
⋙ मखमृगव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ मखरज
संज्ञा पुं० [अ० मखज] १. उदगमस्थान। स्त्रोत। २. शब्द उच्चारण का मूल स्थान [को०]।
⋙ मखराज
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञों में श्रेष्ठ राजसूय यज्ञ।
⋙ मखलूक
संज्ञा पुं० [अ० मखलूक] ईश्वर की सृष्टि। परमेश्वर के बनाए हुए प्राणी। उ०—भला मखलूक खालिक का सिफत समझे कहाँ कुदरत।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५१।
⋙ मखलूकात
संज्ञा स्त्री० [अ०] सृष्टि। वह सब चीजें जो संसार में हैं।
⋙ मखलूत
वि० [अ० मखलूत] मिश्रित। गड्डबड्ड। मिलाजुला। यौ०—मखलूतुन्नस्ल=वर्णसंकर।
⋙ मखवल्क्य
संज्ञा पुं० [सं० मख + वल्क्य] दे० 'याज्ञवल्क्य'।
⋙ मखवलि
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ की बसि। यज्ञाग्नि [को०]।
⋙ मखशाला
सज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ करने का स्थान। यज्ञशाला।
⋙ मखसूस
वि० [अ० मखसूस] जो किसी विशिष्ट कार्य के लिये अलग कर दिया गया हो। खास तोर पर अलग किया या बनाया हुआ।
⋙ मखस्वामी
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु।
⋙ मखहा
संज्ञा पुं० [सं० मखहन्] १. इंद्र। २. शिव [को०]।
⋙ मखाना (१)
संज्ञा पुं० [सं० मखान्न] दे० 'तालमखाना'।
⋙ मखाना (२)
क्रि० स० [सं० भ्रक्षण] चिकनाना। लेपना। लगाना। उ०—हाथ में जरा सी चिकनई (तेल) मखाकर वह आपके पैरों से शुरू करेगा।—रति०, पृ० १४३।
⋙ मखाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञकुड की अग्नि। यज्ञ द्वारा संस्कृत अग्नि [को०]।
⋙ मखान्न
संज्ञा पुं० [सं०] तालमखाना।
⋙ मखालय
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञशाला।
⋙ मखी पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०?] दे० 'मक्खी'।
⋙ मखी (२)
संज्ञा पुं० [सं० म्रक्षण प्रा० मक्ख] अजन।—अनेकार्थ०, पृ० ८०।
⋙ मखीर †
संज्ञा पुं० [हिं० मक्खी + र (प्रत्य०)] शहद। मधु।
⋙ मखेश
संज्ञा पुं० [सं० मख + ईश] राजसूय यज्ञ।
⋙ मखोना †
सज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कपड़ा। उ०—चकवा चीर मखोना लोने। मोति लाग औ छापे सोने।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मखौल
संज्ञा पुं० [देश०] हंसी ठट्ठा। मजाक। परिहास। मुहा०—मखौल उड़ाना=किसी की हँसी उड़ाना। परिहास करना। उ०—इनकी वृद्धावस्था और विवाह की लालसा को देखकर कौन नहीं मखौल उड़ाएगा।—बी० श० महा०, पृ० २२८।
⋙ मखौलिया
संज्ञा पुं० [हि० मखौल + इया (प्रत्य०)] वह जो सदा मखौल करता हो। हँसी ठट्ठा करनेवाला। मसखरा। दिल्लगीबाज।
⋙ मगद
संज्ञा पुं० [सं० मगान्द] सूरखोर [को०]।
⋙ मग (१)
संज्ञा पुं० [सं० मार्ग, प्रा० मग्ग] १. रास्ता। राह। मुहा०—के लिये दे० 'बाट' और 'रास्ता'।
⋙ मग (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के शाकद्वीपी ब्राह्मण जो सूर्योपासक थे। २. मगह देश। मगध। उ०—कासी मग सुरसरि कवि नासा। मरु मारव महिदेव गवासा।—तुलसी। (शब्द०)। ३. मगध का निवासी। ४. पिप्पलीमूल।
⋙ मगज
संज्ञा पुं० [अ० मग्ज] १. दिमाग। मस्तिष्क। यौ०—मगजपच्ची। मुहा०—मगज के कीड़े उड़ाना=बकवाद से सिर चाटना। मगज खौलना=(१) काय की अधिकता के कारण दिमाग का कुछ काम न करना। (२) क्रोध को मारे दिमाग खराब होना। (३) दिमाग मे गरमी आ जाना। पागल हो जाना। मगज खाना=बककर तंग करना। मगज उड़ाना या भिन्नाना=दुर्गंध वा शोर के कारण दिमाग खराब होना। मगज उड़ाना=बहुत बक बककर दिक करना। मगज खाली करना=दे० मगज पचाना। मगज चाटना=बक बककरतंग करना। मगज चलना=(१) बहुत अभिमान होना। (२) पागल होना। मगज पधाना=(१) बहुत अधिक दिमाग लड़ाना। सिर खपाना। (२) समझाने के लिये बहुत बकना। मगज पिलपिल करना=बकवाद से या मार से सिर का कचूमर करना। २. गिरी। मींगी। गूदा। कद् दू, खरबूजा आदि के बीज का गूदा।
⋙ मगजचट
संज्ञा पुं० [हिं० मगज + चाटना] वह जो बहुत बकता हो। बकवादी।
⋙ मगजचट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मगज + चाटना] बकवाद। बकबक।
⋙ मगजदार
संज्ञा पुं० [अ० मग्ज + फा० दार] बुद्धिमान। उ०— मगजदार महबूब करदा खूब मले दे यारी है।—घनानंद, पृ० १८०।
⋙ मगजपच्ची
संज्ञा स्त्री० [हिं० मगज + पचाना] किसी काम के लिये बहुत दिमाग लगाना। सिर खपाना।
⋙ मगजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कपड़े के किनारे पर लगी हुई पतली गोट। उ०—मगजी ज्यौं मो मन सियो तुव दासन सौं लाल।—स० सप्तक, पृ० १९२।
⋙ मगण
संज्ञा पुं० [सं०] कविता के आठ गणों में से एक जिसमें ३. गुरु वर्ण होते हैं। लिखने में इसका स्वरूप यह है—sss। जैसे, आमोदी, काकोली, दीवाना। इसका छंद के आदि में आना शुभ माना जाता है। कहते हैं, इसका देवता पृथ्वी है और यह लक्ष्मीदाता है।
⋙ मगत पु
वि० [हिं०] माँगनेवाला। प्रार्थना करनेवाला। प्रार्थी। उ०—फड़ि कचोटा हर इसर बोलाए। मगत जना सबल कोटि कोटि पाए।—विद्यापति, पृ० ५१५।
⋙ मगद
संज्ञा पुं० [सं० मुद् ग] एक प्रकार की मिठई जो मृँग के आटे और घी से बनती है।
⋙ मगदर †
संज्ञा पुं० [हिं० मगद + र] दे० 'मगदल'।
⋙ मगदल
संज्ञा पुं० [सं० मुदग] एक प्रकार का लडडू जो मूँग वा उड़द के सत्तू में चीनी मिलाकर घी में फेटकर बनाया जाता है।
⋙ मगदा
वि० [सं० मग + दा (प्रत्य०)] मार्गप्रदर्शक। रास्ता दिखलानेवाला। उ०—वे मगदा पग अधन को तुम चालिबो आछेनहूँ को निवारेउ।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मगदूर पु
संज्ञा पुं० [अ० मक़दूर] दे० 'मकदूर'।
⋙ मगद्विज
संज्ञा पुं० [सं०] शाकद्वीपी ब्राह्मण [को०]।
⋙ मगघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण बिहार का प्राचीन नाम। वैदिक काल में इस देश का नाम कीकट था। २. इस देश के निवासी। ३. राजाओं की कीर्ति का वर्णिन करनेवाले, बंदीजन। मागध।
⋙ मगधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिप्पली [को०]।
⋙ मगधीय
वि० [सं०] मगध देश का। मगध सबंधी [को०]।
⋙ मगधेश
संज्ञा पुं० [सं०] मगध देश का राजा, जरासंध।
⋙ मगधेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मगधेश'।
⋙ मगन
वि० [सं० मग्न] १. डूबा हुआ। समाया हुआ। २. प्रसन्न। हर्षित। खुश। ३. बेहोश। मूर्छित। ४. लीन। उ०— सृदुल कलकंत गावत महा मगन महा मगन मन मधुर सुर तान लै दून की।—घनानंद, पृ० २५५। वि० दे० 'मग्न'।
⋙ मगना पु †
क्रि० अ० [सं० मग्न] १. लीन होना। तन्मय होना। २. डूबना। उ०—तुलसी लगन लै दीन मुनिन्ह महेश आनँद रँग मगे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मगनाना पु ‡
क्रि० अ० [सं० मग्न, हिं० मगन] मग्न होना। लीन होना। उ०—शब्दु अनाहद सुनि मगनाना।—प्राण०, पृ० १०९।
⋙ मगफर †
संज्ञा पुं० [अ० मफर] कवचधारी। शिरस्त्राणधारी। उ०—बाप मेरा मगफर व मामूर है।—दक्खिनी०, पृ० २००।
⋙ मगफरत
संज्ञा स्त्री० [अ० भग्फिरत] क्षमा। उ०—अगर तूँ करम ते करे मगफरत, तो कीते हमारी भो मासिअत।— दक्खिनी०, पृ० ३५२।
⋙ मगमा
संज्ञा पुं० [देश०] कागज बनाने में उसके लिये तैयार किए हुए गूदे को धोने की क्रिया।
⋙ मगमूम
वि० [अ० मग्मूम] अनुतप्त। क्लेशित। रंजीदा। गम में भरा। दुःखी। उ०—और कभी मगमूम बैठे।—प्रेंमघन०, भा० २, पृ० ९२।
⋙ मगर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मकर] १. घड़ियाल नामक प्रसिद्ध जलजंतु। २. मीन। मछली। ३. मछली के आकार का कान में पहनने का एक गहना। ४. नैपालियों की एक जाति।
⋙ मगर (२)
अव्य० [फा०] लेकिन। परंतु। पर। जैसे,—आप कहते हैं मगर यहाँ सुनता कौन है ? मुहा०—अगर मगर करना=आनाकानी करना। हीला हवाला करना।
⋙ मगर (३)
संज्ञा पुं० [सं० मग] अराकान प्रदेश जहाँ मग नाम की जाति बसती है। उ०—चला परबती लेइ कुमाऊँ। खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मगरधर
संज्ञा पुं० [सं० मकर + धर] समुद्र। (डिं०)।
⋙ मगरब
संज्ञा पुं० [अ० मग्रिब] पश्चिम। यौ०—मगरब जदा=पाश्चात्य सभ्यता से प्रमावित या ग्रस्त। मगरब की नमाज=वह नमाज जो सूर्य अस्त होने के समय पढ़ी जाती है।
⋙ मगरबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० मगर ?+ बाँस] एक प्रकार का काँटेदार बाँस जो कोंकण और पश्चिमी घाट में अधिकता से होता है।
⋙ मगरबी (१)
वि० [अ० मग्रिबो] मगरिब का। पाश्चात्य। पश्चिमी। जैसे, मगरबी तहजोब, मगरबी सभ्यता। यौ०—मगरबी तहजीब=पाश्चात्य सभ्यता।
⋙ मगरबी पु (२)
संज्ञा स्त्री० एक तरह की तलवार उ०—तहँ कढ़ी मगरबी अरिगन चरबी चापट करथी ही काटै।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७।
⋙ मगरमच्छ
संज्ञा पुं० [हिं० मगर + मछली < मत्स्य सं०] १. मगर या घड़ियाल नामक प्रसिद्ध जल जंतु। २. बड़ी मछली।
⋙ मगरा † (१)
वि० [अ० मगरूर] १. अभिमानी। घमंडी। २. सुस्त। अकर्मण्य। काहिल। ३. धृष्ट। ढीठ। ४. हठी। जिद्दी। ५. उद्दंड।
⋙ मगरा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मग + रा (प्रत्य०)] वाट। मार्ग। पंथ। राह। उ०—वासों कहों सुनें को मेरी, जोहत बैठी पिय को मगरा।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३५६।
⋙ मगरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] ढालुएँ छप्पर का बीच का या सबसे ऊँचा भाग। जैसे,—ओलती का पानी मगरी चढ़ा है। (कहावत)।
⋙ मगरी † (२)
सज्ञा स्त्री० [सं० मर्कटी, हिं० मकड़ी] दे० 'मकड़ी'। उ०—मगरी कहत यह हमारी है मगसखानो।—राम० धर्म०, पृ० ६६।
⋙ मगरूर
वि० [अ० मगरूर] घमडो। अभिमानी। उ०—गाफिल बेहोस गरूर है रे, मगरूर मनी दिल भावता है।—संत तुलसी०, पृ० ११९।
⋙ मगरूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मगरूर + ई (प्रत्य०)] घर्मड। अभि- मान। उ०—(क) कौने मगरूरी बिसारे हरिनमवाँ।— (गीत)। (ख) सहज सनेही यार नंद दे एती क्या मगरूरी है।—धनानंद, पृ० १७६।
⋙ मगरो †
संज्ञा पुं० [देश०] नदी का ऐसा किनारा जिसमें बालू के साथ कुछ मिट्टी मिली हो और जो जोतने बोने के योग्य हो गया हो।
⋙ मगरोसन †
संज्ञा स्त्री० [अ० मग्ज + रौशन] सुँघनी। नसवार।
⋙ मगरौठी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जलपक्षी। उ०—तिरते जल में सुरखाब, पुलिन पर मगरौठी सोई।—ग्राम्या, पृ० ३७।
⋙ मगली एरंड
संज्ञा पुं० [देश० मगली + हिं० एरंड] रतनजोत। बागबेरँडा।
⋙ मगलूब (१)
संज्ञा पुं० [फा० मग्लूब] चौबीस शोभाओं में से एक। (संगीत)।
⋙ मगलूब (२)
वि० जो जीत लिया गया हो। पराजित। परास्त। हारा हुआ। अधीन। जेर।
⋙ मगस (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पेरे हुए ऊखों की सीठी। खोई।
⋙ मगस (२)
संज्ञा पुं० [देश०] शकद्वीप की एक प्राचीन योद्धा जाति का नाम।
⋙ मगस (३)
संज्ञ स्त्री० [फा०] मक्खी। मक्षिका। उ०—गुजर हैं तुझ तरफ हर बुल हवस का। हुआ धावा मिठाई पर मगस का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४। यौ०—मगसखाना। मगसगीर=मक्खी पकड़नेवाला। मगस- रानी=मक्खियाँ उड़ाना। मोरछल आदि झलना।
⋙ मगसखाना
संज्ञा पुं० [फा० मगसखानः] मक्खियों आवास या अड्डा। उ०—मगरी कहत यह हमारो है मगसखानो, भमर कहत काठ महल मैं उपायो है।—राम० धर्म०, पृ० ६६।
⋙ मगसी †
संज्ञा पुं० [देश०] धोड़े की जाति विशेष। उ०—कुम्मैत कुमद कल्याँन। मोती सु मगसी आन।—ह० रासो, पृ० १२५।
⋙ मगसिर †
संज्ञा पुं० [सं० मार्गशीर्ष] अगहन मास।
⋙ मगह †
संज्ञा पुं० [सं० मगध] मगध देश।
⋙ मगहपति पु
संज्ञा पुं० [सं० मगधपति] मगध देश का राजा, जरासंध।
⋙ मगहय पु
संज्ञा पुं० [सं० मगध] मगध देश। उ०—युद्धामन्यु अलंबु उलूका। मगहय बंधु चतुर अहि मूका।—सबल (शब्द०)।
⋙ मगहर पु †
संज्ञा पुं० [सं० मगध, हिं० मगहर] मगध देश। उ०—सो मगहर महँ कीन्हों थाना। तहाँ बसत बहु काल बिनाना।—रधुराज (शब्द०)।
⋙ मगही
वि० [सं० मगह + ई (प्रत्य०)] मगध संबंधी। मगध देश का। २. मगह में उत्पन्न। यौ०—मगही पान=मगध देश का पान जो सबसे उत्तम समझा जाता है। वि० दे० 'पान'। मगही बोली=मगध देश की बोली।
⋙ मगारना †
क्रि० स० [देश०] भूनना। कल्हारना। तपाना। उ०—तिहारे निहारे बिन प्राननि करत होरा, बिरह अँगारनि मगारि हिय होरी सी।—घनानंद, पृ० ४४।
⋙ मगु पु †
संज्ञा पुं० [सं० मार्ग] मग। मार्ग। पथ। राह। रास्ता। उ०—तस मगु भएउ न राम कहँ जस भा भरतहिं जात।— मानस, २। २१५।
⋙ मगोर
संज्ञा स्त्री० [देश०] सींगी की तरह की एक प्रकार की मछली जो बिना छिलके की और कुछ लाली लिए काले रंग की होती है। यह डंक मारती है। मंगुर। मँगुरी।
⋙ मगोल †
संज्ञा पुं० [हिं० मंगोल] दे० 'मंगोल'। उ०—मत मगोल बोल णाहि बुज्झइ।—कीर्ति०, पृ० ९०।
⋙ मग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० मागँ, प्रा० मग्ग] राह। रास्ता। मग। मार्ग।
⋙ मग्ज पु
संज्ञा पुं० [अ० मग्ज] १. मस्तिष्क। दिमाग। भेजा। २. किसी फल के बीज की गिरी। मींगी। गूदा। जैसे, मग्जकददू। मुहा०—के लिये दे० 'मगज'।
⋙ मग्जरोशन
संज्ञा स्त्री० [फा० मग्जरोशन] सुँघना। नास। वि० दे० 'सुँघनी'।
⋙ मग्जसखुन
संज्ञा पुं० [अ० मग्ज + सुखन] बात की तह।
⋙ मग्न (१)
वि० [सं०] डूबा हुआ। निमज्जित। २. तन्मय। लीन। लिप्त। ३. प्रसन्न। हर्षित। खुश। ४. नशे आदि में चूर। मदमस्त। ५. नीचे की ओर गिरा या ढलका हुआ। जो उन्नत न हो। जैसे, मग्न नासिका, मग्न स्तन।
⋙ मग्न (२)
संज्ञा पुं० एक पर्वत का नाम।
⋙ मघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरस्कार। इनाम। २. धन। संपत्ति। ३. एक प्रकार का फूल। ४. आनंद। प्रसन्नता (को०)। ५. एक प्रकार की ओषधि (को०)। ६. मघा नक्षत्र (को०)। ७. पुराणानुसार एक द्वीप का नाम जिसमें म्लेच्छ रहते हैं।
⋙ मघई †
वि० [सं० मगध हिं० मगह + ई (प्रत्य०)] दे० 'मगही'। यौ०—मघईपान=मगही पान। वि० दे० 'पान'।
⋙ मघगंध
सज्ञा पुं० [सं० मघगन्ध] बकुल पुष्प। मौलसिरी [को०]।
⋙ मघवा
संज्ञा पुं० [सं० मघवन्] १. इंद्र। २. जैनों के बारह चक्रवर्तियों मे से एक। ३. पुराणानुसार सातवें द्वापर के व्यास का नाम। ४. पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ मघवाजित्
संज्ञा पुं० [सं०] रावण का बड़ा पुत्र इंद्रजित् जिसने इंद्र को जीत लिया था। मेघनाद।
⋙ मघवान
संज्ञा पुं० [सं० मधवन्] इंद्र। (डिं०) उ०—ज्यों ब्रज पर सजि धाइया मेघन स्यों मघवान।—प० रासो, पृ० ७४।
⋙ मघवाप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रप्रस्थ नामक प्राचीन नगर। उ०—फिरि आए हस्तिनपुर पारथ मघवाप्रस्थ बसायो।—सूर (शब्द०)।
⋙ मघवारिपु
संज्ञा पुं० [हिं० मधवा + रिपु (=शत्रु)] इंद्र का शत्रु, मेघनाद।
⋙ मघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों में से दसवाँ नक्षत्र। उ०—(क) मनहुँ मघा जल उमगि उदधि रुष चले नदी नद मारे।—तृलसी (शब्द०)। (ख) दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई।— तुलसी (शब्द०)। (ग) मघा मकरी, पूर्वा डाँस। उत्तारा में सबका नाम। (कहावत)। २. एक प्रकार की औषधि। विशेष—इस नक्षत्र में पाँच तारे हैं। यह चूहे की जाति का माना जाता है और इसके अधिपति पितृगण कहे गए हैं। जिस समय सूर्य इस नक्षत्र में रहता है, उस समय खूब बर्षा होती है और उस वर्षा का जल बहुत अच्छा माना जाता है।
⋙ मघात्रयोदशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी [को०]।
⋙ मघाना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बरसाती घास। वि० दे० 'मकड़ा'।
⋙ मघाभव
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र ग्रह।
⋙ मघाभू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मघाभव' [को०]।
⋙ मघारना †
क्रि० स० [हि० माघ + आरना (प्रत्य०)] आगामी वर्षा ऋतु में धान बोने के लिये माघ के महीने में हल चलाना।
⋙ मघोनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मवघन्] इंद्राणी। इंद्रपत्नी। शची।
⋙ मघौना (१)
संज्ञा पुं० [सं० मेघ + वर्ण] नीले रंग का कपड़ा। उ०— चिकवा चीर मघौना लोने। मोति लाग औ छापे सोने।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मघौना (२) †
संज्ञा पुं० [सं० मघवन्] दे० 'मघवा'।
⋙ मचक
संज्ञा स्त्री० [हिं० मचकना] दबाव। बोझ। दाब। उ०— बरजे दूनी ह्वै चढ़ै ना सकुचे न सँकाय। टूटति काटि हुमची मचक लचकि लचकि बचि जाय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मचकना (१)
क्रि० स० [मच् मच् से अनु०] किसी पदार्थ को, विशेषतः लकड़ी आदि के बने पदार्थ की, इस प्रकार जोर से दबाना कि उसमें से सच् सच् शब्द निकले। उ०—र्यों मिचकी मचकौ न हहा लचकै करिहाँ मचकै मिचकी के।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मचकना (२)
क्रि० अ० इस प्रकार दबाना जिसमें मच मच शब्द हो। झटके से हिलना। उ०—उचकि चलत हरि दचकनि दचकत मंच ऐसे मचकत भूतल के थल थल।—केशव (शब्द०)।
⋙ मचका
संज्ञा पुं० [हिं० मचकना] [स्त्री० अल्पा० मचकी] १. झोंका। धक्का। झटका। हुमचन। २. झूले की पेंग।
⋙ मचकाना
क्रि० स० [अनु०] मचकने में प्रवृत्त करना। झुकाना। दबाना। लचाना।
⋙ मचक्रुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक यक्ष का नाम। २. कुरुक्षेत्र के पास का एक पवित्र स्थान जिसकी रक्षा उक्त यक्ष करता है।
⋙ मचना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. किसी ऐसे कार्य का आरंभ या प्रचलित होना जिसमें कुछ शोरगुल हो। जैसे,—क्या दिल्लगी मचा रखी है ? २. छा जाना। फैलना। जैसे,— होली मच गई। उ०—नाचैगी निकसि सासिबदनी बिहँसि वहाँ को हमैं गनत मही माह मैं मचति सो।—देव (शब्द०)।
⋙ मचना (२)
क्रि० अ० दे० 'मचकना'। उ०—यह सुनि हँसत मचत अति गिरधर डरत देखि अति नारि।—सूर (शब्द०)।
⋙ मचमचाना
क्रि० अ० [अनु०] १. काम के बहुत अधिक आवेश में होना। बहुत अधिक कामातुर होना। २. हलचल या गति द्वारा ध्वनि उत्पन्न करना।
⋙ मचमचाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० मचमचाना + आहट (प्रत्य०)] १. मचमचाने को क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक काम का आवेश।
⋙ मचरंग
संज्ञा पुं० [देश०] किलकिला पक्षी।
⋙ मचर्चिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तमता। श्रेष्ठता।
⋙ मचर्चिका (२)
वि० जो सबसे उत्तम हो। सर्वश्रेष्ठ।
⋙ मचल
संज्ञा स्त्री० [हिं० मचलना] मचलने की क्रिया या भाव।
⋙ मचलना
क्रि० अ० [अनु०] किसी चीज को लेने अथवा न देने के लिये जिद बाँधना। हठ करना। अड़ना। (विशेषतः बालकों अथवा स्त्रियों के विषय मे बोलते है।) संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।
⋙ मचला (१)
वि० [हिं० मछलना, अ० पं० मचला] १. जो बोलने के अवसर पर जान बूझकर चुप रहे। अनजान बननेवाला। २. मचलनेवाला। हठ करनेवाला। हठी। उ०—ही मचली ले छाँड़िहौ जेहि लगि अरुचो हौ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मचला † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस की तीलियों से बुनी हुई डिब्बी।
⋙ मचलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] मचलने का भाव। उ०—माखन मिसरी हौं दैहौ चाखी मेरे प्यारे। छाँड़ा मचलाई लाल नद के दुलारे।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४६७।
⋙ मचलाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] कै मालूम होना। जी मतलाना। ओंकाई आना।
⋙ मचलाना (२)
क्रि० स० किसी को मचलने में प्रवृत्त करना।
⋙ मचलाना पु (३)
क्रि० अ० अड़ना। हठ करना। दे० 'मचलना'।
⋙ मचलापन
संज्ञा पुं० [हिं० मचला + पन (प्रत्य०)] मचला होने का भाव। कुछ जानते हुए भी चुप रहने का भाव।
⋙ मचली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मिचली'।
⋙ मचवा
संज्ञा पुं० [सं० मञ्च] १. खाट। पलंग। मंझा। २. खटिया वा चाँकी का पावा। ३. नाव। किश्ती। (क्व०)।
⋙ मचाँग †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मचान'।
⋙ मचान
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्च + आन (प्रत्य०)] १. चार खभों पर बाँस का टट्टर बाँधकर बनाया हुआ स्पान जिसपर बैठकर शिकार खेलते या खेत की रखवाली आदि करते हैं। मंच। २. कोई ऊँची बैठक। ३. दीया रखने की टिकठी। दीयठ।
⋙ मचाना (१)
क्रि० सं० [हिं० मचना का एक०] मचना का सकर्मक रूप। कोई ऐसा कार्य आरम करना जिसमें हुल्लड़ हो। जैसे, दिल्लगी मचाना, होली मचाना। उ०—कबीर घोड़ा प्रेम का (कोइ) चेतन चढ़ि असवार। ज्ञान खङ्ग लै काल सिर, भली मचाई मार —सतवाणी०, पृ० ३८।
⋙ मचाना † (२)
क्रि० स० [?] मैला करना। गंदा करना।
⋙ मचामच
संज्ञा स्त्री० [सं० अनु०] किसी पदार्थ को दबाने से होनेवाला मचमच शब्द। हुमचने का शब्द।
⋙ मचिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्च + इया (प्रत्य०)] ऊँचे पायों की एक आदमी के बैठने योग्य छोटी चारपाई। पलँगड़ी। पीढ़ी।
⋙ मचिलई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मचलना] १. मचलने का भाव। २. इतराहट। ३. मचलापन।
⋙ मचुला
संज्ञा पुं० [देश०] गिरगिट्टी नामक वृक्ष जो प्रायः बागों में शोभा के लिये लगाया जाता है। विशेष दे० 'गिरगिट्टी'।
⋙ मचेरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] बैलों के जूए के नीचे की लकड़ी।
⋙ मचैया †
संज्ञा स्त्री० [हि० मचिया] दे० 'मचिया'। उ०—दब गई पराजय के बोझ से लद, किसान की झुकी मचैया।—इत्यलम्, पृ० २१०।
⋙ मचोला
संज्ञा पुं० [देश०] बंगाल की खारी दलदलों में होनेवाला एक पौधा जिससे सुहागा बनता है।
⋙ मच्छ
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य, प्रा० मच्छ] १. बड़ी मछली। २. मत्स्यावतार। उ०—(क) मच्छ कच्छ बाराह प्रनमिया।— पृ० रा०, २। २। (ख) नहिं तब मच्छ कच्छ बाराहा।— कबीर० श०, पृ० १४९। ३. दोहे के सोलहवे भेद का नाम। इसमें ७. गुरु और ३४ लघु मात्राएँ होती हैं। ४. दे० 'मत्स्य'।
⋙ मच्छअसवारी
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छ + सवारी] कामदेव। मदन। (डिं०)।
⋙ मच्छघातिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मच्छ + सं० घातिनी] मछली फँसाने की लग्घी। बसी।
⋙ मच्छड़
संज्ञा पुं० [सं० मशक] एक प्रसिद्ध छोटा पतिंगा। मशक। विशेष—यह वर्षा तथा ग्रीष्म ऋतु में, गरम देशों में और केवल ग्रीष्म ऋतु में कुछ ठंढे देशों में पाया जाता है। इसकी मादा पशुओं और मनुष्यों को काटती और डंक से उनका रक्त चूसती है। इसके काटने से शरीर में खुजली होती है और दाने से पड़ जाते हैं । यह पानी पर अडे देता है; और इसी लिये जलाशयों तथा दलदलों के पास बहुत अधिक संख्या में पाया जाता है। प्रायः उड़ने के समय यह भुन् भुन् शब्द किया करता है। मलेरिया ज्वर इसी के द्वारा फैलता है। मुहा०—मच्छड़ पर तोप लगाना=क्षुद्र कार्य के लिये महद् प्रयास या प्रयोग।
⋙ मच्छड़ (२)
वि० कृपण। कंजूस। (लाक्ष०)।
⋙ मच्छनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्यनी] मीनगंध। सत्स्यगंध। उ०—अंतरिच्छ गच्छनीनी मच्छनी सुलच्छनीनि अच्छी अच्छी अच्छनीनि छबि छमनीय है।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० २०।
⋙ मच्छर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मशक] दे० 'मच्छड़'। यौ०—मच्छरदानी=मच्छड़ों से बचाव के लिये खाट वा पलग के चारों ओर लगाने का जालीदार कपड़े का घेरा।
⋙ मच्छरा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मत्सर, प्रा० मच्छर] १. क्रोध। कोप। (डिं०)। २. दे० 'मत्सर'। उ०—मच्छर और न संग्रहै आ मछरी का आद।—रा० रू०, पृ० ७२।
⋙ मच्छरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्सर + ता (प्रत्य०)] मत्सर। ईर्ष्या। द्वेष।
⋙ मच्छसीमा
संज्ञा स्त्री० [हिं० मच्छ + सीमा] भूमि संबंधी झगड़ों का वह निपटारा जो किसी नदी आदि कौ सीमा मानकर किया जाता है। महाजी।
⋙ मच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य, हिं० मच्छ + ई (प्रत्य०)] दे० 'मछली'।यौ०—मच्छीगिर=मैनाक पर्वत। उ०—जब सु राम चढि लंक तब सु मच्छी गिर तारिय।—पृ० रा०, २। २७३। मच्छी- भवन=मछली पालने का हौज वा नाँद। मच्छीमार।
⋙ मच्छीकाँटा
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छी + काँटा] एक प्रकार की सिलाई जिसमें सीए जानेवाली टुकड़ों के बीच में एक प्रकार की पतली जाली सी बन जाती है। २. कालीन में एक प्रकार की जालीदार बेल।
⋙ मच्छीमार
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छी + मार (प्रत्य०)] धीवर। मल्लाह।
⋙ मच्छोदरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्योदरी] व्यास जी की माता और शांतनु की भार्या, सत्यवती। उ०—सत्यवती मच्छोदरि नारी। गंगा तट ठाढ़ी सुकुमारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मछखवा
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छ + खाना] मछली खानेवाला। उ०—सकठा बाम्हन मछखवा ताहि न दीजै दान।—पलटू० भा० ३, पृ० ११४।
⋙ मछगंधा
संज्ञा स्त्री० [हिं० मछ (=मत्स्य)+ गंधा] दे० 'मत्स्यगंधा'। उ०—इहि काम पराशर अंधा। उन धाइ गही मछगंधा।—सुंदर ग्र०, भा० १, पृ० १२४।
⋙ मछमरी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० मच्छ + मारी] मछली का शिकार। उ०—कल पड़गान नदी में मछमारी होगी।—मैला०, पृ० १८८।
⋙ मछरंगा †
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छ (=मछली)] एक प्रकार का जल- पक्षी जो मछलियाँ पकड़कर खाता है। किलकिला। राम चिड़िया। उ०—लो, मछरंग उतर तीर सा नीचे क्षण में पकड़ तड़पती मछली को, उड़ गया गगन में।—ग्राम्या, पृ० ७४।
⋙ मछरंझ
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मचरंग'।
⋙ मछर ‡
संज्ञा पुं० [सं० मत्सर, प्रा० मच्छर] सत्सर। द्वेष। ईर्ष्या।
⋙ मछरता †
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्सरता] दे० 'मत्सरता'। उ०—राग दोष तज मछरता कलह कलपना त्याग। सँकलप बिकलप मेटकर साचे मारग लाग।—राम० धर्म०, पृ० ३१४।
⋙ मछरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य] १. दे० 'मछली'। २. एक प्रकार की बुलबुल।
⋙ मछरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मछली'। उ०—बिनु पानी मछरी से बिरहिया, मिले बिना अकुलाय।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६३।
⋙ मछली
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य, प्रा० मच्छ] सदा जल में रहनेवाला एक प्रसिद्ध जीव। मीन। मत्स्य। उ०—मछली को तैरना कोई नहीं सिखाता। वैसे ही, चढ़ती उम्र की कामिनी को प्रणय के पैतरे सिखाने नहीं पड़ते।—वो दुनिया, पृ० ५६। विशेष—इस जीव की छोटी बड़ी असंख्य जातियाँ होती हैं। इसे फेफड़े के स्थान में गलफड़े होते हैं जिनकी सहायता से यह जल में रहकर ही उसके अंदर की हवा खींचकर साँस लेती है; ओर यदि जल से बाहर निकाली जाय, तो तुरंत मर जाती है। पैरों या हाथों के स्थान में इसके दोनों ओर दो पर होते हैं जिनकी सहायता से यह पानी में तैर सकती है। कुछ विशिष्ट मछलियों के शरीर पर एक प्रकार का चिकना चिमड़ा छिलका होता है जो छीलने पर टुकड़े टुकड़े होकर निकलता है और जिससे सजावट के लिये अथवा कुछ उपयोगी सामान बनाए जाते हैं। अधिकांश मछलियों का मांस खाने के काम में आता है। कुछ मछलियों की चर्बी भी उपयोगी होती है। इसकी उत्पत्ति अंड़ों से होती है। यौ०—मछली का तेल=रोग में उपयोगी मछली का तेल। मछली का दाँत=गैंड़ के आकार के एक पशु का दाँत जो प्रायः हाथीदाँत के समान होता है और इसी नाम से बिकता है। मछली का मोती=एक प्रकार का कल्पित मोती जिसके विषय में लोगों की यह धारणा है कि यह मछली के पेट से निकलता है, गुलाबी रंग और घुँघची के समान होता है और बड़े भाग्य से किसी को मिलता है। मछली की स्याही= एक प्रकार का काला रोगन जो भूमध्यसागर में पाई जानेवाली एक प्रकार की मछली के अंदर से निकलता हैं और जो नक्शे आदि खींचने के काम में आता है। २. मछली के आकार का बना हुआ सोने, चाँदी आदि का लटकन जो प्रायः कुछ गहनों में लगाया जाता है। ३. मछली के आकार का कोई पदार्थ।
⋙ मछलीगोता
संज्ञा पुं० [हिं० मछली + गोता] कुश्ती का एक पेंच।
⋙ मछलीडंड
संज्ञा पुं० [हिं मछली + डंड] एक प्रकार का डड जिसमें दोनों हाथ जमीन पर पास पास रखकर छाती और कोहनी को जमीन से ऊपर करते हुए मछली के समान उछलते हैं। इसमें पंजों को नीचे जमीन पर पटकने से आवाज होती है।
⋙ मछलीदार
संज्ञा पुं० [हिं० मछली + दार (प्रत्य०)] दरी की एक प्रकार की बुनावट।
⋙ मछलीमार
संज्ञा पुं० [हिं० मछली + मार (प्रत्य०)] मछली मारनेवाला। मछुआ। धीवर। मल्लाह।
⋙ मछवा
संज्ञा पुं० [हिं० मछली] १. वह नाव जिसपर बैठकर मछली का शिकार करते हैं। (लश०)। २. मल्लाह।
⋙ मछहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मसहरी'।
⋙ मछिंदरनाथ
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्येन्द्रनाथ] गोरखनाथ जी के गुरु। उ०—गोरख सिद्धि दीन्हि तोहि हाथू। तारे गुरू मछिंदर नाथू।—जायसी० ग्रं० (गुप्त), पृ० २२८।
⋙ मछुआ, मछुवा
संज्ञा पुं० [हिं० मछली + मार (प्रत्य०)] मछली मारनेवाला। धीवर। मल्लाह।
⋙ मछेह †
संज्ञा पुं० [देश०] शहद का छत्ता।
⋙ मछोतर †
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य + हिं० ओतरा] मछली के आकार का लकड़ी का टुकड़ा जिसकी सहायता से हरिस में हल जुड़ा रहता है।
⋙ मछोदरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मच्छोदरी'। उ०—मछोदरी जाकहँ जग कहई। व्यासदेव की जननी अहई।—कबीर सा०, पृ० ३४।
⋙ मजकण †
संज्ञा पुं० [सं० मत्कुण] खटमल। उ०—विषै बिलबी आत्माँ, (ताका), मजकण खाया सोधि।—कबीर ग्रं०, पृ० ४०।
⋙ मजकूर
वि० [अ० मजकूर] जिसका उल्लेख या चर्चा पहले हो चुकी हो। जिक्र किया हुआ। कथित। उक्त। उ०—हुआ यों नूर जब मशहूर आलम। घेर धर तब किए मजकूर आलम।—दक्खिनी०, पृ० १६४।
⋙ मजकूर ए बाला
वि० [प्र० मजकूर ए बालह्] ऊपर कहा हुआ। पूर्वोक्त। उपर्युंक्त।
⋙ मजकूरात
संज्ञा पुं० [अ० मजकूरात] शामिलात देहात अराजी का लगान जो गाँव के खर्च में आता है।
⋙ मजकूरी
संज्ञा पुं० [अ० मजकूरी] १. ताल्लुकेदार। २. चपरासी। ३. वह मनुष्य जिसको चौरसी अपनी ओर से अपने समन वगैरह की तामोल के लिये रख लेते हैं। ४. बिना वेतन का चपरासी। ५. वह जमीन जिसका बँटवारा न हो सकै और जो सर्वसाधारण के लिये छोड़ दी गई हो।
⋙ मजगूत
वि० [अ० मजबूत] दे० 'मजबूत'। उ०—यह समधिन जग ठगे मजबूत।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ४४।
⋙ मजजूब
वि० [अ० मजजूब] तल्लीन। परमहंस। देखने में बावला पर ब्रह्मरत। उ०—मुबारक लब का पस खोर वो जो खावे, ओ बी मसकूर हो मजजूब जावे।—दक्खिनी०, पृ० १९५। यौ०—मजजूब की बहक=प्रलाप। बहक।
⋙ मजदा
संज्ञा पुं० [अ० मज्द] पुनीतता। पवित्रता। श्रेष्ठता। उ०—सब आशिकों में हम कूँ मजदा है आबरू का।— कविता को०, भा० ४, पृ० १३।
⋙ मजदूर
संज्ञा पुं० [फा० मजदूर] [स्त्री० मजदूरनी, मजदूरिन] बोठ ढोनेवाला। मजूरा। कुली। मोटिया। २. इमारत या कल कारखानों में छोटा मोटा काम करनेवाला आदमी। जैसे, राज मजदूर, मिलों के मजदूर।
⋙ मजदूरी
संज्ञा स्त्री० [फा० मजदूरी] १. मजदूर का काम। बोझ ढोने का या इसी प्रकार का और कोई छोटा मोटा काम। २. बोझ ढोने या और कोई छोटा मोटा काम करने का पुरस्कार। ३. वह धन जो किसी को कोई नियत कार्य करने पर मिले। परिश्रम के बदले में मिला हुआ धन। उजरत। पारिश्रमिक। ४. जीविकानिर्वाह के लिये किया जानेवाला कोई छोटा मोटा और परिश्रम का काम। यौ०—मजदूरी पेशा=मजदूरी करनेवाला। मजदूर का काम करनेवाला।
⋙ मजना पु †
क्रि० अ० [सं० मज्जन] १. डूबना। निमज्जित होना। २. अनुरक्त होना। उ०—मानत नहीं लोक मर्यादा हरि के रंग मजी। सूर स्याम को मिलि चूने हरदी ज्यों रंगरजी।—सूर (शब्द०)
⋙ मजनूँ
संज्ञा पुं० [अ०] १. पागल। सिड़ी। बावला। दीवाना। सौदाई। २. अरब के एक प्रसिद्ध सरदार का लड़का जिसका वास्तविक नाम कैस था और जो लैला नाम की एक कन्या पर आसक्त होकर उसके लिये पागल हो गया था; और इसी कारण जो 'मजनू' प्रसिद्ध हुआ था। लैला के साथ मजनूँ के प्रेम के बहुत से कथानक प्रसिद्ध हैं। उ०—लैला में मजनूँ की ही आँख ने माधुर्य देखा था।—रस०, पृ० ८७। ३. आशिक। प्रेमी। आसक्त। ४. बहुत दुबला पतला आदमी। सूखा हुआ मनुष्य। अति दुर्बल मनुष्य। ५. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी शाखाएँ झुकी होती हैं। इसे बेद मजनूँ भी कहते हैं। विशेष दे० 'बेद मजनूँ'।
⋙ मजबह
संज्ञा पुं० [अ० मजबह] वधस्थान। वधभूमि। काटने का स्थल [को०]।
⋙ मजबूत
वि० [अ० मजबूत] १. दृढ़। पुष्ट। पक्का। २. अटल। अचल। स्थिर। ३. बलवान्। सबल। तगड़ा। हृष्टपुष्ट। यौ०—मजबूत दिल का=दिलेर। साहसी। दृढ़चित्त।
⋙ मजबूती
संज्ञा स्त्री० [अ० मजवूत + ई (प्रत्य०)] १. मजबूत का भाव। दृढ़ता। पुष्टता। पक्कापन। २. ताकत। बल। ३. हिम्मत। साहस।
⋙ मजबूर
वि० [अ०] जिसपर जब्र किया गया हो। विवश। लाचार। जैसे,—आपको यह काम करने के लिये कोई मजबूर नहीं कर सकता।
⋙ मजबूरन्
क्रि० वि० [अ०] विवश होकर। लाचारी से।
⋙ मजबूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मजबूर + ई (प्रत्य०)] असमर्थता। लाटारी। बेबसी।
⋙ मजमा
संज्ञा पुं० [अ० मज्मअ] बहुत से लोगों का एक स्थान में जमाव। भीड़भाड़। जमघट।
⋙ मजमुआ (१)
वि० [अ० मजमूअह्] इकट्ठा किया हुआ। जमा किया हुआ। एकत्र किया हुआ। संगृहीत।
⋙ मजमुआ (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक ही प्रकार की बहुत सी चीजों का समूह। जखीरा। खजाना। २. एक प्रकार का इत्र जो कई इत्रों को एक में मिलाकर बनता है। यह प्रायः जमा हुआ होता है। यौ०—मजमुआ जाबता दीवानी=दीवानी कानूनों का संग्रह। मजमुआ जायता फौजदारी=फौजदारी कानूनों का संग्रह। मजगुआदार=माल विभाग का कर्मचारी।
⋙ मजमून
संज्ञा पुं० [अ० मजमून] १. विषय, जिसपर कुछ कहा या लिखा जाय। उ०—उसकाने और भड़कानेवाले मजमून की भी कजलियाँ बना रखते।—प्रेमघन०, भा०, २, पृ० ३४५।मुहा०—मजमून बाँधना=किसी विषय अथवा नवीन विचार की गद्य या पद्य में लिखना। मजमून मिलना या लड़ना= दो अलग अलग लेखकों या कवियों के वर्णित विषयों या भावों का मिल जाना। २. लेख। निर्बंध। यौ०—मजमून नवीस=लेखक। निबंधकार। मजनूननवीसी= लेख या निबध लिखने का काम। मजमूननिगारी=दे० 'मजमूननवीसी'।
⋙ मजमूम
वि० [अ० मजमूम] निंदित। दूषित। अश्लील। खराब [को०]।
⋙ मजम्मत
संज्ञा स्त्री० [अ०] तिरस्कार। बुराई। बेइज्जती। निंदा। उ०—आप तो इनकी मजम्मत करना ही चाहें।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५७।
⋙ मजरिया
वि० [फा०] जो जारी हो। प्रवर्तित। (कचहरी)।
⋙ मजरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का झाड़ जिसके डंठलों से टोकरे बनाए जाते हैं। यह सिंध और पंजाब में अधिकता से होता है।
⋙ मजरूआ
वि० [अ० मजरूअह्] जोता और बोया हुआ। (खेत)।
⋙ मजरूब
संज्ञा पुं० [अ०] सिक्का। पण [को०]।
⋙ मजरूह
वि० [अ०] चोट खाया हुआ। घायल। जखमी।
⋙ मजर्रत
संज्ञा स्त्री० [अ० मजर्रत] हानि। नुकसान। चोट। उ०— उनके एजाज में मजर्रत पहुँचाने में इस दर्जे शौक रखते हो।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १००।
⋙ मजल †
संज्ञा स्त्री० [फा० मंजिल] मंजिल। पड़ाव। टिकान। उ०—चले मजल दर मजन आया बेदर के मिसल। व्हाँ हुई सो नक्कल वो सकल तुम सुनो।—दक्खिनी०, पृ० ४५। मुहा०—मजल मारना=(१) बहुत दूर से पैदल चलकर आना। (२) कोई बड़ा काम करना।
⋙ मजलिस
संज्ञा स्त्री० [अ०] बहुत से लोगों के बैठने की जगह। वह स्थान जहाँ बहुत से मनुष्य एकत्र हों। २. सभा। समाज। जलसा। उ०—मजलिस बैठि गँवार कहै पहुँचे हैं हमहीं।—पलटू०, भा०, २, पृ० ७४। क्रि० प्र०—जमना।—जुड़ना।—लगना। ३. महफिल। नाच रंग का स्थान। यौ०—मजलिसघर=महफिल या नाच रंग का स्थान वा महल । उ०—उस मजलिसघर का विवरण जो नदी के तट पर बनाया गया था और जिसका नाम तिलस्मी घर रखा गया था।—हुमायूँ०, पृ० ४३।
⋙ मजलिसी (१)
संज्ञा पुं० [अ०] नेवता देकर मजलिस में बुलाया हुआ मनुष्य। निमंत्रित व्यक्ति।
⋙ मजलिसी (२)
वि० १. मजलिस संबंधी। मजलिस का। २. जो मजलिस में रहने योग्य हो। सबको प्रसन्न करनेवाला।
⋙ मजलूम
वि० [अ० मजलूम] जिसपर जुल्म हुआ हो। सताया हुआ। अत्याचारपीड़ित।
⋙ मजहब
संज्ञा पुं० [अ० मजहब] धार्मिक संप्रदाय। पंथ। मत।
⋙ मजहबी (१)
वि० [अ० मजहबी] किसी धार्मिक मत या संप्रदाय से संबंध रखनेवाला। यौ०—मजहबी आजादी—स्वधर्माचरण की स्वतंत्रता। मजहबी लड़ाई=धर्म के नाम पर की जानेवाली लड़ाई या प्रचार।
⋙ मजहबी (२)
संज्ञा पुं० महेतर सिक्ख। भंगी सिक्ख।
⋙ मजा
संज्ञा पुं० [फा० मज़ह्] १. स्वाद। लज्जत। जैसे,—अब आमों में कुछ मजा नहीं रह गया। मुहा०—मजा चखाना=किसी को उसके किए हुए अपराध का दंड देना। बदला लेना। किसी चीज का मजा पड़ना= चसका लगना। आदत पड़ना। मजे पर आना=अपनी सबसे अच्छी दशा में आना। जोबन पर आना। २. आनंद। सुख। जैसे,—आपको तो लड़ाई झगड़े में ही मजा मिलता है। मुहा०—मजा उड़ाना या लूटना=आनंद लेना। सुख भोगना। उ०—सर को पटका है कभू, सीना कभू कूठा है। रात हम हिज्र की दौलत से मजा लूटा है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३८। मजा किरकिरा करना या होना=आनंद में विघ्न पड़ना। रंग में भंग होना। उ०—मजा किरकिरा न कीजिए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११०। मजे का= अच्छा। बढ़िया। उत्तम। मजे में या मजे से=आनंदपूर्वक। बहुत अच्छी तरह। सुख से। ३. दिल्लगी। हँसी। मजाक। जैसे,—मजा तो तब हो, जब वह आज भी न आवे। मुहा०—मजा आ जाना=परिहास का साधन प्रस्तुत होना। दिल्लगी का सामान होना। जैसे,—अगर आप यहाँ गिरें तो मजा आ जाय। मजा चखना=परिणाम भुगतना। करनी का फल भुगतना। मजा देखना या लेना=दिल्लगी या तमाशा देखना। जैसे,—आप चुपचाप बैठे बैठे मजा कीजिए।
⋙ मजाक
संज्ञा पुं० [अ० मजाक] १. हँसी। ठट्ठा। दिल्लगी। ठठोली। क्रि० प्र०—करना।—सूझना। मुहा०—मजाक उड़ाना=परिहास करना। दिल्लगी करना। यौ०—मजाक का आदमी=हँसमुख। दिल्लगीबाज। ठठोल। २. प्रवृत्ति। रुचि। ३. जायका। स्वाद (को०)। यौ०—मजाकपसंद=दिल्लगीबाज। परिहासप्रिय। विनोदी। उ०— यद्यपि वे हँसमुख, खुशमिजाज, मजाकप्रसंद थे।—अकबरी०, पृ० ९७।
⋙ मजाकन्
क्रि० वि० [अ० मजाकन्] मजाक से। हँसी दिल्लगी के तौर पर। जैसे,—मैंने तो यह बात मजाकन् कही थी।
⋙ मजाकिया
वि० [अ० मजाकिया] परिहासपूर्ण। दे० 'मजाकन्'।
⋙ मजाज † (१)
संज्ञा पुं० [फा० मजाज] १. गर्व। अभिमान। (डिं०)। २. दे० 'मिजाज'।
⋙ मजाज (२)
संज्ञा पुं० [अ० मजाज] अधिकार। हक। इख्तियार। २. लक्ष्यार्थ। लाक्षणिक प्रयोग।
⋙ मजाज (३)
वि० दे० 'मजाजी'।
⋙ मजाजी
वि० [अ० मजाजी] १. कृत्रिम। बनावटी बयौवा। २. माना हुआ। कल्पित। उ०—शगल बेहतर है इश्कबाजी का। क्या हकीकी व क्या मजाजी का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४। ३. भौतिक। लौकिक। सांसारिक। उ०— कोई मजाजी कहना हकीकी नाम किसी ने है रक्खा।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ५६३।
⋙ मजार (१)
संज्ञा पुं० [अ० मजार] १. समाधि। मकबरा। २. कब्र।
⋙ मजार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मार्जार] बिलाव। उ०—बिरह मयूर, नाग वह नारी। तू मजार करु बेगि गोहारी।—जायसी ग्रं०, पृ० १६३।
⋙ मजार पु † (३)
क्रि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ + हिं० आर (प्रत्य०)] दे० 'मझार'। उ०—कठियल दिय सिर धरिय प्रणाम कर झिल गय बल निज नगर मजार।—रघु० रू०, पृ० १२०।
⋙ मजारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जारी] बिल्ली। बिडाल। उ०— सत्रु सुआ के नाऊ बारी। सुनि धाए जस धाव मजारी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मजाल
संज्ञा स्त्री० [अ०] सामर्थ्य। शक्ति। ताकत। जैसे,— किसी की मजाल नहीं जो आपसे बातें कर सके।
⋙ मजाहमत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहाहिमत] हस्तक्षेप। दखल- अंदाजी। बाधा। रुकावट। उ०—किसकी मजाल हैं कि हमारे दीनी उमूर में मजाहमत करे ?—काया०, पृ० ४७।
⋙ मजिल पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० मंजिल] दे० 'मंजिल'।
⋙ मजिस्टर
संज्ञा पुं० [अ० मजिट्स्ट्रेट] दे० 'मजिस्ट्रेट'।
⋙ मजिस्ट्रेट
संज्ञा पुं० [अ०] फौजदारी अदालत का अफसर, जो प्रायः जिले का माल विभाग का अधिकारी भी होता है। यौ०—आनरेगी मजिस्ट्रेट। ज्वाइंट मजिस्ट्रेट। डिप्टी मजिस्ट्रेट।
⋙ मजिस्ट्रेटी
संज्ञा स्त्री० [अ० मजिस्ट्रेट + हिं० ई (प्रत्य०)] १. मजिस्ट्रेट का कार्य या पद। २. मजिस्ट्रेट की अदालत।
⋙ मजीठ
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जिष्ठा] एक प्रकार की लता जो लाल रंग बनाने और औषध के काम मैं प्रयुक्त होती है। विशेष—यह समस्त भारत के पहाड़ी प्रदेशों में पाई जाती है। इसकी सूखी जड़ और डंठलों को पानी में उबालकर एक प्रकार का बढ़िया लाल या गुलनार रंग तैयार किया जाता है जो सूती और रेशमी कपड़े रँगने के काम में आता है। पर आज कल बिलायती बुकनी के कारण इसका व्यवहार बहुत कम होता जाता है। वैद्यक में भी अनेक रोगों में इसका व्यवहार होता है। यह मधुर, कषाय, उष्ण, गुरु और ब्रण, प्रमेह, ज्वर, श्लेष्मा तथा विष का प्रभाव दूर करनेवाली मानी जाती है। पर्या०—विकसा। सभंगा। कालमेपिका। मडूकपर्णी। भंडी। हरिणी। रक्ता। गौरी। योजनवल्लिका। वप्रा। रोहिणी। चित्रा। चित्रलता। जननी। विजया। मंजूषा। रक्तायष्टिका। क्षत्रिणी। छत्रा। अरुणी। नागकुमारिका। वस्त्रभूषणी।
⋙ मजीठी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ + ठी] १. वह रस्सी जो जुआठे में बँधी रहती हैं। जोत। २. रूई ओटने की चर्खी में लगी हुई बीच की लकड़ी जो घूमती है और जिसके घूमने से रूई में से बिनौले अलग होते हैं।
⋙ मजीठी (२)
वि० [हिं० मजीठ] मजीठ के रंग का। लाल। सुर्ख। उ०—ओहि के रँग हाथ मजीठी। मुकुता लेउँ तो घुँघची दीठी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मजीद (१)
वि० [अ० मजीद] अतिरिक्त। अधिक। विशेष। उ०— हूजूर, मुआमला साफ है, अब मजीद सबूत की जरूरत नहीं रही।—रंगभूमि भा० २, पृ० ५९०।
⋙ मजीद (२)
वि० [अ०] पूज्य। मान्य। प्रतिष्ठित।
⋙ मजीर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जरी] मंजरी। घौद। उ०—करिकुंभ कुंजर विटप भारी चमर चारु मजीर। चमू चंचल चलत नाहित रही है पुर तीर।—सूर (शब्द०)।
⋙ मजीरा
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जीर] काँस की बनी हुई छोटी छोटी कटोरियों की जोड़ी जिनके मध्य में छेद होता है। इन्हीं छेदों में डोरा पहनाकर उसकी सहायता से एक कटोरी से दूसरी पर चोट देकर संगीत के साथ ताल देते हैं। जोड़ी। ताल। टुनकी। इसके बोल इस प्रकार हैं—ताँयँ ताँयँ, किट् ताँयँ, किट् किट्, ताँयँ ताँयँ।
⋙ मजुरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्जरी] दे० 'मंजरी'। उ०—भुज चंपे की मजुरी, मिलति एक के रूप। मानहु कंचन खंभ तें द्वादश लता अनूप।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १९१।
⋙ मजूत पु ‡
वि० [अ० मजबूत] दे० 'मजबूत'। उ०—गनिका कनिका अगति कौ, रूपसमाधि मजूत। होम करत कामी पुरुष जोबन धन आहूत।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९६।
⋙ मजूर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मयूर] मोर।
⋙ मजूर (२)
संज्ञा पुं० [फा० मजदूर] दे० 'मजदूर'।
⋙ मजूरा †
संज्ञा पुं० [फा० मजदूर] दे० 'मजदूर'।
⋙ मजूरी †
संज्ञा स्त्री० [फा० मजदूरी] दे० 'मजदूरी'।
⋙ मजेज पु
वि० [फा० मिजाज] दर्प। अहंकार। अभिमान। उ०—(क) लाडिलो कुँवरि राधा रानी के सदन तजी मदनमजेज रति सेजहि सजति है।—देव (शब्द०)। (ख) खेस को बहानो कै सहेलिन के संग चलि आई केलि मँदिर लों सुंदर मजेज पर।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मजेठी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] सूत कातने के चर्खें में वह लकड़ी जो नीचे से उन दोनों डंडों की जोड़े रहती है जिनमें पहिया या चक्कर लगा होता है।
⋙ मजेदार
वि० [फा० मजह् दार > मजेदार] १. स्वादिष्ट। जायकेदार। २. अच्छा। बढ़िया। ३. जिसमें आनंद आता हो। जैसे,—आपकी बातें बहुत मजेदार होती हैं।
⋙ मजेदारी
संज्ञा स्त्री० [फा० मजह् दार + ई० (प्रत्य०)] १. स्वाद। २. आनंद। लुत्फ। मजा। उ०—वे महबूब मजेदारी गर हुई तबीअत में तो क्या।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६९।
⋙ मज्ज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मज्जा] हड्डी के भीतर का भेजा। नली के अंदर का गूदा। उ०—आवत गलानि जो बखान करो ज्यादा यह मादा मल मूत और मज्ज की सलीती है।— पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मज्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्नान। नहाना। उ०—दरस परस मज्जन अरु पाना।—तुलसी (शब्द०)। २. गोता या डुबकी लगाना (को०)। २. दे० 'मज्जा' (को०)।
⋙ मज्जना पु
संज्ञा पुं० [सं० मज्जन] १. स्नान करना। गोता लगाना। नहाना। उ०—सरोवर मज्जि समीरन बिथरओ केवल कमल परागे।—विद्यापति, पृ० १५९। २. डूबना। निमग्न होना।
⋙ मज्जरस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मज्जारस' [को०]।
⋙ मज्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नली की हड़ी के भीतर का गूदा जो बहुत कोमल और चिकना होता है। २. वृक्ष पौधे आदि का सार भाग (को०)।
⋙ मज्जारज
संज्ञा पुं० [सं० मज्जारजस्] १. एक खनिज पदार्थ। सुरमा। २. नरक का एक भेद। एक नरक [को०]।
⋙ मज्जारस
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य। शुक्र [को०]।
⋙ मज्जासार
संज्ञा पुं० [सं०] जातीफल [को०]।
⋙ मज्झ पु
क्रि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य। बीच।
⋙ मझ पु
वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य। उ०—लागीं केलि करै मझ नीरा। हँस लजाइ बैठ ओहि तीरा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मझक्का †
संज्ञा पुं० [हिं० माथा + झाँकना] विवाह के दूसरे दिन या तीसरे दिन होनेवाली एक प्रकार की रस्म जिसमें वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाकर उसका मुँह देखते और उसे कुछ नगद तथा आभूषण आदि देते हैं। मुँह- देखनी। (पूरब)।
⋙ मझधार
संज्ञा स्त्री० [हिं० मझ (=मध्य) + धार] १. नदी के मध्य की धारा। बीच धारा। २. किसी काम का मध्य। मुहा०—मझधार में छोड़ना=(१) किसी काम को बीच में ही छोड़ना। पूरा न करना (२) किसी को ऐसी अवस्था में छोड़ना कि वह न इधर का रहे न उधर का।
⋙ मझब †
संज्ञा पुं० [अ० मजहब] दे० 'मजहब'। उ०—हिंदु तुरुक मझब में लागो सुद्धि बिसरि गइ हाल।—गुलाल०; पृ० ४६।
⋙ मझरा सिंगही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] बैलों की एक जाति।
⋙ मझला
वि० [सं० मध्य, प्रा० मझझ+हिं० ला (प्रत्य०)] मध्य का। बीच का। जैसे, मझला भाई।
⋙ मझाना पु † (१)
क्रि० स० [सं० मध्य] प्रबिष्ट करना। बीच में धँसाना। घुसाना।
⋙ मझाना पु † (२)
क्रि० अ० प्रविष्ट होना। पैठना। उ०—जहाँ जहाँ नागरि नवल गई निकुंज मझाइ। तहाँ तहाँ लखियत अजौ रही वही छबि छाइ।—स० सप्तक, पृ० ३५१।
⋙ मझार पु †
क्रि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० आर (प्रत्य०)] बीच में। मध्य में। भीतर। उ०—(क) सोवत जगत डगत मनमोहन लोचन चित्र मझार।—श्यामा०, पृ० ८५। (ख) हेरत दोउन को दोऊ औचकहीं, मिले आनि कै कुंज मझारी।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९७।
⋙ मझावना पु †
क्रि० अ, क्रि० स० [हिं० मझाना] दे० 'मझाना'।
⋙ माझया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० इया (प्रत्य०)] लकड़ी की वे पट्टियाँ जो गाड़ी के पेंदे में लगी रहती हैं।
⋙ मझियाना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० माँझी+इयाना (प्रत्य०)] नाव खेना। मल्लाही करना। उ०—प्रथमहि नैन मलाह जे लेत सुनेह लगाइ। तब मझियावत जाय कै गहिर रूप दरियाइ।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मझियाना (२)
क्रि० अ० [सं० मध्य+इयाना (प्रत्य०)] मध्य में होकर आना। बीच में होकर निकलना। उ०—सपने हूँ आए न जे हित गलियन मझियाइ। तिन सों दिल को दरद कहि मत दे भरम गमाइ।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मझियाना (३)
क्रि० स० मध्य में से निकलना। बीच में से ले जाना।
⋙ मझियारा पु †
वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० इयारा (प्रत्य०)] बीच का। मध्यम।
⋙ मझु पु
सर्व० [सं० मह्यम्] मेरा। हमारा। २. मैं। अहम्।
⋙ मझुआ †
संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० उआ (प्रत्य०)] हाथ में पहनने की मठिया नामक चड़ियों में कोहनी की ओर पड़नेवाली दूसरी चुड़ी जो पछेला के बाद होती है।
⋙ मझेरू †
संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० एरू (प्रत्य०)] जुलाहों के अड़ी नामक औजार की बीच की लकड़ी।
⋙ मझेला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. चमारों का लोहे का एक औजार जो एक बालिश्त का होता है। इससे जूते का तला सिया जाता है। २. लोहे का एक औजार जिसमें लकड़ी का दस्तालगा रहता है और जिससे चमड़े पर का खुरखुरापन दूर किया जाता है। ३. दे० 'मझुआ'।
⋙ मझेला † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'झमेला'।
⋙ मझोला
वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+हिं० ओला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० मझोली] १. मझला। बीच का। मध्य का। २. जो आकार के विचार से न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा। मध्यम आकार का।
⋙ मझोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० मझोला] १. एक प्रकार की बैलगाड़ी। २. टेकुरी की तरह का एक औजार जिससे जूते की टोक सी जाती है।
⋙ मट पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मटका या माट] मिट्टी का बड़ा पात्र जिसमें दूध दही रहता है। मटका। मटकी। उ०—तौ लगि गाय बँबाय उठी कवी देव वधू न मथ्यो दधि को मट।—देव (शब्द०)।
⋙ मटक
संज्ञा स्त्री० [सं० मट (=चलना)+हिं० क (प्रत्य०)] १. गति। चाल। उ०—कुडल लटक सोहै भृकुटी मटक मोहै अटकी चटक पट पीत फहरान की।—दीनदयाल (शब्द०) २. मटकने की क्रिया या भाव। उ०—वह मटक के साथ सबकी और पीठ करके बड़ी तेजी से दूसरे कमरे में चली गई।—जिप्सी, पृ० २७०। यौ०—चटक मटक।
⋙ मटकना
क्रि० अ० [सं० मट (=चलना)] १. अंग हिलाते हुए चलना। लचककर नखरे से चलना। (विशेषतः स्त्रियों का)। २. अंगों अर्थात् नेत्र, भृकुटी, उँगली आदि का इस प्रकार संचालन होना जिसमें कुछ लचक या नखरा जान पड़े। ३. हठना। लौटना। फिरना।उ०— श्याम सलोने रुप में अरी मन अरयो। ऐसे ह्वै लटक्यौ तहाँ ते फिरि नहिं मटक्यौ बहुत जतन मैं करयौ।—सूर (शब्द०)। ४. विचलित होना। हिलना। उ०—उतर न देत मोहनी मौन ह्वै रही री सुनि सब बात नेकहू न मटकी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मटकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटकना] १. गति। चाल। २. मटकने का भाव। उ०—भृकुटी मटकनि पीत पट चटक लटकती चाल।—बिहारी (शब्द०)। ३. नाचना। नृत्य। ४. नखरा। मटक।
⋙ मटका
संज्ञा पुं० [हिं० मिट्टो+क (प्रत्य०)] मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का बड़ा घड़ा जिसमें अन्न, पानी इत्यादि रखा जाता है। मट। माट। उ०—ले जाती है मटका बड़का, मैं देख देख धीरज धरता हूँ। कुकुर०, पृ० ३२।
⋙ मटकाना (१)
क्रि० स० [हिं० मटकना का सक०] नखरे के साथ अगों का संचालन करना। आँख, हाथ आदि हिलाकर कुछ चेष्टा करना। चमकाना। जैसे, हाथ मटकाना, आँखें मटकाना। उ०—भृकुटी मटकाय गुपाल के गाल में अँगुरी ग्वालि गड़ाय गई।—मुबारक (शब्द०)।
⋙ मटकाना (२)
क्रि० स० दूसरे को मटकने में प्रवृत्त करना।
⋙ मटकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटका] छोटा मटका। कमोरी।
⋙ मटकी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटकाना] मटकाने का भाव। मटक। मुहा०—मटकी देना=मटकाना। चमकाना। जैसे,—आँख की एक मटकी देकर चला गया।
⋙ मटकोला
वि० [हिं० मटकना+ईला (प्रत्य०)] मटकनेवाला। नखरे से हिलने डोलनेवाला। उ०—चटकीली खोरि सजै मटकीली भौंहन पै दीनदयाल दृग मोहे लटकीली चाल ने।— दीनदयाल (शब्द०)।
⋙ मटकौअल, मटकौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटकाना+औवल (प्रत्य०)] मटकाने की क्रिया या भाव। मटक।
⋙ मटखौरा
संज्ञा पुं० [हिं० मिट्टी+खौरा ?] एक प्रकार का हाथी जो दूषित माना जाता है।
⋙ मटना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ऊख जो कानपुर और बरेली जिलों में पैदा होती है।
⋙ मटमँगरा
संज्ञा पुं० [हिं० माटी+मंगल] विवाह के पहले की एक रीति जिसमें किसी शुभ दिन वर या वधू के घर की स्त्रियाँ गाती बजाती हुई गाँव में बाहर मिट्टी लेने जाती हैं और उस मिट्टी से कुछ विशिष्ट अवसरों के लिये गोलियाँ आदि बनाती हैं।
⋙ मटमैला
वि० [हिं० मिट्टी+मैला] मिट्टी के रंग का। खाकी। धूलिया। उ०—किंतु मटमैले पानी का रंग देखते प्यास भाग गई।—किन्नर०, पृ० ४८।
⋙ मटर
संज्ञा पुं० [सं० मधुर] एक प्रकार का मोटा द्विदल अन्न। विशेष—यह वर्षा या शरद् ऋतु में भारत के प्रायः सभी भागों में बोया जाता है। इसके लिये अच्छी तरह और गहरी जोती हुई भूमि और खाद की आवश्यकता होती है। इसमें एक प्रकार की लंबी फलियाँ लगती हैं जिन्हें छीमी या छींबी कहते हैं और जिनके अंदर गोल दाने रहते हैं। आरंभ में ये दाने बहुत ही मीठे और स्वादिष्ट होते हैं और प्रायः तरकारी आदि के काम में आते हैं। जब फलियाँ पक जाती हैं, तब उनके दानों से दाल बनाई जाती है अथवा रोटी के लिये उसका आटा पीसा जाता है। कहीं कहीं इसका सत्तू गी बनता है। इसकी पत्तियाँ और डठल पशुओं के चारे के लिये बहुत उपयोगी होते है। यह दो प्रकार का होता है। एक को दुबिया और दूसरे को काबुली मटर या केराव कहते हैं। वैद्यक में इसे मधुर, स्वादिष्ट शीतल, पित्तनाशक, रुचिकारक, वातकारक, पुष्टिजनक, मल को निबारनेवाला और रक्तविकार को दूर करनेवाला माना है। पर्या०—कलाब। मुंडचणक। हरेणु। रेणुक। संदिक। त्रिपुट। अतिवर्तुल। शमन। नोलक। कंटी। सतील। सतीनक। यौ०—मटर चूड़ा़ या चूड़ा़ मटर=हरे मटर की फलियों के मुलायम दाने और चिउड़े के साथ बनी खिचड़ी जिसमें पानी नहीं डालते भाप और घी से पकाते हैं। मटरबोर।
⋙ मटरगश्त
संज्ञा स्त्री०, पुं० [हिं० मट्ठर (=मंद) +फा० गशत]धीरे धीरे घूमना। टहलना। २. सेर सपाटा। ३. निरु- द्देश्य भ्रमण।
⋙ मटरगश्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मटरगश्त'।
⋙ मटरबोर
संज्ञा पुं० [हिं० मटर+बोर (=घुँघरू)] मटर के दाने के बराबर घुँघरू जो पाजेब आदि में लगते हैं।
⋙ मटराला
संज्ञा पुं० [हिं० मटर+आला (प्रत्य०)] जौ के साथ मिला हुआ मटर।
⋙ मटलनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मिट्टी (=मट)+अलनी] मिट्टी का कच्चा बर्तन।
⋙ मटल्ला पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मट+(अल्ला)] दे० 'मटका'। उ०— मथणी मटल्ले मही जांण हल्ले।—रा० रू०, पृ० १९१।
⋙ मटा †
संज्ञा पुं० [हिं० माटा] एक प्रकार का लाल च्यूँटा जिसके झुंड आम के पेड़ों पर रहा करते हैं। इसे माटा भी कहते हैं।
⋙ मटिआना † (१)
क्रि० स० [हिं० मिट्टी+आना (प्रत्य०)] १. मिट्टी से माँजना। अशुद्ध बरतन आदि में मिट्टी मलकर उसे साफ करना। २. मिट्टी से ढाँकना।
⋙ मटिआना † (२)
क्रि० स० [सं० मष्ट+हिं० करना+आना] टालने के हेतु किसी बात को सुनकर भी उसका कुछ जवाब न देना। महटियाना। सुनी अनसुनी करना।
⋙ मटिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मिट्टी (=मट)+इया (प्रत्यय०)] १. मिट्टी। २. मृत शरीर। लाश। शव।
⋙ मटिया (२)
वि० मिट्टी का सा। मटमैला। खाकी।
⋙ मटिया (३)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का लटोरा पक्षी जिसे कजला भी कहते हैं।
⋙ मटियाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'मटिआना'।
⋙ मटियाफूस
वि० [हिं० मिट्टी+फूस] बहुत अधिक दुर्बल और वृद्ध। जर्जर।
⋙ मटियामसान
वि० [हिं० मटिया+मसान] गया बीता। नष्ट- प्राय। उ०—स्त्रीप्रसंग, चाहे जो ऋतु हो, प्रतिदिन करना हाथी सरीखे बलवान को भी मटियामसान कर बुड्ढों की कोटि में कर देता है।—जगन्नाथ (शब्द०)।
⋙ मटियामेट
वि० [ह०] दे० 'मलियामेट'।
⋙ मटियार †
संज्ञा पुं० [हिं० मिट्टी+यार (प्रत्य०)] वह भूमि या क्षेत्र जिसमें चिकनी मिट्टी अधिक हो।
⋙ मटियाला †
वि० [हिं० मिट्टी+वाला] दे० 'मटमैला'।
⋙ मटियासाँप
संज्ञा पुं० [हिं० मटिया+साँप] मटमैले रंग का सर्प।
⋙ मटीला
वि० [हिं० माठी+ईला (प्रत्य०)] दे० 'मटमेला'।
⋙ मटुक
संज्ञा पुं० [सं० भुकुंट] दे० 'मुकुट'। उ०—छोरहु जंटा फुलाएल लेहू। झारहु केस मटुक सिर देहू।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३०८।
⋙ मटुका
संज्ञा पुं० [हिं० माटी] दे० 'मटका'।
⋙ मटुकिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटुका+ईया (प्रत्य०)] दे० 'मटकी'।
⋙ मटुकी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मटका] मिट्टी का बना हुआ चौड़े मुँह का बरतन जिसमें अन्न या दूध आदि रखते हैं। मटकी। उ०—ऐसो को है जो छुबै मेरी मटुकी, अछूती दहैड़ी जमी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६१।
⋙ मट्टी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृत्तिका] दे० 'मिट्टी'।
⋙ मट्ठर
संज्ञा पुं० [देश०] सुस्त। काहिल।
⋙ मट्ठा
संज्ञा पुं० [सं० मन्थन] मथा हुआ दही जिसमें से नैनूँ निकाल लिया गया हो। मही। छाछ। तक्र।
⋙ मट्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] मैदे का बना हुआ एक प्रकार का बहुत खस्ता नमकीन पकवान।