विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/आन

विक्षनरी से

आनंतर्य
संज्ञा पुं० [सं० आनन्य] १. अचानक होनेवाली सफलता । २. तात्कालिक अनुमान ।

आनंत्य
संज्ञा पुं० [सं० आनन्तर्य] १अंत या समाप्ति का अभाव । अनंतता । २. स्वर्ग । ३. अविनश्वरता ।

आनंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० आनन्द] [वि० आनंदित, आनंदी] १. हर्ष । प्रसन्नता । खुशी । सुख । मेद । आहलाद । क्रि० प्र०— आना । — करना ।— देना ।— पाना ।— भोगना । मनान । — मिलना । — रहना । — लेना । जैसे,— (क) कल हमको सैर में हडा आनंद आया । (ख) यहाँ हवा में बैठे खूब आनंद ले रहे हो । (ग) मूर्खों की संगति में कुछ भी आनंद नहीं मिलता । यौ०— आनंदमंगल । मुहा०— आनंद के तार या ढोल बजाना =आनंद के गीत गाना । उत्सव मनाना । २. प्रसन्नता या खुशी की चरम अवस्था जो ब्रह्म की तीन प्रधान विभूतियों में सें एक है । उ०— सत्, चित और आनंद, ब्रह्म के इन तीन स्वरूपों से काव्य और भक्तिमार्ग 'आनंद' स्वरूप को लेकर चले ।— रस०, पृ० ५५ । ३. मध । शराब । ४. शिव (को०) । ५. विष्ण (को०) । ६. बुद्ध के एक प्रधान शिष्य (को०) । ७. द्डक छ्द का एक भेद (के०) । ८. ४८ वें संवत्सर का नाम (को०) ।

आनंद (२)
वि० आनंद । आनंदमय । प्रसन्न । जैसे,— आनंद रहो । विशेष— यह विशेषणवत् प्रयोग ऐसे ही दो एक नियत वाक्यों में होता है । पर ऐसे स्थानों में बी यदि आनंद को विशेषण न मानना चाहें, तो उसके आगे 'से' लुप्त मान सकते है ।

आनंदक
वि० [सं० आनन्दक] आनंद प्रदान करनेवाला [को०] ।

आनंदकर
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दकर] चंद्रमा [को०] ।

आनंदकला
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दकला] ब्रह्म की आनंदमयी सत्ता । ईश्वर का आनंदमय स्वरूप । उ०— भगवान् की आनंदकला के विकास की ओर बदती हुई गति है ।- रस०, पृ० ६० ।

आनंदकानन
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दकानन] दे० 'आनंदबन' ।

आनंदघन (१)
वि० [सं० आनन्द + घन] आनंद से भरा हुआ ।

आनंदघन (२)
संज्ञा पुं० १. श्रीकृष्ण भगवान् । २. हिंदी के एक कवि का नाम ।

आनंदज
वि० [सं० आनन्दज] हर्ष के कारण उत्पन्न, जैसे,— अश्रु [को०] ।

आनंदना पु
क्रि० अ० [सं० आनन्द से नाम०] प्रसन्न होना । आनंदयुक्त होना । उ०— ज्यों चकई प्रतिबिंब देखिकै, आनंदै पिय जानि । सूर पवन मिलि निठुर विधाता, चपल कियौ जल आनि ।- सूर०, १० ।३२६८ ।

आनंदपट
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दपट] वैवाहिक वस्त्र । जोडाजाम [को०] ।

आनंदपूर्ण
वि० [सं० आनन्दपूर्ण] अत्यधिक प्रसन्न [को०] ।

आनंदप्रभव
संज्ञा पुं० [सं० आनंन्दप्रभव] वीर्य । शुक्र [को०] ।

आनंदबधाई
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्द + हिं० बधाई] १. मंगल- उत्सव । २. मंगल अवसर । ३. मंगल की बधाई ।

आनंदबन
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दवन] काशी । वारणसी । अविमुक्त क्षेत्र । बनारस । सप्तपुरियों में से चौथी ।

आनंदभैरव
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दभैरव] १. शिव का एक नाम (को०) । २. वैधक में एक रस का नाम जो प्रायः ज्वरादि की चिकित्सा में काम आता है । विशेष— इसके बनाने की यह रीति है — शुद्ध पारा और शुद्ध गंधक की कजली, शुद्ध सिंगी मुहरा, सिंगरफ, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, भूना सुहागा, इन सबका चूर्ण कर भैगरैया के रस में तीन दिन खरल कर आध आध रत्ती की गोलियाँ बनावे । एक गोली नित्य दस दिन पर्यंत खिलाने से खाँसी, क्षय, संग्रहणी, संनिपात और मृगी के सब रोग नष्ट हो जाते हैं ।

आनंदभैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दभैरवी] भैरव रोग की रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं । इसके गाने का समय प्रातः काल १ दंड से ५ दंड तक है ।

आनंदमंगल
संज्ञा पुं० [सं० आनन्द + मग्डल] सुख चैन ।

आनंदमत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दमत्ता] प्रौढा नीयिका का एक भेद । आनंद से उन्मत्त प्रौढा । दे० 'आनंदसंमोहिता' ।

आनंदमय (१)
वि० [सं० आनन्दमय] आनंदपूर्ण । प्रसन्नता से युक्त [को०] । यौ०— आनंदमयकोष = आत्मा के पंचकोषों में से एक (वेदांत) ।

आनंदमय (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्म [को०] ।

आनंदमया
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दमया] दुर्गा का एक रूप [को०] ।

आनंदलहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दलहरी] शंकराचार्य विरचित एक ग्रंथ जिसमें पार्वती जी की स्तुति हैं [को०] । विशेष— इसे सौंदर्यलहरी भी कहते हैं ।

आनंदवाद
संज्ञा पुं० [सं० आनन्दवाद] आनंद को ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य माननेवाली विचारधारा या सिद्धांत ।

आनंदसंमोहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दसम्मोहिता] वह नायिका जो रति के आनंद में अत्यंत निमग्न होने के कारण मुग्ध हो रही हो । यह प्रौढा मायिका का एक भेद है ।

आनंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० आनन्दा] भाँग [को०] ।

आनंदित
वि० [सं० आनन्दित] हर्षित । मुदित । प्रमुदित । सुखी । उ०— आनंदित गोपी ग्वाल, नाचैं कर दै दै ताल, अति अहलाद भयो जसुमति माइ कै । — सूर०, १० ।३१ ।

आनंदी
वि० [सं० आनन्दिन्] हर्षित । प्रसन्न । सुखी । खुश ।

आन (१)
संज्ञा स्त्री [सं० आण् =मर्यादा, सीमा ] १. मर्यादा । २. शपथ । सौगंध । कसम । उ०— मोहिं राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साँची कहौं ।— मानस, २ ।१०० । ३. विजय- घोषणा । दुहाई । क्रि० प्र० — फिरना । उ०— बार बार यों कहत सकात न, तोहिं हति लैहैं पिरान । मेरैं जान, कनकपुरी फिरिहै रामचंद्र की आन । — सूर०, ९ । १२१ । ४. ढंग । तर्ज । अदा । छवि । जैसे,—उस मौके पर बडौदा नरेश का इस सादगी से निकल जाना एक नई आन थी । ५. अकड । ऐंठ । दिखाव । ठसक । जैसे,— आज तो उनकी ऐर ही आन थी । ६. अदब । लिहाज । दबाव । लज्जा । शर्म । हया । शंका । डर । भय । जैसे,— कुछ बडों की आन तो माना करो । ७. प्रतिज्ञा । प्रण । हठ । टेक । जैसे,— वह अपनी आन न छोडेगा ।

आन (२)
संज्ञा स्त्री [अ०] क्षण । अल्पकाल । लमहा ।जैसे,— एक ही आन में कुछ का कुछ हो गया है । मुहा०— आन की आन में = शीघ्र ही । अत्यल्प काल में । जैसे,— आन की आन में सिपाहियों मे पूरा का पूरा शहर घेर लिया ।

आन (३)पु
वि० [सं० अन्य] दूसरा । और । उ०— मुख कह आन, पेट बस आन । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ।— जायसी ग्रं०, पृ० ३५ ।

आन (४)
क्रि० वि० [ हि० आना] आकार । उपस्थित होकर । जैसे,— पत्ता पेड़ से आन गिरा ।

आनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. डंका । दुंदुभी । भेरी । दक्का । बडा ढोल । मृदंग । नगाडा । उ०— गोमुख आनक ढोल नफीरी मिलि कै साजै ।— भारतेंदु ग्रं०, भा २, पृ० ६४३ । २. गरजता हुआ बादल । यौ०— आनकदुंदुमी ।

आनकदुंदुभि
संज्ञा पुं० [सं० आनकदुंदुभि] १. बडा नगाडा । २. कृष्ण के पिता वसुदेव । विशेष— ऐसा प्रसिद्ध है कि जब वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, तब देवताओं ने नगाडे़ बजाए थे ।

आनडुह
वि० [सं०] बैल या साँड से संबद्ध [को०] ।

आनत
वि० [सं०] अत्यंत झुका हिआ । अतिनम्र । उ०— पत्रों के आनत अधरों पर, सो गया निशिल वन का मर्मर ।— गुंजन, पृ० ७६ । २. कल्पभव के अंतर्गत वैमानि नामक जैन देवताओं में से एक देवता ।

आनतान (१)
संज्ञा स्त्री [हिं० आन = दूसरा + तान = गीत] अंड बंड बात । ऊटपटाँग बात । बेसिर पैर की बात ।

आनतान (२)
संज्ञा स्त्री [हिं० आन + खितान = चाव] १. मर्यादा । ठसक । २. टेक । अड ।

आनति
संज्ञा स्त्री [सं०] १. नत होना । झुकना । झुकीव । २. प्रणाम करना । प्रणति । ३. सत्कार करना [को०] ।

आनतिकर
संज्ञा स्त्री [सं०] उपहार । पुरस्कार [को०] ।

आनद्ध (१)
वि० [सं०] १. बँधा हुआ । कसा हुआ । २. मढा हुआ ।

आनद्ध (२)
संज्ञा पुं० १. वह बाज जो चमडे से मढा हो; जैसे— ढोल मृदंग आदि । २. सज्जित होना । कपडे आभूषण आदि पहनना [को०] ।

आनद्धवस्तिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेशाब या पाखाने का रूकना [को०] ।

आनन
संज्ञा पुं० [सं०] मुख । मुँह । उ० —आनन रहित सकल रस भोगी । -मानस, १ ।११८ । २. चेहरा । उ०— आनन है अरविंद न फूल्यो आलीगन बूल्यो कहा मँडरता हौ ।— भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ९१ । यौ०— चंद्रानन । गजानन । चतुरानन । पंचानन । षडानन ।

आननफानन
क्रि० वि० [अ० आनन फानन] अतिशीघ्र । फौरन । झटपट । बहुत जल्द ।

आनना पु
क्रि० स० [सं० आ + √ नी = ले जाना या लाना] लाना । उ०— आनहु रानहि बेगि होलई ।— मानस, २ ।३९ ।

आनबान
संज्ञा स्त्री० [हिं० आन + बान] १. सजधज । ठाट बाट । तड़क भडक । बनावट । उ०— जुही आनबान भरी; चमेली जवान परी ।— आराधना, पृ० २३ ।

आनमन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आनति' [को०] ।

आनयन पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाना । २. उपनयन संस्कार ।

आनर
संज्ञा पुं० [सं०] १. संमान । प्रतिष्ठा । इज्जत । सत्कार । २. संमानचिहन । उपाधि ।

आनरेबुल
वि० [अं०] प्रतिष्ठित । माननीय । विशेष— अँगरेजी शासन में गवर्नर जनरल, गर्वनर, बडे लाट या छोटे लाट की कौंसिल के सभासद् होते थे, उन्हें तथा हाई- कोर्ट के जजों और कुछ चुने अधिकारियों को यह पदवी मिलती थी । अब केवल हाईकोर्ट तथा सुप्रिम कोर्ट के जजों को इस नाम से पुकारा जाता है ।

आनरेरी
वि० [अं०] १. अवैतनीक । कुछ वेतन म लेकर प्रतिष्ठा के के हेतु काम करनेवाला । यौ०— आनरेरी मजिस्ट्रेट । आनरेरी से६सेक्रेटरी । २. बिना वेतन लेकर किया जानेवाला । जैसे, — यह कान हमारा आनरेरी है ।

आनर्त
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आनर्तक] १. देशविशेष । द्वारका । २. आनर्त देश का निवासी । ३. राजा शर्याति के तीन पुत्रों में से एक । ४. नृत्यशाला । नाचधर । ५. युद्ध । ६. जल । ७. नृत्य [को०] ।

आनर्तक
वि० [सं०] नाचनेवाला ।

आनव (१)
वि० [सं०] १. मनुष्य की तरह शक्तिवाला । २. मनुष्य पर दया करनेवाला [को०] ।

आनव (२)
संज्ञा पुं० १. मनुष्य । मानव । २. विदेशीजन [को०] ।

आना (१)
संज्ञा पुं० [सं० आणक] १. रूपए का १६ वाँ भाग । २. किसी वस्तु का १६ वाँ अंश । जैसे,— (क) प्लेग के कारण शहर में अब चार आने लोग रहै गए है । (ख) इस गाँव में चार आना उनका है ।

आना (१)
क्रि० अ० [सं० आगमन, पुं०, हिं० आगवन, आवना; जैसे द्बिगुण से दूना । अथवा सं० आयणा हिं० आवना] १. वक्ता के स्थान की ओर चलना या उसपर प्राप्त होना । जिस स्थान पर कहनेवाला है, था या रहेगा उसकी ओर बराबर बढ़ना या वहाँ पहुँचना । जैसे, —(क) वे कानपुर से हमारे पास आ रहे हैं । (ख) जब हम बनारस में थे, तब आप हमारे पास आए थे । (ग) हमारे साथ साथ तुम भी आओ । २. जाकर वापस आना । जाकर लौटना । जैसे—तुम यहीं खड़े रहो, मै अभी आता हूँ । ३. प्रारंभ होना । जैसे, —बरसात आते ही मेढ़क बोलने लगते है । ४. फलना । फूलना । जैसे,—(क) इस साल आम खूब आए है । (ख) पानी देने से इस पेड़ में अच्छे फूल आवेंगे । ५. किसी भाव का उत्पन्न होना । जैसे, -आनंद आना, क्रोध आना, दया आना, करुणा आना, लज्जा आना, शर्म आना । विशेष—इस अर्थ में 'मैं' के स्थान पर 'को' लगता है । जेसे, — उनको यह बात सुनते हो बडा़ क्रोध आया । ६. आँच पर चढ़े हुए किसी भोज्य पदार्थ का पकना या सिद्ध होना । जैसे, —(क) चावल आ गए, अब अतार लो । (ख) देखो, चाशनी आ गई या नहीं । ७. स्खलित होना । —जैसे— जो यह दवा खाता है, वह बड़ी देर से आता है । मुहा०—आई=आई हुई मृत्यु । जैसे, —आई कही टलती है । (२) आई हुई विपत्ति । आए दिन=प्रतिदिन । रोज रोज । जैसे—यह आए दिन का झगड़ा अच्छा नहीं । आए गए होना= खो जाना । नष्ट होना । फजूल खर्च होना । जैसे, —वे, रुपए तो आए गए हो गए । आओ या आइए=जिस काम को हम करने जाते है, उसमें योग दो । जैसे, —आओ, चलें घूम आवें । (ख) आइए, देखें तो इस किताब में क्या लिखा है । आ जाना=पड़ जाना । स्थित होना । जेसे, — उनका पैर पहिए के नीचे आ गया । आता जात= आने जानेवाला । पथिक । बटोही । जैसे, —किसी आते जाते के हाथ रुपया भेज देना । आना जाना= (१) आवागमन । जैसे, —उनका बराबर आना जाना लगा रहता है । (२) सहवास करना । संभोग करना । जैसे, —कोई आता जाता न होता तो यह लड़का कहाँ से होता? आ धमकना= एकबारगी आ पहुँचना । अचानक आ पहुँचना । जैसे, —बागी इधर उधर भागने की फिक्र कर ही रहे थे कि सरकारी फौज आ धमकी । आ निकलना=एकाएक पहुँच जाना । अनायास आ जाना । जैसे, —(क) कभी कभी जब वे आ निकलते है, तब मुलाकात हो जाती है । (क) मालूम नहीं हम लोग कहाँ आ निकले । आ पड़ना=(१) सहसा गिरना । एकबारगी गिरना । जैसे, —धरन एकदम नीचे आ पड़ी । (२) आक्रमण करना जैसे, —उसपर एक साथ ही बीस आदमी आ पड़े । (३) अनिष्ट घटना का घटित होना । जैसे, —बेचारे पर बैठे बिठाए यह आफत आ पड़ी । (४) संकट, कठिनाई या दुःख का उपस्थित होना । जैसे, —(क) तुमपर क्या आ पड़ी है जोउनके पीछे दौड़ते फिरो । (ख) जब आ पड़ती है तब कुछ नही सूझता । (५) उपस्थित होना । एकबारगी आना । जैसे, —(क) जब काम आ पड़ता है, तब वह खिसक जाता है । (ख) उनपर गृहस्थी का सारा बोझ आ पड़ा । (शब्द०) । (ग) कल हमारे यहा दस मेहमान आ पड़े । (शब्द०) । (६) ड़ेरा जमाना । टिकना । विश्राम करना । जैसे, —कयों इधर उधर भटकते हो, चार दिन यहीं आ पड़ो । आया गया= अतिथि । अभ्यागत । जैसे —आए गए का अच्छी तरह सत्कार करना चाहिए । आ रहना= गिर पड़ना । जैसे, —(क) पानी बरसते ही दीवार आ रही । (ख) यह चबूतरे पर से नीचे आ रहा । आ लगना=(१) किसी ठिकाने पर पहुँचना । जैसे, —(क) बात की बात में किश्ती किनारे आ लगी । (ख) रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर आ लगी । (इस क्रियापद का प्रयोग ज़ड़ पदार्थों के लिये होता है, चेतन के लिये नहीं । (२) आरंभ होना । जैसे, —अगहन का महीना आ लगा है । (३) पीछे लगना । साथ होना । जैसे, —बाजार में जाते ही दलाल आ लगते है । आ लेना= पास पहुँच जाना । पकड़ लेना । जैसे, —ड़ाकू भागे पर सवारों ने आ लिया । (२) आक्रमण करना । टूट पड़ना । जैसे, —हिरन चुपचाप पानी पी रहा था कि बाघ ने आ लिया । किसी का किसी पर कुछ रुपया आना=किसी के जिम्मे किसी का कुछ रुपया निकलना । जैसे, —क्या तुम पर उनका कुछ आता है ? हाँ बीस रुपये । किसी की आ बनना= किसी को लाभ उठाने का अच्छा अवसर हाथ आना । स्वार्थसाधन का मौका मिलना । जैसे, - कोई देखने भालने वाला है नहीं, नोकरों की खूब आ बनी है । किसी को कुछ आना=किसी को कुछ बोध होना । किसी को कुछ ज्ञान होना । जैसे, —(क) उसे तो बोलना हि नहीं आता । (ख) उसे चार महीने में हिंदी आ जायगी । किसी को कुछ आना जाना= किसी को कुछ वोध या ज्ञान होना । जैसे, —उनको कुछ आता जाता नहीं । किसी पर आ बनना= किसी पर विपत्ति पड़ना । जैसे, —(क) आजकल तो हमपर चारों ओर से आ बनी है । (ख) मेरी जान पर आ बनी है । उ०— आन बनी सिर आपने छोड़ पराई आस (शब्द०) । (किसी वस्तु) में आना=(१) ऊपर से ठीक बैठना । ऊपर से जमकर बैठना । चपकना । ढीला या तंग न होना । जैसे, — (क) देखो तो तुम्हारे पैर में यह जूता आता है । (ख) यह सामी इस छड़ी में नहीं आवेगी । (२) भीतर अटना । समाना । जैसे, —इस बरतन में दस सेर घी आता है । (३) अंतर्गत होना । अंतर्भूत होना । जैसे, —ये सब विषय विज्ञान ही में आ गए । किसी वस्तु से (धन या आय) आना= किसी वस्तु से आमदनी होना । जैसे,—(क) इस गाँव से तुम्हें कितना रुपया आता है? (ख) इस घर से कितना किरया आता है? (जहाँ पर आय के किसी विशेष भेद का प्रयोग होता है, जेसे,—भाड़ा, किराया, लगान, मालगुजारी आदि वहाँ चाहे 'का' का व्यवहार करै चाहे 'से' का । जैसे, —(क) इस घर का किताना किराया आता है । (ख) इस घर से कितना किराया आता है । (पर जहाँ 'रुपया' या 'धन' आदि शब्दों का प्रयोग होता है, वहाँ केवल 'से' आता है ।) कोई काम करने पर आना= कोई काम करने के लिये उद्यत होना । कोई काम करने के लिये उतारू होना । जैसे,—जब वह पढ़ने पर आता है तो रात दिन कुछ नहीं समझता । जूतों या लात घूसों आदि से आना=जूतों या लात घूसों से आक्रमण करना । जूते या लात घूँसे लगाना । जैसे, -अब तक तो मै चुप रहा अब जूतों से आऊँगा । (पौधे का) आना= (पौधे का) बढ़ना । जैसे,—खेत में गेहूँ कमर बराबर आए हैं । (मूल्य) को या में आना=दांमों में मिलना । मूल्य पर मिलना । मोल मिलना । जैसे,—यह किताब कितने को आती है । (ख) यह किताब कितने में आती है । (ग) यह किताब चार रुपए को आती है । (घ) यह किताब चार रुपए में आती है । (इस) मुहाविरे तृतीया के स्थान पर 'की' या 'में' का प्रयोग होता है ।) विशेष—'आना' क्रिया के अपूर्णभूत रूप के साथ अधिकरण में भी 'को' विभाक्ति लगती है; जैसे,—'वह घर की आ रहा था' । इस क्रिया को आगी पीछे लगा कर संयुक्त क्रियाएँ भी बनती है । नियमानुसार प्राय संयुक्त क्रियाओं में अर्थ के विचार से पद प्रधान रहता है और गोण क्रिया के अर्थ की हानि हो जाती है; जैसे, दे ड़ालना, गिर पड़ना आदि । पर 'आना' और 'जाना' क्रियाएँ पीछे लगकर अपना अर्थ बनाए रखती है; जैसे,— 'इस चोज को उन्हे देते आओ ।' इस उदाहरण में देकर फिर आने का भाव बना हुआ है । यहाँ तक कि जहाँ दोनों क्रियाएँ गत्यर्थक होती है वहाँ 'आना' का व्यापार प्रधान दिखाई देता है; जैसे,—चले आओ । बढ़े आओ । कहीं कहिं आना का संयोग किसी और क्रिया का चिर काल से निरंतर संपादन सूचित करने के लिये होता है; जैसे,—(क) इस कार्य को हम महीनों से करते आ रहे हैं । (ख) हम आज तक आप- के कहे अनुसार काम करते आए हैं । गतिसूचक क्रियाओं में 'आना' क्रिया धातुरूप में पहले लगती है और दूसरी क्रिया के अर्थ में विशेषता करती है; जैसे, —आ खपना, आ गिरना, आ घेरना, आ झपटना, आ टूटना, आ ठहरना, आ धमकना, आ निकलना, आ पड़ना, आ पहुँचना, आ फँसना, आ रहना । पर 'आ जाना' क्रिया में 'जाना' क्रिया का अर्थ कुछ भी नहीं है । इससे संदेह होता है की कदाचित् यह 'आ' उपसर्ग' न हो; जैसे,—आयान, आगमन, आनयन, आपतन ।

आनाकानी
संज्ञा स्त्री० [सं०अनाकर्णन] १. सुनी अनसुनी करने का कार्य । न ध्यान देने का कार्य । उ०— आनाकानी आरसी निहारिनो करौगे कौ लौ ? —इतिहास, पृ० ३४१ । २. टाल- मटूल । हीला हवाला । जैसे, —माल तो ले आए, अब, रुपया देने में आनाकानी क्यों करते हो? क्रि० प्र०—करना ।—देना । ३. कानाफूसी । धीमी बातचित । इशारों की बात । उ०— आनाकानी कठ हँसी मुहाचाही होन सगी देखि दसा कहत बिदेह बिलखाय कै ।—तुलसी (शब्द०) ।

आनाथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] असहाय या अनाथ होने की अवस्था या भाव [को०] ।

आनाय
संज्ञा पुं० [सं०] जाल । फंदा [को०] ।

आनाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक उदरव्याधि । मलावरोध से पेट का फूलना । मलमूत्र रुकने से पेट फूलना । २. बाँधना [को०] ।३. लंबाई (कपड़े आदि की) [को०] ।५. विस्तार [को०] ।

आनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आन' ।

आनिल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आनिली] वायू से संबंधित या उत्पन्न [को०] ।

अनिल (२)आनिलि
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान । २. भीम । ३. स्वाती नक्षत्र [को०] ।

आनिला
संज्ञा पुं० [अं०] जहाज के लंगार की कुंडी ।

आनोजानी
वि० [हि० आना+बाना] अस्थिर । क्षणभंगुर । उ०—दुनिया भी अजब सराय फानी देखी । हर चीज यहाँ की आनी जानी देखा । जो आके न जाए वह बुढ़ापा देखा । जो जाके न आए वह जवानी देखी ।—अनीस (शब्द०) ।

आनीत
वि० [सं०] लाया हुआ [को०] ।

आनील (१)
वि० [सं०] लाया हुआ [को०] ।

आनील (१)
वि० [सं०] हरे रंग का । हल्का नीला [को०] ।

अनील (२)
संज्ञा पुं० काला घोड़ा [को०] ।

आनुकूलिक
वि० [सं०] [वि, स्त्री० अनुकूलिकी] अनुकूल [को०] ।

आनुकूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुकूलता की स्थिति या भाव । २. कृपालुता । दयालुता [को०] ।

आनुक्रमिक
वि० [सं०] क्रमानुसार [को०] ।

आनुगतिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री आनुगतिकी] अनुगत या अनुगति से संबंध रखनेवाला [को०] ।

आनुगत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुगत होने की क्रिया ।२. अनुकरण ३. परिचय । घनिष्ठता । उ०—पा लिया है सत्य-शिव-सुंदर -सा पूर्ण लक्ष्य इष्ट हय सबको इसी का आनुगत्य है ।—साकेन पृ० २०१ ।

आनुग्रहिककरनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राज्य की वह नीति जिसके अनुसार कुछ विशेष मालों पर रियायत की जाती है ।

आनुग्रहिक दारो दय शुल्क
संज्ञा पुं० [सं०] वह चुंगी जो कुछ खास खास पदार्थों पर कम ली जाय । (अर्थशास्त्र, पृ० ११३ में यह द्बारादेय शुल्क या आनुग्रहीक कहा गया है ।) ।

आनुग्रामिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आनुपग्रामिकी] ग्रामसंबंधी । ग्रामीण [को०] ।

आनुपदिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आनुपादिकी] १. पीछा करनेवाला । २. अनुकरण करनेवाला [को०] ।

आनुपतिक
वि० [सं०] अनुपात संबंधी [को०] ।

आनुपूर्वी
वि० [सं० अनुपूर्वीय] क्रमानुसार । एक के बाद दूसरा ।

आनुमानिक
वि० [सं०] अनुमान संबंधी । खयाली ।

आनुयात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] सेवक । नौकर । अनुचर । [को०] ।

आनुरक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुरक्ति' [को०] ।

आनुलोमिक
वि० [सं०] १. नियमित । क्रमित । २. अनुकूल । उपयुक्त [को०] ।

आनुवंशिक
वि० [सं०] वंशपरंपरा से आया हुआ । वंशा- नुक्रमिक [को०] ।

आनुवेश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पड़ोसी । प्रतिवेशी ।२. वह पड़ोसी जिसका घर अपने मकान से दाहिने या बाएँ हो । प्रतिवेश्य का उलटा [को०] ।

आनुश्राविक (१)
वि० [सं०] जिसको परंपरा से सुनते चले आए हो ।

आनुश्राविक (२)
संज्ञा पुं० दो प्रकार के विषयों में से एक, जिसे परंपरा से सुनते आए हों । जैसे, —स्वर्ग, अप्सरा ।

आनुषंगिक
वि० [सं०] जिसका साधन किसी दूसरे प्रधान कार्य को करते समय बहुत थोड़े प्रयास में हो जाय । बड़े काम के घलुए में हो जानेवाला । जिसकी बहूत कुछ पूर्ति किसी दूसरे कार्य के संपादन द्बारा हो जाय और शेष अंश के संपादन में बहुत ही थोड़े प्रयास की आवश्यकता रहे । साथ साथ होनेवाला । गौण । अप्रधान । प्रसंगात होनेवाला या हो जानेवाला अथवा किया जानेवाला । प्रासंगिक । जैसे,—भिक्षा माँगने जाओ, उधर से आते समय गाय भी हाँकते लाना । उ०—चलो सखी तहँ जाइए जहाँ बसत ब्रजराज । गोरस बेजत हरि मिलत एक पंथ द्बै काज (शब्द०) ।

आनूप
वि० [सं०] १. दलदलवाला । २. दलदली भूमि में उत्पन्न [को०] ।

आनृत
वि० [सं०] [स्त्री० आनृती] हमेशा झूठ बोलनेवाला [को०] ।

आनृशंस (१)
वि० [सं०] कोमल स्वभाववाला । दयालु [को०] ।

आनृशंस (२)
संज्ञा पुं० १. कृपालुता । २. दयालुता । ३. मृदुलता । ४. रक्षकता । रक्षक खभाव [को०] ।

आनृशंस्य
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आनुशंस' [को०] ।

आनेता
वि० [सं० आगेतृ] लानेवाला [को०] ।

आनैपुण, आनैपुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] आदक्षता । भद्दापन [को०] ।

आनैश्वर्य
संज्ञा पुं० [सं०] ऐश्वर्य का अभाव । अनैश्वर्य [को०] ।

आन्न
वि० [सं०] [स्त्री० आन्नी] १. अन्नवाला । २. अन्न से संबंधित [को०] ।

आन्वयिक
वि० [सं०] १. कुलीन । २. सुव्यवस्थित । व्यवस्थित [को०] ।

आन्वष्टक्य
वि० [सं०] हेमंत और शिशिर के चारों महीनों अगहन पूस, माघ ओर फागुन में कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को होने वाला । (श्राद्ध) ।

आन्वीक्षिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आत्माविद्या । २. तर्क— विद्या । न्याय ।

आप (१)
सर्व [सं० आत्मन्, प्रा० अत्त अप्प अप्परा्, पु आपनो] १. स्वयं । खूद । विशेष—इसका प्रयोग तीनों पुरुषों के लिये होता है । जैसे, उत्तम पुरुष —मैं आप जाता हूँ, तुम्हें जाने की आवश्यकता नहीं । मध्य पुरुष—तुम आप अपना काम क्यों नहीं करते, दूसरों का मुँह क्यों ताका करते हो । अन्य पुरुष —तुम मत हाथ लगाओ, वह आप अपना् काम कर लेगा । २. 'तुम' और 'वे' के स्थान पर आदरार्थक प्रयोग । जैसे,—(क) कहिए बहुत दिन पर आप आए है, इतने दिन कहाँ थे? (ख) ईश्वरचंद्र विद्यासागर पुराने ढंग के पंड़ित थे । आपने समाज संशोधन के लिये बहुत कुछ उद्योग किया । (ग) आप बड़ी देर से खड़े है; ले जाकर बैठाते क्यों नहीं? ३. ईश्वर । भगवान् । उ०—(क)जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ पाप । जहाँ क्रोध दया तहँ काल है, जहाँ क्षमा तहँ आप—कबीर (शब्द०) । यौ०—आपकाज=अपना काम । जैसे—आपकाज महाकाज (शब्द०) । उ० —नंददास प्रभु बड़ेइ कहि गए हैं आपकाज महाकाज । —नंद० ग्रं०, पृ० ३६८ । आपकाजी= स्वार्थी । मतलबी । आपबीती=घटना जो आपने ऊपर बीत चुकी हो । आपरूप=स्वयं । आप । साक्षात् आप । उ०— चित्र के अनुप बृजभूप के सरूप को जौ क्यों हूँ आपरूप बृजभूप करि मानती ।—भिखारी० ग्र०, भा० १. पृ० १५६ । आपस्वार्थी= मतलबी । मुहा०—आप आप करना=खुशामद करना । जैसे,—हमारा तो आप आप करते मुँह सूखता है और आपका मिजाज ही नहीं मिलता । आप आपकी पड़ना= अपने अपने काम में फँसना । अपनी अपनी अवस्था का ध्यान रखना । जैसे,—दिल्ली दरबार के समय सबको आप आपकी पड़ी थी, कोई किसी को सनता नहीँ था । आप आपकी=अलग अलग । न्यारा न्यारा । जैसे,—(क) दो पुरुष आप आपको ठाडे । जब मिलै जब नित कै गाड़े । —पहेली (केवाड़) । (ख) शेर के निकलते ही लोग आप आपको भाग गए । आप आपमें= आपस में परस्पर । जैसे,—यह मिठाई लड़कों को दे दो, वे आप आप में बाँट लेगे । आपको भूलना=(१) अपनी अवस्था का ध्यान न रखना । किसी मनोवेग के कारण बेसुध होना । जैसे,—(क) बाजारू रंड़ियों के हाव भाव में पड़कर लोग आपको भूल जाते हैं । (ख) जब मनुष्य को क्रोध आता है तब वह आपको भूल जाता है । (२) मदांध होना । घमंड़ में चूर होना । जैसे,—थोड़ा सा धन मिलते ही लोग आपको भूल जाते है । आप से= स्वयं । खुद । जैसे,—उसने आपसे ऐसा किया; कोई उससे कहने नहीं गया था । उ०—खेलति ही सतरंज अलिनि सों तहाँ हरि आए आपु ही तें किधों काहू के बुलाए री । —केशव ग्रं० भा० १, पृ० १८१ । आपसे आप= स्वयं । खुद ब खुद । जैसे,—(क) आप चलकर बैठिए में सब काम आपसे आप कर लूँगा । (ख) घबराओ मत, सब काम आपसे आप हो जायगा । आप ही= स्वयं । आपसे आप । जैसे-हम सब आप ही आप कर लेगे । उ०—जागहिं दया दृष्टि कै आपी । खोल सो नयन दीन विधि झाँपी ।—जायसी (शब्द०) । आप ही आप=(१) बिना किसी और की प्रेरणा के । आपसे आप जैसे—उसने आप ही आप यह सब किया है, कोई, कहने नहीं गया था । (२) मन ही मन में । जैसे,—वह आप ही आप कुछ कहता जा रहा था । (३) किसी को संबोधन करके नहीं । (नाटक में उस 'वाक्य' को सूचित करने का संकेत जिसे आभिनयनकर्ता किसी पात्र को संबोधन करके नहीं कहता, बरन इस प्रकार मुँह फेर कर कहता है, मानो अपने मन में कह रहा है । पात्रों पर उसके कहने का कोई प्रभाव नहीं दिखाया जाता । इसे 'स्वगत' भी कहते है ।) ।

आप (२)
संज्ञा पुं० [सं० आपः=जल] १. जल । पानी ।उ०—पिंगल जटा कपाल माथे पै पुनीत आप पावक नयना प्रताप भ्रू पर बरत है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २३७ । यौ०—आपधर= बादल । उ०—कर लिए चाप परतापधर । तीन लोक में थापधर । नृप गरज्यो जैसे आपधर । साँपधरन सम दापधर । —गोपाल (शब्द०) । आपनिधि=समुद्र । उ०— ज्ञानगिरि फोरि, तोरि लाज तरु जाइ मिलों, आप ही तें आपगा ज्यों आपनिधि प्रीतमैं । केशव ग्रं०, पृ० १२७ । २. आठ वसुओं में से एक का नाम (को०) । ३. जलप्लावन । बाढ़ (को०) । ४. जल का सोता या प्रवाह (को०) । ५. आकाश (को०) ।

आपक
वि० [सं०] प्रापक । प्राप्त करनेवाला (को०) ।

आपकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आपकरी] १. बिना मैत्री का । अमैत्री- पूर्ण । २.बुराई या निंदा करनेवाला ।३. अनिष्टकारी (को०) ।

आपक्व
वि० [सं०] जो अच्छी तरह न पका हो । कम पका हुआ [को०] ।

आपगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी । २. एक नदी का नाम [को०] ।

आपगेय
संज्ञा पुं० [सं०] भीष्म पितामह [को०] ।

आपचार पु
संज्ञा पुं० [हि०] मनमानी ।

आपचारना पु
क्रि० अ० [हि० आपचार+ना (प्रत्य०)] उ०— बिष लै बिसारय़ौ तन, कै बिसासी आपचारयौ, जान्यौ हुतौ मन? तै सनेह कछु खेल सो ।—घनानंद, पृ० ६३ ।

आपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाट । बाजार । २. किराया या महसूल जो बाजर से मिले । तहबजारी ।

आपत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] 'आपद' का समासगत रूप [को०] ।

आपत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आपद्] दे० 'आपद्' ।

आपत्कल्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आपद्धर्म' [को०] ।

आपत्काल
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आपत्कालिक] १. विपत्ति । दुर्दिना । २. दुष्काल । कुसमय ।

आपत्कृतऋण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो कोई आपत्ति पड़ने पर लिया जाय ।

आपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुःख । क्लेश । विघ्न । २. विपत्ति । संकट । आफत । ३. कष्ट का समय । ४. जीविकाकष्ट । ५. दोषारोपण । ६. उज्र । एतराज । जैसे,—हमको आपकी बात मानने में कोई आपत्ति नहीं है । ७. प्राप्ति [को०] ।

आपद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.विपत्ति । आपत्ति । २. दुःख । कष्ट । विघ्न । यौ०—आपदगत, आपदग्रस्त, आपदप्राप्त=(१) आफत में पड़ा हुआ । (२) अभागा । आपद्धर्म । आपदबविनीत=कष्ट या विपत्ति में नम्र होनेवाला ।

आपद
संज्ञा स्त्री० [सं० आपद] दे० 'आपद्' ।

आपदर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन या संपत्ति जिसके प्राप्त करने पर आगे चलकर अपना अनिष्ट हो । विशेष—जिस संपत्ति के लेने पर शत्रुओं की संख्या बढ़े, व्यय या क्षय बढे़ अथवा दूसरों को बहुत कुछ देना पड़े, वह आपदर्थ है ।कौटिल्य ने आपदर्थ के अनेक दृष्टांत दीए है; जैसे—वह सपत्ति जो कुछ दिनों पीछे मिलनेवाली हो, जिसे पीछे से कुपित होकर पर्ष्णिग्राह छीन ले, जो मित्र के नाश यासंधिभंग द्बारा हो, जिसके ग्रहण के विरुद्ध सारा मंड़ल हो, इत्यादि [को०] ।

आपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुःख । क्लेश । विघ्न । २. विपत्ति । आफत । संकट । ३. संकट का समय । जीविका का कष्ट ।

आपद्धर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धर्म जिसका विधान केवल आपत्काल के लिये हो । विशेष—जीविका के संकोच की दशा में जीवनरक्षा के लिय़े शास्त्रों में ब्राह्ममण, क्षत्रिय आदि के लिये बहुत से ऐसे व्यापारों से निर्वाह करने का विधान है, जिनका करना उनके लिये सुकाल में वर्जित है; जैसे,—ब्राह्ममण के लिये शस्त्रधारण, खेती और वणिज्य आदि का करना मना है, पर आपत्काल में इन व्यापारों द्बारा उनके लिये जीविका निर्वाह करने का बिधान है ।

आपधाप
संज्ञा स्त्री० [हिं० आप+धाप] अपनी अपनी चिंता । अपने अपने काम का ध्यान । दे० 'आपाधापी' ।

आपन पु † आपनि पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' । उ०— (क) आपन मोर नीक जो चहहू ।-मानस, २ । ६१ । (ख) । आपनि दारुन दीनता कहउँ सबाहि सिरु नाइ ।—मानस, २ । १८२ ।

आपनपो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपनपो' ।

आपनपौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपनपौ' । उ०— तहँ साँच चलैं तजि आपनपौ, झिझकैंकपटी जो निसाँक नहीं । —इतिहास, पृ० ३४३ ।

आपना पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' । उ०—भजि रघुपति करु हित आपना । छाड़हु नाथ मृषा जल्पना । —मानस, ६ ।५५ ।

आपनिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुमूल्य हरा पत्थर । पन्ना । २. जंगली जाति । किरात (को०) ।

आपनिधि पु
संज्ञा पुं० [सं० आपोनिधि] जलनिधि । समुद्र । उ०— आपहि ते आप गाज्यों आपनिधि प्रीति में ।-केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १२७ ।

आपनो पु †
सर्व०[हिं०] दे० 'अपना' । उ०— केहि अघ अवगुन आपनो कर ड़रि दिया रे । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४७१ ।

आपन्न
वि० [सं०] १. आपदग्रस्त । दुःखी । २. प्राप्त । यौ०— आपन्नसत्व=गर्भिणी । संकटापन्न ।

आपपति पु
संज्ञा पुं० [सं० आप+पति] समुद्र । उ०—काँपि उठयौ आपपति तपनहि ताप चढ़ी, सीरी यों सरीर गति भई रजनीस की ।—केशव ग्रं० भा० १, पृ० १२८ ।

आपमित्यक
वि० [सं०] विनिमय अथवा अदल बदल द्बारा प्राप्त (संपत्ति) [को०] ।

आपया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अपगा] नदी ।

आपराह्णिक
वि० [सं०] अपराहण या तीसरे पहर होनेवाला [को०] ।

आपरूप (१)
वि० [हि० आप+सं०रूप] अपने रूप से युक्त । मूर्तिमान् । साक्षात् (महापुरुषों के लिये) । जैसे, —इतने ही में आपरूप भगवान प्रकट हुए ।

आपरूप (२)
सर्व० साक्षात् आप । आप महापुरुष । ये महापुरुष । खुद बदौलत । हजरत (व्यंग्य) । जैसे,—(क) यह लब आपरूप ही की करतूत है । (ख) यह देखिए अब आपरूप आए है ।

आपरेशन
संज्ञा पुं० [अं० आँपरेशन] शल्यचिकित्सा ।

आपर्तुक
वि० [सं०] किसी विशेष समय या ऋतु से संबंध रखनेवाला [को०] ।

आपवर्ग्य
वि० [सं०] अपवर्ग या मोक्ष से संबंध रखनेवाला [को०] ।

आपस
संज्ञा स्त्री० [हिं० आप] [वि० आपसी] १. संबंध । नाता । भाईचारा । जैसे,—आपसवालों से धोखा न होगा । २. एक दूसरे का साथ । एक दूसरे का संबंध । विशेष—इस शब्द का प्रयोग केवल 'षष्ठी' और सप्तमी में होता हे । नियमानुसार षष्ठी में यह विशेषण की तरह आता है । जैसे,—(क) यह तो आपस की बात है । (ख) वे आपस में लड़ रहे है । मुहा०—आपस का =(१) एक दूसरे समान संबंध रखनेवाला । अपने भाई बंधु के बीच का । जैसे,—आपस का मामला । आपस की बात । आपस की फूट । जैसे,—कहो न, यहाँ तो सब आपस ही के लोग बैठे हैं । (२) परस्परिक । परस्पर का । जैसे,—जरा सी बात पर उन्होंने आपस का आना जाना बंद कर दिया । आपस में =परस्पर । एक दूसरे के साथ । एक दूसरे के बीच । उ०—(क) हिंदू यमन शिष्य रहै दोऊ । आपस में भाषै सब कोऊ ।—कबीर (शब्द०) । (ख) सुख पाइहै कान सुने बतियाँ कल आपुस में कछु पै कहिहै ।— तुलसी ग्रं०, पृ० १६७ । यौ०—आपसदारी=परस्पर का व्यवहार । भाईचारा । आपसरूप =आत्मस्वरूप ।

आपस्तंब
संज्ञा पुं० [सं० आपस्तम्ब] [ वि० आपस्तंबीय] १. एक ऋषि जो कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक थे । यह शाखा उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है । २. आपस्तंब शाखा के कल्प सूत्रकार जिनके बनाए तीन सूत्र ग्रंथ है, कल्प, गृह और धर्म । ३. एक स्मृतिकार जिनकी स्मृति उनके नाम से प्रसिद्ध है ।

आपस्तंबीय
वि० [सं० आपस्तम्बीय] आपस्तंब संबंधी ।

आपा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०आप] १. अपनी सत्ता । अपना अस्तित्व । जैसे,—अपने आपे को समझो, तब ब्रह्माज्ञान होगा । २. अपनी असलियत । जैसे,—अपने आपको देखा तब बढ़ बढ़कर बातें करना । ३. अहंकार । घमंड़ । गर्व । उ०—(क) जग में बैरी कोइ नहीं जामें शीतल होय । या आपा को डारि दे दया करै सब वोय । —कबीर (शब्द०) । क्रि० प्र०—खोना ।—छोड़ना । —जाना ।—मिटना । ४. होश हवास । सुध बुध ।जैसे,—यह दशा देख लोग अपना आपा भूल गए । मुहा०—आपा खोना=(१) अहंकार त्यागना । नम्र होना । निरभिमान होना । उ०—ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय । औरन को शितल करै आपुहिं शीतल होय ।—कबीर (शब्द०) ।(२) अपने को बरबाद करना । अपने को मिटाना । अपनी सत्ता तो भूलना । खाक में मिलाना । उ०—रंगहि पान मिले जस होई । आपहि खोय रहा होय सोई ।—जायसी (शब्द०) । (३) हस्ती बिगड़ना । प्राण तजना । मरना । जैसे,— उसने जरा सी बात पर अपना आपा खो दिया । आपा ड़लना=अहंकार का त्याग करना । घमंड़ छोड़ना । उ०—तन मन ताको दीजिए जाके विषया नाहिं । आपा सबही ड़ारि कै राखै साहिब माहिं ।—कबीर (शब्द०) । आपा तजना= (१) अपनी सत्ता को भूलना । अपने को मिटाना । आत्मभाव का त्याग । अपने पराए का भेद छोड़ना । उ०—आपा तजो औ हरि भजो नख शिख तजो विकार । सब जिउते निर्वेर रहु साधु मता है सार । -कबीर (शब्द०) । (२) अपने आप को मिटाना । अपने को खराब करना । जैसे,—अपना आपा तजकर हम उनके साथ साथ घूम रहे हैं । (३) अहंकार छोड़ना । निरभिमान होना । उ०—आपा तजै सो हरि का होय (शब्द०) । (४) चोला छोड़ना । प्राण छोड़ना । मरना आत्मघात करना । जैसे,—यह लड़का क्यों रोते आपा तज रहा है ।आपा दिखलाना=दर्शन देना । उ०—कै विरहिनि को मीच दे कै आपा दिखालाय । आठ पहर का दाझना मोपै सहा न जाय ।— कबीर (शब्द०) । आपा बिसरना=(१) आत्माभाव का छूटना । अपने पराए के ज्ञान का नाश होना । उ०—ब्रह्ममज्ञान हिये धरु, बोलते ती खोज करु, माय़ा अज्ञान हरु आपा बिसराउरे ।— कबीर (शब्द०) । (२) सुध बुध भूलना । होश हवास खोना । आपा बिसराना= (१) आत्मा भाव को भूलना । अपने पराए का भेद भूलना । (२) सुध बुध भूलना । होश हवास खोना । आपे में आना= होश हवास में होना । सुध बुध में होना । चेत में होना । जैसे,—जरा आपे में आकर बातचीत करो । आपे में न रहना=(१) आपे से बाहर होना । बेकाबू होना । जैसे,—मारे क्रोध के वह इस समय आपे में नहीं है । (२) घबराना । बदहवास होना । जैसे,—विपत्ति में बुद्धिमान भी आपे में नहीं रह जाते । आपा मिटना= अहंकार का नाश होना । घमंड़ का जाता रहना । उ०—या मन फटक पछोरि ले, सब आपा मिट जाय । पिंगला होय पिय पिय करै ताको काल न खाय । —कबीर (शब्द०) । आपा मेटना=घमंड़ छोड़ना । अहंकार त्यागना । उ०—गुरु गोबिद दोउ एक हैं दूजा सब आकार । आपा मेठै हरि भजै तब पावै करतार ।-कबीर (शब्द०) । आपा सँभालना =(१) चैतन्य होना । जागना । होशियार होना । चेतना । जैसे,—अब आपा सँभालो, घर का सब बोझ तुम्हारे ऊपर है । (२) शरीर सँभालना । देह की सुध रखना । जैसे,—यह पहले अपना आपा तो सँभाले; फिर औरों की सहायता करेगा । (३) अपनी दशा सुधारना । (४) बालिग होना । होश सँभा- लना । जवान होना । जैसे,—अपना आप सँभालते ही वह इन सब बेईमान नौकरों की निकाल बाहर करेगा । आपे से निकलना= आपे से बाहर होना । क्रोध और हर्ष के आवेश में सुध बुध खोना । जैसे, —उनकी कौन चलावै, वे तो जरा जरा सी बात पर आपे से निकले पड़ते है । (स्त्रि०) आपे से बाहर होना=(१) वश में न रहना । बेकाबू होना । क्रोध और हर्ष के आवेश में सुध बुध खोना । आवेश के कारण अधीर होना । क्षुब्ध होना । उ०—(क) एक ऐसी वैसी छोकरी के लिये इतना आपे से बाहर होना ।—अयोध्य० (शब्द०) (ख) इतने ही पर वह आपे से बाहर हो गया और नौकर को मारने दौड़ । (२) घबराना । उद्बिग्न होना । जैसे,—धीरज धरो, आपे से बाहर होने से काम नहीं चलता ।

आपा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० आप] बडी बहिन (मुसलमानी) ।

आपा (३)
संज्ञा पुं० बडा भाई (महाराष्ट्र) ।

आपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँवा । २. भट्ठी [को०] ।

आपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरव । पतन । २. किसी घटना का आचानक हो जाना । ३. आरंभ । ४. अंत । ५. पहली झलक । प्रथम दर्शन (को०) । ६. गिरना । अध?पतित करना (को०) । ७. हाथी पकड़ने के लिय़े उसे गड्ढे में गिरना (को०) । ८. नरक [को०] ।

आपातत?
क्रि० वि० [सं०] १. आकम्मात् । अचानक । २. अंत को । आखिरकार । ३. ऊपर ऊपर से । उ०— सहानुभूति और उदा- रता आदि- आपातत? आभासित होते हैं । — शैली, पृ० ११६ ।

आपातलिका
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद जो वैताली छंद के विषम चरणों में ६ और सम चरणों ८ मात्राओं के उपरांत एक भगण और दो गुरु रकने से बनता है । उ०— हर हर भज रात दिना रे, जंजालहि तज या जग माहीं । तन, मन, दन सो जपिहौ जो, हरधाम मिलब संशय नाहीं ।

आपाद (१)
अव्य० [सं०] पैर तक [को०] । यौ०.— आपादमस्तक = सिर से पैर तक ।

आपाद (२)
संज्ञा पुं० १. प्राप्ति । २. पुरस्कार । इनाम । ३. पारिश्रमिक [को०] ।

आपाधापी
संज्ञा स्त्री० [हिं० आप +धाप] १. अपनी अपना चिंता । अपने काम का ध्यान । अपनी अपनी धुन । जैसे,— आज सब लोग आपाधापी में हैं; कोई किसी की सुनता ही नहीं । क्रि० प्र० — करना ।— पड़ना ।— होना । २. खींचतान । लागडाँट । जैसे,— उन लोंगों में खूब आपाधापी है ।

आपान, आपानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गोष्ठी जिसमें शराब पी जाय । शराबियों की गोष्ठी । उ०— रिक्त चषक सा चंद्र लुढ़ककर है गिरा, रजनी के आपानक का अब अंत है ।— झरना, पृ० २५ । २. शराब पीने का स्थान । यौ०— आपानोत्सव, आपानकोत्सव = शराब पीने का समारोह ।

आपापंथी
वि० [हिं० आप + सं० पन्थिन्] मनमाने मार्ग पर चलनेवाला । कुमार्गी । कुपंथी ।

आपायत पु
वि० [सं० आप्यायित = व्रधित] प्रबल । जोरावर ।— (डिं०) ।

आपालि
संज्ञा पुं० [सं०] जूँ । किलनी [को०] ।

आपिंजर (१)
वि० [सं० आपिञ्जर] कुछ लाल रंग का [को०] ।

आपिंजर (२)
संज्ञा पुं० स्वर्ण । सोना [को०] ।

आपी पु
संज्ञा पुं० [सं० आप्य] वह नक्षत्र जिसका देवता जल है पूर्वाषाढ नक्षत्र ।

आपीड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० आपीड] १. सिर पर पहनने की चीज; जैसे,— पगडी, सिरगह, सिरपेच, बेनी इत्यादि । २. घर के बाहार पाख से निकले हुए बँडेरे का भाग । मँगरोरी । मँगौरी । ३. एक प्रकार का विषम वृत जिसके प्थम चरण में ८, दूसरे में १२, तीसरे में १६ और चौथे में २० अक्षर होते हैं । इसमेंसमस्त चरणों के समस्त वर्ण लघु होते हैं, केवल अंत के दो वर्ण गुरू होते हैं ।

आपीड़ (२)
वि० १. कष्ट देनेवाला । पीड़क । २. दबानेवाला [को०] ।

आपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० आपीडन] १. दबाना या मलना । २. दु?ख देना । कष्ट देना [को०] ।

आपीत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामाखी ।

आपीत (२)
वि० [सं०] सोनामाखी के रंग का । कुछ पीला ।

आपीन (१)
वि० [सं०] १. मोटा । २. मजबूत । बलवान् [को०] ।

आपीन (२)
संज्ञा पुं० १. थन या छीमी । २. कुआँ । कूप [को०] ।

आपु पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'आप' । उ०— आपु गए अरू तिन्हहूँ घालहिं जे कहुँ सन्मारग प्रर्तिपालहिं ।- मानस, ७ ।१०० ।

आपुन (१)
सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' ।

आपुन (२)
सर्व० [सं० आत्मन्, प्रा० अप्पण,हिं० आप] खुद । स्वयं । उ०— आपुन चढे़ कदम पर धाई । बदन सकोरि भौंह मोरत हैं, हाँक देत करि मंद दुहाई । - सूर०, १० ।१४१८ ।

आपुनो पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' ।

आपुस पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आपस' । उ०— देखि हमें सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं ।- इतिहास, पृ० २६३ ।

आपूपिक
वि० [सं०] १. बढिया पुआ बनानेवाला । २. पुआ खाने में अभ्यस्त । पुआ खाने का शौकीन । ३. पुआ बेचनेवाला ।

आपूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आटा । २. बेसन । ३. मैदा । ४. सत्तू [को०] ।

आपूर
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आपूरित, आपूर्ण] १. बाढ़ । बाढ़ का वेग । बहाव । २. जो भरा हो [को०] ।

आपूरण
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्ण होना । पूरी तरह भर जाना [को०] ।

आपूरना पु
क्रि० अ० [सं० आपूरण] भरना ।

आपूरित, आपूर्ण
वि० [सं०] पूरी तरह भरा हुआ [को०] ।

आपूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भरना । भरण । २. संतुष्टि । पूर्ति [को०] ।

आपूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. राँगा । २. सीसा ।

आपृच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिज्ञासा । औत्सुक्य । २. वार्तालाप । बातचीत [को०] ।

आपेक्षिक
वि० [सं०] १. सापेक्ष । अपेक्षा रखनेवाला । २. अवलंबन पर रहनेवाला । निर्भर रहनेवाला ।

आपोक्लिम
संज्ञा पुं० [सं०] [यू० एपोक्लिमा] जन्मकुंडली का तीसरा छठा, नवाँ और बारहवाँ स्थान ।

आपोजीशन
संज्ञा पुं० [अं० अँपोजीशन] पार्लमेंट (संसद) या व्यवस्थापिका सभाओं (विधानपरिषद्) के सदस्यों का वह समूह या दल जो मंत्रिमंडल या शासन का विरोध हो । जैसे,— पार्लमेंट की कामंस सभा में आपोजीशन के लीडर ने होम मेंबर पर बोट आफ सेंसर या निदात्मक प्रस्ताव उपस्थित किया ।

आप्त (१)
वि० [सं०] प्राप्त । प्रामाणय रूप में लब्ध । उ०— इसका आधार 'प्रत्यक्ष' अनुभव महीं रह गया, 'आप्त' शब्द हुआ ।— रस०, पृ० १२६ । विशेष— इसका प्रयोग इस अर्थ में प्राय? समस्त पदों में मिलता है; जैसे,— आप्तकाम । आप्तगर्मा । आप्तकाल । २.कुशल । दक्ष । ३. विषय को ठीक तौर से जाननेवाला । साक्षात्कृतधर्मा ।

आप्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषि । २. यथार्थ का वक्ता । प्रमाणिक कथन का कहनेवाला । ३. योगशास्त्र शब्दप्रमाण । विशेष— पतंजलि के अनुसार आप्त वह है जो वस्तुतत्व का सम- ग्रता के साथ जानकर या द्रष्टा या ज्ञाता हो तथा रागादि के वश में पड़कर भी कभी अन्यथा न कहे । यौ०— आप्तप्रमाण । आप्तवाक्य । आप्तवचन । आप्तागम । आप्तोक्ति । ३. भाग का लब्ध ।

आप्तकाम
वि० [सं०] जिसकी सब कामनाएँ पूरी हो गई हों । पूर्णकाम ।

आप्तकारी (१)
वि० [सं० आप्तकारिन्] उचित या गुप्त रूप से कार्य करनेवाला [को०] ।

आप्तकारी (२)
संज्ञा पुं० १. विश्वस्त अनुचर । २. गुप्तचर [को०] ।

आप्तगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भवती स्त्री० [को०] ।

आप्तवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] स्वजन समूह [को०] ।

आप्तवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आप्तोकित' । उ०— तब तो तुम आप्त वाक्य अवश्य मानते होंगे ।— स्कंद०, पृ० ४० ।

आप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटा [को०] ।

आप्तागम
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वसनीय बात जो परंपरा से चली आती हो । २. वेद, शास्त्र, स्मृतियाँ आदि [को०] ।

आप्ताधीन
वि० [सं०] विश्वस्त जनों पर निर्भर । विश्वस्त व्यक्ति के अधीन रहनेवाला [को०] ।

आप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्ति । लाभ । २. पूर्णता [को०] । ३. पहूँचना [को०] । ४. संयोग । संबंध [को०] । ५. भविष्य— त्काल [को०] ।

आप्तोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उक्ति जिसे सिद्धांत रूप में ग्रहण किया जाय । परंपरा से प्रमाणय रूप में मानी जानेवाली बात [को०] ।

आप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वाषाढ़ नक्षत्र । २. जलोप्तन्न फेन आदि [को०] ।

आप्य (२)
वि० १. प्राप्तियोग्य । प्राप्य । २. जल से संबंधित [को०] ।

आप्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि, आप्यायित] १. बुद्धि । वर्धन । २. तृप्ति । तर्पण । ३. एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना । एक रूप से दूसरे रूप में जाना; जैसे — दूध में खट्टा पदार्थ पडने से दहि जमना । ४. मृत धातु को शहद, सुहागे, घी आदि के संयोग से जागाना या जीवित करना । क्रि० प्र०— करना ।— होना ।

आप्यायित
वि० [सं०] १. तृप्त । संतुष्ट । २. आर्द्र । तर । ३. परिवर्धिता बढा हुआ । ४. अवस्थांतरप्राप्त । दूसरे रूप में परिवर्तित ।

आप्रच्छन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदा करना या स्वागत करना । २. मिलने के समय का कुशलप्रश्न [को०] ।

आप्रच्छन्न
वि० [सं०] रहस्य । गुप्त । छिपा हुआ [को०] ।

आप्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आप्रपदीन] पैरों तक पहुँचनेवाला वस्त्र [को०] ।

आप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्नान । २. पानी से तर करना या सींचना [को०] ।

आप्लवव्रती
संज्ञा पुं० [सं० आप्लवव्रतिन्] ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेवाला मनुष्य । स्नातक [को०] ।

आप्लाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी का बढ़ना । बाढ़ । २. नहाना स्नान [को०] ।

आप्लावन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आप्लावित] डुबाना । बोरना ।

आप्लावित
वि० [सं०] १. डुबाया हुआ । बोरा हुआ । शराबोर । २. स्नात । भिंगोया हुआ ।

आप्लुत (१)
वि० [सं०] १. स्नात । भींगा हुआ । २. लथपथ । तरबतर । शराबोर ।

आप्लुत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] स्नातक । गृहस्थ ।

आप्व
संज्ञा पुं० [सं० आप्वन्] वायु । हवा [को०] ।

आप्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गरदन [को०] ।

आफत
संज्ञा स्त्री० [सं० आफत] १. आपत्ति । विपत्ति । बला । २. कष्ट । दु?ख । मुसीबत । ३. दु?ख का समय । मुसीबत का दिन । क्रि० प्र०—आना । —उठना । —उठाना । —टूटना । —डालना ।—तोड़ना । —पड़ना । —मचाना । —लाना । —सहना । मुहा०— आफस उठाना= (१) दु?ख सहना । विपत्ति भोगना । जैसे,— (क) धर्म के पीछे प्रताप को बडी़ बडी़ आफत उठानी पड़ी । (ख) तुम्ह्मरे ही लिये हमने इतनी आफत उठाई । (२) ऊधम मचाना । हलचल मचाना । जैसे,— डाकुओं ने चारों ओर आफत उठा रखी है । आफत का टुकडा = दे० 'आफत का परकाल' । आफत का परकाल = (१) किसी काम को बडी़ तेजी से करनेवाला । पटु । कुशल । (२) अटूट प्रयत्न करन्वाला । घोर उघोगी । आकाश पाताल एक करनेवाला । (३) हलचल मचानेवाला । ऊधम मचानेवाला । उपद्रवी । आफत का मारा = (१) विपत्ति से सताया हुआ । दुर्दैव से प्रेरित । जैसे,— आफत का मारा एक पथिक उस झाड़ी के पास आ पहुँचा दिसमें शेर बैठा था । (२) विपद्- ग्रस्त । संकट में पडा़ हुआ । मुसीबतजदा । जैसे,— आफत के मारे हाम आपके दरवाजे आ पहुँचे हैं, कुछ दया हो जाय । आफत ढाना = (१) आफत उठाना । ऊधम मचाना । उपद्रव मचाना । हलचल मचाना । जैसे,— थोडी़ सी बात के लिये तुम आफत ढा देते हो । (२) तकलीफ देना । दु?ख पहुँचाना । जैसे,— वह जहाँ जाता है, आफत ढाता है (३) गजब करना । अनहोनी बात कहना । ऐसी बात कहना जो कभी हूई न हो । जैसे,— क्या आफत ढाते हो ? नित्य चक्कर लगाने की कौन कहे मैं तो उधर महीनों से नहीं गया हूँ । आफत तोड़ना = आफत मचाना । ऊधम मचाना । उपद्रव मचाना । जैसे,— मूर्ख लड़को दिन रात घर पर आफत तोडे़ रहते हैं । आफत मचाना = (१) हलचल करना । ऊदम मचाना । दंग करना । जैसे,— बदमाशों ने सडक पर आफत मचा रखी है । (२) शोर मचाना । गुल गपाडा़ करना । जैसे,— तुह्मारा बच्चा दिन रात आफत मचाए रहता है । (३) जल्दी मचाना । उतावली करना । जैसे,— क्यों आफत मचाए हो, थोडी़ देर में चलते हां । आफत मोल लेना = दे० 'आफत सिर पर लेना' । आफत सिर पर लाना या लेना= (१) झगडा मोल लेना । झंझट में पड़ना । जैसे,— तु इसे व्यर्थ छेड़कर अपने सिर आफत लाया । (२) संकट में पड़ना । दु?ख को बुलाना । अपने को झंझट में डालना । जैसै— तुम तो रोज अपने सिर पर एक न इक आफत लाया करते हो ।

आफताब
संज्ञा पुं० [फा० आफ़ताब] [वि० आफ़ताबी] १. सुर्य । उ०— जाहि कै प्रताप सों मलीन आफताब होत, ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को ।— भूषण ग्रं०, पृ० १०८ । २. धूप । घाम । [को०] ।

आफताबा
संज्ञा पुं० [फा० आफ़ताबह्] एक प्रकार का गडु़आ जिसके पीछे दस्ती और मुंह पर सरपोश या दक्कन लगा रहता है । यह हाथ मुंह धुलाने के काम आता है ।

आफताबी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० आफ़ताबी] पान के आकार का या गोल जरदोजी की बना पंखा जिसपर सूर्य का चिहन बना रहता है । यह लकडी़ के डंडे के सिर पर लगाया जाता है और राजाओं के साथ या बरात ओर अन्य यात्राओं में झंडे के साथ चलता है । २. एक प्रकार की आतशबाजी जिसके छूटने से दिन की तरह प्रकाश हो जाता है । ३. किसी दरवाजे या खिड़की के सामने छोटा सायबान या ओसारी जो धूप के बचाव के लिये लगाई जाय ।

आफताबी (२)
वि० १. गोल । २. सूर्यसंबंधी । यौ०— आफताबी गुलकंद = वह गुलकंद जो धूप में तैयार की जाय ।

आफर
संज्ञा पुं० [सं० आफ़र] प्रदान करना । प्रस्तुत करना । सामने रखना । उ०— पर जब कभी कोई आफर करता तो दो एक दम लगा लेता था ।— संन्यासी, पृ० ५१ ।

आफरी
अव्य० [फा० आफ्रीं] शाबाश ! वाह वाह ! उ०— कीन्हे तै आफताब खलक आफरीं । कलमा बिन पढन कहैं कुफर काफरीं । — घट०, पृ० २०९ ।

आफरीनिश
संज्ञा स्त्री० [फा० आफ्रीनिश] उत्पत्ति । सृष्टि [को०] ।

आफियत
संज्ञा स्त्री० [अ० आफि़यत] कुशल । क्षेम ।

आफिस
संज्ञा पुं० [अ० आँफिस] दफतर । कार्यालय ।

आफू
संज्ञा स्त्री० [हिं० अफीम; तुल० मरा० अफू] अफीम । उ०— मीठी कोऊ वस्तु नहि मीठी जाकी । चाह । अमली मिसरी छाँडि़ कै आफू खातु सराहि ।— स० सप्तक, पृ० ३२२ ।

आफूक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आफू' [को०] ।

आबंध
संज्ञा पुं० [सं० आबन्ध] १. बंधन । बाँधना । २. गाँठ । ३. प्रेमबंधन । प्रेम । ४. हल के जुए का बंधन (नाधा) । ५. अलंकार की सजावट । अलंकरण [को०] ।

आबंधन
संज्ञा पुं० [सं० आबन्धन] दे० 'आबंध' [को०] ।

आब (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. चमक । तड़क भडंक । आभा । छटा । द्यृति । कांति । झलक । पानी । उ०— (क) साधू ऐसा चाहिए ज्यों मोती की आब ।— कबीर (सब्द०) । (ख) चहचही चहल चहूँधाँ चारू चंदन की चंद्रक चुनीन चौक चौकन चढी़ है आव ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १२५ । २. प्रतिष्ठा । महिमा । गुण । उत्कर्ष । उ०— गंवई गाहक कौन केवरा अरू गुलाब को । हिना पानडि़ बेल कौन बूझिहै आब को ।— व्यास(शब्द०) । ३. शोभा । रौनक । छवि । उ०— वे न इहाँ नागर बढी़ जिन आदर तो आब । फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गवँई गाँव गुलाब । — बाहारी र०, दो० ४३८ । क्रि० प्र०— उतरना — जाना । — बीगडना । — बढ़ना ।— चढा़ना । — देना ।

आब (२)
संज्ञा पुं० १. पानी । जल । २. मदिरा [को०] । ३. किसी वस्तु का अर्क [को०] । ४. प्रस्वेद । पसीना [को०] । ५. अश्रु । आँसू [को०] । ६. मवाद । पीप [को०] । ७. फूल का रस [को०] । मुहा०— आब आब करना = पानी माँगना । उ०— काबुल गए मुगल हो आए, बोलैं बोल पठानी । आब आब करि पूता मर गए धरा सिरहाने पाने ।- (शब्द०) । यौ०— आब व हवा = जलवायु । सरदी गरमी के विचार से दोश की प्राकृतिक स्थिति ।

आबकार
संज्ञा पुं० [फा०] १. मघ बनाने या बेचनेवाला । कलवार । कलाल ।

आबकारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वह स्थान जहाँ शराब चुआई जाती हो । हौली । शराबखाना । कलवरिया । भट्टी । २. मादक वस्तुओं से संबंध रखनेवाला सरकारी मुहकमा । यौ०.— आबकारी कानून । आबकारी मुहकमा = एक सरकारी विभाग विशेष जिसे अंग्रेजी में 'एक्साइज' विभाग कहते हैं ।

आबखुर्द
संज्ञा पुं० [फा० आबखुर्द] १. भाग्य । किस्मत । २. भाग । हिस्सा । ३. पेय जल का तालाब [को०] ।

आबखोरा
संज्ञा पुं० [फा़० आबखोरह] १. पानी पीने का बरतन । गिलास । २. प्याला । कटोरा ।

आबगीना
संज्ञा पुं० [फा० आबगीनह] १. शीशे का गिलास । २. आईना । ३. हीरा ।

आबगीर
संज्ञा पुं० [फा०] जुलाहों की कूँची । कूँचा ।

आबजोश
संज्ञा पुं० [फा०] गरम पानी के साथ उबाला हुआ मुनक्का । लाल मुनक्का । दे० 'अंगूर' ।

आबड़
संज्ञा स्त्री० [देश०] आवरण । घेरा ।

आबताब
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. तड़क भड़क । चमक दमक । घृति । कांति । शोभा ।

आबदस्त
संज्ञा पुं० [फा०] १. मलत्याग के पीछे गुदेंद्रिय को धोना । सौंचना । पानी छूना । २.मलत्याग के अनंतर मल धोने का जल । हाथपानी । क्रि० प्र०— लेना ।

आबदाना
संज्ञा पुं० [फा०] १. अन्नपानी । दानापानी । अन्नजल । २. जीविका । जैसे,— आबदाना जहाँ जहाँ ले जायगा, वहाँ वहाँ जायँगे । मुहा०— आबदाना उठाना = जीविका न रहना । रहायश न होना । संयोग टलना । जैसे,— जब यहाँ ले हमारा आबदाना उठ जायगा, तब अपना रा्स्ता लेंगे ।

आबदार (१)
वि० [फा०] चमकीला । कांतिमान् । भड़कीला ।

आबादार (२)
संज्ञा पुं० वह आदमी जो तोप में सुंबा और पानी का पुचारा देता है । उ०— केतेक जालदार आबदार लाबदार हौ ।— सूदन (शब्द०) । विशेष— पुरानी चाल की तोपों में जव एक बार गोला छूट जाता था, तब नल को ठंढा करने के लिये एक छड़ में लपेटे हुए चीथडों को भिंगोकर उसपर पुचारा दिया जाता था, जिसमें नल के गरम होने के कारण वह गोला आप ही आप न छूट जाय ।

आबदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] चमक । जिला । ओप । कांति । उ०— आबदारी से है हर मिसरए तर आबेहयात ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ०६३ ।

आबदोदा
वि० [फा० आबदिदह्] अश्रृयुक्त । रोता हुआ [को०] ।

आबदोज
संज्ञा पुं० [फा० आबदोज ] पानि के भीतर चलनेवालि नाव या जहाज [को० ] । पनडुब्बी ।

आबद्ध (१)
बि०[सं०] १. बँधा हुआ । २.कैद ।

आबद्ध (२)
संज्ञा पुं १. अलंकार । २.द्यूत । जुआ । ३. दृढ़ या कठोर बंधन [को०] ।

आबनजूल
संज्ञा पुं०[फा० आब +अ० नुजूल] फोते में पानी उतरने का रोग । अंडवुद्धि ।

आबनूस
संश्रा पु० [फा०] [वि०आबनूसी] एक पेड़ जिसे तेंदू कहते है और जो जंगलों में होता हौ । विशेष— यह पेड़ जब बहुत पुराना हो जाता है, तब इसकी लकडी़ का हीर बहुत काला हो जाता है । यही काली लकड़ी आबनूस के नाम से बिकती है और बहुत वजनी होती है । आबनूस की बहुत सी नुमाइशी चीजें बनती हैं, — जैसै —छडी़, कलमदान, रुल, छोटे बक्स इत्यादि । नगीने में आबनूस का काम अच्छा होता है । यौ०— आबनूस का कुंदा = अत्यंत काले रंग का मनुष्य ।

आबनूसी
वि० [फा०] आबनूस सा काला । अत्यंत श्याम । गहरा काला । २. आबनूस का । आबनूस का बना हुआ ।

आबपाशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] सिंचाई ।

आबरवाँ
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक प्रकार का बारीक कपडा़ । बहुत महीन मलमल । २. बहता हुआ पानी ।

आबरू
संज्ञा स्त्री० [फा०] इज्जत । प्रतिष्ठा । बड़प्पन । मान । क्रि० प्र०—उतरना । —उतारना । —खोना । —गँवाना ।—जाना । —देना । —पर पानी फिरना । —बिगड़ना । —में बट्टा लगाना । —रखना । —रहना । —लेना । —होना । दे० 'इज्जत' ।

आबरूह पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० आबरू + हिं० ह (प्रत्य.) ] दे० 'आबरू' । उ०— हमरे सबद बिबेक लगहिं चूतर में सोंटा । आबरूह लै भागु, पकरि के, फटिहैं झोंटा ।— पलटू०, भा० ३, पृ० ८९ ।

आबला
संज्ञा पुं० [फा०] छाला । फफोला । फुटका । क्रि० प्र० — पडना ।

आबलोच पु
संज्ञा पुं० [फा० आब +हिं० लोच] सुंदरता का रस । उ०— हम गुलाब में आबलेच घोल्या है ।— दक्खिनी०, पृ० ४०५ ।

आबल्य
संज्ञा पुं० [सं०] आबलता । निर्बलता । बलहीनता [को०] ।

आबशिनास
संज्ञा पुं० [फा० आबशनास] जहाज का वह कार्यकर्ता जिसका काम गहराई जाँचकर राह बतलाना होता है ।

आबहवा
संज्ञा स्त्री० [फा०] सरदी गरमी आदी के विचार से किसी देश की प्राकृतिक स्थिति । जलवायु ।

आबाद
वि० [फा०] १. बसा हुआ । २. प्रसन्न । कुशलपूर्वक । जैसे,— आबाद रहो बाबा आबाद रहो । ३. उपजाऊ । जोतने बोने योग्य (जमीन) । जैसे,— ऊपर जमीन को आबाद करने में बहुत खर्च पड़ता है । क्रि० प्र० — करना ।— होना । — रहना । यौ० — आबादकार ।

आबादकार
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक प्रकार के काश्तकार जो जंगल काटकर आबाद हुए हैं । २. एक प्रकार के जमींदार जिनकी मालगुजारी उन्हीं से वसूल की जाती है, नंबरदार के द्वारा नहीं ।

आबादानी
संज्ञा स्त्री० दे० 'आबादानी' ।

आबादी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. बस्ती । २. जनसंख्या । मर्दु मशुमारी । ३. वह भूमि जिसपर खेती होती हो ।

आबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पोडा । मानसिक पीडा । चिंता [को०] ।

आबाल (१)
अव्य० [सं०] बालकों से लेकर । लडकों से लेकर । जैसे, आबालवृद्ध ।

आबाल पु (२)
संज्ञा स्त्री० युवती । नायिका । उ० — लगन दसा आबाल तन उजियारी किमि होति । बिना नेह नहिं बढत है तिय-तन दीपति जोति ।— स० सप्तक, पृ० ३४९ ।

आबिल
वि० [सं०] १. पंकिल । गंदा । २. तोड़नेवाला । भंग करने— वाला । ३. साफ करनेवाला [को०] ।

आबी (१)
वि० [फा०] १. पानीसंबंधी । पानी का । २. पानी में रहनेवाला । ३. रंग में हल्का । फीका । उ०— दृग बने गुलाबी मद भरे लखि अरिमुख आबी करत ।— गोपाल (शब्द०) । ४. पानी के रंग का । हल्का नीला या आस्मानी । ५. जलतटनिवासी ।

आबी (२)
संज्ञा पुं० १. खारी नमक जो सूर्य के ताप से पानी उडा़कर बनता है । लवण । साँभर नमक । २. जल के किनारे रहनेवाली एक चिडि़या जिसका चोंच और पैर हरे होते हैं और ऊपर के पर भूरे और नीचे के सफेद होते हैं । ३. एक प्रकार का अंगुर ।

आबी (३)
संज्ञा स्त्री० वह भूमि जिसमें किसी प्रकार की आबपाशी होती हो । (खाकी के विरूद्ध) । तौ०— आबी रोटी = रोटी जिसका आटा केवल पानी से सना हो । आबी शोरा । मुहा० — आबी करना = दूध, पानी और लाजवर्द से बने हुए रंग से किसी कपडे के थान को तर करके उसपर चमक लाना ।

आबू
संज्ञा पुं० [सं० आर्बुद] अरावली पर्वत पर का एक स्थान ।

आबेरवाँ
संज्ञा पुं० [फा०] बहता हुआ पानी या आंसू । उ०— देख तब सरवर मजलूम बेकस । बहा अँखियाँ सेती आबेरवाँ को असबस । — दक्खिनी०, पृ० १९१ ।

आवेस पु
संज्ञा पुं० [सं० आवेश] दे० 'आवेश' । उ०— आसा के आबेस अगोचर अब कौ लौं भटकैहौ । —घनानंद, पृ० ५२२ ।

आबेहयात
संज्ञा पुं० [फा० आब +अ० हयात] जीवनजाल । अमृत । सुधा । उ०— प्राबेहयात जाके किसू ने पिया तो कया । मानिंद खिजर जग में अकेला जिया तो क्या ।— कविता कौ० भा० ४, पृ० ४१ ।

आब्द
वि० [सं०] बादल से उत्पन्न या संबद्ध [को०] ।

आब्दिक
वि० [सं०] वार्षिक । सालाना । सांवत्सरिक ।

आब्रत पु
संज्ञा पुं० [सं० आवर्त] दे० 'आवर्त' । उ०— बिसरै सुधि उनमद गति फिरै । लीलानिधि आब्रत मन घिरै ।— घनानंद पृ० २६१ ।

आभ (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आभा] शोभा । कांति । आभा । धुति ।

आभ (२) पु
संज्ञा पुं० [फा० आब वा सं० अम्भ प्र० अभ्भ] पानी । जल । उ०— जिन्ह हरि जैसा जाणियाँ जिनकूँ तैसा लाभ । ओसों प्यास न भाजई जब लग धँसै न आभ । कबीर ग्रं० पृ० ९ ।

आभ (३)
संज्ञा पुं० [सं० आभ्र] आकाश । (डिं०) ।

आभय
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला अगर । २. कुट नाम की ओषधि ।

आभरण
संज्ञा पुं० [सं०] गहना । भूषण । आभूषण । जेवर । आलंकार । विशेष— इनकी गणना १२ है— (१) नूपुर । (२) किकिणी । (३) चुडी़ । (४) अँगूठी । (५) कंकण । (६) बिजायठ । (७) हार । (८) कंठश्री । (९) बेसर । (१०) बिरिया । (११) टीका ।(१२) सीस फूल । आभरण के चार भेद हैं— (१) आवेध्य अर्थात् जो छ्द्रि द्वारा पहने जायँ; जैसे,— कर्णफूल, बाली इत्यदि । (२) बंधनीय अर्थात् जो बाँधकर पहनी जायँ; जैसे— बाजूबंद, पहुँची, सीसफ्रल, पुष्पादि । (३) क्षेप्य अर्थात् जिसमें अंग डालकर पहनें; जैसे — कडा, छडा, चूडी, मुंदरी इत्यादि । (४) आरेप्य अर्थात् जो किसी अंग में लटकाकर पहने जायं; जैसे— हार, कंठश्री, चंपाकली, सिकरी आदि । २. पोषण । परवरिश ।

आभरन पु
संज्ञा पुं० [सं० आभारम] दे० 'आभरण' । उ०— जटिल जवाहिर आभरन छबि के उठत तरंग ।- स० सप्तक, पृ० ३७३ ।

आभरित
वि० [सं०] १. सजाया हुआ आभूषित । अलंकृत । २. पोषित ।

आभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमक । दमक । कांति । उ०— थी अंग सुरभि के संग तरंगित आभा ।— साकेत, पृ० २०४ । २. दीप्ति । द्युति । प्रभा । उ०— उस धुँधले गृह में आभा से तामस को छलती थी । कामयनी, पृ० ११८ ।३. झलक । प्रतिबिंब । छाया । ४. बबूल का पेड़ ।

आभाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के नास्तिक । २. कहावत । मसल । अहाना ।

आभात
वि० [सं०] १. चमकता हुआ । २. कांतिपूर्ण । ३. दृश्य [को०] ।

आभार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोझ । २. गृहस्थी का बोझ । गृहप्रबंध की देखभाल की जिम्मेदारी । उ०— चलत देत आभारू सुनि, उहीं परोसिहिं नाह । लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह ।— बिहारी र०, दो० ५५१ । ३. एक वर्णवृत जो आठतगण का होता है; जैसे,— बोल्यौ तबै शिष्य आभार तेरो गुरू जी न भूलों जपौं आठहूँ जाम । हे राम हे राम हे राम हे राम हे राम हे राम हे राम हे राम । (शब्द०) । ४. एहसान । उपकार । निहोर ।

आभारी
वि० [सं० आभारिन्] एहसान माननेवाला । अपकार माननेवाला । उपकृत । उ०— कितना आभारी हूँ, इतना संवेदनमय हृदय हुआ ।— कामयिनी, पृ० २२६ ।

आभाष
संज्ञा पुं० [सं०] १. संबोधित करना । २. परिचय । भूमिका । ३. भाषण । कथन [को०] ।

आभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] संभाषण । बातचीत करना । २. संबोधन [को०] ।

आभास
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिबिंब । छाया । झलक । जैसे,— हिंदू समाज में वैदिक धर्म का आभास मात्र रह गया है । २. पता । संकेत । जैसे,— उनकी बातों से कुछ आभास मिलेगा कि वे किसको चाहते हैं । क्रि० प्र० देना ।—पाना ।—मिलना । ३मिथ्या ज्ञान । जैसे,—सर्प में रस्सी का आभास । यौ०.—प्रमाणाभाष । विरोधाभाष । रसाभास । हेत्वाभास ।

आभासन
संज्ञा पुं० [सं०] स्पष्ट करना । आभासित करना । प्रकाशित करना [को०] ।

आभास्वर
वि० [सं०] पूर्णरूप से भासित होनेवाला । चमकीला । तेजोमय । उ०— हम आभास्वर देवताओं की तरह प्रीति का भोजन करते हैं । भस्मावृत० पृ० १०५ ।

आभिचारिक (१)
वि० [सं०] १. अभिचार संबंधी । होना या जादू संबंधी [को०] ।

आभिचारिक (२)
संज्ञा पुं० अभिचार संबंधी मंत्र [को०] ।

आभिजन
संज्ञा पुं० [सं०] कुलीनता [को०] ।

आभिजात्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उच्च कुल में पैदा होने का भाव । कुलीनता । २. श्रेणी । ३. विद्वत्ता । ४. सौंदर्य [को०] ।

आभिजित
वि० [सं०] अभिजित मुहूर्त या नक्षत्र में पैदा होनेवाला [को०] ।

आभिधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ध्वनि । शब्द । २. नाम । ३. व्याख्या । उल्लेख [को०] ।

आभिधानिक (१)
वि० [सं०] कोश संबंधी या कोश में प्रयुक्त होनेवाला [को०] ।

आभिधानिक (२)
संज्ञा पुं० कोशकार [को०] ।

आभिप्रायिक
वि० [सं०] अभिप्राय संबंधी । ऐच्छिक [को०] ।

आभिमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आमने सामने होने की अवस्था या भाव । २. अनुकूल होना [को०] ।

आभिरामिक
वि० [सं०] सुंदर । अच्छा [को०] ।

आभिरूपक, आभिरूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदरता । सौंदर्य [को०] ।

आभिषेचनिक
वि० [सं०] अभिषेचन संबंधी । राजतिलक संबंधी [को०] ।

आभिहारिक (१)
वि० [सं०] १. उपहार में दिया हुआ । २. छल या बलपूर्वक लिया हुआ [को०] ।

आभिहारिक (२)
संज्ञा पुं० १. उपहार । भेंट । २. कमरा [को०] ।

आभीर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. अहीर । ग्वाल । गोप । उ०— आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । —मानस । ७ । १३० । विशेष—ऐतिहासिकों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्द जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी । इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है । कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा । वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए । इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी । य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती । २. एक देश का नाम । ३. एत छंद जिसमें ११ । मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।

आभीरक (१)
वि० [सं०] आमीर या अहीर संबंधी [को०] ।

आभीरक (२)
संज्ञा पुं० १. आभीर या अहीर जाति । २. अभीर या अहीर जीति का कोई सदस्य [को०] ।

आभीरनट
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर राग जो नट और आभीर से मिलकर बनता है ।

आभीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक संकर रागिनी जो देशकार, कल्याण, श्याम और गुर्जरी को मिलाकर बनाई गई है । अबीरी । २. भारतवर्ष की एकप्राचीन भाषा जो ईसवी दूसरी या तीसरी शताब्दी में पंजाब में बोली जाती थी । आगे चलकर ईसवी छठी शताब्दी में यह भाषा अपभ्रंश के नाम से प्रसिद्ब हुई थी । उस समय इस भाषा में साहित्य का भी निर्माण होने लगा था ।

आभील
संज्ञा पुं० [सं०] दु?ख । कष्ट ।

आभूत
वि० [सं०] उत्पन्न । अस्तित्ववाला [को०] ।

आभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आभूषित] गहना । जेवर । आभरणा अलंकार । उ०—उधर धातु गलते, बनते हैं आभूषण औ अस्त्र नए । —कामयनी, पृ० १८१ ।

आभूषन पु
संज्ञा पुं० [सं० आभूषण] दे० 'आभूषण' ।

आभृत
वि० [संज्ञा] १. अच्छी तरह से भरा हुआ । ३. बंधा हुआ । ३. उत्पादित [को०] ।

आभेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी [को०] ।

आभोग
संज्ञा [सं०] १. रुप की पूर्णता । रुप में कोई कसर न रहना । किसी वस्तु को लक्षित करनेवाली सब बातों की विद्यमानता । जैसे-यहाँ आभोग से बस्ती का पास होना जाना जाता है । २. किसी पद्य के बीच में कवि के नाम का उल्लेखा ३. वरुण का छत्र । ४. सुख आदि का पूरा अनुभव ।

आभोजी
वि० [सं० आभोजिन्] खानेवाला [को०] ।

आभ्यंतर
वि० [सं० आम्यंतर] भीतरी । अंतर का उ०—काव्य का आभ्यंतर स्बरुप या आत्मा भाव या रस है । -रस० पृ० १०५ । यौ०—आभ्यंतर तप=भीतरी तपस्या । यह तपस्या छह प्रकार की हीती है—(१) प्रायश्चित्त, (२) वैयावृत्ति, (३) स्वाध्याय, (४) विनय, (५) व्युत्सर्ग और (६) शुभ ध्यान ।

आभ्यंतरपातिथ्य
संज्ञा पुं० [सं० आभ्यन्तर आतिथ्य] देश के भीतर आया हुआ विदेशी माल ।

आभ्यंतरकोप
संज्ञा पुं० [सं० आभ्यन्तरकोप] मंत्री, पुरोहित, सेनापति युवराज आति का विद्रोह [को०] ।

आभ्यंतरिक
वि० [सं० आभ्यन्तरिक] अंतरंग । भीतरी ।

आभ्युदयिक (१)
वि० [सं०] अभ्युदय संबंधी । मंगल या कल्याण संबंधी ।

आभ्युदयिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक श्राद्ध जिसे नांदीमुख भी कहते है । विशेष—इस श्राद्ध में दही, बैर और चावल को मिलाकर पिंड़ देते है ओर इसमें माता, दादी और परदादी को पहले तीन पिंडदेकर तब बाप, दादा, परदादा,मातामह और वूद्ब प्रमाता मह आदि को पिंड देते हैं । इनके अतिरिक्त तोनों पक्षों के तीस विश्वेदेवा होते है । उन्हें भी पिड़ दिया जाता है । यह श्राद्ध पुत्रजन्म,जनेऊ और । विवाह आदि शुभ अवसरों पर होता है । इसमें यज्ञकरनेवाले को अपसव्य नहीं होना पड़ता ।

आमंजु
वि० [सं० आमञ्जु] इच्छा । मनोरम [को०] ।

आमंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० आमन्त्रण] [आमंत्रित] १. संबोधन । बुलाना । पुकारना । आह्मान । २.निमंत्रण । न्योता । बुलावा । उ०—खुले मसृण भुजमूलों से वह आमंत्रण था मिलता ।—कामायनी, पृ० १२५ ।

आमंत्रयिता
संज्ञा पुं० [सं० आमन्त्रयितृ] वह जो निमंत्रण देता है [को०] ।

आमंत्रित
वि० [सं० आमान्त्तित] १. वुलाया हुआ । पुकारा हुआ । २. निमंत्रित । न्योता हुआ । उ०—विस्तृत वसुधा की विभुता कल्याणसंघ की जन्भूमि आमंत्रित करती आई थी ।— लहर,पृ० ३३ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

आमंद्र (१)
वि० [सं० आमन्द्र] थोड़ा गंमीर स्वरवाला [को०] ।

आमंद्र
संज्ञा पुं० थोड़ा गंभीर स्वर [को०] ।

आम्
अव्य० [सं०] अंगीकार, स्वीकृति और निश्चयसूचक शब्द । हाँ । इसका प्रयोग नाटकों की बोलचाल में अधिक है ।

आम (१)
संज्ञा पुं० [सं० आम्र] एक बढ़ा पेड़ उसका फल । रसाल । विशेष—यह वृक्ष उत्तर पश्चिम प्रांत को छोड़ और सारे भारत वर्ष में होता है । हिमालय पर भूटान से कुमाऊँ तक इसके जंगली पेड़ मिलते है । इसकी पत्तियाँ लंबी गहरे हरे रंग की होती है । फागु के महीने में इसके पेड़ मंजरियों या मौरों से लद जाते है, जिनकी मीठी गंध से दिशाएँ मर जाती हैं । चैत के आरंभ में मौर झड़ने लग जाते हैं ओर 'सरसई' (सरसों के बराबर फल) बैठने लगते हैं । जब कच्चे फल बैर के बराबर हो जाते हैं, तब वे 'टिकोरे' कहलाते है । जब वे पूरे बढ़ जाते हैं और उनमें जाली पड़ने लगती है, तब उन्हे 'अँबियाँ' कहते हैं । फल के भीतर एक बहुत कड़ी गुठली होती है । जिसके ऊपर कुछ रेशेदार गूदा चढ़ा रहता है । कच्चे फल का गूदा सफेद और कड़ा होता है और पक्के फल का गीला और पीला । किसी किसी में तो बिलकुल पतला रस निकलता है । अच्छी जाति के कलमी आमों की गुठली बहुत पतली होती है और उनका गूदा बँधा हुआ, गाढ़ा तथा बिना रेश का होता है । आम का फल खाने में बहुत मीठा होता हे । पक्के आम आषाढ़ से भादों तक बहुतायत से मिलते हैं । केवल बीज से जो आम पैदा किए जाते है उन्हें "बीजू' कहते हैं । ये उतने अच्छे नहीं होते । इसी से अच्छे आम कलम और पैबंद लगाकर उत्पन्न किए जाते हैं, जो 'कलमी' कहलाते हैं । पैबंद लगाने की यह रीति है कि पहले एक गमले में बीज रखकर पौधा उत्नन्न करते हैं । फिर उस पौधे की किसी अच्छे पेड़ के पास ले जाते हैं और उसकी डाल उस अच्छे पेड़ की डाल से बाँध देते हैं । जब दोनों की ड़ाल बिलकुल एक होकर मिल जाती है, तब गमले के पौधे की अलग कर लेते हैं । इस प्रकिया से गमलेवाले पौधे में उस अच्छे पौधे के गुण आ जाते हैं । दूसरी युक्ति यह है कि अच्छे आम की ड़ाल को काटकर बिसी बीजू पौधे के ठुँठे में ले जाकर मिट्टी के साथ बाँध देते हैं । आम के लिये हड़ड़ी की खाद बहुत उपकारी होती है । आम के बहुत भेद है; जैसे मालदह, बंबंइया, दशहरी सकेदा, चौसा, अलफांजो लँगड़ा, सफेदा, कृष्णाभोग,रामकेला इत्यादि । भारतवर्ष में दो स्थान आमों के लिये बहुत प्रसिद्ध हैं—मालदह (बंगाल में) और मझगाँव (बंबई में) । मालदह आम देखने में बहुत बड़ा होता है, पर स्वाद में फीका होता है । बंबइया आम मालदह से छोटा होता है, पर खाने में बहुत मीठा होता है । लँगड़ा आम देखने में लंबा लंबा होता है और सबसे मीठा होता है । बनारस का लँगड़ा प्रसिद्ध है । लखनऊ का सफेदा भी मिठास में अपने ढंग का एक है । इसका छिलका सफेदी लिए होता है, इसी से इसे सफेदा कहते हैं । जितने कलमी और अच्छे आम हैं, वे सब छुरी से काटकर खाए जाते हैं । आम के रस को रोटी की तरह जमाकर अबंसठ य़ा अमावट बनाते है । कच्चे आम का पन्ना लु लगने की अच्छी दवा है । कच्चे आमों की चटनी बनती है तथा अचार और मुरब्बा भी पड़ता है । आम की फाँकों की खटाई के लिये सुखाकर रखते हैं जो अमहर के नाम से बिकती है । इसी अमहर के चूर को अमचूर कहते हैं । आम की लकड़ी के तख्ते, किवाड़ चौखट आदि भी बनते है, पर उतने मजबूत नहीं होते । इसकी छाल और पत्तियों से एक प्रकार का पीला रंग निकलता है । चौपायों को आम की पत्ती खिलाकर फिर उनके मुत्र को इकट्ठा करके प्योरी रंग बनाते है । पर्या०—चूत । रसाल । अतिसोरभ । सहकार । माकंद । यौ०—अमचुर । अमहर । मुहा०—आम के आम, गुठली के दाम= दोहरा लाभ उठाना । आम खाने से काम या पेड़ गिनने से= इस वस्तु से अपना काम निकालो, इसके बिषय में निरर्थक प्रश्न करने से क्या प्रयोजन । बारी में बारह आम सट्टी में अटठारह आम= जहाँ चीज महँगी मिलनी चाहिए, वहाँ उस स्थान से भी सस्ती मिलना जहाँसाधारणत? वह चीज सस्ती बिकती है । (यह ऐसे अवसर पर कहा जाता है जब कोई किसी वस्तु का इतना कम दाम लगाता है जितने पर वह वस्तु जहाँ पैदा हौती है, वहाँ भी नहीं मिल सकती ।)

आम (२)
वि० [सं०] कच्चा । अपक्व । असिद्ध । उ०—बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ।-तुलसी ग्रं०, पृ० ५४५ ।

आम (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाए हुए अन्न का कच्चा, न पचा हुआ मल जो सफेद और लसीला होता है । यौ०. आमातिसार । २. वह रोग जिसमें आँव गिरती है । यौ०.—आमज्वर । आमवात ।

आम (४)
वि० [अ०] १. साधारण । सामान्य । मामूली । जैसे,— आम आदमियों को वहाँ जाने की आदत नहीं है । उ०— आम लोग उनकी सोहबत को अच्छा न समझते थे ।— प्रताप० ग्रं० पृ० २७५ । यौ०.— आमखास=महलों के भीतर का वह भाग जहाँ राजा या बादशाह बैठते हैं । दरबार आम=वह राजसभा जिसमें सब लोग जा सकें । आमफहम=जो सर्वसाधारण की समझ में आवे । उ०—इबारत वही अच्छी कही जायगी जो आमफहम और खासपसंद हो । —प्रेमघन०, भा०, २, पृ० ४०९ । २. प्रसिद्ध । विख्यात । जैसे,—यह बात अब आम हो गई है, छिपाने से नहीं छिपती । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग वस्तु के लिये होता है, व्याक्ति के लिये नहीं ।

आमगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० आमगन्धि] बिसायँध गंध, जैसे, —चिता के धूँए या कच्चे मांस या मछली की ।

आमग पु
संज्ञा पुं० [सं० आमार्ग] कुमार्ग । कुराह । उ०—बह पंडीत औ चतुर परेवा । आमग न चलै जानि पति सेवा । चित्रा०, पृ० १९२ ।

आमगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रूण [को०] ।

आमचुर
संज्ञा पुं० [सं० आभ्रचुर्ण, हि० अमचूर, आमचुर] दे० 'अमचुर' । उ० —खड़ै कीन्ह आमचुर परा । लौग लायची सौं खँड़बरा ।—जायसी ग्रं० पृ० २४७ ।

आमज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ज्वर जो आँव के कारण हो । २. वह ज्वर जिसमें आँव गिरे ।

आमड़ा
संज्ञा पुं० [सं० आभ्रात] एक बड़ा पेड़ जिसके फल आम की तरह खट्टी और ब़डे बेर के बराबर होते है, फलों का आचार पड़ता है । इसकी पत्तियाँ शरीफे की पत्तियों से मिलती जुलती होती है ।

आमणदूमण
वि० [सं० अन्मन+दुर्मन; प्रा० अममण दुमन; राज० आमण दूमणो] उदास । खिन्न । उद्बि्गमन । उ०—साहिब हँसउ न बोलिया, मुझसूँ रीस ज आज । अंतारि आमण दूमणा, किलउज इवड़उ काज —ढ़ोला० दृ०२१८ ।

आमद
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. अवाई । आगमन । आना । यौ०—आमदरफ्त= आना जाना । आवागमन । मुहा०—आमद आमद होना=(१) आने के समय अत्यंत निकट होना । (२) आने की खबर फैलना या धूम होना । २. आय । आमदनी । उ०—इन्ने थोड़ी आमद में अपने घर का प्रबंध बहुत इच्छा बाँध रक्खा है । —श्रीनिवास ग्रं०, पृ०क ३०४ ।

आमदनी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. आय । प्रार्ति । आनेवाला धन । उ०— इन्की आमदनी मामूली नहीं है, तथापि जितनी आमदनी आती है उस्सै खर्च कम किया जाता है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३०४ । २. व्यापार की वस्तु जो और देशों से अपने देश में आवे । रफ्तनी का उलटा ।

आमन
संज्ञा स्त्री०[देश०] १. वह भूमि जिसमें साल भर में केवल एक ही फसल उत्पन्न हो । २. बंगाल के धान की जाड़े की फसल ।

आमनघूमना पु
वि० [हिं०] दे० 'आमणा दूमण' । उ०—यहु मन आमनघूमनां मेरौ तन छीजत नित जाई । —कबीर ग्रं० पृ० १९० ।

आमनस्य
संज्ञा पुं० [सं०] आनमानापन । दु?ख । रंज ।

आमना पु
क्रि० अ० [हिं० आवना] दे० 'आना' ।

आमनाय
संज्ञा पुं० [पुं० आम्नाय] दे० 'आम्नाय' ।

आमनासामना
संज्ञा पुं० [आमना= सामना का अनु०+हि० सामना] मुकाबला । भेंट । जैसे,—इस तरह झगड़ा न मिटेगा । तुम्हारा उनका आमना सामना हो जाय ।

आमनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह भूमि जिसमें जाड़े का धान बोया जाता है । २. जाड़े में बोए जानेवाले धान की खेती ।

आमनेसामने
क्रि० वि [आपने=सामने का अनु०+ हिं० सामने] एक दूसरे के समक्ष । एक दूसरे के मुकाबिले । इस प्रकार जिसमें एक का प्रमुख या आग्रभाग दूसरे के मुख या आग्रभाग की ओर हो । इस प्रकार जिसमें एक बस्तु के अग्रभाग से खींची हुई सीधी रेखा पहले पहल दूसरी वस्तु के अग्रभाग ही को स्पर्श करे । जैसे,—सभा कते बीच वे दोनों प्रतिद्बुंदी आमने सामने बैठे । (ख) वे दोनों मकान आमने सामने हैं, सिर्फ एक सड़क बीच में पड़ती है ।

आमय
संज्ञा पुं० [सं०] रोग । व्याधि । बिमारी । आरजा ।

आमयावी
वि० [सं० आमयाविन्] १. रोगी । २. मंदाग्नि रोग से पीड़ित [को०] ।

आमरक्तातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] आँव और लहू के साथ दस्त होने का रोग ।

आमरख पु
संज्ञा पुं० [सं० आमर्ष] दे० 'आमर्ष' ।

आमरखना पु
क्रि० अ० [सं० आमर्ष=क्रोध, हि० आमरख+ना (प्रत्य०)] क्रुद्ध होना । दु?खपूर्वक क्रोध करना । उ०—(क) सुनि आमरखि उठे अवनीपति लगे बचन जनु तीर ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तब विदेह पन बंदिन प्रगट सुनायो । उठे भूप आमरखि सगुन नहि पायो ।—तुलसी (शब्द०) ।

आमरण
क्रि० वि० [सं०] मरणकाल तक । जीवन की अवधि तक । मुत्यु पर्यंत ।

आमरस
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अमरस' ।

आमर्दकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आमलकी । आमला । आँवला । २. फाल्गुन शुक्ला एकादशी का नाम ।

आमदन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आमर्दित] १. जोर से मलना । २. खूब पीसना या रगड़ना ।

आमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रोध । कोप । गुस्सा । उ०—आमर्ष को जगानेवाली शिख नई दे । —साम० पृ० ५७ । २. असहन- शीलता । ३. रस में एक संचारी भाव । दूसरे का अहंकार न सहकर उसको नष्ट करने की इच्छा

आमलक
संज्ञा पुं० [सं०][स्त्री० अत्पा० आमल्की] आमला । आँवला । धत्रीफल । उ०—जानहिं तीनि काल निज ज्ञान । करतलगत आमलक समाना । —मानस, १ ।३० ।

आमलकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी जाति का आँवला । आँवली । २. फगुन सुदी एकादशी ।

आमला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आँवला' ।

आमलेट
संज्ञा पुं० [अ०] अंडे का बना नमकीन पदार्थ । उ०— चाय आमलेट उड़ाने में ही कितने रुपए खर्च कर देते हैं । —संन्यासी, पृ० १७४ ।

आमवात
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें आँव गिरती है और जोड़ों में पीड़ा तथा हाथ पैर में सूजन हो जाती है मुँह भी सूज जाता है और शरीर पीला पड़ जाता है । यह रोग मंदाग्निवाले को अजीर्णा में भोजन करने से होता है ।

आमशूल
संज्ञा पुं० [सं०] आँव मुड़ेरे का रोग । आँव के कारण पेट में मराड़ होने का रोग ।

आमश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आद्ध जिसमे पिडदान के बदले में ब्राहमणों को कच्चा उन्न दिया जाता है ।

आमाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आवाँ' ।

आमाजीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] आँव का अजीर्ण । कच्चा अनपच । तुख्मा । इस रोग में खाया हुआ अन्न ज्यों का त्यों गिरता है ।

आमातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] आँव के कारण अधिक दस्तों का होना । आँव मुरेड़े के दस्त ।

आमात्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आमात्य' ।

आमादगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] तैयारी । मुस्तैदी । मौजूदगी । तत्परता ।

आमादा
वि० [फा० आमादह्] उद्यत । तत्पर । उतारू । तैयार । संनद्ध । उ०—आज खुदकुशी करने पर आमादा है आकाश ।—ठंड़ा०, पृ० ६३ । क्रि० प्र.—करना । होना ।

आमानाह
संज्ञा पुं० [सं०] आंव के कारण पेट का फूलना । आँव का अफरा ।

आमान्न
संज्ञा पुं० [सं०] कच्चा अन्न । बिना पका अनाज । कोरा अन्न । सूखा अनाज ।

आमाल
संज्ञा पुं० [अ०] कर्म । करनी । करतूत । यौ०—आमालनामा ।

आमालक
संज्ञा पुं० [सं० आ+माल या देश.] पहाड़ के पास की भूमि ।

आमालनामा
संज्ञा पुं० [अ० आमाल+फा० नामा] वह रजिस्टर जिसमें नौकरों का चालचलन और कार्य करने की योग्यता आदि का विवरण रहता है ।

आमावास्य
वि० [सं०] आमवस्या से संबंधित [को०] ।

आमाशय
संज्ञा पुं० [सं०] पेट के भितर की वह थैली जिसमें मोजन किए हए पदार्थ इकट्ठे होते और पक्ते है । विशेष—सुश्रुत में इसका स्थान नमि और छोती के बिव में लिखा है; पर वास्तव में इस थैली का चौड़ा हिस्सा छाती के नीचे बाई ओर होता है और क्रमश; पतला होता हुप्रा दहिनी ओर को धुमाव के साथ यकृत के नीचे तक जाता है । यह थैली झिल्ली और मांस की होती है । इसके ऊपर बहुत से छोटे छोटे बारीक गड़ढ़े १/१०० इंच से २/२०० इंच तक के व्यास के होति है, जिनमें पाचन रस भरा रहता है । इस थैली में पहुँच कर भोजन बराबर इधर उधर लुढ़का करता बै जिससे उसके हर एक अंश में पाचन रस लगाता है । इसी पाचन रस और पित्त आदि की क्रिया से खाए हुए पदार्थ का रुपांतर होता है; जैसे पित्त में मिलकर दुध पेट में जाते ही दही की तरह जम जाता है ।

आमाहल्दी
संज्ञा स्त्री० [सं० आमहरिद्रा] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ रंग में हल्दी की तरह और गंध में कचुर की तरह होती है । यह बंगाल के जंगालों में बहुत जगह आपसे आप होती है । यह चोट पर बहुत फायदा करती है ।

आमिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] फटा हुआ दुध । छेना । पनीर ।

आमिख
संज्ञा पुं० [सं० आमिष] दे० 'आमिष' ।

आमिन
संज्ञा स्त्री० [हि० आम] अवध में आम में आम की एक जाती जिसके फल सफेदे की तरह मीठे पर बहुत छोटे होते है ।

आमिर पु
संज्ञा पुं० [अं०] हाकिम । अधिकारी । उ०— नव नगरितन मुलुकु लहि जोबन अमिर जौर । घटि बढ़ि तै बढ़ि घटि रकम करी और की और । -बिहारी र० दो० २२० ।

आमिल (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. काम करनेवाला । अनुष्टान करने वाला । २. कर्तव्यपरायण । ३. अमला । कर्मचारी । ४. हाकिम । अधिकारी । उ०—लिये सकल सुख छीन, बिरहा आमिल आइके । —नट० पृ० १०१ । ५. औझा । सयाना । ६. पहुँचा हुआ फकीर । सिद्बु ।

आमिल (२) पु
वि० [सं० अम्ल] खट्टा । अम्ल । उ०—अहै सो कड़ुया अहै सो मीठा । अहै सो अमिल अहै सो मिठा ।—जायसी (शब्द०) ।

आमिश्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि या राज्य जिसमे राजभक्त ओर राजद्रोही समान रुप से हों । विशेष—कौटिल्य ने कहा है कि राजभक्त जनता के सहारे ही आमिश्रा भूमि पर शामन किया जाय ।

आमिष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस । गोश्त । उ०— उनकी आमिष- भोगी रसना आँखों से कुछ कहती ।-कामायनी०, पृ० १११ । यौ०—आमिषप्रिय । आमिषाशी । आमिषाहरी । निरामिष । २.भोग्य वस्तु । ३. लोभ । लालच । ४. वह वस्तु जिससे लोभ उत्पन्न हो । ५. जँबीरी नीबू ।

आमिषप्रिय (१)
वि० [सं०] जिसे मांस प्यारा हो ।

आमिषप्रिय (२)
संज्ञा पुं० गिद्बु, चील और बाज आदि पक्षी जो माँस पर टुटते है ।

आमिषभोगी
वि० [सं० आमिष+भौगी] मांसभक्षी ।उ०—केते न रक्त प्रसुननि देख फिरे खग आमिषमोगी भुलाने ।-भिखारी ग्रं० भा० (?) पृ० ८० ।

आमिषाशी
वि० [सं० आमिषाशिन्] [वि० स्त्री० आमिषशिनी] माँसं भक्षक । मांस खानेवाला ।

आमिषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामाँसी । बालछड़ ।

आमीं
अव्य,[इब०] एवमस्तु । ऐसा ही हो । मुहा०—आमीं आमीं करनेवाले=हाँ में हाँ मिलानेवाले । खुशामदी ।

आमी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० आम] १.छोटा आम । अँबिया । उ०— आई उघरि प्रीति कलई सी जैसी खाटी आमी । सुर इते पर अनखनि मारियत ऊधो पीक्त भामी । सुर०, १० । ४२४७ । २. एक पेड़ जो कद में बहुत छोटा होता है । तुंग । भान । विशेष—हर साल शिशर ऋतु में इसके पत्ते झड़ जाते है । इसके हीर की लकड़ी स्याही लिए हुए पीली तथा बड़ी मजबूत और कड़ी होती है । इससे सजावट की अनेक चोनेक चोजें बनाई जाती है । हिमालय के पहाड़ी लोग इसकी पतली पतली टहनियों की टोकरियाँ बनाते है । शिमला, हजारा तथा कुमाऊँ कै पहाड़ों में यह वृक्ष अधिकतर पाया जाता है ।

आमी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० आम=कच्चा] जौ और गेहुँ की भुनी हुई बाल । यौ०—आमी होरा ।

आमीलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँखे बंद करना । २. बंद करना [को०] ।

आमुक्त
वि० [सं०] १. मुक्ति किया हुआ । छुटकारा पाया हुआ । २. फेंका हुआ या त्याग हुआ । ३. स्वीकार किया हुआ । अपनाया हुआ [को०] ।

आमुख
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक का एक अंग । प्रस्तावना ।

आमुखता
संज्ञा पुं० [फा० आमोख्तह्] दे० 'आमोख्ता' । उ० -(क) कुछ दिन कहीं जाकर आमुखता सुनाइए, तब कहीं आकर बार्तं बनाइए । —प्रिमघन०, भा० २, पृ० २९९ । (ख) कोउ आमुखता पढ़त जोर सों सोर मचावत ।प्रेमघन०, भा०१. पृ० २० ।

आमुचे पु †
सर्व० [मरा० आमुचा=हमारा] हमारे । उ०— तुह्मीं आमुचे देव, तुम्हीं आमुचे ध्यान । —दादू० बा०, पृ०१७४ ।

अमुष्मिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आमुष्मिकी] पारलौकिक । परलोक संबंधी ।

आमूल
क्रि० वि० [सं०] आरंभ से अंत तक । आद्दांत । उ० —देखा विवाह आमूल नवल । तुझ पर शुभ पड़ कलश का जल । अनामिका, पृ० ३२ ।

आमेज
वि० [फा० आमेज] मिला हुआ । मिश्रित । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्राय? यौगिक शब्द० बनाने के लिये होता है,; जैसे,दर्दआमेज । पनियामेज (दही वा अफीम) ।

आमेजना
क्रि० सं० [फा० आमेज+हि० ना (प्रत्य०)] मिलाना । मानना । उ०—भीजी अरगजे में भई ना मरगजे सजी आमेजे सुगंध सेजै शुभ्र शीत रे । —देव (शब्द०) ।

आमेजिश
संज्ञा स्त्री० [फा० आमेजिश] मिलावट । मिश्रण । मेल

आमेर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर] राजपूताने का एक नगर जो जययुक्त के पास है और जहाँ पहले राजधानी थी ।

आमोख्ता
संज्ञा पुं० [फा० आमेख्तह्] पढ़े हुए के अभ्यास के लिये फिर पढ़ना । उद्बुरणी । क्रि० प्र०—करना ।—पढ़ना ।— फेरना । सुनाना ।

आमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] बंधनहीन करना । मुक्त करना [को०] ।

आमोद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आमोदित, आमोदी] १. आनंद ।हर्ष । खुशी । प्रसन्नता । उ०—हाँ झुमता है चित्त के आमोद के आवेग में । —कानन०, पृ० ५३ । २. दिलबहलाव । तफरीह । ३. दूर से आनेवाली महक । सुगंध । उ०— कमल तजि तन रुचत नाहीं आक कौं आमोद । —सूर०, १० । ४५३५ । ४. शातावर । यौ०—आमौदप्रमोद । आमोदयात्रा=मन बहलाने की दृष्टि से यात्रा ।

आमोदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुगंधित करना । बासना । २. दे० 'आमोद' [को०] ।

आमोदप्रमोद
संज्ञा पुं० [सं०] भोगविलास । सुख चैन । हँसी खुशी ।

आमोदित
वि० [सं०] १. प्रसन्न ।खुश । हर्षित । २. दिल लगा हुआ ।जी बहला हुआ । ३. सुगंधित । उ०—और चंदन कर्पूरादि की सुगंध से घ्राणोद्रिय तथा मास्तिष्क आमोदित हो जाता है । —प्रताप ग्रं०, पृ० ५१५ ।

आमोदी
वि० [सं० आमोदिन्] प्रसन्न रहनेवाला । खुश रहनेवाला ।

आमोष
संज्ञा पुं० [सं०][वि० आमोषी] चुराना । अपहरण । छीनना [को०] ।

आमोषी
संज्ञा पुं० [सं० आमोषिन्] तस्कर । चोर [को०] ।

आम्नात (१)
वि० [सं०] विचारा हुआ । कहा हुआ । २. दुहराया हुआ । पढ़ा हुआ । ३. याद किया हुआ । स्मरण किया हुआ । ४. ग्रंयोक्त । शास्त्रोक्त । ५. पवित्र ग्रंथादि के रुप में पर परागत [को०] ।

आम्नात (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अध्ययन [को०] ।

आम्नाय
संज्ञा पुं० [सं०] १.आभ्यास । य़ौ०—अक्षराम्नाय=वर्णामाला । कुलाम्नाय=कुलपरंपरा । कुल की रीति । २. वेद आदि का पाठ और अभ्यास । ३. वेद ।

आम्म
संज्ञा पुं० [देश०] नेवले के प्रकार का एक जंतु ।

आम्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम का पेड़ । २. आम का फल । यौ०—आम्रवन=आम का वन ।

आम्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत जिसे अमरकंटक कहते है ।

आम्रगंधक
संज्ञा पुं० [सं० आम्रगान्धक] एक पौधा । समष्ठिम [को०] ।

आम्रात्, आम्रातक
संज्ञा पुं० [सं०] आमड़े का पेड़ और फल ।

आम्ल (१)
वि० [सं०] अम्लसंबंधी [को०] ।

आम्ल (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० आम्ला] १. खट्टापन । २. इमली [को०] ।

आम्लवेतस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अम्लवेतस' ।

आम्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली ।

आयँतीपायँती
संज्ञा स्त्री० [फा० पाय़ताना अथवा सं० आदित; + पादत?] सिरहाना पायताना । उ०— प्रायँती की छड़िय़ाँ पायँती और पायँती की आयँती । —(शब्द०) ।

आयंद?
वि० क्रि० बि० दे० 'आइंदा' । उ०—इनके दिल पर पूरा असर न हुआ तो, आयंद? बड़ी खराबी की सुरत पैदा हौगी ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१ ।

आयंदा
वि० क्रि० वि० दे० 'आइंदा' ।

आय (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आमदनी । आमद । लाम । प्रप्ति । धनागम । यौ०—आयव्यय । २. जन्मकुंड़ली में ११ वाँ स्थान । ३. आगमन । आना (को०) । १. अंत?पुररक्षक (को०) ।

आय (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आयु] दे० 'आयु' । उ०— धन्य ते जे मीन से अवधि अंबु आय है ।—तुलसी ग्रं० पृ० ३३७ ।

आय (३)
क्रि० अ० [सं० अस्=होना] पूरानी हिंदी के 'आसना' या 'आहना' (होना) क्रिया का वर्तमानकलिक रुप । (शुद्ब शब्द० आहि है ।) ।

आयत (१)
वि० [सं०] विस्तूत । लंबा चौड़ा । दीर्घ । विशाल । उ०— सोहत ब्याह साज सब साजे । उर आयत उर भूषन राजे । —मानस, १ । ३२७ ।

आयत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंजील का वाक्य । कुरान का वाक्य । उ०— पुनि उस्मान मंड़ित बड़ गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ।—जायसी ग्रं० पृ०, ५ ।

आयतच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदली । केला [को०] ।

आयतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान । धर संदिर । २. विश्रामस्थान । ठहरने को जगह । ३. देवताओं की बंदना की जगह । यौ०— रामपंचायतन=जानकी सहित राम, लक्षमण, भरत ओर शत्रुघ्न की मूर्ति । ४. ज्ञान के संचार का स्थान । वे स्थान जिनमें किसी काल तक ज्ञान की स्थिति रहती है; जैसे,—इंद्रियाँ और उनके विषय । विशेष—बौद्दमतानुसार उनके १२ आयतन है—(१) चक्षवाचतन, (२) ओत्रायतन, (३) घ्राणयतन, (४) जिह्वायतन, (५) कायायतन, (६) मनसायतन० (७) रुपायतन, (८) शब्दायतन, (९) गंधयतन, (१०) रसनायतन, (११) औचव्यायतन और (१२) घर्मायतन ।

आयतनेत्र
वि० [सं०] विशल नेत्रोंवाला । बड़ी बड़ी आँखोंवाला [को०] ।

आयतलोचन
वि० [सं०] दे० 'आयतनेत्र' [को०] ।

आयति
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावी आय । आगे । होनेवाली आमदनी [को०] ।

आयत्त
वि० [सं०] [संज्ञा आयत्ति] अधीन । वशीभूत ।

आयत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधीनता । परवशता ।

आयद
वि० [अ०] आरोपित । लगाया हुआ । जैसे,—तुम पर कई जुर्म आयद होते है ।

क्रि० प्र०—करना । —होना ।

आयमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंबाई । विस्तार । २. नियमन । ३. तानने या खींचने की क्रीया (जैसे धनुष को) । [को०] ।

आयमा
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह भूमि जो इमाम या मुल्ला को बिना लगान या थोड़े लगान पर दी जाय ।

आयवस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुओं के चरने के लिये घास का मैदान । २. पशुओं को खिलाने का स्थान [को०] ।

आयव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] जमाखर्च । आमदनी और खर्च । (को०) ।

आयस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आयसी] लोहा । १. लोहा । २. लोहे का कवच । ३. अगर नाम की लकड़ी । ४. रत्न । मणि ।

आयस (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आयसु] १. आदेश । हुक्म । आज्ञा । २. विवाह के अवसर की एक रीति ।

आयसी (१)
वि० [सं० आयसीय] लोहे का । आहनी । उ०—मंजूषा आयसी कठोरा । बड़ि सृंखला लगी चहुँ ओरा ।-रघुराज (शब्द०) ।

आयसी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । जिर हबख्तर ।

आयसीय
वि०[सं०] लोहे का । लौह का बना हुआ [को०] ।

आयसु पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] आज्ञा । हुक्म । उ०—प्रभु अनुराग माँगि आयसु पुरजन सब काज सँवारे । —तुलसी ग्रं०, पृ० ३५९ ।

आया (१)
क्रि० अ० [हिं० आना] आना क्रिया का भूतकाललिक रूप ।

आया (२)
संज्ञा स्त्री० [पुर्त०] अँगरेजों के बच्चों को दूध पिलाने और उनकी रक्षा करनेवाली स्त्री । धाय । धात्री ।

आया (३)
अव्य० [फा०] क्या । जैसे—आया तुमने यह काम किया है या नहीं ।

आयात
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु माल जो व्यापार के लिये विदेश से अपने देश में लाया या मँगाया गया हो । आगत । जैसे,—आयात व्यापारा । यौ०.—आयातकर=आयात वस्तुओं पर लगानेवाला महसूल ।

आयाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आगमन । २. पास आना [को०] ।

आयान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आना । २. प्रकृति । स्वभाव । आदत [को०] ।

आयाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंबाई । विस्तार । २. नियमित करने की क्रिया । नियमन । यौ०.—प्राणायाम=प्राणवायु को नियमित करने की क्रिया ।

आयाम (२)
क्रि० वि० एक पहर तक ।

आयास
संज्ञा पुं० [सं०] परिश्रम । मेहनत । यौ०.—अनायास ।

आयासक
वि० [सं०] १. परिश्रम करानेवाला । थकानेवाला । २. कष्टकारक [को०] ।

आयासी
वि० [सं० आयासिन्] १. जिसने परिश्रम किया हो । थका हुआ । २. प्रयास में लगा हुआ । परिश्रमी [को०] ।

आयु?शेष
संज्ञा पुं० [सं० आयुस्+ शेष] आयु का शेष भाग [को०] ।

आयु?ष्टोम
संज्ञा पुं० [सं० आयुस्+ष्टोम] दीर्घजीवन की प्राप्ति के लिये किया जानेवाला यज्ञविशेष [को०] ।

आयु
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्य । उम्र । जिंदगी । जीवनकाल । क्रि० प्र०—क्षीण होना । —घटना । —पूरी होना । —बढ़ना ।मुहा०—आयु खुटाना=आयु कम होना । उ०—जेहि सुभाय चितवहिं हित जानी । सो जानै जनु आयु खुटानी ।—तुलसी (शब्द०) । आयु सिराना=आयु का अंत होना । उ०—जे तैं कही सो सब हम जानी । पुंडरीक की आयु सिरानी ।— गोपाल (शब्द०) ।

आयुक्त (१)
वि० [सं०] १. नियुक्त । २. अधिकारप्राप्त । ३. संयुक्त । संमिलित । ४. प्राप्त [को०] ।

आयुक्त (२)
संज्ञा पुं० १. सचिव । मंत्री । २. कारिंदा । ३. कोषाधिकारी । ४. कमिश्नर । [को०] । यौ०—उच्चायुक्त=हाई कमिश्नर ।

आयुक्तक
संज्ञा पु० [सं०] अधिकारीविशेष [को०] ।

आयुत (१)
वि० [सं०] १. मिश्रित । २. द्रवित । पिघला हुआ [को०]

आयुत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] आधा पिघला हुआ नवनीत या मक्खन [को०] ।

आयुतिक
संज्ञा पु० [सं०] दस हजार सिपाहियों का अध्यक्ष ।

आयुध
संज्ञा पुं० [सं०] हथियार । शस्त्र । उ०—तिन्हके आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर । —मानस, ३ ।१३ । यौ०—आयुधागार=सिलहखावा । आयुधन्यास ।

आयुधजीवी (१)
वि० [सं० आयुधजीविन्] शस्त्र या हथियार की बदौलत जीविका उपार्जित करनेवाला [को०] ।

आयुधजीवी (२)
संज्ञा पु० सौनिक । सिपाही [को०] ।

आयुधधर्मिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जयंती वृक्ष [को०] ।

आयुधन्यास
संज्ञा पु० [सं०] वैष्णवों में पूजन के पहले बाह्यशुद्धि का विधान । इनमें चक्र, गदा आदि आयुधों का नाम ले लेकर एक एक अंग का स्पर्श करते हैं ।

आयुधपाल
संज्ञा पुं० [सं०] शास्त्रागार या सिलहखाने ता अधिकारी [को०] ।

आयुधभृत्
वि० [सं०] शस्त्रधारी । हथियारबंद [को०] ।

आयुधशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'आयुधागार' [को०] ।

आयुधसहाय
वि० [सं०] जिसका सहायक आयुध या हथियार हो । हथियारबंद [को०] ।

आयुधागार
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रागार । सिलहखाना [को०] ।

आयुधिक (१)
वि० [सं०] शस्त्र से संबंध रखनेवाला [को०] ।

आयुधिक (२)
संज्ञा पुं० सौनिक । सिपाही [को०] ।

आयुधी
वि० [सं० आयुधिन्] दे० 'आयुधीय' [को०] ।

आयुधीय
संज्ञा पुं० [सं०] १. फौजी सिपाही । २. सौनिक या रँगरूट देनेवाला गाँव [को०] ।

आयुधीयकाय
संज्ञा पु० [सं०] वह राष्ट्र जिसमें फौज में काम करनेवाले सिपाहियों की संख्या अधिक हो । (को०) ।

आयुर्दाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष में ग्रहों के बलाबल के अनुसार आयु का निर्णय । जैसे अष्टम स्थान में बृहस्पति आयु बढ़ाता है और तीसरे, छठे और ११ वें स्थान में राहु, मंगल और शनि आदि पापग्रह आयु बढ़ाते हैं । लग्न या चंद्रमा को यदि मारकेश वा अष्टमेश देखता हो, तो आयु क्षीण होती है । २. आयु । जीवनकाल ।

आयुर्द्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत । घी । २. दवा । ओषधि [को०] ।

आयुर्बल
संज्ञा पुं० [सं०] आयुष्य । उम्र ।

आयुर्योग
संज्ञा पुं० [सं०] वह ग्रहयोग जिसके अनुसार ज्योतिषी किसी व्यक्ति के विषय में भविष्यकथन करते हैं [को०] ।

आयुर्वेद
संज्ञा पु० [सं०] [वि० आयुर्वेदीय] आयु संबंधी शास्त्र । चिकित्साशास्त्र । वैद्य विद्या । विशेष—इस शास्त्र के आदि आचार्य अशिवनीकुमार माने जाते हैं जिन्होनें दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सरि जोड़ा था । अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की । इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया । काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं । उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वैद पढ़ा । अत्रि और भरद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं । चरक की संहिता भी प्रसिद्ध है । आयुर्वैद अथर्ववेद का उपांग माना जाता है । इसके आठ अंग हैं । (१) शल्य (चीरफाड़), (२) शालाक्य (सलाई), (३) कायचिकित्सा (ज्वर, अतिसार आदि की चिकित्सा), (४) भूत विद्या (झाड़— फूँक), (५) कौमारपत्र (बालचिकित्सा), (६) अगदतंत्र (बिच्छू, साँप आदि के काटने की दवा), (७) रसायन और (८) बाजीकरण । आयुर्वेद शरीर में बात, पित्त, कफ मानकर चलता है । इसी से उसका निदानखंड कुछ संकुचित सा हो गया है । आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त, अत्रि तथा उनके छ? शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि हारीत), सुश्रुत और चरक ।

आयुर्वेदिक
वि० [सं०] १. आयुर्वेद संबंधी । २. आयुर्वेद में होने वाला (को०) ।

आयुर्वेदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० आयुर्वेदिन्] वैद्य । आयुर्वेदानुसार चिकित्सा करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

आयुर्वेदी (२)
वि० आयुर्वेद संबधी [को०] ।

आयुर्वृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयु की वृद्धि । उम्र बढ़ना [को०] ।

आयुष पु
संज्ञा पुं० [सं० आयुष्] आयु । उ०—तौ अबु नामदेव आयुष तें होहु तुम्हहि प्रभु दाता । —भक्तमाला, (श्री०) । पृ० ४८५ ।

आयुषमान पु
वि० [सं० आयुष्मान्] दे० 'आयुष्मान' । उ०—ताते सरजा बिरद भो सोभित सिंह प्रमान । रन-भूसिला सुभौंसिला, आयुषमान खुमान ।—भूषण ग्रं०, पृ० ७ ।

आयुष्कर
वि० [सं०] आयुवर्धक । उम्र बढ़ानेवाला [को०] ।

आयुष्काम
वि० [सं०] लंबी उम्र की कामना रखनेवाला [को०] ।

आयुष्कौमारभृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चों के रोगों का इलाज । बीमार बच्चों की दवा [को०] ।

आयुष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो आयु की वृद्धि के लिये किया जाता है ।

आयुष्मन्
संज्ञा पुं० [सं०] आयुष्मान् का संबोधन रूप । उ०— कल्याण हो आयुष्मन्, तुम्हारे युवराज अपने अधिकारों से उदासीन हैं ।—स्कंद० पृ—० ६ ।

आयुष्मान
वि० [सं० आयुष्मत्, आयुष्मान्] [स्त्री० आयुष्माति] १. दीर्घजीवी । चिरजीवी । २. नाटकों से सूत रथी को आयुष्मान कह कर संबोधन करते हैं । राजकुमारों को भी इसी शब्द से संबोधन करते हैं । ३. फलित ज्योतिष के विष्कुंभ आदि २७ भेदों में से एक ।

आयुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] आयु । उम्र ।

आयुस पु
संज्ञा पुं० [सं० आयुस] आयु । उ०—आयुस किंकर गण तब पावैं ।—कबीर सा०, पृ० ४६२ ।

आयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहित्य में विप्रलंभ के दो पक्षों में से प्रथम जिसमें अविवाहित अवस्था में प्रेम हो जाने पर मिलन न होने से विरह दु?ख उठाना पड़ता है । पूर्वराग की अवस्था । २. हल या बैलगाड़ी का जुआ । ३. पुष्पादि भेंट करने की क्रिया । ४. किनारा । तट । ५. नियुक्ति । ६. कार्यविशेष को पूर्ण करना । ७. ताल्लुक । संबंध । ८. कमीशन [को०] ।

आयोगव
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्य स्त्री और शूद्र पुरुष से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति जिसका काम विशेषकर काठ की कारीगरी है । बढ़ई ।

आयोजक
वि० आयोजन या व्यवस्था करनेवाला । तैयारी करने- काला । प्रबंधक [को०] ।

आयोजन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आयोजना [वि० आयोजित] १. किसी कार्य में लगाना । नियुक्ति । २. प्रबंध । इंतजाम । सामग्रीसंपादन । ठीक ठाक । तैयारी । उ०—राका रजनी आयोजनरत लोकोत्तर छविशाली ।—पारिजात, पृ० १० । ३. अद्योग । ४. सामग्री । सामान ।

आयोजित
वि० [सं०] ठीक किया हुआ । तैयार ।

आयोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध । लड़ाई । २. रणभूमि । लड़ाई का मैदान ।

आरंजित
वि० [सं० आरञ्जित] सम्यक् रुप से रंजित । अच्छी तरह रँगा हुआ । उ०—नव नव उषा राग आरंजित मनरंजन वनमाली । —पारिजात, पृ० १० ।

आरंभ
संज्ञा पुं० [सं० आरम्भ] किसी कार्य की प्रथमावस्था का संपादन । अनुष्ठान । उत्थान । शुरू । समाप्ति का उलटा । उ०—आरंभ और परिमाणमों के संबंधसूत्र से बुनते हैं ।— कामायनी, पृ० ७५ । क्रि० प्र०—करना । जैसे,—उसने कल से पढ़ना आरंभ किया । -होना । जैसे,—अभी काम आरंभ हुए कै दिन हुए है? । २. किसी वस्तु का आदि । उत्थान । शुरू का हिस्सा । जैसे,— हमने यह पुस्तक आरंभ से अंत तक पढ़ी है । ३. उत्पत्ति । आदि । ४. वध (को०) । ५. गर्व (को०) ।

आरंभक
वि० [सं० आरम्भक] आरंभ करनेवाला । श्रीगणेश करनेवाला [को०] ।

आरंभण
संज्ञा पुं० [आरम्भण] १. आरंभ करने की क्रिया । आरंभ होने की क्रिया या भाव । २. अधिकार में करना । ३. मूठ (हैंडिल) [को०] ।

आरंभत?
अव्य० [सं० आरम्भतस्] आरंभ से । मूल से । मूलत? । नए सिरे से [को०] ।

आरंभना (१) †
क्रि० अ० [सं० आरम्भण] शुरु होना ।

आरंभना (२)
क्रि० स० प्रारंभ या शुरू करना ।

आरंभनिष्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपलब्धि । माल की माँग पूरी करना । २. माल पैदा करने या बनाने की लागत । [को०] ।

आरंभवाद
संज्ञा पुं० [सं० आरम्भवाद] न्याशास्त्र का वह सिद्धांत जिसके अनुसार विश्वसृष्टि परमाणुओं के योग से परमात्मा के इच्छानुसार हुई [को०] ।

आरंभशूर
वि० [सं० आरम्भशूर] किसी काम को ठान देने में आगे रहनेवाला । उ०—अपने सहयोगियों में हास्यास्पद बन जाएँगे, आरंभशूपर कहवाय लेंगे ।—प्रताप ग्रं०, पृ० ७१२ ।

आरंभिक
वि० [सं० आरम्भिक] आरंभ से संबंध रखनेवाला । शुरू का [को०] ।

आरंभी
वि० [सं० आरम्भिन्] १. आरंभ करनेवाला । २. नए और कठिन काम को करने के लिये सर्वप्रथम बढ़नेवाला ।

आर (१)
संज्ञा पुं० [सं०; तुल० अं० 'ओर'] १. वह लोहा जो खान से निकाला गया हो, पर साफ न किया गया हो । एक प्रकार का निकृष्ट लोहा । २. पीतल । ३. किनारा । ४. कोना । यौ०—द्धादशार चक्र । षोड़सार चक्र । विशेष—इस प्रकार के द्वादश कोण और षोडश कोण के चक्र बनाकर तांत्रिक लोग पूजन करते हैं । ५. पहिए का आरा । ६. हरताल ।

आर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अल=डंक] १. लोहे की पतली कील जो साँटे या पैने में लगी रहती है । अनी । पैनी । २. नर मुर्गे के पंजे का काँटा जिससे लड़ते समय वे एक दूसरे को घायल करते हैं । ३. बिच्छू भिड़ और मधुमक्खी आदि का डंक । उ०—बीछी आर सरिस टेई मूछैं सबही की ।—प्रेमघन, भा०१, पृ० ८० ।

आर (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० आरा] चमड़ा छेदने का सूआ या टेकुआ । सुतारी ।

आर (४)
संज्ञा पुं० [देश.] १. ईख का रस निकालने का कलछा । पल्ली । ताँबी । २. बर्तन बानने के साँचे में भीतरी भाग के ऊपर मुँह पर रखा हुआ मिट्टी का लोंदा जिसे इस तरह बढ़ाते हैं कि वह अँवठ के चारों ओर बढ़ आता है ।

आर (५) †
संज्ञा पुं० [हिं० अड़] अड़ । जिद । हठ । उ०—(क) अँखियाँ करत हैं अति आर । सुंदर श्याम पाहुने के मिस मिलि न जाहु दिन चार (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना—जिद करना । उ०—कबहुँक आर करत माखन की कबहुँक मेख दिखाइ बिनानी ।—सूर (शब्द०) ।—ठानना । उ०—हरीचंद बलिहारी आर नहिं ठानो ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४६८ ।

आर (६)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तिरस्कार । घृणा । क्रि० प्र०—करना । जैसे, भले लोग बदलनों से आर करते हैं । २. अदावत । बैर जैसे,—न जाने वे हमसे क्यों आर रखते हैं । ३. शर्म । हया । लज्जा । उ०—कुछ तुम्हीं मिलने से बेजार हो मेरे, वर्ना, दोस्ती नंग नहीं, ऐब नहीं, आर नहीं ।—शेर०, भा०१, पृ० ११२ । क्रि० प्र०—आना । जैसे,—इतने पर भी उसे आर नहीं आती ।

आरक्त (१)
वि० [सं०] १. ललाई लिए हुए । कुछ लाल । २. लाल ।

आरक्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चंदन ।

आरक्तिम
वि० [सं०] थोड़ा लाल । हल्की लाली लिए हुए [को०] ।

आरक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा । २. सैन्य । फौज । ३. हाथी के कुंभ का संधिस्थल [को०] ।

आरक्ष (२)
वि० सुरक्षित । सँभालकर रखा हुआ [को०] ।

आरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहरेदार । रक्षक । २. सिपाही [को०] ।

आरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] निर्धारित करना । निशिचत करना । अं० रिजर्वेशन ।

आरक्षिक, आरक्षी
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आरश्रक' [को०] ।

आरग्वध
संज्ञा पुं० [सं०] अमिलतास ।

आरचित
वि० [सं०] पूर्ण रूप से सज्जित । अच्छी तरह बनाया हुआ [को०] ।

आरचेस्ट्रा
संज्ञा पुं० [अं० आरकेस्ट्रा] १. थियेचर आदि में सामने बैठकर बाजा बजानेवालों का दल । २. थियेटर में वह स्थान जहाँ बाजा बजानेवाले एक साथ बैठकर बाजा बजाते हैं । ३. थियेटर में सबसे आगे की सीटें या आसन ।

आरज पु
वि० [सं० आर्य] दे० 'आर्य' । उ०—फूटहि सों जयचंद बुलायो जवनन भारत धाम । जाको फल अब लौं भोगत सब आरज होत गुलाम ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०, १, पृ० २३६ ।

आरजपथ
संज्ञा पुं० [सं० आर्य+ पथ] आर्यमार्ग । सदाचार का मार्ग । उ०—आरजपथ भूलीं भलै बिवस परी हितफंद ।— धनानंद, पृ० २३८ ।

आरजा
संज्ञा पुं० [अ० आरिजह] रोग । बीमारी ।

आरजू
संज्ञा स्त्री० [फा०] इच्छा । वांछा । जैसे,—(क) मुझे बहुत दिनों से उनके मिलने की आरजू है । (ख) बहुत दिनों के बाद मेरी आरजू पूरी हुई । यौ०.—आरजूमंद । मुहा०—आरजू बर आना=इच्छा पूरी होना । आशा पूरना । जैसे,—बहुत दिनों से आशा थी, आज मेरी आरजू बर आई । आरजू मिटाना=इच्छा पूरी करना । जैसे,—तुम भी अपनी आरजू मिटा लो । २. अनुनय । विनय । विनती ।

आरजूमंद
वि० [फा०] इच्छुक । अभिलाषी ।

आरट (१)
वि० [सं०] बार बार रट लगानेवाला । शोर करने वाला [को०] ।

आरट (२)
संज्ञा पुं० विदूषक [को०] ।

आरट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पंजाब के उत्तर पुर्व का एक भुभाग । २. आरट्ट के निवासी । ३. आरट्ट जनपद का घोड़ा [को०] ।

आरण पु
संज्ञा पुं० [देश.] दे० 'अहरन' । उ०—जिंव आरण लोहा पाहीजै तपै भखै भाखाय ।—प्राण०, पृ० २११ ।

आरणि
संज्ञा पुं० [सं०] जलावर्त । भँवर [को०] ।

आरणेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शुकदेव मुनि [को०] ।

आरणेय (२)
वि० [सं०] १. अरणि नामक यंत्र से उत्पन्न या संबंध [को०] ।

आरण्य (१)
वि० [सं०] १. जंगली । बनैला । २. जंगल का । बन का । यौ०—आरण्य कुक्कुट । आरण्य गान । आरण्य पशु ।

आरण्य (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'अरण्य' । २. जंगली पशु । ३. गोमय । गोबर । ४. मेष, वृष सिंह राशियाँ (ज्योतिष) । ५. बिना बोए उत्पन्न होनेवाला एक अन्न [को०] । यौ०.—आरण्यकांड=रामायण का तृतीय कांड । आरण्य कुक्कुट =बनमुर्गा । आरण्य गान=सामवाद के चार गानों में एक आरण्यपर्व=महाभारत का एक पर्व । आरण्यपशु=जंगली पशु । आरण्यमुग्दा=एक प्रकार का मूंग [को०] । आरण्य राशि=(१) ज्योतिष में सिंह आदि राशियाँ । (२) कर्कराशि का पूर्वार्ध भाग ।

आरण्यक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० आरण्यकी] १. जंगल का । बन का । जंगली । बनैला ।

आरण्यक (२)
संज्ञा पुं० वेदों की शाखा का वह भाग जिसमें वानप्रसथों के कृत्य का विवरण और उनके लिये उपयोगी आदेश हैं । विशेष—वैदिक वाड् मय में संहिताओं के अनंतर के ब्राह्नण ग्रंथों का उत्तरवर्ती वाङ् मय भाग जो उपनिषदों का पूर्ववर्ती है । यौ०—आरण्यक संवाद=आरण्यक ग्रंथों में प्रतिपादित सिद्धांत । उ०—सुनाने आरण्यक संवाद तथागत आया तेरे द्वार ।—लहर, पृ० १२ ।

आरत पु
वि० [सं० आर्त] दे० 'आर्त' । उ०—गीधराज सुनि आरत बानी । रघुकूल तिलक नारि—पहिचानी । —मानस, ३ ।२३ ।

आरतहर पु
वि० [सं० आर्तिहर] दु?ख दूर करनेवाला । कष्टहारी । उ०—नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसौं । मो समान आरत नहि आरतहर तोसों । तुलसी ग्रं०, पृ० ५०० ।

आरति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरक्ति । विराग । स्थगन । रोक । २. दे० 'आर्ति' । ३. हठ । जिद । उ०—साँझहिं ते अति ही बिरु- झान्यौ चंदहिं देखि करी अति आरति ।—सूर०, १० ।२०० । ४. अनीति । उ०—नंदघरनि ब्रजनारि बिचारति । ब्रदहिं बसत सब जनम सिरानौ ऐसी करि न आरति ।—सूर०, १० ।४२९ ।

आरति (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आर्ति] मनोरथ । इच्छा । उ०—मोको आत्मनिवेदन करवाइए और मेरी आरति पूरन करिए ।—दो सौ बावन०, भा०२, पृ० १६ ।

आरती
संज्ञा स्त्री० [सं० आरात्रिक] १. किसी मुर्ति के ऊपर दीपक को घुमाना । नीराजन । दीप । उ०—चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारी । लिए आरती मंगल थारी ।—मानस, १ ।३०१ । विशेष—इसका विधान यह है कि चार बार चरण, दो बार नाभि, एक बार मुँह के पास तथा सात बार सर्वाग के ऊपर घुमाते हैं । यह दीपक या तो घी से अथवा कपूर रखकर जलाया जाता है । बत्तियों की संख्या एक से कई सौ तक की होती है । विवाह में वर और पूजा में आचार्य आदि की भी आरती की जाती है । क्रि० प्र०—उतारना ।—करना । मुहा०—आरती लेना=देवता की आरती हो चुकने पर उपस्थित लोगों का उस दीपक पर हाथ फेरकर माथे लगाना । २. वह पात्र जिसमें घी की बत्ती रखकर आरती की जाती है । ३. वह स्तोत्र जो आरती समय गाया या पढ़ा जाता है ।

आरत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आतिं] दे० 'आर्ति' । उ०—श्री कँधाई जी का स्मरन करि कै बोहोत आरति सो बिनती करी ।— दो सौ बावन, भा०२, पृ० १०७ ।

आरथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बैल या एक घोड़े से चलनेवाला रथ [को०] ।

आरन पु
संज्ञा पुं० [सं० अरण्य] जंगल । वन । उ०—कीन्हेसि साउज आरन रहई । कीन्हेसि पंखि उड़सि जहँ चहई ।— जायसी ग्रं०, पृ० १ ।

आरनाल, आरनालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कच्चे गेहूँ का खींचा हुआ अर्क । २. काँजी ।

आरपार (१)
संज्ञा पुं० [सं० आर=किनारा+पार=दूसरा किनारा]यह किनारा और वह किनारा । यह छोर और वह छोर । अधिक । जैसे,—नाव से उसी नदी का आरपार नहीं दिखाई देता । विशेष—यह शब्द समाहार द्वंद्व सामस है, इससे इसके साथ एक वचन क्रिया का ही प्रयोग होता है ।

आरपार (२)
क्रि० वि० [सं०] एक छोर से दूसरे छोर तक । एक किनारे से दूसरे किनारे तक । जैसे,—(क) इस दीवार में आरापार छेद हो गया है । (ख) आरपार जाने में कितनी देर लगेगी?

आरफनेज
संज्ञा पुं० [अं०] वह स्थान जहाँ अनाथ बच्चों की रक्षा या पालन होता है । अनाथालय । यतीमखाना । जैसे,— हिंदू आरफनेज ।

आरबल पु † आरबला पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आयुर्बल' ।

आरब्ध
वि० [सं०] आरंभ किया हुआ ।

आरब्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुरुआत । आरंभ [को०] ।

आरभट
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहसी व्यक्ति । २. साहस । बहादुरी । ३ विश्वास [को०] ।

आरभटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रोधादिक उग्र भावों की चेष्टा । उ०—झूठौ मन झूठी सब काया, झुठी आरभटी । अरु झूठन को बदन निहारत मारत फिरत लटी ।-सूर (शब्द०) । २. एक प्रकार की नृत्यशैली [को०] । ३. नाटक में एक वृत्ति का नाम विशेष—इस वृत्ति में यमक का प्रयोग अधिक होता है । इसके द्वारा माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध, आघात, प्रिताघात और बंधनादि विविध रौद्र, भयानक और बीपत्स रस दिखाए जाते हैं । इसके चार भेद हैं-वस्तूसत्थावन, संफैट, संक्षिप्ति और अवपातन (१) वस्तूत्थापन=ऐसी वस्तुओं का प्रदर्शन या वर्णन जिससे रौद्रादि रसों की सूचना हो । जैसे,—सियारों का बोलना और श्मशान आदि । (२) सफेट=दो आदमियों का झटपट आकर भिड़ जाना । (३) संक्षिप्त=क्रोधादि उग्र भावो की निवृत्ति । जैसे,—रामचंद्र जी की बातों को सुनकर परशुराम के क्रोध की निवृत्ति (४) अवपातन?=प्रवेश से निष्कमण तक रौद्रादि भावों का अविच्छिन्न प्रदर्शन ।

आरमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हर्ष या आनंद मनाना । २. हर्ष । खुशी । ३. यौनसुख । ४. विश्रामस्थल । विराम [को०] ।

आरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द । आवाज । २. आहट । उ०— घुरघुरात हय आरव पाए । चकित बिलोकत कान उठाए ।— तुलसी (शब्द०) ।

आरषो पु
वि० [सं० आर्ष] आर्ष । ऋषियों की । उ०—भले भूप कहत भले मदेश भूषन सों लोक लखि बोलिए पुनीत रीति आरषी । —तुलसी (शब्द०) ।

आरस (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० आलस] दे० 'आलस्य' । उ०—भोर खरी सारसमुखी आरस भरी जँभाय । —स० सप्तक, पृ० २५३ ।

आरस (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आरसी' ।

आरसा
संज्ञा पुं० [हिं० रस्सा] १. रस्सा । जैसे,—बोए का आरसा=वह रस्सा जिसमें लंगड़ का बोया बँधा रहता है । २. रस्से की मुद्धी जिसमें कोई चीज बाँधकर लटकाई या उठाई जाय । गाँठ ।

आरसी
संज्ञा स्त्री० [सं० आदर्श] १. शीशा । आईना । दर्पण । उ०—(क) कहा कुसुम, कह कौमुदी, कितक आरसी जोति । जाकी उजराई लखे, आँखि ऊजरी होति ।-बिहारी र०, दो० ५१२ । २. एक गहना जिसे स्त्रियाँ दाहिने हाथ के अँगूठे में पहनती हैं । यह एक प्रकार का छल्ला है जिसके ऊपर एक कटोरी होती है जिसमें शीशा जड़ा होता है । उ०—कर मुँदरी की आरसी, प्रतिबिंबित प्यौ पाइ । पीठि दियौं निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ ।-बिहारी र०, दो० ६११ ।

आरस्य
संज्ञा पुं० [सं०] रसहीनता । अरसता । शुष्कता [को०] ।

आरा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० आरी] १. एक लोहे की दाँतीदार पटरी जिससे रेत कर लकड़ी चीरी जाती है । इसके दोनों ओर लकड़ी के दस्ते लगे रहते हैं । उ०—यह मन वाको दीजिए जो साँचा सेवक होय । सिर ऊपर आरा सहै, तबहुँ न दूजा सोय ।-कबीर (शब्द०) । २. चमड़ा सीने का टेकुआ या सूजा । सुतारी । यौ०—आराकश ।

आरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० आर] लकड़ी की चौड़ी पटरी जो पहिए की गड़ारी और पुट्ठी के बीच जड़ी रहती है । एक पहिए में ऐसी दो पटरियाँ होती हैं, बाकी और जो पतली पतली चार पटरियाँ जड़ी जाती हैं, उन्हें गज कहते हैं ।

आरा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० आड़ा] लकी की या पत्थर की पटरी जिसे दीवार पर रखकर उसके ऊपर घोड़िया या टोटा बैठातै है । यह इसलिये रखा जाता है कि घोड़िया आदि एक सीध में रहें ऊपर नीचे हों । दीवारदासा । दासा ।

आरा (४) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आला' ।

आराइश
संज्ञा स्त्री० [फा०] [वि० आरास्ता] १. सजावट । २. कागज के फूल पत्ते जो बारात में द्वारपूजा के समय साथ ले जाते हैं । फुलवाड़ी ।

आराइशी
वि० [फा०] आराइश या साज सज्जा के काम आनेवाला [को०] ।

आराकश
संज्ञा पुं० [हिं० आरा+ फा० कश] आरा चलानेवाला आदमी ।

आराज
संज्ञा पुं० [सं०] अराजकता । शासक के अभाव में होनेवाली अशांति [को०] ।

आराजी
संज्ञा स्त्री० [अ० आराजी] १. भूमि । जमीन । २. खेत ।

आराण
संज्ञा पुं० [सं० रण] युद्ध । संग्राम ।—(डिं०) [को०] ।

आरात पु
अव्य० [सं०] १. निकट । पास ।

आराति
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु । बैरी । उ०—सावधान होइधाए जानिसकल आराति । लागे बरषन राम पर अस्त्र शस्त्र बहु भाँति ।—मानस, ३ ।१३ ।

आराती पु
संज्ञा पुं० [सं० आराति] शत्रु । आराति । उ०—पुनि उठि झपटहिं सुर आराती । टरै न कीस चरन एहिं भाँती ।— मानस, ६ ।३३ ।

आरात्
क्रि० वि० [सं०] १. पास । आसपास । २. दूर । दूरस्थ स्थान पर । ३. तुरंत । चटपट [को०] ।

आराधक
वि० [सं०] [स्त्री० आराधिका] उपासक । पूजा करनेवाला ।

आराधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आराधक, आरधनीय, आराधित] १. सेवा । पूजा । उपासना । उ०—आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर । —अनामिका, पृ० १५९ । २. तोषण । तर्पण । प्रसन्न करना । ३. पकाना । राँधना (को०) । ४. अर्जन [को०] ।

आराधना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूजा । उपासना ।

आराधना (२)पु
क्रि० स० [सं० आराध=आ+राध्+हिं० ना (प्रत्य.)] १. उपासना करना । पूजना । उ०—केहि आराधहु का तुम चहहू । हम सन सत्य मर्म सब कहहू ।— तुलसी (शब्द०) । २. संतुष्ट करना । प्रसन्न करना । उ०— इच्छित फल बिनु शिव आराधैं । लहइ न कोटि योग जप साधें । -तुलसी (शब्द०) ।

आराधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपासना । सेवा । पूजा । [को०] ।

आराधनीय
वि० [सं०] आराधना के योग्य । पूजनीय ।

आराधयिता
वि० [सं० आराधयितृ] आराधना करनेवाला [को०] ।

आराधित
वि० [सं०] जिसकी उपासना हुई हो । पूजित ।

आराध्य
वि० [सं०] पूज्य । पूजनीय ।

आराम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बाग । उपवन । फुलवारी । उ०—परम रम्य आराम यह जो रामहिं सुख देत ।—तुलसी (शब्द०) ।

आराम (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. चैन । सुख । जैसे,— संसार में कौन नहीं आराम चाहता । क्रि० प्र०—करना ।—चाहना ।—देना ।—पहुँचना ।—पाना ।—लेना ।—मिलना । २. चंगापन । सेहत । स्वास्थ्य । जैसे,—जब से यह दवा दी गई हैं, तब से कुछ आराम है । क्रि० प्र०—करना ।—चाहना ।—देना ।—पाना ।—होना । ३. विश्राम । थकावट मिटाना । दम लेना । जैसे,—बहुत चले, जरा आराम तो लेने दो । क्रि० प्र०—करना ।—पाना ।—लेना । यौ०—आरामगाह । आरामतलब । आरामदान । आरामपाई । मुहा०—आराम करना=सोना । जैसे, —उन्हें आराम करने दो, बहुत जागे हैं । आराम में होना = सोना । जैसे,—अभी आराम में हैं, इस वक्त जगाना अच्छा नहीं । आराम लेना=विश्राम करना । आराम से=फुरसत में । धीरे धीरे । बेखटके । जैसे,— (क) कोई जल्दी पड़ी है, ठहरो आराम से लिखा जायगा । (ख) इस वक्त रखो, घर पर आराम से बैठकर देखेंगे । आराम से गुजरना=चैन से दिन कटना ।

आराम
वि० [फा़०] चंगा । तंदुरुस्त । जैसे, —उस वैध ने उसे बात की बात में आराम कर दिया । क्रि० प्र०— करना । होना ।

आरामकुरसी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] एक प्रकार की लंबी कुरसी जिसमें पीछे की ओर कुछ लंबोतरा ढासना होता है और दोनों ओर हाथ या पैर रखने के लिये लंबी पटरियाँ लगी होती हैं । इस पर आदमी बैठा हुआ आराम से लेट भी सकता है ।

आरामगाह
संज्ञा स्त्री० [फा़०] सोने की जगह । शयनागार ।

आरामतलब
वि० [फा़०] [संज्ञा आरामतलबी] १. सुख चाहनेवाला । सुकुमार । जैसे, —काम न करने से अमीर लोग आरामतलब हो जाते हैं । २. सुस्त । आलसी । निकम्मा । जैसे,— वह इतना आरामतलब हो गया है कि कहीं जाता आता भी नहीं ।

आरामदान
संज्ञा पुं० [फा़० आराम + दान] १. पानदान । २. सिंगारदान ।

आरामपाई
संज्ञा स्त्री० [फा़० आराम + हिं० पाय] एक प्रकार की जूती जिसे पहलेपहल लखनऊवालों ने बनाया था ।

आरामशीतला
संज्ञा स्त्री० [सं० ] आनंदी । गंधाढया । महानंदा । रामशीतला । विशेष—यह उपवन में रहने के कारण शीतल होती है । राजनिघंटु में इसे तिक्त, शीतल, पित्तहारिणी, दाह और शोथ को दूर करनेवाली कहा गया है ।

आरामाधिपति
संज्ञा पुं० [सं० ] बगीचों का अधिकारी । विशेष—शुक्रनीति के अनुसार आरामधिपति को फल फूल के पौधे बोने में निपुण, खाद तथा पानी देने का समय जाननेवाला, जड़ी बूटियों को पहचाननेवाला होना चाहिए ।

आरामिक
संज्ञा पुं० [सं० ] माली [को०] ।

आरालिक
वि० [सं० ] [वि, स्त्री० आरालिका] रसोईदार । पाचक ।

आराव
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'आराव' [को०] ।

आरास्ता
वि० [फा़० आरस्तह] सजा हुआ । सुसज्जित । उ०— चमत्कृत चीजों से वह आरास्ता और पैवस्ता है । प्रेमघन, भा० २, पृ० २३४ । क्रि० प्र०—करना । होना ।

आराही पु
वि० [सं० आराधक, प्रा० आराहग, अप० आराही] उपासक । आराधना करनेवाला । उ०—सुर जाकौ पार न पावैं कोटि मुनी जन ध्याई । दादू रे तन ताकौ है रे जाकौ सकल लोक आराही । दादू० बा०, पृ० ५७६ ।

आरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अड़] हठ । टेक । जिद । उ०—(क) द्वार हौं भोर ही को आजु । रटत रिरिहा, आरि और न, कौर ही ते काजु । —तुलसी ग्रं०, पृ० ५७८ । (ख) तब सकोप भगवान हरि तीछन चक्र प्रहारि । धर ते सीस धरा, धरा, करि लीनहीं श्रुति आरि । —गोपाल (शब्द०) ।

आरिज (१)
संज्ञा पुं० [अ० आरिज] कपोल । गाल । उ०—लगा दे शोलए आरिज से गर वह आग गुलशन में । —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४० ।

आरिज (२)
वि० [अ० ] १. अड़चन डालनेवाला । बाधक । २. होने या लग जानेवाला (रोग आदि); [को०] ।

आरिजा (१)
संज्ञा पुं० [अ० आरिजह्] १. रोग । बीमारी । २. कष्ट [को०] ।

आरिजी
वि० [अ० आरिजी] १. क्षणस्थायी । नश्वर । २. आकस्मिक । उ०—उसके रुखसार देख जीता हूँ । आरिजी मेरी जिंदगानी है । —कविता कौ०, भा० ४, पृ० २६ ।

आरित्रिक
वि० [सं० ] अरित्र से संबंधित । नाव के डाँड़ से संबद्ध [को०] ।

आरिफ
संज्ञा पुं० [अ० आरिफ़] साधु । ज्ञानी । उ०— प्रारिफ जो हैं उनके हैं बस रंज व राहत एक 'रसा' । जैसे वह गुजरी है यह भी किसी तरह निभ जाएगी । —भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८५६ ।

आरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० आरुक = ककड़ी] एक फल जो ककड़ी के समान होता है । यह भादों क्वार के महीने में होती है और बहुत ठंढी होती है । यह एक बित्ता लंबी और अँगूठे के बराबर मोटी होती है ।

आरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० आरा का अल्पा०.] १. लकड़ी चीरने का बढ़ई का एक औजार । विशेष— यह लोहे की एक दाँतीदार पटरी होती है जिसमें एक ओर काठ का दस्ता या मूठ लगी रहती है । मूँठ की ओर यह पटरी चौड़ी और आगे की ओर पतली होती जाती है । इससे रेतकर लकड़ी चीरते हैं । हाथीदाँत आदि चीरने के लिये जो आरी होती है वह बहुत छोटी होती है । २. लोहे की एक कील जो बैल हाँकने के पैने की नोक में लगी रहती है । ३. जूता सीने का सूजा । सुतारी ।

आरी (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आर = किनारा] ओर । तरफ । उ०— बिछवाए पौरि लों बिछौना जरीबाफन के, खिंचवाए, चाँदनी सुगंध सब आरी में । —रघुनाथ (शब्द०) । २. कोर । अवँठ । बारी ।

आरी (३)
वि० [अ० ] तंग । हैरान । आजिज । जैसे, -हम तो तुम्हारी चाल से आरी आ गए हैं । क्रि० प्र० —आना ।

आरी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसे जालबर्बुरक या स्थूलकंटक भी कहते हैं । २. दुर्गंधखैर । बबुरी ।

आरु (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] १.कर्कट । केकड़ा । २. शूकर । ३.वृक्ष विशेष । ४.मेढक [को०] ।

आरु (२)
संज्ञा स्त्री० घड़ा । जलपात्र [को०] ।

आरुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] औषध के काम आनेवाला एक प्रकार का पौधा जो हिमालय पर होता है । यह शीतलता प्रदान करता है [को०] ।

आरुक (२)
वि० हानिकारक [को०] ।

आरुण
वि० [सं० ] अरुण से संबंध रखनेवाला [को०] ।

आरुणि
संज्ञा पुं० [सं० ] १.अरुण के पुत्र । २.सूर्य के पुत्र यम, शनैश्चर आदि । ३.उद्दालक ऋषि [को०] ।

आरुणेय
संज्ञा पुं० [सं० ] आरुणि ऋषि के पुत्र । श्वेतकेतु [को०] ।

आरुण्य
संज्ञा पुं० [सं० ] अरुणता । ललाई [को०] ।

आरुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] फलविशेष । भल्लातक [को०] ।

आरू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल वर्ण । पीला रंग [को०] ।

आरू (२)
वि० पिंगल वर्ण वाला । भूरे और लाल रंग से मिश्रित [को०] ।

आरूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक जड़ी जो हिमालय पर से आती है । आड़ । २. आलूबुखारा ।

आरूढ़
वि० [सं० आरूढ़] १.चढ़ा हुआ । सवारा । उ०—खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा । — मानस, ५ । ११ । २. दृढ़ । स्थिर । जैसे, —हम तो अपनी बात पर आरूढ़ हैं । क्रि० प्र०—करना । —होना । यौ०—आरूढ़यौवना । अश्वारूढ़ । गजारूढ़ । सिंहासनारूढ़ ।

आरूढ़यौवना
संज्ञा स्त्री० [सं० आरूढ़यौवना] मध्या नायिका के चार भेदों में से एक । वह स्त्री जिसे पतिप्र संग अच्छा लगे ।

आरूढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० आरूढ़ि] १.कढ़ाव । चढ़ाई । २.आरूढ़ होने का भाव । ३.तप्तरता [को०] ।

आरेक
संज्ञा पुं० [सं० ] १.घटाना । २.खाली करना । ३.संदेह । ४.आधिक्य [को०] ।

आरेचन
संज्ञा पुं० [सं०] १.संकोचन । २. खाली करना या कराना । ३.बहिष्करण । बाहर करना या निकालना [को०] ।

आरेचित
वि० [सं०] १. संकुचित । २.रिक्त । ३.घटाया हुआ [को०] ।

आरेवत
संज्ञा पुं० [सं०] अमिलतास । आरग्वध ।

आरेस पु
संज्ञा स्त्री० [देश०.] डाह । ईर्ष्या । उ०—कवहुँ न किएउ सवति आरेसू । प्रीति प्रतीति जान सब देसू । —मानस, २ । ४९ ।

आरो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आरव' ।

आरोग (१)
वि० [सं० आरोग्य] दे० 'आरोग्य' ।

आरोगना पु
क्रि० सं० [सं० आ + रोग (√ रूज् = हिंसा)] खाना । उ०—(क) शबरी परम भक्त रघुबर की चरण कमल की दासी । ताके फल आरोगे रघुपति पूरण भक्ति प्रकासी । — सूर (शब्द०) । (ख) आरोगत हैं श्रीगोपाल । षटरस सौंज बनाइ जसोदा, रचिकै कंचन थाल । —सूर०, १० । १०१ ।

आरोगाना पु
क्रि० स० [हिं० आरोगना का प्रे० रूप] भोजन कराना । जिमाना । उ०— तातें आजु जो ए अपने घर भैंसि लैके आवेंगे तो मैं एक दिन कौ माखन आरोगाउँगी । —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ३ ।

आरोग्य
वि० [सं०] नीरोग । रोगरहित । स्वस्थ । तंदुरुस्त ।

आरोग्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वास्थ्य । तंदुरुस्ती ।

आरोग्यप्रतिपद्व्रत
संज्ञा पुं० [सं०] स्वास्थयलाभ के निमित्त किया जानेवाला एक व्रत [को०] ।

आरोग्यशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिकित्सा । अस्पताल [को०] ।

आरोग्यस्नान
संज्ञा पुं० [सं० ] बीमारी दूर हो जाने के बाद पहले पहल किया जानेवाला स्नान [को०] ।

आरोचक
वि० [सं०] चमकीला । प्रकाशवान् [को०] ।

आरोचन
वि० [सं०] दे० 'आरोचक' । उ०— मोह पटल मोचन आरोचन, जीवन कभी नहीं जनशोचन । —अर्चना, पृ० २ ।

आरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १.अवरोध । बाधा । घेरा । २. कँटीली झाड़ी की बाड़ [को०] ।

आरोधना पु
क्रि० स० [सं० आरोध] रोकना । छेंकना । आड़ना । उ०—देखन दे पिय मदनगोपालहिं । आति आतुर आरोधि अधिक दु?ख तेहि कहँ उरति न औ यम कालहिं । मन तौ पिय पहिले ही पहुँच्यो प्राण तहीं चाहत चित चालहिं । — सूर० (शब्द०) ।

आरोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थापित करना । लगाना । मढ़ना । उ०— कवियों को उनपर अपने भावों के आरोपण की आवश्य- कता नहीं होती । — रस०, पृ० १४ । २. एक पेड़ को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाना । रोपना । बैठाना । ३. मिथ्याध्यास । झूठी कल्पना । ४. एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के धर्म की कल्पना । जैसे,— असंग जीवात्मा में कर्तृत्व धर्म का आरोप । ५. एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के आरोप से उत्पन्न मिथ्या ज्ञान । ६. (साहित्य में) एक वस्तु में दूसरी वस्तु के धर्म की कल्पना । विशेष—यह आरोप दो प्रकार का माना गया है । एक आहार्य और दूसरा अनाहार्य । आहार्य वह है जहाँ इस बात को जानते हुए भी कि पदार्थों की प्रत्यक्षता से श्रम की निवृत्ति हो सकती है, कहनेवाला अपनी इच्छा के अनुसार उसका प्रयोग करता है । जैसे 'मुखचंद्र' । यहाँ 'मुख' और 'चंद्र' दोनों के धर्म के साक्षात् द्वारा भ्रम की निवृति हो सकती है । दूसरा 'अनाहार्य' है जिसमें ऐसे दो पदार्थों के बीच आरोप हो जिनमें एक या दोनों परोक्ष हों ।

आरोपक
वि० [सं०] दोष या अपराध लगानेवाला ।

आरोपण
संज्ञा पुं० [सं० ][वि० आरोपित, आरोप्य] १. लगाना । स्थापित करना । मढ़ना । २.पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाना । रोपना । बैठाना । ३. किसी वस्तु में स्थित गुण को दूसरी वस्तु में मानना । ४. मिथ्याज्ञान । भ्रम ।

आरोपना पु
क्रि० स० [सं० आरोपण] १. लगाना । उ०— भानु देखि दल चूरन कोप्यौ । तजि अनिलास्त्र अनिल आरोप्यौ । - गोपाल० (शब्द०) । २. स्थापित करना । उ०— सो सुनि नंद सबन दै थोपी । शिशुहिं सप्यार अंक आरोपी । —गोपाल (शब्द०) ।

आरोपित
वि० [सं०] १. लगाया हुआ । स्थापित किया हुआ । मढ़ा हुआ । उ०— जहाँ तथ्य केवल आरोपित या संभावित रहते हैं वहाँ वे अलंकार रूप में ही रहते हैं । —रस०, पृ० १४ । २. रोपा हुआ । बैठाया हुआ ।

आरोप्य
वि० [सं०] १. लगाने योग्य । स्थापित करने योग्य । २. रोपने योग्य । बैठाने योग्य ।

आरोप्यमाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्तु जिसपर किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाय । २.साहित्य में उपमान या अप्रस्तुत [को०] ।

आरोह
संज्ञा पुं० [सं०][वि० आरोहा] १. ऊपर की ओर गमन । चढ़ाव । २. आक्रमण । चढ़ाई । ३. घोड़े, हाथी आदि पर चढ़ना । सवारी । ४. वेदांत में क्रमानुसार जीवात्मा की ऊर्ध्वगतिया क्रमश? उत्तमोत्तम योनियों की प्राप्त होना । ५. कारण से कार्य का प्रादुर्भाव या पदार्थों की एक ग्रवस्था से दूसरी अवस्था की प्राप्ति । जैसे, -बीज से अंकुर, अंकुर से वृक्ष, या अंडे से बच्चे का निकलना । ६. क्षुद्र और अल्प चेतनावाले जीवों से क्रमानुसार उन्नत प्राणियों की उत्पत्ति । आविर्भाव । विकास । विशेष—आधुनिक सृष्टितत्वविदों की धारणा है कि मनुष्य आदि सब प्राणियों की उत्पत्ति आदि में एक या कई साधारण अवयवियों से हुई है जिनमें चेतना बहुत सूक्ष्म थी । यह सिद्धांत इस सिद्धांत का विराधी है कि संसार के सब जीव जिस रूप में आजकल हैं उसी रूप में उत्पन्न किए गए । निरव- यव जड़ तत्व क्रमश? कई सावयव रूपों में सामने आया, जिनमें, भिन्न भिन्न मात्राओं की चेतनता आती गई । इस प्रकार अत्यंत सामान्य अवयवियों से जटिल अवयववाले उन्नत जीव उत्पन्न हुए । योरप में इस सिद्धांत के बनानेवाले डार्विन साहब है जिनके अनुसार आरोह की निम्नलिखित विधि है- (क) देश काल के अनुसार परिवर्तित होते रहने की इच्छा । (ख) जीवनसंग्राम में उपयोगी अंगों की रक्षा और उनकी परीपूर्णता । (ग) सुदृढ़ांग जीवों की स्थिति और दुर्बलांगों का विनाश । (घ) प्राकृतिक प्रतिग्रह या संवरण जिसमें दंपति- प्रतिग्रह प्रधान समझा जाता है । (च) यह साधारण नियम कि किसी प्राणी का वर्तमान रूप उपर्युक्त शक्तियों का, जो समान आकृति उत्पादन की पैतृक प्रवृत्ति के विरुद्ध कार्य करती है, परिणाम है । ७. संगीत में स्वरों का चढ़ाव या नीचे स्वर से क्रमश? ऊँचा स्वर निकालना । जैसे, —सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा । ८. चूतड़ । नितंब । ९. ग्रहण के दस भेदों में से एक । विशेष—इस ग्रहण में ग्रस्त ग्रह को आवृत करनेवाला ग्रह (राहु) वर्तुलाकर ग्रहमंडल को आवृत करके पुन? दिखाई पड़ता है । फलित ज्योतिष के अनुसार इस प्रकार के ग्रहण के फलस्वरूप राजाओं में परस्पर संदेह और विरोध उत्पन्न होता है ।

आरोहक (१)
वि० [सं० ] १. चढ़नेवाला । अरोही । २. ऊपर उठनेवाला [को०] ।

आरोहक (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. सारथी । २. सवार । ३. वृक्ष [को०] ।

आरोहण
संज्ञा पुं० [सं० ] [वि० आरोहित] १. चढ़ना । सवार होना । उ०—उन्नति का आरोहण, महिमा शैल शृंग सी श्रांति नहीं । —कामायनी, पृ० १८१ । २.अँखुआना । अंकुर निकलना । ३. सीढ़ी । ४. नृत्यमंच [को०] । ५. ऊपर उठना (को०) ।

आरोहन पु
संज्ञा पुं० [सं० आरोहण] दे० 'आपरोहण' । उ०— आरोहन अवरोहन के कै कै फल सोहैं । -भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४१७ ।

आरोहना पु
क्रि० अ० [सं० आरोह] चढ़ना । तुलसी गलिन भोर दरसन लगि लोग अटनि आरोहैं । —तुलसी ग्रं०, पृ० ३०० ।

आरोहित
वि० [सं०] १.चढ़ा हुआ । २. निकला हुआ । ३. अँखुआया हुआ ।

आरोही (१)
वि० [सं० आरोहिन्] [स्त्री० आरोहिणी] १. चढ़नेवाला । ऊपर जानेवाला । २. उन्नतिशील ।

आरोही (२)
संज्ञा पुं० १. संगीत शास्त्रानुसार वह स्वर जो पड़ज से लेकर निषाद तक उत्तरोत्तर चढ़ता जाय । जैसे,—सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा । २. सवार ।

आरौ
संज्ञा पुं० [सं० आरव] १. शब्द । ध्वनि । २. आहट । उ०— घुरघुरात हय आरौ पाएँ । चकित बिलोकत कान उठाएँ । —मानस, १ । १५६ ।

आर्क
वि० [सं० ] अर्क अर्थात् (सूर्य या मदार) से संबंध रखनेवाला । [को०] ।

आर्कि
संज्ञा पुं० [सं० ] सूर्य के पुत्र १.शनि । २.यम । ३.वैवस्वत मनु । ४.कर्ण [को०] ।

आर्केस्ट्रा
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'आरचेस्ट्रा' ।

आर्गल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अर्गल' [को०] ।

आर्घा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीले रंग की एक प्रकार की मधुमक्खी जिसका सिर बड़ा होता है । सारंग मक्खी ।

आर्घ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आर्घा नाम की मक्खियों का मधु । सारंग मधु । विशेष—यह कफ, पित्त नाशक और आँखों को लाभकारी है । यह पकाने से कुछ कड़ुआ और कसैला हो जाता है । २. एक प्रकार का महुआ जिसकी सफेद गोंद मालवा देश से आती है ।

आर्ज पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आर्य' । उ०—जय मुनि मंडन धरमधर पर उपकारक आर्ज । —पोद्दार । अभि० ग्रं०, पृ० ४९१ ।

आर्जव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीधापन । टेढ़ापन' का उलटा । २. सरलता । सुगमता । ३. व्यवहार की सरलता । कुटिलता का अभाव ।

आर्जुनि
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन का पुत्र । अभिमन्यु [को०] ।

आर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. कौशल । कृतित्व । कारीगरी । शिल्प- विद्या । दस्तकारी । २. कला । विद्या । शिल्प । हुनर । जैसे,— चित्रकारी । ३. चीत्रकार या भास्कर का काम या व्यवसाय । ४. विश्वविद्यालय का वह विभाग जिसमें चिकित्साविज्ञान और व्यवहारशास्त्र (वकालत) तथा अन्य सब विषयों, विद्यायों और भाषाऔं की उच्च शिक्षा दी जाती है । जैसे,— आर्ट्स कालेज । यौ०— आर्ट पेपर = चित्र आदि छापने के लिये क प्रकार का चमकीला और चिकना कागज । आटस्कूल = वह पाठशाला जहाँ शिल्प और कलाकौशल की शिक्षा दी जाती हो ।

आर्टिकिल
संज्ञा स्त्री० [अं० ] १. लेख । निबंध । २.चीज । वस्तु ।

आर्टिकिल्स आँव् एसोसिएशन
संज्ञा पुं० [अं०] किसी संस्था या ज्वाइंट स्टाक कंपनी या संमिलित पूँजी से खुलनेवाली कंपनी की नियमावली ।

आर्टिक्यूलेटा
संज्ञा पुं० [अं०] बिना रीढ़वाले ऐसे जंतुओं का एक भेद जिनके शरीर संकुचित रहते हैं, पर चलने की दशा में फैल जाते हैं, जैसे,— जोंक ।

आर्टिलरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तोपखाना ।

आर्टिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो किसी कला में, विशेषकर ललित कला (चित्रकारी, तक्षणकला, संगीत, नृत्य आदि) में कुशल हो ।

आर्डर
संज्ञा पुं० (सं० आँर्डर] १.आज्ञा । हुक्म । २. कोई वस्तु भेजने पहुँचाने या मुहैया करने के लिये मौखिक या लिखित आदेश । माँग । जैसे, —(क) वे बादामी कागज की एक गाँठ का आर्डर दे गए हैं । -(ख) आजकल बाहर से बहुत कम आर्डर आते हैं । क्रि० प्र० —आना । —देना । —मिलना । यौ०—आर्डरबुक = वह बही जिसमें आदेश या माँग लिखी जाय । आर्डर सप्लाई । आर्डर सप्लायर । ३. स्थिरता । शांति । जैसे, —सभा में बड़ा हल्ला मचा, लोग 'आर्डर', 'आर्डर', कहने लगे । ४. क्रम । सिलसिला ।

आर्डरी
वि० [अं० आर्डर + हिं० ई (प्रत्य.)] आर्डरसंबंधी । आर्डर का ।

आर्डिनरी
वि० [अं० आँर्डिनरी] १.साधारण । सामान्य । मामूली । जैसे,— आर्डिनरी मेंबर । आर्डिनरी शेयर । २. प्रसिद्ध । प्रधान । यौ०—आर्डिनरी स्टाक = कंपनी का प्रधान या असली धन ।

आर्डिनेंस
संज्ञा पुं० [अं० आँर्डिनैन्स] वह आदेश या हुक्म जो किसी देश के अधिकारी (भारत में वाइसराय, अब राष्ट्रपति) विशेष अवसरों पर जारी करते हैं और कुछ काल के लिये कानून माना जाता है । अस्थायी व्यवस्था या कानून । जैसे,— नए आर्डिनेंस के अनुसार बंगाल में कितने ही युवक गिरफ्तार किए गए । विशेष—भारत में वाइसराय अपने अधिकार से, बिना कौंसिल की संमति लिए आर्डिनेंस जारी कर सकते थे । ऐसे आर्डिनेंस का काल छह महीने होता है पर आवश्यकता पड़ने पर बढ़ाया भी जा सकता है । स्वतंत्र भारत में यह अधिकार राष्ट्रपति को है ।

आर्णव
वि० [सं०] अर्णव या समुद्र संबंधी [को०] ।

आर्त, आर्त्त
वि० [सं०] [संज्ञा आर्ति] १. पीड़ित । चोट खाया हुआ । २.दु?खित । दुखी । कातर । ३.अस्वस्थ । ४. नश्वर [को०] ।

आर्तगल
संज्ञा पुं० [सं० ] नीली कटसरैया ।

आर्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.पीड़ा । दर्द । २. दु?ख । क्लेश ।

आर्तध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के मतानुसार वह ध्यान जिससे दु?ख हो । विशेष—यह चार प्रकार का है —(१) अनिष्टार्त संयोगार्त ध्यान । (२) इष्टार्थ वियोगार्त धयान । (३) रोग निदानार्त ध्यान और (४) आग्रशोचनमार्त ध्यान ।

आर्तध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दु?खभरी पुकार । दर्दभरी आवाज [को०] ।

आर्तनाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह शब्द जिससे सुननेवाले को यह बोध हो कि उसका उच्चारण करनेवाला दु?ख में है । दु?खसूचक शब्द ।

आर्तबंधु
संज्ञा पुं० [सं० आर्तबन्धु] १.दुखियों का सहायक । दीनबंधु । भगवान् । परमात्मा [को०] ।

आर्तव (१)
वि० [सं० ] [स्त्री० आर्तवी] ऋतु में उत्पन्न । मौसमी । सामयिक । २.ऋतु संबंधी । ३.मासिक स्राव संबंधी [को०] ।

आर्तव (२)
वह रज जो स्त्रियों की योनि से प्रति मास निकलता है । पुष्प । रज । यौ०— आर्तव रोग = स्त्रियों के मासिक धर्म का समयानुसार न होना । यह दो प्रकार का होता है —(१) रजस्राव = जब रजोधर्म चार से अधिक दिन तक रहे अथवा महीने में एक से अधिक बार हो । (२) रजस्तंभ = जब रजोधर्म एक मास से अधिक काल पर हो या महीने ता अंतर देकर हो ।

आर्तवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दु?खसूचक शब्द । आर्तस्वर । उ०— वृद्धों की आर्तवाणी, क्रंदन रमणियों का भैरव संगीत बना । - लहर, पृ० ६५ ।

आर्तवेयी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] रजस्वला स्त्री । ऋतुमति नारी [को०] ।

आर्तसाधु
वि० [सं०] दे० 'आर्तबंधू' [को०] ।

आर्तस्वर
संज्ञा पुं० [सं० ] दु?खसूचक शब्द ।

आर्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीड़ा । दर्द । २. दु?ख । क्लेश । ३. व्याधि । रोग [को०] । ४.विनाश । बर्बादी (को०) । ५. बुराई । निंदा [को०] । ६. धनुष की कोर (को०) ।

आर्ति पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'आरती' । उ०— फेरि रसोई में जाइ समै भए भोग सराइ श्री ठाकुर जी की मंगला आर्ति करि, सिंगार धरते । —दो सौ० बावन, भा० १, पृ०१०१ ।

आर्त्विज
विं० [सं०] [स्त्री० आर्त्विजा] ऋत्विजासंबंधी । यौ०— आर्त्विजी दक्षिणा = ऋत्विज की दक्षिणा ।

आर्थिक
वि० [सं०] १.धनसंबंधी । द्रव्यसंबंधी । रुपये पैसे का । माली । जैसे, —आर्थिक दशा । आर्थिक सहायता । उ०—लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर, हारता रहा मैं स्वार्थ समर!— अपरा०, पृ० १६९ । २. महत्वपूर्ण । महत्व का [को०] । ३. धनयुक्त । धनी [को०] । ४. चतुर । कुशल [को०] । ५. स्वाभाविक । नैसर्गिक [को०] । ६. किसी शब्द के अर्थ से निं?सृत [को०] ।

आर्थी
संज्ञा स्त्री० दे० 'कैतवापह्नुति' ।

आर्थोडाक्स
वि० [अं० आँर्थोडाँक्स] जो अपने धार्मिक मत या सिंद्धांत पर अटल हो । अपने धार्मिक मत या सिद्धांत से टस से मस न होनेवाला । कट्टर सनातनी । जैसे,— परिषद के आर्थोडाक्स हिंदू मेंबरों ने शारदा विवाह बिल का घोर विरोध किया ।

आर्द्ध
वि० [सं०] आधा । जैसे,— आर्द्धमासिक [को०] ।

आर्द्धिक
वि० सं० दे० आर्धिक' [को०] ।

आर्द्र
वि० [सं०] [संज्ञा० आर्द्रता] १. गीला । ओदा । तर । २. सना । लथपथ । यौ०—आर्द्रवीर । आर्दाशनि ।

आर्द्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अदरक । आदी ।

आर्द्रक (२)
वि० १. आर्दा नक्षत्रसंबंधी वा आद्रा में उत्पन्न । २. गीला । तर [को०] ।

आर्द्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गीलापन । शीतलता । ठंढक ।

आर्द्रपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] वंश । बाँस [को०] ।

आर्द्रमाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी । बनमाष । मसवन ।

आर्द्रशाक
संज्ञा पुं० [सं०] हरी अदरक । हरी आदी [को०] ।

आर्द्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्ताईस नक्षत्रों में छठा नक्षत्र । विशेष—ज्योतिषियों ने इस पद्माकर लिखा है, पर कोई इसे मणि के आकार का भी मानते हैं । इस नक्षत्र में केवल एक ही उज्वल तारा है । २. वह समय जब सूर्य आर्दा नक्षत्र का होता है । प्राय?आषाढ़ के आरंभ में यह नक्षत्र उगता है । इसी नक्षत्र से वर्षा का आरंभ होता है । किसान इस नक्षत्र में धान बोते हैं । उनका विश्वास है कि इस नक्षत्र में धान अच्छा होता है । उ०—आर्दा धान पुनर्बसु पैया । गा किसान जब बोया चिरैया (शब्द०) । ३. ११ अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसके पहले और चौथे चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु (ज त ज ग ग) दूसरे और तीसरे चरण में दो तगण, जगण और दो गुरु (त त ज ग ग) होते हैं । वृत्ति उपजाति के अंतर्गत है । उ०—साधो भलो योगन पै बढ़ाओ । खड़े रहो क्यों न त्वचै पचाओ । टीके सु छापे बहुतै लगाओ । वृथा सबै जो हरि को न गाओ (शब्द०) । यौ०—आर्दालुब्धक = केतु । ४. अदरक । आदी । ५. अतीस ।

आर्द्रावीर
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाममार्गी ।

आर्द्राशनि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. विद्युत् । बिजली । २. एक अस्त्र ।

आर्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेत की आधी उपज लेने की शर्त पर खेत जोतने बोनेवाला । २. पाराशर स्मृति के अनुसार वेश्या माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न एक संकर जाति । विशेष—ये लोग ब्राह्मणों की पंक्ति में भोजन कर सकते हैं । मनु के अनुसार यह वर्ण शूद्र माना गया है और भोज्यान्न है ।

आर्नव पु
वि० [सं० आर्णव] आर्णव या समुद्रसंबंधी । उ०— आर्नव नाव विहंग जिमि, फिरि आवै तिहि ठौर । —नंद ग्रं०, पृ० १३२ ।

आर्म
संज्ञा पुं० [अं०] हथियार । अस्त्र शस्त्र । जैसे,— आर्म्स ऐक्ट ।

आर्मपुलिस
संज्ञा स्त्री० [अं० आर्म्ड पोलिस] हथियारबंद पुलिस । सशस्त्र पुलिस ।

आर्मर्डकार
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की गाड़ी जिसपर गोलियों से बचाव के लिये लोहा मढ़ा रहता है । बख्तरदार गाड़ी । विशेष—ऐसी गाड़ियाँ सेना के साथ रहती हैं ।

आर्मी
संज्ञा स्त्री० [अं०] सेना । फौज । जैसे, —इंडियन आर्मी । विशेष—आर्मी शब्द० देश की समूची स्थल सेना का बोधक है ।

आर्य (१)
वि० [सं०] [स्त्री० आर्या] १. श्रेष्ठ । उत्तम । २. बड़ा । पूज्य । ३. श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न । मान्य । ४. आर्य जाति संबंधी । आर्य जाति का ।

आर्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ पुरुष । श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न । विशेष—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में इसशब्द का व्यवहार करते हैं । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं । नाटकों में नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है । २. मनुष्यों की एक जाति जिसने संसार में बहुत पहले सभ्यता प्राप्त की थी । विशेष—ये लोग गोरे, सुविभक्तांग और डील के लंबे होते हैं । इनका माथा ऊँचा, बाल घने, नाक उठी और नुकीली होती है । प्राचीन काल में इनका विस्तार मध्य एशिया तथा कैस्पियन सागर से लेकर गंगा यमुना के किनारों तक था । इनका आदिस्थान कोई मध्य एशिया, कोई स्कडिनेविया और कोई उत्तरीय ध्रुव बतलाते हैं । ये लोग खेती करते थे, पशु पालते थे, धातु के हथियार बनाते थे, कपड़ा बुनते थे और रथ आदि पर चलते थे । ३. सावर्णि मनु का एक पुत्र [को०] । ५. बौद्ध धर्म का पालन करनेवाला व्यक्ति [को०] । यौ०.—आर्य अष्टांगमार्ग =बौद्ध दर्शन के अनुसार वह मार्ग जिससे निर्वाण या मोक्ष मिलता है । ये आठ हैं-(१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्पना, (३) सम्यक् वाचा, (४) सम्यक् कर्मणा, (५) सम्यगाजीव, (६) सम्यग्व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक् समाधि । यौ०.—आर्यक्षेत्र । आर्यपुत्र । आर्यभूमि ।

आर्यक
संज्ञा पुं० [सं० ] १. आदरणीय जन । पूज्य व्यक्ति । २. पितामह । ३. एक श्राद्घ जो पितरों के संमानार्थ किया जाता है [को०] ।

आर्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.श्रेष्ठ एवं आदरणीय महिला । २. एक नक्षत्र का नाम [को०] ।

आर्यकाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] आर्यजातीय काव्य । भारतीय आर्यों का काव्य । उ०—वाल्मीकीय रामायण को मैं आर्यकाव्य का आदर्श मानता हूँ । —रस०, पृ० ११० ।

आर्यदेश
संज्ञा पुं० [सं०] वह देश जिसमें आर्यों का निवास है [को०] ।

आर्यधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] सदाचार । उ०—वह आर्पधर्म, वह शिरोधार्य वैदिक समता । —अणिमा, पृ० ३५ ।

आर्यपुत्र
संज्ञा पुं० [सं० ] आदरसूचक शब्द० । दे० 'आर्य' ।

आर्यभट्ट
संज्ञा पुं० [सं० ] ज्योतिष शास्त्र के एक प्राचीन विद्वान् का नाम, जिन्होंने भारत में सर्व प्रथम बीजगणित का/?/

आर्यवाक्
वि० [सं०] आर्यभाषा या संस्कृत बोलनेवाला [को०] ।

आर्यवृत्त
वि० [सं०] धार्मिक । सदाचारी [को०] ।

आर्यवेश
वि० [सं०] १. आयोँ का सा सभ्य वेश धारण करनेवाला । २. पांखडी । दोंगी [को०] ।

आर्यशील
वि० [सं०] पुण्यचरित् । धर्मात्मा [को०] ।

आर्यश्वेत
वि० [सं०] संमाननीय । आदरणीय [को०] ।

आर्यसत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. महान् सत्य । २. बौद्धधर्म के चार सिद्धांत जो उसके आधारभूत स्तंभ माने जाते हैं । वे हैं : (१) जीवन कु?खमय है, (२) जीवनेच्छा दु?ख का कारण है, (३) इच्छा की निवृत्ति दु?ख की निवृत्ति है, (४) अष्टमार्ग निर्वाण की ओर ले जाते हैं [को०] ।

आर्यसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] एक धार्मिक समाज या समिति जिसके संस्थापक स्वामी दयानंद थे । विशेष—इस समाज के प्रधान दस नियम हैं । इस मत के लोग वेदों के संहिता भाग को अपौरूषेय और स्वत? प्रमाण मानते हैं । मूर्तिपूजा, श्राद्ध, तर्पण करते । गुण, कर्म और स्वबाव के अनुसार वर्ण मानतो हैं ।

आर्यसमाजी
संज्ञा पुं० [सं० आर्यसमाजिन्] आर्यसमाज का अनुयायी । आर्यसमाज के सिद्धांतों को माननेवाला [को०] ।

आर्यसिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० आर्यसिद्धान्त] आर्यभट्ट की कृति का नाम [को०] ।

आर्यहृद्य
वि० [सं०] सज्जनों के प्रिय लगनेवाला [को०] ।

आर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती । २. सास । ३. दादी । पितामही । विशेष—इस शब्द का व्यवहार में श्रेष्ठ या बडी बूढी़ स्त्रियों के लिये होता है । ४. अर्धमात्रिक छंद का नाम । इसके पहले और तीसरे चरण में बारह बारह तथा दूसरे और चौथे चरम में १५ मात्राएँ होती हैं । विशेष—इस छंद में चार मात्राओं के गण को समूह कहते हैं । इसके पहसे, तीसरे, पाँचवें और सातवें चरण में जगण का निषेध है । छठे गण में जगण होना चाहिए । जैसे,— रामा, रामा, रामा, आठौ यामा, जपौ यही नाम । त्यागौ सारे कामा, पैहौ बैकुंठ विश्रामा । आर्य के मुख्य पाँच भेद हैं — (१) आर्या या गाहा, (२) गीति या उग्गाहा (३) उपगीति या गाहू, (४) उद्रगीति या विग्गाहा और (५) आर्यगीति या स्कंधक या रवंधा । यौ०.—आर्यासप्तशती = गोवर्धनाचार्य का आर्या छंद में निबद्ध लगभग ७०० छंदों का संस्कृत मुक्तक काव्य ।

आर्यागीत, आर्यागीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्य छंद का एक भेद जिसके विषम चरण में १२ और सम चरणों में २० मात्राएँ होती हैं । विषम गणों में जगण नहीं होता तथा अंत में गुरू हौता है । जैसे,—राम, राम, राम, आठौयामा । जपौ यही नामा को । त्यागो सारे कामा, पौहो साँची सुनो हरि धामा को ।

आर्यावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तरी भारत जिसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में बंगाल की खाडी और पश्चिम में अरब सागर है । मनु ने इस देस को पवित्र कहा है ।

आर्यावर्तीय
वि० [सं०] १. आर्यवर्त का रहनेवाला । २. आर्यावर्त संबंधी ।

आर्यिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुलीना और सदाचारिणी स्त्री । २. एक मक्षत्र का नाम । ३. भागवत पुराण में वर्णित एक नदी का नाम [को०] ।

आरलौ पु
संज्ञा पुं० [हिं० अड] १. अड । हठ । २. निवेदन । अनुरोध । उ०—वृषभानु की घरनि जसोमति पुकारयौ । पठै सुत काज क्यों कहति हौं लाज तजि, पाइ परिकै महरि करति आरयौ ।—सूर०, १० ।१३६९ ।

आर्ष
वि० [सं०] १. ऋषिसंबंधी । २. ऋषिप्रणीत । ऋषिकृत । ३. वैदिक । ४. ऋषिसेवित । यौ०—आर्षक्रम । आर्षग्रंथ । आर्षपद्वति । आर्षप्रयोग । आर्षविवाह ।

आर्षक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषियों की प्रथा । ऋषियों की प्रवीन परिपाटी ।

आर्षग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० आर्षग्रंत] ऋषियों द्वारा प्रणीत या रचित धर्मग्रंथ । वेद । शास्त्र । रामायण । पूराण [को०] ।

आर्षप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्दों का वह व्यवहार जो व्याकरण के नियम के विरूद्ध हो । विशेष—प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में प्राय? व्याकरणविरूद्ध प्रयोग मिलते हैं । ऐसे प्रयोगों को व्याकरण की रीति से अशुद्ध न कहकर आर्ष कहते हैं । २. छद में कवियों का किया हुआ व्याकरणविरूद्ध प्रयोग ।

आर्षभ
वि० [सं०] १. साँड़ से उत्पन्न । २. ऋषभवंशीय । ऋषभ गोत्र में उत्पन्न ।

आर्षभि
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषभ का वंशज । २. भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भारत का एक नाम [को०] ।

आर्षभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छु । केवाँच ।

आर्षविवाह
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रकार के विवाहों में तीसरा जिसमें वर से कन्या का पिता दो बैल शुल्क में लेकर सन्या देता था ।

आर्षेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषियों का गोत्र और प्रवर । २. मंत्रद्रष्टा ऋषि । ३. पठन पाठन, यजन याजन, अध्ययन आध्यापन आदि ऋषि कर्म ।

आर्हंत
दे० [सं०] अर्हत या जैन सिद्धांत को माननेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला [को०] ।

आलंकारिक
वि० [सं० आलक्ङारिक] १. अलंकारसंबंधी । २. अलंकारयुक्त । ३. अलंकार जाननेवाला ।

आलंग (१)
वि० [सं० आलग्ङ] आलग्न । संलग्न । लगा हुआ [को०] ।

आलंग (२)
संज्ञा पुं० [देश०.] घोड़ियों की मस्ती । विशेष—इस शब्द का प्रयोग विशेषकर घोडियों के वास्ते ही होता है । क्रि० प्र०—पर होना ।—पर आना ।

आलंब
संज्ञा पुं० [सं० आलम्ब] १. अवलंब । आश्रय । सहारा । २. गति । सरण । ३. अधिष्ठान [को०] । ४. लटकी हूई वस्तु वा पदार्थ [को०] ।

आलंबन
संज्ञा पुं० [सं० आलम्बन] [वि० आलिंबित] १. सहारा । आश्रय । अवलंबन । २. रस में एक विभाग जिसके अवलंब से रस की उत्पत्ति होती है । जैसे,—(क) शृंगार रस में नायक और नायीका, (ख) रौद्र रस में सत्रृ, (ग) हास्य रस में विलक्षण रूप या शब्द, (घ) करूण रस में शोचनीय वस्तु या व्यक्ति, (च) वीर रस में शत्रु या शत्रृ की प्रिय वस्तु, (छ) भयानक रस में भयंकर रूप, (ज) वीभत्स रस में घृणित पदार्थ, पीब, लोहू, मांस आदि (झ) अद्रभुत रस में अलौकिक वस्तु, (ट) शांत रस में अनित्य वस्तु, (ठ) वात्सल्य रस में पुत्रादि । ३. बौद्ध मत में किसी वस्तु का ध्यानजनित ज्ञान । यह छह प्रकार का है—रूप, रस गंध, स्पर्श शब्द और धर्म । ४. साधन । कारण । ५. आधार [को०] । ६. योगियों द्वारा कृत मानसिक ध्यान [को०] । ७. सहारा लेना । आश्रय लेना [को०] ।

आलंबनता
संज्ञा स्त्री० [सं० आलंबन+ता (प्रत्य.)] आलंबन का गुण, स्वभाव या धर्म । उ०—उसकी आलंबनता स्त्री जाति और पुरुष जाति के बीच नैसर्गिक आकर्षण की बडी़ चौडी़ नींव पर ठहरी है ।—चिंतामणि, भा० २, पृ० ९० ।

आलंबित
वि० [सं० आलम्बित] आश्रित । अवलंबित ।

आलंबितबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० आलम्बित बिन्दु] प्रलंबित पुल के आर पार के वे स्थान जहाँ जंजीरों के छोर खंभों से लगे रहते हैं ।

आलंबी
वि० [सं० आलम्बिन्] झूलने या लटकनेवाला । उ०— सब पर सोहत गुंजमाल बनमाल सहित आलंबी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४१२ ।

आलंभ
संज्ञा पुं० [सं० आलम्भ] १. छूना । मिलना । पकडना । २. उत्पाटन । उखाड़ना [को०] । मरण । बध । हिंसा । यौ०—अश्वालंभ । गवालंभ ।

आलंभन
संज्ञा पुं० [सं० आलम्भन] दे० 'आलंभ' ।

आलंभी
वि० [सं० आलम्भिन्] १. छूनेवाला । २. पकड़ने वाला [को०] ।

आल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल ।

आल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अल=भूषित करना] १एक पौधा जिसकी खेती पहले रंग के लिये बहुत होती थी । विशेष—यह पौधा प्रत्येक दूसरे वर्ष बोया जाता है और दो फुट ऊँचा होता है । इसका मूल रूप ३०-४० फूट का पूरा पेड़ होता है । इसके दो भेद हैं— एक मोटी आल और दूसरी छोटी आल । छोटी आल फसल के बीच से बोई जाती है और मोटी आल बड़े पेडों के बीज से आषाढ में बोई जाती है । इसकी छाल और जड गडाँसे से काटकर हौज में सड़ने के लिये डाल दी जाती है और कई दिनों में रंग तैयार होता है । कहते हैं, इससे रंगे हुए कपडे़ में दीमक महीं लगती । २. इस पौधे से बना हुआ रंग ।

आल (३)
संज्ञा स्त्री० [देश.] १. एक कीडा़ जो सरसों की फसल को हानि पहुँचाता है । माहो । २. प्याज का हरा डंठल । ३. कद्दू । लौकी ।

आल (४)
संज्ञा पुं० [आनुध्व.] झंझट । बखेडा । उ०—(क) आठ पहर गया, यौं ही माया मोह के आल । राम नाम हिरदय नहीं, जीत लिया जमजाल । —कबीर (शब्द०) । यौ०—आल जंजाल, आल जंजाल, = झंझट । बखेडा़ । उ०— कंचन केवल हरिभजन, दूजा काथ कथीर । झूठा आल जंजाल तजि, पकडाय साँच कबीर । —कबीर (शब्द०) । आलजाल = (१) बे सिर पैर की बात । इधर उधर की बात (२) अंड बंड या इधर उधऱ की वस्तु ।

आल (५)
संज्ञा पुं० [सं० ओल या आर्द्र] १. गीलापन । तरी । जैसे,— ऐसा बरसा कि आल से आल मिल गई । २. आँसू । उ०— सिसक्यो जल किन लेत दृग, भर पलकन मैं आल । बिचलत खैंचत लाज कौ मचलत लखि नँदलाल ।—स० सप्तक, पृ० १९२ ।

आल (६)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बेटी की संतति । यौ०—आल औलाद = बाल बच्चे । २. वंश । कुल । खानदान ।

आल † (७)
संज्ञा पुं०[देश०] गाँव का एक भाग ।

आल (८)
वि० [सं० ओल या आर्द्र] गीला । कच्चा । हरा । उ०— आलहि बाँस कटाइन इँडिया फदाइन हो साधो ।— पलटू०, भा० ३, पृ० १२ ।

आल (९)
संज्ञा पुं० [देश०.] एक प्रकार का कँटीला पौधा । स्याह कांटा किंगरई । वि० दे० 'किंगरई' ।

आलकस †
संज्ञा पुं० [सं० आलस्य] [वि० आलकसी, क्रि० अ० आलकसाना] आलस्य ।

आलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. परीक्षण । २. निरीक्षण । द्खना । समझना [को०] ।

आलक्षण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्भाग्य । २. अपराध [को०] ।

आलक्षि
वि० [सं०] निरिक्षक । लक्षित करने या समझनेवाला [को०] ।

आलक्षित
वि० [सं०] १. भली भाँति देखा और समझा हिआ । २. अनुभव किया हुआ [को०] ।

आलक्ष्य
वि० [सं०] १. दिखाई पड़ने लायक । प्रकट । २. जो कूछ कुछ दिखाई पडे़ । पूरी तौर से न दिखाई पडनेवाला [को०] ।

आलड्वाल
संज्ञा पुं० [अनु.] आडंबर । साज सज्जा ।

आलगर्द
संज्ञा पुं० [सं०] जल में रहनेवाला एक साँप [को०] ।

आलथीपालथी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पालथी] बैठने का एक आसन जिसमें दाहिनी एँडी बाएँ जंघे पर और बाई एडी दाहिने जघे पर रकते हैं । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना ।

आलन
संज्ञा पुं० [देश०] १. घास भूसा आदि जो दीवार पर लगाई जानेवाली मिट्टी में मिलाया जाता है । २. खर पात जो चूल्हा बनाने की मिट्टी या कंडे पाथने के गोबर में मिलाया जाता है । ३. बेसन या आटा जो साग बनाने के समय मिलाया जाता है ।

आलना
संज्ञा पुं० [सं० आलय, फा० लाना] घोंसला ।

आलपाका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अलपाका' ।

आलपीन
संज्ञा स्त्री० [पुर्त० आलफिनेत] एक घुंडीदार छोटा सूई । जिसे अँगरेजी में पिन कहते हैं ।

आलबिल पु
संज्ञा पुं० [सं० ऐलविल] कुबेर । -नंद ग्रं०, पृ० २१ ।

आलम (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. दुनिया । संसार । जगत् । जहान । उ०— कई आलम किए हैं कत्ल उनने । करे क्या एकला हातिम बिचारा । —कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४० । २. अवस्था । दशा । जैसे -वे बेहोशी के आलम में हैं । ३. जनसमूह । बडी़ जमात । ४ हिंदी के एक रीतिकालीन कवि का नाम ।

आलम (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का नृत्य । उ०—उलथा टेंकी आलम सदिंड । पद पलटि हुरूमयी निशंकचिंड ।-केशव (शब्द०) ।

आलमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रहण । पकड़ना । २. छूना । स्पर्सन । ३. मारना । हिंसन । वध करना [को०] ।

आलमनक
संज्ञा पुं० [पुर्त०] तिथिपत्र । पंचांग । जंत्री ।

आलमारी
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'आलमारी' ।

आलयम
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर । गृह । मकान । २. स्थान । यौ०—आनाथालय । देवालय । विद्यालय । शिवालय ।

आलयविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] अहंकार का आधार (बौद्ध) ।

आलर्क
वि० [सं०] १. अलर्क से संबंधित । अलर्क का । २. पागल कुत्ते का (जहर) [को०] ।

आलवण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. लावण्यहीनता । असुंदरता । २. स्वादविहीनता [को०] ।

आलवाल
संज्ञा पुं० [सं०] थाल । अवाल ।

आलस (१)
वि० [सं०] आलसी । सुस्त । काहिल ।

आलस (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० आलस्य] [वि० आलसी] आलस्य । सुस्ती । उ०—तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं ।-मानस, १ ।८१ ।

आलसी
वि० [हिं० आलस+ई(प्रत्य.)] सुस्त । काहिल । धीमा । अकर्मण्य । उ०—आलसी अभागे मोसे तैं कृपालु पाले पोसे राजा मेरे राजाराम, अवध सहरू ।-तुलसी ग्रं०, पृ० ५८१ ।

आलस्य
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य करने में अनुत्साह । सुस्ती । काहिली ।

आला (१)
संज्ञा पुं० [सं० आलय] ताक । ताखा । अखा ।

आला (२)
वि० [अ० आलह्] १. औवल दर्जे का । सबसे बढि़या । श्रेष्ष । उ०—कूँडा़ आला चाम का, भीतर भरा कपूर । दरिया बासन क्या करै, लस्तु दिखावै नूर ।—दरिया० बानी, पृ० ३९ । २. सितार के उतरे और मुलायम स्वर ।

आला (३)
संज्ञा पुं० [अ०] १. औजार । हथियार । २. उपकरण । यंत्र । शाधन [को०] ।

आला (४)
संज्ञा पुं० [सं० अलात] कुम्हार का आँवा । पजावा ।

आला (५) पु
वि० [सं० आर्द्र, प्रा० अल्ल] १. गीला । ओदा । नम । भीगा । उ०—आडे़ दै आले बसन जाडे़ हूँ की राति । साहसु ककै सनेह बस सकी सबै ढिग जाति ।-बिहारी र०, दो० २८३ । २. हरा । टटका । ताजा ।

आलाइश
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. गंदी वस्तु । मल । गलीज । २. घाव का गंदा खुन, पीब वगैरह । ३. पेट के भीतर की अँतड़ी आदि ।

आलाटाली
संज्ञा पुं० [आला= प्रनु. + हिं*टालना +ई (प्रत्य.)] टालमटोल । उ०—ये इनकी आलाटाली है पर अपनी बात का प्रमाण देने के लिये मैं इनसे कोई चीज ले लूँ...... ।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३६ ।

आलात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लकड़ी जिसका एक छोर जलता हुआ हो । जलती लुआठी । लुक । यौ०.—आलातक्रीडा़ । आलातचक्र ।

आलात (२)
संज्ञा पुं० [अ०] औजार । यौ०.—आलात काश्तकारी=खेत में काम आनेवाले हल, पहटा आदी यंत्र ।

आलात (३)
संज्ञा पुं० [देश.] जहाज का रस्सा । यौ०—आलाताखाना=जहाज में रस्सा वगैरह रखने की कोठरी ।

आलातचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह मंडल जो जलते हुए लुक को वेग के साथ घुमाने से दिखाई पड़ता है ।

आलान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी बाँधने का खंभा वा खुँटा । २. हाथी बाँधने का रस्सा या जंजीर । ३. बंधन । रस्सी ।

आलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथोपकथन । भाषण । बातचीत । यौ०—वार्तालाप । २. संगीत के सात स्वरों का साधन । तान । क्रि० प्र०—करना ।—लेना । ३. प्रश्न । जिज्ञासा [को०] । ४. संगीत में सात स्वर [को०] ।

आलापक
वि० [सं०] १. बातचीत करनेवाला । २. गानेवाला ।

आलापचारो
संज्ञा स्त्री [सं० आलाप+चारी] स्वरों को साधने की क्रिया । तान लडाने की क्रिया । जैसे,—वहाँ जो खूब आलापचारी हो रही है ।

आलापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वस्तिवाचन । स्वस्तिपाठ । २. बातें करना । ३. संगीत में आलाप लेने की क्रिया [को०] ।

आलापना
क्रि० स० [सं० आलापन या आलाप+हिं. ना (प्रत्य.)] गाना । सुर खींचना । तान लडाना ।

आलापित
वि० [सं०] १. कथित । संभाषित । २. गाया हुआ ।

आलापिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँसुरी । बंसी । २. तूमडी़ ।

आलापी
वि० [सं० आलापिन्] [वि० स्त्री० आलापिनी] १. बोलनेवाला । उ—माधों जू, मो तैं और न पापी । मन क्रम बचन दुसह सबहिन सौं कटुक वचन आबलापी ।—सूर० १ ।१४० । २. आलाप लेनेवाला । लाना लगानेवाला । गानेवाला ।

आलाबु, आलाबू
संज्ञा पुं० [सं०] अलाबु । लौकी [को०] ।

आलारासो
वि० [सं० आलस्य?] १. बेपरवाह । निर्द्वंद्व । २. जहाँ किसी बात की पूछपाछ म हो । बेपरवाही का । यौ०.—आलारासी कारखाना=अँधेरखाता ।

आलावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] कपडे़ का पंखा ।

आलास्य
संज्ञा पुं० [सं०] मगर नामक जलजंतु [को०] ।

आर्लिग
संज्ञा पुं० [सं० आलिग्डन] दे० 'आलिंगन' । उ०—बिन देखे मन होत वाहि कैसे करि देखैं । देखे ते चित होत अंग आलिंग बिसेखैं ।—ब्रज ग्रं०, पृ० ९० ।

आलिंगन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आलिंगित, आलिंगी, आलिंग्य] गले से लगाना । हृदय से लगाना । परिरंभण । उ०—अजहूँ न लक्ष्मी च्द्रगुप्तहिं गाढ आलिंगन करै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १ । विशेष—यह सात प्रकार की बहिर्रतियों में गिना गया है; जैसे—आलिंगन, चुंबन, परस, मर्दन, नख-रद-दान । अधर- पान सो जाहिए, बहिरति सात सुजान ।—केशव ग्रं० भा० १, पृ० १४ ।

आलिंगना पु
क्रि० स० [सं० आलिग्डत्त] अँकवार भरना । भेंटना । लपटाना । हृदय से लगाना । गले लगाना । उ०—पिय चूम्यो मुंह चूमि होत रोमांचित सगबग । आलिंगत मदमाति पीय अंगनि मेले अंग ।—व्यास(सब्द०) ।

आलिंगित
वि० [सं० आलिग्डित्त] गले लगाया हुआ । हृदय से लगाया हुआ । परिरंभित । उ०—प्रतिजन प्रतिमन आलिंगित तुमसे हुई सभ्यता यह नूतन ।—अनामिका, पृ०२१ ।

आलिंगी
वि० [सं० आलिग्डिन्] आलिंगन करनेवाला ।

आलिंग्य (१)
वि० [सं० आलिङ्ग्य] गले लगाने योग्य । हृदय से लगाने योग्य । परिरेभण करने योग्य ।

आलिंग्य (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का मृदंग ।

आलिंजर
संज्ञा पुं० [सं०] बडा़ घडा़ या झंझूर [को०] ।

आलिंद, आलिंदक
संज्ञा पुं० [सं० आलिंन्द, आलिंन्दक] दे० 'अलिंद' [को०] ।

आलिंपन
संज्ञा पुं० [सं० आलिम्पन] १. दिवार,फर्श आदि की सफेदी या लिपाई पुताई काम । २. लीपना । पोतना [को०] ।

आलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सखी । सहेली । वयस्या । २. बिच्छू । ३. भ्रमरी । ४. पंक्ति । अवली । ५. सेतु । बाँध । ६. रेखा ।

आलिखित
वि० [सं०] १. चारों ओर रेखांकित । २. चित्रित । ३. लिखित । लिखा हुआ [को०] ।

आलिप्त
वि० [सं० आलिप्त] अलेप । निर्लेप । उ०—लिप्प नाहिं आलिप्त रहत है ज्यों रवि जोति समावै ।—जग० बानी पृ० ११९ ।

आलिम
वि० [अ०] विद्वान् । पंडित । जानकार ।

आली (१)
वि० [सं०] सखी । सहेली । गोइयाँ । उ० एक कहइ नृपसुत तेइआली । सुने जे मुनि संग आए काली ।—मानस, १ ।२२९ ।

आली (२)
संज्ञा स्त्री० [देश.] चार बिस्वे के बराबर का एक मान । विशेष—यह शब्द गढवाल और कुमाऊँ में बोला जाता है ।

आली (३) पु †
वि० स्त्री [सं० आर्द्र] भीगी हुई । गीला । तर ।

आली (४)
वि० [अ०] बड़ा । उच्चा । श्रेष्ठ । माननीय । यौ०—आलीशान । आलीजाह । जनाब आली । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्राय? यौगिक शब्दों के साथ होता है ।

आली (५)
[वि० आल] आल के रंग का । जैसे,—आली रंग ।

आली (६)
संज्ञा स्त्री०[सं० आलि] पंक्ति । अवली । उ०—बरनै दीन- दयाल बैठि हंसन की आली, मंद मंद पग देत अहो यह छल की चाली ।—दीन० ग्रं०, पृ० २०९ ।

आलीजा पु
वि० [अ० आलीजाह] दे० 'आलीजा' । उ०—आलीजा इक बार, हम सबकौं लै साथ मैं । जंगल हरनि सिकार, खेलौ ये अरजै करैं । हम्मीर०, पृ० २ ।

आलीजाह
वि० [अ०] ऊँचे दर्जे का । उच्चपदस्थ । श्रीमान् ।

आलीढ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दाहिनी जाँघ को फैलाकर और बाई जाँघ को मोडकर वाण जलाने की मुद्रा [को०] ।

आलीढ़ (२)
वि० १. खाया हुआ । भुक्त । २. चाटा हुआ । ३. घायल । चोट खाया हुआ [को०] ।

आलीढक
संज्ञा पुं० [सं०] हाल के ब्याए हुए बछडे की उछल कूद [को०] ।

आलीन (१)
वि० [सं०] १. परिरंभित । आलिंगित । २. चिपका हुआ । श्लिष्ट । ३. द्रवित । पिघला हुआ [को०] ।

आलीन
संज्ञा पुं० १.टीन । २. सीसा । ३. संपर्क [को०] ।

आलीनक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आलीन' [को०] ।

आलीशान
वि० [अ०] भव्य । भड़कीला । शानदार । विशाल ।

आलुंचन
संज्ञा पुं० [सं० आलुञ्चन] फाड़ना । चीरना । छेदना [को०] ।

आलुंठन
संज्ञा पुं० [सं० आलुण्ठन] चोरी करना । छीनना । अपहरण करना । लूटना [को०] ।

आलु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मूल । २. आबनूस । ३. नाव या बेडा़ । ४. पेचक । उल्लू [को०] ।

आलु (२)
संज्ञा स्त्री० पानी रखने की झारी । मटकी [को०] ।

आलुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आलूकंद । २. शेषनाग ।

आलुल
वि० [सं०] कंपित । हिलता हुआ [को०] ।

आलुलायित
वि० [सं० आलुलित>आलुलायित] लता हुआ । कंपित । उ०—बजी निशा के बीच आलुलायित केशों के तम में ।—नील०, पृ० १० ।

आलुलित
वि० [सं०] १. विचलित । २. क्षृब्ध [को०] ।

आल
संज्ञा पुं० [सं० आलु] एक प्रकार प्रसिद्ध कंद । विशेष—क्वार कार्तिक में क्यारियों के वीच मेंड बनाकर आलू बोए जाते हैं जो पूस में तैयार हो जाता हैं । एक पौधे की जड़ में पाव भर के लगभग आलू निकलता हैं । भारतवर्ष में अब आलू की खेती जारो ओर होने लगी है, पर पटना, नैनीताल और चीरापूँची इसके लिये प्रसिद्ध स्थान हैं । नैनीताल के पहाड़ी आलू बहुत बडे़ होते हैं । आलू दो तरह के होते हैं लाल और सफेद । यह पौधा वास्तव में अमेरिका का है । वहाँ से सन् १५८० ई० में यह युरोप में गया । भारतवर्ष में इसका उल्लेख सबसे पहले उस भोज के विवरण में आता है जो सन् १६१५ ई० में सर टामस रो को आसफ खाँ की ओर से अजमेर में दिया गया था । जब पहले पहल आलू भारतवर्ष में आया या तब हिंदू लोग उसे नहीं खाते थे; केवल मुसलमान और अँगरेज ही खाते थे । पर धीरे धीरे इसका खूब प्रचार हुआ और अब हिंदू व्रत के दीनों में भी इसे खाते हैं । 'आलू' शब्द पहले कई प्रकार के कंदों के लिये व्यवहृत होता था, विशेषकर 'अरूआ' के लिये । फारसी में कुछ गोल फलों के लिये भी आलू शब्द का व्यभहार होता है, जैसे,—आलूबुखारा, शफतालू आलूवा । यौ०—रतालू । शफतालू ।

आलू (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० आलु] छोटा जलपात्रा झारी । लुटिया । घंटी ।

आलूचा
संज्ञा पुं० [फा० आलूचह्] १. एक पेड़ । विशेष—यह पेड़ पश्चिम हिमालय पर गढ़वाल से कश्मीर तक होता है । इसका फल गोल होता है और पंजाब इत्यादि में बहुत खाया जाता है । फल पकने पर पीला और स्वाद में खटमीठा होता है । अफगानिस्तान में आलूचे की एक जाति होती है, जिसके सूखे हुए फल आलूबुखारा के नाम से भारतवर्ष में आते हैं । आलूचे के पेड़ से एक प्रकार का पीला गोंद निकलता है । फल की गुठलियों से तेल निकाला जाता है, जो कहीं कहीं जलाने के काम आता है । इसकी लकड़ी बहुत मुलायम होती है । इससे काश्मीर में रंगीन और नक्काशीदार संदूक बनाते हैं । पर्या०—भोटीया बदाम । गर्दालू ।

आलूचाप
संज्ञा पुं० [हिं० आलू+अं० चांप] आलू का पकवान जो उबाले हुए आलू को पीसकर और गोल या चिपटी टिकियों की तरह बनाकर घी तेल में तलकर बनाया जाता है । उ०—अंत में मैंने 'विशुद्ध' आलूचाप का प्रस्ताव कैलास के सामने रखा । —संन्यासी, पृ० ३४० ।

आलूदम
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दमआलू' ।

आलूदा
वि० [पा० आलूदह] लथपथ । लिथडा़ हुआ । लथापथ । सना हुआ । उ०—अश्क खूँ अलूदा मेरे इस कदर जारी है आज ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४० ।

आलून
वि० [सं०] कटा हुआ । काटकर अलग किया हुआ [को०] ।

आलूबालू
संज्ञा पुं० [सं० आलू+ बालू (अनु.)] आलूचे की तरह का एक पेड जो पश्चिमी हिमालय पर होता है । इससे एक प्रकार का गोंद निकलता है । योरप में इसके फलों का आचार और मुरब्बा डालते हैं, बीज से शराब को स्वादिष्ट करते हैं और लक्ड़ी से बीन और बाँसुरी आदि बाजे बनाते हैं । पर्या०—गिलास । ओलची ।

आलूबुखारा
संज्ञा पुं० [फा० आलू बुखारह्] आलूचा नामक वृक्ष का सुखाया हुआ फल । विशेष—यह फल पश्चिमी हिमालय में भी होता है, परंतु बुखारा प्रदेश का उत्तम समझा जाता है । इसी से इसका यह नाम प्रसिद्ध है । यह आँवले के बराबर और आडू़ के आकार का होता है और स्वाद में खटमीठा होता है । हिंदुस्तान में आलूबुखारा अफगानिस्तान से आता है । यह दस्तावर है और ज्वर के शांत करता है । इसी से रोगियों को इसकी चटनी खिलाते हैं ।

आलूशफतालू
संज्ञा पुं० [हिं० आलू+फा० शफ़तालू](निरर्थक)] लडकों का एक खेल जो पच्छिम में दिल्ली, मेरठ आदि स्थानों में खेला जाता है । विशेष—इसमें एक लड़का दूसरे को घोडा़ बनाकर उसकी पीठ पर सवार होता है और उसकी आँखें अपने हाथों से बंद कर लेता है । तब एक तीसरा लड़का उसके पीछे खडा़ होकर उँगलियाँ बुझाता है । यदि घोडा़ बना हिआ लड़का उँगलियों की संख्या ठीक ठीक बतला देता है, तो वह खडा हो जाता है और उस उँगली बुझानेवाले लडके को घोडा बनाकर उस पर सवार होता है ।

आलेख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिखावट । लिपि । लिखाई । २. लिखित वस्तु । लिखित सामग्री (प्रमाण आदि के लिये उपयोगी) ।

आलेख (२) पु
वि० [सं० अलक्ष्य, प्रा० अलक्ख] जो लक्ष्य में न आए । अलक्ष्य । उ०—अकह आलेख को देखिया केसो भयो ब्रह्म- रागी । —केशव० अमी०, पृ १० ।

आलेखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्र । तस्वीर । उ०—चतुर शिल्पी या चितेरे की भाँति अनेक सुंदर रूप या आलेखन उपस्थित किए । —पोद्दार अभि ग्रं०, पृ० ६५३ । २. लिखने का कार्य । लिखना । उ० इस ग्रंथ के आलेखन या संपादन में संपादन समिति के मित्रों के साथ विविध समिति के संयोजकों तथा अन्य मित्रों का सहयोग रहा है । —शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० २ ।

आलेख्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चित्र । तसवीर ।

आलेख्य (२)
वि० लिखने योग्य । यौ०.—आलेख्य विद्या=मुसब्वरी । चित्रकारी ।

आलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेप । २. उपलेप । पलस्तर ।

आलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] लेप करने का कार्य ।

आलै पु
संज्ञा पुं० [सं० आलय] घर । निधान । भवन । उ०—जो पै प्रभु करूना के आलै । तौ कत कठिन कठोर होत मन, मोहिं बहुत दुख सालै ।—सूर०, १० ।४७७२ ।

आलोक
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आलोक्य] १. प्रकाश । चाँदनी । उजाला । रोशनी । २. चमक । यौ०.—आलोकदायक । आलोकमाला । ३.दर्शन । दीदार ।

आलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] द्रर्शन । अवलोकन ।

आलोकनीय
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शनीय । देखने योग्य ।

आलोकित
वि० [सं०] १. देखा हुआ । २. प्रकाशित । उद्रभासित ।

आलोच पु
संज्ञा पुं० [सं० आ+लुञ्चन] खेतों में गिरा हुआ अन्न बीनना । शीला । (डि०) ।

आलोचक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आलोचिका] १. देखनेवाला । २. जो किसी वस्तु के गुण दोष की विवेचना करे । जो आलोचना करे । जाँचनेवाला ।

आलोचण पु
संज्ञा पुं० [हिं० आलोच] दे० 'आलोच' ।

आलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दर्शन । २. गुण दोष का विचार । विवेचन । जाँच । ३. जैनमतानुसार पाप का प्रकाशन ।

आलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वस्तु के गुण दोष का विचार । गुण-दोष-निरूपण ।

आलोचित
वि० [सं०] जिसके गुण दोष का निरूपण किया गया हो । विचार किया हुआ ।

आलोड़न
संज्ञा पुं०[सं० आलोड़न] १. मथना । हिलोरना ।२. विचार । सोच विचार ।

आलोड़ना पुं०
क्रि० स० [सं० आलोड़न] १. मथना । २.हिलोरना । ३खूब सोचना विचारना । ऊहापोह करना ।

आलोड़ित
वि० [सं० आलोडित] १. मथा हुआ । २. हिलोरा हुआ । ३. सुचिंतित । सोचा हुआ ।

अलोप
संज्ञा पुं०[सं०] १. लुप्त करना ।२. पहले का निरचय रद्ध करना [को०] ।

आलोल
वि० [सं०] १. कुछ कुछ हिलता हुआ । तनिक चंचल । २. क्षुब्ध । अस्तव्यस्त । जैसे, — केश [को०] ।

आलोलित
वि० [सं०] क्षुब्ध किया हुआ । आँदोलित [को०] ।

आल्टरनेटिव
संज्ञा पुं०[सं०] १. चारा । दूसरा उपाय । उ०— इनमें से किसी को एप्रूवर बनाना होगा, और कोई आल्टरनेटिव नहीं हैं । —गबन, पृ० २८२ ।

आल्वार
संज्ञा पुं० [देश.] दक्षिण भारतीय भीगवत धर्म के संत उपदेशकों की श्रेणी ।

आल्हा
संज्ञा पुं०[ देश.] १० ३१ मात्रओं के एक छंद का नाम जिसे वीर छंद भी कहते हैं । इसमें १६ मात्राओं पर विराम होता है । जैसे, — सुमिरि भवानी जगदंबा कौ श्री सारद के चरन मनाय । आदि सरस्वति तुमका ध्यावें माता कंठ बिराजौ आय ।२. महोबे के एक पुरूष का नाम जो पृथ्वीराज के समय में था । ३. बहुत लंबा चौड़ा वर्णन । मुहा०— आल्हा गाना = अपना वृत्तांत सुनाना । आपबीती सुनाना । यौ०— आल्हा का पँवरा = व्यर्थ का चौड़ा वर्ण । वितंड़ाबाद ।

आवंतक
सं० [सं० आवन्तक] अवंती से संबंधित [को०] ।

आवंतिक
वि० [सं० आवन्तिक] दे० ' आवंतक' ।

आवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० आवन्ती] अवंति और उसके आस पास बोली जानेवाली प्राचीन भाषा ।

आवंत्य
वि० [सं० आवन्त्य] १. अवंति देश का ।२. आवति देश का निवासी ।

आवदन
संज्ञा पुं०[सं० आवन्दन] नमस्कार । प्रणाम । [को०] ।

आवँ पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आँवा' ।

आव पु
संज्ञा पुं०[ सं० आयु] आयु जिंदगी । उ०— मोहन दृग इन दृगन से, जा दिन लख्यो न नेक । मति लेखौ वब आव में, विधि लेखनि लै छेंक ।— रसनिधि (शब्द०) ।

आवआदर †
संज्ञा पुं० [ हिं० आना + सं आदर] आवभगत । आदर- सत्कार ।

आवक
संज्ञा पुं० [हिं० आवना +क (प्रत्य.)] आमद । पहुँच । यौ०— आवकजावक = आनाजाना ।

आवज पु
संज्ञा पुं० [सं० आतोद्य, प्रा० आओज्ज, आवज्ज] एक पुराना बाजा जो ताशे के ढ़ंग का होता है । उ०— उद्धत सुजान सुत बुद्धिबलवान सुनि, दिल्ली के दरनि बाजै आवज उछाही के ।— सुजान०, पृ० १०१ ।

आवझ पु
संज्ञा पुं०[हिं० आवज] दे० 'आवज' । उ०— पटह पखाउज आवझ सोहैं । मिलि सहनाइन सों मन मोहैं ।— रामचं०, पृ४४ ।

आवटना (१) पुं०
संज्ञा पुं० [सं० आवर्त्त, पा० आवट्ट] १. हलचल । उथल पुथल । डावाँडोलपन । अस्यिरता । २ संकल्प विकल्प । ऊहापोह । उ०— जा घट जान बिनान है, तिस घट आवटना घना । बिन खाँड़े संग्राम है नित उठि मन सों जूझना ।— कबीर (शब्द०) ।

आवटना (३)पुं०
क्रि० स० गरम करना । लौटाना । खौलाना ।

आबटना (३) पुं०
क्रि० अ० गरम होना । औटना । उबलना । उ०— जिहि निदाघ दुपहर रहै भई माघ की राति । तिहिं उसीर की रावटी खरी आवटी जाति । — बिहारी रा० दो० २४४ ।

आवट्ट पुं०
संज्ञा पुं०[सं० आवर्त, प्रा० आवट्ट] दे० ' आवर्त' । उ०— ऐसो जु जुद्ध करि है न कोउ । त्रय लष्ष मान आवट्ट सोउ ।— पृ० रा०, ६१ ।१०० ।

आवड़ना पु
क्रि० अ० [सं० आतुष्ट, प्रा० आउट्ठ, गु आवडनु] सम- झना । पसंद आना । उ०— घड़ी एक नहिं आवड़े, तुम दरसन बिन मोय । तुम ही मेरे प्राण जी, का सूँ जीवन होय । — संत बानी०, भा०२, पृ० ७० ।

आवध पुं०
संज्ञा पुं० [हिं० आयुध] दे० 'आयुध' । उ०— (क) दादू सोधी नहीं सरीर की कहै अगम की बात । जान कहावै बापुड़, आवधली लिये हाथ । — दादू बानी, पृ० २२ । (ख)मनों आवधं वज्जि जौ वज्र वद्ररं । पृ रा०, २ ।१०१ ।

आवन पु
संज्ञा पुं० [सं० आगमन, पुं० हिं आगवन] आगमन । आना । उ०— (क) द्वारे ठाढ़े द्विज बावन । चारो बेद पढ़त मुख आगर अति सुकंठ सुर गावन । बानी सुनि बलि पूछन लागे इहाँ विप्र कत आवन । — सूर०, ८ ।४४० ।

आवना (१)पुं०
संज्ञा पुं० [हिं० आवन] दे० 'आवन' । उ०— **बहुर नहिं आवना या देस० — कबीर श०, पृ ५.

आवना (२) पुं०
क्रि० अ० [हिं० आना] दे० 'आना' । यौ०— आवना जावना = आना जाना । उ०— वार पार की हद्द पर हर वत्क में भी बीच आवना जावना लेखा है - कबार रे०, पृ० ३५ ।

आवनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० आवन] दे० 'आवन' ।

आवनेय
संज्ञा पुं० [सं०] अवनि या पृथ्वी का पुत्र, मंगल ।

आवपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोप्राई ।२. पेड़ का लगाना । ३. थाला । ४. सारे सिर का मुंडन । यौ०— केशावपन ।

आवभगत
संज्ञा पुं० [ हिं० आवना +भत्कि] आदर सत्कार । खातिर तवाजा । क्रि० प्र०—करना । — होना ।

आवभाव †
संज्ञा पुं० [सं० भाव] आदर सत्कार ।खातिर तवाजा । उ०— आवभाव कै ड़ोलिया पालकी सत्त नाम कै बाँस लगायो ।— धरम० (शब्द०) ।

आवय
संज्ञा पुं०[सं०] १. आँगमन ।२. आगंतुक । आनेवाला [को०] ।

आवर पुं०
अव्य०[सं० अपर] और । उ०— सखी सिखाइ केंदला गई । आवर मंदिर ठाढी़ भई । — माधवा०, पृ०१९७ ।

आवरक (१)
वि० [सं०] छिपानेवाला । आवण ड़ालनेवाला [को०] ।

आवरक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] परदा । चिक [को०] ।

आबरखाबो
संज्ञा पुं० [बाँ० आवर =और +बं० खाबो = खाऊँगा] एक प्रकार की बँगला मिठाई ।

आवरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन । ढकना ।२. वह कपड़ा जो किसी वस्तु के ऊपर लपेट हो । बेठन । ३. परदा । उ०— सब कहते हैं खोलो छवि १देखूँगा जीवनधन की, आवरण स्वयं बनते जाते हैं भीड़ लग दर्शन की ।— कामायनी, पृ० ६८ । ४. ढ़ाल ।५. दीवार इत्यादि का घेर ।६. अज्ञान । ७. चलाए हुए अस्त्र को निष्फल करनेवाला अस्त्र ।

आवरणपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह कागज जो किसी पुस्तक के ऊपर उसकी रक्षा के लिये लगा रहता है और जिसपर पुस्तक और पुस्तककर्ता के नाम इत्यादि भी रहते हैं । कवर ।

आवरणशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदांत में आत्मा या चैतन्य की दृष्टि पर परदा डालनेवाली शक्ति ।

आवरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुद्र आपण । छोटी दुकान [को०]

आवरित
वि० [सं०] ढाक हुआ आवृत [को०] ।

आवरिता
वि० [सं० आवरितृ] ढकने या आच्छादित करनेवाला [को०] ।

आवरी
वि० [सं० आवरीतृ > आवरीता] ढकी हुई । आच्छादित । उ०—मोह मैं आवरी ह्व बुधि बावरी सीख सुनै न दसा दुख छीजै ।— घनानंद, पृ० १४ ।

आवर्जक
वि० [सं०] आकर्षक [को०] ।

आवर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकृष्ट करना ।२. संतुष्ट करना । ३. नीचा दिखाना । ४. दान की क्रिया [को०] ।

आवर्जना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकर्षण ।२. तिरस्कार । अवमानना । उ०— मैं देव सृष्टि की रति रानी लिज पंचवाण से वंचित हो, वन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।— कामायनी पृ १०२ ।

आवर्जित (१)
वि० [सं०] १. त्याग किया हुआ । जिसे छोड़ दिया गया हो । छोड़ा हुआ । पराभूत । परास्त ।

आवर्जित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की स्थिति विशेष [को०] ।

आवर्त (१)
वि० [सं०] १. पानी का भँवर । २. चार मेघाधिपों में से एक । ३. वह बादल जिससे पानी न बरसे । ४.एक प्रकार का रत्न । राजवर्त । लाजवर्द । ५. सोनामाखी ।६. रोएँ की भँवरी । ७. सोच विचार । चिंता । ८. संसार ।

आवर्त (२)
वि० घूमा हुआ । मुड़ा हुआ । यौ०.—दक्षिणावर्त शंख = वह शंख जिसकी भौंरी दाहिनी तरफ गई हो । यह शंख बहुत मंगल प्रद समझा जाता हैं ।

आवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] योगियों के योग में होनेवाले पाँच प्रकार के विघ्नों के से एक प्रकार का विघ्न या उपसर्ग । मार्कंडेय पुराण के अनुसार इस विघ्न के द्वारा ज्ञान आकुल हो जाता हैं । और उनका चित्त नष्ट हो जाता है ।

अवर्तकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता जिसे चर्मण और भगवदवल्ली भी कहते हैं ।

आवर्तन
संज्ञा पुं० [सं० आवर्तन] १. चक्कर देना । घुमाव । फिराव । उ०— बहु अनंग पीड़ा उमुभव- सा अंगभंगियों का नर्तन, मधुकर के मरंद उत्सव सा मदिर भाव से आवर्तन ।—कामायनी, पृ० ११ ।२. विलोड़न । मथन । हिलाना । उ०— सौर चक्र में आवर्तन था प्रलय निशा का होता प्रत ।— कामायनी, पृ, २० । ३ . धातु उत्यादि का गलाना ।४. दोपहर के पीछे पदाथोँ की छाया का पशि्चम से पूर्व की ओर पड़ना ।५. तीसरा पहर । पराहण ।

आवर्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह कुल्हिया या घड़िया जिसमें धातु गलाई जाती है ।२ कलछी । चंमच । चमचा [को०] ।

आवर्तनीय
वि० [सं०] १. घुमाने योग्य ।२. मथने योग्य ।

आवर्तमणि
संज्ञा पुं०[सं०] राजावर्त मणि । लाजवर्द पत्थर ।

आवर्तित
वि०[सं०] १. घुमाया हुआ ।२. मथा हुआ ।

आवर्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भँवर । जलावर्त । भौंरी ।२. अज- शृंगी नाम का पोधा [को०] ।

आवर्ती
वि० [सं० आवर्तिन्] १. चक्कर काटनेवाला । घुमने या फेर लगानेवाला ।२. पिघलनेवाला । ३. घुलमिल जानेवाला [को०] ।

आवर्दा
वि० [फा०] १. लाया हुआ । २. कृपापात्र ।

आवर्दा (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आयुदर्यि' ।

अवर्ष
संज्ञा पुं०[सं०] वर्ष । बरसात । वृष्टि [को०] ।

आवलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पँत्कि । पाँत । अनुक्रमिकता । श्रेणी । कतार । उ०— वन उपवन खिल आई कलियाँ, रवि छवि दर्शन की अवलियाँ ।— आराधना, पृ० ३ ।

आवलित
वि० [सं०] बला खया हुआ । कुछ मुड़ा या झुका [को०] ।

अवली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंत्कि । श्रेणी । कतार । २. वह युत्कि या विधि जिसके द्वारा बिस्वे की उपज का अंदाज होता है । जैसे, बिस्वे की उपज के सेर का आधा करने से बीघे की उपज का मन निकलता है ।

आवल्गित
वि० [सं०] धीरे धीरे हिलता हुआ । ईषत्कंपित [को०] ।

आवल्गी
वि०[सं० आवलि्गन्] नाचनेवाला [को०]

आवश्य
संज्ञा पुं०[सं०] १.जरूरत । आवश्यकता । २.अनिवार्य काम या परिणाम[को०]

आवश्यक
वि० [सं०] १. जिसे अवश्य होना चाहिए । जरूरी । सापेक्ष्य । जैसे, —(क) आज मुझे एक आवश्यक कार्य है । (ख) तुम्हार वहाँ जाना आवश्यक नहीं ।२. प्रयोजनीय । काम का । जिसके बिना काम न चले । जैसे,— पहले आवश्यक वस्तुओं का इकठ्टा कर लो ।

आवश्यकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जरूरत । अपेक्षा । २. प्रयोजन । मतलब । उ०— अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया, रे मनुष्य तू कितना नीचे गिर गया । — करूणा०, पृ० २६ ।

अवश्यकीय
वि० [सं०] प्रयोजनीय । जरूरी ।

आवसति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात । निशा ।२. रात में रहने के लिये विश्रामस्थान [को०] ।

आवसथ
पुं० [सं०] १. रहने की जगह । गृह । २. बस्ती । गाँव ।३. आश्रम । ४. व्रतविशेष ।

आवसथ्य (१)
वि० [सं०] घर का । खानगी ।

आवसथ्य (२)
संज्ञा स्त्री० पाँच प्रकार की अग्नयों में से एक । वह अग्नि जो भोजन पकामे आदि के काम में आती है । लौकिकाग्नि ।

आवसान
वि० [सं०] ग्राम के अवसान या छोर का निवासी (जैसे चांडाल आदि)[को०] ।

आवसित
वि० [सं०] १. पूर्ण । पूरा । किया हुआ । २. निश्चित किया हुआ । एकत्र किया हुआ (धान्य आदि) ।४. पका हुआ । पुर्ण विकसित ।

आवस्थिक
वि० [सं०] अवस्था के अनुकूल [को०] ।

आवस्सिक पु०
वि० [सं० आत्रश्यक] दे० 'आवश्यक' । उ०— कालि उहाँ भोजन करौ आवस्सिक यहु बात । — अर्ध०, पृ ३२ ।

आवह
संज्ञा पुं० [सं०] वायु के सात स्कंधों में पहले स्कंध की वायु । भूर्लोक और स्वर्लोक के बीच की । भूवायु । विशेष— सिद्धांतशिरोमणि में इस वायु को १२ । योजन ऊपर माना हैं और इसी सं बिज्ली, ओले आदि की उत्पत्ति बतलाई है । २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक ।

आवहन
संज्ञा पुं० [सं०] ढोकर पास ले जाना । समीप लाना [को०] ।

आवाँ (
१.) संज्ञा पुं० [हिं० आना, आवना] १.. लोहा जब खूब लाल हो जाता है तो उसे पीटने के लिये दूसरे लोहार सको बुलाते हैं । इस बुलावे को 'आवाँ' कहते हैं ।

आवाँ (२), आवा पुं
संज्ञा पुं० [सं० आपाक] दे० 'आँवाँ' । उ०— जान प्यारे जोब कहूँ दीजिए सनेसौ तोब आवा सम कीजिऐ जु कान तिहि काल हैं ।— रसखान, पृ ५० ।

आवागमन
संज्ञा पुं० [हिं० आवा =आना+ सं० गमन] १. आना जाना । आवाई जवाई । आमदरफ्त ।२. बार बार मरना और जन्म लेना । जन्म और मरण । यौ०.— आवागमन (से) रहित = मुत्क । मोक्षपदप्राप्त । जैसे, - पूर्ण ज्ञान के उदय से मनुष्य आवागमन से रहित हो सकता है ।

आवागवन पु †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आवागमन' । उ०— छुटावें मोहू को विपति अति आवागमन सों । शकुंतला, पृ० १५४ ।

आवागौन पु०
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आवागमन' ।

आवाज
संज्ञा पुं०[फा० आबाज, सं०, पा० आवाज] १. शब्द । ध्वनि । नाद । क्रि० प्र०—आना । — करना । — देना । — लगाना । २. बोली । वाणी । स्वर । जैसे,— वे गाते हैं, पर उनकी आवाज अच्छी नहीं हैं । ३. फकीरों या सौदा बेचनेवालों की पुकार । ४. हल्ला गुल्ला । शोर । मुहा०—आवाज उठाना = (१.) गाने मों स्वर ऊँचा करना । (२) किसी बात के समर्थन या विरोध में करना । आवाज कसना= (१.) जोर से खींचकर शब्द निकालना । (२) दे० 'आवाज कसना' । उ०— आभी तो आप हमपर आवाज कस रहे थे ।— फिसाना०; भा० १., पृ० १.आवाज खुलना = (१.) बैठी हुई आवाज का सफ निकलना । जैसे,— तुम्हारागाला बैठ गया है; इस दवा से आवाज खुल जायगी । (२) अधोवायु का निकलना । आवाज गिरना= स्वर का मंद पड़ना । आवाज देना = जोर से १.पुकारना । जैसे, — हमने आवाज दी, पर कोई नहीं बोला । आवाज निकालना=(१.) बोलना (२) चूँ करना । जबान खोलना । जैसे— जो कहते हैं चुपचाप किए चलो, आवाज न निकालना । आवाज पड़ना= आवाज बैठना । आवाज पर लगना = आवाज पहचान कर चलना । आवाज देने पर कोई काम करना । जैसे, — तीतर अपने पालनेवालों की आवाज पर लग जाते हैं । आवाज पर कान रखना = (१.) सुनना । ध्यान देना । आवाज फटना = आवाज भर्राना । आवाज लड़ना =(१.) एक के सुर का दूसरे के सुर से मेल खाना । (२) एक की आवाज दूसरे तक पहुँचाना । आवाज बैठना = कफ के कारण स्वर का साफ न निकलना । गला बैठना । जैसे, — उनकी आवाज बैठ गई है, वे गावेंगे क्या ? आवाज भर्राना = दे० ' आवाज भारी होना ।' आवाज भारी होना = कफ के कारण कंउ का स्वर विकृत होना । आवाज मारना = जोर से पुकारना । आवाज मारी जाना= स्वर सुरीला न रहना । स्वर का कर्कश होना । जैसे,— आवस्था बढ़ जाने पर आवाज भी मारी जाती है । आवाज में आवाज मिलाना =(१.) स्वर मिलान । (२) हाँ में हाँ मिलाना । दूसरा जो कह रहा है, वही कहना । आवाज लगाना= दे० 'आवाज देना' ।

आवाजा
संज्ञा पुं०[फा० आवाज] बोली ठोली । ताना । व्यंग्य । क्रि० प्र०—कसना । —फेकना । —मारना । —सुनाना = व्यंग्य वचन बोलना । यौ०—आवाजाकशी=किसी दूसरे के माध्यम से की जानेवाली व्यंग्योक्ति । बोली बोलना ।

आवाजानी पु
संज्ञा स्त्री०[ हिं० आना + जाना] आवागमन । जन्म और मृत्यु का चक्र । उ०— धर्मदास कबीर पिय पाए मिट गइ आवाजानी । — धरम० शब्द० पृ० ३ ।

आवाजाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आना +जाना] आनाजान ।

आवादानी
संज्ञा स्त्री० [फा० आबादानी] दे० 'अबादानी' ।

आवाप
संज्ञा पुं० [सं०] वि० [आवापिक] १. बीज बोना ।२. आलवाल । थाला । ३. कंगन । ४. फेकना । छितराना । ५. मिलाना । मिश्रण करना । ६. अन्न पात्र । ७.शत्रुतापूर्ण उद्देश् य ।८. पात्रों को व्यवस्थितल ढंग से रखना । ९. असमतल भूमि । १०. एक प्रकार का पेय [को०] ।

आवापक
संज्ञा पुं०[सं०] सोने का कंकण । कंगन [को०] ।

अवापन
संज्ञा पुं०[सं०] १.. करघा । २. धागा लपेटने की गोल लकड़ी । ३. बाल बनाना [को०] ।

आवापिक
वि०[सं०] १.बोने या क्षौर कर्म के लिये उत्तम । २. अतिरित्क । सहायक । पूरक [को०] ।

आवाय
संज्ञा पुं० [सं०] १.थाला । २. धान आदि का खेत में रोपना । रोपाई । ३. हाथ का कड़ा । कंकण । ४. वह सेना जो व्यूह बाँधने से बची हुई हो । विशेष— कौटिल्य ने कहा है कि परवा तथा प्रत्यावाया से जो सेना तीन गुनी से आठ गुनी तक हो, उसका आवाय बना देना चाहिए ।

आवार
संज्ञा पुं०[सं०] रक्षण । बचाव । शरण [को०] ।

आवारगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] आवारापन । शोहदापन ।

आवारजा
संज्ञा पुं०[फा० आवारजह्] जामाखर्च की किताब । वि० दे० ' आवारजा' ।

आवार
वि० [फा० आवारह्] [ संज्ञा आवारगी] १. व्यर्थ इधर उधर फिरनेवाला । निकम्मा । २. बेठौर ठिकाने का । उठल्लू । क्रि० प्र० — घूमना ।— फिरना ।— होना । ३. बदमाश । लुच्चा । ४. कुमार्गी । शुहदा ।

आवारागर्द
वि० [फा०] ब्यर्थ इधर उधर घूमनेवाला । उठल्लू । निकम्मा ।

आवारागर्दी
संज्ञा सत्री० [फा०] १. व्यर्थ ईधर उधर घूमना ।२. बदमाशी । लुच्चापन । शुहदापन ।

आवाल
संज्ञा पुं०[सं०] थाला ।

आवास
संज्ञा पुं०[सं०] १. रहने की जगह । निवासस्थान ।२. मकान । घर ।

आवासी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० औसना] अन्न का हरा दाना, विशेषत? जौ का दाना ।

आवाह
संज्ञा पुं०[सं०] १. परिणयसंस्कार । विवाह । २. आमं- त्रण [को०] ।

आवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंत्र द्वारा किसी देवता को बुलाने का कार्य ।२. निमंत्रित करना । बुलाना । क्रि० प्र०— करना ।

आवाहन पुं०
क्रि० स०[सं० आवाहन] तुलाना । आमंत्रित करना [को०] ।

आवाहनी
संज्ञा स्त्री०[सं०] देवता के आवाहन के अवसर पर की जानेवाला एक मुद्रा [को०] ।

आविक (१)
संज्ञा पुं०[सं०] कंबल या ऊनी कपड़ा । भेड़ के रोएँ का वस्त ।

आविक (२)
वि० [सं०] १. ऊन का । ऊनी । २. भेड़ संबंधित [को०] । यौ०.— आविकसौत्रिक= ऊनी तागे से निर्मिता [को०] ।

आविग्न
वि० [सं०] उद्विग्न । व्याकुल [को०] ।

आविद्ध (१)
वि०[सं०] १. छिदा हुआ । भेदा हुआ ।२. फेंका हुआ । ३. कुचिल । वक्र । [को०] ।४. मूर्ख । [को०] । ५. निराश । हताश [कौ०] । ६. असत्य । झूठा [को०] । यौ०.—आविद्धकर्ण = जिसका कान छिदा हुआ हो । आविद्धर्काणका, आर्विद्धकर्णी = एकलता पाढ़ा या पाठा ।

आविद्ध (२)
संज्ञा पुं०[सं०] तलवार के ३२ हाथों में से एक, जिसमें तलवार को अपने चारो ओर घुमाकर दूसरे के चलाए हुए वार को व्यर्थ या खाली करते हैं ।

आविध
संज्ञा पुं० [सं०] बड़इयों का औजार । बरमा [को०] ।

आविर्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आविर्भूत] १. प्रकाश । प्राकटय । २. उत्पति । जैसे, — रामानुज का आविर्भाव दक्षिण में हुआ था । ३.आवेश । जैसे, -महात्माओं में क्रोध का आविर्भाव नहीं होता ।

आविर्भूत
वि० [सं०] १. प्रकाशित । प्रकटित । २. उत्पन्न ।

आविर्मुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चक्षु । आँख [को०] ।

आविर्मूल
वि० [सं०] (वृक्ष) जिसकी जड़ या मूल खुदा हो [को०] ।

आविर्हित
वि०[सं०] प्रत्यक्षीकृत । देखा हुआ [को०] ।

आविर्होंत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।

आविल
वि०[सं०] १. कलुषित । मैला । पंकिल ।२. मिला हुआ । मिश्रित । उ०— दुख से आविल सुख से पंकिल ।— नीरजा, पृ० १ ।

आविष्कर्ता (१)
वि०[सं०] आविष्कार करनेवाला । आविष्कार [को०] ।

आविष्कर्ता (२)
संज्ञा पुं० आविष्कार करनेवाल व्यक्ति ।

आविष्कार
संज्ञा पुं०[सं०] [वि० आविष्कर्त्ता, आविष्कृत] १. प्राकटय । प्रकाश ।२. कोई ऐसी वस्तु तैयार करना जिसके बनाने की युक्ति पहले किसी कोन मालूम रही हो । ईजाद । जैसे, — रेल का आविष्कार इंग्लैड़ देश में हुआ । ३. किसी तत्व का पहले पहल ज्ञान प्रापत करना । किसी बात का पहले पहल पता लगाना साक्षात्करण । जैसे, —उस विद्वान् ने विज्ञान में बहुत से आविष्कार किए ।

आविष्कारक
वि० [सं०] दे० ' आविष्कर्ता' ।

आविष्कृत
वि० [सं०] प्रकाशित । प्रकटित । २. पता लगाया हुआ । जाना हुआ । ३. ईजाद किया हुआ । निकाला हुआ ।

आविष्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' आविष्कार' ।

आविष्ट
वि० [सं०] १. आवेश में आया हुआ । २. भुतप्रेता दिग्रस्त । ३. तत्पर । संनद्ध । ४. अभिभूत । आक्रांत । ५. प्रवेश क्रिया हुआ । प्रविष्ट [को०] ।

आवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रसवकालीन पीड़ा । २. अंतस्सत्वा । गर्भवती । ३. रजस्वला स्त्री [को०] ।

आवीत
वि० [सं०] पहना हुआ । धारित । २. गया हुआ । गत [को०] । ३. उपनीत [को०] ।

आवीती
वि० [सं० आवीतिन्] दाहिने कंधे पर जनेऊ रखे हुए । जनेऊ उलटा रखे हुए । अपसव्य ।

आवुस
संज्ञा पुं० [सं० आयुष्मन्, पालि- प्रा० आवुस] हे आयुष्मन् । प्रिय । उ०— पंचवर्गीय साधुओं ने कहा— 'आवुस गौतम हम जानते हैं' । — बै० न०, पृ० ५० ।

आवृत
वि० [सं०] १. छिपा हुआ । ढ़का हुआ । उ०— था प्रेमलता से आवृत वृष धवल धर्म का प्रतिनिधि । — कामायनी, पृ २७५० । २. लपेटा हुआ । आच्छादित । उ०— अपने को आवृत किए रहो, दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप ।— कामायनी, पृ० २६६ । ३. घिरा हुआ । छेका हुआ । उ०— उस शक्ति की विफलता की विषदमयी छाया से लोक को फिर आवृत दिखा कर छोड़ दिया ।— रस०, पृ ६१ ।

आवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ढ़क्कन । आवरण [को०] ।

आवृत्त
वि० [सं०] १. दुहराय हुआ । आवृत्ति किया हुआ । २. लौटाया या फिराया हुआ । ३. पढ़ा हुआ [को०] ।

आवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बार बार किसी बात का अभ्यास । एक ही काम को बार बार करना । जैसे,— पाठ की आवृत्ति कर जाओ । २. पाठ करना । पढ़ना । ३. घूमना । लौटना [को०] । ४. पलायन [को०] । ५. संसृति । संसार [को०] । ६. किसी पुपस्तक आदि का पुनर्मुद्रण । संस्करण । क्रि० प्र०— करना ।— होना ।

आवृत्तिदीपक
संज्ञा पुं०[सं०] दीपक अलंकार का एक प्रकार जिसमें क्रियापदों की अनेक बार आवृत्ति होती है [को०] ।

आवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृष्टि । वर्षा [को०] ।

आवेग
संज्ञा पुं०[सं०] ल१. चित्त की प्रबल वृत्ति । मन का झोंक । जोर । जोश । जैसे, — क्रोध के आवेग में हमने तुम्हों वे बातें कही थीं । २. रस के संवारी भावों में से एक । अकस्मात् इष्ट या अनिष्ट के प्राप्त होने से चित्त की आतुरता ।

आवेजा
संज्ञा पुं० [फा० आवेजह्] १. लटकनेवाली वस्तु । २. किसी गहने में शोभा के लिये लटकती हुई वस्तु । जैसे, — लटकन । झुलनी इत्यादि ।

आवेदक
वि० [सं०] निवेदन करनेवाला । प्रार्थी ।

आवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० आवेदनीय, आवेदित, आवेदी, आवेद्य] अपनी दशा को सूचित करना । निवेदन । अर्जी । क्रि० प्र०—करना । यौ०—आवेदनपत्र ।

आवेदनपत्र
संज्ञा पुं०[सं०] वह पत्र या कागज जिसपर सुधार की आशा से कोई अपनी दशा लिखकर सूचित करे ।

आवेदनीय
वि० [सं०] निवेदन करने योग्य ।

आवेदित
वि० [सं०] नीवेदन किया हुआ । सूचित किया हुआ ।

आवेदी
वि० [सं० आवेदिन्] निवेदन या सूचित करनेवाला ।

आवेद्य
वि०[सं०] दे० 'आवेदनीय' ।

आवेलतेल
संज्ञा पुं०[देश०] १. नारियल का वह तेल जो ताजी गरी से निकाल गया हो । २. वह तेल जो सूखी गरी से निकाला जाता है । 'मुठेल' का उलटा ।

आवेश
संज्ञा पुं०[सं०] १. व्याप्ति । संचार । दौरा । २. प्रवेश । ३. चित्त की प्रेरणा । झोंक । वेग । आतुरता । जोश । उ०— क्रोध के आवेश में मनुष्य क्या नहीं कर ड़ालता ।—(शब्द०) । ४. भुत प्रेत की बाधा । ५. अपस्मार । मृगी रोग । ६. संकल्प । अभिनिवेश । अग्रह [को०] । ७. गर्व । मद [को०] ।

आवेशन
संज्ञा पुं०[सं०] १. चंद्र या सूर्य की परिवेश । २. प्रवेश । ३. कोप । क्रोध । ४. शिल्पशाला । शिल्पकेंद्र । ५. भूत प्रेतादि का आवेश [को०] ।

आवेशनिक
संज्ञा पुं० [सं०] मित्रों को दिया जानेवाला भोज । [को०] ।

आवेशिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजशेखर के मतानुसार कवियों की एक श्रेणी । मंत्र आदि के बल से प्राप्त सिद्धि द्वारा आवेश की स्थिति में कविता करनेवाला कवि । २. अतिथि । अभ्यागत [को०] । ३. अतिथिसत्कार । आतिथ्य [को०] । ४. भीतर जाना । प्रवेश करना । घृसना [को०] ।

आवेशिक (२)
वि० १. असामान्य । आसाधारण । २. व्यक्तिगत । स्वगत । निजी । ३. अंतर्निहित [को०] ।

आवेष्टक
संज्ञा पुं०[सं०] १. घेरा । २. जाल [को०] ।

आवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आवेष्टित] १. छिपाने या ढ़ँकने का कार्य । २. छिपाने या ढँकने का वस्तु । ३. वह वस्तु जिसमें कुछ लपेटा हो । बेठन । ४. चहारदीवारी ।

आवेष्टित
वि० [सं०] १. छिपा हुआ । ढ़ँका हुआ । २. आवेष्टनयुत्क ।

आवेश पु
संज्ञा पुं० [सं० आवेश, प्रा० आवेस ] दे० 'आवेश' । उ०— वाकौ सेवा के आवेस में खाइबे की सुधि हू न रहती ।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २११ ।

आव्रन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० आवरण] आच्छादन । घेरा । उ०— दहं कोह सा स्वमि आराम छुट्टौ । पछेल पंग रा सेन आव्रन्न उट्टौ ।— पृ० रा०, ६ । २२३७ ।

आशंकनीय
वि० [सं० आशङ्कनीय ] आशंकायोग्य । संदेहास्पद [को०] ।

आशंका
संज्ञा स्त्री०[ सं० आशंङ्का ] [वि० आशंकित, अशंकनीय] १. ड़र । भय । खौफ । उ०— उसे अपने गिर जाने की आशंका थी । — कंकाल, पृ० ६४ । २. शक । शुबहा । संदेह । ३. अनिष्ट की भावना ।

आशंकित (१)
वि० [सं० आशङ्कित] १. डरा हुआ । भयभीत । २. संदेहात्मक । संदेहयुक्त ।

आशंकित
वि० १. संदेह । शक । २. भय । ड़र [को०] ।

आशंसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आशा करना । इच्छा करना । २. कहना । घोषित करना [को०] ।

आशंसा
संज्ञा स्त्री०[सं०] १. इच्छा । २. आशा । ३. संकेत । ४. भाषण । कथन । ५. कल्पना [को०] ।

आशंसित
वि० [सं०] १. इच्छित । २. परिकल्पित । ३. कथित । ४. सोचा हुआ [को०] ।

आशंसिता
वि० [सं० आशसितृ] १. आशा या इच्छ करनेवाला । २. वक्ता । कथन करनेवाला [को०] ।

आशंसी
वि० [सं० आशंसिन्] दे० 'आशंसिता' [को०] ।

आशंसु
वि०[सं०] दे० ' आशंसिता' [को०] ।

आश
संज्ञा पुं०[सं०] आहार । भोजन (समास में प्रयुक्त)[को०] ।

आशक
वि० [सं०] खानेवाला । भोजन करनेवाला [को०] ।

आशकार
संज्ञा पुं०[सं० आविष्कार, फा० आशकार, आशकार, आशकारह] प्रकट । खुला हुआ । स्पष्ट । उ०— जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है । उसी का सब है जलवा जो मौजूद मेरा आशकारा है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५१ ।

आशना
संज्ञा उभ० [फा०] १. जिससे जान पहचान हो । २. चाहनेवाला । प्रेमी । ३. प्रेमपात्र । जैसे, —(क) वह औरत उसकी आशना है । (ख) वह उस औरत का आशना है ।

आशनाई
संज्ञा स्त्री० [फ०] १. जान पहचान । २. प्रेम । प्रीति । दोस्ती । ३. अनुचित संबंध ।

आशफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष जो मद्रास, बिहार और बंगाल में बहुत होता है । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और सजावट के असबाब बनाने के काम में आती है ।

आशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिप्राय । मतलब । २. वासना । इच्छा । जैसे, —ईश्वर क्लेश, कर्मविपाक और आशय से रहित है । यौ०—उच्चाशय । नीचाशय । महाशय । ३. स्थान । आधार । जैसे, —आमाशय, गर्भाशय । जलाशय । पक्वाशय । ४. गड्ढा । खाता । ५. कटहल । पनश । ६. अभ्युदय । उन्नति [को०] । ७. धन । संपत्ति (को०) । ८. कंजूस । कृपण [को०] । ९. अन्नागार । बखार (को०) । १० भाग्य । लिखन [को०] । ११. विश्रामस्थान (को०) । १२. घर । गृह । (को०) । १३. जंगली । जानवरों को फँसाने का गड्ढा । अवट [को०] ।

आशर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस । उ०—काहू कहूँ शर आशर मारिय । आरत शब्द अकाश पुकारिय ।—केशव (शब्द०) २. अग्नि ।

आशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अप्राप्त के पाने की इच्छा और थोड़ा बहुत निश्चय । जैसे,—(क) आशा लगाए बैठे हैं, देखें कब उनकी कृपा होती है । (ख) आशा मरे, निराशा जीए । २. अभिलषित वस्तु की प्राप्ति के थोड़े बहुत निश्चय से संतोष । जैसे,—आशा है, कल रुपया मिल जायगा । क्रि० प्र०—करना । —तोड़ना । —लगाना । —रखना । मुहा०—आशा टूटना=आशा न रहना । आशा भंग होना । जैसे, —तुम्हारे नहीं कर देने से हमारी इतने दिनों की आशा टूट गई । आशा तोड़ना=किसी को निराश करना । जैसे,—इस तरह किसी की आशा तोड़ना ठीक नहीं । आशा देना=किसी को उम्मेद बँधाना । किसी को उसके अनुकूल कार्य करने का वचन देना । जैसे,—किसी को आशा देकर धोखा देना ठीक नहीं है । आशा पूजना=आशा पूरी होना । आशा पूरी होना= इच्छा और संभावना के अनुसार किसी कार्य या घटना का होना । जैसे,—बहुत दिनों पर हमारी आशा पूरी हुई । आशा पुरी करना=किसी की इच्छा और निश्चय के अनुसार कार्य करना । आशा बँधना=आशा उत्पन्न होना । जैसे,—रोग कमी पर है, इसी से कुछ आशा बँधती है । आशा- बाँधना=आशा करना । यौ०—आशातीन । आशापाश । आशाबद्ध । आशाभंग । आशारहित । आशावान् । निराश । हताश । ३. दिशा । यौ०—आशागज=दिग्गज । आशापाल=दिक्पाल । आशावसन= दिगंबर । उ०—आशावसन व्यसन यह तिनहीं । रघुपति चरित होहिं तहँ सुनहीं ।—तुलसी (शब्द०) । ४. दक्ष प्रजापति की एक कन्या । ५. संगीत में एक रोग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।

आशाढ़
संज्ञा पुं० [सं० आशाद] आषाढ़ ।

आशातीत
वि० [सं०] आशा से बहुत अधिक । आशा से परे [को०] ।

आशानिर्वेदिसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजय से हताश सेना । विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि आशानिर्वदि तथा परिसृप्त (भगोड़े) सेना में आशानिर्वेदि उत्तम है, क्योंकि वह अपना स्वार्थ देखकर युद्ध के लिये तैयार हो जाती है ।

आशापाश
संज्ञा पुं० [सं०] आशाओं का फंदा, जाल या बंधन ।

आशाबंध
संज्ञा पुं० [सं० आशाबन्ध] आशापूर्ति का विश्वास या बंधन [को०] ।

आशाबद्ध
वि० [सं०] तरह तरह की आशाओं में पड़ा या लटका हुआ ।

आशाभंग
संज्ञा पुं० [सं० आशाभङ्ग] आशा टूटना । आशा का न रह जाना [को०] ।

आशार
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रयस्थान । सुरक्षा की जगह [को०] ।

आशालुब्ध पु
वि० [सं० आशालुब्ध, प्रा० आसालुद्ध] आशा के कारण लोभ में पड़ी हुई । आशालुब्ध । उ०—आसालुब्धी हूँ मुइय सज्जन जंजालेइ । ढोला०, दू० २०६ ।

आशावसन
संज्ञा पुं० [सं० आशा +वसन] दिशाएँ जिनके वस्त्र रूप में हैं अर्थात् १. शिव । २. शुक । ३. सनत्कुमार आदि । ४. दिगंबर साधु ।

आशावह
संज्ञा पुं० [सं०] १. आदित्य । सूर्य । २. वृष्णि [को०] ।

आशासन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु की आकांक्षा करना या तदर्थ निवेदन [को०] ।

आशासनीय (१)
वि० [सं०] आकांक्षानीय । अभिलषणीय [को०] ।

आशासनीय (२)
संज्ञा पुं० १. आशीर्वचन । २. आकांक्षा । स्पृहा [को०] ।

आशास्य
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आशासनीय' [को०] ।

आशिंजन
संज्ञा पुं० [सं० आशीञ्जन] आभूषणों की झंकृति [को०] ।

आशिंजित
वि० [सं० आशिञ्जित] झंकृत । झंकार करता हुआ [को०] ।

आशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोजन । खाना । भक्षण [को०] ।

आशिक (१)
संज्ञा पुं० [अ० आशिक] प्रेम करनेवाला मनुष्य । चित से चाहनेवाला मनुष्य । अनुरक्त पुरुष ।

आशिक (२)
वि० प्रेमी । आशक्त । चाहनेवाला । मोहित । क्रि० प्र०—होना । यौ०—आशिकतन । आशिकजार=अनुरक्त प्रेमी । उ०—बेकरार, आशिकजार भाँति भाँति की बोलियाँ बोल रहे हैं ।-प्रेमघन०, भा०२, पृ० ११८ । आशिकनवाज=प्रेमियों पर दयालु । आशिक माशूक=प्रेमी और प्रेमिका या प्रेमपात्र । आशिक- मिजाज=(१) आशिकाना मिजाज का । प्रेमी हृदय का । (२) दिलफेंक (व्यंग्य) ।

आशिकाना
वि० [अ० आशिकानह्] आशिकों की तरह का । आशिकों का सा । आशिकों के ढंग का ।

आशिकी
संज्ञा स्त्री० [अ० आशिक+ फा० ई (प्रत्य०)] प्रेम । मुहब्बत ।

आशित
वि० [सं०] १. आशित । खाया हुआ । २. खा करके तृप्त । ३. अधिक भोजन करनेवाला [को०] ।

आशिता
वि० [सं० आशितृ] अधिक भोजन करनेवाला व्यक्ति । पेटू [को०] ।

आशिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० आशिमन्] त्वरा । तेजी । वेग [को०] ।

आशियाँ
संज्ञा पुं० [फा०] १. चिड़ियों का बसेरा । पक्षियों के रहने का स्थान । घोंसला । उ०—गिरी है जिस पै कल बिजली वोह मेरा आशियाँ क्यों हो ।—शेर०, पृ० ५२४ । २. छोटा सा घर । झोपड़ा । उ०—क्या करें जाके गुलसिताँ में हम, आग रख आए आशियाँ में हम ।—शेर०, पृ० २०३ ।

आशियाना
संज्ञा पुं० [फा० आशियानह्] दे० 'आशियाँ' ।

आशिष
संज्ञा स्त्री० [सं० आशिष्, आशिस्] १. आशीर्वाद । आसीस । दुआ । उ०—गुरुजन की आशिष सीस धरो,—आराधना०, पृ० ५१ । २. एक अलंकार जिसमें अप्राप्त वस्तु के लिये प्रार्थना होती है । उ०—सीस मुकुट कटि-काछनी, कर मुरली, उर माल । इहिं वानक मों मन सदा, बसौ बिहारीलाल ।— बिहारीर०, दो०, ३०१ । ३. दे० 'आशी' [को०] ।

आशिषाक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यालंकार जिसमें दूसरों का हित दिखालाते हुए ऐसी बातों को करने की शिक्षा दी जाय जिनसे वास्तव में अपने ही दुःख की निवृत्ति हो । उ०—मंत्री मित्र पुत्र जन केशव कलत्र गन सोदर सुजन जडन भट सुख साज सों । एतो सब होतै जात जो पै है कुशल गात, अबही चलै कै प्रात, सगुन समाज सों । कीन्हों जु पयान बाध छमिऔ सु अपराध, रहिऔ न पल आध, बँधिऔ न लाज सों । हौ न कहौं, कहत निगम सब अब सब तब, राजन परम हित आपने ही काज सों । —केशव ग्रं०, भा०१, पृ० १५६ ।

आशी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सर्प का विषैला दाँत । २. बुद्धि नाम की जड़ी जो दवा के काम में आती है । ३. सर्प का विष (को०) ।

आशी (२)
वि० [सं० आशिन्] [वि० स्त्री० आशिनी] खानेवाला । भक्षक । यौ०—वाताशी । फलाशी । विशेष—इसका प्रयोग समास के अंत ही में होता है ।

आशीर्वचन
संज्ञा पुं० [सं०] आशीर्वाद । आसीस । दुआ ।

आशीर्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के कल्याण की कामना प्रकट करना । मंगलकामनासूचक वाक्य । आशिष । दुआ । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—मिलना ।—लेना । यौ० —आशीर्वादात्मक ।

आशीविष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके दाँतों में विष हो (को०) । २. सर्प । साँप ।

आशीष
संज्ञा स्त्री० [सं० आशिष्] दे० 'आशीष' । उ०—देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं ।—साकेत, पृ० २०४ ।

आशु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बरसात में होनेवाला एक धान । सावन भादों में होनेवाला । ब्रीहि । पाटल । आउस । साठी ।

आशु (२)
वि० तीव्र । तेज । त्वरित [को०] ।

आशु (३)
क्रि० वि० शीघ्र । जल्द । तुरंत । विशेष—गद्य में इसका प्रयोग यौगिक शब्दों के साथ ही होता है ।यौ०—आशुकवि । आशुतोष । आशुब्रीहि । आशुमत ।

आशुकवि
संज्ञा पुं० [सं०] वह कवि जो तत्क्षण कविता कर सके ।

आशुकोपी
वि० [सं० आशुकोपिन्] शीघ्र हीं क्रुद्ध हो जानेवाला । झगड़ालू । चिड़चिड़ा [को०] ।

आशुग (१)
वि० [सं०] जल्दी चलनेवाला । शीघ्रगामी ।

आशुग (२)
संज्ञा पुं० १. वायु । २. बाण । तीर । ३. रवि (को०) ।

आशुगामी (१)
वि० [सं० आशुगामिन्] १. तेज चलनेवाला । तीव्रगामी । २. त्वरान्वित [को०] ।

आशुगामी (२)
संज्ञा पुं० सूर्य [को०] ।

आशुतोष (१)
वि० [सं०] शीघ्र संतुष्ट होनेवाला । जल्दी प्रसन्न होनेवाला ।

आशुतोष (२)
संज्ञा पुं० शिव । महादेव ।

आशुशुक्षणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. वायु ।

आशुब्रीहि
संज्ञा पुं० [सं०] एक धान्य । आउस । साठी [को०] ।

आशोब
संज्ञा पुं० [फा०] १. आँख की पीड़ा । २. भय । डर । खौफ [को०] । ३. झगड़ा फसाद । शोरगुल [को०] । क्रि० प्र०—उठना । होना ।

आशोषण
संज्ञा पुं० [सं०] पूरी तरह सोख लेने का काम [को०] ।

आशौच
संज्ञा पुं० [सं०] अशुद्धि । अशौच का भाव [को०] ।

अशौची
वि० [सं० आशौचिन्] अपवित्र । अशौच । अशुद्ध [को०] ।

आश्चर्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आश्चर्यित] १. वह मनोविकार जो किसी नई, अभूतपूर्व, असाधरण, बहुत बड़ी अथवा समझ में न आनेवाली बात के देखने, सुनने या ध्यान में न आने से उत्पन्न होती है । अचंभा । विस्मय । तअज्जुब । क्रि० प्र०—करना ।—मानना ।—होना । यौ०—आश्चर्यकारक । आश्चर्यजनक । २. रस के नौ स्थायी भावों में से एक ।

आश्चर्य (२)
वि० आश्चर्ययुक्त । अदभुत । विस्मयपूर्ण [को०] ।

आश्चर्यित
वि० [सं०] विस्मित । चकित ।

आश्च्योतनकर्म
वि० [सं०] आँख में दिन के समय किसी औषध की आठ बूँद डालना ।

आश्म (१)
वि० [सं०] अश्मरचित । पत्थर का बना हुआ [को०] ।

आश्म (२)
संज्ञा पुं० पत्थर की बनी वस्तु [को०] ।

आश्मन (१)
वि० [सं०] दे० 'आश्म' ।

आश्मन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] गरुडाग्रज अरुण जो सूर्य का सारथी है [को०] ।

आश्मरिक
वि० [सं०] अशमरी-रोग-ग्रस्त । पथरी का रोगी [को०] ।

आश्मिक
वि० [सं०] १. पत्थर ढोनेवाला । २. प्रस्तर निर्मित [को०] ।

आश्यान
वि० [सं०] जमकर कुछ सूखने या ठोस होनेवाला [को०] ।

आश्र
संज्ञा पुं० [सं०] अश्रु । आँसू [को०] ।

आश्रपरा
संज्ञा पुं० [सं०] पाचन क्रिया । पाक क्रिया [को०] ।

आश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आश्रमी] ऋषियों और मुनियों का निवासस्थान । तपोवन । २. साधु संत के रहने की जगह । जैसे,—कुटी या मठ । ३. विश्रामस्थान । ठहरने की जगह । उ०—आश्रय दो आश्रयवासिनि, मेरी हो तुम्हीं सहारा ।— गीतिका, पृ० ६३ । ४. विष्णु [को०] । ५. गुरुकुल [को०] । ६. स्मृति में कही हुई हिंदुओं के जीवन की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ । ये अवस्थाएँ चार है ब्रह्यमचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास । उ०—(क) देहिं असीस भूमिसुर प्रमुदित प्रजा प्रमोद बढ़ाए । आश्रम धर्म वेद पथ पावन लोग चलाए । (शब्द०) । यौ०—आश्रमगुरु । आश्रमधर्म । आश्रयपद, आश्रममंडल=तपो- वन । आशअरमवास । गृहस्थाश्रम । वर्णाश्रम ।

आश्रमी
वि० [सं० आश्रमिन्] १. आश्रमसंबंधी । २. आश्रम में रहनेवाला । ३. ब्रह्मचर्यादि चार आश्रमों में से किसी को धारण करनेवाला ।

आश्रय
संज्ञा पु० [सं०] [वि० आश्रयी, आश्रित] १. आधार । सहारा । अवलंब । जैसे,—छत खभों के आश्रय पर है । यौ०—आश्रयाश । २. आधार वस्तु । वह वस्तु जिसके सहारे पर कोई वस्तु हो । ३. शरण । पनाह । ठिकाना । जैसे,—(क) वह चारो ओर मारा मारा फिरता है, उसे आश्रय नहीं मिलता । (ख) राजा ने उसको अपने यहाँ आश्रय दिया । क्रि० प्र०—चाहना । —ढूँढ़ना । —देना । —पाना । —मिलना ।—लेना । ४. जीवन निर्वाह का हेतु । भरोसा । सहारा । जैसे,—हमें तुम्हारा ही आश्रय है कि और किसी का । ५. राजाओं के छह गुणों में से एक । ६. घर । मकान । ७. तरकस । भाथी तुणीर [को०] । ८. अभ्यास [को०] । ९. व्याकरण में उद्देश्य । १०. बौद्ध मत से मन और पंच ज्ञानंद्रिय (को०) । ११. सामीप्य । सनिकटता । संनिधि [को०] ।

आश्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] सहारा लेने का कार्य ।

आश्रयणीय
वि० [सं०] अवलंबन के योग्य । सहारा लेने योग्य ।

आश्रयभुक्
संज्ञा पुं० [सं० आश्रयभुज्] दे० १. 'आश्रयाश' । २. कृत्तिका नाम का नक्षत्र [को०] ।

आश्रयाश
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । आग ।

आश्रयासिद्ध
वि० [सं०] १. न्यायशास्त्र के अनुसार वह तर्क जिसका आधार असत्य हो । एक हेत्वाभास । २. असत्य या मिथ्या । ३. अमान्य [को०] ।

आश्रयी
वि० [सं० आश्रयिन्] आश्रय लेनेवाला । आश्रय पानेवाला । सहारा लेनेवाला । सहारा पानेवाला ।

आश्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी के कहे पर चलना । वचन । स्थिति । २. अंगीकार । ३. क्लेश । ४. जैनमत के अनुसार मन, वाणी और शरीर से किए हुए कर्म का संस्कार जिसे जीव ग्रहण करके बद्ध होता है । यह दो प्रकार का है— पुण्याश्रव और पापाश्रव । ५. बौद्ध दर्शन के अनुसार विषय जिसमें प्रवृत्त होकर मनुष्य बंधन में पड़ता है । यह चार प्रकार का है—कामाश्रव, भावाश्रव, दृष्टाश्रव औरअविद्याश्रव । ६. अग्नि पर पकते हुए चावल के बुदबुद् या फेन (को०) । ७. सरिता । नदी (को०) । ७. प्रवाह । धारा (को०) ।

आश्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] असिधारा । तलवार की धार [को०] ।

आश्रित (१)
वि० [सं०] १. सहारे पर टिका हुआ । ठहरा हुआ । उ०— यहि विधि जग हरि आश्रित रहई ।—तुलसी (शब्द०) । २. भरोसे पर रहनेवाला । दूसरे का सहारा लेनेवाला । अधीन । शरणागत । जैसे,—वह तो आपका आश्रित ही है; जैसे चाहिए, उसको रखिए । ३. सेवक । दास ।

आश्रित (२)
संज्ञा पुं० न्याय मत से आकाश और परमाणु नित्य द्रव्यों को छोड़ दूसरे अनित्य द्रव्यों का किसी न किसी अंश में एक दूसरे से साधर्म्य । आश्रितत्व । साधर्म्य । विशेष—भिन्न भिन्न नित्य द्रव्य परमाणूओं ही से बने है अतः रूपांतर होने पर भी उनमें किसी न किसी अंश में समानता रहेगी । पर नित्य द्रव्य पृथक् हैं इससे उनमें एक दूसरे से साधर्म्य नहीं ।

आश्रितत्व
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रित रहने या होने का भाव ।

आश्रुत
वि० [सं०] १.गृहीत । अंगीकृत । स्वीकृत । २. आकर्णित । श्रुत । सुना हुआ [को०] ।

आश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वीकृति । वचनदान । २. आकर्णन । श्रवण [को०] ।

आश्लिष्ट
वि० [सं०] १. आलिंगत । हृदय से लगा हुआ । २. लगा हुआ । चिपका हुआ । सटा हुआ । मिला हुआ ।

आश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आलिंगन । २. लगाव ।

आश्लेषण
संज्ञा पुं० [सं०] मिलावट । मेल । यौ०—आश्लेषण विश्लेषण=कई दवाओं को एक साथ मिलना और मिली हुई दवाओं को अलग अलग करना । २. आश्रयण । नवें नक्षत्र का नाम ।

आश्लेषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवें नक्षत्र का नाम ।

आश्लेषित
वि० [सं०] लगा हुआ । चिपका हुआ । आलिंगित ।

आश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े का झुंड । २. घोड़े की स्थिति या दशा । ३. वह रथ जिसे घोड़े खींचते हैं ।

आश्वत्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आश्वत्थ या पीपल का फल [को०] ।

आश्वत्थ (२)
वि० [सं०] १. अश्वत्थ या पीपल संबंधी । २. पीपल में फल आने के समय से संबंद्ध [को०] ।

आश्वत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी नक्षत्र की रात्रि [को०] ।

आश्वमेधिक
वि० [सं०] अश्वमेध यज्ञ या अश्वमेध संबंधी [को०] ।

आश्वयुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह महीना जिसकी पूर्णिमा अश्विनी नक्षत्र युक्त हो । अश्विन । क्वार ।

आश्वलक्षणिक
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों के भले बुरे लक्षण पहचाननेवाला । शालिहोत्री [को०] ।

आश्वलायन
संज्ञा पुं० [सं०] आश्वलायन गृह्यसूत्रों और श्रौतसूत्रों के रचयिता ऋषि का नाम [को०] ।

आश्वस्त
वि० [सं०] १. निर्भय । उ०—आर्य सभ्यता हुई प्रतिष्ठित आर्य धर्म आशवस्त हुआ ।—साकेत, पृ० ३७९ । २. उत्साह- युक्त [को०] ।

आश्वास
संज्ञा पुं [सं०] [वि० आशवासक] १. सांत्वना । दिलासा । तसल्ली । आशाप्रदान । २ किसी कथा का एक भाग । ३. विराम [को०] । ४. पुरी तरह खुलकर साँस लेना [को०] ।

आश्वासक (१)
वि० [सं०] दिलासा देनेवाला । भरोसा देनेवाला ।

आश्वासक (२)
संज्ञा पुं० कपड़ा । वस्त्र [को०] ।

आश्वासन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आश्वासनीय, आश्वासित, आश्वास्य] दिलसा । तसल्ली । सांत्वना । आशाप्रदान । उ०—व्याकुल को आश्वासन सा देती हुई ।—महा०, पृ० ४ ।

आश्वासनीय
वि० [सं०] दिलासा देने योग्य । तसल्ली देने योग्य । प्रोत्साहन के योग्य ।

आश्वासित
वि० [सं०] दिसाला दिया हुआ । दिलासा पाया हुआ ।

आश्वासी
वि० [सं० आश्वासिन्] १. आश्वासन देनेवाला । दिलासा या ढाढ़स बँधानेवाला । २. आत्माविश्वासी । ३. प्रफुल्लचित्त [को०] ।

आश्वास्य
वि० [सं०] दे० 'आश्वासनीय' ।

आश्विक (१)
वि० [सं०] १. घोड़ों से संबंध रखनेवाला । अश्वारोही घोड़े से खींचा जानेवाला [को०] ।

आश्विक (२)
संज्ञा पुं० घुड़सवार सैनिक [को०] ।

आश्विन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह महीना जिसकी पूर्णिमा अश्विनी नक्षत्र में पड़े । क्वार का महीना । २. अश्विनीकुमार । ३. एक यज्ञ [को०] ।

आश्विनेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वनीकुमार । २. नकुल और सहदेव ।

आष पु
स्त्री० पु० [सं० आखु] दे० 'आखु' । उ०—आष इष्षि चष अग्ग । घात मंजार न मंड़ै ।—पृ० रा०, ६३ ।१६० ।

आषाढ़
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़] वह चांद्रमास जिसकी पूर्णिमा को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र हो । जेष्ठ मास के पश्चात् और श्रावण के पूर्व का महीना । असाढ़ । २. ब्रह्मचारी का दंड । ३. पलाश । ढाक ।

आषाढ़क (१)
वि० [सं० आषाढक] आषाढ़ मास में होनेवाला । आषाढ़ संबंधी [को०] ।

आषाढ़क (२)
संज्ञा पुं० आषाढ़ मास [को०] ।

आषाढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़ा] पूर्वाषाढ़ा और उत्ताराषाढ़ा नक्षत्र ।

आषाढ़ाभव, आषाढ़ाभू
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़ाभव—भू] मंगल ग्रह ।

आषाढ़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० आषाढी] १. आषाढ़ मास की पूर्णिमा । विशेष—इस दिन गुरुपूजा या व्यास पूजा होती है । वृष्टि आदि का आगम निश्चय करने के लिये वायुपरीक्षा भी इसी दिन की जाती है । २. इस पूर्णिमा के दिन होनेवाले कृत्य ।

आषाढ़ी (२)
वि० [सं० आषाढ़िन्] पलाशदंड धारण करनेवाला [को०] ।

आषाढ़ीय
वि० [सं० आषाढीय] आषाढ़ा नक्षत्र में उत्पन्न [को०] ।

आषाढ़ी योग
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़ी योग] आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को अन्न की तौल से सुवृष्टि आदि का निश्चय । विशेष—इस दिन लोग थोड़ा सा अन्न तौलकर हवा में रख देते हैं । यदि वहाँ की सील से अन्न की तौल कुछ बढ़ गई तो समझते हैं कि वृष्टि होगी और सुकाल रहेगा ।

आसग (१)
संज्ञा पुं० [सं० आसङ्ग] १. साथ । संग । २. लगाव । संबंध । ३. आसक्ति । अनुरक्ति । लिप्तता । ४. मुलतानी मिट्टी जिसे सिर में मलकर लोग स्नान करते हैं ।

आसंग (२)
क्रि० वि० सतत । तिरंतर । लगातार ।

आसंगत्य
संज्ञा पुं० [सं० आसाङ्गत्य] १.असंगति का भाव या अवस्था । पार्थक्य । अलगाव । २. वियोग [को०] ।

आसंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० आसङ्गिनी] बंवडर । वात्याचक्र [को०] ।

आसंगी
वि० [सं० आसङ्गन्] १. संपर्की । मेलजोल रखनेवाला । २. आसक्त [को०] ।

आसंजन
संज्ञा पुं० [सं० आसञ्नन] १. बाँधना या जोड़ना । २. पहनना या धारण करना । ३. अनुराग । ४. भक्ति । ५. मूठ [को०] ।

आसंद
संज्ञा पुं० [सं० आसन्द] वासुदेव या विष्णु [को०] ।

आसंदिका
संज्ञा स्त्री० [आसन्दिका] १. मचिया । २. आसनी [को०] ।

आसंदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मचिया । मोढ़ा । कुरसी । २. खटोला ।

आसंबाध
वि० [सं० आसम्बाध] १. अवरुद्ध । घेरे में पड़ा हुआ । २. फैला हुआ [को०] ।

आसंसार
वि० [सं०] विकारी । प्रगतिशील । परिवर्तनशील [को०] ।

आसंसृति
वि० [सं०] दे० 'आसंसार' ।

आस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० आशा] १. आशा । उम्मेद । उ०—साथि चले सँग बीछुरा, भए बिच समुद पहार । आस निरासा हौं फिरौं, तू विधि देहि अधार ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३० । २. लालसा । कामना । उ०—तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ।—मानस, १ ।२५२ । ३. सहारा । आधार । भरोसा । जैसे,—हमें किसी दूसरे की आस नहीं । मुहा०—आस करना=(१) आशा करना । (२) आसरा करना । मुँह ताकना । जैसे,—चलते पौरुष किसी की आस करना ठीक नहीं । आस छोड़ना=आशा परित्याग करना । उम्मेद न रखना । आस टूटना=निराश होना । जैसे,—जब आस टूट जाती है, तब कुछ करते धरते नहीं बनता । आस तकना= (१) आसरा देखना । इंतजार करना । जैसे,—तुम्हारी आस तकते तकते दोपहर हो गए । (२) सहायता की अपेक्षा रखना । मुँह जोहना । जैसे,—ईश्वर न करे किसी की आस तकनी पड़े । आस तजना=आशा छोड़ना । आस तोड़ना= किसी की आशा के विरुद्ध कार्य करना । किसी को निराश करना । जैसे,—किसी की आशा तोड़ना ठीक नहीं । आस देना=(१) उम्मेदबँधाना । किसी को उसको इच्छानुकुल कार्य करने का वचन देना । जैसे,—किसी को आस देकर तोड़ना ठीक नहीं । (२) संगीत में किसी बाजे या स्वर से सहायता देना । आस पुराना=आशआ पूरी करना । आस पूजना=आशआ पूरी होना । इच्छानुकूल फल मिलता । उ०—एकहिं बार आस सब पूजी । अब कछु कहब जीभ दूजी ।—मानस, २ ।१६ । आस पूरना=दे० 'आस पूजना' । आस बँधना=आशा उत्पन्न होना । जैसे, —रोगी की अवस्था कुछ सुधरी है, इसी से आस बँधती है । आस लगाना=आशा उत्पन्न होना । आस लगाना=आशा बाँधना । आस होना=(१) आशा होना । (२) सहारा होना । आश्रय होना । (३) गर्भ होना । गर्भ रहना । जैसे, —तुम्हारी बहू को कुछ आस है । यौ०—आस औलाद ।

आस (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आशा] दिशा । उ०—जैसे तैसे बीतिगे कलपत द्वादश मास । आई बहुरि बसंत ऋतु विमल भई दस आस ।—रघुराज (शब्द०) ।

आस (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष । कमान । २. चूतड़ । ३. आसान (को०) । ४. उपवेशन । बैठना (को०) । ५. संनिधि । सामीप्य (को०) । यौ०—कप्यास ।

आसकत †
संज्ञा पुं० [सं० आशक्ति] [वि० आसकती, क्रि० असकताना] सुस्ती । आलस्य ।

आसकती †
वि० [हिं० आसकता+ ई (प्रत्य०)] आलसी ।

आसक्त
वि० [सं०] १. अनुरक्त । लीन । लिप्त । जैसे,—इँद्रियो में आसक्त रहना ज्ञानियों का काम नहीं । २. आशिक । मोहित । लुब्ध । मुग्ध । जैसे—वह उस स्त्री पर आसक्त है । ३. विश्वास माननेवाला (को०) ।

आसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुरक्ति । लिप्तता । २. लगन । चाह ।

आसति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आसत्ति' । उ०—आसति कहूँ न देखिहूँ, बिन नाँव तुम्हारे ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५२ ।

आसतीन
संज्ञा स्त्री० [फा० आस्तीन] दे० 'आस्तीन' ।

आसते (१) पु
क्रि० वि० [फा० आहिस्तह्] १. धीरे धीरे । उ०— पौन करि आसतैं न जाऊँ उठी बास तैं, अरी गुलाबपास तैं, उठाउ आसपास तै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १२२ । २. होते हुए ।

आसते (२)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'आसना' ।

आसतोष पु
वि०, संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आशुतोष' । उ०—समरथ दूलनदास के आसतोष तुम राम ।—संतबानी०, भा०, १, पृ० १३७ ।

आसत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सामीप्य । निकटता । २. अर्थबोध के लिये बिना व्यवधान के एक दूसरे से संबंध रखनेवाले पदों या शब्दों का पास पास रहना । जैसे,—यदि कहा जाय कि 'वह खाता था पुस्तक और पढ़ता था दाल चावल' तो कुछ बोध नहीं होता, क्योंकि आसत्ति नहीं है । पर यदि कहें कि 'वह दाल चावल खाता था और पुस्तक पढ़ता था' सतो तात्पर्य खुला जाता है । पदों का अन्वय आसत्ति के अनुसार होता है । ३. प्राप्ति । पाना । लाभ । (को०) । मेल । संगति (को०) ।

आसथा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आस्था] अंगीकार । —(डिं०) ।

आसथान पु
संज्ञा पुं० [सं० आस्थान्] दे० 'आस्थान' ।

आसदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाभ । मुनाफा । २. संबंध । संपर्क । ३. निकटता । समीपता । ४. बैठने की क्रिया । बैठना । ५. आसन [को०] ।

आसन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थिति । बैठने की विधि । बैठक । जैसे,— ठीक आसन से बैठो । विशेष—यह अष्टांग योग तीसरा अंग है और पाँच प्रकार का होता है—पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन, वज्रासन और वीरासन । कामशास्त्र या कोकशास्त्र में भी रतिप्रसंग के ८४ आसन हैं । यौ०—पदमासन । सिद्धासन । गरुड़ासन । कमलासन । मयूरासन । मुहा०—आसन उखड़ना=(१) अपनी जगह से हिल जाना । (२)घोड़े की पीठ पर रान न जमना । जैसे,—वह अच्छा सवार नहीं है; उसका आसन उखड़ जाता है । आसन उठना=स्थान छूठना । प्रस्थान होना । जानना । जैसे,—तुम्हारा आसन यहाँ से कब उठेगा? आसन करना=(१) योग के अनुसार अंगों को तोड़ मरोड़कर बैठना । (२) बैठना । टिकना । ठहरना । जैसे,—उन महात्मा ने वहाँ आसन किया है । आसन कसना= अंगों को तोड़ मरोड़कर बैठना । आसन छोड़ना=उठ जाना । चला जाना । आसन जमना=(१) जिस स्थान पर जिस रीति से बैठे, उसी स्थान पर उसी रिति से स्थिर रहना । जैसे,—अभी घोड़े की पीठ पर उनका आसन नहीं जमता है । (२) बैठने में स्थिर भाव आना । जैसे,—अब तो वहाँ आसन जम गया, अब जल्दी नहीं उठते । आसन जमाना= स्थिर भाव से बैठना । जैसे,—वह एक घड़ी भी कहीं आसन जमाकर स्थिर भाव से नहीं बैठता । आसन जोड़ना= दे० 'आसन जमाना' । आसन डिगना=(१) बैठने में स्थिर भाव न रहना । (२) चित्त चलायमान होना । मन डोलना । इच्छा और प्रवृत्ति होना । (जिससे जिस बात की आशा न हो वह यदि उस बात को करने पर राजी या उतारू हो तो उसके विषय में यह कहा जाता है ।) जैसे,—(क) जब रुपया दिखाया गया, तब तो उसका भी आसन डिग गया । (ख) उस सुंदरी कन्या को देख नारद का आसन डिग गया । आसन डिगाना=(१) जगह से विचलित करना । (२) चित्त को चलायमान करना । लोभ या इच्छा उत्पन्न करना । आसन डोलना=(१) चित्त चलायमान होना । लोगों के विश्वास के विरुद्ध किसी की कीसी वस्तु की ओर इच्छा या प्रवृत्ति होना । जैसे—मेनका के रूप को देख विश्वामित्र का भी आसन डोल गया । (ख) रुपए का लालच ऐसा है कि बड़े बड़े महात्माओं का भी आसन डोल जाता है । (२) चित्त क्षुब्ध होना । हृदय पर प्रभाव पड़ना । हृदय में भय और करुणा का संचार होना । जैसे,—(क) विश्वामित्र के घोर तप को देख इंद्र का आसन डोल उठा । (ख) जब प्रजा पर बहुत अत्याचार होता है, तब भगवान् का आसन डोल उठता है । आसन डोल=कहारों की बोली । जब पालकी का सवार बीच से खिसककर एक ओर होता है और पालकी उस ओर झुक जाती है तब कहार लोग यह वाक्य बोलते हैं । आसन तले आना=वश में आना । अधीन होना । आसन देना=सत्कारार्थ बैठने के लिये कोई वस्तु रख देना या बतला देना । बैठाना । आसन पहचानना = बैठने के ढ़ंग से घोड़े का सवार को पहचानना । जैसे, —घोड़ा सवार को पह- चानता है, देखो मालिक के चढ़ने से कुछ इधर उधर नहीं करता । आसन पाटी = खाट खटोला । ओढ़ने बिछाने की वस्तु । आसन पाटी लेकर पड़ना = अटवाटी खटवाटी लेकर पड़ना । दुख और कोप प्रकट करने के लिये ओढ़ना ओढ़कर या बिछौना बिछाकर खूब आडंबर के साथ सोना । आसन बाँधना = दोनों रानों के बीच दबाना । जाँघों से जकड़ना । आसन मारना = (१) जमकर बैठना । (२) पालथी लगा कर बैठना । उ०— मठ मंड़प चहुँ पास सकारे । जपा तपा सब आसन मारे ।—जायसी (शब्द०) । आसन लगाना = (१) आसन मारना । जम कर बैठना । (२) टिकना । ठहरना । जैसे, —बाबा जी, आज तो यहीं आसन लगाइए । (३) किसी कार्य के साधन के लिय़े अड़कर बैठना । जैसे, —यदि आज न दोगे तो यहीं आसन लगावेगा । (४) बैठने की वस्तु फैलाना । बिछौना बिछाना । जैसे,—बाबा जी के लिये यहीं फैलाना । लगा दो । आसन होना = रतिप्रसंग के लिये उद्यत होना । २. बैठने के लिये कोई वस्तु । वह वस्तु जिसपर बैठें । विशेष—बाजार में ऊन,मूँज य़ा कुश के बने हुए चौखूँटे आसन मिलते हैं ।—लोग इनपर बैठकर अधिकतर पूजन या भोजन करते है । ३. टिकान या निवास । (साधुओं की बीली) । ४. साधुओं का ड़ेरा या निवास स्थान । क्रि० प्र०— करना = टिकना । ड़ेरा ड़ालना ।—देना = टिकना । ठहराना । ड़ेरा देना । ५. चूतड़ । ६. हाथी का कंधा जिसपर महावत बैठता है । ७. सेना का शत्रु के सामने ड़टे रहना । ८. उपेक्षा की नीति से काम करना । यह प्रकट करना कि हमें कुछ परवाह नहीं है । विशेष—इस नीति के अनुसार शत्रु के चढ़ आने या घेरने पर भी राजा लोग नाचरंग का सामान करते है । ८. कौटिल्य के अनुसार उदासीन या तटस्थ रहने की नीति । आक्रमण के रोके रहने की नीति । १०. एक दुसरे की शक्ति नष्ट करने में असमर्थ होकर राजाओं का संधि करके चुपचाप रह जाना । विशेष—यह पाँच प्रकार का कहा गया है—विगृह्यासन, संधाना— सन, संभूयासन, प्रसंगासन और उपेक्षासन ।

आसन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवक नाम का अष्टवर्गीय ओपधि । २. जीरक । जीरा ।

आसना (१) पु
क्रि० अ० [सं० अस्=होना] होना । उ० —(क) है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ।—जायसी ग्र०, पृ० ३ । (ख) मरी उरी कि टरी बिथा, कहा खरी, चलि चाहि । रही कराहि कराहि आति अब मुँह आहि न आहि ।—बिहारी र०, दो०, ५६ । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग वर्तमान काल में ही मिलता है और इसका रूप 'आहि' या आहि का ही कोई विकारी रूप होता है ।

आसना (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीव । २. वृक्ष ।

आसनी
संज्ञा स्त्री० [सं० आसन का हिं० अल्पा०] छो़टा आसन । छोटा बिछौना ।

आसन्न
वि० [सं०] निकट आया हुआ । समीपस्थ । प्राप्त । यौ०—आसन्नकाल= (१) प्राप्तकाल । आया हुआ समय । (२) मृत्युकाल । (३) जिसका समय आ गया हो । (४) जिसका मृत्युकाल निकट हो । आसन्नप्रसवा = जिसे शीघ्र बच्चा होनेवाला हो ।

आसन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नैकटय । सामीप्य ।

आसन्नपरिचारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सदा मालिक के पास रहनेवाला नौकर । निकटवर्ती सेवक । २. अंगरक्षक [को०] ।

आसन्नभूत
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह भूतकाल जो वर्तमान से मिला हुआ हो, अर्थात् जिसे बीते थोड़ा ही काल हुआ हो । २. भूतकालिक क्रिया का वह रूप जिससे क्रिया ती पूर्णता और वर्तमान से उसकी समीपता पाई जाय । जैसे, —मैं जा रहा हूँ । मै आया हूँ । उसने खाया है । मैंने देखा है । विशेष—सामान्य भूत की अकर्मक क्रिया के आगे कर्ता के वचन और पुरुष के अनुसार हूँ, है, हैं, हो लगाने से आसन्नभूत क्रिया बनती है । पर सकर्मक क्रिया के आगे केवल कर्म के वचन के अनुसार 'है' या 'है' तीनो पुरुषों में लगता है ।

आसन्नमरण
वि० [सं०] जो कुछ ही देर में मरनेवाला हो [को०] ।

आसन्नमृत्यु
वि० [सं०] दे० 'आसन्नसरणा' ।

आसपास
क्रि० वि० [सं० आस=सामीप्य अथवा अनुध्व० आस+सं० पार्श्व] चारों ओर । निकट । करीब । इर्द गिर्द । इधर उधर । अगल बगल । उ०—तब सरस्वती सी फेंक साँस, श्रद्धा ने देखा आसपास । —कामायनी, पृ० २४७ ।

आसबंद
संज्ञा पुं० [सं० आश्रय+बंद] एक ताग, जो पटवों के पैर के अँगूठे में बँधा रहता है ।—इसी तागे में जेवर को अटकाकर गूँथते है ।

आसमाँ
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'आसमान' ।

आसमान
संज्ञा पुं० [फा० मि० वै० सं० अश्मन्=आकाश] १. आकाश । गगन । २. स्वर्ग । देवलोक । उ०— चहूँ ओर सब नगर के लसत दीवालै चारु । आसमान तजि जनु रह्यो गीरवान परिवारु ।—गुमान (शब्द०) । मुहा०—आसमान के तारे तोड़ना = कोई कठिन या असंभव कार्य़ करना । जैसे, —कहो तो मैं तुम्हारे लिये आसमान के तारे तोड़ लाऊँ । आसमान जमीन के कुबाले मीलाना = (१) खूब लंबी चौड़ी हाँकना । खूब बढ़ चढ़कर बातें करना । (२) गहरा जोड़ तोड़ लगाना । विकट कार्य करना । आसमान झाँकना या ताकना = (१) घमंड़ से सिर ऊपर उठाना । तनना । (२) मु्र्गेबाजों की बोली में मुर्ग का मस्त होकर लड़ने के लिये तैयार होना । झड़प चाहना । (जब मुर्ग जोश में भरता है तब आस— मान की ओर देखकर नाचता है । इसी से यह मुहाविरा बना है) । जैसे,—अब तो मुर्गा आसमान झुँकने लगा । आसमन टूट पड़ना = किसी बिपत्ति का अचानक आ पड़ना । वज्रपात होना । गजब पड़ना । जैसे, —क्यों इतना झूठ बोलते हो, आसमान टूट पड़ेगा । आसमान दिखाना = (१) कुश्ती में पछाड़कर चित्त करना । (२) पराजित करना । प्रतिपक्षी को हराना । आसमान पर उड़ना =(१) इतराना । गरूर करना । (२) बहुत ऊँचे ऊँचे संकल्प बाँधना । ऐसा कार्य करने का विचार प्रकट करना जो सामर्थ्य से बाहर हो । बहुत बढ़ बढ़कर बातें करना । डींग हाँकना । असमान पर चढ़ना = गरूर करना । घमंड़ दिखाना । शेखी मारना । सिट्ट मारना । जैसे,— (क) कौन सा ऐसा काम कर दिखाया है जो आसमान पर चढ़े जाते हो ।(ख) उनका मिजाज आजकल आसमान पर चढ़ा है । आसमार पर चढ़ाना = (१) अत्यंत प्रशंसा करना । जैसे,—आप जिसपर कृपा करने लगते हैं उसे आसमान पर चढ़ा देते हैं । (२) अत्यंत प्रशंसा करके किसी को फुला देना । तारीफ करके मीजाज बिगड़ा देना । जैसे,—तुमने तो और उसको आसमान पर चढ़ा रखा है, जिसके करण वह किसी को कुछ समझता ही नहीं । आसप्तान पर थूकना = किसी महात्मा के ऊपर लांछन लगाने के कारण स्वयं निंदित होना । किसी सज्जन के अपमानित करने के कारण उलटे आप तिरस्कृत होना । आसमान फट पड़ना = दे० 'आसमान टूट पड़ना' । उ०—फिक्र यह है कि दुनियाँ क्यों कर कायम है, आसमान फट क्यों नहीं पड़ता ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ९४ । आसमान में थिगली लगाना = विकट कार्य करना । जहाँ किसी की गति न हो वहाँ पहुँचना । जैसे, — कुटनियाँ आसमान में थिगली लगाती हैं । आसमान में छेद करना = दे० 'आसमान में थिगली लगाना' । असमान सिर पर उठान = (१) ऊधम मचाना । उपद्रव मचाना । (२) हलचल मचाना । खूब आंदोलन करना । धूम मचाना । आसमान सिर पर टूट पड़ाना = दे० 'आसमान टूट पड़ना' । आसमान से गिरना = (१) अकारण प्रकट होना । आप से आप आ जाना । जैसे, —अगर यह पुस्तक तुमने यहाँ नहीं रखी तो क्या आसमान से गिरी है ? (२) अनायास प्राप्त होना । बिना परिश्रम मिलना । जैसे, —कुछ काम धाम करते नहीं रुपया क्या आसमान से गिरेगा ? आसमान से बातें करना = आसमान छूना । आसमान तक पहुँचना । बहुत ऊँचा होना । जैसे, — माधवराय के दोनों धरहरे आसमान से बातें करते है । (हाल ही में एक धरहरा कमजोर होने से गिर गया । अब एक ही है) । दिमाग आसमान पर होना = बहुत अभिमान होना ।

आसमानखोचा
संज्ञा पुं० [फा० आसमान+हि० खोंचा] १. लंबा लग्गा या धरहरा जो ऊपर तक गया हो । २. बहुत लंबा आदमी । ३. एक तरह का हुक्का जिसकी नैची इतनी लंबी होती है कि हुक्का नीचे रहता है और पीनेवाला कोठे पर ।

आसमानी (१)
वि० [फा०] १. आकाश संबंधी । आकाशीय । आसमान का । २. आकाश के रंग का । हल्का नीला । ३. दैवी । ईश्वरीय । जैसे, —उनके ऊपर आसमानी गजब पड़ा ।

आसमानी (२)
संज्ञा स्त्री० १. ताड़ के पेड़ से निकला हुआ मद्य । ताड़ी । २. किसी प्रकार का नशा; जैसे,—भाँग, शराब । ३. मिस्त्र दैश की एक कपास । ४. पालकी के कहारों की एक बोली । (जब कोई पेड़ की डाल आदि आगे आ जाती है जिसका ऊपर से पालकी में धक्का लगने का ड़र रहता है,तब आगेवाला कहार पीछेवालों को 'आसमानी, आसमानी' कहकर सचेत करते हैं ।

आसमुद्र
क्रि० वि० [सं०] समुद्र पर्यंत । समुद्र के तट तक । उ०— आसमुद्र के छितीस और जाति कौ गनै । राजभौम भोज को सबै जने गए बनै ।—केशव (शब्द०) ।

आसय पु
संज्ञा पुं० [सं० आशय] दे० 'आशय' । उ०— बैष्णवन के मत को आसय जानि गए । —दो सौ बाबन, भा०, १, पृ० ३११ ।

आसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० आशार] दे० 'आशर' ।

आसर (२)
संज्ञा पुं० [सं० अशर] दस रुपए (कसाइयों की बोली) ।

आसरना पु
क्रि० स० [सं० आश्रयण] आश्रय लेना । सहारा लेना । उ०— नर तनु भक्ति तुम्हारी होय़ । तव में जीव आसरै सोय (शब्द०) ।

आसरम पु
संज्ञा पुं० [सं० आश्रम] दे० 'आश्रम' । उ०— चार बिचार आसरम धरम । —पलटू०, पृ० ५५ ।

आसरा
संज्ञा पुं० [सं० आश्रय प्रा० *आसरश्र] १. सहारा । आधार । अवलंब । जैसे, —(क) यह छत खंभों के आसरे पर है । (ख) बुढ्डे लोग लाठी के आसरे पर चलते हैं । २. भरण पोषण की आशा । भरोसा । आस । ३. किसी से सहायता पाने का निश्चय । जैसे, —हमें आप ही का आसरा है दूसरा हमारा कौन है । क्रि० प्र० —करना ।—लगाना ।—होना । मुहा०—आसरा टूटना = भरोसा न रहना । नैराश्य होना । आसरा देना = वचन देना । किसी बात का विश्वास दिलाना । ४. जीवन या कार्य निर्वाह का हेतु । आश्रयदाता । सहायक । जैसे, — हम तो आपना आसरा आपको ही समझते है । ५. शरण । पनाह । जैसे,—जिसने तुम्हें आश्रय दिया उसी के साथ ऐसा करते हो । क्रि० प्र०—ढूँढ़ना । —पकड़ना ।—देना । —लेना । ६. प्रतिक्षा । प्रत्याशा इंतजार । क्रि० प्र०—तकना । —देखना ।—में रहना । ७. आशा । जैसे, —अब उसका क्या आसरा है, चार दिनों का मेहमान है ।

आसरैत †
वि० [सं० आश्रित या हिं० आसरा+ऐत (प्रत्य०)] १. आश्रित । किसी के सहारे रहनेवाला । २. रखैल ।

आसव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मद्य जो भभके से न चुआई जाय, केवल फलों के खमीर को निचोड़कर बनाई जाय । उ०— इड़ा ड़ालती थी वह आसव जिसकी बुझती प्यास नहीं ।— कामायनी, पृ० १८३ । २. औषध का एक भेद । कई द्रव्यों को पानी में मिलाकर भूमि में ३०-४० या ६० दिन तक गाड़ रखते है फिर उस खमीर को निकालकर छान लेते हैं । इसी को आसव कहते है । ३. अर्क । ४. वह पात्र जिसमें मद्य रखा जाय़ । ५. उत्तेजन । ६. मकरंद । पुष्परस (को०) । ७. अधर रस (को०) ।

आसवद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. तालवृक्ष । ताड़ का पेड़ा । २. खजूर [को०] ।

आसवन
संज्ञा पुं० [सं०] आसव बनाने की क्रिया [को०] ।

आसवी
वि० [सं० आसविन्] शराबी । मद्यप । मद्यपान करनेवाला । उ०—वे नैनन से आसवी मैं न लखेघनस्याम । छकि छकि मतवारे रहैं, तव छबि मद बसु जाम ।—स० सप्तक, पृ० २७२ ।

आसहर पु
वि० [सं० आशा+हर] निराश । उ०— सबै आसहर तकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ।—जायसी ग्रं०, पृ० २ ।

आसा (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० आशा] दे० 'आशा' ।

आसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० आसा] सोने चाँदी का डंड़ा जिसे केवल सजावट के लिये राजा महाराजों अथवा बरात और जुलूस के आगे चोबदार लेकर चलते है । यौ०—आसाबल्लम । आसामोंटा । आसाबरदार ।

आसाइश
संज्ञा पुं० [फा०] आराम । सुख । चैन ।

आसाढ़ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आषाढ़' ।

आसादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राप्त करना । २. रखना । ३. झपटकर पकड़ लेना । ४. आक्रमण करना [को०] ।

आसादित
वि० [सं०] १. प्राप्त । उपलब्ध । २. पहुँचा हुआ । ३. बिखेरा हुआ । ४. पूर्ण किया हुआ । ५. आक्रांत [को०] ।

आसान
वि० [फा०] सहज । सरल । सीधा । सहल ।

आसानी
संज्ञा स्त्री० [फा० ] सरलता । सुगमता । सुबीता ।

आसापाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ का नाम ।

आसाम
संज्ञा पुं० [देश०] भारत का एक प्रांत या राज्य जो बंगाल के उत्तर पूर्व में है । विशेष—इसके प्राचीन काल में 'कामरूप' देश कहते थे । इस देश में हाथी अच्छे होते हैं । यहाँ पहसे 'आहम' वंशी क्षत्रियों का राज्य था । इसी से इस देश का नाम 'आहम' या 'आसाम' पड़ गया है । मनीपुर के राजा लोग अपने की इसी वंश का बतलाते है ।

आसामी (१)
संज्ञा पुं० स्त्री० [हि०] दे० 'आसामी' ।

आसामी (२)
वि० [हि० आसाम] आसाम देश का । आसाम देश संबंधी ।

आसामी (३)
संज्ञा पुं० आसाम देश का निवासी ।

आसामी (४)
संज्ञा स्त्री० आसाम देश की भाषा ।

आसामुखी पु
वि० [सं० आशा+मुख+हिं ई(प्रत्य०)] किसी के मुख का आसरा देखनेवाला । मुखापेक्षी । उ०—(क) जो जाकर अस आसामुखी । दुख महँ ऐस न मारै दुखी ।— जायसी ग्रं०, पृ०, ९७ । (ख) पाहन कूँ का पूजिए जे जनम म देई जाब । आधा नर आसामुखी, यौं ही खोवै आब ।— कबीर ग्रं० पृ० ४४ ।

आसार (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. चिह्न । लक्षण । निशान । उ०— बारिश के आसार पाए जाते हैं ।—श्रीनिवा सग्रं०, पृ०,..... । २. चौड़ाई । ३. नींव । बुनियाद [को०] । ४. खंडहर [को०] ।

आसार (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धारा । संपात । मूसलाधार वृष्टि । २. कौटिल्य के अनुसार लड़ाई में मित्र आदि से मिलनेवाली सहायता । ३. मेघमाला ।—(ड़िं०) ४. हमला । हरुला आक्रमण (को०) ।५. शत्रु की सेना को घेरने की क्रिया [को०] ।

आसारित
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक गीत ।

आसाव
वि० [सं०] प्रशंसक । स्तुतिकारक [को०] ।

आसावरी
संज्ञा पुं० [हिं०?] १. श्रीराग की एक रागिनी । इसका स्वर ध, नि, स, म, प०, ध, है ओर गाने का समय प्रातःकाल १. दंड़ से ५ दंड़ तक । दे० 'असावरी' । २. एक प्रकार का कबूतर । ३. एक प्रकार का सूती कपड़ा ।

आसिक (१)
वि० [सं०] तलवार चलानेवाला । असिकला में प्रवीण ।

आसिक (२)पु
वि० [अ० आशिक] प्रेम करनेवाला [को०] ।

आसिक्त
वि० [सं०] अभिसिंचित । सींचा हुआ । भींगा हुआ [को०] ।

आसिख, आसिखा पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'आशिष' ।

आसित (१)
वि० [सं०] १. बैठा हुआ । २.सुखासीन [को०] ।

आसित (२)
संज्ञा पुं० १. आसित मुनि का पुत्र । २. शंड़िल्य गोत्र का एक प्रवर विशेष । ३. बैठने का तरीका (को०) । ४. बैठने की वस्तु । आसन (को०) ।

आसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] राजाज्ञा के अनुसार मुद्दई के द्बारा हिरासत में किया हुआ मुद्दालैह् (प्रतिवादी) ।

आसिन
संज्ञा पुं० [सं० आश्विन] क्वार का महीना ।

आसिया
संज्ञा स्त्री० [फा०] चक्की । जाता । पेषणी [को०] ।

आसिरबचन पु
संज्ञा पुं० [सं० आशिर्वचन] आशीर्वाद । आसीस उ०— बंदि बंदि पग सिय सबही के । आसिरबचन लहे प्रिय जी के । —मानस०, २ । २४५ ।

आसिरबाद पु
संज्ञा पुं० [सं० आशीर्वाद] दे० 'आशीर्वाद' ।

आसिरा पु
संज्ञा पुं० दे० 'आसरा' । उ०— दादू मैं ही मेरे आसिरे, मैं मेरे आधार ।—दादू० बानी०, पृ०.... ।

आसिषा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० आशिष । उ०—औरो एक आसिषा मोरी । अप्रतिहत गति होइहि तोरी ।—मानस, ७ । १०९ ।

आसिस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आशिष' । उ०— दछिना देत नंद पग लागत आसिस देत गरग सब द्बिज वर ।—नंद ग्रं०, पृ० ५७१ ।

आसी पु
वि० [सं० आशी] दे० 'आशी' ।

आसीन
वि० [सं०] बैठा हुआ । विराजमान ।

आसीनपाठ्य
संज्ञा पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य के दस अंगों में से एक । शोक और चिंता से युक्त किसी आभूषितांगी नायिका का बिना किसी बाजे या साज के यों ही गाना ।

आसीर्वाद
संज्ञा पुं० [सं० आशीर्वाद] दे० 'आशीर्वाद' । उ०— कोऊ बैष्णव कौ आसीर्वाद तो नहिं भयों?—दो सौ बावन० भा०, २, पृ० ४९ ।

आसीवन
संज्ञा पुं० [सं०] सीने की क्रिया । तागे ड़ालना । टाँके लगाना [को०] ।

आसीस (१)
संज्ञा पुं० [सं० आ+शीर्ष] तकिया । उसीसा । उ० —तिसपर केन से बिछौने फूलों से सँवारे विशाल गड़्डवा और आसीसे समेत सुगंध से सहक रहे थे ।—लल्लू (शब्द०) ।

आसीस (२)
संज्ञा पुं० [सं० आशिष] दे० 'आशिष' ।

आसु (१)पु
सर्व [सं० अस्य, प्रा०, अस्स, आसु जैसे 'यस्य' से जासु, तस्य से तासु] इसका । उ०—जानि पुछार जो भय बनवासू । रोबँ रोबँ परि फाँद न आसू ।—जायसी (शब्द०) ।

आसु (२)पु
क्रि० वि० [सं० आशु] दे० 'आशु' । उ०—आनि कै पाँ परौ देस लै, कोस लै आसु ही ईस सीता चलैं ओक को ।—रामचं०, पृ० ११३ ।

आसुग पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० आशुग] दे० 'आशुग' ।

आसुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रस्रवण । चुवाना । २. चुआकर बनाई जानेवाली ओषधिविशेष । ३. प्रसव । ४. स्थिरता [को०] ।

आसुंतीवल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कन्यापालक । बालिक का अभि- भावक । २. पुरोहित । ३. शराब चुआनेवाला कलाल । ४. बलि देनेवाला व्यक्ति [को०] ।

आसुतोष (१)पु
संज्ञा पुं० वि० [सं० आशुतोष] दे० 'आशुतोष' ।

आसुर (१)
वि० [सं०] १. असुरसंबंधी । यौ०—आसुर विवाह = वह विवाह जो कन्या के मातापिता को द्रव्य देकर हो । आसुरावेश=भूत लगना । २. दैवी (को०) । ३. यज्ञादि न करनेवाला (को०) ।

आसुर (२)
संज्ञा पुं० १. राक्षस । असुर । २. बिरिया । सोंचर नमक । कटीला । विड् लवण । ३. रुधिर (को०) ।

आसुरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक मुनि जो सांख्य योग के आचार्य कपिल मुनि के शिष्य थे ।

आसुरी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आसुरि' ।

आसुरी (२)
वि० स्त्री० [सं०] असुर संबंधी । असुरों का । राक्षसी । यौ०—आसुरी चिकित्सा = शस्त्रचिकित्मा । चीरफाड़ । आसुरी माया = चक्कर में ड़ालनेवाली राक्षासों की चाल । आसुरी संपत् । आसुरी सृष्टि ।

आसुरी (३)
संज्ञा स्त्री० १. राक्षस की स्त्री । उ०—कहूँ किन्नरी किन्नरी लै बजावैं । सुरी आसुरी बाँसुरी गीत गावैं ।—रामचं०, पृ० ९५ । २. वैदिक छंदों का एक भेद । ३. राजिका । राई । ४. सरसों । ५, शस्त्रचिकित्सा । चीरफाड़ (को०) ।

आसुरीसंपत्
संज्ञा स्त्री० [सं० आसुरीसम्पत्] १. राक्षसी वृत्ति । बुरे कर्मों का संचय । २. कुमार्ग से आई हुई संपत्ति । बुरी कमाई का धन ।

आसुरीसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दैवी आपत्ति । जैसे,—आग लगना, पानी की बाढ़, दु्र्भिक्ष आदि ।

आसूत्रित
वि० [सं०] १. माल बनानेवाला । मालाकार । २. माला पहननेवाला । २. गुँथा हुआ [को०] ।

आसूदगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] तुप्ति । संतोष ।

आसूदा
वि० [फा० आसुदह्] १. संतुष्ट । तृप्त । २. संपन्न । भरापूरा । यौ०— आसूदा हाल = खाने पीने से खुश ।

आसेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिगोना । अच्छीतरह भिगोना । २. सींचना । आसेचन । जलसिक्त करना । इच्छी तरह सीचना । [को०] ।

आसेक्य
वि० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का नपुंसक ।

आसेचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आसेक' ।

आसेचन (२)
वि० [सं०] संदुर । लुभावना [को०] ।

आसेचनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लघु पात्र [को०] ।

आसेद्धा
संज्ञा पुं० [सं० आत्पेद्ध] बंदी बनानेवाला व्यक्ति । हिरासत में लेनेवाला [को०] ।

६२

आसेध
संज्ञा पुं० [सं०] राजा की आज्ञा से वादी (मुद्दई) का प्रतिवादी (मुद्दालैह्) को हिरासत में रखना ।

आसेधिक
वि० [सं०] दे० 'आसेद्धा' [को०] ।

आसेब
संज्ञा पुं० [फा०] [वि, आसेबी] १. भूत प्रेत की बाधा । क्रि० प्र०—उतरना । —उतरना । —लगना । — होना । २. कष्ट । दुख [को०] । ३. आघात । चोट [को०] । ४. रोक । बाधा [को०] ।

आसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निरंतर सेवन करना । २. मेलजोल । बराबर होने का भाव [को०] ।

आसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'आसेवन' [को०] ।

आसेवित
वि० [सं०] सतत किया हुआ । बहुत दिनों तक व्यवहृत [को०] ।

आसेवी
वि० [सं० आसेविन्] निरंतर सेवन करनेवाला । अभ्यासी [को०] ।

आसेव्य
वि० [सं०] १. निरंतर सेवा के योग्य । २. देखने योग्य [को०] ।

आसेर पु
संज्ञा पुं० [सं० आश्रय] किला । —(ड़ि०) ।

आसोज †, आसोजा †
संज्ञा पुं० [सं० अश्वयुज्] आश्विन मास । क्वार का महीना । उ०— आस रही आसोज आइहैं पीव री ।—सुंदर ग्रं०, भा० १ पृ०, ३६४ ।

आसौं पु
क्रि० वि० [सं० आस्मिन् प्रा० आस्मि=इस+सं० सम= वर्ष] इस वर्ष । इस साल ।

आस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० आस्कन्द] १. नाश । २. शोषण । ३. आक्रमण । ४. आरोहण । ५. युद्ध । ६.घोड़े की एक चाल । ७. अपशब्द । तिरस्कार या अपमान ८. आक्रमण करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

आस्कंदन
संज्ञा पुं० [सं० आस्कन्दन] दे० 'आस्कंद' ।

आस्कंदित (१)
वि० [सं० आस्कन्दित] १. भारग्रस्त । २. कुचला गया [को०] ।

आस्कंदित (२)
संज्ञा पुं० घोड़े की तेज सरपट चाल [को०] ।

आस्कंदी
वि० [सं० आस्कन्दिन्] १. आक्रमणकारी । आक्रांता । २. खर्च करनेवाला । ३. अपहर्ता [को०] ।

आस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिछौना । बिछावन । २. हाथी की झूल । ३. बिछाना । फैलाना [को०] ।

आस्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञवेदी पर बिछाए कुश । २. दरी । बिछौना । ३. झूल । ४. फैलाना । बिछाना [को०] ।

आस्तरणिक
वि० [सं०] १. बिस्तरे पर सोनेवाला । २. फैलाया या बिछाया जानेवाला [को०] ।

आस्तार
संज्ञा पुं० [सं०] छितराना या बिखेरना [को०] ।

आस्तारपंक्ति
संज्ञा पुं० [सं० आस्तार पड़ेक्ति] एक वैदिक छंद का नाम जिसके पहले और चौथे चरण में १२ वर्ण और दूसरे तथा तीसरे चरण में आठ वर्ण होते हैं । यह सब मिलाकर ४० वर्णों का छंद है ।

आस्ताव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तुतिपाठ । स्तवन । २. यज्ञ में वह स्थान जहाँ से स्तुतिपाठ किया जाता है [को०] ।

आस्तिक (१)
वि० [सं०] १. वेद, ईश्वर और परलोक इत्यादि पर विश्वास करनेवाला । २. ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाला ।

आस्तिक (२)
संज्ञा पुं० वेद, ईश्वर और परलोक को माननेवाला पुरुष ।

आस्तिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद, ईश्वर और परलोक में विश्वास ।

आस्तिकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आस्तिकता' [को०] ।

आस्तिकपन
संज्ञा पुं० [सं० आस्तिक+हि० पन] आस्तिकता ।

आस्तिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर वेद और परलोक पर विश्वास । २. जैन शास्त्रानुसार जिनप्रणीत सब भावों के अस्तित्व पर विश्वास ।

आस्तीक
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जिन्होंने जनमेजय के सर्पसत्र में तक्षक के प्राण बचाए थे । ये जरत्कारु ऋषि और वासुकि नाग की कन्या से उत्पन्न हुए थे ।

आस्तीन
संज्ञा स्त्री० [फा०] पहनने के कपड़े का वह भाग जो बाँह के ढ़ँकता है । बाहीं । मुहा०—आस्तीन का साँप = वह व्यक्ति जो मित्र होकर शत्रुता करे । ऐसा संगी जो प्रकट में हिला मिला हो और हृदय से शत्रु हो । आस्तीन चढाना = (१) कोई काम करने के लिये मुस्तैद होना । (२) लड़ने के लिये तैयार होना । आस्तीन में साँप पालना = शत्रु या अशुभचिंतक को अपने पास रखकर उसका पोषण करना ।

आस्ते
अव्य० [अ० आहिस्तह्, हि० आसते] धीरे ।

आस्त्र
वि० [सं०] हथियार या आयुधसंबंधी [को०] ।

आस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूज्य बुद्धि । श्रद्धा । क्रि० प्र०— रखना ।—होना । २. सभा । बैठक । ३. आलंबन । अपेक्षा । ३. प्रयत्न । चेष्टा । (को०) । ४. निवास का साधन य़ा स्थान [को०] । ५. वादा प्रतिज्ञा (को०) । ६. आशा [को०] ।

आस्थाता
वि० [सं० आस्थातु] १. चढ़नेवाला । आरोही । २. खड़ा होनेवाला [को०] ।

आस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैठने की जगह । बैठक । २. सभा । दरबार । यौ०—आस्थानगृह, आस्थाननिकेतन, आस्थानमंड़प ।

आस्थानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैठने की कोई वस्तु । कुर्सी । मचिया [को०] ।

आस्थानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सभाकक्ष । सभागृह [को०] ।

आस्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थापित करना । खड़ा करना । २. एक बलवर्धक ओषधि । ३. घी या तेल की वस्ति [को०] ।

आस्थापित
वि० [सं०] १. खड़ा किया हुआ । २. संस्थापित । दृढ़ीकृत [को०] ।

आस्थायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रोताओं का समाज । २. दरबार [को०] ।

आस्थित
वि० [सं०] १. रहा हुआ । बसा बुआ । २. यत्न करता हुआ ।३. घेरा हुआ । ४. प्राप्त किया हुआ । पहुँचा हुआ । ५. व्याप्त । फैला हुआ [को०] ।

आस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवस्था । दशा [को०] ।

आस्थेय
वि० [सं०] १. जिसके पास पास पहुँचा जाय । २. गृहीत । ३. आदृत [को०] ।

आस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवित्रता । २. धोने या नहाने का पानी [को०] ।

आस्नेय (१)
वि० [सं०] रक्तरंजित [को०] ।

आस्नेय (२)
वि० मुख संबंधी [को०] ।

आस्पद
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थान । उ०—कोटि बार आश्चर्य का आस्पद है । —श्यामा०, पृ० ७१ । २. कार्य । कृत्य । ३.पद । प्रतिष्ठा । ४. अल्ल । वंश । कुल । जाति । जैसे,—आप कौन आस्पद है । ५. कुंड़ली में दसावाँ स्थान ।

आस्पर्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] होड़ाहीड़ी । प्रतिस्पर्धा । लागड़ाट [को०] ।

आस्पर्धी
वि० [सं० आस्पर्धिन्] होड़ लेनेवाला प्रतिस्पर्धी [को०] ।

आस्फाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धक्का देना । २. रगड़ना । ३. धीरे धीरे हिलाना । ४. हाथी का कान फड़फड़ाना [को०] ।

आस्फालन
संज्ञा पुं० [सं०] झटक । धक्का देना । झपटना । उ०— अपूर्व आस्फालन साथ श्याम ने । अतीव लंबी वह यष्टि छीन ली ।—प्रिय० प्र०, पृ० १८४ ।

आस्फुजित्
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र नामक ग्रह [को०] ।

आस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठोकर या रगड़ा से उत्पन्न शब्द । २. ताल ठोंलने का शब्द । ३. मदार ।

आस्फोटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट ।

आस्फोटक (२)
वि० ताल ठोंकनेवाला [को०] ।

आस्फोटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताल ठोंकना । २. फटकना । ३. हिलाना । कँपाना । ४. संकुचन । ५. ताली बजाना । ६. उदघाटित करना । प्रकट करना । ७. माँड़ना [को०] ।

आस्फोटनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरमी नामक बढ़ई का औजार जिससे लकड़ी में छे़द किया जाता है [को०] ।

आस्फोटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवमल्लिका । चमेली ।

आस्फोत
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदार । अर्क २. कोविदार । ३. भूपलाश [को०] ।

आस्फोतक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आस्फेतका] दे० 'आस्फोत', 'आस्फोता' [को०] ।

आस्फोता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मल्लिका । २. अपराजिता । ३. सारिवा [को०] ।

आस्यंदन
संज्ञा पुं० [सं०आस्यन्दन] प्रस्त्रवण । बहना । [को०] ।

आस्यंधय
संज्ञा पुं० [सं० आस्यन्धय] चुंबन करना [को०] ।

आस्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुख । मुँह । मुँखमंड़ल । चेहरा । उ०— वेश भाषा भंगियों पर हास्य, कर रहे थे सरस सबके आस्य ।—साकेत, पृ० १७० ।

आस्यपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कमल ।

आस्यलांगल
संज्ञा पुं० [सं० आस्यलाङ्गल] १. कुत्ता । २. सूअर [को०] ।

आस्यलोम
संज्ञा पुं० [सं० आस्यालोमन्] दाढ़ी [को०] ।

आस्या (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विश्राम की अवस्था । २. बैठना । ३. रहना । ४. वासस्थान [को०] ।

आस्या (२)
संज्ञा स्त्री० लारा । राल ।

आस्यासव
संज्ञा पुं० [सं०] लाला । लार [को०] ।

आस्युत
वि० [सं०] एक में सिला हुआ [को०] ।

आस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त । खून [को०] ।

आस्त्रप (१)
वि०[सं०] रक्तपायी । खून चूसने या पीनेवाला [को०] ।

आस्त्रप (२)
संज्ञा पुं० १. राक्षस । २. मूल नक्षत्र [को०] ।

आस्त्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० आश्रम] दे० 'आसम' । उ०— तुम्हरे आस्त्रम अबहिं ईस तप साधहिं । —तुलसी ग्रं०, पृ० ३१ ।

आस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. उबलते हुए चावल का फेन । २. पनाला । ३. इंद्रियद्बार । उ०— आस्त्रव इंद्नीय द्वार कहावै । जीवहिं विषयन ओर बहावै । —(शब्द०) । ४. क्लेश । कष्ट । ५. जैनमतानुसार औदरिक और कामादि द्बारा आत्मा की गति जो दो प्रकार की है—शुभ और अशुभ ।

आस्त्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहाव । २. घाव । ३. पीड़ा । ४. एक रोग । ५. थूक [को०] ।

आस्वनित
वि० [सं०] पूर्णातया ध्वनि करता हुआ । आशब्दित [को०] ।

आस्वांत
वि० [सं० आस्वान्त] दे० 'आस्वनित' ।

आस्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] रस । स्वाद । जायका । मजा । उ०— संस्कार से मुक्त सह्वदय पुरुष रस का आस्वाद लेते हैं ।— रस क०, पृ० १८ ।

आस्वादन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आस्वादनीय आस्वादित] चखना । स्वाद लेना । रस लेना । मजा लेना ।

आस्वादनीय
वि० [सं०] चखने योग्य । स्वाद लेने योग्य । रस लेने योग्य । मजा लेने योग्य ।

आस्वादित
वि० [सं०] चखा हुआ । स्वाद लिया हुआ । रस लिया हुआ । मजा लिया हुआ ।

आस्वाद्दा
वि० [सं०] आस्वादन करने योग्य । जायकेदार । खाने में मधुर । मीठा [को०] ।

आह (१)
अव्य़० [सं० अहह] पीड़ा, शोक, दु?ख,खेद और ग्लानिसूचक अव्यय । उ०—पीड़ा ।-आह ! । बड़ाभारी काँटा पैर में धँसा । दु?ख शोक-आह ! । अन्न के बिन्ना उसकी क्या दशा हो रही है । थोड़ा क्रोध खेद—आह ! । तुमने तो हमें हैरान कर डाला ।

आह (२)
संज्ञा स्त्री० कराहना । दु?ख या क्लेशसुचक शब्द । ठंढी साँस । उसास । उ०—तुलसी आह गरीब की, हरि सों सही न जाय । मुई खाल की फूँक सों, लोह भसम होइ जाय । —तुलसी (शब्द०) । मुहा०— आह करना = हाय करना । कलपना । ठंढी साँस लेना । उ०—(क) आह करों तो जग जले, जंगल भी जल जाय । पापी जियरा ना जले, जिसमें आह समाय । (शब्द०) । (ख) भरथरि बिछुरी पिंगला आह करत जिउ दीन्ह । —जायसी ग्रं० पृ० २७२ । आह खींचना = ठंढ़ी साँस भरना । उसास खींचना । जैसे, उसने तो आह खींचकर कहा कि तेरे जी में जो आवे, सो कर । आह पड़ना = शाप पड़ना । किसी को दु?ख पहुँचाने का फल मिलना । जैसे—तुम पर उसी दु?खिया की आह पड़ी है । आह भरना = ठंढ़ी साँस खींचना । उ०— चितहिं जो चित्र कीन्ह, धन रों रों अंग समीप । सहा साल दुख आह भर, मुरछ परी कमीप ।—जायसी (शब्द०) । आह मारना = ठंढ़ी साँस खींचना । उ०—आह जो भारी बिरह की, आग उठि तेहि लाग । हंस जो रहा शरीर महँ पंख जरे तव भाग । —जायसी (शब्द०) । आह लेना = सताना । दु?खदेकर कलपना । किसी कौ सताने का फल अपने ऊपर लेना । जैसे,—नाहक किसी की आह क्यों लेते हो ।

आह (३)—पु
संज्ञा पुं० [राज० आहस=बल] साहस । हियाव । बल । उ०— जड़के निकट प्रवीन की नहीं चलै कछु आह । चतुराई । ढिग अंध के, करै चितेरो चाह । —दीनदयाल (शब्द०) ।

आहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रोग जो नाक में होता है । २. गीर्वाण [को०] ।

आहचर्ज पु
संज्ञा पुं० [देश.] दे० 'आश्चर्य़' । उ०—सदा समीपिनि सखिहुँ लखतिं आति आहचर्ज सौं । —रत्नाकर, पृ० ९ ।

आहट
संज्ञा स्त्री० [हि० आ=आना+हट (प्रत्य०), जैसे—बुलाहट घबराहट] १. शब्द जो चलने में पैर तथा और दूसरे अंगों से होता है । आने का शब्द । पाँव की चाप । खड़का । जैसे— (क) किसी के आने की आहट मिल रही है । उ०—होत न आहट भो पग धोरे । बिनु घंटन ज्यों गज मतवारे ।—लाल (शब्द०) । (ग) आहट पाय गोपाल की ग्वालि गली महँ जाय के धाय लियो है । (शब्द०) । क्रि० प्र०— पाना ।—मिलना । —लेना । २. आवाज जिससे किसी के रहने का अनुमान हो । जैसे,— कोठरी में किसी आदमी की आहट मिल रही है । क्रि० प्र०—पाना । —मिलना ।—लेना । ३. पता । सुराग । टोह । निशान । क्रि० प्र०— लगना । —लगाना ।

आहत (१)
वि० [सं०] [संज्ञा आहति] १. जिसपर आघात हुआ हो । चोट खाया हुआ । घायल । जखमी । जैसे,—उस युद्ध में ४०० सिपाही आहत हुए । २. जिस संख्या को गुणित करें । गुण्य । ३. व्याघात दोष से युक्त (वाक्य) । परस्पर विरुद्ब (वाक्य) । असंभव (वाक्य) । ४. तुरंत धोया हुआ (वस्त्र) । (बस्त्र) जो अभी धुलकर आया हो ।५. पुराना । जीर्ण । गल हुआ । ६. चलित । कंपित । थर्राता हुआ । हिलता हुआ । ७. हत । मृत [को०] । ८. आघात किया हुआ । बजाया हुआ [को०] । कुचला या रौंदा हुआ [को०] । यौ०—हताहत = मारे हुए और जखमी ।

आहत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढ़ोल । २. नया अथवा पुराना वस्त्र [को०] ।

आहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चोट । मार । २. गुणन । गुणना । ३. मार डालना । वध [को०] ।

आहन
संज्ञा पुं० [फा०] लोहा ।

आहनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. य़ष्ठि । डंडा । २. मारना । पीटना [को०] ।

आहनी
वि० [फा०] लोहे का ।

आहर (१)— पु
संज्ञा पुं० [सं० अहः] समय । काल । दिन । उ०—कित तप कीन्ह छोंड़ि कै राजू । आहर गयो न भा सिध काजू । जायसी (शब्द०) ।

आहर (२)
संज्ञा पुं० [सं० आहरण] युद्ध । लड़ाई ।

आहर (३)
संज्ञा पुं० [सं० आहाव] [अल्पा० आहरा] बह हौज तो पोखरे से छोटा है, पर तलैया और मारु से बड़ा हो ।

आहर (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वीकार । ग्रहण । लेना । २. बलिप्रदान कृत्य । ३. वह वायु जो श्वास के रूप में खींची जाती है [को०] ।

आहरण
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० आहरणीय; कर्तृ० आहती] १. छीनना ल । हर लेना । २. किसी पदार्थ की एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना । स्थानांतरित करना । ३. ग्रहण । लेना । ४. विवाह के अवसर पर वधू को उपहारुप में देय धन [को०] ।

आहरणीय
वि० [सं०] छीनने योग्य । हर लेने योग्य ।

आहरन
संज्ञा पुं० [सं० आहनन=जिसपर आघात किया जाय, अथवा सं० आघटन= जिसपर वस्तु को पीटकर उसकी घटना अर्थात् रचना की जाय, वस्तु को गढ़ा जाय । ] लोहारों और सुनारों की निहाई ।

आहरो †
संज्ञा स्त्री० [हि० आहर का अल्पा०] १. छोटा हौज या गड्ढा । अहरी । २. थाला । ३. कुँए के पास का हौज या गड़ढा जो पशुप्रों के पानी पीने के लिये बनाया जाता है ।

आहर्ता
वि० [सं० आहर्तु] [वि० स्त्री० आहर्त्री] १. हरण करनेवाला छीननेवाला । लेनेवाला । ले जानेवाला । २. अनुष्ठान करनेवाला । अनुष्ठाता ।

आहला †
संज्ञा पुं० [सं०आ+हला=जल] जल की बाढ़ ।

आहव
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ब । लड़ाई । २. यज्ञ । ३. पुकारना । आह्वान [को०] ।

आहवन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० आहवनी] १. यज्ञ करना । होम करना । २. यज्ञीय हवि (को०) ।

आहवनी
वि० [सं०] यज्ञ करने योग्य । होम करने योग्य ।

आहवनीय़ (आग्नि)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्मकांड में तीन प्रकार की अग्नियों में तीसरी । यह गार्हपत्य अग्नि से निकालकर अभिमांत्रित करके यज्ञ के लिये मंड़प में पूर्व ओर स्थापित की जाती है ।

आहाँ (१)
संज्ञा पुं० [सं० आह्मन] १. हाँक । दुहाई । उ०— अदल जो कीन्ह उमर की नाइ । भइ आहाँ सगरी दुनियाई ।—जायसी (शब्द०) । २. पुकार । बुलावा । उ०— भइ आहाँ पदुमावति चली । छत्तिय कुरि भइँ गोहन भली ।—जायसी (शब्द०)

आहाँ (२) †
अव्य० [अ=नहीं+हाँ] अस्वीकार का शब्द । जैसे,—प्रश्न—तुम कुछ और लोगे? उत्तर —आहाँ ।

आहा
अव्य० —[सं० अहह] आश्चर्य़ और हर्षसूचक अव्यय । जैसे,— आस्चर्य—आहा ! आप ही थे, जो दीवार की आड़ से बोल रहे थे । हर्ष —आहा ! सुंदर चित्र है ।

आहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन । खाना । क्रि० प्र०— करना ।—होना । यो०— निराहार । फलाहार । २. खाने की वस्तु? जैसे,—बहुत दिनों से उसे ठीक आहार नहीं मिला है । ३. ले लेना । ग्रहण । स्वीकार (को०) ।

आहारक
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रनुसार एक प्रकार की उपलब्धि जिसके द्बारा चतुर्दश पूर्वाधारी मुनिराज अपनी शंका के समा- धान के लिये हस्त मात्र शरीर धारण कर तीर्थकारों के पास उपस्थित होते हैं ।

आहारपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट में खाए हुए पदार्थ का पचना । २. पकाने की क्रिया [को०] ।

आहारविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] पाकविद्या । खाद्य वस्तुओं के गुण- दोष आदि के प्रस्तुत करनेवाला बिज्ञान [को०] ।

आहारविहार
संज्ञा पुं० [सं०] खाना, पीना, सोना आदि शारिरिक व्यवहार । रहनसहन । यो०— मिथ्या आहारविहार = विरुद्ब शारीरिक व्यवहार । खाने पीने आदि का व्यतिक्रिम ।

आहारसंभव
संज्ञा पुं० [सं० आहारसम्भब] शरीर के भीतर आहार द्बारा बना रस, जिससे रक्त बनता है [को०] ।

आहारिक
संज्ञा पुं० [सं०] जैन आस्त्रानुसार आत्मा के पाँच शरीरों में से एक [को०] ।

आहारिणी
संज्ञा पुं० [सं०] खानेवाली स्त्री ।

आहारी
वि० [सं० आहारिन्] [वि० स्त्री० आहारिणी] १. खानेवाला । भक्षक । २. स्वीकार या ग्रहण करनेवाला । (को०) ।३. इक्ट्ठा करनेवाला । संचयकर्ता । (को०) ।

आहार्य (१)
वि० [सं०] १. ग्रहण किया हुआ । गृहीत । २. कृत्रिम । बनावटी । ३. खाने योग्य । ४. पूजनीय । पूज्य (को०) ।

आहार्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार प्रकार के अनुभावों में चौथा । नायक और नायिका का परस्पर एक दूसरे का वेश धारण करना । उ०— स्याम रँग धारि पुनि बाँसुरी सुधारि कर पीत पट पारि बानी माधुरी सुनवैगी । जरकसी पाग अनुराग भरेट सीस बाँधि कुंड़ल किरीटहू की छवि दरसावैंगी । याही हेत खरी अरी हेरति है बाट वाकी कैयो बहुरूपि हूँ को श्रीधर भुरावैगी । सकल समाज पगचानैगी न केहू भाँति आज वह बाल बृजराज बनि आवैगी ।—श्रीधर (शब्द०)२. अभिनय के चार प्रकारों में से एक । वेश भूषा आदिधारण करके अभिनय करना ।

आहार्याभिनय
संज्ञा पुं० [सं०] बीना कुछ बोले या चेष्ठा किए केवल रूप और वेश द्बारा ही नाटक के अभिनय का संपादन, जैसे चोबदार का चपकन पहने राजा के निकट खड़ा रहना ।

आहार्य़ोदकसेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वह नहर जिसिमें किसी स्थान से खींचकर पानी लाया गया हो । वि० दे० 'सेतुबंध' ।

आहाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ललकार । युद्ध के लिये आह्वान । २. अग्नि । ३. युद्ध । ४. कूएँ के पास बनी हुई पानी की वह टंकी जिसमें पशु पक्षी आकर पानी पीते हैं । [को०] ।

आहिंड़िक
संज्ञा पुं० [सं० आगिण्डिक] [स्त्री० आहिंडिकी] वर्ण- संकर जो निषाद जाति के पुरुष और वैदेह जाति की स्त्री के संयोग से उत्पन्न हो । यह धर्मशास्त्र में महाशूद्ध कहा गया है ।

आहि
क्रि० अ० [हिं०] 'आसना' का वर्तमानकालिक रूप है ।

आहिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. केतु । २. पुच्छल तारा । पाणिनि मुनि

आहित (१)
वि०[सं०] १. रखा हुआ । स्थापित । २. धरोहर रखा हुआ । गिरों रखा हुआ । रेहन रखा हुआ ।

आहित (२)
संज्ञा पुं० पंद्रह प्रकार के दासों में से एक, जो अपने स्वामी से इकट्ठा धन लेकर उसकी सेवा में रहकर उसे पटाता हो ।

आहितक
संज्ञा पुं० [सं०] गिरवी या बंधक रखा हुआ माल ।

आहितकलस
वि० [सं०] थका हुआ । श्रांत [को०] ।

आहितदास
संज्ञा पुं० [सं०] ऋण के बदले में अपने को गिरवी रखकर बना हुआ दास । कर्जा पटाने के लिये बना हुआ गुलाम ।

आहितलक्षण
वि० [सं०] जो किसी विशेष चिह्नन से पहचाना जाय [को०] ।

आहितस्वन
वि० [सं०] शोरगुल मचानेवाला [को०] ।

आहितांक
वि० [सं० आहिताङ्क] चिह्नवाला । चिहिनत [को०] ।

आहिताग्ति
संज्ञा पुं०[सं०] आग्निहोत्री ।

आहिति
संज्ञा स्त्री०[सं०] स्थापन । रखना [को०] ।

आहिस्ता
क्रि० वि० [फा० आहिस्तह] धीरे से । धीरे धीरे । शनै; शनै? । धीमे से । यौ०—आहिस्ता आहिस्ता ।

आह
संज्ञा पुं० [सं० आहव=ललकार, युद्ध, प्रा० आह=बुलाना] ललकार । युद्ध के लिये किसी को प्रचारना । उ०—भाल लाल बेंदी छए छुटे बार छबि देत । गह्वौ राहु अति आहु करि, मनु ससि सूर समेत ।—बिहारी र० दो० ३५५ ।

आहुक
संज्ञा पुं०[सं०] एक यादव का नाम ।

आहुड़
संज्ञा पुं०[सं० आहव+हिं० (प्रत्य०)] युद्ध । लड़ाई ।

आहुत (१)
संज्ञा पुं [सं०] १. अतिथियज्ञ । नुयज्ञ ।मनुष्ययज्ञ । आतिथिसत्कार । २. भूतयज्ञ । बलिवैश्वदेव ।

आहुत (२)
वि० हवन किया हुआ । हुत [को०] ।

आहूति
संज्ञा पुं०[सं०] १. मंत्र पढ़कर देवता के लिये द्रव्य को अग्नि में डालना । होम । हवन । उ०— शिव आहुति बेरा जब आई । विप्रनि दच्छहिं पूछयौ जाई ।—सू०, ४ ।५ । २. हवन में डालने की सामग्री । ३. होमद्रव्य की वह मात्रा जो एक बार मे यज्ञकुंड़ में ड़ाली जाय । उ०—आहुति जज्ञकुंड़ में ड़ारी । कहयौ, पुरूष अपज्यौ बल भारी ।—सूर० ४ । ३९९ । क्रि० प्र०— करना ।—छोड़ना । —ड़ालना । —देना । होना । यौ०—अज्याहुति । पूणर्हिति ।

आहुती पु †
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'आहुति' ।

आहुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा या क्षुप [को०] ।

आहु
संज्ञा पुं० [फा०] हिरन । मृग ।

आहुत
वि० सं० बुलाया हुआ । आह्वान किया हुआ । निमंत्रित । यौ०—अनाहूत ।

आहूतसंप्लव
संजा पुं० [सं० आहुतसम्प्लव] प्रलयकाल । प्रलय- कलीन जलप्लावन ।

आहूति
संज्ञा स्त्री०[सं०] आह्मान । पुकार [को०] ।

आह्वत
वि० [सं०] १. जौ हरण किया हो । जो लिया गया हो । २. जो लाया गाया हो । आनीत । लाया हुआ ।

आहेय
वि० [सं०] अहि या सर्पसंबंधी [को०] ।

आहै पु
क्रि० अ० [हिं०] 'आसना' क्रिया का वर्तमानकालिक रूप ।

आह्वा
वि० [सं०] दिनसंबंधी । दैनिक [को०] ।

आह्विक (१)
वि० [सं०] दिन का । दैनिक । रोजाना । जैसे, —आहिनक कर्म । आहिनक कृत्य ।

आह्विक (२)
संज्ञा पुं० १. एक दिन का काम । २. सूत्रात्मक शास्त्र के भाष्य का एक अंश जो एक दिन में पढ़ा जाय । ३. आध्यापक । ४. रीजाना मजदूरी । ५. एक दिन की मजदूरी ।

आह्लाद
संज्ञा पुं०[सं०] [वि० आह्लादित] आनंद । खुशी । हर्ष । उ०— जब उंमड़ना चाहिए आह् लाद, हो रहा है क्यों मुझे अवसाद ।—साकेत, पृ० १३८ । यौ०—आह्लादप्रद = आनंददायक ।

आह्लादक
वि०[सं०] [स्त्री० आह्लादिका] आनंददायक । खुशी देनेवाला ।

आह्लादन (१)
संज्ञा पुं०[सं०] हर्ष । आह् लाद [को०] ।

आह्लादन (२)
वि० आनंददायी । हर्ष प्रदान करनेवाला [को०] ।

आह्लादित
वि० [सं०] आनंदित । हर्षित । प्रसन्न । खुश ।

आह्लादी
वि० [सं० आह्लादिन्] १. प्रसन्न । हर्षयुक्त । २. हर्षप्रद । आनंद देनेवाला [को०] ।

आह्लाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाम । संज्ञा । यौ०—गजाह्लय । नागाह्लय । शताह्वय । २. तीतर, बेटर, मेढ़े आदि जीवों की लड़ाई की बाजी । प्राणिद्दूत । विशेष—मनु के धर्मशास्त्र में इसका बहुत निषेध है ।

आह्लयन
संज्ञा पुं०[सं०] १. नाम का उच्चारण । २. नाम [को०] ।

आह्लान
संज्ञा पुं०[सं०] १. बुलाना । बुलावा । पुकार । उ०— अंतर का आह्मन वेग से बाहर आया ।—साकेत, पृ० ४१० । २. राजा की ओर से बुलावे का पत्र । समन । तलबनामा । ३. यज्ञ में मंत्र द्बारा देवता औं को बुलाना । क्रि० प्र०— करना । —होना ।

आह्वाय
संज्ञा पुं०[सं०] १. नाम । २. समन । तलबनामा [को०] ।

आह्वायक (१)
वि० [सं०] आह्वान करनेवाला । पुकरनेवाला [को०] ।

आह्वायक (२)
संज्ञा पुं० संदेशहर । संदेश ले जानेवाला । दूत [को०] ।