विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मन
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ मनः
संज्ञा पुं० [सं० मनस्] मन।
⋙ मनःकल्पित
वि० [सं०] मन द्वारा कल्पित। मनगढ़ंत [को०]।
⋙ मनःकांत
वि० संज्ञा पुं० [सं० मनःकान्त] दे० 'मनस्कांत'।
⋙ मनःकाम
संज्ञा पुं० [सं०] मनोरथ। मनस्काम [को०]।
⋙ मनःकार
संज्ञा पुं० [सं०] मन का एकाग्र करना। सुख दुःख आदि का पूर्ण ज्ञान वा जानकारी।
⋙ मनःक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] मन का उद्वेग।
⋙ मनःपति
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मनःपर्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मन से संकल्प विकल्प वा बोध प्राप्त करने की शक्ति।
⋙ मनःपर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्वानुसार वह ज्ञान जिससे चितित अर्थ का साक्षात होता है। यह ज्ञान ईर्ष्या और अंतराय नामक ज्ञानावरणों के दूर होने पर निर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति के पूर्व की अवस्था में प्राप्त होता है। इसमें जीवों को मनरूपी द्रव्य के पर्यायों का साक्षात ज्ञान होता है।
⋙ मनःपाप
संज्ञा पुं० [सं०] मानसिक पाप। मन का पाप [को०]।
⋙ मनःपीड़ा
संज्ञा पुं० [सं०] मानसिक संताप या क्लेश [को०]।
⋙ मनःपूत
वि० [सं०] जिसे मन पवित्र मानता है। जिसे अंतरात्मा अंगीकार करती हो [को०]।
⋙ मनःप्रणीत
वि० [सं०] १. मनःकल्पित। मनगढ़ंत। २. रुचिकर या मन को सुख देनेवाला [को०]।
⋙ मनःप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं०] मन की प्रसन्नता। उ०— मनःप्रसाद चाहिए केवल क्या कुटीर फिर क्या प्रासाद ?—पंचवटी, पृ० १०।
⋙ मनःप्रसूत
वि० [सं०] मन से उत्पन्न। मन से कल्पित [को०]।
⋙ मनःप्रिय
वि० [सं०] जो मन को प्रिय हो या अच्छा लगे [को०]।
⋙ मनःप्रीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मन को प्रसन्नता।
⋙ मनःशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मन की शक्ति। मनोबल [को०]।
⋙ मनःशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें मन और मनोविकारों का वर्णन हो। मनोविज्ञान। उ०—मनः शास्त्र कुछ और बताता है, पर जो हो।—रजत०, पृ० १७।
⋙ मनःशिल
संज्ञा पुं० [/?/०] मैनसिल।
⋙ मनःशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मैनसिल।
⋙ मनःशीघ्र
वि० [सं०] मन की तरह तीव्र [को०]।
⋙ मनःसंकल्प
संज्ञा पुं० [सं० मनःसङ्कल्प] मन की इच्छा। हृदय की चाहना [को०]।
⋙ मनःसंग
संज्ञा पुं० [सं० मनःसङ्ग] मन की किसी विषय में आसक्ति [को०]।
⋙ मनःसंताप
संज्ञा पुं० [सं० मनःसन्ताप] मानसिक पीड़ा या मन का क्लेश [को०]।
⋙ मनःसुख (१)
वि० [सं०] जो मन को रुचे। रुचिकर।
⋙ मनःसुख (२)
संज्ञा पुं० मन का सुख [को०]।
⋙ मनःस्थैर्य
संज्ञा पुं० [सं०] मन की दृढ़ता। चित्त को स्थिरता [को०]।
⋙ मन (१)
संज्ञा पुं० [सं० मनस्] १. प्राणियों में वह शक्ति या कारण जिससे उनमें वेदना, संकल्प, इच्छा द्वेष, प्रयत्न, बोध और विचार आदि होते हैं। अंतःकरण। चित्त। विशेष—वैशेषिक दर्शन में मन एक अप्रत्यक्ष द्रव्य माना गया है। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और संस्कार इसके गुण बतलाए गए हैं और इसे आणुरूप माना गया है। इसका धर्म संकल्प विकल्प करना बतलाया गया है तथा इसे उभयात्मक लिखा है; अर्थात् उसमें ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों के धर्म हैं। (एकादर्श मनो विद्धि स्वगुणे- नोभयात्मकम्। — गोता)। योगशास्त्र में इसे चित्त कहा है। बौद्ध आदि इसे छठी इंद्रिय मानते हैं। विशेष दे० 'चित्त'। २. अंतःकरण की चार वृत्तियों में से एक जिससे संकल्प विकल्प होता है। मुहा०—किसी से मन अटकना या उलझना = प्रीति होना। प्रेम होना। मन आना या मन में आना = समझ पड़ना। जँचना। उ०—(क) मंगल मूरति कंचन पत्र की मैन रचो मन आवत नीठि है।—दास (शब्द०)। (ख) और दीन बहु रतन पखाना। सोन रूप जो मनहि न आना।—जायसी (शब्द०)। मन का खराब होना = (१) मन फिरना। (२) नाराज होना। अप्रसन्न होना। (२) रोगी होना। बीमार होना। अपने मन का होना = (१) अपनी इच्छा या रुचि आदि के अनुकूल होना। उ०—वही कारण था कि लोग अपने मन के नहीं हो सकते।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७६। (२) किसी की सलाह या बात पर ध्यान न देना। स्वतंत्र, स्वच्छंद एवं जैसा जी में आवे वैसा करना। मन टूटना = साहस छूटना। हताश होना। उ०—फूटो निज कर्म नहिं लूटो सुख जानकी को टूटो न धनुष टूट गए मन सबके।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। मन का दाग = मन का मैल। पापवृत्ति। दुष्प्रवृत्ति। उ०— साखी शब्द बहुत सुना, मिटा न मन का दाग। संगति से सुधरा नहीं, ता का बड़ा अभाग।—कबीर सा० सं०, पृ० ५६। मन की दौड़ = मन की गति। मन का पहुँच। उ०—है जहाँ पर न दौड़ मन की भी, वाँ विचारी निगाह क्या दौड़े।—चोखे०, पृ० २। मन बिगड़ना = (१) मन का हट जाना। मन का उदासीन हो जाना। (२) मतली आना। कै मालूम होना। (३) उन्मत्त होना। पागल होना। मन बढ़ना = साहस बढ़ना। उत्साह बढ़ना। प्रोत्साहित होना। उ०—(क) सुनि मन धीरज भयल हो रमैया राम। मन बड़ि रहल लजाय हो रमैया राम।— कबीर (शब्द०)। (ख) आपस के नित के बैर से शत्रुओं का मन बढ़ा।—शिवप्रसाद (शब्द०)। किसी का मन बूझना † = किसी के मन की थाह लेना। उ०—तुम्हारा मन बूझने के लिये ही मैंने यह बातें कहीं।—हरिऔध (शब्द०)। मन का बूझना या मानना = मन में शांति होना। मन में धर्य आना। मन मन = मन ही मन। मन में। उ०—पिय सँग सोवत सोय न जाई। मन मन इमि सोचै सुख दाई।—नंद० ग्रं०, पृ० १४६। मन मानना = मन में शांति होना। संतोष होना। जैसे,—हमारा मन नहीं मानता; हम उन्हें देखने अवश्य जायँगे। मन का भेद पाना = हृदय को गूढ़ बात समझना। मन का रहस्य जानना। उ०—मन का भेद न पावै कोई।— जग० श०, पृ० ५४। मन का मारा = खिन्नहृदय। दुखी चितवाला। मन का मैला = मन का खोटा। कपटी। घाती। मन की मनें रहना = दे० 'मन की मन में रहना'। उ०— मन की मनें रही मन माया। जयों तरंग जल जलें समाया।— पृ० रा०, २६।८६। मन खो जाना = विस्मयान्वित होना। चकित होना। उ०—पै यह सगुन सरूप तुम्हारौ। ह्याँ मन खोयौ जात हमारौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २६९। मन छूना = (१) मन को आह्लादित करना। मन को प्रसन्न करना। मन को प्रभावित करना। (२) आंतरिक बात समझना। हृदय की बात जानना। (३) पूर्ण प्राप्ति न कराना। पूरी तरह से किसी वस्तु को न देना। नाम करना। उ०—मन छूना, शोभा बरसना, दिन ढलना या डूबना उदासी टपकना, इत्यादि ऐसी ही कविसमयसिद्ध उक्तियाँ हें जो बोलचाल में रूढ़ि होकर आ गई हैं।—रस० पृ० ४१। मन ठिकाने रहना = चित्त स्थिर रहना। मन शांत रहना। उ०—चर्चा वार्ता बिना मन ठिकाने रहत नाहीं।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० ११७। मन धरना = (१) दे० 'मन छूना'। (२) मन में धारण करना। उ०—कसौ कसौटी तासु का, जो कसनी ठहराइ। खोटे खरे जु मन धरे, त्यागैं बिरद लजाइ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १०। मन हरा होना = मन प्रसन्न होना। चित्त प्रसन्न रहना। मन की मन में रहना = इच्छा पूरी न होना। जैसे,—मन की मन में ही रह गई; और वे चले गए। मन के लड्डू खाना = ऐसी बात को सोचकर प्रसन्न होना, जिसका होना असंभव या दुःसाध्य हो। व्यर्थ की आशा पर प्रसन्न होना। उ०—विरह से पागल प्रेमी लोग मन के लड्डू से भूख बुझा लेते हैं।— हरिश्चंद्र (शब्द०)। मन खोलना = दुराव छाड़ना। निष्कपट होना। शुद्ध हृदय होना। मन चलना = इच्छा होना। प्रवृत्ति होना। जैसे,—बीमारी में किसी चीज पर मन नहीं चलता। किसी का मन टटोलना या मन को टटोलना = किसी के मन की थाह लेना। किसी की इच्छा को जानना। जैसे,—आओ, कुछ आमोद प्रमोद की बातें कर उसका मन टटोलें। मनडोलना = (१) मन का चलायमान होना। मन का चंचल होना। (२) लालच उत्पन्न होना। लोभ आना। मन डोलाना = (१) मन में चंचलता उत्पन्न करना। मन चलायमान करना। उ०—भोजन करत गह्यो कर रुकमिनि सोई देहु जो मन न डोलावै। सूरदास प्रभु जब निधिदाता जापर कृपा सोई जन पावै।—सूर (शब्द०)। (२) लालच उत्पन्न करना। लोभ दिलाना। अपना मन डोलना = लालच करना। मन देना = (१) जी लगाना। मन लगाना। उ०—(क) एक बार जो मन देइ सेवा। सेवहि फल प्रसन्न होइ देवा।—जायसी (शब्द०)। (ख) रघुपतिपुरी जनमु तब भयऊ। पुनि ते मन सेवा मम दयऊ।—तुलसी (शब्द०)। (२) ध्यान देना। किसी को मन देना = किसी पर आसक्त होना। मोहित होना। किसी पर मन धरना = ध्यान देना। मन लगाना। उ०— (क) त्रास भयो अपराध आप लखि अस्तुति करत खरे। सूरदास स्वामी मनमोहन तामें मन न धरे।—सूर (शब्द०)। (ख) जोई भक्ति भाजन मन धरे। सोई हरि सों मिलि अनुसरे।—लल्लू (शब्द०)। मन तोड़ना या हारना = भग्नोत्साह होना। साहस छोड़ना। उ०—अंग बिनु है सबै नहीं एको फवै सुनत देखत नयन सूर सब भेद गुनि मनहि तोरे।—सूर (शब्द०)। (किसी से) मन फट जाना या फिर जाना = घृणा होना। नफरत होना। उ०—राण अनै अमरेस रै, वले प्रगटयौ बेध। मन फाटौ खाटाँ चिताँ, खूँटे ढाध न खेध।—रा० रू०, पृ० ३४५। मन फिराना = दे०'मन फेरना' मन फेरना = चित्त को हटाना। मन को किसी ओर से अलग करना। प्रवृत्ति बदलना। उ०—फिरि फिर फेरि फेरि फैरयो मैं हरी को मन फेरै फिरी पुनि पुनि भाग की भली घरी।— केशव (शब्द०)। मन बढ़ाना = साहस दिलाना। उत्साह बढ़ाना। प्रोत्साहित करना। उ०—दियो शिरपाय नृपराउ ने महर को आप पहरावनी सब दिखाए। अतिहि सुख पाइ कै लियौ सिर नाइ कै हरषि नँदराय कै मन बढ़ाए।—सूर (शब्द०)। मन बहना या बह पड़ना = चित्त का किसी ओर ढल जाना। मन का बरबस किसी ओर चले जाना। उ०— ज्यों जोगो जन मन बाहि परे। बहुरि जोग बल निर्मल करे।— नंद० ग्रं०, पृ० २९१। मन में बसना = मन में खुभना। पसंद आना। अच्छा लगना। रुचना। भाना। जैसे,— उनका सूरत तो मेरे मन में बस गई है। उ०—गुर के भेला जिव डरे कावा छीजनहार। कुमति कमाई मन बसे लागु जुवा की लार।—कबीर (शब्द०)। मन बहलाना = खिन्न या दुःखी चित्त को किसी काम में लगाकर आनंदित करना। दुःख छोड़कर आनंद से समय काटना। चित्त प्रसन्न करना। जी बहलाना। उ०—ना किसान अव समाचार तहँ आप सुनैहै। ना नाऊ की बातें सबको मन बहलैहै।—श्रीधर पाठक (शब्द०)। मन भरना = (१) प्रतीति होना। निश्चय या विश्वास होना। (२) संतोष होना। तुष्टि होना। तृप्ति होना। उ०—यह बीसों फूलों पर गया, पर इसका मन न भरा।— अयोध्या (शब्द०)। मन भर जाना = (१) अघा जाना। तृप्ति होना। (२) अधिक प्रवृत्ति न रह जाना। मन भाना = भला लगना। पसंद होना। रुचना। उ०—(क) वामिनि को बामदेव कामिनि को कामदेव रण जयथंभ रामदेव मनये जू।—केशव (शब्द०)। (ख) भाँति अनेक विहंगम सुंदर फूलैं फलैं तरु ते मन भावैं। प्रताप (शब्द०)। (ग) हरिहर ब्रह्मा के मन भाई। विधि अक्षर लै युगुति बनाई।—कबीर (शब्द०)। (घ) कहेहु नीक मोरेहु मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।—तुलसी (शब्द०)। (ङ) बाला वैसँधि मैं छवि पावै। मन भावै मुँह कहत न आवै।—नंद० ग्रं०, पृ० १२१। मन भारी करना = दुःखी होना। उदास होना। मन मरना = इच्छा समाप्त होना। किसी प्रकार की रुचि न होना। उ०—मन मरना, मन छूना शोभा बरसना, उदासी टाकना इत्यादि ऐसी ही कविसमयसिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोलचाल में रूढ़ि होकर आ गई हैं।—रस०, पृ० २१। मन मरा होना = बिलकुल उदास या निष्क्रिय होना। उ०—चीठ पर है चीट चित को लग री। आज उनका मन बहुत ही है मरा।—चुभते०, पृ० २८। मन मानना = (१) संतोष होना। तसल्ली होना। उ०— (क) मधुकर कहि कैसे मन माने। जिनके एक अनन्य ब्रत सूझे क्यों दूजो उर आनै—सूर (शब्द०)। (ख) राजा भा निश्चै मन माना। बाँधा रतन छोड़ि के आना।—जायसी (शब्द०)। (२) निश्चय होना। प्रतीति होना। उ०—(क) कै बिनु सपथ न अस मन माना। सपथ बोलु बाचा परमाना।—जायसी (शब्द०)। (३) अच्छा लगना। रुचना। पसंद आना। भाना। उ०—सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ज्ञान नयन निरखत मन माना।—तुलसी (शब्द०)। (४) स्नेह होना अनुराग होना। उ०—सखी री श्याम सों मन मान्यो। नौके करि चित कमल नैन सों घालि एक ठों सान्यों।—सूर (शब्द०)। मन मारना = इच्छा नष्ट करना। इच्छा को दबाना। उ०—दिन गए सिंघ मार लेने के। है भला कौन भार मन पाता।—चुभते०, पृ० ७१। किसी से मन मिलना = (१) प्रेम होना। अनुराग होना। (२) मित्रता होना। दोस्ती होना। उ०—ए जेते दिन मन मिल गए तिय पिय बिन मीको, तेते दिन मेरे आन लेखे।—अकबरी०, पृ० २९। मन में आना = (१) मन में किसी भाव का उत्पन्न होना। उ०—तासों उन कटु बचन सुनाए। पै ताके मन कछू न आए।—सूर (शब्द०)। (२) समझ पड़ना। ध्यान में आना। उ०—यह तनु क्यो ही दियौ न आवे। और देत कछु मन नहिं आवे।— सूर (शब्द०)। (३) अच्छा जान पड़ना। भला लगना। मन में आनना † = दे०'मन में लाना'। मन में जमना या बैठना = (१) ठीक जँचना। उचित या युक्तियुक्त प्रतीत होना। (२) विचार में आना। ध्यान में आना। मन में ठानना = निश्चय करना। दृढ़ संकल्प करना। मन में धरना = दे० 'मन में रखना'। मनमें भरना = हृदयंगम करना। मन में जमाना। मन में रखना = (१) गुप्त रखना। प्रकट न करना। जैसे,— अभी यह बात मन में ही रखना; किसी से कहना मत। (२)स्मरण रखना। जैसे,—हमारी सब बातें मन में रखना, भूल न जाना। मन में होरी लगना = बिरह व्यथा से पीड़ित होना। उ०—होरी नाहक खेलूँ मैं वन में, पिया बिनु होरी लगी मेरे मन में।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३८४। मन में लाना = विचार करना। सोचना। ध्यान देना। उ०— कहै पदमाकर झकोर झिल्ली शोरन को मोरन को महत न कोऊ मन ल्यावती।—पद्याकर (शब्द०)। मन मोहना या मन को मोहना = किसी के मन को अपनी ओर आकृष्ट करना। लुभाना। अनुरक्त करना। उ०—जग अदपि दिगंबर पुष्पवती नर निरखि निरखि मन मोहै। केशव (शब्द०)। मन मिलना = दो मनुष्यों को प्रकृति या प्रवृत्तियों का अनुकूल अथवा एक समान होना। जैसे,—मन मिले का मेला। नहीं तो सबसे भला अकेला। (शब्द०)। मन मारना = (१) खिन्न चित्त होना। उदास होना। उ०—(क) भूसुत शत्रु थान किन हेरत लखत मोहिं मन मारैं। सुनि रिपु पुत्रबधू किन बैरिन मोकों देत सवारैं।—सूर (शब्द०)। (ख) मौन गहौं मन मारे रहौं निज पीतम की कहौं कौन कहानी।—प्रताप (शब्द०)। (२) इच्छा को दबाना। मन को वश में करना। उ०—मन नहिं मार मना करी सका न पाँच प्रहारि। सील साँच सरधा नहीं अजहूँ इंद्रि उधारि।—कबीर (शब्द०)। मन मारे हुए या मन मारे = दुःखी। उदास। खिन्नचित। उ०—(क) कहँ लगि सहिय रहिय मन मारे। नाथ साथ धनु हाथ हमारे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) प्रिया वियोग फिरत मन मारे परे सिंधु तट आनि। ता सुंदरि हित मोहिं पठायो सकौं न हौं पहिचानि।—सूर (शब्द०)। (ग) भवन ही मन मारि बैठी सहज सखि इक आई। देखि तनु अति विरह व्याकुल कहति बचन बनाई।—सूर (शब्द०)। (घ) उर धरि धीरज
गउए दुआरे। पूछहिं सकल देखि मन मारे।—तुलसी (शब्द०)। मन मैला करना = मन में खिन्न होना। अप्रसन्न या असंतुष्ट होना। उ०—माइ मिले मन का करिहौ मुह ही के मिले ते किए मन मैले।—केशव (शब्द०)। किसी से मन मोटा होना = किसी से अनबन होना। किसी का मन मोटा होना = विराग होना। उदासीन होना। मन मोड़ना = प्रवृत्ति या विचार को दूसरी ओर लगाना। उ०—विधाता ने हमारा तुम्हारा वियोग कर दिया; मुझे अब मन मोड़ लेना पड़ा।—तोताराम (शब्द०)। किसी का मन रखना = किसी की इच्छा पूर्ण करना। किसी के मन में आई हुई बात पूरी करना। जैसे,—यहाँ के राजाओं से सारे बादशाह दबत थे और इनका वे लोग सब तरह मन रखते थे। उ०—पत रखे जो पत रखाना हो हमें। चूक है मन रख न जो हम मन रखें।—चोखे०, पृ० ३८। मन लगना = (१) जी लगना। तबीयत लगना। (२) चित विनाद होना। उ०—बिरहागि ह्वै दुगुनी जगै। मन बाग देंखत ना लगै।—गुमान (शब्द०)। मन लगाना = (१) चित्त लगाना। मनोयोग देना। (२) चित्त विनोद करना। मन की उदासी मिटाना। (३) प्रेम करना। अनुराग करना। मन लाना पु = मन लगाना। जी लगाना। उ०—(क) गगन मँडल माँ भा उजियारा उलटा फेर लगाया। कहै कबीर जन भए बिवेकी जिन मंत्री मन लाया। कबीर (शब्द०)। (ख) छमिहहिं सज्जन मोर ढिठाई। सुनिहहिं वाल वचन मन लाई।—तुलसी (शब्द०)। (ग) किए जो परम तत्व मन लावा। घूमि मात सुनि और न भावा।—जायसी (शब्द०)। (२) प्रेम करना। आसक्त होना। उ०—पवन/?/मन लाई। जोवै मारग दृष्टि बिछाई।—जायसी (शब्द०)। मन से उतरना = (१) मन में आदर भाव न रह जाना। तिरस्कृत होना। घृणित ठहरना। (२) याद न रहना। विस्मृत होना। मन से उतारना = (१) मन में पहले का सा आदर भाव न रखना। तिरस्कार करना। घृणा करना। (२) चित्त से उतारना। विस्मृत करना। भुलाना। मन हरना = मुग्ध करना। मोहित करना। मोह लेना। अपने ऊपर अनुरक्त करना। उ०—(क) चेटक लाइ हरहि मन जब लागे हो गरि फेंट। साठ नाट उठि भागहिं ना पहिचान न भेंट।—जायसी (शब्द०)। (ख) वह देखो युवति वृंद में ठाढ़ि नील वसन तनु गोरी। सूरदास मेरो मन बाकी चितवन देखि हरेउ री।—सूर (शब्द०)। (ग) कानन लसत बिजुरिया मन हरि लीन। तिन पर परै बिजुरिया जिन रचि दीन।—रहीम (शब्द०)। (घ) स्वप्न रूप भाषण सुधि करि करि। गयो दुहुन के यहि विधि मन हरि।—शं० दि, (शब्द०)। मन ही मन रिंघना = जलना। मन ही मन दुःखी होना। मन ही मन ईर्ष्या करना। उ०—जब तक ख्याल आ जाता और वह मन ही मन रिंधने लगता। अभिशस, पृ० १०। किसी का मन हाथ में लेना या करना = वशीभूत करना। अपने वश में करना। मन ही मन = हृदय में। चुपचाप बिना कुछ कहे हुए। भीतर ही भीतर। उ०—(क) ललिता मुख चितवत मुसुकाने। आप हँसी पिय सुख अवलोकत दुहुनि मनहिं मन जान।—सूर (शब्द०)। (ख) प्रथम केलि तिय कलह की, कथा न कछु कहि जाय। अतनु ताप तनुही सहै, मन ही मन अकुलाय। पद्याकर (शब्द०)। ३. इच्छा। इरादा। विचार। मुहा०—मन करना = इच्छा करना। चाहना। उ०—मन न मनावन को करै देत रुठाय रुठाय। कौतुक लाग्यौ पिय प्रिया खिजहु रिझावति जाय।—बिहारी (शब्द०)। मनमाना = अपने मन के अनुसार। यथेच्छ मन चाहा। उ०—दुहूँ ओर की महचरी करत दुहुन की भीर। मन मान्यौ मौसर मिल्यौ मिटी मदन की पीर।—व्रज० ग्रं०, पृ० ६५। मन होना = इच्छा होना। उ०—उमगत अनुराग सभा के सराहे भाग देखि दसा जनक की कहिवे को मनु भयो।—तुलसी (शब्द०)। मनमाना घर जाना = मनमानी। स्वेच्छाचारिता।
⋙ मन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मणि] मणि। बहुमूल्य पत्थर।
⋙ मन (३)
संज्ञा पुं० [?] चालीस सेर का एक मान या तौल।
⋙ मनई †
संज्ञा पुं० [सं० मानव] मनुष्य। आदमी। उ०—बरसे नीर झराझर मनई उवर न पाए।—गि० दा० (शब्द०)।
⋙ मनकना
क्रि० अ० [अनु०] १. हिलना। डोलना। चेष्टा करना। हाथ पैर चलाना। उ०—आए दरबार बिललाने छरोदार देखि जापता करनहारे नेकहु न मनके। भूषण (शब्द०)। २. तर्क वितर्क करना चीं चपड़ करना।
⋙ मनकरा पु
वि० [हिं० मणि + कर (प्रत्य०)] चमकदार। प्रकाशमान। उ०—दुइज ललाट अधिक मनकरा। शंकर देखि माथ भुइं धरा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मनकर्पत
वि० [सं० मनः + कर्षण] आकर्षक। उ०—याको नाम एक संकर्षन। जन हर्षन सनके मनकर्षन। नंद० ग्रं० पृ० २४४।
⋙ मनका (१)
संज्ञा पुं० [सं० मणिक या मणिका] १. पत्थर लकड़ी आदि का वेधा हुआ गोल खंड या दाना जिसे पिरोकर माला या सुमिरनी आदि बनाई जाती है गुरिया। उ०— माला फेरत जग सुआ गया न मन का फेर। कर का मनका छाँड़ि के मन का मनका फेर।—कबीर (शब्द०)। २. माला या सुमिरनी। (क्व०)।
⋙ मनका (२)
संज्ञा पुं० [सं० मन्यका (= गले की नस)] गरदन के पीछे की हड्डी जो रीढ़ के बिलकुल ऊपर होती है। मुहा०—मनका ढलना या ढलकना = मरने के समय गरदन टेढ़ी हो जाना। मृत्यु के समय गरदन का एक ओर झुक जाना। विशेष—वह अवस्था ठीक मरने के समय होती है; और इसके उपरांत मनुष्य नहीं बचता।
⋙ मनकामना
संज्ञा स्त्री० [हिं० मन + कामना] मनोरथ। अभिलाषा इच्छा। उ०—सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजहि मनकामना तुम्हारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनकूला
वि स्त्री० [अ०] स्थिर या स्थावर का उलटा। चर। यौ०—जायदाद मनकूला = चर संपत्ति। गैर मनकूला = स्थिर। स्थायी। स्थावर।
⋙ मनकूहा
वि० स्त्री० [अ० मनकूहह्] जिसके साथ निकाह हुआ हो। विवाहिता। पाणिगृहीता। जैसे, मनकूहा औरत।
⋙ मनक्कना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मनकना'। उ०—किरव्वान कुंतुं झरै बैसु कक्की। मनों बीजलट्टी कुलट्टा मनक्की।—पृ० रा०, २४।१५७।
⋙ मनखा †
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] दे० 'मनुष्य'। उ०—मनखा जनम पदारथ पायो ऐसो बहुर न आती। संतवाणी०, पृ० ६८।
⋙ मनगढ़ंत (१)
वि० [हिं० मन + गढ़ना] जिसकी वास्तविक सत्ता न हो, केवल कल्पना कर ली गई हो। कपोलकल्पित। जैसे,— आपकी सब बातें मनगढ़ंत ही हुआ करती हैं।
⋙ मनगढ़ंत (२)
संज्ञा स्त्री० कोरी कल्पना। कपोलकल्पना। जैसे,— यह सब आपकी मनगढ़ंत है।
⋙ मनगमता ‡
वि० [हिं० मन + गम; गुज० गमवुं (= अच्छा लगना, भाना)] मनोभीष्ट। मन को रुचनेवाला। उ०— मनगमता पाम्या नहीं ऊँटकटाला खाइ।—ढोला०, दू० ४२७।
⋙ मनचला
वि० [हिं० मन + चलना] १. धीर। निडर। जैसे, मनचला सिपाही। २. साहसी। हिम्मतवाला। ३. रसिक।
⋙ मनचाहना
वि० [हिं० मन + चाहना] [स्त्री० मनचाहती, मन- चाहंदी] १. जिसे मन चाहे। प्रिय। २. मन के अनुकूल। यथेच्छ। उ०—सखिए साहिब आविया, मनचाहंदी मोइ। बाड़ी हुआ वधाँमणा, सज्जण मिलिया सोइ।—ढोला०, दू० ५३२।
⋙ मनचाहा
वि० [हिं० मन + चाहना] [वि० स्त्री० मनचाही] इच्छित। अभिलषित।
⋙ मनचीत, मनचीता
वि० [हिं० मन + चेतना] [वि० स्त्री० मनचीती] मनचाहा। मनभाया। मन में सोचा हुआ। उ०—(क) घर डर बिसरेउ बढ़ेउ उछाह। मनचीते हरि पायो नाह।— सूर (शब्द०)। (ख) मेरे मन को दुख परिहरौ। मनचीतो कारज सब करौ।—लल्लू (शब्द०)। (ग) पूरो जदपि भयो नहीं मनचीत्यो रति नाह।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (घ) क्या लाए थे निपट पराजय तुम अपने मनचीत, गखे ?— अपलक, पृ० ७०।
⋙ मनछा ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्य] मछली। मत्स्य। उ०—पंछी जल मो घर करै, मनछा चढ़े अकास।—रामानंद०, पृ० ३२।
⋙ मनजम
वि० [अ० मनजम] छंदोवद्ध [को०]।
⋙ मनजात
संज्ञा पुं० [हिं० मन + सं० जात] कामदेव। उ०— मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरे न हिए।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनडा पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन + डा (स्वा० प्रत्य०)] दे० 'मन'। उ०—चेतरे अर्जू मनडा चतुर, रट रट श्री सीतारमण।—रघु० रू०, पृ० ४३।
⋙ मनतोरवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ मनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचार। चिंतन। सोचना। २. भली- भाँति अध्ययन करना। ३. वेदांत शास्त्रानुसार सुने हुए वाक्यों पर बार बार विचार करना और प्रश्नोत्तर या शंका— समाधान द्वारा उसका निश्चय करना।
⋙ मननशील
वि० [सं० मनन + शील] जो किसी विषय पर बहुत अच्छी तरह विचार करता हो। विचारशील। विचारवान्।
⋙ मननाना
क्रि० अ० [मन् मन् से अनु०] गुंजारना। गूँजना। उ०—मननात भौंर भूषण अमोल झननात झवा झूलनि सरसे।—गुमान (शब्द०)।
⋙ मननीय
वि० [सं०] मनन करने योग्य। विचारणीय [को०]।
⋙ मनफल पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन + सं० फल] मन में इच्छित फल या परिणाम। मनोरथ। उ०—मनफल पावैं तोरि डारी कुलपाज है।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २३।
⋙ मनबंछित पु
वि० [हिं० मन + सं० वाञ्छित] दे० 'मनवांछित'। उ०—हित चिंतकनि महा मनिवंछित को फल विधना आजु दए।—घनानंद, पृ० ४८३।
⋙ मनबांछित
वि० [हिं० सं० मनोवाञ्छित] दे० 'मनोवांछित'। उ०—जागी महरि पुत्र मुख देखेउ आनँद तूर बजाई। कंचनकलस हेम द्विज पूजा चंदन भवन लिपाई। दिन दसहीं ते बरसे कुसुमनि फूलनि गोकुल ठाई। नंद कहै इच्छा सव पूजी मनबांछित फल पाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ मनभंग
संज्ञा पुं० [सं० मन + भङ्ग] बदरिकाश्रम के एक पर्वत का नाम।
⋙ मनभाया
वि० [हिं० मन + भाना] [वि० स्त्री० मनभाई] जो मन को भावे। जो अच्छा लगे। मनोनुफूल। उ०—(क) सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि कियो कान्ह ग्वालिनि मनभायो।— सूर (शब्द०)। (ख) ख्याल मनभाय कहूँ करिके गोपाल वेरे आए अति आलस कढ़ेई बड़े तरके।—पद्य कर (शब्द०)। (ग) करत सुहाय सुहाय मनभाय वर पाय सब कार चतुराई अधिकाय आधकात है।—प्रताप (शब्द०)। (घ) आतुर है पिय केलि करी सुभरी निज अंक करी मन भाइ।—(शब्द०)।
⋙ मनभाँवरो पु
वि० [हिं० मन + भाना] १. मन को अच्छा लगनेवाला। २. मन का भ्रमर। उ०—जसुमति नंदन त्रिभुवन बंदन दुख फंदन मनभाँवरी। नंद० ग्रं०, पृ० ३५१।
⋙ मनभावंत पु
वि० [हिं० मन + भाना] दे० 'मनभावना'। उ०— रूपवंत जस दरपन धन तू जाकर कंत। चाही जैसे मनोहर मिला सो मनभावंत।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मनभावता
वि० [हिं० मन + भाना] [वि० स्त्री० मनभावती] १. जो मन को भला लगता हो। २. प्रिय। प्यारा। उ०— (क) कहि पठई मनभावती पिय आवन की बात। फूली आँगन में फिरै आँग न अंग समात।—बिहारी (शब्द०)। (ख) मोंहिं तुम्हें न उन्हें न इन्हैं, मनभावती सो न मनावन ऐहै।—पद्याकर (शब्द०)।
⋙ मनभावन
वि० [हिं० मन + भाना] [वि० स्त्री० मनभावनी] १. मन को अच्छा लगनेवाला। उ०—चरण धोइ चरणोदक लीनो माँगि देऊँ भनभावन। तीन पैड़ वसुधा हौं चाहौं परण- कुटी को छावन।—सूर (शब्द०)। २. प्रिय। प्यारा। उ०— (क) भले सुदिन भए पूत अमर अजरावन रे। जुग जुग जीवहु कान्ह सबहि मनभावन रे।—सूर (शब्द०)। (ख) केशोदास सुंदर अवन ब्रजसुंदरी के मानी मनभावन के भावते भवन है।—केशव (शब्द०)। (ग) शंख भेरि निशान बाजहिं नचहिं शुद्ध सुहावनी। भाट बोलें विरद नारी वचन कहैं मन- भावनी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मनमंत पु
वि० [सं० मदमत्त] दे० 'मदमत्त'। उ०—छंडे सिर छत्रं साहि सुतंत्रं। गो धीरत्रं मनमंतं।—पृ० रा०, २४।२५२।
⋙ मनमत पु (१) †
वि० [सं० मदमत्त] दे० 'मैमंत'।
⋙ मनमत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथ] दे० 'मन्मथ'। उ०—जब कामिनि से भौ परसंगा। उपज मनमत भाव अनंगा।— दरिया० बानी०, पृ० ६४।
⋙ मनमति
वि० [हिं० मन + मति] अपने मन का काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी। उ०—भाई, ये मनमति होना अच्छा नहीं, किसी की बात मान भी लेनी चाहिए।—श्रद्धाराम (शब्द०)।
⋙ मनमत्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथ] दे० 'मन्मथ'। उ०—उपासंग तूनीर पुनि इषधी तून निषंग। भाथ मनो मनमत्थ की पिंडुरी भरी सुरंग।—अनेकार्थ०, पृ० ३६।
⋙ मनमथ
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथ] दे० 'मन्मथ'। यौ०—मनमथपिता = हृदय। उ०—स्वांतहृदय मनमथपिता आतम मानस नाँउ।—नंद ग्रं०, पृ० ३०।
⋙ मनमथन
संज्ञा पुं० [सं०] कामेदव [को०]।
⋙ मनमथी पु
वि० [हिं० मन्मथ + ई (प्रत्य०)] मन्मथ संबंधी। उ०—करि रस अनंग क्रीडा बड़िय सुबेलि सुमन मनमथी।— पृ० रा०, २४।४९०।
⋙ मनमानता
वि० [हिं० मन + मानना] [वि० स्त्री० मनमानती] मनमाना। मनचाहा। मनोवांछित। उ०—भव ग्वालों ने प्रसन्न हो निवड़क फूल तोड़ मनमानती झेलियाँ भर लीं।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ मनमाना
वि० [हिं० मन + मानना] [वि० स्त्री० मनमानी] १. जिसे मन चाहे। जो मन को अच्छा लगे। उ०—तुलसा विदेह की सनेह की दसा सुमिरि, मेरे मनमाने राउ निपट सयाने हैं।—तुलसी (शब्द०)। २. मन के अनुकूल। मनोनीत। पसंद। उ०—पालने आन्यो, सबहि अति मनमान्यो नीको सो दिन धराइ, सखिन मंगल गवाइ, रंगमहल में पढ्यौ है कन्हैया।—सूर (शब्द०)। ३. यथेच्छ। इच्छानुकूल। मनचाहा। जैसे,—आप किसी की बात तो मानते ही नहीं। हमेशा मनमाना करते हैं।
⋙ मनमानिब पु ‡
वि० [हिं० मन + मानना] मनमाना। यथेप्ट। अत्यधिक। प्रचुर। उ०—जिते यज्ञ के योग्य तिते द्रव सब मनमानिब।—ह० रासो, पृ० १०।
⋙ मनमानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मनमाना] इच्छानुकूल काम करने की प्रवृत्ति। स्वेच्छाचारिता।
⋙ मनमुख पु †
वि० [हिं० मन/?/मुखी] दे० 'मनमुखी'। उ०—इन चारों प्रकार के लोगों में कोई गुरुमुख नहीं है सब मनमुख हैं।—कबीर मं०, पृ० ३६२।
⋙ मनमुखी †
वि० [हिं० मन + सं० मुख्य] मनमाना काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी। उ०—गुरु द्रोही औ मनमुखी नारी पुरुष विचार। ते नर चौरासी भ्रमहिं जब लगि शशि दिनकार।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मनमुटाव
संज्ञा स्त्री० [हिं० मन + मोटा] मन में भेद पड़ना। मन मोटा होना। वैमनस्य होना। क्रि० प्र०—पड़ना।—होना।
⋙ मनमेलू पु
वि० [हिं० मन + मिलाना] मन मिलानेवाला। हितू। उ०—मो सी मनमेलू सों रूखी परति अचगरी निपट पुढ़ाई ही की।—घनानंद०, पृ० ५४१।
⋙ मनमोद †
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का डिंगल गीत। इसमें पहले दोहा और फिर कड़खा रहता है। उ०—गुण दोहै सी भालगत, ऊपर कडयो आण। हुबै गोत मनमोद हद वद रघुपत बाखाण।—रघु० रू०, पृ० १७३।
⋙ मनमोदक
संज्ञा पुं० [हिं० मन + मोदक] अपनी प्रसन्नता के लिये बनाई हुई असंभव या कल्पित बात। मन का लड्डू। उ०— वृथा मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनमोहन (१)
वि० [हिं० मन + मोहन] [वि० स्त्री० मनमोहनी] १. मन को मोहनेवाला। मन को लुभानेवाला। चिताकर्षक। मुग्धकारक। उ०—(क) रूप जगत मनमोहन जेहि पद्यावति नाउँ। कोटि तरब तुहि देहौं आनि करेसि इक ठाउँ।—जायसी (शब्द०)। (ख) पटुली कनक की तिही वानक की बनी मन- मोहनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५। २. प्रिय। प्यारा।
⋙ मनमोहन (२)
संज्ञा पुं० १. श्रीकृष्णचंद्र का एक नाम। उ०—मनमोहन खेलत चौगान। द्वारवती कोट कंचन में रच्यो रुचिर मैदान।—सूर (शब्द०)। २. एक मात्रिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चौदह मात्राएँ होती हैं, जिनमें से अंतिम मात्राओं का लघु होना आवश्यक है। जैसे,—तुमहि निहोरे खुले करम तुमही भजे पावही धरम। ३. एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष बरमा, जावा आदि देशों में होता है। यह सीधा और ऊँचा होता है। इसकी लकड़ी साफ होती है और इसपर रंग खूब खिलता है। इसके फूल बहुत सुगंधित होते हैं जिनसे अतर निकाला जाता है। इस इतर को 'इलंग' कहते हैं और यूरोप में इसको बहुत खपत होती है। इसे अब लोग बंगाल में भी बागों में लगाते हैं। यह बीजों से उगता हैं।
⋙ मनमौजी
वि० [हिं० मन + मौज] मन की मौज के अनुसार काम करनेवाला।
⋙ मनरंज पु
वि० [हिं० मन + रंजना] मनोरंजन करनेवाला। मनोरंजक। उ०—तुमसों कीजै मान क्यों बहु नाहक मनरंज। बात कहत यों बाल कै भरि आए दृग कंज।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ मनरंजन (१)
वि० [हिं० मन + रंजना] मनोरंजन करनेवाला। मन को प्रसन्न करनेवाला। मनोरंजक। उ०—(क) भृंगी री भज चरण कमल पद जहँ नहिं निशि को त्रास। जहँ बिधु भान समान प्रभा नख सो वारिज सुखरास। जिहिं किंजल्क भक्ति नव लक्षण काम ज्ञान रस एक। निगम सनक शुक नारद शारद मुनिजन भृंगर अनेक। शिव विरंचि खंजन मनरंजन छिन छिन करत प्रवेश। अखिल कोश तहँ वसत सुकृत जन परगट श्याम दिनेश। सुनि मधुकरी भरम तजि निर्भय राजिव वर की आस। सूरज प्रेम सिंधु में प्रफुलित तहँ चलि करे निवास।—सूर (शब्द०)। (ख) थिरकत सहज सुभाव सौं चलत चपल गत सैन। मनरंजन रिझवार के खंजन तेरे नैन।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मनरंजन (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मनोरंजन'।
⋙ मनरति पु
वि० [हिं० मन + सं० रति] मन में रमण करनेवाली। मन को अच्छी लगनेवाली। उ०—देवराज रावत सुता देवत्तनि जद्दौंन। गौरि नाम सारंग बर मनरति मूरति जीन।—पृ० रा०, १।३६२।
⋙ मनरोचन
वि० [सं० मन + रोचन] मन को मुग्ध करनेवाला या रुचनेवाला सुंदर। उ०—तापर भौंर भलो मनरोचन लोक बिलोचन की सथिरी है।—केशव (शब्द०)।
⋙ मनरौन पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन + सं० रमण> हिं० रौन] मन- रमण। प्रियतम। उ०—सहज सुभावनि सौं भौहनि के भावनि सौं, हरति है मन 'मतिरा म' मनरौन को।—मति० ग्रं० पृ० ३४५।
⋙ मनलाडू पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन + लड्डू] दे० 'मनमोदक'। उ०—धर्म अर्थ कामना सुनाव त सब सुख मुक्ति समेत। काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत।—सूर (शब्द०)।
⋙ मनवंछित पु
वि० [सं० मनोवाञ्छित] दे० 'मनोवांछत'। उ०— मेल्ही चाँवर बइसणईँ, मनवंछित भोजन अर चीर।—बी० रासो, पृ० ६२।
⋙ मनवाँ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] नरमा। देवकपास। रामकपास। उ०— चहुँ कित चितवे चित चकित सजल किए चल नैन। लखि सनबा मलबाँ परै मन वाके नहि चैन।—स० सप्तक, पृ० २६२।
⋙ मनवाँ पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मनुआँ'। उ०—मोरा मनवाँ हे तुमी सन लागीलौ।—घनानंद, पृ० ३६२।
⋙ मनवाना (१)
क्रि० स० [हिं० मानना का प्रे० रूप] मानने का प्रेरणार्थक रूप। मानने के लिये प्रेरणा करना। किसी को मानने में प्रवृत्त करना। उ०—भावत ही की सखी सों भटू मनभावते भावती को मनबायो।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ मनवाना (२)
क्रि० स० [हिं० मनाना] मनाने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को मनाने में प्रवृत्त करना।
⋙ मनवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन या मनुहार] निहोरा। खातिंरी। उ०—गाल लुगायाँ गावही, नर मुख उचत म गाल। अमल गाल मनवार कर, का सुभ वचन उगाल।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ७८।
⋙ मनशा
संज्ञा स्त्री० [अ० मन्शह्] १. इच्छा। विचार। इरादा। २. तात्पर्य। मतलब। अर्थ। ३. उद्देश्य। कारण। सबब (को०)। ४. मनोकामना। मनोरथ (को०)।
⋙ मनश्चक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] मन की आँख। अंतश्चक्षु। अंतर्द्दष्टि। उ०—देख रहे मानव भविष्य तुम मनश्चक्षु वन अपलक, धन्य, तुम्हारे श्री चरणों से धरा आज चिर पावन।—ग्राम्या, पृ० ५३।
⋙ मनसना पु
क्रि० स० [हिं० मानस, सं० मनस्यन्] १. इच्छा करना। विचार करना। इरादा करना। उ०—(क) भँवर जो मनसा मानसरे लीन्ह कमल रस आय। घुन हियाव ना कै सका झूर काठ तस खाय।—जायसी (शब्द०)। (ख) पवनबाँध अपसरहिं अकासा। मनसहिं जहाँ जाहिं तहं वासा।—जायसी (शब्द०)। (ग) याही ते शूल रही शिशुपालहि। सुमिरि सुमिरि पछिताति सदा वह मान भंग के कालहि। दुलहिनि कहति दौरि दीजहु द्विज पाती नँद के लालहि। वर सुवरात बुलाइ बड़े हित मनसि मनोहर वालहि।—सूर (शब्द०)। २. संकल्प करना। दृढ़ निश्चय या विचार करना। उ०—जोई चाहै सोई लेइ मने नहिं कीजै यह शिव के चढ़ाइबे को मनस्यो कमल है।—रघुनाथ (शब्द०)। ३. हाथ में जल लेकर संकल्प का मंत्र पढ़कर कोई चीज दान करना।
⋙ मनसफ पु †
संज्ञा पुं० [अ० मनसब] दे० 'मनसब-३'। उ०—मनीदास कह बकसी कीन्हा। मनसफ है कागद लिखि दीन्हो।—संत० दरिया, पृ० ५।
⋙ मनसब
संज्ञा पुं० [अ०] १. पद। स्थान। उ०—पक्का मतो करि मलिच्छ मनसब छीड़ि मक्का के मिसि उतरत दरियाव हैं।—भूषण (शब्द०)। यौ०—मनसबदार। २. कर्म। काम। ३. अधिकार। ४. वृत्ति।
⋙ मनसबदार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह जो किसी मनसब पर हो। उच्चपदस्थ पुरुष। ओहदेदार। उ०—मंसन की कहा है मतंगनि के माँगिवे को मनसबदारनि के मन ललकत हैं।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ मनसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम। विशेष—पुराणानुसार यह जरत्कारु मुनि की पत्नि और आस्तीक की माता थी तथा कश्यप की पुत्री और वासुकि नाग की बहिन थी।
⋙ मनसा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मानस या अ० मनशाहु] १. कामना। इचछा। उ०—(क) तन सराय मन पाहरू मनसा उतरी आय। कोउ काहू को है नहीं सब देखे ठोंक बजाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) छिन न रहै नंदलाल इहाँ बिनु जो कोउ कोटि सिखावै। सूरदास ज्यों मन ते मनसा अनत कहूँ नहिं जावै।— सूर (शब्द०)। २. संकल्प। अध्यवसाय। इरादा। उ०— (क) देव नदी कहँ जोजन जानि किए मनसा कुल कोटि उधारे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा विश्व विजय कहँ कीन्ही।—तुलसी (शब्द०)। ३. अभिलाषा। मनोरथ। उ०—(क) मनसा को दाता कहै श्रुति प्रभु प्रवीन को।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कहा कमी जाको राम धनी। मनसा नाथ मनोरथ पूरण सुखनिधान जाको मौज धनी।—तुलसी (शब्द०)। ४. मन। उ०—विफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के।—तुलसी (शब्द०)। ५. बुद्धि। उ०—युगल कमल सों मिलन कमल युग युगल कमल ले संग। पाँच कमल मधि युगल कमल लखि मनसा भई अपंग।—सूर (शब्द०)। ६. अभिप्राय। तात्पर्य। प्रयोजन। उ०—प्रभु मनसहिं लवलीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गन तड़ित घन जनु वर बरहिं नचाव।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनसा (३)
वि० १. मन से उत्पन्न। २. मन का। उ०—धर्म विचारत मन में होई। मनसा पाप न लागत कोई।—सूर (शब्द०)।
⋙ मनसा (४)
क्रि० वि० मन से। मन के द्वारा। उ०—मनसा वाचा कर्मणा हम सों छाड़हु नेहु। राजा की विपदा परी तुम तिनकी सुधि लेहु।—केशव (शब्द०)।
⋙ मनसा (५)
संज्ञा पुं० दे० 'मसी'।
⋙ मनसा (६)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो बहुत शीघ्रता से बढ़ती और पशुओं के लिये बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। मधाना। खमकरा। विशेष दे० 'मकड़ा'।
⋙ मनसाकर पु
वि० [हिं० मनसा + सं० कर (प्रत्य०)] मनोबांछित फल देनेवाला। मनोकामना पूर्ण करनेवाला। उ०—बहु शुभ मनसाकर करुणामय अरु शुभ तरंगिनी शोभ सनी।—केशव (शब्द०)।
⋙ मनसादेवी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मनसा + देवी] एक देवी जो साँपों के कुल की अधिष्ठात्री मानी जाती है। प्रायः लोग साँप के काटने पर इनकी मिन्नत करते हैं।
⋙ मनसाना † (१)
क्रि० अ० [हिं० मनसा] उमंग में आना। तरंग में आना। उ०—पाई भेद गरुड मनसाना।—कबीर सा० पृ० ५८७।
⋙ मनसाना (२)
क्रि० स० [हिं० मनसा का प्रे० रूप] मनसने का काम दूसरे से कराना। संकल्प का मंत्र आदि पढ़कर या पढ़ाकर दूसरे से दान आदि कराना।
⋙ मनसाना † (३)
क्रि० अ० [हिं० मानुस + आना] मनुष्यता आना। पुरुषत्व जगना। मनुसाई आना।
⋙ मनसापंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० मनसापञ्चमी] आषाढ़ की कृष्णा पंचमी। इस दिन मनसा देवी का उत्सव होता है।
⋙ मनसायन †
वि० [हिं० मानुस (=मनुष्य) + आयन (प्रत्य०)] १. १. वह स्थान जहाँ मनबहलाव के लिये कुछ लोग हों। मुहा०—मनसायन करना या रखना = बातचीत आदि के द्वारा इस प्रकार किसी का मन बहलाना जिसमें उसे अकेले होने का कष्ट न जान पड़े। २. मनोरम स्थान। गुलजार जगह।
⋙ मनसिकार
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय में धारण कर लेना। मन में ग्रहण कर लेना [को०]।
⋙ मनसिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. वासना। काम (को०)।
⋙ मनसिमंद
वि० [सं० मनसिमन्द] प्रेम में शिथिल या निश्चेष्ट [को०]।
⋙ मनसिशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. चंद्रमा [को०]।
⋙ मनसूख
वि० [अ० मन्सूख] १. जो अप्रामाणिक ठहरा दिया गया हो। अतिवर्तित। जैसे,—डिगरी मनसूख कराना। २. परित्यक्त। त्यागा। हुआ। जैसे,—हमने वहाँ जाने का इरादा मनसूख कर दिया।
⋙ मनसूखी
संज्ञा स्त्री० [अ० मनसूखी] मनसूख होने का भव या क्रिया।
⋙ मनसूब
वि० [अ० मंसूब] १. संबंधित। २. मँगेतर। ३. मनो- वांछित। इच्छानुकूल। उ०—झूलै जो सुखद हिंडोलना मनसूब सूवा पाय।—गुलाल०, पृ० ८०।
⋙ मनसूबा
संज्ञा पुं० [अं० मनसूबह्] १. युक्ति। आयोजन। ढंग। उ०—(क) अब कीजै वैसा मनसूबा। है हैरान सीगरे सूबा।— लाल (शब्द०)। (ख) लंक की विशालता लै उरज उतंग भए रंग कवि दूलह है तेरे मनसूबे को।—दूलह (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—ठानना।—होना। मुहा०—मनसूबा बाँधना = युक्ति निकालना। ढंग सोचना। उ०—उसने पक्का मनसूबा बाँधा था कि यदि लड़ाई हो तो आप धनुष वान लेके हाथी पर फौज के साथ जावे।—शिव- प्रसाद (शब्द०)। २. इरादा। विचार। उ०—शकटार अपने मनसूबे का ऐसा पक्का था कि शत्रु से बदला लेने की इच्छा से अपने प्राण नहीं त्याग किए।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।
⋙ मनसूर
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रसिद्ध मुसलमान साधु जो सूफी मत का आचार्य माना जाता है। उ०—रोशन दिलों के बीच भक्ति ज्यों झटा पठा। माखन लिया मनसूर दूर काढ़ दे मठा।— तुलसी० श०, पृ० १४१। विशेष—यह नवीं शताब्दी में बैजानगर में हुसेन हल्लाज के घर उत्पन्न हुआ था। यह 'अनहलक' अर्थात् 'अहं ब्रह्मास्मि' कहा करता था। बगदाद के खलीफा मकतदिर ने इसे इस्लाम का विरोधी समझकर सन् ९१९ ईस्वी में सूली पर चढ़ा दिया और इसके शब को भस्म करा दिया था।
⋙ मनसेधू ‡
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] पुरुष। आदमी।
⋙ मनस्क
संज्ञा पुं० [सं०] मन का अल्पार्थक रूप। (इसका प्रयोग समस्त पदों में देखा जाता है)। जैसे, अन्यमनस्क।
⋙ मनस्कांत (१)
वि० [सं० मनस्कान्त] १. मनोनीत। मन के अनुकूल। २. प्रिय। प्यारा।
⋙ मनस्कांत (२)
संज्ञा पुं० मन की अभिलाषा। मनोरथ।
⋙ मनस्काम
संज्ञा पुं० [सं०] मन की अभिलाषा। मनोरथ।
⋙ मनस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्ण ज्ञान। पूर्ण चेतना। २. (सुख दुःख का) पूर्ण ज्ञान। ३. ध्यान। ४. निश्चय [को०]।
⋙ मनस्तत्व
संज्ञा पुं० [सं० मनस् + तत्व] मन संबंधी बात। मन के विषय में कोई गूढ़ ज्ञातव्य तथ्य। उ०—मनस्तत्व के किसी सिद्धातं का आविष्कार करनेवाले हो क्या ?—ज्ञानदान, पृ० ४३।
⋙ मनस्तात्विक
संज्ञा पुं० [सं० मनस् + तात्विक] मनोवेत्ता। मनो- वैज्ञानिक। उ०—फ्रायड, अडलर, युंग आदि मनस्तात्विकों ने यह सिद्ध कर दिखाया है।—सा० समीक्षा, पृ० १५१।
⋙ मनस्ताप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनःपीड़ा। आंतरिक दुःख। उ०— मुझ पथिकिनि को भी आश्रय दो, मनस्ताप मेरा हर के।— वीणा, पृ० ११। २. अनुताप। पश्चाताप। पछतावा।
⋙ मनस्ताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल। २. दुर्गा देवी के वाहन सिंह का नाम।
⋙ मनस्तुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनस्तोप। मन का संतोप [को०]।
⋙ मनस्तृप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मन की तृप्ति। मनस्तुष्टि [को०]।
⋙ मनस्तोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा जी का एक नाम।
⋙ मनस्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनस्वी होने का भाव। दृढ़ निश्चय या स्थिरचित्त होना। विचार की स्थिरता। उ०—नहीं तो आज इतनी भी तो स्वतंत्रता, निश्चितता, मनस्विता और उत्साह चित्त में न होता।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४५।
⋙ मनस्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृकंडु ऋषि की पत्नी का नाम। २. प्रजापति की एक स्त्री का नाम जिससे सोम की उत्पत्ति हुई थी। ३. दुर्गा का एक नाम (को०)। ४. उच्च विचारवाली स्त्री। सती स्त्री। उ०—माध्वी मती मनस्विनी सुचरिवा सुचि होय। अनेकार्थ०, पृ० ५२।
⋙ मनस्वी (१)
वि० [सं० मनस्विन्] [स्त्री० मनस्विनी] १. श्रेष्ठ मन से संपन्न। बुद्धिमान्। उच्च विचारवाला। २. स्थिर चित्तवाला। दृढ़निश्चयी। ३. मनमौजी। स्वेच्छाचारी।
⋙ मनस्वी (२)
संज्ञा पुं० प्ररभ।
⋙ मनहंस
संज्ञा पुं० [हिं० मन + हंस] पंद्रह अक्षरों के एक वर्णिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण; फिर दो जगण, फिर भगण और अंत में रगण होता है (स ज ज भ र)। इसे मानसहंस भी कहते हैं। जैसे,—बिरहीन को पलखात, हौ यहि नाम सो। यहि ते पलाश प्रसिद्ध हो गति बाम सों। कछु फूल लागत लाल है तेहि हेतु सों। इमि देखि के पुहुमी पुरंदर चेत सों।
⋙ मनहर (१)
वि० [हिं० मन + हरना वा सं० मनोहर] मन को हरनेवाला। मनोहर।
⋙ मनहर (२)
संज्ञा पुं० घनाक्षरी छंद का एक नाम। दे० 'घनाक्षरी'।
⋙ मनहरण (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मन + हरण] १. मन हरने की क्रिया या भाव। २. पंद्रह अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में पाँच सगण होते हैं। इसे नलिनी और भ्रमरावली भी कहते हैं। जैसे,—दुर्जन की हानि विरधापनोई करै पर गुण लोप होत इक मोतिन को हार ही। (शब्द०)।
⋙ मनहरण (२)
वि० मनोहर। सुंदर।
⋙ मनहरन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मनहरण] दे० 'मनहरण'।
⋙ मनहरन (२)
वि० [स्त्री० मनहरनी] मन हरनेवाला। उ०—(क) जदपि पुराने बक तऊ सरवर निपट कुचाल। नए भए तु कहा भए ये मनहरन मराल।—बिहारी (शब्द०)। (ख) कलिमल हरनी मंगलकरनी। मनहरनी श्रीमुक मुनि वरनी।—नंद० ग्रं०, पृ० १९०।
⋙ मनहार
वि० [हिं०] दे० 'मनोहारी'।
⋙ मनहारि पु
वि० [हिं०] दे० 'मनोहारी'।
⋙ मनहु पु
अव्य० [हिं० मानना या मानो] मानो। जैसे। यथा। उ०—(क) चाहह सुनइ राम गुन गूढ़ा। कीन्हहुँ प्रश्न मनहुँ अति मूढ़ा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पंडित अति सिगरी पुरी मनहुँ गिरा गति मूढ़।/?/हिनि यूत जनु चंडिका मोहत मूढ़ अमूढ़।—केशव (शब्द०)।
⋙ मनहूस
वि० [अ०] १. अशुभ। बुरा। जैसे,—उँगलियाँ तोडना बहुत मनहूस है। २. अप्रियदर्शन। जो देखने में बेरौनक जान पड़े जैसे,—वाह क्या मनहूस सूरत है। ३. सुस्त। आलसी निकम्मा।
⋙ मनहूसियत
संज्ञा स्त्री० [अ० मनहूस] दे० 'मनहूसी'।
⋙ मनहूसी
संज्ञा स्त्री० [अ० मनहूस + ई] उदासी। उदासीनता। विराग [को०]।
⋙ मना (१)
वि० [अ० मन्अ] १. जिसके संबंध में निषेध हो। निषिद्ध। वर्जित। जैसे,—मनु जी के धर्मशास्त्र में पासा खेलना मना है। २. जो कुछ करने से रोका गया हो। वारण किया हुआ। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल विधेय रूप में होता है। जैसे,—'यह काम मना है'। यह नहीं कहते 'मना काम न करना चाहिए।' ३. अनुचित। नामुनासिब।
⋙ मना (२)
संज्ञा पुं० रोक। निषेध। वारण।
⋙ मनाई †
संज्ञा स्त्री० [अ० मनाही] दे० 'मनाही'।
⋙ मनाक्
वि० [सं०] १. अल्प। थोड़ा। २. मंद। यौ०—मनाक्कर। मनाक्प्रिय।
⋙ मनाक पु
वि० [सं० मनाक्] अल्प। थोड़ा। जरा सा। उ०— (क) टूटत पिनाक के मनाक वाम राम से ते नाक बिनु भए भृगुनायक पलक में।—तुलसी (शब्द०)। (ख) दाहिनों दियो पिनाकु सहमि भयो मनाकु महाव्याल विकल विलोकि जनु जरी है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथिनी।
⋙ मनाक्कर
वि० [सं०] कुछ भी काम न करनेवाला। मट्ठर। सुस्त। काहिल [को०]।
⋙ मनाक्प्रिय
वि० [सं०] बहुत कम प्रिय। अल्पप्रिय [को०]।
⋙ मनाग
वि० [सं० मनाग्] दे० 'मनाक'। उ०—अस्थिमात्र होइ रहे सरोरा। तदाप मनाग मनहिं नहिं पीरा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनादी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुनादी'।
⋙ मनाना
क्रि० स० [हिं० मानना का प्रे० रूप] १. दूसरे को मानने पर उद्यत करना। यह कहलवाना कि हाँ कोई बात ऐसी ही है। स्वीकार कराना। सकरवाना। २. जो अप्रसन्न हो, उसे संतुष्ट या अनुकूल करना। रूठे हुए को प्रसन्न करना। राजी करना। जैसे,—वह रूठा था, हमने मना लिया। उ०— (क) सो सुकृती सुचि मंत सुसंत सुसील सयान सिरोमनि स्वै सूर तीरथ ताहि मनावन आवत पावन होत है तात न छ्वै।— तुलसी (शब्द०)। (ख) मोहिं तुम्हैं न उन्हैं न इन्हें मनभावती सो न मनावन आइहै।—पद्याकर (शब्द०)। ३. अप्रसन्न को प्रसन्न करने के लिये अनुनय विनय करना। रूठे हुए को प्रसन्न करने के लिये मीठी मीठी बातें करना। मनुहार करना। उ०—(क) जैसे आव तैसे साधि सौंहनि मनाइ लाई तुम इक मेरी बात एती विसरैयो ना।—पद्याकर (शब्द०)। (ख) केतो मनावै पाउँ परि केतो मनावै रोइ। हिंदू पूजै देवता तुरुक न काहुक होइ।—कबीर (शब्द०)। (ग) लाज कियो जो पिय नहिं पाऊँ। तजों लाज कर जोरि मनाऊँ—जायसी (शब्द०)। ४. देवता आदि से किसी काम के होने के लिये प्रार्थना करना। उ०—(क) यह कहि कहि देवता मनावति। भोग समग्री धरति उठावति।—सूर (शब्द०)। (ख) सुकृति सुमिरि मनाइ पितर सुर सीस ईस पद नाइ कै। रघुवर कर धनुभंग चहत सब आपनौ सो हित चित लाइ कै।—तुलसी (शब्द०)। ५. प्रार्थना करना। स्तुति करना। (क) तुम सब सिद्ध मनावहु, होइ गणेश सिध लेहु। चेला को न चलावै मिलै गुरू जेहि भेउ।—जायसी (शब्द०)। (ख) ताके युग पद कमल मनाऊँ। जासु कृपा निरमल मति पाऊँ।—तुलसी (शब्द०)। (ग) करी प्रतिज्ञा कहेउ भीष्म मुख पुनि पुनि देव मनाऊँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ मनायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मनावी' [को०]।
⋙ मनार
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'मीनार'।
⋙ मनारा
संज्ञा पुं० [अ० मनारह्] दे० 'मनार' [को०]।
⋙ मनाल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चकोर जो शिमले की ओर होता है। इसके सुंदर परों के लिये इसका शिकार किया जाता है।
⋙ मनाल (२)
संज्ञा पुं० [अ०] धन संपत्ति। रकम। जायदाद [को०]।
⋙ मनावंछत पु †
वि० [सं० मनोवाच्छित] दे० 'मनोवांछित'। उ०— विकट पूरुँ मनावंछत गहर गुण गाजै।—रघु० रू०, पृ० १५०।
⋙ मनावन †
संज्ञा पुं० [हिं० मनाना] १. मनाने की क्रिया। उ०— फूलनि माल बनावन लाल पहिरि पहिरावन। सुभग सरोज सुधावन जोत मनोज मनावन।—नंद० ग्रं०, पृ० २८। २. रूठे हुए को प्रसन्न करने का काम। ३. मनाने का भाव।
⋙ मनावी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनु की स्त्री का नाम।
⋙ मनाही
संज्ञा स्त्री० [अ० मन्ही का बहु व०, अथवा हिं० मना] न करने की आज्ञा। रोक। अवरोध। निषेध। उ०—मुकर्रर तादाद से जियादा जमीन, गाय, बैल, बकरी रखने की मनाही थी।—शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ मनि
संज्ञा स्त्री० [सं० मणि] दे० 'मणि'। उ०—बिच बिच छहरति मनो बूँद मुक्ता मनि पोहति।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२।
⋙ मनिका †
संज्ञा स्त्री० [सं० मणि] माला में पिरोया हुआ दाना। गुरिया। दाना। उ०—माला फेरत युग गया गया न मन काफेर। करका मनिका छोड़िकै मन का मनिका फेर।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मनिख पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मानुख'। उ०—मनमुखि मनिख भूत पशु गुरुमुख्य ज्ञाता देव। रज्जब०, पृ० ८।
⋙ मनित
वि० [सं०] ज्ञात। जाना हुआ।
⋙ मनिधर पु
संज्ञा पुं० [सं० मणिधर] दे० 'मणिधर'।
⋙ मनियर ‡
संज्ञा पुं० [सं० मणिधर, प्रा० मणियर] १. दे० 'मणिधर'। २. वह जो मणि के समान दीप्तोज्ज्वल हो।
⋙ मनिया
संज्ञा स्त्री० [सं० माणिक्य, हिं० मनिका] १. गुरिया। मनिका। दाना जो माला में पिरोया हो। २. कंठो। गुरिया। माला। उ०—हौं करि रहीं कंठ में मनियाँ निर्गुन कहा रसहि ते काज। सूरदास सरगुन मिलि मोहन रोम रोम मुख साज। सूर (शब्द०)।
⋙ मनियार पु †
वि० [हिं० मणि + आर (प्रत्य०)] १. देदीप्यमान। उज्वल। चमकीला। उ०—प्रथमहि दीप अमर मनियारा। तहवाँ सूल सुरति बैठारा।—कबीर सा०, पृ० ९३९। २. दर्शनीय। शोभायुक्त। स्वच्छ। रौनकदार। सुहावना। उ०— वन कुसुमित गिर गन मनियारा। स्रवहि सकल सरितामृत धारा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनिष पु
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] दे० 'मनुष्य'। उ०—जिन रथी मद्धि उठे असुर धषै ज्वाल तिन मुष विषय। नर भषय जहाँ लसकर सहर मिलै मनिष तेते भषय।—पृ० रा०, १।५११।
⋙ मनिसार पु
वि० [सं० मणि + हिं० सार (प्रत्य०)] मणि के समान। देदीप्यमान। मनियार। उ०—पुरुष अमान अजर मनिसारा।—कबीर सा०, पृ० ६२।
⋙ मनिहार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मणिकार, प्रा० मनियार] [स्त्री० मनिहारिन] चूड़ी बनानेवाला चुड़िहारा जो स्त्रियों को चूड़ियाँ पहनाता है।
⋙ मनिहार पु (२)
वि० [हिं० मणि + हार (प्रत्य०)] देदीप्यमान। दर्शनीय। मनियार। मनोहर। उ०—नेत्र रसाल बदन मनिहारा।—कबीर सा०, पृ० १६०४।
⋙ मनिहारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० मनिहारा] चूड़ी बनाने, बेचने और पहनानेवाली स्त्री। चुड़िहारिन। यौ०—मनिहारिन लीला = श्रीकृष्ण की एक लीला जिसमें वे मनिहारिन का वेश बनाकर राधा को चूड़ी पहनाने जाया करते थे।
⋙ मनी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तुल० हिं० मान (= अभिमान) ] अहंकार। उ०—(क) होये भलो ऐसे ही अजहुँ गए राम सरन परिहरि मनी। भुजा उठाइ साखि संकर करि कसम खाइ तुलसी भनी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मति समान जाके मनी नैकि न आवत पास। रसनिधि भावक करत है ताही मन में वास।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मनी (२)
वि० घमंडी। अभिमानी। उ०—मनी मारे गर्व गाफिल वेमेहर बेपीर वे।—रै० बानी, पृ० ३२।
⋙ मनी (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] धातु। शुक्र। वीर्य।
⋙ मनी पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० मणि] दे० 'मणि'। दे० 'मणि'।
⋙ मनी (५)
संज्ञा पुं० [अं०] रुपया पैसा। सिक्का।
⋙ मनीआर्डर
संज्ञा पुं० [अं०] रुपए की हुंडी जो किसी के रुपया चुकाने पर एक डाकखाने से दूसरे डाकखाने में इसलिये भेजी जाती है कि वह वहाँ के किसी मनुष्य को हुंडी में लिखी रकम चुका दे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर रुपया प्रायः लोग इसी प्रकार डाकखाने की मारफत भेजा करते हैं। क्रि० प्र०—आना।—करना।—जाना।—भेजना।—लगाना।
⋙ मनीक
संज्ञा पुं० [सं०] आँजन।
⋙ मनीजर
संज्ञा पुं० [अं० मैनेजर] व्यवस्थापक। प्रबंधक। उ०— कोऊ मनीजर सरकारी रखि काम चलावत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १४।
⋙ मनीबैग
संज्ञा पुं० [अं०] चमड़े आदि का बना हुआ एक प्रकार का छोटा बटुआ जिसके अंदर कई खाने होते हैं जिनमें रुपए, रेजगी आदि रखते हैं।
⋙ मनीमन †
क्रि० वि० [हिं० मन + ही + मन] मन हीं मन। मन में। बिना बोले। उ०—मनीमन में ईश्वर को धन्यवाद देता।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४९।
⋙ मनीर †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मोरनी।
⋙ मनीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि। अकल। २. स्तुति। प्रशंसा। ३. आकांक्षा। इच्छा (को०)।
⋙ मनीषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि। मनीषा। २. इच्छा (को०)।
⋙ मनीषित
वि० [सं०] मनोभिलषित। वांछित।
⋙ मनीषिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धिमत्ता। बुद्धिमानी।
⋙ मनीषी (१)
वि० [सं० मनीषिन्] १. पंडित। ज्ञानी। विद्वान्। २. बुद्धिमान्। मेवावी। अकलमंद। चतुर। ३. स्तुति करनेवाला (को०)।
⋙ मनीषी (२)
संज्ञा पुं० १. विद्वान् व्यक्ति। पंडित। ज्ञानी पुरुष। २. वह जो स्तुति या स्तवन करता हो [को०]।
⋙ मनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा के पुत्र जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने जाते हैं। विशेष—वेदों में मनु को यज्ञों का आदिप्रवर्तक लिखा है। ऋग्वेद में कण्व और अत्रि को यज्ञप्रवर्तन में मनु का सहायक लिखा है। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि मनु एक बार जलाशय में हाथ धोते थे; उसी समय उनके हाथ में एक छोटी सी मछली आई। उसने मनु सें अपनी रक्षा की प्रार्थना की और कहा कि आप मेरी रक्षा कीजिए; मैं अपकी भी रक्षा करूगी। उसने मनु से एक आनेवाली बाढ़ की बात कही और उन्हें एक नाव बनाने के लिये कहा। मनु ने उस मछली की रक्षा की; पर वह मछली थोड़े ही दिनों में बहुत बड़ी हो गई। जब बाढ़ आई, मनु अपनी नाव पर बैठकर पानी पर चले और अपनी नाव उस मछली की आड़ में बाँध दी। मछली उत्तर को चली और हिमालय पर्वत कीचोटी पर उनकी नाव उसने पहूँचा दी। वहाँ मनु ने अपनी नाव बाँध दी। उस बड़े ओघ से अकेले मनु ही बचे थे। उन्हीं से फिर मनुष्य जाति की वृद्धि हुई। ऐतरेय ब्राह्यण में मनु के अपने पुत्रों में अपनी संपत्ति का विभाग करने का वर्णन मिलता है। उसमें बह भी लिखा है कि उन्होंने नाभानेदिष्ठ को अपनी संपत्ति का भागी नहीं बनाया था। निघंटु में 'मनु' शब्द का पाठ द्युस्थान देवगणों में है और वाजसनय संहिता में मनु को प्रजापति लिखा है। पुराणों और सूयसिद्धांत आदि ज्योतिष के ग्रंथों के अनुसार एक कल्प में चौदह मनुओं का अधिकार होता है और उनके उस अधिकारकाल को मन्वंतर कहते हैं। चौदह मनुओं के नाम ये हैं—(१)स्वायम्। (२) स्वारोचिष्। (३) उत्तम। (४) तामस। (५) रवत। (६) चाक्षुष। (७) वैवस्वत। (८) सावर्णि। (९) दक्षसावर्णि। (१०) ब्रह्मसावर्णि। (११) धमसावर्णि। (१२) रुद्रसावर्णि। (१३) देवसावर्णि और (१४) इंद्रसावर्णि। वतमान मन्वंतर वैवस्वत मनु का है। मनुस्मृति म मनु को विराट् का पुत्र लिखा है और मनु स दस प्रजापतिया की उत्पात्त लिखा है। २. विष्णु। ३. अंतःकरण। मन। ४. जैनियों के अनुसार एक जिन का नाम। ५. कृष्णाश्च के एक पुत्र का नाम। ६. मंत्र। ७. वेवस्वत मनु। ८. आग्न। ९. एक रुद्र का नाम। १०. १४ की संख्या। ११. ब्रह्मा।
⋙ मनु
संज्ञा स्त्री० १. मनु की स्त्री। मनावी। २. बनमेथी का साग। पृक्का।
⋙ मनु (२)
अव्य० [हिं० मानना] मानों। जैसे,। उ०—(क) रतन जड़ित कंकण बाजूबंद नगन मुद्रिका सोहै। डार डार मनु मदन विटप तरु विकच देखि मन मोहै।—सूर (शब्द०)। (ख) मोर मुकुट की चाद्रकन या राजत नंदनंद। मनु सास सखर की अकस किए सिखर सत चंद।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मनुआँ (१)
संज्ञा पुं० [हिं मन] मन। उ०—(क) मनुआ चाह देख औ भोगू। पंथ भुलाइ विनासै जोगू।—जायसी (शब्द०)। (ख) चंचल मनुआ दुहुदिसि धावत अचल जाहि ठहराना। कहु नानक यहि विधि का जो नर मुक्ति ताहि तुम माना।— तेगबहादुर (शब्द०)।
⋙ मनुआँ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मानव] मनुष्य। उ०—खाय पकाय लुटाय ले ऐ मनुआँ मजवान। लना होय सो लेइ ले यहा गोइ मैदान।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मनुआँ (३)
संज्ञा पुं० [देश०] देव कपास। नरमा मनवाँ।
⋙ मनुक्ख पु †
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] मनुष्य। मानव। मनुज। चारहु लाख मनुक्खा देही। लख चौरासी यह सुनि लेही।— सहजो०, पृ० ३६।
⋙ मनुख पु
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] मनुज। मानव। मानुख। उ०— लख चौरासी भरमि, मनुख तन पाइल हो।—धरम०, पृ० ६४।
⋙ मनुग
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियव्रत के पौत्र और द्युतिमान् के पुत्र का नाम।
⋙ मनुछय पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] दे० 'मनुष्य'। उ०— चित्रनहारे चित्रि तू रे चतुरंगी नोह। का चहुआन सु किर्ति कबि मन मनुछय हरि लाह। — पृ० रा०, १। ७६६।
⋙ मनुज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मनुजा, मनुजी] मनुष्य। आदमी।
⋙ मनुजता
संज्ञा स्त्री० [सं० मनुज+ता (प्रत्य०)] मनुष्यता। मानबता।
⋙ मनुजत्व
संज्ञा पुं० [सं० मनुज+त्व (प्रत्य०)] मनुष्यत्व। मानवता।
⋙ मनुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मानबी। स्त्री० [को०]।
⋙ मनुजात (१)
वि० [सं०] मनु से उत्पन्न।
⋙ मनुजात (३)
संज्ञा पुं० मनुष्य। आदमी।
⋙ मनुजाद (१)
वि० [सं०] नरभक्षक। मनुष्यों को खानेवाला।
⋙ मनुजाद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षम। उ०— (क) चित्त वैताल, मनुजाद मन, प्रेतगन रोग भोगौध वृश्चिक विकारम्। —तुलसी ग्रं०, पृ० ४८२। (ख) मान है अपमान को मनुजाद तू जब तक न कर। —वेला, पृ० ६८।
⋙ मनुजाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। मनुष्यों का अधिप। उ०— याहि न मारि देखि दिसि मेरी। हौ अनुजा मनुजाधिप तेरी। —नंद० ग्रं०, पृ० २३२।
⋙ मनुजेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० मनुजेन्द्र] राजा [को०]।
⋙ मनुजेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०]।
⋙ मनुजोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] श्रेष्ठ मनुष्य। उत्तम पुरुष।
⋙ मनुज्येष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. तलवार। २. लाठी।
⋙ मनुयुग
संज्ञा पुं० [सं०] मन्वंतर।
⋙ मनुवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं० मन] मन। उ०— मनुवाँ चहै दरव औ भोगू।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२२।
⋙ मनुश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मनुष
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] १. मनुष्य। आदमी। उ०— कह्यौ तिन तुम्हें हम मनुष जानत नहीं जगतपितु जगतहित देह धारयो करोगे काज जो कियो ना कोउ नृपति किए जस जाय हम दोष सारो। — सूर (शब्द०)। २. पति। खाविंद। उ०— माप मोर मनुष है अति सुजान। धंधा कूटि कूटि करै विहान।— कबीर (शब्द०)।
⋙ मनुषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री।
⋙ मनुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] जरायुज जाति का एक स्तनपायी प्राणी जो अपने मस्तिष्क या वुद्धिवल की अधिकता के कारण सव प्राणियों में श्रेष्ठ है। आदमी। नर। विशेष— मनुष्य महाभूत कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में सृष्टि के आदि में प्रायः सव जीव जंतुओं की उत्पत्ति एक साथ वताई गई है। पर आधुनिक प्राणिविज्ञान के अनुसाकर मूल अणुजीवों से क्रमशः उन्नति प्राप्त करते हुए एक के पीछे दूसरे उन्नत जीव होते गए हैं। जैसे, बिना रीढ़वाले जीवों से रीढ़वाले अंडज जीव हुए। फिर उन्हीं से जरायुज हुए। जरायुजों मेंभवके पीछे किंपुरुष वर्ग के बंदर या बनमानुस हुए। वनमानुसों से होते होते अंत में मनुष्य हुए। वैज्ञानिकों ने मनुष्य को पाँच प्रधान जातियों में बाँटा है (१) काकेशी, जिसके अंतर्गत आर्य और असुर (स्वामी) हैं। (२) मगोल, चीन जापान आदि के पीले लोग। (३) हाशी। (४) अमेरिकन। और (५) मलाया। पर्या०— मानुष। मनुज। मानव। नर। द्विपद। पुमान्। पचजन। पुरुष। पूरुष।
⋙ मनुष्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषकार उद्योग। प्रयत्न।
⋙ मनुष्यकृत
वि० [सं०] मनुष्य द्वारा बनाया हुआ। मानवकृत। २. कृत्रिम। जो प्राकृतिक न हो [को०]।
⋙ मनुष्यगणना
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य+गणना] दे० 'मर्दुमशुमारी'।
⋙ मनुष्यगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसके करने से मनुष्य बार बार मरकर मनुष्य का ही जन्म पाता है। ऐसे कर्म परस्त्रीगमन, मांसभक्षण, चांरी आदि वतलाए गए हैं।
⋙ मनुष्यजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मानव जाति। मालव समुदाय [को०]।
⋙ मनुष्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनुष्य का भाव। आदमीपन। २. दया भाव। चित्त की कोमलता। शील। ३. सभ्यता। शिष्टता। व्यवहार ज्ञान। तमीज। आदमीयत।
⋙ मनुष्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यता। आदमीयत। उ०— मनुष्यत्व का सत्व तत्व यों किसने समझा बूझा है। — साकेत, पृ० ३७१।
⋙ मनुष्यधर्मा
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्यधर्मन्] कुबेर।
⋙ मनुष्येयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथि अभ्यागत का आदर संमान। अतिथियज्ञ। नृयज्ञ।
⋙ मनुष्ययान
संज्ञा पुं० [सं०] पालकी [को०]।
⋙ मनुष्यरथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह रथ जिसे मनुष्य खींचते हैं। नररथ।
⋙ मनुष्यराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या राशि।
⋙ मनुष्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] मर्त्यलोक। भूलोक।
⋙ मनुष्यहार
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य का अपहरण या चोरी [को०]।
⋙ मनुष्यहारी
वि० [सं० मनुष्यहारिन्] मनुष्य को चुरानेवाला [को०]।
⋙ मनुष्येतर
वि० [सं०] मनुष्य से भिन्न। मानव से भिन्न। उ०— मनुष्येतर वाह्म प्रकृति का आलंवन के रुप में ग्रहण... पाया जाता है। — रस०, पृ० ९।
⋙ मनुसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मनुस्मृति'।
⋙ मनुसाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मनुष्य+आई] २. पुरुषार्थ। पराक्रम। वहादुरी। उ०— (क) साखामृग के बड़ मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई। — तुलसी (शब्द०)। (ख) जो अस करउँ न तदपि बड़ाई। मुयेहि बधे कछु नहिं मनुसाई।—तुलसी (शब्द०)। २. मनुष्यता। आदमीयत।
⋙ मनुसाना
क्रि० अ० [सं० मनुष्य+हिं० आना (प्रत्य०)] मनुष्य का भाव जगना। मनुष्य होने का भाव उत्पन्न होना।
⋙ मनुर्म्मृत
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मशास्त्र के एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम जो मनुप्रणीत है। मनुसंहिता। मानव धर्मशास्त्र। विशेष— कहा जाता है, पहले मनुस्मृति में एक लाख श्लोक थे। फिर उसका संक्षेप १२ हजार श्लोकों में किया गया और अंत में उसका संक्षेप चार हजार श्लोकों में किया गया। आजकल को मनुस्मृति में ढाई हजार से कुछ ही अधिक श्लोक मिलते हैं। यह भृगुप्रोक्त कहलाती है और इसमें बारह अध्याय हैं। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, राजधर्म, वर्णधर्म, प्रायश्चित आदि विपयो का वर्णन है। इसके अतिरिक्त एक नारदप्रोक्त मनुसंहिता का भी पता चलता है; पर वह पूरी नहीं मिलती।
⋙ मनुहर पु
वि० [सं० मनोहर] दे० 'मनोहर'। उ०— मनुहरि कटि- थल मेखला, पग झाझर झणकार। —ढोला०, दू० ४८१।
⋙ मनुहार (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मान+हरना] १. वह विनती जो किसी का मान छुड़ाने या क्रोध शांत के के उसे प्रसन्न करने के लिये की जाती है। मनौआ। खुशामद। उ०— मारौ मनुहारन भरी गारिउ भरी मिठाहिं। वाको अति अनखाहटौ मुसुकाहट बिनु नाहिं।— विहारी (शब्द०)। मुहा०— किसी को मनुहार कराना = विनती करना। खुशामद करना। मनाना। उ०— (क) तुम्हरे हेतु हरि लियो अवतार। अब तुम जाई करो मनुहार। — सूर (शब्द०)। (ख) दुसह रोष सूरति भृगुपति अति नृपति निकर षयकारी। क्यों सौपेउ सारंग हारि हिय करिहै वहु मनुहारी। — तुलसी (शब्द०)। (ग) कहत रुद्र मन माहिं विचारि। अब हरि की कीजै मनुहारि। — लल्लू (शब्द०)। (घ) जो मेरो कृत मानहु मोहन करि लाओं मनुहारि। सूर रसिक तबही पै बदिहौं मुरली सकी न सँभारि। — सूर (शब्द०)। २. विनय। प्रार्थना। उ०— (क) तापसी करि कहा पठवति नृपनि को मनुहारि। बहुरि तेहि विधि आइ कहिहै साधु कोउ हितकारि।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सबै करति मनुहारि ऊधो कहियो हो जैसे गोकुल आवें। —सूर (शब्द०)। ३. सत्कार। आदर। उ०— सौंहें किए हू न सौं है करे मनुहार करेहू न सूध निहारे।— केशव (शब्द०)।
⋙ मनुहार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मन+हरना] शांति। तृप्ति। उ०— कुरला काम केरि मनुहारी। कुरला जेहिं नहिं सो न सुनारी।—जयसी ग्रं०, पृ० १४०।
⋙ मनुहारना पु
क्रि० स० [हिं० मान+हारना] १. मनाना। खुशामद करना। उ०— (क) पूजा करेउ बहुत मनुहारी। बोले मीठे बचन विचारी। — सबलसिंह (शब्द०)। (ख) कै पटुता परवीन तिया मनुहारि सुवाल कहै मन माने। — प्रताप (शब्द०)। २. विनय करना। प्रार्थना करना० उ०— निग्रहा- नुग्रह जो करे अरु देइ आशिष गारि। सो सबै सिर मान लीजै सर्वथा मनुहारि। केशव (शब्द०)। ३. सत्कार करना। आदर करना। उ०— सुरभी ऐन कुंभ सम धारै। नंदिनि धेनु सरिस मनुहारै। —मत्रालाल (शब्द०)। ४. खुशामद करना।
⋙ मनुहारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मनुहार'। उ०— करत लाल मनुहारि, पै तू न लखति इहि ओर। — मति० ग्रं०, पृ० ४०८।
⋙ मनुहारी पु
सं० स्त्री० [हिं० मनुहार] दे० 'मनुहार'। उ०— तुम ने बिहारी नेकु मानो मनुहारी हम पायँ परि हारी अरु करि हारी नहियाँ। —तोष (शब्द०)।
⋙ मनूँ पु
अव्य० [हिं०] दे० 'मानों'। उ०— चंड तेज मनूँ ऊगंत सूर। — ह० रासो०, पृ० ६१।
⋙ मनूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुनौवर] एक प्रकार की वुकनी जो मुरादाबादी कलईके के बर्तनों को उजला करने में काम आती है। यह धातुओं को गलाने की पुरानी धरियों को कूटकर वनाई जाती है।
⋙ मने †
वि० [अ० मनअ, हिं० मना] दे० 'मना'। उ०— (क) जानि नाम अजान लीन्हे तरक जमपुर मने। — तुलसी (शब्द०)। (ख) शिव सुजन माँह मने कर। मनहु सो अपकारति सों भरे। —गुमान (शब्द०)।
⋙ मनेजर
संज्ञा पुं० [अं० मैनेजर] किसी कार्यालय आदि का वह प्रधान अधिकारी जिसका काम सब प्रकार की व्यवस्था और देख रेख करना हो। प्रबंधकर्ता।
⋙ मनों †
अव्य [हिं० मानना] मानो। जैसे। उ०— (क) मनो सर्व स्त्रीन में कामवामा। हनूमान ऐसी लखी रामरामा।— केशव (शब्द०)। (ख) मकराकृत गोपाल के कुंडल सोहत कान। धस्यो मनो हिय घर समर डयोढ़ी लसत निसान। — बिहारी (शब्द०)।
⋙ मनोकामना
संज्ञा स्त्री० [हिं० मन+कामना] इच्छा। अभिलाषा।
⋙ मनोगत (१)
वि० [सं०] १. जो मन में हो। मन में आया हुआ। दिली। २. इच्छित।
⋙ मनोगत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. आकांक्षा। इच्छा (को०)। ३. विचार (को०)।
⋙ मनोगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मन की गति। चितवृत्ति। उ०— तीखे तुरंग मनोगति चंचल पौन के गौन हुँ ते बढ़ि जाते।— तुलसी ग्रं०, पृ० २०७। २. इच्छा। आंतरिक अभीष्टा। खाहिश। उ०— किंतु विधिना की यही मनोगति थी।— दुर्गेशनंदिनी (शब्द०)।
⋙ मनोगवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छा। अभिलाषा।
⋙ मनोगुप्त
वि० [सं०] मन में छिपाया हुआ। अव्यक्त (विचार आदि)।
⋙ मनोगुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मैनसिल।
⋙ मनोगृहात
वि० [सं० मनः+गृहीत] मन में गृहीत या ग्रहण किया हुआ।
⋙ मनोगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्रानुसार मन को अशुभ प्रवुत्ति से हटाने की क्रिया या भाव।
⋙ मनोग्राही
वि० [सं० मनः+ आहिन्] मन को ग्रहण करनेवाला। मन को अपनी ओर खींचनेवाला। आकर्षक।
⋙ मनोग्राह्य
वि० [सं०] जो मन या चित्त द्वारा ग्रहण हो सके। मन द्वारा ग्रहण के योग्य [को०]।
⋙ मनोज
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। मदन। उ०— जय सच्चिदानंद जग- पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन। — तुलसी (शब्द०)। यौ०— मनोज पंचमी= माघ शुक्ल पंचमी। वसंत पंचमी। उ०— आजु मनोज पंचमी सुभ दिन रंग बढ़ंए हिलमिलि आनंदघन बरसैए। — घानानंद, पृ० ३९२।
⋙ मनोजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० मनोजन्मन्] दे० 'मनोज' [को०]।
⋙ मनोजव (१)
वि० [सं० मनोजवस्] [वि० स्त्री० मनोजवा] १. मन के समान वेगवान्। अत्यंत वेगवान्। २. पितृतुल्य।
⋙ मनोजव (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. अनिल या वायु के एक पुत्र का नाम जो उसकी शिवा नाम को पत्नी से उत्पन्न हुआ था। ३. रुद्र के एक पुत्र का नाम। ४. एक तीर्थ का नाम। ५. छठे मन्वंतर में होनेवाले इंद्र का नाम।
⋙ मनोजवस
वि० [सं०] दे० 'मनोजव (१)' [को०]।
⋙ मनोजवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। करियारी। २. मार्कंडेय पुराणानुसार अग्नि की एक जिह्वा का नाम। ३. स्कंद की माता का नाम। ४. क्रौंच द्वीप की एक नदी का नाम।
⋙ मनोजवी
वि० [सं० मनोजविन्] मनोजव। अति वेगवान्। बहुत तेज चलनेवाला।
⋙ मनोजवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामवृद्धि नामक क्षुप। इसे कर्णाट में कामज कहते हैं।
⋙ मनोजीवी
वि० [सं० मनस्+जीवी] बुद्धिजीवी। उ०— वनजीवी, पशुजीवी मनुज, मनोजीवी तब नहीं बना था।— युगपथ, पृ० १२४।
⋙ मनोज्ञ (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मनोज्ञा] मनोहर। सुंदर।
⋙ मनोज्ञ (२)
संज्ञा पुं० १. कुंद नामक फूल। २. एक गंधर्व का नाम (को०)। ३. सरल का वृक्ष (को०)।
⋙ मनोज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरता। मनोहरता। घूबसूरती।
⋙ मनोज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलौंजी। मँगरैला। २. जावित्री। ३. मदिरा। शराब। ४. बाँझ ककोड़ा। आवर्तको। ५. मनःशिला। मैनसिल (को०)। ९० राजपुत्री। राज- कुमारी (को०)।
⋙ मनोदंड
संज्ञा पुं० [सं० मनोदण्ड] मन की वृत्तियों का निरोध। चित्त को चंचलता से रोककर एकाग्र करना। मन का निग्रह।
⋙ मनोदत्त
वि० [सं०] १. मन द्वारा दिया हुआ वा संकल्पित। २. दत्तचित्त। विचारमग्न (को०)।
⋙ मनोदाह
संज्ञा पुं० [सं०] मनस्ताप। मानसिक जलन। आंतरिक कष्ट। उ०— जीवन तृष्णा, प्राण क्षुधा औ मनोदाह से क्षुव्ध, दग्ध, जर्जर जनगण चीत्कार कर रहे। — युगपय, पृ० १२०।
⋙ मनोदाही
वि० [सं० मनोदाहिन्] [वि० स्त्री० मनोदाहिनी] मन को जलानेवाली। हृदयदाही।
⋙ मनोदुष्ट
वि० [सं०] जिसका मन दूपित हो। जो मन ही से पापी हो। जिसका अंतःकरण कलुषित हो। दुष्ट या खराव हृदयवाला।
⋙ मनोदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० मनः+दृष्टि] आंतरिक दृष्टि। मानसिक दृष्टि। उ०— सौंदर्य उसकी मनोदृष्टि का एक व्यापार मात्र है। —स० दर्शन, पृ० ६९।
⋙ मनोदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] अंतरात्मा। विवेक।
⋙ मनोध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ मनोनयन
संज्ञा पुं० [सं०] चुनाव। चुनना। पसंद करना।
⋙ मनोनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] चित्त की वृत्तियों का निरोध। मन का निग्रह। मन का वश में रखना। मनोगुप्ति।
⋙ मनोनियोग
संज्ञा पुं० [सं० मनस्+नियोग] एकाग्रता। उ०— हम दोनों एक दूसरे के आखेट हैं और अनिवार्य, अटल मनो- नियोग से एक दूसरे का पीछा कर रहे हैं। — चिंता, पृ० ५६।
⋙ मनोनिवेश
संज्ञा पुं० [सं० मनः+निवेश] एकाग्रता। मनोयोग। उ०— उसने देखा कि महामंत्री बड़े कुतूहल और मनोनिवेश से कुलपुत्रों का परिचय सुन रहा है। — इंद्र०, पृ० १३१।
⋙ मनोनीत
वि० [सं०] १. जो मन के अनुकूल हो। पसंद। २. चुना हुआ।
⋙ मनोबल
संज्ञा पुं० [सं० मनः+बल] आत्मिक शक्ति। मानसिक शक्ति या बल। उ०— लिच्छिवी कुमारी में इतना मनोबल कहाँ कि वह यों अड़ जाती।—अजात०,पृ० ३३।
⋙ मनोभंग
संज्ञा पुं० [सं०मनोभड्ड] १. नैराश्य। २. उदासी।
⋙ मनोभव
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। उ०— जागै मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही। उ०— मानस, १। ८६।
⋙ मनोभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन की स्थिति। मनोवृत्ति। २. मन का भाव। हार्दिक अभिप्राय। उ०— लौंगा मगोरमा के मनोभावों को जानती थी। उसने सोचा इस अबला को कितना दुःख है —काया०, पृ० २५६।
⋙ मनोभावना
संज्ञा पुं० [सं० मनो+भावना] दे० 'मनोभाव'। उ०— उनके नाटकों में अटनाओं के आकर्षण की अपेक्षा चरित्रों की विविधता और उनकी मनोभावनाओं का उन्मेष और प्रदर्शन अधिक है। — नया०, पृ० १५७।
⋙ मनोभिराम
वि० [सं०] मनोज्ञ।सुंदर।
⋙ मनोभिलाष
संज्ञा पुं० [सं०] मन की इच्छा। मनोकामना [को०]।
⋙ मनोभू
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। मंदन।
⋙ मनोभूत
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। उ०— मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम्। — तूलसी (शब्द०)।
⋙ मनोमथन
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव।
⋙ मनोमय
वि० [सं०] मनोरुप। मानसिक।
⋙ मनोमय कोश
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत शास्त्रानुसार पाँच कोशों में से तीसरा कोश। मन, अहंकार और कर्मेंद्रिया इस कोश के अंतर्गत मानी जाती है। इसे बौद्ध दर्शन में 'संज्ञा स्कंध' कहते कहते हैं। उ०— मनोमय कोश पंच कर्म इंद्रिय प्रसिधि पंच ज्ञान इंद्रिय विज्ञान कोश जानिए। —सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५९८।
⋙ मनोमालिन्य
संज्ञा पुं० [सं०] मन में मैल उत्पन्न होना। मनमुटाब। उ०— केदार बाबू तो बहुत सच्चारित जान पड़ते हैं फिर स्त्री पुरुष में इतना मनोमालिन्य क्यों हो गया?— मान०, भा० १, पृ० ९८।
⋙ मनोमुखी
वि० [सं० मनस्+मुख+ई (प्रत्य०)] अंतर्मुखी। आभ्यंतर जगत् में विचरण करनेवाला। उ०— मनोमुखी है काया। शुभे ! आज शुभ दिन ही आया। — कुणाल०, पृ० ४६।
⋙ मनोमोहिनी
वि० [सं० मनस्+मोहिनी] मन को मोहित करनेवाली। उ०— तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म, मैं मनोमोहिनी माया।—अपरा, पृ० ७१।
⋙ मनोयायी
वि० [सं० मनोयायिन्] १. अपनी इच्छा या मौज से जानेवाला। २. मन की तरह तेज [को०]।
⋙ मनोयोग
संज्ञा पुं० [सं०] मन को एकाग्र करके किसी एक पदार्थ पर लगाना। चित्त की वृत्ति का निरोध करके एकाग्र करना और उसे एक पदार्थ पर लगाना। उ०— विजय की सामग्री बड़े मनोयोग से हैडवेग में सजा रही थी। —कंकाल, पृ० ९२।
⋙ मनोयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मनोरंजक
वि० [सं० मनोरञ्जक] मन को प्रसन्न या आह्वादित करनेवाला [को०]।
⋙ मनोरंजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० मनोरञ्जन] [वि० मनोरंजक, मनोरंजनीय] १. मन को प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। मन का संप्रसादन। मनोविनोद। दिल बहलाव। उ०— मनोरंजन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिये मनुष्ट की चितवृत्ति को स्थिर किए रहती है, उसे इधर उधर जाने नहीं देती। — रस०, पृ० २६। २. एक बंगला मिठाई का दाम।
⋙ मनोरंजन (२)
वि० [वि० स्त्री० मनोरंजिनी] दे० 'मनोरंजक'। उ०— तुम मृदु मानस के भव और मैं मनोरंजिनी भाषा। —अपरा पृ० ७०।
⋙ मनोरथ
संज्ञा पुं० [सं०] अभिलाषा। बांछा। इच्छा। उ०— (क) करत मनोरथ जस जिय जाके। जाहिं सनेह सुरा सब छाके।—मानस, २।२२५। (ख) वंस मनोरथ पिय मिलें घट भया उजारा। —कबीर श०, भा० १, पृ० ७२।
⋙ मनारथतृतीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्रत का नाम जो चैत्र शुक्ल तृतीया को होता है।
⋙ मनोरथदायक (१)
वि० [सं०] इच्छा पूरी करनेवाला [को०]।
⋙ मनोरथदायक (२)
संज्ञा पुं० कल्पतरु का नाम।
⋙ मनोरथद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्रत का नाम जो चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन पड़ता है।
⋙ मनोरथसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छा पूरी होना। इच्छा की पूर्ति होना [को०]।
⋙ मनोरन †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास।
⋙ मनोरम (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मनोरमा] मनोज्ञ। मनोहर। सुंदर।
⋙ मनोरम
संज्ञा पुं० सखी छंद के एक भेद का नाम। इसके प्रत्येक चरण में चौदह मात्राएँ होती हैं और ५, ४ और ५ पर विराम होता है। इसका मात्राक्रम २+३+२+२+३+ +२ है और तीसरी तथा दूसरी मात्रा सदा लघु होती है। जैसे,— जानकी नाथै, भजो रे। और सब धंधा तजो रे। सार है जग में जू येही। की प्रभु सों जन सनेही।
⋙ मनोरमण
वि० [सं० मनस्+रमण] जिसमें मन रमण करे। जो मन में रमे। उ०— देखा है, प्रात किरण फूटी हैं मनोरमण।—अर्चना, पृ० ६।
⋙ मनोरमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोरोचन। २. सात सरस्वतियों में से चौथी का नाम। ३. वौद्ध धर्मानुसार बुद्ध की एक शक्ति का नाम। ४. छंदोमंजरी के अनुसार एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में दस वर्ण होते हैं जिनमें पहला, दूसरा, तीसरा, सातवाँ और नवाँ वर्ण लघु और शेष गुरु होते हैं। ५. महाकवि चंद्रशेखर के अनुसार आर्या के ५७ भेदों में एक जिसमें १२ गुरु और ३३ लघु वर्ण होते हैं। ६. दस अक्षर के एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नगण, रगण और अंत में गुरु होता है। जैसे,— लहत मुक्ति पाप हो क्षमा। ७. केशव के मतानुसार चौदह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में ४. सगण और अंत में दो लघु होते हैं। जैसे,— यह शासन पठए नृप कानन। ८. केशव के मतानुसार दोधक छंद का एक नाम जिसके प्रत्येक चरण में ४. भगण और दो गुरु होते हैं। ९. सूदन के मातनुसार दस अक्षरों को एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तीन तमण और एक गुरु होता है। जैसे,— वीते कुछ घोस ही में जहाँ। १०. मार्कंडेय पुराणानुसार इंदीवर नामक एक गंधर्व की कन्या का नाम।
⋙ मनोरवा ‡पु०
संज्ञा पुं० [सं० मनोरम] १. मनोरम। सुंदर। मधुर। २. दे० 'मनोरा'। उ०—ऊठत नाम मनोरवा हो हो संतन कै यह ज्ञान। याहि सुफल जिन्ह जान्यो वाजत अभय निसान। — गुलाल०, पृ० २८।
⋙ मनीरा
संज्ञा पुं० [सं० मनोहर या मनोरमा] दीवार पर गोवर से बनाए हुए चित्र जो कार्तिक के महीने में दीवालों के पीछे बनाए जाते हैं। स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन्हें रंग विरंग के फूल पत्तों से सजाती हैं, प्रतिदिन सायंकाल को पूजती हैं और दीपक जलाकर गीत गाती जाती हैं। झिंझिया। लोढ़िया। उ०— जेहि घर पिय सो मनोरा पूजा। मोकहँ बिरह, सवति दुख दूजा। —जायसी (शब्द०)। यौ०— मनोरा झूमक = एक प्रकार का गीत जिसे स्त्रियाँ फागुन में गाती हैं और जिसके अंत में यह पद (मनोरा झूमक) आता है। उ०— (क) कहूँ मनोत झूमक होई। कर औ भूल लिए सब कोई। जायसी (शब्द०)। (ख) गोकुल सकल ग्वालिनी हो घर खेलैं फाग, मनोरा झूमक रे। — सूर (शब्द०)।
⋙ मनोराग
संज्ञा पुं० [सं०] मन का राग। अनुराग। प्रेम। उ०— तीव्र मनोराग उत्पन्न करने की शक्ति कामायनी में ही है।— बी० श० महा०, पृ० ३१५।
⋙ मनोराज
संज्ञा पुं० [सं० मनोगज्य] मानसिक कल्पना। मन की कल्पना उ०— राग को न साज न बिराग जोग जाग जिय, काया नहिं छोड़े देत ठाठिबो कुठाट को। मनोराज करत अकाज भयो आजु लागि, चाहै चारु चीर पै लहै न टूक टाट को। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पनालोक। हवाई किला। ख्याली पुलाव [को०]।
⋙ मनोरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० मनोहर या देश०] एक प्रकार की सिकड़ी की जंजीर जिसकी कड़ियों पर चिकनी चपटी दाल जड़ी रहती है और जिसमें घुँघुरुओं के गुच्छे लगातार बंदनवार की तरह लटकते है। विशेष— यह जंजीर स्त्रियों की साड़ी या ओढ़नी के किनारे पर उस जगह टाँकी जाती जो ओढ़ते समय ठीक सिर, पर पड़ता है। घूंघट काढ़ने पर यह जंजीर मुंह और सिर के चारो ओर आ जाती है।
⋙ मनोरुक्
संज्ञा पुं० [सं० मनोरुज्] हृदय की पीड़ा। मनोव्यथा [को०]।
⋙ मनोर्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० मनोरथ] दे० 'मनोरथ'। उ०— सबको मनोर्थ पूर्ण कियौ। — ह० रासो, पृ० ३३।
⋙ मनोलय
संज्ञा पुं० [सं०] चेतना का लय या समाप्ति होना। चेतना- शून्यता [को०]।
⋙ मनोलौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] मन की लोलुपता। चित्त की चंचलता। सनक [को०]।
⋙ मनोल्लास
संज्ञा पुं० [सं० मनस्+उल्लास] मन की खुशी। प्रसन्नता। उ०— सारा मनोल्लास आँसुओं के प्रवाह में बह गया, विलीन हो गया।—मान०, भा० १, पृ० ३९।
⋙ मनेवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार मेरु पर्वत पर के एक नगर का नाम। २. चित्रांगद विद्याधर की कन्या का नाम।
⋙ मनोवर्गण
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार वे सूक्ष्म तत्व जिनसे मन की रचना हुई है।
⋙ मनोवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेयसी। प्रियतमा [को०]।
⋙ मनोवांछा
संज्ञा स्त्री० [सं० मनोवाञ्छा] इच्छा। अभिलाषा। आकांक्षा। ख्वाहिश।
⋙ मनोबांछित (१)
वि० [सं० मनोवाञ्छित] इच्छित। मनमाँगा। यथेच्छ। जैसे,— इससे आपको मनोबांछित पल मिलेगा।
⋙ मनोवांछित (२)
संज्ञा पुं० दे० 'मनोवांछा'।
⋙ मनोविकार
संज्ञा पुं० [सं०] मन की वह अवस्था जिसमें किसी प्रकार का सुखद या दुःखद भाव, विचार या विकार उत्पन्न होता है। जैसे, राग, द्वेष, क्रोध, दया आदि चित्तवृत्तियाँ। चित्त का विकार। विशेष— मनोविकार किसी प्रकार के भाव या विचार के कारण होता है और उसके साथ मन का लक्ष्य किसी पदार्थ या बात की ओर होता है। जैसे, किसी को दुखी देखकर दया अथवा अत्याचारी का अत्याचार देखकर क्रोध का उत्पन्न होना। जिस समय कोई मनोविकार उत्पन्न होता है, उस समय कुछ शारीरिक विक्रिया्र्ए भी होता है; रोमांच, स्वेद, कंप आदि पर ये विक्रियाएँ साधारणतः इतनी सूक्ष्म होती हैं कि दूसरों का दिखाई नहीं देतीं। हाँ, यदि मनोविकार बहुत तीव्र रुप में हो, तो उसके कारण होनेवाली 'शारीरिक विक्रिवाएँ' अवश्य ही बहुत स्पष्ट होती है और बहुवा मनुष्य की आकृति से ही उसके मनोविकारों का स्वरुप प्रकट हो आता है। क्रि० प्र०—उठना।—होना।
⋙ मनोविकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मनोविकार' [को०]।
⋙ मनोविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शास्त्र् जिसमें चित्त की वृत्तियों का विवेचन होता है। वह विज्ञान जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि मनुष्य के चित्त में कौन सी वृत्ति कब, क्यों और किस प्रकरा उत्पन्न होती है। चित्त की वृत्तियों की मीमांसा करनेवाला शास्त्र। यौ०—मनेविज्ञानवेत्ता= दे० 'मनोवैज्ञानिक' ।
⋙ मनोविज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० मनोविज्ञान+ई (प्रत्य०)] दे० 'मनोवैज्ञानिक'। उ०— इनमें से (९ भावों में से) हास, उत्साह और निर्वेद को छोड़ शेष सव भाव वे ही हैं जिन्हें आधुनिक मनोविज्ञानियों ने मूल भाव कहा है। — रस०, पृ० १७६।
⋙ मनोविनोद
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद। मनोरंजन [को०]।
⋙ मनोविश्लेषण
संज्ञा पुं० [सं० मनविश्लेषण] १. मन में उठनेवाले विचारों का विश्लेषण। मन को समझना। २. मनोविज्ञान के अनुसार मन में प्रवहमान विचारों का सूक्ष्म निरीक्षण और उनसे उत्पन्न कारणों को समझना जो मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। यह मनोविज्ञान की एक विशेष धारा है।
⋙ मनोविश्लेषणवादी
वि० [सं० मनोविश्लेषण+वादिन्] मनो- विज्ञान की मनोविश्लेषण धारा का अनुयायी। मनोविश्लेषण को माननेवाला। उ०— उन्होंने जहाँ इस यथार्थवाद की महिमा स्वीकार की वहाँ मनोविश्लेषणवादी लेखकों का भर्त्सना की।—इति०, पृ० १२२।
⋙ मनोवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्त की वृत्ति। मनोविकार। विशेष- दे० 'मनोविकार'।
⋙ मनोवृत्यात्मक
वि० [सं० मनोवृत्ति+आत्मक] मनोवृत्ति से संबंधित। प्रवृत्तिविषयक। उ०— छायावाद की मनोवृत्यात्मक। संश्लिटता में व्यक्तित्व की स्थापना है।—आचार्य०, पृ० २१९।
⋙ मनोवेग
संज्ञा पुं० [सं०] मन का विकार। मनोविकार। यौ०—मनोवेगमूलक=मनोवेग से संबंधित। जिसके मूल में मनोवेग हो। उ०— कोई कविता का स्वरूप उसका आनंद- दायक होना, कोई मनोवेगमूलक होना मानते हैं।—बी० श० महा०, पृ० ८।
⋙ मनोवैज्ञानिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मनोविज्ञान का ज्ञान।
⋙ मनोवैज्ञानिक (२)
वि० मनोविज्ञान संबंधी। मनोविज्ञान का।
⋙ मनोव्यथा
संज्ञा पुं० [सं०] मनस्ताप। मानसिक पीड़ा [को०]।
⋙ मनोव्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मानसिक रोग या वेदना [को०]।
⋙ मनोव्यापार
संज्ञा पुं० [सं०] मन की क्रिया। मन का व्यापार। संकल्प विकल्प। विचार।
⋙ मनोसर पु
संज्ञा पुं० [सं० मनः] मन की वृत्ति। मनोविकार। उ०— सर्व मनोसर जाय मरि जो देखँ तम बार। पहले सों दुःख बरनि कै बरनौ बहक सिगार।—(शब्द०)।
⋙ मनोहत
वि० [सं०] निराश। हताश [को०]।
⋙ मनोहर (१)
वि० [सं०] [संज्ञा मनोहरता] १. मन हरनेवाला। चित्त को आकर्षित करनेवाला। २. सुंदर। मनोज्ञ। उ०— इस प्रकार से घूमते छोड़ काम सब और। देखी नृप ने निज प्रिया एक मनोहर ठौर।—शकुं०, पृ० ११।
⋙ मनोहर (२)
संज्ञा पुं० १. छप्पय छंद के एक भेद का नाम, जिसमें १३ गुरु, १२६ लघु, १४९ वर्ण और १५२ मात्राएँ अथवा १३ गुरु, १२२ लघु, १३५ वर्णा और १४८ मात्राएँ होती है। २. एक संकर रोग का नाम जो गौरी, मारवा और त्रिवण के मिलने से बना है। ३. कुंद पुष्प। ४. सुवर्ण। सोना।
⋙ मनोहरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनोहर होने का भाव। सुंदरता। उ०— राजकुअर तेहि अवसर आए। मनहु मनोहरता तन छाए।— मानस०, १। २४०।
⋙ मनोहरताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मनोहरता] सुंदरता। मनोहरता। उ०—(क) मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) किलकनि नटनि चलनि चितवनि भजि मिलनि मनोहरतैया। मनि खंभनि प्रतिबिंब झलक छबि छलकिहै भरि अँगनैया।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मनोहरपन
संज्ञा पुं० [सं० मनोहन + हिं० पन (प्रत्य०)] मनोहरता। सुंदरता। उ०—ऐसे कवितों के बनाए नाटक कि जी मनोहर- पन से पूर्ण हैं।— प्रेमघन०, भा०, २, पृ० २९।
⋙ मनोहरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जाती पुष्प। २. स्वर्णजुही। सोनजुही। ३. त्रिशिर की माता का नाम। ४. एक उप्सरा का नाम।
⋙ मनोहरी
संज्ञा पुं० [हि० मनोहर + ई (प्रत्य०)] कान में पहनने की एक प्रकार की छोटी बाली।
⋙ मनोहर्ता
संज्ञा पुं० [सं० मनोहर्तृँ] दे० 'मनोहारी' [को०]।
⋙ मनोहारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मनोहारित्व'।
⋙ मनोहारित्व
संज्ञा पुं० [सं०] मनोहरता। सुंदरता। उ०—ऐसे वैज्ञानिक हुए हैँ जिन्होंने अपनी कृतियों को साहित्यिक की मनोहरित्व प्रदान किया है।— पा०, सा० सि०, पृ० ८।
⋙ मनोहारी
वि० [सं० मनोहारिन्] [वि० स्त्री० मनोहारिणी] १. मनोहर। चिताकर्षक। सुंदर। २. हृदय चुरानेवाला।
⋙ मनोह्लाद
संज्ञा पुं० [सं०] मन की प्रसन्नता [को०]।
⋙ मनोह्लादो
वि० [सं० मनोह्लादिन्] [वि० स्त्री० मनोह्लादिनी] १. मन को प्रसन्न करनेवाला। दिल खुश करनेवाला। २. मनोहर। सुंदर।
⋙ मनोह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनःशिला। मैनसिल।
⋙ मनौ पु †
अव्य [हि०] दे० 'मानो'। उ०— कनक दंड जुग जंध तुव लखियत आभा ऐन। धर जीबन खरसान पर मनौ खरादे मैन।— स० सप्तक, पृ० ३४७।
⋙ मनौज पु †
संज्ञा पुं० [सं० मनोज] दे० 'मनोजा'। उ०— ताकि ताकि चोटैं करत उदभट मुभट मनौज।—ब्रज०, ग्रं० पृ० २०।
⋙ मनौती पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० मानना + औती (प्रत्य०)] १. असंतुष्ट को संतुष्ट करना। मनाना। मनुहार। उ०— कभी गालियाँ देता था कभी धमकाता था, कभी इनाम का लालच दिखालाता था, कभी मनौती करता था; पर कोठरी का दरवाजा किसी ने न खोला।—शिवप्रसाद (शब्द०)। २. किसी देवता की विशेष रूप से पूजा करने की प्रतिज्ञा या सकल्प। मानता। मन्नत। क्रि० प्र०—उतारना।—करना।—चढ़ाना।—मानना।
⋙ मनौरथ पु
संज्ञा पुं० [सं० मनोरथ] दे० 'मनोरथ'। उ०— जौन मनौरथ रथ तहँ होई। क्यों पहुँचै पिय पै तिय सोई।— नंद०, ग्रं०, पृ० १५७।
⋙ मन्नु पु (१)
संज्ञा पुं० [हि० मन] १. मन। चालीस सेर वजन का एक परिमाण। उ०— दस लक्ख कोटि दस सहस मन्न।—ह० रासो०, पृ० ६०।
⋙ मन्न पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मनस्] मन। चित्त।
⋙ मन्नत
संज्ञा स्त्री० [हि० मानना] किसी देवता की पूजा करने की वह प्रतिज्ञा जो किसी कामनाविशेष की पूर्ति के लिये की जाती है। मानता। मनौती। उ०— (बाबर ने) मन्नत मानी कि अगर साँग पर फतह पाऊँ, फिर कभी शराब न पीऊँ और दाढ़ी बढने दूँ।—शिवप्रसाद (शब्द०)। मुहा०—मन्न उतारना या बढ़ाना=पूजा की प्रतिज्ञा पूरी करना। मन्नत मानना=यह प्रतिज्ञा करना कि अमूक कार्य के हो जाने पर अमुक पूजा की जाएगी।
⋙ मन्ना
संज्ञा पुं० [देश०] शहद की तरह का एक प्रकार का मीठा निर्यास जो वाँस आदि कुछ विशेष वृक्षों में से निकलता है और जिसका व्यवहार के रूप में होता है।
⋙ मन्मथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. कपित्थ। केथ। ३. कामर्चिता। ४. साठ संवत्सरों में से उनतीसवें संवत्सर का नाम। यौ०— मन्नथमन्मथ=कामदेव के मन को मथनेवाला, अत्यंत आकर्षक वा सौदर्यशील।
⋙ मन्मथकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कुमार के एक अनुचर का नाम।
⋙ मन्मथकर (२)
वि० कामोद्दीपक। कामचिंतावर्धक [को०]।
⋙ मन्मथजल पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथ + जल] स्त्रीशुक। रज। उ०— पातुर लोभी अधिक ढिठाई। मन्मथजल। बिरगिध बसाई।—चित्रा०, पृ० २१४।
⋙ मन्मथप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की प्रिया। रति [को०]।
⋙ मन्मथबंधु
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथबन्धु] चंद्रमा [को०]।
⋙ मन्मथयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] कामवासना की तुष्टी। स्त्रीसंभोग। मैथुन [को०]।
⋙ मन्मथलेख
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेमपत्र।
⋙ मन्मथसख
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का मित्र, वसंत [को०]।
⋙ मन्मथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा। दाक्षायणी [को०]।
⋙ मन्मथानंद
संज्ञा पुं० [सं० मन्मथानन्द] १. एक प्रकार का आम जिसे महाराज चूत भी कहते हैं। २. विषयानंद। विषयजन्य सुख या आनंद।
⋙ मन्मथानल
संज्ञा पुं० [सं०] कामाग्नि [को०]।
⋙ मन्मथालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम का पेड़। २. कमियों के मनोरथ पूर्ण होने की जगह। प्रेमी और प्रेमिका के मिलने का स्थान। विहारस्थल। २. योनि। भग (को०)।
⋙ मन्मथाविष्ट
वि० [सं०] कामोद्दीप्त [को०]।
⋙ मन्मथी
वि० [सं० मन्मथिन्] कामी। कामुक।
⋙ मन्मथोद्दोपन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कामोत्तेजन होना।
⋙ मन्मथोद्दीपन (२)
वि० कामोत्तेजक [को०]।
⋙ मन्मन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दंपति की गोपनीय एवं मंदस्वर में की जानेवाली बातचीत। २. गोपनीय कानाफूसी। ३. मदन। कामदेव [को०]।
⋙ मन्मनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] बोलने में जीभ का हकलाना जो एक दोप है [को०]।
⋙ मन्मय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मन्मथी] तन्मय का विलोम। मुझमें लीन। मुझमें अनुरक्त। उ०—अकस्तात निःशिब्द आए जयी, मनोवृत्ति थी नाथ की मन्मयी।—साकेत, पृ० ३०५।
⋙ मन्य (१)
वि० [सं०] अपने को समझनेवाला। अपने को अमुक जैसा माननेवाला (समासांत में प्रयुक्त) जैसे पंडितंमन्य [को०]।
⋙ मन्म पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मान या प्रा० भण्णण] मान। इज्जत। उ०— धन रंगा तोर त्तिय धरघ्यं। जिन रस्यौ जीवत नृप मन्यं।—पृ० रा०, ७। १८२।
⋙ मन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गले पर की एक शिरा या नस जो पीछे की और होती है। मन्या।
⋙ मन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गले की एक शिरा या नस। मन्यका। २. ज्ञान। समझ (को०)।
⋙ मन्याका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मन्यका' [को०]।
⋙ मन्यास्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० मन्यास्तम्भ] एक रोग का नाम जिसमें गले पर की मन्या शिरा कड़ी हो जाती है और गरदन इधर उधर नही घूम सकती।
⋙ मन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रोत्र। २. कर्म। ३. शेक। ४. याग। ५. कोप। क्रोध। उ०— कोप क्रोध आमर्ष रुठ रोष मन्यु तम सोइ।— अनेकार्थ०, पृ० २५। ६. दीनता। ७. अहंकार। ८. शिव। ९. अग्नि। १०. भागवत के अनुसार वितथ राजा के पुत्र का नाम। ११. साहस। उत्साह (को०)।
⋙ मन्युदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रोध का अधिमानी देवता। २. एक ऋषि का नाम।
⋙ मन्युपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेकपर्णा। मंड़ूकपर्णा।
⋙ मन्युमान (१)
वि० [सं० मन्युमत्] शोक, क्रोध, दीनता या अहंकार से युक्त।
⋙ मन्युमान् (२)
संज्ञा पुं० अग्नि [को०]।
⋙ मन्युसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेद के दशम मंडल का एक सूक्त जो मन्युदेव के प्रति है [को०]।
⋙ मन्वंतर
संज्ञा पुं० [सं० मन्वन्तर] १. इकहत्तर चतुर्युगी का काल। ब्रह्मा के एक दिन का चौदहवाँ भाग। विशेष— दे० 'मनु'। उ०— समीचीन घर्म की प्रवृत्ति। सो कहिए मन्वंतर वृत्ति।—नंद०, ग्रं०, पृ० २१७। २. दुर्भिक्ष। अकाल। कहत।
⋙ मन्वंतरा
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्वन्तरा] प्राचीन काल का एक प्रकार का उत्सव जो आषाढ़ शुक्ल दशमी, श्रावण, कृष्ण अष्टमी और भाद्र शुक्ल तृतीया को होता था।
⋙ मन्वाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] धान्य।
⋙ मन्होल †
संज्ञा पुं० [देश०] तसाल।
⋙ मप्पना पु
क्रि० सं० [सं० मापन या देशी मप्प(=माप)] दे० 'मापना'। उ०—बंचि उचारि सुमंत तिहिं सरमय मप्पिय बाँह।—पृ० रा० २४। ३७६।
⋙ मफर
संज्ञा पुं० [अं० मफर] १. भागकर छिपने का स्थान। २. रक्षा। बचाव। ३. उपाय। तरीका [को०]।
⋙ मफरूर
वि० [अं० मफ्रूर] १. झगोड़ा। भाग हुआ। २. फरार। उ०— वह दूसरे मामले में मफरूर था।—फूलो०, पृ० ६४।
⋙ मबादा
अव्य० [फा०] ऐसा न हो। उ०— छुपा राख तूँ आज ते राज यो। मबादा सुनं कोई आवाज यो।— दक्खिनी०, पृ० ८६।
⋙ मम
सर्व० [सं० अहं < अत्मद् शब्द का पष्ठी एकबचन रूप] मेरा या मेरी। उ०— (क) साई यो मति जानियो प्रीति घटै मम चित्त। मरूँता तुम सुमिरत मरू जीवन सुमिरूँ नित्त।— कबीर (शब्द०)। (ख) नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन वारिज नयन। करुहु सा मम उर धाम, सदा क्षीरसागर सयन।—तुलसी (शब्द०)। (ग) महाराजा तुम तो ही साध। मम कन्या ते भयो अपराध।— सूर (शब्द०)।
⋙ ममकार पु †
संज्ञा पुं० [सं०] ममत्व। ममता। अहंकार। उ०— रोम ररंकार की गन्म कस लह शव्द के संग ममकार होई।— राम०, धर्म०, पृ० १३९। २. वयक्तिक वा निज को संपत्ति।
⋙ मभकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ममकार' [को०]।
⋙ ममत पु
संज्ञा पुं० [सं० ममत्व] दे० 'ममत्व', 'ममता'। उ०— गुरु पग परसं बंधन छूटै। मोह ममत को फाँसी टूटू।— सहजो०, पृ० ६।
⋙ ममता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. 'ब्रह मेरा है' इस प्रकार का भाव। किसी पदार्थ को अपना समझने का भाव। ममत्व। अपनापन। उ०—सुमति न जानै नाम न जानै मैं ममता मार।—जग०, श०, पृ० ११४। २. स्नेह। प्रेम। ३. वह स्नेह जो माता पिता का अपनी संतानों के साथ होता है। ४. मोह। लोभ। ५. गर्व। अभिमान। यौ०—ममतायुक्त। ममताशून्य= ममत्व या ममता से रहित।
⋙ ममताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ममता + हि० ई (प्रत्य०)] ममता। मोह। उ०— गर्व गुमान त्यागि ममताई। ह्वै सताल कारी रहि दिनताई।— जग० श०, पृ० ११८।
⋙ ममतायुक्त
वि० [सं०] १. अभिमानी। गर्वी। २. कृपण। ३. जिसमें ममता हो।
⋙ ममत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. ममता अपनापन। यौ०—ममत्वयुक्त। ममत्वशून्य। ममत्वहीन=ममता वा स्नेह से रहित। उ०— पक्षी का सा जीवन, हसमुख किंतु ममत्वहीन निर्दय वाले के लिये। अपरा, पृ० १३९।
⋙ ममनाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मम] १. शासन। राज्य। २. मनमाने कार्य। उ०— तहँवा हंस करत ममनाई।—कबीर सा०, पृ० १४।
⋙ ममनून
वि० [अ०] आभारी। अनुगृहीत। कृतज्ञ। उ०— मैं बहुत ममनून हूँगा। अगर आप इसपर अपनी राय...फरमावें।— प्रेम०, और गोर्को, पृ० ५३।
⋙ ममरखी †
संज्ञा स्त्री० [देश० या अ० मुबारक] बघावा।
⋙ ममरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बरबरी] वनतुलसी। बबई।
⋙ ममरी पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मम + री (प्रत्य०)] माता। उ०— ऐसे हमकूँ रामं पियारे। ज्यों बलाक कूँ ममरी।—चरण० बानी, पृ० ९०।
⋙ ममाखी
संज्ञा स्त्री० [बं० मौमाछी] शहद की मक्खी। मधुमक्खी। उ०— उत्तमता इसका निजस्व है, अंबुजवाले सर सा देखो। जीवन मधु एकत्र कर रहीं उन ममाखयों सा बस लेखो।—कामायनी०, पृ० २७१।
⋙ ममान, ममाना †
संज्ञा पुं० [हि० मामा + आना (प्रत्य०)] मामा का घर। ममियौर।।
⋙ ममारख ‡
वि० [अं० मुबारक] शुभ। कल्याणप्रद। सौभाग्यशाली।
⋙ ममारखी पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मुबारकी?] बधाई। मुबारिकी। उ०— देति ममारखी बारहिं बार करैं सिगरी सब और सलामै।— हम्मारी०, पृ० ९।
⋙ ममासा पु
संज्ञा पुं० [सं० मवास] किला। गढ़। उ०— तेही आस चढ़ तोरै ममासा।—कबीर सा०, पृ० ८६।
⋙ ममिता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ममता] दे० 'ममता'। उ०— धोखा देइ जीव सब राखा ममिता अदल चलाई।—संत० दरिया, पृ० १३५।
⋙ मामया
वि० [हि० मामा + इया (प्रत्य०)] जगे संबंध में मामा के स्थान पर पड़ता हो। मामा के स्थान का। जैसे, ममिया ससुर, ममिया सास। विशेष— इस शब्द का प्रयोग संबंधसूचक शब्दों के साथ होता है। यौ०—ममिया ससुर=पति वा पत्नी का मामा। ममिया सास= पति अथवा पत्नी की मामी। ममिया बहिन=मामा की कन्या।
⋙ ममियाउर †
संज्ञा पुं० [हि० ममिया + पुर] दे० 'ममियौरा'।
⋙ ममियौरा †
संज्ञा पुं० [हि० ममिया + औरा (प्रत्य०)] मामा का घर। ममाना।
⋙ ममी
संज्ञा स्त्री० [मममी] वह शव जो रासायनिक पदार्थ या मसाला आदि लगाकर नष्ट होने से बचाकर रखा जाता है। सुंगंधित द्रव्यादि के लिये द्वारा सुरक्षित शव। विशेष—मिस्र के पिरामिड़ों में ऐसे शव प्राप्त होते हैं, जो तीस हजार वर्षो से भी अधिक पहले के हैं।
⋙ ममीरा
संज्ञा पुं० [अं० मामीरान] हलदी की जाती के एक पौधे कि जड़। विशेष— इस पौधे की कई जातियाँ होती हैं। यह आँख के रोगों को अपूर्व ओषधि मानी जाती है। यह पौधा सम शीतोष्ण प्रदेशों में होता है। आसाम के पूर्व के देशा के पहाड़ी स्थानों में भी यह बहुत होता है। कुछ दूसरे पौधों के जड़ें भी, जो इससे मिलती जुलती होती है, ममीरे के नाम के बिकती हैं और उन्हेँ नकली ममीरा कहते हैं।
⋙ ममोला
संज्ञा पुं० [देश०] धोबिन नाम का छोटा पक्षों जिसके पेट पर काली धारियाँ होती है। उ०— सैलों मेरी गेंद ममोला, दिल मेरा वाई लिया माँ।—दाक्खनी०, पृ० ३९०। २. वीर बहूटी। ३. छोटा और प्यारा बच्चा। †४. एक प्रकार का घोड़ा। उ०— अमोला ममोला लिए मोल लक्षो।—प० रासो पृ० १६७।
⋙ ममोलिया पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] बोर बहूटो। ममोला। उ०— लूवाँ झड़ नदियाँ लहर बक पंगत भर बाथ। मोरा मोर ममोलिया, सावण लायो साथ।— बाँकी० ग्र०, भा० २, पृ० ७।
⋙ ममोसी पु
वि० [सं० मवास] गढ़ में निवास करनेवाला। गढ़पति। उ०— बीर्ज छिमा का संग लिए दल मोह की महल लुटायो। ताही समय ममोसी राजा। वाही की पकरि मँगायों।—कबीर श०, भा० ३, पृ० २७।
⋙ मम्म पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मर्म, प्रा मम्म] दे० 'मर्म'। उ०— मक्कय वाणी बहुअ [न] भावइ। पाउंअ रस को मम्म न पावइ।—कीर्ति०, पृ० ६।
⋙ मम्म (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'मम्मा (१)'।
⋙ मम्मा (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. स्तन। छाती। २. जल। पानी। (बालक)।
⋙ मम्मा (३)
संज्ञा पुं० [सं० मातुल] [संज्ञा स्त्री० मम्मी] दे० 'मामा'।
⋙ मम्मी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'मम्मी'। उ०— मिस्र की प्राचीनतम मम्मियाँ (मृत शव) इसी रंग में रंग मिलती है।—भा०, इ० रू०, पृ० ७३।
⋙ मम्मी (१)
संज्ञा स्त्री० मा। माता। अम्मा। धाय।
⋙ मयंक
संज्ञा पुं० [सं० मृगाङ्क, प्रा०, मयेक, मयंग] चंद्रमा। उ०— सरद मयंक बदन छबी सीवाँ। चारु कपोल। चिबुक दर ग्रीवाँ।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—मयंकसुखी=जिसकी मुख चंद्रमा के समान हो। उ०— तऊ न हाँति मयंकमुखी, तनक प्यास की हानि।—मति० ग्रं०, पृ० ४०४।
⋙ मयंद
संज्ञा पुं० [सं० मृगेन्द्र प्रा० मयंद] १. सिंह। उ०— मानि यों बैठो नरिंद अरिदहि मानो मयंद गयंद पछारयो।—भूषण (शब्द०)। २. राम की सेना के एक अधिनायक वानर का नाम। उ०— द्विविद मयंद नील नल अंगदादि विकटासि। दघि मुख केहरि कुमुद गव जामवंत वलरासि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मयंदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] लोहे की छोटी सामी जो गाड़ी में चक्के की नाभि के दोनों ओर उस छेद के मुँह पर खोदकर बैठाई जाती है, जिसमें धुरे का सिरा रहता है। सामी।
⋙ मय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊँट। २. अश्वतर। खच्चर। ३. घोड़ा। ४. सुख। ५. एक देश का नाम। ६. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध दानव का नाम जो बड़ा शिल्पी था। उ०— मय की सुता धौं की है मोहनी ह्वै मोह मन, आजु लौं, न सुनी सु तौ नैनन निहारिए।—केशव (शब्द०)। विशेष—इस असुरों और दैत्यों का शिल्पी कहते हैँ। वाल्भीकीय रामायण के उत्तरकांड़ मे मय को दिति का पुत्र 'दैत्य' लिखा है। मायावी और दुंदुभि को उसका पुत्र और मंदोदरी को उसकी कन्या लिखा है। त्रिपुर दानव के तीन नगरों को इसने बनाया था और महाभारत के अनुसार खांडव वन के भस्म होने पर इसने ही पांडवों का महल भी बनाया। ७. अमोरिका के मेक्सिको नामक देश के प्राचीन अधिवासी जो किसी समय बहुत अधिक उन्नत और सभ्य थे और जिनकी सभ्यता भारतवसियों की सभ्यता से बहुत कुछ मिलती जुलती है।
⋙ मय (२)
प्रत्य० [सं०] [स्त्री० मयी] तद्धित का एक प्रत्यय जो तद्रूप, विकार और प्राचुर्य अर्थ में शब्दों के साथ लगाया जाता है। जैसे, आनंदमय। उ०—(क) तद्रुप—सिया राममय सब जग जानी। करौं प्रणाम जोरि जुग पानी।—तुलसी (शब्द०)।(ख) विकार— अमिय मूरमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।—तुलसी (शब्द०)। (ग) प्राचूर्य—मुद मंगलमव मंत समाजू। जो जग जंगम तीरथ- राजू।—तूलसी (शब्द०)।
⋙ मय (३)
अव्य० [अ०] संयुक्त। सहित। साथ। जैसे, मयमूद सूद सहित।
⋙ मय
संज्ञा स्त्री० [फा०] मदिरा। मद्य। शराब। यौ०—मयखाना=मदिरागृह। मयपरस्त=शराबी।
⋙ मय
संज्ञा पुं० [सं० मद, प्रा०, मय] गर्व। अहता। घमंड।
⋙ मयगर पु
संज्ञा पुं० [प्रा० मयगल] दे० 'मयगल'। उ०— मन मयगरि मद मस्त दिवाना। जीवहिं उलाट चलावै।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २९।
⋙ मयगल
संज्ञा पुं० [सं० मदकल, प्रा०, मयकल] मत्त हाथी। मद- मस्त हाथी।
⋙ मयट
संज्ञा पुं० [सं०] पर्णकुटी [को०]।
⋙ मयतनया, मयतनुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदोदरी। उ०—मयतनुजा मंदोदरी नामा।—मानस १। १७८।
⋙ मयदान पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मैदान'। उ०— झुकत कृपान मवदान ज्यों उदोत भान एकन ते एक मानो सुखमा जरद की।—अकबरी०, पृ० १२१।
⋙ मयन
संज्ञा पुं० [सं० मदन, प्रा०, मयण] कामदेव। उ०— कुंद इंदु सम देह, उमारमन करुना अयन। जाहि दीन पर नेह करहु कृपा मर्दन मयन।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मयना
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मैना'।
⋙ मयमंत
वि० [सं० मदमत्त, प्रा०, मयत्त मत्यंत] मस्त। मदामत। उ०—(क) महाराज दसरथ पुनि सोवत। हा रघुपति लछिमन बैदेही सुमिरि सुमिरि गुण रोवत। त्रिया चरित मयमंत न सूझत उठि पखाल मुख धोवत। महा विपरीत रीत कछु औरे बार बार मुख जोवन।—सूर (शब्द०)।(ख) जोबन अस मयमंत न कोई। नवे हस्ति जो आकुस होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मयमत्त
वि० [सं० मगमत्त] दे० 'मयमंत'।
⋙ मयरेय पु
संज्ञा पुं० [सं० मैरेय] दे० 'मैरेय'। उ०— आसव मद कादंबरी हलिप्रिया मयरेय।—अनेकार्थ०, पृ० ७२।
⋙ मयष्ट, मयष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] बनर्मूग।
⋙ मयसुता
संज्ञा स्त्री० [सं० मय + सुता] मय दानव की कन्या, मंदो- दरी। उ०— तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।—मानस, ६। ८।
⋙ मयस्सर
वि० [अं०] १. मिलता या मिला हुआ। प्राप्त। उपलब्ध। सूलभ। उ०— सैयद महमूद ने यह कहकर पंडित जो को प्रसन्न किया कि आपके इस धूलिधूसर जूते की धूलि ही के प्रसाद से यह कालोन मुझे मयस्सर हुआ है।—द्विवेदी (शब्द०)। क्रि० प्र०—होना। मुहा०—मयस्सर आना= मिलना। प्राप्त होना।
⋙ मया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिकित्सा।
⋙ मया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० माया] १. मामा। भ्रमजाल। इंद्रजाल। २. जगत्। संसार। ३. जीव और शरीर का संबध। जीवन। उ०— तुम जिय मैं तन जौ लहि मया। कहे जो जवि करै सौ कया।— जायसी (शब्द०)। ४. प्रेमपाश। प्रेम का बंघन। मोह। उ०— (क) बहुत मया सुन राजा फूल। चला साथ पहुचावै भूला।—जायसी (शब्द०)। (ख) का रानी का चेरी कोई। जोहि कहँ मया करे भल सोई।— जायसी (शब्द०)। (ग) मृगया यहे शूर तर बढ़ी। बंदी मुखनि चाप सी पड़ी। जो केहू चितवे यह दया। बात कहे तो बड़िए मया।—केशव (शब्द०)। ५. दया। अनुकंपा। छोह। उ०—(क) तहाँ चकोर कोकिला तोहि तन मया पईठ। नयनन रकत भरा यहि तुम पुनि कोन्ही ड़ीठ।—जायसी (शब्द०)। (ख) सँदेसो देवकी सौं कहियौ। हौं कौ धाइ तिहारे सुत की मया करत ही रहियौ।— सूर०, १०। ३१७५। (ग) कहि धौं मृगी मया करि हमसों कहि धौं मधुप मराल। सूरदास प्रभु के तुम संगी हौ कहँ परम दयाल।— सूर (शब्द०)।
⋙ मयाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० मया] मोह। ममता।
⋙ मयार
वि० [सं० माया, हि० भया] [वि० स्त्री० मयारी] दयालु। कृपालु। उ०—(क) रोकत बूड़ उठा संसारू। महादेव तब भयो मयारू।—जायसी (शब्द०)।(ख) झारी भरी मुख धोइवे के आपनी बिसारी सारी सवारी अति देखत मयारि है।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ मयारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह ड़डा या धरन जिसपर हिंड़ोले की रस्सी लटकाई जाती है। उ०—सुनि विनय श्रीपति बिहँसि बोले विश्वकर्मा श्रुतिधारि। खचि खंभ कंचन के रचि पचि राजति मरुवा मयारि। पटुलों लगे नग नाग बहु रंग बनी डाँड़ी चारि। भँवरा भवै भजि केलि भूले नगर नागर नारि।— सूर (शब्द०)। २. छाजन की वह धरन जिसपर बहुआ के आधार पर बंडेर रहतो है। उ०— छानि बरेडि औ पार पछीति मयारि कहा किहि काम के कारे।— अकबरी०, पृ० ३५४।
⋙ मयी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊँटनी।
⋙ मयी (२)
अव्य० स्त्री० [हि०] दे० 'मय'।
⋙ मयु
संज्ञा पुं० [सं०] १. किन्नर। २. मृग।
⋙ मयुराज
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर।
⋙ मयुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] बनमूँग।
⋙ मयुष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] बनमूँग।
⋙ मयूक
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर।
⋙ मयूख
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. दीप्ति। प्रकाश ३. ज्वाला। ४. शोमा। ५. कोल। ६. पर्वत। यौ०—मयूखमाली=सूर्य।
⋙ मयूखादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के एक भेद का नाम।
⋙ मयूर्खी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल के एक अस्त्र का नाम।
⋙ मयूखी (२)
वि० [सं० मयूखिन्] प्रकाश्युक्त। दीप्तिमान्। चमा- कीला [को०]।
⋙ मयूर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मयूरी] १. मोर। २. मयूरशिखा नामक क्षुप। ३. अपामार्ग (को०)। ४. एक असुर का नाम। ५. मार्कड़य पुराणानुसार सुमंरु पर्वत के उत्तर के एक पर्वत का नाम। ५. संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि जिनका लिखा सूर्यशतक उपलब्ध है। यै वाणभट्ट के साल और हर्ष के सभापिड़ित थे।
⋙ मयूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. तूतिया। ३. मार। ४. मयूराशिखा नामक क्षुप।
⋙ मयूरकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद का एक नाम।
⋙ मयूरगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौबीस अक्षरों की एक वृत्ति का नाम जिसके और प्रत्येक चरण मे आदि मे पाँच यगण, फिर मगण, यगण और अंत मे भरण होता है। य य य य य म य भ)।
⋙ मयूरग्रोवक
संज्ञा पुं० [सं०] तूर्तिया।
⋙ मयूरचटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ मयूरचूड़
संज्ञा पुं० [सं० मयुरचूड़] थुनेर। गाठिवन का एक भेद।
⋙ मयूरचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० मयूरचूड़ा] मयूरशिखा नामक् क्षुप।
⋙ मयूरजंघ
संज्ञा पुं० [सं० मयूरजङ्घ] सोनापाढ़ा। श्योनाक।
⋙ मयूरतुत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] नीला तूर्तिया [को०]।
⋙ मयूरध्वज
संज्ञा पुं० [सं० मयूर + ध्वज] दे० 'मोरध्वज'।
⋙ मयूरनृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नाच जिसमें थिरकन अधिक होती है।
⋙ मयूरपदक
संज्ञा पुं० [सं०] नखाधात। नखक्षत जो मोर के पाव के आकार में हो।
⋙ मयूररथ
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय। स्कंद।
⋙ मयूरविदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोइया। अंबष्ठा।
⋙ मयूरशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोरशिखा नामक क्षुप।
⋙ मयूरसारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेरह अक्षरों के एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक पद में रगण, जगण, फिर रगण और अंत में बुलाक गुरु होता है।
⋙ मयूरसारी
वि० [सं० मयूरसारिन्] गर्वित।
⋙ मयूरस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ मयूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंवष्ठा। मोइया। २. नथिया या बुलाक (को०)। ३. एक प्रकार का विषैला कीड़ा।
⋙ मयूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोरनी।
⋙ मयूरेश
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय।
⋙ मयेश्वर
संज्ञा स्त्री० [सं०]/?/। विशेष
⋙ मयोभय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ मयोभू
वि० [सं०] यज्ञ के फल से उत्पन्न।
⋙ मरंद
संज्ञा पुं० [सं० मरन्द, मकरन्द, प्रा० मरंद] मकरंद। उ०— जानैं नहि तव माधुरी नंद मरंद सुगंध।—दीन ग्रं०, पृ० ९२।
⋙ मरंदकोश
संज्ञा पुं० [सं० मरन्द + कोश] १. फूल का वह भाग जिसमें 'सुधा' या रस रहता है। मकरंदकाश। २. मधु- मक्खियों का छत्ता।
⋙ मर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु। २. संसार। जगत्। ३. प्राणी। मरणधर्मा। जीव। उ०— मर क्या अमर अधीन हमारे कर्मों के है।—साकेत, पृ० ४२९। ४. पृथ्वी।
⋙ मर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरा] दे० 'मुरा'।
⋙ मरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु। मरण। २. वह रोग जिसमें थोड़े ही काल में अनेक मनुष्य ग्रस्त होकर मरते हैं। वह भीषण संक्रामक रोग जिसमें बहुत से लोग मरे। मरी। ३. मार्कड़ेय पुराणानुसार एक जाति का नाम।
⋙ मरक (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मरकना(=दवाना)] १. दबाकर संकेत करना। संकेत। इशारा। उ०— अर त टरत न बर परै दई मरक यनु मैन। होड़ाहोड़ी बढ़ी चली चित चतुराई नेन।— बिहारी (शब्द०)। २. हौसला। उ०—मन की मरक काढ़ि सब दिन कि निधरक ह्वै रस झेलिऐ।—घनानंद, पृ० ४०३। ३. खिचाव। उ०— एक गाँव बसी बैरी ऐसी राखिऐ मरक।— घनानंद०, पृ० १३५। ४. बदला। उ०—मदन मरक कबहूँ कि काढ़िहै भौरी पुहप लागे बरन बरन महकन।— घनानंद०, पृ० ३९०। ५. दे० 'मड़क'।
⋙ मरकज
संज्ञा पुं० [अं० मरकज] १. वृत का मध्य बिंदु। २. प्रधान या मध्य स्थान। केंद्र।
⋙ मरकजी
वि० [सं० मरकज] केंद्रिय। मुख्य।
⋙ मरकट (२)
वि० [सं० मृतकवत्] १. दुर्बल। दुबला पतला। कम- जोर। २. अशुभ। मनहूस (लाक्ष०)। उ०— सुबह सुबह नशा के शाबाब में, भेया नहीं बाबू नहीं, चाँदी नहीं सीना नहीँ।— यह साला मरकट सामने आ फटा।—शराबी, पृ० ६०। विशेष—प्रातः बंदर का मुँह देखना अशुभ माना जाता है अतः यह अर्थ बोलचाल में प्रचलित है।
⋙ मरकत
संज्ञा पुं० [सं०] पन्ना। यौ०—मरकत पत्ती=एक लता। पाची। मरकतमंदर=पन्ना का पहाड़। मरकतमणि=पन्ना। मरकतशिला=पन्ना की चट्टान या सिल्ली। मरकतश्याम=पन्ना के समान गहरा हरा या काल।
⋙ मरकताल
संज्ञा पुं० [देश०] समुद्र की तरंगों की उतार की सब से अंतिम अवस्था। भाटा की चरम अवस्था जो प्रायः अमावस्या और पूर्णिमा से दो चार दिन पहले होती है।
⋙ मरकद
संज्ञा पुं० [अं० मर्कद] कब्र। समाधि। उ०— रसा हाजतनहीं कुछ रोशनी की कुंजे मर्कद में।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८४८।
⋙ मरकना
क्रि० अ० [अनु०] १. दबकर मरमराना। दबाव के नीचे पड़कर टूटना। दबना। उ०— सुनत ही सौतिन करेजा करकन लाग्यो मरकन लाग्यो मान भवन मन हारयो सो।— देव (शब्द०)। २. दे० 'मुरकना'। उ०— कंटवासी बसवारिन को रकबा जहँ मरकत। बीच बीच कंटकित वृक्ष जाके बढ़ि लरकत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ९।
⋙ मरकहा †
वि० [हि० मारना=हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० मरकही] सींग से मारनेवाला। जो सींग से बहुत मारता हो (पशु)। उ०— मरकहा बैल रात दिन फूँ फूँ किया करता है।—भारतेंदु ग्रं, भा०, १, पृ० ५५९। २. किसी को मारने पीटनेवाला (क्व०)।
⋙ मरकाना
क्रि० सं० [हि० मरकना] १. दबाकर चूर करना। इतना दबाना कि मरमराहट का शब्द उत्पन्न हो। तोड़ना। उ०— यो राहत कूँ दुनियाँ के मरकान कर, ल्या राखी पग तलैं आनकर।—दक्खिनी०, पृ० १४६। २. दे० 'मुड़काना'।
⋙ मरकूम
वि० [अ० मरक़ूम] [वि० स्त्री० मरकूमा] लिखित। लिखा हुआ। उ०— जो कुछ कि कजा काजी में मरकूम हुआ है।— कबीर मं०, पृ० १४१।
⋙ मरकोटी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मिठाई।
⋙ मरक्कत पु
संज्ञा पुं० [सं० मरकत] दे० 'मरकत'। उ०— मानी मरक्कत सैल बिसाल में फैलि चली बर बीर बहूटी।—तुलसी ग्रं०, पृ० १९५।
⋙ मरखंड़ा ‡
वि० [हि० मारना] दे० 'मरखन्ना'।
⋙ मरखन्ना †
वि० [हि० मारना + न्ना (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० मरखन्नी] सींग से मारनेवाला। मरकहा (पशु)।
⋙ मरखम
संज्ञा पुं० [हि० मल्लखंभ] वह खूँटा जो कातर में गाड़ा रहता है।
⋙ मरगजा पु † (१)
वि० [हि० मलना + गींजना] [वि० स्त्री० मरगजी] मला दला। मसला हुआ। गींजा हुआ। मलित दलित। उ०— (क) सब अरगज मरगज भा लोचन पीत सरोज। सत्य कहहु पद्मावत सखी परी सब खोज।—जायसी (शब्द०)। (ख) धर पठई प्यारी अंक भरि। कर अपने मुख परसि त्रिया के प्रेम सहित दोऊ भुज धरि धरि। सँग सुख लूटि हरष भई हिरदय चली भवन भामिनि गजगति ढरि। अँग मरगजी पटोरी राजति छबि निरखत ठाढ़े ठाढ़े हरि।— सूर (शब्द०)। (ग) तुम सौतिन देखत दई अपने हिय ते लाल। फिरत सबत में ड़हडही डहै मरगजी भाल।— बिहारी (शब्द०)। (घ) अटपटे भूषन मरगजी सारी, बंदन परसों भाल सों।— छीत०, ७१। मरगजी सारी, वंदन परस्यौ भाल सों।— छीत०, पृ० ७१।
⋙ मरगजा (२)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मलगजा (२)'।
⋙ मरगी ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० मरना, मि०, फा० मर्ग] फैलनेवाला रोग। मरक। मरी।
⋙ मरगोल
संज्ञा पुं० [अं० मरगोल] गाने में ली जानेवाली गिटकिरी। स्वरःकंपन। (संगीत)। क्रि० प्र०—भरना।—लेना।
⋙ मरगोलना पु †
क्रि० अ० [हि० मरगोल] सुदर स्वर में बोलना। गिटकिरी लेते हुए बोलना। उ०—सुआ.....देखा एकस के हाथ में। जो मरगोलता है वो हर बात में।—दक्खिनी०, पृ० ७८।
⋙ मरगोला
संज्ञा पुं० [अं० मरगोला] दे० 'मरगोल'।
⋙ मरघट (१)
संज्ञा पुं० [हि० मर(=मृत्यु)+घाट] वह घाट या स्थान जहाँ मुर्दें फूंके जाति हैं। मुर्दों को जलाने की जगह। स्मशान घाट। मसान। उ०—(क) जा घर साधु न सेवइ पारब्रह्म पात नाहिं। ते धर मरघट सारिखा भूत बसे ता महिं।—कबीर (शब्द०)। (ख) हरिश्चंद्र का पुत्र रोहित मर गया। उस मृतक को ले रानी मरघच गई ।— लल्लू (शब्द०)। मुहा०—मरघट का भुतना= प्रेत।
⋙ मरघट (२)
वि० १. बहुत ही कुरूप और विकराल आकृति का। कुरूप। २. जो सदा उदास रहता हो। मनहूस। रोना। ३. चेष्टाहीन। निष्क्रिय।
⋙ मरचा
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मिरचा'।
⋙ मरचूबा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मरचोवा'। उ०— मरचूबा सितबर से नवंबर तक बोते हैं।—कृषि०, पृ० २३६।
⋙ मरचोवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की तरकारी जिसका व्यवहार योरप में अधिकता से होता है।
⋙ मरज
संज्ञा पुं० [अं० मर्ज] १. रोग। बीमारी। उ०—(क) आली कछू की कछू उपचार करै पै न पाई सकै मरजै री।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) नेह तरजनि बिरहागि सरजनि सुनि मान मरजनि गरजनि बदरना की।— श्रीपति (शब्द०)। २. बुरी लत। खराब आदत। कुटेव। जैसे,—आपको तो बकने का मरज है। (इस अर्थ में इसका प्रयोग अनुचित बातों के लिये होता है।)
⋙ मरजाद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्य्यादा] १. सीमा। हद। उ०— गुरु नाम है गम्य का शिष्य सीख ले सोय। बिनु पद ई मरजाद बिनु गुरू शिष्य नहिं होय।—कबीर (शब्द०)। (ख) सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिन बदन बखानी।—तुलसी (शब्द०)। २. प्रतिष्ठा। आदर इज्जत। महत्व। उ०—(क) गुरू मरजाद न भक्तिपन नहिं पिय का अधिकार। कहै कबीर व्यभिचारिणी आठ पहर भरतार।—कबीर (शब्द०)।(ख) यह जो अंध वीस हू लोचन छल बल करत आनि मुख हेरी। आइ शृगाल सिंह वलि माँगत यह मरजाद जात प्रभू तेरी।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—खोना।—जाना।—रखना। ३. रीति। परिपाटी। नियम। विधि। उ०—संत संभु श्रीपति अपवादा। सुनिय जहाँ तहँ अस मरजादा।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—मरजादवाला=संमानित व्यक्ति। महान् पुरुष। उ०— लाज जो उतारता है मरजादवालों की।—अपरा०, पृ० ८४।
⋙ मरजादा
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्यादा] दे० 'मरजाद'। उ०— करति न लाज हाट घर बर की कुछ मरजादा जाति डगी सी। भारतेंदु ग्रं०, भा०,१, पृ० ४६२।
⋙ मरजादि पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० मरजादा] दे० 'मर्यादा'। उ०— होइ सुधाता सब्द सम, समझौ कवि मरजादि।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५३१।
⋙ मरजिया (१)
वि० [हि० मरना+जीना] १. मरकत जीनेवाला। जो मरने से बचा हो। उ०— (क) तस राजै रानी कँठ लाई पिय मरजिया नारि जनु पाई।—जायसी (शब्द०)। २. मृतप्राय। जो मरने के समीप हो। मरणासन्न। उ०—पद्मावति जो पावा पीऊ। जनु मरजिये परा तनु जीऊ।—जायसी (शब्द०)। ३. जो प्राण देने पर उतारू हो। मरनेवाला। उ०— अव यह कौन पानि मैं पोया। भै तनु पाँख पतंग मरजीया।—जायासी (शब्द०)। ४. बधमरा। उ०—जहँ अस परी समुँद नग दीया। तेहि किम जिया चहँ मरजीया।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मरजिया (२)
संज्ञा पुं० जो पानी में ड़ूबकर उसके भोतर से चीजों को निकालता है। समुद्र में ड़ूबकर उसके भीतर से मोती आदि निकालनेवाला। जिवकिया। उ०—(क) जस मरजिया समुँद धँसि मारे हाथ आल तब सीप। ढूँढि लेहु जो स्वर्ग दुआरे चढे सो सिंहल दीप।—जायसी (शब्द०) (ख) कविता चेला विधि गुरू सीप सेवातो बुंद। तेहि मानुष की आस का जो मरजिया समुंद्र।—जायसी (शब्द०)। (ग) तन समुद्र मन मरजिया एक बार धँसि लेइ। की लाल लै नीकसे को लालच जिउ देइ।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मरजी
संज्ञा स्त्री० [अं० मर्जी] १. इच्छा। कामना। चाह। उ०—(क) बरजी हमैं और सुनाइवे को कहि तोष लख्यो सिगरी मरजी।—तोप (शब्द०)। (ख) दरजी किते तिते धन गरजी। व्योंतहि पटु पट जिमि नृप मरजी।—गोपाल (शब्द०)। २. प्रसन्नता। खुशी। ३. आज्ञा। स्वीकृति। उ०—(क) वा विधि साँबरे रावरे की न मिली मरजी न मजा । न मजाखै।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) इनकी सबकी मरजी करिकै अपने मन को समुझावने है।—ठाकुर (शब्द०)। (ग) मरजी जो उठी पिय की सुधि लै चपला चमकै न रहै बरजी।—(शब्द०)।
⋙ मरजीवा
संज्ञा पुं० [हि० मरना+जीना] दे० 'मरजिया (२)'। उ०— मोती उपजे सीप में सीप समुदंर माहिं। कोइ मरजिवा काढ़ेसी जीवन की गम नाहिं।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मरज्याद पु
संज्ञा पुं० [हि० मर्य्याद] दे० 'मरजाद'। उ०— मिले रांज मंझ मरज्याद छुट्टी। उमा सत्त सामंत की सक्ति षुट्टी।— पृ० रा०, १२ २७८।
⋙ मरट पु †
संज्ञा पुं० [सं० मरत(=मृत्यु)] मौत। मृत्यु। उ०—धार मुरै मुख ना मुरै मरट मुच्छ क्रत जोह।—पृ० रा०, २५। ४४३।
⋙ मरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरने का भाव। मृत्यु मौत। २. वत्सनाभ। बछनाग। ३. कुंडली में आठवाँ स्थान (को०)। ४. बंद होना। रुक जाना। समाप्त होना। जैसे, वर्षा का।
⋙ मरणधर्मा
वि० [सं० मरणधर्मन्] मरणशील। मरणस्वभाव। जो मरता हो।
⋙ मरणशील
वि० [सं०] दे० मरणाधर्मा।
⋙ मरणशीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरणधर्मिता। मरने का भाव।
⋙ मरणांत मरणांतक
वि० [सं० मरणान्त, मरणान्तक] जिसकी समाप्ति मृत्यु हो। अंत में जिसमें मृत्यु प्राप्त हो [को०]।
⋙ मरणाशंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीघ्र मरने की इच्छा। जल्दी मरने की कामना। (जैन)।
⋙ मरणाशौच
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्धक। किसी की मृत्यु होने पर परिवार तथा जातिबंधु को लगनेवाला अशौच।
⋙ मरणीय
वि० [सं०] मरणशील। मरणधर्मा [को०]।
⋙ मरणोन्मुख
वि० [सं०] जो मृत्यु के निकट हो। जिसकी मृत्यु आ गई हो [को०]।
⋙ मरत पु
संज्ञा पुं० [सं०?] मरण। मृत्यु। मौत।
⋙ मरतबा
संज्ञा पुं० [अ० मरतबह्] १. पद। पदवी। ओहदा। क्रि० प्र०—पाना।—बढ़ना।—बढ़ाना।—मिलाना। २. बार। दफा। जैसे,— मैं आपके घर कई मरतवा गया था।
⋙ मरतबान
संज्ञा पुं० [सं० मृदभाण्ड़] दे० 'अमृतवान'।
⋙ मरद पु
संज्ञा पुं० [फा० मर्द] दे० 'मर्द'। उ०— अर्थ धर्म काम मोक्ष वसत बिलोकनि में कासी करामात जोगी जागता मरद की।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मरदई ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० मर्द + ई (प्रत्य०)] १. मनुष्यत्व। आदमीयत। २. साहस। ३. वीरता। बहादुरी। क्रि० प्र०—करना।—दिखाना।
⋙ मरदन पु
संज्ञा पुं० [सं० मर्दन] दे० 'मर्दन'।
⋙ मरदना पु
क्रि० सं० [सं० मर्दन] १. मसलना। मर्दन करना। मलना। उ०—(क) अति करहि उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा।— तुलसी (शब्द०)। (ख) पदन मरदि मद सदन शत्रु सुर लोक पठावत।—गोपाल (शब्द०)। २. ध्वंस करना। चूर्ण करना। उ०—अमल कमल कुल कलित ललित गति बेलि सों बलित मधु माधवी को पानिए। मृगमद मरदि कपूर धूरि चूरि पग केसरि को केशव विलास पहिचानिए।— केशव (शब्द०)। ३. माड़ना। गूँधना। जैसे, आटा मरदना।
⋙ मरदनिया †
संज्ञा पुं० [हि० मर्दाना] वह पुष्टतनु भृत्य जो बड़े आदमियों के अंग में तेल आदि मला करता है। शरीर में तेल मलनेवाला सेवक। उ०— लिए तेल मरदनियाँ आए। उबटि सुगंध चुपरि अन्हवाए।— लल्लू (शब्द०)।
⋙ मरदाँन पु
वि० [फा० मर्दानह्] दे० 'मरदाना'। उ— जहँ मंगद मरदाँन कन्ह तहँ जानि नाग भुअ। मिले तक्कि तरवार झरि उम्भारि सीस दुअ।— पृ० रा०, ८। ५८।
⋙ मरदानगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वीरता। शूरता। शौर्य। उ०—काम इहै मरदानगी कौ आन परै सु लिए बहने हैं।—ठाकुर०, पृ० ३१। २. साहस। क्रि० प्र०—दिखाना।
⋙ मरदाना (१)
वि० [फा० मरगदानह्] [वि० स्त्री० मरदानी] १. पुरुष संबंधी। पुरुषों का। जैसे, मरदानी बैठक। २. पुरुषों का सा। जैसे, मरदाना भेस,। ३. वीरेचित। जैसे, मरदाना काम। ४. बहादुर। जवाँमर्द।
⋙ मरदाना ‡ (२)
क्रि० अ० [हिं० मरद] साहस करना। वीरता दिखाना।
⋙ मरदुआ †
संज्ञा पुं० [फा० मर्द] १. मर्द बननेवाला। झूठा या दिखावटी मर्द। तुच्छ आदमी। कायर। उ०— बाहरे बाहरे मरदुए, कुरबान जाऊँ तेरे ईमान पर।— रंगभूमि, भा० २, पृ० ६९२। २. अपरिचित व्यक्ति। गैर आदमी। ३. खाविंद। पति (स्त्रि०)।
⋙ मरदूद
वि० [अ०] १. तिरस्कृत। २. लुच्चा। नीच। उ०— मरदूद तुझे मरना सही। काइम अलक करके कही।—तुरसी श०, पृ० २४।
⋙ मरद्द पु
संज्ञा पुं० [फा० मर्द] दे० 'मर्द'। उ०— सजे संग चंद पुँडरी मरद्द।—प० रासो०, पृ० ७५।
⋙ मरन
संज्ञा पुं० [सं० मरण] दे० 'मरण'। उ०—(क) अब भा मरन सत्य हम जाना।— मानस, ४। २७। (ख) मरन भएउ कछु संसय नाहीं।—मानस, ४। २६। यौ०—मरनपुर=मृत्युलोक। मर्त्यलोक। उ०— हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २०१।
⋙ मरना
क्रि० अ० [सं० मरण] १. प्राणियों या वनस्पितियों के शरीर में ऐसा विकार होना जिससे उनकी सब शारीरिक क्रियाएं बंद हा जायँ। मृत्यु को प्राप्त होना। उ०—(क) साई यों मत जानियो प्रीति घटें मम चित्त। मरूं तो तुम सुमिरत मरूं जीवन सुमिरों नित्त।—कबीर (शब्द०)। (ख) कर गहि खंग तीर बध करिहौं सुनि मारिच डर मान्यो। रामचंद्र के हाथ मरूँगी परम पुरुष फल जान्यो।—सूर (शब्द०)। (ग) लघु आनन उत्तर देत बड़े लरिहैं मरिहैं करिहैं कछु साके।— तुलसी (शब्द०)। (घ) मरिबे को साहस कियो बढ़ा बिरह की पीर। दौरति ह्वै समुहै ससी सरसिज सुरभि समीर।— बिहारी (शब्द०)। (ड़) मरल गौ कई बार जियाया।—कबीर सा०, पृ० १५११। मुहा०—मरना जीना=शादी गमी। शुभाशुभ अवसर। सुख दुःख। मनने की छुट्टी न होना या न मिलना=बिलकुल छुट्टी न मिलना। अवकाश का अभाव होना। दिन रात कार्य में फँसा होना। मरता क्या न करता=जीवन से निराश व्यक्ति का सब कुछ करने को तैयार हो जाना। पराजय या असफलता को जान लेनेवाले व्यक्ति का सब कुछ करने को तैयार होना। मरते गिरते=किसी तरह। गिरते पड़ते। मरते जीते=दे० 'मरते गिरते'। मरते दम तक=दे० 'मरते मरते'। मरते मरते'=आखिरी दम तक। अँतिम समय़ तक। मरा सा= अत्यंत दुर्बल। क्षीणाकाय। मरे या मरते को मारना=पीड़ित को और पीड़ा पहुँचाना। उ०— मरे की मारे शाह मदार (बोल०)। २. बहुत अधिक कष्ट उठाना। बहुत दुःख सहना। पचना। उ०— (क) एक बार मरि मिलैं जो आए। दूसरा वार मरै कित जाए।—जायसी (शब्द०)। (ख) तुलसी भरोसी न भवेस भोरानाथ को तो कोटिक कलेस करो मरो छार छानि सो।— तुलसी (शब्द०)। (ग) तुलसी तेहि सेवत कौन मरैं, रज ते लधु को करै मेरु से भारै।—तुलसी (शब्द०)। (घ) कठिन दुहूँ विधि दीप को सुन हो मोत सुजान। सब निसि बिनु् देखे जरे मरै लखै मुख भान।—रसनिधि (शब्द०)। मुहा०—किसी के लिये मरना=हैराना होना। कष्ट सहना। किसी पर मरना =लुब्ध होना। आसक्त होना। मर पचना= अत्यंत कष्ट सहना। मर मरकर=बहुत अधिक कष्ट उठाकर। उ०—२३ मील पहाड़ी यात्रा थी, किंतु कल तो मर मरकर मै पैदल ही २१ मील चला आया था।— किन्नर०, पृ० ३४। किसी की बात पर मरना या किसी बात के लिये मरना= दुःख सहना। मर मिटना=श्रम करते करते विनष्ट हो जाना। उ०— सबने मर मिटने की ठान ली थी।—इन्शा (शब्द०)। मरा जाना=(१) व्याकुल होना। व्यग्र होना। जैसे,—सूद देते देते किसान मरे जाते हैं। (२) उत्सुक होना। उतावली करना। ३. मुरझाना। कुम्हलाना। सूखना। जैसे, पान का मरना, फल का मरना। ४. मृतक के समान हो जाना। लज्जा संकोच या घृणा आदि के कारण सिर न उठा सकना। उ०— (क) यहि लाज मरियत ताहि तुम सों भयो नातो नाथ जू। अब और मुख निरखै न ज्यों त्यों राखिए रधुनाथ जू।—केशव (शब्द०)। (ख) तब सुधि पदुमावति मन भई। सँवरि बिछोह मुरछि मरि गइ।—जायसी (शब्द०)। ५. किसी पदार्थ का किसी विकार के कारण काम का न रह जाना। जैसे, आग का मरना, चूने का मरना, सुहागा मरना, धूल मरना। मुहा०—पानी मरना=(१) पानी का दीवार या दीवार की नींव में धँसना। (२) किसी के सिर कोई कलंक आना। उ०— पुनि पुनि पानि बहीं ठाँ मरै। फेर न निकसे जो तहँ परै।— जायसी (शब्द०)। ६. खेल में किसी गोटी या लड़के का खेल के नियमानुसार किसी कारण से खेल से अलग किया जाना। जैसे, गौटी का मरना, गोइयाँ का मरना, इत्यादि। ७. किसी बेग का शांत होना। दबना। जैसे, भूख का मरना। प्यास का मरना, चुल्ल का मरना, पित्त का मरना इत्यादि। उ०— मुँह मोर मोरे ना मरति रिसि केशवदास मारहु धौं कहे कमल समान सोँ।—केशव (शब्द०)। ८. ड़ाह करना। जलना। ९. झंखना। झनखना। पछताना। रोना। १९. हारना। वशीभूत होना। परिजित होना। उ०—तू मन नाथ मार के स्वाँसा। जो पै मरहि आप करनासा। चरिहु लोक चार कह वाता। गुप्त लाव मन जो सो राता।— जायसी (शब्द०)। ११. भस्म होना। कुश्ता होना। जैसे, धातु, आदि का मरना। १२. डूब जाना। प्राप्ति या बसूली की आशा न रह जाना। जैसे, बकाया या पावना आदि।
⋙ मरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मरनी'।
⋙ मरनी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० मरना] १. मृत्यु। मौत। २. दुःख। कष्ट। हैरानी। उ०—सुनि योगी की अम्मर करनी। न्योरी विरह विथा की मरनी।—जायसी (शब्द०)। ३. वह शोक जो किसी के मरने पर उसके संबंधियों को होता है। ४. वह कृत्य जो किसी के मरने पर उसके संबंधी लोग करते हैं। यौ०—मरनी करनी=मृत्यु और मृतक की अंत्येष्टि क्रिया।
⋙ मरबुली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कंद जो पहाड़ी प्रदेशों में उत्पन्न होता है। विशेष—इसके टुकड़े गज गज भर कै गड्ढे खोदकर बोए जाते हैं। बोवाई सदा हो सकती है; पर गर्मि के दिनों में इसमें पानी देने की आवश्यकता होती है। यह दो प्रकार की होती है— मीठी और तीक्ष्ण या गला काटनेवाली। दोनों से तीखुर बनाया जाता है। इसकी जड़ को आलू या कंद भी कहते हैं। कंद को धोकर उसके लच्छे बनाते हैं। फिर लच्छे को दबाकर या कुचलकर रस निकालते हैं जिसे सुखाकर सत्त बनता है जो तीखुर कहलाता है। रस निकले हुए खोइए को भी मुखा और पीसकर कोका के नाम में बेचते है। इसकी खेती पहाड़ों में अधिकता से होता हैं।
⋙ मरभख
संज्ञा पुं० [देश०] वह जो सदैव खाने के लिये लालायत रहता है।
⋙ मरभुक्खा
वि० [हि० मरना + भूखा] १. भूख का मारा हुआ। भुक्खड़। २. कंगाल। द्ररिद्र।
⋙ मरभूखा
संज्ञा पुं० [हि० मरना + भूख] भूक्खड़। भूखमरा। उ०— न जाने कहाँ के मरभूखे जमा हो गए हैं।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ४९८।
⋙ मरमँनि ‡
वि० [सं० मर्म] मर्मवाली। दुखियारी। उ०—मरमँनि, सोइ रे चादर ताँनि, माइलि बोले बोलने भावज बोले बोलने।—पोद्दार अभि०, ग्रं० पृ०, ९२७।
⋙ मरम
संज्ञा पुं० [सं० मर्म] दे० 'मर्म'। उ०—जिय को मरम तुम साफ कहत किन काहि फिरत मँड़राए हो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४५।
⋙ मरमती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। विशेष— इस वृक्ष की लकड़ी कड़ी और बहुत टिकाऊ होती है तथा खेती के औजार और घर के सँगहे आदि बनाने के काम आती है। यह पेड़ छोटा होता है और भारतवर्ष के प्रायः सभी भागों में मिलता है। यह बीजों से उत्पन्न होता है।
⋙ मरमर
संज्ञा पुं० [यू०] एक प्रकार का दानेदार चिकना पत्थर जिसपर घोटने से अच्छी चमक आती है। विशेष—इसमें चूने का अंश अधिक होता है और इसे जलाने से अच्छी कली निकलती है। यद्यपि संसार के भिन्न भिन्न प्रदेशों में अनेक रंगों के मरमर मिलते हैं, पर सफेद रंग के मरमर ही को लोग विशेषकर मरमर या 'संग मरमर' कहते हैं। जो मरमर काला होता है, उसे 'संग मूसा' कहते है। मरमर पत्थर की, मूर्तियाँ खिलौने, बरतन आदि बनाए जाते हैं और उसकी पटिया और ढोके मकान बनाने में भी काम आते हैं। अच्छा मरमर इटली से आता है; पर भारतवर्ष में भी यह जोधपुर, जयपुर कृष्णगढ़ और जबलपुर आदि स्थानों में मिलता है।
⋙ मरमर ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हि० मल या अनु०] वह पानी जो थोड़ा खारा हो।
⋙ मरमरा (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] एक पक्षी का नाम।
⋙ मरमरा (३)
वि० जो० सहज में टूट जाय। जरा सा दबाने पर मर मर शब्द करके टूट जानेवाला।
⋙ मरमराना
क्रि० अ० [अनु० तुल सं० मडमडायिता] १. मरमर शब्द करना। २. अधिक दबाव पाकर पेड़ की शाखा या लकड़ी आदि का मरमर शब्द करके दबाना। उ०— भयो भूरि भार धरा चलत जरा कुमार करत चिकार चार दिग्गज सहित सोग। गिरिधरदास भूमि मंडल मरमरात अति घबरात से परात हैं दिसन लोग। परम बिसेल भार सहि ना सकत सेस एक सिर ब्रह्म अंड सहस धरन जोग। लटकि लटकि सीस झटकि झटकि चित्त अटकि अटकि डारै पटकि पटकि भाँग।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मरमराहट
संज्ञा स्त्री० [हि० मरमराना] १. किसी लकड़ी या शाखा के टूटने का शब्द। चरमराहट। २. धीमी धीमी आवाज। सूखे पत्ते आदि के पैरौं से दबने की ध्वनि। ३. ‡ असंतोष प्रकट करने की क्रिया। भुनभुनाहट।
⋙ मरमा पु
संज्ञा पुं० [सं० मर्म] दे० 'मर्म'। उ०— घायल भए नाद के लागे मरना है सबद कटारी हो।—पल्टू०, भा० ३, पृ० ८४।
⋙ मरमिन पु
वि० स्त्री० [सं० मर्म] मरमवाली। दुखियारी। दे० 'मर्मी'। उ०— एक नारि दूजे मरमिन ह्वै कित दुख मैं झोंकै री। 'हरीचंद' कहवाद सुधर क्यों बढ़वति सोकै री।—भारतेंदु ग्र०, भा० २, पृ० ३८२।
⋙ मरमी पु †
वि० [सं० मर्मिन्] रहस्य जाननेवाला। उ०—सस्त्री मरमी प्रभु सठ बनी। बैद बंदि कवि भानस गुनी।—मानस, ३। २०।
⋙ मरम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० मर्म] दे० 'मर्म'। उ०—मरम्मय सुद्धय विद्धय सेल।—प०, रासो, पृ० ४२।
⋙ मरम्मत
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी वस्तु के टूटे फूटे अंगों को ठीक करने की क्रिया या भाव। दुरुस्ती। जीर्णाद्धार। जैसे, मकान की मरम्मत, घड़ी की मरम्मत।मुहा०—मरम्मत करना=(१) टूटे फूटे अंशों को दुरुस्त करना या सँवारना। (२) पीटना। ठोंकना। मारना।
⋙ मरयाद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्य्यादा] दे० 'मर्यादा'। उ०— रहा मरयाद बोले तुम हमेशा, करेगा फज्ल सूँ ई बात आगह।—दक्खिनी०, पृ० ११६।
⋙ मरल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली। यह दो हाथ तक लंबी होती है और दलदलों या ऐसे तालाबों में पाई जाती है जिसमें घास फूस अधिक उगता है।
⋙ मरल पु (२)
वि० [हि० मरना का भोजपुरी रूप 'मृत'] मृत। मरा हुआ। उ०— मरल गो कई बार जियाया। बहुतक अचरज तिन दिखलाया।—कबीर सा०, पृ० १५११।
⋙ मरवट (१) †
संज्ञा स्त्री० [हि० मरना] वह माफी जमीन जो किसी के मारे जाने पर उसके लड़के वालों को दी जाती है।
⋙ मरवट (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पटुए की कच्ची छाल जो निकालकर सुखाई गई हो। सन का उलटा।
⋙ मरवट (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० मलपट] वे लकीरें जो रामलीला आदि के पात्रों के गालों पर चंदन या रंग आदि से बनाई जाती है। उ०— घँघरी लाल जरकसी सारी सोंधे भीनी चोली जू, मरवट मुख पै शिर पै भैरी मेरी दुलहिया भोली जू।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४६।
⋙ मरवा
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मरुआ'।
⋙ मरवाना
क्रि० सं० [हि० मारना का प्रे० रूप] १. मारने का प्रेरणार्थक रूप। मारने के लिये प्रेरणा करना। २. वध कराना। संयो० क्रि०—डालना। ३. दे० 'मराना'।
⋙ मरसा
संज्ञा पुं० [सं० मरिय] एक प्रकार का साग जिसकी पत्तियाँ गोल झुर्रिदार और कोमल होती हैं। उ०— मरसा (लाल साग) के बड़े बड़े पत्तों को देखकर मुह से लार टपकती है।— किन्नर०, पृ० ७०। विशेष— इसके पेड़ तीन चार हाथ तक ऊचें होते हैं। इसके डंठलों और पत्तियोँ या साग पकाकर लोग खाते हैं। मरसा दो प्रकार का होता है। एक लाल और दूसरा सफेद। लाल मरसा खाने में अधिक स्वादिष्ट होता है। मरसा बरसात के दिनों में बोया जाता है और भादों कुआर तक इसका साग खाने योग्य होता है। पूरी बाढ़ के पहुँचने पर इसके सिरे पर एक मंजरी निकलती है जो एक बालिश्त से एक हाथ तक लंबी होती है। उस समय इसके ड़ंठल और पत्तियाँ भी कड़ी हो जाती हैं और देर तक पकाई जाने पर कठिनाई से गलती हैं। मंजरी में सफेद सफेद छोटे फूल लगते हैं और फूलों के मुरझा जाने पर बीज पड़ते हैं। बीज छोटे, गोल, चिपटे और चमकीले काले रंग के होते हैं। यह बीज ओषधि में काम आति हैँ। वैद्यक में इसके स्वाद को मधुर, इसकी प्रकृति शीतल और गुण रक्तपित्तनाशक, वातकफवर्धक और विष्टंभकारक लिखा है; और लाल मरसे को हल्का, चरपरा और सारक बताया गया है।
⋙ मरसिया
संज्ञा पुं० [अ०] १. शोकसूचक कविता जो किसी की मुत्यु के संबंध मे बनाई जाती है। यह उर्दू भाषा में अनेक छंदों में लिखी जाती है। इसमें किसी के मरने की घटना और उसके गुणों का ऐसे प्रभावोत्पादक शब्दों में वर्णन् किया जाता है जिसस सुननेवालों में शाके उत्पन्न हो। ऐसी कविता प्रायः मुहर्रम के दिनों में पढ़ी जाती है। उ०— इसे कजली क्यों, मरसिया कहना चाहिए।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६२। क्रि० प्र०—पढ़ना।—लिखना।—सुनाना। २. सियापा। मरणशोक। रोना पीटना। क्रि० प्र०—पड़ना। यौ०—मरसियाख्वाँ=मरसिया पढ़नेवाला। मरासियाख्वानी= मरसिया पढ़ने का कार्य। मरसिया पढ़ना।
⋙ मरहट पु † (१)
संज्ञा पुं० [हि० मरघट] मसान। मरघट। उ०— कबिरा मंदिर आपन नित उठि करता आलि। मरहट देखी डरपता चोडे दीया जालि।— कबीर (शब्द०)।
⋙ मरहट पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] मोठ। उ०— मूंग माख मरहट की पहिती चनक कनक सम दारी जी।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ मरहटा
संज्ञा पुं० [सं० महाराष्ट्र] १. महाराष्ट्र देश का रहनेवाला। मरहठा। २. उन् तीस मत्राओं के एक मात्रिक छंद का नाम जिसमें १०, ८ और १२ पर विश्राम होता है तथा अंत में एक गुरु और लघु होता है। उ०— अति उच्च अगारनि बनी पगारानि जनु चिंतामणी नारी। बहुसत मख धूपनि घूपित अंगनि हारि की सी अनुहारि। चित्रा बहु चित्रान परम विचि- त्रिनि केशवदास निहारि। जनु विश्वरूप को विमल आरसी रचो विरंचि विचारि।— केशव (शब्द०)।
⋙ मरहटी
संज्ञा स्त्री [हि० महाराष्ट्री० प्रा० मरहट्टी, मरहठी] मराराष्ट्र की भाषा। मराठा। मरहट्टी। उ०—हिंदुस्तान में हिंदी, उर्दु, ब्रज, मारवाड़ी, मरहटी, गुजराती आदि अनेक भाषा बोली जाती है।— श्रीनिवास ग्र०, पृ० ९।
⋙ मरहठ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० महाराष्ट्र, प्रा० मरहट्ट, मरहठ] मरहठा। महाराष्ट्रीय। उ०— नाहन उधर गूढ़ न एसे। मरहठ देस बधू कुच जैसे।— नंद ग्रं०, पृ० ११८।
⋙ मरहठ † (२)
संज्ञा पुं० [हि० मरघट] [वि० मरहठी] मरघट। श्मशान। उ०— फाका फरी ज्ञान का गदका बाधों मरहठ बाना।—कबीर श०, भा० १, पृ० ३८।
⋙ मरहठा
संज्ञा पुं० [सं० महाराष्ट्र प्रा० मरहट्ठ] [स्त्री० मरहठिन] महाराष्ट्र देश का रहनेवाला। महाराष्ट्र। विशेष दे० 'महाराष्ट्र'।
⋙ मरहठी (१)
वि० [हि० मरहठा] महाराष्ट्र या मरहठों से संबंध रखनेवाला। मरहठों का। जैसे, मरहठी कपड़ा, मरहठो चाल।
⋙ मरहठी (२)
संज्ञा स्त्री० वह भाष जो महाराष्ट्र देश में बोली जाती है। मरहठों की बोली। मराठी।
⋙ मरहबा
संज्ञा स्त्री० [अ० मर्हबह्] धन्य। बहुत खूब। साधु। शाबास [को०]।
⋙ मरहम
संज्ञा पुं० [अ०] औषधियों का वह गाढ़ा और चिकना लेप जो घाव पर उसे भरने के लिये अथवा पीड़ित स्थानों पर लगाया जाता है। उ०— मसजिद लखि बिसुनाथ ढिग परे हिये जो घाव। ता कहँ मरहम सरिस यह तुव दरसन नर- राव।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६९९। क्रि० प्र०—लगाना। यौ०—मरहम पट्टी =(१) आघात की चिकित्सा। घाव पर मरहम और पट्टी लगाना। (२) किसी जीर्ण पदार्थ की थोड़ी बहुत मरम्मत।
⋙ मरहमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अनुग्रह। दया। कृपा। २. नजर। उपहार। भेंट [को०]।
⋙ मरहला
संज्ञा पुं० [अ० मरहलह्] १. वह स्थान जहाँ यात्री रात के समय ठहर जाते है। टिकान। मंजिल। पड़ाव। २. दिन भर की या १२ मील की यात्रा। लंबी यात्रा। ३. किले के चारों और के गुंबद या ऊँचा स्थान जहाँ से निगरानी और संघर्ष किया जाया (को०)। ४. झमेला। कठिन या मुश्किल काम। ५. झोपड़ी। ६. दर्जा। मरातिब। मुहा०—मरहला तय करना=झमेला निबटाना। कठिन काम पूरा करना। मरहला पड़ना या मचना=झमेला पड़ना। कठिनता। उपस्थित होना। मरहला ड़ालना=झगड़ा खड़ा करना। यौ०—मरहलेदार=यात्रामार्ग की देखरेख करनेवाला।
⋙ मरहून
वि० [अ०] जो रेहन किया हो। गिरों रखा हुआ।(कच०)। उ०— कहे तूँ झूठ क्यूँ बोला है सपना। पिदर कूँ तूँ कर्या मरहुन अपना।—दक्खिनी०, पृ० ३३९।
⋙ मरहुना
वि० [फा०] जो रेहन किया गया हो। जो गिरों रखा गया हो। जसे, जायदाद मरहुना।(कच०)।
⋙ मरहूम
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मरहूमा] १. स्वर्गवासी। मृत। विशेष— इस शब्द का प्रयोग किसी आदरणीय मृत व्यक्ति की चर्चा करते हुए उसके नाम के अंत में किया जाता है। २. क्षमा किया हुआ (को०)।
⋙ मराठा
संज्ञा पुं० [सं० महाराष्ट्र, प्रा० मरहटट्] महाराष्ट्र देश का निवासी। महाराष्ट्रीय।
⋙ मराठी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० महाराष्ट्र] महाराष्ट्र की भाषा। महाराष्ट्री। मराठी भाषा।
⋙ मराठी (२)
वि० महाराष्ट्र से संबंधित। महाराष्ट्रीय।
⋙ मरातिब
संज्ञा पुं० [अ०] १. दरजा। पद। २. उत्तरोत्तर आनेवाली अवस्थाएँ। मुहा०—मरातिब तै करना=किसी विषय के सारे झगड़ा का निबटेरा करना। ३. पृष्ठ। तह। ४. मकान का खंड। तल्ला। उ०— अति उतंग सुंदर शशिशाला सात मरातिबवारे।—रघुनाथ (शब्द०)। ५. ध्वजा। झंडा। उ०— जामवंत हनुमंत नल नील मरतिब साथ। छरी छबीली शीभिजै दिक्पालन के हाथ।— केशव (शब्द०)। यौ०— माही मरातिब=एक प्रकार की ध्वजा जो मुसलमान राजाओं की सवारी के आगे हाथियों पर चलती है। ये ध्वजाएँ संख्या या प्रकार में सात होती हैं, जिनपर क्रमशः सूर्य, पंजा, तुला, नाग, मछली, गोल तथा सूर्यमुखी के चिह्न होते हैं।
⋙ मराना
क्रि० सं० [हि० मारना का प्रे० रूप] १. मारने के लिये प्रेरणा करना। मरवाना। उ०— (क) पिता तुम्हार राज कर भोगी। पूजै विप्र मरावै जोगी।—जायसी (शब्द०)। (ख) पंच कहै सिव सती विवाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही।— तुलसी (शब्द०)। २. किसी को अपने ऊपर आघात करने के लिये प्रेरणा करना या करने देना। ३. गुदाभंजन कराना। (बाजारू)।
⋙ मराय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकाह यज्ञ। २. एक प्रकार का साम।
⋙ मरायल पु †
वि० [हि० मारना+आयल (प्रत्य०)] १. जो किसी से कई बार मार खा चुका हो। पीटा हुआ। उ०— सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। कहि अस कोपि गगन पथ धायल।—तुलसी (शब्द०)। २. निःसत्व। सत्वहीन। जैसे, मरायल अन्न, मरायल पौधा। ३. मरियल। निर्बल। निर्जीव। ४. घाटा। टोटा। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।
⋙ मरार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] खलिहान।
⋙ मरार † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कोयरी। काछी।
⋙ मराल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मराली] १. एक प्रकार की वत्तख जो हलकी ललाई लिए सफेद रंग की हीती है। २. घोड़ा। ३. हाथी। ४. कारंडव नामक पक्षी। ५. हंस। उ०— सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से।—तुलसी (शब्द०)। ६. अनार की वाटिका। ७. काजल। ८. बादल। ९. दुष्ट। खल।
⋙ मराल (२)
वि० मृदु। कोमल। मुलायम [को०]।
⋙ मरालक
संज्ञा पुं० [सं०] हंस पक्षी [को०]।
⋙ मरालिका
संज्ञा पुं० [सं०] शिकाकाई का पौधा या उसकी फली [को०]।
⋙ मराली पु
वि० [सं० मराल+हि० ई (प्रत्य०)] हंस का। हंस संबंधी। विवेक और ज्ञान का। उ०— मैं पामर गुणहीन कुचाली। तुम्ह दीन्हेउ मोहि पंथ मराली।—कबीर सा० पृ० ४३८।
⋙ मरिंद पु
संज्ञा पुं० [हि०] १. दे० 'मलिंद', 'मिलिंद'। २. दे० 'मरंद'।
⋙ मरिखम
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल+स्तम्भ, हि० मलखंभ] दे० 'मलखंभ'।
⋙ मरिच
संज्ञा पुं० [सं०] मिरिच। काली मिरिच। उ०—पीपरमरिच मंगलिय आनहु। शुंठी हरर बहेर बखानहु।—पं० रासो०, पृ० १७।
⋙ मरिचा
संज्ञा पुं० [सं० मरिच] बड़ी लाल मिरिच। विशेष— दे० 'मिरिच'।
⋙ मरिजीवा पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मरजीवा'। उ०—सुंदर बैठि सकै नहि जीवत दै डुबकी मरिजीवहि जाही।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ७।
⋙ मरियम
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. वह बालिका जिसका विवाह न हुआ हो। कुमारी। कन्या। २. पतिव्रता और साध्वी स्त्री। ३. ईसा मसीह की माता का नाम। विशेष— कहते हैं, इन्हें कौमार अवस्था में ही बिना किसी पुरुष के संयोग के, ईश्वरी माया से, गर्भ रह गया रह था जिससे महात्मा मसीह का जन्म हुआ था।
⋙ मरियम का पंजा
संज्ञा पुं० [अं० मरियम+हि० पंजा] एक प्रकार की सुगंधित वनस्पति जिसका आकार हाथ के पंजे का सा होता है। विशेष— ऐसा प्रसिद्ध है, कि ईसा मसीह की माता मारियम ने प्रसव के समय इस वनस्पति पर हाथ रखा था, जिससे इसका आकार पंजे का सा हो गया। इसी कारण इसके संबंध में यह भी प्रसिद्ध हो गया है कि प्रसव पीड़ा के समय गर्भवती स्त्री के सामने इसे रख देने से पीड़ा शांत हो जाती है और सहज में तथा शीघ्र प्रसव हो जाता है।
⋙ मरियल
वि० [हि० मरना+इयल (प्रत्य०)] बहुत दुर्बल। दुबला और कमजोर। यौ०—मरियल टट्टू=बहुत सुस्त या कमजोर आदमी।
⋙ मारिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० मढ़ना] १. वह रस्सी जो खाट में पायताने की और उंचन लगाकर ऊपर से एक पट्टी से दूसरी पट्टी तक बाने की तरह बाँधी जाती है। २. नाव में वह तख्ता जो उसके पेंदे में गूढ़े के नीचे बेड़े बल में लगा रहता है। मढ़िया।
⋙ मरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना] लोहे कि एक छोटी हथोड़ी जिससे धातुओं पर खुदाई का काम करनेवाले कलम को ठोकते हैं।
⋙ मरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मारी] वह रोग जो स्पर्शदोष से फैलता है और जिसमें एक साथ बहुत से लोग मरते हैं। मारी। उ०— इस ही बीच ईति बिस्तरी। परी आगरे पहिली मरी।— अर्ध, पृ० ५२।
⋙ मरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना] एक प्रकार का भूत। मरही। विशेष—लोगों का विश्वास है कि यह किसी ऐसी दृष्ट स्वभाववाली स्त्री की प्रेतात्मा होती है जो किसी रोग, आघात अथवा किसी अन्य कारणवश पूर्णायु को न पहुँचकर अल्पायु में मरी हो।
⋙ मरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] देशी सागूदाने का पेड़। विशेष— यह भारतवर्ष तथा लंका सिंगापुर आदि द्वीपों में उत्पन्न होता है। यह पेड़ देखने में बहुत मालूम होता है। इससे ताड़ी निकाली जाती है जिसे लोग पीते है और जिससे गुड़ भी बनाते हैं। इसकी कोमल बालों या मंजरी की तरकारी बनाई जाती है। इसके पुराने स्कंध में के गूदे से सागूदाना निकलता है जो पानी में पकाकर खाया जाता है या पीसकर जिसकी रोटियाँ बनाई जाती है; और रेशे से कूंची, ब्रुश, रस्सी और जाल बनाए जाते हैं। इसकी लकड़ी मजबूत और टिकाऊ होती है। इसे भेरवा भी कहते हैं।
⋙ मरीच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मरिच', 'मिरिच' [को०]।
⋙ मरीच पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मारीच] दे० 'मारीच'। उ०—कंचन मृग रूप मरीच कियो, सीता मुख आगल निसरियो।—रघु० रू०, पृ० १३३।
⋙ मरीचि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। विशेष— पुराणों में इन्हे ब्रम्हा का मानसिक पुत्र लिखा है, एक प्रजापति माना है और सप्तर्षियों में गिनाया गया है। किसी किसी पुराण में इनकी स्त्री का नाम 'कला' और किसी किसी में 'संभूति' लिखा है। २. एक मरुत् का नाम। ३. एक ऋषि का नाम जो भृगु के पुत्र और कश्यप के पिता थे। ४. दनु के एक पुत्र का नाम। ५. प्रियव्रतवंशी एक राजा का नाम। ६. एक प्राचीन मान जो छह त्रसरेणु के बराबर होता है। ७. एक दैत्य का नाम। ८. कृष्ण का एक नाम (को०)। ९. एक पुरातन स्मृतिकार का नाम (को०)। १०. कृपण। कदर्य (को०)।
⋙ मरीचि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किरण। उ०— (क) अति सुकुमारी वृषभान की दुलारी सो कैसे सहे प्यारी मरीचै मारचंड की।— सरलाबाई (शब्द०)। (ख) कित्ति सुधा दिग भित्त पखारत चंद मरीचिन को कारि कूचो।—मतिराम (शब्द०)। (ग) रघुनाथ पिय बस करिबे को चली बाल मुख की मरीचि जल दिसि मढ़ि लै लई।— रघुनाथ (शब्द०)। २. प्रभा। कांति। ज्योति। उ०— कीघौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि किधौ रूप की रुचिर रुचि शुचि सों दुराई है।— केशव (शब्द०)। ३. मरीचिका। मृगतृष्णा। उ०— बीच मरीचिनु के मृग लौं अब धावै न रे सुन काहु नरिंद के।— देव (शब्द०)।
⋙ मरीचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृगतृष्णा। सिरोह। २. किरण। उ०— वारिज बरत बिन वारे वारि बारु बीच बीच बीच बीचिका मरीचिका सी छहरी।—देव (शब्द०)। (ख) चहचही सेज चहूँ चहक चमेलिन सों, वोलिन सो मंजु मंजु गुंजन मलिंद जाल। तैसेई मरीचिका दरीचिन के दीबे हो में, छपा की छबीली छबि छहरत तत्काल।— देव (शब्द०) ।
⋙ मरीचिगर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. दक्षसावर्णि मन्वंतर में होनेवाले एक प्रकार के देवताओँ का गण।
⋙ मरीचिगर्भ (२)
वि० प्रकाशकणों से युक्त [को०]।
⋙ मरीचिजल
संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा।
⋙ मरीचितोय
संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा।
⋙ मरीचिप
वि० [सं०] प्रकाश कणों का पान करनेवाले (बालखिल ऋषि)।
⋙ मरीचिमान
वि०, संज्ञा पुं० [सं० मरीचिमत्] दे० 'मरीचिमाली'
⋙ मरीचिमाली (१)
वि० [सं० मरीचिमालिन्] [वि० स्त्री० मरीचि मालिनी] किरणयुक्त। ज्योतिर्मय। चमकता हुआ [को०]।
⋙ मरीचिमाली (२)
संज्ञा पुं० सूर्य।
⋙ मरीची (१)
वि० [सं० मरीचिन्] [वि० स्त्री० मरीचिनी] किरण युक्त। जिसमें किरणें हों।
⋙ मरीची (१)
संज्ञा पुं० १. सूर्य। २. चंद्रमा।
⋙ मरीज
वि० [अं० मरीज] रोगी। रोगग्रस्त। बीमार।
⋙ मरीजा
संज्ञा स्त्री० [अं० मरीजह्] बीमार स्त्री। रोगिणी [को०]।
⋙ मरीना
संज्ञा पुं० [स्पेनी० मेरिनी] एक प्रकार का बहुत मुलायम ऊनी पतला कपड़ा जो मेरीनो नामक भेड़ के ऊन से बनता है
⋙ मरुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० मरूण्ड़ा] उच्च ललाटवाली स्त्री [को०]।
⋙ मरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह भूमि जहाँ जल न हो और केवल बलुआ मैदान हो। मरुस्थल। निर्जल स्थान। रेगिस्तान मरुभूमि। २. वह पर्वत जिसमें जल का अभाव हो। ३. मारवाड़ और उसके आसपास के देश का नाम। ४. मरुअ नामक पौधा। ५. एक सूर्यवंशी राजा का नाम। ६. नरकासुर के एक सहचर असुर का नाम। ७. कुरवक नामक पौधा।
⋙ मरु पु (२)
वि० [सं० मैरू या हि० मरना] कठिन। दुरूह। दे० 'मरू'। उ०— कल्प समान रैन तेहिं बाढ़ी। तिल तिल म/?/जुग जुग पर गाढ़ी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मरुअटि ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] वे रोली के टीके जो हल्दी चढ़ जाए के बाद मुँह पर लगाए जाते हैं। उ०— भूआ भेंना करें आरती माँथे मरुअटि लगवाँमें, ऊपर चाँमर चुपटामें।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३५।
⋙ मरुआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० मरुव] बनतुलसी या बबरी की जाति का एक पौधे का नाम। नागबेल। नादबोई। उ०— अति व्याकुल भइ गोपिका ढूंढत गिरिधारी। बुझति हैं बनबेलि सों देर बनवारी। बूझा मरुआ कुंद सौ कहे गोद पसारी। बकुर बहुल बट कदम पै ठाढ़ी ब्रजनारी।—सूर (शब्द०)। विशेष— यह पौधा बागों में लगाया जाता है। इसकी पत्तिय बबरी की पत्तियाँ से कुछ बड़ी, नुकीली, मोटी, नरम और चिकनी होती हैं जिनमें से उग्र गंध आती है। इसके दर देवताओं पर चढ़ाए जाते हैँ। इसका पेड़ ड़ेढ दो हाथ ऊँचा होता है और इसकी फुनगी पर कार्तिक अगहन में तुलसी के भाँति मंजरी निकलती है जिसमें नन्हें नन्हें सफेद फूल लगते हैं फूलों के झड़ जाने पर बीजो से भरे हुए छोटे छोटे बीजकोश निकल आते हैं जिनमें से पकने पर बहुत बीज निकलते हैं ये बीज पानी में पड़ने पर ईसबगोल की तरह फूल जाते हैं यह पौधा बीजों से उगता हे; पर यदि इसकी कोमल टहन या फुनगी लगाई जाय तो वह भी लग जाती है। रंग के भे से मरुआ दो प्रकार का होता है, काला और सफेद। काले मरुए का प्रयोग औषधि रूप में नहीं होता और केवल फूल आदि के साथ देवताओं पर चढ़ाने के काम आता है। सफेद मरुआ ओषधियों में काम आता है। वैद्यक में यह चरपरा, कड़ुआ, रूखा और रुचिकर तथा तीखा, गरम, हलका, पित्तवर्धक, कफ और वात का नाशक, विष, कृमि और कृष्ठ रोग नाशक माना गया है। पर्या०—मरुवक। मरुत्तक। फणिज्जक। प्रस्थपुष्प। समीरण। कुलसौरभ। गधंपत्र। खटपत्र।
⋙ मरुआ (२)
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड़ या मेरु या अनु०] १. मकान की छाजन में सब से ऊपर की बल्ली जिसपर छाजन का ऊपरी सिरा रहता है। बँड़ेर। २. जुलाहों के करघे में लकड़ी का वह टुकड़ा जो ड़ेढ वालिश्त लंबा और आठ अगुंल मोटा होता है और छत की कड़ी में जड़ा होता है। ३. हिंड़ोले में वह ऊपर की लकड़ी जिसमें हिंड़ोला लटकाया जाता है या हिंडोले को लटकाने की लकड़ी जड़ी या लगाई जाती है। उ०— कंचन के खंभ मयारि मरुआ डाड़ी खचित होरा बीच लाल प्रवाल। रेसम बुनाई नवरतन लाई पालनो लटकन बहुत पिरोजा लाल।—सूर (शब्द०)।
⋙ मरुआ (२)
संज्ञा पुं० [हि० माँड़] माँड़।
⋙ मरुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर। २. एक प्रकार का मृग।
⋙ मरुकच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रदेश का नाम। विशेष—यह दक्षिण दिशा में है और हस्त, चित्रा और स्वाती नक्षत्रों के अधिकार में माना गया है।
⋙ मरुकांतार
संज्ञा पुं० [सं० मरुकान्तार] बालू या रेत का मैदान। रोगिस्तान। मरुभूमि।
⋙ मरुकुच्च
संज्ञा पुं० [सं० मरुकुत्स, प्रा० मरुकुच्च] दे० 'मरुकुत्स'।
⋙ मरुकुत्स
संज्ञा पुं० [सं०] बाराही संहिता के अनुसार एक देश का नाम जो कूर्म विभाग के अनुसार पाश्चिमोत्तर दिशा में है और जो उत्तराषाढ़, श्रवण और धनिष्ठा नक्षत्रों के अधिकार में है।
⋙ मरुचीपट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार दक्षिण दिशा के एक देश का नाम जो हस्त, चित्रा और स्वाती के अधिकार में है।
⋙ मरुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. नख नामक सुगंधित द्रव्य। २. बाँस का कल्ला।
⋙ मरुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रायण की जाति की एक लता जो मरुस्थल में होती है।
⋙ मरुजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छु। केवाँच। कौछ।
⋙ मरुटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिनका ललाट ऊँचा हो।
⋙ मरुत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवगण का नाम। विशेष— वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा है और इनकी संख्या ६० की तिगुनी मानी गई है; पर पुराणों में इन्हेंकश्यप और दिति का पुत्र लिखा गया है जिसे उसके वैमात्रिक भाई इंद्र ने गर्भ काटकर एक से उनचास टुकड़े कर डाले थे, जो उनचास मरुद् हुए। वेदों में मरुदगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है, उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। २. वायु। वात। हवा। ३. प्राण। ४. हिरण्य। सोना। ५. एक साध्य का नाम। ६. सौदर्य। ७. बृहद्रथ राजा का एक नाम। ८. मरुआ। ९. ऋत्विक्। १०. गाठवन। ११. असवर्ग। १२. दे० 'मरुत्त'।
⋙ मरुतजण पु
संज्ञा पुं० [सं० मरुत्+जन] राक्षस। उ०— कंत कमला कलह रटक पाणा करे, घाव बाणा करे कटक घाया, मरुतजण मोह सू।— रघु०, रू०, पृ० १३१।
⋙ मरुतवान पु
संज्ञा पुं० [सं० मरुत्वत] दे० 'मरुत्वान्'।
⋙ मरुत्कर
संज्ञा पुं० [सं०] राजमाप। उड़द।
⋙ मरुत्त
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक चक्रवर्ती राजा जो चंद्रवंशी महाराज करंधर के पुत्र अवोक्षित का पुत्र था। विशेष— इसने अनेक बार बड़े बड़े यज्ञ किए थे जिनमें समस्त यजपात्र सोने का बनवाए थे। इसके प्रभावती, सौवीरा, सुकेशी, केकयी, सैरंध्री, वसुमती और सुशोभना नाम की सात रानियाँ थीं, जिनसे अठारह लड़के पत्पन्न हुए थे। भागवत में इसे यदुवंशी और करंधर का पुत्र लिखा है।
⋙ मरुत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] मरुआ नामक पौधा।
⋙ मरुत्तनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान्। २. भीमसेन [को०]।
⋙ मरुत्पट
संज्ञा पुं० [सं०] पाल [को०]।
⋙ मरुत्पति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ मरुत्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश।
⋙ मरुत्पाल
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ मरुत्प्लव
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। शेर।
⋙ मरुत्फल
संज्ञा पुं० [सं०] ओला।
⋙ मरुत्वती
संज्ञा स्त्री० [सं० मरुत्वती] धर्म की पत्ती का नाम। यह प्रजापति की कन्या थी।
⋙ मरुत्वर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० मरुत्वर्त्मन्] आकाश [को०]।
⋙ मरुत्वान्
संज्ञा पुं० [सं० मरुत्वत्] १. इंद्र। २. महाभारत के अनुसार देवताओँ के एक गण का नाम जो धर्म के पुत्र माने जाते है। २. हनुमान।
⋙ मरुत्सख
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. अग्नि।
⋙ मरुत्सहाय
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ मरुत्सुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम।
⋙ मरुत्सूनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम [को०]।
⋙ मरुत्स्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ मरुथल
संज्ञा पुं० [सं० मरुस्थल] दे० 'मरुस्थल'। उ०— सूख गए सर, सरित, क्षार निस्सीम जलधि का जल है। ज्ञानपूर्णि पर चढ़ा मनुज को मार रहा मरुथल है।— नील०, पृ० ८४।
⋙ मरुद्
संज्ञा पुं० [सं०] 'मरुत्' का समासगत रूप [को०]।
⋙ मरुदांदोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धौकनी। २. प्राचीन काल की एक प्रकार की धौंकनी जो हरिन या भैंस के चमडे़ से बनती थी।
⋙ मरुदिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल। गूगुल।
⋙ मरुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषभदेव के पिता का नाम।
⋙ मरुद् गण
संज्ञा पुं० [सं०] देवगण जो पुराणों में ४९ माने जाते हैं। विशेष दे० 'मरुत्-१'।
⋙ मरुद्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा। २. वह यान जिसमें देव- मूर्तियाँ रखकर घुमाई जाती हैं। देवयान [को०]।
⋙ मरुद्वर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश।
⋙ मरुद्वधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंजाब की एक नदी का वैदिक नाम।
⋙ मरुद्वाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूँआ। २. आग।
⋙ मरुद्विप
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।
⋙ मरुद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] वह उपजाऊ और सजल हरा भरा स्थान जो मरुस्थल में हो। ओसिस।
⋙ मरुद्वेग
संज्ञा पुं० [सं०] एक दैत्य का नाम।
⋙ मरुधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० मरुधन्वन्] १. मरुस्थल। निर्जल प्रदेश। २. इंदीवर नामक विद्याधर के पुत्र का नाम।
⋙ मरुधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मारवाड़ देश। उ०— प्यासे दुपहर जेठ के थके सवै जल सोधि। मरुधर पाय मतीरहू मारू कहत पयोधि।— बिहारी (शब्द०)। २. मरुभूमि। मरुस्थल।
⋙ मरुन्माला
संज्ञा पुं० [सं०] पृक्का नाम की लता। असवर्ग।
⋙ मरुभूमि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालू का निर्जल मैदान जहाँ कोई वृक्ष या वनस्पति आदि न उगती हो। रेगिस्तान।
⋙ मरुभूमि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] करील का पेड़।
⋙ मरुमरीचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मरु+मरीचिका] दे० 'मृगतृष्णा'। उ०— भारी मरुमरीचिका की सी ताक रही उदास आकाश।—अपरा, पृ० १०८।
⋙ मरुर
संज्ञा पुं० [सं० मूर्वा] गोरचकरा।
⋙ मरुरना पु
क्रि० अ० [हि० मरोरना] 'मरोरना' का अकर्मक रूप। ऐठना। बल खाना। उ०—(क) तीखी दीठ तूख सी पतूख सी अहरि अंग ऊख सी मरुरि मुख लागति महूख सी।— देव (शब्द०)। (ख) मरुरत अंगन अमर रतरंग केश मरुरत नाथ देव जीति कै जगत है।— देव (शब्द०)।
⋙ मरुल
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली वत्तक की एक जाति का नाम। कारंडव।
⋙ मरुव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुआ। २. राहु (को०)।
⋙ मरुवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक कँटीले पेड़ का नाम जिसे मैनीकहते हैं। २. मरुआ। नागदौना। ३. तिल का पौधा। ४. व्याघ्र। वाघ। ५. राहु।
⋙ मरुवट पु † (५)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मरवट'। उ०— मौर वंध्य्रो सिर कानन कुंड़ल मरुवट मुखहि सुभाएं।— नंद० ग्रं०, पृ० ३४६।
⋙ मरुवा
संज्ञा पुं० [सं० मरुवक] दे० 'मरुआ'। उ०— सुभग सेज पटुली सूख बाढ़यों मरुवा वेलिन प्राची कोरैं।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७९।
⋙ मरुसंभव
संज्ञा पुं० [सं० मरुसम्भव] एक प्रकार की छोटी मूली।
⋙ मरुसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० मरुसम्भवा] १. महेद्रवारुणी। २. एक प्रकार का खैर जिसका पेड़ बहुत छोटा होता है। ३. छोटा धमास। क्षुद्र जवास। ४. एक प्रकार का कनेर।
⋙ मरुसा †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मरसा'।
⋙ मरुस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] बालू का मैदान जिसमें निर्जल निर्जल होने के कारण कोई वृक्ष या वनस्पति न उगती हो। मरुभुमि रेगिस्तान। उ०— नवकोटि मरुस्थल बीर बरं। दश अठ्ठ सुअर्वुद राज धंर।—पृ० रा०, १२। ४३।
⋙ मरुस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा बमास।
⋙ मरू पु
वि० [सं० मेरु या हिं० मरना] कठिन। दुरूह। मुहा०—मरू करि के या मरू करि पु=कठिनाई से। ज्यों त्यों करके। बहुत मुश्किल से। उ०—(क) ता कहँ तौ अब लों बहराइ कै राखी बसाई मरू करि मैं है।-केशव (शब्द०)। (ख) देह में नेक सँभार रह्यो न यहाँ लगि भाजि मरू करि आई।— मति० ग्रं०, पृ० २८६। (ग) अँसुआ ठहरात गरी घहरात तो बीत्यो मरू करिके अब आई है राति सो कैसे धों बीतहै।— (शब्द०)।
⋙ मरूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मृग। २. मयूर। मोर। ३. मेढक (को०)।
⋙ मरूद्भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जवास। २. कपास। ३. एक प्रकार का खैर।
⋙ मरूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गोरचकरा।
⋙ मरूर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड़] पीड़ा। उ०— भरति मरूरनि विसूरनि उदेग बढ़ि चित चरपटी मति चिंता पागिए रहै।— घनानंद, पृ० ५८७। २. दे० 'मरूरा'।
⋙ मरूर (३)
वि० ऐंठवाला। बली। उ०— जुरे रजपुत्त मरद्द मरूर।—पृ० रासो०, पृ० ४१।
⋙ मरूरा पु
संज्ञा पुं० [हि० मरोड़] ऐँठन। बल। मरोड़। मुहा०— मरूरा देना= बल देना। मरोड़ना। उमेठना। उ०— मुख के पवन परस्पर सुखवत गहे पानि पिय जूरो। बूझाति जाति मन्मथ चिनगी फिर दिया मरूरो।—सूर (शब्द०)।
⋙ मरूल
संज्ञा पुं० [सं० मुर्वा] गोरचकरा। मरूर।
⋙ मरेठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० मलना+ऐँठना] वह रस्सी जिससे हेंगा या पटेला वाँधकर खेत में खींचा या चलाया जाता है। बरहा। वेड़। गुरिया। वखर।
⋙ मरेठी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मुलेठी, तुल० सं० मधुयष्टि] दे० 'मुलेठी'।
⋙ मरेरना
क्रि० स० [हि० मरोरना] पीड़ित करना। व्यथा पहुँचाना। उ०— कवि ठाकुर वे पिय दूर बसैं तन मैन मरोर मरेरती सी।—ठाकुर, पृ० ७८१।
⋙ मरोड़
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड़ना] १. मरोड़ने का भाव या क्रिया। उ०— मानत लाज लगाम नहिं नेकु न गहन मरोर। होत तीहि लाखि बाल के दृग तुरंग मँह जोर।—मतिराम (शब्द०)। मुहा०—मरोड़ खाना=चक्कर खाना। उ०— न्हाय बसन पहिरन लगी बस न चल्यो चित चोर। खाय मरोड़ खड़े गिरयो गड़े कड़े कुच कोर।— रामसहाय (शब्द०)। मनु में मरोड़ करना=मन में दुराव या कपट रखना। कपट करना। उ०— साधू आवत देखि के मन में करत मरोर। सो होवेगा चूहड़ा बसे गाँव की और।—कबीर (शब्द०)। मरोड़ की बात= पेंचदार बात। घूमाव की बात। २. मरोड़ने से पड़ा हुआ घुमाव। ऐँठन। बल। ३. उद्वेग आदि के कारण उत्पन्न पीड़ा। व्यथा। क्षोभ। उ०— (क) घिरि आए चहु ओर घन तेहि तकि मारेस सोर। मोर सोर सुनि होत री तन में अधिक मरोर।—रामसहाय (शब्द०)। (ख) झिलत झकोर रहै जोबन को जोर रहै समद मरोर रहै शोर रहै तब सो।—पद्माकर (शब्द०)। (ग) इक ता मार मरोर ते मरति भरति है साँस। दूजे जारत मास री यह सुचि लौं सुचि मास।—रामसहाय (शब्द०)। मुहा०—मरोड़ा खाना=उलझन में पड़ना। उ०— गुलफनि लों ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर। फिर न फिरयो सुरवान चपि चित अति खात मरीर।— रामसहाय (शब्द०)। ४. पेट में ऐंठन और पीड़ा होना। पेट ऐँठना। ५. घमंड। गर्व। उ०— आए आप भली कहो भेटन मान मरोर। दूर करौ यह देखिहै छला छिगुनिया छोर।— बिहारी (शब्द०)। ६. क्रोध। गुस्सा। मुहा०— मरोड़ गहना=क्रोध करना। उ०— रह्यो मोह मिलना रह्यो यों कहि गहैं मरोर। उत दै सखिहि उराहनो इत चितई मों और।— बिहारी (शब्द०)। विशेष—पुरानी कविताओं में प्रायः 'मरोड़ा' के स्थान में 'मरोर' ही पाया जाता है।
⋙ मरोड़ना (१)
क्रि० सं० [हि० मोड़ना] १. एक और से घुमाकर दूसरी ओर फेरना। बल डालना। ऐँठना। उ०— (क) बाँह मरोरे जात हौ मोहि सोवत लियो जगाय। कहै कबीर पुकारि कै यहि पैड़े ह्वै के जाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) गोड़ चाप लै जीभ मरोरी।। दधि ढरकायो भाजन फोरी।— सूर (शब्द०)। (ग) कोपि कूदि दोउ धरोसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी।—तुलसी (शब्द०)। (घ) मोहि झकझोरि डारीकुच को मरोर डारी तोरी डारी कसनि बियोरि डारी बेनी त्यों।—पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।—डालना।—पड़ना। मुहा०—अंग मरोड़ना=अंगड़ाई लेना। उ०— सब अंग मरोरि मुरो मन मैं झरि पूरि रही रस मैं न भई। गुमान (शब्द०)। भौड मरोड़ना या दृग (आदि) मरोड़ना=(१) भ्रूभंग करना। आँख से इशारा करना या कनखी मानना। उ०—(क) अंतर में पति की सुरति गहि गहि गहिकि गुनाह। दृग मरोरि मुख मोरि तिय धुवन देत नहि छाँह।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) पान दियो हँसि प्यार सों प्यारी बहू लखि त्यों हँसि भौंह मरोरी।— देव (शब्द०)। (२) नाक भौंह चढ़ाना। भौंह सिकोड़ना। उ०— (क) हौ हूँ गही पदुमाकर दौरि सो भौंह मरोरत सेज लौं आई।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) सुनि सौतिन के गुन की चरता द्विज जू तिय भौंह मरोरन लागी।—द्विजदेव (शब्द०)। २. ऐंठकर नष्ट करना या मार डालना। उ०— (क) महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न लंकिनो ज्यों लात घात ही मरीर मारियों। तुलसी (शब्द०)। (ख) माँड़ि मारयो कलह वियोग मारो बोरि कै मरोरि मारयों अभिमान भरयो भय मान्यो है।— केशव (शब्द०)। (ग) कपि पुनि उपवन बारिहि तोरी। पंच सेनपति सेन मरोरी।—पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ३. पीड़ा देना। दुःख देना। वेदना उत्पन्न करना। उ० (क) बार बधू पिय पंथ लखि अंगरानी अंग मोरि। पौढ़ि रही परयंक मनु डारी मदन मरोरि।— मतिराम (शब्द०)। (ख) एक आली गई कहि कान में आइ परी जहाँ मैन मरोनी गई।—वेणी (शब्द०)। ४. मलना। मीजना। मसलना। मुहा—हाथ मरोड़ना पु=हाथ मलना। पछताना। उ०— (क) अब पछताब दरब जस जोरी। करहु स्वर्ग पर हाथ मरोरी।—जाय़सी (शब्द०)। (ख) पुरुष पुरातन छाड़ि कर चली आन के साथ। लोभी संगत बोछुड़ी खड़ी मरोरइ हाथ।—दादू (शब्द०)। विशष— पुरानी कविताओं में 'मरोड़ना' का रूप प्रायः 'मरोरना' ही पाया जाता है।
⋙ मरोड़ना (२)
क्रि० अ० पेट ऐंठना। पेट में ऐंठन उत्पन्न होना।
⋙ मरोड़फली
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड+फली] एक प्रकार का फली जो प्रायः पेट के मरोड़ के लिये गुणकारी होती है। मुर्रा। अवतरनी।
⋙ मरोड़ा
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड़ना] १. ऐंठन। मरोड़। उमेठ। बल। २. पेट की वह पीड़ा जिसमें अंदर की और कुछ ऐंठन सी जान पड़ती हो। विशेष— यह एक रोग है जिसमें मलोत्सर्ग के समय पेट में ऐंठन साँ होता है और प्राय कोष्ठबद्ध रहता है। कभी कभी आँव के साथ भी मरोड़ होता है। क्रि० प्र०—उठना।—पड़ना।
⋙ मरोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड़ना] १. ऐंठन। घुमाव। बल। मुहा०—मरोड़ी करना=खींचातानी करना। इधर उधर करना। २. वह बत्ती जो आटे आदि में सने हुए हाथों से मलने पर छूटकर निकलती है। ३. गुत्थी। गाँठ।
⋙ मरोर
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मरोड़'।
⋙ मरोरना (१)
क्रि० स० [हि०] दे० 'मरोड़ना'।
⋙ मरोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० मरोड़ना] दे० 'मरोड़ी'। मुहा०—मरोरी करना=इधर उधर करना। खींचतानी करना। उ०— नख सिख लों चित चोर सकल अँग चीन्हें पर कत करत मरोरी। एक सुनि सूर हहरयो मोरी सरबस अरु उलटी डोलों सँग डोरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मरोलि
संज्ञा सं० [सं०] मकर की जाति का एक बड़ा सामुद्रिक जंतु।
⋙ मरोह पु
संज्ञा पुं० [हि० मरोर] मरोर। मसोस। उ०— सपन्न जान चित उठा मरोहू। औटि करेज पानि या लोहू।—चित्रा०, पृ० ३६।
⋙ मरौर पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मरोड़'। उ०— उतही ते मोरति दृगत आवत अलि जिहि और। सीखति है मुग्धा मनो भयमिस भृकुटि मरौर।—शंकुतला, पृ० १७।
⋙ मर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. देह। शरीर। २. वायु। हवा। ३. शुक्राचार्य के एक पुत्र का नाम। ४. बंदर।
⋙ मर्कक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकड़ा। २. हरगीला नामक पक्षी।
⋙ मर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंदर। बानर। उ०— मर्कट मूठि स्वाद नहिं बहुरै धर घर रटत फिरौ।—कबीर श०, भा० २, पृ० १४०। २. मकड़ा। ३. हरगीला नामक पक्षी। ४. एक प्रकार का विष। ५. दोहे के एक भेद का नाम जिसमें सत्रह गुरु मैं चौदह लघु मात्राएँ होती हैं। जैसे,—ब्रज में गोपन संग में राधा देखे श्याम। ६. छप्पय का आठवाँ भेद जिसमें ६३ गुरु, २६ लघु कुल ८९ वर्ण या १५२ मात्राएँ या ६३ गुरु, २२ लघु कुल ८५ वर्णा या १४८ मात्राँए होती हैं।
⋙ मर्कटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बानर। बंदर। २. मकड़ी। ३. एक प्रकार की मछली। ४. मड़ुआ नामक अन्न। ५. मकरा नामक घास। ६. एक दैत्य का नाम।
⋙ मर्कटतिंदुक
संज्ञा पुं० [सं० मर्कटतिन्दुक] कुपीलु।
⋙ मर्कटपाल
संज्ञा पुं० [सं०] बंदरों का राजा, सुग्रीव।
⋙ मर्कटपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपामार्ग। चिचड़ा।
⋙ मर्कटप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] खिरनी का पेड़।
⋙ मर्कटबास
संज्ञा पुं० [सं०] मकड़ी का जाला।
⋙ मर्कटशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगुल।
⋙ मर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वानरी। बँदरी। २. मकड़ी। ३. भूरी केवाँच। काँछ। ४. अपमार्ग। ५. अजमोदा। ६. एक प्रकार का करंज। ७. छंद के ९ प्रत्ययों में ते अंतिम प्रत्यय। विशेष— इसके द्वारा मात्रा के प्रस्तार में छंद के लघु, गुरु, कला और वर्णों की संख्या का परिज्ञान होता है।
⋙ मर्कटेंदु
संज्ञा पुं० [सं० मर्कदेन्दु] कुचिला।
⋙ मर्कत पु
संज्ञा पुं० [सं० मरकत] दे० 'मरकत'।
⋙ मर्कब
संज्ञा पुं० [अ०] १. सवारी। वाहन। २. घोड़ा। अश्व। उ०— खाक बाव अब आतरस लाया। सिकम माए कै मर्कब बनाया।— संत० दरिया, पृ० १३।
⋙ मर्कर
संज्ञा पुं० [सं०] भृंगराज। भँगरा। भँगरैया।
⋙ मर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुरंग। २. तहखाना। ३. भाँड़ा। बर्तन। ४. बाँझ स्त्री।
⋙ मर्ग
संज्ञा पुं० [फा०] मौत। उ०— तालए नश्क न हो वायसे दरदे सरे मर्ग। गैर के सर पै लगाता है वह संदल धिस्के।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ८६।
⋙ मर्घटी पु
वि० [हि० मरघट] मरघट का। श्मशान संबंधी। मसान का। उ०— हाड़ की कंठ मै चारु माला धरे। मर्घटी खोपड़ी में अहारै करै।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५९।
⋙ मर्चो
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मिर्च'।
⋙ मर्चेंट
संज्ञा पुं० [अं०] व्यापार वाणिज्य करनेवाला। व्यापारी। सौदागर।
⋙ मर्ज
संज्ञा पुं० [अ० मर्ज] १. रोग। व्याधि। बीमारा। २. आदत। लत। व्यसन। ३. दुःख। कष्ट [को०]।
⋙ मर्जबान
संज्ञा पुं० [फा० मर्जबान] किसान। कृषक। काश्तकार। उ०— वह मुगल सल्तनत का मर्जवान था और उसका सरबराकार विनायक था।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ६७।
⋙ मर्जादा
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्य्यादा] दे० 'मर्यादा'। उ०— आज समुद्र ने अपनी मर्जादा छोड़ दी।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ७३।
⋙ मर्जी
संज्ञा स्त्री० [अ० मर्जी] दे० 'मरजी'।
⋙ मर्जू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धोबी। २. गुदाभंजन करानेवाला। लौंड़ा [को०]।
⋙ मर्जू (२)
संज्ञा स्त्री० धोना। साफ करना [को०]।
⋙ मर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। २. झूलोक।
⋙ मर्तबा
संज्ञा पुं० [अ० मर्तबह्] १. पद। पदवी। जैसे,— आज कल वे अच्छे मर्तबे पर हैं। (शब्द०)। क्रि० प्र०—चढ़ना।—देना।—पाना।—बढ़ना।—मिलना। २. बार। वेर। दफा। जैसे,—मैं आपके मकान पर कई मर्तबा गया था, पर आप नहीं मिले।
⋙ मर्तबान (१)
संज्ञा पुं० [सं० मृदभाण्ड़, हि० अमृतबान] रोगनी वर्तन जिसमें अचार, मुरब्बा, घी आदि रखा जाता है। अमृतबान।
⋙ मर्तबान (२)
संज्ञा पुं० [देश० वा बरमी] भारत की पूर्वी सीमा से सटे हुए बर्मा राज्य के पेगू प्रदेश का एक नगर और समुद्र की खाड़ी। रंगून, मोलमिन बंदरगाह इसी खाड़ी में हैं।
⋙ मर्त्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। २. भूलोक। ३. शरीर।
⋙ मर्त्य (२)
वि० मरणाशील। नश्वर [को०]।
⋙ मर्त्यधर्मा
वि० [सं० मर्त्यधर्मन्] मरणशील। नश्वर [को०]।
⋙ मर्त्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] मानव। स्वभाव। मानवीय प्रकृति [को०]।
⋙ मर्त्यमुख
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मर्त्यमुखी] किन्नर।
⋙ मर्त्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी। मनुष्येलोक।
⋙ मर्द (१)
संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० मर्त और मर्त्य] १. मनुष्य। पुरुष। आदमी। २. साहसी पुरुष। पुरुषार्थी मनुष्य। उ०— मर्द शीश पर नवे मर्द बोली पहिचाने। मर्द खिलावे खाय मर्द चिता नहिं आने। मर्द देय औ लेय मर्द को मर्द बचावे। गहिरे सकरे काम मर्द के मर्दै आवै। पुनि मर्द उन्हीं की जानिए दुख सुख साथी कर्म के। बैताल कहै सुन विक्रम, तू ये लक्षण मर्द के।— (शब्द०)। महा०—मर्द आदमी=(१) भला आदमी। सम्य पुरुष। (२) वीर। बहादुर। मर्दं बच्चा=वीर बालक। मर्द की दुम= अपने को बहादुर लगानेवाला (व्यंग्य)। उ०— बड़े मर्द की दुम हो होली चलाओ न जब जानें।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ९०। ३. वीर पुरुष। योद्धा। जवान। उ०— चलेउ भूप गोनर्द वर्द वाहन समान बल। संग लिए बहु मर्द गर्द लखि होत अपर- दल।— गिरधरदास (शब्द०)। ४. पुरुष। नर। जैसे—मर्द और औरतें। ५. पति। भर्ता।
⋙ मर्द (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पीसना। मर्दन [को०]।
⋙ मर्दक
वि० [सं०] दे० 'मर्द्दक'।
⋙ मर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मर्द्दन'। उ०—(क) तेरा नाम तभी है, जब तू इस रावण सरीखे शत्रु का मुकुट अपने चरणतल में मर्दन करे।— राधाकृष्ण (शब्द०)। (ख) मर्दनीक मर्दन करै बढ़ै धात तन बेल।— पृ० रा०, ६। १३०।
⋙ मर्दना पु
क्रि० सं० [सं० मर्दन] १. अंग आदि पर जोर से हाथ फेरना। मालिश करना। उ०—तन मर्दति पिय के तिया, दरसावति झुट रोष।—पद्माकर (शब्द०)। २. उवटन तेल आदि को अंगों पर चुपड़कर बलपूर्वक चुपड़े हुए स्थान पर बार बार हाथ फेरना जिससे अंग में उसका सार या स्निग्ध अंश घुस जाय। मलना। ३. चूर्णित करना। तोड़ फोड़ ड़ालना। ४. मसककर विकृत करना। नाशा करना। कुचलना। रौंदना। उ०—(क) कबहुँ विटप भूधर उपारि पर सेन बरक्खे। कबहुँ बाजि सन बाजि मर्दि गजराज करक्खे।— तुलसी (शब्द०)। (ख) खाऐसि फल अरु विटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि ड़ारे।—तुलसी (शब्द०)। (ग) जेहि शर मधु मद मर्दि महासुर मर्दन कीन्हें। मारयौ कर्कश नरक शंख हनि शंख सुलीन्हो।— केशव (शब्द०)।
⋙ मर्दनीक पु
वि० [सं० मर्द्दन+हि० ईक (प्रत्य०)] मर्दन करनेवाला। मालिश करनेवाला। उ०— करि पावंन पवित्र बर मोहन सुरभि सुतेल। मर्दनीक मर्दन करै, बढ़ै धात तन वेल।— पृ० रा०, ६। १३०।
⋙ मर्दल
संज्ञा पुं० [सं०] पखावज के ढ़ंग का एक प्रकार का बाजाजिसका व्यवहार प्रायः हंगल में कीर्तन आदि के समय होता है। मादल। मर्द्दल।
⋙ मर्दानगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'मरदानगी'।
⋙ मर्दाना
वि० [फा० मर्दानह्] १. पुरुष संबंधी। २. मनुष्योचित। ३. वीरोचित। ४. वीर। साहसी। ५. पुरुष। का सा। पुरुषवत्। यौ०—मर्दानावार=वीरोचित। मर्द का सा। मर्द की तरह।
⋙ मर्दित
वि० [सं०] दे० 'मर्द्दित'।
⋙ मर्दी
संज्ञा स्त्री० [फा०] मरदानगी। वीरता। बहादुरी।
⋙ मर्दुआ
संज्ञा पुं० [फा० मर्द+हि० उआ (प्रत्य०)] १. नाम का मर्द। तुच्छ मनुष्य। २. पति। ३. पराया वा गैर आदमी (स्त्रियाँ)।
⋙ मर्दुम
संज्ञा पुं० [फा०] १. मनुष्य। आदमी। २. आँख की पुतली। कनीनिका (को०)। यौ०—मर्दुमआजार=अत्याचारी। मर्दुमआजारी=लोगों को सताना। अत्याचार। मर्दुमआमेज=लोगों मे घुलमिलकर रहनेवाला। मर्दुमखोर। मर्दुमशनास=बुरे भले की परख करनेवाला। मर्दुमशुमारी।
⋙ मर्दुमक
संज्ञा पुं० [फा०] कनीनिका। आँख की पुतली [को०]।
⋙ मदुमखोर
वि [सं० मर्दुमखोर] मनुष्य को खा जानेवाला। नरभक्षी। उ०— लगा काटनेवालें और रक्तपिपासु मर्दमखोरों के बीज आ फँसा है।— प्रेम० और गोर्की, पृ० ७।
⋙ मर्दुमशुमारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. किसी देश में रहनेवाले मनुष्यों की गणना। मनुष्यगणना। जनगणना। विशेष— यद्यापि भारतवर्ष के मदरास और पंजाब प्रांतों में समय समय पर वहाँ के रहनेवालों की गिननी करने की प्रथा बहुत पूर्व से चली आती थी, पर पाश्चात्य देशों में नवीन प्रणाली की मनुष्यणाना की प्रथा रोम से आरंभ हुई है, जहाँ स्वतंत्र मनुष्यों के कुटुंब, संपत्ति दास और मुखिया की परिस्थिति आदि का विवरण यथासमय लिखकर मनुष्यों की गणना की जाती थी। इंगलैंड़ में सबसे पहले मनुष्यगणना सन् १८०१ में प्रारंभ हुई और १८११ में आयरलैंड में गणाना की चेष्टा हुई पर सन १८५१ तक की मनुष्यगणना परिपूर्ण नहीँ कही जा सकती। सन् १८६१ में नियमित रूप मे इंगलैंड़, स्काटलैंड़ और आयरलैंड़ में मनुष्यगणना प्रारंभ हुई, जिसमें प्रत्येक गाँव और नगर के मनुष्यों की आयु, वैवाहिक संबंध, पेशे, जन्मस्थान आदि का सविस्तार विवरण लिखा गया; और सन १८७१ में व्यवस्थित रूप से राजकीय या इंपीरियल मनुष्यगणना हुई। ठीक इसी समय अर्थात् सन् १८६७ और १८७२ में भारतवर्ष में भी मनुष्यगणना प्रारंभ हुई। पर उस समय काश्मीर, हैदराबाद, राजपूताने और मध्यभारत के देशी राज्यों में मनुष्यगणना नहीं हुई और गणना का प्रबंध भी समुचित नहीं था। भारतवर्ष की ठीक ठीक मनुष्यगणाना का आरंभ १८८१ से माना जा सकता है। यह मनुष्यगणना १७ फरवरी की हुई थी। तबसे प्रति दसवें बर्ष प्रत्येक गाँव और नगर में रहनेवालों का नाम, आयु वर्म, जाति शिक्षा, भाषा, व्यापार आदि के विवरण लिखा जाता है। २. किसी स्थान में रहनेवाले मनुष्यों की संख्या। जनसंख्या। आबादी।
⋙ मर्दुमी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. मरदानगी। पौल्प। वीरता। २. पुंसत्व। क्रि० प्र०—दिखलाना।—रखना।
⋙ मर्दूद
वि० [फा०] दे० 'मरदूद'। उ०— कौन मर्दूद कह सकता है।— सैर कु०, पृ० १२।
⋙ मर्दे आदमी
संज्ञा पुं० [फा०] शरीफ वा सज्जन व्यक्ति।
⋙ मर्देखुदा
संज्ञा पुं० [फा० मर्देखुदा] पवित्रात्मा। भक्त। उ०— नाम अपना जब सुने मर्देखुदा। किए दिल में यहाँ तो में रुसवा हुआ।— दक्खिनी०, पृ० २०३।
⋙ मर्देपीर
वि० [फा० मर्द + परि] पावित्रात्मा। फकीर। उ०— राह मैं एक बुजुर्ग मर्देंपीर मियाँ साहब मिले।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०३।
⋙ मर्द्द
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मर्द' (२)।
⋙ मर्द्दक
वि० [सं०] १. मर्दन करनेवाला। मर्दनकारक। २. दबानेवाला। तिराभावक।
⋙ मर्द्दन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० मर्द्दित] १. कुचलना। रौंदना। उ०— भगवान करै, इस दरबार में तुझे वही मिलै जो महादेव जा के सिर पर है और तुझे वह शास्त्र पढ़ाया जाय जो काँटों को मर्द्दन करता है।— हरिश्चंद्र (शब्द०)। २. दूसरे के अंगों पर अपने हाथों से बलपूर्वक रगड़ना। मलना। जैसे,— तैल मर्द्दन करना। उ०— (क) तेल लगाइ कियो रुचि मर्द्दन वस्त्रादिक रुचि रुचि धाए। तिलक बनाइ चले स्वामी ह्वै विषयनि के मुख जोए।—सूर (शब्द०)। (ख) हरि भिलन सुदामा आयो। विधि कार अरघ पावड़े दोन्ह अंतर प्रेम बढ़ायों। आदर बहुत कियो यादवपति मर्द्दन करि अन्हवायो। चोवा चंदन और कुमकुमा परिमल अंग चढ़ायो।—सूर (शब्द०)। (ग) पादपद्म निति मर्द्दन करई। तन छाया सन निति अनुसरई।— शं० दि० (शब्द०)। ३. तेल, उबटन आदि शरीर में लगाना। मलना। उ०— भाव दिया आवेंग श्याम। अंग अंग आभूषण साजति राजति अपने धाम। राते रण जाने अनंग नृपात सों आप नृपति राजति बल जोरति। अति सुगंध मर्द्दन अंग अंग ठनि बनि बान भूषन भेषात।—सूर (शब्द०)। ४. द्वंद्व युद्ध में एक मल्ल का दूसरे मल्ल की गर्दन आदि पर हाथों सले धस्सा लगाना। घस्सा। उ०— आकर्षण मर्द्दन भुजबंधन। दाव करत भे कर धरि कंधन।—गोपाल (शब्द०)। ५. ध्वंस। नाश। उ०— जहि शर मधुमद मर्द्दि महासुर मर्द्दनु कीन्हों। मारयो कर्कश नरक शंख हान शंख सुलांन्हा।—केशव (शब्द०)। ६. रसेश्वरदशन के अनुसार अठारह प्रकार के रससंस्कारा में दूसरा संस्कार। इसमें पारे आदि का आषधियों के साथ खरल करत या घोटते है। घाटना। ७. घाटना। रगड़ना।
⋙ मर्द्दन (२)
वि० [वि० स्त्री० मर्द्दनी] नाशक। विनाशक। संहारकर्ता।उ०— (क) कुंद इंदु सम देह उमारमण करुना अयन। जाहि दीन पर नेह करहु कृपा नर्द्दन मयन।—तुलसी (शब्द०)। किन गजपति मर्द्दन प्रवल सिंह पींजरा दीन।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।
⋙ मर्द्दल
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का मृदंग का तरह का एक प्रकार का बाजा। विशेष— इस बाजे का उल्लेख महाभारत में है और आजकल इसका प्रचार बंगाल में पाया जाता है; जहाँ यह विशेषकर मृतकों की अर्थों के साथ अथवा हरिकिर्तन आदि के समय बजाया जाता है।
⋙ मर्द्दित
वि० [सं०] १. जो मर्द्दन किया गया हो। मला या मसला हुआ। २. टुकड़ टुकड़ किया हुआ। ३. नष्ट किया हुआ।
⋙ मर्म
संज्ञा पुं० [सं० मर्म या मर्म्मान्] १. स्वरूप। २. रहस्य। तत्व। भेद। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—लेना। यौ०—मर्मज्ञ। ३. संघिस्थान। ४. प्राणियो के शरीर में वह स्यान जहाँ आधात पहुँचने से अधिक वेदना हाती है। विशेष— वैद्यक में मास, शिरा, स्नायु, आस्था और सीधे के सान्नपात स्थान का मर्म माना गाया है ओर वहा प्राणी का निवासस्थान लिखा गया है। प्रकृति, स्थान और परिणाम भेद में मर्म पाच प्रकार के हाते हैं और कुल मर्मों का संख्या १०७ मानी गई है। प्रकृति के विचार से मार्गों की संख्या इस प्रकार है— मास मर्म ११, अस्थि मर्म ८, संधि मर्म २०, स्नायु मर्म २७ और शिरा मर्म ४१। स्थान के विचार से मर्मो की संख्या इस प्रकार है—साकय (सिक्थ) या पैरौं में २२, भुजाआ मे २२ उर और कुक्ष में १२, पृष्ठ में १४ तथा ग्रावा और ऊर्ध्व भाग में ३७। परिणाम के विचार से मर्मों का संख्या इस प्रकार है— सद्यः प्राणाहर १९, कालांतर मारक ३३, वेकल्पकारक, ४४, रुजाकारक ८ और विशल्यव्न ३। यौ०— मर्मच्छेदन। मर्मप्रहार। मर्मभेदक। मर्मभेदी। मर्मवचन। मर्मस्पर्शी।
⋙ मर्मकील
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी। शौहर। पति [को०]।
⋙ ममग
वि० [सं०] अत्यंत तीक्ष्ण वा ताव्र। मर्मभेदी। अरुतुद।
⋙ मर्मघाती
वि० [सं० मर्मघातिन्] मर्म पर चोट पहुँचानवाला। अत्यंत पीड़ा देनवाला [को०]।
⋙ मर्मघ्न
वि० [सं०] अत्याधक कष्टकर [को०]।
⋙ मर्मचर
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय।
⋙ मर्मच्छिद
वि० [सं०] दे० 'मर्मच्छेदी'।
⋙ मर्मच्छेदक
वि० [सं०] मर्मभदक। मर्म भेदनेवाला।
⋙ मर्मच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणाघातन। जान। लेना। २. अधिक कष्ट देना। बहुत सताना।
⋙ मर्मच्छेदी
वि० [सं० ममच्छोदन्] प्राणघातक। अत्यंत कष्टकर [को०]।
⋙ ममछवि
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्म+छवि] सुंदर रूप। वह रूप या छवि जो मन को आकर्षित करे। उ०— हमारी समझ में यह प्रस्तुत अर्थ जीवन या जगत् की मर्मछवियों, वहाँ अनुस्यूत मूल्यों का ही पर्याय हो सकता है।—आचार्य०, पृ० १४५।
⋙ मर्मज्ञ
वि० [सं०] १. जो किसी बात का मर्म या गूढ़ रहस्य जानता हो। तत्वज्ञ। २. भेद की बात जानेवाला। रहस्य जाननेवाला।
⋙ मर्मपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्मपीड़ा] मन को पहुँचनेवाला क्लेश। आंतरिक दुःख।
⋙ मर्मप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] वह आघात जो मर्मस्थान पर हो। मर्मस्थान की चोट। विशेष— वैद्यक में इसे व्रण का एक भेद माना है। इसमें रोगी गिरना पड़ता, अटपट बकता, घबराता और मूर्छित होता है। उसके शरीर मनें गरमी छटकती है, गरमी का बहुत अधिक अनुभव होता है, और इंद्रियाँ ढीली पड़ जाती हैं।
⋙ मर्मभिद्
वि० [सं०] मर्माच्छिद। मर्मभेदी। उ०— दुष्ट रावण कुभंकर्ण पाकारिजित् मर्माभिद् कर्म परिपाकदाता।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मर्मभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहस्योदघाटन्। महत्वपूर्ण बातों का प्रकट होना। २. हृदय वा मर्म का बेधन [को०]।
⋙ मर्मभेदक
वि० [सं०] १. मर्म छेदनेवाला। २. हृदयविदारक। बहुत अधिक हार्दिक कष्ट पहुँचानेवाला।
⋙ मर्मभेदन
संज्ञा पुं० [सं०] बाणा। तीर [को०]।
⋙ मर्मभेदी (१)
वि० [सं० मर्मभेदिन्] हृदय पर अघात पहुँचानेवाला। आंतरिक कष्ट देनेवाला। जैसे, आपकी इस प्रकार की मर्म- भेदी बातों न कहनी चाहिए।
⋙ मर्मभेदी (२)
संज्ञा पुं० बाण। तीर [को०]।
⋙ मर्ममय
वि० [सं०] रहस्यपूर्ण।
⋙ मर्मर (१)
संज्ञा पुं० [यू०] दे० 'मरमर'।
⋙ मर्मर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] २. पत्तों के चरमराने या हवा वा अन्य किसी कारण से उनके हिलने से होनेवाला शब्द। २. एक प्रकार का पहनावा [को०]।
⋙ मर्मरित
वि० [सं०] मर्मर की ध्वनि से युक्त।
⋙ मर्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का देवदार वृक्ष। २. हल्दी। ३. कान के बाह्य भाग की एक नस [को०]।
⋙ मर्मरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दरिद्र व्यक्ति। भिखारी। २. दुष्ट आदमी [को०]।
⋙ मर्मवचन
संज्ञा पुं० [हि० मर्म+वचन] वह बात जिससे सुननेवाले को आंतरिक कष्ट पहुँचे। मर्मभेदी बात। उ०— मर्मवचन सीता तव बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मर्मवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] रहस्य की बात। भेद की या गूढ़ बात।
⋙ मर्मवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्म+वाणी] भेदभरी वाणी। गूढ़बात। मर्मवाक्य। उ०— श्रीमुख से श्रीकृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने गीतगीत सिंहनाद मर्मवाणी जीवन संग्राम की, सार्थक समन्वय ज्ञान कर्म भक्ति योग का।—अनामिका, पृ० ५८।
⋙ मर्मविद्
वि० [सं०] मर्म या तत्व जाननेवाला। मर्मज्ञ।
⋙ मर्मविदारण
संज्ञा पुं० [सं०] मर्मच्छेदन। मर्मच्छेद।
⋙ मर्मवेदी
वि० [सं० मर्मवेदिन्] मर्मज्ञ।
⋙ मर्मवेधी
वि० [सं० मर्मवेधिन्] दे० 'मर्मभेदी'।
⋙ मर्मव्यथा
संज्ञा पुं० [सं०] मर्म पीड़ा। तीव्र। देवना [को०]।
⋙ मर्मशरीर
संज्ञा पुं० [सं० मर्म+शरीर] नित्यस्वरूप। मुख्य रूप। गूढ़ अंग। अनिवार्य लक्षण। उ०— पर ज्यों ज्यों शास्त्रीय विचार गंभीर और सूक्ष्म होता गया त्यों त्यों साध्य और साधनों को विविक्त करके काव्य के नित्यस्वरूप या मर्मशरीर को अलग निकालने का प्रयास बढ़ता गया।—रस०, पृ० ५०।
⋙ मर्मस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मर्मस्थान। विशेष दे० 'मर्म'। २. हृदय। मन। अंतस्तल। उ०— कविता अपनी मनोरंजन शक्ति द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त रमाए रहती है, जीवनपट पर उक्त कर्मों की सुदरता या विरूपता अंकित करके हृदय के मर्मस्थलों का स्पर्श करती है।— रस०, पृ० २७।
⋙ मर्मस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] मर्मस्थल। मर्म। विशेष दे० 'मर्म'।
⋙ मर्मस्पर्शिता
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्मस्पृश्] मर्मस्पर्शी होने का भाव। मार्मिकता। उ०— रागात्मक गुण के अंतर्गत मर्मस्पर्शिता एवं सजीवता की इन लोगों ने गणना की है।—शैली, पृ० ८८।
⋙ मर्मस्पर्शी
वि० [सं० मर्मस्पर्शिन्] दे० 'मर्मस्पृश्'।
⋙ मर्मस्पृश
वि० [सं०] हृदय को स्पर्श करनेवाला। हृदय पर प्रभाव डालनेवाला। मर्मस्पर्शी।
⋙ मर्मातक
वि० [सं० मर्मान्तक] मन में चुभनेवाला। मर्मभेदक। हृदयस्पर्शी। उ०— मानव दुर्गति की गाथा से ओत प्रोत मर्मा- तक।— ग्राम्या, पृ० १४।
⋙ मर्मातिक
वि० [सं० मर्मान्तक] दे० 'मर्मातक'। उ०—फिर देता दृढ़ संदेश देश को मर्मांतिक, भाषा के बिना न रहती अन्य गंध प्रांतिक।—अनामिका, पृ० ८६।
⋙ मर्माघात
संज्ञा पुं० [सं०] मर्मस्थल पर आघात। मर्मिक पीड़ा [को०]।
⋙ मर्मातिग
वि० [सं०] मर्मस्थल पर पहुँचनेवाला। मर्म को वेधनेवाला [को०]।
⋙ मर्मानुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्म+अनुभूति] मार्मिक अनुभूति। मर्मस्पर्शि अनुभूति। उ०—शुद्ध मर्मानुभूति द्वारा प्रेरित कुशल कवि भी प्राचीन आख्यानों को बराबर लेते आए है, और अब भी लेते हैं।— रस०, पृ० ६४।
⋙ मर्मान्वेषण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी बात का तत्व या गूढ़ रहस्य जानना। तत्वानुसंधान।
⋙ मर्माभास
संज्ञा पुं० [सं० मर्म+आभास] रहस्यपूर्ण अनुभव। भेदभरे तथ्य की झलक। उ०—योग भोग; जप तप, धन संचय गार्हस्थाश्रम, दृढ़ संन्यास। त्याग तपस्या, व्रत सब देखा पाया है जो मर्माभास।—अनामिका, पृ० १६६।
⋙ मर्माभिघातज
संज्ञा पुं० [सं० मर्म+अभिघातज] एक प्रकार का दाह। उ०—इसमें मर्मस्थान में मर्मामिघातज दाह होय सो सातवाँ असाध्य है।—माधव०, पृ० १२०।
⋙ मर्माविद्
वि० [सं०] मर्म भेदनावाला। मर्मभेदी।
⋙ मर्माविध्
वि० [सं० मर्म+आविध्] मर्म भेदनेवाला। मर्मभेदी।
⋙ मर्माहत
वि० [सं० मर्म+आहत] जिसके मर्म को बहुत अधिक चोट पहुँची हो। जिसके हृदय को बहुत अधिक पीड़ा मिली हो। उ०—मर्माहत स्वर भर।—अपरा, पृ० ६३।
⋙ मर्मिक
वि० [सं०] मर्मविद्। मर्मज्ञ।
⋙ मर्मी
वि० [हिं० मर्म] रहस्य जाननेवाला। तत्वज्ञ। मर्मज्ञ। उ०—(क) ममा मूल गहल मन माना। मर्मो होय सो मर्महि जाना।—कबीर (शब्द०)। (ख) मर्मी सजन सुमति कुदारी। ज्ञान बिराग नयन उरगारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मर्मोद् घाटन
संज्ञा पुं० [सं०] रहस्योद् घाटन। रहस्य का प्रकट होना [को०]।
⋙ मर्मोपघाती
वि० [सं० मर्मोपघातिन्] दे० 'मर्माविध्' [को०]।
⋙ मर्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। २. युवक व्यक्ति (को०)। ३. नर। मादा का विलोम (को०)। ४. प्रेमी पुरुष (को०)। ५. उष्ट्र। ऊँट (को०)। ५. बीजाश्व। दे० 'साँड़' (को०)।
⋙ मर्य (२)
वि० मरणशील। मर्त्य [को०]।
⋙ मर्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा या ठिगना व्यक्ति। २. नर। मदा का विलोम [को०]।
⋙ मर्या
संज्ञा पुं० [सं०] सीमा [को०]।
⋙ मर्याद
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्य्यादा] दे० 'मर्य्याद'। उ०—रोक रहजन को प्रगति का, फेर से, बाधक जो हो। दर बदर भटका उसे,मर्याद तू जब तक न कर।—बेला, पृ० ६८।
⋙ मर्यादा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मर्य्यादा'।
⋙ मर्यादाधावन
संज्ञा पुं० [सं०] सीमारेखा या चिह्न की ओर दौड़ना [को०]।
⋙ मर्यादाधुर्य
संज्ञा पुं० [सं० मर्यादा+धुर्य] दे० 'कोटपाल'। उ०— प्रतिहार साम्राज्य में सीमा का रक्षक कोटपाल ही 'मर्यादा'- धुर्य कहा गया है।—पू० म० भा०, पृ० १०४।
⋙ मर्यादापर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मर्य्यादागिरि'। उ०—पूरब और पच्छिम तरफ की जमीन का उठाव दिखता है, जो हिमालय के साथ के सीमांत के पहाड़ों या मर्यादापर्वतों को सूचित करता है।—भारत० नि०, पृ० २५।
⋙ मर्यादापुरुषोत्तम
संज्ञा पुं० [सं० मर्यादा+पुरुषोत्तम] भगवान् रामचंद्र। उ०—मर्यादापुरुषोत्तम के सर्वोत्तम अनन्य, लीला सहचर, दिव्य भावधर इनपर प्रहार करने पर होगी देवि तुम्हारी विषम हार।—अपरा, पृ० ४३।
⋙ मर्यादामार्गी
वि० [सं० मर्यादा+मार्गिन्] मर्यादा का अनुगमन करनेवाला। मर्यादावादी। उ०—वहाँ कृष्णदास की एक मर्यादामार्गो वैष्णव कौ संग भयी।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २३४।
⋙ मर्यादावादी
वि० [सं० मर्यादा+वादिन्] मर्यादा को माननेवाला। मर्यादानुयायी। उ०—पर शुक्ला जी, जैसा मैने निवेदन किया, मर्यादावादी थे।—आचार्य०, पृ० १३६।
⋙ मर्यादाव्यतिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] सीमा पार करना। सीमोल्लंघन करना [को०]।
⋙ मर्यादित
वि० [सं०] सीमित। सीमाबद्ध। उ०—मर्यादित रहता है इनका जीवन पारावार। अपने छोटे से जग में है सीमित इनका प्यार।—ग्रामिका, पृ० ८८।
⋙ मर्यादी (१)
वि० [सं० मर्यादिन्] १. सीमा में रहनेवाला। सीमोल्ल- घन न करनेवाला। २. मर्यादावादी। मर्यादा को माननेवाला। उ०—ताके पास तीन तूँबा काँधे पर तो खासा कौ, पीछे कटि पर मर्यादी सेवको कौ, आगे कटि पर वाहरि कौ, या भाँति सो रहै आवे।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ४३।
⋙ मर्यादी
संज्ञा पुं० पड़ोसी। सीमा के निकट रहनेवाला [को०]।
⋙ मर्य्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीमा।
⋙ मर्य्यादा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्यादा] १. दे० 'मर्यादा'। उ०— भो मर्य्यादा बहुत सुख लागा। यहि लेखे सब संशय भागा।—कबीर (शब्द०)। २. रीति। रसम। प्रथा। ३. चाल। ढँग। ४. विवाह में वर पक्षवालों का वह भोज जो उन्हें विवाह के तीसरे दिन कन्यापक्ष की ओर से दिया जाता है। बड़हार। बढ़ार। मुहा०—मर्य्यादा रहना=बरात का विवाह के तीसरे दिन ठहरकर भोज में संमिलित होना।
⋙ मर्य्यादा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीमा। हद। २. कूल। नदी या समुद्र का किनारा। ३. दो या दो से अधिक मनुष्यों के बीच की प्रतिज्ञा। मुआहिदा। करार। ४. नियम। ५. सदाचार। ६. मान प्रतिष्ठा। गौरव। क्रि० प्र०—रखना। मुहा०—मर्य्यादा जाना=साख खत्म होना। विश्वास जाता रहना। मर्य्यादा लेना=लज्जा उतरना। लज्जित करना। ७. धर्म।
⋙ मर्य्यादागिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सीमा पर का पहाड़। वह पहाड़ जो सीमा का निर्धारण करे [को०]।
⋙ मर्य्यादाबंध
संज्ञा पुं० [सं० मर्य्यादाबन्ध] १. अधिकारकी रक्षा। २. नजरबंदी।
⋙ मर्य्यादी
वि० [सं० मर्य्यादिन्] सीमावान्। सीमायुक्त।
⋙ मर्राना पु
क्रि० अ० [हिं० मरमराना अनु०] मर मर की ध्वनि करते गिरना। चरमराकर गिरना। उ०—पीना भा संसार जाठि ऊपर मर्रानी।—पलटू०, पृ० ५९।
⋙ मर्री
संज्ञा स्त्री० [हिं० मरना] वह भूमि जो कर्ज लेनवाले ने सूद के बदले में महाजन को दी है।
⋙ मर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंभीर विचार। २. राय। संमति। ३. नस्य। सुँघनी [को०]।
⋙ मर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. रगड़ना। २. परीक्षा। जाँच। ३. विचार। ४. राय देना। ५. अलग करना। हटाना। ६. व्याख्या करना [को०]।
⋙ म
संज्ञा पुं० [सं०] क्षांति।
⋙ मर्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षमा। माफी। २. घर्षण। रगड़।
⋙ मर्षण (२)
वि० १. नाशक। ध्वंसक। २. दूर करनेवाला। रोकने या हटानेवाला। उ०—लहरा भव पादप, मर्षण मन मोड़ेगी। अपरा, पृ० २०७।
⋙ मर्षणीय
वि० [सं०] क्षमा करने के योग्य। क्षम्य।
⋙ मर्षित
वि० [सं०] १. सहन किया हुआ। २. क्षमा किया हुआ [को०]।
⋙ मर्षी
वि० [सं० मर्षिन्] सहन करनेवाला। क्षमाशील [को०]।
⋙ मर्सियाखाँ
संज्ञा पुं० [अ० मरसिया + फा० ख्वाँ] दे० 'मरसियाख्वाँ'। उ०—कई मर्सियाखाँ और कई गजल सुनाते हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८७।