विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ऐ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ऐं
अव्य० [सं० अये या ऐः] १. एक अव्यय जिसका प्रयोग अच्छी तरह न सुनी या समझी हुई बात को फिर से कहलाने के लिये होता है । जैसे—ऐं, क्या कहा? फिर तो कहो । २. एक अव्यय जिससे आश्चर्य सूचित होता है । जैसे—ऐं यह क्या हुआ?
⋙ ऐंगुद (१)
वि० [सं० ऐङ्ग्द] इंगुदी वृक्ष से उत्पन्न । इंगुदी संबंधी । इंगुदीयुक्त [को०] ।
⋙ ऐंगुद (२)
संज्ञा पुं० इंगुदी के फल की गिरी [को०] ।
⋙ ऐंग्लो
वि० [अं०] अंगरेजों से संबंधित । इंगलैंड से संबंधित । यौ०—ऐंग्लोंइंडियन=(१) वह जो भारत, बर्मा आदि में उत्पन्न हो । (२) यूरोपीय और एशियाई दंपति की संतान । ऐंग्लोबर्मीज । ऐंग्लवनक्युसलर स्कूल=वह पाठशाला जहाँ अँगरेजी तथा देशी दोनों भाषाओं की पढ़ाई हो ।
⋙ ऐंच पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अव+ अन्च, हिं० खींचना, या खैंच पू० हिं० हिंचना] खिंचाव । तनाव । ऐंठ । उ०—कंसदलन पर और उत, इत राधाहित जोर । चलि रहि सकै न स्थाम चित ऐंचलगी दुहुँ ओर । —भीखारी ग्रं०, भा०२, पृ० ३६ ।
⋙ ऐंचना
क्रि० स० [सं० अवाञ्चन हिं० खींचना; पुं० हिं० हींचना] १. खींचना । तामना । उ०—(क) नीलांबर कर ऐंचि लियौ हरि मनु बादर तैं चंद उजारयौ ।—सूर० १० ।४०७ । (ख) रह्यौ ऐंचि, अंतु न लहै अवधि दुसासनु बीरु । आलो, बाढ़त बिरहु ज्यौं पंचाली कौ चीरु ।—बिहारी र०, दो० ४०० । २.अपने जिम्मे लेना । जिसका रुपया अपने यहाँ बाँकी हो उसका कर्ज अपने जिम्मे लेना । ओढ़ना । ओटना । जैसे— अब आप इनसे अपने रुपए का तकाजा न करै मैं उसे अपनी ओर ऐंच लेता हूँ । ३. अनाज की भूसी अलग करने के लिये फटकारना ।
⋙ ऐंचाऐंची
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंचना] खींचा खींची । ऐंचातानी । उ०—(क) दस बटपार बाट पारत नित इंद्रजाल बगराय । तिनकी अति ऐं चाऐ ची में परि पुनि कछु न बसाय ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २९९ । (ख) अँचरा की ऐंचाऐंची, अंगिया की खैंचाखैंची, छतिया की छुवा छुई मान छुटि जाइगो ।—गंग०, पृ० ७९ ।
⋙ ऐंचाखैंची
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंचना+खैंचना] ऐंचातानी । ऐंचाऐंची उ०—ऐंचाखैची से सबहिन कै परिगै भक्काझोरी ।—जग० श०, पृ० ७७ ।
⋙ ऐंचाताना
वि० [हिं० ऐंचना+ तानना] [वि० स्त्री० ऐंचातानी] जिसकी पुतली देखने में दूसरे ओर को खींचती हो । जो देखने में उधर देखता हुआ नहीं जान पड़ता जिधर वह वास्तव में देखता है । भेंगा । उ०—सौ में फुली सहस में काना । सवा लाख में ऐंचाताना । ऐंचाताना कहै पुकार । कंजे से रहियो हुशियार ।
⋙ ऐंचातानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंचना +तानना] खींचाखींचीं । घसीटा घसीटी । अपनी अपनी ओर लेने का प्रत्यन । उ०—इक इक नाम बिना वह कानी हो रही एंचातानी ।—कबीर श०, भा०१, पृ० ६८ ।
⋙ एंचीला
वि० [हिं०] लचकदार । लचीला । खिंच सकनेवाला । खिंचने लायक ।
⋙ ऐंछना पु
क्रि० स० [सं० प्रोञ्छन=चुनना] १. झाड़ना । साफ करना । २. (बालों में) कंघी करना । ऊँछना । उ०—भोरहिं मातु पठावति लालन संबल कछक खवाई । पोछि शरीर, ऐंछि कारे कच भूषन पट पहराई ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ऐंठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंठन] १. अहंकार की चेष्टा । अकड़ । ठसक । २. गर्व । घमंड । उ०—पर आशा की और कहाँ तक ऐंठ सहूं मैं ।—साकेत, पृ०, ४०१ । क्रि० प्र०—करना ।—दिखलाना । ३. कुटिल भाव । द्वेष । विरोध । उ०—या दुनियाँ में आइके छाँड़ि देइ तू ऐंठ ।—कबीर सा०, सं०, पृ० ६७ । क्रि० प्र०—पड़ना ।—रखना ।
⋙ ऐंठग्वैठ पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऐंठ+गोइँठा] तमना । खिंचना । घमंड करना । उ०—जो पै ऐंठिग्वैठि जाइ कालि की बिटौनी ग्वालि, तो पै देसघालि दूती काहे कौ कहाइहौं ।—गंग०, पृ० ६४ । क्रि० प्र०—जाना ।—होना ।
⋙ ऐंठन
संज्ञा स्त्री० [सं० आवेष्ठन, पा० आवेट्ठन] १. वह स्थिति जो रस्सी या उसी प्रकार की और लचीली चीज को लपेटने या मरोड़ने से प्राप्त होती है । घुमाव । लपेट । पेंच । मरोड़ । बल । जैसे—रस्सी जल गई, पर ऐंठन नहीं गई । यौ०—उलटी ऐंठन=वह ऐंठन जिसका घुमाव दाहिनी ओर से बाई ओर को हो । वामवर्त ऐंठन सीधी ऐंठन=वह ऐंठन जो बाएँ से दाहिने गई हो । दक्षिणावर्त ऐंठन । २. खिंचाव । अकड़ाव । तनाव । ३. कुड़ल । कुड़िल । तशन्नुज ।
⋙ ऐंठना (१)
क्रि० स० [सं० आवेष्ठन, पा० आवेट्ठन या हिं० ऐंठ+ ना (प्रत्य०)] १. घुमाव देना । बटना । बल देना । मरोड़ना । घुमाव के साथ तानना या कसना । संयो क्रि०—डालना ।—देना । यौ०—ऐंठी की बेल=पत्थर के खंभे पर बनी हुई वह बेल जो उसके चारों ओर लिपटी हो । २. दबाब डालकर वसुल करना । संयो० क्रि०—लेना । ३. धोखा देकर लेना । झँसना । उ०—हम खुशामदी नहीं हैं कि किसी की झूठी प्रशंसा करके कुछ ऐंठा चाहें ।—प्रताप० ग्रं०, पृ० ७१५ । संयो० क्रि०—रखना ।—लेना ।
⋙ ऐंठना (२)
क्रि० अ० १. बल खाना । २. पेंच खाना । खिंचाव । घुमाव के साथ तनना । २. तनना । खिंचना । अकड़ना । जैसे,—हाथ पाँव ऐंठना । मुहा०—पेट ऐंठना=पेट या आँतों में मरोड़ या दर्द होना । ३. मरना । ४. अकड़ दिखाना । घमंड करना । इतराना । उ०—अब भरि जनम सहेलिया, तकब न ओहि । ऐंठल गो अभिमनिया तजि के मोहि ।—रहीम (शब्द०) । ५. टेढ़ी सीधी बातें करना । टर्राना । उ०—तबहीं तैं उनि हमहिं भुलायौ गई उतहिं कौं घाई । अब तौ तरकि तरकि ऐंठति है लेनी लेति बनाइ ।—सूर०, १० ।२४०५ ।
⋙ ऐंठमेंठ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंठना] घुमाव । मरोड़ । वक्रता । तिरछापन । उ०—तनु ऐंठिमेंठि भौहैं कि बाल । मूरछयौ मेन जग वही ब्याल ।—पृ० रा०, १४ ।२९ ।
⋙ ऐंठवाना
क्रि० सं० [हिं० ऐंठना का प्रे० रूप] ऐंठन की क्रिया दूसरे से करवाना ।
⋙ ऐंठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ऐंठना] १. रस्सी बटने का एक यंत्र ।विशेष— इसमें एक लकड़ी होती है जिसके बीचोबीच एक छेद होता है । इस छेद में एक लट्टुदार लकड़ी पड़ी रहती है । लकड़ी के एक छोर से दूसरे छोर तक एक ढाली रस्सी बँधी रहती है जिसके बीच बटी जानेवाली रस्सी बाँध दी जाती है । लकड़ी के एक छोर एक लंगर बँधा रहता है । छेद में पड़ी हुए लकड़ी को घुमाने से बिनी जानेवाली रस्सी में एंठन पड़ती जाती है । २. घोंघा ।
⋙ ऐंठा (२)
वि० ऐंठा हुआ । घमंडी । नाराज ।
⋙ ऐंठाना
क्रि० सं० [हिं० ऐंठना का प्रे० रूप] ऐंठनी की क्रिया दूसरे से करवाना ।
⋙ ऐंठागुइँठा †पु
वि० [हिं० ऐठा +गुइँठा] घमंड से भरा हुआ । अकड़ा हुआ । उ०—पाँच तत्त का जामा पहिरे ऐंठागपइँठा डोलै । जन म जनम का है अपराधी कबहूँ साँच न बोलै ।— पलटु०, भा० ३, पृ० ५४ ।
⋙ ऐंठू
वि० [हिं० ऐंठना] अकड़बाज । ऐंठ रखननेवाला । अभि- मानी । टर्रा ।
⋙ ऐंड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंठ] १. ऐंठ । ठसक । गर्व । उ०—रँगी सुरत रँग पिय हियैं लगी जगी सब राति । पैड़ पैंड़ पर ठठुकि कै ऐंड भरी ऐँडाति ।—बिहारी र०, दो०, १८३ । २. पानी का भवँर ।
⋙ ऐंड़ (२)
वि० निकम्मा । नष्ट । यौ०—ऐंड़होजाना=निकम्मा हो जाना । नष्टभ्रष्ट हो जाना । टूट फूट जाना । गया बीता होना ।
⋙ ऐंड़दार
वि० [हिं० ऐड़+फा० दार] १. ठसकवाला । गर्वीला । घमंडी । उ०—जेत ऐड़दार दरबार सरदार सब ऊपर प्रताप दिल्लीपति को अभंग भो । —मतिराम (शब्द०) । २. शानदार । बाँका । तिरछा । उ०—सखा सरदार ऐंड़दार सोहैं संग संग करै सतकार पुरजन हेतु है ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ऐंड़ना (१)
क्रि० अ० [हिं० ऐंठना] १. ऐंठना । बल खाना । २. अँगड़ाना । अँगड़ाई लेना । ३. इतराना । घमंड करना । उ०— धन जोबन मद ऐंड़ो ऐंड़ो ताकत नारि पराई । लालच लुब्ध श्वान जूठन ज्यों सोऊ हाथ न आइ ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—ऐंडा ऐंड़ा फिरना या डोलना=इतराया फिरना । घमंड में फूलकर घूमना । उ०—जिन् पै कृपा करी नँदनंदन सो ऐँड़ी काहै नहिं डोलै ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ऐंड़ना (२)
क्रि० स० १. ऐंठना । बल देना । २. बदन तोड़ना । अँगड़ाना । उ०—उठे प्रात गाथा मुख भाषत आतुर रैनि बिहानी । ऐँड़न अंग, जम्हात बदन भरि कहत सबै यह बानी ।—सूर० १० ।११७० ।
⋙ ऐंड़बैंड़ पु
वि० [हिं० बेड़ी+ ऐंड़ी (अनु०)] [वि० स्त्री० ऐड़ी बेंड़ी] टेढ़ा । तिरछा । उ०—(क) ऐँड़ सो एँड़ाइ अति अँचल उड़ाइ ऐसी छाँड़ि ऐंड़बैड़ चितवन निरमोलिए ।— केशव (शब्द०) । (ख) देखौ देखौ पूरबिले पाप को प्रताप यह, रामनाम लेत जीभ ऐड़ीबैड़ी जाति है ।—गंग०, पृ० ९ ।
⋙ ऐड़ा (१)
वि० [हि० ऐंड़ना] [स्त्री, ऐंड़ी] टेड़ा । ऐँड़ा हुआ । मुहा०—अंग ऐंड़ा करना=ऐँठ दिखाना । बेपरवाई और घमंड दिखाना । उ०—यह ग्वारन को गाँव बात नहिं सूधे बोलैं । बसें पसुन के संग अंग ऐँड़े करि डोलैं ।—दीन- दयाल (शब्द०) ।
⋙ ऐंड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० आढ़क] १. बाट । बटखरा । अँहड़ा । २. सेंध । नकब ।
⋙ ऐंड़ाना
क्रि० अ० [हिं० ऐंड़ना] १. अँगड़ाना । अँगड़ाई लेना । बदन तोड़ना । उ०—कबहूँ श्रुति कंडू करै आरस सों एँड़ाई । कैसोदास बिलास सों बार बार जमुहाइ ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० २४ । २. इठलाना । अकड़ दिखाना । बल दिखिना । उ०—ज्यों सावन ऐड़ात भुजा ठोंकि सब शूरमा ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ ऐंढ़ा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गँड़ासा ।
⋙ ऐंढ़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ऐंड़ा=सेंध] सेंध । संधि । नकब । उ०— अब मैं यहाँ ठहरूँगा तौ ऐंढ़े का चोर बन जाऊँगा ।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ५३ ।
⋙ ऐंदव (१)
वि० [सं० ऐन्दव] [वि० स्त्री० ऐंदवी] चंद्रमासंबंधी । इंदु संबंधी ।
⋙ ऐंदव (२)
संज्ञा पुं० मृगशिरा नक्षत्र (जिसके देवता चंद्रमा हैं) । २. चांद्र मास । कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर पूर्णिमा को समाप्त होनेवाला महीना । ३. चांद्रयण नाम का व्रत ।
⋙ ऐंदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०ऐदन्वी] सोमराजी [को०] ।
⋙ ऐंद्र (१)
वि० [सं० इन्द्र] [वि० स्त्री०ऐंद्री] इंद्रसंबंधी ।
⋙ ऐंद्र (२)
संज्ञा पुं० १. इंद्र का पत्र—(१) अर्जुन, (२) बालि । २. ज्येष्ठा नक्षत्र । ३. एक संवत्सर का नाम (को०) । ४. यज्ञ में इंद्र का भाग (को०) । ५. बन अदरक (को०) ।
⋙ ऐंद्रजाल
संज्ञा पु० [सं० ऐन्द्रजाल] इंद्रजाल । बाजीगरी [को०] ।
⋙ ऐंद्रजालिक (१)
वि० [सं०ऐन्द्रजालिक] इंद्रजाल करनेवाला । मायावी ।
⋙ ऐंद्रजालिक (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० ऐन्द्रजालिकी] जादूगर । बाजीगर [को०] ।
⋙ ऐद्रजालिक कर्म
संज्ञा पुं० [सं० ऐन्द्रजालिक कर्म] जादू के काम । माया के काम । ऐसे काम जिनसे लोग धोखा खाए । विशेष—कौटिलीय अर्थशास्त्र के औपनिषदिक खंड के दूसरे प्रकरण में इस प्रकार के अनेक उपाय बताए हैं, जिनसे मनुष्य कुरूप हो जाता था, बाल सफेद हो जाते थे, वह कोढ़ी की तरह या काला हो जाता था, आग में जलता नहीं था, अंतर्द्धान हो सकता था ओर इसकी छाया नहीं पड़ती थी ।
⋙ ऐंद्रलुप्तिक
वि० [सं० ऐन्द्रुलुप्तिक] [स्त्री० ऐंद्रलुप्तिकी] खल्वाट । गंजा [को०] ।
⋙ ऐंद्रशिर
संज्ञा पुं० [सं० ऐंद्रशिर] एक प्रकार का हम्ती । एक जाति का हाथी [को०] ।
⋙ ऐंद्रि
संज्ञा पुं० [सं० ऐन्द्रि] १. इंद्र का पुत्र—(१) जयंत, (२) बालि, (३) अर्जुन । २. बायस । काग (को०) ।
⋙ ऐद्रिय (१)
वि० [सं० ऐन्द्रिय] दे० 'ऐंद्रियक' ।
⋙ ऐंद्रिय (२)
संज्ञा पुं० इंद्रियों का जगत् । विषय [को०] ।
⋙ ऐंद्रियक
वि० [सं० ऐन्द्रियक] इंद्रियग्राह्य । जिसका ज्ञान इंद्रियों से हो । इंद्रियसंबंधी ।
⋙ ऐंद्रियक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'ऐंद्रिय (२)' ।
⋙ ऐंद्री
संज्ञा स्त्री० [सं० ऐन्द्री] १. इंद्राणी । शची । २. दुर्गा । ३. इंद्रवारुणी । ४. इलायची । ५. इंद्र संबंधी एक वैदिक ऋचा (को०) । ६. पूर्व दिशा (को०) । ७. ज्येष्ठा नक्षत्र (को०) । ८. मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी (को०) । ९. पौष शुक्ला अष्टमी (को०) । १०. अभाग्य । दुर्भाग्य (को०) । ११. ककड़ी (को०) ।
⋙ ऐंधन (१)
वि० [सं० ऐन्धन] ईंधन से युक्त । ईँधन से उत्पन्न (अग्नि) [को०] ।
⋙ ऐंधन (२)
संज्ञा पुं० सूर्य का एक नाम [को०] ।
⋙ ऐंपरि पु †
अव्य० [सं० एतद् याइयत्+ उपरि] इसपर । इतने पर । उ०—ऐंपरि रिपुहिं अलप न जानियै । मर्म दुखद बहुतै मानियै ।—नंद० ग्रं०, पृ० २३३ ।
⋙ ऐँहड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० ऐंड़ा] सेंध । नकब । ऐंड़ा ।
⋙ ऐ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव ।
⋙ ऐ (२)
अव्य० [सं०अयि वा हे] एक संबोधन । उ०—ऐ बेगम साहब, यह क्या सामने बजा रहे हैं ।—फिसाना०, भा०३, पृ० १५ । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का उच्चारण संस्कृत से भिन्न 'अय्' की तरह होता है ।
⋙ ऐ (३) †
सर्व० [सं०एतद, हिं०यह] यह । उ०—राम बरण रूप ऐ सह वरणाँ सिरताज ।—रघु० रू०, पृ० २ ।
⋙ ऐक
वि० [सं०] एक से संबंद्ध । एक का । एकसंबंधी [को०] ।
⋙ ऐककर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैन दर्शन के अनुसार कर्म का एकत्व । २. निश्चित कर्मफल ।
⋙ ऐकत पु
वि० [सं० एकान्त] अकेला । एकाकी । उ०—ऐकत छाँड़ि जाँहि घर घरनी तित भी बहुत उपाया । कहै कबीर कछु समझि न परई, विषम तुम्हारी माया ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५३ ।
⋙ ऐकद्य
वि० [सं०] तत्काल । तुरंत । साथ साथ [को०] ।
⋙ ऐकध्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक समय या घटना [को०] ।
⋙ ऐकपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्ण प्रभुता । सर्वोच्च शक्ति । २. एक- तंत्र शासन । एकाधिपत्य [को०] ।
⋙ ऐकपदिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐकपदिकी] एक पदवाला । सरल पदवाला ।
⋙ एकपदिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] निघंटु पर यास्क की टीका के नैगम खंड का नाम [को०]
⋙ ऐकपद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्दों की एकता । २. एक शब्द या पद में गठित होना [को०] ।
⋙ ऐकभाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति या उद्देश्य की एकता । सम या एकभाव का होना [को०] ।
⋙ ऐकमत्य
संज्ञा पु० [सं०] मतैक्य । एकमत होना । एक ही राय का होना [को०] ।
⋙ ऐकराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] एकछत्र राज्य । पूर्ण प्रभुत्व [को०] ।
⋙ ऐकशफ
वि० [सं०] [स्त्री० ऐकशफी] ऐसे पशु का (दुग्ध आदि) जिसके खुर फटे न हों [को०] ।
⋙ ऐकश्रुत्य
संज्ञा पुं० [सं०] एकस्वरता । उतार चढ़ाव की ध्वनि के बिना बोलना । उदासी लानेवाला स्वर [को०] ।
⋙ ऐकांग
संज्ञा पुं० [सं० ऐकाङ्ग] अंगरक्षक सौनिक [को०] ।
⋙ ऐकांतिक
वि० [सं० ऐकान्तिक] १. पूर्ण । पक्का । २. बिना प्रतिबंध का । निश्चित । संदेहरहित । एकदम [को०] ।
⋙ ऐकागारिक (१)
वि० [सं०] एक ही घर में रहनेवाला ।
⋙ ऐकागारिक (२)
संज्ञा पुं० १. एक ही गृह का मालिक । २. चोर ।
⋙ ऐकाग्र
वि० [सं०] दे० 'एकाग्र' [को०] ।
⋙ ऐकाग्य्र
संज्ञा पुं० [सं०] एकाग्रता । स्थिरबुद्धिता [को०] ।
⋙ ऐकात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकता । आत्मा की एकता । २. एकात्मता । तद्रूपता । तादात्म्य । ३. परमात्मा में विलय [को०] ।
⋙ ऐकाधिकरण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. संबंध की एकता । एक ही विषय से संबंधित होना । २. तर्क में साध्य के द्वारा हेतु में व्याप्ति [को०] ।
⋙ ऐकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरवर्ण 'ऐ' या उसकी ध्वनि [को०] ।
⋙ ऐकार्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्थ की समानता । २. प्रयोजन की एकता [को०] ।
⋙ ऐकाहिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐकाहिकी] १. क्षणभंगुर । एक- दिवसीय । अल्पकालीन । २. जिसकी स्थिति एक ही दिन की हो । जैसे, यज्ञ, उत्सव, ज्वर आदि [को०] ।
⋙ ऐक्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी राजा, राजसभा, व्यवस्थापिका सभा या न्यायालय द्वारा स्वीकृत सर्वसाधारण संबंधी कोई विधान । राजविधि । कानून । आईन । जैसे—प्रेम ऐक्ट । पुलिस ऐक्ट । म्युनिसिपल ऐकट । २. नाटक का एक अंश या विभाग । अंक ।
⋙ ऐक्टर
संज्ञा पुं० [अं०] नाटक में अभिनय करनेवाला । नाटक का कोई पात्र बननेवाला । अभिनेता ।
⋙ ऐकिंगट (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] नाटक में किसी पार्ट या भूमिका का अभिनय करना । रूपाभिनय । चरित्राभिनय, जैसे—'महाभारत नाटक में वह दुर्योधन के रूप में बहुत ही सुंदर और स्वाभाविक ऐकिंटग करता है' । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ ऐक्टिंग (२)
वि० [अं०] स्थानापन्न । किसी की एवजी पर काम करनेवाला ।
⋙ ऐक्ट्रेस
संज्ञा स्त्री० [अं०] रंगमंच पर अभिनय करनेवाली स्त्री । अभिनेत्री । नटी ।
⋙ ऐक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक का भाव । एकत्व । २. एका । मेल । ३. एकत्रीकरण । जोड़ । समाहार ।
⋙ ऐक्षव
संज्ञा पुं० [सं०] ईख से उत्पन्न—(१) गुड़ । (२) राब । (३) चीनी । (४) एक प्रकार की मदिरा [को०] ।
⋙ ऐक्ष्वाक (१)
वि० [सं०] इक्ष्वाकु से संबंधित । इक्ष्वाकु का [को०] ।
⋙ ऐक्ष्वाक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इक्ष्वाकु का वंशज । २. इक्ष्वाकु वंश द्वारा शासित देश [को०] ।
⋙ ऐक्ष्वाकु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऐक्ष्वाक' (१) ।
⋙ ऐगुन पु
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण] दे० 'अवगुण' । उ०—हैं जो पाँच नग तोपहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट । मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट । —जायसी ग्रं०, पृ० २३९ ।
⋙ ऐची
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐँचना] चंडू की या मदक पीने की नली । बंबू ।
⋙ ऐच्छिक
वि० [सं०] १. जो अपनी, इच्छा पसन्द पर निर्भर हो । उ०—गगन में गूँजकर ऐच्छिक करो गान । —आराधना, पृ० ३४ । २. अपनी इच्छा या पसंद से लिया या दिया जानेवाला । वैकल्पिक । जैसे,—उन्होंने संस्कृत ऐच्छिक विषय लिया है ।
⋙ ऐजन
अव्य० [अ० अयजन्] तथा । तदेव । वही । विशेष—सारिणी या चक्र में जब एक ही वस्तु को कई बार लिखना रहता है तब केबल ऊपर एक बार उसका नाम लिखकर नीचे बराबर ऐजन, ऐजन लिखते जाते हैं । साधारण लिखा- पढ़ी में ऐसे स्थल पर" का व्यवहार किया जात है ।
⋙ ऐटेस्टिंग अफसर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह अफसर जिसके सामने निर्वाचन संबंधी 'वोट' लिखे जाते हैं और जो साक्षी स्वरूप रहता है । वोट लिखे जाने के समय साक्षी स्वरूप उपस्थित रहनेवाला अफसर । २. जो अधिकारी किसी के हस्ताक्षर अथवा बयान को प्रमाणित करे ।
⋙ ऐड (१)
वि० [सं०] १. ताजगी देने वाला । शक्तिवर्धक । २. भेड़ से संबंधित [को०] ।
⋙ ऐड (२)
संज्ञा पुं० इडा का पुत्र । पुरुरवा [को०] ।
⋙ ऐडक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐडकी] भेड़ से संबंधित । मेष संबंधी [को०] ।
⋙ ऐडक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़ की एक जाति [को०] ।
⋙ ऐडमिनिस्ट्रेटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह अधिकारी जिसके अधीन किसी राज्य या रियासत या बड़ी जमींदारी का प्रबंध हो । २. किसी संस्थान का प्रबंधक । प्रशासक । ३. नगरपालिका वा कारपोरेशन का प्रबंधक ।
⋙ ऐडमिनिस्ट्रेशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. प्रबंध । व्यवस्था । बन्दोबस्त । २. शासन । हुकुमत । ३. राज्य । सरकार । विशेष—गवर्नरी, प्राविन्शल गवर्नमेंट या प्रादेशिक सरकार कहलाती है और चीफ कमिशनरी लोकल ऐडमिनिस्ट्रेशन या स्थानीय सरकार कहलाती है ।
⋙ ऐडमिरल
संज्ञा पुं० [अं०] सामुद्रिय या जलसेना का प्रधान सेना- पति । नौसेना का प्रधान ।
⋙ ऐडमिरल्टी
संज्ञा स्त्री० [अं०] ऐडमिरल का पद या विभाग ।
⋙ ऐंडवर्टिजमेंट
संज्ञा पुं० [अं०] विज्ञापन । सार्वजनिक सूचना । इश्तहा र ।
⋙ ऐडवांस
संज्ञा पुं० [अं०] १. अग्रिम । पेशगी । २. अग्रगामी । प्रगतिशील ।
⋙ ऐडवाइजर
संज्ञा पु० [अं०] वह जो परामर्श या सलाह देता हो । परामर्शदाता । सलाह देनेवाला । सलाहकार । जैसे,—लीगल ऐडवाइजर ।
⋙ ऐडवाइजरी
वि० [अं०] सलाह या परमर्श देनवाली । जैसे,— ऐडवाइजरी कौंसिल ।
⋙ ऐडविड
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर । २. मंगल ग्रह [को०] ।
⋙ ऐडवोकेट
संज्ञा पु० [अं०] अदालत में किसी का पक्ष लेकर बोलनेवाला । वकील ।
⋙ ऐडवोकेट जनरल
संज्ञा पुं० [अं०] वह सराकारी वकील जो हाइकोर्टों में सरकार का पक्ष लेकर बोलना है । वह सरकार का वेतन- भोगी कर्मचारी होता है ।
⋙ ऐड़ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऐंड] दे० 'ऐंड' । उ०—तीन मधि मुग्ध बैस की बाला । ऐंड सों कहति भई तिहि काला ।—नंद० ग्रं०, पृ० ९९ ।
⋙ ऐड़ा
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'ऐंठा'; 'ऐड़ा' । उ०—ऐडो रहै निसंक तासु हाँसी करि डोलै ।—दीन० ग्रं०, पृ० १९४ ।
⋙ ऐड़ाना †
क्रि० अ० [हिं० ऐंड] इठलाना । ठसक दिखाना । उ०— यह जग है संपति सुपने की देखि कहा ऐड़ानो ।—संतवाणी०, भा०२, पृ० ४७ ।
⋙ ऐडिशनल
वि० [अं०] अतिरिक्त । जैसे,—ऐडिशनल मैजिस्ट्रिट ।
⋙ ऐड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'एड़ी' उ०—वह चंचल चाल जवानी की उँची ऐड़ी नीचे पंजे ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ३२५ ।
⋙ ऐण
वि० [सं०] [स्त्री० ऐणी] हिरन से संबंधित । जैसे,—मृगचर्म, ऊन आदि [को०] ।
⋙ ऐणिक
वि० [सं०] [स्त्री० ऐणिकी] कृष्णसार या काले मृग का शिकार करनेवाला । हिरन मारनेवाला [को०] ।
⋙ ऐणेय (१)
वि० [स्त्री० ऐणिकी] काली हरिणी से उत्पन्न या उससे संबंधित [को०] ।
⋙ ऐणेय (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की रतिक्रिया । एकबंध । रति का एक आसन [को०] ।
⋙ ऐत पु †
वि० [हिं०] दे० 'एत' और इतना । उ०—तुम सुखिया अपने घर राजा । जेखिउँ ऐन सहहु केहि काजा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ ऐतरेय
संज्ञा पु० [सं०] १. ऋग्वेद का एक ब्राह्मण । विशेष—इसमें ४० अध्याय और आठ पंचिकाएँ हैं । पहले १६ अध्यायों में अग्निष्टोम और सोमयोग का वर्णन है । १७-१८ वें अध्याय में गवामथन का विवरण है जो ३६० दिनों में पुरा होता है । १९२४ तक द्वादशाह यज्ञ की विधि और होता के कर्तव्य का वर्णन है, २५ वें अध्याय में अग्निहोत्र- विधान और भूलों के लिये प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था है । २६ से ३० अध्याय तक सोमयोग में होता के सहायक काकर्तव्य तथा । शिल्पशास्त्र के कुछ विषय वर्णित है । ३३ अध्याय से ४० अध्याय तक राजा को गद्दी पर बिठाने तथा पुरोहित के और और कामों का वर्णन है । शुनःशेष की तथा ऐतरेय ब्राह्मण की है । [को०] । २. एक अरण्यक जो वानप्रस्थों के लिये है । विशेष—इसके पाँच अरण्यक अर्थात् भाग हैं । प्रथम भाग में, जिसमें पाँच अध्याय और २२ खंड है, सोमयाग का विचार है । दुसरे अरण्यक के ७ अध्याय और २६ खंड है जिनमें से तीसरे अध्याय में प्राण और पुरुष का विचार है और चार अध्यायों में ऐतरेय उपनिषद् है । तीसरे अरण्यक में (२ अध्याय १२ खंड) में संहिता के पदपाठ और क्रमपाठ के अर्थ को अलंकारों द्धारा प्रकट किया है । चैथे अरण्यक में एक अध्याय है जिसको आश्वलायन ने नष्ट किया था । पाँचवें अरण्य के ३ अध्याय और १४ खंड हैं जो शौनक ऋषि द्वारा प्रकट हुए हैं ।
⋙ ऐतरेयी
वि० [सं० ऐतरेयिन्] ऐतरेय ब्राह्मण का अध्यन करनेवाला ऐतरेय का अध्येता [को०] ।
⋙ ऐतिहासिक
वि० [अ०] १. इतिहास संबंधी । जो इतिहास से हो । जो इतिहास से सिद्ध हो । उ०—मैने भारतीय समाज का ऐतिहासिक अध्ययन करना चाहा ।—कंकाल, पृ० ७२ । २. जो इतिहास जानता हो ।
⋙ ऐतिह्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रत्यक्ष, अनुमान आदि चार प्रमाणों के अतिरिक्त, अर्थपत्ति और संभव आदि जो चार प्रमाण माने गए हैं उनमें से एक । परंपरासिद्ध प्रमाण । इस बात का प्रमाण कि लोक में बराबर बहुत दिनों से ऐसा सुनते आए हैं । विशेष—यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत ही आ जाता है । न्याय में ऐतिह्य आदि को चार प्रमाणों से अल ग नहीं माना है, उनके अंतर्गत ही माना है ।
⋙ ऐतु पु †
संज्ञा पुं० [सं० अयुत] दस हजार की संख्या । उ०—अट्ठारह धृति छब्बिस ऐतु इकीस सै ऊपर चव्वालिस । बावन ऐतु बयालिस सै अटठासी बिधि अतिधृति उनईस ।—भिखारी० ग्रं०, भा०१, पृ० २३६ ।
⋙ ऐन (१)
संज्ञा पुं० [सं० अयन] घर । निवास । उ०—प्रान के ऐन में नैन में बैन में ह्वै रह्ययो रूप गुन नाम तेरो ।—भिखारी० ग्रं०, भा०,१, पृ० २३४ ।
⋙ ऐन (२)
संज्ञा पुं० [सं० एण] [स्त्री० ऐनी] मृग । हिरण । उ०—(क) जिन्हैं देखिकै ऐन की सेन लाजी ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० २८० । (ख) ऐनि नैनि ऐनी भई बेनि गुही गुपाल ।—भिखारी० ग्रं०, भा०१, पृ० १६ ।
⋙ ऐन (३)
संज्ञा पुं० [अ०] आँत । नयन । उ०—जगजीवन गहि चरन गुरु ऐनन निरखि निहारि । —जग० बानी, पृ० १३१ । २. अरबी रिपि का एक अक्षर जो इस प्रकार C लिखा जाता है और जिसके ऊपर एक बिंदु लगाकर गैन बनाते हैं । उ०— नाम जगत सम समुझु जग बस्तु न करु चित चैन । बिंदु गए जिमि गैन तें रहत ऐन को ऐन ।—स० सप्तक, पृ०३९२ ३. स्त्रोत । चश्मा (को०) ।
⋙ ऐन (४)
वि० १. ठीक । उपयुक्त । सटोक । जैसे,—(क) तुम ऐन वक्त पर आए । (ख) मार्गशीर्ष की ऐन पूर्णिमा को जीवन में आया ।—अपलक, पृ० १६ ।२. बिलकुल । पूरापूरा । जैसे—आपकी ऐन मेहरबानी है ।
⋙ ऐनक
संज्ञा स्त्री [अ० ऐन=आँख] आँख में लगाने का चश्मा । उ०—अंजन अँखियों में मत आँजो, आला ऐनक लेहु लगाय ।—कविता कौ०, भा०२, पृ० ९५ ।
⋙ ऐनस
संज्ञा पुं० [सं०] पाप । एनस [को०] ।
⋙ ऐना †
संज्ञा पुं० [फा० आईनहु> आईना> हि० अइना] दे० 'आईना' ।
⋙ ऐनि पु
संज्ञा पुं०[सं०] सूर्य का पुत्र । यौ०—ऐनिवस [स० ऐनिवंश]=सूर्यवंश । उ०—मन संकल्पत आप कल्पतरु सम सोहर बर । जन मन बांछित देत तुरंत द्विज ऐनिवंस वर । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ऐनीता
संज्ञा पुं० [फा० आईनहु] बंदर को शीशा या दर्पण दिखाना (कलंदरों की बोली) ।
⋙ ऐन्य
वि० [सं०] १.सूर्य संबंधी । २. स्वामी या मालिक संबंधी [को०] ।
⋙ ऐपन
संज्ञा पुं० [सं० लेपन अथवा देशी आइप्पण=चावल का दूध । गृह का भूषण] एक मांगलिक द्रव्य । यह चावल और हल्दी को एक साथ गीला पीसने से बनता है । देवताऔं की पूजा में इससे छापा लगाते हैं और घडे़ पर चिहन करते हैं । उ०— (क) अपनो ऐपन निज हथा तिय पूजहि नित भीति । फलै सकल मनकामना तुलसी प्रीति प्रतीति ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १४१ ।(घ) केतिक सोने की डींडि केसर सों मारी मींडि ऐपन की पींडि जोति चंपाऊ लजायो है ।—गंग०, पृ० २३ ।
⋙ ऐपरि पु †
अव्य० [ सं० एतदुपरि] दे० 'ऐंपरि' । उ०— ऐपरि कवि इक ठौर बतावैं । जब बलि में कछू गाथा गावैं ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३७ ।
⋙ ऐपै पु
क्रि० वि० [हिं० ऐ+पै] इतने पर भी । ऐते पै । उ०—(क) ऐपै कहुँ बाको मुख देखन न पाइयै ।—घनानंद०, पृ० ४६८ । (ख) उपजे बनिक कुल सेवे कुल अच्युत को, ऐपे नहि बने एक तिया रहे पास है ।—(भक्तमाल) श्रीभक्ति०, पृ० ५५९ ।
⋙ ऐब
संज्ञा पुं० [अ०] १. दोष । दूषण । नुक्स । उ०—ऐब अपने घटाओ पै खबरदार रहो । घटने से न उनके बढ़ जाए गरूर ।—कविता कौ०, भा० ४ पृ० ६०१ । मुहा०—ऐब निकालना=दोष दिखाना (किस्ती वस्तु में) । उ०— अगर चाहा निकालो ऐब तुम अच्छे से अच्छे में । जो ढूँढो़गे तो अकबर में भी पाओगे हुनर कोई । —शेर० । २. अवगुण । कलंक । बुराई । उ०—यहाँ के दुकानदारों में यह बडा़ ऐब है की जलन के मारे दूसरे के माल को बारह आने का जाँच देते हैं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७४ । मुहा०—ऐब लगाना=कलंक लगाना । दोषारोपण करना (किसी व्यक्ति पर) । यौ०—ऐबजोई । ऐबदार । ऐबपोशी । ऐबहुनर=गुण दोष ।
⋙ ऐबजो
वि० [फा०] दोष ढूँढनेवाला । छिद्रान्वेषी ।
⋙ ऐबजोई
संज्ञा स्त्री० [फा०] दोष ढूँढना । छिद्रान्वेषण ।
⋙ ऐबदार
वि० [फा०] दोषयुक्त । दोषी । पापी । उ०—कहि कबि गंग तुम करुनानिधान कान्ह, कोटि जो है ऐबदार और द्वार भयो है—गंग०, पृ० ५ ।
⋙ ऐबपोशी
संज्ञा स्त्री [अ०] ऐब पर पर्दा डालना । दोष छिपाना [को०] ।
⋙ ऐबारा †
संज्ञा पुं० [हिं० बार < सं० द्वार=दरवाजा] १. बाडा़ जिसमें भेंड़ बकरियाँ रखी जाती हैं । २. वह घेरा जिसके भीतर जंगल में चौपाए रखे जाते हैं । गोवाड़ । ठाढ़ा ।
⋙ ऐबी
वि० [अ०] १.दूषणयुक्त । खोटा । बुरा । २. नटखट । दुष्ट । शरीर । ३.विकलांग, विशेषतः काना ।
⋙ ऐभ
वि० [सं०] इभ अर्थात् हाथी संबंधी [को०] ।
⋙ ऐमेचर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो कलाविशेष पर विशेष रुचि और अनुराग के कारण शौकिया तौर से उसका अभ्यास करता है और अपनी कलाभिज्ञता दिखाकर धन उपार्जन नहीं करता । शौकीन । जैसे— (क) ऐमेचर ड्रामटिक क्लब ।(ख) 'वह ऐमेचर होने पर भी बडे़ बडे़ ऐक्टरों के कान काटता है ।'
⋙ ऐया †
संज्ञा स्त्री० [सं० आर्य्या, प्रा० अज्जा] १. बडी़ बूढी़ स्त्री । दादी । २. सास ।
⋙ ऐयाम
संज्ञा पुं० [अ० योम (दिन) का बहु व०] दिन । समय । मौसिम । वक्त । उ०—यादे ऐयाम बेकारारिए दिल, वह भी या रब अजब जमाना था ।—शेर० पृ० १९७ ।
⋙ ऐयार
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० ऐयारा] १. चालाक । धूर्त । उस्ताद । धोखेबाज । छली । उ०—(क) ऐयार नजर मक्कार अदा त्योरी की चढा़वत वैसी ही ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३२७ ।(ख) उसे ऐयार पाया यार समझे जौक हम जिसकी । —शेर० पृ० ४१३ ।२. वह व्यक्ति जो चालाकी से अनोखे काम करता हो । बहुगुण युक्त गुप्तचर या कार्यकर ।
⋙ ऐयारी
संज्ञा स्त्री० [अ०] चालाकी । धूर्तता । छल । ऐयार का कार्य ।
⋙ ऐयाश
वि० [अ०] [संज्ञा ऐयाशी] १. बहुत ऐश या आराम करनेवाला ।२. विषयी । लंपट । इंद्रियलोलुप ।
⋙ ऐयाशी
संज्ञा स्त्री० [अ०] विषयासक्ति । भोग विलास ।
⋙ ऐरण †
संज्ञा पुं० [सं आहनन, आ+घनवा आ+धरण] दे० 'अहरन' । निहाई । उ०—लोहा होय तो ऐरण मंगाऊँ धण की चोट दिराऊँ ।—राम० धर्म०, पृ० ४४ ।
⋙ ऐरन
संज्ञा पुं० [अं०इयररिंग] कान का एक आभूषण ।
⋙ ऐराक पु
संज्ञा पुं० [अ०एराक] दे० 'एराक' ।
⋙ ऐराकी पु
दे० [अ० ऐराकी] दे० 'एराकी' ।
⋙ ऐराखी †पु
वि० [हिं०ऐराखी] दे० 'एराकी' । उ०—ऐराखी घर घोरिय जाए । पंच बछेरा लगै सुहाए ।—प० रा०, पृ० ११७ ।
⋙ ऐरागैरा
वि० [अ०+गैर] १. बेगाना । अजनबी (व्यक्ति) जिससे कुछ वास्ता न हो । २. इधर उधर का । तुच्छ । यौ०—ऐरा गैरा नत्थू खैरा=ऐरा गैरा । ऐरे गेरे पँचकल्यान । ऐरे गैरे पँचकल्यानी=इधर उधर के बिना जाने बूझे आदमी । उ०—ऐरे गैरे पँचकल्यान बहुत देख हैं तुम कौन हो ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०३ ।
⋙ ऐरापति पु
संज्ञा पुं० [सं० ऐरावत] ऐरावत हाथी । उ०—सुरगण सहित इंद्र ब्रज आवत । धवल बरन ऐरापति देख्यो उतरि गगन तें धरणि धसावत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ऐराब
संज्ञा पुं० [अ०] शतरंज में बादशाह की किश्त बचाने के लिये किसी मोहरे को बीच में डाल देना । अरदब ।
⋙ ऐरालू
संज्ञा पुं० [सं०इरा=जल+आलु] एक प्रकार की पहाडी़ ककडी़ जो तरबूज की तरह होती है । यह कुमाऊँ से सिकिम तक होती है ।
⋙ ऐरावण
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत ।
⋙ ऐरावत
संज्ञा पुं० [सं०] १.इरावान् मेघ बिजली से प्रदीप्त बादल । २. इंद्रधनुष । ३. बिजली । ४. इंद्र का हाथी जो पूर्व दिशा का दिग्गज है । ५. एक नाग का नाम । ६. नारंगी । ७लकुच । बड़हर । ८. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । ९. चंद्रमा का उत्तरी मार्ग (को०) ।
⋙ ऐरावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऐरावत हाथी की स्त्री । बिजली । ३. रावी नदी । ४. ब्रह्म (ब्रह्मा देश) की एक प्रधान नदी । ५. वटपत्री का पौधा । ६. चंद्रमा की एक वीथी जिसमें आश्लेषा, पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र पड़ते हैं ।
⋙ ऐरिण
संज्ञा सं० पुं० [सं०] १. सेंधा नमक । २. रेह से भरी जमीन । ऊसर [को०] ।
⋙ ऐरिस्टोक्रैसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. एक प्रकार की राजसत्ता या शासनसूत्र जो बडे़ बडे़ भूम्यधिकारियों (सरदारों) या ऐश्वर्यसंपन्न नागरिकों के हाथों में रहती है । सरदार तंत्र । कुलीन तंत्र । अभिजात तंत्र । २. ऐसे लोगों की समष्टि या समाज । अभिजात समाज । कुलीन समाज ।
⋙ ऐरेय
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न की बनी हुई एक प्रकार की शराब [को०] ।
⋙ ऐल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] इला का पुत्र पुरुरवा ।
⋙ ऐल (२) पु
संज्ञा पुं० [ हिं० अहिला] १. बाढ़ । बूडा़ । २. अधिकता । बहुतायत । उ०—भूखन भनत साहि तनै सरजा के पास आइबे को चढी़ उर हौंसनि की ऐल है । भूषण (शब्द०) ३. समूह । झुंड । दल । उ०—तीखे तेगबाही औ सिपाही चढे़ घोड़न पै स्याही चढै़ अमित अंरिंदन की ऐल पै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३१० । ४. शोरगुल । हलचल । खलबली । उ०— खलनि के खैल भैल, मनमथ मन ऐल, सैलजा कै सैल गैल गैल प्रति रोक है । —केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १४५ ।
⋙ ऐल (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार कँटीली लता जिसकी पत्तियाँ प्रायः एक फुट लंबी होती हैं । अलई । अरू । विशेष—यह देहरादून, रुहेलखंड,अवध और गोरखपुर के नम जमीन में पाई जाती है । प्रायः खेतों आदि के चारों और इसकी बाढ़ लगाई जाती है । कहीं कहीं इसकी पत्तियाँ चमडा़ सिझाने के काम में भी आती हैं ।
⋙ ऐलक
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ऐलक' ।
⋙ ऐलवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गधद्रव्य । २. दे० 'एलवालुक' [को०] ।
⋙ ऐलविल
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर । एलविल [को०] ।
⋙ ऐलान
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'ऐलान' (२) [को०] ।
⋙ ऐश (१)
संज्ञा पुं० [अ०] आराम । चैन । भोग विलास । उ०— 'अमीरों को ऐश के सिवाय और क्या काम है ।'—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १८२ । क्रि० प्र०—करना । यौ०—ऐस व आराम,ऐशो आराम, ऐश व इशरत, ऐशो इशरत= सुख चैन । भोग विलास ।
⋙ ऐश (२)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐशी] १. ईश । (शिव) संबंधी । २. दैविक । ईश्वरीय । ३. ईश (राजा) संबंधी । राजकीय [को०] ।
⋙ ऐशगाह
संज्ञा पुं० [अ०] केलिभवन । विलासगृह [को०] ।
⋙ ऐशान
वि० [सं०] १.शिव संबंधी । २. ईशान कोण संबंधी [को०] ।
⋙ ऐशानी
वि० [सं०] १. दुर्गा (को०) ।२. ईशान कोण संबंधी ।
⋙ ऐशिक
वि० [सं०] १.ईश संबंधी । दैविक । २. शिव संबंधी [को०] ।
⋙ ऐशू
संज्ञा पुं० [देश०] चौपायों का एक रोग जिसमें उनका मुँह बँध जाता है, वे पागुर नहीं कर सकते ।
⋙ ऐश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईशत्व । प्रभुत्व । २. शक्ति [को०] ।
⋙ ऐश्वर
वि० [सं०] १. शिव संबंधी । २. ईश्वरीय । दैविक । ३. शक्तिशाली । ४. राजकीय [को०] ।
⋙ ऐश्वर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभूती । धन संपत्ति । २. आणिमादिक सिद्धियाँ । ३. प्रभुत्व । अधिपत्य । ४. ईश्वरता (को०) । ५. शक्ति । ताकत (को०) । राज्य (को०) । क्रि० प्र०—भोगना । यौ०—ऐश्वर्यशाली,ऐश्वर्ययुक्त=संपन्न । वैभवशाली ।
⋙ ऐश्वर्यवान्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐश्वर्यवती] वैभवशाली । संपत्ति- वान् । संपन्न ।
⋙ ऐषीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक शस्त्र जो त्वष्टा देवता का मंत्र पढ़कर चलाया जाता है ।
⋙ ऐषीक (२)
वि० [सं०] सरकंडा या बेंत का (शर) । सरकंडा या बेंत संबंधी (को०) । यौ०—ऐषीक पर्व=महाभारत के सौप्तिक पर्व का एक अंश ।
⋙ ऐष्टक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञार्थ ईँटों को चुनना या उन ईंटों को क्रमबद्ध करना [को०] ।
⋙ ऐष्टक (२)
वि० ईंटोंवाला । ईटों का बना हुआ (मकान) (को०) ।
⋙ ऐष्टिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री०ऐष्टिकी] इष्टि अर्थात् यज्ञ से संबंध रखनेवाला । यज्ञ या उत्सव संबंधी [को०] ।
⋙ ऐस (१) पु †
वि० [हिं०] दे० 'ऐसा' । उ०—आस न, बास न, मानुष अंडा । भए चौखँड जो ऐस पखंडा ।—जायसी ग्रं० पृ० ३०४ ।
⋙ ऐस (२)
संज्ञा दे० [अ० ऐश ] दे० 'ऐश' । उ०—सजन लगी है । कछु कबहूँ सिंगारन को, तजन लगी है कहुँ ऐस बैस बारी की— पद्माकर ग्रं०, पृ० २०१ ।
⋙ ऐसन (१
पु † वि० [हि० ऐसा] दे० 'ऐसा' । उ०— लोभ मोह सब दूरि बहावो ऐसन अदल चलावो । धर्म० श०; पृ०७० ।
⋙ ऐसन (२)
क्रि० वि० दे० 'ऐसे' ।
⋙ ऐसा
वि० [सं० ईदृश, अप० अइम] [ स्त्री० ऐसी] १. इस प्रकार का । इस ढंग का । इस भाँति का । इसके समान । जैसे, —तुमने ऐसा आदमी कहीं देखा है ? मुहा०—ऐसा तैसा या ऐसा वैसा=साधारण । तुच्छ । अदना । नाचीज । जैसे,—हमें क्या तुमने कोई ऐसा वैसा आदमी समझ रक्खा है । (किसी की) ऐसी तैसी=योनी या गुदा (एक गाली) । जैसे,—उसकी ऐसी तैसी, वह क्या कर सकता है ? ऐसी तैसी करना=बलात्कार करना । (गाली) । जैसे, — तुम्हारी ऐसी तैसी करूँ, खडे रहो । ऐसी तैसी में जाना=भाड़में जाना । चूल्हे में जाना । नष्ट होना । (बेपरवाई सूचित करने के लिये) । जैसे,—जब समझाने से नहीं मानते तब अपनी ऐसी तैसी में जायँ ।
⋙ ऐसे
क्रि० वि० [हिं०ऐसा] इस ढब से । इस ढंग से । इस तरह से जैसे,—वह ऐसे न मानेगा ।
⋙ ऐहलौकिक
वि० [सं०] दे० 'ऐहिक' [को०] ।
⋙ ऐहिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ऐहिकी ] इस लोक से संबंध रखनेवाला । जो परलौकिक न हो । सांसरिक । दुनियावी । स्थानीय ।
⋙ ऐहिक (२)
संज्ञा पुं० सांसारिक व्यापार या कर्म [को०] ।
⋙ ऐहिकदर्शी
वि० [सं०ऐहिकदर्शित] संसार को समझनेवाला । दुनीयादार [को०] ।