विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ह
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ह
⋙ ह
संस्कृत या हिंदी वर्णमाला का तैतीसवाँ व्यंजन जो उच्चारण विभाग के अनुसार ऊष्म वर्ण कहलाता है तथा इसका उच्चारण स्थान कंठ है।
⋙ हं
क्रि० वि० [सं० हम्] दे० 'हम्'।
⋙ हंक पु
संज्ञा स्त्री० [देश० हक्क, हिं० हाँक] १. हाँक। पुकार। २. बढ़ावा। ललकार। उ०—संकत लंक असंक बंक हंकनि हुड़कारत। —पद्माकर ग्रं०, पृ० १०।
⋙ हंकना पुं (१)
क्रि० अ० [हिं० हंक+ना] चिल्लाना। हाँक देना। उ०—बरं तीर मारै परे मुंड हंकै। —प० रासो पृ० ४५।
⋙ हंकना पु (२)
क्रि० स० बढ़ावा देना। ललकारना। उ०—(क) हंकत भयउ निज दल सकल ह्वै करि भटन की पिटि्ठ पै। (ख) नृप मनि अनूप गिरि भूप जब निज दल बल हंकत भयउ। —पद्माकर ग्रं०, पृ० ११।
⋙ हंका
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँक] ललकार। दपट। उ०—संका दै दसानन को हंका दै सुबंका बीर, डंका दै विजय की कपि कूदि परय़ो लंका में। —पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना। —मारना।
⋙ हंकार (१)
संज्ञा पुं० [सं० अहङ्कार]दे० 'अहंकार'। उ०—(क) खग खोजन कहँ तू परा पीछे अगम अपार। बिन परिचय ते जानहू, झूठा है हंकार। —कबीर बी० (शिशु०), पृ० २०९। (ख) गुरु के चरनन में धरो, चित बुधि मन हंकार। —संतवानी०, भा० १, पृ० १४२।
⋙ हंकार (२)
संज्ञा पुं० [सं० हुङ्कार] वीरों का दर्पनाद। ललकार। दपट। उ०—हंकार हक्क काल कूह मचि जयं सबद मच्चिय घनह। — पृ० रा०, पृ० ३८१।
⋙ हंकारना
क्रि० अ० [हिं० हुंकार] हुंकार शब्द करना। वीरनाद करना। दपटना।
⋙ हंकारी
वि० [सं० अहङ्कारिन्] दर्पयुक्त। घमंडी। अहंकारी।
⋙ हंगाम
संज्ञा पुं० [क़०] १. काल। समय। २. ऋतु। मौसिम [को०]।
⋙ हंगामा
संज्ञा पुं [फा़० हंगामह्] १. उपद्रव। हलचल। दंगा। बलवा। मारपीट। लड़ाई झगड़ा।क्रि० प्र०—करना।—मचना।—होना। २. शोरगुल। कलकल। हल्ला।
⋙ हंगोरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक बहुत बड़ा पेड़ जो दार्जिलिंग के पहाड़ों में होता है। विशेष—इस बृक्ष की लकड़ी बहुत मजबूत होती है और मेज, कुरसी, आलमारी आदि सजावट के सामान बनाने के काम में आती है। पहाड़ी लोग इसका फल भी खाते हैं।
⋙ हंजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हञ्जा] चेटी। सेविका [को०]।
⋙ हंजा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'प्रेमी'। उ०—पेच सुरंघी पाघरा, टाँके मतधर ढाल। काढी चढ आछी कहूँ, हंजा भीषण हाल।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ८।
⋙ हंजि
संज्ञा पुं० [सं० हञ्ज] छींक।
⋙ हंजिका
संज्ञा स्त्री० [हञ्जिका] १. भार्ङ्गी नामक पौधा। भारंगी। २. चेटी। सेविका [को०]।
⋙ हंझि पु
संज्ञा पुं० [सं० हंस]दे० 'हंस'। उ०—डींभू लंक मरालि गय पिकसर एही वाणि। ढोला एही मारुई, जेह हंझि निवाँणि।—ढोला०, दू० ४६०।
⋙ हंटर
संज्ञा पुं० [अं० हंट (=आखेट, शिकार) या हंटर] लंबी चाबुक। कोड़ा। क्रि० प्र०—जमाना।—मारना।लगाना।
⋙ हंड पु
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड, प्रा० हंड़, हिं० हंडा] हंडा। मिट्टी का बड़ा बरतन। उ०—ब्रह्मांड हंड चढाइया, मानो ऊरै अन्न। कोई गुरू कृपा तै ऊबरै, दादू साधु जन्न। —दादू० बानी, पृ० २९२। (अथवा प्रा० हिंडन)
⋙ हंडना (१)
क्रि० अ० [सं० अभ्यटन, प्रा० अहड़न, हिंडन अथवा भंडन (=नटखटी)] १. घूमना। फिरना। जैसे,—काशी हंडे, प्रयाग मुंडे। २. व्यर्थ इधर उधर फिरना। आवारा घूमना। ३. (वस्त्र आदि का) व्यवहार में आना। पहनना या ओढ़ा जाना।
⋙ हंडना (२)
क्रि० स० इधर उधर ढूँढ़ना। छानबीन करना। खोजना।
⋙ हंडर
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'हंडरवेट'।
⋙ हंडरवेट
संज्ञा पुं० [अं० हंड्रेडवेट] एक अंग्रेजी तौल जो ११२ पाउंड या प्रायः १ मन १४।। सेर की होती है।
⋙ हंडल
संज्ञा पुं० [अं० हैंडल] १. बेंट। दस्ता। मुठिया। २. किसी कल या पेंच का वह भाग जो हाथ से पकड़कर घुमाया जाता है।
⋙ हंडा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हण्डा] १. परिचारिका। चेटिका। दासी। २. निम्न जातीय औरत। ३. मिट्टी का बड़ा पात्र। दे० 'हंडा' (२) [को०]।
⋙ हंडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डक या हण्डा] पीतल या ताँबे का बहुत बड़ा बरतन जिससें पानी भरकर रखा जाता है।
⋙ हंडा (३)
अव्य० अपने से निम्नतम श्रेणी की औरत के लिये प्रयुक्त संबोधनात्मक अव्यय।
⋙ हंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हण्डिका]दे० 'हँड़िया'। उ०—रोटी ऊपर पोइ कै तवा चढ़ायौ आनि। षिचरि माहे हंडिका, सुंदर राँधी जाँनि। —सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७५६। यौ०—हंडिकासुत=मिट्टी का लघुतम पात्र। मिट्टी का छोटा बरतन।
⋙ हंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० हण्डी] दे० 'हँड़िया'; 'हाँड़ी'।
⋙ हंडीर
वि० [सं० √ हण्ज, प्रा० हिंड] हिंडन करनेवाला। चारों ओर भ्रमण करनेवाला। घुमनेवाला। उ०—तीन पनच धुनही करन बड़े कठन तंड़ीर। सगुन बिना पग ना धरै, बिकट बंन हंडीर। पृ० रा०, ७। ७९।
⋙ हंडे
अव्य [सं० हण्डे]दे० हंडा (३)।
⋙ हंढना पुं
क्रि० अ० [हिं० हंडना]दे० 'हंडना'। उ०—कबीर सब जग हंढिया मंदिल कंधि चढाइ। हरि बिन अपनाँ को नहीं, देखे ठोकि बजाइ। —कबीर ग्र० पृ० ६१।
⋙ हंत
अव्य० [सं० हन्त] आश्चर्य, प्रसन्नता, करुणा, सौभाग्य, आरंभ, खेद या शोक आदि का सूचक शब्द।
⋙ हंतकार
संज्ञा पुं० [सं० हन्तकार] १. अतिथि या संन्यासी आदि के लिये निकाला हुआ भोजन जो पुष्कल का चौगुना अर्थात् मोर के सोलह अंडों के बराबर होना चाहिए। २. 'हंत' की ध्वनि। हंत शब्द (को०)।
⋙ हंतव्य
वि० [सं० हन्तव्य] १. वध्य। २. उल्लंधनीय। ३. खंडनीय [को०]।
⋙ हंता
संज्ञा पुं० [सं० हंतृ] [स्त्री० हन्तृ] १. मारनेवाला। बध करनेवाला। जैसे,—शत्रुहंता, पितृहंता। २. लुटेरा। डाकू (को०)।
⋙ हंतु
संज्ञा पुं० [सं० हन्तु] १. मौत। मृत्यु। २. वृषभ। बैल [को०]। यौ०—हंतुकाम=हनन या धातन की कामना से युक्त। वधेच्छुक। हन्तुमना - जो हनन करना चाहता हो। मारने की नीयतवाला।
⋙ हंतृमुख
संज्ञा पुं० [सं० हन्तृमुख] एक बाल ग्रह [को०]।
⋙ हंतोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० हन्तोक्ति] करुणा, खेद, दुःख, सहानुभूति- परक हंत शब्द की उक्ति [को०]।
⋙ हंत्री
वि० [सं० हन्त्री] १. लूटनेवाली। २. मारनेवाली [को०]।
⋙ हंदा
संज्ञा पुं० [सं० हन्तकार] पुरोहित या ब्राह्मण के लिये निकाला हुआ भोजन। विशेष—पंजाब के खत्री ब्राह्मणों में यह प्रथा है कि सबेरे की रसोई में से कुछ अंश अपने पुरोहित के लिये अलग कर देते हैं। इसी को हंदा कहते हैं।
⋙ हंबा (१)
अव्य० [हिं० हाँ] सम्मति या स्वीकृतिसुवक अव्यय। हाँ। (राजपुताना)।
⋙ हंबा (२)
संज्ञा पुं० [सं० हम्बा]दे० 'हंभा'। उ०—शोक ने ली अफर आज डकार। वत्स हंबा कर उठे डिडकार। —साकेत, पृ० १८६। यौ०—हंबारव=दे० 'हंभारव'।
⋙ हंबीरा
संज्ञा स्त्री० [सं० हम्बीरा] एक रागिनी।
⋙ हंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० हम्भा] गाय, बैल, बछड़े आदि के बोलने का शब्द। रँभाने का शब्द।
⋙ हंभार पु
संज्ञा पुं० [सं० हम्भारव] रँभाना। चिल्लाना।दे० 'हंभा'। उ०—(क) कंद्रन्न गाव संपत्त वच्च। हंभार कियौ सुर उच्च तच्च। —पृ० रा०, १। १५३। (ख) छल छैल चोर मन भए पंग। हंभार सब्द गो करि उतंग। —पृ० रा०, १५। १४।
⋙ हंभारव
संज्ञा पुं० [सं० हम्भारव] हंभा की ध्वनि। रँभाने का शब्द [को०]।
⋙ हंभाशब्द
संज्ञा पुं० [सं० हम्भाशब्द] दे० 'हंभा', 'हंभारव' [को०]।
⋙ हंस
संज्ञा पुं० [सं०] (१). बत्तख के आकार का एक जलपक्षी जो बड़ी बड़ी झीलों में रहता है। विशेष—इसकी गरदन बत्तख से लंबी होती है और कभी कभी उसमें बहुत सुंदर घुमाव दिखाई पड़ता है। यह पृथ्वी के प्रायः सब भागों में पाया जाता है और छोटे छोटे जलजंतुओं और उदि्भद पर निर्वाह करता है। यद्यपि हंस का रंग श्वेत ही प्रसिद्ध है, पर आस्ट्रेलिया में काले रंग के हंस भी पाए जाते हैं योरप में इसकी दो जातियाँ होती हैं —एक मूक इंस' दूसरी 'तूर्य हंस'। मूक हंस बोलते नहीं, पर तूर्य हंस की आवाज बड़ी कड़ी होती है। अमेरिका में भूरे और चितकबरे हंस भी होते हैं। चितकबरे हंस का सारा शरीर सफेद होता है, केवल सिर और गरदन कालापन लिए लाखी रंह की होती है। भारतवर्ष में हंस सब दिन नहीं रहने हैं। वर्षाकाल में उनका मानसरोवर आदि तिब्बत की झीलों में चला जाना और शरत्काल में लौटना प्रसिद्ध है। यह पक्षी अपनी शुभ्रता और सुंदर चाल के लिये बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। कवियों में तथा जनसाधारण में इसके मोती चुँगने और नीर-क्षीर-विवेक करने (दूध मेंसे पानी अलग करने) का प्रवाद चला आता है जो कल्पना मात्र है। युरोप के पुराने कवियों में भी ऐसा प्रवाद था कि यह पक्षी बहुत सुंदर राग गाता है, विशेषतः मरते समय। किसी शब्द के आगे लगकर यह शब्द श्रेष्ठता का वाचक भी होता है, जैसे, कुलहंस। २. सूर्य। उ०—(क) हंस बंस, दशरथ जनक, राम लषन से भाइ। —तुलसी (शब्द०)।(ख) हंस तुरंगम-हंस रबि, हंस मराल, सुछंद। हंस जीव कह कहत कवि परम हंस गोविंद।—अनेकार्थ०, पृ० १६०। यौ०—हंसबंस। हंससुता। ३. ब्रह्म। परमात्मा। ४. शुद्ध आत्मा। माया से निर्लिप्त आत्मा। उ० —जे एहि छीर समुद मँह परे। जीव गँवाइ हंस होइ तरे।—जायसी (शब्द०)। ५. जीवात्मा। जीव। उ० —सिर धुनि हंसा चले हो रमैया राम। —कबीर (शब्द०)। ६. विष्णु। ७. विष्णु का एक अवतार। विशेष—एक बार सनकादिक ने ब्रह्मा से जाकर पूछा —कृपा कर बताइए कि विषय को चित्त ग्रहण किए हुए है या विषय ही चित्त को ग्रहण किए है। ये दोनों ऐंसे मिले हुए हैं कि हमसे अलग नहीं करते बनता। जब ब्रह्मा उत्तर न दे सके, तब सनकादिक को अपने ज्ञान का गर्व हो गया। इसपर ब्रह्मा ने भक्तिपूर्वक भगवान् का ध्यान किया। तब भगवान् हंस का रूप धारण करके सामने आए और सनकादिक से बोले तुम्हारा यह प्रश्न ही अज्ञानपूर्ण है। विषय और उनका चिंतन दोनों माया हैं, अर्थात् एक हैं। इस प्रकार सनकादिक का ज्ञानगर्व दूर हो गया। ८. उदार और संयमी राजा। श्रेष्ठ राजा। ९. संन्यासियों एक भेद। उ० —कहि आचार भक्ति विधि भाखी हंस धर्म प्रगटायौ। — सूर (शब्द०)। १०. एक मंत्र। ११. प्राणवायु। १२. घोड़ा। उ०—हरे हरदिया हंस खिंग गर्रा फुलवारी। —सुजान०, पृ० ८। १३. शिव। महादेव। १४. ईर्ष्या। द्बेष। १५. दीक्षागुरु। आचार्य। १६. पर्वत। १७. कामदेव। १८. भैसा। १९. दोहे के नवें भेद का नाम जिसमें १४ गुरु और २० लघु वर्ण होते हैं। (पिंगला)। २०. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण और दो गुरु होते हैं। जैसे, 'राम खरारी'। इसी 'पंक्ति' भी कहते हैं। २१. रजत। चाँदी (को०)। २२. महाभारत में वर्णित जरासंध के एक सेनापति का नाम (को०)। २३. बृहत्संहिता के अनुसार विशिष्ट लक्षणयुक्त एक प्रकार का वृष (को०)। २४. अपने वर्ग या कोटि का प्रधान अथवा श्रेष्ठ व्यक्ति। अग्रणी व्यक्ति या वस्तु। जैसे, कविहंस। २५. प्लक्ष द्बीप का ब्राह्मण (को०)। २६. ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम (को०)। २७. एक प्रकार का नृत्य। २८. संगीत में एक ताल। हंसक (को०)। २९. वास्तु विद्या के अनुसार प्रासादा का एक भेद। विशेष—यह हंस के आकार का बनाया जाता था। यह बारह हाथ चौड़ा और एक खंड का होता था और इसके ऊपर एक शृंग बनाया जाता था।
⋙ हंसक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस पक्षी। २. पैर की उँगलियों में पहनने का एक गहना। बिछुआ। उ०— ते नगरी ना नागरी प्रतिपद हंसक हीन। —केशव (शब्द०)। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल (को०)।
⋙ हंसकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० हंसकान्ता] हंसिनी [को०]।
⋙ हंसकालीतनय
संज्ञा पुं [सं०] भैसा। महिष [को०]।
⋙ हंसकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] रतिबंध का एक प्रकार [को०]।
⋙ हंसकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल के कंधों के बीच उठा हुआ कूबड़। डिल्ला। २. हिमालय के एक शृंग का नाम (को०)।
⋙ हंसग
संज्ञा पुं० [सं०] हंसजिनका वाहन है, ब्रह्मा [को०]।
⋙ हंसगति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंस के समान सुंदर धीमी चाल। २. ब्रह्मत्व की प्राप्ति। सायुज्य मुक्ति। ३. बीस मात्राओं के एक छंद का नाम जिसमें ग्यारहवीं और नवीं मात्रा पर विराम होता है। इसके तुकांत में गुरु लघु का कोई नियम नहीं है। इसी छंद की बारहवी मात्रा पर यति मानकर इसे मंजुतिलका भी कहते हैं।
⋙ हंसगति (२)
वि० जिसकी गति या चाल हंस के सदृश हो।
⋙ हंसगद् गदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियभाषिणी स्त्री। मधुरभाषिणी स्त्री।
⋙ हंसगमन
संज्ञा पुं० [सं०] हंस के समान सुंदर गति [को०]।
⋙ हंसगमना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवांगना का नाम [को०]।
⋙ हंसगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक रत्न का नाम। (रत्नपरीक्षा)।
⋙ हंसगवनि पु
वि० स्त्री० [सं० हंसगामिनी] हंस के समान चलनेवाली। उ०—हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहिं लोगू। —मानस, २। ६३।
⋙ हंसगामिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] हंस के समान सुंदर, मंद गति से चलनेवाली।
⋙ हंसगामिनी (२)
संज्ञा स्त्री० १. हंस के समान सुंदर मंद गति से चलनेवाली स्त्री। २. ब्रह्मा की शक्ति, ब्रह्माणी का एक नाम [को०]।
⋙ हंसगुह्म
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार विशिष्ट स्तुतिपरक एक मंत्र [को०]।
⋙ हंसगृह
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनगृह [को०]।
⋙ हंसचूड़
संज्ञा पुं० [सं०] एक यक्ष का नाम [को०]।
⋙ हंस चौपड़
संज्ञा पुं० [सं० हंस+हिं० चौपड़] एक प्रकार का पुराना चौपड़ का खेल जो पासों से खेला जाता है। विशेष—इसकी तख्ती में६२ घर होते थे। एक ६३ वाँ घर केंद्र में होता था, जो जीत का घर होता था। तख्ती के प्रत्येक चौथे और पाँचवें घर में एक हंस का चित्र होता था। खेलनेवाले का पासा जब हंस पर पड़ता था, तब वह दूनी चाल चल सकता था।
⋙ हंसच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुंठी। सोंठ [को०]।
⋙ हंसज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस के पुत्र। सूर्य के पुत्र-धर्मराज, कर्ण आदि [को०]। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
⋙ हंसजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की कन्या। सूर्यतनया। यमुना।
⋙ हंसणी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हंस+णी (प्रत्य०)]दे० 'हंसिका', 'हंसी'। उ०—सरवर तटि हंसणी तिसाई। जुगति बिना हरि जल पिया न जाई। —कबीर ग्रं०, पृ० १८९।
⋙ हंसतूल
संज्ञा पुं० [सं०] हंस का कोमल पर। हंस का पंख।
⋙ हंसतूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हंसतूल'।
⋙ हंसदफरा
संज्ञा पुं० [?] वे रस्से जो छोटी नाव में उसकी मजबूती के लिये बँधे रहते हैं।
⋙ हंसदाहन
संज्ञा पुं० [सं०] धूप। गूगल।
⋙ हंसद्बार
संज्ञा पुं० [सं०] मानसरोवर के समीप का एक स्थान [को०]।
⋙ हंसद्बीप
संज्ञा पुं० [सं०] एक द्बीप का नाम। प्लक्ष द्बीप [को०]।
⋙ हंसनाद
संज्ञा पुं० [सं०] हंस का कूजन। हंस का कलरव [को०]।
⋙ हंसनादिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] सुंदर बोलनेवाली। मधुरभाषिणी।
⋙ हंसनादिनी (२)
संज्ञा स्त्री० स्त्रियों का एक विशिष्ट प्रकार [को०]। विशेष—हंसनादिनी स्त्रियाँ सुकुमार, सुंदर, क्षीण कटिवाली, नितंबगुर्वी, गजेंद्र के समान मंथर गतियुक्त कही गई हैं। इनका स्वर कोकिल के समान मधुर होता है।
⋙ हंसनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ हंसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हंस+नी (प्रत्य०)] दे० 'हंसी'।
⋙ हंसनीलक
संज्ञा पुं० [सं०] कामशास्त्र में रति का एक प्रकार।दे० 'हंसकीलक' [को०]।
⋙ हंसपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस का पंख। २. हाथों की एक विशेष मुद्रा या स्थिति [को०]।
⋙ हंसपथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद का नाम।
⋙ हंसपद
संज्ञा पुं० [सं०] १.एक तौल या मान। कर्ष। २. हंस के पैर का चिह्व। ३. किसी छूटे हुए शब्द या अक्षर का सूचक चिह्न। छूटे हुए अक्षर या शब्द के लिये पंक्ति के नीचे बनाया जानेवाला चिह्न। —भा० प्रा० लि०, पृ० १५०। विशेष —लेखक जब किसी अक्षर या शब्द को भूल से छोड़ जाता तो वह अक्षर या शब्द या तो पंक्ति के ऊपर या नीचे अथवा हाशिये पर लिखा जाता था और कभी वह अक्षर या शब्द किस स्थान पर चाहिए था यह बतलाने के लिये ^ या X चिह्न भी मिलता है जिसको 'काकपद' या 'हंसपद' कहते हैं।
⋙ हंसपदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुष्यंत की पहिली भार्या का नाम।
⋙ हंसपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक लता का नाम। २. एक अप्सरा का नाम (को०)। ३. एक वृत्त (को०)।
⋙ हंसपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंगुल। ईंगुर। शिंगरफ। २. सिंदूर (को०)। ३. पारद। पारा (को०)।
⋙ हंसपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हंसपदी' [को०]।
⋙ हंसपादी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'हंसपदी'।
⋙ हंसप्रपतन
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम [को०]।
⋙ हंसबंस पु
संज्ञा पुं० [सं० हंसवंश] सूर्यवंश। उ०—राम कस न तुम्ह कहहु अस हंसबंस अवतंस।—मानस, २। ९।> यौ०—हंसबंस गुरु=सूर्यवंशियों के गुरु। वशिष्ठ ऋषि। उ०— हंसबंस गुरु जनक पुरोधा। जिन्ह जग मग परमारथ सोधा।—मानस, २। २७७।
⋙ हंसबीज
संज्ञा पुं० [सं०] हंस का अंडा [को०]।
⋙ हंसमंगला
संज्ञा स्त्री० [सं० हंसमङ्गला] एक संकर रागिनी जो शंकराभरण, सोरठ और अडाना के मेल से बनी है।
⋙ हंसमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसों की पंक्ति। २. एक वर्णवृत्त का नाम। इसमें क्रमशः समण, रगण और एक गुरु होता है। उ०—सुर गौ के सहाई। जमुना तीर जाई। हरषे री गुपाला। लखिकै हंसमाला।—छंदः०, पृ० १३९।
⋙ हंसमाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी [को०]।
⋙ हंसयान (१)
वि० [सं०] जिसका वाहन हंस हो [को०]।
⋙ हंसयान (२)
संज्ञा पुं० हंस की आकृति का विमान अथवा वह यान जिसका वाहक हंस हो।
⋙ हंसरथ
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा (जिनका वाहन हंस है)।
⋙ हंसरव
संज्ञा पुं० [सं०] हंस की ध्वनि। हंसनाद।
⋙ हंसराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बूटी जो पहाड़ में चट्टानों से लगी हुई मिलती है। समलपत्ती। विशेष—यह एक छोटी घास होती है जिसमें चारों ओर आठ दस अंगुल के सूत के से डंठल फैलते हैं। इन डंठलों के दोनों ओर बंद मुट्ठी के आकार की छोटी छोटी कटावदार पत्तियाँ गुछी होती हैं। यह बुटी देखने में बड़ी सुंदर होती है, इससे बगीचों में कंकड़ पत्थर के ढेर खड़े करके इसे लगाते हैं। वैद्यक में यह गरम मानी जाती है और ज्वर में दी जाती है। कहते हैं, इससे बवासीर से खून जाना भी बंद हो जाता है। २. एक प्रकार का अगहनी धान। ३. हंसों का राजा। बड़ा हंस (को०)।
⋙ हंसरुत
संज्ञा पुं० [सं०] हंस की ध्वनि। हंसरव। हंसनाद [को०]।
⋙ हंसरोम
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हंसतूल'।
⋙ हंसला पु
संज्ञा पुं० [सं० हंस; +अप, डा या ला (प्रत्य०)] साधु जिसकी आत्मा शुद्ध हो। शुद्ध आत्मावाला साधु। उ०—साधु सदा संजमि रहै, मैला कदे न होइ। सुंनि सरोवर हंसला, दादू बिरला कोइ।—दादू० बानी, पृ० ३०४।
⋙ हंसलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिखने का एक विशिष्ट प्रकार। एक प्रकार की लिपि (जैन)।
⋙ हंसलील
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल [को०]।
⋙ हंसलीमश
संज्ञा पुं० [सं०] कसीस।
⋙ हंसलोहक
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल [को०]।
⋙ हंसवंश
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यवंश।
⋙ हंसवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद के एक गण का नाम [को०]।
⋙ हंसवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता का नाम।
⋙ हंसवाहैं
वि० [सं०] जो हस द्बारा वहन किया जाय। हंस की सवारी करनेवाला [को०]।
⋙ हंसवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा (जिनकी सवारी हंस है)।
⋙ हंसवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती (जिनकी सवारी हस है)।
⋙ हंसविक्रांतगामिता
संज्ञा स्त्री० [सं० हंसविक्रान्तगामिता] हंस के सदृश गति। हंस जैसी चाल।
⋙ हसश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसों की पंक्ति। हंसमाला [को०]।
⋙ हंससुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की कन्या। यमुना नदी। उ०— हंससुता की सुंदर कगरी औ कुंजन की छाहीं।—सूर (शब्द०)।
⋙ हंसांघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० हंसाङ्घ्रि] हिंगुल। ईंगुर। सिंगरफ।
⋙ हंसांशु
वि० [सं०] उज्वल। श्वेत [को०]।
⋙ हंसागमणि पु
वि० स्त्री० [सं० हंसगामिनी] हंस के तुल्य सुंदर एवं धीमी गतिवाली। दे० 'हंसगामिनी'। उ०—(क) चंदमुखी, हंसागमणि, कोमल दीरघ केस। कंचनवरणी कामनी वेगउ आने मिलेस।—ढोला०, दू० २०७।
⋙ हंसाधिरुढ़
संज्ञा पुं० [सं० हंसाधिरूड] ब्रह्मा का एक नाम [को०]।
⋙ हंसाधिरूढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० हंसाधिरुढा] हंसारूढ़ा। सरस्वती [को०]।
⋙ हंसाभिख्य
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी।
⋙ हंसारूढ़
संज्ञा पुं० [सं० हंसारूढ] ब्रह्मा (जो हंस पर सवार होते हैं)।
⋙ हंसारूढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० हंसारूढ़ा] सरस्वती।
⋙ हंसाल
संज्ञा पुं० [सं० हंसालि] ३७ मात्राओं का एक प्रकार का छंद। दे० 'हंसालि'। छंदः प्रभाकर के अनुसार इसका लक्षण है 'बीसौ सत्रह यति धरि निरसंक रचौ, सबै या छंद हंसाल भायौ'। उ०—तो सो ही चतुर सुजान परबीन अति, परे जिन पींजरे मोह कूँआ। पाय उत्तम जनम लायके चपल मन, गोय गोबिंद गुन जीत जूआ। आप हो आप अज्ञान नलिनी बँधो, बिना प्रभु भजे कइ बार मुआ। दास सुंदर कहै परमपद तो लहै, राम हरि राम हरि बोल सूआ।—छंदः०, पृ० ७० तथा सुंदर० ग्रं० (भू०), भा० १, पृ० ५१।
⋙ हंसालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ३७ मात्राओं का एक छंद जिसमें बीसवीं और सत्रहवीं मात्रा पर यति और अंत में यगण होता है। यह मात्रिक छंद डंडक वुत्त के अंतर्गत है।
⋙ हंसावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसों की पंक्ति। हंसश्रेणी [को०]।
⋙ हंसास्य
संज्ञा पुं० [सं०] हाथों की एक विशेष स्थिति [को०]।
⋙ हंसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंस की मादा। हंसी।
⋙ हंसिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हंस] दे० 'हंसी'। उ०—जस तुम्हार मानस विमल हंसिनि जीहा जासु। मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु मन तासु।—मानस, २।१२८।
⋙ हंसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक विशेष प्रकार की गति।
⋙ हंसिर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मूषक [को०]।
⋙ हंसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंस की मादा। स्त्री हंस। २. दूध देनेवाली गाय की एक अच्छी जाति। (पंजाब)। ३. बाईस अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण, एक तगण, तीन नगण, एक सगण और एक गुरु होता है। (? ? ? ? ? ? ? ?)।
⋙ हंसुला पु
संज्ञा पुं० [सं० हंस + अप० ला (प्रत्य०)] दे० 'हंस'। उ०—देसिं परादे हंसुला भया उडीणा आथि। हंस उडारी संमली जाय मीलीये संग साथि।—प्राण०; पृ० १०५।
⋙ हंक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँक] दे० 'हाँक'।
⋙ हँकड़ना
क्रि० अ० [हिं० हाँक] १. जोर जोर से चिल्लाना। झगड़ते हुए दर्प के साथ बोलना। ललकारना। हुंकारना। २. गाय, बैल, साँड़ आदि पशुओं का जोर जोर से चिल्लाना।
⋙ हँकड़ान, हँकड़ाव †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'हाँक' से व्युत्पन्न हँकड़ने का भाव या जोर जोर से चिल्लाने की क्रिया।
⋙ हँकनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँकना] १. हलवाहों की बैलों को हाँकने की छोटी छड़ी। पैना। २. हाँकने का काम। हाँकने की क्रिया। ३. हाँकनेवाली स्त्री।
⋙ हँकरना
क्रि० अ० [हिं० हाँक] दे० 'हँकड़ना'।
⋙ हँकराना
क्रि० स० [हिं० हाँक] १. हाँक देकर बुलाना। जोर से आवाज लगाकर किसी दूर के मनुष्य को संबोधन करना। २. बुलाना। पुकारना। उ०—मोहन ग्वाल सखा हँकराए।—सूर (शब्द०)। ३. पुकारने का काम दूसरे से कराना। बुलवाना। उ०—(क) राजा सब सेवक हँकराई। भाँति भाँति की वस्तु मँगाई।—विश्राम (शब्द०)। (ख) राजा छरीदार हँकराई।—कबीर मं०, पृ० ५००।
⋙ हँकराव, हँकरावा
संज्ञा पुं० [हिं० हँकराना] १. बुलाने की क्रिया या भाव। बुलाहट। पुकार। २. बुलावा। न्योता। निमंत्रण।
⋙ हँकलाना पु
क्रि० अ० [हिं०?] अटक अटककर बोलना। रूक रुककर बोलना। उ०—कटि हलाइ हंकलाइ कछु अद्भूत ख्याल बनाइ। अस को जा नहि फाग में परगट दियो हंसाइ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १५५।
⋙ हँकवा
संज्ञा पुं० [हिं० हाँक] शेर या किसी हिंस्र पशु के शिकार का एक ढंग। विशेष—इसमें बहुत से लोग ढोल, ताशे आदि बजाते और शोर करते हुए, जिस स्थान पर शेर होता है, उस स्थान के चारो ओर से चलते हैं और इस प्रकार शेर को हाँककर उस मचान की ओर ले जाते हैं जहाँ शिकारी उसे मारने के लिये बंदूक भरे बैठे रहते हैं।
⋙ हँकवाना
क्रि० सं० [हिं० हाँकना का प्रेर० रूप] १. हाँक लगवाना। बुलवाना। दूसरे से पुकारने का काम कराना। २. पशुओं या चौपायों को आवाज देकर हटवाना या किसी ओर भगाना। ३. रथ, बहली, इक्के आदि में जुते जानवर को किसी के द्रारा चलवाना या आगे बढ़ने के लिये प्रेरित कराना। संयो० क्रि०—देना।
⋙ हँकवैया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हाँकना + वैया (प्रत्य०)] हाँकनेवाला।
⋙ हँकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँकना] १. रथ, बहली, इक्का, बैलगाड़ी आदि के पशुओं को हाँकने की क्रिया या भाव। २. हाँकने की मजदूरी।
⋙ हँकाना
क्रि० स० [हिं० हाँक] १. चौपायों या जानवरों को आवाज देकर हटाना या किसी ओर से ले जाना। हाँकना। २. पुकारना। बुलाना। ३. दुसरे से हाँकने का काम कराना। हँकवाना।
⋙ हँकार (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हक्कार] १. आवाज लगाकर बुलाने की क्रिया या भाव। पुकार। २. वह ऊँचा शब्द जो किसी को बुलाने या संबोधन करने लिये किया जाय। पुकार। मुहा०—हकार पड़ना = बुलाने के लिये आवाज लगाना। पुकार मचाना।
⋙ हँकार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० अहङ्कार, पु० हिं० हंकार] दे० 'अहंकार'। उ०—सुरत ढ़ाढस लाइकै तुम बाद करहु हँकार।—धरनी० बानी, पृ० ३६।
⋙ हँकारना पु (१)
क्रि० स० [हिं० हँकार + ना (प्रत्य०)] १. आवाज देकर किसी को संबोधन करना। जोर से पुकारना। ऊँचे स्वर से बुलाना। टेरना। नाम लेकर चिल्लाना। उ०—ऊँचे तरु चढ़ि श्याम सखन को बारंबार हँकारत।—सूर (शब्द०)। २. अपने पास आने को कहना। बुलाना। पुकारना। उ०—(क) धाय दामिनी बेग हँकारी। ओहि सौंपा हीये रिस भारी।— जायसी (शब्द०)। (ख) देखी जनक भीर भइ भारी। शुचि सेवक सब लिए हँकारी।—तुलसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ३. दान कराना। बुलवाना। उ०—जाचक लिये हँकारि, दीन्हि निछावर कोटि विधि। चिर जीवहु सुत चारि, चक्रवतिं दसरत्थ के। मानस, १। २९५। ४. युद्ध के लिये आह्वान करना। ललकारना। हाँक देना। उ०—देखत तहाँ जुरे भट भारी। एक एक सन भिरे हँकारी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ हँकारना (२)
क्रि० अ० गरजना। हुंकार करना।
⋙ हँकारा
संज्ञा पुं० [हिं० हँकारना] १. पुकार। बुलाहट। २. निमंत्रण। आह्वान। ३. बुलौवा। न्योता। उ०—गुरु वसिष्ठ कहँ गएउ हँकारा। आए द्रिजन्ह सहित नृपद्रारा।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—जाना।—भोजन।
⋙ हँकारी †
संज्ञा पुं० [हिं० हँकार + ई (प्रत्य०)] १. वह जो लोगों को बुलाकर लाने के काम पर नियुक्त हो। २. प्रतिहारी। सेवक।
⋙ हँडकुलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँड़िया + कुलिया] बच्चों के खेलने के लिये रसोई के बहुत छोटे बरतनों का समूह।
⋙ हँड़वाई
संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्ड या हण्डा, हण्डिका] भोजन आदि गृहकार्य में प्रयुक्त होनेवाले पात्र। घर का माल असबाब। बर्तन- भाँड़ा। उ०—(क) हँड़वाइ कीय मन साज सुद्ध। उज्जल रजक्क जनु उफनि दूध।—पृ० रा०, १४। १२४। (ख) हँड़वाई घर में रही, और बिसाति न कोय।—अर्ध०, पृ० ३०। मुहा०—हड़वाई खाना = बर्तन भाँड़ा बेचकर प्राप्त द्रव्य से जीवन- यापन करना। उ०—हँड़वाई खाई सकल रहे टका द्रै चारि।—अर्ध०, पृ० ३१।
⋙ हँड़वाना
क्रि० स० [हिं० हंडना] हँकवाना। चलाना। खाना करना। उ०—हँड़वाई गाड़ी कहुँ और। नगदी माल निभरमी ठौर।—अर्ध०, पृ० २४।
⋙ हँड़ाना
क्रि० स० [सं० अभ्यटन या हिण्डन] १. घुमाना। फिराना। २. व्यवहार में लाना। काम में लाना।
⋙ हँड़िक
संज्ञा पुं० [देश०] तौलने का बाट। (सुनार)।
⋙ हँड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिका अथवा हण्डिका] १. बड़े लोटे के आकार का मिट्टी का बरतन जिसमें चावल दाल पकाते या कोई वस्तु रखते हैं। हाँडी। मुहा०—हाँड़िया चढ़ाना = कोई वस्तु पकाने के लिये पानी रखकर हाँड़ी आँच पर रखना। हँढ़िया दागना = भोजन पकाना। पकाने के लिये हँडिया को अग्नि पर रखना। २. इस आकार का शीशे का पात्र जो शोभा के लिये लटकाया जाता है और जिसमें मोमबत्ती जलाई जाती है। ३. जौ, चावल आदि सड़ाकर बनाई हुई शराब।
⋙ हँढ़ावना पु
क्रि० स० [सं० हिण्डन, पु० हिं० हंडना, हंढना] घुमाना। भटकाना। उ०—चहुँ का संग चहूँ का मीतु। जामें चारि हँढ़ावै नीतु।—प्राण०, पृ० १३७।
⋙ हँथोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हथेली] दे० 'हथोरी'।
⋙ हँथौरा
संज्ञा पुं० [हिं० हथौड़ा] दे० 'हथौड़ा'।
⋙ हँथौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हथौड़ा] दे० 'हथौड़ी'।
⋙ हँफनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँफना] हाँफने की क्रिया या भाव। अधिक परिश्रम के कारण जल्दी जल्दी और जोर जोर से चलती हुई साँस। हाँफ। मुहा०—हँफनि मिटाना = दम लेना। दम मारना। सुस्ताना। थकावट दूर करना। उ०—बात कहिबेम में नंदलाल की उताल कहा हाल तौ हरिननैनी हँफनि मिटाय लै।—शिव० (शब्द०)।
⋙ हँफनी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँफना] हाफने का भाव या क्रिया। हाँफ। दे० 'हँफनि'।
⋙ हँसतामुखी पु
संज्ञा पुं० [हिं० हँसता + मुख] हँसते चेहरेवाला। प्रसन्नमुख। उ०—जो देखा तो हँसतामुखी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हँसन
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसना] १. हँसने की क्रिया या भाव। २. हँसने का ढंग।
⋙ हँसना (१)
क्रि० अ० [सं० हसन] १. आनंद के वेग से कंठ से एक विशेष प्रकार का आघातरूप स्वर निकालना। खुशी के मारे मुँह फैलाकर एक तरह की आवाज करना। खिलखिलाना। ठट्ठा मारना। हास करना। कहकहा लगाना। संयो०—क्रि०—देना।—पड़ना। यौ०—हँसना बोलना = आनंद की बातचीत करना। जैसे,—चार दिन की जिंदगी मे हँस बोल लो । हँसना खेलना = आनंद करना। हँसना हँसाना = आनंद से हँसना और अन्य को हँसाना या आनंदित करना। मुहा०—किसी व्यक्ति पर हँसना = विनोद की बात कहकर किसी को तुच्छ या मूर्ख ठहराना। उपहास करना। जैसे,—तुम दूसरों पर तो बहुत हँसते हो, पर आप कुछ नहीं कर सकते। किसी वस्तु पर हँसना = विनोद की बात कहकर किसी वस्तु को तुच्छ या वुरी ठहराना। उपहास करना। व्यंगपूर्ण निंदा करना। अनादर करना। उ०—(क) हैसिवे जोग, हँसे नहिं खोरी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हँसहि मलिन खल विमल वतकही।—तुलसी (शब्द०)। हँसते बोलते = दे० 'हँसते हँसते'। हँसते हँसते = प्रसन्नता से। खुशी से। बिना किसी प्रकार का कष्ट या बाधा का अनुभव किए। जैसे,—(क) राजपूतों ने हँसते हँसते युद्ध में प्राण दिए। (ख) मैं हँसते हँसते यह सब कष्ट सह लूँगा। हँसते हँसते पेट में बल पड़ना = इतना अधिक हँसना कि पेट में दर्द होने लगे। हँसते हुए = दे० हँसते हँसते'। हँस बोल लेना = प्रसन्नतापूर्वक बातचीत करना। हँसता मुँह या चेहरा = प्रसन्न मुख। ऐसा चेहरा जिससे प्रसन्नता का भाव प्रकट होता हो। ठठाकर हँसना = जोर से हँसना। अट्टहास करना। उ०—दोउ एक संग न होहिं भुवालू। हँसब ठठाइ, फुलाउब गालू।—तुलसी (शब्द०)। बात हँसकर उड़ाना = ध्यान न देना। तुच्छ, साधारण या हलका समझकर विनोद में टाल देना। जैसे,—मैं काम काम की बात कहता हूँ, तुम हँसकर उड़ा देते हो। २. रमणीय लगना। मनोहर जान पड़ना। गुलजार या रौनक होना। जैसे,—यह जमीन कैसी हँस रही है। ३. केवल मनोरंजन के लिये कुछ कहना या करना। दिल्लगी करना। हँसी करना। मजाक करना। मसखरापन करना। जैसे,—मैंतो यों ही हँसता था, कुछ तुम्हारी छड़ी लिए नहीं लेता था। ४. आनंद मनाना। प्रसन्न या सुखी होना। खुशी मनाना। जैसे,—यह तो दुनिया है कोई हँसता है, कोई रोता है।
⋙ हँसना (२)
क्रि० स० किसी का उपहास करना। व्यंग या हँसी की बात कहकर किसी को तुच्छ या मुर्ख ठहराना। विनोद के रूप में किसी को हेठा,बुरा या मूर्ख प्रकट करना। अनादर करना। हँसी उड़ाना। जैसे,—तुम दूसरों को तो हँसते हो, पर अपना दोष नहीं देखते।
⋙ हँसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसना] दे० 'हँसन'। उ०—अरुन अधर द्बिज पाँति अनुपम ललित हँसवि जनु मन आकरषित।—तुलसी पृ० ४१५। यौ०—हँसनि हँसावनि = स्वयं हँसने और दूसरे को हँसाने की क्रिया या भाव। उ०—हँसनि हँसावनि पुनि डहकावनि।—नंद० ग्रं०, पृ० २६४।
⋙ हँसमुख
वि० [हिं० हँसना + मुख] १. प्रसन्न वदन। जिसके चेहरे से प्रसन्नता का भाव प्रकट होता है। २. विनोदशील। हास्यप्रिय। ठठोल। हँसी दिल्लगी करनेवाला। चहुलबाज।
⋙ हँसली
संज्ञा स्त्री० [सं० अंसली] १. गरदन के नीचे और छाती के ऊपर की धन्वाकार हड्डी। २. गले में पहनने का स्त्रियों काएक गहना जो मंडलाकार और ठोस होता है तथा बीच में मोटा और छोरों पर पतला होता है।
⋙ हँसाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसना] १. हँसने की क्रिया या भाव। २. उपहास। लोगों में निंदा। बदनामी। उ०—सूरदास कूबरि रंग राते ब्रज में होति हँसाई।—सूर (शब्द०)। यौ०—जग हँसाई। जगत हँसाई।
⋙ हँसाना
क्रि० स० [हिं० हँसना] १. दूसरे को हँसने में प्रवृत्त करना। कोई ऐसी बात करना जिससे दूसरा हँसे। २. आनंदित करना। खुश करना। प्रसन्न करना। संयो० क्रि०—देना।—मारना।
⋙ हँसाय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'हंसाई'।
⋙ हँसावनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसाना] हँसाने का कार्य या स्थिति। उ०—लै लै व्यंजन चखनि चखावनि। हँसनि हँसावनि, पुनि डहकावनि।—नंद० ग्रं०, पृ० २६४।
⋙ हँसिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० हंस] १. लोहे का एक धारदार औजार जो अर्धचंद्राकार हाता है और जिससे खेत को फसल या तरकारी आदि काटी जाती है। २. लोहे की धारदार अर्धचंद्राकार पट्टी जिससे कुम्हार गीली मिट्टी काटते है। ३. चमड़ा छोलकर चिकना करने का औजार। ४. हाथी के अंकुश का टेढ़ा भाग।
⋙ हँसिया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हनु ? या सं० अंसल + हिं० इया (प्रत्य०)] गरदन के नीचे की धन्वाकार हड्डी। हँसली।
⋙ हँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसना] १. हँसने की क्रिया या भाव। हास। उ०—बरजा पितै हँसी औ राजु।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना। यौ०—हँसी खुशी = प्रसन्नता। हँसी ठट्ठा = आनंदक्रीड़ा। मजाक। मुहा०—हँसी छूटना = हँसी आना। हास की मुद्रा प्रकट होना। २. हँसने हँसाने के लिये की हुई बात। मजाक। दिल्लगी। मनोरंजन। विनोद। जैसे,—तुम तो हँसी हँसी में रोने लगते हो। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—हँसी खेल = (१) विनोद और क्रीड़ा। (२) साधारण बात। सहज बात। आसान वाध। हँसी ठठोली = विनोद और हास। दिल्लगी। मुहा०—हँसी समझना या हँसी खेल समझना = साधारण बात समझना। आसान बात समझना। कठिन न समझना। जैसे— लीडर बनना क्या हँसी खेल समझ रखा है ? हँसी में उड़ाना = किसी बात को यों ही दिल्लगी समझकर ध्यान न देना। साधारण समझकर ख्याल न करना। परिहास की बात कहकर टाल देना। हँसी में ले जाना = किसी बात को मजाक समझना। किसी बात का ऐसा अर्थ समझना मानो वह ध्यान देने के नहीं है, केवल मनबहलाव की है। जैसे,—तुम तो मेरी बात हँसी में ले जाते हो। हँसी में खाँसी = दिल्लगी की बात- चीत होते होते झगड़ा या मारपीट की नौबत आना। ३. किसी व्यक्ति को मूर्ख या किसी वस्तु को तुच्छ ठहराने के लिये कही हुई विनोदपूर्ण उक्ति। अनादरसूचक हास। उप हास। व्यंग्य- पूर्ण निंदा। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हँसी उड़ाना = व्यंग्यपूर्ण निंदा करना। उपहास करना। चतुराई की उक्ति द्बारा अनादर प्रकट करना। ४. लोकनिंदा। बदनामी। अनादर। जैसे—ऐसा काम न करो जिसमें पीछे हँसी हो। उ०—रोज सरोजन के परै हँसी ससी की होइ।—बिहारी (शब्द०)। क्रि० प्र०—होना।
⋙ हँसीला ‡
वि० [हिं० हँसना + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० हँसीली] हँसी मजाक करनेवाला। सदा हँसता रहनेवाला। हँसौहा। उ०—लाड़ लड़ीली रस बरसीली लसीली हँसीली सनेह सगमगी।—घनानंद, पृ० ४४७।
⋙ हँसुआ †
संज्ञा पुं० [सं० हंस] दे० 'हँसिया'।
⋙ हँसुली
संज्ञा स्त्री० [सं० हनु ? या अंसल] दे० 'हँमली'।
⋙ हँसुवा †
संज्ञा पुं० [सं० हंस] दे० 'हँसिया'।
⋙ हँसेल †
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाव को किनारे पर से खींचने की रस्सी। गून।
⋙ हँसोड़
वि० [हिं० हँसना + ओड़ (प्रत्य०)] हँसी ठट्ठा करनेवाला। दिल्लगीबाज। मसखरा। चुहलबाज। विनोदप्रिय।
⋙ हँसोर पु
वि० [हिं० हँसना] दे० 'हँसोड़'।
⋙ हँसोहाँ
वि० [हिं० हँसना + औहा (प्रत्य०)] दे० 'हँसौहाँ'।
⋙ हँसौहाँ पु
वि० [हिं० हँसना] [वि० स्त्री० हँसौहीं] १. ईषद् हासयुक्त। कुछ हँसी लिए। हासोन्मुख। उ०—(क) भयो हँसौहौं वदन ग्वारि को सुनत श्याम के बैन।—सूर (शब्द०)। २. हँसने का स्वभाव रखनेवाला। जल्दी हँस देनेवाला। उ०— (क) सहज हँसौहैं जानि कै सौहैं करति न नैन।—बिहारी (शब्द०)। (ख) नेकु हँसौहीं बानि तजि, लख्यो परत मुख नीठि।—बिहारी (शब्द०)। (ग) औरनु को हँसौहौं मुख तेरी तौ रुखाई आली, सोरह कला कौ पूरौ चंद बलि जाऊँ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७१। ३. परिहासयुक्त। दिल्लगी का। मजाक से भरा। उ०—नेकु न मोहिं सुहायँ अरी सुन बोल तिहारे हँसौहैं अबै।—शंभु (शब्द०)।
⋙ ह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हास। हँसी। २. शिव। महादेव। ३. जल। पानी। ४. शुन्य। सिफर। ५. योग का एक आसन। विष्कंभ। ६. ध्यान। ७. शुभ। मगंल। ८. आकाश। ९. स्वर्ग। १०. रक्त। खून। ११. भय। १२. ज्ञान। १३. चंद्रमा। १४. विष्णु। १५. युद्ध। लड़ाई। १६. घोड़ा। अश्व। १७. गर्व। घमंड। १८. वैद्य। १९. कारण। हेतु। २०. आनंद। हर्ष (को०)। २१. धारण (को०)। २२. ब्रह्म (को०)। २३. प्रसिद्धि। ख्याति (को०)। २४. अस्त्र (को०)। २५. रत्न की दीप्ति (को०)। २६. आह्वान। पुकार (को०)। २७. वीणा की ध्वनि (को०)। २८. पुलक। रोमहर्ष। रोमांच (को०)। २९. बुराई। निंदा(को०)। ३०. क्षेप (को०)। ३१. निग्रह। नियोग (को०)। ३२. शुष्क होना (को०)।
⋙ ह (२)
अव्य० अनुन्य, क्रोध, अवश्य ही, निश्चय ही आदि अथों तथा पादपूर्ति के रूप में प्रयुवत अव्यय।
⋙ हई पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० हयिन्, हयी] घुड़सवार।
⋙ हई पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ह ! आश्चर्यसूचक शब्द] आश्चर्य। अचरज। तअज्जुब। उ०—हौं हिच रहति हई छई नई जुगुति जग जोय। आँखिन आँखि लगे खरी देह दूबरी होय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ हई (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० हत, प्रा० हय] खड़ी फसल का मनुष्यों और पशुओं द्बारा बरबाद होना।
⋙ हउँ पु (१)
सर्व० [सं० अहम्] दे० 'हौँ'।
⋙ हउँ पु (२)
क्रि० अ० [सं० भवन, प्राः० होण, होन] दे० 'हौँ'।
⋙ हक † (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] वह धक्का जो सहसा चकपका उठने या घबरा उठने से हृदय में लगता है। धक। दे० 'धक'।
⋙ हक (२)
वि० [अ० हक] १. जो झूठ न हो। सच। सत्य। २. जो धर्म और नीति के अनुसार हो। वाजिब। ठीक। उचित। न्याय। जैसे,—हक बात। यौ०—हक नाहक।
⋙ हक (३)
संज्ञा पुं० १. किसी वस्तु को पाने, पास रखने या व्यवहार में लाने की योग्यता जो न्याय या लोकरीति के अनुसार किसी को प्राप्त हो। किसी वस्तु को अपने कब्जे में रखने, काम में लेने या लाने का अधिकार। स्वत्व। जैसे,—(क) इस जमीन पर हमारा हक है। (ख) तुम्हें इस जमीन पर पेड़ लगाने का क्या हक है ? यौ०—हकदार। हकशफा। २. कोई काम करने या किसी से कराने का अधिकार जो किसी की आज्ञा, लोकरीति या न्याय के अनुसार प्राप्त हो। अधिकार। इख्तियार। जैसे,—(क) तुम्हें दूसरे के लड़के को मारने का क्या हक है ? (ख) तुम्हें हमारे आदमी से काम कराने का कोई हक नहीं है। मुहा०—हक दबाना या मारना = किसी को उस वस्तु या बात से वंचित रखना जिसका उसे अधिकार प्राप्त हो। हकपर लड़ना = अपने न्याययुक्त अधिकार के लिये प्रयत्न करना। किसी ऐसी वस्तु को पाने, पास रखने, काम में लाने अथवा कोई ऐसी बात करने के लिये विरोधियों के विरुद्ध उद्योग करना जो न्याय या रीति के अनुसार कोई पा सकता हो, काम में ला सकता हो अथवा कर सकता हो। स्वत्वरक्ष के हेतु प्रयत्न करना। हक दबाना या मारा जाना = उस वस्तु या बात से वंचित होना जिसका न्याय से अधिकार प्राप्त हो। वह वस्तु न पाना या वह काम न करने पाना जो न्यायतः वह पा सकता य कर सकता हो। स्वत्व की हानि होना। हक साबित करना = यह सिद्ध करना कि किसी वस्तु को पाने, रखने या काम में लाने अथवा कोई काम करने का हमें अधिकार है। स्वत्व प्रमाणित करना। हक में = हित के लिये। लाभ की दृष्टि से। पक्ष में। विषय में। जैसे,—(क) ऐसा करना तुम्हारे हक में अच्छा न होगा। (ख) हम तुम्हारे हक में दुआ करेंगे। ३. कर्तव्य। फर्ज। मुहा०—हक अदा करना = वह बात करना जो न्याय, नीति आदि की दृष्टि से करणीय हो। कर्तव्य पालन करना। जैसे,—वे दोस्ती का हक अदा कर रहे हैं। ४. वह वस्तु जिसे पाने, पास रखने या काम में लाने का अथवा वह बात जिसे करने का न्याय से अधिकार प्राप्त हो। जैसे,— (क) यह रुपया तो नौकरों का हक है। (ख) यहाँ टहलना हमारा हक है। ५. वह द्रव्य या धन जो किसी काम या व्यवहार में किसी को रीति के अनुसार मिलता हो। किसी मामले में दस्तूर के मुताबिक मिलनेवाली कुछ रकम। दस्तुरी। जैसे,—(क) पुरोहित का हक तो पाँच रूपए सैकड़ा है। (ख) हमारा हक देकर तब जाइए। (ग) अदालत में मुहर्रिरों का हक भी तो देना पड़ता है। क्रि० प्र०—चाहना।—देना।—पाना।—माँगना। मुहा०—हक दबाना या मारना = वह रकम न देना जो किसी को रीति के अनुसार दी जाती हो। जैसे,—नौकरों का हक मारकर आप राजा न हो जायँगे। ६. ठीक बात। वाजिब बात। उचित बात। ७. उचित पक्ष। न्याय पक्ष। जैसे,—मैं तो हक पर हूँ, मुझे किस बात का डर है। मुहा०—हक पर होना = न्याय्य पक्ष का अवलंबन करना। उचित बात का आग्रह करना। ८. खुदा। ईश्वर। (मुसलमान)।
⋙ हकअंदेश
वि० [अ० हव़ + फा़० अंदेश] हित शोचनेवाला। भलाई चाहनेवाला [को०]।
⋙ हकआगाह
वि० [फा़० हकआगाह] सत्यनिष्ठ। सज्जन। साधु। महात्मा [को०]।
⋙ हकगो
वि० [फा़० हकगो] सत्यभाषी। हक या न्याय की बात कहनेवाला [को०]।
⋙ हकगोई
संज्ञा स्त्री० [फा़० हकगोई] सत्यवक्तृत्व। सत्यवादिता [को०]।
⋙ हकतलफी
संज्ञा स्त्री० [अ० हक + तलफी] १. अधिकार का अपहरण। हक छीनना या मार लेना। बेइंसाफी। अन्याय। उ०— र्बिधाता ने उसे छोटा न बनाया होता, तो आज उसकी यह हकतलफी न होती।—गबन, पृ० ३०३। २. हानि। क्षती।
⋙ हकतायत
संज्ञा स्त्री० [अ० हक + ताअत] अधीनता। ताबेदारी। उ०—लिखा नबी कोरान में आयत। मेरी उमत करै हकतायत।—संत० दरिया, पृ० २२।
⋙ हकताला
संज्ञा पुं० [अ० हक + तआला] महिमाशाली ईश्वर। खुदा। परमात्मा। उ०—ता महि तुम हजरत की बाला। सब कै एक वहै हकताला।—ह० रासो, पृ० ४०।
⋙ हकदक
वि० [अनु०] हक्का बक्का। स्तंभित। चकित।
⋙ क्रि० प्र०—रहना।—होना।
⋙ हकदार (१)
संज्ञा पुं० [अ० हक + फा़० दार] १. वह जिसे हक हासिल हो। स्वत्व या अधिकार रखनेवाला। जैसे,—इस जायदाद के जितने हकदार हैं सब हाजिर हों। २. वह काश्तकार जिसका अपनी जमीन पर मौरूसी हक होता है।
⋙ हकदार (२)
वि० स्वत्व या अधिकार रखनेवाला [को०]।
⋙ हकधक
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] चकित। भौचक्का। बेसुध। हक्का- बक्का। उ०—कबहूँ हकधक हो रहैं, उठैं प्रेंम हित गाय। सहजो आँख मुँदी रहै, कबहूँ सुधि हो जाय।—संतवाणी०, भा० १, पृ० १५८।
⋙ हकनाक †
वि० [अं० हक + फा़० ना (प्रत्य०) + अ० हक] हक नाहक। व्यर्थ। फिजूल। बिलकुल बेकार। उ०—तब तो वह ब्राह्मन महादेव जो पै मरन लाग्यो। तब महादेव जी प्रगट होइ वा ब्रह्मन सों कहे, जो तू हकनाक क्यों मरत है ? वाके भाग्य में पुत्र नाहिं।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ४५।
⋙ हकनाहक (१)
अव्य० [अ० हक + फा़० ना (प्रत्य०) + अ० हक़] १. बिना उचित अनुचित के विचार के। जबरदस्ती। धींगाधींगी से। जैसे,—क्यों हकनाहक बेचारे की चीज ले रहे हो। २. बिना कारण या प्रयोजन। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। फजूल। जैसे,—क्यों हकनाहक लड़ रहे हो। उ०—हकनाहक पकरे सकल जड़िया कोठीवाल। हुंडीवाल सराफ नर अरु जौहरी दलाल।—अर्ध०, पृ० ४३।
⋙ हकनाहक (२)
संज्ञा पुं० नीति अनीति। न्याय अन्याय। उचित अनुचित। सत्य असत्य [को०]।
⋙ हकपसंद
वि० [अ० हक + फा़० पसंद] हक, न्याय या सत्य को पसंद करनेवाला।
⋙ हकपसंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० हक + फा़० पसंदी] हकसंद होना। सत्य को पसंद करना। सत्यप्रियता [को०]।
⋙ हकपरस्त
वि० [अ० हक + फा़० परस्त] १. ईश्वरभक्त। २. सत्य का उपासक। सत्यनिष्ठ। न्यायी।
⋙ हकपरस्ती
संज्ञा स्त्री० [आ० हक़ + परस्ती] धर्मपरायणता। सत्यनिष्ठता।
⋙ हकफरामोश
वि० [अ० हक़ + फा़० फकामोश] कृतघ्न। उपकार और एहसान भूल जानेवाला। नमकहराम [को०]।
⋙ हकफरामोशी
संज्ञा स्त्री० [अ० हक़ + फा़० फरामोशी] कृतघ्नता। नीचता। नमकहरामी [को०]।
⋙ हकबक
वि० [अनु०] दे० 'हक्का बक्का'।
⋙ हकबकाना
क्रि० अ० [अनु० हक्का बक्का] किसी ऐसी बात पर जिसका पहले से अनुमान तक न रहा हो अथवा जो अनहोनी या भयानक हो, स्तंभित हो जाना। ठक रह जाना। हक्का- बक्का हो जाना। सहसा निश्चेष्ट और मौन होकर मुँह ताकने लगाना। घबरा जाना।
⋙ हकमालिकाना
संज्ञा पुं० [अ० हक़ + फा़० मालिकानह्] किसी चीज या जायदाद के मालिक का हक।
⋙ हकमौरुसी
संज्ञा पुं० [अ० हक मौरूसी] वह अधिकार जो पितृपंरपरा से प्राप्त हो। वह हक जो बाप दादों से चला आता हो।
⋙ हकरसी
संज्ञा स्त्री० [अ० हक़ + फा़० रसी] न्याय पाना। इन्साफ पाना। उ०—ताज की वफादारी, ईमान्दारी, मुल्क का इन्तजाम सब लोगों की हकरसी, और हरेक आदमी के फायदे के लिये इन्साफ करना बहुत जरुरी है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३८९।
⋙ हकला
वि० [हिं० हकलाना] रुक रुककर बोलनेवाला। वाग्दोष के कारण हकलानेवाला। किसी वाक्य को एक साथ न बोल सकनेवाला।
⋙ हकलाना
क्रि० अ० [अनु० हक] स्वर नाली के ठीक काम न करने या जीभ तेजी से न चलने के कारण बोलने में अटकना। रुक रुककर बोलना।
⋙ हकलापन
संज्ञा पुं० [हिं० हकला + पन (प्रत्य०)] १. हकला होने की क्रिया या भाव। हकलाने का भाव। २. हकलाने की आदत या दोष।
⋙ हकलाहट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हकलाना] दे० 'हकलापन'।
⋙ हकलाहा
वि० [हिं० हकलाना] दे० 'हकला'।
⋙ हकशफा
संज्ञा पुं० [अ० हकशुफा] किसी जमीन को खरीदने का औरों से ऊपर या अधिक वह हक या स्वत्व जो गाँव के (जिसमें बेची हुई जमीन हो) हिस्सेदारों अथवा पड़ोसियों को प्राप्त हो। विशेष—यदि कोई व्यक्ति हस प्रकार की जमीन बेच देता है, तो जिसे इस प्रकार का स्वत्व प्राप्त होता है, वह अदालत के द्बारा उतना हो या जितना अदालत ठहरा दे, अथवा खरीदार ने जितना दाम देकर खरीद की हो उतना दाम देकर वह जमीन ले सकता है।
⋙ हकार
संज्ञा पुं० [सं०] ह अक्षर या वर्ण।
⋙ हकारत
संज्ञा स्त्री० [अ० हकारत] अपमान। तिरस्कार। तुच्छता [को०]। मुहा०—हकारत की निगाह के देखना = ओछी या अपमानयुक्त दृष्टि से ताकना।
⋙ हकारना (१)
क्रि० स० [देश०] १. पाल तानना या खड़ा करना। २. झंडा या निशान उठाना। (लश्करी)।
⋙ हकारना (२)
क्रि० स० [सं० आकारण] बुलाना। पुकारना। उ०—(क) राजह सूर हकार लिय।—दिय सादर सनमान। बीर बिरद बरदाय प्रति, लग्गे बत्त पुछान पृ० रा०, ६।१४७। (ख) विर- सिंघ हरसिंघ क्रोध करि चर कह दीन हकार। पंगुर नृप नहिं जंग करि असिय लष्ष असवार।—प० रासो, पृ० १३३।
⋙ हकीकत
संज्ञा स्त्री० [अ० हकीकत] १. तत्त्व। सचाई। असलियत। सत्यता। २. मर्यादा। बिसात। हैसियत (को०)। ३. तथ्य। ठीक बात। असल असल बात। ४. ठीक ठीक वृत्तांत। असल हाल। सत्य वृत्त। जैसे—उसकी हकीकत यों है। उ०—शबे फुरकत में रो रोकर सहर की। हकीकत क्या कहूँ मैं रात भर की।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २९। मुहा०—हकीकत खुलना = असल बात का पता लग जाना। ठीक ठीक बात मालूम हो जाना। हकीकत में = वास्तव में। सचमुच।
⋙ हकीकतन
अव्य० [अ० हकीकतन्] यथार्थतः। वास्तव में। वाकई। सचमुच [को०]।
⋙ हकीकी
वि० [अ० हकी़की़] १. असली। ठीक। सच्चा। सत्य। २. खास अपना। सगा। आत्मीय। जैसे,—हकीकी भाई। ३. ईश्वरोन्मुख। भगवत्संबंधी। जैसे,—इश्क हकीकी। उ०— शगल बेहतर है इश्कबाजी का। क्या हकीकी वा क्या मजाजी का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४। ४. शब्द का अर्थ। अभिधेय अर्थ।
⋙ हकीगत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० हकीकत] दे० 'हकीकत'। उ०— भील गुह्मो बन मिले भाव सूँ, परम भगत पोरस भरपूर। मोडण लागो आप दिस माँजी, जिणनूँ कही हकीगत जाझी, दल राखस करणहिव दूर।—रघु० रू०, पृ० ११०।
⋙ हकीम
संज्ञा पुं० [अ०] १. विद्बान्। आचार्य। ज्ञानी। जैसे,— हकीम अरस्तू। २. यूनानी रीति से चिकित्सा करनेवाला वेद्य। चिकित्सक।
⋙ हकीमी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हकीम + ई (प्रत्य०)] १. यूनानी आयुर्वेंद। यूनानी चिकित्सा शास्त्र। २. हकीम का पेशा या काम। बैदगी। जैसे,—वे लखनऊ में हकीमी करते हैं।
⋙ हकीमी (२)
वि० हकीम का। हकीम संबंधी। जैसे,—हकीमी इलाज। हकीमी नुस्खा।
⋙ हकीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० हकीयत] १. स्वत्व। अधिकार। २. वह वस्तु या जायदाद जिसपर हक हो। ३. अधिकार होने का भाव। जैसे,—तुम अपनी हकीयत साबित करो।
⋙ हकीर
वि० [अ० हकीर] १. जिसका कुछ महत्व न हो। बहुत छोटा। तुच्छ। नाचीज। उ०—क्या बात कहते हो पीराने पीर। मुजे क्या जो बूजे हो तुमने हकीर।—दक्खिनी०, पृ० २३४। २. उपेक्षा के योग्य। उपेक्षणीय। उ०—मैं इस हकीर हज्जाम के मुँह से निकले शब्दों की सचाई तसलीम करता हूँ।—पीतल०, पृ० ३६०।
⋙ हको हक्क
संज्ञा पुं० [प्रा० हक्क, हंक अथवा अनुध्व०] जोर से बोलने की ध्वनि। हाँक। उ०—हकोहक्क बाजी गजे मेघनद्दं। जगे लोइलोयं कुसद्दे कुसद् दं।—पृ० रा०,१२।९३।
⋙ हकूक
संज्ञा पुं० [अ० हकूक] 'हक' का बहुवचन। कई प्रकार के स्वत्व या अधिकार।
⋙ हकूमत ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हुकूमत'।
⋙ हक्क (१)
संज्ञा पुं० [सं० अनु०] हाथी को बुलाने का शब्द।
⋙ हक्क (२)
संज्ञा पुं० [अं० हक्क] दे० 'हक'। उ०—हक्का बेली हक्क है बे हक्का बे हक्क। हरिया एकै हक्क बिन सब दिन जाहि अनहक्क।—राम० धर्म०, पृ० ६९।
⋙ हक्क (३)
संज्ञा पुं० [अ०] खुरचना। छीलना। काटना। तराशना [को०]।
⋙ हक्कना पु
क्रि० स० [प्रा० हक्क; हिं० हाँक] चिल्लाना। हाँक देना। उ०—धर मध्य धरै धर हक्क खल।—ह० रासो, पृ० ७८।
⋙ हक्क हलाल
संज्ञा पुं० [अ० हक्क हलाल] विहित या जायज स्वत्व। उचित अधिकार। उ०—हक्क हलाल आप से आवै, लेना और हराम।—पलटू०, भा० ३, पृ० ९१।
⋙ हक्का (१)
संज्ञा पुं० [अ० हक्का] वह नोट या पुरजा जो कोई गल्ले का व्यापारी किसी असामी के लगान की जमानत के रूप में जमींदार को देता है।
⋙ हक्का † (२)
संज्ञा पुं० लकड़ी का एक प्रकार का आघात या प्रहार। (लखनऊ)।
⋙ हक्का (३)
संज्ञा पुं० [सं०] उलूक। उल्लू [को०]।
⋙ हक्काक
संज्ञा पुं० [अ०] १. नग जड़नेवाला। नग को काटने, सान पर चढ़ाने, जड़ने आदि का काम करनेवाला। जड़िया। २. खुरचनेवाला। छीलने या खोदनेवाला व्यक्ति (को०)।
⋙ हक्कानी
वि० [अ० हक्कानी] ईश्वरीय। खुदाई। हक संबंधी।
⋙ हक्कानीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० हाक्का़नीयत] १. सत्यता। सचाई। यथार्थता। २. हक्कानी होने का भाव [को०]।
⋙ हक्का बक्का
वि० [अनु० हक, धक] किसी ऐसी बात पर स्तंभित जिसका पहले से अनुमान तक न रहा हो अथवा जो अनहोनी या भयानक हो। सहसा निश्चेष्ट और मौन होकर मुँह ताकता हुआ। भौचक। घबराया हुआ। चित्रलिखा सा। ठक। जैसे— यह सुनते ही वह हक्का बक्का हो गया।
⋙ हक्कार
संज्ञा पुं० [सं०] चिल्लाकर बुलाने का शब्द। पुकार।
⋙ हक्काहक्क
संज्ञा पुं० [सं०] पुकार। ललकार [को०]।
⋙ हगनहटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हगना] १. मलत्याग की इंद्रिय। गुदा। २. वह स्थान जहाँ लोग पाखाना फिरते हैं। मुहा०—हगनहटी करना या बनाना = किसी स्थान पर गंदा करना। हगनहटी।मचाना = बारबार दस्त करना।
⋙ हगना
क्रि० अ० [सं० हदन] १. मलोत्सर्ग करना। मलत्याग करना। झाड़ा फिरना। पाखाना फिरना। संयो० क्रि०—देना। मुहा०—हग भरना या मारना = (१) हग देना। मलोत्सर्ग कर देना। (२) अत्यंत भयभीत होना। बहुत डर जाना। २. दबाव के मारे कोई वस्तु दे देना। झक मारकर अदा कर देना। जैसे,—दावा होगा तो सब रूपया हग दोगे ३. बहुत गंदा कर देना।
⋙ हगनेटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हगनहटी] दे० 'हगनहटी'।
⋙ हगाना †
क्रि० स० [हिं० हगना का सक० रूप] १. हगनी की क्रिया कराना। पखाना फिरने पर विवश करना। संयो० क्रि०—देना। २. पाखाना फिरने में सहायता देना। मलत्याग कराना। जैसे,— बच्चे को हगाना। मुहा०—हगा मारना = बहुत थका देना या किसी को परेशान करना। हगा लेना = किसी से बलात् प्राप्य वस्तु या द्रव्य वसुल करना।
⋙ हगास
संज्ञा स्त्री० [हिं० हगना + आस (प्रत्य०)] हगने की इच्छा। मलत्याग का वेग या इच्छा। क्रि० प्र०—लगना।
⋙ हगोड़ा †
वि० [हिं० हगना + ओड़ा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० हगोड़ी] बहुत हगनेवाला। बहुत झाड़ा फिरनेवाला।
⋙ हरगन †, हग्ग़ †
वि० [हिं०] बहुत हगनेवाला। हगोड़ा।
⋙ हचक
संज्ञा स्त्री० [हिं० हचकना] धक्का। झोंका। झटका मुहा०—हचक खाना = आगे पीछे या नीचे ऊपर होना। झटका खाना। झोंका खाना।
⋙ हचकना † (१)
क्रिं० अ० [अनु० हच हच] चारपाई, गाड़ी आदि का झोंका खाना या बार बार हिलना। धकके से हिलना डोलना डोलना।
⋙ हचकना (२)
क्रि० स० १. दे० 'हचकाना'। २. जोर से मारना। मुहा०—हचक देना = जोर से मारना।
⋙ हचका
संज्ञा पुं० [हिं० हचकना] धक्का। झोंका। क्रि० प्र०—देना। मारना।
⋙ हचकाना
क्रि० स० [हिं० हचकना का सक० रूप] धक्के से हिलाना। झोंका देकर हिलाना।
⋙ हचकीला
वि० [हिं० हचक + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० हचकीली] हचकनेवाला। हिलने डुलनेवाला [को०]।
⋙ हचकोला
संज्ञा पुं० [हिं० हचकना] १. वह धक्का जो गाड़ी, चार- पाई आदि पर उछलने या हिलने डोलने से लगे। धचका। २. आघात। चढ़ाव उतार। उ०—आया हचकोला फाग का। खग लगे परखने नये नये सुर अपने अपने राग का।—इत्यलम्, पृ० २०९।
⋙ हचना
क्रि० अ० [अनु० हच] किसी काम के करने में संकोच या आगा पीछा करना। हिचकना।
⋙ हज (१)
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानों का काबे के दर्शन के लिये मक्के जाना। मुसलमानों की मक्के की तीर्थयात्रा। जैसे,—सत्तर चूहे खा के बिल्ली हज को चली।
⋙ हज (२)
संज्ञा पुं० [अ० हज] १. आनंद। मजा। राहत। सुख। २. भाग। हिस्सा। लाभ। ३. खुशी। हर्ष [को०]।
⋙ हजम (१)
संज्ञा पुं० [अ०] स्थुलता। मोटाई। दल। २. —आकार प्रकार [को०]।
⋙ हजम (२)
संज्ञा पुं० [अ० हजम, हज्म] १. पेट में पचने की क्रिया या भाव। पाचन। २. पाचन शक्ति। हाजमा (को०)। ३. तस्करता। गबन [को०]।
⋙ हजम (३)
वि० १. जो पाचन शक्ति द्बारा रस या धातु के रूप में हो गया हो। पेट में पचा हुआ। जैसे,—दूध हजम होना। रोटी हजम करना। क्रि० प्र.—करना।—होना। १. बेईमानी से दूसरे से लेकर जो न दी गई हो। बेईमानी से लिया हुआ। अनुचित रीति से अधिकार किया हुआ। जैसे— (क) दूसरी का माल या रूपया हजम करना। (ख) दूसरे की चीज हजम करना। क्रि० प्र०—करना।—होना।—कर जाना।—कर लेना। मुहा०—हजम होना = बेईमानी से ली हूई वस्तु का अपने पास रहना। जैसे—बेईमानी का माल हजम न होना।
⋙ हजर (१)
संज्ञा पुं० [अ०] प्रस्तर। पत्थर। यौ०—हजरुलबकर = गोरोचन। हजरे असवद = काबा की दीवार में लगा हुआ काला पत्थर। विशेष दे० 'संगअसवद'।
⋙ हजर (२)
संज्ञा पुं० [अ० हजर] एक जगह स्थित होना या ठहरना। अवस्थिति। उपस्थिति। मौजूदगी। सफर का विपरीतार्थ।
⋙ हजरत
संज्ञा पुं० [अ० जहरत] १. महात्मा। महापुरुष। जैसे,— हजरत मुहम्मद। २. अत्यंत आदर का संबोधन। महामान्य। ३. चालाक या धूर्त व्यक्ति। नटखट या खोटा आदमी। (व्यंग्य)। जैसे—आप बड़े हजरत हैं, यों झगड़ा। लगाया करते हैं। ४. समीपता। सामीप्य (को०)। ५. गोष्ठी। मजलिस। सभा। दरबार (को०)। ६. अत्यंत आदरणीय व्यक्ति। उ०—ता महि तुम हजरत की बाला।—ह० रासो, पृ० ४०।
⋙ हजरत सलामत
संज्ञा पुं० [अ० हज़रत सलामत] १. बादशाहों या नवाबों के लिए संबोधन का शब्द। २. बादशाह। यौ०—हजरतसलामत पसंद = जो बादशाह को प्रिय या पसंद हो।
⋙ हजाम
संज्ञा पुं० [अ० हज्जाम] दे० 'हज्जाम'।
⋙ हजामत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. हज्जाम का काम। बाल बनाने का काम। दाढ़ी के बाल मूँड़ने या काटने का काम। क्षौर। २. बाल बनाने की मजदूरी। ३. सिर या दाढ़ी के बढ़े हुए बाल जिन्हें काटना या मुँड़ाना हो। महाँ०—हजामत वढ़ना या बढ़ाना = बालों का बढ़ना या बढ़ाना। हजामत बनाना = (१) दाढ़ी या सिर के बाल साफ करना। या काटना। (२) लूटना। धन हरण करना। माल सूस लेना। जैसे,—घूर्तों ने वहाँ उसकी खूब हजामत बनाई। (३) दंड देना। मारना। पीटना। हजामत बनवाना = दाढ़ी के बाल साफ कराना या सिर के बाल कटाना। हजामत होना = (१) किसी के धन का धोखा देकर हरण होना, लूट होना। (२) दंड होना। शासन होना। मार पड़ना। जैसे,—बचा की वहाँ खूब हजामत हुई।
⋙ हजामत (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० हजामत] प्रवीणता। दक्षता। कुशलता। होशियारी [को०]।
⋙ हजार
वि० [फा० हजार] हजार जो गिनती में हस सौ हो। सहस्र। उ०—तुम सलामत रहो हजार बरस। हर बरस के हों दिन पचास हजार।—कविता कौ०, भाग० ४, पृ० ४६०। २. अत्यधिक। बहुत से। अनेक। जैसे,—उनमें हजार ऐब हों, पर वे हैं तो तुम्हारे भाई। उ०—दोउनि कौ दोउनि के रूप लखिवे कौँ मनौ चार आँख होत ही हजार आँख ह्वै गईं ।—रत्नाकर, भा० २, पृ० ११।
⋙ हजार (२)
संज्ञा पुं० दस सौ की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—१०००।
⋙ हजार (३)
क्रि० वि० कितना ही। चाहे जितना अधिक। जैसे,—तुम हजार कहो, तुम्हारी बात मानता कौन ?
⋙ हजारदास्ताँ
संज्ञा पुं० [फा़० हजार दास्ताँ] एक प्रसिद्ध चिड़िया। विशेष दे० 'बुलबुल'।
⋙ हजारपा
संज्ञा पुं० [फा़० हजारपा] हजार पाँववाला, कनखजूरा। गोजर [को०]।
⋙ हजारहाँ
वि० [फा़० हजारहा] हजारों। हजारहा। उ०—जिनके बुजुर्गों के पीछे हजारहाँ बन्दगाने खुदा के पेट पलेते थे,।— प्रेमघन, भा० २, पृ० ८५।
⋙ हजारहा
वि० [फा़० हजारहा] १. हजारों। सहस्त्रों। २. बहुत से।
⋙ हजारा
वि० [फा़० हजा़रह्] (फूल) जिसमें हजार या बहुत अधिक पंखड़िया हों। सहस्रदल। जैसे—हजारा गेँदा।
⋙ हजारा
संज्ञा पुं० १. फुहारा। फौवारा। २. एक प्रकार की आतिश- बाजी। ३. पौधों में पानी देने का एक प्रकार का पात्र जिसमें फौवारा लगा होता है। उ०—शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गए, वह बागीचे में दौड़ दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी।—काया०, पृ०,७२।
⋙ हजारी (१)
संज्ञा पुं० [फा़० हजारी] १. एक हजार सिपाहियों का सरदार। वह सरदार या नायक जिसके अधीन एक हजार फौज हो। यौ०—पंचहजारी। दसहजारी। विशेष—इस प्रकार के पद अकबर ने सरदारों और राजाओं, महाराजाओं को दे रखे थे। यौ०—हजारी बजारी = सरदारों से लेकर बनियों तक सब। अमीर गरीब सब। सर्वसाधारण। २. हजार सिपाहियों का दल (को०)। ३. एक पद या ओहदा जो शाही सल्तनत में प्रचलित था। ४. व्यभिचारिणी का पुत्र। दोगला। वर्णसंकर।
⋙ हजारी (२)
वि० हजार की संख्या से संबंधित [को०]।
⋙ हजारोँ
वि० [फा़० हजार + ओँ (प्रत्य०)] १. सहस्त्रों। २. बहुत से। अनेक। न जाने कितने। जैसे,—तुम्हारे ऐसे हजारों आते हैं। मुहा०—हजारों घड़े पानी पड़ जाना = बहुत लज्जित होना। हजारों में = (१) बहुत से लोगों के बीच में। जैसे,—वह हजारों में एक है। (२) खुले रूप से। हजारों के समक्ष। खुल्लम खुल्ला । जैसे,—मैं हजारों में कहूँगा, मुझे डर किसका।
⋙ हजूम
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'हुजुम' [को०]।
⋙ हजूर (२)
संज्ञा पुं० [अ० हुजूर] दे० 'हुजूर'।
⋙ हजूर (३)
वि० [अ०] त्रस्त। भयभीत। डरा हुआ या डरनेवाला [को०]।
⋙ हजूरा पु
अव्य० [अ० हुजूर] हुजूर में। समीप या पार्श्व में। उ०— (क) चौवा चंदन कर्पूरा। कस्तुरी अग्र हजूरा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १२८। (ख) भक्त होय सतगुर का पूरा। रहै पुरुष के नित्त हजुरा—कबीर सा०, पृ० ८२०।
⋙ हजुरी (१)
संज्ञा पुं० [अ० हुजूर] [स्त्री० हजूरी] किसी बादशाह या राजा के सदा पास रहनेवाला सेवक। चाकर। दास। उ०—सचु जोग प्रानपति पूरी। नानक जीगी भया हजूरी।—प्राण०, पृ० २७८।
⋙ हजूरी (२)
संज्ञा स्त्री० सेवा। उपस्थिति। उ०—सदा हजूरी सतगुर चरणी। संत टहल सतगुर की शरणी।—प्राण०, पृ० ९२।
⋙ हजूल
वि० [अ०] कुलटा। व्यभिचारिणी [को०]।
⋙ हजो
संज्ञा स्त्री० [अ० हज्व] १. निंदा। बुराई। अपकीर्ति। बदनामी। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. वह कविता जो किसी के प्रति निंदा, अपकीर्ति या व्यंग्योक्ति- परक हो।
⋙ हज्ज (१)
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'हज (१)'। उ०—खालिक खलक खलक में खालिक, ऐसा अजब जहूरा है। हाजी हज्ज हज्ज में हाजी, हाजिर हाल हजूरा है।—पलटू०, भा० ३, पृ० ८०।
⋙ हज्ज (२)
संज्ञा पुं० [अ० हज्ज] दे० 'हज (२)'।
⋙ हज्जाम
संज्ञा पुं० [अ०] १. हजामत बनानेवाला। सिर और दाढ़ी के बाल मूँड़ने या काटनेवाला। नाई। नापित। उ०—मैं इस हकीर हज्जाम के मुँह से निकले शब्दों की सचाई तसलीम करता हूँ।—पीतल०, पृ० ३६०। २. सिंगी लगानेवाला जर्राह। पछना लगानेवाला व्यक्ति (को०)।
⋙ हज्जामी
संज्ञा स्त्री० [अ० हज्जाम + ई (प्रत्य०)] हज्जाम का काम या पेशा।
⋙ हज्जार पु
वि० [फा़० हजार] सहस्त्र। हजार। उ०—गैयर दए पचास सँग, हय दिय जुग हज्जार। सब परिगह के सँग पठय, कनक सिघ सरदार।—प० रासो, पृ० ३८।
⋙ हज्म
संज्ञा पुं० [अ० हज्म] दे० 'हजम' (२). [को०]।
⋙ हट
संज्ञा स्त्री० [सं० हठ] दे० 'हठ'।
⋙ हटक
संज्ञा स्त्री० [हिं० हटकना] १. वारणा। वर्जन। मुहा०—हटक मानना = मना करने पर किसी काम से रुकना। निषेध का पालन करना। उ०—बंसी धुनि मृदु कान परत ही गुरुजन हटक न मानति।—सूर (शब्द०)। २. गायों को हाँकने की क्रिया या भाव।
⋙ हटकन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हटकना] १. वारणा। वर्जन। मना करना। २. चौपायों को फेरने का काम। हाँकना। ३. चौपयों को हाँकने की छड़ी या पैना।
⋙ हटकना (१)
क्रि०, स० [हि० हट (=दूर होना) + करना] १. मना करना। निषेध करना। वर्जन करना। किसी काम से हटाना या रोकना। उ०—(क) तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु, बल रोष हमारा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जुरी आय सिदरीं जमुना तट हटक्यो कोउ न मान्यो।—सूर (शब्द०)। २. चौपायों को किसी ओर जाने से रोककर दूसरी ओर फेरना। रोककर दूसरी तरफ हाँकना। उ०—(क) पायँ परि बिनती करौ हौं हटकि लावौ गाय।—सूर (शब्द०)। (ख) माधव जू ! नेकु हटकौ गाय।—सूर (शब्द०)। मुहा०—हटकि = (१) हठात्। जबरदस्ती। (२) बिना कारण।
⋙ हटकना (२)
क्रि० अ० रुकना। हिचकिचाना।
⋙ हटका †
संज्ञा पुं० [हिं०हटकना (=रोकना)] १. किवाड़ों को खुलने से रोकने के लिये लगाया हुआ काठ। किल्ली। अर्गल। ब्योँड़ा।२. प्रतिबंध। रोक। निवारण। उ०—ना थिर रहहि न हटका मानै, पलक पलक उठि धौना।—जग० श०, भा०२, पृ० ९५।
⋙ हटतार (१)
संज्ञा पुं० [सं० हरिताल] एक खनिज पदार्थ जिसमें संखिया और गंधक मिला रहता है। विशेष दे० 'हरताल'।
⋙ हटतार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हठतार ?] १. माला का सूत। उ०—प्रीत प्रीत हटतार तै नेह जु सरसै आइ। हिय तामैं कौं रसिक निधि बेधि तुरत ही जाइ।—(शब्द०)। २. हठपुर्वक देखने का तार या सिलसिला। टकटकी। उ०—वह रुप की रासि लखी तब तेँ सखी आँखिन कैँ हटतार भई।—घनानंद, पृ० ५०।
⋙ हटतार पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० हट्ट + ताल] असंतोष व्यक्त करने के लिये या भय के कारण बाजार बंद करना। दूकानों में ताला लगा देना। उ०—तीन दिवस अजमेर में परी हट्ट हटतार।—पृ० रा०, ५।८८।
⋙ हटताल
संज्ञा स्त्री० [सं० हट्ट (=बाजार) + ताल (=ताला)] किसी कर या महसूल से अथवा और किसी बात से असंतोष प्रकट करने के लिये दूकानदारों का दूकान बंद कर देना अथवा काम करनेवालों का काम बंद कर देना। हड़ताल। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हटना (१)
क्रि० अ० [सं० घट्टन] १. किसी स्थान को त्यागकर दूसरे स्थान पर हो जाना। एक जगह से दूसरी जगह पर जा रहना। खिसकना। सरकना। टलना। जैसे,—(क) थोड़ा पीछे हटो। (ख) जरा हटकर बैठो। (ग) उन्होंने बहुत जोर लगाया, पर पत्थर अपनी जगह से न हटा। संयो० क्रि०—हटना बढ़ना = ठीक स्थान से कुछ इधर उधर होना या सरकना। २. पीछे की ओर धीरे धीरे जाना। पीछे सरकना। पश्चात्पद होना। जैसे,—भालों की मार से सेना हटने लगी। ३. विमुख होना। जी चुराना। करने से भागना। जैसे, मैं काम से नहीं हटता। मुहा०—(किसी बात से) पीछे न हटना = मुँह न मोड़ना। विमुख न होना। तत्पर या प्रस्तुत रहना। कोई काम करने को तैयार रहना। जैसे,—जो बात मैं कह चुका हूँ, उससे पीछे न हटूँगा। ४. सामने से दूर होना। सामने से चला जाना। जैसे,—हमारे सामने से हट जाओ, नहीं तो मार खाओगे। मुहा०—हटकर सड़ = चल। दूर हो। (अत्यंत अवज्ञा का सुचक) ५. किसी बात का नियत समय पर न होकर और आगे किसी समय होना। टलना। जैसे,—विवाह की तिथि अब हट गई। ६. न रह जाना। दूर होना। मिटना या शांत होना। जैसे,— आपदा हटना, संकट हटना, सूजन हटना। ७. व्रत, प्रतिज्ञा आदि से विचलित होना। बात पर दृढ़ न रहना। ८. किसी ओहदा, पद, अधिकार आदि से अलग हो जाना। पद का त्याग करना। जैसे,—अस्वस्थता के कारण वे मंत्री के पद से हट गए।
⋙ हटना पु † (२)
क्रि० स० [हिं० हटकना] मना करना। निषेध करना। वारण करना। वर्जित करना। रोकना। उ०—देत दुःख बार बार कोऊ नहिं हटत।—सूर (शब्द०)।
⋙ हटनी उड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हटना + उड़ना] मालखंभ की एक कसरत जिसमें पीठ के बल होकर ऊपर जाते हैं।
⋙ हटपर्णि, हटपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शैवाल। सेवार [को०]।
⋙ हटबया †
संज्ञा पुं० [हिं० हाट + बया] [स्त्री० हटबई] हाट या बाजार में बैठकर सौदा बेचनेवाला। दूकानदार। विक्रेता।
⋙ हटरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्थि, हड्डं, प्रा० अटि्ठ, हडि्डः सं० हट्ट + अप० ड़ी (प्रत्य०)] १. दे० 'ठठरी'। २. दे० 'हाट' या 'हट्टी'। उ०—हटरी छोड़ि चला बनिजारा। इस हटरी बिच मानिक मोती, कोई बिरला परखनहारा।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ८।
⋙ हटवा
संज्ञा पुं० [हिं० हाट] वह जो हाट पर बैठकर सौदा बेचता हो। हाटवाला। दूकानदार। उ०—जैसे हाट लगावे, हटवा सौदा बिन पछतावोगे।—कबीर श०, भा० १, पृ० २१।
⋙ हटवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाट + वाई (प्रत्य०)] सौदा लेता या बेचना। क्रय विक्रय। खरीद फरोख्त। उ०—साधो ?/? करौ हटवाई हाट उठि जाई।—कबीर (शब्द०)।
⋙ हटवाड़ा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हटवा + ड़ा (प्रत्य०) या हटवार] १. दे० 'हटवार'। २. पण्ययीथिका। बाजार। विपणि। उ०— जग हटवाड़ा स्वाद ठग, माया बसाँ लाइ। रामचरन नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२।
⋙ हटवाना
क्रि० स० [हिं० हटाना का प्रेरणा०] हटाने का काम दूसरे कराना। हटाने में प्रवृत्त करना। दूसरे से स्थानांतरित करना।
⋙ हटवानी †
संज्ञा पुं० [हिं० हट (=हाट) + वानी (प्रत्य०)] दे० 'हटवार'। उ०—घर घर दर दर दिए कपाट। हटवानी नहि बैठें हाट।—अर्ध०, पृ० २४।
⋙ हटवार पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हाट + वारा (वाला)] बाजारा में बैठकर सौदा बेचनेवाला। दूकानदार।
⋙ हटवार (२)
वि० [हिं० हटना] स्थनांतरित करनेवाला। हटाने का काम करनेवाला। हटानेवाला।
⋙ हटवैया †
वि० [हिं० हटाना + वैया] दे० 'हटवार' (२)।
⋙ हटा
संज्ञा पुं० [हिं० हटकना, हटका] वारण। वर्जन। निषेध। उ०—कोउ काहु को हटा न माना। झूठा खसम कबीर न जाना।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० ७३।
⋙ हटाना
क्रि० स० [हिं० हटना का सक० रूप] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर करना। एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाना। सरकाना। खिसकाना। किसी ओर चलाना या बढ़ाना। जैसे,—चौकी बाईं ओर हटा दो। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. किसी स्थान पर न रहने देना। दूर करना। जैसे,—(क) चारपाई इस कोठरी में से हटा दो। (ख) इस आदमी को यहाँ से हटा दो। ३. आक्रमण द्रारा भगाना। स्थान छोड़ने पर विवश करना। जैसे,—थोड़े से वीरों ने शत्रु की सारी सेना हटा दी। ४. किसी काम का करना या किसी बात का बिचार या प्रसंग छोड़ना। जाने देना। जैसे,—(क) खतम करकेहटाओ, कब तक यह काम लिए बैठे रहोगे। (ख) बखेड़ा हटाओ। ५. किसी को नौकरी या पद से अलग करना। बखस्ति करना। पदमुक्त करना। ६. किसी व्रत, प्रतिज्ञा आदि से विचलित करना। बात पर दृढ़ न रहने देना। डिगाना।
⋙ हटुई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाट] दूकानदारी।
⋙ हटुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० हाट + उवा (प्रत्य०)] १. दूकानदार। २. दूकान पर सौदा या अनाज तौलनेवाला। बया।
⋙ हटैत
संज्ञा पुं० [हिं० हाट] १. दूकानदार। हाटवाला। २. सामान। माल। सौदा।
⋙ हटौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाड़ + औती (प्रत्य०)] देह की गठन। शरीर का ढाँचा। जैसे,—उसकी हटौती बहुत अच्छी है।
⋙ हट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजार। हाट। २. दूकान। यौ०—चौहट्ट = बाजार का चौक। हट्टचौरक। हट्टवाहिनी = जल के निकास के लिये बाजार में बनी हुई नाली। हट्ट- विलासिनी। हट्टवेश्माली = बाजार में दूकानों की कतार।
⋙ हट्टचौरक
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार में घूमकर चोरी करने या माल उचकनेवाला। चाईं। गिरहकट।
⋙ हट्टविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वारवधू। वारांगना। वेश्या। २. नख नाम का एक प्रसिद्ध गंध द्रव्य। विशेष दे० 'नख'—२। ३. हरिद्रा। हल्दी [को०]।
⋙ हट्टाकट्टा
वि० [सं० हृष्ट + काष्ठ] [वि० स्त्री० हट्टीकट्टी] हृष्ट- पुष्ट। मोटाताजा। मजबूत। दृढ़ांग। मुहा०—हट्टेकट्टे आना = हृष्टपुष्ट होकर वापस आना। उ०—हजारों आदमी नीचे से वहाँ जाते हैं और खासे हट्टे- कट्टे आते हैं।—सैर०, पृ० १६।
⋙ हट्टाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार का निरीक्षण करनेवाला। अधिकारी [को०]।
⋙ हट्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी हाट। चीजों के बिकने की जगह। दूकान। (पश्चिम)।
⋙ हठ
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं०] [वि० हठी, हठीला] १. किसी बात के लिये अड़ना। किसी बात पर जम जाना कि ऐसा हो हो। टेक। जिद। दुराग्रह। जैसे,—(क) नाक कटी, पक हठ न हटी। (ख) तुम तो हर बात के लिये हठ करने लगते हो। (ग) बच्चों का हठ ही तो है। उ०—जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुख पाउब परिनामा।—मानस, २। ६२। यौ०—हठधर्म। हठधर्मी। मुहा०—'हठ पकड़ना = किसी बात के लिये अड़ जाना। जिद करना। दुराग्रह करना। हठ रखना = जिस बात के लिये कोई अड़े, उसे पूरा करना। हठ में पड़ना = हठ करना। उ०—मन हठ परा न मान सिखावा।—तुलसी (शब्द०)। हठ बाँधना = हठ पकड़ना। हठ माँड़ना = हठ ठानना। उ०—क्यों हठ माँड़ि रही री सजनी! टेरत श्याम सुजान।—सूर (शब्द०)। २. दृढ़ प्रतिज्ञा। अटल संकल्प। दृढ़तापूर्वक किसी बात का ग्रहण। उ०—(क) जो हठ राखै धर्म की तेहि राखै करतार। (ख) तिरिया तेल, हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार। (शब्द०)। मुहा०—हठ करना = दे० 'हठ ठानना'। उ०—जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्हें दुख, पाउब परिनामा।—मानस, २।६२। हठ ठानना = दृढ़ प्रतिज्ञा या अटल संकल्प करना। उ०—अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहि कछु लाभ न हानी।—मानस, १। २५८। ३. बलात्कार। जबरदस्ती। ४. शत्रु पर पीछे से आक्रमण। ५. अवश्य होने की क्रिया या भाव। अवश्यंभाविता। अनि- वार्यता। ६. आकाशमूली। जलकुंभी (को०)। ७. अचिंतित या अतर्कित की प्राप्ति। आकस्मिक लाभ (को०)। ८. शक्तिमत्ता। प्रचंडता। बल (को०)।
⋙ हठकर्म
संज्ञा पुं० [सं० हठकर्मन्] हठपूर्वक किया हुआ काम। शक्ति- प्रयोग का कार्य [को०]।
⋙ हंठकामुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह कामुक जो कामतुष्टि के लिये किसी स्त्री पर बलप्रयोग करे [को०]।
⋙ हठजोग
संज्ञा पुं० [सं० हठयोग] दे० 'हठयोग'। उ०—एक भक्ति मैं जानौ और झूठ सब बात। और झूठ सब बात करै हठजोग अनारी। ब्रह्म दोष वो लेय कया को राखै जारी।—पलटू०, भा० १, पृ० २६।
⋙ हठता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हठ करने का भाव।
⋙ हठतारा †
संज्ञा पुं० [हिं० हठतार] दे० 'हड़ताल'। उ०—नाठो धरम नाम सुनि मेरो, नरक कियो हठतारो। मो को ठौर नहीँ अब कोऊ अपनो बिरद सम्हारो।—संतवाणी०, पृ० ६५।
⋙ हठधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] अपने मत पर उचित अनुचित या सत्य असत्य का विचार छोड़कर जमा रहना। दुराग्रह। कट्टरपन।
⋙ हठधरमी †
संज्ञा स्त्री० [सं० हठ + हिं० धरमी] दे० 'हठधर्मी'। उ०— तौभी उनकी जातीय हठधरमी और विलास लालसा ने।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६१।
⋙ हठधर्मिता
संज्ञा स्त्री० [हिं० हठधर्मी] हठधर्मी होने का भाव। संकी- र्णता। कट्टरपन।
⋙ हठधर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं० हठ + धर्म + ई (प्रत्य०)] १. सत्य असत्य, उचित अनुचित का विचार छोड़कर अपनी बात पर जमे रहना। दूसरे की बात जरा भी न मानना। दुराग्रह। २. अपने मत या संप्रदाय की बात लेकर अड़ने की क्रिया या प्रवृत्ति। विचारों की संकीर्णता। कट्टरपन। जैसे,—यह मुसलमानों की हठधर्मी है कि वे व्यर्थ छेड़छाड़ करते हैं।
⋙ हठना पु
क्रि० अ० [हिं० हठ + ना (प्रत्य०)] १. हठ करना। जिद पकड़ना। दुराग्रह करना। उ०—(क) बरज्यो नेकु न मानत क्योंहूँ सखि ये नैन हठे।—सूर (शब्द०)। (ख) जो पै तुम या भाँति हठैहो।—सूर (शब्द०)। (ग) सुन बेमूढ़ अगूढ़ बातें करे, हठा है काल तोहि काटि डारे।—संत० दरिया, पृ० ७९। मुहा०—हठकर = बलात्। जबरदस्ती। किसी का कहना न मानकर। उ०—सुनि हठि चला महा अभिमानी।—तुलसी (शब्द०)। २. प्रतिज्ञा करना। दृढ़ संकल्प करना।
⋙ हठपर्णि, हठपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुस्तक मोथा। नागरमोथा २. शैवाल। सेवार [को०]।
⋙ हठयोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह योग जिसमें चित्तवृत्ति हठात् बाह्म विषयों से हटाकर अंतर्मुख की जाती है और जिसमें शरीर को साधने के लिये बड़ी कठिन कठिन मुद्राओं और आसनों आदि का विधान है। विशेष—नेती, धौती आदि क्रियाएँ इसी योग के अंतर्गत हैं। कायव्यूह का भी इसमें विशेष विस्तार किया गया है और शरीर के भीतर कुंडलिनी, अनेक प्रकार के चक्र तथा मणिपूर आदि स्थान माने गए हैं। स्वात्माराम की 'हठप्रदीपिका' इसका प्रधान ग्रंथ माना जाता है। मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ इस योग के मुख्य आचार्य हो गए है। गोरखनाथ ने एक पंथ भी चलाया है जिसके अनुयायी कनफटे कहलाते हैं। पतंजलि के योग के दार्शनिक अंश को छोड़कर उसकी साधना के अंश को लेकर जो विस्तार किया गया है, वही हठयोग है।
⋙ हठयोगी
संज्ञा पुं० [सं० हठयोगिन्] वह साधक जो हठयोग की साधना करता हो।
⋙ हठरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाट + री (स्वा० प्रत्य०)] हाट। बाजार। उ०—तुव महलनकी सुरति करन हित हठरी रुचिर बनाई, तुव मुख चंद्र प्रकाश लख न हित दीपावली सुहाई।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८६।
⋙ हठवाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हठधर्म'।
⋙ हठवादिता
संज्ञा स्त्री० [सं० हठवादी + ता (प्रत्य)] हठवादी होने का भाव। कट्टरता।
⋙ हठवादी
वि० [सं० हठवादिन्] १. हिंसक। २. हठवाद करनेवाला। संकीर्ण विचारोंवाला।
⋙ हठविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] हठयोग।
⋙ हठशील
वि० [सं०] हठ करनेवाला। हठी। जिद्दी।
⋙ हठसील पु
वि० [सं० हठशील] हठी। जिद्दी। उ०—यह न कहिय सठहीं हठसीलहिं। जो मन लाई न सुन हरिलीलहिं।— मानस, ७।१२८।
⋙ हठात्
अत्य० [सं०] १. हठपूर्वक। दुराग्रह के साथ। लोगों के मना करने पर भी। २. जबरदस्ती से। बलात्। ३. अवश्य। निश्चय। जरूर।
⋙ हठात्कार
संज्ञा पुं० [सं०] बलात्कार। जबरदस्ती।
⋙ हठादेशी
वि० [सं० हठादेशिन्] किसी के प्रति हठ का आदेशक। जो किसी के प्रति बल या शक्ति का प्रयोग करने का आदेश आज्ञप्त करता हो।
⋙ हठायात
वि० [सं०] अपरिहार्य। अनिवार्य [को०]।
⋙ हठालू पु
वि० [सं० हठ + आलु (प्रत्य०)] हठीला। हठी। उ०— पीथल कान्हड़ दे पतौ, गोग हमीर हठाल। साकौ कर पहुँतौ सरग अचलौ ऐ उजबाल।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ८२।
⋙ हठालु पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंभिका। जलकुंभी [को०]।
⋙ हठाश्लेष
संज्ञा स्त्री० [सं०] बलपूर्वक या हठात् आलिंगन करना।
⋙ हठिक
वि० [सं०] अतर्कित। आकस्मिक [को०]।
⋙ हठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोलाहल। शोर। हल्ला गुल्ला।
⋙ हठिल पु
वि० [सं० हठ + हिं० इला (प्रत्य०)] हठ करनेवाला। जिद्दी। हठीला। उ०—जब हम रहली हठिल दिवानी, तब पिय मुखहु न बोले।—कबीर श०, भा० १, पृ० २६।
⋙ हठी
वि० [सं० हठिन्] हठ करनेवाला। अपनी बात पर अड़नेवाला। जिद्दी। टेकी। उ०—हठी तपी केते बनवासी।— प्राण०, पृ० २१९।
⋙ हठील पु
वि० [सं० हठ + हिं० ईला (प्रत्य०)] हठी। हठयुक्त। हठीला। उ०—पंडित पूत अपाठ असत ह्वै जग में आदर। हयगति होय हठील मोल के समै बेआदर।—राम० धर्म०, पृ० १७५।
⋙ हठीला
वि० [सं० हठ + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० हठीली] १. हठ करनेवाला। हठी। जिद्दी। उ०—तू अजहूँ तजि मान हठीली कहौं तोहि सनुझाय।—सूर (शब्द०)। २. दृढ़प्रतिज्ञ। बात का पक्का। अपने संकल्प या वचन को पूरा करनेवाला। ३. लड़ाई में जमा रहनेवाला। धोर। उ०—ऐसो तोहि न बूझिए हनुमान हठीले।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हड़
संज्ञा स्त्री० [सं० हरीतकी] १. बड़ा पेड़ जिसके पत्ते महुए के से चौड़े चौड़े होते है और शिशिर में झड़ जाते हैं। विशेष—यह उत्तर भारत, मध्य प्रदेश, बंगाल और मद्रास के जंगलों में पाया जाता है। इसकी लकड़ी बहुत चिकनी, साफ, मजबूत और भूरे रंग की होती है जो इमारत में लगाने और खेती तथा सजावट के सामान बनाने के काम में आती है। इसका फल व्यापार की एक बड़ी प्रसिद्ध वस्तु है और अत्यंत प्राचीन काल से औषध के रूप में काम में लाया जाता है। वैद्यक में हड़ के बहुत अधिक गुण लिखे गए हैं। हड़ भेदक और कोष्ठ शुद्ध करनेवाली औषधों में प्रधान है और संकोचक होने पर भी पाचक चूर्णों में इसका योग रहा करता है। हड़ की कई जातियाँ होती हैं जिनसें से दो सर्वसाधारण में प्रसिद्ध हैं—छोटी हड़ और बड़ी हड़ या हर्रा। छोटी 'जोंगी हड़' कहलाती है। वैद्यक में हड़ शीतल, कसैली, मूत्र लानेवाली और रेचक मानी जाती है। पाचक, चूर्ण आदि में छोटी हड़ का ही अधिकतर व्यवहार होता है। त्रिफला में बड़ी हड़ (हर्रा) ली जाती है। बड़ी हड़ का व्यवहार चमड़ा सिझाने, कपड़ा रँगने आदि में बहुत अधिक होता है। हड़ में कसाव- सार बहुत अधिक होता है, इससे यह संकोचक होती है। वैद्यक में हड़ सात प्रकार की कही गई है—विजया, रोहिणी, पूतना, अमृता, अभया, जीवंती और चेतकी। २. एक प्रकार का गहना जो हड़ के आकार का होता है और नाक में पहना जाता है। लटकन।
⋙ हड़कंप
संज्ञा पुं० [देश० या धनुध्व०] भारी हलचल या उथल पुथल। तहलका। जैसे,—शत्रु की सेना के पहुँचते ही किले में हड़कंप मच गया। क्रि० प्र०—मचना।—होना।
⋙ हड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. पागल कुत्ते काटने पर पानी के लिये गहरी आकुलता। क्रि० प्र०—उठना।—होना। २. किसी वस्तु को पाने की गहरी झक। पागल करनेवाली चाह। उत्कट इच्छा। रट। धुन। जैसे,—तुम्हें तो उस किताब की हड़क सी लग गई है। क्रि० प्र०—लगना।—होना।
⋙ हड़कत
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाड़] दे० 'हड़जोड़'।
⋙ हड़कना
क्रि० अ० [हिं० हड़क] किसी वस्तु के अभाव से दुःखी होना। तरसना।
⋙ हड़का (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] हड़कने का भाव। उ०—एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया।—गुलेरी जी०, पृ० ४७।
⋙ हड़का (२)
वि० बावुला। पागल। दे० 'हड़काया'।
⋙ हड़काना
क्रि० स० [देश०] १. आक्रमण करने, घेरने, तंग करने आदि के लिये पीछे लगा देना। लहकारना। पीछे छोड़ना। २. कीसी वस्तु के अभाव का दुःख देना। तरसाना। जैसे—क्यों बच्चे को जरा जरा सी चीज के लिये हड़काते हो। ३. उत्साह को दबा देना। हतोत्साह करना। ४. कोई वस्तु माँगनेवाले को न देकर भगा देना। नाहीं करके हटा देना। उ०—हड़काया भला, परकाया नहीं भला। (कहा०)।
⋙ हड़काया
वि० [हिं० हड़काना] [वि० स्त्री० हड़काई] १. पागल। बावला। (कुत्ते के लिये) जैसे—हड़काई कुतिया। २. किसी वस्तु के लिये उतावला। घबराया हुआ।
⋙ हड़गिल्ल
संज्ञा पुं० [हिं० हाड़] एक पक्षी। दे० 'हड़गीला'। उ०—गिद्ध, गरुड़, हड़गिल्ल भजत लखि निकट भयद रव।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९८।
⋙ हड़गीला
संज्ञा पुं० [हिं० हाड़ + गिलना] एक चिड़िया का नाम। बगले की जाति का एक पक्षी जिसकी टाँगें और चोंच बहुत लंबी होती हैं। दस्ता। विशेष दे० 'चनियारी'।
⋙ हड़गोड़
संज्ञा पुं० [हिं० हाड़ + जोड़ना] एक प्रकार की लता। वज्रांगी। विशेष—यह भीतरी चोट के स्थान पर लगाई जाती है। इसमें थीड़ी थोड़ी दूर पर गाँठें, होती हैं। कहते हैं इससे टूटी हुई हड्डी भी जुड़ जाती है।
⋙ हड़ताल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हट्ट (= दूकान या बाजार) + ताला] किसी कर या महसूल से अथवा और किसी बात से असंतोष प्रकट करने के लिये दूकानदारों का दूकान का बंद कर देना या काम करनेवालों का काम बंद कर देना। हटतार। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हड़ताल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिताल] एक खनिज पदार्थ। विशेष दे० 'हरताल'।
⋙ हड़ना (१)
कि० अ० [हिं० धड़ा] तौल में जाँचा जाना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ हड़ना (२)
क्रि० अ० [सं० हण्डन, हिण्डन] भटकना। उ०—बाहर निकलता है होर हड़ता फिरता है।—दक्खिनी०, पृ० ४३९।
⋙ हड़प
वि० [अनु०] १. पेट में डाला हुआ। निगला हुआ। २. गायब किया हुआ। अनुचित रीति से ले लिया हुआ। उड़ाया हुआ। मुहा०—हड़प करना = गायब करना। बेईमानी से ले लेना। अनुचित रीति से अधिकार कर लेना। जैसे—दूसरे का रुपया इसी तरह हड़प कर लोगे।
⋙ हड़पना
क्रि० स० [अनु० हड़प] १. मुँह में डाल लेना। खा जाना। २. दूसरे की वस्तु अनुचित रीति से ले लेना। गायब करना। उड़ा लेना। जैसे,—दूसरे का माल या रुपया हड़पना।
⋙ हड़प्पा
संज्ञा पुं० [देश०] एक अत्यंत प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थान जो पाकिस्तान में है।
⋙ हड़फुटनी †, हड़फूटन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाड़ + फूटना] १. शरीर के भीतर का वह दर्द जो हडि्डयों के भीतर तक जान पड़े। हडि्डयों की पीड़ा। वह रोग जिसमें मज्जा और हड्डी में वायु का कोप हो।—माधव०, पृ० १३६। २. वह अजीर्ण जिसमें अफरा, हड़फूटन कुछ न हो। यह पाँचवाँ अजीर्ण माना जाता है।—माधव०, पृ० ६४।
⋙ हड़फूटनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हड़फूटन] चमगादड़। विशेष—लोग चमगादर की हड्डी की गुरिया पैर के दर्द में पहनते हैं। अतः चमगादड़ का यह नाम पड़ा है।
⋙ हड़फोड़
संज्ञा पुं० [हिं० हाड़ + फोड़ना] एक प्रकार की चिड़िया।
⋙ हड़बड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] उतावलेपन की मुद्रा। जल्दबाजी प्रकट करनेवाली गतिविधि। मुहा०—हड़बड़ करना = जल्दी मचाना। जल्दबाजी करना।
⋙ हड़बड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] जल्दी करना। उतावलापन करना। शीघ्रता के कारण कोई काम घबराहट से करना। आतुर होना। जैसे—अभी हड़बड़ाओ मत, गाड़ी आने में देर है। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ हड़बड़ाना (२)
क्रि० स० किसी को जल्दी करने के लिये कहना। जैसे,—तुम जाकर हड़बड़ाओगे तब वह घर से चलेगा। संयो० क्रि०—देना।
⋙ हड़बड़िया
वि० [हिं० हड़बड़ी + इया (प्रत्य०)] हड़बड़ी करनेवाला। जल्दी मचानेवाला। जल्दबाज। उतावला। आतुरता प्रकट करनेवाला।
⋙ हड़बड़ी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. जल्दी। उतावली। शीघ्रता। २. शीघ्रता के कारण आतुरता। जल्दी के कारण घबराहट। जैसे,—हड़बड़ी में काम ठीक नहीं होता है। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—लगना।—होना। मुहा०—हड़बड़ी में पड़ना = ऐसी स्थिति में पड़ना जिसमें काम बहुत जल्दी जल्दी करना पड़े। उतावली की दशा में होना।
⋙ हड़बोँग
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हरबोँग'। उ०—एक हड़बोँग का आलम है। दाब व आदाब बालाए ताक, कहकहे पर कहकहा पड़ रहा है। फिसाना०, भा० ३, पृ० ४७।
⋙ हड़हड़ना पु
क्रि० अ० [अनु०] घबराहट या प्रसन्नता के कारण जोरों से आवाज करना। ध्वनि करना। चिल्लाना। उ०—(क) चहुँवान राव हड़हड़ हँस्यौ, हेरि सैन इम उच्चर्यौ। ह० रासो, पृ० ७२। (ख) जहाँ, कड़कड़ै वीर गजराज हय—हड़हड़ै, धड़हड़ै धरनि ब्रह्मंड गाजै।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८८२।
⋙ हड़हड़ाना
क्रि० स० [अनु०] जल्दी करने के लिये उकसाना। शीघ्रता करने की प्रेरणा करना। जल्दी मचाकर दूसरे को घबराना। जैसे—वह क्यों न चलेगा, जब जाकर हड़हड़ाओगे तब उठेगा।
⋙ हड़हा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] जंगली बैल।
⋙ हड़हा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हाड़] वह जिसने किसी के पुरखे की हत्या की हो।
⋙ हड़हा (३)
वि० [हिं० हाड़] [वि० स्त्री० हड़ही] १. अस्थि संबंधी। हड्डी संबंधी। २. जिसकी देह में हडि्डयाँ ही रह गई हों। बहुत दुबला पतला।
⋙ हड़ा
संज्ञा पुं० [अनु०] १. चिड़ियों को उड़ाने का शब्द जो खेत के रखवाले करते हैं। मुहा०—हड़ा हड़ा करना = बोलकर चिड़िया उड़ाना। २. पथरकला बंदूक।
⋙ हड़ावर, हड़वारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाड़ + सं० अवलि] १. ठठरी। दे० 'हड़ावल'—२। उ०—राम सरासन तें चल तीर, रहे न शरीर हड़ावरि फूटी।—तुलसी (शब्द०)। २. हडि्डयों की माला। हड़ावल। उ०—काथरि कया हड़ावरि बाँधे। मुंडमाल और हत्या काँधे।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हड़ावल
संज्ञा स्त्री० [हिं० हा़ड़ + सं० अवलि] १. हड्डियों की पंक्ति या समूह। २. हड्डियों का ढाँचा। ठटरी। ३. हडि्डयों की माला।
⋙ हड़ि
संज्ञा पुं० [सं० हडि] १. प्राचीन काल की काठ की बेड़ी जो पैर में डाल दी जाती थी। २. एक जाति। हडिक।
⋙ हडिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति जिसका पेशा झाड़ू लगाना तथा मल उठाना आदि है [को०]।
⋙ हड़ीला
वि० [हिं० हाड़ + ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें हड्डी हो। २. जिसकी देह में केवल हडि्डयाँ रह गई हों। बहुत दुबला पतला।
⋙ हड़ वा
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रा] एक प्रकार की हल्दी जो कटक में होती है।
⋙ हड्ड
संज्ञा पुं० [सं०] अस्थि। हड्डी [को०]।
⋙ हड्डक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति। दे० 'हडिक' [को०]।
⋙ हड्डज
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा। मेद। वसा [को०]।
⋙ हड्डा
संज्ञा पुं० [सं० इडाचिका] पतंग जाति का एक कीट जो मधु- मक्खियों के समान छत्ता बनाकर अंडे देता है। भिड़। बर्रे। ततैया।
⋙ हडि्ड, हडि्डक, हडि्डप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हडिक'।
⋙ हड्डी
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्थि, प्रा० अत्थि,] अट्ठि (संस्कृत कोशों का 'हड्ड' शब्द देशभाषा से ही लिया जान पड़ता है; हेमचंद्र ने भी इसे देशी कहा है।) शरीर की तीन प्रकार की वस्तुओं—कठोर, कोमल और द्रव—में से कठोर वस्तु जो भीतर ढाँचे या आधार के रूप में होती है। अस्थि। विशेष—शरीर के ढाँचे या ठठरी में अनेक आकार और प्रकार की हडि्डयाँ होती हैं। यद्यपि ये खंड खंड होती हैं, तथापि एक दूसरी से जुड़ी होती हैं। मनुष्य के शरीर में दो सौ से अधिक हड्डियाँ होती हैं। हड्डियों के खंड खंड जुड़े रहने से अंगों में लचीलापन रहता है जिससे वे बिना किसी कठिनता के अच्छी तरह हिल- डुल सकते हैं। शरीर में हड्डियों के होने से ही हम सीधे खड़े हो सकते हैं। बचपन में हडि्डयाँ मुलायम और लचीली होती हैं; इसी से बच्चेवर्ष सवा वर्ष तक खड़े नहीं हो सकते। युवावस्था आने पर हडि्डयाँ अच्छी तरह दृढ़ और कड़ी हो जाती हैं। बुढ़ापे में वे जीर्ण और कड़ी हो जाती हैं और सहज में टूट सकती हैं। शरीर की और वस्तुओं के समान हड्डी भी एक सजीव वस्तु है; उसमें भी रक्त का संचार होता है। इसमें चूने का अंश कुछ विशेष होता है। किसी हड्डी के टुकड़े को लेकर कुछ देर तक गंधक के तेजाब में रखें तो उसका कड़ापन दूर हो जायगा। मुहा०—हड्डी उखड़ना = हड्डी का जोड़ खुल जाना। हड्डी का जोड़ खुलना = हड्डी उखड़ना। हड्डी गुड्डी तोड़ना = खूब मारना पीटना। बुरी तरह मारना। हड्डी चबाना = कोई वस्तु किसी के पास न होने पर भी उसके लिये परिश्रम करना। निस्सार वस्तु से सार प्राप्त करने का व्यर्थ श्रम करना। हड्डी चूसना = अशक्त होने पर भी व्यक्ति से जबर्दस्ती कुछ लेना या काम कराना। हड्डी टूटना = हड्डी का टूट जाना या फूटना। अस्थिभंग होना। हड्डियाँ गढ़ना या तोड़ना = खूब मारना। खूब पीटना। हड्डियाँ निकल आना = मांस न रहने के कारण हडि्डयाँ दिखाई पड़ना। शरीर बहुत दुबला होना। पुरानी हड्डी = पुराने आदमी का दृढ़ शरीर। पुराने समय का मजबूत आदमी। जैसे,—यह पुरानी हड्डी है, बुढ़ापे में भी तु्म्हें पछाड़ सकते हैं। हड्डी बोलना = दे० 'हड्डी टूटना'। हड्डी से हड्डी बजाना = लड़ाई झगड़ा करना। २. कुल। वंश। खानदान। जैसे,—हड्डी देखकर विवाह करना।
⋙ हड्डीला
वि० [हिं० हड्डी + ईला (प्रत्य०)] जिसमें सिर्फ हडि्डयाँ हों, मांस अत्यल्प हो। हड्डियों से भरा हुआ या युक्त। उ०— झपटकर पहले कुंदन ने दस दस के उन नोटों को अपने हड्डीले चंगुल में बटोर लिया।—शराबी, पृ० ७३।
⋙ हढक्क
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी ढोल [को०]।
⋙ हढावना पु †
क्रि० स० [हिं० उढ़ाना] दे० 'ओढ़ाना'। उ०—मुद्रा पहिरो झोली लेहो, मस्तकि धूरि लगावउ। सदा अजीती काया रहिती खिंथा अंग हढावउ।—प्राण०, पृ० १२४।
⋙ हणवंत †
संज्ञा पुं० [सं० हनुमत् हनुमन्त, प्रा० हनुमंत] दे० 'हनुमान'। उ०—हणबंतहुंकार मचती रहै पकड़िया सोषिया बावन बीरं।—रामानंद०, पृ० ५।
⋙ हणहणना पु †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हिनहिनाना'। उ०—प्रह फूटी, दिसि पुंडरी, हणहणिया हयथट्ट। ढोलइ धण ढंढोलियउ, सीतल सुंदर घट्ट।—ढोला०, दू० ६०२।
⋙ हत (१)
वि० [सं०] १. बध किया हुआ। मारा हुआ। जो मारा गया हो। २. जिसपर आघात किया गया हो। जिसपर चोट लगाई गई हो। पीटा हुआ। ताड़ित। ३. खोया हुआ। गँवाया हुआ। जो न रह गया हो। रहित। विहीन। जैसे,—श्रीहत, हतोत्साह। ४. जिसमें या जिसपर ठोकर लगी हो। जैसे,—हतरेण। ५. नष्ट किया हुआ। ६. तंग किया हुआ । हैरान। ७. पीड़ित। ग्रस्त। ८. स्पर्श किया हुआ। लगा हुआ। जिससे छू गया हो। (ज्योतिष)। ९. गया बीता। निकृष्ट। निकम्मा। १०. गुणा किया हुआ। गुणित। (गणित)। ११. फूटा हुआ या फोड़ा हुआ। जैसे, नेत्र (को०)। १२. जिसे छला गया हो। छला हुआ (को०)। १३. जिसका यत्न व्यर्थ हो गया हो। विफलप्रयास। हताश (को०)।
⋙ हत (२)
संज्ञा पुं० १. वध। हनन। २. गुणा [को०]।
⋙ हत पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हथ्थ] दे० 'हाथ'। उ०—फेरत बन बन गाऊँ धरावत, कहे 'तुकाया' बंधु लकटी ले ले हत।— दक्खिनी०, पृ० ९८।
⋙ हतकंटक
वि० [सं० हतकण्टक] काँटों से रहित। शत्रुविहीन [को०]।
⋙ हतक (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हतक (= फाड़ना)] १. हेठी। बेइज्जती। अप्रतिष्ठा। उ०—अपने प्यार की इस हतक पर गंगा झल्ला उठी।—आधा गाँव, पृ० ११। २. ढिठाई। धृष्टता। बेअदबी। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—हतक इज्जत। हतक इज्जती।
⋙ हतक (२)
वि० [सं०] १. दुःशील। दुर्वृत्त। पापात्मा। उ०—मै जानी ही मिलन तै मिटिहै तन संताप। अब सजनी दूनौ चढयौ हतक मनोजहि दाप।—स० सप्तक, पृ० १४४। २. जिसे चोट पहुँचाई गई हो। ३. दीन दुःखी। दुर्दैवग्रस्त। पीड़ित [को०]।
⋙ हतक (३)
संज्ञा पुं० कायर या नीच, भीरु व्यक्ति [को०]।
⋙ हतकइज्जती
संज्ञा स्त्री० [अ० हतक + इज्जत] अप्रतिष्ठा। मान- हानि। बेइज्जती। जैसे,—उसने उस अखबार पर हतक- इज्जती का दावा किया है।
⋙ हतकिल्विष
वि० [सं०] जिसकी कलुषता दूर हो गई हो। निष्कलुष। पाप से मुक्त [को०]।
⋙ हतचित्त
वि० [सं०] दे० 'हतचेत'।
⋙ हतचेत
वि० [सं० हतचेतस्, हिं० हत + चेत] अचेत। बेहोश। हतज्ञान। उ०—शोक से अति आर्त, अनुज समेत। भरत यों कह हो गए हतचेत।—साकेत, पृ० १९०।
⋙ हतचेतन
वि० [सं०] दे० 'हतचेत'। उ०—बद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत् गति हतचेतन। राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन।—अनामिका, पृ० १६४।
⋙ हतचेता
वि० [सं० हतचेतस्] १. कोई निश्चय न कर पाने से ऊहा- पोह में पड़ा हुआ। घबड़ाया हुआ। व्याकुल। २. दे० 'हतज्ञान'।
⋙ हतच्छाय
वि० [सं०] कांतिहीन। क्षीणप्रभ। धूमिल [को०]।
⋙ हतजल्पित
संज्ञा पुं० [सं०] बेकार की बात। व्यर्थ का वार्तालाप [को०]।
⋙ हतजीवित (१)
वि० [सं०] जो जीवन से निराश हो। हताश।
⋙ हतजीवित (२)
वि० निराश से भरी जिंदगी। २. जीवन से निराश होना। नैराश्य।
⋙ हतज्ञान
वि० [सं०] ज्ञानशून्य। अचेत। बेहोश। संज्ञाशून्य।
⋙ हतताप
वि० [सं०] जिसका ताप दूर हो गया हो। शीतल [को०]।
⋙ हतत्रप
वि० [सं०] निर्लज्ज [को०]।
⋙ हतत्विष्
वि० [सं०] जिसकी दीप्ति या प्रभा समाप्त हो गई हो। हतच्छाय [को०]।
⋙ हतदैव
वि० [सं०] दई का मारा। अभागा।
⋙ हतद्बिष्
वि० [सं०] जिसने शत्रुओं का विनाश किया हो।
⋙ हतधी
वि० [सं०] दे० 'हतचेत', 'हतबुद्धि' [को०]।
⋙ हतध्वांत
वि० [सं०] जिसने अंधकार दूर कर दिया हो। कालुष्य- हीन। कालिमारहित [को०]।
⋙ हतन पु
संज्ञा पुं० [सं० हत + (अन् =) न(प्रत्य०)] बध। हनन। हतन हिए उ०—ताकौं मैं आन्यौ। तब हरि और खेल इक ठान्यौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २८५।
⋙ हतना पु
क्रि० स० [सं० हत + हिं० ना (प्रत्य०)] १. वध करना। मार डालना। उ०—कहाँ राम रन हतौं प्रचारी।—तुलसी (शब्द०)। २. मारना। पीटना। प्रहार करना। ३. अन्यथा करना। पालन न करना। भंग करना। न मानना। उ०— मद्यपान रत, स्तिजित होई। सन्निपात युत वातुल जोई। देखि देखि तिनको सब भागै। तासु बात हति पाप न लागै।— केशव (शब्द०)।
⋙ हतपुत्र
वि० [सं०] जिसके संतान का हनन किया गया हो। जिसके पुत्र को मार डाला गया हो।
⋙ हतप्रभ
वि० [सं०] जिसकी कांति या तेज नष्ट हो गया हो। प्रभा से रहित।
⋙ हतप्रभाव
वि० [सं०] १. जिसका प्रभाव न रह गया हो। जिसका असर जाता रहा हो। २. जिसका अधिकार न रह गया हो। जिसकी बात कोई न मानता हो।
⋙ हतप्रमाद
वि० [सं०] जिसका प्रमाद दूर हो गया हो [को०]।
⋙ हतप्राय
वि० [सं०] जो लगभग मार डाला गया हो [को०]।
⋙ हतबांधव
वि० [सं० हतबान्धव] जिसके बंधु बांधव, संबंधी हत हों। स्वजनों से रहित।
⋙ हतबुद्धि
वि० [सं०] बुद्धिशून्य। मूर्ख।
⋙ हतभग, हतभाग
वि० [सं०] दे० 'हतभाग्य'।
⋙ हतभागी पु
वि० [सं० हत + या भागी] [वि० स्त्री० हतभागिन, हतभागिनि पु, हतभागिनी] अभागा। भाग्यहीन। उ०—पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहु मोहि जानि हतभागी।—मानस ५।१२।
⋙ हतभाग्य
वि० [सं०] भाग्यहीन। बदकिस्मत। उ०—शैल निर्झर न बना हतभाग्य, गल नहीं सका जो कि हिम खंड। दौड़कर मिला न जलनिधि अंक, आह वैसा ही हूँ पाषंड।—कामायनी, पृ० ४८।
⋙ हतमति
वि० [सं०] हतज्ञान। हतचित्त।
⋙ हतमना
वि० [सं० हत + मनस्] जिसका मन टूट गया हो। निराश- हृदय। खिन्नमन। उ०—जा चुके सब लोग फिर आवास, हतमना कुछ और कुछ सोल्लास।—सामधेनी, पृ० ४२।
⋙ हतमान
वि० [सं०] १. जिसका घमंड चूर चूर हो गया हो। जिसका गर्व दूर हो गया हो। २. जिसका अपमान किया गया हो। तिरस्कृत।
⋙ हतमानस
वि० [सं०] हतज्ञान। हतचेता।
⋙ हतमूर्ख
वि० [सं०] अत्यंत मूर्ख। जड़मति। बुद्धिशून्य [को०]।
⋙ हतमेधा
वि० [सं० हतमेधस्] जिसकी मेधा नष्ट हो गई हो। हतचेता। हतबुद्धि [को०]।
⋙ हतयुद्ध
वि० [सं०] जो युद्ध के उत्साह से हीन हो। युद्धवृत्ति से रहित।
⋙ हतरथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह रथ जिसके अश्व और सारथी मार डाले गए हों [को०]।
⋙ हतलक्षण
वि० [सं०] अभाग। हतभाग्य। बदकिस्मत [को०]।
⋙ हतलेवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + लेना] विवाह की एक रस्म। पाणिग्रहण। उ०—बनड़ा नूँ सूपै बनी, हतलेवे मिल हाथ। सठ कर दे चुगली समे, श्रवण चुगल मुख साथ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृष्ठ ५८।
⋙ हतवाना
क्रि० स० [हिं० हतना का प्रेरणा० रूप] १. बध कराना। मरवाडालना। २. किसी व्यक्ति को किसी के द्वारा खूब पिटवाना।
⋙ हतविधि
वि० [सं०] अभागा। भाग्यहीन [को०]।
⋙ हतविनय
वि० [सं०] जिसका विनय नष्ट हो गया हो। उच्छृँखल। विनयरहित। अशिष्ट [को०]।
⋙ हतवीर्य
वि० [सं०] बलरहित। शक्तिहीन।
⋙ हतवृत्त
वि० [सं०] जिसमें छंदसंबंधी दोष हो। जो सदोष छंद युक्त हो [को०]।
⋙ हतवेग
वि० [सं०] जिसकी गति नष्ट या अवरुद्ध हो गई हो [को०]।
⋙ हतव्रीड
वि० [सं०] निष्त्रप। निर्लज्ज [को०]।
⋙ हतशिष्ट, हतशेष
वि० [सं०] जीवित बचा हुआ। जो मारे जाने से बचा हुआ हो [को०]।
⋙ हतश्रद्ध
वि० [सं०] श्रद्धारहित। श्रद्धाविहीन।
⋙ हतश्री
वि० [सं०] जिसकी श्री या कांति नष्ट हो गई हो। श्रीविहीन। संपत्तिरहित।
⋙ हतसंपद्
वि० [सं० हतसम्पद्] दे० 'हतश्री'।
⋙ हतसाध्वस
वि० [सं०] विगतभय। निर्भीक [को०]।
⋙ हतस्त्रीक
वि० [सं०] १. जिसकी औरत को किसी ने मार डाला हो। २. जिसने किसी या किसी की पत्नी का हनन किया हो। स्त्री- हत्या करनेवाला [को०]।
⋙ हतस्मर
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जिसने कामदेव का विनाश किया हो। शिव। कामरिपु [को०]।
⋙ हतस्वर
वि० [सं०] जिसका स्वर या ध्वनि नष्ट हो गई हो। जिसे स्वरभंग हुआ हो [को०]।
⋙ हतहृदय
वि० [सं०] जिसका हृदय टूट गया हो। भग्नाश [को०]।
⋙ हता (१)
वि० स्त्री० [सं०] नष्ट चरित्र की। व्यभिचारिणी।
⋙ हता (२)
संज्ञा स्त्री० १. नष्ट चरित्र की। सतीत्वभ्रष्ट स्त्री। २. वह कन्या जो विवाह के अयोग्य हो। चरित्रहीनता के कारण विवाह न करने लायक कन्या [को०]।
⋙ हता (३)
क्रि० अ० [हिं० होना क्रिया का भूतकाल] [अन्य रूप हती, हते, हता, आदि] था।
⋙ हतादर
वि० [सं०] अनादृत। असंमानित [को०]।
⋙ हताना पु
क्रि० स० [हिं० 'हतना' का प्रेरणा०] दे० 'हतवाना'।
⋙ हतारोह
वि० [सं०] जिसके ऊपर बैठनेवाले मारे गए हों। जैसे, रथ, हाथी आदि [को०]।
⋙ हतावशेष
वि० [सं०] जो मारे जाने से बच गया हो। हतशेष।
⋙ हताश
वि० [सं०] १. जिसे आशा न रह गई हो। निराश। नाउम्मीद। २. शक्तिहीन। कमजोर (को०)। ३. कठोर। क्रूर। निर्दय (को०)। ४. निष्फल। फलहीन (को०)। ५. क्षुद्र। नीच। बदमाश (को०)।
⋙ हताश्रय
वि० [सं०] जिसका आश्रय नष्ट हो चुका हो। आश्रयहीन। निरवलंब [को०]।
⋙ हताश्व
वि० [सं०] जिसके रथ के अश्व मारे जा चुके हों।
⋙ हताश्वास
वि [सं० हत + आश्वास] जिसे प्राप्त आश्वासन फलीभूत न हो सका हो। जिसे भरोसा या सहारा न रह गया हो। उ०—कहता प्रति जड़ जंगम जीवन। भूले थे अब तक बंधु प्रमन। यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता।—तुलसी, पृ० ११।
⋙ हताहत
वि० [सं० हत + आहत] मारे गए और घायल। जैसे,— उस युद्ध में हताहतों की संख्या एक हजार थी।
⋙ हति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वध। विनाश। हत्या। २. आहत करना। घायल करना। ३. आघात। चोट। प्रहार। ४. गुणन। गुणा। ५. क्षति। क्षय। हानि। ६. ऐब। दोष। विकार [को०]।
⋙ हतियार पु †
संज्ञा पुं० [सं० हति या हेति अथवा हत्याकारक] वह अस्त्र या शस्त्र जिससे वध किया जाय। उ०—उहै धनुक उन्ह भौंहन्ह चढ़ा। केइ हतियार काल अस गढ़ा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १८७।
⋙ हतियारा †
वि० [सं० हत्या + कारक] [वि० स्त्री० हत्यारिन, हत्यारी] हत्या करनेवाला। वध करनेवाला। क्रूर। निर्दय। हत्यारा उ०—(क) साला हतियारा कहीं का।—मैला०, पृ० ३२४। (ख) हे हतियारी हतति है, प्रान मथति दिन रैन।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५३।
⋙ हती पु †
क्रि० अ० [हिं० होना क्रिया के भूतकाल का स्त्री० रूप] थी। उ०—नहिं वह काशी रह गई, हती हेममय जौन।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १५५।
⋙ हतेक्षण
वि० [सं०] नेत्रहीन। अंधा [को०]।
⋙ हतोज
वि० [सं० हतौजस्] उत्साहहीन। निरुत्साह।
⋙ हतोत्तर
वि० [सं०] जो कुछ उत्तर न दे सके। निरुत्तर [को०]।
⋙ हतोत्साह
वि० [सं०] जिसे कुछ करने का उत्साह न रह गया हो। जिसे कोई बात करने की उमंग न हो। उ०—इस बार एक आया विवाह, जो किसी तरह भी हतोत्साह।—अपरा०, पृ० १७४।
⋙ हतोद्यम
वि० [सं०] जिसकी चेष्टा या प्रयत्न विफल हो [को०]।
⋙ हतौजा
वि० [सं० हतौजस्] जिसकी शक्ति, प्रताप, कांति आदि नष्ट हो गई हो। जिसका वीरताजन्य उत्साह खत्म हो गया हो [को०]।
⋙ हत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हथ्थ हत्त] दे० 'हाथ'। उ०— हुंता सज्जण हीअड़े सयण हंदा हत्त। जउ सोहणी साचइ होअइ, सोहणो बड़ी बसत्त।—ढोला०, दू० ५०९।
⋙ हत्तुल्मकदूर
क्रि० वि० [अ० हत्त + उल + मक़दूर] यथाशक्ति। यथा- साध्य। जहाँ तक हो सके। उ०—ईश्वर ने चाहा तो हत्तुल्म- कदूर किसी किस्म की तकलीफ न होने पाएगी।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३४।
⋙ हत्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हत्थ] दे० 'हाथ'। उ०—नाखे बार- बार निसासा, हत्था तेग गही चंद्र हासा।—रघु० रू०, पृ० २१०।
⋙ हत्थल पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्ततल, प्रा० हत्थल, पु० हिं० हाथल] हाथ का पंजा। मणिबंध के नीचे का भाग। हथेली।
⋙ हत्था
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हत्थ, हिं० हाथ] १. किसी भारी औजार का वह भाग जो हाथ से पकड़ा जाता हो। दस्ता। मूठ। २. रेशमी कपड़े बुननेवालों के करघे में लकड़ी का वह ढाँचा जो छत से लगाकर नीचे लटकाया रहता है और जो इधर उधर झूलता रहता है। ३. तीन हाथ के लगभग लंबा लकड़ी का बल्ला जो एक छोर पर हाथ की हथेली के समान चौड़ा और गहरा होता है और जिससे खंत की नालियों का पानी चारों ओर उलीचा जाता है। हाथ। हथेरा। ४. निवार बुनने में लकड़ी का एक औजार जो एक ओर कुछ पतला होता है और कंघी की भाँति सूत बैठाने के काम में आता है। ५. एक प्रकार का भद्दा रंग जो सुर्खी लिए पीला या मटमैला होता है। ६. पत्थर या ईंट जो दंड करते समय हाथ के नीचे रख लेते हैं। ७. केले के फलों का घौद या गुच्छा। पंजा। ८. ऐपन से बना हाथ के पंजे का चिह्न जो पूजन आदि के अवसर पर दीवार पर बनाया जाता है। हाथ का छाप। ९. गड़ेरियों का वह औजार जिससे वे कंबल बुनते समय पटिया ठोकते हैं। १०. बैठने की कुर्सी का वह भाग जिसपर हाथ टेकते हैं।
⋙ हत्थाजड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथी + जड़ी] एक छोटा पौधा जिसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं और जो भारतवर्ष के कई भागों में पाया जाता है। विशेष—इस पौधे की पत्तियों का रस घाव और फोड़े आदि पर रखा जाता है। बिच्छू और भिड़ के डंक मारे हुए स्थान पर भी यह लगाया जाता है। संस्कृत में इसे हस्तिशुंडा कहते हैं ।
⋙ हत्थि पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिन्, प्रा० हत्थि] हस्ति। हाथी। गज। फील। उ०—सिवा औरंगहि जिति सकै, औरन राजा राव। हत्थि मत्थ पर सिंह बिनु आन न घाले घाव।—भूषण ग्रं०, पृ० १००। यौ०—हत्थिमत्थ = हाथी का मस्तक।
⋙ हत्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हत्था, हाथ] १. किसी औजार या हथियार का वह भाग जो हाथ से पकड़ा जाय। दस्ता। मूठ। २. चमड़े का वह टुकड़ा जिसे छीपी रंग छापते समय हाथ में लगा लेते हैं। ३. वह लकड़ी जिससे कड़ाह में ईख का रस चलाते हैं। ४. गोमुखी की तरह का उनी थैला जिससे घोड़ों का बदन पोंछते हैं। ५. बारह गिरह लंबी लकड़ी जिसमें पीतल के छह दाँत लगे रहते है और जो कपड़ा बुनते समय उसे ताने रहने के लिए लगाई जाती है।
⋙ हत्थे
क्रि० वि० [सं० हस्ते, प्रा० हत्थे, हिं० हाँथे] हाथ में। मुहा०—हत्थे चढ़ना = (१) हाथ में आना। अधिकार में आना। प्राप्त होना। (२) वश में होना। प्रभाव के भीतर आना। हत्थे लगना = दे० 'हत्थे चढ़ना'।
⋙ हत्थेदंड
संज्ञा पुं० [हिं० हत्था + दंड] वह दंड (कसरत) जो ऊँची ईंट या पत्थर पर हाथ रखकर किया जाता है।
⋙ हत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मार डालने की क्रिया। वध। खून। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. वध करने का पाप। हत्या करने का दोष (को०)। मुहा०—हत्या लगना = हत्या का पाप लगना। किसी के बध का दोष ऊपर आना। जैसे,—गाय मारने से हत्या लगती है। हत्या लेना = हत्या का पाप ओढ़ना। उ०—एहू कहँ तसि मया करेहू। पुरवहु आस कि हत्या लेहू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २६२। ३. अत्यंत दुर्बल और कमजोर प्राणी। ४. हैरान करनेवाली बात। झंझट। बखेड़ा। जैसे,—(क) कहाँ की हत्या लाए, हटाओ। (ख) चलो, हत्या टली। मुहा०—हत्या टलना = झंझट दूर होना। हत्या सिर मढ़ना या लगाना = बखेड़े का काम देना। झंझट लादना।
⋙ हत्यार †
संज्ञा पुं० [हिं० सं० हत्या + कार] दे० 'हत्यारा'।
⋙ हत्यारा
वि०, संज्ञा पुं० [सं० हत्या + कार] [स्त्री० हत्यारिन, हत्यारी] हत्या करनेवाला। बध करनेवाला। जान लेनेवाला। हिंसा करनेवाला। उ०—अरु प्रभु मो तैं जनम तिहारौ। जिनि जानै यह कंस हत्यारौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२९।
⋙ हत्यारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हत्यारा] १. हत्या करनेवाली। प्राण लेनेवाली। २. हत्या का पार। प्राणबध का दोष। खून का अजाब।
⋙ क्रि० प्र०—लगना।
⋙ हथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० हस्त; प्रा० हात्थ, हथ्थ; हिं० हाथ] 'हाथ' का संक्षिप्त रूप जिसका व्यवहार समस्त पदों में होता है। जैसे,— हथकंडा, हथफेर, हथलेवा। उ०—रघुनाथ श्री हथ हथे रावण, परम संता कीध पावण।—रघु० रू०, पृ० २२७।
⋙ हथ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आघात। २. बध। हनन। हत्या। ३. मौत। मृत्यु। ४. दुखी या निराश मनुष्य [को०]।
⋙ हथ † (३)
संज्ञा पुं० [सं० हस्ति, प्रा० हत्थि, हथ्थि, हिं० हाथी] 'हाथी' शब्द का संक्षिप्त रूप जो समस्त पदों में व्यवहृत किया जाता है। जैसे,—हथनाल, हथशाला आदि।
⋙ हथउधार
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + उधार] वह कर्ज जो थोड़े दिनों के लिये यों ही बिना किसी प्रकार की लिखा पढ़ी के लिया जाय। हथफेर। दस्तगरदाँ। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लेना।
⋙ हथकंडा
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, हिं० हाथ + सं० काण्ड] १. हाथ की इस प्रकार जल्दी से और ढंग के साथ चलाने की क्रिया जिससे देखनेवालों को उसके द्बारा किए हुए काम का ठीक ठीक पता न लगे। हाथ की सफाई। हस्तलाघव। हस्तकौशल। जैसे,— बाजीगरों के हथकंडे। २. गुप्त चाल। चालाकी का ढंग। चतुराई की युक्ति। जैसे,—यह सब हथकंडे मैं खूब पहचानता हूँ। ३. गुप्त अभिसंधि। षड्यंत्र। ४. तिकड़मबाजी। धूर्तता भरी चाल।
⋙ हथकंडेबाज
संज्ञा पुं० [हिं० हथकंडा] तिकड़मबाज एवं धूर्त व्यक्ति।
⋙ हथकटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ] गतके का दावँ जिसमें हाथ पर प्रहार करते हैं। उ०—अखाड़े में गतका लेकर खड़े हुए हैं तो मालूम हुआ बिजली चमक गई। एक दफा ललकार दिया कि रोक हथकटी।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७।
⋙ हथकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + कड़ा] १. उपाय। साधन। उ०— मान सच्चा हाथ आने के लिये, हाथ की ही हथकड़ी, हैं हथकड़े।— चुभते०, पृ० १५। २. 'हथकड़ी' का पुलिंग। दे० 'हथकड़ी'। उ०—बहुत शोर होगा, कैदी के कठिन हथकड़े तड़केंगे।— अग्नि०, पृ० ७।
⋙ हथकड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + कड़ी] डोरी से बँधा हुआ लोहे का छोटा कड़ा जो कैदी के हाथ में पहना दिया जाता है (जिससे वह भाग न सके)। उ०—मान सच्चा हाथ आने के लिये हाथ की ही हथकड़ी हैं हथकड़े।—चुभते०, पृ० १५। क्रि० प्र०—पड़ना।—डालना। यौ०—हथकड़ी बेड़ी = हाथ और पैर का लौहबंधन।
⋙ हथकरा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + करना] १. धुनिये की कमान में बँधा हुआ कपड़े या रस्सी का टुकड़ा जिसे धुनिये हाथ से पकड़े रहते हैं। २. चमड़े का दस्ताना जिसे चारे के लिये कँटीले झाड़ काटते समय पहन लेते हैं।
⋙ हथकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + कड़ा] दूकान के किवाड़ों में लगा हुआ एक प्रकार का ताला। विशेष—यह ताला एक कड़ी से जुड़े हुए लोहे के दो कड़ों के रूप में होता है और दोनों ओर ताले के अँकु़ड़े की तरह खुला रहता है। इसी में हाथ डालकर कुंजी लगा दी जाती है।
⋙ हथकरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'हथकड़ी'। उ०—सुंदर बिरहनि बंदि मैं बिरहै दीनी आइ। हाथ हथकरी, तौक गलि, क्यौं करि निकस्यौ जाइ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८३।
⋙ हथकल
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + कल] १. पेंच कसने के लिये लुहारों का एक औजार। २. करघे की दो डोरियाँ जिनका एक छोर तो हत्थे के ऊपर बँधा रहता है और दूसरा लग्घे में। ३. तार ऐंठने के लिये एक औजार जो आठ अंगुल का होता है और जिसमें पेचकश लगा होता है। ४. दे० 'हथकरा'।
⋙ हथकोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + कोड़ा] कुश्ती का एक पेच।
⋙ हथखंडा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + कांड] दे० 'हथकंडा'।
⋙ हथछुट
वि० [हिं० हाथ + छूटना] जिसका हाथ मारने के लिये बहुत जल्दी उठता या छूटता हो। जिसकी मार बैठने की आदत हो।
⋙ हथछोड़ †
वि० [हिं० हाथ + छोड़ना] दे० 'हथछुट' [को०]।
⋙ हथड़ा पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हथ्थ + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'हाथ'। उ०—करहा काछी कालिया, भुइँ भारी घर दूरि। हथड़ा काँइन खंचिया, राह गिलंतइ सूर।—ढोला०, दू० ४९६।
⋙ हथधरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + धरना] लकड़ी की वह पटरी जो नाव से लगाकर जमीन तक दो आदमी इसलिये पकडे़ रहते हैं जिसमें उसपर से होकर लोग उतर जायँ।
⋙ हथना पु †
क्रि० स० [सं० हत, हिं० हतना] दे० 'हतना'। उ०— रघुनाथ श्री हथ हथे रावण, परम संता कीध पावण।—रघु० रू०, पृ० २२७।
⋙ हथनापुर पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिनापुर] दे० 'हस्तिनापुर'। उ०—हाड़ हटक्की हथ्थि बीर खंच्यौ कर सद्दे। कै हथनापुर चंद ! बीर खंचै बलिभद्रे।—पृ० रा०, २६।६३।
⋙ हथनारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथी + नाल] दे० 'हथनाल'। उ०—उठी कोर हय गय प्रबल, दिठ्ठ दुअन छुटि धीर। दिषि धनुधर हथनारि धरि, भरकि भरहरी भीर।—पृ० रा०, ८।४९।
⋙ हथनाल
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी + नाल] वह तोप जो हाथियों पर चलती थी। गजनाल।
⋙ हथनी
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्तिनी, हिं० हाथी + नी (प्रत्य०)] हाथी की मादा।
⋙ हथफूल
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + फूल] १. एक प्रकार की आतशबाजी। २. हथेली की पीठ पर पहनने का एक जड़ाऊ गहना जो सिकड़ियों के द्बारा एक ओर तो अँगूठियों से बँधा रहता है औरदूसरी ओर कलाई से। हथसाँकर। हथसंकर। उ०—भुजबंध पहुँचि बीटी हथफूल है जु खासा।—ब्रज, ग्रं०, पृ० ५८।
⋙ हथफेर
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + फेरना] १. प्यार करते हुए शरीर पर हाथ फेरने की क्रिया। २. रुपए पैसे के लेन देन के समय हाथ से कुछ चालाकी करना जिससे दूसरे के पास कम या खराब सिक्के जायँ। हाथ की चालाकी। ३. दूसरे के माल को चुपचाप ले लेना। किसी वस्तु या धन को सफाई के साथ उड़ा लेना। क्रि० प्र०—करना। ४. थोड़े दिनों के लिये बिना लिखापढ़ी के लिया या दिया हुआ कर्ज। हथउधार। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
⋙ हथफेरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हथ + फेरी] हाथ की सफाई। उ०— ज्यौं हथफेरि दिखावत चाँवर, अंत तौ धूरि की धूरि छनैगी।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४६१।
⋙ हथबेँटा †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + बेँट] एक प्रकार की कुदाली जो खड़े गन्ने काटने के काम में आती है।
⋙ हथरकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + रखना] चमड़े की थैली जो कोल्हू में गन्ने डालनेवाला हाथ में पहने रहता है।
⋙ हथरस †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + रस] हस्तमैथुन। हस्तक्रिया।
⋙ हथलपक, हथलपका
वि० [हिं० हाथ + लपकना] हाथ से लपक लेने या उड़ा देनेवाला। द्रव्यादि पर हाथ मारनेवाला। उ०—अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ७५१।
⋙ हथलपकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + लपकी] चोरी। झपट्टा। छीना- झपटी। उ०—दुरवस्था में जगतसिंह की हथलपकियाँ बहुत अखरतीं।—मान०, भा० ५, पृ० ३०८।
⋙ हथलपकौअल
वि० [हिं० हाथ + लपकौवल] हाथ बढ़ाकर छीन लेना। हस्तगत कर लेना। छीना झपटी। उ०—(क) शेक्स- पीयर पर हथलपकौअल कर मरचेंट आफ वेनिस के भी मरचेंट बन गए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४३४। (ख) ऐसी भी हथलपकौअल ठीक नहीं कि जो बेतरह उधर से कुछ उड़ा लिया।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३१।
⋙ हथलपक्का †
वि० [हिं० हाथ + लपकना] दे० 'हथलपक', 'हथलपका'।
⋙ हथली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + ली] चरखे की मुठिया जिसे पकड़कर चरखा चलाते हैं।
⋙ हथली पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्त + तली या स्थली, प्रा० हत्थल्ली] दे० 'हथेली'। उ०—हथली सोहेँ मनु पूरण चंदा। अगुरिन पाँति शोभा अरविंदा।—कबीर सा०, पृ० ९९।
⋙ हथलेवा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + लेना] विवाह में वर कन्या का हाथ अपने हाथ में लेने की रीति। पाणिग्रहण। उ०—सेद सलिल रोमांच कुस, गहि दुलही अरु नाथ। हियो दियो सँग हाथ के हथलेवा ही हाथ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ हथवाँस †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + वाँस (प्रत्य०)] नाव चालाने के समान। जैसे,—लग्गा, पतवार, डाँड़ा इत्यादि।
⋙ हथवाँसना †
क्रि० स० [हिं० हाथ + अवाँसना] १. किसी व्यवहार में लाई जानेवाली वस्तु में पहले पहल हाथ लगाना। काम में लाना। व्यवहार करना। २. अपने अधिकार में ले लेना। अधिकृत करके स्वयं कार्यप्रयुक्त करना जिससे अन्य कोई उसका उपयोग न कर सके। उ०—अस विचारि गुह ज्ञाति सन कहेउ सजग सब होहु। हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिय घाटारोहु।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हथवाह पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + वाह] शस्त्र अस्त्र टूट जाने पर योद्धाओं का परस्पर हाथाबाँही करते हुए भिड़ जाना। कुश्ती। मल्लयुद्ध।
⋙ हथशाल पु
संज्ञा पुं० [हिं० हथ + शाल] वह स्थान जहाँ हाथी बाँधा जाता है। हथसार। उ०—हाथी हथशालन में, घोड़े घुड़सालन में, कुल के कुटुंब लोक देखत खरे रहे।—राम० धर्म०, पृ० ६५।
⋙ हथसंकर
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + साँकर] हथेली की पीठ पर पहनने का एक गहना जो फूल के आकार का होता है और जिसमें पतली सिकड़ियाँ लगी होती हैं। हथफूल।
⋙ हथसाँकड़ †, हथसाँकर, हथसाँकल पु
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + साँकर] दे० 'हथसंकर'।
⋙ हथसाँकला
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + साँकल] दे० 'हथसंकर'।
⋙ हथसार
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथी + सं० शाल, हिं० सार] वह घर जिसमें हाथी रखे जाते हैं। फीलखाना। गजशाला।
⋙ हथा †
संज्ञा पुं० [सं० हस्तक, प्रा० हत्थअ, हिं० हत्था, हथा, या हिं० हाथ] पुजन आदि के अवसर पर गीले पिसे हुए चावल और हल्दी पोतकर दीवार पर बनाया हुआ पंजे का चिह्न। ऐपन का छापा।
⋙ हथाहथी (१)
अव्य० [हिं० हाथ (द्बिरु०)] १. एक हाथ से दूसरे के हाथ में बराबर जाते हुए। हाथोहाथ। २. शीघ्र। तुरंत।
⋙ हथाहथी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्ताहस्ति, हिं० हाथ] छीना झपटी। हाथाबाहीं। उ०—डारत अबीर एरी बीर, बलबीर मेरो हथा- हथी ले गयो अनेरो चित चोरि कै।—दीन० ग्रं०, पृ० २२।
⋙ हथिनापुर पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिनापुर] दे० 'हस्तिनापुर'। उ०— (क) नूर धूप तेँ अछ्छ, पंड हथिनापुर सारिय।—पृ० रा०, २१।१९४। (ख) अहिछत्ता, हथिनापुर जात। चले बनारसि उठि परभात।—अर्ध०, पृ० ५३।
⋙ हथिनाला पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्ति + नाल, हिं० हथनाल] दे० 'हथनाल'। उ०—चलै चक्क जो लै हथिनाला। पसरहिं धूम होइ अँधकाला।—हिंदी प्रेमा०, पृ० २२४।
⋙ हथिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्तिनी प्रा० हत्थिणी] हाथी की मादा।
⋙ हथिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हत्थ (नक्षत्र) + हिं० इया (त्वा० प्रत्य०)] हस्त नक्षत्र।
⋙ हथिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ] कंघी के ऊपर की लकड़ी। (जुलाहे)।
⋙ हथियाना
क्रि० स० [हिं० हाथ + आना या इयान (प्रत्य०)] १. हाथ में करना। अधिकार में करना। ले लेना। २. दूसरे की वस्तु धोखा देकर ले लेना। उड़ा लेना। ३. हाथ में पकड़ना। हाथ से पकड़ कर काम में लाना। ४. हत्था या हथेरा से खेत में पानी पहुँचाना।
⋙ हथियार
संज्ञा पुं० [हिं० हथियाना (= हाथ से पकड़ना)] हाथ से पकड़कर काम में लाने की साधनवस्तु। वह वस्तु जिसकी सहायता से कोई काम किया जाय। औजार। २. तलवार, भाला आदि आक्रमण करने या मारने का साधन। अस्त्र शस्त्र। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। मुहा०—हथियार उठाना = (१) मारने के लिये अस्तहाथ में लेना। (२) लड़ाई के लिये तैयार होना। हथियार करना = हथि- यार चलाना। हथियार डालना = युद्ध में परास्त होना। हथियार बाँधना = युद्धार्थ शस्त्रास्त्रों से सज्जित होना। लड़ाई के लिये तैयार होना। हथियार लगाना = अस्त्रशस्त्र धारण करना। ३. लिंगेद्रिय। (बाजारू)।
⋙ हथियारघर
संज्ञा पुं० [हिं० हथियार + घर] वह गृह या आगार जहाँ पर शस्त्रास्त्र रखे जाते हों।
⋙ हथियारबंद
वि० [हिं० हथियार + फ़ा० बंद (स० वेध)] जो हथियार बाँधे हो। सशस्त्र। जैसे,—हथियारबंद सिपाही।
⋙ हथिसार पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिशाल] हस्तिशाला। हथसाल। उ०—कंचन गढ़ल हृदय हथिसार, तेथिर खंभ पयोधरभार।—विद्यापति, पृ० १९०।
⋙ हथी पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिन्] दे० 'हाथी'। उ०—(क) कित हौं, कित महिमा नाथ की। कहत हौं चींटी हथी साथ की।—नंद० ग्रं०, पृ० २७०। (ख) घुमड़नि मिलनि देखि डर आवै। मनमथ मानौं हथी लरावै।—नंद० ग्रं०, पृ० १३२।
⋙ हथुई †
वि० [हिं० हाथ, हथ] हाथ से संबंधित। हाथ द्बारा निर्मित। हाथ की। जैसे, हथुई मिट्टी, हथुई रोटी।
⋙ हथुई मिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + मिट्टी] गीली मिट्टी का वह लेप जो कच्ची दीवार का खुरदुरापन दूर करने के लिये लगाया जाता है।
⋙ हथुई रोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + रोटी] वह रोटी जो गीले आटे की लोई को हाथ से गढ़कर बनाई गई हो।
⋙ हथेरा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + एरा (प्रत्य०)] तीन, साढ़े तीन हाथ लंबा लकड़ी का वह बल्ला जिसका एक सिरा हथेली की तरह चौड़ा होता है और जिससे खेती की नाली का पानी चारों ओर सिंचाई के लिये उलीचते हैं। हाथा।
⋙ हथेरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + एली] दे० 'हथेली'। उ०—झुकी कंध रहे लिए गागरिया भई लाल हथेरी दुहू कर की।—शकुंतला, पृ० २४।
⋙ हथेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ] वह लचीली कमाची जिसपर बुना हुआ कपड़ा तानकर रखा जाता है। पनिक। पनखट। (जुलाहे)।
⋙ हथेली
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्ततल, प्रा० हत्थतल, हत्थल, हथ्थल] १. हाथ की कलाई का चौड़ा सिरा जिसमें उँगलियाँ लगी होती हैं। हाथ की गद्दी। हस्ततल। करतल। मुहा०—हथेली में आना = (१) हाथ में आना। अधिकार में आना। मिलना। प्राप्त होना। (२) वश में होना। हथेली में करना = अपने अधिकार में करना। ले लेना । हथेली खुज- लाना = द्रव्य मिलने का आगम सूचित होना। कुछ मिलने का शकुन होना। विशेष—यह एक प्रचलित प्रवाद है कि जब दाहिने हाथ की हथेली खुजलाती है, तब कुछ मिलता है। हथेली का फफोला = अत्यंत सुकुमार वस्तु। बहुत नाजुक चीज जिसके टूटने फूटने का सदा डर रहे। हथेली देना या लगाना = हाथ का सहारा देना। सहायता करना। मदद करके सँभालना। हथेली पीटना या बजाना = ताली पीटना। किसकी हथेली में बाल जमे हैं ? = कौन ऐसा संसार में है ? जैसे,—किसकी हथेली में बाल जमे हैं जो उसे मार सकता है। हथेली सा = बिल्कुल चौरस या सपाट। समतल। हथेली पर जान रखना या लेना = प्राणत्याग का भय न रखना। जान देने के लिये हरदम, हर हालत में तैयार रहना। हथेली पर जान होना = ऐसी स्थिति में पड़ना जिसमें प्राण जाने का भय हो। जान जोखों होना। हथेली पर दही जमाना = किसी काम के लिये बहुत जल्दबाजी करना। किसी से कोई काम कराने के लिये अत्यंत शीघ्रता करना। हथेली पर सर रखना या लेना = दे० 'हथेली पर जान रखना'। हथेली पर सरसों उगाना या जमाना = असंभव कार्य को भी संभव कर दिखाना। किसी कठिन काम को अत्यंत शीघ्रता से कर दिखाना। २. चरखे की मुठिया जिसे पकड़कर चरखा चलाते हैं।
⋙ हथेव पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ] हथौड़ा। घन। उ०—हनि हथेव हिय दरपन साजै। छोलनी जाप लिहे तन माँजै।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हथोड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ] १. हथोरी। हथेली। २. दे० 'हथौड़ी'।
⋙ हथोरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + ओरी (प्रत्य०)] दे० 'हथेली'। उ०—जानौ रकत हथोरी बूड़ी। रवि परभात तात, वै जूड़ी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हथौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ + औटी (प्रत्य०)] १. किसी काम में हाथ लगाने का ढंग। हाथ से करने का ढब। हाथ की शैली। हस्तकौशल। जैसे,—अभी तुम्हें इसकी हथौटी नहीं मालूम है, इसी से देर लगती है। उ०—रसना को भाग, साँचे स्रौननि सुभूषन है, जगमगी रहे महा मोहन हथौटी के।—घनानंद, पृ० २०५। मुहा०—हथौटी जमना, मँजना या सध जाना = (१) काम करने में कुशलता प्राप्त होना। हाथ रमा होना या सध जाना। हथौटी में सीखना = कला या हुनर की जानकारी प्राप्त करना। किसी काम को करने का गुण सीखना। २. किसी काम में लगा हुआ हाथ। किसी काम में हाथ डालने कीक्रिया या भाव। जैसे,—उसकी हथौटी बड़ी मनहूस है। जिस काम में हाथ लगाता है, वह चौपट हो जाता है।
⋙ हथौड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + औड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० हथौड़ी] १. किसी वस्तु को ठोंकने, पीटने या गढ़ने के लिये साधन- वस्तु। लुहारों या सुनारों का वह औजार जिससे वे किसी धातु- खंड को तोड़ते, पीटते या गढ़ते हैं। मारतौल। २. कील ठोंकने, खूंटे गाड़ने आदि का औजार।
⋙ हथौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हथौड़ा का लघ्वर्यक रूप] छोटा हथौड़ा।
⋙ हथौना
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ + औना (प्रत्य०)] दूल्हे और दुलहन के हाथ में मिठाई रखने की रीति।
⋙ हथ्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हथ्थ] हस्त। हाथ।
⋙ हथ्थल पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्ततल, प्रा० हत्थल] हाथ का पंजा। हथेली।
⋙ हथ्थि, हथ्थी
संज्ञा पुं० [सं० हस्ती] हाथी। हस्ती।
⋙ हथ्याना पु
क्रि० स० [हिं० हाथ] दे० 'हथियाना'।
⋙ हथ्यार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हथियार] दे० 'हथियार'। उ०—नाए न माथहिं दक्खिन नाथ न साथ में फौज न हाथ हथ्यारो।— भूषण ग्रं०, पृ० १३९।
⋙ हद
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी वस्तु के विस्तार का अंतिम सिरा। किसी चीज की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई या गहराई की सबसे अधिक पहुँच। सीमा। मर्यादा। जैसे,—सड़क की हद, गाँव की हद। यौ०—हदबंदी। हदसमाअत। मुहा०—हद बाँधना = सीमा निर्धारित होना। यह ठहराया जाना कि किसी चीज का घेरा अथवा लंबाई, चौड़ाई यहाँ तक है। हद बाँधना = सीमा निर्धारित करना। हद तोड़ना = सीमा के बाहर जाना या कुछ करना। सीमा का अतिक्रमण करना। हद से बाहर = ठहराई हुई सीमा के आगे। हद कायम करना = दे० 'हद बाँधना'। २. किसी वस्तु या बात का सबसे अधिक परिमाण जो ठहराया गया हो। अधिक से अधिक संख्या या परिमाण जो साधारणतः माना जाता हो या उचित हो। पराकाष्ठा। जैसे,—(क) उस मेले में हद से ज्यादा आदमी आए। (ख) उसने मिहनत की हद कर दी। उ०—क्वैला करी कोकिल कुरंग बार कारे करे, कुढ़ि कुढ़ि केहरी कलंक लंक हद ली।—केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना = अति कर देना।—होना = पराकाष्ठा हो जाना। मुहा०—हद से ज्यादा = गहुत अधिक। अत्यंत। हद व हिसाब नहीं = बहुत ही ज्यादा। अत्यंत अपार। अपरिमेय। ३. ओट। आड़ (को०)। ४. मुसलिम धर्मशास्त्र द्बारा विहित दंड (को०)। ५. किसी बात की उचित सीमा या निश्चित स्थान। कोई बात कहाँ तक करनी चाहिए, इसका नियत मान। कोई काम, व्यवहार या आचरण कहाँ तक ठीक है, इसका अंदाज। मर्यादा। जैसे,—तुम तो हर एक बात में हद से बाहर चले जाते हो। मुहा०—हद से गुजरना=मर्यादा का अतिक्रमण करना। जहाँ उचित हो अससे किसी बात में आगे बढ़ना।
⋙ हदका पु †
संज्ञा पुं० [अनु०] धक्का। हचका।
⋙ हदफ
संज्ञा पुं० [अ० हदफ] १. लक्ष्य। निशाना। २. ऊँचा पुश्ता। ३. निशानेबाजी सीखने के लिये निर्मित युद्ध का वह स्थान जहाँ लक्ष्यवेध किया जाता है [को०]।
⋙ हदस †
संज्ञा पुं० [अ० हादिसह्] भय। डर। खौफ।
⋙ हदसना
क्रि० अ० [हिं० हव्स+ना (प्रत्य०)] भयभीत हो जाना। खौफ खाना। डरना।
⋙ हदसमाअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] किसी बात का दावा करने के लिये समय की नियत अवधि। वह मुकर्रर वक्त जिसके भीतर अदालत में दावा करना चाहिए। (कचहरी)। मुहा०—हद समाअत होना=हद समाअत पूरी होना। दावा करने की अवधि का बीत जाना।
⋙ हदसिआसत
संज्ञा स्त्री० [अ०] किसी न्यायालय के अधिकार की सीमा। उतना स्थान जितने के भीतर के मुकदमे कोई अदालत ले सके।
⋙ हदीस
संज्ञा स्त्री० [अ०] मुसलमानों का वह धर्मग्रंथ जिसमें मुहम्मद साहब के कार्यों के वृत्तांत और भिन्न भिन्न अवसरों पर कहे हुए वचनों का संग्रह है और जिसका व्यवहार बहुत कुछ स्मृति के रूप में होता है।
⋙ हद्द
संज्ञा स्त्री० [अ० हद्द]दे० 'हद'। उ०—(क) हद्द कारिगर हुन्नर कीन्हा। जैसे दूध में जामन दीन्हा। —कबीर सा०, भा०, ४, पृ० ५३४। (ख) हद्द अनहद्द ना उठै बानी। —पलटू०, भा० २, पृ० ३०। (ग) है नीचता और बेएतबारी की हद्द। —वो दुनिया, पृ० २८।
⋙ हद्दा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेषादि लग्नों का प्रारंभिक तीस अंश। विशेष—संख्याविशेष के अनुपात से इनमें पाँच पाँच ग्रहों का भाग रहता है। जैसे, मेष लग्न के ३० अंश में ६ भाग गुरु, ६ अंश शुक्र, ८. अंश बुध तथा पाँच पाँच अंश भौम और शनि का होता है। अन्य लग्नों के अंश भी इसी प्रकार ग्रहों में विभक्त किए जाते हैं। वर्षप्रवेश के आदि में शुभाशुभ गणना में इसका प्रयोग किया जाता है। नीलकंठीय ताजक में इसका विस्तुत विवरण द्रष्टव्य है।
⋙ हन्
वि० [सं०] मारनेवाला। वध करनेवाला। हननेवाला। (समस्त पदों में प्रयुक्त)। जैसे, पितृहन्, मातृहन्, ब्रह्महन्, पुत्रहन् आदि।
⋙ हन
संज्ञा पुं० [सं०] मारना। काटना। वध। हनन [को०]।
⋙ हनन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० हननीय, हनित] १. मार डालना। बध करना। जान मारना। २. आघात करना। चोट लगाना। पीटना। ३. गुणन। गुणा करना। जरब देना। (गणित)। ४. एक प्रकार का क्षुद्ध कीट (को०)। ५. ढोल, नगाड़ा, धौंसा आदि बजाने की लकड़ी (को०)।
⋙ हनन (२)
वि० हनन करनेवाला। मारने या वध करनेवाला।
⋙ हननशील
वि० [सं०] क्रूर। वधिक। प्राण लेनेवाला।
⋙ हनना पु †
क्रि० स० [सं० हनन] १. मार डालना। बध करना। प्राण लेना। उ०—छन महँ हने निसाचर जेते। —तुलसी (शब्द०)। २. आघात करना। चोट मारना। प्रहार करना। कसकर मारना। उ०—(क) मुष्टिक एक ताहि कपि हनी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) आवत ही उर मँह हनेउ मुष्टि प्रहार प्रघोर। —तुलसी (शब्द०)। ३. पीटना। ठोँकना। ४. लकड़ी से पीट या ठोँककर बजाना। उ०—जोगींद्र सिद्ध- मुनीस देव विलोकि प्रभु दुंदुभि हनी। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ हननी
वि० स्त्री० [सं० हनन+ई (प्रत्य०)] मार डालनेवाली। हनन करनेवाली। उ०—री, हुआ तुझको न कुछ संकोच। तू बनी जननी कि हननी, सोच। —साकेत, पृ० १८२।
⋙ हननीय
वि० [सं०] १. हनन करने योग्य। मारने योग्य। २. जिसे मारना हो।
⋙ हनफी
संज्ञा पुं० [अ० हनफी] मुसलमानों में सुन्नियों का एक संप्रदाय। हजरत इब्राहीम का अनुयायी।
⋙ हनवाना पु
क्रि० स० [हिं० हनना का प्रेरणा०] मारने या हनने का कार्य दूसरे से कराना। मरवाना।
⋙ हनवाना † (२)
क्रि० अ० [सं० √ ष्ण, √ स्नपय्, प्रा० √ ण्हव √ ण्हाव> ण्हावअंत, हिं० नहवाना]दे० 'नहवाना', 'नहलाना'।
⋙ हनाना †
क्रि० अ० [सं० √ स्नापय्, प्रा० √ ण्हावय]दे० 'नहाना'।
⋙ हनितवंत पु
संज्ञा पुं० [प्रा० हनुमन्त]दे० 'हनुमंत'।
⋙ हनिवंत पु
संज्ञा पुं० [प्रा० हनुमन्त] दे० 'हनुमंत'।
⋙ हनिवँत पु
संज्ञा पुं० [प्र० हनुमन्त]दे० 'हनुमान'। उ०—नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी। को लेइ आव सजीवन मूरी। — जायसी (शब्द०)।
⋙ हनी
संज्ञा पुं० [अं०] मधु। शहद।
⋙ हनीमून
संज्ञा पुं० [अं०] विवाह के बाद पति पत्नी का प्रमोदकाल। विवाह के अनंतर पति पत्नी का आनंद विलास एवं क्रीड़ा का मास।
⋙ हनील
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा। केतकी [को०]।
⋙ हनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दाढ़ की हड्डी। जबड़ा। २. ठुड्डी। चिबुक। ३. अस्त्र। हथियार (को०)। ४. वह वस्तु जिससे जीवन को क्षति हो (को०)। ५. मरण। मृत्यु (को०)। ६. रोग। बीमारी (को०)। ७. एक प्रकार की ओषधि। ८. स्वेच्छाचारिणी स्त्री। कुलटा। वेश्या (को०)।
⋙ हनुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाढ़ की हड्डी। जबड़ा।
⋙ हनुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें जबड़े बैठ जाते हैं और जल्दी खुलते नहीं। विशेष—यह रोग किसी प्रकार की चोट लगने आदि से वायु कुपित होने के कारण होता है।
⋙ हनुफाल
संज्ञा पुं० [सं० हनु+फाल] एक छंद। दे० 'हनुफाल'।
⋙ हनुभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जबड़े का खुलना। २. एक प्रकार का ग्रहण या ग्रास (को०)।
⋙ हनुमंत
संज्ञा पुं० [सं० हनुमत्]दे० 'हनुमान्'। उ०—तब हनुमंत कही सब रामकथा निज नाम। —मानस, ५। ६।
⋙ हनुमंत उड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हनुमंत+उड़ना] मालखंभ की एक कसरत जिसमें सिर नीचे और पैर ऊपर की ओर करके सामने लाते हैं और फिर ऊपर खसकते हैं।
⋙ हनुमंती
संज्ञा स्त्री० [हिं० हनुमंत] मालखंभ की एक कसरत जिसमें एक पाँव के अँगूठे से बेंत पकड़कर खूब तानते हैं और फिर दूसरे पाँव को अंटी देकर और उससे बेंत पकड़कर बैठते हैं।
⋙ हनुमज्जयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० हनुमत्+जयन्ती] हनुमान जी का जन्मोत्सव। विशेष—हनुमज्यंती पुराणों के आधार पर वर्ष में दो दिन मनाई जाती है। प्रथम चैत्र पूर्णिमा को जिस दिन उषःकाल में हनुमान् का जन्मोत्सव मनाया जाता है। द्बितीय कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को जो दक्षिण में विशेष प्रचलित है।
⋙ हनुमत पु
संज्ञा पुं० [सं० हनुमत्]दे० 'हनुमान्'।
⋙ हनुमत्कवच
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान को प्रसन्न करने का एक मंत्र जिसे लोग तावीज वगैरह में रखकर पहनते हैं। २. हनुमान जी को प्रसन्न करने की एक स्तुति।
⋙ हनुमद्धारा
संज्ञा स्त्री० [सं० हनुमत्+धारा] चित्रकूट का एक पवित्र स्थान। उ०—लहराते धीर से, वह है हनुमद्धारा —पंचकोसी का पहाड़। —कुकुर०, पृ० ५४।
⋙ हनुमान् (१)
वि० [सं० हनुमत्] १. दाढ़वाला। जबड़ेवाला। २. भारी दाढ़ या जबड़ेवाला। महावीर।
⋙ हनुमान् (२)
संज्ञा पुं० पंपा के एक वीर बंदर जिन्होंने सीताहरण के उपरांत रामचंद्र की बड़ी सेवा और सहायता की थी। विशेष—ये लंका में जाकर सीता का समाचार भी लाए थे और रावण की सेना के साथ लड़े थे। ये अपने अपार बल, वीरता और वेग के लिये प्रसिद्ध हैं और बंदरों के समान इनकी उत्पत्ति भी विष्ण के अवतार राम की सहायता के लिये देवांश से हुई थी। इनकी माता का नाम अंजनी था और ये वायु या मरुत् देवता के पुत्र कहे जाते हैं। कहीं कहीं इन्हें शिव के वीर्य या अंश से भी उत्पन्न कहा गया है। ये रामभक्तों में सबसे आदि कहे जाते हैं और राम ही के समान इनकी पूजा भी भारत में सर्वत्र होती है। ये बलप्रदाता माने जाते हैं और हिंदू पहलवान या योद्धा इनका नाम लेते हैं और इनकी उपासना करते हैं।
⋙ हनुमान
संज्ञा पुं० [सं० हनुमान्]दे० 'हनुमान्'।
⋙ हनुमान बैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं०—हनुमान+बैठक] एक प्रकार की बैठक (कसरत) जिसमें एक पैर पैतरे की तरह आगे बढ़ाते हुए बैठते उठते हैं।
⋙ हनुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] जबड़े का मूल स्थान [को०]।
⋙ हनुमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाढ़ का एक रोग जिसमें बहुत दरद होता है और मुँह खोलते नहीं बनता। २. जबड़े का खुलना। हनुभेद (को०)।
⋙ हनुवँ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हनुमंत] दे० 'हनुमान्'। उ०—जनहुँ लंक सब लूटी, हनुवँ विधंसी बारि। जागि उठिउँ अस देखत, सखि कहु सपन बिचारि। —जायसी (शब्द०)।
⋙ हनुसंहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जबड़ा बैठने की व्याधि।
⋙ हनुसंहनन
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हनुसंहति'।
⋙ हनुल
वि० [सं०] पुष्ट या दृढ़ दाढ़वाला। मजबूत जबड़ेवाला।
⋙ हनूँ पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० हनुवँ] हनुमान्। उ०—जनहूँ लंक सब लूसी हनूँ बिधाँसी बारि। —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५४।
⋙ हनु
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हनु' [को०]।
⋙ हनुफाल
संज्ञा पुं० [सं० हनु+हिं० फाल, फलाँग] एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में बारह मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होते हैं। उ०—इति हनुफालय छंद। कल बरनि बरनि सुकंद। —पृ० रा०, १।९५।
⋙ हनूमान्
संज्ञा पुं० [सं० हनूमत्]दे० 'हनुमान्'।
⋙ हनूष
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्य। राक्षस [को०]।
⋙ हनोज
अव्य० [फा० हनोज] अभी। अभी तक। जैसे,—हनोज दिल्ली दूर है। उ०—कवि सेवक बूढ़े भए तौ कहा पै हनोज है मौज मनोज ही की। —सेवक (शब्द०)।
⋙ हनोद
संज्ञा पुं० [देश०] हिंडोल राग के एक पुत्र का नाम।
⋙ हन्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुरीष। विष्ठा। मल [को०]।
⋙ हन्न (२)
वि० जिसका उत्सर्जन या त्याग किया गया हो (विष्ठा)।
⋙ हन्नाह पु
संज्ञा पुं० [सं० सन्नाह]दे० 'सनाह'। उ०—तुम्ह लेहु लेहु मुष जंप जोध। हन्नाह सूर सब पहरि क्रोध। —पृ० रा०, २०। ४७।
⋙ हन्यमान
वि० [सं०] जो मारने योग्य हो। हननीय। वध्य। २. जो मारा जा रहा हो [को०]।
⋙ हप †
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] कोई वस्तु मुँह में चट से लेकर ओंठ बंद करने का शब्द। जैसे,—हप से खा गया। मुहा०—हप कर जाना=झट से मुँह में डालकर खा जाना। चटपट उड़ा जाना। उ०—देखते देखते सारा भात हप से खा गया। हप करना=दे०'हप कर जाना'।
⋙ हपटाना †
क्रि० अ० [हिं० हाँफना] हाँफना।
⋙ हपुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दवा के काम आनेवाला एक फल जो बहुत काला होता है। ध्मांक्षनाशिनी [को०]।
⋙ हप्पा
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. भोजन। ग्रास। कौर। २. उत्कोच। घूस।
⋙ हप्पू (१)
संज्ञा पुं० [?] अफीम [को०]।
⋙ हप्पू (२)
वि० अधिक खानेवाला।
⋙ हप्ता पु †
संज्ञा पुं० [फा० हफ्तह्]दे० 'हफ्ता'। उ०—द्वै हप्ता हित ह्वै गई, जब रुखसत मंजूर। —प्रेमघन०, भा० १, पृ० १५४।
⋙ हफनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँफना] हँफने की क्रिया। हँफने का भाव। हफनी। उ०—गई दावरी बावरी आई आतुर न्हाइ। तपनि तरल नैनी सही मो हित हफनि मिटाइ। —स० सप्तक, पृ० २६४।
⋙ हफ्त
वि० [सं० सप्त, फा० हप्त] सात की संख्या का बोधक या वाचक। सात [को०]।
⋙ हफ्तगाना
संज्ञा पुं० [फा़० हफ्तगानह्] गाँव के पटवारी के सात कागज जिनमें वह जमीन, लगान आदि का लेखा रखता है — खसरा, बहीखाता, जमाबंदी, स्याहा, बुझारत, रोजनामचा और जिंसवार।
⋙ हफ्तदह
वि० [फा़० हफ्तदह] सप्तदश। सत्रह [को०]।
⋙ हफ्तहजारी
संज्ञा पुं० [फा० हफ्तहजारी] १. मुगलकालीन एक प्रति- ष्ठित पद। २. वह व्यक्ति जिसे यह पद प्राप्त हो [को०]।
⋙ हफ्ता
संज्ञा पुं० [फा० हफ्तहू] सात दिन का समय। सप्ताह।
⋙ हफ्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़० हफ्ती] एक प्रकार की जूती।
⋙ हबकना (१)
क्रि० अ० [अनुध्व० हप] १. मुँह बाना। खाने या दाँत से काटने के लिये झट से मुँह खोलना। २. पु उतावली करना। हप् हप् करना। जल्दबाजी करना। उ० —हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरै धरिबा पावं। गरब न करिबा सहजै रहिबा भणंत गोरष रावं। —गोरख०, पृ० ११।
⋙ हबकना (२)
क्रि० स० १. किसी भोज्य वस्तु या फल आदि को जल्दी जल्दी दाँतों से काटकर खाना। दाँत काटना। जैसे,—कुत्ते ने पीछे से आकर हबक लिया।
⋙ हबड़ हबड़ पु †
क्रि० वि० [अनुध्व०] दे० . 'हबर हबर'। उ० —दुर- मति दंभ गहे कर में डफ हबड़ हबड़ दै तारी। —धरम. श०, पृ० ६१।
⋙ हबड़ा
वि० [देश०] १. जिसके बहुत बड़े बड़े दाँत हों। बड़दंता। २. भद्दा। कुरूप। बदशकल।
⋙ हबर दबर, हबर हबर
क्रि० वि० [अनु० हड़बड़] १. जल्दी जल्दी। उतावली से। जल्दबाजी से। जैसे,—घर में तलवा नहीं टिकता, हबर दबर आईं फिर बाहर जा झमकीं। २. जल्दी के कारण। ठीक तौर से नहीं। हड़बड़ी से। जैसे,—इस तरह हबर हबर करने से काम नहीं होता।
⋙ हबराना पु ‡
क्रि० अ० [अनु०]दे० 'हड़बड़ाना'।
⋙ हबश
संज्ञा पुं० [फा० हब्श] अफ्रिका का एक प्रदेश जो मिस्र के दक्षिण पड़ता है और जहाँ के लोग बहुत काले होते हैं।
⋙ हबशिन
संज्ञा स्त्री० [फा० हबशी] १. हबश देश की औरत। हबशी औरत जो शाही महलों में पहरा देने का काम करती थी। २. अत्यंत ही काली स्त्री।
⋙ हबशी
संज्ञा पुं० [फा०] १. हबश देश का निवासी जो बहुत काला होता है। विशेष—हबशियों का रंग बहुत काला, कद नाटा, बाल घुँघराले और ओंठ बहुत मोटे होते हैं। पहले ये गुलाम बनाए जाते थे और बिकते थे। २. एक प्रकार का अंगूर जो जामुन की तरह काला होता है।
⋙ हबशी सनर
संज्ञा पुं० [फा०] अफ्रिका का गैड़ा जिसके दो सींग या खाँग होते हैं।
⋙ हबस पु
संज्ञा पुं० [फा़० हबश, हब्श] अफ्रिका का एक प्रदेश।दे० 'हबश'। उ० —करनाट, हबस, फिरंगहू बिलायती, बलख, रूम अरितिय छतियाँ दलति हैं। —भूषण ग्रं०, पृ० ८६।
⋙ हबसी पु
संज्ञा पुं० [फा़० हबशी]दे० 'हबशी'। उ०—तिल न होइ मुख मीत पर जानौ वाको हेत। रूप खजाने की मनौ हबसी चौकी देत। —रसनिधि (शब्द०)।
⋙ हबाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. बुद् बुद्। बुल्ला। २. शीशे का पतला गोला।
⋙ हबाबी
वि० [अ०] निःसार। हबाब जैसा। क्षणभंगुर।
⋙ हबि पु
संज्ञा पुं० [सं० हवि]दे० 'अग्नि'। उ० —त्रिसल तेज लग्गी बि भुअ, चष रत्ता हबि जान। —पृ० रा०, ६६। ४९३।
⋙ हबीब
संज्ञा पुं० [अ०] १. दोस्त। मित्र। २. प्रिय। प्यारा। यौ०—खुदा का हबीब=पैगंबर मुहम्मद साहब जो खुदा के परम प्रिय माने जाते हैं।
⋙ हबूब
संज्ञा पुं० [अ० हबाब या हुबाब] १. पानी का बबूला। बुल्ला। उ०—(क) यह सब मौज चौज सुख संगा, तन हबुब बुल्ले सम जाई। —घट०, पृ० १५६। (ख) तन हबूब बुल्ला जस फूटा। — घट०, पृ० ३१०। २. निःसार बात। झूठमूठ की बात। उ० — साधु जानै महासाधु, खल जानै महाखल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब हैं। —तुलसी (शब्द०)। ३. धूल से भरी तेज हवा। आँधी (को०)।
⋙ हबेली
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'हवेली'।
⋙ हब्ब
संज्ञा पुं० [अ०] १. गुटिका। गोली। २. अन्न का दाना [को०]।
⋙ हब्बा
संज्ञा पुं० [अ० हब्बह] १. अन्न का दाना। दाना। बीज। २. रत्ती भर बजन। आठ चावल का भार। ३. बहुत थोड़ा, जरा सा अंश या भाग। अत्यल्प मात्रा [को०]। यौ०—हब्बा भर=बहुत थोड़ा। रत्ती भर। हब्बा हब्बा=कौड़ी कौड़ी।
⋙ हब्बा डब्बा
संज्ञा पुं० [हिं० हाँफ>हँफ+अनु० डब्बा] जोर जोर से साँस या पसली चलने की बीमारी जो बच्चों को होती है।
⋙ हब्बुल् आस
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार की मेहँदी जो बगीचों में लगाई जाती है और दवा के काम में आती है। विलायती मेहँदी। विशेष—इस मेहँदी की पत्तियों से एक प्रकार का सुगंधित तेल निकाला जाता है। इस तेल से बाल भी बढ़ते हैं। इसके फल अतिसार और संग्रहणी में दिए जाते हैं और गठिया का दर्द दूर करने और खून रोकने के काम में आते हैं।
⋙ हब्स
संज्ञा पुं० [अ०] १. कैद। कारावास। २. अवरोध। रुकावट। रोक (को०)। ३. बरसात में हवा का बंद हो जाना। ऊमस (को०)। यौ०—हब्से दम=(१) श्वासावरोध। दम घुटना। (२) कुंभक प्राणायाम। हब्से दवाम=आजन्म कारावास। उम्र भर की कैद। हब्से बेजा=हब्स बेजा।
⋙ हब्स बेजा
संज्ञा पुं० [अ० हब्स ए बेजा] अनुचित रीति से बंदी करना। बेजा तौर पर कहीं कैद रखना।(कानून)।
⋙ हम (१)
सर्व० [सं० अहम्] उत्तम पुरुष बहुवचन का सूचक सर्वनाम शब्द। मैं का बहुवचन।
⋙ हम पु (२)
संज्ञा पुं० अहंकार। अपने को श्रेष्ठ मानने की या बड़प्पन की भावना। 'हम' का भाव। उ०—जब हम था तब गुरु नहीं जब गुरु तब हम नाहिं। —कबीर (शब्द०)।
⋙ हम (३)
अव्य० [फा०] १. साथ। संग। २. आपस में। परस्पर। ३. समान। तुल्य। यौ०—हमअसर। हमकौम=सजातीय। एक जाति का। हम- खाना=सह निवासी। एक साथ रहनेवाला। हमदर्दी। हमजिंस। हमजोली।
⋙ हमअसर
संज्ञा पुं० [फा० हम+अ० अस्त्र, असर] १. वे जिनपर एक ही प्रकार का प्रभाव पड़ा हो। समान संस्कार या प्रवृत्ति युक्त। समान प्रभाव या संस्कारवाला। २. एक ही समय में होनेवाले। साथी। संगी।
⋙ हमउम्र
वि० [फा० हम+अ० उम्र] अवस्था में समान। बराबर उम्र का।
⋙ हमकौम
वि० [फा० हम+अ० कौम] एक ही जाति के। सजातीय।
⋙ हमख्याल
वि० [फा० हम+ख़याल] समान विचारवाल। उ०— जब जब पर्दा फाश किया जाता है तब तब अमृत राय और उनके हमख्यालों का पारा ऊपर चढ़ जाता है। —प्रसाद०, पृ० १४५।
⋙ हमख्वाबा
संज्ञा स्त्री० [फा़० हमख्वा़बह्] पत्नी। भार्या। बीवी [को०]।
⋙ हमचश्म
वि० [फा़०] बराबरी का दर्जा रखनेवाला।
⋙ हमचश्मी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मित्रता। दोस्ती। बराबरी। उ०—दो चार अब तुम से क्यों कर होये हमचश्मी के दावे से। कि नरगिस की चमन में देखकर गरदन ढलकती है। —कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३।
⋙ हमजिंस
संज्ञा पुं० [फा़०] एक ही वर्ग या जाति के प्राणी। एक ही प्रकार के व्यक्ति।
⋙ हमजुल्फ
संज्ञा पुं० [फा़० हमजुल्फ़] साली का पति। साढ़ू। उ०— आपकी फूफी के नवासे का हमजुल्फ हूँ। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८६।
⋙ हमजोली
संज्ञा पुं० [फा० हम+हिं० जोड़ी] साथी। संगी। सहयोगी। सखा। उ०—खेलूँगी कभी न होली। उससे जो नहीं हम- जोली।—अर्चना, पृ० ३४।
⋙ हमता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अहम्, हिं० हम+सं० ता(प्रत्य०) अथवा सं० अहन्ता] अहंभाव। अहंकार। उ०—हमता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं सो हमता क्यौं मानौं। —सूर०, १।११।
⋙ हमतोल
वि० [हिं० हम+तोल] तुल्य। बराबर। समान। उ०— ओ हमतोल आपस में कर दोसती। किया भाव लोरक का मैना सती। —दक्खिनी०, पृ० ३७३।
⋙ हमदम
संज्ञा पुं० [सं०] हर समय का साथी। दोस्त। मित्र।
⋙ हमदर्द
वि०, संज्ञा पुं० [फा०] दुःख का साथी। दुःख में सहानुभूति रखनेवाला।
⋙ हमदर्दी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दूसरे के दुःख में दुःखी होने का भाव। सहानुभूति। जैसे,—मुझे उसके साथ कुछ भी सहानुभूति नहीं है।
⋙ हमन पु
सर्व० [सं० अहम्] हम। उ०—गमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या। —कबीर श०, भा० २, पृ० ७०।
⋙ हमनिवाला
वि० संज्ञा पुं० [फा० हमनिवालह्] एक साथ बैठकर भोजन करनेवाले। आहार के सखा। घनिष्ठ मित्र।
⋙ हमपच †, हमपचे †
सर्व० [हिं० हम+पंच] हम लोग।
⋙ हमपल्ला
वि० [फा० हमपल्लह्] जो तुल्य हो। समान। बराबरीवाला [को०]।
⋙ हमपेशा
वि० [फा० हमपेशह्] एक ही तरह का पेशा करनेवाला। जो व्यवसाय एक करता हो, वही व्यवसाय करनेवाला दूसरा। सहव्यवसायी।
⋙ हमबिस्तर
वि० [फा़०] १. एक ही शय्या पर सोनेवाला। २. एक ही बिछौने पर साथ में सोया हुआ। क्रि० प्र०—करना।—बनाना।—होना।
⋙ हमबिस्तरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. एक ही बिछौने पर साथ में सोने की क्रिया। २. प्रसंग। मैथुन। संभोग। सहवास।
⋙ हममजहब
वि० [फा़० हम+अ० मजहब] समान धर्म के अनुयायी। एक ही मजहब को माननेवाले। सहधर्मी।
⋙ हमर ‡
सर्व० [हिं०]दे० 'हमारा'। उ० —हे छोर छीन सब हमर देश। —नई०, पृ० २०।
⋙ हमरकाब
वि० [फा०] घुड़सवार के साथ चलनेवाला। सवारी के साथ जानेवाला। उ०—रक्षक शरीर का, हमरकाब, साथ लेता सेना निज। —अपरा, पृ० ८४।
⋙ हमरा †
सर्व० [हिं० हम]दे० 'हमारा'। उ०—(क) धर्म हमरा ऐसा निर्बल और पतला हो गया है कि केवल स्पर्श से वा एक चुल्लू पानी से मर जाता है। —भारतेंदु ग्रं०, भाग ३, पृ० ५८३। (ख) हम जाने हैं, परम तापसो हमरे सजन सुजाना। हम जाने हैं, परम निरिंद्रिय हमरे ये मेहमाना। —क्वासि, पृ०१३।
⋙ हमराज
वि० [फा० हमराज] रहस्य जाननेवाला। मर्मज्ञ। उ०— ना देखे पन उस दुख का दरबाज कोई। खुदा बिन न था उसको हमराज कोई। —दक्खिनी, पृ० १४०।
⋙ हमराह
अव्य० [फा०] (कहीं जाने में किसी के) साथ। संग में। जैसे,—लड़का उसके हमराह गया। मुहा०—हमराह करना=साथ में करना। संग या साथ में लगाना। हमराह होना=साथ जाना।
⋙ हमराही
वि० [फा०] सहपथिक। साथ यात्रा करनेवाला। सहयात्री। उ०—फ्रांस और इंगलैड पुराने अड्डे पूँजीशाही। कुछ ही दिन रह सके जंग में संग और हमराही। —हंस०, पृ० ४०।
⋙ हमरो पु
सर्व० [हिं०] हमारा। उ०—(क) कुपित भयों सुरपति मतवारौ। हमरो अवर कवन रखवारौ। —नंद० ग्रं०, पृ० ३०८। (ख) कहन लगै वृंदावन ऐसो। यह हमरौ बैकुंठ न जैसो। —नंद०, ग्रं०, पृ० २५७।
⋙ हमल
संज्ञा पुं० [अ०] स्त्री के पेट में बच्चे का होना। पाँव भारी होना। गर्भ। विशेष दे०। गर्भ'। क्रि० प्र०—होना। मुहा०—हमल गिरना=गर्भपात होना। पेट से बच्चे का पूरा हुए बिना निकल जाना। हमल गिराना=गर्भपात करना। पेट के बच्चे को बिना समय पूरा हुए निकाल देना। हमल रहना=गर्भ रहना। पेट में बच्चे की योजना होना। २. भार। बोझ (को०)।
⋙ हमला
संज्ञा पुं० [अ० हमलहू, हम्लहू] १. लड़ाई करने के लिये चल पड़ना। युद्धयात्रा। चढ़ाई। धावा। जैसे,—मुगलों के कई हमले हिंदुस्तान पर हुए। २. मारने के लिये झपटना। प्रहार करने के लिये वेग से बढ़ना। आक्रमण। ३. प्रहार। वार। ४. किसी को हानि पहुँचाने के लिये किया हुआ प्रयत्न। नुकसान पहुँचाने की काररवाई। ५. विरोध में कही हुई बात। शब्द द्बारा आक्षेप। क्रूर व्यंग्य। जैसे,—यह हमला हमारे ऊपर है, हम इसका जबाब देंगे। क्रि० प्र०—करना।— होना।
⋙ हमलावर
वि०, संज्ञा पुं० [फा० हमलहृआवर] आक्रमण करनेवाला। उत्क्रामक [को०]।
⋙ हमवतन
संज्ञा पुं० [फा़० हम+अ० वतन] एक ही प्रदेश के रहनेवाले। स्वदेशवासी। देशभाई।
⋙ हमवार
वि० [फा़०] जिसकी सतह बराबर हो। जो ऊँचा नीचा न हो। जो ऊबड़ खाबड़ न हो। समतल। सपाट। जैसे,—जमीन हमवार करना। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हमशीरा
संज्ञा स्त्री० [फा़० हमशीरह्] बहन। भगिनी। उ०—मैं इनके हमशीरा की खास का मामूहूँ। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८६।
⋙ हमसना पु
क्रि० अ० [हिं० हुमसना]दे० 'हुमकना'। उ० —हमसि कन्ह असि रीस, सीस चुकि परिय वाम भुज।—पृ० रा०, ७। १५७।
⋙ हमसफर
वि० [फा० हमसफ़र] साथ यात्रा करनेवाला। सहयात्री।
⋙ हमसबक
संज्ञा पुं० [फ़ा० हमसबक़] एक साथ पढ़नेवाला। सहपाठी।
⋙ हमसर (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] दरजे में बराबर आदमी। गुण, बल या पद में समान व्यक्ति। जोड़ का आदमी। बराबरी का आदमी।
⋙ हमसर (२)
वि० जोड़ का। बराबरी का।
⋙ हमसरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. समानता का भाव। तुल्यता। बराबरी। जैसे,—वह तुमसे हमसरी का दावा रखता है। २. अक्खड़पन। उद्दंडता (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हमसाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० हमसाज] मित्र। दोस्त [को०]।
⋙ हमसाया
संज्ञा पुं० [फ़ा० हमसायह] पड़ोसी। प्रतिवेशी।
⋙ हमसिन
वि० [फा०] समान अवस्था या उम्र का। हमउम्र।
⋙ हमहमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हम]दे० 'हमाहमी'।
⋙ हमाकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'हिमाकत' [को०]।
⋙ हमाम
संज्ञा पुं० [अ० हम्माम] नहाने का घर जहाँ गरम पानी रहता है। स्नानागार। उ०—मैं तपाय त्रय ताप सो राख्यो हियो हमाम। मकु कबहूँ आवे इहाँ पुलक पसीजे स्याम। — बिहारी (शब्द०)।
⋙ हमायल
संज्ञा स्त्री० [अ० हमाइक, हमायल] १. एक आभूषण।दे० 'हमेल'। २. गले में डालकर बगल में लटकाने की वस्तु। ३. दे०'परतला'। ४. छोटी या गुटकानुमा कुरान की पुस्तक [को०]।
⋙ हमार
सर्व० [प्रा० अम्हरो, अम्हार, हमार, हिं० हमारा]दे० 'हमारा'। उ०—हम लखि लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच। तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जपु नीच।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८८।
⋙ हमारा
सर्व० [हिं० हम+आरा (प्रत्य०)] [स्त्री० हमारी] 'हम' शब्द का संबंध कारक रूप।
⋙ हमारो पु ‡
सर्व० [हिं०] दे० 'हमारा' उ० —कहूँ लाभ करि कै आपकी मोहरे खरच करते तो हमारो सगरो धर्म नष्ट होइ जातो। —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७३। (ख) नारद प्रियतम भक्त हमारौ। तुमकौं कियौ अनुग्रह भारौ। — नंद० ग्रं०, पृ० २५४।
⋙ हमाल (१)
संज्ञा पुं० [अ० हम्माल] १. भार उठानेवाला। बोझ ऊपर लेनेवाला। २. सँभालनेवाला। रक्षा करनेवाला। रक्षक। रखवाला। उ०—पैज प्रतिपाल भूमिभार को हमाल, चहुँ चक्क को अमाल, भयो दंडक जहान को। —भूषण ग्रं०, पृ० १५। ३. (बोझ उठानेवाला) मजदूर। कुली। उ०—(क) पल पल्लौ भर इन लिया तेरा नाज उठाइ। नैन हमालन दै अरे दरस मजूरी आइ। —रसनिधि (शब्द०)। (ख) हारि हमाल की पोट सी डारि कै और दिवाल की ओट ह्वै खेले। —अर्ध०, पृ० ७।
⋙ हमाल (२)
वि० [अ०] सदृश। तुल्य। समान [को०]।
⋙ हमालल
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय?] सिंहल या सीलोन का सब से ऊँचा पहाड़ जिसे 'आदम की चोटी' कहते हैं।
⋙ हमासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] शूरता। वीरता [को०]।
⋙ हमासुमा
सर्व [हिं० हमा+फ़ा० शुमा] हम तुम। उ०—एक न एक मामला खड़ा करके हमासुमा को पीसते ही रहते हैं। —गोदान, पृ० ९४।
⋙ हमाहमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हम की द्बिरुक्ति] १. अपने अपने लाभ का आतुर प्रयत्न। बहुत से लागीं में से प्रत्येक का किसी वस्तु को पाने के लिये अपने को आगे करने की धुन। स्वार्थपरता। २. अपने की ऊपर करने का प्रयत्न। अहंकार।
⋙ हमीर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हम्मीर'।
⋙ हमें
सर्व [हिं० हम]' हम' का कर्म और संप्रदान कारक का रूप। हमको। जैसे—(क) हमें बताओ। (ख) हमें दो।
⋙ हमेल
संज्ञा स्त्री० [अ० हमायल] सिक्कों या सिक्के के आकार के धातु के गोल टुकड़ों की माला जो गले में पहनी जाती है। विशेष—यह प्रायः अशरफियों या पुराने रुपयों को तागे में गूँथ कर बनती है।
⋙ हमेव पु †
संज्ञा पुं० [सं० अहम्+एव] अहंकार। अभिमान। मुहा०—हमेव टूटना=गर्व चूर्ण होना। शेखी निकल जाना।
⋙ हमेशा
अव्य० [फा़० हमेशह्] सब दिन या सब समय। सदा। सर्वदा। सदैव। जैसे,—(क) वह हमेश ऐसा ही कहता है। (ख) इस दवा को हमेशा पीना। मुहा०—हमेशा के लिये=सब दिन के लिये।
⋙ हमेस, हमेसा
अव्य० [फ़ा० हमेशह्, हमेशा]दे० 'हमेशा'। उ०— भलि तजत हौं भूल नहिं यहै भूलि कौ देस। तुम जिन भूलौ नाथ मम राखहु सुरत हमेस। —स० सप्तक, पृ० ३४५।
⋙ हमैं पु
अव्य० [हिं०]दे० 'हमें'।
⋙ हम्द
संज्ञा स्त्री० [अ०] खुदा या ईश्वर का स्तोत्र। प्रार्थना। उ० — क्या नस्त्र क्या नज्म हर एक बाद कूँ, जेब व रौनक है खुदा के हम्द सूँ। —दक्खिनी०, पृ० २००।
⋙ हम्माम
संज्ञा पुं० [अ०] नहाने की कोठरी जिसमें गरम पानी रखा रहता है और जो आग या भाप से गरम रखी जाती है। स्नानागार।
⋙ हम्माल
संज्ञा पुं० [अ०] मजूर। मोटिया।दे०'हमाल' (१) [को०]।
⋙ हम्मीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो शंकराभरण और मारू के मेल से बना है। विशेष—इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं और इसके गाने का समय संध्या को एक से पाँच दंड तक है। यह राग धर्म संबंधी उत्सवों या हास्य रस के लिये अधिक उपयुक्त समझा जाता है। २. रणथंभोर गढ़ का एक अत्यंत वीर चौहान राजा जो सन् १३०० ई० में अलाउद् दीन खिलजी से बड़ी वीरता के साथ लड़कर मारा गया था।
⋙ हम्मीरनट
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग। विशेष—यह राग नट और हम्मीर के मेल से बना है। इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ हम्ह पु † (१)
सर्व० [हिं० हम]दे० 'हम'। उ०—अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै। —जायसी ग्रं०, पृ० ७५।
⋙ हम्ह (२)
सर्व० [हिं० हमें]दे० 'हमें'। उ०—सो धनि बिरहै जरि मुई तेहि क धुवाँ हम्ह लाग। —जायसी ग्रं०, पृ० १५०।
⋙ हयंकष
संज्ञा पुं० [सं० हयङ्कष] १. रथ का चालक। सारथि। २. इंद्र के सारथी मातलि का नाम [को०]।
⋙ हयंद पु
संज्ञा पुं० [सं० हयेन्द्र] बड़ा या अच्छा घोड़ा। उ०—यौ कहि हयंद हक्किय हरषि दंत चब्बि सेलहिं लहिय। —सुजान०, पृ० २०।
⋙ हय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० हया, हयी] १. घोड़ा। अश्व। २. कविता में सात की मात्र सूचित करने का शब्द (उच्चैःश्रवा के सातमुँह के कारण)। ३. चार मात्राओं का एक छंद। ४. इंद्र का एक नाम। ५. धनु राशि। ६. रतिमंजरी के अनुसार एक विशेष प्रकार का पुरुष [को०]।
⋙ हयकर्म
संज्ञा पुं० [सं० हयकर्मन्] घोड़ों का ज्ञान [को०]।
⋙ हयकातरा, हयकातरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजनिघंटु के अनुसार एक पौधा जिसे अश्वकातरा भी कहते हैं [को०]।
⋙ हयकोविद
वि० [सं०] अश्वशास्त्र का ज्ञाता [को०]।
⋙ हयगंध
संज्ञा पुं० [सं० हयगन्ध] काला नमक।
⋙ हयगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० हयगन्धा] १. अश्वगंधा। असगंध। २. यवानी। अजमोदा [को०]।
⋙ हयगर्दभि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ हयगृह
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वशाला। घुड़सार।
⋙ हयग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक अवतार। विशेष—मधु और कैटभ नाम के दो दैत्य जब वेद को उठा ले गये थे, तब वेद के उद्धार और उन राक्षसों के विनाश के लिये भगवान् ने यह अवतार लिया था। २. एक असुर या राक्षस। विशेष—यह असुर कल्पांत में ब्रह्मा की निद्रा के समय वेद उठा ले गया था। विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर वेद का उद्धार किया और इस राक्षस का बध किया था। ३. रामायण के अनुसार एक और राक्षस का नाम। ४. तांत्रिक बौद्धों के एक देवता। यौ०—हयग्रीवरिपु=विष्णु का एक नाम। हयग्रीवहा=विष्णु।
⋙ हयग्रीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।
⋙ हयघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] कनैर। करवीर [को०]।
⋙ हयचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ के अश्व का परिभ्रमण [को०]।
⋙ हयच्छटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ों का झुंड। हयदल [को०]।
⋙ हयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े का जानकार। २. अश्व का साईंस [को०]।
⋙ हयज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का ज्ञान [को०]।
⋙ हयदानव
संज्ञा पुं० [सं०] केशी नामक एक राक्षस [को०]।
⋙ हयद्बिषन्
संज्ञा पुं० [सं०] महिष। भैसा [को०]।
⋙ हयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्ष। साल। २. चारों तरफ से ढकी हुई गाड़ी या पालकी जिसपर ओहार पड़ा हो [को०]।
⋙ हयना पु
क्रि० स० [सं० हत, प्रा० हय+हिं० ना (प्रत्य०)] १. बध करना। मार डालना। हनन करना। उ०—(क) छन महँ सकल निशाचर हये। —तुलसी (शब्द०)। २. मारना। पीटना। चोट लगाना। ३. पीटकर बजाना। ठोंककर बजाना। उ०— देवन हये निसान। —तुलसी (शब्द०)। ४. काटना। छिन्न करना। अंग से अवयव विच्छिन्न करना। उ०—कटत झटिति पुनि नूतन भए। प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। —मानस, ६। ९१। ५. नष्ट करना। न रहने देना। उ०—प्रीति प्रतीति रीति परिमिति रति हेतुवाद हठि हेरि हई है। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ हयनाल
संज्ञा स्त्री० [सं० हय+हिं० नाल] घोड़े द्बारा खींची जानेवाली तोप। वह तोप जिसे घोड़े खींचते हैं।
⋙ हयनिर्घोष
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े के खुरों की या उनके हिनहिनाने की आवाज [को०]।
⋙ हयप
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की देखभाल करनेवाला। साईस [को०]।
⋙ हयपुच्छिका, हयपुच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मषवन। माषपर्णी [को०]।
⋙ हयप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] जौ। यव।
⋙ हयप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगली खजूर। खजूरी। २. असगंध। अश्वगंधा (को०)।
⋙ हयमार
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हयमारक' [को०]।
⋙ हयमारक
संज्ञा पुं० [सं०] करवीर। कनेर।
⋙ हयमारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनेर। २. अश्वत्थ। पीपल।
⋙ हयमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वहाँ घोड़े के से मुँहवाले आदमी बसते हैं। २. और्व ऋषि का क्रोधरूपी तेज जो समुद्र में स्थित होकर बड़वानल कहलाता है (रामायण)। ३. महाभारत के अनसार विष्णु का एक रूप (को०)।
⋙ हयमेध
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध यज्ञ।
⋙ हयवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर का एक नाम। २. सूर्य के पुत्र रेवंत का एक नाम [को०]। यौ०—हयवाहनशंकर=रक्तकांचन। लाल कचनार।
⋙ हयविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्व की शुभता तथा उसके गुणवगुण आदि जानने की विद्या [को०]।
⋙ हयशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वशाला। घुड़सार। अस्तबल।
⋙ हयशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वशास्त्र। अश्वविद्या [को०]।
⋙ हयशिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वशास्त्र। हयविद्या [को०]।
⋙ हयशिर
संज्ञा पुं० [सं० हयशिरस्] १. एक ऋषि का नाम। २. रामायण में उल्लिखित एक दिव्यास्त्र का नाम।
⋙ हयशिरा
संज्ञा पुं० [सं० हयशिरस्] विष्णु का हयग्रीव रूप [को०]।
⋙ हयशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का हयग्रीव रूप।
⋙ हयसंग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० हयसङ्गहण] घोड़े का नियंत्रण या हाँकने की कला [को०]।
⋙ हयसंयान
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हयसंग्रहण' [को०]।
⋙ हयसाला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हयशाला] अश्वशाला। घुड़ताला। उ०— राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला। —मानस, ६। २४।
⋙ हयस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० हयस्कन्ध] हयदल। घोड़ों का समूह [को०]।
⋙ हय हय पु
अव्य० [सं० हा हा] [हाय हाय]दे० 'हाय हाय'। उ०— सोहड़ सहु भेला किया, तिण वेला तिण वार। नर नारी सहु विलविलई, हय हय सरजण हार। —ढोला०, दू० ६०७।
⋙ हयांग
संज्ञा पुं० [सं० हयाङ्ग] धनु राशि।
⋙ हया (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] लज्जा। लाज। शर्म। उ०—हया से सर झुका लेना, अदा से मुस्करा देना। हसीनों का भी कितनासहल है, बिजली गिरा देना। —कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६२०। यौ०—हयादार। हयादारी। बेहया। बेहयाई।
⋙ हया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्वगंधा। २. वडवा। घोड़ी [को०]।
⋙ हयात
संज्ञा स्त्री० [अं०] जिंदगी। जीवन। उ०—लाई हयात आए, कजा ले चली चले। अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले।—कविता कौ०=,भा० ४, पृ० ४४१। यौ०—हीन हयात=जिंदगी भर के लिये। किसी के जीवन काल तक। जैसे,—मुआफी हीनहयात। हीन हयात में=जिंदगी में। जीते जी। जीवनकाल में।
⋙ हयादार
संज्ञा पुं० [अ० हया+फा० दार] वह जिसे हया हो। लज्जा- शील। शर्मदार।
⋙ हयादारी
संज्ञा स्त्री० [अ० हया+फा़०दारी] हयादार होने का भाव। लज्जाशीलता।
⋙ हयाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वशाला का प्रधान अधिकारी। घोड़े का प्रधान निरीक्षक [को०]।
⋙ हयानंद
संज्ञा पुं० [सं० हयानन्द] मूँग। मुदग [को०]।
⋙ हयानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक अवतार। विशेष दे० 'हयग्रीव'। २. वाल्मीकि रामायण के अनुसार हयग्रीव का स्थान।
⋙ हयानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योगिनी का नाम [को०]।
⋙ हयायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों की चिकित्सा का शास्त्र। शालिहोत्र।
⋙ हयारि
संज्ञा पुं० [सं०] करवीर। कनेर।
⋙ हयारूढ
संज्ञा [सं०] घुड़सवार। असवार [को०]।
⋙ हयारोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े पर चढ़ना। घुड़सवारी। २. असवार। घुड़सवार [को०]।
⋙ हयालय
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वशाला। घुड़साल [को०]।
⋙ हयाशन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धूप का पौधा जो मध्य भारत तथा गया और शाहाबाद के पहाड़ों में बहुत होता है।
⋙ हयाशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सल्लकी का वृक्ष [को०]।
⋙ हयासनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक गंधद्रव्य। लोबान [को०]।
⋙ हयास्य
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ हयि
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं०] आकांक्षा। स्पृहा [को०]।
⋙ हयी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ी।
⋙ हयी (२)
संज्ञा पुं० [सं० हयिन्] १. घुड़सवार। २. वह जिसके पास अश्व हो। घोड़ेवाला (को)।
⋙ हयुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा। पुं० दे० 'हपुषा' [को०]।
⋙ हयेष
संज्ञा पुं० [सं०] जौ। यव [को०]।