विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ओ
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ओ
⋙ ओ
संस्कृत वर्णमाला का तेरहवाँ और हिंदी वर्णमाला का दसवाँ स्वर वर्ण । इसका उच्चारणस्थान ओष्ठ और कंठ है । इसके उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा सानुनासिक और अननुनासिक भेद होते हैं । संधि में अ+उ=औ होता है ।
⋙ ओं
अव्य० [सं० ओम्] १. एक अर्द्धांगीकार या स्वीकृतिसूचक शब्द । हाँ । अच्छा । तथास्तु । २. परब्रह्मवाचक शब्द जो प्रणव मंत्र कहलाता है । विशेष—यह शब्द बहुत पवित्र माना जाता है और वेदमंत्रो के पहले तथा पिछे बोला जाता है । मांडूक्य उपनिषद् में इसी शब्द की व्याख्या भरी हुई है । यह ग्रंथ के आरंभ में भी रखा जाता है । पुराण में 'ओम्' के अ, उ और म् क्रम से विष्णु, शिव और ब्रह्मा के वाचक माने गए हैं ।
⋙ ओंकार
संज्ञा पुं० [सं० ओङ्कार] १. 'ओं' शब्द । २. 'ओं' शब्द का निर्देश या उच्चारण । ३. सोहन चिड़िया । ४. सोहन पक्षी का पर जिससे फौजी टोप की कलँगी बनती है ।
⋙ ओंकारनाथ
संज्ञा पुं० [सं०ओङ्कारनाथ] शिव के द्वादश ज्योतिलिंगों में से एक । इनका मंदिर मध्यप्रदेश के मांधाता नामक ग्राम में है ।
⋙ ओंग पु †
संज्ञा पुं० [सं० ओम्] दे० 'ओम्' । उ०— ब्रह्म ऋद्धि ओंग पद सारा । —कबिर श०, पृ० ६१ ।
⋙ ओंइछना †
क्रि० स० [आ+आवाञ्चन] वारना । न्योछावर करना ।
⋙ ओंकना
क्रि० अ० [हिं० ओकाई] दे० 'ओकना' ।
⋙ ओंगन †
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जन] गाडी़ के पहिए की धुरी में लगाने के काम आनेवाला तैल ।—(बोल०) ।
⋙ ओंगना
क्रि० स० [सं० अञ्जन या हिं० 'ओंगन' से] गाडी़ की धुरी में चिकनाई लगाना जिसमें पहिया आसानी से फिरे ।
⋙ ओंगा
संज्ञा पुं० [सं० अपामार्ग] लटजीरा । अज्जाझारा । चिचडा़ । अपामार्ग ।
⋙ ओंछना
क्रिं० स० [सं० उञ्छन, हिं० ऊँछना] दे० 'ऊँछना' ।उ०—वह अँचल धूल पोंछते, कर कंघी पर बाल पौंछते ।—साकेत, पृ० ३३८ ।
⋙ ओंझल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ओझल' । उ०—देवनंदन ने देखा, इतनी बातों के कहने पीछे वह जोत फिर ओंझल हो गई । —ठेठ०, पृ० ८१ ।
⋙ ओंटना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ओटना' ।
⋙ ओंठ †
संज्ञा पुं० [सं० ओष्ठ, प्रा० ओट्ठ] मुँह के बाहरी उभडे़ हुए छोर जिनसे दाँत ढँके रहते हैं । लव । होंठ । रदच्छद । रदपट । उ०—हरदम सिर पर मौत खडी़ है ओंठों पर ईश्वर है । —पथिक, पृ० ४२ । मुहा०—ओंठ उखाड़ना=परती खेत को पहले पहल जोतना । ओंठ काटना=दे०'ओंठ चबाना' । ओंठ चबाना=क्रोध और दुःख से ओंठ को दाँतों के नीचे दबाना । क्रोध और दुःख प्रकट करना । ओंठ चाटना=किसी वस्तु को खा चुकने पर स्वाद की लालसा रखना । जैसे,—उस दिन कैसी अच्छी मिठाई खाई थी, अबतक ओंठ चाटते होंगे । ओंठ चूसना=अधर चुंबन करना । ओंठ पपड़ाना=ओंठ पर खुश्की के कारण चमडे़ की सूखी हुई तह बँध जाना । ओठों पर आना या होना=जबान पर होना । कुछ कुछ स्मरण आने के कारण मुँह से निकलने पर होना । वाणी द्वारा स्फुरित होने के निकट होना । जैसे, —(क) उनका नाम ओंठों ही पर है, मैं याद करके बतलाता हूँ । (ख) उनका नाम ओंठों पर आ के रह जाता है । (अर्थात थोडा़ बहुत याद आता है और कहना चाहते हैं पर भूल जाता है) । ओठों पर मुस्कराहट या हँसी आना दिखाई देना=चेहरे पर हँसी देख पड़ना । ओंठ फटना=खूश्की के कारण ओंठ पर पपडी़ पड़ना । ओठ फड़कना=क्रोध के कारण ओंठ काँपना । ओंठ मलना=कड़ई बात करनेवाले को दंड देना । मुँह मसलना । जैसे, —अब ऐसी बात कहोगे तो ओंठ मल देंगे । ओठों में कहना=धीमें और अस्पष्ट स्वर में कहना । मुँह से साफ शब्द न निकलना । ओठों में मुसकराना= बहुत थोडा़ हँसना । ऐसा हँसना कि बहुत प्रकट न हो । ओंठ हिलना=मुँह से निकलना । ओंठ हिलाना=मुँह से शुद्ध निकलना ।
⋙ ओंड़ा (१) पु
वि० [सं० कूंड; प्रा० उंड] गहरा ।
⋙ ओंडा (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री०० ओंडी] १. गड्ढा । गढा । गर्त । उ०— औगुन की ओंडी, महाभोड़ी मोह की कनोड़ी, माया की मसूरती है मूरती है मैल की ।—राम० धर्म०, पृ० ६७ । २. चोरों की खोदी हुई सेंध ।
⋙ ओंध †
संज्ञा [सं० बन्ध] वह रस्सी जिससे छाजन पूरी होने के पहले लकड़ियाँ अपनी अपनी जगह पर कसी रहति हैं ।
⋙ ओ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।
⋙ ओ (२)
अव्य० १. एक संबोधनसूचक शब्द । जैसे,— ओ लडके इधर आओ । २. संयोजक शब्द । ओर । ३. विस्मय या आश्चर्यसूचक शब्द । ओह । ४. एक स्मरणसूचक शब्द । जैसे,—ओ हाँ ठीक है, आप एक बार हमारे यहाँ आए थे ।
⋙ ओ (३)पु
सर्व० [हिं०] दे० . 'वह' । उ०—उसकूँ कर कर सनाथ नामदेव दीनानाथ ओ गाई लियी सात उस वक्त चल दिये ।—दक्खिनी०, पृ० ५० । २. यह । उ०— राणी राजानूँ कहइ ओ म्हाँ नातरउ कीध । ढोला०, दू ९ ।
⋙ औअं पु
संज्ञा पुं० [सं० ओम्] दे० 'ओंम्' । उ०— पहिले आरति बिराजै, ओअं सोहं ध्यान लगावै । —धरनी०, पृ० १८ ।
⋙ ओःओः
अव्य० [हिं०] दे० 'ओह' । उ०—वह इतना डर जाता है कि उसके मुँह से ओःओः छोडकर सीधी बात न निकलती ।—रस० क० (भू०), पृ० ३ ।
⋙ ओआ
संज्ञा पुं० [देश०] हाथी फसाने का गड्ढा । ओप ।
⋙ ओई (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ का नाम ।
⋙ ओई (२)
सर्व० [हिं० वह; ओहि] दे० 'वह' । उ०—अधम के उधारन तुम चारो जुग ओई । मोते अब अधम आहि कवन धौं बड़ोई । —संतवाणी०, भा० २, पृ० १२९ ।
⋙ ओक
संज्ञा पुं० [सं० ओकस्] १. घर । स्थान । निवासस्थान । उ०— (क) सूर स्याम काली पर निरतत आवत हैं ब्रज ओक ।—सूर०, १० ।५६५ । (ख) ओक की नींव पर हरि लोक बीलोकत गंग तरंग तिहारे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २३४ । २. आश्रय । ठिकाना । उ०—(क) ओक दै बिसोक किए लोकपति लोकनाथ रामराज भयो चारिहु चरन ।—तुलसी ग्रं०, पृ ०— ५८० । (ख) सेनानी की सटपट, चंद्र चित चटपट, अति अति अतंकत के ओक है ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १४५ । यौ०—जलौक=जल में आश्रय या घरवाली । जोंक । ३. नक्षत्रों या ग्रहों का समूह । ढेर । उ०—घर घर नर नारी लसैं दिव्य रूप के ओक ।—मतिराम (शब्द०) । ५. पक्षी (को०) । ६. वृषल । शूद्र (को०) । ७. आनंद (को०) ।
⋙ ओक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बूक=अंजली] अँजुरी । अँजलि । उ०— (क) बैरी की नारि बिलख्खति गंग यों सूखि गयो मुख जीभ लुठानी । काढिये म्यान ते ओक करौं प्रिय तैं जु कह्यो तरवारि कै पानी ।—गंग०, ११२ ।(ख) अरी पनघटवाँ आनिअरै । अटपटि प्यास बरी ब्रजमोहन पलकनि ओक करै ।—घनानंद, पृ० ४९७ । क्रि० प्र०—लगाना । जैसे,— 'ओक लगाकर पानी पी लो' ।
⋙ ओक (३)
संज्ञा स्त्री० ['ओ ओ' से अनु०+ √ कृ > क] वमन करने की इच्छा । मतली ।
⋙ ओकण, ओकणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. खटमल । २. केशकीट । ढील । जूँ (को०) ।
⋙ ओकणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ओकण', 'ओकणि' [को०] ।
⋙ ओकना
क्रि० अ० [अनु० ओ०+हिं० करना या हिं० ओक+ना] १. ओ ओ करना । कै करना । २. भैंस की तरह चिल्लाना ।
⋙ ओकपति
संज्ञा पुं० [सं० ओकःपति]— सूर्य या चंद्रमा । पू०—नागरी स्याम सौं कहति बानी । रुद्रपति, छुद्रपति, लोकपति, ओकपति, धरनिपति, गगनपति अगम बानी । —सूर०, १० ।१९४७ ।
⋙ ओकस्
संज्ञा [सं०] घर । गृह । दे० 'ओक' । यौ०—वनौकस् दिवौकस् ।
⋙ ओकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओक+आई(प्रत्य०)] १. वमन । कै । २. बमन करने की इच्छा । मतली ।
⋙ ओकार
संज्ञा पुं० [सं०] 'ओ' अक्षर ।
⋙ ओकारांत
वि० [सं०ओकारांत] जिसके अंत में 'ओ' अक्षर हो । जैसे,—फोटो, ठोंगो ।
⋙ ओकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ओकाई' ।
⋙ ओकुल
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधभुना या तप्त किया हुआ गेहूँ [को०] ।
⋙ ओकुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँटे की रोटी [को०] ।
⋙ ओकूब पु
वि० [अ० उकूफ़] वाकिफ । जानकार । बुद्धिमान । उ०— चार भेद तिणरा चवै कवियण बड ओकूब । —रघु० रू०, पृ० ९७ ।
⋙ ओकोदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ओकण' (को०) ।
⋙ ओक्कणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ओकण' (को०) ।
⋙ ओक्य (१)
वि० [सं०] १. गृह के अनुकल । २. गृह संबंधी (को०) ।
⋙ ओक्य (२)
संज्ञा पुं० १. आनंद । प्रसन्नता । २. विश्राम स्थान । आश्रय । ३. गृह । मकान [को०] ।
⋙ ओखद (१) पु
संज्ञा पुं० [सं०औषध] दे० 'औषध' । उ०—(क) बिरह महाबिस तन बसइ ओखद दियइ न आइ ।—ढाला०, दू० १२७ ।(ख) जनहु बइढ ओखद लेइ आवा । रोगिया रोग मरत जिउ पावा ।—पदुमा०, पृ० ११० ।
⋙ ओखरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ओखली' ।
⋙ ओखल (१) †
संज्ञा पुं० [सं० ऊषर] परती भूमि । ऊसर ।
⋙ ओखल (२) †
संज्ञा पुं० [सं० उलूखल] ऊखल । ओखली ।
⋙ ओखली
संज्ञा स्त्री० [सं० उलूखलिका; प्रा० ओक्खली] काठ या पत्थर का बना हुआ गहरा बरतन जिसमें धान या और किसी अन्न को डालकर भूसी अलग करने के लिये मूसल से कूटते हैं । काँडी । हावन । मुहा०—ओखली में सिर देना=अपनी इच्छा से किसी झंझट में पड़ना । कष्ट सहने पर उतारू होना । जैसे, —अब तो हम ओखली में सिर दे ही चुके हैं, जो चाहे सो हो ।
⋙ ओखा (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० √ ओख्=वारण करना, बचाना] भिस । ब्याज । बहाना । हीला । उ०—(क) देखिबे को नँदनंदन को, ननदी नँदगाँव चलौं केहि ओखे ।—बेनी प्रविन (शब्द०) । (ख) नेकौ अनखति न अनख भरि आँखिन, अनोखी अनखीली रोख ओखे ते करति है ।—देव (शब्द०) ।
⋙ ओखा (२)
वि० [सं० √ ओख्='सूखना'; पं० औखा= टेढा़, कठिन] वि० स्त्री०ओखी] १.रूखा सूखा । २. कठिन । विकट । टेढा़ । उ०—सुनु, नीको न नेह लगवानो है, फिर जो पै लगै तो निबाहनो है । अति ओखी है प्रीति की रीति, अरी, नहिं जोस को रोस सुहावनो है ।—सुंदरी सर्वस्व (शब्द) । ३. खोटा । जिसमें मिलावट हो । चोखा का उलटा । ४. झीना । जिसकी बिनावट दूर दूर हो । बिरल । ५. ओछा । हलका । साधारण ।
⋙ ओखाण पु †
संज्ञा पुं० [हिं० उपाख्यान; प्रा० उवक्खाण] उपाख्यान । कथा । कहानी । उ०—उलटा समझे राम ओखणो साचो करयो । शरणागत दुखताम यह कारण अबही भयो ।— राम० धर्म, पृ० २९६ ।
⋙ ओखापन
संज्ञा पुं० [ हिं० ओखा+पन (प्रत्य०)] दे० 'ओछापन' ।
⋙ ओग पु
संज्ञा पुं० [सं०उद्+ √ ग्रह हिं० उगहना] उगहनी । कर । चंदा । महसूल । उ०—काहे को हमसों हरि लागत । पैंड़ों देहु बहुत अब कीनो सुनत हँसैंगे लोग । सूर हमैं मारग जनि रोकहु घर तें लीजै ओग ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ओगण (१)
वि० [सं०] सामर्थ्ययुक्त । संघटित [को०] ।
⋙ ओगण (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण] दे० 'अवगुण' ।—(डिं०) ।
⋙ ओगरना (२) †
क्रि० अ० [सं० अवगरण] पानी या और किसी तरल वस्तु का धीरे धीरे टपकना या निकलना । निचुड़ना । रसना ।
⋙ ओगरना (२)
क्रि० स० निकलना । बाहर करना । प्रकट करना । उ०—सत्त सब्द कै नेजा बाँध्यो ओगरत नाम अगारी हो ।—गुलाल०, पृ० २६ ।
⋙ ओगल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] परती भूमि ।
⋙ ओगल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओगरना, या प्रा० ओग्गाल=छोटा प्रवाह] एक प्रकार का कुआँ ।
⋙ ओगला †
संज्ञा पुं० [देश०] कूटू । फाफर । उ०— फाफड़ या फाफडा़ यहाँ ओगला कहा जाता है—किन्नर०, पृ० ७० ।
⋙ ओगार पु
संज्ञा पुं० [हिं० उगाल] पान की पीक । उ०—लाल यह सुंदर बीरी लीजै । हँसि हँसि कै नंदलाल अरौगी मुख ओगार मोहिं दीजै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १२७ ।
⋙ ओगारना †
क्रि० स०[ सं० अवगारण] कुएँ का पानी निकाल डालना । कुँआं साफ करना । छानना ।
⋙ ओगुण पु †
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण] दे० 'अवगुण' । उ०— अंग अपार हुवैं जो अवगुण, तोपिण नाह न नाह तजैं ।— रघु० रू०, पृ० १०२ ।
⋙ ओघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह । ढेर । उ०— सिल निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिलोक बनाइ बसाए । मानस, १ ।१६ ।यौ० अघौघ=पापों का समूह । २. किसी वस्तु का घनत्व । ३. बहाव । धारा । उ०— (क) सुनु मुनी उहाँ सुबाहु लखि निज दल खंडित गात । महा विकल पुनि रुधिर के ओघ विपुल तन जात ।—रामाश्वमेध (शब्द०) । (ख) साहस उमड़ता था वेगपूर्ण ओघ सा ।—लहर, पृ० ६९ । ४. सांख्य के अनुसार एक प्रकार की तुष्टि । कालतुष्टि । विशेष—'काल पा के सब काम आप ही हो जाएगा', इस प्रकार संतोष कर लेने को कालतुष्टि या 'ओघ' कहते हैं । ५. सातत्य । नैरंतर्य । अविच्छिन्नता (को०) । ६. परंपरा या परपंरागत निर्देश (को०) । ७. समग्र । संपूर्ण (को०) । ८. नृत्य का एक भेद (को०) । ९. द्रुत लय (को०) । १०.गीत के साथ बजाई जानेवाली तीन वाद्य विधियों में से एक । शेष दो के नाम तत्व और अनुगत हैं (को०) ।
⋙ ओघात पु
वि० [सं० अवघट] दे० 'अवघट' । उ०— इसे घाट ओघाट किन्ने हमीरं ।— हम्मीर रा०, पृ० १५२ ।
⋙ ओछ पु †
वि० [उञ्छ] दे० 'ओछा' । उ०— ओछ जानि कै काहुहि जिनि कोइ गरब करेइ । ओछे पर जो दैउ है जीति पत्र तेइ देइ ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११४ ।
⋙ ओछना (१)
क्रि० स० [हिं० ओछ+ना (प्रत्य०)] दे० 'ऊँछना' । उ०—भैय कबहिं बढै़गी चोटी ।....काढ़त गुहत नहावत ओछत नागिन सी भ्वै लोटी ।—कविता कौ०, भा०१, पृ० ६६ ।
⋙ ओछना पु † (२)
क्रि० स० [सं० अङ्गोञ्छन] दे० 'अँगोछना' ।
⋙ ओछना †पु (३)
क्रि० स० [सं० अवाञ्चन] दे० 'ओइंछना' ।
⋙ ओछब पु †
संज्ञा पुं० [सं० उत्सव, प्रा० उच्छव] दे० 'उत्सव' । उ०—जोधा जैत कमानै जादव, इल मछरीक करे धव ओछब ।—राज० रू०, पृ० ३२३ ।
⋙ ओछा
वि० [सं० तुच्छ, प्रा० उच्छ] [स्त्री० ओच्छी] १. जो गंभीर न हो । जो उच्चाशय न हो । तुच्छ । क्षुद्र । छिछोरा । बुरा । खोटा । उ०—(क) ये उपजे ओछे नक्षत्र के लंपट भए बजाइ । सूर कहा तिनकी संगति जे रहे पराएँ जाइ ।—सूर० १० ।२३९६ । (ख) ओछे बडे़ न ह्वै सकैं लगौं सतर ह्वै गैन । दीरघ होहिं न नैकहूँ फारि निहारे नैन ।—बिहारी र०, दो०९० । यौ०—ओछी कोख=ऐसी कोख या पेट जिससे जनमें लड़के न जिएँ । ओछी नजर=अदूरदर्शिता । हल्की निगाह । निम्न विचार । उ०—दिल साजना दुमेल, नीचे संग ओछी नजर ।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६१ । २. जो गहरा न हो । छिछला । उ०—देवलि जाँउँ तौ देवी देखौं तीरथ जाउँ त पाँणी । ओछी बुद्धि अगोचर बाँणी नहीं परंम गति जाणी ।—कबीर ग्रं० पृ० १५४ । ३. हल्का । जोर का नहीं । जिसमें पूरा जोर न लगा हो । जैसे,—ओछा हाथ पड़ा नहीं तो बचकर न निकल जाता । उ०—सहसा किसी ने उसके कंधे पर छुरी मारी, पर वह ओछी लगी ।—कंकाल, पृ० १७८ ।४. छोटा । कम । जैसे,—ओछा अँगरखा,ओछी पूँजी । उ०—या बाई ने बस्तू बडी़ पाई है और पात्र तो ओछो है ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१७ ।
⋙ ओछाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओछा+ई (प्रत्य०)] नीचता । क्षुद्रता । छिछोरापन । खोटाई । उ०—हमहिं ओछाई भई जबहिं तुमको प्रतिपाले । तुम पूरे सब भाँति मातु पितु संकट घाले ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ओछाड़ †
वि० [प्रा० ओच्छाय=आच्छादन करना] रक्षा करनेवाला । रक्षक । पालक । उ०—सगत सुखी कर सेवगां, अखिल जगत ओछाड़ । —बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ४८ ।
⋙ ओछापन
संज्ञा पुं० [हिं० ओछा+ पन (प्रत्य०)] नीचता । क्षुद्रता । छिछोरापन ।
⋙ ओछार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बौछाड़] दे० बौछाड़' ।
⋙ ओज (१)
वि० [सं० ओजस्] विषम । अयुग्म [को०] ।
⋙ औज † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओजना=सहना] कृपणता । किफायतदारी । कार्पण्य । जैसे, —वह बहुत ओज से खर्च करता है ।
⋙ ओज (३)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ओजस्वी, ओजित] १. बल । प्रताप । उ०—तेज ओज और बल जो बदान्यता कदम्ब सा ।—लहर, पृ० ५६ । २. उजाल । प्रकाश । उ०—कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज । कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर खोज । —कामायनी । ३. कविता का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश उत्पन्न हो । विशेष—वीर और रौद्र रस की कविता में यह गुण अवश्य होना चाहिए । टवर्गी अक्षरों की अधिकता, संयुक्ताक्षरों की बहुतायत और समासयुक्त शब्दों से यह गुण अधिक आता है । परुषावृत्ति में यह गुण होता है । ४. शरीर के भीतर के रसों का सार भाग । ५. ज्योतिष में विषम राशियाँ (को०) । ६. शस्त्रकौशल । ७. गति । वेग (को०) । ८. पानी (को०) । ९. प्रत्यक्ष होना । आविर्भाव होना (को०) । १०. धातु का प्रकाश (को०) । ११. जननशक्ति या जीवन शक्ति (को०) ।
⋙ ओजक पु
संज्ञा पुं० [हिं० उझकना] उछल कूद । क्रीड़ा । आनंद । उ०—लाडो लाडी जाय लडावण रात्यूँ ओजक सारै । जन हरिराम फिरै मन फीटि ध्यान न हरि का धारै ।—राम० धर्म०, पृ० १७३ ।
⋙ ओजना
क्रि० स० [सं० अवरुध्य; प्रा० ओरुज्झ; हिं० ओझल] रोकना । ऊपर लेना । सहना । स्वीकार करना ।
⋙ ओजसीन
वि० [सं०] मजबूत । शक्तिशील । ताकतवर [को०] ।
⋙ ओजस्वान्
वि० [सं०] १. शक्तिशाली । ताकतवर । २. दीप्त । चमकीला । ज्योतित (को०) ।
⋙ ओजस्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेज । कांति । दीप्ति । प्रभाव ।
⋙ ओजस्वी
वि० [सं० ओजस्विन्] [वि० स्त्री० ओजस्विनो] १. शक्तिमान् । तेजवान् । प्रभावशाली । २. प्रतापी । द्योतित । दीप्त । चमकीला (को०) ।
⋙ ओजित
वि० [सं०] १. बलवान् । प्रतापी । तेजवान । शक्तिशाली । २. उत्तेजित । जिसमें जोश आया हो । ओजयुक्त ।
⋙ ओजिष्ठ
वि० [सं०] अत्यंत उग्र । अत्यधिक शक्तिशाली [को०] ।
⋙ ओजोय
वि० [सं०] दे० 'ओजिष्ठ' [को०] ।
⋙ ओजूद
संज्ञा पुं० [अ० वजूद] शरीर । तन । जिस्म । उ०—तजौ कुलती मेटौ भंग । अहनिसि राषौ ओजुद बंधि । सरब संजोग आवै हाथि । गुरु राखै निरबाण समाधि ।—गोरख०, पृ० ७४ ।
⋙ ओजोन
संज्ञा पुं० [फ्रेंच] कुछ घना किया हुआ अम्लजन तत्व । विशेष—इसका घनत्व अम्लजन से १ १/२ गुना होता है । इसमें गंध दूर करने का विशेष गुण है । गरमी पाने से ओजोन साधारण अम्लजन के रूप में हो जाता है । ओजोन का बहुत थोड़ा अंश वायु में रहता है । नगरों की अपेक्षा गाँवों की वायु में ओजोन अधिक रहता है । सागरतट पर तथा पहाड़ों पर यह बहुत मिलता है इसका संकेत 'ओं' ३ है ।
⋙ ओजोन पेपर
संज्ञा पुं० [फ्रें० ओजोन+ अं० पेपर] एक प्रकार का कागज जिसके द्वारा यह परीक्षा हों सकती है कि वायु में ओंजोन है या नहीं ।
⋙ ओजोनबकस
संज्ञा पुं० [फ्रें० ओजो+ अं० बाक्स] वह संदूक जिसमें ओजोन पेपर रखकर परीक्षा करते है कि यहाँ कि हवा में ओजोन है या नहीं । यह बकस ऐसा बना होंता है कि इसके भीतर हवा ता जा सकती है, पर प्रकाश नहीं जा सकता ।
⋙ ओझ (१)
संज्ञा पुं० [सं० उदर; हिं० ओझर] १. पेट की थैली । पेट । २. आँत ।
⋙ ओझ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओझा] दे० 'ओझा' । उ०—तुलसी रामहि परिहरे निपट हानि सुनु ओंझ । सुरसरिगत सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ । —तुलसी ग्रं०, पृ० १०८ ।
⋙ ओझइत †
संज्ञा पुं० [हिं० ओझा+ ऐत > अइत (प्रत्य०)] दे० 'ओंझा' ।
⋙ औझइती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओझइत] दे० 'ओंझैती' ।
⋙ ओझकना पु †
क्रि० अ [हिं० उझकना] चौंकना । चमकना । ऊ०—सूती सपनै ओंझकी बोली अटपट बैन । जन हरिया घर आँगनै सही पधारे सैन । रा० धर्म०, पृ० ६७ ।
⋙ ओझड़ी †
संज्ञा स्त्री० [दे० प्रा० ओज्झरी] दे० 'ओंझरी' ।
⋙ ओझर
संज्ञा पुं० [सं० उदर, प्रा० ओज्झरी, पुं० हिं० ओदर, ओझर] [स्त्री० अल्पा० ओझरी] १. पेट । २ . पेट के भीतर की वह थैली जिसमें खाए हुए पदार्थ भरे रहते हैं । पचौनी ।
⋙ ओझराना पु †
क्रि० अ० [सं० अवरुन्धन; प्रा० ओरुज्झन] उलझना । अरुझाना । लिपटना । उ०—अधर सुखाएल केस ओंझराएल नीलि नलिन दल तहु ।—विद्यापति, पृ० ३०५ ।
⋙ ओझरी
संज्ञा स्त्री० [दे० प्रा० ओज्झरी] ओंझर । पचौनी । उ०— ओंझरी की झोरी काँधे आँतनि की सेल्ही बाँधेमूँड के कमंडलु खपर किए कोरि कै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १९५ ।
⋙ ओझल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अल=नहीं+ हिं झलक] ओंट । आड़ । उ०—अब तौ रूप की ओझल से इसे निशंक बातचीत करते देखूँगा । —शकुंतला, पृ० १४ ।
⋙ ओझल (२)
वि० लुप्त । गायब । उ०—दिल ओझल मेरा दिल जानी ।—धरनी०, पृ० १८ ।
⋙ ओझा (१)
संज्ञा पुं० [सं० उपाध्याय, प्रा० उवज्झाओ, उवज्झाअ, ओज्झाय] [स्त्री० ओझाइन] सरजूपारी, मैथिल और गुजराती ब्राह्मणों की एक जाति ।
⋙ ओझा (२)
संज्ञा पुं० भूत प्रेत झाड़नेवाला । सयान । उ०—भए जीउँ बिनु तनाउत ओझा । विष भइ पूरि, काल भए गोझा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ओझाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओझा+ई (प्रत्य०)] ओझा की वृत्ति । झाड़फूँक । भूत प्रेत झाड़ने का काम ।
⋙ ओझैती
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओझा+ऐत+ ई (प्रत्य०)] दे० 'ओझाई' ।
⋙ ओट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० उट=घास फूस या सं० आ+वृत्ति=आवरण, या सं० ओणन > ओंडन > ओट अथवा देश० ओहट्ट=अवगुंठन] १. रोक जिससे सामने की वस्तु दिखाई न पड़े या और कोई प्रभाव न डाल सके । विक्षेप जो दो वस्तुओं के बीच कोई तीसरी वस्तु आ जाने से होता है । व्यवधान । आड़ । ओझल । जैसे,—वह पेड़ों की ओट में छिप गया । उ०— लता ओट सब सखिन लखाए । —मानस, १ ।२३१ । मुहा०—आँखों से ओट होना=दृष्टि से छिप जाना । ओट में= बहाने से । हिले से । जैसे,—धर्म की ओट में बहुत से पाप होते हैं । २. शरण । पनाह । रक्षा । उ०—(क) बड़ी है राम नाम की ओट । सरन गऐं प्रभु काढ़ि देत नहिं, करत कृपा कै कोट ।—सूर०, १ ।२३२ । (ख) तन ओट के नाते जु कबहूँ ढाल हम आड़ी नहीं ।—पद्माकर ग्रं० पृ० १४ । ३. वह छोटी सी दीवार जो प्रायः राजमहलों या बड़े जनाने मकानों के मुख द्वार के ठीक आगे, अंदर की ओर परदे के लिये बनी रहती है । घूँघट की दीवार । गुलामगर्दिश ।
⋙ ओट (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कुसुमोदर नाम का एक वृक्ष । विशेष—इसमें बरसात के दिनों में सफैद और पीले सुगंधित फूल तथा ताड़ की तरह के फल लगते हैं । इन फलों के अंदर चिकना गुदा होता है और इनका व्यवहार खटाई के रूप में होता है । वैद्यक में यह फल रुचिकर, श्रम-शूल-नाशक, मलरोधक और विषघ्न कहा गया है । पर्या०—भव । भव्य । भविष्य । भवन । वकशोधन । लोमक । संपुटांग । कुसुमोदर ।
⋙ ओटन
संज्ञा पुं० [सं० आ+वर्तन, हिं० ओटना] चरखी के दो डंडे जिनके घूमने से रुई में से बिनौले अलग हो जाते हैं ।
⋙ ओटना
क्रि० स० [सं० आवर्तन, पा० आवट्टन, प्रा० आउट्टण] १. कपास को चरखी में दबाकर रुई और बिनौलों को अलग अलग करना । उ०—यहि विधि कहौं कहा नहिं माना । मारग माहि पसारिनि ताना । रात दिवस मिलि जोरिन ताना । ओटत कातत भरम न भागा ।—कबीर (शब्द०) । २. बार बार कहना । अपनी ही बात कहते जाना । जैसे, —तुम तो अपनी ही ओटते दूसरे की सुनते ही नहीं । ३. रोकना । आड़ना । अपने ऊपर सहना । उ०—(क) दास को जो डारी चोट ओट लई अंग में ही नहीं मैं तो जाहुँ विजय मूरति बताई है । —प्रिया० (शब्द०) । (ख) मुरि मुसुकाइ जो पिछौंहैं चोट ओटी है ।—रत्नाकर, भा०२, पृ० २०९ । ४. अपने जिम्मे लेना । अपने ऊपर लेना ।
⋙ ओटनो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओटना] कपास ओटने की चरखी । चरखी जिसमें कपास के बिनौले अलग किए जाते हैं । बेलनी ।
⋙ ओटपाय
संज्ञा पुं० [सं० अष्टपाद, प्रा० अट्ठापाव] दे० 'अठपाव' । उ०—चाड़ सिर चढ़त बढ़त अति लाडिलो ह्वै कैसे गनै बनै जेब ओटपाय तब के ।—घनानंद०, पृ० ४६ ।
⋙ ओटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ओट] १. परदे की दीवार । पतली दीवार जो केवल परदे के वास्ते बनती है । उ०—(क) मन अरपण कौधै हरि मारग । चाहै प्रज ओटे चड़ी ।—बेलि०, दू० १३९ । (ख) चाहै मुख अंगणि ओटे चढ़ि ।—बेलि०, दू० १५५ । २. परकोटा । घेरा । बाँध । उ०—तन सरवर जल बीर रस ओटा । बंधि सुरष्षि ।—पृ० रा०, ५ ।९६ । ३. आड़ । ओट । उ०—देखत रूप ठगौरी सी लागत नैननि सैन निमेष की ओटा । —नंद० ग्रं०, पृ० ३४१ । †४. ब्राह्मणी । बमनी । बनकुस ।
⋙ ओटा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओटना] कपास ओटनेवाला आदमी ।
⋙ ओटा (३)
संज्ञा पुं० [हि० उठना] जाँते के निकट पिसनहारियों के बैठने का चबूतरा ।
⋙ ओटा (४)
संज्ञा पुं० [ह० गोंठना] सोनारों का एक औजार जिससे वे बाजूबंद के दाँतों की खोरिया बनते हैं । इसे गोटा भी कहते है ।
⋙ ओटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओटना] चरखी । कपास ओटने की कल ।
⋙ ओठँगन †
संज्ञा पुं० [हिं० ओठँगना] दे० 'उठँगन' ।
⋙ ओठँगना
क्रि० अ० [सं० *अवस्थाङ्गन प्रा० *ओट्ठागन या हिं० उठ़ना+ अंग] १. किसी वस्तु से टिककर बैठना । सहारा लेना । टेक लगाना । उठँगना । २. थोड़ा आराम करना । कमर सीधी करना ।
⋙ ओठँघना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'ओठँगना' । उ०—सब चौपारिन्ह चंदन खंभा । ओठँधि सभापति बैठे सभा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६ ।
⋙ ओठँघाना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'उठँगाना' ।
⋙ ओठ (१) †
संज्ञा पुं० [सं० ओष्ठ, प्रा० ओट्ठ] दे० 'ओठ' । उ०—मुझे प्यास लगी थी, ओठ चाटने लगी । —कंकाल, पृ० २१३ ।
⋙ ओठ (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० औंठ] वह खेत जो परती छोड़ते है । उ०—सिमटा पानी खेतों का, ओठ पर चले हल ।—अपरा, पृ० १६५ ।
⋙ ओड़ (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ओट] दे० 'ओट' । उ०—गरब अगिन गहिरे सब जरा । बिनती ओड़ खरग निसतरा ।—चित्रा०, पृ० १५५ ।
⋙ ओड़ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अवार] दे० 'ओर (२)' । उ०—(क) कबार तासूँ प्रीति करि जो निरबाहै ओड़ि ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४८ । (ख) मानिनि मान आबहु कर ओड़ । रयनि लबहलि हे रहलि अछ थोड़ । —विद्यापति, पृ० १२२ ।
⋙ ओड़ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० औंड या देश०] १. वह जो गदहों पर ईँट, चूना मिट्टा आदि ढोता हो । गदहों पर माल ढोनेवाला व्यक्ति । दे० 'औंड' ।—वर्ण०, पृ० १ ।
⋙ ओडक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ओडव' [को०] ।
⋙ ओड़चा †
संज्ञा पु० [हिं० ओलचर] दे० 'ओलचा' ।
⋙ ओड़न पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ओड़ना] १. ओड़ने की वस्तु । वार रोकने की चीज । उ०—हुकुम बीर कमधज्ज सस्त्र ओडन सब झिल्लं । —पृ० रा०, ६१ ।२०१३ । २. ढाल । फरी । उ०— दूसर खर्ग कंध पर दीन्हा । सुरजैं वै ओड़न पर लीन्हा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ओड़ना
क्रि० स० [सं० ओणन=हटाना या हिं० ओड़+ना (प्रत्य०)] १. रोकना । वारण करना । आड़ करना । उ०— होहिं कुठायँ सुबंधु सहाये । ओड़िअहिं हाथ असनिहु के धाये ।—मानस, २ ।३०५ । २. ऊपर लेना । सहना । उ०—दूसरी ब्रह्म की शक्ति अमोघ चलावत ही हाइ हाइ भइ है । राख्यो भले सरनागत लक्ष्मन फूलि कै फूल सी ओड़ लई है ।—राम चं०, पृ० १२१ । ३. (कुछ लेने के लिये) फैलाना । पसारना । रोपना । उ०—(क) लेहु मातु, सहिदानि मुद्रिका दई प्रीति करि नाथ । सावधान ह्वै सोक निवारहु ओड़हु दच्छिन हाथ । सूर० ९ ।८३ । (ख) संपदा के कीजै कहौ कौनै नहिं ओडयो हाथ । —गंग०, पृ० १२८ । (ग) अंचल ओड़ि मनवहिं विधि सों सबै जनकपुर नारी । विघ्न निवारि विवाह करावहु जो कुछ पुन्य हमारी ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ओड़व
संज्ञा पुं० [सं०] राग का एक भेद जिसमें 'सा ग म ध नि' ये पाँच स्वर आते हैं । इसमें ऋषम और पंचम वर्जित हैं । मलार आदि राग इसके अंतर्गत हैं । यौ०—ओडव षाडव=संगीत में ओड़व का एक भेद । इसके आरोह में पाँच स्वर और अवरोह में छह स्वर प्रयुक्त किए जाते हैं । ओंडव संपूण=यह भी ओडव का एक भेद है । जिसके आरोह में पाँच स्वर और अवरोह में संपूर्ण अर्थात् सात स्वरों का प्रयोग किया जाता है ।
⋙ औड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड; प्रा० उंड] [स्त्री० ओड़ी] १. दे० 'ओड़ा' । २. बाँस का वह टोकरा जिसमें तंबोली पान रखते है । खोंचा । बड़ा टोकरा । उ०—मुख ओड़ी रे माहिले पर काचड़ा पुरीष ।—बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ० ५७ । ३. एक खँचिया का मान जिससे सुर्खी, चूना नापा जाता है ।
⋙ ओड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० ऊन; प्रा० ऊण] कमी । अकाल । टोटा । मुहा०—ओड़ा पड़ना=(१) अप्राप्य होना । अकाल पड़ना । २. मिटना ।
⋙ ओडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना जाते बोए उत्पन्न होनेवाला धान्य । निवार । तिन्नी [को०] ।
⋙ ओड़िया †
संज्ञा पुं० [हिं० उड़िया] दे० 'उड़िया' ।
⋙ ओड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ओडिका' [को०] ।
⋙ ओडेसी
संज्ञा पुं० [अं०] होमर प्रणीत यूनानी भाषा का एक प्रसिद्ध प्रबंध काव्य जिसमें ओडेसी या यूलिसिस नामक नायक के ट्राय नगर के घेरे के बाद घर लौटने का बड़ा ही विशद और रोचक वर्णन है ।
⋙ ओड़ैसी पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उड़ीसा' । उ०—आगे पाउँ ओड़ैसा बाएँ देहु सो बाट ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २१४ ।
⋙ ओड्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. उड़ोसा देश । २. उस देश का निवासी । ३. गुड़हर का फूल । देवीफूल । अड़हुल ।
⋙ ओढ
वि० [सं०] समीप या नजदीक लाया हुआ [को०] ।
⋙ ओढ़न †
संज्ञा पुं० [हिं० ओढ़ना] ओढ़ने का वस्त्र । उ०—लोभइ ओढ़न डासन । सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न ।—मानस, ७ ।४० ।
⋙ ओढ़ना (१)
क्रि० स० [सं० अवा या उपा+वेष्ठन, प्रा० ओवेट्ठण] १. कपड़े या इसी प्रकार की और वस्तु देह ढकना । शरीर के किसी भाग को वस्त्र आदि से आच्छादित करना । जैसे,—रजाई ओढ़ना, दुपट्टाऔढ़ना, चद्दर औढ़ना । उ०—मारग चलत अनीति करत है, हठ करि माखन खात । पीतांबर वह सिर तैं औढ़त अंचल द मुसुकात । —सूर०, १० ।३३८ । २. अपने ऊपर लेना । सहना । उ०—परै सो ओंढ़ै सीस पर भीखा सनमुख जोइ । दृढ़ निस्चै हरि को भजै होनी होइ सो होइ ।—भीखा०, श० पृ० ९४ । ३. जिम्मे लेना । भागी बनना । अपने सिर लेना । जैसे,—उनका ऋण हमने अपने ऊपर ओढ़ लिया । उ०—बोलै नहीं रह्यों दुरि बानर द्रुम में देह छिपाइ । कै अपराध ओढ़ अब मेरा कै तू देहि दिखाइ । —सूर०, (शब्द०) । मुहा०—ओढ़े या बिछावें?=क्या करें? किस काम में लावें? उ०—दुसह वचन अलि हमैं न भार्वै । जोंग कहा ओंढ़ैं कि बिछावैं । —सूर०, १० ।४०९४ ।
⋙ ओढ़ना (२)
संज्ञा पुं० ओढ़ने का वस्त्र । उ०—मधूलिका का छाजन टपक रहा था । ओंढ़ने की कमी थी । वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी ।—आँधी, पृ० ११७ । यौ०—ओढ़ना बिछौ़ना=(१) ओंढ़ने और बिछाने का वस्त्र । (२) व्यवहार की वस्तुएँ । सरंजाम । टंटघंट । मुहा०—ओढ़ना उतारना=अपमानित करना । इज्जत उतारना । ओढ़ना ओढ़ाना =राँड़ स्त्री के साथ सगाई करना (छोटी जाति) । ओढ़ना गले में डालना =बाँधकर न्यायकर्ता के पास ले जाना । अपराधी बनाकर पकड़ रखना । विशेष—पहले यह रीति थी कि जब छोटी जाति की स्त्रियों के साथ कोई अत्याचार करता था तब वे उसके गले में कपड़ा डालकर चौधरी के पास ले जाती थीं । ओढ़ना बिछौना बनाना=हर वक्त या बेपरवाही से काम में लाना ।
⋙ ओढ़नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओढ़ना] स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र । उपरेनी । फरिया । उ०—देख ललाई स्वच्छ मधूक कपोल में; खिसक गई उर से जरतारी ओढ़ना ।—महा०, पृ० १३ । मुहा०—ओढ़नी बदलना=बहनापा जोड़ना । सखी बनना । बहन का संबंध स्थापित करना ।
⋙ ओढ़र पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ओढ़ना या ओढ़=ओट, सहारा] बहाना । मिस । उ०—सुनि बोली ओढ़र जनि करहू । निज कुल रीति हृदय महँ धरहू । सैन बैन सब गोपिन केरै । करि ओढ़र आवैं चलि नेरे । —विश्राम (शब्द०) ।
⋙ ओढ़वाना
क्रि० स० [हिं० ओढ़ाना का प्रे० रूप] कपड़ों से ढकवाना ।
⋙ ओढ़ाना
क्रि० स० [हिं० ओढ़ना] ढाँकना । कपड़े से आच्छादित करना । उ०—(क) कामरी ओढ़ाय कोई साँवरों कुँवर मोंहिं बाँह गहि लायो छाँह बाँह की पुलिन ते ।—देव (शब्द०) । (ख) नीरा चौंककर उठी और एक फटा सा कंबल उस बुड्ढे को ओढाने लगी ।—आँधी, पृ० १०७ ।
⋙ ओढ़ोनी पु, ओढ़ौनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओढ़ना] दे० 'ओढ़नी' । उ०—धूरि कपूर की पूरि विलोचन सूँधि सरोरुह ओढ़ि ओढ़ोनी ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १६९ ।
⋙ ओत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवधि पु० हिं० औध, औधि] १. कष्ट की कमी । आराम । चैन । उ०—(क) नाना उपचार करि हारे सुर सिद्ध मुनि, होत न बिसोक ओत पावै न मनाक सो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७७ । (ख) भली बस्तु नागा लगै काहू भाँति न ओत । त्रै उद्वेग सुवस्तु अरु देश काल तें होत ।—देव (शब्द०) । २. आलस्य । ३. किफायत । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ ओत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवाप्ति या हिं० आवत] प्राप्ति । लाभ । नफा । बचत । जैसे,—जहाँ चार पैसे की ओत होगी वहाँ जायँगे । यौ०—ओत कसर = नफा नुकसान । जैसे—इनमें कौन सी ओत कसर है ।
⋙ ओत (३)
संज्ञा पुं० [सं०] ताने का सूत ।
⋙ ओत (४)
वि० [सं०] बुना हुआ । गुँथा हुआ । यौ०—ओतप्रोत ।
⋙ ओत (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओट] दे० 'ओट' । उ०—साहि तनै सरजा के भय सों भगाने भूप, मेरु मै लुकाने ते लहत जाय ओत हैं ।—भूषण ग्रं०, पृ० १९ ।
⋙ ओतनी पु †
वि० [अ० वतनी] देश का । स्वदेश संबंधी । अपने देश का । उ०—अरे हाँ, पलटू बड़े खेलाड़ी यार हमारे ओतनी ।—पलटू०, पृ० ७९ ।
⋙ ओतप्रोत (१)
वि० [सं०] एक में एक बुना हुआ । गुथा हुआ । परस्पर लगा और उलझा हुआ । बहुत मिला हुआ । इतना मिला हुआ कि उसका अलग करना असंभव सा हो । उ०—ओतप्रोत है जहाँ मनुज का जीवन मद मत्सर से ।—पथिक, पृ० १३ ।
⋙ ओतप्रोत (२)
संज्ञा पुं० १. ताना बाना । २. एक प्रकार का विवाह जिसमें एक आदमी अपनी लड़की का विविहा दूसरे के लड़के के साथ करता है और दूसरा भी अपनी लड़की का विवाह पहले के लड़के साथ करता है ।
⋙ ओता पु †
वि० [हिं० उतना] [स्त्री० ओती] उतना । उ०—(क) मोहिं कुसल सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता । —जायसी ग्रं०, पृ० ६३ । (ख) कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजहि जोति कहाँ जग ओती ।—जायसी ग्रं०, पृ० ४२ ।
⋙ ओतान पु †
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] श्रुत राग या सुनेने से उत्पन्न अनुराग । उ०—सुनि राजन लाग्गै ओतानं । लग्गे मीनकेतु क्रत बानं । —पृ० रा० २५ ।२८ ।
⋙ ओतारा पु †
संज्ञा पुं० [सं०अवतरण, हिं० उतारा] दे० 'उतारा' । उ०—पेखे पुर वासियाँ, धणी अगजीत धरा रौ । जादम गायद तणै, बाग कीधौ ओतारौ । —राज०, रू०, पृ० ३५१ ।
⋙ ओताल पु †
क्रि० वि० [सं० उद्+त्वर] शीघ्र । जल्दी । उ०— पड़ही लहराँ मिस पगां, त्याँ हँदा ओताल ।—बाँकी०, ग्रं०, भा० ३, पृ० ९६ ।
⋙ ओतु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताना । २. बिड़ाल । मार्जार [को०] ।
⋙ ओतु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिल्ली ।
⋙ ओतू
संज्ञा पुं० [सं० ओतु] ओतु । ताना । उ०— 'बुनने की करघी 'तेसर' कहलाती थी, ताना 'ओतू' और बाना 'तंतु' कहलाता था' ।—हिंदु सभ्यता, पृ० ७९ ।
⋙ ओतो पु †
वि० [हिं०] दे० 'ओता' ।
⋙ ओत्ता (१)
वि० [हिं०] दे० 'ओता' या 'उतना' ।
⋙ ओत्ता (२) †
संज्ञा पुं० [सं० अवस्था] उस पटरे का पावा जिसपर दरी बुननेवाले बैठते हैं ।
⋙ ओथ
संज्ञा पुं० [अं०] शपथ । प्रतिज्ञा ।
⋙ ओद (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० आर्द्र, प्रा० उद्द या सं० उद = जल] नमी । तरी । गीलापन । सील ।
⋙ ओद (२)
वि० गीला । आर्द्र । तर । उ०—आनँदकंद सकल सुखदायक, निसि दिन रहत केलि रस ओद ।—सूर०, १० ।११९ ।
⋙ ओदक
संज्ञा पुं० [सं०] जल में रहनेवाला जंतु । जलप्राणी [को०] ।
⋙ ओदन
संज्ञा पुं० [सं०] पका हुआ चावल । भात । उ०—(क) जल लौं हौं जीवौं जीवन भर सदा नाम तव जपिहौं । दधि ओदन देना भरि दैहौं अरु भाइनि मैं थपिहैं ।—सूर०, ९ ।१६४ । (ख) भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ।—मानस, १ ।२०३ । २. बादल । मेघ [को०] ।
⋙ ओदनपाकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीलझिंटिका [को०] ।
⋙ ओदनाह्वया, ओदनाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ओदनिका' ।
⋙ ओदनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बला नामक औषधि । २. महासमंगा नामक एक पौधा [को०] ।
⋙ ओदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बला । बरियारा । बीजबंध ।
⋙ ओदनीय, ओदन्य
वि० [सं०] १. ओदन संबंधी । २. ओदन के योग्य [को०] ।
⋙ ओदर (१) †
पुं० [सं० उदर] दे० 'उदर' । उ०—(क) जब रहली जननी के ओदर परन सँभारल हो ।—धरम०, पृ० ४५ । (ख) पुनि वह जोति मातु घट आई । तेहि ओदर कादर बहु पाई ।—जायसी ग्रं०, पृ० १९ ।
⋙ ओदरना पु †
क्रि० अ० [सं० अवदारण, हिं० ओंदारना] १. विदीर्ण होना । फटना । २. छित्र भिन्न होंना । दहना । नष्ट होना । जैसे, —घर ओदरना । उ०—फूटहिं कोंट फूट जनु सीसा । ओदरहिं बरुज जाहिं सब पीसा ।—जायसी ग्रं०, पृ० २३४ ।
⋙ ओदा
वि० [सं० आर्द्र प्रा० उद्द, हिं० ओद या सं० उद = जल] [वि० स्त्री० ओदी] गीला । नम । तर । उ०—(क) उत्तम विधि सौं मुख पखराया ओदे बसन अँगैछि । —सूर० १० ।६०९ । (ख) बिरहिनि ओदी लाकड़ी ओ धुँधुआय । छूटि पड़ौ या बिरह से जो सिगरी जरि जाय ।—कबीर सा०, पृ० १६ ।
⋙ ओदात †
संज्ञा पुं० [सं० अवजात] दे० 'अवदात' । उ०—हरित, मंजिष्ठ, लोहित, श्वेत (ओदात) या मिश्रित... ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २०१ ।
⋙ ओदादार पु †
वि० [फा० ओहदेदार] दे० 'ओहदार' । उ०—ओदादार आगै छा जकां ने दूरि कीनां । माटा कांम छोटा आदम्यां नै सोंप दीनां ।—शिखर०, ११० ।
⋙ ओदारना †
क्रि० स० [सं० अवदारण या उद्दारण] १. विदीर्ण करना । फाड़ना । २. छिन्न भिन्न करना । ढाना । नष्ट करना ।
⋙ ओदासी पु †
संज्ञा पुं० [हिं० उदासी] विरक्त पुरुष । त्यागी पुरुष । उ०—ना हुई गिरही ना ओदासी । ना इहु राज न भीख मँगासी । —कबीर ग्रं०, पृ० ३०१ ।
⋙ ओद्रक पु †
संज्ञा पुं० [सं० उदक] दे० 'उदक' । उ०—सामंद्र डहोला ओद्रका, जांण हिलोलां हल्लियौ ।—रा० रू०, पृ० १६४ ।
⋙ ओध (१)
संज्ञा पुं० [सं० ओधस्] थन । स्तन [को०] ।
⋙ ओध पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवधि] सीमा । हद्द । पराकाष्ठा । उ०— भूषन भनत भौंसिला भुवाल भूमि तेरी करतूति रही अदभुत रस ओध है ।—भूषण ग्रं०, पृ० १०९ ।
⋙ ओधण †
संज्ञा पुं० [सं० अधस, हिं० ओंधा] मोटो लंबे लकड़े, जो गाड़ी के नीचे लगे रहते हैं । उ०—बड़कै ओधण बंधियाँ, पैसे पई पताल ।—बाँकी०, ग्रं०, भा०१, पृ० ३८ ।
⋙ ओधना
क्रि० अ० [सं० आबन्धन] १. बँधना । लगना । फँसना । उलझना । उ०—रोंव रोंव तन तासौं ओधा । सूतहि सूत बेधि जिउ सोधा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११२ । २. काम में लगना या फँसना । उ०—सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे । निज निज काज पाइ सिख ओधे ।—मानस, २ ।३२२ ।
⋙ ओधना (२) पु
क्रि० स० नाँधना । ठानना । उ०—भारत ओंइ जूझ जो ओधा । होहिं सहाय आइ सब जोधा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११३ ।
⋙ ओधा †
संज्ञा पुं० [अ० ओंहदा] १. पद । अधिकार । २. अधिकारी मालिक । यौ०—ओधादार=ओहदेदार । उ०—ओधादार बोल्या आंणि पैसे तो निमडिगो । —शिखर०, पृ० ४८ ।
⋙ ओधायत †
संज्ञा पु० [अ० ओहदा, राज० ओदा, ओधा+आयत= वाला या युक्त] हाकिम । अधिकारी । उ०—अवरही कारखाने तिस तिसके शोधायत अपनी जिनसूँ ले आय ।—रघु० रू०, पृ० २४१ ।
⋙ ओधू पु †
पुं० [सं० अव्धुत, पु० हिं० अवधू] ओगियों का एक भेद । अउधूत । उ०—ये इंद्रिय दवैं सु ओधू । ये इंद्रिय दवै सु बोंधू ।—सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ० १४९ ।
⋙ ओधे
संज्ञा पुं० [सं० उपाध्याय] अधिकारी । मालिक ।
⋙ ओनंत पु †
वि० [सं० अवनत] नत । नम्र । झुका हुआ । उ०—उठे कोप जनु दारिखँ दाखा । भई ओनंत प्रेम के साखा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६० ।
⋙ ओन पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'उन' । उ०—ओंनहूँ सिस्टि जौं देख परेवा । तजा राज कजरी बन सेवा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०८ ।
⋙ ओनइस पु †
वि० [सं० ऊनविंश] दे० 'इनइस' और 'उन्नीस' । उ०—बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिन पच्छिउँ दिसा गनाइस । —जायसी ग्रं०, पृ० १६८ ।
⋙ ओनचन †
संज्ञा स्त्री० [सं० उदन्चन, या अर्वागन्चग, अवान्चन हिं० ऐंचना] वह रस्सी जों चारपाई के पैताने की ओर बिनन को खींचकर कड़ा रखने के लिये लगी रहती है ।
⋙ ओनचना
क्रि० स० [हिं० ऐंचना] चारपाई के पायताने की खाली जगह में लगी हुई रस्सी की बिनन को कड़ी रखने के लिये खींचना ।
⋙ ओनतिस †
वि० [सं० ऊनत्रिंश] दे० 'उनतिस' । उ०—बीस अठाइस ओनतिस साता । उत्तर पछिउँ कोंस तेइ नाचा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १६८ ।
⋙ ओनवना पु
क्रि० अ० [सं० अवनमन या उन्नयन] दे० 'उनवना' । उ०—ओनवत आइ सेन सुलतानी । जानहु परलय आव तुलानी ।—जायसी ग्रं०, पृ० २९० ।
⋙ ओनवाना पु
क्रि० स० [हिं० ओनवना का प्रे० रूप] नीचे नमाना । झुकाना । उ०—मेहरी भेस रैनि के आवै । तर पड़ कै पुरुख ओंनवावै ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३४३ ।
⋙ ओना † (१)
संज्ञा पुं० [सं० उदगमन, प्रा० उग्गवन] तालाबों में पानी के निकलने का मार्ग । निकास । उ०—गावति बजावति नचत नाना रूप करि जहाँ तहाँ उमगत आनंद ओनो सो । केशव (शब्द०) । मुहा०—ओना लगना=तालाब में इतना पानी भरना कि ओने की राह से बाहर निकल चले । जैसे,—आज इतना पानी बरसा है कि कीरत सागर में ओना लग जायगा । उ०—जमुना जल जाति डराति हुती, यहै जानति ही घर घैर हैं होनो । गंग कहै सोइ देखियै ताहि हैं जाहि जु ये जिय लाग्यो है ओनो । —गंग०, पृ० ८२ ।
⋙ ओनाड़ पु †
वि० [देशज] १. जोरावर । बलवान ।—(डिं०) २. ऐंठनेवाला । उ०—अंगू के ओनाड़ आचू के उदार ।—रघ० रू०, पृ० २४१ ।
⋙ ओनाना (१) †
क्रि० स० [सं० अवनमन] १. दे० 'उनाना' । २. कान लगाकर सुनना ।
⋙ ओनाना (२)
क्रि० अ० [सं० आकर्णन, अकरर्णन] सुनाई पड़ना । श्रवणगोंचर होना । उ०—हेरत घातै फिरै चहुघा तैं ओनात हैं बातैं दैवाल तरी सों ।—भिखारी ग्रं०, भा१, पृ० २५ ।
⋙ ओनामासी
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊँ नमःसिद्धाम्] १. अक्षरांरभ । उ०—पढ़ों मन ओनामासी धंग ।—कबीर श०, पृ० ९ । विशेष—बच्चों से पाठ आरंभ कराने से पहले ओ नमः सिद्धांम्' कहलाया जाता है । इसका रूप ओंनामासींध और ओंनामासींधंग भी मिलता है । जैसे, —२१ साल तक घर में रहे ओंनामासीघं । बाप पढ़े न हम ।—किन्नर०, पृ० ९७ । २. आरंभ । शुरू । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ ओप
संज्ञा स्त्री० [प्रा० ओप्पा, हिं० ओपना] १. चमक । दीप्ति । आभा । कांति । झलक । सुंदरता । शोभा । उ०—(क) मलिन देह, वेई वसन, मलिन बिरह कैं रूप । पिय आगम औरै चढ़ी आनन ओप अनूप ।—बिहारी र०, दो० १६३ । (ख) झीनैं पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार । सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार ।—बिहारी र०, दो० १६ । २. जिला । पालिश । उ०—एरी प्रानप्यारी तेरी जानु कै सुजानु बिधि ओप दीन्हों अपनी तमाम सुधराई कों ।— भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० ९५ । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।
⋙ ओपची
संज्ञा पुं० [हिं० ओप(= चमक)+तु० ची (प्रत्य०) = वाला] वह जोधा जिसके शरीर पर झिलिम चमकता है । कवचधारी योद्धा । रक्षक योद्धा । उ०—(क) किते बीर तनुत्रान को अंग साजैं । किते ओपची ह्वै धरे ओप गाजैं ।—सूदन (शब्द०) । (ख) जिरही सिलाही ओपची उमड़े हथ्यारन कों लिये ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११ । यौ०ओपचीखाना = चौकी ।
⋙ ओपति †
संज्ञा स्त्री [सं० उत्पत्ति] दे० उत्पत्ति' । उ०—जल है सूतक थल है सूतक, सूतक ओपति होई ।—कबीर ग्रं०, पृ० २८८ ।
⋙ ओपना (१)
क्रि० स० [सं० आवपन = सब बाल मुड़ाना, हिं० ओप] माँजना । साफ करना । जिला देना । चमकाना । पालिश करना । उ०—(क) केशवदास कुंदन के कोश ते प्रकाशमान, चिंतामणि ओपनी सों औपि कै उतारि सी ।—(केशव शब्द०) । (ख) जुरि न मुरे संग्राम लोक की लीक न लोपी । दान, सत्य, सम्मान सुयश दिशि विदिशा ओपी ।—राम चं, पृ० ३ ।
⋙ ओपना (२)
क्रि० अ० १. झलकना । चमकना । उ०—जिती हुती हरि के अवगुन की ते सबही तोपी । सूरदास प्रभु प्रेम हेम ज्यौं, अधिक ओप ओपी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ओपनि पु
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'ओप' ।
⋙ ओपनिवारी पु
वि० [हिं० ओपनि+वारी(प्रत्य०)] चमकानेवाली । प्रकाशित करनेवाली । द्योतिंत करनेवाली । उ०—हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३५ ।
⋙ ओपनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओप+नी (प्रत्य०)] माँजने की वस्तु । पत्थर या ईंट का टुकड़ा जिससे तलवार या कटारी इत्यादि रगड़कर साफ की जाती है । उ०—केशोदास कुंदन के कोश ते प्रकाशमान, चिंतामणि ओपनी सों ओपि के उतारी सी ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ ओपम पु
संज्ञा पुं० [सं० उपमा, प्रा० उप्पम] दे० 'उपमा' । उ०— पाती बँधिय कन्ह चष, इह ओपम करि अष्षि ।—पृ० रा०, ५ ।९७ ।
⋙ ओपाना
क्रि० अ० [हिं० ओप] दूध में धुएँ की गंध आना ।
⋙ ओपासम
संज्ञा पुं० [अं०] दक्षिण अमेरिका में रहनेवाला बिल्ली की तरह का एक जंतु । विशेष—यह रात को घूमता और छोटे छोटे जीवों का शिकांर करता है । इसके ५० दाँत होते हैं । मादा एक बेर में कई बच्चे देती है । चलते समय बच्चे माँ की पीठ पर सवार हो जाते हैं और उसकी पूँछ में अपनी पूँछ लपेट लेते हैं ।
⋙ ओपिका पु
वि० स्त्री० [हिं० ओंप+इक (प्रत्य०)] ओपयुक्त । कांतियुक्त । विभूषित । शृंगारित । उ०—अदित असोक भरी सोक भरी दिति और दोष भरी पूतना अदोष करी ओपिका ।—सुजान०, पृ० ३ ।
⋙ ओपित पु
वि० [हि० ओप+इत (प्रत्य०) ] कांतियुक्त । विभूषित । उ०—तमो गुन ओप तन ओपित, बिरूप नैन, लोकनि बिलोप करै, कोप के निकेत हैं ।—केशव ग्रं०, भा० १. पृ० १५२ ।
⋙ ओपो (१)पु
वि० [हिं० ओंप+ई (प्रत्य०)] कांतियुक्त । सुंदर । उ०—कुब्जा त्रिभंगी ओपी हम सब बुरी हैं गोपी ।— ब्रज ग्रं०, पृ० ४३ ।
⋙ ओपी (२)पु
क्रि० वि० डूबी हुई । लीन । निमग्न । उ०—गावत गोपी रस में ओपी गोप बजावत तारी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५१३ ।
⋙ ओफ
अव्य० [अ० उफ् या अनु०] पीड़ा, खेद, शोक ओर आश्चर्य- सूचक शब्द । ओह । उफ ।
⋙ ओबरी (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उप विवर] छोटा घर । छोटा कमरा । कोठरी । उ०—(क) कागज केरी ओबरी मसु के कर्म कपाट ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३५० । (ख) बिलग जनि मानो ऊधौ कारे । वह मथुरा काजर की ओबरी जे आवैं ते कारे ।—सूर० १० ।३७६२ । (ग) खिसि करि खिसी तू, निसीथ कोऊ साथ जैहैं, ओबरी के मेलत पगार जाइ चढ़ी है ।—गंग, पृ० ६२ ।
⋙ ओबरी (२)पु
संज्ञा स्त्री० समूह । ढेरी । उ०—हीरा की ओबरी नहीं मलयागिरि नहिं पाँति । सिंहन के लेंहड़ा नहीं साधु न चलैं जमाति ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ ओभना
क्रि० अ० [हिं० ऊभना] दे० 'ऊभना' । उ०—कोऊ कह कछु बृंदावन सोभा । तापर भैया अजगर ओभा ।—नंद ग्रं०,पृ० २६१ ।
⋙ ओभा
संज्ञा स्त्री० [सं० अवभा, प्रा०, ओभास] शोभा । कांति । चमक । उ०—(क) होतहि छोटा ब्रज की सोभा । देखो सखि कछु औरहि ओभा ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३१ । (ख) होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४५५ ।
⋙ ओम्
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रणव । ओंकार । २. दे० 'ओं' ।
⋙ ओरंगोटंग
संज्ञा पुं० [मला० ओरांग ऊतान = जंगली मनुष्य, मरा० औरांगोटा = कपि आकृति का मनुष्य] सुमात्रा और बोनिंयो आदि द्वीपों में रहनेवाला एक बंदर या बनमानुष । विशेष—यह लगभग चार फुट ऊँचा होता है । इसका रंग लाल और भुजाएँ बहुत लंबी होती हैं । टाँगें छोटी होती हैं । यह बंदर पेड़ीं ही पर अधिक रहता है । इसके चेहरे पर बाल नहीं होते । चलते समय इसके तलवे और पंजे अच्छी तरह से जमीन पर नहीं पड़ते । यदि कोई इसे सताता है तो यह बड़ी भयंकरता से उसका सामना करना है ।
⋙ ओर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवार = किनारा] २. किसी नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार जिसे दाहिना, बाँया, ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम आदि शब्दों से निश्चित करते हैं । तरफ । दिशा । यौ०—ओर पास = आस पास । इधर उधर । विशेष—जब इस शब्द के पहले कोई संख्यावाचक शब्द आता है, तब इसका व्यवार पुल्लिंग की तरह होता है । जैसे, —घर के चारों ओर । उसके दोनों ओर । उ०—नैन ज्यों चक्र फिरै चहुँ ओरा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ७५ । २—पक्ष । जैसे,—(क) यह उनकी ओर का आदमी है । (ख) हम आपकी ओर से बहुत कुछ कहेंगे ।
⋙ ओर (२)
संज्ञा पुं० १. अंत । सिरा । छोर । किनारा । उ०—(क) देखि हाट कछु सूझ न ओरा । सबै बहुत किछु दीख न थोरा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३१ । (ख) गुन को ओर न तुम बिखै औगुन को मो माहिं ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ११ । मुहा०—ओर आना = नाश का समय आना । उ०—हँसता ठाकुर खाँसता चोर । इन दोनों का आया ओर । ओंर निभाना या निबाहना = अंत तक अपना कर्तव्य पूरा करना । उ०— (क) पुरुष गंभीर न बोलहिं काहू । जो बोलहिं तो ओर निबाहू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) प्रणातपाल पालहि सब काहू । देहु दुहुँ दिसि ओर । निबाहू ।—तुलसी (शब्द०) । २. आदि । आरंभ । जैसे, ओर से छोर तक । उ०—(क) और दरिया भी कौन जिसका ओर न छोर ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १३० । (ख) ओर तें याने चराई पैहैं अब ब्यानी बराइ मो भागिन आसौं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३१८ ।
⋙ ओरती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओरमना] दे० 'ओलती' । उ०—रोवति भई न साँस सँभारा । नैन चुवहि जस ओरति धारा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ओरमना पु
क्रि० अ० [सं० अबलम्बन] लटकना । झुकना ।
⋙ ओरना पु
क्रि० अ० [हि०] दे० 'ओराना' ।
⋙ ओरमा
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओर से नाम धातु] एक प्रकार की सिलाई जो आँवठ जोड़ने के काम में आती है । विशेष—जब आँवठों को मोड़कर कहीं सीना होता है, तब दोनों आँवठों की कोरों को भीतर की और मोड़कर परस्पर मिला देते हैं । फिर आगे की ओर से सूई को दोनों आँवठों या कोरों में से डालकर ऊपर को निकाल लेते हैं । फिर धागे को उन कोरों के ऊपर लाकर सूई डालते हैं ।
⋙ ओरमाना
क्रि० स० [हिं० ओरसना] लटकाना । उ०—तेल फुलेल चमक चटकाई । टेढ़ी पाग छोर ओरमाई ।—घट०, पृ० ३०० ।
⋙ ओरवना पु
क्रि० अ० [हिं० ओरमना] बच्चा देने का समय निकट आ जाना (चौपायों के लिये) । जैसे,—गाय का ओरवना ।
⋙ ओरहना †पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उलहना' । उ०—ठाली ग्वालिओरहने के मिस आइ बकहि बेकामहिं ।—तुलसी ग्रं० पृ० ४३२ ।
⋙ ओरहा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'होरहा' ।
⋙ ओराँव (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक जाति जो प्राचीन काल में चपारन, पलामू आदि के आसपास रहती थी । उ०—ओराँव आदि जाति में जलाने की प्रथा चलती थी ।—प्रा० भा० प० (भु०, पृ०, 'घ') । २. ओराँव जाति की बोली या भाषा ।
⋙ ओरा (१)
संझा पुं० [सं० उपल, हिं० ओला] दे० ओला' । उ०—(क) ओरा गरि पानी भया जाइ मिल्यो ढलि कूलि ।—कबीर ग्रं० पृ० २५६ । (ख) ओछी उपमानि को गरूर ओरे लौं गरै ।—घनानंद, पृ० ३५ ।
⋙ ओरा (२)
वि० [हिं० ओला] उज्वल । उ०—गोरे रंग ओरे सु दृग भए अरुन अनभंग ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ५१ ।
⋙ ओराना †
क्रि० अ० [हि० ओर(अंत) से नाम धातु का प्रे०, रूप] अंत तक पहुँचना । समाप्त होना । खतम होना । उ०—(क) जो चाहै जो लेय जायगी लूट ओराई ।—पलटू०, पृ० ६ । (ख) नदी सुखानी प्यास ओरानी टूटि गया गढ़ लंका ।—सं० दरिया, पृ० ११२ ।
⋙ ओराहना †
संज्ञा पुं० [हि० उरहना] दे० 'उलहना' ।
⋙ ओरिजिनल
वि० [अं०] मौलिक । मूल से संबद्ध ।
⋙ ओरिजिनल साइड
संज्ञा पं० [अं०] प्रेसिडेंसी हाईकोर्ट का वह विभाग जहाँ प्रेसीडेंसी नगर के दीवानी मामले दायर किए जाते हैं तथा उन मामलों का विचार होता है जिन्हें प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट दौरा सुपुर्द करते हैं । इन फौजदारी मामलों का विचार करने के लिये प्रायः प्रतिमास एक दौरा अदालत बैठती है । इसे ओरिजिक जूरिस्डिकशन भी कहते है ।
⋙ ओरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओरी+इया (प्रत्य०)] दे० 'ओरी' ।
⋙ ओरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० ओंर = सिरा] वह लकड़ी जो ताना तानते समय खूँटी के पास गाड़ी जाती है ।
⋙ ओरिया— (३)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओर] तरफ । ओर । उ०—कब ऐहैं स्याम बंसीवाला हमरी ओरिया । प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६४ ।
⋙ ओरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओर = सिरा+ई (प्रत्य०)] ओरती । ओलती । उ०—(क) ओरी का पानी बरेंड़ी जाय । कंड़ा बूड़ै़ सिल उतराय ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ ओरी (२) †
अव्य० [हि० ओ, री] स्त्रियों को पुकारने का एक संबोधन । विशेष—बुंदेलखंड में इस शब्द से माता को भी पुकारते है, और माता शब्द के अर्थ में भी इसका व्यवहार करते हैं ।
⋙ ओरी पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओर] ओर । तरफ । उ०—हम तुम हिलि मिलि करि एक संग हवै चलैं गगन की ओरी ।—जग० श०, पृ० ७५ ।
⋙ ओरौता †
वि० [हिं० ओर+ औता (प्रत्य०)] १. अंत । समाप्त । २. जिसका अंत या समाप्ति होने को हो । अंतिम । अंत का ।
⋙ ओरौती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओरमना] ओलती ।
⋙ ओर्रा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत लंबा बाँस जो आसाम और ब्रह्मा (बर्मा) में होता है । विशेष—वहाँ यह घर तथा छकड़े बनाने के काम में आता है । इससे छाते के डंडे भी बनते हैं । इसकी ऊँचाई १२० फुट तक की होती है और घेरा २५-३० इंच ।
⋙ ओलंदेज
संज्ञा पुं० [फें० ओंलाँदैज; अं० हालैड़] [वि० ओलंदेजी] हालैंड देश का निवासी व्यक्ति ।
⋙ ओलंदेजी
वि० [फें० ओलाँदैज] हालैंड देश संबंधी । हालैंड देश का । उ०—इंगलिस्तानी औ दरियानी कच्छी ओलंदेजी । औरहु विविध जाति के बाजी नकत पवन की तेजी ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ओलंबा पु
संज्ञा पुं० [सं० उपालम्भ] दे० 'ओलंभा' । उ०—सो बाचाल भयो विज्ञानी । लखि कूरेश उचित नहिं जानी । रामानुज को दियो ओलंबा । कीन्ह्मौ काह धर्म अवलंबा ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ओलंभा
संज्ञा पुं० [सं० उपालम्भ प्रा० उवालंभ] उलाहना । शिकायत । गिला । उ०—सच है बुद्धिमान मनुष्य जो करना होता है वही करता है परंतु औरों का ओलंभा मिटाने के लिये उनके सिर मुफ्त का छप्पर जरूर धर देता है ।—श्रीनिवास ग्र०, पृ० २९९ ।
⋙ ओल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूरन । जिमीक'द ।
⋙ ओल (२)
वि० [सं० आर्द, प्रा० उल्ल] गीला । ओदा ।
⋙ ओल (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रोड] १. गोद । २. आड़ । ओर । ३. शरण । पनाह । उ०—जाकै मीत नंदनंदन से ढकि लइ पीत पटोलै । सूरदास ताकौं डर काकौ हरि गिरिधर के ओलै ।—सूर० १ ।२५६ । ४. किसी वस्तु या प्राणी का किसी दूसरे के पास जमानत में उस समय तक के लिये रहना जब तक उस दूसरे व्यक्ति को कुछ रुपया न दिया जाय या उसकी कोई शर्त न पूरी की जाय । उ०—टीपू ने अपने दोनों लड़कों को ओल में लार्ड कार्नवालिस के पास भेज दिया ।—शिवप्रसाद (शब्द०) क्रि० प्र०—देना । में देना ।—में लेना । ५. वह वस्तु या व्याक्ति जो दूसरे के पास जमानत में उस समय तक रहे जब तक उसका मालिक या उसके घर का प्राणी उस दूसरे आदमी को कुछ रुपया न दे या उसकी कोई शर्त पूरी न करे ।—(क) बाजे बाजे राजानि के बेटा बेटी ओल हैं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७६ । (ख) राजाहि चली छुड़ावै तहँ रानी होइ ओल ।—जायसी ग्रं०, पृ० २८७ । (ग) बने बिसाल अति लोचन लोल । चितै चितै हरि चारु बिलोकनि मानौ माँगत हैं मन ओल ।—सूर०, १० ।६३० । क्रि० प्र०—देना । उ०—एक ही ओल दै जाहु चली झगरो सगरो मिटि बात परै सल । घनानंद, पृ०.. ।लिना उ०— तोप रहकला माल सब लै ओल सिधाया ।—सूदन (शब्द) । ६. बहाना । मिस । उ०—बैठी बहू गुरु लोगन में लखि लाल गए करि कै कछु ओलो ।—देव (शब्द०) । ७. कोना । उ०— घर में धरे सुमेरु से अजहूँ खाली ओल ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३१६ ।
⋙ ओलक
संज्ञा पुं० [हिं० ओल=ओट] आड़ । ओट । उ०—देखत रूप अनूप वह बढ़त दृगन दुग जोत । फिर कैसे वह साँवरो आखिन ओलक होत । —स० सप्तक, पृ० ३५४ ।
⋙ ओलग
वि० [सं० अपलग्न, अप०, ओलग्ग, राज०, ओलगो, हिं० अलग] दूर । पृथक् । अलग । उ०—आतम तुझ पासइ अछइ, शोलग रूड़ा रख्ख ।—ढोला० दू०, ११४ ।
⋙ ओलगना पु
क्रि० अ० [सं० अपलग्न, अप० ओलग्ग] अलग होना । दूर होना । प्रस्थान करना । उ०—ढाढ़ी रात्यू औलग्या गाया बहु बहु भंत ।—ढोला० दू०, १८६ ।
⋙ ओलगी †
वि० [अप० ओलग्ग] दे० 'ओलग' । उ०—रहि रहि राव ओलगी तू जाई, माहरी गइली तुं करह पठाई ।—बी० रासो, पृ० २६ ।
⋙ ओलचा †
संज्ञा पुं० [सं० उलचना] १. खेत का पानी उलीचने का चम्मच के आकार का काठ का बरतन । हाथा । २. दौरी जिससे किसी ताल का पानी ऊपर खेत में ले जाते हैं ।
⋙ ओलची
संज्ञा स्त्री० [सं० आल] आलू बालू नाम का फल । गिलास ।
⋙ ओलती
संज्ञा स्त्री० [देशज] १. ढलुवाँ छप्पर का वह भाग जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता है । उ०—नित सावन डीठि सुबैठक में टपकैं बरुनी तिहि ओलतियाँ ।—घनानंद, पृ० ८८ । मुहा०—ओलती तले का भूत=घर का भेदिया । निकटवर्ती व्याक्ति जो घर का सारा भेद जानता हो ।
⋙ ओलना (१)
क्रि० स० [हिं० ओल=आड़] १. परदा करना । ओट में देना । उ०—लोल अमोल कटाक्ष कलोल अलोकिक सों पट ओलि कै फेरे ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ७३ । २. आड़ना । रोकना । ३. ऊपर लेना । सहना । उ०—केसोदास कौन बड़ी रूप कुलकानि पै अनोखो एक तेरे ही अनूप उर औलियै ।— केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ७९ ।
⋙ ओलना (२)
क्रि० सं० [सं० शूल; हिं० हूल] घुमाना । चुभाना । उ०—ऐसी ह्वै है ईस पुनि आपने कटाछ मृगमद घनसार सम मेरे उर ओलिहै । —केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ४९ ।
⋙ ओलमना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'ओरमना' या 'उलमना' ।
⋙ ओलरना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उलरना' ।
⋙ ओलराना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उलारना' ।
⋙ ओलहना
संज्ञा पुं० [हिं०] 'उलाहना' ।
⋙ ओला (१)
संज्ञा पुं० [सं० उपल] गिरते हुए मेह के जमे हुए गोले । पत्थर । बिनौली । इंद्रोपल । उ०—पाला कहीं, ओले कहीं, लगता कहीं कुछ रोग है ।—भारत०, पृ० ६४ । विशेष—इन गोलों के बीच में बर्फ की कड़ी गुठली सी होती है जिसकी ऊपर मुलायम बर्फ की तह होती है । पत्थर कई आकार के गिरते हैं । पत्थर पड़ने का समय प्रायः शिशिर और बसंत है । क्रि० प्र०—गिरना ।—पड़ना । उ०—गड़गड़ाहट बढने लगी, ओला पड़ने की संभावना थी ।—आँधी, पृ० ११८ ।
⋙ ओला (२)
वि० १. ओले के ऐसा ठंड़ा । बहुत सर्द । २. मिस्त्री का बना हुआ लड़डू जिसे गरमी में ठंडक के लिये घोलकर पीते हैं ।
⋙ ओला (३)
संज्ञा पुं० [देश०] काँगड़ा जिले में होनेवाला एक प्रकार का बबूल जिसकी लकड़ी से खेती के औजार बनते हैं ।
⋙ ओला (४)
संज्ञा पुं० [हिं० ओल] १. परदा । ओट । २. भेद । गुप्त बात ।
⋙ ओला (५)
प्रत्य० [हिं०] हिंदी का एक प्रत्यय जो कतिपय शब्दो के अंत में लगकर किसी वस्तु के लघु रूप का बोधक होता है । जैसे, आम से अमोला ।
⋙ ओलारना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उलराना' ।
⋙ ओलिक पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ओल=आड़, ओट, पं० ओल्ला] ओट । परदा । उ०—नील निचोल दुराइ कपोल बिलोकति ही करि ओलिक तोहीं । —केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ५२ ।
⋙ ओलिगार्की
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. वह सरकार जिसमें राजसत्ता या शासनसूत्र इने गिने लोगों के हाथों में हो । कुछ लोगों का राज्य या शासन । स्वल्पव्यक्तितंत्र । २. ऐसे लोगों का समाज ।
⋙ ओलिया पु
संज्ञा पुं० [अ० औलिया] दे० 'औलिया' । उ०—आहि आहि करत औरंगसाह ओलिया ।—भूषण ग्र०, पृ० १११ ।
⋙ ओलियाना † (१)
क्रि० स० [हिं० ओली=गोद] ओली में भरना । गोद में भरना ।
⋙ ओलियाना (२) †
क्रि० स० [हिं० हूलना] प्रविष्ट करना । घुसेड़ना । घुसाना । जैसे,—पेट मेंसींग ओलियाना ।
⋙ ओली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओल+ई (प्रत्य०)] १. गोद । उ०—अपनी ओली मे बैठाकर मुख पोंछा, हवा करने लगी ।—श्यामा० पृ० ७१ । मुहा०—ओली लेना=गोद लेना । दत्तक बनाना । २. अंचल । पल्ला । उ०—देहि री काल्हि गई कहि दैन पसारहु औलि भरौ पुनि फेंटीं ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ३० । मुहा०—ओली ओड़ना=आँचल फैलाकर कुछ माँगना । विनय- पूर्वक कोई प्रार्थना करना । विनती करना । उ०—(क) एँड सों ऐंडाई जिनि अंचल उड़ात, ओली ओड़ति हौं काहू की जू डीठि लगि जायगी ।—केशव (शब्द०) । (ख) बोली न हौं वे बुलाइ रहे हरि पाँय परे अरु ओलियौ औड़ी ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ११ । ३. झोली । उ०—(क) ओलिन अबीर, पिवकारि हाथ । सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) दसन बसन ओली भरियै रहै गुलाल, हँसनि लसनि त्यौं कपूर सरस्यौ करै ।—घनानंद, पृ० ७० । ४. खेत की उपज का अंदाज करने का एक ढंग जिसमें एक बिस्वे का परता लगाकर बीघे भर की उपज का अनुमान किया जाता है ।
⋙ ओलौना (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० तुलना से नामिक धातु] उदाहरण । मिसाल । तुलना ।
⋙ ओलौना (२)पु †
क्रि० अ० उदाहरण देना । दृष्टांत देना ।
⋙ ओल्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जमानत [को०] ।
⋙ ओल्ल (२)
वि० आर्द्र । गीला [को०] ।
⋙ ओल्ह पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओल] ओट । आड़ । उ०—(क)तिणकै ओल्है राम है, परबत मेरै भाइ । सतगुरु मिलि परचा भया तब हरि पाया घट माँहि ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८१ । (ख) ढूँढत ढूँढत जग फिरया् तिण कै ओल्हैं राम ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८१ ।
⋙ ओवड़ना पु †
क्रि० अ० [देशी] दे० 'उमड़ना' उ०—आवरत मेघ सम ओवड़े घड़ी पंच बग्गी खड़ग ।—रा० रू०, पृ० २५० ।
⋙ ओवर
संज्ञा पुं० [अं०] १. समाप्त । खत्म । उ०—मैच ओवर हो गया ।—चंद० ख०, पृ० ४१ । २. क्रिकेट के खेल में पाँच या छह गेंद दिए जाने भर का समय । क्रि० प्र०—होना । विशेष—जब एक ओवर समाप्त हो जाता है; तब गेंद दूसरी तरफ से दिया जाता है और खिला़ड़ियों की जगहें बदल दी जाती हैं ।
⋙ ओवरकोट
संज्ञा पुं० [अं०] बहुत लंबा कोट जो जा़ड़े में सब कपड़ों के ऊपर पहना जाता है । लबादा । उ०—कुँअर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिन भर साथ रहा ।—आँधी, पृ० ३९ ।
⋙ ओवरसियर
संज्ञा पुं० [अं०] इंजीनियरी के मुहकमे का एक कार्यकर्ता जिसका काम बनती हुई इमारतों, सड़कों आदि की निगरानी और मजदूरों की देख रेख करना है ।
⋙ ओवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ओआ' ।
⋙ ओष
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलन । दाह । २. भोजन पकाना [को०] ।
⋙ ओषण
संझा पुं० [सं०] तिक्तता । तीखा स्वाद [को०] ।
⋙ ओषणी
संझा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक [को०] ।
⋙ ओषद पु
संझा स्त्री० [सं० औषध] दे० 'औषध' । उ०—सोच घटै कोइ साधु की संगत रोग घटै कछु ओषद खाए ।— गंग०, पृ० ११८ ।
⋙ ओषध †
संज्ञा स्त्री० [सं० औषधि] दवा । ओषध । उ०—कीन्हेसि पान फूह बहु भोगू । कीन्हेसि बहु ओषध बहु रोगू ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ओषधि, ओषधी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वनस्पति । जड़ी बूटी जो दवा में काम आवे । उ०—ज्वर दइमारे ने उन्हें थोड़े ही दिनों में निर्बल कर दिया, पर ओषधी अच्छी की । श्यामा०, पृ० ६२ । २. पौधे जो हर एक बार फलकर सूख जाते हैं । जैसे,—गेहूँ, जौ इत्यादि । यौ०—औषधिपति । ओषधीश ।
⋙ ओषधिगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. सूर्य [को०] ।
⋙ ओषधिधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर । ३. वैद्य [को०] ।
⋙ ओषधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर । विशेष—ओषधिवाची शब्दों में 'स्वामी' वाची शब्द लगानी से चंद्रमा या कपूरवाची शब्द बनते हैं ।
⋙ ओषधीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर ।
⋙ ओषर
संज्ञा पुं० [सं० औषर] छुटिया नोन । रेह का नमक ।
⋙ ओष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. होंठ । ओंठ । लब । २. दो या दो संख्या का सूचक शब्द । यौ०—ओष्टोपमफल, ओष्ठोपमफला, ओष्टफला, ओष्टभा= बिंबाफल । कुँदरू ।
⋙ ओष्ठक (१)
वि० [सं०] ओठों की रक्षा करनेवाला [को०] ।
⋙ ओष्ठक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ओठ [को०] ।
⋙ ओष्ठोकोप, ओष्ठप्रकोप
संज्ञा पु० [सं०] ओठ पर होनेवाला एक रोग [को०] ।
⋙ ओष्ठजाह
सज्ञा पुं० [सं०] ओठ का मूल या जड़ [को०] ।
⋙ ओष्ठपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] कोमल ओठ [को०] ।
⋙ ओष्ठपाक
संज्ञा पुं० [सं०] सर्दी के कारण ओठों का फटना [को०] ।
⋙ ओष्ठपुट
संज्ञा पुं [सं०] ओठों को खोलते समय बननेवाला गड्ढा [को०] ।
⋙ ओष्टपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] बंधूक नामक वृक्ष [को०] ।
⋙ ओष्ठरोग
संज्ञा पुं० [सं०] ओठ से संबधित कोई भी बीमारी [को०] ।
⋙ ओष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिंबाफल । कुँदरू । २. कुँदरू की लता ।
⋙ ओठ्य
वि० [सं०] १ओठ संबंधी । २. जिसका उच्चारण ओंठ से हो । यौ०—ओष्ठ्यवर्ण ।
⋙ ओष्ठ्यवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ण जिनके उच्चारण में ओठों की सहा- यता लेनी पड़ती है । यथा, उ, ऊ, प, फ, ब, भ, और म ।
⋙ ओष्ण
वि० [सं०] ईषत् उष्ण । कुनकुना । थोड़ा गरम [को०] ।
⋙ ओस
संज्ञा स्त्री० [सं० अदश्याय, पा० उस्साव, प्रा० उस्सा] हवा में मिली हुई भाप जो रात की सर्दी से जमकर और जलविंदु के रूप में हवा से अलग होकर पदार्थों पर लग जाती है । शीत । शबनम । उ०—ओस ओस सब कोई आँसू कहे न कोय । मोहिं बिरहिन के सोग में रैन रही है रोय ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ५७६ । विशेष—जब पदार्थों की गर्मो निकलने लगती है, तब वे तथा उनके आसपास की हवा बहुत ही ठंड़ी हो जा ती है । उसी से ओस की बूँदें ऐसी ही वस्तुओं पर अधिक देखी जाती हैं जिनमें गर्मी निकालने की शक्ति अधिक है और धारण करने की कम, जैसे घास । इसी कारण ऐसी रात को ओस कम पड़ेगी जिसमें बादल न होंगे और हवा तेज न चलती होगी । अधिक सरदी पाकर ओस ही पाला हो जाती है । मुहा०—ओस चाटने से प्यास न बुझना=थोड़ी सामग्री से बड़ी आवश्यकता की पूर्ति न होना । उ०—अजी ओस चाटने से कहीं प्यास बुझी है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४६ । ओस पड़ना या पड़ जाना=(१) कुम्हलाना । बेरौनक हो जाना । (२) उमंग बुझ जाना । (३) लज्जित होना । शरमाना । ओस का मोती=शीघ्र नाशवान । जल्दी मिटनेवाला । उ०— यह संसार ओस का मोती बिखर जात इक छिन में ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ओसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अवसर, प्रा० ओसर] समय । मौका । अवसर । उ०—कहन स्याम संदेश एक मैं तुम पै आयौ, कहन समय संकेत कहूँ औसर नहिं पायौ, ।—नंद० ग्रं० पृ० १७३ ।
⋙ ओसर (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ओसरिया' ।
⋙ ओसरा †
संज्ञा पुं० [सं० अवसर, प्रा० ओसर] १. बाँरी । दाँव । उ०—सो एक दिवस या वैष्णव को ओसरा आर्या ।—दो सौ बावन०, पृ० ८ । २. दूध दूहने का समय ।
⋙ ओसरिया (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० उपसर्या] वह भैस जो गर्भ धारण करने योग्य हो चुकी हो, परंतु अभी गाभिन न हूई हो । जवान । बिना ब्याई भैस ।
⋙ ओसरिया (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० उपशालिका, देश० ओसरिया] दे० 'ओसारा' ।
⋙ ओसरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अवसर] पारी । बारी । दाँव । उ०— अबकै हमारी ओसनी निज भाग तें बिधि ने दई ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १८ ।
⋙ ओसाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओसाना] १. ओसाने का काम । दायें हुए गल्ले वो हवा में उड़ाने का काम, जिससे भूसा और अन्न अलग हो जाता है । २. ओसाने के काम की मजूरी ।
⋙ ओसान (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० औसाना] ओसाने का काम । ओसाई ।
⋙ ओसान (२)
संज्ञा पुं [सं० अवसान; प्रा० ओसाण] दे० अवसान ।
⋙ ओसाना
क्रि० स० [सं० आवर्षण प्रा० आवस्सन अथवा उस्सारण सं० उस्सारण प्रा० उसारण] द यें हुए गल्ले को हवा मे उड़ाना, जिससे दाना और भूसा अलग अलग हो जाय । बरसाना । डाली देना । मुहा०—अपनो ओसाना=इतनी अधिक बातें करना कि दूसरे को बात करने का समय ही न मिले । बातों की झड़ी बाँधना । जैसे—तुम तो अपनी ही ओसाते हो, दूसरे की सुन्ते ही नहीं । किसी को ओसाना=किसी को खूब फटकारना ।
⋙ ओसार (१)
संझा पुं० [सं० अवसर=फैलाव] फैलाव । विस्तार । चौड़ाई । अवकाश ।
⋙ ओसार (२)
वि० चौड़ा ।
⋙ ओसार (३)
संज्ञा पुं० [सं० उपशाल] दे० 'ओसारा' ।
⋙ ओसारा †
संज्ञा पुं० [सं० उपशाला अथवा देशी ओसार=गौबाड़ा] [स्त्री० अल्पा० ओसारी] १. दालान । बरामदा । उ०—राति ओसारे में सोय रही कहि जाति न एती मसानि सताई ।— रघुनाथ (शब्द०) २. ओसारे की छाजन । सायबान । उ०— छलनी हुई अटारी कोठा निदान टपका । बाकी था एक ओसारा सो वह भी आन टपका ।—कविता कौ०, भा० ४</num, पृ० ३१५ । क्रि० प्र०—लगाना । लटकाना ।
⋙ ओसीसा
संज्ञा पुं० [सं० उत्+शीर्षक या उष्णीश] दे० 'उसीसा' ।
⋙ ओसुर
संज्ञा पुं० [सं० असुर] दे० 'असुर' । उ०—तज गया गहबल खाय तापां भभक ओसुर भागिया ।—रघु० रू०, पृ० १२६ ।
⋙ ओह (२)
अब्य० [सं० अहह] १. आश्चर्यसूचक शब्द । २. दुखःसूचक शब्द । ३. बेपरवाई का सूचक शब्द ।
⋙ ओह (२)
सर्व० [हिं०] दे० 'वह' । उ०—(क) यम का ठेंगा है बुरा ओह नहिं सहिया जाइ । —कबीर ग्रं०, पृ० २५९ । (ख) काया हाँड़ी काठ की ना ओह चढ़ै बहोरि । —कबीर ग्रं०, पृ० १२१ ।
⋙ ओहट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ओट, देश० ओहट्ट = अवगुंठन या देश] ओट । ओझल । उ०—(क) ओहट होहु रे भाँट भिखारी । का तु मोंहि देहि असि गारी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११५ । (ख) ओहट होसि जोगि तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी ।— जायसी ग्रं०, पृ० १३४ ।
⋙ ओहटना पु
क्रि० अ० [सं० अवघटन] ओझल होना । ओट होना । बीतना । उ०—असह रात ओहटै, सूर परभात दरस्सै ।— रा० रू०, पृ० ३६१ ।
⋙ ओहदा
संज्ञा पुं० [अ०] पद । स्थान । उ०—जो जिसके मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा । यारों के लिये ओहदे चिड़ियों के लिये फंदा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६२८ । यौ०—ओहदेदार ।
⋙ ओहदेदार
संज्ञा पुं० [अ० ओहदा+फा० दार(प्रत्य०)] पदाधिकारी हाकिम । कार्यकर्ता । कर्मचारी । अधिकारी ।
⋙ ओहना †
क्रि० स० [सं० अवधारण] १. डंठलों आदि को ऊपर उठाकर हिलाते हुए उनके दानों का ढेर लगाने के लिये नीचे गिराना । खरही करना । २. तितर बितर करना ।
⋙ ओहनि पु
संज्ञा पुं० [सं० उधस्] थन । गाय का स्तन । अयन । उ०—चलि न सकति ओहनि के भार । अवति स्त्रवत दूध की धार ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९० ।
⋙ ओहर
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'उषर' ।
⋙ ओहरना †
क्रि० अ० [सं० अवहरण] बढ़ती और उमड़ती हुई चीज का घटना । घटाव पर होना ।
⋙ ओहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हारना] थकावट ।
⋙ ओहा †
सज्ञा पुं० [सं० उधस्] गाय का थन ।
⋙ ओकार
संज्ञा पुं० [सं० अवधार] रथ या पालकी के ऊपर पड़ा हुआ कपड़ा । परदा । उ०—(क) सिबिका सुभग ओहार उघारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ।—मानस, १ ।३४७ । (ख) संत पालकी निकट सिधारे । करिकै विनय ओहार उघारे ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ओहि पु, ओही पु
सर्व० [हि० वह] १. वह । २. उसको । उसे उ०—(क) ना ओहि पूत न पिता न माता ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३ । (ख) आन भाँति नहिं पावौं ओही ।—मानस, १ ।१३२ ।
⋙ ओहू पु
सर्व० [हि० वह] वह भी । उ०—जौ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पिता बचन मनितेउँ नहिं ओहू ।—मानस०, ६ ।६० ।
⋙ ओहो
अव्य० [सं० अहो] १. एक आश्चर्यसूचक शब्द । २. एक आनंदसूचक शब्द ।