विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/गत
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⋙ गतंड †
संज्ञा पुं० [सं० गताणड] [स्त्री० गतंडी] पुंस्त्वविहीन । हिज्जड़ा । नपुंसक ।—(मारवाड़ी) ।
⋙ गत (१)
वि० [सं०] १. गया हुआ । बीता हुआ । जैसे—गत मास, गत दिन, गत वर्ष । विशेष—समस्त पद के आदि में यह शब्द 'गया हुआ', 'रहित' 'शून्य' का अर्थ देता है और अंत में प्राप्त, 'आया हुआ', 'पहुँचा हुआ' का अर्थ देता है । जैसे,—गतप्राण, गतायु, तथा कंठगत, कुक्षिगत । उ०—अंजालिगत सुभ सुमन जिभि सम सुंगंध कर दोउ ।—तुलसी (शब्द०) । २. मरा हुआ । मृत । मुहा०—गत होना = मरना । मर जाना । ३. रहित । हीन । खाली । उ०—सरिता सर निर्मल जल सोहा । संत हृदय जस गत मद मोहा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गति] १. अवस्था । दशा । हालत । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—गत का = काम का । अच्छा । भला । जैसे—गत का कपड़ा भी लो उनको पास नहीं । गत बनाना = (१) दुर्दशा करना । दुर्गति करना । (२) अपमान । डाँटना डपटना । मारना पीटना । दंड देना । खबर लेना । जैसे,—घर पर जाओ, दोथो तुम्हारी कैसी गत बनाई जाती है । (३) हँसी ठट्ठे में लज्जित करना । उपहास करना । झिपाना । उल्लू बनाना । जैसे—वे अपने को बड़ा बोलनेवाला लगाते थे, कल उनकी भी खूब बनाई गई । २. रूप । रंग । वेश । आकृति । मुहा०—गत बनाना = (१) रूप रंग बनाना । वेश धारण करना । जैसे,—तुमने अपनी क्या गत बना रक्खी है । (२) अदभुत रूप रंग बनाना । आकृति विगाड़ना । जैसे,—होली में उनकी खूब गत बनाई जायगी । ३. काम में लाना । सुगति । उपयोग । जैसे—ये आम रखे हुए हैं; इनकी गत कर डालो । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ४. दुर्गति । दुर्दशा । नाश । जैसे—तुमने तो इस किताब की गत कर डाली । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ५. मृतक का क्रिया कर्म । ६. संगीत में बाजों के कुछ बोलों का क्रमबद्ध मिलाना । जैसे—सितार पर भैरवी की गत बजा रहे थे । क्रि० प्र०—निकालना ।—बजाना ।७. नृत्य में शरीर का विशेष संचालन और मुद्रा । नाचने का ठाठ । जैसे,—मोर की गत, थाली की गत, झुरमुट की गत । क्रि० प्र०—भरना । यौ०—गतकल्मष = पापरहित । कालुष्यविहीन । गतकाल = व्यतीत समय । बीता समय । गतकलम = थकान रहित । गतचेतना = चेतनारहित । बेहोश । गतत्रप = लज्जारहित । निर्लज्ज । गतपंचमी पु = सूर्यमंडल भेदकर मुक्ति प्राप्त करने की अवस्था । पाँचवीं गति । मोक्ष । उ०—जूझ मुवा रण मैं जिके, गत पंचमी गयाह ।—बाँकी ग्रं०, भा०१, पृ० ३ ।
⋙ गतक
संज्ञा पुं० [सं०] गमन । गति । जाना [को०] ।
⋙ गतका
संज्ञा पुं० [सं० गदा या गदक; मि० तु० कुत्कह् = मोटा और छोटा डंडा; फा० कुतका] १. लकड़ों का एक डंडा जिसके ऊपर चमड़े की खोल चढ़ी रहती है । विशेष—य़ह डंडा ढाई तीन हाथ लंबा होता है जिसमें प्रायः दस्ता भी लगा रहता । लोग इसे लेकर खेलते हैं । खेलते समय दो खेलाड़ी परस्पर खेलते हैं । खेलनेवाले दाहिने हाथ में गतका और बाएँ हाथ में फरी रखते हैं । गतके के वार को विपक्षी फरी से रोकता है और रोक न सकने की अवस्था में चोट या मार खाता है । कभी—कभी खेलाड़ी केवल गतके ही से खेलते हैं । उस समय के खेल को 'एकगी' कहते हैं । १. वह खेल जो फरी और गतके से खेला जाता है ।
⋙ गतकुल
संज्ञा पुं० [सं०] वह सम्पत्ति जिसका कोई अधिकारी न बचा हो । लावारसी माल या जायदाद ।
⋙ गतप्रत्यागत
संज्ञा पुं० [पुं०] १. संगीत में ताल के साठ भेदों में एक । २. गतागत । पैंतरा । कावा । उ०—गतप्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में दूर वे चले गए ।—लहर, पृ० ६६ ।
⋙ गतप्रत्यागता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मशास्त्र में वह स्त्री जो अपने पति के घर से उनकी आज्ञा के बिना निकलकर चली गई हो और फिर कुछ दिन बाद यथेच्छ बाहर रहकर अपने पति के घर लौट आई हो । ऐसी स्त्री के साथ उनके पूर्व पति का शास्त्रा— नुसार पुनर्विंवाह संस्कार होना लिखा है ।
⋙ गतप्राय
वि० [सं०] [पि० स्त्री० गतप्राण] बीता हुआ ।
⋙ गतबिस्मय पु
वि० [सं०] आश्चर्य से युक्त । विस्मय रहित । उ०— सुनि ये बचन नंद के नये । गोप सबै गतबिस्मय भये ।—नंद ग्रं०, पृ० ३११ ।
⋙ गतभर्तृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विधवा स्त्री । २. वह स्त्री जिसका पति परदेश गया हो । प्रोषितभर्तृका (क्व०) ।
⋙ गतरस
वि० [सं०] रस से रहित । आनंदशून्य । नीरस । उ०— और कई जगह मकान गतरस हो गये ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १७४ ।
⋙ गतलक्ष्मीक
वि० [सं०] १. कांतिहीन । दीप्तिरहित । म्लान । २. घाटे की यंत्रण से पीड़ित । धनवंचित [को०] ।
⋙ गतव्यथ
वि० [सं०] पीड़ा या कष्ट से रहित [को०] ।
⋙ गतस्पृह
वि० [सं०] इच्छारहित । आकांक्षारहित [को०] ।
⋙ गता पु †
संज्ञा [सं० गात] दे० 'गात' । उ०—पीन पयोधर दूबरि गता । मेरु उपजल कनकलता ।—विद्यापति, पृ० १७७ ।
⋙ गतांक
वि० [सं० गताङ्क] जिसमें सत्परुष के चिह्न अब न रह गए हों । गया बीता । निकम्मा । उ०—जाति का रग्घू ब्राह्मण था, पर कदर्यता में अत्यंत पामर महाशूद्र से भी गतांक केवल नामधारी ब्राह्मण था ।—सौ आजान और एक सुजान (शब्द०) २. पिछला अंक (पत्रपत्रिकाओं के लिये) ।
⋙ गतांत
वि० [सं० गतान्त] १. जिसका अंत आई आ गया हो । २. अंत या पार तक पहुँचा हुआ [को०] ।
⋙ गताक्ष
वि० [सं०] नेत्रविहीन । अंधा [को०] ।
⋙ गतागत (१)
वि० [सं०] आया गया ।
⋙ गतागत (२)
संज्ञा पुं० १. आवागमन । जन्ममरण । २. पैतरा । कावा [को०] ।
⋙ गतागति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गतागत' [को०] ।
⋙ गतागम
संज्ञा पुं० [गत + आगम] भूत और भविष्य ।
⋙ गताधि
वि० [सं०] आधि से मुक्त । चिंतारहित (को०) ।
⋙ गतानुगत
संज्ञा पुं० [सं०] अतीत का अनुगमन । पूर्व की प्रथाओं को मानना [को०] ।
⋙ गतानुगतिक
वि० [सं०] अतीत का अंधानुसरण करनेवाला । अंधा नुसरण करनेवाला [को०] ।
⋙ गतायु
वि० [सं० गतायुष्] १. जिसकी आयु समाप्तप्राय हो । अत्यंत वृद्ध । २. निर्बल । कमजोर । अशक्त [को०] ।
⋙ गतार †
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्त्री + बैलगाड़ी] १. बैल के जूए में वे दोनों लकड़ियाँ जो उपरोंछी और तरौछी के बीच समनांतर लगी रहती है । इन लकड़ियों के इधर उधर बैल नाधे जाते हैं । २. वह रस्सी जो जूए में बैल नाधने पर बैलों के गले के नीचे से ले जाकर लगा दी जाती है, जिससे बैल जूए को सहसा छोड़ नहीं सकते । ३. वह रस्सी जिससे बोझ बाँधा जात है । जून ।
⋙ गतारि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गतार] दे० 'गतार' ।
⋙ गतार्तवा
वि० स्त्री० [सं०] १. जिसे ऋतु या रजोदर्शन न होता हो । २. वंध्या । ३. वृद्धा ।
⋙ गतार्थ
वि० [सं०] १. धनहीन । निर्धन । २. अर्थरहित । अर्थहीन । ३. जाना या समझा हुआ [को०] ।
⋙ गतालोक
वि० [सं०] प्रकाशरहित । ज्योतिहीन [को०] ।
⋙ गतासु
वि० [सं०] मरा हुआ । जीवनरहित । निष्णाण [को०] ।
⋙ गति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर क्रमश; जाने की क्रिया । निंरतर स्थानत्याग की परंपरा । चाल । गमन । जैसे—वह बड़ी मंद गति से जा रहा है । २. हिलने डोलने की क्रिया । हरकत । जैसे—उसकी नाड़ी की गति मंद है । ३. अवस्था । दशा । हालत । उ०—भइ गति साँप छछूं दर केरी । तुलसी (शब्द०) । ४. रूप रंग । वेष । उ०—तन खीन, कोउ पीन पावन कोउ अपावन गति धरे ।—तुलसी (शब्द०) । ५. पहुंच । प्रवेश । दखल ।जैसे (क) मनुष्य की क्या बात, वहाँ तक वायु की भी गति नहीं है । (ख) राजा के यहाँ तक उनकी गति कहाँ । (ग) इस शास्त्र में उनकी गति नहीं है । ६. प्रयत्न की सीमा । अंतिम उपाय । दौड़ । तदबीर । जैसे उसकी गति बस यहीं तक थी, आगे वह क्या कर सकेगा । ७. सहारा । अवलंब । शरण । उ०—तुमहिं छाँड़ि दूसरि गति नाहीं । बसहु राम तिनके उर माहीं ।—तुलसी (शब्द०) । ८. चाल । चेष्टा । करनी । क्रियाकलाप । प्रयत्न । जैसे—उसकी गति सदा हमारे प्रतिकूल रहती है । ९. लीला । विधान । माया । उ०— दयानिधि, तेरी गति लखि न परे ।—सूर (शब्द०) १०. ढंग । रीति । चाल । दस्तूर । जैसे—वहाँ की तो गति ही निराली है । ११. जीवात्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन । विशेष—हिंदू शास्त्रों के अनुसार जीव की तीन गतियाँ है— उर्ध्वगति (देवयोनि), मध्यगति (मनुष्य योनि) और अधोगति (तिर्यक्योनि) । जैन शास्त्रों में गति पाँच प्रकार की कही गई है—नरकगति, तिर्यक्गति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति । १२. मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की दशा । उ०—(क) गीध अधम खग आमिष भोगी । गति दीन्हीं जो जाँचत जोगी ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) साधुन की गति पावत पापी ।— केशव (शब्द०) । १३. मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की उत्तम दशा । मोक्ष । मुक्ति । जैसे पापियों की गति नहीं होती । उ०—है हरि कौन दोष तोहिं दीजै । जेहि उपाय सपने दुर्लभ गति सोइ निसि बासर कीजै ।—तुलसी (शब्द०) । १४. कुशती आदि के समय लड़नेवालों के पैर की चाल । पैतरा । उ०—जे मल्लयुद्धहि पेच बत्तिस गतिहु प्रत्यगतादि । ते करत लंकानाथ बानरनाथ ह्वै न प्रमादि ।—रघुराज (शब्द०) । १५. ग्रहों की चाल, जो तीन प्रकारी की होती है—शीध्र मंद और उच्च । १६. ताल और स्वर के अनुसार अंगचालन । उ०—(क) सब अँग करि राखी सुघर नायक नेह सिखाय । रस जुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर राय ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) कविहिं अरथ आखर बल साँचा । अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा ।—तुलसी (शब्द०) १५. सितार आदि बाजने में कुछ बोलों का क्रमबद्ध मिलान । दे० 'गत' । १८. रिसनेवाला व्रण । नासूर [को०] । ज्ञान [को०] ।
⋙ गतिक
संज्ञा पुं० [सं०] गति । गमन । २. आसरा । आश्रय । सहारा । ३. मार्ग । राह । रास्ता । ४. अवस्था । स्थिति [को०] ।
⋙ गतिभंग
संज्ञा पुं० [सं० गतिभङ्ग] १. ठहरना । रुकना । २. छंद, गान आदि में गायन या पाठ के क्रम में रुकावट या रोध आना [को०] ।
⋙ गतिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गतिभंग' ।
⋙ गतिमंडल
संज्ञा पुं० [सं० गतिमण्डल] नृत्य में एक प्रकार का अंगहार ।
⋙ गतिमय
वि० [सं०] गतिमान् । गति से युक्त [को०] ।
⋙ गतिमान्
वि० [सं० गतिमत्] गतियुक्त । गतिशील । हरकत करने— वाला ।
⋙ गतिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गत + इया (प्रत्य०)] तबलची ।
⋙ गतिरोध
संज्ञा पुं० [सं० गति + रोध] चाल में रुकावट । गति रोकने की क्रीया । उ०—तुम्हारा करता है गतिरोध पिता का कोई पूत अबोध ।—अपरा, पृ० १३८ ।
⋙ गतिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समान वस्तुओं की परंपरा या सरणि । सिलसिला । ताँता । २. एक नदी का नाम । ३. वेत्र लता [को०] ।
⋙ गतिवर्द्धक
संज्ञा पुं० [सं० गति + वर्द्धक] गति बढ़ानेवाला ।
⋙ गतिवान
संज्ञा पुं० [सं० गति + हिं० वान] वेगयुक्त । गतिवाल । क्रियाशील । उ०—तात्या ने तुरंत अपनी छावनी के दो भाग करके उसको गतिवान किया और उसे एक ओर हटा लिया गया ।—झाँसी०, पृ० ।
⋙ गतिविज्ञात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गतिविद्या' ।
⋙ गतिविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणित और विज्ञान का वह विभाग जिसमें द्रव्य की क्षमता या गति संबीधी सिद्धांत निर्धारित किए जाते हैं ।
⋙ गतिविधि
संज्ञा स्त्री० [सं० गति + विधि] चेष्टा । उद्यम । चालढाल । कार्य । उ०—सौराष्ट्र की गतिविधि देखने के लिये एक रण दक्ष सेनापति की आवश्यकता है ।—स्कंद०, पृ० १३ ।
⋙ गतिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गतिविद्या' । उ०—भारतीय भूगोल तथा ग्रहमंडल सबंधी गतिशास्त्र से भी परिचित थेय़—पू० म०, भा०, पृ० २८१ ।
⋙ गतिशील
वि० [सं०] गतिवाला [को०] ।
⋙ गतिहीन
वि० [सं०] १. स्थिर । ठहरा हुआ । २. असहाय । परित्यक्त [को०] ।
⋙ गत्ता
संज्ञा पुं० [देश०] कागज के कई परतों को साटकर बनाई हुई दफ्ती जो प्रायः जिल्द आदि बाँधने के काम आती है । कुट ।
⋙ गत्तालखाता
संज्ञा पुं० [सं० गर्त्ता, प्रा० गत्त + हिं० खाता] बट्टा खाता । गई बीती रकम का लेखा । मुहा०—गत्तालखाते में जाना = हजम हो जाना । हड़प हो जाना । जैसे—हमने जो १० रु० पेशगी दिए, वह सब गत्तालखाने में गए । गत्तालखाते लिखना = हजम हुआ समझना । गया डूबा समझना ।
⋙ गत्थ (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थ] दे० 'गथ' ।
⋙ गत्थ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ, प्रा० गत्थ] १. पूँजी । जमा । गाँठ का धन । उ०—चिंता न करु अचिंत रहु देनहार समरत्थ । पसू पखेरू जंतु जिव, तिनकीं गाँठि न गत्थ ।—कबीर (शब्द०) । २. गरोह । समूह । झुंड । उ०—फटकारि खेलहिं हत्थ मैं हय हाँकियौ अरि गत्थ मैं ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गत्वर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० गत्वरी] १. जानेवाला । गमनशील । १. क्षणिक । नाशवान् ।
⋙ गत्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव जो ८० हाथ लंबी, १० हाथ चौ़ड़ी और ८ हाथ ऊँची होती थी और समुद्रों में चलती थी ।
⋙ गथ पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ, प्रा० गत्थ] १. पूँजी । जमा । गाँठ का धन । उ०—(क) अति मलीन वृषभानुकुमारी । हरि श्रम जल अंतर तनु भींजे ता लालच न धुवावति सारी । अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गच हारो थकित जुआरी ।—सूर (शब्द०) । (ख) बाजार चारु न बनइ बरनत वस्तु बिनु गथ पाइये ।—तुलसी (शब्द०) । २. माल । उ०—मेरे इन नयनन इते करे । मोहन बदन चकोर चंद्र ज्यों इकटक तें न टरे ।...... रही तडी खिजि लाज लकुट लै एकहु डर न डरे । सूरदास गथ खोटो काहे पारखि दोष धरे ।—सूर (शब्द०) । ३. झुड । गरोह ।
⋙ गथना पु (१)
क्रि० स० [सं०ग्रन्थन] एक को दूसरे से मिलना । एक में एक जोड़ना । आपस में गूथना । उ०—रथ ते रथ गथि मार मचावहिं । भट ते भट फिर तनहिं नचावहिं ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गथना (२)पु †
क्रि० स० [सं० गाथा] बातें बना बनाकर कहना । गढ़ गढ़कर कहना ।
⋙ गद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोग । २. विष । ३. श्रीकृष्णचंद्र का छोटा भाई । यह भगवान् का भक्त था । उ०—सात्यकि दानपती कृतवर्मा । गद उल्मुक निसठहु धृत वर्मा ।—रघुराज (शब्द०) । यौ०—गदाग्रज = कृष्ण । गदबंधु = कृष्ण । उ०—चल्यो द्रुपद नृप विसद घोर मदमत्त बीर बर । सँग पदचर हय दुरद हिये गदबंधु बैर धर ।—गोपाल (शब्द०) । ४. रामचंद्र जी की सेना का सेनापति एक वानर । उ०—संग नील नल कुमुद गद जामवंत जुवराजु । चले राम पद नाइ सिर सगुन सुमंगल साजु ।—तुलसी (शब्द०) । ५. एक असुर का नाम । ६. गर्जन । गड़गड़ाहट । मेघध्वनि [को०] ।
⋙ गद (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. वह शब्द जो किसी गुलगुली वस्तु पर गुलगुली वस्तु का आघात लगने से होता है । जैसे,—पीठ पर गेंद गद से गिरा । यौ०—गदागद = एक के ऊपर एक । लगातर (आघात) । २. स्थूलता । मोटापन ।
⋙ गदका †
संज्ञा पुं० [हिं० गतका] १. दे० 'गतका' । २. बच्चों के हाथ पैर और कमर में पहनाया जानेवाला काला डोरा ।
⋙ गदकारा
वि० पुं० [अनु० गद + कारा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० गदकारी] मुलायम और दबाने से दब जानेवाला । गुलगुला । गुदगुदा । उ०—गोरी गदकारी परै, हँसत कपोलन गाड़ । कैसी लसति गँवारि यह, सुनकिरवा की आड़ ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गदगद पु
वि० [सं० गदगद] दे० 'गदगद' । उ०—रुकि आँसू गदगद गिरा आँखिन कछु न लखान ।—शकुंतला, पृ० ७० । (ख) कबहूँ कै हँसि उठय नृत्य करि रोवन लगाय । कबहूँ गदगद कंठ शब्द निकसै नहिं आगय ।—सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ० २६ ।
⋙ गदगदा †
संज्ञा पुं० [देश०] रत्ती का पौधा ।
⋙ गदगोल पु †
संज्ञा पुं० [सं० गणड(= एक अनिष्ट योग) + गोल] गोलमाल । उपद्रव । उ०—राजसा माँहि गदगोल बहु ऊपज्या तामसा माहिं अंधार भाई ।—राम० धर्म०, पृ० ३८३ ।
⋙ गदचाम
संज्ञा पुं० [सं० गदचर्म] हाथी का एक रोग जिसमें उसकी पीठ पर घाव हो जाता है ।
⋙ गदन
संज्ञा पुं० [सं०] कहना । कथन । वर्णन (को०) ।
⋙ गदना पु
क्रि० स० [सं० गदन] कहना । उ०—गदेउ गिरा गीर्वाणन सों गुणि बहुरि बतावहु बाता । कौन उपाय पाय सुर ऋषि गुणि करहि लंकपति घाता ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गदबदा
वि० [हिं०] कोमल । गदराया । गुदगुदा । उ०—नंगे तन, गदबदे, साँवले सहज, मिट्टी के मटमैले पुतली, पर फुर्तीले ।— युगवाणी; पृ० २७ ।
⋙ गदम
संज्ञा पुं० [अ० कदम या देश०] वह लकड़ी या कड़ी जो नाव बनाने या मरम्मत करने के समय उसके पर्दें में दोनों ओर इसलिये लगा देते हैं कि जिसमें वह इधर उधर गिर न पड़े । थाम । आड़ । पुश्ता । क्रि० प्र०—लगाना ।
⋙ गदमूल
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोग की जड़ । उ०—जजन जाजन जापर— टन तीरथ दान ओषधि रसिक गदमूल देता ।—रै० बानी, पृ० २० ।
⋙ गदयित्रु (१)
वि० [सं०] १. मुखर । बातूनी । वाचाल । २. कामी । कामुक [को०] ।
⋙ गदयित्रु (२)
संज्ञा पुं० १. शब्द । २. धनुष । ३. कामदेव [को०] ।
⋙ गदर (१)
संज्ञा पुं० [अ० ग़दर] १. हलचल । खलबली । उपद्रव । २. बलवा । बगावत । विद्रोह । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।
⋙ गदर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गद्दा] पुष्टिमार्ग के अनुसार एक प्रकार की रूईदार बगलबंदी जो जाड़े में ठाकुर जी को पहनाते है ।
⋙ गदरा
वि० [हिं०] दे० 'गद्दर' ।
⋙ गदराना (१)
क्रि० अ० [अनु० गद्] १. (फल आदि का) पकने पर होना । परिपक्व होने के निकट होना । जैसे,—इस पेड़ के फल खूब गदराए है । २. जवानी में अंगों का भरना । युवा- वस्था के आरंभ में शरीर का पुष्ट और सुडौल होना । जैसे,— गदराया बदन । ३. आँख में कीचड़ आदि आना । आँख आने पर होना । जैसे,—आँख गदराना ।
⋙ गदाराना (२)पु †
वि० [हिं० गदराना] गदराया हुआ । भरा हुआ । उ०—गदराने तन गोरटी ऐपन आड़ लिलार । हूंठ्यौ दै इठलाई दृग करै गँवारि सुवार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गदल पु †
वि० [हिं०] दे० 'गदयला' । उ०—समुँद खार गंगा गदल, जल गुनवंता सीत । दरिया० बानी, पृ० ४० ।
⋙ गदला
वि० [फा़० गंदह] मिट्ठी या कीचड़ मिला हुआ । मटमैला । गंदा (पानी के लिये) । उ०—यह संसार सभी बदला है, फिर भी नीर वही गदला है ।—आराधना, पृ० ७२ ।
⋙ गदलाना (१)
क्रि० स० [हिं० गदला] गदला करना । मटमैला करना (पानी के लिये) ।
⋙ गदलाना (२)
क्रि० अ० गदला होना । मटमैला होना ।
⋙ गदशत्रु
संज्ञा पुं० [सं० गद + शत्रु] वैद्य । चिकित्सक । उ०— गदशत्रु त्रिदोष ज्यौ दूरि करै वर । त्रिशिरा शिर त्यौं रघुनंदनन के शर ।—रामचं०, पृ० ७२ ।
⋙ गदह
संज्ञा पुं० [हिं० गदहा] 'गदहा' का समासगत रूप । जैसे,— गदहपचीसी, गदहपन आदि ।
⋙ गदहपचीसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदहा + पचीसी] प्रायः १६ से २५ वर्ष तक की अवस्था जिसमें लोगों का विश्वास है कि मनुष्य अननुभवी रहता है और उसकी बुद्धि अपरिपक्व होती है । उ०—सच पूछो तो विचार को अवकाश उमर के धँसने ही पर मिलता है; गदहपचीसी प्रसिद्ध है ।—हिंदी प्रदीप (शब्द०) ।
⋙ गदहपन
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदहा + पन (प्रत्य०)] मूर्खता । बेवकूफी ।
⋙ गदहपूरना
संज्ञा स्त्री० [सं० गदह = रोग रहनेवाला + पुनर्नवा] पुनर्नवा नाम का एक पौधा जो दवा के काम में आता है । वि० दे० 'पुनर्नवा' ।
⋙ गदहरा (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गदहा] दे० 'गदहा' ।
⋙ गदहरा (२) पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'गदेला' ।
⋙ गदहला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गदहिला' ।
⋙ गदगलोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदहा = गधा + लोटना] कुश्ती का एक पेंच ।
⋙ गदहलोटन
संज्ञा पुं० [हिं० गदहा + लोटना] १. थकावट मिटाने या प्रसन्नता आदि के लिये गदहे का जमीन पर लोटना । २. वह स्थान जहाँ पर गदहा लोटता है । विशेष—लोगों का विश्वास है कि ऐसे स्थान पर पैर रखते ही मनुष्य थक जाता है और उसके पैरों में दर्द होने लगता है ।
⋙ गदहहेंचू
संज्ञा पुं० [हिं० गदहा + हेंचू (गदहे की बोली)] लड़कों का एक खेल । विशेष—इस खेल में एक लड़का एक दूसरे लड़के की आँखों बंद करके बैठ जाता है और उस लड़के से इधर उधर छिपे हुए शेष लड़कों का पता पूछता है । जिन वड़कों का पता वह ठीक बतला दे उन्हें 'गदही' और जिन्हें ठीक न बतला सके, उन्हें 'गदहा' कहते हैं । पीछे 'गदहे' एक एक करके 'गदहियों' पर चढ़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं । इस खेल को 'गदहा गदही' भी कहते हैं ।
⋙ गदहा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रोग हरनेवाल; वैद्य । चिकित्सक ।
⋙ गदहा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गर्दभ, प्रा० गदवह] [स्त्री० गदही] १. घोड़े के आकार का पर उससे कुछ छोटा एक पसिद्ध चौपाया जो प्रायः मटमैले रंग का और दो हाथ ऊँचा होता है । गधा । गर्दभ । खर । विशेष—इसका कान और सिर अपेक्षाकृत बड़ा होता है और पैर छोटे और बहुत मजबूत होते हैं; कारण यह ऊँची या ढालुआँ जमीन पर बड़ी सरलता से चल सकता है । यह बहुत मजबूत होता है और बहुत अधिक बोझ उठा सकता है । इस देश में इससे प्रायः धोबी, कुम्हार आदि अधिक काम लेते हैं । जंगली गदहे, जो प्रायः मध्य एशिया और फारस आदि में झुंड बाँधकर रहते है, अधिक चपल होते हैं, पर पालतू गदहे बोदे होते हैं । किसी किसी देश के गदहे सफेद रंग के या घोड़े से बडे़ भी होते हैं । फारस में गदहे का शिकार किया जाता है और लोग उसका मांस बड़ी रुचि से खाते हैं । इसकी अवस्था प्रायः २० से २५ वर्ष तक की होती है । युरोप आदि दैशों में इनके चमड़े के जूते और थैले आदि बनते हैं । घोड़ी के साथ गदहे का अथवा गदही के साथ घोड़े का संयोग होने से खच्चर की उत्पत्ति होती है । वैद्यक के अनुसार इसका मांस कुछ भारी और बलप्रद होता है और इसका मूत्र कडुआ गरम और कफ; महावात, विष तथा उन्माद का नाशक और दीपक माना गया है । पर्या०—चक्रीवान । बालेय । रासभ । खर । शंककर्ण । धूसर । भारग । वेशव । शीतलावाहन । वैशाखनंदन । यौ०—गदहलोटन । गदहहेंचू । मुहा०—गदहे पर चढ़ना = बहुत बेइज्जत या बदनाम करना । गदहे का हल चलना = बिलकुल उजड़ जाना । बरबाद हो जाना । जैसे, वहाँ कुछ दिनों में गदहों के हल चलेंगे ।
⋙ गदहा (३)
वि० मूर्ख । बेवकूफ । नासमझ । यौ०—गदहपचीसी ।
⋙ गदहागदही
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गदहहेंचू' ।
⋙ गदहिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदहा + इया (प्रत्य०)] गदही ।
⋙ गदहिला
संज्ञा पुं० [सं० गर्दभी, पा० गद्रभी, प्रा० गददही] [स्त्री० गदहिली] १. वह गदहा जिसपर ईंट, सुरखी आदि लादते हैं ।२. गुबरौले की तरह का एक विषैला कीडा़ जो चने आदि की फसल में लगकर उसे नष्ट करता है ।
⋙ गदतक
संज्ञा पुं० [सं० गद + अन्तक] अश्विनीकुमार [को०] ।
⋙ गदांबर
संज्ञा पुं० [सं० गद + अम्बर] मेघ ।
⋙ गदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन अस्त्र का नाम जो लोहे आदि का होता है । इसमें लोहे का एक डंडा होता है जिसके एक सिरे पर खारी लट्टू लगा रहता है । इसका डंडा पकड़कर लट्टू की ओर से शत्रु पर प्रहार करते हैं । २. कसरत के उपकरणों में एक, जिसमें बाँस आदि के एक मजबूत डंडे के सिरे पर पत्थर का गोला छेदकर लगाते और उसे मुगदर की भाँति भाँजने हैं ।
⋙ गदा (२)
वि० [फा़०] भिक्षुक । भिखमंगा । फकीर । उ०—सीकंदर और गदा दोऊ को एकै जानै ।—पलटू० भा० १, पृ० १४ । (ख) गदा समझ के वो चुप था मेरी जो शामत आई । उठा औ उठ के कदम मैंने पासबाँ के लिए ।—कविता कौ०; भा० ४, पृ० ४७८ । यौ०—गदाई, गदागरी = भिक्षुकी । भिखमंगापन । फकीरी ।
⋙ गदाई
वि० [फा़० गदा= फकीर + ई (प्रत्य०)] १. तुच्छ । नीच । क्षुद्र । उ०—नामा कहे बुनो भाई ये तो बम्मन गदाई ।—दक्खिनी०, पृ० ४६ । २. वाहियात । रद्दी ।
⋙ गदाका (१) †
वि० [हिं० गद] गुदार और सुडौल शरीरवाला ।
⋙ गदाका (२)
संज्ञा पुं० किसी को उठाकर जमीन पर पटकने की क्रिया । मुहा०—गदाका सुनाना = झिड़की सुनाना । फटकारना ।
⋙ गदाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्ठरोग [को०] ।
⋙ गदागद (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किसी आर्द्र या मुलायम चीज पर गिरने या आघात करने से उत्पन्न शब्द । क्रि० प्र०—गिरना ।—मारना ।
⋙ गदागद (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्विब० गदागदौ] अश्विनीकुमार [को०] ।
⋙ गदाग्रणी
संज्ञा पुं० [सं०] क्षय रोग । यक्ष्मा ।
⋙ गदाधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु । नारायण । विशेष—विष्णु ने गदासुर नामक राक्षस की हडि्रडयों से एक गदा बनाकर धारण की थी, इसी से उनका नाम गदाधर पडा़ ।
⋙ गदाधर (२)
वि० गदा धारण करनेवाला । जिसके पास गदा हो ।
⋙ गदाराति
संज्ञा पुं० [सं०] दवा । औषध [को०] ।
⋙ गदाला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गदा] हाथी पर कसने का गद्दा ।
⋙ गदाला (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रा० कु्ददाल; हिं० कुदाल] रंबा या बडी़ कुदाल ।
⋙ गदावारण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्राचीन बाजा, जिसमें तार लगा रहता था ।
⋙ गदाह्व, गदाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्ठ रोग [को०] ।
⋙ गदि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कथन । बोलना । भाषण [को०] ।
⋙ गदित
वि० [सं०] कहा हुआ । कथित ।
⋙ गदियाना पु
संज्ञा पुं० [सं० गद्याणक, गद्यानक] दे० 'गद्याणक' । उ०—उनमनि डांडी मन तराजू पवन किया गदियाना । गोरखनाथ जोषण बैठा, तब सोमां सहज समांना ।—गोरख०, पृ० ९२ ।
⋙ गदी (१)
वि० [सं० गदिन्] [स्त्री० गदिनी] १. रोगी । २. जो गदा लिए हो । जिसके पास गदा हो ।
⋙ गदी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. कृष्ण [को०] ।
⋙ गदेला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गददा] १. रूई या पर आदि से भरा हुआ वहुत मोटा ओढ़ना या बिछौना । २. टाट का बना हुआ वह मोटा और भारी गददा जो हाथी की पीठ पर कसा जाता है ।
⋙ गदेला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गदेली] छोटा लड़का । बालक ।
⋙ गदेली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गदोरी' । उ०—ठोढी़ को गदेली में भरकर पुचकारा ।—मृग०, पृ० ५७ ।
⋙ गदोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गददी] हथेली । हथोरी ।
⋙ गदगद
वि० [सं०] १. अत्यधिक हर्ष, प्रेम, श्रद्धा आदि के आवेग से इतना पूर्ण कि अपने आप को भूल जाय और स्पष्ट शब्द उच्चारण न कर सके । २. अधिक हर्ष, प्रेम आदि के कारण रुका हुआ, अस्पष्ट या असंबद्ध । जैसे,—गदगद कंठ । गदगद वाणी । गदगद स्वर । ३. प्रसन्न । आनंदित । पुलकित ।
⋙ गदगद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जिसमें रोगी शब्दों का स्पष्ट उच्चारण न कर सके अथवा उसके दोषवश एक एक अक्षर का कई कई बार उच्चारण करे । यह रोग या तो जन्म से होता है या बीच में लकवे आदि के कारण हो जाता हे । हकलाना ।
⋙ गदगदस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्पष्ट स्वर । हकलाना । २. महिष । भैंसा (को०) ।
⋙ गदगदिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गदगदिका] हकलाहट [को०] ।
⋙ गदद (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. मुलायम जगह पर किसी चीज के गिरने का शब्द । २. किसी गरिष्ठ या जल्दी न पकनेवाली चीज के कारण पेट का भारीपन । मुहा०—(किसी चीज का) गदद करना = (किसी चीज का) पेट में जाकर न पचना और जम जाना । गदद घरना = गदद का रोग होना । ३. एक कल्पित लकडी़ जिसके विषय में गँवारों का विश्वास है कि वह जिसे स्पर्श करा दी जाय, उसे मूर्ख वना देती है अथवा स्पर्श करानेवाले के वश में कर देती है । मुहा०—गदद मारना = अपने वश में करना । गदद मारा जाना = जड़ हो जाना । बेवकूफ बन जाना ।
⋙ गदद (२)
वि० जड़ । मूर्ख । बेवकूफ ।
⋙ गददम
संज्ञा पुं० [देश०] पीले रंग की एक छोटी चिड़िया जिसका पैर सफेद और पेट लाल होता है ।
⋙ गददर
वि० [देश०] १. जो अच्छी तरह पका न हो । अधकचरा । अधपका । २. गुदगर । मोटा । गददा ।
⋙ गददह पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्दभ, प्रा० गददह ] दे० 'गर्दभ' । उ०— बेसरि अरु गददह लष्ख इति का महिसा कोटी ।—कीर्ति०, पृ० ९४ ।
⋙ गददा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गदद से उनु०] १. रूई, पयाल आदि भरा हुआ बहुत मोटा और गुदगुदा बिछौना । भारी तोसक आदि । गदेला । २. टाट का बना हुआ फुट भर मोटा एक चौकोर बिछावन जिसके बीच में प्रायः गज भर लंबा एक छेद होता है और जो हाथी की पीठ पर हौदा कसने से पहले रखकर बाँधा जाता है । क्रि० प्र०—कसना ।—खींचना । ३. घास, पयाल, रूई आदि मुलायम चीजों का बोझ । ४. किसी मुलायम चीज की मार या ठोकर । क्रि० प्र०—लगना ।—लगाना ।
⋙ गददा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'गदहिला' ।
⋙ गददा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० या देश०] अनुमान । अटकल । उ०—किसी फिलासफर ने अक्ली गददे लडा़ने के सिवा और कुछ किया है ?—गोदान; पृ० १२६ ।
⋙ गददी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गददा का स्त्री० और अल्पा०] १. छोटा गददा । २. वह कपडा़ जो घोडे़, ऊँट आदि की पीठ पर काठी या जीन आदि रखने के लिये डाला जाता है । ३. व्यवसायी आदि के बैठने का स्थान । जैसे,— सराफ की गददी, कलवार की गददी, महंत की गददी । उ०—इंद्र ने देवताओं के देखते मुझे अपनी गददी पर बिठाया ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) । यौ०—राजगददी । गददीनशीन ।मुहा०—गददी पर बैठना = (१) सिंहासनारूढ़ होना । २. उत्तराधिकारी होना । गददी लगाकर बैठना = अधिकार जताते हुए आराम के साथ बैठना । ५. किसी राजवंश की पीढी़ या आचार्य की शिष्यपरंपरा । जैसे,—(क) चार गददी के बाद इस वंश में कोई न रहेगा । (ख) यह ... गुरु की चौथी गददी है । मुहा०—गददी चलाना = वंशपरंपरा या शिष्यपरंपरा का जारीं होना । उत्तराधिकारियों का क्रम चलना । ६. कपडे़ आदि की बनी हुई वह मुलायम तह जो किसी चीज के नीचे रखी जाय । ७. हाथ या पैर की हथेली । मुहा०—गददी लगाना = घोडे़ को हथेली या कुहनी से मलना । ८. एक प्रकार का मिट्टी का गोल बरतन जिसमें छीपी रंग रखकर छपाई का काम करते हैं ।
⋙ गददीनशीं
वि० [हिं० गददी + फा० नशीन्] दे० 'गददीनशीन' ।
⋙ गददीनशीन
वि० [हिं० गददी + फा० नशीन] १. सिंहासनारूढ़ । जिसे राज्याधिकार मिला हो । २. उत्तराधिकारी ।
⋙ गददीनशीनी
संज्ञा स्त्री० [डिं० गददी + फा० नशीन +ई (प्रत्य०)] गददी पर बैठना । अधिकारारूढ़ होना ।
⋙ गद्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लेख जिसमें मात्रा और वर्ण की संख्या और स्थान आदि आधार पर विराम या यति का कोई नियम या बंधन न हो । वार्तिक । वचनिका । २. काव्य के दो भेदों में से एक जिसमें छंद और वृत्त का प्रतिबंध नहीं होता और बाकी रस, अलंकार आदि सब गुण होते हैं । विशेष—अग्निपुराण में गद्य तीन प्रकार का माना गया है— चूर्णक, उत्कलिका और वृत्तगंधि । चूर्णक वह है जिसमें छोटे छोटे समास हों, उत्कलिका वह है जिसमें बडे़ बडे़ समस्त पद हों, और वृत्तगंधि वह है जिसमें कहीं कहीं पद्य का सा आभास हो । जैसे,—हे बनवारी, कुंजविहारी, कृष्णमुरारी, यसोदानंदन हमारी विनती सुनो ।' वामन ने भी अपने वामन- सूत्र में ये ही तीन भेद माने हैं । विश्वनाथ महापात्र ने साहित्यदर्पण में एक और भेद मुक्तक माना है जिसमें कोई समास नहीं होता । ये भेद तो पदयोजना या शैली के अनुसार हुए । साहित्यदर्पण के अनुसार गद्यकाव्य दो प्रकार का होता है—(क) कथा और । (२) आख्यायिका । कथा वह है जिसमें सरस प्रसंग हो, सज्जनों और खलों के व्यवहार आदि का वर्णन हो और आरंभ में पद्यबद्ध नमस्कार हो । आख्यायिका में केवल इतनी विशेषता होती है कि उसमें कवि के वंश आदि का भी वर्णन होता है । गद्य के विषय में प्राचीनों के ये सब विवेचन आजकल उतने काम के नहीं हैं । ३. संगीत में शुद्ध राग का एक भेद ।
⋙ गद्य (२)
वि० बोलने, कहने या उच्चारण के योग्य [को०] ।
⋙ गद्याण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गद्याणक' ।
⋙ गद्याणक
संज्ञा पुं० [सं०] कलिंग देश का एक प्राचीन मान जो ४८ रत्ती या ६४ घुँघचियों का होता था ।
⋙ गद्यात्मक
वि० [सं०] [स्त्री० गद्यात्मिका] गद्य में लिखा या रचा हुआ । गद्य का ।
⋙ गद्यानक, गद्यालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गद्याणक' [को०] ।
⋙ गधा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गदहा ] [स्त्री० गधी] दे० 'गदहा' ।
⋙ गधा (२)
वि० [हिं०] नासमझ । मूर्ख । कमअक्ल (ला०) । मुहा०—गधा पीटे घोडा़ नहीं होता = सिखाने से मूर्ख आदमी विद्वान् और नीच आदमी भला नहीं होता । गधे को बाप बनाना = काम साधने के लिये तुच्छ या जड़ आदमी की बडा़ई करना । गधे पर चढ़ना = दे० 'गदहे पर चढा़ना' । गधे से हल चलवाना = बिलकुल उजाड़ देना । बरबाद कर देना ।
⋙ गधापन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गदहपन' ।
⋙ गधीला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गधीलौ] एक जंगली जाति ।
⋙ गधीला (२)
संज्ञा पुं०दे० 'गदहीला' ।
⋙ गधूल
संज्ञा पुं० [देश०] एक फूल का नाम ।
⋙ गधेडी़ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गधी + एडी़] अयोग्य या फूहड़ औरत ।
⋙ गन पु
संज्ञआ पुं० [सं० गण ] १. दूत । सेवक । पारिषद । उ०— जम गन मुँह मासि जग जमुना सी ।—तुलसी (शब्द०) । २. चोवा नाम का गंधद्रव्य । उ०—स्वेद भरे तनसिज खरे करज लगे मन ठाम । सुथरे कच विथुरे अरी लरी ललन ते बाम ।— शृं० सत (शब्द०) । वि० दे० 'गण' ।
⋙ गनक पु
संज्ञा पुं० [सं० गणक ] दे० 'गणक' । उ०—सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि ।—मानस, २ ।३२२ ।
⋙ गनकेलआ
संज्ञा पुं० [सं० गणकर्णिका] एक प्रकार की घास जो गाय भैंस के चारे के काम में आती है ।
⋙ गनगनाना
क्रि० अ० [अनु०] (रोआँ) खडा़ होना । रोमांच होना ।
⋙ गगौर
संज्ञा स्त्री० [सं० गण + गौरी] १. चैत्र शुक्ल तृतीया । इस दिन गणेश और गौरी की पूजा होती है । उ०—द्यौस गनगौर के सु गिरिजा गुसाइन की छाई उदयपुर में बधाई ठौर ठौर है । पद्माकर ग्रं०, पृ० ३२५ । २. पार्वती । गिरिजा । उ०—(क) दै बरदान यहै हमको सुनियै गनगौर गुसाइन मेरी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३२२ । (ख) पारावार हेला महामेला में महेस पूछैं गौरन में कौन सी हमारी गनगौर हे ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३२५ ।
⋙ गनती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गिनती' ।
⋙ गनना (१) †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गिनना' ।
⋙ गनना (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गणना' ।
⋙ गननाना †
क्रि० अ० [अनु० गन, गन ] १. शब्द मे भर जाना । गूँजना । उ०—छुटे बान कुह कुह कुह बोला । नभ गननाइ उठै गुरु गोला ।—लाल (शब्द०) । २. चक्कर में आना । घूमना । फिरना ।
⋙ गननायक पु
संज्ञा पुं० [सं० गणनायक ] दे० 'गणनायक' । उ०— गननायक बरदायक देवा ।—मानस, १ ।२५७ ।
⋙ गनप पु
संज्ञा पुं० [सं० गणप ] दे० 'गणप' । उ०—करि मज्जन पूजहिं नर नारी । गनप गौरि त्रिपुरारि तमारी ।—मानस, २ ।२७२ ।
⋙ गनपति पु
संज्ञा पुं० [सं० गणपति] दे० 'गणपति' । उ०—आचारु करि गुर गौर गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं ।—मानस, १ ।३२३ ।
⋙ गनरा भाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँडर > गनरा + भाँग] जंगली भाँग जिसमें नशा बिलकुल नहीं होता । कहीं इसकी टहनियों से रेशे निकाले जाते हैं ।
⋙ गनराय पु
संज्ञा पुं० [सं० गणराज] गणेश ।
⋙ गनवर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ + वर (प्रत्य०)] नरकट नाम की घास ।
⋙ गनाना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गिनाना' । उ०—बहुत बिनै करि पाती पठई नृप लीजै सब पुहुप गनाइ ।—सूर०, १० । ५८२ ।
⋙ गनावा
क्रि० अ० गिना जाना । गिनती में आना । उ०—बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिनि पच्छिउँ दिसा गनाइस ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ गनिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गणिका] दे० 'गणिका' । उ०—गनिका सुत शोभा नहिं पावत जाके कुल कोऊ न पिता री ।—सूर० १ ।३४ ।
⋙ गनियारी
संज्ञा स्त्री० [सं० गणिकारी] या शमी की तरह का एक पौधा या झाड़ जिसे अगेंथ या छोटी अरनी (अरणी) भी क ते हैं । विशेष—इसकी पत्तियाँ बबूल की पत्तियों से थोडी़ और गोलाई लिए होती हैं । इसमें सफेद फूल और करौंदे के समान छोटे छोटे फल लगते हैं । इसकी लकडी़ रगड़ने से आग जल्दी निकलती है, इसी से इसे 'क्षुद्राग्निमंथ' कहते हैं । वैद्यक में यह कटु, उष्ण, अग्निदीपक और वातनाशक मानी जाती है ।
⋙ गनी (१)
वि० [अ० ग़नी] १. धनी । धनवान । उ०—(क) गनी, गरीब ग्राम नर नागर ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सुमन बरसि रघुबर गुन बरतन हरषि देव दुंदुभी हनी । रंकनिवाज रंक राजा किए गए गरब गरि गरि गनी ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३८९ । २. निस्पृह । अनिच्छुक [को०] ।
⋙ गनी
संज्ञा पुं० [अं०] पाट या सन की रस्सियों का बुना हुआ मोटा खुरदरा कपडा़ जो बोरा या थैला बनाने के काम में आता है । जैसे—गनी मार्केट । गनी ब्रोकर ।
⋙ गनीम
संज्ञा पुं० [अ० गनीम] १. लुटेरा । डाकू । २. बैरी । शत्रु । उ०—अकबक बोलै यों गनीम औ गुनाही है ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ गनीमत
संज्ञा स्त्री० [अ० गनीमत] १. लूट का माल । २. वह माल जो बिना परिश्रम मिले । मुफ्त का माल । जैसे,—उससे जो कुछ मिल जाय, वही गनीमत है । क्रि० प्र०—जानना ।—समझना । ३. संतोष कि बात । धन्य मानने की बात । बडी़ बात । जैसे,— किसी तरह पेट पाल लें, यही गनीमत है । मुहा०—किसी का दम गनीमत होना = किसी का बना रहना । किसी के लिये अच्छा होना । किसी के जीवन से किसी प्रकार की भलाई होना ।
⋙ गनेल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो छप्पर छाने के काम में आती है ।
⋙ गनोरिया
संज्ञा पुं० [ले०] सूजाक रोग ।
⋙ गनौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुन्द्रा] नागरमोथा ।
⋙ गन्ना
संज्ञा पुं० [सं० काणड] ईख । ऊख ।
⋙ गन्नाटा
संज्ञा पुं० [अनु०] गननाने की ध्वनि । उ०—ज्यों ज्यों मथा गया जीवनरस,त्यों त्यों और जोर से उफना, मंथन के दाएँ बाएँ इन गन्नाटों में उलझा लघु मन ।—अपलक, पृ० ३४ ।
⋙ गन्नी
संज्ञा पुं० [हिं० गोन (= रस्सी), या अं० गनी] १. पाट या टाट जिसके बोरे आदि बनते हैं । २. भँगारे की तरह का एक कपडा़ जो सिकिम में बनता है । यह रीहा घास या उसी तरह के और पौधों की छाल से बनता है ।
⋙ गन्नेस पु
संज्ञा पुं० [सं० गणेश] दे० 'गणेश' । उ०—जिते सैल सुर हेति सुरपत्ति कीने । तिते सेस गन्नेस जाओं न चीने ।—पृ० रा० २ ।१११ ।
⋙ गन्य पु
वि० [सं० गण्य] दे० 'गण्य' । उ०—हरि भक्त अनन्य में गन्य सदाँ, तुम्हारे सम धन्य न अन्य अहै ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९३ ।
⋙ गप (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्प, प्रा० कप्प अथवा सं० जल्प > गल्प, हिं० गप्प] [वि० गप्पी] १. इधर उधर की बात, जिसकी सत्यता का निश्चय न हो । २. वह बात जो केवल जी बहलाने के लिये की जाय । वह बात जो किसी प्रयोजन से न की जाय । बकवाद । क्रि० प्र०—मारना । यौ०—गप शप = इधर उधर की बातें । वार्तालाप । ३. झूठी बात । मिथ्या प्रसंग । कपोलकल्पना । जैसे,— यह सब गप है; एक बात भी ठीक नहीं है । ४. झूठी खबर । मिथ्या संवाद । अफवाह । मुहा० गप उड़ना = झूठी खबर फैलाना । ५. वह झूठी बात जो बडा़ई प्रकट करने के लिये की जाय । डींग । क्रि० प्र०—मारना ।—हाकना ।
⋙ गप (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. वह शब्द जो झट से निगलने, किसी नाम अथवा गीली वस्तु में घुसने या पड़ने आदि से होता है । जैसे— (क) वह गप से मिठाई खा गया । (ख) घाव में इतनी सलाई गप से घुस गई । विशेष—इस प्रकार के और अनुकरण शब्दों के समान इस शब्द का प्रयोग भी प्रकार सूचित करने के लिये प्रायः 'से' के साथ होता है । यो०—गपागप = जल्दी जल्दी । झटपट । २. निगलने या खाने की क्रिया । भक्षण । जैसे-(क) सब मत गप कर जाओ, हमारे खाने के लिये भी रहने दो । (ख) मीठा मीठा गप, कड़वा कडुवा थू । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गपकना
क्रि० स० [अनु० गप + हिं० करना] चटपट निगलना । झट से खा लेना । जैसे—वह थाली में का सब भात गपक जायगा ।
⋙ गपछैया
संज्ञा स्त्री० [देश०] बालू में छिपनेवाली एक प्रकार की मछली जिसे रेगमाही कहते हैं ।
⋙ गपड़चौथ
संज्ञा पुं० [हिं० गपोड़ (= बातचीत) + चौथ > हिं० चोंथना] व्यर्थ की गोष्ठी । वह व्यर्थ की बातचीत जो चार आदसी मिलकर करें । क्रि० प्र०—करना । होना ।
⋙ गपड़चौथ (२)
वि० लीपपोत । अंडबंड । ऊटपटाँग ।
⋙ गपना पु
क्रि० स० [हिं० गप ] गप मारना । व्यर्थ बात करना । बकवाद करना । बकना । उ०—राम राम राम राम राम राम जपत । मंगल मुद उदित होत कलिसल छल छपत । कहु के लह फल रसाल बबुर बीज बपत । हरहि जनि जनम जाय गालगूल गपत ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गपाटा
संज्ञा पुं० [हिं० गप ] गपड़चौथ । गप्पबाजी । उ०—सर्व मनुष्य गपाटा में लग रहे हैं किसी को सत्य की सुधि नहीं, अचेत हो रहे हैं ।—कबीर मं०, पृ० ६१४ ।
⋙ गपिया
वि० [हिं० गप + इया (प्रत्य०)] गप मारनेवाला । झूठ मूठ की बात कहनेवाला । बकवादी । गप्पी ।
⋙ गपिहा पु
वि० [हिं० गप + हा ] (प्रत्य०)] गप हाँकनेवाला । गप्पी । बकवादी । उ०—कूकैं कलापी न चूकै कहूँ झुकि झूकै समीर की आन झकोरन । त्यों पपिहा पपिहा गपिहा भयो पीव को नाँव लै हिय हलोरत ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) ।
⋙ गपोड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गप + ओड (प्रत्य०)] दे० 'गपोडा़' ।
⋙ गपोड़ (२)
वि० गप्पी, गप्प हाँकनेवाला ।
⋙ गपोडा़
संज्ञा पुं० [हिं० गप ] मिथ्या बात । कपोल कल्पना । गप । जैसे,—आजकल वे खूब गपोडे़ उडा़ते हैं । क्रि० प्र०—उड़ना ।—उडा़ना ।—मारना । यौ० गपड़चौथ । गपोडे़बाजी ।
⋙ गपोडे़बाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गपोडा़ = फा़० बाजी] झूठमूठ की बकवास ।
⋙ गप्प
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गप' ।
⋙ गप्पा
संज्ञा पुं० [अनु गप] १. धोखा । मुहा०गप्पा खाना = धोंखे में आना । चूकना । २. पुरुष की इंद्रिय । लिंग । (बाजारू) ।
⋙ गप्पाष्टक
संज्ञा स्त्री० [हिं० गप्प + सं० अष्टक] दे० 'गपड़चौथ' । उ०—सैकडो़ मनुष्यों में बैठे भाँति भाँति की गपाष्टक होती । प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४१० ।
⋙ गप्पी
वि० [हिं० गप्प + ई (प्रत्य०)] १. गप मारनेवाला । छोटी बात को बढा़कर कहनेवाला । जल्पक । २. मिथ्याभाषी । झूठा ।
⋙ गप्फा
संज्ञा पुं० [सं० ग्रास,हिं० गस्सा अवथा अनु० गप्] १. बहुत बडा़ ग्रास जो खाने के लियो उठाया जाय । बडा़ कोर । जैसे,—दो गप्फे खालें, तब चलें । मुहा०—गप्फा मारना = वडा़ कौर खाना । २. लाभ । फायदा । उ०—जिधर गप्फा अच्छा मिले, वहीं चले जायँ ।—सत्यार्थ प्रकाश (शब्द०) ।
⋙ गफ
वि० [सं० ग्रप्स = गुच्छा] घना । ठस । गाढा़ । गझिन । 'झीना' का उलटा । विशेषयह शब्द ऐसी बुनावट के लिये प्रयुक्त हैता है, जिसके तागे घने अर्थात् परस्पर खूब मिले हों । जैसे,—वह कपडा़ गफ है । यह खाट गफ बुनी है ।
⋙ गफलत
संज्ञा स्त्री० [अ० गफलत] असावधानी । बेपरवाई । २. चेत या सुध का अभाव । बेखबरी । ३. प्रमाद । भूल । चूक । भ्रम ।
⋙ गफिलाई पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० गा़फ़िल] १. असावधानी । बेपर- वाई । २. भ्रम । मोह । उ०—ऐसा योग न देखा भाई । भूला फिरै लिए गफिलाई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गफ्फार
वि० [अ० ग़फ्फ़ार] बहुत बडा़ द्यालु । ईश्वर का एक विशेषण । उ—तूँ दातरा है तूँ सत्तार, गफ्फार गमख्वार है । दक्खिनी०, पृ० २३० ।
⋙ गबड्डी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कबड्डी' ।
⋙ गबदा †
वि० पुं० [हिं० गबदद] [वि० स्त्री० गबदी] दे० 'गबदद' ।
⋙ गबदी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ । विशेष—इसकी लकडी़ बहुत मुलायम और डालियाँ घनी तथा छतनार होती है । इसकी पत्तियाँ तीन चार इंच लंबी होती हैं और उनके पीछे की ओर रोंई होती है । माघ फागुन सें इसमें सुनहले पीले रंग के फूल लगते है । यह पेड़ सिवालिक की पहा़ड़ियों तथा उत्तरीय अवध, बुंदेलखंड और दक्षिण में होता है । इसकी छाल से कतीरे की तरह का एक प्रकार का सफेद गोंद निकलता है ।
⋙ गबदद
वि० [हिं० गावदी] पशु की सी बुद्धिवाला । जड़ । मूर्ख ।
⋙ गबन (१)
संज्ञा पुं० [अ०] व्यवहार में मालिक के या किसी दूसरे के सौंपे हुए माल को खालेना । खयानत । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ गबर
संज्ञा पुं० [अं० स्क्रेमर] वह पाल जो सब पालों के ऊपर होता है ।
⋙ गबर (२)
क्रि० वि० [हिं०] शीघ्रता । जल्दीबाजी । यौ०—गबर गबर ।
⋙ गबरगंड
वि० [हिं० गबर + सं० गणड = मूर्ख] मूर्ख । अज्ञानी । जड़ । उ०—क्या क्षमा के योग्य पर क्षमा न करना, अयोग्य पर क्षमा करना, गबरगंड राजा के तुल्य यह कर्म नहीं है ?- सत्यार्थप्रकाश (शब्द०) ।
⋙ गबरहा †
वि० [हिं० गोबरहा] गोबर मिला हुआ । गोबर लगा । मुहा०—गबरहा करना = बरतन के साँचे पर गोबर और मिट्टी चढ़ाना़ ।
⋙ गबरा पु
वि० [हिं०] दे० 'गब्बर' ।
⋙ गबरू (१)
वि० [फा० खूबरू] १. उभड़ती जवानी का । जिसे रेख उठती हो । पट्टा । उ०—काहे को भये उदास सैंया गबरू । तुमरी खुशी से खुशी मोरे लबरू ।—दुर्गाप्रसाद मिश्र (शब्द०) । २. भोलाभाला । सीधा ।
⋙ गबरू (२) †
संज्ञा पुं० दूल्हा । पति ।
⋙ गबरून
संज्ञा पुं० [फा़० गम्बरून] चारखाने की तरह का एक मोटा कपड़ा जो लुधियाने में बुना जाता है ।विशेष—कहते हैं कि यह पहले गंबरून नामक स्थान से आता था । गंबरून को कोई कोई फारस के बंदर अब्बोस का पुराना नाम बतलाते हैं और कोई शाम देश (सीरिया) का गंबरूनिया नामक नगर बतलाते हैं ।
⋙ गबी
वि० [अं० गवी] मंदबुद्धि । कमअक्ल [को०] ।
⋙ गबीना
संज्ञा पुं० [देश०] कतीला । कतीरा ।
⋙ गब्ब पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्व० प्रा० गब्ब] गर्ब । अभिमान । अकड़ । उ०—नहिं गब्बत करि गब्ब, नहिन गज्जत घन गज्जत ।— पृ० रा० ६ । १०३ ।
⋙ गब्बना पु
क्रि० अ० [सं० गमन, प्रा०, गवण] दे० 'गमना' । उ०—नहिं गब्बत करि गब्ब, नहिंन गज्जत घन गज्जत ।— पृ० रा० ६ । १०३ ।
⋙ गब्बर
वि० [सं० गर्व, गर्वर, पा० गब्ब] १. घमंडी । गर्वीला । अहंकारी । उ०—सजि चतुरंग बीर रंग में तुरंग चढ़ि सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं । भूषन भनत नाद बिहत नगारन के नदी नदी मद गब्बरन के रलत हैं ।—भूषण (शब्द०) । ढीड़ । ३ कहने पर किसी काम को जलदी न करनेवाला या पूछने पर किसी बात का जल्दी उत्तर न देनेवाला । मट्ठर । ४. बहुमूल्य । कीमती । जैसे,—गब्बर माल । ५. मालदार । धनी । जैसे,—गब्बर असामी ।
⋙ गब्बू †
संज्ञा पुं० [अ० गबी ] मंद । सुस्त । कमजोर ।
⋙ गब्भा
संज्ञा पुं० [सं० गर्भ पा० गब्भ] १. वह बिछावन जिसमें रूई भरी हुई हो । गददा । तोशक । २. चारे का गट्ठा ।
⋙ गब्र
संज्ञा पुं० [ फा़०] जरतुश्त का अनुयायी । पारस देश को अग्नि- पूजक । पारसी ।
⋙ गभ
संज्ञा पुं० [सं०] भग ।
⋙ गभरू
संज्ञा पुं० [फा़० खूबरू, हिं० गबरु] दे० 'गबरू' । उ०—साँवला सोहन मोहन गभरू इत बल आइ गया ।—घनानंद, पृ० ३४० ।
⋙ गभस्तल
संज्ञा पुं० [सं० गभस्तिमान्] गभस्तिमान् द्वीप का नाम ।
⋙ गभस्ति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण । २. सूर्य । ३. बाँह । हाथ ।
⋙ गभस्तिग (२)
संज्ञा स्त्री० अग्नि की स्त्री । स्वाहा ।
⋙ गभस्तिकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । आदित्य [को०] ।
⋙ गभस्तिनेमि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०] ।
⋙ गभस्तिपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ गभस्तिमान् (१)
संज्ञा पुं० [सं० गभस्तिमत्] १. सूर्य । २. एक द्वीप का नाम । ३. एक पाताल का नाम ।
⋙ गभस्तिमान् (१)
वि० किरणयुक्त । प्रकाशयुक्त । चमकीला ।
⋙ गभस्तिमाली
संज्ञा पुं० [सं० गभस्तिमालिन्] सूर्य । किरणमाली [को०] ।
⋙ गभस्तिहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ गभस्थल
संज्ञा पुं० [सं० गभतिमान् हिं० गभस्तल ] गभस्तिमान् द्वीप । उ०—द्वीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानस हरा ।—जायसी ग्रं, पृ० १० ।
⋙ गभार पु
संज्ञा पुं० [सं० गह्रर, प्रा० गब्भर, गहर ?] अनेक अनर्थों का संकट,] अपशकुन । संकट । विपत्ति । उ०—सबद्ध सियाँन सुसेन कपोत । सनमुख साहि दिख्यौ दल दोत । भयौ दिसि बानिय कग्ग करार । रुक्यौ दिबि धोमय धूम गभार ।—पृ० रा०, ९ ।६९ ।
⋙ गभीर
वि० [सं०] दे० 'गंभीर' ।
⋙ गभीरा
वि० स्त्री० [सं० गभीर] दे० 'गभीर' । उ०—गई शयनालय में तत्काल; गभीरा सरिता सी थी चाल ।—साकेत, पृ०, ३२ ।
⋙ गभीरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभीर ध्वनि देनेवाला बड़ा ढोल [को०] ।
⋙ गभुआर पु †
वि० [सं० गर्भ, पा० गब्भ + आर (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० गभुआरी] १. गर्भ का (बाल) । जन्म के समय का रखा हुआ (बाल) । उ०—(क) गभुआरी अलकावली लसैं लटकन ललित ललाट । जनु उड़गन बिधु मिलन को चले तम बिदारि करि बाट ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) गभुआरे सिर केश है ते बधू सँवारे । लटकन लटकै भाल पर बिधु मधि गत तारे ।—सूर (शब्द०) । २. जिसके सिर के जन्म के बाल न कटे हों । जिसका मुंड़न न हुआ हो । ३. नादान । बहुत छोटा । अनजान । उ०—अमर सरिस सुंदर सुछबि ता पर अति गभुआर । नहि जानत रणबिधि कछू नहिं देहौं निज वार ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गभुवार पु †
वि० [हिं० गभुआर] दे० 'गभुआर' ।
⋙ गम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राह । मार्ग । रास्ता । २. गमन । प्रयाण । ३. मैथुन । सहवास । ४. सड़क । पथ (को०) । ५. शत्रु पर अभियान । कूच (को०) । ६. अविचारिता । विचारशून्यता (को०) । ७. ऊपरीपन । अटकलपच्चू निरीक्षण (को०) । ८. पासे का खेल [को०] ।
⋙ गम (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गम्य] (किसी वस्तु या विषय में) प्रवेश । पहुँच । गुजर । पैठ । जैसे—जिस विषय में तुम्हारी गम नहीं है, उसमें न बोलो । उ०—(क) चींटी जहाँ न चढ़ि सकै राई नहिं ठहराह । आवागमन कि गम नहीं सकलो जग जाइ ।—कबीर (शब्द०) (ख) असुरपति अति ही गर्व धरयो । तिहूँ भुवन भरि गम है मेरी मो सन्मुख को आड़ ?— सूर (शब्द०) । मुहा०—गम करना † = चट कर जाना । पेट में ड़ाल लेना । खालेना । उ०—चरि वृक्ष छह शाखा वाके पत्र अठारह भाई । एतिक लै गैया गम कीन्हों गैया अति हरहाई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गम (३)
संज्ञा पुं० [अ० ग़म] १. दुःख । शोक । रंज । मुहा०—गम खाना = क्षमा करना । जाने देना । ध्यान न देना । उ०—तस्कर के कुत धर्म, दुष्ट के कुत गम खाना ।—रघुनाथ (शब्द०) । गम गलत करना = दुःख भुलाना । शोक दूर करने का प्रयत्न करना । २. चिंता । फिक्र । ध्यान । उ०—सरस सर जिन बेधिया सर बिनु गम कछु नाहिं । लागि चोट जो शब्द की करक करेजे माहि ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गमक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० गमिका] १. जानेवाला । २. बोधक । सूचक । बतलानेवाला ।
⋙ गमक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में एक श्रुति या स्वर पर से दूसरी श्रुति या स्वर पर जाने का एक प्रकार ।विशेष—इसके सात भेद हैं—कंपित, स्फुरित, लीन, भिन्न, स्थविर, आहत और आंदोलित । पर साधारणतः लोग गाने में स्वर के कँपाने को ही गमक कहते हैं । २. तबले की गंभीर आवाज ।
⋙ गमक (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गमक = जाने या फैलनेवाला] महक । सुगंध । जैसे,—इस, फूल की गमक चारो ओर फैल रही है ।
⋙ गमकना
क्रि० अ० [हिं० गमक + ना (प्रत्य०)] १. सुगंध देना । महकना । २. गूँज पैदा होना । ३. खुशी या उत्साह से भरना ।
⋙ गमकीला †
वि० [हिं० गमक + ईला (प्रत्य०)] गमकने या महकने— वाला । सुगंधित ।
⋙ गमकौआ †
वि० [हिं० गमक ] दे० 'गमकीला' ।
⋙ गमखार
वि० [फा़० गमख्वार] १. गमखोर । २. हमदर्द । उ०— कोई दिलवर यार नहीं गमखार किसे ठहराऊँ ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९० ।
⋙ गमखोर
वि० [फा़० ग़मख्वार या गमखोर] [संज्ञा ग़मखोरी] सहिष्णु । सहनशील ।
⋙ गमखोरी
संज्ञा स्त्री० [फा० गमख्वारी] सहिष्णुता । सहनशीलता ।
⋙ गमरख्वार
वि० [फा़० गमख्वार] [संज्ञा गमख्वारी] १. सहिष्णु । सहनशील । २. दुःख या कष्ट में हाथ बढ़ानेवाला । हमदर्द ।
⋙ गमगीन
वि० [फा़० गमगीन] [संज्ञा गमगीनी] दुःखी । उदास । खिन्न । व्यक्ति ।
⋙ गमगुसार
संज्ञा पुं० [फा़० गमगुसार] वह जो किसी को कष्ट में देख कर दुःखी होता हो । सहानुभूति रखने य दिखलानेवाला । हमदर्द ।
⋙ गमजदा
वि० [फा़० गमज़दह] संतप्त । दुःखी । खिन्न ।
⋙ गमत
संज्ञा पुं० [सं० गमन या गमथ-पथिक] १. रास्ता । मार्ग । २. पेशा । व्यवसाय ।
⋙ गमतखाना
संज्ञा पुं० [अ० गमद = कुए में जल की अधिकता?] नाव में वह स्थान जहाँ पानी रसकर या छेदों से आकार इकट्ठा होता है और उलीचकर बाहर फेंक दिया जाता है । बंधाल । गमतरी । —(लश०) ।
⋙ गमतरी
संज्ञा स्त्री० [अ० ग़मद] गमतखाना । बंधाल (लश०) ।
⋙ गमता
संज्ञा वि० [अ० गमद ?] [स्त्री० गमती] चूनेवाला (लश०) ।
⋙ गमथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार्ग । राह । २. व्यापार । पेशा । ३. आमोद प्रमोद । ४. राह चलनेवाला । पथिक ।
⋙ गमन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गमनीय, गम्य] १. जाना । चलना । यात्रा करना । २. वैशेषिक दर्शन के अनुसार पाँच प्रकार के कर्मों में से एक । किसी वस्तु के क्रमशः एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त होने का कर्म । संभोग । मैथुन । जैसे,— वेश्यागमन । ४. राह । रास्ता । ५. सवारी आदि, जिनकी सहायता से यात्रा की जाय । ६. प्राप्त करना । पहुँचना (को०) । यौ०—गमनागमन = आवागमन । आना जाना ।
⋙ गमनना पु
क्रि० अ० [सं० गमन + हिं० ना (प्रत्य०)] जाना । उ० साहसुता गमनी तहाँ विशद कनात लिवाइ ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गमनपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जिसके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने का अधिकार मिले । चालान । रवन्ना ।
⋙ गमना पु
क्रि० अ० [सं० गमन] जाना । चलना । उ० अगम सबहि बरनत बर बरनी । जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गमना (२)
क्रि० अ० [अ० गम = रंज + हिं० ना (प्रत्य०)] १. गम करना । शोक करना । २. परवाह करना । ध्यान देना । उ०—मेरे तौ न उरु रघुबीर सुनौ साँची कहौं खल अनखैहैं तुम्हें सज्जन न गमिहैं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गमनाक
वि० [फा० गमनाक] शोकपूर्ण । दुःखभरा ।
⋙ गमनीय
वि० [सं०] दे० 'गम्य' ।
⋙ गमला
संज्ञा पुं० [?] १. नाँद के आकार का मिट्टी या धातु आदि का बना हुआ एक प्रकार का पात्र जिसमें फूलों के पेड़ और पौधे लगाए जाते हैं । २. लोहे, चीनी मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का बरतन जिसमें पाखाना फिरते हैं । कमो़ड़ ।
⋙ गमागम
संज्ञा पुं० [सं०] आना जाना ।
⋙ गमाना पु †
क्रि० स० [हि० गुम] गुम करना । खोना । गँवाना । उ०—(क) हा हा करति कंचुकी माँगति अंबर दिए मन भाए । कीन्हौं प्रीति प्रगट मिलिबे की आँखियन शर्म गमाए ।—सूर (शब्द०) । (ख) हा लाल उसे भी आज गमाया मैनें ।—साकेत, पृ०, २३१ ।
⋙ गमार †
वि० [हि० गँवार] गाँव का रहनेवाला । गँवार । देहाती । उ०—त्यौं रन ठाठ बुंदेल टाटे । खेत गमार चार सै काटे ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ गमारि पु गमारि पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'गँवारी' । उ०—(क) एक हमें नारि गमरि सबहु तह दोसरे सहज मतिहीनी ।— विद्यापति, पृ०, १२५ । (ख) हरिक संगे किछु डर नहि हे तुहे परम गमारी ।—विद्यापति, पृ०, २४५ ।
⋙ गमि पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] पहुँच । पैठ । प्रवेश ।
⋙ गमी (१)
वि० [सं० गमिन्] जानेवाला । गमन करनेवाला [को०] ।
⋙ गामो (२)पु
संज्ञा पुं० पथिक । यात्री [को०] ।
⋙ गमी (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० गम] १. शोक की अवस्था या काल । २. वह शोक जो किसी मनुष्य के मरने पर उसके संबंधी करते हैं । सोग । २. मृत्यु । मरनी । जैसे,—उनके यहाँ गमी हो गई । उ०—रुपया इस मुल्क के आदमियों का शादी गमी में बहुत खर्च होता है ।—शिवप्रसाद (शब्द०) ।
⋙ गम्मत †
संज्ञा स्त्री० [मराठी] १. हँसी दिल्लगी । विनोद । २. मौज । बहार ।
⋙ गम्य
वि० [सं०] १. जाने योग्य । गमन योग्य । २. प्राप्य । लभ्य । ३. गमन करने योग्य । संभोग करने योग्य । भोग्य । ४. साध्य । ५. समझ में आ जानेवाला । सुबीध (को०) ।
⋙ गयंद
संज्ञा पुं० [सं० गजेन्द्र, प्रा०, गयिंद, गइद] १. बड़ा हाथी । २. दोहे का दसवाँ भेद जिसमें १३ गुरु और २१ लघु होते हैं ।जैसे—राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर बाहिरहु जौ चाहसि उँजियार । तुलसी ।
⋙ गंयद पु
संज्ञा पुं० [हि०] गजेंद्र । श्रेष्ठ हाथी । उ०—झुमति चलि मद मत्त गयंद ज्यों मलकत बाँह दुराइ ।—नंद० ग्रं०, पृ०, ३८९ ।
⋙ गय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर । मकान । २. अतरिक्ष । आकाश । ३. धन । ४. प्राण । ५. रामायण के अनुसार एक बानर का नाम जो रामचंद्र की सेना का एक सेनापति था । ६. महा— भारत के अनुसार एक राजार्षि का नाम जिनकी कथा द्रोण पर्व में हैं । ७. पुत्र । अपत्य । ८. एक असुर का नाम । ९. गया नामक तीर्थ ।
⋙ गय (२)
संज्ञा पुं० [सं० गज, प्रा०, गय] हाथी । उ०—सुरगण सहित इंद्र ब्रज आवत धवल बरन ऐरावत देख्यो उतरि गगन ते धरनि धँसावत । अमरा शिव रवि शशि चतुरानन हय गय बसह हंस मृग जावत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गय (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गति प्रा० गय] दे० 'गति' । उ०—लाँवी काँब चटक्कड़ा गय लंबा वइ जाल ।—ढ़ोला०, दू० ४१० ।
⋙ गयगैनि पु
वि० स्त्री० [सं० गजगमिनी] दे० 'गजगमिनी' । उ०— मलयज घसि घनसार मैं खौरि किए गयगैनि ।—स० सप्तक, पृ० २५० ।
⋙ गयण पु
संज्ञा पुं० [सं० गगन, प्रा० गयण] गगन । आकाश । उ०— कूँभावत आनौ जुध कोड़े, उठियौ गयण भुजा ड़ँड़ ओड़े ।— रा०, रू०, पृ०, २५२ ।
⋙ गयनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं गय (= गज) + नाल = नली] एक प्रकार की तोप जिसे हाथी खींचते हैं । गजनाल ।
⋙ गयल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं] दे० 'गैल' ।
⋙ गयवली
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले कद के एक पेड़ का नाम । विशेष—यह अबध, अजमेर, गोरखपुर और मध्यप्रदेश में होता है । इसका फल लोग खाते हैं और छाल चमड़ा सिझाने के काम में लाते हैं । इसकी लकड़ी मजबूत होती हैं और खेती के 'सँगहे' और गाड़ी बनाने के काम में आती है ।
⋙ गयवा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जिसे मोहेली भी कहते हैं ।
⋙ गयशिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंतरिक्ष । आकाश । २. गया के पास का एक पर्वत जिसके विषय में पुराणों का कथन है कि यह गय नामक असुर के सिर पर है । ३. गया तीर्थ ।
⋙ गया (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बिहार या मगध देश का एक विशेष पुण्य—स्थान जिसका उल्लेख महाभारत और वाल्मीकीय रामायण से लेकर पुराणों तक में मिलता है । विशेष—यह एक प्राचीन तीर्थ स्थान और यज्ञस्थल था । पुरानों में इसे राजर्षि गय की राजधानी लिखा है, जहाँ गयशिर पर्वत पर उन्होने एक बृहत् यज्ञ किया था और ब्रह्मचर नामक तालाब बनवाय़ा था । महात्मा बुद्धदेव के समय में भी गयशिर प्रधान यज्ञस्थल था । राजगृह से आकार वे पहले यहीं पर ठहरे थे और किसी यज्ञ के यजमान के अतिथि हुए थे । फिर वे यहाँ से थोड़ी दूर निरंजना नदी के किनारे उरुवेला गाँव में तप करने चले गए थे । इस स्थान को आजकल बोधगया कहते हैं यहाँ बहुत सी छोटी छोटी पहाड़िय़ाँ है । यह तीर्थ श्राद्ध और पिंड़दान आदि करने के लिये बहुत प्रसिद्ध है, और हिंदुओं का विश्वास है कि बिना वहाँ जाकर पिंडदान आदि किए पितरों का मोक्ष नहीं होता । कुछ पुराणों में इसे गम नामक असुर द्वारा निर्मित या उसके शरीर पर बसी हुई कहा गया है ।
⋙ गया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गया (तीर्थ)] गया में होनेवाली पिंडोदक आदि क्रियाएँ । मुहा०—गया करना = गया में जाकर पिंडदान आदि करना । जैसे—वह बाप की गया करने गए हैं । गया बैठाना = गया में पितरों का श्राद्ध करके स्थापित करने की परंपरा ।
⋙ गया (३)
क्रि० अ० [सं० गम्] 'जाना' क्रिया का भूतरकालिक रूप । प्रस्थानित हुआ । मुहा०—गया गुजरा या गया बीता = बुरी दशा को पहुँचा हुआ । नष्ट । निकृष्ट ।
⋙ गयापुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गया' ।
⋙ गयारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] किसी काश्तकार की वह जोत जिसे वह लावारिस छोड़कर मर गया हो ।
⋙ गयाल †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह जायदाद जिसका कोई उत्तरा- धिकारी या दावेदार न हो । गलंश ।
⋙ गयाल (२)
संज्ञा पुं० [बं०] एक जानवर का नाम । विशेष—यह आसाम में मिलता है । वहाँ इसका मांस खाया जाता है और मादा का दूध पीते हैं ।
⋙ गयावाल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गया + वाल] गया तीर्थ का पंडा ।
⋙ गयावाल (२)
वि० १. गया से संबंध रखनेवाला । २. गया में होने या रहनेवाला ।
⋙ गंरड़
संज्ञा पुं० [सं० गणड = मंड़लाकार रेखा] चक्की के चारों और बना हुआ मिट्टी का घेरा जिसमें आटा गिरता है ।
⋙ गंरथ पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ] दे० 'ग्रंथ' । उ०—कहा होई जोगी भए और पुनि पढ़े गरंथ ।—चित्रा० पृ०, ४८ ।
⋙ गरँऊँ †
संज्ञा पुं० [देश०] आटा गिरने के लिये बना हुआ चक्की के चारों और का घेरा । गरंड़ ।
⋙ गर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत कड़ुवा और मादक रस जिसका व्यवहार प्राचीन काल में होता था । २. एक रोग जिसमें घिग्घी बँध जाता है और मू्र्च्छा आती है । ३. रोग । बीमारी । ४. विष । जहर । ५. वत्सनाभ । बछनाग । ६. ज्योतिष में ग्यारह करणों में से पाँचवाँ करण । ७. निगलना । घोंटना (को०) ।
⋙ गर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गल] गला । गरदन । उ०—होती जौ अजान तौन जानती इतीक बिथा मेरे जिस जान तेरो जानिबो गरे परयो ।—देव (शब्द०) ।
⋙ गर (३)
प्रत्य० [फा, ने०] (किसी काम को) बनाने या करनेवाला इसका प्रयोग केवल समस्त पदों के अंत में होता है । जैसे— सौदागर, कारीगर, बाजीगर कलईगर, कुंदीगर आदि ।
⋙ गर (४)
अव्य० [फ० अगर का संक्षिप्त रूप] यदि । जो । अगर ।
⋙ गरई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली ।
⋙ गरक पु (१)
वि०, [अ० ग़र्क] १. ड़ूबा हुआ । निमग्न । २. बिलुप्त नष्ट । बरबाद तबाह । ३. (किसी कार्य आदि में) लीन । मग्न । उ०—ऋषभदेव बोले नहीं रहे ब्रह्ममैं होइ, गरक भए निज ज्ञान मैं द्वैत भाव नहि कोई ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ०, ७८६ ।
⋙ गरक (२) पु
वि० [देश०] सधन । गंभीर । गहरा । उ०—गरक घटा उमँड़ी गरज, हरष सिखंड़ी होय ।—रघु० रू० पृ०, ९३ ।
⋙ गरकाब (१)
संज्ञा पुं० [अ० गरक़ाब] ड़ूबने का भाव । ड़ुबाव ।
⋙ गरकाब (२)
वि० १. निमग्न । डूबा हुआ । २. बहुत अधिक लीन ।
⋙ गरबी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० गरक + फा० ई (प्रत्य०)] १. ड़ूबने की क्रिया या भाव । ड़ूबना । मुहा०—गरकी देना = कष्ट देना । दुःख देना । २. पानी का इतना अधिक बरसना या बा़ढ़ आना कि जिससे फसल आदि ड़ूबकर नष्ट हो जाय । बूड़ा । अतिवृष्टि । क्रि० प्र०—लगना । ३. वह भूमि जो पानी के नीचे हो । ४. नीची भूमि जहाँ पानी रुकता हो । खलार । ५. लँगोटी । कौपीन ।
⋙ गरकी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] चरखी । घिरनी । गराड़ी ।
⋙ गरक्क पु
वि० [हिं०] दे० 'गरक' । उ०—छत्र खसै धरनी धसै तीनिउँ लोक गरक्क ।—संतवाणी०, पृ०, १३९ ।
⋙ गरगज (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़ + गज] १. किले की दीवारों पर बना हुआ बुर्ज, जिसपर तोपें रहती हैं । उ०—गरगज बाँधि कमानै धरी । बज्र अगिन मुख दारू भरी ।—जायसी (शब्द०) । २. वह ऊँचा कृत्रिम ढ़ूह या टीला जिसपर य़ुद्ब की सामग्री रखी जाती है और जहाँ से शत्रु की सेना का पता चलाया जाता है । क्रि० प्र०—बाँधना । ३. नाव के ऊपर की तख्तों से बनी हुई छत । ४. वह तख्ता जिसपर फाँसी देने के समय अपराधी को खड़ा करके उसके गले में फंदा लगते हैँ । टिकठी ।
⋙ गरगज (२) †
वि० बहुत बड़ा । विशाल । जैसे—गरगज घोड़ा, गरगज जवान ।
⋙ गरगरा
संज्ञा पुं० [अनु०] गराड़ी । घिरनी । चरखी ।—(लश०) ।
⋙ गरगवा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. नर गौरैया । चिड़ा । २. एक प्रकार को घास । विशेष—यह धान की फसल को बढ़ने नहीं देती । इसे केवल भैसें खाती हैं ।
⋙ गरगाब
वि० [अ० ग़ऱकाब] दे० 'गरकाब' ।
⋙ गरघ्न
वि० [सं०] १. विष के नष्ट करनेवाला । विषनाशक । २. स्वास्थ्यकर [को०] ।
⋙ गरज (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्जन] बहुंत गंभीर और तुमुल शब्द । जैसे, बादल की गरज सिंह की गरज, वीरों की गरज आदी ।
⋙ गरज (२)
संज्ञा स्त्री [अ० गरज] १. आशय प्रयोजन । मतलब । उ०—अपनी गरघनु बोलियतु कहा निहोरी तोहिं । तू प्यारी मो जीय कौं, मो ज्यौ प्यारौ मोहिं ।—बिहारी र०, दो० ४०९ । मुहा०—गरज गाँठना = मतलब सीधा करना । प्रयोजन निकालना । काम सिद्ध करना । २. आवश्यकता । जरूरत । क्रि० प्र०—रखना ।—रहना ।—निकालना । ३. चाह । इच्छा । यो०—गरजमंद । क्रि० प्र०—रखना ।—रहना ।—होना । मुहा०—गरज का बावला = अपनी गरज के लिये सब कुछ करनेवाला । जो अपनी लालसा पूरी करने के लिये भला बुरा सब कुछ करने को तैयार हो जाय । जो अपना मतलब पूरा करने के लिये हानि भी सह ले ।
⋙ गरज (३)
क्रि० वि० १. निदान । आखिरकार । अततोगत्वा । २. अस्तु । भला । अच्छा । खैर । बिशेष—यह संयोजक अव्यय का भाव लिए रहता है । मुहा०—गरज कि = मतलब यह कि । तात्पर्य यह कि । अर्थात् । यानी ।
⋙ गरजन पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्जन] गंभीर शब्द । गरज । कड़क । २. गरजने का भाव । ३. गरजने की क्रीया ।
⋙ गरजना (१)
क्रि० अ० [सं० गर्जन] १. बहुत गंभीर और तुमुल शब्द करना । जैसे—बादल का गरजना, शेर का गरजना बीरों का गरजना । उ०—(क) घन घमंड नभ गरजत घोंरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) दस दस सर सब मारेसि, परे भूमि कपि बीर । सिंघनाद करि गरजा, मेघनाथ बलवीर ।—तुलसी (शब्द०) । २. चटकना । तड़कना । जैसे,—मोती का गरजना, या गरजा हुआ मोती ।
⋙ गरजना (२)पु †
वि० [हिं० गरजना] गरजनेवाला । जोर से बोलनेवाला । उ०—राजपंखि पेखा गरजना ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरजमंद
वि० [अं० ग़रज + फा० मंद] [स्त्री० गरजमंदी] जिसे आवश्यकता हो । जरूरतवाला । ३. इच्छुक । चाहनेवाला ।
⋙ गरजी
वि० [अ० गरज + फा० ई (प्रत्य०)] १. गरजमंद । गरजवाला । मतलब रखनेवाला । २. चाहनेवाला । इच्छा करने- वला । गाहक । उ०—ब्रजराज कुमार बिना सुनु भृंग अनंग भलौ जिय को गरजी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गरजुआ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गरजना] एक प्रकार की खुमी । विशेष—यह गोल और सफेद रंग की होती है और बरसात में पहला पानी पड़ने पर प्रायः साखू आदि के पेड़ों के आसपास या मैदानों में भूमि से निकल आती है । इसके अंदर ङंठी और ऊपर छत्ता नहीं होता, केवल गूदा ही गूदा होता है । इसकी तरकारी खाने में स्वादिष्ट होती है । लोगों का विश्वास है कि यह बादल के गरजने से पृथ्वी से निकलता है । सफरा, गगनधूल आदि इसी के भेद हैं ।
⋙ गरजुआ (२) †
वि० [हिं०] गरजमंद । जरूरतवाला ।
⋙ गरजू †
वि० [हिं०] दे० 'गरजी' ।
⋙ गरट्ट पु
संज्ञा पुं० [पुं० ग्रन्थ, पा० गंठ, हिं० गट्ठ] १. समूह । झुंड़ । उ०—(क) गरजन गरट्ट दै कै बाजिन के ठट्ट दै कै ग्राम धाम दै के प्रियवृंद सतकारे है ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) हैबर हरटट् साजि गैबर गरट्ट सम पैदर के ठट्ट फौज जुरी तुरकाने की ।—भूषण (शब्द०) । २. बहुत घना । सघन । उ०— आँव भलौ ऊगौ अठै गहरौ छाँह गरट्ट ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १. पृ०, ४९ ।
⋙ गरड पु †
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़] दे० 'गरुड़' । उ०—ज्यूँ ज्यूँ भुयंगम आवै जाइ मुरही धर नहीं गरड रहाइ ।—गोरख०, पृ०, ६३ ।
⋙ गरडा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का मोटा चावल । उ०— दुधइ न्निहावऊँ घणी हों निबात । भैस को दही थर गरडा को भात ।—बी० रासी०, पृ० ९३ । एक प्रकार का मटमैला रंग । उ०—अबलख सु गरडा रंग, लक्खी जु आति ही उमंग ।—ह० रोसो, पृ०,१२५ ।
⋙ गरथ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गथ' । उ०—गरथ न बाँधे गारुडी नहिं नारी सो नेह ।—दादू०, ३०४ ।
⋙ गरद (१)
वि० [सं०] १. विष देनेवाला । विषप्रद । २. अस्वास्थ्यकर (को०) ।
⋙ गरद (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा ।
⋙ गरद (३) †
संज्ञा स्त्री० [फार०] दे० 'गर्द' ।
⋙ गरदन
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. धड़ और सिर को जोड़नेवाला अंग । ग्रीवा । मुहा०—गरदन उठाना = विरोध करना । सिर उठाना । गर्दन उड़ाना = सिर काटना । मार ड़ालना । गरदन ऐंठाना = दे० 'गरदन मरोड़ना' । गर्दन ऐंठी रहना = घमंड में रहना या नाराज रहना । गरदन काटना = (१) धड़ से सिर अलग करना । मार ड़ालना । (२) बुराई करना । हानि पहुँचाना । गरदन का ड़ोरा = गले की वे नसें जो सिर के हिलाने या बात करने के समय हिलती हुई दिखाई पड़ती हैं । गरदन का बोझ = कर्तव्य या उत्तरदयित्व संबंधी भार । गरदन हुकना = (१) नम्र, आज्ञाकारी या अधीन होना । (२) लज्जित होना । शरमाना । (३) बेहोश होना । (४) मरना । गरदन झुकाना = (१) नम्रता, आज्ञाकारिता य़ा अधीनता प्रकशित करना । (२) लज्जित होना । झपना । गरदन ढलना या ढलकना = मरना । आसन्न मरण होना । गरदन न उठाना = (१) सब बातों को चुपचाप सुन या सह लेना । (२) लज्जित होना । शरमिंदा होना । (३) बीमारी का कारण पड़े रहना जैसे—जबसे यह लड़का बुखार में पड़ा है, तबसे इसने गरदन नहीं उठाई । गरदन नापना = (१) कहीं से निकाल बाहर करने के लिये किसी की गगदन पकड़ना । गरदनियाँ देना । (२) अपमान करना । बेइज्जती करना । गरदन पकड़कर निकालना = अपमान करना । बेइज्जती करना गरदन पर = ऊपर । जिम्मे जैसे,—इसका पाप तुम्हारी गरदन पर है । गरदन पर खून लेना = अपने ऊपर हत्या लेना । हत्या का अपराधी होना । (अपनी) गरदन पर जुआ रखना+ किसी भारी काम का बोझ लेना । किसी भारी काम में तत्पर होना । (दूसरे की) गरदन पर जुवा रखना = भारी काम सुपुर्द करना । गरदन पर बोझ होना = (१) खलना । बुरा लगना । कष्टकर प्रतीत होना । (२) भार होना । सिर पड़ना । गरदन पर सवार होना =दे० 'सिर पर सवार होना' । गरदन फँसना = (१) अधिकार में आना । वश में होना । काबू में होना । (२) जोखों में पड़ना । गरदन मरोड़ना = (१) गला दबाना । मार डालना । (२) पीड़ित करना । कष्ट पहुँचाना । गरदन मारना = सिर काटना । मार डालना । गरदन में हाथ देना या डालना = (१) अपमान करना । बेइज्जती करना । (२) कहीं से निकाल बाहर करने के लिये गरदन पकड़ना । गरदनियाँ देना । गरदन हिलने लगना = बहुत बृद्ध होना । २. वह लंबी लकड़ी जो जुलाहों की लपेट के दोनों सिरों पर गाड़ी साली जाती है । साल । ३. बरतन आदि का ऊपरी पतला भाग । यौ०—गरदनजनी = मार डालना । कत्ल करना । गरदनबंद = गले में पहनने का एक प्रकार का आभूषण जिसे गुलूबंद कहते हैं ।
⋙ गरदन घुमाव
संज्ञा पुं० [हिं० गरदन + घुमाना] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें खोलाड़ी अपने जोड़ का दाहिना या बाँया हाथ पकड़कर अपनी गरदन चढ़ाता और उसे सामने की और पटक देता है ।
⋙ गरदन तोड़
संज्ञा पुं० [हिं० गरदन + तोड़ना] कुश्ती का एक दाँव । विशेष—इसमें जोड़ की गरदन पर दोनों हाथों की उँगलियों को गाँठकर ऐसा झटका देते हैं कि वह झुक जाता है और कुछ अधिक जोर करने पर बेकाम होकर गिर जाता है । यौ०—गरदनतोड़ बुखार = एक प्रकार का सांघातिक ज्वर ।
⋙ गरदन बाँध
संज्ञा पुं० [हिं० गरदन + बाँधना] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें जो़ड़ की गरदन से दोनों हाथ उसकी बगल में से ले जाकर अंदर उसकी छाती पर बाँधते और उसके सिर को बगल में दबाकर पैर से झट से गिरा देते हैं ।
⋙ गरदना †
संज्ञा पुं० [हिं० गरदन] १. मोटी गरदन । गरदन २. वह धौल या झटका जो गरदन पर लगे । क्रि० प्र०—जड़ना ।—देना ।—लगाना । मुहा०—गरदन सही या रसीद करना = गरदन पर धौल लगना । ३. गरदन पर का मांस ।—(कसाई) ।
⋙ गरदनियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गरदन + इयाँ (प्रत्य०)] (किसी को किसी स्थान से) गरदन पकड़कर या गरदन में हाथ डालकर निकालने की क्रिया । अर्द्ध चंद्र । क्रि० प्र०—देना ।—खाना ।—मिलना ।
⋙ गरदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गरदन + ई (प्रत्य०)] १. अंगे या कुरते आदि का गला । गरेबान । २. एक आभूषण जो गले में पहना जाता हैं । हँसुली । ३. अर्द्धचंद्र । गरदनियाँ । ४. घस्सा जो पहलवान एक दूसरे की गरदन पर लगाते हैं । रददा । कुंदा । ५. वह कपड़ा जो घोड़े की गरदन ,से बाँधा ओर पीठ पर ड़ाला जाता हैँ । ६. कारनिस । कँगना । क्रि० प्र०—लगाना । ७. कुश्ती का एक पेंच ।
⋙ गरदर्प
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प । साँप । भुजंग ।—अनेक (शब्द०) ।
⋙ गरदा †
संज्ञा पुं० [फा० गर्द] धूल । गुबार मिट्टी । खाक । गर्द । क्रि० प्र०—उड़ना ।—उड़ाना ।—फेंकना ।—डालना ।
⋙ गरदान (१)
वि० [फा०] घूम फिरकर एक ही स्थान पर आनेवाला ।
⋙ गरदान (२)
संज्ञा पुं० वह कबूतर जो घूम फिरकर सदा अपने स्थान पर आता हो ।
⋙ गरदान (३)
संज्ञा स्त्री० १. व्याकरण में कारकों या लकारों की आद्यंत पुनरावृत्ति । २. शब्दों की रूपसाधना । ३. कुरान की आवृत्ति या उद्धरणी ।
⋙ गरदानना
क्रि० सं० [फा० गरदान] १. शब्दों का रूप साधना । २. बार बार कहना । उद्धरणी करना । ३. गिनना । समझना मानना । जैसे,—वे अपने आगे किसी को कुछ नहि गरदानते । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना ।
⋙ गरदिशव
संज्ञा स्त्री० [फा० गर्दिश] दे० 'गर्दिश' ।
⋙ गरदुआ
संज्ञा पुं० [हिं० गरदन] एक प्रकार का ज्वर जो वर्षा के आरंभ में बहुत अधिक भीगने के कारण पशुओं को हो जाता है । बिशेष—इसमें उसके सब अंग जकड़ जाते हैं ओर उसके गले में घरघराहट होने लगती है । इसे कहीं कहीं गरदुहा, घेंरवा या धुरका भी कहते हैं ।
⋙ गरधरन पु
संज्ञा पुं० [सं० गर √ धृ > धरण = रखेनेवाला] १. विष धारण करनेवाले, शिव । महादेव ।
⋙ गरध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] अभ्रक ।
⋙ गरना पु †
क्रि० अ० [हिं० गलना] १. दे० 'गलना' । उ०—इम नीर महिं गरि जाइ लवनं एकमेंकहि जानिए ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ५५ । २. दे० 'गड़ना' । उ०—उहाँ ज्वाल जरि जात, दया ग्लानि गरे गात, सूखे सकुचात सब कहत पुकार हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गरना (२)
क्रि० अ० [हिं० गारना अथवा सं० √ गृ >गर] १. गारा जाना । निचो़ड़ा जाना । २. किसी चीज में से किसी पदार्थ का बूँद बूँद होकर गिरना । निचुड़ना । टपकना । उ०= चुंबक लोहँड़ा औटा खोवा । भा हलुआ घिउ गरत निचोवा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० गर + नली] एक बहुत चौड़े मुँह की तोप जिसमें आदमी चला जा सकता है । घननाल । घननाद ।
⋙ गरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।
⋙ गरब (१)* †
संज्ञा पुं० [सं० गर्व] हाथी का मद । उ०—गरब गयंदनह गगन पसीजा । रुहिर चुवै धरती सब भीजा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरब (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० गर्व] दे० 'गर्व' । यौ०—गरबगहेला । गरबगहेली । गरबप्रहारी = गर्व का नाश करनेवाले । उ०—गरबोलन के गरबिनि ढ़ाहै । गरबप्रहारी बिरद निबाहै ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ गरबई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्व हिं० ई (प्रत्य०)] गर्व या अभिमान का भाव । उ०—अली गई अब गरबइ इकताई मुकुताइ । भली भई ही अमलई जौं पी दई दिखाई ।—श्रुं० सत० (शब्द०) ।
⋙ गरबगहेला †
वि० [हिं० गरब + गहेला = ग्रहण करनेवाला] [वि० स्त्री० गरब गहेली] जिसने गर्व धारण किया हो । गर्वीला । उ०—(क) तू गज गामिनि गरबगहेली । अब कस आस छाँङु तू बेली ।—जायसी (शब्द०) । (ख) जानत गरबगहेली सबै छपीं मन लाजि ।—जायसी ग्रं०, पृ०, १३३ ।
⋙ गरबना पु
क्रि० अ० [सं० गर्व से यायिकधातु] गर्व करना । अभिमान करना । शेखी करना । उ०—इहिं द्वैहीं मोती सुगथ तूँ नथ गरबि निसाँक । जिहि पहिरै जग दृग ग्रसति लसति लसति हँसति सी नाक ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गरबहियाँ † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गलबाँही' । उ० बैठी जदपि बिमाननि महियाँ । अपने पतिन सों दै गरबहिय़ाँ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९५ ।
⋙ गरबा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का गीत जो प्रायः गुजराती स्त्रियाँ गाती हैं । २. एक प्रकार का नृत्य जो रंगीन और छेददार घड़े के अंदर दिया रखकर इसके चारों ओर गोल घेरे में किया जाता है ।
⋙ गरबाना पु †
क्रि० अ० [हिं० गरबना का प्रे० रूप] घमंड़ में आना । अभिमान करना । शेखी करना ।—जा तन देखि मन में गरबाना । मिलि गया माटी तजि अभिमाना ।— संतबानी०, भा०,२, पृ० ९२ ।
⋙ गरबित पु
वि० [हिं० गरब + इत (प्रत्य०)] दे० 'गर्वित' । उ०— तिनसों मिलि डोलैं करैं कलोलैं गरबित बोलैं बाम जहाँ ।—हम्मीर०, पृ० ८ ।
⋙ गरबीजना पु †
क्रि० अ० [हिं० गरब] गरब युक्त होना । गर- बाना । उ०—ताँताँ तणकाराह, गाणाँ क्यों गरबीजिया ।— बाँकी० ग्र०, भा० ३, पृ० ८२ ।
⋙ गरबीला
वि० [हिं० गरब + ईला प्रत्य०] जिसे गर्व हो । घमंड़ी । अभीमानी । उ०—गरबीलन के गरबनि ढ़ाहै । गरबप्रहारी विरद निबाहै ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ गरभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'गर्भ' । २. भीतर । अंदर । गर्भ । उ०—समी गरभ में अनल ज्यों तेरी घिय संत ।— शुकंतला, पृ० ६७ ।
⋙ गरभ (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० गर्व हिं० गरब, गरभ] दे० 'गर्व' ।
⋙ गरभदान
संज्ञा पुं० [सं० गर्भाधान] गर्भाधान के लिये ऋतुप्रदान ।
⋙ गरभबास
संज्ञा पुं० [सं० गर्भवास] गर्भ के अंदर रहने की स्थिति । उ०—गरभबास अति त्रास, अधोमुख, तहाँ न मेरी सुधि बिसरी ।—सूर० १ ।११६ ।
⋙ गरभाना
क्रि० अ० [हिं० गर्भ से नायिक धातु] १. गर्भिणी होना । गर्भ से होना । २. धान, गेहूँ आदि के पौधों में बाल लगाना ।
⋙ गरभी (१)
वि० [सं० गर्वी] अभिमानी । घमंडी ।
⋙ गरभी (२)
वि० [सं० गरभ + हिं० ई (प्रत्य०)] गरभवास । गर्भस्थ । उ०—गरभी की यातना सुन ले रे भाई नव मास बंधन ड़ारे जू ।—दक्खिनी०, पृ०, १५ ।
⋙ गरम
वि० [फा़० गर्म, मिलाओ सं० घर्म] [क्रि० गरमाना, संज्ञागरमी] १. जिसके छूने से जलन मालूम हो । जलता हुआ तप्त । तत्ता । उष्ण । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—गरमागरम = (१) तत्ता । उष्ण । (२) ताजा पका हुआ । विशेष—इसका प्रयोग साधारणतः खाने पीने की वस्तुओँ के लिये होता है । जैसे,—गरमागरम पूरी, हलुवा आदि; पर अलंकार से—गरमागरम खबर (ताजी खबर), गरमागरम बहस या बात (= आवेश या जोश भरी बात, आदि) भी बोलते हैँ । मुहा०—गरमचोट = तुरंत की लगी चोट । ताजा घाव । जैस— गरम चोट मालूम नहीं होती । गरम मामला = हाल की बात । ऐसी घटना जिसका प्रभाव लोगों पर बना हौ । जैसे,—अभी मामला गरम है, जो करना हो सो कर ड़ालो । गरम पानी = वीर्य । शुक्र ।—(बाजारी) । गरम सर्द उठाना, देखना या सहना = संसार का ऊँचा नीचा देखना । भले बुरे दिन काटना । २. तीक्ष्ण । उग्र । खरा । मुहा०—मिजाज गरम होना = क्रोध आना । गरम होना = आवेश में आना । क्रुद्ध होना । जैसे,—तुम तो जरा सी बात में गरम हो जाते है । ३. तेज । प्रबल । प्रचंड़ । जोर शोर का । जैसे,—गरम खबर । मुहा०—किसी चीज (प्रायः भाव) का बाजार गरम होता = किसी बात की अधिकता होना । जैसे,—आजकल लूट का बाजार गरम है । ४. जिसका गुण उष्ण हो । जिसके व्यवहार या सेवन से गरमी बढ़े । जैसे; —लहसुन बहुत गरम होता है । यौ०—गरम कपड़ा = शरीर गरम रखनेवाला कपड़ा । जाड़े का कपड़ा । ऊनी कपड़ा । गरम मसला = सुगंध की वस्तु जो भोजन को चरपरा, पाचक और सुस्वादु करने के लिये उसमें पड़ती है । जैसे,—धनियाँ, लौंग, बड़ी इलायची, जीरा, मिर्च इत्यादि । ५ उत्साहपूर्ण । जोश से भरा । आवेशपूर्ण । उ०—परम धरमधर धरम करम कर सुरस गरम नर ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गरमाई †
संज्ञा स्त्री० [फा़० गरम] गरमी ।—(पंजाब) ।
⋙ गरमागरमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गरमा + गरम] मुस्तैदी । जोश । सन्नद्धता । उत्साह । जैसे,—पहले तो बड़ी गरमागरमी थी; अब क्यों ठंढ़े पड़ गए ।
⋙ गरमाना (१)
क्रि० अ० [हिं० गरम से नायिक धातु] १. गरम पड़ना । उष्ण होना । जैसे, ।—अभी तो काँपते थे, ओढ़ने से जरा गरमाए हैं । मुहा०—टेंट या हाथ गरमाना = टेंट या हाथ में रुपया आना । पास में रुपया पैसा आना । २. उमंग पर आना । मस्ताना । मद में भरना । जैसे, —घोड़ी गरमाई है । ३. आवेश में आना क्रोध करना । नाराज होना । आगबबूला होना । झल्लाना । जैसे, —तुम तो जरा सी बात में गरमा जाते हो । ४. कुछ देर लगातार दौड़ने या परिश्रम करने पर घोड़े आदि पशुओं का तेजी पर आना । विशेष—कभी कभी जब घोड़े अधिक गरमा जाते हैं, तब वश में नहीं रहते । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।
⋙ गरमाना (२)
क्रि० स० गरम करना । तपाना । औटाना । जैसे,—दूध गरमाना, चूल्हा गरमाना, पानी गरमाना आदी । संयो० क्री०—डालना ।—देना । मुहा०—टेंट गरमाना = (१) हाथ में रुपया देना । (२) कुछ इनाम या रिशवत देना ।
⋙ गरमाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गरम + आहट (प्रत्य०)] गरमी । उष्णता ।
⋙ गरमी
संज्ञा [फ़ा०] १. उष्णता । ताप । जलन । जैसे,— आग की गरमी । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना ।—होना । मुहा०गरमी करना = प्रकृति में उष्णता लाना । पेट या कलेजे में ताप उत्पन्न करना । जैसे, कुनैन बुहत गरमी करता है । गरमी निकालना = (१) उष्णता दूर करना । (२) प्रसंग करना । २. तेजी । उग्रता । प्रचंडता । मुहा०—गरमी निकालना = गर्व दूर करना । जैसे,—अभी हम तुम्हारी सारी गरमी निकाल देते हैं । ३. आवेश । क्रोध । गुस्सा । जैसे,—पहले तो बड़ी गरमी दिखाते थे; अब सामने क्यों नहीं आते । ४. उमंग । जोश । ५. ग्रीष्म ऋतु । कड़ी धूप के दिन । (साधारणतः फागुन से जेठ तक गरमी के महीने समझे जाते हैं ।) क्रि० प्र०आना ।—जाना । मुहा०—गरमियों में = गरमी के दिनों में । ग्रीष्मकाल में । ६. हाथी घोड़ों का एक रोग जिसमें उन्हें पेशाब के साथ खून गिरता है । ७. एक रोग जो प्रायः दुष्ट मैथुन से उत्पन्न होता है और छूत का रोग माना जाता है । आतशक । उपदंश । विशष—इस रोग में गुप्त इंद्रिय से एक प्रकार का चेप निकलता है, जिसके लग जाने से यह रोग एक दूसरे को हो जाता है । पहले छोटी छोटी फुंसियाँ होती है; फिर धीर धीरे चमड़े पर चट्टे पड़ने लगते है; यहाँ तक कि सारे शरीर में घाव हो जाते हैं, फफोले पड़ जाते हैं, रग, पट्टे और हडिङयाँ तक खराब हो जाती हैं । कभी कभी तालू चटक जाता है । क्रि० प्र०—निकलना ।—फूटना । ।—होना ।
⋙ गरमीदाना
संज्ञा पुं० [हिं० गरमी + दाना] छोटे छोटे लाल दाने जो गरमी में पसीने के कारण शरीर पर निकलते है । अँधौरी । अँभौरी । अम्हौरी ।
⋙ गररा पु
संज्ञा पुं० [देश० गर्रा] एक प्रकार का घोड़ा । गर्रा । उ०—हरे कुरंग महुग्र बहु भाँती । गरर कोकाह बलाह सु- भाँति ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरराना पु
क्रि० अ० [अनु०] १. भीषण ध्वनि करना । गंभीर ध्वनि करना । गड़गड़ाना । गरजना । उ०—सुनत मेघवर्त्तकसाजि सैन लै आए । ... घहरात गररात हहरात परराति झहरात माथ नाए ।—सूर (शब्द०) । २. गुर्राना । उ०— पटकि पूँछि गरराइ गुंजरिहि धरिइ ससोस सेर सिर दाउँ ।— अकबरी०, पृ० ३१९ ।
⋙ गररी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया । किलँहटी । गलगलिया । सिरोही । उ०—फटकत श्रवन श्वान द्वारे पर गररी करत लराई । माथे पर दै काक उड़ानों कुशगुन बहुतक पाई ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ गरल
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष । गर । जहर । २. सर्पविष । साँप का जहर । ३. घास का मुट्ठा । घास की अँटिया । पूला ।
⋙ गरलधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिष धारण करनेवाले, महादेव । २. साँप ।
⋙ गरलारि
संज्ञा पुं० [सं०] मरकत मणि । पन्ना ।
⋙ गरली
वि० [सं० गरलिन्] विषैला । विषयुक्त [को०] ।
⋙ गरवा पु
वि० [सं०गुरुक] [वि० स्त्री० गरवी] गरुआ । भार । महान् ।
⋙ गरवी पु
वि० स्त्री० [सं० गुर्वी] १. विशाल । भारी वजनी । उ०— गद मारयो गरवी गदा मस्तक अरि के जाइ । फूटो सिर निसरत भई रुधिर धार अधिकाइ ।—गोपाल । (शब्द०) । २. गंभीर । गुरुतायुक्त । उ०—गोरी गंगा नीर ज्यूँ मन गरवी, तन अच्छ ।—ढोला०, दू०, ४५२ ।
⋙ गरव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर । मोर ।
⋙ गरसना †
क्रि० स० [सं० ग्रसन] दे० 'ग्रसना' ।
⋙ गरह (१) †
संज्ञा पुं० [सं० ग्रह ] १. ग्रह । २. अरिष्ट । बाधा । मुहा०—गरह कटना = अरिष्ट दूर होना । दुःख नष्ट होना । आपत्ति टलना ।
⋙ गरह (२) †
वि० दे० 'ग्रह' । उ०—ममता दादु कंड इरषाई । हरष विषाद गरह बहुताई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गरहन (१)
संज्ञा पुं० [सं०गर + हन्] १. काली तुलसी । २. बबई । ममरी ।
⋙ गरहन (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली ।
⋙ गरहन (३) †पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहण] १. चंद्र या सूर्य ग्रहण । २. पकड़ने की क्रिया । धारण । वि० दे० 'ग्रहण' ।
⋙ गरहर
संज्ञा पुं० [हिं० गर = गला + सं० धर, प्रा० हर] वह काठ जो नटखट चौपायों के गले में लटकाया जाता है । कुंदा । ठेंगा । टेकुर ।
⋙ गरहेंड़ुवा
संज्ञा पुं० [सं० गवेड़ुका] गवेधुक । कसेई । कोडिल्ला ।
⋙ गराँडील
वि० [अ० ग्रांड़ या फ़ा० गराँ] लंबा तड़ंगा या मोटा ताजा । उ०—इस रीछ जैसे गरांडील आदमी से रानी को इतनी सूक्ष्मता की आशा नहीं थी ।—जनानी० पृ०, १७२ । २. बहुत बड़ा या भारी ।
⋙ गराँ
वि० [फ़ा०] दे० 'गिराँ' । मुहा०—गराँ गुजरना = (१) भारी या असह्य होना । (२) अप्रिय या नापसंद होना । यौ०-गराँकद्र = प्रतिष्ठित । संमानित । गराँकीमत = बेशकीमत । बहुमूल्य । गराँखतिर = (१) असह्य । अप्रिय । (२) अप्रसन्न ।
⋙ गराँवार
वि० [फ़ा०] १. बोझ से लदा हु्आ । २. ऋण या उपकार के भार से दबा हुआ ।
⋙ गराँव
संज्ञां पुं० [हिं० गर = गला + आँव (प्रत्य०)] एक दोहरी रस्सी जिसके एक सिरे पर मुद्धी और दूसरे सिरे पर गाँठ होती है । यह पगहे के छोर पर बीचोबीच से लगाई जाती है और बैल, घोड़े आदि के गले में डाली जाती हैँ ।
⋙ गरा (१)
संज्ञां स्त्री० [सं०] देवदाली लता । बंदाल । गरागरी ।
⋙ गरा (२)** †
संज्ञां पुं० [हिं० गला] दे० 'गर' या 'गला' ।
⋙ गराऊ †
संज्ञां पुं० [सं० गरुअ] पुराना भेड़ा । (गँड़ेरियों की बोली) ।
⋙ गरागरी
संज्ञां स्त्री० [सं०] देवदाली । बंदाल । घघर बेल । बंदाली । सोनैथा बैल । कर्कोटी । देवताड़ी ।
⋙ गराज (१) पु
संज्ञां स्त्री० [सं० गर्जन] गर्जना । गंभीर शब्द । गरज । उ०—जसवंत जसाँवत साजबाज । । चड्ढे किक्यान करि करि गराज ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गराज (२)
संज्ञां पुं० [अ० गैरेज] १. मोटर कार रखने का स्थान । २. रिक्शा रखने की जगह ।
⋙ गरड़ी
संज्ञां स्त्री० [अनु० गड़ गड़ या स० कुणडली] काठ या लोहे का वह गोल चक्कर जिसके घेरे में रस्सी बैठने के लिये गड्ढा बना रहता है और जिसमें रस्सी डालकर कुएँ से घड़ा निकालते हैं, पंखा खींचते हैं तथा इसी प्रकार के और बहुत से काम करते हैं । घिरनी । चरखी ।
⋙ गराड़ी (२)
संज्ञां स्त्री० [सं० गणड़ = चिह्ना] रगड़ आदि से पड़ी हुई गहरी लकीर गड्ढे के रूप में दूर तक पड़ा हुआ लंबा चिह्न । साँट । मुहा०—गराड़ी पड़ना = गहरा चिह्न होना ।
⋙ गराधिका
संज्ञां स्त्री० [सं०] १. लाख का कीड़ा । २. लाख का रंग [को०] ।
⋙ गरान
संज्ञां पुं० [फ० मैनग्रोब] चौरी नाम का वृक्ष जिसकी छाल से रंग निकाला और चमड़ा सिझाया जाता है ।
⋙ गराना (१)पु
क्रि० सं० [हिं० गलाना] दे० 'गलाना' ।
⋙ गराना (२)
क्रि० सं० [हिं० गारना] दे० निचोड़कर दूर करना । निचोड़ना । बहाना । उ०—तब मघवा मनमारि हारि कैं बढ़े सोंच सों छायौ । भयो कृष्ण अवतार भूमि पै मेरो गर्व गरायो (शब्द०) ।
⋙ गरानी पु, गरानी पु
संज्ञां स्त्री० [सं० ग्लानि, सं० हिं० गलानि] दे० 'ग्लानि' ।
⋙ गरानी
संज्ञां स्त्री० [फ़ा० गिरानी] दे० 'गिरानी' ।
⋙ गराब
संज्ञां पुं० [देश०] १. तीन मस्तूलोंवाला एक प्रकार का बड़ा जहाज जिसका व्यबहार १४ वीं शताब्दी में बंगाल और उसके आसपास की खाड़ियों में होता था । उ० = रज्जब प्राण पषान जड़ गुरु गराब लिए देव । षट पेखो पिंड पलटै प्रथमहि, सूष्टि जु लग्गी सेव । = रज्जब०, पृ० ७ । २. साधारण नाव ।
⋙ गरामी
वि० [फ़ा०] दे० 'गिरामी' ।
⋙ गरारा (१)
वि० [सं० गर्व, प्रा०, पुं० हिं० गारो + आर (प्रत्य०)] गर्वयुक्त । प्रबल । प्रचंड़ । बलवान । उद्धत । उ०—(क)कुंडल कीट कवट तनु धोरे । चले सैन महँ सुभट गरारे । = गोपाल (शब्द०) । (ख) सुंडन उठाए फिरैं धाये धने सम बैठे असवार मिलैं मुदित पतंग संग । गरजैं गरारे कजरारे अति दीह देह जिनहिं निहारे फिरैं बीर करि धीर भंग = गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गरारा (२)
संज्ञां पुं० [अ० ग़र्ग़रह् ग़ररह् फ़ा० गरारह्] १. कंठ में पानी डालकर गर गर शब्द करके कुल्ली करना । क्रि० प्र० = करना । २. गरगरा करने की दवा ।
⋙ गरारा (३)
संज्ञां पुं० [हिं० घेरा] १. पायजामे की ढीली मोहरी । जैसे,—गरारेदार पाजामा । २. ढीली मोहरी का पायजामा । ३. वह थैला जिसमें खेमा भरकर रखा जाता हैं ।
⋙ गरारा (४)
संज्ञां पुं० [अनु०] चौपायों का एक रोग जिसमें उनके कंठ से घुरघुर शब्द निकलता है । घुरकवा ।
⋙ गरारी †
संज्ञां स्त्री० [हिं०] दे० 'गराड़ी' ।
⋙ गरावन †
संज्ञां पुं० [हिं०] दे० 'गड़ावन' ।
⋙ गरावा †
संज्ञां पुं० [देश०] कम उपजाऊ भूमि । हलकी जमीन ।
⋙ गरास पु
संज्ञां पुं० [सं० ग्राम ] दे० 'ग्रास' ।
⋙ गरासना †
क्रि० स० [सं० ग्राम हिं० गरास + ना (प्रत्य०)] दे० 'ग्रासना' । उ०—रैनि रैनि होइ रविहि गरासा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरास मोअर
संज्ञां पुं० [अ० ग्रास + मोअर] मैदान की घास बराबर करने की कल ।
⋙ गरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारियल की गरी । गरी [को०] ।
⋙ गरित (१)
वि० [सं०] विषयुक्त । विषैला [को०] ।
⋙ गरित (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्त] दे० 'गर्त' । उ०—सुनि सुबचन गिरि राज कौ कहि रिषि कारन खात । पुत्र एक जच्चं तुमाहि गरित सपूरन गात ।—पृ० रा०, १ । १७७ ।
⋙ गरिमता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गरिमा] भारीपन । भराव । उ०— उरजनि नहिन गरिमता तैसी । बचन चातुरौ फुरी न वैसी ।—नंद० ग्र०, पृ० १५७ ।
⋙ गरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० गरिमन्] १. गुरुत्व । भारीपन । बोझ । २. महिमा । महत्व । गौरव । ३. गर्व अहंकार । घमंड़ । ४. आत्मश्लाघा । शेखी । ५. आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि जिससे साधक अपना बोझ चाहे जितना भारी कर सकता है ।
⋙ गरियर
वि० [हिं०] दे० 'गरियार' ।
⋙ गरियल (१) †
वि० [हिं०] दे० 'गरियारा' ।
⋙ गरियल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का किल किला पक्षी जिसका सिर भूरे रंग का होता है ।
⋙ गरिया
संज्ञा पुं० [देश०] एकार का पेड़ । विशेषयह मध्यप्रदेश, मध्यभारत, बरार और मद्रास में होता है । यह पेड़ साधारण ऊँचाई का होता है और शिशिर ऋतु मे इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं । इसकी लकड़ी दृढ़, कठिन सुंदर, चमकीली और साफ होती है और प्रति घनफुट पचीस तीस सेर तक भारी होती है । इससे गाड़ी, तस्वीरों के चौखटे, खेती के समान तथा मेज, कुरसी आदि बहुत सी चीजें बनाई जाती हैं । यह पानी में बहुत दिनों तक बनी रहती है और इसपर नक्काशी अच्छी होती है । हिंदुस्तान से यह लकड़ी विलायत को बहुत जाती है और वहाँ आलमारी, कुरसी, मेज, ब्रुश का दस्ता आदि बनाने के काम में आती हैं । इसे बहुरूपी भी कहते हैं ।
⋙ गरियाना †
क्रि० अ० [हिं० 'गारी' से नामिक धातु] दुर्वचन कहना । गाली देना । अपशब्द कहना ।
⋙ गरियार
वि० [हिं० गड़ना = एक जगह रुक जाना] [अन्य रूप, गरि यर, गरियल, गरियारा, गरियारू] जगह से जल्दी न उठने वाला । सुस्त । बोदा मट्ठर । उ०—पैंडे पग चालइ नहीं, होइ रहा गरियार । राम अरथ निबहै नहीं, खइबे की हुसियार ।—दादू (शब्द०) । (ख) कोई भल जस धाव तुखारू । कोइ जस चलै बैल गरियारू ।—जायसी (शब्द०) । विशेष-चौपयों के लिये इस शब्द का प्रयोग अधिक होता है ।
⋙ गरियालू (१)
संज्ञा पुं० [हिं० करिया से करियालू] एक प्रकार का रंग जो काला नीला होता है । विशेष—इसमें ऊन रँगा जाता है । इसके बनाने की विधि यह है कि दो सेर नील की बुकने गंधक के तेजाब में मिलाकर एक मजबूत मटके में रख देते हैं । यह उसमें एक दिन और रात रखी रहती है । ऊन को रंगने के पहले उसे चूने का पानी में ड़ुबाकर कई बार साफ पानी से धोकर धूप में सुखाते हैं । फिर उबलते हुए पानी में थोड़ा सा रंग मटके में से लेकर मिला लेते हैं और ऊन को उसमें डाल देते हैं । यह ऊन उसमें तबतक पड़ा रहता है जबतक उसपर रंग नहीं चढ़ जाता । फिर उसे निकालकर फिटकरी मिले पानी में पछार डालते है ।
⋙ गरियालू (२)
वि० काले नीले रंग का । गरियाले रंग का ।
⋙ गरिष्ठ (१)
वि० [सं०] अति गुरु । अत्यंत भारी । २. अत्यंत आवश्यक । अत्यंत महत्वपूर्ण (को०) । ३. जो पचने में हलका न हो । जो जल्दी न पचे । जिससे कोष्ठबद्ध हो । कब्ज करनेवाला । ४. गौरवयुक्त । गरिमामंड़ित ।
⋙ गरिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राजा का नाम । २. एक दानव का नाम । ३. एक तीर्थ का नाम ।
⋙ गरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताड़ वृक्ष ।
⋙ गरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गिरी] १. नारियल के फल के अंदर का वह गोला जो छिलके के तोड़ने से निकलता है और मुलायम तथा खाने लायक होता है । २. बीज के अंदर की गूदी । गिरी । मीगी ।
⋙ गरीठ पु
वि० [सं० गरिष्ठ, प्रा०, गरिट्ठ] गरिष्ठ । गौरवयुक्त । उ०—आवध वंधे ऊठिया आकारीठ गरीठ ।—रा०, रू०, पृ० १०६ ।
⋙ गरीब (१)
वि० [अ० गरीब] [वि० स्त्री० गरीबिन, गरीबिनी (क्व०) । संज्ञा गरीबी] १. नम्र । दीन । हीन । उ०—(क) कोटि इंद्र रचि कोटि बिनासा । मोहि गरीब की केतिक आसा ।—सूर (शब्द०) । (ख) देखियत भूप भोर कैसे उड़गन गरतगरीब गलानि है । तेज प्रताप बढ़त कुँअरिन को जदपि सकौची बानि है ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—गरीबलनिवाज । गरीबपवर । २. दरिद्र । निर्धन । अकिंचन । कंगाल । जैसे—दे दो, गरीब आदमी का भला हो जायगा । यौ०—गरीबगुरबा = निर्धन और कंगाल लोग । ३. विदेशी । परदेशी (को०) । ४. मुसाफिर । सफर करनेवाला । यौ०—गरीबजादा = वेश्यापुत्र । रंडी या खानगी का लड़का ।
⋙ गरीब (२)
संज्ञा पुं० संगीत में एक आधुनिक राग जो मुकाम राग का पुत्र माना जाता है ।
⋙ गरीबखाना
संज्ञा पुं० [अ० गरीब + फ़ा० खानह] दीन या निर्धन का घर । विशेष—विनय या नम्र भाव से अपने घर को 'गरीबखाना' कहते हैं । इसके साथ 'अपना' शब्द व्यवहृत होता है ।
⋙ गरीबनिवाज
वि० [फ़ा० गरीब + निवाज] दोनों पर दया करने— वाला । दुखियों का दुःख दूर करनेवाला । दयालु । उ०—गई बहोर गरीबनिवाजू । सरल सबल साहेब रघुराजू ।—तुलसी ।
⋙ गरीबनेवाज
वि० [फ़ा० ग़रीब + निवाज] दे० 'गरीबनिवाज' । उ० (क) नाथ गरीबनेवाज हैं मैं गही न गरीबी । तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) आजु गरीबनेवाज मही पर तो सो तुही सिवराज बिराजै ।—भूषण ग्रं०, पृ० ७ ।
⋙ गरीबपरवर
वि० [फ़ा० गरीबपरवर] गरीबों को पालनेवाला । दीनप्रतिपालक । दोनों रका रक्षक ।
⋙ गरीबान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] दे० 'गरेबान' ।
⋙ गरीबाना
वि० [फ़ा० गरीबानह्] गरीबों की तरह । गरीबामऊ ।
⋙ गरीबामऊ
वि० [हिं० गरीब + मय (प्रत्य०)] गरीबों के योग्य । कंगाल के वित्त के अनुकूल । छोटा मोटा । भला बुरा ।
⋙ गरीबी
संज्ञा स्त्री० [अ० गरीब + फ़ा० ई (प्रत्य०)] १. दीनता । अधीनता । नम्रता । उ०—(क) पुर पाँव धरिहैं उधारिहैं तुलसी से जन जिन जानि कै गरीबी गाढी़ गही हैं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कबिर केवल राम कहु शुद्ध गरीबी लाज । कूर बड़ाई बूड़सी भारी परसी काज ।—कबीर (शब्द०) । २. दरिद्रता । निर्धनता । कंगाली । मुहताजी । जैसे,—कपड़ा फटा, गरीबी आई । मुहा०—गरीबी आना = दरीद्रता होना । मुहताजी होना ।
⋙ गरीयस्
वि० [सं० गरीयस्] [वि० स्त्री० गरीयसी] १. बड़ा भारी । गुरु । २. महान् । प्रबल । जैसे,—हरीच्छा गरीयसी । ३. गौरवान्वित । महत्वपूर्ण ।
⋙ गरु †
वि० [सं० गुरु] १. भारी । वजनी । २. जिसका स्वभाव गंभीर हो । शांत ।
⋙ गरुअ †
वि० [सं० गुरुक] १. भारी । वजनी । २. गंभीर । उत्तम । उ०—सुंदरि गरुअ तोर विवेक, बिनु परिचये पेमक आँकुर पल्लव भेल अनेक ।—विद्यापति, पृ० २२६ ।
⋙ गरुअर †
वि० [हिं०] भारी । वजनी ।
⋙ गरुआ पु †
वि० [सं० गुरुक] [वि० स्त्री० गरुइ पु, गरुई] १. भारी । वजनी । २. गौरवयुक्त । गौरवशाली । उ०—बैठहु पाट छत्र नव फेरी । तुम्हरे गरब गरुइ मैं चेरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरुआई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गुरुता । भारीपन । उ०—हरि हित हरहु चाप गरुआई—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गरुआना †
क्रि० अ० [हि० गरुआ + ना (प्रत्य०)] भारी लगना । वजनी महसूस होना ।
⋙ गरुड
संज्ञा पुं० [सं० गरुड] १. विष्णु के वाहन जो पक्षियों के राजा माने जाते हैं । विशेष—ये विनता के गर्भ से उत्पन्न कश्यप के पुत्र हैं । इनकी उत्पत्ति के विषय में यह कथा है एक बार कश्यप जी ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से यज्ञ का अनुष्ठान किया । उनके यज्ञ के लिये इंद्र, बालखिल्य तथा और और देवता लकड़ी आदि सामग्री इकट्ठी करने लगे । इंद्र ने थोड़ी ही देर में लकड़ी का ढेर लगा दिया और अंगुष्ट भर के बालखिल्यों को पलाश की एक टहनी घसीटते देखकर वह उनकी हँसी करने लगा । इसपर बालखिल्यगण कुपित होकर कश्यप का पुत्र दूसरा इंद्र उत्पन्न करने के प्रयत्न में लगे । अंत में कश्यप ने उन्हें समझाकर शांत किया और कहा कि तुम जिसे उत्पन्न करना चाहते हो, वह पक्षियों का इंद्र होगा । अंत में विनता के गर्भ से कश्यप ने अग्नि और सूर्य के समान गरुड़ और अरुण दो पुत्र उत्पन्न किए । गरुड़ बिष्णु के वाहन हुए और अरुण सूर्य के सारथी । गरुड़ सर्पों के शत्रु समझे जाते हैं । पर्या०—गरुत्मान् । तार्क्ष । वैक्तेय । सुपर्ण । नागांतक । पन्नगा- शन । पक्ष्नगारि । पक्षिराज । विष्णुरथ । तरस्वी । अमृताहरण । शाल्मलिस्थ । खगेश्वर । यौ०—गरुड़गामी । गरुड़ासन । गरुड़केतु । गरुड़ध्वज । २. बहुतों के मत से उकाब पक्षी, जो गिद्ध की तरह का और बहुत बलवान् होता है । विशेष—इसकी चोंच की नोक कुछ मुड़ी होती है और इसके पैर पंजों तक छोटे-छोटे परों से ढके रहते हैं । यह अपने चंगुल में भेड़ बकरी के बच्चों तक को उठा ले जाता और खाता है । अपने बल के कारण यह पक्षिराज कहा जाता हैं । पश्चिम की प्राचीन जातियों में रोमक (रोमन) लोग उकाब को जोव (प्रधान देवता इंद्र) का पक्षी मानते थे और उसे मंगल तथा विजय का चिह्न समझते थे । अब भी रूस, आस्ट्रेलिया और जर्मनी आदि देश उकाब का चिह्न ध्वजा आदि पर धारण करते है । इन सब बातों से संभव जान पड़ता है कि गरुड़ उकाब ही का नाम हो । ३. एक सफेद रंग का बड़ा पक्षी जो पानी के किनारे रहता है । विशेष—यह तीन साढ़े तीन फुट ऊँचा होता है और इसकी गरदन सारस की तरह लंबी होती है जिसके नीचे एक थैली सी लटकती रहती है । यह् मछलियाँ, केकड़े आदि पकड़कर खाता है । इसे पँड़वा ढेक भी कहते हैं । ४. सेना की एक प्रकार की व्यूहरचना । गरुडव्यूह ।विशेष—इसमें अगला भाग नोकदार, मध्य का भाग विस्तृत पिछला भाग पतला होता है । ५. बीस प्रकार के प्रासादों में से एक । विशेष—इसमें बीच का भाग चौड़ा तथा अगला और पिछला भाग नुकीला होता । ६. चौदहवें कल्प का नाम । ७. जैन मत के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के सोलहवें अर्हत् का गणधर । ८. श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम । ९. छप्पय छंद का एक भेद । १०. नृत्य में एक प्रकार का स्थानक जिसमें बाएँ पैर को सिकोड़कर दहिने पैर का घुटना जमीन पर टेकते हैं ।
⋙ गरुड़केतु
संज्ञा पुं० [सं० गरुडकेतु] कृष्ण (को०) ।
⋙ गरुड़गामी
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़गामिन्] १. विष्णु । २. श्रीकृष्ण । उ०—इहाँ औ कासों कैहों गरुड़गामी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गरुड़घंटा
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़ + घंटा] ठाकुर जी की पूजा में बजाया जानेवाला वह घंटा जिसके ऊपर गरुड़ की मू्र्ति बनी रहती है ।
⋙ गरुड़ध्वज
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़ध्वज] १. विष्णु । २. एक प्रकार का स्तंभ जिसपर गरुड़ की आकृति बनी रहती है । ३. गुप्त राजाओं का राजकीय चिह्न [को०] ।
⋙ गरुड़पक्ष
संज्ञा पुं० [सं०गरुड़पक्ष] नृत्य में कुहनी टेढी़ करके दोनों हाथ कमर पर रखने का भाव ।
⋙ गरुड़पाश
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़पाश] एक प्रकार का फंदा या फाँसी । इसे प्राचीन काल में शत्रु को फँसाने और बँधने के लिये उस पर फेंकते थे ।
⋙ गरुड़पुराण
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़पुराण] अठारह पुराणों में से एक । विशेष—इसमें विशेषकर यमपुर तथा अनेक प्रकार के नरकों का वर्णन है । प्रेत कर्म का विधान भी इसमें है । घर के किसी बड़े बूढ़े़ व्यक्ति की मृत्यु ते अनंतर लोग इसकी कथा सुनते हैं ।
⋙ गरुड़प्लुत
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़लुप्त] नृत्य में एक प्रकार का भाव जिसमें हाथों की लता की तरह और पैरों को बिच्छू की तरह फैलाकर छाती ऊपर की ओर उभारते हैं ।
⋙ गरुड़भक्त
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़भक्त] गरुड़ की उपासना करनेवाला एक संप्रदाय । विशेष—भारतवर्ष में ईसा के जन्म के पूर्व से यह संप्रदाय प्रचलित था ।
⋙ गरुड़यान
संज्ञा पुं० [सं० गरुडयान] १. विष्णु । २. श्रीकृष्ण ।
⋙ गरुड़रुत
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़रुत] सोलह अक्षरों का एक वर्ण वृत । विशेष—इसके प्रत्येक चरण में नगण, जगण, भगण, जगण, और तगण तथा अंत में एक गुरु होता है ।—न, ज, भ, ज; त, ग । जैसे,—नजु भज तै गुख्याल निशि वासर रे मना । लहसि न सौर भूलि कहुँ यत्न कीन्हें घना । हरि—हरि के कहे भजत पाप को जूह यों । गरुड़रुतै सुनै भजन सर्प को व्यूह ज्यों ।
⋙ गरुड़व्यूह
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़व्यूह] रणस्थाल में सेना के जमाव या स्थापन का एक प्रकार । विशेष—इसमें सेना का अगला भाग नोककार, मध्य भाग अधिक विस्तृत तथा पीछे का भाग पतला होता है ।
⋙ गरुडांक
संज्ञा पुं० [सं० गरुडाङ्क] विष्णु [को०] ।
⋙ गरुडांकित
संज्ञा पुं० [सं० करुडाङ्कित] मरकत मणि । पन्ना [को०] ।
⋙ गरुडाग्रज
संज्ञा पुं० [सं० गरुडाग्रज ] गरुड का ज्येष्ठ भ्राता । सूर्य का सारथी । अरुण [को०] ।
⋙ गरुडाश्मन्
संज्ञा पुं० [सं०] पन्ना । मरकत मणि (को०) ।
⋙ गरुत्
संज्ञा पुं० [सं०] पक्ष । पंख । पर ।
⋙ गरुता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुरुता] १. गुरुता । भारीपन । २. गंभीरता । बडाई । बड़प्पन । उ०—कानन की छबि दीह लसै गिरिधरदास, गरुता अपार जाकी बरतन वेद है ।— गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गरुरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़] १. गरुड़ पक्षी । २. (लाक्ष०) मृत्यु । काल । यम । उ०—डैन पसारी गरुरा आया लिहिस पकरि धरि केसा ।—सं० दरिया, पृ० १२६ ।
⋙ गरुल †
संज्ञा पुं० [सं० गरुड] दे० 'गरुड' ।
⋙ गरुव पु
वि० [सं० गुरुक प्रा० गरुव] भारी बोझवाला । उ०—कोई हरुव जबहुँ रथ हाँका । कोई गरुव भार तें थाका ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०६ ।
⋙ गरुवा पु
वि० [सं० गुरुक; प्रा० गरुव] १. भारी बोझवाला । २. श्रेष्ठ । गंभीर । धीर । उ० बडे़ कहवत आप सो गरुवे गोपीनाथ । तौ बदिहौं जो राखिहौ । हाथनु लखि मन हाथ ।—विहारी (शब्द०) । ३. वजनी । भारी । गुरुता से युक्त । उ०—गरुवा होय गुरु होय बैठे हलका डग मग गेलै ।—कबीर श०, पृ० १०३ ।
⋙ गरुवाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गरुवा + ई ] दे० 'गरुआई' । उ०— धरिहौं मैं नर तन अब आई । हरिहौं सकल भूमि गरुवाई ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ गरुहर †
संज्ञा पुं० [हिं० गरु + हर (प्रत्य०)] भारी बोझ ।
⋙ गरू †पु
वि० [सं० गुरु] भारी । वजनी । बड़ा । उ०—गरु गयंद न टारे टरहीं । (शब्द०) ।
⋙ गरूर (१)
संज्ञा पुं० [अ० गरूर] घमंड । अभिमान ।
⋙ गरूर (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० गरुड—४ । उ०—सजो सेन अप्पान व्यूहं गरूरं ।—पृ० रा०, १ ।३२६ ।
⋙ गरुरत पु †
संज्ञा पुं० [अ० गु़रूर] घमंड । अभिमान । गर्व । अहं— कार । उ०—घूरत पर बग भूमि हृदय महँ पूरि गरूरत ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गरूरताई पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० गुरूर + हिं० ताई (प्रत्य०)] दे० 'गरूर' । 'गरूरत' ।
⋙ गरूरा (१)पु
वि० [अ० गुरूर] [वि० स्त्री० गरूरी] अहंकारी । अभिमानी । घमंडी । २. मत्त । मस्त । मतवाला । उ०—ते सरजा सिवराज लिए कबिराजन को गजराज गरूरे ।— भूषण ग्रं०, पृ० ६५ ।
⋙ गरूरा (२)पु †
संज्ञा पुं० अहंकार । अभिमान । घमंड ।
⋙ गरूरी (१) †
वि० [अ० गरूर + फा० ई (प्रत्य०)] घमंडी । अभिमानी ।
⋙ गरूरी (२)
संज्ञा स्त्री० अभिमान । घमंड । उ०—नर का जनम मिलता नहिं गाफिल गरूरी ना रखो ।—तुलसी श०, पृ० २३ ।
⋙ गरे ना †
क्रि स० [हिं० गडेरना ] दे० 'गरेरना' ।
⋙ गरेड़िया †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गडे़रिया' ।
⋙ गरेबाँ
संज्ञा पुं० [फा़० गरेबान] दे० 'गरेबन' । उ०—पहने कमाल का जामा वह जिसका कि गरेबाँ तार वने ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६५ ।
⋙ गरेबान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. अंगे, कुरते आदि कपड़ों की काट और सिलाई में वह भाग जो गले पर पड़ता है । गला । मुहा०—गरेबान चाक करना, गरेबान फाड़ना = (१) उन्माद की दशा में खासकर गले के नीचे के कपडे़ फाड़ना । (२) विक्षिप्त होना । पागल होना । गरेवान में मुँह या सिर डालना या छिपाना = (१) लज्जित या शरमिंदा होना । (२) अपराध स्वीकार करना । २. कोट आदि में वह पट्टी जो गले पर रहती है । कालर ।
⋙ गरेरना
क्रि० स० [हिं० घेरना] १. घेरना । उ०—भा धावा गढ़ लीन्ह गरेरी । कोपा कटक लाग चहुँ फेरी ।—जायसी (शब्द०) । २. छेंकना । रोकना ।
⋙ गरेरा (१)
वि० [हिं० घेरा] [वि० स्त्री० गरेरी ] चक्करदार । घुमाव— दार । घुमाव फिराववाली (वस्तु, रचना) ।
⋙ गरेरा (२)पु
संज्ञा पुं० घेरा ।
⋙ गरेरा (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] गदेला । नन्हा बच्चा । शिशु ।
⋙ गरेरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घेरा या गराड़ी ] गराड़ी । घिरनी ।
⋙ गरेरी (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गणड, हिं० गँडे़री] दे० 'गँडेरी' ।
⋙ गरेरी (३)
वि० चक्करदार । घुमावदार । खँड—खँड सीढी भई गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गरेली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गरेरी' ।
⋙ गरेरुआ †
वि० [सं० गुरु] १. भारी । वजनी । २. भयंकर । विकटा । ३. चक्करदार । घुमावदार ।
⋙ गरेवा पु
वि० [हिं०] गुरु । ज्ञानी । उ०—तुम पंडित बुधवंत गरेवा । उतरहुं आइ करउँ मैं सेवा ।—इंद्रा०, पृ० १०० ।
⋙ गरैंठी पु
वि० [सं० ग्रन्थिल] टेढ़ी । उ०—सूधे न चाहै कहूँ घन आनंद सोहै सुजान गुमान गरैठी ।—घनानंद, पृ० ३७ ।
⋙ गरेयाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला ] गराँव । गले का पगहा । उ०— बछरै खरी प्यावै गऊ तिहिं को पदमाकर को मन ल्यावत हैं । तिय जान गरैयाँ गही बनमान सु ऐंचे लला इँचे आवत हैं ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ गरोह
संज्ञा पुं० [फा०] झुँड । जत्था । समूह । गोल ।
⋙ गर्क
वि० [अ० गर्क] डूबा हुआ । उ०—ज्ञान थाह लेता था जिससे, गर्क हो रही चवह गुनिया ।—मिट्टी०, पृ० १०७ ।
⋙ गर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गोत्रप्रवर्तक वैदिक ऋषि । विशेष—ये आंगिरस भरद्वाज के वंशज थे और ऋग्वेद के छठे मंडल का ४७ वाँ सूक्त इनका रचा हुआ है । २. अथर्ववेद के परिशिष्ट के अनुसार एक प्राचीन ज्यौतिषी । ३. धर्मशास्त्र के प्रवर्तक एक ऋषि । ४. वितथ्य रजा का एक पुत्र । ५. नंद के एक पुरोहित का नाम । ६. बैल । साँड़ । ७. एक कीड़ा जो पृथिवी में घुसा रहता है । गगोरी । ८. बिच्छू । ९. केंचुआ । १०. एक पर्वत का नाम । ११. ब्रह्मा के एक मानसपुत्र का नाम जिसकी सृष्टि गया में यज्ञ के लिये हुई थी । १२. संगीत में एक ताल । विशेष—इसमें चार द्रुत मात्राएँ और अंत में एक खाली या विराम होता है ।
⋙ गर्गत्रिरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] कात्यायन श्रौत सूत्र के अनुसार एक प्रकार का योग जो तीन दिनों में होता है ।
⋙ गर्गर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भँवर । २. एक प्रकार का का प्राचीन बाजा जो वैदिक काल में बजाया जाता था । ३. गागर । ४. एक प्रकार की मछली ।
⋙ गर्गरो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बर्तन जिसमें दही मथा जाता है । माठ । दहेड़ी । २. गगरी । कलसी । ३. मथनी ।
⋙ गर्ज (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्जन] दे० 'गरज (१)' ।
⋙ गर्ज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी की चिग्घाड़ । २. मेघ या बादलों का गरजना । ३. गर्जन । ४. वह हाथी जो चिग्घाड़ रहा हो [को०] ।
⋙ गर्ज (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० गरज] दे० 'गरज' । यौ०—गर्जमंद = दे०'गरजमंद' । उ०—गर्जमंद सब हैं ।—सुनीता, पृ० ४७ ।
⋙ गर्जक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।
⋙ गर्जक (२)
वि० गरजनेवाला [को०] ।
⋙ गर्जन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीषण ध्वनि । गरजना । गरज । गभीर नाद । यौ०—गर्जन तर्जन = (१) तड़प । (२) डाँट डपट । २. शोर । आवाज । कोलाहल [को०] । ३. क्रोध । आवेश [को०] । ४. संग्राम । रण । युद्ध (को०) । ५. तिरस्कार । झिड़की । भर्त्सना [को०] ।
⋙ गर्जन (२)
संज्ञा पुं० [देश०] शाल की जाति का एक पेड़ । विशेष—इसके जंगल के जंगल हिंदुस्तान में ट्रावंकोर, मलाबार, कनारा, कोंकन, चटगाँव, बरमा, अंडमान आदि में पाए जाते हैं । इसके पेड़ पीले रंग के, सीधे और सौ सवा सौ हाथ ऊँचे होते हैं और इलकी डालियाँ बहुत दूर तक नहीं फैलतीं । इनके कई भैद हैं, जिनमें से कुछ सदाबहार भी होते हैं । इस पेड़ से एक प्रकार का निर्यास निकलता है जो कभी कभी इतना पतला होता है कि वह अलसी के तेल की तरह रँगाई के काम में लाया जाता है । बरमा में दो प्रकार के गर्जन होते हैं । एक तेलिया गर्जन जिसका निर्यास लाल रंग का होता है, और दूसरा सफेद गर्जन जिसका निर्यास सफेद रंग का होता है । इन दोनों के निर्यास पतले और अच्छे होते हैं । तेल निकालने की विधि यह है कि नवंबर से मई तक इसके पेड़ की जड़ में दो तीन गहरे चौकोर गड्ढे खोद दिए जाते हैं । फिर उनकेकिनारे किनारे आग जलाई जाती है, जिससे तेल सिमट सिमटकर गड्ढे में इकट्ठा होता जाता है और तिसरे चौथे दिन गड्ढा भर जाता है । जो तेल मिटटी पर बहकर जम जाता है, उसे खुरचकर पत्तियों में लपेट लेते और जंगलों में मोम*- बत्ती की तरह जलाते हैं । आसाम और बरमा का होलंग नामक सदाबहार वृक्ष भी इसी जाति का है, जिसका निर्यास बिरोजे की तरह का और सफेद होता है । इस जाति के कुछ वृक्षों का निर्यास अधिक गाढ़ा होता है और राल की तरह जलाने के काम में आता है । यह वृक्ष बीजों से उगता है और इसके फल तथा बीज शाल के फलों और बीचों की तरह होते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और प्रति घन फुट २५*-३० सेर भारी होती है और नाव तथा घर बनाने के काम में आती है ।
⋙ गर्जना
क्रि० अ० [सं० गर्जन ] दे० 'गरजना' । उ०—चलत दसानन डोलत अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहि सुर रवनी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गर्जर
संज्ञा पुं० [सं०] गाजर [को०] ।
⋙ गर्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों का गर्जन [को०] ।
⋙ गर्जाफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जवासा । विकंटक । २. युद्ध । लड़ाई । ३. भर्त्सना [को०] ।
⋙ गर्जि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों का गरजना [को०] ।
⋙ गर्जित (१)
वि० [सं०] गर्जा हुआ ।
⋙ गर्जित (२)
संज्ञा पुं० १. मेघगर्जन । बातलों का गरजना । २. मत्त या मतवाला हाथी [को०] ।
⋙ गर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड्ढा । गड़हा । २. दरार । ३. घर । ४. रथ । ५. जलाशय । ६. एक नरक का नाम । ७. नहर (को०) । ८. समाधि या कब्र (को०) । ९. एक प्रकार का रोग (को०) । १० त्रिगर्त देश का भागविशेष (को०) । ११. सिंह की माँद या गुफा (को०) । यौ०—गर्ताश्रय = बिलेशय या बिल में रहनेवाले जीव । जैसे, चूहा, खरगोश आदि ।
⋙ गर्तकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जगर जहाँ जुलाहे वस्त्र बुनते हैं । जुलाहे का कपड़ा बुनने का स्थान [को०] ।
⋙ गर्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिल । छेद । २. गुहा । गुफा । खोह [को०] ।
⋙ गर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गर्तकी' ।
⋙ गर्थ पु
संज्ञा पुं० [हिं० गथ, गरथ] संपत्ति । उ०—ठुनिया संचै गर्थ भँटारा सोना रूपा दाम रे ।—राम० धर्म०, पृ० २१९ ।
⋙ गर्द (१)
वि० [सं०] गरजने या चिल्लानेवाला [को०] ।
⋙ गर्द (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] धूल । राख । खाक । क्रि० प्र०—उठाना ।—उड़ाना । मुहा०—गर्द उठना या उड़ना = हवा के साथ धूल का फैलना । गर्द उठाना— = दरी की बुनावट में नीचेवाले डंडे के तागों को बैठा चुकने के बाद, रस्सी के दोनों छोरों को खडी लकड़ी में बाँधकर ऊपर के डंडे के तागों को बेठाना या जमाना । गर्द उड़ाना = नष्ट या चौपट करना । धूल में मिलाना । बरबाद करना । जैसे,—सेना ने नगर की गर्द उड़ा दी । गर्द झड़ना = ऐसी मार खाना जिसकी परवाह न हो । गर्द फाँकना = व्यर्थ घूमना । आवारा फिरना । गर्द को न पहुँचना या न लगना = समता न कर सकना । गर्द होना = (१) तुच्छ होना । समता के योग्य न होना । हेच होना । जैसे; —इसके सामने सब गर्द है । (२) नष्ट होना । चौपट होना । यौ०—गर्द गुबार = धूल मिट्टी । गरदा । क्रि० प्र०—उठना ।—उड़ना ।—निकलना ।—बैठना ।— जमना ।
⋙ गर्द (३)
वि० [फा़०] घूमने या भटकनेवाला । विशेष—यह केवल समस्त रूप में प्राप्त है । जैसे; —आवारागर्द ।
⋙ गर्दखोर (१)
वि० [फा़० गर्दखोर ] जो गर्द या मिट्ठी आदि पड़ने से जल्दी मैला या खराब न हो । जैसे,—खाकी रंग ।
⋙ गर्दखोर (२)
संज्ञा पुं० नारियल की जटा या इसी प्रकार की और चीजों का बना हुआ गोल या चौकोर टुकड़ा जो पाँव पोंछने के काम आता है ।
⋙ गर्दखोरा
वि० संज्ञा पुं० [फा० गर्दखोर] दे० 'गर्दखोर' ।
⋙ गर्दन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गरदन' ।
⋙ गर्दना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गरदना' ।
⋙ गर्दनाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] कुमुद । कोई [को०] ।
⋙ गर्दभंग
संज्ञा पुं० [हिं० गर्द + भंग] एक प्रकार का गाँजा । विशेष—यह कश्मीर के दक्षिणी भागों में उत्पन्न होता है । इसे चूरू चरस भी कहते हैं ।
⋙ गर्दभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गधा । गदहा । २. श्वेत कुमुद । सफेद कोई । ३. बिड़ंग । ४. गदहिला नामक कीड़ा ।
⋙ गर्दभक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुबरैला नामक कीड़ा । २. एक चर्म रोग । गदहिला । गर्दभिका [को०] ।
⋙ गर्दभगद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चर्मरोग । गर्दभिका [को०] ।
⋙ गर्दभयाग
संज्ञा पुं० [सं०] वह यज्ञ जो ब्रह्मचर्य ब्रत से च्युत होने के दोष के प्रायश्चित के रूप में किया जाता है । अवकीर्ण याग ।
⋙ गर्दभशाक
संज्ञा पुं० [सं०] भारंगी । ब्रह्मयष्टि ।
⋙ गर्दभशाख, गर्दभशाखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गर्दभशाक' ।
⋙ गर्दभांड
संज्ञा पुं० [सं० गर्दभाणड] १. पलखा । पाकड़ । पाखर । प्लक्ष । २. पीपल [को०] ।
⋙ गर्दभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद कंटकारी ।
⋙ गर्दभि
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ गर्दभिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रोग का नाम जिसमें वात पित्त के विकार से गोल ऊँची फुंसियाँ निकलती हैं । इन फुंसियो का रंग लाल होता है और इसमें बहुत पीड़ा होता है । गदहीला । गदहीखी ।
⋙ गर्दभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार एक कीड़ा । २. अपराजितानाम की लता । ३. सफेद कंटकारी । ४. गर्दभिका नामक रोग । ५. गदही ।
⋙ गर्दाबाद
वि० [फा़०] १. गर्द से भरा हुआ । २. उजाड़ । ध्वस्त । गिरा पड़ा । †३. बिसुध । बेहोश ।
⋙ गर्दालू
संज्ञा पुं० [फा० गर्द (= गोला) + आलू] आलू बुखारा ।
⋙ गर्दिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. घुमाव । चक्कर । क्रि० प्र०—करना । २. विपत्ति । आपत्ति । दिनों का फेर । क्रि० प्र०—आना ।—होना । यौ०—गर्दिशे जमाना = दिनों का फेर दुर्भाग्य । ३. गति । हरकत । ४. परिर्वतन ।
⋙ गर्दुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गरदुआ' ।
⋙ गर्दू
संज्ञा पुं० [फा़०] १. गाडी । यान । रथ । २. आकाश [को०] ।
⋙ गर्द्ध, गर्ध
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गर्द्धी, गर्द्धित] १. स्पृहा । लोभ । लिप्सा । २. गर्दभाड नाम का वृक्ष । पलखा । पाकर ।
⋙ गर्द्धन, गर्धन
वि० [सं०] लुब्ध । लालची ।
⋙ गार्द्धित, गर्धित
वि० [पुं०] लुब्ध । लालची । लोभी ।
⋙ गर्द्धी, गर्धी
वि० [सं० गर्द्धिन्] [स्त्री० गर्द्धिनी] १. लोभी । लालची । २. लुब्ध ।
⋙ गर्नाल
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गरनाल' ।
⋙ गर्ब
संज्ञा पुं० [सं० गर्व] दे० 'गर्व' ।
⋙ गर्बगहोली पु
वि० स्त्री० [हिं०] गर बीली । गरबगहीली । गर्व से भरी हुई । उ०—राधा हरी गै गर्बगहीली ।—सूर०, १० । १७७२ ।
⋙ गर्बना †
क्रि० स० [सं०गर्व] गर्व करना । अभिमान करना ।
⋙ गर्बीला पु
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० गर्वीली ] गर्वयुक्त । अभिमानी ।
⋙ गर्भंड
संज्ञा पुं० [सं० गर्भण्ड ] वह नाभि जो अंडे की तरह उभरी हो । नाभि का बढ़ना ।
⋙ गर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट के अंदर का बच्चा । हमल । जैसे— उसे तीन महीने का गर्भ है । उ०—चलत दसानन डोलति अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—स्त्री के रज और पुरुष के वीर्य के संयोग से गर्भ की स्थिति होती है । हारीत के मत से प्रथम दिन शुक्र और शोणित के संयोग से जिस सूक्ष्म पिंड की सृष्टि होती है, उसे कलल कहते हैं । दस दिन में यह कलल बबूलों के रूप में होता है । एक महीने में सूक्ष्य रूप में पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति और पंचभूतों की प्राप्ति होती है । तीसरे महीने हाथ पैर निकलते हैं और साढे़ तीन महीने पर सिर या मस्तक उत्पन्न होता है और उसकी भीतरी बनावट पूरी होती है । चौथे महीने में रोएँ निकलते हैं । पाँचवें महीने जीव का सचार होता है । छठे महीने में बच्चा । हिलने डोलने लगता है । दसवें या अधिक से अधिक ग्यारहवें महीने में बच्चे का जन्म होता है । इसी प्रकार सुश्रूत ने पहले मस्तक, फिर ग्रीवा, फिर दोनों पार्श्व और फिर पीठ का होना लिखा है । सुश्रूत ने वक्षस्थल के अंदर कमल के आकार का हृदय माना है और उसे जीवात्मा या चेतना शक्ति का स्थान कहा है । कन्या और पुत्र के भेद के विषय में भावप्रकाश आदि ग्रंथों में लिखा है कि जब गर्भ में शुक्र की प्रबलता होता है, तब पुत्र और जब रज की प्रबलता होती है, तब कन्या होती है । आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के मत से रज और शुक्र के संयोग से गर्भ की स्थिति और बच्चे का जन्म होता है । पर उनके मत से अंडकेश के दाहिने भाग में ऐसे पदार्थ की स्थिति रहती है जिसमें पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति होती है, और बाएँ भाग में कन्या उत्पन्न करने की शक्तिवाला पदार्थ रहता है । गर्भाधान के समय गर्भाशय में जिस पदार्थ की अधिकता हो जाती है, उसी के अनुसार कन्या या पुत्र की सृष्टि हिती है । इसी सिद्धांत के बल पर वे कहते हैं कि मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार पुत्र या कन्या उत्पन्न करने में समर्थ हो सकता है । पाश्चात्य खोज इस विषय में बहुत आगे बढ़ी हुई है । पुरुष वीर्य के एक बूँद में सूत के से लंबे सूक्ष्म विर्याणु रहते हैं, जो सूक्ष्म रोयों के सहारे तैरते रहते हैं । वीर्याणु से स्त्री के रजाणु कुछ बडे़ और कौड़ी के आकार के होते हैं । पुष्ट होने पर ये ही गर्भाणु हैं या गर्भांड कहलाते हैं । इनका व्यास १/१२५ इंच होता है और इनके अंदर प्राण रस रहता है । जव रज और वीर्य का संयोग होता है, तब सूक्ष्म गर्भाणु और शुक्राणु एक दूसरे को आकर्षित करके मिल जाते हैं । इस आकर्षण का कारण प्राण या रसानुभव मे मिलती जुलती एक प्रकार की चेतना बतलाई जाती है, जो इन सूक्ष्म प्राणाणुओं या प्राणकोशों में होती है । बहुत से शुक्राणु गर्भाणु की ओर झुकते हैं और उसमें घुसना चाहते हैं, पर घुसने पाता है कोई एक ही । जब कोई शुक्राणु सिर के बल उसमें घुस जाता है, तबं गर्भांड के ऊपर की एक झिल्ली छूटकर अलग हो जाती है और रक्षक कोश की तरह बन जाती है, जिससे और शेष शुक्राणु गर्भांड के अंदर नहीं घुसने पाते । इस प्रकार इन देनों प्राणाणु कोशों के संयोग से एक स्वतंत्र कोश की सृष्टी होती है, जिसे मूलकोश कहते हैं । इसके उपरांत प्राण रस का विभाग होता है । इस विभागक्रम के द्वारा धीरे धीरे बहुत से प्राणकोशों का समूह बबूलों (या शहतूत) की तरह बन जाता है, जिसे आयुर्वेदिक आचार्यों ने कलल कहा है । क्रि० प्र०—रहना ।—होना । यौ०— गर्भपात । गर्भस्त्राव । मुहा०— गर्भ गिरना = पेट के बच्चे का पूरी बाढ़ के पहले ही निकल जाना । गर्भपात होना । गर्भ गिराना = पेट के बच्चे को औषध या आधात द्वारा पूरी बाढ़ या पूरे समय के पहले निकाल देना । गर्भपात कराना । २. स्त्री के पेट के अंदर का वह स्थान जिसमें बच्चा रहता है । गर्भाशय । उ०— जाके गर्भ माहिं रिपु मोरा । ताको बध करिहौं यहि ठौरा ।—रघुराज (शब्द०) । ३. फलित ज्योतिष में नए मेघों की उत्पत्ति जिससे वृष्टि का आगम होता है । ४. गर्भाधान का समय (को०) । ५. किसी वस्तु के भीतर का या मध्यवर्ती भाग (को०) । ६. छिद्र । बिल (को०) ।७. नदी का पेट या उसकी तलहटी (को०) । ८. फल (को०) । ९. आहार (को०) । १०. सूर्य की किरशों द्वारा सुखाई हुई और आकाशस्थ वाष्प की राशि (को०) । ११. गृह या मंदिर का केंद्रीय या आंतरिक भाग (को०) । १२. अन्न (को०) । १३. अग्नि (को०) । १४. नाटक की पाँच संधियों में से एक (को०) । १५. कटहल का काँटेदार छिलका (को०) । १६. संयोग (को०) । १७. कमल का कोश । पद्यकोश (को०) ।
⋙ गर्भ (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्व, प्रा० गब्ब, गब्भर, पु० हिं० ग्रब्ब, ग्रम्भ] गर्व । अभिमान । अकड़ । उ०— भरहि दंड बल संड गर्भ गर्भन डर छंडहि । सगपन इक षग त्रास षलक सेवा सिर मंडहि ।—पृ० रा०, ८ ।२ ।
⋙ गर्भक
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रजीव वृक्ष । पतजिव । २. वह माला जो बालों के बीच धारण की जाय (को०) । ३. दो रातों और उनके मध्यवर्ती दिन का समय (को०) ।
⋙ गर्भकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'गर्भकार' । २. पुत्रजीव नाम का एक वृक्ष [को०] ।
⋙ गर्भकरण
संज्ञा पुं० [सं०] कोई वस्तु जो गर्भकारक हो [को०] ।
⋙ गर्भकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० गर्भकर्तृ] गर्भसूक्त का प्रणेता [को०] ।
⋙ गर्भकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिससे गर्भ रहे । गर्भ धारण करानेवाला । जैसे— पति, जार आदि । २. सामगान का एक भेद जिसमें वैराज के आदि और अंत में रथंतर का गान क्रिया जाता है ।
⋙ गर्भकारी
वि० [सं० गर्भकारिन्] गर्भ धारण करानेवाला । गर्भकारक [को०] ।
⋙ गर्भकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भाधान के उपयुक्त काल । ऋतु- काल । २. वह समय जिसमें स्त्री के पेट में बच्चा रहता है ।
⋙ गर्भकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] फूलों से वे बाल के से पतले सूत जे गर्भनाल के अंदर होते हैं और जिनके साथ परागकेसर के पराग का सेल होने से फलों और बिजों की पुष्टि होती है ।
⋙ गर्भकोष
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भाशय ।
⋙ गर्भक्लेश
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ धारण का कष्ट । प्रसव की पीड़ा (को०) ।
⋙ गर्भक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भच्युति । कर्भपात [को०] ।
⋙ गर्भगुर्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भिणी [को०] ।
⋙ गर्भगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान के बीच की कोठरी । मध्य का घर । २. घर का मध्य भाग । आँगन । ३. मंदिर में बीच की वह प्रधान कोठरी जिसमें मुख्य प्रतिमा रघी जाती है । ४. प्रसूतिकागृह [को०] ।
⋙ गर्भगेह
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भाशय । गर्भ ।
⋙ गर्भग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ की स्थिति । गर्भधारण [को०] ।
⋙ गर्भग्राहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धात्री । धाय । दाई [को०] ।
⋙ गर्भधातिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लांगलिका वृक्ष ।
⋙ गर्भधाती
वि० [सं० गर्भधातिन्] [स्त्री० गर्भधातिनी] गर्भपात करनेवाला ।
⋙ गर्भचलन
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ में बच्चे का हिलना डोलना [को०] ।
⋙ गर्भच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गर्भपात । २. प्रसव [को०] ।
⋙ गर्भज
वि० [सं०] १. गर्भ से उत्पन्न । संतान । २. जो जन्म से हो । जिसे साथ लेकर कोई उत्पन्न हो । जैसे, गर्भज रोग । गर्भज गुण ।
⋙ गर्भजात
वि० [सं०] दे० 'गर्भज' ।
⋙ गर्भद (१)
वि० [सं०] गर्भ देनेवाला । जिससे गर्भ रहे ।
⋙ गर्भद (२)
संज्ञा पुं० पुत्रजीव वृक्ष ।
⋙ गर्भदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद भटकटैया ।
⋙ गर्भदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत कंटकारि । सफेद भटकटैया ।
⋙ गर्भदास
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो जन्म से दास हो । दासीपुत्र ।
⋙ गर्भदिवस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ का समय । गर्भकाल ।२. बृहत्संहिता के अनुसार १९५ दिन का काल जिसमें मेघ का गर्भ होता है । यह समय प्रायः कार्तिकी पूर्णिमा के बाद आता है ।
⋙ गर्भद्रुत
संज्ञा पुं० [सं०] पारे का तेरहवाँ संस्कार जो शुद्धि के लिये किया जाता है ।
⋙ गर्भद्रुह
वि० [सं०] जो गर्भ रहने का विरोधी हो । जो गर्भाधान न चाहे ।
⋙ गर्भद्रुहा
वि० [सं०] (स्त्री) जो गर्भधारण की विरोधिनी हो । जो गर्भ धारण करना न चाहती हो । जो गर्भ गिरवे ।
⋙ गर्भध
वि० [सं०] गर्भ धारण करानेवाला ।
⋙ गर्भधरा
वि० स्त्री० [सं०] गर्भ धारण करनेवाली । गर्भवती [को०] ।
⋙ गर्भधारण
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ होने की अवस्था । गर्भवती रहना ।
⋙ गर्भन पु
वि० [सं० गर्विन्] घमंडी । गर्वयुक्त । गर्वर । अभिमानी । उ०— अति प्रचंड बल संड गर्भ गर्भन डर छंडही ।—पृ० रा०, ८ ।२ ।
⋙ गर्भनाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्भनाड़ी] सुश्रुत के अनुसार गर्भाशय की एक नाड़ी जिससे गर्भधारण होता है ।
⋙ गर्भनाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूलों के अंदर की वह पतली नाल जिसके सिरे पर गर्भकेसर होता है । विशेष—इसी गर्भकेसर और परागकेसर के संमिश्रण से फलों और बीचों की पुष्टि और वुद्धि होती है ।
⋙ गर्भनिस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं०] वह झिल्ली आदि जो वच्चे के उत्पन्न होने पर पीछे से निकलती है । जैसे—आँवर, खेड़ी ।
⋙ गर्भपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोमल पत्ता । गाभा । कोंपल । २. फूल के अंदर के पत्ते जिनसें गर्भकेसर रहता है । गर्भनाल ।
⋙ गर्भपाकी
संज्ञा पुं० [सं०] साठी धान ।
⋙ गर्भपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ का पाँचवें या छठे महीने में गिर जाना । २. गर्भ का गिरना । पेट के बच्चे का पूरी बाढ़ के पहले निकल जाना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गर्भपातक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल सहिंजन । रक्त शोभांजन ।
⋙ गर्भपातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट गिराना । गर्भहत्या । २. रीठा ।
⋙ गर्भपातिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलिहारी । कलियारी । २. विशल्या नामक ओषधि ।
⋙ गर्भभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह घर जो बीच में हो । मध्य की कोठरी । २. प्रसूतिकागृह । सौरी ।
⋙ गर्भमंडप
संज्ञा पुं० [सं० गर्भमण्डप] १. गर्भगृह । २. शयनागार [को०] ।
⋙ गर्भमास
संज्ञा पुं० [सं०] वह महीना जिसमें गर्भाधान हो ।
⋙ गर्भमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसव । जनन [को०] ।
⋙ गर्भरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव । विशेष—यह ११२ हाथ लंबी, ५६ हाथ चौड़ी और ५६ हाथ ऊँची होती थी और नदियों में चलती थी ।
⋙ गर्भलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ के सूचक चिह्न [को०] ।
⋙ गर्भवंत पु
वि० स्त्री० [हिं०] गर्भ धारण करनेवाली । गर्भवती । उ०—गर्भवंत होती तिही नारी । इंद्र अवाज सुनी अधिकारी ।—कबीर सा०, पृ० ८४६ ।
⋙ गर्भवती
वि० स्त्री० [सं०] जिसके पेट में बच्चा हो । गर्भिणी । गुर्विणी ।
⋙ गर्भवध
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ का विनाश । भ्रूणहत्या [को०] ।
⋙ गर्भवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ के अंदर की स्थिति । २. गर्भाशय ।
⋙ गर्भव्याकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिकित्सा शास्त्र का वह अंग जिसमें गर्भ की उत्पत्ति तथा वृद्धि आदि का वर्णन होता है । २. गर्भ की स्थिति और वृद्धि (को०) ।
⋙ गर्भव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध में सेना की एक प्रकार की रचना । विशेष—इसमें सेना कमल के पत्तों की तरह अपने सेनापति या रक्ष्य वस्तु को चारों ओर से घेरकर खड़ी होती और लड़ती थी ।
⋙ गर्भशंकु
संज्ञा पुं० [सं० गर्भशंकु] चिकित्सा शास्त्रानुसार एक प्रकार की सँड़सी । विशेष—इससे मरे हुए बच्चे को पेट के अंदर से निकालते हैं । इसके मुँह का घेरा आठ अंगुल का होता है ।
⋙ गर्भशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भ की उत्पत्ति का स्थान ।
⋙ गर्भसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्भसन्धि] नाटय शास्त्र के अनुसार पाँच प्रकार की संधियों में से एक ।
⋙ गर्भस्थ
वि० [सं०] जो गर्भ में हो । जिसका जन्म होनेवाला हो ।
⋙ गर्भस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भाशय ।
⋙ गर्भस्त्राव
संज्ञा पुं० [सं०] चार महीने के अंदर का गर्भपात जिसमें रुधिरादि गिरता है । विशेष—इस अवस्था में शास्त्रानुसार जितने महीने का गर्भ होता है, उतने दिनों तक सूतक लगता है, जिसे गर्भस्त्राव शौच कहते है ।
⋙ गर्भस्त्रावी (१)
संज्ञा पुं० [सं० गर्भस्त्राविन्] हिंताल नामक वृक्ष, जो एक प्रकार का ताड़ है ।
⋙ गर्भस्त्रावी (२)
वि० गर्भपात करने या करानेवाला [को०] ।
⋙ गर्भहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ्रूणहत्या । गर्भपात ।
⋙ गर्भाक
संज्ञा पुं० [सं० गर्भाङ्क] नाटक के अंकग का एक अंश जिसमें केवल एक दृश्य होता है । विशेष—इसकी समाप्रि पर पहली जव निका उटाई अथवा दूसरी गिराई जाती है; और तब दूसरा । दृश्य आरंभ होता है ।
⋙ गर्भागार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कोठरी जो घर के मद्य में हो । घर के बीच का कमर । गर्भगृह । २. आँगन । ३. गर्मस्थान । गर्भशय ।
⋙ गर्भधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. गृह्मसूत्र के अनुसार यमनुष्य के सोलह संस्कारों में से पहला संस्कार । विशेष—यह संस्कार उस समय होता है, जब स्त्री० ऋतुमती हो । चुकती हैं । २. गर्भ की स्थिति । गर्भघारण ।
⋙ गर्भना पु
वि० [ वि० गर्भ = गर्व] गर्वीला हेना । गर्वयुक्त होना । गरबाना । उ०—गरभ जन्म बालक भयो रे तरूनाये गर्भान ।—दरिया० बनी, पृ० ४१ ।
⋙ गर्भारि
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी इलायची [को०] ।
⋙ गर्भाशय
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों के वह स्थान जिसमें बच्चा रहता है । बच्चादानी । विशेष—स्त्रियों का गर्भाशय या गर्भकोश वास्तव में वही अवयव है जो पुरूषों का अंड़कोश है । स्त्रियों में यह अंदर होता हैं, पुरूषों में बाहर । इसी की भिन्नता यसे स्त्री और पुरूष के और और ल क्षणों की भिन्नता उत्पन्न होती है । इसी गर्भशय में रजाणु या गर्भणु रहते हैं । जो जीव जितने ही अधिक अंड़े देते हैं, उनके गर्भाशय उतने ही बड़े होते हैं । स्त्री का गर्भाशय १/?/१/२ इंच लंबा, ३/४ इंच चौड़ा और १/३ इंच मोटा होता हैं और उसमें एक गर्भनाड़ी रहती हैं, जिससे बच्चा निकलता है ।
⋙ गर्भिणी
वि० स्त्री० [सं०] जिसे गर्भ हो । गर्भवती । पेटवाली । यौ—गर्भिणी अवेक्षण= गर्भवती की देखभाल । गर्भिणी दोहद = गर्भवती की लालसा या रुचि । गर्भिणी व्याकरण, गर्भिणीव्याकृति = गर्भ के विकासक्रम यका विज्ञान । आयुर्वेद शास्त्र को एक अंग ।
⋙ गर्भिर्णी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रचीनकाल की एक प्रकार की नाव । विशेष—यह ८० हाथ लंबी, ४० हाथ चौड़ी और ४० हाथ ऊँची होती थी और समुद्र में चलती थी । इसपर यात्रा करना अशुभ और अनिषष्टकारक समझा जाता था । २. खिरनी । क्षीरिका ।
⋙ गर्भिणीत्व
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भणी होना । गर्भयुत्क होना [को०] ।
⋙ गर्भित (१)
वि० [सं०] १. गर्भयुक्त । २. भरा हुआ । पूर्ण । पूरित । जैसे,—अर्थगर्भित ।
⋙ गर्भत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य का एक दोष जिसमें कोई अतिरिक्त वाक्य किसी वाक्य के अंतर्गत आ जाता है ।
⋙ गर्भी
वि० [सं० गर्भिन्] गर्भयुत्क [को०] ।
⋙ गर्भेतृप्त
वि० [सं०] १. गर्भस्थ बालक की तरह संतुष्ट । आहारादि की चिंता से मुक्त । २. आलसी । अकर्मणय [को०] ।
⋙ गर्भेपघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ का नष्ट होना । २. बादल में जल उत्पन्न करने की शक्ति का नष्ट हो जाना ।
⋙ गर्भोपनिषद्
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद संबंधी एक उपनिषद् । विशेष—इसमें गर्भ की उत्पत्ति और उसके बड़ने अदि का वर्णन किया गया है ।
⋙ गर्म
वि० [फ़ा०] दे० 'गरम' ।
⋙ गर्मागर्म
वि० [हिं०] गरमागरम । ताजा । उ०—कोई गर्मागर्म जलेबी और पूरी ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ, १४३ ।
⋙ गमुंत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की घास । २. नरकुल की एक जाति । ३. सोना । कनक । ४. एक प्रकार की मधुमक्खी [को०] ।
⋙ गर्यालू
वि० [हिं० गरियालू] काले नीले रंग का । गरियालू ।
⋙ गर्रा
वि० [सं० गरहाधिक = लाख] लाख के रंग का । लाही ।
⋙ गर्रा (२)
संज्ञा पुं० १. लाखी रंग । २. घोड़े का एक रंग जिसमें लाही बालों के साथ कुछ सफेद बाल मिले होते हैं । ३. इस रंग का घोड़ा । उ०—ताजी सुरखी चीनिया लक्खी गर्रा बाज । कुल्ला मुसकी तोलिया केहरि मगसी साज ।—प० रासो, पृ० १३८ ।
⋙ गर्रा (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. बहते हुए पानी का थपेड़ा । उ०— भेढ़ा भँवर उछालन चकरा समेट माला । बैड़ा गंभीर तख्ता कट्ठे पछार गर्रा । नजीर (शब्द०) । २. गर्दन पर मारा जानेवाला थपेड़ा । रद्दा । ३. बहावलपुर वा भावलपुर में प्रयुक्त (जो अब पाकिस्तान में है) सतलज नदी का नाम ।
⋙ गर्रा (४)
संज्ञा पुं० [हिं० गराड़ी] गराड़ी ।
⋙ गर्रा (५)
संज्ञा पुं० [अ० गर्रह्] १. अभिमान । घमंड़ । २. घुमाव । ऐंठन । मरोड़ । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।
⋙ गर्री
संज्ञा स्त्री० [ हिं०गरेरना] १. खलिहान में लगाई हुई ड़ंठलों की गाँज । २. तागा या तार लपेटने का एक औजार ।
⋙ गर्ल
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लड़की । बालिका । २. युवती । जवान स्त्री । ३. प्रेमिका ।
⋙ गर्लस्कूल
संज्ञा पुं० [अं० गर्ल्स स्कूल] वह विद्यालय जिसमें लड़कियाँ पढ़ती हों । कन्या विद्यालय ।
⋙ गर्व
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गर्वित, गर्ववान्] १. अहंकार । घमंड़ । २. एक प्रकार का संचारी भाव । अपने को सब से बड़ा और दूसरों को अपने से छोटा समझने का भाव ।
⋙ गर्वगरु पु
[सं० गर्व + हिं० गरु] उद्धत ।—नंद ग्रं०, पृ० १११ ।
⋙ गर्वप्रहारी
वि० [सं० गर्वप्रहारिन्] गर्व का नाश करनेवाला । घमंड़ चूर्ण करनेवाला ।
⋙ गर्वर
वि० [सं०] अभिमानी । घमंड़ी [को०] ।
⋙ गर्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०] ।
⋙ गर्ववंत
वि० [सं० गर्ववान् का वहु व० गर्ववंतः] घमंड़ी । अभि—मानी । अहंकारी । उ०—गर्ववंत सुरपति चढ़ि आयो । बाम करज गिरि टेकि दिखायो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गर्वाट
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल । चौकीदार [को०] ।
⋙ गर्वान पु
क्रि० अ० [सं० गर्व] गर्व होना । अभिमान होना । घमंड़ या अहंकार होना । उ०—ज कहहा तुम इतनेहि को गर्वानी । जोबन रूप दिवस दसही को ज्यों अँगुरी को पानी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गर्वित
वि० [सं०] गर्वयुक्त । अभिमान भरा । घमंड़ी ।
⋙ गर्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नायिका जिसे अपने रूप और गुण आदि का घमंड़ हो । यह दो प्रकार की होती है—रूपगर्वीता और प्रेमगर्विता ।
⋙ गर्विष्ठ
वि० [सं०] अहंकार करनेवाला । गर्वयुक्त । घमंड़ी ।
⋙ गर्वी
वि० [सं० गर्विन्] घमंड़ी । अहंकारी । मगरूर ।
⋙ गर्वीला
वि० [सं० गर्व + हि० ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० गर्वीली] घमंड़ से भरा हुआ । अभिमानयुक्त । घमंड़ी । उ०—जिनि वह सुधापान मुख कीन्हों वे कैसे कटु देखत । त्यों ए नैम भए गर्वीले अब काहे हम लेखत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गर्वोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्वपूर्ण कथन या बात ।
⋙ गर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० गर्हण] [वि० गर्हणीय, गर्हित, गहर्य, गर्हितव्य] निंदा । शिकायत ।
⋙ गहंणीय
वि० [सं०] निंदा करने के योग्य । बुरा । निंदनीय ।
⋙ गर्हा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निंदा ।
⋙ गर्हित
वि० [सं०] जिसकी निंदा की जाय । निंदित । दूषित । बुरा ।
⋙ गर्हितव्य
वि० [सं०] निंदनीय । गर्हणीय [को०] ।
⋙ गर्ही
वि० [ सं० गर्हिन्] निंदा करनेवाला । निंदक [को०] ।
⋙ गर्ह्य
वि० [सं०] निंदा करने योग्य । निंदनीय । यौ०— गर्ह्यवादी = वितथ या निंद्य भाषण करनेवाला ।
⋙ गर्ह्माणक
वि० [सं०] दुष्ट । बुरा [को०] ।
⋙ गलंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं गलन्तिका] १. छोटा कलश । २. छेद युक्त घड़ा जिससे शिवलिंग आदि पर जल का अभिषेक होता रहता है [को०] ।
⋙ गलंती
संज्ञा स्त्री० [सं० गल्न्ती] दे० 'गलंतिका' ।
⋙ गलंश
संज्ञा स्त्री० [सं० गलितांश] वह जायदाद जिसका मालिक मर गया हो और उसका कोई उत्राधिकारी न हो ।
⋙ गल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गला । कंठ । गरदन । २. राल । ३. गड़ाकू नाम की मछली । ४. एक प्राचीन बाजे का नाम । ५. रस्सी (को०) । ६. एक प्रकार की लंबी घास । बृह्तकाश [को०] ।
⋙ गलई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गलही' ।
⋙ गलकंबल
संज्ञा पुं० [सं० गलकम्बल] गाय के गले के नीचे का वह भाग यजो लटकता रहता है । झालर । लहर । उ०—अंतर अयन अयनु भल थलु फल बच्छवेद विश्वासी । गलकंबल बरना विभाति जनु लूम लसति सरिता सी—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गला । २. गड़ाकू मछली । ३. मोती [को०] ।
⋙ गलका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गलना] १. एक प्रकार का फोड़ा जो हाथ की उँगलियों के अगले भाग में होता है और बहुत कष्ट देता है । २. एक तरह का । चाबुक । गलकोड़ ।
⋙ गलका (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] खट्टे या कच्चे फल का शकर तथा मसालों के साथ बनाया हुआ अचार । उ०—कबीर मन बिकरै पड़या गया स्वाद कै साथि । गलका खाया बरजता अब क्यूँ आवै हाथि ।—कबीर ग्रं०, पृ० २९ ।
⋙ गलकोड़ा
संज्ञा पुं० [ हिं० गला + कोड़ा] १. मालखंभ की एक कसरत । विशेष—इसमें पीठ की तरफ गरदन पर से बेत को ले जाकर एक हाथ में उसे लपेट लेते हैं और दूसरी ओर के पाँव में अंटी देकर गले के जोर पर लटक जाते हैं । २. कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें एक बगल में शत्रु की गरदन दबाकर दूसरा हाथ उसकी बगल से पीठ पर ले जाते हैं और उसे उलटकर टाँग के सहारे गिरा देता हैं । ३. एक प्रकार का कोड़ा या चाबुक ।
⋙ गलखप
संज्ञा स्त्री० [सं० गल्प, यप्रा० गल्ला या देश०] गलगौज । चखचख । झकझक । उ०—हीरा गया तो देखा अबासी और बूढ़ी खपट मुगलानी में गलखप हो रही है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २१४ ।
⋙ गलखोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० गला + कोड़ा] दे० 'गलकोड़ा' ।
⋙ गलगंजना
क्रि० अ० [ सं० गल + गर्जन,] जोर से आवाज करना । भारी शब्द करना । उ०—बीस सहस घहराहिं निसान । गलगंजहिं भेरी असमाना ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गलगंड़
संज्ञा पुं० [सं० गलगण्ड़] गले का एक रोग । घेघा । विशेष—इसमें गले में सूजन हो आती है और क्रमाशः बढ़ते बढ़ते सामने एक गाँठ सी निकल पड़ती हैं । यह गाँठ भिन्न भिन्न आकार की होती है; और कभी कभी इतनी बढ़ जाती है कि थैले की तरह गले में लटकने लगती है । वैद्यक के अनुसार यह रोग तीन प्रकार का माना गया है—वातज, कफज और मेदज । ड़ाक्टरों का कथन है कि पहाड़ी तराइयों में लोगों को, विशेषकर स्त्रियों को गलगंड़ रोग हो जाता है । उनके मत से इसमें गले के एक दोनों की झिल्ली फूल आती है ।
⋙ गलगंड (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] हरगीला नाम की चिड़िया ।
⋙ गलगल
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. मैना की जाति की एक चिड़िया । सिरगोटी । गलगलिया । विशेष—यह कुछ सुर्खी लिए काले रंग की होती है । इसके गले पर दोनों ओर पीली या लाल धरियाँ होती हैं और इसकी दुम के नीचे का भाग सफेद होता है । २. एक प्रकार का बहुत बड़ा नीबू । विशेष—यह चकोतरे के बराबर होता है और पकने पर गहरे बसंती रंग का हो जाता है । यह बहुत अधिक खुट्टा होता है । और अचार डालने तथा औषधियों के काम में अता है । ३. चर्बी की बत्ती का एक टबकड़ा । विशेष—यह जहाज में समुद्र की गहराई नापनेवाले यंत्र में सीसे की एक नली से लगा रहता है । यह नली बार बार समुद्र में फेंकी और निकाली जीती है और इसमें बालू आदि समुद्र की तह की चीजें लगकर बाहर निकलती हैं ।—(लश्करी) । ४. अलसी और चूने के तेल को मिलाकर बनाया हुआ एक प्रकार का मसाला । विशेष—यह लकड़ी आदि को चीजों जोड़ने या छोटा छेद अथवा दरार आदि बंद करने के काम में आता है । इसे पोटीन भी कहते हैं ।
⋙ गलगला
वि० [हिं० गीला या अनु०] [वि० स्त्री० गलगली] भीगा हुआ । आर्द्र । तर । उ०—ललन चलन सुनि चुप रही बोली आयन ईठि । राख्यो गहि गाढ़े गरौ मनो गलगली दीठि ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गलगलाना (१)** †
क्रि० अ० [ हिं० गीला या अनुं०] गीला होना । तर होना । भीगना ।
⋙ गलगलाना (२)** †
क्रि० स० [ सं० गल्प + जल्पना] बेकार की बातें करना । बड़ चढ़कर बातें करना । जोर से बोलना ।
⋙ गलगलिया (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] किलहँटी या सिरोही नाम की एक चिड़िया ।
⋙ गलगलिया (२) †
वि० [हिं०] बड़ बड़ करनेवाला । बेकार की बातें करनेवाला ।
⋙ गलगाजना
क्रि० अ० [हिं० गाल + गाजना] खुसी से गरजना । गाल बजाना । बड़ बढ़कर बातें करना । उ०—राम सुभाउ सुने तुलसी हुलसे अलसी हमसे गलगाजे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गलगुच्छा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गलमुच्छा' ।
⋙ गलगुथना
वि० [ हिं० गाल + गुँथना] जिसका बदन खूब भर और गाल फूले हों । मोटा ताजा ।
⋙ गलगौज पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गाला + गौज] बकबक । व्यर्थ विवाद । गप्पाष्टका । उ०—राम जी सों नेह नाहीं सदा अबिबेक माही मनुवाँ रहत नित करत गलगौज है ।—भीखा० श०, पृ० ५९ ।
⋙ गलग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष के अनुसार कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, सप्ततमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, अमावस्या और प्रतिपदा । विशेष—गर्गादि के मत से जब स्वाध्याय के आरंभ करते ही स्मृति के अनुसार अनध्याय पड़ जाय, तब उसे भी गलग्रह कहते हैं । २. मछली का काँट ।३. वह आपत्ति जो कठिनता से टले ।४. गले का एक रोग जिसमें कफ बढ़ जाने से गला बंद हो जाता है । ५. एक प्रकार की पकी हुई मछली ।६. गला पकड़ना । गला घोटना (को०) ।
⋙ गलघोटू
वि० [हिं० गला + घोटू = घोटनेवाला] १. गला घोंटने— वाला । २. अप्रिय । जैसे, गलघोटू काम या बात ।
⋙ गलचुमनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाल + चूमना] कान का एक गहना जो गालों पर गेलाकर रहता हैं । उ०—सिर पर है चँदवा शीशफूल, कानों में झुमके रहे झूल, बिरिया गलचुमनी कर्ण फूल ।—ग्राम्या० ।
⋙ गलछट
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गला + छाँट] मछली के गलफड़े के दोनों और कुर्रो हड़ि्ड़यों का बना हुआ, कमानी के आकार कावह भाग जिसके ऊपर लाल सूइयों झालर लगी रहती है और जिसकी सहायता से मछली पानी में मिली हुई वायु को अंदर खींचकर साँस लेती और पानी को बाहर ही छोड़ देती है ।
⋙ गलजंद पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] गले का हार । गलजँदड़ा ।
⋙ गलजँदड़ा
संज्ञा पुं० [सं० गल + यन्त्र, पं० जंदरा] १. वह जो सदा साथ रहे । वह जो कभी पिंड़ न छोड़े । गले का हार । २. रूमाल या कपड़ें की पट्टी । विशेष—यह गले में उस समय हाथ के सहारे या उसे लटकाने के लिये बाँधी जाती हैं, जक कि हाथ में किसी प्रकार की चोट लगी हो या कोई घाव हो ।
⋙ गलजोड़
स्त्री० [हिं०] दे० 'गलजोत' ।
⋙ गलजोत (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + जोत] १. वह रस्सी या पगही आदि जिससे एक बैल के गले को दूसरे बैल के गले से लगा— कर बाँधते हैं । गलजोड़ । २. गले का बारॉ । गलजँदड़ा ।
⋙ गलजोत (२) †
वि० असह्य ।
⋙ गलझंप पु
संज्ञा पुं० [हिं० गला + झंप] एक प्रकार की लोहे की झूल जो युद्ध के समय हाथियों के गले में पहनाई जाती थी । उ०—तैसे चँवर बनाए और घाले गलझंप । बँधे सेन गजगाह तँह जो देखै सो कंप ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गलतंग (१) †
वि० [हिं० गला + तंग] बेसुध । बेखबर ।
⋙ गलतंग (२) †
वि० [सं० गलिताङ्ग] टूटाफूटा । नष्टभ्रष्ट । सड़ागला ।
⋙ गलतंस
संज्ञा पुं० [सं० गलित + वंश] १. ऐसा मनुष्य जो कोई संपत्ति न छोड़कर मरा हो । २. ऐसे मनुष्य की संपत्ति जिसे कोई संतति न हो ।
⋙ गलत
वि० [अ० ग़लत] [संज्ञा स्त्री० गलती] १. अशुद्ध । भ्रम- मूलक ।२. असत्य । मिथ्या । झूठ । क्रि० प्र०—करना ।—ठहरना ।—ठहराना ।—होना ।
⋙ गलतकार
वि० [अ० ग़लत + फा० कार] [संज्ञा गलतकारी] गलत करनेवाला । जानहूझ कर चूक जानेवाला । अंट संट काम करनेवाल [को०] ।
⋙ गलतकिया
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गाला + तकिया] छोटा, गोल और मुलायम तकिया जो गालों के नीचे रखा जाता हैं ।
⋙ गलतगो
वि० [अ० गलत + फ० गो] मिथ्यावादी । झूठा [को०] ।
⋙ गलतनामा
संज्ञा पुं० [अ० ग़लत + फा़० नामह्] अशुद्धियों का विवरण या परिशिष्ट । शुद्धिपत्र ।
⋙ गलतनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + तनना] वह रस्ती जो बैलों के गेरावँ में बाँधी जाती हैं । पगहा ।
⋙ गलतफहमी
संज्ञा स्त्री० [अ० ग़लत + फ़हम+ फा़० ई (प्रत्य०)] किसी ठीक बात को गलत समझना । भूल से कुछ का कुछ समझना । भ्रम । क्रि० प्र०—पैदा होना ।—होना ।
⋙ गलताँ
वि० [फा़० गलताँ] दे० 'गलतान' ।
⋙ गलता
संज्ञा पुं० [अ० ग़लत] १. एक प्रकार का बहुत चमकीला और गफ कपड़ा । विशेष—इसका ताना रेशम का और बाना सूत का होता है । यह सादा, धारीदार और अन्य कई प्रकार का होता है । २. मकान की कारनिस ।
⋙ गलताड
संज्ञा पुं० [सं०] जूए या जुआठ की सैल या खूँटी जो अंदर की ओर होती है ।
⋙ गलतान (१)
वि० [फ़ा० ग़लतान] चक्कार मारता हुआ । लुढ़कता हुआ । घूमता हुआ । उ०—गगन दुआरे मन गया करै अमृत रस पान । रूप सदा झलकता रहै, गगन मँडल गलतान ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ गलतान (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रेशमी वस्त्र ।
⋙ गलतानी पु
वि० [फ़ा० गलतान] दे० 'गलतान' । उ०—दरिया तीनों लोक में, देखा दोय बिना न गुजरानी गुजरान में, गलतानी गलतान ।—दिरिया० बानी, पृ० ३७ ।
⋙ गलती
संज्ञा स्त्री० [अ० ग़लत + हिं० ई] १. भूल । चूक । धोखा । मुहा०—गलती में पड़ता = धोखा खाना । भूल करना । २. अशुद्घि । भूल । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—निकलना ।—पड़ना ।-होना ।
⋙ गलथना
संज्ञा पुं० [सं० गलस्तन] दे० 'गलथना' ।
⋙ गलथना
संज्ञा पुं० [सं० गलस्तन, प्रा० गलत्थन, गलथन] वे थैलियाँ जो एक विशेष प्रकार की बकरियों की गरदन में दोनों ओर लटकती रहती हैं । उ०—नाम जपत कनेय भली साकट भला न पूत । छेरी के गल गलथना जामें दूध न मूत ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ गलथैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाल + थैली] बंदरों के गाल के नीचे की थैली जिसमें वे खाने सकी वस्तु भर लेते हैं ।
⋙ गलदश्रु
क्रि० वि० [सं०] आँसू बहाता हुआ । रोता हुआ [को०] ।
⋙ गलद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] मुख । मुँह [को०] ।
⋙ गलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बूँद बूँद गिरना । चूना । टपकना । रिसना । क्षरण । २. झड़ना । ३. ठढ़ आदि से गल जाने की स्थिति । गलना । ४. पिघलना । ५. सरकना [को०] ।
⋙ गमनहाँ (१)
संज्ञा पुं० [ हिं० गलना + नहँ = नाखून] हाथियों का एक रोग जिसमें उनके नाखून गल गलकर निकला करते हैं ।
⋙ गलनहाँ (२)
वि० (हाथी) जिसे गलनहाँ रोग हो ।
⋙ गलना
क्रि० अ० [सं० गरण = तर होना] १. किसी पदार्थ के घनत्व का कम या नष्ट होना । किसी द्रव्य के संयोजक अंशों या अणुओं का एक गूसरे से इस प्रकार पृथक् हो जाना जिससे बह द्रव्य विकृत, कोमल या द्रव हो जाय । विशेष—यह विश्लषण किसी द्रव्य के बहुत दिनों तक यों ही अथवा जल, तेजाब आदि में पड़े रहने, गरमी या आँच लगने अथवा किसी और प्रकार के संयोग के कारण हो जाता है । जैसे— आँच के द्वारा सोने, चाँदी आदि का गलना; जल में बताशे, मिट्टी आदि का गलना; गरम जल की आँच में दाल चावल आदि का गलना, तेजाब में दवा या खनिज पदार्थों का गलना; कीटाणुओं के संयोग से (कोढ़ आदि व्याधियों में) शरीर के अंगों, और बहुत अधिक पकने या अधिक समय तक पड़े रहने के कारण फल पत्तों आदि का सड़कर गलना । २. बहुत जीर्ण होना । जैसे, कपड़ा या कागज गलना । ३. शरीर का दुर्बल होना । बदन सूखना । जैसे—आठ दिन की बीमारी में बिलकुल गल गए । ४. बहुत अधिक सरदी के कारण हाथ पैर का ठिठुरना । जैसे,—आज सरदी के मारे हाथ गल रहे हैं । ५. वृथा या निष्फल होना । बेकाम होना । नष्ट होना । जैसे,—दाँव गलना, मोहरा गलना । मुहा०—कोठी गलना = कुएँ या पुल के खंभे में जमवट या गोले के ऊपर की जोड़ाई का नीचे धँसना । चीनी गलना= मिठाई आदि बनाने के लिये चीनी का कड़ाही में ढ़ाल जाना । नाम पर गलना पु = प्रिय को प्राप्त करने के लिये अनेक कष्ट सहन । उ०—गलों तुम्हारे नाम पर ज्यों आटे में नोन, ऐसा बिरहा मेलकर नित दुख पावै कौन ।—कबीर सा० सं०, पृ० ४५ । रुपया गलना = व्यर्थ व्यय होना । फजूल खर्त होना । जैसे—कल उनके पचास रुपए तमाशे में गल गए । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ गलपासी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गल + पाश] दे० 'गलफँसी' । उ०— सुख कौं चाहै पड़े गलपासी, देखन हीरा हाथ थैं जासी—संतवाणी०, पृ० १०० ।
⋙ गलफड़ा
संज्ञा पुं० [ हिं० गाल + फटना] १. जलजंतुओं का वह अवयव जिससे वे पानी में साँस लेते हैं । विशेष—ऐसे जंतुओं में फेफड़ा नहीं होता । यह सिर के नीचे दोनों ओर होता है और भिन्न भिन्न जलजंतुओं में भिन्न भिन्न आकार का होता है । मछलियों के गले में सिर के १दोनों ओर दो अर्धचंद्राकार छेद या कटाव होते हैं । इन्हीं छेदों के अंदर चार चार अर्धचंद्राकार कमानियाँ होती हैं जिनके ऊपर लाल—लाल नुकीली सूइयों की झालर होती हैं जिनसे गलछट कहते हैं । इन्हीं गलछटों से होकर मछलियाँ पानी में साँस लेती हैं जिससे पानी में मिली हुई वायु मात्र अंदर जाती है और पानी छँटकर बाहर रह जाता है । २. गालों के दोनों ओर का वह मांस जे दोनों जबड़ों के बीच में होता है । गाल का जमड़ा ।
⋙ गलफर †, गलफरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गलफड़ा' ।
⋙ गलफाँस
संज्ञा स्त्री० [सं० गलपाश] मालखंभ की एक कसरत । विशेष—इसमें बेत को गले लपेटकर उसके एक छोर से छाती पर से ले जाकर पैर के अंगूठे के नीचे दबाकर केवल गले के जोर से अपने माथे को पेट तक झुकाते हैं । इस कसरत में इस बात पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है कि गला अधिक न कसने पाए, अन्यथा गले में फाँसी लग जाने की आशंका होती है ।
⋙ गलखाँसी
संज्ञा पुं० [हिं० गला + फाँसी ] १. गले की फाँसी या फंदा । २. कष्टदायक वस्तु या कार्य । जंजाल । ३. मालखंभ की एक कसरत ।
⋙ गलफूट
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गाल + फूटना] बड़बड़ाने की लत । बेधड़क अड़बंड़ बकने की लत । कल्लेदराजी ।
⋙ गलफूला (१)
वि० [हिं० गाल + फुलना] जिसका गाल फूला हो ।
⋙ गलफूला (२)
संज्ञा पुं० एक जिसमें में सूजन होती है ।
⋙ गलफेड़
संज्ञा पुं० [सं० गल + पिणड़ु] गले की गिलटी ।
⋙ गलबंदनी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गला + बँधना या हिं० गला + बंद + नी (प्रत्य०)] गुलूबंद नामक आभूषण जो गले में पहना जाता है ।
⋙ गलबदरी †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गलना + बदली] ऐसा बादल जिसके साथ हाथ पाँव गलानेवाला जाड़ा पड़े । यह अवस्था प्रायः जाड़े के दिनों में होती है ।
⋙ गलबल †
संज्ञा पुं० [अनु०] [वि० गलबलिया] कोलाहल । खलबली । गड़बड़ी । उ०—(क) गलबल सब नगर परयो प्रगटे यदुबंशी । द्वारपाल इहै सूर ब्रह्म अंशी ।—सूर (शब्द०) । (ख) गोपद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक निपट निसंक पर पुर गलबल भो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गलबिलया †
वि० [ हिं० गलबल + इया (प्रत्य०)] १. गड़बड़ी करनेवाला । २. बड़बड़ानेवाला । बातूनी ।
⋙ गलबाली †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'गलबल' ।
⋙ गलबहियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + बाँह] दे० 'गलबाँही' ।
⋙ गलबाँही
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + बाँह] गले में बाँह डालना । कंठालिंगन । उ०—सुमन कुंज बिहरत सदा दै गलबाँही माल । बंदौं चरन सरोज तिन जुगुल लाड़िली लाला ।— (शब्द०) ।
⋙ गलबा
संज्ञा पुं० [अ० गलबह्] १. प्रबलता । प्राचुर्य । आधिक्य । २. प्रभत्व । सत्ता । ३. जय । जीत । विजप्राप्ति । ४. सामूहिक झगड़ा । मारकाट । बलवा [को०] ।
⋙ गलमँदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गाल + सं० मुद्रा] १. शिवजी के पूजन, शयम आदि के समय उन्हें प्रसन्न करने के लिये गाल बजाने की मुद्रा । गलमुद्रा । २. गाल बजाना । व्यर्थ बकवाद या गप्प करना । उ०—इत नृप मूढ़न की गलमँदरी । मिटन न पाई जब तक सगरी ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ गलमुच्छा
संज्ञा पुं० [ सं० गाल + हिं० मूछ] दोनों गालों पर के बढ़ाए हुए बाल । गलगुच्छा । विशेष—इसे कुछ लोग शौक से रख लेते हैं । ऐसे लोग ठोढ़ी के बाल तो मुँड़वा ड़ालते हैं, पर गालों के बाल बढ़ने देते हैं ।
⋙ गलमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० गल + मुद्रा] शिवजी के पूजन, शयन आदि के समय उनको प्रसन्न करने के लिये गाल बजाने की मुद्रा । गलमँदरी ।
⋙ गलमेखला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंठ का हार [को०] ।
⋙ गलवाना
क्रि० स० [हिं० 'गलाना' का प्रे० रूप] गलाने का काम कराना । गलाने में लगाना ।
⋙ गलवार्त
वि० [सं०] १. गले के द्वारा जीविका अर्जित करनेवाला । २. गले की क्रिया में निपुण । चाटुकार । ३. खाने और पचानेवाला । तंदुरुस्त । स्वस्थ [को०] ।
⋙ गलविद्रधि
संज्ञा पुं० [सं०] गले का रोग । सूजन आदि ।
⋙ गलव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] मोर । मयूर [को०] ।
⋙ गलशुंड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० गौलशुणिड़का ] दे० 'गलशुंड़ी' [को०] ।
⋙ गजशुंड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० गलशुणड़ी] १. जीभ के आकार का मांस का एक छोटा टुकड़ा जो प्राणियों के अंदर जीभ की जड़ के पास होता है । छोटी जबान या जीभ । जीभी । कौआ । विशेष—शब्द का उच्चारण करने में यह प्रधान सहायक है । इसके श्वास की नलियों की रक्षा होती है और उनमें खाने पीने की चीजें नहीं जाने पातीं । पुरुषों में यह अंश आध इंच से कुछ बड़ा और स्त्रियों में कुछ छोटा होता है । बाल्यावस्था में यह बहुत छोटा रहता है; पर युवावस्था में दो तीन वर्षो के अंदर ही इसका आकार दूना या तिगुना हो जाता है । युवावस्था में जो आवाज कड़ी हो जाती है और जिसे 'कंठ फूटना' कहते हैं, उसका प्रधान कारण इसी के रूप और आकार का परिवर्तन है । कुछ पशुओं में यह बहुत नीचे की ओर फेफड़े की नलियों के पास होता है । साधारणतः पक्षियों में दो और कभी कभी तीन तक गलशु ड़ियाँ होती है । २. एक रोग । विशेष—इसमें कफ और रक्त के विकार के कारण तालू की जड़ में सूजन हो जाती है और खाँसी तथा साँस की अधिकता हो जाती है ।
⋙ गलशोथ
संज्ञा पुं० [सं०] जुंकाम आदि के कारण गले के भीतर होनेवाली पीड़ा या सूजन [को०] ।
⋙ गलसिरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गला + श्री] कठंश्री नाम का गहना जो गले में पहना जाता है ।
⋙ गलसुआ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गला + सूजना] एक रोग जिसमें गाल के नीचे का भाग सूज जाता है ।
⋙ गलसुआ (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० सूजना] पशुओं का एक रोग जिसमें उनके गले सूजन हो जाती है और उन्हें खाँसी होने लगती है ।
⋙ गलसुई
संज्ञा स्त्री० [ सं० गाल + सुई] गालों के नीचे रखने का एक छोटा, गोल और कोमल तकिया । गलतकिया । उ०—कुसुम गुलाबन की गलसुई । बरणी जाय न नयनन छुई ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गलस्तन
संज्ञा पुं० [संज्ञा गलस्तनी] स्तन के आकार की वे पतली थैलियाँ जो एक प्रकार की बकरियों के गले के दोनों ओर लटकती रहती हैं । गलथन ।
⋙ गलस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकरियों की एक जाति जिनके गले के पास स्तन के आकार की दो छोटी पतली थैलियाँ लटकती रहती हैं ।
⋙ गलस्वर
संज्ञा पुं० [ सं० गल + स्वर] प्राचीन काल का एक बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था ।
⋙ गलहँड़ †
संज्ञा पुं० [सं० गलस्तन, प्रा० गलत्थण, गलथण > हिं० गलहँड़; अथवा हिं० गला + हंड़ा = एक बरतन] गले का एक रोग जिसमें गले में थैली सी लटक आती है । घेघा ।
⋙ गलहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्धचंद्र । गर्दनियाँ । २. अर्धचंद्र के आकार का एक बाण [को०] ।
⋙ गलहस्तित
वि० [सं०] १. गले से पकड़ा हुआ । २. गर्दनियाँ दिया हुआ । अर्धचंद्र दिया हुआ [को०] ।
⋙ गलहस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] अर्धचंद्र या गर्दनियाँ देना [को०] ।
⋙ गलहार
संज्ञा पुं० [सं०] गले का हार । कंठहार । उ०—जानता गलहार हूँ जंजीर को भी ।—मिलन०, पृ० ३० ।
⋙ गलही
संज्ञा स्त्री० [सं० गला + ही (प्रत्य०)] नाव का वह अगला और ऊपर का भाग, जहाँ उसके दोनों पार्श्व आकर समाप्त होते हैं ।
⋙ गलांकुर
संज्ञा पुं० [सं० गक्षाङकुर] एक प्रकार का रोग जिसमें गले का कौवा बढ़ जाता है [को०] ।
⋙ गला
संज्ञा पुं० [सं० गलक, प्रा० गलअ] १. शरीर का वह अवयव जो सिर को धड़ से जोड़ता है । गरदन । कंठ । विशेष—इसके अंदर एक पतली नाली रहती है जिससे होकर भोजन किया हुआ पदार्थ तथा श्वास द्वारा खींची हुई वायु पेट में जाती है । नाभिमूल से नाद के साथ उठी हुई वायु इसी में से होकर मुख के भिन्न भिन्न स्थानों में टकराती हुई भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करती है । यौ०—गलाफाड़ । गलेबाज । गलबाँही । मुहा०—गला आना = गले के अंदर छाला पड़ना । सूजन होना । गला उठाना या गला करना = बच्चों के गले में उँगली डालकर या रूमाल बाँधकर उनके बढ़े हुए कौवे को ऊपर को दबाना जिसमें वह अपने ठिकाने पर आ जाय । घंटी बैठाना । गला कटना = (१) गरदन कटना । धड़ से शिर जुदा होना । (२) अनुचित हानि पहुँचना । किसी की विरुद्घ कार्रवाई से नुकसान पहुँचना । गला कटवाना या कटाना = (१) लोगों के कहने से या अपनी इच्छा से कोई ऐसा काम करना जिससे अपनी बड़ी हानि हो । (२) जान देना । प्राण देना । गला काटना = (१) गरदन काटना । धड़ से सिर जुंदा करना । (२) अत्यंत कष्ट पहुँचाना । बहुत दुःख देना । अन्याय करना । जैसे— वह लोगों का गला काट काटकर रुपया इकट्ठा कर रहा है । (३) सरन, बंडे आदि का गले के अंदर एक प्रकारी की जलन और चुनचुनाहट उत्पन्न करना । गले के अंदर कनकनाना । जैसे—यह सूरन बहुत गला काटता है । (४) विरुद्ध कार्रवाई करके हानि पहुँचाना । बुराई करना । अहित करना । जैसे— जो पहले मित्र बनते हैं । वे ही पीछे गला काटते हैं । गला घुटना = दम रुकना । अच्छी तरह साँस न लिया जाना । गला घोंटना = (१) गले को ऐसा दबाना कि साँस रुक जाय । टेंटुआ दबाना । (२) जबरदस्ती करना । जब्र करना । जैसे— गला घोंटकर कोई किसी से कबतक काम ले सकता है । (३) मार डालना । गला दबाकर मार डालना । गला चलना = कंठ से सुरीला स्वर निकलना । आवाज का सुरीला होना । जैसे—उसका गला खूब चलता है । गला छूटना = पीछा छूटना । पल्ला छूटना । छुटकारा मिलना । निस्तार होना । किसी अरुचिकर या इच्छाविरुद्ध बात का दूर होना । बचाव होना । जैसे—उसको ५) दिए तब जाकर गला छूटा । गला छुटाना या गला छुड़ाना = पीछा छुड़ाना । पल्ला छुड़ाना । पिंड छुड़ाना । बचाव करना । किसी ऐसी बात को दूर करना जिससे चित्त झंझट, हैरानी, दबाव या दुःख में पड़ा हो ।जैसे—(क) उसे कुछ देकर गला छुड़ाऔ । (ख) कल वह रास्ते में मुझसे ऐसा उलझ पड़ा कि गला छुड़ाना कठिन हो गया । गाला जोड़ना = (१) प्रीति या मैत्री प्रकट करने के लिये एक दूसरे के गले में हाथ डालना । मिलना । मैत्री करना । (२) साथ देना । गला टीपना = दे० 'गला दबाना' । गला दबाना = (१) गले को इतने जोर से पकड़ना कि साँस रुकने लगे । (२) गला दबाकर मार डालना । (२) जबरदस्ती करना । अनुचित दबाव डालना । जैसे—(क) उसने लोगों का गला दबाकर रुपया वसुल किया । (ख) जब वह नहीं जाना चाहता, तब क्यों उसका गला दबाते हो । गला पकड़ना = (१) गले में बैठना । किसी खाई हुई वस्तु का गले में चिपकना या रुकना तथा तल्दी नीचे न उतरना । जैसे—सूखा सत्तू गला पकड़ता है । (२) कंठावरोध करना । कंठ से स्पष्ट शब्द न निकलने देना । .गला पड़ना या बैठना = (१) गले के अंदर सूजन होने या कफ आदि रहने तथा जोर से बहुत बोलने या गाने के कारण शब्द मुँह से स्पष्ट न निकलना या घबराहट के साथ निकलना । जैसे—रात भर गाते गाते इसका गला बैठ गया । (२) गले के अंदर सरदी के कारण छोटी छोटी गिलटियाँ निकलना जिससे खाने पीने में बहुत कष्ट होता है । गला फटना = गला दुखना । गले के अंदर दर्द होना । जैसे—चिल्लाते चिल्लाते उसका गला फट गया । गला फँसना = बंधन में पड़ना । लाचार होना । मजबूर होना । कोर दबाना । विवश होना । जैसे—जब आदमी का गला फँसता है, तब सब कुछ करने को तैयार हो जाता है । गला फँसाना = (१) दाँव में कसना । बंधन में डालना । वशीभूत करना । (२) आपत्ति में फँसाना । संकट में डालना । मुश्किल में डालना । जवाबदेही में डालना । ऋण आदि का बोझ ऊपर डालना । जैसे—हमारा गला फँसाकर आप चलते बने । गला फाँसना = दे० 'गला फँसाना' । गला फाड़ना = इतना चिल्लाना कि गला दुखने लगे । जोर भर आवाज लगाना । जैसे वह इतना गला फाड़ फाड़कर चिल्ला रहा था, पर तुमने न सुना । (ख) क्यों व्यर्थ गला फाड़ते हो, वह नहीं बोलेगा । गला फिरना = गले का तान और लय पर चलना । गले से स्वर का तान, स्वर और गिटकरी के अनुसार निकलना । गला फूलना = उकता जाना । दम फूलना । गला बँधना = (१) मजबूर होना । बँध जाना । (२) विवश होना । गला बँधाना = दे० 'गला फँसाना' । गला बाँधना = (१) बंधन में डालना । मजबूर करना । (२) दे० 'गला फँसाना' । गला बाँधकर धन जोड़ना = खाने पीने का कष्ट उठाकर धन इकट्ठा करना । गला रेतना = (१) अत्यंत कष्ट पहुंचाना । अधिक और असह्य दुःख देना । (२) अहित करना । बुराई करना । विरुद्ध कार्रवाई करके हानि पहुंचाना । गले का ढोलना = (१) गले का बोझ । (२) दे० 'गले का हार' । गले का बोझ = व्यर्थ का भार । ऐसी वस्तु जिसका रहना बुरा लगता हो । गले का हार = (१) इतना प्यारा (व्यक्ति या वस्तु) कि पास से कभी जुदा न किया जाय । अत्यंत प्रिय । चिर सहचर । जैसे—इस समय वह राजा साहब के गले का हार हो रहा है । क्रि० प्र०—करना ।—बनना ।—बनाना ।—होना । (२) पीछा न छोड़नेवाला । लाख न चाहने पर भी सदा पास में बना रहनेवाला । वह जो बौझ मालूम हो । जैसे— पहले तो उसे परचाते अच्छा लगा, अब वही गले का हार हो रहा है । क्रि० प्र०—करना ।—बनना ।—बनाना ।—होना । (बात) गले के नीचे उतरना या गले उतरना = (बात) मन में बैठना । जी में जँचना । ध्यान में आना । समझ में आना । स्वीकृत होना । जैसे—उसे इतना समझाया जाता है, पर उसके गले के नीचे उतरता ही नहीं । गले उतारना = स्वीकार कराना । गले या गरे पड़ना = (१) इच्छा के विरुद्ध प्राप्त होना । न चाहने पर भी मिलना । मत्थे पड़ाना । जैसे—(क) गले पड़ा ढोल बजाए सिद्ध । (ख) गए निमाज छुड़ाने, रोजा गले पड़ा । (२) सिर पड़ना । आगे आना । भ गने या सहने के लिये सामने उपस्थित होना । उ०—होती अनजाना तौ न जानती इतीक बिथा मेरे जिय जान मेरो जानिबो गरे परचौ । देव (शब्द०) । गले पर छुरी चलाना = अत्याचार करना । उ०—बेबसों पर छुरी चला करके, क्यों गले पर छुरी चलाते हो ।—चुभते०, पृ० ३४ । गले पर छुरी फेरना = अहित करना । हानि करना । उ०—तो छुरी बेढंग आपस में चला, मत गले पर जाति के फेरी छुरी ।—चुभते०, पृ० ३४ । (अपने) गले बाँधना = (१) संग लगाना । सिर पर ले लेना । (२) व्यर्थ पास में रखना । निष्प्रयोजन लिए रहना । जैसे—इस टूटे गिलास को लेकर क्या हम गले बाँधेंगे । (३) इच्छा के विरुद्ध किसी से विवाह करना । (दूसरे) के गले बाँधना = दूसरे की इच्छा के विरुद्ध उसे देना । जबरदस्ती देना । दूसरे के न चाहने पर भी उसे लेने के लिये विवशकरना । जैसे—जब वह इसे नहीं लेना चाहता, तो क्यों उसके गले बाँधते हो । गले मढ़ना = (१) किसी की इच्छा के विरुद्ध उसे देना । जबरदस्ती देना । जैसे—वह दूकानदार टूटी फूटी चीजें लोगों के गले मढ़ता हैं । (२) किसी की इच्छा के विरुद्ध उसपर किसी कार्य का भार देना । दूसरे के न चाहने पर भी उसे कोई काम सौंपना । (३) किसी की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ किसी को ब्याहना । जैसे—वहकानी स्त्री उसके गले मढ़ी गई । गले मिलना = गले पर हाथ रखकर आलिंगनकरना । गले लगाना = (१) मिलना । गले मिलना । गले में हाथ डालना । (२) गले पड़ना । इच्छा के विरुद्ध प्राप्त होना । गले लगाना = (१) गले मढ़ना । दूसरे की इच्छा के विरुद्ध उसे देना । दूसरे के न चाहने पर भी उसे लेने के लिये विवश करना । जैसे,—यदि आप इसे नहीं लेना चाहते, तो कोई आपके गले नहीं लगाता है । (२) प्यार से मिलना या भेंटना । (३) आत्मीय बनाना । अपनाना । २. गले का स्वर । कंठस्वर । जैसे—उसे भगवान ने अच्छा गलादिया है । ३. आँगरखे, कुरते आदि की काट में कपड़े का वह भाग जो गले पर पड़ता है । गरेबान । क्रि० प्र०—काटना ।—कता करना । ४. बरतन का वह तंग या पतला भाग जो उसके मुँहड़े के नीचे होता है । जैसे—घड़े का गला, लोटे का गला । २. चिमनी का कल्ला । बर्नर ।
⋙ गलाऊ
वि० [हिं० गलना] जो गल जाय । जो गल सके । गलनेवाला । जैसे—गलाऊ दाल ।
⋙ गलाकट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + काटना] गला काटना । भारी नुकसान पहुंचान । उ०—मिलशाही सबके गलाकट्टी कर रही थी ।—मान०, भा० १, पृ० ३३० ।
⋙ गलाना
क्रि० स० [हिं० गलना का सकर्मक रूप] १. किसी वस्तु के संयोजक अणुओं को पृथक् पृथक् करके उसे नरम, गीला या द्रव करना । जैसे—पानी में बताशा गलाना, आँच पर सोना चाँदी, राँगा आदि गलाना, खौलते पानी में दाल, चावल गलाना इत्यादि । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । २. नरम या मुलायम करना । पुलपुला करना । जैसे—यह दवा फोड़े को गला देगी । ३. अणुओं को पृथक् करके किसी वस्तु को धीरे-धीरे लुप्त करना । बहुत थोड़ा थोड़ा करके क्षय करना । जैसे—यह दवा तिल्ली को गलाती है । ४. (रुपया) खर्च करना । जैसे—तुमने हमारा बहुत रुपया गलाया ।
⋙ गलानि †
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्लानि] १. दुःख या पछतावे के कारण खिन्नता । अपने किए का पछतावा या खेद । अपनी करनी पर लज्जा । उ०—(क) गरइ गलानि कुटिलि कैकेई । काहि कहइ केहि दूषण देई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तुम गलानि जिय जनि करहु; समुझि मातु करतूति । तात कैकइहि दोष नहिं, गई गिरा मति धूति ।—तुलसी (शब्द०) । २. खेद । दुःख । परिताप । उ०—(क) राम सुपेमहि पोषत बानी । हरत सकल कलि कलुष गलानी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) अमर नाग मुनि मनुज सपरिजन विगत विषाद गलानि ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गलानिल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।
⋙ गलार (१)
संज्ञा पुं० [?] एक पेड़ा का नाम ।
⋙ गलार (२)
वि० [हिं० गाल] १. थोड़ी सी बात के लिये बहुत अंडबंड बकनेवाला । झगड़ालू । गलबलिया । गप्पी ।
⋙ गलार (३) †
संज्ञा पुं० मैना पक्षी ।
⋙ गलारा
संज्ञा पुं० [हिं० गली] गलियारा । गली कूचा । उ०— नाम तेरे की ज्योति जगाई भए उजियारे भवन गलारे ।— संत रवि०, पृ० १३० ।
⋙ गलारी
संज्ञा स्त्री० [सं० गल्प, प्रा० गल्ल] गिलगिलिया नाम की चिड़िया ।
⋙ गलावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गला + वद (प्रत्य०)] १. गलने का भाव या क्रिया । २. वह वस्तु जो दूसरी वस्तु को गलावे । जैसे— सोहागा, नौसादर आदि ।
⋙ गलाविल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मत्स्य । गलानिल [को०] ।
⋙ गलि
संज्ञा पुं० [सं०] हृष्ट पुष्ट परंतु गरियार बैल । मट्ठर बैल [को०] ।
⋙ गलित
वि० [सं०] १. गला हुआ । २. अधिक दिन का होने के कराण नरम पड़ा हुआ । जिसमें नएपन की चुस्ती और कड़ाई न हो । यौ०—गलितकुष्ठ = एक प्रकार का कोढ़ । गलितदंत = दाँत से रहित । गलितनख = जिसके नख गल गए हों । गलितनखदंत = वार्द्धक्य के कारण जिसे नख और दाँत न हों । नख और दाँत से रहित । गलितनेत्र = दे० 'गलितनयन' । गलितयौवना । ३. पुराना पड़ा हुआ । जीर्ण शीर्ण । खंडित । ४. चुआ हुआ । च्युत । ५. नष्ट भ्रष्ट । ६. परिपक्व । परिपुष्ट । उ०—दान लैहौं सब अंगनि को । अति मद गलित तालफल ते गुरु युगल उरोज उतंगनि को ।—सूर (शब्द०) । ७. गला हुआ । मिला हुआ । एकतान । उ०—मैं तो और कछू नहिं चाहूँ कहो और क्या कीजै । दादू ऐत गलित गोविंद सौं इहि बिधि प्राण पतीजै ।—दादू०, पृ० ५६९ ।
⋙ गलितक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य रूप । नृत्य की एक मुद्रा । अंगभंगी [को०] ।
⋙ गलितकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रकार के कुष्ठों में से एक । विशेष—इसमें शरीर के अवयव, जैसे—हाथ, पैर की उँगलियाँ आदि, सड़ने और कट कटकर गिरने लगते हैं और उनमें कीड़े पड़ जाते हैं । यह कुष्ठ सबसे असाध्य माना गया है ।
⋙ गलितनयन
वि० [सं०] जिसकी आँखों में देखने की वक्ति न रह गई हो । अंधा [को०] ।
⋙ गलितयौवना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका यौवन ढल गया हो । ढलती जवानी की स्त्री । उ०—आज से हमारा काम वही गलितयौवना और चपटी नाकवाली करेगी ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ गलितांग
वि० [सं० गलिताङ्ग] जिसके अंग गल गए हों । उ०— गलितांगों का गंध लगाए आया फिर तू अलख जगाए ।—हिं० आं० प्र०, पृ० ११५ ।
⋙ गलिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गली] चक्की या जाँते के ऊपर के पाट में वह छेद जिसमें से दलने या पीसने के लिये दाना डाला जाता है ।
⋙ गलिया (२)
वि० [सं० गडि, गलि, हिं० गड़ियार] मट्ठर । सुस्त । (बैल आदि चौपायों के लिये ।)
⋙ गलियारा
संज्ञा पुं० [हिं० गली + आरा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० गलियारी] पतली या तंग छोटी गली ।
⋙ गलियारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गलियारा] पतला मार्ग । गली ।
⋙ गलिहरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गलियारी] दे० 'गलियारी' । उ०—गलिहरिया में डोलत फिरै परतिरिया लख मुसकाय ।—कबीर श०, पृ० ३७ ।
⋙ गली
संज्ञा स्त्री० [सं० गल] १. घरों की पंक्तियों के बीच से हो कर गया हुआ तंग रास्ता जो सड़क से पतला हो । खोरी । कूचा ।उ०—(क) बलवान है श्वान गली तेहि लाजे न गाल बजावत सो हैं ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—गली कूचों में कुत्ते लोटना—रौनक न रह जाना । उ०—है है, अब यहाँ रह क्या गया, गली कूचों में कुते लोटते हैं ।—फिसाना०, भा०, १, पृ० ४ । गली गली भूँसते फिरना = व्यर्थ इधर उधर घूमना । उ०—गली गली भूँसत फिरै टूक न डारै कोय ।—कबीर सा०, सं०, पृ० १७ । गली गलीं मारे मारे फिरना = (१) इधर उधर व्यर्थ घूमना । (२) जीविका के लिये इधर से उधर भटकना । (३) चारों और अधिकता से मिलना । सब जगह दिखाई पड़ना । साधारण वस्तु होना । जैसे,—ऐसे वैद्य गली गली मारे मारे फिरते है । गली झँकाना = इधर उधर हैरान करना । खोज में फिराना । जैसे,—तुमने हमें कितनी गलियाँ झँकाई । गली कमाना = (१) गली में झाड़ू देना । (२) मेहतर का काम करना । पाखाना साफ करना । २. महल्ला । महाल । जैसे,—कचौड़ी गली, सकरकंद गली ।
⋙ गलीचा
संज्ञा पुं० [फा़० ग़ालीचह् (तु० का़लीचह, का़लीनचह् तु० काली या कालीन से)] १. एक प्रकार का खूब मोटा बुना हुआ बिछौना जिसपर रंगबिरंगे बेल बूटे बने रहते हैं और घने बालों की तरह सूत निकले रहते है । दे० 'कालीन' । विशेष—अब तक फारस, दमिश्क आदि से ऊन के गलीचे आते हैं । अब यह सूती भी बनाया जाता है । २. कहारों की बोली में कँकड़ीली भूमि ।
⋙ गलीज (१)
वि० [अ० ग़लीज] १. गँदला । मैला । २. नापाक । अशुद्ध । अपवित्र ।
⋙ गलीज (२)
संज्ञा पुं० १. कूड़ा करकट । गंदी वस्तु । मैला । गंदगी । यो०—गलीजखाना = कूड़ाखाना । २. पाखाना । मल । विष्ठा ।
⋙ गलीत (१)
वि० [सं० गलित] जीर्णशीर्ण । गलित । दुर्दशाग्रस्त ।
⋙ गलीत (२)पु
वि० [अ० ग़लीज] १. मैला कुचैला । मलिन । गंदा । दुर्दशाग्रस्त । उ०—मीत न नीति गलीत ह्वै जो धरिये धन जोरि । खाए खरचे जौ जुरै तौ जोरियै करोरि ।—बिहारी (शब्द०) । २. गलत । मिथ्या ।
⋙ गलु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गलू' [को०] ।
⋙ गलुआ †
वि० [हिं० गलाना] गलने या झरनेवाला । उ०—घुँघटा बदरिया उनई रसिया, गलुआ बरसगए मेंह, अबै पुरवैया के बादर ऊन आए ।—शक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १५६ ।
⋙ गलुका †पु
स्ज्ञा पुं० [हिं० गला > गलुक्का] गाल में भरने की वस्तु । आनंद या स्वाद देनेवाला पदार्थ । उ०—ये पंचौ चाहैं गलुका, ये पंच करै पुनि हलुका ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १४५ ।
⋙ गलू
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पत्थर या नगं जिससे प्राचीन काल में मद्यपात्र आदि बनते थे ।
⋙ गलेगंड
संज्ञा पुं० [सं० गलेगण्ड] एक प्रकार की चिड़िया जिसके गले में माँस की थैली लटकी रहती है [को०] ।
⋙ गलेफ
संज्ञा पुं० [फा़० गिलाफ़] १. दे० 'गिलाफ' । २. 'गिलेफ' ।
⋙ गलेबाज
वि० [हिं० गला + बाज] जिसका गला अच्छा चलता हो । अच्छा गानेवाला ।
⋙ गलेस्तना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजा । बकरी [को०] ।
⋙ गलैचा †
संज्ञा पुं० [हिं० गलीचा] दे० 'गलीचा' ।
⋙ गलोना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का सुरमा जो कंधार और काबुल से आता है ।
⋙ गलौ पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्लौ] चंद्रमा । उ०—गंग गाइ गोमती गलौ ग्रहपति अरु सुरगिर ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गलौआ
संज्ञा पुं० [हिं० गाल] बंदरों के गालों के अंदर की थैली जिसमें वे अपने खाने की वस्तु भर लेते हैं ।
⋙ गलौघ
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग । विशेष—इसमें रोगी के गालों के अंदर एक प्रकार की सूजन हो जाती है और उसे साँस लेने में कठिनता होती है । वैद्यक में यह रोग कफ और रक्त के प्रकोप से माना गया है । इसमें ज्वर भी आता है ।
⋙ गल्प
संज्ञा स्त्री० [सं० जल्प या कल्प] १. मिथ्या प्रलाप । गप्प । २. डींग । शेखी । ३. मृदंग के बाहर प्रबंधों में से एक । ४. छोटी छोटी कहानियाँ ।
⋙ गल्भ
संज्ञा पुं० [सं०] धृष्ट । ढीठ । अभिमानी । अहंकारी [को०] ।
⋙ गल्यारा पु
संज्ञा पुं० [हिं०गली + आरा (प्रत्य०)] दे० 'गलयारा' ।
⋙ गल्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गाल । कपोल ।
⋙ गल्ल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं गाल या सं० गल्प, प्रा० गल्ह = बातचीत; तुल० फा० गिला] बात । (पंजाबी) उ०—इसी गल्ल धरि कन्न में बकसी मुसकाना । हमनू बूझत तुसी क्यों किया पयाना ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गल्लई (१)
वि० [हिं० गल्ला] गल्ले के रूप में ।
⋙ गल्लई (२)
संज्ञा पुं० १. वह खेत जिसका लगान जिंस में दिया जाता हो । बटाई । २. खेत का वह लगान जो उसकी उपज के रूप में काश्तकारों से लिया जाता हो ।
⋙ गल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य पीने का पात्र । २. चषक । पुखराज । नीलमणि [को०] ।
⋙ गल्लचातुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गलतकिया । गलसुई [को०] ।
⋙ गल्ला (१)
संज्ञा पुं० [अ० गुल, हिं० गुल्ला; जैसे हल्ला गुल्ला] शोर । हौरा उ०—हल्ला परचो अवध महल्ला ते महल्ला मध्य गल्ला मच्यो बाहर हू जनम कुमार को—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गल्ला (२)
संज्ञा पुं० [फा० गल्लह] झुंड । दल । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः चरनेवाले पशुओं के लिये होता है । जैसे,—गाय भैंस का गल्ला । भैड़ बकरियों का गल्ला ।
⋙ गल्ला (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गोल] एक प्रकार का बेत जिसे गोला भी कहतें हैं ।
⋙ गल्ला (४)
संज्ञा पुं० [हिं० गाल] उतना अन्न जितना एक बार चक्की में पीसने के लिये डाला जाय । कौरी ।
⋙ गल्ला (५)
संज्ञा पुं० [अ० गल्लह] [वि० गल्लई] १. जोतने बोने से उत्पन्न होनेवाले पौधों के फल, फूल आदि की उपज । फसल । पैदावार । उपज । २. अन्न । अनाज । यौ०—गल्लाफरोश । ३. वह धन जो दूकान पर नित्य की विक्री से मिलता है । धनराशि । गोलक । ४. मद । फंड । खाता ।
⋙ गल्लाफरोश
संज्ञा पुं० [फा़० गल्लह फरोश] वह दूकानदार जो गल्ला या अन्न बेचता हो । अनाज का व्यापारी । अन्न का बिक्रेता ।
⋙ गल्ली †
संज्ञा स्त्री० [फा़० हिं० गली] दे० 'गली' ।
⋙ गल्वर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य पीने का प्याला । प्राचीन काल में यह पात्र गलू नामक पत्थर से बनाया जाता था । २. स्फटिक । ३. वैदूर्य मणि ।
⋙ गल्ह पु
संज्ञा स्त्री० [पं० गल्ल] बात । उक्ति । उ०—तिन सुगल्ह अच्छी कहहि ।—पृ० रा०, १ ।१४ ।
⋙ गवँ
संज्ञा स्त्री० [सं० गम, या गम्य प्रा० गवँ] १. प्रयोजन सिद्ध होने का अवसर । घात । २. मतलब । प्रयोजन वि० दे० 'गौं' । मुहा०—गवँ से = (१) घात देकर । मौका तजवीज कर । (२) धीरे से । चुपचाप । उ०—रावन बान महाभट भारे । देखि सरासन गबँहिं सिधारे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गवँन पु
संज्ञा पुं० [सं० गमन] गति । चाल । उ०—पदुमिनि गवँन हैस गौ दूरी । हस्ती लाजि मेल सिर धूरी ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२६ ।
⋙ गवँसना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गवेषणा] अन्वेषण करना । खोजना । उ०—तिहि चढ़ि इंदऊँ करत गवँसिया अंतरि जमवा जागू हो । कबीर ग्रं०, पृ० ११२ ।
⋙ गव
संज्ञा पुं० [सं० गवय] एक बंदर का नाम जो रामचंद्र जी की सेना में था ।
⋙ गवण पु †
संज्ञा पुं० [सं० गमन, प्रा० गमण] दे० 'गवन' । उ०— गिण शत्रु मित्र मारग गवण शत्रु दास उदास रह ।— र० रू०, पृ० ९ ।
⋙ गवत †
संज्ञा पुं० [देश०] घास । तृण ।
⋙ गवन पु †
संज्ञा पुं० [सं गमन] १ प्रस्थान । प्रयाण । चलना जाना । उ०—सुनि बन गवन कीन्ह रघुनाथा ।—तुलसी (शब्द०) । २. वधू का पहले पहल पति के घर जाना । गवना । गौना ।
⋙ गवनचार †
संज्ञा पुं० [सं० गमन + आचार] वधू का वर के घर जाना । गौना । ऊ०—गवनचार पझावति सुना । उठा धमकि जिय औ सिर धुना ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गवनना पु
क्रि० अ० [सं० गमन] जाना । उ०—(क) पुनि रानी हँसि कूसल पूँछा । कित गवनेहु पींजर करि छूँछा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) गवने तुरत वहाँ रिंषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गवनहरी, गवनहारी** †
संज्ञा स्त्री० [सं० गायन, हिं० गावन + हारी (प्रत्य०)] पेशेवर गानेवाली स्त्री । गायिका । उ०— गृहस्थिनों के गाने से मधुरी लय गवनहारिनों की होती । प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५३ ।
⋙ गवना
संज्ञा पुं० [सं० गमन] दे० 'गौना' ।
⋙ गवय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गवयी] १. नील गाय । उ०—इधर उस नाद को सुनकर गवय और गज भी भीत होकर पलीत के भाँति चिक्कार मारकर भागते हैं ।—श्यामा०, पृ० ७ । २. एक बंदर जो रामचंद्र जी की सेना में था । ३. एक छंद का नाम जिसके प्रथम चरण में १९ मात्राएँ होती हैं और ११ मात्राओं पर विराम होता है । दूसरे चरण में दोहा होता है । जैसे—सुरभी केसर बसै नील नद माँह । मनौ नगर सुग्रीव को सोहत सुंदर छाँह ।
⋙ गवरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] अंबिका । गौरी ।
⋙ गवरी (२)पु
संज्ञा पुं० [फा० गोरी = गोर का निवासी] गोरी । मुहम्मद गोरी । उ०—सात बेर प्रथिराज गेह गवरी गहि मेले ।—ह० रासो, पृ० ६५ ।
⋙ गवर्नमेंट
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. राज्य । शासनपद्धति । २. शासकमंडल । सरकार ।
⋙ गवर्नमेंटी
[अं०] गवर्नमेंट संबंधी ।
⋙ गवर्नर
संज्ञा पुं० [अं०] १. शासक । हाकिम । २. किसी प्रांत का वह प्रधान हाकिम जिसे उस पद पर राजा या प्रजा ने चुना हो । ३. वह प्रधान शासक जिसे राजा या मंत्रि- मंडल किसी देश में शासन करने के लिये नियुक्त करे । राज्यपाल । ४. भारतवर्ष में किसी प्रेसिडेंसी (प्रांत) का वह प्रधान हाकिम जो इंगलैंड के बादशाह या मंत्रि- मंडल द्वारा गवर्नर जनरल के अधीन रहकर शासन करने के लिये नियत किया जाता था । भारतवर्ष में बंबई, मद्रास और बंगाल में गवर्नर रहते थे । लाट । यौ०—गवर्नर जनरल ।
⋙ गवर्नर जनरल
संज्ञा पुं० [अं०] किसी देश का सबसे बड़ा वह हाकिम जिसे राजा या मंत्रिंमंडल ने नियत किया हो और जिसके नीचे कई एक गवर्नर और लेफिटनेंट गवर्नर हों । वाइसराय । बड़े लाट । विशेष—जैसै भारत वर्ष के गवर्नर जनरल, जो संपूर्ण भारतवर्ष का शासन करते थे और जिनके मातहत बंबई, मद्रास और बंगाल के गवर्नर तथा संयुक्त प्रांत, पंजाब आदि के गवर्नर अथवा लेफ्टिनेंट गवर्नर थे । गवर्नरों की नियुक्ति इँगलेंडेश्वर स्वयं करते थे; पर लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त होते थे । बाद में लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद समाप्त कर दिया । गवर्नर जनरल एक कौंसिल या मंत्रिमंडल द्वारा शासन करते थे । स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुसार अब यह पद समाप्त कर दिया गया है । श्री सी० राजगोपालाचारी भारत के अंतिम गवर्नर जनरल या वाइसराय थे ।
⋙ गवर्नरी
संज्ञा स्त्री० [अं० गवर्नर + ई (प्रत्य०)] १. जहाँपर गवर्नर शासन करता हो । प्रेसिड़ेंसी । प्रांत । २. शासन । अधिकार ।
⋙ गवर्मेंट
संज्ञा स्त्री० [अं० 'गवर्नमेंट'] दे० 'गवर्नमेंट' ।
⋙ गवर्मेंटी
वि० [अं० गवर्नमेंट] सरकारी । गवर्नमेंटी ।
⋙ गवल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली भैसा । अरना । २. भैंसे की सींग (को०) ।
⋙ गवहियाँ (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गोघ्न = अतिथि] अतिथि । मेहमान ।
⋙ गवहियाँ (२) †
वि० [हिं० गवहीं] ग्रामीण । गाँव का । उ०— बिचारे भोले गवहियें और अपढ़ ठग लिए जाते हैं ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५३ ।
⋙ गवाँना
क्रि० [सं० गमन, हिं० 'गवन' का प्रे० रूप] खो देना । खोना ।
⋙ गवा पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौ = गाय] उ०—नाना वर्ण गवा उनका एक वर्ण दूध ।—दक्खिनी, पृ० १८ ।
⋙ गवाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटी खिड़की । गोखा । झरोखा । २. एक बन्दर का नाम जो रामचंद्र की सेना का सेनापति था ।
⋙ गवाक्षित
वि० [सं०] खिड़की या झरोखे से युक्त । खिड़कियों वाला [को०] ।
⋙ गवाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रायन । २. एक प्राकर की ककड़ी । ३. सहोरा या सिहोर नाम का पेड़ । ४. अपराजिता लता । विष्णुक्रांता ।
⋙ गवाख पु
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष] दे० 'गवाक्ष' ।
⋙ गवाख्य पु †
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष] दे० 'गवाक्ष' । उ०—पुरं मंदिरं चौहटं औ गवाख्यं ।—ह० रासो, पृ० १६ ।
⋙ गवाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।
⋙ गवाछ पु
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष] दे० 'गवाक्ष' ।
⋙ गवादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोचर भूमि । चरागाह । २. घास [को०] ।
⋙ गवादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घास । २. चरागाह । ३. पशुओं को चारी देने का पात्र । खोर । नाँद [को०] ।
⋙ गवाधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाह । लाक्षा । लाख [को०] ।
⋙ गवाना
क्रि० स० [सं० गमन, हिं० 'गवन' का प्रे० रूप] खोना ।
⋙ गवामयन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का यज्ञ जो एक वर्ष में समाप्त होता था । दस या बारह महीने में पूरा होनेवाला एक वैदिक यज्ञ ।
⋙ गवार
प्रत्य० [फा०] रुचिकर । सह्य । अनुकूल । जैसे,— खुशगवार, नागवार ।
⋙ गवारा
वि० [फा़०] १. मनभाता । अनुकूल । पसंद । २. सह्य । अंगीकार । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गवारिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] ओषधियों का चूर्ण जिसका प्रयोग पाचन के लिये किया जाय ।
⋙ गवालीक
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह मिथ्या भाषण जो गो आदि चौपायों के लिये किया जाय ।
⋙ गवालूक
संज्ञा पुं० [सं०] नील गाय । गवय [को०] ।
⋙ गवाशन (१)
वि० [सं०] गोमांस खानेवाला । गोभक्षी ।
⋙ गवाशन (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जो जाति से बहिष्कृत हो । २. चमार । चांडाल [को०] ।
⋙ गावास (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० गवाशन] गोनाशक । कसाई । हत्यारा । उ०—कासी मगु सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गवास (२)** †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाना + आस (प्रत्य०)] गाने का मन । गाने की इच्छा ।
⋙ गवाह
संज्ञा पुं० [फा़०] [संज्ञा गवाही] १. वह मनुष्य जिसने किसी घटना को साक्षात् देखा हो । वह जिसके सामने कोई बात हुई हो । २. वह जो किसी मामले के विषय में जानकारी रखता हो । साक्षी । साखी । यौ०—गवाह साखी । मुहा०—गवाह देना = अपने दावे को सिद्ध करने के लिये प्रमाण- स्वरूप साक्षी उपस्थित करना । गवाह बनाना = (१) साक्षी वनाना । मुकदमे में किसी को गवाही देने के लिये नियत करना । (२) झूठा गवाह बनाना । गवाह ऐनी या रूयत = वह गवाह जिसने घटना अपनी आँखों दैखी हो । चश्मदीद गवाह । गवाह समाई = वह गवाह जिसने घटना आँखों से न देखी हो और जो सुनी सुनाई बात कहे । चश्मदीद गवाह = वह गवाह जिसने कोई घटना आँखों देखी हो ।
⋙ गवाही
संज्ञा स्त्री० [फा़०] किसी घटना के विषय में किसी ऐसे मनुष्य का कथन जिसने वह घटना देखी हो या जो उसके विषय में जानता हो । साक्षी का प्रमाण । साक्ष्य । मुहा०—गवाही करना या लिखना = किसी दस्तावेज पर साक्षी के रूप में हस्ताक्षर करना । गवाही देना = किसी साक्षी का किसी घटना के विषय में अपना हजहार लिखाना ।
⋙ गविष्ठ
संज्ञा पुं० [से०] १. पृथिवी या आकाश से सबंधित कोई वस्तु । वह जो पृथिवी या आकाश का हो । २. रवि सूर्य [को०] ।
⋙ गविष्ठि (१)
वि० [सं०] १. गायों की इच्छा रखनेवाला ।२. इच्छुक ।
⋙ गविष्ठि (२)
संज्ञा स्त्री० १. इच्छा । अकांक्षा । २. युद्ध करने की इच्छा । युद्धलिप्सा [को०] ।
⋙ गवोधुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गवेधुक' ।
⋙ गविश
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोस्वामी । २. विष्णु । ३. साँड़ ।
⋙ गवेजा
संज्ञा पुं० [?] बातचीत । वार्तालाप । उ०—केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद्र न जानु कुवाँ कर मेजा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गवेडु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. धान्य विशेष [को०] ।
⋙ गवेधु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गवेधुक' ।
⋙ गवेधुक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गवेधुका] १. कसेई । कौड़िल्ला । वि० दे० 'कसी' । विशेष—ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसर रुद्र देवता के लिये गवेधुक के चरु की आहुति दी जाती थी । मीमांसा के अनुसार शूद्र को गवेधुक के चरु से यज्ञ करने का अधिकार है । २. एक प्रकार का सर्प (को०) । १. गेरू । गैरिक (को०) ।
⋙ गवेरुक
संज्ञा पुं० [सं०] गेरू ।
⋙ गवेल †
वि० [ हिं० गाँव +एल (प्रत्य०) ] [ वि० गवेली] गँवार । देहाती । उ०—नागरि बिबिध विलास तजि वसी गवेलिन माहिं । मूढौ में गनिबी कितू हूठ्यो दै इठलाहिं ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गवेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गवीश' [को०] ।
⋙ गवेष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गवेषण' [को०] ।
⋙ गवेषण
संज्ञा पुं० [सं०] (हरी हुई गायों के) खोजने का कार्य ।२. खोज ढूँढ । तलाश । ३. गौ की इच्छा या चाह [को०] ।
⋙ गवेषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खोज । अन्वेषण । तलाश । छानबीन । विशेष—प्राचीन काल में अर्यों का सर्वस्व गो थी । जब गो हरी जाती थी या कोई चुरा ले जाता था, दब वे लोग उसे बडे़ परिश्रम से ढूँढ़ते थे । वेदों सें पणि असुर के गो चुराने और इंद्र का अपनी कुतिया सरमा को उसे ढूँढने को भेजने की गाथा इसका उदाहरण है । इसी लिये यह शब्द, जिसका वास्तविक अर्थ गो की इच्छा है, खोज या तलाश के अर्थ में लिया जाता है ।
⋙ गवेषित
वि० [सं०] जिसके विषय में गवेषणा हुई हो । अन्वेषित [को०] ।
⋙ गवेषी
वि० सं० [सं० गवेषिन्] अन्वेषक । गवेषणा करनेवाला । शोध करनेवाला [को०] ।
⋙ गवेसना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गवेषणा] दे० 'गवेषणा' ।
⋙ गवेसी
वि० [सं० गवेषिन् > गवेषी] गवेषणा करनेवाला । ढूँढनेवाला । उ०—वहाँ से गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गवैहाँ †
वि० [हिं० गाँव + ऐंहा (प्रत्य०)] गाँव का रहनेवाला । ग्रामीण । दैहाती ।
⋙ गवैया (१)
वि० [पुं० हिं० गायब = गाना + ऐया (प्रत्य०)] गानेवाला । गायक । विशेष—'ऐया' प्रत्यय पूर्वीय है । इससे यह क्रिया अथवा धातु के पूर्वीय रूप 'गावना' में ही लगता है ।
⋙ गवेया (२) †
वि० [हिं० गवन या गौन + ऐया (प्रत्य०)] जानेवाला ।
⋙ गव्य (१)
वि० [सं०] गो से उत्पन्न । जो गाय से प्राप्त हो । जैसे—दूध, दहीं, घी, गोबर, गोमूत्र आदि । २. गाय बैलों के अनुकूल या उपयुक्त (को०) । यौ०—पंचगव्य ।
⋙ गव्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय का झुंड । गोसमूह । पु २. पंचगव्य । उ०—पंचाछरी प्रान मुद माधव गव्य सु पंचनदा सी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. गोदुग्ध (को०) ४. गोचर भूमि । चरागाह (को०) । ५. ज्या । प्रत्यंचा (को०) । ३. रँगने की वस्तु । पीत रंग । गोरोचन (को०) ।
⋙ गव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गायों का झुंड । २. दो कोस की एक माप । गव्यूति । ३. धनुष की जोरी । ज्या । ४. गोरोचन [को०] ।
⋙ गव्यु
वि० [सं०] १. नाय या गोदुग्ध का इच्छुक । २. लड़ाई चाहनेवाला । युद्धेप्सु [को०] ।
⋙ गव्यूत
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गव्यूति' ।
⋙ गव्यूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दो कोस का एक मान । दो हजार धनुष की दूरी । २. चरागाह । ३. दो मील या एक कोश की दूरी (को०) ।
⋙ गश
संज्ञा पुं० [अ० गशी से फ़ा० ग़श] मूर्छा । बेहोशी । असंज्ञा । ताँवर । उ०—अमीचंद गश खा के जमीन पर गिर पड़ा ।—शिवप्रसाद (शब्द०) । क्रि० प्र०—आना । मुहा०—गश खाना = मूर्छित होना । बेहोश होना ।
⋙ गशी
संज्ञा स्त्री० [अ० ग़शी] बेहोशी । मूर्छा । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ गश्त
संज्ञा पुं० फ़ा० [ वि० गश्ती] २. टहलना । घूमना । फिरना । भ्रमण । दौरा । चक्कर । यौ०—गश्त गिरदावरी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—गश्त मारना या लगाना = चक्कर देना । चारों ओर फिरना । २. पुलिस आदि के कर्मचारियों का पहरे के लिये किसी स्थान के चारों ओर या गली कूचों आदि में घूमना । रौंड । गिरदावरी । दौरा । क्रि० प्र०—घूमना ।—फिरना । ३. एक प्रकार का नाच जिसमें नाचनेवाली वेश्याएँ बरात के आगे नाचती हुई चलती हैं ।
⋙ गश्त सलामी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गश्ती + अ० सलाम] वह भेंट या नजर जो पहले दौरे पर गए हुए हाकिमों को मिला करती थी । यह प्रथा अबतक देशी रियासतों में जारी रही है ।
⋙ गश्ती (१)
वि० [फ़ा०] घूमनेवाला । फिरनेवाला । फिरता । चलता । जैसे—गश्ती चिट्ठी, गश्ती हुकुम, गश्ती परवाना, गश्ती सर्कुलर, गश्ती इन्सपेक्टर इत्यादि ।
⋙ गश्ती (२)
संज्ञा स्त्री० व्यभिचारिणी । कुलटा ।
⋙ गसत पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गश्त] दे० 'गश्त' । उ०—दिन दिन दौड़ गसत नित दीजै, कमँध धरा पासरणा कीजै ।—रा० रु०, पृ० २७५ ।
⋙ गसना
क्रि० सं० [सं० ग्रसन] १. जकडना । गाँठना । २. बुनावट में बाने को कसना । बनावट में तागों या मूतों को परस्पर खूब मिलाना जिसमें छेद न रह जाय । वि० दे० 'गँसना' ।
⋙ गसिला
वि० [हिं० गसना] [वि० स्त्री० गसीली] १. जकडा हुआ । गठा हुआ । एक दूसरे से खूब मिला हुआ । गुथा हुआ । २. (कपड़ा आदि) जिसके सूत परस्पर खूब मिले हों । जिसकी बुनावट घनी हो । गफ ।
⋙ गस्स पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँस] दे० 'गाँस' । उ०—सथं खाँन सत्तार सत्तं सहस्सं । हयं छंडि कामं मनं मन्नि गस्सं ।—पृ० रा० ९ । १४६ ।
⋙ गस्सना—पु
क्रि० स० [सं० ग्रमन] दे० 'ग्रसना' । उ०—कच मग्ग भूसि चिहुकोद गस्सि । नारिंग सुमन दारिम बिगस्सि ।—पृ० रा०, ११ । ६६ ।
⋙ गस्सा
संज्ञा पुं० [सं० ग्रास, प्रा० गास, गस्स] ग्रास । कौर । मुहा०—गस्सा मारना = कौर मुँह में डालना ।
⋙ गहंमह पु †
वि० [हिं० गहमह ] चहल पहल से भरा । आनंदयुक्त । प्रकुल्ल । उ०—सहरि गहंमह सूर, नूर नबलन नवला मुख ।—पृ० रा०, ३ ।५५ ।
⋙ गहँडिल †
वि० [हिं० गड़हा] [वि० गहँडैंल] गँदला । मटमैला । मटीला (पानी) ।
⋙ गह
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहना] १. हथियार आदि पकड़ने की जगह । मूठ । दस्ता । गबजा । पकड़ । मूहा—गह बैठना = मूठ पर आच्छी तरह हाथ बैठना । २. किसी कमरे या कोठरी की ऊँचाई । ३. मकान का खंड । मंजिल ।
⋙ गहकना
क्रि० अ० [अनु० या देश०] १. चाह से भराना । लालसा से पूर्ण होना । ललकना । लहकना । लपकना । २. उमंग से भरना । उ०—माखन के लोंदा गहकि गोपन दीए उछारि । टूक टूक ह्वै कंद (चंद) जनु गयो गृष्ण पै वारि ।—सुकवि (शब्द०) ।
⋙ गहको पु †
वि० [सं० ग्राहक, हिं० गाहक] ग्राहक । खरीद करनेवाला । उ०—साध संत गहकी भए, गुरु हाट लगाई ।—कबीर श०, भा० ३, पृ०९ ।
⋙ गहकोडा †
संज्ञा पुं० [हिं० गाहक + ओ़डा (प्रत्य०)] गाहक । खरीददार ।—(दलाल) ।
⋙ गहक्कना पु
क्रि० अ० [हिं०] १. उमंग से बोल ना । उ०—गिरिरव मोर गहक्किया तरवर मँक्या पात । धणिया धण सालण लगा बूठै तौ बरसात ।—ढोला०, दू० ३९ । २. उल्लास से भर जाना । ललकना । उ०—गहक्केव क्रम्यों सु कैमास जामं, त्रहंराइ सेनं भगी भीम ताम ।—पृ० रा०, १२ । ३८३ ।
⋙ गहगच
संज्ञा पुं० [हिं० कचकच] फेर । चक्कर । घंघोच । प्रपंच । उ०—गहगच परयो कुटंब के कंठे रहि गयौ राम ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५२ ।
⋙ गहगड्ड
वि० [सं० गह = गहरा + गड्ढ = गड्ढा] घोर । जैसे,—गहगड्ड नशा, गहग़ड्ड छनना । विशेष—इसका प्रयोग नशे या नशे की चीच ही के संबंध में होता है ।
⋙ गहगह (१)
वि० [सं० गदगद या अनु य देश०] प्रफुल्लित । प्रसन्नतापूर्ण । उमंग से भरा ।
⋙ गहगह (२)
क्रि० वि० घमाघम । धूम के साथ । उ०—गहगह गगन दुंदुभी बाजि ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इस अर्थ में यह बाजों ही के संबंध में आता है ।
⋙ गहगहा
वि० [सं० गदगद] १. उमंग और आंनद से भरा हुआ । प्रफुल्लित । उ०—माधव जू आवनहार भए । अंचल उड़त मन होत गहगहो फरकत नैन खए ।—सूर (शब्द०) । २. घमाघम । धूमधाम के साथ । उ०—अति गहगहे बाजने बाजे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गहगहाना
क्रि० अ० [हिं० गहगहा] १. आनंद में मग्न होना । बहुत प्रसन्न होना । प्रफुल्लित होना । आनंद और उमंग से फूलना । उ०—बायस गहगहात शुभवाणी विमल पूर्व दिशि बोले । आजु मिलाओं श्याम मनोहर तू सुनु सखी राधिके भोले ।—सूर (शब्द०) । २. फसल आदि का बहुत अच्छी तरह तैयार होना । खेती लहलहाना ।
⋙ गहगहे
क्रि० वि० [हिं० गहगहा] बड़ी प्रफुल्लता के साथ । बहुत अच्छी तरह से । उ०—(क) गहगहे गावत गीत मंगल किये मंडल मंजु । कोउ बाल विरुद बखानती गति ठान गजगति मंजु ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) राजरुख लखि कुरु भूसूर सुआसिनिन्हि समय समाज की ठवनि भलि ठई है । चली गान करत निसान बाजे गहगहे लहलहे लोयन सनेह सरसई है ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गहगोर †
वि० [हिं० गह = गहरा + गोरा] [वि० स्त्री० गहगोरी] दीप्तियुक्त । अत्यधिक गौर वर्णवाला । उ०—पूरन जोबन है गहगोरी । अधिक अनग लाज तिहि थोरी ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७ ।
⋙ गहड़वाल
संज्ञा पुं० [हिं० गहरवाल] दे० 'गहरवार' ।
⋙ गहडोरना
क्रि० स० [अनु० या देश०] १. थोडे जल को नीचे की मिट्टी सहित हिलाकर गंदा करना । २. मथ कर गँदला करना । उ०—दूरि कीजै द्वार तैं लबार लालची प्रपंची सुधा सो सलित सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गहन (१)
वि० [सं०] १. गंभिर । गहरा । अथाह । जैसे,—गहन जलाशय । २. दुर्गम । घना । दुर्भेद्य । जैसे,—गहन वन, गहन पर्वत । ३. कठिन । दुरूह । जेसे,—गहन विषय । ४. निविड़ । जेसे,—गहन अंधकार ।
⋙ गहन (२)
संज्ञा पुं० १. गहराई । थाह । २. दुर्गम स्थान । जेसे, झाडी, गड्ढा, जंगल, अंधकारपूर्ण स्थान । ३. वन या कानन में गुप्त स्थान । कुंज । निकुंज । उ०—गहन उजारि सुत मारि तब, कुशल गये कीस वर बैरिखा को ।—तुलसी (शब्द०) । ४. दुःख । कष्ट । ५. जल । सलिल । ६. गुफा । कंदरा (को०) । ७. छिपने या लुकने की जगह (को०) । ८. एक आभूषण (को०) । ९. इश्वर । परमात्मा (को०) ।
⋙ गहन (३) †
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहण, प्रा० गहण] १. दे० 'ग्रहण' । उ०— गहन लाग देखु पुनिम क चंद ।—विद्यापति, पृ० ५४ । २. कलंक । दोष ।३. दुःख । कष्ट । विपत्ति । ४. बंधक । रेहन ।
⋙ गहन (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहना = पकड़ना] १. पकड़ । पकड़ने का भाव । २. हठ । जिद । अड़ । टेक । उ०—एकै गहन धरी उन हठ करि मेटि वेद विधि नीति । गोपवेश निज सूरश्याम ले रही विश्ववर जीति ।—सूर (शब्द०) ।३. जोते हुए खेत से घास निकालने का एक औजार । पाँची । पाँजी । विशेष—इसमें दो ढाई हाथ लंबी लकड़ी के नीचे की ओर पतली नुकीली खूँटिया गड़ी रहती हैं और ऊपर एक सीधी लकड़ी जड़ी रहती है जिसमें मुठिया लगी रहती है । खेत जोते जाने पर इसे बैलों के जुआठे में बाँधकर खेत में फिराते हैं और ऊपर से मुठिया से दबाए रहते हैं ।
⋙ गहन (४) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाहना] वह हलकी जुताई जो पानी बरसने पर धान के बोए हुए खेतों में की जाती है । बिदहनी ।
⋙ गहना (१)
संज्ञा पुं० [सं० गहन = आभूषण या ग्रहण = धारण करना] १. आभूषण । जेवर । २. रेहन । बंधक । ३. छोटी लोटिया के आकार का मिट्टी का कुम्हारों का एक औजार, जिसका व्यवहार घडे़ आदि के बनाने में होता हैं । ४. गहन नामक एक औजार जिसका व्यवहार जोते हुए खेत में से घास निकालने के लिये होता हैं । पाँची ।
⋙ गहना (२)
क्रि० स० [सं० ग्रहण, प्रा० गहण] पकड़ना । धरना । थामना । उ०—(क) गहत चरन कह बालिकुमारा । मम पद लहे न तोर उबारा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तब एक सखी प्रीतम कहती प्रेम एसो प्रगट कीन्हों धीर काहे न गहति ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गहना (३)
क्रि० स० [सं० गाहन] दे० 'गाहना' ।
⋙ गहनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहण] टेक । अड़ । जिद । हठ । उ०—(क) हरि पिय तुम जिनि चलन कहो । यह जिनि मोहिं सुनावहु बलि जाउँ जिनि जिय गहनि गहो ।—सूर (शब्द०) । (ख) छबि तरंग सरितागण लोचन ए सागर जनु प्रेम धार लोभ गहनि नीके अवगाही ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गहनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पलास की जड़ आदि कूटकर उससे नाव के छेदों को बंद करने की क्रिया । २. पशुओं का एक रोग जिसमें उनके दाँत हिलने लगते हैं । ३. गहन नामक औजार जिससे जोते हुए खेत में से घास निकाली जाती है ।
⋙ गहनु पु
संज्ञा पुं०, स्त्री० [हिं० गहन] दे० 'गहन' ।
⋙ गहने †
क्रि० वि० [हिं० गहना = बंधक] रेहन में । रेहन के रूप में । बंधक । उ०—जो इन दृग पतिआय नहिं प्रीतम साहु सुजान । दरस रूप धन दै इन्हें धर गहने मम प्रान ।—रस— निधि (शब्द०) ।
⋙ गहबर (१)पु
वि० [सं० गह्वर] [क्रि० गहबराना० घबराना] १. दुर्गम । विषम । उ०—नगरु सकल बनु गहबर भारी । खग मृग विपुल सरल नरनारी ।—तुलसी (शब्द०) । २. व्याकुल । उद्विग्न । उ०—(क) औरै सो सब समाज कुशल न देखों आजु गहबरि हिय कहैं कोसलपाल ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मुख मलीन हिय गहबर आवे । मान (शब्द०) । ३. किसी ध्यान में मग्न या बेसुध । उ०—सजल नयन गदगद गिरा गहबर मन पुलक शरीर ।—तुलसी (शब्द०) ।४ भीतर । गह्वर । गर्भ । उ०—आवति चली कुंज गहबर तें कुँवरि राधिका रूपमढ़ी ।—घनानंद, पृ० ४६४ ।
⋙ गहबरना पु
क्रि० अ० [हिं० गहबर ] १. घबराना । व्याकुल होना । उ ।—ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँडि पाँव लेइ परा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ९२ । २. करुणा आदि के कारण (जी) भर आना । उ०—(क) कपि के जलत सिय को मनु गहबरी आयो ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बिलखी डभकौंहैं चखन तिय लखि गवन बराइ । पिय गहबरि आएँ गरैं राखी गरैं लगाइ ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गहबराना (१)
क्रि० स० [हिं० गहबरना ] घबरा देना । व्याकुल करना । घबराहट में डालना । विकल करना ।
⋙ गहबराना (२)
क्रि० अ० दे० 'गहबरना' ।
⋙ गहबह
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गहमह' ।
⋙ गहमह
संज्ञा स्त्री० [हिं०] चहल पहल । उ०—गोकुल गरयारिन मैं महा गहमह माँची ।—घनानंद, पृ० १४० ।
⋙ गहमहई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहमह] चहल पहल की स्थिति । प्राचुर्य । आधिकता ।
⋙ गहमागहमी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहमह ] १. चहल पहल । गर्म बाजारी । रौनक । धूमधाम । २. भीड़ भाड़ । जन संमर्द ।
⋙ गहर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ी, धर्री या सं० ग्रह अथवा फा० गाह = समय ? ] देर । विलंब । उ०—गहर जनि लावहु गोकुल जाइ । तुमहिं बिना व्याकुल हम होइ हैं यदुपति करी चतु- राइ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गहरु (२) †
संज्ञा पुं० [सं० गह्वर या गभीर, हिं० गहिर] दुर्गम । गूढ़ । उ०—मन कुंजर मयमंत था फिरता गहर गँभीर । दोहरी तेहरी चौहरी परि गइ प्रेंम जँजिर ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गहर (३)
वि० [सं० गम्भीर] १. गहरा । उ०—लज्जित ह्वै धँसि गईं जल गहरैं । उठत जु तामैं दुति की लहरै ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९८ । २. ऊँची और भारी । जोर के साथ । मंद्र (आवाज वा ध्वनि) । उ०—गज्जि गहर नीसांन अग्गि अगबान विछुट्टिय । दरिया दधि किय मथन भोम फट्ठिय खह तुट्ठिय ।—पृ० रा०, १ । ६३९ ।
⋙ गहरना (१)
क्रि० अ० [हिं० गहर = देर ] देर लगाना । विलंब करना । उ०—ठहरत आवै मनमोहन महरनंद, ठहरत आवे पुंज परिमल पुर को । सेवक त्यों गहरत आवै ज्यों ज्यों बाँसुरी सों कहरत आवै मन मेरो मानि दूर को ।—सेवक (शब्द०) ।
⋙ गहरना (२)
क्रि० अ० [अ० क़हर] १. झगड़ना । उलझना । उ०— तुम सौं कहत सकुचतिं महरि । स्याम के गुन कछु न जानति जात हमसों गहरि ।—सूर०, १० । १४२२ । २. कुढ़ना । नाराज होना । उ०—सुनत श्याम चक्रित भए बानी ।..... अधर कंप रिसि सौंह मरोरयो मन ही मन गहरानी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गहरवार
संज्ञा पुं० [हिं० गहिरदेव = एक राजा ] एकक्षत्रिय वंश । विशेष—इस वंश के लोग गोरखपुर और गाजीपुर से लेकर कन्नौज तक पाए जाते हैं । ये लोग अपना आदिस्थान प्रायः काशी बतलाते हैं । जयचंद से चार पाँच पीढ़ी पहले के चंद्रदेव और महीपाल आदि कन्नौज के राजा गहरवार थे, ऐसा शिला- लेखों से पाया जाता है । बुँदेलखंड के बुँदेले क्षत्रिय भी अपने को काशी के गहरवार वंश से उत्पन्न बतलाते हैं ।
⋙ गहरा
वि० [सं० गम्भीर, पा० गहीर] [वि० स्त्री० गहरी] १. (पानी) जिसमें जमीन बहुत अंदर जाकर मिले । जिसकी थाह बहुत नीचे हो । गंभीर । निम्न । अतलस्पर्श । जैसे, गहरी नदी । उ०—जिन ढूँढ़ा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ । हौं बौरी ढूँढन गई, रही किनारे बैठ ।—कबीर (शब्द०) ।गुहा०—गहरा पेट = ऐसा पेट जिसमें बहुत सी बातें पच जायँ । ऐसा हृदय जिसका भेद न मिले । जैसे,—उसकी बातें कोई नहीं जान सकता; उसका बड़ा गहरा पेट है । २. जो सतह से नीचे दूर तक चला गया हो । जिसका विस्तार नीचे की ओर अधिक हो । जेसा,—गहरा गड्ढा, गहरा बरतन । ३. बहुत अधिक । ज्यादा । घोर । प्रचंड । भारी । जेसे,—गहरा नशा, गहरी नींद, गहरी भूल, गहरी मार, गहरी चोट, गहरी मित्रता इत्यादि । मुहा०—गहरा असामी = (१) भारी आदमी । बड़ा आदमी । ज्यादा देनेवाला । गहरे लोग = चतुर लोग । भारी उस्ताद । घोर धूर्त । ऐसे लोग जिनका भेद कोई न पावे । जैसे,— लड़के घड़ी कैसे उड़ा ले जायँगे । यह गहरे लोगों का काम है । (२) ऐसे लोग जिनकी विद्या गंभीर हो । विद्वान् लोग गहरा हाथ = हथियार का भरपूर वार जिससे खूब चोट लगे । शस्त्र का पूर्ण आघात । गहरा हाथ मारना = (१) हथियार का भरपूर वार करना । (२) भारी माल उड़ाना । खूब धन चुराना । (३) बहुत माल पैदा करना । किसी बड़ी भारी या अनूठी वस्तु को प्राप्त करना । जैसे,—इस बार तो तुमने गहरा हाथ मारा । ४. दृढ । मजबूत । भारी । कठिन । उ०—तौल तराजू छमां सुलच्छण तब वाके घर जैयौ । कहैं कबीर भाव बिन सौदा गहरी गाँठ लगैयो ।—कबीर (शब्द०) । ५. जो हलका या पतला न हो । गाढ़ा । जैसै,—गहरा रंग, कहरी भंग । मुहा०—गहरी घुटना = (१) खूब गाढ़ी भंग घुटना या पिसना । (२) गाढ़ी मित्रता होना । (३) साथ में खूब आमोद प्रमोद होना । जैसे,—उन लोगों की आजकल खूब गहरी घुटती है । गहरी छनना = (१) खूब गाढ़ी या अधिक भंग का पिया जाना । (२) गाढ़ी मित्रता होना । अत्यंत घनिष्ठता होना । बहुत हेल मेल होना । (३) साथ में खूब आमोद प्रमोद होना । खूब घूल घूल कर बातचीत होना । गहरी साँस लेना = ठंढी साँस लेना । संतोष या अतीत का स्मरण करना ।
⋙ गहराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहरा + ई (प्रत्य०)] गहरा का भाव । गहरापन । गांभीर्य ।
⋙ गहराना (१) †
क्रि० अ० [हिं० गहरा ] गहरा होना ।
⋙ गहराना (२)
क्रि० स० गहरा करना ।
⋙ गहराना (३)
क्रि० अ० [हिं० गहर ] नाराज होना । रूठना । दे० 'गहरना', 'घहराना' ।
⋙ गहरापन
संज्ञा पुं० [हिं० गहरा + पन (प्रत्य०)] गहरा होने का भाव । गहराव ।
⋙ गहराव
संज्ञा पुं० [हिं० गहरा + आव (प्रत्य०)] गहराई ।
⋙ गहरु पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ी, घरी या फा० गाह = समय ?] देर । विलंब । उ०—(क) तू रिसि छाँड़ी राधे राधे । ज्यों ज्यों ते कों गहरु त्यों त्यों मो कों बिथा री साधे साधे ।—हरिदास (शब्द०) । (ख) नेग चारु कहँ नागरि गहरु लगावहिं । निरखि निरखि आनंद सुलोचनि पावहिं । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गहरे †
क्रि० वि० [हिं० गहरा] अच्छी तरह । खूब । यथेच्छ । मुहा०—गहरे करना = खूब लाभ उठाना । गहरे चलना = (१) घात में लगना । (२) जाते हुए पथिक के प्राण लेना ।—(ठग भाषा) । (३) एक्के के घोडे़ का खूब जोर से कदम चलना ।
⋙ गहरेबाजी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहरे + बाजी ] एक्के के घोडे़ की खूब जोर की कदम चाल ।
⋙ गहलौत
संज्ञा पुं० [सं० गोभिल ?] राजपूताने के क्षत्रियों का एक वंश । विशेष—सिसोदिया और अहेरी इसी वंश की शाखाएँ हैं । गहलौत नाम के विषय में भिन्न भिन्न प्रकार के प्रवाद प्रच- लित हैं । कोई इसे गोहिल या गोभिल से निकला बतलाते हैं; कोई—कोई कहते हैं कि गुजरात मे भगाए जाने पर जब मेवाड़ के महाराणा के पूर्वपुरुष भागे, तब राजमहिषी को एक ब्राह्मण ने शरण दी और उन्हें वहीं एक गुहा में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम गुहलौत रखा गया ।
⋙ गहवा †
संज्ञा पुं० [पु० हिं० गहब, हिं० गहना = पकड़ना] सँड़सी ।
⋙ गहवाना
क्रि० स० [हिं० गहना का प्रे० रूप] पकड़ने का काम करना । पकड़ाना ।
⋙ गहवारा
संज्ञा पुं० [हिं० गहना] रस्सी में लटकाया हुआ खटोला जिसपर बच्चों को सुलाकर झुलाते हैं । पालना । झूला । हिंडोला ।
⋙ गहव्वह पु
संज्ञा पुं० [हिं०] चहल पहल । शोर ।उ०—सुने गहव्वह केहरी उठयो हक्कोर ।—पृ० रा०, २४ । ३४५ ।
⋙ गाहा †
संज्ञा पुं० [सं० ग्राह] ग्राह । मगर । उ०—फिर बाके एक गहा मिलौ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १००५ ।
⋙ गहाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहना ] गहने का भाव । पकड़ ।
⋙ गहागड्ड
वि० [देश०] दे० 'गहगड्ड' ।
⋙ गहागह
क्रि० वि० [अनु०] दे० 'गहगह' । उ०—सुनत राम अभिषेक सुहावा । बाज गहागह अबध बधावा ।—मानस, २ ।७ ।
⋙ गहाना
क्रि० स० [हिं० गहना (= पकड़ना) का प्रे० रूप] धराना । पकड़ाना । गहवाना । उ०—आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ । तौ लाजौं गंगा जननी कौं, सांतनु सुत न कहाऊँ ।— सूर०, १ । २७० ।
⋙ गहिर †
वि० [सं० गम्भीर] दे० 'गहरा' । उ०—बाँधल हीर अजर लए हेम । सागर तह हे गरिर छल प्रेम ।—विद्यापति, पृ० १४ ।
⋙ गहिरदेव
संज्ञा पुं० [हिं० गहीर + देव] काशी के एक राजा का पुत्र जिसे गहरवार लोग अपना आदिपुरुष मानते हैं ।
⋙ गहिरा †
वि० [हिं० गहरा ] [वि० स्त्री० गहिरी] उ०—तिन ते बहति जु सरिता गहिरी । दूरि दूरि लौं पसरति लहरी ।—नंद० ग्र०, पृ० २८४ ।
⋙ गहीराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहराई] दे० 'गहराई' ।
⋙ गहीराव
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गहराव' ।
⋙ गहीरो, गहीरौ पु
वि० [हिं०] दे० 'गहरा' । उ०—आगैं जाउँ जमुन जल गहिरौ पाछैं सिंह जु लागै ।—सूर०, १० ।४ ।
⋙ गहिला (१) †
वि० [हिं० गहेला] वावला । पागल । उन्मत्त । उ०— तन मन मेरा पीव सौं, एक सेज मुख सोइ । गहिला लोग न जानहीं, पचि पचि आपा खोइ ।—दादू (शब्द०) । वि० दे० 'गहेला' ।
⋙ गहीलाना पु
क्रि० अ० [हिं० गहराना ] गहरा होना । फैलना । बहना । उ०—पाँखे पांणी थाहरइ जलि काजन गहिलाइ ।— ढोला०, दू० ६६ ।
⋙ गहीर पु
वि० [सं० गभिर ] दे० 'गहरा' ।
⋙ गहीला
वि० [हिं० गहेला ] [स्त्री० गहीली, गहेली] १. गर्वयुक्त । घमंडी । उ०—(क) राधा हरि के गर्व गहीली ।— सूर (शब्द०) । (ख) कहति नागरी श्याम सों तजौ मानु हठीली । हम तें चूक कहा परी तिय गर्व गहीली ।—सूर (शब्द०) । २. पागल । मदोन्मत्त ।
⋙ गहु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गह्वर या गँव] छोटा रास्ता । गली ।
⋙ गहुआ
संज्ञा पुं० [हिं० गहना = पकड़ना] एक प्रकार की सँड़सी जिसका मुँह बहुत छोटा होता है । गहवा । विशेष—इससे लोहार आग में से गरम लोहा पकड़कर निकालते हैं और निहाई पर रखकर उसे पीटते हैं । इसी प्रकार की छोटी सँड़सी सोंनारों के पास भी होती है जिससे पकड़कर वे तार आदि खींचते हैं । इसे भी गहुआ कहते हैं ।
⋙ गहुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गहना = धारण करना] किसी दूसरे के माल को अपने यहाँ हिफाजत के साथ रखने की मजदूरी ।
⋙ गहेजुपा †
संज्ञा पुं० [देश०] छछूँदर । उ०—मछरी मुख जस केचुआ, मुसवन मुँह गिरदान । सर्पन माँह गहेजुआ, जाति सबन की जान ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गहेलरा †
वि० [हिं० गहेला ] [वि० स्त्री० गहेलरी] १. उन्मत्त । पागल । २. मूर्ख । अज्ञानी । गँवार । उ०—विरहिन थी तो क्यों रही, जरी न पावक साथ । रह रह मूढ़ गहेलरी, अब क्यों मींजै हाथ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गहेला
वि० [हिं० गहना = पकड़ना +एला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० गहेली] १. हठी । जिददी । २. अहंकारी । मानी । घमंडी । जैसे,—नारद को मुख माँड़ि के लीन्हें बदन छिनाइ । गर्व गहेली गर्व ते, उलटि चली मुसुकाई ।—कबीर (शब्द०) । ३. पागल । खब्ती । उ०—मूवा पीछे मुकुति बतावे, मूवा पीछे मेला । मूवा पीछे अमर अभय पद, दादू भूल गहेला ।— दादू (शब्द०) । ४. गँवार । अनजान । मूर्ख ।
⋙ गहैया
वि० [हिं० गहना + ऐया (प्रप्य०)] १. पकड़नेवाला । ग्रहण करनेवाला । २. अंगीकार करनेवाला । स्वीकार करनेवाला । यौ०—हाथ गहैया = सहायक । मददगार ।
⋙ गह्वर (१)
वि० [सं०] १. दुर्गम । विषय । २. छिपा हूआ । गुप्त । ३. घना । गहरा । निबिड ।
⋙ गह्वर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकारमय और गूढ़ स्थान । २. जमीन में छोटा सूराख । बिल । ३. विषम स्थान । दुर्भेद्य स्थान । ४. गुफा । कंदरा । गुहा । ५. निकुंज । लतागृह । ६. झाड़ी । ७. जंगल । वन । उ०—कटितट तून, हाथ सायक धनु, सीता बंधु समेत । सूर गमन गह्वर कौ कीन्हैं जानत पिता अचेत ।—सूर०, ९ ।३७ ।८. वह स्थान जिसमें छिपने से छिपनेवाले का पता न चले । गुप्त स्थान । ९. दंभ । पाखंड । १०. रोना । ११. वह वाक्य जिसके अनेक अर्थ हो सकते हों । १२. गंभीर विषय । कठिन विषय । गूढ़विषय । १३. जल ।
⋙ गह्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुफा । खोह । कंदरा [को०] ।