विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/य
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ य
⋙ य
हिंदी वर्णमाला का २६वाँ अक्षर। इसका उच्चारणस्थान तालु है। यह स्पर्श वर्ण और ऊष्म वर्ण के बीच का वर्ण है; इसलिये इसे अंतःस्थ वर्ण कहते हैं। इसके उच्चारण में कुछ आभ्यंतर प्रयत्न के अतिरिक्त संवार, नाद और घोष नामक बाह्य प्रयत्न भी होते हैं। यह अल्पप्राण है।
⋙ यंत, यंता
संज्ञा पुं० [सं० यन्तृ] १. सारथी। (ड़िं०)। २. महावत। हाथीवान (को०)। ३. निर्देशक। नियंत्रणकर्ता। शासक (को०)।
⋙ यंति
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्ति] दमन।
⋙ यंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] १. तांत्रिकों के अनुसार कुछ विशिष्ट प्रकार से बने हुए आकार या कोष्ठक आदि, जिनमें कुछ अंक या अक्षर आदि लिखे रहते हैं और जिनके अनेक प्रकार के फल माने जाते हैं। तांत्रिक लोग इनमें देवताओं का अधिष्ठान मानते हैं। लोग इन्हें हाथ या गले में पहनते भी हैं। जंतर। यौ०—यंत्रचेष्टित=बाजीगरी। यंत्रमंत्र। यंत्रमंत्र=जादू, टोना, या टोटका आदि। २. विशेष प्रकार से बना हुआ उपकरण; जो किसी विशेष कार्य के लिये प्रस्तुत किया जाय। औजार। जैसे,—(क) वैद्यक में तेल और आसव आदि तैयार करने के अनेक प्रकार के यंत्र होते हैं। (ख) प्राचीन काल में भी अनेक ऐसे यंत्र बनते थे, जिनसे दूर से ही शत्रुओं पर प्रहार किया जाता था। ३. किसी खास काम के लिये बनाई हुई कल या औजार। जैसे,— आजकल संसार में सैकड़ों प्रकार के यंत्र प्रचलित है, जिनकीसहायता से सैकड़ों हजारों आदमियों का काम एक या दो आदमी कर लेते हैं। ४. बंदूक। ५. बाजा। वाद्य। ६. बाजों के द्वारा होनेवाला संगीत। वाद्यसंगीत। ७. वीणा। बीन। ८. ताला। एक प्रकार का बरतन। १०. नियंत्रण। यौ०—यंत्रकरंडिका। यंत्रकर्मकृत्=कलाकार। कारीगर। यंत्रकोविद=मिस्त्री। मशीन के काम में दक्ष। यंत्रगोल। यंत्रतक्षा=यंत्र बनानेवाला। यंत्रतोरण=तोरण जो यंत्र वा मशीन से घूमता हो। यंत्रदृढ=अर्गला वा ताला से बंद। यंत्रपुत्रक। यंत्रप्रवाह=कृत्रिम झरना या सोता। यंत्रमार्ग। यंत्रमुक्त=एक शस्त्र। यंत्रविधि। यंत्रशर=यंत्रचालित बाण।
⋙ यंत्रक
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रक] १. सुश्रुत के अनुसार कपड़े का वह बंधन जो घाव आदि पर बाँधा जाता है। पट्टी। २. वह शिल्पकार जो यंत्र आदि की सहायता से चीजें तैयार करता हो। ३. वह जो वशीकरण करता हो। वश में कर लेनेवाला।
⋙ यंत्रकरंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रकरण्डिका] बाजीगरों की पेटी जिसके द्वारा वे अनेक प्रकार के खेल करते हैं।
⋙ यंत्रगोल
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रगोल] १. एक प्रकार की मटर। २. तोप का गोला [को०]।
⋙ यंत्रगृह
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रगृह] १. वह स्थान जहाँ यंत्र की सहायता से किसी प्रकार का कर्म होता हो अथवा कोई चीज तैयार की जाती हो। २. वेधशाला। ३. वह स्थान जिसमें प्राचीन काल में अपराधियों आदि को रखकर अनेक प्रकार की यंत्रणा दी जाती थी।
⋙ यंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रण] १. रक्षा करना। २. बाँधना। ३. नियम में रखना। नियम के अनुसार चलाना। नियंत्रण।
⋙ यंत्रणा
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रणा] १. क्लेश। यातना। तकलीफ। २. दर्द। वेदना। पीड़ा।
⋙ यंत्रणी
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रणी] पत्नी का छोटी बहन। छोटी साली [को०]।
⋙ यंत्रधारागृह
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रधारागृह] फुहारे से युक्त घर। स्नानगृह [को०]।
⋙ यंत्रनाल
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रनाल] वह नल जिसके द्वार कुएँ आदि से जल निकाला जाता है।
⋙ यंत्रपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रपुत्रक] [स्त्री० यन्त्रपुत्रिका] यंत्र से चलने या हिलने डोलनेवाला पुतला। यंत्रचालित खिलौना।
⋙ यंत्रपेपणी
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रपेषणी] चक्की।
⋙ यंत्रमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रमन्त्र] जादू। टोना। टोटका।
⋙ यंत्रमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रमातृका] चौंसठ कलाओं में से एक कला, जिसमें अनेक प्रकार के यंत्र या कलें आदि बनाना और उससे काम लेना संमिलित है।
⋙ यंत्रमार्ग
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रमार्ग] नहर। जलप्रणाली [को०]।
⋙ यंत्रराज
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रराज] ज्योतिष में एक यंत्र जिससे ग्रहों और तारों की गति जानी जाती है।
⋙ यंत्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रविद्या] कलों के चलाने और बनाने की विद्या।
⋙ यंत्रविधि
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रविधि] शल्य-क्रिया-प्रयुक्त अस्त्रों के निर्माण का विज्ञान। शल्य अस्त्रों का विज्ञान [को०]।
⋙ यंत्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रशाला] १. वेधशाला। २. वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के यंत्रादि हों।
⋙ यंत्रसद्म
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रसद्म] तेल की मिल [को०]।
⋙ यंत्रसूत्र
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रसूत्र] वह सूत्र जिसकी सहायता से कठपुतली नचाई जाती है।
⋙ यंत्रपीड़
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रापीड] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसके कारण शरीर में बहुत अधिक पीड़ा होती है और रोगी का लहू पीले रंग का हो जाता है।
⋙ यंत्रालय
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रालय] १. वह स्थान जहाँ कल या यंत्रादि हों। २. छापाखाना। प्रेस।
⋙ यंत्राश
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्राश] एक राग जो हनुमत के मत से हिंडोल राग का पुत्र है।
⋙ यंत्रिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रिका] स्त्री की छोटी बहन। छोटी साली।
⋙ यंत्रिका (२)
संज्ञा स्त्री० छोटा ताला।
⋙ यंत्रिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रिणी] दे० 'यंत्रिका', 'यंत्रिणी'।
⋙ यंत्रित
वि० [सं० यन्त्रित] १. जो मंत्र आदि की सहायता से बाँधाया बंद कर दिया हो। रोका या बंद किया हुआ। २. ताला लगा हुआ। ताले में बंद।
⋙ यंत्री
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रिन्] १. यंत्र मंत्र करनेवाला। तांत्रिक। २. बाजा बजानेवाला। उ०—सूरदास स्वामी के चलिवे ज्यों यंत्री बिनु यंत्र सकात।—सूर (शब्द०)। ३. नियत्रण करने या बाँधनेवाला।
⋙ यंत्रोपल
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रोपल] चक्की। चक्की का पत्थर [को०]।
⋙ यंद पु
संज्ञा पुं० [सं० इन्द्र] स्वामी। (डिं०)।
⋙ य
संज्ञा पुं० [सं०] १. यश। २. योग। ३. यान। सवारी। ४. संयम। ५. छँद शास्त्र में यगण संक्षिप्त रूप। दे० 'यगण'। ६. यव। जौ। ७. यम। ८. त्याग। ९. प्रकाश।
⋙ यक
वि० [फा०] दे० 'एक'। विशेष—इस शब्द से बननावाले यौगिक शब्दों के लिये देखिए 'एक' शब्द से बने यौगिक शब्द।
⋙ यकअंगी (१)
वि० [हिं० एक+अंगी] १. एक अंगवाला। २. एक (पत्नीया पति) के साथ रहनेवाला (या वाली)। उ०— बहुरंगी जित तितहिं सुख यकअंगी कर अंत। जिमि गणिका निधरक रहति दहति सती बिनु कंत।—विश्राम (शब्द०)। ३. एक ही के अश्रित। एक ही पर रहनेवाला। एकनिष्ठ। ४. दे० 'एकांगी'।
⋙ यकअंगी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'एकांगी'।
⋙ यककलम
क्रि० वि० [फा० यक्कलम] १. एक ही बार कलम चलाकर। एक ही बार लिखकर। २. एक बारगी। एकाएक। जैसे,—वह यहाँ से यककलम बरखास्त कर दिया गया।
⋙ यकजा
वि० [फा०] संमिलित। जुमला। इकट्ठा [को०]।
⋙ यकतरफा
वि० [फा०] एकपक्षीय। एक ओर का। दे० 'एकतरफा'।
⋙ यकता
वि० [फा०] जो अपनी विद्या या विनय में एक ही हो। जिसके मुकाबले का और कोई न हो। अद्वितीय।
⋙ यकताई
संज्ञा स्त्री० [फा०] एकता या अद्वितीय होने का भाव। अद्वितीयता।
⋙ यकतार पु (१)
वि० [हिं० एक+तार] एक सा। यक सा। समरस।
⋙ यकतार (२)
वि० [फा०] किंचित्। ईषत् [को०]।
⋙ यकपरा
संज्ञा पुं० [फा० एक+पर+आ (प्रत्य०)] एक प्रकार का कबूतर जिसका सारा शरीर सफेद होता है; केवल डैनों पर दो एक काली चित्तियाँ होती हैं।
⋙ यकफर्दी, यकफसली
वि० [फा०] जिसमें एक फसल हो। एक- फर्दा [को०]।
⋙ यकवग्गा
वि० [फा०] जो एक ही लगाम को मानता हो। एक तरफ ही चलनेवाला। एकबगा।
⋙ यकबयक
क्रि० वि० [फा०] एकबारगी। यकायक। एक दम से।
⋙ यकबारगी
क्रि० वि० [फा०] यकबयक। अचानक। एकाएक। सहसा। दे० 'एकबारगी'।
⋙ यकरोजा
वि० [फा० यकरोजह्] एकदिवसीय। एक दिन का [को०]।
⋙ यकलाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. दे० 'इकलाई'। २. नकाव। ३. चोगा [क०]।
⋙ यकलोही
वि० [फा० यक+हिं० लोहा+ई] एक ही लोहे की बनी हुई। बीना जोड़ की (कड़ाही आदी)।
⋙ यकसाँ
वि० [फा०] एक समान। एक सा। बराबर।
⋙ यकसू
वि० [फा०] १. एक और। एक तरफ। २. निश्चित। बेफिक्र। ३. एकाग्रचित्त। ४. फारिग [को०]।
⋙ यकायक
क्रि० वि० [फा०] एकाएक। अचानक। एकाबारगी। सहसा।
⋙ यकार
संज्ञा पुं० [सं०] य का वर्ण। य अक्षर।
⋙ यकीन
संज्ञा पुं० [अं० यकीन] प्रतीति। विश्वास। एतबार।
⋙ यकीनन्
क्रि० वि० [अ० यकीनन्] अवश्य। निःसंदेह। वेशक। जरूर।
⋙ यकीनी
वि० [फा० यकीनी] विश्वसनीय। असांदिग्घ [को०]।
⋙ यकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट में दाहिनी और को एक थैली जिसमें पाचनरस रहता है और जिसकी क्रिया से भोजन पचता है; अर्थात् उसमें वह विकार उत्पन्न होता है, जिमसे शरीर की धातुएँ बनती हैं। जिगर। कालखंड। २. वह रोग जिसमें यह अंग दूषित होकर बढ़ जाता है। वर्म जिगर। ३. पक्वाश्य।
⋙ यकोला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मझोला पेड़ जिसके पत्ते प्रतिवर्ष शिशिर ऋतु में झड़ जाते हैं। विशेष— इसकी लकड़ी अंदर से सफेद और बड़ी मजबूत होती है तथा संदूक, आरायशी सामान आदि बनाने के काम आती है। इसे मसूरी भी कहते हैं।
⋙ यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की देवयोनि। एक प्रकार के देवता जो कुबेर के सेवक और उसकी निधियों के रक्षक माने जाते हैं। उ०— यक्ष प्रबल बाढ़े भुवमंडल तिन मान्यो निज भ्रात। जिनके काज अंस हरि प्रगटि ध्रूव जगत विख्यात।—सूर (शब्द०)। विशेष— पुराणानुसार यक्ष लोग प्रचेता की संतान माने जाते हैं। कहते हैं, इनकी आकृति विकराल होती है, पेट फूला हुआ और कंधे बहुत भारी होते हैं तथा हाथ पैर धीर काले रंग के होते हैं। २. कुबेर। यक्षराज।
⋙ यक्षकर्दम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अंगलेप जो कपूर, अगरु, कस्तूरी और कंकोल मिलाकर बनाया जाता है। कहते हैं, यक्षों को यह अंगलेप बहुत प्रिय है। उ०— आजु आदित्य जल पवन पावन प्रबल चंद्र आनंदमय ताप जग को हरौ। गान किन्नर करहु, नृत्य गंधर्वकुल, यज्ञ विधि लक्ष उर यक्षकर्दम घरौ।— केशव (शब्द०)।
⋙ यक्षग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का कल्पित ग्रह।विशेष—कहते हैं, जब इस ग्रह का आक्रमण है, तब आदमी पागल हो जाता है।
⋙ यक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूजन करना। यजन। २. भक्षण करना। खाना।
⋙ यक्षतरु
संज्ञा पुं० [सं०] वृट वृक्ष। बड़ का पेड़। यक्षावास। विशेष— कहते हैं, वट का वृक्षा यक्षों को बहुत प्रिय होता है और उसी पर वे रहा करते हैं।
⋙ यक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यक्ष का भाव या धर्म। यक्षपन।
⋙ यक्षत्व
संज्ञा पुं० [सं०] यक्ष का भाव या धर्म।
⋙ यक्षधूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधारण धूप जो प्रायः देवताओं आदि के आगे जलाया जाता है। २. सरल वृक्ष का निर्यास। ताड़पीन का तेल।
⋙ यक्षनायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यक्षों के स्वामी, कुबेर। २. जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अर्हत् के चौथे अनुचर का नाम।
⋙ यक्षप
संज्ञा पुं० [सं०] यक्षपति। कुबेर।
⋙ यक्षपति
संज्ञा पुं० [सं०] यक्षों के स्वासी, कुबेर। उ०— मृत्यु कुबेर यक्षपति कहियत जहँ शंकर की धाम।— सूर (शब्द०)।
⋙ यक्षपुर
संज्ञा पुं० [सं०] अलकापुरी। उ०— प्रजापती कहँ पूजहि जोई। तिन कर वास यक्षपुर होई।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ यक्षरस
संज्ञा पुं० [सं०] फूलों से तैयार की हुई शराब। मध्वासव।
⋙ यक्षराज
संज्ञा पुं० [सं०] यक्षों का राजा, कुबेर।
⋙ यक्षरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक मास की पूर्णिमा जो यक्षों की रात मानी जाती है।
⋙ यक्षलोक
संज्ञा पुं० [सं०] वह लोक जिसमें यक्षों का निवास माना जाता है।
⋙ यक्षवित्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत धनवान् हो, पक अपने धन में से कुछ भी व्यय न करता हो।
⋙ यक्षस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ यक्षांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० यक्षाङ्गी] एक प्राचीन नदी का नाम।
⋙ यक्षाधिप, यक्षाधिपति
संज्ञा स्त्री० [सं०] यक्षों के स्वामी, कुबेर।
⋙ यक्षामलक
संज्ञा पुं० [सं०] पिड़ खजूर।
⋙ यक्षावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वट का वृक्ष जिसपर यक्षों का निवास माना जाता है। २. गूलर का वृक्ष।
⋙ यक्षिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यक्ष को पत्नी। २. कुबेर को पत्नी। ३. दुर्गा की एक अनुचरी का नाम।
⋙ यक्षी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यक्षराज कुबेर की स्त्री। २. यक्ष की स्त्री। यक्षिणी।
⋙ यक्षी (२)
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष+ई (प्रत्य०)] वह जो यक्ष की उपासना करता हो, अथवा उसे साधता हो। उ०— प्रजापती कहँ पूजहिं जोई। तिल कर बास यक्षपुर होई। भूती भूतँहि यक्षी यक्षन। प्रेती प्रेतन रक्षी रक्षन।— गिरघर (शब्द०)।
⋙ यक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ करता हो। २. एक प्राचीन जनपद का वैदिक नाम, जो वक्षु भी कहलाता था और इसी नाम की नदी के आस पास था। आक्सस नदी के आस पास का प्रदेश। वदखशाँ। ३. इस प्रकार का निवासी।
⋙ यक्षेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० यक्षेन्द्र] यक्षों के स्वामी, कुबेर।
⋙ यक्षेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] यक्षों के स्वामी, कुबेर।
⋙ यक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यक्ष्मा'।
⋙ यक्ष्मग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] क्षप या यक्ष्मा नामक रोग।
⋙ यक्ष्मघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाख। अंगूर।
⋙ यक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष्मन्] क्षयी नामक रोग। तपेदिक। विशेष दे० 'क्षयी'।
⋙ यक्ष्मी
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष्मिन्] वह जिसे यक्ष्मा रोग हुआ हो यक्ष्मा रोग का रोगी। तपेदिक का बीमार।
⋙ यखनी
संज्ञा स्त्री० [फा० यख्नी] १. तरकारी आदि का रसा। शोरबा। झोल। २. उबले हुए मांस का रसा। ३. वह मांस जो केवल लहसुन, प्याज, धनिया और नमक डालकर उबाल लिया जाय।
⋙ यगण
संज्ञा पुं० [सं०] छंदःशास्त्र में आठ गणों में से एक। यह एक लघु और दो गुरु मात्राओं का होता है (/?/)। इसका संक्षिप्त रूप 'य' है। जैसे, कमाना, चलाना। विशेष— इसका देवता जल माना गया है और यह सुखदजयक कहा गया है।
⋙ यगाना
वि० [फा० यगानह्] १. जो बोगाना न हो। एक वंश का। अपना। अत्मीय। नातेदार। उ०— बेगानः हैं सारे यगानः पार कहाँ है।—कबीर मं०, पृ० ३२३।/?/। फर्द। ३. अनुपम। अद्वितीय। एकता।
⋙ यगाना (२)
संज्ञा पुं० १. भाई बंद। २. परम मित्र।
⋙ यगूर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी का रंग अंदर से काला निकलता है। विशेष— यह सिलहट की पूर्वी और दक्षिण पूर्वी पहाड़ियों में बहुत होता है। इसकी लकड़ी से कई तरह की सजावट की और बहुमूल्य वस्तुएँ बनाई जाती हैं। इसे आग में जलाने से बहुत उत्तम गंध निकलती है। इसे सेसी भी कहते है।
⋙ यग्य पु
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ] दे० 'यज्ञ'।
⋙ यच्छ पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष] दे० 'यक्ष'।
⋙ यच्छिनी पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० यक्षिणी] दे० 'यक्षिणी'।
⋙ यजंत
संज्ञा पुं० [सं० यजन्त] यज्ञ करनेवाला। यज्ञकर्ता।
⋙ यज
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ। याग। २. अग्नि [को०]।
⋙ यजत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋत्विक्। २. शिव (को०)। ३. चंद्रमा (को०)। ४. एक वैदिक ऋषि का नाम जो ऋग्वेद के एक मंत्र के द्रष्टा थे।
⋙ यजत (२)
वि० १. पवित्र। २. पूज्य। पूजनीय [को०]।
⋙ यजति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञ'।
⋙ यजत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्निहोत्री। २. वह यो यज्ञ करता हो।
⋙ यजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदविधि के अनुसार होता और ऋत्विक् आदि के द्वारा काम्य और नैमित्तिक कर्मों का विधि- पूर्वक अनुष्ठान करना। यज्ञ करना (यह ब्राह्मणों के षट्कर्मों में एक माना गया है)। २. वह स्थान जहाँ यज्ञ होता हो।
⋙ यजनकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०यजनकर्तृ] यज्ञ या हवन करनेवाला।
⋙ यजमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ करता हो। दक्षिणा आदि देकर ब्राह्मणों से यज्ञ, पूजन आदि धार्मिक कृत्य करानेवाला व्रती। यष्टा। २. वह जो ब्राह्मणों को दान देता हो। ३. महादेव की आठ प्रकार की मूर्तिया में से एक प्रकार का मूर्त्ति। ४. परिवार का प्रधान व्यक्ति वा जात का मुखिया (को०)।
⋙ यजमानक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० यजमान।
⋙ यजमानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यजमान का भाव या धर्म।
⋙ यजमानलोक
संज्ञा पुं० [सं०] वह लोक जिसमें यज्ञ करके मरनेवालों का निवास माना जाता है।
⋙ यजमानी
संज्ञा स्त्री० [सं० यजमान+ई (प्रत्य०)] १. यजमान का भाव या धर्म। २. यजमान के प्राति पुरोहित की वृत्ति। ३. वह स्थान जहाँ किसी विशेष पुरोहित के यजमान रहते हों।
⋙ यजाक
वि० [सं०] १. उदार। दानी। २. पूजा करनेवाला। अर्चक। पूजक [को०]।
⋙ यजि
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञकर्ता। यज्ञ करनेवाला। २. यज्ञ। ३. यज्ञ करने कि क्रिया वा भाव (को०)।
⋙ यजी
संज्ञा पुं० [सं० यजिन्] १. वह जो यज्ञ करता हो। यज्ञ करनेवाला। २. अर्चन पूजन करनेवाला।
⋙ यजु
संज्ञा पुं० [सं० यजुस्] दे० 'यजुर्वेद'।
⋙ यजुरा पु
संज्ञा पुं० [सं० यजुस्] दे० 'यदुर्वेद'। उ०— रिग, यजुर, साम, अथर्वनिक वेद ध्वनि स्रोत्र पौराणा, इतिहास मिलि उच्चरत।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६०५।
⋙ यजुर्विद्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो यजुर्वेद का ज्ञाता हो। यजुर्वेद जाननेवाला।
⋙ यजुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] भारतीय आर्यों का चार प्रसिद्ध वेदों में से एक वेद। विशेष—इसमें विशेषतः यज्ञकर्म का विस्तृत विवरण है और इसी लिये यह वेदत्रयी में भित्तिस्वरूप माना जाता है। यज्ञों में अघ्वर्यु जिन गद्य मंत्रों का पाठ करता था, वे 'यजु' कहलाते थे। इस वेद में उन्हें मंत्री का संग्रह है, इसलिये इसे यजुर्वेद कहते हैं। इसके दो मुख्य भेद हैं—कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी। कृष्ण यजुर्वेद में यजों का जितना पूर्ण और विस्तृत वर्णन है, इतना और संहिताओं में नहीं है। इन दोनों की भी बहुत सी शाखाएँ है, जिनमें थोड़ा बहुत पाठभेद है। अब तक यजुर्वेद की दो संहिताएँ मिली हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं।— काठक, कपिस्थल-कठ, मैत्रायाणी और तैत्तिरिय। ये चारों कृष्ण यजुर्वेद की है। शुक्ल या वाजसनेयी की काणव और माध्यंदिनी दो शाखाएँ हैं। पतंजलि के मत से यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ है; पर चरणाव्यूह में केवल ८६ शाखाएँ दी है; और वायुपुराण में २३ शाखाएँ गिनाई गई हैं। इसके संहिता भाग मे ब्राह्मण और ब्राह्मण भाग में संहिता भी मिलती है। इस वेद में अनेक ऐसे विधिमंत्र भी हैं, जिनका अर्थ बहुत थोड़ा या कुछ भी नहीं ज्ञात होता। कुछ प्रार्थनाएँ भी ऐसी हैं, जो बिलकुल अर्थरहित जान पड़ती है। इसके कुछ मंत्र ऐसे हैं, जिनसे सूचित होता है कि उस समय लोगों में ब्रह्मज्ञान की बहुत कम चर्चा थी। इसमें देवताओं के नामों के साथ बहुत से विशेषण भी मिलते हैं, जिससे जान पड़ता है कि भक्ति की और भी लोगों की कुछ कुछ प्रवृत्ति हो चली थी। पुराणानुसार इस वेद के अधिपति शुक्र और वक्ता वैशंपायन माने जाते है। विशेष दे० 'वेद'।
⋙ यजुर्वेदी
संज्ञा पुं० [सं० यजुर्वेदिन्] १. वह जो यजुर्वेद का ज्ञाता हो। २. वह ब्राह्मण जो यजुर्वेद के अनुसार सब कृत्य करता हो।
⋙ यजुर्वेदीय
संज्ञा पुं० [सं० यजुर्वेदिन्] दे० 'यजुर्वेदी'।
⋙ यजुश्रुति
संज्ञा पुं० [सं०] यजुर्वेद।
⋙ यजुष्पति
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यजुष्पात्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञपात्र।
⋙ यजुष्य
वि० [सं०] यज्ञ संबंधी। यज्ञ का।
⋙ यजूदर, यजूवर
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण।
⋙ यज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध वैदीक कृत्य जिसमें प्रायः हवन और पूजन हुआ करता था। मख। याग। विशेष—प्राचीन भारतीय आर्यों में यह प्रथा थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मेंत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे और आशीर्वाद आदि देते थे। इसी प्रकार पशुओँ का पालन करनेवाले अपने पशुओँ की वृद्धि के लिये तथा किसान लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के समारंभ करके स्तुति आदि करते थे। इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होती थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म' कहते थे। इन्हीं ने आगे चलकर विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था; और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो 'ब्राह्मण' कहलाता था, रख लिया करता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्तकुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़ो ब़ड़े यज्ञ किय़ा करते थे। जैसे,— युद्ध के देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। घीर धीर इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के निय़म आदि बनने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुंड बनने लगे। ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे। आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्त होनो लगी। मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' कहलाता था और वह देवताओँ की प्रार्थना करके उन्हें यज में आने के लिये आह्वान करता था। दूसरा ऋत्विज् 'उजगाता' यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था। तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था। चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित को सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी थी; और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम कि दिशा मानी जाती थी और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे। इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक स्व/?/। बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए। इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे। इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों के 'स्तृति' कहने लगे। प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है। (दे० 'वेद')। पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्माणों का महत्व भी बढ़ने लगा। इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी होती थी, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और भागवत आदि नए संप्रंदाय स्थापित हुए, जिनके कारण यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया। यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, राजसूज्ञ (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि। आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे और 'यश्न' कहलाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द बना है। यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार क पुण्योत्सव थे। अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। पर्या०—सव। अध्वर। सुप्ततंतु। ऋतु। इष्टि। वितान। मन्यु। आइव। सवन। हव। अभिपय। होम हवन। मह। २. विष्णु। ३. अग्नि का एक नाम (को०)।
⋙ यज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ। २. वह जो यज्ञ करता हो।
⋙ यज्ञकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ करनेवाला। याजक। यजमान।
⋙ यज्ञकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का काम।
⋙ यज्ञकर्मा
वि० [सं० यज्ञकर्मन्] यज्ञ का काम करनेवाला [को०]।
⋙ यज्ञकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञकाम
वि० [सं०] यज्ञ करने की कामनावाला [को०]।
⋙ यज्ञकारी
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञकारिन्] वह जो यज्ञ करता हो। यज्ञ करनेवाला।
⋙ यज्ञकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञादि के लिये शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट समय। २. पौर्णमासी।
⋙ यज्ञकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] काठ का वह खूँटा जिसमें यज्ञ के लिये बलि दिया जानेवाला पशु बाँधा जाता था। यूपकाष्ठ।
⋙ यज्ञकुंड
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञकुण्ड] हवन करने की वेदी या कुंड।
⋙ यज्ञकृत् (१)
वि० [सं०] यज्ञ करनेवाला।
⋙ यज्ञकृत् (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. यज्ञ करनेवाला पुरोहित [को०]।
⋙ यज्ञकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो यज्ञ की क्रियाओं का ज्ञाता हो। २. एक राक्षस का नाम।
⋙ यज्ञकोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ से द्वेप करता हो। २. रावण के दल का एक राक्षस जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में है।
⋙ यज्ञक्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ का काम। २. कर्मकांड।
⋙ यज्ञगम्य
वि० [सं०] (विष्णु) जिनकी प्राप्ति यज्ञ से संभव हो।
⋙ यज्ञगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ यज्ञगुह्य
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण का एक नाम [को०]।
⋙ यज्ञघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ विध्वंस करता हो। २. राक्षस।
⋙ यज्ञज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो यज्ञों के विधान आदि जानता हो।
⋙ यज्ञतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञतन्त्र] यज्ञ का विस्तार [को०]।
⋙ यज्ञतुंरग
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञतुरङ्ग] यज्ञ का घोड़ा [को०]।
⋙ यज्ञत्राता
संज्ञा पुं० [सं०यज्ञत्तातृ] १. वह जो यज्ञ की रक्षा करता हो। २. विष्णु।
⋙ यज्ञदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ के लिये ब्राह्मणों को दिया जानेवाला धन। यजशुल्क [को०]।
⋙ यज्ञदत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुत्र जो यज्ञ के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुआ हो।
⋙ यज्ञद्नव्य
संज्ञा पुं० [वि०] यज्ञ की सामग्री।
⋙ यज्ञद्रुह
संज्ञा पुं० [सं० यजद्रुह्] राक्षस।
⋙ यज्ञधर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञधूम
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का धुआँ।
⋙ यज्ञनेमि
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का नाम नाम।
⋙ यज्ञपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. वह जो यज्ञ करता हो, यजमान।
⋙ यज्ञपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ की स्त्री, दक्षिण। २. पुराणा- नुसार यज्ञ करनेवाला माथुर ब्रह्मणों के वे स्त्रियाँ जो अपने पतियों के मना करने पर भी श्रीकृष्ण के लिये भोजन लेकर वन में गई थीं।
⋙ यज्ञपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो नर्मंदा के उत्तरपश्चिम में है।
⋙ यज्ञपशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पशु जिसका यज्ञ में बलिदान किया जाय। २. घोड़ा। ३. बकरा।
⋙ यज्ञपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में काम आनेवाले काठ के बने हुए बरतन।
⋙ यज्ञपार्श्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जिनका उल्लेख पराशर स्मृति में है।
⋙ यज्ञपाल
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का संरक्षक। यज्ञ की रक्षा करनेवाला।
⋙ यज्ञपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु। उ०— यज्ञपुरुष प्रसन्न जब भए। निकसि कुंड़ से दरशन दए।—सूर (शब्द०)।
⋙ यज्ञफलद
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का फल देनेवाले, विष्णु।
⋙ यज्ञबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि का एक नाम। २. पुराणानुसार शाल्मलि द्वीप के एक राजा का नाम।
⋙ यज्ञभाड
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञभाण्ड] दे० 'यज्ञपात्र'।
⋙ यज्ञभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपात्र।
⋙ यज्ञभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ यज्ञ होता हो। यज्ञक्षेत्र।
⋙ यज्ञभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] कुश।
⋙ यज्ञभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञभोक्ता
संज्ञा पुं० [सं०यज्ञभोक्तृ] विष्णु।
⋙ यज्ञमंडप
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञमण्ड़प] यज्ञ करने के लिये बनाया हुआ मंडप।
⋙ यज्ञमंडल
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञमण्डल] वह स्थान जो यज्ञ करने के लिये घेरा गया हो।
⋙ यज्ञमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञमन्दिर] यज्ञशाला।
⋙ यज्ञमय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञमहोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] महायज्ञ। बड़ा यज्ञ।
⋙ यज्ञमुख
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का आरंभ।
⋙ यज्ञयूप
संज्ञा पुं० [सं०] वह खंभा जिसमें यज्ञ का बलिपशु बाँधा जाता था। यूपकाष्ठ।
⋙ यज्ञयोग
संज्ञा पुं० [सं०] उदुंबर वृक्ष। गूजर का पेड़ा।
⋙ यज्ञयोग्य
संज्ञा पुं० [सं०] गूलर का पेड़।
⋙ यज्ञरस
संज्ञा पुं० [सं०] सोम।
⋙ यज्ञराज
संज्ञा पुं० [सं० यजराज] चंद्रमा।
⋙ यज्ञरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम।
⋙ यज्ञरेतस्
संज्ञा पुं० [सं०] सोम। यज्ञरस।
⋙ यज्ञलिंग
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञलिङ्ग] श्रीकृष्ण का नाम।
⋙ यज्ञवराह
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु। विशेष— कहते हैं, विष्णु ने वराह का रूप धारणा करने के उपरांत जब आपना शरीर छोड़ा, तब भिन्न भिन्न अंगों से यज्ञ की सामग्री बन गई। इसी से उनका यह नाम पड़ा।
⋙ यज्ञवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का विस्तार करनेवाला।
⋙ यज्ञवल्क
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि जो प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य ऋषि के पिता थे।
⋙ यज्ञवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमलता।
⋙ यज्ञवाट
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ कें निमित्त घेरा हुआ तथा सुरक्षित स्थान [को०]।
⋙ यज्ञवाराह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञवराह'।
⋙ यज्ञवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करनेवाला। २. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
⋙ यज्ञवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करनेवाला। २. ब्राह्मण। ३. विष्णु। ४. शिव।
⋙ यज्ञवाही
संज्ञा पुं० [स० यज्ञवाहिन्] यज्ञ का सब काम करनेवाला।
⋙ यज्ञविभ्रशं
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में त्रुटि वा असफलता [को०]।
⋙ यज्ञविभ्रष्ट
वि० [सं०] यज्ञ में असफल होनेवाला [को०]।
⋙ यज्ञवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ का पेड़। २. विकंकत।
⋙ यज्ञवेदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञार्थ निर्मित वेदिका।
⋙ यज्ञव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने यज्ञ रूपी व्रत लिया हो अथवा जो यज्ञ करता हो। यज्ञ करनेवाला।
⋙ यज्ञशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। २. खर राक्षस का एक सेना- पति जिसे रामचंद्र ने मारा था।
⋙ यज्ञशरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञमंडप'।
⋙ यज्ञशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ करने करा स्थान। यज्ञमंडप।
⋙ यज्ञशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें यज्ञों और उनके कृत्यों आदि का विवेचन हो। मीमांसा। यज्ञशेष।
⋙ यज्ञशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का बचा हुआ अंश। यज्ञ का अवशेष [को०]।
⋙ यज्ञशील
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ करता हो। २. ब्राह्मण।
⋙ यज्ञशंकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञवराह'।
⋙ यज्ञशेष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञशिष्ट'।
⋙ यज्ञश्रेष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमलता।
⋙ यज्ञसंभार
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञसम्भार] यज्ञ की सामग्री। यज्ञ में काम आनेवाली सामग्री [को०]।
⋙ यज्ञसंस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ यज्ञमंड़प बनाया जाय। यज्ञभूमि। यज्ञस्थान।
⋙ यज्ञसदन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ करने का स्थान या मंडप। यज्ञशाला।
⋙ यज्ञसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ की रक्षा करता हो। २. विष्णु।
⋙ यज्ञसार
संज्ञा पुं० [सं०] गूलर का वृक्ष।
⋙ यज्ञसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ की परिसमाप्ति [को०]।
⋙ यज्ञसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञोपवीत। जनेऊ।
⋙ यज्ञसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक दानव का नाम। ३. द्रुपद नरेश का नाम।
⋙ यज्ञस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञस्तभ्भ] वह खंभा जिसमें यज्ञ का पशु बाँधा जाता है। यूप।
⋙ यज्ञस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञमंडप।
⋙ यज्ञस्थाणु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञस्तंभ'।
⋙ यज्ञस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञशाला।
⋙ यज्ञहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञहोता
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञहोतृ] १. यज्ञ में देवताओं का आवाहन करनेवाला। २. भागवत के अनुसार उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ यज्ञांग
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञाङ्ग] १. विष्णु। २. गूलर का पेड़। ३. खैर का पेड़। ४. कृष्णासार नामक मृग (को०)।
⋙ यज्ञांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० यज्ञाङ्गा] सोमलता।
⋙ यज्ञागार
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान या मंडप जहाँ यज्ञ होता हो। यज्ञशाला।
⋙ यज्ञात्मा
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञात्मन्] विष्णु।
⋙ यज्ञाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु। यज्ञपुरुष।
⋙ यज्ञारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. राक्षस।
⋙ यज्ञाशन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता।
⋙ यज्ञिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पुत्र जो यज्ञ के प्रसाद स्वरूप मिला हो। २. पलाश का पेड़।
⋙ यज्ञिय (१)
वि० [सं०] १. यज्ञ संबंधी। यज्ञोपयुक्त। २. पवित्र।
⋙ यज्ञिय (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। देवता। २. गूलर का वृक्ष। ३. यज्ञ की सामग्री। ४. तीसरा युग। द्वापर [को०]।
⋙ यज्ञीय (१)
वि० [सं०] यज्ञ संबंधी। यज्ञ का।
⋙ यज्ञीय (२)
संज्ञा पुं० गूलर का पेड़।
⋙ यज्ञेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यज्ञेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] रोहिस नाम की घास।
⋙ यज्ञोपवीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. जनेऊ। यज्ञसूत्र। २. हिंदुओं में ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों का एक संस्कार। व्रतबंध। उपनयन। जनेऊ। विशेष— यह संस्कार प्राचीन काम में उस समय होता था, जब बालक की विद्या पढ़ाने के लिये गुरु के पास ले जाते थे। इस संस्कार के उपरांत बालक को स्नातक होने तक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना पड़ता था और भिक्षावृत्ति से अपना तथा अपने गुरु का निर्वाह करना पड़ता था। अन्यान्य संस्कारों की भांति यह संस्कार भी आजकल नाममात्र के लिये रह गया है। इसमें कुछ विशिष्ट धार्मिक कृत्य करके बालक के गले में जनेऊ पहना दिया जाता है। ब्राह्मण बालक के लिये आठवें वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिये ग्यारहवें वर्ष और वैश्य बालक के लिये बारहवें वर्ष यह संस्कार करने का विधान है।
⋙ यज्य (१)
वि० [सं०] यजन करने योग्य।
⋙ यज्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० यज्या] १. स्तुति। आराधन। अर्चन। २. यज्ञ [को०]।
⋙ यज्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजुर्वेदी ब्राह्मण। २. यजमान। श्रद्धालु भक्त।
⋙ यज्वा
संज्ञा पुं० [सं० यज्वन्] यज करनेवाला। यौ०—यज्वापति=(१) विष्णु। (२) चंद्रमा।
⋙ यडर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ यतः
क्रि० वि० [सं० यतस्] इसलिये कि। चूँकि। क्योंकि [को०]।
⋙ यत
वि० [सं०] १. नियंत्रित। नियमित। पाबंद। २. दमन किया हुआ। शासित। ३. प्रतिबद्ध। रोका हुआ।
⋙ यतन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० यतनीय] उद्योग वा उपाय करना। यत्न करना। कोशिश करना।
⋙ यतनीय
वि० [सं०] यत्न करने के योग्य। कोशिश करने लायक।
⋙ यतमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. यत्न करता हुआ। कोशिश में लगा हुआ। २. अनुचित विषयों का त्याग और उचित विषयों में मंद प्रवृत्ति के निमित्त यत्न करनेवाला।
⋙ यतव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत संयम से रहता हो।
⋙ यतात्मा
वि० [सं० यतात्मन्] आत्मनिग्रही। संयमी [को०]।
⋙ यताहार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० यताहारी] संगत आहार। अल्पाहार।
⋙ यताहारी
वि० [सं० यताहारिन्] नियत एवं संयत आहार करनेवाला। अल्पाहारी।
⋙ यति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो और जो संसार से विरक्त होकर मोक्ष प्राप्त करने का उद्योग करता हो। संन्यासी। त्यागी। योगी। २. भागवत के अनुसार ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम। ४. ब्रह्मचारी। ५. विष्णु (को०)। ६. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम (को०)। छप्पय के ६६ वें भेद कता नाम जिसमें ५ गुरु और १४२ लघु मात्राएँ अथवा किसी किसी के मत से ५ गुरु और १३६ लघु मात्राएँ होती हैं।
⋙ यति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छंदों के चरणों में वह स्थान जहाँ पढ़ते समय, उनकी लय ठीक रखने के लिये, थोड़ा सा विश्राम होता है। विराति। विश्राम। राविम। २. दे० 'यती'।
⋙ यतिचांद्रायण
संज्ञा पुं० [सं० यतिचान्द्रायण] एक प्रकार का चाद्रायण व्रत जिसका विधान यतियों के लिये है।
⋙ यतित
वि० [सं०] जिसके लिये चेष्ठा की गई हो। चेष्टित [को०]।
⋙ यतित्व
संज्ञा पुं० [सं०] यति का धर्म, भाव या कर्म।
⋙ यतिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] संन्यास।
⋙ यतिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संन्यासिनी। २. विधवा।
⋙ यतिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षापात्र। खप्पर।
⋙ यतिभंग
संज्ञा पुं० [सं० यतिभङ्ग] काव्य का वह दोष जिसमें यति अपने उचित स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पीछे पड़ती है और जिसके कारण पढ़ने में छंद की लय बिगड़ जाती है।
⋙ यातभ्रष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वह छंद जिसमें यति अपने उपयुक्त स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पीछे पड़ी हो। यतिभंग दोष से युक्त छंद।
⋙ यतिमैथुन
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधु संन्यासी का सा गुप्त मैथुन। २. खंजनरति [को०]।
⋙ यतिसांतपन
संज्ञा पुं० [सं० यतिसान्तपन] एक व्रत जिसमें तीन दिन केवल पंचगव्य और कुशजल पीकर रहना प़ड़ता है। विशेष—शंखस्मृति के मत से तो यह व्रत तीन दिन का है, परंतु जाबाल के मत से सात दिन का है। गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घृत, कुश का जल इनमें से एक एक का प्रति दिन एक वार पीकर रात दिन उपवास करना पड़ता है। इसी का नाम सांतपनकृच्छु या यतिसांतपन है।
⋙ यती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रोक। रुकावट। २. छदों में विराम का स्थान। यति। ३. मनोराग। मनोविकार। ४. विधवा स्त्री। ५. शालक राग का एक भेद। ६. मृदंग का एक प्रबंध। ७. संधि।
⋙ यती (२)
संज्ञा पुं० [सं० यतिन्] [स्त्री० यतिनी] १. यति। संन्यासी २. जितेंद्रिय। ३. जैनमतानुसर श्वेतांबर जैन साधु।
⋙ यतीम
संज्ञा पुं० [अं०] १. मातृ-पितृ-बिहीन। जिसके माता पिता न हों। अनाथ। २. कोई अनुपम और अद्वितीय रत्न। ३. वह बड़ा मोती, जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह सीप में एक ही निकलता है।
⋙ यतीमखाना
संज्ञा पुं० [अं० यतीम+फा० खानह्] वह स्थान जहाँ माता-पिता-हीन बालक रखे जाते हैं। अनाथालय।
⋙ युतुका, यतूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चकवँड़ का पौधा। चक्रमर्द।
⋙ यतेंद्रिय
वि० [सं० यतोन्द्रिय] इंद्रियनिग्रही। संयतात्मा। इद्रियों का नियमन करनेवाला। संयमी [को०]।
⋙ यत्
सर्व [सं०] जो।
⋙ यत्किंचित्
क्रि० वि० [सं० यत्किञ्चत्] थोड़ा सा। स्वल्प। जरा सा। बहुत कम। कुछ।
⋙ यत्त
वि० [सं०] यतित। चेष्टित। यत्न में लगा हुआ। सतर्क [को०]।
⋙ यत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. नैयायिकों के अनुसार रूप आदि २४ गुणों के अंतर्गत एक गुण जो तीन प्रकार का होता है— प्रवृत्ति, निवृत्ति और, जीवनयोनि। २. उद्योग। प्रयत्न। कोशिश। ३. उपाय। तदबीर। उ०— पाछे पृथु को रूप हरि लीन्हों नाना रस दहि काढ़ै। तापर रचना रची विधाता बहु विधि यत्नन बाढै़।— सूर (शब्द०)। ४. रक्षा का आयोजन। हिफाजत। जैसे,—इस वस्तु को बड़े यत्न से रखना। ५. रोगशांति का उपाय। चिकिस्ता। उपचार।
⋙ यत्नवान्
वि० [सं० यत्नवत्] [वि० स्त्री० यत्नवती] यत्न में लगा हुआ। यत्न करनेवाला।
⋙ यत्र (१)
क्रि० वि० [स०] जिस जगह। जहाँ।
⋙ यत्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० सत्र] सामान्य यज्ञ।
⋙ यत्रतत्र
क्रि० वि० [सं०] १. जहाँ तहाँ। इवर उधर। कुछ यहाँ, कुछ वहाँ। २. जगह जगह। कई स्थानों मे।
⋙ यत्रु
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाती के ऊपर और गले के नीचे की मड़लाकार हड्डी। हंसली।
⋙ यथांश
वि० [सं०] आनुपातिक। अचित अनुपास में [को०]।
⋙ यथा
अव्य० [सं०] जिस प्रकार। जैसे। ज्यों। यो०— यथाकथित=जैसा कहा जा चुका हो। यथोक्त। यथा- कर्तव्य=जैसा करना उचित हो। कर्तव्य के अनुसार। यथाकर्म=कार्यों के अनुसार। भाग्यानुसार। यथाकल्प=नियम या विधि के अनुसार। यथाकाम=मनोनुकूल। इच्छानुसार। यथाकार =मनमाने ढ़ंग का। जैसा तेसा। यथाकाल=ठीक या उचित समय पर। यथाकृत। यथाक्रम। यथागुण=गुण के अनुसार। गुण के अनुरूप। यथाज्ञान=अपने ज्ञान वा समझ के अनुसार। यथातथ। यथातृप्ति=संतुष्टि के अनुकूल। जो भरकर। यथादर्शन =जैसा देखा गया। यथादिक् यथादिश= समस्त दिशाओं में। यथापण्य। यथापूर्व। यथप्रार्थित= प्रार्थना के अनुकूल।
⋙ यथाकामी
संज्ञा पुं० [सं० यथाकामिन्] अपनी इच्छा के अनुसार काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
⋙ यथाकामावध
संज्ञा पुं० [सं०] किसी व्यक्ति को यह घोषित करके छोड़ देना कि इसे जो चाहे, मार डा़ले। विशेष—चंद्रगुप्त के समय में जो राजकर्मचारी चार बार चोरी या गाँठ कतरने के अपराध में पकड़े जाते थे, उनको यह दंड दिया जाता था।
⋙ यथाकारी
संज्ञा पुं० [सं० यथाकारिन्] मनमान काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
⋙ यथाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] उचित समय। ठीक समय।
⋙ यथाकृत
वि० [सं०] जैसा तै हुआ हो (कार्य)। निमय या रिवाज के अनुसार किया गया [को०]।
⋙ यथाक्रम
क्रि० वि० [सं०] तरतीबावर। क्रमशः। क्रमानुसार।
⋙ यथाख्यात
वि० [सं०] जैसा पहले कहा गया हो [को०]।
⋙ यथाख्यात चरित
संज्ञा पुं० [सं०] सब कपायों (काम, क्रोधादि पातकों) का जिन साधुओं ने क्षय किया हो, उनका चरित्र। (जैन)।
⋙ यथागत
वि० [सं०] मूर्ख। लंठ [को०]।
⋙ यथाचार
वि० [सं०] १. चलन रिवाज के अनुसार। २. आचरण के अनुसार [को०]।
⋙ यथाजात
संज्ञा पुं० [सं०] मूर्ख। बेवकूफ। नीच।
⋙ यथाज्येष्ठ
क्रि० वि० [सं०] पद या वरीयता के क्रमानुसार।
⋙ यथातथ, यथातथ्य
वि० [सं०] जैसे का तैसा। ज्यों का त्यों। हूबहू। जैसा हो, वैसा ही। समसुच। सत्यतः।
⋙ यथाधिकार
वि० [सं०] अधिकारिक रूप से। अधिकार के अनु रूप [को०]।
⋙ यथाधीत
वि० [सं०] अध्ययन के अनुसार। पाठ के अनुसार [को०]।
⋙ यथानियम
अव्य० [सं०] नियमानुसार। कायदे के मुताबिक। बाकायदा।
⋙ यथानिर्दिष्ट
वि० [सं०] पूर्वकथित। पूर्वविवृत। पूर्वनिर्धारित (नियमादि)।
⋙ यथानुभूत
वि० [सं०] १. अनुभव के अनुसार। २. पूर्व अनुभव द्वारा [को०]।
⋙ यथानुरूप
वि० [सं०] एक दम मिलता हुआ [को०]।
⋙ यथान्याय
अव्य० [सं०] न्याय के अनुसार। जो कुछ न्याय हो, वैसा। यथोचित।
⋙ यथापण्य
अव्य० [सं०] बाजार की दर के अनुसार [को०]।
⋙ यथापूर्व
अव्य० [सं०] १. जैसा पहले था, वैसा ही। पहले की नाईं। पूर्ववत्। २. ज्यों का त्यों।
⋙ यथाप्रदिष्ट
अव्य० [सं०] उचित। उपयुक्त [को०]।
⋙ यथाप्रयोग
अव्य० [सं०] प्रथा या व्यवहार के अनुसार [को०]।
⋙ यथाप्राण
अव्य० [सं०] शक्ति के अनुसार [को०]।
⋙ यथाबल
अव्य० [सं०] १. मामर्थ्य के अनुसार। २. सेना की शक्ति या संख्या के अनुसार [को०]।
⋙ यथाबुद्धि
अव्य० [सं०] दे० 'यथामति'।
⋙ यथाभाग
अव्य० [सं०] १. भाग के अनुसार जितना चाहिए, उतना। हिस्से के मुताबिक। २. यथोचित।
⋙ यथाभिप्रेत
वि० [सं०] जैसा चाहा या इच्छा किया गया हो। उच्छानुकूल [को०]।
⋙ यथाभिनत, यथाभिरूचि, यथाभिलाषित
वि० [सं०] दे० 'यथाभि- प्रेत' [को०]।
⋙ यथामति
अव्य० [सं०] बुद्धि के अनुसार। समझ के मुताबिक।
⋙ यथायोग्य
अव्य० [सं०] जैसा चाहिए, वेसा। उरयुक्त। यथोचित। मुनासिब।
⋙ यथारंभ
वि० [सं०] आरंभ के अनुसार। यथाक्रम [को०]।
⋙ यथारथ पु
अव्य० [सं० यथार्थ] दे० 'यथार्थ'।
⋙ यथारुचि
अव्य० [सं०] १. रुचि के अनुसार। पसंद के मुताबिक। इच्छानुसार। मरजी के मुताबिक।
⋙ यथार्थ
अव्य० [सं०] १. ठीक। वाजिब। जैसे,— आपका कहना यथार्थ है। २. जैसा ठीक होना चाहिए, वैसा। ज्यों का त्यों। जैसे का तैसा।
⋙ यथार्थतः
क्रि० वि० [सं०] १. सचमुच। सत्यतः। २. उचित रूप से। सही अर्थ में [को०]।
⋙ यथार्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यथार्थ का भाव। सचाई। सत्यता। सच्चापन।
⋙ यथार्ह
वि० [सं०] १. योग्यता या पात्रता के अनुसार। २. उचित। न्याय्य। ३. मनपसंद [को०]।
⋙ यथालब्ध (१)
वि० [सं०] जितना प्राप्त हो, उसी के अनुसार। जो कुछ मिले, उसी के मुताविक।
⋙ यथालब्ध (२)
संज्ञा स्त्री० जैनियों के अनुसार, जो कुछ मिल जाय उसी से संतुष्ट रहने की वृत्ति।
⋙ यथालाभ
वि० [सं०] जो कुछ मिले, उसी के अनुसार। जो प्राप्त हो, उसी पर निर्भर। उ०— यथालाभ संतोष सदा परगुन नहिं दोष कहौंगो।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ यथावकाश
वि० [सं०] १. अवसर के अनुकूल। २. स्थान के अनुकूल। ३. उचित स्थान पर [को०]।
⋙ यथावत्
अव्य० [सं०] १. ज्यों का त्यों। जैसा था, वैसा ही। जैसे का तैसा। २. जैसा चाहिए वैसा। पूर्ण रीति से। अच्छी तरह। जैसे, यथावत् सत्कार करना।
⋙ यथावस्थित
अव्य० [सं०] १. जैसा था, वैसा ही। २. सत्य। ठीक। ३. स्थिर। अचल।
⋙ यथाविधि
अव्य० [सं०] विधि के अनुसार। विधिपूर्वक। विधिवत्।
⋙ यथाविहित
अव्य० [सं०] जैसा विधान हो, वैसा ही। विधि के अनुसार।
⋙ यथाशक्ति
अव्य० [सं०] सामर्थ्य के अनुसार। जितना हो सके। भरसक।
⋙ यथाशक्य
अव्य० [सं०] जहाँ तक हो सके। जहाँ तक संभव हो। जहाँ तक मुमकिन हो। सामर्थ्य भर। भरसक।
⋙ यथाशास्त्र
अव्य० [सं०] शास्त्र के अनुसार। शास्त्र के अनुकूल। जैसा शास्त्रों में वर्णित है वैसा।
⋙ यथाश्रम
वि० [सं०] १. आश्रम जीवन के अनुसार। २. परिश्रम के अनुसार।
⋙ यथासंभव
अव्य० [सं० यथासम्भव] जहाँ तक हो सके। जितना हो सके। जितना मुमकिन हो।
⋙ यथासमय
अव्य० [सं०] १. ठीक समय पर। ठीक वक्त पर। नियत समय पर। २. समय के अनुसार। जैसा समय हो, वैसा।
⋙ यथासाध्य
अव्य० [सं०] जहाँ तक हो सके। जितना किया जा सके। यथाशक्ति।
⋙ यथास्थान
अव्य० [सं०] ठीक जगह पर। अपने स्थान पर। उचित स्थान पर।
⋙ यथेच्छ
अव्य० [सं०] जितना या जैसा जी में आवे, उतना या वैसा। इच्छा के अनुसार। मनमाना।
⋙ यथेच्छाचार
संज्ञा पुं० [सं०] जो जी में आवे वही करना, और उचित अनुचित का ध्यान न करना। स्वेच्छाचार। मनमाना काम करना।
⋙ यथेच्छावारी
संज्ञा पुं० [सं० यथेच्छाचारिन्] १. मनमाना आचार करनेवाला। यथेच्छाचार करनेववाला। जो कुछ जो में आवे वही करनेवाला। मनमौजी।
⋙ यथेच्छित
क्रि० [सं०] इच्छानुसार। मनमाना। मनचाहा।
⋙ यथेप्सित
वि० [सं०] दे० 'यथेच्छित' [को०]।
⋙ यथेष्ट
वि० [सं०] जितना इष्ट हो। जितना चाहिए, उतना। काफी। पूरा। जैसे—(क) वे वहाँ से यथेष्ट धन ले आए। (ख) इस विषय में यथेष्ट कहा जा चुका है।
⋙ यथेष्टाचरण
संज्ञा पुं० [सं०] मनमाना काम करना। इच्छानुसार व्यवहार करना। स्वेच्छाचार।
⋙ यथेष्टाचार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यथेष्टाचरण'।
⋙ यथेष्टाचारी
संज्ञा पुं० [सं० यथेष्टाचारिन्] अपने मन के अनुसार व्यवहार करनेवाला। मनमाना काम करनेवाला।
⋙ यथोक्त
अव्य० [सं०] जैसा कहा गया हो। कहे हुए अनुसार।
⋙ यथोक्तकारी
वि० [सं० यथोक्तकारिन्] १. शास्त्रों में जो कुछ कहा गया हो वही करनेवाला। २. आज्ञाकारी।
⋙ यथोद् गमन
संज्ञा पुं० [सं०] अवरोही। अनुपात में उतार का क्रम [को०]।
⋙ यथोचित
वि० [सं०] जैसा चाहिए वैसा। मुनासिब। ठीक। जैसे— उसे यथोचित दंड मिलना चाहिए।
⋙ यथोत्साह
अव्य [सं०] दे० 'यथाशक्ति'।
⋙ यथोद्देश
अव्य० [सं०] निर्दिष्ट ढंग से [को०]।
⋙ यथोपदिष्ट
वि० [सं०] जैसा निर्दिष्ट किया गया हो, वैसा [को०]।
⋙ यथोपपत्ति
वि० [सं०] जैसा उचित हो, वैसा [को०]।
⋙ यथोपपन्न
वि० [सं०] समय पर जैसा कुछ घटित हो गया हो। स्वाभाविक [को०]।
⋙ यथोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यथा शब्द द्वारा अभिव्यक्त उपमा। (छंदःशास्त्र)।
⋙ यथोपयोग
वि० [सं०] उपयोग के अनुसार। आवश्यकतानुसार।
⋙ यदपि पु
अव्य० [सं० यदि+अपि] दे० 'यद्यपि'। उ०— जागृत था सौंदर्य यदपि वह सांती थी सुकुमारी। रूप चंद्रिका में उज्वल थी आद निशा की नारी।—कामायनी, पृ० १२५।
⋙ यदा
अव्य० [सं०] जिस समय। १. जिस वक्त। जब। २. जहाँ।
⋙ यदाकदा
अव्य० [सं०] जब तब। कभी कभी।
⋙ यदि
अव्य० [सं०] अगर जो। विशेष— इस अव्यय का उपयोग वाक्य के आरंभ में संशय अथवा किसी बात की अपेक्षा सूचित करने के लिये होता है। जैसे— (क) यदि वे न आए तो?। (ख) यदि आप कहें तों में देदूँ।
⋙ यदिच, यदिचेत्
अव्य० [सं०] यद्यपि। अगरचे।
⋙ यदीय
वि० [सं०] जिसका [को०]।
⋙ यदु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ययाति राजा का बड़ा पुत्र जो देवयानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। विशेष— (क) महाभारत में लिखा है कि ययति के शाप के कारण इनका राज्य नष्ट हो गया था; पर पीछे से इंद्र की कृपा से इन्हें फिर राज्य मिला था। शाप का कारण यह था कि ययति ने वृद्ध होने पर इनसे कहा था कि तुम मेरा पाप और वृद्धावस्था ले लो, जिससे मैं फिर युवक हो जाऊँ। पर इसे इन्होंने स्वीकृत नहीं किया था। श्रीकृष्णचंद्र इन्हीं के वंश में हुए थे। (ख) इस शब्द के साथ पति या राजा आदि का वाचक शब्द लगाने से श्रीकृष्ण का अर्थ होता है। जैसे,— यदुपति, यदुराज। २. पुराणानुसार हर्यश्व राजा के पुत्र का नाम।
⋙ यदुकुल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यदुवंश'।
⋙ यदुध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक ऋषि का नाम।
⋙ यदुनंदन
संज्ञा पुं० [सं० यदुनन्दन] यदुकुल को आनंद देनेवाले, श्रीकृष्णचंद्र। १. कृष्ण चैतन्य के एक साथी भक्त।
⋙ यदुनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] यदुवंश के स्वामी, श्रीकृष्ण।
⋙ यदुपति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ यदुभूप
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ यदुराई पु
संज्ञा पुं० [सं० यदु+हिं० राई(=राजा)] श्रीकृष्ण।
⋙ यदुराज, यदुराट्
संज्ञा पुं० [सं०] यदुकुल के राजा श्रीकृष्ण।
⋙ यदुवंश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा यदु का कुल। यदु का खानदान।
⋙ यदुवंशमणि
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्णचंद्र।
⋙ यदुवंशी
संज्ञा पुं० [सं० यदुवंशिन्] यदुकुल में उत्पन्न। यदुकुल के लोग। यादव।
⋙ यदुवर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ यदुवीर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ यदूत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ यदृच्छया
क्रि० वि० [सं०] १. अकस्मात्। अचानक। २. इत्तफाक से। दैवसंयोग से। ३. मनमाने तौर पर। मन की मौज के अनुसार। बिना किसी नियम या कारण के।
⋙ यदृच्छयाभिज्ञ
संज्ञा [सं०] कृतसाक्षी के पाँच भेदों में एक। वह साक्षी जो घटना के समय आपसे आप या अकस्मात् आ गय़ा हो।
⋙ यदृच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवल इच्छा के अनुसार व्यवहार। स्वेच्छाचरण। मनमनापन। २. आकस्मिक। संयोग। इत्तफाक।
⋙ यद्यपि
अव्य० [सं०] अगरचे। हरचंद्र। बाबजूद कि। उ०—यद्यपिईंधन जरि गीए अरिगण केशवदास। तदपि प्रतापानलन की पल पल बढ़त प्रकास।— केशव (शब्द०)।
⋙ यद्वातद्वा
अव्य० [सं०] कभी कभी।
⋙ यभन
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन। रति। संभोग [को०]।
⋙ यम
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक साथ उत्पन्न बच्चों का जोड़ा। यमज। २. भारतीय आर्यों के एक प्रसिद्ध देवता जो दक्षिण दिशा के दिक् पाल कहे जाते हैं और आजकल मृत्यु के देवता माने जाते हैं। विशेष— वैदिक काम में यम और यमी दोनों देवता, ऋषि और मंत्रकर्ता माने जाते थे और 'यम' को लोग 'मृत्यु' से भिन्न मानते थे। पर पीछे से मय ही प्राणियों को मारनेवाले अथवा इस शरीर में से प्राण निकालनेवाले माने जाने लगे। वैदिक काल में यज्ञों में यम की भी पूजा होती थी और उन्हे हवि दिया जाता था। उन दिनों वे मृत पितरों के अधिपति तथा मरनेवाले लोगों को आश्रय देनेवाला माने जाते थे। तब से अब तक इनका एक अलग लोक माना जाता है, जो 'यमलोक' कहलाता है। हिदुओं का विश्वास है कि मनुष्य मरने पर सब से पहले यमलोक में जाता है और वहाँ यमराज के सामने उपस्थित किया जाता है। वही उसकी शुभ और अशुभ कृत्यों का विचार करके उसे स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। ये धर्मपूर्वक विचार करते हैं, इसीलिये धर्मराज भी कहलाते हैं। यह भी माना जाता है कि मृत्यु के समय यम के दूत ही आत्मा को लेने के लिये आते हैं। स्मृतियों में चौदह यमों के नाम आए हैं, जो इस प्रकार हैं— यम, धर्मराज, मृत्यु, अंतक, वैवस्वत, काल, सर्वभूत- क्षय, उदुंबर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। तर्पण में इनमें से प्रत्यक के नाम तीन तीन अंजलि जल दिया जाता है। मार्कडेयपुरणा में लिखा है कि जब विश्वकर्मा की कन्या संज्ञा ने अपने पति सूर्य को देखकर भय से आँखें बंद कर ली, तब सूर्य ने क्रुद्ध होक उसे शाप दिया कि जाओ, तुम्हें जो पुत्र होगा, वह लोगों का संयमन करनेवाला (उनके प्राण लेनेवाला) होगा। जब इसपर संज्ञा ने उनकी और चंचल दृष्टि से देखा, तब फिर उन्होने कहा कि तुम्हें जो कन्या होगी, वह इसी प्रकार चंचलतापूर्वक नदी के रूप में बहा करेगी। पुत्र तो यही यम हुए और कन्या यमी हुई, जो बाद में यमुना के नाम से प्रसिद्ध हुई। कहा जाता है कि यमी और यम दोनों यमज थे। यम का वाहन भैंसा माना जाता है। पर्या०—पितृपति। कृतांत। शमन। काल। दंडधर। श्राद्धदेव। धर्म। जीवितेश। महिपध्वज। महिषवाहन। शीर्णपाद। हरि। कर्मकर। २. मन, इंद्रिय आदि के वश या रोक में रखना। निग्रह। ४. चित को धर्म में स्थिर रखनेवाले कर्मों का साधन। विशेष— मनु के अनुसार शरीरसाधन के साथ साथ इनका पालन नित्य कर्तव्य है। मनु ने आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं। पर पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी दो एक ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय। 'यम' योग के आठ आगों में से पहला अंग है। विशेष दे० 'योग'। ५. कौआ। ६. शनि। ७. विष्णु। ८. वायु। ९. यमज। जोड़। १०. दो की संख्या। ११. वायु (जैन)।
⋙ यमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का शब्दासंकार या अनुप्रास जिसमें एक ही शब्द कई बार आता है; पर हर बार उसके अर्थ भिन्न भिन्न होते हैं। उ०— कनक कनक तें सौगुनो मादकता अधिकाइ। यहाँ एक कनक का अर्थ सोना और दूसरे का धूतरा है। २. एक वृत्त का नाम, जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और दो लघु मात्राएँ होती हैं। ३. सेना का एक प्रकार का व्यूह या जमाव। ४. वे दो बालक जो एक साथ ही उत्पन्न हुए हो। यमज। जोड़। ५. संयम।
⋙ यमकात, मयकातर
संज्ञा पुं० [सं० यम+हि० कातर] १. यम का छुरा या खाँड़ा। २. एक प्रकार की तलवार। उ०— (क) जनु यमकात करहिं सब भवाँ। जिउ लेइ जनहुँ स्वर्ग अपसवाँ।—जायसी (शब्द०)।(ख) होय हनुमत यमकातर धाऊँ। आज स्वामि संकर सिर नाऊँ।— जायसी (शब्द०)।
⋙ यमकालिंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० यमकालिन्दी] सूर्य की पत्नी, संज्ञा जो यम और कालिदी की माता थी [को०]।
⋙ यमकीट
संज्ञा पुं० [सं०] केचुवा।
⋙ यमघंट
संज्ञा पुं० [सं० यमघण्ट] १. एक दुष्ट योग जो रविवार के दिन मघा या पूर्वाफाल्गुनी, सोमवार के दिन पुष्य या श्लेषा, मंगलवार को ज्येष्ठा, अनुराधा, भरणी या अश्विनी, बुधवार को हस्त या आर्द्रा बृहस्पति को पूर्वाषाढ़, रेवती या उत्तरा- भाद्रपद, शुक्र की स्वाति या रोहिणी, और शनिवार को शतभिषा या श्रवण नक्षत्र होनो पर होता है। इस योग में शुभ कार्य वर्जित है। २. दीपावली का दूसरा दिन। कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा।
⋙ यमचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज का शस्त्र।
⋙ यमज
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गर्भ से एक ही समय में और एक साथ उत्पन्न होनेवाली दो संतानों। एक साथ जन्म लेनेवाले दो बच्चों का जोडा। जौऔँ। २. ऐसा घोड़ा जिसका एक और का अंग हीन और दुर्बल हो और दूसरी और का वही अंग ठीक हो। यह दोष माना जाता है। ३. अश्विनीकुमार।
⋙ यमजयी
वि० [सं०] यम पर विजय पानेवाला [को०]।
⋙ यमजात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यमज'।
⋙ मयजातना
संज्ञा स्त्री० [सं० यमयातना] दे० 'यमयातना'।
⋙ यमजित्
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु को जीतनेवाले, मृत्युंजय।
⋙ यमतर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] यम की प्रसन्नता के लिये किया जानेवाला यज्ञ [को०]।
⋙ यमत्व
संज्ञा पुं० [सं०] यम का भाव या धर्म।
⋙ यमदंड
संज्ञा पुं० [सं० यमदण्ड] यमराज का डंडा। कालदंड।
⋙ यमदंष्ट्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार आश्विन, कार्तिक, और अगहन के लगभग का कुछ विशिष्ट काल, जिसमें रोग और मृत्यु आदि का विशेष भय रहता है और जिसमें अल्प भोजनतथा विशेष संयम आदि का विधान है। कुछ लोगों के मत से यह समय कार्तिक के अंतिम आठ दिनों और अगहन के आरंभिक आठ दिनों का है; और कुछ लोगों के मत से आश्विन के अंतिम आठ दिन और पूरा कार्तिक मास इसके अंतर्गत है।
⋙ यमदग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि जो परशुराम के पिता थे। विशेष दे० 'जमदग्नि'।
⋙ यमदुतिया
संज्ञा स्त्री० [सं० यमद्वितीया] दे० 'यमद्वितीया'।
⋙ यमदूत, यमदूतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यम के दूत। २. कौआ।
⋙ यमदूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली।
⋙ यमदेवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भरणी नक्षत्र, जिसके देवता यम माने जाते हैं।
⋙ यमद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] सेमर का पेड़। शाल्मलि वृक्ष। विशेष— इसका यह नाम इसलिये है कि इसमें फूल तो बड़े सुंदर देख पड़ते हैं, पंरतु उनसे कोई खाने लायक फल नहीं उत्पन्न होता।
⋙ यमद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. यम का दरवाजा। मृत्यु। मौत। २. मृत्यु का सामीप्य [को०]।
⋙ यमद्वितीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक शुक्ला। द्वितीया। भाईदूज। विशेष— कहते हैं, इस दिन मयराज ने अपनी बहन यमुना के यहाँ भोजन किया था। इसीलिये इस दिन बहन के यहाँ भोजन करना और उसे कुछ देना मंगलकारक और आयुवर्धक माना जाता है।
⋙ यमधार
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी तलवार या कटारी आदि जिसके दोनों और धार हो। जमदाढ़।
⋙ यमन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिबंध या निरोध कनरा। नियम से बाँधना। २. बंधन। बाँधना। ३. विराम देना। ठहराना। ४. रोकना। बंद करना। ५. यमराज।
⋙ यमन (२)
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'यवन'।
⋙ यमनकल्यान
संज्ञा पुं० [अ० मयन+सं० कल्याण] दे० 'एमन'।
⋙ यमनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भरणी नक्षत्र, जिसके देवता यम माने जाते हैं।
⋙ यमनाह पु
संज्ञा पुं० [सं० यमनाथ, प्रा० जमनाह] यमों के स्वामी धर्मराज। उ०— कह नारद हम कीजै काहा। जेहि ते मानि जाइ यमनाहा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ यमनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० यवनिका] दे० 'यवनिका'।
⋙ यमनी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर (लाल या याकूत) जिसकी गणना रत्नों में होती है। यह पत्थर अरब के यमन प्रदेश से आता है।
⋙ यमनी
वि० १. यमन का निवासी। २. यमन संबंधी। ३. यमन का [को०]।
⋙ यमपुर
संज्ञा पुं० [सं०] यम के रहने का स्थान, जिसके विषय में यह माना जाता है कि मरने पर यम के दूत प्रेतात्मा को पहले यहाँ ले जाते हैं और तब उसे धर्मपुर में पहुँचाते हैं। यमलोक। मुहा०—यमपुर पहुँचाना=मार डालना। प्राण ले लना।
⋙ यमपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमलोक। यमपुर।
⋙ यमपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. यमराज। २. यम के दूत।
⋙ यमप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर जो कुरुक्षेत्र दक्षिण में था। विशेष— कहते हैं, यहाँ के निवासी मय के उपासक थे। शंकराचार्य ने वहाँ जाकर वहाँ के निवासियों को शैव बनाया था।
⋙ यमप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] वट वृक्ष। बंड़ का पेड़।
⋙ यमभगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना नदी।
⋙ यमयन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ यमया
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिषशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का नक्षत्रयोग।
⋙ यमयातना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यम के दूतों द्वारा दी हुई पीड़ा। २. नरक की पीड़ा। ३. मृत्यु के समय की पीड़ा।
⋙ यमरथ
संज्ञा पुं० [सं०] भैंसा।
⋙ यमराज
संज्ञा पुं० [सं०] यमों के राजा धर्मराज, जो मरने के पीछे प्राणी के कर्मों का विचार करके उसे दंड या उत्तम फल देते हैं। धर्मराज।
⋙ यमराज्य, यमराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] यमलोक।
⋙ यमल
संज्ञा पुं० [सं०] १. युग्म। जोड़ा। २. दो लड़के जो एक साथ ही पैदा हुए हों। यमज।
⋙ यमलच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] कचनार।
⋙ यमलपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनेर। २. अश्मंतक वृक्ष।
⋙ यमलसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गौ जिसके दो बच्चे एक साथ उत्पन्न हुए हों।
⋙ यमला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का हिक्का या हिचकी का रोग, जिसमें, थोड़ी देर पर दो दो हिचकियाँ एक साथ आती हैं और सिर तथा गरदन काँपने लगती है। २. एक प्राचीन नदी का नाम। ३. तात्रिकों की एक देवी।
⋙ यमलार्जुन
संज्ञा पुं० [सं०] गोकुल के दो अर्जुन वृक्ष जो पुराणा- नुसार कुबेर के पुत्र नलकूबर और माणिग्रीव थे। विशेष—ये दोनों एक बार मद्य पीकर मत्त हो रहे थे और नंगे होकर नदी में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। इसी पर नारद ऋषि ने इन्हें शाप दिया, जिससे ये पेड़ हो गए थे। श्रीकृष्ण ने उस समय इनका उद्धार किया था, जब वे यशोदा द्वारा ऊखल में बाँधे गए थे।
⋙ यमली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक में मिली हुई दो चीजें। जोड़ी। २. स्त्रियों का घाघरा और चौली।
⋙ यमलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लोक जहाँ मरने के उपरांत मनुष्य जाते हैं। यमपुरी। मुहा०—यमलोक भेजना या पहुँचाना= मार डालना। प्राण लेना।
⋙ २. नरक।
⋙ यमवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] भैंसा।
⋙ यमव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का धर्म जिसके अनुसार उसे यमराज की भाँति निष्पक्ष सबकी दंड देना चाहिए। राजा का दंडनियम।
⋙ यमसदन
संज्ञा पुं० [सं०] यमपुर।
⋙ यमसू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ यमसू (२)
वि० स्त्री० जिसके एक ही गर्भ से एक साथ दो संतानें हों।
⋙ यमसूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा घर जिसके पश्चिम उत्तर दिशा में शाला हो।
⋙ यमस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ यमहंता
संज्ञा पुं० [सं० यमहन्तृ] काल का नाश करनेवाला।
⋙ यमांतक
संज्ञा पुं० [सं० यमान्तक] शिव।
⋙ यमातिरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] ४९ दिनों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ यमादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का एक रूप।
⋙ यमानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजवायन।
⋙ यमानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजवायन।
⋙ यमानुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमराज की छोटी बहन, यमुना।
⋙ यमारि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यमालय
संज्ञा पुं० [सं०] यम का घर, यमपुर।
⋙ यमिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ यमी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] यम की बहन, जो पीछे यमुना नदी होकर बही। यमुना नदी।
⋙ यमी (२)
संज्ञा पुं० [सं० यमिन्] संयम करनेवाला मनुष्य। संयमी।
⋙ यमुंड
संज्ञा पुं० [सं० यमुण्ड] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ यमुना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. यम की बहन यमी, जो सूर्य के वीर्य से संज्ञा के गर्भ उत्पन्न हूई थी और जो संज्ञा को सूर्य द्वारा मिले हुए शाप के कारण पीछे से नदी हो गई थी। ३. उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध बड़ी नदी जो हिमालय के यमुनोत्तरी नामक स्थान से निकलकर प्रयाग में गंगा में मिलती है यह ८६० मील लंबी है ओर दिल्ली, आगरा, मथुरा आदि नगर इसके किनारे बसे हुए हैं। हिंदू इसे बहुत पवित्र नदी और यम की बहुत यमी का स्वरूप मानते हैं।
⋙ यमुनाभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण के भाई बलराम जिन्होंने अपने हल से यमुना के दो भाग किए थे।
⋙ यमुनोत्तरी
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय में गढ़वाल के पास का एक पर्वत जिससे यमुना नदी निकाली है।
⋙ यमेरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक घड़ियाल या ब़ड़ी झाँझ जो प्राचीन काल में एक घड़ी पूरी होने पर बजाई जाती थी।
⋙ यमेश
संज्ञा पुं० [सं०] भरणी नक्षत्र।
⋙ यमेश्वर
सज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ ययाति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा नहुप के पुत्र जो चंद्रवंश के पाँचवें राजा थे और जिनका विवाह शुक्रचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था। विशेष— इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अणु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे। विशेष दे० 'देवयानी'। इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से पौरव वंश का आरंभ हुआ। शर्मिष्ठा इन्हों विवाह के दहेज में मिली थी। शुक्रचार्य ने इन्हें यह कह दिया था कि शर्मिष्ठा के साथ संभेग न करना। पर जब शर्मिष्ठा ने ऋतु- मती होने पर इनसे ऋतुरक्षा की प्रार्थना की, तब इन्होंने उसके साथ संभोग किया और उसे संतान हुई। इसपर शुक्रचार्य ने इन्हों शाप दिया कि तुम्हें शीघ्र बुढापा आ जायगा। जब इन्होने शुक्राचार्य को सभोग का कारण बतलाया, तब उन्होंने कहा कि यदि कोई तुम्हारा बुढ़ापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यों के त्यों हो जाओगो। इन्होंने एक एक करके अपने चारों पुत्रों से कहा कि तुम हमारा बुढ़ापा लेकर अपना यौवन हमें दे दो पर किसी ने स्वीकार नही किया। अंत में पुरु ने इनका बुढ़ापा आप ले लिया और अपनी जवानी इन्हें दे दी। पुनः यौवन प्राप्त करके इन्होंने एक सहस्र वर्ष तक विषयसुख भोग। अंत में पुरु को अपना राज्य देकर आप वन में जाकर तपस्या करने लगे और अंत में स्वर्ग चले गए। स्वर्ग पहुँचने पर भी एक बार यह इंद्र के शाप से वहाँ से च्युत हुए थे; क्योंकि इन्होंने इंद्र से कहा था कि जैसी तपस्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नहीं की। जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग में इन्हें अष्टक ऋषियों ने रोककर फिर से स्वर्ग भेजा था। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी आया है।
⋙ ययातिपतन
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ ययावर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यायावर'।
⋙ ययि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वमेध यज्ञ के उपयुक्त अश्व। २. मेघ। बादल। दे० 'ययी' [को०]।
⋙ ययी
संज्ञा पुं० [सं० ययिन्] १. शिव। २. घोड़ा। ३. मार्ग। पथ। रास्ता। ४. 'ययि'।
⋙ ययु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा। २. घोड़ा।
⋙ यरकान
संज्ञा पुं० [अ० यरकान] एक रोग जिसमें शरीर, विशेपतः आँखें पीली हो जाती है। कमल रोग। पीलिया [को०]।
⋙ यल पु †
संज्ञा स्त्री० [सं०इला] पृथिवी। धरती [को०]।
⋙ यलधीश, यलनाथ
संज्ञा पुं० [सं० इला+अधीश] राजा (डिं०)।
⋙ यला
संज्ञा स्त्री० [सं० इला] पृथ्वी।(डिं०)।
⋙ यलाइंद
संज्ञा पुं० [सं० इला+इन्द्र] राजा। (डिं०)।
⋙ यलापत
संज्ञा पुं० [सं० इला+पति] राजा। (ड़ि०)।
⋙ यव
संज्ञा पुं० [सं०] १. जौ नामक अन्न। विशेष दे० 'जौ'। २. एक जौ या १२ सरसों की तौल का एक मान। ३. लंबाई कीएक नाप जो एक इंच की एक तिहाई होती है। ४. सामुद्रिक के अनुसार जौ के आकार की एक प्रकार की रेखा जो उँगली में होती है और जो बहुत शुभ मानी जाती है। कहते हैं, यदि यह रेखा अँगूठे में हो, तो उसका फल और भी शुभ होता है। इस रेखा का रामचंद्र के दाहिने पैर के अँगूठे में होना माना जाता है। ५. वेग। तेजी। ६. वह वस्तु जो दोनों ओर उन्नतोदर हो।
⋙ यवकंटक
संज्ञा पुं० [सं० यवकण्टक] खेतपापड़ा।
⋙ यवक
संज्ञा पुं० [सं०] जौ।
⋙ यवकलश
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रजौ।
⋙ यवक्य
वि० [सं०] यव बोने के उपयुक्त (खेत)। जिसमें जो बोया हो [को०]।
⋙ यवक्रीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जो भरद्वाज के पुत्र थे।
⋙ यवक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ यवक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] जौ के पौधों को जलाकर निकाला हुआ खार। विशेष दे० 'जवाखार'।
⋙ यवचतुर्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख शुक्ला चतुर्थी।
⋙ यवज
संज्ञा पुं० [सं०] १. यवक्षार। २. गेहूँ का पौधा। ३. अजवायन।
⋙ यवतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंखिनी नाम की लता।
⋙ यवदोष
संज्ञा पुं० [सं०] जौ के आकार की एक देखा, जो रत्नों में पड़ जाती है और जिसमे वह रत्न कुछ दूषित हो जाता है।
⋙ यवद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] वर्तमान जावा द्वीप का प्राचीन नाम।
⋙ यवन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० यवनी] १. वेग। तेजी। २. तेज घोड़ा। ३. यूनान देश का निवासी। यूनानी। विशेष— यूनान देश में 'आयोनिया' नामक प्रांत या द्वीप है, जिसका लगाव पहले पूर्वीय देशों से बहुत अधिक था। उसी के आधार पर भारतवासी उस देश के निवासियों को, और तदु- परांत भारत में यूनानियों के आने पर उन्हें भी 'यवन' कहते थे। पीछ से इस शब्द का अर्थ और भी विस्तृत हो गया और रोमन, पारसी आदि प्रायः सभी विदेशियों, विशेषतः पश्चिम से आनेवाले विदेशियों का लोग 'यवन' ही कहने लगे; और इस शब्द का प्रयोग प्रायः 'म्लेच्छ' के अर्थ में होने लगा। परंतु महाभारत काल में यवन और म्लेच्छ यो दोनों भिन्न भिन्न जातियाँ मानी जाती थी। पुराणों के अनुसार अन्यान्य म्लेच्छ जातियों (पारद, पह्लव आदि) के समान यवनों की उत्पत्ति भी वसिष्ठ और विश्ववमित्र के झुगडे़ के समय वसिष्ठ की गाय के शरीर से हुई थी। गाय के 'योनि' देश से यवन उत्पन्न हुए थे। ४. मुसलमान। उ०— भूषण यों अवनी यवनी कहँ कोऊ कहै सरजा सो हहारे। तू सबको प्रतिपालनहार बिचारे भतार न मारु हमारे।—भूषण (शब्द०)। ५. कालयवन नामक म्लेच्छ राजा जो कृष्ण से कई बार लड़ा था।
⋙ यवनद्विष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल। गुगुल [को०]।
⋙ यवनप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च।
⋙ यवानाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] यवन जाति का एक ज्योतिषाचार्य, जिसका उल्लेख वराहमिहिर आदि ने किया है। विद्वानों का अनुसार है कि यह संभवतः 'टालेमी' था।
⋙ यवनानी (१)
वि० [सं०] यवन देश संबंधी। यूनान का। यूनानी।
⋙ यवनानी (२)
संज्ञा स्त्री० १. यूनान की भाषा। २. यूनान की लिपि। विशेष— कात्यायन ने यवनानी लिपि का उल्लेख किया है।
⋙ यवनारि
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण, जिनकी कालयवन से कई लड़ाइयाँ हुई थी।
⋙ यवनाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुआर का पौधा। २. इस पौधे से उप्तन्न अन्न के दाने। जुआर। ३. जौ के डंठल जो सूखने पर चौपायों के खिलाए जाते हैं।
⋙ यवनालज
संज्ञा पुं० [सं०] यवक्षार। जवाखार।
⋙ यवनाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] मिथिला देश के एक प्राचीन राजा का नाम जो बुहलाश्व का पिता था।
⋙ यवनिका
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनात। २. नाटक का परदा। विशेष— प्राचीन काल में नाटक के परदे संभवतः यवन देश मे आए हुए कपड़े से बनते थे, इसीलिये इनको यवनिका कहते थे। आधुनिक अनेक पंडितों के शोधानुसार शुद्ध संस्कृत शब्द 'जवनिकी' है। 'राजशेखर' की 'कर्पूरमंजरी' में प्रयुक्त 'जवनिकांतर' के संस्कृतीकरण की भ्रांति से 'यवनिका' शब्द बना और चल पड़ा। इसका यवन शब्द से संबंध नहीं मानते।
⋙ यवनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यवन की या यवन जाति की स्त्री।
⋙ यवनेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीसा। २. मिर्च। ३. लहसुन। ४. नीम। ५. प्याज। ६. शलजम। ७. गाजर।
⋙ यवनेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली खजूर।
⋙ यवफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्रिजौ। २. कुटज। ३. प्याज। ४. जटामासी। ५. बाँस। ६. प्लक्ष वृक्ष। पाकड़ का पेड़।
⋙ यवबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० यवविन्दु] वह हीरा जिसमें बिंदु सहित यवरेखा हो। कहते हैं ऐसा हीरा पहनने से देश छूट जाता है।
⋙ यवमंड
संज्ञा पुं० [सं० यवमण्ड] जौ का माँड़ जो नए ज्वर के रोग को पथ्य के रूप में दिया जाता है। वैद्यक के अनुसार यह लघु, ग्राहक और शूल तथा त्रिदोष का नाशा करनेवाला है।
⋙ यवमंथ
संज्ञा पुं० [सं० यवमन्थ] जौ का सत्तू।
⋙ यवमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके विषम चरणों में रगण, जगण, जगण होते और सम चरणों में जगण, रगण और एक गुरु होता है। जैसे,— त्यागि दे सबै जु है, असत्य काम। सुधार जन्म आपनों न भूल राम।
⋙ यवमद्य
संज्ञा पुं० [सं०] जौ का बनाया हुआ मद्य। जौ की शराब।
⋙ यवमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चांद्रायण व्रत। २. पाँच दिनों मे समाप्त होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक प्रकार का नगाड़ा (को०)। ४. एक नाप (को०)।
⋙ यवलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी जिसका मांस, सुश्रुत के अनुसार, मधुर, लघु शोतल और कसंला हिता है।
⋙ यवलास
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार।
⋙ यववर्णाभ
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
⋙ यवशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार मधुर, रूखा, शीतवीर्य और मलभेदक माना जाता है।
⋙ यवशक
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार।
⋙ यवश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का श्राद्ध जो वैशाख के शुक्ल पक्ष में कुछ विशिष्ट दिनों और योगों में और विषुव संक्रांति अथवा तृतीया के दिन होता है और जिसमें केवल जौ के आटे का व्यवहार होता है।
⋙ यवस
संज्ञा पुं० [सं०] भूसा।
⋙ यवसुर
संज्ञा पुं० [सं०] जौ की शराब।
⋙ यवागू
संज्ञा पुं० [सं०] जौ या चावल का वह माँड़ जो सड़ाकर कछु खट्टा कर दिया गया हो; अर्थात् जिसमें कुछ खमीर आ गया हो। माँड़ की काँजी। विशेष— इसका व्यवहार वैद्यक में पथ्य के लिये होता है; और यह ग्राहक, बलकारक तथा वातनाशक माना जाता है।
⋙ यवाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] जौ का भूसा।
⋙ यवाग्रज
संज्ञा पुं० [सं०] १. यवक्षार। २. अजवायन।
⋙ यवान
वि० [सं०] वेगवान्। तेज। क्षिप्र।
⋙ यवानिका, यवानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजवायन।
⋙ यवान्न
संज्ञा पुं० [सं०] यव, जो पकाया गया हो [को०]।
⋙ यवाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] जौ की काँजी जी वैद्यक में वात और श्लेष्मानाशक, रक्तवर्धक, भेदक तथा रक्तदोपननाशक मानी जाती है।
⋙ यवाश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा जो जौ की फसल को हानि पहुँचाता है।
⋙ यवास, यवासक, यवासा
संज्ञा पुं० [सं०] जवासा नासक काँटेदार क्षुप। वि० दे० 'जवासा'।
⋙ यवाह्व
संज्ञा पुं० [सं०] यवक्षार। यवनालज [को०]।
⋙ यविष्ठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा भाई। २. अग्नि। ३. ऋवेद के एक मंत्र का द्रष्टा ऋषि का नाम जिन्हें आग्नयविष्ट भी कहते हैं।
⋙ यविष्ठ (२)
वि० [सं०] सब से छोटा। कनिष्ठ।
⋙ यवानर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार अजमीढ़ के एक पुत्र का नाम। २. भागवत के अनुसार द्विमीढ़ के एक पुत्र का नाम।
⋙ यवीयान् (१)
वि० [सं० ययवीस] [वि० स्त्री० यवीयसी] १. सब से छोटा। लघुतम। कनिष्ठतम। २. हीन। निम्न।
⋙ यवीयान् (२)
संज्ञा पुं० १. छोटा भाई। सबसे छोटा भाई। २. शूद्र [को०]।
⋙ यवोद् भव
संज्ञा पुं० [सं०] यवक्षार। जवाखार।
⋙ यव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मास। महीना। २. यव का खेत। यवक्य क्षेत्र [को०]।
⋙ यव्यावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल की एक नदी। २. वैदिक काल की एक नगरी।
⋙ यशःपटह
संज्ञा पुं० [सं०] कीर्ति का घौंसा। यश की दुंदुभी [को०]।
⋙ यशःशेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु। मौत। २. वह जिसका यश हो बचा हो, मृत व्यक्ति [को०]।
⋙ यश
संज्ञा पुं० [सं०यशस्] १. अच्छा काम करने से होनेवाला नाम। नेकनामी। कीर्ति। सुख्यति। उ०—(क) यश अपयश देखत नहीं देखत श्यामल गात।— बिहारी (शब्द०)। (ख) रक्षहु मुनि जन यश लीजै।—केशव (शब्द०)। (ग) हा पुत्र लक्ष्मण छुड़ावहु बेगि मोहीं। मार्तड़वश यश की सब लाज तोहीं।— केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना। मुहा०—यश कमाना या लूटना=यश वा कीर्ति प्रप्त करना। नाम हासिल करना। २. बड़ाई। प्रशंसा। महिमा। मुहा०—यश गाना=(१) प्रशंसा करना। (२) कृतज्ञ होना। एहसान मानना। यश मानना=कृतज्ञ होना। निहोरा मानना। एहसान मानना।
⋙ यशद
संज्ञा पुं० [सं०] एक धातु। जस्ता। दस्ता [को०]।
⋙ यशब, यशम
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का पत्थर जो हरा सा होता है। विशेष— यह चीन और लंका में बहुत होता है। इस पत्थर की 'नार्दली' बनती है, जिसे लोग छाती पर पहनते हैं। कलेजे, मेदे और दिमाग की बीमारियों की दूर करने का इस पत्थर में विलक्षण प्रभाव माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि जिसके पास यह पत्थर होता है, उसपर बिजली का कुछ प्रभाव नहीं होता। इसे 'संगे यशब' भी कहते हैं।
⋙ यशस्कर
वि० [सं०] कीर्ति बढ़ानेवाला।
⋙ यशस्काम
वि० [सं०] १. यश का इच्छुक। २. महत्वाकांक्षी [को०]।
⋙ यशस्य
वि० [सं०] १. यशकारी। यशस्कर। कीर्तिकारी। २. प्रसिद्ध। श्रेष्ठ [को०]।
⋙ यशस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती नामक पौधा [को०]।
⋙ यशस्वान्
वि० [सं० यशस्वत] [वि० स्त्री० यशस्वती] यशस्वी। कीर्तिमान।
⋙ यशस्विनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनकपास। २. महा ज्य़ोतिष्मती। ३. गंगा नदी।
⋙ यशस्विनी (२)
वि० स्त्री० जिसे यशः प्राप्त हो। कीर्तिमती।
⋙ यशस्वी
वि० [सं० यशस्विन्] [वि० स्त्री० यशस्विनी] जिसका खूब यश हो। कीर्तिमान।
⋙ यशी
वि० [सं० यश+ई (प्रत्य०)] यशस्वी। कीर्तिमान्। उ०—ये जो पाँचो पुत्र तम्हारे हैं, सो महाबली यशी होगी।—लल्लू० (शब्द०)।
⋙ यशीले पु ‡
वि० [सं० यश+ईल (प्रत्य०)] कीर्तिमान्। यशस्वी। उ०— अंबर चित्र विचित्र बिराजत आयो सुशील यशील सभा में।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ यशुमति
संज्ञा स्त्री० [सं० यशोवती] दे० 'यशोदा'।
⋙ यशोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। पारद। २. वह जो कीर्तिप्रद हो [को०]।
⋙ यशोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नंद की स्त्री जिन्होंने श्रीकृष्ण को पाला था। विशेष दे० ' नंद'। २. दिलीप की माता का नाम। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक जगण और दो गुरु वर्ण होते है। जैसे, जपौ गुपाला। सुभीर काला। कहँ यशोदा। लहै प्रमोदा।
⋙ यशोधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न कृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. उत्सर्पिणी के एक अर्हत् का नाम। (जैन)। ३. कर्म अथवा सावन मास का पाँचवा दिन।
⋙ यशोधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गौतम बुद्ध की पत्नी और राहुल की माता का नाम। २. कर्म अथवा सावन मास की चौथी रात।
⋙ यशोधरेय
संज्ञा पुं० [सं०] यशोधरा का पुत्र, राहुल।
⋙ यशोभृत्
वि० [सं०] यशी। प्रसिद्ध। ख्यात [को०]।
⋙ यशोमति, यशोमती
संज्ञा स्त्री० [सं० यशोवती] दे० 'यशोदा'।
⋙ यशोमत्य
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेयपुराण के अनुसार एक जाति का नाम।
⋙ यशोमाधव
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ यशोहर
वि० [सं०] कर्ति का अपहरण करनेवाला [को०]।
⋙ यष्टव्य
वि० [सं०] यज्ञ करने योग्य [को०]।
⋙ यष्टा
वि० पुं० [सं० यष्ठृ] यज्ञकर्ता। यजन करनेवाला [को०]।
⋙ यष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाठी। छड़ी। लकड़ी। २. पताका का डंडा। ध्वज। ३. टहनी। शाखा। डाल। ४. जेठी मघु। मुलेठी। ५. ताँत। ६. गले में पहनने का एक प्रकार का मोतियों का हार। ७. लता। बेल। ८. बाहु। बाहँ। ९. ऊख। इक्षु (को०)।
⋙ यष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीतर पक्षी। २. डंड़ा। ३. मजीठ।
⋙ यष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथ में रखने की छड़ी। लकड़ी। लाठी। २. जेठी मधु। मुलेठी। ३. बावली। वापी। ४. गले में पहनने का हाप। यष्टी।
⋙ यष्टिकाभरण
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार जल को ठंढा करने का उपाय।
⋙ यष्टिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] यष्टिधारी। दंड धारण करनेवाला [को०]।
⋙ यष्टिप्राण
वि० [सं०] जिसका यष्टि ही आधार हो। क्षीण शरीर। अतीव दुर्बल [को०]।
⋙ यष्टिमधु
संज्ञा पुं० [सं०] जेठी मधु। मुलेठी।
⋙ याष्टियंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यष्टियन्त्र] वह धूपघड़ी जिसमें एक छड़ी सीधी खड़ी गाड़ दी जाती है और उसकी छाया से समय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
⋙ यष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। मोतियों की ऐसी माला जिसमें बीच बीच में मणि भी हो। २. मुलेठी।
⋙ यस्क
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ यह
सर्व० [सं० यः (पुं०) या एपः] निकट की वस्तु का निर्देश करनेवाला एक सर्वानाम, जिसका, प्रयोग वक्ता और श्रोता को छोड़कर और सब मनुष्यों, जीवों तथा पदार्थो आदि के लिये होता है। जैसे,— (क) यह कई दिनों से बीमार है।(ख) यह तो अभी चला जायगा। विशेष— (क) जब इसमें विभक्ति लगाती है, तब 'यह' का रूप खड़ी बोली में 'इसी' (बहुव० इन) और ब्रजभाषा में 'या' हो जाता है। जैसे, इसको, (इनको) याकों (ख) पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों की भाँति इसका प्रयोग प्रायः विशेषण के समान होता है। जब 'यह' अकेला रहता है, तब तो सर्वनाम होता है; और जब इसके साथ कोई संज्ञा आती है, तब यह विशेषण हो जाता है। जैसे,—'यह बाहर जायगा' में यह सर्वनाम है; और 'यह लड़का पाजी है' में 'यह' विशेषण' है।
⋙ यहाँ
क्रि० वि० [सं० इह] इस स्थान में। इस जगह पर।
⋙ यहि
सर्व०, वि० [हिं० यह] १. 'यह' का वह रूप जो पुरानी हिंदी में उसे कोई विभक्ति लगने के पहले प्राप्त होता है। जैसे, यहि कों, यहि तें। २. 'ए' का विभक्तियुक्त रूप, जिसका व्यवहार पीछे कर्म और संप्रदान में ही प्रायः होने लगा। इसको।
⋙ यही
अव्य० [हिं०यह+ही (प्रत्य०)] निश्चित रूप से यह। यह ही। उ०— यही गोप यह ग्वाल इहै सुख, यह लीला कहुँ तजत न साथ।—सूर (शब्द०)।
⋙ यहूद
संज्ञा पुं० [इब्रानी] वह देश जहाँ हजरत ईसा पैदा हुए थे और जहाँ के निवासी यहूदी कहलाते हैं। यह देश एशिया कों पश्चिमी सीमा पर है।
⋙ यहूदी
संज्ञा पुं० [हिं० यहूद] [स्त्री० यहूदिन] १. यहूद देश का निवासी। २. आर्य जाति से भिन्न शामी जाति के अंतर्गत एक जाति।
⋙ यहूयहू
संज्ञा पुं० [देश०] कबूतर की एक जाति।
⋙ यांचा
संज्ञा स्त्री० [सं० याञ्चा] दे० 'याँचा'।
⋙ यांत्रिक
वि० [सं० यान्त्रिक] [वि० स्त्री० यान्त्रिकी] १. यंत्र संबंधी। मशीन वा औजार संबंधी।। २. यंत्र। द्वारा निर्मित। यंत्र द्वारा उत्पादित। ३. कृत्रिम। बनावटी। नकली।
⋙ यांत्रिकी
संज्ञा स्त्री० [सं० यान्त्रिकी] यंत्र विद्या। इंजीनियरी।
⋙ याँ †
क्रि० वि० [हिं०] 'यहाँ'। उ०— (क) याँ नभ्र भाव ही से जाना मेरे मन भाया है।—प्रतापनाराय मिश्र (शब्द०)। (ख)फड़कता है क्यों हाथ दहना। याँ तपोवन में क्या होगा लहना।—प्रतापनारायण भिश्र (शब्द०)।
⋙ याँचना पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० याञ्चा] दे० 'याचना'।
⋙ याँचना (२)
क्रि० सं० दे० 'याचना'।
⋙ याँचा
संज्ञा स्त्री० [सं० याञ्चा] माँगने की क्रिया। प्रार्थनापूर्वक माँगना।
⋙ या (१)
अव्य० [फा०] विकल्पसूचक शब्द। अथवा। वा। उ०— आप रहा है सीस नवाय। या प्रवाह ने दिया झुकाय।—प्रताप- नारायण मिश्र (शब्द०)।
⋙ या (२)
सर्व० वि० [हिं०] 'यह' का वह रूप जो उसे व्रज भाषा में कारक चिह्न लगने के पहले प्राप्त होता है। उ०—(क) या चौदहें प्रकास मे ह्वैहै लंका दाह।— केशव (शब्द०)। (ख) चलौ लाल या बाग में लखी अपूरब केलि।— मतिराम (शब्द०)।
⋙ या (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योनि। २. गति। चाल। ३. रथ। गाड़ी। ४. अवरोध। रोक। वारण। ५. ध्यान। ६. प्राप्ति। लाभ।
⋙ याक (१)
संज्ञा पुं० [तिब्बती, ग्याक, सं० गावक] हिमालय पर होनेवाला जंगली बैल जिसकी पूँछ का चँवर बनता है।
⋙ याक † (२)
वि० [हिं० एक, फा० यक] दे० 'एक'। उ०—(क) कोऊ याकौ बात न समुझै चाहै बीसन दाँय कहन।—प्रतापनारायण मिश्र (शब्द०)। (ख) डाढ़ी नाक याक माँ मिलिगै, बिनु दाँतन मुँह अस पोपलान।— प्रतापनारायण मिश्र (शब्द०)।
⋙ याकूत
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का लाल रंग का बहुमूल्य पत्थर। लाल।
⋙ याग
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ। उ०— योग याग व्रत दान जो कीजै।— केशव (शब्द०)।
⋙ यागसंतान
संज्ञा पुं० [सं० यागसन्तान] इंद्र के पुत्र जयंत का एक नाम।
⋙ याचक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो माँगता हो। माँगनेवाला। उ०— (क) चातक ज्यौं कार्तिक के मेघ तें निराश होत, याचक त्यों तजत आस कृपण के दान की।—हृदयराम (शब्द०)। (ख) जनि याँचै ब्रजपति उदार अति याचक फिरि न कहावै।— केशव (शब्द०)। २. भिखमंगा। यौ०—याचकवृत्ति।
⋙ याचकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भीख माँगने का काम [को०]।
⋙ याचन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'याचना' [को०]।
⋙ याचनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिक्षुक। २. निवेदक। वह जो विवाह के लिये कन्या की याचना करे [को०]।
⋙ याचना (१)
क्रि० सं० [सं० याचन] प्राप्त करने के लिये विनती करना। प्रार्थना करना। माँगना।
⋙ याचना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] माँगने की क्रिया।
⋙ याचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० √ याच्] किसी निर्वाचन या निर्णय के विरुद्ध न्यायालय से की हुई प्रार्थना।(अँ० पिटीशन)।
⋙ याचित
वि० [सं०] माँगा हुआ। प्रार्थित [को०]।
⋙ याचितक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी से कुछ दिन के लिये माँगी हुई वस्तु। मँगनी की चीज। विशेष—चाणक्य ने लिखा है कि माँगे हुए पदार्थ को जो न लौटावे, उसपर १२ पण जुरमाना किया जाय।
⋙ याचिता
संज्ञा पुं० [सं० याचितृ] १. भिक्षुक। २. आवेदक। निवेदक। ३. पाणिग्रहार्थी। विवाहार्थी [को०]।
⋙ याचिष्णु
वि० [सं०] १. भीख माँगने का इच्छुक। २. भीख माँगने का अभ्यस्त [को०]।
⋙ याचिष्णुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भीख माँगने की इच्छा। २. भीख माँगने की प्रकृति [को०]।
⋙ याच्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] याचना। माँगना।
⋙ याच्य
वि० [सं०] याचना करने के योग्य। माँगने के योग्य।
⋙ याच्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रार्थनीयता [को०]।
⋙ याज्
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ करानेवाला। याजक।
⋙ याज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न। अनाज। २. पका हुआ चावल (को०)। ३. यज्ञ करानेवाला (को०)। ४. एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ याजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करानेवाला। २. राजा का हाथी। ३. मस्त हाथी।
⋙ याजन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ की क्रिया।
⋙ याजयिता
सं० पुं० [सं० याजयितृ] यज्ञकर्ता का स्थानापन्न पुरोहित [को०]।
⋙ याजि
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ करनेवाला।
⋙ याजी
संज्ञा पुं० [सं० याजिन्] यज्ञ करनेवाला।
⋙ याजुष (१)
वि० [सं०] [स्त्री० याजुषी] यजुर्वेद संबंधी।
⋙ याजुष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजुर्वेदानुयायी। २. तीतर नाम का पक्षी [को०]।
⋙ याजुषीअनुष्टुष्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें सब मिलाकर आठ वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीउष्णिक्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें सात वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीगायत्ती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें छह वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीजगत्ती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें बारह वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीजिष्टुप्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें ग्यारह वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीपंक्ति
संज्ञा पुं० [सं० याजुषी पङ्क्ति] एक वैदिक छंद जिसमें दम वर्ण होते हैं।
⋙ याजुषीबृहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक छंद जिसमें नौ वर्ण होते हैं।
⋙ याज्ञ
वि० [सं०] यज्ञ संबंधी। यज्ञ का।
⋙ याज्ञतूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ य़ाज्ञदत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर।
⋙ याज्ञवल्क्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध ऋषि जो वैशंपायन के शिष्य थे। विशेष— कहते हैं, एक बार वैशंपायन ने किसी कारण से अप्रसन्न होकर इनसे कहा कि तुम मेरे शिष्य होने के योग्य नहीं हो; अतः जो कुछ तुमने मुझसे पढ़ा है, वह सब लौटा दो। इस पर याज्ञवल्क्य ने अपने सारी पढ़ी हुई विद्या उगल दी, जिसे, वैशंपायन के दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर चुग लिया। इसीलिये उनकी शांखाओं का नाम तैत्तिरिया हुआ। याज्ञवल्वय ने अपने गुरु का स्थान छोड़कर सूर्य की उपासना की और सूर्य के वर से वे शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी सहिता के आचार्य हुए। इनका दूसरा नाम वाजसनेय भी था। २. एक ऋषि जो राजा जनक के दरबार में रहते थे और जो योगीश्वर याज्ञवल्कय के नाम से प्रसिद्ध है। मंत्रेधी और गार्गी इन्हीं की पत्नियाँ थी। ३. योगीश्वर याज्ञवल्क्य के वंशधर एक स्मृतिकार। मनुस्मृति के उपरांत इन्हीं के स्मृति का महत्व हैं; और उसका दायभाग आज तक प्रमाण माना जाता है।
⋙ याज्ञसेन
संज्ञा पुं० [सं०] शिखडी का एक नाम जो द्रौपदी का भाई था [को०]।
⋙ याज्ञसेनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रौपदी का एक नाम।
⋙ याज्ञिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करने या करानेवाला। २. गुजराती आदि ब्राह्मणी की एक जात। ३. कुशा (को०)। ४. पीपल, खैर, पलाश आदि अनेक वृक्षों का नाम (को०)। ५. यजमान (को०)।
⋙ याज्ञिय
वि० [सं०] १. यज्ञ संबंधी। २. यज्ञ के योग्य।
⋙ याज्य
वि० [सं०] १. यज्ञ कराने योग्य। २. जो यज्ञ में दिया या चढ़ाया जानेवाला हो। ३. (दक्षिणा) जो यज्ञ कराने से प्राप्त हो।
⋙ याज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा नदी। २. यज्ञसंबंधी सृक्त अथवा मंत्र [को०]।
⋙ यातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिशोध। बदला। २. पारितोषिक। इनाम।
⋙ यातना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुत अधिक कष्ट। तकलीफ। पीड़ा। उ०— कोरि कोरि यातनानि फोरि फोरि मारिए।—केशव (शव्द०)। २. दंड की वह पीड़ा जो यमलोक में भोगनी पड़ती है।
⋙ यातव्य
वि० [सं०] १. (ऐसा शत्रु) जो पास होने के कारण चढ़ाई के योग्य हो। २. जिसपर चढ़ाई की जानेवाली हो।
⋙ याता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यातृ] पति के भाई का स्त्री। जेठानी वा देवरानी। उ०—सास ननँद यातान कों आई नीठि सुवाय। अब आली घर गवन की सुधि आए सुधि जाय।— मतिराम (शब्द०)।
⋙ याता (१)
संज्ञा पुं० १. जानेवाला। २. रथ चलानेवाला। सारथी। ३. मार डालनेवाला। हत्या करनेवाला।
⋙ यातायात
संज्ञा पुं० [सं०] गमनागमन। आना जाना। आमदरफ्त।
⋙ यातिक
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रिक। यात्रा करनेवाला [को०]।
⋙ यातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. आनेवाला। २. रास्ता चलनेवाला। पथिक। ३. राक्षस। ४. काल। ५. वायु। हवा। ६. यातना। कष्ट। ७. हिंसा। ८. अस्त्र।
⋙ यातुघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल।
⋙ यातुधान
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस। उ०— पक्षिराज यक्षराज थ्रेतराज यातुघान। देवता अदेवता नृदेवता जिते जहान।— केशव (शब्द०)।
⋙ यातुनारी
सं० स्त्री० [सं०] भूतनी। पिशाची। राक्षसी [को०]।
⋙ यात्निक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का एक संप्रदाप।
⋙ यात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया। सकर। २. प्रयाण। प्रस्थान। ३. दर्शनार्थ देवस्थानों को जाना। तीर्थाटन। ४. उत्सव। ५. निर्वाह। व्यवहार। ६. बंग देश में प्राचलित एक प्रकार का अभिनय, जिसमें नाचना और गाना भी रहता है। यह प्राय रासलीला के ढग का होता है। ७. यात्रा करनेवालों का दल वा समूह (को०)। ८. मार्ग। राह (को०)। ९. समय बिताना। कालक्षेप करना (को०)। १. युद्ध यात्रा। चढ़ाई (कौटि०)।
⋙ यात्रावाल
संज्ञा पुं० [सं० यात्रा+हिं० वाल (प्रत्य०)] वह ब्राह्मण या पंडा जो तीर्थाटन करनेवाली को देवदर्शन कराता हो।
⋙ यात्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यात्रा का प्रयोजन। कहीं जाने का अभिप्राय या उद्देश्य। २. वह जो जीवन धारण करने के लिये उपयुक्त हो। ३. यात्री। पथिक। ४. तीर्थों की यात्रा करनेवाला। तीर्थयात्री (को०)। ५. उत्सव। मेला (को०)। ६. यात्रा की सामग्री। सफर का सामान।
⋙ यात्रिक (२)
वि० १. यात्रा संबंधी। यात्रा का। २. जो बहुत दिनों से चला आता हो। रीति के अनुसार। प्रंथानुकूल।
⋙ यात्री
संज्ञा पुं० [सं० यात्रिन्] १. एक स्थान से दूसरे स्थान की जानेवाला। यात्रा करनेवाला। मुसाफिर। २. देवदर्शन या तीर्था- टन के लिये जानेवाला।
⋙ याथातथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] यथातथ्य होने का भाव। यथार्थता। ठीकपन।
⋙ यथार्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] यथार्थ होने का भाव। यथार्थता।
⋙ यादःपति
संज्ञा पुं० [सं० यादस् (=जल)+पति] १. समुद्र। २. वरुण।
⋙ याद (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. स्मरण शक्ति। स्मृति। जैस,— आपकीयाद की मैं प्रशंसा करता हूँ। २. स्मरण करने की क्रिया। जैसे,— मैं अभी आपको याद ही कर रहा था। क्रि० प्र०—करना।—दिलान।—पड़ना।—रखना।—रहना।—होना।
⋙ याद (२)
संज्ञा पुं० [सं० यादस्] १. मछली, मगर आदि जलजंतु २. पानी (को०)। ३. नदी (को०)। ४. शुक्र। वीर्य (को०) ५. मनोरथ (को०)।
⋙ यादगार
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वह पदार्थ जो किसी की स्मृति के रूप में हो। स्मृतिचिह्न। स्मारक। २. संतात। संतान। पुत्र। बेटा। (को०)।
⋙ यादगारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वह पदार्थ जो किसी की स्मृति हो। स्मृतिचिह्न। २. दे० 'यादगार'।
⋙ याददाश्त
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. स्मरण शक्ति। स्मृति। जैसे,— आपकी याददाश्त बहुत अच्छी है। २. किसी घटना के स्मरणार्थ लिखा हुआ लेख। स्मरण रखने के लिये लिखी हुई काई बात।
⋙ यादासपति
संज्ञा पुं० [सं० यादासम्पति] वरुण। यादःपति।
⋙ यादसांनाथ
संज्ञा पुं० [सं० यादसाम् नाथ] दे० 'यादसापति'।
⋙ यादव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० यादवी] १. यदु के वंशज युदुवशी, यदुवशी क्षत्रिय। ३. अहीर जात का व्यक्ति ४. श्रीकृष्ण।
⋙ यादव (२)
वि० यदुसंबंधी।
⋙ यादवकोश
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के एक कोश का नाम जि/?/वैजयंती कोश भी कहते है।
⋙ यादवगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ यादवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यदुकुल की स्त्री। २. दुर्गा। ३. कु/?/का एक नाम (को०)।
⋙ यादु
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. कोई तरल पदार्थ।
⋙ यादृक्ष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० यादृक्षी] दे० 'यादृश' [को०]।
⋙ यादृक्षिक
वि० [सं०] [वि० यदृक्षिकी] १. अपन इच्छानुकूल करनेवाला। स्वेच्छाचारी। २. अप्रत्यशित। आकस्मिक ३. स्वतंत्र।
⋙ यादृच्छिक आधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिरवी रखी हुई वह चीज जो बीना ऋण चुकाए न लोटाई जा सके।
⋙ यादृश
वि० [सं०] [वि० स्त्री० यादृशी] जिस प्रकार का। जैस।
⋙ यादोनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यादःपति' [को०]।
⋙ याद्व
वि० [सं०] १. यदुवंशी। २. यदु संबंधी।
⋙ यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाड़ी, रथ आदि सवारी। वाहन। विमान। आकाशयान। ३. शत्रु पर चढ़ाई करना, जो राजा के छह गुणों में से एक कहाँ गया है। ४. गति। गमन। पथ। मार्ग। रास्ता [को०]। यौ०— यानकर=यान बनानेवाला। बढ़ई। यानपात्र=पोत जहाज। यानपात्रक, यानपात्रिका=छोटा यान। छोटा पोत छोटे नौका। यानभंग=प्रवहण या पोत का टुट जाना पोतभंग। यानमुख=पोत का अगला भाग। गेलही। यानयात्रा=समुद्र यात्रा (बौद्ध)।
⋙ यानक
संज्ञा पुं० [सं०] यान। वाहन। सवारी [को०]।
⋙ यानी, याने
अव्य० [अ०] तात्यर्य यह कि। मतलब यह कि। अर्थात्।
⋙ यापन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि०यापित, याप्य] १. चलाना। वर्तन। २. व्यतीत करना। बिताना। जैसे, कालायापन। ३. निरसन। निबटाना। ४. परित्याग। छोड़ना। हटाना। ५. मिटाना।
⋙ यापना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चलाना। हाँकना। २. कालक्षेप। दिन काटना। ३. वह धन जो किसी को जीविकानिर्वाह के लिये दिया जाय। ४. व्यवहार। बर्ताव।
⋙ यापनीय
वि० [सं०] यापन करने के योग्य। याप्य।
⋙ यापित
वि० [सं०] १. बिताया या व्यतीत किया हुआ। जैसे,— समय, काल। २. हटाया वा दूर किया हुआ [को०]।
⋙ याप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटा।
⋙ याप्य (१)
वि० [सं०] १. निंदनीय। निंदित। २. यापन करने के योग्य। यापानीय। क्षेपणीण। ३. छिपाने के योग्य। गोपनीय। आवरणीय। ४. रक्षा करने के योग्य। रक्षणीय।
⋙ याप्य (२)
संज्ञा पुं० वैद्यक के अनुसार वह रोग जो साध्य न हो, पर चिकित्सा से प्राणाघातक न होने पावे। ऐसा रोग जो अच्छा ती न हो, पर संयम द्वारा जिसका रोगी बहुत दिनों तक चला चले।
⋙ याफ्ता
वि० [फा० याफ्तह्] पाया हुआ। जिसे मिला हो। (समासांत में प्रयुक्त) जैस, खिताबयाफ्ता, सजायाफ्ता।
⋙ यावू
संज्ञा पुं० [फा०] वह घोड़ा जो डील डौल में बहुत बड़ा न हो। टट्टू।
⋙ याभ
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन।
⋙ याम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन घंटे का समय। पहर। २. एक प्रकार के देवगण। इनका जन्म मार्कडेय पुराण के अनुसार स्वायंभुव मनु के समय यज्ञ और दक्षिणा से हुआ था। ये संख्या में बारह हैं। ३. काल। समय। ४. नियंत्रण। संयम। रोक (को०)। ५. जाने का साधन, गाड़ी आदि (को०)। ६. गमन। जाना। ७. पथ। मार्ग (को०)। ८. प्रगति [को०]।
⋙ याम (२)
वि० [वि० स्त्री० यामी] यम संबंधी।
⋙ याम (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० यामि] रात। उ०— दोऊ राजत श्यामा श्याम। ब्रज युवती मंडली विराजत देखति सुरगन बाम। धन्य धन्य वृंदाबन को सुख सुरपुर कौने काम। धनि वृष- भानु सुता धनि मोहन धनि गोपिन को काम। इनकी को दासी सरि ह्लै है धन्य शरद की याम। कैसेहु सूर जनम ब्रज। पावै यह सुख नहिं तिहुँ धाम।—सूर (शब्द०)।
⋙ यामक
संज्ञा पुं० [सं०] पुनर्वसु नक्षत्र।
⋙ यामकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुलवधू। कुल स्त्री। २. लड़के की स्त्री। पुत्रवधू। ३. बहिन। भगिनी।
⋙ यामघोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्गा। २. वह घंटा या घड़ियाल जिसे समय सूचित करने के लिये बजाते हैं (को०)।
⋙ यामघोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह घंटा जो बीच बीच में समय की सूचना देने के लिये बजता हो। घड़ियाल।
⋙ यामनादी
संज्ञा पुं० [सं० यमनादिन्] मुर्गा। कुक्कुट [को०]।
⋙ यामनाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] समय बतलानेवाली घड़ी।
⋙ यामनेमि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ यामपाल
संज्ञा पुं० [सं०] समय निरीक्षण करनेवाला।
⋙ यामभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पटमंडप या खेमा [को०]।
⋙ यामल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे दो लड़के जो एक साथ उत्पन्न हुए हों। यमज संतान। जोड़ा। २. एक प्रकार का तंत्र ग्रंथ। विशेष— इन तंत्र ग्रंथों में सृष्टि, ज्योतिष, आख्यान, नित्यकृत्य, क्रमसूत्र, वर्णभेद, जातिभेद और युगधर्म का वर्णन होता है। ये ग्रंथ संख्या में छह हैं— आदि यामल, ब्रह्म यामल, विष्णु यामस, रुद्र यामल, गणेश यामल और अदित्य यामल।
⋙ यामवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। निशा।
⋙ यामाता
संज्ञा पुं० [सं० यामातृ] दे० 'जामाता'।
⋙ यामायन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो यम के गोत्र में उत्पन्न हुआ हो।
⋙ यामार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पहर का आधा भागा।
⋙ यामि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलवधू। कुलस्त्री। २. बहिन। भगिनी। ३. यामिनी। रात। ४. अग्निपुराण के अनुसार धर्म की एक पत्नी का नाम। इससे नागवीथी नामक कन्या उत्पन्न हुई थी। ५. पुत्री। कन्या। ६. पुत्रवधू। ७. दक्षिण दिशा। ८. यमयातना (को०)। ९. भरणी नामक नक्षत्र (को०)।
⋙ यामिका
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहरेदार। पहरुआ। चौकीदार। २. समय निरीक्षक। घड़ियाली (को०)।
⋙ यामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। रात्रि। २. हरिद्रा। हलदी (को०)।
⋙ यामित्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जामित्र'।
⋙ यामित्रवेध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जामित्रवेध'।
⋙ यामिन, यामिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यामिनी] दे० 'यमिनी'।
⋙ यामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। २. हलदी। ३. कश्यप की एक स्त्री का नाम। यौ०—यामिनीनाथ, यामिनीपति=चंद्रमा।
⋙ यामिनीचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। निशाचर। २. गुग्गुल। ३. उल्लू पक्षी।
⋙ यामीर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ यामीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात।
⋙ यामुंदायनि
संज्ञा पुं० [सं० यामुन्दायनि] यामुंद ऋषि के गोत्र में उत्पन्न अपत्य।
⋙ यामुन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० यामुनी] यमुना नदी संबंधी। जैसे, यामुन जल।
⋙ यामुन (२)
संज्ञा पुं० १. यमुना के किगारे बसनेवाले मनुष्य। २. एक पर्वत का नाम। ३. महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम ४. सुरमा। अंजन। ५. बृहस्तंहिता के अनुसार एक जनपद का नाम। यह जनपद कृत्तिका, रोहिणी और मृगशीर्ष के अधिकार में माना जाता है। ६. एक वैष्णव आचार्य का नाम। यामुनाचार्य। यामुन मुनि। विशेष— ये दक्षिण के रंगक्षित्र के रहनेवाले थे और रामानुजाचार्य के पूर्व हुए थे। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनके रचे हुए आगम प्रामाण्य सिद्धित्रय, भगवद् गीता की टीका भगवद्- गीता संग्रह और आत्ममंदिर स्तोत्र आदि ग्रंथ अवतक मिलते है। कुछ लोग इन्हें रामानुजाचार्य का गुरु बतलाते हैं।
⋙ यामुनेष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा।
⋙ यामेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहन का लड़का। भानजा। २. धर्म की पत्नी यामी के पुत्र का नाम।
⋙ याम्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन। २. शिव। ३. विष्णु। ४. अगस्त्य मुनि। ५. यमदूत। ६. भरणी। नक्षत्र (को०)।
⋙ याम्य (२)
वि० १. यम संबंधी। यम का। २. दक्षिण का। दक्षिणीय।
⋙ याम्यदिग्मवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तमालपत्री।
⋙ याम्यद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] सेमल का पेड़ा। शाल्मलिवृक्ष।
⋙ याम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षिण दिशा। २. भरणी नक्षत्र।
⋙ यम्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिणायन।
⋙ याम्योत्तर दिगंश
संज्ञा पुं० [सं०] लंबांश। दिगंश। (भूगोल, खगोल)।
⋙ याम्योत्तर रेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कल्पित रेखा जो किसी स्थान से आरंभ होकर सुमेरु और कुमेरु से होती हुई भूगोल के चारों ओर मानी गई हो। विशेष—पहले भारतीय ज्योतिषी यह रेखा उज्जयिनी या लंका से गई हुई मानते थे। पर अब लोग योरप और अमेरिका आदि के भिन्न भिन्न नगरों से गई हुई मानते हैं। आजकल बहुधा इस रेखा का केंद्र इंगलैंड का ग्रीनिच नगर माना जाता है।
⋙ यायावर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वमेध का घोड़ा। २. जरत्कारु मुनि। ३. मुनियों के एक गण का नाम। जरत्कारु जी इसी गण में थे। ४. एक स्थान पर न रहनेवाला साधु। सदा इधर उधर घूमता रहनेवाला संन्यासी। ५. यांचा। याचना। ६. वह ब्राह्मण जिसके यहाँ गार्हपत्य अग्नि बराबर रहती हो। साग्नि ब्राह्मण।
⋙ यायावर (२)
वि० सदा इधर उधर घूमनेवाला। सदा यहाँ वहाँ यात्रा करनेवाला। घुमंतू। जिसका कोई नियत स्थान न हो [को०]।
⋙ यायी
वि० [सं० यायिन्] [स्त्री० यायिनी] जानेवाला। जो जा रहा हो। गमनशील।
⋙ यार
संज्ञा पुं० [फा०] १. मित्र। दोस्त। उ०—(क) बाँका परदा खोलि के सनमुख लै दीदार। बास सनेही लाइयाँ आदि अंत का यार।— कबीर (शब्द०)। (ख) रह्यौ रुक्यौ क्यों हू सुचलि आधिक राति पधारि। हरतु ताप सब द्यौस को उर लगि यार बयारि।—बिहारी (शब्द०)। २. किसी स्त्री से अनुचित संबंध रखनेवाला पुरुष। उपपति। जार। ३. सहायक। साथी। हिमायती (को०)।
⋙ यारकंद
संज्ञा पुं० [तु० यार कंद (नगर)] एक प्रकार का बेलबूटा जो कालीन में बनाया जाता है।
⋙ यारबाश
वि० [फा०] चार दोस्तों में रहकर आनंदपूर्वक समय बितानेवाला। रसिक।
⋙ याराना
संज्ञा पुं० [फा० यारानह्] १. यार होने का भाव। मित्रता। मैत्री। २. स्त्री और पुरुष का अनुचित संबंध या प्रेम भाव। क्रि० प्र०—करना।—गठना।—रखना।—होना।
⋙ याराना
वि० मित्र का सा। मित्रता का। जैसे, याराना बर्ताव।
⋙ यारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. मैत्री। मित्रता। उ०— यारि फेरि के आय पै जरति न मोरे अंग। रूप रोसनी पै झपै नेही नैन पतंग।—रसनिधि (शब्द०)। २. स्त्री और पुरुष का अनुचित प्रेम या संबंध। क्रि० प्र०—गाँठना।—जोड़ना।
⋙ यार्कायन
संज्ञा पुं० [सं०] यर्क ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष या अपत्य।
⋙ याल
संज्ञा स्त्री० [तु०] घोड़े की गर्दन के ऊपर के लंबे बाल। अयाल। बाग।
⋙ याव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जौ का सत्तू। २. लाख। ३. महावर।
⋙ याव (२)
वि० १. यव से बनाया हुआ। जौ का। २. यव संबंधी। यव का।
⋙ यावक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जौ। २. यव या जौ का सत्तू। ३. वह वस्तु जो जौ से बनाई गई हो। ४. कुल्माष। बोरो धान। ५. साठी धान। ६. उड़द। माष। ७. लाख। ८. महावर।
⋙ यावत् (१)
वि० [सं०] १. जितना। विशेष— यह तावत् के साथ और उसले पहले आता है। २. सब। कुल।
⋙ यावत् (२)
क्रि० वि० १. जब तक। २. जहाँ तक।
⋙ यावन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लोबान।
⋙ यावन (२)
वि० [वि० स्त्री यावनी] यवन संबंधी। यवन का। जैसे, यावनी भाषा। यावनी सेना।
⋙ यावनक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल अंडी। रक्त एरंड।
⋙ यावनकल्क
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस।
⋙ यावनाल
संज्ञा पुं० [सं०] जुआर। मक्का।
⋙ यावनाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मक्के से बनाई हुई चीनी। ज्वार की शक्कर।
⋙ यावनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] करंकशालि नाम की ईख। रसाल।
⋙ यावनी (२)
वि० स्त्री० यवन संबंधी। जैसे, यावनी भाषा।
⋙ यावर
वि० [फा०] सहायक। मददगार।
⋙ यावरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] यावर का भाव या धर्म। मित्रता। मैत्री।
⋙ यावशूक
संज्ञा पुं० [सं०] यवक्षार। जवाखार।
⋙ यावस
संज्ञा पुं० [सं०] १. घास, डंठल आदि का पूला। जूरा। जौरा। २. भूसा। न्यार [को०]।
⋙ यावसिक
संज्ञा पुं० [सं०] घसियारा। घास काटनेवाला [को०]।
⋙ यावा (१)
संज्ञा पुं० [सं० यावन्] १. अश्वारोही। घुड़सवार। २. उपप्लवी। आक्रामक [को०]।
⋙ यावा (२)
संज्ञा स्त्री० [तुं० यावद्द्] १. अनर्गल। बेहूदा। २. अप्राप्य [को०]।
⋙ यावास
संज्ञा पुं० [सं०] यवास से बनाया हुआ मद्य। जवासे की शराब।
⋙ याविक
संज्ञा पुं० [सं०] मक्का नामक अन्न।
⋙ याविहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ विशेष [को०]।
⋙ यावी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शंखिनी। २. यवतिक्ता नाम की लता।
⋙ याष्टीक
संज्ञा पुं० [सं०] लाठी बाँधनेवाला योद्धा। लठबध। लठैत।
⋙ यास
संज्ञा पुं० [सं०] लाल धमासा।
⋙ यासमन, यासमीन, यासमून
संज्ञा स्त्री० [अं०] चमेली। नव- मल्लिका।
⋙ यासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोयल। २. मैना।
⋙ यासु
सर्व० [सं० यस्य] दे० 'जासु'।
⋙ यास्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. यस्क ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। २. बैदिक 'निरुक्त' नाम से प्रसिद्ध देव संबंधी निर्वचनपरक ग्रंथ के रचयिता एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम। निघटु के टीकाकार।
⋙ यास्कायनि
संज्ञा पुं० [सं०] यास्क के गोत्र उत्पन्न पुरुष।
⋙ याहि पु †
सर्व० [हिं० या+हि] इसको। इसे। उ०— जो यह मेरो बैरी कहियत ताको नाम पढ़ायो। देहु गिराय याहि पर्वत तें क्षण गतजीव करायो।— सूर (शब्द०)।
⋙ यियक्षमाण, यियक्षु
वि० [सं०] यज्ञ करने का अभिलाषी [को०]।
⋙ यियप्सु
वि० [सं०] भोद का इच्छुक। भोगी [को०]।
⋙ यियासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जाने की इच्छा [को०]।
⋙ यीशु
संज्ञा पुं० [लै० इसुस हिं० जेशुआ, जोशुआ; अ० जेसस; तुल० सं० ईश] ईसामसीह।
⋙ युंजान
संज्ञा पुं० [सं० युञ्जान] १. सारथी। २. विप्र। ३. दो प्रकार के योगियों में से वह योगी जो अभ्यास कर रहा हो, पर मुक्त न हुआ हो। कहते हैं कि ऐसा योगी समाधि लगाकर सब बातें जान लेता है।
⋙ युंजानक
संज्ञा पुं० [सं० युञ्जानक] युंजान नामक योगी। दे० 'युंजान'।
⋙ युक्त (१)
वि० [सं०] १. एक साथ किया हुआ। जुड़ा हुआ। किसी के साथ मिला हुआ। २. मिलित। संमिलित। ३. नियुक्त। मुकर्रर। ४. आसक्त। ५. सहित। संयुक्त। साथ। ६. संपन्न। पूर्ण। ७. उचित। ठीक। वाजिब। संगत। मुनासिब। यौ०—युक्तकर्म=किसी कार्य के लिये नियुक्त। युकचेना=योगा- म्यासी। योगयुक्त। युक्तचेष्ट=उचित व्यवहार करनेवाला। शिष्ट। युक्तदंड=न्यायपूर्ण या उचित दंड देनेवाला। युक्त- मना=दत्तचित। सावधान मन से। युक्तरथ। युक्तरसा। युक्तरूप।
⋙ युक्त (२)
संज्ञा पुं० १. वह योगी जिसने योग का अभ्यास कर लिया हो। विशेष— ऐसे योगी को, जो ज्ञानविज्ञान से परितृप्त, कूटस्य, जितेंद्रिय हो और जो मिट्ठी और सोने को तुल्य जानता हो, युक्त कहा गया है। २. रैवत मनु के पुत्र का नाम। ३. चार हाथ का एक मान।
⋙ युक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] जोड़ा। युग्म [को०]।
⋙ युक्तमना
वि० [सं० युक्तामनस्] सावधान। दत्तचित्त।
⋙ युक्तरथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक औषधयोग जिसका प्रयोग वस्तिकरण में होता है। भावप्रकाश में रेंड़ की जड़ के क्वाथ, मधु, तेल, सेंधा नमक, बच और पिप्पली के योग को युक्तरथ कहा है।
⋙ युक्तरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधरास्ना। गंधनाकुली। नाकुली कंद। २. रास्त्रा। रासन।
⋙ युक्तरूप
वि० [सं०] उचित। उपयुक्त। योग्य [को०]।
⋙ युक्तवादी
वि० [सं० युक्तवादिन्] उचितवक्ता। ठीका बात कहनेवाला।
⋙ युक्तश्रेयसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंध रास्ना। नाकुली कंद।
⋙ युक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एलापर्णो। २. एक वृत्त का नाम जिसमें दो नगण और एक मगण होता है।
⋙ युक्ताक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] संयुक्ताक्षर। संयुक्त वर्ण।
⋙ युक्तायस्
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक अस्त्र का नाम जो लोहे का होता था।
⋙ युक्तार्थ
वि० [सं०] ज्ञानी।
⋙ युक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपाय। ढ़ंग। तरकीब। २. कौशल। चातुरी। ३. चाल। रीती। प्रथा। ४. न्याय। नीति। ५. अनुमान। अंदाजा। ६. उपपत्ति। हेतु। कारण। ७. तर्क। ऊहा। ८. उचित विचार। ठीक तर्क। जैसे, युक्तियुक्त बात। ९. योग। मिलन। १०. एक अलंकार का नाम जिसमें अपने मर्म को छिपाने के लिये दूसरे को किसी क्रिया या युक्ति द्वारा वचित करने का वर्ण न होता है। जैसे,— लिखत रही पिय चित्र तहँ आवत लखि सखि आन। चतुर तिया तेहि कर लिखे फूलन के धनुवान। ११. केशव के अनुसार उक्ति का एक भेद जिसे स्वभावोक्त भी कहते हैं।
⋙ युक्तिकर
वि० [सं०] जो तर्क के अनुसार ठीक हो। उचित विचार- पूर्ण। युक्तिसंगत। युक्तियुक्त।
⋙ युक्तिनः
क्रि० वि० [सं०] १. चतुराई के साथ। दक्षता के साथ। २. उचित रूप से।
⋙ युक्तिपूर्ण
वि० [सं०] दे० 'युक्तिकर'।
⋙ युक्तिमान्
वि० [सं० युक्तिमत्] १. कुशल। प्रबुद्ध। २. तर्कित। विचारित। प्रमाणित। ३. मिलित [को०]।
⋙ युक्तियुक्त
वि० [सं०] उपयुक्त तर्क के अनुकूल। युक्तिसंगत। ठीक। वाजिब। जैसे,—आपकी सभी बातें बहुत ही युक्तियुक्त होती हैं।
⋙ युक्तिसंगत
वि० [सं० युक्तिसङ्गत] दे० 'युक्तियुक्त'।
⋙ युगधर
संज्ञा पुं० [सं० युगन्धर] १. कूबर। हरस। २. गाड़ी का बम। ३. एक पर्वत का नाम। ४. हरिवंश के अनुसार तूणि के पुत्र और सात्यकि के पौत्र का नांम। ५. अस्त्र के प्रयोग का एक मंत्र। योगंधर (को०)। ६. वह जो युग या जुआ को धारण करे (को०)।
⋙ युग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकत्र दो वस्तुएँ। जोड़ा। युग्म। २. जुआ। जुआठा। ३. ऋद्धि और वृद्धि नामक दो ओषधियाँ। ४. पुरुष। पुश्त। पीढ़ी। ५. पाँसे के खेल की वे गोल गोल गोटियाँ, जो बिसात पर चली जाती हैं। ६. पाँसे के खेल की वे दो गोटियाँ जो किसी प्रकार एक घर में साथ आ बैठती हैं। ७. पाँच वर्ष का वह काल जिसमें बृहस्पति एक राशि में स्थित रहता है। ८. समय। काल। जैसे, पूर्व युग। ९. पुराणानुसार काल का एक दीर्घ परिमाण। ये संख्या में चार माने गए हैं, जिनके नाम सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग हैं। दे० 'सत्ययुग' आदि। १०. चार की संख्या का वाचक शब्द (कहिं कहिं यह १२ का भी अर्थ देता है)। ११. चार हस्त की एक माप (को०)। मुहा०—युग युग=बहुत दिनों तक। अनंत काल तक। जैसे, युग युग जीओ। यौ०—युगकीलक। युगक्षय=युग का अंत या समाप्ति। युगचर्म। युगचेतना=युग में होनेवाला जागरण या युगविशेष की प्रवृत्ति। युगधर्म=समय के अनुसार चाल या व्यवहार। युगपत्र। युगपत्रिका। युगपुरुष। युगमानव। युगप्रतीक, आदि।
⋙ युग (२)
वि० जो गिनती में दो हो।
⋙ युगकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ या जुआठ में लगनेवाला चमड़ा [को०]।
⋙ युगति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० युक्ति] 'युक्ति'।
⋙ युगनद्ध
वि० [सं०] १. नर और नारी दोनों के रूपों से समन्वित। स्त्रीपुरुषमय। २. स्त्री पुरुष के सहवास की मुद्राओंवाला (चित्र या मूर्ति जो वज्रंयानी बौद्धों में प्रचलित था)। स्त्री पुरुष के आलिं- गनबद्ध जोड़ेवाला। उ०— शक्तियों सहित देवताओं के 'युगनद्ध' स्वरूप की भावना चली और उनकी नग्न मूर्तियाँ सहवास की अनेक अश्लील मुद्राओं में बनने लगीं, जो कहीं कहीं अब भी मिलती हैं।—इतिहास, पृ० ११।
⋙ युगप
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्व।
⋙ युगपत्
अव्य० [सं०] एक ही समय में। एक ही क्षण में। साथ साथ। जैसे,— मन की दो क्रियाएँ युगपत् नहीं हो सकतीं।
⋙ युगपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोविदार। कचनार। २. वह वृक्ष जिसमें दो दो पत्तियाँ आमने सामने निकलती हों। युग्मपर्ण। युग्मपत्र। ३. पहाड़ी आबनूस।
⋙ युगपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीशम का पेड़।
⋙ युगपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० युग+पुरुष] समाज या राष्ट्र को जीर्ण करनेवाली मान्यताओं को समाप्त या संस्कृत करके नवीन मान्य- ताओं को स्थापित करनेवाला महापुरुष। नए युग का निर्माण करनेवाला पुरुष।
⋙ युगप्रतीक
संज्ञा पुं० [सं० युग+प्रतीक] युग का प्रतिनिधि। युगपुरुष।
⋙ युगवाहु
वि० [सं०] जिसके हाथ बहुत लंबे हों। दीर्घबाहु।
⋙ युग्म पु
संज्ञा पुं० [सं० युग्म] दे० 'युग्म'।
⋙ युगल
संज्ञा पुं० [सं०] वे जो एक साथ दो हों। युग्म। जोड़ा। जैसे, युगल छवि।
⋙ युगलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कुलक (पद्य) जिसमें दो श्लोकों या पद्यों का एक साथ मिलकर अन्वय हो। २. युग्म। जोड़ा (को०)।
⋙ युगलाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] बबूल का पेड़।
⋙ युगांत
संज्ञा पुं० [सं० युगान्त] १. प्रलय। २. युग का अंतिम समय।
⋙ युगांतक
संज्ञा पुं० [सं० युगान्तक] १. प्रलयकाल। २. प्रलय।
⋙ युगांतर
संज्ञा पुं० [सं० युगान्तर] १. दूसरा युग। २. दूसरा समय और जमाना। मुहा०—युगांतर उपस्थित करना=समय पलट देना। किसी पुरानी प्रथा को हटाकर उसके स्थान पर नई प्रथा (या उसका समय) लाना।
⋙ युगांशक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वत्सर। वर्ष।
⋙ युगांशक (२)
वि० युग का विभाजक।
⋙ युगाक्षिगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० युगाक्षिगन्धा] विधारा।
⋙ युगादि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सृष्टि का प्रारंभ। २. चार युगों में प्रथम, सत्य युग।
⋙ युगादि (२)
वि० युग के आरंभ का। पुराना।
⋙ युगादि (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'युगाद्या'।
⋙ युगादिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ युगाद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तिथि जिससे युग का आरंभ हुआ हो। विशेष— संवत्सर में एसी तिथियाँ चार हैं, जिनमें से प्रत्येक से एक युग का आरंभ माना जाता है। ये श्रेष्ठ और शुभ मानी जाती हैं, और इस प्रकार हैं—(१)वैशाख शुक्ल तृतीया, सत्ययुग के आरंभ की तिथि; (२) कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेतायुग के आरंभ की तिथि; (३) भाद्रकृष्ण त्रयोदशी द्वापर के आरंभ की तिथि; और (४) पूस की अमावस्या, कलियुग के आरंभ की तिथि।
⋙ युगाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रजापति का नाम। २. शिव [को०]।
⋙ युगावतार
वि० [सं०] युग का सर्वश्रेष्ठ महापुरुष। अवतारी महापुरुष।
⋙ युगेश
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति के साठ वर्ष के राशिचक्र में गति के अनुसार पाँच पाँच वर्ष के युगों के अधिपति। विशेष— यह चक्र उस समय से प्रारंभ होता है, जब बृहस्पति माघ मास में घनिष्ठा नक्षत्र के प्रथमांश में उदय होता है। बृहस्पति के साठ वर्ष के काल में पाँच पाँच वर्ष के बारह युग होते हैं, जिनके अधिपति विष्णु, सुरेज्य, बलभित्, अग्नि, त्वष्टा, उत्तर प्रोष्ठपद, पितृगण, विश्व, सोम शक्रानिल, अश्वि और भग हैं। प्रत्येक युग के पाँच वर्षों के युग क्रमशः संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर कहलाते हैं।
⋙ युगोरस्य
संज्ञा पुं० [सं०] सेना के संनिवेश का एक भेद।
⋙ युग्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. जोड़ा। युग। २. अन्योन्याश्रित दो वस्तुएँ या बातें। द्वंद्व। ३. मिथुन राशि। ४. कुलक का एक भेद जिसे युगलक भी कहते हैं। दे० 'युगलक'।
⋙ युग्मकंटका
संज्ञा स्त्री० [सं० युग्मकण्टका] वेर।
⋙ युग्मक
संज्ञा पुं० [सं०] १. युगलक। २. युग्म। जोड़ा।
⋙ युग्मज
संज्ञा पुं० [सं०] एक साथ उत्पन्न दो बच्चे। यमल। यमज।
⋙ युग्मधर्मा
वि० [सं० युग्मधर्मन्] १. जो स्वाभावतः मिलता हो। मिलनशील। २. मिथुनधर्मा।
⋙ युग्मपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कचनार का पेड़। २. भोजपत्र का पेड़। ३. सतिवन। छतिवन। छितवन। आछी। ४. वह पेड़ जिसकी शाखा में दो दो पत्ते एक साथ होते हों। युग्मपर्ण।
⋙ युग्मपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल कचनार। २. सतिवन। छतिवन। ३. दे० 'युग्मपत्र'।
⋙ युग्मपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली।
⋙ युग्मफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली।
⋙ युग्मफलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुधिया। दुद्धी। गुदनी।
⋙ युग्मविपुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्ति का नाम [को०]।
⋙ युग्मशुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पुतली पर पड़े हुए सफेद धब्बे [को०]।
⋙ युग्मांजन
संज्ञा पुं० [सं० युग्माञ्जन] स्रोतांजन और सौवीरांजन इन दोनों का समूह।
⋙ युग्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गाड़ी जिसमें दो घोडे़ या बैल जोते जाते हों। जोड़ी। २. वे दो पशु जो एक साथ गाड़ी में जोते जाते हों। जोड़ी।
⋙ युग्य (२)
वि० १. जो जोता जाने योग्य हो। २. जो जोता जानेवाला हो। ३. खींचा हुआ। वहन किया हुआ (रथ आदि)। जैसे, अश्वयुग्य रथ=घोड़े द्वारा खींचा हुआ रथ (को०)।
⋙ युग्यवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. जोड़ी हाँकनेवाला। २. गाड़ीवान। सारथी।
⋙ युज्य (१)
वि० [सं०] १. मिला हुआ। संयुक्त। २. मिलाने योग्य। ३. उचित। उपयुक्त। ठीक (को०)।
⋙ युज्य (२)
संज्ञा पुं० १. संयोग। मिलाप। २. एक प्रकार का साम। ३. वंधुबांधव। सगोत्र। विरादर (को०)।
⋙ युत (१)
वि० [सं०] १. युक्त। सहित। २. जो अलग न हो। मिला हुआ। मिलित। ३. अलग किया हुआ (को०)।
⋙ युत (२)
संज्ञा पुं० चार हाथ की एक नाप।
⋙ युतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. संशय। संदेह। २. युग। जोड़ा। ३. अंचल। दामन। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का वस्त्र जो पहनने के काम में आता था। ५. सूप के दोनों ओर के किनारे जो ऊपर उठे हुए होते हैं और पीछे के उठे हुए भाग से जोड़कर बाँधे रहते हैं। ६. मैत्रीकरण। ७. संश्रय।
⋙ युतबेध
संज्ञा पुं० [सं०] एक योग का नाम। विशेष— यह योग उस समय होता है, जब चंद्रमा पापग्रह से सातवें स्थान में होता है या पापग्रह के साथ होता है। ऐसे योग के समय विवाहादि शुभ कर्मों का फलित ज्योतिष में निषेध है।
⋙ युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योग। मिलन। मिलाप। २. रस्सी, जिससे घोड़े या बैल गाड़ी में बाँधे जाते हैं। ३. जोती। नाधा, जिससे जुआठा और हरिस को एक में बाँधते हैं।
⋙ युद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई। संग्राम। रण। विशेष— प्राचीन काल में युद्ध के लिये रथ, हाथी, घोड़े और पदाति ये चार सेना के प्रधान अंग थे और इसी कारण सेना को चतुरंगिणी कहते थे। इन चारों के संख्याभेद के कारण पत्ति, गुल्म, गण आदि अनेक भेद और उनके संनिवेशभेद से शूची, श्येन, मकरादि अनेक व्यूह थे। सैनिकों को शिक्षा संकेतध्वनियों से दी जाती थी, जिसे सुनकर सैनिकगण संमी- लन, प्रसरण प्रभ्रमण, आकुंचन, यान, प्रयाण, अपयान आदि अनेक चेष्टाएँ करते थे। संग्राम के दो भेद थे— एक द्वंद्व और दूसरा निर्द्वंद्व। जिस संग्राम में कृत्रिम या अकृत्रिम दुर्ग में रहकर शत्रु से युद्ध करते थे, उसे 'द्वंद्व युद्ध 'कहते थे। पर जब दूर्ग से बाहर होकर आमने सामने खुले मैदान में लड़ते थे, तब उसे 'निर्द्वंद्व युद्ध' कहते थे। निर्द्वंद्व युद्ध में समदेश में रथयुद्ध, विषमदेश में हस्तियुद्ध, मरुभूमि में अश्वयुद्ध, पर्वतादि में पत्तियुद्ध और जल में नौकायुद्ध किया जाता था। युद्ध के समान्य नियम ये थे—(१) युद्ध उस अवस्था में किया जाता था, जब युद्ध से जीने की आशा और न युद्ध करने में नाश ध्रुव हो। (२) राजा और युद्धशास्त्र के मर्मज्ञ पंडितों को युद्धक्षेत्र में नही जाने देते थे। उनसे यथासमय युद्धनीति का केवल परामर्श और मंत्र लिया जाता था। (३) रथहीन, अश्वहीन, गजहीन और शस्त्रहीन पर प्रहार नहीं होता था। (४) बाल, वृद्ध, नपुंसक और अव्याहत पर तथा शांति की पताका उठानेवाले के ऊपर शस्त्रास्त्र नहीं चलाया जाता था। (५) भयभीत, शरणप्राप्त, युद्ध से विमुख और विगत पर भी आघात नहीं किया जाता था। (६) संग्राम में मारनेवाले को ब्रह्महत्यादि दोष नहीं लगते थे। (७) लड़ाई से भागनेवाला बड़ा पातकी माना जाता था। ऐसे पातकी की शुद्धि तब तक नहीं होती थी, जबतक कि वह फिर युद्ध में जाकर शूरता न दिखलावे। क्रि० प्र०—छिड़ना।—छेड़ना।—ठनना।—मचना।—मचाना। मुहा०—युद्ध मोंडना=लड़ाई ठानना। उ०— कुँअर तन श्याम मानों काम है दूसरों, सपन में देखि ऊखा लुभाई। मित्ररेखा सकल जगत के नृपत की, छिनिक में मुरति तक लिखि देखाई। निरखि यदुवश का रहस मन में भयो, देखि अनिरुद्ध युद्ध माँड्यो। सूर प्रभु ठटी ज्यों भयो चाहै सो त्यों फाँसि करि कुँअर अनिरुद्ध बाँध्यो।—सूर (शब्द०)। यौ०—युद्धकारी=लड़ाकू। युद्धकाल=लड़ाई का समय। युद्ध- क्षेत्र=लड़ाई का मैदान। युद्धगांधर्व=युद्ध का गीत। मारू राग। युद्धतंत्र=सैन्यविज्ञान। युद्धध्वनि=लड़ाई का शोर- गुल। युद्धपोत=लड़ाई के काम आनेवाला जहाज। युद्धभू, युद्धभूमि=लड़ाई का मैदान। युद्धमार्ग=लड़ाई की चाल। युद्धविद्या=युद्धशास्त्र। युद्ध का विज्ञान। युद्धशास्त्र=वह शास्त्र जिसमें युद्ध के सिद्धांत हैं।
⋙ युद्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध करनेवाला। योद्धा। २. युद्ध। ३. युद्ध के काम आनेवाला विमान आदि।
⋙ युद्धप्राप्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जो संग्राम में पकड़ा गया हो। विशेष— यह दास के बारह भेदों में से एक है और ध्वजाहत भी कहलाता है।
⋙ युद्धमय
वि० [सं०] १. युद्धसंबंधी। २. रणप्रिय। युद्धप्रिय।
⋙ युपद्धमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० युद्धमंत्रिन्] युद्धविभाग या युद्धकार्य का संचालक मंत्री [को०]।
⋙ युद्धमुष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] उग्रसेन के एक पुत्र का नाम।
⋙ युद्धरंग
संज्ञा पुं० [सं० युद्धरङ्ग] १. कार्तिकेय। स्कंद। २. युद्ध- स्थल। रणभूमि। लड़ाई का मैदान।
⋙ युद्धवीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. योद्धा। २. वीर रस वह आलंबन जिसमें युद्ध की वीरता हो। ३. वीर रस का एक भेद।
⋙ युद्धशाली
वि० [सं० युद्धशालिन्] ओजस्वी। वीर [को०]।
⋙ युद्धसार
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा।
⋙ युद्धाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो दूसरों को युद्धविद्या की शिक्षा देता हो। युद्ध सिखलानेवाला।
⋙ युद्धाजि
संज्ञा पुं० [सं०] अंगिरा के गोत्र में उत्पन्न एक ऋषि का नाम।
⋙ युद्धावसान
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाईबदी। युद्धविराम [को०]।
⋙ युद्धावहारिक
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध में छीना या लूटा हुआ माल [को०]।
⋙ युद्धोन्मत्त (१)
वि० [सं०] १. युद्ध में लीन। लड़ाका। २. जो युद्ध के लिये उतावला हो रहा हो।
⋙ युद्धोन्मत्त (२)
संज्ञा पुं० रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम। इसका दूसरा नाम महोदर था। वह रावण का भाई था और इसे नील नामक बानर ने मारा था।
⋙ युद्धोपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई में काम आनेवाली सामग्री।
⋙ युध्
संज्ञा स्त्री० [सं०] युद्ध। लड़ाई।
⋙ युधांश्रौष्ठि
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
⋙ युधाजि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'युद्धाजि'।
⋙ युधाजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकयराज के पुत्र का नाम। यह भरत का मामा था। २. कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ३. क्रोष्टु नामक राजा के पुत्र का नाम।
⋙ युधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षत्रिय। २. रिपु। शत्रु। दुश्मन।
⋙ युधामन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम जो महाभारत युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ा था।
⋙ युधासार
संज्ञा पुं० [सं०] नंद राजा का एक नाम।
⋙ युधिक
वि० [सं०] योद्धा।
⋙ युधिष्ठिर
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच पांडवों में सबसे बड़े का नाम जो कुंती से उत्पन्न धर्म के पुत्र थे और पांडु के क्षेत्रज पुत्र थे। विशेष— ये सत्यवादी और धर्मपरायण थे; पर इन्हें जुए की लत थी, जिसके कारण यह अपना राज्य, भाइयों और स्वयं अपने आपको जूए में हार गए थे। महाभारत के संग्राम के अनंतर ये हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठे थे। महाभारत के अनुसार अपनी धर्मपरायणता के कारण ये हिमालय होकर सदेह स्वर्ग गए थे। ये आजन्म सत्य का पालन करते रहे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कृष्ण ने इनसे यह असत्य बात कहलानी चाही कि 'अश्वत्थामा मारा गया'। इस कथन से द्रोण की मृत्यु निश्चित थी। इन्होंने बहुत आगा पीछा किया; पर अंत में इन्हें इतना कहना पड़ा— 'अश्वत्थामा मारा गया, न जाने हाथी या मनुष्य'। यह पिछाला वाक्य इन्होंने कुछ धीरे से कहा था। इनके जीवन भर में सत्य के अपलाप का केवल यही एक उदाहरण मिलता है।
⋙ युध्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. संग्राम। युद्ध। २. धनुष। ३. बाण। ४. अस्त्र शस्त्र। ५. योद्धा। ६. शरभ।
⋙ युध्य
वि० [सं०] जिसके साथ युद्ध किया जा सके।
⋙ युनिवर्सिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'यूनिवर्सिटी'।
⋙ युपित
वि० [सं०] १. हटाया हुआ। अपवारित। निवारित। २. दुःखित। सताया हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। उच्छेदित [को०]।
⋙ युयु
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा।
⋙ युयुक्खुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छोटा बाघ।
⋙ युयुक्षमान
वि० [सं०] मिलन या संयोग चाहनेवाला। २. ईश्वर में लीन होने की कामना रखनेवाला।
⋙ युयुत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युद्ध करने की इच्छा। लड़ने की इच्छा। २. शत्रुता। विरोध।
⋙ युयुत्सु (१)
वि० [सं०] लड़ने की इच्छा रखनेवाला। जो लड़ना चाहता हो।
⋙ युयुत्सु (२)
संज्ञा पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ युयुधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. क्षत्रिय। ३. योद्धा। ४. सात्यकी का एक नाम, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों की और से लड़े थे।
⋙ युरेशियन
संज्ञा [अं० युरोप+एशिया] वह जिसके माता पिता में से कोई एक युरोप का और दूसरा एशिया का, विशेषतः भारत- वर्ष का निवासी हो।
⋙ युरोप
संज्ञा पुं० [अँ०] पूर्वी गोलार्ध के तीन महाद्वीपों में से सब से छोटा महाद्वीप। विशेष— यह महाद्वीप एशिया के पश्चिम में काकेशस और यूराल पर्वतों के उस पार से आरंभ होता है। इसके उत्तर में आर्कटिक समुद्र, पश्चिम में एटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्य सागर और कृष्ण सागर तथा पूर्व में काकेशस और यूराल पर्वत पड़ता है। यह महाप्रदेश प्रायः २४०० मील चौड़ा और ३४०० मील लंबा है। एक प्रकार से य़ह एशिया का अंश और बहुत बड़ा प्रायद्वीप ही है। फ़्रांस, जर्मनी, रूस, आस्ट्रिया, पुर्तगाल, स्पेन, इटली, यूनान आदि इसके प्रसिद्ध देश हैं।
⋙ युरोपियन (१)
वि० [अँ०] युरोप का। युरोप संबंधी। जैसे, युरोपियन सभ्यता, युरोपियन साहित्य।
⋙ युरोपियन (२)
संज्ञा पुं० युरोप महाद्वीप के किसी देश का निवासी।
⋙ युवक
संज्ञा पुं० [सं०] सोलह वर्ष से लेकर पचीस या तीस या पैंतीस वर्ष तक की अवस्थावाला मनुष्य। जवान। युवा।
⋙ युवगंड
संज्ञा पुं० [सं० युवगण्ड] मुहाँसा।
⋙ युवति, युवती (१)
वि० स्त्री० [सं०] प्राप्त यौवना। जवान (स्त्री०)।
⋙ युवति, युवती (२)
संज्ञा स्त्री० १. जवान स्त्री। २. प्रियंगु। ३. सोनजुही। ४. हलदी। ५. कन्या राशि (को०)।
⋙ युवतीष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णपूथिका। सोनजुही।
⋙ युवनाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक सूर्यवंशी राजा का नाम जो प्रेसनजित् का पुत्र था। प्रसिद्ध मांधाता इसी का पुत्र था। २. रामायण के अनुसार धुंधुमार के पुत्र का नाम।
⋙ युवन्य
वि० [सं०] जवान।
⋙ युवराई पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० युवराज] युवराज का पद।
⋙ युवराई (२)
संज्ञा पुं० दे० 'युवराज'।
⋙ युवराज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० युवराज्ञी] १. राजा का वह राजकुमार जो उसके राज्य का उत्तराधिकारी हो। राजा का वह सबसे बड़ा लड़का जिसे आगे चलकर राज्य मिलनेवाला हो। २. एक भावी बुद्ध का नाम (को०)।
⋙ युवराजत्व
संज्ञा पुं० [सं०] युवराज का भाव या धर्म। यौवराज्य।
⋙ युवराजी
संज्ञा स्त्री० [सं० युवराज+ई (प्रत्य०)] युवराज का पद। यौवराज्य। उ०— जिनहिं देखि दशरथ नृप राजी। देन विचारत है युवराजी।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ युवा
वि० [सं० युवन्] [वि० स्त्री० युवती] जिसकी अवस्था सोलह से लेकर पैंतिस वर्ष के अंदर हो। जवान। यौवनावस्था प्राप्त।
⋙ युवान, युवानक
वि० [सं०] जवान। युक्क। तरुण [को०]।
⋙ युवानपिडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुहाँसा।
⋙ यूँ †
अव्य० [सं० एवमेव] दे० 'यों'।
⋙ यू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पकी हुई दाल का पानी। जूस।
⋙ यूक
संज्ञा पुं० [सं०] जूँ नामक कीड़े जो बाल या कपड़ों में पड़ जाते हैं। ढील। चीलर।
⋙ यूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का परिमाण जो एक यव का आठवाँ भाग और एक लिक्षा का अठगुना होता है। २. जूँ नाम का कीड़ा जो सिर के बालों में होता है। विशेष दे० 'जूँ'। ३. खटमल। ४. अजवायन। ५. गूलर।
⋙ यूगंधर
संज्ञा पुं० [सं०] पंजाब के एक प्राचीन नगर का नाम जिसका वर्णन महाभारत में आया है। आजकल इसे 'धुरंधर' कहते हैं।
⋙ यूत
संज्ञा पुं० [सं० यूति] मिश्रण। मिलावट। मेल। उ०— बिचि बिचि प्रीति रहसि रस रीति की राग रागिनी के यूत बाढ़े।— स्वा० हरिदास (शब्द०)।
⋙ यूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिलाने की क्रिया। मिश्रण। मेल।
⋙ यूथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ही जाति या वर्ग के अनेक जीवों का समूह। झुंड। गरोह। जैसे, गजयूथ। २. दल। सेना। फौज।
⋙ यूथक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यूथ' [को०]।
⋙ यूथग
संज्ञा पुं० [सं०] चाक्षुष मन्वंतर के एक प्रकार के देवता।
⋙ यूथचारी
वि० [सं० यूथचारिन्] झुंड में चलनेवाला। जैसे, बंदर, मृग आदि।
⋙ यूथनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. यूथ का स्वामी। सरदार। २. सेना- पति। मेनाध्यक्ष। दलपति।
⋙ यूथप्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरदार। २. सेनापति। ३. जंगली हाथियों का सरदार।
⋙ यूथपति
संज्ञा पुं० [सं०] सेनानायक। सेनापति।
⋙ यूथपाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यूथपति'।
⋙ यूथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूही नाम का फूल और उसका पौधा। उ०— सित अरु पीत यूथिका बेनी गूँथी विविध बनाय। रच्यो भाल निज तिलक मनोहर अंजन नयन सुहाय।— सूर (शब्द०)।
⋙ यूथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूही का पौधा या फूल। यूथिका।
⋙ यूनक
संज्ञा पुं० [?] गरी की खली।
⋙ यूनाइटेड
वि० [अं०] मिला हुआ। संयुक्त। जैसे, यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका), यूनाइटेड प्राविंसेज् (संयुक्तेदेश आगरा व अवध)।
⋙ यूनाइटेड किंगडम
संज्ञा पुं० [अँ०] इंगलैंड, स्काटयलैंड और आयर- लैंड के संयुक्त राज्य।
⋙ यूनाइटेड स्टेट्स
संज्ञा पुं० [अं०] अनेक छोटे छोटे राज्यों का एक बड़ा संयुक्त राज्य। जैसे,— यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका।
⋙ यूनान
संज्ञा पुं० [ग्रीक आयोनिया] एशिया के सब से अधिक पास पड़नेवाला यूरोप का एक प्रदेश। विशेष— प्राचीन काल में यह प्रदेश अपनी सभ्यता, शिल्पकला, साहित्य, दर्शन इत्यादि के लिये जगत् में प्रसिद्ध था। आयोनिया द्वीप इसी देश के अंतर्गत था, जिसके निवासियों का आना जाना एशिया के शाम, फारस आदि देशों में बहुत था; इसी से सारे देश को ही यूनान कहने लगे थे। भारतीयों का यवन शब्द यूनान देशवासियों का हो सूचक है। सिकंदर इसी देश का बादशाह था।
⋙ यूनानी (१)
वि० [फ़ा० यूनान+ई (प्रत्य०)] यूनान देश संबंधी। यूनान का।
⋙ यूनानी (२)
संज्ञा स्त्री० १. यूनान देश की भाषा। २. यूनान देश का निवासी। ३. यूनान देश की चिकित्साप्रणाली। हकीमी। विशेष— फारस के प्राचीन बादशाह अपने यहाँ यूनान के चिकि- त्सक रखते थे, जिससे वहाँ की चिकित्साप्रणाली का प्रचार एशिया के पश्चिमी भाग में हुआ। इस प्रणाली में क्रमशः देशी चिकित्सा भी मिलती गई। आजकल जिसे यूनानी चिकित्सा कहते हैं, वह मिली जुली है। खलीफा लोगों के समय में भारत- वर्ष से भी अनेक वैद्य बगदाद गए थे, जिससे बहुत से भारतीय प्रयोग भी वहाँ की चिकित्सा में शामिल हुए।
⋙ यूनियन
संज्ञा पुं० [अं०] संघ। सभा। समाज। मंडल। जैसे,— लेबर यूनियन। ट्रेड्स यूनियन।
⋙ यूनियन जैक
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'यूनियन फ्लैग'।
⋙ यूनियन फ्लैग
संज्ञा पुं० [अं०] ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड के संयुक्त राज्यों की राष्ट्रीय पताका।
⋙ यूनिवर्सिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह संस्था जो लोगों को सब प्रकार का उच्च कोटि की शिक्षाएँ देती, उनकी परीक्षाएँ लेती और उन्हें उपाधियाँ आदि प्रदान करती है। विश्वविद्यालय। विशेष— ऐसी संस्था या तो राजकीय हुआ करती है अथवा राज्य की आज्ञा से स्थापित होती है; और उसकी परीक्षाओं तथा उपाधियों आदि का सब जगह समान रूप से मान होता है।
⋙ यूनीफार्म
संज्ञा पुं० [अं०] एक ही प्रकार की पोशाक या पहनावा जो किसी विशेष विभाग के कर्मचारियों या नौकरों के लिये नियत हो। वरदी। जैसे,— पुलिस के पचास जवान जो यूनीफार्म में नहीं थे, वहाँ सबेरे से आ डटे थे।
⋙ यूप
संज्ञ पुं० [सं०] १. यज्ञ में वह खंभा जिसमें बलि का पशु बाँधा जाता है। २. वह स्तंभ जो किसी विजय अथवा कीर्ति आदि की स्मृति में बनाया गया हो।
⋙ यूपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'यूप'। २. काष्ठविशेष, बाँस अथवा खदिर जिससे यूप बनता था।
⋙ यूपकटक
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे या लकड़ी का कड़ा या छल्ला जो थूप के सिरे पर अथवा नीचे होता था।
⋙ यूपकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] यूप का वह भाग जो धृत से अभिषिक्त किया जाता था।
⋙ यूपकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] राजा मूरिअवा का एक नाम।
⋙ यूपकेशि
संज्ञा पुं० [सं० यूपकेशिन्] एक राक्षस का नाम [को०]।
⋙ यूपद्रु, यूपद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का वृक्ष।
⋙ यूपद्विप
संज्ञा पुं० [सं०] यूप पर लपेटने का वस्त्र [को०]। पर्या०—यूपवेष्ठन। यूपहस्ति।
⋙ यूपध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ।
⋙ यूपलक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी।
⋙ यूपांग
संज्ञा पुं० [सं० यूपाङ्ग] यूप का कोई अंश वा अंग।
⋙ यूपा †
संज्ञा पुं० [सं० द्यूत] जूआ। द्यूतकर्म। उ०— यहै मनोरथ जीतब यूपा। कहूँ कहेउ यह भेद न भूपा।—सबलसिंह (शब्द०)।
⋙ यूपाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रावण की सेना का एक मुख्य नायक जिसको हनुमान् ने प्रमदावन उजाड़ने के समय मारा था।
⋙ यूपाहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कृत्य जो यज्ञ में यूप गाड़ने के समय किया जाता है।
⋙ यूपोच्चार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वे मंत्र जो यज्ञादि में यूप की प्रतिष्ठा के समय कहे जायँ [को०]।
⋙ यूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] पलास।
⋙ यूरप
संज्ञा पुं० [अं० यूरोप] दे० 'यूरोप'।
⋙ यूराल
संज्ञा पुं० [?] १. एक बहुत बड़ा पहाड़ जो एशिया और युरोप के बीच में है। २. इस पर्वत से निकलनेवाली एक नदी का नाम।
⋙ यूरेनस
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक ग्रीक देवता। २. एक ग्रह जिसका हर्शेल ने पता लगाया था [को०]।
⋙ यूरेनियम
संज्ञा पुं० [अं०] किरण धातु। राल आदि में प्राप्त होनेवाला एक धवल धातुतत्व [को०]।
⋙ यूरोप
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'युरोप'।
⋙ यूरोपियन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'युरोपियन'।
⋙ यूरोपीय
वि० [अं० यूरोप+ईय (प्रत्य०)] युरोप संबंधी। युरोप का।
⋙ यूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहतूत का वृक्ष। २. जूस। दाल आदि का पानी। झोल [को०]।
⋙ यूह पु †
संज्ञा पुं० [सं० यूथ] १. समूह। झुंड। २. सैन्य। सेना।
⋙ ये (१)
सर्व० [हिं०] दे० 'यह'।
⋙ ये (२)
सर्व० [हिं० यह] 'यह' का बहुवचन। यह सब।
⋙ येई पु †
सर्व० [हिं० यह+ई (प्रत्य०)] यही।
⋙ येऊ पु †
सर्व० [हिं० ये+ऊ (प्रत्य०)] यह भी।
⋙ येतो पु †
वि० [हिं०] दे० 'एतो'।
⋙ येन (१)
क्रि० वि० [सं० यत] जिसके द्वारा या जिससे। यौ०—येन केन प्रकारेण=जिस किसी प्रकार। जैसे तैसे।
⋙ येन (२)
संज्ञा पुं० [जापानी] जापान का सिक्का। जापान का प्रचलित सिक्का।
⋙ येमन
संज्ञा पुं० [सं०] खाना। भक्षण [को०]।
⋙ येह †
सर्व० [हिं०] दे० 'यह'।
⋙ येहू पु †
अव्य०[हिं० यह+हू] यह भी।
⋙ योँ
अव्य० [सं० एवमेव, प्रा० एमेअ, अप० एमि] इस तरह पर। इस प्रकार से। इस भाँति। ऐसे। जैसे,—वह यों नहीं मानेगा।
⋙ योंही
अव्य० [हिं० यों+ही (प्रत्य०)] १. इसी प्रकार से। ऐसे ही। इसी तरह से। २. बिना काम। व्यर्थ ही। जैसे,— आप तो योंही किताबें उलटा करते हैं। ३. बिना विशेष प्रयोजन या उद्देश्य के। केवल मन की प्रवृत्ति से। जैसे,— मैं उधर योंही चला गया; उससे मिलने नहीं गया था।
⋙ यो †
सर्व० [हिं०] दे० 'यह'।
⋙ योक्तव्य
वि० [सं०] १. संयोजित करने के योग्य। जोड़ने के योग्य। २. नियुक्त करने योग्य [को०]।
⋙ योक्ता
संज्ञा पुं० [सं० योक्तृ] १. जोड़नेवाला। संयोजित करनेवाला। बाँधनेवाला। २. गाड़ीवान। सारथी। कोचवान। ३. उत्तेजित करनेवाला। उभाड़नेवाला [को०]।
⋙ योक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. डोरी। रस्सी। लगाम। २. पशु को गाड़ी में बाँधने या जोतने का रस्सा। ३. हल के जुए में लगी डोरी जिससे बैल जोड़ा जाता है। ४. मथानी की डोरी। नेती [को०]।
⋙ योगंधर
संज्ञा पुं० [सं० योगन्धर] १. प्राचीन काल का एक मंत्र जो अस्त्र शस्त्र आगदि के शोधन के लिये पढ़ा जाता था। २. पीतल।
⋙ योग
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो अथवा अधिक पदार्थों का एक में मिलना। संयोग। मिलान। मेल। २. उपाय। तरकीब। ३. ध्यान। ४. संगति। ५. प्रेम। ६. छल। धोखा। दगाबाजी। जैसे, योगविक्रय। ७. प्रयोग। ८. औषध। दवा। ९. धन। दौलत। १०. नैयायिक। ११. लाभ। फायदा। १२. वह जो किसी के साथ विश्वासघात करे। दगाबाज। १३. कोई शुभ काल। अच्छा समय या अवसर। १४. चर। दूत। १५. छकड़ा। बैलागाड़ी। १६. नाम। १७. कौशल। चतुराई। होशियारी। १८. नाव आदि सवारी। १९. परिणाम। नतीजा। २०. नियम। कायदा। २१. उपयुक्तता। २२. साम, दाम, दंड और भेद ये चारों उपाय। २३. वह उपाय जिसके द्वारा किसी को अपने वश में किया जाय। वशीकरण। २४. सूत्र। २५. संबंध। २६. सद् भाव। २७. धन और संपत्ति प्राप्त करना तथा बढ़ाना। २८. मेल मिलाप। २९. तप और ध्यान। वैराग्य। ३०. गणित में दो या अधिक राशियों का जोड़। ३१. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १२, ८ के विश्राम से २० मात्राएँ और अंत में यगण होता। ३२. ठिकाना। सुभीता। जुगाड़। तारघात। उ०— नहिं लग्यो भोजन योग नहीं कहुँ मिल्यो निवसन ठौर।—रघुराज (शब्द०)। ३३. फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट काल या अवसर जो सूर्य और चंद्रमा के कुछ विशिष्ट स्थानों में आने के कारण होते हैं और जिनकी संख्या २७ है। इनके नाम इस प्रकार हैं—विष्कंभ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगंड, सुकर्मा, धृति, शूल, गंड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, असृक, व्यतीपात, वरीयान्, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ,शुक्र, ब्रह्म, इंद्र, और वैधृति। इनमें से कुछ योग एसे हैं, जो शुभ कार्यो के लिये वर्जित हैं और कुछ ऐसे हैं जिनमें शुभ कार्य करने का विधान है। ३४. फलित ज्योतिष के अनुसार कुछ विशिष्ट तिथियों, वारों और नक्षत्रों आदि का एक साथ या किसी निश्चित नियम के अनुसार पड़ना। जैसे, अमृत योग, सिद्धि योग। ३५. वह उपाय जिसके द्वारा जीवात्मा जाकर परमात्मा में मिल जाता है। मुक्ति या मोक्ष का उपाय। ३६. दर्शनकार पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना। मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना। ३७. शत्रु के लिये की जानेवाली यंत्र, मंत्र, पूजा, छल, कपट आदि की युक्ति। ३८. छह दर्शनों में से एक जिसमें चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। विशेष— योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है। उन्होंने भी वही पचीस तत्व मने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इनमें विशेषता यही है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्व 'पुरुषविशेष' या ईश्वर भी माना है, जिससे सांख्य के अनीश्वरवाद से ये बच गए हैं। पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पारदों या भागों में विभक्त है। समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आगदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं; और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। पतंजलि ने इन सवसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है; और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगवाले संसार को दुःखमय और हेय मानते हैं। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानेत हैं। पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने चित्तभूमि रखा है; और कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता; अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है। यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। योगसाधन का उपाय यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए। चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं— अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें विभूति या सिद्धि कहते हैं। विशेष दे० 'सिद्धि'। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी होता है। ऊपर कहा जा चुका है कि सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को ज्ञान- योग और योग को कर्मयोग भी कहते हैं। पतंजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य वेदव्यास जी का है। उसपर वाचस्पति का वार्तिक है। विज्ञानभिक्षु का 'योगसारसंग्रह' भी योग का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। सूत्रों पर भोजराज की भी एक वृत्ति है। पीछे से योगशास्त्र में तंत्र का बहुत सा मेल मिला और 'कायव्यूह' का बहुत विस्तार किया गया, जिसके अनुसार शरीर के अंदर अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किए गए। क्रियाओँ का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक अलग शाखा निकली; जिसमें नेती, धोती, वस्ती आदि षट्कर्म तथा नाड़ीशोधन आदि का वर्णन किया गया। शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, घेरंडसंहिता आदि हठयोग के ग्रंथ है। हठयोग के बड़े भारी आचार्य मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) और उनके शिष्य गोरखनाथ हुए हैं।
⋙ योगकक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'योगपट्ट' [को०]।
⋙ योगकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यशोदा के गर्भ से उत्पन्न कन्या, वसुदेव जिसे ले जाकर देवकी के पास रख आए थे और जिसे कंस ने मार डाला था। योगमाया।
⋙ योगकुंडलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० योगकुण्डलिनी] एक उपनिषद् का नाम। (यह प्राचीन उपनिषदों में नहीं है।)
⋙ योगक्षेम
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो वस्तु अपने पास न हो, उसे प्राप्त करना, और जो मिल चुकी हो, उसकी रक्षा करना। नया पदार्थ प्राप्त करना और मिले हुए पदार्थ की रक्षा करना। विशेष— भिन्न भिन्न आचार्यों ने इस शब्द से भिन्न भिन्न अभि- प्राय लिए हैं। किसी के मत से योग से अभीप्राय शरीर का है और क्षेम से उसकी रक्षा का, और किसी के मत से योग का अर्थ है धन आदि प्राप्त करना और क्षेम से उसकी रक्षा करना। २. जीवननिर्वाह। गुजारा। ३. कुशल मंगल। खैरियत। उ०— जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को ऊपर किए इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योगक्षेम, हानि- लाभ, सुखदुःख आदि को संबंद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है।—रस०, पृ० ५। ४. दूसरे के धन या जायदाद की रक्षा। ५. लाभ। मुनाफा। ६. ऐसी वस्तु जिसका उत्तराधिकारियों में विभाग न हो। ७. राष्ट्र की मुख्यवस्था। सुल्क का अच्छा इंतजाम।
⋙ योगगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूल दशा। आरंभिक स्थिति। २. संयोग की अवस्था। पारस्परिक संयोग [को०]।
⋙ योगगामी
वि० [सं० योगगामिन्] योगबल से (वायु या आकाश में) गमन करनेवाला [को०]।
⋙ योगचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० योगचक्षुस्] ब्राह्मण।
⋙ योगचर
संज्ञा पुं० [सं०] हनुमान्।
⋙ योगचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] जादू की बुकनी। वह बुकनी जिसमें जादू का प्रभाव हो [को०]।
⋙ योगज
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगसाधन की वह अवस्था जिसमें योगी में अलौकिक वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर दिखलाने की शक्ति आ जाती है। विशेष— युक्त और युंजान दोनों इसी के भेद हैं। यह नैयायिकों के अलौकिक संनिकर्ष के तीन विभागों में से एक है। शेष दो विभाग सामान्य लक्षण और ज्ञान लक्षण हैं। २. अगर लकड़ी। अगरु ।
⋙ योगजफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक या फल जो दो अंकों को जोड़ने से प्राप्त हो। जोड़। योग। (गणित)।
⋙ योगतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम, जो प्राचीन दस उपनिषदों में नहीं है।
⋙ योगतल्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'योगनिद्रा'।
⋙ योगतारा
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी नक्षत्र में का प्रधान तारा। २. एक दूसरे से मिले हुए तारे।
⋙ योगत्व
संज्ञा पुं० [सं०] योग का भाव।
⋙ योगदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र। विशेष दे० 'योग'।
⋙ योगदान
संज्ञा पुं० [सं०] २. किसी काम में साथ देना। हाथ बँटाना। २. कपट से किया हुआ दान। ३. योग की दीक्षा।
⋙ योगधर्मी
संज्ञा पुं० [सं० योगधर्म्मिन्] योगी।
⋙ योगधारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगसाधन में निष्ठता [को०]।
⋙ योगधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी का नाम।
⋙ योगनंद
संज्ञा पुं० [सं०] मगध के राजा नौ नंदों में से एक नंद का नाम। विशेष दे० 'नंद'।
⋙ योगनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. दत्तात्रेय (को०)।
⋙ योगनाविक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
⋙ योगनाविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'योगनाविक'।
⋙ योगनिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जागने और सोने के बीच की स्थिति (को०)। २. युग के अत में होनेवाली विष्णु की निद्रा जो, दुर्गा मानी जाती है। ३. प्रलय और उत्पत्ति के बीच व्रह्मा की चिरनिद्रा। ४. रणभूमि में वीरों की मृत्यु। ५. योग की समाधि। ६. दुर्गा का एक नाम (को०)।
⋙ योगनिद्रालु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु, जो प्रलय के समय योगनिद्रा लेते हैं।
⋙ योगनिलय
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। २. विष्णु।
⋙ योगपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक पहनावा जो पीठ पर से जाकर कमर में बाँधा जाता था और जिससे घुटनों तक का अंग ढका रहता था। साधुओं का अंचला। विशेष— शास्त्रों का विधान है कि जिसके बड़े भाई और पिता जीवित हों उसे ऐसा वस्त्र नहीं पहनना चाहिए।
⋙ योगपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव।
⋙ योगपत्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगमाता। पीवरी।
⋙ योगपथ
संज्ञा पुं० [सं०] योग में प्रवृत्ति करानेवाला मार्ग [को०]।
⋙ योगपदक
संज्ञा पुं० [सं०] पूजन आदि के समय पहनने का चार अंगुल चौड़ा एक प्रकार का उत्तरीय वस्त्र। विशेष— यह बाध के चमड़े, हिरन के चमड़े अथवा सूत का बना हुआ होता था और यज्ञसूत्र की भाँति पहना जाता था।
⋙ योगपाद
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार वह कृत्य जिससे अभिमत की प्राप्ति हो।
⋙ योगपारंग
संज्ञा पुं० [सं० योगपाण्ङ्ग] १. शिव। २. पूर्ण योगी।
⋙ योगपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का योगासन।
⋙ योगपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्रानुसार वह साधा हुआ व्यक्ति जिससे मतलब सिद्ध किया जा सके। मतलब निकालने के लिये साधा हुआ आदमी।
⋙ योगफल
संज्ञा पुं० [सं०] दो या अधिक संख्याओं को जोड़ने से प्राप्त संख्या।
⋙ योगबल
संज्ञा पुं० [सं०] वह शक्ति जो योग की साधना से प्राप्त हो। तपोबल।
⋙ योगभ्रष्ट
वि० [सं०] जिसकी योग की साधना चित्विक्षेप आदि के कारण पूरी न हुई हो। जो योगमार्ग से च्युत हो गया हो।
⋙ योगमय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ योगमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० योगमातृ] १. दुर्गा। २. पीवरी।
⋙ योगमाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भगवती, जो विष्णु की माया है। २. वह कन्या जो यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी और जिसे कंस ने मार डाला था। कहते हैं, यह स्वयं भगवती थी। विशेष दे० 'कृष्ण'। उ०— देखी परी योगमाया वसुदेव गोद करि लीन्हीं हो।—सूर (शब्द०)।
⋙ योगमूतिधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. एक प्रकार के पितृ।
⋙ योगयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योग के लिये की जानेवाली यात्रा। वह यात्रा जिसमें परमात्मा से मिलन हो [को०]। २. फलित ज्योतिष के अनुसार वह योग जो यात्रा के लिये उपयुक्त हो।
⋙ योगयुक्त
वि० [सं०] योग में स्थित। योगस्थ।
⋙ योगयुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० योग+युक्ति] १. योग में अनुराग। समाधिस्थ होना (को०)। २. योग करने की विधि। उ०— कबीर साहब ने सब योगयुक्ति सिखलाया।—कबीर मं०, पृ० ७५।
⋙ योगयोगी
संज्ञा पुं० [सं० योगमोगिन्] वह योगी जो योगासन पर बैठा हो।
⋙ योगरंग
संज्ञा पुं० [सं० योगरङ्ग] नारंगी।
⋙ योगरथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह साधन जिससे योग की प्राप्ति हो।
⋙ योगराजगुग्गुल
संज्ञा पुं० [सं०] कई द्रव्यों के योग से बनी हुई एक प्रसिद्ध औषध जिसमें गुग्गूल (गूगल) प्रधान है। यह औषध गठिया, वात रोग और लकवे के लिये अत्यंत उपकारी है।
⋙ योगरूढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० योगरुढि] दो शब्दों के योग से बना हुआ वह शब्द जो अपना सामान्य अर्थ छोड़कर कोई विशेष अर्थ बतावे। जैसे, त्रिशूलंपाणि, चंद्रभाल, पंचशर इत्यादि।
⋙ योगरोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजाल करनेवालों का एक प्रकार का लेप। विशेष— कहते हैं, शरीर में यह लेप लगा लेने से आदमी अदृश्य हो जाता है।
⋙ योगवाणी
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय के एक तीर्थ का नाम।
⋙ योगवान्
संज्ञा पुं० [सं० योगवत्] [स्त्री० योगवती] योगी। योगसंपन्न। योगयुक्त।
⋙ योगवाशिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांतशास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जो वशिष्ठ जी का बनाया कहा जाता है। विशेष— इसमें वशिष्ठ जी ने रामचंद्र को वेदांत का उपदेश किया है। इसमें वैराग्य, मुमुक्षु व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशय और निर्वाण ये छह प्रकरण हैं। इसे लोग वाल्मीकि रामायण का उत्तरखंड मानते हैं और वशिष्ठ रामायण भी कहते हैं।
⋙ योगवाह
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वा- मूलीय और उपध्भानीय।
⋙ योगवाही (१)
संज्ञा पुं० [सं० योगवाहिन्] भिन्न गुणों की दो या कई ओषधियों को एक में मिलाने योग्य करनेवाली ओषधि या द्रव्य। योग का माध्यम।
⋙ योगवाही (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पारा। २. मधु। शंहद (को०)। ३. सज्जीखार।
⋙ योगविक्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] धोखे या बेईमानी के साथ विक्री। घालमेल का सौदा।
⋙ योगविद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगशास्त्र का ज्ञाता। २. महादेव। ३. ओषधियों को मिलाकर औषध बनानेवाला। ४. बाजीगर।
⋙ योगविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में एक दूसरे से संयुक्त शब्दों का पृथक्करण (विशेषतः सूत्रों के शब्दों का)।
⋙ योगवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्त की वह शुभ वृत्ति जो योग के द्वारा प्राप्त होती है।
⋙ योगशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग के द्वारा प्राप्त होनेवाली शक्ति। तपोवल।
⋙ योगशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] वह यौगिक शब्द जो योगरूढ़ि न हो, बल्कि धातु के अर्थ (सामान्य अर्थ) का बोधक हो।
⋙ योगशरीरी
संज्ञा पुं० [सं० योगशरीरिन्] योगी।
⋙ योगशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] पतंजलि ऋषि का बनाया हुआ योग- साधन पर एक बड़ा ग्रंथ जिसमें चित्तवृत्ति को रोकने के उपाय बतलाए गए हैं। यह छह दर्शनों में से एक दर्शन है। दे० 'योग'।
⋙ योगशास्त्री
संज्ञा पुं० [सं० योगशास्त्रिन्] योगशास्त्र का ज्ञाता।
⋙ योगशिक्षा
संज्ञा स्त्री [सं०] एक उपनिषद् का नाम जिसे योगशिखा भी कहते हैं।
⋙ योगसत्य
संज्ञा पुं० [सं०] किसी का वह नाम जो उसे किसी प्रकार के योग के कारण प्राप्त हो। जैसे; — दंड के योग से प्राप्त होनेवाल नाम 'दंडी'।
⋙ योगसमाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आत्मा का सूक्ष्म तत्व (ब्रह्मतत्व) में विलयन। २. योग का चरमफल। विशेष दे० 'समाधि'।
⋙ योगसार
संज्ञा पुं० [सं०] वह उपाय या साधन जिससे मनुष्य सदा के लिये रोग से मुक्त हो जाय।
⋙ योगसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] यौगिक क्रियाओं की साधन। सूक्ष्म का ध्यान। विशेष— वैद्यक में ऋतुचर्या के अंतर्गत ऐसे उपायों का वर्णन है। भिन्न भिन्न ऋतुओं में भिन्न भिन्न निषिद्ध पदार्थों का त्याग और संयम आदि इसके अंतर्गत हैं।
⋙ योगसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने योग की सिद्धि प्राप्त कर ली हो। योगी।
⋙ योगसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग में सफलता।
⋙ योगसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] महर्षि पतंजलि के बनाए हुए योग संबंधी सूत्रों का संग्रह। विशेष दे० 'योग'।
⋙ योगसेवा
संज्ञा पुं० [सं०] शून्य की उपासना। सूक्ष्म का ध्यान। योग की साधना [को०]।
⋙ योगस्थ
क्रि० [सं०] योग में स्थित। योगयुक्त।
⋙ योगांग
संज्ञा पुं० [सं० योगाङ्ग] पतंजलि के अनुसार योग के आठअंग जो इस प्रकार हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्या- हार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन्हीं के पूर्ण साधन से मनुष्य योगी होता है।
⋙ योगांजन
संज्ञा पुं० [सं० योगाञ्जन] १. आँखों का एक प्रकार का अंजन या प्रलेप जिसके लगाने से आँखों का रोग दूर होता है। २. वह अंजन जिसे लगाने से पृथ्वी के अंदर की छिपी हुई वस्तुएँ भी दिखाई पड़ें। सिद्धांजन।
⋙ योगांत
संज्ञा पुं० [सं० योगान्त] मंगल ग्रह की कक्षा के सातवें भाग का एक अंश। (ज्योतिष)।
⋙ योगांतराय
संज्ञा पुं० [सं० योगान्तराय] योग में विघ्न डालनेवाली आलस्य आदि दस बातें।
⋙ योगांता
संज्ञा स्त्री० [सं० योगान्ता] मूल, पूर्वापाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रों से होती हुई बुध की गति जो आठ दिन तक रहती है।
⋙ योगांबर
संज्ञा पुं० [सं० योगम्बर] बौद्धों के एक देवता का नाम।
⋙ योगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता की एक सखी का नाम।
⋙ योगाकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वह आकर्षण शक्ति जिसके कारण परमाणु मिले रहते हैं और अलग नहीं होते।
⋙ योगागम
संज्ञा पुं० [सं०] योगशास्त्र।
⋙ योगाचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. योग का आचरण। २. बौद्धों का एक संप्रदाय। विशेष— इस संप्रदाय का मत हे कि पदार्थ (बाह्य) जो दिखाई पड़ते हैं, वे शून्य हैं। वे केवल अंदर ज्ञान में भासते हैं, बाहर कुछ नहीं हैं। जैसे, 'घट' का ज्ञान भीतर आत्मा में है, तभी बाहर भासता है, और लोग कहते हैं कि यह घट है। यदि यह ज्ञान अंदर न हो, तो बाहर किसी वस्तु का बोध न हो। अतः सब पदार्थ अंदर ज्ञान में भासते हैं और बाह्य शून्य है। इनका यह भी मत है कि जो कुछ है, वह सब दुःख स्वरूप है, क्योंकि प्राप्ति में संतोष नहीं होता, इच्छा बनी रहती है।
⋙ योगात्मा
संज्ञा पुं० [सं० योगात्मन्] योगी।
⋙ योगानुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] योगाशास्त्र।
⋙ योगापत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह संस्कार जो प्रचलित प्रथाओं अथवा आचारव्यवहार आदि के कारण उत्पन्न हो।
⋙ योगाभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] योगशास्त्र के अनुसार योग के आठ अंगों का अनुष्ठान। योग का साधन। उ०— बदरिकाश्रम रहे पुनि जाई। योग अभ्यास (योगाभ्यास) समाधि लगाई।— सूर (शब्द०)।
⋙ योगाभ्यासी
संज्ञा पुं० [सं० योगाभ्यासिन्] योग की साधना करनेवाला, योगी।
⋙ योगारंग
संज्ञा पुं० [सं० योगारङ्ग] नारंगी।
⋙ योगाराधन
संज्ञा पुं० [सं०] योग का अभ्यास करना। योगसाधन।
⋙ योगारूढ़
संज्ञा पुं० [सं० योगारूढ] वह योगी जिसने इंद्रियसुख आदि की और से अपना चित्त हटा लिया हो। वह जिसने चित्तवृत्तियों का निरोध कर लिया हो। योगी।
⋙ योगासन
संज्ञा पुं० [सं०] योगसाधन के आसन, अर्थात् बैठने के ढंग।
⋙ योगित
वि० [सं०] १. जो इंद्रजाल या मंत्र आदि की सहायता से अपने अधीन कर लिया गया हो अथवा पागल बना दिया गया हो। २. जिसपर इंद्रजाल या मंत्र आदि का प्रयोग किया गया हो।
⋙ योगिता
संज्ञा पुं० [सं०] योगी का भाव या धर्म।
⋙ योगित्व
संज्ञा पुं० [सं०] योगी का भाव या धर्म।
⋙ योगिदंड
संज्ञा पुं० [सं० योगिदण्ड] बेंत।
⋙ योगिनिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] थोड़ी सी नींद। झपकी।
⋙ योगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रणपिशाचिनी। २. एक लोक का नाम। ३. आषाढ़ कृष्णा एकादशी। ४. योगयुक्ता नारी। योगाभ्यासिनी। तपस्विनी। ५. आवर्ण देवता। ये असंख्य है जिनमें से चौंसठ मुख्य हैं।६. अठ विशिष्ट देवियाँ जिनके नाम इस प्रकार है।— (१) शैलपुत्री, (२) चंद्रघंटा, (३) स्कंदमाता, (४) कालरात्रि, (५) चंडिका (६) कूष्मांडी (७) कात्यायनी और (८) महागौरी। ७. ज्योतिष शास्त्रानुसार ये आठ देवियाँ— ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, नारायणी, वाराही, इंद्राणी, चामुंडा, और महालक्ष्मी। ८. तिथिविशेष में दिग्विशेषावस्थित योगिनी। ९. तत्काल योगिनी। १० काली की एक सहचरी का नाम। ११. देवी। योगमाया।
⋙ योगिनीचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताँत्रिकों का वह चक्र जिसमें वे योगिनियों का साधन करते हैं। २. ज्योतिषी का वह चक्र जिससे वह इस बात का पता लगाता है कि योगिनी किस दिशा में हैं।
⋙ योगिया
संज्ञा पुं० [सं० योगी+हिं० इया (प्रत्य०)] १. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें गांधार के अतिरिक्त सब कोमल स्वर लगते हैं। विशेष— इसके गाने का समय प्रातःकाल १ दंड से ५ दंड तक है। यह करुण रस का राग है। कुछ लोग इसे भैरव राग की रागिनी भी मानते हैं। २. अस्त्रज्ञानी। दे० 'योगी'।
⋙ योगिराज
संज्ञा पुं० [सं०] योगियो में श्रेष्ठ। बहुत बड़ा योगी।
⋙ योगींद्र
संज्ञा पुं० [सं० योगीन्द्र] बहुत बड़ा योगी।
⋙ योगी
संज्ञा पुं० [सं० योगिन्] १. वह जो भले बुरे और सुख दुःख आदि सबके समान समझता हो। वह जिसमें न तो किसी के प्रति अनुराग हो और न विराग। आत्मज्ञानी। २. वह व्यक्ति जिसने योग सिद्ध कर लिया हो। वह जिसने योगाभ्यास करके सिद्धि प्राप्त कर ली हो। विशेष— योगदर्शन में अवस्था के भेद से योगी चार प्रकार के कहे गए हैं—(१) प्रथमकल्पित, जिन्होंने अभी योगाभ्यास का केवल आरंभ किया हो और जिनका ज्ञान अभी तक दृढ़ न हुआ हो; (२) मधुभूमिक, जो भूतों और इंद्रियों पर विजय प्राप्तकरना चाहते हों, (३) प्रज्ञाज्योति, जिन्होंने इंद्रियों को भली- भाँति अपने वश में कर लिया हो और (४) अतिक्रांतभावनीय, जिन्होंने सव सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हों और जिनका केवल चित्तलय बाकी रह गया हो। ३. महादेव। शिव। ४. विष्णु (को०)। ५. याज्ञवल्क्य ऋषि (को०)। ६. अर्जुन (को०)। ७. एक मिश्र जाति (को०)।
⋙ योगीकुंड
संज्ञा पुं० [सं० योगिकुण्ड] हिमालय के एक तीर्थ का नाम।
⋙ योगीनाथ
संज्ञा पुं० [सं० योगिनाथ] महादेव। शंकर।
⋙ योगीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगियों के स्वामी। २. बहुत बड़ा योगी। ३. याज्ञवल्क्य का एक नाम, जिन्हें योगी याज्ञल्क्य भी कहते हैं।
⋙ योगीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगियों में श्रेष्ठ। २. याज्ञवल्क्य मुनि का एक नाम। ३. महादेव।
⋙ योगीश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ योगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० योगेन्द्र] १. बहुत बड़ा योगी। २. वैद्यक में एक प्रकार का रस। विशेष— यह रससिंदूर से बनाया जाता है और इसमें सोना, कांती लोहा, अभ्रक, मोती और बंग आदि पड़ते हैं। यह प्रमेह, मूर्छा, यक्ष्मा, पक्षाघात, उन्माद और भगंदर आदि के लिये बहुत उपयोगी माना जाता है।
⋙ योगेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत बड़ा योगी। २. योगी याज्ञवल्क्य का एक नाम।
⋙ योगेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण। परमेश्वर। २. शिव। ३. देवहोत्र के एक पुत्र का नाम। ४. याज्ञवल्क्य ऋषि (को०)। ५. बहुत बड़ा योगी। योगीश्वर। सिद्ध। विशेष— पुराणों में नौ बहुत बड़े योगी अथवा योगेश्वर माने गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं—(१) कवि (शुक्राचार्य), (२) हरि (नारायण ऋषि), (३) अंतरिक्ष, (४) प्रबुद्ध, (५) पिप्प- लायन, (६) आविहोत्र, (७) द्रुमिल (दुरमिल), (८) चमस और (९) करभाजन। ५. एक तीर्थ का नाम।
⋙ योगेश्वरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] योगेश्वर का भाव या धर्म।
⋙ योगेश्वरी
संज्ञा स्त्री [सं०] १. दुर्गा। २. शाक्तों की एक देवी का नाम जो दुर्गा का एक विशेष रूप है। ३. कर्कोटकी। कोड़ा।
⋙ योगेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीसा (धातु)। २. टिन [को०]।
⋙ योगोपनिषद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक उपनिषद् का नाम। २. कौटिल्य के अनुसार झल, कपट तथा गुप्त रीति से शत्रु को मारने की युक्ति।
⋙ योग्य (१)
वि० [सं०] १. किसी काम में लगाए जाने के उपयुक्त। ठीक (पात्र)। काविल। लायक। अधिकारी। जैसे,—वह इस काम के योग्य नहीं है। २. शील, गुण, शक्ति, विद्या आदि से युक्त। श्रेष्ठ। अच्छा। जैसे,— वे बड़े योग्य आदमी है। ३. युक्ति भिड़ानेवाला। उपाय लगानेवाला। उपाधी। ४. उचित। मुनासिब। ठीक। जैसे,—यह बात उनके योग्य ही है। ५. जोतने लायक। ६. जोड़ने लायक। ७. दर्शनीय। सुंदर। ८. आदरणीय। माननीय।
⋙ योग्य (२)
संज्ञा पुं० १. पुष्य नक्षत्र। २. ऋद्धि नाक ओषधि। ३. रथ। शकट। गाड़ी। ४. चंदन।
⋙ योग्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षमता। लायकी। २. बड़ाई। ३. बुद्धिमानी। लियाकत। विद्वत्ता। ४. सामर्थ्य। ५. अनुकूलता। मुनासिवत। मुताविकत। ६. औकात। ७. गुण। ८. इज्जत। ९. उपयुक्तता।१०. स्वाभाविक चुनाव। ११. तात्पर्यबोध के लिये वाक्य के तीन गुणों में से एक। शब्दों के अर्थसबध की संगति या संभवनीयता। जैसे,—'वह पानी में जल गया' इस वाक्य में यद्यपि अर्थसंबंध है, पर वह अर्थ संभव नहीं, इससे यह वाक्य योग्यता के अभाव से ठीक वाक्य न हुआ।
⋙ योग्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. योग्य होने का भाव। योग्यता। २. लायक या काबिल होने का भाव। प्रवीणता।
⋙ योग्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोई काम करने का अभ्यास। मश्क। २. सुश्रुत के अनुसार शस्त्रक्रिया या चीरफाड़ करने का अभ्यास। ३. जवान स्त्री। युवती।
⋙ योजक (१)
वि० [सं०] मिलानेवाला। जोड़नेवाला।
⋙ योजक (२)
संज्ञा पुं० पृथ्वी का वह पतला भाग जो दो बड़े विभागों को मिलाता हो। भूडमरुमध्य।
⋙ योजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमात्मा। २. योग। ३. एक में मिलाने की क्रिया या भाव। संयोग। मिलान। मेल। योग। ४. दूरी की एक नाप जो किसी के मत से दी कोस की, किसी के मत से चार कोस की और किसी के मत से आठ कोस की होती है। (यहा एक कोस से अभिप्राय ४,००० हाथ से है। जेनियाँ के अनुसार एक याजन १०,००० कोस का होता है।
⋙ योजनगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० याजनगन्धा] १. कस्तूरी। २. सीता। ३. व्यास कगो माता और शांतनु की भार्या सत्यवती का नाम। विशेष—दे० 'व्यास'।
⋙ योजनगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० योजनगन्धिका] दे० 'योजनगंधा'।
⋙ योजनपणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ योजनवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ योजना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी काम में लगाने की क्रिया या भाव। नियुक्त करने की क्रिया। नियुक्ति। २. प्रयोग। व्यव- हार। इस्तमाल। ३. जोड़। मिलान। मेल। मिलाप। ४. बनावट। रचना। ५. घटना। ६. स्थिति। स्थिरता। ७. व्यवस्था। आयोजन। जैसे,—उन्होने इसकी सब योजना कर दी है। ८. किसी बड़े काम को करने का विचार या आयोजन। भावा कार्यों के संबंध में व्यवस्थित विचार। स्कीम। जैसे,— म्युनिसिपैलिटी की नगरसूधार की योजना सरकार ने स्वीकृत क/?/ला।
⋙ योजनीय
वि० [सं०] १. जो मिलाने अथवा योजना करने के योग्य हो। २. जिसे मिलाना या जोड़ना हो।
⋙ योजन्य
वि० [सं०] योजन संबंधी। योजन का।
⋙ योजित
वि० [सं०] १. जिसकी योजना की गई हो। २. जोड़ा हुआ ३. नियम से बद्ध किया हुआ। नियमित। ४. रचा हुआ। बनाया हुआ। रचित। घटित।
⋙ योज्य (१)
वि० [सं०] १. जोड़ने के लायक। मिलाने के योग्य। २. व्यवहार करने के योग्य।
⋙ योज्य (२)
संज्ञा पुं० वे संख्याएँ जो जोड़ी जाती हैं। जोड़ी जानेवाली संख्याएँ। (गणित)।
⋙ योत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह बंधन जो जुए को बैल की गरदन में जोड़ता है। जोत।
⋙ योद्धव्य
वि० [सं०] जिससे युद्ध करना हो या जिसके साथ युद्ध किया जा सके।
⋙ योद्धा
संज्ञा पुं० [सं० योद्धृ] वह जो युद्ध करता हो। भट। लड़ाका। सिपाही।
⋙ योध
संज्ञा पुं० [सं०] योद्धा। सिपाही। वीर।
⋙ योधक
संज्ञा पुं० [सं०] योद्धा। सिपाही।
⋙ योधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध की सामग्री। लड़ाई का सामान जैसे, अस्त्र शस्त्र आदि। २. युद्ध। रण। लड़ाई।
⋙ योधा
संज्ञा पुं० [सं० योद्धृ] दे० 'योद्धा'।
⋙ योधिवन
संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्राचीन जंगल का नाम।
⋙ योधी
संज्ञा पुं० [सं० योधिन्] योद्धा। वीर।
⋙ योधेय
संज्ञा पुं० [सं०] योद्धा। सिपाही।
⋙ योध्य
वि० [सं०] जिसके साथ युद्ध किया जा सके। युद्ध करने के योग्य।
⋙ योनल
संज्ञा पुं० [सं०] यवनाल। ज्वार। मक्का या जोन्हरी।
⋙ योनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकर। खानि। २. वह जिससे कोई वस्तु उत्पन्न हो। उत्पादक कारण। ३. उत्पत्ति स्थान। जहाँ से कोई वस्तु पैदा हो। उदगम। ४. जल। पानी। ५. कुशद्वीप की एक नदी का नाम। ६. स्त्रियों का जननेंद्रिय। भग। ७. प्राणियों के विभाग, जातियां या वर्ग। विशेष— पुराणानुसार इनकी संख्या चौरासी लाख है। कुछ लोगों के मत से अंडज, स्वेदज, उदभिज, और जरायुज सव इक्कीस लाख है, और कहीं कहीं इनकी संख्या इस प्रकार लिखी है— जलजंतु ... ... ... नौ लाख स्थावर ... ... ... बास लाख कृमि ... ... ... ग्यारह लाख पक्षो ... ... ... दस लाख पशु ... ... ... तीस लाख मनुष्य ... ... ... चार लाख/?/कुल चौरासी लाख यह भी कहा गया है कि जीव को अपने कर्मों का फल भोगने के लिये इन सव योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। मनुष्य योनि इन सवमें श्रेष्ठ और दुर्लभ मानी गई है। ८. देर। शरीर। ९. गर्भ। १०. जन्म। उत्पत्ति११. गर्भशय। १२. अंतःकरण।
⋙ योनिकंद
संज्ञा पुं० [सं० योनिकन्द] योनि का एक रोग जिसमें उसके अंदर एक प्रकार की गाँठ हो जाती है और उसमें से रक्त या पीव निकलता है।
⋙ योनिज (१)
वि० [सं०] जिसकी उत्पत्ति योनि से हुई हो। योनि से उत्पन्न।
⋙ योनिज (२)
संज्ञा पुं० वह जीव जिसकी उत्पत्ति योनि से हुई हो। विशेष— ऐसे जीव दो प्रकार के होते हैं - जरायुज और अंडज। जो जीव गर्भ में पूरा शरीर धारण करके योनि के बाहर निकलेत हैं, वे जरायुज कहलाते हैं, और जो अडे से उत्पन्न होते हैं, वे अंडज कहलाते हैं।
⋙ योनिदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र।
⋙ योनिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] उपर्दश रोग। गरमी। आंतशक।
⋙ योनिफूल
संज्ञा पुं० [सं० योनि+हिं० फूल] योनि के अंदर की वह गाँठ जिसके ऊपर एक छेद होता है। इसी छेद में से होकर वीर्य गर्भाशय में प्रवेश करता है।
⋙ योनिभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] योनि का एक रोग जिसमें गर्भाशय अपने स्थान से हट जाता है।
⋙ योनिमुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बार बार जन्म लेने से मुक्त हो गाय हो। वह जिसने मोक्ष प्राप्त कर लिया हो।
⋙ योनिमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक मुद्रा जिसमें वे पूजन के समय उँगलियों से प्रायः योनि का सा आकार बनाते हैं।
⋙ योनियंत्र
संज्ञा पुं० [सं० योनियन्त्र] कामाक्षा, गया आदि कुछ विशिष्ट तीर्थ स्थानों में बना हुआ एक प्रकार का बुहत ही संकीर्ण मार्ग, जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि जो इस मार्ग से होकर निकल जाता है, उसका मोक्ष हो जाता है।
⋙ योनिरंजन
संज्ञा पुं० [सं० योनिरञ्जन] ऋतुस्राव। रजोधर्म [को०]।
⋙ योनिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक देश का प्राचीन नाम जिसमें क्षत्रियो का निवास था।
⋙ योनिशूल
संज्ञा पुं० [सं०] योनि का एक रोग जिसमें वहुत पीड़ा होती है।
⋙ योनिशूलघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतपुष्पा।
⋙ योनिसंकर
संज्ञा पुं० [सं० योनिसङ्कर] वह जिसके पिता और माता दोनों भिन्न जातियों के हों। वर्णसंकर।
⋙ योनिसंकोचन
संज्ञा पुं० [सं० योनिसङ्कोचन] १. योनि को फैलाने और सिकोड़ने की क्रिया। २. योनि के मुख का सिकोड़ने या तंग करने की औषध। विशेष— यह क्रिया अथवा इसका उपाय प्रायः संभोगसुख के लिये किया जाता है।
⋙ योनिसंभव
संज्ञा पुं० [सं० योनिसम्भव] वह जो योनि से उत्पन्न हुआ हो। योनिज।
⋙ योनिसंवरण
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भवती स्त्रियों का एक प्रकार का रोग, जिसमें योनि का मार्ग सिकुड़ जाता है, गर्भाशय का द्वाररुक जाता है और गर्भ का मुँह बंद हो जाने से साँस रुककर बच्चा मर जाता है। इस रोग में गर्भिणी के भी मर जाने की आशंका रहती है।
⋙ योनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] योनि।
⋙ योन्यर्श
संज्ञा पुं० [सं० योन्यर्शस्] योनि का एक रोग जिसमें उसेक अंदर गाँठ सी हो जाती है। योनिकंद।
⋙ योम
संज्ञा पुं० [अं० यौम] १. दिन। रोज। २. तिथि। तारीख।
⋙ योरोप
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'युरोप'।
⋙ योरोपियन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'युरोपियन'।
⋙ योषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जो सती और पतिव्रता न हो। दुश्चरित्रा स्त्री। २. युवा लड़की। नवयुवती।
⋙ योषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारी। स्त्री। औरत।
⋙ योषित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारी। स्त्री।
⋙ योषतप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] हलदी।
⋙ योषिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री। नारी। औरत [को०]।
⋙ योषथिदग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] मृत व्यक्ति की स्त्री को रखनेवाला वा, ग्रहण करनेवाला व्योक्ति [को०]।
⋙ यौं पु †
अव्य० [सं० एवमेव] दे० 'यों'। उ०— पहिरत ही गोरे गरे यौं दौरी दुति लाल। मनौ परसि पुलकित भई मौलसिरी की माल। —बिहारी (शब्द०)।
⋙ यौ पु †
सर्व० [हिं० यह] यह। उ०— ऐपी एक आप कहि राजा सों यौ बात कही, लैके जावौ वाग स्वामी नेकु देखौं प्रीति को।—प्रियादास (शब्द०)।
⋙ यौक्ताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ योक्तिक (१)
वि० [सं०] जो युक्ति के अनुसार ठीक हो। युक्तियुक्त। बाजिव। उजित। ठीक।
⋙ यौक्तिक (२)
संज्ञा पुं० विनोद या क्रीड़ा का साथी। नर्म सखा।
⋙ यौगंधर
संज्ञा पुं० [सं० यौगन्धर] अस्त्रों के निष्फल करने का एक प्रकार का अस्त्र।
⋙ यौगंधरायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो युगंधर के गोत्र में उत्पन्न हुआ हो। २. राजा उदधन के एक मंत्रा का नाम।
⋙ यौग
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो योगदर्शन के मत के अनुसार चलता हो।
⋙ यौगक
वि० [सं०] योग संबंधी। योग का।
⋙ यौगिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिला हुआ। २.प्रकृति और प्रत्यय के योग से बना हुआ शब्द। व्युत्पन्न शब्द। ३. दो शब्दों से मिलकर बना हुआ शब्द। ४. अट्ठाइस मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
⋙ यौजनिक
वि० [सं०] जो एक योजन तक जाता हो। एक योजन तक जानेवाला।
⋙ यौतक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यौतुक'।
⋙ यौतुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धन आदि जो विवाह के समय वर और कन्या को मिलता हो। दाइजा। जहेज। दहेज। विशेष— ऐसे धन पर सदा वधू का ही अधिकार रहता है, घर के और लोगों का उसपर कोई अधिकार नहीं होता। यह स्त्रीधन माना जाता है। २. अन्नप्राशन आदि संस्कारों के समय जिसका संस्कार होता है उसको मिलनेवाला धन।
⋙ योथिक
वि० [सं०] १. यूथ संबंधी। समूह का। २. जो यूथ में रहता हो। झूंड बाँधकर रहनेवाला।
⋙ यौथिक (२)
संज्ञा पुं० साथी। मित्र [को०]।
⋙ यौध
संज्ञा पुं० [सं०] योद्धा। सिपाही।
⋙ यौधेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. योद्धा। २. एक प्राचीन देश का नाम। ३. प्राचीन काल की एक योद्धा जाति। विशेष— यह जाति उत्तरपश्चिम भारत में रहती थी और इसका उल्लेख पाणिनि ने किया है। बौद्ध काल में इस जाति का बहुत जोर और आदर था। इस जाति के राजाओं के अनेक सिक्के भी पाए गए हैं। पुराणानुसार यह जाति युधिष्टिर के वंशजों से उत्पन्न हुई थी। ४. युधिष्ठिर का पुत्र जो राजा शैव्य का दौहित्र था।
⋙ यौन (१)
वि० [सं०] १. योनि संबंधी। योनी का। २. वैवाहिक। जैसे, यौन संबंध। यौ०—यौनवृत्ति=काम या कामुकता की वृत्ति।
⋙ यौन (२)
संज्ञा पुं० १. योनि (को०)। २. विवाह संबंध (को०)। ३. उत्तरापथ की एक प्राचीन जाति का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है। कदाचित् ये लोग यवन जाति के थे।
⋙ यौनानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० यौनानुबन्ध] खून का संबंध [को०]।
⋙ यौवत
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों का समूह। २. लास्य नृत्य का दूसरा भेद। वह नृत्य जिसमें बहूत सी नटियाँ मिलकर नाचती हों।
⋙ यौवतेय
संज्ञा पुं० [सं०] युवती का लड़का। युवती का पुत्र [को०]।
⋙ यौवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अवस्था का वह मध्य भाग जो।बाल्यावस्था के उपरांत आरंभ होता है और जिसकी समाप्ति पर वृद्धावस्था आती है। विशेष— इस अवस्था के अच्छी तरह आ चुकने पर प्रायः शारीरिक बाढ़ रुक जाती है और शरीर बलवान तथा हृष्ट हो जाता है। साधारणतः यह अवस्था १६ वर्ष से लेकर ६० वर्ष तक मानी जाती है। २. युवा होने का भाव। तारुण्य। जवानी। ३. दे० 'जोबन'। ४. युवतियों का दल।
⋙ यौवनकंटक
सं० पुं० [सं० यौवनकण्टक] मुहाँसा, जो युवावस्था में होता है।
⋙ यौवनक
सं० पुं० [सं०] यौवति। जवानि।
⋙ यौवनपिड़का
संज्ञा पुं० [सं० यौवनपिडका] मुँहासा।
⋙ यौवलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लावण्य। नमक। २. स्त्रियों को छाती। स्तन। कुच।
⋙ यौवनस्थ
वि० [सं०] १. युवा। तरुण। जवान। २. विवाह के योग्य। ३. स्वस्थ। तेजस्वी।
⋙ यौवनढ़रूढा
वि० [सं० यौवनाधिरुढा] युवती। जवान (स्त्री)।
⋙ यौवनाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] मांधाता राजा का एक नाम। विशेष दे० 'मांधाता'।
⋙ यौवनिक
वि० [सं०] यौवन संबंधी। यौवन का।
⋙ यौवनोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ यौवनोद्भेद
संज्ञा पुं० [सं०] कामोन्माद। जवानी की उमंग [को०]।
⋙ यौवराजिक
वि० [सं०] युवराज संबंधी। युवराज का।
⋙ यौवराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. युवराज होने का भाव। २. युवराज का पद।
⋙ यौवराज्याभिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] वह अभिषेक और उसके संबंध का कृत्य तथा उत्सव आदि जो किसी के युवराज बनाए जाने के समय हो। युवराज के अभिषेक का कृत्य।
⋙ यौषिण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारीत्व। २. नारी की भावभंगिमा या मुखमुद्रा [को०]।