विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/परिब

विक्षनरी से

परिबंध
वि० [सं० परिबन्ध ] अच्छी तरह बँधा हुआ। सुगठित। उ०—परिबंध निबंध में आकार की लघुता रहती है।— स० शास्त्र, पृ० १७८।

परिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० परिबन्धन ] [वि० परिबद्ध ] चारो ओर से बाँधना। अच्छी तरह बाँधना। जकड़कर बाँधना।

परिर्बह
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजाओं के हाथी घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि। राजचिह्न या राजा का साज सामान। ३. नित्य के व्यवहार की वस्तुएँ। घर में नित्य काम आनेवाली चीजें। वे चीजें जिनकी गृहस्थी में अत्यावश्यकता हो। ४. संपत्ति। दौलत। माल असबाब।

परिबर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूजा। उपासना। २. बढ़ती। समृद्धि। परिवृद्धि।

परिबा †
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रतिपदा'। उ०—परिबा को रे माँड़ओ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३२।

परिबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीडा। कष्ट। बाधा। भ्रम। श्रांति। मिहनत।

परिबृंहण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिबृंहित ] १. समृद्धि उन्नति। बढ़ति। २. बढ़ना। ३. वह ग्रंथ अथवा शास्त्र जो किसी अन्य ग्रंथ या शास्त्र के विषय की पूर्ति या पुष्टि करता हो। किसी ग्रंथ के अंगस्वरुप अन्य ग्रंथ। जैसे— ब्राह्मण आदि ग्रंथ वेद के परिबृंहण है।

परिबृंहित
वि० [सं०] १. समृद्ध। उन्नत। २. किसी से जुडा़ या मिला हुआ। युक्त। अंगीभूत। ३. बढा़या हुआ। अभिवर्धित।

परिबृंहित
संज्ञा पुं० हाथी की चिंग्घाड़। हाथी का चिल्लाना [को०]।

परिबृत्ति पु
संज्ञा पुं० [सं०परिवृत्ति] एक अर्थालंकार। दे०'परिवृत्ति'। उ०—घाटि बाढि़ दै बात को जहाँ पलिटबो होय। तहाँ कहत परिबृत्ति हैं कबि कोबिद सब कोय।—मति० ग्रं०, पृ० ४१६।

परिबेख पु
संज्ञा पुं० [सं० परिवेष ] दे० 'परिवेष'। उ०—तन नील सारी मैं किनारी चंदमुख परिबेख। सिंदूर सिर दोउ नैन काजर पान की मुख रेख।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १२०।

परिबोध
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञान

परिबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिबोधनीय ] १. दंड की धमकी देकर या कुफलभोग का भय दिखा कर कोई विशेष कार्य से रोकना। चिताना। २. ऐसी धमकी या भय प्रदर्शन। चेतावनी।

परिबोधना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिबोधन'।

परिभंग
संज्ञा पुं० [सं० परिभङ्ग ] खंड खंड करना। टुकडे़ टुकडे़ करना [को०]।

परिभक्ष
वि० [सं०] दूसरों का माल खानेवाला।

परिभक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिभक्षित ] बिलकुल खा डालना। खूब खा जाना। सफाचट कर देना।

परिभक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक विशेष विधान।

परिभक्षित
वि० [सं०] पूर्ण रुप से खाया हुआ।

परिभर्त्सन
संज्ञा पुं० [सं०] डाँटना फटकारना। धमकाना [को०]।

परिभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनादर। तिरस्कार। अपमान। हतक। २. हार। पराजय (को०)।

परिभवन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिभावनीय ] अनादर या तिरस्कार करना। अपमान करना। हतक या तौहीन करना।

परिभवनीय
वि० [सं०] १. तिरस्करणीय। अनादर योग्य। २. पराभव योग्य [को०]।

परिभवषद
संज्ञा पुं० [सं०] उपेक्षणीय पदार्थ। [को०]।

परिभवविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिरस्कार। उपेक्षा [को०]।

परिभवी
वि० [सं० परिभविन् ] अपमानकारी। तिरस्कार करनेवाला।

परिभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिभव। अनादर। तिरस्कार। अपमान। २.(नाटक में) कोई आश्चर्यजनक दृश्य देखकर कुतूहलपूर्ण बातें कहना।

परिभावन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिभावित ] १. मिलाप। मिलन। संयोग। २. चिंता। फिक्र। विचारणा।

परिभावना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चिंता। सोच। फिक्र। २. साहित्य में वह वाक्य या पद जिससे कुतूहल या अतिशय उत्सुकता सूचित अथवा उत्पन्न हो। विशेष—नाटक में ऐसे वाक्य जितने अधिक हों उतने ही अच्छा समझा जाता है।

परभावित
वि० [सं०] १. चिंतित। विचारित। २संयुक्त। ३. परिव्याप्त [को०]।

परिभाबी (१)
वि० [सं० परिभाविनी ] परिभावकारी। तिरस्कार या अपमान करनेवाला।

परिभावी (२)
संज्ञा पुं० वह जो तिरस्कार या अपमान करे। तिरस्कार या अपमान करनेवाला।

परिभावुक
वि० [सं०] तिरस्कार करनेवाला। अनादर या अवज्ञा करनेवाला।

परिभाषक
संज्ञा पुं० [सं०] निंदक। बदगोई करनेवाला। निंदा द्वारा किसी का अपमान करनेवाला।

परिभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंदा करते हुए उलाहना देना। निंदा के सहित उपालंभ देना। किसी को दोष देते या लानत मलामत करते हुए उसके कार्य पर असंतोष प्रकट करना। २. ऐसा उलाहना जिसके साथ निंदा भी हो। निंदा सहित उपालंभ। लानत मलामत। फटकार। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार गर्भिणी, आपदग्रस्त, बृद्ध और बालक को और किसी प्रकार का दंड न देकर केवल परिभाषण का दंड देना चाहिए। ३. बोलना चालना या बातचीत करना। भाषण। आलाप। ४. नियम। दस्तूर। कायदा।

परिभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.परिष्कृत भाषण। स्पष्ट कथन। संशयरहित कथन या बात। २. पदार्थ-विवेचना-युक्त अर्थ- कथन। किसी शब्द का इस प्रकार अर्थ करना जिसमें उसकी विशेषता और व्याप्ति पूर्ण रीति से निश्चित हो जाय। ऐसा अर्थनिरुपण जिसमें किसी ग्रंथकार या वक्ता द्वारा प्रयुक्त किसी विशेष शब्द या वाक्य का ठीक ठीक लक्ष्य प्रकट हो जाय। किसी शब्द के वाक्य का इस रीति से वर्णन जिसमें उसके समझने में किसी प्रकार का भ्रम या संदेह न हो सके। लक्षण। तारीफ। जैसे,—तुम उदारता उदारता तो बीस बार कह गए, पर जबतक तुम अपनी उदारता की परिभाषा न कर दो मैं उससे कुछ भी नहीं समझ सकता। विशेष—परिभाषा संक्षिप्त और अतिव्याप्ति, अव्याप्ति से रहित होनी चाहिए। जिस शब्द की परिभाषा हो वह उसमें न आना चाहिए। जिस परिभाषा में ये दोष हों वह शुद्ध परिभाषा नहीं होगी बल्कि दुष्ट परिभाषा कहलाएगी। क्रि० प्र०—कहना।—करना। ३. किसी शास्त्र, ग्रंथ, व्यवहार आदि की विशिष्ट संज्ञा। ऐसा शब्द जो शास्त्रविशेष में किसी निर्दिष्ट अर्थ या भाव का संकेत मान लिया गया हो। ऐसा शब्द जो स्थान- विशेष में ऐसे अर्थ में प्रयुक्त हुआ या होता हो जो उसके अवयवों या व्युत्पत्ति से भली भांति न निकलता हो। पदार्थविवेचकों या शास्त्रकारों की बनाई हुई संज्ञा। जैसे, गणित की परिभाषा, वैद्यक की परिभाषा, जुलाहों की परिभाषा। ४. ऐसे शब्द का अर्थनिर्देश करनेवाला वाक्य या रुप। ५. ऐसी बोलचाल जिसमें वक्ता अपना आशय परिभा- षिक शब्दों में प्रकट करे। ऐसी बोलचाल जिसमें शास्त्र या व्यवसाय की विशेष संज्ञाएँ काम में लाई गई हों। जैसे— यदि यही बात विज्ञान की परिभाषा में कही जाय तो इस प्रकार होगी। ६. सूत्र के ६ लक्षणों में से एक। ७. निंदा। परिवाद। शिकायत। बदनामी।

परिभाषित
वि० [सं०] १. जो अच्छी तरह कहा गया हो। जिसका स्पष्टिकरण किया गया हो। २. (वह शब्द) जिसकी परिभाषा कि गई हो। जिसका अर्थ किसी विशेष सूत्र या नियम द्वारा निर्दिष्ट तथा परिमित कर दिया गया हो।

परिभाषी (१)
वि० [सं० परिभाषिन्] बोलनेवाला। भाषणकारी।

परिभाषी (२)
संज्ञा पुं० बोलनेवाला। भाषणकारी। वह व्यक्ति जो बोले या कहे।

परिभाष्य
वि० [सं०] कहने योग्य। बताने योग्य।

परिभिन्न
वि० [सं०] १. विकृत आकृति का। जिसका आकार विकृत हो। २. क्षत। ३. फटा हुआ। चिरा हुआ। विदीर्ण [को०]।

परिभुक्त
वि० [सं०] जिसका भोग किया जा चुका हो। जो काम में आ चुका हो। उपयुक्त।

परिभुग्न
वि० [सं०] झुका हुआ। टेढा़ मेढा़ [को०]।

परिभू
वि० [सं०] १.जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किए हो। २. नियामक। ३. परिचाल। विशेष—यह शब्द ईश्वर का बिशेषण है।

परिभूत
वि० [सं०] १. हारा या हराया हुआ। पराजित। २. जिसका अनादर या अपमान किया गया हो। तिरस्कृत। अपमानित।

परिभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निरादर। तिरस्कार। अपमान। २. श्रेष्ठता।

परिभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सजाने की क्रिया या भाव। सजा- वट या सजाना। बनाव सँवार या बनाना सँवारना। २. कामंदकीय नीति के अनुसार वह शांति जो किसी विशेष प्रदेश या भूखंड का राजस्व किसी को देकर स्थापित की जाय। वह संधि जो किसी विशेष प्रांत या प्रदेश की सारी मालगुजारी किसी शत्रु राजा आदि को देकर की जाय।३. ऐसी शांति या संधि का स्थापना। पूर्वोक्त प्रकार की शांति या संधि स्थापित करने का कार्य।

परिभूषित
संज्ञा पुं० [सं०] सजाया हुआ। बनाया या सँवारा हुआ। शृंगार सहित।

परिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रादि का आघात। तलवार तीर आदि का घाव। जख्म।

परिभेदक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] फाड़ने या छेदनेवाला व्यक्ति या शस्त्र। खूब गहरा घाव करनेवाला मनुष्य या हथियार।

परिभेदक (२)
वि० काटने फाड़ने या छेदनेवाला। आघातकारी।

परिभोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० परिभोक्त ] १. वह मनुष्य जो दूसरे के धन का उपभोग करे। २. वह मनुष्य जो गु के धन का उपभोग करे।

परिभोग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिभोग्य ] १. बिना अधिकार के परकीय वस्तु का उपभोग। २. भोग। उपभोग। ३. मैथुन। स्त्रीप्रसंग।

परिभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिराव या गिराना। पतन। च्युति। स्खलन। २. भगदड़। भागना। पलानय।

परिभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. इधर उधर टहलना। घूमना। भटकना पर्यटन। भ्रमण। २. घुमा फिराकर कहना। सीधे सीधे न कहकर और प्रकार से कहना। किसी वस्तु के प्रसिद्ध नाम को छिपाकर उपयोग, गुण, संबंध आदि से उसका संकेत करना। जैसे, पत्र (चिट्ठी) को 'बकरी का भोज्य' या 'माता' को पिता की 'पत्नी' कहना। ३. भ्रम। भ्रांति। प्रमाद।

परिभ्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. घूमना। (पहिए आदि का) चक्कर खाना। २. परिधि। घेरा। ३. टहलना। घूमना। फिरना। ४. इधर उधर मटरगश्ति करना। भटकना।

परिभ्रष्ट
वि० [सं०] गिरा हुआ। पतित। च्युत। स्खलित। २. भागा हुआ। पलायित। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति से रहित (को०)।

परिभ्रामण
संज्ञा पुं० [सं०] १. इतस्ततः घुमाना। परिभ्रमण कराना। २. (गाडी के पहिए आदि को) घुमाना या चक्कर देना [को०]।

परिभ्रामि
वि० [सं० परिभ्रामिन् ] परिभ्रमण करनेवाला। भटकनेवाला। टहलने या घूमनेवाला।

परिमंडल (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिमण्डल ] १. चक्कर। घेरा। दायरा। परिधि। २. एक प्रकार का विषैला मच्छर। ३. गोलक। पिंड (को०)।

परिमंडल (२)
वि० १. गोल। वर्तुलाकार। २. जिसका मान परमाणु के बराबर हो।

परिमंडलकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० परिमण्डलकुष्ठ ] एक प्रकार का महाकुष्ठ। मंडलकुष्ठ। विशेष— दे०'मंडल'।

परिमंडलता
संज्ञा स्त्री० [सं० परिमण्डलता ] गोलाई।

परिमंडलित
वि० [सं० परिमण्डलित ] जो गोल किया गया हो। वर्तुलाकार बनाया हुआ। मंडलीकृत।

परिमंथर
वि० [सं० परिमन्थर ] अत्यंत मंद, धीरा या धीमा। जैसे, परिमंथर गति।

परिमंद
वि० [सं० परिमन्द ] १. अत्यंत श्रांत या थकित। २. अत्यंत शिथिल या सुस्त। अत्यंत क्लांत। ३. अत्यल्प। अत्यंत कम। बहुत थोडा़ (को०)।

परिमन्यु
वि० [सं०] क्रोध से भरा हुआ। अत्यंत कोपयुक्त।

परिमर
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु के नाश के लिये किया जानेवाला तांत्रिक प्रयोग। २. विनाश। संहार। ३. पवन। वायु [को०]।

परिमर्द्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्णतया मर्दन। रगड़ना। धर्षण। २. मींजना। मसलना। ३. विनाश [को०]।

परिमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमृष्ट ] १. छू जाना। लग जाना। लगाव होना। स्पर्श होना। २. अच्छी तरह विचार करना। सोचना। किसी बात को सब पक्षों पर विचार करना।

परिमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईर्ष्या। कुढ़न। चिढ़। २. क्रोध।

परिमल
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमलित ] १. सुवास। उत्तम गंध। खुशबू। उ०—परिमल अग्र गुलाब की झरि हंस सो सुख पावहीं।—दरिया० बानी, पृ० ७। २. वह सुगँध जो कुमकुम आदि सुगंधित पदार्थों के मले जाने से उत्पन्न हो। ३. मलने का कार्य। मलना। उबटना। ४. कुमकुम आदि का मलना या उबटना। ५. मैथुन। सहवास। संभोग। ६. दाग। धब्बा। चिह्न। ७. पंडितों का समुदाय।

परिमलज
वि० [सं०] (सुख) जो मैथुन से प्राप्त हो। संभोग- जनित (सुख)।

परिमलामोद पु
संज्ञा पुं० [सं० परिमल + आमोद ] अत्यंत सुगंध। परिमल का सुवास।

परिमलित
वि० [सं०] १. परिमलयुक्त। सुवासित। २. मसला हुआ। मींजा हुआ [को०]।

परिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० परिमिति या सं० परि + √ मा (= मान) ] सीमा। इयता। उ०—जग की विभूतियों को छानकर, एक तीखे घूँट ही में पानकर, लाख लाख प्राणियों के जीवन की गरिमा, हाय उस सुमन की छोटी सी परिमा।—चिंता, पृ० २९।

परिमाण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमित, परिमेय ] १. वह मान जो नाप या तौल के द्वारा जाना जाय। वह विस्तार, भार या मात्रा जो नापने या तौलने से जानी जाय। विशेष—वैशेषिक के अनुसार मूर्त अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों के संख्यादि पाँच गुणों में से परिमाण भी एक है। २. घेरा। चारों ओर का विस्तार।

परिमाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मात्रा। २. तौल [को०]।

परिमाणवान्
वि० [सं० परिमाणवत् ] परिमाणयुक्त। परिमाण- विशिष्ट।

परिमाणी
वि० [सं० परिमाणवत् ] परिमाणयुक्त। परिमाणविशिष्ट।

परिमाता
संज्ञा पुं० [सं० परिमातृ ] १. नापनेवाला। नापने काकाम करनेवाला। पैमाइश करनेवाला। २. वजन करने या तौलनेवाला।

परिमाथि
वि० [परिमाथिन् ] कष्टदायक। कष्टप्रद। कष्टकर [को०]।

परिमानप पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिमाण ] दे० 'परिमाण'।

परिमाण पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण ] दे० 'प्रमाण'।

परिमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिमार्गण'।

परिमार्गण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमार्गित, परिमार्गितव्य] १. खोजने या ढूँढ़ने का कार्य। खोजना। ढूँढ़ना। अन्वेषण। अनुसंधान। २. स्वच्छ या साफ करना (को०)। ३. संपर्क या स्पर्श (को०)।

परिमार्गी
वि० [सं० परिमार्गिन् ] खोजने या खोज में किसी के पीछे जानेवाला। अनुसंधानकारी। अनुसरणकर्ता।

परिमार्जक
संज्ञा पुं० [सं०] धोने या माँजनेवाला। परिशोधक या परिष्कारक।

परिमार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमार्जित, परिमृज्य, परिपृष्ट ] १. धोने या माँजने का कार्य। अच्छी तरह धोना। माँजना। परिशोधन। परिष्करण। २. एक विशेष मिठाई जो घी मिले हुए शहद के शरीर में डुबाई हुई होती है।

परिमार्जित
वि० [सं०] धोया या माँजा हुआ। २. साफ किया हुआ। परिष्कृत।

परिमित
वि० [सं०] १. जिसका परिमाण हो या ज्ञात हो। जिसकी नाप तोल की गई हो या मालुम हो। सीमा, संख्या आदि से बद्ध। नपा तला हुआ। २. न अधिक न कम। जितने की आवश्यकता हो उतना ही। हिसाब या अंदाज से। उचित मात्रा या परिमाण में। जैसे,—वे सदा परिमित भोजन करते हैं। ३. कम। थोडा। अल्प। जैसे,—उनका वैद्यक ज्ञान बहुत ही परिमित है।

परिमितकथा
वि० [सं०] १. जो उचित से अधिक न बोलता हो। नपे तुले शब्द बोलकर काम चलानेवाला। २. कम बोलनेवाला। अल्पभाषी।

परिमितभुक्
वि० [सं० परिमितभुज ] कम खानेवाला। अल्पभोजी [को०]।

परिमितायु
वि० [सं० परिमितायुस् ] स्वल्पायु। कम उम्र पानेवाला। अल्पजीवी [को०]।

परिमिताहार
वि० [सं०] अल्पभोजी [को०]।

परिमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाप, तोल, सीमा, आदि।

परिमिति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिमिति (= सीमा, अंत) ] मर्यादा। इज्जत। उ०—परिमिति गए लाज तुमही को हंसिनि ब्याहि काग लै जाइ।—सूर (शब्द०)।

परिमिलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्पर्श। छूना। २. अच्छी तरह मिलना। आलिंगन [को०]।

परिमिलित
वि० [सं०] १. मिश्रित। मिला हुआ। २. आपूर्ण। भरा हुआ [को०]।

परिमीढ
वि० [सं०] मूत्रसिक्त। मूत्र से सना हुआ [को०]।

परिमुक्त
वि० [सं०] पूर्ण रूप से स्वाधीन। सम्यक् रूप से मुक्त।

परिमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंधन से छुटकारा। पूर्णतः मुक्ति [को०]।

परिमुग्ध
वि० [सं०] १. सुंदर। आकर्षक। २. सुंदर पर मूर्ख। आकर्षक किंतु अज्ञ [को०]।

परिमूढ़
वि० [सं० परिमूढ़] १. व्याकुल। २. विचलित। मथित। ३. क्षोभित।

परिमृष्ट
वि० [सं०] १. धोया या साफ किया हुआ। परिमार्जित। २. जिसको छुआ गया हो। स्पृष्ट। ३. पकड़ा हुआ। अधिकृत। ४. जिससे परामर्श किया गया हो। ५. व्याप्त। परिपूर्ण (को०)।

परिमृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] धोना। माँजना। परिष्करण। परिमार्जन।

परिमेय
वि० [सं०] १. जो नापा या तोला जा सके। नापने या तोलने के योग्य। २. थोड़ा। ससीम। संकुचित। ३, जिसके नापने या तोलने का प्रयोजन हो। जिसे नापना या तोलना हो।

परिमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्ण मोक्ष। सम्यक् मुक्ति। निर्वाण। २. विष्णु। ३. परित्याग। छोड़ना। ४. मलपरित्याग। हगना।

परिमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुक्त करना या होना। २. परित्याग करना या किया जाना। ३. मलत्याग करना। ४. धौति क्रिया द्वारा अँतड़ियों का धोकर साफ करना। ५. निर्वाण। मुक्ति (को०)।

परिमोष
संज्ञा पुं० [सं०] चोरी। स्तेय।

परिमोषक
संज्ञा पुं० [सं०] चोर।

परिमोषण
संज्ञा पुं० [सं०] चुराना। स्तेय। चोरी।

परिमोषी
वि० [सं० परिमोषिन्] जिसकी स्वाभाव से चोरी करने की प्रवृत्ति हो। चोर। तस्कर।

परिमोहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिमोहित] किसी की बुद्धि या मन को पूर्ण रूप से अपने अधिकार में कर लेना। सम्यक् वशीकरण।

परिम्लान (१)
वि० [सं०] १. मुरझाया हुआ। कुम्हलाया हुआ। २. मलिन। उदास। निस्तेज। हतप्रभ। ३. दागदार। जिसपर दाग या धब्बा हो।

परिम्लान (२)
संज्ञा पुं० १. भय या दुःख से मलिन होना। २. धब्बा। दाग।

परिम्लायी (१)
वि० [सं० परिम्लायिन्] १. मलिनतायुक्त। उदास। २. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ।

परिम्लायी (२)
संज्ञा पुं० तिमिर रोग का एक भेद। इसका कारण रुधिर में मूर्छित पित्त होता है इसमें रोगी को सभी दिशाएँ पीली या प्रज्वलित दिखाई पड़ती हैं।

परियंक पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्यड्क] दे० 'पर्यक'।

परियंत पु
अव्य० [सं० पर्यन्त] दे० 'पर्यंत'।

परियज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह छोटा यज्ञ या विधान जिसको अकेले करने की विधि न हो, किंतु जो किसी अन्य यज्ञ के साथ उसके पहले या पीछे किया जाय।

परियत्त
वि० [सं०] चारो ओर से घिरा हुआ। परिवेष्टित।

परियष्टा
संज्ञा पुं० [सं० परियष्ट्ट] वह मनुष्य जो अपने बड़े भाई से पहले सोम याग करे।

परियाँण †
संज्ञा पुं० [सं० परियाण (= भ्रमण); या पर्याण (= काठी); या प्रयाण (= युद्धयात्रा)] १. आक्रमणार्थ यात्रा। २. काठी। घोड़े की जीन। ३. वंश। उ०—पुर- जोधाँण उदैपुर जैपुर पहुथाँरा खूटा परियाँण—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १०५।

परिया (१)
संज्ञा पुं० [तमिल परैयान्] दक्षिण भारत की एक प्राचीन जाति जो अस्पृश्य मानी जाती है। विशेष—इस जाति के लोग आधिकतर चौकीदारी, भंगी या मेहतर का काम अथवा शूद्ध किसान के खेत में मजदूरी करते हैं। स्वाभव से ये शांत, नम्र और परिश्रमी होते हैं। ये देवी के उपासक होते और अधिकतर पार्वती या काली की मूर्तियों की पूजा करते हैं। सामाजिक संबंध में ये बड़े रक्षणशील हैं; अपने से उच्च भिन्न जाति से भी किसी प्रकार का सामाजिक संबंध नहीं रखना चाहते। कई दक्षिणी राज्यों में इनको ब्राह्मणों के सामने से निकलने तक का निषेध है। कहते हैं, इनका सामना हो जाने से ब्राह्मण अपवित्र हो जाता है और उसे स्नान करना पड़ता है। जिस गाँव में ब्राह्मणों की बस्ती हो उसमें जाना भी परिया के लिये निषिद्ध है। परिया लोगों का कहना है कि हमारी उत्पत्ति ब्राह्मणी के गर्भ से है और हम ब्राह्मणों के बड़े भाई होते हैं। वेंकटाचार्य ने कुलशंकरमाला में लिखा है कि उर्वशी के पुत्र वशिष्ठ ने अरुंधती नाम की एक चांडाली से विवाह किया था। इस चांडाली के गर्भ से १०० पुत्र जन्मे। इनमें से पिता का आदेश मान लेनेवाले चार पुत्र तो चार वर्णों के मूल पुरूष हुए और पिता की आज्ञा की आवज्ञा करनेवाले ९६ पुत्रों को पंचमवर्ण या परिया की संज्ञा मिली।

परिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताना तानने की लकड़ियाँ (जुलाहा)।

परियाग पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाग] दे० 'प्रयाग'। उ०—बेनी परियाग घट अनुरागा, पाइ न्हाइ अज अमर भए।—धट०, पृ० २९४।

परियाण
संज्ञा पुं० [सं०] घुमाई फिराई। भ्रमण। पर्यटन।

परियाणिक
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रा की गाड़ी। चलती हुई गाड़ी।

परियात
वि० [सं०] १. जो भ्रमण या पर्यटन कर चुका हो। २. आया हुआ। कहीं से लौटा हुआ।

परियार (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. बिहार में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का एक उपभेद। २. मदरास में बसनेवाली एक नीच जाति।

परियार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिवार, प्रा० परिआल] म्यान। कोष। उ०—दुहु लोह कढढि परियार ते सार धार में श्रम्मि भर।—पृ० रा०, २५। ४५९।

परियार † (३)
वि० [सं० परारि] पूर्वतर वर्ष। वर्तमान से तीसरा पूर्व या बाद का वर्ष। जैसे,—(क) परियार साल चुनाव हुआ था। (ख) परियार साल फिर सूर्यग्रहण लगेगा। यौ०—पर परियार।

परियोग्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेद की एक शाखा।

परिरंधित
वि० [सं० परिरन्धित] १. नष्ट किया हुआ। २. चुटैल। चोट पहुँचाया हुआ (को०)।

परिरंभ
संज्ञा पुं० [सं० परिरम्भ] [वि० परिरंभित, परिरंभी] गले से गला या छाती से छाती लगाकर मिलना। आलिंगन।

परिरंभण
संज्ञा पुं० [सं० परिरम्भण] दे० 'परिरंभ'।

परिरंभन पु
संज्ञा पुं० [सं० परिरम्भण] दे० 'परिरंभण'। उ०— सकल सुगंध अँग अँग भरि भोरी, पीय नृतत मुसकेन मुख मोरी, परिरंभन रस रोरी।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १८९।

परिरंभना पु
क्रि० स० [सं० परिरम्भ + हिं० ना (प्रत्य०)] परिरंभण करना। आलिंगन करना। गले लगाना। उ०—तुव तन परिमल परसि जब गवनत धीर समीर। ताकहँ बहु सन- मान करि परिरंभत बलबीर।—नंददास (शब्द०)।

परिरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब प्रकार या सब ओर से रक्षा करना। २. पालन। रक्षण। निभाना (को०)। ३. देखभाल या बचाव (को०)।

परिरक्षणीय
वि० [सं०] अच्छी तरह रक्षा करने के योग्य [को०]।

परिरक्ष्य
वि० [सं०] दे० 'परिरक्षणीय' [को०]।

परिरक्षित
वि० [सं०] १. जिसकी पूर्णतः रक्षा या देखभाल की गई हो। २. पूरी तरह निभाया हुआ या पालन किया हुआ [को०]।

परिरक्षिता
वि० [सं० परिरक्षितृ] पूरी तरह से देखभाल या रक्षा करनेवाला [को०]।

परिरक्षी
वि० [सं० परिरक्षिन्] दे० 'परिरक्षिता'।

परिरथ्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] रथ का एक अंग।

परिरथ्या
संज्ञा पुं० [सं०] चौड़ा रास्ता। सड़क।

परिरब्ध
वि० [सं०] आलिंगित [को०]।

परिराटी
वि० [सं० परिराटिन्] चिल्लानेवाला या रट लगानेवाला [को०]।

परिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] रुकावट। अड़ंगा। अवरोध।

परिलंध
संज्ञा पुं० [सं० परिलङ्ध] फलाँग या छलाँग मारना। कूद या उछलकर लाँध जाना।

परिलंधन
संज्ञा पुं० [सं० परिलङ्धन] दे० 'परिलंध'।

परिलंबन
संज्ञा पुं० [सं० परिलम्बन] भाचक्र का २७/?/विषुवद् रेखा से एक ओर हिंडोले की तरह जाकर फिर लौट आना और इसी प्रकार दूसरी ओर २७/?/तक की पेंग लेकर पुनःअपने स्थान पर चला आना। इसे अंग्रेजी में लाइब्रेशन (Libration) कहते हैं।

परिलघु
वि० [सं०] १. अत्यंत छोटा या हलका। २. अत्यंत शीघ्र पचने के कारण अति लघु पाक।

परिलिखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. रगड़ या घिसकर किसी चीज का खूरदरापन दूर करना। २. चिकना और चमकदार करना। पालिश करना।

परिलिखित
वि० [सं०] रेखा से घिरा हुआ। जो किसी घेरे या दायरे के बीच में हो। रेखा या वृत्त से परिवेष्टित।

परिलाढ़
वि० [सं० परिलीढ] भली भाँति चाटा हुआ [को०]।

परिलुप्त
वि० [सं०] १. नाशप्राप्त। नष्ट। विनष्ट। २. जिसकी क्षति या अपकार किया गया हो। क्षतिग्रस्त। अपकृत। ३. लुप्त। यौ०—परिलुप्तसंज्ञ = चेतनारहित। संज्ञाहीन। अचेत।

परिलून
वि० [सं०] पूर्णतः छिन्न या काटा हुआ [को०]।

परिलेख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्र का स्थूल रूप जिसमें केवल रेखाएँ हों, रंग न भरा गया हो। ढाँचा। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. कूँची या कलम जिससे रेखा या चित्र खींचा जाय।

परिलेख (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] उल्लेख। शब्दों द्वारा अंकन या वर्णन। उ०—तेरे प्रेम को परिलेख तो प्रेम की टकसार होयगो और उत्तम प्रेमिन को छोड़ि और काहू की समझ ही में न आवैगो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४६५।

परिलेखन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना।

परिलेखना पु
क्रि० स० [सं० परिलेख + हिं० ना (प्रत्य०)] समझना। मानना। खयाल करना। उ०—औ जेइ समुद प्रेम कर देखा। तेइ यह समुद बुंद परिलेखा।—जायसी (शब्द०)।

परिलेही
संज्ञा पुं० [सं० परिलेहिन्] कान का एक रोग, जिसमें कफ और रुधिर के प्रकोप से कान की लोलक पर छोटी छोटी फुंसियाँ निकल आती हैं और उनमें जलन होती है।

परिलोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षति। हानि। २. उपेक्षण। उपेक्षा। ३. विलोप। नाश।

परिलोलित
वि० [सं०] हिलता हुआ। कंपित।

परिवंचन
संज्ञा पुं० [सं० परिवञ्चना] धोखा देना। छलना।

परिवंचना
संज्ञा स्त्री० [सं० परिवञ्चना] दे० 'परिवंचन' [को०]।

परिवंश
संज्ञा पुं० [सं०] धोखा। छल। प्रतारण।

परिवक्रक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोलाकार वेदी या गर्त। २. एक स्थान का नाम (को०)।

परिवत्सर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक। इसका अधिपति सूर्य होता है। २. एक समस्त वर्ष। एक पूरा साल।

परिवत्सरीण
वि० [सं०] जिसका संबंध सारे वर्ष से हो। जो पूरे वर्ष भर रहे। समस्त वर्षव्यापी। समस्त वर्षसंबंधी।

परिवत्सरीय
वि० [सं०] दे० 'परिवत्सरीण'।

परिवदन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के दोष का वर्णन या कथन। निंदा। बदगोई।

परिवपन
संज्ञा पुं० [सं०] कतरना या मूँड़ना [को०]।

परिवर्जन, परिवर्ज्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मारण। मार डालना। हत्या करना।

परिवर्जनीय
वि० [सं०] त्यागने योग्य। परित्याज्य।

परिवर्जित
वि० [सं०] त्यागा हुआ। परित्यक्त।

परिवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. फिराव। फेरा। घुमाव। चक्कर। विवर्तन। २. आवृत्ति। ३. अदल बदल। बदला। विनिमय। ४. जो बदले में लिया या दिया जाय। बदल। ५. किसी काल या युग का अंत। किसी काल या युग का बीत जाना। ६. (ग्रंथ का) परिच्छेद। अध्याय। बयान। ७. पुराणानुसार मृत्यु के पुत्र दुस्सह के पुत्रों में से एक। विशेष—मार्कंडेय पुराण में लिखा है कि मृत्यु के दुस्सह नाम का एक पुत्र था जिसका विवाह कलि की कन्या निर्माष्टि के साथ हुआ था। निर्माष्टि के गर्भ से अनेक पुत्र जन्मे, परिवर्त इनमें तीसरा था। यह एक स्त्री के गर्भ को दूसरी स्त्री के गर्भ से बदल दिया करता था, किसी वाक्य का भी वक्ता के अभिप्राय से विरूद्ध या भिन्न अर्थ कर दिया करता था। इसी से इसे परिवर्त कहने लगे। इसके उपद्रव से गर्भ की रक्षा करने के लिये सफेद सरसों और रक्षोघ्न मंत्र से इसकी शांति की जाती है। इसके पुत्र विरूप और विकृति भी उपद्रव करके गर्भपात कराते हैं। इनके रहने के स्थान डालियों के सिरे, चहारदीवारी, खाई और समुद्र हैं। जब गर्भिणी स्त्री इनमें से किसी के पास पहुँचती है तब ये उसके गर्भ में घुस जाते हैं और फिर बराबर एक से दूसरे गर्भ में जाया करते हैं। इनके बार बार जाने आने से गर्भ गिर जाता है। इसी कारण गर्भावस्था में स्त्री को वृक्ष, पर्वत, प्राचीर, खाई और समुद्र आदि के पास घुमने फिरने का निषेध हैं। ८. स्वरसाधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार है? आरोही—सा ग म रे, रे म प ग , ग प ध म, म ध नि प, प नि सा ध, ध सा रे नि, नि रे ग सा। अवरोही—सा ध प नि, नि प सा ध, ध म ग प, प ग रे म, म रे सा ग, ग सा नि रे, रे नि ध सा। ९. गृह। आलय। निवासस्थान (को०)। १०. पुनर्जन्म। फिर फिर जन्म लेना (को०)।

परिवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घूमनेवाला। फिरनेवाला। चक्कर खानेवाला। २. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। उलटने पलटनेवाला। ३. बदलनेवाला। विनिमय करनेवाला। ४. जो बदला जा सके। परिवर्तन योग्य। ५. युग का अंत करनेवाला। ६. मृत्यु के पुत्र दुस्सह का एक पुत्र। ७. अनाज आदि देकर दूसरी वस्तुएँ बदले में लेना। विनिमय।

परिवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. घुमाव। फेरा। चक्कर। आवर्तन। २. दो वस्तुओं का परस्पर अदल बदल। अदला बदली। हेरफेर। विनिमय। तबादला। ३. जो किसी वस्तु के बदले में लिया या दिया जाय। बदल। ४. बदलने या बदल जाने की क्रिया या भाव। दशांतर। विषयांतर। रूपांतर। तबदीली। उ०— परिवर्तन ही यदि उन्नति है तो हम बढ़ते जाते हैं।— पंचवटी, पृ० ८। ५. किसी काल या युग की समाप्ति। यौ०—परिवर्तनवादी = वर्तमान स्थिति को बदलने की कामना रखनेवाला। परिवर्तन द्वारा समाज की उन्नति में विश्वास रखनेवाला। उ०—स्वतंत्रता के उन्नत उपासक, घोर परिवर्तनवादी शैली के महाकाव्य, 'दि रिवोल्ट आफ इस्लाम' के नायक नायिका...शांत वृत्ति या चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन करनेवाले नहीं हैं।—आचार्य०, पृ० १८। परिवर्तन- शील = परिवर्तित होनेवाला। जिसमें निरंतर परिवर्तन हो। परिवर्तनशीला = निरंतन बदलनेवाली।—उ०—देखेंगे परिवर्तनशीला प्रकृति को, घूमेंगे बस देश देश स्वाधीन हो।— करुणा०, पृ० ७।

परिवर्तनीय
वि० [सं०] घूमने, बदलने या बदले जाने के योग्य। परिवर्तन योग्य।

परिवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिंगेंद्रिय का एक क्षुद्र रोग। विशेष—अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण इसमें लिंगचर्म उलटकर सूज जाता है। कभी कभी यह सूजन गाँठ की तरह हो जाती है और पक जाती है। यह रोग वायु के कोप से होता है। कफ अथवा पित्त का भी संबंध होने से त्वचा में क्रम से अधिक खुजली या जलन होती है।

परिवर्तित
वि० [सं०] १. जिसका आकार या रूप बदल गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो बदले में मिला हुआ हो। ३. जिसका परिवर्तन हुआ हो।

परिवर्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों शुक्ल पक्ष की एकादशी।

परिवर्ती
वि० [सं० परिवर्तिन्] १. परिवर्तन स्वभाववाला। परिवर्तनशील। बार बार बदलनेवाला। २. किसी चीज का बदलनेवाला। विनिमय करनेवाला। ३. जिसका घूमने का स्वभाव हो। जो बराबर घूमता रहता हो।

परिवर्तुल
वि० [सं०] खूब गोल। पूर्ण गोलाकार।

परिवर्त्मन्
वि० [सं०] जो किसी वस्तु के चारो ओर घूम रहा हो। प्रदक्षिणा करता हुआ।

परिवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिवर्द्धित] संख्या, गुण आदि में किसी वस्तु की खूब बढ़ती होना। सम्यक् प्रकार से वृद्धि। खूब या खासी बढ़ती। परिवृद्धि।

परिवर्द्धित
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ। २. बढ़ाया हुआ।

परिवर्धमान
वि० [सं० परिवर्धवत्] बढ़ता हुआ। चारो ओर से बढ़नेवाला। जो बढ़ रहा हो। उ०—बेला की आँखों में गोली का और उसके परिवर्धमान प्रेमांकुर का चित्र था। जो उसके हट जाने पर विरहजल से हराभरा हो उठा था।—इंद्र०, पृ० ७।

परिवर्म
वि० [सं०] वर्म से ढका हुआ। वक्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।

परिवर्ह
संज्ञा पुं० [सं०] चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। राजचिह्न। शाही लवाजमा। २. धन। संपत्ति (को०)। ३. गृह की वस्तुएँ (को०)।

परिवसथ
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम। गाँव।

परिवह
संज्ञा पुं० [सं०] सात पवनों में से छठा पवन। विशेष—कहते हैं, यह सुबह पवन के ऊपर रहता है और आकाशगंगा को बहाता तथा शुक्र तारे को घुमाता है। उ०—है याकी वह पवन जो परिवह जाति कहाय। वही पवन नभगंग कों नितप्रति रही बहाय।—शकुंतला, पृ० १३३। २. अग्नि की सात जीभों में से एक।

परिवहन
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रियों तथा माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। ढोना। उ०—व्यापारी अपना माल एक राज्य की सीमा से बाहर दूसरे राज्य में परिवहन करने के इच्छुक होंगे।—नेपाल०, २४०।

परिवाँण †
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण] इयत्ता। सीमा। अवधि। उ०—तुँही ज सज्जण मित्त तूँ प्रीतम तूँ परिवाँण। हियड़इ भीतर तूँ वसइ भावइ जाँण म जाँण।—ढोला०, दू० १७५।

परिवाँन †
संज्ञा पुं० [सं० परिमाण] घेरा। विस्तार। परिमाण। उ०—प्रथम हने रणधीर ने बहुरि सेन परिवाँन।—ह० रासो, पृ० १६२।

परिवा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा, प्रा० पड़िवआ] किसी पक्ष की पहली तिथी। द्वितीया के पहले पड़नेवाली तिथी। अमावस्या या पूर्णिमा के दूसरे दिन की तिथी। पड़िवा।

परिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंदा। दोषकथन। अपवाद। बुराई करना। २. मनुस्मृति के अनुसार ऐसी निंदा जिसकी आधारभूत घटना या तथ्य सत्य न हो। झूठी निंदा। ३. लोहे के तारों का वह छल्ला जिससे वीणा या सितार बजाया जाता है। मिजराब।

परिवादक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिवाद करनेवाला मनुष्य। निंदा करनेवाला व्यक्ति। २. बीनकार। ३. बीन बजानेवाला।

परिवादक (२)
वि० परिवाद करनेवाला। निंदक।

परिवादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बीन जिसमें सात तार होते हैं। २. परिवाद करनेवाली स्त्री (को०)।

परिवादी (१)
वि० [सं० परिवादिन्] [वि० स्त्री० परिवादिनी] निंदा करनेवाला। परिवाद करनेवाला।

परिवादी (२)
संज्ञा पुं० निंदक व्यक्ति। परिवादक। अपवाद या परिवाद करनेवाला।

परिवान पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण, हिं० परवान] दे० 'प्रमाण'।उ०—चलु हँसा तहँ चरण समान। तहँ दादू पहुँचे परिवान।—दादू०, पृ० ६७५।

परिवानना पु
क्रि० स० [सं० प्रमाण] दे० 'प्रमानना'। उ०— ग्यानी पुनि यह सुख नहिं जानै। नीरस निराकार परिवानै।—नंद० ग्रं०, पृ० २५१।

परिवाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वपन। बोना। २. मुंडन। ३. स्थान। जगह। ४. फरुही। भुना हुआ चावल। लावा। खील। ५. घनीभूत दूध। जमाया हुआ दूध या छेना। ६. परिच्छद। उपयोग की सामग्री। ७. जलाशय। ८. अनुचर वर्ग [को०]।

परिवापन
संज्ञा पुं० [सं०] मुंडन। मूँड़ना [को०]।

परिवापित्त
वि० [सं०] मुंडित। मूडा हुआ [को०]।

परिवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोई ढकनेवाली चीज। परिच्छद। आवरण। २. म्यान। नियाम। कोष। तलवार की खोली। ३. वो लोग जो किसी राजा या रईस की सवारी में उसके पीछे उसे घेरे हुए चलते हैं। परिषद। ४. वे लोग जो अपने भरण पोषण के लिये किसी विशेष व्यक्ति के आश्रित हों। आश्रित वर्ग। पोष्य जन। ५. एक ही कुल में उत्पन्न और परस्पर घनिष्ठ संबंध रखनेवाले मनुष्यों का समुदाय। भाई, बेटे आदि और सगे संबंधियों का समुदाय। स्वजनों या आत्मीयों का समुदाय। परिजनसमूह। कुटुंब। कुनबा। खानदान। ६. एक स्वभाव या धर्म की वस्तुओं का समूह। कुल। उ०—अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू।—तुलसी (शब्द०)।

परिवारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। आवरण। आच्छादन। २. कोष। खोल। म्यान।

परिवारता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधीनता। अवलंबन। आश्रय [को०]।

परिवारवान्
वि० [सं० परिवारवत्] जिसके परिवार हो। परिवारवाला। जिसके बहुत से परिषद्, कुटुंबी या आश्रित हों।

परिवारित
वि० [सं०] घेरा हुआ। आवृत [को०]।

परिवारी
संज्ञा पुं० [सं० परिवार] परिवार में रहनेवाला। कुटुंबी। परिवार का सेवक। अनुचर। उ०—जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने आजीवन दास ने रक्त से रँगे हुए अपने ही हाथों पहना है राज्य का मुकुट।—लहर पृ० ८५।

परिवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठहरना। टिकना। टिकाव। अवस्थान। २. घर। गृह। मकान। ३. सुवास। सुगंध। ४. बौद्ध संघ में से किसी अपराधी भिक्षु का बाहर किया जाना या वहिष्करण।

परिवासन
संज्ञा पुं० [सं०] खंड। टुकड़ा।

परिवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा प्रवाह या बहाव जिसके कारण पानी ताल तलाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। उतराकर बहना। बाँध मेंड़ या दीवार के ऊपर से छलककर बहना। २. [वि० परिवाहित] वह नाली या प्रवाह- मार्ग जिससे किसी स्थान का आवश्यकता से अधिक जल निकाला जाय। फालतू पानी निकालने का मार्ग। अतिरिक्त पानी का निकास।

परिवाही
वि० [सं० परिवाहिन्] [वि० स्त्री० परिवाहिनी] उतराकर बहनेवाला। बाँध, मेंड़ आदि से छलककर बहनेवाला। उबल या उफनकर बहनेवाला।

परिविंदक
संज्ञा पुं० [सं० परिविन्दक] वह व्यक्ति जो जेठे भाई से पहले अपना विवाह कर ले। परिवेत्ता।

परिविंदन
संज्ञा पुं० [सं० परिविन्दन] परिवेत्ता। परिविंदक।

परिविण्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवित्त' [को०]।

परिवितर्क
संज्ञा पुं० [सं०] प्रश्न। जिज्ञासा। परीक्षा।

परिवित्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जिसका छोटा भाई, उससे पहले अपना विवाह कर ले।

परिवित्ति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवित्त'।

परिविद्ध (१)
वि० [सं०] भली भाँति या सम्यक् रीति से विद्ध। सब ओर या सब प्रकार से बिंधा हुआ।

परिविद्ध (२)
संज्ञा पुं० कुबेर (देवता)।

परिविन्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवित्त' [को०]।

परिविविदान
संज्ञा पुं० [सं०] बड़े भाई से पहले विवाह करनेवाला छोटा भाई। परिवेत्ता।

परिविष्ट
वि० [सं०] १. घेरा हुआ। परिवेष्टित। २. परोसा हुआ (भोजन)। ३. प्रकाशमंडल से आवृत (सूर्य या चंद्र)।

परिविष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेवा। टहल। परिचर्या। २. घेरा। वेष्टन।

परिविहार
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद से घूमना। जी भरकर घूमना [को०]।

परिवीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. ढका हुआ। छिपाया हुआ। आच्छादित। आवृत्त।

परिवीजित
वि० [सं० परिवीजन] जिसे पंखे से हवा की गई हो। पंखा किया हुआ। उ०—उच्च प्रसारों में लेटा छाया मर्मर परिवीजित। श्रांत पांथ सा ग्रीष्म ऊँघता भरी दुपहरी में नित।—अतिमा, पृ० १३७।

परिवीत (१)
वि० [सं०] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। छिपाया हुआ। आच्छादित। आवृत्त।

परिवीत (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्मा का धनुष [को०]।

परिवृंहित (१)
वि० [सं०] दे० 'परिबृंहित'।

परिवृंहित (२)
संज्ञा पुं० हाथी की चिग्घाड़। हस्तिगर्जन [को०]।

परिवृढ (१)
वि० [सं०] दृढ़। मजबूत [को०]।

परिवृढ (२)
संज्ञा पुं० मालिक। स्वामी। नेता।

परिवृत (१)
वि० [सं०] १. ढका, छिपाया या घिरा हुआ। वेष्टित। आवृत्त। २. पूर्णतः प्राप्त (को०)। ३. जाना हुआ। परिचित। ज्ञात (को०)।

परिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ढकने, घेरने या छिपानेवाली वस्तु। वेष्टन।

परिवृत्त (१)
वि० [सं०] १. घुमाया या लौटाया हुआ। २. उलटा- पलटा हुआ। ३. घेरा हुआ। वेष्टित। ४. समाप्त। ५. परिवर्तित। बदला हुआ (को०)।

परिवृत्त (२)
संज्ञा पुं० आलिंगन। अँकवार [को०]।

परिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घुमाव। चक्कर। गरदिश। २. घेरा। वेष्टन। ३. अदला बदला। विनिमय। तबादला। ४. समाप्ति। अंत। ५. एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। ऐसा शब्द- परिवर्तन जिसमें अर्थ में कोई अंतर न आने पावे। जैसे,— 'कमललोचन' के 'कमल' अथवा 'लोचन' को 'पझ' या 'नयन' से बदलना (व्याकरण)।

परिवृत्ति
संज्ञा पुं० एक अर्थालंकार जिसमें एक वस्तु को देकर दूसरी वस्तु लेने अर्थात् लेनदेन या अदल बदल का कथन होता है। विशेष—इस अलंकार के दो प्रधान भेद हैं—एक सम परवृत्ति, दूसरा विषम परिवृत्ति। पहले में समान गुण या मूल की और दूसरे में असमान गुण या मूल्य की वस्तुओं के अदल- बदल का वर्णन होता है। इन दोनों के दो दो अवतार भेद होते है। सम के अंतर्गत एक उत्तम वस्तु का उत्तम से विनि- मय; दूसरा न्युन वस्तु का न्युन से विनिमय है। इसी प्रकार विषम के अंतर्गत उत्तम वस्तु का न्युन से और न्युन का उत्तम से विनिमय होता है। जैसे,—(क) मन मानिक दीन्हों तुम्हें लीन्हीं बिरह बलाय। (वि० परि०—उत्तम का न्यून से विनिमय) (ख) तीन मूठी भरि आज देकर आनाज आपु लीन्हों जदुपति जू सों राज तीनों लोक को (वि० परि०- न्यून का उत्तम से विनिमय)। हिंदी कविता में प्रायः विषम परिवृत्ति के ही उदाहरण मिलते हैं। कई आचार्यों ने इसी कारण न्यून या थोड़ा देकर उत्तम या अधिक लेने के कथन को ही इस अलकार का लक्ष्ण माना है, सम का सम के साथ विनिमय के कथन को नहीं। परंतु अन्य कई आचार्यों तथा विशेषतः साहित्यदर्पण आदि साहित्य ग्रंथों ने देनलेन या अदल बदल के कथन मात्र को इस अलंकार का लक्षण प्रतिपादित किया है।

परिवृत्तिकाव्य
संज्ञा पुं० [सं० परिवृत्ति + काव्य] दूसरे की कविता को आधार बनाकर उसी शैली पर प्रस्तुत की गई हास्यप्रधान कविता जिसे अंग्रेजी में पैरोडी कहते हैं। ब०—परिहास करने के लिये इसी शैली पर जो रचना की जाती है उसे परिवृत्तिकाव्य कहते है।—स० शास्त्र, पृ० ८१।

परिवृद्ध
वि० [सं०] खूब बढ़ा हुआ। सब प्रकार वर्धित। परिवर्धित।

परिवृद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] सब प्रकार से वृद्धि। परिवर्धन। खूब बढ़ती या वृद्धि।

परिवेण
संज्ञा पुं० [पाली] १. बौद्ध विहार के भीतर बना हुआ भिक्षुओं का कुटीर या भवन। उ०—(क) अनाथ पिंडिल ने जैतवन में विहार बनवाए, परिवेण बनवाए।—वै० न०, पृ० ३१२। (ख) एक परिवेण से दूसरे परिवेण जाकर पूछने लगा।—वै० न०, पृ० १००।

परिवेत्ता
संज्ञा पुं० [सं० परिवेतृ] वह व्यक्ति जो बड़े भाई से पहले अपना विवाह कर ले या अग्निहोत्र ले ले। विशेष—बड़े भाई के अविवाहीत रहते छोटे का विवाह होना धर्मशास्त्रों से निषिद्ब और निंदित है परंतु नीचे लिखी हुई अवस्थाएँ अपवाद हैं। इनमें बड़े भाई से पहले विवाह करनेवाले छोटे भाई को दोष नहीं लगता। बड़ा भाई देशांतर या परदेश में हो (शस्त्रों ने देशांतर उस देश को माना है जहाँ कोई और भाषा बोली जाती हो, जहाँ जाने के लिये नदी या पहाड़ लाँधना पड़े, जहाँ का संवाद दस दिन के पहले न सुन सकें अथवा जो साठ, चालीस या तीस योजन दूर हो); नपुंसक हो; एक ही अंडकोष रखता हो; वेश्या- सक्त हो; (शास्त्रपरिभाषा के अनुसार) शूद्रतुल्य या पतित हो; अति रोगी हो; जड़, गूँगा, अंधा, बहरा, कुबड़ा, बौना या कोढ़ी हो; अति वृद्ध हो गया हो; उसने ऐसी स्त्री से संबंध कर लिया हो जो शास्त्रनिषिद्ध हो; जो शास्त्र की विधियों को न मानता हो; अपने पिता का औरस पूत्र न हो; चोर हो या विवाह करना ही न चाहता हो और छोटे भाई को विवाह करने की उसने अनुमति दे दी हो। बड़े भाई के देशांतरस्थ होने की दशा में तीन वर्ष, अथवा विशेष अवस्थाओं में कुछ अधिक वर्षां तक प्रतीक्षा करने की शास्त्रों की आज्ञा है, पर कोढ़ी, पतित, आदि होने की दशा में नहीं।

परिवेद
संज्ञा पुं० [सं०] पूरा ज्ञान। सम्यक् ज्ञान। परिज्ञान।

परिवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूरा ज्ञान। सम्यक् ज्ञान। परिज्ञान। २. विचरण। ३. लाभ। प्राप्ति। ४. विद्यमानता। मौजूदगी। ५. वादविवाद बहस। ६. भारी दुःख या कष्ट। ७. बड़े भाई के पहले छोटे भाई का व्याह होना। ८. अग्निहात्र के लिये अग्नि की स्थापना। अग्न्याधान।

परिवेदना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीक्ष्णबुद्धिता। विचक्षणता। विदग्धता। चतुराई। २. भारी दुःख या पीड़ा।

परिवेदनीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिवेत्ता की स्त्री। परिवे- दिनी [को०]।

परिवेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उस मनुष्य की स्त्री जिसने बड़े भाई से पहले अपना ब्याह कर लिया हो। परिवेत्ता की स्त्री।

परिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] वेष्टन। परिधि। घेरा। उ०—परिवेशों के सतत बदलते मूल्यों पर ही, अवलंबित रहते अपने हैं मान न मौलिक।—रजत०, १०३१। दे० 'परिवेष'।

परिवेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. परसना या परोसना। परिवेषण। २. घेरा। परिधि। उ०—रूप तिलक, कच कुटिल; किरनि छबि कुंडल कल विस्तारु। पत्रावलि परिवेष सुमन सरि मिल्यौ मनहु उड़ दारु।—सूर० १०। १७९६। ३. हलकी सफेद बदली का वह घेरा जो कभी चंद्रमा या सूर्य के इर्द गिर्द बन जाता है। मंडल। ४. कोई ऐसी वस्तु जो चारो ओर से घेरकर किसी वस्तु की रक्षा करती हो। ५. शहरपनाहकी दीवार। परकोटा। कोट। ६. प्रकाश या किरणों का मंडल।

परिवेषक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० परिवेषिका] परसनेवाला। परिवेषण करनेवाला।

परिवेषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पिरवेष्टव्य, परिवेष्य] १. (खाना) परसाना। परोसना। २. घेरा। परिधि। वेष्टन। ३. सूर्य या चंद्र आदि के चारो ओर का मंडल।

परिवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिवेष्टित] १. चारों ओर से घेरना या वेष्टन करना। २. छिपाने, ढकने या लपेटनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण। ३. परिधि। घेरा। दायरा।

परिवेष्टा
संज्ञा पुं० [सं० परिवेष्ट] परसनेवाला। परिवेषक।

परिवेष्य
वि० [सं०] परिवेषण के योग्य। परसने लायक [को०]।

परिव्यक्त
वि० [सं०] खूब स्पष्ट या प्रकट। सम्यक् रूप से प्रकाशित।

परिव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] खर्च। संपूर्ण व्यय।

परिव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] १. चारो ओर से बेधने या छेदनेवाला। २. जलबेंत। ३. कनेर। द्रुमोत्पल। ४. एक ऋषि का नाम।

परिव्याप्त
वि० [सं०] छाया हुआ। चतुर्दिक् फैला हुआ।

परिव्रज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इधर उधर भ्रमण। २. तपस्या। ३. भिक्षुक की भाँति जिवन बिताना। लोहे की चूड़ी आदि धारण करना और सदा भ्रमण करते रहना। भिक्षुक वृत्ति से जीवन निर्वाह।

परिव्राज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह संन्यासी जो सदा भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। यती। परमहंस।

परिव्राजक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिव्राज'।

परिव्राजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरखमुंडी। मुंडी।

परिव्राट
संज्ञा पुं० [सं० परिव्राज्] परिव्राज। परिव्राजक।

परिशंकी
वि० [सं० परिशङ्किन्] आशंका या भय करनेवाला। आशंकी [को०]।

परिशाश्वत
वि० [सं०] सर्वदा एक ही रूप का। सदा एक समान रहनेवाला [को०]।

परिशिष्ट (१)
वि० [सं०] बचा हुआ। छूटा हुआ। अवशिष्ट। समाप्त।

परिशिष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पुस्तक या लेख का वह भाग जिसमें वे बातें दी गई हो जो किसी कारण यथास्थान नहीं जा सकी हों और जिनके पुस्तक में न आने से वह अपूर्ण रह जाती हो। पूस्तक या लेख का वह अंश जिसमें ऐसी बातें लिखी गई हों जो यथास्थान देने से छूट गई हों और जिनके देने से पूस्तक के विषय की पूर्ति होती हो। जैसे, छांदोग्य- परिशिष्ट, गृह्मपरिशिष्ट आदि। उ०—कुछ अन्य निबंध भी हैं जो कल्पसूत्रों के सहायक अथवा पूरक कहे जाते हैं। इन निबंधों को 'परिशिष्ट' कहते हैं।—आधुनिक०, पृ० ९७। २. किसी पुस्तक के अंत में जोड़ा हुआ वह लेख जिसमें ऐसे अंक, व्याख्याएँ, कथाएँ, हवाले अथवा अन्य कोई बात दी गई हो जिससे पूस्तक का विषय समझने में सहायता मिलती हो किसी पुस्तक का वह अतिरिक्त अंश जिसमें कुछ ऐसी बातें दी गई हों जिनसे उसकी उपयोगिता या महत्व बढ़ता हो। जमीमा।

परिशीलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिशीलित] १. विषय को खूब सोचते हुए पढ़ना। सब बातों या अंगों को सोच समझकर पढ़ना। मननपूर्वक अध्ययन। २. स्पर्श। लग जाना या छू जाना।

परिशीलित
वि० [सं०] परिशीलन किया हुआ। जिसका परिशीलन किया गया हो [को०]।

परिशुद्ध
वि० [सं०] १. पूर्णतः शुद्ध। विशुद्ध। निर्मल। निर्दोष। उ०—इस प्रकार अपने जीवन को परिशुद्ध बनाकर उसने जनता के जीवन में से हिंसा के दोष को मिटाने का निश्चय किया।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २५। २. मुक्त। छूटा हुआ। बरी किया हुआ (को०)। ३. जो चुका दिया गया हो। चुकता किया हुआ (को०)।

परिशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. छुटकारा। रिहाई।

परिशुष्क (१)
वि० [सं०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन।

परिशुष्क (२)
संज्ञा पुं० तला हुआ मांस।

परिशून्य
वि० [सं०] एकदम शून्य। रिक्त [को०]।

परिश्रृत
संज्ञा पुं० [सं०] जोश। उत्साह। उमंग [को०]।

परिशेष (१)
वि० [सं०] बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट।

परिशेष (२)
संज्ञा पुं० १. जो कुछ बच रहा हो। बच रहनेवाला। २. परिशिष्ट। ३. समाप्ति। अंत।

परिशेषण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बाकी बच रहा हो।

परिशोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्ण शुद्धि। पूरी सफाई। २. ऋण की बेबाकी। चुकता। ऋणशुद्धि।

परिशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिशुद्ध, परिशोधनीय, परिशोधित] १. पूरी तरह साफ या शुद्ध करना। पूर्ण रीति से शुद्धि करना। अंग प्रत्यंग की लफाई करना। सर्वतोभाव से शोधन। २. ऋण का दाम दे डालना। कर्ज की बेबकी। चुकता।

परिशोभमान
वि० [सं० परि + शोभायमान] चारो ओर से सुशो- भित होनेवाला। उ०—पूष्पों से परिशोभमान बहुशः जो वृक्ष अंकस्थ थे, वे उद्धोषित थे सदर्प करते उत्कुल्लता मेरु की।— प्रिय०, पृ० ९८।

परिशोष
संज्ञा पुं० [सं०] शुष्क हो जाना। सुखने की क्रिया या भाव [को०]।

परिश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. उद्यम। आयास। श्रम। क्लेश। मेहनत। मशक्कत। २. थकावट। श्रांति। माँदगी।

परिश्रमी
वि० [सं० परिश्रमिन्] जो बहुत श्रम करे। उद्यमी। श्रमशील। मेहनती।

परिश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. आश्रय। रक्षा का स्थान। पनाह की जगह। २. सभा। परिषद्।

परिश्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] घेरना। परिवेष्टित करना [को०]।

परिश्रांत
वि० [सं० परिश्रान्त] थका हुआ। श्रमित। क्लांतियुक्त। थका माँदा।

परिश्रांति
स्त्री० संज्ञा [सं० परिश्रान्ति] थकावट। क्लांति। माँदगी।

परिश्रित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपड़े की दीवार या चिक आदि का घेरा। कनात। २. यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।

परिश्रित (१)
वि० [सं०] १. आवेष्टित। घिरा हुआ। २. आश्रय- प्राप्त। आश्रित [को०]।

परिश्रित (२)
संज्ञा पुं० १. आश्रय। पनाह। २. आवेष्टित करना। चारो ओर से घेरना [को०]।

परिश्रुत
वि० [सं०] जिसके विषय में यथेष्ट सुना या जाना जा चुका हो। विश्रुत। विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर।

परिश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] आलिंगन। गले मिलना।

परिषत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिषद्'।

परिषत्व
संज्ञा पुं० [सं०] परिषद् का भाव या धर्म।

परिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल की विद्बान् ब्राह्मणों की वह सभा जिसे राजा समय समय पर राजनीति, धर्मशास्त्र आदि के किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिये आवाहित किया करता था और जिसका निर्णय/?/सर्वमान्य होता था। २. सभा। मजलिस। ३. समूह। समाज। भीड़। ४. विद्याप्राप्ति का केंद्र। उ०—वृहदारणयक उपनिषद् के परिषदों का उल्लेख है जो विद्यापीठ थे और जिनमें बहुत से छात्र इकट्ठे होते थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १३१।

परिषद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेरकर चलते हैं। पारिषद्। २. सदस्य सभासद। ३. मुसाहब। दरबारी।

परिषद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सभासद। सदस्य। २. दशक। प्रेक्षक।

परिषद्वल
संज्ञा पुं० [सं०] समासद। सदस्य। परिषद।

परिषिक्त
वि० [सं०] १. जो सींचा गया हो। सिंचित। २. जिसपर छिड़काव किया गया हो।

परिषीवण
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोंठ देना। २. सीना।

परिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंचाई। तर करना। २. छिड़काव। ३. स्नान।

परिषेचक
वि० [सं०] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।

परिषेचन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिषिक्त] १. तर करना। सींचना। २. छिड़कना।

परिष्कंद
संज्ञा पुं० [सं० परिष्कन्द] १. वह संतति जिसको उसके माता पिता के अतिरिक्त किसी और ने पाला पोसा हो। परपोषित संतति। २. सेवक। नौकर (को०)। ३. पार्श्व- रक्षक (को०)।

परिष्कण्ण (१)
वि० [सं०] परपोषित। जो दूसरे के द्बारा पालित पोषित हुआ हो [को०]।

परिष्कण्ण (२)
संज्ञा पुं० दे० 'परिष्कंद—१'।

परिष्कन्न
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिष्कण्ण'।

परिष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] सजावट। शृंगार [को०]।

परिष्करण
संज्ञा पुं० [पुं०] संस्कार। परिष्कार। शुद्धि [को०]।

परिष्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. संस्कार। शुद्धि। सफाई। २. स्वच्छता। निर्मलता। ३. अलंकार। आभूषण। गहना। जेवर। ४. शोभा। ५. सजावट। बनाव। सिंगार। ६. संयम (बौद्ध दर्शन)। ७. भोजनादि पकाना। सिद्ध करना (को०)। ८. उपकरण। सामान (को०)।

परिष्कारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पाला पोसा गया हो। २. दत्तक पुत्र।

परिष्कृत
वि० [सं०] [वि० स्त्री० परिष्कृता] १. साफ किया हुआ। शुद्ध किया हुआ। २. माँजा या धोया हुआ। ३. सँवारा या सजाया हुआ। ४. सिद्ध किया हुआ। (भोजन) स्वादिष्ट बनाया हुआ (को०)।

परिष्कृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जो यज्ञ के लिये शुद्ध की गई हो [को०]।

परिष्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिष्कार [को०]।

परिष्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुद्ध करना। शोधन। २. माँजना। धोना। ३. सँवारना। सजाना।

परिष्टवन
संज्ञा पुं० [सं०] भली भाँति प्रशंसा करना। खूब तारीफ करना। सम्यक् प्रकार से स्तुति करना।

परिष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का स्तुतियुक्त सामगान। २. वह कपड़ा जिसे हाथी आदि की पीठ पर शोभा के लिये ड़ाल देते हैं। झूल। परिस्तोम। ३. आच्छादन। आवरण (को०)। ४. उपधान, गद्दा आदि (को०)।

परिष्ठल
संज्ञा पुं० [सं०] चारों ओर की भूमि। पार्श्वस्थ भूमि [को०]।

परिष्पंद
संज्ञा पुं० [सं० परिस्पन्द] स्पंदन। हिलना डुलना। काँपना। दे० 'परिर्स्पद' [को०]।

परिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० परिष्यन्द] १. प्रवाह। धारा। २. नदी। दरीया। ३. द्बीप टापू।

परिष्यंदी
वि० [सं० परिष्यन्दिन्] बहता हुआ। जिसका प्रवाह हो।

परिष्वंग
संज्ञा पुं० [सं० परिष्वङ्ग] अलिंगन। उ०—और उस सुनसान में निःसंग, खोजने सच्छांति का परिष्वंग।—साम०, पृ० ४२।

परिष्वंजन
संज्ञा पुं० [सं० परिष्वञ्जन] [वि० परिष्वक्त, परिष्वाय आदि] आलिंगन। गले मिलना या गले से लगाना। छाती से लगना या लगाना।

परिष्वक्त
वि० [सं०] जिसका अलिंगन किया गया हो। आलिंगित।

परिसंख्या
संज्ञा स्त्री० [सं० परिसड़ख्या] १. गणना। गिनती। २. एक अर्थालंकार जिसमें पूछी या बिना पूछी हुई बात उसी के सदृश दूसरी बात को व्यंग्य या वाच्य से वर्जित करने के अभिप्राय से कही जाय। यह कही हुई बात और प्रमाणों से सिद्ध विख्यात होती है। विशेष—परिसंख्या अलंकार दो प्रकार का होता है—प्रश्नपूर्वक और बिना प्रश्न का। उ०—(क) सेव्य कहा ? तट सुरसरित, कहा ध्येय ? हरिपाद। करन उचित कह धर्म नित चित तजि सकल विषाद। (प्रश्नपूर्वक)। इसमें 'सेव्य क्या है' ? आदि प्रशनों के जो उत्तर दिए गए हैं उनमें व्यंग्य से 'स्त्री आदि सेव्य नहीं' यह बात भी सूचित होती है। (ख) इतनोई स्वारथ बड़ो लहि नरतनु जग माहिं। भक्ति अनन्य गोविंद पद लखहि चराचर ताहिं। ३. मीमांसा दर्शन में वह विधान जिससे विहित के अतिरिक्त अन्य का निषेध हो।

परिसंख्यात
वि० [सं० परिसड़ख्यात] १. जिसकी परिसंख्या अर्थात् गणना हुई हो। २. परिसंख्या के योग्य। उल्लेख के योग्य। गिनती करने लायक [को०]।

परिसंख्यान
संज्ञा पुं० [सं० परिसड्ख्यान] १. गिनती। गणना। परिसंख्या। २. विशेष वस्तु का निर्देश। ३. ठीक अनुमान। सही निर्णय [को०]।

परिसंचर
संज्ञा पुं० [सं० परिसञ्चर] सृष्टि के प्रलय का काल।

परिसंचित
वि० [सं० परिसञ्चित] एकत्र किया हुआ। जिसका संचय किया गया हो [को०]।

परिसंतान
संज्ञा पुं० [सं० परिसन्तान] तार। तंत्री।

परिसंवाद
संज्ञा पुं० [सं०] विचार विमर्श। प्रश्नोत्तर।

परिसभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] सभासद। सदस्य।

परिसमंत
संज्ञा पुं० [सं० परिसमन्त] किसी वृक्ष के चारो ओर की सीमा।

परिसमापन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कार्य या वस्तु का पूर्णतः समाप्त होना। पूर्ण समाप्ति। परिसमाप्ति [को०]।

परिसमाप्त
वि० [सं०] बिलकुल समाप्त। निश्शेष।

परिसमाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिसमापन'।

परिसमहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृण आदि को आग मे झोंकना। २. यज्ञ को अग्नि में समिधा डालना। ३. यज्ञादि में अग्नि के चारों ओर जलादि से मार्जन (को०)। ४. एकत्रीकरण। इकट्ठा करना (को०)।

परिसर (१)
वि० [सं०] मिला हुआ। जुड़ा या लगा हुआ।

परिसर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी स्थान के आस पास की भूमि। किसी घर के निकट का खुला मैदान। प्रांतभूमि। नदी या पहाड़ के आस पास की भूमि। २. मृत्यु। ३. विधि। ४. शिरा या नाड़ी। ५. अवसर। स्थिति। मौका (को०)। ६. एक देवता (को०)। ७. विस्तार। व्यास (को०)।

परिसरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिसारी, परिसृत] १. चलना। टहलना। पर्यटन। २. पराभव। हार। ३. मृत्यु। मौत।

परिसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. टहलना। चलना। घूमना। फिरना। ३. किसी की खोज में जाना। किसी के पोछे उसे ढूँढ़ते हुए जाना। ४. साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज में भटकना जब कि खोजी जानेवाली वस्तु के जाने की दिशा या अवस्थिति का स्थान अज्ञात हो, केवल मार्ग के चिह्नों आदि के सहारे उसका अनुमान किया जाय; जैसे शकुंतला नाटक के तीसरे अंक में दुष्यंत का शकुंतला। की खोज करना और निम्नलिखित दोहों में वर्णित चिह्नों से उसके जाने के रास्ते और ठहरने के स्थान का निश्चय करना। उ०—(क) जिन डारन ने मम प्रिया लुने फूल अरु पात। सूख्यो दूध न छत भरयो तिनकौं अजौं लखात। (ख) लिए कमल रज गंधि अस कर मालिनी तरंग। आय पवन लागत भली मदन देत मम अंग। (ग) दीखत पंडू रेत में नए खोज या द्बार। आगे उठि, पाछे धसकि रहे नितंबन भार।—शकुंतला नाटक ५. एक प्रकार का साँप। ६. घेरना। आवेष्टित करना (को०) ७. सुश्रुत के अनुसार ११ क्षुद्र कुष्टों में से एक। इसमें छोटी छोटी फुंसियाँ निकलती हैं जो फूटकर फैलती जाती है। फुंसियों से पंछा या पीव भी निकलता है।

परिसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलना। टहलना। घूमना। २. रेंगना। ३. इधर उधर आना जाना। आवागमन। इतस्ततः चंक्रमण (को०)।

परिसर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टहलना। भ्रमण करना। २. एक रोग [को०]।

परिसांत्वन
संज्ञा पुं० [सं० परिसान्त्वन] ढाढस बँधाना। तसल्ली देना [को०]।

परिसाम
संज्ञा पुं० [सं० परिसामन्] एक विशेष साम।

परिसार
संज्ञा पुं० [सं०] घूमना। परिसरण करना [को०]।

परिसारक
संज्ञा पुं० [सं०] चलनेवाला। घूमनेवाला। भटकनेवाला।

परिसारी
संज्ञा पुं० [सं० परिसारिन्] दे० 'परिसारक'।

परिसिद्धिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की चावल की लपसी।

परिसीमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चारों ओर की सीमा। चौहद्दी। चतुःसीमा। २. सीमा। हद। काष्ठा। अवधि। उ०—तुम मेरी परिसीमा, तुम मम, दिक् काल रूप, तुम ही धर आए हो यह जग जंजाल रूप।—क्वासि, पृ० ६१।

परिसूना
संज्ञा पुं० [सं०] बूचड़खाने के बाहर मारा हुआ पशु (कौटि०)।

परिसृप्त
वि० [सं०] लड़ाई से भागा हुआ (सैनिक)।

परिसेवना
संज्ञा स्त्री० [सं०] विशेष रूप से की गई सेवा [को०]।

परिस्कंद
वि० [सं०] दुसरे के द्बारा पालित (व्यक्ति)। जिसका पालन पोषण उसके माता पिता के अतिरिक्त किसी और ने किया हो। परपुष्ट।

परिस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० परिस्कन्ध] राशि। समूह [को०]।

परिस्कन्न
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिष्कण्ण'।

परिस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिस्तरण' [को०]।

परिस्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. छितराना। फेंकना या डालना। (जैसे, आग पर फूस का)। फैलाना। तानना। ३. लपेटना। आवरण करना।

परिस्तान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. वह कल्पित लोक या स्थान जहाँ परियाँ रहती हों। परियों का लोक। वह स्थान जहाँ सुंदर मनुष्यों विशेषतः स्त्रियों का जमघटा हो। सौंदर्य का अखाड़ा। विशेष—यह शब्द 'परी' और 'स्तान शब्दों का समास है। ये दोनों ही शब्द फारसी के हैं तथापि 'परिस्तान' शब्द फारसी किताबों में नहीं मिलता। अतएव यह समास उर्दू वालों का ही रचा जाना पड़ता है। अर्थात् यह शब्द फारस में नहीं किंतु भारत में बना है।

परिस्तीर्ण
वि० [सं०] १. बिखराया हुआ। फैलाया हुआ। २. आवरित। आच्छादित [को०]।

परिस्तृत
वि० [सं०] दे० 'परिस्तीर्ण' [को०]।

परिस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी आदि की पीठ पर डाला जानेवाला चित्रित वस्त्र। झूल। २. यज्ञ में प्रयुक्त एक पात्र (को०)।

परिस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आलय। गृह। वेश्म। २. दृढ़ता। स्थिरता। ३. ठोसपन। मजबूती [को०]।

परिस्थिति
संज्ञा पुं० [सं०] स्थिति। अवस्था। हालत।

परिस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० परिस्पन्द] काँपने का भाव। कंप। कँप- कँपी।—बहुत जल्दी जल्दी हिलना। २. दबाना। मर्दन। ३. सजाव। सिंगार (को०)। ४. परिजन। परिवार। (को०)। ५. सेवक। अनुगामी। अनुचर वर्ग (को०)। ६. पुष्पादि द्बारा केश का श्रुंगार (को०)।

पुरिस्पंदन
संज्ञा पुं० [सं० परिस्पन्दन] १. बहुत अधिक हिलना। खुब काँपना। सम्यक् कंपन। २. काँपना। कंपन।

परिस्पर्द्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन, बल, यश आदि में किसी के बरा- बर होने की इच्छा। प्रतिस्पर्धा। प्रतियोगिता। मुकाबिला। लागडाट।

परिस्पर्द्धि
संज्ञा पुं० [सं० परिस्पर्द्धिन्] परिस्पर्धा करनेवाला। प्रतियोगिता करनेवाला। मुकाबला या लागडाट करनेवाला।

परिस्पर्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिस्पर्द्धा'।

परिस्पर्धी
वि० [सं० परिस्पर्द्धिन्] दे० 'परिस्पर्द्धी'।

परिस्फुट
वि० [सं०] १. भली भाँति व्यक्त। सम्यक् प्रकार से प्रकाशित। बिलकुल प्रकट या खुला हुआ। २. व्यक्त। प्रकाशित। प्रकट। ३. खूब खिला हुआ। सम्यक् रूप से विक- सित। ४. विकसित। खिला हुआ।

परिस्फुरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँपना। हिलना। कंपन। २. कलिकायुक्त होना। ३. सूझ जाना। मन में एक ब एक आना। चमकना [को०]।

परिस्फुर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्पष्टता। २. चमक [को०]।

परिस्मापन
संज्ञा पुं० [सं०] आश्चर्य, विस्मय या कुतूहल उत्पन्न करना।

परिस्यंद
संज्ञा पुं० [सं० परिस्यंद] झरना। क्षरण। जैसे, हाथी के मस्तक से मद का परिस्पंद।

परिस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. टपकना। चुना या रसना। २. धीरे धोरे बहना। मंद प्रवाह। झिरझिराकर बहना या झिरझिरा बहाव। मंथर प्रवाह। ३. गर्म का बाहर आना। बच्चा पैदा होना। जैसे, गर्म परिस्रव (को०)।

परिस्त्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार एक रोग जिसमें गुदा से पित्त और कफ मिला हुआ पतला मल निकलता रहता है। विशेष—कड़े कोठेवाले को मृदु विरेचन देने से जब उभरा हुआ सारा दोष शरीर के बाहर नहीं हो सकता तब वही दोष उपर्युक्त रीति से निकलने लगता है। दस्त में कुछ कुछ मरोड़ भी होता है। इससे अरुचि और सब अंगों में थकावट होती है। कहते हैं, यह रोग वैद्य अथवा रोगी की अज्ञता के कारण होता है। २. चूना। टपकना या बहना।

परिस्त्रावण
संज्ञा पुं० [सं०] वह बरतन जिसमें से साफ करने के लिये पानी टपकाया जाय। वह बरतन जिससे पानी टपकाकर साफ किया जाय।

परिस्रावी (१)
वि० [सं० परिस्राविन्] १. चूने, रसने या टपकनेवाला। क्षरणशील। बहनेवाला। स्रावशील।

परिस्रावी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का भगंदर, जिसमें फोड़े से हर समय गाढ़ा मवाद बहता रहता है। विशेष—कहते हैं, यह कफ के प्रकोप से होता है। फोड़ा कुछ कुछ सफेद और बहुत कड़ा होता है। इसमें पीड़ा बहुत नहीं होती। दे० 'भगंदर'।

परिस्रुत् (१)
वि० [सं०] जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त।

परिस्रुत् (२)
संज्ञा स्त्री० मदिरा। मद्य। शराब। (वैदिक)।

परिस्रुत (१)
वि० [सं०] १. जो चू या टपक रहा हो। स्रावयुक्त। २. टपकाया हुआ। निचोड़ा हुआ। जिसमें से जल का अंश अलग कर लिया गया हो।

परिस्रुत (२)
संज्ञा पुं० फूलों का सार। पुष्पसार। इत्र (वैदिक)।

परिस्रुत दधि
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा दही जिसका पानी नीचोड़ लिया गया हो। निचोड़ा हुआ दही। वैद्यक में ऐसे दही को वातपित्तनाशक, कफकारी और पोषक लिखा है।

परिस्रुता
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य। शराब। २. अंगूरी शराब। द्राक्षामद्य।

परिस्वंजन
संज्ञा पुं० [सं० परिस्वञ्जन] आलिंगन। परिष्वंग [को०]।

परिहँस †पु
संज्ञा पुं० [सं० परिहास] ईर्ष्या। डाह। उ०—(क) परिहँस पिअर भए तेहिं बसा। लिए डंक लोगन्ह जहँ डँसा।—जायसी ग्रं०, पृ० ४७। (ख) परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा। आपन जीउ देसि केहि काजा।—जायसी ग्रं०, पृ० १८१।

परिहण ‡
संज्ञा पुं० [सं० परिधान, प्रा० परिहाण, देशी परिहण] वस्त्र। पहनावा। पोशाक।

परिहत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मि० (वैदिक) पराहत (= जुता हुआ)] १. हल के अंतिम और मुख्य भाग की वह सीधी खड़ी लकड़ी जिसमें ऊपर की ओर मुठिया होती है और नीचे की ओर हरिस तथा तरेली या चौभी ठुँकी रहती है। नगरा। २. वह नगरा जिसमें तरेली की लकड़ी अलग से नहीं लगानी पड़ती किंतु जिसका निचला भाग स्वयं ही इस प्रकार टेढा़ होता है कि उसी को नोकदार बनाकर उसमें फाल ठोंक दिया जाता है।

परिहत (२)
वि० [सं०] १. मृत। मुरदा। नष्ट। मरा हुआ। २. शिथिल। अस्तव्यस्त। ढीला ढाला। उ०—कौन कौन तुम परिहतवसना म्लानमना, भूपतिता सी,।—पल्लव, पृ० ६६।

परिहरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिहरणीय, परिहर्तव्य, परिहत] १. किसी के बिना पूछे अपने अधिकार में कर लेना। जबर- दस्ती ले लेना। छीन लेना। २. त्याग। परित्याग। छोड़ना। तजना। ३. दोष अनिष्टादि का उपचार या उपाय करना। किसी प्रकार के ऐब, खराबी या बुराई को दूर करना, छुड़ाना या हटाना। निवारण। निराकरण।

परिहरणीय
वि० [सं०] १. हरण के योग्य। छीन लेने योग्य। हरणीय। २. त्याग के योग्य। त्याज्य। छोड़ या तज देने योग्य। ३. उपचारयोग्य। निवार्य। हटाने योग्य या दूर करने योग्य।

परिहरना पु
क्रि० स० [सं० परिहरण] १. त्यागना। छोड़ना। तज देना। उ०—(क) बिछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।—तुलसी (शब्द०) (ख) परिहरि सोच रहो तुम सोई। बिनु ओषधिहि व्याधि विधि खोई।—तुलसी (शब्द०)। २. छीन लेना। ३. नष्ट करना। उ०—का करिकै तुव सैन सत्रु को बल परिहरई ? —भारतेंदु ग्रं०, भा०, २, पृ० ६२३।

परिहस पु
संज्ञा पुं० [सं० परिहास] १. परिहास। हँसी दिल्लगी। मसखरी। २. रंज। खेद। दुःख। उ०—कंठ बचन न बोलि आवै, ह्वदय परिहस भीन। नैन जल भरि रोइ दीन्हों, ग्रसित आपद दीन।—सूर (शब्द०)।

परिहसित
वि० [सं०] जिसका परिहास किया गया हो [को०]।

परिहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] अँगूठी। मुद्रिका। मुँदरी [को०]।

परिहा
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का छँद। जैसे,—सुनत दूत के बचन चतुर चित में ईसे। लेहिताक्ष द्वै करन बात में हम फँसे। बल ते सबै उपाय और तब कीजिए। नहि दैहों भेंट कुठार प्राण को लीजिए।—हनुमन्नाटक (शब्द०)।

परिहाण
संज्ञा पुं० [सं०] हानि। नुकसान [को०]।

परिहाणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घाटा। हानि। २. ह्रास। अवनति। ३. परित्याग। उपेक्षा [को०]।

परिहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिहाणि' [को०]।

परिहार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोष, अनिष्ट, खराबी आदि का निवारण या निराकरण। दोषादि के दूर करने या छुड़ाने का कार्य। २. दोषादि के दूर करने की युक्ति या उपाय। इलाज। उपचार। ३. त्याग। परित्याग। तजने या त्यागने का कार्य। ४. गाँव के ओर परती छोड़ी हुई वह भूमि जिसमें प्रत्येक ग्रामवासी को अपना पशु चराने का अधिकार होता था और जिसमें खेती करने की मनाहृ होती थी। पशुओं को चरने के लिये परती छोड़ी हुई सार्वजनिक भूमि। चरहा। ८. लड़ाई में जीता हुआ धनादि। शत्रु से छीन ली हुई वस्तुएँ। विजित द्रव्य। ६. कर या लगान की माफी। छूट। ७. खंडन। तरदीद। ८. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित करना (साहित्यदर्पण)। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १०. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक स्थान का नाम।

परिहार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] राजपूतों का एक वंश जो अग्निकुल के अंतर्गत माना जाता है। विशेष—इस वंश के राजपूतों द्वारा कोई बड़ा राज्य हस्तगत या स्थापित किए जाने का प्रमाण अबतक नहीं मिला है, तथापि छोटे छोटे अनेक राज्यों पर इनका आधिपत्य रह चुका है। २४९ ई० में कालिंजर का राज्य इसी वंशवालों के हाथ में था जिसको कलचुरि वंश के किसी राज्य ने जीतकर छीन लिया। सन् ११२९ से १२११ तक इस वंश के ७ राजाओं ने ग्वालियर पर राज्य किया था। कर्नल टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में जोधपुर के समीपवर्ती मंदरव (मंद्रोद्रि) स्थान के विषय में वहाँ मिले हुए चिह्नों आदि के आधार पर निश्चित किया है कि वह समय इस वंश के राजाओं की राजधानी था। आजकल इस वंश के राजपूत अधिकतर बुंदेलखंड, अवध आदि प्रदेशों में बसे हैं और उनमें अनेक बड़े जमीदार हैं।

परिहार पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० प्रहार] दे० 'प्रहार'। उ०—बचन बान सम श्रवन सुनि सहत कौन रिस त्यागि। सूरज पद परिहार तैं पाहन उगलन आगि।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ८३।

परिहारक
वि० [सं०] परिहार करनेवाला।

परिहारक ग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] राजकर से मुक्त ग्राम। मुआफी गाँव। लाखिराज गाँव। विशेष—कौटिल्य ने कहा है कि समाहर्ता के खेवट में ग्रामों या भूमि का जो वर्गीकरण है, उसमें परिहारक भी है।

परिहारना पु
क्रि० स० [सं० प्रहार, हिं० परहार, परिहार+ ना (प्रत्य०) (शस्त्र आदि)] प्रहार करना। चलना। उ०— पारथ देखि बाण परिहारा। पंख काटि पावक मँह डारा।—सबल० (शब्द०)।

परिहारी
संज्ञा पुं० [सं० परिहारिन्] १. परिहस्ण करनेवाला। हरणकारी। २. निवारण, त्याग, दोषक्षालन, हरण या गोपन करनेवाला।

परिहार्य
वि० [सं०] १. जिसका परिहार किया जा सके। जिससे बचा जा सके। जिसका त्याग किया जा सके। जो दूर किया जा सके। २. परिहार योग्य। जिसका निवारण, त्याग या उपचार करना उचित हो।

परिहास
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँसी। दिल्लगी। मजाक। ठट्ठा। उ०—क्या आप उसका परिहास करते हैं? किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निंदा है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २६६। २. क्रीड़ा। खेल।

परिहासकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हास्ययुक्त कहानी। परिहासयुक्त कथा [को०]।

परिहासपेसणी
वि० [सं० परिहास+ पेशल] परिहासकुशल। हास परिहास में दक्ष। उ०—विअक्खणी परिहासपेसणी सुंदरी सार्थ जवे देखिअ तवे मन कर तेसरा लागि तीनू उपेक्खिअ।—कीर्ति०, ४।

परिहासवेदी
संज्ञा पुं० [सं० परिहासवेदिन्] मजाकिया। मस- खरा [को०]।

परिहासशील
वि० [सं०] मजाकिया। हँसी दिल्लगी करनेवाला। परिहास से भरा हुआ। उ०—कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास- शील था।—लहर, पृ० ७४।

परिहास्य
वि० [सं०] परिहास योग्य।

परिहित
वि० [सं०] १. चारो ओर से छिपाया हुआ। ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. पहना हुआ (वस्त्र)। ऊपर डाला हुआ (कपड़ा)।

परिहीण
वि० [सं०] १. अत्यंत हीन। सब प्रकार से हीन। दीन हीन। दुखी और दरिद्र। फटेहालवाला। २. हीन। रहित (को०)। ३. त्यागा हुआ। फेंका, ढकेला या निकाला हुआ। परित्यक्त।

परिहृत
वि० [सं०] १. पतित। भ्रष्ट। गिरा हुआ। अवनत। पामाल। २. नष्ट। ध्वस्त। तबाह। बरबाद। ३. जिसका परिहरण किया गया हो (को०)।

परिहृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाश। क्षय। ध्वंस। मिटना। जवाल। २. त्याग देना। छोड़ना [को०]।

परींदन
संज्ञा पुं० [सं० परीन्दन] १. प्रसादन। आराधना। तोषण। २. भेंट, उपहार आदि देना [को०]।

परी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. फारसी की प्राचीन कथाओं के अनुसार कोहकाफ पहाड़ पर बसनेवाली कल्पित स्त्रियाँ जो आग्नेय नाम की कल्पित सृष्टि के अंतर्गत मानी गई हैं। उ०—हेरि हिंडोरे गगन ते, परी परी सी टूटि। धरी धाय पिय बीच ही, करी खरी रस लूटि।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—इनका सारा शरीर तो मानव स्त्री का सा ही माना गया है पर विलक्षणता यह बताई गई है कि इनके दोनों कंधों पर पर होते हैं जिनके सहारे ये गगनपथ में विचरती फिरती हैं। इनकी सुंदरता, फारसी, उर्दू साहित्य में आदर्श मानी गई है, केवल बहिश्तवासिनी हूरों को ही सौंदर्य की तुलना में इनसे ऊँचा स्थान दिया गया है। फारसी, उर्दू की कविता में ये सुंदर रमणियों का उपमान बनाई गई हैं। यौ०—परीजमाल। परीजाद। परीपैकर। परीबंद। परीरू = परी की तरह। अत्यंत सुंदर। २. परी सी सुंदर स्त्री। परम सुंदरी। अत्यंत रूपवती। निहा- यत खूबसूरत औरत। जैसे,—उसकी सुंदरता का क्या कहना, खासी परी है।

परी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पलिघ, हिं० पली] दे० 'पली'।

परीक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० परीक्षिका] परीक्षा करने या लेनेवाला। आजमाइश, जाँच या समीक्षा करनेवाला। इम्त- हान करने या लेनेवाला। परखने या जाँचनेवाला।

परीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परीक्षित, परीक्ष्य] परीक्षा की क्रिया या कार्य। देख भाल, जाँच, पड़ताल आजमाइश या इम्तहान लेने की क्रिया या कार्य। निरीक्षण, समीक्षण अथवा आलोचना।

परीक्षना पु
क्रि० स० [सं० परीक्षण] परीक्षा करना। परीक्षा लेना।

परीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी के गुण दोष आदि जानने के लिये उसे अच्छी तरह से देखने भालने का कार्य। निरीक्षा। समीक्षा। समालोचना। २. वह कार्य जिससे किसी की योग्यता, सामर्थ्य आदि जाने जायँ। इम्तहान। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लेना। ३. वह कार्य जो किसी वस्तु के संबंध में कोई विशेष निश्चित करने के लिये किया जाय। आजमाइश। अनुभावार्थ प्रयोग। ४. मुआयना। निरीक्षण। जाँच पड़ताल। ५. किसी वस्तु के जो लक्षण माने या जो गुण कहे गए हों उनके ठीक होने न होने का प्रमाण द्वारा निश्चय करने का कार्य। ६. वह विधान जिससे प्राचीन न्यायालय किसी विशेष अभियुक्त के अपराधी या निरपराध अथवा विशेष साक्षी के सच्चे या झूठे होने का निश्चय करते थे। विशेष—अभियुक्त की परीक्षा को दिव्य और साक्षी की परीक्षा को लौकिक परीक्षा कहते थे। दिव्य परीक्षाएँ कुल नौ प्रकार की होती थीं। दे० 'दिव्य'। इनमें से अभियुक्त को उसकी अवस्था, ऋतु आदि के अनुसार कोई एक देनी होती थी। लौकिक परीक्षा में गवाह से कई प्रकार के प्रश्न किए जाते थे।

परीक्षार्थ
अव्य० [सं०] परीक्षा के निमित्त। परीक्षा के लिये [को०]।

परीक्षार्थी
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षार्थिन्] १. परीक्षा देनेवाला। २. विद्यार्थी। परीक्षा देने के लिये विद्याध्ययन करनेवाला छात्र [को०]।

परीक्षित (१)
वि० [सं०] १. जिसकी जाँच की गई हो। जिसका इमत्हान लिया गया हो। कसा, तपाया हुआ। २. जिसकी आजमाइश की गई हो। प्रयोग द्वारा जिसकी जाँच की गई हो। समीक्षित। समालोचित। जिसके गुण आदि का अनुभव किया गया हो। जैसे, परीक्षित औषध।

परीक्षित (२)
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित्] १. अर्जुन के पोते और अभि- मन्यु के पुत्र पांडुकुल के एक प्रसिद्ध राजा। विशेष—इनकी कथा अनेक पुराणों में है। महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की स्त्री उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला। भगवान् कृष्णचंद्र को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया। परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित रखा गया। परीक्षित ने महाभारत युद्ध में कुरुदल के प्रसिद्ध महारथी कृपाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी थी। युधिष्ठिरादि पांडव संसार भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही उन्हें हस्तिनापुर के सिंहासन पुर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए। राज्यप्राप्ति के अनंतर कहतं हैं कि गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देव- ताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था। इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्धापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में यह कथा है—एक दिन राजा परीक्षित ने सुना कि कलियुग उनके राज्य में घुस आया है और अधिकार जमाने का मौका ढूँढ़ रहा है। ये उसे अपने राज्य से निकाल बाहर करने के लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिन इन्होंने देखा कि एक गाय और एक बैल अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और ठाट बाट राजा के समान था, डंडे से उनको मार रहा है। बैल के केवल एक पैर था, पूछने पर परीक्षित को बैल, गाय और राजवेषधारी शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय दिया। गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म ता और शूद्र कलिराज। धर्मरूपी बैल की सत्य, तप और दयारूपी तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़ डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे वह भाग रहा था, उसको भी तोड़ डालने के लिये कलियुग बराबर उसका पीछा कर रहा था। यह वृत्तांत जानकर परीक्षित को कलि- युग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे उसको मार डालने को उद्यत हुए। पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके रहने के लिये ये स्थान बता दिए—जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और सोना। इन पाँच स्थानों को छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने प्रतिज्ञा की। राजा ने पाँच स्थानों के साथ साथ ये पाँच वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या, मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना के कुछ समय बाद महाराज परीक्षित एक दिन आखेट करने निकले। कलियुग बराबर इस ताक में था कि किसी प्रकार परीक्षित का खटका मिटाकर अकंटक राज करें। राजा के मुकुट में सोना था ही, कलियुग उसमें घुस गया। राजा ने एक हिरन के पीछे घोड़े डाला। बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न मिला। थकावट के कारण उन्हें प्यास लग गई थी। एक वृद्ध मुनि मार्ग में मिले। राजा ने उनसे पूछा कि बताओ, हिरन किधर गया है। मुनि मौनी थे, इसलिये राजा की जिज्ञासा का कुछ उत्तर न दे सके। थके और प्यासे परीक्षित को मुनि के इस व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ। कलियुग सिर पर सवार था ही, परिक्षित ने निश्चय कर लिया कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी बात का जवाब नही दिया है और इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना चाहिए। पास ही एक मरा हुआ साँप पड़ा था। राजा ने कमान की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले में डाल दिया और अपनी राह ली। मुनि के शृंगी नाम का एक महातेजत्वी पुत्र था। वह किसी काम से बाहर गया था। लौटते समय रास्ते में उसने सुना कि कोई आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प की माला पहना गया है। कोपशील शृंगी ने पिता के इस अपमान की बात सुनते ही हाथ में जल लेकर शाप दिया कि जिस पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत सर्प की माला पहनाया है, आज से सात दिन के भीतर तक्षक नाम का सर्प उसे डस ले। आश्रम में पहुँचकर शृंगी ने पिता से अपमान करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने की बात कही। ऋषि को पुत्र के अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने एक शिष्य द्वारा परीक्षित को शाप का समाचार कहला भेजा जिसमें वे सतर्क रहें। परीक्षित ने ऋषि के शाप को अटल समझकर अपने लड़के जनमे- जय को राज पर बिठा दिया और सब प्रकार मरने के लिये तैयार होकर अनशन व्रत करते हुए श्रीशुकदेव जी से श्रीमद् भागवत की कथा सुनी। सातवें दिन तक्षक ने आकर उन्हें डस लिया और विष की भयंकर ज्वाला से उनका शरीर भस्म हो गया। कहते हैं, तक्षक जब परीक्षित को डसने चला तब मार्ग में उसे कश्यप ऋषि मिले। पूछने पर मालूम हुआ कि वे उसके विष से परीक्षित की रक्षा करने जा रहे हैं। तक्षक ने एक वृक्ष पर दाँत मारा, वह तत्काल जलकर भस्म हो गया। कश्यप ने अपनी विद्या से फिर उसे हरा कर दिया। इसपर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उन्हें लौटा दिया। देवी भागवत में लिखा हैं, शाप का समाचार पाकर परीक्षित ने तक्षक से अपना रक्षा करने के लिये एक सात मंजिल ऊँचामकान बनवाया और उसके चारों ओर अच्छे अच्छे सर्प-मंत्र- ज्ञाता और मुहरा रखनेवालों को तैनात कर दिया। तक्षक को जब यह मालूम हुआ तब वह घबराया। अंत को परी- क्षित तक पहुँचने को उसे एक उपाय सूझ पड़ा। उसने एक अपने सजातीय सर्प को तपस्वी का रूप देकर उसके हाथ में कुछ फल दे दिए और एक फल में एक अति छोटे कीड़े का रूप धरकर आप जा बैठा। तपस्वी बना हुआ सर्प तक्षक के आदेश के अनुसार परीक्षित के उपर्युक्त सुरक्षित प्रासाद तक पहुँचा। पहरेदारों ने इसे अंदर जाने से रोका, पर राजा को खबर होने पर उन्होंने उसे अपने पास बुलवा लिया और फल लेकर उसे बिदा कर दिया। एक तपस्वी मेरे लिये यह फल दे गया है, अतः इसके खाने से अवश्य उपकार होगा, यह सोचकर उन्होंने और फल तो मंत्रियों में बाँट दिए, पर उसको अपने खाने के लिये काटा। उसमें से एक छोटा कीड़ा निकला जिसका रंग तामड़ा और आँखें काली थीं। परीक्षित ने मंत्रियों से कहा—सूर्य अस्त हो रहा है, अब तक्षक से मुझे कोई भय नहीं। परंतु ब्राह्मण के शाप की मानरक्षा करना चाहिए। इसलिये इस कीड़ी से डसने की विधि पूरी करा लेता हूँ। यह कहकर उन्होंने उस कीड़े को गले से लगा लिया। परीक्षित के गले से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीड़ा भयंकर सर्प हो गया और उसके दंशन के साथ परीक्षित का शरीर भस्मसात् हो गया। परीक्षित की मृत्यु के बाद, कहते हैं, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई। २. कंस का एक पुत्र। ३. अयोध्या का एक राजा। ४. अनश्व का एक पुत्र।

परीक्षितव्य
वि० [सं०] १. परीक्षा करने योग्य। जिसका इम्तहान या आजमाइश या जाँच की जा सके। २. जिसकी परीक्षा करना उचित या कर्तव्य हो।

परीक्ष्य
वि० [सं०] १. जिसकी परीक्षा की जा सके। परीक्षा करने योग्य। २. जिसकी परीक्षा करना उचित या कर्तव्य हो।

परीखना पु
क्रि० स० [सं० परीक्षण, प्रा० परिक्खण] परखना। जाँचना। परीक्षा लेना। उ०—रतन छिपाए ना छिपै पारखि होइ सो पराख। घालि कसौटी दीजिए कनक कचोरी भीख।—पदमावत, पृ० २५६।

परीखाना
संज्ञा पुं० [फा० परिखानह्] परियों के रहने का स्थान। हसीन लोगों का वासस्थान [को०]।

परीच्छत पु
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित] दे० 'परीक्षित'। उ०— श्री सुखदेव कही हरिलीला। सुनी परीच्छत सब गुन सीला।—पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ३५२।

परीख्वान
संज्ञा पुं० [फा० परीख्वान] जंत्र मंत्र करनेवाला [को०]।

परीच्छित (१)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित] दे० 'परीक्षित'।

परीच्छित (२)
क्रि० वि० अवश्य ही। निश्चित रूप से। उ०—संकर कोप सों पाप को दास परीच्छित जाहिगो जारि कै हीयो।— तुलसी (शब्द०)।

परीछत पु
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित] दे० 'परीक्षित'।

परीछम
संज्ञा पुं० [हिं० परी + छम छम (अनु०)] चाँदी का एक गहना जिसे स्त्रियाँ पैर में पहनती हैं।

परीछा
संज्ञा स्त्री० [सं० परीक्षा, प्रा० परिच्छा] दे० 'परीक्षा'। उ०—जौ तुम्हारे मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू।—मानस, १। ५२।

परीछित पु (१)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० परीक्षित] दे० 'परीक्षित'। उ०—परम भागवत रतन रसिक जु परीछित राजा। प्रश्न करयो रस पुष्ट करन निज सुख के काजा।—नंद० ग्रं०, पृ० ९।

परीछित (२)
क्रि० वि० दे० 'परीच्छित (२)'।

परीजमाल
वि० [फा०] हसीन। खूबसूरत [को०]।

परीजाद
वि० [फा० परीजाद] अत्यंत सुंदर। अत्यंत रूपवान्।

परीजादी
वि० स्त्री० [फा० परीजादी] परी के समान सुंदरी। परी कन्या सी सुंदरी।

परीज्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञांग। परीयज्ञ।

परीणाम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिणाम' [को०]।

परीणाय
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव के चारों ओर की वह भूमि जो गाँव के सब लोगों की संपत्ति समझी जाती थी (याज्ञवल्क्य स्मृति)।

परीणाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'परिणाह'। २. शिव। ३. दे० 'परीणाय'। ४. चौपड़ की गोट को इधर उधर दाएँ बाएँ चलाना [को०]।

परीत † (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेत, परेत] दे० 'प्रेत'। उ०—कीन्हेसि राकस भूत परीता। कीन्हेसि भोकस देव दईता।— जायसी (शब्द०)।

परीत (२)
वि० [सं०] १. परिवेष्टित। घेरा हुआ। २. व्यतीत। गत। ३. घुमानेवाला। चक्कर देनेवाला। ४. विपरीत। उलटा [को०]।

परीताप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिताप'।

परीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूलों से बनाया हुआ सुरमा। पुष्पांजन।

परीतोष
संज्ञा पुं० [सं०] परितोष।

परीत्त
वि० [सं०] १. सीमाबद्ध। मर्यादित। महदूद। २. संकीर्ण। संकुचित। तंग।

परीदाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिदाह'।

परीपैकर
वि० [फा० परी + पैकर (=आकृति)] परी के समान सुंदर। परी की आकृति का। उ०—उस, परीपैकर को मत इंसान बूझ। शक में क्यों पड़ता है ऐ दिल ! जान बूझ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २६।

परीधान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिधान' [को०]।

परीप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाने की इच्छा। २. जल्दबाजी। शीघ्रता। त्वरा [को०]।

परीबंद
संज्ञा पुं० [फा०] १. स्त्रियों का एक गहना जो कलाई पर पहना जाता है। २. बच्चों के पाँव में पहनाने का एक आभूषण जिसमें घुँघरू होते हैं। ३. कुश्ती का एक पेंच।

परीभव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिभव' [को०]।

परीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] परिभाव। तिरस्कार।

परीमाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिमाण' [को०]।

परीरंभ
संज्ञा पुं० [सं० परीरम्भ] दे० 'परिरंभ'।

परीर
संज्ञा पुं० [सं०] फल [को०]।

परीरणा
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्र। परिधान। कपड़ा। २. कच्छप। कछुआ। ३. छड़ी। डंडा [को०]।

परीरू
वि० [फा० परी + रू (=मुख)] अति सुंदर। बहुत रूपवान्। खूबसूरत। उ०—मत तसब्बुर करो मुझ दिल को कि हरजाई है। चमन हुस्ने परीरू का तमाशाई है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६।

परीवर्त्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवर्त्त'।

परीवाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवाद'।

परीवाप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवाप' [को०]।

परीवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड्गकोष। म्यान। २. परिवार। परिजन। ३. छत्र, चँवर आदि समाग्री।

परीवाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिवाह'।

परीशान
वि० [फा०] परेशान। हैरान। उ०—हैरान परीशान, तंग और तबाह न कर।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३१।

परीशानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] परेशानी।

परीशेष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिशेष' [को०]।

परीषह
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रों के अनुसार त्याग या सहन। विशेष—ये नीचे लिखे २२ प्रकार के हैं,—(१) क्षुधापरीषह् या क्षुत्परीषह। (२) पिपासापरीषह। (३) शीतपरीषह। (४) उष्णपरीषह। (५) दंशमशकपरीषह। (६) अचेल- परीषह या चेलपरीषह। (७) अरतिपरीषह। (८) स्त्रीपरीषह। (९) चर्यापरीषह। (१०) निषद्यापरीषह या नैषधिका परीषह। (११) शय्यापरीषह। (१२) आक्रोशप- रीषह। (१३) वधपरीषह। (१४) याचना परीषह वा यांचापरीषह। (१५) अलाभपरीषह। (१६) रोगपरीषह। (१७) तृणपरीषह। (१८) मलपरीषह। (१९) सत्कारप- रीषह। (२०) प्रज्ञापरीषह। (२१) अज्ञानपरीषह। (२२) दर्शनपरीषह या संपक्तपरीषह।

परीष्ट
वि० [सं०] इच्छित। जिसकी कामना हो। ईप्सित [को०]।

परिष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खोज। अन्वेषण। २. सेवा। परिचर्या। ३. इज्जत। आदर। ४. इच्छुक होने का भाव। चाह [को०]।

परीसर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिसर्या' [को०]।

परीसार
संज्ञा पुं० [सं०] परिसरण करना। घूमना। परिसार [को०]।

परीसना † (१)
क्रि० स० [सं० स्पर्शन] स्पर्श करना। छुना। परसना। उ०—ताहि दौरे जात पाय लियो है सबनि सूधो मधुर त्रिभंगी जौ लौं कृपा न परीसई।—घनानंद, पृ० १९५।

परीसना पु (२)
क्रि० स० [सं० परिवेषण] दे० 'परोसना'। उ०— तुमही जु दीसि परी सोई देखौ पनहिं न खीसत हौ। आनँदघन पिय न्यौति पपीहनि प्यास परीसत हौ।— घनानंद, पृ० ४९१।

परीहार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिहार'।

परीहास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिहास'।

परु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत। पहाड़। २. समुद्र। ३. स्वर्गलोक। ४. ग्रंथि। गाँठ।

परु पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० परुत् (= गत वर्ष) या हिं० पर] १. परसाल। गतवर्ष। उ०—परु की कसरि काढ़ि सब नींकें लेऊँ भावतो दाव चाव सो अब मैं यह जिय ठानी।—घनानंद, पृ० ३९३। २. आगामी वर्ष।

परु (३)
संज्ञा पुं० [सं० परुस्, परुष्] १. शरीर का कोई अंग या अवयव। २. ग्रंथि। गाँठ। पोर [को०]।

परुआ ‡ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बेइज्जती या अपमान का बदला।

परुआ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पड़िया'।

परुआ (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भूमि (बुंदेलखंड)।

परुआ † (४)
वि० [हिं० पड़ना (=गिरना)] १. पड़ जानेवाला। गिर जानेवाला। कामचोर। जैसे, बैल आदि। २. पड़ा हुई। गिरा हुआ। जैसे, द्रव्य।

परुई
संज्ञा स्त्री० [देश०] भड़भू जे की वह नाँद जिसमें डालकर वह अन्न भूनता है।

परुख पु
वि० [सं० परुष] दे० 'परुष'।

परुखाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० परुख + आई (प्रत्य०)] परुषता। कठोरता। कर्कशता। कड़ापन। नीरसता।

परुत्
क्रि० वि० [सं०] बाते साल में। परसाल [को०]।

परुत्न
वि० [सं०] गत वर्ष का। बीते साल का [को०]।

परुद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] अश्व। घोटक। घोड़ा [को०]।

परुष (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० परुषा] १. कठोर। कड़ा। कर्कश। सख्त। अत्यंत रूखा या रसहीन। २. अप्रिय लगनेवाला। बुरा लगनेवाला। जिसका ग्रहण दुःखदायक हो (शब्द, वचन, उक्ति या इनके पर्यायों के साथ)। ३. निष्ठुर। निर्दय। न पिघलनेवाला। ४. तीव्र। तीखा। उग्र। तीक्ष्ण। जैसे, वायु (को०)। मलिन। पंकिल। गंदा (को०)। ६. पीन। पीवर। स्थूल (को०)। ७. धब्बेदार। चितकबरा (को०)।

परुष (२)
संज्ञा पुं० १ नीली कटसरैया। २. फालसा। ३. खरदूषण का एक सेनापति। ४. तीर। बाण। ५. सरकंडा। सरपत। ६. परुष वचन। कठोर बात। लगनेवाली या अप्रिय बात।यौ०—परुषवचन = कठोर, अप्रिय या कटु लगनेवाली बात। परुषात्तर, परुषाक्षेप = किसी मत या वाद के खंडन में कठोर- कटु शब्दों का प्रयोग। परुषेतर। परुषोक्ति = दे० 'परुष- वचन'।

परुषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठोरता। कड़ाई। कर्कशता। २. (वचन या शब्द की) कर्कशता। श्रुशिकटुता। निर्दयता। निष्ठुरता।

परुषत्व
संज्ञा पुं० [सं०] परुषता।

परुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काव्य में वह वृत्ति, रीति या शब्दयोजना की प्रणाली जिसमें टवर्गीय द्वित्व, संयुक्त, रेफ और श, ष आदि वर्ण तथा लंबे समास अधिक आए हों। जैसे,— (क) वक्र वक्तृ करि, पुच्छ करि रुष्ट ऋच्छ कपि गुच्छ। सुभट ठट्ट घन घट्ठ सम मर्दहिं रचछन तुच्छ। (ख) मुंड कटत, कहुँ रुंड नटत कहुँ सुंड पटत घन। गिद्ध लसत कहुँ सिद्ध हँसत सुख वृद्धि रसत मन। भूत फिरत करि बूत भिरत, सुर दूत विरत तहँ। चंडि नचत गन मंडि रतन धुनि डंडि मचत जँह। इमि ठानि घोर घमसान अति 'भूषण' तेज कियो अटल। सिवराज साहि सुव खग्गबल दलि अडोल बहलोल दल। विशेष—वीर, रौद्र और भयानक रसों की कविता इस वृत्ति में अच्छी बनती हैं, अर्थात् इस वृत्ति में इन रसों की कविता करने से रस का अच्छा परिपाक होता है। २. रावी नदी। ३. फालसा।

परुषाक्षर
वि० [सं०] १. जिसमें रूखे, या कड़े शब्दों का व्यवहार हो। २. कड़े शब्दों का व्यवहार करनेवाला। कटु एवं अप्रिय शब्द बोलनावाला [को०]।

परुषित
वि० [सं०] कठोरतायुक्त। मृदुतारहित [को०]।

परुषिमा
संज्ञा पुं० [सं० परुषिमन्] रक्षता या कठोरता की स्थिति या प्रादुर्भाव [को०]।

परुषोक्तिक
वि० [सं०] कटुवादी [को०]।

परुषेतर
वि० [सं०] कठोर से भिन्न। जिसमें कर्कशता न हो। मृदु। कोमल [को०]।

परुष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रावी नदी का वैदिककालीन नाम। उ०—मंत्रों में पंजाब की पाँचों नदियों का उल्लेख बार बार किया है—वितस्ता अर्थात् झेलम, असिक्नी अर्थात् चिनाब, परुष्णी अर्थात् रावी, वियाश अर्थात् व्यास और शुतुद्री अर्थात् सतलज।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३१।

परुस पु
संज्ञा पुं० [सं० पुरुष] दे० 'पुरुष। उ०—नर नारी सब चेतियो दीन्हो प्रगट दिखाय। पर तिरिया पर परुस हो भोग नरक को जाय।—चरण० बानी, पृ० २९।

परुसना पु
क्रि० स० [हिं० परोसना] दे० 'परोसना'। उ०— (क) तुम्ह परुसहु मोहिं जान न कोई।—मानस, १। १६८। (ख) परुसन जबहि लाग महिपाला।—मानस, १। १७३।

परुसा †
संज्ञा पुं० [हिं० परोसा] दे० 'परोसा'। उ०—अपने परुसा लेइ पित्र को छोड़ै पानी। करै पित्र से भूत, बड़ी, मूरख अज्ञानी।— पलटू०, भा० १, ८६।

परूँगा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का शाहबलूत जो हिमालय पर होता है।

परूष
संज्ञा पुं० [सं०] फालसा।

परूसक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परूष'।

परे
अव्य० [सं० पर] १. दूर। उस ओर। उधर। २. अतीत। बाहर। अलग। जैसे,— ब्रह्म जगत् से परे है। क्रि० प्र०—करना।—रहना।—होना। ३. ऊपर। ऊँचे। बढ़कर। उत्तर। ४. बाद। पीछे। मुहा०— परे परे करना = दूर हटाना। हट जाने के लिये कहना। परे बैठाना = मात करना। बाजी लेना। तुच्छ या छोटा साबित करना। जैसे,—उसने ऐसा भोजन पकाया कि रसीइए की भी परे बिठा दिया।

परेई
संज्ञा स्त्री० [हिं० परेवा] १. पंड़ुकी। फाखता। डौकी।— उ०— पट पाँखे भख काँकरे, सदा परेई संग। सुखी परेवा जगत में तूही एक बिहंग।— बिहारी (शब्द०)। २. मादा कबूतर। कबूतरी।

परेखना
क्रि० सं० [सं० परिषण या प्रेक्षण] १. सब ओर या सब पहलुओं से देखना। परखना। जाँवना। परीक्षा करना। २. प्रतीक्षा करना। आसरा देखना। उ०— तब लगि मोहिं परे- खहु भाई।—तुलसी (शब्द०)।

परेखा पु
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षा] १. परीक्षा। जाँच। २. विश्वास। प्रतीति। उ०— (क) समुझि सो प्रीति कि रिति श्याम की सोइ बावर जो परेखो उर आनै।—तुलसी (शब्द०)। (ख) दूत हाथ उन लिखि जो पठयो ज्ञान कह्यो गीता को। तिनको कहा परेखो कीजै कुबिजा को मीता को।— सूर (शब्द०)। ३. पछतावा। अफसोस। खेद। विषाद। उ०— (क) दृग रिझवार न हिय रहै, यहै परेखो एक। वारन को मन एक इत उत है अदा अनेक।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) इतनो परेखो समरथ सब भाँति आजु कपिराज साँची कही को तिलोक तोसी है।— तुलसी (शब्द०)। (ग) अरे परेखो को करै तुही बिलोकि विचार। केहि नर केहि सर राखियो खरे बढ़े पर पार।—बिहारी (शब्द०)।

परेग
संज्ञा स्त्री० [अं० पेग] लोहे की कील। छोटा काँटा।

परेट
संज्ञा पुं० [अं० परेड] दे० 'परेड'।

परेड
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह मैदान जहाँ सैनिकों को युद्धशिक्षा दी जाती है। २. सैनिक शिक्षा। कवायद। युद्धशिक्षा का अभ्यास।

परेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक भूत योनि का नाम। २. प्रेत। ३. मुरदा। मृतक।

परेतकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] मृतप्राय [को०]।

परेतकाल
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु का समय। मृत्युकाल [को०]।

परेतभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्मशान। मरघट [को०]।

परेतभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० परेतभर्तृ] यम [को०]।

परेतराज
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज [को०]।

परेतवास
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट [को०]।

परेता
संज्ञा पुं० [सं० परितः(= चारो ओर)] १. जुलाहों का एक औजार जिसपर वे सूत लपेटते हैं। २. पतंग की डोर लपेटने का बेलन जो वाँस की गोल और पतली चिपटी तीलियों से बनता है। विशेष— इसके बीची बीच एक लंबी और कुछ मोटी बाँस की छड़ होती है जिसके दोनों किनारों पर गोल चक्कर होते हैं। इन चक्करों के बीच पतली पतली तीलियों का ढाँचा होता है। इसी ढाँचे पर डोरी लपेटी जाती है। परेता दो प्रकार का होता है। एक का ढाँचा सादा और खुला होता है और दूसरे का ढाँचा पतली चिपटी तीलियों से ढँका रहता है। पहले को चरखी और दूसरे को परेता कहते हैं।

परेद्यवि
अव्य० [सं०] दे० 'परेद्यु'।

परेद्यु
अव्य० [सं० परेद्युस्] दूसरे दिन। आनेवाला दिन। कल का दिन [को०]।

परेम †
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम] दे० 'प्रेम'। उ०— मुहमद मद जो परेम था किएँ दीप तेहि राख। सीस न देइ पतंग होइ तब लग जाइ न चाखि।— जायसी ग्रं० (गुप्त)० पृ० २२५।

परेर †
संज्ञा पुं० [सं० पर (= दूर, ऊँचा)+ पर] आकाश। आस- मान। उ— (क) सूर ज्यों सुमेर को, नक्षत्र घ्रुव फेर को, ज्यों पारद परेर को ज्यौं सागर मयंक को। (शब्द०) कागा कर कंगन चूथि रे उड़ि रे परेरो जाया। मैं दुख दाधी बिरह की तू दाधा माँस न खाय।— कबीर (शब्द०)।

परेरा
संज्ञा पुं० [हि० फरहरा] छोटी झंड़ी जो किसी किसी जहाज के मस्तूल के सिरे पर लगी रहती है। फरेरा। फर- हरा। (लश०)।

परेली
संज्ञा पुं० [?] तांड़व नृत्य का प्रथम भेद, जिसमें अंगसंचालन अधिक और अभिनय थोड़ा होता है। इसका एक नाम देसी भी है।

परेवा
संज्ञा पुं० [सं० पारावत] [स्त्री० परेई] १. पंड़ुक पक्षी। पेड़की। फाखता। २. कबूतर। उ०—हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तोहिं पठयो कौन परेवा।—जायसी (शब्द०)। ३. कोई तेज उड़नेवाला पक्षी। ४. तेज चलनेवाला पत्रवाहक। दूत। चिट्ठीरसाँ। हरकारा।

परेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। उ०— परमानंद परेश पुराना।—तुलसी (शब्द०)। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा।

परेशान
वि० [फा०] [संज्ञा परेशानी] दुःख या संताप के कारण व्यग्र। व्याकुल। उद्विग्न।

परेशानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] व्याकुलता। उद्विग्नता। व्यग्रता। बहुत अधिक घबराहट। हैरानी।

परेष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा का नाम [को०]।

परेष्टुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो कई बार व्याई हो [को०]

परेस
संज्ञा पुं० [सं० परेश] दे० 'परेश'।

परेह
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की कढ़ी जो बेसन को खूब पतला घोलकर और घी या तेल में पकाकार बनाई जाती है।

परेहा †
संज्ञा पुं० [देश०] वह जमीन जो हल चलाने के बाद सीची गई हो।

परैधित (१)
वि० [सं०] अन्य द्वारा पालित। दूसरे के द्वारा पोषित [को०]।

परैधित (२)
संज्ञा पुं० १. सेवक। नौकर। २. कोयल। कोकिल [को०]।

परैना
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पैना'।

परों पु †
क्रि० वि० [सं० परेश्वः] दे० 'परसों'। उ०— काल्हि परों फिर साजनी स्यान् सु आजु तौ नैन सो नैन मिलाय ले।—पद्माकर (शब्द०)।

परोक्त दोष
संज्ञा पुं० [सं०] अदालत के सामने ठीक रीति से बयान न करने का अपराध। विशेष—जो प्रकरण में आई हुई बात छोड़कर दूसरी बात कहने लगे, पहले कुछ कहे पीछे कुछ, प्रश्न किए जाने पर उत्तर न दे या दूसरे से पूछने को कहे, प्रश्न कुछ किया जाय और उत्तर कुछ दे, पहसे कोई बात कहकर फिर निकल जाय, साथियों के द्वारा कही बात स्वीकार न करे तथा अनुचित स्थान में साथियों के साथ कानाफूसी करे, वह इस अपराध का दोषी कहा गया है।

परोक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुपस्थित। अभाव। गैर हाजिरी। उ०— सब सह सकता है, परोक्ष ही कभी नहीं सह सकता प्रम।—पंचवटी पृ० १०। २. वह जो तीनों काल की बातें जानता हो। परम ज्ञानी। ३. व्याकरण में पूर्ण भूतकाल।

परोक्ष (२)
वि० [सं०] १. जो देख न पड़े। जो प्रत्यक्ष न हो। जो सामने न हो। २. गुप्त। छिपा हुआ। ३. गैरहाजिर। अनुपस्थित। यौ०— परोक्ष बुद्धि। परोक्ष भोग। परोक्ष वृत्ति।

परोक्षत्व
संज्ञा पुं० [सं०] अदृश्य होने की क्रिया या भाव। परोक्ष में हेने की क्रिया या भाव।

परोक्षभोग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु का उपभोग जो उसके स्वामी की अनुपस्थिति में किया जाया [को०]।

परोक्षवाद
संज्ञा पुं० [सं०] परोक्ष सत्ता के प्रति विश्वास का सिद्धांत। मनुष्य की स्मृति और मन के पीछे छिपी हुई किसी महास्मृति या महामन को माननेवाला मत जिसके अनुसार काव्य का लक्ष्य जगत् और जीवन से अलग हो जाता हौ। (अं० ऑकल्टिज्म)।

परोक्षवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्ञात जीवन। अप्रसिद्ध या गूढ़ जीवन [को०]।

परोख †
वि० [सं० परोक्ष, प्रा०, परोक्ख] दे० 'परोक्ष'। उ०— साजनि की कहब कान्ह परोख। बोलि न करिअ बड़ा का दोख।— विद्यापति, पृ० २९२।

परोछ पु
अव्य० [सं० परोक्ष] दे० 'परोक्ष'। उ०— पीतम बिहारी प्यारी पेखे में परोछ दोऊ, प्रिति नाहिं जाहिर उजागा छये छये।—नट०, पृ० ६७।

परोजन †
संज्ञा पुं० [सं० प्रयोजन] दे० 'प्रयोजन'। यौ०—काम परोजन = मंगल कार्य। उत्सव।

परोटी †
संज्ञा स्त्री० [सं० परावर्तित या देश०] परावर्तित करने की चेष्टा। समझाना। उ०— मोटा वाली धीरज मोटी, खावँद ! किध इती तै खोटी। पैली अंगद कीध परोटी, ताण पछै किय तेह।—रघु० रू०, पृ० २११।

परोढा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्य की विवाहिता स्त्री [को०]।

परोता (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का टोकरा जो गेहूँ के पयाल से पंजाब के हजारा जिले में बहुत बनता है। २. आटा, गुड़, हल्दी, पान आदि जो किसी शुभ कार्य में हजाम, भाट आदि को दिए जाते हैं।

परोता (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रपौत्र] दे० 'पड़पोता'।

परोत्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे की वृद्धि। पर वा अन्य की बढती [को०]।

परोद्वह
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल [को०]।

परोना
क्रि० सं० [हिं० पिरोना] दे० 'पिरोना'।

परोपकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह काम जिससे दूसरों का भला हो। वह उपकार जो दूसरों के साथ किया जाय। दूसरों के हित का काम।

परोपकारक
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों की भलाई करनेवाला। वह जो दूसरों का हित करे।

परोपकारी
संज्ञा पुं० [सं० परोपकारिन्] [वि० स्त्री० परोपकरिणी] दूसरों की भलाई करनेवाला। औरों का हित करनेवाला।

परोपकृत
वि० [सं०] दूसरे का भला करनेवाला। जो दूसरे की भलाई करे।

परोपदेश
संज्ञा पुं० [सं०] पर उपदेश। दूसरे को समझाना [को०]।

परोपसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] अन्य के पास जाना। भिक्षाटन। भीख माँगना [को०]।

परोमात्र
वि० [सं०] अति विशाल। विस्तृत [को०]।

परोरजस्
वि० [सं०] शुद्ध। अन्य से निर्लिप्त या रहित [को०]।

परोरना ‡
क्रि० सं० [?] अभिमंत्रित करना। मंत्र पढ़कर फूँकना। जेसे,—पानी परोरकर पिलाने से शीघ्र ही गर्भमोचन होता है।

परोरा
संज्ञा पुं० [सं० पटोल] दे० 'परवल'।

परोल
संज्ञा पुं० [अं० पैरोल] वह संकेत का शब्द जिसे सेना का अफसर अपने सिपाहियों को बतला देता है और जिसके बोलने से चौकी या पहरे पर के सिपाही बोलनेवाले को अपने दल का समझकर आने या जाने से नहीं रोकते। मुहा०— परोल मिलाना = भेदिया बनाना। अपनी तरफ मिलाना।

परोलक्ष
वि० [सं०] लाख से अधिक। लक्षाधिक।

परोवर
क्रि० वि० [सं०] १. ऊपर से नीचे तक। २. हाथोहाथ। एक हाथ से दूसरे हाथ में। ३. परंपरया। लगातार [को०]।

परोबरीण
वि० [सं०] श्रेष्ठ तथा साधारण से युक्त। अच्छा बुरा [को०]।

परोबरीयसू
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। परमात्मा। २. परमा- नंद [को०]।

परोष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेलचट्टा नाम का कीड़ा [को०]।

परोष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तेलचट्टा नाम का कीड़ा। २. पूराणा- नुसार कश्मीर देश की एक नदी। रावी नदी का एक नाम। परुष्णी।

परोस
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ोस] दे० 'पड़ोस'। उ०—पिय मोर आएल आन परोस।— विद्यापति, पृ० ५५३।

परोसना †
क्रि० स० [सं० परिवेषण] खाने के लिये किसी के सामने तरह तरह के भोजन रखना। परसना। दे० 'परसना'।

परोसा †
संज्ञा पुं० [हिं० परोसना] एक मनुष्य के खाने भर का भोजन जो थाली या पत्तल पर लगाकर कहीं भेजा जाता है।

परोसिनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ोस] दे० 'पड़ोसिन'। उ०— तब बहू की सास को परोसिनिन कही, जो तुम्हारी बहू कौ पाँव आछौ नाहीं।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ३।

परोसी
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ोसी] दे० 'पड़ोसी'।

परोसैया
संज्ञा पुं० [हिं० परोसना + ऐया (प्रत्य०)] खाने के लिये भोजन सामने रखनेवाला। वह जो भोजन परसता हो।

परोहन
संज्ञा पुं० [सं० प्ररोहण] वह जिसपर सवार होकर यात्रा की जाय। वह जिसपर कोई सवार हो, या कोई चीज लादी जाय। जैसे, घोड़ा, बैल, रथ, गाड़ी आदि। उ०— पार परोहन तौ चलै, तुम खेवहु सिरजनहार। भवसागर मैं डूबिहै, तुम्ह बिन प्राण अधार।— दादू०, पृ०, ४७१।

परोहा †
संज्ञा पुं० [देश०] चमड़े का बड़ा थैला जिसमें किसान कुओं से पानी निकालकर खेत सोंचते हैं। पुर। मोट। चरस।

परौँ ‡
संज्ञा पुं० [हिं० परसों] दे० 'परसों'।

परौँठा †
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० परौठी] दे० 'पराँठा'।

परौका †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह भेड़ जो पूरी जवान होने पर भी बच्चा न दे। बाँझ भेड़।

परौता
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह चादर या कपड़ा जिससे अनाज बरसाते समय हवा करते हैं। इसे 'परती' भी कहते हैं। क्रि० प्र०—लेना।

परौती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ती] दे० 'पड़ती'।

परौस †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पड़ोस'। उ०— सुनि सुनि रे समरथ साहिब नँनद परौसि न राखिए। सोई, सोइ देखँ, सोई सोईमाँगै नित उठि कोसै राजा बीर।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३०।

परौसिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ोसिन] दे० 'पड़ोसिन'। उ०— औरन सों बतरावत, मों तन चितवत, चतुर परौसिन देखि देखि मुसिक्यात।—नंद ग्रं०, पृ० ३५८।

पर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बगला। २. अनुताप। परिताप। पश्चात्ताप (को०)।

पर्कटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाकर वृक्ष। प्लक्ष। २. ताजी सुपारी (को०)।

पर्कटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्कट] पर्कट बगले की मादा।

पर्कार
संज्ञा पुं० [फा० परकार] दे० 'परकार'।

पर्काल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परकार'।

पर्काला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परकाला'।

पर्गना
संज्ञा पुं० [फा० परगाना] दे० 'परगना'।

पर्चा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परचा'।

पर्चाना
क्रि० सं० [हिं० परचना] दे० 'परचाना'।

पर्चून
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पुरचून'।

पर्चूनिया
संज्ञा पुं० [हिं० पर्चून + इया (प्रत्य०)] दे० 'परचूनी'।

पर्चूनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पर्चून + ई (प्रत्य०)] दे० 'परचूनी'।

पर्छा †
संज्ञा पुं० [हिं० परछा] दे० 'परछा'।

पर्ज
संज्ञा स्त्री० [हिं० परज] दे० 'परुज'।

पर्जक पु †
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क] दे० 'पर्यक'।

पर्जनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहल्दी।

पर्जन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। २. विष्णु। ३. इंद्र। ४. सूर्य (को०)। ५. मेघगर्जन (को०)। ६० . वर्षा (को०)। ७. कश्यप ऋषि की स्त्री के एक पुत्र का नाम जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है। यौ०— पर्जन्यपत्नी = जिसका पति पर्जन्य हो। शाची। पर्जन्य- सूक्त = ऋग्वेदोक्त एक सूक्त जिसमें पर्जन्य का वर्णन है।

पर्जन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहल्दी।

पर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्ता। पत्र। यौ०— पर्णकुटी। पर्णशाला। २. तांबूल। पान। यौ०—पर्णलता। पर्णवीटीका। ३. पलास का पेड़। ४. पक्ष। पाँख। डैना। पंख (को०)। ५. बाण का पंख। तीर का पंख (को०)।

पर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जो पार्णकि गोत्र के प्रवर्तक थे।

पर्णकपूर
संज्ञा पुं० [सं० पर्णकर्पूर] पान कपूर।

पर्णकार
संज्ञा पुं० [सं०] पान बेचनेवाली एक जाति जो तंबोली या बरई कहलाती है।

पर्णकुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्णकुटी। पर्णशाला। पत्तों की झोपड़ी [को०]।

पर्णकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवल पत्तों की बनी हुई कुटी। पर्णशला।

पर्णकुटीर
संज्ञा पुं० [सं०] पत्तों की कुटिया। पर्णकुटी। उ०— पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्णकुटीर बना।—पंचवटी, पृ० ५।

पर्णाकूर्च
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जिसमें तीन दिन तक ढाक, गूलर, कमल और बेल के पत्तों का क्वाथ पीना होता है।

पर्णकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक व्रत जिसमें पहले दिन ढाक के पत्तों का, दूसरे दिन गूलर के पत्तों का, तीसरे दिन कमल के पत्तों का और चौथे दिन बेल के पत्तों का क्वाथ पीकर पांचवें दिन कुश का जल पिया जाता है। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का व्रत जो गूलर, बेल, कुश आदि के पत्ते खाकर या इनके काढे़ पीकर रहने से होता था।

पर्णखंड
संज्ञा पुं० [सं० पर्णखण्ड] १. वह वनस्पति जिसमें फूल न लगते हों। २. पत्तों का ढेर।

पर्णचीर
संज्ञा पुं० [सं०] वल्कल। वृक्ष की छाल।

पर्णचीरपट
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव [को०]।

पर्णचोरक
संज्ञा पुं० [सं०] चोरक नाम का गंधद्रव्य। भटेउर।

पर्णनर
संज्ञा पुं० [सं०] पलास के पत्तों का किसी मृत व्यक्ति का वह पुतला जो उसकी अस्थियाँ न मिलने की दशा में दाहकर्म आदि के लेये बनवाया जाता है।

पर्णभेदिनी
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं०] प्रियंगु लता [को०]।

पर्णभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। २. बकरा। छाग।

पर्णभोजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकरी [को०]।

पर्णमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पन्ना। २. एक प्रकार का अस्त्र।

पर्णमाचल, पर्णमाचाल
संज्ञा पुं० [सं०] कमरख का पेड़।

पर्णमुक्
संज्ञा पुं० [सं० पर्णमुच्] शिशिर ऋतु। पतझड़ का मौसम [को०]।

पर्णमृग
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ों पर रहनेवाले पशु। जैसे बंदर आदि।

पर्णय
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर का नाम जिसे इंद्र ने मारा था।

पर्णरुह
संज्ञा पुं० [सं० पर्णारुह्] वसंत ऋतु।

पर्णल
वि० [सं०] पत्तों से भरा हुआ। पत्तोंवाला [को०]।

पर्णलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान की बेल।

पर्णवल्क
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।

पर्णवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पलाशी नाम की लता।

पर्णवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] पत्तों का बना हुआ वाद्य या पत्तों की आवाज [को०]।

पर्णवीटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान की गिलौरी। पान का बीड़ा [को०]।

पर्णशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्तों का बिछावन। पत्तों की सेज [को०]।

पर्णशवर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक देश का नाम। २. इस देश की रहनेवाली आदिम अनार्य जाति जो कदाचित् अब नष्ट हो गई है।

पर्णशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्तों की बनी हुई कुटी। पर्णकुटी।

पर्णशालाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार भद्राश्व वर्ष के एक पर्वत का नाम।

पर्णसि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. पानी में बना हुआ घर। ३. साग। ४. बनाव सिंगार। आभरण क्रिया [को०]।

पर्णाटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।

पर्णाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी व्रत के उद्देश्य से पत्ते खाकर रहता हो। २. एक ऋषि का नाम।

पर्णाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाव। नौका। २. खनित्र। खंती। कुदाल। ३. द्वंद्व, युद्ध [को०]।

पर्णाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो।

पर्णास
संज्ञा पुं० [सं०] तुलसी।

पर्णाहार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो व्रत के उद्दश्य से पत्ते खाकर रहता हो।

पर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्ते बेचनेवाला।

पर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मानकंद। शालपर्णी। सरिवन। २. पिठवन नाम की लता। ३. अग्निमंथ। अरणी।

पर्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माषपर्णी। मषवन। २. एक अप्सरा (को०)।

पर्णिल
वि० [सं०] पत्तों से भरा हुआ। पर्णल [को०]।

पर्णी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्णिन्] १. वृक्ष। पेड़। २. शालपर्णीं। सरिवन। ३. पिठवन। ४. तेजपत्ता। ५. पलाश वृक्ष (को०)।

पर्णी (१)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की अप्सराएँ।

पर्णीर
संज्ञा पुं० [सं०] सुगंधवाला।

पर्णीटज
संज्ञा पुं० [सं०] पर्णशाला। पर्णकुटी [को०]।

पर्त
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'परत'।

पर्द
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पर्द्द' [को०]।

पर्दनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० परिधानी; या फा० परदा] धोती।

पर्दा
संज्ञा पुं० [फा० परदह्] दे० परदा'।

पर्दानशीन
वि० [हिं० पर्दा + फा० नशीन] दे० 'परदानशीन'। उ०— दिलदार है बाजार में जो पर्दानशीं है।— कबीर मं०, पृ० ४६६।

पर्द्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर के बाल। २. अधोवायु। पाद।

पर्द्दन
संज्ञा पुं० [सं०] अधोवायु छोड़ना। पादना।

पर्न ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० पण] प्रतिज्ञा। प्रण।

पर्न पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्ण] पत्ता। पर्ण। पत्र।

पर्नन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० परिशायन(= विवाह), प्रा० परिण] विवाह। उ०— पढे़न बेद बामन सब, बर कन्या के नाउँ। रहेउ पर्ननै रित्त जो, भएउ सकल तेहि ठाउँ।—इंद्रा०, पृ०, १७४।

पर्नसालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्णशालिका] पर्णशाला। पत्तों से बनाई कुटिया। उ०— निपट गहट हगन गहुबरु तरु छाँही। पर्न- सालिका जहाँ तहाँ ही।—घनानंद, पृ० २६०।

पर्निया
संज्ञा पुं० [फा० पर्नियाँ, परनियाँ] एक प्रकार का चित्रित रेशमी वस्त्र। उ०— जिसे तूने अजर जामा पिन्हाना। हवस उसको न पोशिश पर्निया पर।—कबीर मं०, पृ०, ४४४।

पर्पच †
संज्ञा पुं० [सं० प्रपञ्च, पुं० हिं० परंपंच] दे० 'प्रपंच'। उ०— तुम्हें इसमें पर्पच की गंध तो नहीं लग रही है।— नई०, पृ० १०४।

पर्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. नई घास। हरी घास। २. पंगुपीठ। पंगु के बैठने का स्थान। ३. एक प्रकार की छोटी गाड़ी जिसपर बैठकर पंगु इधर उधर जाते हैं। ४. भवन। घर [को०]।

पर्पट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पित्तपापड़ा। २. पापड़।

पर्पटद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] जलकुंभी।

पर्पटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौराष्ट्र देश की मिट्टी। गोपीचंदन। २. पानड़ी। ३. पपड़ी। ४. पर्पटी रस।

पर्पटीरस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे और गंधक को भँगरैया के रस में खरल करके और ताँबे तथा लोहे की भस्म मिलाकर बनाते हैं।

पर्परी
संज्ञा स्त्री० [सं०] केशगुच्छ। वेणी। कवरी [को०]।

पपेरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. जलाशय।

पर्परीण
संज्ञा पुं० [सं०] १. संधि। पर्व। २. पान के पत्तों के नाल का रस। ३. पान की नस। पान के पत्तों की नसें। ४. उत्तरायण में बृत द्वारा शिव का पूजन [को०]।

पर्बंध †
संज्ञा पुं० [सं० प्रबन्ध] दे० 'प्रबंध'। उ०— शादी तो होकर रहेगी......या माहुर का पर्बध करूँ कहीं से और खिला दूँ छोकरी को।—नई०, पृ० ७।

पर्ब †
संज्ञा पुं० [सं० पर्व] दे० 'पर्व'।

पर्बत
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत] दे० 'पर्वत'।

पर्बती
वि० [सं० पर्वतीय] पहाड़ी। पहाड़ संबधी।

पर्बल †
वि० [सं० प्रबल] दे० 'प्रबल'। उ०— कबीर माया पर्बल, निबल हऊँ, क्यों मन इस्थिर होय।—प्राण०, पृ० १९७।

पर्म ‡
वि० [सं० परम] दे० 'परम'। उ०— दशवें भेद पर्म धाम की बानी, साख हमारी निर्णाय ठानी।—कबीर सा०, पृ० ९३४।

पर्यक
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क] १. पलँग। २. शिविका। पालकी (को०)। ३. योग का एक आसन। ४. एक प्रकार का वीरा- सन। ५. नर्मदा नदी का उत्तर और के एक पर्वत का नाम जो विंध्य पर्वत का पुत्र माना जाता है।

पर्यकग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यक्ङग्रन्यि] अवसक्थिका। पर्यक- बंध [को०]।

पर्यकपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यङ्कपदिका] सुअरा सेम। काले रंग की सेम।

पर्यकबंध
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्कबन्ध] दे० 'अवसाक्थिका' [को०]।

पर्यकबंधन
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्कूबन्य] जंघा जानु और पीठ का वस्त्र से बाँधना [को०]।

पर्यकभोगी
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्कभोगिन्] सर्प की एक जाति। एक प्रकार का साँप [को०]।

पर्यत (१)
अव्य० [सं० पर्यन्त] तक। लौ।

पर्यत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंतिम सीमा। २. समीप। पास। ३. पार्श। बगल। यौ०— पर्यतदेश = दे० 'पर्यंतभू'। पर्यंत पर्वत = समीपस्थ पहाड़। पर्यंतभू, पर्यंतभूमि = समीम का भूभाग। पास की जमीन।

पर्यंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यन्तिका] नैतिक पतन। सदाचार- हीनता। गुणों का विनाश (को०)।

पर्यग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ के लिये छोड़े हुए पशु की अग्नि लेकर परिक्रमा करना। २. वह अग्नि जो हाथ में लेकर यज्ञ की परिक्रमा की जाती है।

पर्यटक
वि० [सं०] पर्यटन करनेवाला। भ्रमण करनेवाला। घुम- क्कड़। उ०— कल्पना। में निरवलंब, पर्यटक एक अटवी का अज्ञात, पाया किरण प्रभात।— अनामिका, पृ० ७६।

पर्यटन
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमण। घूमना फिरना।

पर्यनुयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. चारो ओर से वा सभी प्रकार से पूछना। २. उपालंभ। ३. जिज्ञास [को०]।

पर्यन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. गरजता हुआ बादल। ३. बादल की गरज।

पर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शास्त्र अथवा लोकाचारविहित। किसी नियम या क्रम का उल्लंघन। विपर्यय। गड़बड़ी। २. व्यतीत होना। बीतना। नष्ट होना (समय के लिये)। ३. विनाश। नाश (को०)।

पर्ययण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चारो ओर घूमना। परिभ्रमण। २. घोड़े की काठी। जीन [को०]।

पर्यवदात
वि० [सं०] १. विशुद्ध। निर्मल। अति स्वच्छ। उ०— इस प्रकार समाहित, परिशुद्ध, पर्यवदात, निर्मल, विगत उपक्लेश चित्त से पूर्वभव की अनुस्मृति का ज्ञान प्राप्त। किया।—हिंदु सभ्यता, पृ०, २४०। २. सुज्ञात। सुविदित। सुपरिचित (को०)।

पर्यवरोध
संज्ञा पुं० [सं०] बाधा। विघ्न।

पर्यवलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] निरीक्षण। चारों ओर देखना। उ०— पर्यवलोकन करके भुवन फिर वहीं का वहीं आ गया था।— नदी०, पृ० ४०।

पर्यवशेष
संज्ञा पुं० [सं०] समाप्ति। अंत। अवसान [को०]।

पर्यवष्टभन
संज्ञा पुं० [पर्यवष्टम्भन] घेरना। आवृत करना [को०]।

पर्यवसान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पर्य्यवसित] १. अंत। समाप्ति। खातमा। २. अंतर्भाव। अंतर्गत हो जाना। शामिल हो जाना। स्वतंत्र सत्ता का न रहना। ३. रोग। क्रोध। ४. ठीक ठीक अर्थ निश्चित करना।

पर्यवसित
वि० [सं०] १. समाप्त। खत्म। उ०— सेवा ही नहीं चूड़ीवाली ! उसमें विलास का अनंत यौवन है, क्योंकि केवल स्त्री पुरुष के शरीरिक बंधन में वह पर्यवसित नहीं हैं।—आकाश०, पृ० १२२। २३. निर्णीत। निश्चित (को०)। २. ध्वस्त। नष्ट [को०]।

पर्यवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरोध। विरोध करना। खंड़न। प्रतिवाद [को०]।

पर्यवस्थाता
संज्ञा पुं० [ सं० पर्यवस्थातृ] १. प्रतिवादी। प्रतिपक्षी। २. विरोधी [को०]।

पर्यवस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिवाद। खंड़न। २. विरोध। ३. अच्छी अवस्थिति। सर्वतोभावेन अवस्थान [को०]।

पर्यवेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर्दिक् देखना। समीक्षण। अवलोकन। उ०— शेक्सपीयर को इसका पता भी न था, छपाई के पर्य- वेक्षण की तो बात ही क्या।— पा० सा० सि०, पृ० १२।

पर्युश्र
वि० [सं०] आँसू से पूर्ण। अश्रुपूर्ण। आँसुओं से नहाया हुआ [को०]। यौ०— पर्यश्रुनयन, पर्यश्रुनेत्र = आँसू भरी आँखवाला। जिसकी आँखें आँसू भरी हों।

पर्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकालना। २. फेंकन। क्षेपण। ३. दूर करना (को०)।

पर्यस्त
वि० [सं०] १. बाहर किया हुआ। २. दूरीकृत। ३. चारो ओर फैला हुआ। विस्तृत। ४. फेंका हुआ। क्षिप्त। ५. मारा हुआ। हत [को०]।

पर्यस्तापह्नुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अर्थलंकार जिसमें वस्तु का गुण गोपन करके उस गुण का किसी दूसरे में आरोपित किया जाना वर्णन किया जाय। जैसे,— नहीं शक्र सुरपति अहै सुरपति नंदकुमार। रतनाकर सागर न है, मथुरा नगर बाजार। दे० 'अपह्नुति'।

पर्यस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वीरासन में बैठना। २. फेंकना [को०]।

पर्यस्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वीरासन। २. पर्यक। पलँग।

पर्याकुल
वि० [ सं०] १. बहुत आधिक व्याकुल। बहुत घबराया हुआ। २. भरा हुआ। पूरित। जैसे, अश्रुपर्याकुल (को०)। ३. अव्यवास्थित। बेतरतीब (को०)। ४. उत्तेजित (को०)। ५. पंकिल। मलिन। आविल। यथा, जल (को०)।

पर्याकुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्याकुल होने का भा। व्याकुलता। व्यग्रता [को०]।

पर्याकुलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पर्याकुलता' [को०]।

पर्यागत
वि० [सं०] जिसका सांसारिक महात्व या जीवन खत्म हो चुका हो। जो अपना चक्कर पूर्ण कर चुका हो [को०]।

पर्याचांत
संज्ञा पुं० [सं० पर्याचान्त] भोजन के समय पत्तलों आदि पर रखा हुआ भोजन जो एक पंक्ति में बैठकर खानेवालों में सेकिसी एक व्यक्ति के बीच में ही आचमन कर लेने अथवा उठ खड़े बोने के बाद बच रहता है। विशेष— ऐसा अन्न जूठा और दूषित समझा जाता है और खाने योग्य नहीं माना जाता।

पर्याण
स्त्री० पुं० [सं०] घोड़े की पीठ पर का पलान।

पर्याप्त (१)
वि० [ सं०] १. पूरा। काफी। यथेष्ट। २. प्राप्त। मिला हुआ। ३. जिसमें शक्ति हो। शक्तिसंपन्न। ४. जिसमें सामर्थ्य हो। समर्थ। ५. परिमित। ६. समग्र। पूर्ण (को०)। ७. उचित। योग्य। लायक (को०)। ८. समाप्त। अवसित (को०)। ९. विस्तीर्ण। विस्तृत [को०]।

पर्याप्त (२)
संज्ञा पुं० १. तृप्ति। संतोष। २. शक्ति। ३. सामर्थ्य। ४. योग्यता। ५. यथेष्ट होने का भाव। प्रचुरता।

पर्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंत। समाप्ति। २. प्राप्ति। तृप्ति। संतुष्टि। संतोष। ३. गुणानुसार वस्तुओं का भेद। ४. निवारण। ५. रक्षा। ६. इच्छा। ७. योग्यता। क्षमता। ८. यथेष्टता। प्रचुरता (को०)।

पर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] १. समानार्थवाची शब्द। समानार्थक शब्द। जैसे, 'इंद्र' का पर्याय' पाकशासन' और 'विष' का पर्याय 'हलाहल'। २. क्रम। सिलसिला। परंपर। ३. वह अर्था- लंकार जिसमें एक वस्तु का क्रम से अनेक आश्रय लेना वर्णित हो या अनेक वस्तुओं का एक ही एक ही के आश्रित होने का वर्णन हो। जैसे,— (क) हालाहल तोहिं नित नए, किन सिखए ये ऐन। हिय अंबुधि हरगर लग्यो, बसत अबै खल बैन। (ख) हुती देह में लरिकई, बहुरि तरुणई जोर। बिरधाई आई अबौं भजन न नंदकिशोर। ४. प्रकार। तरह। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने का काम। निर्माण। ७. द्रव्य का धर्म। ८. दो व्यक्तियों का वह पारस्परिक संबंध जो दोनों के एक ही कुल में उत्पन्न होने के कारण होता है। यौ०— पर्यायक्रम। पर्यायच्युत = क्रम से भग्न। स्थान से च्युत। पर्यायवचन = समान अर्थबोधक शब्द। पर्यायवाचक, पर्यायवाची = समानार्थक। तुल्यार्थक। पर्यायशब्द = दे० 'पर्यायवचन'। पर्यायशयन। पर्यायसेवा।

पर्यायक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. मान या पद आदि के विचार से क्रम। बड़ाई छोटाई आदि के विचार से सिलसिला। २. क्रम से बढ़ती। उत्तरोत्तर वृद्धि का विधान।

पर्यायवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक को त्यागकर दूसरे को ग्रहण करने की वृत्ति। एक को छोड़कर दूसरे को ग्रहण करना।

पर्यायशः
क्रि० वि० [सं०] १. समय समय पर। नियत समय पर। २. क्रमानुसार। क्रमशः। यथाक्रम [को०]।

पर्यायशयन
संज्ञा पुं० [सं०] पहरेदारों आदि का क्रम से अपनी अपनी बारी से सोना।

पर्यायसेवा
संज्ञा पुं० [सं०] क्रम से की जानेवाली सेवा [को०]।

पर्यायान्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पर्याचांत'।

पर्यायिक
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत या नृत्य का एक अंग।

पर्यायोक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक शब्दालंकार। दे०'पर्यायोक्ति' [को०]।

पर्यायोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह शब्दालंकार जिसमें कोई बात साफ साफ न कहकर कुछ दूसरी वचनरचना या घुमाव फिराव से कही जाय, अथवा जिसमें किसी रमणीय मिस या व्याज से कार्यसाधन किए जाने का वर्णन हो। जैसे, (क) लोभ लगे हरि रूप के करी साँट जुरि जाय। हौं इन बेची बीचही लोयन बुरी बलाय।— बिहारी (शब्द०)। यहाँ यह न कहकर कि मैं कृष्ण के प्रेम से फाँसी हूँ यह कहा गया है कि इन आँखों ने मुझे कृष्ण के हाथ बेच दिया। (ख) भ्रमर कोकिल मान रसाल पै, करत मंजुल शब्द रसाल हैं। बन प्रभा वह देखन जात हौं, तुम दोऊ तब लौं इन ही रहौ। यहाँ नायक और नायिका को अवसर देने के लिये सखी बहाने से टल जाती है।

पर्यारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोग्रस्त गाय। वह गौ जो व्याधिग्रस्त हो [को०]।

पर्याली
अव्य० [सं०] हिंसन। हिंसा [को०]। विशेष— संस्कृत की कृ, भू और अस् धातु के साथ यह व्यवहृत होती है। जैसे, पर्याली कृत्य अर्थात् हिंसा करके।

पर्यालोचन
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी तरह देखभाल। समीक्षा। सम्यक् विवेचन।

पर्यालोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वस्तु की पूरी देखभाल। समीक्षा। पूरी जाँच पड़ताल।

पर्यालोचित
वि० [सं०] जिसका पर्यालोचन किया गया हो। विवेचित। समीक्षित [को०]।

पर्यावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. आना। लौटना। वापस आना। २. संसार में विचारपूर्वक जन्मग्रहण। संसार में फिर से आकार जनमना।

पर्यावर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम। २. दे० 'पर्यावर्त' [को०]।

पर्यावलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्ण रूप से निरीक्ष। अच्छी तरह से देखना भालना। पूर्णतः समझना या जानना। उ०— अकबर ने तत्कालीन परिस्थितियों का भली प्रकार पर्याव- लोकन कर लिया था।— अकबरी०, पृ० १२।

पर्याविल
वि० [सं०] अत्यंत आविल। गँदला। कीचड़ा भरा [को०]।

पर्यावृत
वि० [सं०] आच्छादित। ढँका हुआ [को०]।

पर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतन। गिरना। २. मार डालना। वध। ३. नाश। ४. चारो ओर घूमना। चक्कर देना। परिक्रमण (को०)। ५. विपरीत क्रम। विपरीत स्थिति (को०)।

पर्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी को घेरकर बैठना। चारो ओर बैठना। २. चारो ओर घूमना। परिक्रमा करना। दे० 'पर्यास'। ३. नाश। ध्वंस (को०)।

पर्याहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. घट। घड़ा। २. काँवर। बहँगी। जूआ। ३. वहृन करना। ढोना। ४. बोझा। भार। ५. अन्न- संग्रह [को०]।

पर्युक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध, होम या पूजा आदि के समय यों ही अथवा कोई मंत्र पढ़कर चारो ओर जल छिड़कना।

पर्युक्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पात्र जिससे पर्युक्षण का जल छिड़का जाय।

पर्युत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] उठाना। उत्थान। खड़ा होना [को०]।

पर्युत्सुक
वि० [सं०] १. व्याकुल। उद्विग्न। २. दुःखयुत्क। दुःखी। खिन्न। ३. बहुत उत्सुक। अत्यंत उत्कंठित [को०]।

पर्युत्सुकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पर्युत्सुक होने का भाव। दुःख [को०]।

पर्युदंचन
संज्ञा पुं० [सं० पर्युदञ्चन] १. उद्धार। युक्ति। २. कर्ज। ऋण [को०]।

पर्युदय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्योंदय समीप होने का समय।

पर्युदस्त
वि० [सं०] १. निषिद्ध। २. चारो ओर फेंका हुआ। ३. अलग किया हुआ [को०]।

पर्युदास
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपवाद। २. निषेध [को०]।

पर्युपस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सेवा। अर्चा। सुश्रूषा। टहल [को०]।

पर्युपासक
संज्ञा पुं० [सं०] पर्युपासन करनेवाल। सेवा करनेवाला। उपासक। सेवक।

पर्युपासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवा। उपासना। अर्चना। २. प्रतिमुख संधि के तेरह अंगों में से एक। किसी को क्रुद्ध देखकर उसे प्रसन्न करने के लिये अनुनय विनय करना। (नाटयशास्त्र)।

पर्युषण
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों की सेवा या पूजा।

पर्युषित
वि० [सं०] १. एक दिन पहले का। जो ताजा न हो। बासी (फूल या भोजन के लिये)। २. नीरस। विरस (को०)। ३. मूर्ख। अज। मृढ़ (को०)। ४. व्यर्थ। निरर्थक। निःसार (को०)। यौ०— पर्युषितभोजी = पर्युषित भोजन करनेवाला। बासी या नीरस अन्न खानेवाला। पर्युषितवाक्य = शब्द या वाक्य जो अनियत या शिथिल हो।

पर्यूहण
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि के चारो ओर जल का मार्जन [को०]।

पर्येषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्वेषण। छानबीन। खोज। २. उपा- सना। सेवा। पूजा (को०)। ३. वर्षाकल व्यतीत करना। वर्षऋतु बिताना (बौद्ध)।

पर्येष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्वेषण। खोज। तलाश। पूछताछ [को०]।

पर्व
संज्ञा [सं० पर्वन्] १. धर्म, पुण्यकार्य अथवा उत्सव आदि करने का समय पुण्यकाल। विशेष— पुराणनुसार चतुर्दशी, अष्टमी, आमावास्या, पूर्णिमा और संक्रांति ये सब पर्व हैं। पर्व के दिन स्त्रीप्रसंग करना अथवा मांस, मछली आदि खाना निषिद्ध है। जो ये सब काम करता है, कहते हैं, वह विसमूत्रभोजन नामक नरक में जाता है। पर्व के दिन उपवास, नदीस्नान, श्राद्घ, दान और जप आदि करना चाहिए। २. चातुर्मास्य। ३. प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा अथवा आमावास्या तक का समय। पक्ष। ४. दिन। ५. क्षण। ६. अवसर। मौका। ७. उत्सव। ८. संधिस्थान। वह स्थान जहाँ दो चीजें, विशेषतः दो अंग जुड़े हों। जैसे, कुहनी अथवा गन्ने में की गाँठ। ९. यज्ञ आदि के समय होनेवाला उत्सव अथवा कार्य। १० अंश। खंड। भाग। टुकड़ा। हिस्सा। जैसे, महाभारत के अठारह पर्व, उँगली के पर्व (पोर) आदि। ११. सूर्य अथवा चंद्रमा का ग्रहण।

पर्वक
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का घुटना।

पर्वकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो धन के लोभ से पर्व के दिन का काम और दिनों में करे। धनार्थ अन्य वेश घारण करनेवाला। वेशांतरधारी।

पर्वकारी
संज्ञा पुं० [सं० पर्वकारिन्] दे० 'पर्वकार'।

पर्वकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्व का समय। वह समय जब कोई पर्व हो। पुण्यकाल। २. चंद्रमा के क्षय का समय। जैसे, अमावास्या आदि।

पर्वगामी
संज्ञा पुं० [सं० पर्वगामिन्] वह जो किसी पर्व के दिन स्त्री के साथ भोग करे। ऐसा मनुष्य नरक का अधिकारी होता है।

पर्वण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूरा करने की क्रिया भाव। २. एक राक्षस का नाम।

पर्वणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्वणी नाम का आँख का रोग।

पर्वणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार आँख की संधि में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें आँख की संधि में जलन और कुछ सूजन होता है। २. पूर्णिमा। पौर्णमासी। ३. प्रतिपद्। परिवा। प्रतिपदा (को०)। ४. समारोह। उत्सव (को०)।

पर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमीन के ऊपर वह बहुत अधिक उठा हुआ प्राकृतिक भाग जो आस पास की जमीन से बहुत आधिक ऊँचा होता है और जो प्रायः पत्थर ही पत्थर होता है। पहाड़। विशेष— बहुत आधिक उँची सम भूमि पर्व नहीं कहलाती। पर्वत उसी को कहते हैं जो आस पास की भूमि को देखते हुए बहुत अधिक उँचा हो। कई देशों में अनेक ऐसी अधित्यकाएँ या उँची समतल भूमियाँ हैं जो दूसरे देशों पहाड़ों से कम उँची नहीं हैं, परंतु न तो वे आस पास की भूमि से ऊँची हैं और लन कोणाकार; अतः वे पर्वत के अंतर्गत नहीं हैं। साधारण पर्वतों पर प्रायः अनेक प्रकार की धातुएँ, वनस्पतियाँ और वृक्ष आदि होते हैं और बहुत ऊँचे पर्वतों का ऊपरी भाग, जिसे पर्वत की चोटी या शिखर कहते हैं, बहुधा बरफ से ढँका रहता है। कुछ पर्वत ऐसे भी होते हैं जिनपर वनस्पतियाँ तो बिलकुल नहीं या बहुत कम होती हैं परंतु जिनकी चोटी पर गड़्ढा होता है, जिसमें से सदा अथवा कभी कभी आग निकला करती है; ऐसे पर्वत ज्वालीमुखी कहलाते हैं। (दे० ' ज्वाला- मुखी पर्वत')। पर्वत प्रायः श्रेणी के रूप बहुत दूर तक गए हुए मिलते हैं।पुराणों में पर्वतों के संबंध में अनेक कथाएँ हैं। सबसे आधिक प्रसिद्ध कथा यह है कि पहले पर्वतों के पंख होते थे। अग्नि- पुराण में लिखा है कि एक बार सब पर्वत उड़कर असुरों के निवासस्थान समुद्र में पहुँचकर उपद्रव करने लगे, जिसके कारण असुरों ने देवताओं से युद्ध ठान दिया। युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत देवताओं ने पर्वतों के पर काट दिए और उन्हें यथास्थान बैठा दिया। कालिका पुराण में लिखा है कि जगत् की स्थिति के लिये विष्णु ने पर्वतों को कामरूपी बनाया था— वे जब जैसा रूप चाहते थे, तब वैसा रूप धारण कर लेते थे। पौराणिक भूगोल में अनेक पर्वतों के नाम आए हैं और उनके विस्तार आदि का भी उनमें बहुत कुछ वर्णन हैं। वराह पुराण में लिखा है कि श्रेष्ठ पर्वतों पर देवता लोग और दूसरे पर्वतों पर दानव आदि निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त किसी पर्वत पर नागों का, किसी पर सप्तार्षियों का, किसी पर ब्रह्मा का, किसी पर अग्नि का, किसी पर इंद्र का निवास माना गया है। पर्वत कहीं कहीं पृथ्वी को धारण करेवाले और कहीं कही उसके पति भी माने गए हैं। पर्या०—महीध्र। शिखरी। धर। आद्रि। गोत्र। गिरि। ग्रावा। अचल। शैल। स्थावर। पृथुशेखर। धरणीकीलक। कुट्टार जीमूत। भूधर। स्थिर। कटकी। शृंगी। अग। नग। भूभृत। अवनीधर। कुधर। धराधर। वृत्तवानू। २. पर्वत की तरह किसी चीज का लगा हुआ बहुत ऊँचा ढेर। जैसे,— देखते देखते उन्होंने पुस्तकों का पर्वत लगा दिया। ३. पुराणानुसार एक देवर्षि का नाम जिनकी नारद ऋषि के साथ बहुत मित्रता थी। ४. एक प्रकार की मछली जिसका मांस वायुनाशक, स्निग्ध, बलवर्धक और शुक्रकारक माना जाता है। ५. वृक्ष। पेड़। ६. एक प्रकार का साग। ७. दशनामी संप्रदाय के अंतर्गत एक प्रकार के संन्यासी। ऐसे संन्यासी पुराने जमाने में ध्यान और धारण करके पर्वतों के नीचे रहा करते थे। ८. महाभारत के अनुसार एक गंधर्व का नाम। ९. संभूति के गर्भ से उत्पन्न मरीचि के एक पुत्र का नाम। १० सात की संख्या का वाचक शब्द (को०)।

पर्वतकाक
संज्ञा पुं० [सं०] द्रोणकाक। डोम कौआ।

पर्वतकीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरित्री। पृथिवी [को०]।

पर्वतज
वि० [सं०] जो पर्दत से उत्पन्न हुआ हो।

पर्वतजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। गिरिजा। २. नदी (को०)।

पर्वतजाल
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ों का सिलसिला। पर्वतश्रेणी [को०]।

पर्वततृण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तृण जो पशु बड़े चाव से खाते हैं और जो पशुओं के लिये बहुत बलकारक होता है। तृणाख्य।

पर्वत दुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ी किला। विशेष— चाणक्य के मत से पर्वतदुर्ग सब दुर्गों से उत्म होता है।

पर्वतनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्वनन्दिनी] पार्वती। उ०—सुत मै न जायो राम सो यह कह्यो पर्वतनंदिनी।— केशव (शब्द०)।

पर्वतपति
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय। पर्वतराज [को०]।

पर्वतपाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्वत श्रेणी। गिरिश्रेणी। पर्वत- शृंखला। उ०—यह है अलमोड़े का वसंत खिल पड़ी निखिल पर्वतपाटी।— युगांत, पृ० ९।

पर्वतमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्वतों की शृंखला। पहाड़ों का सिलसिला जो दूर तक फैला रहता है। उ०—हिंदुस्तान के उत्तर में, उत्तरपच्छिम और उत्तरपूरब में, मध्य हिंद में और पच्छिम में तमान कोंकर और मलावार तट पर जो पर्वतमालाएँ हैं, उन्होंने सभ्यता पर एक और प्रभाव डाला है।— हिंदु० सभ्यता, पृ० १४।

पर्वतमोचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहाड़ी केला।

पर्वतराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत बड़ा पहाड़। २. हिमालय पर्वत।

पर्वतवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी जटामासी। २. काली का एक नाम। ३ . गायत्री।

पर्वतवासी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० पर्वतवासिन्] पर्वत पर रहनेवाला पर्वतीय [को०]।

पर्वतश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पर्वतमाला' [को०]।

पर्वतस्थ
वि० [सं०] पहाड़ पर स्थित [को०]।

पर्वतात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत का पुत्र। मैनाक [को०]।

पर्वतात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

पर्वताधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

पर्वतारि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र। विशेष— कहते हैं, इंद्र ने एक बार पहाड़ों के पर काट डाले थे। इसी से उनका यह नाम पड़ा। दे० 'पर्वत' शब्द का विशेष।

पर्वतारोही
वि० [सं० पर्वतारोहिन्] पहाड़ पर चढ़नेवाला। किसी कार्य से पर्वत पर चढ़नेवाला। यौ०—पर्वतारोही दल।

पर्वताशय
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।

पर्वताश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरभ नाम का एक जानवर। २. वह जो पर्वत पर रहता हो। पर्वतीय [को०]।

पर्वताश्रयी
वि० [सं० पर्वताश्रयिन्] पहाड़ पर रहनेवाला। पहाड़ी [को०]।

पर्वतासन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आसन। बैठने की एक मुद्रा [को०]।

पर्वतास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रचीन काल का एक अस्त्र जिसके फेंकते ही शत्रु की सेना पर बड़े बड़े पत्थर बरसने लगते थे, अथवाअपनी सेना के चारो ओर पहाड़ खड़े हो जाते थे। जिससे शत्रु का प्रभंजनास्त्र रुक जाता था।

पर्वति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चट्टान। पर्वत की शिला [को०]।

पर्वतिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत + हिं० इया (प्रत्य०)] नैपालियों की एक जाति।

पर्वतिया (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का कद्दू। २. एक प्रकार का तिल।

पर्वती
वि० [सं० पर्वत + ई (प्रत्य०)] १. पहाड़ी। पहाड़- संबंधी। २. पहाड़ों पर रहनेवाला। ३. पहाड़ों पर पैदा होनेवाला।

पर्वतीय
वि० [सं०] १. पहाड़ी। पहाड़ संबंधी। २. पहाड़ पर रहने या बसनेवाला। ३. पहाड़ पर पैदा होनेवाला।

पर्वतृण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तृण जो औषध के काम में आता है। तृणाढ्य।

पर्वतेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय।

पर्वतोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। २. शिंगरफ।

पर्वतोद्भूत
संज्ञा पुं० [सं०] अबरक।

पर्वतोर्भि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।

पर्वधि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

पर्वपुष्पिकी, पर्वपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती नामक क्षुप। २. रामदूता तुलसी।

पर्वपूर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी उत्सव या त्यौहार का संपन्न होना। २. उत्सव या त्यौहार की तैयारी [को०]।

पर्वभाग
संज्ञा पुं० [सं०] मणिबंध। कलाई [को०]।

पर्वभेद
संज्ञा पुं० [सं०] संधिभंग नामक रोग का एक भेद।

पर्वमूल
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर्दशी और अमावस्या तथा चतुर्दशी और पूर्णिमा का संधिकाल [को०]।

पर्वमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दूब।

पर्वयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] वह वनस्पति आदि जिसपें गाँठ हों। जैसे, ऊँख, नरसल।

पर्वर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परवल'।

पर्वरिश
संज्ञा स्त्री० [फा०] पालन पोषण। पालना पोसना।

पर्वरीण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्व। २. मृतक। मुर्दा। ३. अभिमान। घमंड़। ४. वायु (को०)। ५. दे० 'पर्परीण' (को०)।

पर्वरुह
संज्ञा पुं० [सं०] अनार।

पर्ववल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूब। दूर्वा।

पर्वसंधि
संज्ञा पुं० [सं० पर्वसन्धि] १. पूर्णिमा अथवा अमावस्या और प्रतिपदा के बीच का समय। वह समय जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या का अंत हो चुका हो और प्रतिपदा का आरंभ होता हो। २. सूर्य अथवा चंद्रमा को ग्रहण लगने का समय। वह समय जब सूर्य अथवा चंद्रमा ग्रस्त हो। ३. घुटने पर का जोड़।

पर्वा (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० परवा] १. दे० 'परवाह'।

पर्वा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा, प्रा० पड़िवा, हिं० परवा] दे० 'प्रतिपदा'।

पर्वानगी
संज्ञा पुं० [फा० परवानगी] दे० 'परवाना'।

पर्वाना
संज्ञा पुं० [फा० परवाना] दे० 'परवाना'। उ०— पान पर्वाना पाय, तौ नाम सुनावही। सतगुरु कहैं कबीर अमर सुख पावहीं।— कबीर० श०, भा० ४, पृ० ६।

पर्वावधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाँठ। ग्रंथि। जोड़। २. पर्वकाल या उसकी अवधि [को०]।

पर्वास्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] उँगलियों को चटकाना। उँगली चट- काने की ध्वनि [को०]।

पर्वाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पर्व का दिन। वह दिन जिसमें कोई पर्व हो।

पर्वाह (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० परवा] दे० 'परवाह'।

पर्विणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पर्व'।

पर्वित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।

पर्वेश
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार कालभेद से ग्रहण समय के अधिपति देवता। विशेष— बृहत्संहिता के अनुसार ब्रह्मा, चंद्र, इंद्र, कुवेर, वरुण, अग्नि और यम ये सात देवता क्रमशः छह छह महीने के ग्रहण के अधिपति देवता हुआ करते हैं। ये ह्वी सातो देवता 'पर्वेश' कहलाते हैं। भिन्न भिन्न पर्वेश के समय ग्रहण होने का भिन्न भिन्न फल होता है। ग्रहण के समय ब्रह्मा अधिपति हों तो द्विज और पशुओं की वृद्धि, मंगल, आरोग्य और धन संपत्ति की वृद्धि; चंद्रमा हो तो आरोग्य और धनसंपत्ति की वृद्धि के साथ साथ पंडितों को पीड़ा और अनावृष्टि; इंद्र हो तो राजाओं में विरोध, शरद ऋतु के धान्य का नाश और अमंगल; कुवेर हो तो धनियों के धन का नाश और दुर्भिक्ष; वरुण हो तो राजाओं का अशुभ, प्रजा का मंगल और धान्य की वृद्धि; आग्नि हो तो धान्य, आरोग्य, अभय और अच्छी वर्षा; और यम ह्वो तो अनावृष्टि, दुर्भिक्ष और धान्य की हानि होती है। इसके अतिरिक्त यदि और समय में ग्रहण हो तो क्षुधा, महामारी और अनावृष्टि होती है।

पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन योद्धा जाति का नाम जो वर्तमान अफगानिस्तान के एक प्रदेश में रहती थी।

पर्शनीय †
वि० [सं० स्पर्शनीय] छूते योग्य। स्पर्श करने योग्य।

पर्शु
संज्ञा पुं० [सं०] १. फरसा। परशु। २. पसली। पाँजर। ३. अस्त्र। हथियार [को०]।

पर्शुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाती पर की हड्डियाँ। पिंजर।

पर्शुपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणेश। २. परशुराम।

पर्शुराम
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम।

पर्शुस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम जिसमें पर्शु जाति के लोग रहा करते थे। आजकल यह प्रांत वर्तमान अफगानिस्तान के अंतर्गत है।

पर्श्वध
संज्ञा पुं० [सं०] कुठार।

पर्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुच्छ। स्तबक [को०]।

पर्ष (२)
वि० कठोर। उग्र। तीक्ष्ण। जैसे, वायु [को०]।

पर्षद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परिषद्। २. चारो वेद के ज्ञाताओं की सभा या समाज (को०)।

पर्षद्वल
संज्ञा पुं० [सं०] परिषद् का सदस्य। परिषद्।

पर्सराम पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्शुराम] दे० 'परशुराम'। उ०— न छत्री छितानं, दई विप्र दानं। सुरानं प्रमानं, नमी पर्सरामं।—पृ० रा०, २। १७।

पर्साद †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसाद] दे० 'प्रसाद'। उ०— अमरित साहु जाकर भाभी का प्रसाद पा आदे।—नई०, पृ० ८२।

पर्हेज
संज्ञा पुं० [फा० पर्हेज] १. राग आदि के समय अपथ्य वस्तु का त्याग। रोग के समय संयम। जैसे,— दवा तो खाते ही हो पर साथ में पहेंज फी किया करो। २. बचना। अलग रहना। दूर रहना। जैसे,— दुरे कामों से हमेशा पर्हेज करना चाहिए।

पर्हेजगार
वि० [फा० पर्हेजगार] पर्हेज करनेवाला।