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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मा

विक्षनरी से

मांगलगीत
संज्ञा पुं० [सं० माङ्गल्यगीत] वह शुभ गीत जो विवाह आदि मंगल के अवसरों पर गाए जाते हों। मंगलगीत।

मांगलिक (१)
वि० [सं० माङ्गलिक] [वि० स्त्री० मांगलिकी] मंगल प्रकट करनेवाला। शुभ।

मांगलिक (२)
संज्ञा पुं० नाटक का वह पात्र जो मंगलपाठ करता है।

मांगलीक
वि० [सं० माङ्गलिक] दे० 'मांगलिक'। मुहा०—मांगलीक उतारना = बाहर से आए हुए व्यक्ति की मंगल भाव से आरती उतारना। उ०—राई अंगणी राजा पहुँती जाई। मांगलीक उतारै हो माई।—वी० रासो, पृ० ९६।

मांगल्य (१)
वि० [सं० माङ्गल्य] शुभ। मंगलकारक।

मांगल्य (२)
संज्ञा पुं० १. मंगल का भाव। मांगलिकता। २. मंगल द्रव्य (को०)।

मांगल्यकाया
संज्ञा स्त्री० [सं० माङ्गल्यकाया] १. दूव। २. हलदी। ३. ऋद्धि। ४. गांरोचन। ५. हरें।

मांगल्यकुसुमा
संज्ञा स्त्री० [सं० माङ्गल्यकुसुमा] शंखपुष्पी।

मांगल्यप्रवरा
संज्ञा स्त्री० [सं० माङ्गल्यप्रवरा] वच।

मांगल्या
संज्ञा स्त्री० [सं० माङ्गल्या] १. गोरोचन। २. शर्मा का वृक्ष। ३. जीवंती।

मांगल्यार्हा
संज्ञा स्त्री० [सं० माङ्गल्यार्हा] त्रायमाण लता [को०]।

मांजिष्ठ (१)
वि० [सं० माञ्जिष्ठ] [वि० स्त्री० मांजिष्ठी] १. मजीठ का सा। मजीठ के समान। २. मजीठ के रंग का।

मांजिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० १. लाल रंग। मजीठ रंग (को०)। २. एक प्रकार का मूत्ररोग या प्रमेह जिसमें मजीठ के रंग का लाल पेशाब होती है।

मांडप
वि० [सं० माण्डप] मंडप संबंधी। मंडप का [को०]।

मांडलिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० माण्डलिक] १. वह जो किसी मंडल या प्रांत की रक्षा अथवा शासन करता हो। २. शासनकार्य। ३. वह छोटा राजा जो किसी सार्वभौंम या चक्रवर्ती राजा के अधीन हो और उसे कर देता हो। उ०—क्या कोई मांडलिक हुआ सहसा। विद्रोह।—साकेत, पृ० ४१२। विशेष—शुक्र नीति के अनुसार मांडलिक नरेश वे कहे जाते है जिनके राज्य की वार्षिक आय ४ लाख से १० लाख तक होती है।

मांडलिक (२)
वि० [वि० स्त्री० मांडलिकी] मंडल संबंधी। मंडल के शासन से संबद्ध [को०]। यौ०—मांडलिक नृपति = मंडल का वह राजा जो किसी बड़े राजा के अधीन हो। सामांत। उ०—इससे स्पष्ट है कि परमारवंश का प्रतिष्ठापक उपेंद्र या कृष्णराज, आरंभ में प्रतीहारों या राष्ट्रकूटों का मांडलिक नृपति (सामंत) रहा होगा।—आदि०, पृ० ५३३।

मांडवी
संज्ञा स्त्री० [सं० माण्डवी] राजा जनक के भाई कुशव्वज की कन्या जो भरत को व्याही थी। उ०—मांडवी चित्तचातक नवांबुद बरन सरन तुलसीदास अभयदाता।—तुलसी (शब्द०)।

मांडव्य
संज्ञा पुं० [सं० माण्डव्य] १. एक प्राचीन ऋषि। उ०— विदुर सु धर्मराइ अवतार। ज्यों भयो कहौं सुनो चितधार। मांडव्य ऋषि जब शूली दयो। तब सो काठ हरयो ह्लै गयो।—सूर (शब्द०)। विशेष—बाल्यावस्था के किए हुए पाप के अपराध के कारण यमराज ने इनको शूली पर चढ़वा दिया था। इसपर ऋषि ने यमराज को शाप दिया कि तुम शूद्र हो जाओ, जिससे यमराज दासी के गर्भ से पंडु के यहाँ उत्पन्न हुए थे। २. एक प्राचीन जाति का नाम। ३. एक प्राचीन नगर का नाम।

मांडहा † पु
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप, हिं० मँडवा] दे० 'मंडप-४'। उ०—ए च्यारइ वद उचरइ दीसउ मांडहा माँहि।— बी० रासो; पृ० २१।

मांडूक
संज्ञा पुं० [सं० माण्डूक] प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्राह्मण जो वैदिक मंडूक शाखा के अंतर्गत होथे थे।

मांडुकायनि
संज्ञा पुं० [सं० माण्डूकायनि] एक वैदिक आचार्य का नाम।

मांडूक्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० माण्डूक्य] एक उपनिषद् का नाम।

मांडूक्य (२)
वि० मंडूक संबंधी।

मांत्र
वि० [सं० मान्त्र] १. वेदमंत्र संबंधी। वेदमंत्र का। २. तंत्र संबंधी। तांत्रिक [को०]।

मांत्रिक (१)
वि० [सं० मान्त्रिक] मंत्र संबंधी। मांत्र [को०]।

मांत्रिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जो तंत्र मंत्रादि का ज्ञाता हो। २. वह जो वेदमंत्रों का ज्ञाता हो [को०]।

मांथर्य
संज्ञा पुं० [सं० मान्थर्य] १. मंथरता। धीमापन। सुस्ती। २. कमजोरा। शैथिल्य [को०]।

मांद
संज्ञा पुं० [सं० मान्द] १. तालाब का जल। २. ग्रहों की रवि या चंद्र संबंधी नाचाच्च या मंदाच्च गात।

मांदलु †
संज्ञा पुं० [सं० मद्दल] दे० 'माँदर'। उ०—कबीर सब जग हौं फरया मांदलु कंध चढ़ाइ।—कबीर ग्रं०, पृ० २६०।

मांदार (१)
वि० [सं० मान्दार] मंदार संबंधी। मंदार का।

मांदार (२)
संज्ञा पुं० मंदार का पेड़ [को०]।

मांदार्य
संज्ञा पुं० [सं० मान्दार्य] वह जो विषयी या रादद्वेष आदि से परे हो गया हो। वीतराग।

मांद्य
संज्ञा पुं० [सं० मान्द्य] १. कमी। न्यूनता। घटी। २. मंद होने की क्रिया या भाव। जैसे, आग्नमाद्य। ३. रोग बीमारी।

मांधाता
संज्ञा पुं० [सं० मान्धातृ] एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो युवनाश्व का पुत्र था और जिसको राजधानी अयाध्या में थी। उ०—कह्यो माधाता सो जाइ। पुत्री एक देहु मोहि राइ।— सूर (शब्द०)। विशेष—कहते हैं, राजा युवनाश्व कोई संतान न होने पर भी संसार त्याग कर वन में ऋषियों के साथ रहने लगा था। ऋषिया ने उसपर दया करके उसके घर संतान हाने के लिये यज्ञ किया। आधी रात के समय जब यज्ञ समाप्त हो गया, तब ऋषियों ने एक घड़े में अभिमंत्रित जल भरकर वेदी में रख दिया और आप सो गऐ। रात के समय जब युवनाश्व को बहुत अधिक प्यास लगी, तब उसने उठकर वही जल पी लिया जिसके कारण उसे गर्भ रह गया। समय पाकर उस गर्भ से दाहिनी कोख फाड़कर एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो यही मांधाता था। इंद्र ने इसे अपना अँगूठा चुसाकर पाला था। आगे चलकर वह बड़ा प्रतापी और चक्रवर्ती राजा हुआ था और इसने शशविंदु की कन्या विंदुमती के साथ विवाह किया था, जिसके गर्भ से इसे पुरुकुस्त, अंवरीप और मुचुकुंद नामक तीन पुत्र और पचास कन्याएँ उत्पन्न हुई थी।

मांस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्यों और पशुओं आदि के शरीर के अंतर्गत वह प्रसिद्ध चिकना, मुलायम, लचीला, लाल रंग का पदार्थ जो शरीर का मुख्य अवयव है औऱ जो रेशेदार तथा चरबी मिला हुआ होता है। गोश्त। विशेष—शरीर का यह अंश हड्डी चंमड़े, नाड़ी, नस और चरबी आदि से भिन्न है। इसका एक अंश कंकाल से लगा हुआ छोटे छोटे टुकड़ो में बँटा रहता है और वह ऐच्छिक कहलाता है, अर्थात् इच्छानुसार उसका संचालन किया जा सकता है। ये टुकड़े आपस में सुत्रों के द्वार जुड़े रहते हैं और उन सूत्रों के हटाने पर सहज में अलग हो सकते हैं। इन टुकड़ों को मांसपेशी कहते हैं। ये मांसपेशियाँ छोटी, बडी, पतली, मोटी आदि अनेक प्रकार की होती हैं। आशयों, नलियों, भागों और हृदय आदि अंगों का मांस, पेशियों में विभक्त नहीं होता। इन अंगों में मांस की केवल पतली या मोटी तहें रहती हैं जो आपस में एक दूसरी से बिलकुल मिली हुई होती हैं। ऐसा मांस अनैच्छिक या स्वाधीन कहलाता है, अर्थात् इच्छानुसार उसका संचालन नहीं किया जा सकता। मांस अथवा मांसपेशी मुलायम होने के कराण चाकू आदि से सहज में कट जाती है। शरीर में सभी जगह थोड़ा बहुत मांस रहता है और शरीर के भार में उसका अंश प्रति सैकड़ें ४२-४३ के लगभग होता है। शरीर की सब प्रकार की गतियाँ मांस के ही द्वार होती हैं। मांस आवश्य- कता पड़ने पर सिकुड़कर छोटा और मोटा होता है और फिर अपनो पूर्व अवस्था में आ जाता है। सुश्रुत के अनुसार मांस- पेशियों की संख्या ५०० तथा आधुनिक पाश्चात्य चिकित्सकों के मत से ५१९ है। वैद्यक के अनुसार यह रक्त से उत्पन्न तीसरी धातु है। भावप्रकास के अनुसार जब शरीर की अग्नि अथवा ताप के द्वारा रक्त का परिपाक होता है और वह वायु के संयोग से घनीभूत होता है, तब वह मांस का रूप धारण करता है। वैद्यक के अनुसार साधारणतः सभी प्रकार का मांस वायुनाशक, उपचयकारक, बलबर्धक, पुष्टिकारक, गुरु, हृदयग्राही और मधुररस होता है। पर्या०—आमिष। पिशित। पलाल। क्रव्य। पल। आन्नज। यौ०—मांस का घी = चरबी।२. कुछ विशिष्ट पशुओं के शरीर का उक्त अंश जो प्रायः खाया जाता है। गोश्त। विशेष—हमारे यहाँ यह मांस दो प्रकार का माना गया है। जांगल और आनूप। जंघाल विलस्थ, गुहाशय, पर्णमृग, विप्किर, प्रतुद, प्रसह और ग्राम्य इन आठ प्रकार के जंगली जीवों का मांस जांगल कहलता है, और वैद्यक के अनुसार मधुरस, कषाय, रुक्ष, लघु, वलकारक, शुक्रवर्धक, अग्निदीपक, दोषघ्न और वधिरता, अरुचि, वसि, प्रमेह, मुखरोग, श्लीपद और गलगंड आदि का नाशक माना जाता है। कुलेचर, प्लय, कोशस्थ, पादी और मत्स्य इन पाँच प्रकार के जीवों का मांस आनूप कहलाता है और वैद्यक के अनुसार साधारणतः मधुररस, स्निग्ध, गुरु, अग्नि को मंद करनेवाला, कफकारक तथा मांसपोषक होता है। पत्तियों में से पुरुष जाति अथवा नर का और चौपायों में स्त्री जाति अथवा मादा का मांस अच्छा कहा गया है। इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न जीवों के मांस के गुण भी भिन्न भिन्न होते हैं। साधारणतः प्रायः सभी देश और सभी जातियों में कुछ विशिष्ट, पक्षियों और मछलियों आदि का मांस बहुत अधिकता से खाया जाता है। पर भारत के कुछ धार्मिक संप्रदायों के अनुसार मांस खाना बहुत ही निषिद्ध है। पुराणों में इसका खाना पाप माना गया है। कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों और चिकित्सकों आदि का मत है कि मांस अनेक प्रकार के स्वाभाविक भोजन नहीं है और उसके खाने से अनेक प्रकारके घातक तथा असाध्य रोग उत्पन्न होते हैं। यौ०—मांसाहारी। ३. मछली का मांस (को०)। ४. फल का गूदावाला भाग (को०)। ५. कीड़ा। कीट (को०)। ६. मांस बेचनेवाली एक संकर जाति (को०)। ७. काल। समय (को०)।

मांसकंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० मांसकन्दी] मांस की स्फीति। सूजन। शोथ [को०]।

मांसकच्छप
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत कते अनुसार एक प्रकार का रोग जो तालू में होता है।

मांसकारी
संज्ञा पुं० [सं० मांसकारिन्] रक्त। लहू।

मांसकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] बवासीर का मसा।

मांसकेशी
संज्ञा पुं० [सं० मांसकेशिन्] वह घोड़ा जिसके पैरों में मांस के गुठले निकलते हों।

मांसक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर [को०]।

मांसखोर
संज्ञा पुं० [सं० मांस + फा़० खोर] मांस खानेवाला। मांसाहारी।

मांसग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० मांसग्रन्थि] मांस की गाँठ जो शरीर के भिन्न भिन्न अंगों में निकल आती है।

मांसच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मांसरोहिणी या मांसी नाम की लता।

मांसज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मांस से उत्पन्न हो। २. मांस से उत्पन्न शरीर में की चर्बी।

मांसतान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का भीषण रोग। विशेष—वैद्यक के अनुसार इस रोग में गले में सूजन होकर चारों ओर फैल जाती है जिसमें बहुत अधिक पीड़ा होती है। इससे कभी कभी गले की नाड़ी घुटकर बंद हो जती है और रोगी मर जाता है।

मांसतेज
संज्ञा पुं० [सं० मांसतेजस्] चर्बी।

मासदलन
संज्ञा पुं० [सं०] प्लीहघ्न वृक्ष [को०]।

मांसद्राबी
संज्ञा पुं० [सं० मांसद्राविन्] अम्लबेत।

मांसधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार शरीर के चमड़े की सातवीं तह जो स्थूलापर भी कहलाती है।

मांसनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के बाल। रोम [को०]।

मांसप
संज्ञा पुं० [सं०] पिशाच या राक्षस [को०]।

मांसपचन
संज्ञा पुं० [सं०] मांस पकाने का बरतन [को०]।

मांसपाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लिंग का रोग जिसमें लिंग का मांस फट जाता है और उसमें पीड़ा होती है।

मांसपिंड
संज्ञा पुं० [सं० मांसापिण्ड] १. शरीर। देह। २. मांस का पिंड या लोदा (को०)।

मांसापिंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० मांसपिण्ड हिं० + ई] शरीर के अंदर होनेवाली मांस की गाँठ। विशेष—कहते हैं, पुरुषों के शरीर में इस प्रकार की ५०० और स्त्रियों के शरीर में ५२० गाँठें होती हैं।

मांसपिटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस की टोकरी। २. ढेर का मांस [को०]।

मांसपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी।

मांसपुष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा जिसमें सुंदर फूल लगते हैं और जिसे 'भ्रमरार' भी कहते हैं।

मांसपेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर के अंदर होनेवाला। मांसपिंड। विशेष दे० 'मांस'। उ०—मांसपेशी अर्थात् मांस- बोटी जो है सो बल करती है।—शार्ङ्गधर०, पृ० ५१। २. भावप्रकाश के अनुसार गर्भ की वह अवस्था जो गर्भधारण के सात दिनों के बाद होती है और प्रायः एक सप्ताह तक रहती हैं।

मांसफल
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज।

मांसफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भिडो। २. भंटे का पौधा (को०)।

मांसभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मांस खाता हो। मांसाहारी। २. पुराणानुसार एक दानव का नाम।

मांसभक्षी
संज्ञा पुं० [सं० मांसभक्षिन्] मांस खानेवाला। मांसाहारी। गोश्तखोर।

मांसभेत्ता
वि० [सं० मांसभेतृ] मांस काटनेवाला [को०]।

मांसभेदी
वि० [सं० मांसभेदिन्] मांसभेत्ता।

मांसभोजी
संज्ञा पुं० [सं० मांसभोजिन्] मांस खानेवाला। मांसाहारी।

मांसमंड
संज्ञा पुं० [सं०] मांस का झाल या रसा। शोरबा। पखनी।

मांसमासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी।

मांसयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त मांस से उत्पन्न जीव।

मांसरक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मांसरोहिणी। रोहिणी।

मांसगज्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार शरीर के अंदर होनेवाले स्नायु जिनसे मांस वँधा रहता है। २. मांस का रसा। शोरबा।

मांसरस
संज्ञा पुं० [सं०] मांस का रसा। यखनी। शोरवा।

मांसरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मांसरोहिणी।

मांसरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जंगली वृक्ष। विशेष—इसकी प्रत्येक डाली में खिरनी के पत्तों के आकार के सात सात पत्ते लगते हैं और इसके फल बहुत छोटे छोटे होते हैं। वैद्यक में इसे उष्ण, त्रिदोषनाशक, वीर्यवर्धक, सारक और व्रण के लिये हितकारी माना है। पर्या०—अतिरुहा। वृत्ता। चर्मकया। वसा। प्रहारवल्ली। विकसा। वीरवर्ता। अग्निरुहा। कशामांसी।महामांसी। मांसारोहा। रसायनी। सुलोमा। लोमकर्णी। रोहिणी। चद्रवल्लभा।

मांसल (१)
वि० [सं०] १. मांस से भरा हुआ। मांसपूर्ण (अंग)। जैसे,चूतड़, जाँघ आदि। उ०—गजहस्तप्राय जानुयुगल पीन मांसल कूर्मपृष्ठाकार श्रोणी गँभीर।—वर्ण०, पृ० ४। २. मोटा ताजा। पुष्ट। ३. भरा या गदराया हुआ। उ०—प्राणों की मर्मर से मुखारित जीवन का मांसल हरियाली।—युगांत, पृ० २। ४. बलवान् मजबूत। द्दढ़। ५. रक्ताभ। लाल। उ०—पत्रों में मांसल रंग खिला।—युगांत, पृ० ८।

मांसल (२)
संज्ञा पुं० १. काव्य में गौड़ी रीति का एक गुण। २. उड़द।

मांसलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मांसल होने का भाव। २. स्थूलता और पुष्टि। ३. वली। चर्मसंकोच (को०)।

मांसलफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भिंडी। २.तरबूज। ३. बैंगन। भंटा (को०)।

मांसलिप्त
संज्ञा स्त्री० [सं०] हड्डी।

मांसवारुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार की मदिरा जो हिरन आदि के मांस से बनाई जाती है।

मांसविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मांस की बिक्री। मांस वेचना [को०]।

मांसाविक्रयी
संज्ञा पुं० [सं० मांसाविक्रयिन्] १. वह जो मांस बेचता हो। कसाब। २. वह जो धन के लिये अपनी कन्या या पुत्र वेचता हो।

मांसवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर के किसी अंग के मांस का बढ़ जाना। जैसे, घेधा, फीलपाँव आदि।

मांससंवात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें तालू में कुछ दूषित मांस बढ़ जाता है। इसमें पीड़ा नहीं होती।

मांससमुद्धवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चर्बी।

मांससार
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर के अंतर्गत भेद नामक धातु। २. वह जो हृष्ट पुष्ट हो।

मांसस्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] चर्बी।

मांसहासा
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़ा।

मांसाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मांस खाता हो। २. राक्षस।

मांसादी
संज्ञा पुं० [सं० मांसादिन्] दे० 'मांसाद'।

मांसारि
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लबेत।

मांसार्गल
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह से लटकता हुआ मांस का टुकड़ा या लोयड़ा। ललरी [को०]।

मांसार्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें लिंग के ऊपर कड़ी फुसियाँ हो जाती हैं। २. शरीर में मुक्के आदि के आघात से होनेवाला एक प्रकार की सूजन। विशेष—इसमें शरीर का वह स्थान जहाँ आघात हुआ रहता है, पत्थर के समान कड़ा हो जाता है और उसमें पीड़ा नहीं होती। ऐसी सुजन असाध्य समझी जाती है।

मांसाशन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मांसाशी'।

मांसाशी
संज्ञा पुं० [सं० मांसाशिन्] १. वह जो मांस खाता हो। मांसाहारी। २. राक्षस।

मांसाष्टका
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ कृष्ण अष्टमी। विशेष—प्राचीन काल में इस दिन मांस के बने हुए पदार्थों से श्राद्ध करने का विधान था।

माहासारी
संज्ञा पुं० [सं० मांसाहारिन्] मांसभक्षी। मांस भोजन करनेवाला।

मांसिक
संज्ञा पुं० [सं०] कसाई। मांसाविक्रेता।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४९।

मांसिका, मांसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी।

मांसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जटामासी। २. काकोली। ३. मांसरो- हिणी। ४. चंदन आदि का तेल। ५. इलायची।

मांसेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वल्गुला। चमगादड़ [को०]।

मांसोदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस का भोजन। २. मांस के साथ पकाया हुआ चावल [को०]।

मांसोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० मांसोपजीविन्] दे० 'मांसिक'।

मांसौदनिक
वि० [सं०] मांसोदन खाने या प्राप्त करनेवाला। मांस और भात खानेवाले को मांसौदनिक कहते थे।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४९।

माँ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ = माता या अम्बा या मा (= लक्ष्मी माता)] जन्म देनेवाली, माता। जननी। उ०—दोउ भया जेंवत माँ आगे पुनि लै लै दधि खात कन्हाई और जननि पै माँगे।—सूर (शब्द०)। यौ०—माँ जाई = सगी बहिन। माँ जाया = सगा भाई। सहोदर। माँ बाप = (१) माता और पिता। (२) माता और पिता के समान अर्थात् रक्षण और पालन पोषण करनेवाला।

माँ ‡ (२)
अव्य० [सं० मध्य] में। उ०—(क) इन युग माँ को बड़सुखरासी। बोले तब रघुनाथ उपासी।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) कहु गुरु द्रोह केर फल का है। तेरी गाति सब शास्त्रन माँ हैं।—रघुराज (शब्द०)। (ग) लख चौरासी धार माँ तहाँ दीन जिउ बास। चौदह जम रखवारिय चारि वेद विश्वास।—कबीर (शब्द०)।

माँई †
अव्य० [हिं० माँह] दे० 'माँह'। उ०—षट मास माँई मिले साँई अचल पाई धाम ए।—राम० धर्म०, पृ० २५७।

माँकड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मकड़ी] १. दे० 'मकड़ी'। २. कमखाब बुननेवालों का एक औजार। विशेष—इसमें डेढ़ डेढ़ बालिश्त की पाँच तीलियाँ होती हैं और नीचे तिरछे बल में इतनी ही बड़ी एक और तीली होती है। यह ठाठ सवा गज लबी एक लकड़ी पर चढ़ा हुआ होता है जो करघे के लग्ये पर रखी जाती है। ३. पतवार के ऊपरी सिर पर लगी हुई और दोनों और निकली हुई वह लकड़ी जिसके दोनों सिरों पर वे रस्सियो बँधी होती हैं, जिनकी सहायता से पतवार घुमाते हैं। (लश०)। ४. जहाज में रस्से बाँधने के खूँटे आदि का वह बनाया हुआ ऊपरी भाग जिसमें लकड़ी या लोहा दोनों या चारा और इस अभिप्राय से निकला हुआ रहता है कि जिसमें उस खूँटे में बाँधा हुआ रस्सा ऊपर न निकल आवे। (लश०)।

माँख पु
संज्ञा पुं० [सं० मध्य] मध्य। बीच। उ०—देखि देखि मा रो इन माखे। खुली निगाह भई कै आँसे।—चित्रा०, पृ० २६।

माँखण
संज्ञा पुं० [डिं०] मक्खन। नवनीत।

माँखन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मक्खन'। उ०—होत परसपर पार माँखन के गेंदुक करे।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३४।

माँखना
क्रि० अ० [सं० मक्ष] क्रुद्ध होना। क्रोध करना। गुस्सा करना। दे० 'माखना'। उ०—ठावहि ठाँव कुँवर सब माँखे। केइँ अब लहि जोगी जिउ राखे।—पद्मावत, पृ० ११२।

माँखी
संज्ञा स्त्री० [सं० मक्षिका, प्रा० मक्खिआ] दे० 'मक्खी'। उ०—(क) ले चले नागर नगधर नवल तिया को ऐसे। माँखेन आँखिन धार पार मधुहा मधु जैसे।—नंद ग्रं०, पृ० २१०। (ख) यो ता श्रीनाथ जा के चरणस्पर्श माँखी हू करत है।— दा सौ बावन०, भाग १, पृ० ३१।

माँग (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। २. बिक्री या खपत आदि के कारण किसी पदार्थ के लिये होनेवाली आवश्यकता या चाह। जैसे,—आजकल बाजार में देशी कपड़ों की माँग बढ़ रही है।

माँग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्ग, प्रा० मग्ग] १. सिर के बालों के बीच की वह रेखा जो बालो को दो ओर विभक्त करके बनाई जाती है। सीमंत। विशेष—हिंदू सौभाग्यवती स्त्रियाँ माँग में सिंदूर लगाती हैं और इसे सौभाग्य का चिह्न समझती हैं। यौ०—माँग उजड़ना = विधवा होना। माँग चोटी = स्त्रियों का केशविन्यास। माँगजली = विधवा। राँड़। मुहा०—माँग कोख से सुखी रहना या जुड़ाना = स्त्रियों का सैभाग्यवती और संतानवती रहना। उ०—आनँद अवनि राजरानी सव माँगहु कोखु जुड़ानी।—तुलसी (शब्द०)। माँग पट्टी करना = केशाविन्यास करना। बालों में कंघी करना। माँग पारना या फारना = केशों को दो ओर करके बीच में माँग निकलना। माँग बाँधना = कंघी चोटी करना। (क्व०)। २. किसी पदार्थ का ऊपरी भाग। सिरा। (क्व०)। ३. सिल का वह ऊपरी भाग जो कुटा हुआ नहीं होता और जिसपर पीसी हुई चीज रखी जाती है। ४. नाव का गावदुमा सिरा। ५. दे० 'माँगी'।

माँगटीका
संज्ञा पुं० [हिं० माँग + टीका] स्त्रियों काएक गहना जो माँग पर पहना जाता है और जिसके बीच में एक प्रकार का टिकड़ा होता है जो माथे पर लटका होने के कारण टीके के समान जान पड़ता है।

माँगरण
संज्ञा पुं० [डिं०] दे० 'माँगन'।

माँगरणगार पु
वि० [सं० मार्गण, प्रा० मग्गण, हिं० माँगना + फा़० गार (प्रत्य०)] माँगनेवाला। याचक। उ०—माँगणगारा रीझवइ, ल्यावइ साल्ह कुमार।—टोला०, दू० १०२।

माँगणहार पु
संज्ञा पुं० [डिं० माँगण + हिं० हार (प्रत्य०)] माँगनेवाला। चारण। ढाढ़ी। याचक। उ०—मेल्हि सखी तेड़ाविया मारू माँगणहार।—ढोला०, दू० १०६।

माँगन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना] १. माँगने को क्रिया या भाव। २. याचक। भिक्षुक। भिखमंगा। मंगन। उ०—(क) नृप करि विनय महाजन फेरे। सादर सकल माँगने टेरे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रीति महाराज की निवाजिए जी माँगनो सो दोष दुख दारिद दरिद्र कै कै छोड़िए।—तुलसी (शब्द०)। (ग) रुचै माँग- नेहि माँगिबो, तुलसी दानिहिं दानु।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०९।

माँगनहार पु
संज्ञा पुं० [हिं० माँगना + हार (प्रत्य०)] माँगनेवाला। याचक। उ०—गुरु विन दाता कोइ नहीं जग माँगन- हारा।—कबीर श०, भा० १, पृ० ७२।

माँगना
क्रि० स० [सं० मार्गण (= याचना)] १. किसी से यह कहना कि तुम अमुक पदार्थ मुझे दो। कुछ पाने के लिये प्रार्थना करना या कहना। याचना करना। जैसे,—(क) मैने उनसे १० रुपए माँगे थे। (ख) तुम अपनी पुस्तक उनसे माँग लो। उ०—(क) सो प्रभु सों सरिता तरिबे कहँ माँगत नाउ करारे ह्वै ठाढ़े।—तुलसी (शब्द०)। (ख) माँगउँ दूसर वर कर जोरी।—तुलसी (शब्द०)। २. किसी से कोई आकांक्षा पूरी करने के लिये कहना। जैसे,—हम तो ईश्वर से दिन रात यही माँगते है कि आप निरोग हों। उ०—माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं राससिय मानस मोरे।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—माँग जाँचकर = इधर उधर से माँगकर। लोगों से लेकर। माँग तोँ कर = दे० 'माँग जाँचकर'। माँग बुलाना = किसी के द्वार किसी को अपने पास बुलवाना।

माँगफूल
संज्ञा पुं० [हिं० माँग + फूल] दे० 'माँगटीका'।

माँगी
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्ग ? हिं० माँग] धुनियों की धुनकी में की वह लकड़ी जो उसकी उस डाँड़ी के ऊपर लगी रहती है जिसपर ताँत चढ़ाते हैं।

माँच
संज्ञा पुं० [देश०] १. पाल में हवा लगने के लिये चलते हुए जहाज का रुख कुछ तिरछा करना। गोस (लश०)। २. पाल के नीचेवाले कोने में बँधा हुआ वह रस्सा जिसकी सहायता से पाल को आगे बढ़ाकर या पीछे हटाकर हवा के रुख पर करते हैं। (लश०)।

माँचना पु (१)
क्रि० अ० [हिं० मचना] १. आरंभ होना। जारी होना। शुरू होना। उ०—देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माँची।—तुलसी (शब्द०)। २. प्रसिद्ध होना। उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्याम कुंज बिहारी की अटल अटल प्रीति माँचा।—काष्ठजिह्वा (शब्द०)।

माँचना (२)
क्रि० स० [हिं०] मानना। उ०—करै प्रेम की टोक रोक एको नहिं माँचत।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८७।

माँचा †
संज्ञा पुं० [सं० मच्च, हिं० मंझा] [स्त्री० अल्पा० माँची] १. पलंग। खाट। मंझा। २. खाट को तरह की बुनी हुई छोटी पीढ़ी जिसपर लोग बैठते हैं। ३. मचान।

माँची
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँचा] बैलगाड़ियों आदि में बैठने की जगह के आगे लगी हुई वह जालीदार झोली जिसमें माल असबाब रखते हैं।

माँछ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मस्य, प्रा० मच्छ] मछली। उ०—आए सुगुन सुगुनअइ ताका। दहिउ माँछ रूपइ कर टाका।—जायसी (शब्द०)।

माँछ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'माँच'।

माँछना
क्रि० अ० [सं० मध्य?] घुसना। धँसना। पैठना। (लश०)।

माँछर †
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य] मछली।

माँछली †
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य] मछली।

माँछी
संज्ञा स्त्री० [सं० मक्षिका] दे० 'मक्खी'।

माँज
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. दलदली भूमि। २. तराई। कछार। ३. वह भूमि जो किसी नदी के पीछे हट जानेके कारण निकल आती है। गंगरार।

माँजना (१)
क्रि० स० [सं० मञ्जन या मार्जन] १. जोर से मलकर साफ करना। किसी वस्तु से रगड़कर मैल छुड़ाना। जैसे,बरतन माँजना। उ०—माँजत माँजत हार गया है, धागा नहीं निक- लता है।—कबीर श०, भा० पृ० ८१। २. थपुवे के तवे पर पानी देकर उसे ठीक करने के लिये उसके किनारे झुकाना (कुम्हार)। ३. सरेस को पानी में पकाकर उससे तानों के सूत रँगना। ४. सरेस और शीशे की बुकनी आदि लगाकर पतंग की नख के डोर को द्दढ़ करना। माँजा देना।

माँजना (२)
क्रि० अ० १. अभ्यास करना। मश्क करना। जैसे, हाथ माँजना। २. किसी गीत या छंद को वार वार आवृत्ति करके पक्का करना।

माँजर पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंजर या पाँजर] हड्डि यों की ठठरी। पंजर। उ०—झुर झुर माँजर धन भई बिरह की लागी आग।—जायसी (शब्द०)।

माँजर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मार्जार] दे० 'मार्जार'। उ०—दादू मांस अहारी जे नरा, ते नर सिंह सियाल, वग माँजर सुतहा सही, ऐता परतख काल।—दादू०, पृ० २५२।

माँजा
संज्ञा पुं० [देश०] पहलो वर्षा का फेन जो मछलियों के लिये मादक होता है। उ०—(क) नयन सजल तन थर थर काँपी। माँजहि खाइ मीन जनु माँपी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तलपत विषम मोह मन मापा। माँजा मनहुँ मीन कहँ व्यापा।—तुलसी (शब्द०)।

माँ जाया
संज्ञा पुं० [हिं० माँ + जाया (= जात)] [स्त्री० माँजाई] माँ से उत्पन्न सगा भाई।

माँजिणउ पु
संज्ञा पुं० [सं० मज्जन; प्रा० मज्जण, मंजण] दे० 'मज्जन'। उ०—साखिए ऊगट माँजिणउ खिजमति करइ अनंत।—ढोला०, पृ० ५३५।

माँझ पु † (१)
अव्य० [सं० मध्य] में। भीतर। बीच। अंदर। उ०— (क) व्रजहि चलौ आई अब साँझ। सुरभी सबै लेहु आगे करि रैनि होइ पुनि बनही माँझ।—सूर (शब्द०)। (ख) तुम्हरे कटक माँझ सुनु अँगद। मो सन भिरहि कवन याधा बद।—तुलसी (शब्द०)। (ग) आपुस माँझ महोदर साँचे। क्यों तुम बीर विरोधिन राँचे।—केशव। (घ) रेज करि सौतिन मजेज सों निकेत माँझ, पर पति हेत सेज साँझ ते सँवारती।—प्रताप (शब्द०)।

माँझ पु † (२)
संज्ञा पुं० १. अंतर। फरक। मुहा०—माँझ पड़ना या होना = बीच पड़ना। अंतर पड़ना। उ०—द्वादश बरष माँझ भयो तब ही पिता सेवा सावधआन मन नीको कर आनिए।—प्रियादास (शब्द०)। २. नदी के बीच में पड़ी हुई रेतीली भूमि।

माँझल पु
अव्य० [हिं० माँझ + ल (प्रत्य०)] दे० 'माँझ'। उ०—अरि देखै आराण मै, तृण मुख माँझल त्याँह।— बाँकी०, ग्रं०, भा० १, पृ० १।

माँझा (१)
संज्ञा पुं० [मध्य] १. नदी के बीच की जमीन। नदी में का टापू। २. एक प्रकार का आभूषण जो पगड़ी पर पहना जाता है। उ०—पैर में लेगर पाग पर माँझा आदि याबत् प्रतिष्ठा बख्शता हूँ।—राधाकृष्णदास (शब्द०)। ३. एक प्रकार का ढाँचा जो गोड़ई के बीच में रहता है और जो पाई को जमीन पर गिरने से रोकता (जुलाहे)। ४. वृक्ष का तना। ५. वे पीले कपड़े जो कहीं कहीं वह और कन्या को विवाह से दो तीन दिन पहले हलदी चढ़ने पर पहनाए जाते हैं।

माँझा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० माँजना] पतंग या गुड्डी उड़ाने की डोर या नख पर सरेस और शीशे के चूरे आदि से चढ़ाया जानेवाला कलफ जिससे डोरे या नख में मजबूती आती है। उ०—मिहीन सूत संत जन कातैं माँझा प्रेम भगति का।—कबीर श०, भा०, पृ० ७७। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना।

माँझा (३)
संज्ञा पुं० दे० 'मँझा'।

माँझिन, माँझिम †पु
वि० [सं० मध्यम, प्रा० मझ्झिम; राज० माँझमि] दे० मध्यम'। उ०—(क) का हसि करि म्हाँ सोख दे खड़िस्याँ माँझिन रात।—ढोला०, दू० २७८। (ख) किणहीं अवगुण कूँझड़ी कुरली माँझिम रत्त।-ढोला०, दू० ५७।

माँझिल † पु
क्रि० वि० [सं० मध्यम] बीच का। मध्य का। बीचवाला। उ०—बोला माँझिल तलय तुरंग तेंतीस जू। लावहु मम हित माँगि ग्राम गुरु बीस जू।—विश्राम (शब्द०)।

माँझी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मध्य, हिं० माँझ या देश०] १. नाव खेनेवाला। केवट। मल्लाह। २. दो व्यक्तियों के बीच में पड़कर मामला तै करा देनेवाला। उ०—सँवारि रकत नैनन भरि चुवा। रोइ हँकारेसि माँझी सुवा।—जायसी (शब्द०)। ३. जोरावर। बलवान्। (डिं०)।

माँझी पु (२)
वि० मुख्य। अग्रणी। उ०—सुंदर घर बाहर अजबसाह, एतला आद माँझी अथाह।—रा० रू०, पृ० १८४।

माँट पु †
संज्ञा पुं० [सं० मट्टक] मिट्टी का बड़ा बरतन जिसमें अनाज या पानी आदि रखते हैं। मटका। कुंडा। उ०—(क) पुनि कमंडलु धरयो तहाँ सो बढ़ि गयो कुंभ धरि बहुरि पुनि माँट राख्यो।—सूर (शब्द०)। (ख) मानो नील माँट महँ बोरे लै यमुना जु पखारे।—सूर (शब्द०)। २. घर का ऊपरी भाग। अटारी।

माँटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मिट्टी] दे० 'माटी'। उ०—जो नियान तन होइहि छारा। माटी पौखि मरै को भारा।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २०८।

माँठ
संज्ञा पुं० [सं० मट्टक] १. मटका। मिट्टी का बड़ा बरतन। २. नील घोलने का मिट्टी का बना बड़ा बरतन।

माँठी पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की फूल धातु की ढली हुई चूड़ियाँ जो पूरब में नीच जाति की स्त्रियाँ हाथ में कलाई से लेकर कोहनी तक पहनती है। इसे 'मठिया' भी कहते हैं। २. मट्ठी या मठरी नामक पकवान जो मैदे का बना होता है।

माँड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड] पकाए हुए चावलों में से निकला हुआ लसदार पानी। बात का पसेव। पीच। पसाव। उ०—चावल रँग माँड भैडै भनसै।—घट०, पृ० ८७।

माँड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० माँडना] १. माड़ने की क्रिया या भाव। २. सँवारी या बनावटी बात। झूठी बात। उ०—पाड्यो कहु कइ परतिष (इ) भाँड़। झूठ कथइ छइ बोलई छइ माँड़।—बी० रासो०, पृ० ४१।

माँड़ (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का राग।

माँड़ना पु †
क्रि० स० [सं० मण्डन] मर्दन करना। मलना। मसलना। मींजना। सानना। गूँधना। जैसे, आटा माँड़ना। उ० - तब पीसै जब पहिले धोए। कापरछान माँड़ भल होए।—जायसी (शब्द०)। २. लगाना। पोतला। लेपन करना। जैसे, मुँह में केसर या गुलाब माँड़ना। उ०—वेद मंत्र पढ़ि साधि करम विधि यज्ञ करते जेहि लागी जू। ताका मुख माँडत केशरि सों व्रज युवती रसपागी जू।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३७८। ३. रचना। बनाना। सजाना। †४. लगाना। मारना। जमाना। जैसे, आसन माँड़ना। उ०— स्वामी जी वसत भवना जागन बैठे आसण माँड़ वाली।— रामानंद०, पृ० १४। ५. किसी अन्न की बाल में से दाने झाड़ना। उ०— साँचो सो लिखावार कहावै।... माँड़ि माँड़ि खरिहान क्रोध को फोता भजन भरावैं।—सूर (शब्द०)। ६. मचाना। ठानना। जैसे, युद्ध माँड़ना। और मंत्र कुछ उर जनि आनो आजु सुकपि रन माँडहि। — सूर (शब्द०)। ६. धरना। लगाना। करना। उ०— साप काचली छाँडे बीस हो न छाँडे उद्रक में वक ध्यान माँडे।— दक्खिनी०, पृ० ३५। ७. लेना। उठाना। उ०— जनम जनम अनते नहिं जाँचों फिर नहिं माँड़ो झोली जू।— नंद० ग्रं०, पृ० ३३७। ९. स्थिर करना। स्थिरतापूर्वक रखना। उ०— कायर सेरी ताकवै सूरा माँड़ै पाँव।—कवीर सा० सं०, भा० १, पृ० २९।

माँडनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्ड़न] संजाफ। मग्जी। गोट। हाशिया। किनारा। उ०— आँगेया नील माँडनी रानी निरखत नैन चुराई। सूर (शब्द०)। (ख) नील कंचुकी माँडनि लाल। भुजनि नवइ आभूषण माल।—सूर (शब्द०)।

माँड़हा ‡
संज्ञा पुं० [सं० मण्डपा, हिं० माँड़वा] विवाह का माँड़व। विवाहमंडप। उ०— ए च्यारइ वेद उचरइ, चउरी दीसउ माँड़हा माँहि।— बी० रासो, पृ० २१।

माँडली पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मंडली] बैठक। उ०— खेलाँ मेल्ह्या माँडली। वइस माँहि मोहेउ छइ राइ।— बी० रासो, पृ० ३।

माँड़व
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] विवाह आदि अथवा दूसरे शुभ कृत्यों के लिये छाया हुआ मंडप। उ०— (क) आलेहि बाँसं के माँडव मनिगन पूरन हो। मोतिन झालर लागि चहूँ दिसि झूलन हो।— तुलसी (शब्द०)। (ख) मुनिगन कहेउ नृप माँडव छावन गवहिं गीत सुआसिन वाज बधावन।— तुलसी (शब्द०)।

माँड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड] आँख का एक रोग जिसमें उसके ऊपरी पदें के अंदर महीन झिल्ली सी पड़ जाती है। विशेष— इस झिल्ली का रंग चावल के माँड़ के समान होता है। यह औषधोपचार या शास्त्रक्रिया से निकाला भी जाता है।

माँडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] मंडप। मँड़वा।

माँड़ा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० माँड़ना(=गूँधना)] १. एक प्रकार की बहुत पतली रोटी जो मैदे की होती है और घी में पकती है। लुचई। उ०— (क) मुर्दा दोजख में जाय या विहिश्त में, हमें तो अपने हलुवे माँड़े से काम है। (कहावत)। (ख) काकी भूख गई वयारि भख बिना दूध धृतं माँड़े।—सूर (शब्द०)। २. एक प्रकार की रोटी जो तवे पर थोड़ा घी लगाकर पकाई जाती है। पराँठा। उलटा।

माँड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्ड] १. भात का पसावन। पीच। साँड़। २. कपड़े या सूत के ऊपर चढ़ाया जानेवाला कलफ जो भिन्नभिन्न कपड़ों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार से तैयार किया जाता है। उ०—सुरति ताना करै, पवन भरनी भरै, माँड़ी प्रेम अँग अँग भोनै।— पलटू०, पृ० २५। विशेष— यह माँड़ी आटे, मैदे अनेक प्रकार के चावलों तथा कुछ बीजों से तैयार की जाती है और प्रायः लेई के रूप में होती है। कपड़ों में इसकी सहायता से कड़ापन या करारापन लाया जाता है। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।

माँड़ौ पु
संज्ञा पुं० [सं० माँण्डत या मण्डप] विवाह का मंडप। उ०— माँड़ौ गड़ो रंगमंदिर के आँगन वेद विधाना। ता ऊपर जरकसी रज्जु अरु मणिमय विशद बिताना। उ०—रघुराज (शब्द०)।

माँडयो पु
संज्ञा पुं० [सं० माँण्डप] १. आगंतुक लोगों के ठहरने का स्थान। अतिथिशाला। २. विवाहादि कै घर में वह स्थान जहाँ संपूर्ण आहूत देवताओं के स्थापन किया जाता है। ३. विबाह का मंडप। मंड़वा। उ०— आए नाथ द्वारिका नीके रच्यो नडयो छाय। व्याह केलि विधि रची सकल सुख सौंज गनी नहिं जाय।—सूर (शब्द०)।

माँढ़ा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'माँड़व'। उ०— नयरी नइ माँढ़े बीचई। हस्ती पायक अंत न पार।—बी० रासो, पृ० १०।

माँण † पु
संज्ञा पुं० [सं० मान] दे० 'मान'।

माँणस पु †
संज्ञा पुं० [सं० मानुप, प्रा० मानुस] दे० 'मानुस'। उ०— दादू सतगुरु पसु मानस करै, माणस थैं सिध सोइ।— दादू०, पृ० ३।

माँत पु (१)
वि० [सं० मत्त] १. उन्मत्त। मस्त। मत्त। बेसुध। २. दीवाना। पागल।

माँत (२)
वि० [हिं० माता या सं० मन्द] १. वेरौनक। उदास। वदरंग। उ०— पड़ा मात गोरख कर चेला। जिय तन छाँड़ि स्वर्ग कहँ खेला।— जायसी (शब्द०)। २. हारा हुआ। पराजित। मात।

माँतना पु †
क्रि० अ० [सं० मत्त+हिं० ना (प्रत्य०)] मतवाला होना। उन्मत्त होना। पागल होना।

माँता पु †
वि० [सं० मत्त] [वि० स्त्री माँती] मतवाला। उन्मत्त। उ०— (क) आठ पहर अमला रा माँता हेलौ देता डोलौ।— घनानंद, पृ० ४४५। (ख) औ कलवारि प्रेम मधु माँती।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४६।

माँथ †
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक] माथा। सिर। उ०— रावन चहा सौहँ होइ हेरा उतरि गए दस माँथ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २२९।

माँतवंधन
संज्ञा पुं० [हिं० माँथ+बंधन] १. सूत या ऊन की डोरी जिससे स्त्रियाँ सिर के बाल बाँधती हैं। पराँदा। चबकी। चँवरी। २. सिर पर लपेटने या बाँधने का कपड़ा। जैसे, पगड़ी, साफा आदि।

माँद (१)
वि० [सं० मन्द] बेरौनक। उदास। वदरंग। २. किसी के मुकाबले में फीका। खराब या हलका। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—होना। ३. पराजित। हारा हुआ। मात।

माँद (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. गोबर का वह ढेर जो पड़ा पड़ा सूख जाता है और जो प्रायः जलाने के काम आता है। इसकी आँच उपलों की आँच के मुकाबले में मंद या धीमी होती है। २. हिंसक जंतुओं के रहने का विवर। बिल। गुफा। चुर। खोह।

माँद (३)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० माँदगी] बीमारी। रोग। उ०— मावडिया तन मैण रा मिटै कदे नह माँद। बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० २१।

माँदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. बीमारी। रोग। २. थकावट।

माँदर, माँदल
संज्ञा पुं० [हिं० मर्दंल] मृदंग का एक भेद जिसे मर्दल कहते हैं। उ०— (क) बाजहिं ढोल दुंदु अरु भेरी। माँदर तूर झाँझ चहुंफेरी।—जायसी (शब्द०)। (ख) कबीर सब जग हौं फिरयो मादलु कँध चढ़ाइ।—कवीर ग्रं०, पृ० २६०।

माँदा (१)
वि० [फ़ा० माँदड्] १. थका हुआ। श्रांत। २. बचा हुआ। वाकी। अवशिष्ट।

माँदा (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० माँदी] रोगी। बीमार। उ०— अब मुझे डर लगता है। मैं माँदी हो जाऊँगी।— पिंजरे०, पृ० ६३।

माँदिनी पु
वि० स्त्री० [सं० उन्मादिनी या मत्तिनी] उन्मादिनी। मदविह्वल। उ०— फूले कँबल अनंत चहूँ दिसि चाँदनी। सुंदर बिरहिनि देखि भई है माँदिनी।— सुंदर० ग्रं०, भा० १ पृ० ३६४।

माँदी †
संज्ञा स्त्री० [देश० माँद?] १. विवर। बिल। २. कोष। मियान। उ०— जब लगि माँदी महँ रहि गोई। तबहीं लहु निरभै सव कोई।— चित्रा०, पृ० १४२।

माँनस पु †
संज्ञा पुं० [सं० मानुष] दे० 'मानुष'। उ०— भला घराँ रा माँनसाँ नै काँनाँ लागि बिगाड़ै है।— घनानंद, पृ० ३३४।

माँनुछ पु †
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] दे० 'मानुस'। उ०— माँनुछ न जानियतु देवगति।— पृ० रा०, १२। २९४।

माँनो पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'मानो'। उ०— नंददास पुहुपन मधि माँनो मधुप पुंज सोवत कलमले।— नंद० ग्रं०, पृ० ३५३।

माँपना †पु (१)
क्रि० अ० [हिं० माँतना] नशे में चूर होना। उन्मत्त होना। उ०—नयन सजल तन थर थर काँपी। माँजहिं खाइ मीन जनु माँपी।—तुलसी (शब्द०)।

माँपना (२)
क्रि० स० [सं० मापन] दे० 'मापना'।

माँम ‡
वि० [सं० मामला (=लड़ाई), डिं०?] युद्ध करनेवाला। उ०— रूके आटा रक्खणा मोटा कामाँ माँम।— रा० रू०, पृ० १३७।

माँमला पु †
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुआमलह्, हिं० मामला] युद्ध। लड़ाई। उ०— मीसण पड़िया माँमला।—रा० रू०, पृ० ४०।

माँयँ
अव्य० [सं० मध्य, हिं० माँझ] में। बीच। मध्य। अंदर। उ०— वरष एक के माँर्य, एकदशी चौविस परैं। सुनौ समन के माँर्य, फल समेत वर्णन कए।—विश्राम (शब्द०)।

माँस † (१)
संज्ञा पुं० [सं० माम] महीना। मास। उ०— ठारौ सौ रु पचोतरा पूस माँस सित पच्छ।— सुजान०, पृ० ३७।

माँस पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मांस] दे० 'सास'। उ०—असिपत्र विपिन महँ चलहू। खायो माँस सोई फल लहहू।—कबीर सा०, पुं०४६७।

माँसी (१)
वि० [सं० माप] उर्द के रंग का।

माँसी (२)
संज्ञा पुं० उर्द के रंग के समान एक प्रकार का हरा रंग।

माँसी (३)
संज्ञा स्त्री० [टिं० मौसी] दे० 'मासी' या 'मौसी'।

माँसु, माँसू पु
संज्ञा पुं० [सं० मांस] दे० 'मांस'। उ०— जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू। कया न रकत न नैनन आँसू।— जायसी (शब्द०)।

माँह पु
अव्य० [सं० मध्य] में। बीच। अंदर। भीतर।

माँहट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० महावट] दे० 'महावट'। उ०— पिय बिनु हिय घन गहवर जाना। नैनन्ह विधि माँहट जरिमाना।— चित्रा०, पृ० १७३।

माँहा पु
अव्य० [हिं०] दे० 'माँह'। उ०—भएउ हुलास नवल रितु माँहा।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४४।

माँहिं पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'माँह'।

माँहिला †पु
अव्य० [हिं० माँडिं] मध्य का। भीतरी। उ०— जिम दरिया सतगुर चवै, देख माँहिला भाव।— दरिया०, बानी, पृ० ५।

माँही पु †
अव्य० [सं० मध्य] दे० 'माँह'।

माँहें, माँहैं पु
अव्य० [हिं०] 'माँह'। उ०—मायारा आडंबर माँहैं वंदा केम बँधाणो।— रघु० रू०, पृ० १६।

माँहोमाँहि पु
अव्य० [हिं० माँह] बीचोबाच। उ०— मिश्रत माँहों माँहि मिल, बाँधै उकत विशेष।— रघु० रू०, पृ० ४८।

मा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। उ०— सिंधु सुता मा इंदिरा विष्णुवल्लभा सोई।— अनेकार्थ० (शब्द०)। २. माता। ३. ज्ञान। ४. दीप्ति। प्रकाश। ५. माप। (को०)।

मा (२)
सर्व० न। नहीं। मत। यौ०—मानाथ। माप। मापति= दे० 'माप'। मावर=विष्णु।

माअनी
संज्ञा पुं० [अ०] तात्पर्प। मतलब। अर्थ। उ०— अब मैं कबीर के माअनी अरबी में प्रगट करता हूँ।— कबीर मं०, पृ० ४२०।

माइँ, माईँ पु (१)
अव्य० [सं० मध्य, हिं० माँयँ, माँहिं] 'माँह'। उ०— (क) सो ब्रह्म बतायौ गुरु आप माइँ।— रामानंद०, पृ० ८। (ख) पावक देख डरे वह नाहीं हँसत बैठ सरा माईं।— कबीर श०, भा०, १ पृ० ३५। (ग) षट मास माईं मिले साई अचल पाई धाम ए।—राम० धर्म० पृ० २५७।

माइँ, माईँ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] छोटा पूआ जिससे विवाह में मातृपूजन किया जाता है। मुहा०—माइँन में थापना=पितरों के समान आदर करना। उ०— जौ लौ हौ जीवन मर जीवों सदा नाम तुव जपिहौं। दधि ओदन दोना करि दैहीं अरु माइँन में थपिहौं।— सूर (शब्द०)।

माइँ, माईँ (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पुत्री। लड़की। कन्या।

माइँ, माई (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मामा] मामा की स्त्री। मामी।

माइ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] दे० 'माई'। उ०— (क) तव पूछियो रघुराइ। सुख है पिता तन माइ।— केशव (शब्द०)। (ख) मेरे गुरु को धनुष वह सीता मेरो माइ।— केशव (शब्द०)। २. सखो। उ०— भल भेल माइ हे कुदिवस मेला। चाँद कुमुद दुहु दरसन भेल।—विद्यापति, पृ० २८२।

माइक
संज्ञा पुं० [अं०] ध्वनिविस्तारक यंत्र। अँगरेजो के माइक्रो- फोल शब्द का बोलचाल में संक्षिप्त रूप।

माइका (१)
संज्ञा पुं० [सं० मातृ+गृह] स्त्री के लिये उसके माता पिता का घर। नैहर। उ०— (क) और ता माहि सबै सुख री दुख री यहै माइक जान न देत ह। पद्माकर (शब्द०)। बैठी हुती तिय माइके मै ससुरारि को काहू संदेस सुनायी।— मतिराम (शब्द०)।

माइका (२)
संज्ञा पुं० [अ०] अवरक। अभ्रक।

माइन
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. खान। २. बारूद की सुरंग।

माइना ‡
संज्ञा पुं० [अ० मानी] अर्थ। अभिप्राय। उ०— दीय हरफ में माइना सबही वेद पुरान।—दरिया० बाना पृ० ४३।

माइनारिटा
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. अल्प संख्या। आध से कम संख्या। २. वह पार्टी या दल जिसके वाट कम हों।

माइल पु
वि० [अ०] आकर्षित। आसक्त। प्रवृत्त। उ०— मुरली वाले ने माइल काती दारू दरसन पावा।—घनानंद पृ० ४३२।

माई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। जननी। मा। यौ०—माई का लाल=(१) उदार चितवाला व्यक्ति। उ०— क्या। फिर कोई देवनदन जैसा माई का लाल न जनमेगा।— अयोध्या (शब्द०)। (२) वीर। शूर। बली। शक्तिवान्। उ०— (क) क्या एसा कोइ माइ का लाल नही हे जो मुझको इनके हाथों से बचावे।—अयाध्या (शब्द०)। (ख) एक बार एक पंजाबा हाजी को बद्दुओं ने घर लिया। उसने अपना कमर से रुपये निकालकर सामने रख दिए और ललकार कर कहा कि कोई माई का लाल हो, तो इसे मेरे सामने से ले जाय।— सरस्वती (शब्द०)। २. बूढ़ी या बड़ी स्त्री के लिये आदरसूचक शब्द। उ०— (क) सत्य कहौं मोहि जान दे माई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) कहाह झूठ फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुमहिं करुइ में माई।— तुलसी (शब्द०)। (ग) सीय स्वयंवरु माई दाऊ भाई आए देखन।— तुलसी (शब्द०)। ३. महामाया। भगवती। देवी। ४. शीतला। चेचक। माता। उ०— हेहुआ के चेहरे पर माई की गोटी के दाग थे।— नई०, पृ० ३४।

माई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसका फल माजू से मिलता जुलता होता है और जिसका व्यवहार प्रायः हकीम लोग औषधि के रूप में करते हैं।

माई लार्ड
संज्ञा पुं० [अं०] लाटों तथा हाईकोट के जजों को संबोधन करने का शब्द। जैसे,— माई लार्ड, आपकी इस बात का बड़ा अभिमान है कि अंग्रेजी में आपकी भाँत भारतवर्ष के विषय में शासननीत समझनेवाला और शासन करनेवाला नहीं है।—बालमुकुंद (शब्द०)।

माउंट पुलिस
संज्ञा स्त्री० [अं० माउंटेइ पुलिस] घुड़सवार पुलिस।

माउल्लहम
संज्ञा पुं० [अं०] हिकमत में मास का बना हुआ एक प्रकार का अरक जा बहुत अधिक पुष्टकारक माना जाता है और जिसका व्यवहार प्रायः जाड़े के दिनो में शरीर का बल बढ़ाने के लिये होता है।

माकंद
संज्ञा पुं० [माकन्द] १. आम का वृक्ष। २. दे० 'मानकंद'।

माकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० माकन्दा] १. आवला। २. पाला चंदन। ३. महाभारत काल के एक गाँव का नाम। विशेष— युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच गाव मागे थे, उनमें से एक यह भी था।

माकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माकरी] १. मकर से संबंधित। २. मकर का। यौ०— माकराकर =समुद्र। मकराकर। माकरब्यूह =सेना की मकर के रूप में व्यूहवद्ध स्थिति। मकरासन=दे० 'मकरासन'।

माकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरुआ।

माकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ला मप्तमी जो एक पुण्यतिथि मानी जाती है।

माकल
संज्ञा स्त्री० [देश०] इंद्रायन नाम को लता।

माकांल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. इंद्र के सारथी मातलि का एक नाम।

माकुली
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकरा का साँप।

माकूल (१)
वि० [अ० माकूल] १. उचित। वाजिव। ठीक। २. लायक। योग्य। उ०— मुहरिर भी आपका बहुत ही माकूल मिल गए है।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९४। ३. यथेष्ट। पूरा। ४. अच्छा। बढ़िया। ५. जिसने वादाविवाद में प्रतिपक्षी की बात मान ली हो। जो निरुत्तर हो गया हो।६. सभ्य। शिष्ट (को०)। ७. शुद्ध (को०)।

माकूल
संज्ञा पुं० तकशास्त्र। न्याय दर्शन [को०]।

माकूलियत
संज्ञा स्त्री० [अ० मा़कूलियत मा़कूलायत] १. औचित्य। माकूल होने का भाव। २. शिष्टता। सज्जनता। ३. उत्तमता। अच्छाइ [को०]।

माकूली
वि० [अ० माकूली] नैवायिक। न्यायशास्त्र का ज्ञाता [को०]।

माकूस
वि० [अ०] १. उलटा। औंधा। २. विपरीत [को०]।

माक्षिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहद। मधु। २. सानामक्खी। ३. रूपामक्खी।

माक्षिक (२)
वि० (मधु की) मक्खियों से संबंधित या मक्खियों का।

माक्षिकज
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।

माक्षिकधातु
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णमाक्षिक। सोनामक्खी [को०]।

माक्षिकफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नारियल [को०]।

माक्षिकशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मधु से निर्मित मिसरी [को०]।

माक्षिकांत
संज्ञा पुं० [सं० माक्षिकन्त] माधवी नामक मद्य। महुए की शराब।

माक्षिकाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।

माक्षीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधु। शहद। २. सोनामक्खी। ३. रूपामक्खी।

माक्षीक (२)
वि० दे० 'माक्षिक'।

माख (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माखी] यज्ञ संबंधी। यज्ञीय। यज्ञ या मख का [को०]।

माख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मक्ष] १. अप्रसन्नता। नाराजगी। नाखुशी। क्रोध। रिस। उ०— (क) देखेउँ आय जो कछु कपि भाखा। तुम्हरे लाज न रोस मन माखा।— तुलसी (शब्द०)। (ख) लीवे को लाख करै अभिलाष करै कहुँ माख परे कबहूँ हँसि।— बेनी (शब्द०)। २. अभिमान। घमंड। ३. पछतावा। ४. अपने देष को ढँकना।

माखन
संज्ञा पुं० [हिं०] 'मक्खन'। उ०—(क) माखन ते मन कोमल है यह बानि त जानति कौन कठोर है।—आनंदधन (शब्द०)। (ख) ता खिन ते इन आँखिन ते न कढ़ो वह माखन चाखनहारो।— पद्माकर (शब्द०)। (ग) माखन सो मेरे मोहन को मन काठ सी तेरी कठेठी ये बातैं।— केशव (शब्द०)। यौ०—माखनचोर=श्रीकृष्ण।

माखना पु †
क्रि० अ० [हिं० माख से नामिक] अप्रसन्न होना। नाराज होना। क्रोध करना। उ०— (क) अब जनि कोउ माखइ भट मानी। वीरबिनीन मही मै जानी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) माखे लखन कुटिल भईँ भौहैं। रदपुट फरकत नैन रिसौहैं।— तुलसी (शब्द०)। (ग) पत्र सुनत रतनावती मुंडन कीन्ह्यौ केश। सुनत माखि मारन चह्यौ रतनावतिहिं नरेश।— रघुराज (शब्द०)। (घ) कछू न थिरता लहै छनक रीझै छन माखै।—व्यास (शब्द०)।

माखनी
वि० [हिं० माखन+ई] मक्खन के रंग का। सफेद। उ०— बटन रोज बहु लाल, ताम्र माखनी रंग के कोमल।—ग्राम्या, पृ० ७६।

माखा पु
संज्ञा पुं० [हिं० माखी] मक्खी का पुलिंग। नर मक्खी। उ०— वा माखी के माखा नाहीं गरभ रहा बिन पानी।— घट०, ३५९।

माखी † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० माक्षिक] १. मक्खी। उ०—(क) दूध की माख उजागर बीर सो हाय मैं आँखिन देखत खाई।—ठाकुर (शब्द०)। (ख) चंदन पास न बैठे माखौ।— जायसी (शब्द०)। (ग) भामिनि भयउ दूध कर माखी।— तुलसी (शब्द०)।

२. सोनामक्खी।

माखो (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मक्खी] शहद की मक्खी। (पश्चिम)।

माखो (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुख? या देश०] लोगों में फैलनेवाली चर्चा। जनरव।

मागध
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति जो मनु के अनुसार वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है। इस जाति के लोग वंशक्रम से विरुदावली का वर्णन करते हैं और प्रायः 'भाट' कहलाते हैं। उ०— (क) मागध बंदी सूत गण विरद बदहिं मति धीर।— तुलसी (शब्द०)। (ख) मागध वंशावली बखाना।— रघुराज (शब्द०)। २. जरासंध का एक नाम जो मगध का नरेश था। उ०— मागध मगध देश ते आयो लीन्हें फौज अपार।— सूर (शब्द०)। ३. जीरा। ४. पिप्पलीमूल।

मागध (३)
वि० [सं० मगध] मगध देश का।

मागधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मागध। भाट। २. मगध देश का निवासी।

मागधपुर
संज्ञा पुं० [सं०] मगध की पुरानी राजधानी, राजगृह।

मागधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मगध की राजकुमारी। २. पिप्पली।

मागधिक
वि० [सं०] मगध देश संबंधी। मगध का।

मागधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिप्पली। पीपल। २. मगध की राजकुमारी।

मागधी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मगध देश की प्राचीन प्राकृत भाषा। २. जूही। यूथिका। ३. शक्कर। चीनी। ४. छोटी पीपल। पिप्पली। ६. सुफेद जीरा (को०)। ७. एक नदी का नाम। शोणा नदी (को०)। ८. मगध की राजकन्या (को०)। ९. मागध जाति की महिला (को०)।

मागरवाल †
वि० [हिं० माँगना+वाल (प्रत्य०)] माँगनेवाला। उ०— मागरवाल जू आविया देसे साल्ह सुजाँण। ढोला०, दू० १८४।

मागि पु †
संज्ञा पुं० [सं० मार्ग, प्रा० मग्ग, भाग] दे० 'मग'। उ०— उक्कंबी सिर हथ्थड़ा, चाहंती रस लुघ्घ। ऊँची चढ़ि चातृंगि जिउँ, मागि निहालइ मुघ्घ।— ढोल०, दू० १६।

माघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्यारहवाँ चांद्र मास जो पूस के बाद और फागुन से पहले पड़ता है। उ०— माघ मकर गत रवि जब होई। नीरथपतिहिं आव सब कोई।— तुलसी (शब्द०)। २. संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि का नाम। ३. उपर्युक्त कवि का बनाया हुआ एक प्रसिद्ध काव्यग्रंथ जिसमें कृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध वर्णन किया गया है।

माघ (२)
संज्ञा पुं० [सं० माघ्य] कुंद का फूल। उ०— मुसुकान कढ़हिं रद माघ से फाल्गुन सो जोधा महत।— गोपाल (शब्द०)।

माघवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्वं दिशा।

माघी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० माघ+ई] माघ मास की पूर्णिमा जो मधा नक्षत्र से युक्त होता हैं। कहते हैं कि कलियुग का आरंभ इसी तिथि को हुआ था।

माघी (२)
वि० माघ का। जैसे, माधी मिर्च।

माघोन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० माघोनी] पूर्व दिशा।

माघ्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुंद का फूल।

माच पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मञ्च] दे० 'मचान। उ०— जब यदुषति कुल कंसहि मारयो। तिहूँ भुवन भयो सोर पसारयो। तुरत साच तें वरनि गिरायो। ऐसेहि मारत विलम न लायो।— सूर (शब्द०)।

माच (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मार्ग। रास्ता।

माचना पु †
क्रि० स० [हिं० मचना] दे० 'मचना'। उ०— (क) इमि संगर माचत भयो मधुबन के सब ओर।— गोपाल (शब्द०)। (ख) द्वादस दिवस चहूँ दिसि माच्यो फागु सकल ब्रज मांझ।— सूर (शब्द०)। (ग) बंदौं कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची।— तुलसी (शब्द०)। (घ) कहै पदमाकर त्यों तिनको अवाइन के, माचि रहे जार मुरलोकन में सीर है।— पद्माकर (शब्द०)।

माचल पु (१)
वि० [हिं० मचलना] १. मचलनेवाला। जिद्दी। हठी। उ०— महा माचल मारिवे की सकुच नाहिन मोहिं। परोयौ हौं प्रण किए द्वारे लाज प्राण की तोहिं।—सूर (शब्द०)। २. मचला।

माचल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रह। २. रोग। बीमारी। ३. बंदी। कैदी। ४. ग्राह (को०)। ५. चोर।

माचा †
संज्ञा पुं० [सं० मञ्च] बैठने की पीढ़ी जो खाट की तरह बुनी होती हैं। बड़ी मचिया।

माचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मक्खी। २. अमड़े का वृक्ष।

माचिस
संज्ञा पुं० [अं० मैच] दियासलाई। दियासलाई की तीली। उ०— इसी तरह सेमल की लकड़ी से माचिस बनाने व विभिन्न प्रकार के खिलौने तैयार करने, बाँस से टोकनियाँ व चटाइयाँ आदि बनाने के कुटीर उद्योग राज्य के हजारों विकेंद्रित ग्रामों में पाए जाते हैं।— शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० ७५।

माची †
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्च] १. हल जोतने का जुआ। वह जुआ जो हल जोतते समय बैलों के कंधे पर रखा जाता है। बैलगाड़ी में वह स्थान जाहँ गाड़ीवान बैठता और अपना सामान रखात है। ३. बैठने की वह पीढ़ी जो खाट की तरह बुनी हुई होती है।

माचीक
संज्ञा पुं० [सं०] देवदार।

माचीपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साग जिसे सुरपर्ण भी कहते हैं।

माछ †
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य० प्रा० मच्छ] मछली। उ०— चारा मेलि धरा जस माछू।— जायसी (शब्द०)।

माछर † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मच्छर] दे० 'मच्छड़'।

माछर (२)
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य] दे० 'मछली'। उ०—वह कैलाश इंद्र कर बासू। जहाँ न अन्न न माछर माँसू।— जायसी (शब्द०)।

माछी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० माक्षिका] १. माक्खी। उ०—काँची रोटीकुचकुची परती माछी वार। फूहर वही सराहिए परसत टपकै लार। गिरधर (शब्द०)। विशेष दे० 'मछिया'।

माछी ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य] मछली। (क्व०)।

माजरा
संज्ञा पुं० [अ०] १. हाल। वृत्तांत। २. घटना।

माजल
संज्ञा पुं० [सं०] चास पक्षी [को०]।

माजी
वि० [अ० माजी] बीता हुआ काल। अतीत समय। भूतकाल। उ०— सुखत सू होवे बाजे माजी व हाल। गुजिश्त्या का समाज में आवे अहवाल।— दक्खिनी०, पृ० २३९।

माजू
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का झाड़ी जो यूनान और फारस आदि देशों में बहुतायत से होती है। विशेष— इसकी आकृति सरो को सी होती है। इसकी डालियो पर से एक प्रकार का गोंद निकलता है जा 'माजूफल' कहलाता है और जिसका व्यवहार रंग तथा औषधि के लिये होता है।

माजून
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. औषध के रूप में काम आनेवाला कोई मीठा अवलेह। २. वह बरफो या अवलेह जिसमें भाँग मिली हो। यौ०—माजूनकश= माजून निकालने की खुर्चनी आदि।

माजूफल
संज्ञा पुं० [फ़ा० माजू+हिं० फल] माजू नामक झाड़ी का गोटा या गोंद जो औषोध तथा रँगाई के काम में आता है। पर्या०—मायाफला। माईफल। सागरगोटा।

माजूर
वि० [अ० माजूर] १. जिसे किसी सेवा या परिश्रम का फल दिया गया हो। प्रतिफलित। २. असमर्थ। लाचार। विवश। उ०— बेचारी आँखों से माजूर हो गई थी।— रंगभूमि, भा० २, पृ० ७०४।

माझ
वि० [सं० मध्यस्थ? या माध्मक?] १. मुखिया। मुख्य उ०—(क) अरी ढाहि ढंढौरि माझी कनक्के।— पृ० रा०, ६१। २१७६। (ख) माझी वर मरदान मान मरदा मिलि तोरन।— पृ० रा०, ६१। २०७७। (ग) माझी खिणक मिजाज, वे अदबी सातूँ विसन।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६२ २. मध्यस्थ। उ०— सँविर रकत नैनिहिं भरि चूआ। रोइ हँकारेसि माझा सूआ।—जायसी ग्रं०, पृ० ९६।

माटंक
संज्ञा पुं० [सं० माटङ्क] नमक का बाजार। नमक की हाट [को०]।

माट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मटका] १. मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का बड़ा बरतन जिसमें रँगरेज लोग रंग बनाते हैं। इसे 'मठोर' भी कहते हैं। २. माठ। मिट्टी का वहुत बड़ा बर्तन, जिसमें किसान लोग अन्न भरते है। मुहा०—माट बिगड़ जाना= किसी के स्वभाव का ऐसा बिगड़ जाना कि उसका सुधार असंभव हो। २. बड़ी मटकी जिसमें दही रखा जाता है। उ०— (क) सिर दहि माखन के माट गावत गीत नए। कर माँझ मृदंग बजाइ स/?/नँद भवन गए।— सूर (शब्द०)। (ख) एक भूमि ते भाजन बहु विधि कुंडा करवा हडिया माट।— सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ७३।

माट (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बनस्पति जिसका व्यवहार तरकारी के रूप में होता है।

माटा
संज्ञा पुं० [हिं० मटा] लाल च्यूँटा जिसके झुंड के झुंड पत्तों के झोंझ में आम के पेड़ों पर रहते हैं।

माटि
संज्ञा पुं० [सं०] कवच। तनुत्राण [को०]।

माटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृतिका, हिं० मिट्टी] १. दे० 'मिट्टी'। २. साल भर की जोताई या उसकी मेहनत। जैसे,— यह बैल चार माटी का चला है। ३. मृत्त शरीर। शव। लाश। उ०— (क) कहता सुनता देखता, लेता देता प्रान। दादू सो कतहूँ गया, माटी धरी मसान।— दादू (शब्द०)। (ख) मरनो भलो विदेस को जहाँ न अपनो कार्य । माटी खायँ जनावरो महा महोच्छव होय।— कवीर (शब्द०)। ४. शरीर। देह। उ०— काल आइ दिखराई साँटी। उठि जिउ चला छाँड़ि कै माटी।—जायसी (शब्द०)। ५. पाँच तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी नामक तत्व। उ०— पानी पवन आग अरु माटी। सब की पीठ तोर है साँटी।—जायसी (शब्द०)। ६. धूल। रज। उ०— (क) गढ़ गिरि भूट भए सब माटी। हस्ति हेरान तहाँ का चाँटी।— जायसी (शब्द०)। (स्त्र) महँगि माटी मग हू की मृगमद साथ जू। तुलसी (शब्द०)। (मुहा० फे लिये दे० 'मिट्टी')।

माठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मार्ग। पंथ। सड़क [को०]।

माठ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मीठा] एक प्रकार की मिठाई। उ०— भइ जो मिठाई कही न जाई। सुख मेलत खत जाय बिलाई। मतलड़ छाल और मरकोरी। माठ पिराँके और वुँदौरी।— जायसी (शब्द०)। विशेष— मैदे की एक मोटी और बड़ी पूरी पकाकर शक्कर के पाग में उसे पाग लेते हैं। इसी को माठ कहते हैं। यही मिठाई जब छोटे आकार में बनाई जाती है, तब उसे 'मठरी' वा 'टिकिया' कहते हैं। मठरी नमकीन भी बनाई जाती है।

माठ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० मटकी(सं० मात्त)] मिट्टी का पात्र जिसमें कोई तरल पदार्थ भरा जाय। मटकी। उ०— (क) मानो मजीठ की माठ ढरी इक ओर ते चाँदनी बोरत आवत। -शंभु कवि (शब्द०)। (ख) धरत जहाँ ही जहाँ पग है सुप्यारी तहाँ, मंजुल मजीठ ही की माठ सी धरत जात।—पद्माकर (शब्द०)। (ग) स्वामिदसा लखि लखन सखा कपि पघिले हैं आँच माठ मानो घिय के।— तुलसी (शब्द०)। (घ) टूट कंध सिर परै निरारे। माठ मँजीठ जानु रण ढारे।— जायसी (शब्द०)। विशेष— कविता में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग ही मिलता है।

माठ † (४)
वि० [सं० मष्ट, प्रा० मट्ठ] मौन। दे० 'मष्ट'। उ०—(क) रह रह, सुंदरि, माठ करि, हलफल लग्गी काइ।— ढोला०, दू० ३२१। (ख) काइ लवंतउ माठि करि परदेशी प्रिय आँणि।— ढोला०, दू० ३४। मुहा०—माठ करना= दे० 'मष्ट' शब्द का मुहावरा।

माठर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य के एक पारिपार्श्वक जो यम माने जाते हैं। २. व्यासदेव का नाम। ३. ब्राह्मण। ४. कलाल। ५. एक गोत्र का नाम (को०)।

माठा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मट्ठा' या 'मठा'।

माठा (२)
संज्ञा पुं० [डिंगल] कृपण। कंजूस।

माठी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जो बंगाल, आसाम और उत्तर प्रदेश में अधिकता से होती है। आजकल यह कपास बहुत निम्न कोटि की मानी जाती है। उ०—सूर प्रभु को औसरे अतिही भई अवेर री, वेग चलि मजि शृंगार काढ़ि माटी खग वारी आइकै साज।— सूर (शब्द०)।

माठी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कवच।

माठी † (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] फूल नाम की धातु की बनी चूड़ी। माठिया। एक प्रकार का गहना जो हाथों में पहना जाता है।

माठी † (४)
संज्ञा स्त्री० [?] दाख।— नंद० ग्रं०, पृ० १०४।

माठू
संज्ञा पुं० [देश०] १. बंदर। वानर। २. मूर्ख। (पश्चिम)।

माड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० माण्ड] १. ताड़ की जात का एक पेड़। २. तौल।

माड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड] दे० 'माँड़'।

माड़ना पु (१)
क्रि० अ० [सं० मणउ] ठानना। मचाना। करना। उ०— (क) निरखि यदुवंश को रहस मन में भयो देखि अनिरुद्ध सों युद्ध माड़यौ।— सूर (शब्द०)। (ख) मधुसूदन यह विरह अरु अरि नित माड़त रार। करुनानिधि अब यहि समय अपनी बिरद विचार।— रसनिधि (शब्द०)। (ग) ताते कठिन कुठार अब रामहिं लों लण माड़ि।— केशव (शब्द०)। (घ) हौं तुम सों फिर युद्धहिं माड़ौ। क्षत्रिय वंश को वैर लै छाड़ौं।— केशव (शब्द०)। (ङ) मनोज मख माड़यौ नाभि कुंड में।— देव (शब्द०)।

माड़ना (२)
क्रि० स० [सं० मण्डन] १. मंडित करना। भूषित करना। २. धारण करना। पहनना। उ०— सब शोकन छाँड़ौं भूषण माँड़ौं कीजै विविध वधाये।— केशव (शब्द०)। ३. आदर करना। पूजना। उ०— ताते ऋषिराज सबै तुम छाँड़ौ। भूदेव सनाढयन के पद माड़ौं।— केशव (शब्द०)।

माड़ना (२)
क्रि० स० [सं० मर्दन] १. मर्दन करना। पैर या हाथ से मसलना। मलना। उ०— काउ काजर काउ वदन माड़ती हषहिं करहिं कलोल।— सूर (शब्द०)। २. घूमना। फिरना। उ०,—डटा वस्तु फिर ताहि न छाड़ै। माखन हित सब के घर माड़े।— विश्राम (शब्द०)।

माड़नि पु
क्रि० स० [हिं० माड़ना] माँड़ने का भाव या स्थिति। उ०— इनकी माड़नि मड़ रही, चहुँ दिस रोकी बाट।— कबीर श०, भा० २, पृ० १२९।

माडल (१)
संज्ञा पुं० [अ० माँडल] १. आदर्श। प्रतिरूप। प्रतिमान। २. आकार। आकृति। नक्शा। ढाँचा। खाका। ३. अनुकरणीय व्यक्ति या वस्तु।

माड़व (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] दे० 'माड़ौ' वा 'मंडप'।

माड़व (२)
संज्ञा पुं० [सं० माडव] एक वर्णसंकर जाति जो पुराणनुसार लेट पिता और तीवर माता के गर्भ से उत्पन्न है।

माड़ा †
वि० [सं० मन्द] १. खराब। निकाम्मा। २. दुबला। दुर्बल। (पाश्चिम)। ३. बीमार। रोगी (पश्चिम)।

माडि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रासाद। महल [को०]।

माडुक, माडुकिक
संज्ञा पुं० [सं०] नगाड़ा बजानेवाला। ढोल बजानेवाला।

माड़ौ †
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] १. विवाह का मँडवा। दे० 'मंडप'। उ०— रचि रचि मानिक माड़ौ छावहिं।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०७। २. धूप और हवा के तीखे झोंके से बचाव के लिये पान के भीटे के ऊपर बाँस, फूस आदि का मंडप। पान का बँगला। विशेष दे० 'पान'। उ०— पानवाड़ी की दीवारें जिनको टट्टी कहत हैं बहुत मोटी बनाई जाती है ताकि अंदर हवा न जा शके, लेकिन छत जिसे माड़ौ कहते हैं बहुत हलकी बनती है।— कृषि०, पृ० १८२।

माढ़ा पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] १. अटारी पर का वह चौबारा जिसकी छत गोल मंडप के आकार की हो। २. अटारी पर का चौबार (चाहे वह किसी बनावट का हो)। उ०— को पलंग पौढ़ै को माढ़े। सोवनहार परा वंध गाढ़े।—जायसी (शब्द०)।

माढ़ा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० महना, मथना] दे० 'मठा'।

माढी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मढ़ी] दे० 'मढ़ी'। उ०— अँगिया बनी कुचन सो माढ़ी।— सूर (शब्द०)। २. मंच। मचिया।

माढी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० माढि, माढी] १. दाँतों का मूल। २. पंखड़ी या पत्ते जो पूरी तरह फैले न हों (को०)। ३. विषाद। विषण्णता (को०)। दरिद्रता। गरीबी। निर्धनता (को०)। ५. क्रोध। कोप। अमर्ष (को०)। ६. वस्त्र का किनारा वा अंचल (को०)।

माढू †
संज्ञा पुं० [देश०] मनुष्य। उ०— माढू ज्याँरा मारजै, पौहरा जिकाँ पडंत। बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० २३।

माणक
संज्ञा पुं० [सं०] मानकंद।

माणतुंडिक
संज्ञा पुं० [सं० माणतुण्डिक] एक प्रकार का जलचर पक्षी।

माणव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। आदमी। २. बालक। बच्चा। ३. सोलह लड़ी का हार। ४. छोटा आदमी। क्षुद्र नर। छोकड़ा। (तिरस्कार सूचक)।

माणवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोलह वर्ष की अवस्थावाला युवक। २. बीस या सोलह लड़ी का हार। ३. विद्यार्थी। बटु। ४. निंदिन या नीच आदमी। छोटा आदमी (उपेक्षासूचक)। ५. मूर्ख व्यक्ति। ६. एक छंद। माणवक्रीड़ा।

माणवक्रीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० माड़वक्रीडा] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक पद में आठ वर्ण (एक झगण, एक तगण और दो लघु) होते हैं।

माणवविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार जादू टोना। जंत्र मंत्र की विद्या।

माणाविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाला। किशोरी। बालिका [को०]।

माणवीन
वि० [सं०] माणव संबंधी। बालकों का। बच्चों की तरह।

माणव्य
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों का समूह। शिशुसमूह। बच्चों का झुंड या गोल।

माणस †
संज्ञा पुं० [सं० मानुष; प्रा० माणुस; अप०, राज० माणस] मनुष्य। व्यक्ति। उ०— मालवंणी का माणसाँ; आए मिल्या अजीर्ण।—ढोला०, दू० १८५।

माणिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जौहरी। रत्नों का पारखी [को०]।

माणिक (२)
संज्ञा पुं० [सं० माणिक्य] दे० 'माणिक्य'। उ०—परिपुरण सिंदूर पूर कँधौं मंगल घट। किधौं शुक्र को छत्र मढ्यौ माणिक मयूव पट।—केशव (शब्द०)।

माणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक तौल जो आठ पल की होती है।

माणिक्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल रंग का एक रत्न जो 'लाल' कहलाता है। पद्मराग। चुन्ना। विशेष— दे० 'लाल'। उ०— अनेक राजा गणों के मुकुट माणिक्य से सर्वदा जिनके पदतल लाल रहते हैं, उन महाराज चंद्रगुप्त ने आपके चरणों में दंडवत करके निवेदन किया है।—मुद्राराक्षस (शब्द०)। पर्या०—रविरत्नक। शृंगारी। रंगमाणिक्य। तरुण। रत्न- नायक। रत्न। सौगंधिक। लोहितिक। कुरुविंद। २. भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का केला।

माणिक्य
वि० सर्वश्रेष्ठ। शिरोमणि। परम आदरणीय। उ०— नृप माणिक्य सुदेश, दक्षिण तिय जिय भावती। कटि तट सुपट सुदेश, कल काँची शुभ मंडई।— केशव (शब्द०)।

माणिक्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली।

माणिबंध
संज्ञा पुं० [सं० माणिबन्ध] सेंधा नमक।

माणिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० माणिमन्थ] सेंधा नमक।

मातंग
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्ग] १. हाथी। २. श्वपच। चांडाल। उ०— मदमत्त यदपि मातंग संग। अति तदपि पतित पादन तरंग।—केशव (शब्द०)। विशेष— इस उदाहरण में श्लेष से यह शब्द दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। ३. एक ऋषि का नाम। विशेष— ये शिवरी के गुरु और मातंगी देवी के उपासक थे। ये मौन रहा करते थे; इसीलिये जिस पर्वत पर ये रहते थे, उसका नाम ऋष्यमूक पड़ गया था। ४. अश्वत्थ। ५. संवर्तक मेघ का एक नाम। ६. पर्वतवासी किरात। ७. एक नाग का नाम।

मातंगज
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्गज] हाथी। हस्ती [को०]।

मातंगदिवाकर
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्गदिवाकर] एक कवि का नाम।

मातंगनक्र
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्गनक्र] एक प्रकार का बहुत बड़ा कुंभीर (जलजंतु)।

मातंगमकर
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्गमकर] विशालकाय कुंभीर। मातंगनक्र।

मातंगलीला
संज्ञा पुं० [सं० मातङ्गलीला] चिकित्सा संबंधी एक ग्रंथ [को०]।

मातंगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कश्यप की एक कन्या। विशेष— कहते हैं हाथी इसी से उत्पन्न हुए थे। २. तांत्रिकों के अनुसार दस महाविद्याओं में से नवीं महाविद्या। ३. वशिष्ठ ऋषि की पत्नी का एक नाम (को०)। ४. श्वपच- कन्या। चांडाल की कन्या (को०)।

मात (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] १. जननी। माता। उ०— तात को न मात को न भ्रात को कहा कियो।— पद्माकर (शब्द०)। २. कोई पूज्य या आदरणीय बड़ी महिला। उ०— को जान मात विंझती पीर। सौति को साल सालै सरीर।—गृ० रा०, १। ३७५।

मात (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] पराजय। हार। उ०— रविकुल रवि प्रताप के आगे रिपुकुल मानत मात।— राधाकृष्णदास (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—देना।

मात (३)
वि० [अ०] पराजित। उ०—(क) तुव दृग सतरँज बाज सों मेरो वस न बसति। पातसाह मन को करै छवि सह देकर मात।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) देख्यौ बादशाह् भाव, कूद परे गहे पाव, देखि करामात मात भए सव लोक हैं।—विश्व- नाथ सिंह (शब्द०)। (ग) जासों मातलि मात अरुग गति जाति सदा रुक।— गोपाल (शब्द०)।

मात पु (४)
वि० [सं० मत्त] मदमस्त। मतवाला। (क्व०)। उ०— वदन प्रभा सय चंचल लोचन, आनंद उर न समात। मानहुँ भौंह जुवा रथ जीते, ससि नचवत मृग मात।— सूर०, १०। १८०५।

मात † (५)
संज्ञा स्त्री०[सं० मात्रा] मात्रा। परिमाण। उ०— आयौ खेजड़ लै असुर मेछ परक्खण मात।— रा० रू०, पृ० ३३०।

मातदिल
वि० [अ० मो/?/तदिल] मध्यम प्रकृति का। जो गुण के विचार से न बहुत ठंढा हो और न बहुत गरम। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः औषोधियों या जलवायु आदि के संबंध में होता है।

मातना पु
क्रि० अ ० [सं० मत्त] मस्त होना। मदमत्त हो जाना। नशे में हो जाना। उ०— (क) जो अंचवत मातहिं नृप तेई। नाहिन साधु सभा जिन सेई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) पियत जहाँ मधु रसना मातत नैन। झुकत अतनुगति अधरनि कहत बनै न।— रहीम (शब्द०)।(ग) साधू रहै लगाए छाता ताहि देखि नृप अपरष माता।—रघुराज (शब्द०)।

मातबर
वि० [अ० मोतबिर] विश्वास करने योग्य। विश्वसनीय। जैसे,— इन्हें रुपए दे दीजिए; ये मातवर आदमी हैं।

मातबरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] मातबर होने का भाव। विश्वसनीयता।

मातम
संज्ञा पुं० [अ०] १. मृतक का शोक। वह रोना पीटना आदि जो किसी के मरने पर होता है। उ०— जब बादशाह मर जाता है, तो सारे मुल्क के आदमी सौ दिन तक मातम रखते हैं और कोई काम खुशी का नहीं करते।— शिवप्रसाद (शब्द०)।यौ०—मातमपुसीं। २. किसी दुःखदायिनी घटना के कारण उत्पन्न शोक।

मातमखाना
संज्ञा पुं० [अ० मातम+फ़ा० खाना] मातम का स्थान। वह घर जिसमें मृत्युशोक हो।

मातअपुरसी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मातमपुर्सी] दे० 'मातमपूर्सो'। उ०— मियाँ साहब ने सुनते ही सिर पीटा, रोए गाए, बिछौने से अलग बैठे, सीग माना, लोग भी मातमपुरसी को आए।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६७७।

मातमपुर्सी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] जिसके यहाँ कोई मर गया हो, उसके यहाँ जाकर उसे ढरास देने का काम। मृतक के संबंधियों को सांत्वना देना।

मातमी
वि० [फ़ा०] १. मातम संबंधी। शोकसूचक। जैसे, मातमी पोशाक, मातकी सूरत, मातमी रंग। २. मनहूस। अप्रिय। बुरा। उ०— इसी एक बात से इनके मातमी मत की निःसारता झलक पड़ती।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७५।

मातमी लिबास
संज्ञा पुं० [अ०] शोकसूचक पहनावा। काले रंग का कपड़ा।

मातमुख
वि० [डिं०] मूर्ख।

मातरिपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो केवल घर में अपनी माता आदि के सामने ही अपनी वीरता प्रकट करता हो; बाहर या औरों के सामने कुछ भी न कर सकता हो।

मातरिश्वा
संज्ञा पुं० [सं० मातरिश्वन्] १. अंतरिक्ष में चलनेवाला, पवन। वायु। हवा। २. एक प्रकार की अग्नि। अग्नि।

मातलि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र के सारथी या रथ हाँकनेवाले का नाम। उ०— सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा। - तुलसी (शब्द०)। यौ०—मातलिसारथि= इंद्र। मातलिसूत।

मातलिसूत
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र। उ०—कौशिक बासव वृत्रहा मघवा मातलिसूत।— नंददास (शब्द०)।

मातली
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के वैदिक देवता जो यम और पितरों के साथ उत्पन्न माने गए हैं।

मातहत
संज्ञा पुं० [अ०] किसी की अधीनता में काम करनेवाला। अधीनस्थ कर्मचारी।

मातहती
संज्ञा स्त्री० [अ० मातहत+ई (प्रत्य०)] मातहत या अधीनता में होने का काम या भाव।

माता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] १. जन्म देनेवाली स्त्री। जननी। उ०— जौ वालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।— तुलसी (शब्द०)। २. कोई पूज्य या आदरणीय बड़ी स्त्री। उ०— दै द्रव्य कह्यो माता सिधाव।— पृ० रा०, १। ३७९। ३. गौ। ४. भूमि। ५. विभूति। ६. लक्ष्मी। ७. खेती। ८. इंद्रवारुणी। ९. जटामासी। १०. शीतला। चेचक। ११. आखुकर्णी (को०)। १२. जीव (को०)। १३. आकाश (को०)। १४. दुर्गा (को०)। १५. शिव वा स्कंद की मातृकाएँ जिनकी संख्या कुछ लोगों के मातानुसार सात है, कुछ के अनुसार आठ और कुछ लोगों के मत में १६ कही गई है।

माता (२)
वि० १. नाप या माप करनेवाला। २. निर्माणकर्ता। बनानेवाला। ३. ठीक ठीक जानकारी रखनेवाला [को०]।

माता (३)
वि० [सं० मत्त] [स्त्री० माती] मदमस्त। मतवाला। उ०— (क) आठ गाँठ कोपीन के साधु न मानै शंक। नाम अमल माता रहै गिनै इंद्र को रंग।—कबीर (शब्द०)। (ख) जोर जगी जमुना जलधार में धाम धेसी जल केल को माती।— पद्माकर (शब्द०)। (ग) चला सोनारि साहाग सोहाती। औ कलवारि प्रेममद माती। -जायसी (शब्द०)।

मातापिता
संज्ञा पुं० [सं० मातृपितृ] माँ बाप।

मातामह
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मातामही] मही का पिता। नाना।

मातामही
संज्ञा पुं० [सं०] नानी।

मातु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] माता। मा। जननी। उ०— (क) कबहूँ करताल बजाय कै नाचन मातु सब मन मोद भरैं।— तुलसी (शब्द०)। (ख) तुलसी प्रभु भौजेहैं संभु धनु भूरि भाग सिय मातु पितौ री।—तुलसी (शब्द०)।

मातुल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मातुला, मातुलाना] १. माता का भाई। मामा। उ०— कह्यौ मत मातुल विभीषण हू वार वार अंचल पसारि पिय पयि ले लै हौं परी।— तुलसी (शब्द०)। (ख) भुनि मातुल मुहि तात कहि नित प्रेम बढ़ंत।— पृ० रा०, ६१। ५८९। २. धतूरा उ०— द्वं मृणाल मातुल उभै द्वै कदलि खंभ विन पात।— सूर (शब्द०)। ३. एक प्रकार का धान। ४. एक प्रकार का साप। ५. मदन वृक्ष। ६. सौर वर्ष (को०)। यौ०—मातुलपुत्रक= (१) ममेरा भाई। मामा का पुत्र। (२) धतूरे का फल।

मतुला, मातुलानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मामा की स्त्री। मामी। २. मन। ३. प्रियंगु। ४. भाँग।

मातुलाहि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।

मातुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मामा की स्त्री। मामी। २. भाँग।

मातुलुंग
संज्ञा पुं० [सं० मातुलुङ्ग] विजौरा नीबू। पर्या०—मातुलिंग। बीजपूरक। मातुलुंगक।

मातुलेय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मातुलेयी] मामा का लड़का। ममरा भाई।

मातृ
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'माता'।

मातृक (१)
वि० [सं०] मता संबंधी।

मातृक (२)
संज्ञा पुं० १. माता का भाई। मामा। २. मातृत्व। माता होने का भाव (को०)।

मातृकच्छिद
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम।

मातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूध पिलानेवाली दाई। धाय। २. माता। जननी। ३. उपमाता। सौतेली माता। ४. तांत्रिकों की मात देवियाँ—ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही,इंद्राणी और चामुंडा। ५. वर्णमाला की बारहखड़ी। ६. ठोढ़ी पर की आठ विशिष्ट नसें। ८. पिता की माता। दादी। आजी (को०)।

मातृकाकुंड
संज्ञा पुं० [सं० मातृकाकुण्ड] वैद्यक के अनुसार गुदा का एक फोड़ा या व्रण जो बहुत छोटे बच्चों को होता है।

मातृकेशट
संज्ञा पुं० [सं०] मामा।

मातृगंधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृगन्धिनी] १. विमाता। सौतेली माता। २. पिता की उपपत्नी।

मातृगण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मातृका-४'। इनकी संख्या मतांतर स सात, आठ और १६ कही गई है।

मातृगामी
संज्ञा पुं० [सं० मातृगामिन्] वह व्यक्ति जो माता के साथ व्यभिचार या गमन करे।

मातृगोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] माता का गोत्र या कुल।

मातृघात, मातृघातक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मातृघाती'।

मातृघाती
संज्ञा पुं० [सं० मातृघातिन्] [स्त्री० मातृघातिनी] मातृहत्या करनेवाला व्यक्ति। माता का हत्यारा [को०]।

मातृचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] मातृगण। मतृका समूह।

मातृतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] हथेली में सबसे छोटी उँगली के नीचे का स्थान।

मातृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. माता होने का भाव। संतानवती होना। २. माता का पद।

मातृदेव
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो माता को देवता के सदृश माने। माँ के प्रति देवता की भावना करनेवाला व्यक्ति।

मातृदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक देवी का नाम।

मातृदेश
संज्ञा [सं०] मातृभूमि। जन्मभूमि।

मातृदोष
संज्ञा पुं० [सं०] माता में दोष या हीनता होना। माता का निम्नजातीय होना।

मातृनंदन
संज्ञा पुं० [सं० मातृनन्दन] १. कार्तिकेय। २. महाकरंज का पेड़।

मातृनंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृनन्दा] शाक्तों का एक देवी का नाम।

मातृपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] माता का कुल, नाना, मामा आदि।

मातृपालित
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम।

मातृपितृ
संज्ञा पुं० [सं०] माता और पिता। माँबाप। यौ०—मातृपितृहीन= जिसके माता पिता न हों। बिना माँ बाप का।

मातृपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृपूजन] विवाह की एक रीति जिसमें विवाह के दिन से एक दो दिन पूर्व छोटे छोटे मीठे पूए बनाकर पितरों का पूजन किया जाता है। इसी को 'मातृपूजा' या 'मातृकापूजन' कहते हैं।

मातृवंधु
संज्ञा पुं० [सं० मातृबन्धु] माता के संबंध का कोई आत्मीय। विशेष— मिताक्षरा के अनुसार माता की फूआ, माता की मौसी और माता के मामा की संतान मातृबंधु कही जाती है।

मातृबांधव
संज्ञा पुं० [सं० मातृबान्धव] दे० 'मातृबंधु'।

मातृभक्त
वि० [सं०] माता का अनुगत। माता का भक्त [को०]।

मातृभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भाषा जो बालक माता की गोद में रहते हुए बोलना सीखता है। माता पिता के बोलने की और सब से पहले सीखी जानेवाली भाषा।

मातृभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मातारूपी धरती। स्वदेश। जन्मभूमि।

मातृमंडल
संज्ञा पुं० [सं० मातृमण्डल] १. दोनों आँखों के बीच का स्थान। २. मातृकागण।

मातृमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृमातृ] १. माता की माता। नानी। २. दुर्गा।

मातृमुख
वि० [सं०] अनाड़ी। मूर्ख। अज्ञ।

मातृयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो मातृकाओं के उद्देश्य से किया जाता है।

मातृरिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक दोष जो संतान के ऐसे बुरे लग्न में जन्म लेने से होता है जिसके कारण माता पर संकट आवे या उसके प्राण चले जायँ।

मातृवत्सल
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।

मातृवध
संज्ञा पुं० [सं०] माता की हत्या करना। विशेष— यह बौद्धों के अनुसार पाँच महापापों में है और अक्षम्य अपराध होने से इसका फल भोगना ही पड़ता है।

मातृवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया। बल्गुला। चमगादड़ [को०]।

मातृवियोग
संज्ञा पुं० [सं०] माता का विछोह वा वियोग।

मातृशासित
वि० [सं०] मूर्ख। मातृमुख।

मातृष्वसा
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृष्वसृ] माँ की बहन। मासी। मौसी।

मातृष्वसेय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मातृष्वेसेयी] माता की बहन का लड़का। मौसेरा भाई।

मातृष्वसेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मौसेरी बहन। मौसी की लड़की।

मातृष्वस्त्रीय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मातृष्वस्त्रीया] मातृष्वसेय। मौसेरा भाई [को०]।

मातृसपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौतेली माता। विमाता।

मातृस्तन्य
संज्ञा पुं० [सं०] माता का दूध।

मातृहंता
वि० संज्ञा पुं० [सं० मातृहन्तृ] दे० 'मातृधाती'।

मातृहीन
वि० [सं०] माता से रहित। जिसकी माँ गत हो गई हो। बिना माँ का।

मात्र
अव्य० [सं०] केवल। भर। सिर्फ। जैसे, नाममात्र, तिल मात्र। उ०— (क) रहे तुम सल्य कहावत मात्र। अवै सह सल्य करौं सब गात्र।— गोपाल (शब्द०)। (ख) केवल भक्त चारि युग केरे। तिनके जे हैं चरित घनेरे। सोई मात्र कथौं यहि माहीं। कछुक कथा उपयोगिन काहीं।—रघुराज (शब्द०)।

मात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] २. परिमाण। मिकदार। जैसे,—इसमें पानी की मात्रा अधिक है। २. एक वार खाने योग्य औषध। ३. उतना काल जितना एक ह्रस्व अक्षर का उच्चारण करने में लगता है। विशेष— छंदशास्त्र में इसे मत्त, मत्ता, कल या कला भी कहते हैं। ४. बारहखड़ी लिखाते समय वह स्वरसूचक रेखा जो अक्षर के ऊपर नीचे या आगे पीछे लगाई जाती है। ५. किसी चीज का कोई निश्चित छोटा भाग। ६. हाथी, घोड़ा आदि। परिच्छद। ७. कान में पहनने का एक आभूषण। ८. इंद्रिय जिसके द्वारा विषयों का अनुभव होता है। ९. शक्ति। १०. इंद्रियों की वृत्ति। इंद्रियवृत्ति (को०)। ११. धन। द्रव्य (को०)। १३. शिलोच्चय। पर्वत (को०)। १४. अवयव। अंग। १५. रूप। सूक्ष्म रूप। १६. संगीत में गीत और वाद्य का समय 'निरूपित करने के लिये उतना काल जितना एक स्वर के उच्चारण में लगता है। विशेष—एक ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है उसे 'ह्रस्व मात्रा' कहते है; दो ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है; उसे 'दीर्घ मात्रा' कहते हैं; और तीन अथवा उससे अधिक स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उसे 'प्लुत मात्रा' कहते हैं।

मात्राच्युतक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की काव्यरचना जिसकी कोई मात्रा हटा देने से दूसरा अर्थ हो जाता है।

मात्राभस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन या रुपए आदि रखने की थैली। मनीबेग।

मात्रालाभ
संज्ञा पुं० [सं०] द्रव्य की प्राप्ति या उपलब्धि।

मात्रावस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक की एक क्रिया जिसमें रोगी को दस्त कराने के लिये उसकी गुदा में पिचकारी आदि से तेल आदि मिला हुआ कोई तरल पदार्थ भरते हैं।

मात्रावृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्य जिसमें मात्राओं की गणना की जाय। मात्रिक छंद। जैसे, आर्या।

मात्रासमक
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ और अंत में गुरु होता है। विशेष— चौपाई नामक छंद के मत्तसमक, वानवासिका, चित्रा और विश्लोक नामक चार भेद इसी के अंतर्गत हैं।

मात्रास्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] अपने अपने विषय के साथ इंद्रियों का संयोग। इंद्रियतृत्ति [को०]।

मात्रिक
वि० [सं०] १. मात्रा संबंधी। मात्रा का। जैसे, एकमात्रिक। २. मात्राओं के हिसाबवाला। जिसमें मात्राओं की गणना की जाय। जैसे, मात्रिक छंद। यौ०—मात्रिकछंद= दे० 'मात्रावृत्त'।

मात्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मातृका-३, ४, ५'।

मात्सर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मात्सरी] मत्सर युक्त।

मात्सरिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मात्सरिकी] दे० 'मात्सर' [को०]।

मात्सर्य
संज्ञा पुं० [सं०] मत्सर का भाव। किसी का मुख या उसकी संपदा न देख सकने का स्वभाव। किसी को अच्छी दशा में देखकर जलना। ईर्ष्या। डाह।

मात्स्य (१)
वि० [सं०] मछली संबंधी। मछली का। यौ०—मात्स्यन्याय।

मात्स्य (२)
संज्ञा पुं० एक ऋषि का नाम।

मात्स्य न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] मछलियों का न्याय। एक दृष्टांत- वाक्य। उ०— हाव्स की प्राकृतिक स्थिति मात्स्य न्याय की स्थिति थी।—राजनीतिक०, पृ० ८। विशेष—जिस प्रकार समुद्र में बड़ी मछली छोटी मछलियों को खा जाती है उसी प्रकार समाज में जब कोई उच्चवर्गीय या शक्तिशाली जन अपने से निम्न एवं अशक्त का शोषण करता है तब इस दृष्टांतवाक्य का प्रयोग किया जाता है।

मात्स्यिक
संज्ञा पुं० [सं०] मछली मारनेवाला। मछुआ।

माथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रास्ता। पथ। मार्ग। २. मधना। मथन। मंथन। ३. विध्वंस। नाश। विनाश [को०]।

माथ पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मस्त्(=शिर) प्रा० मध्थ] दे० 'माथा'। उ०— मागु माथ अबही दहु तोहा।—मानस, २।

माथना पु
क्रि० सं० [सं० मन्थन] दे० 'मथना'। उ०— नीर होइ तर ऊपर सोई। माथे रंग समुद्र जस होई।— जायसी (शब्द०)।

माथा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक, प्रा० मथ्थअ] १. सिर का ऊपरी भाग। मस्तक। मुहा०—माथा कूटना= दे 'माथा पीटना'। माथा विसना= नभ्रता प्रकट करना। मिन्नत खुशामद करना। माथा खपाना या खाली करना=बहुत अधिक समझाना या सोचना। सिर खपाना। मगजपच्ची करना। (किसी के आगे) माथा झुकाना या नवाना=बहुत अधिक नम्रता या अधीनता प्रकट करना। माथा टेकना=सिर झुकाकर प्रणाम करना। माथा ठनकना=पहले स ही किसी दुर्घटना या विपरीत बात होने की आशंका होना। उ०— दूसरे पहर पर आए वहाँ भी सन्नाटा। माथा ठनका कि कुछ दाल में काला है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २२३। माथा घुनना=दे० 'माथा पीटना'। माथापच्चा करना=दे० 'माथा खपाना'। माथा पाटना= सिर पर हाथ मारकर बहुत अधिक दुःख या शोक करना। माथा मारना=दे० 'माया खपाना'। माथा रगड़ना=दे० 'माथा घिसना'। माथे चढ़ाना या धरना=शिरोधार्य करना। सादर स्वीकार करना। उ०— मम आयुस तुम माथे धरौ। छल बल करि मम कारज करौ।—सूर (शब्द०)। माथे टिका होना=किसी प्रकार की विशेषता या अधिकता होना। जैसे,— क्या तुम्हार माय टीका हे जो तुम्हीं को सब चीजें दे दी जार्य? साथे माथे पड़ना= उत्तरदायत्व आ पड़ना। ऊपर भार आ पड़ना। जैसे,— वह तो खिसक गए; अब सब काम हमारे माथे आ पड़ा। माथे पर चढ़ना=दे० 'सिर पर चढ़ाना'। माथे पर बल पड़ना=आकृति से क्रोध दुःख याअसंतोष आदि के चिह्न प्रकट होना। शक्ल से नाराजगी जाहिर होना। जैसे,—रुपए की बात सुनते ही उनके मथे पर बल पड़ गए। माथे भाग होना=भाग्यवान् होना। तकदीरवर होना। माथे मढ़ना=गले बाँधना। गले मढ़ना। जबरदस्ती देना। माथे मानना= शिरोधार्य करना। सादर स्वीकर करना। उ०—(क) कह रविसुत मम कारज होई। माथे मानि करव हम सोई।—तबलसिह (शब्द०)।(ख) सूरदास प्रभु कि जिय भावे आयुस माथे मान।— सूर (शब्द०)। माथे मारना=बहुत ही उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक किसी को कुछ देना। बहुत तुच्छ भाव से देना। जैस,—वह रोज तगादा करता है; उसका किताब उसके माथ मारो। माथे लना=माथे धरना या मानना। अंगीकार करना। उ०— फगुआ कुंबरि कान्ह बहु दानों। प्रेम प्रीत कार माय लीनों।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९३। यौ०— माथापच्चो या माथापिट्टन=बहुत अधिक बकना या समझना। सिर खपाना। मगजपच्ची करना। २. वह चित्र आदि जिनमे मुख और मस्तक की आकृति बनी हो। (लश०)। ३. किसी पदाथ का अगला या ऊपरी भाग। जैस, नाव का माथा, आलमारा का माथा। मुहा०— माथा मारना=जहाज का वायु के विपरीत इस प्रकार जोर मारकर चलना कि मस्तूल, पाल तथा ऊपरी भागों पर बहुत जार पड़। ४. यात्रा। सफर। ५. खेप। (लश०)।

माथा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।

माथुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० माथुरानी] १. मथुरा का निवासी। वह जो मथुरा का रहनेवाला हो। २. ब्रह्माणों की एक जाति। चौबे। ३. कायस्थी की एक जाति। ४. वैश्यों की जाति। ५. माथुर प्रति।

माथुर (२)
वि० मथुरा संबंधी। मथुरा। का।

माथे
क्रि० वि० [हि० माथा] १. माथे पर। मस्तक पर। सिर पर। उ०— नागार गूजरि ठगि लीनी मेरी लाल गोरोचन की तिलक माय मोहना।—हरिदास (शब्द०)। २. भरोसे। सहारे पर। उ०— सो जनु हमरे माथे काढ़ा। दिन चलि गयउ ब्याज बहु बाढ़ा।—तुलसी (शब्द०)।

माथै पु
क्रि० वि० [हि० माथा] दे० 'माथ'।

माद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिमान। शेखी। घमंड। २. हर्ष। प्रसन्नता। ३. मत्तता। मस्ती।

माद (२)
संज्ञा पुं० [देश०] छोटा रस्सा। (लश०)।

माद (३)
संज्ञा पुं० दे० 'माद' —२'। उ०— आडग डग से भूमि जल नभ पर फिर जीवन नहीं। दुर्दशा को सिंहनी की माद तू जबतक न कर।—वेला, पृ० ६८।

मादक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मादिका] नशा उत्पन्न करनेवाला। जिसस नशा हो। नशाला। २. आनंदप्रद। आनंददायक। हर्षप्रद।

मादक (२)
संज्ञा पुं० १. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उसके प्रयोग से शत्रु में प्रमाद उत्पन्न होता था। २. वह चीज जिसके खाने से नशा हो। नशा उत्पन्न करनेवाला पदार्थ। जैसे, अफीम, भाँग, शराब आदि। ३. एक प्रकार का हिरन। ४. दात्यूह पक्षी (को०)।

मादकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादक होने का भाव। नशीलापन। उ०— कनक कनक तें सौगुनो मादकता अधिकाय। वह खाए वौरात है यह पाए बौराय।— बिहारी (शब्द०)।

मादगाव
संज्ञा स्त्री० [फा० माद ए गाव] गौ। गाय। उ०— नहुम मादगाव एक लागर हकीर। जंगल बीच पीती है बछड़े का शीर।—दक्खिनी०, पृ० ३०२।

मादन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोग। २. मदन वृक्ष। ३. कामदेव। ४. धतूरा। ५. मतवालापन। मत्तत्ता (को०)।

मादन (२)
वि० दे० 'मादक'।

मादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाँग।

मदनीय
वि० [सं०] मादकता या नशा उत्पन्न करनेवाला। मादक। नशीला।

मादर (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०। मि० सं० मातृ/?/मातर, अं० मदर] माँ। माता। जननी। यौ०—मादरजन=सास। श्वश्रू।

मादर (२)
संज्ञा पुं० [सं० मर्दल] दे० 'मादल'। उ०— तुम्ह पिउ साहस बाँधा मै पिय माँग सेंदूर। दोउ सँभारे होइ सँग बाजै मादर तूर।— जायसी (शब्द०)।

मादरजाद
वि० [फा० मादरजाद] १. जन्म का। पैदाइशी। जैसे, मादरजाद अंधा। २. एक माँ से उत्तन्न। सहोदर (भाई)। ३. जैसा माँ के पेट से निकला था, वैसा ही। बिलकुल नंगा। दिगंबर। यौ०—मादरजाद नंगा=एकदम नंगा। पूरी तौर से विवस्त्र।

मादरिया पु
संज्ञा स्त्री० [फा० मादर+हि० इया (प्रत्य०)] दे० 'मादर (१)'। उ०— सासु ननदि मिलि अदल चलाई। मादरिया घर बेटी आई।— कबीर (शब्द०)।

मादरी
वि० [फा०] माता संबंधी। माता का। यौ०—मादरी जबान=मातृभाषा।

मादल
संज्ञा पुं० [सं० मर्द्दल] पखावज के ढंग का एक प्रकरा का बाजा जो प्रायः बंगाल में कीर्तन आदि के समय बजाया जाता है।

मादलिया पु ‡
संज्ञा स्त्री० [देश० या हि० मादल+इया (प्रत्य०)] तावीज। उ०— के नाड़े के कंचुए, बाँध्या बेणी वंध। कामण रा राखै कनैस, मादलिया मन मंध।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १०।

मादा
संज्ञा स्त्री० [फा० मादह्] स्त्री जाति का प्राणी। नर का उलटा। जैसे,—(क) साँड़ की मादा गाया कहलाती है। (ख) इस कबूतर की मादा कहीं खो गई है।विशेष— इस शब्द का व्यवहार बहुधा जीव जंतुओं के लिये ही होता है। जैसे, माद ए अस्प=घोड़ी। मादए आहू=हरिणी। मादए खर=गर्दभी। मादए गाव=गौ, आदि।

मादिक पु
कि० [सं० माद+इक] दे० 'मादक'। उ०— मादिक रूप रसीले सुजान को पान किएँ छिनकौ न छकै कौ।— घनानंद०, पृ० ४३।

मादिकता पु
संज्ञा स्त्री० [हि० मादिक+ता (प्रत्य०)] दे० 'मादकता'।

मादिन †
संज्ञा स्त्री० [हि० मादा+इन (प्रत्य०)] दे० 'मादा'।

मादी
संज्ञा स्त्री० [फा० मादीन ? ] दे० 'मादा'। उ०— नर की दखि प्रान हारि लेई। मादी देखि बोल नहिं तेही।— घट०, पृ० २४१।

मादीन ‡
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'मादा'।

मादु
संज्ञा पुं० [सं०] भाँग। भंग [को०]।

मादूम
वि० [अ० भादूम] जिसका अस्तित्व न रह गया हो। बरबाद। उ०— खुरशेद परख परतव मादूम हुआ है।— कबीर मं०, पृ० १४१।

मादृक्ष, मादृश
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मादृक्षी, मादृशी] मेरे समान। मुझ जैसे। मेरे तुल्य [को०]।

माद्दा
संज्ञा पुं० [अं० माद्दह्] १. वह मूल तत्व जिससे कोई पदार्थ बना हो। २. शब्द की व्युत्पत्ति। शब्द० का मूल। ३. योग्यता। पात्राता। जैसे,— आपमें यह बात मसझने का माद्दा ही नहीं है। ४. विवेक। तमीज (को०) ५. जड़। मूल। बुनियाद (को०)। ६. बोध। ज्ञान। समझ (को०)। ७. मवाद। पीव।

माद्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा। परिक्षित की स्त्री का नाम। २. राजा पाड़ु की दूसरी पत्ती। माद्री (को०)।

माद्रिनंदन
संज्ञा पुं० [सं० माद्रिनन्दन] दे० 'माद्रिसुत' [को०]।

माद्रिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] माद्रि के पुत्र नकुल और सहदेव।

माद्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाड़ु राजा की द्वितीया पत्नी और नकुल तथा सहदेव की माता जो मद्र के राजा की कन्या थी। राजा पाड़ु के मरने पर यह उनके साथ सती हूई थी। २. अतिविषा। अतीस।

माद्रीपति
संज्ञा पुं० [सं०] पांड़ु।

माद्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव।

माधव (१)
वि० [सं०] १. मधु जैसा। शहद के समान। मीठा। २. मधुनिर्मित। ३. वसंत ऋतु संबंधी। बसंती [को०]।

माधव (१)
संज्ञा पुं० १. विष्णु भगवान्। नारायण। २. श्रीकृष्ण। ३. वैशाख मास। उ०— किसी गमन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिए।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८। ४. वसंत ऋतु। ५. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में आठ जगण होते है। इसी का दूसरा नाम 'मुक्तहरा' है। ३. एक राग जो भैरव राग के आठ पुत्रों में से एक माना जाता है। ७. एक प्रकार का संकर राग जो मल्लार, विलावल और नट नारायण को मिलाकर बनाय गया है। ८. मधूक वृक्ष। महुआ। ९. काला उर्द। १०. इंद्र (को०)। ११. परशुराम (को०) १२. यादव गण (को०)। १३. सायणाचार्य के भाई का नाम। विशेष— ये १५वीं शती में थे। ऋग्वेद की टीका इन्होंने और सायण ने संयुक्त रूप में की थी। स्मृति के व्याख्याताओं में इनका स्थान प्रमुख है। इनके पिता का नाम मायण था। यौ०—माधवद्रुम=मधूक। माधवन्दिन=आयुर्वेद का निदान- विपयक प्रसिद्ध ग्रंथ। माधववल्ली=माधवी। माधवश्री।

माधवक
संज्ञा पुं० [सं०] महुए या मधु की शराब।

माधवश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वासंतिक या वसंतकालीन शोभा।

माधविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] माधवी लता।

माधवी
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसिद्ध लता जिसमें इसी नाम के प्रसिद्ध सुंगधित फूल लगते हैं। विशेष— यह चमेली का एक भेद है। वैद्यक के अनुसार यह कटु तिक्त, कषाय, मधुर, शीतल, लघु और पित्त, खाँसी, व्रण, दाह आदि की माशक कभी जाती है। २. ओड़व जाति की एक रागिनी जिसमें गांधार और धैवत वर्जित हैं। ३. सवैया छंद का एक भेद। ४. एक प्रकार की शराब। ५. तुलसी। ६. दुर्गा। ७. माधव की पत्नी। ८. कुटनी। ९. शहद की चीनी। १०. मधु की मदिरा। मधुनिर्मित मद्य (को०)।

माधवीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] माधवी नामक सुगंधित फूलों की लता। विशेष— दे० 'माधवी—१'।

माधवेष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वारही कंद।

माधवोचित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का परिमल या इत्र। (कक्कोल)।

माधवोद् भव
संज्ञा पुं० [सं०] खिरनी का पेड़।

माधी
संज्ञा पुं० [देश०] भैरव राग के एक पुत्र का नाम। (संदिग्ध)।

माधुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैत्रेयक नाम की वर्णसंकर जाति। २. महुए की शरब।

माधुकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माधुकरी] भौंरे के समान। मधुकर जैसा। भ्रमर के समान। जैसे, माधुकरी वृति।

माधुकरी
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिक्षा का संकलन जो दरवाजे दरवाजे घूमकर किया जाय जैसे भ्रमर मकरंद संचय करता है। २. पाँच विभिन्न स्थानों से माँगी हुई भिक्षा [को०]।

माधुपार्किक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जो मधुपर्क देने के समय दिया जाता है।

माधुर
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लिका। चमेली।

माधरई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० माधुरी] मधुरता। मिठास। उ०— ए अलि या बलि के अधरानि में आने मढ़ी कछु माधुरई सो।— पद्माकर (शब्द०)।

माधुरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुरता] मीठापन। मिठास। उ०— जिती चारुता कोमलता सुकुमारता माधुरता अधरा में अहै।— (शब्द०)।

माधुरिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० माधुर्यं] 'माधुरी'। उ०— लक्षण को बकमै कछु चखि सुभाखि कै माधुरिया अधिकाई।—रघुराज (शब्द०)।

माधुरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिठाम। २. माधुर्य। शोभा। सुंदरता। उ०—(क) भायप भलि चहुँ बंधु की जल माधुरी सुवास।— तुलसी (शब्द०)। (ख) रामचंद्र की देखि माधुरी दर्पण देख दिखावै।— सूर (शब्द०)। ३. मद्य। शराब।

माधुरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० मधुमास] माधव मास। वैशाख। उ०— गंजं श्रोन चल्लै रजं आसं पासं। मनौ माधुरी मास फूले पलासं।— पृ० रा०, १। ४५८।

माधुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर होने का भाव। मधुरता २. सुंदरता। लावण्य। ३. मिठाई। मिठास। मीठापन। ४. पांचाली रीति के अंतर्गत काव्य का एक गुण। विशेष—इसके द्वारा चित्त बहुत ही प्रसन्न होता है। यह शृंगार, करुण और शांत रस में हो अधिक होता है। ऐसी रचना में प्राय़ ट, ठ, ड़, ढ, और ण नहीं रहते; क्योंकि इनसे माधुर्य का नाश होना माना जाता है। 'उपनागरिका'। वृत्ति में यह अधिकता से होता है। ५. सात्विक नायक का एक गुण। बिना किसा प्रकार के शृंगार आदि के ही नायक का सुंदर जान पड़ना। ६. वाक्य में एक से आधिक अर्थो का होना। वाक्य का श्लप। ६. श्रीकृष्ण के प्रति काता भाव। मधुरा या रागानुगा भक्ति।

माधुर्यप्रधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह काव्य जिसमें माधुर्य गुण की प्रधानता हो। २. गाने का एक प्रकार। वह गाना जिसमें माधुर्य का अधिक ध्यान रखा जाय और उसके शुद्ध रूप के बिगड़ने की परवा न की जाय।

माधूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार एक वर्णसंकर जाति का नाम। विशेष—इस जाति के लोग मधुर शब्दों में लोगे की प्रशंसा करते हैं, इसीलिये ये 'माधूक' कहलाते है। कुछ लोग 'बंदी' की ही 'माधूक' मानते हैं।

माधूक (२)
वि० मिष्टभाषी। मिठबोला। मृदुभाषी।

माधैया पु
संज्ञा पुं० [सं० माधव+हि० ऐया] दे० 'माधव' उ०— हरि हित मरो माधैया। देहरी चढ़त परत गिरि गिरि करपल्लव जो गहत है री मैया।— सूर (शब्द०)।

माधो
संज्ञा पुं० [सं० माधव] १. श्रीकृष्ण। उ०— (क) जब माध होइ जात सकल तनु राधा बिरह दहै।—सूर (शब्द०)। (ख) शीश नाइ कर जोर कहयो तब नारद सभा सहेस। तत्क्षा भीम धनंजय माधा धन्य द्विजन को भेस।— सूर (शब्द०)। श्रीरामचंद्र। उ०— आधों पल माधो जू के देखे बिन से शशि सीता को बदन कहूँ होत दुखदाई है।— केशव (शब्द०)

माधौ
संज्ञा पुं० [सं० माधव] दे० 'माधव'।

माध्यंदिन (१)
संज्ञा पुं० [सं० माध्यन्दिन] १. दिन का मध्य भाग मध्याह्न। दोपहर। २. दे० 'माध्यंदिनी'।

माध्यंदिन (२)
वि० १. मध्य का। बिचला। मध्यम। २. दिन के मध्य का [के०]।

माध्यंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० माध्यन्दिनी] शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा का नाम।

माध्यंदिनीय
संज्ञा पुं० [सं० मा्ध्यन्दिनीय] नारायण। परमेश्वर।

माध्य
वि० [सं०] मध्य का। बीच का।

माध्यम (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माध्यमी] मध्य का। जो मध्य में हो। बीचवाला।

माध्यम (२)
संज्ञा पुं० वह जिसके द्वारा कोई कार्य संपन्न हो। कार्यसिद्धि का आधार, उपाय या साधन। उ०— यह वह समय है जब संसार की सभी जातियों में आदान प्रदान चल रहा है, मेल मिलाप हो रहा है। साहित्य इसलका माध्यम है।—गीतिका (भू०), पृ० ५। विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग बहुत हाल में होने लगा है।

माध्यमक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माध्यमिका] मध्यवर्ती। बीच का [को०]।

माध्यमिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्धों का एक भेद। विशेष— इस वर्ग के बोद्धों का विश्वास है कि सब पदार्थ शून्य से उत्पन्न होते हैं और अंत में शून्य हो जाते हैं। बीच में जो कुछ प्रतीत होता है, वह केवल उसी समय तक रहता है, पश्चात् सब शून्य हो जाता है। जैसे, 'घट' उत्पत्ति के पूर्व न तो था और न टूटने के पश्चात् ही रहता है। बीच मे जो ज्ञान होता है, वह चित्त के पदार्थतर में जाने से नष्ट हो जाता है। अतः एक शून्य ही तत्व है। इनके मत से सब पदार्थ क्षणिक हैं और समस्त संसार स्वप्न के समान है। जिन लोगों ने निर्वाण प्राप्त कर लिया है और जिन्होने नहीं प्राप्त किया है, उन दोनों को ये लोग समान ही मानते हैं। २. मध्य देश। ३. मध्य देश का निवासी।

माध्य मक (१)
वि० [वि० स्त्री० माध्यमिकी] दे० 'माध्यमक'। मध्य- वर्तो। जैसे, माध्यमिक विद्यालय। माध्यामिक शिक्षा।

माध्यस्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो दो मनुष्यों या पक्षों के बीच। में पडकर किसी वाद विवाद आदि का निपटारा करे। पंच। बिचवई। मध्यस्य। २. दलाल। ३. कुटना। ४. ब्याह करानेवाला ब्राह्मण। बरेखो।

माध्यस्थ (२)
वि० मध्यस्थ। तटस्थ।

माध्यस्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] मध्यस्य होने का भाव। मध्यस्थता।

माध्याकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी के मध्य भाग का वह आकर्षण जो सदा सब पदार्थो का अपनी ओर खीचंता रहता है और जिसके कारण सब पदार्थ गिरकर जमीन पर आ पड़ते है। विशेष— इंगलैंड के प्रसिद्ध तत्ववेत्ता न्यूटन ने वृक्ष से एक सेव को जमीन पर गिरते हुए देखकर यह सिद्धांत स्थिर किया था कि पृथ्वी के मध्य भाग में एक ऐसी आकर्षण शक्ति है, जिसके द्वारा सब पदार्थ, यदि बीच में कोई चीज बाधक न हो तो, उसकी ओर खिंच आते हैं।

माध्याह्निक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह कार्य जो ठोक मध्याह्न के समय किया जाता हो। ठीक दोपहर के समय किया जानेवाला कार्य, विशेषतः धार्मिक कृत्य।

माध्याह्निक (२)
वि० [सं० स्त्री० माध्याह्निकी] दिन के मध्य का। दोपहर या मध्याह्न का [को०]।

माध्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैष्णवो के चार मुख्य संप्रदायों में से एक जो मध्वाचार्य का चलाया हुआ है। इस मत के माननेवाले काला तिलक लगाते है और प्रतिवर्ष चक्राकित होते रहते है। २. महुए की शराब। ३. मधुरकंटक नाम की मछली।

माध्व (२)
वि० [वि० स्त्री० माध्वी] मीठा। मधुनिर्मित [को०]।

माध्वक
संज्ञा पुं० [सं०] महुए या मधु का शराब।

माध्विक
संज्ञा पुं० [सं०] शहद इकट्ठा करनेवाला।

माध्वी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मदिरा। शराब। २. वह शराब जो मधु या महुए से बनाई जाती है। ३. मधुरकंटक नाम की मछली। ४. पुराणानुसार एक नदी का नाम। ५. एक प्रकार का खजूर। मधुखर्जूरा (को०)।६. माधवी नाम की लता। उ०— माध्वी कुंदलता लालत पगनि परति चहुँ भाति।—अनेकार्थ०, पृ० २०।

माध्वीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महुर की शराब। २. मधु। मकरंद। ३. दाख की शराब। ४. सेम।

माध्वीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेम।

मध्वीमधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीठी खजूर।

मान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का भार, तौल या नाप आदि। परिमाण। २. वह साधन जिसके द्वारा कोई चीज नापी या तौली जाय। पैमाना। जैसे, गज, ग्राम, सेर आदि। ३. किसी विषय में यह समझना कि हमारे समान कोई नहीं है अभिमान। अहंकार। गर्व। शेखी। विशेष— न्याय दर्शन के अनुसार जो गुण अपने में न हो, उसे भ्रम से अपने में समझकर उसके कारण दूसरो से अपने आपको श्रेष्ठ समझना मान कहलाता है। मुहा०—मान मथना=मान भंग करना। गर्व चूर्ण करना। शेखी तोड़ना। उ०— इन जरासंध मदश्रभ मम मान मथि बाँध विनु काजे बल इहाँ आने।— सूर (शब्द०)। ४. प्रातिष्ठा। इज्जत। संमान। उ०— भोजन करत तुष्ट घर उनके राज मान भंग टारत।—सूर (शब्द०)। मुहा०—मान रखना=इज्जत रखना। प्रातिष्ठा करना। उ०— कमरी थोरे दाम की आवे बहुते काम। खासा मलमल बाफता उनकर राखे मान।— गिरधर (शब्द०)। यौ०—मान महत=आदर सत्कार। प्रतिष्ठा। ५. साहित्य के अनुसार मन में होनेवाला वह विकार जो अपने प्रिय व्यक्ति का कोई दीप या अपराध करत देखकर होता है। रूठना। उ०— विधि बिध कै विकर टरै, नहीं परेहू पान। चितै कितै तैं लै धरया इतों इतै तन मान।— बिहारी (शब्द०)। विशेष— मान बहुधा स्त्रियाँ ही करती है। अपने प्रेमी को किसी दूसरी स्त्री की और देखने अथवा उससे बातचीत करते देखकर, कोइ अभिलपित पदार्थ न मिलने पार अथवा कोई कार्य इच्छानुसार न होने पर ही प्रायः मान किया जाता है। यह लघु, मध्यम और गुरु तीन प्रकार का कहा गया है। मुहा०—मान मनाना=दूसरे का मान दूर करना। रूठे हुए को मनाना। उ०—घरी चारि परम सुजान पिय प्यारी रिझि, मान न मनाओ मानिनी को मान देखि रह्यो।—रघुनाथ (शब्द०)। मान मोरना=मान का त्याग करना। मान छोड़ देना। उ०— मुख को निहारो जो न मान्यों सो भली करी न केशौराय को सों तोहिं जो तू मान मोरिहै।—केशव (शब्द०)। ६. पुराणनुसार पुप्कर द्वीप के एक पर्वत का नाम। ७. सामर्थ्य। शक्ति। ८. उत्तर दिशा के एक देश का नाम। ९. ग्रह। १०. मंत्र। ११. आत्मसंमान। आत्मगौरव (को०)। १२. प्रमाण। सबूत (को०)। १३. मानक। मानदंड। उ०—उलझन प्राणों की धागों की सुलझत का समझूँ मात तु्म्हें। -कामयनी, पृ० ६६। १४. संगीत शास्त्र के अनुसार ताल में का विराम जो सम, विषम, अतीत और अनागत चार प्रकार का होता है।

मानकंद
संज्ञा पुं० [सं० माणक] १. एक प्रकार का मीठा कंद। विशेष— यह कंद बंगाल में बहुत अधिक होता है और प्रायः तरकारी के रूप में या दूसरे अनाजों के साथ खाया जाता है। यह बहुत जल्दी पचता है। इसलिये दुर्बल रोगियों आदि के लिये बहुत लाभदायक होता है। कहीं कहीं आरारोट या सागूदाने की तरह भी इसका व्यवहार होता है। यह मृदु, विरेचक, मूत्रकारक और वबासीर तथा कव्जियत के लिये बहुत उषयोगी माना जाता है। २. एक प्रकार की मिस्त्री जो सलिब मिस्त्री के नाम से बाजारों में मिलती है।

मानक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मानकच्चू। मानकंद।

मानक † (२)
संज्ञा पुं० [सं० माणिक्य] दे० 'माणिक्य'। उ०— अंमर बरषै धरती निपजै अंद्रि बरपंदाई। गुरू हमारा। बानी बरषं चुनि चुनि मानक लेई।— रामानद०, पृ० १३।

मानक (३)
संज्ञा पुं० वह जिसके आधार पर किसी वस्तु ठीक वेठीक होने का निर्णाय किया जाय। आदर्श, जिसके नमूने पर कोई चीज तैयार की जाय।

मानकच्चू
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मानकंद'।

मानकलह
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईर्ष्या। डाह। मानजनित कलह। २. प्रतिद्वंद्विता। चढ़ा ऊपरी।

मानक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० मानक्रीड़ा] सूदन के अनुसार एक प्रकार का छंद। जैसे,— बदन सुत चाइकै। भरतपुर जाइकै। थपितु सिरदार कौं। जतत पितरार कौ। -सूदन (शब्द०)।

मानगृह
संज्ञा पुं० [सं०] रूठकर बैठने का स्थान। कोपभवन। उ०— बैठी जाय एकांत भवन में जहाँ मानगृह चार।— सूर (शब्द०)।

मानग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० मानग्रन्थि] १. ईर्ष्या से उत्पन्न कोप। २. अपराध। जुर्म।

मानचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी स्थान का बना हुआ नक्शा। जैसे, एशिया का मानचित्र।

मानज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोध।

मानज (२)
वि० मान से उत्पन्न।

मानतरु
संज्ञा पुं० [सं०] खेतपापड़ा।

मानता
संज्ञा स्त्री० [हि० मानना+ता (प्रत्य०)] मनौती। मन्नत। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—मानना।

मानदंड
संज्ञा पुं० [सं० मानदण्ड़] वह डंडा या लकड़ी जिससे कोई चीज नापी जाय। पैमाना।

मानद
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. वह व्यक्ति जो संमान वा आदर दे। प्रतिष्ठा देनेवाला। प्रेयतम। उ०— मान मनावत हु करै, मानद के अपमान। दूनो दुख बिनु लहै अभिसँ- घिता बखान।—केशव०, ग्रं, पृ० ४१। ३. 'आ' अक्षर। (तांत्रिक)।

मानदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की दूसरी कला या लेखा [को०]।

मानद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] सेमल का पेड़।

मानधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका धन मान वा प्रतिष्ठा हो। वह जो बहुत बड़ा अभिमानी हो।

मानधाता
संज्ञा पुं० [सं० मान्धाता] दे० 'मांधाता'।

मानधानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी।

मानन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मानना] आदर करना। मान करना। संमान [को०]।

मानना (१)
क्रि० अ० [सं०] १. अंगीकार करना। स्वीकार करना। मंजूर करना। जैसे,— (क) हम मानते हैं कि आप उनकी बुराई नहीं कर रहे हैं। (ख) मान न मान, मैं तेरा मेहमान। (कहा०)। २. कल्पना करना। फर्ज करना। समझना। जैसे,— मान लिजिए कि हम लोग वहाँ न जा सके; तो फिर क्या होगा ? ३. ध्यान में लाना। समझना। जैसे, बुरा मानना, भला मानना। संयो० क्रि०—जाना।—लेना। ४. ठीक मार्ग पर आना। अनुकूल होना। जैसे,— यह लड़का सीधी तरह से नहीं मानेगा। संयो० क्रि०—जाना।

मानना (२)
क्रि० सं० १. कोई बात स्वीकर करना। कुछ मंजूर करना। जैसे,— आप किसी का कहना नहीं मानते। २. किसी को पूज्य, आदरणीय या योग्य समझना। किसी के बड़प्पन या लियाकत का कायल होना। आदर करना। जैसे,— (क) उन महात्मा को यहाँ के बहुत लोग मानते हैं। (ख) लड़ाई झगड़ लगाने में मैं तुम्हें मानता हूँ। विशेष— कभी कभी कर्ता को छोड़कर उसके गुण या कार्य के संबंध में भी इस शब्द का इस अर्थ में प्रयोग होता है। जैसे,— उनका गाना बजाना अच्छे अच्छे उस्ताद मानते थे। ३. दक्ष समझना। पारंगत समझना। उस्ताद समझना। ४. धार्मिक दृष्टि से श्रद्धा या विश्वास करना। जैसे,— शिव को माननेवाले शैव कहलाते हैं। ५. देवता आदि की भेंट करने का प्रण करना। चढ़ावा चढ़ाने आदि का दृढ़ संकल्प करना। मन्नत करना। जैसे,—(१) के लड़ड़ू गणेश जी को मानो तो इम्तहान में पास हो जाओगे। ६. व्यान में लाना। समझना। जैसे,— यह तो किसी को कुछ भी नहीं मानता। ७. स्वीकृत करके अनुकूल कर्य करना। जैसे,—शिवरात्रि किसी ने आज मानी है और किसी ने कल। ८. किसी पर बहुत अनुरक्त होना। किसी के साथ बहुत प्रेम करना (बाजारू)।

माननि, माननी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मनिनी] दे० 'मानिनी'। उ०— (क) नंददास प्रभु कहाँ लौं बरनू वेदहु आपुन मुख कह्यौ यह माननि बड़ भाग।— नंद०, ग्रं० पृ० ३९७। (ख) मान मति करै माननी पिय सँग करहु विलास।— ब्रज ग्रं०, पृ० ६।

माननीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माननीया] जो मान करने योग्य हो। पूजनीय। आदरणीय। मान्य।

मानपत्र
संज्ञा पुं० [सं० मान +पत्र] दे० 'अभिनंदनपत्र'।

मानपरिखंडन
संज्ञा पुं० [सं० मानपरिखण्डन] १. अपमान। तिरस्कार। २. दे० 'मानभंग'।

मानपरेखा पु
संज्ञा पुं० [सं० मान+परीक्षा] आशा। विश्वास। भरोसा।

मानपात
संज्ञा पुं० [हि० मान+पात] दे० 'मानकंद'।

मानभंग
संज्ञा पुं० [सं०] मानहानि। (नायिका के) मान का टूटना।

मानभरी पु
वि० स्त्री० [मान+भरना] मान से भरी हुई। गुमान से ऐंठी हुई।

मानभाव
संज्ञा पुं० [सं०] चोचला। नखरा।

मानभृत्
वि० [सं०] मानवाला। अभिमानी। गर्वयुक्त [को०]।

मानमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० मान+मन्दिर] १. स्त्रियो के रूठकर बैठने का एकांत स्थान। २. वह स्थान जिसमें ग्रहों आदि के वेध करने का यंत्र तथा सामग्री हो। वेधशाला।

मानमनौती
संज्ञा स्त्री० [हि० मन+मनौती] १. मानता। मन्नत। मनौती। २. पारस्परिक प्रेम। ३. रूठने और मानने की क्रिया उ०— उसे खिलाने के लिये लोगों को मान मनौती करने की आवश्यकता है।

मानमनौवल
संज्ञा पुं० [हिं० मान+मनावना] मनौती। रूठने और मनाने की कीया। उ०— रामेश्वर के परिवार का स्नेह, उनके मधुर झगड़े, मानमनौवल, समझौता और अभाव में संतोष, कितना सुंदर ! मैं कल्पना करने लगा।—आँधी, पृ० ७।

मानमरोर
संज्ञा स्त्री० [हि० मान+मरोर] मन मुटाव। रंजिश। उ०— राधे सुजान इतै चित दै हित में कत कीजतु मानमरोर है।—घनानंद (शब्द०)।

मानमान्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] इज्जत। प्रतिष्ठा।

मानमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य के अनुसार रूठे हुए प्रिय को मनाना जो नीचे लिखे छह उपायों के द्वारा बतलाया गया है।— (१) साम, (२) दाम, (३) भेद, (४) प्रणति, (५) उपेक्षा, और (६) प्रसंगविध्वंस।

मानयोग
संज्ञा पुं० [सं०] नाप और तौल की ठीक ठीक विधि या रीती [को०]।

मानरंध्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० मनरन्ध्रा] जलघड़ी जिसका व्यवहार प्राचीन काल में समय जानने के लिये होता था। विशेष— इसमें एक छोटा कटोरा होता था जिसके पेदें में एक छोटा सा छेद होता था। वह कटोरा किसी बड़े जलपात्र में छोड़ दिया जाता था और उस छेद के द्वारा धीरे धीरे कटोरे में पानो भरने लगता था। वह कटोरा ठिक एक दंड़ या घड़ी मे भर जाता था और पानी में डूब जाता था। फिर उसे निकालकर खाली करके उसी प्रकार पानी में छोड़ देते थे और इस प्रकार समय का निरूपण करते थे।

मानरंध्री
संज्ञा स्त्री० [सं० मानरन्ध्री] दे० 'मानरंध्रा'।

मानर ‡
संज्ञा पुं० [सं० मर्दल, हिं० मादल] मादल बाजा। उ०— मानर की मंद आवाज रिंग रिग ता धिन ता।— मैला०, पृ० १२६।

मानव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनु से उप्तन्न, मनुष्य। आदमी। मनुज। २. बालक। बच्चा (को०)। ३. एक प्रकार के छंद का नाम। १४ मात्राओं के छंदों की संज्ञा। इनके ६१० भेद हैँ। ४. मनुकथित एक उपपुराण [को०]। ५. मनुष्य की माप (लंबाई)।

मानव (२)
वि० [वि० स्त्री० मानवी] १. मनु का। मनु से संबद्ध। २. मनुष्योचित्त। मानवोचित।

मानवक
संज्ञा पुं० [सं० मानव] १. छोटे कद का आदमी। वामन। बौना। २. तुच्छ आदमी।

मानवत्
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मानवती] वह जो मान करता हो। रूठा हुआ।

मानवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मानव होने का भाव। मनुष्यता। मानुषता।

मानवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नायिका जो अपने पति या प्रेमी से मान करती हो। मानिनी। उ०— करै ईरषा सों जू तिय मनभावन सों मान। मानवती तासों कहत, कवि मतिराम सुजान।— मतिराम (शब्द०)।

मानवदेव
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। उ०— वलि मिस देखे देवता कर मिस मानवदेव। मुए मार सुविचार हत स्वारथ साधन एव।— तुलसी (शब्द०)।

मानवधर्मशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] मनुस्मृति [को०]।

मानवपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नरेंद्र।

मानवपन
संज्ञा पुं० [सं० मानव+हि० पन (प्रत्य०)] दे० 'मानवता'। उ०— पावक पग धर आवे नूतन। हो पल्लवित नवल मानवपन।—युगातं पृ० ३।

मानवर्जित
वि० [सं०] निरभिमान। गर्व या मानहीन। नीच। अप्रतिष्ठित।

मानवर्तिक
संज्ञा पुं० [सं० मानवर्त्तिक] पुराणानुसार एक प्राचीन देश का नाम जो पूर्व दिशा में था। जैनो के हरिवंश के अनुसार यह देश वर्तमान मानभूमि है।

मानवशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें मानव जाति की उत्पत्ति और विकास आदि का विवेचन होता है। विशेष— इस शास्त्र से यह मी जाना जाता है कि संसार के भिन्न भिन्न भागों में मनुष्यों की कितनी जातियाँ है; सृष्टि के और कैसे हुई, उसकी सभ्यता का कैसे विकास हुआ, इत्यादि इत्यादि।

मानवा पु
संज्ञा पुं० [सं० मानवाः] मानव। मनुष्य। उ०— सपने सोया मानवा, खोला, देखि जो नैन। जीवपरा बहु लूट में, ना कछु लेन न देन।—कबीर सा० सं०, पृ० ६५।

मानवाचल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

मानवास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।

मानवी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। नारी। औरत। २. पुराणा- नुसार स्वायंभुव मनु की कन्या का नाम।

मानवी (२)
वि० [सं० मानवीय] मानव संबंधी। मनुष्य का।

मानवीकरण
वि० [सं० मानवी+ करण] किसी सूक्ष्म वस्तु में मानवता के गुणवर्ध या मानवता का आरोप या स्थापन करना। उ०— 'हरिऔव' जो ने पवन द्वार राधा का संदेश भिजवाने के लिये मानवीकरण का ही प्रयोग किया है।— हिंदी प्रेमा०, पृ० ६४।

मानवीय
वि० [सं०] मानव संबंधी। मानव का।

मानवीयता
संज्ञा स्त्री० [सं० मानवीय+हि० ता] दे० 'मानवता'। उ०— मतलब यह कि मानवोयता की व्यापक भूमि पर ही कोई अनुभूति गहरी ही सकती है।—इति०, पृ० ९।

मानवेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० मानवेन्द्र] राजा।

मानवेश
संज्ञा पुं० [सं०] मानवेंद्र।

मानव्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मानव'।

मानस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन। हृदय। उ०— माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं राम सिय मानस मोरे।—तुलसी (शब्द०)। २. मानसरेवर। उ०— रोष महामारी परतोष महतारी दुनी देखिए दुखारी मुनि मानस मरालिके—तुलसी (शब्द०)। ३. कामदेव। ४. संकल्प विकल्प। ५. एक नाग का नाम। ६. शाल्मली द्वीप के एक वर्ष का नाम। ७. पुष्कर द्वीप के एक पर्वत का नाम। ८. दूत। चर। उ०— (क) मानस पठाए सुधि को लाए साँच आँच लगि करौ साष्टांग बात मानी भाग फेले है।— प्रियादास (शब्द०)। (ख) दैके वहु भाँति सो पठाएसंग मानस हू आवो पहुँचाइ तव तुम पर रोझिए।—प्रियादास (शब्द०)। ९. गोस्वार्मा तुलसीदास कृत रामायण। रामचरित- मानस। १०. विष्णु का एक रूप (को०)। ११. एक प्रकार का नमक (को०)।

मानस (२)
वि० १. मन से उत्पन्न। मनोभव। २. मन का विचारा हुआ। उ०— कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होइ नहिं पापा।— तुलसी (शब्द०)।

मानस (३)
क्रि० वि० मन के द्वारा। उ०— रहै गंडकी सुत मुख बीचा। पूज्यो मानस शिर करि नीचा।— विश्राम (शब्द०)।

मानस पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० मानुस] मनुष्य। आदमी। उ०— कोमल मृगलिका सी मल्लिका की मलिका सी बालिका जु डारी भाउ मानस कै पशु है।— केशव (शब्द०)। यौ०—मानसदेव।

मानसकोश
संज्ञा पुं० [सं०] मन रूपी कोश या समझ। उ०— मेरे मानसकोश में दोनों (प्रेमभाव या लोभ) का अर्थ प्रायः एक ही निकलता है।— रस, पृ० ११३।

मानसचारी
संज्ञा पुं० [सं० मानसचारिन्] एक प्रकार का हंस जो मानसरोवर में होता है।

मानसजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० मानसजन्मन्] १. मनोभव। कामदेव। २. हँस।

मानसजप
संज्ञा पुं० [सं०] जप का एक प्रकार। वह जप जो मन ही मन किया जाय।

मानसतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह मन जो राग द्वेष आदि से नितांत रहति हो गया हो।

मानसदेव पु
संज्ञा पुं० [सं० मानुष+देव] राजा। नरेश।

मानसषुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वह पुत्र या संतान जिसकी उत्पत्ति इच्छामात्र से ही हुई हो। जैसे,— सनक, सनंदन आदि ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं।

मानसपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूजा के दो प्रकारों में से एक। वह पूजा जो मन ही मन की जाय और जिसमें अर्व्य, पाद्दा आदि बाह्य उपकरणों की आवश्यकता न रहे।

मानसर पु
संज्ञा पुं० [सं० मानससर] दे० 'मानसरोवर'। उ०— दुरे हंस मानसर ताहि मैं कैलासधर, सुधा सरबर सोऊ छोड़ि गयो दुनियै।— भूषण ग्रं०, पृ० ३२।

मानसरोदक पु
संज्ञा पुं० [हि० मानसर+उदधि] मानसरोवर के समान सुंदर सरोवर। उ०—मानसरोदक बरनों काहा।—जायसी ग्रं०, पृ० १२।

मानसरोवर
संज्ञा पुं० [सं० मानस+सरोवर] हिमालय के उत्तर की एक प्रसिद्ध बड़ी झील। विशेष— इस झोल के विषय में यह प्रसिद्ध है कि ब्रह्मा ने अपनी इच्छा मात्रा से ही इसका निर्माण किया था। इस सरोवर का जल बहुत ही सुदंर, स्वच्छ और गुणकारी है तथा इसके चारों और की प्राकृतिक शोमा बहुत ही अद् भुत है। हमारे यहाँ के प्राचीन ऋषियों ने इसके आस पास करी भूमि को स्वर्ग कहा है।

मानसव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि का पालन या व्रत।

मानसशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि मन किस प्रकार कार्य करता है और उसकी वृत्तियाँ किस प्रकार उत्पन्न है। मनोविज्ञान।

मानसशास्त्री
संज्ञा पुं० [सं०] मानसशास्त्र का पंड़ित। मनोवैज्ञानिक।

मानससंन्यासी
संज्ञा पुं० [सं०] दसनामी संन्यासियों के अंतर्गत एक प्रकरा के संन्यासी। विशेष—ऐसे संन्यासी मन में सच्चा वैराग्य उत्पन्न होने पर गृहस्थाश्रम का त्याग करके जंगल में जा रहते हैं और वहीं तपस्या करते हैं। ये लोग गैरिक वस्त्र आदि नहीं धारण करते।

मानससर
संज्ञा पुं० [सं०] मानसरोवर। मानस सरोवर।

मानसहंस
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त का नाम। इसके प्रत्येक चरण में 'स ज ज भ र' होता है। इसका दूसरा नाम 'मानहंस' या 'रणहंस' है।

मानसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार एक नदी का नाम। विशेष— कहते हैं, तृणविंदु नामक एक ऋषि इसे मानसरोवर से लाए थे।

मानसालय
संज्ञा पुं० [सं०] हंस।

मानसिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मानसिकी] १. मन की कल्पना से उत्पन्न। २. मन संबंधी। मन का। जैसे, मानसिक कष्ट; मानसिक चिंता।

मानसिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

मानसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मानस पूजा। वह पूजा जो मन ही मन की जाय। उ०— आभरण नाम हरि साधु सेवा कर्ण फूल मानसी सुनथ संग अंजन बनाइए।— प्रियादास (शव्द०)। २. पुराणानुसार एक विद्या देवी का नाम।

मानसी (२)
वि० मन का। मन से उत्पन्न। उ०— मानसी स्वरूप में अग्रदास जबै करत बयार नाभा मधुर संभार सों। प्रियादास (शब्द०)।

मानसीगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० मानसीगङ्ग] गोवर्धन पर्वत के पास के एक सरोवर का नाम। उ०— सो एक समै देसाधिपति के डेरा गोवर्द्धन में मानसी गंगा पर भए।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १४२।

मानसीपूजा
संज्ञा पुं० [सं० मानसी+पूजा] दे० 'मानसपूजा'। सोलह घड़ी तथा तीस पल अक्षर चार और मानसी पूजा सोहम् भाव से पूजना।—कबीर मं०, पृ० ३१६।

मानसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. करधनी। २. नापने का फीता।

मानसून
संज्ञा पुं० [अं० मि० अ० मौसिम] १. एक प्रकार की वायु जो भारतीय महासागर में अप्रैल से अक्टूबर मास तक बराबर दक्षिणपश्चिम के कोण से चलती है और अक्तूबर से अप्रैल तक उत्तरपूर्व के कोण से चलती है। अप्रैल से अक्टूबर तक जो हवा चलती है; प्रायः उसी के द्वारा भारत में वर्षा भी हुआ करती है। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—दबना। २. वह वायु जो महादेशों और महाद्वीपों तथा अनेक आस पास के समुद्रों में पड़नेवाले वातावरण संबंधी पारस्परिक अंतर के कारण उत्पन्न होती है और जो प्रायः छह् मास तक एक निश्चित दिशा में और छह् मास तक उसकी विपरीत दिशा में बहती है।

मानसौका
संज्ञा पुं० [सं० मानसौकस्] हंस। मानसचारी। मनोनिवासी।

मानहंस
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसमे प्रत्येक चरण में स ज ज भ र होते हैं। इसके अन्य नाम 'रणहंस' और 'मानसहंस' भी हैं।

मानहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्रतिष्ठा। अनादर। अपमान। बेइज्जती। हतक इज्जत।

मानहुँ पु
अव्य [हि०] दे० 'मानों'।

माना (१)
संज्ञा पुं० [इबरानी] एक प्रकार का मीठा निर्यास। विशेष—यह निर्यास इटली और एशिया माइनर आदि देशों के कुछ विशिष्ट वृक्षों में से छेब लगाकर निकाला जाता है; अथवा कभी कभी उन वृक्षों पर कुछ कीड़ों आदि की कई क्रियाओं से उत्पन्न होना है और जो पीछे से कई रासायनिक क्रियाओं से शुद्ध करके औषधि के रूप में काम मे लाया जाता है। भारत के कई प्रकार के बाँसों तथा दूसरे अनेक वृक्षों पर भी यह कभी कभी पाया जाता है। यह रेचक होता है और इसके व्यवहार के उपरांत मनुष्य विशेष निर्बल नहीं होता। देखने में यह पीले रंग का, पारदर्शी और हलका होता है और प्रायः बहुत महँगा मिलता है।

माना † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मान] अन्नादि नापने का एक पात्र। विशेष— इसमें पाव भर अन्न आता है। यह लकड़ी, मिट्टी या धातु का बना होता है। इससे तरल पदार्थ भी नापे जाते है।

माना † (३)
क्रि० सं० [सं० मान अथवा हिं० मापना] १. नापना। तौलना। उ०— देखि विवरु सुधि पाय गीध में सवनि अपनो बलु मायो।— तुलसी (शब्द०)। २. जाँचना। परीक्षा करना।

माना पु (४)
क्रि० अ० दे० 'समाना' या 'अमाना'। उ०— (क) इतनी बचन श्रवण सुनि हरष्यों फूल्यो अंग न मात। लै लै चरन रेनु निज प्रभु की रिपु के शोणित न्हात।—सूर (शब्द०)। (ख) माई कहाँ यह माइगी दीपति जो दिन दो यहि भाँति बढ़ेगी।—केशव (शब्द०)।

मानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मी के पति, विष्णु। उ०— मदन मर्दन मयातीत माया रहित मंजु मानाय पायोज पानी।— तुलसी (शब्द०)।

मानिंद
वि० [फा०] समान। तुल्य। सदृश। जैसे, - वे, भी आपके ही मानिंद शरीफ हैं। उ०—क्यों न हम शमै को मानिंद जलै दूर खड़े। जब उदू बायसे गरमी हो तेरी मजलिस के।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ८६।

मानि पु †
संज्ञा पुं० [सं० मान] संमान। दे० 'मान- ३'। उ०— मानि महातम कछू न चाहै, एक दसा सदा निरवाहै।— रामानंद०, पृ० ५३।

मानिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० माणिक्य] एक मणि का नाम। विशेष—यह लाल रंग का होता है और हीरे को छोड़कर सबसे कड़ा पत्थर है। रासायनिक विश्लेपण द्वारा मानिक में दो भाग अल्यूमिनम और तीन भाग आक्सिजन का पाया जाता है, जिससे रसायनशास्त्रियों के मत से यह कुरंड की जाति का पत्थर प्रतीत होता है। इसमें एक और विशेषता यह भी है कि बहुत अधिक ताप से सुहागे के योग से यह काँच की भाँति गल जाती है और गलने पर इसमें कोई रंग नहीं रह जाता। आजकल के रासायनिकों ने काँच से नकली मानिक बनाया है जो असली मानिक से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है। मानिक पत्थर गहरे लाल रंग से लेकर गुलाबी रंग और नांरगी से लेकर बैगनी रंग तक के मिलते हैं। मानिक की दो प्रधान जातियाँ है —नरम चुन्नी और मानिक। नरम चुन्नी का विश्लेषण करने से मैग्निश्यिम्, अल्यूमिनम और आक्सिजन मिलते है। उसपर यदि मानिक से रगड़ा जाय, तो लकीर पड़ जाती है। अगस्त जी के मत से मानिक के तीन प्रधान भेद हैं— पद्मराग, कुरुविंद और सौगंधिक। कमल पुष्प के समान रंगवाला पद्मराग गाढ़ रक्तवर्ण सा ईषत् नील वर्ण सौगंधिक और टेसू के फूल के रंग का कुरुविंद कहलाता है। इनमें सिहंल में पद्मराग, कालपुर और आध्रं में कुरुविद और तुंकर में सौगंधिक उत्पन्न होता है। मतांतर से नीलगंधिक नामक एक और जाति का मानिक होता है जो नीलापन लिए रक्तवर्ण या लाखी रंग का माना गया है। इसकी खाने बरमा, स्याम, लंका, मध्य एशिया युरोप आस्ट्रेलिआ आदि अनेक भूभागों में पाई जाती है। जिस मानिक में चिह्न नहीं होते और चमक अधिक होती है, वह उत्तम माना जाता है और अधिक मूल्यवान् होता है। वैद्यक में मानिक को मधुर, स्निग्ध और वात-पित्त-नाशक लिखा है। पर्या०—पद्मराग। कुरुविद। शोणरत्न। सौगंधिक। लौहितक। तरुण। शृंगारी। रविरत्नक।

मानिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] आठ पल का एक मान।

मानिकखंभ
संज्ञा पुं० [हि० मानिक+खंमा] १. वह खूँटा जो कातर के किनारे गड़ा रहता है और जिसमें धुसे को रस्सी से बाँधकर जाठ के सिरे पर अटकाते है। मरखम। २. वह खंभा जो विवाह में मंडप क बीच में गाड़ा जाता है। ३. मालखंभ। मलखम।

मानिकचंदी
संज्ञा स्त्री० [हि० मानिकचंद] साधारण छोटी सुपारी

मानिकजोड़
संज्ञा पुं० [हि० मानिक+जोड़] एक प्रकार का बड़ बगुला जिसकी चोंच और टाँगे लंबी होती हैं।

मानिकजोर
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मानिकजोड़'।

मानिकदीप
संज्ञा पुं० [सं० माणिक्य+दीप] एक प्रकार का दीपक पूजन, मंगल, कार्य, विवाह आदि पर आटे या पिसान का साइ ढ़ंग का बना हुआ दीपक जिसमें चार बत्तियाँ रहती हैं जिन्हे प्रज्वलित कर आरती की जाती है। उ०— मानिक दीप बराय बंठि तेहि आसन हो।— तुलसी ग्रं०, पृ० ३।

मानिकरेत
संज्ञा स्त्री० [हि० मानिक+रेत] मानिक का चूरा जिससे गहने आदि साफ किए जाते है और उनपर चमक लाई जाती है।

मानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मद्य। २. आठ पल या साठ तोले का एक मान।

मानिटर
संज्ञा पुं० [अं०] पाठशाला को कक्षा में वह प्रधान छात्र जो अन्य छात्रों पर कुछ विशिष्ट अधिकार रखता हो।

मानित
वि० [सं०] संमानित। प्रतिष्ठित। आद्दत।

मानिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मानित्व। संमान। आदर। २. गौरव। ३. अहंकार। गर्व।

मानित्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मानिता'।

मानिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. मानवती। गर्ववती। अभिमान युक्त। २. मान करनेवाला। रुष्टा।

मानिनी (२)
संज्ञा स्त्री० साहित्य में वह नायिका जो नायक के दोष को देखकर उससे रूठ गई हो। उ०—मान करत बरजन न हौं उलटि दिवावत सौंह। करी रिसौंही जायँगी सहज हँसौहीं भौंह।— बिहारी (शब्द०)।

मानी (१)
वि० [सं० मानन्] [वि० स्त्री० मानिनी] १. अहंकारी। घंमड़ी। २. संमानित। गौरवान्वित। ३. मनोयोगी। ४. मान करनेवाला (को०)। ५. माननेवाला समझनवाला। जैसे, पांडतमानो, भटमानी। उ०— अब जनि कोउ भाखै भटमानी।—मानस, १। २५२।

मानी (२)
संज्ञा पुं० १. सिंह। २. साहित्य में वह नायक जो नायिका से अपमानित होकर रूठ गया हो।

माना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुंभ। घड़ा। २. प्राचीन काल का एक प्रकार तका मानपात्र जिसमें दो अंजुसली या आठ पल आता था। ३. चक्की के ऊपर के पाट में लगी हुई वह लकड़ी जिसके छेद मे कौली रहती है। जूआ न हाने पर यह लकड़ा ऊपर के पाट के छेद में जहाँ रहती है। ४. कुदाल, वसुले आदि का वह छेद जिसमें बेंट लगाइ जाता है। ५. किसी चीज में बनाया हुआ छेद जिसमे कुछ जड़ा जाय। ६. अन्न का एक मान जो सोलह सर का होता है। ७. साधारण छेद।

मानी (३)
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. अर्थ। मतलब। तात्पर्य। २. तत्व। रहत्य। ३. प्रयोजन। ४. हेतु। कारण।

मानु पु
संज्ञा पुं० [सं० मान] दे० 'मान'। उ०— मानू जनावति सवनि कौं, मन न मान को ठाट। बाल मनावन कौ लखै लाल तिहारी वाट।—मति० ग्रं०, पृ० ३५१।

मानुख पु
संज्ञा पुं० [सं० मानुष] मनुष्य। उ०— मानुख जनम अमोल, अपन सों खोइल हो।—धरम०, पृ० ६४।

मानुछ्छ पु †
वि० [सं० मानुष्य, प्रा० माणुस्स] दे० 'मानुष्य'। उ०— मानुछ्छ मंद मति मंद तन, पुव्व भाव चहुआन सिर।—पृ० रा०, २। ५८६।

मानुष (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मानुपी] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुष (२)
संज्ञा पुं० १. मनुष्य। २. याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार प्रमाण के दो भेदों में से एक। इसके तीन उपभेद हैं— लिखित, भुक्ति और साक्षी।

मानुषक
वि० [सं०] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनुष्य का भाव या धर्म। मनुष्यता। आदमीयत।

मानुषत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मानुषता'।

मानुषिक
वि० [सं०] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुषिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य शरीरधारी बुद्ध। जैसे, गौतम बुद्ध आदि। विशेष— ये ध्यानी बुद्ध से पृथक् होते हैं।

मानुषी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री औरत। २. तीन प्रकार की चिकिस्साओं में से एक। मनुष्यों के उपयुक्त चिकिस्ता। विशेष—शेष दो चिकित्साएँ आसुरी और दैवी कहलाती हैं।

मानुषी (२)
वि० मनुष्य संबंधी। मनुष्य का। जैसे, मानुषी बाक्; मानुषी तनु। उ०— दूरि जब लौं जरा रोगरु चलत इंद्री भाई आपनो कल्याण करि ले मानुषी तनु पाई।—सूर (शब्द०)।

मानुषीय
वि० [सं०] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुषोत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार एक पर्वत का नाम जो पुष्कर द्वीप को दो समान भागों में विभक्त करता है।

मानुष्य (१)
वि० [सं०] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुष्य (२)
संज्ञा पुं० १. मानवता। मनुष्यता। २. मानव शरीर। ३. मानव समूह। ४. मनुष्यलोक। मर्त्यलोक [को०]।

मानुष्यक (१)
वि० [सं०] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का।

मानुष्यक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'मानुष्य'।

मानुस
संज्ञा पुं० [सं० मानुष] मनुष्य। आदमी। उ०— का निचिंत रे मानुस अपने चिंता आछ। लेहु सहज होइ अगमन पुनि पछतासि न पाछ।—जायसी (शब्द०)। यौ०—भलामानुस। मानुसहारा=मनुष्य को हरनेवाला या मानवशून्य। उ०— दीप गभस्थल आरन परा। दीप महुस्थल मानुसहारा।—पदमावत, पृ० १०।

माने
संज्ञा पुं० [अं० मानी] अर्थं। मतलब। आशय।

मानों
अव्य [हि० मानना] जैसे। गोया। उ०—(क) मयनमहन पुरदहन गहन जानि आनि कै सबै को सारु धनुष गढ़ायो है। जनक सदसि जहाँ भले भेले भूमिपाल कियो बलहीन बल आपनो बढ़ायो है। कुलिस कठोर कूर्म पीठ तें कठिन अति हठि न पिनाक काहू चपारि चढ़ायो है। चुलसी सो राम के सरोज पानि परसत टूट्यौ मानों वरि ते पुरारि ही पढ़ायो है।— तुलसी (शब्द०)। (ख) तिलक भाल पर परम मनोहर गोरोचन को दीन्हों। मानों तीन लोक की शोभा अधिक उदय सो कीन्हों।— सूर (शब्द०)। (ग) प्रिय पठयो मानों सखि सुजान। जगभूषण को भूषण निधान। निज आई हम को सीख देन। यह किधौँ हमारी भरम लेन।— केशव (शब्द०)।

मानोज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] मनोज्ञता। मनोहरता [को०]।

मानोखी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।

मानौ पु
अव्य [हि० मानना] दे० 'मानों'।

मान्य (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मान्या] १. मानने योग्य। माननीय। २. आदर के योग्य। समान के योग्य। पूजनीय। पूज्य। ३. प्रार्थनीय।

मान्य (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. शिव। महादेव। ३. मैत्रावरुण।

मान्य (३)
संज्ञा पुं० दे० 'मान'।

मान्यक पु †
संज्ञा पुं० [सं० माणिक्य] दे० 'मानिक'। उ०— हार गुह्यौ मेरा राम ताग, बिचि बिचि मान्यक एक लाग।— कबीर ग्रं०, पृ० २१३।

मान्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मानने का भाव। मान्य होने का भाव। मान्य होना। उ०— आप की मान्यताएँ इतनी रोमांटिक होंगी ऐसा नहीं समझती थी।— नदी०, पृ० ३०। २. स्वीकृति या प्रामाणिकता। जैसे,— संस्कृत विद्यार्थियों को भी प्रतियो- गिता परीक्षाओं में संमिलित होने की मान्यता प्राप्त हो गई है।

मान्यस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] आदर या नाम का कारण। विशेष— मनु जो ने पाँच मान्यस्थान लिखे हैं— वित्त, बंधु, वय, कर्म और विद्या। अर्थात् धन संपत्ति, संबंध, अवस्था, कार्य और योग्यता इन पाँच कारणों से मनुष्य का आदर किया जाता है।