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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/काग

विक्षनरी से

काग (१)
संज्ञा पुं० [सं० काक] कौआ । वायस । मुहा०—काग उड़ाना = किसी के आने का शकुन विचारना । उ०—बारुडियाँ बे थक्कियाँ, काग उड़ाह उड़ाइ ।—ढोला०, दू० १६७ । यौ०—कागभुसुंडि, कागभुसुंडी ।

काग (२)
संज्ञा पुं० [अं० कार्क] १. बलूत की जाति का एक बड़ा पेड़ ।विशेष—यह स्पेन, पुर्तगाल तथा अफ्रिका के उत्तरी भागों में होता है । यह ३०—४० फुट तक ऊँचा होता है । इसकी छाल दो इंच तक मोटी और बहुत हलकी तथा लचीली (अर्थात् दाब पड़ने से दब जानेवाली) होती है । बोतल, शीशी आदि की डाट इसी छाल की बनती है । २. बोतल या शीशी की डाट जो काग नामक पेड़ की छाल से बनती है ।

कागज
संज्ञा पुं० [अ० काग़ज़] [वि० कागजी] १. सन, रूई, पटुए, बाँस, लकड़ी आदि को पीसकर या सड़ाकर बनाया हुआ पत्र जिसपर अक्षर लिखे या छापे जाते हैं । यौ०—कागजपत्र = (१) लिखे हुए कागज । (२) प्रामाणिक लेख; दस्तावेज । मुहा०—कागज काला करना—व्यर्थ कुछ लिखना । कागज रँगना = कागज पर कुछ लिखना । कागज की नाव = क्षण- भंगुर वस्तु । न टिकनेवाली चीज । कागज की लेखी = ग्रंथों में लिखी बातें जो आँखों से देखी बातों की अपेक्षा कम प्रामाणिक होती है । उ०—मै कहता हूँ आँखिन देखी, तू कहता कागज की लेखी ।—कबीर श०, भा०१, पृ० ३५ । कागज दौड़ाना, कागजी घोड़े दौड़ना = खूब लिखापढ़ी करना । खूब चिट्ठीपत्री भेजना । परस्पर खूब पत्र- व्यवहार करना । कागज पर चढ़ाना = कहीं लिख लेना । टाँकना । टीपना । २. लिखा हुआ कागज । लेख । प्रामामिक लेख । प्रमाणपत्र । दस्तावेज । जैसे, —जबतक कोई कागज न लाओगे, तुम्हारा दावा ठीक नहींमाना जाएगा । क्रि० प्र०—लिखना ।—लिखवाला । ३. संवादपत्र । समाचारपत्र । खबर का कागज । अखबार । जैसे—आजकल हम कोई कागज नहीं देखते । ४. नोट । प्रमिसरी नोट ।—जैसे, —३००००) का तो उनके पास खाली कागज है ।

कागजात
संज्ञा पुं० [अ० कागज का बहु०] कागजपत्र ।

कागजी (१)
वि० [अ० कागज+ फा़० ई (प्रत्य०)] १. कागज का । कागज का बना हुआ । २. जिसका छिलका कागज की तरह पतला हो । जैसे, —कागजी नीबू, कागजी बादाम । यौ०—कागजी जोंक = बहुत पतली और छोटी जोंक । <d०विशेष—जोंक तीन प्रकार की होती हैं ।—(१) भैंसिया । (२) मझोली और (३) कागजी ।

कागजी (२)
संज्ञा पुं० १. कागज बेचनेवाला । २. वह कबूतर जो बिलकुल सफेद हो ।

कागजी काररवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कागजी + फा० काररवाई] लिखापढी़ ।

कागजी बादाम
संज्ञा पुं० [हिं० कागजी + फा० बादाम] एक प्रकार का बढ़िया बादाम जिसका ऊपरी छिलका अपेक्षाकृत पतला होता है ।

कागजी सबूत
संज्ञा पुं० [हिं० कागज + अ० सबूत] कागज पर लिखा हुआ सबूत । लिखित प्रमाण ।

कागत पु
सज्ञा पुं० [अ० कागज, हि० कागद] दे० 'कागज' । उ०— ऐसो संग्रम होत भै कबहूँ देख्यौ नरी, दुति कौ दुति लेखन कागत ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३९० ।

कागद †
सज्ञा पुं० [अ० कागज] १. कागज । उ०—सत्य कहौं लिखि कागद कोरे ।—तुलसी (शब्द०)) २. किसी कार्यालय का विशेष रजिस्टर । खाता । बही । उ०—साथी हमरे चलि गए हम भी चालनहार । कागद में बाकी रही तातें लागी बार ।—कबीर सा० सं०, पृ० ७९ । क्रि० प्र०—आना ।—काटना ।—खोना ।—हिराना । यौ०—कागदपत्तर, कागदपत्र = दे० 'कागजपत्र' । मुहा०—कागट फटना = (१) किसी की मृत्यु होना । (२) मरने का लक्षण प्रकट होना । कागद खोना = दीर्धजीवी व्यक्ति का कष्टमय जीवन लंबा होते जाना ।

कागदगर पु
सज्ञा पुं० [हिं० कागद + फा० गर (प्रत्य०)] कागज लिखनेवाला । उ०—ततकरा अपवित्र कर मानिए जैसे कागद- गर करत विचारं ।—रै० बानी०, पृ० ३७ ।

कागदी पु
वि० [हिं० कागद + ई (प्रत्य०)] केवल कादज पर लिखने वाला, व्यवहार न करनेवाला । उ०—कागद लिखे सों कागदी की व्योहारी जीव । आतम दृष्टि कहाँ लिखै, जित देखै तित पीव ।—कबीर सा०, पृ० ८५ ।

कागभुसुंडि पु, कागभुसुंडी पु
सज्ञा पुं० [सं० काकभुशुण्डि] दे० 'काकभुशुंडि' ।

कागमारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव जिसके आगे पीछे के सिक्के लंबे होते हैं ।

कागर पु
सज्ञा पुं० [अ० कागज] १. कागज । उ०—(क) तुम्हरे देश कागर मसि खुटि । प्यास अरू नीद गई सब हरि के बिना बिरह तन टूटी ।—सूर (शब्द०) । (ख) कबित बिवेक एक नहिं मोरें । सत्य कहों लिखि कागर कोरे ।—मानस, १ ।९ । २. पंख । पर । उ०—(क) कीर के कागर ज्यों नृपचीर विभूषन उप्पम अंगनि पाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कागर कीर ज्यों भूषन चीर सरीर लस्यो तज्यों नीर काई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कागरी पु
वि० [हि० कागर = कागज] तुच्छ । हीन । उ०—नट नागर गुनत के आगर में प्रीति बाढी गाढी भइ प्रतीति जगी रीति भई कागरी ।—रघुराज (शब्द०) ।

कागल पु
सज्ञा पुं० [हिं० कागर] दे० 'कागर' । उ०—कागल नहीं कमस नहीं, नहीं कलेखणहार ।—ढोला०, दू० १४० ।

कागली पु
वि० [हिं० कागरी] दे० 'कागरी' । उ०—जीवन घडीय ते नवि रहई । जीणसू कागली हुआ वैहार ।—बी० रासो, पृ० ९३ ।

कागा पु †
सज्ञा पुं० [सं० काक, काग] दे० 'काग' ।

कागाबासी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० काक + वशित (बोली या बोलने का समय अथवा हिं० काग/?/बासी] भाँग जो सबेरे कौआ बोलते समय छानी जाय । सबेरे के समय की भाँग । उ०—आप माल कचरैं छानै उठि भोरहिं कागाबासी ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।

कागाबासी (२)
सज्ञा पुं० [सं० काक + भासी] एक प्रकार का मोती जो कुछ काला होता है ।

कागारोल
सज्ञा पुं० [हि० काग = कौआ + रोर = शोर] हल्ला । हुल्लड । शोरगुल ।

कागिया (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] तिब्बत देश की एक प्रकार की भेड । विशेष—इसका सिर बहुत भारी और टाँग छौटी होती हैं । इसका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है । लोग इसे ऊन के लिये नहीं, मांस के लिये ही पालते हैं ।

कागिया (२)
सज्ञा पुं० [हिं० काग + इया (प्रत्य०)] काले रंग का एक कीडा जो बाजरे की फसल को हानि पहँचाता है ।

कागिल पु
सज्ञा पुं० [हिं० काग] काग । कौआ । उ०—कागिल गर फाँदियाँ, बटेरै बाज जीता ।—कबीर ग्रं०, पृ० १४१ ।

कागौर
सज्ञा पुं० [सं० काकबलि] पितृकर्म में कव्य का वह भाग जो कौए के लिये निकाला जाता है । काकबलि ।

काच पु† (१)
वि० [हिं० कच्चा या काँचा,] १. कच्चा । उ०—आगे पीछै जो करै सोई वचन है काच ।—सं० दरिया, पृ० ३ । २. जी का कच्चा । कायर । डरपोक ।

काच (२)
सज्ञा पुं० [सं०] १. शीशा । काँच । २. आँख का एक रोग जिसमें दृष्टि मंद हो जाती है । ३. खारी मिट्टी । ४. काला नमक । ५. मोम । ६. जुए के भार को सँभालनेवाली रस्सी । ७. तराजू की डोरी [को०] ।

काचक
सज्ञा पुं० [सं०] १. शीशा । काँच । २. पत्थर । ३. खारी मिट्टी [को०] ।

काचडगारा पु
वि० [सं० कच्चर + कार] बुराई करनेवाला । उ०— काचडगारा ऊपरा रामतणी है रीस । काचडगारा कूचडा बगडैं बिसवा बीस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ७५ ।

काचडा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कच्चर = बुरा, नीच] चुगली । उ०— मुख ओडी रे माँहिले, पर काचडा पुरीष ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५७ ।

काचन, काचनक
सज्ञा पुं० [सं०] सामान, कागज के बंडल अथवा हस्तलेख के पन्नों को बाँधने की डोरी [को०] ।

काचमणि
सज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक ।

काचर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कचरी] दे० 'कचरी' । उ०—फोग केर काचर फली, पापड गेधर पात ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७ ।

काचमल
सज्ञा पुं० [सं०] काचलवण ।

काचलवण
सज्ञा पुं० [सं०] काचिया नोन । काला नोन । सोंचर नोन ।

काचरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँचली] दे० 'काँचरी' ।

काचली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँचली] दे० 'काँचली' । उ०—साप काचली छाडे बीस ही न छाँडे । उदक में हक ध्यान मांडे ।—दक्खिनी०, पृ० ३५ ।

काचा
वि० [हिं० काँचा] १. दे० 'कच्चा' । उ०—इनकों राजद्वार में ते आधा पाव काँचे चना मनुष्य पाछे साँझ को मिलते हैं ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२६. । .२. अनित्य । असार । मिथ्या । उ०—समझ्यौं मैं निरधार, यह जग काचो काँच सों । एकै रूप अपार, प्रतिबिंबित लखियत जहाँ ।— बिहारी (शब्द०) ।

काची (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा] दूध रखने की हाँडी ।

काची (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा] तीखुर, सिंघाडे या कुम्हडे आदि का हलुवा ।

काच्या पु
वि० [हिं० काँचा] दे० 'कच्चा' । उ०—कुंभ काच्या नीर भरिया बिनसत नहिं बार रे ।—दक्खिनी०, पृ० ३१ ।

काछ
संज्ञा पुं० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] १. पेड और जाँघ के जोड पर का तथा उसके कुछ नीचे तक का स्थान । २. धोती का वह भाग जो इस स्थान पर से होकर पीछे खोंसा जाता है । लाँग । उ०—(क) कसि काछ दिए घँघरी की कसे कटि सों उपरौनिय भाँति भली ।—रघुनाथ (शब्द०) । (ख) चतुर काछ काछै जब जैसा । तब तहँ नाच दिखावै तैसा ।—विश्राम (शब्द०) । क्रि० प्र०—कसना ।—काछना ।—खोलना ।—देना ।—बांधना ।—मारना ।—लगाना । ३. अभिनय के लिये नटों का वेश या बनाव ।

काछना (१)
क्रि० स० [सं० कक्षा, प्रा० कच्छ] १. समर में लपेटे हुए वस्त्र के लटकते भाग को जाँघों पर से ले जाकर पीछे कसकर बाँधना । २. बनाना । सँवारना । पहनना । उ०— (क) गौर किशोर वेष वर काछे । कर शर बाम राम के पाछे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) ए ई राम लखन जे मुनि सँग आए हैं । चौतनी चोलना काछे सखि सोहैं आगे पाछे ।—तुलसी (शब्द०) ।

काछना (२)
क्रि स० [सं० कषण = घिसना, चलाना] हथेली या चम्मच आदि से किसी तरल पदार्थ को किनारे की ओर खींचकर उठाना या इकट्ठा करना । जैसे, पोस्त से अफीम काछना, होरसे पर से चंदन का काछना ।

काछनि पु
सज्ञा स्त्री० [हिं० काछनी] दे० 'काछनी' । उ०— कमल दलनि की काछनि काछें, धातु विचित्र चित्र तन आछें ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९३ ।

काछनी
सज्ञा स्त्री० [हिं० काछना] कसकर और कुछ ऊपर चढाकर पहनी हुई धोती जिसकी दोनों लाँगें पीछे खोंसी जाती हैं । कछनी । उ०—(क) काछनी कटि पीत पट दुति कमल केसर कंड ।—सूर (शब्द०) । (ख) सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल ।—बिहारी (शब्द०) । क्रि० प्र०—कसना ।—काछना ।—मारना । २. घाँघरे की तरह का एक चुनावदार पहनावा जो आधे जंघे तक होता है और प्राय? जाँघिए के उपर पहना जाता है । आजकल मूर्तियों के शृंगार और रामलीला आदि में इस पहनावे का व्यवहार होता है ।

काछा
सज्ञा पुं० [हिं० काछना] कसकर और ऊपर चढाकरपहनी हुई धोती जिसके दोनों लाँगें पीछे खोंसी जाती हैं । कछनी । क्रि० प्र०—कसना ।—काछना ।—बाँधना ।—मारना ।—लगाना ।

काछी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ = जलप्राय देश] १. तरकारी बोने और बेचनेवाला । २. उक्त कार्य करनेवाली एक जाति ।

काछी पु (२)
वि० [सं० कच्छ] कच्छ देश का । कच्छी । उ०— काछी करह विथूमियाँ, घडियउ जोइण जाइ । हरमाखी जउ हँसि कहइ, आणिसि एथि विसाई ।—ढोला०, दू० २२८ ।

काछी पु (३)
संज्ञा पुं० कच्छ देश का घोडा । उ०—पेच सुरंगी घाघरा, ढाके मत धर ढाल काछी चढ आछी कहूँ हजा भीजण हाल ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ८ ।

काछुई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कच्छपी, प्रा० कच्छवी] दे० 'कछुआ' । उ०—अंडा पालै काछुइ, बिन थन राखै पोक । यों करता सबकी करै, पालै तीनउ लोक ।—कबीर सा०, पृ० ८१ ।

काछू †
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप, कच्छव] दे० ' कचुवा' । उ०— चेला पटै न छाँडहिं पाछू । चेला मच्छ गुरू जिमि काछू ।—जायसी (शब्द०) ।

काछे
क्रि० वि० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] निकट । पास । नजदीक । उ०—ताहि कहयौ सुख दे चलि हरि को मैं आवति हौं पाछे । वैसहिं फिरी सूर के प्रभु पै जहाँ कुंज गृह काछे ।—सूर (शब्द०) ।

काज (१)
संज्ञा पुं० [सं० कार्य प्रा० कज्ज] १. प्रयत्न जो किसी उद्देश्य की सिद्धिके लिये किया जाय । कार्य । काम । कृत्य । उ०—(क) ज्ञानी लोभ करत नहिं कबहुँ लोभ बिगारत काज ।—सूर (शब्द०) । (ख) घाम, धूम, नीर औ समीर मिले पाई देह ऐसो धन कैसे दूत काज भुगतावैगो ।—लक्षण (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—कराना ।—चलना ।—चलाना ।—निकलना ।—निकालना ।—भुगतना ।—भुगताना ।—संवारना ।—सरना ।—सारना । मुहा०—के काज = के हेतु । निमित्त । लिये । उ०—पर स्वारथ के काज सीस आगे धरि दीजै ।—गिरधर (शब्द०) । २. व्यवसाय । धंधा । पेशा । रोजगार । जैसे, (क) इस लडके को अब किसी काम काज में लगाओ । (ख) अपने घर का काज देखो । ३. प्रयोजन । मतलब । उद्देश्य । अर्थ । उ०—(क) रोए कंत न बहूरा तौ रोए का काज ?—जायसी (शब्द०) । (ख) बिन काज आज महराज लाज गइ मेरी ।—(गीत), (शब्द०) । ४. विवाह सबंध । उ०—यह श्यामल राजकुमार सखी, बर जानकी जोगहिं जन्म लयो । रघुराज तथा मिथिलापुर राज अकाज यही जो न काज भयो ।—रघुराज (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ५. बालक अवस्था से बडे या किसी बूढे आदमी के मर जाने का भोज । काम । क्रि० प्र०—करना ।—पडना ।—होना ।

काज (२)
संज्ञा पुं० [पुर्त० काजा, कोंकणी काजू] छेद जिसमें बटन डालकर फँसाया जाता है । बटन का घर । क्रि० प्र०—बनाना ।

काजर
संज्ञा पुं० [सं० कज्जल] [हिं० काजल] दे० 'कजल' मुहा०—काजर केरी कोठरी = दे० 'काजर की कोठरी । उ०— काजर केरी कोटरी, काजर ही का कोट । बलिहारी वा दस की, रहै नाम की ओट ।—कबीर सा० सं०, भा० १ पृ० २२ ।

काजरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कज्जल हिं० काजरी] काले रंग की गाय । उ०—टेर सूनहिं तब जब होहिं तियरी । दूर गईं वे काजरि पियरी । नंद० ग्रं०, पृ० २८७ ।

काजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कज्जली] वह गाय जिसकी आँखों किनारे काला घेरा हो । उ०—बाँह उचाइ काजरी धौरी गैयन टेरि बुलावत ।—सूर (शब्द०) ।

काजरू पु †
संज्ञा पुं० [हिं० काजर] दे० 'काजल', । उ०—कजरारी आँखियान में भूली काजरू एक ।—मति० ग्रं०, पृ० ३३३ ।

काजल
संज्ञा पुं० [सं० कज्जल] वह कालिख जो दीपक के धुएँ के जसने से किसी ठीकरे आदि पर लग जाती है और आँखों में लगाई जाती हैं । क्रि० प्र०—देना ।—पारना ।—लगाना । मुहा०—काजल घुलाना, डालना, देना, सारना= (आँखों में) काजल लगाना । काजल पारना = दीपक के धुँएँ की कालिख को किसी बरतन में जमाना । काजल की ओबरी या कोठरी = ऐसा स्थान जहाँ जाने से मनुष्य दोष या कलंक से उसी प्रकार नहीं बच सकता जैसे काजल की कोठरी में जाकर काजल लगने से । दोष या कलंक का स्थान । उ०—(क) यह मथुरा काजल की ओबरी जे आवहिं ते कारे ।—सूर (शब्द०) । (ख) काजल की कोठरी में कैसहू सयानो जाय एक लीक काजल की लागै पै लागै री (शब्द०) । यौ०—काजल का तिल = काजल की छोटी बिंदी जो स्त्रियाँ शोबा के लिये गालों पर लगाती हैं ।

काजलिया पु
वि० [सं० कज्जल, हिं० काजल + इया (प्रत्य०)] दे० 'काजलीवाली' । कजली सी । उ०—जइ तूँ ढोला नावियउ, काजलियारी तीज । चमक मरेसी माखी, देख खिवंताँ बीज । ढोला०, दू० १५० ।

काजली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कजली] दे० 'कजली—९' । उ०— रमइ सहेली काजली, धरि धरि कामिनी मडई छइ खेल ।— बी० रासो, पृ० ४८ ।

काञि पु
क्रि० वि० [सं० किम्] क्यों । उ०—कोकिल काजि संतावह कान्ह ।—विद्यापति, पृ० ४१५ ।

काजिब
संज्ञा पुं० [अ० काजिब] झुठ बोलने वाला । झूठा । उ०—झूठ की किश्ती चढे झूठ को काजिब तारे । —कबीर म०, पृ० ३७५ ।

काजी
संज्ञा पुं० [अ० काजी] मुसलमानों के धर्म और रीतिनीति के अनुसार न्याय की व्यवस्था करने वाला । मुसलमानी समय का न्यायाध्यक्ष । उ०—(क) काजी जी दुबले क्यों शहर के अंदेशे से । (ख) रोशन जमीर बेचू सीना साफ काजी कादिर ।—पलटू०, पृ० ८३ ।

काजू
संज्ञा पुं० [कोंक० काज्जु] १. एक पेड जो मदरास, केरल, चढगाँव और उनासरिम आदि स्थानो में होता है ।विशेष—इसकी छाल बहुत खुरदरी और लकडी सूर्ख होती है जिससे संदूक और सजावट के सामान तैयार होते हैं । इसके फलों की गिरी को भूनकर लोग खाते हैं । मींगी निकाली हुई गुठलियों के छिलकों से लोग एक प्रकार का तेल भी निकालते हैं जो तेजाब की तरह तेज होता है । इसके शरीर में लगते ही छाले पड जाते हैं । यह तेल पुस्तकों की जिल्दों में लगा देने से दीमको का डर नहीं रहता । २. इस वृक्ष का फल । ३. इस वृक्ष के पल की गुठली के भीतर की मींगी या गिरी ।

काजुभोजू
वि० [हिं० काज + भोग] ऐसे दिखाऊ वस्तु जो अधिक काम न आ सके । कमजोर या मामूली चीज ।

काट
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्त, आ० कट्ट] १. काटने की क्रिया । काटने का काम । जैसे—यह तलवार अच्छी काट करती है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—काट चाँट = (१) मारकाट । लडाई । (२) काटने से बचा खुचा टुकडा । कतरना । (३) किसी वस्तु में कमी बेशी । घटाव बढाव । जैसे—इस लेख में बहुत काँट छाँट की आवश्यकता है । काट कूट = दे० 'काँट छाँट । मारकाट = तलवार आदि की लडाई । २. काटने का ढंग । कटाव । तराश । कतरब्योंत । जैसे,—इस आँगरखे की काट अच्छी नहीं है । यौ०—काँट छाँट = रचना का ढंग । तर्ज । किता । ३. कटा हुआ स्थान । घाव । जख्म । क्रि० प्र०—करना । ४. छरछराहट जो घाव पर कोई चीज लगने से होती है । ५. ढँग । कपट । चालबाजी । विश्वासघात । जैसे,—वह समय पर काट कर जाता है । क्रि० प्र०—करना । यौ०—काट कपट = चोरी छिपे किसी चीज को कम कर देना । काट छाँट = ढग । जोड तोड । छक्का पंजा । जैसे,—वह बडी काट छाँट का आदमी है । काट फाँस = (१) जोड तोड । फँसाने का डंग । (२) इधर की उधर लगाना । लगाव बझाव । ६. कुश्ती में पेंच का जोड । ६. चिकनाई और गर्द मिली मैल । तेल, घी आदि का तलछट ।

काट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० किट्ट = मैल] वह मैल या तलछट जो तेल के पात्र में नीचे जम जाती है । क्रि० प्र०—बैठना ।

काटकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ + की] लकडी या छडी जिसे हाथ में लेकर कलंदर बंदर या भालू नचाते हें ।

काटन (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] किसी काटी हुई वस्तु के छोटे छोटे टुकडे जिन्हें बेकाम समझकर लोग फेंक देते हैं । कतरन

काटन (२)
संज्ञा पुं० [अ० काँटन] १. कपास । रूई । २. रूई का कपडा । जैसे,—काटन मिल्स ।

काटना
क्रि० स० [सं० कर्तन० प्रा० कट्टण] १. किसी धारदार चीज की दाब या रगड से दो टुकडे करना । शस्त्र आदि की धार धैसाकर किसी वस्तु के दो खंड करमा । जैसे,—पेड काटना, सिर काटना । मुहा०—काटो तो खून या लहू नहीं = किसी दु?खदायी, भयानक या अपना रहस्य खोलमे वाली बात को सुनकर एकबारगी सन्न हो जाना । स्तब्ध हो जाना । जैसे,—ज्यों ही उसने यह बात कही, काटो तो खून नहीं । उ०—काने को देखते ही दरोगा साहब के हवास पैतरा हुए । काटो तो लहू नहीं बदन में ।—फिसाना०, बा० ३, पृ० ५४ । २. पीसना । महीन चूर जैसे, करना । भाँग काटना । मसाला काटना । विशेष—इस अर्थ में 'कर्ता' प्राय? वस्तु होती है, व्यक्ति नहीं । जैसे,—यह बट्टा कूब मसाला काटता है । ३ . घाव करना । जख्म करना । जैसे,—जूते का काटना । ४ . किसी वस्तु का कोई अंश अलग करना । जैसे,—(क) इस वर्ष नदी उधर की बहुत सी जमीन काट ले गई । (ख) उनकी तनख्वाह में से २५) काट लो । ५. युद्ध में मारना । बध करना जैसे,—उस लडाई में सैकडें सिपाही काटे गए । ६ . कतरना । ब्योंतना । जैसे,—तुमने अभी हमारा कोट नहीं काटा । ७ . छाँटना । नष्ट करना । दूर करना । मिटाना । जैसे,—पाप काटना, रंग काटना, मैल काटना, झगडा काटना । ८ . समय बिताना । वक्त गुजारना । जैसे,—रात काटना, दिन कटाना, महीना काटना, जाडा काटना, गरमी काटना, बरसात काटना । ९ . रास्ता खतम करना । दूरी तै करना । जैसे,— रेल हफ्तों का रास्ता घंटों में काटती है । १०. अनुचित प्राप्ति करना । बुरे ढंग से आय करना । जैसे, माल काटना । उ०—उसने उस मामले में खूब रूपये काटे । ११ . कलम की लकीर से लिखावट को रद करना । छेकना । मिटाना । खारिज करना । जैसे,—(क) उसने तुम्हारा लिखा सब काट दिया । (ख) उसका नाम स्कुल से काट दिया गया । १२ . ऐसे कामों को तैयार करना जो लकीर के रूप में कुछ दूर तक चले गए हों । जैसे, सडक काटना, नहर काटना । १३ . एक नहर या नाली के पानी का किनारा काटकर दूसरी नहर या नाली में ले जाना । जैसे,—इस खेत का पानी उसमें काट दो । १४ . ऐसे कामों को तैयार करना जिनमें लकीरों द्वारा कइ विभाग किए गए हों । जैसे,—खाना काटना, क्यारी काटना । १५ . एक सख्या के दूसरी संख्या का ऐसा भाग लगाना कि शेष न बचे । जैसे,—इस संख्या को सात से काटो । १६ . बाँटने वाले के हाथ पर रखी हुई ताश की गड्डी में से कुछ पत्तों को इसलिए उठाना जिसमें हाथ में आई हुई गड्डी के अंतिम पत्ते से बाँट आरंभ हो । १७ . ताश की गड्डी का इस प्रकार फेंटना कि उसका पहले से लगा हुआ क्रम न बिगडे ।—(जादू) । १८ . जेलखाने में दिन विताना । कैद भोगना । जैसे,—जेल काटना । १९ . किसी विषैले जंतु का डंक मारना या दाँत धँसाना । डसना । जैसे—साँप ने काटा, भिड ने काटा, कुत्ते न काटा । संयो० क्रि०—खाना । मुहा.—काटने दौडनै = चिडचिडाना । खींझना । जैसे—उससे रूपया माँगने जाते हैं तो वह काटने दौडता है । २०.किसी तीक्ष्यण वस्तु का शरीर के किसी भाग में लगकर खुजली किए हुए जलन और छरछराहट पैदा करना । जैसे— (क) पान में चूना अधिक था. उसने सारा मुँह काट लिया ।(ख) सूरन में यदि खटाई न दी जाय तो वह गला काटता है । २१ . एक रेखा का दूसरी रेखा के ऊपर से चार कोण बनाते हुए निकल जाना । २२ . किसी जीव का सामने से निकल जाना । जैसे,—बिल्ली का रास्ता काटना बुरा समझा जाता है । २३ . घस्सै से डोरी आदि तोडना । जैसे, पतंग काटना । २४ . (किसी मत का) खंडन करना । अप्रमाणित करना । जैसे,—उसने तुम्हारे सब सिद्धात काट दिए । २५ . चलती गाडी से माल का गायब करना । २६ . किसी शृंखला में से कोई भाग जुदा करना । जैसे,—तीन गाडियाँ इसी स्टेशन पर काट दी जायँगी । २७ . शरीर पर कष्ट पहुँचाना । दु?खदायी लगाना । बुरा लगना । नागवार मालूम हौना । जैसे,—(क) जाडे में पानी काटता है । (ख) पढने जाना तो इस लडके को काटना है । मुहा०—काटे खाना या काटने दौडना = (१) बुरा मालूम होना । चित्त को व्यथित करना । (२) जी को उचाट करना । सूना और उजाड लगना । जैसे,—उनके बिना यह मकान काटे खाता है । उ०—बेगम, अब पहले तो हम इस मकान को बदलेंगे, काटे खाता है ।—फिसाना० भा० ३, पृ० २३८ । काटे का मंत्र न होना = बाधा का प्रतिकार न होना । विरोध की सामर्थ्य न होना । उ०—यह बडे जात शरीफ हैं, उनके काटे का मंत्र नही ।—फिसाना० भा० ३, पृ० १३९ । २८. पाखाना कमाना । मैला उठाना ।—(लश०) ।

काटर पु
वि० [हिं० कट्टर] दे० 'कट्टर' उ०—आना काटर एक तुखारू । कहा सो फेरौ न असवारू ।—जायसी (शब्द०) ।

काटल पु
वि० [सं० किट्ट, हिं० काट] मोरचावाला । जंग लगा । उ०—काटल आवध मूझ कर मन मंदाइण ब्रन्न ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३ पृ० २८ ।

काटुक
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लता । खटास [को०] ।

काटू (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काटना + ऊ (प्रत्य०)] १ . काटनेवाला । २ . काटऊ । डरावना । भयानक ।

काटू (२)
संज्ञा पुं० [अं० कैश्यूनट ] एक प्रकार का बडा वृक्ष जो दक्षिण अमेरीका से लाकर भारत के दक्षिणी समुद्रतटों पर रेतीली भूमी में लगाया गया है । हिजली बदाम । विशेष—इसके तने पर एक प्रकार का गोंद होता है जिससे कीडे मष्ट होते या भाग जाते है । इसकी छाल में से एक प्रकार का रस निकलता है जिससे कपडों पर निशान लगाया जाता है । इसकी चाल में से एक प्रकार का तेल भी निकलता है जो मछलियाँ पकडने के जालों पर लगाया जाता है । इसके बीजों से भी तेल निकलता है जो बहुत अंशों में बादाम के समान होते हैं भूनकर खाए जाते हैं और उनका मुरब्बा भी पडता है । इसकी लकडी से संदुक, नावों और कोयला बनाया जाता है ।

काठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ, प्रा० कट्ट] १ . पेड का कोई स्थूल अंग (डाल तना आदि) जो आधार से अलग हो गया हो । लकडी । यौ०—काठ कठंगर = निस्सार वस्तु । निस्तत्व पदार्थ । उ०—संसय काठ कठंगरा तासों काटत लगे न बार ।—भीखा श०, पृ० ८८ । काठ कबाड = लकडी का बना सामान जो टूट फूटकर बेकाम हो गया हो । काठ का उल्लू = जड । वज्र मूर्ख । घोर अज्ञानी । काठ की घोडी = अस्तित्वहीनता का आधार । शून्यधारा । उ०—चारगजौ चरगजी मँगाया, चढा काठ की घोडी ।—कबीर श० पृ० ९ । काठ की हाँडी = धोखे की चीज । ऐसी दिखाऊ वस्तु जिसका धोखा एक बार से अधिक न चल सके । उ०—जैसे,—हाँडी काठ की चढै न दूजी बार । काठ का घोडा = बैसाखी । काठ कटौअल बाँसुरी = आँखमिचौली की तरह का एक खेल जिसमें लडके किसी काठ को छू छूकर आते हैं । काठ होना = (१) संज्ञाहीन होना । चेतनारहित होना । जडवत् होना । स्तब्ध होना । जैसे—सिपाही को सामने देखते ही वह काठ हो गया । (२) सूखकर कडा हो जाना (वस्तु के लिये) । काठ कोडा चलाना = (१) काठ में पैर देने और कोडा मारने का अधिकार होना । दंड देने का अधिकार होना । विशेष—यौगिक शब्द बनाने में 'काठ' को 'कठ' कर देते हैं । जैसे—कठफोडवा, कठपुतली, कठघोडा, कठकुआ, कठमलिया । ऐसे पेडों के नामों में भी 'कठ' लगाते हैं जिनके फल नीरस और बिना गूदे क होते हैं, जैसे,—कठजामुन, कठगुलर, कठबैर । २. ईधन । जलाने की लकडी । ३. शहतीर । लक्कडी । लकडी का बडा तख्ता । लकडी की बनी हुई बेडी । कलंदरा । उ०—कोतवाल काठौ करि बाँध्यौ छूटै नहीं साँझ अरू भोर ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५५७ । विशेष—यह बेडी वास्तव में दो बराबर तराशे हुए लक्कडों से बनती है । दोनों के बीच में छेद होता है । इसी छेद में अपराधी का पैर डाल देते हैं और दोनों लक्कडों को पेंच से कस देते हैं । मुहा०—काठ पहनना, काठ मारना = अपराधी को काठ की बेडी पहनाना । काठ में पाँव देना = (१) अपराधी को काठ की बेडी पहनाना ।कलंदरे में पाँव डालना । (२) जान बुझकर स्वयं बंधन में पडना । उ०—फूले फूले फिरत है, होत हमारो ब्याव । तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पाँव ।—तुलसी (शब्द०) । ५. अचेत दशा । संज्ञाहीन की स्थिति । ६. कामसबंधों के विषय में बेखबरी । जैसे—काठ ओरत, काठ मर्द ।

काठ पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० काठ की पुतली का संक्षिप्त रूप] दे० 'कठपुतली' । उ०—कतहुँ चिरहँटा पँखो लावा । कतहुँ पखंडी काठ नचावा ।—जायसा (शब्द०) ।

काठक
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद का एक शाखा । उ०—तैत्तिरीय संहिता ओर काठक संहिता से भी प्रगट होता है कि शुद्रों की गणना भी समाज के अंगों में होती थी ।—हिंदु० सभ्यता, पृ ८८ । यौ०—काठकगृह्मसूत्र = एक सूत्र ग्रंथ का नाम । काठक संहिता = कृष्णयजुर्वेद का एक भाग या शाखा । काठकोपनिषद् = कठोपनिषद् ।

काठकबाड
संज्ञा पुं० [हिं० काठ + कबाड (अनु०)] लकडियों आदि के टूटे फूटे और निकम्मे टूकडे । अंगड खंगड ।

काठडा
संज्ञा पुं० [हिं० काठ + डा (प्रत्य०)] [स्त्री० काठडी] काठ का बना हुआ बरतन । कठौता ।

काठनीम
संज्ञा पुं० [हिं० काठ + नीम] एक प्रकार का वृक्ष जिसे गंधेल भी कहते हैं । वि० 'गंधेल' ।

काठबेर
संज्ञा पुं० [हिं० काठ + बेर] दे० 'घुँट' (वृक्ष) ।

काठबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ + बेल] इंद्रायन की तरह की एक बेल जो हिंदुस्तान के खुश्क हिस्सों में तथा अफगानिस्तान और फारस में होती है । विशेष—इसके फल इंद्रायन के फल के समान ही कडुए होते हैं । इनके बीज से तेल निकलता है जो जलाने के काम में आता है । कोई कोई इसका व्यवहार दवा में इंद्रायन के स्थान पर करते हैं । इसे कारित भी कहते हैं ।

काठमांडू
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ, प्रा कट्ट + मंडप, प्रा० मंडव] नेपाल की राजधानी । विशेष—इस नगर में काठ के मकान अधिक होते हैं, इसी से इसका यह नाम पडा ।

काठमारी
वि० [हिं० काठ + मारना] जिसे काठ मार गया हो । अवसन्न । संज्ञाहीन ।

काठिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कठोरता । कडापन । २. खजुर का फल [को०] ।

काठिन्य
संज्ञा पुं० [सं०] कडा़पन । कठोरता । सख्ती ।

कठियावाड
संज्ञा पुं० [हिं० काँठ = समुद्रतट + वाड = द्वार] भारतवर्ष का एक प्रांत जो अब गुजरात देश का पश्चिम भाग है । विशेष—यह कच्छ की खाडी और खभात की खाडी के बीच में है । इस प्रांत के घोडे प्रसिद्ध होते हैं जिन्हें लोग काठी कहते हैं । यह प्राचीन काल में सोराष्ट्र मंडल के अंतर्गत था ।

काठियावाडी (१)
वि० [हिं० काठियावाड] काठियावाड से संबंधित । काठियावाड का ।

काठियावाडी (२)
संज्ञा पुं० काठियावाड की बोली ।

काठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ] १. घोडों की पीठ पर कसने की जीन जिसमें नीचे काठ लगा रहता है । यह आगे और पीछे की ओर कुछ उठी होती है । उ०—कोडे पर अच्छी चमडे की कठी लगी हुई थी ।—किन्नर, पृ० ३८ । क्रि० प्र०—कसना ।—धरना । २. ऊँट की पीठ पर रखने की गद्दी जिसके नीचे और उपर के उठे हुए भागों में काठ रहता है । ३. तलवार या कटार का काठ का म्यान जिसपर चमडा या कपडा चढा रहता है ।

काठी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कायस्थिति, प्रा० कायठिटइ अथवा सं० कायस्थि, प्रा० का आटि्ठ] शरीर की गठन । अँगलेट । जैसे,—उसकी काठी बहुत अच्छी है । उ०—तेरी पूजी सेवा ये रे प्रोजी पराई काठी दे रे ।—दक्खिनी० पृ० ३६ ।

काठी (३)
वि० [काठियावाड] काठियावाड का (घोडा) । उ०— दल सुध दान दियाह, काठी घाटी कवियणाँ ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १५ ।

काठी (४)पु
वि० [सं० कष्ट, कृष्ट, प्रा कट्ठ](राज्य०) काठी । खूब मजबुती से । उ०—सींगण काइ न सिर जियाँ, प्रीतम हाथ करंत । काठी साहँत मुठी माँ, कोडी कासी संत । ढोल०, दू० ४१६ ।

काठु
संज्ञा पुं०[हिं० काठ] कूटू की तरह का एक पौधा जिसकी खेती हिमालय की कम ठंढे स्थानों में होती है । विशेष—इसका पेड कूटू से कुछ बडा होता है । और दाने कूटू ही की तरह पहलदार होते हैं, पर कोने नुकीले नहीं होते । इसकी तरकारी भी लोग खाते हैं ।

काठों
संज्ञा पुं० [हिं० काठ] एक प्रकार का मोटा धान जो पंजाब में होता है ।

काड
संज्ञा स्त्री० [अं० काँड] एक प्रकार की मछली जो उत्तर की और ठंढे समुद्रों में पाई जाती है । विशेष—यह तीन वर्ष में पूरी वाढ को पहुँचती है । उस समय यह तीन फुट लंबी और तौल में १२ पाउंड से २० पाउंड तक होती है ।इसका मांस बहुत पुष्टिकर होता है । इससे एक प्रकार का तेल बनाया जाता है जिसे 'काड लिवर आँयल' कहते हैं । यह तेल क्षय रोग की अच्छी दवा मानी जाती है । इसमें विटामिन बी पर्याप्त मात्रा में होता है । यौ०—काड लिवर आयल = काड नाम की मछली के कलेजे से निकाला हुआ तेल ।

काडो †
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड] अरहर का सुख और कटा पेड । कडिवा । रहट ।

काढना
क्रि० स० [सं० कर्षण, प्रा० कड्ढण] १. किसी वस्तु के भीतर से किसी वस्तु को बहार करना । निकालना । उ०—(क) खनि पताल पानी तहँ काढा । छीर समुद्र निकसा हुत बाढा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) मीन दीन जनु जल ते काढे ।—तुलसी (शब्द०) । २. किसी आवरण को हटाकर कोई वस्तु प्रतक्ष्य करना । खोलकर दिखाना । जैसे,— दाँत काढना । ३. किसी वस्तु को किसी वस्तु से अलग करना । उ०—तब मथि काढि लिए नवनीता ।—तुलसी (शब्द०) । ४. लकडी, पत्थर, कपडे आदि पर बेल बूटे बनाना । उरेहना । चित्रि त्र करना । जैसे—बेल बूटा काढना, कसीदा काढना । उ०—(क) पवँरिहि पँवरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ।—जायसी (शब्द०) । (ख) राम बदन बिलोकि मुनि ठाढा । मानहुँ चित्र माझि लिखि काढा । —तुलसी (शब्द०) । ५. उधार लेना । ऋण लेना । जैसे, उनके पास तो रुपया तो था ही नहीं, कही से काढकर लाए हैं । उ०—(ग) माताहिं पिताहिं उऋण भए नीके । गुरु ऋण रहा सोच बड जी के । सो जनु हमरे माथे काढा । दिन चलि गए ब्याज बहु बाढा । तुलसी (शब्द०) । ६. कहाडे में से पकाकर निकालना । पकाना । छानना । जैसे,—पुरी काढना, जलेबी काढना । ७. दूध दुहना । जैसे,— गैया का दूध अभी काढा गया है ।

काढा
संज्ञा पुं० [सं० क्वाथ, प्रा० काढ] ओषधियों को पानी में उबाल या औटाकर बनाया हुआ शरबत । क्वाथ । जोशांद ।

काण (१)
वि० [सं०] १. काना । २. छेद किया हुआ (को०) ।

काण (२)
संज्ञा पुं० कौआ ।

काण (३)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कानि] मर्यादा । लोक—लज्जा ।उ०— लोपी छाका लेण नूं, काका वाली काण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ०३ ।

काणूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौआ । २. मुर्गा । ३. एक प्रकार का हंस । ४. बया नामक चिडिया [को०] ।

काणेय
संज्ञा पुं० [सं०] कानी स्त्री का लडका [को०] ।

काणर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काणेय' [को०] ।

काणेली
संज्ञा स्त्री०[सं०] १. व्यभिचारिणी स्त्री ।२. अविवाहित स्त्री० [को०] । यौ०—काणेलीमाता = (१) अविवाहित स्त्री का पुत्र । (२) वह माता जिसको अविवाहित अवस्था में संतान हो ।

काण्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. कण्व का वंशज । २. कण्व का अनुयायी ।

कातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० कातन्त्र] कलाप व्याकरण जिसे कुमार या कार्तिकेय की कृपा से सर्ववर्मा ने बनाया था ।

कात
संज्ञा पुं० [सं० कर्तन, प्रा० कत्तन] १. एक प्रकार की कैंची जिससे गडेरिये भेड़ों के बाल कतरते हैं । २. मुर्गे के पैर का काँटा ।

कातक्क पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कार्तिक' । उ०— कातक्क करत पहुकर सनान । गोत्रन्न महातम सुनत कान ।—पृ० रा०, १ ।३८० ।

कातना
क्रि० स० [सं० कर्तन, प्रा० कत्तन] १. रूई से सूत बनाना । रूई को ऐंठ या बटकर तागा बनाना । उ०—बहू सास को कहि समुझावै तुँ मेरै ढिंग बैठी काती ।—सुंदर ग्रं०,भा० २, पृ० ५४५ ।२. ढेरा से सन या मूंज आदि का रस्सी बनाना । मुहा०—महीन कातना = बहुत कुशलता से गढ गढकर बातें करना ।

कातर (१)
वि० [सं०] [संज्ञा कातरता] १. अधीर । व्याकुल । चंचल । २. डरा हुआ । भयभीत । ३. डरपोक । बुजदिल । उ०— कोउ कातर युद्ध परात समय (शब्द०) । ४. आर्त । दु?खित । उ०— कातर वियोगिन दुखद रन कीभूमी पावस नभ भई । भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ११० । यौ०—कातोरोक्ति पु (१) दु?ख से भरा वचन । (२) विनती । आर्तविनय । ५. विवश । लाचार । (को०) ।

कातर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घडनैल । २. एक प्रकार की मछली ।

कातर (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्तरी] जबडा । चोभर ।—(कलंदर) ।

कातर (४)
संज्ञा स्त्री०[सं० कतृ = कातनेवाला] कोल्हू में लकडी का वह तख्ता जिसपर हाँ कनेवाला बैठता है और जो कोल्हु का कमर से लगा हुआ उसक चारों और घूमता है । इसी में बैल जोते जाते हैं ।

कातरता
संज्ञा स्त्री०[सं०] [वि० कातर] १. अधीरता । चंचलता । २. दु?ख की व्याकुलता । ३. डरपोकपन ।

कातराचार
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में एक प्रकार का हस्तक ।

क्रातरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कातर] दे० 'कतरी' । उ०—कातरि केतर गिरत बैल चौंकत उछरत दोउ । —प्रेमघन०,भा० १, पृ० ४४ ।

कातोरक्ति
संज्ञा स्त्री०[सं०] दुःख या संकट में कही जानेवाली दीनता भरी बातें ।

कातर्य
संज्ञा पुं० [सं०] कातरता ।

कातल
संज्ञा पुं० [सं०] एक बडी मछली [को०] ।

काता (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कातना] काता हुआ सूत । तागा । डोरा । यौ०—बुढिया का काता = एक प्रकार की मिठई जो बहुत महीन सुत की तरह होती है ।

काता (२)
संज्ञा पु० [सं० कर्तु, कर्त्ता, प्रा० कत्ता] बाँस काटने या छीलने की छुरी ।

काताबारी
संज्ञा स्त्री० [सं० र्क्त (काटना, बिच से दो भागों में बांटना) + हिं० वारी (वाली)] वह पतली काँडी जो जहाज पर बेंडी धरनो के बीच लगी रहती है और जिसके ऊपर तख्ता जडा जाता है ।

काति
वि० [सं०] इच्छुक [को०] ।

कातिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० कार्तिक] वह महीना जो शरद ऋतु के क्वार के बाद पडता है । कार्तिक ।

कातिक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] हरे रंग का एक प्रकार का बहुत बडा तोता ।

कातिग †
संज्ञा पुं० [सं० कार्तिक] दे० 'कातिक' । उ०—संबत अठारह इक्यावन बरख मास, कातिग उँन्यारि तिथि पंचमी सुहाई है ।—ब्रज ग्रं०, पृ०—१३७ ।

कातिकी (१)
वि० [पुं० कार्तिकी] दे० 'कार्तिको'

कातिकी पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० कार्तिक] दे० 'कातिक' । उ०—भै कातिकी सरद ससि उवा । बहुरि गँगन रबि चाहै छुवा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४६ ।

कातिक्क पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्तिक] दे० 'कार्तिक' । उ०—कातिक्क माह जसो न्हाउ । तजि अन्न फल भख पाउ ।—प० रा०, पृ ११ ।

कातिब
संज्ञा पुं० [अ०] लिखनेवाला । लेखक ।

कातिल (१)
वि० अ० [कातिल] १ । प्राण लेनेवाला । घातक ।

कातिल (२)
संज्ञा पुं० कत्ल या वध करनेवाला मनुष्य । हत्यारा ।

काती
संज्ञा स्त्री० [सं० कत्री प्रा० कत्री] १ । कैंची । २ । सुनारो की कतरनी । ३. चाकू । छुरी । ४. छोटी तलवार । कत्ती । उ०—यह पाती न छाती पै काती धरी, हमारी सुनी बुद्धि गरी सो गरी ।—नट०, पृ० २६ ।

कातीय (१)
वि० [सं०] कत ऋषि संबंधी । कात्यायन संबंधी ।

कातीय (२)
संज्ञा पुं० कात्यायन का छात्र ।

कातु
संज्ञा पुं० [सं०] कुआँ [को०] ।

कात्य (१)
वि० [सं०] कत ऋषि संबंधी ।

कात्य (२)
संज्ञा पुं० १. कत ऋषि के गोत्रज ऋषि २. कात्यायन ।

कात्याइनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० 'कात्यायनी' ] दे० कात्यायनी४ । उ०—भवा भवानां, मृडा, मृडानी । काली कात्याइनी, हिमानी ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२४ ।

कात्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कात्यायनी ] १. कत ऋषि के गोत्र में उत्पन्न ऋषि जिसमें तीन प्रसीद्ध हैं —एक विश्वामित्र के वंशज, दूसरे गोभिल के पुत्र और तिसरे सोमदत्त के पुत्र वररुचि कात्यायन । विशेष—विश्वामित्र वंशीय प्राचीन कात्यायन के बनाए हुए 'श्रौतसुत' और 'प्रतिहारसुत्र' हैं । दुसरे गोभिलपुत्र कात्यायन हैं जिनके बनाए 'गृह्यसंग्रह' और 'छंदोपरिशिष्ट' या 'मर्मप्रदिप' हैं । तीसरे वररुचि कात्यायन हैं जो पाणिनि सुत्रों के वार्तिक- ककार प्रसिद्ध हैं । २. एक बौद्ध आचार्य । विशेष—इन्होने 'अभिधर्म—ज्ञान—प्रस्थान' नामक ग्रंथ की रचना की है । नेपाली बौद्ध ग्रंथों से पता लगता है कि ये बुद्ध से ४५ वर्ष पिछे उत्पन्न हुए थे । ३ । पाली व्याकरण के कर्ता एक बौद्ध आचार्य जिन्हें पाली ग्रंथों में 'कच्चायन' कहते हैं ।

कात्यायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कत गोत्र में उत्पन्न स्त्री ।२. कात्यायन ऋषि की पत्नी । ३. कषाय वस्त्र धारण करनेवाली अधेड विधवा स्त्री । ४. कल्पभेद से कत गोत्र में उत्पन्न एक दुर्गा । ५. याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी । ६. पार्वती (को०) । यौ०—कात्यायनीपुत्र कात्यायनीसुत = कार्तिकेय ।

कात्याय़नीय
वि० [सं०] कात्यायन ऋषि द्वारा रचित ग्रंथ ।

काथ † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कत्था(सं० खदिर)] दे० 'कत्या' । ई०—जहै वीरा तह चून है, पान सुपारी काथ ।—जायसी(शब्द०) ।

काथ पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कत्था] एक प्रकार का खैरा रंग । उ०— केचित रँगहि काथ महि कपरा । करि प्रपंच बैठहिं अति लपरा ।—सुंदर ग्रं०, भा० १ पृ० ९२ ।

काथ पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कत्था] दे० 'कंथा' । उ०—रक्त पीत स्वेतांबरी काथ रँखैपुनि जैन ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३५ ।

काथरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कथरी] दे० 'कथरी' ।

काथा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्या, हिं० काथ] दे० 'कंथा' । उ०— माला पहिरै तिलक बनावै, काथा गूदर नावै ।—गुलाल, । पृ० २२ ।

काथिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कहानियाँ कहनेवाला । २. कहानियाँ लिखनेवाला [को०] ।

कादंब (१)
वि० [सं० कादम्ब] १. कदंब संबंधी । २. समूह संबंधी ।

कादंब (२)
संज्ञा पुं० १. कदंब का पेड या फल फुल । २. एक प्रकार हंस । कलहंस । ३. ईख । ४. बाण । ५. दक्षिण का एक प्राचीन राजवंश । ६. शराब । मदिरा । कदब की बनी शराब ।

कादंबक
संज्ञा पु० [सं० कादम्बक] बाण [को०]

कादंबर
संज्ञा पुं० [सं० कादम्बर] १. दही की मलाई । २. ईख का गुड़ । ३. कदम के फूलों की शराब । ४. मदिरा । शराब । ५. हाथी का मद ।

कादंबरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कादम्बरी] सं० 'कादंबरी' । उ०— काँच मास कबहु कर भोषण; कादंबरि से लोहित लोअन ।— कीर्ति०, पृ० ९० ।

कादंबरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कादम्बरी] १. कोकील । कोयल । २. सरस्वती । वाणी ३. मदिरा । शराब । उ०—मधुर केलि कादंबरी छके साँवरे छैल ।—घनानंद, पृ० २७३ ।४. मैना । ५. बाणभट्ट की लिखी एक आख्यायिका जिसकी नायिका का यही नाम है । ६. गड्ढो में एकत्र बरसात का पानी (को०) ।

कादंबिनि
संज्ञा स्त्री० [सं० कादम्बिनी] दे० 'कादंबिनी' ।उ०— निरवधि रस की रासि रसोली । हित 'कादंबिनि' नित बरसोली ।घनानंद, पृ० १८५ ।

कादंबिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कादम्बिनी] १. मेधमाला । धटा । २. मेघ राग की एक रागिनी ।

कादंम पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० कर्दम, प्रा० कद्दम] दे० 'कर्दम (१)' ।उ०— बसु मांस कादम मचो प्रसत परवत वणे, रुधिर मिल सरतपत हुओ रातो ।—रघु० रू०, पृ०२० ।

कादर
वि० [सं० कातर] १. डरपोक । भीरू । बुजदील । २. व्याकुल । अधीर । उ०—(क) लाल बिनु कैसे चादर रहैगी आज कादर करत मोहिं बादर नए नए ।—श्रीपती (शब्द०) । (ख) क्षण इक मन में शुरि कहोई । क्षण इक में कादर हो सोई ।—अनुराग, पृ० ४१ ।

कादरियत पु
संज्ञा पुं० [अ० कद्रत] कुदरत करनेवाला । उ०— कादरियत के आलम में किसे च कुदररत नई, जो खुदा कहवाय ।—दक्खिनी०, पृ० ४११ ।

कादव †
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम, प्रा० कद्दम, पु† काँदो] दे० 'काँदो' । उ०—मानि कादव लपटाय रे, लैकितनिक गुन जाए रे ।— विधापति, पृ० ४६५ ।

कादा
संज्ञा पुं० [सं० क=जल+आर्द्रा=भीगी हुई] लकडी की पटरी जो जहाज की शहतीरों औऱ कडियों के नीचे उन्हे जकडे रहने के लिए जडी रहती हैं ।

कदिम पु
संज्ञा पुं० [हिं० कादम] दे० 'कर्दम' । उ०—नदियों नाला निझरण, पावस चढिया पूर । करहउ कादिम तिलकस्यई पंथी पूगल दूर । ढोला०, दु २५६ ।

कादिर
वि० [अ० कादिर] १. ताकतवर । शक्तिशाली । २. साम्यर्थवान । काबुदार । उ०—बीर रघुबीर पैगंबर खोदा मेरे, कादिर करीम काजी माया मत खोई है ।—मलूक०, पृ० २८ ।

कादिरकार
वि० [अ०कादिर+फा० कार (प्रत्य०)] शक्तिशाली बनानेवाला । साम्यर्थ्य प्रदान करनेवाला । उ०—जिंदगानी मुरद बाशद, कुंजे कादिरकार ।—दादु०, पृ० ५०७ ।

कादिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० कादिरी] एक प्रकार चोली जिसे बेगमें पहनती हैं । सीनाबंद । उ०—नीमा जामा तिलक लबादा कुस्ती दगला दुतही, नीमस्तीन कादिरी चोला झगला ।— सुदन (शब्द०) ।

कादी पु
संज्ञा पुं० [अ० काजी] दे० 'काजी' । उ०—सुरूतान के फरमाने सगो राह सम सम सेल पलु, कादी षोजा मषदुम लरु ।— कीर्ति०, पृ०८० ।

कादो पु
संज्ञा पुं० [हिं० कादम, कादव] दे० 'काँदो' । उ०— परबत बुडे भुमि नहिं भीजे कादो बकुलहिं खाई ।—सं० दरिया, पृ०११२ ।

काद्रव
वि० [सं०] गहरे पीले रंग का [को०] ।

काद्रवेय
संज्ञा पुं० [सं०] शेष, अनंत, वासुकी, तक्षक आदि सर्प जो कद्रु से उत्पन्न माने जाते हैं ।

कान (१
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० कण्ण] वह इँद्रिय जिससे शब्द का ज्ञान होता है । सुनने की इँद्रिय । श्रवण । श्रुति । श्रोत्र । विशेष—मनुष्यो तथा और दुसरे माता का पीनेवाले जीवो के कान के तीन विभाग होते हैं ।(क) बाहरी, अर्थात् सुप की तरह निकला हुआ भाग और बाहरी छेद । (ख) बीच का भाग जो बाहरी छेद के आगे पडनेवाली झिल्ली या परदे के भीतर होता हैं जिसमें छोटी छोटी बहुत सी हड्डियाँ फैली होती हैं और जिसमे एक नली नाक के छेदों या तालू के ऊपरवाली थैली तक गई होती है । (ग) भीतरी या भुलभूलैया जो श्रवण शक्ती का प्रधान साधक हैं और जिसमे शब्दवाहक तंतुओं के छोर रहते हैं । इनमें एक थैली होती है जो चक्करदार हड्डियों के बीच में जमीं रहती है । इन चक्करदार थैलीयों के भीतर तथा बाहर एक प्रकार का चेप या रस रहता है । शब्दो की जो लहरें मध्यम भाग की परदे की झिल्ली से टकराती है, वे अस्थितंतुओं द्वारा भूलभुलैया में पहुँचती हैं । दुध पीनेवालों से निम्न श्रेणी के रीढवालें जीवों में कान की बनावट कुछ सादी हो जाती है, उसके ऊपर का निकला हुआ भाग नहीं रहता, अस्थितंतु भी कम रहते हैं । बीना रीढवाले कीटों को भी एक प्रकार का कान होता है । मुहा०—कान उठाना = (१) सुनने के लिये तैयार होना । आहट हेना । अकनना । (२) चौकन्ना होना । सचेत या सजग होना । होशीयार होना । कान उड जाना = (१) लगातार देर तक गंभीर या कडा शब्द सुनते सुनते कान में पीडा और चित्त में घबराहट होना । (२) कान का कट जाना । कान उडा देना = (१) हल्ला गुल्ला करके कान को पीडा पहुँचाना और व्याकुल करना । (२) कान काट लेना । कान उडाना = ध्यान न देना । इस कान से सुनना उस कान से उडा देना । उ०—अर्थ सुनी सब कान उडाई ।—कबीर सा०,पृ० ५८२ । कान उमेठना = (१) दंड देने के हेतु किसी का कान मरोड देना । जैसे,—इस लडके का कान तो उमेठो । (२) दंड आदि द्वारा गहरी चेतावनी देना । (३) कोई काम न करने की कडी प्रतीज्ञा करना । जैसे,—लो भाई, कान उमेठता हुँ, अब ऐसा कभी न करुँगा । कान उँचे करना = दे० 'कान उठाना' । कान एंठेना = दे०'कान उमेठना' । कान कतरना = दे० 'कान काटना' । कान करना = सुनना ।ध्यान देना । उ०—बालक बचन करिय नहिं काना ।—तुलसी (शब्द०) । कान काटना = मात करना । बढकर होना । उ०—बादशाह अकबर उस वक्त कुल तेरह बरस चार महीने का लडका था, लेकीन होशियारी और जवाँमर्दी में बडे ब़डे जवानों का कान काटता था ।—शिवप्रसाद (शब्द०) । कान का कच्चा = शीघ्रविश्वासी । जो किसी के कहे पर बिना सोचे समझे विश्वास कर ले । जो दुसरो के बहकने में आ जाय । उ०—क्यों भला हम बात कच्ची सुनें । हैं न बच्चे न कान के कच्चे ।—चुभते०, पृ० १७ । कान का पतला = हर तरह की बात को मान लेनेवाला । झुठी या निराधार बात को मान लेनेवाला । उ०—जो करे ढाह दे विपत हम पर । पत उतारें न कान के पतले ।—चुभते०, पृ० १७ । कान की ठेंठी या मैल निकलवाना = (१) कान साफ करना । (२) सुनने के योग्य होना । सुनने में सम्यर्थ होना । (अपने) कान खडे करना = (१) (आप) चोकन्ना होना । सचेत होना । जैसे,—बहुत कुछ खो चुके; अब तो कान खडे़ करो । (दूसरे के) कान खडे़ करना = सचेत करना । होशीयार कर देना । चेताना । सजग कर देना । भुल बता देना । कान गरम करना या कर देना = कान उमेठना । कान झन्नाना = अधिक शब्द सुनने से कान का सुन्न हो जाना । जैसे, —इस झाँझ की आवाज से तो कान झन्ना गए । कान पूँछ दबाकर चला जाना = चुपचाप चला जाना । बिना चीं चपड़ किए खिसक जाना । बिना बिरोध किए टल जाना । कान छेदना = बाली पहनने के लिये कान की लौ में छेद करना । (यह बच्चो का एक संस्कार है ।) कान दबाना = विरोध न करना । दबाना । सहमना । जैसे, —उनसे लोग कान दबाते हैं । उ०—दो चार आदमियों ने मकानों और छतों से ढेले फेंके मगर यह कान दबाए चले ही गए ।—फिसाना०, भा०३, पृ०८६ । (किसी बात पर) कान देना = ध्यान देना । ध्यान से सुनना । जैसे,—हम ऐसी बातों पर कान नहीं देते । उ०—कहा दीजिए कान प्रान प्यारी की बातन । कहा लीजिए स्वाद अधर के अमृत अघात न ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५९५ । (किसी बात पर) कान धरना = ध्यान से सुनना । (किसी बात से) कान धरना = (किसी बात को) फिर न करने की प्रतिज्ञा करना । बाज आना । काम धरना = दे० 'कान उमेठना' । कान न दिया जाना = कर्कश या करुण स्वर सुनने की क्षमता न रहना । न सुना जाना । सुनने में कष्ट होना । जैसे, —(क) ठठेरों के बाजार में कान नहीं दीया जाता । (ख) अपनी माता के लिये बच्चा ऐसा रोता है कि कान नहीं दिया जाता । कान पक जाना = ऊब जाना । अनिच्छा होना । उ०—सुनते सुनते मेरा कान पक गया ।—किन्नर०, पृ० ७६ । कान पकड़ना = (१) कान मलकर दंड देना । कान उमेठना । (२) अपनी भूल या छोटाई स्वीकार करना । किसी को अपना गुरू मान लेना । (३) किसी बात को न करने की प्रतिज्ञा करना । तोबा करना । जैसे, —आज से कान पकड़ते हैं, ऐसा काम कभी न करेंगे । (किसी बात से) कान पकड़ना= पछतावे के साथ किसी बात के फिर न करने की प्रतिज्ञा करना । जैसे, —अब हम किसी की जमानत करने से कान पकडते हैं । कान पकडी लौंडी = अत्यंत आज्ञाकारिणी दासी । कान पकड़कर उठना बैठना = एक प्रकार का दंड जो प्रायः लडकों को दिया जाता है । कान पकड़कर निकाल देना= अनादार के साथ किसी स्थान से बाहर कर देना । बेइज्जती से हटा देना । कान पड़ना, कान में पड़ना = सुननें में आना । सुनाई पड़ना । कान पर जूँ न रेंगना = कुछ भी परवा न होना । कुछ भी ध्यान न देना । कुछ भी चेत न होना ।बेखबर रहना । जैसे, —इतना सब हो गया पर तुम्हारे कान पर जूँ न रेंगी । कान पर हाथ धरकर सुनना = ध्यान से सुनना । उ०— अगर इजाजत हो तो अर्ज हाल करूँ मगर कान पर हाथ धरकर सुनिए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १२१ । कान पार करना सुनना = ध्यान से एकाग्र होकर सुनना । उ०—भौंर तू कहीं न मानी बात ।....कानन पारि न सुनत यहि ते नेको बेन हमारो ।—ठेठ०, पृ० १५ । कान पूँछ फटकारना = सजग होना । सावधान होना । चैतन्य होना । तुरंत के आघात से स्वथ या तंद्रा से चैतन्य होना । जैसे—इतना सुनते ही वे कान पूँछ फटकार कर खडे़ हुए । कान फटफटाना = कुत्तों का कान हिलाना जिससे फट फट का शब्द होता है । (यात्रा आदि में यहह अशुभ समझा जाता है ।) कान फुँकवाना = गुरुमंत्र लेना । दीक्षा लेना । कान फुकाना = दे० 'कान फुकवाना' । उ०—जिंदा एक नगर में आया, तासों राजा कान फुकाया ।—कबीर सा०, पृ० ५२६ । कान फूँकना = (१) दीक्षा देना । चेला बनना । गुरुमंत्र देना । (२) दे० 'कान भरना' । कान फटना या कान का परदा फटना = कडे़ शब्द सुनते सुनते कान में पीड़ा होना या जी ऊबना । जैसे, —तोशों की आवाज से तो कान फट गए हैं । कान फूटना = दे० 'कान फटना या कान का परदा फटना' । उ०—गरजनि तरजनि अनु अनु भाँती । फुटै कान अरु फाटै छाती ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९१ । कान फोड़ना = शोर गुल करके कानों को कष्ट पहुँचाना । कान बजना = कान में वायु के कारण साँय साँय शब्द होना । कान बहना = कान से पीब निकलना । कान बींधना = कान छेदना । कान चपड़ियाना या बुचियाना = कानों को पीछे की ओर दबाकर काटने या चोट करने की तैयारी करना । (यह मुद्रा बंदरों ओर घोड़ों में बहुधा देखने में आती है ।) कान भर जाना= सुनते सुनते जी ऊब जाना । जैसे, —उसकी तारीफ सुनते सुनते तो कान भर गए । कान भरना = किसी के विरुद्ध किसी के मन में कोई बात बैठा देना । पहले से किसी के विषय में किसी का ख्याल खराब करना । जैसे,—लोगों ने पहले ही से उनके कान भर दिए थे, इसलिये हमारा सब कहना सुनना व्य़र्थ हुआ । उ०—क्यों भला आप भर गए साहब, कान ही तो भरे किसी ने थे,—चोखे०, पृ० ५३ । कान मलना = दे० 'कान उमेठना' । कान में कौड़ी डालना = दास या गुलाम बानाना । कान में तेल डालना = बहरा बन जाना । बेखबर हो जाना । ध्यान न देना । उ०— कान में तेल डाल लेने से, कान का खोल डालना अच्छा ।—चोखे०, पृ० २८ । कान में तेल डाल बैठना = बहरा बन जाना । बात सुनकर भी उस और कुछ ध्यान न देना । बेखबर रहना । जैसे,—लोग चारों और रुपया माँग रहे हैं और वह कान में तेल डाले बैठा है । (कोई बात) कान में डाल देना = सुना देना । कान में पारा भरना = कान में पारा भरने का दंड देना । (प्राचीन काल में अपराधियों के कान में सीसा या पारा भरा जाता था । (किसी का) कान लगाना = कान के पीछे घाव हो जाना । (किसी का किसी के) कान लगाना = चूपके चूपके बात कहना । गुप्त रीति से मंत्रणा देना । जैसे—जब से बुरे लोग कान लगने लगे, तभी से उनकी यह दशा हुई है । उ०— आजहि कलि सुनी हम तो, वह कूबरिया अब कान लगी है ।—नट०, पृ० ४१ । कान लगाना = ध्यान देना । कान न हिलाना = बिना विरोध किए कोई बात मान लेना । चूँ न करना । दम न मारना । कान होना=चेत होना । खबर होना । ख्याल होना । जैसे,—जबतक उन्होंने हानि न उठाई तबतक उन्हें कान न हुए । कानाफूंसी करना = (१) चुपके चुपके कान में बात कहना । कानाबाती करना = चुपके चुपके कान में बात कहना । (२) बच्चों को हँसाने का एक ढंग, जिसमें बच्चे के कान में 'कानाबाती कानाबाती कू' कहकर 'कू' शब्द को अधीक जोर से कहते हैं जिससे बच्चा हँस देता है । कानों पर हाथ धरना या रखना = (१) बिलकुल इन्कार करना । किसी बात से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना । किसी बात से अपना लगाव अस्वीकार करना । जैसे, —उनसे इस विषय में कई बार पूछा गया, पर वे कानों पर हाथ रखते हैं । (२) किसी बात के करने से एकबारगी इन्कार करना । जैसे, — हमने उनसे कई बार ऐसा करने को कहा, पर वे कानों पे हाथ रखते हैं । कानों पे उँगली देना=किसी बात से विरक्त या उदासीन होकर उसकी चर्चा बचना । किसी बात को न सुनने का प्रयत्न करना । उ०— कुल जानि जौ अपनी राखी चहौ दै रही अँगुरी दोउ कानन में ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ३९७ । कानों में ठैठियाँ पड़ी होना = कान बंद होना । न सुनना । उ०— लाडो, ए लाडो, बी मुँह से जरी आवाज दो । सुनती हो और बोलती नहीं । जैसे, कानों में ठेठियाँ पड़ी है ।— सैर०, पृ० ३१ । कानों सुनना न आँखों देखना = पूर्णतः अज्ञात । जिसके विषय में लेशमात्र जानकारी न हो । उ०— कानों सुनी न आखोँ देखी ।—कबीर सा०, पृ० ५४५ । कानोंकान खबर न होना = जरा भी खबर न होना । कुछ भी सुनने में न आना । जैसे, —देखो, इस काम को एसे ढंग से करना कि किसी को कानोकान खबर न होवे पाये । उ०— मजूरों को कानोंकान खबर न थी ।—गोदान, पृ० २७४ । विशेष—जब 'कान' शब्द से यौगिक शब्द बनाए जाते हैं, तब इसका रूप 'कन' हो जाता है । जैसे, — कनखजूरा, कनखोदनी, कनछेदन, कनमैलिया, कनसलाई । २. सूनने की शक्ती । श्रवणशक्ती । ३. लकड़ी का वह टुकड़ा जो हल के अगले भाग में बाँध दिया जाता है और जिससे जोती हुई कूँड कुछ अधिक चौड़ी होती है । विशेष— गेहूँ या चना बोते समय यह टुकड़ा बाँधा जाता है । इसे कन्ना भी कहते हैं । ४. सोने का एक गहना जो कान में पहना जाता है । ५. चारपाई का टेढापन । कनेव । ६. किसी वस्तु का ऐसा निकला हुआ कोना जो भद्दा जान पडे । ७. तराजू का पसंगा । ८. तोप या बंदूक का वह स्थान जहाँ रंजक रखी जाती है और बत्ती दी जाती है । पियाली । रंजकदानी । उ०—जोगी एक मढ़ी मेंसोवै । दारू पियै मस्त नहिं होवै । जबै बालका कान में लागै । जोगी छोड़ मढ़ी को भागै ।—(पहेली) ।

कान (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कानि] १. लोकलज्जा । २. मर्यादा । इज्जत । दे० 'कानि' । उ०—भीख के दिन दुने दान, कमल जल कुल की कान के ।—बेला, पृ० १८ ।

कान (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] नाव की पतवार जिसका आकार प्रायः कान सा होता है । उ०— कान समुद्र धँसि लीन्हेंसी भा पाछे सब कोइ ।—जायसी (शब्द०) ।

कान (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कणह पु कान्ह ] कान्ह । कृष्ण । उ०— तुम कहा करो कान, काम तें अटकि रहे, तुमको न दोष सो तो आपनोई भाग है ।—मति० ग्रं०, पृ० २८० ।

कान (५)
संज्ञा स्त्री० [फा० तुलनीय सं० खनि] खान । खनि ।

कानक (१)
वि० [सं०] कनक संबंधी । सोने का । सोने से संबंधित [को०] ।

कानक (२)
संज्ञा पुं० जमालगोटा ।

कानकी
संज्ञा पुं० [देश०] कोंकण देश का एक बड़ा पेड़ । विशेष—इसकी लकड़ी मकानो में लगती है । इसके बीजों से एक प्रकार का पीला तेल निकाला जाता है जो दवा तथा जलाने के काम में आता है । इसके फल जायफल के समान होते हैं ।

कानकुब्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० कान्यकुब्ज] दे० 'कान्यकुब्ज' ।

कानड़ा
वि० [सं० काण] १. एक आँख का काना । २. सात समुंदर के खेल का वह घर जो चम्मो रानी के बाद आता है ।

कानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगल । बन । २. घर । ३. वाटिका । बाग (को०) । ४. ब्रह्मा का मुख (को०) । यौ०—काननग्नि = दावानल । जंगली आग जो डालों आदि की रगड़ से लग जाती है । काननौका = (१) जंगलवासी । (२) बंदर ।

काननरि
संज्ञा पुं० [सं०] शमी वृक्ष [को०] ।

कानफरेंस
संज्ञा स्त्री० [अं० कानफ़रेंस] १. सभा । समिति । २. जन- समूह जो किसी बड़ी आवश्यक बात के निश्चय के लिये एकत्र हो ।

कानवेंट
संज्ञा पुं० [अं०] १. ईसाई संन्यासियों का संघ । २. ईसाइयों का मठ या धर्मशाला । ३. ईसाइयों अथवा पादरियों द्वारा संचालित शिक्षासंस्था । ४. ईसाइयों द्वारा संचलीत ऐसी बाल पाठशाला जहाँ अंग्रेजी भाषा पढ़ने बोलने आदिपर सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है ।

कानस्टेबिल
संज्ञा पुं० [अं० कास्टेब्ल] पुलिस का सिपाही ।

काना (१)
वि० [सं०त काण] [स्त्री० कानी] जिसकी एक आँख फूट गई हो । जिसे एक आँख न हो । एकाक्ष । एक आँख का । उ०— काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि ।—मानस, २ ।१४ । मुहा—काने का आगे पड़ना या काने का मिलना = किसी के रास्ते में काने आदमी का दिख जाना दिखाई पडना । विशेष—यह अपशकुन माना जाता है । काने को काना कहना = बुरे को बुरा कहना । उ०—बात सच है, जल मरेगा वह मगर, लोग काना को अगर काना कहें ।— चोखे०, पृ० २७ ।

काना (२)
वि० [सं० कर्णक] (फल आदि) जिनका कुछ भाग कीड़ों ने खा लिया हो । कन्ना । जैसे, —काना भंटा ।

काना (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] 'आ' की मात्रा जो किसी अक्षर के आगे लगाई जाती है और जिसका रूप (ा) है जैसे,—वाला में का (ा), ।

काना (४)
वि०[ सं० कर्ण] जिसका कोई कोना या भाग निकला हो । तिरछा । टेढा । जैसे,—कपडे में से टुकडा काटकर तुमने उसे काना कर दिया ।

काना (५)
संज्ञा पुं० [हिं० काना] पासे में की बिंदी पौ । जैसे,— तीन काने ।

कानाकानी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णाकर्णिक] कानाफूसी । चर्चा । उ०— जब जाना की लोगों में यही बात कानाकानी हो रही है ।— सदल मिश्र (शब्द०) ।

कानाकुतरा
[वि० हिं० काना+कुतरना] कुतरा हुआ । काटा हुआ । खंडित ।

कानागोसी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काना+फा० गोश(कान) हिं० ई (प्रत्य०)] कान में बात कहना । कानाफूसी ।

कानाटीटो
संज्ञा स्त्री० [देश.] एक प्रकार का घास ।

कानाफुसकी
संज्ञा स्त्री०[हिं० कानाफूसी] दे० 'कानाफूसी' ।

कानाफूसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काना+अनु. 'फुस फुस'] । वह बात जो कान के पास जाकर धीरे से कही जाय । चुपके चुपके की बातचीत । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कानाबाती
संज्ञा पुं० हिं० [कान+बात] १. चुपके चुपके कान में बात कहना । कानाफूसी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. बच्चो को हँसाने का एक ढंग, जिसमें उनके कान में 'काना— बाती कानाबाती कू कहकर 'कू' शब्द पर जोर देते हैं । जिसपर बच्चा हँस पडता है ।

कानवेज
संज्ञा पुं० [अं० कैनवस] गबरून या सींकिया की तरह का एक कपडा ।

कानि
संज्ञा स्त्री० [देश.] १. लोकलज्जा । मर्यादा का ध्यान । उ०—(क) तेरे सुभाव सुशील कुलनारिन को कुलकानि सिखाई ।—मतिराम (शब्द०) । (ख) मैं मरजीवा समुँद्र का पैठा सप्त पताल । लाज कानि कुल मेटिकै गहि लै निकला लाल ।—कबीर (शब्द०) ।२. लिहाज । दबाव । संकोच । उ०—(क) खैरि पनच भृकुटी धनुष, सुरकि भाल भरि तानि ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) अब काहू की कानि न करिहौं । आज प्राण कपटी के हरिहौं ।—लल्लू (शब्द०) ।

कानिद
संज्ञा पुं० [देश.] बाँस की कमची जिससे खराद पर चढाते समय हीरे पन्ने आदि रत्नों को दबाते हैं ।

कानिष्ठिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सबसे छोटी उँगली । छिगुनी [को०] ।

कानिष्ठिक (२)
वि० उम्र में सबसे छोटा [को०] ।

कानी (१)
वि० स्त्री० [हिं० काना] एक आँखवाली । जिस (स्त्री०) की एक आँख फूट गई हो । यौ०—कानी कौडी=फूटी कौडी । छेदवाली कौडी । झंझी कौडी ।मुहा०—कानी कौडी न होना=बिलकुल निर्धन या फटेहाल होना ।

कानी (२)
वि० स्त्री० [सं० कनीनी] सबसे छोटी उँगली । जैसे,— कानी उँगली । यौ०—कानी उँगली=सबसे छोटी उँगली । छिगुनी ।

कानीन (१)
वि० [सं०] क्वारी कन्य़ा से उत्पन्न । कन्याजात ।

कानीन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुत्र जो किसी कन्या को कुमारी अवस्था में पैदा हुआ हो । विशेष—ऐसा पुत्र उस पुरुष का कानीन पुत्र कहलाता है, जिसको वह कन्य़ा ब्याही जाय । व्यास और कर्ण ऐसे ही पुत्र थे ।

कानीहाउस
संज्ञा पुं० [अं० काइन वा कैनिन+हाउस] वह स्थान जहाँ इधर उधर घूमनेवाला चौपाए पकडकर बंद कर दिए जाते हैं । काँजी हाउस ।

कानीहौद
संज्ञा पुं० [हिं० कानिहाउस] दे० 'कानीहाउस' ।

कानूँगोय पु
संज्ञा पुं०[ अ० कानून+फा० गो] दे० 'कानूनगो' । उ०—कानूँगोय लोभ के खोटे छल बल पाहीं झुठे ।—चरण० बानी, भा० २, पृ० १२४ ।

कानून
संज्ञा पुं० [ अ० कानून] [ वि० कानूनी] १. राज्य में शांति रखने का नियम । राजनियम । आईन । विधि । यौ०—कानूनदाँ । कानूनगो । मुहा०—कानून छाँटना=कानूनी बहस करना । कुतर्क करना । हुज्जत करना । २. एक रुमी बाजा जो पटरियों पर तार लगाकर बनाया जाता है ।

कनूनगो
संज्ञा पुं० [अ० कानून+फा० गा] माल का एक कर्मचारी जो पटवारियों के उन कागजों की जाँच करता है जिनमे खेतों और उनके लगान आदि का हिसाब किताब रहता है । विशेष—कानूनगो दो प्रकार के होते हैं, गिरदावर और रजि— स्ट्रार । गिरदावर कानूगनो का काम है घूघूमकर पटवारियों के कागजों की जाँच करना; और रजिस्ट्रार कानूनगो के दफ्तर में पटवारियों के एक साल से अधिक पुराने कागज दाखिल होते और ऱखे जाते हैं ।

कानूनगौ पु
संज्ञा पुं० [ हिं० कानूनगोय] दे० 'कानूनगो' । उ०— राजरूप कानूगो लाराँ । रसमंथी मिलिया राजा रा । रा० रू०, पृ० ३२५ ।

कानूनदाँ
संज्ञा पुं० [ अ० कानून+फा० दाँ] १. कानून जानने— वाला । विधिज्ञ ।२. कानून छाँटनेवाला । हुज्जत करनेवाला । कुतर्की ।

कानूनन्
क्रि० वि० [अ० कानूनन्] कानून को रु से । कानून के अनुसार । जैसे,—कानूनन् तुम्हारा उस मकान पर कोई हक नहीं है ।

कानूनिया
वि० [ अ० कानून+हिं० इया(प्रत्य०) ] १. कनून जाननेवाला ।२. तकरार करनेवाला । हुज्जती ।

कानूनी
वि० [ अ० कानून+ हिं० ई(प्रत्य०)] १. जो कानून जाने । २. कानून संबंधी । अदालती ।३. जो कानून के मुताबिक हो । नियमाकुल ।४. तकरार करनेवाला । हुज्जती तकरार ।

कानेजर
संज्ञा स्त्री०[ फा० कानेजर] सोने का खान ।

कानौ पु
संज्ञा पुं० [हिं० कने.=समीप, पार्श्व] किनारा । उ०— लूबाँ झडनह मागीयाँ, लुवाँ न कार्नो लेह । बाँकी० ग्रं० भा० १, पृ० ३५ ।

काना †
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम, हिं० काँदो] दे० 'काँदो' । यौ०—पानीकानौ ।

कान्यकुब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन समय का एक प्रांत जो वर्तमान समय के कन्नोज के आसपास था । विशेष—इस प्रदेश के संबंध में रामायण में लिखा है कि राजर्षि कुशनाभ को धृताची नाम की अप्सरा से१००कन्याएँ हुईं । उन कन्याओं के रुप को देख वायु उन पर मोहित हो गया । कन्याओं ने जब वायु की बात अस्वीकार की, और कहा कि पिता की आज्ञा के बिना हम लोग किसी को स्वीकार नहीं कर सकती, तब वायु देवता ने कुपित होकर उन्हें कुबडी कर दिया । पिता कन्याओं पर बहुत प्रसन्न हुए औऱ उन्हें कांपिल्ल नगर के राजा ब्रम्हादत्त (चूलीय ऋषि के पुत्र) को ब्याह दिया, जिनके स्पर्श से उनका कुबडापन जाता रहा । ह्मेनसाँग ने अपने विवरण में यह कथा और ही प्रकार से लिखी है । उसने सौ कन्याओं को कुसुमपुर के राजा ब्रह्मदत्त की कन्याएँ माना है ओर लिखा है कि महावृक्ष ऋषि ने मोहित होकर उन कन्याओं में से एक को ब्रह्मदत्त से माँगा । राजा सबसे छोटी कन्या को लेकर ऋषि के आश्रम पर गए । ऋषि ने कुपीत होकर कहा—सबसे छोटी कन्या क्यों ? राजा ने डरते डरते कहा कि औऱ कोई कन्या राजी नहीं हुई । ऋषि ने शाप दिया कि तुम्हारी और सब कन्याएँ कुबडी हो जायँ । इन्हिं कुबडी कन्याओं के आख्यान से इस प्रदेश का नाम कान्यकुब्ज पडा । २. कान्यकुब्ज देश का निवासी ।३. कान्यकुब्ज देश का ब्राह्मण कनौजिया ।

कान्सल
संज्ञा पुं०[ अ० ] दे० 'कांसल' ।

कान्सोलेट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'दूतावास' ।

कान्स्टिट्यूशन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कांस्टिट्यूशन' ।

कान्स्टेबल
संज्ञा पुं० [अं० कान्स्टेब्ल] दे० 'कांय्टेबल' ।उ०— एकाएक कान्स्टेबल ने कोचमैन को पुकारकर बग्गी खडी कराई ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३८८ ।

कान्स्पिरेसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'कांस्पिरेसी' ।

कान्यजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक सुगधींत पदार्थ [को०] ।

कान्ह पु
संज्ञा पुं० [ सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] श्रीकृष्ण । उ०— पूराँ धावाँ ऊपडे, जीध सिरदार जवन्न । कान्ह हरी साकौ कियौ, उजवालियौ उतन्न ।—रा० रू०, पृ० १९८ ।

कान्हडा
संज्ञा पुं० [सं० कर्णाट] एक राग जो मेघ राग का पुत्र समझा जाता है । विशेष—इसमें सातों स्वर लगते हैं । इसके गाने के समय रात ११दंड से१५दंड तक है । यौ०—कान्हडा नट=एक संकर राग जो कान्हडे औऱ नट केमिलाने से बनता है । यह रात में दूसरे पहर में गाया जाता है ।

कान्हडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णाटी] एक रागिनी जो दीपक राग की पत्नी समझी जाती है ।

कान्हम
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण+मृत्(=मृत्तिका, मिट्टी) प्रा० कण्ह काला] भडौं च प्रांत की वह काली मटियार जमीन जो कपास की पैदावर के लिये प्रसिद्ध है ।

कान्हमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान्हम] भडौंच प्रांत की कान्हम भूमि में उत्पन्न कपास ।

कान्हर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] कोल्हू के कातर के छोर पर लगी हुई बेडीं औऱ टेढी लकडी । विशेष— यह दोनों ओर निकली होती है और कोल्हू की कमर से लगकर चारों ओर घूमती है ।

कान्हर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] श्रीकृष्ण जी । उ०— देखी कान्हर की निठराई । कबहूँ पाति हु न पठाई ।—(शब्द०) ।

कान्हरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० कान्हडा] दे० 'कान्हडा' । उ०—मूरली तान कान्हरौ गावत, सुनलै री दै कान ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६७ ।

कान्हा पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण प्रा० कण्ह] श्री कृष्ण ।

कान्हूड़ पु
संज्ञा पुं० [हिं० कान्ह+ड(प्रत्य०)] दे० 'कान्ह' उ०— कान्हूडे के रंग में सूरदास के चोल ।—पोदद्रशन अभि० पृ० १६७ ।

काप पु
संज्ञा पुं० [सं० कृप, पा० कप्प] काट । कटाव । उ०— कालेजा बिचि काप परहर तूँ फाटइ नहीं ।—ढोला०, दू० १८० ।

कापट
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कापटकी] धोखेबाज । धूर्त । कपटी [को०] ।

कापटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चापलूस । खूसामदी ।२. विद्यार्थी [को०] ।

कापटिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कापटिकी] १. कपट करनेवाला । बेईमान ।२. दुष्ट [को०] ।

कापाटिक (२)
संज्ञा पुं० १. चापलूस२. वीद्यार्थी । अध्ययनार्थी (को०) ।

कापट्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. छल ।२. दुष्टता (को०) ।

कापड
संज्ञा पुं० [सं० कपट, प्रा० कप्पड]कपडा । यौ०—कुल कापड=वंश और कपडा ।

कापडा पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्पटक, प्रा० कप्पडअ] दे० 'कपडा' ।

कापडी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कार्पटिक, प्रा० कप्पडि] [स्त्री० कापाडिन] १. एक जाति का नाम२. बजाज । वस्त्रविक्रेता । उ०— औऱ नागजी आपु कापडी कौ भेख करि वह लाठी हाथ में लै के श्री गुसाई जी के पास श्री गोकुल को गोंधरा सो श्री गुसाई जी, के दर्सनार्थ चले ।—दो सौ बावन, भा० १, पृ० ७ ।

कैपडी पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० काँवरी] एक तरह के धार्मिक यात्री जो गंगोत्तरी से काँवर पर जल लेकर चलते हैं और उस जल को सब तीर्थों में चढाते हैं । उ०—कापडी संन्यासी तिरथ भ्रमाया । न पाया नृवाण पद का भेंव ।—गोरख०, पृ० ३३ ।

कापथ
संज्ञा पुं० [सं०] कुमार्ग । बुरा रास्ता ।१. उशीर । खस [को०] ।

कापना पु
क्रि० स०[सं० क्लृप, प्रा० कप्प] काटना । छेदना । उ०—क्रन वन सोनो कापियौं, विणही लुंका बंक ।—बाँकी० भा० १, पृ० ५४ ।

कापर पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्पट=वस्त्र, प्रा० कप्पड] कपडा । वस्त्र । उ०—(क) हस्ति धोर औ कापर, सबै दींन्ह बड साज । भये गुहस्थ सब लखपती, घर घर मानहु राज ।—जायसी (शब्द०) । (ख) काढहु कोरे कापर हो अरु काढ़ौ धी की मौन । जाति पाँति पहिराइ के सब समदि छतीसौ पौन ।—सूर (शब्द०) ।

कापर प्लेट
संज्ञा पुं० [अं०] छापेखाने में काम आनेवाला ताँबे की चद्दर का एक टुकडा जिसपर अक्षर खूदे होते हैं । विशेष—इसपर एक बार स्याही फेरी जाती है और फिर पोंछ ली जाती है जिसे खुदे अक्षरों में स्याही भरी रह जाती है और शेष भाग साफ हो जाता है । फिर इसको प्रेस में रखकर इसके ऊपर से कागज छापते हैं । जहाँ चित्र आदि बनाने होते हैं वहाँ तेजाब आदि रासायनिक द्रव्यों से काम लिया जाता है ।

कापर प्लेट प्रेस
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का प्रेस या छापने की कल जिसमें प्राय?दो बेलन होते हैं और जिसमें कापर प्लेट की छपाई होती है ।

कापाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन अस्त्र । उ०— वारुनास्त्र क्रौचास्त्र हयग्रीवास्त सुहाये । कंकालहु कापाल मुसल ये दोऊ आये ।—पद्माकर (शब्द०) ।२. बायबिडंग ।३. एक प्रकार की संधि जिसे करनेवाला पक्ष एक दुसरे के समान स्वत्व को स्वीकार करते हैं ।४. कापालिक (को०) ।५. एक प्रकार का कोढ (को०) ।

कापाल (२)
वि० १. कपालसंबंधी ।२. भिक्षुक का सा । भिक्षुक— संबंधी [को०] ।

कापालिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैव मत का तांत्रिक साधु ।उ०—कहने की आवश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्हीं बज्रया- नियों से निकले ।—इतिहास, पृ० १३ । विशेष—ये मनुष्य की खोपडी लिये रहते हैं; और मद्य मांसादि खाते हैं । ये लोग भैरव या शक्ती को बलि चढाते हैं । २. तंत्रसार के अनुसार वंग देश की एक वर्णसंकर जाति ।३. एक प्रकार का कोढ । विशेष—इसमें शरीर की त्वचा रूखी, कठोर, काली या लाल होकर फट जाती है और दर्द करती है । यह कोढ विषम होता है औऱ बडी कठिनाई से अच्छा होता है ।

कापालिक (२)
वि० १. कपालसंबंधी,२. भिखारी या मंगन जैसा । भिखारी या मंगन संबंधी [को०] ।

कापालिका
संज्ञा स्त्री०[सं०] प्राचीन काल का एक बाजा जो मुँह से बजाया जाता था ।

कापाली (१)
संज्ञा पुं० [सं० कापालिन] [स्त्री० कापालिनी] १. शिव । २. एक प्रकार का वर्णसंकर ।३. कपालों का माला । मूंडमाल (को०) । बायबिडंग (को०) ।

कापाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूंडमाला । कपालों की माला ।२. चतुर स्त्री [को०] ।

कापिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कापिकी] बंदर की शक्लवाला या बंदर के जैसा व्यवहार करनेवाला [को०] ।

कापिल (१)
वि० [सं०] १. कपिल संबंधी । कपिल का ।२. भूरा ।

कापिल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दार्शनिक सिद्धांत जिसके प्रवर्तक कपिलाचार्य थे । सांख्य दर्शन ।२. कपिल के दर्शन का अनुयायी ।३. भुरा रंग ।

कापिश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मद्य जो माधवी के फूलों से बनता था ।

कपिशायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदिरा ।२. एक देवी का नाम [को०] ।

कापिशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देश जिसका नाम पाणिनि की अष्टाध्यायी में आया है । यहाँ का मद्य अच्छा होता था ।

कपिशेय
संज्ञा पुं० [सं०] भूत प्रेत । पिशाच [को०] ।

कापिशेयी (१)
वि० [सं०] काबुल की । अगूरी । उ०—कापिशेयी सुरा को हमारे पाणिनि बाबा ने अपने सुत्रों में स्थान दिया है ।—किन्नर०, पृ० ७२ ।

कापिशेयी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिशा की बनी मदिरा [को०] ।

कपिसा पु
वि० [सं० कपिश अथवा कापिश] दे० 'कपिश' । उ०— हरि मन कुमुद प्रमोदकर ब्रज प्रकासिनी बाम । जयति कापिसा । चंद्रिका, राधा जी को नाम ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५ ।

कापी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० काँपी] १. नकल । प्रतिरुप । क्रि० प्र.—उतरना ।—करना ।—होना । यौ.—कापीराइट । २. लिखने की सादी पुस्तिका ।३. वह लिखा या छपा हुआ मैटर जो छापेखाना में कंपोज करने के लिये दिया जाय़ । जैसे,—कंपोज के लिये कापी दीजिए, कंपोजीटर बैठे हुए हैं । ४. लीथो की छपाई में पीले कागज पर तैयार की हुई प्रतिलिपि जो छापने के लिये पत्थर या जिंक प्लेट पर लगाई जाती है ।

कापी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० कैप] घिर्नी । गडारी ।—(लश०) । मुहा.—कापी गोला या कापी का गोला=वह ढाँचा जिसमें जहाज की चरखी की गडारी बैठाई जाती है ।

कापीनवीस
संज्ञा स्त्री० [अ० काँपी+फा० नवीस=लिखनेवाला] १. वह जो किसी प्रकार की प्रतिलिपि तैयार करता हो । लेखक ।२. लीथो के छापेखाने का वह कर्मचारी जो छापने के लिये बहुत सूंदर अक्षरों में पीले कागज पर लेख आदि प्रस्तुत करता है । कापि लिखनेवाला । (इसी को लिखी हुई कापी पत्थर पर जमाकर छापी जाती है ।)

कापीराइट
संज्ञा पुं० [अं०] कानून के अनुसार वह स्वत्व जो ग्रंथकार या प्रकाशक को प्राप्त होता है । विशेष—इस नियम के अनुसार कोई दुसरा आदमी किसी ग्रंथ को ग्रंथकर्ता या प्रकाशक की आज्ञा बिना नहीं छाप सकता ।

कापुरस पु
संज्ञा पुं० [सं० कापुरुष] दे० 'कापरुष' । उ०—कापुरसा फिर कायराँ, जावण लालच ज्याँह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १ ।

कापुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] कायर । डरपोक । उ०— वर न सका कापुरुष जिसे तू, उसे व्यर्थ ही हर लाया ।—साकेत पृ० ३८९ ।

कापेय (१)
वि० [सं०] [सं० स्त्री० कापेया] कपि संबंधी । बंदर का ।

कापेय (२)
संज्ञा पुं० १. शौनक ऋषि जो कपि ऋषि के पुत्र थे । २. कपिसमूह (को०) ।३. बंदरघूडकी । बंदरभभकी (को०) ।

कापोत (१)
वि० [सं०] १. भूरे मटमैले रंग का । कपोत वर्ण का । २. थोडे धनवाला । बहुत कम आयवाला [को०] ।

कापोत (२)
संज्ञा पुं० १. कबुतरों का झुंड ।२. सुरमा ।३. सोडा । ४. क्षार ।५. वह जो रूढियों और परंपराओं के अनुसार आचरण रखता हो [को०] ।

काप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीनकालिक गोत्र जिसके प्रवर्तक कपि नामक ऋषि थे ।२. आंगिरस ।३. पाप (को०) ।

काप्य (२)
वि० कपि के गोत्र में उत्पन्न । काप्य गोत्र का ।

काप्यकर
वि० [सं०] अपने पापों पर प्रायश्चित करनेवाला [को०] ।

काप्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपने पापों को स्वीकार करना ।२. अपने पापों पर प्रायश्चीत करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

काफ (१)
संज्ञा पुं० [अ० काफ] अरबी औऱ फारसी वर्णमाला का एक एक अक्षर ।

काफ (२)
संज्ञा पुं० [अ० काफ] अरबी फारसी वर्णमाला का एक अक्षर ।

काफ (३)
संज्ञा पुं० [काफ] १. अरबी वर्णमाला का एक अक्षर । अबजद में१००की सूचक संख्या ।२. कोहकाफ जो काला- सागर औऱ कस्पियन सैगर के मध्य में है । काकेशस पहाड । ३. एक कल्पित पहाड जिसके विषय में धारणा है कि वह दुनिया को क्षितिजविस्तार तक घेरे हैं । यौ.—काफता काफ या काफ से काफ तक=एक छोर से दूसरे छोर तक । भूमंडल भर में । सारी पृथ्वी में ।काफ से दाल= (संभवत? कौल औ दलील का संक्षेप) (१) बातचीत और तर्क । (२) सजावट । तडक भडक । (३) मूर्ख । बेवकूफ ।

काफ (४)
संज्ञा पुं० [अ० काफ] असत्य । झुठ । उ०—सो काफिर जे बोलै काफ ।—दादू०, पृ० २५४ ।

काफर
वि०[अ० काफिर] सं० 'काफिर' । उ०—काफर सो ही आपण बुझे अल्ला दुनीया भर ।—दक्खिनी०, पृ० १०८ ।

काफरो
वि० [हिं० काफूरी] दे० 'काफूरी' । उ०—काफरी कपूर चरबी अरबा है अँगरेज आदि काठ तृन तूल प्रूस भूस है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ८६५ ।

काफरी मिर्च
संज्ञा स्त्री० [हिं० काफिरी+मिर्च] एक प्रकार का मिरचा जो चपटे सिर का गोल गोल औऱ पीला होता है ।

काफल (१)
पुं० [सं०] कायफल ।

काफल (२) †
संज्ञा पुं० [सं० कटफल] छोटा लाल फल । उ०— काफल थे रंग रहे, फूल में थी फल लिए खूदानी ।—अतिमा, पृ० १५ ।

काफा
संज्ञा पुं० [अ० काफ्फह्] संसार । प्रपंच । उ०—दरस दिदार कतल क काफ ।—दरिया बा०, पृ० ४० ।

काफिया
संज्ञा पुं० [अ० काफिया] अंत्यानुप्रास । तूक । सज । क्रि० प्र.—जोडना ।—मिलना ।—मिलाना ।—बैठना ।— बैठाना । यौ०—काफियाबदी=तुकबंदी । सज मिलाना । तूक जोडना । मुहा.—काफिया तंग करना=बहुत हैरान करना । नाकों दम करना । दिक करना ।काफिया तंग रहना या होना=किसी काम से तंग रहना या होना । नाकों दम रहना या होना । उ०—तुम दिल्लगी करते हो औऱ यहाँ काफिया तंग हो रहा है ।—मान—, भा० ५, पृ० ५, ।काफिया मिलाना=(१) तूक मिलाना । (२) अपना साथी बनाना । किसी काम में शरीक करना ।

काफिर (१)
वि० [अ० काफिर] १. मुसलमानों के अनुसार उनसे भीन्न धर्म को माननेवाला । मूर्तिपूजक । उ०—मूरख कारो क फिर आधी सिच्छित सबहिं भयो री ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४०५ ।२. ईश्वर को न माननेवाला । निर्दय । निष्ठुर । बेदर्द ।४. दुष्ट । बुरा ।५.काफिर देश का रहनेवाला ।

काफिर (२)
संज्ञा पुं० १. एक देश का नाम जो अफ्रिका में है और उस देश का निवासी ।२. दरिया । नदी ।३. किसान ।४. प्रेमपात्र । माशूक ।५. अफ्रिका की एक हब्शी जाति ।६. एक जाति जो अफगनिस्तान की सरहद पर रहती है ।

काफिरिस्तान
संज्ञा पुं० [अं० काफिर+फा० स्तान] अफगानिस्तान का वह प्रदेश जहाँ काफिर जाति रहती है ।

काफिरी (१)
वि० [अ० काफिरी] १. काफिर संबंधी ।२. काफिरों जैसा [को०] ।

काफिरी (२)
संज्ञा स्त्री० १. काफिरों की भाषा ।२. काफिरपन ।

काफिला
संज्ञा पुं० [अ० काफिलहू] यात्रियों का झुंड जो तीर्थ, व्यापार आदि के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है । यौ.—काफिला सालार=यात्रियों का नेता । काफिले का सरदार । सार्थपति ।

काफि (१)
वि० [अ० काफि] किसी कार्य के लिये जितना आवश्यक हो उतना । मतलब भर के लिये । पर्याप्त । पूरा । क्रि० प्र.—होना ।

काफि (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें गांधार कोमल लगता है । विशेष—इसके गाने का समय१०दंड से१६दंड तक है । काफि कान्हडा, काफि टोरी, काफि होली आदि इसक कई संयुक्त रुप हैं ।

काफी (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० काँफी] दे० 'कहवा' ।

काफूर
संज्ञा पुं० [फा० काफूर, तुलटनाय. सं० कर्पूर, हिं० कपूर] [वि० काफूरी] कपुर । मुहा.—काफूर होना=चंपत होना । रफूचक्कर होना । गायब होना । उड जाना । लुप्त होना । जैसे,—वह देखते ही देखते काफूर हो गया ।

काफूरी (१)
वि० [हिं० काफूर] १. काफूर का ।१. काफूर के रंग का ।

काफूरी (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का बहुत हलका रंग जिसमें कुछ कुछ हरेपन की झलक रहती है । विशेष—यह रंग केसर फिटकरी और हरसिंगार से बनता है । २. कपूरी पान ।

काब (१)
संज्ञा पुं० [तु० काब] बडी रिकाबी ।

काब पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० काव्य, प्रा० कब्ब] दे० 'काब्य' । उ०—दुअ लागा असरार जुध, सुकवि चंद करि काब ।—पृ० रा०, ७ ।१३८ ।

काबर (१)
वि० [सं० कंबर, प्रा० कब्बर] कई रंगो का । चितकबरा ।

काबर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खाभर] १. एक प्रकार की भूमी जिसमें कुछ कुछ रेत मिली रहती है । दोमट । खाभर । उ०—काबर सुंदर रुप, छबि गेहुँवा जहँ ऊपजै । बाला लगै अनूप हेरत नैनल लह- लहा । रत्नहजारा (शब्द०) ।२. एक प्रकार का जंगली मैना ।

काबला
संज्ञा पुं० [ अं० केबिल=रस्सा] एक बडा पेंच जिसमें ढेबरी कसी जाती है बालटू ।—(लश०) ।

काबा
संज्ञा पुं० [अं० काबह] १. अरब के मक्का शहर का एक स्थान जहाँ मुसलमान लोग हज करने जाते हैं । उ०—काबा फिर काशी भया राम जो भया रहीम । मोटे चूने मैदा भया बैठि कबीरा जीम ।—कबीर (शब्द०) । विशेष—यह मुसलमानों का तीर्थ इस कारण है कि यहाँ मुहम्मद साहब रहते थे । २. चौकोर इमारत ।३. पाँसा ।

काबाडी पु
संज्ञा पुं० [हिं० कबार, कबाड] १. लकडहारा । लकडी काटनेवाला । उ०—काबाडो नित काटता भीक कुहाडा झाड—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३२ ।२. गुदडी के सामान जुटाने और बेचने वाला ।

काबिज
वि० [अ० काबिज] १. जिसका किसी वस्तु पर अधिकार या कब्जा हो । अधिकार रखनेवाला । अधिकारकृत । अधिकारी ।२. ऐसी वस्तु जिससे कब्ज हो ।

काबिल (१)
वि० [अ० काबिल] [संज्ञाकाबिलीयत] १. योग्य । लायक । उ०—अरु काबिल खूरसाँन, कोपि पतिसाह बुलाये ।—हमीर रा०, पृ० ६६ ।१. विद्वान् । पंडित । यौ.—काबिलजिक्र ।काबिलदीद ।काबिलतारीफ ।

काबिल पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'काबुल' । उ०—कवन कज्ज काबिल गयब, कियब कबन सह दंद ।—प० रासो, पृ० १०२ ।

काबिदीद पु
वि० [हिं०] दे० 'काबिलेदीद' । उ०—जो कुछ पहले दिलों को काबिलदिद व दरकार है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३४ ।

काबिलितर्क पु
वि० [अ० काबिस+ हिं० तर्क] तर्क करने योग्य । बहस करने योग्य । जिसपर वहस या विवाद किया जाय । उ०—हम कुछ हैवान और जंगली नहीं कि हमारी सब चाल और तरीके काबिलितर्क हों । —प्रेमघन० भा० २, पृ० ९१ ।

काबिलीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० काबिलियत] १. योग्यता । लियाकत । २. पंडित्य । विद्वत्ता ।

काबिलेतारीफ
वि० [अ० काबिल+तारीफ] प्रशंसनीय । प्रशंसा के योग्य । श्लाघ्य ।

काबिलेदाद
वि० [अ० काबिल फा.+दाद] प्रशंसनीय प्रशंसाकरने योग्य । दाद देने योग्य । उ०—मौलाना अरशद औऱ हजरत नयाज दोनों साहबों के मजामिन काबिलेदाद है ।— प्रेम० और गोर्की, पृ० ५२ ।

काबिलेदीद
वि० [अ० कातिल+फा० दीद] देखने योग्य । दर्शनीय [को०] ।

काबिस
संज्ञा पुं० [सं० कपिश] १. एक रंग जिससे मिट्टी के कच्चे बर्तन रँगकर पकाए जाते हैं । विशेष—यह सोंठ, मिट्टी, बबूल की पत्ती, बाँस की पत्ती, आम की छाल ओर रेह को एक घोलने से बनता है । इससे रंग कर पकाने से बर्तन लाल हो जाते हैं औऱ उनपर चमक आ जाती हैं । २. एक प्रकार की मिट्टी जो लाल रंग की होती है और पानी डालने से बडी लसदार हो जाती है । विशेष—यह मिट्टी काबिस बनाने में काम आती है ।

काबी
संज्ञा स्त्री० [फा० काबा] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें खीलाडी विपक्षी के पीछे जाकर एक हाथ से उसके जाँघिए का पिछौटा पकडकर दूसरे हाथ से उसके एक पैर की नली पकडकर खींच लेता है ।

काबूक
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. कबूतरों की दरबा ।२. कपडे की गद्दी जिसपर रोटी रखकर तंदुर में लगाते हैं ।

काबूल
संज्ञा पुं० [सं० कुभा] [वि० काबुली] १. एक नदी जो अफगनिस्तान से आकर अटक के पास सिंधु नदी में गिरती है ।२. अफगनिस्तान का एक नगर जो वहाँ की राजधानी है । यह काबुल नदी पर है ।३. अफगनिस्तान का पुराना नाम । मूहा.—काबुल में भी गधे होते हैं=अच्छी जगह में भी बुरे या अयोग्य व्यक्ति होते हैं ।

काबूली
वि० [हिं० काबुल] काबुल का । काबुल में उत्पन्न । यौ०काबुली प्रनार । काबुली मेवा । काबुली पट्ट । काबुली घोडा ।

काबूली चना
संज्ञा पुं० [हिं० काबुली+चना] एक प्रकार का चना जिसके दाने बडे बडे औऱ रंग साफ होता हैं ।

काबुली बबूल
संज्ञा पुं० [हिं० काबुली+बबूल] एक प्रकार का बबुल जो सरो की तरह सीधा जाता है । विशेष—यह भारत के प्राय?सभी स्थानों में पाया जाता है । बंबई की ओर इसे राम बबूल कहते हैं । इसकी लकडी साधारण बबूल की लकडी से कम मजबूत होती है ।

काबुली मटर
संज्ञा स्त्री० [हिं० काबुली+मटर] एक प्रकार की मटर जिसके दाने बडे बडे होते हैं ।

काबुली मस्तगी
संज्ञा स्त्री० [फा.] एक वृक्ष का गोंद जो रूसी मस्तगी के समान होता है और मस्तगी की जगह काम आता है । विशेष—इसका पेड बंबई प्रांत तथा उत्तरी भारत में भी होता है । उसे बंबई की मस्तगी भी कहते हैं ।

काबू
संज्ञा पुं० [तुं० काबू] वश । अधिकार । इख्तियार । जोर । बल । कस । क्रि० प्र०.— करना ।—चलना ।—होना ।—में आना । मुहा०—काबू में करना या काबू करना = वश में करना । काबू चढना काबू पर चढना = अधिकार में आना । दाँव पर चढना । काबू पाना = अधिकार पाना । दाँव पाना ।

काभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० काभर्तृ] बुरा पति । बरा स्वामी [को०] ।

कामंध (१) पु
वि० [सं० कामान्ध] दे० 'कामांध' । उ०—नर नारि भए कामंध अंध ।—हमीर रा०, पृ० १९ ।

कामंध (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध] दे० 'कबंध' । उ०— घरी एक रविमंडलं छिद्रकारी । तुटे कंध कामंध भौ जुद्ध भारी ।—पृ० रा०, १२ । १४१ ।

काम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [कामुक, कामी] १.इच्छा । मनोरथ । यौ.—कामद । कामप्रद । २. महादेव । ३. कामदेव । ४. इंद्रियों की अपने अपने विषयों की ओर प्रवृत्ति (कामशास्त्र) । ५. सहवास या मैथुन की इच्छा । ६.चतुर्वर्ग या चार पदार्थों में से एक । ७. प्रघुम्न (को०) । ८. बलराम (को०) । ९. ईश्वर (को०) । १०. प्रेम (को०) । ११. वीर्य (को०) । शुक्र (को०) । १२. एक प्रकार का आम (को०) ।

काम (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्म, प्रा० कम्म] १. वह जो किया जाय । गति या क्रिया जो किसी प्रयत्न से उत्पन्न हो । व्यापार । कार्य । जैसे,—सब लोग अपना अपना काम कर रहैं । क्रि० प्र०—करना ।—बिगडना ।—होना । यौ०—कामकाज । कामधंधा । कामधाम । कामचोर । मूह०—काम अटकना = काम रुकना । हर्ज होना । जैसे—उनके बिना तुम्हारा कौन सा काम अटका है । काम आना = मारा जाना । लडाई में मारा जाना । जैसे,—उस लडाई में हजारों सिपाही काम आए । काम कर दिखाना = महत्वपुर्ण काम करना ।उ०—जम गए काम कर दिखाएँगे । कौन से काम है नहीं कस के ।—चुभते; पृ० २६ । काम करना = (१) प्रभाव डालना । असर करना । जैसे—यह दवा ऐसी बीमारी में कुछ काम न करेगी । (२) प्रयत्न में कृतकार्य होना । जैसे—यहाँ पर बुद्धि कुछ काम नहीं करता । (३) संभोग करना । मैथुन करना—(बाजारी) । काम के सिर होना या काम सिर होना = काम में लगना । जैसे—महीनों से बेकार बैठे थे, काम के सिर हो गए, अच्छा हुआ । काम चलना = (१) काम जारी रहना । क्रिया संपादन होना । जैसे—सिंचाई का काम चल रहा है । काम चलना = काम जारी रखना । धंधा चलता रखना । काम छेडना = कार्य आरंभ करना ।उ०— काम छेडा छूटता छोडे नहीं । टूटता है दम रहे तो टूटता ।—चुभते०, पृ०१३ । काम तमाम या काम आखिर करना = (१) काम पूरा करना । (२) मार डालना । जान लेना । घात करना । कामतमाम या आखीर होना = (१) काम पूरा होना । काम समाप्त होना । (२) मरना । जान से जाना । जैसे—एक डंडे में साँप का काम तमाम हो गया । काम देखना = (१) किसीचलते हुए कार्य की देखभाल करना । काम की जाँच करना । (२) अपने कार्य या मतलब की ओर ध्यान रखना । जैसे— तुम अपना काम देखो, तुम्हे इन झगडों से क्या मतलब । काम बँटना = किसी काम में शरीक होना । किसी काम में सहायता करना । सहायक होना । काम बनना = मामला बनना । बात बनना । काम बिगडना = बात बिगडना । मामला बिगडना । काम भुगतना = काम निपटाना । काम पूरा होना । काम भुगताना = कार्य समाप्त करना । काम पूरा करना । काम लगाना = काम जारी होना । कार्य का विधान होना । किसी वस्तु के निर्मित करने का अनुष्ठान होना । जैसे—(क) महीनों से काम लगा है, पर मंदिर अभी तैयार नहीं हुआ । (ख) जहाँ पर काम लगा है, वहाँ जाकर देखभाल करो । काम लगा रहना = व्यापार जारी रहना । जैसे—कोई आता है, कोई जाता है, यही काम दिन रात लगा रहता है । (किसी व्यक्ति से) काम लेना = कार्य में नियुक्त करना । कार्य कराना । काम सीझना = काम सिद्ध या पूरा होना । उ०—प्रसन्न होइ शिव शिवा काम सिझे सुइँद जस?—पृ० रा० २५ । ३४ । काम होना = (१) मरना प्राण जाना । जैसे—गिरते ही उनका काम हो गया । (२) अत्यंत कष्ट पहुँचना । जैसे—तुम्हारा क्या उठाने वाले का काम होता था । २. कठिन काम । मुश्किल बात । शक्ति या कौशल का कार्य । जैसे—वह नाटक लिखकर उन्होंने काम किया । मुहा०—काम रखता है । बडा कठिन कार्य है । मुश्किल बात है । जैसे—इस भीड में से होकर जाना काम रखता है । ३. प्रीयजन । अर्थ । मतलब । उद्देश्य । जैसे—हमारा काम हो जाय तो तुम्हें प्रसन्न कर देंगे । मुहा०—काम करना = अर्थ साधना । मतलब निकालना । जैसे— वह अपना काम कर गया, तुम ताकते ही रह गए । काम का = जिससे कोई प्रयोजन निकले । जिनसे कोई उद्देश्य सिद्ध हो । जो मतलब का हो । जैसे—काम का आदमी । काम चलना = प्रयोजन निकालना । अर्थ सिद्ध होना । अभीप्राय साधन होना । कार्यनिर्वाह होना । जैसे इतने से तुम्हारा काम नहीं चलेगा । काम चलाना = प्रयोजन निकालना । अर्थ सिद्ध करना । कार्यनिर्वाह करना । आवश्यकता पुरी करना । जैसे—इस वर्ष इसी से काम चलाओ । काम निकालना = (१) प्रयोजन सिद्ध होना । उद्देश्य पूरा होना । मतलब गँठना । जैसे—काम निकल गया, अब क्यों हमारे यहाँ आवेंगे ? उ०— मुफ्त निकले काम तो क्यों खर्चे दाम ? । (२) कार्य निर्वाह होना । आवश्यकता पूरी होना । जैसे इतने से कुछ काम निकले तो ले जाओ । काम निकालना = (१) प्रयोजन साधना । मतलब गाँठना । जैसे—वह चालाक आदमी है, अपना काम निकाल लेता है । (२) कार्यनिर्वाह करना । आवश्यकता पूरी करना । जैसे—तब तक इसी से काम निकालो, फिर देखा जायगा । काम पडना = आवश्यकता होना । प्रयोजन पडना । दरकार होना । जैसे,—जब काम पडेगा, तुमसे माँग लेंगे । काम बनाना = अर्थ साधना । प्रयोजन निकलना । मतलब गँठना । उद्देश्य सिद्ध होना । मामला ठीक होना । बात बनना । जैसे—वह इस समय यहाँ आ जाय तो हमारा काम बन जाय । काम बनाना = किसी अर्थ का साधन करना । किसी का मतलब नीका- लना । काम लगना = काम पडना । आवश्यकता होना । दरकार होना । जैसे, जब रुपए का काम लगे, तब ले लेना । काम सँवारना = काम बनाना । किसी का अर्थ- साधन करना । काम सरना = काम निकलना । काम पूरा होना । उ०—इससे आपकी ख्याति होगी वा आपके राज्य का काम सरेगा ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४२ । काम साधना = काम पूरा करना । प्रयोजन सिद्ध करना । काम साथ देना = सफल करना । सिद्ध करना । पूरा कर देना । उ०—बेसधा काम साध देती है । बात सीधी हुई सादी ।— चोखे०, पृ० ३१ । काम होना = प्रयोजन सिद्ध होना । अर्थ निकलना । आवश्यकता पूरी होनी । ४० गरज । वास्ता । सरोकार । लगाव । जैसे—(क) हमें अपने काम से काम । (ख) तुम्हें इन झगडों से क्या काम ? मुहा०—किसी से काम डालना = (काम 'पडना' का प्रे० रुप) पाला डालना । जैसे, ईश्वर ऐसों से काम न डाले । किसी से काम पडना । किसी से पाला पडना । किसी से वास्ता पडना । किसी प्रकार का व्यवहार या संबंध होना । उ०—चंदन पडा चमार घर नित उठि कूटै चाम । चंदन बपुरा का करै, पडा नीचे से काम ।—(शब्द०) । काम रखना = वास्ता रखना । सरोकार रखना । लगाव रखना । जैसे—बाकी औऱ किसी बात से उन्हे काम नहीं, खाने पीने से मतलब रखते हैं । काम से काम रखना = अपने कार्य से प्रयोजन रखना । अपने प्रयोजन ही की और ध्यान रखना, व्यर्थ की बातों में न पडना । ५० उपयोग । व्यवहार । इस्तेमाल । मुहा०—काम आना = (१) काम में आना । व्यवहार में आना । उपयोगी होना । जैसे—(क) यह पत्ती दवा के काम आती है । (ख) इसे फेंको मत, रहने दो, किसी के काम आ जायगा । २० साथ देना । सहारा देना । सहायक होना । आडे आना । जैसेविपत्ति में मित्र ही काम आते हैं । काम का = काम में आने लायक । व्यवहार योग्य । उपयोगी (वस्तु) । काम देना = व्यवहार में आना । उपयोगी होना । जैसे— यह चीज वक्त पर काम देगी, रख छोडो । (किसी वस्तु से) काम लेना = व्यवहार में लाना । उपयोग करना । बर्तना । इस्तेमाल करना । जैसे—वाह ! आप हमारी टोपी से अच्छा काम ले रहे हैं । काम में आना = व्यवहार में आना । व्यवहृत होना । बर्ता जाना । जैसे,—इस रख छोडो, किसी के काम में आ जायगी । काम में लाना = बर्तना । व्यवहार करना । उपयोग करना । ५० कारबार । व्यवसाय । रोजगार । जैसे—उन्हे कोई काम मिल जाता तो अच्छा था । क्रि० प्र० —करना ।मुहा०—कामखूलना=कारबार चलना । नया कारखाना जारी होना । नया कारबार प्रारंभ होना । काम चमकना = बहुत अच्छी तरह कारबार चलना । व्यवसाय में वृद्धि होना । रोजगार में फायदा होना । जैसे,—थोडे ही दिनों में उनका काम खूब चमक गया औऱ वह लाखों रुपए का आदमी हो गया । काम पर जाना = कार्यालय में जाना । अपने रोजगार की जगह जाना । जहाँपर कोई काम हो रहा हो, वहाँ जाना । काम बढना = काम बंद करना । नित्य के नियमीत समय पर कोई कामकाज बंद करना । जैसे,—संध्या को कारीगर काम बढाकर अपने अपने घर जाते हैं । काम बिगडना = कारबार बिगडना । व्यवसाय नष्ट होना । व्यपार में घाटा आना । काम सिखना = कार्यक्रम की शीक्षा होना । व्यवसाय या धंधा सीखना । कला सीखना । जैसे,— वह तारकाशी का काम सीख रहा है । ७० कारीगरी । बनावट । रचना । दस्तकारी । ८० बेलबूटा या नक्काशी जो कारीगरी से तैयार हो । जैसे—(क) इस टोपी पर बहुत घना काम है । (ख) दीवार पर काम उखड रहा है । यौ०—कामदानी । कामदार । मुहा०—काम उतारना—किसी दस्तकारी के काम को पूरा करना । कोई कारीगरी की चीज तैयार करना । काम चढना = तैयारी के लिये किसी चीज का खराद करघे, कालिब, कल आदि पर रखा जाना । काम चढना = किसी चीज की तैयारी के लिये खराद, करघे, कालिब कल आदि पर रखना या लगाना । जैसे,—कई दिनों से काम चढाया है पर, अभी तक नहीं उतरा । काम बनना = किसी वस्तु का तैयार होना । रचना या निर्माण होना ।

कामअंध पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कामान्ध] दे० 'कामांध' । उ०—कामअंध जब भयौ तब तिय ही सब ठौर ।अब बिबेक अंजन कियो लख्यौ अलख सिरमौर ।—ब्रज ग्रं०, पृ० १२१ ।

कामकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १० मैथुन । रति । २० कामदेव की स्त्री । रति । ३० एक तंत्रोक्त विधा । विशेष—इसमें शीव और शक्ति की दो सफेद और लाल बिंदियाँ मानी गई हैं, जिनके संयोग को कामकला कहते हैं ।इसी संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है । ४० कामदेव का कौशल । उ०—कामकला कछू मुनीहिं न व्यापी ।—मानस, १ । १२६ ।

कामकाज
संज्ञा पुं० [हिं० काम + काज] कारबार । कामधंधा ।

कामकाजी
वि० [हिं० काम + काज] काम करनेवाला । उद्दोग- धंधे में रहनेवाला ।

कामकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १० वेश्यागामी । लंपट । २० वेश्याओं का छल छंद । ३० कामराज नामक श्रीविधा का मंत्र जो तीन प्रकार का है—कामकृत, कामकेली और कामक्रीडा ।

कामकृत (१)
वि०[सं०] १० इच्छानुसार करनेवाला । स्वेच्छाकारी । २० काम या इच्छा पूर्ण करनेवाला [को०] ।

कामकृत (२)
संज्ञा पुं० लीलापुरुष । परमात्मा इच्छा मात्रा से सृष्टि करने वाला [को०] ।

कामकृत
वि० [सं०] काम या कामदेव द्वारा किया हुआ । उ०— दुई दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ।—मानस, १ । ८५ ।

कामकृतऋण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो विषय भोग में लिप्त होने की दशा में लिया गया हो ।—(स्मृति) ।

कामकेली
संज्ञा स्त्री०[सं०] रतिक्रिया । कामक्रीडा [को०] ।

कामक्रिया
संज्ञा स्त्री०[सं०] रतिक्रिया । संभोग [को०] ।

कामक्रीडा
संज्ञा स्त्री० [सं० कामक्रीडा] कामकेली । संभोग । रतिक्रिया [को०] ।

कामग
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कामगा] १. स्वेच्छाचारी । अपनी इच्छा पर चलनेवाला ।उ०—भगवान जब दशरत्थ नुप रानीन के गर्भहि गय़े । तबहीं बिरंचि सुदेवतन सौं बात यह बोलत भये । तुम हरि सहायहि के लिए उत्पत्ति कपि गन की करौ । अब अति बली अति काय कामग कामरूपी विस्तरौ ।— पदमाकर (शब्द०) । २. परस्त्री० या वेश्यागामी । लंपट । ३. कामदेव ।

कामगति
वि० [सं०] मनोनुकूल स्थान पर जाने में समर्थ । जहाँ मन चाहे वहाँ में जाने में समर्थ ।

कामगार
संज्ञा पुं० [सं० कर्म + कार, प्रा० कम्म + गार (प्रत्य०)] १. दे० 'कामदार' । २. मजदूरी । मजदूरी करे रोजी कमाने वाला व्यक्ति ।

कामगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रकूट कामदगिरि [को०] ।

कामचर
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी इच्छा के अनुसार सब जगह जानेवाला । स्वेच्छापूर्वक विचरनेवाल ।

कामचलाऊ
वि० [हिं० काम + चलाना] जिससे किसी प्रकार काम निकल सके । जो पूरा पूरा या पूरे समय तक काम न दे सकने पर भी बहुत से अशों में काम दे जाय ।

कामचार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कामचारी] १. इच्छानुसार भ्रमण । २. स्वेच्छाचार (को०) । ३. कामुकता (को०) । ४. स्वार्थ— परता (को०) ।

कामचारी (१)
वि० [सं० कामचारिन्] १. मनमाना घूमनेवाला । जहाँ चाहे वहाँ विचरनेवाला । २. मनमाना काम करनेवाला । स्वेच्छाचारी । ३. कामुक । लंपट ।

कामचारी (२)
संज्ञा पुं० १. गरुड । २. गौरैया [को०] । कामचोर— वि० [हिं० काम + चोर] काम से जी चुरानेवाला । काम से भागनेवाला । अकर्मण्य । आलसी । जाँगरचोर । जाँगरचोट्टा ।

कामज (१)
वि०[सं०] वासना से उत्पन्न ।

कामज (२)
संज्ञा पुं० १. व्यसन । विशेष—मनुसंहिता के अनुसार ये व्यसन दस प्रकार के होते हैं और इनमें आसक्त होने से अर्थ औऱ धर्म का हानी होती है । दस कामज व्यसन ये है—,मृगया, जुआ, दिन को सोना पराई निंदा, स्त्रीसंभोग मद्दपान, नृत्य, गीत, वाध, और इधर उधर घुमना । २. क्रोध । आवेश (को०) ।

कामजननीन
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागबेल [को०] ।

कामजान
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल [को०] ।

कामजानि
संज्ञा स्त्री०[सं०] कोयल [को०] ।

कामजित (१)
वि० [सं०] काम को जितनेवाला ।

कामजित (२)
संज्ञा पुं० १. महादेव । शिव । २. कार्तिकेय । ३. जिन देव ।

कामज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वैधक के अनुसार एक प्रकार का ज्वर जो स्त्रियों और पुरुषों को अखंड ब्रह्माचार्य पालन करने से हो जाता है । विशेष—इसमें भोजन से अरुचि और हृदय में दाह होता है नींद, लज्जा, बुद्धि और धैर्य का नाश हो जाता है, पुरषों के हृदय में पीडा होती है औऱ स्त्रियों का अंग टूटता है, नेत्र चंचल हो जाते हैं, मन में संभोग की इच्छा होती है । क्रोध उत्पन्न कर देने से इसका वेग शांत हो जाता है ।

कामठक
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के वंश का एक नाग जो जनमेजय राजा के सर्पयज्ञ में मारा गया था ।

कामणगारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्मण + कार, गुन० कामण + गार + ई (प्रत्य०)] जादूगरनी । उ०—प्रीतम कामणग रियाँ, थल थल बादलियाँह । घण बरसंतइ सूकियाँ, लूसूँ जाँगुरियाँह ।— ढोला०, दू० २४८ ।

कामडिया
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] रामदेव के मत के अनुयायी चमार साधु । विशेष—ये राजपूताने मे होते हैं और रामदेव के शब्द या उनकी बानी गाते और भीख माँगते हैं ।

कामत?
क्रि० वि० [सं०] १. इच्छानुसार । स्वेच्छया । २. वासना से ।

कामत
संज्ञा पुं० [अ० कामत] शरीर । जिस्म । डील डौल । कद । उ०—सर्व कामत गजब की चाल से तुम क्यों कयामत चले बपा करके ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २२० ।

कामतरु पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँदा जो पेडो पर होता है । २. कल्पवृक्ष ।

कामता पु
संज्ञा पुं० [सं० कामद] चित्रकूट के पास एक गाँव । चित्रकूट । उ०—पवन तनय कह कलियुग माहीं । अस दरशन होवै कहुँ नाहीं । तुलसीदास कह कृपा तिहारी मोहि न अचरज परत निहारी । कह कपीशस कामता सिधारी । बैठहु काल्हि राम उरधारी । विश्राम (शब्द०) । यौ.—कामणगिरि = कामदगिरि ।

कामताप
संज्ञा पुं० [सं०] कामज्वर । उ०— आनंदघत रस-रंग-झरन काम-ताप-हरन ।—घनानंद,० पृ० ४३५ ।

कामताल
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल [को०] ।

कामतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रयोदशी । विशेष—इस तिथि को कामदेव की पूजा होती है ।

कामद (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कामदा] मनोरथ पूरा करनेवाला । इच्छानुसार फल देनेवाला । यौ.—कामदगिरि = चित्रकूट ।

कामद (२)
संज्ञा पुं० १. स्वामीकार्तिक । ३. ईश्वर । ३.शिव (को०) । ४. सूर्य (को०) ।

कामदगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रकूट का एक पर्वत जो सभी कामनाएँ पूरी करनेवाला माना जाता है ।

कामदमणि
संज्ञा पुं० [सं०] चिंतामणि ।

कामदमनि पु
संज्ञा पुं० [सं० कामदमणि] दे० 'कामदमणि' । उ०— अब चित चेति चित्रकूट चलि । करिहैं राम भावतो मन को सुख साधन अनयास महा फलु । कामदमनि कामदा कल्पतरु सो जुग जुग जागत जगतीतलु । तुलसी तोहिं बिसेखि बूझिए एक प्रतीति प्रीति एक बलु ।—तुलसी शब्द० ।

कामदर्शन
वि०[सं०] देखने में जो सुंदर लगे [को०] ।

कामदव
संज्ञा पुं० [सं०] कामाग्नि । कामज्वाला [को०] ।

कामदहन
संज्ञा पुं० [सं० काम + दहन] कतामदेव को जलानेवाला, शिव । उ०— घर ही बैठे दोऊ दास । रिधि सिधि भक्ति अभय पद दायक आय मिले प्रभू हरि अंबर तास । कामदहन गिरि कंदर आसन या मूरति की तऊ पियास ।—सूर (शब्द०) ।

कामदा
संज्ञा स्त्री०[सं०] १. कामधेनु । २. एक देवी जिसकी अहिरांवण पूजा करता था । उ०—देहौं बलि कामद कहुं सोई । जानेहु नभ प्रकाश जब होई ।-विश्राम (शब्द०) । ३. चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम । ४. दस अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें क्रम से, रगण, यगण, औऱ जगण तथा एक गुरु होता है । जैस,— रायजू गये मो लला कहाँ ? रोय यों कहैं नंद जू तहाँ । हाय देवकी दीन आपदा । नैन ओठ के मूर्ति कामदा । विशेष—इस वृत्त के आदि में गुरु के स्थान में दो लघू रखने से 'शुद्ध कामदा' वृत्त होता है । इसमें ५,५ पर यति होती है ।

कामदान
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा नाच रंग या गाना बजाना जिसमेंलोग अपना काम धंधा छोडकर लीन रहें । (को०) । विशेष—कौटील्य के समय में राज्य की मुख्य आमदानी अनाज की़ उपज का भाग ही था । अत?कृषकों के दुर्व्यसन, आलस्य आदि के कारण जो पैदावर की कमी होती थी, उससे राज्यो को हानि पहुँचती थी । इसी से कामदान अपराधों में गिना गया था और इसके लिये १२ पण जुरमाना होता था ।

कामदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काम+दानी (प्रत्य०)] १. बेलबूटा जो बादले के तारे या सलमे सितारे से बनाया जाय । २. वह कपडा जिस पर सलमे सितारे के बेलबूटे बने हों ।

कामदार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काम + दार (प्रत्य०)] राजपूताने की रियासतों में एक कर्मचारी जो प्रबंध का काम करता है । कारिंदा । अमला । उ०—पाँचो पकडे कामदार जो पकडी ममता भाई ।—कबीर श०, पृ० १३३ ।

कामदार (२)
वि० कारचोबी जिसपर जरदोजी या तार के कसीदे का काम हो । जिसपर कलाबत्तू आदि के बेलबूटे बने हों । जैसे—कामदार टोपी, कामदार जूता ।

कामदुध
वि० [सं०] हर प्रकार की इच्छा पूरी करने वाला । अभीष्ठ दायक (को०) ।

कामदुधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु कामदुहा [को०] ।

कामदुह
वि० [सं० कामदुह] अभीष्टदायक [को०] ।

कामदुहा
संज्ञा स्त्री०[सं०] कामधेनु ।

कामदूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदंती । हाथीसूँड नाम की घास ।

कामदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परबल की बेल । २. कोयल (को०) ।

कामदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री पुरुष के संयोग की प्रेरणा करने वाला एक पौराणीक देवता जिसकी स्त्री रति, साथी बसंत, वाहन कोकिल, अस्त्र फूलों का धनुष बाण है । उसकी ध्वजा पर मीन और मकर का चिन्ह है । विशेष—कहते हैं जब सती का परलोकवास हो गया, तब शिवजी ने यह विचार कर कि अब विवाह न करेंगे, समाधि लगाई । इसी बीच तारकासुर ने घोर तप कर यह वर माँगा कि मेरी मृत्यु शिव के पुत्र से हो औऱ देवताओं को सताना प्रारंभ किया । इस दु?ख से दुखीत हो देवताओं ने कामदेव से शिव की समाधि भंग करने के लिये कहा । उसने शिवजी की समाधि भंग करने के लिये उनपर अपने वाण चलाए । इसपर शिवजी नो कोप कर उसे भस्म कर डाला । इसपर उसकी स्त्री रति रोने औऱ विलाप करने लगी । शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि कामदेव अब से बिना शरीर के रहेगा औऱ द्वारका में कृष्ण के घर प्रद्यूम्न के रुप में उसका जन्म होगा । प्रद्यूंम्न कामदेव के अवतार कहे गए हैं । पर्या.—काम । मदन । मन्मथ । मार । प्रद्यूम्न । मीनकेतन । कंदर्प । दर्पक । अनंग । पंचशर । स्मर । शंबररि । मनसिज । कुसुमेष । अनन्यज । पुष्पधन्वा ।रतिपति । मकरध्वज । आत्मभू । ब्रहमसु । ऋश्वकेतु । २. वीर्य । २. संभोग की इच्छा । ४. शिव । ५. विष्णू (को० ।

कामधाम
संज्ञा पुं० [हिं० काम + धाम] (अनु०) । कामकाज । धंधा । उ०—ब्रज घऱ गई गोपकुमारि । नेकहू कहुँ मन न लागत कामधाम बिसारि ।—सूर (शब्द०) ।

कामधुक (१)
वि०[सं०] अभीष्टदायक [को०] ।

कामधुक् (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कामधेनु] । उ०—नाम कामधूक रामलला ।—तुलसी (शब्द०) ।

कामधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक गाय जो पुराणानुसार समुद्र के मथने से निकली थी । सुरभी । विशेष—यह चौदह रत्नों में से एक है । कहते हैं इससे जो माँगा जाय वही मिलता है । २. वशिष्ठ की शबला या नंदिनी नाम की गाय । विशेष—इसके कारण वशिष्ठ का विश्वमित्र से युद्ध हुआ था । विश्वमित्र एक बार बशिष्ठ के यहाँ गए । बशिष्ठ ने अपनी गाय के प्रभाव से उनका बडे वैभव के साथ आतिथ्य किया । विश्वमित्र लोभ करके वह गाय माँगने लगे । वशिष्ठ ने अस्वीकार किया, इसी पर दोनों में घोर युद्ध हुआ । ३. दान के लिये सोने की बनाई हुई गाय ।

कामधेन्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० कामधेनु] दे० 'कामधेनू' ।उ०—यह मुट्ठी भर की कामधेन्वा इतनी उदार होगी यह मुझे विश्वास नहीं था ।—किन्नर०, पृ० ८० ।

कामध्वज
संज्ञा पुं०[सं०] वह जो कामदेव की पताका पर हो, मछली ।

कामन
वि०[सं०] १. कामुक । २. लंपट । [को०] ।

कामनवेल्थ
संज्ञा पुं० [अ०] राष्ट्रमंडल । राष्ट्रकुल ।

कामन सभा
संज्ञा स्त्री० [अ० हाउस आफ कामन्स] ब्रिटिश पार्लमेंट की वह शाखा या सभा जिसमें जनसाधारण के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं । आजकल इनकी संख्या ७०७ होती है । हाउस आफ कामंस ।

कामना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इच्छा । मनोरथ । २. वासना (को०) ।

कामनीय, कामनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] सोंदर्य । आकर्षण । रमणीयता (को०) ।

कामपरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विषय, भोग और इच्छाओं के वशीभूत रहने कि स्थिति । कामूकता ।

कामपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण । २. बलराम । ३. महादेव । ४. विष्ण [को०] ।

कामप्रद
वि० [सं०] कामना की पुर्ति करनेवाला । अभीष्टदायक । उ०—संसार में जितने कामप्रद सुख हैं, जितने दिव्य औऱ महान सुख है, वे तृष्णाक्षय सुख के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं हैं ।—रस० क०, पृ० ४४ ।

कामप्रद
संज्ञा पुं० परमात्मा [को०] ।

कामप्रवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] काम को प्रकट करना या जताना (को०) ।

कामप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] स्वतंत्र या इच्छित प्रश्न (को०) ।

कामफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आम [को०] ।

कामबाण
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का वाण, जो पाँच है—मोहन, उन्मादन, संतपन, शोष्ण, औऱ निश्चेष्टकरण । विशेष—बाणों को फूलों का मानने पर वे पाँच बाण ये हैं— लालकमल, अशोक, आम, चमेली औऱ नील कमल ।

कामभूरह
संज्ञा पुं० [सं० काम + भूरूह] । कल्पवृक्ष उ०—राम भलाई आपनी भल कियो न काको ।—राम नाम महिमा करै कामभूरूह आको । साखी बेद पुरान है तुलसी तन ताको ।— तुलसी(शब्द०) ।

काममह
संज्ञा पुं० [सं० काममहस्] चैत्र पूर्णिमा को मनाया जाने वाला कामदेव का एक उत्सव (को०) ।

काममुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र की एक मुद्रा ।

काममुढ
वि० [सं० काममूढ] कामातुर । काम के वशीभूत (को०) ।

काममोहित
वि० [सं०] कामातुर । काम के वशीभूत [को०] ।

कामयमान, कामयान
वि० [सं०] कामी । कामसुखेच्छू । कामुक । कामातुर [को०] ।

कामयाब
वि० [फा०] [बि० कामयाब] सफलता । कृतकार्यता ।

कामयिता
वि० [सं० कामयितृ] [वि० स्त्री० कामयित्री] कामातुर (को०)

कामरत
संज्ञा पुं० [सं०] कामलिप्त । वासनालिप्त । उ०—कहुँ भूल्यौ कामरत कहुँ भूल्यौ साधजत कहुँ हमध्य कहुँ बनबासी है ।—सुंदर ग्रं० भा० २, पृ० ५८४ ।

कामरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीर्य । २. काम संबंधी रस या आनंद (को०) ।

कामरसिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कामरसिका] कामी । कामुक [को०] ।

कामरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कामरी] कमली । कंबल । उ०—सूरदास खल कारी कामरि चढत न दुजो रंग ।—सुर (शब्द०) ।

कामरिपु
संज्ञा पुं०[सं०] शिव का एक नाम ।

कामरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कामरी] दे० 'कामरी' ।

कामरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बल] कमली । कबल । उ०—काम री मो जिय मारो हुतो वहि कामरीवारो विचारो बचायो ।— देव (शब्द०) ।

कामरुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अस्त्र जो रामायण के अनुसार विश्वामित्र ने रामचंद्र जी को दिया था । इससे वे अन्य अस्त्रों को व्यर्थ करते थे । उ०—तिमि विभूति अरु बनर कह्मो युग तैसहि बनकर बीरा । कामरूप मोहन आवरणहुँ लेहु कामरुचि बीरा ।—रघुराज (शब्द०) ।

कामरु
पु संज्ञा पुं० [कामरुप, प्रा० कामरूप] दे० 'कामरूप' । उ०— कामरु देस कमच्छा देवी । जहाँ बसै इसमाइल जोगी ।— (शब्द०) ।

कामरू पु
संज्ञा पुं० [सं० कामरुप, प्रा० कामरूअ] दे० 'कामरूप' ।

कामरूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आसाम का एक जिला जहाँ कामाक्ष देवी का स्थान है । इसका प्रधान नगर गौहाटी है । विशेष—कलिका पुराण में कामाख्या देवी औऱ कामरूप तीर्थ का माहात्म्य बडे विस्तार के साथ लिखा है । यह देवों के ५२ पीठों में से है । यहाँ का जादु टोना प्रसिद्ध है । प्राचीनकाल में यह म्लेच्छ देश माना जाता था औऱ इसकी राजधानी प्रागज्योतिषपुर (आधुनिक गौहाटी) थी । रामायण के समय में इसका राजा नरकासुर था । सीता के खोज के लिये बंदरों को भेजते समय सुग्रीव ने इस देश का वर्णन किया है । महाभारत के समय में प्रागज्योतिषपुर का राजा भगदत्त था । जब अर्जुन दिग्विजय के लिये निकले थे, तब यह उनसे चीनियों औऱ किरातों कि सेना लेकर लडा था । कुरुक्षेत्र के युद्ध में भी भगदत्त चीनियों और किरातों की म्लेच्छ सना लेकर कोरवों की ओर से लडने गया था । महाभारत में कहीं कहीं भगदत्त को 'म्लेच्छानामाधिप' भी कहा है । पीछे से जब शाक्तों और तांत्रिकों का प्रभाव बढा, तब यह स्थान पवित्र मान लिया गया । २. एक अस्त्र जिसमें प्राचीन काल में शत्रु के फेंके हुए अस्त्र व्यर्थ किए जाते थे । ३. बरगद की जाति का एकबडा सदाबहार पेड । विशेष—इसकी लकडी चिकनी, मजबूत औऱ ललाई लिए हुए सफेद रंग की होती है जिसपर बडी सुंदर लहरदार धारियाँ पडी होती है । इसकी तौल प्रति घनफुट २० सेर के लगभग होती है । यह लकडी किवाड, कुरसी, मेज आदि बनाने के काम में आती है । कामरुप की पत्तियाँ टसर रेसम के कीडे भी खाते हैं । ४. २६ मात्राओँ का एक छंद, जिसमें ९,७ और १० के अंतर पर विराम होता है । अंत में गुरु लघु होते हैं । जैसे,—सित पछ सुदसमी, विजय तिथि सुर, वैद्य नखत प्रकास । कपि भालु दल युत, चले रघुपती, निरखि समय सुभास । ५. देवता ।

कामरूप (२)
वि० यथेच्छ रूप धारण करनेवाला । मनमाना रूप धारण करनेवाला । उ०—(क) कामरुप सुंदर तनु धारी । संहित समाज सोह बर नारी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) उ०—शशि किरणो से उतर उतरकर भू पर कामरूप नभचर । चूम चपल कलियों का मृदु मुखा सिखा रहे थे मुसकाना ।—वीणा, पृ० ५८ ।

कामरूपत्व
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत के अनुसार एक प्रकार की सिद्धि जो कर्मादि से निरपेक्ष होनेपर प्राप्त होती है । इससे साधक को यथेच्छ अनेक प्रकार के रूप धारण करने की शक्ति होती है ।

कामरूपिणी
वि० [सं०] इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली । मायाविनी । उ०—यम की सभा कामरूपिमी है, विश्वकर्मा ने बनाई है ।—प्रा० भा० प०, पृ० ३२५ ।

कामरूपी
वि० [सं० कामरूपिन्] [वि० स्त्री० कामरूपिणी] इच्छा- नुसार रूप धारण करनेवाला । मायावी ।

कामरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या । वारांगना [को०] ।

कामरेड
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'काम्रेड' ।

कामर्स
संज्ञा पुं० [अं० काँमर्स] व्यापार । वाणिज्य । कारोबार । लेनदेन । जैसे,—चैंबर आफ कामर्स । कामर्स डिपार्टमेंट ।

कामल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रोग । विशेष—इसमें पित्त की प्रबलता से रोगी के शरीर का रंग पीला पड़ जाता है, आँखे और नख विशेष पीले जान पड़ते हैं, शरीर अशक्त रहता है और भोजन में अरुचि रहती है । २. वसंत काल । ३. रेगिस्तान (को०) ।

कामल (२)
वि० कामी ।

कामलड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बल, हिं० कामल + ड़ी (प्रत्य०)] दे० 'कामरी' । उ०—फाड़ि पटोली धुज करों कामलड़ी फहराय । जेहि जेहि भेजे पिय मिलै, सोई सोई भेष कराय ।—कबीर सा०, सं०, पृ० ४२ ।

कामला
संज्ञा पुं० [सं० कामल] दे० 'कामल (१)' ।

कामलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा [को०] ।

कामली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्बल] कमली । छोटा कंबल । उ०— साधु हजारी कापड़ा ता में मल न समाय । साकट काली कामली भावै तहाँ बिछाय ।—कबीर (शब्द०) ।

कामली
वि० [सं० कामलिन्] [वि० स्त्री० कामलिनी] पीलिया । रोग से पीड़ित [को०] ।

कामलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या । वारांगना [को०] ।

कामलोक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध दर्शन के अनुसार एक परोक्ष लोक । विशेष—यह ग्यारह प्रकार का है—मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, नरक, प्रेतलोक, असुरलोक, चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिंश, याम्य, तुषित, निर्माणरति और परनिर्मित नाशवर्ती ।

कामलोल
वि० [सं०] कामातुर [को०] ।

कामवती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारु हल्दी ।

कामवती (२)
वि० स्त्री० काम की वासना रखनेवाली । समागम की इच्छा रखनेवाली ।

कामवन
संज्ञा पु० [सं०] १. वह वन जहाँ बैठाकर महादेव जी ने कामदेव का दहन किया था । २. मथुरा के पास का एक प्रसिद्ध वध जो तीर्थ माना जाता है ।

कामवर
संज्ञा पुं० [सं०] इच्छित भेंट या उपहार [को०] ।

कामवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम । आम का पेड़ । २. वसंत (को०) । ३. चंद्नमा (को०) ।

कामवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाँदनी । चंद्रिका ।

कामवश (१)
वि० [सं०] काम के अधीन । कामयुक्त [को०] ।

कामवश (२)
संज्ञा पुं० काम का आवेश या अधीनता [को०] ।

कामवाद (१)
सं० पुं० [सं०] इच्छानुसार कहने का सिद्धांत ।

कामबाद (२)
वि० १. इच्छानुसार कहने या बोलनेवाला । २. इच्छानुसार कहने के सिद्धांत को माननेवाला ।

कामवादी
वि० [सं० कामवादिन्] दे० 'कामवाद' ।

कामवान्
वि० [सं० कामवत्] [वि० स्त्री० कामवती] काम की इच्छा करनेवाला । समागम का अभालाषी ।

कामविहंता
वि० [सं० कामविहन्तृ] काम या वासना का हनन करनेवाला [को०] ।

कामवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०] ।

कामवृत्त
वि० [सं०] कामुक । लंपट । स्वेच्छाचारी [को०] ।

कामवृत्ति (१)
वि० १. स्वेच्छाचारी । २. स्वतंत्र [को०] ।

कामवृत्ति (२)
संज्ञा पु० [सं०] १. स्वतंत्रया अनियंत्रित कार्य । २. काम की प्रवृत्ति या भाव [को०] ।

कामवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] काम का आवेश या वेग [को०] ।

कामवेग
संज्ञा पुं० [सं०] कामोत्ते जना । काम की तीव्रता । उ०— 'भाव' मन की वेगयुक्त अवस्थाविशेष है, वह क्षुत्पिपासा, कामवेग आदि शरीरवेगों से भिन्न है ।—रस०, पृ० १६४ ।

कामशर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामवाण । २. आम । ३. आम का पेड़ (को०) ।

कामशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह विद्या या ग्रंथ जिसमें स्त्री पुरुषों के परस्पर समागम आदि के व्यवहारों का वर्णन् न हो । विशेष—इसके प्रधान आचार्य नंदीश्वर माने जाते हैं और अंतिम आच्रार्य वात्स्यायन इनका ग्रंथ काम सूत्र है ।

कामसख
संज्ञा पुं० [सं०] १. वसंत । २. चैत्र का आरंभ । चैत्रमुख । ३. आम का वृक्ष [को०] ।

कामसखा
संज्ञा पु० [सं० कामसखिन्] १. वसंत । २. चैत्रमास (को०) ।

कामसुख
संज्ञा पु० [सं०] काम का आनंद । विषयानद । उ०— समुझि कामसुख सोचाहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ।—मानस, १ । ८७ । यौ०—कामसुखेच्छा=विषय—सुख की लालसा । कामसुखेच्छु=कामसुख का इच्छुक ।

कामसुत
संज्ञा पुं० [सं०] अनिरुद्ध जो कामदेव के अवतार, प्रद्युम्न के पुत्र थे ।

कामसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वात्स्यायन द्धारा रचित काम शास्त्र । २. प्रेमसूत्र । कामकथा [को०] ।

कामहा
संज्ञा पुं० [सं० कामहन्] १.शिव । २. विष्णु [को०] ।

कामाकुंश
संज्ञा पुं० [सं० कामङकुश] १. नख । नाखून । २. लिंग । शिश्न [को०] ।

कामांग
संज्ञा पुं० [सं० कामाङ्ग] आम ।

कामांध (१)
वि० [सं० कामान्ध] काम की अतिशयता से जिसका विवेक नष्ट हो गया हो ।

कामांध (२)
संज्ञा पुं० कोयल । कोकिल पक्षी [को०] ।

कामांघा
संज्ञा स्त्री० [सं० कामान्धा] १. कस्तूरी । २. गंधधूलि । योजनगंधा [को०] ।

कामा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० काम] १. कामिनी स्त्री । उ०—आधिक कामदग्ध सो कामा । हरि के सुवा गयो पिय नामा ।—जायसी (शब्द०) । २. एक वृत्ति जिसमें दो गुरु होते हैं । जैसे—आना । जाना । रोना । धोना ।

कामा (२)
संज्ञा पुं० [अं० कामा] एक विराम जो दे वाक्यों या शब्दों के बीच होता है । इसका चिह्न इस प्रकार है । (,) ।

कामाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा देवी का एक अभिग्रह । २. तंत्र के अनुसार देवी की एक मूर्ति ।

कामाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवी का एक अविग्रह । २. सती या देवी का योनिपीठ । कामरूप ।

कामाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्कट प्रेम । प्रबल अनुराग । २. काम की उत्तेजना । काम का वेग [को०] ।

कामातुर
वि० [सं०] काम के वेग से व्याकुल । समागम की इच्छा से उद्विग्न ।

कामात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] काम या प्रद्युम्न का आत्मज । अनिरुद्ध [को०] ।

कामात्मा
वि० [सं० कामात्मन्] कामी । कामासक्त [को०] ।

कामाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] आसाम का पर्वतविशेष [को०] ।

कामानुज
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोध । गुस्सा । तामस । लोभ । उ०— शांत रह्ययो कामानुज मुनि को । सेवन कीन्ह्यो गुनि मुनि धनि को ।—रघुराज (शब्द०) ।

कामायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम । २. कामबाण (को०) । ३. पुरुषचिह्यन । शिश्न (को०) ।

कामारथी †
संज्ञा पुं० [सं० कामार्थी] दे० 'कामार्थी' ।

कामारि
संज्ञा पुं० [सं०] शिवजी का एक नाम ।

कामार्त
वि० [सं०] १. काम से पीड़ित । २. वियोग । विरह पीड़ित [को०] ।

कामार्थी
वि० [सं० कानार्थिन्] १. कामुक । कामी । २. रतिकर्म में आसक्त [को०] ।

कामावशायिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्य संकल्पता जो योगियों की आठ सिद्धियों या ऐश्वयों में से है । २. आत्मनिग्रह (को०) ।

कामावसाय
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रियनिग्रह (को०) ।

कामावसायिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कामावशायिता' ।

कामि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कामुक [को०] ।

कामि (२)
संज्ञा स्त्री० काम की स्त्री । रति (को०) ।

कामिक (१)
वि० [सं०] इच्छित । चाहा हुआ । जिसकी कामना की जाय (को०) ।

कामिक (२)
संज्ञा पुं० वनहंस । कारंडव पक्षी [को०] ।

कामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रावण कृष्मा एकादशी ।

कामित (१)
वि० [सं०] चाहा हुआ । वाँछित (को०) ।

कामित (२)
संज्ञा पुं० कामना । वासना । प्रेम [को०] ।

कामिनियाँ
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा पेड़ जो सुमात्रा, जावा आदि टापुओं में होता है और जिसकी गाल से एक प्रकार का लोबान बनता है ।

कामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामवती स्त्री । २. स्त्री । सुंदरी ३. भौरु स्त्री (को०) । ४. दारु हल्दी । ५. मदिरा । ६. पेड़ों परक । बाँदा । परगाछा । ७. मालकोस राग की एख रागिनी । ८. एक पेड़ जिसकी लकड़ी से मेज कुर्सी आदि सजावट के सामान बनते हैं । विशेष—इसकी लकड़ी पर नवकाशी का काम अच्छा होता है । यौ०—कामिनिकाँचन=स्त्री और संपदा ।

कामिनीकांत
संज्ञा पुं० [सं० कामिनीकांत] एक वर्णवृत्त । दे० 'स्त्रीग्वणी' (को०) ।

कामिनीमोहन
[सं०] स्त्रग्विणी छंद का एक नाम ।

कामिनीश
संज्ञा पुं० [सं०] सहजन का पेड़ । शोभांजन वृक्ष (को०) ।

कामिल
वि० [अ०] १. पूरा । पूर्ण । सब । कुल । समूचा । २. योग्य । ३. व्युत्पन्न ।

कामी (१)
वि० [सं० कामिन्] [स्त्री० कामिनी] १. कामना रखनेवाला । इच्छुक । २. विषयी । कामुक । लंपट ।

कामी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चकवा । २. कबूतर । ३. चिड़ा । गौरा । ४. सारस । ५. चद्रमा । ६. काकड़ासींगी । ७. विष्णु का एक नाम । ८. शिव का एक विशेषण (को०) । ९. लंपट व्यक्ति (को०) । १०. विलासी पति (को०) ।

कामी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कम्प=हिलना] १. काँसे का ढाला हुआ छड़ जिससे मुठिया बनाते हैं । २. कमानी । तीली ।

कामु पु
संज्ञा पुं० [सं० काम] दे० 'काम' । उ०—पठवहु कामु जाइ शिव पाहीं । कर्र छोभु संकर मन माहीं ।—मानस, १ । ८३ ।

कामुक (१)
वि० [सं०] १. [स्त्री० कामुकी] इच्छा करने वाला । चाहने वाला । २. [स्त्री० कामुका] कामी । विषयी ।

कामुक (१)
संज्ञा पुं० १. अशोक । २. माधवी लता । ३. चिड़ा । गौरा ।

कामुका (१)
वि० स्त्री० [सं०] इच्छा करने वाली ।

कामुका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का मातृका दोष । विशेष—वैद्यक के अनुसार यह रोग बालकों का जन्म के बारहवे दिन या बारहवें महीनें महीने या बारहवे वर्ष होता है । इसमें रोगी ज्वरग्रस्त होकर हँसता है, वस्त्रादि उतारकर फेंक देता है, अधिक साँस लेता है और अंडबंड बकता है । २. धन की कामना रखनेवाली स्त्री (को०) ।

कामुक पु
वि० [सं० कामुक, कामुकी] दे० 'कामुक' । उ०—जिनके विलोकत ही विलात, असेस कामुकि क्राम के ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४५७ ।

कामुकी
वि० स्त्री० [सं०] अत्यंत रति की इच्छा रखनेवाली । पुंश्चली । व्यभिचारिणी (को०) ।

कामेडियन
संज्ञा पुं० [अं० कामोडियन] १. आदि रस या हास्य रस का अभिचेता । २. सुंखांत नाटक लिखनेवाला ।

कामेड़ी
संज्ञा स्त्री० [अं० काँमेडी] वह नाटक जिसका अंत आनंद या सुखमय हो । सुंखांत नाटक । संयोगांत नाटक । मिलानांत नाटक ।

कामेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तंत्र के अनुसार एक भरैवी । २. कामाख्या की पाँच मुर्त्तियों में से एक ।

कामैत पु
संज्ञा पुं० [हिं० कुम्मैत] कुम्मैत में से एक ।

कामेती पु
संज्ञा पुं० [हिं० काम] मजदुर । काम करनेवाला श्रमिक । उ०—सुबादार कामैत्याँ समेति बाधि लीनाँ । बेड़ी घालि दिल्ली को सताची भेज दीनाँ ।—शिखर०, पृ० २५ ।

कामोत्थाप्य
वि० [सं०] वह नौकर जिसकी नौकरी स्थाई न हो । अस्थायी भृत्य । उ०—शुद्र को कहा कै कामोत्थाप्य, अर्थात् जब चाहे निकाल दिया जानेवाला ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २५ ।

कामोद
संज्ञा पु० [सं०] संपुर्ण जाति का एक राग जो मालकोस का पुत्र माना जाता है । विशेष—इसमें धैवत वादी और पंचम संवादी है । इसके गाने का समय रात का पहला आधा पहर है । करुणा और हास्य में इसका उपयोग होता है । कोई कोई इसे बिलावली और गौड़ के सयोग से बना संकर राग मानते है । कई रागों के मेल से कई प्रकार के संकरकामोद बनते है । यह चौताल पर बजाया जाता है । इसका स्वरग्राम इस प्रकार है । ध नि सा रे ग म प ।

कामौदक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जलांजलि जो इच्छानुसार उस मृत प्राणी को दी जाती है जो चुड़ाकर्म के चहले मरा हो और जिसके लिये उदकक्रिया की विधि न हो ।

कामोदकल्याण
संज्ञा पुं० [सं० कोमोद+ कल्याण] एक संकर राग जो कामोद और कल्याण के योग से बनता है । विशेष—यह संपुर्ण जाति का है । इसमें सब शुद्ध स्वर लगते है । सका सरगम इस प्रकार है ।—ग म प ध नि सा रे ।

कामोदतिलक
संज्ञा पु० [सं०] एक संकर राग जो कामोद और तिलक के योग से बनता है और बाड़व जाति का है । विशेष—इसमें धैवत वर्जित है । यह रात के पहले पहर में गाया जाता है । इसका सरगम इस प्रकार है ।—प नि सा रे म प ।

कामोदनट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार राग जो कामौद और नट के मिलने से बनता है । विशेष—यह संपुर्ण जाति का है और इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । इसे कुछ लोग नटनारायण का पुत्र भी मानते हैं । इसके गाने का समय रात का पहला पहर है । कोई कोई इसे दिन के दुसरे पहर में भी गाते हैं । इसका सरगम यह है—ध नि सा रे ग म प प ध नि सा ।

कामोदसामंत
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर राग जो कामोद और सामंत के योग से बनता है । विशेष—यह बाड़व जाति का है । इसमें धैवत वर्जित है । इसके गाने का समय रात का तीसरा पहर है । इसका सरगम इस प्रकार है—ग म पनि सा रे ग ।

कामोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० १.'कामोदी' । २. एक पौधे का नाम (को०) ।

कामोदी
संज्ञा स्त्री० [सं० कामोदा] एक रागिनी जो मालकोश के पुत्र कामोद की स्त्री है । कोई कोई इसे दीपक की चैथी रागिनी भी मानते हैं । विशेष—यह संपुर्ण जाति की रागिनी है और रात के दुसरे पहर की दुसरी घड़ी में गाई जाती है । कोई कोई इसे संकर रागिनी कहते है और सुधराई और सोरठ के योग से उसकी उत्पत्ति मानते हैं । इसका सरगम यह है—घ नि सा रै ग म प ध ।

कामोद्दीपक
वि० [सं०] काम को उद्दीप करनेवाला । जिससे मनुष्य को सहवास की इच्छा अधिक हो ।

कामोद्दीपन
संज्ञा पुं० [सं०] सहवास की इच्छा का उत्तेजन ।

कामोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम का वेग । वासना की प्रबलता । २. वह उन्माद जो काम के वेग से होता है [को०] ।

काम्य (१)
वि० [सं०] १. जिसकी इच्छा हो । २. जिससे कामना की सिद्धि हो । जैसे,—काम्य कर्म ।

काम्य (२)
संज्ञा पु० [सं०] वह यज्ञ या कर्म जो किसी कामना की सिद्धि के लिये किया जाय । जैसे—पुत्रोष्टि, कारीरी । विशेष—यह अर्थ कर्म के तीन भेदों में से है । काम्य कर्म भी तीन प्रकार का कहा गया है—ऐहिक वह है जिसका फल इस लोक में मिले जैसे,—पुत्रोष्टि और कारीरी । आमुष्मिक—वह है जिसका फल परलोक में मिले, जैस अग्निहोत्र । ऐहिकामुष्मिक का फल कुछ इस लोक में और कुछ परलोक में मिलता है ।

काम्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बन का नाम । २. एक सरोवर का नाम [को०] ।

काम्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जो किसी फल या कामना की प्राप्ति के लिये किया जाय ।

काम्यदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. रत्न आदि अच्छी वस्तुओँ का दान । २. वह दान जो पुत्र या ऐश्वर्य आदि की कामना से किया जाय ।

काम्यमरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छानुसार मृत्यु । २. मुक्ति ।

काम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इच्छा । आभिलाषा । कामना । २. प्रार्थना । ३. गाय । गौ [को०] ।

काम्येष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह यज्ञ जो कामना की सिद्धि के लिये किया जाय । जैसे,—पुत्रेष्टि ।

काम्रेड़
संज्ञा पुं० [अं०] सहयोगी । साथी । विशेष—कम्युनिस्ट या साम्यवादी अपने दलवालों और अपने से सहानुभुति रखनेवालो को 'काम्रड' शब्द से संबोधित करते हैं । जैसे,—काम्रेड सक्लातावाला ।

कायँ कायँ
संज्ञा पुं० [अनु०] १. कौवे की बोली । २. स्यार की बोली । उ०—सियारों की भाँति कायँ कायँ कर खोपड़ी खाली कर डालेंगे ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०२ ।

काय (१)
वि० [सं०] प्रजापति संबंधी, जैसे, कायतीर्थ, कायहवि इत्यादि ।

काय (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० कायिक] १. शरीर । देह । बदन । जिस्म । उ०—कछु ह्यवै न आइ गयो जन्म जाय । अति दुर्लभ तन पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन काय ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—कायक्रिया । काक्लेश । कायाचिकित्सा । निकाय । दीर्घकाय । भहाकाय । २. प्रजापति तीर्थ । कनिष्ठा उँगली के नीचे का भाग । विशेष—मनु ने तर्पण, आचमन संकल्प आदि की पवित्रता के विचार से अंगों तीर्थ नाम से विभाग किए हैं । ३. प्रजापति का हवि । वह हवि जो प्रजापति के निमित्त हो । ४. प्राजापत्य विवाह । ५. मूल धन । असल । ६. वस्तु स्वभाव । लक्षण ।७. लक्ष्य । ८. समुदाय । संघ । ९. बौद्ध- भिक्षुओं का संघ । १० पेड़ का तना या काण्ड (को०) । ११. तारों के अलावा वीण का रुप या ढाँचा (को०) । १२. निवासस्थान [को०] ।

काय (३) †
अव्य० [हिं० काह] दे० 'काहे' । उ०—आग लगी क्या देखत अधे काय के खातर सोया जू ।—दक्खिनी०, पृ० १६ ।

कायक
वि० [सं०] शरीर संबंधी । दैहिक [को०] ।

कायका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्याज । सूद [को०] ।

कायक्क पु
वि० [सं० कायक या कायिक] दे० 'कायिक' ।

कायचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के किए हुए चिकित्सा के आठ विभागों या अंगों में से एक । विशेष—इसमें ज्वर, कुष्ठ, उन्माद अपस्मार आदि सर्वागव्यपी रोगों ते उपशमन का विधान है ।

कायजा
संज्ञा पुं० [अ० कायजह्] घोड़े की लगाम की डोरी, जिसे पूँछ तक ले जाकर बाँधते हैं । क्रि० प्र०—चढ़ाना ।—बाँधना ।—लगाना । मुहा०—कायजा करना = घोड़े की लगाम की डोरी को पूँछ में फँसाना । विशेष—घोड़े को चुप चाप खड़ा करके के लिये खरहरा करते समय प्रायः ऐसा करते हैं ।

कायथ
संज्ञा पुं० [सं० कायस्थ] [स्त्री० कायथिन, कैथिन] दे० 'कायस्थ' ।

कायदा
संज्ञा पुं० [अ० कायदह्] १. नियम । २. चाल । दस्तूर । रीति । ठंग । ३. विधि । विधान । ४. क्रम । व्यवस्था । करीना । ५. व्याकरण । ६. प्रारंभिक पुस्तक जिसके द्वारा अक्षरज्ञान कराया जाय, जैसे उर्दू का कायदा ।

कायफर †
संज्ञा पुं० [सं० कायफल] दे० 'कायफल' ।

कायफल
संज्ञा पुं० [सं० कट्फ़ल] एकवृक्ष जिसकी छाल दवा के काम में आती है । विशेष—गह वृक्ष हिमालय के कुछ गरम स्थानों में पैदा होता है । आसाम के खासिया नामक पहाड़ पर और बरमा में भी यह बहुत होता है ।

कायबंधन
संज्ञा पुं० [सं० कायबन्धन] १. शुक्र और रक्त का संमिश्रण । २. करधनी । कमरबंद [को०] ।

कायब्यूह पु
संज्ञा पुं० [अ० कायव्यूह] १. शरीरो का बनाया हुआ मोरचा या व्यूह । ई०—प्रतिबिंबित जयसाहि दुति दीपति दरपन धाम । सबु जगु जीतनु कौं करयौ कायव्यूह मनु काम ।—विहारी (शब्द०) । २. दे० 'कायज्यूह' ।

कायम
वि० [अ०कायम] १. ठहरा हुआ । स्थिर । २. स्थापित । जैसे, स्कुल कायम करना । शतरंग में मोहरा कायम करना ।क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. निर्धारति । निश्चित । मुकर्रर । जैसे, हद कायम करना । यौ०—कायममुकाम । ४. जो बाजी बराबर रहे, जिसमें किसी पक्षकी हार जीत न हो । मुहा०—कायम उठाना = शतरंज की बाजी का इस प्रकार समाप्त होना जिसमें किसी पक्ष की हारजीत न हो ।

कायममिजाज
वि० [अ० कायम+ मिजाज] सुस्थिरचित्त । आत्मस्थ ।

कायममुकाम
वि० [अ० कायमसुकाम] स्थानापन्न । एवजी ।

कायमा
संज्ञा पुं० [अ० कायमह] (ज्यामिति में) समकोण । नब्बे अंश का कोण । यौ०—जावियाकायमा = समकोण ।

कायर
वि० [सं० कातर, प्रा० काहर] डरपोक । भीरु । असाहसी । कमहिम्मत । उ०—(क) कपटी कायर कुमति कुजाती । लोक वेद निंदित बहु भाँती ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को ।—तुलसी (शब्द०) ।

कायरता
संज्ञा स्त्री० [सं० कायरता या हिं० कायर + ता (प्रत्य०)] डरपोकपन । भीरुता ।

कायल
वि० [अ० कायल] जो दूसरे की बात की यथार्थता को स्वीकार कर ले । जो तर्त वितर्क से सिद्ध बात को मान ले । जो अन्यथा प्रभावित होने पर अपना पक्ष छोड़ दे । कबूल करनेवाला । मुहा०—कायल करना=समझा बुझाकर कोई बात मनवाना । स्वीकार कराना । निरुत्तर करना । जैसे,—जब उसको दस आदमी कायल करेंगें, तब वह झख मारकर ऐसा करेगा । कायल माकूल करना=दे० 'कायल करना' । कायल होना= (१) दूसरे की बात की यथार्थता को मान लेना । (२) स्वीकार करना । मानना । जैसै,—हम उनकी चालाकी के कायल हैं ।

कायली (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कायर] ग्लानि । लज्जा ।

कायली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०क्ष्वढिका, क्ष्वेलिका, पा० ख्वेलिका] मथानी । खैलर । (डिं०) ।

कायली (३)
वि० [हिं० काहिल] काहिल ।

कायवलन
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । जिरह बख्तर [को०] ।

कायव्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक द्स्यु सरदार का नाम । विशेष—यह बड़ा धर्मपरायण था और साधुओं तथा तपस्वियो को सेवा करता था ।

कायव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर मे वात, पित्त, कफ, तथा त्वक्, रक्त, मांस, स्नायु, अस्थि, मज्जा औऱ शु्क्र के स्थान और विभाग आदि का क्रम (बैद्यक) । २. योगियों की अपने कर्मों के भोग के लिये चित्त में एक एक इंद्रिय और अंग की कल्पना की क्रिया ।

कायस्थ (१)
इस वि० [सं०] काय में स्थिति । शरीर में रहनेवाला ।

कायस्थ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवात्मा । २. परमात्मा । ३. एक जाति का नाम । कायथ । विशेष—इस जाति के लोग प्रायः लिखने पढ़ने का काम करते है और पंजाव को छोड़ प्रायः सारे उत्तर भारत में पाए जाते हैं । यह लोग अपने को चित्रगुप्त का वंशज मानते हैं ।

कायस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कायस्थ की स्त्री । २. हरीतकी । हड़ । ३. आँवला । ४. तुलसी । ५. काकोली ।

काया
संज्ञा स्त्री० [सं० काय] शरीर । तन । देह । उ०—राग को न साज न विराग जोग जिय काया नहिं छाँड़ि देति ठाठिबो कुठाठ को ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—कायाकल्प । कायापलट । मुहा०—काया पलट जाना = रूपांतर हो जाना । और से और हो जाना । जैसे, —इतने दिनों में इस मकान की सारी काया पलट गई । काया पलट देना = रूपांतर करना । और से और कर देना ।

कायाकल्प
संज्ञा पुं० [सं० कायाकल्प] १. औषध के प्रभाव से वृद्ध शरीर को पुनः तरुण और सशक्त करने की क्रिया । २. चिकित्सा या युक्ति जिससे अशक्त और जर्जर शरीर नया हो जाय ।

कायाधव
संज्ञा पु० [सं०] कयाधु के पुत्र प्रहलाद [को०] ।

कायापलट
संज्ञा पुं० [हिं० काया+ पलटना] १. भारी हेरफेर । बहुत बड़ा परिवर्तन । २. एक शरीर या रूप का दूसरे शरीर या रूप में बदल जाना । नए रूप की प्राप्ति । और ही रंग रूप का होना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कायिक
वि० [सं०] १. शरीर संबंधी । २. शरीर से किया हुआ या उत्पन्न । जैसे, कायिक कर्म कायिक पाप । ३. संघ संबंधी (बौद्ध) ।

कायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूलधन के रूप में दिए हुए ऋण के बदले मिलनेवाला ब्याज । सूद [को०] ।

कायिकावृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मेहनत मजदूरी या काम जो ऋणी मनुष्य सूद के बदले में कर दे या अपने गाय बैल से करा दे । विशेष—स्मृत्तियों में चार प्रकार के ब्याजों में से इसको भी एक प्रकार का ब्याज माना है ।

कायी
वि० [सं० कायिन्] विशाल देहवाला [को०] ।

कायोढज
संज्ञा पुं० [सं०] प्राजापत्य विवाह से उत्पन्न पुत्र ।

कायोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैन शिल्प में अर्हत् की वीतरागावस्था में खड़ी मूर्ति । २. जैन धर्म के अनुसार एक प्रकार की अग्नि । तपस्या (को०) ।

कारंड़ कारंडव
संज्ञा पुं० [सं० कारण्ड, कारण्डव] हंस की जाति का एक पक्षी । एक प्रकार की बत्तख ।

कारंधमी
संज्ञा पुं० [सं० कारन्धमिन्] रसायन की क्रिया द्वारा किसी हीन कोटि की धातु को सोना बनानेवाला । रसायनी । कीमियागर [को०] ।

कार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रिया । कार्य । जैसे,—उपकार, स्वीकार, अहंकार, बलात्कार, चमत्कार । विशेष—यौगिक अर्थों ही में इसका प्रयोग होता है । २. करनेवाला । बनानेवाला । रचनेवाला । व्यवसाय करनेवाला । जैसे,—कुंभकार, ग्रंथकार, स्वर्णकार, चर्मकार । ३. एक शब्दजो वर्णमाला के अक्षरों के आगे लगकर, उनका स्वतंत्र बोध कराता है । जैसे,—चकार, लकार, मकार इत्यादि । ४. एक शब्ज दो अनुकृत ध्वनि साथ लगकर उसका संज्ञावत् बोध कराता है । जैसे,—फूत्कार, चीत्कार, झनकार, फुफकार, सिसकार, टंकार, फटकार । ५. बर्फ से ढका पहाड़ हिमालय । ६. पूजा की बलि । ७. पति । ८. चेष्टा । प्रयत्न । यत्न । (को०) । ९. धार्मिक पवित्रता (को०) । १०. निश्चय (को०) । ११. शक्ति (को०) । १२. हिमराशि (को०) । १३. ओले या हिम का जल (को०) । १४. वध । हनन (को०) ।

कार (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कार्य । काम । धंधा । यौ०—कारगुजारी । कारबार । कार्रवाई ।

कार (३)
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. गाड़ी । सवारी । २. मोटर गाड़ी । मोटर कार ।

कार (४) पु †
वि० [हिं० काला] [वि० स्त्री० कारी] काला । कृष्ण । उ०—रावन पाय जो जिउ धरा दुवौ जगत महँ कार ।— जायसी (शब्द०) ।

कारक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० कारिका] करनेवाला । जैसे,—हानिकारक, सुखकारक । विशेष—इसका प्रयोग इस अर्थ में प्रायः यौगिक शब्दों के अंत में होता है ।

कारक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में संज्ञा या सर्वनाम शब्द की वह अवस्था जिसके द्वारा वाक्य में उसका क्रिया के साथ संबंध प्रकट होता है । कारक छह हैं—कर्ता, कर्म करण, संप्र- दान, अपादन और अधिकरण ।

कारकदिपक
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में वह अर्थालंकार जिसमें कई एक क्रियाओं का एक ही कर्ता वर्णन किया जाय । जैसे— कहति, नटति, रीझति, खिझति, हिलति, मिलति, लजियात । भरे भवन में करति है, नैनन ही सों बात ।—बिहारी (शब्द०) ।

कारकर
वि० [सं०] किसी की और कार्य करनेवाला [को०] ।

कारकरदा
वि० [फा० कारकर्दह] दिसका किया धरा हो । अनुभवी । तजुरबेकार ।

कारकुन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. किसी के बदले काम करनेवाला । प्रबंधकर्ता । २. कारिंदा ।

कारखाना
संज्ञा पुं० [फा़ कारखानह्] १. वह स्थान जहाँ व्यापार के लिये कोई वस्तु बनाई जाती है । जैसे, —पुतलीघर, करघा, छापाखाना ईत्यादि । क्रि० प्र०—करना ।—खोलना । २. कारबार । कामकाज । व्यवसाय । जैसे, —थोड़े ही दिनों में उन लोगों ने धीरे धीरे अपना कारखाना फैलाया । क्रि० प्र०—पसारना ।—फैलाना । ३. घटना । दृश्य । मामला । जैसे—वहाँ अजीब कारखना नजर आया । ४. क्रिया । व्यापार । जैसे—वहाँ दिन भर यही कारखाना लगा रहता है । क्रि० प्र०—लगा रहना ।

कारखानेदार
संज्ञा पुं० [हिं० कारखाना + दार (प्रत्य०)] कारखाने का मालिक ।

कारगर
वि० [फा०] १. प्रभावोत्पादक । प्रभावजनक । असर करनेवाला । क्रि० प्र०—होना । २. उपयोगी । लाभकारक । जैसे—कोई दवा कारगर नहीं होती । क्रि० प्र०—होना ।

कारगाह
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. वह स्थान जहाँ बहुत से मजदूर आदि काम करते हों । कारखाना । २. जुलाहों के कपड़ा बुनने का स्थान । करगह ।

कारगुजार
वि० [फा़० कारगुज़ार] [संज्ञा कारगुजारी] काम को अच्छी तरह करनेवाला । अपना कर्तव्य अच्छी तरह पूरा करनावाला । खूब अच्चछी तरह और आज्ञा पर ध्यान देकर काम करनेवाला ।

कारगुजारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० कारगुज़ारी] १. पूरी तरह और आज्ञा पर ध्यान देकर काम करना । कर्तव्यपालन ।२. कार्य- पटुता । होशियारी । ३. कर्मण्यता ।

कारचोब
संज्ञा पुं० [फा़०] [त्रि०? संज्ञा कारचोबी] १ लकड़ी का एक चौकठा जिसपर कपड़ा तानकर जरदोजी या कसिदे का काम बनाया जाता है ।अड्डा ।२. जरदोजी या कसीदे का काम करनावाला । जरदोज । ३. कसीदे या गुलकारी का काम जो जरी के तारों को लेकर लकड़ी के चौकठे पर लगाया जाता है ।

कारचोबी (१)
वि० [फ़ा०] जरदोजी का ।

कारचोबी (२)
संज्ञा स्त्री० जरदोजी । गुलकारी । कसीदा ।

कारज (१) †पु
संज्ञा पुं० [सं कार्य] दे० 'कार्य' ।

कारज (२)
वि० [सं०] करज अर्थात उँगली सबंधी (को०) ।

कारटा पु
संज्ञा पुं० [सं० करट] कौआ । काग । उ०—काज कानागत कारटा आन देव को खाय । कहै कबीर समझै नहीं बांधा यमपुर जाय ।—कबीर (शब्द०) ।

कारटून
संज्ञा पुं० [अ० कार्टून] वह उपहासपूर्ण कल्पित चित्र जिससे किसी घटना या व्यक्ति के संबंध में किसी गूढ़ रहस्य का ज्ञान होता है । ब्यंगचित्र । क्रि० प्र०—निकलना ।—निकालना ।

कारटूनिस्ट
संज्ञा पुं० [अं० कार्टूनिस्ट] व्यंग्यचित्रकार ।

कारट्रिनज
संज्ञा पुं० [अं०] दफ्ती, टीन, ताँबे आदि का बना हुआ बह आवरण जिसके अंदर बंदूक में भरकर चलाई जानावाली गोली या छर्श आदि कहता है । कारतूस ।

कारड †
संज्ञा पुं० [अं० कार्ड या पोस्टकार्ड] दे० 'कार्ड' ।

कारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हेतु । वजह । सबब । जैसे, तुम किस कारण वहाँ गए थे । विशेष—इस शब्द के साथ विभक्ति 'से' प्रायः नहिं लगाई जाती । २. वह जिसके बीना कार्य न हों । वह जिसका किसी वस्तु या क्रिया के पुर्व संबद्ध रूप होना अवश्यक हो । वह जिससे दूसरे पदार्थ की संप्राप्ति हो । हेतु । निमित । प्रत्यय । विशेष— न्यान के मत से कारण तीन प्रकार के होते है— समवायि (जैसे तेतु वस्त्र का), असमवाय (तंतुओं का संयोग वस्त्र का) । और निमित्त (जैसे जुलाहा, ढरकी आदि वस्त्र के । योगदर्शनमेंकारण नौ प्रकार के हैं—उत्पति, स्थिति, अभिव्यक्ति, विकार, ज्ञान, द्राप्ति, विच्छेद, अन्यत्व और धृति । यह विभिन्नता केवल कार्यभेद से जान पड़ती है । उत्पति ज्ञान का कारण मन, शरीरस्थिति का कारण आहार, रूप की अभिव्यक्ति का कारण प्रकाश पचनीय वस्तुओं के विचार का कारण अग्नि अग्नि के कारणत्व का धूमज्ञान, विवेकप्राप्ति और अशुद्धिविच्छेद का कारण योगांगों का अनुष्ठान, स्वर्णकार कुंडल सें सोने के रूपान्यत्व का कारण, इस जगत् और इद्रियों का अधिष्ठान ईश्वर वेदांत उपादान कारण मानता है । कोई कोई कारण तीन प्रकार का मानते हैं, उपादान (समवायि), निमित्त और साधारण । चार्वाक कारण को कोई पदार्थनहिं मानता । सांख्य त्रयोगुणात्मिका प्रकृति को मूल कारण कहता है । वेदांत का कहना है कि अचेतन प्रकृति से कार्य को उत्पत्ति नहीं हो सकती । कणाद ने परमाणु को सावयव जगत् का उपादान कारण माना है । ३, आदि । मूल । ४. साधना । ५. कर्म ६. प्रमाण । ७. एक बाजा । ८. तांत्रिकों की परिभाषा में पूजन के उपरांत का मद्यपान । ९. एक प्रकार का गाना । १०. विष्णु ।११. शिव ।

कारणक
संज्ञा पुं० [सं०] हेतु । निमित्त [को०] । विशेष— यह समस्त पद के अंत सें प्रयुक्त होता है ।

कराणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कारण की स्थित [को०] ।

कारणमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हेतुओं की श्रेणी । २. काव्य में एक अर्थालंकार जिसमें किमी क्रण से उत्पन्न क्र्य पुनः किसी अन्यकार्य का कारण होता हुआ वर्णन किया जाय । जैसे—दल ते बल, बल ते विजय, ताते राज हुलास । कृत ते सुत, सुत ते सुयश, यश ते दिवि नहँ वास ।

कारणवादि
संज्ञा पुं० [सं० कारणवादिन्] दावा या फरियाद करने वाला वयक्ति । वादी [को०] ।

कारणवारि
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टि के आरभंकाल सें उत्पन्न प्रारंभिक जल, जिससे इसका क्रमशः विस्तार या विकास हुआ [को०] ।

कारणशवीर
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत सें अणुवाद के अनुसार सुषुप्त अवस्था का कल्पित शरीर । विशेष—इसमें इंद्रियों के बिषयव्यापार का अभाव रहना है पर अहंकार आदि का संस्कार मात्र रह जाता है, जिससे जीवात्मा कैवल सुख ही सुख का अनुभव करता है । यह शरीर वास्तव में अविद्या ही है । इसे आनदमय कोश भी कहते हैं ।

कारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.व्यथा । कष्ट । तकलीफ । २. यम की यातना । ३. प्रेरणा । प्रोत्साहन [को०] ।

कारणिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कारणिकी] १. मुकदमे संबंधी कागज लिखनेवाला । मुहरिंर अर्जी । वीस । २. लिपीक लिखक । क्लर्क । ३. परीक्षक (को०) । ४. न्यायाधीश । निर्णायक (को०) । ५. अध्यापक (को०) ।

कारणोपाधि
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर ।— (वेदांत) ।

कारतूस
संज्ञा पुं० [पुर्त० कारटूस] एक लंबी नली जिसमें गोली छर्रा और बारूद भरी रहता है और जिमके एक सिर पर टोपी लगी रहती है । इसे टोंटोवाली बदूक या रिवालवर, राइफल आदि में भरकर चलाते हैं ।

कारन (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० कारण] दे० 'कारण' ।

कारन (२)
संज्ञा पुं० [सं० कारुण्य या कारणा] १. रोना का आर्त स्वर । कूक । कारुण स्वर । २. व्यथा । दुख । पीड़ा । उ० — नागमती कारन कै रोई । — जायसी ग्रं०, पृ० १५६ । क्रि० प्र० — करना । करके रोना ।

कारनिस
संज्ञा स्त्री० [अं०] दिवार की कँगनी । कगर ।

कारनी (१)
वि० [ सं० कारण या करण = कान ] प्रेरक । करनेवाला । उ० — जो पै चेराई राम की करतो न लजातो । तो तूँ दाम कुदाम ज्यों कर कर न बिकातो । — राम सोहातो तोहिं जौ तू सबहि सोहातो । काल कर्म कुल कारनी कोऊ न कोहातो । — तुलसी (शब्द०) ।

कारनी (२)
संज्ञा पुं० [ सं० कारीनि] भेद करानेवाला । भेदक । जैसे, उसके साथ यहीं से कारनी लगे और राहु से कान भरकर उन्होंने उसकी मति पलट दी ।

कारपण्य पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्पण्य] दे० 'कार्पण्य' । उ० — द्रोह कोतवाल त्यौं अशान तहसीलवाल गर्व गढ़वाल रोग सेवक आपार हैं । भनै रघुराज कारपण्य पण्य चौधरी है जग के विकार जेते सबै सरदार हैं । — रघुराज (शब्द) ।

कारपरदाज
वि० [ फा० कारपर्दाज०] [संज्ञा कारपर्दाजी] १. काम करने वाला । कारकुन । २. प्रबंधकर्ता । कारिंदा ।

कारपरदाजी
वि० [फा० कारपर्दाजी] १. दूसरे का कास करने की वृत्ति । दूसरे की ओर से किसी कार्य का प्रबंध करने का काम । २. दूसरे का काम करन की तत्परता । कार्यपटुंता ।

कारपोरल
संज्ञा पुं० [अं०] पलटन का छोटा अपसर । जमादार । जैसे— कारपोरल मिल्टन ।

कारबंकल
संज्ञा पुं० [अं०] शरीर के किसी भाग में विशेषतः पीठ पर होने वाला जहरीला फोड़ा ।

कारबन
]संज्ञा पुं० [ अं० कार्बन] भौतिक सृष्टि के मूलभूत तत्वों में से एक । यह कारबोनिक एसिड (गैस), कोयला, हीरा आदि में होता है ।

कारबन पेपर
संज्ञा पुं० अं वह गहरे काले या नीले रंग का कागज जिसे उस कागज के नीचे लगा देते हैं, जिसपर लिखते या टाइप करते हैं । इस प्रकार उस कागज के माध्यम से लेख की प्रतिलिपि भी साथ स्थ तैयार होती जाती है । उ०—ढोल उधर औ इधर फौलादी युग के दानव, प्रेम नया क्या होगा रे यह वही कारबन कापी ।— बंदन०, पृ ०४४ ।

कारबार
संज्ञा पुं० [फा०] [वि० कारबारी] कामकाज । व्यापार पेशा । व्यवसाय ।

कारबारी (१)
वि० [फ़ा०] कामकाजी ।

कारबारी (२)
संज्ञा पुं० दूसरे की ओर से काम करने वाला आदमी । कारकुन । कारिंदा ।

कारबोन
संज्ञा पुं० [अं०] [वि० कारबोनिक] रसायन शास्त्र के अनुसार एक तत्व जो सृष्टि के बीच दो रूपों में मिलता है, एक हीरे के रूप में, दूसरा पत्थर के कोयले के रूप में ।

कारबोनिक
वि० [अं० कार्बनिक] कारबन या कोयला संबंधी । कारबन मिश्रित । कारबन से बना हुआ । यौ० —कारबोनिक एसिड गैस ।

कारबोलिक (१)
वि० [अँ० कार्बोलिक] अलकतरा संबंधी । अलकतरा मिश्रित या उससे बना हुआ ।

कारबोलिक (२)
संज्ञा पुं० एक सार पदार्थ जो (पत्थर के) कोयले के तेल या अलकतरे से निकाला जाता है । विशेष— घाव या फोडे़ फुंसियों पर कारबोलिक का तेल कीड़ों को मारने या दूर रखने के लिये लगाया जाता है । १ से ३ ग्रेन तक की मात्रा में कारबोलिक खिलाया जाता है । इसका तेल और साबुन भी बनता है ।

कारभ
वि० [सं०] करभ या ऊँट सबंधी । ऊँट का [को०] ।

कारमन पु
संज्ञा पुं० [ सं० कार्मण] दे० 'कार्मण' ।

कारमबि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कार्मणी] जादूगरनी ।

कारमिहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपूर । घनसार [को०] ।

कारय
संज्ञा पुं० [सं० कार्य] दे० 'कार्य' । उ०— कारण कारय भेद नहीं कछु आपु में आपुहि आपु तहाँ है । — सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६१६ ।

कारयिता
संज्ञा पुं० [सं० कारयितृ] १. सृष्टि करनेवाला । २. (कार्य) करानेवाला [को०] ।

कारयित्री (१)
वि० [सं०] १. करानेवाली । सृष्टि या रचना कराने वाली [को०] ।

कारयित्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रचना करानेवाली स्त्री । २. प्रेरक शक्ति । वह आंतरिक शक्ति जो रचना के लिये प्रेरित करे [को०] । यौ० — कारयित्री प्रतिभा ।

काररवाई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. काम । कृत्य । जैसे — (क) यह बड़ी बेजा काररवाई है । (ख) तुम्हारी दरखास्त पर कुछ काररपाई हुई या नहिं ? कि० प्र० —करना । दिखाना ।—होना । २. कार्यतत्परता । कर्मण्यता । क्रि० प्र० —दिखाना । ३. गुप्त प्रयत्न । चाल । जैसे— ईसमें जरूर कुछ काररवाई की गई है । क्रि० प्र० — करना । लगना । होना ।

कारव
संज्ञा पुं० [स०] कौआ । वायस । काग [को०] ।

कारवाँ
संज्ञा पुं० [फा़०] यात्रियों का झुंड जो एक देश से दूसरे देश की यात्रा करता है । यौ० — कारवाँ सराय = कारवाँ के ठहरने कि सराय ।

कारवी
वि० [सं० कृत्रिम] कृत्रिम । कच्चा । नकली । उ०— दादू काया कारवी देखत ही चलि जाइ ।—दादू०, पृ० ३९० ।

कारवेल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] करेला ।

कारवेल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ' कारवेल्ल' [को०] ।

कारसाज
वि० [ फा० कारसाज] [संज्ञा कारसाजी] काम बनाने वाला । बिगडे़ काम को सँभालने वाला । काम पूरा करने की युक्ति निकालने वाला । जैसे — ईश्वर बड़ा कारसाज है ।

कारसाजी
संज्ञा स्त्री० [ फा० कारसाजी ] १. काम पुरा उतारने की युक्ति । २. सुप्त कारवाई । चालबाजी । कपट प्रयत्न । जैसे— तुस्हारा कुछ दोष नहीं, यह सब उसी की कारसाजी है ।

कारस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] कुचला । किंपाक वृक्ष (को०) ।

कारस्कराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोजर । शतपदी । २. जोंक । जलौका ३. विच्छु । वृश्चिक [को०] ।

कारस्तानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. कारसाजी । काररवाई । २. चाल- बाजी । छिपी काररबाई ।

कारा
१ संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बंधन । कैद । उ०—है अपनों को छोड मुक्ति भी अपती कारा ।—साकेत, पृ० ४१९ । यौ० —कारागार । २. पीडा । वलेश । ३. दूती । ४. सोनारिन ।

कारा
२ पु † वि० [हि० काला] [वि० स्त्री० कारी ] दे० 'काला' । उ०—पाँच तत्त रंग भिन्न भिन्न देखा । कारा पीरा सुरख संपेदा ।—तुरसी० श०, पृ० २३८ ।

कारागार
संज्ञा पुं० [सं०] बंदीगृह । कैदखाना ।

कारागारिक
संज्ञा पुं० [सं०] कारागार का रक्षक अधिकारी । जेलर ।

कारागुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] बंदी । कैदी ।

कारागृह
संज्ञा पुं० [सं०] कैदखाना । बंदीगृह ।

कराधुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंख जैसा एक वाद्य [को०] ।

कारापक
संज्ञा पुं० [सं०] वह आदमी जो भवन या मंदिरनिर्माण की देखरेख करने के लिये नियुक्त किया गया हो [को०] ।

कारापथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश जो लक्ष्मण के पुत्र अंगद और चित्रकेतु के शासन में था ।

कारापाल
संज्ञा पुं० [सं०] कारागारिक । बंदिगृह का रक्षक व्यक्ति या अधिकारी । जेलर [को०] ।

कारामद
वि० [फा़०] उपयोग । काम में आने लायक ।

कारायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा सारस । सारसी [को०] ।

कारारुद्ध
वि० [सं०] कैद में डाला गया [को०] ।

कारावर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का वर्णसंकर जिसका पिता नीषाद और माता वैदेही हो । २. वह वर्णसंकर जिसका पिता चर्मकार और माता निषादी हो । मोची [को०] ।

कारावास
संज्ञा पुं० [सं०] कैद ।

कारावासी
संज्ञा पुं० [सं० कारावासिन्] कैदी । बंदी [को०] ।

कारावेश्म
संज्ञा पुं० [सं० कारावेश्मन्] कारागृह [को०] ।

कारिंदा
संज्ञा पुं० [फा० कारिंदह] [संज्ञा कारिंदगरी] दूसरे की और से काम करने वाला । कर्मचारी । गुमाश्ता ।

कारि
१ पु † वि० [हिं० कारी] दे० 'कारी३' । उ० ससि कारि घटा सैं करि उदोत ।—हम्मीर० रा०, पृ० ७० ।

कारि
२ संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य । क्रिया । कर्म (को०) ।

कारि
३ संज्ञा पुं० १. कलाकार । २. यंत्रवेत्ता (को०) ।

कारिक
१ संज्ञा पुं० [देश०] करघे में वह चिकनी लकड़ी जो ताने को सँभालती है और जिसे जुलाहे 'खरकूत' भी कहते हैं ।

कारिक
२ संज्ञा पुं० [अ० का़रिक़ ] कुर्कीं करने वाला । जो पुरुष कुर्की करे ।

कारिक
वि० [सं०] कार्य करनेवाला ।

कारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी सूत्र की श्लोकबद्ध व्याख्या । किसी सूत्र का श्लोकों में विवरण । २. नाटक करनेवाले नट की स्त्री । नटी । ३. संकीर्ण राग का एक भेद ।—(संगीत) ।४. पीडा देना । उत्पीड़न (को०) । ५. ब्याज । सूद (को०) । व्यापार । वाणिज्य (को०) ।

कारिख
संज्ञा स्त्री० [सं० कलुष] १. कलौछ । स्याही । कालिमा । २. काजल । ३. कलंक । दोष । उ०—देवि बिनु करतूति कहिबो जानि हैं लघु लोइ । कहौंगो मुख की समरसरि कालि कारिख धोइ ।—तुलसी (शब्द०) । वि० दे० ' कालिख' ।

कारिखी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कलुष या कल्मष] १. स्याही । कालीमा । उ०—भले भूप कहत भले भदेस भूपनि सों लोक लखि बोलिए पुनीत रीति मारिखी । जगदबा जानकी जगत पितु रामभद्र जानि जिय जीवों ज्यों न लागै मुँह कारिखी— तुलसी (शब्द०) । २. काजल । ३. कलंक । दोष ।

कारिज पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्य] दे० 'कार्य' । उ०—सबही सौं हित अरु गुन सहित ऐसौ कारिज मन धरत । तारो जु अर्थ अमृत लहत कोऊ दुख कौ नहिं करत ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ८० ।

कारिणी
वि० स्त्री० [सं०] करनेवाली [को०] । विशेष— समास के अंत में ही व्यवहार मिलता है । जैसे,— हितकारिणी ।

कारित
१ वि० (सं०) कराया हुआ ।

कारित
२ संज्ञा पुं० (देश०) काठबेल ।

कारिता
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्याज जो दस्तूर से अधिक हो और जिसे धनी या महाजन ने जबर्दस्ती ऋणी से देना स्वीकार करायाहो ।

कारितावृद्धी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सूद जो ऋण लिया हुआ धन दूसरे को देकर लिया जाय । विशेष — आधुनिक बैंक इसी नियम पर चलते हैं ।

कारिम
१पु वि० [अ० करीम ] १. कृपालु । २. दाता । दानशील ।

कारिम
२पु संज्ञा पुं० ईश्वर । सब जीवों पर कृपा करनेवाला । उ०—कारिम करम बरबसी करै । दिल के रहम रहबर । मिलै ।—तुरसी० श०, पृ० २८ ।

कारियगर पु
संज्ञा पुं० [हिं० कारीगर ] दे० 'कारीगर' । उ०— कारियगर मंत्रिन बुलबाये ।—प० रासो, पृ० २२ ।

कारी
१ वि० [सं० कारिन] [ वि० स्त्री० कारिणी] करनेवाला । बनाने वाला । जैसे, — न्यायकारी । विशेष— इसका प्रयोग यौगिक शब्दों ही के अंत में होता है ।

कारी
२ संज्ञा पुं० १. कलाकार । २. यंत्रविद् । ३. निर्माता या तैयार करने का काम करने वाला व्यक्ति (को०) ।

कारी
३ वि० [फा०] गहरा । घातक । मर्मभेदी ।

कारी
४ वि० स्त्री० [हिं० काली] दे० 'काली' या 'काला' । उ०— सखि कारी घटा बरसै बरसाने पै गोरी घटा नंदगाँव पै री । इतिहास, पृ० ३८४ ।

कारीगर
१ संज्ञा पुं० [फा०] [संज्ञा कारीगरी] हाथ से अच्छे अच्छे काम बनाने वाला आदमी । धातु, लकडी, पत्थर इत्यादि से विशाल और सुंदर वस्तुओं की रचना करनेवाला पुरुष । शिल्पकार ।

कारीगर
२ वि० हाथ से काम बनाने में कुशल । निपुण । हुनरमंदा ।

कारीगरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. अच्छे अच्छे काम बनाने की कला । निर्माणकला । २. सुंदर बना हुआ काम । मनोहर रचना ।

कारीजीरो
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली जोंरी ] दे० 'काली जीरी' ।

कारीर
वि० [सं०] करीर या बांस के कल्ले से निर्मित [को०] ।

कारीष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूखे गोबर की ढंरी । करीष का सगूह [को०] ।

कारीष (२)
वि० १. कारीष या सूखे गोबर संबंधी । २. सूखे गोबर से उत्पन्न [को०] ।

कारुंडिका, कारुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कारुण्डिका, कारुण्डी ] जोंक [को०] ।

कारु (१)
वि० [सं०] १. करनेवाला । बनानेवाला । २. कलावस्तु बनानेवाला । कला का रचयिता । ३. मंत्र बनाने वाला । ४. भीषण । भयंकर (को०) । २. विश्मकर्मा (को०) । शिल्प (को०) ।

कारु (२)
संज्ञा पुं० १. शिल्पी । कारीगर । दस्तकार ।

कारुक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कारुका] १. शिल्पी । कारीगर । २. कलाकार [को०] ।

कारुचौर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चोरी करता हो । २. धूर्त । वंचक [को०] ।

कारुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिल्पी की बनाई वस्तु । २. शरीर पर का तिल आदि । ३. हाथी का बच्चा । करभ । ४. गैरू । ५. वल्मीक । बमौट [को०] ।

कारुणिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कारुणिकी ] कारुणायुक्त । कृपालु । दयालु ।

कारुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] करुणा का भाव । दया । मेहरबानी ।

कारुनीक पु
वि० दे० [हिं०] 'कारुनिक' । उ०—कारुनीक दिनकर कुल केतू । दूत पठाय उ तब हित हेतू ।— मानस, ६ ।३६ ।

कारुपथ
संज्ञा पुं० [सं० कारापथ] दे० 'कारापथ' ।

कारुशासीत
संज्ञा पुं० [सं० कारुशासीतृ] शिल्पियों या कारीगरों का निरीक्षक या उम्हें काम में लगानेवाला (को०) ।

करुशिल्पगण
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पियों और कलाकारों का संघ [को०] ।

कारुँ (२)
संज्ञा पुं० [अ० कारूँ ] हजरत मूसा का चचेरा भाई जो बड़ा धनी था, पर खैरात नहीं करता था । कहा जाता है ४० खच्चरों पर उसके खजानों की कुंजियाँ चलती थीं । कंजूसी के कारण अब उसके नाम का अर्थ ही कंजूस पड़ गया है । उ०—दो चार टके ही पै कभी रात गवाँ दूँ । कारूँ का खजाना कभी इनआम है मेरा ।—भारतेंदु, ग्रं०, भा० २, पृ० ७९० । यौ०—कारूँ का खजाना = असीम धन । अनंत संपत्ति । कुबेर की सी संपत्ति ।

कारूँ
वि० कंजूस । बखील । मक्खीचूस । कृपण ।

कारूक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कारूका] १. शिल्पकार । २. कलाकार [को०] ।

कारूनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] घोडों की एक जाति । उ०—कारूनी संदली स्याह कनेता रूनी । नुकरा और दुबाज बोरता है छबि दुनी ।—सुदन (शब्द०) ।

कारूरा
संज्ञा पुं० [अ० कारूरह्] १. फुँकनी शीशी, जिसमें रोगी का मूत्र वैद्य को दिखाने के लिये रखा जाता है । २. मूत्र । पेशाब । क्रि० प्र०— दिखाना । देखना । मुहा०—कारूरा मिलना = अत्यंत घनिष्ठता होना । अत्यंत हेल—मेल होना । ३. बारूद की कुप्पी जिसमें आग लगाकर शत्रु की ओर फेंकते हैं ।

कारूष (१)
वि० [सं०] कारूष देश संबंधी । करूष देश का ।

कारूष (२)
संज्ञा पुं० १. करूष देश का निवासी । २. भूख । क्षुधा (को०) । ३.एक वर्णसंकर जाति जिसका पिता ब्रात्य वैश्य और माता वैश्य हो (को०) ।

कारेखैर
संज्ञा पुं० [फा० कार + खैर] शुभ कार्य । उ०—घुड़ा तुरत पैदा किया कर ना देर किया लाख खुशियाँ सेती कारेखैर ।— दक्खिनी०, पृ०७८ ।

कारेणव
वि० [सं०] हथिनी संबंधी । करेणु संबंधी [को०] ।

कारेस्पांडेंट
संज्ञा पुं० [अ० करेस्पांडेंट] वह जो किसी समाचारपत्र में अपने स्थान की घटनाएँ आदि लिखरक भेजता हो । समा- चार पत्रों में समवाद आदि भेजने वाला । संवाददाता ।

कारेस्पांडेंस
संज्ञा पुं० [ अं० करेस्पांडेंस ] पत्र आदि का भेजा जाना और आना । पत्रव्यवहार ।

कारोंछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० कालौंछ] दे० कालौछ ।

कारो पु †
वि० [हिं० काला ] दे० 'काला' । उ०—द्वै सिंघ आनन पर जमें कारो पीरो गात । खल अमृत सब पानहीं अमृत देखि डरात ।—नंद ग्र०,पृ० १८४ ।

कारोनर
संज्ञा पुं० [अं०] वह अफसर जिसका काम जूरी की सहा- यता से आकस्मिक या सदिग्ध मृत्यु, आत्महत्या तथा उन लोसों की मृत्यु की जाँच करना है जो दग फसाद में या किसी दुर्घटना के कारण मरे हों । विशेष—हिंदुस्तान में प्रेसिडेंसी नगरों अर्थात् कलकत्ते, बंबई और मद्रास में कारोनर होते हैं । ये प्रायः छोटी अदालत के जज या मैजिस्ट्रेट होते हैं । इनके साथ जूरी बैठते हैं । ऐसी मौत के मामले इस अदालत में आते हें जो गिरने, पडने, जलने अस्त्र शस्त्र के लगने या आत्महत्या से हुई हा । उदाहरणार्थ किसी युवती की मृत्यु जलने से हुई हो । उसने स्वयं आत्महत्या की या जलाकर मार डाली गई, साक्षों और प्रमाणों पर यही निर्णय करना इस अदालत का काम है । और किसी प्रकार की कानूनी कारवाई करने या दंड का इसे अधिकार नहिं है । इसका निर्णय हो जाने पर साधारण अदालत में किसी पर मामला चलता ।

कारोबार
संज्ञा पुं० [फा० कारबार ] दे० 'कारबार' ।

कारौ
वि० [हिं० काला ] काला । उ०—चपल चखन कौ काजर बहि मुख कारौ कीनौ ।—नंद ग्रं०, पृ० २११ ।

कार्क
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार की बहुत ही हलको लकड़ी की छाल जिससे बोतल में लगाने की डाट बनती है । काग । विशेष—यह एक प्रकार का शाहबलूत है जो स्पेन और पर्तुगाल में बहुतायत से पैदा हौता है । इसका पेड़ ४० फुट तक ऊँचा होता है । छाल दो इंच तक मोटी होती है । एक बार छील लेने पर यह छाल चार या छह वर्ष में फिर पैदा हो जाती है । इसका बृक्ष १५० वर्ष तक रहता है ।

कार्कण
वि० [सं०] किसान से संबध रखनेवाला (को०) ।

कार्कलास्य
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट होने की स्थिति या दशा [को०] ।

कार्कवाकव
वि० [सं०] कृकवाकु या कुक्कुट से सबंध रखनेवाला (को०) ।

कार्कश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्कशता । कठोरपन । २. दृढ़ता । ३. ठोस होना । ठोस दशा । ४. कटोरहृदयता । निष्ठुरता । ५. मोटा या मेहनत का काम (को०) ।

कार्कीक
वि० [सं०] सफेद घोड़ा जैसा (को०) ।

कार्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्य] दे० 'कार्य' । उ०—पै जो मन चाहि है सो तेरो कार्ज होइगौ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८४ ।

कार्ड
संज्ञा पुं० [अं०] १. मोटा कागज । मोटे कागज का तख्ता । २. छोटे तथा मोटे कागज पर लिखा हुआ खूला पत्र । ३. पत्ते का कागज । यौ०—पोस्ट कार्ड । विजिटिंग कार्ड । प्लेइंग कार्ड । बेजेज कार्ड ।

कार्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान का भूषण । कनफूल । २. कान का मैल । ३. बृषकेतु का नाम (को०) ।

कार्ण (२)
वि० १. कान संबंधी । २. कर्ण संबंधी (को०) ।

कार्णछिद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कुआँ [को०] ।

कार्णाट भाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्नाट या कन्नड़ देश की भाषा । कन्नड़ भाषा (को०) ।

कार्तयुग
वि० [सं०] कृतयुग या सत्ययुग संबंधी । सतयुग से संबंध रखनेवाला [को०] ।

कार्तवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] कृतवीर्य का पुत्र सहस्त्रार्जुन जिसकी राजधानी माहिष्मती नगरी थी । विशेष—यह राजा तंत्रशास्त्र का आचार्य माना जाता है । कहते हैं कि इसे परशुराम जी ने मारा था । इसके हजार हाथ थे ।

कार्तस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ण । सोना । २. धतूरा (को०) ।

कार्तांतिक
वि० [सं० कार्तान्तिक] भविष्यद्वक्ता । ज्योतिषी (को०) ।

कार्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक चांद मास जो क्वार और अगहन के बीच में पड़ता है । विशेष—जिस दिन इस मास की पूर्णिमा पडती है, उस दिन चंद्रमा कृत्तिका नक्षत्र में रहता है, इसी से इसका यह नाम पडा है । २. वह संवत्सर जिसमें बृहस्पति कृतिका या रोहणी नक्षत्र में हो । बार्हस्पत्य वर्य ।३. कुमार स्कंद का एक विशेषण ।

कार्तिको
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि [को०] ।

कार्तिकेय
संज्ञा पुं० [सं०] कृतिका नक्षत्रमें उत्पन्न होनेवाले स्कंदजी । षडानन । उ०—आंजनेय को अधिक कृती उन कार्तिकेय से भी लेखो, माताएँ ही माताएँ हैं जिसके लिए जहाँ देखो ।—साकेत पृ० ३८२ । यौ०— कार्तिकेयप्रसु = कार्तिकेय की माता, पार्वती ।

कार्निस
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कारनिस' । उ०—आतिशदान के कार्निस पर धरे हुए शीशे का बक्स और बोतल चमक उठे । पर उसे क्रोध आया बिजली बुझा दी ।—आकाश०, पृ० ५० ।

कार्दम
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कादंमी] कीचड़ से भरा हुआ या सना हुआ । २. कर्दम नामक प्रजापति संबंधी । कर्दम से उत्पन्न । ३. कर्दम का किया या बनाया हुआ ।

कार्दमक, कार्दमिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कार्दमकी, कार्दमिकी] दे० 'कार्दम'(को०) ।

कार्पट
संज्ञा पुं० [से०] १. वादी । न्यायार्थी । २. अभ्यर्थी । उम्मीद- वार । ३. चिथडा । ४ लाख (को०) ।

कार्पटिक
संज्ञा पुं० (सं०) १. तीर्थयात्री २. पवित्र तीर्थजल ले जाकर जीविका प्राप्त करने वाला व्यक्ति । ३. तीर्थयात्रियों का सार्थ या कारवाँ । ४. अनुभवी व्यक्ति । ५. परपिंडोपजीवी । ६. धूर्त । वंचक । ७. विश्वासपात्र । अनुगामी (को०) ।

कार्पणी
सेज्ञा स्त्री० (सं०) प्रसन्नता (को०) ।

कार्पण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृपण होने का भाव । कृपणता । कंजूसी । बखीली । २. दया । सहानुभूति (को०) । ३. गरीबी धनहीनता (को०) ।

कार्पाण
संज्ञा पुं० [सं०] कृपाणयुद्ध । युद्ध । संग्राम [को०] ।

कार्पास
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कार्पासी] १. कपास का बना कपड़ा । २. कपास । उ०—व्यापी है जिसमें विभा वलय सी नीलाभ श्वेत प्रभा । होते है सित मेघखड जिसमें कार्पास के पुंज से । सर्पाकार नितांत दिव्य जिसमे नीहारिकाएँ मिलीं । फैला है यह क्या पयोधि पय सा सर्वत्र आकाश में ।— पारिजात, पृ० ३० । ३. कागज (को०) । या०—कार्पासास्थि = कपास का बाज ।

कार्पास (२)
वि० कपास का । कपास का बना । कपास संबंधी (को०) ।

कर्पासतांतव
संज्ञा पुं० (सं० कार्पासतान्तव) कपास के सूत का बुना हुआ कपड़ा [को०]

कार्पासनालिका, कार्पासनासिका
संज्ञा स्त्री० (सं०) तकूआ [को०] ।

कार्पाससौत्रिक
वि० [सं०] कपास के सूत का बूना हुआ (को०) ।

कार्पासिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कार्पासिकि] कपास से या कपास का बना हुआ (को०) ।

कार्पासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपास का पौधा [को०] ।

कार्पेट
संज्ञा पुं० [अं०] कालिन । गलिचा । उ०—घर का मालिक उसि घर में तसवीरें टाँगकर कार्पेट बिछाकर उसपर सदा के लिये अपनी छाप लगा देना चाहता है ।—रस, पृ० ८२ ।

कार्बन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कारबन' ।

कार्बोन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कारबन' । उ०—हीरा और कोयला दोनो काप्बोन हैं, उनके बन्ने का रसायनिक किया भी एक सी है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १९५ ।

कारर्बोनिक
वि० [अं०] दे० 'कारबोनिक' ।

कार्बोलिक
वि० [अं०] दे० 'कारबोलिक' ।

कार्य
वि० [सं०] परिश्रमी । सेहवती । कर्मशील [को०] ।

कार्मण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कर्मणी] मूल कर्म जिसमें मंत्र और औषध आदि से मारण, मोंहन, वशीकरण आदि किया जाता है । मंत्र तंत्र आदि का प्रयोग । यौ०—कर्मण कर्म = (१) जादू । इंद्रजाल । (२) वशीकरण ।

कार्मण (२)
वि० [वि० स्त्री० कर्मणी] १. कर्म में दक्ष । कर्मकुशल । २. कर्म पूर्ण करनेवाला [को०] ।

कार्मणत्व
संज्ञा पु० [सं०] जादू । वशीकरण मंत्र [को०] ।

कार्मणोयक
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का नाम ।— वृहतं०, पृ० ८५ ।

कार्मणोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कार्मणोन्मादी, कामणोन्मादिनी] एक प्रकार का उन्माद । विशेष—इसमें कंधा और मस्तक भारी रहता है, नाक आँख, हाथ, पाँव में पीड़ा होती है, वीर्य न्यून हो जाता है, रोगी दुबल होता जाता है और उसके शरीर में सुई चुभठ्ने की सी पीड़ा होती है । लोगों का विश्वास है कि यह उन्माद जादु, टोना, प्रयोग आदि से होता है ।

कार्मना पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्मण] १. मंत्र तंत्र का प्रयोग । कृत्या । २. मंत्र । तंत्र । उ०—जैति परतंत्र यंत्र भिचारक ग्रसन कार्मना कूट कृत्यादिहंता । डाकिनी साकिनी पूतना प्रेत बैताल भूत प्रथम जूथ जंता ।—तुलसी (शब्द०) ।

कार्मतिक
संज्ञा पुं० [सं० कार्मन्तिक] १. शिल्पशाला । २. शिल्प कर्म का निरीक्षक । उ०—पुरोहित के अलावा मुख्य मंत्री, सेनापति, कार्मातिक इत्यादि ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३२९ ।

कार्मार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलाकार । २. शिल्पी । २. लुहार । ४. कर्मकार [को०] ।

कार्मरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिल्प कर्म । २. लुहारों का काम [को०] ।

कार्मरिक
संज्ञा पुं० [सं०] शूल । भाला [को०] ।

कार्मिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्त्र जिसमें बुनावट में ही शंख, चक्र, स्वस्तिक आदि के चिह्न बने हों । २. रंगीन सूत मिला गोटे का काम (को०) ।

कार्मिक (२)
वि० [वि० स्त्री० कार्मिकी] १. कर्मशील । काम करनेवाला । २. निर्मित । कृत । बनाया या तैयार किया हुआ (को०) । ३. बीच बीच में रंगीन सूत मिला गोटेदार (कपड़ा) (को०) । ४. अनेक रंगो या डिजाइन के योग से बुना हुआ (को०) ।

कार्मिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्रियाशीलता । कर्मशीलता । परिश्रम [को०] ।

कार्मुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष । यौ०—कार्मु कोपनिषद् = धनुर्विद्या । कार्मुकभृत् = (१) धनुराशि । (२) धनुर्धर । २. परिधि का एक भाग । चाप । ३. इंद्रधनुष । ४. बाँस । ५. सफेद खैर । ६. बकायन । ७. एक प्रकार का शहद । ८. धनुराशि । नवीं राशि । ९. रुई धुनने की धुनकी । १०. योग में एक आसन ।विशेष—इसमें पदमासन से बैठकर दाहिने हाथ से बाएँ पैर की दो उँगलियाँ और बाएँ हाथ से दाहिने पैर की दो उँगलियाँ पकड़ते हैं । ११. एक प्रकार का यंत्र या साधन जो धनुष के आकर का होता है (को०) । १२. समुद्र या नदी तट पर स्थित एक प्रकार का गाँव (को०) ।

कार्मुक (२)
वि० [वि० स्त्री० कार्मुकी] कर्मकुशल । कर्मदक्ष [को०] ।

कार्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम । व्यापार । धंधा । २. वह जो कारण से उत्पन्न हो । वह जो कारण का विकार हो अथवा जिसे लक्ष्य करके कर्ता क्रिया करे । जो कारण के बिना न हो । ३. फल । परिणाम । प्रयोजन । ४. ऋण आदि संबंधी विवाद । रुपए पैसे का झगड़ा । ५. ज्योतिष में जन्मलग्न से दसवाँ स्थान । ६. आरोग्यता । ७. धार्मिक कृत्य या कर्म (को०) । ८. अभाव । आवश्यकता । अवसर । १. नाटक का अंतिम फल (को०) । १०. करने योग्य या करणीय कर्म (को०) । ११. आचरण (को०) । १२. किसी कारण का अनिवार्य फल या निष्पित्ति (विलोम कारण) (को०) । १३. मूल उदगम (को) । १४. शरीर । देह (को०) ।

कार्य (२)
वि० १. करने योग्य । २. बनाने योग्य [को०] ।

कार्यकर
वि० [सं०] १. उपयोगी । उपादेय । लाभप्रद । २? काम करनेवाला [को०] ।

कार्यकरण
संज्ञा पुं० [सं०] कार्यालय । दफ्तर । (को०) ।

कार्यकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० कार्यकर्तृ] १. काम करनेवाला कर्मचारी । २. मित्र । हितकारी (को०) ।

कार्य—कारण—भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य और कारण का संबंध । २. किसी कार्य का विशेष कारण (को०) ।

कार्य—कारण—संबंध
संज्ञा पुं० [सं० कार्य—कारण—सम्बन्ध] कार्य और कारण का पारस्परिक योग । विशेष—मीमांसा में इसका प्रतिपादन अन्वयव्यतिरेक सिद्धांत द्वारा किया गया है, जिसका सूत्र है—तदभावे भावः तदभावे अभावः । इसकी प्रथम अभिव्यक्ति शाबर भाष्य में हुई है । जिसके होने पर जो होता है और न होने पर नहीं होता है, वही कार्य—कारण—संबंध की स्थिति होती है । यह उन नैयायिक कार्य—कारण—संबंध सेभिन्न है जिसका प्रयोग वे ब्यार्ति की सिद्धि के लिये करते हैं ।

कार्यकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम करने का समय । सुअवसर । ३. किसी पद या स्थान पर रहने का समय या काल [को०] ।

कार्यक्रम
संज्ञा पु० [सं०] १. कार्य की सूची । किए जानेवाले या होनेवाले कामों का क्रम या व्यवस्था । प्रौग्राम । उ०—निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम ।—अपरा०, पृ० ४५ ।

कार्यक्षेत्र
संज्ञा पुं० [संज्ञा] कर्मभूमि । वह भूभाग जिसके भीतर रहकर कोई व्यक्ति उसके हित के लिये काम करता है । उ०— किंतु ब्रज को विशेष रूप से अपना कार्यक्षेत्र बनाया ।—पोद्यार अभि० ग्रं०, पृ० ९३ ।

कार्यगौरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम का महत्व या वैशिष्ट्य । २. कार्य की पूर्ति के प्रति आदर [को०] ।

कार्यचिंतक (१)
संज्ञा पु० [सं० कार्यचिन्तक] १. शासक । २. स्थानीय प्रबंधकर्ता (स्मृति०) ।

कार्यचिंतक (२)
वि० सावधान । अवहितचित्त । विचारकर काम करनेवाला [को०] ।

कार्यच्युत
वि० [सं०] १. कार्य में चूका हुआ । २. काम से निकला हुआ [को०] ।

कार्यजात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कार्यदर्शन' [को०] ।

कार्यदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी के किए हुए काम को आलोचनार्थ देखना । काम की देखभाल । २. अपने काम की फिर से जाँच । ३. सार्वजनिक कार्य की जाँच (को०) ।

कार्यदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० कार्यदर्शिन्] काम को देखने भालनेवाला । निरीक्षक ।

कार्यपंचक
संज्ञा पुं० [सं० कार्यपञ्चक] ईश्वर के पाँच विशेष काम, अर्थात् अनुग्रह, तिरोभाव, आदन, स्थित और उदभव ।

कार्यपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काम का ढर्रा । कार्य की पदधति [को०] ।

कार्यपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] काम करने का ढंग ।

कार्यपुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडबंड काम करनेवाला । उन्मत्त २. क्षपणक । बौदध भिक्षुक । ३. काहिल । आलसी (को०) ।

कार्यप्रद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य से अरुचि । २. आलस्य । शिथिलता [को०] ।

कार्यभ्रंशंकारी
वि० [सं० कार्यभ्रंशकारिन] काम बिगाड़नेवाला । उ०—अतः अर्थागम से हृष्ट 'स्वकाय' साधयेत' के अनुवादी काशी के ज्योतिषी और कर्मकांडी, कानपुर के बनिये और दलला, कचहारियों के अमले और मुख्तार, ऐसों को कार्यभ्रंशकारी मूर्ख, निरे निठल्ले या खब्त—उल—हवास समझ सकते हैं ।—रस० पृ० २२ ।

कार्यवस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उद्देश्य । २. विषय [को०] ।

कार्यवाही (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कार्यवाई] काररवाई ।

कार्यवाही (२)
वि० [सं० कार्यवाहिन्] काम करनेवाला ।

कार्यशेष
संज्ञा पुं० [सं०] काम का वह भाग जो काम करने से बाकी रह गया हो । बचा हुआ काम ।

कार्यसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में २४ जातियों में से एक । विशेष—इसमें प्रतिवादी वादी के इस कथन पर कि प्रयत्न से उत्पन्न कार्य अनित्य है, प्रयत्न द्वारा उत्पन्न कार्यों की अनेक- रूपता की दलील देता है जो वादी का पक्ष खंडन करने में असमर्थ होती है । जैसे नैयायिक कहता है कि प्रयत्न से उत्पन्न कार्य होने के कारण शब्द अनित्य है । इसपर प्रतिवादी या मीमांसक कहता है कि प्रयत्न से उत्पन्न कार्य अनेक प्रकार के होते है; जैसे कुआँ खोदने से जल निकलता हो; तो क्या जल कुआँ खोदने के पहले नहीं था? इसी को कार्यसम या कार्यविशेष कहते हैं । इसपर वादी कहता है किं व्यवधान के हटने से अभिव्यक्ति होती है, उत्पत्ति नहीं होती, शब्द की उत्पत्ति होती है, अभिव्यक्ति नहीं । अनुपलब्धि-कारण या व्यवाधान के दूर करने के प्रयत्न को कारणत्व नहीं होता ।

कार्याकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] करने योग्य और न करने योग्य काम । सत् और असत् कर्म ।

कार्यधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० कार्याधिकारिन] वह जिसके सुपुर्द किसी कार्य का प्रबंध आदि हो । अफसर ।

कार्याध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अफसर । मुख्य कार्यकर्ता ।

कार्यान्वय
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य रूप में परिवर्तन ।

कार्यन्वित
वि० [सं०] लागु । कार्य रूप में परिणत । प्रयुक्त । उ०—इसलिये हमारा पहला लक्ष्य रचनात्मक जनमंत्र को अपने देश में ही कार्यन्वित करना है ।—न्या०, पृ० २६ ।

कार्याभिमुख
वि० [सं०] काम की ओर मुडने वाला । काम का आरंभ करने जानेवाला (को०) ।

कार्याभिमुखत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य की ओर उन्मुख हो ने का भाव ।

कार्यांर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी कार्य का लक्ष्य या उद्देश्य । २. काम पाने का आवेदनपत्र । ३. उद्देश्य । अभिप्राय [को०] ।

कार्यार्थी (१)
वि० [सं० कार्यार्थिन्] १. कार्य की सिद्धि चाहनेवाला । कोई गरज रखने वाला । २. काम चाहने वाला व्यक्ति (को०) ।

कार्यार्थी (२)
संज्ञा पु० किसी मुकदमे की पैरवी करने वाला ।

कार्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ कोई कार्य होता हो । दफ्तर । कारखाना ।

कार्यी
वि० [सं० कार्यिन्] १. परिश्रमी । कार्यशील । २. कार्य चाहनेवाला । ३. सोद्देश्य । ४. मुकदमेबाज [को०] ।

कार्यक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] काम की देखभाल । दूसरों के द्वारा किए हुए काम का निरीक्षण (को०) ।

कार्यवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कारवाई] दे० 'काररवाई' ।

कार्ल मार्क्स
संज्ञा पुं० [जर्मन] १९ वीं शती के महाने राजनीति शास्त्रप्रणेंता का नाम जिसने साम्यवाद के सिद्धांत को जन्म दिया ।

काशनिव
वि० [सं०] अग्निमय । उष्ण [को०] ।

कार्श्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृशता । दुबलापन । दुर्बलता । २. साल का पेड़ । बड़हर का पेड़ । ४. कचूर ।

कार्ष, कार्षक
संज्ञा पुं० [सं०] कृषिकर्म करनेवाला । खेतिहर कृषक । किसान [को०] ।

कार्षपिण, कार्षापिणक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन सिक्का । विशेष—यह यदि ताँबे का होता था तो अस्सी रत्ती का, यदि सोने का होता था तो १६ माशे का और यदि चाँदी का होता था तो १६ पण या १ ८०कौड़ियों का (किसी किसी के कथनानुसार एक पण का या अस्सी कौड़ियों का) होता था ।

कार्षपणिक
वि० सं० [वि० स्त्री० कार्षपणिकी] एक कार्षापण मूल्य का [को०] ।

कार्षि (१)
वि० [सं०] १. अकर्षण करनेवाला । २. कृषि करने— वाला [को०] ।

कार्षि (२)
संज्ञा पुं० १. आकर्षण । २. कृषि कर्म [को०] ।

कार्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कार्षापण' [को०] ।

कार्षिवण
संज्ञा पुं० [सं०] चरवाहा [को०] ।

कार्ष्ण
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कार्ष्णी] १. कृष्ण संबंधी । २. कृष्ण द्वैपायन संबंधी । ३. कृष्ण मृग संबंधी ।

कार्ष्णायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यासवंशीय ब्राह्मण । २. वसिष्ठ गोत्र का ब्राह्मण ।

कार्ष्णि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण के पुत्र, प्रद्युम्न । २. कामदेव । ३. कृष्ण द्वैपायान व्यास के पुत्र, शुकदेव । ४. एक गंधर्व का नाम ।

कार्ष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सतावर ।

कार्ष्ण्य
संज्ञा पु० [सं०] कृष्णाता । कालापन ।

कालंकत
संज्ञा पुं० [सं० कालङ्गन] १. कासमर्द । बहेड़ा का पेड़ जिसकी छाल के सेवन से खाँसी का रोग दूर हो जाता है । २. खाँसी की एक तरल दवा [को०] ।

कालंकनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालकर्णी अलक्ष्मी] पराजय । हार । अभाग्य । उ०—अवतार लियौ प्रिथिराज पहुता दिन दान अनंत दिय । कनवज्जदेस गज्जन पटन । किलंकिलंत कालंकनिय ।— पृ० रा०, १ ।६८८ ।

कालंजर
संज्ञा पुं० [सं० कालञ्जर] १. दे० 'कालिंजर' । २. एक पहाड़ जिसकी स्थिति कालिंजर के पास है (को०) । ३. धार्मिक भिक्षुकों का समूह या सभा (को०) । ४. शिव (को०) ।

कालंजरा, कालंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कालञ्जरा, कालञ्जरी] दुर्गी । पार्वती [को०] ।

काल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय । वक्त । वह संबंधसत्ता जिसके द्वारा, भूत, भविष्य, वर्तमान आदि की प्रतीति होती है और एक घटना दूसरी से आगे, पीछे आदि समझी जाती है । विशेष—वैशेषिक में काल एक नित्य द्रव्य माना गया है और 'आगे' 'पीछे' 'साथ', धीरे,' जल्दी आदि उसके लिंग बतलाए गए हैं । संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग और विभाग उसके गुण कहे गए हैं । 'पर', 'अपर' आदि प्रत्ययों का भाव सर्वत्र सब प्रणियों में समान होता है, और इस परत्व, अपरत्व की उत्पत्ति में असमवयि कारण से से काल का संयोग होता है । इससे काल सबका कारण तथा व्यापक और एक मान गया है । उसकी अनेकता की प्रतीति केवल उपाधि से होती है । कोई कोई नैयायिक काल के 'खंडकाल' और 'महाकाल' दो भेद करते हैं । पदार्थों (ग्रहों आदि) की गति आदि से क्षण दंड, मास, वर्ष आदि का जिसमें व्यवहार होता है, वह खंडकाल है । और उसी का दूसरा नाम कालोपाधि है । जैन शास्त्रकार काल को एक अरूपी द्रव्य मानते हैं और उसकी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो गतियाँ कहते है । पाश्चात्य दार्शिनकों में लेबनीज काल को संबंधी की अव्यक्त भावना कहता है । कांट का मत है कि काल कोई स्वतंत्र बाह्य पदार्थ नहीं है, वह चित्तप्रयुक्त अवस्था है जो चित्त के अधीन है, वस्तु के अधीन नहीं । देश और काल वास्तव में मानसिक अवस्थाएँ हैं जिनसे संबद्ध सब कुछ देख पड़ता है ।मुहा०—काल काटना = समय बिताना । कालक्षेप करना = समय काटना । दिन बिताना । काल पाकर = (१) कुछ दिनों के पीछे । कुछ काल बीतने पर । जैसे,—काल पाकर उसका रंग बदल जायगा । (२) मरकर । मरने के बाद । उ०—काल पाइ मुनि सुनु सोइराजा । भएउ निसाचर सहित समाजा ।—मानस, १ ।१७६ । ३. अंतिम काल । नाश का समय । अंत । मृत्यु । क्रि० प्र०—आना । ३. यमराज । यमदुत । उ०—प्रभु प्रताप ते कालहिं खाई ।— तुलसी (शब्द०) । ४. नियत ऋतु । नियत समय । जैसे,—ये पेड़ अपने काल पर फूलेंगे । ४. उपयुक्त समय । अवसर । मौका । ६. अकाल । महँगी । दुर्भिक्ष । कहत । क्रि० प्र०—पड़ना । ७. ज्योतिष के अनुसार एक योग जो दिन के अनुसार घूमता है और यात्रा में अशुभ माना जाता है । ८. कसौंजा । ९. काल साँप । १०. लोहा । १२. शनि । १२. [स्त्री० काली] शिव का नाम । महाकाल । १३. काला या गहरा नीला रंग (को०) । १४. प्रारब्ध (को०) । १५. आँख का काला हिस्सा (को०) । १६. कोयल (को०) । १७. एक सुंगंधयुक्त पदार्थ । अगुरु (को०) । १८. कलवार । मद्याविक्रेता (को०) । १९. मौसम । ऋतु (को०) । २०. भाग्य । नियति (को०) । २१. भाग । विभाग (को०) । २२. शिव का एक शत्रु (को०) । २३. 'म' अक्षर की गुह्य संज्ञा (को०) ।

काल (२)
वि० काला । काले रंग का । यौ०—कालकोठरी ।

काल पु (३)
क्रि० वि० [हिं० काल] दे० 'कल' ।

कालकंज
संज्ञा पुं० [सं० कालकञ्ज] १. दैत्य । उ०—दैत्य कालेय कालकेय तथा कालकंज कहे गए हैं ।—प्रा० भा० प०—पृ० ८९ । २. नील कमल (को०) ।

कालकंटक
संज्ञा [सं० कालकण्टक] शिव । महादेव ।

कालकंठ
संज्ञा पुं० [सं० कालदण्ड] १. शिव । महादेव । २. मोर । मयूर । नीलकंठ पक्षी । ४. गौरा पक्षी । ५. खंजन । खिड़ारिच ।

कालकंठक
संज्ञा पुं० [सं० कालकण्ठक] १. बनकोआ । २. गीध । ३. चील । ४. सुग्गा [को०] ।

कालकंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० कालकण्ठी] पार्वती । उमा [को०] ।

कालकंडक
संज्ञा पुं० [सं० कालकण्डक] पानी का साँप । डेड़हा [को०] ।

कालकंदक
संज्ञा पुं० [सं० कालकन्दक] पानी का साँप । डेड़हा ।

कालकंध
संज्ञा पुं० [सं० कालकन्ध] तमाल वृक्ष ।

कालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तैंतीस प्रकार के केतुओं में से एक केतु का नाम । २. आँख की पुतली । ३. बीजगणित में द्वितीय अव्यक्त राशि । ४. अलगर्द नामक पानी का साँप । ५. एक देशविशेष । विशेष—यह महाभाष्यकार पतंजलि के समय में आर्यावर्त की पूर्वी सीमा माना जाता था । ६. यकृत । ७. एक राक्षस का नाम जो कालक नामक स्त्री से उत्पन्न कश्यप का पुत्र था । ८. एक प्रकार का अन्न (को०) ।

कालकंटकट
संज्ञा पुं० [सं० कालकटङ्गट] शिव [को०] ।

कालकरंज
संज्ञा पुं० [सं० कालकरञ्ज] एक प्रकार का कजा जिसकी ऊपरी छाल साधारण कंजे की छाल से कुछ अधिक नीली होती है । काला कंजा ।

कालकर्णिका, कालकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्भाग्य । भाग्य- हीनता [को०] ।

कालकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० कालकर्मन्] १. मृत्यु । नाश [को०] ।

कालकलाय
संज्ञा पुं० [सं०] काली मटर या दाल [को०] ।

कालकल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में रहनेवाला साँप । डेड़हा [को०] ।

कालकवि
संज्ञा पु० [सं०] अग्नि ।

कालका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्ष प्रजापति की एक कन्या । विशेष—यह कश्यप को ब्याही थी और इससे नरक और कालक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे ।

कालकार्मुक
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकि के अनुसार खरदूषण की सेना का एक सेनापति जिसें रामचन्द्र ने मारा था ।

कालकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. शिव [को०] ।

कालकील
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि । कोलाहल [को०] ।

कालकुंज
संज्ञा पुं० [सं० कालकुञ्ज] विष्णु [को०] ।

कालकुंठ
संज्ञा पुं० [सं० कालकुण्ठ] यमराज । यम (को०) ।

कालकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का अत्यंत भयंकर विष । विशेष—इसे काला बच्छनाग भी कहते हैं । भावप्रकाश के अनुसार यह एक पौधे का गोंद है जो शृंगवेर, कोंकण और मलय पर्वत पर होता है । शुद्ध करने के लिये इसे तीन दिन गोमूत्र में रखकर सरमों के तेल से भीगे कपड़े में बाँधकर कुछ दिन तक रखना चाहिए । शुद्ध रूप में कभी कभी सन्निपात, श्लेष्मा आदि दूर करने के लिये इसका प्रयोग होता है । २. सिकिम और भूटान में होनेवालें सींगिया की जाति के एक पौधे की जड़ जिसमें छोटी छोटी गोल चित्तिया होती है । ३. समुद्रमंथन के बाद निकला हुआ विष जिसे शिव ने पान किया । हलाहल (को०) ।

कालकूटक
संज्ञा पुं० [सं०] विष । गरल । जहर [को०] ।

कालकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमात्मा । ईश्वर । २. मोर पक्षी । ३. सूर्य [को०] ।

कालकृत (१)
वि० [सं०] १. काल या ऋतु से उत्पन्न । २. निश्चित । नियत । ३. न्यस्त । न्यास के रूप में रखा हुआ । उधार दिया हुआ । ४. बहुत पहले का कृत किया हुआ [को०] ।

कालकृत (२)
संज्ञा पुं० सुर्य [को०] ।

कालकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम । उ०—कालकेतु निसिचर तहँ आवा । जेहिं सूकर ह्वै नृपहिं भुलावा ।— मानस, १ ।१७० ।

कालकेय
संज्ञा पु० [सं०] राक्षस । दैत्य । उ०—दैत्य कालेय, कालकेय तथा कालकंज कहे गए हैं ।—प्रा० भा० प०, पृ० ८९ ।

कालकोठरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काल + कोठरी] १. जेलखाने की एक बहुत तंग और अँधरे कोठरी जिसमें कैद तनहाईवाले कैदी रखे जाते हैं । २. कलकत्ते के फोर्ट विलियम नामक किलें की एक तंग कोठरी जिसमें सिराजुद्दौला ने अँगरेजों को कैद किया था ।

कालक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] काल की गति । समय का अतिक्रमण [को०] ।

कालक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समय का निश्चय । २. मृत्यु [को०] ।

कालक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन काटना । समय बिताना । वक्त गुजारना । जैसे—वह हीन ब्राह्मण किसी प्रकार अपना काल- क्षेप करता है । २. विलंब देर (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कालखंज, कालखंजन
संज्ञा पुं० [सं० कालखञ्ज, कालखञ्जन] १. यकृत । २. बरवट (को०) ।

कालखंड
सं० पुं० [संज्ञा कालखण्ड] १. परमेश्वर । उ०—मानो कीन्हीं काल ही की कालखंज खंडन ।—केशव (शब्द०) । २. यकृत (को०) । ३. बरवट [को०] ।

कालगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० कालगङ्गा] १. वह गंगा जिसका रंग काला हो; अर्थात् यमुना नदी । २. लंका द्विप की एक नदी ।

कालगंडैत
संज्ञा पुं० [हिं० काला + गंडा + ऐत (प्रत्य०)] वह विषधर साँप जिसके ऊपर काले गंडे़ वा चित्तियाँ होती है ।

कालगौतम
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ऋषि का नाम ।

कालग्रंथि
संज्ञा [सं० कालग्रन्थि] वर्ष । वत्सर । साल (को०) ।

कालचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] समय का चक्र । समय का हेरफेर । जमाने की गर्दिश । उ०—कालचक्र में हो दबे, आज तुम राजकुँवर ।—अपरा, पृ० ११ । विशेष—दिन रात आदि के बराबर आते जाते रहने से काल की उपमा चक्र से देते आए हैं । मत्स्यपुराण में पुर्वह्न, मध्याह्नन, अपराह्न को कालचक्र की नाभि, संवत्सर, परिबत्सर आदि को आरे और छह ऋतुओं को नेमि लिखा है । जैन लोग भी उत्सपिर्णी और अवसर्पिणी काल में छह छह आरे मानते हैं । २. उनता काल जितना एक उत्सार्पिणी और अवसर्पिणी में लगता है । ३. एक अस्त्र का नाम । ४. काल का पहिया (को०) । ५. भाग्यचक्र । भाग्य का हेरफेर (को०) । ९. सूर्य (को०) ।

कालचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] काल या मृत्यु होने के लक्षण [को०] ।

कालजा पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलेजा] दे० 'कलेजा' । उ०—काटै नाहर कालजा, छक याँ अचरज छाक ।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० २४ ।

कालजुवारी
संज्ञा पुं० [हिं० कास + जुवारी] बड़ा जुवारी । गजब का जुवारी ।

कालजोषक
वि० [सं०] समय पर जो कुछ मिल जाय वही खा पीकर संतुष्ट रहनवाला (को०) ।

कालज्ञ (१)
संज्ञा पु० [सं०] १. समय के हेरफेर को जाननेवाला व्यक्ति २. ज्योतिषी । ३. मुर्गा ।

कालज्ञ (२)
वि० १. अवसर को पहचानकर काम करने वाला । २. मृत्यु को जाननेवाला (को०) ।

कालज्ञान
संज्ञा पु० [सं०] १. समय की पहचान । स्थिति और अवस्था की जानकारी । २. मृत्यु का समय जान लेना ।

कालज्येष्ठ
वि० [सं०] उम्र में बड़ा । जिसकी आयु अधिक हो [को०] ।

कालतुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सांख्य में एक प्रकार ती तुष्टि । विशेष—यह विचारकर संतुष्ट रहना कि जब समय आ जायगा, तब यह बात स्वयं हो जायगी ।

कालत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीन काल—भूत, वर्तमान और भविष्य ।

कालदंड
संज्ञा पुं० [सं० कालदण्ड] १. यमराज का दंड । उ०—वज्र ते कठोर है कैलाश ते विशाल, कालदंड ते कराल सब काल गावई ।—केशव (शब्द०) । २. मृत्यु (को०) ।

कालदत्त
वि० [सं०] समय की दी हुई । परिस्थितवश प्राप्त । उ०— उभरी इसकी कठिन त्वचा पर कालदत्त कर्कशता, नहीं लूट पाई है उष्मा इसकी हार्द सरसता ।—दैनिकी, पृ० ३७ ।

कालदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

कालदष्ट
वि० [सं०] काल द्वारा डसा हुआ या काटा हुआ [को०] ।

कालधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु । विनाश । अवसान । उ०— सगर भुप जब गयो देवपुर कालधर्म कहै पाई । अंशुमान को भूप कियो तब प्रकृत प्रजा समुदाई ।—रघुराज (शब्द०) । २. वह व्यापार जिसका होना किसी विशेष समय पर स्वाभाविक हो । समयानुसार धर्म । जैसे बसंत में मौर लगाना, ग्रीष्म ऋतु में गरमी पड़ना । ३. समयानुकूल प्रभाव [को०] । ४. अवसर या समय के अनुकूल आचरण [को०]

कालधारण
संज्ञा स्त्री० [सं०] समय का विस्तार [को०] ।

कालधौत
वि० [सं०] सोने या चाँदी का [को०] ।

कालनर
संज्ञा पुं० [सं०] (ज्योतिष शास्त्र के अनुसार) मानव शरीर का आकार । मनुष्य के शरीर की प्रतिमा [को०] ।

कालनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । शिव । २. कालभैरव । काशीस्थ भैरवविशेष । उ०—लोक बेदहु विदित बारानसी की बड़ाई बासी नर नारि ईश अंबिका सरूप हैं । कालनाथ कोतवाल दडकारि दडपानि सभासद गणप से अमित अनुप हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

कालनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] हिरण्याक्ष दैत्य के नौ पुत्रौ में से एक ।

कालनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव । काशीश [को०] ।

कालनियोग
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्यफल । नियति [को०] ।

कालनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल ।

कालनिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीवाली की रात । २. अत्यंत काली रात । अँधेरी भयावनी रात ।

कालनेम पु
संज्ञा पुं० [सं० कालनेमि] दे० 'कालनेमि' । उ०—पहिले कालनेम हों हुतौ । विष्णु सदा कौ बैरी सु तौ ।—नद ग्रं०, पृ० २२३ ।

कालनेमि
संज्ञा पुं० [सं०] १. रावण का मामा एक राक्षस जो हनुमान जी को उस समय छलना चाहता था, जब वे संजीवनी लाने जा रहे थे । २. एक दानव का नाम । विशेष—इसने देवताओं को पराजित करके स्वयं पर अधिकारकर लिया था और अपने शरीर को चार भागों में बाँटकर सब कार्य करता था । अंत में यह विष्णु के हाथ से मारा गया और दूसरे जन्म में कंस हुआ ।

कालपक्व
वि० [सं०] समय पर स्वभावतः या अपने आप पक्व [को०] ।

कालपट्टी
संज्ञा स्त्री० [पुर्त० कालाफटी] जहाज की सीवन या दरार में सन आदि ठूँसने का कार्य । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कालपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक फूलवाला पौधा । तगर [को०] ।

कालपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली तुलसी ।

कालपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] काल का अतिक्रमण । निश्चित समय का उल्लंघन [को०] ।

कालपर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] समय की गति । कालचक्र [को०] ।

कालपाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय का बँधना । समय का वह नियम जिसके कारण भूत प्रेत कुछ समय तक के लिये कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते । २. यमपाश । यमराज का बंधन ।

कालपाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] बधिक । जल्लाद [को०] ।

कालपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर का विराट् रूप । विराट् रूप भगवान् । २. काल । ३. यम के दूत । उ०—अक्षर के देखते ही वह अंडा फूट गया और उसमें से कालपुरुष उत्पन्न हुआ ।—कबीर मं०, पृ० ७ ।

कालपुरुष
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'कालपुरुष' [को०] ।

कालपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृग या हरिण का एक प्रकार । २. क्रौंच पक्षी । ३. बगुला । ४. कंक पक्षी [को०] ।

कालपृष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्ण के धनुष का नाम । २. धनुष । कमान [को०] ।

कालप्रभात
संज्ञा पुं० [सं०] शरत [को०] । विशेष—वर्षा के बाद आनेवाले आश्विन और कार्तिक दो महीने वर्ष में श्रेष्ठ समय के रूप में माने जाते है ।

कालप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह रोग । विशेष—इसमें काला पेशाब आता है । सुश्रुत ने इसे अम्लप्रमेह लिखा है ।

कालफाँस
संज्ञा पुं० [सं० कालपाश] काल का पाश । काल की फाँसी । उ०—बूझो काल फाँस नर नारी, पूर्व जन्म तोहि लीन्ह उबारी ।—कबीर सा०, पृ० ७२ ।

कालबंजर
संज्ञा पुं० [सं० काल + हिं० बंजर] वह भूमि जो बहुत दिनों से जोती बोई न गई हो । बहुत पुरानी परती ।

कालबादी पु
वि० [सं० कालवादिन्] काल (समय) को मानने वाला । उ०—वैसेषिक शास्त्र पुनि कालबादी है प्रसिद्ध पातंजलि शास्त्र महिं योंगबाद लह्यो है ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ६२१ ।

कालबियत पु †
संज्ञा पुं० [क० का़लिब] शरीर धारण करना । उ०—बीज और झाड़ दोनों मिलकर कालबियत कुँ अपड़े ।—दक्खनी०, पृ० ३९५ ।

कालबूत
संज्ञा पुं० [फा० कालबुद्र] वह कच्चा भराव जिसपर मेहराब बनाई जाती है । छैना । उ०—कालबूत दूती बिना जुरै न और उपाय । फिर ताके टारे बनै पाके प्रेम लदाय ।—बिहारी (शब्द०) । २. चमारों का वह काठ का साँच जिसपर चढ़ाकर वे जूता सीते हैं । ३. रस्सी बटने का एक औजार । विशेष—यह औजार काठ का एक कुंदा होता है जिसमें रस्सी की लड़ जाने के लिये कई छेद या दरार बने रहते हैं । इन्हीं दरारों में लड़ों को डालकर बटते हैं जिससे कोई लड़ मोटी या पतली न होने पाए, बल्कि दरार के अंदाज से एक सी रहे ।

कालबेल
संज्ञा स्त्री० [अँ० काल बेल] वह घंटी जिसे नौकर को बुलाने के लिये अधिकारी अपनी मेज पर रखते हैं और उसके बजते ही नौकर दरवाजे के बाहर से सामाने आ उपस्थित होता है । आवाहनघंटिका । उ०—दूसरी पर पानदान, इत्रदान, कालबेल (अवाहकवरिका) ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७२ ।

कालभुजंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० कालभुजंगी] समय की सर्पिणी । उ०—परंतु भटार्क जिसे तुम खेल समझकर हाथ में ले रहे हो, उस कालभुजंगी राष्ट्रनीति की प्राण देकर रक्षा करना ।—स्कंद०, पृ० ३४ ।

कालभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] काशीस्थ शिव के मुख्य गणो में से एक गण । भैरव का रूप ।

कालम
संज्ञा पुं० [सं०] पुस्तक या संवाद पत्र के पृष्ठ की चौड़ाई में किए हुए विभागों में से एक । विशेष—इन विभागों के बीच या तो कुछ जगह छोड़ दी जाती है यै खड़ी लकीर बना दी जाती है । पृष्ठ का इस प्रकार विभाग करने से पंक्तियाँ बहुत बड़ी नहीं होने पातीं, इससे आँख को एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति पर आने में उकना कष्ट नहीं होता ।

कालमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी [को०] ।

कालमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुलसी का पौधा । २. समय का परिमाण [को०] ।

कालमाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुलसी । २. समय की माप [को०] ।

कालमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैव मत का एक प्रकार । विशेष—इसमें शैव भक्त भगवान शिव के कृष्ण वर्ण और नृमुंड माली रूप का ध्यान और उपासना करते हैं । २. एक प्रकार का बंदर जिसका मुँह काला होता है [को०] ।

कालमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पौधा जो औषध के काम में आता है । २. ऐसे घोर बादल जो वर्षा से चारों ओर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दें [को०] ।

कालमेशिक, कालमेषिका, कालमेषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंजिष्ठा । मजीठ । (को०) ।

कालयवन
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार यवनों का एक राजा । विशेष—इसे गार्ग्य ऋषि ने मथुरावालों पर क्रुद्ध होकर उनसे बदला लेने के लिये गोपाली नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न किया था । जरासंध के साथ इसने भी मथुरा पर चढ़ाई कीथी । श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि मथुरावालों के हाथ से यह नहीं मारा जायगा, एक चाल की कि उसके सेमने से भागकर वे एक गुफा में जाकर छिप रहे जिकमें मुचकुंद नामक राजा बहुत दिनों से सो रहे थे । जब कालयवन ने गुफा के भीतर जा मुचकुंद को लात से जगाया, तब उन्हीं की कोपदृष्टि से वह भस्म हो गया ।

कालयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवन का सफर । समय या आयु का व्यतीत होना । उ०—जो हो हमें तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि हमारी यह कालयात्रा, जिसे जीवन कहते हैं, जिन जिन रूपों के बीच से होती चली आती है, हमारा हृव्य उन सबको पास समेटकर अपनी रागात्मक सत्ता के अंतर्भूत करने का प्रयत्न करता है ।—आचार्य०, पृ० १०२ ।

कालयाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलंब । २. समय बिताना [को०] ।

कालयापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कालक्षेप । दिन काटना । गुजारा करना । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. विलंब करना (को०) ।

कालयुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभव आदि साठ संवत्सरों में से बावनवाँ संवत्सर ।—बृहत०, पृ० ५३ ।

कालयोग
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्य । नियति । प्रारब्ध (को०) ।

कालयोगतः
क्रि० वि० [सं०] काल की आवश्यकता के अनुसार [को०] ।

कालयोगी
संज्ञा पुं० [सं० कालयोगिन्] शिव । परमेश (को०) ।

कालर (१)
संज्ञा पुं० [अं० कालर] १. गले में बाँधने का पट्टा । २. कोट, कमीज या कुरते में वह उठी हुई पट्टी जो गले के चारो ओर रहती है ।

कालर पु (२)
वि० [हिं० कालर] कल्लर । ऊसर । उ०—सहजो गुरु पूरा मिले सिस मैला घर चित्त । मेह बरसे कालर जिमीं खेत न उपजै छित्त ।—सहजो०, १३ ।

कालरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कालरा] हैजा या विसूचिका नामक रोग ।

कालराति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालरात्रि] दे० 'कालरात्रि' । उ०— कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।—मानस, ५ ।४० ।

कालरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंधेरी और भयावनी रात । २. ब्रह्मा की रात्रि जिसमें सारी सृष्टि प्रलय को प्राप्त रहती है, केवल नारायण ही रहते हैं । प्रलय की रात । ३. मृत्यु की रात्रि । ४. ज्योतिष में रात्रि का वह भाग जिसमें किसी कार्य का आरंभ करना निषिद्ध समझा जाता है । विशेष—इसके लिये रात के दंडो के आठ सम भाग करते हैं । फिर बारों के हिसाब से एक एक दिन के लिये एक एक भाग वर्जित हैं । जैसे, रविवार को रात का छठा भाग अर्थात २० दंड के बाद के ४ दंड, सोमवार को चौथा भाग अर्थात १२ दंड के बाद के ४ दंड, मंगलवार को दूसरा भाग अर्थात ४ दंड के बाद के ४ दंड, बुधवार को सातवाँ भाग अर्थात २४ दंड के बादके ४ दंड, बृहस्पतिवार को पाँचवाँ भाग अर्थात १६ दंड के बाद के ४ दंड, शुक्रवार को तीसरा भाग अर्थात ८ दंड के बाद के ४ दंड और शनिवार को पहला और आठवाँ भाग अर्थात पहले ४ दंड और अंतिम ४ दंड । यह हिसाब ३२ दंड की रात के लिये है । यदि रात्रि इससे कम या अधिक हो, तो उन दंडों के आठ सम भाग करके उसी क्रम से हिसाब बैठा लेना चाहिए । ५. दीवाली की अमावस्या । ६. दुर्गा की एक मूर्ति । ७. यमराज की बहन जो सब प्राणियों का नाश करती है । ८. मनुष्य की आयु में वह रात जो सतहत्तरवें वर्ष के सातवें महीने के सातवें दिन पड़ती है और जिसके बाद वह नित्य कर्म आदि से मुक्त समझा जाता है ।

कालरात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कालरात्रि' ।

कालरुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्र देव, जिनसे उत्पन्न अग्नि सृष्टि का संहार कर देती है (को०) ।

काललोह, काललौह
संज्ञा पुं० [सं०] इस्पात नाम का लोहा [को०] ।

कालवलन
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । तनुत्राण । वारवाण । जिरह बख्तर (को०) ।

कालवाचक
वि० [सं०] काल या समय का प्रबोधक । समय का ज्ञान करानेवाला ।

कालावाची
वि० [सं० कालवातिन्] समय का ज्ञान करानेवाला । जिसके द्वारा समय का ज्ञान हो ।

कालवादी
वि० [सं० कालवादिन्] काल (समय) को माननेवाला । उ० —वैसेषिक शास्त्र पुनि कालवादी है प्रसिद्ध पातंजलिशास्त्र माहि योगवाद लह्यो है ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ११९ ।

कालविपाक
संज्ञा पुं० [सं०] समय का पूरा होना । किसी काम के पूर्ण हो जाने की अवदि । उ०—डर न टरै नींद न परै हरै न काल विपाक । छिन छाके उछकैन फिरि खरो विषम छबि छाक ।—बिहारी (शब्द०) ।

कालविप्रकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कालक्षेप । कालायापन [को०] ।

कालविभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] समय का विभाग या अंश [को०] ।

कालवृंत्त
संज्ञा पुं० [सं० कालवृन्त] कुल्था [को०] ।

कालवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह व्याज जो बढ़ते बढ़ते दूने से अधिक हो जाय । यह स्मृति में निंदित कहा गया है ।

कालवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में वह योग या समय जिसमें किसी कार्य का करना निषिद्ध हो । विशेष—इसमें दिन और रात के दंडो के आठ सम विभाग किए जाते हैं और फिर एक वार के लिये कुछ विशेष विशेष विभाग अशुभ ठहराए जाते हैं, जेसे— रविवार को—दिन का पाँचवाँ ओर रात काँ छठा भाग समोवार को—, , दूसरा, , चोथाभाग मंगल, —, , छठा, , दुसरा, बुध, —, , तीसरा, , सातवाँ, वृहस्पति, —, , सातवाँ, , पाँचवाँ, शुक्रवार, —, , चौथा, , तीसरा, शनिवार, —, , पहला, आठवाँ, पहला, आठवाँ भाग

कालशाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पटुआ साग । २. करेमू ।

कालसंकर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० कालसंकर्षा] नौ वर्ष की बालिका जो धार्मिक उत्सव में दुर्गा बनाई जाती है [को०] ।

कालसंकषीं
वि० [सं० कालसंकर्षिन्] काल को संक्षिप्त करने वाला (जैसे मंत्र) [को०] ।

कालसंग
वि० [सं० कालसंग] विलंब (को०) ।

कालसंपन्न
वि० [सं० कालसम्पन्न] तिथि या दिनांक सहित [को०] ।

कालसंरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीर्घकाल तक रोक रखना । २. दीर्घकाल बीतना (को०) ।

कालसदृश
वि० [सं०] समयानुकूल [को०] ।

कालसमन्वित, कालसमायुक्त
वि० [सं०] मृत (को०) ।

कालसर
संज्ञा पुं० [हिं० कालसिर] दे० 'कालसिर' ।

कालसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] कला और अत्यंत विषैला साँप (को०) ।

कालसार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णसार नाम का मृग । २. पीतवर्ण का चंदन (को०) ।

कालसार (२)
वि० काली कनीनिका या पुतलीवाला [को०] ।

कालसिर
संज्ञा पुं० [हिं० काल + सिर] जहाज के मस्तूल का सिरा ।

कालसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक सूक्त का नाम जिसमें काल का वर्णन है ।

कालसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. २८ मुख्य नरकों में से एक नरक । २. काल (यम या समय) का सूत्र (को०) ।

कालसूत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक । २. काल का सूत्र (को०) ।

कालसूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पांत के समय का सूर्य ।

कालसेन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार उस डोम का नाम जिसने राजा हरिश्चद्र को मोल लिया था ।

कालस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० कालस्कन्द] तमाल वृक्ष (को०) ।

कालहर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महेश (को०) ।

कालहरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कालक्षेप' (को०) ।

कालहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विलंब । देर (को०) ।

कालांग
वि० [सं० कालाग्ङ] काले अंगवाला (खड्ग आदि) [को०] ।

कालांजन
संज्ञा पुं० [सं० कालाञ्जन] काला सुरमा । अंजन- विशेष (को०) ।

कालांजनी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काला + अंजनी] नरमा । बनकपास ।

कालांजनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कालाञ्जनी] ओषधि के काम आने वाली एक छोटी झाड़ी (को०) ।

कालांतर
संज्ञा पुं० [सं० कालान्तर] अन्य समय । बाद का काला । समय का अंतराल । उ० —महाकाश ही नहीं दृगों में देख रहा हूं कालांतर भी, तव नयनों की गहराई में हैं युग युग के महदंतर भी ।—अपलक, पृ० ७९ ।

कालांतर विष
संज्ञा पुं० [सं० कालान्तर विष] ऐसे जंतु जिनके काटने का विष तत्काल नहीं चढता, कुछ समय के उपरांत मालूम होता है । जैसे, चुहा आदि ।

कालांतरित पण्य
संज्ञा पुं० [सं० कालान्तरित पण्य] बहुत काल पहले का बना माल । विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि ऐसे माल का दाम बनने के समय की उसकी लागत का विचार करके निश्चित किया जाता था ।

काला (१)
वि० [सं० काल] [स्त्री० काली] १. कागज या कोयले के रंग का कृष्ण । स्याह । यौ०—काला कलूटा ।—काला भुजंगा काला चोर । काला पानी । काला जीरा । मुहा०—काला काला होना = शंका या संदेह होना । उ०—यह बनावट की बात है, इसमें कुछ काला काला जरूर है ।—फिसाना० भा० ३, पृ० ४०८ । (अपना) मुह काला करना = (१) कुकर्म करना । पाप करना । (२) व्यभिचार करना । अनुचित सहगमन करना । (३) किसी ऐसे मनुष्य का हटना या चला जाना जिसका हटना या चला जाना इष्ट हो । किसी बुरे आदमी का दूर होना । जैसे—जाओ, यहाँ से मुंह काला करो ।(दूसरे का मुँह काला करना =(१) किसी अरुचि कर या बुरी वस्तु या व्यक्ति को दूर करना । व्यर्थ वस्तु को हटाना । व्यर्थ की झंझट दूर हटाना । जैसे—(क) तुम्हें इन झगडों से क्या काम, जाने दो, मुँह काला करो । (ख) इन सबों को जो कुछ देना लेना हो, दे लेकर मुँह काला करो, जायँ । (२) कलंक का कारण होना । बदनामी का सबब होना । ऐसा कार्य करना जिससे दूसरे की बदनामी हो । जैसे—तुम आपके आप गए, हमारा भी मुँह काला किया । काला मुंह होना या मुंह काला होना = कलंकित होना । बदनाम होना । काली हाँड़ी सिरपर रखना = (१) सिर पर बदनामी लेना । (२) कलंक का टीका लगाना । काले कौवे खाना = बहुत दिनों तक जीवित रहना । विशेष—बहुत जीने वालों को लोग हँसी से ऐसा कहते हैं । ऐसा प्रसिद्ध है कि कौवा बहुत दिनों तक जीत्ता है । २. कलुषित । बुरा । जैसे—उसका हृदय बहुत काला है । ३. भारी । प्रचंड । बड़ा । जैसे—काली आँधी । काला कोस । काला चोर । मुहा०—काले कोसों = बहुत दूर । उ०—ताते अब मरियत अपसेसन । मथुंरा हू ते गए सखी री अब हरि काले कोसन— सूर (शब्द०) ।

काला (२)
संज्ञा० पुं० [सं० काल] काला साँप । जैसे—जा, तुझे काला डसे । क्रि० प्र०—काले का काटना, खाना या डसना ।

काला (३)
संज्ञा० पुं० [सं० काल] समय । अवसर । काल । उ०— चढ़िय रंगीले हिंठौर कहा कहौं तिहि काला ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५ ।

काला पु (४)
संज्ञा० स्त्री० [सं० कला] कला । माया । उ०—भीखा हरि मटवर बहुरूपी जानहिं आपु आपनी काला ।—भीखा श०, पृ० ३१ ।

काला (५)
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १. कई पौधों के नाम । २. दक्ष प्रजापति की एक कन्या का नाम । ३. दुर्गा [को०] ।

कालाकंद
संज्ञा० पुं० [हिं० काला + कण] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है ओर जिसका चावल सैकड़ों वर्षों तक रखा जा कसता है ।

कालाकलूटा
वि० [हिं० काला + कलूटा] बहुत काला । अत्यंत श्याम । विशेष—इसका प्रयोग मनुष्यों ही के लिये होता है, जड़ पदार्थों के लिये नहीं ।

कालाकाँकर
संज्ञा० पुं० [हिं० काला + काँकर] एक कस्बा जो प्रतापगढ़ जिले में गंगातट पर बसा है । उ०—काला कांकर का राजभवन सोया जल में निश्चिंत प्रमन । गुंजन, पृ० ९४ ।

काला कानून
संज्ञा० पुं० [हिं० काला + कानून] १. वह कानून या अध्यादेश जो लोकजीवन के विरुद्ध हो । २. अँगरेजी शासन में गवर्नर या वाइसराय द्वारा बनाए गए अध्यादेश या आर्डिनेंस जो जनता के विरुद्ध पड़ते थे ।

कालाक्षरिक
वि० [सं०] दे० 'कालाक्षरी' ।

कालाक्षरी
वि० [सं०] काले अक्षर मात्र का अर्थ बता देने वाला । अत्यंत विद्वान् । सब विद्याओं और भाषाओं का विद्वान् । जैसे—वह तो कालाक्षरी पंडित है ।

कालागरू
संज्ञा० पुं० [सं०] काला अगर ।

काला गाँड़ा
संज्ञा० पुं० [हिं० काला + गन्ना] एक प्रकार की ईख जो बहुत मोटी और रंग में काली होती है ।

कालागुरु
संज्ञा० पुं० [सं०] दे० 'कालागरू' ।

काला गेंडा
संज्ञा० स्त्री० [हिं०काला गाँडा] दे० 'काला गाँडा' ।

कालाग्नि
संज्ञा० पुं० [सं०] १. प्रलय काल की अग्नि । २. प्रलयाग्नि के अधिष्ठाता रुद्र । ३. पंचमुखी रुद्राक्ष ।

काला चोर
संज्ञा० पुं० [सं०] १. बडा चोर । बहुत भारी चोर । वह चोर जो जल्दी पकड़ा न जा सके । २. बुरे से बुरा आदमी । तुच्छ मनुष्य । जैसे,—हमारी चीज है, हम काले चोर को देंगे, किसी का क्या ?

कालाजिन
संज्ञा० पुं० [सं०] १. काले हरिण का चर्म या छाल । काला मृगछाला । २. एक देश का नाम । बृहत्० पृ० ८४ ।

कालाजीरा
संज्ञा० पुं० [हिं० काला + फा० जीरा] एक प्रकार का जीरा जो रंग में काला होता है । स्याह जीरा । मीठा जीरा । पर्वत जीरा । विशेष—यह मसाले और दवा में अधिक काम आता है और सफेद जीरे से अधिक सुगंधित और महँगा होता है । २. एक प्रकार का धान । विशेष—इसके चावल बहुत दिनों तक रह सकते हैं । यह धान अगहन में होता है ।

कालाढोकरा, काला धोकड़ा
संज्ञा० पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष । धवा । धव । विशेष—इसकी डालियाँ नीचे की ओर झुकी होती हैं और जाडे़ में पत्तियाँ ताँबड़े रंग की हो जाती हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है । उसका रंग कालापन लिए लाल होती है । यह वृक्ष मालवा, मध्य प्रदेश और राजपुताने में बहुत होता है ।

कालातिपात
संज्ञा० पुं० [सं० काला + अतिपात] दे० 'कालक्षेप' [को०] ।

कालातिरेक
संज्ञा० पुं० [सं० काला + अतिरेक] दे० 'कालक्षेप' [को०] ।

काला तिल
संज्ञा पुं० [हिं० काला + सं० तिल] काले रंग का तिल । मुहा०—(किसी का) काले तिल चबाना = (किसी का) दबैल होना । अधीन या वशवर्ती होना । गुलाम होना । जैसे— क्या तुम्हारे काले तिल चबाए हैं जो न बोलें ।

कालातीत (१)
वि० [सं०] जिसका समय बीत गया हो ।

कालातीत (२)
संज्ञा पुं० १. न्याय के पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक जिसमें अर्थ एक देश काला के ध्वंस से युक्त हो और इस कारण हेतु असत् ठहरता हो । विशेष—जैसे किसी ने कहा कि शब्द नित्य हैं । संयोग द्वारा व्यक्त हेने से, जैसे अँधेरे में रखे घट के रूप की अभिव्यक्ति दीपक लाने से होती है, ऐसे ही डंके के शब्द की अभिव्यक्ति भी उसपर लकड़ी का संयोग होने से होती हैं; और जैसे संयोग के पहले घट का रूप विद्यमान था वैसे ही लकड़ी के संयोग के पहले शब्द विद्यमान था । इसपर प्रतिवादी कहता है कि तुम्हारा यह हेतु असत् है क्योंकि दीपक का संयोग जबतक रहता है तभी तक घट के रूप का ज्ञान होता है संयोग के उपरांत नहीं । पर संयोग निवृत होने पर संयोग काल के अतिक्रमण में भी शब्द का दूरस्थित मनुष्य को ज्ञान होता है अतः संयोग द्वारा अभिव्यक्ति को नित्यता का हेतु कहना हेतु नहीं है हेत्वाभास है । २. आधुनिक न्याय में एक प्रकार का बाध, जिसमें साध्य के आधार अर्थात् पक्ष में साध्य का अभाव निश्चित रहता है ।

कालात्मा
संज्ञा पुं० [सं० कालात्मन्] परमात्मा । ईश्वर [को०] ।

कालात्यय
संज्ञा पुं० [सं० काला + अत्यय] दे० 'कालक्षेप' [को०] ।

कालादाना
संज्ञा पुं० [हिं० कालादाना] १. एक प्रकार की लता जो देखने में बहुत सुंदर होती है । विशेष—इसके फूल नीले रंग के होते हैं । फूल झड़ जाने पर बोंड़ी लगती है, जिसमें काले काले दाने निकलते हैं । इसका गोंद भी औषधि के काम में आता है । दाना आधे ड्राम से लेकर एक ड्राम तक और गोंद दो से आठ ग्रेन तक खाया जा सकता है । २. इस लता का बीज जो अत्यंत रेचक होता है ।

कलादेव
संज्ञा पुं० [हिं० काला + फा० देव] १. एक कल्पित देव या विशालकाय व्यक्ति जिसका रंग बिलकुल काला माना गया है । २. वह व्यक्ति सरीर हृष्ट पुष्ट और रंग बहुत काला हो ।

कालाधतूर
संज्ञा पुं० [सं० कालाधुस्तूर] एक प्रकार का बहुत विषैला धतूरा । विशेष—इसके पत्ते हरे पर फल और बीज काले होते हैं । लोग प्रायः बहुत अधिक नशे या स्तंमन के लिये इसका व्यवहार करते हैं ।

कालाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. परमात्मा । ब्रह्म [को०] ।

कालानमक
संज्ञा पुं० [हिं० काला + नमक] एक प्रकार का बनावटी नमक जिसका रंग काला होता है और जो साधारण नमकतथा हड़, बहेडे़ और सज्जी के संयोग से बनाया जाता है । सोंचर नमक । विशेष—वैद्यक में यह हलका, उष्णवीर्य, रेचक, भेदन, दीपन, पाचक, वातानाशक, अत्यंत पित्तजनक और निबंध, शूल, गुल्म और आनाह का नाशक माना गया है ।

कालानल
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रलय काल की अग्नि । कालाग्नि । उ०—कालानल मय क्रोध कराला । क्षमा क्षमा सम जासु विशाला ।—रघुराज (शब्द०) । २. वह रुद्राक्ष जो पंचमुखी होता है [को०] । ३. रुद्र (को०) ।

कालानाग
संज्ञा पुं० [हिं० काला + नाग] १. काला साँप । विषधर सर्प । १. अत्यंत कुटिल या खोता आदमी ।

कालानुक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] समय का अनुक्रम । काल की स्थिति के अनुसार क्रम या व्यवस्था ।

कालानुनादी
संज्ञा पुं० [सं० कालानुनादिन्] १. मधुमक्खी । २. गौरैया । चटक पक्षी । ३. पपीहा । चातक [को०] ।

कालाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर के बाल या केश । २. सर्प का फण । ३. दैत्य । दानव । ४. कलाप व्याकरण का वेत्ता । ५. कलाप व्याकरण का विद्यार्थी [को०] ।

कालापक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलाप के अध्येताओं का समूह । २. कलाप के नियम या सिद्धांत । ३. कातंत्र व्याकरण [को०] ।

कालापहाड़
संज्ञा पुं० [हिं० काला + पहाड़] १. बहुत भारी और भयानक वस्तु । दुस्तर वस्तु । जैसे—दुःख की रात नहीं कटती, काला पहाड़ हो जाती है । २. बहलोल लोदी का एक भांजा जो सिकंदर लोदी से बड़ा था । ३. मुरशिदाबाद के नवाब दाऊद का एक सेनापति । विशेष—यह बड़ा क्रूर और कट्टर मुसलमान था । इसने बंग देश के बहुत से देवमंदिर तोडे थे; यहाँ तक कि एक बार जगन्नाथ की मूर्ति को समुद्र में फेंक दिया था । वह पहले ब्राह्मण था । किसी नवाब कन्या के प्रेम में पागल हुआ था ।

कालापान
संज्ञा पुं० [हिं० काला + पान] ताश में 'हुकुम' का रंग ।

कालापानी
संज्ञा पुं० [हिं० काला + पानी] १. देशनिकाले का दंड । जलावतनी की सजा । २. अंडमान और निकोबार आदि द्वीप । क्रि० प्र०—जान ।—भेजना । विशेष—अंडमान, निकोबार आदि द्वीपों के आसपास के समुद्र का पानी काला दिखाई पड़ता है, इसी से उन द्वीपों का यह नाम पड़ा । भारत में जिनको देशनिकाले का दंड मिलता था, वे इन्हीं द्वीपों के भेज दिए जाते थे । इसी कारण उस दंड को भी इसी नाम से पुकारने लगे । ३. शराब । मदिरा ।

कालाबाजार
संज्ञा पुं० [हिं० काला + बाजार] वह बाजार या व्यापार जिसमें अनुचित लाभ के लिये क्रय विक्रय होता हो । क्रि० प्र०—करना ।—चलना ।—होना । यौ०—कालाबाजारिया = काला बाजार करनेवाला व्यापारी । नफाखोर । मुनाफाखोर ।

कालाबाल
संज्ञा पुं० [हिं० काला + बाल] झाँट । पशम । मुहा०—काला बाल जानाना या समझना = किसी को अत्यंत तुच्छ समझना । उ०—चोर कब उसका जोर माने है । काला बाल उसको अपना जाने है ।—सौदा (शब्द०) ।

कालाभुजंग (१)
वि० [हिं० काला + सं० भुजग्ङ] बहुत काला । अत्यंत काला । घोर कृष्ण वर्ण का । विशेष—इस शब्द का व्यवहार प्राणियों के ही लिये होता है । भुजंग से या तो सर्प का अभिप्राय है या भुजंगे पक्षी का जो बहुत काला होता है ।

कालाभुजंग (२)
संज्ञा पुं० १. काला साँप । २. भुजंग पक्षी जो काले रंग का होता है ।

कालमोहरा
संज्ञा पुं० [हिं० काला + मोहरा] सींगिया की जाति का एक पौधा, जिसकी जड में विष होता है ।

कालायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिवा । दुर्गा । रुद्राणी [को०] ।

कालावधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी कार्य के पूर्ण होने की निश्चित तिथि । नियत काल [को०] ।

कालाशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में वह समय जो शुभ कार्यों के लियो निषेद्ध है ।

कालाशौच
संज्ञा पुं० [सं०] वह अशौच जो पिता माता आदि गुरुजनों के मरने के उपरांत एक वर्ष तक रहता है ।

कालासुखदास
संज्ञा पुं० [हिं० काला + सुखदास] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है ।

कालास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राकर का बाण जिसके प्रहार से शत्रु का निधन निश्चय समझा जाता था । संघातक बाण ।

कालिंग (१)
वि० [सं० कालिग्ङ] कालिंग देश का । कालिंग देश में उत्पन्न ।

कालिंग (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कालिंग देश का निवासी । २. कालिंग देश का राजा । ३. हाथी । ४. साँप । ५. कालिंदा । तरबूज । हिंदुवाना । ६. भूमिकर्कारु । कुटज । विलायती कुम्हड़ा । ७. लोहा ।

कालिंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिंगिका] निसोथ । त्रिवृत् । त्रिधारा ।

कालिंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० कालञ्जर] १. एक पर्वत जो बाँद से ३० मील पूर्व की ओर है । विशेष—यह पर्वत संसार के नौ ऊखलों में से एक ऊखल माना जाता है । इसका माहात्म्य पुराणों में वर्णित है और यह एक तीर्थ माना जाता है । इस पहाड़ पर एक बड़ा पुराना किला है । कालिंजर नाम का कसबा पहाड़ के नीचे है । रामायण (उत्तर कांड) महाभारत और हरिवंश के अतिरिक्त गरुड़, मत्स्य आदि पुराणों में इस स्थान का उल्लेख मिलता है । यहाँ पर नीलकंठ महादेव का एक मंदिर है । प्रसिद्ध इतिहास- लेखक फरिश्ता लिखता है कि कालिंजर का गढ़ केदारनाथ नामक एक व्यक्ति ने ईसा की पहली शताब्दी में बनवाया था । महमूद गजनवी ने सन् १०२२ में इस गढ़ को घेरा था । उस समय यहाँ का राजा नंद था जिसने एक वर्ष पहले कन्नौज पर चढाई की थी । २. एक नगर का नाम (को०) ।

यौ०—कालिंजर गढ़ ।

कालिंडी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्दी] दे० 'कालिंदी' । उ०—वसी सहस सह मिल्लियौ कालिंडी के तीर ।—प० रासों, पृ० १२३ ।

कालिंद (१)
वि० [सं० कालिंन्द] १. कालिंद पर्वत से संबद्ध । २. कालिंद पहाड़ से आता हुआ । ३. यमुना नदी से आता हुआ [को०] ।

कालिंद (२)
संज्ञा पुं० तरबूज ।

कालिंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्दी] १. कलिंद पर्वत से निकली हुई, यमुना नदी । २. अयोध्या के राजा असित की स्त्री जो सगर की माता थी । ३. कृष्ण की एक स्त्री । ४. लाल निसोथ । ५. एक असुर कन्या का नाम । ६. उड़ीसा का एक वैष्णव संप्रदाय जिसके अनुयायी प्रायः छोटी जाति के लोग हैं । ८ ओड़व जाति की एक रागिनी ।

कालिंदीकर्षण
संज्ञा पुं० [सं० कालिन्दीकर्षण] दे० 'कालिंदी' भेदन [को०] ।

कालिंदीभेदन
संज्ञा पुं० [सं० कालिन्दीभेदन] कृष्ण के जेठे भाई बलराम जो हल से यमुना नदी को बृदावन खींच लाए थे । विशेष—कालिंदीकर्षण की कथा हरिवंश में दी हुई है ।

कालिंदीसू (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्दीसूः] सूर्य की पत्नी [को०] ।

कालिंदीसू (२)
संज्ञा पुं० [सं० कालिन्दीसू] सूर्य । वह जिसकी पुत्री कालिंदी है [को०] ।

कालींदीसोदर
संज्ञा पुं० [कालिन्दीसोदर] यमुना नदी का भाई, यमराज [को०] ।

कालिंद्र पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिंन्द] दे० 'कालियदह' । उ०—के कालिंद्र दह सु अति गहर वारि । पावन्न परम सीतल सुचारि—पृ० रा०, १ । ५५८ ।

कालिंद्री पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्द्री] दे० 'कालिंदी' । उ०—कै उलटी कालिंद्री बहहीं । गिरि गमगा परसन की चहही ।— माधवानल०, पृ० १९१ ।

कालि पु †
क्रि० वि० [सं० कल्य] १. गत दिवस । आता से पहले का दिन । उ०—जनक को सीय को हमारो तेरी तुलसी को सबको भावत ह्नै है मैं जो कह्यो कलि री ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—कालि को = काल का । थोड़े दिनों का । उ०—दूषण विराध खर त्रिशिर कबंध बधे, तालऊ बिसाल बेधे कौतुक हैं कालि को ।—तुलसी (शब्द०) । २. आगामी दिवस । आनेवाला दिन । उ०—जैहौं कालि नेवतवा भव दुख दून । गाँव करसि रखवरिया सब घर सून ।—रहीम (शब्द०) । ३. आगामी थोडे़ दिनों में । शीघ्र ही ।

कालिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कालिकी] १. समय संबंधी । समयोचित । विशेष—इसका प्रयोग प्रायः समस्त पदों के अंत में मिलता है । जैसे, नियतकालिक, पूकर्वालिक । २. जिसका कोई समय नियत हो । ३. मौसमी । सामयिक (को०) ।

कालिक (२)
संज्ञा पुं० १. नाक्षत्र मास । २. काला चंदन । ३. क्रौंची पक्षी । ४. वैर । शत्रुता (को०) । ५. बगुला चिड़िया (को०) ।

कालिक पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कासिख] दे० 'कलिख' । उ०—पहिले गहि मूँड़ मुँडावा । पीछै मुख कालिक लावा ।—सुदंर ग्रं०, भा०१, पृ० १३९ ।

कालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवी की एक मूर्ति । चंडिका । काली । विशेष—शुंभ और निशुंभ के अत्यातचारों से पीड़ित इंद्रादिक देवताओं की प्रार्थना पर एक मातंगी प्रकट हुई, जिसके शरीर से इन देवी का आविर्भाव हुआ । पहले इनका वर्ण काला था, इसी से इनका नाम कालिका पड़ा । यह उग्र भयों से रक्षा करती हैं, इस कारण इनका एक नाम उग्रतारा भी है । इनके सिर पर एक जटा है, इसी से ये एकजटा भी कहलाती हैं । इनका ध्यान इस प्रकार है—कृष्णवर्णा, चतुर्भुजा, दाहिने दोनों हाथों में से ऊपर के हाथ में खंङ्नो और नीचे के हाथ में पद्म, बाएँ दोनों हाथों में से ऊपर के हाथों में कटारी और नीचे के हाथ में खप्पर, बड़ी ऊँची एक जटा, गले में मुँडमाला और साँप, लाल नेत्र, काले वस्त्र, कमर में बाघंबर, बायाँ पैर शव की छाती पर और दाहिना सिंह की पीठ पर, भयंकर अट्टहास करती हुई । इनके साथ आठ योगिनियाँ भी हैं, जिनके नाम ये हैं—महाकाली, रुद्राणी, उग्रा, भीमा, घोरा भ्रामरी, महारात्रि और भैरवी । २. कालापन । कलैंछ । कालिख । ३. बिछुआ नामक पौधा । ४. किस्तबंदी । ५. रोमराजी । जटामासी ७. काकोली । ८. श्रृगाली । ९. कौवे की मादा । १०. श्यामा पक्षी । ११. मेघघटा १२. सोने का एक दोष । सूबर । १३. मट्ठे का कीड़ा । १४. स्याही । मसी । १५. सुरा । मदिरा । शराब । १६. एक प्रकार की हर । काली हर । १७. एक नदी । १८. आँख की काली पुतली । १९. दक्ष की एक कन्या । २०. कान की मुख्य नस । २१. हलकी झड़ी । झींसी । २२. बिच्छू । २३. काली मिट्टी जिससे सिर मलते हैं । २४. चार वर्ष की कन्या । २५. रणचंडी । २६. चौथे अर्हंत की एक दासी (जैन) ।

कालिकाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिसकी आँख स्वभावतः काली हो । २. एक राक्षस ।

कालिकापुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपपुराण का नाम जिसमें कालिका देवी के माहात्म्य आदि का वर्णन है ।

कालिकावन
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत ।

कालिकाला पु
क्रि० वि० [हिं० कालि + काल] कदाचित् । कभी । किसी समय । उ०—एतेहू पर कोऊ जो रावरो ह्वै जोर करै, ताको जोर देव द्वारे गुदरत हौं । पाइकै ओराहनो औरा- हनो न दीजै मोहिं कालिकाला काशीनाथ कहे निबरत हौ ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—यह शब्द संदिग्ध जान पड़ता है, बैजनाथ कुरमी ने अपनी टीका में यही अर्थ दिया है ।

कालिकावृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह ब्याज जो महीने महीने लिया जाय । मासिक ब्याज ।

कालिकेय
संज्ञा पुं० [सं०] दक्ष की कन्या कालिका से उत्पन्न असुरों की एक जाति ।

कालिख
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिका] वह काली महीन बुकनी जो आग या दीपक के धुँए के जमने से वस्तुओं में लग जाती है । कलौंछ । स्याही । क्रि० प्र०—लगना ।—जमना । मुहा०—मुँह में कालिख लगना=बदनामी और कलंक के के कारण मुंह दिखलाने लायैक न रहना । कलंक लगना । मुँह में कालिख लगना = (१) कलंक लगने का कारण होना । बदनामी का कारण होना । जैसे,—उसने ऐसा करके हमारे मुहँ भी कालिख लगाई । (२) कलंत लगाना । दोषी ठहराना ।

कालिज (१)
संज्ञा पुं० [अं० काँलिज] वह विद्यालय जहाँ ऊँचे दर्जे को पढ़ाई होती हो ।

कालिज (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चकोर जो जो शिमले में मिलता है ।

कालित
वि० [सं०] मृत [को०] ।

कालिदास
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के एक श्रेष्ठ कवि का नाम जिन्होंने अभिज्ञात शाकुंतल, विक्रमोर्वशीय, और, मालविकाग्ति- मित्र नाटक तथा रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत और ऋतुसंहार नामक काव्यों की रचना की थी ।

कालिब
संज्ञा पुं० [अ०] १. टीन या लकड़ी का एक गोल ढाँचा जिस पर चढ़ाकर टोपियाँ दुरुस्त की जाती हैं । २. शरीर । देह । उ०—गुरु पारस पल में पर्से सिष कंचन कर लीना । सो रज्जब महँगे सदा कुलि कालिबां सुं छीनि ।—रज्जब०, पृ० ८ ।

कालिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिमन्] १. कालापन । २. कलौछ । कालिख । ३. अँधेरा । ४. कलंक । दोष । लांछन । उ०— तात मरन तिय हरन गीध बध भुज दाहिनी गँवाई । तुलसी मैं सब भाँति आपने कुलहिं कलिमा लाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कालिय (१)
वि० [सं०] १. काल या समय संबंधी । २. सामयिक [को०] ।

कालिय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कलियुग [को०] ।

कालिय (३)
संज्ञा पुं० [सं०] एक सर्प जिसे कृष्ण ने वश में किया था । यौ०—कालियजित्, कालियदसन, कालियमर्दन=कृष्ण । कालि- यहृद = कालियदह । कालियदह = वह वह जिसमें कालिय नाग रहता था ।

कालियादह पु †
संज्ञा पुं० [सं० कालिय + हृद, प्रा० द्रह = दह] यमुना नदी का वह खंड जिसमें कालिय नाम का सर्प रहता था ।

काली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंड़ी । कालिका । दुर्गी । २. पार्वती । गिरिजा । ३. हिमालय पर्वत से निकली हुई एक नदी । ४. दस महाविद्याओं में पहली महाविद्या । ५. अग्नि की सात जिह्वाओं में पहली । विशेष—अग्नि की सात जिह्वाओं के नाम ये हैं—काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुची । ६. कृष्णता । श्यामता । कालापन (को०) । ७. काले रंग की स्याही (को०) । ८. काले रंग की घटा (को०) । ९. काले रंग की स्त्री (को०) । १०. सत्यवती या व्यास की माता (को०) । ११. रात्रि (को०) । १२. कलंक । निंदा (को०) । १३. यम की बहन (को०) । १४. एक छोटा पौधा जो रेचक होता है (को०) । १५. एक कीटविशेष (को०) ।

काली (२)
वि० स्त्री० १. काले रंग की ।२. बाबली ।

काली (३)पु †
संज्ञा पुं० [सं० कालिय] कालिय नाग ।

कालीअंछी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक बड़ी झाड़ी जिसकी टहनियों में सीधे सीधे काँटे होते हैं । विशेष—इसको पत्ते १२—१३ अंगुल लंबे और किनारों पर दंदानेदार होते हैं । इसमें गुलाबी रंग के फुल लगते हैं । फल लाल होते है, जो बहुत पकने पर काले हो जाते हैं । काली अंछी पंजाब और गुजरात को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र होती है और फूल के लिये लगाई जाती है ।

कालीक
संज्ञा पुं० [सं०] क्रौंच नामक पक्षी [को०] ।

कालीखोह
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + खोह] मिर्जापुर के निकट विंध्याचल की देवी (दुर्गा) का स्थान । उ०—काली खोह निर्वासिनी महाकाली के भय से ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० १३९ ।

कालीघटा
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + घटा] घटे काले बादलों का समूह जो क्षितिज को घेरे हुए दिखाई पड़े । सघन कृष्ण मेघमाला । क्रि० प्र०—उठना ।—उमड़ना ।—घिरना ।—छाना ।

कालीची
संज्ञा स्त्री० [सं०] यम का न्यायालय । लह विशाल भवन जिसमें बैठकर यमराज प्राणियों के शुभ अशुभ कर्मों का निर्णय करते हैं [को०] ।

कालीजबान
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली+फा० जबान] वह जबान जिससे निकली हुई अशुभ बातें सत्य घटा करें ।

कालीजारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कणजीर, हिं० काला + जीरा] एक औषधि । विशेष—इसका पेड़ ४—५ हाथ ऊँचा होता है और इसकी पत्तियाँ गहरी हरी, गोल ५—६ अंगुल चौड़ी और नुकीली होती हैं, तथा उनके किनारे दंदानेदार होते हैं । पेड़ प्रायः बरसता में उगता है और क्वार कातिक में उसके सिर पर गोल गोल घोड़ियों के गुच्छे लगते हैं, जिनमें छोटे छोटें पतले पतले बैगनी रंग के फुल या कुसुम निकलती है । फूलों के झड़ जाने पर बोड़ी बर्रे या कुसुम की बोड़ों की तरह बढ़ती जाती है और महीने भर में पककर छितरा जाती है । उसके फटने से भूरे रंग की रोई दिखाई पड़ती है जिसमें बडी झाल होती है । यह रोई बोड़ी के भीतर के बीज के सिर पर लगी रहती है और जल्दी अलग हो जाती है । काली जीरी खाने में कड़वी और चरपरी होती है । वैद्यक में इसे ब्रणानाशक तथा घाव, फोड़े आदि के लिये उपकारी माना है । ब्याई हुई घोड़ी के मसालों में भी यह दी जाती है । पर्या०—वनजीरा । अरण्यजीरक । बृहन्याली । कण ।

कालीतनय
संज्ञा पुं० [सं०] महिष । भैंसा [को०] ।

कालीथान †
संज्ञा पुं० [सं० कालीस्थान] वह स्थान जहाँ काली कामूर्ति प्रतिष्ठापित हो । कालीमंदिर । उ०—कालीथान की और मुंह करके माँ काँली को प्रणाम कि या ।—मैला०, पृ० २ ।

कालोदह
संज्ञा पुं० [सं० कालिका+ हिं० दह] वृंदावन में जमुना का एक दह या कुंड जिसमें काली नामक नाग रहा करता था । उ०—(क) गयो डूबि कालीदह माहीं । अबलौं देखि परयो पुनि नाहीं ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) पहुंचे जब कालीदह तीरा । पियत भए गो बालक नीरा ।—विश्राम (शब्द०) ।

कालीधार
संज्ञा स्त्री० [सं० काली + धारा] १. भयंकर नदी की धारा । २. विष की धारा । मुहा०—कालीधार में डूबना = सर्वस्व नष्ट होना । उ०—ग्मावे डूब गिंवार, मानव कालीधर मझ ।—बाँकी०, ग्रं०, भा० २, पृ० ११२ ।

कालीन (१)
वि० [सं०] कालसंबंधी । जैसे, समकालीन, प्राक्कालीन, बहुकालीन । उ०—देखत बालक बहु कालीन ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—यह शब्द समस्त पद के अंत में आता है, अकेला व्यवहार में नहीं आता ।

कालीन (२)
संज्ञा पुं० [अं० कालीन] ऊन या सूत के मोटे तागों का बना हुआ विछावन, जो बहुत मोटा और भारी होता है और जिसमें रंग विरगे बेलबूटे बने रहते हैं । गलीचा । विशेष—इसका ताना खड़े बल रखा जाता है अर्थात् छत से जमीन की ओर लटकता हुआ होता है । रंग बिरंगे तागों के टुकड़े लेकर बानों के साथ गाँठते जाते है और उनके छारों को काटते जाते है । इन्ही निकले हुए छारों के कारण कालीन पर रोएँ जान पड़ते हैं । कालीन का व्यवसाय भारतवर्ष में कितना पुराना है, इसका ठीक ठीक पता नहीं मिलता । संस्कृत ग्रंथों में दरी या कालीन के व्यवसाय का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । बहुत से लोगों का मत है कि यह कला मिस्र देश से बाबिलन होती हुई और देशों में फैली । फारस में इस कला की बहुत उन्नति हुई । इससे मुसलमानों के आने पर देश में इस कला का प्रचार बहुत बढ़ गया और फारस आदि देशों से और करीगर बुलाए गए । आईने अकबरी में लिखा है कि अकबर ने उत्तरीय भारत में इस कला का प्रचार किया, पर यह कला अकबर के पहले से यहाँ प्रचलित थी । कालीनों की नक्काशी अधिकांश फारसी नमूने की होती है, इससे यह कला फारस से आइ बतलाई जाती है । ईरान की कालनी संसार में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है ।

कालीनाग
संज्ञा पुं० [सं० कालियनाग] दे० 'कालिय' । उ०—काली नाग जु नाथियो, तुम सो और न कोई ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९८ ।

कालीपति
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव । उ०—चिंतामणि शिव सेइयौं, द्वादस वर्ष प्रमान । ह्वै प्रसन्न कालीपतिय, सीस जोर धरि ठान ।—प०, रासों०, पृ० ३४ ।

कालीफुलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + फूल] एक प्रकार की बुलबुल ।

कालोबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + बेल] एक बड़ी लता । विशेष—इसकी पत्तियाँ दो तीन इंच लंबी होती है और इसमें फागुन चैत में छोटे छोटो फल लगते हैं जो कुछ हरापन लिए होते हैं । बैसाख जेठ में यह लता फलती हैं । यह समस्त उत्तरी और मध्य भारत तथा आसाम आदि देशों में बराबर होती है ।

कालीमिट्टी
[हिं० काली+मिट्टी] चिकनी करैल मिट्टी जो लीपने पोतने या सिर मलने के काम आती है ।

काली मिर्च
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + मिर्च] गोल मिर्च । दे० 'मिर्च' ।

कालीय
संज्ञा पु० [सं०] काला चंदन ।

कालीयक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीला चंदन । २. काला अगर । ३. काला चंदन । ४. दारु हल्दी । ५. केसर (को०) ।

कालीसर
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + सर] एक प्रकार की लता । विशेष—यह सिक्किम, आसाम, बर्मा आदि देशों में होती है । इसके पत्ते से नीला रंग निकाला जाता है ।

कालीशीतला
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली + सं० शीतला] एक प्रकार की शीतला या चेचक । विशेष—इसमें कुछ काले काले दाने निकलती हैं और रोगों को बड़ा कष्ट होता है ।

काली हर्रे
संज्ञा स्त्री० [हिं० काली+हर्रे] जंगी हर्र । छोटी हर्र ।

कालुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलुषता । मलिनता । उ०—और निकल आती है फर हर बार काल के मुख से, नई चारुता लिए, शीर्णता का कालुष्य बहाकर, पावक में गलकर सुवर्ण ज्यों नया रूप पाता हो ।—नील०, पृ० ५४ । २. निष्प्रभ । ३. असहमति । मतभिन्नता ।

कालू
संज्ञा स्त्री० [देश०] सीप की मछली । सीप के अंदर का कीड़ा । लोना कीड़ा । सिपाल पोक ।

कलेजा पु
संज्ञा पुं० [सं० कालेय, प्रा० कालिज्ज] दे० 'कलेजा' । उ०—भेड़ा रहे बाग अली जा । काढ़ि नित खात कालेजा ।—तुलसी० सा०, पृ० २४७ ।

कालेय (१)
वि० [सं०] कलियुग संबंधी [को०] ।

कालेय (२)
संज्ञा पुं० १. दैत्य । कालकेय । कालकंज । प्रा० भा० प०, पृ० ८९ । २. यकृत [को०] । ३. काला चंदन [को०] । ४. केसर [को०] । ५. कृष्ण यजुर्वेदीय संप्रदाय का एक नाम [को०] ।

कालेयक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी । २. काला चंदन । ३. हलदी । ४. पीलिया नामक रोग । ५. शिकारी कुत्ता [को०] ।

कालेयरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता । २. एक प्रकार का चंदन (को०) ।

कालेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. सूर्य (को०) ।

कालोंच
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'कलौंछ' । कालापन । उ०—बारुद और धुएं ने दोनों के चेहरे ओर हाथ काले कर दिए । नित्य ही ऐसा हो जाता था । उस दिन कालोंच कुछ और अधिक चढ़ गई थी ।—झाँसी०, पृ० ३९८ ।

कालोनियल
वि० [अं० कँलोनियल] कलोनी या उपनिवेश संबंधी औपनिवेशिक । जैसे, कालोनियल सेक्रेटरी ।

कालोनी
संज्ञा स्त्री० [अं० कालोनी] एक देश के लोगों की दूसरें देश में बस्ती या आबादी । उपनिवेष ।

कालोल
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा । काक (को०) ।

कालौंछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० काला + औंछ (प्रत्य०) ] १. कालापन । स्याही । कालिख । इ०—मुख्य अर्थ इस शब्द का कालिमा, कालौछ वा कालिख है ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ३३३ । २. आग के धुएँ की कालिख जो छत, दीवार इत्यादि में लग जाती है । रहूँ । ३. काला जाला जो रसोई घर में या भाड़ या भट्टी के ऊपर लगा रहता है ।

काल्प (१)
वि० [सं०] कल्प संबंधी [को०] ।

काल्प (२)
संज्ञा पुं० कचूरु [को०] ।

काल्पक
संज्ञा पुं० [सं०] कर्चूर । कचूर [को०] ।

काल्पनिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पना करनेवाला ।

काल्पनिक (२)
वि० १. कल्पित । फर्जी । मनगढ़ंत । २. कल्पना संबंधी ।

काल्य † (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभात । भोर । उ०—कोपहिं सुनेंगो कंसासुर, सुन हो जसोमति माय ।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ३०७ ।

काल्य (२)
वि० १. शुभ । कल्याणकर । २. समयानुकूल । ३. अविरुद्ध । अनुकूल । ४. प्रभात काल का । प्रभात संबंधी [को०] ।

काल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साँड़ या वृषभ के पास ले जाने योग्य गाय । २. पति के पास जाने योग्य स्त्री [को०] ।

काल्याणक
संज्ञा पुं० [सं०] कल्याणमयता [को०] ।

काल्ह †
क्रि० वि० [सं० कल्य अथवा काल्य] दे० 'कल' ।

काल्हि †
क्रि० वि० [सं० कल्य अथवा काल्य] दे० 'काल' । 'कालि' । उ०—कहेह्रि आजु कछु थोर पयाना । काल्हि पयान दुरि है जाना ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३३ ।

काल्हेड़ो
संज्ञा पुं० [हिं० कालिंगड़ा] दे० 'कालिंगड़ा' । उ०—पदों में जो काल्हेड़ो रागिनी दी है यह कालंगड़ा का बिगड़ा नाम है ।—सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ० १७४ ।

कावँच
संज्ञा स्त्री० [देश०] केवाँच । उ०—रैदास तूँ कावँच फली तुझे न छीपै कोई ।— रै०, बानी, पृ० १ ।

कावचिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कावचिकी] १. कवच संबंधी । २. कवचयुक्त [को०] ।

कावचिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कवधारियों का समूह [को०] ।

कावड़
संज्ञा पुं० [सं० कार्पटिक] दे० 'कावर' ।

कावर
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटी बरछी जो जहाज की माँग या गलही में बँधी रहती है और जिससे ह्वेल आदि का शिकार करते हैं—(लश०) ।

कावरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँवर] दे० 'काँवर' । उ०—कहि कावरि कान्ह करे सिव सिव कहि जीव अभ्रत में विष साने ।—सं० दरिया, पृ० ६१ ।

कावरी
संज्ञा पुं० [देश०] रस्सी का फंदा जिसमें कोई चीज बाँधी जाय । मुद्धा ।—(लश०) । विशेष—यह दो रस्सियों को ढीला बटकर बनाया जाता है । और जहाज में काम आता है ।

कावली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो दक्षिण भारत की नदियों में होती हैं ।

कावा
संज्ञा पुं० [फा०] घोड़े को एक वृत्त में चक्कर देने की क्रिया । क्रि० प्र०—काटना ।—खाना ।—देना ।—मारना । मुहा०—कावा काटना = (१) एक वृत्त में दौ़ड़ना । चक्कर खाना । चक्कर मारना । (२) आँख बचाकर दूसरी ओर फिर निकल जाना । कावा देना = वृत्त में दैड़ना । चक्कर देना । (घोड़े को) कोवे पर लगाना = (घोड़े को) कावा या चक्कर देना ।

कावार
संज्ञा पुं० [सं०] शैवाल । सेवार [को०] ।

कावारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना डंडे की छतरी या छता [को०] ।

कावुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुक्कुट । ताम्रचूर्ण । मुरंगा । २. चक्र- वाक । चकवा पक्षी [को०] ।

कावेर
संज्ञा पुं० [सं०] केसर [को०] ।

कावेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षिण की एक नदी जो पश्चिमी घाट से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है । २. संपूर्ण जाति की एक रागिनी । ३. वेश्या । ४. हल्दी ।

काव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वाक्य रचना जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो । वह कला जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है । विशेष—रसगंगाधर में 'रममीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है । अर्थ की रमणीयता के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं । पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है । इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है । साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है । उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है' । रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है । काव्य- प्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र । ध्वनि वह है जिस,में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो । गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो । चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो । इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम, और अधम भी कहते हैं । काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं । काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य । महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए । उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए । बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए । कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए । महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए । काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य । दृश्य काब्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है । श्रव्य काव्य दोटप्रकार का होता है, गद्य और पद्य । पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं । गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं । कथा और आख्यायिका । चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है । २. वह पुस्तक जिसमें कविता हो । काव्य का ग्रंथ । ३. शुक्राचार्य । ५. रोला छंद का एक भेद, जिसके प्रत्येक, तरण की ११ वीं मात्रा लघु पड़ती है । किसी किसी के मत से इसकी छठी, आठवीं, और दसवीं मात्रा पर यति होनी चाहिए । जैसे— अंजनि सुत यह दशा देखि अतिशै रिसि पाग्यो । बेगि जाय लव निकट शिला तरु मारन लाग्यो । खंडि तिन्हें सियपुत्र तीर कपि के तन मारे । बान सकल करि पान कीश निःफल करि डारे ।

काव्य (२)
वि० १. कवि की विशेषताओं से युक्त । २. प्रशंसनीय । कथनीय (को०) ।

काव्यचौर
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के काव्य को अपना कहकर प्रकट करने वाला व्यक्ति (को०) ।

काव्यतत्व पु
संज्ञा पुं० [सं० काव्य + तत्व] कविता का तत्व । काव्य का मूल प्रेरक तत्व । उ०—टालस्टाप के, मनुष्य, मनुष्य में मातृ—प्रेम—संचार को ही एक मात्र काव्यतत्व कहने का बहुत कुछ कारण सांप्रदायिक था ।—रस०,पृ० ६९ ।

काव्यदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कवि की दृष्टि । रसमय साहित्यिक दृष्टि । उ०—जब तक वे इन मुल मार्मिक रूपों में नहीं लाए जाते तबतक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पड़ती ।—रस०, पृ० ७ ।

काव्यप्रकाशकार
संज्ञा पुं० [सं०] मम्मट भट्ट जिन्होंने काव्प्रकाश नाम का काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा । उ०—वास्तविक बात तो यह है कि काव्य प्रकाशकार का विचार उनके प्रभाव से प्रभावित है ।—रस क०, पृ० २३ ।

काव्यभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्यक्षेत्र । कविता का आधारभूत विषय । उ०—हमें उस काव्यभूमि का वर्णन् करना है जिसमें आनंद अपनी सिदधावस्था में दिखाई पड़ता है ।—रस०, पृ० ७३ ।

काव्यरीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य की पद्धति या शैली । काव्य संबंधी नियम । उ०—काव्यरीति का निरूपण थोड़ा थोड़ा सब देशों के साहित्य में पाया जाता है ।—रस०, पृ० ९४ ।

काव्यालिंग
संज्ञा पुं० [सं० काव्यलिंग] एक अर्थालंकार जिसमें किसी कही हुई बात का कारण आने वाले वाक्य के युक्तिपूर्ण अर्थ द्वारा या पद के अर्थ द्वारा दिखाया जाय । जैसे—(क) (वाक्यर्थ द्वारा) कनक कनक तेसै गुनी, मादकता अधिकाय । वह खाए बौरात है, यह पाए बौराय । यहाँ पहले चरण में सोने की जो अधिक मादकता बतलाई गई, उसका कारण दूसरे चरण के 'वह पाए बौराय' इस वाक्य द्वारा दिया गया । (ख) (पदार्थता द्वारा) जनि उपाय और करौ यहै राखु निरधार । हिय वियोग तम टारिहैं बिधुबदनी वह नार । इस दोहे में वियोगरूप तम दूर होने का कारण 'बिधुबदनी' इस एक पद के अर्थ द्वारा कहा गया । कोई कोई इस काव्यलिंग को हेतु अलंकार के अंतर्गत ही मानते हैं, अलग अलंकार नहीं मानते ।

काव्यवस्तु
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य का विषय । काव्य में वर्णित मुख्य बात । उ०—सच्ची स्वाभाविक रहस्य भावनावाले और सांप्रदायिक या सिद्धांती रहस्यवादी की पहचान के लिये काव्य वस्तु का भेद आरंभ में ही हम दिखा आए हैं ।—चिंतामणि, भा० २, पृ० १३९ ।

काव्यशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] काव्यलक्षण संबंधी विवेचन । काव्य की समीक्षा । उ०—इस प्रकार के मिलने को काव्यशास्त्र में वियोग में संयोग कहा है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १०२ ।

काव्याशिष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्यमर्यादा । काव्य संबंधी संस्कृति । उ०—ऐसी भावोदगार भी भद्दे पन से खाली नहीं, और काव्य- शिष्टता के विरुद्ध है ।—रस०, पृ० १२३ ।

काव्योशोभाकर
वि० [सं०] काव्य संबंधी सौदर्य बढ़ानेवाला । उ०— आचार्यों ने भी अलंकारों को 'काव्योशोभाकर' 'शोभातिशायी' आदि ही कहा है ।—रस०, पृ० ५२ ।

काव्यसमीक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य का आलोचक । काव्य का सम्यक् अध्ययन करके उसके गुणों और दोषों पर विचार प्रकट करनेवाला व्यक्ति । उ०—पाश्चात्य काव्यसमीक्षक किसी वर्णन के ज्ञातु पक्ष और ज्ञेय पक्ष अथवा विषयि पक्ष और विषय पक्ष दो पक्ष लिया करते हैं ।—रस०, पृ० १२२ ।

काव्यहास
संज्ञा पुं० [सं०] प्रहसन जिसका अभिनय देखने से अधिक हँसी आती है ।

काव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूतना । २. बुद्धि ।

काव्यानुमान
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य विषयक अनुमान । काव्य का ज्ञान । उ०—मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा ज्ञान जहाँ का रहा ।—अपरा०, पृ० १६३ ।

काव्याभरण
संज्ञा पुं० [सं०] काव्यालंकार । काव्यसंबीधी गुण । उ०—यह दर्शनशासित प्रेम गीति, अनुरूप कल्पना और नए काव्याभरण का योग पाकर युग की एक प्रतिनिधि कृति बन गई ।—नया०, पृ० १५० ।

काव्याभास
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यरचना जो पाठक या श्रोता को प्रभावित न कर सके । जो काव्य सा प्रतीत हो किंतु वस्तुतः काव्य न हो ।

काव्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कवित्वमय विचार या सुझ [को०] । यौ०—काव्यार्थचौर = किसी दूसरे की अच्छी सूझ को अपनी कविता में जड़ देनेवाला ।

काव्यालंकार
संज्ञा पुं० [सं० काव्यालङ्कार] काव्यसंबंधी अलंकार । वे अलंकार जिनका काव्य में प्रयोग मिलता है ।

काव्यापत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] अर्थापत्ति अलंकार ।

काश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार को घास । काँस । २. खाँसी । ३. एक प्रकार का चूहा । ४. एक मुनि का नाम । ५. शोभा । दीप्ति । उज्वलता (को०) ।

काश (२)
अव्य० [फा०] दुःख और चाह आदि को व्यक्त करनेवाला पद । अतृप्त इच्छा और प्रार्थना के स्थान पर यह शब्द प्रयुक्त होता है । खुदा करता । उ०—दूबदू मारे शर्म के हमारी आखें ही न उठती थी । आह काश मालूम हो जाता किस बेरहम ने तुझपर कातिल वार किया ।—काया० पृ० ३३५ ।

काशक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काश' [को०] ।

काशकृत्स्न
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकृत वैयाकारण का नाम [को०] ।

काशाना
संज्ञा पुं० [फा० काशानह्] छोटा सा घर जिसे शीशे आदि से सजाया जाय । उ०—तुमसें झलक गर नहीं तो किससे रोशन यह कशाना है ।—भारतेंदु ग्रें०, भा०, २, पृ० ५६० ।

काशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तेज । प्रकाश । २. सूर्य । ३. मुट्ठी । ४. काशी [को०] ।

काशिक (१)
वि० [सं०] १. काशी का बना हुआ । २. रेशमी [को०] ।

काशिक (२)
संज्ञा पुं० रेशमी वस्त्र [को०] ।

काशिका (१)
वि० [सं०] १ प्रकाश करनेवाली । २. प्रकाशित । प्रदीप्त ।

काशिका (२)
संज्ञा स्त्री० १. काशीपुरी । २. जयादित्य और वामन की बनाई हुई पाणिनीयव्याकरण पर एक वृत्ति । विशेष—राजतरंगिणी में जयापीड़ नामक राजा का नाम आया है, जो ६६७ शकाब्द में काश्मीर के सिंहासन पर बैठा था और जिसके एक मंत्री का नाम वामन था । लोग इसी जयापीड़ को काशिका का कर्ता मानते हैं । पर मैक्समूलर साहब का मत है कि काशिकार जयादित्य कश्मीर के जयापीड़ से पहले हुआ है, क्योकि चीनी यात्री इत्सिंग ने ६१२ शकाब्द में अपनी पुस्तक में जयादित्य के वृत्तिसूत्र का उल्लेख किया है । इस विषय में इतना समझ रखना चाहिए के कल्हण के दिए हुए संवत् बिलकुल ठीक नहीं हैं । काशिका के प्रकाशक बालशास्त्री का मत है कि काशिका का कर्ता बौद्ध था, क्योंकि उसने मंगलाचरण नहीं लिखा है और पाणिनि के सूत्रों में फेरफार किया । यौ०—काशिकाप्रिय = धन्वंतरि । काशिकावृत्ति = काशिका ।

काशिनाथ, काशिप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । विश्वनाथ [को०] ।

काशिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. काशी का राजा । २. दिवोदास । ३. धन्वंतरि ।

काशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तरीय भारत की एक नगरी जो वरुणा और अस्सी नदी के बीच गंगा के किनारे बसी हुई है और प्रधान तीर्थस्थान भी है । वारणसी । बनारस । विशेष—काशी शब्द का सबसे प्राचीन उल्लेख शुक्लयजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्नण और ऋग्वेद के कौशीतक ब्राह्मण के उपनिषद् में पाया जाता है । रामायण के समय में भी काशी एक बड़ी समृद्ध नगरी थी । ईसा की ५वीं शताब्दी में जब फाहियान आया था, तब भी वाराणसी एक विस्तृत प्रदेश की प्रसिद्ध नगरी समझी जाती थी । यह सात प्रसिद्ध तीर्थपुरियों में गिनी गई है ।

कांशीकरवट
संज्ञा पुं० [सं० काशी + सं० करपत्र, प्रा० करवत] काशीस्थ एक तीर्थ स्थान जहाँ प्राचीन काल में लोग आरे के नीचे कटकर अपने प्राण देना बहुत पुण्य समझते थे । दे० 'करवट' । मुहा०—काशी (कासी) करवट लेना = (१) काशी करवट नामक तीर्थ में गला कटवाकर मरना । प्राणत्याग करना । उ०— सूरदास प्रभु जो न मिलेंगे लेहौं करवट कासी ।—सूर० (शब्द०) । (२) कठिन दुःख सहना । काशी करवत लेना = दे० 'काशी करवट लेना' । उ०—जो कोई जावे हिमालय गले काशी करवत लेकर मरे ।—दक्खिनी०, पृ० १६ ।

काशीखंड
संज्ञा पुं० [सं० काशीखण्ड] स्कंद नामक महापुराण का एक खंड, सिसमें स्कद द्वारा काशी का माहात्म्य वर्णित हुआ है ।

काशीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वनाथ । शिव । ईश्वर [को०] ।

काशीफल
संज्ञा पुं० [सं० काशफल] कुम्हड़ा ।

काशीवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. काशी में निवास करना २. सन्यास लेना । ३. मृत्यु पाना । देहत्याग करना ।

काशीराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काशिराज' [को०] ।

काशीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक उपधातु का नाम । २. शिव । विश्वनाथ [को०] ।

काशू
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरछी । भाला ।

काशूकार
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी का पेड़ । पूग फल का वृक्ष [को०] ।

काशेय
वि० [सं०] १. काशी संबंधी । २. काशी में उत्पन्न [को०] ।

काश्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. खेती । कृषि । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. जमींदार की कुछ वार्षिक लगान देकर उसकी जमीन पर खेती करने का स्वत्व । मुहा०—काश्त लगना = वह अवधि पूरी होना जिसके वाद किसी काश्तकर को किसी खेत पर दखीलकारी का हक प्राप्त हो जाय ।

काश्तकार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. किसान । कृषत । खेतिहर । २. वह मनुष्य जिसने जमींदार को कुछ वार्षिक लगान देने की प्रतिज्ञा करके उसकी जमींन पर खेती करने की स्वत्व प्राप्त किया हो । विशेष—साधारणतः काश्तकार पाँच प्रकार के होते हैं, शरह— मुएअन, दखीलकार, गैर दखीलकार, साकितुल—मालकियत और शिकमी । शरह मुएअन वे हैं जो दवामी बंदोबस्त के समय से बराबर एक ही मुकर्रर लगान देते आए हो । ऐसे काश्तकारों की लगान बढ़ाई नहीं जा सकती और वे बेदखल नहीं किए जा सकते । दखीलकार वे हैं जिन्हें बारह वर्ष तक लगातार एक ही जमीन जोतने के कारण उनपर दखीलकारी का हक प्राप्त हो गया हो और जो बेदखल नहीं किए जा सकते । गैर दखीलकार वे हैं जिनकी काश्त की मुद्दत बारह वर्ष से कम हो । साकितुल मालकियत वह है जो उसी जमीन पर पहले जमींदार की हैसियत से सीर करता रहा हो । शिकमी वह है जो किसी दूसरे काश्तकार से कुछ मुद्दत तक के लिये जमीन लेकर जोते ।

काश्तकारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. खोतीबारी । किसानी । २. काश्तकार का हक । ३. वह जमीन जिसपर किसी को काश्त करने का हक हो ।

काश्मकराष्ट्रक
संज्ञा पुं० [सं०] हीरों के अनेक भेद या प्रकार [को०] ।

काश्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । विशेष—इसके पत्ते पीपल के पत्ते से चौड़े होते है और इसके कई अगों का व्यवहार ओषधि रूप में होता है । वि० दे० 'गभारी' ।

काश्मर्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काश्मरी' (को०) ।

काश्मल्य
संज्ञा पुं० [सं०] निराशा । मस्तिष्ट का अव्यवथिस्त होना [को०] ।

काश्मीर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम । दे० 'कशमीर' । २ कश्मीर का निवासी । २. कश्मीर में उत्पन्न वस्तु । ४. पुष्कर मूल । ५. केसर । ६. सोहागा ।

काश्मीर (२)
वि० कश्मीर में उत्पन्न । कश्मीर का ।

काश्मीरक, काश्मीरिक
वि० [सं०] कश्मीर देश में उत्पन्न [को०] ।

काश्मीरज
संज्ञा पुं० [सं०] केसर [को०] ।

काश्मीरजन्मा
संज्ञा पुं० [पुं० काश्मीरजन्मन्] केसर [को०] ।

काश्मीर पंक पु
संज्ञा पुं० [सं० काश्मीरपङ्क] कस्तूरी । मृगमद [को०] ।

काश्मीरा
संज्ञा पुं० [सं० काश्मीर] १. एक प्रकार का मोटा ऊनी— कपड़ा । २. एक प्रकार का अंगूर ।

काश्मीरी (२)
वि० [सं० काश्मीर+ई] १. काश्मीर देश संबंधी । काश्मीर देश का । २. काश्मीर देश का निवासी ।

काश्मीरी (२)
संज्ञा पुं० रबर का पेड़ । बोर । लेसू ।

काश्मीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] केसर [को०] ।

काश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदिरा । शराब । २. महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम [को०] ।

काश्यप (२)
वि० [सं०] १. काश्यप प्रजापति के वंश या गोत्र का । कश्यप संबंधी । २. जैनमतानुसार महास्वामी के गोत्र का ।

काश्यप (२)
संज्ञा पुं० १. बौद्धमतानुसार एक बुद्ध जो गौतम बुद्ध से पहले हुए थे । २. रामचंद्र की सभा के एक सभासद । ३. कणाद मुनि (को०) । ४. एक प्रकार का मृग (को०) । ५. एक गोत्र का नाम जो कश्यप ऋषि के वंशजों में चला (को०) । ६. एक मुनि का नाम (को०) । ७. विषविद्या का एख विद्वान् जिसका उल्लेख महाभारत में विस्तार से हुआ है । विशेष—कहा गया है कि जब शमीक के पुत्र श्रृगी ऋषि ने राजा परिक्षित को सातवें दिन तक्षक द्वारा डस लिए जाने का शाप दिया तब धन के लोभ से उन्हें बचाने ते लिये यह ब्राह्मण हस्तिनापुर चल दिया । रास्ते में तक्षक से उसकी भेंट हो गई । तक्षक के पूछने पर इसने हस्सिनापुर जाने का प्रयोजन उसे बता दिया । इसकी सामर्थ्य की परीक्षा लेने के लिये उसने एक विशाल वट वृक्ष को जाकर डस लिया । उसमें विष के प्रभाव से ज्वालाएँ उठने लगीं । उसके जल जाने पर उसकी राख हाथ में लेकर ब्राह्मण ने मत्र पढ़ा और वह वृक्ष फिर उसी प्रकार ज्यों का त्यों हो गया । यह देकर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उस ब्राह्मण को वहीं से औदी दिया ।

८. मांस [को०] । यौ०—काश्यपनंदन = गरुड़ ।

काश्यपि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अरुण, जो गरुड़ के बड़े भाई कहे गए हैं । २. गरुड़ (को०) ।

काश्यपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । जमीन । २. प्रजा ।

काश्यपेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । दिवाकर । देवता । २. पक्षिराज । गरुड़ । ४. दारुक नाम का सारथी [को०] ।

काश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काश्मरी' [को०] ।

काष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सान का पत्थर । २. एक ऋषि । ३. कसौटी । निकष (को०) ।

काषण
वि० [सं०] कच्चा । अपरिपक्व [को०] ।

काषाय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० काषायी] १. हर्रे, बहेड़े, कटहल, आम आदि कसैली वस्तुओं में रंगा हुआ । २. गेरुआ । उ०— चिंतित से काषाय वसनधारी सब मंत्री ।—साकेत पृ० ४१३ ।

काषाय (२)
संज्ञा पुं० १. हर्रा, बहेड़ा, आम, कटहल आदि कसैली वस्तुओं में रंगा हुआ वस्त्र । २. गेरुआ वस्त्र ।

काष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़ी । काठ । २. ईंधन । ३. छड़ी [को०] । ४. लंबाई नापने का एक साधन या औजार [को०] ।

काष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] अगर । एक सुगंधित लकड़ी (को०) ।

काष्ठकदली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठकेला ।

काष्ठकीट
संज्ञा पु० [सं०] घुन (को०) ।

काष्ठकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] कठफोड़वा नामक पक्षी ।

काष्ठकुद्दाल
संज्ञा पुं० [सं०] नाव का पानी निकालने और उसके पेदे को साफ करने का औजार [को०] ।

काष्ठकूट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काष्ठकुट्ट' [को०] ।

काष्ठकौशिक (१)
वि० [सं०] मूर्ख [को०] ।

काष्ठकौशिक (२)
संज्ञा पुं० काठ का उल्लू । उ०—यदि कोई व्यक्ति अभिज्ञान शाकुंतल की आध्यात्मिक व्याख्या करे, मेघ की यात्रा को जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने का साधन पथ बतावे, तो कुछ लोग तो विरक्ति से मुंह फेर लेंगें पर बहुत से लोग आँखे फाड़कर काष्ठकौशिक की तरह ताकते रह जायेंगे ।— चिंतामणि, भा०२, पृ० ८६ ।

काष्ठतंतु
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठतंतु] काठ के भीतर रहने वाला कीड़ा ।

काष्ठतक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] बढ़ई [को०] ।

काष्ठदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदास । देवदार [को०] ।

काष्ठद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] पलास वृक्ष [को०] ।

काष्ठपुत्तलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काठ की भूमि । २. कठपुतली [को०] ।

काष्ठपूलक
संज्ञा पुं० [सं०] छड़ियों या काठ के चुंदों का ढेर [को०] ।

काष्ठप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] चिता बनाना । चिता के लिये लकड़ी चुनना [को०] ।

काषठभंगी
संज्ञा पुं० [काष्ठभङ्गिन्] १. कठफोड़वा । २. धुन [को०] ।

काष्ठभार
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ियों का विशेष भार या वजन [को०] ।

काष्ठभारिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़ी ढोनेव वाला मजदूर । २. लकड़हारा [को०] ।

काष्ठमठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिता । सरा ।

काष्ठमल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अरथी । बाँस या लकड़ी का बना वह ढाँचा जिसपर शव को रखकर श्मशान पर पर ले जाते हैं [को०] ।

काष्ठयूप
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी का खंभा, जो यज्ञपशु को बाँधने के लिये गाड़ा जाता था । उ०—देखा जैसे, चौंक उन्होनं प्रथम बार पृथवी पर, पशु बनकर नर बँधा हुआ है काष्ठयूप में कसकर ।—दैनिकी, पृ० २ ।

काष्ठरंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठरञ्जनी] दारु हल्दी ।

काष्ठलेखक
संज्ञा पुं० [सं०] घुन । विशेष—घुन लकड़ियों में काट काटकर टेंढ़ी मेड़ी लकीरे वा चिह्न डालते है जिन्हें घुणाक्षर कहते हैं ।

काष्ठलोही
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठलोहिन्] लोहे से मढ़ी लाठी या गदा [को०] ।

काष्ठवाट
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी की बनी हुई दीवार । काष्ठभित्ति [को०] ।

काष्ठसंघात
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठसङ्घात] लकड़ियों का बेड़ा (को०) ।

काष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हद । अवधि । उच्चतम चोटी या ऊँचाई । उत्कर्ष । ३. १८. पल का समय या एक एक कला का ३०. वाँ भाग । ४ । चंद्रमा की एक कला । ५. घुड़दौड़ मौदान या दौड़ लगाने की सड़क । ६. दक्ष की एक कन्या का नाम जो कश्यप को ब्याही थी । ७. दिशा । ओर । तरफ । ८. स्थिति । ९. चरम स्थिति या अंतिम सीमा (को०) । १०. गंतव्य लक्ष्य (को०) । ११. आकाश में वायु और मेघ का पथ (को०) । १२. समय का एक परिमाण । कला [को०] । १४. सूर्य (को०) । १५. पीला रंग (को०) । १६. कदंब वृक्ष (को०) १७. रूप । आकार । काठी (को०) ।

काष्ठांबुवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठाम्बुवाहिनी] काठ का जलपात्र [को०] ।

काष्ठागार
संज्ञा पुं० [सं०] काठ का बना घर । कठघरा । काष्ठगृह । [को०] ।

काष्ठिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़हारा [को०] ।

काष्ठिक (२)
वि० काठ से संबंध रखनेवाला । काठ का [को०] ।

काष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चली । काष्ठखंड । काठ का छोटा टुकड़ा [को०] ।

काष्ठीय
वि० [सं०] १. काठ का बना । २. काठ से संबंध रखनेवाला [को०] ।

काष्ठीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदली । केला [को०] ।

कास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाँसी । २. सहिजन का पेड़ । ३. छींक (को०) । यौ०—कासघ्नी = एक कँठीली झाड़ी जा खाँसी की दवा के काम आती है । कासनाशिनी = खाँसी रोग हरनेवाले एक पौधे का नाम ।

कास (२)
संज्ञा पुं० [सं० काश] दे० 'काँश' । उ०—भूख सहै रहि रूख तरे, पर सुंदरदास सहै दुख भारी । डासन छाड़ि के कासन ऊपर, आसन मारि पै आस न मारी ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० १२३ ।

कास (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कौड़ी । उ०—जला इश्क की बात में मालो धन कूँ । रखी कास ना पास हरगिज कफन कूँ ।— दक्खिनी०, पृ० २५७ ।

कासहृत्
वि० [सं०] खाँसी दूर करनेवाला ।

कासकंद
संज्ञा पुं० [सं० कासकन्द] कसेरू ।

कासकुंठ (१)
वि० [सं० कासकुण्ठ] खाँसी का रोगी [को०] ।

कासकुंठ (२)
संज्ञा पुं० यम । यमराज [को०] ।

कासघ्र (१)
वि० [सं०] खाँसी का निवारक । खाँसी दूर करनेवाला [को०] ।

कासघ्र (२)
संज्ञा पुं० बहेड़ा [को०] ।

कासनी
संज्ञा स्त्री० [फां०] १. पौधा जो हाथ डेंड हाथ ऊँचा होता है और देखने में बहुत हरा भरा जान पड़ता है । विशेष—इसकी, पत्तियाँ पालकी की छोटी पत्तियों की तरह होती है, डंठलों में तीन तीन चार चार अंगुल पर गाँठे होती है, जिसमें नीले फूलों के गुच्छे लगते हैं । फूलों के झड़ जाने पर उनके नीचे मटमैले रंग के छोटे छोटे बीज पड़ते है । इस पौधे की जड़, डंठल और बीज सब दवा के काम में आते हैं । हकीमों के मत में कासनी का बीज द्रावक शीतल और भेदक है तथा उसकी जड़ गर्म, ज्वरनाशक और बलवर्धक है । डाक्टरों के अनुसार इसका बीज रजःस्रावक, बलकारक और शीतल तथा इसका चूर्ण ज्वरनाशक है । कासनी बगीचों में बोई जाती है । हिंदुस्थान में अच्छी कासनी पंजाब के उत्तरी भागों में तथा कश्मीर में होती है । पर यूरोप और साइबेरिया आदि की कासनी औषध के लिये बहुत उत्तम समझी जाती है । यूरोप में लोग कासनी का साग खाते हैं और उसकी जड़ को कहवे के साथ मिलाकर पीते हैं । जड़से कहीं कहीं एक प्रकार की तेज शराब बी निकालते हैं । २. कासनी का बीज । ३. एक प्रकार का नीला रंग जो कासनी के फूल के रंग के समान होता है । विशेष—यह रंग चढ़ाने के लिये कपड़े को पहले शराब में फिर नील में और फिर खटाई में डूबाते हैं । ४. नीलें रंग का कबूतर ।

कासमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] कसौंदा ।

कासर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कासरी] भैंसा । महिष ।

कासर (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह काली भेड़ जिसके पेट के रोएँ लाल रंग के होते हों ।

कासा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खाँसी । २. छींक [को०] ।

कासा (२)
संज्ञा पुं० [फा० कासहु] १. प्याला । कटोरा । उ०—हाथ में लिया कासा, तब भीख का क्या साँसा?—(शब्द०) । २. आहार । भोजन । उ०—कासा दीजिए बासा न दीजिए । २. दरियाई नारियन का वह भिक्षापात्र जो प्रायः मुसलमान फकीरों के पास रहता है । कचकोल । यौ०—कासाए गदाई = भीख मांगने का पात्र । कासासर =कपाल । खोपड़ी कासालेस = (१) प्याला चाटनेवाला । (२) लालची । लोभी । (३) चाटुकार । खुशामदी ।

कासार
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा तालाब । ताल । पोखरा । उ०— लखि कपास को नासरी बिलखि न धर हरि धार । बिसनी अजहुँ पसाल हैं सखि सूखे कासार ।—स० सप्तक, पृ० २७४ । २. २० रगण का एक दंडक वृत्त । ३. एक प्रकार का पकवान । ४. झील । ह्रद । (को०) ।

कासालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कंद या आलू ।

कासिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० काशिका] दे० 'काशिका' । उ०—परम रम्य सुखरासि कासिका पुरी सुहावनि ।—रत्नाकर भा० १, पृ० ९४ ।

कासिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] खाँसी [को०] ।

कासिद (१)
संज्ञा पु० [अ० कासिद] सदेसा ले जानेवाला । हरकारा । दूत । पत्रवाहक । उ०—अश्क आँखो कासिद किस तरह यक दम नहीं थमता । दिले बेताव का शायद लिये मकतूब जाता है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २१ ।

कासिद (२)
वि० इच्छा या अभिलाषा रखनेवाला ।

कासिप पु
संज्ञा पुं० [सं० कश्यप] दे० 'कश्यप' । उ०—मन तेण थियौ मारीच मुनि उणथी कासिप ऊपनौ । धर नूर प्रकासी प्रीत धर मुर तेण घर संपनौ ।—रा० रु०, पृ० ७ ।

कासी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० काशी] दे० 'काशी' । उ०—महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासी मुकुति हेतु उपदेसू ।—मानस१ । १९ ।

कासी (२)
वि० [अ० खास, राज० कासा, खासा] अधिक । खास । उ०—सींगण काँइ न सिरजियाँ प्रीतम हाथ करंत । काठी साहत मूठि माँ कोडी कासी संत ।—ढीला०, दू० ४१६ ।

कासी (३)
वि० [सं० कासिन्] कास या खाँसी के रोग से पीड़ित [को०] ।

कासीनाथ पु †
संज्ञा पु० [सं० काशीनाथ] काशीनाथ । विश्वनाथ । महादेव । उ०—कासीनाथ विसेस्वर दाता, तुम सब जग के बिधाता ।—घनानंद, पृ० ५८१ ।

कासीबास—पु †
संज्ञा पुं० [सं० काशीवास] काशीपुरी में निवास । काशी में रहना । उ०—आराम से काशीबास करो ।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ४९४ । मुहा०—कासीबास हो जाना या होना = (१) काशी में रहते हुए मृत्यु प्राप्त करना । काशी में मरना । गंगालाभ होना । (२) मौत होना । स्वर्गवास होना ।

कसीस
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा कसीस [को०] ।

कासुंदा †
संज्ञा पुं० [सं० कासमर्द, प्रा कासमद्द] [स्त्री० कासुंदी] पुं० 'कसौंदा' ।

कासृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पगडंडी । २. पतला रास्ता (गृह्यप्रसूत्र) । २. गुप्त मार्ग (को०) ।

कासेय्यक
वि० [सं० काशिक अथवा काशेय] काशी मे बना हुआ (रेशमी वस्त्र) । उ०—काशी का चंदन और काशी के सूक्ष्म कासे्य्यक वस्त्र ।—हिदुं०, सभ्यता, पृ० २३८ ।

कास्केट
संज्ञा पुं० [अं० कैस्केट] पेटी । संदूकड़ी । डिब्बा । जैसे,— अभिनदनपत्र चाँदी के एक सुंदर कास्केट में रखकर उनके अर्पण किया गया ।

कास्टा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काष्ठा'] दे० 'काष्ठा' । उ०—आसा कास्टा कुकुभ दिसि गो हरीत इहि गेर ।—अनेकार्थ०, पृ० ३९ ।

कास्टिग वोट
संज्ञा पुं० [अं०] किसी सभा या परिषद के अध्यक्ष या सभापति का वोट । निर्णायक वोट । जैसे,—अमुक प्रस्ताव के पक्ष में २० और विपक्ष में भी २० ही वोट आए । सभापति ने पक्ष में अपना कस्टिंग वोट देकर प्रस्ताव पास कर दिया । विशेष—इसका उपयोग किसी विषय या प्रश्न का निर्णय करने के लिये उस समय किया जाता है जब सभासद दो समान भागों में बँट जाते हैं, अर्थात् जब आधे सदस्य पक्ष में और आधें विपक्ष में होते हैं, तब सभापति किसी पक्ष में अपना 'कस्टिग वोट' देता है । इस प्रकार एक अधिक वोट से उस पक्ष की बात मान ली जाती है । यदि सभापति उस सभा या संस्था का सदस्य हो तो वह कास्टिग वोट दे सकता है । सदस्य रूप से वह सदस्यों के साथ पहले ही वोट चुकता है ।

कास्टिक
वि० [अ०] वह क्षार जो चमड़े पर पड़कर उसे जला दे या आवले डाल दे । जारक ।

काहँ पु †
प्रत्य० [हिं० कहँ] दे० 'कहँ' ।

काह पु (१)
क्रि० वि० [हिं०] क्या? कौन वस्तु? उ०—का सुनाय विधि काह सुनावा । का दिखाइ चह काह दिखावा ।— तुलसी (शब्द०) ।

काह (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] तृण । घास । उ०—दो मुँह से चरता है दाना व काह । व लेकिन नहीं लीद करने को राह ।— दक्खिनी, पृ० ३०२ ।

काहन
संज्ञा पुं० [फा०] [स्त्री० काहिना] १. भविष्यवक्ता । २. उपदेशक । ३. मुल्ला । मौलवी । उ०—कुमरी और कबूतर के बच्चों में से बलि लावे र काहन उसको बलिस्थान में लाकर उसका गला मरोड़ डाले ।—कबीर मं०, पृ० २८७ ।

काहर पु
संज्ञा पुं० [सं० काहारक] दे० 'कहार' । उ०—काहर कंधन कितक कितक स्वानन मुष टुट्टत । बिंछी सर्प विषंग मंत्रवादी मिल लुटुत ।—पृ० रा०, ६ । १०५ ।

काहरऊ पु
संज्ञा पुं० [सं० क्वाथ, प्रा० काढ] काढ़ा । क्वाथ । उ०— काहरऊ पीवौ न ऊषद खाई ।—बीसल० रास, पृ० ६४ ।

काहल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा ढोल । २. [स्त्री० काहली] बिल्ला । ३. [स्त्री० काहली] मुर्गा । ४. अब्यक्त शब्द । (को०) । हुंकार ५. कौआ । काक (को०) । ६. शब्द ध्वनि (को०) । ७. एक बाजा (को०) ।

काहल (२)
वि० [सं०] १. कठोर । उ०—स्तब्ध कठिन, कर्कस, परुष, अरु, कठोर । दृढ़ काहल पुनि करागु जो होति तिर्य तजि सील—नंद०, ग्रं०, पृ० ११२ । शुष्क । सूखा । मुरझाया हुआ (को०) । ३. दुष्ट । धूर्त (को०) । ४. अधिक । विस्तृत । विशाल (को०) । ५. हानिकारक (को०) ।

काहल— (३)पु
वि० [देश०] गंदा । पंक भरा ।

काहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वरुण की स्त्री । २. एक अप्सरा का नाम । ३. सेना संबंधी एक बड़ा ढोल (को०) ।

काहलि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

काहली
संज्ञा स्त्री० [पुं०] युवती । तरुणी [को०] ।

काहा पु
सर्व० [हिं० कहा = क्या] क्या । उ०—जाई उतरु अब देहौं कहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ।—मानस १ । ५४ ।

काहारक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति जिसका धंधा लोगों को पालकी में ढोना है । कहार [को०] ।

कहानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कथानक, कथानिका, हिं० कहानी] कहानी । कथा । उ०—पुरिस काहानी हजो (कहओ) जसु पत्यावे पुंडु ।—कीर्ति०, पृ० ८ ।

काहापण
संज्ञा पुं० [सं० कार्षापण] दे० 'कार्षापण' । उ०—और इसने वाराहिपुत्र अश्विभुति ब्राह्यमण के हाथ में चार हजार काहापणों के मूल्य से खरीदा खेत दिया कि इससे मेरे लेंण में रहनेवाले चतुर्दिश भिक्षुसंघ को भोजन मिलता रहेगा ।— भा० इ० रु०, पृ० ७६० ।

काहि पु
सर्व० [हिं०] १. किसको । किसे । २. किससे । उ०— काहि कहौं यह जान न कोऊ ।—तुलसी (शब्द०) ।

काहिल
वि० [अ०] जो फुर्तीला न हो । आलसी । सुस्ती । उ०— मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या ।—भारतेंदु अं०, भा० १, पृ० ४८० ।

काहिली
संज्ञा स्त्री० [अ०] सुस्ती । आलस ।

काहीं पु
प्रत्य० [हिं० कहँ] को । के लिये ।

काही (१)
वि० [फा० काहू, वा हिं० काई] घास के रंग का । कालापन लिए हुए हरा ।

काही (२)
संज्ञा पु० एक रंग जो कालापन् लिए हुए हरा होता है तथा नील, हल्दी और फिटकरी के योग से बनता है ।

काहीदा
वि० [फा०] छटा हुआ । कटा हुआ । कृश । उ०—काहीदा ऐसा हुए मै भी ढुँढ़ा करे न पाएगी, । मेरी खातिर मौत भी मेरी बरसों सर टकराएगी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ८५६ ।

काहु पु
सर्व० [हिं० काहू] दे० 'काहू' । उ०—(क) काहु का मल काहु घौल, काहु संबल देल थोल ।—कीर्ति०, पृ० २४ । (ख) मोतिय बर इन काहुब हाथा । रेदुर चढ़इ न मोरेह माथा ।—इंद्रा०, पृ० ३९ ।

काहूँ
सर्व० [हिं०] कोई । किसी ने । उ०—पेय सुरा सोई पै पिया । लखै न कोइ कि काहुँ दिया ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३३६ ।

काहू (१)
सर्व० [हिं० का+ ह (प्रत्य०)] किसी । उ०—(क) जो काहू की देखहिं विपती ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) धार लगै तरवार लगै पर काहू कीकाहू सों आँखि लगे ना (शब्द०) । विशेष—ब्रजभाषा के 'को' शब्द का विभक्ति लगने के पहले 'का' रूप हो जाता है । इसी 'का' में निश्यार्थक 'हू' विभक्ति के पहले लग जाता है, जैसे, काहू ने, काहू को, काहू सों आदि ।

काहू (२)
संज्ञा पुं० [फा०] गोभी की तरह का एक पौधा जिसकी पत्तियाँ लंबी, दलदार और मुलायम होती हैं । विशेष—हिंदुस्तान में यह केवल बगीचों में बोया जाता है, जंगली नहीं मिलता । अरब और रूम आदि में यह बसंत ऋतु में होता है, पर भारतवर्ष में जाड़े के दिनों में होता है । यूरोप के बगीचों में एक प्रकार का काहू बोया जाता है जिसकी पत्तियाँ पातगोभी की तरह एक दूसरी से लिपटी और बैधी रहती है और उनके सिरों पर कुछ कुछ बैंगनी रंगत रहती है । पश्चिम के देशो में काहू का साग या तरकारी बहुत खाई जाती है । बहुत से स्थानों में काहू के पौधे से एक प्रकार की अफीम पोछकर निकालते है जो पोस्ते को तरह तेज नहीं होती । इसमें गोभी की तरह एक सीधा डंठल ऊपर जाता है जिसमें फूल और बीज लगते हैं । इसके बीज दवा के काम मे आते हैं । हकीम लोग काहू को रक्तशोधक मानते हैं । मल और पेशाब खोलने के लिये भी इसे देते हैं । काहू के बीजों से तेल निकाला जाता है । जो सिर के दर्द आदि में लगाया जाता है ।

काहे पु
क्रि० वि० [हिं०] क्यों । किसीलिये । यौ०—काहे को = किसलिये? क्यों?