विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/पथ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ पथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार्ग। रास्ता। राह। २. व्यवहार या कार्य आदि की रीति। विधान। उ०—व्यास सुमन पथ अनुसरै सोई भले पहिचानिहै।—नाभादास (शब्द०)।
⋙ पथ (२)
संज्ञा पुं० [सं० पथ्य] रोग के लिये उपयुक्त हलका आहार। पथ्य। जूस। उ०—मोहन जौ दृग जिहि मतन उझकाई दै जाय। ज्यौं थोरौ पथ देत हैं वैद रोगियै आय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ पथक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथ जानने या बतलानेवाला। २. प्रांत।
⋙ पथकल्पना
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रजाल। जादू का खेल।
⋙ पथगामी
संज्ञा पुं० [सं० पथगामिन्] रास्ता चलनेवाला। पथिक।
⋙ पथचारी
संज्ञा पुं० [सं० पथचारिन्] रास्ता चलनेवाला।
⋙ पथत्
संज्ञा पुं० [सं०] मार्ग। पथ। रास्ता [को०]।
⋙ पथदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] राह दिखानेवाला। रास्ता बतलानवाला। उ०—जग के अनादि पथदर्शक वे, मानव पर उनकी लगी दृष्टि।—युगांत, पृ० १३।
⋙ पथनार †
संज्ञा पुं० [हिं० पाथना] १. गोबर के उपले बनाना या थापना। पाथना। २. पीटने मारने कि क्रिया।
⋙ पथप्रदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] मार्गदर्शक। रास्ता दिखानेवाला।
⋙ पथभ्रांत
वि० [सं० पथभ्रान्त] राह से भटका हुआ। भूला हुआ। उ०—एसी स्थिति में उसकी प्रवृत्ति कुछ तो पीछे की ओर मुड़ने की हुई और कुछ पथभ्रांत होने की।—हिं० का० प्र०, पृ० ३२।
⋙ पथर †
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्तर हिं० पत्थर, पाथर] पत्थर। पाषाण। उ०—धरम दास के साहेब कबीरा, पथर पूजै तो पूजन दे।—धरम०, पृ० ६८।
⋙ पथरकट
वि० [हिं० पत्थर + काटना] पत्थर काटने का काम करनेवाला। उ०—कनेत का चस्मा गढ़े पत्थर का बँधा हुआ कुंडला है, उससे नातिदूर लोहार का चस्मा भी कुछ उसी तरह का है; इसमें लोहार का पथरकट होना भी सहा- यक हुआ।—किन्नर० पु० ४७।
⋙ पथरकला
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर या पथरी + कल] एक प्रकार की बंदूक या कड़ाबीन जो चकमक पत्थर के द्वारा अग्नि उत्पन्न करके चलाई जाती थी। वह बंदूक जिसकी कल वा घोड़े में पथरी लगी रहति हो। इस प्रकार की बंदूक का व्यवहार पहले होता था।
⋙ पथरचटा
संज्ञा पुं० [हिं० पथर + चाटना] १. पाषाणभेद या पखानभेद नाम की ओषधि। २. एक प्रकार की छोटी मछली जो भारत और लंका की नदीयों में पाई जाती है। इसकी लंबाई प्रायः एक बालिश्त होती है।
⋙ पथरना (१)
क्रि० स० [हिं० पत्थर + ना (प्रत्य०)] औजारों की पत्थर पर रगड़कर तेज करना।
⋙ पथरना
संज्ञा पुं० [देश० या सं० प्रस्तरण] बिछौना। शय्या उ०— अंबर वोढ़न भूमि पथरना। समुझि देखि निश्चै करि मरना।—सुंदर ग्र०, भा० १, पु ३३५।
⋙ पथराना
कि० अ० [हिं० पत्थर से नामिक धातु] १. सूखकर पत्थर की तरह कड़ा हो जाना। २. ताजगी न रहना। नीरस और कठोर हो जाना। ३. स्तब्ध हो जाना। सजीव न रहना। जैसे, आँखें पथराना।
⋙ पथराव
संज्ञा पुं० [हिं० पथर + आव (प्रत्य०)] पत्थर के टुकड़े, ढेला आदि का फेंकना। ढेलवाही। पत्थरबाजी।
⋙ पथरी
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + ई (प्रत्य०)] १. कटोरे या कटोरी के आकार का पत्थर का बना हुआ कोई पात्र। २. एक प्रकार का जिसमें मुत्राशय में पत्थर के छोटे बड़े कई टुकड़े उत्पन्न हो जाते हैं।विशेष—ये टुकड़े मूत्रोत्सर्ग में बाधक होते हैं जिसके कारण बहुत पीड़ा होती है और मूत्रेंद्रिय में कभी कभी घाव भी हो जाते है। मूत्राशय के अतिरिक्त यह रोग कभी कभी गले, फेफड़े और गुरदे में भी होता है। ३. चकमक पत्थर जिसपर चोट पड़ने से तुरंत आग निकल आती है। ४. पत्थर का वह टुकड़ा जिसपर रगड़कर उस्तरे आदि की धार तेज करते हैं। सिल्ली। ५. कुरड़ पत्थर जिसके चुर्ण को लाख आदि में मिलाकर औजार तेज करने की सान बनाते हैं। ६. पाक्षियों के पेट का वह पिछला। भाग जिसमें अनाज आदि के बहुत कड़े दाने जा कर पचते हैं। पेट का यह भाग बहुत ही कड़ा होता हैं। ७. एक प्रकार की मछली। ८. जायफल की जाती का एक बृक्ष। विशेष—यह वृक्ष कोंकण और उसके दक्षिण प्रांत के जंगलों में होता है। इस वृक्ष की लकड़ी साधारण कड़ी होती है और इमारत बनाने के काम में आती है। इसमें जायफल से मिलते जुलते फल लगते हैं जिन्हें उबालने या पेरने से पीले रंग का तेल निकलता है। यह तेल औषध के काम में भी आता है और जलाने के काम में भी।
⋙ पथरोला
वि० [हिं० पत्थर + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पथरीली] पत्थरों से युक्त। जिसमें पत्थर हों। जैसे, पथरीली जमीन।
⋙ पथरौटा
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + औटा (प्रत्य०)] दे० 'पंथ- रौटी'।
⋙ पथरौटी
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर + औटी (प्रत्य०)] पत्थर की कटोरी। पथरी। कूँड़ी।
⋙ पथरौड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० पाथना] दे० 'पथोरा'।
⋙ पथल
संज्ञा पुं० [हिं० पत्थर, पथर] पत्थर। पाथर। पाषाण। उ०—महल के बीच अजब मूरति पथल पूजे सेमर सुआ।— सं० दरिया, पृ० ६६।
⋙ पथसुंदर
संज्ञा पुं० [सं० पथसुन्दर] एक क्षुप।
⋙ पथस्थ
वि० [सं०] राह में। मार्गस्थ।
⋙ पथहारा
वि० [हिं० पथ + हारना (= खोना)] भूला भटका। पथ- भ्रष्ट। जिसका सही पथ छूट गया हो। उ०—सबसे ऊपर निर्लज नभ में अपलक संध्या तारा, नीरव ओ निःसोग, खोजता सा कुछ, चिर पथहारा।—ग्राम्या, पृ० ७२।
⋙ पथिक
संज्ञा पुं० [सं०] मार्ग चलनेवाला। यात्री। मुसाफिर। राहगीर। यौ०—पाथिकसंसति, पाथिकसंहति, पाथिकसार्थ = कारवाँ। काफिला। सार्थ। यात्रीदल।
⋙ पथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुनक्का। २. अंगूर की मदिरा। एक प्रकार की अंगूरी मादिरा (को०)।
⋙ पथिकाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] पाथिकों के रहने का स्थान। धर्म- शाला। चट्टी।
⋙ पथिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथप्रदर्शक। अग्नि [को०]।
⋙ पथिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक चक्र जिससे यात्रा का शुभ और अशुभ फल जाना जाता है।
⋙ पथिदेय
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर जो किसी विशिष्ट पथ पर चलनेवालों से लिया जाता है।
⋙ पथिद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का पेड़।
⋙ पथिन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राह। मार्ग। २. यात्रा। ३. कार्य- पद्धति। कार्य की सरणि। ४. संप्रदाय। मत। ५. पहुँच। ६. एक नरक [को०]। विशेष—संस्कृत के प्रथमा एकवचन में इसका रूप पंथः होता है ओर कर्मकारक बहुवचन में पथः। संस्कृत समास में इसका रूप 'पथ' होता है, जैसे, दृष्टिपथ, सत्पथ, श्रुतिपथ, कर्णपथ आदि। हिंदी में यही रूप प्रचालित और मान्य है।
⋙ पथिप्रज्ञ
वि० [सं०] पथ का ज्ञाता। मार्ग का जानकार [को०]।
⋙ पथिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] राह का प्रिय साथी [को०]।
⋙ पथिल
संज्ञा पुं० [सं०] राहि। बटोही।
⋙ पथिवाहक (१)
वि० [सं०] निर्दय। कटोरहृदय [को०]।
⋙ पथिवाहक (२)
संज्ञा पुं० १. व्याधा। शिकारी। आखेटक। २. मोटिया। बोझा ढोनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ पथिस्थ
वि० [सं०] राह चलता हुआ। जो रास्ता तय कर रहा हो [को०]।
⋙ पथी
संज्ञा पुं० [सं० पथिन्] रास्ता चलनेवाला। मुसाफिर। यात्री। पथिक। उ०—(क) राम नाम अनुराग ही जिय जो रति- आतो। स्वास्थ परमारथ पथी तोहिं सब पतिआतो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३५। (ख) पथी दृग ए बिसाल होय के बिहाल वाके रहे हैं दुकूलनि के कूलनि मैं जाई री।— दीन० ग्रं० पृ० ११।
⋙ पथीय
वि० [सं०] १. पथ संबंधी। २. संप्रदाय संबंधी।
⋙ पथु पु †
संज्ञा पुं० [सं० पथ] पथ। मार्ग। रास्ता। राह। उ०— विधि करतब विपरीत बाम गति राम प्रेम पयु न्यारो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पथेय पु
संज्ञा पुं० [सं० पाथेय] दे० 'पाथेय'।
⋙ पथेरा
संज्ञा पुं० [हिं० पाथना + एरा (प्रत्य०)] ईंटें पाथनेवाला कुम्हार।
⋙ पथौरा
संज्ञा पुं० [हिं० पाथना + औरा (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ उपले पाथे जाते हों। गोबर पाथने की जगह।
⋙ पथ्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिकित्सा के कार्य अथवा रोगी के लिये हितकर वस्तु, विशेषतः आहार। वह हलका और जल्दी पचनेवाला खाना जो रोगी के लिये लाभदायक हो। उपयुक्त आहार। उचित आहार। उ०— करिकै पथ्य विरोध इक रोगी त्यागत प्रान।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २२७। क्रि० प्र०—देना —लेना। मुहा०—पथ्य से रहना = संयम से रहना। परहेज से रहना।२. सेंधा नमक। ३. छोटी हड़ का पेड़। ४. हित। मंगल। कल्याण।
⋙ पथ्य (२)
वि० हितकर। अनुकूल। उचित। उ०— कौशल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुरु आयेसु अहई।—मानस, २। १७६।
⋙ पथ्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी।
⋙ पथ्यशाक
संज्ञा पुं० [सं०] चौलाई का साग।
⋙ पथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हरीतकी। हड़। उ०—अभया, पथ्या, अव्यथा, अमृता, चेतक होइ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०४। २. बन ककोड़ा। ३. आर्या छंद का एक भेद जिसके और कई अवांतर भेद हैं। ४. सैंधनी। ५. चिर्मिटा। ६. गंगा। ७. सड़क। रास्ता। राह (को०)।
⋙ पथ्यादि क्वाथ
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का पाचक काढ़ा जो त्रिफला, गुड़ुच, हल्दी, चिरायते और नीम आदि को उबालकर बनाया जाता है।
⋙ पथ्यापंक्ति
संज्ञा पुं० [सं० पथ्यापङ्क्ति] पाँच पदों का एक प्रकार का वैदिक छंद जिसके प्रत्येक पाद में आठ आठ वर्ण होते हैं।
⋙ पथ्यापथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] पथ्य और अपथ्य। रोगी के लिये लाभकर और हानिकर वस्तु [को०]।
⋙ पथ्याशन
संज्ञा पुं० [सं०] पाथेय। संबल।
⋙ पथ्याशी
वि० [सं० पथ्याशिन्] पथ्य वस्तु खानेवाला [को०]।
⋙ पद
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवसाय। काम। २. त्राण। रक्षा। ३. योग्यता के अनुसार नियत स्थान। दर्जा। ४. चिह्न। निशान। ५. पैर। पाँव। चरण। उ०—सो पद गहो जाहि से सदगति पार ब्रह्म से न्यारा।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ३। यौ०—पदकंज। पदपंकज। पदपद्म = दे० 'पदकमल'। ६. वस्तु। चीज। ७. शब्द। ८. प्रदेश। ९. पैर का निशान। १०. श्लोक वा किसी छंद का चतुर्थांश। श्लोकपाद। ११. उपाधि। १२. मोक्ष। निर्वाण। १३. ईश्वरभक्ति संबंधी गीत। भजन। १४. पुराणानुसार दान के लिये जूते, छाते, कपड़े, अँगूठी, कमंडलु, आसन, बरतन, और भोजन का समूह। जैसे,—पाँच ब्राह्मणों को पददान मिला है। १५. डग। कदम। पग। (को०)। १६. वैदिक मंत्रों के पाठ करने का एक ढंग। मंत्रों के शब्दों को अलग अलग कहना। जैसे, पद पाठ। १७. बिसात का कोठा या खाना। १८. किरण (को०)। १९. लंबाई की एक माप (को०)। २०. राह। मार्ग। २१. वर्गमूल (गणित)। २२. बहाना। हीला (को०)। २३. फल (को०)। २४. सिक्का (को०)।
⋙ पदई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पदवी] दे० 'पदवी'। उ०— छीर नीर निरवारि पिवै जौ। इहि मग प्रभु पदई पावै सो।—नंद ग्रं०, पृ० ११८।
⋙ पदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गहना जिसमें किसी देवता के पैदों के चिह्न अंकित होते हैं और जो प्रायः बालकों की रक्षा के लिये पहनाया जाता है। २. पूजन आदि के लिये किसी देवता के पैरों के बनाए हुए चिह्न। ३. सोने चाँदी या किसी और धातु का बना हुआ सिक्के की तरह का गोल या चौकोर टुकड़ा जो किसी व्यक्ति अथवा जनसमूह को कोई विशेष अच्छा या अद् भुत कार्य करने के उपलक्ष में दिया जाता है। इसपर प्रायः दाता और गृहिता का नाम तथा दिए जाने का कारण और समय आदि अंकित रहता है। यह प्रशंसा सूचक और योग्यता का परिचायक होता है। ४. वह जो वेदों का पदपाठ करने में प्रवीण हो। ५. डग। कदम। पग (को०)। ६. स्थान। पद। ओहदा (को०)। ७. एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ पदकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल सदृश पाँव। कमलरूपी चरण। उ०—पदकमल धोइ चढाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।—मानस, २। १००।
⋙ पदक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. गमन करना। चलना। २. वेदमंत्रों के पदों के पाठ की एक पद्धति। ३. वाक्यविन्यास। वाक्य में शब्दों या पदों के रखने का ढंग।
⋙ पदग
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल चलनेवाला। प्यादा।
⋙ पदचतुरर्घ
संज्ञा पुं० [सं० पदचतुरर्द्ध] विषम वृत्तों का एक भेद जिसके प्रथम चरण में ८, दूसरे में १२, तीसरे में १६ और चौथे में २० वर्ण होते हैं। इसमें गुरु लघु का नियम नहीं होता। इसके अपीड़, प्रत्यापीड़, मंजरी, लवली, और अमृत- धारा ये पाँच अवांतर भेद होते हैं।
⋙ पदचर
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल। प्यादा। उ०—सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।—मानस, १। ३०४।
⋙ पदचार, पदचारण
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल चलना। उ०— देख चंचल मृदु पटु पदचार लुटाता स्वर्ण राशि कवियार।— गुंजन, पृ० ४९।
⋙ पदचारीं
वि० [सं०] पैदल चलनेवाला। पैदल। उ०—ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंदमूल फल फूल अहारी।—मानस, २। ४०।
⋙ पदचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह चिह्न जो चलने के समय पैरों से जमीन पर बन जाता है।
⋙ पदच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] संधि और समासयुक्त किसी वाक्य के प्रत्येक पद को व्याकरण के नियमों के अनुसार अलग अलग करने की क्रिया।
⋙ पदच्युत
वि० [सं०] जो अपने पद या स्थान से हट गया हो। अपने स्थान से हटा या गिरा हुआ। जैसे, किसी राजकर्म- चारी का पदच्युत होना। उ०—अंत में राव जी आपा परभू पुराने कारिंदे ने प्रबल होकर उसको पदच्युत किया।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३६४।
⋙ पदच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपने पद से हटने या गिरने की अवस्था।
⋙ पदज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर की उँगलयाँ। उ०—मृदुल चरन सुभ चिह्न पदज नख अति अद् भुत उपमाई।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४९१। २. शूद्र।
⋙ पदज (२)
वि० [सं०] जो पैर से उत्पन्न हो।
⋙ पदतल
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का तलवा।
⋙ पदत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] अपने पद या औहदे को छोड़ने की क्रिया।
⋙ पदत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] पैरों की रक्षा करनेवाला जूता।
⋙ पदत्रान पु
संज्ञा पुं० [सं० पदत्राण] दे० 'पदत्राण'। उ०—नहि पदत्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।—मानस, २। २१५।
⋙ पदत्री
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया। (अनेकार्थ०)।
⋙ पददलित
वि० [सं०] १. पैरों से रौंदा होआ। २. जो दबाकर बहुत हीन कर दिया गया हो।
⋙ पददारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिवाई नाम का पैर का रोग।
⋙ पददेश
संज्ञा पुं० [सं०] निचला भाग। तल भाग। उ०—वृत्र उसी जल के पददेश के नीचे सो गया।—प्रा० भा० प०, पृ० ८९।
⋙ पदनिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] चरणचिह्न। पैर की छाप। पदन्यास। उ०—इस दिशा में कामायनी प्रथम और अंतिम पदनिक्षेप है।—वी० श० म०, पृ० ३४८।
⋙ पदन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर रखना। चलना। गमन करना। कदम रखना। उ०—मृदु पदन्यास मंद मलयानिल बिगलत शीश निचोल।—सूर (शब्द०)। २. पैर रखने की एक मुद्रा ३. पैर की छाप। चरणचिह्न।४. चलन। ढंग। ५. पद रचने का काम। ६. गोखरू।
⋙ पदपंक्ति
संज्ञा पुं० [सं० पदपङ्क्ति] एक वैदिक छंद जिसके पाँच पाद होते हैं और प्रतेक पाद में पाँच वर्ण होते हैं।
⋙ पदपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैरों का चिह्न। अनेक पैरों के क्रमबद्ध चिह्न या कतार [को०]।
⋙ पदपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पदकमल'।
⋙ पदपलटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पद + हिं० पलटना] एक प्रकार का नाच।
⋙ पदपाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदमंत्रों का ऐसा पाठ जिसमें सभी पद अलग अलग करके कहे जायँ। २. ग्रंथ जिससे पदपाठ हो [को०]।
⋙ पदबँध
संज्ञा पुं० [सं० पदबन्ध] कदम। डग [को०]।
⋙ पदभंजन
संज्ञा पुं० [सं० पदभञ्जन] शब्दों की निरुक्ति। शब्द- विश्लेषण [को०]।
⋙ पदभंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पदभञ्जिका] टीका। टिप्पणी [को०]।
⋙ पदभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] पदच्युचि दोष [को०]।
⋙ पदम (१)
संज्ञा पुं० [सं० पद्म] दे० 'पद्म'।
⋙ पदम (२)
संज्ञा पुं० [सं० पद्मकाष्ठ] बादाम की जाति का एक जंगली पेड़। अमलगुच्छ। पद्माख। विशेष—यह पेड़ सिंधु से आसाम तक २५०० से ७००० फुट की ऊँचाई तक तथा खासिया की पहाड़ियों और उत्तर बर्मा में अधिकता से पाया जाता है। कहीं कहीं यह पेड़ लगाया भी जाता है। इसमें से बहुत अधिक गोंद निकलता है जो किसी काम में नहीं लाया याता। इसमें एक प्रकार का फल होता है जिसमें कड़ ए बादाम के तेल की तरह का तेल निकलता है। इन फलों को लोग कहीं कहीं खाते और कहीं कहीं फकीर लोग उनकी मालाएँ बनाकर गले में पहनते हैं। यह फल शराब बनाने के लिये विलायत भी भेजा जाता है। इस वृक्ष की लकड़ी छड़ियाँ और आरायशी सामान बनाने के काम में आती है। कहते हैं, गर्भ न रहता हो तो इसकी लकड़ी घिसकर पीने से गर्भ रह जाता है, यदि गर्भ गिर जाता है तो स्थिर हो जाता हे। वैद्यक के अनुसार इसकी लकड़ी ठंढी, कड़वी, कसैली, हलकी, वादी, रक्तपित्तनाशक, दाह, ज्वर, कोढ़ और विस्फोटक आदी को दूर करनेवाली और रुचिकारक मानी गई है। पर्या०—पद्मक। मलय। पीतरक्त। सुप्रभ। पीतक। शीतल। हिम। शुभ। केदारज। पद्मगंधि। शीतवीर्य। अमलगुंच्छ। पद्माख।
⋙ पदमकाठ
संज्ञा पुं० [सं० पद्मकाष्ठ] दे० 'पदम' (२)।
⋙ पदमचल
संज्ञा पुं० [देश०] रेवंद चीनी।
⋙ पदमण
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्मिनी] स्त्री (डिं०)।
⋙ पदमनाभ
संज्ञा पुं० [सं० पद्मनाभ] १. विष्णु। २. सूर्य (डिं०)।
⋙ पदमाकर
संज्ञा पुं० [सं० पद्माकर] तालाब (डिं०)।
⋙ पदमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजाल। संमोहनी विद्या [को०]।
⋙ पदमिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पाद्मिनी] दे० 'पद्मिनी'। उ०—क्यों चाहति तू पदमिनी करन पातकी मोहि।—शकुंतला, पृ० ९३।
⋙ पदमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेर का तलवा। तलवा। २. (लाक्ष०) आश्रय। शरण।
⋙ पदमैत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी कविता में एक ही शब्द या अक्षर का इस प्रकार बार बार आना जिसमें उसमें एक प्रकार का चमत्कार आ जाय। अनुप्रास। वणांमैत्री। वर्णसाम्य। जैसे, मल्लिकान मंजुल मलिंद मतवारे मिले मंद मंद मारुत मुहीम मनसा की है।—(शब्द०)।
⋙ पदम्मी
संज्ञा पुं० [सं० पद्मी] हाथी (डिं०)।
⋙ पदयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भ्रमण या यात्रा जो पाँव प्यादे चलते हुए की जाय। पैदल की जानेवाली यात्रा।
⋙ पदयोजना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कवीता के लिये पदों का जोड़ना। पद बनाने के लिये शब्दों को मिलाना।
⋙ पदर †
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पेड़। २. डयोढ़ीदारों के बैठने का स्थान। (डिं०)। उ०—पकरि पदर धरि संत पद जद्यपि सुरति विचार। लार लगन लागी रहै, तब उतरे भी पार।—घट, पृ० ३८१।
⋙ पदरिपु
संज्ञा पुं० [सं० पद् + रिपु] कंटक। काटा। उ०—पद- रिपु पर अटक्यों आतुर ज्यों उलटत पलट मरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ पदवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल।
⋙ पदवाना
क्रि० स० [हिं० पदाना का प्रे० रूप] पदाना का प्रेर- णार्थक रूप। पदाने का काम दूसरे से कराना।
⋙ पदवि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पदवी'।
⋙ पदविक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] कदम रखना। चलना [को०]।
⋙ पदविच्छेद
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'पदच्छेद' [को०]।
⋙ पदविष्टंभ
संज्ञा पुं० [सं० पदाविष्ठम्भ] पैर रखना। कदम रखना [को०]
⋙ पदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंथ। रास्ता। २. पद्धति। परिपाटी। तरीका। ३. वह प्रतिष्ठा या मानसूचक पद जो राज्य अथवा किसी संस्था आदि की ओर से किसी योग्य व्यक्ति को मिलता है। उपाधि। खिताब। जैसे, राजा, राय बहादुर, डाक्टर, महामहोपाध्याय, आदी। उ०—साँच कहे तो पनही खावैं। झूठे बहु विधी पदवी पावैं।—भारतेंदु ग्रं० भा० १, पृ० ६७०। विशेष—पदवी नाम के पहले अथवा पीछे लगाई जाती है। ४. ओहदा। दरजा। ५. स्थान।
⋙ पदवेदी
संज्ञा पुं० [सं० पदवेदिन्] पदों अर्थात् शब्दों का ज्ञाता। शब्दशास्त्री [को०]।
⋙ पदसमय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पदापाठ' [को०]।
⋙ पदस्थ
वि० [सं०] १. जो अपने पैरों के बल खड़ा हो। २. जो पैरों के बल चल रहा हो। ३. किसी पद पर नियुक्त हो।
⋙ पदस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] पदांक। पदचिह्न [को०]।
⋙ पदांक
संज्ञा पुं० [सं० पदाङ्क] पैरों का चिह्न जो प्रायः चलने के कारण बालू या कीचड़ आदी पर बन जाता है।
⋙ पदांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० पदाङ्गी] लाल रंग का लजालू।
⋙ पदांत
संज्ञा स्त्री० [सं० पदान्त] १. पद का, किसी श्लोक या पद्य का अंतिम भाग। २. तलवा। पैर [को०]।
⋙ पदांतर
संज्ञा पुं० [सं० पदान्तर] १. दूसरा कदम। दूसरा डग। २. एक कदम लंबाई। ३. कदम। डग। २. दूसरा पद या स्यान [को०]।
⋙ पदांत्य
वि० [सं० पदान्त्य] पद के अंत में रहनेवाला। पदांत में स्थित। अंतिम [को०]।
⋙ पदांभोज
संज्ञा पुं० [सं० पदाम्भोज] चरणकमल [को०]।
⋙ पदाक्रांत
वि० [सं० पदाक्रान्त] पददलित। रौंदा हुआ। कुचला हुआ। विजित। उ०—नवागत म्लेच्छवाहिनी से सोराष्ट्र भी पदाक्रांत हो चुका है।—स्कंद०, पृ० ७।
⋙ पदाघात
संज्ञा पुं० [सं०] पैर की मार। लातों की मार [को०]।
⋙ पदाचार
संज्ञा पुं० [सं० पदाचार] पैर रखना। पदसंचार। गमन। उ०—चपल पवन के पदाचार से अहरह स्पंदित। शांत हास्य से अंतर को करने आह्लादित।—ग्राम्या०, पृ० ७३।
⋙ पदाजि
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सैनिक [को०]।
⋙ पदात पु †
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पदाति'।
⋙ पदाति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पैदल चलता हो। प्यादा। २. पैदल सिपाही। ३. नोकर। सेवक। ४. जनमेजय के एक पुत्र का नाम।
⋙ पदातिक
संज्ञा पुं० [सं०] १.वह जो पैदल चलता है। २. पैदल सिपाही। उ०—दयानंदीय समाजियों की पदातिक सेना को उनपर।—प्रेमघन० भा० २, पृ० २४२।
⋙ पदाती
संज्ञा पुं० [सं० पदातिन्] पैदल सैनिक [को०]।
⋙ पदातीय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पदाति'।
⋙ पदादि
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द का प्रथमाक्षर। छंद का प्रारंभ।
⋙ पदादिका
संज्ञा पुं० [सं० पदातिक] पैदल सेना। उ०—प्रभु कर सेन पदादिक बालक राज समाज।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पदाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० पदाधीकारिन्] वह जो किसी पद पर नियुक्त हो। ओहदेदार। अफसर।
⋙ पदाध्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] पदपाठ के अनुसार वेद का पठन।
⋙ पदाना
क्रि० स० [हिं० पादना का प्रे० रूप] १. पादने का काम दूसरे से कराना। २. बहुत अधिक दिक करना। तंग करना। छकाना। जैसे,—क्यों उपे बार बार पदाते हो।
⋙ पदानुग
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी का अनुगमन करता हो। अनुकरण करनेवाला। अनुयायी। साथी।
⋙ पदानुराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. भृत्य। सेवक। २. सेना। फौज [को०]।
⋙ पदानुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] पदों का अनुशासन करनेवाला शास्त्र। शब्दानुशासन। शब्दशास्त्र। व्याकरण [को०]।
⋙ पदानुस्वार
संज्ञा पुं० [सं०] साम का एक भेद। प्रकार का साम [को०]।
⋙ पदाब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] चरणकमल। पदकमल।
⋙ पदायता
संज्ञा पुं० [सं०] पदत्राणा। जूता [को०]।
⋙ पदार
संज्ञा पुं० [सं०] पैरों की धूल। उ०—आरद होत महारद पारस पारद पुण्य पदारन हूँ में।—देव (शब्द०)। २. नाव। नौका (को०)। ३. पैर का ऊपरी हिस्सा (को०)।
⋙ पदारथ पु
संज्ञा पुं० [सं० पदार्थ] दे० 'पदार्थ'। उ०—जानिकर एहने सोहागिनि सजनि गे पाओल पदारथ चारि।—विद्या- पति, पृ० १५०।
⋙ पदारविंद
संज्ञा पुं० [सं० पदारविन्द] दे० 'पदाब्ज'।
⋙ पदार्घ्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जल जो किसी अतिथि या पूज्य को पैर धोने के लिये दिया जाय।
⋙ पदार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद का अर्थ। शब्द का विषय। वह जिसका कोई नाम हो और जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा सके। २. उन विषयों में कोई विषय जिनका किसी दर्शन में प्राति- पादन हो और जिनके संबंध में यह माना जाता हो कि उनके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेष—वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष ओर समवाय ये छह पदार्थ, हैं ओर इन्ही छह पदार्थों का उसमें निरूपण है। कुल चीजें इन्हीं छह पदार्थों के अंतर्गत मानी गई हैं। ये छह 'भाव' पदार्थ हैं और 'भाव' की विद्यमानता में 'अभाव' का होना भी स्वाभाविक है। अतः नवीन वैशेषिकों ने इन सब पदार्थों के विपरीत एक नया और सातवाँ पदार्थ 'अभाव' भी मान लिया है। इसके अतिरिक्त कुछ और लोगों ने 'तम' अथवा अंधकार को भी एक पदार्थ माना है। परंतु अंधकार वास्तव में प्रकाश काअभाव ही होता है, इसलिये स्वयं अंधकार कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं हो सकता। विशेष—दे० 'वेशेषिक'। गौतम के न्यायसूत्र में सोलह पदार्थ कहे गय हैं जिनके नाम ये हैं—प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णाय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। नैयायिकों के अनुसार विचार के जितने विषय हैं वे सब इन्हीं सोलह पदार्थों के अंतग्रत हैं। विशेष— दे० 'न्याय'। सांख्यदर्शन में संख्या में, पुरुष, प्रकृति और महत् आदि उसके विकारों को लेकर २५ पदार्थ हैं। दे० 'सांख्य'। वेदांत दर्शन के अनुसार आत्मा और अनात्मा ये ही दो पदार्थ हें। दे० 'वेदात'। इसके अतिरिक्त और भी अनेक विद्वानों और सांप्रदायिकों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार अलग अलग पदार्थ माने हैं। जैसे 'रामानुजाचार्य के मत से चित्, अचित् और ईश्वर, शैव दर्शन के अनुसार पति, पशु और पाश (यहाँ पति का तात्पर्य शिव, पशु का जीवात्मा और पाश का मल, कर्म माया और रोष शक्ति है)। जैन दर्शनों में भी पदार्थ माने गय हैं परंतु उनकी संख्या आदि के संबध में बहुत मतभेद है। कौई दो पदार्थ मानता है, कोई तीन कौई पाँच, कौई सात और कौई नौ। ३. पुराणानुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ४. वैद्यक में भावप्रकाश के अनुसार रस, गुण, वीर्य, विपाक और शक्ति। ५. चीज। वस्तु।
⋙ पदार्थवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह वाद या सिद्धांत जिसमें पदार्थ, विशेषतः भौतिक पदार्थों को ही सब कुछ माना जाता हो और आत्मा अथवा ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार न होता हो।
⋙ पदार्थवादी
संज्ञा पुं० [सं० पदार्थवादिन्] वह जो आत्मा या ईश्वर आदि का अस्तित्व न मानकर केवल भौतिक पदार्थों को ही सब कुछ मानता हो।
⋙ पदार्थविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] वह विद्या जिसके द्वारा भौतिक पदार्थों और व्यापारों का ज्ञान हो। विज्ञानशास्त्र।
⋙ पदार्थविद्या
संज्ञा पुं० [सं०] वह विद्या जिसमें विशिष्ट संज्ञाओं द्वारा सूचित पदार्थों का तत्व बतलाया गया हो। जैसे, वेशेषिक।
⋙ पदार्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी स्थान में पैर रखने या जाने की क्रिया। २. शुभागमन। आगमन। विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः प्रतिष्ठित व्यक्तियों के संबंध में ही होता है। जैसे,—श्रीमान् के पदार्पण करते ही सब लोग उठ खड़े हुए।
⋙ पदालिक
संज्ञा पुं० [सं०] चरण का ऊपर का भाग [को०]।
⋙ पदावनत
वि० [सं०] १. जो पैरों पर भुका हो। २. जो प्रणाम कर रहा हो। ३. नम्र। विनीत।
⋙ पदावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शब्दों या वाक्यों की श्रेणी। २. भजनों का संग्रह। पदों का संग्रह।
⋙ पदाश्रित
वि० [सं०] १. जिसने पैरों में आश्रय हो। शरण में आया हुआ। २. जो आश्रय में रहता हो।
⋙ पदास
संज्ञा स्त्री० [हिं० पादना + आस (प्रत्य०)] पादने का भाव। २. पादने की प्रवृत्ति।
⋙ पदासन
संज्ञा पुं० [सं०] पादपीठ। चरणपीठ [को०]।
⋙ पदासा
संज्ञा पुं० [हिं० पदास] वह जिसकी पादने की इच्छा या प्रवृत्ति हो।
⋙ पदासीन
वि० [सं०] किसी विशेष पद पर प्रतिष्ठित [को०]।
⋙ पदिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैदल सेना। पदाति सेना। २. पैर का अगला भाग। ३. पैदल चलनेवाला व्यक्ति।
⋙ पदिक पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पदक] १. गले में पहनने का वह गहना जिसपर किसी देवता आदि के चरण अंकित हों। २. जुगनू नाम का गले में पहनने का गहना। ३. हीरा। ४. रत्न। यौ०—पदिकहार = रत्नहार। मणिमाल। उ०— उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला। पदिकहार भूषन मनि जाला।— मानस, १। १४७। ५. दे० 'पदक'।
⋙ पदिक्क पु
संज्ञा पुं० [हिं० पदिक] पदिक। हीरा। उ०—गुलिक्क कर्ण राजही। विसद्द हार साजरी। पदिक्क सीस शोभयं रिषीस पुंज लोभयं।—प० रासो, पृ० १०।
⋙ पदी पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पद] पैदल। पदाति। प्यादा।
⋙ पदी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पदों का समूह। जैसे, त्रिपदी, चतुष्पदी, सप्तपदी आदि [को०]।
⋙ पदु पु
संज्ञा पुं० [सं० पद] दे० 'पद'।
⋙ पदुम
संज्ञा पुं० [सं० पद्म] १. घोड़ों का एक चिह्न या लक्षण जो मोरवों के पास होता हैं। भारतवासी इसे दोष नहीं मानते, पर ईरान के लोग इसे दोष मानते हैं। २. दे० 'पद्म।' उ०— बंदौं गुरुपद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरत अनुरागा।— मानस, १। १।
⋙ पदुमिनि, पदुमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्मिनी] दे० 'पद्मिनी'। उ०—हौं पदुमिनी मानसर केवा। भवर मारल करहि निति सेवा।—पदमावन, पृ० ४५१।
⋙ पदेक
संज्ञा पुं० [सं०] श्येन पक्षी। बाज [को०]।
⋙ पदेन
क्रि० वि० [सं० पद शब्द के तृतीया एकवचन का रूप] पद पर प्रतिष्ठत होने से। अधिक पादनेवाला। २. कायर। डरपोक। (क्व०)।
⋙ पदोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जल जिससे पैर धोया गया हो। २. चरणामृत।
⋙ पदौक
संज्ञा पुं० [देश०] एक वृक्ष जो बरमा में अधिकता से होताहैं। इसकी लकड़ी मजबूत और कुछ लाली लिए सफेद रंग की होती हैं।
⋙ पद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद। पैर। २. पाद। अंश। चतुर्थाश [को०]।
⋙ पद्ग
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सैनिक। प्यादा। सिपाही [को०]।
⋙ पद्दू †
संज्ञा पुं० [हिं० पाद] दे० 'पदोड़ा'।
⋙ पद्धटिका
संज्ञा पुं० [सं०] एक मातृक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ मात्राएँ होती हैं और अंत में जगण होता हैं। जैसे,— श्री कृष्णचंद्र अरबिंद नैन। धरि अधर बजावत मधुर बैन। इसी को पद्धरि वा 'पज्भ्कटिका' भी कहते हैं।
⋙ पद्धड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्धटिका] दे० 'पद्धटिका'।
⋙ पद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राह। पथ। मार्ग। सड़क। २. पंक्ति। कतार। ३. रीति। रस्म। रिवाज। परिपाटी। चाल। ४. वह पुस्तक जिसमें किसी प्रकार की प्रथा या कार्य- प्रणाली लिखी हो। कर्म या संस्कारविधि की पोथी। जैसे, विवाह पद्धति। ५. वह पुस्तक जिसमें किसी दूसरी पुस्तक का अर्थ या तात्पर्य समझाया जाय। ६. ढंग। तरीका। ७. कार्यप्रणाली। विधिविधान। ८. उपनाम। अल्ल। जैसे, त्रिपाठो, घोष, दत्त, वसु आदि।
⋙ पद्धती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० पद्धति (को०)।
⋙ पद्धरि, पद्धरी
संज्ञा पुं० [सं० पद्धरिका] दे० 'पद्धटिका'।
⋙ पद्धिम
संज्ञा पुं० [सं० पद् + हिम] पैर की शीतलता। पाँव ठंढा होना (को०)।
⋙ पद्धी ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] खेल में किसी लड़के का, जीतने पर, दाँव लेने के लिये, हारनेवाले लड़के की पीठ पर चढ़ना। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
⋙ पद्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल का फूल या पौधा। २. सामुद्रिक के अनुसार पैर में का एक विशेष आकार का चिह्न जो भाग्य- सूचक मान जाता हैं। ३. किसी स्तंभ के सातवें भाग का नाम (वास्तुविद्या)। ४. विष्णु के एक आयुध का नाम। ५. कुबेर की नौ निधियों में से एक निधि। गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। ७. शरीर पर का सफेद दाग। ८. हाथी के मस्तक या सूँड़ पर बने हुए चित्र विचित्र चिह्न। ९. पदम या पदमाख वृक्ष। १०. साँप के फन पर बने हुए चित्रविचित्र चिह्न। ११. एक ही कुरसी पर बना हुआ, एक ही शिखर का आठ हाथ चौड़ा घर (वास्तुविद्या)। १२. एक नाग का नाम। १३. सीसा। १४. पुष्करमूल। १५. गणित में सोलहवें स्थान की संख्या (१०० नील) जो इस प्रकार लिखी जाती हैं—१००,००,००,००,००,००,०००। १६. बौद्धों के आनुसार एक नक्षत्र का नाम। १७. पुराणानुसार एक कल्प का नाम। १८. तंत्र के अनुसार शरीर के भीतरी भाग का एक कल्पित कमल जो सोने के रंग का और बहुत ही प्रकाशमान माना जाता है। १९. सोलह प्रकार के रतिबंधों में से एक। २०. बलदेव का एक नाम। २१. पुराणानुसार एक नरक का नाम। २२. एक प्राचीन नगर का नाम। २३. पुराणानुसार जंबू द्वीप के दक्षिणपश्चिम का एक देश। २४. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम। २५. जैनों के अनुसार भारत के नवें चक्रवर्ती का नाम। २६. एक पुराण का नाम। दे० 'पुराण'। २७. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण, एक सगण और अंत में लघु गुरु होते हैं। जैसे,—कब पहुंचे सद्म री। लखहुँ पद पद्म री। २८. दे० 'पद्मव्यूह'। २९. दे० 'पद्मासन'। ३०. दे० 'पद्मा' (नदी)।
⋙ पद्मकंद
संज्ञा पुं० [सं० पद्मकन्द] कमल की जड़। मुरार। भिस्सा। भसीड़।
⋙ पद्मक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पदम या पदमकाठ नाम का पेड़। २. सेना का पद्मव्यूह। ३. सफेद कोढ़। ४. कुट नाम क्री ओषधि ५. हाथी की सूँड़ पर के चित्र विचित्र दाग (को०)।
⋙ पद्मकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. सूर्य। ३. कमलकर। कमल के समान हाथ [को०]।
⋙ पद्मकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०]।
⋙ पद्मकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमल का बीजकोश। पद्मकोश। २. पद्मव्यूह में स्थित सेना का मध्य या केंद्रभाग [को०]।
⋙ पद्मकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पदमकाठ'।
⋙ पद्मकाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] पद्माख या पदम नाम का वृक्ष।
⋙ पद्मकिंजल्क
संज्ञा पुं० [सं० पद्मकिञ्जल्क] कमल का केसर।
⋙ पद्मकी
संज्ञा पुं० [सं० पद्मकिन्] १. भोजपत्र का पेड़। २. गज। हाथी (को०)।
⋙ पद्मकीट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
⋙ पद्मकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] पुरणानुसार गरुड के एक पुत्र का का नाम।
⋙ पद्मकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक पुच्छल तारा जो मृणाल के आकार का होता है। यह केतु पश्चिम की ओर एक ही रात भर दिखलाई पड़ता है। गौर वर्ण का वह केतु जो पश्चिम दिशा में एक ही रात तक दिखाई देता है।
⋙ पद्मकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पद्मकिंजल्क' [को०]।
⋙ पद्मकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल का संपुट। २. कमल के बीच का छत्ता जिसमे बीज होते हैं। ३. हाथ की उँगलियों की एक मुद्रा जो कमल के आकार की होती है (को०)।
⋙ पद्मक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उड़ीसा प्रांत के एक तीर्थ का नाम।
⋙ पद्मखंड
संज्ञा पुं० [सं० पद्मखण्ड] कमलराशि [को०]।
⋙ पद्मगंध (१)
वि० [सं० पद्मगन्ध] कमल के समान गंधवाला।
⋙ पद्मगंध (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पद्मगंधि' [को०]।
⋙ पद्मगंधि
संज्ञा पुं० [सं० पद्मगन्धि] पद्माख या पदम नाम का वृक्ष।
⋙ पद्मगर्भ
संज्ञा सं० [सं०] १. कमल का भीतरी भाग। २. ब्रह्मा३. विष्णु (को०)। ४. शिव (को०)। ५. सूर्य। ६. बुद्ध। ७. एक बोधिसत्व।
⋙ पद्मगुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पद्मगृहा' [को०]।
⋙ पद्मगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत महाकाव्य 'नवसाहसांकचरित' के रचयिता जो मुंज और भोज की सभा में थे। इनका एक नाम परिमल भी है।
⋙ पद्मगृहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी का एक नाम।
⋙ पद्मचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गेंदा। २. शमी वृक्ष। ३. हल्दी। ४. लाख।
⋙ पद्मचय
संज्ञा पुं० [सं०] कमलसमूह। कमलराशि। उ०—होती है प्रिय सद्म पद्मचय में पद्मासना की प्रभा।—पारिजात, पृ० ११०।
⋙ पद्मज, पद्मजात
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।
⋙ पद्मतंतु
संज्ञा पुं० [सं० पद्मतन्तु] मृणाल। कमल की नाल।
⋙ पद्मदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] लोहबान।
⋙ पद्मनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु के फेंके हुए अस्त्र को निष्फल करने का एक मंत्र या युक्ति। २. विष्णु। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ४. जैनों के अनुसार भावी उत्सर्पिणी के पहले अर्हत का नाम। ५. महादेव। शिव (को०)। ६. एक नाग (को०)।
⋙ पद्मनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ पद्मनाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमलनाल। कमल की डंडी [को०]।
⋙ पद्मनिधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुबेर की नौ निधियों में से एक निधि का नाम।
⋙ पद्मनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पक्षी। २. बौद्धों के अनुसार एक बुद्ध का नाम, जिनका अवतार अभी होने को है। ३. वह जिसकी आँख कमल के समान हो।
⋙ पद्मपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुहकरमूल। पुष्करमूल। २. कमल का पत्ता। पुरइन पात (को०)।
⋙ पद्मपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पद्मपत्र'।
⋙ पद्मपाणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. बुद्ध की एक विशेष मूर्ति। ३. एक बोधिसत्व, जो अमिताभ बुद्ध के देवपुत्र कहे गए हैं। इनकी उपासना नेपाल, तिब्बत चीन आदि देशों में होती है। ४. सूर्य।
⋙ पद्मपाणि (२)
वि० जिसके हाथ में कमल हो [को०]।
⋙ पद्मपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] अठारह पुराणों में से एक पुराण।
⋙ पद्मपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनेर का पेड़। २. एक प्रकार का पक्षी। ३. पद्म का फूल।
⋙ पद्मप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्धों के अनुसार एक बुद्ध का नाम जिनका अवतार अभी होने को है। २. जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के छठे अर्हत (को०)।
⋙ पद्मप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनसा देवी जो जरत्कारु मुनि की पत्नी थीं। २. गायत्रीस्वरूपा महादेवी [को०]।
⋙ पद्मबंध
संज्ञा पुं० [सं० पद्मबन्ध] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें अक्षरों को ऐसे क्रम से लिखते हैं जिससे एक पद्म या कमल का आकार बन जाता है।
⋙ पद्मबंधु
संज्ञा पुं० [सं० पद्मबन्धु] १. सूर्य जिनके उदय से कमल खिलता है। २. भौंरा। भ्रमर [को०]।
⋙ पद्मबीज
संज्ञा पुं० [सं०] कमलगट्टा। कमल का बीज।
⋙ पद्मबीजाभ
संज्ञा पुं० [सं०] मखाना।
⋙ पद्मभव
संज्ञा पुं० [सं०] पद्म से उत्पन्न-ब्रह्ना।
⋙ पद्मभास
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव (को०)।
⋙ पद्मभू
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।
⋙ पद्मभूषण
संज्ञा पुं० [सं० पदम + भूषण] एक पदवी या अलंकार जो, भारत सरकार की और से प्रदान की जाती है। यह पद्मश्री से बड़ी होती है।
⋙ पद्मालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०]।
⋙ पद्ममाली
संज्ञा पुं० [सं० पद्ममालिन्] एक राक्षस का नाम।
⋙ पद्ममुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुरालभा या धमासा नाम का कँटीला पौधा। २. दूर्वा। दूब।
⋙ पद्ममुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की पूजा में एक मुद्रा जिसमें दोनों हथेलियों को सामने करके उँगालियाँ नीचे रखते हैं और अँगूठे मिला देते हैं।
⋙ पद्मयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध का एक नाम।
⋙ पद्मराग
संज्ञा पुं० [सं०] मानिक या लाल नामक रत्न। उ०— सौगंधिक, गुरुविंद और स्फटिक इन तीन भाँति के पत्थरों से पद्मराग (लाल) का जन्म होता है।—वृहत्०, पृ० ३८५।
⋙ पद्मरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामुद्रिक के अनुसार हथेली की एक प्रकार की प्राकृतिक रेखा जो बहुत भाग्यवान् होने का लक्षण मानी जाती है।
⋙ पद्मलांछन
संज्ञा पुं० [सं० पद्मलाञ्छन] १. ब्रह्मा। २. कुबेर। ३. सूर्य। ४. राजा (को०)। ५. एक बृद्ध (को०)।
⋙ पद्मलांछना
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्मालाञ्छना] १. सरस्वती का एक नाम। २. लक्ष्मी का एक नाम (को०)। ३. तारा का एक नाम।
⋙ पद्मलोचन
वि० [सं०] कमल सदृश नेत्र। कमलनेत्र [को०]।
⋙ पद्मवनबांधव
संज्ञा पुं० [सं० पद्मावनबान्धव] सूर्य, जिनके उदय से कमल खिलते हैं [को०]।
⋙ पद्मवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार यदु के एक पुत्र का नाम। २. दे० 'पद्मवर्णक'।
⋙ पद्मवर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्करमूल।
⋙ पद्मवासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०]।
⋙ पद्मविभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा दिया जानेवाला खिताब या अलंकार।
⋙ पद्मवीज
संज्ञा पुं० [सं०] कमलगट्टा।
⋙ पद्मवीजाभ
संज्ञा पुं० [सं०] मखाना।
⋙ पद्मवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पदमकाठ। पदम। पद्माख।
⋙ पद्मवेश
संज्ञा पुं० [सं०] विद्याधरों का एक राजा [को०]।
⋙ पद्मव्याकोश
संज्ञा पुं० [सं०] वह सेंध जो संकुचित या कोशबद्ध कमल के आकार की हो [को०]।
⋙ पद्मव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल में युद्ध के समय किसी वस्तु या व्यक्ति की रक्षा कि लिये सेना को रखने की एक विशेष स्थिति जिसमें सारी सेनी कमल के आकार की हो जाती थी। २. एक प्रकार की समाधि।
⋙ पद्मश्री
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम। २. एक पदवी या अलंकार जो भारत सरकार की और से विशिष्ट व्यक्तियों को दी जाती है।
⋙ पद्मषंड
संज्ञा पुं० [सं० पद्मषण्ड] दे० 'पद्मखंड' [को०]।
⋙ पद्मसंकाश
वि० [सं० पद्मसङ्काश] कमल के समान। कमल के सदृश। कमलवत् [को०]।
⋙ पद्मसंभव
संज्ञा पुं० [सं० पद्मसम्भव] ब्रह्मा [को०]।
⋙ पद्मसद्म
संज्ञा पुं० [सं० पदमसद्मन्] ब्रह्मा [को०]।
⋙ पद्ममसमासन
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०]।
⋙ पद्मस्नुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा का एक नाम। २. दुर्गा का एक नाम। ३. लक्ष्मी का एख नाम (को०)।
⋙ पद्मस्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्वस्तिक चिह्न जिसमें कमल भी बना हो।
⋙ पद्महस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल की लंबाई नापने की एक प्रकार की नाप। २. दे० पद्मपाणि।
⋙ पद्महस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी का एक नाम [को०]।
⋙ पद्महास
संज्ञा पुं० [सं०] बिष्णु।
⋙ पद्मांतर
संज्ञा पुं० [सं० पद्मान्तर] कमल पत्र। कमल दल [को०]।
⋙ पद्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। २. बंगाल में बहनेवाली गंगा की पूर्वी शाखा। ३. भादों सुदी एकादशी तिथि। ४. गेंदे का वृक्ष। ५. कुसुम का फूल। ६. लौंग। मनसा देवी का एक नाम। ७. वृहद्रथ की कन्या का नाम जो कल्कि देव के साथ ब्याही गई थी। ९. पद्मचारिणी लता।
⋙ पद्माकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा तालाब या झील जिसमें कमल पैदा होते हों। २. तालाब। सरोवर (को०)। ३. पद्मपुष्पों की राशि या समूह। ४. हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि का नाम। विशेष—पद्माकर तैलंग ब्राह्मण थे। इनका जन्मसमय सन् १८१० है। इनके पिता का नाम मोहनलाल भट्ट था और ये मध्यप्रदेशांतर्गत 'सागर' में निवास करते थे।
⋙ पद्याक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमलगट्टा। कमल के बीज। २. विष्णु।
⋙ पद्माख
संज्ञा पुं० [सं० पद्माकाष्ठ] पदुमकाठ या पदुम नामक वृक्ष। विशेष—दे० 'पदम'।
⋙ पद्माचल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ पद्माट
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़। चक्रमर्द।
⋙ पद्याधीश
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ पद्मालय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।
⋙ पद्मालया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। २. लौंग।
⋙ पद्मावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पटना नगर का प्राचीन नाम। २. पन्ना नगर का प्राचीन नाम। ३. उज्जयिनी का एक प्राचीन नाम। ४. एक मात्रिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १०, ८, और १४ के विराम से ३० मात्राएँ होती है और अंत में दो गुरु होते हैं। जैसे,—यद्यपि जगकर्ता पालक हर्ता परिपूरण वेदन गाए। अति तदपि कृपा करी मानुष वपु धरि थल पूँछन हम सों आए।—केशव (शब्द०)। ५. गेंदे का वृक्ष। ६. लक्ष्मी (जरकारु ऋषि की स्त्री का नाम)। ७. मनसा देवी का एक नाम। ८. पुराणानुसार स्वर्ग की एक अप्सरा का नाम। ९. पुराणानुसार राजा श्रृगाल की स्त्री का नाम। १०. युधिष्ठिर की एक रानी का नाम। ११. प्राचीन काल की एक नदी का नाम। १२. लोक- प्रचलित कथा के अनुसार सिंहल की एक राजकुमारी जिसे चितौर के राजा रत्नसेन ब्याहे थे। चित्तौर की रानी पद्मिनी का सिंहल से कोई संबंध नहीं था, और न उसके पति का नाम रत्नसेन था, जैसा जायसी ने लिखा है।
⋙ पद्मासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगसाधन का एक आसन जिसमें पालथी मारकर सीधे बैठते हैं। २. वह जो इस आसन में बैठा हो। ३. स्त्री के साथ प्रसंग करने का एक आसन। ४. ब्रह्मा। उ०—स्वास उदर उलसति यों मानो दुग्ध सिंधु छबि पावै। नाभि सरोज प्रकट पदमासन उतरि नाल पछितावै।— (शब्द०)। ५. शिव। ६. सूर्य।
⋙ पद्मासनदंड
संज्ञा पुं० [सं० पदमासन + दण्ड] एक प्रकार का डंड (कसरत) जो पालथी मारकर और घुटने जमीन पर टेक कर किया जाता है। इससे दम सधता है और घुटने मजबूत होते हैं।
⋙ पद्मासना
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी। उ०—शोभा है जलराशि में विलासती उत्फुल्ल अंभोज की। होती है प्रिय सद् म पदमचय में पद्मासना की प्रभा।—पारिजात, पृ० ११०।
⋙ पद्माह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गेंदा। २. लवंग (को०)।
⋙ पद्मानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पदिमनी] कमलिनी। उ०—चंद जगा- वतु कुमुदनी पद्मिनी ही दिननाथ।—शकुंतला, पृ० ९७।
⋙ पद्मिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमलिनी। छोटा कमल। यौ०—पद्मिनीखंड, पद्मिनीषंड = (१) कमलस (५) जहाँ कमल आधिक हों। पद्मिनीवल्लभ = सूर्य। विशेष—'पद्मिनी' शब्द में पतिवाची शब्द लगाने से उसका अर्थ 'सूर्य' होता है। ५. तालाब या जलाशय जिसमें कमल हो। ३. कोकशास्त्र के अनुसार स्त्रियों की चार जातियों में से सर्वोत्तम जाति। कहते है, इस जाति की स्त्री अत्यंत कोमलांगी, सुशीला, रूपवती और पतिव्रता होती है। ४. मादा हाथी। हथिनी। ५. चित्तौर की इतिहासप्रसिद्ध रानी। ६. लक्ष्मी। उ०—पद्माम उपर पद्मिमनि मानहु। रूपर ऊपर दीपति जानहु।— केशव (शब्द०)। ७. कमल का पौधा (को०)। ८. कमलों का समूह (को०)। ९. कमल की नाल (को०)।
⋙ पद्मिमनीकंटक
संज्ञा पुं० [सं० पदि्मनीकण्टक] एक प्रकार का क्षुद रोग जो कुष्ठ के अंतर्गत माना जाता है। इसमें दानेदार चकत्ते पड़ जाते हैं।
⋙ पदमी
संज्ञा पुं० [सं० पद्मिन्] १. पदमयुक्त देश। २. पदमधारी विष्णु। ३. पद्मसमूह। ४. बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम। ५. उक्त लोक में रहनेवाले एक बुद्ध का नाम जिनका अवतार अभी इस संसार में होने को है।
⋙ पद्मेशय
संज्ञा पुं० [सं०] पदम पर सोनेवाले, विष्णु।
⋙ पद्मोत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुसुम। २. एक बुद्ध का नाम।
⋙ पद्मोदभव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।
⋙ पद्मोदभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनसा देवी का एक नाम।
⋙ पद्य (१)
वि० [सं०] १. पद या पैर संबंधी। जिसका संबंध पैरों सें हो २. जिसमें कविता के पद या चरण हों।
⋙ पद्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिंगल के नियमों के अनुसार नियमित मात्रा वा वर्ण का चार चरणोंवाला छंद। कविता। गद्य का उलटा। २. शुद्र, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से मानी जाती है। ३. शठता। ४. नातिशुष्क कर्दम। कीचड़ जो एकदम सूखा न हो (को०)।
⋙ पद्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] पद्य रचनेवाला। तुकबंदी करनेवाला। तुक्कड़। उ०—भोज ऐसे राजाओं के सामने बात बनानेवाले पद्यकार बातौं की फुलझड़ी छोड़कर लाखों रुपए पाने लगे।— चिंतामणि, भा० २, पृ० ९१।
⋙ पद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शक्कर। २. पगडंडी। पटरी। ३. लोगों के चलने से बनी हुई राह। ढुर्री [को०]।
⋙ पद्मात्मक
वि० [सं०] जो पद्यमय हो। जो छंदोबद्ध हो।
⋙ पद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाँव। २. ग्रामपथ।
⋙ पद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जो सारे समाज या समुदाय की हो पंचायती जमीन। विशेष—महानदी के किनारे राजीय नगर के राजा तिवरदेव के ताम्रपट में यह शब्द आया है। कोशों में 'पद्र' का अर्थ ग्राम मिलता है। डा० बूलर ने इस शब्द से 'चरागाह' का अर्थ लिया है। विल्सन ने अपने कोश में इसका अर्थ समाज या समुदाय दिया है।
⋙ पद्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजमार्ग। सड़क। २. स्यंदन। रथ। ३. मर्त्यलोक [को०]।
⋙ पद्वा
संज्ञा पुं० [सं० पद्वन्] राह। रास्ता [को०]।
⋙ पधति †
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्धति] दे० 'पद्धति'। उ०—तितनेई गुरु- देव पधति भई न्यारी।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ८१।
⋙ पधरना पु
क्रि० अ० [हिं० पधारना] किसी बड़े प्रातिष्ठित या पूज्य का आगमन। आना। उ०—लाखभिलाषन साथ लिए जसवंत तहा पधरे गिरधारी।—जसवंत (शब्द०)।
⋙ पधराना
क्रि० सं० [सं० प्र + धारण] १. आदरपूर्वक ले जाना। इज्जत से बैठना। उ०—कुंज महल पधराइ लाल कों हटी सबै बृजाबासिनि गोरी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६४१। २. प्रतिष्ठित करना। स्थापित करना।
⋙ पधरावन †
क्रि० स० [हिं० पधराना] दे० 'पधराना'। उ०— यह जमेल जी आपको पधरावन आयो है।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २५१।
⋙ पधरावनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पधराना] १. किसी देवता की स्थापना। २. किसी को आदरपूर्वक ले जाकर बैठाने की क्रिया या भाव। पधराने की क्रिया।
⋙ पधारना (१)
क्रि० अ० [हिं० पग + धारण] १. जाना। चला जाना। गमन करना। उ०—हाय ! इन कुंजन तें पलटि पधारे श्याम देखन न पाई वह मूरति सुधामई।—द्विजदेव (शब्द०)। २. आ पहुँचना। आना। उ०—भले पधारे पाहुँने ह्वै गुडहल के फूल।—बिहारी (शब्द०)। ३. गमन करना। चलना।
⋙ पधारना (२)
क्रि० स० आदरपूर्वक बैठना। पधराना। प्रतिष्ठित करना। उ०—(क) तिल पिंडिन में हरिहिं पधारै। विविध भाँति पूजा अनुसारै।—रघुनाथ (शब्द०) (ख) एक दिन स्वप्न ही में कह्यो भगवान हम कूप परे हमको पधारिए निकास कै।—रघुराज (शब्द०)। विशेष— इस शब्द का प्रयोग केवल बड़े या प्रतिष्ठित के आने अथवा जाने के संबंध में आदरार्थ होता है।
⋙ पधियाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाधा तुल० सं० उपाध्याय तथा पंजाबी 'पाधा'] पुरोहिताई। उ०—परदादा करते पधियाई। दादा ने पटवार सम्हाली। पिता क्लर्क बने, फिर बढ़कर अपने ही दफ्तर के वाली।—चाँदनी०, पृ० ६७।
⋙ पध्धर †
वि० [देशी०] ऋजु। सरल। सीधा। उ०—मारु देस उपन्नियाँ सर ज्यउँ पध्धरियाँह।—ढोला०, दू० ४८४।
⋙ पनंग पु
संज्ञा पुं० [सं० पन्नग] सर्प। साँप। उ०— वार रवी तिथि सत्तमी चलि रथ सुतर मतंग। तिहि बेरा आयौ कहै डेरा माहि पनंग।—पृ० रा०, १। ५०८।
⋙ पन (१)
संज्ञा पुं० [सं० पण, या सं० प्रतिज्ञा, प्रा० पइण्णा] प्रतिज्ञा। संकल्प। अहद। उ०—(क) पन बिदेह कर कहहि हम भुजा उठाइ बिसाल।—मानस, १। ३४८। (ख) सनमुख दियो सुरंग उड़े पन पाहन आधे। निकसी खोलि किवारि रारि करिवै कौ राधे।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४०।
⋙ पन (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्वन् (= विशेष अवस्था)] आयु के चार भागों में से एक। उ०—संत कहहिं अस नीति दसानन। चौथेपन जाइहिं नृप कानन।—तुलसी (शब्द०)। विशेष— साधारणतः लोग आयु के चार भाग अथवा अवस्थाएँ मानते हैं। पहली बाल्यवस्था, दूसरी युवावस्था, तीसरी प्रौढ़ावस्था, और चौथी वृद्धावस्था।
⋙ पन (३)
प्रत्य० हिं० जिसे नामवाचक या गुणवाचक संज्ञाओं में लगाकर भाववाचक संज्ञा बनते हैं। जैसे, लड़कपन, छिछोरापन।
⋙ पन (४)
संज्ञा पुं० [हिं० पान] 'पानी' शब्द का यौगिक पद प्रयुक्त रूप। जैसे, पनडब्बा, पनकुट्टी।
⋙ पन (५)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी] 'पानी' शब्द का यौगिक पद प्रयुक्त रूप। जैसे, पनचक्की, पनडुब्बी।
⋙ पनकटा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + काटना] वह मनुष्य जो खेतों में इधर उधर पानी ले जाता या खींचता हो।
⋙ पनकपड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + कपड़ा] १. वह गीला कपड़ा जो शरीर के किसी अंग पर चोट लगने या कटने या छिलने आदि पर बाँधा जाता है। २. वह कपड़ा जिससे तमोली पान की दूकान पर पान पोंछता, ढँकता और लगाना है। इसे पनबसना भी कहते हैं। उ०—तमोली ने कत्था चूना से लाल पनकपड़े पर छोटे छोटे उजले पानों को नफासत से पोंछते हुए कहा।—शराबी, पृ० ४।
⋙ पनकाल
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + काल या अकाल] वह अकाल जो अतिवर्षा के कारण हो।
⋙ पनकुकड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + कुकड़ी] दे० 'पनकौवा'।
⋙ पनकुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पान + कूटना] वह छोटा खरल जिसमें प्रायः वृद्ध या टूटे हुए दाँतवाले लोग खाने के लिये पान कूटते हैं।
⋙ पनकौवा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + कौवा] एक प्रकार का जल- पक्षी। जलकौवा। विशेष दे० 'जलकौवा'।
⋙ पनखट
संज्ञा पुं० [हिं० पनहा + काठ] जुलाहों की वह लचीली धुनकी जिसपर उनके सामने बुना हुआ कपड़ा फैला रहता है।
⋙ पनग पु
संज्ञा पुं० [सं० पन्नग] सर्प। साँप। उ०—छुटि तिहि बेर मंतग खेल देखन कौ धायौ। एक मोजरी मद्धि पनग फन आनि लुकायौ।—पृ० रा०, १। ५०९।
⋙ पनगाचा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + गाछी (= बाग)] पानी से भरा या सींचा हुआ खेत।
⋙ पनगोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + गोटी] मोतिया शीतला।
⋙ पनघट
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + घाट] पानी भरने का घाट। वह घाट जहाँ से लोग पानी भरते हों। उ०— निर्दई श्याम ने फोर दई पनघट पर मोरी मागरिया।—गीत। (शब्द०)।
⋙ पनच
संज्ञा स्त्री० [सं० पतञ्चिका] धनुष का रोंदा या डोरी। प्रत्यंचा। उ०—तीन पनच धुनही करन बड़े कटन तंडीर। संगुन बिना पग ना धरै निकट बंन हंडीर।—पृ० रा०, ७। ७९।
⋙ पनचक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + चक्की] पानी के जोर से चलनेवाली चक्की या और कोई कल। विशेष— प्रायः लोग नदी या नहर आदि के किनारे जहाँ पानी का वेग कुछ अधिक होता है, कोई चक्की या दूसरी कल लगा देते हैं और उसका संबंध एक ऐसे बड़े चक्कर के साथ कर देते हैं जो बहते हुए जल में प्रायः आधा डूबा रहता है। जब बहाव के कारण वह चक्कर घूमता है तब उसके साथ संबंध करने के कारण वह चक्की या कल चलने लगती है। और इस प्रकार केवल पानी के बहाव के द्वारा ही सब काम होता है।
⋙ पनचो
संज्ञा स्त्री० [देश०] गेड़ी के खेल में खेलने के लिये पतली लकड़ी या गेड़ी।
⋙ पनचोरा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + चोर] वह बरतन जिसका पेट चौड़ा और मुँह बहुत छोटा है।
⋙ पनडब्बा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + डब्बा] वह डब्बा जिसमें पान और उसके लगाने का सामान चूना, सुपारी, कत्था आदि रहता हो। पानदान।
⋙ पनडुब्बा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + डूबना] पानी में गोता लगानेवाला। गोताखोर। विशेष—पनडुब्बे प्रायः कूएँ या तालाब में गोता लगाकर गिरी हुई चीज ढूँढ़ते अथवा समुद्र आदि में गोते लगाकर सीप और मोती आदि निकालते हैं। २. वह पक्षी जो पानी में गेता लगाकर मछलियाँ पकड़ता हो। ३. मुरगाबी। ४. एक प्रकार का कल्पित भूत, सिसका निवास जलाशयों में माना जाता है और जिसके विषय में लोगों का यह विश्वास है कि वह नहानेवाले आदमियों को पकड़कर डुबा देता है।
⋙ पनडुब्बी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + डूबना] १. वह जलपक्षी जो पानी में डुबकी लगाकर मछलियाँ आदि पकड़ता हो। २. मुरगाबी। ३. एक प्रकार की नाव, जो प्रायः पानी के अंदर डूबकर चलती है। इसका अविष्कार अभी हाल में पाश्चात्य देशों में हुआ है। सबमेरीन।
⋙ पनपथ
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + पाथना] वह रोटो जो बिना पर्थन के केवन पानी लगाकर बेली जाती है। पनेथी।
⋙ पनपना
क्रि० अ० [सं० पर्ण + पर्ण (= पता) वा पर्णय (= हरा होना)] १. पानी पाने के कारण फिर से हरा हो जाना। पुनः अंकुरित या पल्लवित होना। २. फिर से तंदुरुस्त होना। रोगयुक्त होने के उपरांत स्वस्थ तथा हृष्ट पुष्ट होना।
⋙ पनपनाना
क्रि० अ० [अनु० पनपन] साधारण सी बातों पर तेजी दिखाना, झल्ला उठना या आवेश में आना। जैसे,—मेरी बात पर वह पनपना उठा।
⋙ पनपनाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] 'पन' 'पन' पोने का शब्द जो प्रायः बाण चलने के कारण होता है।
⋙ पनपाना
क्रि० स० [हिं० पनपना] पनपने का सकर्मक रूप। ऐसा कार्य करना जिससे कोई पनपे।
⋙ पनबट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० पान + बट्टा(=डिब्बा)] वह छोटा डिब्बा जिसमें पान के लगे हुए बीड़े रखे जाते हैं।
⋙ पनबिछिया
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + बीछी] पनी में रहनेवाला एक प्रकार का कीड़ा जो डंक मारता है।
⋙ पनबिच्छी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पनबिछिया'।
⋙ पनबुड़वा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पनडुब्बा'।
⋙ पनभता
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + भात] केवल पानी में उबाले हुए चावल। साधारण भात।
⋙ पनभरा, पनभरिया
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + भरना] पानी भरने का काम करनेवाला। वह जो लोगों के आवश्यकतानुसार जल पहुंचता हो।
⋙ पनमड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + माँड़ी] पतली माँड़ जो जुलाहे लोग बुनते समय टूटे तागों को जोड़ने के काम में लाते हैं।
⋙ पनर ‡
वि० [सं० पञ्चदश] दे० 'पंद्रह'। उ०—पुंगल ढोलो प्राहुणों रहियो सासरवाड़ि। पनर दिहाड़ा पदमणी मारू मनहर हाडि।— ढोला०, दू० ५९४।
⋙ पनरह
वि० [सं० पञ्चदश] दे० 'पंद्रह'। उ०—पनरह दिनहूँ जागती, प्रीसूँ प्रेम करंत। एक दिवस निद्रा सबल सूती जाणि निचंत।— ढेला०, दू० ३४२।
⋙ पनलगवा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + लगाना] वह मनुष्य जो खेत में पानी सींचता या लगाता हो। पनकटा।
⋙ पनलगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पनलगवा'।
⋙ पनलोहा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + लोहा?] एक प्रकार का जल- पक्षी जो ऋतु के अनुसार रंग बदलता है।
⋙ पनव पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रणव] दे० 'प्रणव'।
⋙ पनवाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० पान + वाँ (प्रत्य०)] हमेल आदि में लगी हुई बीचवाली चौकी जो पान के आकार की होती है। टिकड़ा। पान।
⋙ पनवाड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पान + वाड़ी] वह खेत जिससे पान पैदा होता होता है। बरेजा।
⋙ पनवाड़ी (२)
संज्ञा पुं० [पान + वाला] पान बेचनेवाला तमोली।
⋙ पनवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० पालवारा] दे० 'पनवारा'। उ०—कदली कर पनवार धराई। गज मुक्ताहल चौक पुराई।
⋙ पनवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० पान + वार(प्रत्य०)] पत्तों की बनी हुई पत्तल जिसपर रखकर लोग भोजन करते हैं। उ०—अब केहि लाज कृपानिधान परसत पनवारो टारो।—तुलसी। (शब्द०)। मुहा०—पनवारा पड़ना = लोगों के खाने लिये पत्तल बिछाई जाना। उ०—सादर लगे परन पनवारे।—मानस, १। ३३८। पनवारा लगाना = पत्तल पर खाना सजाना । २. एक पत्तल भर भोजन जो एक मनुष्य के खाने भर को हो। ३. एक प्रकार का साँप।
⋙ पनवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पान + वाड़ी] दे० 'पनवाड़ी' (१)।
⋙ पनवारी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पान + वाला] दे० 'पनवाड़ी' (२)।
⋙ पनस
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटहल का वृक्ष। २. कटहल का फल। ३. रामदल का एक बंदर। ४. विभीषण के चार मंत्रियों में से एक। ५. काँटा। कंटक।
⋙ पनसखिया
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + शाखा] १. एक प्रकार का फूल। २. इस फूल का वृक्ष।
⋙ पनसतालिका
संज्ञा पुं० [सं०] कटहल।
⋙ पनसनालका
संज्ञा पुं० [सं०] कटहल।
⋙ पनसल्ला †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + शाला] स्थान जहाँ पर राहचलतों को पानी पिलाया जाता हो। पौसरा। पनसाल। प्याऊ।
⋙ पनसाखा
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + शाखा] एक प्रकार की मशाल जिसमें तीन या पाँच बत्तियाँ साथ जलती है। विशेष—इसमें बाँस के एक लंबे डंडे पर लोहे का एक पंजा बँधा रहता है, जिसकी पाँचों शाखाओं को कपड़ा लपेटकर और तेल से चुपड़कर मशाल की भाँति जलाते हैं।
⋙ पनसार †
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + सं० आसार (= धार बाँधकर पानी गिराना)] पानी से किसी स्थान को सराबोर करने की क्रिया या भाव। भरपूर सिंचाई।
⋙ पनसारी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पंसारी'। उ०—यह तो हिंदुओं का शास्त्र पनसारी की दुकान है और अक्षर कल्पवृक्ष हैं।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८१९।
⋙ पनसाल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + शाला] वह स्थान जहाँ सर्व- साधारण को पानी पिलाया जाता है। पौसरा।
⋙ पनसाल (२)
संज्ञा [देश०] १. पानी की गहराई नापने का उपकरण। वह लकड़ी जिसमें इंच फुट आदि के सूचक अंक खुद होते हैं और जिसको गाड़कर पानी की गहराई अथवा उसका चढ़ाव उतार देखते हैं। २. पानी की गहराई नापने की क्रिया या भाव।
⋙ पनसाला
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + शाला] दे० 'पनसाल'।
⋙ पनसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान में होनेवाली एक प्रकार की फुंसी जो कटहल के काँटे की तरह नोकदार होती है।
⋙ पनसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटहख का फल। २. दे० 'पनसिका'।
⋙ पनसुइया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + सूई] एक प्रकार की छोटी नाव जिस पर एक ही खेनेवाला दो डाँड़ चला सकता है।
⋙ पनसुही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + सुई ] दे० 'पनसुइया'। उ०... तो कोई एक पनसुही पर सवार।... ..—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११३।
⋙ पनसूर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा।
⋙ पनसेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + सेर] दे० 'पंसेरी'।
⋙ पनसोई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पनसुइया'।
⋙ पनस्यु
वि० [सं०] प्रशंसा या तारीफ सुनने का इच्छुक। जिसे प्रशंसित होने की इच्छा हो।
⋙ पनह
संज्ञा स्त्री० [फा० पनाह] शरण। रक्षा या शरण पाने का स्थान। मु० पनाह मागना। उ०—मालिक मेहरबान करीम गुनहगार हररोज हरदम, पनह राखि रहीम।—दादू०, पृ० ६२७।
⋙ पनहटा
संज्ञा पुं० [हिं० पान + हाट] पान का हाट। पानदरीबा। उ०—धनहटा, सोनहटा, पनहटा, पक्वानहटा करेओ सुखरव- कथा कहते।—कीर्ति०, पृ० ३०।
⋙ पनहड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पान + हाँडी] वह हाँड़ी, जिसमें तंबोली पान अथवा हाथ धोने के लिए पानी रखते हैं।
⋙ पनहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० पन- हारन, पनहारिन, पनहारी] वह जो पानी भरने पर नौकर हो या पानी भरने का काम करता हो। परभरा।
⋙ पनहारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + हरा (प्रत्य०)] वह अथरी जिसमें सोनार गहने धोने आदि के लिये रखते हैं।
⋙ पनहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिणाह (= विस्तार, चौड़ाई, आयाम)] १. कपड़े या दीवार आदी की चौड़ाई। २. गूढ़ आशय या तात्पर्य। मर्म। भेद। जैसे,—तुम्हारी बात का पनहा मिले तब तो कोई जवाब दें।
⋙ पनहा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पण (= रुपया पैसा) + हार] १. चोरी का पता लगानेवाला। उ०—सीस चढ़े पनहा प्रकट कहैं, पुकारे नैन।—बिहारी (शब्द०)। २. वह पुरस्कार जो चुराई हुई वस्तु लौटा या दिला देने के लिये दिया जाय।
⋙ पनहारा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० पनहारन, पनहारिन, पनहारी] वह जो पानी भरने पर नौकर हो। पानी भरनेवाला। पनभरा।
⋙ पनहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पनहारा] पानी भरने का काम करनेवाली नौकरानी। उ०—एक गऊ कुछ दूर रँभाई, पनहारी पनघट से आई।—आराधना, पृ० ८५।
⋙ पनहि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उपानह] दे० 'पनही'। उ०—मोचिनि वदन संकोतचिनि हीरा माँगन हो। पनहि लिहे कर सोभित सुंदर आँगन हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४।
⋙ पनहिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पनही + इया (प्रत्य०)] दे० 'पनही'। उ०—जननी निरखति बान धनुहियाँ। बार बार उर नैननि वावति प्रभु जू की ललित पनहियाँ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३५०।
⋙ पनहियाभद्र
संज्ञा पुं० [हिं० पनही + भद्र (= मुंडन)] सिर पर इतने जूते पड़ना कि बाल उड़ जायँ। जूतों की वर्षा। जूतों द्वारा पिटाई।
⋙ पनही †
संज्ञा स्त्री० [सं० उपानह] जूता। उ०—(क) राम लखन सिय बिनुँपग पनही। करि मुनि बेष फिरहि बन बूनहीं।— मानस, २। २१०। (ख) और जब आपने मन की दुचिताई के भय से पनही कमर में बाँध ली थी उसको देख के पुजारी पंडों ने आपका तिरस्कार किया।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ४७२।
⋙ पनही‡
वि० स्त्री० [हिं० पना + ही (प्रत्य०)] पना से युक्त। पनावाली। जैसे, पनही भाँग।
⋙ पना
संज्ञा पुं० [सं० प्रपानक या पानीय] आम, इमली आदि के रस से बनाया जानेवाला एक प्रकार का शरबत। पानक। प्रपानक। पन्ना। ड०—पनं बहु जंबुअ अँबुअ मेलि। निचो- रिय दारिम दाख सुठोलि।—पृ० रा०, ६३। १०६। विशेष—पना कच्चे और पक्के दोनों प्रकार के फलों से तैयार किया जाता है। पक्के फल का रस या गूदा यों ही अलग कर दिया जाता हैं और कच्चे का गूदा अलग करने के पहले उसे भूना या उबाला जाता है। फिर उसको खुब मसलकर मीठा मिला देते हैं। लोंग, कपूर और कभी कभी नमक तथा लालमिर्च भी पन्ने में मिलाई जाती है और हींग, जीरे, आदि का बघार दिया जाता है। वैद्यक के अनुसार पना रुचिकारक, तत्काल बलबर्धक और इंद्रियों को तृप्ति देनेवाला है।
⋙ पनाती
संज्ञा [सं० पनप्तृ] [स्त्री० पनातिन] पुत्र अथवा कन्या का नाती। पोते अथवा नाती का पुत्र।
⋙ पनार
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाली] दे० 'परनाला'।
⋙ पनारा
संज्ञा पुं० [सं० प्रणालि] दे० 'परनाला'। उ०—रहट चलत वा ग्राम तहँ, ठहरत प्रीति अपार। लगे पनारे रहट के, परत अखंडित धार।—प० रासो० पृ० २३।
⋙ पनारि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पर + नारी] परस्त्री। परकीया स्त्री या नायिका।
⋙ पनारि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रणाली] नाली। पनाली। मोरी। उ०—दई पनारि खुलाई, सरिता ज्यौं बिथिन गयो।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३४।
⋙ पनारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रणाली] लंबी रेखा। उ०—सिर पर रोरी और सिंदूर की पनारी निकाल सुंदर चुटिला देकर वह सुढार वेणी गुथूँ।—पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० १९३। यौ०—पनारीदार = जिसमें नालियाँ बनी हों।
⋙ पनाला
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाली] [स्त्री० पनाली] दे० 'परनाला'।
⋙ पनासना †
क्रि० स० [सं० पानाशन] पोषण करना। पोसना। परवरिश करना। उ०—कन्व जी इसके पिता इसलिये कहाते हैं कि पड़ी हुई को उठा लाए थे। और उन्होंने पाली पनासी है।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।
⋙ पनाह
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. शत्रु से, संकट या कष्ट से बचाव या रक्षा पाने की क्रिया या भाव। त्राण। बचाव। उ०— महिमा मँगोल ताकी पनाह। बैठ्यो अडोल तिन गही बाह।—हम्मीर०, पृ० १६। क्रि० प्र०—पाना।—माँगना। मुहा०—(किसी से) पनाह माँगना = किसी बहुत ही अप्रिय या अनिष्ट वस्तु अथवा व्यक्ति से दूर रहने की कामना करना। किसी से बहुत बचने की इच्छा करना। जैसे,—आप दूर रहिए, मैं आपसे पनाह माँगता हूँ। २. रक्षा पाने का स्थान। बचाव का ठिकाना। शरण। आड़। ओट। क्रि० प्र०—ढूँढ़ना।—देना।—पाना।—माँगना। मुहा०—पनाह लेना = विपत्ति से बचने के लिये रक्षित स्थान में पहुँचना। शरण लेना।
⋙ पनाही †
संज्ञा स्त्री० [फा० पनाह + ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का अर्थदंड। उ०—'पनाही' दंडस्वरूप उस जुर्माने को कहते हैं जो चोर को इसलिये बाध्य होकर देना पड़ता हैं जिससे चोर चोरी का माल वापस कर दे।—नेपाल, पृ० १०५।
⋙ पनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रण, प्रा० पण] प्रतिज्ञा। प्रण। उ०—याकी ही पनि पार तू छोड़ि जीय की गाँस।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५३।
⋙ पनि (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी] पानी शब्द का यौगिक पद प्रयुक्त रूप। जैसे, पनिगर, पनिघट, पनिहारी।
⋙ पनि (३)
क्रि० वि० [सं० पुनः हिं० पुनि] फिर। पुनः उ०—तौ पनि सुजन निमित्त गुन रचिए तन मन फूल। जू का भय जिय जानि कै क्यों डारियै दुकूल।—पृ० रा०, १। ५४।
⋙ पनिक †
संज्ञा पुं० [देश०] १. जोलाहों का एक कैंचीनुमा औजार जिस पर ताना फैलाकर पाई करते हैं। २. कंडाल। विशेष—दे० 'कंडाल'।
⋙ पनिख †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पनिक'।
⋙ पनिगर ‡
वि० [हिं० पानी + फा० गर] दे० 'पानीदार'।
⋙ पनिघट
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + घाट] दे० 'पनघट'। उ०—(क) पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।— मानस, ७। २९। (ख) पनिवारे घट मैं बसै पनिघटि ओर न जात।—स० सप्तक, पृ० १७४।
⋙ पनिच पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पतञ्चिका] धनुष की ज्या। उ०— (क) खैंचि पनिच भृकुटी धनुक बधिक समरु तजि कानि। हनत तरुन मृग तिलक सुर सुरक भाल भरि तानि।—बिहारी (शब्द०)। (ख) पुहुप कौ चाप पनिच अलि किए। पंच बान पाँचौ कर लिए।—नंद० ग्रं०, पृ० १४०।
⋙ पनिड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्डरीक] पुंडरिया। पंडरीक वृक्ष।
⋙ पनियाँ † (१)
वि० [हिं० पानी + इया (प्रत्य०)] १. पानी के संबंध का। २. पानी में उत्पन्न। ३. जिसमे पानी मिला हो। ४. पानी में रहनेवाला। ५. दे० 'पनिहा'।
⋙ पनियाँ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी] पानी। उ०—पहिल गवनवाँ ऐलू, पनियाँ के भेजलन हो।—धरम०, पृ० ६४।
⋙ पनियाना †
क्रि० स० [हिं० पानी + आना (प्रत्य०)] १. पानी से सींचना या तर करना। २. तंग करना। परेशान करना। दिक करना। ३. पानी से युक्त होना। (बाजारू)।
⋙ पनियार † ‡
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + यार (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ पानी ठहरता हो। २. वह दिशा जिसकी ओर पानी बहता हो।
⋙ पनियारा † ‡
संज्ञा पुं० [हिं० पानी] बाढ़।
⋙ पनियाला
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + इयाल (प्रत्य०)] एक प्रकार का फल।
⋙ पनियासोत †
वि० [हिं० पानी + सोत] (तालाब, खाई आदि) जिसमें पानी का सोता निकला हो। अत्यंत गहरा। जैसे, पनियासोत खाई।
⋙ पनियाही †
वि० [हिं०] पानी में भीगी। पानी से नम। उ०— पनियाही घासों की हाथ भर मोटी घनी तह छाई हुई थी।— नई०, पृ० ३१।
⋙ पनिवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पनुआँ'।
⋙ पनिसिगा
संज्ञा पुं० [हिं०] जलपीपल।
⋙ पनिहा (१)
वि० [हिं० पानी + हा (प्रत्य०)] १. पानी में रहनेवाला जैसे, पनिहा साँप। २. जिसमें पानी मिला हो। पनमेल। जैसे, पनिहा दुग्ध। ३. पानी संबंधी। जल संबंधी।
⋙ पनिहा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पनुआँ'।
⋙ पनिहा (३)
संज्ञा पुं० [सं० प्रणिधा] वह जो चोरी आदि का पता लगाता हो। जासूस। भेदिया। उ०—लालन लहि पाएँ दुरै चोरी सौह करै न। सीस चढ़े पनिहा प्रगट कहैं पुकरै नैन।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ पनिहार
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + हार (प्रत्य०)] [स्त्री० पनिहारी] दे० 'पनहरा'। उ०—(क) आकाशे अँवदा कुआँ पाताले पनिहार।—कबीर (शब्द०)। (ख) जस पनिहारी धरे सिर गागर सुणि न टरै बतरावत सबसे।—धरम०, पृ० ७५।
⋙ पनी पु †
संज्ञा पुं० [सं० पणी] प्रण करनेवाला। प्रतिज्ञा करनेवाला। उ०—बाँह पगार उदार सिरोमनि नतपालक पावन पनी। सुमन बरषि रघुपति गुन गावत हरषि देव दुंदुभि हनी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पनीर
संज्ञा पुं० [फा०] १. फाड़कर जमाया हुआ दूध। छेना। विशेष—इसे बनाने के लिये पहले दूध को फाड़ लेते हैं। फिर छेने में नमक और मिर्च मिलाकर साँचे में भर देते हैं जिससे उसकी चकत्तियाँ बन जाती हैं। मुहा०—पनीर चटाना = काम निकलने के लिये किसी की खुशामद करना। हत्थे चढ़ाने के लिये किसी को परचाना। पनीर जमाना = (१) ऐसी बात करना जिससे आगे चलकर बहुत से काम निकलें। (२) किसी वस्तु पर अधिकार करने के लिये कोई आरंभिक कार्य करना। २. वह दही जिसका पानी निचोड़ लिया गया हो।
⋙ पनीरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. फूल, पत्तों के वे छोटे पौधे जो दूसरी जगह ले जाकर रोपने के लिये लगाए गए हों। फूल पत्तों के बेहन। क्रि० प्र०—जमाना। २. वह क्यारी जिसमें पनीरी जमाई गई हो। बेहन की क्यारी। ३. गलगल नीबू के फाँकों के ऊपर का गूदा।
⋙ पनीला
वि० [हिं० पानी + इला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पनीली] जिसमें पानी हो। पानी मिला हुआ। जलयुक्त।
⋙ पनुआँ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पन (= पानी) + उआ (प्रत्य०)] वह शरबत जो गुड़ के कड़ाहे से पाग निकाल लेने के पीछे उसे धोकर तैयार किया जाता है। गुड़ के कड़ाहे की धोवन का शरबत। पनियाँ। विशेष—पाग निकाल लेने के पश्चात् कड़ाहे में तीन चार घड़े पानी छोड़ देते हैं। फिर कड़ाहे को उससे अच्छी तरह धोकर थोड़ी देर तक उसे गरमाते हैं। उबलना आरंभ होनेपर प्रायः शरबत तैयार समझा जाताहै। यह प्रायः सुबह पीया जाता है।
⋙ पनुआँ (२)
वि० [हिं० पानी] जिसमें अधिक पानी मिल गया हो। फीका।
⋙ पनुवाँ
वि० [हिं० पन (= पानी) + उवाँ (प्रत्य०)] फीका। पनुआँ। उ०—पनुवाँ रंगन मेजि निवौरै। गाढ़ो रंग अछत जिमि चौरै। रंग देइ तुरतै न निचोरै। रस रसरी पर टाँग देरेरै।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ पनेथी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पन (= पानी) + एथी] पानी लगाकर पोई हुई रोटी। मोटी रोटी।
⋙ पनेरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पनीरी'।
⋙ पनेरी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पन (= पान)+ एरी (प्रत्य०)] पान बेचनेवाला तँबोली।
⋙ पनेहड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पनहड़ा'।
⋙ पनेहरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पनहरा'।
⋙ पनैला
संज्ञा पुं० [हिं० मनीला (= एक प्रकार का सन)] एक प्रकार का गाढ़ा, चिकना और चमकीला कपड़ा जो प्रायः गरम कपड़ों के नीचे अस्तर देने के काम आता है। विशेष—जिस पौधे के रेशे से यह कपड़ा बुना जाता है वह फिलीपाइन द्विपपुंज में होता है। मनीला इन द्विपपुंज की राजधानी है। संभवतः वहाँ से चालान किए जाने के कारण पहले रेशे ने और फिर उससे बुने जानेवाले कपड़े ने मनीला नाम पाया है।
⋙ पनोती †
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्वन् (= विशेष अवस्था) हिं० पन + ओती (प्रत्य०)] अवस्था। जैसे, बालापन, युवापन। उ०—आयुष्य की चारों पनोतियों में प्रभु को भूलकर माया के जाल में फँस रहे तो क्या यही तुम्हारी बुद्धि है।—सुंदर ग्रं० (भू०), भा० १, पृ० ४९।
⋙ पनौआ †
संज्ञा पुं० [हिं० पन (= पान) + औआ (प्रत्य०)] एक पकवान जो पान के पत्ते को बेसन या चौरीठे में लपेटकर घी या तेल में तलमे से बनता है।
⋙ पनौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पन (= पान)+ औटी (प्रत्य०)] पान रखने की पिटारी। बाँस की फट्टियों का बुना हुआ पानदान। बेलहरा।
⋙ पन्न (१)
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। पड़ा हुआ। २. नष्ट। गत।
⋙ पन्न (२)
संज्ञा पुं० १. रेंगना। सरकते हुए चलना। २. नीचे की ओर जाना। अधोगमन। यौ०—पन्नग।
⋙ पन्नई
वि० [हिं० पन्ना + ई (प्रत्य०)] पन्ने के रंगका। जिसका रंग पन्ने का सा हो।
⋙ पन्नग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पन्नगी] १. सर्प। साँप। २. पद्माख। ३. एक बूटी।
⋙ पन्नग (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० पन्ना] पन्ना। मरकत।
⋙ पन्नगकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर।
⋙ पन्नगनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०]।
⋙ पन्नगपति
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग। उ०—पन्नग प्रचंड पति प्रभु की पनच पीन पर्वतारि पर्वत प्रभान मान पावई।— केशव (शब्द०)।
⋙ पन्नगारि
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़। उ०—पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जत कहहिं।—मानस, ७। ९५।
⋙ पन्नगाशन
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०]।
⋙ पन्नगिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पन्नग + हिं० इनी (प्रत्य०)] सर्पिणी। नागिनि। उ०—इक इक अलक लटकि लोचन पर, यह उपमा इकआवति। मनहु पन्नगिनि उतरि गगन तै; दल पर फन परसावति।—सूर०, १०। १८०९।
⋙ पन्नगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागिन। सर्पिणी। साँपिन। उ०— मृगनैनी बेनी निरख छबि छहरत बरजोर। कनकलता जन पन्नगी बिलसत कला करोर।—स० सप्तक, पृ० ३४६। ४. एक बूटी। सर्पिणी।
⋙ पन्नद्धा, पन्नध्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] पदत्राण। जूता [को०]।
⋙ पन्ना (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्ण] पिरोजे की जाति का हरे रंग का एक रत्न जो प्रायः स्लेट और ग्रेनाइट की खानों से निकलता है। मरकत। जमुर्रत। विशेष—क्रोमियम नामक एक रंगवर्धक तत्व के कारण अन्यसजा- तीय रत्नों की अपेक्षा इसका रंग अधिक गहरा और नेत्राकर्षक होता है। जो पन्ना जितना ही गहरा हरा और आभायुक्त और बेदाग होता है वह उतना ही मूल्यवान समझा जाता है। भूरे अथवा पीलापन या श्यामता लिए हुए टुकड़े अल्प मूल्य समझे जाते हैं। सर्वोत्तम पन्ना दक्षिण अमेरिका की कोलं- बिया रियासत की खानों से निकलता है। भारत की पन्ना रियासत की खानों से भी प्राचीन काल से पन्ना निकलता है। भारतवासी बहुत प्राचीन काल से इसका व्यवहार करते आए हैं। अर्थात् प्राचीन पुस्तकों में मरकत शब्द और उसके पर्याय पाए जाते हैं। फलित ज्योतिष के अनुसार इसके अधिष्ठाता देवता बुध हैं। इसके धारण करने से उनकी कोपशांति होती है। वैद्यक में पन्ना शीतल, मधुर, रसयुक्त, रुचिकारक, पुष्टिकर, वीर्य- वर्धक और प्रेतबाधा,अम्लपित्त, ज्वर, वमन, श्वास, मंदाग्नि, बवासीर, पांडुरोग और विशेष रूप से विष का नाश करनेवाला माना गया है। पर्या०—मरकत। मरक्त। गारुत्मक। गारुत्मत। गरुडाश्य। गरुडांकित। राजनील। अश्मगर्भ। हरित्मणि। रौहिणेय। सौपर्ण। गरुडोदगीर्ण। बुधरत्न। अश्वगर्भज। गरलारि। वापबोल। गरुड। गारुड। गारुडोत्तीर्ण। वाप्रबोल।
⋙ पन्ना (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्ण्ण] १. पुस्तक आदि का का पृष्ठ। वरक। पत्र। २. भेड़ों के कान का वह चौड़ा भाग जहाँ का ऊन काटाजाता है। ३. देशी जूते के एक ऊपरी भाग का नाम जिसे पान भी कहते हैं। ४. आम आदि का पानक। पना।
⋙ पन्निक
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पनिक।
⋙ पन्नी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पन्ना (= पत्रा)] १. रागे या पीतल के कागज की तरह पतले पत्तर जिन्हें सौंदर्य और शोभा के लिये छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर अन्य वस्तुओं पर चिपकाते है। यौ०—पन्नीसाज।—पन्नीसाजी। २. वह कागज या चमड़ा जिसपर सोने या चाँदी का लेप किया हुआ रहता है। सोने या चाँदी के पानी में रँगा हुआ कागज या चमड़ा। सुनहला या रुपहला कागज।
⋙ पन्नी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पना] एक भोज्य पदार्थ। उ०—पन्नी पूप पटकरी पापर पाक पिराक पनारी जी।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ पन्नी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बारुद की एक तौल जो आध सेर के बराबर होती है। उ०—तफन तोप खानैं पुनि भूपा। गए लेख युग तोय अनूपा। रहै अठोरै पन्नी केरी। तिनहि सराहत भी नृप ढेरी।—रघुराज (शब्द०)। २. एक लंबी घास जिसे प्रायः छप्पर छाने के काम में लाते हैं।
⋙ पन्नी (४)
संज्ञा पुं० [देश०] पठानों की एक जाति।
⋙ पन्नीसाज
संज्ञा पुं० [हिं० पन्नी + फा० साज (= बनानेवाला)] वह मनुष्य जिसका व्यवसाय पन्नी बनाना हो। पन्नी बनाने का काम करनेवाला।
⋙ पन्नीसाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पन्नी + साज] पन्नी बनाने का काम। पन्नी बनाने का धंधा। पेशा।
⋙ पन्नू
संज्ञा पुं० [देश०] एक फूल का पौधा। एक पुष्पवृक्ष।
⋙ पन्यारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जंगली वृक्ष जो मझोले कद का होता है। विशेष—यह वृक्ष सदा हरा रहता है और मध्यप्रदेश में यह अधिकता से पाया जाता है। इसकी लकड़ी टिकाऊ और चमकदार होती है। उससे गाड़ियाँ, कुर्सियाँ और नीवें बनती हैं।
⋙ पन्हाना (१) ‡
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पिन्हाना'।
⋙ पन्हाना (२)
क्रि० स० १. दे० 'पिन्हाना'। २. दे० 'पहनाना'।
⋙ पन्हारा †
संज्ञा पुं० [हिं० पान + हारा] एक तृणाधान्य गेहूँ के खेतों में आपसे आप होता है। अँकरा।
⋙ पन्हिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पनही] जूता। उपानह। उ०—संत जन पन्हिया ले खड़ा राहूँ ठाकुर द्वार। चलत पाछे हूँ फिरों रज उड़त लेऊँ सीर।—दक्खिनी०, पृ० १०७।
⋙ पन्हैयाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पनही] दे० 'पनही'। उ०—आए प्रभु, टहलुवा रूप धरि द्वार कटी एक कामरी पन्हैयाँ टूटी पाय हैं।—भक्तमाल०, पृ० ५६०।
⋙ पपची ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का पकवान्न। छोटा पपड़ा। उ०—माँ ने उस दिन कुछ पपची इत्यादि पक्वान्न बनाए थे।—श्यामा०, पृ० ९३।
⋙ पपटा
संज्ञा पुं० [देश०] १. दे० 'पपड़ा'। २. छिपकली।
⋙ पपड़ा
संज्ञा पुं० [सं० पर्पट] [स्त्री० अल्पा० पपड़ी] १. लकड़ी का रूखा करकरा और पताल छिलका। चिप्पड़। क्रि० प्र०—छुड़ाना। २. रोटी का छिलका। क्रि० प्र०—छुड़ाना। ३. एक प्रकार का पकवान जो मीठा और नमकीन दोनों होता है। मीठा पपड़ा मैदे को शरबत में घोलकर और नमकीन पपड़ा बेसन को पानी में घोलकर घी या तेल में तलकर बनाते हैं।
⋙ पपड़िया
वि० [हिं० पपड़ी + इया (प्रत्य०)] पपड़ी संबंधी। जिसमें पपड़ी हो। पपड़ीदार। पपड़ीवाला। जैसे, पपड़िया कत्था।
⋙ पपड़िया कत्था
संज्ञा पुं० [हिं० पपड़ी + कत्था] सफेद कत्था। श्वेतासार। विशेष—यह कत्था साधारण कत्थे से अच्छा समझा जाता है और खाने में अधिक स्वादु होता है। वैद्यक में इसको कड़वा, कसैला और चरपर तथा व्रण, कफ, रुधिरदोष, मुखरोग, खुजली, विष, कृमि कोढ़ और ग्रह तथा भूत की बाधा में में लाभदायक लिखा है।
⋙ पपड़ियाना
क्रि० अ० [हिं० पपड़ी + ना (प्रत्य०)] १. किसी चीज की परत का सूखकर सिकुड़ जाना। २. अत्यंत सूख जाना। इतना सूख जाना कि ऊपर पपड़ी की तरह तह जम जाय। तरी न रह जाना। जैसे,—क्यारियाँ पपड़िया गई। ओठ पपड़िया गए।
⋙ पपड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पपड़ा का अल्पा०] १. किसी वस्तु की ऊपरी परत जो तरी या चिकनाई के अभाव के कारण कड़ी और सिकुड़कर जगह जगह से चिटक गई हो और नीचे की सरस और स्निग्ध तह से अलग मालूम होती हो। ऊपर की सूखी और सिकुड़ी हुई परत। विशेष—वृक्ष की छाल के अतिरिक्त मिट्टी या कीचड़ की परत और ओठ के लिये अधिकतर बोलते हैं। क्रि० प्र०—पड़ना। यौ०—पपड़ीदार। मुहा०—पपड़ी छोड़ना = (१) मिट्टी की तह का सूख और सिकुड़कर चिटक जाना। पपड़ी पड़ना। (२) बिलकुल सूख जाना। तरी न रह जाना। रस का अभाव हो जाना। जैसे,—चार दिन से पानी नहीं पड़ा है इतने ही में क्योरियों ने पपड़ी छोड़ दी। २. घाव के ऊपर मवाद के सूख जाने से बना हुआ आवरण या परत। खुरंड। क्रि० प्र०—छुड़ाना।—पड़ना।३. सोहन पपड़ी या अन्य कोई मिठाई जिसकी तह जमाई गई हो। ४. छोटा पपड़। आया या बेसन आदि का नमकीन और पकाया हुआ खाद्य। (यौ०)। ५. बृक्ष की छाल की ऊपरी परत जिसमें सूखने और चिटकने के कारण जगह जगह दरारों सी पड़ी हों। बना या घड़ा। त्वचा।
⋙ पपड़ीला
वि० [हिं० पपड़ी + इला (प्रत्य०)] जिसमें पपड़ी हो। पपड़ीदार।
⋙ पपनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] बरौनी। पनक के बाल।
⋙ पपरिया कत्था
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पपड़िया कत्था'।
⋙ पपरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्पट] १. एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम में आती है। २. दे० 'पपड़ी'।
⋙ पपहा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक कीड़ा जो धान की फसल को हानि पहुँचाता है। २. एक प्रकार का धुन जो जौ गेहूँ आदि में घुसकर उनका सार खा जाता है और केवल ऊपर का छिलका ज्यों का त्यों रहने देता है।
⋙ पपि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ पपहिया
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पपीहा'। उ०—घनघोर घटा के देखने से अभी तो प्यासे पपहिये के नयनों की प्यास भी न बुझने पाई थी।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ९४।
⋙ पपिहरा
संज्ञा पुं० [हिं० पपीहा + रा (स्वा० प्रत्य०)] चातक। पपीहा। उ०—पिय पिय रटए पपिहरा रे, हिय दुख उपजाव।—विद्यापति, पृ० ३६४।
⋙ पपिहा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पपीहा'।
⋙ पपी † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पपीहा'। उ०—ज्यों पपी की प्यास पीव रात भर रटी। अरी स्वाति बिना बुंद भोर भ्यान पौ फटी।—तुरसी श०, पृ० ५।
⋙ पपी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. सूर्य [को०]।
⋙ पपीता
संज्ञा पुं० [देश० या कन्नड पपाया] एक प्रसिद्ध वृक्ष जो बहुधा बगीचों में लगाया जाता है। पपैया। अंडखरबूजा। वातकुंभ। एरंडचिर्भिट। नलिकादल। मधुकर्कटी। विशेष—इसका वृक्ष ताड़ की तरह सीधा बढ़ता है और प्रायः बिना डालियों का होता है। ऊँचाई २० फुट के लगभग होती है। पत्तियाँ इसकी अंडी की पत्तियों की तरह कटावदार होती हैं। छाल का रंग सफेद होता है। इसका फल अधिकतर लंबोतरा और कोई कोई गोल भी होता है। फल के ऊपर मोटा हरा छिलका होता है। गूदा कच्चा होने की दशा में सफेद औऱ पक जाने पर पीला होता है। बीचो बीच में काले काले बीज होते हैं। बीज और गूदे की बीच एक बहुत पतली झिल्ली होती है, जो बीजकोष या बीजाधार का काम देती है कच्चा और पक्का दोनों तरह का फल खाया जाता है। कच्चे फल की प्रायः तरकारी पकाते हैं। पक्का फल मीठा होता है और खरबूजे की तरह यों ही या शकर आदि के साथ खाया जाता है। इसके गूदे, छाल, फल और पत्ते में से भी एक प्रकार का लसदार दूध निकलता है जिसमें भोज्य द्रव्यों, विशेषतः मांस के गलाने का गुण माना जाता है। इसी कारण इसको मांस के साथ प्रायः पकाते हैं। यहाँ तक माना जाता है कि यदि माँस थोड़ी देर तक इसके पत्ते में लपेटा रका रहे तो भी बहुत कुछ गल जाता है। इसके अध- पके फल से दूध एकत्र कर 'पपेन' नाम की एक औषध भी बनाई गई है जो मंदाग्नि में उपकारक होती है। फल भी पाचन-गुण-विशिष्ट समझा जाता है और अधिकतर इसी गुण के लिये इसे खाते हैं। पीपते का देश दक्षिण अमेरिका है। अन्यान्य देशों में यह पुर्तगालियों के संसर्ग से आया और कुछ ही बरसों में भारत के अधिकांश में फैलकर चीन पहुँच गया। इस समय विषुवत् रेखा के समीपस्थ सभी देशों में इसके वृक्ष अधिकता से पाए जाते हैं। भारत में इसके दो भेद दिखाई पड़ते हैं। एक का फल अधिक बड़ा और मीठा होता है, दूसरे का छोटा और कम मीठा। पहले प्रकार का पपीता प्रायः आसाम के गोहाटी और छोटा नागपुर विभाग के हजारीबाग स्थानों में होता है। वैद्यक में इसको मधुर, स्निग्ध, वातनाशक, वीर्य और कफ का भड़ानेवाला हृदय को हितकर और उन्माद तथा वर्ध्म रोगों का नाश लिखा है।
⋙ पपील
संज्ञा पुं० [सं० पिपीलक] चींटी। उ०—सुनत स्रवन पपील की बानी, तिनतें का गोहराई।—जग० बानी, पृ० १११।
⋙ पपीलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पिपीलिका] चींटी। पिपीलिका।
⋙ पपीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पिपीलिका] दे० 'पिपीलिका'। उ०— कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहली गैल। पाँव न टिकै पपीलिका पंडित लादै बैल।—संतबानी०, पृ० ३४।
⋙ पपीहरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पपीहा'।
⋙ पपीहा
संज्ञा पुं० [हिं० अनु०] कीड़े खानेवाला एक पक्षी जो बसंत और वर्षां में प्रायः आम के पेड़ों पर बैठकर बड़ी सुरीली ध्वनि में बोलता है। चातक। विशेष—देशभेद से यह पक्षी कई रंग, रूप और आकार का पाया जाता है। उत्तर भारत में इसका डील प्रायः श्यामा पक्षी के बराबर और रंग हलका काला या मटमैला होता है। दक्षिण भारत का पपीहा डील में इससे कुछ बड़ा और रंग में चित्रविचित्र होता है। अन्यान्य स्थानों में और भी कई प्रकार के पपीहे मिलते हैं, जो कदाचित् उत्तर और दक्षिण के पपीहे की संकर संतानें हैं। मादा का रंगरूप प्रायः सर्वत्र एक ही सा होता है। पपीहा पेड़ से नीचे प्रायः बहुत कम उतरता है और उसपर भी इस प्रकार छिपकर बैठा रहता है कि मनुष्य की दृष्टि कदाचित् ही उसपर पड़ती है। इसकी बोली बहुत ही रसमय होती है और उसमें कई स्वरों का समावेश होता है। किसी किसी के मत से इसकी बोली में कोयल की बोली से भी अधिक मिठास है। हिंदी कवियों ने मान रखा है कि वह अपनी बोली में 'पी कहाँ....? पी कहाँ....?' अर्थात् 'प्रियतम कहाँ हैं'? बोलता है। वास्तव में ध्यान देने से इसकी रागमय बोली से इस वाक्य के उच्चारण के समान ही ध्वनि निकलती जान पड़ती है। यह भी प्रवाद है कि यह केवल वर्षा की बूँद का ही जलपीता है, प्यास से मर जाने पर भी नदी, तालाब आदि के जल में चोंच नहीं डुबोता। जब आकाश में मेघ छा रहे हों, उस समय यह माना जाता है कि यह इस आशा से कि कदाचित् कोई बूँद मेरे मुँह में पड़ जाय, बराबर चोंच खोले उनकी ओर एक लगाए रहता है। बहुतों ने तो यहाँ तक मान रखा है कि यह केवल स्वाती नक्षत्र में होनेवाली वर्षा का ही जल पीता है, और गदि यह नक्षत्र न बरसे तो साल भर प्यासा रह जाता है। इसकी बोली कामोद्दीपक मानी गई है। इसके अटल नियम, मेघ पर अन्यय प्रेम और इसकी बोली की कामोद्दीपकता को लेकर संस्कृत और भाषा के कवियों ने कितनी ही अच्छी अच्छी उक्तियाँ की है। यद्यपि इसकी बोली चैत से भादों तक बराबर सुनाई पड़ती रहती है; परंतु कवियों ने इसका वर्णन केवल वर्षा के उद्दीपनों में ही किया है। वैद्यक में इसके मांस को मधुर कषाय, लघु, शीतल कफ, पित्त, और रक्त का नाशक तथा अग्नि की वृद्धि करनेवाला लिखा है। पर्या०—चातक। नोकक। मेघजीवन। शारंग। सारंग। स्त्रोतक। २. सितार के छह तारों में से एक जो लोहे का होता है। ३. आल्हा के बाप का घोड़ा जिसे माँड़ा के राजा ने हर लिया था। ४. दे० 'पपैया'।
⋙ पपु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूध पिलानेवाली गाय।
⋙ पपु (२)
वि० रक्षा करनेवाला। त्राता। पालक [को०]।
⋙ पपैया † (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. सीटी। २. वह सीटी जिसे लड़के आम की अंकुरित गुठली को घिसकर बनाते हैं। ३. आम का नया पौधा। अमोला।
⋙ पपैया (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पपीहा'। उ०—अति विचित्र कियो साज तो सो रँग रहेगो आज। दादुर, मोर, पपैया बोलत फूले फूल द्रुम वाग।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५८।
⋙ पपोटन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधा जिसके पत्ते बाँधने से फोड़ा पकता है। इसका फल मकोय की तरह होता है।
⋙ पपोटा
संज्ञा पुं० [सं० प्र + पट] आँख के ऊपर का चमड़े का वह पर्दा जो ढेले को ढके रहता हैं और जिसके गिरने से आँख बंद होती है और उठने से खुलती है।
⋙ पपोरना †
क्रि० स० [देश०] अपनी बाहें ऐंठना और उनका भराव या पुष्टता देखना। (इस क्रिया से बलाभिमान सूचित होता है)। उ०—कंस लाज भय गर्वजुत चल्यो पपोरत बाँह।— व्यास (शब्द०)।
⋙ पपोलना
क्रि० अ० [हिं० पोपला] पोपले का चुभलाना, चबाना या मुँह चलाना। बिना दाँत का चुभलाना या मुँह चलाना।
⋙ पफ्ता
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाम मछली। गुंगबहरी।
⋙ पबई
संज्ञा स्त्री० [देश०] मैना की जाति का एक पक्षी, जिसकी बोली बहुत ही मीठी होती है।
⋙ पबना †
क्रि० स० [सं० पाना] प्राप्त करना।
⋙ पबमान पु
संज्ञा पुं० [सं० पवमान] वायु। पवन।
⋙ पबलिक (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] सर्वसाधारण। जनता। आम लोग। जैसे,—अब पब्लिक को यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई है।
⋙ पबलिक (२)
वि० सर्वसाधारण संबंधी। सार्वजनिक। जैसे,—कल टाउननहाल में एक पबलिक मीटिंग होनेवाली है।
⋙ पबलिक वर्क्स
संज्ञा पुं० [अं०] १. निर्माण संबंधी के कार्य जो सर्व- साधारण के लाभ के लिये सरकार की ओर से किए जायँ। पुल नहर आदि बनाने का कार्य। २. इंजीनियरी का मुहकमा।
⋙ पब्लिग ‡
संज्ञा स्त्री० [अं० पब्लिक] दे० 'पबलिक'।
⋙ पबारना †
क्रि० स० [सं० प्रवारण?] फेकना। उ०—जोगी मनहिं ओहिं रिसि मारहिं। दरब हाथ कै समुँद पबरहिं।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२३।
⋙ पबि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पवि'। उ०—(क) देखिसि आवत पबि सम बाना। तुरत भएउ खल अंतरधाना।—मानस ६। ७५। (ख) असनि कुलिस निर्घांत पबि बज्र सु तेरे नाँहि।—अनेकार्थ०, पृ० ६०। यौ०—पबिपात = वज्रपात। उ०—घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।—मानस, ६। ४८।
⋙ पबे †
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत, प्रा० पब्बअ, पब्बय] पर्वत। उ०—पबे सिखर इम गुपत किता गुण औगुण कारक।—रा० रू०, पृ० ६।
⋙ पब्बय पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत, प्रा० पब्बय] १. पहाड़। उ०— कमठ कसकि धसि मसकि धसय पब्बय पताल कह।—प० रासो, पृ० १६८। २. पत्थर।
⋙ पब्बय (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिड़िया का नाम।
⋙ पब्बि पु
संज्ञा पुं० [सं० पवि] वज्र। पवि।
⋙ पब्बीन पु
वि० [सं० प्रवीण] दे० 'प्रवीण'। उ०—सुने बीन पब्बीन सुर नाम रागै। रहे मोहि कै माल डाले न भार्ग।—ह० रासो, पृ० ३७।
⋙ पब्बै
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत, प्रा० पब्बय] १. पर्वत। पहाड़। २. पत्थर। उ०—तिमि उड़त कोट पब्बै सहित दल दब्बै तलछत परे। हम्मीर०, पृ० ४३।
⋙ पब्लिक
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'पबलिक'।
⋙ पब्लिक प्रसिक्यूटर
संज्ञा पुं० [अं०] पुलिस का वह अफसर या कील जो सरकार की ओर से फौजदारी मुकदमों की पैरवी करता है।
⋙ पब्लिशर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो पुस्तक, समाचारपत्र आदि छपवाकर प्रकट या प्रकाशित करे। प्रकट करनेवाला। प्रकाशित करनेवाला। पुस्तक प्रकाशक। प्रकाशक। विशेष—कोई आफत्तिजनक चीज प्रकाशित करने कि अभियोग पर प्रिंटर पब्लिशर दोनों गिरफ्तार किए जाते हैं।
⋙ पमंग पु
संज्ञा पुं० [सं० ष्लवङ्ग] घोड़ा। अश्व। उ०—पमंग अंग पाखराँ पराँ गिरा कि पंजराँ।—रा० रू०, पृ० २६९।
⋙ पमरा
संज्ञा स्त्री० [देश०] शल्लुकी नामक सुंगधित पदार्थ।
⋙ पमार (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रमार] अग्निकुल के क्षत्रियों की एक शाखा। प्रमार। पवार। दे० 'परमार'।
⋙ पमार (२)
संज्ञा पुं० [सं० पामारि] चकवँड़। चक्रमर्दक। चकौड़ा।
⋙ पम्मन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गेहूँ जो बड़ा और बढ़िया होता है। कठिया गेहूँ।
⋙ पयंबर †
संज्ञा पुं० [फा० पैगम्बर] दे० 'पैगंबर'। उ०—तपाके दिल से कीता अर्ज आकर। के ऐ सरदफ्तर आल पयंबर।— दक्खिनी०, पृ० १९०।
⋙ पयः
संज्ञा पुं० [सं०] पयस् शब्द का वह रूप जो व्याकरण के नियमानुसार कुछ अक्षरों के पूर्व आता है।
⋙ पयःकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० पयःकन्दा] क्षीरविदारी। कुम्हड़ा।
⋙ पयःपयोष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ पयःपान
संज्ञा पुं० [सं०] दुग्धपा। दूध पीना।
⋙ पयःपूर
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्करिणी। छोटा तालाब।
⋙ पयःपेटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारियल।
⋙ पयःफेनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुग्धफेनी।
⋙ पय (१)
संज्ञा पुं० [सं० पयस्] १. दूध। उ०—संत हंस गुन गहहि पय परिहरि बारि बिकार।—मानस, १। ६। यौ०—पयनिदि। पयपयोधि = क्षीरसागर। दुग्धसमुद्र। उ०—पयपयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई।—मानस० २। १३०। पयमुल। २. जल। पानी। ३. अन्न।
⋙ पय (२)
संज्ञा पुं० [सं० पद, प्रा० पय] पैर। चरण। उ०—जाल जलाखो गोरड़ी। सोवन पायल पय झलकंति।—बी० रासो, पृ० ५४।
⋙ पयच पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रत्यञ्चा] दे० 'प्रत्यंचा'। उ०—जानहु काल जगत कहँ कढ़ा। निसदिन रहै पयच जनु चढ़ा।—चित्रा०, पृ० ७०।
⋙ पयज †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिञ्जा, प्रा० पइज्जा, पइज्ज] दे० 'पैज'। उ०—परखत प्रीति प्रतीति पयज पनु रहे काज ठटु ठानि है।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३०९।
⋙ पयद पु
संज्ञा पुं० [सं० पयोद] बादल। पयोद। उ०—नीच निरा- वहि निरस तरु तुलसी सीचहि ऊख। पोषत पयद समान सब बिष पियूष के रुख।—तुलसी ग्रं०, पृ० १३४। २. जिससे पय अर्थात् दूध प्राप्त हो। स्तन। उ०—गोद राखि पुनि हृदय लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।—मानस, २। ५२।
⋙ पयदल
संज्ञा पुं० [सं० पदाति दल] दे० 'पैदल'। उ०—चले हयदलं पयदलं सथ्थ रथ्थं।—ह० रासो, पृ० ३५।
⋙ पयदा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'प्यादा'। उ०—लक्षावधि पयदाक शब्दवाद्य।—कीर्ति०, पृ० ८४।
⋙ पयधि पु
संज्ञा पुं० [सं० पयोधि] दे० 'पयोधि'।
⋙ पयना †
वि० [हिं०] दे० 'पैना'।
⋙ पयना (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पैना'।
⋙ पयनिधि पु
संज्ञा पुं० [सं० पयोनिधि] दे० 'पयोनिधि'। उ०— कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।—मानस, १। १८५।
⋙ पयमुख
वि० [सं० पय + मुख] दे० 'दूधमुख'। उ०—गौर सरीर स्यामु मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं।—मानस, १। २७७।
⋙ पयश्चय
संज्ञा पुं० [सं०] झील या कोई बड़ा जलाशय [को०]।
⋙ पयस्य (१)
वि० [सं०] दूध से निकला या बना हुआ।
⋙ पयस्य (२)
संज्ञा पुं० १. दूध से निकली या प्राप्त वस्तु। दुग्धविकार। जैसे, घी, मट्ठी, दही आदि। उ०—जय पयस्य परिपूर्ण सुधोषित घोष हमारे।—साकेत, पृ० ४२१। २. बिलार। मार्जार (को०)।
⋙ पयस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुग्धिका। दुधिया घास। २. क्षीरका- कोली। अर्कपुष्पी। ३. सत्यानासी। स्वर्णाक्षीरी (को०)।
⋙ पयस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी। २. अधिक दूध देनेवाली गौ (को०)।
⋙ पयस्वल (१)
वि० [सं०] १. जलयुक्त। २. जिसमें दूध हो।
⋙ पयस्वल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बकरा। छाग [को०]।
⋙ पयस्वान्
वि० [सं० पयस्वत्] [वि० स्त्री० पयस्वती] पानीवाला।
⋙ पयस्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाय। दूध देती हुई गाय। २. बकरी। ३. नदी। ४. चित्रकूट की एक नदी। ५. क्षीरका- कोली। ६. दूधफेनी। दूधबिदारी। ८. जीवंती।
⋙ पयस्वी
वि० [सं० पयस्विन्] [वि० स्त्री० पयस्विनी] पानीवाला।
⋙ पयहारी
संज्ञा पुं० [सं० पयस् + अहारी] दूध पीकर रह जानेवाला तपस्वी या साधु।
⋙ पया †
संज्ञा पुं० [देश०] एक तौल करने का पात्र जो दस सेर का होता है। (बुंदेल०)।
⋙ पयाग
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाग] दे० 'प्रयाग'।
⋙ पयाद पु
क्रि० वि० [हिं०] पाँव पाँव। पैदल। बिना सवारी के। उ०—सवार एक आप ही सबै पयाद चल्लियं।—ह० रासो०, पृ० ५१।
⋙ पयादा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'प्यादा'।
⋙ पयादा (२)
वि० पैदल। प्यादा।
⋙ पयान
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाण] गमन। जाना। यात्रा। रवानगी। उ०—अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान चाहत चलन ये संदेसों लै सुजान कौ।—घनानंद०, पृ० १९। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ पयाम
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'पैगाम'। उ०—आपही अपना जो ले आया पयाम। पाक नबी की है मुकद्दम कलाम।—कबीर मं०, पृ० ४६।
⋙ पयार †
संज्ञा पुं० [सं० पलाल] दे० 'पयाल'। उ०—धान को गाँव पयार ते जानै ज्ञान विषय रस भोरे।—सूर (शब्द०)।
⋙ पयाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाताल प्रा० पयाल] दे० 'पाताल'। उ०—सब सुख सरग पयाल कै, तोल तराजू बाहि। हरि सुख एक पलक्क का, ता सम कह्या न जाइ।—संतवानी०, पृ० ७८९।
⋙ पयाल (२)
संज्ञा पुं० [सं० पलाल] धान, कोदो, आदि के सूखे डंठल जिसके दाने झाड़ लिए गए हों। पुराल। मुहा०—पयाल गाहना या झाड़ना = (१) ऐसा श्रम करना जिसका कुछ फल न हो। व्यर्थ मिहनत करना। उ०— फिरि फिरि कहा पथ गहि गाहे।—सूर (शब्द०)। (२) ऐसे की सेवा कराना या ऐसे को घेरना जिससे कुछ मिलने की आशा न हो।
⋙ पयोगड
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पयोगल'।
⋙ पयोगल
संज्ञा पु० [सं०] १. औला। २. द्वीप।
⋙ पयोग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञपात्र।
⋙ पयोघन
संज्ञा पुं० [सं०] ओला।
⋙ पयोज
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। उ०—गिरीश के सीस पयोज चढ़ै जगमोहन पावत तौ सब अंग।—श्यामा०, पृ० १२६।
⋙ पयोजन्मा
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. मोथा।
⋙ पयोत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० पौत्र] पौत्र। पोता। पुत्र का पुत्र। उ०—प्रजा पुन्य प्रगट्यौ पुहुमि छुहु दरसन की लाज। पेषत पुत्र पयोत्र मुख करौ कोटि जुग राज।—रसरतन, पृ० १२।
⋙ पयोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। यौ०—पयोदसुहृद = मयूर। मोर। २. मोता। मुस्तक। ३. एक यदुवंशी राजा।
⋙ पयोदन
संज्ञा पुं० [पयस् + औदन] दूधभात।
⋙ पयोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमार की अनुचरी, एक मातृका।
⋙ पयोदेव
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण।
⋙ पयोध पु
संज्ञा पुं० [सं० पयोधस्] दे० 'पयोधि'। उ०—परै पयोध जु अलप बुंद जल, सो कहौ को पहचाने।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३३६।
⋙ पयोधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तन। २. बादल। ३. नागरमोथा। ४. कसेरू। ५. तालाब। तड़ाग। ६. गाय का आयन। ७. नारियल। ८. मदार। अकौवा। ९. एक प्रकार की ऊख। १०. पर्वत। पहाड़। ११. कोई दुग्धवृक्ष। १२. दोहा छंद का ११ वाँ भेद। १३. समुद्र। (डिं०)। १४. छप्पय छंद का २७ वाँ भेद।
⋙ पयोधा
संज्ञा पुं० [सं० पयोधस्] १. जलाधार। २. समुद्र।
⋙ पयोधारागृह
संज्ञा पुं० [सं०] स्नानागार जिसमें नहाने कि लिये धारा मंत्र (फौवारे) लगे हों [को०]।
⋙ पयोधि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ पयोधिक
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रफेन।
⋙ पयोनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ पयोमुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पयोमुच्'।
⋙ पयोमुख
वि० [सं०] दूधपीता। दूधमुँहाँ (बच्चा)।
⋙ पयोमुच्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल। २. मोथा।
⋙ पयोर
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का पेड़।
⋙ पयोरय
संज्ञा पुं० [सं०] जल की धारा। जल का वेग [को०]।
⋙ पयोराशि
संज्ञा पुं० [सं०] जलराशि। समुद्र [को०]।
⋙ पयोलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूधबिदारी कंद।
⋙ पयोवाइ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. मोथा।
⋙ पयोव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. मत्स्यपुराण के अनुसार एक व्रत जिसमें एक दिन रात या तीन केवल जल पीकर रहना पड़ता है। २. भागवत के अनुसार कृष्ण का एक व्रत जिसमें बारह दिन दूध पीकर रहना और कृष्ण का स्मरण और पूजन करना होता है।
⋙ पयोष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विंध्याचल से निकलकर दक्षिण की ओर को बहनेवाली एक नदी।
⋙ पयोष्णीजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी।
⋙ परंच
अव्य० [सं० परञ्च] १. और भी। २. तो भी। परंतु। लेकिन।
⋙ परंज
संज्ञा पुं० [सं० परञ्ज] १. तेल पेरने का कोल्हू। २. छूरी का फल। ३. फेन। ४. शक्र का खड्ग [को०]।
⋙ परंजन
संज्ञा पुं० [सं० परञ्जन] (पश्चिम दिशा के स्वामी) वरुण।
⋙ परंजय
संज्ञा पुं० [सं० परञ्जय] १. शत्रु को जीतनेवाला। २. वरुण का एक नाम।
⋙ परंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० परञ्जा] उत्सवादि में उपकरणों की ध्वनि [को०]।
⋙ परंतप (१)
वि० [सं० परन्तप] १. शत्रुओं को ताप देनेवाला। बैरियों को दुःख देनेवाला। २. जितेंद्रिय।
⋙ परंतप (२)
संज्ञा पुं० १. चिंतामणि। २. तामस मनु के एक पुत्र।
⋙ परंतु
अव्य० [सं० परं + तु] एक शब्द जो किसी वाक्य के साथ उससे कुछ अन्यथा स्तिति सूचित करनेवाला दूसरा वाक्य कहने के पहले लाया जाता है। पर। तो भी। किंतु। लेकिन। मगर। जैसे,—(क) वह इतना कहा जाता है परंतु नहीं मानता। (ख) जी तो नहीं चाहता है परंतु जाना पड़ेगा।
⋙ परंद
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'परिंदा' [को०]।
⋙ परंदा
संज्ञा पुं० [फा० परंद (= चिड़िया)] १. चिड़िया। पक्षी। २. एक प्रकार की हवादार नाव जो काश्मीर की झीलों में चलती है।
⋙ परंद
संज्ञा पुं० [सं० परम्पद] १. वैकुंठ। २. मोक्ष। ३. उच्च स्थान (को०)।
⋙ परंपर
संज्ञा पुं० [सं० परम्पर] एक के पीछे दूसरा ऐसा क्रम। अनुक्रम। चला जाता हुआ सिलसिला। २. पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि। बेटा, पोता, परपोता आदि। वंश। संतति। ३. मृगमद। कस्तूरी।
⋙ परंपरया
क्रि० वि० [सं० परम्परया] परंपरा द्वारा परंपरा से। अनुक्रम से [को०]।
⋙ परंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० परम्परा] १. एक के पीछे दूसरा ऐसा क्रम (विशेषतः कालक्रम)। अनुक्रम। पूर्वांपर क्रम। चला आता हुआ सिलसिला। जैसे,—परंपरा से ऐसा होता आ रहा है। यौ०—वंशपरंपरा। शिष्यपरंपरा। २. वंशपरंपरा। संतति। औलाद। ३. बराबर चली आती हुई रीति। प्रथा। परिपाटी। जैसे,—हमारे यहाँ इसकी परंपरा नहीं है। ४. हिंसा। वध।
⋙ परंपराक
संज्ञा पुं० [सं० परम्पराक] यज्ञार्थ पशुहनन। यज्ञ के लिये पशुओं का बध।
⋙ परंपरागत
वि० [सं० परम्परागत] परंपरा से चला आता हुआ। जो सब दिन से होता आता हो। जिसे एक के पीछे दूसरा बराबर करता आया हो। जैसे, परंपरागत नियम।
⋙ परंपरित
वि० [सं० परम्परित] परंपरायुक्त। परंपरागत। परंपरा पर आश्रित।
⋙ परंपरित रूपक
संज्ञा पुं० [सं०] रूपक अलंकार का एक भेद जिसमें किसी का आरोप दूसरे के आरोप का कारण होता है।
⋙ परंपरीण
वि० [सं० परम्परीण] परंपरा से प्राप्त। परंपरागत [को०]।
⋙ पर (१)
वि० [सं०] १. दूसरा। अन्य। और। अपने को छोड़ शेष। स्वातिरिक्त। गैर। परलोक। उ०—पर उपदेश कुसल बहु- तेरे। जे आचरहि ते नर न धनेरे।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—परपीड़न। परोपकार। २. पराया। दूसरे का। जो अपना न हो। जैसे, पर द्रव्य, पर पुरुष, पर पीड़ा। ३. भिन्न। जुदा। अतिरिक्त। ४. पीछे का। उत्तर। बाद का। जैसे, पूर्व और पर। ५. जो सीमा के बाहर हो। यौ०—परब्रह्म। ६. आगे बढ़ा हुआ। सबके ऊपर। श्रेष्ठ। ७. प्रवृत्त। लीन। तत्पर। जैसे, स्वार्थपर (केवल समास में)।
⋙ पर (२)
प्रत्य० [सं० उपरि] सप्तमी या अधिकरण कारक का चिह्न। जैसे—(क) वह घर पर नहीं है। (ख) कुरसी पर बैठो।
⋙ पर (३)
संज्ञा पुं० [सं० पर] १. शत्रु। बैरी। दुश्मन। यौ०—परतप। २. शिव। ३. ब्रह्म। ४. ब्रह्मा। ५. मोक्ष। ६. न्याय में जाति या समान्य के दो भेदों में से एक। द्रव्य। गुण और कर्म की वृत्ति या सत्ता। ७. ब्रह्मा की आयु (को०)।
⋙ पर (४)
अव्य० [सं० परम्] १. पश्चात्। पीछे। जैसे,—इसपर वे उठकर चले गए। ४. एक शब्द जो किसी वाक्य के साथ उससे अन्यथा स्थिति सूचित करनेवाला वाक्य के कहने के पहले लाया जाता है। परंतु। किंतु। लेकिन। तो भी। जैसे,—(क) मैने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं मानता। (ख) तबीयत तो नहीं अच्छी है पर जायँगे।
⋙ पर (५)
संज्ञा पुं० [फा०] चिड़ियों का डैना और उसपर के धुए या रोएँ। पंख। पक्ष। मुहा०—पर कट जाना =/?/या बल का आधार न रह जाना। अशक्त हो जाना। कुछ करने धरने लायक न रह जाना। पर काट देना = अशक्त कर देना। कुछ करने धरने लायक न रखना। पर कैंच करना = पंख कतरना। (कबुतरबाज)। पर जमना = (१) पर निकलना। (२) जो पहले सीधा सादा रहा हो उसे शरारत सूझना। धूर्तता, चालाकी, दुष्टता आदि पहले पहल आना। (कहीं जाते हुए) पर जलना = (१) हिम्मत न होना। साहस न होना। (२) गति न होना। पहुँच न होना। जैसे,—वहाँ जाते बड़े बड़ों के पर जलते हैं, तुम्हारी क्या गिनती है? पर झाड़ना = (१) पुराने परों का गिराना। (२) पख फटफटाना। डैनों को हिलाना। पर टूटना = दे० 'पर जलना'। पर टूट जाना = दे० 'पर कट जाना'। पर न मारना = पैर न रख सकना। जा न सकना। फटक न सकना। चिड़िया पर नहीं मार सकती = कोई जा नहीं सकता। किसी की पहुँच नहीं हो सकती। पर निकालना = (१) पंखों से युक्त होना। उड़ने योग्य होना। (२) बढ़कर चलना। इतराना। अपने को कुछ प्रकट करना। पर और बाल निकलना = (१) सीधा सादा न रहना। बहुत सी बातों को समझने बूझने लगना। कुछ कुछ चालाक होना। (२) उपद्रव करना। ऊधम मचाना। पर बाँध देना = उड़ने की शक्ति न रहने देना। बेबस कर देना।
⋙ परई †
संज्ञा स्त्री० [सं० पार (= कटोरा, प्याला)] दीए के आकार का पर उससे बड़ा एक मिट्टी का बरतन। पारा। सराव।
⋙ परकट †
वि० [सं० प्रकट] दे० 'प्रकट'। उ०—अपनथँ धन हे धनिक धर गोए। परक रतन परकट कर कोए।—विद्यापति, पृ० १४४।
⋙ परकटा
वि० [फा० पर + हिं० कटना] जिसके पर या पंख कटे हों। जैसे, परकटा कबूतर।
⋙ परकना पु †
क्रि० अ० [हिं० परचना] १. परचना। हिलना। मिलना। २. जो बात दो एक बार अपने अनुकूल हो गई हो या जिस बात को कई बार बे रोकटोक कर पाए हों उसकी ओर प्रवृत्त होना। धड़क खुलना। अभ्यास पड़ना। चसका लगना। उ०—माखन चोरी सों अरी परकि रह्यो नँदलाल। चोरन लाग्यो अब लखौ नेहिन को मनमाल।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ परकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु की संपत्ति आदि लूटना।
⋙ परकलत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अन्य व्यक्ति की स्त्री। दूसरे की़ पत्नी [को०]।
⋙ परकसना पु
क्रि० अ० [हिं० परकासना] १. प्रकाशित होना। जगमगाना। २. प्रकट होना।
⋙ परकाज
संज्ञा पुं० [हिं० पर + काजी (= काम करनेवाला)] दूसरे का काम। परकारज।
⋙ परकाजी
वि० [हिं० पर + काज] दूसरो का कार्यसाधन करनेवाला। परोपकारी।
⋙ परकान
संज्ञा पुं० [हिं० पर + कान] तोप का कान या मूठ। तोपका वह स्थान जहाँ रंजक रखी जाती है या बत्ती दी जाती है। (लश०)।
⋙ परकाना †
क्रि० स० [हिं० परकना] १. परचाना। हिलाना। मिलाना। २. (किसी को) कोई लाभ पहुँचाकर या कोई बात बेरोकटोक करने देकर उसकी ओर प्रवृत्त करना। धड़क खोलना। अभ्यास डालना। चसका लगाना।
⋙ परकाय
संज्ञा पुं० [सं०] अन्य का शरीर। दूसरे का शरीर [को०]।
⋙ परकायप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी आत्मा को दूसरे के शरीर में डालने की क्रिया, जो योग की एक सिद्धि समझी जाती है।
⋙ परकार (१)
संज्ञा पुं० [फा०] वृत्त या गोलाई खींचने का औजार जो पिछले सिरों पर परस्पर जुड़ी हुई दो शालकाओ के रूप का होता है।
⋙ परकार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रकार] दे० 'प्रकार'। उ०—(क) अपना बचन नहीं परकार जे अगिरिअ से देलहि नितार। विद्यापति, पृ० २०९। (ख) चपरि चखनि तेजो जल आवै। इहिं परकारि तिया जु जनावै।—नंद० ग्रं०, पृ०१५१।
⋙ परकारना †
क्रि० स० [हिं० परकार + ना (प्रत्य०)] १. परकार से वृत्त आदि बनाना। २. चारो ओर फेरना। आवेष्ठित करना। उ०—दसहूँ दिसति गई परकारी। देख्यौ समै भयानक भारी।—छत्रप्रकाश (शब्द०)।
⋙ परकाल
संज्ञा पुं० [फा० परकार] दे० 'परकार।
⋙ परकाला (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्राकार या प्रकोष्ठ] १. सीढ़ी। जीना। २. चौखट। देहली। दहलीज।
⋙ परकाला (२)
संज्ञा पु० [फा० परगालह्] १. टुकड़ा। खंड। उ०— सुंदर जीव दया करै न्यौता मानै नाहिं। माया छुवै न हाथ सौं परकाला ले जाहिं।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३५। २. शीशे का टुकड़ा। ३. चिनगारी। अग्निकरण। मुहा०—आफत का परकाला = गजब करनेवाला। अदभुत शक्तिवाला। प्रचंड या भयंकर मनुष्य।
⋙ परकास पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रकाश] दे० 'प्रकाश'। उ०—गुर आए घन गरज कर शब्द किया परकास। बीज पड़ा था भूमि में अब भई फूल आस।—दरिया० बानी, पृ० १।
⋙ परकासक पु
वि० [सं० प्रकाशक] दे० 'प्रकाशक'। उ०—अस अध्यातम दीप जु कोई। बुध्यादिक परकासक सोई।—नंद० ग्रं०, पृ० २२९।
⋙ परकासना पु
क्रि० स० [सं० प्रकाशन] १. प्रकाशित करना। उ०—जो कछु ब्रह्म ब्रह्म सुख आहि। विदुषनि कौं परकासत ताहि।—नंद० ग्रं०, पृ० २६०। २. प्रकट करना।
⋙ परकासिक पु
वि० [सं० प्रकाशक] दे० 'प्रकाशक'। उ०—सबन के नैना प्रान परकासिक ताके ढिग, रच्यों चखोड़ा छाजै, छबि कही न जाई।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४०।
⋙ परकिति पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रकृति] दे० 'प्रकृति'।
⋙ परकिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परकीया] दे० 'परकीया'। उ०— दीपग फीके फूल ऐलाने। परकिय तियनि के हिय
⋙ अकुलाने।—नंद० ग्रं०, पृ० १४२।
⋙ परकिया
संज्ञा स्त्री० [सं० परकीय] दे० 'परकीया'। उ०—निधरक भई कहति इमि लहिये। सा परकिया लच्छिता कहिए।—नंद० ग्रं०, पृ० १४९।
⋙ परकीय
वि० [सं०] पराया। दूसरे का। बेगाना।
⋙ परकीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति के अतिरिक्त परपुरुष की प्रेमपात्रा या पर पुरुष से प्रीति संबंधरखनेवाली स्त्री। नायिकाओं के दो प्रधान भेदों में से एक। विशेष—परकीया दो प्रकार की कही गई हैं। अनूढ़ा (अविवा- हित) और ऊढा (विवाहित)। स्वेच्छापूर्वक परपुरुष से प्रेम करनेवाली परकीया को 'उदुबुद्धा' और परपुरुष की चतुराई या प्रयत्न से उसके प्रेम में फँसनेवाली को 'उद्बो- धिता' कहते हैं। परकीया के छह और भेद किए गए हैं— गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता, कुलटा, अनुशयाना और मुदिता। (इनके विवरण प्रत्येक शब्द के अंतर्गत देखो।)
⋙ परकीरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रकृति] दे० 'प्रकृति'।
⋙ परकीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूसरे का यश। उ०—हमारा उच्चपद। का आदरणीय स्वभाव उस परकीर्ति को सहन न कर सका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २६८।
⋙ परकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूसरे की कृति। दूसरे का किया हुआ काम। २. दूसरे की कृति का वर्णन। ३. कर्मकांड में दो परस्पर विरुद्ध वाक्यों की स्थिति।
⋙ परकाटा
संज्ञा पुं० [सं० परिकोट] १. किसी गढ़ या स्थान की रक्षा के लिये चारों ओर उठाई दुई दीवार। बचाव या सुरक्षा के लिये मिट्टी या पत्थर आदि की दीवार। ५. पानी आदि की रोक के लिये खड़ा किया हुआ धुस। बाँध। चह।
⋙ परक्खना पु
क्रि० स० [हिं० परखना] दे० 'परखना'। उ०— गुणी परक्खवा गया उचार बाँण ओपमा। प्रलै क ज्वाल पस्सरै, अनंत जीभ आतरै।—रा० रू०, पृ० ८४।
⋙ परक्रमण
संज्ञा पुं० [सं० परिक्रमण] परिक्रमा। प्रदक्षिणा। उ०—परक्रमण तिण दे पग परसे, जस यम जीह अपार जपे।—रघु० रू०, पृ० १४१।
⋙ परक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराया खेत। २. दूसरे का शरीर। ३. पराई स्त्री। दूसरे की भार्या।
⋙ परख
संज्ञा स्त्री० [सं० परीक्षा, प्रा० परिक्ख] १. गुणदोष स्थिर करने के लिये अच्छी तरह देखभाल। जाँच। परीक्षा। जैसे,— अभी उस सोने की परख हो रही है। २. गुणदोष का ठीक ठीक पता लगानेवाली द्दष्टि। गुणदोष का विवेचन करनेवाली अंतःकरण वृत्ति। कोई वस्तु भली है या बुरी यह जान लेने की शक्ति। पहचान। जैसे,—(क) तुम्हें सोने की परख नहीं है। (ख) उसे आदमी की परख नहीं है। क्रि० प्र०—होना।
⋙ परखचा
संज्ञा पुं० [हिं०] खंड। टुकड़ा। विभाग। जैसे, परखचे उड़ाना = धज्जियाँ उड़ाना।
⋙ परखना (१)
क्रि० स० [स० परीक्षण, प्रा० परीक्खण] १. गुणदीष स्थिर करने के लिये अच्छी तरह देखना भालना। परीक्षा करना। जाँच करना। जैसे, रत्न परखना, सोना, परखना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. अच्छी तरह देख भालकर गुणदोष का पता लगाना। भला और बुरा पहचानना। कोन वस्तु कैसी है यह ताड़ना। जैसे,—मैं देखते ही परख लेता हूँ कि कौन कैसा है।
⋙ परखना (२)
क्रि० स० [सं० पर + इक्षण, हिं० परेखना] प्रतीक्षा करना। इंतजार करना। आसरा देखना।
⋙ परखवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'परखाना'।
⋙ परखवैया
संज्ञा पुं० [हिं० परख + वैया (प्रत्य०)] परखनेवाला। जाँचनेवाला। पहचाननेवाला।
⋙ परखाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० परख + आई (प्रत्य०)] १. परखने का काम। २. परखने की मजदूरी।
⋙ परखाना, परखावना पु
क्रि० स० [हिं० परखना का प्रे० रूप] परखने का काम दूसरे से कराना। परीक्षा कराना। जँचवाना। उ०—कहि ठाकुर औगुन छोड़ि सबै परवीनन कै परखावने हैं।—ठाकुर०, पृ० २५। २. कोई वस्तु देते या सौंपते समय उसे गिनकर या उलट पलटकर दिखा देना। सहेजवाना। सँभलवाना।
⋙ परखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० परख + ई (प्रत्यय०)] लोहे का बना हुआ नालीदार और नुकीला एक उपकरण जिससे बंद बोरों में से गेहुँ, चावल आदि परखने के लिये निकाला जाता है।
⋙ परखुरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पखड़ी'।
⋙ परखैया
संज्ञा पुं० [हिं० परख + ऐया (प्रत्य०)] परखनेवाला। उ०— बिन परखैया चतुरजौहरी किसको इते दिखाऊँ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १८९।
⋙ परग
संज्ञा पुं० [सं० पदक] पग। डग। कदम। उ०—तीनि परग तीनो पुर भयऊ।—कबीर सा०, वृ० ४०८।
⋙ परगट †
वि० [सं० प्रकट] दे० 'प्रगट'।
⋙ परगटना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० परगट] प्रगट होना। खुलना। जाहिर होना।
⋙ परगटना (२)
क्रि० स० प्रकट करना। जाहिर करना।
⋙ परगन्
संज्ञा पुं० [फा़० परगनह्] दे० 'परगना'। उ०—ब्रज परगन सरदार महरि तू ताकी करत नन्हाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ परगना
संज्ञा पुं० [फा़०। मि० सं० परिगण(= धर)] एक भू- भाग जिसके अंतर्गत बहुत से ग्राम हों। जमीन का वह हिस्सा जिसमें कई गाँब हों। विशेष—आजकल एक तहसील के अंतर्गत कई परगने होते हैं। बड़े परगते कई टप्पों में बँटे होते हैं। यौ०—परगनाधिश। परगनाइकिम = परगनेकी देखभाल करनेवाला प्रधान अधिकारी। परगनेदार = परगने का अधिकारी।
⋙ परगनी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रग्रहण] दे० 'परगहनी'।
⋙ परगसना पु
क्रि० अ० [सं० प्रकाशन] प्रकाशित होना। प्रकट होना।
⋙ परगइ
संज्ञा पुं० [सं० परिग्रह] दे० 'परिगह'। उ०—परगह सह परवार अरी सहमार उडाणू।—रघु० रू०, पृ० ४८।
⋙ परगहनी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रग्रहण] नली के आकार का सुनारों का एक औजार जिसमें करछी की सी डाँड़ी लगी होती है। इस नली में तेल देकर उसमें चाँदी या सोने की गुल्लियाँ ढालते है। परगनी।
⋙ परगाछा
संज्ञा पुं० [हिं० पर (= दूसरा) + गाछ (= पेड़)] एक प्रकार के पौधे जो प्रायः गरम देशों में दूसरे पेड़ों पर उगते हैं। विशेष—इनकी पत्तियाँ लंबी और खड़ी नसों की होती हैं। फूल सुंदर तथा अद्भूत वर्ण और आकृति के होते हैं। एक ही फूल में गर्भकोश और परागकेसर दोनों होते हैं। परगाछे की जाति के बहुत से पौधे जमीन पर भी होते हैं और फूलों की सुंदरता के लिये बगीचों में प्रायः लगाए जाते है। ऐसे पौधे दूसरे पेड़ों की डालियों आदि पर उगते अवश्य हैं, पर सब परपुष्ट (दूसरे पेड़ों के रस धातु से पलनेवाले) नहीं होते। परगाछे की कोई टहनी या गाँठ भी बीज का काम देती है, उससे भी नया पौधा अंकुर फोड़कर (गन्ने की तरह) निकल आता है। परगाछे को संस्कृत में बंदाक और हिंदी में बाँदा भी कहते हैं।
⋙ परगाछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० परगाछा] अमरबेल। आकाशबौंर।
⋙ परगाढ़ पु
वि० [सं० प्रगाढ़] दे० 'प्रगाढ़'।
⋙ परगामी
वि० [सं० परगामिन्] [वि० स्त्री० परगामिनी] १. अन्य के साथ गमन करनेवाला। २. दूसरे के लिये हितकर [को०]।
⋙ परगास पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रकाश] दे० 'प्रकाश'। उ०—भला है अस्थान अम्मर, जोति है परगास।—जग० बानी, पृ० ४।
⋙ परगासना ‡
क्रि० अ० [सं० प्रकाशन] प्रकाशित होना।
⋙ परगासना (२)
क्रि० स० प्रकाशित करना।
⋙ परगुण
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे के लिये हित (को०)।
⋙ परघट पु †
वि० [हिं० परगट, प्रगट] दे० 'प्रगट', 'प्रकट'। उ०— दरिया परघट नाम बिन, कहो कौन आयो देख।—दरिया० बानी, पृ० ७।
⋙ परघनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० परगनी] दे० 'परगहनी'।
⋙ परचंड पु
वि० [सं० प्रचण्ड़] दे० 'प्रचंड'।
⋙ परचई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'परचै'।
⋙ परचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु की सेना। २. शत्रु का राज्य और वर्ग। ३. शत्रु द्बारा चढ़ाई (को०)।
⋙ परचत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचित] जान पहचान। जानकारी। उ०—कब लगि फिरिहै दीन भयो। सुरत सरित भ्रम भँवर परयौ तन मन परचत न लह्यो।—सूर (शब्द०)।
⋙ परचना
क्रि० अ० [सं० परिचयन] १. किसी को इतना अधिक जानबूझ लेना कि उससे व्यवहार करने में कोई संकीच या खटका न रहे। हिलना मिलना। घनिष्टता प्राप्त करना।जैसे,—(क) बच्चा जब परच जायगा तब तुम्हारे पास रहने लगेगा। (ख) परच जाने पर यह तुम्हारे साथ साथ फिरेगा। २. जो बात दो एक बार अपने अनुकूल हो गई हो या जिस बात के दो एक बार बे रोकटोक मनमाना। करने पाए हों उसकी ओर प्रवृत्त रहना। चसका लगना। धड़क खुलना। टेव पड़ना। जैसे,—इसे कुछ न दो, परच जायगा तो नित्य आया करेगा। संयो० क्रि०—जाना। ३. व्यक्त होना। प्रगट होना। पहचाने जाना।
⋙ परचर
संज्ञा पुं० [देश०] बैलों की एक जाति, जो अवध के खीरी जिले के आसपास पाई जाती है।
⋙ परचा (१)
संज्ञा पुं० [फा़० परचह्] १. कागज का टुकड़ा। चिट। कागज। पत्र। २. पुरजा। खत। रुक्का। चिट्ठी। ३. परीक्षा में आनेवाला प्रश्नपत्र। जैसे,—इम्तहान में हिसाब का परचा बिगड़ गया।
⋙ परचा (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिचय] १. परिचय। जानकारी। उ०— कहा हाल तेरो दास का निस दिन दुख मैं जोय। पिव सेती परचो नहीं बिरह सतावै मोय।—दरिया० बानी, पृ० ९३। मुहा०—परचा देना = ऐसा लक्षण या चिह्न बताना जिससे लोग जान जायँ। नाम ग्राम बताना। २. परख। परीक्षा। जाँच। ३. प्रमाण। सबूत। मुहा०—परचा माँगना। (१) प्रमाण या सबूत देने के लिये कहना। (२) किसी देवी देवता से अपनी शक्ति दिखाने को कहना। (ओझा)।
⋙ परचा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] जगन्नाथ जी के मंदिर का बह प्रधान पुजारी जो मंदिर की आमदनी और खर्च का प्रबंध करता और पूजासेवा आदि की देखरेख रखता है।
⋙ परचाधारी
वि० [सं० प्रत्ययधारिन्] प्रधान। श्रेष्ठ। परचावालें। उ०—नारयण दास जी तपस्वी और परचाधारी महात्मा थे।—सुंदर ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ७४।
⋙ परचाना
क्रि० स० [हिं० परचना] किसी से इतना अधिक लगाव पैदा करना कि उससे व्यवहार करने में कोई संकोच या खटका न रहे। हिलाना। मिलाना। आकर्षित करना। जैसे, बच्चे को परचाना, कृत्ता परचाना। संयो० क्रि०—लेना। २. दो एक बार किसी के अनुकूल कोई बात करके या होने देकर उसको इस बात की ओर प्रवृत्त करना। धड़क खोलना। चसका लगाना। टेव डालना। जैसे,—इन्हें कुछ देकर पर- चाओ मत, नहीं तो बराबर तंग करते रहेंगे। संयो० क्रि०—देना।
⋙ परचाना पु (२)
क्रि० स० [सं० प्रज्वलन] प्रज्वलित करना। जलाना। उ०—चिनगि जोति करसी ते भागै। परम तंतु परचावै लागै।—जायसी (शब्द०)।
⋙ परचार पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रचार] दे० 'प्रचार'।
⋙ परचारगी
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचर्या, हिं० परिचार, परचार + गा (प्रत्य०)] सेवा। परिचर्या। उ०—सो श्री गुसाँई जी की परचारणी और टहल करती।—दो सौ बावन०, भा० १. पृ० ३१५।
⋙ परचारना पु
क्रि० स० [सं० प्रचार] दे० 'प्रचारना'। उ०—कपि बलु देखि सकल हिय हारे। उठा आपु कपि के परचारे।— मानस, ६।३४।
⋙ परचित्तपर्यायज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] अपने चित्त में दूसरे के चित्त का भाव जानना (बौद्ध)।
⋙ परची
संज्ञा स्त्री० [हिं० परचा] दे० 'परचा'।
⋙ परचून
संज्ञा पुं० [सं० पर (= अन्य, और) + चूर्ण(= आटा)] आटा, चावल, दाल, नमक, मसाला आदि भोजन का फुटकर सामान। जैसे, परचून की दुकान। उ०— नौनीले पन्ने दस दून। चारि गाँठि चूनी परचून।—अर्ध०, पृ० २७।
⋙ परचूनी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० परचून] परचूनवाला। आटा, दाल, नमक, आदि बेचनेवाला बनिया। मोदी।
⋙ परचूनी (२)
संज्ञा स्त्री० परचून या परचूनी की काम या भाव।
⋙ परचे पु
संज्ञा पुं० [सं० परिचय] दे० 'परिचय'।
⋙ परचै
संज्ञा पुं० [सं० परिचय] दे० 'परिचय', 'परचा'। उ०—परचै चक्र काया में सोई। जो ऊगै तौ सब सुख होई।—कबीर सा०, पृ० ८७९।
⋙ परचो †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'परिचय'।
⋙ परच्छंद
वि० [सं० परच्छन्द] पराधीन।
⋙ परच्छदानुवर्ती
वि० [सं० परच्छन्दानुवर्तिन्] परतंत्र। अस्वाधीन। पराधीन [को०]।
⋙ परछत्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० परि (= अधिक, ऊपर) + छत (= पटाव)] १. घर या कोठरी के भीतर दीवार से लगाकर कुछ दूर तक बनाई हुई पाटन जिसपर सामान रखते हैं। टाँड़। पाटा। २. हलका छप्पर जो दीवारों पर रख दिया जाता है। फूस आदि की छाजन।
⋙ परछन
संज्ञा स्त्री० [सं० परि + अर्चन] विवाह की एक रीति जिसमें बारात द्बार पर आने पर कन्या पक्ष की स्त्रियाँ वर के पास जाती हैं और उसे दही, अक्षत का टीका लगाती, उसकी आरती करती तथा उसके ऊपर से मूसल, बट्टा आदि धुमाती हैं।
⋙ परछना
क्रि० स० [हिं० परछन] द्बार पर बारात लगने पर कन्या पक्ष की स्त्रियों का वर की आरती आदि करना परछन करना। उ०—निगम नीति कुछ रीति करि अरघ पाँवड़े देत। बधुन सहित सुत परछि सब चली लिवाइ निकेत।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ परछहियाँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रातिच्छाया] छाया। परछाई। उ०— खेलत ललित खेल बन महियाँ। चलत चहन लागे परछहियाँ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७५।
⋙ परछाँइ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'परछाँई' उ०—सखियन में अति हिंदु विसाखा जनु तन की परछाँइ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९०।
⋙ परछा (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्राणिच्छद] १. वह कपड़ा जिससे तेली कोल्हू के बैल की आँखों में अँधोटी बाँधते हैं। २. जुलाहों की नली जिसपर वे सूत लपेटते हैं। सूत की फिरकी। घिरनी।
⋙ परछा (२)
संज्ञा पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० परछी] १. बड़ी बटलोई। बड़ा देग। २. कड़ाई। कढा़ई। ३. मिट्टी का मझोला बरतन।
⋙ परछा (३)
संज्ञा पुं० [सं० परिच्छेद] बहुत सी वस्तुओँ के घने समूह में से कुछ के निकल जाने से पड़ा हुआ अवकाश। विरलता। छीड़। २. घनेपन या भीड़ की कमी। भीड़ का छटाव। क्रि० प्र०—करना।—होना। ३. समाप्ति। निबटेरा। चुकाव। फैसला। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ परछाई
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रातिच्छाया] १. प्रकाश के मार्ग में पड़नेवाले किसी पिंड का आकार जो प्रकाश से भिन्न दिशा की ओर छाया या अंधकार के रूप में पड़ता है। किसी वस्तु की आकृति के अनुरूप छाया जो प्रकाश के अवरोध के कारण पड़ती है। छायाकृति। जैसे,—लड़का दीवार पर अपनी परछाई देखकर डर गया। क्रि० प्र०—पड़ना। मुहा०—परछाई से डरना या भागाना = (१) बहुत डरना। अत्यंत भयभीत होना। (२) पास तक आने से डरना। (३) दूर रहने की इच्छा करना। कोई लगाव रखना न चाहना (घृणा या आशंका से)। २. जल, दर्पण आदि पर पड़ा हुआ किसी पदार्थ का पूरा प्रति- रूप। प्रतिबिंब। अक्स। क्रि० प्र०—पड़ना।
⋙ परछालना पु
क्रि० सं० [सं० प्रक्षालन] जल से धोना। पखारना।
⋙ परछाहीं पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'परछाई'। उ०—उन्होंने कृष्ण के ह्लदय में अपनी परछाहीं देखकर यह समझ लिया कि इनके ह्वदय में कोई दूसरी गोपी बसती है।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ११२।
⋙ परछे †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'परचे', 'परचै'। उ०—दरिया परछे नाम के, दूजा दिया न जाय।—दरिया० बानी, पृ० ३९।
⋙ परजंक
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क] उ०—उतरत कहुँ परजंक तै पग द्वै धरत संसक। कुम्हलान्यौं अति ही परत आतप बदन मयंक।—स० सप्तक, पृ० ३५४।
⋙ परजंत पु
अव्य० [सं० पर्यन्त] १. पर्यंत। तक। उ०—ब्रह्मलोक परजंत फिरयौ तहँ देव मुनीजन साखी।—सूर०, १।१०।
⋙ परज (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पराजिका] एक रागिनी जो गांधार, धनाश्री और मारू के मेल से बनी हुई मानी जाती है। इसके गाने का समय रात ११ दंड से १५ दंड तक है। स्वर इसमें ऋषभ और धैवत कोमल, तथा मध्यम तीव्र लगता है। यह हिंदोल राग की सहचरी मानी जाती है।
⋙ परज (२)
वि० [सं०] परजात। दूसरे से उत्पन्न।
⋙ परज (२)
संज्ञा पुं० कोकिल।
⋙ परजन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिजन] दे० 'परिजन'। उ०—पाग मिरजई पहिनि, टेकि मसनद परजन पर।—प्रेमधन० भा० १, पृ० १४।
⋙ परजन (२)
संज्ञा पुं० [देश०] डेढ़ दो हाथ ऊँचा एक प्रकार का पौधा जो राजपूताने, पंजाब और अफगानिस्तान की जोती बोई हुई भूमि में प्रायः पाया जाता है। इसमें पीले रंग के बहुत छोटे छोटे फूल लगते है।
⋙ परजन (३)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वजन का उलटा। जो आत्मीय न हो।
⋙ परजरना पु
क्रि० अ० [सं० प्रज्वलन] १. जलना। दहकना। सुलगना। २. क्रुद्ध होना। कुढ़ना। उ०—सुनत वचन रावन परजरा। जरत महानल जनु बृत परा।—तुलसी (शब्द०)। ३. ईर्ष्या द्वेष से संतप्त होना। डाह करना।
⋙ परजन्य पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्जन्य़] दे० 'पर्जन्य'। उ०—पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य जथारथ ह्वँ दरसौ।— घनानंद, पृ०।
⋙ परजवट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परजौट'।
⋙ परजस्तापहनुति
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यस्तापड़ुति] दे० पर्यस्तापह्वुति'। उ०—धर्म और में राखिए धर्मी साँचु छपाय। परजस्ताप- ह्नुति कहत ताहि बुद्धि सरसाय।—मति० ग्रं०, पृ० ३८०।
⋙ परजा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रजा] १. प्रजा। रैयत। २. आश्रित जन। काम धंधा करनेवाला। जैसे, नाई, बारी, धोबी, इत्यादि। ३. जमींदार की जमीन पर बसनेवाला या खेती आदि करनेवाला। असामी।
⋙ परजात (१)
वि० [सं०] दूसरे से उत्पन्न। परज।
⋙ परजात (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोकिल। कोयल। २. दूसरी जाति का मनुष्य। दूसरी बिरादरी का आदमी। जैसे,—परजात को न्योता देने का क्या काम ?
⋙ परजाता
संज्ञा पुं० [सं० परिजात] मझोले आकार का एक पेड़ जो भारतवर्ष में प्राथः सर्वत्र होता है। हरसिंगार। विशेष—इसकी पत्तियाँ पाँच छह अँगुल लंबी और चार अंगुल चौड़ी होती हैं। ये आगे की ओर बहुत नुकीली होती हैं और इनके किनारे नीम की पत्ती के किनारों की तरह कुछ कुछ कटावदार होते हैं। यह पेड़ फूलों के लिये लगाया जाता है जो गुच्छों में लगते हैं। फूलों छोटे छोटे और डाँडी़दार होते हैं। डाँड़ी का रंग लाल या नारंगी और दलों का रंग सफेद होता है। सूखी हूई डाँड़ियों को उबालकर पीला रंग निकाला जाता है। परजाता शरद ऋतु में फूलता है। फूल बराबर झड़ते रहते हैं, पेड़ में कम ठहरते हैं। पत्तियाँ दवा के काम आती हैं और बहुत गरम होती हैं। ज्वर में प्रायः लोग परजाते की पत्ती देते हैं। इसे हरसिंगार भी कहते हैं।
⋙ परजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूसरी जाति।
⋙ परजापति, परजापति †
संज्ञा पुं० [सं० प्रजापति] १. राजा। नृपति। २. कुंभकार। उ०—गुरु ज्ञाता परजापती सेवक माँटी रूप। रज्जब रस सूँ फेरि करि घड़िले कुंभ अनूप।— रज्जब०, पृ० १९।
⋙ परजाय पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्याय] दे० 'पर्याय'।
⋙ परजौट
संज्ञा पुं० [हिं० परजा + औट या औत (प्रत्य०)] १. घर बनाने के लिये सालाना किराए पर जमीन लेने देने का नियम। जैसे,—यह जमीन मैंने परजौट पर ली है। २. वह सालाना कर जो मकान बनाने के लिये ली हुई जमीन पर लगे
⋙ परठना पु ‡
क्रि० अ० [सं० प्र + स्थापन] बनना। निर्मित होना। स्थापित होना। उ०—साल्ह चलंतइ परठिया आँगन वीखड़ियाँह। मो मई हियइ लगाडियाँ, भरि भरि मूठड़ि- याँह।—ढोला० दू० ३६६।
⋙ परणना पु †
क्रि० स० [सं० परिणय] ब्याहना। विवाह करना। परिणय करना। उ०—परण पधारे राम जीत दुजराजनै। तुरत करीजे त्यार साँमिलो साजनै।—रघु० रू०, पृ० ९३।
⋙ परणाना पु †
क्रि० स० [सं० परिणय] विवाह कराना। ब्याह कराना। उ०—बारइ बहतई आपणइ, कुँवर परणावौ, सोझउ वींद।—वी० रासो, पृ० ६।
⋙ परतंगण
संज्ञा पुं० [सं० परतङ्गण] महाभारत में वर्णित एक देश का प्राचीन नाम।
⋙ परतंगी पु
वि० [सं० प्रतिज्ञा] प्रतिज्ञावाला। उ०—कहा कहौं हरि केतिक तारे, पावन पद परतंगी।—सूर०, १।२१।
⋙ परतंचा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यञ्चा] दे० 'प्रत्यंचा'। उ०—इसका दुबाला शरीर काम की परतंचा उतारी हुई कमान है।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३८१।
⋙ परतंतर पु
वि० [सं० परतन्त्र] पराधीन। परतंत्र। उ०— औरु सबै दुख भरे सरे अंतर ही अंतर। कालकूट से करे परे छिन छिन परतंतर।—नंद० ग्रं०, पृ० २०५।
⋙ परतंत्र (१)
वि० [सं० परतन्त्र] पराधीन। परवश।
⋙ परतंत्र (२)
संज्ञा पुं० १. उत्तम शास्त्र। २. उत्तम वस्त्र।
⋙ परतंत्र द्वैधीभाव
संज्ञा पुं० [सं० परतन्त्र द्वैधीभाव] कामंदक के अनुसार दो प्रबल और परस्पर विरोधी राज्यों के बीच में रहकर और किसी एक राज्य से कुछ धन या वार्षिक वृत्ति पाकर दोनों में मेल बनाए रखना जैसे, युरोपीय महायुद्ध के पहले अफगानिस्तान की स्थिति परतंत्र द्वैधीभाव की थी, पर युद्ध के पीछे अब स्वतंत्र द्वैध भाव की स्थिति है।
⋙ परतः
अव्य० [सं० परतस्] १. दूसरे से। अन्य से। २. पर से। शत्रु से। पश्चात्। पीछे। ४. परे। आगे।
⋙ परतःप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] जो स्वतःप्रमाण न हो। जिसे दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा हो। जो दूसरे प्रमाणों के अनूकूल होने पर ही सबूत में कहा जा सके।
⋙ परत
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र, हिं० पत्तर वा सं० पटल] १. मोटाई का फैलाव जो किसी सतह के ऊपर हो। स्तर। तह। जैसे,— इसपर गीली मिट्टी की एक परत चढा़ दो। उ०—बालू की परत पर परत जमने से ये चट्टानें बनी हैं।—शिवप्रसाद (शब्द०)। २. लपेटी जा सकनेवाली फैलाद की वस्तुओं (जैसे, कागज, कपड़ा, चमडा़, इत्यादि) का इस प्रकार का मोड़ जिससे उनके भिन्न भिन्न भाग ऊपर नीचे हो जायँ। तह। जैसे,—इस कपड़े को परत लगाकर रख दो। क्रि० प्र०—लगाना। ३. कपड़े, कागज आदि के भिन्न भिन्न भाग जो जोड़ने से नीचे ऊपर हो गए हों। तह।
⋙ परतक †
क्रि० वि० [सं० प्रत्यक्ष, हिं० परतच्छ, परतछ, परतख] सामने। प्रत्यक्ष। समक्ष। उ०—चाँपे परतक कटक चलाया, ऊपरि खान तणै फिर आया।—रा० रू०, पृ० २८९।
⋙ परतख
क्रि० वि० [सं० प्रत्यक्ष] प्रत्यक्ष। रूबरू। उ०—जिम सुपनंतर पामियउ तिम परतख पामेसि। सज्जन मोती हार ज्यूँ कंठा ग्रहण करेसि।—ढोला०, दू०, ५१३।
⋙ परतच्छ पु
वि० [सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—अनूमान साछी रहित होत नहीं परमान। कह तुलसी परतच्छ जो सो कहु अमर को आन।—स० सप्तक, पृ० ४०।
⋙ परतछ
वि० [सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—ताके आगे कहा मिसिर का अरबी को बल। इन सो सपनहुँ बैर किए पाए परतछ फल।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८०९।
⋙ परतछि पु
क्रि० वि० [सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—पर- तछि आनि कै उषा मिलाई।—नंद ग्रं०, पृ० १२८।
⋙ परतल
संज्ञा पुं० [सं० पट (= वस्त्र) + तल (=नीचे)] लादनेवाले घोड़े की पीठ पर रखने का बोरा या गून। यौ०—परतल का ट्टटू = लद्दू घोडा़।
⋙ परतला
संज्ञा पुं० [सं० परितन(= चारों और खींचा हुआ)] चमड़े या मोटे कपड़े की चौ़ड़ी पट्टी जो कंधे से लेकर कमर तक छाती और पीठ पर से तिरछी होती हुई आती है और जिसमें तलवार लटकाई जाती है तथा कारतूस आदि रखे जाते हैं। उ०—दूजे पैसावरी परतला परि मन मोहत।— प्रेमधन०, भा० १, पृ० १३।
⋙ परतली,परतल्ली
संज्ञा स्त्री० [हिं० परतल] दे० 'परतला'। उ०— कारतूसों की परतल्ली उनके कंधों पर थी।—इंद्र०, पृ० २३।
⋙ परतष †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—औ दरपन चित्रावलि केरा। परतष देख कुँअर जेहि हेरा।—चित्रा०, पृ० ११०।
⋙ परता
संज्ञा पुं० [हिं० परना] दे० 'पड़ता'।
⋙ परताजना
संज्ञा पुं० [देश०] सोनारों का एक औजार जिससे वे गहनों पर मछली के सेहरे का आकार बनाते हैं।
⋙ परताप पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रताप] दे० 'प्रताप'। उ०—सुवा असीस दीन्ह बड़ साजू। बड़ परताप अखंडित राजू।—जायसी ग्रं०, पृ० ३२।
⋙ परताल
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पड़ताल'।
⋙ परतिंचा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यञ्चा] दे० 'पतंचिका'।
⋙ परतिग्या
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] दे० 'प्रतिज्ञा'। उ०—तुम संतत पालहु मम नेहू। आज मोर परतिग्या लेहू।
⋙ परतिच्छ पु
वि० [सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—काम कहें सुनु सुंदरी दरसन तीन प्रकार। स्वप्न चित्र परतिच्छ प्रिय प्रगट प्रेम विस्तार।—रसरतन, पृ० ३०।
⋙ परतिज्ञा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] दे० 'प्रतिज्ञा'। उ०—हम भक्तनि के, भक्त हमारे। सुनि अर्जुन परतिज्ञा मेरी यह व्रत टरत न टारे।—सूर०, १।२७२।
⋙ परतिष †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—पाड्यो कहु कइ परतिष (इ) भाँड। झूठ कथइ छइ नै बोलइ छइ माँण।—वी० रासो०, पृ० ४१।
⋙ परतिसठा †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा] संमान। प्रतिष्ठा। उ०— हमको कुल परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है।—गोदान, पृ० १०२।
⋙ परतिहार †
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिहार] दे० 'प्रतिहार'। उ०— परतिहार सो कहा हकारी। अब जनि जान देहुँ कहुँ कारी।—चित्रा०, पृ० १२४।
⋙ परती
संज्ञा स्त्री०[हिं० परना (= पड़ना)] १. वह खेत या जमीन जो बिना जोती हुई छोड़ दी गई हो। क्रि० प्र०—छोड़ना।—डालना।—पड़ना। २. वह चद्दर जिससे हवा करके भूसा उड़ाते हैं। मुहा०—परती लेना = चद्दर से हवा करके भूसा उड़ाना। बरसाना। ओसाना।
⋙ परतीक पु †
वि० [सं० प्रत्यक्ष, हिं० परितिष] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०—सखि तू कहै आन बधू के अधीन हैं सो परतीक किधौं सपनै।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ६।
⋙ परतीत, परतीति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतीति] दे० 'प्रतीति'। उ०—(क) जानतो जौ इतनी परतीति तौ प्रीति की रीति कौ नाम न लेतौ।—ठाकुर०, पृ० १७। (ख) खर क्वार कंत विदेश छाए, कनक ही के वश हुए। कह कौन सी पर- तीति जो कि शपथ, कर मेरे हुए।—आराधना, पृ० ९६।
⋙ परतेजना पु
क्रि० स० [सं० परित्यजन] परित्याग करना। छोड़ना। उ०—जैसे उन मोकों परतेजी कबहुँ फिरि न निहारत है।—सूर (शब्द०)।
⋙ परतेला
वि० [हिं० पड़ना] वह (रंग) जो तैयार होने के लिये कुछ समय तक धोल या उबालकर रखा जाय। (रंगरेज)।
⋙ परतोख †
संज्ञा पुं० [सं० परितोष] आश्वासन। परितोष। प्रमाण। उ०—इसी गाँव में एक दो नहीं, दस बीस परतोख दे दूँ।—गोदान०, पृ० २१३।
⋙ परतोली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतोली] गली।—(डिं०)।
⋙ परत्र
क्रि० वि० [सं०] १. और जगह। अन्यत्र। २. पर काल में। ३. परलोक में। उ०—सो परञ दुख पावै सिर धुनि धुनि पछिताइ। कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।—मानस, ७।४३।
⋙ परत्रभोरु
वि० [सं०] जिसे परलोक का भय हो। धार्मिक।
⋙ परत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पर होने का भाव। पहले या पूर्व होने का भाव। यौ०—परत्व अपरत्व = पहले पीछे का भाव। विशेष—वैशेषिक में द्रव्य के जो २४ गुण माने गए हैं उनमें 'परत्व' 'अपरत्व' भी है। 'परत्व' 'अपरत्व' देश और काल के भेद से दो प्रकार के होते हैं।—कालिक और दैशिक। जैसे,'उसका जन्म तुमसे पहले का है'। यह कालसंबंधी 'परत्व' हुआ। 'उसका घर पहले पड़ता है', यह देशसंबंधी 'परत्व' हुआ। देशसंबंधी परत्व अपरत्व का विपर्यय हो सकता है, पर कालसंबंधी परत्व अपरत्व का नहीं।
⋙ परथन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पलेथन'।
⋙ परथम पु
क्रि० वि० [सं० प्रथम] पहले। उ०—(क) भक्ति मुक्ति सनेही सजनै, लियो परथम चीन्ह हो।—धरम०, पृ० ३। (ख) सब संसार परथमै आए सातो दीप। एक दीप नहिं उत्तिम सिंहलद्विप समीप।—जाससी ग्रं०, पृ० १०।
⋙ परथिर पु
वि० [सं० परम + स्थिर] गतिरहित। गतिहीन। निश्चल। उ०—गावहिं गीत बजावहि बाजा। परथिर बाव भेद उपराजा।—चित्रा०, पृ० २९।
⋙ परथोक †
संज्ञा पुं० [सं० परितोष] दे० 'परतोख'।
⋙ परदक्षणा †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रदक्षिणा] दे० 'प्रदक्षिणा'। उ०—दक्ष त्रयो रहै पुनि दक्ष प्रजापति जैसे। देत परदक्षणा न दक्षणा दे आप कौं।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४८१।
⋙ परदक्षिन †
संज्ञा पुं० [सं० प्रदक्षिण] दे० 'प्रदक्षिणा'। उ०—करि प्रणाम परदक्षिन कीन्हा।—कबीर सा०, पृ० ५७८।
⋙ परदखना †, परदखिना
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रदक्षिणा] दे० 'प्रदक्षिणा'। उ०—(क) तन मन धन करौं बारनै परदखना दीजै। सीस हमारा जीव ले नौछावर कीजै।—दादू०, पृ० ५५९। (ख) परदखिना करि करहिं प्रनामा।—मानस०, २।२०१।
⋙ परदच्छिन पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रदक्षिण] दे० 'प्रदक्षिणा'। उ०— पाँव परसि परदच्छिन दिन्निय। प० रासो, पृ० ६१।
⋙ परदच्छिना पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रदक्षिणा] दे० 'प्रदक्षिणा'।
⋙ परदक्षिना पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रदक्षिणा] दे० 'प्रदक्षिणा'।
⋙ परदा
संज्ञा पुं० [फा़० परदह्] वह कपड़ा, टट्टी आदि जिसके सामने पड़ने से कोई स्थान या वस्तु लोगों की दृष्टि से छिपी रहे। आड़ करने के काम में आनेवाला कपड़ा, टाट, चिक आदि। पट। जैसे,—खिड़की में जो परदा लटक रहा है उसपर बहुत अच्छा काम है। क्रि० प्र०—उठाना।—खडा़ करना।—गिराना।—डालना। मुहा०—परदा उठाना = दे० 'परदा खोलना'। परदा खोलना = छिपी बात प्रगट करना। भेद का उदघाटन करना। परदा डालना = छिपाना। प्रकट न होने देना। जैसे,—किसी के ऐबों पर परदा डालना। आँख पर परदा पड़ना = बुद्धि मंद होना। समझ में न आना। ढँका परदा = (१) छिपा हुआदोष या कलंक। (२) बनी हुई प्रतिष्ठा या मर्यादा। जैसे,—ढँका परदा रह जाय तो अच्छी बात है। (किसी का) परदा रखना = किसी की बुराई आदि लोगों पर प्रकट न होने देना। किसी की प्रतिष्ठा बनी रहने देना। उ०— मधुकर जाहि कहो सुन मेरो। पीत वसन तन श्याम जानि कै राखत परदा तेरो।—छूर (शब्द०)। २. आड़ करनेवाली कोई वस्तु। बीच में इस प्रकार पड़नेवाली वस्तु कि उसके इस पार से पार तक आना जाना, देखना आदि न हो सके। दृष्टि या गति का अवरोध करनेवाली वस्तु। व्यवधान। ३. रोक जिससे सामने की वस्तु कोई देख न सके या उसके पास तक पहुँच न सके। आड़। ओट। ओझल। ४. लोगों की दृष्टि के सामने न होने की स्थिति। आड़। ओट। छिपाव। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—परदानशीन। मुहा०—परदा रखना = (१) परदे के भीतर रहना। सामने न होना। जैसे,—स्त्रियाँ मरदों से परदा रखती हैं। (२) छिपाव रखना। दुराव रखना। (किसी को) परदा लगाना = परदे में रहने की स्थिति प्राप्त होना। किसी के सामने न होने का नियम होना। जैसे,—(क) पहले तो मारी मारी फिरती थी अब इसे परदा लगा है। (ख) सामने आकर क्यों नहीं कहते, क्या तुम्हें परदा लगा है ? परदा होना = (१)परदा रखे जाने का नियम होना। स्त्रियों का सामने न होने देने का नियम होना। जैसे,—तुम बेधड़क भीतर चले जाओ तुम्हारे लिये यहाँ परदा नहीं है। (२) छिपाव होना। दुराव होना। जैसे,—तुमसे क्या परदा है, तुम सब हाल जानते ही हो। परदे बिठाना = (स्त्री को) परदे के भीतर रखना। परदे में रखना = (१) स्त्रियों को घर के भीतर रखना, बाहर लोगों के सामने न होने देना। (२) छिपा रखना। प्रकट न होने देना। परदे में रहना = (१) स्त्रियों का घर के भीतर ही रहना, लोगों के सामने न होना। अंतःपुर में रहना। जनानखाने में रहना। (२) छिपा रहना। प्रकट न होना। परदे परदे = छिपे छिपे। चुप चाप। गुप्त रूप से। परदे में छेद होना = परदे के भीतर भीतर व्यभिचार होना। ५. स्त्रियों के घर के भीतर रखने का नियम। स्त्रियों को बाहर निकलकर लोगों के सामने न होने देने की चाल। जैसे,—हिदु्स्तान में जबतक परदा नहीं उठेगा, स्त्रीशिक्षा का प्रचार अच्छी तरह नहीं हो सकता। ६. वह दीवार जो विभाग करने या ओट करने के लिय़े उठाई जाय। ७. तह। परत। तल। जैसे, जमीन का परदा, दुनिया का परदा। ८. वह झिल्ली, चमड़ा आदि जो कहीं पर आड़ या व्यवधान के रूप में हो। जैसे, आँख का परदा, कान का परदा। ९. अँगरखे का वह भाग जो छाती के ऊपर रहता है। १०. फारसी के बारह रागों में से प्रत्येक। ११. सितार, हारमोनियम आदि बाजों में वह स्थान जहाँ से स्वर निकाला जाता है। १२. नाव की पाल। १३. जवनिका। रंगमंच का पर्दा।
⋙ परदाज (१)
वि० [फा़० परदाज] १. सुसज्जित करनेवाला। २. पोषक (को०)।
⋙ परदाज (२)
संज्ञा पुं० १. सज्जा। सजावट। २. ढंग। ३. संलग्नता। तल्लीनता। ४. चित्र की बारीक रेखाएँ [को०]।
⋙ परदादा
संज्ञा पुं० [सं० प्र + हिं० दादा] [स्त्री० परदादी] पितामह। दादा का बाप। पड़दादा।
⋙ परदानशीन
वि० [फा़०] परदे में रहनेवाली। अंतःपुरवासिनी। जैसे, परदानशीन औरत।
⋙ परदार पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पर + दार] १. लक्ष्मी। २. पृथ्वी। उ०—आनँद के कंद सुरपालक से बालक ये, परदार प्रिय साधु मन वच काय के।—राम चं०, पृ० २१। ३. दूसरे की स्त्री। पराई औरत। जैसे, परदाररत = पराई स्त्री पर अनुरक्त।
⋙ परदार पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पहरेदार] पहरा देनेवाला। पहरेदार। पौरिया। उ०—परदार पौरि दस दस प्रमान। राजत अनेक भर सुभ्भि थाँन।—पृ० रा०, १९।६३।
⋙ परदारिक
वि० [सं०] परस्त्री लंपट। परस्त्रीगामी [को०]।
⋙ परदारी
वि० [सं० परदारिन्] दे० 'परदारिक' [को०]।
⋙ परदुम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रद्युम्न] दे० 'प्रद्युम्न'। उ०—तुम परदुम्म और अनरुध दोऊ। तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ।— जायसी (शब्द०)।
⋙ परदूषण संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परदूषण सान्धि] संपूर्ण राज्य की उत्पत्ति तथा फल देने की प्रतिज्ञा करके संधि करना (का- मंदक)।
⋙ परदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] परब्रह्म [को०]।
⋙ परदेश
संज्ञा पुं० [सं०] विदेश। दूसरा देश। पराया शहर। मुहा०—परदेश में छाना = दूसरे देश में निवास करना। घर पर न रहना (गीत)।
⋙ परदेशापवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] विदेशियों को बुलाकर उपनिवेश बसाना (कौटिल्य)।
⋙ परदेशी
वि० [सं०] विदेशी। दूसरे देश का। अन्य देश निवासी।
⋙ परदेस
संज्ञा पुं० [सं० परदेश] दे० 'परदेश'। उ०—ता पाछे केतेक दिन को चाचा हरिबंस जी गुजरात के परदेस को गए।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २८६।
⋙ परदोष
संज्ञा पुं० [सं० प्रदोष] दे० 'प्रदोष'। उ०—जेठ सुदी सातै परदोष की घरी घरी।—श्यामा०, पृ० १२६।
⋙ परदोस पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रदोष] दे० 'प्रदोष'।
⋙ परद्रोही
वि० [सं० परद्रोहिन्] दूसरे से दुश्मनी रखनेवाला उ०—परद्रोही की होइ निसंका। कामी पुनि कि रहहि अकलंका।—मानस, ७।११२।
⋙ परद्वेषी
वि० [सं० परद्वेषिन्] दे० 'परद्रोही'।
⋙ परधन
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे की संपत्ति।
⋙ परधर पु †
संज्ञा पुं० [फा़० पर + हिं० धरना] परों को धारणकरनेवाला पक्षी। उ०—वर लोहा दीठो अँग, रघुवर, परधर पडियो धरण पर।—रघु०, रू०, पृ० १४०।
⋙ परधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे का धर्म [को०]।
⋙ परधान पु (१)
वि० [सं० प्रधान] दे० 'प्रधान'।
⋙ परधान (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिधान] दे० 'परिधान'। उ०—मथि मृगमद मलय कपूर सबनि के तिलक किए। उर मणिमाला पहिराय सब विचित्र ठए। दान मान परधान पूरण काम किए।—सूर (शब्द०)।
⋙ परधाम
संज्ञा पुं० [सं० परधामन्] १. वैकुंठ धाम। परलोक। २. ईश्वर। ३. विष्णु। उ०—अज सच्चिदानंद परधामा।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ परध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] ध्यान का वह स्वरूप जिसमें ध्येय के अतिरिक्त और कोई भी नहीं रहता [को०]।
⋙ परन (१)
संज्ञा पुं० [?] मृदंग आदि बाजों को बजाते समय मुख्य बोलों के बीच बीच से बजाए जानेवाले बोलों के खंड। उ०—आनंदघन रस रंग घमंड सों ललिता। मृदंग बजावति, परन भरनि सी परति आवै गौहन।—घनानंद, पृ० ३४५।
⋙ परन (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रतिज्ञा, प्रा० पडिण्णा, अथवा सं० प्रण या पण (= वाजी, शर्त)] प्रतिज्ञा। टेक। प्रण। वायदा। द्दढ़ संकल्प। उ०—जब रहली जननी के ओदर, परन, सम्हारल हो।—घरम०, पृ० ३५। क्रि० प्र०—करना।—बाँधना।—होना।
⋙ परन (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ना, पड़न] पड़ी हुई। बान। आदत। उ०—राखों हटकि उतै को धावै उनकी वैसिय परन परी री।—सूर (शब्द०)।
⋙ परन पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० पर्ण] दे० 'पर्ण'। उ०—(क) पुनि परिहरे सुखानेउ परना।—मानस, १।७४। (ख) सो उपजे हैं आय ये परन कुटी के द्बार।—शकुंतला, पृ० ७९। यौ०—परनकुटी। परनगृह = दे० 'परनकुटी'।
⋙ परनकुटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्णकुटी] दे० 'पर्णकुटी'। उ०— परनकुटी छावन चहौ महि देव तुम बलराई हो।—कबीर सा०, पृ० २७।
⋙ परनाँम पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाम] दे० 'प्रणाम'। उ०—करि ऊधो परनाँम आए जसुमति नंद पै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३५०।
⋙ परना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पड़ना'।
⋙ परनाना (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर + हिं० नाना] [स्त्री० परनानी] नाना का बाप।
⋙ परनाना (२)
क्रि० स० [सं० परिणयन] विवाह करना। ब्याहना। उ०—पुञन सँग पुत्री परनाई।—कबीर श०, भा०, १, पृ० ६१।
⋙ परनानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० परनाना] नानी की माँ।
⋙ परनाम
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाम] दे० 'प्रणाम'। उ०—पैर छूकर जब परनाम करने लगा था तो माँ जी एकदम फूट फुटकर रो पड़ी थीं।—मैला०, पृ० ३८।
⋙ परनामी
संज्ञा पुं० [हिं० परनाम] प्राणनाथ के संप्रदाय का व्यक्ति। दे० 'प्राणनाथी'। उ०—धामी एक दूसरे के अभिवादन में परनाम कहतें हैं—इसी कारण ये लोग परनामी भी कहलाते हैं।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ८६।
⋙ परनाल
संज्ञा पुं० [हिं० परनाला] जहाज में पेशाब करने की मोरी (लश०)।
⋙ परनाला
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाली] [स्त्री० अल्पा० परनाली] वह मार्ग जिससे घर में का मल या पानी बहकर बाहर निकलता है। पनाला। नाबदान। मोरी।
⋙ परनाली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रणाली] १. छोटा परनाला। मोरी। उ०—आली तो कुच सैल तें नाभिकुंड को जाय। रोमाली न सिंगार की परनाली दरसाय।—स० सप्तक, पृ० २५५। २. अच्छे घोड़ों की पीठ का (पुट्ठों और कंधों की अपेक्षा) नीचापन जो उनकी तेजी प्रकट करता है। क्रि० प्र०—करना।
⋙ परनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ना, पड़न] पड़ी हुई बान। आदत। टेव। उ०—(क) सूरदास तैसहि ये लोचन का धौं परनि परी री।—सूर (शब्द०)। (ख) ऐसी परनि परी री जाको लाज कहा ह्वै है तिनको ?—सूर (शब्द०)।
⋙ परनिपात
संज्ञा पुं० [सं०] समास में वह शब्द जो पहले आने योग्य हो पर बाद में रखा जाया। पहले आने योग्य शब्द का बाद में रखना। जैसे, भूतपूर्व में 'पूर्व' शब्द [को०]।
⋙ परनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० परिणीया, परिणेया] कन्या जो विवाह योग्य हो।
⋙ परनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्ण, हिं० परन] राँगे का महीन पत्तर जिसमें सुनहली या रुपहली चमक होती है और जिसे सजावट के लिये चिपकाते हैं। पन्नी।
⋙ परनौत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रनमन, हिं० परनवना] प्रणति। प्रणाम। नमस्कार। उ०—ताते तुमको करत दंडौत। अरु सब नरहूँ को परनौत।—सूर (शब्द्०)।
⋙ परपंच पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रपञ्च] दे० 'प्रपंच'। उ०—सुखदायक दूती चतुर करि परपंच बनाय। छरि जु निसातम सुबसु करि नवलहि दई मिलाय।—स० सप्तक, पृ० २४०।
⋙ परपंचक पु
वि० [सं० प्रपञ्चक] बखेड़िया। फसादी। जालिया। मायावी।
⋙ परपंचिनि पु
वि० [हिं० परपंची] परपंच करनेवाली। उ०— परपंचिनि तुम ग्वलि झूठ ही मोहि बुलायौ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९८।
⋙ परपंची पु †
वि० [सं० प्रपञ्ची] १. बखेड़िया। फसादी। २. धूर्त। मायावी। उ०—सब दल होह हुस्यार चलहु अब घेरहिं जाई। परपंची हैं कान्ह कछू मति करै ढिठाई।-सूर (शब्द०)।
⋙ परपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरुद्ध पक्ष। विरोधियों का दल। २. विपक्षी की बात। मत का विरोध करनेवाले की बात।
⋙ परपट
संज्ञा पुं० [हिं० पर + सं० पट (= चादर)] चौरस मैदान। समतल भूमि।
⋙ परपटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्पटी] दे० 'पर्पटी'।
⋙ परपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'परमपद'। २. पर अर्थात् शत्रु का स्थान। परराष्ट्र (को०)।
⋙ परपरा
वि० [अनु०] चरपरा।
⋙ परपराना
क्रि० अ० [देश०] मिर्च आदि कड़वी चीजों का जीभ या शरीर के और किसी भाग में एक विशेष प्रकार का उग्र संवेदन उत्पन्न करना। तीक्ष्ण लगना। चुनचुनाना।
⋙ परपराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० परपराना + आहट(प्रत्य०)] पर- पराने का भाव। चुनचुनाहट।
⋙ परपाकनिवृत्त
वि० [सं०] जो दूसरे उद्देश्य से भोजन न निकाले। पंचयज्ञ न करनेवाला (गृहस्थ)। विशेष—मिताक्षरा में कहा है कि ऐसे मनुष्य का अन्न भोजन करनेवाले ब्राह्मण को प्रायश्चित्त करना चाहिए।
⋙ परपाकरत
वि० [सं०] जो स्वयं पंचयज्ञ करके दूसरे का दिया अन्न भोजन करके रहे। विशेष—मिताक्षरा के अनुसार ऐसे का अन्न भोजन करनेवाला ब्राह्मण को प्रायश्चित्त करना चाहिए।
⋙ परपाजा
संज्ञा पुं० [सं पर + पर + हिं० आजा] [स्त्री० परपाजी] आजा या दादा का बाप। पितामह का पिता। प्रपितामह।
⋙ परपार
संज्ञा पुं० [सं०] उस और का तट। दूसरे तरफ का किनारा। उ०—सील सुधा के अगार सुखमा के पारावार पावत न पर- पार पैरि पैरि थाके हैं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ परपिंड
संज्ञा पुं० [सं० परपिण्ड] पराया अन्न। परान्न [को०]।
⋙ परपिंडाद
संज्ञा पुं० [सं० परपिण्डाद] १. परान्नोपजीवी। दूसरे का अन्न खाकर जीनेवाला। २. सेवक। नौकर (को०)।
⋙ परपीडक
वि० [सं०] १. दूसरे को पीड़ा या दुःख पहुँचानेवाला। २. पराई पीड़ा को समझनेवाला। दूसरे की दुःख की ओर ध्यान देनेवाला।
⋙ परपीरक पु
वि० [सं० परपीडक] दे० 'परपीडक'-२। उ०—मागध हति राजा सब छोरे ऐसे प्रभु परपीरक—सूर (शब्द०)।
⋙ परपुरंजय
संज्ञा पुं० [सं० परपुरञ्जय] शत्रु के नगर के जीतनेवाला। वीर। विजेता [को०]।
⋙ परपुरप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु के नगर में प्रवेश करना। २. भाव को चुरानेवाले कवियों की एक रीती। उ०— भावापहरण की एक अन्य 'परपुरप्रवेश' नामक रीति है, जिसके भेद निम्नलिखित हैं।—संपूर्णानंद अभि० ग्रं०, पृ० १६४।
⋙ परपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष। २. परम पुरुष। विष्णु। ३. अनजाना व्यक्ति। अजनबी।
⋙ परपुष्ट (१)
वि० [सं०] अन्य द्वारा पोषित। जिसका दूसरे ने पोषण किया हो।
⋙ परपुष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल। कोयल। विशेष—कहते हैं, कोयल कौए के अंडे को हटाकर अपना अंडा। उसके नीड में रख देती है। कोयल के उस बच्चे को कौआ अपना बच्चा समझ पालता है।
⋙ परपुष्टमहोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़ (जिससे कोयल को बड़ा आनंद होता है)।
⋙ परपुष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पराश्रया। वेश्या। २. परगाछा। बाँदा। बंदाक।
⋙ परपूठा
वि० [सं० परिपुष्ट, प्रा० परिपुट्ठ] पक्का। उ०— कबिरा तहाँ न जाइए जहाँ कपट को चित्त। परपूठा अवगुन घना मुँहड़े ऊपर मित्त।—कबीर (शब्द०)।
⋙ परपूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो अपने पहले पति को छोड़ दूसरा पति करे। विशेष—क्षता और अक्षता दो प्रकार की परपूर्वा कही गई हैं। नारद ने सात भेद बतलाए हैं—तीन प्रकार की पुनर्भू और चार प्रकार की स्वैरिणी।
⋙ परपैठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० पर (दूसरा) + पैठ(= बाजार)] हुंडी की तीसरी नकल। हुंडी की तीसरी प्रतिलिपि।
⋙ परपोता
संज्ञा पुं० [सं० प्रपौत्र] पोते का बेटा। पुत्र के पुत्र का पुत्र।
⋙ परपौत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रपौत्र का पुत्र। पोते के बेटे का बेटा।
⋙ परप्रपौत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परपौत्र'।
⋙ परप्रेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० परप्रेष्या] दास। सेवक। नौकर।
⋙ परप्रेष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी। नौकरानी। सेविका [को०]।
⋙ परफुल्ल पु
वि० [सं० प्रफुल्ल] दे० 'प्रफुल्ल'।
⋙ परफुल्लित पु
वि० [सं० प्रफुल्ल + इत (प्रत्य०)] दे० 'प्रफुल्ल'।