विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/तर
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
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⋙ तरंग
संज्ञा स्त्री० [सं० तरङ्ग] १. पानी की वह उछाल जो हवा लगने के कारण होती है । लहर । हिलोर । २. मौज । क्रि० प्र०—उठना । पर्या०—भंग । ऊर्मि । उर्मि । विचि । वीची । हली । लहरी । भृंमि । उत्कलिका । जललता । २. संगीत में स्वरों का चढ़ाव उतार । स्वरलहरी । उ०— बहु भाँति तान तरंग सुनि गंधर्व किन्नर लाजही ।—तुलसी (शब्द०) । ३. चित्त की उमंग । मन की मौज । उत्साह या आनंद का अवस्था में सहसा उठनेवाला विचार । जैसे,— (क) भंग की तंरग उठी कि नदी के किनारे चलना चाहिए । ४. वस्त्र । कपड़ा । ५. घोड़े आदि की फलाँग या उछाल । ६. हाथ में पहनने की एक प्रकार की चूड़ी़ जो सोने का तार उमेठकर बनाई जाती है । ७. हिलना डुलना । इधर उधर घूमना (को०) । (८) किसी ग्रंथ का विभाग या अध्याय जैसे—कथासरित्सागसर में ।
⋙ तरंगक
संज्ञा पुं० [सं० तरङ्गक] [स्त्री० तरंगिका] १. पानी की लहर । हिलोर । २. स्वरलहरी ।
⋙ तरंगभीरु
संज्ञा पुं० [सं० तरङ्गभीरु] चौदहवें मनु के एक पुत्र का नाम ।
⋙ तरंगवती
संज्ञा पुं० [सं० तरङ्गवती] नदी । तरंगिणी ।
⋙ तरंगायित
वि० [सं० तरङ्गयित] दे० 'तरंगित' । उ०—सुंदर बने तरङ्गयित ये सिंधु से, लहराते जब वे मारुतवश झूम के ।—करुणा०, पृ० २ ।
⋙ तरंगालि
संज्ञा स्त्री० [सं० तरङ्गालि] नदी ।
⋙ तरंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० तरङ्गिका] १. लरह हिलोर । २. स्वर- लहरी । उ०—स्वर मंद बाजत बाँसुरी गति मिलत उठत तरंगिका ।—राधाकृष्ण दास (शब्द०) ।
⋙ तरंगिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तरङ्गिणी] नदी । सरिता । यौ०—तरंगिणीनाथ, तरंगिणीभर्ता = समुद्र ।
⋙ तरंगिणी (२)
वि० तरंगावाली ।
⋙ तरंगित
वि० [सं० तरङ्गित] हिलोर मारता हुआ । लहराता हुआ । नीचे ऊफर उठता हुआ ।
⋙ तरंगिनी
संज्ञा सं० [सं० तरङ्गिणी] नदी ।
⋙ तरंगी
वि० [सं० तरङ्गिन्] [स्त्री० तरंगिणि] १. तरंगयुक्त । जिसमें लहर हो । २. जैसा मन में आवे, वैसा करनेवाला । मनमौजी । आनंदी । लहरी । बेपरवाह । उ०—नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।—मानस, १ ।९३ ।
⋙ तरंड
संज्ञा पुं० [सं० तरण्ड] १. नाव । नौका । २. मछली मारने की डोरी में बँधी हुई लकड़ी जो पानी के ऊपर तैरती रहती है । ३. नाव खेने का डाँड़ा । ४. बेड़ा (को०) । यौ०—तरंडपादा = एक प्रकार की नाव ।
⋙ तरंडा, तरंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० तरण्डा, तरण्डी] १. नौका । नाव । २. बेड़ा [को०] ।
⋙ तरंत
संज्ञा पुं० [सं० तरन्त] १. समुद्र । २. मेढक । ३. राक्षस । ४. जोर की वर्षा (को०) । ५. भक्त (को०) ।
⋙ तरंती
संज्ञा स्त्री० [सं० तरन्ती] नाव । किश्ती ।
⋙ तरंतुक
संज्ञा पुं० [सं० तरन्तुक] कुरुक्षेत्र के अंतर्गत एक स्थान का नाम ।
⋙ तरंबुज
संज्ञा पुं० [सं० तरम्बुज] तरबूज ।
⋙ तरँहुत (१)
क्रि० वि० [हिं० तर + हुंत (प्रत्य०)] १. नीचे । २. नीचे की तरफ ।
⋙ तरँहुत (२)
वि० १. नीचेवाला । नीचे की तरफ का । २. नीचा ।
⋙ तर (१)
वि० [फा़०] १. भीगा हुआ । आर्द्र । गीला । जैसे, पानी से तर करना, तेल से तर करना । यौ०—तर बतर = भीगा हुआ । २. शीतल । ठंढा । जैसे,—(क) तर पानी, तर माल । (ख) तरबूज खालो, तबीयत तर हो जाय । ३. जो सूखा न हो । हरा । यौ०—तर व ताजा = टटका । तुरंत का । ४. भरा पूरा । मालदार । जैसे, तर असामी ।
⋙ तर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पार करने की क्रिया । २. अग्नि । ३. वृक्ष । ४. पथ । ५. गति । ६. नाव की उतराई । ७. घाट की नाव (को०) । ८. बढ़ जाना (को०) । ९. पराजित करना । परास्त करना (को०) ।
⋙ तर † (३)
क्रि० वि० [सं० तल] तले । नीचे । उ०—कौन बिरिछ तर भीजत होइहैं राम लषन दूनो भाई ।—गीत (शब्द०) ।
⋙ तर (४)
प्रत्य० [सं०] एक प्रत्यय जो गुणवाचक शब्दों में लगकर दूसरे की अपेक्षा आधिक्य (गुण में) सूचित करता है । जैसे, गुरुतर, अधिकतर, श्रेष्ठतर ।
⋙ तरई †
संज्ञा स्त्री० [सं० तारा] नक्षत्र ।
⋙ तरक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डक] दे० 'तड़क' ।
⋙ तरक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़कना]दे० 'तड़क' ।
⋙ तरक (३)
संज्ञा पुं० [सं० तर्क] १. विचार । सोच विचार । उधेड़बुन । ऊहापोह । उ०—होइहि सोई जो राम रचि राखा । को करि तरक बढ़ावरइ साखा ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । २. उक्ति । तर्क । चतुराई का वचन । चोज की बात । उ०— (क) सुनत हँसि चले हरि सकुचि भारी । यह कह्यो आज हम आइहैं गेह तुव तरक जिनि कहो हम समुझि डारी ।—सूर (शब्द०) । (ख) प्यारी को मुख धोई कै पट पोंछि सँवारयो तरक बात बहुतै कही कछु सुधि न सँभारयो —सूर (शब्द०) ।
⋙ तरक (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० तर (= पथ ?)] वह अक्षर या शब्द जो पृष्ठ या पन्ना समाप्त होने पर उसके नीचे किनारे ओर आगे के पृष्ठ के आरंभ का अक्षर या शब्द सूचित करने के लिये लिखा जाता है । विशेष—हाथ की लिखी पुरानी पोथियों मे इस प्रकार अक्षर या शब्द लिख देने की प्रथा थी जिससे पत्र लगाए जा सकें । पृष्ठों पर अंक देने की प्रथा नहीं थी ।
⋙ तरक † (५)
संज्ञा पुं० [सं० तर्क (= सोच विचार)] १. अड़चन । बाधा । २. व्यतिक्रम । भूल चूक । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ तरक (६)
संज्ञा पुं० [अं० तर्क] १. त्याग । परित्याग । २. छूटना । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ तरकना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तड़कना' ।
⋙ तरकना (२)
वि० तड़कना । भड़कनेवाला ।
⋙ तरकना (३)
क्रि० अ० [सं० तर्क] १. तर्क करना । सोध विचार करना । २. अनुमान करना । उ०—तरकि न सकंहि बुद्धि मन बानी । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरकना (४)
क्रि० अ० [अनु०] उछलगा । कूदना । झपटना । उ०— बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवन तनय बल भारी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरकश
संज्ञा पुं० [फा़० तर्कश] तीर रखने का चोंगा । भाथा । तूणीर ।
⋙ तरकशबंद
संज्ञा पुं० [फा़० तर्कशबंद] तरकश रखनेवाला व्यक्ति ।
⋙ तरकस
संज्ञा पुं० [फा़० तर्कश]दे० 'तरकश' ।
⋙ तरकसी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तर्कश] छोटा तरकश । छोटा तूणीर । उ०—घरे धनु सर कसे कटि तरकसी पीरे पट औंढ़े चलैं चारु चालु । अंग भूषन जराय के जगमगत हरत जन के जी को तिमिर जालु ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरका पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तड़का' ।
⋙ तरका (२)
संज्ञा पुं० [अ०] मरे हुए मनुष्य की जायदाद । वह जायदाद जो किसी मरे हुए आदमी के वारिस को मिले ।
⋙ तरका पु † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ताड़] बड़ी तरकी ।
⋙ तरकारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तरह् (= सब्जी, शाक) + कारी] १. वह पौधा जिसकी पत्ती, जड़, डंठल, फल फूल आदि पकाकर खाने के काम में आते हैं । जैसे, पालक, गोभी, आलू, कुम्हड़ा इत्यादि । शाक । सागपात भाजी । सब्जी । २. खाने के लिये पकाया हुआ फल फूल, कंद मूल, पत्ता आदि । शाक भाजी । ३. खाने योग्य मांस ।—(पंजाब) । क्रि० प्र०—बनाना ।
⋙ तरकी
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडङ्की] कान में पहनने का फूल के आकार का एक गहना । विशेष—इस गहने का वह भाग जो कान के अंदर रहता है, ताड़ के पत्ते को गोल लपेटकर बनाया जाता है । इससे यह शब्द 'ताड़' से निकला हुआ जान पड़ता है । सं० शब्द 'ताडङ्क' से भी यही सूचित होता है । इसके अतिरिक्त इस गहने को तालपत्र भी कहते हैं । इसे आजकल छोटी जाति की स्त्रियाँ अधिक पहनती हैं । पर सोने के कर्णफूल आदि के लिये भी इस शब्द का प्रयोग होता है ।
⋙ तरकीब
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. संयोग । मिलान । मेल । २. बनावट । रचना । ३. युक्ति । उपाय । ढंग । ढब । जैसे,—उन्हें यहाँ लाने की कोई तरकीव सोचो । ४. रचना प्रणाली । शौली । तौर । तरीका । जैसे,—इनके बनाने की तरकीब मैं जानता हूँ ।
⋙ तरकुल †
संज्ञा पुं० [सं० ताल + कुल] ताड़ का पेड़ ।
⋙ तरकुला †
संज्ञा पुं० [हिं० तरकुल] कान में पहनने का एक गहना । तरकी ।
⋙ तरकुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० तरकुल] कान का एक गहना तरकी । उ०—लछिमन संग बूझै कमल कदंब कहूँ देखी सिय कामिनी तरकुली कनक कीं ।—हनुमान (शब्द०) ।
⋙ तरक्कना
क्रि० अ० [हिं०] तरकना । उछलना । चमकना । उ०— नवं नद्द नफ्फेरि भेरी सभालं । तरक्कंत तेगं मनौ बिज्जु नालं ।—पृ० रा०, १२ ।८० ।
⋙ तरक्की
संज्ञा स्त्री० [अ० तरक्की] वृद्धि । बढ़ती । उन्नति । (शरीर, पद एवं वस्तु आदि में) । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—पाना ।—होना ।
⋙ तरक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़बग्धा । २. चीता [को०] ।
⋙ तरक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बाघ । लकड़बहुआ । चरंग । २. चीता (को०) ।
⋙ तरखा †
संज्ञा पुं० [सं० तरंग] जल का तेज बहाव । तीव्र प्रवाह ।
⋙ तरखान
संज्ञा पुं० [सं० तक्षण] लकड़ी का काम करनेवाला । बढ़ई ।
⋙ तरगुलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] अक्षत रखने का एक प्रकार का छिछला बरतन ।
⋙ तरचखी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो सजावट के लिये बगीचों में लगाया जाता है ।
⋙ तरच्छी
वि० स्त्री० [हिं०] तिरछी । टेढ़ी । उ०—संजम जप तप साँपरत, ब्रत जुत जोग बिनांण । आँख तरच्छी ईख ताँ जीता समधा जाँण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ३४ ।
⋙ तरछत पु (१)
क्रि० वि० [हिं० तर] नीचे । नीचे की ओर ।
⋙ तरछत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलछट' ।
⋙ तरछन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलछट' ।
⋙ तरछा
संज्ञा पुं० [हिं० तर (= नीचे)] वह स्थान जहाँ तेली गोबर इकट्ठा करते हैं ।
⋙ तरछाना पु
क्रि० अ० [हिं० तिरछा] तिरछी आँख से इशारा करना । इंगित करना । ल०—अरध जाम जामिनि गए सखिन सकुचि तरछाय । देति बिदा तिय इतहि पिय चितवत चित ललचाय ।—देव (शब्द०) ।
⋙ तरछी
वि० [हिं०] तिरछी । उ—झलकत बरछी तरछी तरवारि बहै । मार मार करत परत षलभल है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ४८५ ।
⋙ तरज
संज्ञा पुं० [अ० तर्ज] दे० 'तर्ज' ।
⋙ तरजना
क्रि० अ० [सं० तर्जन] १. ताड़न करना । डाँटना । डपटना । उ०—गरजति तरजनिन्ह तरजत बरजत सयन नयन के कोए ।—तुलसी (शब्द०) २. भला बुरा कहना । बिगड़ना । ३. गरजना । उ०—सिंह व्याघ्रों का तरजना जिसे सुन विचारी कोमल वालाओं के हृदय का लरजना—इस दुर्ग के गुर्जो ही से बैठे बैठे सुन लो ।— श्यामा०, पृ० ७८ ।
⋙ तरजनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्जनी] अँगूठे के पास की उँगली । उ०— (क) इहाँ कुम्हड़ वतिया कोउ नाहीँ । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सरुख बरजि तर्जिय तरजनी कुम्हिलैहै कुम्हडे़ को जई है ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरजनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्जन] भय । डर । उ०—अहो रे विहंगम बनवासी । तेरे बोल तरजनी बाढ़ति श्रवनन सुनत नींदऊ नासी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तरजीला
वि० [सं० तर्जन + हिं० ईला (प्रत्य०)] १. तर्जन करनेवाला । २. क्रोध में भरा हुआ । ३. प्रचंड । तेज । उग्र ।
⋙ तरजीह
संज्ञा स्त्री० [अ० तर्जीह] वरीयता । प्रधानता । श्रेष्ठता । उ०— वे व्यापकता के ऊपर गहराई को तहजीह देते हैं ।— इति० और आलो०, पृ० ८ ।
⋙ तरजुई
संज्ञा स्त्री० [फा़० तराजू] छोटी तराजू ।
⋙ तरजुमा
संज्ञा पुं० [अ० तर्जुमह्] अनुवाद । भाषांतर । उल्था ।
⋙ तरजुमान
संज्ञा पुं० [अ० तर्जुमान] वह जो अनुवाद करता है [को०] ।
⋙ तरर्जौहा पु
वि० [हिं०] दे० 'तरजीला' ।
⋙ तरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नदी आदि को पार करने का काम । पार करना । २. पानी पर तैरनेवाला तख्ता । बेडा़ । ३. विस्तार । उद्धार । ४. स्वर्ग । ५. नौका (को०) । ६. पराजित करना । (को०) ।
⋙ तरणतारण
वि० [सं०] १. संसार सागर से पार करनेवाला उ०— शोक वारण करण कारण, तरण तारण विष्णु शंकर ।— अर्चना, पृ० ८८ । २. नदी या जलाशय से पार करनेवाला ।
⋙ तरणातप
संज्ञा पुं० [हिं० तरण + सं० आतप] सूर्य की धूप । उ०—तरणातप टोप वगत्तरयं । प्रतबंब चमक्कत पक्खरियं ।— रा० रू०, पृ० ८१ ।
⋙ तरणापउ
संज्ञा पुं० [सं० तरुण; राज० तरण + आपउ, हिं० तरणा प्रा० पउ]दे० 'तरुण्य' । उ०—जिम जिम मन अमले कियइ तार चढती जाइ । तिम तिम मारवणी तणइ, तन तरणापउ आइ ।—ढोला०, दू० १२ ।
⋙ तरणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. मदार । ३. किरन ।
⋙ तरणि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'तरणी' ।
⋙ तरणिकुमार
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'तरणिसुत' ।
⋙ तरणिज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्य की कन्या, यमुना । २. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक गुरु होता है । इसका दूसरा नाम 'सती' है । जैसे,— नगपती । वरसती ।
⋙ तरणितनय
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'तरणिसुत' ।
⋙ तरणितनूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री, यमुना ।
⋙ तरणिधन्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ तरणिपेटक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पात्र या कठौता जिससे नाव का पानी उलीचा जाता है [को०] ।
⋙ तरणिरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] माणिक्य [को०] ।
⋙ तरणिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का पुत्र । २. यम । ३. शनि । ४. कर्ण ।
⋙ तरणिसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री । यमुना [को०] ।
⋙ तरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ नौका । नाव । २. घीकुआर । ३. स्थल कमलिनी ।
⋙ तरतर
संज्ञा पुं० [अनु०]दे० 'तड़तड़' । उ०— बरखै प्रलय को पानी, न जात काहू पै बखानी, ब्रज हू तैं भारी टूटत है तरतर ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३६२ ।
⋙ तरतराता
वि० [हिं० तर] घी में अच्छी तरह डूबा हुआ (पकवान) । जिसमें से घी निकलता या बहता हो (खाद्यपदार्थ) ।
⋙ तरतराना पु (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तड़तडा़ना । उ०— फहरान धुजा मनु अंसभानु, कै तड़ित चहूँ दिस, तरतरान ।—सुजान०, पृ० १७ ।
⋙ तरतराना पु (२)
क्रि० अ० [अनु०] तड़तड़ शब्द करना । तोड़ने का सा शब्द करना । तड़तडा़ना । उ०—घहरात तरतरात गररात हहरात पररात झहरात माथ नाये ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ तरतीब
संज्ञा स्त्री० [अ०] वस्तुओं की अपने ठीक ठीक स्थानों पर स्थिति । यथास्थान रखा या लगाया जाना । क्रम । सिलसिला । जैसे,—किताबें तरतीब से लगा दें । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—सजाना । मुहा०—तरतीब देना = क्रम से रखना या लगाना । सजाना ।
⋙ तरत्समंदीय
संज्ञा स्त्री० [सं० तरत्समन्दीय] वेद के पवमान सूक्त के अंतर्गत एक सूक्त । विशेष—मनु ने लिखा है कि अप्रतिग्राह्य धन ग्रहण करने या निषिद्ध अन्न भक्षण करने पर इस सूक्त का जप करने से दोष मिट जाता है ।
⋙ तरदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का कँटीला पेड़ ।
⋙ तरदी्द्
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. काटने या रद करने की क्रिया । मंसूखी । २. खंडन । प्रत्युत्तर । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तरददुद्
संज्ञा पुं० [अ०] सोच । फिक्र । अँदेशा । चिंता । खटका । उ०—एक कमरे तक सीमित रहने पर भी आने जानेवाले यात्रियों और मुझे भी तरददुद रहता ।—किन्नर०, पृ० ५९ । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—तरददुद में पड़ना = चिंता में पड़ना ।
⋙ तरद्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पकवान जो घी और दही के साथ माडे़ हुए आटे की गोलियों को पकाने से बनता है ।
⋙ तरन पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'तरण' ।
⋙ तरन (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'तरौना' ।
⋙ तरनतार
संज्ञा पुं० [सं० तरण] निस्तार । मोक्ष । मुक्ति । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तरनतारन
संज्ञा पुं० [सं० तरण, हिं० तरना] १. उद्धार । निस्तार । मोक्ष । २. उद्धार करनेवाला । वह जो भवसागर से पार करे ।
⋙ तरना (१)
क्रि० स० [सं० तरण] पार करना ।
⋙ तरना (२)
क्रि० अ० १. भवसागर से पार होना । मुक्त होना । सदगति प्राप्त करना । जैसे,—तुम्हारे पुरखे तर जायँगे । २. तैरना न डूबना ।
⋙ तरना (३)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तलना' ।
⋙ तरना (४)
संज्ञा पुं० [देश०] व्यापारी जहाज का वह अफसर जो यात्रा में व्यापार संबंधी कार्यों का निरीक्षण करता है ।
⋙ तरनाग
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।
⋙ तरनाल
संज्ञा पुं० [देश०] वह रस्सा जिसकी सहायता से पाल को लोहे की धरन में बाँधते हैं । —(लश०) ।
⋙ तरनि (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'तरणी' ।
⋙ तरनि (२)
संज्ञा पुं० दे० 'तरणि' । उ०— तरनि तेअ तुलाधार परताप गहिओरे ।—विद्यापति, पृ० ९ । यौ०—तरनितनया = सूर्य की पुत्री । यमुना । उ०—तरनितनया तीर जगमगत ज्योतिमय पुहमि पै प्रगट सब लोक सिरताजै ।—घनानंद, पृ० ४६३ ।
⋙ तरनिजा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरणिजा' ।
⋙ तरन्नि
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरणि' । उ०—भूषन तीखन तेज तरन्नि सों बैरिन को कियो पानिप हीनो ।—भूषण ग्रं०, पृ० ४८ ।
⋙ तरनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तरणी] १. नाव । नौका । उ०—रातिहिं घाठ घाट की तरनी । आई अगनित जाहिं न बरनी ।— मानस, २ ।२२० । २. वह छोटा मोढा़ जिसपर मिठाई का थाल या खोंचा रखते हैं । दे० 'तन्नी' ।
⋙ तरनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] डमरू के आकार की बनी हुई चीज जिसपर खोमचेवाले अपनी थाली रखते हैं ।
⋙ तरन्मुष
संज्ञा पुं० [अ०] आलाप ।
⋙ तरप †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तड़प' ।
⋙ तरपट (१)
वि० [हिं० तिरपट] (चारपाई) जो टेढी़ हो । जिसमें तीन ही पाटी सीधी हो ।
⋙ तरपट (२)
संज्ञा पुं० टेढा़पन । भेद ।
⋙ तरपत
संज्ञा पुं० [सं० तृप्ति] १. सुपास । सुबीता । २ आराम । चैन । उ०— बूँदी सम सर तजत खंड मंडत पर तरपत ।— गोपाल (शब्द०) ।
⋙ तरपटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिकुटी' । उ०—जुग पानि नाभि ताली बनाय । रमि दिष्ट सिष्ट गिरवान राय । तरपटी साल सिल कमल मूर । इष्टि भंति भाव तप तपनि जूर ।—पृ० रा०, १ ।५०४ ।
⋙ तरपन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तर्पण' । उ०—तरपन होम करहिं विधि नाना । —मानस, २ ।१२९ ।
⋙ तरपना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तड़पना' उ०—तरपै जिमि बिज्जुल सी पिय पै झरपै झननाय सबै घर मैं ।—सुंदरी- सर्वस्व (शब्द०) ।
⋙ तरपर
क्रि० वि० [हिं० तर + पर] १. नीचे ऊपर । २. एक के पीछे दूसरा ।
⋙ तरपरिया
वि० [हिं०] १. नीचे ऊपर का । २. पहला और दूसरा (संतान) । क्रम में पहला और नाद का (बच्चा) ।
⋙ तरपीला पु
वि० [हिं० तड़प + ईला प्रत्य०] तड़पवाला । चमकदार ।
⋙ तरपू
संज्ञा पुं० [देश०] एक बडा़ पेड । विशेष—इसकी लकडी़ मजबूत और भूरे रंग की होती है और मकानों में लगती है । यह पेड़ मलाबार और पच्छिमी घाट के पहाड़ों में पाया जाता है ।
⋙ तरफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तरफ़] १. ओर । दिशा । अलँग । जैसे, पूरब तरफ । पश्चिम तरफ । २. किनारा । पार्श्व । बगल । जैसे, दाहिनी तरफ । बाई तरफ । ३. पक्ष । पासदारी । जैसे,— (क) लडा़ई में तुम किसकी तरफ रहोगे ? (ख) हम तुम्हारी तरफ से बहुत कुछ कहेंगे । यौ०—तरफदार ।
⋙ तरफदार
वि० [अ० तरफ + फा़० दार (प्रत्य०)] पक्ष में रहनेवाला । साथी या सहायता देनेवाला । पक्षपाती । हिमायती । समर्थक ।
⋙ तरफदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तरफ + फा़० दारी (प्रत्य०)] पक्षपात । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ तरफना
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'तड़फना' । उ०—यातें धनि भीलनि की तिया । हसनि कछू तरफति है हिया ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९६ ।
⋙ तरफराना
क्रि० अ० [अनु०]दे० 'तड़फडा़ना' ।
⋙ तरब
संज्ञा पुं० [हिं० तरपना, तड़पना] सारंगी में वे तार जो ताँत के नीचे एक विशेष क्रम से लगे रहते हैं और सब स्वरों के साथ गूँजते हैं ।
⋙ तर बतर
वि० [फा़०] भींगा हुआ । आर्द्र । शराबोर ।
⋙ तरबन्ना (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताल + हिं० बन] ताड़ का बन ।
⋙ तरबन्ना (२)
संज्ञा पुं० [सं० ताडपर्ण] दे० 'तरवन' ।
⋙ तरबहना
संज्ञा पुं० [हिं० तर + बहना] थाली के आकार का ताँबे या पीतल का एक बरतन जो प्रायः ठाकुरजी को स्नान कराने के काम में लाया जाता है ।
⋙ तरबियत
संज्ञा स्त्री० [अ० तर्बियत] १. पालन पोषण करना । देखरेख या परवरिश करना । २. शिक्षा । ३. सभ्यता और शिष्टाचार की शिक्षा (को०) ।
⋙ तरबूज
संज्ञा पुं० [फा़० तरबुज, तरबुजह्] एक प्रकार की बेल जो जमीन पर फैलती है और जिसमें बहुत बडे़ बडे़ गोल फल लगते हैं । कलींदा । कालिंद । कलिंग । विशेष—ये फल खाने के काम में आते हैं । पके पलों को काटने पर इनके भीतर झिल्लीदार लाल या सफेद गूदा तथा मीठा रस निकलता है । बीजों का रंग लाला या काला होता है । गरमी के दिनों में तरबूज तरावत के लिये खाया जाता है । पकने पर भी तरबूज के छिलके का रंग गहरा हरा होता है । यह बलुए खेतों में, विशेषतः नदी के किनारे के रेतीले मैदानों में जाडे़ के अंत में बोया जाता है । संसार के प्रायः सब गरम देशों में तरबूज होता है । यह दो तरह का होता है—एक फसली या वार्षिक, दूसरा स्थायी । स्थायी पौधे केवल अमेरिका के मेक्सिको प्रदेश में होते हैं जो कई साल तक फलते फूलते रहते हैं ।
⋙ तरबूजई
वि० संज्ञा पुं० [फा़० तरबुजहू + ई (प्रत्य०)] दे० 'तरबूजिया' ।
⋙ तरबूजा
संज्ञा पुं० [फा़० तरबूजह्] १. दे० 'तरबूज' । २. ताजा फल ।
⋙ तरबूजिया (१)
वि० [हिं० तरबूज] तरबूज के छिलके के रंग का । गहरा हरा । काही ।
⋙ तरबूजिया (२)
संज्ञा पुं० गहरा हरा रंग ।
⋙ तरबोना (१)
क्रि० स० [हिं० तर + बोरना] तर करना । अच्छी तरह भिगोना ।
⋙ तरबोना (२)
क्रि० अ० तर होना । भींगना ।
⋙ तरबोर
वि० [हिं०] दे० 'तराबोर' । उ०—बूडे़ गए तरबोर को कहुँ खोज न पाया ।—मलूक० पृ० १८ ।
⋙ तरभर †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. तड़भड़ की आवाज । २. खलबली ।
⋙ तरमाची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरवाँची' ।
⋙ तरमाना † (१)
क्रि० अ० [देश०] बिघड़ना । नाखुश होना ।
⋙ तरमाना (२)
क्रि० स० किसी को नारज या नाखुश करना ।
⋙ तरमाना (३)
क्रि० अ० [हिं० तर + आना (प्रत्य०)] तर होना ।
⋙ तरमाना (४)
क्रि० स० तर करना ।
⋙ तरमानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह तरी जो जोती हुई भूमि में आती है । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ तरमिरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो प्रायः डेढ़ दो हाथ ऊँचा होता है और पश्चिमी भारत में जौ या चने के साथ बोया जाता है । तिरा । तिउरा । विशेष—इसके बीजों से तेल निकलता है जो प्रायः जलाने के काम में आता है ।
⋙ तरमीम †
संज्ञा स्त्री० [अ०] संशोधन । दुरुस्ती । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तरय्या
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरई' । उ०—जो विशाखा की तरय्या चंद्रकला कौ बडा़ई करें तौ क्या अचंभा है ।— शकुंतला, पृ० ५१ ।
⋙ तरराना †
क्रि० अ० [अनु०] ऐंठना । ऐंडा़ना ।
⋙ तरलंग
वि० [सं० तरलङ्ग] चपल, चंचल । उ०— औ जेहल कीना अमर, तैं दीना तरलंग ।—बाकी० ग्रं०, भा०, ३, पृ० ७ ।
⋙ तरल (३)
वि० [सं०] १. हिलता डोलता । चलायमान । चंचल । चल । उ०—लखत सेत सारी डक्यो तरल तरौला कान ।—बिहारी (शब्द०) । २. अस्थिर । क्षणभंगुर । ३. (पानी की तरह) बहनेवाला । द्रव । ४. चमकीला । भास्वर । कांतिवान् । ५. खोखला । पोला । ६. विस्तृत (को०) । ७. लंपट (को०) ।
⋙ तरल (२)
संज्ञा पुं० १. हार के बीच की मणि । २. हार । ३. हीरा । ४. लोहा । ५. एक देश तथा वहाँ के निवासियों का नाम (महाभारत) । ६. तल । पेंदा । ७. घोडा़ ।
⋙ तरलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंचलता । २. द्रवत्व ।
⋙ तरलनयन
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण होते हैं । उ०—नचत सुधर सखिन सहित । थिरकि थिरकि फिरत मुदित ।
⋙ तरलभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतलापन । २. चंचलता । चपलता ।
⋙ तरला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यवागू । जौ की माँड़ । २. मदिरा । ३. मधुमक्षिका । शहद की मक्खी ।
⋙ तरला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तर] छाजन के नीचे का बाँस ।
⋙ तरलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तरल + हिं० आई (प्रत्य०)] १. चंचलता । चपलता । २. द्रवत्व ।
⋙ तरलायित (१)
वि० [सं०] हिलाया हुआ । कँपाया हुआ । [को०] ।
⋙ तरलायित (२)
संज्ञा स्त्री० लहर । तरंग । हिलोर [को०] ।
⋙ तरलित
वि० [सं०] १. तरल किया हुआ । उ०—कहो कैसे मन को समझा लूँ, झंझा के द्रुत आघातों सा द्युति के तरलित उत्पातों सा, था वह प्रणय तुम्हारा प्रियतम ।—इत्यलम्, पृ० २७ ।
⋙ तरवँछ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर + वँछ (प्रत्य०)] जुए के नीचे की लकडी़ जो बैलों के गले के नीचे रहती है । तरवाँची ।
⋙ तरवट
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप । आहुल्य । दंतकाष्ठक [को०] ।
⋙ तरवडी़
संज्ञा स्त्री० [सं० तुला + डी (प्रत्य०)] छोटी तराजू का पलडा़ ।
⋙ तरवन
संज्ञा पुं० [सं० तालपर्ण] १. कान में पहनने का एक गहना । तरकी । २. कर्णफूल ।
⋙ तरवर (१)
संज्ञा पुं० [सं० तल्वर] बडा़ पेड़ । वृक्ष ।
⋙ तरवर (२)
संज्ञा पुं० [सं० तरुवर] एक प्रकार का लंबा पेड़ जिसकी छाल से चमडा़ सिझाया जाता है । विशेष—यह मध्यभारत और दक्षिण में बहुत पाया जाता है । इसे तरोता भी कहते हैं ।
⋙ तरवरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तिरमिला' ।
⋙ तरवरिया †
संज्ञा पुं० [हिं० तर वार] तलवार चलानेवाला ।
⋙ तरवरिहा †
संज्ञा पुं० [हिं० तरवार] दे० 'तरवरिया' ।
⋙ तरवाँची
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर + माचा] जुए के नीचे की लकडी़ । मचेरी ।
⋙ तरवाँसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरवाँची' ।
⋙ तरवा †
संज्ञा पुं० [हिं० तलवा] दे० 'तलवा' । उ०—अँगुरीन लौं जाय भुलाय तहीं फिरि आय लुभाय रहै तरवा । चपि चायनि चूर ह्वै एड़िनि छवै धपि छाय छकै छवि छाय छवा ।—घनानंद, पृ० ८ ।
⋙ तरवाई,सिरवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर + सिर] ऊँची जमीन और नीची जमीन । पहाड़ और घाटी ।
⋙ तरवाना (१)
क्रि० अ० [हिं० तरवा + आना] १. बैलों के तलवों का चलते चलते घिस जाना जिससे वे लँगड़ाते हैं । २. बैलों का लँगडा़ना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ तरवाना (२)
क्रि० स० [हिं० तरना का प्रे० रूप] तारने की प्रेरणा करना ।
⋙ तरवार † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'तलवार' ।
⋙ तरवार पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरवर' ।
⋙ तरवार † (३)
वि० [हिं० तर (= नीचा, तले) + वार (प्रत्य०)] निचली । खलार (भूमि) ।
⋙ तरवारि
संज्ञा पुं० [सं०] खड्प का एक भेद । तलवार । उ०—रोष न रसना जनि खोलिए बरु खोलिए तरवारि ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरवारी †
संज्ञा पुं० [हिं० तरवार] तलवार चलानेवाला ।
⋙ तरस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बल । २. वेग । ३. वानर । ४. रोप । ५. तीर । तट ।
⋙ तरस (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रस(= डरना) अथवा फा़० तर्स(= भय, डर, खौफ)] दया । करुणा । रहम । क्रि० प्र०—आना । मुहा०—(किसी पर) तरस खाना = दयार्द्र होना । दया करना । रहम करना । विशेष—इस शब्द का यह अर्थ विपर्यय द्वारा आया हुआ जान पड़ता है । जो मनुष्य भय प्रकाशित करता है, उसपर दया प्रायः की जाती है ।
⋙ तरस (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मांस [को०] ।
⋙ तरसना (१)
क्रि० अ० [सं० तर्षण(= अभिलाषा)] किसी वस्तु के अभाव में उसके लिये इच्छुक और आकुल रहना । अभाव का दुःख सहना । (किसी वस्तु को) न पाकर बेचैन रहना । जैसे,—(क) वहाँ लोग दाने दाने को तरस रहे हैं । (ख) कुछ दिनों में तुम उन्हें देखने के लिये तरसोगे । उ०—दरसन धिनु अँखियाँ तरस रहीं ।—(गीत) । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ तरसना (२)
क्रि० अ० [सं० √ त्रस्] त्रस्त होना ।
⋙ तरसना (३)
क्रि० स० त्रस्त करना । त्रास देना ।
⋙ तरसा
क्रि० वि० [सं० तरस्] शीघ्र । उ०—कमललोचन क्या कल आ गए, पलट क्या कुकपाल क्रिया गई । मुरलिका फिरक्यों वन में बजी । बन रसा तरसा बरसा सुधा । प्रिय० पृ० २२८ ।
⋙ तरसान
संज्ञा पुं० [सं०] नौका [को०] ।
⋙ तरसाना
क्रि० स० [हिं० तरसना] १. अभाव का दुःख होना किसी वस्तु को न देकर या न प्राप्त कराकर उसके लिये बेचैन करना । २. किसी वस्तु की इच्छा और आशा उत्पन्न करा उससे वंचित रखना । व्यर्थ ललचाना । संयो० क्रि—डालना ।—मारना ।
⋙ तरसि
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तरसा' । उ०—तरसि पधार हुए तय्यारी । धीर तणौ आयौ व्रतधारी ।—रा० रू०, पृ० १८ ।
⋙ तरसौहाँ पु
वि० [हिं० तरसना + औहाँ (प्रत्य०)] तरसनेवाला उ०—तिय तरसौहैं मुनि किए करि सरसौहैं मेह । धर परसौ ह्वै रहे झर बरसौहें मेह ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ तरस्वान्
वि० [सं० तरस्वत्] १. तेज गतिवाला । वेगवान् । २. वीर ३. बीमार तरुण [को०] ।
⋙ तरस्वान् (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. गरुड़ । ३. वायु [को०] ।
⋙ तरस्वी (१)
वि० [सं० तरस्विन्] [वि० स्त्री० तरस्विनी] १. दृढ़ बली । उ०—बली, मनस्वी, तेजस्वी, सूर, तरस्वी जानि ऊर्ज, प्रवणि, भास्वरि, सुभट, राधै जिन करि मान ।—नंद ग्रं०, पृ० १२३ । २. वेगवान् । फुर्तीला ।
⋙ तरस्वी (२)
संज्ञा पुं० १. धावक । दूत । २. नायक । वीर । ३. पवन वायु । ४. गरुड़ [को०] ।
⋙ तरह
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रकार । भाँति । किस्म । जैसे,—यहाँ तर तरह की चीजें मिलती हैं । मुहा०—किसी की तरह = किसी के सदृश । किसी के समान जैसे,—उसकी तरह काम करनेवाला यहाँ कोई नहीं है । २. रचना प्रकार । ढाँचा । शैली । डौल । पद्धति । बनावट रुपरंग । जैसे,—इस छींट की तरह अच्छी नहीं है । ३. ढ तर्ज । प्रणाली । रीति । ढंग । जैसे,—वह बहुत बुरी तरह पढ़ता है । मुहा०—तरह उडा़ना = ढंग की नकल करना । ४. युक्ति । ढंग । उपाय । जैसे,—किसी तरह से उ रुपया निकालो । मुहा०—तरह देना = (१) खयाल न करना । बचा जान विरोध या प्रतिकार न करना । क्षमा करना । जाने देन उ०—इन तेरह तें तरह दिए बनि आवै साई ।—गिरि (शब्द०) । (२) टालटूल करना । ध्यान न देना । ५. हाल । दशा । अवस्था । जैसे,—आजकल उनकी । तरह है ? ६. समस्या । पद्य का एक चरण । मुहा०—तरह देना = पूर्ति के लिये समस्या देना । ७. न्यास । नींव । बुनियाद । ८. घटाना । बाकी । व्यवकल तफरीक । ९. वेशभूषा । पहनावा ।
⋙ तरहटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर (= नीचे + हँट (प्रत्य०)] १. नी भूमि । २. पहाड़ की तराई ।
⋙ तरहदार
वि० [अ० तरह + फा० दार (प्रत्य०)] १. सुंदर बनावट का । अच्छी चाल या ढाँचे का । जिसकी रचना मनोहर हो । जैसे, तरहदार छींट । २. सजधजवाला । शौकीन । वजादार । जैसे, तरहदार आदमी ।
⋙ तरहदारी †
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वजादारी । सजधज का ढंग ।
⋙ तरहर † (१)
क्रि० वि० [हिं० तर + हर (प्रत्य०)] तले । नीचे । उ०—जम करि मुँह तरहर परयो इहि धर हरि चित लाइ । विषय त्रिषा परिहरि अज्यौं नर हरि के गुन गाइ ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ तरहर (२)
वि० १. नीचा । तले का । नीचे का । २. निकृष्ट । बुरा ।
⋙ तरहरि पु
क्रि० वि० [हिं० तर + हा (प्रत्य०)] नीचे ।
⋙ तरहा
संज्ञा पुं० [हिं० तर + हा (प्रत्य०)] १. कुआँ खोदने में एक आप जो प्रायः एक हाथ की होती है । २. वह कपडा़ जिसपर मिट्टी फैलाकर कडा़ ढालने का साँचा बनाते हैं ।
⋙ तरहारि पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तरहर' ।
⋙ तरहेल पु †
वि० [हिं० तर + हर, हल (प्रत्य०)] १. अधीन । निम्नस्थ । २. वश में आया हुआ । पराजित । उ०—तौ चौपड़ खेलौ करि हीया । जो तरहेल होय सो तीया ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तरांधु
संज्ञा पुं० [सं० तरान्धु] चौडे़ पेंदे की नाव [को०] ।
⋙ तराँ (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तराना' ।
⋙ तराँ (२)
अल्य [सं० तदा] तब । उ०—मन्तौ जरां विवाह रौ, तरां विचारी ढील ।—रा० रू०, पृ० ८२ ।
⋙ तरा † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पटुआ । पटसन ।
⋙ तरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तला] १. दे० 'तला' । २. दे० 'तलवा' ।
⋙ तराई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर (= नीचे) आई + (प्रत्य०)] १. पहाड़ के नीचे की भूमि । पहाड़ के नीचे का वह मैदान जहाँ सीड़ या तरी रहती है । जैसे, नैपाल की तराई । २. पहाडी़ की घाटी । ३. मुँज के मुट्ठे जो छाजन में खपड़ों के नीचे दिए जाते हैं ।
⋙ तराई † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तारा] तारा । नक्षत्र ।
⋙ तराई † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तराई] छोटा ताल । तलैया ।
⋙ तराज पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० तराश (= काट छाँट)] दे० 'तराश' । उ०—अंचर फारि कागज करूँ, एजी कोई ऊँगली तराच कलम ।—पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० ९४५ ।
⋙ तराजू
संज्ञा स्त्री०, पुं० [फा़० तराजू] रस्सियों के द्वारा एक सीधी डाँडी के छोरों से बँधे हुए दो पलड़ों का एक यंत्र जिससे वस्तुओं की तौल मालूम करते हैं । तौलने का यंत्र । तुला । ढकडी़ । मुहा०—तराजू हो जाना = (१) तीर का निशाने के इस प्रकार आरपार घुसना कि उसका आधा भाग एक ओर, और आधा दूसरी ओर निकला रहे । (२) दो सैनिक दलों का इसप्रकार ठीक ठीक बराबर होना कि एक दूसरे को परास्त न कर सके ।
⋙ तराटक पु
संज्ञा पुं० [सं० त्राटक] दे० 'त्राटक' । उ०—त्रिकुटी सँग भ्रूभंग तराटक नैन नैन लयि लागे ।—पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० ११८ ।
⋙ तरातर पु †
वि० [फा़० तर (= गीला)] अत्यंत गीला । आर्द्र । उ०—चलत पिचुका अरु पिचकारी करत तरातर ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३४ ।
⋙ तरात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] बीना आज्ञा लिए नदी पार करने का जुरमाना [को०] ।
⋙ तराना (१)
संज्ञा पुं० [फा़० तरानह्] १. एक प्रकार का चलता गाना जिसका बोल इस प्रकार का होता है—दिर दिर ता दि आ ना रे ते दी म् ता दी म् ता ना ना दे रे ता दा रे वा नि ता ना ना डे रे ना ता ना ना दे रे ना ता ना ना ता ना तोम् देर ता रे दा नौ । विशेष—तराना हर एक राय का हो सकता है । इसमें कभी कभी सरगम और तबले के वोल भी मिला दिए जाते हैं । २. कोई अच्छा गाना । बढ़िया गीत ।—(क्व०) ।
⋙ तराना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तैराना' ।
⋙ तराना † (३)
क्रि० अ० [हिं० तर से नामिक धातु] दे० 'तरिआना' ।
⋙ तराप पु †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तडा़क शब्द । बंदूक, तोप आदि का शब्द । उ०—सैन अफमान सैन सगर सुतन लागी कपिल सराप लौं तराप तोपखाने की ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ तरापा † (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] हाहाकार । कुहराम । त्राहि । त्राहि । उ०—परी धर्मसुत शिविर तरापा । गजपुर सकल शोकबस काँपा ।—सबलसिंह (शब्द०) ।
⋙ तरापा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तरना] पानी में तैरता हुआ शहतीर । बेडा़ ।—(लश०) ।
⋙ तराबोर
वि० [फा़० तर + हिं० बोरखा, शुद्ध रूप फा़० शराबोर] खूब भीगा हुआ । खूब डूबा हुआ । सराबोर । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तरामल
संज्ञा पुं० [हिं० तर (= नीचे)] १. मूँज के वे मुट्ठे जो छाजन में खपरैल के नीचे दिए जाते हैं । २. जुए के नीचे की लकडी़ ।
⋙ तरामीरा
संज्ञा पुं० [देश०] सरसों की तरह का एक पौधा जिसके बीजों से तेल नीकलता है । विशेष—उत्तरीय भारत में जाडे़ की फसल के साथ इसके बीज बोए जाते हैं । रवी की फसल के साथ इसके दाने भी पक जाते हैं । पत्तियाँ चारे के काम आती हैं । तेल निकाले हुए बीजों की खली भी चौपायों को खिलाई जाती हैं । इसे टुआँ भी कहते हैं ।
⋙ तरायल †
वि० [देश०] तेज । वेगवान् । फुर्तीला । त्वरावान् । शीघ्रम । उ०—आगे आगे तरुन् तरायले चलत चले ।—भूषण ग्रं०, पृ० ७३ ।
⋙ तरारा (१)
संज्ञा पुं० [देश० या अनु०?] १. उछाल । छलाँग । कुलाँच । क्रि० प्र० —भरना ।—मारना । मुहा०—तरारा भरना = जल्दी जल्दी काम करना । फर्राटे के साथ काम करना । तरारा मारना = डींग हाँकना । बढ़ बढ़कर बातें करना । २. पानी की धार जो बराबर किसी वस्तु पर गिरे ।
⋙ तरारा पु (२)
वि० [फा़० तर + हिं० आरा (प्रत्य०)] गीला । सजल । आर्द्र । उ०—आए जब सोहन रँग भरे । क्यों मो नैन तरारे करे ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५२ ।
⋙ तरालु
संज्ञा पुं० [सं०] छिछले पेंदे की एक बडी़ नाव [को०] ।
⋙ तरावट
संज्ञा स्त्री० [फा़० तर + हीं० आवट (प्रत्य०)] १. गीला- पन । नमी । २. ठंढक । शीतलता । जैसे,—सीर पर पानी पड़ने से तरावट आ गई । क्रि० प्र०—आना । ३. क्लांत चित्त को स्वस्थ करनेवाला शीतल पदार्थ । शरीर की गरमी शांत करनेवाला आहार आदि । ४. स्निग्ध भोजन । जैस, घी, दूध आदि ।
⋙ तराश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. काटने का ढंग । काठ । २. काट- छाँट । बनावट । रचनाप्रकार । यौ०—तराश खराश । ३. ढंग । तर्ज । ४. ताशा या गंजीफे का वह पत्ता जो एक को बाद हाथ में आवे ।
⋙ तराश खराश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] काटछाँट । कतरब्योंत । ब
⋙ तराशना
क्रि० स० [फा़०] काटना । कतरना । कलम करना ।
⋙ तरास † (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रास] दे० 'त्रास' ।
⋙ तरास (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० तराश] दे० 'तराश' ।
⋙ तरासना पु †
क्रि० स० [सं० त्रास + ना (प्रत्य०)] भय दिखलाना डराना । त्रस्त करना । उ०—चमक बीजु धन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीव गरासा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तरासा † (१)
वि० [सं० तृषित] प्यासा ।
⋙ तरासा † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तृषा] प्यासा ।
⋙ तराहि †
अव्य० [सं० त्राहि] दे० 'त्राहि' ।
⋙ तरहीं †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तरे' ।
⋙ तरिंदा
संज्ञा पुं० [हिं० तरना + इंदा (प्रत्य०)] वह पीपा जो समुद्र में किसी स्थान पर लंगर के द्वारा बाँध दिया जादा है और लहरों के ऊपर उतराया रहता है —(लश०) । विशेष—ये पीपे चट्टान आदि की सूचना के लिये बाँधे जाते हैं और कई आकार प्रकार के होते हैं । इनमें से किसी किसी में अटा, सीटी आदि भी लगी रहती है ।
⋙ तरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नौका । नाव । २. कपड़ों का पिटारा । ३. कपडे़ का छोर । दामन ।
⋙ तरिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल में तैरनेवाली लकडी़ । बेडा़ । २.नाव का महसूल लेनेवाला । उतराई लेनेवाला । ३. मल्लाह । केवट । माँझी ।
⋙ तरिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाव । नौका । २. मक्खन [को०] ।
⋙ तरिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तडित्] बिजली । विद्युत ।
⋙ तरिकी
संज्ञा पुं० [सं० तरिकिन्] माँझी । मल्लाह [को०] ।
⋙ तरिको †
संज्ञा पुं० [सं० ताडङ्क] कान का एक गहना । तरकी । तरौना । उ०—तैं कत तोरयो हार नौसरि को मोती बगरि रहे सब बन मैं गयो कान को तरिको ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरणी [को०] ।
⋙ तरिता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तर्जनी उँगली । २. भाँग । ३. गाँजा ।
⋙ तरिता पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़ित्] बिजली । उ०— झरपै झपै कौंधे कढैं तरिता तरपै पुनि लाल छटा में धिरी ।—पजनेस (शब्द०) ।
⋙ तरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० तरित्री] बडी़ नाव । नौका । पोत । [को०] ।
⋙ तरित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाव । नौका [को०] ।
⋙ तरिया †
[हिं० तरना] तैरनेवाला ।
⋙ तरियाना †
क्रि० स० [हिं० तरे (= नीचे)] १. नीचे कर देना । नीचे डाल देना । तह में बैठा देना । २. ढाँकना । छिपाना । ३. वटुए के पेंदे में मिट्टी राख आदि पोतना जिससे आँच पर चढा़ने में उसमें कालिख न जमे । लेवा लगाना ।
⋙ तरीयाना (२)
क्रि० अ० तले बैठ जाना । तह में जमना ।
⋙ तरियाना (३)
क्रि० स० [फा़० तर से नामिक धातु] तर करना । गीला करना ।
⋙ तरिवन
संज्ञा पुं० [हिं० ताड़] १. कान का एक गहना । जो फूल के आकार का होता है । तरकी । विशेष—इसका वह भाग जो कान के छेद में रहता है, ताड़ के पत्ते को लपेटकर बनाया जाता है । २. कर्णफूल ।
⋙ तरिधर पु
संज्ञा पुं० [सं० तरु + वर ] दे० 'तरुवर' ।
⋙ तरिहँत †
क्रि० वि० [हिं० तर + अंत, हँत (प्रत्य०)] नीचे । तले । उ०—बुधि जो गई दै हीय बौराई । गर्व गयो तरिहँत सिर नाई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाव । नौका । २. गदा । ३. कपडा़ । रखने का पिटारा । पेटी । ४. धूआँ । धूम । ५. कपडे़ का छोर । दामन ।
⋙ तरी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. गीलापन । आर्द्रता । २. ठंढक । शीतलता । ३. वह नीची भूमि जहाँ बरसात का पानी बहुत दिनों तक इकट्ठा रहता हो । कछार । ४. तराई । तरहटी । ५. समृद्ध । धनाढयता । मालवारौ ।
⋙ तरी † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर (= नीचे)] १. जूते का तला । २. तलछट । तलौंछ ।
⋙ तरी †पु (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताड़] कान का एक गहना । तरिवन । कर्णफूल । उ०—काने कनक तरी बर बेसरि सोहहि ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तरी (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] चाल । मृणाल । उ०—जैसे सुंदर कमल को हंस ग्रहण करे तैसे पिता का चरण ग्रहण किया । जैसे कमल के तरे कोमल तरियाँ होती हैं, तिन तरियों सहित कमल को हंस पकड़ता है, तैसे तशरथ जी की अँगुरीन को राम जी ने ग्रहण किया ।—योग०, पृ० १३ ।
⋙ तरीक (१)
क्रि० वि० [देश० तडका, तड़के] प्रातः काल । तड़का । सबेरा । उ०—कहै साहि गोरी गरुअ अहो षांन तत्तार । कल्हि तरीक सुउंच दिन चढ़ि अरि सद्धौ सार ।—पृ० रा०, ९ ।६३ ।
⋙ तरीक (२)
संज्ञा पुं० [अ० तरीक] १. मार्ग । रास्ता । शैली । रविश । उ०— बाद चंढे हजरते शेखे शफीक, वाकिफे असरारे हक हादी तरीक ।—दक्खिनी०, पृ० २०३ । २. परंपरा । रिवाज । ३. धर्म । मजहब । ४. युक्ति । तरकीब । ५. नियम । दस्तूर ।
⋙ तरीकत
संज्ञा स्त्री० [अ० तरीकत] १. आत्मशुद्धि । अंतःशुद्धि । दिल की पवित्रता । २. ब्रह्मज्ञान । अध्यात्म । तसव्वुफ । उ०— यूँ ले निद्रा सुख सपने का जागा कल बैठे, राह तरीकत मारग उनके मुस्तैद होकर उठे । —दक्खिनी०, पृ० ५५ ।
⋙ तरीका
संज्ञा पुं० [अ० तरीकह्] १. ढंग । विधि । रीति । प्रकार । ढब । २. चाल । व्यवहार । ३. युक्ति । उपाय । तदबीर । तरकीब ।
⋙ तरीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूखा गोबर । २. नौका । नाव । ३. पानी में बहनेवाला तख्ता । बेडा़ । ४. समुद्र । ५.व्यवसाय । ६. स्वर्ग । ७. कुशल व्यक्ति (को०) । ८. सजावट (को०) । ९. सुंदर आकार या आकृति (को०) ।
⋙ तरीषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की कन्या ।
⋙ तरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । पेड़ । २. गति । वेग (को०) । ३. काठ का एक पात्र जिसमें सोम लिया जाता था (को०) । ४. एक प्रकार का चीड़ जिसके पेड़ खसिया की पहाड़ी, चटगाँव और बरमा में होते हैं । विशेष—इसमें से जो बिरोजा या गोंद निकलता है, वह सबसे अच्छा होता है । तारपीन का तेल भी इससे बहुत अच्छा निकलता है ।
⋙ तरु (२)
वि० रक्षक । रक्षा करनेवाला ।
⋙ तरुआ (१)
संज्ञा पु० [देश०] उबाले हुए धान का चावल । भुजिया चावल ।
⋙ तरुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तलवा] दे० 'तलवा' ।
⋙ तरुटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रुटि' । उ०—भंडारा समाप्त हो गया । कोई तरुटी नहीं हुई ।—मैला०, पृ० ४८ ।
⋙ तरुण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तरुणी] १. युवा । जवान । २. नया । नूतन ।
⋙ तरुण (२)
संज्ञा पुं० १. बडा़ जीरा । स्थूल जीरक । २. एरंड । रेंड़ । ३. कूजा का फूल । मोतिया ।
⋙ तरुणक
संज्ञा पुं० [सं०] अंकुर [को०] ।
⋙ तरुणज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो सात दिन का हो गया हो ।
⋙ तरुणतरणि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तरुण सूर्य' ।
⋙ तरुणदधि
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच दिन का दही । विशेष—वैद्यक के अनुसार ऐसा दही खाना हानिकारक है ।
⋙ तरुणपीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मैनसिल ।
⋙ तरुणसूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] मध्याह्न का सूर्य ।
⋙ तरुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] युवती । उ०—भव अर्णव की तरणी तरुणा । बरसीं तुम नयनों से करुणा —अर्चना०, पृ० १ ।
⋙ तरुणाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तरुण + आई (प्रत्य०)] युवावस्था । जवानी ।
⋙ तरुणाना पु
क्रि० अ० [सं० तरुण + आना (प्रत्य०)] जवानी पर आना । युवावस्था में प्रवेश करना ।
⋙ तरुणास्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पतली लचीली हड्डी ।
⋙ तरुणिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० तरुणिमन्] जवानी [को०] ।
⋙ तरुणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] युवती । जवान स्त्री ।
⋙ तरुणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. युवती । जवान स्त्री । विशेष—भावप्रकाश के अनुसार १६ वर्ष से लेकर ३२ वर्ष तक की स्त्री को तरुणी कहना चाहिए । २. घीकुआर । ग्वारपाठा । ३. दंती । जमालगोटा । ४. चीडा़ नामक गंधद्रव्य । ५. कूजा का फूल । मोतिया । ६. मेघ राग की एक रागिनी ।
⋙ तरुणीकटाक्षमाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिलक वृक्ष । विशेष—कवि समय के अनुसार तिलक का वृक्ष तरुणियों की कटाक्ष दृष्टि से पुष्तित होता है । अतः इसका एक नाम 'तरुणीकटाक्षमाल' है ।
⋙ तरुतूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ ।
⋙ तरुन पु †
संज्ञा पुं० [सं० तरुण] दे० 'तरुण' ।
⋙ तरुनई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तरुन + ई (प्रत्य०)] दे० 'तरुनाई' ।
⋙ तरुना पु
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'तरुण' । उ०—ऐसै बिरह बिकल कल बैन । सुनि कै तरुना करुना ऐन ।—नंद ग्रं०, पृ० ३२१ ।
⋙ तरुनाईच पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तरुण + हिं० आई (प्रत्य०)] तरुणा- वस्था । जवानी ।
⋙ तरुनापा पु
संज्ञा पुं० [सं० तरुण + हिं० आपा (प्रत्य०)] युवा- वस्था । जवानी । उ०—बालापन खेलत में खोयो तरुनापे गरबानौ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तरुनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तरुणी] दे० 'तरुणी' । उ०—ब्रज तरुनि रमन आनंदघन चातकी निसद अद्भुत अखंडित जगत जानी — घनानंद, पृ० ३८६ ।
⋙ तरुबाँही पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तरु + हिं० बाँह] पेड़ की भुजा । शाखा । डाल । उ०—इस संशय फल है तरु माहीं । पाँच कोटि दल हैं तरुबाँही ।—सदल मिश्र (शब्द०) ।
⋙ तरुभुक्
संज्ञा पुं० [सं० तरुभुक्] बंदाक । बाँदा ।
⋙ तरुभुज
संज्ञा पुं० [सं० तरुभुक्] दे० 'तरुभुक्' ।
⋙ तरुराग
संज्ञा पुं० [सं०] नया कोमल पत्ता । किसलय ।
⋙ तरुराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्पवृक्ष । २. ताड़ का वृक्ष ।
⋙ तरुरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँदा ।
⋙ तरुरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँदा । बंदाक ।
⋙ तरुवर
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष ।
⋙ तरुवरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तरवारि] तलवार ।
⋙ तरुवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जतुका लता । पानड़ी ।
⋙ तरुवासिनी
वि० [सं० तरु + वासिनी] पेड़ पर रहनेवाली । उ०— कूक उठी सहसा तरुवासिनी ! गा तू स्वागत का गाना । किसने तुझको अंतर्यामिनि ! बतलाया उसका आना ?— वीणा, पृ० ५८ ।
⋙ तरुसार
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर ।
⋙ तरुस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँदा ।
⋙ तरुट, तरूट
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की जड़ । भसींड़ । मुरार ।
⋙ तरेंदा
संज्ञा पुं० [सं०तरण्ड] १. पानी में तैरता हुआ काठ । बैड़ा । २. वह तैरनेवाली वस्तु जिसका सहारा लेकर पार हो सकें । उ०— सिंह तरेंदा जेइ गहा पर भयो तिहि साथ । ते पय बूडे़ बारि ही भेंड़ पूँछ जिन हाथ ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तरे † (१)
क्रि० वि० [सं० तल] नीचे । तले । मुहा०—(किसी के) तरे बैठना= (किसी को) पति बनाना ।
⋙ तरे पु †
वि० [हिं०] दे० 'तरह' । उ०— बाने की लाज राख्यौ तुमसे है सब इलाखौ । गलबाहियाँ आनि नाखौ रस उस तरे ही चाखौ ।—ब्रज ग्रं०, पृ० ४४ ।
⋙ तरेट †
संज्ञा पुं० [हिं० तर + एट (प्रत्य०)] नाभि के नीचे का हिस्सा । पेडू ।
⋙ तरेटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर] पर्वत के नीचे की भूमि । तराई । तरहटी । तलहटी । घाटी ।
⋙ तरेड़ा
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'तरेरा', 'तरारा' ।
⋙ तरेरना
क्रि० स० [सं० तर्ज (= डाटना) + हिं० हेरना(=देखना)] आँखों को इस प्रकार करना जिससे क्रोध या अप्रसन्नता प्रकट हो । दृष्टि कुपित करना । आँख के इशारे से डाँट बताना । दृष्टि से असम्मति या असंतोष प्रकट करना । उ०—सुनि लछिमन बिहँसे बहुरि नयन तरेरे राम ।— मानस, १ । २७८ । विशेष— कर्म के रूप में इस शब्द के साथ आँख या उसके पर्यायवाची शब्द आते हैं ।
⋙ तरेरा † (१)
संज्ञा [अं० तरारह्] लहरों का थपेड़ा ।
⋙ तरेरा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तरेरना] क्रुद्ध दृष्टि ।
⋙ तरेस †
संज्ञा पुं० [सं० तरु + ईश, या देश०] कल्प वृक्ष । उ०— दंड- काल करंगा तरेस सी गणेस देत ।—रघु० रू०, पृ० २४६ ।
⋙ तरैनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर (= नीचे) + ऐनी (प्रत्य०)] वह पच्चर जो हरिस और हल को मिलाने के लिये दिया जाता है ।
⋙ तरैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरई' ।
⋙ तरैला
संज्ञा पुं० [हिं० तरे] किसी स्त्री के दूसरे पति का पुत्र ।
⋙ तरैली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरैनी' ।
⋙ तरोंच †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर = नीचे + ओंच (प्रत्य०), या देश०] १. कंधी के नीचे के लकड़ी । २. दे० 'तरौंछ' ।
⋙ तरोंचा †
संज्ञा पुं० [हिं० तर (= नीचे) ] [स्त्री० तरोंची] जुए के नीचे की लकड़ी ।
⋙ तरोंडा
संज्ञा पुं० [देश०] फसल का उतना अनाज जितना हलवाहे आदि मजदूरों को देने के लिये निकाल दिया जाता है ।
⋙ तरोई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुरई' ।
⋙ तरोता
संज्ञा पुं० [सं० तरवट] एक लंबा पेड़ जो मध्यभारत और दक्षिण भारत में बाया जाता है । इसकी छाल चमड़ा सिझाने के काम में आते है । इसे 'तखर' भी कहते हैं ।
⋙ तरोना पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरौना' । उ०— प्रभा तरोना लाल की परी कपोलन आनि । कहा छपावत चतुर तिय कंत दंत छत जानि ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३३५ ।
⋙ तरोबर, तरोवर पु
संज्ञा पुं० [सं० तरुवर] दे० 'तरुवर' । उ०— रोम रोम प्रति गोपिका ह्वै गई साँवरे गात । काम तरोवर साँवरी, ब्रज बनिता ही पात ।— नंद० ग्रं०, पृ० १८९ ।
⋙ तरौंछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर + औंछ (प्रत्य०)] तलछट ।
⋙ तरौंछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तर + औंछी (प्रत्य०)] १. वह लकडी जो हत्थे में नीचे की तरफ लगी रहती है — (जुलाहे) । २. बैलगाड़ी में लगी हुई वह लकड़ी जो सुजावा के नीचे रहती है ।
⋙ तरौँटा
संज्ञा पुं० [हिं० तर + पाट] आटा पीसने की चक्की का नीचेवाला पाट । जाँते के नीचे का पत्थर ।
⋙ तरौँता
संज्ञा पुं० [हिं० तर + औंता (प्रत्य०)] छाजन में वे लकडियाँ जो ठाठ के नीचे दी जाती हैं ।
⋙ तरौँस पु †
संज्ञा पुं० [हिं० तर + औस (प्रत्य०)] तट । तीर । किनारा । उ०—स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा तीर । अँसुवनि करति तरौस कौ छिनक खरौंहौ नीर ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ तरौना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ताड़ + बना] १. कान में पहनने का एक गहना जो फूल के आकार का गोल होता है । तरकी । (इसका वह अंश जो कान के छेद में रहता है, ताड़ के पत्ते को गोल लपेटकर बनाया जाता है) । विशेष— दे० 'तरकी', 'ताडंक' । २. कर्णकूल नाम का आभूषण । उ०— लसत सेत सारी ढक्यो तरल तरौना कान ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ तरौना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तर (= नीचे)] वह मोढ़ा जिसपर मिठाई का खोंचा रखा जाता है ।
⋙ तर्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु के विषय में आज्ञात त्तव को कारणोपपत्ति द्वारा निश्चित करनेवाली उक्ति या विचार । है तुपुर्ण युक्ति । विवेचना । दलील । विशेष— तर्क न्याय के सोलह पदार्थों (विषयों) में से एक है । जब किसी वस्तु के संबंध में वास्तविक तत्व ज्ञात नहीं होता, तब उस तत्व के ज्ञानार्थ (किसी निगमन के पक्ष में) कुछ हेतुपूर्ण युक्ति दी जाती है जिसमें विरुद्ध निगमन की अनुप- पत्ति भी दिखाई जाती है । ऐसी चुक्ति को तर्क कहते हैं । तर्क में शंका का होना भी आवश्यक है, क्योंकि जब यह शंका होगी कि बात ऐसी है या वैसी, तभी वह हेतुपूर्ण युक्ति दी जायगी जिसमें यह निरूपित किया जायगा कि बात का ऐसा होना ही ठीक है, वैसा नहीं । जैसे, शंका यह है कि आत्मा नित्य है या अनित्य । यहाँ आत्मा का यथार्थ रूप ज्ञान नहीं है । उसका यथार्थ रूप निश्चित करने के लिये हम इस प्रकार विवेचना करते हैं, —यदि आत्मा अनित्य होती ते अपने कर्म का फल न प्राप्त कर सकती और उसका आवागमन या मोक्ष न हो सकता । पर इन सब वातों का होना प्रसिद्ध ही है । अतः आत्मा नित्य है, ऐसा मानना ही पड़ता है । २. चमत्कारपूर्ण सक्ति । चुहल की बात । चोज की बात । चतुराई से भरी बात । उ०— प्यारी को मुख धोइकै पट पोंछि सँवारयो । तरक बात बहुते कही कुछ सुधि न सँभारयो ।—सूर (शब्द०) । ३. व्यंग्य । ताना । उ०— ते सब तर्क बोलिहैं मोकों तासों बहुत डेराऊँ ।—सूर (शब्द०) । ४. धारणा । अनुमान (को०) ।५. विचार । विचारणा । ऊहा । वितर्क (को०) । ६. शुद्ध या स्वतंत्र चिंतन के आधार पर स्थापित विचार व्यवस्था (को०) । ७. छह की संख्या (को०) । ८. कारण (को०) । ९. इच्छा । आकांक्षा (को०) । १०. न्यायशास्त्र (को०) । ११. ज्ञान (को०) । १२. अर्थवाद (को०) । यौ०—तर्कशील = तर्क में प्रवीण । तार्किक । तर्क करनेवाला । उ०— प्राचीन हिंदु बडे़ तर्कशील थे ।— हिंदु० सभ्यता पृ० ९२ ।
⋙ तर्क (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. त्याग । छोड़ना । २. छूटना । क्रि० प्र०—करना । यौ०— तर्केअदब = अशिष्टता । असभ्यता । तर्केदुनिया= साधु या फकीर हो जाना ।
⋙ तर्कक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तर्क करनेवाला । तर्कशास्त्री । तार्किक । २. याचक । मँगता ।
⋙ तर्कण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तर्कणीय, तर्क्य] तर्क करने की क्रिया । बहस करने का काम ।
⋙ तर्कणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार । विवेचना । ऊहा । २. युक्ति । दलील ।
⋙ तर्कना
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्कणा] दे० 'तर्कणा' ।
⋙ तर्कना †पु (२)
क्रि० अ० [सं० तर्क + ना (प्रत्य०)] तर्क करना ।
⋙ तर्कना पु (३)
क्रि० अ० [हिं०] उछलना । कूदना ।
⋙ तर्कमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र की एक मुद्रा ।
⋙ तर्कवितर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊहापोह । विवेचना । सोच विचार । २. वाद विवाद । बहस । क्रि० प्र० —करना ।
⋙ तर्कविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तर्कशास्त्र । [को०] ।
⋙ तर्कश
संज्ञा पुं० [फा़०] तीर रखने का चोंगा । भाया । तूणीर ।
⋙ तर्कशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शास्त्र जिसमें ठीक तर्क या विवेचना करने के नियम आदि निरूपित हों । सिद्धांतों के खंडन मंडन की शैली बतानेवाली विद्या । २. न्याय शास्त्र ।
⋙ तर्कस
संज्ञा पुं० [फा़०तरकश] दे० 'तर्कश' ।
⋙ तर्कसी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तरकश] छोटा तरकश ।
⋙ तर्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] तर्क [को०] ।
⋙ तर्काट
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षुक । याचक [को०] ।
⋙ तर्कातीत
वि० [सं०] तर्क से परे । उ०—तर्कातीत श्रद्धा से हटकर एक बुद्धिसंगत, लौकिक, मानववादी नैतिक बोध का रूप लिया ।—नदी०, पृ० १०१ ।
⋙ तर्काभास
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा तर्क जो ठीक न हो । कुतर्क ।
⋙ तर्कारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगेथू का वृक्ष । अरणी वृक्ष । २. जैत का पेड़ ।
⋙ तर्कारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरकारी' ।
⋙ तर्किण
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ । पँवार ।
⋙ तर्किल
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ । पँवार ।
⋙ तर्की (१)
संज्ञा पुं० [सं० तर्किन्] [स्त्री० तर्किनी] तर्क करनेवाला ।
⋙ तर्की (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] टरकी । पक्षी ।
⋙ तर्की † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरकी' ।
⋙ तर्कीब
संज्ञा स्त्री० [हिं० तरकीब] दे० 'तरकीब' ।
⋙ तर्कु
संज्ञा पुं० [सं०] तकला । टेकुआ । यौ०— तर्कुशाण = सान धरने का पत्थर ।
⋙ तर्कुक
वि० [सं०] निवेदन करनेवाला । प्रार्थी [को०] ।
⋙ तर्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] काटना [को०] ।
⋙ तर्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] २. तकला । टेकुआ । २. काटना (को०) ।
⋙ तर्कुपिंड, तर्कुपीठ, तर्कुपीटी
संज्ञा पुं० [सं० तर्कुपिण्ड] तकले की फिरकी ।
⋙ तर्कुल
संज्ञा पुं० [सं० ताड + कुल] १. ताड़ का पेड़ । २. ताड़ का फल ।
⋙ तर्क्य
वि० [सं०] जिसपर कुछ सोच विचार करना आवश्यक हो । विचार्य । चिंत्य ।
⋙ तर्क्षु
संज्ञा पुं० [सं०] तेंदुआ या चीता नामक जंतु ।
⋙ तर्क्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार नमक ।
⋙ तर्गश †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तर्कश' । उ०— ना तर्गश न धन खड़ो नाँ सिपर तलवारि ।— प्राण०, पृ० २८६ ।
⋙ तर्ज
संज्ञा पुं०, स्त्री० [अ० तर्व] १. प्रकार । किस्म । तरह । २. रीति । शैली । ढंग । ढब । जैसे, बातचीत करने का तर्ज । जैसे,— इस छींट का तर्ज अच्छा नहीं है ।
⋙ तर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तर्जित] १. धमकाने का कार्य । भयप्रदर्शन । २. क्रोध । ३. तिरस्कार । फटकार । डाँट डपट । यौ०—तर्जन गर्जन = डाँट फटकार । क्रोधप्रदर्शन ।
⋙ तर्जना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तर्जन' [को०] ।
⋙ तर्जना (२)
क्रि० अ० [सं० तर्जन] डाँटना । धमकाना । डपटना ।
⋙ तर्जनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगूठे के पास की उँगली । अँगूठे और मध्यमा के बीच की उँगली । प्रदेशिनी । उ०— इहाँ कुम्हड़ वतिया गोत बाहीं । जे तर्जनी देखि मरि जाहीं ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष— इसी उँगली से किसी पस्तु की ओर दिखाते या इशारा करते हैं ।
⋙ तर्जनीमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र की एक मुद्रा जिसमें पाएँ हाथ की मुट्ठी बाँधकर तर्जनी और मध्यमा को फैलाते हैं ।
⋙ तर्जिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का प्राचीन नाम । तायिक देश ।
⋙ तर्जित
वि० [सं०] १. डाँटा या फटकारा हुआ । धमकाया हुआ । २. अपमानित । तिरस्कृत [को०] ।
⋙ तर्जुमा
संज्ञा पुं० [अ०] भाषांतर । उल्था । अनुवाद ।
⋙ तर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] गाय का बछड़ा । बछवा ।
⋙ तर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुरंत जन्मा हुआ गाय का बछड़ा । २. शिशु । बच्चा ।
⋙ तर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तरणि' ।
⋙ तर्तरीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नाव ।
⋙ तर्तरीक (२)
वि० १. पार जानेवाला । २. पार ले जानेवाला (को०) ।
⋙ तर्दू
संज्ञा स्त्री० [सं०] डोई [को०] ।
⋙ तर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तर्पणीय, तर्पित, तर्पी] १. तृप्त करने की किया । संतुष्ट करने का कार्य । २. कर्मकांड की एक क्रिया जिसमें देव, ऋषि और पितरौ को तुष्ट करने के लिये हाथ या अरसे से पानी दैते हैं । विशेष— मध्याह्न स्नान के पीछे तर्पण करने का विधान है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. यज्ञ की अग्नि का इँधन (को०) । ४. भोजन । आहार(खो०) । ५. आँख में तेल डालना (को०) ।
⋙ तर्पणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खिरनी का वृक्ष । २. गंगा नदी ।
⋙ तर्पणी (२)
वि० तृप्ति देनेवाली ।
⋙ तर्पणीय
वि० [सं०] तृप्ति के योग ।
⋙ तर्पिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पद्मचारिणी लता । स्थल कमलिनी । स्थलपद्म ।
⋙ तर्पणेच्छु (१)
वि० [सं०] १. तर्पण करने की इच्छा । २. तर्पण कराने की इच्छा [को०] ।
⋙ तर्पणेच्छु (२)
संज्ञा पुं० भीष्म [को०] ।
⋙ तर्पित
वि० [सं०] तृप्त किया हुआ । संतुष्ट किया हुआ ।
⋙ तर्पी
वि० [सं० तर्पिन्] [वि० स्त्री० तर्पिणी] १. तृप्त करनेवाला । संतुष्ट करनेवाला । २. तर्पण करनेवाला ।
⋙ तर्फ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरफ' । उ०— क्या हुआ यार छिपगया किस तर्फ । इक झलक ही मुझे दिखा करके ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २२० ।
⋙ तर्बट
संज्ञा पुं० [सं०] १चकवँड । पँवार । २. चांद्र वत्सर । वर्ष ।
⋙ तर्बियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] शिक्षा दीक्षा । उ०— आप ही की तालीम और तर्बियत का यह असर है ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९१ ।
⋙ तर्बूज
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरबूज' ।
⋙ तरयोना पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरौना' ।
⋙ तरयौना पु †
संज्ञा पुं० [हिं० तरौना] दे० 'तरौना' । उ०— अजौ तरयौना हीं रह्यौ श्रुति सेवत इक रंग । चाक बास बेसरि लह्यौ वसि मुकुतनि कै संग ।— बिहारी र०, दो० २० ।
⋙ तर्रा
संज्ञा पुं० [देश०] चाबुक का फीता या डोरी जो छडी में बँधी रहती है ।
⋙ तर्राना
संज्ञा पुं० [फा़० तराना] एक प्रकार का गाना । दे० 'तराना' ।
⋙ तर्राना † (२)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'चर्राना' ।
⋙ तर्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे भैसें बडे़ प्रेम से खाती हैं ।
⋙ तर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिलाषा । २. तृष्णा । असंतोष । उ०— देव शोक संदेह भय हर्ष तम तर्ष गन साधु सद्युक्ति विच्छेदकारी ।— तुलसी (शब्द०) । ३. बेड़ा । ४. समुद्र । ४. समुद्र । ५. सूर्य ।
⋙ तर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] कफ का एक भेष ।— माधव०, पृ० ५८ ।
⋙ तर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तर्षित] १. पिपासा । प्यास । २. अभि- लाषा । इच्छा ।
⋙ तर्षित
वि० [सं०] १. प्यासा । २. जो लालसा किए हो । इच्छुक ।
⋙ तर्षुल
वि० [सं०] दे० 'तर्षित' [को०] ।
⋙ तर्स
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तरस' । उ०— तर्स है यह देर से, आँखें पडो शृंगार में ।— बेला, पृ० ६७ ।
⋙ तर्ह
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'तरह' । यौ०—तर्ह अंदाज = तर्ह अफगन = नींव डालनेवाला । बुनियाद रखनेवाला ।
⋙ तर्हदारी
संज्ञा स्त्री० [अं० तरह + फा़० दारी (प्रत्य०)] १. बाँकापन । छबीलापन । साजसज्जा । २. हाव भाव । नाज नखरा । ३. हुस्न । सौंदर्य । उ०— है नई सजावट नई तहँदारी है । सच कहो किससे आजकल नई यारी है ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६४ ।
⋙ तर्हे पु
संज्ञा स्त्री० [अं० तर्ह] दे० 'तरह' । उ०— काशी पंडत धरो पाव बहोत तर्हे से मनाव ।— दक्खिनी०, पृ० ४९ ।
⋙ तल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे का भाग । २. पेंदा । तल । ३. जल के नीचे की भूमि । ४. वह स्थान जो किसी वस्तु के नीचे पड़ता हो । जैसे, तरुतल । मुहा०—तल करना = नीचे दबा लेना । छिपा लेना — (जुआरी) । ५. पैर का तलवा । ६. हथेली । ७. चपत । थप्पड़ । ८. किसी वस्तु का बाहरी फैलाव । बाह्य विस्तार । पृष्ठदेश । सतह । जैसे,— भूतल, धरातल, समतल । ९. स्वरूप । स्वभाव । १० कानन । जंगल । ११. गड्ढा । गड़हा । १२. चमडे़ का बल्ला जो धनुष को डोरी की रगड़ बचाने के लिये बाई बाँह में पहना जाता है । १३. घर की छत । पाटन । जैसे, चार तला मकान । १४. ताड़ का पेड़ । १५. मुठिया । मूठ । दस्ता । १६. बाएँ हाथ से वीणा बजाने कि क्रिया । १८. गोधा । गोहा । १८. कलाई । पहुँचा । १९. वालिश्त । बित्ता । २०. आधार । सहारा । २१. महादेव । २२. सप्त पातालों में से पहला । २३. एक नरक का नाम । २४. उद्देश्य (को०) । २५. मूल । कारण (को०) । २६. ताल । तलाब (को०) ।
⋙ तलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताल । पोखरा । २. एक फल का नाम ३. सिगड़ी । अँगीठी (को०) ।
⋙ तलक † (२)
अव्य० [हिं० तक] तक । पर्यत ।
⋙ तलकर
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर या लगान जो जमींदार ताल की वस्तुओं (जैसे, सिंघाड़ा, मछली आदि) पर लगाता है ।
⋙ तलकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पेड़ । विशेष— यह पंजाब, अवध, बंगाल, मध्यप्रदेश और मद्रास में होता है । इसकी लकड़ी ललाई लिए भूरी होता है और खेती के सामान बनाने तथा मकानों में लगाने के काम में आती है ।
⋙ तलकीन
संज्ञा स्त्री० [अ० तल्क़ीन] १. शिक्षा । उपदेश । २. दीक्षा देना । गुरुमंत्र देना । पीर का मुरीद को अमल आदि पढ़ाना [को०] ।
⋙ तलख
वि० [फ़ा० तलख्] १. कड़आ । अप्रिय । २. अरुचिकर । नागवार । उ०— तेरी जैसी राक्षसिन के हाथ में पड़कर जिंदगी तलख हो गई ।—गोदान, पृ० ५७ ।
⋙ तलखी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तलूखी] कड़वाहट । कटुता । कड़वापन । उ०— हिज्र की तलखी नहीं है जिसमें तलख जिंदगानी वह है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६९ ।
⋙ तलग पु
अव्य० [हिं०] दे० 'तलक', 'तक' । उ०— तूँ आये तलग अक्ल ते कर इलाज । चलाउँगी मैं सब तेरा मुल्को राज — दक्खिनी०, पृ० १४५ ।
⋙ तलगू
संज्ञा स्त्री० [सं० तैलंग] तैलंग देश की भाषा । तेलंगू भाषा ।
⋙ तलघरा
संज्ञा पुं० [सं० तल + हिं० घर] तहखाना ।
⋙ तलछट
संज्ञा स्त्री० [हिं० तल + छँटना] पानी या और किसी द्रव पदार्थ के नीचे बैठी हुई मैल । तलौंछ । गाद ।
⋙ तलछत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलछट' । ल०—तिमि उड़त कोट पब्बै सहित दल दब्बै तलछत परे ।—हम्मीर०, पृ० ४३ ।
⋙ तलठी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलछट' । उ०— तिल तिल झार कबीर लए तलठी झारै लोग ।—कबीर० मं०, पृ० ३२५ ।
⋙ तलत्र, तलत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] धनुर्धर का दस्ताना [को०] ।
⋙ तलना
क्रि० स० [सं० तरण (= तिराना)] कड़कड़ाते हुए घी या तेल में डालकर पकाना । जैसे, पापड़ तलना, घुँघनी तलना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना ।विशेष—भावप्रकाश में 'घी' में भुना हुआ के अर्थ में 'तलित' शब्द आया है, पर वह संस्कृत नहीं जान पड़ता ।
⋙ तलप पु
संज्ञा पुं० [सं० तल्प] दे० 'तल्प' । उ०— तुम जानकी, जनकपुर जाहु । कहा आनि हम संग भरमिहौ, गहबर बन दुख—सिंधु अथाहु । तजि वह जनक राज भोजन सुख, कत तृन- तलप, बिपिन फल खाहु ।—सूर०, ९ । ३४ ।
⋙ तलपट
वि० [देश०] नाश । बरबाद । चौपट । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ तलपट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] काँठा । आयव्यय फलक ।
⋙ तलपत्त पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] बिछौने की चादर । उ०— हरि मग्गहि हरनछ्छ करहि तलपत्त पत्त धर ।—पृ० रा०, २ । ३०८ ।
⋙ तलपना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तलफना' । उ०— तलपन लागै प्रान नगल ते छिनहु होहु जो न्यारे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १३३ ।
⋙ तलफ
वि० [अ० तलफ़] नष्ट । बर्बाद । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—मुहर्रिर तलफ ।
⋙ तलफना
क्रि० अ० [हिं० तड़पना अथवा अनु०] १. कष्ट या पीड़ा से अंग टपकना । छटपटाना । २. व्याकुल होना । बेचैन होना । विकल होना ।
⋙ तलफाना
क्रि० स० [अनु०] तड़पाना ।
⋙ तलफी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तलफी़] १. खराबी । बरबादी । नाश । २. हानि । यौ०—हक तलफि = स्वत्व का मारा जाना ।
⋙ तलफ्फुज
संज्ञा पुं० [अ० तलफ्फुज] उच्चारण [को०] ।
⋙ तलब
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. खोज । तलाश । २. चाह । पाने की इच्छा । ३. आवश्यकता । माँग । मुहा०—तलब करना = माँगना या मँगाना । ४. बुलावा । बुलाहट । मुहा०—तलब करना = बुला भेजना । पास बुलाना । ५. तनखाह । वेतन । क्रि० प्र०—खाना ।—चुकाना ।—देना ।—पाना । मिलना ।—लेना ।—माँगना ।—चाहना ।
⋙ तलबगार
वि० [फ़ा०] चाहनेवाला । माँगनेवाला ।
⋙ तलबदार
वि० [फ़ा०] चाहनेवाला ।
⋙ तलबदास्त
संज्ञा पुं० [अ० तलब + फ़ा० दास्त] समन ।
⋙ तलबनामा
संज्ञा पुं० [अ० तलब + फ़ा० नामह्] समन । अदालत में उपस्थित होने के लिखित आज्ञापत्र ।
⋙ तलबाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० तलबानह] १. वह खर्च जो गवाहों को तलब करने के लिये टिकट के रूप में अदालत में दाखिल किया जाता है । २. वह खर्च जो मालगुजारी समय पर न जमा करने पर जमींदार से दंड के रूप में लिया जाता है । विशेष— चपररासियों को खाने पीने आदि के लिये जो भेंट या खर्च जमींदार देते हैं, उसको भी तलबाना कहते हैं ।
⋙ तलबी
संज्ञा स्त्री० [अ० तलब + फा़० ई (प्रत्य०)] १. बुलाहट । २. माँग । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ तलबेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० तलफना] किसी वस्तु के लिये आतुरता या बेचैनी । छटपटी । घोर उत्कंठा । उ०— कान्ह उठे अति प्रात ही तलबेली लागी (शब्द०) । प्रिया प्रेम के रस भरे रति अंतर खागी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तलमल
संज्ञा पुं० [सं०] तलछट । तरौंछ । गाद ।
⋙ तलमलाना † (१)
क्रि० अ० [देश०] तड़फड़ाना । तड़पना । बेचैन होना ।
⋙ तलमलाना † (२)
क्रि० अ० दे० 'तिलमिलाना' ।
⋙ तलमलाहट (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] व्याकुलता । तड़पने का भाव । बेचैनी ।
⋙ तलमलाहट (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'तिलमिलाहट' ।
⋙ तलमाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तलमलाना' —(क्व०) । उ०— लगे दिवस कई वेग पाया न आन, थी जान उसकी और लगी तलमान ।—दक्खिनी०, पृ० ८७ ।
⋙ तलव
संज्ञा पुं० [सं०] गानेवाला ।
⋙ तलवकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामवेद की एक शाखा । २. एक उपनिषद का नाम ।
⋙ तलवा
संज्ञा पुं० [सं० तल] पैर के नीचे का भाग जो चलने या खडे़ होने में जमीन पर पड़ता है । पैर के नीचे की ओर का वह भाग जो एँड़ी और पंजों के बीच में होता है । पादतल । मुहा०—तलवा खुजलाना = तलवे में खुजली होना जिससे यात्रा का शकुल समझा जाता है । तलवे चाटना = बहुत खुशामद करना । अत्यंत सेवा शुश्रूषा में लगा रहना । तलवे छलनी होना = चलते चलते पैर घिस जाना । चलते चलते शिथिल हो जाना । बहुत दौड़ धूप की नौबत आना । तलवे तले आँखें मलना = दे० 'तलवों से आँख मलना' । तलवों तले मेटना = कुचलकर नष्ट करना । रौंद डालना —(स्त्रि०) । तलवे धो धोकर पीना = अत्यंत सेवा शुश्रूषा करना । अत्यंत श्रद्धा भक्ति प्रकट करना । अत्यंत प्रेम प्रकट करना । तलवा न टिकना = पैर न टिकना । जमकर बैठा न रहा जाना । आसन न जमाना । एक जगह कुछ देर बैठे न रहा जाना । तलवा न भरना = दे० 'तलवा न टिकना' ।—(स्त्रि०) । तलवों से आँखें मलना = (१) अत्यंत दीनता प्रकट करना । बहुत अधिक अधीनता दिखाना । (२) अत्यंत प्रेम प्रकट करना । (३) दे० 'तलवों तले मेटना' । तलवों से आग लगना = क्रोध से शरीर भस्म होना । अत्यंत क्रोध चढ़ना । तलवों से मलना = पैर से कुचलना । रोंदना । कुचलकर नष्ट करना । तलवों से लगना = (१) क्रोध चढ़ना । (२) बुरा लगना । अत्यंत अप्रिय लगना । कुढ़न होना । चिढ़ होना । तलवों से लगना, सिर में जाकर बुझना = सिर से पैर तक क्रोध चढ़ना । क्रोध सेशरीर भस्म होना । तलवे सहलाना = (१) अत्यंत सेवा शुश्रूषा करना । (२) बहु खुशामद करना ।
⋙ तलवार
संज्ञा स्त्री० [सं० तरवारि] लोहे का एक लंबा धारदार हथियार जिसके आघात से वस्तुएँ कट जाती है । खड्ग । असि । कृपाण । पर्या०—असि । विशसन । खड्ग । तीक्ष्णवर्मा । दुरासद । श्रीगर्भ । विजय । धर्मपाल । धर्ममाल । निस्त्रिंश । चंद्रहास । रिष्टि । करवाल । कौक्षेयक । कृपाण । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—मारना ।—लगना ।— लगाना ।—करना । मुहा०—तलवार करना = तलवार चलाना । तलवार का वार करना । तलवार कसाना = तलवार झुकाना । तलवार का खेत = लड़ाई का मैदान । युद्धक्षेत्र । तलवार का घाट = तलवार में वह स्थान जहाँ से उसका टेढ़ापन आरंभ होता है । तलवार का छाला = तलवार के फल में उभरा हुआ दाग । तलवार का डोरा = तलवरा की धार जो पतले सूत की तरह दिखाई देती है । तलवार का पट्ठा = तलवार की चौड़ी धार । तलवार का पानी = तलवार की आभा या दमक । तलवार का फल = मूठ के अतिरिक्त तलवार का सारा भाग । तलवार का बल = तलवार का टेढ़ापन । तलवार का मुँह = तलवार का धार । तलवार का हाथ = (१) तलवार चलाने का ढंग । (२) तलवार का वार । खड्ग का आघात । तलवार की आँच = तलवार की चोट का सामना । तलवार की माला = तलवार का वह जोड़ जो दुबाले से कुछ दूर पर होता है । तलवारों की छाँह में = ऐसे स्थान में जहाँ अपने ऊपर चारों ओर तलवार ही तलवार दिखाई देती है । रणक्षेत्र में । तलवार के घाट उतारना = लड़ते लड़ते मर जाना । तलवार के घाट उतारा जाना= मारा जाना । वीरगति पाना । उ०— ल्हासा में बहुत से लाभ और विद्वान तलवार के घाट उतारे गए हैं । —किन्नर०, पृ० ९१ । तलवार खींचना = म्यान से तलवार बाहर करना । तलवार जड़ना = तलवार मारना । तलवार से आघात करना । तलवार तौलना = तलवार को हाथ में लेकर अंदाज करना जिससे वार भरपूर बैठे । तलवार सँभालना । तलवार पर हाथ रखना = (१) तलवार निकालने के लिये तैयार होना । (२) तलवार की शपथ होना । तलवार बाँधना = तलवार को कमर में लटकाना । तलवार साथ में रखना । तलवार सौंतना = तलवार म्यान से निकालना । धार करने के लिये तलवार खींचना । विशेष— तलवार का व्यवहार सब देशों में अत्यंत प्राचीन काल से होता आया है । धनुर्वेद आदि ग्रंथों को देखने से जाना जाता है कि भारतवर्ष में पहले बहुत अच्छी तलवारें बनती थीं जिनसे पत्थर तक कट सकता था । प्राचीन काल में खट्ट देश, अंग वंग, मध्यग्राम, सहग्राम, कालिंजर इत्यादि स्थान खड्ग के लिये प्रसिद्ध थे । ग्रंथों में लोहे की उपयुक्तता, खड्गों के विविध परिणाम तथा उनके बनाने का विधान भी दिया हुआ है । पानी देने के लिये लिखा है कि धार पर नमक या क्षार मिली गीली मिट्टी का लेप करके तलवार को आग में तपावे और फिर पानी में बुझा दे । उशना और शुक्राचार्य ने पानी के अतिरिक्त रक्त, घृत, ऊंट के दूध आदि में बुझाने का भी विधान बतलाया है । तलवार की झनकार (ध्वनि) तथा फस पर आपसे आप पडे़ हुए चिन्हों के अनुसार तलवार के शुभ, अशुभ या अच्छे बुरे होने का निर्णय किया गया है । ऐसे निर्णय के लिये जो परीक्षा की जाती है, उसे अष्टांग परीक्षा कहते हैं । तलवार चलाने के हाथ ३२ गिनाए गए हैं । जिनके नाम ये हैं—भ्रांत, उदभ्रांत, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, सृत, संचांत, समुदीर्ण, निग्रह, अग्रह, पदावकर्षण, संधान, मस्तक भ्रामण, भृज भ्रामण, पाश, पाद, विबंध, भूमि, उदभ्रमण, गति, प्रत्यागति, आक्षेप, पातन, उत्थानक- प्लुति, बधुता, सौष्ठव, शोभा, स्थैर्य, दृढ़मुष्टिता, तिर्यक् प्रचार और ऊर्ध्व प्रचार । इसी प्रकार पट्टिक, मौष्टिक, महि- पाक्ष आदि तलवार के १७ भेद बतलाए गए हैं । आजकल भी तलवारों के कई भेद होते हैं; जैसे खाँड़ा, जो सीधा और छोर पर चौड़ा होता है; सैफ, जो लंबी पतली और सीधी होती है; दुधारा, जिसके दोनों ओर धार होती है । इसके अतिरिक्त स्थानभेद से भी तलवारों के कई नाम हैं । जैसे, सिरोही, बँदरी, जुनूस्त्री ? इत्यादि । एक प्रकार की बहुत पतली और लचीली तलवार ऊना कहलाती है जिसे राजा तकिए में रख सकते या कमर में लपेट सकते हैं । तलवार दुर्गा का प्रधान अस्त्र है; इसी से कभी कभी तलवार को दुर्गा भी कहते हैं ।
⋙ तलवारण
[सं०] तलवार । असि [को०] ।
⋙ तलबारिया †
संज्ञा पुं० [हिं०] तलवार चलाने में निपुण व्यक्ति ।
⋙ तलवारी
वि० [हिं० तलवार] तलवार संबंधी ।
⋙ तलहटी
संज्ञा स्त्री० [सं० तल + घट्ट] पहाड़ के नीचे भूमि । पहाड़ की तराई ।
⋙ तलहट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलहटी' । उ०— तलहट्टी सुरताण, रहे जोघाँण महल्ले । अजन प्रांण तप अकल ।
⋙ तलहा †
वि० [हिं० ताल] १. ताल संबंधी । ताल का या ताल में होनेवाला ।
⋙ तलही
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल + ही (प्रत्य०)] ताल में रहनेवाली चिड़िया । उ०— कोउ तलही, मुर्गाधी कोऊ कराफुल मारे — प्रेमघन०, पृ० २६ ।
⋙ तलांगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० तलाड्गलि] पैर का अँगूठा [को०] ।
⋙ तला (१)
संज्ञा पुं० [सं० तल] १. किसी वस्तु के नीचे की सतह । पेंदा । २. जूते के नीचे का चमड़ा जो जमीन पर रहता है ।
⋙ तला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तलत्राण' [को०] ।
⋙ तला (३)
वि० [सं० तल] दे० 'तल्ला' ।
⋙ तलाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल] छोटा ताल । तलैया । बावली ।
⋙ तलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ तल + आई (प्रत्य०)] तलने की क्रिया या भाव ।
⋙ तलाई (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तलाना] १. तलाने का भाव । २. तलाने की मजदुरी ।
⋙ तलाउ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तलाव' ।
⋙ तलाक
संज्ञा पुं० [अं० तलाक़] पति पत्नी का विधानपूर्वक संबंधत्याग । क्रि० प्र०—देना ।
⋙ तलाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] चटाई ।
⋙ तलातल
संज्ञा पुं० [सं०] सात पातालों में से एक पाताल का नाम ।
⋙ तलाफी
संज्ञा स्त्री० [अ० तलाफी़] क्षतिपूर्ति । हानि की पूर्ति । नुकसान का बदला । तदारक [को०] ।
⋙ तलाब †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तालाब' ।
⋙ तलाबेली पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलबेली' ।
⋙ तलामली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलाबेली' ।
⋙ तलामली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तलमल' । उ०— दिन पहाड़ सा मालूम होने लगा खासकर डाक की घड़ी तलामली लग रही थी ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३८१ ।
⋙ तलाया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल] तलैया । तलाई । उ०— अई तलायाँ गोठ जुरे जहँ चक्कवै । परच्यो निज है आलु जाय द्वै लक्खवै ।—राम० धर्म०, पृ० २८२ ।
⋙ तलार पु
वि० [सं० तल + हिं० आर (प्रत्य०)] दे० 'तल्हार' । उ०— वे पानी में सूँ जो निकले भार । रखे है जो पत्थर हयाँ उस तलार ।—दक्खिनी०, पृ० ३३७ ।
⋙ तलार पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थल (= तल) +रक्षक] नगरक्षक । कोतवाल ।
⋙ तलारक्षी
संज्ञा पुं० [हिं०] नगरक्षक अधिकारी या कोतवाल । उ०— प्राचीन शिलालेखों तथा पुस्तकों में तलारक्ष और तलार शब्द नगरक्षक अधिकारी (कोतवाल) के अर्थ में प्रयुक्त किए जाते थे । सोड्ढल रचित 'उदयसुंदरो कथा' में एक राक्षस का वर्णन करते हुए लिखा है कि घृणा उत्पन्न करनेवाले उसके रूप के कारण वह नरक नगर के तलवार के समान थे ।—राज० इति०, पृ० ४५९ ।
⋙ तलाव †
संज्ञा पुं० [सं० तडाग > प्रा० तलाअ > तलाव>तलाव, या सं० तल्ल] वह लंबा चौड़ा गड्डा जिसमें सामान्यतः बरसात का पानी जमा रहता है । ताल । तालाब । पोखरा । उ०— सिमिटि सिमिटि जल भरइ तलावा । जिमि सदगुण सज्जन पहँ आवा ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—तलाव जाना = शौच जाना । पाखाने जाना ।
⋙ तलाव † (२)
वि० [हिं० तलना] तला हुआ । जैसे, तलाव हींग ।
⋙ तलाव (३)
संज्ञा पुं० तलने का क्रिया या भाव ।
⋙ तलावड़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़ाग, तड़ागिका, प्रा० तलाग, तलाइया, तलाय, तलाई, तलाव + ड़ी (प्रत्य०)] दे० 'तलैया' । उ०—जीवण फट्टि तलावड़ी, पलि न बंधस काँइ । ढोला०, दू० १२२ ।
⋙ तलावरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तलाव + री (= 'डी' प्रत्य०)] तलाई । छोटा ताल । उ०— ताल तलादरि नरनि न जाहीं । सूझइ वारपार तेन्ह नाहीं ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १४१ ।
⋙ तलाश
संज्ञा स्त्री० [तु०] १. खोज । ढूँढ़ढाँढ़ । अन्वेषण । अनुसंधान । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. आवश्यकता । चाह । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ तलाशना †
क्रि० स० [फ़ा० तलाश + हिं० ना (प्रत्य०)] ढूँढ़ना । खोजना ।
⋙ तलाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ तलाशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] गुम की हुई या छिपाई हुई वस्तु को पाने के लिये घर बार, चीज, वस्तु आदि की देखभाल । जैसे—पुलिस ने घर की तलाश ली, तब बहुत सी चोरी की चीजें निकली । मुहा०—तलाशी देना = गुम या छिपाई हुई वस्तु को निकालने के लिये संदेह करनेवाले को अपना घर बार, कपड़ा लत्ता आदि ढूँढ़ने देना । तलाशी लेना = गुम या छिपाई वस्तु को निकालने के लिये ऐसे मनुष्य के घर बार आदि की देखभाल करना जिस पर उस वस्तु को छिपाने या गुम करने का संदेह हो ।
⋙ तलास †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तलाश] दे० 'तलाश' । उ०—तुलसी बिना तलास आस अंग ना संगी । हिंदू तुरक पै जबर लाग जम की जो जंगी ।—तुरसी श०, पृ० १४३ ।
⋙ तलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तोबड़ा । २. तंग [को०] ।
⋙ तलित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तडित्' [को०] ।
⋙ तलित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भना हुआ मांस [को०] ।
⋙ तलित (२)
वि० घी या चिकने के साथ भुना हुआ । तला हुआ । विशेष—यह शब्द संस्कृत नहीं जान पड़ता; संस्कृत ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं मिलता । केवल भावप्रकाश में भुने हुए मांस के लिये आया है ।
⋙ तलित (३)
वि० तल युक्त [को०] ।
⋙ तलिन
वि० [सं०] १. दुबला । क्षीण । दुर्बल । यौ०—तलिनोदरी = क्षीण कटिवाली स्त्री । २. विरल । छितराया हुआ । अलग अलग । ३. थोड़ा । कम । ४. साफ । स्वच्छ । शुद्ध । ५. नीचे या तल में स्थित (को०) । ६. आच्छादित । ढका हुआ (को०) ।
⋙ तलिन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शय्या । सेज । पलँग ।
⋙ तलिम
संज्ञा पुं० [सं०] १. छत । पाटन । २. शय्या । पलँग । ३. खड्ग । ४. चँदवा । ५. बड़ी छुरी या छुरा (को०) । ६. जमीन का पक्का फर्श (को०) ।
⋙ तलिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तल] समुद्र की थाह —(डिं०) ।
⋙ तलिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल] छोटा तालाब । उ०— मान- सरोवर की कथा बकुला का जानै । उनके चित्त तलिया बसै, कहौ कैसे मानै ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४ ।
⋙ तलियार पु
संज्ञा पुं० [देशी] कोतवाल । नगररक्षक ।
⋙ तली
संज्ञा स्त्री० [सं० तल] १. किसी वस्तु के नीचे की सतह ।पेंदी । २. तलछट । तलोंछ । †३. पैर की एड़ी । † ४. विवाह में वर वधू के आसन के निचे रखा हुआ रुपया पैसा ।
⋙ तलीचरैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल + चरैया (= चरनेवाला)] एक पक्षीविशेष । उ०— धोबइन, तलीचरैया, कौडे़नी, चंबा इत्यादि ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३० ।
⋙ तलुआ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तलवा' ।
⋙ तलुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तालू' ।
⋙ तलुन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । २. युवा पुरुष ।
⋙ तलुन (२)
वि० [वि० स्त्री० तलुनी] युवा । तरुण [को०] ।
⋙ तलुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] युवती । तरुणी [को०] ।
⋙ तले
क्रि० वि० [सं० तल] नीचे । ऊपर का उलटा । जैसे, पेड़ के तले । मुहा०—तले ऊपर = (१) एक के ऊपर दूसरा । जैसे,—किताबों को तले ऊपर रख दो । (२) नीचे की वस्तु ऊपर और ऊपर की वस्तु नीचे । उलट पलट किया हुआ । गड्ड मड्ड । जैसे,— सब कागज लगाकर रखे हुए थे; तुमने तले ऊपर कर दिए । तले ऊपर के = आगे पीछे के । ऐसे दो जिनमें से एक दूसरे के उपरांत हुआ हो । जैसे,— ये तले ऊपर के लड़के हैं । इसी से लड़ा करते हैं —(स्त्रियों का विश्वास है कि ऐसे लड़कों में नहीं बनती ।) । तले ऊपर होना = (१) उलट पुलट हो जाना । (२) संभोग में प्रवृत्त होना । जी तले ऊपर होना = (१) जी मचलना । (२) जी ऊबना । चित्त घबराना । तले की साँस तले और ऊपर की साँस ऊपर रह जाना = (१) ठक रह जाना । स्तब्ध रह जाना । कुछ कहते सुनते या करते धरते न बन पड़ना । (२) भौचक रह जाना । हक्का बक्का रह जाना । चकित रह जाना । तले की दुनिया ऊपर होना = (१) भारी उलट फेर हो जाना । (२) जो चाहे सो हो जाना । असंभव से असंभव बात हो जाना । जैसे,— चाहे तले की दुनिया ऊपर हो जाय, हम सब वहाँ न जायेँगे । (मादा चौपाए के) । तले बच्चा होना = साथ में थोडे़ दिनों का बच्चा होगा । जैसे,— इस गाय के तले एक बछड़ा है ।
⋙ तलेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] शूकर । सूअर ।
⋙ तलेटी
संज्ञा स्त्री० [सं० तल + हिं० एटी (प्रत्य०)] १. पेंदी । २. पहाड़ के नीचे की भूमि । तलहटी ।
⋙ तलेँउ
वि० [सं०] १. नीचे रहनेवाला । २. हीन । तुच्छा । गया गुजरा । ३. किसी द्वारा शासित ।
⋙ तलैचा
संज्ञा पुं० [हिं० तले] इमारत में मेहराब से ऊपर का और छत से नीचे का भाग ।
⋙ तलैटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तलहटी] दे० 'तलेटी' । उ०— एक गाँव का पहाड़ की तलेटी में तो दूसरा उसकी ढलवान पर ।—फूलो०, पृ० ७ ।
⋙ तलैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताल] छोटा ताल ।
⋙ तलोदर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तलोदरी] तोंदवाला [को०] ।
⋙ तलोदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री । भार्या ।
⋙ तलोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दरिया । नदी ।
⋙ तलौँछ
संज्ञा स्त्री० [सं० तल (= नीचे) + हिं० औंछ (प्रत्य०)] नीचे जमी हुई मैल आदि । तलछट ।
⋙ तलौबन
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह परिवर्तन जो मत, सिद्धांत एवं विचार में हो जाता है । २. रंग बदलता । ३. छिछोरा— * पन [को०] ।
⋙ तल्क
संज्ञा पुं० [सं०] वन ।
⋙ तल्ख
वि० [फ़ा० तल्ख] १. कडुआ । कटु । २. बदमजा । बुरे स्वाद का ।
⋙ तल्खी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तल्खी] कड़वाहट । कडुआपन ।
⋙ तल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. शय्या । पलंभ । सेज । २. अट्टालिका । अटारी । ३. (लाक्ष०) पत्नी । भार्या । जैसे, गुरुतल्पग (को०) ।
⋙ तल्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलंग । २. वह सेवक जो पलंग पर बिस्तर आदि लगाता है [को०] ।
⋙ तल्पकीट
संज्ञा पुं० [सं०] मत्कुण । खटमल ।
⋙ तल्पज
संज्ञा पुं० [सं०] क्षेत्रज पुत्र ।
⋙ तल्पन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का पीठ पर मांसपेशियाँ । २. हाथी की पीठ या उसका मांस [को०] ।
⋙ तल्बाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० तल्बानह्] गवाहों को तलब कराने का खर्च । दे० 'तलबाना' । उ०— स्टांप, तल्बाने वगैरे के हिसाब मैं लोगों का धोका दे दिया करता था ।—श्रिनिवास० ग्रं०, पृ० २१० ।
⋙ तल्पल
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का मेरुदंड, रीढ़ या पृष्ठवंश [को०] ।
⋙ तल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल । गड्ढा । २. ताल । पोखरा ।
⋙ तल्लह
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता ।
⋙ तल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तल १. तले की परत । अस्तर । भितल्ला । २. ढिंग । पास । सामीप्य । उ०— तियन को तल्ला पिय, तियन पियल्ला त्यागे ढौसत प्रबल्ला भल्ला धाए राजद्वार को ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ तल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० तल्प] मकान का मंजिल । जैसे, तीन तल्ला मकान ।
⋙ तल्लास पु †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तलाश] दे० 'तलाश' । उ०— फौज तल्लास कर हारी । आए जहाँ भूप बेजारी ।—तुरसी श०, पृ० ६५ ।
⋙ तल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ताली । कुंजी ।
⋙ तल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जूते का तला । २. नीचे की तलछट जो नाँद में बैठ जाती है ।
⋙ तल्ली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरुणी । युवती । २. नौका । नाव । ३. वरुण की पत्नी ।
⋙ तल्लीन
वि० [सं०] उसमें लीन । उसमें लग्न । दत्तचित्त [को०] ।
⋙ तल्लुआ
संज्ञा पुं० [देश०] गाढे़ की तरह का एक कपड़ा । महमूदी । तुकरी । सल्लम ।
⋙ तल्लो †
संज्ञा पुं० [सं० तल] जाँते के नाचे की पाट ।
⋙ तल्वकार †
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तलवकार' ।
⋙ तल्हार
संज्ञा स्त्री० [हिं०] तला । नीचे । उ०— जिता गंज है यो जमीं के तल्हार । तो यक बोल पर ते सटूँ उसकूँ वार ।— दक्खिनी०, पृ० १५२ ।
⋙ तवँचुर पु
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रचूर्ण, हिं० तमचुर] मुर्गा ।
⋙ तव
सर्व० [सं०] तुम्हारा ।
⋙ तवक
संज्ञा पुं० [सं०] धोखा । वंचना । प्रतारणा [को०] ।
⋙ तवक्का पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तवक्कअ] १. विश्वास । २. आशा । ३. प्रार्थना । उ०— नहिं तूँ मेरा संगो भया । तुलसी तवक्का ना किया ।—तुरसी श०, पृ० २४ ।
⋙ तवक्कु
संज्ञा पुं० [अ० तवक्कुअ] १. विलंब । देर । २. ढीलापन [को०] ।
⋙ तबक्षीर
संज्ञा पुं० [सं० फ़ा० तबाशीर] तवाशीर । तीखुर ।
⋙ तवक्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनकचूर जिसकी जड़ है एक प्रकार का तीखुर बनता है । अबीर इसी तीखुर कै बनता है ।
⋙ तवज्जह
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. ध्यान । रुख । क्रि० प्र०—करना ।—देना । २. कृपादृष्टि ।
⋙ तवन पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तपन] १. गर्मी । तपन । २. आग ।
⋙ तवन पु † (२)
सर्व [हिं० तौन] वह ।
⋙ तवन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'स्तवन' उ०— चिंत्त अनेकह बिधि विवर विल नंदिनी निकास । मंत्र रूप गंगा तवन लगे करन रिष तास ।—पृ० रा०, १ । १५४ ।
⋙ तवना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० तपन] १. तपना । गरम होना । २. ताप से पीड़ित होना । दुःख से पीड़ित होना । उ०— (क) काल के प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४२ । (ख) जबते न्हान गई तई ताप भई बेहाल । भली करी या नारि की नारी देखी लाल ।—शृं० सत० (शब्द०) । ३. प्रताप फैलाना । तेज पसारना । उ०— छतर गगन लग ताकर सूर तवइ जस आप ।—जायसी (शब्द०) । ४. क्रोध से जलना । गुस्से से लाल होना । कुढ़ जाना । उ०— (क) भरत प्रसंग ज्यों कालिका लहू देखि तन में तई ।—नाभावास (शब्द०) । (ख) महादेव बैठे रहि गए । दक्ष देखि के तेहि दुख तए ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तबना पु (२)
क्रि० स० [सं० तापन] दे० 'तपाचा' ।
⋙ तवना पु (३)
क्रि० अ० [स्तवन] स्तुति करना ।
⋙ तवना † (४)
संज्ञा पुं० [हिं० तवा] हलका तवा ।
⋙ तवना पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ताना (= ढकना, मूँदना)] ढक्कन । मूँदने का साधन जो छेद या किसी वस्तु के मुँह को बंद करे ।
⋙ तवर पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तल' । उ०— अवनी के तवरे अगनिज अवरे मंजा कँवरे विच मवरे । सिरियादे सिवरे हरि हित हिवरे न्याही निवरे जो जिवरे ।—राम० धर्म०, पृ० १७६ ।
⋙ तवर (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' ।
⋙ तवरक
संज्ञा पुं० [सं० तुवर] एक पेड़ जो समुद्र और नदियों के तट पर होता है । विशेष—इसमें इमली के ऐसे फल लगते हैं जिन्हें खाने से चौपायों का दूध चढ़ता है ।
⋙ तवरना
क्रि० स० [?] कहना । उ०— वदन एक सहस दुय सहस रसना वणो । तिको फणपत्ती गुण थकैं तवरी ।—रघु० रू०, पृ० ५७ ।
⋙ तवराज
संज्ञा पुं० [सं०] तुरंजबीन । थवास शर्करा ।
⋙ तवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] त और न के मध्य के समस्त अक्षर समूह ।
⋙ तवल
संज्ञा पुं० [अ० तब्ल] तबल । उ०— तवल शत वाज कत भेरि भरे फुक्किया ।—कीर्ति०, पृ० ६६ ।
⋙ तवलची पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तबलची' ।—कीर्ति०, पृ० ६६ ।
⋙ तवल्ल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तबला' ।
⋙ तवल्लह
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तवल' । उ०— धरै इक एक अनेक सुआन । झलक्कत मुंड तवल्लह मान ।—पृ० रा०, ९ । ९९ ।
⋙ तवस्सल
संज्ञा पुं० [अ० तवस्सुल] सहायता । उ०— सोलह वंश के हुक्म जारी करें । जो सतगुरु तवस्सल तयारी करें ।— कबीर मं०, पृ० १३१ ।
⋙ तवस्सुत
संज्ञा पुं० [अ०] मध्यस्थता । बीच में पड़ने का कार्य । उ०— आपके तवस्सुत की मार्फत मेरी ५०० जिल्दों में से भी कुछ निकल जाय तो क्या कहना ।—प्रेम० और गोर्की, पृ० ५८ ।
⋙ तवा
संज्ञा पुं० [हिं० तवना (= जलना)] १. लोहे का एक छिछला गोल बरतन जिसपर रोटी सेंकते हैं । क्रि० प्र०—चढ़ाना । मुहा०— तवा सा मुँह = कालिख लगे हुए तवे की तरह काला मुँह । तवा सिर से बाँधना = सिर पर प्रहर सहने के लिये तैयार होना । अपने को खूब दृढ़ और सुरक्षित करना । तवे का हँसना = तवे के नीचे जमी हुई कालिख का बहुत जलते जलते लाल हो जाना जिससे घर में विवाद होने का कुशकुन समझा जाता है । तवे की बूँद = (१) क्षणस्थायी । देर तक न टिकानेवाला । नश्वर । (२) जो कुछ भी न मालूम हो । जिससे कुछ भी तृप्ति न हो । जैसे,— इतने से उसका क्या होता है, इसे तवे की बूँद समझो । २. मिट्टी या खपडे़ का गोल ठिकरा जिसे चिलम पर रखकर तमाखू पीते हैं । ३. एक प्रकार की लाल मिट्टी जो हींग में मेल देने के काम में आती है । ३. तवे के आकार का साधन जो युद्ध में बचाने के विचार से छाती पर रहता था ।
⋙ तवाई पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तबाही' । उ०— दुश्मन देख के तवाई धरंना । खुदा मिल के बाद खाना ।—दक्खिनी०, पृ० ६५ ।
⋙ तवाई पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताप] ताप ।
⋙ तवाखीर
संज्ञा पुं० [सं० त्वक्क्षीर] वंशरोचन । बँसलोचन ।
⋙ तवाजा
संज्ञा स्त्री० [अ० तवाजहु] १. आदर । मान । आवभगत । २. मेहमानदारी । दावत । ज्याफत । क्रि० प्र—करना ।—होना ।
⋙ तवाना (१)
वि० [फा़०] बली । मोटा ताजा । मुस्टंडा ।
⋙ तवाना (२)
क्रि० स० [सं० तापव, हिं० ताना] तप्त करना । गरम कराना ।
⋙ तवाना † (३)
क्रि० स० [हिं० ताना] ढक्कन को चिपकाकर बरतन का मुँह बंद करना ।
⋙ तवाना † (४)
क्रि० अ० [हिं० ताव से चामिक धातु] ताव या आवेश में आना ।
⋙ तवायफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तवायफ़] वेश्या । रंडी । विशेष—यद्यपि यह शब्द तायफह् का बहु० है, पर हिंदी में एकवचन बोला जाता है । कहीं कहीं तायफा भी बोला जाता है ।
⋙ तवारा
संज्ञा पुं० [सं० ताप, हिं० ताव + रा (प्रत्य०)] जलन । दाह । ताप । उ०— तवते इन सबहिन सचुपायो । जबतें हरि संदेश तुम्हारी सुनत तवारो आयो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तवारीख
संज्ञा स्त्री० [अ० तवारीख] इतिहास । विशेष— यह 'तारीख' शब्द का बहुवचन है ।
⋙ तवारीखी
वि० [अ० तवारीख + फा़० ई (प्रत्य०)] ऐतिहा- सिक [को०] ।
⋙ तवालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लंबाई । दीर्घत्व । २. आधिक्य । अधिकता । अधिकाई । ज्यादती । ३. बखेड़ा । तूल तवील । झंझट ।
⋙ तविष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । २. समुद्र । ३. व्यवसाय । ४. शक्ति ।
⋙ तविष (२)
वि० १. वृद्ध । महत् । २. बलवान । दृढ़ । बली । ३. पूज्य (को०) ।
⋙ तविषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्थी । २. नदी । ३. शक्ति । ४. इंद्र की एक कन्या का नाम [को०] ।
⋙ तविष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] शक्ति । बल । तेज [को०] ।
⋙ तवी
संज्ञा स्त्री० [हिं०तवा] १. छोटा तवा । २. पतले किनारेवाली लोहे की थाली । ३. कश्मीर की एक नदी ।
⋙ तवीयन पु
संज्ञा पुं० [अ० तवीब] वैद्य । चिकित्सक ।
⋙ तवीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । २. समुद्र । ३. सोना [को०] ।
⋙ तवेला
संज्ञा पुं० [हिं० तबेला] दे० 'तबेला' ।
⋙ तवै पु
अव्य० [हिं०] दे० 'तब' । उ०— तवै बाजि तैं सेख भू पै जु आयो । कछु वस्त्र ही अंग ताको उढ़ायो ।—हम्मीर०, पृ० ३८ ।
⋙ तशखींश
संज्ञा स्त्री० [अ० तश्खीस] १. ठहराव । निश्चय । २. मर्ज की पहचान । रोग का निदान । ३. लगान निर्धारित करने की क्रिया या स्थिति (को०) ।
⋙ तशद्दुद
संज्ञा पुं० [अ०] १. आक्रमण । २. कठोर व्यवहार । ज्यादती । सख्ती [को०] ।
⋙ तशफ्फी
संज्ञा स्त्री० [अ० तशफ्फी] १. ढाढस । सात्वंना । उ०— * ऐसे कठकों को प्रेमचंद से पूरी तशफ्फी हासिल होती है ।— प्रेम० और गोर्की, पृ० २१७ । २. रोगमुक्ती (को०) ।
⋙ तशरीफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तशरीफ़] बुजुर्गी । इज्जत । महत्व । बड़प्पन । मुहा०—तशरीफ करना = बिराजना । बैठना (आदरार्थक) । तशरीफ लाना = पदार्पण करना । आना (आदरार्थक) । तशरीफ ले जाना = प्रस्थान करना । चला जाना ।
⋙ तश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. थाली के आकार का हलका छिछला बरतन । २. परात । लगन । ३. ताँबे का वह बड़ा बरतन जो पाखानों में रखा जाता है । गमला ।
⋙ तश्तरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] थाली के आकार का हलका छिछला बरतन । रिकाबी ।
⋙ तश्वीश
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. चिंता । फिक्र । २. भय । डर । त्रास । उ०— किसी किस्म के तरददुद और तश्वीश की गुंजाइश नहीं है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३५ ।
⋙ तषति पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त] दे० 'तख्त' । उ०— तषति निवास की आ मनि भाई ।—प्राण०, पृ० ५३ ।
⋙ तषते
संज्ञा पुं० [अ० तख्त] दे० 'किवाड़' । उ०— सुरति बारी के तषते खोले । तब नामक बिनसे सगले ओले ।—प्राण०, पृ० ३७ ।
⋙ तष्ट
वि० [सं०] १. छीला हुआ । २. कुटा हुआ । पीसकर दो दलों में किया हुआ । ३. पीटा हुआ ।
⋙ तष्टा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छीलनेवाला । २. छील छालकर गढ़नेवाला । ३. विश्वकर्मा । ४. एक आदित्य का नाम ।
⋙ तष्टा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० तश्त] ताँबे की एक प्रकार की छोटी तश्तरी जिसका व्ववहार ठाकुर पूजन के समय मूर्तियों को नहलाने के लिये होता है ।
⋙ तष्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तष्टा' (२) । एक प्रकार का बरतन । धातुपात्र । उ०— पुनि चरवा चरई तष्टी तबला झारी लोटा गावहिं ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ७४ ।
⋙ तष्षना पु
क्रि० स० [हिं० ताकना] ताकना । देखना । उ०— प्रथिराज राज राजंग गुर तष्षि तरक्कस तष्षियौ ।—पृ० रा०, १२ ।५४ ।
⋙ तष्षि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तक्षिणी] नागिन । सर्पिणी । उ०— नयन सुकज्जल रेष, तष्षि तिष्षन छवि कारिय । श्रवनन सहज कटाछ, चित्त कर्षन नर नारिय ।—पृ० रा, १४, १५९ ।
⋙ तस पु † (१)
वि० [सं० तादृश, प्रा० तारिस, पुहिं, तइस] तैसा । वैसा । उ०— किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात । तस मगु भयेउ न राम कहँ जस भा भरतहिं जात ।—मानस, २ । २१५ ।
⋙ तस पु † (२)
क्रि० वि० तैसा । वैसा । उ०— तस मति फिरी रही जस भागी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तस पु (३)
सर्व [सं० तत, तस्य] उसका । तत् शब्द का संबंधकारक एकवचन । उ०— इंद्रा वाहण नासिका, तासुतणइ डणिहार । तस भख हुवइ प्राहणउ, तिणि सिरगार उतार ।—ढोला०, दू० ५८० ।
⋙ तसकर
संज्ञा पुं० [सं० तस्कर] दे० 'तस्कर' । उ०— संग तेहिं बहुरंग तसकर, बड़ा अजुगति कीन्ह ।—जग० बानी, पृ० ४५ ।
⋙ तसकीन
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्की़न] तसल्ली । ढारस । दिलासा ।
⋙ तसगर
संज्ञा पुं० [देश०] जुलाहों के ताने में नौलक्खी के पास की दो लकड़ियों में से एक ।
⋙ तसगीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्गीर] १. संक्षेप करना । २. संक्षेप करने की क्रिया या भाव [को०] ।
⋙ तसदीक
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्दीक] १. सचाई । २. सचाई की परीक्षा या निश्चय । समर्थन । प्रमाणों के द्वारा पुष्टि । ३. साक्ष्य । गवाही । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तसदीह पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्दीअ] १. दर्द सर । २. तकलीफ । दुःख । क्लेश । उ०— नहिं चून घीव सबील ही तसदीह सब ही की सही ।—सूदन (शब्द०) । ३. परेशानी । झंझट (को०) ।
⋙ तसद्दुक
संज्ञा पुं० [अ० तसद्दुक] १. निछावर । सदका । २. बलिप्रदान । कुरबानी ।
⋙ तसनीफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्नीफ़] ग्रंथ की रचना ।
⋙ तसबी
सं० स्त्री० [अ० तस्वीर] दे० 'तसबीह' । उ०— फेरै न तसबी जपै न माला ।—पलटू०, पृ० ६१ ।
⋙ तसवीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्वीह] दे० 'तसवीर' । उ०— लिखे- चितेरे चित्र मैं पिय विचित्र तसबीर । दरसत दृग परसत हियै परसत तिय धर धीर ।—स० सप्तक, पृ० ३६७ ।
⋙ तसबीरगर
संज्ञा पुं० [अ० तस्वीर + फ़ा० गर (प्रत्य०)] चित्रकार । उ०— डीठि मिचि जात मिचि इचत ना ऐंची खैंची खिंचत न तसबीर तसबीरगर पै ।—पजनेस०, पृ० ७ ।
⋙ तसबीह
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्बीह] सुमिरिनी । माला । जपमाला । (मुसल०) । उ०— मन मनि के तहँ तसबी फेरइ । तब साहब के वह मन भेवइ ।—दादू (शब्द०) । मुहा०—तसबीह फेरना = ईश्वर का नामस्मरण या उच्चारण करते हुए माला फेरना ।
⋙ तसमा
संज्ञा पुं० [फ़ा० तस्मह्] १. चमडे़ की कुछ चौड़ी डोरी के आकार की लंबी धज्जी जो किसी वस्तु को बाँधने या कसने के काम में आवे । चमडे़ का चौड़ा फीता । मुहा०—तसमा खींचना = एक विशेष रूप से गले में फंदा डालकर मारना । गला घोटना । तसमा लगा न रखना = गरदन साफ उड़ा देना । साफ दो टुकडे़ करना । २. जूते का फीता (को०) । ३. चमडे़ का कोड़ा या दुर्रा (को०) ।
⋙ तसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुलाहों की ढरकी । २. एक प्रकार का घटिया रेशम । वि० दे० 'टसर' ।
⋙ तसरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुनाई [को०] ।
⋙ तसला
संज्ञा पुं० [फ़ा० तश्त + ला (प्रत्य०)] कटोरे के आकार का पर उससे बड़ा गहरा बरतन जो लोहे, पीतल, ताँबे आदि का बनता है ।
⋙ तसली
संज्ञा स्त्री० [हिं० तसला] छोटा तसला ।
⋙ तसलीम
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्लीम] १. सलाम । प्रमाण । २. किसी बात की स्वीकृति । हामी । जैसे,—गलती तसलीम करना । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—पाना ।—होना ।
⋙ तसल्ली
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. ढारस । सांत्वना । आश्वासन । २. व्यग्रता की निवृत्ति । व्याकुलता की शांति । धैर्य । धीरज । ३. संतोष । सब्र । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—पाना ।—होना । मुहा०—तसल्ली दिलाना = धीरज या संतोष देना । धैर्य धारण करना ।
⋙ तसवीर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्वीर] १. वस्तुओं की आकृति जो रंग आदि के द्वारा कागज, पटरी आदि पर बनी हो । चित्र । क्रि० प्र०—खींचना ।—बनाना ।—लिखना । मुहा०—तसवीर उतारना = चित्र बनाना । तसवीर निकालना = चित्र बनाना । २. किसी घटना का यथातथ्य विवरण ।
⋙ तसवीर (२)
वि० चित्र या सुंदर । मनोहर ।
⋙ तसवीस पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तश्वीश] १. चिंता । सोच । फिक्र । २. भय । डर । त्रास । ३. व्याकुलता । घबराहट । उ०— ना तसवीस खिराज न माल खौफ न खजा न तरस जवाल ।—संत रै०, पृ० ११० ।
⋙ तसव्वुर
संज्ञा पुं० [अ०] कल्पना । उ०—तसव्वुर से तेरे रुख के गई है नींद आँखों से । मुकाबिल जिस,के हो खुरशीद क्यों कर उसको ख्वाब आवे ।—कविता कौ०, भाग ४, पृ० २६ ।
⋙ तसांना
क्रि० स० [हिं० त्रासना] त्रस्त करना । डराना । उ०— हाय दई घनआनँद ह्वै करि कौ लों वियोग के ताप तसायहो ।—घनानंद, पृ० ९६ ।
⋙ तसि पु † (१)
वि० [हिं० तस] वैसी । उस प्रकार की ।
⋙ तसि पु † (२)
कि० वि० [हिं० तस] तैसी । वैसी । उ०—(क) जनु भादौं निसि दामिनी दीसी । चमकि उठी तसि भीन बतीसी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९१ । (ख) तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी । रहसी चेरि घात जनु फाबी ।—मानस, २ । १७ ।
⋙ तसिल्दार †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तहसिलदार' । उ०—बड़ी बड़ी मूली पठवायो तसिल्दार तब —प्रेमघन०, भाग २, पृ० ४१६ ।
⋙ तसी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] तीन बार जोता हुआ खेत ।
⋙ तसील †
संज्ञा स्त्री० [अ० तहसील] १. तहसील । २. वसूली । प्राप्ति ।
⋙ तसीलना
क्रि० स० [अ० तहसील, हिं० तसील से नामिक धातु] वसूल करना । पाना । उ०—बंक तसीलत कितौ, महाजन कितौं कोइ अब ।—प्रमघन०, भाग १, पृ० ५४ ।
⋙ तसू
संज्ञा पुं० [सं० त्रि + शूक = जौ की तरह का एक कदन्न] लंबाई की एक माप । इमारती गज का २४ वाँ अंश जो १ १/४ इंच के लगभग होता है ।
⋙ तस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर । २. श्रवण । कान । ३. मैनफल । मदन वृक्ष । ४. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार के केतु जो लंबे और सफेद होते हैं । ये ५१ हैं और बुध के पुत्र माने जाते हैं । ५. चोर नामक गंधद्रव्य । ६. कान (को०) ।
⋙ तस्करता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चोर का काम । चोरी । २. श्रवण । सुनना (को०) ।
⋙ तस्करवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] चोर । पाकेटमार [को०] ।
⋙ तस्करस्नायु
संज्ञा पुं० [सं०] काकनासा लता । कीवा ठोंठी ।
⋙ तस्करी
संज्ञा स्त्री० [सं० तस्कर] १. चोर का काम । चोरी । २. चोर की स्त्री । ३. वह स्त्री जो चोर हो । ४. उग्र स्वभाव की स्त्री (को०) ।
⋙ तस्कीन
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'तसकीन' । उ०—फिराके यार में होने से क्या तस्कीन होती है ।—प्रेमघन०, भाग १, पृ० १६७ ।
⋙ तस्थु
वि० [सं०] एक ही स्थान पर रहनेवाला । स्थावर । अचल ।
⋙ तस्नीफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्नीफ] १. पुस्तक लेखन । किताब बनाना । २. लिखित पुस्तक । बनाई हुई कविता । ३. मनगढ़ंत या कपोलकल्पित बात [को०] ।
⋙ तस्फिया
संज्ञा पुं० [अ० तस्फ़ियह्] १. आपस का निपटारा या समझोता । २. निर्णय । फैसला । ३. शुद्ध करना । साफ करवना । शुद्धि । सफाई । ४. दिलों की सपाई । मेल [को०] । यौ०—तस्फिया तलब = वे बातों जिनकी सफाई होनी आवश्यक हैं । तस्फियानामा = वह कागज जिसमें आपस के तस्फिए की लिखापढ़ी हो ।
⋙ तस्मा
संज्ञा पुं० [फा़० तस्मह्] १. चमडे़ की कम चौड़ी और लंबी पट्टी । २. जूते का फीता । ३. चमडे़ का कोड़ा या दुर्रा [को०] । यौ०—तस्मापा = जिसका पाँव तस्मे से बँधा हो । तस्माबाज = (१) धूर्त । वंचक । मक्कार । छली । (२) द्यूतकार । जुआरी । तस्माबाजी = (१) छल । कपट । (२) एक प्रकार का जुआ ।
⋙ तस्मात्
अव्य० [सं०] इसलिये ।
⋙ तस्य
सर्व० [सं०] उसका ।
⋙ तस्लीम
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सलाम करना । प्रमाण करना । २. स्वीकार करना । कबूल करना । ३. सौंपना । सिपुर्द करना । ४. आज्ञा का पालन करना [को०] ।
⋙ तस्वीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. चित्र । प्रतिकृति । २. चित्र बनाना । मूर्ति बनाना । ३. बहुत ही सुंदर शक्ल । ४. प्रतिमा । मूर्ति । यौ०—तस्वीरकशी = चित्रण । चित्रकर्म । तस्वीरखाना = (१) वह स्थान जो चित्रों के लिये हो या जहाँ चित्र बनाए गए हों । चित्रशाला । (२) वह स्थान जहाँ बहुत सी सुंदर स्त्रियाँ हों । परीखाना । तस्वीरे अक्सी = छायाचित्र । फोटो । तस्वींरे खयाली = चित या खयाल में आई हुई आकृति । काल्पनिक चित्र । तस्वीरे गिली = मिट्टी की मूर्ति । तस्वीरे नीम रूख = एक तरफा से लिखा हुआ चित्र जिसमें मुख का एक ही रूख आए ।
⋙ तस्सबीर पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तस्बीह] दे० 'तसबीह' । उ०—अँधे साहि गोरी बही तस्सबीरं । दई राज न्योंतें सरीर ।—पृ० रा०, २१ । ११८ ।
⋙ तस्सू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तसू' ।
⋙ तहँ †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तहाँ' । यौ०—तहँ तहँ = वहाँ वहाँ । उस उस स्थान पर । उ०—जँह जँह आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ।— मानस, १ । ३३३ ।
⋙ तहँवाँ †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तहाँ' ।
⋙ तह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. किसी वस्तु की मोटाई का फैलाव जो किसी दूसरी वस्तु के ऊपर हो । परत । जैसे, कपडे़ की तह, मलाई की तह, मिट्टी की तह, चट्टान की तह । उ०—(क) इसपर अभी मिट्टी की कई तहें चढ़ेंगी (शब्द०) । (ख) इस कपडे़ को चार पाँच तहों में लपेटकर रख दो (शब्द०) । क्रि० प्र०—चढना ।—चढ़ाना ।—जमना ।—जमाना ।-लगाना । यौ०—तहदार = जिसमें कई परत हों । तह ब तंह = एक के नीचे एक । परत पर परत । मुहा०—तह करना = किसी फैली हुई (चद्दर आदि के आकार की) वस्तु के भागों को कई ओर से मोड़ और एक दूसरे के ऊपर फैलाकर उस वस्तु को समेटना । चौपरत करना । तह कर रखो = लिए रहो । मत निकालो या दो । नहीं चाहिए । तह जमाना या बैठाना = (१) परत के उपर परत दबाना । (२) भोजन पर भोजन किए जाना । तह तोड़ना = (१) झगड़ा निबटाना । समाप्ति को पहुँचाना । कुछ बाकी न रखना । निबटना । (२) कुएँ का सब पानी निकाल देना जिसमें जमीन दिखाई देने लगे । (किसी चीज की) तह देना = (१) हलकी परत चढ़ाना । थोड़ी मोटाई में फैलना या बिछाना । (२) हलका रंग चढ़ाना । (३) अतर बनाने में जमीन देना । आधार देना । जैसे,—चंदन की तह देना । तह मिलना = जोड़ा लगाना । नर और मादा एक साथ करना । तह लगाना = चौपरत करके समेटना । २. किसी वस्तु के नीचे का विस्तार । तल । पेंदा । जैसे, इस गिलास में धुखी दवा तह में जाकर जम गई है । मुहा०—तह का सच्चा = वह कबूतर जो बराबर अपने छत्ते पर चला आवे, अपना स्थान न भूले । तह की बात = छिपी हुई बात । गुप्त रहस्य । गहरी बात । (किसी बात की) तह को पहुँचना = दे० 'तह तक पहुँचना' । (किसी बात की) तह तक पहुँचना = किसी बात के गुप्त अभिप्राय का पता पाना । यतार्थ रहस्य जान लेना । असली बात समझ जाना । ३. पानी के नीचे की जमीन । तल । थाह । ४. महीन पटल । वरक । झिल्ली ।
⋙ क्रि० प्र०—उचड़ना ।
⋙ तहकीक
संज्ञा स्त्री० [अ० तहकी़क़] १. सत्य । यथार्थता । २. सचाई की जाँच । यर्थाथ बात का अन्वेषण । खोज । अनुसंधान । २. जिज्ञासा । पूछताछ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तहकीकात
संज्ञा स्त्री० [अ० तहकी़का़त, तहकी़क़ का बहु व०] किसी विषय या घटना की ठीक ठीक बातों की कोज । अनुसंधान । अन्वेषण । जाँच । जैसे, किसी मामले की तहकीकात, किसी इल्म की तहकीकात । मुहा०—तहकीकात आना = किसी घटना या मामले के संबंध में पुलिस के अफसर का पता लगाने के लिये आना ।
⋙ तहखाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० तहकानहू] वह कोठरी या घर जो मजीन के नीचे बना हो । भुइँहरा । तलगृह । विशेष—ऐसे घरों या कोठरियों में लोग धूप की गरमी से बचने के लिये जा रहते या धन रखते हैं ।
⋙ तहजर्द
वि० [फ़ा० तहजर्द] दे० 'तहदरज' [को०] ।
⋙ तहजीब
संज्ञा स्त्री० [अ० तहजीब] शिष्ट व्यवहार । शिष्टता । सभ्यता ।
⋙ तहदरज
वि० [फ़ा० तहदर्ज] (कपड़ा आदि) जिसकी तह तक न खोली गई हो । बिलकुल नया । ज्यों का त्यों नया रखा हुआ ।
⋙ तहनशीँ
वि० [फ़ा०] तरल पदार्थ में नीचे बैठनेवाली (वस्तु) ।
⋙ तहनिशाँ
संज्ञा पुं० [फ़ा०] लोहे पर सोने चाँदी की पच्चीकारी ।
⋙ तहपेच
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पगड़ी के नीचे का कपड़ा ।
⋙ तहपोशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] साड़ी के नीचे पहनने का पाजामा [को०] ।
⋙ तहबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] लुंगी [को०] ।
⋙ तहबाजारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तहबाजारी] वह महसूल जो सट्टी में सौदा बेचनेवालों से जमींदार लेता है । झरी ।
⋙ तहमत
संज्ञा पुं० [फ़ा० तहबंद या तहमद] कमर में लपेटा हुआ कपड़ा । अँगोछा । लुंगी । अँचला । क्रि० प्र०—बाँधना ।—लगाना ।
⋙ तहम्मुल
संज्ञा पुं० [अं०] १. सहिष्णुता । सहनशीलता । २. गंभी- रता । संजीदगी । ३. धैर्य । सब्र । ४. नम्रता । नर्मी [को०] ।
⋙ तहरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ततहँड़ा' ।
⋙ तहरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पेठे की बरी और चावल की खिचड़ी । २. मटर की खिचड़ी । ३. कालीन बुननेवालों की ढरकी ।
⋙ तहरीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लिखावठ । लेख । २. लेखशैली । जैसे,— उनकी तहरीर बड़ी जबरदस्त होती है । ३. लिखी हुई बात । लिखा हुआ मजमून । ४. लिखा हुआ प्रमाणपत्र । लेखबद्ध प्रमाण । ५. लिखने की उजरत । लिखाई । लिखने का मिहन- ताना । जैसे,—इसमें (१) तहरीर लगेगी । ६. गेरू की कच्ची छपाई जो कपड़ों पर होता है । कट्टर की डटाई । (छीपी) ।
⋙ तहरीरी
वि० [फ़ा०] लिखा हुआ । लिखित । लेखबद्ध । जैसे, तह- रीरी सबूत, तहरीरी बयान ।
⋙ तहलका
संज्ञा पुं० [अ० तह् लकह्] १. मौत । मृत्यु । २. बरबादी । ३. खलबली । धूम । हलचल । विप्लव । क्रि० प्र०—पडना ।—मचना । ४. कोलाहल । कोहराम (को०) ।
⋙ तहलील
संज्ञा स्त्री० [अ० तह् लील] १. पचना । हजम होना । २. घुलना । मिलना (को०) । उ०—जो खाना तहलील करने और हरारत मिटाने को लेटे ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० १५९ । यौ०—तहवाँ जहवाँ ।
⋙ तहवाँ
अव्य० [हिं० तहँ + वाँ (प्रत्य०)] वहाँ । उ०—(क) वंधु समेत अए प्रभु तहवाँ ।—मानस, ३ । २४ । (ख) जाएस नगर धरम अस्थानू । तहवाँ यह कबि कीन्ह बखानू ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३४ ।
⋙ तहबील
संज्ञा स्त्री० [अ० तहबील] १. सुपुर्दमी । २. अमानत । धरोहर । ३. किसी मद की आमदानी का रुपया जो किसी के पास जमा हो । खजाना । जमा । रोकड़ । ४. फिरना (को०) । ५. फिराना (को०) । ६. प्रवेश करना । दाखिल होना (को०) । ७. किसी ग्रह का किसी राशि में प्रवेश (को०) । यौ०—तहवीलदार । तहवीले आफ्ताब = सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश । संक्रांति ।
⋙ तहवीलदार
संज्ञा पुं० [अ० तह् वील + फ़ा० दार (प्रत्य०)] वह आदमी जिसके पास किसी मद की आमदानी का रुपया जमा होता हो । खजानची । रोकड़िया ।
⋙ तहशिया
संज्ञा पुं० [अ० तह् शियह] किसी पुस्तक आदि पर पार्श्व में टिप्पणी लिखना [को०] ।
⋙ तहस नहस
वि० [देश०] विनष्ट । बरबाद । नष्ट भ्रष्ट । ध्वस्त । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तहसीन
संज्ञा स्त्री० [अ० तह् सीन] प्रशंसा । तारीफ । श्लाघा । उ०—वहाँ कदरदानी और तहसीन, इससे मेरा काम न चला ।—प्रेम० और गोर्की, पृ० ५९ ।
⋙ तहसील
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बहुत से आदमियों से रुपया पैसा वसूल करके इकट्ठा करने की क्रिया । वसूली । उगाही । जैसे,— पोत तहसील करना । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. वह आमदनी जो लगान वसूल करने से इकट्ठी हो । जमीन की सालाना आमदनी । जैसे,—इनकी पचास हजार कौ तहसील है । ३. वह दफ्तर या कचहरी जहाँ जमींदार सरकारी मालगुजारी जमा करतो हैं । तहसीलदार की कचहरी । माल की छोटी कचहरी ।
⋙ तहसीलदार
संज्ञा पुं० [अ० तहसील + फ़ा० दार (प्रत्य०)] १. कर वसूल करनेवाला । २. वह अफसर जो किसानों से सरकारी मालगुजारी वसूल करता है और माल के छोटे मुकदमों का फैसला करता है ।
⋙ तहसीलदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तहसील + फ़ा० दार + ई] १. करया महसूल वसूल करने का काम । मालगुजारी वसूल करने का काम । तहसीलदार का काम । २. तहसीलदार का पद । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ तहसीलना
क्रि० स० [अ० तहसील से नामिक धातु] उगाहना । वसूल करना (कर, लगाना, मालगुजारी, चंदा आदि) ।
⋙ तहाँ
क्रि० वि० [सं० तत् + स्थान, प्रा० थाण, थान] वहाँ । उस स्थान पर । उ०—तहाँ जाइ देखी बन सोभा ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—लेख में अब इसका प्रयोग उठ गया है; केवल 'जहाँ का तहाँ' ऐसे दो एक वाक्यों में रह गया है ।
⋙ तहाना
क्रि० स० [फ़ा० तह से नामिक धातु] तह करना । घरी करना । लपेटना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।
⋙ तहिआ
क्रि० वि० [हिं०] तब । उस समय । उ०—भुष बल विस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं विष्णु मनुष तनु तहिआ ।—मानस, १ । १३९ ।
⋙ तहियाँ †
क्रि० वि० [सं० तदाहि] तब । उस समय । उ०—कह कबीर कछु अछिलो न जहियाँ । हरि बिरवा प्रतिपालेसि तहियाँ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ तहियाना
क्रि० स० [फ़ा० तह] तह लगाकर लपेटना ।
⋙ तहीं †
क्रि० वि० [हिं० तहाँ] वहीं । उसी जगह । उसी स्थान पर । उ०—दुख सुखु जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं ।—मानस, १ । १७ ।
⋙ तहू पु
क्रि० वि० [सं० तदपि] तब भी । उ०—खंड ब्रह्मांड सूखा पडै, तहू न निष्फल जाय ।—कबीर सा०, पृ० ७ ।
⋙ तहोबाला
वि० [फ़ा०] नीचे ऊपर । ऊपर का यीचे, नीचे का ऊपर । उलट पलट । क्रमभग्न । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तहौं पु †
क्रि० वि० [हिं० तहाँ + ओं (प्रत्य०)] तहाँ भी । उ०— तहों प्रतीपहि कहत हैं कबि कोविद सब कोय ।—मति० ग्रं०, पृ० ३७२ ।
⋙ तांडव
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डव] १. पुरुषों का नृत्य । विशेष—पुरुषों के नृत्य को तांडव और स्त्रियों के नृत्य को लास्य कहतो हैं । तांडव नृत्य शिव को अत्यंत प्रिय है । इसी से कोई तंडु अर्थात नंदी को इस नृत्य का प्रवर्तक मानते हैं । किसी किसी के अनुसार तांडव नामक ऋषि ने पहले पहल इसकी शिक्षा दी, इसी से इसका नाम तांडव हुआ । २. वह नाच जिसमें बहुत उछल कूद हो । उद्धत नृत्य । ३. शिव का नाम । ४. एक तृण का नाम ।
⋙ तांडवतालिक
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डवतालिक] नंदीश्वर [को०] ।
⋙ तांडवप्रिय
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डवप्रिय] शंकर [को०] ।
⋙ तांडवित
वि० [सं० ताण्डवित] १. नृत्यशील । २. तांडव नृत्य में गोलाई में घूमता हुआ । ३. चक्कर खाता हुआ । ४. क्रुद्ध [को०] ।
⋙ तांडवी
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डवी] संगीत के चौदह तालों में से एक ।
⋙ तांडि
संज्ञा पुं० [सं० तण्डि] तंडि मुनि का निकला हुआ नृत्य शास्त्र ।
⋙ तांडी
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डिन्] १. सामवेद की तांडय शाखा का अध्ययन करनेवाला । २. यजुर्वेद का एक कल्पसूत्रकांर ।
⋙ तांडय
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डय] १. तंडि मुनि के वंशज । २. सामवेद के एक ब्रह्मण का नाम ।
⋙ तांत
वि० [सं० तान्त] १. श्रांत । थका हुआ । २. जिसके अंत में त् हो । ३. मुरझाया हुआ । (को०) । ४. कष्टमय (को०) ।
⋙ तांतव (१)
वि० [सं० तान्तव] [वि० स्त्री० तांतवी] जिसमें तंतु या तार हो । जिसमें से तार निकल सके ।
⋙ तांतव (२)
संज्ञा पुं० १. बुनना । २. बुना हुआ कपड़ा । ३. जाल । ४. सूत कातना । [को०] ।
⋙ तांतुवायि, तांतुवाय्य
स्त्री० पुं० [सं० तान्तवायि, तान्तुवाय्य] तंतुवाय या बुनकर का पुत्र [को०] ।
⋙ तांत्रिक (१)
वि० [सं० तान्त्रिक] [स्त्री० तान्त्रिकी] तंत्र संबंधी ।
⋙ तांत्रिक (२)
संज्ञा पुं० १. तंत्र शास्त्र का जानेवाला । यंत्र मंत्र आदि करनेवाला । मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के प्रयोग करनेवाला । २. एक प्रकार का सन्निपात ।
⋙ तांबूल
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] १. पान । नागवल्ली दल । २. पान का बीड़ा । ३. किसी प्रकार का सुंगधित द्रव्य जो भोजनोतर खाया जाय (जैन) । ४. सुपारी ।
⋙ तांबूलकरंक
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलकरङ्क] १. पान रखने का बरतन । बट्टा । बिलरहरा । २. पान के बीडे़ रखने का डिब्बा । पनडिब्बा ।
⋙ तांबूलद
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलद] पान रखने और तैयार करके देनेवाला नौकर [को०] ।
⋙ तांबूलधर
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलधर] तांबूलद [को०] ।
⋙ तांबूलनियम
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलनियम] पान, सुपारी, लवंग, इलायची आदि खाने का नियम । (जैन) ।
⋙ तांबूलपत्र
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलपत्र] १. पान का पत्ता । २. अरुआ नाम की लता जिसके पत्ते पान के से होते हैं । पिंडालू ।
⋙ तांबूलबीटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्बूलबीटिका] पान का बीड़ा । बीड़ी ।े
⋙ तांबूलराग
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलराग] १. पान की पीक । २. मसूर ।
⋙ तांबूलवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्बूलवल्ली] पान की बेल । नाग- वल्ली ।
⋙ तांबूलवाहक
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलवाहक] पान खिलानेवाला सेवक । पान का बीड़ा लेकर चलनेवाला सेवक ।
⋙ तांबूलवीटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान का बीड़ा [को०] ।
⋙ तांबूलिक
संज्ञा पुं० [सं०] पान बेचनेवाला । तमोली ।
⋙ तांबूली (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूलिन्] पान बेचनेवाला । तमोली ।
⋙ तांबूली (२)
वि० तांबूल संबंधी [को०] ।
⋙ तांबूली (३) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्बूल] पान की बेल । उ०—तांबूली, अहिवल्लरी, द्विजा, पान की बेलि ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०६ ।
⋙ तांबेल
संज्ञा पुं० [?] कछुवा । कच्छप ।
⋙ तांमुल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तांबूल' । उ०—घृत बिन भोजन ज्यों चून बिन तांमुल जटा बिन जोगी जैसे पुंछ बिन लोषरा ।—अकबरी०, पृ० ५३ ।
⋙ ताँ पु (१)
अव्य० [?] तब तक । उ०—जाँ जसराज प्रतप्पियौ ताँ सुरपूज त्रकाल ।—रा० रू०, पृ० १६ ।
⋙ ताँ पु (२)
अव्य० [सं० तदा, प्रा० तई, तया; राज० ताँ] वहाँ । उ०—सज्जण अलगा ताँ लगई, जाँ लग लयणे दिट्ट ।— ढोला०, दू० ४२० ।
⋙ ताँईं †
अव्य० [सं० तावत् या फा़० ता] १. तक । पर्यंत । २. पास । तक । समीप । निकट । ३. (किसी के) प्रति । समक्ष । लक्ष्य करके । जैसे, किसी के ताई कुछ कहना । उ०—कह गिरिधर कविराय बात चतुरन के ताई । इन तेरह तें तरह दिए बनि आवै साईं ।—गिरिधर (शब्द०) । ४. विषय में । संबंध में । लिये । वास्ते । निमित्त । उ०— दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुहुँ जग के ताँई ।—जायसी (शब्द०) । मुहा०—अपने ताँईं = अगने को । विशेष—दे० 'तईं' ।
⋙ ताँगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टाँगा' ।
⋙ ताँडा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टाँडा (२)' । उ०—राम नाम सौदा किया दूजा जाण चुकाय । जन हरिया गुरुज्ञान का ताँडा देह लदाय ।—राम० धर्म०, पृ० ५३ ।
⋙ ताँण पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तान' । उ०—जहाँ तुपक तर- वारि अरु सेल टकटूक ह्वै बाँण की ताँण चहुँ फेर हुई ।— सुंदर० ग्रं०, भाग २, पृ० ८८१ ।
⋙ ताँत
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्तु] १. भेड़ बकरी की अँतड़ी, या चौपायों के पुट्ठों को बटकर बनाया हुआ सूत । चमडे़ या नसों की बनी हुई डोरी । इससे धनुष की डोरी, सारंगी आदि के तार बनाए जाते हैं । मुहा०—ताँत सा = बहुत दुबला पतला । ताँत बाजी और राग बूझा = जरा सी बात पाकर खूव पहचान लेना । उदा०—घर की टपकी बासी साग । हम तुम्हारी जात बुनियाद से वाकिफ हैं । ताँत बाजी और राग बूझा ।—सैर कु०, पृ० ४४ । २. घनुष की डोरी । ३. डोरी । सूत । ४. सारंगी आदि का तार । जैसे, ताँत बाजी राग बूझा । उ०—(क) सो मैं कुमति कहउँ कोहि भाँती । बाज सुराग कि गाँड़र ताँती ।—तुलसी (शब्०) । (ख) सेइ साधु गुरु मुनि पुरान श्रुति बूभ्यो राग बाजी ताँति ।—तुलसी (शब्द०) । ५. जुलाहों का राछ ।
⋙ ताँतड़ो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँत का अल्पा०] ताँत । मुहा०—ताँतड़ी सा = ताँत की तरह दुबला पतला ।
⋙ ताँतवा
संज्ञा पुं० [हिं० आँत] आँत उतरने का रोग ।
⋙ ताँता
संज्ञा पुं० [सं० तति (= श्रेणी) अथवा सं० ताति (= क्रम)] श्रेणी । पंक्ति । कतार । मुहा०—ताँता बाँधना = पंक्ति में खड़ा होना । ताँता लगाना = तार न टूटना । एक पर एक बराबर चला चलना ।
⋙ ताँति †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँत] दे० 'ताँत' ।
⋙ ताँतिया (१)
वि० [हिं० ताँत] ताँत की तरह दुबला पतला ।
⋙ ताँतिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] ताँत बजानेवावला । तंतुवादक । उ०— कहैं कबीर मस्तान माता रहै, बिना कर ताँतिया नाद गावै ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ९५ ।
⋙ ताँती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँता] १. पंक्ति । कतार । २. बाल बच्चे । औलाद ।
⋙ ताँती (२)
संज्ञा पुं० जुलाहा । कपड़ा बुननेवाला ।
⋙ ताँती पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताँत' । उ०—उनमनी ताँती बाजन लागी, यही बिधि तृष्नाँ षाँडी । गोरख०, पृ० १०६ ।
⋙ ताँन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तान (२)' । उ०—गोपी रीझि रही रस ताँनन सों सुध बुध सब बिसराई ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १५१ ।
⋙ ताँबा
संज्ञा पुं० [सं० ताम्र] लाल रंग की एक धातु जो खानों में गंधक, लोहे तथा और द्रव्यों के साथ मिली हुई मिलती है । विशेष—यह पीटने से बढ़ सकती है और इसका तार भी खींचा जा सकता है । ताप और विद्युत के प्रवाह का संचार ताँबे पर बहुत अधिक होता है, इससे उसके तारों का व्यवहार टेलिग्राफ आदि में होता है । ताँबे में और दूसरी धातुऔं को निर्दिष्ट मात्रा में मिलाने से कई प्रकार की मिश्रीत धातुएँ बनती हैं, जैसे, राँगा मिलाने से काँसा, जस्ता मिलाने से पीतल । कई प्रकार के विलायती सोने भी ताँवे से बनते हैं । खूब ठंढी जगह में ताँबा और जस्ता बराबर बराबर लेकर गला डाले । फिर गली हुई धातु को खूद घोटे और तोड़ा सा जस्ता और मिला दे । धोंटते धोंटते कुछ देर में सोने की तरह पीला हो जायगा । ताँबे की खानें संसार में बहुत स्थानों में हैं जिनमें भिन्न भिन्न यौगिक द्रव्यों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार का ताँबा निकलता है । कहीं धूमले रंग का, कहीं बैंगनी रंग का, कहीं पीले रंग का । भारतवर्ष में सिंहभूमि, हजारीबाग, जयपुर, अजमेर, कच्छ, नागपुर, नेल्लोर इत्यादि अनेक स्थानों में ताँबा निकलता है । जापान से बहुत अच्छे ताँबे के पत्तर बाहर जाते हैं । हिंदुओं के यहाँ ताँबा बहुत पवित्र धातु माना जाता है, अतः उसके अरघे, पंचपात्र, कलश, झारी आदि पूजा के बरतन बहुत बनते हैं । डाक्टरी, हकीम और वैद्यक तीनों मत की चिकित्साओं में ताँबे का व्यवहार अनेक रूपों में होता है । आयुर्वेद में ताँबा शोधने की विधि इस प्रकार है । ताँबे काबहुत पतला पत्तर करके आग में तपाकर लाल कर डाले । फिर उसे क्रमशः तेल, मट्ठे, काँजी, गोमूत्र और कुलथी की पीठी में तीन बार बुझावे । बिना शोधा हुआ ताँबा विष से अधिक हानिकारक होता है । पर्या०—तम्रक । शुल्व । म्लेच्छमुख । द्वयष्ट । वरिष्ठ । उदुंबर । द्विष्ट । अंवक । तपनेष्ट । अरविंद । रविलौह । रविप्रिय । रक्त । नैपालिक । मुनिपित्तल । अर्क । लोहितायस ।
⋙ ताँबा (२)
संज्ञा पुं० [अ० तअमह्] मांस का वह टुकड़ा जो बाज आदि शिकारी पक्षियों के आगे खाने के लिये डाला जाता है ।
⋙ ताँबिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताँबी' ।
⋙ ताँबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँबा] १. चौडे़ मुँह का ताँबे का एक छोटा बरतन । २. ताँबे की करछी ।
⋙ ताँएबेकारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का लाल रंग ।
⋙ ताँम पु
क्रि० वि० [?] तब । उ०—बज्जिव निसाँन गज्जिव सु ताँम ।—ह० रासो, पृ० ५० ।
⋙ ताँवत पु
क्रि० वि० [सं० तावत्] दे० 'तावत्' । उ०—जैत फूल फल पत्रिय चाही । ताँवत आगमपुर मों आही ।—इंद्रा०, पृ० १४ ।
⋙ ताँवर
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताव] १. ताप । ज्वर । हरारत । २. जाड़ा देकर आनेवाला बुखार । जूड़ी । ३. मूर्छा । पछाड़ । घुमटा । चक्कर । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ ताँवरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताँवर' । उ०—फिरत सीस चखु भा अँधियारा । ताँवरि आइ परी बिकरार ।—चित्रा०, पृ० १२३ ।
⋙ ताँवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताँवर' ।
⋙ ताँवरो †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताँवर' । उ०—ज्यों सुक सेव आस लगि निसि बाप्तर हठि चित लगायौ । रीतौ परयौ जबै फल चाख्यौ, उड़ि गयौ तूल ताँवरो आयौ ।—सूर०, १ । ३२६ ।
⋙ ताँसना †
क्रि० स० [सं० त्रास] १. डाँटना । त्रास देना । धमकाना । आँख दिखाना । २. कुव्यवहार करना । सताना । जैसे, सास का बहू को ताँसना ।
⋙ ताँसा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा । झाँझ ।
⋙ ताँह पु
सर्व० [सं० तत्] वो । सो (वह) सर्वनाम के कर्मकारक का बहुवचन । उ०—आडा डूँगर वन घणा, ताँह मिलिज्जइ केम ।—ढोला०, दू०, २१२ ।
⋙ ताँहीं पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ताई' । उ०—जो अंतरजामी ढिंग आँहीं । का करि सकै इंद्र इन ताँहीं ।—नंद ग्रं०, पृ० १९२ ।
⋙ ता (१)
प्रत्य० [सं०] एक भाववाचक प्रत्यय जो विशेषण और संज्ञा शब्दों के आगे लगता है । जैसे,—उत्तम, उत्तमता; शत्रु, शत्रुता; मनुष्य, मनुष्यता ।
⋙ ता (२)
अव्य० [फा़०] तक । पर्यत । उ०—(क) केस मेधावरि सिर ता पाई । चमकहिं दसन बीजु की नाई ।—जायसी (शब्द०) । (ख) । रूठता हूँ इस सबब हर बार मैं । ता गले तेरे लगूँ ऐ यार मैं । कविता कौ०, भाग ४, पृ० २९ ।
⋙ ता † पु (३)
सर्व० [सं० तद्] उस । विशेष—इस रूप में यह शब्द विभक्ति के साथ ही आता है । जैसे,—ताकों, तासों, तापै इत्यादि ।
⋙ ता पु † (४)
वि० उस । उ०—तब शिव उमा गए ता ठौर ।—सूर (शब्द०) । विशेष—इसका प्रयोग विभाक्तियुक्त विशेष्य के साथ ही होता है ।
⋙ ता (५)
क्रि० वि० [फ़ा०] जब तक । उ०—करे ता ओ अल्लाह का नायब करम । हमारा सभी जाय ये दर्दो गम ।—दक्खिनी०, पृ० २१४ ।
⋙ ता (६)
संज्ञा पुं० [अनु०] नृत्य का बोल । उ०—रास में रसिक दोऊ आनँद भरि माचत, गताद्रिम द्रि ता ततथेइ ततथेइ गति बोले ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६६ ।
⋙ ताईं पु
अव्य० [सं० तावत् या फा० ता] दे० 'ताई'-३ । उ०—अमृत छोड़ विषय रस पीवैं, धृग तृग तिनके ताईं ।— कबीर श०, भा० १, पृ० ४५ ।
⋙ ताई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताय + ई (प्रत्य०)] १. ताप । हरारत । हलका ज्वर । २. जाड़ा देकर आनेवाला बुखार । जूड़ी । क्रि० प्र०—आना । ३. एक प्रकार की छिछली कड़ाही जिसमें मालपूआ, जलेबी आदि बनाते हैं ।
⋙ ताई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताऊ का स्त्रीलिंग] बाप के बडे़ बाई की स्त्री । जेठी चाची ।
⋙ ताई पु (३)
अव्य० [सं० तावत् या फ़ा० ता] दे० 'ताईं'-३ । उ०—भूत खानि में रहो समाई । सब जग जाने तेरे ताई ।— कबीर सा०, पृ० १५१८ ।
⋙ ताई पु (४)
वि० [सं० तावत्] वही । उ०—साजे सार छत्रीस सिपाई । त्यार हुआ मंडण ताई ।—रा० रू०, पृ० ६५ ।
⋙ ताईत †
संज्ञा पुं० [फ़ा० तावीज] तावीज । जंतर । यंत्र ।
⋙ ताईद (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पक्षपात । तरफदारी । २. अनुमोदन । समर्थन । पुष्टि । उ०—आखिर मिरजा साहब झूठ क्यों बोलते और मुंशी अख्तर साहब इनकी ताईद क्यों करते ?— सेर०, पृ० १२ । क्रि० प्र०—कतरना ।—होना ।
⋙ ताईद † (२)
संज्ञा पुं० १. सहायक कर्मचारी । नायब । २. किसी कर्मचारी के साथ काम सीखने के लिये उम्मेदवार की तरह काम करनेवाला व्यक्ति ।
⋙ ताउ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताव' ।
⋙ ताउल †
वि० [हिं० उतावला] उतावला । अधीर ।
⋙ ताऊ
संज्ञा पुं० [सं० तातगु] बाप का बड़ा बाई । बड़ा चाचा । ताया । मुहा०—बछिया के ताऊ = बैल । मूर्ख । जड़ ।
⋙ ताऊन
संज्ञा पुं० [अ०] एक घातक संक्रामक रोग जिसमें गिलटी निकलती और बुखार आता है । प्लेग ।
⋙ ताऊस
संज्ञा पुं० [अ०] १. मोर । मयूर । यौ०—तख्त ताऊस = शाहजहाँ के बहुमूल्य रत्नजटित राज- सिंहासन का नाम जो की करोड़ की लागत से मोर के आकार का बनाया गया था । २. सारंगी और स्तार से मिलता जुलता एक बाजा जिसपर मोर का आकार बना होता है । विशेष—इसमें सितार के से तरब और परदे होते हैं और यह सारंगी की कमानी से रेतकर बजाया जाता है ।
⋙ ताऊसी
वि० [अ०] १. मोर का सा । मोर की तरह का । २. गहरा ऊदा । गहरा बैंगनी ।
⋙ ताक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताकना] १. ताकने की क्रिया । अवलोकन । यौ०—ताक झाँक । मुहा०—ताक रखना = निगाह रखना । निरीक्षण करते रहना । २. स्तिर दृष्टि । टकटकी । मुहा०—ताक बाँधना = दृष्टि स्तिर करना । टकटकी लगाना । ३. किसी अवसर की प्रतीक्षा । मौका देकते रहने का काम । घात । जैसे,—बंदर आम लेने की ताक में बैठा है । मुहा०—(किसी की) ताक में बैठना = (किसी का) अहित चेतना । उ०—जो रहे ताकते हमारा मुँह । हम उन्हीं की न ताक में बैठें ।—चोखे०, पृ० २७ । ताक में रहना = उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते रहना । मौका देखते रहना । ताक रखना = घात में रहना । मौका देखते रहना । ताक लगाना = घात लगाना । मौका देखते रहना । ४. खोज । तलाश । फिराक । जैसे,—(क) किस ताक में बैठ हो ? (ख) उसी कौ ताक में जाते हैं ।
⋙ ताक (२)
संज्ञा पुं० [अ० ताक] दीवार में बना हुआ गड्ढा या खाली स्थान जो चीज वस्तु रखने के लिये होता है । आला । ताखा । मुहा०—ताक पर धरना या रखना = पड़ा रहने देना । काम में न लाना । उपयोग न करना । जैसे,—(क) किताब ताक— पर रख दी और खेलने के लिये निकल गया । (ख) तुम अपनी किताब ताक पर रखो; मुझे उसकी जरूरत नहीं । ताक पर रहना या होना = पड़ा रहना । काम में न आना । अलग पड़ा रहना । व्यर्थ जाना । जैसे, यह दस्तावेज ताक पर रह जायगा; और उसकी डिगरी हो जायगी । ताक भरना = किसी देवस्थान पर मनौती की पूजा चढ़ाना ।—(मुसल०) ।
⋙ ताक (३)
वि० १. जो संख्या में सम न हो । जो बिना खंडित हुए दो बराबर भागों में न बँट सके । विषम । जैसे, एक तीन, पाँच, सात, नौ, ग्यारह आदि । यौ०—जुफ्त ताक या जूस ताक । २. जिसके जोड़ का दूसरा न हों । अद्वितीय । एक या अनुपम । जेसे, किसी फन में ताक होना । उ०—जो था अपने फन में ताक ता ।—फिसाना०, बा० ३, पृ० ४९ ।
⋙ ताकजुफ्त
संज्ञा पुं० [अ० ताक़ + फ़ा० जुफ्त़] एक प्रकार का जूआ जिसमें मुट्ठी के भीतर कुछ कौड़ियाँ या और वस्तुएँ लेकर बुझाते हैं के वस्तुओं की संख्या सम है या विषम । यदि बूझनेवाला ठीक बतला देता है तो वह जीत जाता है ।
⋙ ताकझाँक
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताकना + झाँकना] १. रह रहकर बार बार देखने की क्रिया । कुछ प्रयत्नपूर्वक दृष्टिपात । जैसे,—क्या ताक झाँक लगाए हो; अभी वे यहाँ नहीं आए हैं । २. छिपकर देखने की क्रिया । ३. निरीक्षण । देखभाल । निगरानी । ४. अन्वेषण । खोज ।
⋙ ताकत
संज्ञा स्त्री० [अ० ताक़त] १. जोर । बल । शक्ति । २. सामर्थ्य । जैसे,—किसी की क्या ताकत जो तुम्हारे सामने आवे ।
⋙ ताकतवर
वि० [अ० ताकत + फ़ा० वर (प्रत्य०)] १. बलवान् । बलिष्ठ । २. शक्तिमान् । सामर्थ्यवान् ।
⋙ ताकना
क्रि० स० [सं० तर्कण (= विचारना)] १. सोचना । विचारना । चाहना । उ०—जो राउर अति अनभल ताका । सो पाइहि यह फल परिपाक ।—तुलसी (शब्द०) । २. अवलोकन करना । दृष्टि जमाकर देखना । टकटकी लगाना । ३. ताड़ना । समझ जाना । लखना । ४. पहले से देख रखना । (किसी वस्तु को किसी कार्य के लिये) देखकर स्थिर करना । तजवीज करना । जैसे,—(क) यह जगह मैंने पहले से मुम्हारे लिये ताक रखी है, यहीं बैठी । (ख) कोई अच्छा आदमी ताककर यहाँ लाओ । ५. दृष्टि रखना । रखवाली करना । जैसे,—मैं अपना अलबाब यहीं छोडे़ जाता हूँ, जरा ताकते रहना ।
⋙ ताकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० टक्क (= एक देश या एक जाति)] एक लिपि का नाम जो नागरी से मिलती जुलती होती है । विशेष—अटक के उस पार से लेकर सतलज और जमुना नदी के किनारे तक यह लिपि प्रचलित है । काश्मीर और काँगडे़ के ब्राह्मणों में इसका प्रचार अब तक है । इसके अक्षरों को लुंडे या मुँडे भी कहते हैं ।
⋙ ताकवना पु
क्रि स० [हिं०] दे० 'ताकना' । उ०—कायर सेरी ताकवै, सूरा माँडै़ पाँव ।—कबीर० सा०, सं०, पृ० २९ ।
⋙ ताकि
अव्य० [फ़ा०] जिसमें । इसलिये कि । जिससे । जैसे,—यहाँ से हट जाता हूँ ताकि वह मुझे देखने न पावे ।
⋙ ताकीद
संज्ञा स्त्री० [अ०] जोर के साथ किसी बात की आज्ञा या अनुरोध । किसी को सावधान करके दी हुई आज्ञा । खूब चेताकर कही हुई बात । ऐसा अनुरोध या आदेश जिसके पालन के लिये बार बार कहा गया हो । जैसे,—मुहर्रिरों से ताकीद कर दो कि कल ठीक समय पर आवें । उ०—क्या तूने सब लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्सव हो ?—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १७६ । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ ताकीद कामिल
संज्ञा स्त्री० [अ० ताकीद + कामिल] पूर्ण चेता- वनी । सावधानी । उ०—जरा इसकी ताकीद कामिल रहे कि कहीं वह बूढ़ा चर्खा मौल्वी न घुस आए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८८ ।
⋙ ताकोली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधे का नाम ।
⋙ ताक्षण्य, ताक्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] बढ़ई का लड़का [को०] ।
⋙ ताख †
संज्ञा पुं० [अ० ताक] दे० 'ताक२' । उ०—पढ़ सुगना सत नाम, बैठ तन ताख में ।—धरम०, प० ४३ ।
⋙ ताखड़ा † (१)
वि० [देश] दे० 'तगड़ा' ।
⋙ ताखड़ा † (२)
वि० [?] उत्साहित । उ०—ताखड़ा, नत्रीठा ओडिया तायलाँ । घणा घायल किया आप घण घायलाँ ।—रघु० रू०, पृ० १८३ ।
⋙ ताखड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रि + हिं० कड़ी] तराजू । काँटा ।
⋙ ताखन पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तत्क्षण' । उ०—ताखन उठलिउँ जागि रे ।—धरनी०, पृ० २८ ।
⋙ ताखा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताक' ।
⋙ ताखी
वि० [अ० ताक़] १. जिसकी दोनों आँखें एक तरह की न हों । जिसकी एक आँख एक रंग या ढंग की हो और दूसरी आँख दूसरे रंग ढंग की हो । (घोडों, बैलों आदि के लिये । ऐसे जानवर ऐसी समझे जाते हैं) । २. साधुओं के पहनने की नोकदार एक टोपी । उ०—गुरू का सबद दोउ कान में मुद्रिका, उनमुनी तिलक सिर तत्त ताखी —पलटू०, भा० २, पृ० २५ ।
⋙ ताखीर
संज्ञा स्त्री० [अ० ताखीर] विलंब । देर । उ०—देख नाचार कर न कुछ ताखीर ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३७४ ।
⋙ ताग
संज्ञा पुं० [हिं० तागा] दे० 'तागा' । उ०—सत रज तम तीनौं ताग तोरि डारिए ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६११ ।
⋙ तागड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताग + कड़ी] १. तागे में पिरोए हुए सोने चाँदी के घुँघुरिओं का बना हुआ कमर में पहनने का एक गहना । करधनी । काँची । किंकिणी । क्षुद्रघंटिका । विशेष—तागड़ी सीकड़ या जंजीर के आकार की भी बनती है । २. कमर में पहनने का रंगीन डोरा । कटिसूत्र । करगता ।
⋙ तागत पु
संज्ञा स्त्री० [अ० ताकत] दे० 'ताकत' । उ०—तागत बिना हवास होस तुलसी मैं मरूँ ।—संत० तुरसी, पृ० १४३ ।
⋙ तागना
क्रि० स० [हिं० तागा + ना (प्रत्य०)] सुई से तागा डालकर फँसाना । स्थान स्थान पर डोभ या लंगर डालना । दूर दूर की मीटी सिलाई करना । जैसे, दुलाई या रजाई तागना । उ०—ज्ञान गूदरी मुक्ति मेखला सहज सुई लै तागी ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४२ ।
⋙ तागपहनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तागा + पहनाना] एक पतली लकड़ी जिसका एक सिरा नोकदार और दूसरा चिपटा होता है । चिपटा सिरा बीच से फटा रहता है जिसमें तागा रखकर बय में पहनाया जाता है । (जुलाहे) ।
⋙ तागपाट
संज्ञा पुं० [हिं० तागा + पाट (= रेशम)] एक प्रकार का गहना । विशेष—यह रेशम के तागे में सोने के तीन ठासे या जंतर डालकर बनाया जाता है । यह विवाह में काम आता हैं । मुहा०—तागपाट डालना = विवाह की रीति के अनुसार गणेश—* पूजन आदि के पीछे वर के बड़े भाई (दुलहिन के जेठ) का वधू को तागापाट पहनाना ।
⋙ तागरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० तागड़ी] दे० 'तागड़ी'-२ । उ०— चिरगट फारि चटरा लै गयो तरी तागरी छूटी ।—कबीर ग्रं०, पृ० २७७ ।
⋙ तागा
संज्ञा पुं० [सं० तार्कव, प्रा० ताग्गो, प० हिं० तागो] १. रूई, रेशम आदि का वह अंश जो तकले आदि पर बटने से लंबी रेखा रूप में निकलता है । सूत । डोरा । धागा । क्रि० प्र०—डालना ।—पिरोना । मुहा०—तागा डालना = सिलाई के द्वारा तागा फँसाना । दूर दूर पर सिलाई करना । तागना । २. वह कर या महसूल जो प्रति मनुष्य के हिसाब सो लगे । विशेष—मनुष्य करधनी, जनेऊ आदि पहनते हैं; इसी से यह अथ लिया गया है ।
⋙ तागीर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तगीर' । उ०—तब देसाधिपति ने उन सों परगना तागीर करि उनको अपने पास बुलाए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २०१ ।
⋙ तागड़दि पु
संज्ञा पुं० [अनु०] तड़तड़ शब्द । उ०—दुहु ओडाँ दलर गाजैं, ताग्डदि तवल बाजैं रिणातूर ।—रघु०, रू०, पृ० २१६ ।
⋙ ताचना पु
क्रि० स० [हिं० तचाना] जलाना । तपाना । उ०— विस्फुलिंग से जग दुःख तजि तब बिरह अगिन तन ताचौं ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५३९ ।
⋙ ताज (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. बादशाह की टोपी । राजमुकुट । यौ०—ताजपोशी । २. कलगी । तुर्रा । ३. मोर, मुर्गे आदि पक्षियों के सिर पर की चोटी । शिखा । ४. दीवार की कँगनी या छज्जा । ५. वह बुर्जी जिस मकान के सिरे पर शोभा के लिये बना देते हैं । ६. गंजीफे के एक रंग का नाम । ७. आगरे का ताजमहल ।
⋙ ताज पु (२)
संज्ञा पु० [फ़ा० ताजियाना] घोड़े को मारने का चाबुक । उ०—तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ताजक
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक ईरानी जाति जो तुर्किस्तान के बुखारा प्रदेश से लेकर बदख्शाँ, काबुल, बिलोचिस्तान, फारस आदि तक पाई जाती है । विशेष—बुखारा में यह जाति सर्त, अफगानिस्तान में देहान और बिलोचिस्तान में देहवार कहलाती है । फारस में ताजक एक साधारण शब्द ग्रामीण के लिये हो गया है । २. ज्योतिष का एक ग्रंथ जो यावनाचार्य कृत प्रसिद्ध है । विशेष—यह पहले अरबी और फारसी में था; राजा समरसिंह, नीलकंठ आदि ने इसे संस्कृत में किया । इसमें बारह राशियों के अनेक विभाग करके फलाफल निश्चित करने की रीतियाँ बतलाई गई हैं । जैसे, मेष, सिंह और धनु का पिता स्वभाव और क्षत्रिय वर्ण; मकर, वृष और कन्या का वायु स्वभाव और वैश्य वर्ण मिथुन, तुला और कुंभ का सम स्वभाव औरशूद्र वर्ण; कर्कट, वृश्चिक और मीन का कफ स्वभाव और ब्राह्मण वर्ण । इस ग्रंथ में जो संज्ञाएँ आई हैं, वे अधिकांश अरबी और फारसी की हैं, जैसे, इक्कबाल योग, इंतिहा योग इत्यशाल योग, इशराक योग, गैरकबूल योग इत्यादि ।
⋙ ताजकुला
संज्ञा पुं० [अ० ताज + फ़ा० कुलाह] रत्नजटित मुकुट । उ०—बादशाह बाबर लिखता है कि जिस समय सुलतान महमूद राणा साँगा के हाथ कैद हुआ, उस समय प्रसिद्ध 'ताजकुला' (रत्नजटित मुकुट) और सोने की समर पेटी उसके पास थी ।—राज० इति०, पृ० ६६७ ।
⋙ ताजगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० ताजगी] १. शुष्कता या कुम्हलाहट का अभाव । ताजापन । हरापन । २. प्रफुल्लता । स्वस्थता । शिथिलता या श्रांति का अभाव । ३. सद्यः प्रस्तुत होने का भाव । नयापन ।
⋙ ताजदार (१)
वि० [फ़ा०] १. ताज के ढंग का । २. ताजवाला ।
⋙ ताजदार (२)
संज्ञा पुं० ताज पहननेवाला बादशाह । उ०—सत्ताईश वंश हैं उनके ताजवार ।—कबीर मं०, पृ० १३१ ।
⋙ ताजन
संज्ञा पुं० [फ़ा० ताजियाना] १. कोड़ा । चाबुक । उ०— लाज न आवति मोर समाजन लागें अलोक के ताजन ताहू ।— केशव ग्रं०, पृ० ७२ । २. दंड़ । सजा (को०) । ३. उत्तेजना प्रदान करनेवाली वस्तु (को०) ।
⋙ ताजना
संज्ञा पुं० [हिं० ताजन] दे० 'ताजन' । उ०—तनक ताजना लगत ही, छाड़ देत भुव अंग ।—प० रासो, पृ० ११७ ।
⋙ ताजपोशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] राजमुकुट धारण करने या राज- सिंहासन पर बैठने की रीति या उत्सव ।
⋙ ताजबख्श
संज्ञा पुं० [अ० ताज + फा० बख्श] बादशाह बनानेवाला या हारे हुए बादशाह को बादशाह बनानेवाला सम्राट् [को०] ।
⋙ ताजबीबी
संज्ञा स्त्री० [अ० ताज + फा० बीबी] शाहजहाँ की अत्यंत प्रिय प्रिसिद्ध बेगम मुमताज महल जिसके लिये आगरे में ताजमहल नाम का मकबरा बनाया गया था ।
⋙ ताजमहल
संज्ञा पुं० [अ०] आगरे का प्रसिद्ध मकबरा जिसे शाह- जहाँ बादशाह ने अपनी प्रिय बेगम मुमताज महल की स्मृति में बनवाया था । विशेष—ऐसा कहा जाता है कि बेगम ने एक रात को स्वप्न देखा कि उसका गर्भस्थ शिशु इस प्रकार रो रहा है जैसा कभी सुना नहीं गया था । बेगम ने बादशाह से कहा—'मेरा अंतिम काल निकट जान पड़ता है । आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे मरने पर किसी दूसरी बेगम के साथ निकाह न करें, मेरे लड़के को ही राजसिंहासन का अधिकारी बनावें और मेरा मकबरा ऐसा बनवावें जैसा कहीं भूमंड़ल पर न हो' । प्रसव के थोड़े दिन पीछे ही बेगम का शरीर छूट गया । बादशाह ने बेगम की अंतिम प्रार्थना के अनुसार जमुना के किनारे यह विशाल और अनुपम भवन निर्मित कराया जिसके जोड़ की इमारत संसार में कहीं नहीं है । यह मकबरा बिल्कुल संगमरमर का है । जिसमें नाना प्रकार के बहुमूल्य रंगीन पत्थरों के टुकड़े जड़कर बेल बूटों का ऐसा सुंदर काम बना है कि चित्र का धोखा होता है । रंग बिरंग के फूल पत्ते पच्चीकारी के द्वारा खचित हैं । पत्तियों की नसें तक दिखाई गई हैं । इस मकबरे को बनाने में ३० वर्ष तक हजारों मजदूर और देशी विदेशी कारीगर लगे रहे । मसाला, मजदूरी आदि आजकल की अपेक्षा कई गुनी सस्ती होने पर भी इस इमारत में उस समय ३१७३८०२४ रुपए लगे । टेवर्नियर नामक फ्रेंच यात्री उस समय भारतवर्ष ही में था जब यह इमारत बन रही थी । इस अनुपम भवन को देखते ही मनुष्य मुग्ध हो जाता है । ठगों को दमन करनेवाले प्रसिद्ध कर्नल स्लीमन जब ताजमहल को देखने सस्त्रीक गए, तब उनकी स्त्री के मुँह से यही निकाला कि 'यदि मेरे ऊपर भी ऐसा ही मकबरा बने', तो में आज मरने के लिये तैयार हूँ ।
⋙ ताजा
वि० [फा़०ताजहू] [वि० स्त्री० ताजी] १. जो सूखा या कुम्ह- लाया न हो । हरा भरा । जैसे, ताजा फूल, ताजी पत्ती, ताजी गोभी । २. (फल आदि) जो ड़ाल से टूटकर तुरंत आया हो । जिसे पेड़ से अलग हुए बहुत देर न हुई हो । जैसे, ताजे आम, ताजे अमरूद, ताजी फलियाँ । ३. जो श्रांत या शिथिल न हो । जो थका माँदा न हो । जिसमें फुरती और उत्साह बना हो । स्वस्थ । प्रफुल्लित । जैसे,—(क) घोड़ा जलपान कर लो ताजे हो जाओगे । (ख) शरबत पी लेने से तबीयत ताजी हो गई । यौ०—मोटा ताजा = हृष्ट पुष्ट । ४. तुंरत का बना । सद्यः प्रस्तुत । जैसे, ताजी पूरी, ताजी जलेबी, ताजी दवा, ताजा खाना । मुहा०—हुक्का ताजा करना = हुक्के का पानी बदलना । ५. जो व्यवहार के लिये अभी निकाला गया हो । जैसे, ताजा पानी, ताजा दूध । ६. जो बहुत दिनों का न हो । नया । जैसे—ताजा माल । मुहा०—(किसी बात को) ताजा करना = (१) नए सिरे से उठाना । पिर छेड़ना या चलाना । फिर से उपस्थित करना । जैसे,—दबा दबाया झगड़ा क्यों ताजा करते हो ? (२) स्मरण दिलाना । याद दिलाना । फिर चित्त में लाना । जैसे,—गम ताजा करना । (किसी बात का) ताजा होना = (१) नए सिरे सो उठना । फिर छिड़ना या चलना । फिर उपस्थित होना । जैसे,—उनके आने से मामला फिर ताजा हो गया । (२) स्मरण आना । फिर चित्त में उपस्थित होना । जैसे, गम ताजा होना ।
⋙ ताजातम
वि० [फा० ताजा + सं० तम (प्रत्य०)] बिल्कुल नवीन । नवीनतम । उ०—'कढ़ी में कोयस' 'उग्र' लिखित ताजातम उपन्यास है ।—कढ़ी० (प्रकाशकीय), पृ० ८ ।
⋙ ताजि पु
वि० [हिं० ताजी] दे० 'ताजी' । उ०—अनेक बाजि तेजि ताजि साजि आनिआ ।—कीर्ति, पृ० ८४ ।
⋙ ताजिणौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताजन' । उ०—उ०—हाथी लगामी ताजिणौ पार कइ सेवइ राजदुआर ।—बी० रासो, पृ० ६९ ।
⋙ ताजिया
संज्ञा पुं० [अ० ताजियहू] बाँस की कमचियों पर रंगबिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपकाकर चनाया हुआ मकबरे के आकार का मंडप जिसमें इमाम हुसेन की कब्र बनी होती है । विशेष—मुहर्रम के दिनों में शीया मुसलमान इसकी आराधना करते और अंतिम दिन इमाम के मरने का शोक मनाते हुए इसे सड़क पर निकालते और एक निश्चित स्थान पर ले जाकर दफन करते हैं । मुहा०—ताजिया ठंढा होना = (१) ताजिया दफन होना । (२) किसी बड़े आदमी का मर जाना । विशेष—ताजिया निकालने की प्रथा केवल हिंदुस्थान के शीया मुसलमानों में है । ऐसा प्रसिद्ध है कि तैमूर कुछ जातियों का नाश करके जब करबला गया था तब वहाँ से कुछ चिह्न लाया था जिसे वह अपनी सेना के आगे आगे लेकर चलता था । तभी से यह प्रथा चल पड़ी ।
⋙ ताजियादारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताजिया + फा़० दारी (प्रत्य०)] ताजिया के प्रति संमानप्रदर्शन । उ०—दुर्गाबाई सुन्नी मुसल- मान थी । वह ताजियादारि करती थी और नाचाना उनका पेशा था ।—झाँसी, पृ० ३१० ।
⋙ ताजियाना
संज्ञा पुं० [फा़० ताजियाना] १. चाबुक । कोड़ा । उ०— हर नफस गोया उसे एक ताजियाना हो गया ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५० ।
⋙ ताजी (१)
वि० [फा़० ताजी] अरबी । अरब का । अरब संबंधी ।
⋙ ताजी (२)
संज्ञा पुं० १. अरब का घोड़ा । उ०—सुंदर घर ताजी बँधे तुरकिन की घुरसाल ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३७ । २. शिकारी कुत्ता ।
⋙ ताजी (३)
संज्ञा स्त्री० अरब की भाषा । अरबी भाषा ।
⋙ ताजी (४)
वि० ताजा का स्त्री० रूप ।
⋙ ताजीम
संज्ञा स्त्री० [अ० ताजीम] किसी बड़े के सामने उसके आदर के लिये उठकर खड़ा हो जाना, झुककर सलाम करना इत्यादि । संमानप्रदर्शन । उ०—सिजदा सिरनहार कौं मुरसिद कौ ताजीम ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २८९ । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।
⋙ ताजीमी पु
वि० [अ० ताजीम + फा० ई (प्रत्य०)] नाजीम । उ०—और रसूल पर करौ यकीना । उन फकीर ताजीमी कीन्हा ।—घट०, पृ० २११ ।
⋙ ताजीमी सरदार
संज्ञा पुं० [फा़० ताजीमी + अ० सरदार] वह सरदार जिसके आने पर राजा या बादशाह उठकर खड़े हो जायँ या जिसे कुछ आगे बढ़कर लें । ऐसा सरदार जिसकी दरबार में विशेष प्रतिष्ठा हो ।
⋙ ताजीर
संज्ञा स्त्री० [अ० ताजीर] सजा । दंड़ [को०] ।
⋙ ताजीरात
संज्ञा पुं० [अ० ताजीरात, अ० ताजीर का बहु व०] अपराध और दंड संबंधी व्यवस्थाओं या कानूनों का संग्रह । दंडविधि । जैसे, ताजीरात हिंद ।
⋙ ताजीरी
वि० [अ० ताजीर + फा़० ई (प्रत्य०)] १. दंड से संबंधित । २. दंड रूप में लागाया हुआ तैनात किया हुआ (कर या पुलिस आदि) ।
⋙ ताजिस्त
अव्य० [फ़ा० ताजीस्त] जीवन भर । आजीवन । आजन्म । उ०—ताजीस्त सनारव्वाँ ही तु इस कातिल अपने ।—कबीर मं०, पृ० ४६८ ।
⋙ ताजुब †
संज्ञा पुं० [अ० तअज्जुब] दे० 'तअज्जुब' ।
⋙ ताज्जुब
संज्ञा पुं० [अ० तअज्जुब] दे० 'तअज्जुब' ।
⋙ ताटंक
संज्ञा पुं० [सं० ताटङ्क] १. कान में पहनने का एक गहना । करनफूल । तरकी । उ०—चलि चलि जात निकट स्रवननि के उलटि पलचि ताटंक फँदाते ।—संतवाणी०, पृ० ५५ । २. छप्पय के २४ वें भेद का नाम । ३. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ और १४ के विराम से ३० मात्राएँ होती हैं और अंत में मगण होता है । किसी किसी के अंत में एक गुरु का ही नियम रखा है । लावनी प्रायः इसी छंद में होती है ।
⋙ ताटका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ताड़का' [को०] ।
⋙ ताटस्थ
संज्ञा पुं० [सं० ताटस्थ] १. समीपता । निकटता । २. तटस्थता । उदासीनता । निरपेक्षता [को०] ।
⋙ ताड़क
संज्ञा पुं० [सं० ताडङ्क] कान का एक गहना । तरकी । करनफूल । विशेष—पहले यह गहना ताड़ के पत्तों का ही बनता था । अब भी तरकी ताड़ के पत्ते ही की बनती हैं ।
⋙ ताड़
संज्ञा पुं० [सं० ताड] १. शाखारहित एक बड़ा पेड़ जो खंभे के रूप में ऊपर की ओर बढ़ता चला जाता है और केवल सिरे पर पत्ते धारण करता है । विशेष—ये पत्ते चिपटे मजबूत डंठलों में, जो चारों ओर निकले रहते हैं, फैले हुए पर की तरह लगे रहते हैं और बहुत ही कडे़ होते हैं । इसकी लकड़ी की भीतर बनाबट सूत के ठोस लच्छों के रूप की होती है । ऊपर गिरे हुए पत्तों के डंठलों के मूल रह जाते हैं जिससे छाल खुरदुरी दिखाई पड़ती है । चैत के महीने में इसमें फूल लगते हैं और वैशाख में फल, जो भादों में खूब पक जाते हैं । फलों के भीतर एक प्रकार की गिरी और रेशेदार गूदा होता है जो खाने के योग्य होता है । फूलों के कच्चे अंकुरों को पाछने से बहुत सा रस निकलता है जिसे ताड़ी कहते हैं और जो धूप लगने परह नशीला हो जाता है । ताड़ी का व्यवहार नीच श्रेणी के लोग मद्य से स्थान पर करते हैं । बिना धूप लगा रस मीठा होता है जिसे नीरा कहते हैं । महात्मा गाँधी ने नीरा का प्रयोग उचित बताया था । नीरा तथा ताड़ी दोनों में विटामिन बी प्रचुर मात्रा में होता है । बेरी बेरी रोग में दोनों अत्यंत लाभकारी होते हैं । ताड़ प्रायः सब गरम देशों में होता है । भारतवर्ष, अरब, बरमा, सिंहल, सुमात्रा, जावा आदि द्वीपपुंज तथा फारस की खाड़ी के तटस्थ प्रदेश में ताड़ के पेड़ बहुत पाए जाते हैं । ताड़ की अनेक जातियाँ होती हैं । तमिल भाषा में ताल- विलास नामक एक ग्रंथ है जिसमें ७०१ प्रकार के ताड़ गिनाए गए हैं और प्रत्येक का अलग अलग गुण बतलाया गया है । दक्षिण में ताड़ के पेड़ बहुत अधिक होते हैं ।गोदावरी आदि नदियों के किनारे कहीं कहीं तालवनों की विलक्षण शोभा है । इस वृक्ष का प्रत्येक भाग किसी न किसी काम में आता है । पत्तों से पंखे बनते हैं और छप्पर छाए जाते हैं । ताड़ की खड़ी लकड़ी मकानों में लगती है । लकड़ी खोखली करके एक प्रकार की छोटी सी नाव भी बनाते हैं । डंठल के रेशे चटाई और जाल बनाने के काम में आते हैं । कई प्रकार के ऐसे ताड़ होता हैं जिनकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है । सिंहल के जफना नामक नगर से ताड़ की लकड़ी दूर दूर भेजी जाती थी । प्राचीन काल में दक्षिण के देशों में तालपत्र पर ग्रंथ लिखे जाते थे । ताड़ का रस औषध के काम में भा आता है । ताड़ी की पुलटिस फोडे़ या घाव के लिये अत्यंत उपकारी है । ताड़ी का सिरका भी पड़ता है । वैद्यक में ताड़ का रस कफ, पित्त, दाह और शोथ को दूर करनेवाला और कफ, वात, कृमि, कुष्ट औक रक्तपित नाशक माना जाता है । ताड़ ऊँचाई के लिये प्रसिद्ध है । कोई कोई पेड़ तीस, चालीस हाथ तक ऊँचे होते है, पर घेरा किसी का ६-*७ बित्ते से अधिक नहीं होता । पर्या०—तालद्रुम । पत्री । दीर्घस्कंध । ध्वजद्रुम । तृणराज । मधुरस । मदाढ्य । दीर्घपादप । चिरायु । तरुराज । दीर्घपत्र । गुच्छपत्र । आसवद्रु । लेख्यपत्र । महोन्नत । २. ताड़न । प्रहार । ३. शब्द । ध्वनि । धमाका । ४. घास, अनाज के डंठल आदि की अँटिया डो मुट्ठी में आ जाय । जुट्टी । पूला । ५. हाथ का एक गहना । ६. मूर्ति-निर्माणि- विद्या में मूर्ति के ऊपरी भाग का नाम । ७. पहाड़ । पर्वत (को०) ।
⋙ ताड़क (१)
वि० [सं० ताडक] ताड़ना या आघात करनेवाला [को०] ।
⋙ ताड़क (२)
संज्ञा पुं० वधिक । जल्लाद [को०] ।
⋙ ताड़का
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडका] एक राक्षसी जिसे विश्वामित्र की आज्ञा से श्री रामचंद्र ने मारा था । विशेष—इसकी उत्पति के संबंध में कथा है कि यह सुकेतु नामक एक वीर यक्ष की कन्या थी । सुकेतु ने अपनी तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न करके इस बलवती कन्या को पाया था जिसे हजार हाथियों का बल था । यह सुँद को ब्याही थी । जब अगस्त्य ऋषि ने किसी बात पर क्रृद्ध होकर सुंद को मार डाला, तब यह अपने पुत्र मारीच को लेकर अगस्त्य ऋषि को खाने दौड़ी । ऋषि के शाप से माता और पुत्र दोनो धोर राक्षस हो गए । उसी समय से ये अगस्त्य जी के तपोवन का नाश करने लगे और असे इन्होंने प्राणियों से शून्य कर दिया । यह सब व्यवथा दशरथ से कहकर विश्वामित्र रामचंद्र जी को लाए और उनके हाथ से ताड़का का वध कराया ।
⋙ ताड़काफल
संज्ञा पुं० [सं० ताडकाफल] बड़ी इलायची ।
⋙ ताड़कायन
संज्ञा पुं० [सं० ताडकायन] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ ताड़कारि
संज्ञा पुं० [सं० ताडकारि] (ताड़का के शत्रु) श्री रामचंद्र ।
⋙ ताड़केय
संज्ञा पुं० [सं० ताडकेय] (ताड़का का पुत्र) मारीच ।
⋙ ताड़घ
संज्ञा पुं० [सं० ताडघ] १. बेत या कोड़ा मारनेवाला । २. जल्लाद ।
⋙ ताड़घात
संज्ञा पुं० [सं० ताडघात] हथौड़े आदि से पीटकर काम करनेवाला । लोहार ।
⋙ ताड़न
संज्ञा पुं० [सं० ताडन] १. मार । प्रहार । आघात । २. डांट डपट । घुड़की । ३. शासन । दंड ।४. मंत्रों के वर्णों को चंदन से लिखकर प्रत्येक मंत्र को जल से वायुबीज पढ़कर मारने का विधान । ५. गुणन । ६. खंड ग्रहण (को०) ।
⋙ ताड़ना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडन] १. प्रहार । मार । उ०— देइ ताड़ना चित्त कौ तुबक सर चाढे़ आस हो ।— कबीर सा०, पृ० ८६ । क्रि० प्र०—करना । —होना ।
⋙ ताड़ना (२)
क्रि० स० १. मारना । पीटना । दंड देना । २. डाँटना । डपटना । शासित करना ।
⋙ ताड़ना (३)
क्रि० स० [सं० तर्कण (=सोचना)] १. किसी ऐसी बात को जान लेना जो जान बूझकर प्रकट न की गई हो या छिपाई गई हो । लक्षण से समझ लेना । अंदाज से मालूम कर लेना । भाँपना । लख लेना । जैसे,— मैं पहले ही ताड़ गया कि तुम इसी लिये आए हो । उ०— लिहा जौहरी ताड़ फिरा है ग्राहक खाली । थैली लई समेटि दिहा गाहक को टाली ।— पलटू०, भा० १, पृ० ५९ । संयो० क्रि० —जाना ।—लेना । २. मार पीटकर भगाना । हटा देना । हाँकना । संयो० क्रि० —देना ।
⋙ ताड़नी
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडनी] चाबुक । कोड़ा [को०] ।
⋙ ताड़नीय
वि० [सं० ताडनीय] दंड देने योग्य । दंडनीय ।
⋙ ताड़पत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० तालपत्र] ताडंक । ताटंक ।
⋙ ताड़पत्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० तालपत्र] दे० 'तालपत्र' ।
⋙ ताड़बाज
वि० [हिं० ताड़ना + फा़० ताज] ताड़नेवाला । भाँपनेवाला । समझ जानेवाला ।
⋙ ताड़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० ताड़ि] दे० 'ताड़ी' [को०] ।
⋙ ताडिका पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] तारा । तारिका । उ०— जरे जंजरायं भरं राग मिल्लै । मनो नौ ग्रहं ताडिका होड षिल्लै ।— पृ० रा०, १२ । ३१६ ।
⋙ ताड़ित
वि० [सं० ताडित] १. मारा हुआ । जिसपर प्रहार पड़ा हो । २. जो ड़ाँटा गया हो । जिसने घुड़की खाई हो । ३. दंडित । शासित । ४. मारकर भगाया हुआ । निकाला हुआ । हाँका हुआ ।
⋙ ताड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडी] १. एक प्रकार का छोटा ताड़ । २. एक आभूषण ।
⋙ ताड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताड़+ ई (प्रत्य०)] ताड़ के फूलते हुए ड़ंठलों से निकला हुआ नशीला रस जिसका व्यवहार मद्य के रूप में होता है ।विशेष— ताड़ के सिरे पर फूलंते हुए डंठलों या अंकुरों को छुरो आदि से काट देते हैं और पास ही मिट्टी का बरतन बाँध देते हैं । दूसरे दिन सबेरे बरतन रस से भर जाता है, तब उसे खाली करके रस ले लेते हैं ।
⋙ ताड़ी † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० तार] संतों की ताली । सेतों की ध्यानवस्था । ध्यान । समाधि । उ०— ध्यान रूप होय अरुण पाए । साच नाम ताड़ी चित लाए ।— प्राण०, पृ० १३१ ।
⋙ ताडुल
वि० [सं०] मारने पीटनेवाला । आगात करनेवाला [को०] ।
⋙ ताडू
वि० [हिं० ताड़ना] ताड़नेवाला । भाँपने या अनुमान करनेवाला ।
⋙ ताड्य
वि० [सं०] १. ताड़ने के योग्य । २. डाँटने डपटने लायक । ३. दंड्य । दंड के योग्य ।
⋙ ताड्यमान (१)
वि० [सं०] १. जो पीटा जाता हो । जिसपर प्रहार पड़ता हो । २. जो डाँटा जाता हो ।
⋙ ताड्यमान (२)
संज्ञा पुं० ढोल । ढक्का ।
⋙ ताढ पु
वि० [सं० स्तब्ध; प्रा० धड़्ढ; मरा० तंडा, थंडा, हिं० ठंढा] ठंढा । शीतल । उ०— जिण दीहे पावस झरइ घालइ, ताढो वाय । तिण रिति मेल्हे मालविण प्री परदेस में जाय ।— ढोला०, दू० २६६ ।
⋙ ताणना पु †
क्रि० स० [हिं० तानना] १. खींचना । २. ठहराना । उ०— बाजिंद ताण विभांण भांण तक रहै अचंभा ।—रघु० रू०, पृ० ४७ ।
⋙ तात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीता । बाप । २. पूज्य व्यक्ति । गुरु । ३. प्यार का एक शब्द या संबोधन जो भाई, वंधु, इष्ट मित्र, विशेषतः अपने से छोटे के लिये व्यवहृत होता है । उ०— तात जनक तनया यह सोई । धनुष जग्य जेहि कारन होई ।—तुलसी (शब्द०) । ४. वह व्यक्ति जिसके प्रति दया का उदय हो (को०) ।
⋙ तात † (२)
वि० [सं० तप्त, प्रा० तत्त] १. तपा हुआ । गरम । २. दुःखी । चिंतित । उ०— मालवणी म्हे चालिस्याँ, म करि हमारा तात ।— ढीला०, दू० २७८ ।
⋙ तातगु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चाचा ।
⋙ तातगु (२)
वि० १. पिता के लिये स्वीकार्य । २. पैतृक [को०] ।
⋙ ताततुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] चाचा या अत्यंत पूज्य व्यक्ति [को०] ।
⋙ तातन
संज्ञा पुं० [सं०] खंडन पक्षी । खिड़रिच ।
⋙ तातनी पु
संज्ञा पुं० [हिं० ताँत] दे० 'ताँत' । उ०— ज्ञान की काछनी तान में तातनी, सत्त के सबद की कथा बानी ।— पलटू०, भा० २, पृ० ३३ ।
⋙ तातरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़ ।
⋙ तातक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पितृ तुल्य संबंधी । २. रोग । ३. लोहे का काँटा । ४. पाक । पक्वता । ५. उष्णता । गर्मी (को०) ।
⋙ तातल (२)
वि० १. तप्त । गरम । २. पैतृक (को०) ।
⋙ ताता †
वि० [सं० तप्त, प्रा० तत] [वि० स्त्री० ताती] १. तपा हुआ । गरम । उष्ण । उ०— (क) जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते । पिय बिनु तियहि तरचिहुँ ते ताते ।—मानस, २ । ६५ । (ख) मीठे अतिकोमल हैं नीके । ताते तुरत चभोरे घी के ।—सूर०, १० ।३९६ । २. वुरा । दुःखदायी । कष्टदायक ।
⋙ ताताथेई
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. नृत्य में एक प्रकार का बोल । २. नाचने में पैर के गिरने आदि का अनुकरण शब्द । जैसे, ताताथेई ताताथेई नाचना ।
⋙ तातार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अध्य एशिया का एक देश । विशेष— हिंदुस्तान और फारस के उत्तर कैस्पियन सागर से लेकर चीन के उत्तर प्रांत तक तातार देश कहलाता है । हिमालय के उत्तर लद्दाख, यारकंद, खुतन, बुखारा, तिब्बत आदि के निवासी तातारी कहलाते हैं । साधारणतः समस्त तुर्क या मोगल तातारी कहलाते हैं ।
⋙ तासारी (१)
वि० [फ़ा०] तातार देश संबंधी । तातर देश का ।
⋙ तातारी (२)
संज्ञा पुं० तातार देश का निवासी ।
⋙ ताति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र । लड़का ।
⋙ ताति पु (२)
वि० [सं० तप्त] गरम । उ०— ताति वाउ लागै नहीं, आठौ पहर अनंद ।— संतवाणी०, पृ० १३५ ।
⋙ ताती (१)
वि० [सं० तप्त] गरम । उष्ण । उ०— ताती श्वासन विनास्यो रूप होठन ।— शकुंतला, पृ० १०९ ।
⋙ तातो (२)
क्रि० वि० [?] जल्दी । उ०— तई मुझे दौ आग्या ताती ।—रा० रू०, पृ० ३०३ ।
⋙ तातील
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह दिन जिसमें काम काज बंद रहे । छुट्टी का दिन । छुट्टी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०— तातील मनाना = छुट्टी के दिन विश्राम लेना या आमोद प्रमोद करना ।
⋙ तात्कालिक
वि० [सं०] तत्काल का । तुरंत का । उसी समय का ।
⋙ तात्पर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह भाव जो किसी वाक्य को कहकर कहनेवाला प्रकट करना चाहता हो । अर्थ । आशय । मतलब । अभिप्राय । विशेष—कभी कभी शब्दार्थ से तात्पर्य भिन्न होता है । जैसे, 'काशी गंगा पर है' वाक्य का शब्दार्थ यह होगा कि काशी गंगा के जल के ऊपर बसी है; पर कहनेवाले का तात्पर्य यह है कि गंगा के किनारे बसी है । २. तत्परता ।
⋙ तात्पर्यवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० तात्पर्य + वृत्ति] वाक्य के भिन्न पदों के वाच्यार्थ को एक में समन्वित करनेवाति वृति । उ०— पहले उन्होंने तात्पर्यवृत्ति को लिया है और बताया है कि नैयायिकों की ताप्तर्यवृत्ति बहुत समय से प्रसिद्ध थी ।— आचार्य, पृ० १३१ ।
⋙ तात्पर्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वाक्य से निकलनेवाले अर्थ से भिन्न अर्थ जो वक्ता या लेखक का होता है [को०] ।
⋙ तात्विक
वि० [सं० तात्विक] १. तत्व संबंधी ।२. तत्वज्ञान युक्त । जैसे, तात्विक दृष्टि । ३. यथार्थ ।
⋙ तात्स्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी के बीच में रहने का भाव । एकवस्तु के बीच दूसरी वस्तु की स्थिति । २. एक व्यंजनात्मक उपाधि जिसमें जिस वस्तु का कथन होता है, उस वस्तु में रहनेवाली वस्तु का ग्रहण होता है । जैसे, 'सारा घर गया है' से अभिप्राय है कि घर के सब लोग गए हैं ।
⋙ तार्थें पु
सर्व० [हिं० ता + थें (प्रत्य०)] इससे । इस कारण से । उ०— घरे रूप जेते तिते सर्व जानौं । लगे वार कहते न ताथें बखानों ।— पृ० रा०, २ । १९५ ।
⋙ ताथेई
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'ताताथेई' ।
⋙ तादर्थिक
वि० [सं०] उसके अर्थ से संबद्ध [को०] ।
⋙ तादर्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उद्देश्य या लक्ष्य की एकता । २. अर्थ की समानता । ३. उद्देश्य [को०] ।
⋙ तादात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक वस्तु का मिलकर दूसरी वस्तु के रूप में हो जाना । तत्स्वरूपता । अभेद संबंध । यौ०— तादात्म्यानुभूति = तादात्म्य की अनुभूती । तत्स्वरूप की अनुभूति । उ०— प्रकृति से तादात्म्यानुभूति को सरल कामना की कई पंक्तियों में प्रतिबिंबित हुई है ।— सा० समीक्षा, पृ० २६० ।
⋙ तादात्विक (राजा)
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार । वह राजा जिसका खजाना खाली रहता हो । जितना धन राजकर आदि में मिले, उसकों खर्च कर डालनेवाला । विशेष— आजकल के राज्य बहुधा इसी प्रकार के होते हैं । ये प्रबंध में व्यय करने के लिये ही धन एकत्र करते हैं ।
⋙ तादाद
संज्ञा स्त्री० [अ० तअदाद] संख्या । गिनती । शुमार ।
⋙ तादृक्ष
वि० [सं०] [वि० स्त्रि० तादृक्षी] दे० 'तादृश' [को०] ।
⋙ तादृश
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तादृशी] उसके समान । वैसा ।
⋙ तादृसी पु
वि० [सं० तादृशी] तादृश । वैसी ही । उ०— जो याहू गांम में एक वैष्णव तादृसी चर्चा करन और श्रीकृष्ण स्मरन करन आवत है । दो सौ बांवन०, भा० १, पृ० २६५ ।
⋙ ताधा
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'ताथाथेई' । उ०— भृकुटी धनुष नैन सल साधे वदन बिकास अगाधा । चंचल चपल चारु अवलोकनि काम नचावति ताधा ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ तान
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तालने का भाव या क्रिया । खींच । फैलाव । विस्तार । जैसे, भौंऔं की तान । उ०— जल मैं मिलि कै नभ अवनी लौं तान तनावति ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ४५५ । यौ०— खींचतान । २. गानै का एक अंग । अनुलोभ विलोम गति से गमन । मुर्च्छना आदि द्वारा राग या स्वर का विस्तार । अनेक विभाग करके सूर का खींचना । लय का विस्ता । आलाप । उ०— छूटे तान चँदेवा दीन्हा । टाढे़ भ्रगत गावन लीन्हा ।— कबीर मं०, पृ० ४९९ । विशेष— संगीत दामोदर के मत से स्वरों से उत्पन्न ताम ४९ है । इन ४९ तानों से भी ८३०० कूट तान निकले हैं । किसी किसी मत से कूट तानों की संख्या ५०४० भी मानी गई है । मुहा०— तान उड़ाना= गीत गाना । अलापना । तान तोड़ना = लय को खींचकर झटके के साथ समय पर विराम देना । किसी पर तान तोड़ना = किसी को लक्ष्य करके खेद या क्रोंधसूचक बात कहना । आक्षेप करना । बौछार छोड़ना । तान भरना, मारना, लेना = गाने में लय के साथ सुरों को खींचना । अलापना । तान की जान = सारांश । खुलासा । सौ बात की एक बात । ३. ज्ञान का विषय । ऐसा पदार्थ जिसका बोध इंद्रियों आदि को हो । ४. कंबल का तान — (गडे़रिए) । ५. भाटे का हलड़ा । लहर । तरंग ।— *(लश०) । ६. लोहे की छड़ जिसे पलंग या हौदे में मजबूती के लिये लगाते हैं । (७) एक प्रकार का पेड़ । (८) सूत्र । सूत । धागा (को०) ।(९) एकरस स्वर । एक ही प्रकार का स्वर (को०) ।
⋙ तानकर्म
संज्ञा पुं० [सं० तानकर्मन्] १. गाने के पहले किया जानेवाला आलाप । २. मूल स्वर को ग्रहण करने के लिये स्वर- साधना [को०] ।
⋙ तानटप्पा
संज्ञा पुं० [हिं० तान + 'टप्पा'] संगीत । गाना बजाना । उ०— और यहाँ होता क्या है ? वही समस्यापूर्ति, वही या तो खड़खड़ भड़भड़ और तानटप्पा ।— कुंकुम (भू०), पृ० २ ।
⋙ तानतरंग
संज्ञा स्त्री० [सं० तानतरङ्ग] अलापचारी । लय की लहर ।
⋙ तानना
क्रि० स० [सं० तान (= विस्तार)] १. किसी वस्तु को उसकी पूरी लंबाई या चौड़ाई तक बढ़ाकर ले जाना । फैलाने के लिये जोर से खींचना । किसी वस्तु को जहाँ की तहाँ रखकर उसके किसी छोर, कोने या अंश को जहाँ तक हो सके, बलपूर्वक आगे बढ़ाना । जैसे, रस्सी तानना । उ०— इक दिन द्रौपदि नग्न होत है, चीर दुसासन तान ।— संतवाणी० पृ० ६७ । विशेष— 'तानना' और 'खींचना' में यह अंतर है कि तानने में वस्तु का स्थान नहीं बदलता । जैसे खूँटे में बँदी बँधी हुई रस्सी तानना । पर 'खींचना' किसी वस्तु को इस प्रकार बढ़ाने को भी कहते हैं जिसमें वह अपना स्थान बदलती है । जैसे, गाड़ी खींचना, पंखा खींचना । संयो० क्रि० —देना ।—लेना । मुहा०—तानकर = बलपूर्वक । जोर से । जैसे, तानकर तमाचा मारना । उ०— सतगुरु मारा तानकर, सब्द सुरंगी बान ।— कबीर सा०, पृ० ८ । २. किसी सिमटी या लिपटी हुई वस्तु को खींचकर फैलाना । बलपूर्वक विस्तीर्ण करना । जोर से बढ़ाकर पसारना । जैसे, पाल तानना, छाता तानना, चद्दर तानकर सोना, कपडे़ को तानकर झौन मिटाना । विशेष— 'तानना' और 'फैलाना' मैं यह अंतर है की 'तानना' क्रिया में कुछ बल लगाने या जोर से खींचने का भाव है । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । मुहा०—तानकर सूतना = दे० 'तानकर सोना' । उ०— भेद वह जो कि भेद खो देवे, जान पाया न तानकर सूते ।— चोखे०,पृ० ४ । तानकर सोना = खूब हाथ पैर फैलाकर निश्चित सोना । आराम से सोना । ३. किसी परदे की सी वस्तु को ऊपर फैलाकर बाँधना या ठहराना । छाजन की तरह ऊपर किसी प्रकारा का परदा लगाना । जैसे, चँदोवा तानना, चाँदनी तानना, तंबू तानना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ४. डोरी, रस्सी आदि को एक आधार से दूसरे आधार तक इस प्रकार खींचकर बाँधना कि वह ऊपर अधर में एक सीधी लकीर के रूप में ठहरी रहे । एक ऊँचे स्थान से दूसरे ऊँचे स्थान तक ले जाकर बाँधना । जैसे,—(क) यहाँ से वहाँ तक एक डोरी तान दो तो कपड़ा फैलाने का सुबीत हो जाय । (ख) जुलाहे का सूत तानना । संयो० क्रि० —देना । ५. मारने के लिये हाथ या कोई हथियार उठाना । प्रहार के लिये अस्त्र उठाना । जैसे, तमाचा तानना, डंडा तानना । ६. किसी को हानि पहुँचाने या दंड देने के अभिप्राय से कोई बात उपस्थित कर देना । किसी के खिलाफ कोई चिट्ठी पत्री या दरखास्त आदि भेजना । जैसे,— एक दरखास्त तान देंगे, रह जाओगे । संयो० क्रि०—देना । ७. कैदखाने भेजना । जैसे,—हाकिम ने उसे दो बरस को तान दिया । ८. ऊपर उठाना । ऊँचे ले जाना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ तानपूरा
संज्ञा पुं० [सं० तान + हिं० पूरा] सितार के आकार का एक बाजा जिसे गवैए कान के पास लगाकर गाने के समय छेड़ ते जाते हैं या उनके पार्श्व में बैठकर कोई छेड़ता जाता है । विशेष— यह गवैयों को सुर बाँधने में बड़ा सहारा देता है; अर्थात् सुर में जहाँ विराम पड़ता है, वहाँ यह उसे पूरा करता है । इसमें चार तार होते हैं दो लोहे के और दो पीतल के ।
⋙ तानबाज
संज्ञा पुं० [हिं० तान + बाज] संगीताचार्य । उ०— गंग ते न गुनी तानसेन ते तानबाज, मान ते न राजा औ न दाता बीरबर ते ।— अकबरी०, पृ० ३५ ।
⋙ तानबान पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तानावाना' । उ०— जोलहा तानबान नहिं जानै फाट बिनै दस ठाई हो ।— कबीर* (शब्द०) ।
⋙ तानव
संज्ञा पुं० [सं०] १. तनुता । कृशता । स्वल्पता । लघुता । छोटाई [को०] ।
⋙ तानसेन
संज्ञा पुं० [?] आकसर बादशाह के समय का एक प्रसिद्ध गवैया जिसके जोड़ का आजतक कोई नहीं हुआ । विशेष— अब्बुलफजल ने लिखा है कि इधर हजार वर्षों के बीच ऐसा गायक भारतवर्ष में नहीं हुआ । यह जाति का ब्राह्मण था । कहते हैं, पहले इसका नाम त्रिलोचन मिश्र था । इसे संगीत से बहुत प्रेम था, पर गाना इसे नहीं आता था । जब बृंदावन के प्रसिद्ध स्वामी हरिदास के यहाँ गया और उनका शिष्य हुआ, तब यह संगीत में कुशल हुआ । धीरे धीरे इसकी ख्याति बढ़ने लगी । पहले यह भाट के राजा रामचंद्र बघेला के बरबार में नौकर हुआ । कहा जाता है, वहाँ इसे करोड़ों रुपए मिले । इब्राहीम लोदी ने इसे अपने यहाँ बहुत बुलाना चाहा पर यह नहीं गया । अंत में अकखर ने राजसिंहासन पर बैठने के दस वर्ष पीछे इसे अपने दरबार में संमानपूर्वक बुलाया । जिस दिन पहले पहल इसने अपना गाना बादशाह को सुनाया, बादशाह ने इसे दो लाख रुपए दिए । बादशाह के दरबार में आने के कुछ दिन पीछे यह ग्वालियर जाकर और मुहम्मद गौस नामक एक मुसलमान फकीर से कलमा पढ़कर मुसलमान हो गया । तब से यह मियाँ तानसेन के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसके मुसलमान होने के संबंध में एक जनश्रुति है । कहते हैं, पहले बादशाह के सामने यह गाता ही नहीं था । एक दिन बादशाह ने अपनी कन्या को इसके सामने खड़ा कर दिया । उसके सौंदर्य पर मुग्ध होने के कारण इसकी प्रतिभा विकसित हो गई और इसने ऐसा अपूर्व गाना सुनाया कि बादशाहजादी भी मोहित हो गई । अकबर नै दोनों का विवाह कर दिया । तानसेन की मृत्यु के संबंध में भी एक अलौकिक घटना प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि इसकी अद्वितीय शक्ति को देखकर दरबार के और गवैए इससे जला करते थे और इसे मार जालने के यत्न में रहा करते थे । एक दिन सबने मिलकर यह सोचा कि यदि तानसेन दिपक राग गावे तो आपसे आप भस्म हो जायगा । इस परामर्श के अनुसार एक दिन सब गवैयों ने दरबार में दीपक राग की बात छेड़ी । बादशाह को अत्यंत उत्कंठा हुई और उसने दीपक राग गाने के लिये कहा । सब गबैयों ने एक स्वर से कहा कि तानसेन के सिवा दिवक राग और कोई नहीं गा सकता । तब बादशाह ने तानसेन को आज्ञा दी । तानसेन ने बहुत कहा कि यदि आप मुझे चाहते हों तो दीपक राग न गवावें । जब बादशाह ने न माना तब उसने अपनी लड़की को मलार राग गाने के लिये पास ही बैठा लिया जिसमें दीपक राग से प्रज्वलित अग्नि का मलार राग द्वारा शमन हो जाय । दीपर राग गाते ही दरबार के सब बुझे हुए दीपक जल उठे और तानसेन भी जलने लगा । तब उसकी लड़की ने मलार राग छेड़ा । पर अपने पिता की दुर्दशा देख उसका सुर बिगड़ गया और तानसेन जलकर भस्म हो गया । उसका शव ग्वालि- यर में ले जाकर दफन किया गया । उसकी कब्र के पास एक इमली का पेड़ है । आज दिन भी गवैए इस कब्र पर जाते हैं और इमली के पत्तों को चबाते हैं । उनका विश्वास है कि इससे कंठरस उत्पन्न होता है । गवैयों में तानसेन का यहाँ तक संमान है कि उसका नाम सुनते ही वे अपने कान पकड़ते हैं । तानसेन का बनाया हुआ एक ग्रंथ भी मिला है ।
⋙ ताना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तानना] १. कपडे़ की बुनावट में वह सूत जो लंबाई के बल होता है । वह तार या सूत दजिसे जुलाहे कपडे़ की लंबाई के अनुसार फैलाते हैं । उ०— अस जोलहा कर मरम न जाना । जिन जग आइ पसारस ताना ।— कबीर (शब्द०) । यौ० —ताना बाना ।क्रि० प्र० —तानना ।—फैलाना । २. दरी, कालीन बुनने का करधा ।
⋙ ताना (२)
क्रि० स० [हिं० ताव + ना (प्रत्य०)] १. ताव देना । तपाना । गरम करना । उ०— (क) कर कपोल अंतर नहिं पावत अति उसास तन ताइए (शब्द०) । (ख) देव दिखावति कंचन सो तन औरन को मन तावै अगौनी ।— देव (शब्द०) । २. पिघलाना । जैसे, घी ताना । ३. तपाकर परीक्षा करना (सोना आदि धातु) । ४. परीक्षा करना । जाँचना । आजमाना ।
⋙ ताना (३) †
क्रि० स० [हिं० तावा, तवा] गीली मिट्टी, आटे आदि से ढक्कन चिपकाकर किसी बपरतन का मुँह बंद करना । मूँदना । उ०— तिन श्रवनन पर दोष निरंत्तर सुनि भरि भरि तावों ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ताना (४)
संज्ञा पुं० [अ० तअनह] वह लगती हुई बात जिसका अर्थ कुछ छिपा हो । आक्षेप वाक्य । बोली ठोली । व्यंग्य । कटाक्ष । २. उपालंभ । गिला (को०) । ३. निंदा । बुराई (को०) । क्रि० प्रि० —देना ।—मारना । मुहा० — ताने देना = व्यंग्य करना । कटु बात कहना । उ०— मुँह खोल के दर्द दिल किसी से कह नहीं सकती कि हमजोलियाँ ताने देंगी ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १३३ ।
⋙ तानापाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताना = पाई (= ताने का सूत फैलाने का ढाँचा)] बार बार किसी स्थान पर आना जाना । उसी प्रकार लगातार फेरे लगाना जिस प्रकार जुलाहे ताने का सूत पाई पर फैलाने के लिये लगाते हैं ।
⋙ तानाबाना
सज्ञा पुं० [हिं० ताना + बाना] कपड़ा बुनने में लंबाई और चौड़ाई के बल फैलाए हुए सूत्त । मुहा०— ताना बाना करना = व्यर्थ इधर से उधर आना जाना । हेरा फेरी करना ।
⋙ तानारीरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तान + अनु० रीरी] साधारण गाना । राग । अलाप ।
⋙ तानाशाह
संज्ञा पुं० [फा़०] १. अब्बुलहमन बादशाह का दूसरा नाम । यह बादशाह स्वेच्छाचारी था । २. ऐसा शासक जो मनमाने ढंग से शासन करता हो और शासितों के हित का ध्यान न रखता हो । निरंकुश शासक । ३. स्वेच्छारी व्यक्ति । मनमाने ढंग से और जोर जबर्दस्ती काम करनेवाला आदमी ।
⋙ तानाशाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० तानाशाह] स्वेच्छाचारिता । मन- मानी । जोर जबर्दस्ती । उ०— जातीय जनतांत्रिक संयुक्त मोर्चा कांग्रेसी सरकार की तानाशाही को समाप्त करने तथा देश को विदेशी हस्तक्षेप से बचाने के निमित्त खड़ा हुआ था ।— नेपाल०, पृ० १८९ ।
⋙ तानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताना] कपडे़ की बुनावट में वह सूत जो लंबाई के बल हो ।
⋙ तानी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तानना] अँगरखे या चोली आदि की तनी । बंद । उ०— कंचुकि चूर, चूर, भइ तानी । टूटे हार मोति छहरानी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तानूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी का भँवर । २. वायु का भँवर ।
⋙ तानो †
संज्ञा पुं० [देश०] जमीन का टुकड़ा जिसमें कई खेत हों । चक ।
⋙ तान्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. तनुज । पुत्र । २. एक ऋषि का नाम जो तनु के पुत्र थे ।
⋙ ताप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राकृतिक शक्ति जिसका प्रभाव पदार्थों के पिघलने, भाप बनने आदि व्यापारों में देखा जाता है और जिसका अनुभव अग्नि, सूर्य की किरण आदि के रूप में इंद्रियों को होता है । यह अग्नि का समान्य गुण है जिसकी अधिकता से पदार्थ जलते या पिघलेत हैं । उष्णता । गर्मी । तेज । विशेष— ताप एक गुण मात्रा है, कोई द्रव्य नहीं है । किसी वस्तु को तपाने से उसकी तौल में कुछ फर्क नीहं पड़ता । विज्ञाना- नुसार ताप गतिशक्ति का ही एक भेद है । द्रव्य के अणुओं में जो एक प्रकार की हलचल या क्षोभ उत्पन्न होत है, उसी का अनुभव ताप के रूप में होता है । ताप सब पदार्थों में थोड़ा बहुत निहित रहता है । जब विशेष अवस्था में वह व्यक्त होता है, तब उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । जब शक्ति के संचार में रुकावट होती है, तब वह ताप का रूप धारण करती है । दो वस्तुएँ जब एक दूसरे से रगड़ खाती हैं तब जिस शक्ति का रगड़ में व्यय होता है, वह उष्णता के रूप में फिर प्रकट होती है । ताप की उत्पत्ति कई प्रकार से होती है । ताप का सबसे बड़ा भांडार सूर्य है जिससे पृथ्वी पर धूप की गरमी फैलती है । सूर्य के अतिरिक्त ताप संघर्षण (रगड़), ताड़न तथा रासायनिक योग से भी उत्पन्न होता है । दो लकड़ियों को रगड़ने से और चकमक पत्थर आदि पर हथौड़ा मारने से आग निकलते बहुतों ने देखा होगा । इसी प्रकार रासायनिक योग से अर्थात् एक विशेष द्रव्य के साथ दूसरे विशेष द्रव्य के मिलने से भी आग या गरमी पैदा हो जाती है । चूने की डली में पानी डालने से, पानी में तेजाब या पोटाश डालने से गरमी या लपट उठती है । ताप का प्रधान कुण यह है कि उससे पदार्थों का विस्तार कुछ बढ़ जाता है अर्थात् वे कुछ फैल जाते हैं । यदि लोहे की किसी ऐसी छड़ को लें जो किसी छेद में कसकर वैठ जाती हो और उसे तपावें तो वह उस छेद में नहीं घुसेगी । गरमी में किसी तेज चलती हुई गाड़ी के पहिए की हाल जब ढीली मालूम होने लगती है, तब उसपर पानी डालते हैं जिसमें उसका फैलाव घट जाय । रेल की लाइनों के जोड़ पर जो थोड़ी सी जगह छोड़ दी जाती है, वह इसीलिये जिसमें गरमी मे लाइन के लोहे फैलकर उठ न जायँ । जीवों को जो ताप का अनुभव होता है वह उनके शरीर की अवस्था के अनुसार होता है, अतः स्पर्शेद्रिय द्वारा ताप का ठीक ठीक अंदाज सदा नहीं हो सकता । इसी से ताप की मात्रा नापने के लिये थर्मामीटर नाम का एक यंत्रबनाया गया है जिसके भीतर पारा रहता है जो अधिक गरमी पाने से ऊपर चढ़ता है और गरमी कम होने से नीचे गिरता है । २. आँच । लुपट । ३. ज्वर । बुखार । क्रि० प्र० —चढ़ना । यौ०—तापतिल्ली । ४. कष्ट । दुःख । पीड़ा । विशेष—ताप तीन प्रकार का माना गया है— आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । वि० दे० 'दुःख' । उ०— वैहिक, दैविक, भौतिक तापा । रामरज काहुहि नहिं । व्यापा ।— तुलसी (शब्द०) । ५. मानसिक कष्ट । हृदय का दुःख (जैसे, शोक, पछतावा आदि) । उ०— एकही अखंड जाप ताप कूँ हरतु है ।— संतवाणी०, पृ० १०७ ।
⋙ तापक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताप उत्पन्न करनेवाला । उ०— तापक जो रवि सोषत है नित कंज ज्यूँ ताहि देख्यां विकसाहीं ।— राम० धर्म०, पृ० ६२ । २. रजोगुण । विशेष— रजोगुण ही ताप या दुःख का प्रतिकारण माना जाता है । ३. ज्वर । बुखार ।
⋙ तापक्रम
संज्ञा पुं० [सं० ताप + क्रम] १. शरीर कै तापमान का चढ़ाव उतार । २. वायुमंडल की गरमी का उतार चढ़ाव [को०] ।
⋙ तापड़ना पु
क्रि० स० [हिं० ताप] संताप देना । उ०— सेन अकब्बर तापडे़ आप गयौ खह मग्ग ।— रा० रू०, पृ० १०२ ।
⋙ तापति
अव्य० [सं० तत्पश्चात] उसके बाद । तत्पश्चात् । उ०— सुरत रस सुचेतन बालमु तापति सबे असार ।— विद्यापति, पृ० २३६ ।
⋙ तापतिल्ली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताप (= ज्वर) + तिल्ली] ज्वरयुक्त प्लीहा रोग । पिलही बढ़ने का रोग ।
⋙ तापती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्य की कन्या तापी । २. एक नदी का नाम जो सतपुड़ा पहाड़ से निकलकर पश्चिम की और को बहता हुई खंभात की खाड़ी में गिरती हैं । विशेष—स्कंदपुराण के तापी खंड में तापती के विषय में यह कथा लिखी है । अगस्त्य मुनि के शाप से वरुण संवरण नामक सोमवंशी राजा हुए । उन्होंने घोर तप करके सूर्य की कन्या तापी से विवाह किया जो अत्यंत रूपवती और तापनाशिनी थी । वही तापी के नाम से प्रवाहित हुई । जो लोग उसमें स्नान करते हैं, उनके सब पातक छूट जाते हैं । आषाढ़ मास में इसमें स्नान करने का विशेष माहात्म्य है । तापीखंड में तापती के तट पर गजतीर्थ, अक्षमाला तीर्थ आदि अनेक तीर्थों का होना लिखा है । इन तीर्थों के अतिरिक्त १०८ महालिंग भी इस पुनीत नदी के तट पर भिन्न भिन्न स्थानों में स्थित बतलाए गए हैं ।
⋙ तापत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीन प्रकार के ताप—आध्यात्मिक, आधि—दैविक, और आधिभौतिक ।
⋙ तापत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन का एक नाम [को०] ।
⋙ तापत्य (२)
वि० तापती संबंधी [को०] ।
⋙ तापद
वि० [सं०] कष्टदायक [को०] ।
⋙ तापदुःख
संज्ञा पुं० [सं०] पातंजल दर्शन के अनुसार दुःख का एक भेद । विशेष— पातंजल दर्शन में तीन प्रकार के दुःख माने गए हैं, तापदुःख, संस्कारदुःख और परिणामदुःख । दे० 'दुःख' ।
⋙ तापन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताप देनावाला । २. सूर्य । ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक । ४. सूर्यकांत मणि । ५. अर्क वृक्ष । मदार । ६. ढोल नाम का बाजा । ७. एक नरक का नाम । ८. तंत्र में एक प्रकार का प्रयोग जिससे शत्रु को पीड़ा होती है । ९. सुवर्ण । सोना (को०) । १०. कष्ट देनेवाला (को०) । ११. ग्रीष्म ऋतु (को०) । १२. जलानेवाला (को०) । १३. भर्त्सना करनेवाल (को०) । १४. अवसाद । कष्ट । विषाद (को०) ।
⋙ तापन (२)
वि० १. कष्टद । कष्टकारक । २. गरमी देनेवाला । तापकारक [को०] ।
⋙ तापना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पवित्रता । शुद्धता [को०] ।
⋙ तापना (२)
क्रि० अ० [सं० तापन] आग की आँच से अपने को गरम करना । अपने को आग के सामने गरमाना । कहीं कहीं धूप लेने के खर्थ में भी बोलते हैं, जैसे, वह ताप रहा है । विशेष—'आग तापना' आदि प्रयोगों को देख अधिकांश लोगों ने इस क्रिया को सकर्मक माना है । पर आग इस क्रिया का कर्म नहीं है, क्यौं कि आग नहीं गरम की जाती है, गरम किया जाता है शरीर । 'खरीर तापते हैं', 'हाथ पैर तापते हैं' ऐसा नीहं बोला जाता । दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि इस क्रिया का फल कर्ता से अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता, जैसे कि 'तपाना' में देखा जाता है । 'आग तापना' एक संयुक्त क्रिया है जिसमें आग तृतीयांत पद (करण) है ।
⋙ तापना (३)
क्रि० स० १. शरीर गरम करने के लिये जलाना । फूँकना । संयो० क्रि०—डालना । २. उड़ाना । नष्ट करना । बरबाद करना । जैसे, — वे सारा धन फूँक तापकर किनारे हो गए । यौ०—फूँकना तापना ।
⋙ तापना पु (४)
क्रि० स० तपाना । गरम करना । उ०— तापी सब भूमि यों कृपान भासमान सों ।— भूषण ग्रं०, पृ० ४९ ।
⋙ तापनीय (१)
संत्रा पुं० [सं०] १. एक उपनिषद् । २. एक प्राचीन तौल जो एक निष्क के बराबर थी [को०] ।
⋙ तापनीय (२)
वि० सोने से युक्त । सुनहला [को०] ।
⋙ तापमान
संज्ञा पुं० [सं० ताप + मान] थर्मामीटर या गरमी मापने के यंत्र द्वारा मापी गई शरीर या वायुमंडल की ऊष्मा ।
⋙ तापमान यंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तापमान + यंन्त्र] उष्णता की मात्रा मापने का एक यंत्र । गरमी मापने का एक यंत्र । गरमी मापने का एक औजार । विशेष— यह यंत्र शीशे की एक पतली नली में कुछ दूर तक पारा भरकर बनाया जाता है । अधिक गरमी पाकर यह पारालकीर के रूप में ऊपर की और चढ़ता है और कम गरमी पाकर नीचे की और घटता है । गली हुई बरफ या बरफ के पानी में नली को रखने से पारे की लकीर जिस स्थान तक नीचे आती हैं, एक चिह्न वहाँ लगा देते हैं और खौलते हुए पानी में रखने से जिस स्थान तक ऊपर चढ़ती है, दूसरा चिह्न वहाँ लगा देते हैं । इन दोनों के बीच की दूरी को १०० अथवा १८० बराबर भागों में चिह्नों के द्वारा बाँट देते हैं । ये चिह्न अंश या डिग्री कहलाते हैं । यंत्र को किसी वस्तु पर रखने से पारे की लकीर जितने अंशों तक पहुँची रहती है, उतने अंशों की गरमी उस वस्तु में कही जाती है ।
⋙ तापयान
वि० [सं०] उष्ण । जलता हुआ [को०] ।
⋙ तापल † (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताप] क्रोध । — (डिं०) ।
⋙ तापल (२)
वि० गरम । उत्पप्त । तपा हुआ । उ०— एक कहा यह जीउ पियारा । तापल रहइ सरीर मझारा ।— इंद्रा०, पृ० ५८ ।
⋙ तापव्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० तापव्यञ्जन] वे गुप्तचर या खुफिया पुलिस के आदमी जो तपस्वियों या साधुओं के देश में रहते थे । विशेष— कौटिल्य के समय में ये समाहर्ता के अधिन होते थे । ये किसानों, गोपों, व्यापारियों तथा भिन्न भिन्न अध्यक्षों के ऊपर दृष्टि रखते थे तथा शत्रु राजा के गुप्तचरों और चौर डाकुओं का पता भी लगाया करते थे ।
⋙ तापश्चित
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ का नाम ।
⋙ तापस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० तापसी] १. तप करनेवाला । तपस्वी । उ०— सखी ! कुमार तापस कहते हैं कि आतिथ्य स्वीकार करना होगा ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६८४ । २. तमाल । तेजपत्ता ।३. दमनक । दौना नामक पौधा । ४. एक प्रकार की ईख । ५. बक । बगला ।
⋙ तापस (२)
वि० तपस्या या तपस्वी से संबंधित ।
⋙ तापसक
संज्ञा पुं० [सं०] सामान्य या छोटा तपस्वी । वह तपस्वी जिसकी तपस्या थोड़ी हो ।
⋙ तापसज
संज्ञा पुं० [सं०] तेजपत्ता । तेजपात ।
⋙ तापसतरु
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगोट वृक्ष । इंगुआ का पेड़ । इंगुदी वृक्ष । विशेष— तपस्वी लोग वन में इंगुदी का ही तेल काम में लाते थे, इसी से इसका ऐसा नाम पड़ा ।
⋙ तापसदुम
संज्ञा पुं० [सं०] इंगुदी वृक्ष ।
⋙ तापसप्रिय (१)
वि० [सं०] १. जो तपस्वियों का प्रिय हो । २. जिसे तपस्वी प्रिय हों ।
⋙ तापसप्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. इंगुदी वृक्ष । २. चिरौजी का पेड़ ।
⋙ तापसप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगूर या मुनक्का । दाख ।
⋙ तापसवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तापसतरु' ।
⋙ तापसव्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० तापसव्यञ्जन] दे० 'तापव्यंजन' ।
⋙ तापसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तपस्या करनेवाली स्त्री । २. तपस्वी की स्त्री ।
⋙ तापसेक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ईख ।
⋙ तापसेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुनक्का । दाख [को०] ।
⋙ तापस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तापस धर्म । तपस्या । २. वैराग्य । संन्यास [को०] ।
⋙ तापस्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रकार की उष्णता पहुँचाकर उत्पन्न किया हुआ या ज्वरादि की उष्णता के कारण उत्पन्न पसीना । २. गरम बालू, नमक, वस्त्र, हाथ, आग की आँच आदि से सेंककर पसीना निकालने की क्रिया ।
⋙ तापस्स पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तापस-१' । उ०—जगम इक तापस्स मिल्यौ बरदार सुदध मन ।—पृ० रा०, ६ । १४२ ।
⋙ तापहर
वि० [सं० ताप + हीं० हरना] तपन या दाह को दूर करनेवाला । उ०— तापहर हृदयवेग लग्न एक ही स्मृति में; कितना अपनाव ।— अनामिका, पृ० ६९ ।
⋙ तापहरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्यंजन का नाम । एक पकवान । (भावप्रकाश) । विशेष— उरद की बरी मिले हुए धोए चावल को हलदी के साथ घी में तले या पकावे । तल जाने पर उसमें थोड़ा जल डाल दे । जब रसा तैयार हो जाय, तब उसे अदरक और हींग से बधारकर उतार ले ।
⋙ तापा
संज्ञा पुं० [हिं० तोपना ?] १. मछली मारने का तख्ता (लश०) । २. मुरगी का दरबा ।
⋙ तापायन
संज्ञा पुं० [सं०] बाजसनेयी शाखा का एक भेद ।
⋙ तापिंछ
संज्ञा पुं० [सं० तापिञ्छ] दे० 'तापिंज' ।
⋙ तापिंज
संज्ञा पुं० [सं० तापिञ्ज] १. सोनामक्खी । २. श्याम तमाल ।
⋙ तापिच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] तमाल वृक्ष । उ०— बढ़ीं तापिच्छ शाखा सी भुजाएँ— अनुज की ओर दाएँ और वाएँ ।— साकेत, पृ० ६३ ।
⋙ तापित
वि० [सं०] १. तापयुक्त । जो तपाया गया हो ।२. दुःखित । पीड़ित ।
⋙ तापिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप ?] आनाहत चक्र की एक मात्रा ।
⋙ तापी (१)
वि० [सं० तापिन्] १. ताप देनेवाला । २. जिसमें ताप हो ।
⋙ तापी (२)
संज्ञा पुं० बुद्धदेव ।
⋙ तापी (३)
संज्ञा स्त्री० १. सूर्य की एक कन्या । दे० 'तापती' । २. तापती नदी । ३. यमुना नदी ।
⋙ तापीज
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी । माक्षिक धातु ।
⋙ तापुर
संज्ञा पुं० [पालि ?] महाबोधिसत्व का दूसरा नाम । उ०— नवदीक्षित भिक्षु बोधिसत्व होने की प्रतिज्ञा करते हैं और उसके बाद से उनके शिष्य उन्हें 'तापुर' या महाबोधिसत्व कहकर संबोधित करते हैं ।— संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २१४ ।
⋙ तापेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० तापेन्द्र] सूर्य । उ०— नमो पातु तापेंद्र देव प्रतीचं । नमो मे रविं रक्ष रक्षेंदु दीचं ।— *विश्राम (शब्द०) ।
⋙ ताप्ती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तापती] दे० 'तापती' ।
⋙ ताप्ती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताफ्ता' ।
⋙ ताप्य
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी ।
⋙ ताफता
संज्ञा पुं० [फा० ताफ्तहू] दे० 'ताफ्ता' । उ०— छुटी न सिसुता की झलक झलक्यो जोबन अंग । दिपत देह दुहून मिलि दिवति ताफता रंग ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ ताफ्ता
संज्ञा पुं० [फा़० ताफ्तह्] एक प्रकार का चमकदार रेशमी कपड़ा । धूप छाँह रेशमी कपड़ा ।
⋙ ताब
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. ताप । गरमी । २. चमक । आभा । दीप्ति । ३. शक्ति । सामर्थ्य । हिम्मत । मजाल । जैसे,— उनकी क्या ताब कि आपके सामने कुछ बोलें ? ४. सहन करने की शक्ति । मन को वश में रखने की सामर्थ्य । धैर्य । जैसे,— अब इतनी ताब नहीं है कि दो घड़ी ठहर जायँ ।
⋙ ताबड़तोड़
क्रि० वि० [अनु०] एक के उपरांत तुरंत दूसरा, इस क्रम से । अखंडित क्रम से । लगातार । बराबर ।
⋙ ताबनाक
वि० [फा़०] प्रकाशमान । ज्योतिर्मय । चमकता हुआ । उ०— बचन का अजब मय यो है ताबनाक । फहमदार के गोश का जिस्म खुश्क ।— दक्खिनी०, पृ० २६७ ।
⋙ ताबाँ
वि० [फा़०] ज्योतिर्मय । प्रकाशमान । दीप्त । रौशन ।
⋙ ताबा (१)
वि० [अ० ताबअ] दे० 'ताबे' ।
⋙ ताबा (२)
संज्ञा पुं० अधिकार । हक । उ०— राकै वंश जाया भूमि ताबा की अड़ाई ।— शिखर०, पृ० २७ ।
⋙ ताबिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] गर्मी । उष्णता । तपन । उ०— तुज हुस्न के खुरशीद का तिरलोक में ताविश पडे़ । — दक्खिनी०, पृ० ३२१ ।
⋙ ताबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० ताब] ताप । गरमी । उष्णता । उ०— मक्का भिस्त हज्ज को देखा । अबरा आब और ताबी ।— घट०, पृ० २११ ।
⋙ ताबीज
संज्ञा पुं० [अ० ताअ़वीज़] दे० 'तावीज' । उ०— हीरा भुज ताबीज मैं सोहत है यह बान ।—स० सप्तक, पृ० १८६ ।
⋙ ताबीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] स्वप्न आदि का शुभाशुभ वर्णन । उ०— इबादत में रहता है रोशन जमीर । बतावेगा ताबीर वह मर्द पीर ।— दक्खिनी०, पृ० ३०० ।
⋙ ताबूत
संज्ञा पुं० [अ०] वह संदूक जिसमें मुरदे की लाश रखकर गाड़ने को ले जाते हैं । मुरदे का संदूक । उ०— कुश्तए हसरते दीदार है या रब किस्के । नख्ल ताबूत में जो फूल ला नरगिस्के ।—श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० ८५ ।
⋙ ताबे (१)
वि० [अ०ताबअ] १. वशीभूत । अधीन । मातहत । जैसे,— जो तुम्हारे ताबै हो, उसे आँख दिखाओ । २. आज्ञानुवर्ती हुक्म का पाबंद । यो०—ताबेदार ।
⋙ ताबेगम
संज्ञा स्त्री० [फा़० ताब + अ० ग्रम] दुःख सहने की शक्ति [को०] ।
⋙ ताबेजब्त
संज्ञा स्त्री० [फा़० ताब+ अ० जब्त] प्रेम की पीड़ा या दुःख सहने की शक्ति [को०] ।
⋙ तावेदार (१)
वि० [अ० ताबअ + फ़ा० दार (प्रत्य०) ।] आज्ञाकारी । हुक्म का पाबंद ।
⋙ ताबेदार (२)
संज्ञा पुं० नौकर । सेवक । अनुचर ।
⋙ ताबेदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. सेवकाई । नौकरी । २. सेवा । टहल । क्रि० प्र०—करना ।—बजाना ।
⋙ ताम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोष । विकार । उ०— ऊड़त रहत बिना पर जामे त्यागी कनक ले ताम ।—गुलाल०, पृ० १९ । २. मनोविकार । चित्त का उद्वेग । व्याकुलता । बेचैनी । उ०—(क) मिटयो काम तनु ताम तुलत ही रिझई मदन गोपाल ।— सूर (शब्द०) ।(ख) तरुतमाल तर तरुन कन्हाई दूरि करन युवतिन तनु ताम ।— सूर (शब्द०) । ३. दुःख । क्लेश । व्यथा । कष्ट । उ०— देखत पय पीवत बलराम । तातो लगत डारि तुम दीनो दावानल पीवत नहिं ताम ।—सूर (शब्द०) । ४. ग्लानि । ५. इच्छा । चाहना (को०) । ६. थकान । क्लांति (को०) ।
⋙ ताम (२)
वि० १. भीषण । डरावना । भयंकर । २. दुःखी । व्याकुल । हैरान । उ०— अति सुकुमार मनोहर मूरति ताहि करति तुम ताम ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ताम (३)
संज्ञा पुं० [सं० तामस] १. क्रोध । रोथष । गुस्सा । उ०— (क) सूरदास प्रभु मिलहु कृपा करि दूरि करहु मन तामहि ।— सूर (शब्द०) । (ख) सूर प्रभु जेहि सदन जात न सोइ करति तनु ताम ।—सूर (शब्द०) । २. अंधकार । अँधेरा । उ०— जननि कहति उठहु श्याम, विगत जानि रजनि ताम, सूरदाम प्रभु कृपालु तुमको कछु खैवे ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ताम पु
अव्य [प्राकृत] १. तब तक ।२. तब । उस समय । उ०— ताम हंस आयौ समषि कह्यो अहो शशिवृत्त ।—पृ० रा०, २५ । २९६ ।
⋙ तामजान
संज्ञा पुं० [हिं० थामना + सं० यान (= सवारी)] एक प्रकार की छोटी खुली पालकी । एक हलकी सवार जो काठ की लंबी कुरसी के आकार की होती है और जिसे कहार उठाकर ले चलते हैं ।
⋙ तामझाम
संज्ञा पुं० [हिं० तामजान] धूमधाम । शान शौकत । दिखावटी प्रदर्शन ।
⋙ तामड़ा (१)
वि० [सं० ताम्र, हिं० ताँबा + ड़ा (प्रत्य०)] ताँबे के रंग का । ललाई लिए हुए भूरा । जैसे, तामड़ा रंग, तामड़ा कबूतर ।
⋙ तामड़ा (२)
संज्ञा पुं० १. ऊदे रंग का एक प्रकार का पत्थर या नगीना ।२. एक तरह का कागज । ३. खल्वाट मस्तक । गंजी खोपड़ी । †४. स्वच्छ आकाश । ५. बहुत पकी हुई ईँट ।
⋙ तामदान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तामजान' । उ०— श्री दर्शने- श्वरनाथ को पुष्पांजलि चढ़ाने के लिये तामदान पर सवार होकर गए ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८१ ।
⋙ तामना †
क्रि० स० [देश०] खेत जोतने के पूर्व खेत की घास उखाड़ना ।
⋙ तामर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी । २. घी । विशेष— यह शब्द 'तामरस' शब्द को संस्कृत सिद्ध करने के लिये गढ़ा हुआ जान पड़ता है ।
⋙ तामरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । उ०— सियरे बदन सूखि गए कैसे । परसत तुहिन तामरस जैसे ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष— यद्यपि यह शब्द वेदों में आया है तथापि आर्यभाषा का नहीं है । 'पिक' आदि के समान यह अनार्य भाषा से आया हुआ माना गया है । शबर भाष्य में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है । २. सोना । ३. ताँबा । ४. धतूरा । ५. सारस । ६. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण, दो जगण और एक यगण (/?/) होता है । जैसे,— निज जय हेतु करौ रघुबीरा । तब नुति मोरी हरौ भव पीरा ।
⋙ तामरसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सरोवर जिसमें कमल हों । कमलोंवाला ताल [को०] ।
⋙ तामलकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी । भूआँवला ।
⋙ तामलूक
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रलिप्त] वंग देश के अंतर्गत एक भूभाग जो मेदिनीपुर जिले में है । वि० दे० 'ताम्लिप्त' । विशेष— यह परगना गंगा के मुहाने के पास पड़ता है । इस प्रदेश का प्राचीन नाम ताम्रलिप्त है । ईसा की चौथी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक यह वाणिज्य का एक प्रधान स्थल था ।
⋙ तामलेट
संज्ञा पुं० [अं० टाम + प्लेट या टंबलर] लोहे का गिलास या बरतन जिसपर चमकदार रोगन या लुक फेरा रहता है । एनेमल किया हुआ बरतन ।
⋙ तामलोट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तामलेट' ।
⋙ तामस (१)
वि० [सं०] [ वि० स्त्री० तामसी] १. जिसमें प्रकृति के उस गुण की प्रधानता हो जिसके अनुसार जीव क्रोध आदि नीच वृत्तियों के वशीभूत होकर आचरण करता है । तमोगुण युक्त । उ०— (क) होइ भजन नहिं तामस देहा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) विप्र साप तें दूनउँ भाई । तामस असुर देह तिन पाई ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष— पद्मपुराण में कुछ शास्त्र, तामस बतलाए गए हैं । कणाद का वैशेषिक, गौतम का न्याय, कपिल का सांख्य, जैमिनि की मीमांसा, इन सब की गणना उक्त पुराण के अनुसार तामस शास्त्रों में की गई है । इसी प्रकार बृहस्पति का चार्वाक दर्शन, शाक्य मुनि का बौद्ध शास्त्र, शंकर का वेदांत इत्यादि तत्वज्ञान संबंधी ग्रंथ भी सांप्रदायिक दृष्टि से तामस माने जाते हैं । पुराणों में मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, अग्नि और स्कंद ये छह तामस पुराण कहे गए हैं । सामुद्र, शंख, यम, औशनस आदि कुछ स्मृतियों तथा जैमिनि, कणाद, बृहस्पति, जमदग्नि, शुक्राचार्य आदि कुछ मुनियों को भी तामस कह डाला है । इसी प्रकार प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार अनेक वस्तुओं और व्यापारों के विभाग किए गए हैं । निद्रा, आलस्य, प्रभाव आदि से उत्पन्न सुख को तामस सुख; पुरोहिताई, असत्प्रति, ग्रह, पशुहिंसा, लोभ, मोह, अहंकार आदि को तामस कर्म कहा है । विष्णु सत्वगुणमय, ब्रह्मा रजोगुणमय और शिव तमोगुणमय माने जाते हैं । उ०— ब्रह्मा राजस गुण अधिकारी शिव तामस अधिकारी ।—सूर (शब्द०) । २. अंधकार युक्त । अंधकारमय (को०) ।३. तमस् से प्रभावित या संबद्ध (को०) । ४. यज्ञ (को०) । ५. दुष्ट । कुटिल (को०) ।
⋙ तामस (२)
संज्ञा पुं० १. सर्प । साँप । २. खल । ३. उल्लू । ४. क्रोध । गुस्सा । चिढ़ । उ०— कहु तोकों कैसे आवत है शिशु पै तामस एत ? —सूर (शब्द०) । ५. अंधकरा । अँधेरा । उ०— तू मरु कूप छलीक सून हिय तामस वासा ।—दीनदयाल (शब्द०) । ६. अज्ञान । मोह । ७. चौथे मनु का नाम । ८. एक अस्त्र का नाम —(वाल्मीकि रामायण) ।९. तेंतीस प्रकार के केतु जो सूर्य और चंद्रमा के भीतर दृष्टिगोचर होते हैं । -(बृहत्संहिता) । वि० दे० 'तामसकीलक' । १०. तमोगुण । उ०— झूठा है संसार तो तामस परिहरी ।— धरम०, पृ० ४० । ११. राहु का एक पुत्र (को०) । १२. अंधकरा (को०) । १३. वह घोड़ा जिसमें तमोगुण हो (को०) ।
⋙ तामसकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के केतु जो हारु के पुत्र माने जाते हैं और संख्या में ३३ हैं । विशेष— सूर्यमंडल में इनके वर्ण, आकार और स्थान को देखकर फल का निर्णय किया जाता है । ये यदि सूर्यमंडल में दिखाई पड़ते हैं, तो इनका फल अशुभ और चंद्रमंडल में दिखाई पड़ते हैं तो शुभ माना जाता है ।
⋙ तामसमद्य
संज्ञा पुं० [सं०] कई बार की खींची हुई शराब ।
⋙ तामसवाण
संज्ञा पुं० [सं०] एक शस्त्र का नाम ।
⋙ तामसाहंकार
संज्ञा पुं० [सं० तामसाहङ्कार] एक प्रकार का अहंकार अहंकार का एक भेद । उ०— तिहिं तामसाहंकार ते दश तत्व उपजे आइ ।— सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६० ।
⋙ तामसिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तामसिकी] १. तासमयुक्त । तमो- गुणवाली । उ०— या विविध तामसिक बातें । उसको हैं अधिक रुलाती ।—परिजात, पृ० ७२ । २. तमस् से उत्पन्न या तमस् से लग्न (को०) ।
⋙ तामसी (१)
वि० स्त्री० [सं०] तमोगुणवाली । जैसे, तामसी प्रकुति । यौ०— तामसी लीना = असंतोष के प्रकारों में से एक (सांख्य) ।
⋙ तामसी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अँधेरी रात । २. महाकाली । ३. जटामासी । बलाछड़ । ४. एक प्रकार की माया विद्या जिसे शिव ने निकुंभिला यज्ञ से प्रसन्न होकर मेघनाद को दिया था ।
⋙ तामा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताँबा' ।
⋙ तामि
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वास का नियंत्रण [को०] ।
⋙ तामियाँ
वि० [हिं० तामा + इया (प्रत्य०)] दे० 'तामिया' ।
⋙ तामिया
वि० [हिं० तामा + इया (प्रत्य०)] १. ताँबे के रंग का । २. ताँबे का । ताँबे से निर्मित ।
⋙ तामिल
संज्ञा स्त्री० [तमिल; तमिष्] १. भारत के दूरस्थ दक्षिण प्रांत की एक जाति जो आधुनिक मद्रास प्रांत के अधिकांशभाग में निवास करती है । यह द्रविड़ जाति की ही एक शाखा है । विशेष— बहुत से विद्वानों की राय है कि तामिल शब्द संस्कृत 'द्राविड' से निकला है । मनुसंहिता, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में द्रविड देश और द्रविड जाति का उल्लेख है । मागधी प्राकृत या पाली में इसी 'द्राविड' शब्द का रूप 'दामिलो' हो गया । तामिल वर्णमाला में त, ष, द आदि के एक ही उच्चारण के कारण 'दामिलो' का 'तामिलो' या 'तामिल' हो गया । शंकराचार्य के शारीरक भाष्य में 'द्रमिल' शब्द आया है । हुएनसांग नामक चीनी यात्री ने भी द्रविड देश को चि—मो—लो करके लिखा है । तामिल व्याकरण के अनुसार द्रमिल शभ्द का रूप 'तिरमिड़' होता है । आजकल कुछ विद्वानों की राय हो रही है कि यह 'तिरमिड़' शब्द ही प्राचीन है जिससे संस्कृतवालों ने 'द्रविड' शब्द बना लिया । जैनों के 'शत्रुंजय माहात्म्य' नामक एक ग्रंथ में 'द्रविड' शब्द पर एक विलक्षण कल्पना की गई है । उक्त पुस्तक के मत से आदि तीर्थकर ऋषभदेव को 'द्रविड' नामक एक पुत्र जिस भूभाग में हुआ, उसका नाम 'द्रविड' पड़ गया । पर भारत, मनुसंहिता आदि प्राचीन ग्रंथों से विदित होता है कि द्रविड जाति के निवास के ही कारण देश का नाम द्रविड पड़ा । (दे० द्राविड) । तामील जाति अत्यंत प्राचीन हे । पुरातत्वविदों का मत है कि यह जाति अनार्य है और आर्यों के आगमन से पूर्व ही भारत के अनेक भागों में निवास करती थी । रामचंद्र ने दक्षिण में जाकर जिन लोगों की सहायता से लंका पर चढ़ाई की थी और जिन्हें वाल्मीकि ने बंदर लिखा है, वे इसी जाति के थे । उनके काले वर्ण, भिन्न आकृति तथा विकट भाषा आदि के कारण ही आर्यों ने उन्हें बंदर कहा होगा । पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि तामिल जाति आर्यों के संसर्ग के पूर्व ही बहुत कुछ सभ्यता प्राप्त कर चुकी थी । तामिल लोगों के रजा होते थे जो किले बनाकर रहते थे । वे हजार तक गिन लेते थे । वे नाव, छोटे मोटे जहाज, धनुष, बाण, तलवार इत्यादि बना लेते थे और एक प्रकार का कपड़ा बुनना भी जानते थे । राँगे, सीसे और जस्ते को छोड़ और सब धातुओं का ज्ञान भी उन्हें था । आर्यों के संसर्ग के उपरांत उन्होंने आर्यों की सभ्यता पूर्ण रूप से ग्रहण की । दक्षिण देश में ऐसी जनश्रुति है कि अगस्तय ऋषि ने दक्षिण में जाकर वहाँ के निवासियों को बहुत सी विद्याएँ सिखाई । बारह तेरह सौ वर्ष पहले दक्षिण में जैन धर्म का बड़ा प्रचार था । चीनी यात्री हुएनसांग जिस समय दक्षिण में गया था, उसने वहाँ दिगंबर जैनों की प्रधानता देखी थी । २. द्रविड भाषा । तामिल लोगों की भाषा । विशेष— तामिल भाषा का साहित्य भी अत्यंत प्रचीन है । दो हजार वर्ष पूर्व तक के काव्य तामिल भाषा में विद्यमान हैं । पर वर्णमाला नागरी लिपि की तुलना में अपूर्ण है । अनुनासिक पंचम वर्ण को छोड़ व्यंजन के एक एक वर्ग का उच्चारण एक ही सा है । क, ख, ग, घ, चारहों का उच्चारण एक ही है । व्यंजनों के इस अभाव के कारण जो संस्कृत शब्द प्रयुक्त होते हैं, वे विकृत्त हो जाते हैं; जैसे, 'कृष्ण' शब्द तामिल में 'किट्टिनन' हो जाता है । तामिल भाषा का प्रधान ग्रंथ कवि तिरुवल्लुवर रचित कुरल काव्य है ।
⋙ तामिल लिपि
संज्ञा स्त्री० [हिं० तामिल + सं० लिपि] एक प्रकार की लिपिविशेष । विशेष—यह लिपि मद्रास अहाते के जिन हिस्सों में प्राचीन ग्रंथ- लिपि प्रचलित थी वहाँ के, तथा उक्त अहाते के पश्चिमी तट अर्थात् मलाबार प्रदेश के तामिल भाषा के लेखों में ई० स० की सातबीं शताब्दी से बारबर मिलती चली आती है । ('तामिल' शब्द की उत्पत्ति देश और जातिसूचक 'द्रमिल') (द्रविड) शब्द से हुई है । (दे० भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० १३२) ।
⋙ तामिस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम जिसमें सदा घोर अंधकार बन रहता है । २. क्रोध । ३. द्वेष । ४. एक अविद्या का नाम । भोग की इच्छापूर्ति में बाधा पड़ने से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे तामिस्त्र कहते हैं ।— *(भागवत) । ५. घृणा (को०) । ७. एक राक्षस (को०) ।
⋙ तामी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तामि' [को०] ।
⋙ तामी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँबा] १. ताँबे का तसला । २. द्रव पदार्थों को नपने का एक बरतन ।
⋙ तामीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. निर्माण । बनाना । रचना । इमारत का निर्माण । वास्तुक्रिया । ३. सुधार । इस्लाह । ४. इमारत । भवन बनावट [को०] । यौ०—तामीरे कौम = (१) राष्ट्रनिर्माण । (२) जाति का निर्माण । कौम या जाति का सुधार । तामीरे मुल्क = राष्ट्रनिर्माण ।
⋙ तामीरी
वि० [हिं० तामीर + ई (प्रत्य०)] इस्लाही । रचनात्मक [को०] ।
⋙ तामील
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. (आज्ञा का) पालन । जैसे, हुक्म की तामील होना । यौ०—तामीले हुक्म = आज्ञा का पालन । क्रि० प्र० —करना ।—होना । २. किसी परवाने, सम्मन या वारंट का विष्पादन (को०) ।
⋙ तामेसरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँबा] एक प्रकार का तामड़ा रंग जो गेरू के योग से बनता है ।
⋙ ताम्मुल
संज्ञा पुं० [अ० तअम्मुल] सोच विचार । असमंजस । उ०— हजूर, इन जरा जरा सी बातों पर इतना सा ताम्मुल करेगे तो काम क्योंकर चलेगा ? — श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ५० ।
⋙ ताम्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा । २. एक प्रकार का कोढ़ । ३. अंजना या ताँबिया लाल रंग (को०) ।
⋙ ताम्र (२)
वि० १. ताँबे का बना हुआ । २. ताँबे के रंग का । ताँबे जैसा [को०] ।
⋙ ताम्रक
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा ।
⋙ ताम्रकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिम के दिग्गज अंजन की पत्नी । अंजना ।
⋙ ताम्रकरा
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबे के बरतन बनानेवाला । तमेरा ।
⋙ ताम्रकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ताम्रकार' [को०] ।
⋙ ताम्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] तमाकू का पेड़ या पौधा । विशेष— यह शब्द गढ़ा हुआ है और कुलावर्ण तंत्र में आया है ।
⋙ ताम्रकृमि
संज्ञा पुं० [सं०] बीर बहूटी नाम का कीड़ा ।
⋙ ताम्रगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] तुत्थ । तूतिया ।
⋙ ताम्रचूड़
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रचूड] १. कुकरौंधा नाम का पौधा । २. मुरगा । उ०— दूर बोला ताम्रचूड़ गभीर, क्रूर भी है काल निर्झर बीर ।— साकेत, पृ० १९५ ।
⋙ ताम्रचूड़क
संज्ञा पुं० [सं० तम्रचूडक] हाथ की एक मुद्रा [को०] ।
⋙ ताम्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ताँबे जैसा लाल रंग [को०] ।
⋙ ताम्रतुंड
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रतुण्ड] एक प्रकार का बंदर [को०] ।
⋙ ताम्रुत्रपुज
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल [को०] ।
⋙ ताम्रदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरखदुद्धी । छोटी दुद्धी । अमर संजीवनी ।
⋙ ताम्रद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] लालचंदन [को०] ।
⋙ ताम्रद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहल । लंका [को०] ।
⋙ ताम्रधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल खड़िया । २. ताँबा [को०] ।
⋙ ताम्रपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] ताम्रपत्र ।
⋙ ताम्रपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताँबे की चद्दर का एक टुकड़ा जिसपर प्राचीन काल में अक्षर खुदवाकर दानपत्र आदि लिखते थे । २. ताँबे की चद्दर । ताँबे का पत्तर ।
⋙ ताम्रपर्ण
संज्ञा पुं० [सं० ताम्र + पर्ण] लाल रंग का पत्ता । उ०— ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्वर्णिम निझंर ।— शाम्या, पृ० ३६ ।
⋙ ताम्रपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बावली । तालाब । २. दक्षिण देश को एक छोटी नदी जो मदरास प्रांत के तिनवल्ली जिले से होकर बहती है । विशेष— इसकी लंबाई ७० मील के लगभग है । रामायण, महाभारत तथा मुख्य मुख्य पुराणों में इस नदी का नाम आया है । अशोक के एक शिलालेख में भी इस नदी का उल्लेख है । टालसी आदि विदेशी लेखकों ने भी इसकी चर्चा की है ।
⋙ ताम्रपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक वृक्ष ।
⋙ ताम्रपाकी
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रपाकिन्] पाकर का पेड़ ।
⋙ ताम्रपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबे का बरतन [को०] ।
⋙ ताम्रपादी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसपदी । लाल रंग की लजालू ।
⋙ ताम्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] लाल फूल का कचनार ।
⋙ ताम्रपुष्पिका
संज्ञा स्त्रि० [सं०] लाल फूल की निसीत ।
⋙ ताम्रपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घातकी । धव का पेड़ ।२. पाटल । पाड़र का पेड़ ।
⋙ ताम्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] अंकोल वृक्ष । टेरा । ढेरा ।
⋙ ताम्रफलक
संज्ञा पुं० [सं०] ताम्रपत्र । ताँबे का पत्तर [को०] ।
⋙ ताम्रमुख (१)
वि० [सं० ताम्र + मुख] जिसका मुख ताँबे के रंग का हो
⋙ ताम्रमुख (२)
संज्ञा पुं० यूरोपीय व्यक्ति ।
⋙ ताम्रमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जवासा । धमासा । २. लज्जालु । छुईमुई । ३. किवाँच । कौंच । कपिकच्छु ।
⋙ ताम्रमृग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लाल हिरन [को०] ।
⋙ ताम्रय
संज्ञा पुं० [सं०] लाली । ललाई [को०] ।
⋙ ताम्रयुग
संज्ञा पुं० [सं० ताम्र + युग] ऐतिहासिक विकासक्रम में वह युग जब मनुष्य ताँबे की बनी वस्तुओं का व्यवहार करता था ।
⋙ ताम्रयोग
संज्ञा पुं० [सं० ताम्र + योग] एक प्रकार की रासायनिक दवा [को०] ।
⋙ ताम्रलिप्त
संज्ञा पुं० [सं०] मेदिनीपुर (बंगाल) जिले के तमलूक नामक स्थान का प्राचीन नाम । विशेष—पूर्व काल में यह व्यापार का प्रधान स्थल था । बृहत्कथा को देखने से विदित होता हैग कि यहाँ से सिंहल, सुमात्रा, जावा चीन इत्यादि देशों की ओर बरावर व्यापारियों को कलिंग से लगा हुआ समुद्र तटस्थ एक देश लिखा हैं । पाली ग्रंथ महावंश से पता लगता है कि ईसा से ३९० वर्ष पूर्व ताम्रालिप्त नगर भारतवर्ष के प्रसिद्ध बंदरगाहों में से था । यहीं जहाज पर चढ़कर सिंहल के राजा ने प्रसिद्ध बोधिद्रुम को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया था ओर महाराज अशोक ने समुद्रतट पर खडे़ होकर उसके लिये आँसू बहाए थे । ईसा की पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फहियान बौद्ध ग्रंथों की नकल आदि लेकर ताम्रलिप्त ही से जहाज पर बैठ सिंहल गया था । रामायण में ताम्रालिप्त का कोई उल्लेख नहीं है, पर महाभारत में कई स्थानों पर है । वहाँ के निवासी ताम्रालिप्तक भारतयुद्ध में दुर्योधन की ओर से लड़े थे । पर उनकी गिनती म्लेच्छ जातियों के साथ हुई है । यथा—शकाः किराता दरदा बर्बरा ताम्रलिप्तकाः । अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणयः । (द्रोणपर्व) ।
⋙ ताम्रलेख
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ताम्रपत्र' [को०] ।
⋙ ताम्रवर्ण (१)
वि० [सं०] १. तामड़े रंग का । २. लाल ।
⋙ ताम्रवर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. वैद्यक के अनुसार मनुष्य के शरीर पर की चौथी त्वचा का नाम । २. पुराणों के अनुसार भारतवर्ष के अंतर्गत एक द्वीप । सिंहल द्विप । सीलोन । विशेष—प्राचीन काल में सिंहल द्वीप इसी नाम से प्रसिद्ध था । मेगास्थनीज ने हसी द्वीप का नाम तप्रोबेन लिखा है । विशेष—दे० 'सिंहल' ।
⋙ ताम्रवर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़हर का पेड़ । अड़हुए । ओड़पुष्प ।
⋙ ताम्रवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मजीठ । २. एक लता जो चित्रकूट प्रदेश में होती है ।
⋙ ताम्रवीज
संज्ञा पुं० [सं०] कुलथी ।
⋙ ताम्रवृंत
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रवृन्त] कुलथी ।
⋙ ताम्रवृता
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्रवृन्ता] कुलथी ।
⋙ ताम्रवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुलथी । २. लाल चंदन का पेड़ ।
⋙ ताम्रशासन
संज्ञा पुं० [सं० ताम्र + शासन] ताम्रपत्र । दानपत्र । उ०—राजाओं तथा सामंतों की तरफ से मंदिर, मठ, ब्राह्मण साधु आदि को दान में दिए हुए गाँव, खेत, कुएँ आदि की सनदें ताँबे पर प्राचीन काल से ही खुदवाकर दी जाती थी और अबतक दी जाती हैं जिनको 'दानपत्र', ताम्रपत्र', 'ताम्रशासन' या 'शासनपत्र' कहते हैं । —भा० प्रा० लि०, पृ० १५२ ।
⋙ ताम्रशिखी
संज्ञा पुं० [सं० ताम्राशिखिन्] कुक्कुट । मुरगा ।
⋙ ताम्रसार
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चंदन का वृक्ष ।
⋙ ताम्रसारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल चंदन का पेड़ । २. लाल खैर ।
⋙ ताम्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिंहली पीपल । २. दक्ष प्रजापति की कन्या जो कश्यप ऋषि की पत्नी थी । इससे ये ५ कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं—(१) कौंची, (२) भासी, (३) सेनी, (४) धृतराष्ट्री और (५) शुकी । (रामायण) ।
⋙ ताम्राक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोयल । २. कौआ [को०] ।
⋙ ताम्राक्ष (२)
वि० लाल आँखोंवाला [को०] ।
⋙ ताम्राभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चंदन ।
⋙ ताम्राभ (२)
वि० ताँबे का आभावाला [को०] ।
⋙ ताम्रार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा ।
⋙ ताम्राश्मा
संज्ञा पुं० [सं० ताम्राश्मन्] पद्मराग मणि [को०] ।
⋙ ताम्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ताम्रिकी] ताम्रकार [को०] ।
⋙ ताम्रिक (२)
वि० [वि० स्त्री० ताम्रिकी] ताँबे का । ताम्रनिर्मित । ताँबे से बना हुआ [को०] ।
⋙ ताम्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा । घुँघची ।
⋙ ताम्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्रिमन्] लालिमा । ललाई [को०] ।
⋙ ताम्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बाला । २. जलघड़ी का कटोरा । जलघड़ी का पात्र [को०] ।
⋙ ताम्रेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] ताम्रभस्म । ताँबे की राख ।
⋙ ताम्रोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रोपजीविन्] ताम्रकार [को०] ।
⋙ तायँ पु †
अव्य० [हिं०] तक ।
⋙ ताय पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताप, हिं० ताव] १. ताप । गरमी । २. जलन । ३. धूप ।
⋙ ताय पु (२)
सर्व० [हिं०] दे० 'ताहि' । उ०—अहे सूम री बँसुरिया, तैं कह दीनो ताय ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५२ ।
⋙ तायदाद †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तादाद' ।
⋙ तायन पु (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० ताजियानह्] चाबुक । कोड़ा । उ०— तीख तुखार चाँड़ औ बाँके । तरपहिं तबहिं तायन बिनु हाँके । २. वृद्धि ।—जायसी ग्रं० (गुस), पृ० १५० ।
⋙ तायन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्रगंता । आगे बढ़नेवाला व्यक्ति । विकास [को०] ।
⋙ तायना पु †
क्रि० स० [हिं० ताव] तपाना । गरम करना । उ०—पायन बजति उतायल तायन कीन । पुनि करि कायल घायल हायल कीन ।—सेवक (शब्द०) ।
⋙ तायफा
संज्ञा पुं० स्त्री० [अ० तायफ़ह्] १. नाचने गानेवालौ वेश्याओं और समाजियों की मंडली । २. वेश्या । रंडी । उ०—तन मन मिलयो तायफे, छाँकाँ हिलिये छैल ।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृष्ठ ३ ।
⋙ तायब पु
वि० [अ० तौबह्] तौबा करनेवाला । पश्चात्ताप करनेवाल । उ०—गुनह से हों सब आदमी तायब ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३३ ।
⋙ तायल
वि० [हिं० ताव] तेज । तावदार । उ०—तायल तुरंगम उड़त जनु बाज ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५ ।
⋙ ताया (१)
संज्ञा पुं० [सं० तात] [स्त्री० ताई] बाप का बड़ा भाई । बड़ा चाचा ।
⋙ ताया (२)
वि० [हिं० ताना] १. गरमाया हुआ । २. पिघलाया हुआ । जैसे, ताया घी ।
⋙ तार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.रूपा । चाँदी । २. (सोना, चाँदी ताँबा, लोहा इत्यादि), धातुओं का सूत । तपी धातु को पीट और खींचकर बनाया हुआ तागा । रस्सी या तामे के रूप में परिणत धातु । धातुतंतु । विशेष—धातु को पहले पीटकर गोल बत्ती के रूप में करते हैं । फिर उसे तपाकर जंती के बड़े छेद में डालते और सँड़सी से दूसरी ओर पकड़कर जोर से खींचते हैं । खींचने से धातु लकीर के रूप में बढ़ जाती है । फिर उस छेद में से सूत या बत्ती को निकालकर उससे और छोटे छेद में डालकर खींचते जाते हैं जिससे वह बराबर महीन होता और बढ़ता जाता है । खींचने में धातु बहुत गरम हो जाती है । सोने, चाँदी, आदि धातुओं का तार गोटे, पट्ठे, कारचोबी आदि बनाने के काम आता है । सीसे और राँगे को छोड़ और प्रायः सब धातुओं का तार खींचा जा सकता है । जरी, कारचोबी आदि में चाँदी ही का तार काम में लाया जाता है । तार को सुनहारी बनाने के लिये उसमें रत्ती दो रत्ती सोना मिला देते हैं । क्रि० प्र०—खींचना । यौ०—तारकश । मुहा०—तार दबकना = गोटे के लिये तार को पीटकर चिपटा और चौड़ा करना । ३. धातु का वह तार या डोरी जिसके द्वारा बिजली की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर समाचार भेजा जाता है । टेलिग्राफ । जैसें,—उन दोनों गाँवों के बीच तारलगा है । उ०—तडित तार के द्वार मिल्यौ सुभ समाचार यह ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ०, ८०० । क्रि० प्र—लगाना ।—लगाना । यौ०—तारघर । विशेष—तार द्वारा समाचार भेजने में बिजली और चुंबक की शक्ति काम में लाई जाती है । इसके लिये चार वस्तुएँ आवश्यक होती हैं—बिजली उत्पन्न करनेवाला यंत्र या घर, बिजली के प्रवाह का संचार करनेवाला तार, संवाद को प्रवाह द्वारा भेजनेवाला यंत्र और संवाद को ग्रहण करनेवाला यंत्र । यह एक नियम है कि यदि किसी तार के घेरे में से बिजली का प्रवाह हो रहा हो और उसके भीतर एक चुंबक हो, तो उस चुंबक को हिलाने से बिजली के बल में कुछ परिवर्तन हो जाता है । चुंबक के रहने से जिस दिशा को बिजली का प्रवाह होगा, उसे निकाल लेने पर प्रवाह उलटकर दूसरी दिशा की ओर हो जायगा । प्रवाह के इस दिशापरिवर्तन का ज्ञान कंपास की तरह के एक यंत्र द्वारा होता है जिसमें एक सुई लगी रहती है । यह सुई एक ऐसे तार की कुंडली के भीतर रहती है जिसमें बाहर से भेजा हुआ विद्युत्प्रवाह संचरित होता है । सुई के इघर उधर होने से प्रवाह के दिक् परिवर्तन का पता लगाता है । आजकल चुंबक की आवश्यकता नहीं पड़ती । जिस तार में से बिजली का प्रवाह जाता है, उसके बगल में दूसरा तार लगा होता है जिसे विद्युद् घट से मिला देने से थोड़ी देर के लिये प्रवाह की दिशा बदल जाती है । अब समाचार किस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता हैं, स्थूल रूप से यह देखना चाहिए । भेजनेवाले तारघर में जो विद्युद् घटमाला होती है, उसके एक ओर का तार तो पृथ्वी के भीतर गड़ा रहता है और दूसरी ओर का पानेवाले स्थान की ओर गया रहता है । उसमें एक कुंजी ऐसी होती है जिसके द्वारा जब चाहें तब तारों को जोड़ दें और जब चाहें तब अलग कर दें । इसी के साथ उस तार का भी संबंध रहता है जिसके द्वारा बिजली के प्रवाह की दिशा बदल जाती है । इस प्रकार बिजली के प्रवाह की दिशा को कभी इधर कभी उधर फेरने की युक्ति भेजनेवाले के हाथ में रहती है जिससे संवाद ग्रहण करनेवाले स्थान की सुई को वह जब जिधर चाहे, बटन या कुंजी दबाकर कर सकता है । एक बार में सुई जिस क्रम से दाहिने या बाएँ होगी, उसी के अनुसार अक्षर का सकेत समझा जायगा । सुई के दाहिने घूमने को डाट (बिंदु) और बाएँ घूमने को डैश (रेखा) कहते हैं । इन्हीं बिदुओं और रेखाओं के योग से मार्स नामक एक व्यक्ति ने अँगरेजी वर्णामाला के सब अक्षरों के संकेत बना लिए हैं । जैसे,— A के लिये ०— B के लिये — ० ० ० D ले लिये —०—० इत्यादि । तार के संवाद ग्रहण करने की दो प्रणालियाँ हैं—एक दर्शन प्रणाली, दूसरी श्रवण प्रणली । ऊपर लिखी रीति पहली प्रणाली के अंतर्गत है । पर अब अधिकतर एक खटके (Sounder) का प्रयोग होता है जिसमें सुई लोहे के टुकड़ों पर मारती है जिससे भिन्न भिन्न प्रकार के खट खट शब्द होते हैं । अभ्यास हो जाने पर इन खट खट शब्दों से ही सब अक्षर समझ लिए जाती हैं । ४. तांर से आई हुई खबर । टेलिग्राफ के द्वारा आया हूआ समाचार । क्रि० प्र०—आना । ५. सूत । तागा । तंतु । सूत्र । यौ०—तार तोड़ । मुहा०—तार तार करना = किसी बुनी या बटी हुई वस्तु की धज्जियाँ अलग अलग करना । नोचकर सूत सूत अलग करना । उ०—तार तार कीन्हीं फारि सारी जरतारी की ।—दिनेश (शब्द०) । तार तार होना = ऐसा फटना कि धज्जियाँ अलग अलग हो जायँ । बहुत ही फट जाना । ६. सुतड़ी (लश०) । ७. बराबर चलता हुआ हम । अखंड परंपरा । सिलासिला । जैसे,—दोपहर तक लोगों के आने जाने का तार लगा रहा । मुहा०—तार टूटना = चलता हुआ क्रम बंद हो जाना । परंपरा खंडित हो जाना । लगातार होते हुए काम का बंद हो जाना । तार बँधना = किसी काम का बराबर चला चलना । किसी बात का बराबर होते जाना । सिलसिला जारी होना । जैसे,—सबेरे से जो उनके रोने का तार बँधा, वह अब तक न टूटा । तार बाँधना = (किसी बात को) बराबर करते जाना । सिलसिला जारी करना । तार लगाना = दे० 'तार बाँधना' । तार ब तार = छिन्न भिन्न । अस्त व्यस्त । बेसिलसिले । ७. ब्योंत । सुबीता । व्यवस्था । जैसे,—जहाँ चार पैसे का तार होगा वहाँ जायँगे, यहाँ क्यों आवेंगे । मुहा०—तार बैठना या बँधना = ब्योंत होना । कार्यसिद्धि का सुघीता होना । तार लगना = दे० 'तार बैठना' । तार जमना = दे० 'तार बैठना' । ८. ठीक माप । जैसे,—(क) अपने तार का एक जूता ले लेना । (ख) यह कुरता तुम्हारे तार का नहीं है । ९. कार्यसिद्धि का योग । युक्ति । ढब । जैसे,—कोई ऐसा तार लगाओ कि हम भी तुम्हारे साथ आ जायँ । यौ०—तारघाट । १०. प्रणव । ओंकार । ११. राम की सेना का एक बंदर जो तारा का पिता था और बृहस्पति के अंश से उत्पन्न था । १२. शुद्ध मोती । १३. नक्षत्र । तारा । उ०—रवि के उदय तार भौ छीना । चर वीहर दूनों महँ लीना ।—कबीर बी०, पृ० १३० । १४. सांख्य के अनुसार गौण सिद्धि का एक भेद । गुरु से विधिपूर्वक वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त सिद्धि । १५. शिव । १६. विष्णु । १७. संगीत में एक सप्तक (सात स्वरों का समूह) जिसके स्वरों का उच्चारण कंठ से उठकर कपाल के आभ्यंतर स्थानों तक होता है । इसे उच्च भी कहते है । १८. आँख की पुतली । १९. अठारह अक्षरों का एकवर्णवृत्त । जैसे,—तह प्रान के नाथ प्रसन्न बिलोकी । २०. तौल । उ०—तुलसी नृपहि ऐसी कहि न बुझावै कोउ पन और कुँअर दोऊ प्रेम की तुला धों तारु ।—तुलसी (शब्द०) । २१. नदी का तट । तीर । विशेष—दिशावाचक शब्दों के साथ संयोग होने पर 'तीर' शब्द 'तार' बन जाता है । जैसे दक्षिणतार । २२. मोती की शुभ्रता या स्वच्छता (को०) ।२३. सुंदर या बड़ा मोती (को०) । २४. रक्षा (को०) । २५. पारगमन । पार जाना (को०) । २६. चाँदी (को०) । २७. बीज का भांड (विशेषतः कमल का) ।
⋙ तार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० ताल] १. ताल । मजीरा । उ०—काहू के हाथ अधोरी काहू के बीन, काहू के मृदंग, कोऊ गहे तार ।—हरिदास (शब्द०) । २. करताल नामक बाजा ।
⋙ तार पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० तल] तल । सतह । जैसे, करतार । उ०— सोकर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो ।— केशव (शब्द०) । यौ०—करतार = हथेली ।
⋙ तार पु (४)
संज्ञा पुं० [हिं० ताडु] १. कान का एक गहना । ताटंक । तरौना । उ०—श्रवनन पहिरे उलटे तार ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तार पु (५)
संज्ञा पुं० [सं० ताल, ताड] ताड़ नामक वृक्ष । उ०— कीन्हेसि बनखंड औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तार (६)
वि० [सं०] १. जिसमें से किरनें फूटी हों । प्रकाशयुक्त । प्रकाशित । स्पष्ट । २. निर्मल । स्वच्छ । ३. उच्च । उदात्त । जैसे, स्वर (को०) । ४. अति ऊँचा । उ०—जिम जिन मन अमले कियइ तार चढंती जाइ ।—ढोला०, दू० १२ । ५. तेज । उ०—माह वद्दि पंचमि दिवस चढ़ि चलिए तुर तार ।—पृ० रा० २५ ।२२५ । ६. अच्छा । उत्तम । प्रिय (को०) । ७. शुद्ध । स्वच्छ (को०) ।
⋙ तार पु (७)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तारा' । उ०—अव्वल ओ मारफत हासिल न पावे । दोयम तार के दिल गुमराह होवे ।— दक्खिनी०, पृ० ११४ ।
⋙ तार पु (८)
अव्य० [सं० तार(= तीव्र, पतला)] किंचिन्मात्र । जरा भी । उ०—भाँगउ खारा खून कर तू आण न उर तार ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७५ ।
⋙ तार (९)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताल' । उ०—बाजत चट सों पटरी तारन ग्वारन गावत संग ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८८ ।
⋙ तारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्र । तारा । २. आँख । ३. आँख की पुतली । ४. इंद्र का शत्रु एक असुर । इसने जब इंद्र को बहुत सताया, तब नारायण ने नपुंसक रूप धारण करके इसका नाश किया । (गरुड़पुराण) । ५. एक असुर जिसे कार्तिकेय ने मारा था । दे० 'तारकासुर' । यौ०—तारकजित्, तारकरिपु, तारकवैरी, तारकसूदन = कार्तिकेय । ६. राम का षडक्षर मंत्र जिसे गुरु शिष्य के कान में कहता है और जिससे मनुष्य तर जाता है । 'औ' रामाय नमः' का मंत्र । ७. भिलावाँ । भेलक । ८. वह जो पार उतारे । ९. कर्णधार । मल्लाह । १०. भवसागर से पार करनेवाला । तारनेवाला । उ०—नृप तारक हरि पद भजि साँच बड़ाई पाइय ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६९७ । ११. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार सगण ओर एक गुरु होता है (IIS IIS IIS IIS S) । १२. एक वर्ग का नाम, जो अंत्येष्टि कराता है—'महाब्राह्मण' । उ०—यह फतहपुर का महाब्राह्माण (तारक का आचारज) था ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ८५ । १३. गरुड़ । उ०—ग्रंथा जातियाँ लखमण गीता मुनि विहंगा तारक ससि माथ ।—रघु०, रू०, पृ० २५५ । १४. कान (को०) । १५. महादेव (को०) । १६. हठयोग में तरने का उपाय (को०) । १७. एक उपनिषद (को०) । १८. मुद्रण में तारे का चिह्न- * ।
⋙ तारकजित्
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय ।
⋙ तारक टोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० तारक + हिं० टोड़ी] एक राग जिसमें ऋषभ और कोमल स्वर लगते हैं और पंचम वर्जित होता है । (संगीत रत्नाकर) ।
⋙ तारक तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] गया तीर्थ, जहाँ पिंडदान करने से पुरखे तर जाते हैं ।
⋙ तारक ब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं०] राम का षडक्षर मंत्र । रामतारक मँत्र । 'ओं रामाय नमः' यह मंत्र ।
⋙ तार कमानी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तार + कमानी] धनुष कै आकार का एक औजार । विशेष—इसमें डोरी के स्थान पर लोहे का तार लगा रहता है । इससे नगीने काटे जाते हैं ।
⋙ तारकश
संज्ञा पुं० [फा़० तार + कश=(खींचनेवाला)] धातु का तार खींचनेवाला ।
⋙ तारकशी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तारकश + हिं० ई (प्रत्य०)] तार खींचने का काम ।
⋙ तारका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नक्षत्र । तारा । उ०—तुम्हारे उर हैं अमर मर, दिवाकर, शशि, तारकागण ।—अर्चना, पृ० ८ । २. कनीनिका । आँख की पुतली । ३. इंद्रवारुणी । ४. नाराच नामक छंद का नाम । ५. बालि की स्त्री तारा । उ०— सुग्रीव को तारका मिलाई बध्यो वालि भयमंत ।—सूर (शब्द०) । ६. उल्का (को०) । ७. बृहस्पति की पत्नी का नाम (को०) ।
⋙ तारका पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताड़का' ।
⋙ तारकाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] तारकासुर का बड़ा लड़का । विशेष—यह उन तीन भाइयों में से एक था जो ब्रह्मा के वर से तीन पुर (त्रिपुर) बसाकर रहते थे । विशेष—दे० 'त्रिपुर' ।
⋙ तारकामय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।
⋙ तारकायण
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ तारकारि
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय [को०] ।
⋙ तारकासुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर का नाम जिसका पूरा वृत्तांत शिवरपुराण में दिया हुआ है । विशेष—यह असुर तार का पुत्र था । इसने जब एक हजार वर्ष तक घोर तप किया और कुछ फल न हुआ, तब इसके मस्तक से एक बहुत प्रचंड तेज निकला जिससे देवता लोग व्याकुल होने लगे, यहाँ तक कि इंद्र सिंहासन पर से खिंचने लगे । देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा तारक के समीप वर देने के लिये उपस्थित हुए । तारकासुर ने ब्रह्मा से दो वर माँगे । पहला तो यह कि 'मेरे समान संसार में कोई बलवान् न हो', दूसरा यह कि 'यदी मैं मारा जाऊँ, तो उसी के हाथ से जो शिव से उत्पन्न हो' । ये दोनों वर पाकर तारकासुर घोर अन्याय करने लगा । इसपर सब देवता मिलकर ब्रह्मा के पास गए । ब्रह्मा ने कहा—'शिव के पुत्र के अतिरिक्त तारक को और कोई नहीं मार सकता । इस समय हिमालय पर पार्वती शिव के लिये तप कर रही हैं । जाकर ऐसा उपाय रचो कि शिव के साथ उनका संयोग हो जाय' । देवताओं की प्रेरणा से कामदेव ने जाकर शिव के चित्त को चंचल किया । अंत में शिव के साथ पार्वती का विवाह हो गया । जब बहुत दिनों तक शिव को पार्वती सै कोई पुत्र नहीं हुआ, तब देवताऔं ने घबराकर अग्नि को शिव के पास भेजा । कपोत के वेश में अग्नि को देख शिव ने कहा—'तुम्ही हमारे वीर्य को धारण करो' और वीर्य को अग्नि के ऊपर डाल दिया । उसी वीर्य से कातिकेय उत्पन्न हुए जिन्हें दिवताओं ने अपना सेनापति बनाया । घोर युद्ध के उपरांत कार्तिकेय के बाण से तारकासुर मारा गया ।
⋙ तारकिणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] तारों से भरी । तारकापूर्ण ।
⋙ तारकिणी (२)
संज्ञा स्त्री० रात्रि । रात ।
⋙ तारकित
वि० [सं०] तारायुक्त । तारों से भरा हुआ । जैसे, तारकित गगन ।
⋙ तारकी
वि० [सं० तारकिन्] [स्त्री० तारकिणी] तारकित ।
⋙ तारकूट
संज्ञा पुं० [सं० तार (=चाँदी) + कूट(=नकली)] चाँदी और पीतल के योग से बनी एक धातु ।
⋙ तारकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । २. एक शिवलिंग जो कलकत्ते के पास है । ३. एक रसौषध । विशेष—पारा, गंधक, लोहा, वंग, अभ्रक, जवासा, जवाखार, गोखरू के बीज और हड़ इन सबको बराबर लेकर घिसते हैं और फिर पेठे के पानी, पंचमूल के काढ़े और गोखरू के रस की भावना देकर प्रस्तुत औषध की दो दो रत्ती की गोलियाँ बना लेते हैं । इन गोलियों को शहद में मिलाकर खाते हैं । इस औषध के सिवन से बहुमूत्र रोग दूर होता है ।
⋙ तारकोल
संज्ञा पुं० [अं० टार + कोल] अलकतरा । कोलतार ।
⋙ तारक्षिति
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम दिशा का एक देश जहाँ म्लेच्छों का निवास है । (बृहत्संहिता) ।
⋙ तारख पु
संज्ञा पुं० [सं० तार्क्ष्य] गरुड़ । (डिं०) ।
⋙ तारखो पु
संज्ञा पुं० [सं० तार्क्ष्य] घोड़ा । (डिं०) ।
⋙ तारग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तारक'-१०' । उ०—मुक्ति पंथ का पाया मारग । दादू राम मिल्या गुरु तारग ।—राम० धर्म०, पृ० २०८ ।
⋙ तारघर
संज्ञा पुं० [हिं० तार + घर] वह स्थान जहाँ से तार की खबर भेजी जाय ।
⋙ तारघाट
संज्ञा पुं० [हिं० तार + घात] कार्यसिद्धि का योग । मतलब निकलने का सुबीता । व्यवस्था । आयोजन । जैसे,— वहाँ कुछ मिलने का तारघाट होगा, तभी वह गया है ।
⋙ तारचरबी
संज्ञा पुं० [देश०] मोमचीना का पेड़ । विशेष—यह पेड़ छोटा होता है और चीन, जापान आदि देशों में बहुत लगाया जाता है । इसके फल में तीन बीजकोश होते है जो एक प्रकार के चिकने पदार्थ से भरे रहते हैं जिसे चरबी कहते हैं । चीन और जापान में इसी पेड़ की चरबी से मोमबत्तियाँ बनती हैं । चरबी के अतिरिक्त बीजों से भी एक प्रकार का पीला तेल निकलता है जो दवा और रोगन (वारनिश) के काम में आता है ।
⋙ तारचौ पु
संज्ञा पुं० [हिं० तार(= ऊँचा) + (च = गति करनेवाला)] तारक । तारा । उ०—तारचो सट्ठलं, बाई भूतलं ।—पृ० रा०, २६ । ७० ।
⋙ तारछ पु
संज्ञा पुं० [सं० तार्क्ष्य] गरुड़ । उ०—गरुतमान, तारछ, गरुड़ बैनतेय, शकुनीश ।—नंद० ग्रं०, पृ० १११ ।
⋙ तारट पु
संज्ञा पुं० [सं० तारक] तारा । तरैया । उ०—सित दुकूल विभ्भूत नीलकंठी नष तारट ।—पृ० रा०, २ । ४२४ ।
⋙ तारण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. (दूसरे को) पार करने का काम । पार उतारने की क्रिया । २. उद्धार । निस्तार । ३. उद्धार करने या तारनेवाला व्यक्ति । ४. विष्णु । ५. साठ संवत्सरों में से एक । ६. शिव (को०) । ७. नाव । नौका (को०) । ८. विजय (को०) ।
⋙ तारण (२)
वि० १. उद्धार करनेवाला । पार करनेवाला । २. पार करानेवाला । यौ०—तारण तिरण = पार उतारनेवाला । उ०—तारण तिरण जवै लग कहिए ।—कबीर ग्रं०, पृ० १०५ ।
⋙ तारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कश्यप की एक पत्नी जो याज और उपयाज की माता कही जाती हैं । २. नौका । नाव (को०) ।
⋙ तारतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० तारतण्डुल] सफेद ज्वार ।
⋙ तारतखाँना पु
संज्ञा पुं० [अ० तहारत + फा़० खानहू] शुद्ध स्थाना । पवित्र स्थल । वह स्थान जहाँ पर शुद्ध होकर नमाज आदि पढ़ने के लिये जाया जाता है । उ०—अति सोचै पतसाह अछाँने । खिण सज्या खिण तारतखाँने ।—रा० रू०, पृ० ९६ ।
⋙ तारतम पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तारतम्य' । उ०—चौथा अकिल भँग को लेखा । वो तारतम लै करे विवेखा ।—कबीर सा०, पृ० ९३३ ।
⋙ तारतमिक
वि० [सं० तारतम्यिक] परस्पर न्यूनाधिक्य क्रम का या कमी बेशीवाला । क्रमबद्ध ।
⋙ तारतम्य
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तारताम्यिक] १. न्यूनाधिक्य । परस्पर न्यूनाधिक्य का संबंध । एक दूसरे से कमी बेशी का हिसाब । २. उत्तरोत्तर न्यूनाधिक्य के अनुसार व्यवस्था । कमी बेशी के हिसाब से तरतीब । ३. दो या कई वस्तुओं में परस्पर न्यूनाधिक्य आदि संबंध का विचार । गुण, परिमाण आदि का परस्पर मिलान ।
⋙ तारतम्यबोध
संज्ञा पुं० [सं०] कई वस्तुओं में से एक का दूसरे से बढ़कर होने का विचार । कई वस्तुओ में से भले बुरे आदि की पहचान । सापेक्ष संबंध ज्ञान ।
⋙ तार तार (१)
वि० [हिं० तार] जिसकी धज्जियाँ अलग अलग हो गई हों । टुकड़ा टुकड़ा । फटा कटा । उधड़ा हुआ । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ तर तार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के अनुसार एक गौण सिद्धि । पठित आगम आदि की तर्क द्वारा युक्तियुक्त परीक्षा से प्राप्त सिद्धि ।
⋙ तारतोड़
संज्ञा पुं० [हिं० तार + तोड़ना] एक प्रकार का सुई का काम जो कपड़े पर होता है । कारचोबी । उ०—दिखावै कोई गोखरू मोड़ मोड़ । कहीं सूत बूटे कहीं तारतोड़ ।—मीर हसन (शब्द०) ।
⋙ तारदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का काँटेदार पेड़ । तरदी वृक्ष । पर्या०—खर्बुरा । तीव्रा । रक्तबीजका ।
⋙ तारन (१)
संज्ञा पुं० [सं० तारण] दे० 'तारण' । उ०—(क) हम तुम्ह तारन तेज घन सुंदर, नीके सौं निरबहिये ।—दादू०, पृ० ५५१ । (ख) जग कारन, तारन भव, भंजन धरनी भार ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तारन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तर(=नीचे?)] १. छत की ढाल । छाजन की ढाल । २. छप्पर का वह बाँस जी काँड़ियों के नीचे रहता हैं ।
⋙ तारना (१)
क्रि० स० [सं० तारण] १. पार लगाना । पार करना । २. संसार के क्लेश आदि से छुड़ना । भबबाधा दूर करना । उद्धार करना । निस्तार करना । सदगति देना । मुक्त करना । उ०—काहू के न तारे तिन्है गंगा तुम तारे और जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं ।—पद्माकर (शब्द०) । ३. पानी की धारा देना । तरेरा देना । उ०—मनहुं बिरह के सद्य घाव हिए लखि तकि तकि धरि धीरज तारति —तुलसी (शब्द०) । ४. तैराना ।
⋙ तारना † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताड़ना] दे० 'ताड़ना' ।
⋙ तारनी पु † (३)
क्रि० स० [हिं०] १. ताड़ना करना । दंड देना । पीड़ित करना । २. देखना । निरीक्षण करना ।
⋙ तारपट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तलवार [को०] ।
⋙ तारपतन
संज्ञा पुं० [सं०] उल्कापात [को०] ।
⋙ तारपीन
संज्ञा पुं० [अं० टरपेंटाइन] चीड़ के पेड़ से निकाला हुआ तेल । विशेष—चीड़ के पेड़ में जमीन से कोई दो हाथ ऊपर एक खोखला गड्ढा काटकर बना देते हैं और उसे नीचे की ओर कुछ गहरा कर देते हैं । इसी गहरे किए हुए स्थान में चीड़ का पसेव निकलकर गोंद के रूप में इकट्ठा होता है जिसे गंदा- बिरोजा कहते हैं । इस गोंद से भबके द्वारा जो तेल निकाल लिया जाता है, उसे तारपीन का तेल कहते हैं । यह औषध के काम में आता हैं और दर्द के लिये उपकारी है ।
⋙ तारपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] कुंद का पेड़ ।
⋙ तारबर्की
संज्ञा पुं० [हिं० तार + अ० बर्क़ + फा़० ई० (प्रत्य०)] बिजली की शक्ति द्वारा समाचार पहुँचानेवाला तार ।
⋙ तारमाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] रूपामक्खी नाम की उपधातु ।
⋙ तारयिता
संज्ञा पुं० [सं० तारयितृ] [स्त्री० तारयित्री] तारनेवाला । उद्धार करनेवाला ।
⋙ तारल (१)
वि० [सं०] १. चपल । चंचल । अस्थिर । २. लंपट । विलासी [को०] ।
⋙ तारल (२)
संज्ञा पुं० विट [को०] ।
⋙ तारल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल, तेल आदि के समान प्रवाहशील होने का धर्म । द्रवत्व । २. चंचलता । चपलता । ३. लंपटता । कामुकता (को०) ।
⋙ तारवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेज या जोर की आवाजवाली हवा [को०] ।
⋙ तारविमला
संज्ञा स्त्री० [सं०] रूपामक्खी नाम की उपधातु ।
⋙ तारशुद्धिकर
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा [को०] ।
⋙ तारसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम ।
⋙ तारस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँचा स्वर । ऊँची आवाज [को०] ।
⋙ तारहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुंदर या बड़े मोतियों का हार । उ०—डाँड़ो के चल करतल पसार, भर भर मुक्ताफल फेन स्फार, बिखराती जल में तार हार ।—गुंजन, पृ० ९५ । २. चमकीला हार । तेजोमय हार (को०) ।
⋙ तारहेमाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की धातु [को०] ।
⋙ तारा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्र । सितारा । यौ०—तारामंडल । मुहा०—तारे खिलना = तारों का चमकते हुए निकलना । तारों का दिखाई देना । तारे गिनना = चिंता या आसरे में बेचैनी से रात काटना । दुःख से किसी प्रकार रात बिताना । तारे छिटंकना = तारों का दिखाई पड़ना । आकाश स्वच्छ होना और तारों का दिखाई पड़ना । तारा टूटना = चमकते हुए पिंड का आकाश में वेग से एक ओर से दूसरी ओर को जाते हुए या पृथ्वी पर गिरते हुए दिखाई पड़ना । उल्कापात होना । तारा डूबना = (१) किसी नक्षत्र का अस्त होना । (२) शुक्र का अस्त होना । विशेष—शुक्रास्त में हिंदुओं के यहाँ मंगल कार्य नहीं किएतारे तोड़ लाना = (१) कोई बहुत ही कठिन काम कर दिखाना । (२) बड़ी चालाकी का काम करना । तारे दिखाना = प्रसूता स्त्री को छठी के दिन बाहर लाकर आकाश की ओर इसलिये तकाना जिसमें जिन, भूत आदि का डर न रह जाय । विशेष—मुसलमान स्त्रियों में यह रीति है । तारे दिखाई दे जाना = कमजोरी था दुर्बलता के कारण आँखों के सामने तिरमिराहट दिखाई पड़ना । तारा सी आँखें हो जाना = ललाई, पूजन, कीचड़ आदि दूर होने के कारण आँख का स्वच्छ हो जाना । तारों की छाँह = बड़े सबेरे । तड़के, जब कि तारों का धुँधला प्रकाश रहे । जैसे,—तारों की छाँह यहाँ से चल देंगे तारा हो जान = (१) बहुत ऊँचे पर हो जाना । इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाना कि तारे की तरह छोटा दिखाई दे । (२) इतनी दूर हो जाना कि छोटा दिखाई पड़े । बहुत फासले पर हो जाना । २. आँख की पुतली । उ०—देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ।—मानस, १ । २४४ । मुहा०—नयनों का तारा = दे० 'आँख का तारा' । मेरे नैनों का तारा है मेरा गोविंद प्यारा है ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ३. सितारा । भाग्य । किसमत । उ०—ग्रीखम के भानु सो खुमान को प्रताप देखि तारे सम तारे भए मूँदि तुरकन के ।—भूषण (शब्द०) । ४. मोती । मुक्ता (को०) । ५. छह स्वरोंवाले एक राग का नाम (को०) ।
⋙ तारा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तंत्र के अनुसार दस महाविद्याओं में से एक । २. बृहस्पति की स्त्री का नाम जिसे चंद्रमा ने उसके इच्छानुसार रख लिया था । विशेष—बृहस्पति ने जब अपनी स्त्री को चंद्रमा से माँगा, तब चंद्रमा ने देना अस्वीकार किया । इसपर बृहस्पति अत्यंत कुद्ध हुए और घोर युद्ध आरंभ हुआ । अंत में ब्रह्मा ने उपस्थित होकर युद्ध शांत किया और तारा को लेकर बृहस्पति को दे दिया । तारा को गर्भवती देख बृहस्पति ने गर्भस्थ शिशु पर अपना अधिकार प्रकट किया । तारा ने तुंरत शिशु का प्रसव किया । देवताओं ने तारा से पूछा—'ठीक ठीक बताओ,'यह किसका पुत्र है ?' तारा ने बड़ी देर के पीछे बताय—'यह दस्युहंतम नामक पुत्र चंद्रमा का है' । चंद्रमा ने अपने पुत्र को ग्रहण किया और उसका नाम बुध रखा । ३. जैनों की एक शक्ति । ४. बालि नामक बंदर की स्त्री और सुसेन की कन्या । विशेष—इसने बालि के मारे जाने पर उसके भाई सुग्रीव के साथ रामचंद्र के अदेशानुसार विवाह कर लिया था । तारा पंचकन्याओं में मानी जाती है और प्रातः काल उसका नाम लेने का बड़ा माहात्म्य समझा जाता है । यथा— अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा । पंच कन्या स्मरेन्नित्य महापातकनाशनम् । । ५. सिर में बाँधने का चीरा । ५. राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का नाम । तारामती (को०) । ६. बौद्धों की एक देवी (को०) ।
⋙ तारा पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताला' । उ०—हिय भँडार नग आहि जो पूँजी । खोलि जीभ तारा कै कूँजी ।—जायसी ग्रं० (गुस), पृ० १३५ । मुहा०—तारा मारना = ताला बंद करना । उ०—ता पाछे वह ब्राह्मन ने अपने बेटा कों घर में मूंदि घर कौ तारयो मारयो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २७६ ।
⋙ तारा † (४)
संज्ञा पुं० [सं० ताल(= सर)] तालाब ।
⋙ ताराकुमार
संज्ञा पुं० [सं० तारा + कुमार] १. तारा का पुत्र, अंगद । २. चंद्रमा का पुत्र बुध जो तारा के गर्भ से उत्पन्न हुआ है ।
⋙ ताराकूट
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में वर कन्या के शुभाशुभ फल को सूचित करनेवाला एक कूट जिसका विचार विवाह स्थिर करने के पहले किया जाता है ।
⋙ ताराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ताराकाक्ष दैत्य ।
⋙ तारागण
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रसमूह । तारों का समूह ।
⋙ ताराग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन पाँच ग्रहों का समूह । (बृहत्संहिता) ।
⋙ ताराचक्र
संज्ञा पुं० [सं० तारा + चक्र] दीक्षा मंत्र के शुभाशुभ फल का निर्णायक एक तांत्रिक चक्र [को०] ।
⋙ ताराज
संज्ञा पुं० [फा़०] १. लूटपाट । लूटमार —(लश०) । २. नाश । घ्वंस । विनाश । बरबादी । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ तारात्मक नक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश में क्रंतिवृत्त के उत्तर और दक्षिण ओर के तारों का समूह जिनमें अर्श्विनी, भरणी आदि हैं ।
⋙ ताराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. शिव । ३. बृहस्पति । ४. बालि । ५. सुग्रीव ।
⋙ ताराधीश
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताराधिप' ।
⋙ तारानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. बृहस्पति । ३. बालि । ४. सुग्रीव ।
⋙ तारापति
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तारानाथ' ।
⋙ तारापथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश ।
⋙ तारापीड़
संज्ञा पुं० [सं० तारापीड] १. चंद्रमा । २. मत्स्य पुराण के अनुसार अयोध्या के एक राजा का नाम । ३. काश्मीर के एक प्राचीन राजा का नाम ।
⋙ ताराभ
संज्ञा पुं० [सं०] पारद । पारा ।
⋙ ताराभूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि । रात ।
⋙ ताराभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर ।
⋙ तारामंडल
संज्ञा पुं० [सं० तारामण्डल] १. नक्षत्रों का समूह या घेरा । उ०—नाचते ग्रह, तारामंडल, पलक में उठ गिरते प्रतिपल ।—अनामिका, पृ० ९३ । २. एक प्रकार कीआतशबाजी । ३. एक प्रकार का कपड़ा (को०) । ४. एक प्रकार का शिव का मंदिर (को०) ।
⋙ तारामंडूर
संज्ञा पुं० [सं० तारामण्डूर] बैद्यक में एक विशेष प्रकार का मंडूर जो अनेक द्रव्यों के योग से बनता है ।
⋙ तारामँडल पु
संज्ञा पुं० [सं० तारा + हिं० मंडल] तारा बूटी की छपाईवाला एक वस्त्र । उ०—तारामँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ।—जायसी ग्रं०, पृ० ८० ।
⋙ तारामती
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा हरिश्चंद्र की पत्नी जिसका तारा नाम भी है (को०) ।
⋙ तारामृग
संज्ञा पुं० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र ।
⋙ तारमैत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शन मात्र से होनेवाला प्रेम [को०] ।
⋙ तारायण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश । २. वट का पेड़ (को०) ।
⋙ तारायण पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० तारा + गण] तारकसमूह । तारे । उ०—जू तारायण मीली सो चंद, गोवल माँहि मिलइ ज्युँ गोव्यंद ।—बी० रासी०, पृ० ११५ ।
⋙ तारारि
संज्ञा पुं० [सं०] विटमाक्षिक नाम की उपधातु ।
⋙ तारालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तारों की श्रेणी । तारकपंक्ति । उ०— तृण, तरु से तारालि सत्य है एक अखंडित ।—ग्राम्या, पृ०, ७० ।
⋙ तारावर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] उल्कापात [को०] ।
⋙ तारावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक दुर्गा [को०] ।
⋙ तारावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तारकपंक्ति । तारों का समूह [को०] ।
⋙ तारि
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'ताली' । उ०—ग्वाल नाचैं तारि दै दै देत बहुत बनाय ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५१० ।
⋙ तारिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नदी आदि पार उतारने का भाड़ा या महसूल । उतराई । २. नदी से माल को पार करवाने और कर वसूल करनेवाला कर्मचारी । उ०—धाट पर तारिक नामक कर्मचारी नियुक्त किया जाता था जो माल को पार उतारने में सहायता करता तथा उचित टैक्स वसूल करता था ।—पू० म० भा०, पृ० १३० । ३. मल्लाह (को०) ।
⋙ तारिक पु (२)
वि० [अ०] १. तर्क करनेवाला । त्यागी । त्याग करनेवाला । छोड़नेवाला । उ०—अहंकारी । घमंडी (को०) । यो०—तारिके दुनिया = संसार से विरक्त । तारिके लज्जात = सांसारिक आनंद का त्याग करनेवाला । निस्पृह ।
⋙ तारिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ताड़ी नामक मद्य ।
⋙ तारिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तारका] १. दे० 'तारका' । उ०—तारिका दुरानी, तमचुर बोले, श्रवन भनक परी ललिता के तान की — सूर (शब्द०) । २. सिनेमा में काम करनेवाली अभिनेत्री । अभिमेत्री । ३. तारीख ।
⋙ तारिका पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताडका] दे० 'ताड़का' । उ०—तरुनि नाम तारिका ग्यान हरि परसी रार्म ।—पृ० रा०, २ ।२६७ ।
⋙ तारिणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. तारनेवाली । उद्धार करनेवाली । २. ४८ हाथ लंबी, ५ हाथ चौड़ी और ४ ४/५ हाँथ ऊँची नाव ।
⋙ तारिणी (२)
संज्ञा स्त्री० तारा देवी । वि० दे०'तारा' ।
⋙ तारित
वि० [सं०] १. तारा हुआ । पार किया हुआ । २. जिसका उद्धार हुआ हो [को०] ।
⋙ तारी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की चिड़िया । २. निद्रा । ३. समाधि । ध्यान । उ०—(क) बिकल अचेत तारी तुम ही त्यों लगी रहै ।—घनानंद, पृ० २०० । (ख) सूनि समाधि लागि गइ तारी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १०० ।
⋙ तारी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताली' । उ०—चुटकी तारी थाप दे गऊ जिलाई बेग ।—कबीर मं०, पृ० ११४ ।
⋙ तारी पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताड़ी' ।
⋙ तारी
वि० [सं० तारिन्] १. उद्धार के योग्य बनानेवाला । २. उद्धार करनेवाला । उद्धारक [को०] ।
⋙ तारीक
वि० [फा़०] १. स्याह । काला । २. धुँधला । अँधेरा । उ०—बस के तारीक अपनी आँखों में जमाना हो गया ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८४९ ।
⋙ तारीकी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. स्याही । २. अंधकार । उ०—इस्लाम के आफताब के आगे कुफ की तारीकी कभी ठहर सकती है ?—भारतेंदु, भा० १, पृ० ५२९ ।
⋙ तारीख
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. महीने का हर एक दिन (२४ घंटों का) । तिथि । मुहा०—तारीख डालना = तिथि वार आदि लिखना । २. वह तिथि जिसमें पूर्व काल के किसी वर्ष में कोई विशेष घटना हुई हो, विशेषतः ऐसी जिसका उत्सव या शोक मनाया जाता हो अथवा जिसके लिये कुछ रीति व्यवहार प्रति वर्ष करना पड़ता हो । ३. नियत तिथि । किसी काम के लिये ठहराया हुआ दिन । जैसे,—कल मुकदमे की तारीख है । मुहा०—तारीख डालना = तारीख मुकर्रर करना । दिन नियत करना । तारीख टलना = किसी काम के लिये पहले से नियत दिन के और आगे कोई दिन नियत होता । जैसे,—उनके मुकदमे की तारीख टल गई । तारीख पड़ना = किसी काम के लिये दिन मुकर्रर होना । तिथि नियत होना । ४. इतिहास । उ०—मैंने सुना है कि तारीख अकबरी में कबीर साहब और नानक साहब के विषय में अनेक बातें लिखी हैं ।—कबीर मं०, पृ० ५२४ ।
⋙ तारीफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तारीफ़] १. लक्षण । परिभाषा । २. वर्णन । विवरण । ३. बखान । प्रशंसा । श्लाघा । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ४. प्रशंसा की बात । विशेषता । गुण । सिफत । जैसे,—यही तो इस दवा में तारीफ है कि जरा भी नहीं लगती । मुहा०—तारीफ के पुल बाँधना = बहुत अधिक प्रशंसा करना । अतिरंजित प्रशंसा करना । उ०—मुबारक कदम ने तो तारीफ के पुल ही बांध दिए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३५ ।
⋙ तारु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तारी] दे० 'तारी (१)' । उ०—दसवँ दुवार तारु का लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २६५ ।
⋙ तारु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तालू' ।
⋙ तारुण
वि० [सं०] युवा । जवान [को०] ।
⋙ तारुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] यौवन । जवानी । उ०—झलकता आता अभी तारुण्य है । आ गुराई से मिला आरुण्य हैं ।—साकेत, पृ० ११ ।
⋙ तारुन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तरुणी' । उ०—तरु अंब गौष तारुन त्रिविध सषिय गौष उम्भिय सरस । प्रतिबिंब मुष्ष राका दरस मुह गावत चहुआन जस ।—पृ० रा०, १ । ६७१ ।
⋙ तारू पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तालू' ।
⋙ तारूणी पु
वि० [हिं० तारना] तारनेवाला । उद्धार करनेवाला । उ०—तारूणी टि देखिहौं, ताहाँ अस्थाना ।—दादू०, पू० ५६२ ।
⋙ तारेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. तारा या बालि का पुत्र अंगद । २. बृहस्पति की स्त्री तारा का पुत्र बुघ । ३. मंगल ग्रह (को०) ।
⋙ तार्कव
वि० [सं०] बुना हुआ [को०] ।
⋙ तार्किक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तर्कशास्त्र का जाननेवाला । २. तत्ववेत्ता । दार्शनिक ।
⋙ तार्क्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कश्यप ।
⋙ तार्क्ष पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० तार्क्ष्य] कश्यप के पुत्र गरुड़ ।
⋙ तार्क्षज
संज्ञा पुं० [सं०] रसांजन ।
⋙ तार्क्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पातालगरुड़ी लता । छिरेंटी । छिरिहटा ।
⋙ तार्क्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृक्ष मुनि के गोत्रज । २. गरुड़ । ३. गरुड़ के बड़े भाई अरुण । ४. घोड़ा । ५. रसांजन । ६. सर्प । ७. अश्वकर्ण वृक्ष । एक प्रकार का शालवृक्ष । ८. एक पर्वत का नाम । ९. महादेव । १०. सोना । स्वर्ण । ११. रथ । १२. पक्षी (को०) ।
⋙ तार्क्ष्यज
संज्ञा पुं० [सं०] रसोत । रसांजन ।
⋙ तार्क्ष्यध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ तार्क्ष्यनायक
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०] ।
⋙ तार्क्ष्यनाशक
संज्ञा पुं० [सं०] बाज पक्षी [को०] ।
⋙ तार्क्ष्यपुत्र, तार्क्ष्यसुत
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०] ।
⋙ तार्क्ष्यप्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वकर्ण वृक्ष ।
⋙ तार्क्ष्यशैल
संज्ञा पुं० [सं०] रसांजन । रसौत ।
⋙ तार्क्ष्यसाम
संज्ञा पुं० [सं० तार्क्ष्यसामन्] सामवेद [को०] ।
⋙ तार्क्ष्यी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वनलता का नाम ।
⋙ तार्ण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तार्णी] तृण से निर्मित [को०] ।
⋙ तार्ण (२)
संज्ञा पुं० १. घास का कर । २. अग्नि [को०] ।
⋙ तार्णस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चंदन जिसका रंग सुआपंखी होता है और गंध खट्टी होती है [को०] ।
⋙ तार्तीय (१)
वि० [सं०] १. तृतीय । तीसरा । २. तृतीय संबंध रखनेवाला [को०] ।
⋙ तार्तीय (२)
संज्ञा पुं० तृतीय अंश या भाग [को०] ।
⋙ तार्तीयीक
वि० [सं०] तृतीय [को०] ।
⋙ तार्प्य
संज्ञा पुं० [सं०] तृपा नामक लता से बनाया हुआ वस्त्र जिसका व्यवहार वैदिक काल में होता था ।
⋙ तार्य (१)
वि० [सं०] १. तारने योग्य । उद्धार करने योग्य । २. पार करने योग्य । ३. जीतने योग्य [को०] ।
⋙ तार्य (२)
संज्ञा पुं० नाव आदि का भाड़ा [को०] ।
⋙ तालंक
संज्ञा पुं० [सं० तालङ्क] दे० 'तडंक' [को०] ।
⋙ ताल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ का तल । करतल । हथेली । २. वह शब्द जो दोनों हथेलियों को एक दूसरी पर मारने से उत्पन्न होता है । करतलध्वनि । ताली । उ०—हुलुक, चुटुकुल, प्रतिगीत, वाद्य, ताल, नृत्य, होइतेँ अछ ।—वर्ण- रत्नाकर, पृ०२ । ३. नाचने या गाने में उसके काल और क्रिया का परिमाण, जिसे बीच बीच में हाथ पर हाथ मारकर सूचित करते जाते हैं । उ०—माँगणहाराँ सीख दी ढोलइ तिणहि ज ताल ।—ढोला०, दू० २०९ । विशेष—संगीत के संस्कृत ग्रंथों में ताल दो प्रकार के माने गए हैं—मार्ग और देशी । भरत मुनि के मत से मार्ग ६० हैं— चंचत्पुट, चाचपुट, षट्पितापुत्रक, उदघट्टक, संनिपात, कंकण, कोकिलारव, राजकोलाहल, रंगविद्याधर, शचीप्रिय, पार्वतीलोचन, राजचूड़ामणि, जयश्री, वादकाकुल, कदर्प, नलकूबर, दर्पण, रतिलीन, मोक्षपति, श्रीरंग, सिंहविक्रम, दीपक, मल्लिकामोद, गजलील, चर्चरी, कुहक्क, विजयानंद, वीरविक्रम, टैंगिक, रंगाभरण, श्रीकीर्ति, वनमाली, चतुर्मुख, सिंहनंदन, नंदीश, चंद्रबिंब, द्वितीयक, जयमंगल, गंधर्व, मकरंद, त्रिभंगी, रतिताल, बसंत, जगझंप, गारुड़ि, कविशेखर, घोष, हरवल्लभ, भैरव, गतप्रत्यागत, मल्लताली, भैरव- मस्तक, सरस्वतीकंठाभरण, क्रीड़ा, निःसारु, मुक्तावली, रंग- राज, भरतानंद, आदितालक, संपर्केष्टक । इसी प्रकार १२० देशी ताल गिनाए गए हैं । इन तालों के नामों में भिन्न भिन्न ग्रंथों में विभिन्नता देखी जाती हैं । इन नामों में से आजकल बहुत प्रचालित हैं । संगीत में ताल देने के लिये तबले, मृर्दग ढोल और मँजीरे आदि का व्यवहार किया जाता है । क्रि० प्र०—देना ।—बजाना । यौ०—तालमेल । मुहा०—ताल बेताल = (१) जिसका ताल ठिकाने से न हो । (२) अवसर या बिना अवसर के । मौके । बेमौके । ताल से बीताल होना = ताल के नियम से बाहर हो जाना । उखड़ जाना । (गाने बजाने में) । ४. अपने जंघे या बाहु पर जोर से हथेली मारकर उत्पन्न किया हुआ शब्द । कुश्ती आदि लड़ने के लिये जब किसी को ललकारते हैं, तब इस प्रकार हाथ मारते हैं । मुहा०—ताल ठोंकना = लड़ने के लिये ललकारना । ५. मँजीरा या झाँझ नाम का बाज । उ०—ताल भेरि मृदंग बाजत सिंधु गरजन जान ।—चंरण० बानी, पृ० १२२ । ६. चश्मे के पत्थर या काँच का एक पल्ला । ७. हरताल । ८.तालीश पत्र । ९. ताड़ का पेड़ या फल । १०. बेल । बिल्वफल (अनेकार्थ०) ११. हाथियों के कान फटफटाने का शब्द । १२. लंबाई की एक माप । बित्ता । १३. ताला । १४. तलवार की मूठ । १५. एक नरक । १६. महादेव । १७. दुर्गा के सिंहासन का नाम । १८. पिंगल मे ढगण के दूसरे भेद का नाम जो एक गुरु और एक लघु का होता है— S । १९. ताड़ की ध्वजा (को०) । २. ऊँचाई का एक परिमाण (को०) । २१. एक नृत्य (को०) ।
⋙ ताल (२)
संज्ञा पुं० [सं० तल्ल] वह नीचो भूमि या लंबा चौड़ा गड्ढा जिसमें बरसात का पानी जमा रहता है । जलाशय । पोखरा । तालाब । उ०—कौन ताल और कौन द्वारा । कहँ होइ हंसा करै बिहारा । कबीर मं०, पृ० ५५५ ।
⋙ ताल पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० तार] उपाय । दाँव । उ०—वास बिकट निबला बसै सबल नं लागै ताल ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६९ ।
⋙ ताल पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० ताल] क्षण । समय । उ०—ढाढी गुणी बोलाविया, राजा तिणही ताल ।—ढोला०, दू० १०५ ।
⋙ ताल (५)
वि० स्त्री० [सं० उत्ताल] ऊँची । उ०—व्याकुल थीं निस्सीम सिंधु की ताल तरंगें ।—अनामिका, पृ० ५६ ।
⋙ तालकंद
संज्ञा पुं० [सं० तालकन्द] ताल मूली । मुसली ।
⋙ तालक पु †
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुक] दे० 'तअल्लुक' । उ०—हौं तो एक बालक न मोहिं कछू तालक पै देखो तात तुमहूँ को कैसी लघुताई है ।—हनुमान (शब्द०) ।
⋙ तालक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल । २. ताला । ३. गोपीचंदन । ४. ताड़ का पेड़ या फल (को०) । ५. अरहर (को०) ।
⋙ तालक पु (३)
अव्य० [हिं०] दे० 'तलक' । उ०—त्रिकुटी संधि नासिका तालक, सुष्मनि जाय समाई ।—प्राण०, पृ० ६४ ।
⋙ तालकट
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार दक्षिण का एक देश जो कदचित् बीजापुर के पास का तालीकोट हो ।
⋙ तालकाभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हरा रंग [को०] ।
⋙ तालकाभ (२)
वि० हरा [को०] ।
⋙ तालकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ताड़ी । तालरस ।
⋙ तालकूटा
संज्ञा पुं० [हिं० ताल + कूटना] झाँझ बजाकर भजन आदि गानेवाला ।
⋙ तालकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसकी पताका पर ताड़ के पेड़ का चिह्न हो । २. भीष्म । ३. बलराम ।
⋙ तालकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक ओषध जो कुष्ट, फोड़ा फुंसी आदि में दी जाती है । विशेष—दो माशे हरताल में पेठे के रस, धीकुआर के रस और तिल के तेल की भावना देते हैं । फिर दो नाशे गंधक और एक माशे पारे को मिलाकर कज्जली करते और उसमें भावना दी हुई हरताल मिलाकर फिर सब में क्रम से बकरी के दूध, नीबू के रस और घीकुआर के रस की तीन दिन भावना देते हैं । अंत में सब का गोल कतरा बनाकर उसे हाँड़ी में क्षार के भीतर रख बारह पहर तक पकाते हैं और फिर ठंढा होने पर उतार लेते हैं ।
⋙ तालकोशा
संज्ञा पुं० [सं०] एक पेड़ का नाम ।
⋙ तालक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. खजूर या ताड़ की चीनी । २. तालरस । ताड़ी (को०) ।
⋙ तालक्षीरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तालक्षीर' [को०] ।
⋙ तालखजूरी
संज्ञा स्त्री० [सं० ताल + हिं० खजूर] केतकी । उ०— तालखजूरी, तृनद्रुमा, केतकि पकरति पाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०५ ।
⋙ तालगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ी [को०] ।
⋙ तालचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम । २. उक्त देश का निवासी । ३. उक्त देश का राजा (को०) ।
⋙ तालजंघ
संज्ञा पुं० [सं० तालजङ्घ] १. एक देश का नाम । २. उस देश का निवासी । ३. एक यदुवंशी राजा जिसके पुत्रों ने राजा सगर के पिता असित को राजच्युत किया था । ४. एक प्रकार का ग्रह (को०) । ५. महाभारत का एक पात्र या नायक (को०) ।
⋙ तालजटा
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ की जटा [को०] ।
⋙ तालज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत की तालों का जानकार [को०] ।
⋙ तालधारक
संज्ञा पुं० [सं०] नर्तक [को०] ।
⋙ तालध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसकी ध्वजा पर ताड़ के पेड़ का चिह्न हो । २. भीष्म । ३. बलराम । ४. एक पर्वत का नाम ।
⋙ तालनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्र शुक्ला नवमी । विशेष—इस दिन स्त्रियाँ व्रत रखती और तालपत्र आदि से गौरी का पूजन करती हैं ।
⋙ तालपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ का पत्ता । विशेष—प्राचीन समय में, जब कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, ताड़ के पत्ते पर ही लिखा जाता था । २. एक प्रकार का कान का गहना । ताटंक [को०] ।
⋙ तालपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालमूली । मुसली ।
⋙ तालपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूसाकर्णी । मूषकपर्णी । मूसाकानी । २. विधवा [को०] ।
⋙ तालपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कपूरकचरी ।
⋙ तालपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंफ । २. कपूरकचरी । ३. ताल- मूली । मुसली । ४. सोआ । सोया नाम का साग ।
⋙ तालपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] पुड़रिया । धपौंडरीक ।
⋙ तालप्रलंब
संज्ञा पुं० [सं० तालप्रलम्ब] ताड़ की जटा [को०] ।
⋙ तालबंद
संज्ञा पुं० [सं० ताल, तालिका + बंध] वह लेखा जिसमें आमदनी की हर एक मद दिखलाई गई हो ।
⋙ तालबद्ध †
वि० [सं०] तालयुक्त [को०] ।
⋙ तालबृंत पु
संज्ञा पुं० [सं० ताल + वृन्त(= डंठल)] ताड़ । उ०— तालवृंत फल खाय के दैत हत्यो नँदलाल ।—अनेकार्थ०, पृ० १३३ ।
⋙ तालबेन
संज्ञा स्त्री० [सं० तालवेणु] एक प्रकार का बाजा ।
⋙ ताल बैताल
संज्ञा पुं० [सं० ताल + बैताल] दो देवता या यक्ष । विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है कि राजा विक्रमादित्य ने इन्हें सिद्ध किया था और ये बराबर उनकी सेवा में रहते थे ।
⋙ तालभंग
संज्ञा पुं० [सं० ताल + भङ्ग] गाने और बजाने में ताल स्वर की विषमता ।
⋙ तालमखाना
संज्ञा पुं० [हिं० ताल + मक्खन] १. एक पौधा जो गीली या सीड़ जमीन में होता हैं; विशेषतः पाने या दलदलों के निकट । विशेष—इसकी पंत्तियाँ ५ या ६. अंगुल लंबी और अंगुल सवा अंगुल चौड़ी होती हैं । इसकी जड़ से चारों ओर बहुत सी टह- नियाँ निकलती हैं जिनमें थोड़ी थोड़ी दूर पर गूमें के पौधे की गाँठों के ऐसी गाँठे होती हैं । इन गाँठों पर काँटे होते हैं । इन्हीं गाँठों पर फूल या बीजों के कोशों के अंकुर होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर गाँठ के कोशों के अंकुर होते हैं । पड़ते हैं, जो दवा के काम में आते हैं । वैद्यक में ये बीज मधुर, शीतल, बलकारक, वीर्यवर्द्धक तथा पथरी, वातरक्त, प्रमेह आदि को दूर करनेवाले माने जाते हैं । वात और गठिया में भी तालमखाने के बीज उपकारी होते हैं । डाक्टरों ने भी परीक्षा करके इन्हें मूत्रकारक, बलकारक और जननेंद्रिय संबंधी रोगों के लिये उपकारक बताया है । तालमखाने का पौधा दो प्रकार का होता हैं—एक लाल फूल का, दूसरा सफेद फूल का । सफेद फूल का अधिक मिलता है । कहीं कहीं इसकी पत्तियों का साग भी खाया जाता है । पर्या०—कोकिलाक्ष । काकेक्षु । इक्षुर । क्षुरक । भिक्षु । कांडेत्रु । इक्षुगंधा । श्रृगाली । शृंखलि । शूरक । शृंगालघंटी । वज्रास्थि । शृंखला । वनंकंटक । वज्र । त्रिक्षुर । शुक्लपुष्प (सफेद तालमखाना) । छत्रक और अतिच्छत्र (ताघमखाना) । २. दे० 'मखाना' ।
⋙ तालमर्दल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा [को०] ।
⋙ तालमूल
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी की ढाल ।
⋙ तालमूलिका
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तालमूली' ।
⋙ तालमूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुसली ।
⋙ तालमेल
संज्ञा पुं० [हिं० ताल + मेल] १. ताल सुर का मिलान । २. मिलान । मेलजोल । उपयुक्त योजना । ठीक ठीक संयोग । मुहा०—तालमेल खाना = ठीक ठीक संयोग होना । प्रकृति आदि का मेल होना । बिधि मिलना । मेल पटना । तालमेल बेठना = दे० 'तालमेल खाना' । ३. उपयुक्त अवसर । अनुकूल संयोग । जैसे,—तालमेल देखकर काम करना चाहिए ।
⋙ तालयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तालयन्त्र] १. चीर फाड़ करने का एक प्राचीन औजार । २. ताला । ३. ताला और चाबी [को०] ।
⋙ तालरंग
संज्ञा पुं० [सं० तालरङ्ग] एक प्रकार का बाजा जिससे ताल दिया जाता है ।
⋙ तालरस
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ के पेड़ का मद्य । ताड़ी । उ०—ताल- रस बलराम चाख्यो मन भयो आरनंद । गोपसुत सब टेरि लीन्हें सुधि भई नँदनंद ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तालरेचनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नर्तक । २. अभिनेता [को०] ।
⋙ ताललक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] तालध्वजी, बलराम ।
⋙ तालबन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ के पेड़ों का जंगल । २. व्रज मंडल के अंतर्गत एक वन जो गोवर्धन के उत्तर जमुना के किनारे पर है । कहते हैं, यहीं पर बलराम ने धेनुकवध किया था । उ०—सखा कहन लागे हरि सों तब । चलौ तालवन कौ जैये अब ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तालवाही
संज्ञा पुं० [सं०] वह बाजा जिससे ताल दिया जाय । जैसे, मँजीरा, झाँझ आदि ।
⋙ तालवृंत
संज्ञा पुं० [सं०तालवृन्त] १. ताड़ के पत्ते का पंखा । उ०— ठहर अरी, इस हृदय में लगी विरह की आग । तालवृंत से और भी धधक उठेगी जाग ।—साकेत, पृ० २६९ । २. एक प्रकार का सोम —(सुश्रुत) ।
⋙ तालवृंतक
संज्ञा पुं० [सं० तालवृन्तक] दे० 'तालवृंत' [को०] ।
⋙ तालव्य
वि० [सं०] १. तालु संबंधी । २. तालु से उच्चारण किया जानेवाला वर्ण । विशेष—इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ, य, श—ये वर्ण तालव्य कहलाते हैं ।
⋙ तालसंपुटक
संज्ञा पुं० [सं० ताल + सम्पुटक] ताड़ के पत्ते की बनी हुई झाँपी जो फल आदि रखने के काम आती है । उ०— हे तात, तालसंपुटक तानिक ले लेना । बहनों को वन उपहार मुझे है देना ।—साकेत, पृ० २४६ ।
⋙ तालसाँस
संज्ञा पुं० [सं० ताल + बँ० साँस (= गूदा)] ताड़ के फल के भीतर का गूदा जो खाने के काम आता है ।
⋙ तालस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० तालस्कन्ध] एक अस्त्र जिसका नाम वाल्मिकि रामायण में आया है ।
⋙ तालांक
संज्ञा पुं० [सं० तालाङ्क] १. वह जिसका चिह्न ताड़ हो । २. बलराम । ३. एक प्रकार का साग । ४. आरा । ५. शुभ- लक्षणवान् मनुष्य । ६. पुस्तक । ७. महादेव । ८. ताड़पत्र जो लिखने के काम आता था (को०) ।
⋙ तालांकुर
संज्ञा पुं० [सं० तालाङ्कुर] मैनसिल ।
⋙ ताला (१)
संज्ञा पुं० [सं० तलक] लोहे, पीतल, आदि की वह कल जिसे बंद किवाड़, संदूक आदि की कुंडी में फँसा देने से किवाड़ या संदूक बिना कुंजी के नहीं खुल सकता । कपाट अवरुद्ध रखने का यंत्र । जंदरा । कुल्फ । क्रि० प्र०—खुलना ।—खोलना ।—बंद होना ।—करना ।—लगना ।—लगानवा । यौ०—ताला कुंजी । मुहा०—ताला जकड़ना = ताला लगाकर बंद करना । ताला तोड़ना = किसी दूसरी के वस्तु को चुराने या लूटने के लिये उसके घर, संदूक आदि में लगे हुए ताले को तोड़ना । ताला भिड़ना । ताला बंद होना । ताला भेड़ना = ताला लगाना ।
⋙ ताला पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] ताल । उ०—बिनहीं ताला ताल बजावे ।—कबीर ग्रं०, पृ० १४० ।
⋙ ताला (३)
संज्ञा पुं० [अ० ताले] भाग्य । उ०—मेरे ताले केरा आया सो एक भार । यकायक झाँककर देखे मुँज नार ।—दक्खिनी० पृ० २८२ ।
⋙ ताला (४)
संज्ञा पुं० [देश०] उरस्राण । छाती का कवच । उ०—तोरत रिपु ताले आले रुधिर पनाले चालत हैं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७ ।
⋙ ताला पु † (५)
संज्ञा स्त्री० [?] देरी । उ०—चाहे दुरग तकूँ तजि ताला ।—रा० रू०, पृ० ३४४ ।
⋙ तालाकुंजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताला + कुंजी] १. किवाड़, संदूक, आदि बंद करने का यंत्र । क्रि० प्र०—लगाना । २. लड़कों का एक खेल ।
⋙ तालाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपूरकचरी ।
⋙ तालापचर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तालावचर' ।
⋙ तालाब
संज्ञा पुं० [हि० ताल + फा़० आब, अथवा सं० तडाग, प्रा० तलाअ, तलाब; हिं० तालाब] जलाशय । सरोवर । पोखरा ।
⋙ तालाबेलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] व्याकुलता । तड़पन । पीड़ा । उ०—तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिन मीन ।— कबीर श०, भा०२, पृ० ९२ ।
⋙ तालाबेलिया
संज्ञा पुं० [हिं०तालाबेलि] तड़पने या छटपटानेवाला व्यक्ति । वरिही पुरुष । उ०—जा घट तालाबेलिया, ताको लावो सोधि ।—कबीर सा०, सं०, पृ० ४० ।
⋙ तालाबेली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तालाबेलि' । उ०—दादू साहिब कारणँ, तालाबेली मोहि ।—दादू०, पृ० ३७८ ।
⋙ तालावचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नर्तक । २. अभिनेता [को०] ।
⋙ तालिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. फैली हुई हथेली । २. चपत । तमाचा । ३. नत्थी या तागा जिससे भिन्न भिन्न बिषयों के तालपत्र या कागज बँधे हों । ४. तालपत्र या कागज का पुलिंदा । ५. ताली । करतल की ध्वनि (को०) ।
⋙ तालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ताली । कुंजी । २. नत्थी या तागा जिससे भिन्न भिन्न विषयों के तालपत्र या कागज अलग अलग बँधे हों । तालपत्र या कागज का पुलिंदा । ३. नीचे ऊपर लिखी हुई वस्तुओं का क्रम । नीचे ऊपर लिखे हुए नाम जिनमें अलग अलग चीजें गिनाई गई हों । सुची । फेहरिस्त । ४. चपत । तमाचा । ५. ताल मूली । मुसली । ६. मजीठ ।
⋙ तालित
संज्ञा पुं० [सं०] १. रंगीन कपड़ा । २. वाद्य । बाजा । ३. रस्सी । डोरी [को०] ।
⋙ तालिब (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. ढूँढ़नेवाला । तलाश करनेवाला । चाहनेवाला । २. शिष्य । चेला । उ०—तालिब मतलूब को पहुँचै तोफ करे दिल अंदर ।—कबीर सा०, पृ० ८८८ ।
⋙ तालिबइल्म
संज्ञा पुं० [अ०] विद्यार्थी ।
⋙ तालिबा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तालिब' । उ०—कबीरा तालिबा तेरा । किया दिल बीच में डेरा ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ९४ ।
⋙ तालिम पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० तल्प] शिय्या । बिस्तर । (डिं०) ।
⋙ तालियागार
संज्ञा पुं० [हिं० ताली + मारना] जहाज या नाव का अगला भाग जो पानी काटता है । गलही —(लश०) ।
⋙ तालिश
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ [को०] ।
⋙ ताली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लोहे की वह कील जिससे ताला खोला और बंद किया जाता है । कुंजी । चाबी । उ०—तरक ताली खुलै ताला ।—घट०, पृ० ३७० । २. ताड़ी । ताड़ का मद्य । ३. तालमूली । मुसली ।४. भूआँवला । भूम्यामलकी । ५. अरहर । ६. ताम्रवल्ली लता । ७. एक प्रकार का छोटा ताड़ जो बंगांल और बरमा में होता हैं । बजरबट्टू । बट्टू । उ०—तासली तृमद्रुम केतकी खर्जूरी यह आहि ।—अनेकार्थ०, पृ० २२ । ८. एक वर्णवृत्त । ९. मेहराब के बीचेबीच का पत्थर या ईंट । १०. दोनों फैली हुई हथेलियों को एक दूसरी पर मारने की क्रिया । करतलों का परस्पर आघात । थपेड़ी । उ०—रानी नीलदेवी सोमदेव राजपूतों के साथ आते हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४६ । क्रि० प्र०—पीटना ।—बजाना । मुहा०—ताली पीटना या बजाना = हँसी उड़ाना । उपहास करना । ताली बज जाना = उपहास होना । निरादर होना । एक हाथ से ताली नहीं बजती = बैर या प्रीति एक ओर से नहीं होती । दोनों के करने से लड़ाई झगड़ा या प्रेम का व्यवहार होता है । ११. दोनों हथेलियों को फैलाकर एक दूसरे पर मारने से उत्पन्न शब्द । करतलध्वनि । १२. नृत्य का एक भेद । विशेष—मृदंगी दंडिका ताली कहली श्रुत धर्धुरी । नृत्य गीत प्रबंध च अष्टांगो नृत्य उच्यते ।—पृ० रा०, २५ । १२ ।
⋙ ताली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ताल (= जलाशय)] छोटा ताल । तलैया । गड़ही । उ०—फरइ कि कोदव बालि सुसाली । मुकता प्रसव कि संबुक ताली ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ताली (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पैर की बिचली उँगली का पोर या ऊपरी भाग ।
⋙ ताली (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] समाधि तारी । उ०—(क) भूले सुधि बुधि ज्ञान ध्यान सौं लागी ताली ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १५ । (ख) जुग पानि नाभि ताली लगाय । रमि द्रिष्टि द्रिष्ट्रि गिरि बंध राय ।—पृ० रा०, १ ।४८९ ।
⋙ ताली (५)
संज्ञा पुं० [सं० तालिन्] शिव [को०] ।
⋙ तालीका
संज्ञा पुं० [अ० तअ़लीका] १. माल असबाब की जब्ती । मकान की कुर्की । २. कुर्क किए हुए असबाब की फिहरिस्त । ३. परिशिष्ट (को०) ।
⋙ तालीपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] तालीश पत्र ।
⋙ तालीम
संज्ञा स्त्री० [अ०] शिक्षा । अभ्यासार्थ उपदेश । जैसे,— उसकी तालीम अच्छी नहीं हुई है ।
⋙ क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—लेना ।
⋙ तालीशपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तमाल या तेजपत्ते के जाति का एक पेड़ । विशेष—यह हिमालय पर सिंध से सतलज तक थोड़ा बहुत और उससे पूर्व सिक्किम तक बहुत अधिक होता है । आसाम में खसिया की पहाड़ियों से लेकर बरमा तक इसके पेड़ पाए जाते हैं । इसके पत्ते एक लंबे डंठल के दोनों ओर लगते हैं और तेजपत्ते से वंबे होते हैं । डंठल मे खजूर की तरह चौकोर खाने से होते हैं । इसकी लकड़ी बहुत खरी होती है । पत्ते बाजारों में तालीशपत्र के नाम से बिकते हैं और दवा के काम में आते हैं । वैद्यक में तालीशपत्र मधुर, गरम, कफवातनाशक, तथा गुल्म, क्षय रोग और खाँसी को दूर करनेवलाला माना जाता है । पर्या०—धात्रीपत्र । शुकोदर । ग्रंथिकापत्र । तुलसीछद । अर्कबंध । पत्राख्य । करिपत्र । करिच्छद । नील । नीलांबर । तालापत्र । तमाह्वय । २. दो ढाई हाथ ऊँचा एक पौधा जो उत्तरी भारत, बंगाल तथा समुद्र के किनारे के देशों में होता है । विशेष—यह भूआँवला की जाति का है । इसकी सूखी पत्तियाँ भी दवा के काम में आती है । इसे पनिया आमला भी कहते हैं । इसका पौधा भूआँवले से बड़ा और चिलबिल से मिलता जुलता होता है ।
⋙ तालीशपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालीशपत्र ।
⋙ तालु
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० तालव्य] तालू ।
⋙ तालुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० तालुकण्टक] एक रोग जो बच्चों के तालू में होता है । विशेष—इसमें तालु में काँटे से पेड़ जाते हैं और तालु धँस जाता है । इसके कारण बच्चा स्तन बड़ी कठिनाई से पीता है । जब यह रोग होता है, तब बच्चे को पतले दस्त भी आते हैं ।
⋙ तालुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तालू । २. तालू का एक रोग [को०] ।
⋙ तालुका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालू की नाड़ी ।
⋙ तालुका (२)
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुकह्] दे० 'तअल्लुका' ।
⋙ तालुज
वि० [सं०] तालु से उत्पन्न [को०] ।
⋙ तालुजिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] घड़ियाल ।
⋙ तालुपाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें गरमी से तालु पक जाता है और उसमें घाव सा हो जाता है ।
⋙ तालपुप्पुट
संज्ञा पुं० [सं०] तालुपाक रोग ।
⋙ तालुशोष
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें तालू सूख जाता है और उसमें फटकर घाव से हो जाते हैं ।
⋙ तालू
संज्ञा पुं० [सं० तालु] १. मुँह के भीतर की ऊपरी छत जो ऊपवाले दाँतों की पंक्ति से लेकर छोटी जीभ या कौवे तक होती है । विशेष—इसका ढाँचा कुछ दूर तक तो कड़ी हड्डियों का होता है उसके पीछे फिर मुलायम मांस की तहों के कारण कोमल होता है, जो नाक के पीछेवाले कोश और मुखविवर के बीच एक परदा सा जान पड़ता है । मुहा०—तालू उठाना = तुरंत के जनमें हुए बच्चे के तालू को दबाकर ठीक करना । (दाइयाँ या चमारिनें यह काम करती हैं) । तालू में दाँत जमना = अदृष्ट आना । बुरे दिन आना । विशेष—प्रायः क्रोध में दूसरे के प्रति लोग इस वाक्य का व्यवहार करते हैं । बच्चों को तालू में काँटा या अंकुर सा निकल आता है जिसे तालू में दाँत निकलना कहते हैं । इसमें बच्चें को बड़ा कष्ट होता है । तालू लटकना = रोग के कारण तालू का नीचे लटक आना । तालू से जीभ न लगाना = चुपचाप न रहा जाना । बके जाना । २. खोपड़ी के नीचे का भाग । दिमाग । मुहा०—तालू चटकना=(१) सिर में बहुत अधिक गरमी जान पड़ना । (२) प्यास से मुँह सूखना । जैसे,—प्यास से तालू चटकना । ३. घोड़े का एक ऐब ।
⋙ तालूफाड़
संज्ञा पुं० [हिं० तालू + फाड़ना] हाथियों का एक रोग जिसमें हाथी के तालू में घाव हो जाता है ।
⋙ तालूर
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का भँवर [को०] ।
⋙ तालूषक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तालु' [को०] ।
⋙ तालेवर
वि० [अ० ताला (= भाग्य) + फा़० वर (प्रत्य०)] धनाढ्य । धनी ।
⋙ ताल्लुक
संज्ञा पुं० [त० तअल्लुक] संबंध । लगाव । उ०—हमारे ताल्लुक भलेमानुस शरीफों से हैं । हमने ऐसे एक एक दफे के दस दस रुपए लिए हैं ।—ज्ञानदान, पृ० १२६ ।
⋙ ताल्लुका
संज्ञा पुं० [अ० तअ़ल्लुक़ह्] दे० 'तअल्लुक' ।
⋙ ताल्लुकात
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुक का बहु व०] संबंध । मेल जोल [को०] ।
⋙ ताल्लुकेदार
संज्ञा पुं० [अ० तअ़ल्लुकह् + फा़०दार (प्रत्य०)] दे० 'तअल्लुकेदार' ।
⋙ ताल्वर्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें तालू में कमल के आकार का एक बड़ा सा अंकुर या काँटा सा निकल आता है जिसमें बहुत पीड़ा होती है ।
⋙ ताव (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताप, प्रा० ताव] १. वह गरमी जो किसी वस्तु को तपाने या पकाने के लिये पहुँचाई जाय । क्रि० प्र०—लगना । यौ०—तावबंद । ताव भाव । मुहा०—(किसी वस्तु में) ताव आना = (किसी वस्तु का) जितना चाहिए, उतना गरम हो जाना । जैसे,—अभी ताव नहीं आया है, पूरियाँ कड़ाही में मत डालो । ताव खाना = (१) आँच में गरम होना । (२) आवेश में आना । क्रुद्ध हो जाना । ताव खा जाना = (१) आँच पर चढ़े हुए कड़ाही के घी,चाशनी, पाग इत्यादि का आवश्यकता से अधिक गरम हो जाना । किसी पाग या पकवान आदि का कड़ाह में जल जाना । जैसे, चाशनी का ताव खा जाना, पाग का ताव खा जाना ३. किसी खौलाई, तपाई या पिघलाई हुई वस्तु का आवश्यकता से अधिक ठंढा होना । दे० 'ताव खाना' । ताव देखना = आँच का अंदाज देखना । ताव देना = (१) आँच पर रखना । गरम रखना । (२) आग में लाल करना । तपाना ।—(धातु आदि का) ताव बिगड़ना = पकाने में आँच का कम या अधिक हो जाना (जिससे कोई वस्तु बिगड़ जाय) । मूछों पर ताव देना = सफलता आदि के अभिमान में मूछें ऐंठना । पराक्रम, बल आदि के घमंड में मूछों पर हाथ फेरना । २. अधिकार मिले हुए क्रोध का आवेश । घमंड लिए हुए गुस्से की झोंक । मुहा०—ताव दिकाना = अभिमान मिला हुआ क्रोध प्रकट करना । बड़प्पन दिखाते हुए बिगड़ना । आँख दिखाना । ताव में आना = अभिमान मिले हुए क्रोध के आवेग में होना । अहंकार मिश्रित क्रोध के वश में होना । जैसे,—ताव में आकर कहीं मेरी चीजे भी न फेंक देना । ३. अहंकार का वह आवेश जो किसी के बढ़ाना देने, ललकारने आदि से उत्पन्न होता है । शेखी की झोंक । जैसे,—ताव में आकर इतना चंदा लिख तो दिया, पर दोगे कहाँ से? ४. किसी वस्तु के तत्काल होने की घोर इच्छा या उत्कंठा । ऐसी इच्छा जिसमें उतावलापन हो । चटपट होने की चाह या आवश्यकता । उ०—वीछुणिया साजण मिलइ, वलि किउ ताढउ ताव ।—ढोला०, दू० ५५६ । मुहा०—ताव चढ़ना = (१) प्रबल इच्छा होना । ऐसी इच्छा होना कि कोई बात चटपट हो जाय । (२) कामोद्दीपन होना । ताव पर = जब इच्छा या आवश्यकता हो, उसी समय । जरूरत के मौकै पर । जैसे,—तुम्हारे ताव पर तो रुपया नहीं मिल सकता ।
⋙ ताव (२)
संज्ञा पुं० [फा़० ता (=संख्या)] कागज का एक तख्ता । जैसे, चार ताव कागज ।
⋙ तावड़ियाँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप, प्रा० ताव + ड़ी (प्रत्य०)] घाम । धूप । उ०—सूखे जेठ मँझार सर तीखा चावाड़ियाँहि । बाँकी०, ग्रं०, भा० २, पृ० १६ ।
⋙ तावण
वि० [सं० तावान्] तितना । उतना । उ०—तिल ज्यो घाणी पीड़िए तावण त्तत्ते तेल ।—प्राण०, पृ० २५५ ।
⋙ तावत्
क्रि० वि० [सं०] १. उतने काल तक । उतनी देर तक । तब तक । २. उतनी दूर तक । वहाँ तक । ३. उतने परिमाण तक । उतने तक । विशेष—यह 'तावत्' का संबंधपूरक शब्द है ।
⋙ तावताँम पु
संज्ञा पुं० [हिं० ताव + अनु० ताँम] आवेश । क्रोध । गुस्सा । उ०—दागी सु तोप लखि ताव ताँम ।—ह० रासो, पृ० १०८ ।
⋙ तावदार
वि० [हिं० ताव + फा़० दार] १. वह (व्यक्ति) जिसमें ताव हो । जो आवेश में आकर या साहसपूर्वक काम करता हो । २. (वस्तु) जो कड़ी और सुंदरता लिए हुए हो ।
⋙ तावना पु †
क्रि० स० [सं० तापन] १. तपना । गरम करना । उ०—अतन तनक ही मैं तापन तें तावैगो ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३७६ । २. जलाना । ३. संताप पहुँचाना । दुःख पहुँचाना । डाहना ।
⋙ तावबंद
संज्ञा पुं० [हिं० ताव + फा़० बंद] वह औषध जिसके प्रयोग से चाँदी का खोटापन तपाने पर भी प्रकट न हो ।
⋙ तावभाव (२)
वि० थोड़ा सा । जरा सा । हलका सा ।
⋙ तावर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तावरी' ।
⋙ तावरी
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताव + री (प्रत्य०)] १. ताप । दाह । जलन । उ०—फिरत हौं उतावरी लगत नहीं तावरी ।—सुदंर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४८० । २. धूप । घाम । आतप ३. बुखार । ज्वर । हरारत । ४. गरमी से आया हुआ चक्कर । मूर्छा । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ तावरो पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ताव + रा (प्रत्य०)] १. ताप । दाह । जलन । २. सूर्य की गरमी । धूप । घाम । आतप । उ०—मैं जमुना जल भरि धर आवति मो को लागो तावरौ ।—सूर (शब्द०) ३. गरमी से आया हुआ चक्कर । घमेर । मूर्छा । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ ताबल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताव] जल्दी । उतावलापन । हड़बड़ी ।
⋙ तावा
संज्ञा पुं० [हिं० ताव] १. दे० 'तवा' । २. वह कच्चा खपड़ा या थपुआ जिसके किनारे अभी मोड़े न गए हों । ३. तवा ।
⋙ तावर
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष की डोरी । प्रत्यंचा [को०] ।
⋙ तावान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. वह चीज जो नुससान भरने के लिये दी या ली जाय । क्षतिपूर्ति । नुकसान का मुआवजा । २. अर्थदंड । डाँड़ । क्रि० प्र०—देना ।—लेना । ३. वह धन या समान आदि जो हारा हुआ राष्ट्र विजेता को देता है [को०] । यौ०—तावाने जंग = युद्ध की क्षतिपूर्ति जो पराजित राष्ट्र को करनी पड़ती है ।
⋙ तावाना पु
क्रि० स० [सं० ताप, हिं० तावना] आँच में ताप देना । आग्नि में तपाना । दे० 'तावना' । उ०—ठुक ठुक करिके गढ़े ठठेरा बार बार तावाई । वा मूरत के रही भरोसे, पछिला धरम नसाई ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ५४ ।
⋙ ताविष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तावीष' ।
⋙ ताविषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवकन्या । २. नदी । ३. पृथिवी । ४. समुद्र (को०) । ५. स्वर्ग (को०) । ६. सोना । सुवर्ण (को०) ।
⋙ तावीज
संज्ञा पुं० [अ० ताअवीज] १. यंत्र, मंत्र या कवच जो किसी संपुट के भीतर रखकर गले में या बाँह पर पहना जाय । रक्षाकवच । कवच । उ०—यंत्र मंत्र जती करि लागे,करि तावीज गले पहिराए ।—कबीर सा०, पृ० ५४० । २. सोने, चाँदी, ताँबे आदि का चौकोर या अठपहला, गोल या चिपटा संपुट जिसे तागे में लगाकर गले या बाँह पर पहनते है । जंतर । विशेष—ये संपुट यों ही गहने की तरह भी पहने जाते है और इनके भीतर यंत्र भी रहता है । मुहा०—तावीज बाँधना = रक्षा के लिये देवता का मंत्र आदि लिखकर बाँधना । कवच बाँधना । ३. कब्र पर बना हुआ ईटों या पत्थर का निशान (को०) । ४. गले का एक आभूषण (को०) ।
⋙ तावीत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. स्पष्टीकरण । २. किसी बात का असली अर्थ से हटकर दूसरा अर्थ । ३. किसी बात का ऐसा अर्थ बताना जो लगभग ठीक जान पड़े । ४. स्वप्नफल कहना [को०] ।
⋙ तावीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । स्वर्ण । २. स्वर्ग । ३. समुद्र ।
⋙ तावीषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ताविषी' [को०] ।
⋙ तावुरि
संज्ञा पुं० [यूनी टारस] बृष राशि ।
⋙ ताश
संज्ञा पुं० [अ० तास (= तश्त या चौड़ा बरतन)] १. एक प्रकार का जरदोजी कपड़ा जिसका ताना रेशम का और बाना बादले का होता होता है । जरवफ्त । २. खेलने के लिये मोटे कागज का चौखूँटा टुकड़ा जिसपर रंगों की बूटियाँ या तसवीरें बनी रहती हैं । खेलने का पत्ता । विशेष—खेलने के ताश में चार रंग होते हैं—हुक्म, चिड़ी, पान और ईँट । एक एक रंग के तेरह तेरह पत्ते होते हैं । एक से दस तक तो बूटियाँ होती हैं जिन्हें क्रमशः एक्का, दुक्की (या दुड़ी), तिक्की, चौकी, पंजी, छक्का, सत्ता, अट्ठा नहला और दहला कहते हैं । इनके अतिरिक्त तीन पत्तों में क्रमशः गुलाम, बीब और बादशाह की तसवीरें होती हैं । इस प्रकार प्रत्येक रंग के तेरह पत्ते और सब मिलाकर बावन पत्ते होते हैं । खेलने के समय खेलनेवालों में ये पत्तें उलटकर बराबर बाँट दिए जाते हैं । साधारण खेल (रंगमार) में किसी रंग की अधिक बूटियोंवाला पत्ता उसी रंग की कम बूटियोंवाले पत्ते को मार सकता है । इसी प्रकार दहले को गुलाम मार सकता है और गुलाम को बीबी, बीबी को बादशाह और बादशाह को एक्का । एक्का सब पत्तों को मार सकता है । ताश के खेल कई प्रकार के होते हैं जैसे, ट्रंप, गन, गुलामचोर इत्यादि । ताश का खेल पहले किस देश में निकला, इसका ठीक पता नहीं है । कोई मिस्र देश को, कोई काबुल को, कोई अरब को और कोई भारतवर्ष को इसका आदि स्थाम बतलाता है । फारस और अरब में गंजीफे का खेल बहुत दिनों से प्रचलित है जिसके पत्ते रुपए के आकार के गोल गोल होते है । इसी से उन्हें ताश कहते हैं । अकबर के समय हिंदुस्तान में जो ताश प्रचलित थे, उनके रंगो के नाम और थे । जैसे, अश्वपति गजपति, नरपति, गढ़पति, दलपति इत्यादि । इनमें घोड़े, हाथी आदि पर सवार तसवीरें बनी होती थीं । पर आजकल जो ताश खेले जाते हैं वे यूरप से ही आते हैं । क्रि० प्र०—खेलना । ३. ताश का खेल । ४. कड़े कागज या दफ्ती की चकती जिसपर सीने का तागा लपेटा रहता है ।
⋙ ताशा
संज्ञा पुं० [अ० तास] चमड़ा मढ़ा हुआ एक बाजा जो गले में लटकाकर दो पतली लकड़ियों से बजाया जाता है । विशेष—यह धूमधाम सूचित करने के लिये ही बजाया जाता है ।
⋙ तास (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक सुनहरे तारों का जड़ाऊ कपड़ा । उ०—ये तास का सब वस्त्र पहने थी और मुँह पर भी तास का नकाब पड़ा हुआ था ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० १८८ । २. बड़ा तश्त । परती (को०) । ३. वह कटोरा जो जलघड़ी की नाँद में पड़ता था (को०) ।
⋙ तास (२)
सर्व० [हिं०] दे० 'तासु' । उ०—अनल पंषि लड़ि, चढ़ि आकाश, थकित भई हूँ छोर न सास ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८४८ ।
⋙ तासना †
क्रि० अ० [हिं०] १. प्यासाना । २. प्यास के कारण कंठ सुख जाने से ताव खा जाना ।
⋙ तासला
संज्ञा पुं० [देश०] वह रस्सी जिसे भालुओं को नचाने के के समय कलंदर उनके गले में डाले रहते हैं ।
⋙ तासा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताशा' ।
⋙ तासा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रि + कर्ष, अथवा देश०] तीन बार की जोती हुई भूमि ।
⋙ तासा † (३)
वि० [हिं०] तृषित । प्यासा । जैसे, पियासा तासा ।
⋙ तासीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] असर । प्रभाव । गुण । जैसे,—दवा की तासीर, सोहबत की तासीर । उ०—जिसके दर्दे दिल में कुछ तासीर है । गर जवाँ भी है तो मेरा पीर है ।—कविता० कौ०, भा० ४, पृ० २८ ।
⋙ तासु पु †
सर्व० [सं० तस्य अथवा हिं० ता + सु (प्रत्य०)] उसका ।
⋙ तासूँ †
सर्व० [हिं०] दे० तासों' ।
⋙ तासों पु †
सर्व० [हिं० ता + सौं (प्रत्य०)] उससे ।
⋙ तासौं पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'तार्सों' ।
⋙ तास्कर्य
संज्ञा पुं० [सं०] चोरी [को०] ।
⋙ ताहम
अव्य० [फ़ा०] तो भी । तिस पर भी । उ०—ताहम मेरा यह दावा जरूर है कि मेरे छंद ढीले ढिले नहीं होते ।—कुंकुम (भू०), पृ० १९ ।
⋙ ताहरा पु
सर्व० [हिं० तुम्हारा] तेरा । तुम्हारा । उ०—मीत हमारा अब पियारा, ताहरा रंगनी राती ।—दादू०, पृ० ५२२ ।
⋙ ताहरी पु
सर्व० स्त्री० [हिं०] दे० 'ताहरा' । उ०—करणी ताहरी सोघसी, होसी रे सिर हेलि ।—दादू०, पृ० ५३९ ।
⋙ ताइरूँ पु
सर्व० [हिं० ताहरा] तेरा । तुम्हारा । त्वदीय । उ०— माहरूँ सूँ आपूँ ताहरूँ छै तू नै थापूँ ।—दादू०, पृ० ६७२ ।
⋙ ताहरौ पु
सर्व० [हिं० ताहरा] तिसका । उसका । उ०—दुहौ पवाड सुजस ताहरौ कै मरसी कै मारै ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८८४ ।
⋙ ताहाँ पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तहाँ' । उ०—जेहाँ तोहे ताहाँ अस- लान, पढ़य पेल्लिअ तुज्झु फरमान ।—कीर्ति०, पृ० ५८ ।
⋙ ताहि पु †
सर्व० [हिं० ता + हि० (प्रत्य०)] उसको । उसे । उ०— काहिक सुंदरि के ताहि जान । आकुल कए गेलि हमर परान ।—विद्यापति, पृ० १७६ ।
⋙ ताही †
अव्य० [हिं०] दे० 'ताई', 'तई' ।
⋙ ताही पु
सर्व [हिं०] दे० 'ताहि' । उ०—परम प्रेम पद्धति इक आही । 'नँद' जगामति बरनत ताही ।—नंद० ग्रं०, पृ० ११७ ।
⋙ ताहू पु
सर्व० [हिं० ताहि] तिसे भी । उसको भी । उ०—जहाँ अर्न्य सों और को उपमा बचन न हौय । ताहू कहत प्रतीप हैं कबी कोबिद सब कोय ।—मति० ग्रं०, पृ० ३७३ ।