विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/तू
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ तूँ
सर्व० [सं० त्वम्] दे० 'तू' ।
⋙ तूँअर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' । उ०—अनँगपाल तूँअर तहाँ दिली बसाई आनि ।—पृ० रा०, १ ।५७० ।
⋙ तूँगा पु
संज्ञा पुं० [सं० तुङ्ग] फौज का समूह । उ०—तूँगा दरवाजा लगे, पूगा पुरा प्रवेस ।—रा० रू०, पृ० २६७ ।
⋙ तूँगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पृथ्वी । भूमि । २. नाव । नौंका ।
⋙ तूँब पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूँबा' । उ०—जुग तूँबन की बीन परम सोभित मन भाई ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४१७ ।
⋙ तूँबड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूँबा' ।
⋙ तूँबना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तूमना' ।
⋙ तूँबा
संज्ञा पुं० [सं० तुम्बक] १. कडुआ गोल कद्दू । कडुआ गोल घीया । तितलौकी । उ०—मन पवन्न दुइ तूँबा करिहौ जुग जुग सारद साजो ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२९ । विशेष—इस कद्दू को खोखला करके कई कामों में लाते हैं; बरतन बनाते हैं; सितार आदि बाजों में ध्वनिकोश बनाने के लिये लगाते हैं आदि । २. कद्दू को खोखला करके बनाया हुआ बरतन जिसे प्रायः साधु अपने साथ रखते हैं । कमंडल ।
⋙ तूँबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तूँबा] १. कडुआ गोल कद्दू । २. कद्दू को खोखला करके बनाया हुआ बरतन । मुहा०—तूँबी लगाना = वात से पीड़ित या सूजे हुए स्थान पर रक्त या वायु को खींचने के लिये तूँबी का व्यवहार करना । विशेष—तूँबी के भीतर एक बत्ती जलाकर रख दी जाती है जिससे भीतर की वायु हलकी पड़ जाती है । फिर जिस अंग पर उसे लगाना होता है, उसपर आटे की एक पतली लोई रख कर उसके ऊपर तूँबी उलटकर रख देते हैं जिससे उस अंग के भीतर की वायु तूँबी में खिंच आदी है । यदि कुछ रक्त भी निकालना होता है, तो उस स्थान को जिसपर तूँबी लगानी होती है, नश्तर से पाछ देते हैं ।
⋙ तू (१)
सर्व० [सं० त्वम्] एक सर्वनाम जो उस पुरुष के लिये आता है जिसे संबोधन करके कुछ कहा जाता है । मध्यमपुरुष एक वचन सर्वनाम । जैसे,—तू यहाँ से चला जा । विशेष—यह शब्द अशिष्ट समझा जाता है, अतः इसका व्यवहार बड़ों और बराबरवालों के लिये नहीं होता, छोटों या नीचों के लिये होता है । परमात्मा के लिये भी 'तू' का प्रयोग होता है । मुहा०—तू तडा़क, तू तुकार, तू तू मैं मैं करना = कहा सुनी करना । अशिष्ट शब्दों में विवाद करना । गाली गलौज करना । कुवाक्य कहना । यौ०—तू तुकरा = अशिष्ट विवाद । कहा सुनी । कुवाक्य । उ०—प्रत्यक्ष धिक्कार और तू तुकार की मूसलाधार वृष्टि होती ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९८ ।
⋙ तू (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] कुत्तों को बुलाने का शब्द । जैसे—'आव तू..तू....' । उ०—दुर दुर करै तौ बाहिरे, तू तू करै तो जाय ।—कबीर सा० सं०, पृ० २१ ।
⋙ तूख
संज्ञा पुं० [सं० तुष = तिनका] का वह टुकडा़ जिसे गोदकर दोना बनाते हैं । सींक । खरका । उ०—छवावति न छाँह, छुए नाहक ही 'नाहीं' कहि, नाइ गल माहँ बाहँ मेलै सुखरूख सी ।... तीखी दीठि तूख सी, पतूख सी, अरुरि अंग, ऊख सी मरूरि मुख लागति महूख सी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ तूछा पु
वि० [हिं०] दे० 'तुच्छ' । उ०—वलषी बादसाहाँ सील वाही तेग तूछा ।—शिखर०, पृ० २० ।
⋙ तूझ पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तुझ' । उ०—दीनानाथ तूझ बिन दुख री किणनै जाय पुकार कहाँ ।—रघु० रू०, पृ० ९८ ।
⋙ तूटना
क्रि० अ० [सं० त्रुट] 'टूटना' । उ०—तुटैं लूट बाहैं । दतै दंत मौंह ।—पृ० रा०, ७ ।१२० ।
⋙ तूठना पु (१)
क्रि० अ० [सं० तुष्ट, प्रा० तुट्ठ] तुष्ट होना । संतुष्ट होना । तृप्त होना । अधाना । उ०—रोधे ब्रजनिधि मीत पै हित कै हाथन तूठि ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १७ । २. प्रसन्न होना । राजी होना ।
⋙ तूठना पु (२)
क्रि० स० प्रसन्न करना । संतुष्ट करना ।
⋙ तूण
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीर रखने का चोंगा । तरकश । यौ०—तूणधर, तूणधार = धनुर्धर । २. चामक नामक वृत्त का नाम ।
⋙ तूणत्क्ष्वेड
संज्ञा पुं० [सं०] बाण । तीर ।
⋙ तूणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तूणीर । तरकश [को०] ।
⋙ तूणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरकश । निषंग । २. नील का पौधा । ३. एक वातरोग जिसमें मूत्राशय के पास से दर्द उठता है और गुदा और पेड़ू तक फैलता है ।
⋙ तूणी (२)
वि० [सं० तूणिन्] तूणधारी । जो तरकश लिए हो ।
⋙ तूणी (३)
संज्ञा पुं० [सं० तूणीक?] तुन का पेड़ ।
⋙ तूणीक
संज्ञा पुं० [सं०] तुन का पेड़ ।
⋙ तूणीर
संज्ञा पुं० [सं०] तूण । निषंग । तरकश ।
⋙ तूत
संज्ञा पुं० [फा़०] एक पेड़ जिसके फल खाए जाते हैं । विशेष—यह पेड़ मझोले आकार का होता है । इसके पत्ते फालसे के पत्तों से मिलते जुलते, पर कुछ लंबोतरे और मोटे दल के होते हैं । किसी किसी के सिरे पर फाँकें भी कटी होती हैं । फूल मंजरी के रूप में लगते हैं जिनसे आगे चलकर की़ड़ों की तरह लंबे लंबे फल होते हैं । इन फलों के ऊपर महीन दाने होते हैं जिनपर रोइयाँ सी होती हैं । इनके कारण फलों की आकृति और भी कीड़ों की सी जान पड़ती है । फलों के भेद से तूत कई प्रकार के होते हैं; किसी के फल छोटे और गोल, किसी के लंबे किसी के हरे, किसी के लाल या काले होते हैं । मीठी जाति के बडे़ तूत को शहतूत कहते हैं । तूत योरप और एशिया के अनेक भागों में होता है । भारतवर्ष में भी तूत के पेड़ प्रायः सर्वत्र—काश्मीर से सिक्किम तक—पाए जाते हैं । अनेक स्थानों में, विशेषतः पंजाब और काश्मीर में, तूत के पेड़ों की पत्तियों पर रेशम के कीडे़ पाले जाते हैं । रेशम के कीडे़ उनकी पत्तियाँ खाते हैं । तूत की लकडी़ भी वजनी और मजबूत हौती है और खेती तथा सजावट के सामान, नाव आदि बनाने के काम आती है । तूत शिशिर ऋतु में पत्ते झाड़ता है और चैत तक फूलता है । इसके फल असाढ में पक जाते हैं ।
⋙ तूतही
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुतुही' । मुहा०—तूतही का सा मुँह निकल आना = (१) चेहरे पर दुर्बंलता की प्रतीति होना । (२) लज्जित होना । उ०—एक—तूतही का सा मुँह निकल आया ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०९ ।
⋙ तूतिया
संज्ञा पुं० [सं० तुत्थ] नीला थोथा ।
⋙ तूती
[फा़०] छोटी जाति का शुक या तोता जिसकी चोंच । पीली, गरदन बैंगनी और पर हरे होते हैं । उ०—के वाँ ते बजाँ आई तूती के पास ।—दक्खिनी०, पृ० ८५ । २. कनेरी नाम की छोटी सुंदर चिड़िया जो कनारी द्वीप से आती है और बहुत अच्छा बोलती है । इसे लोग पिंजरों में पालते हैं । ३. मटमैले रंग की एक छोटी चिड़िया जो बहुत सुंदर बोलती है । विशेष—(१)इसे लोग पिंजरों में पालते हैं । जाडे़ में यह सारे भारत में पाई जाती है, पर गरमी में उत्तर काश्मीर, तुर्कि— स्तान आदि की ओर चली जाती है । यह घास फूस से कटोरे के आकार का घोंसला बनाकर रहती है । विशेष—(२) उर्दू में तूती शब्द का प्रयोग पुंल्लिगवत् होता है । मुहा०—तूती का पढ़ना = तूती का मीठे सुर में बोलना । किसी की तूती बोलना = किसी की खूब चलती होना । किसी का खूब प्रभाव जमना । नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है = (१) बहुत भीड़ भाड़ या शोरगुल में कही हुई बात नहीं सुनाई प़डती । (२) बडे़ बडे़ लोगों के सामने छोटों की बात कोई नहीं सुनता । ४. मुँह से बजाने का एक प्रकार का बाजा । ५. मिट्टी की छोटी टोंटीदार घरिया जिससे लड़के खेलते हैं ।
⋙ तूद (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूस' ।
⋙ तूद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सेमल का पेड़ [को०] ।
⋙ तूद (३)
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'तूता' [को०] ।
⋙ तूदा
संज्ञा पुं० [फा़० तूदह्] १. ढेर । ढेरी । राशि । २. सीमा का चिह्न । हदबंदी । ३. मिट्टी का वह टीला जिसपर तीर, बंदूक आदि से निशाना लगाना सीखा जाता है । ४. पुश्ता । टीला (को०) । ५. वह दीवार जिसपर बैठकर तीरंदाज निशाना लगाते हैं (को०) । ६. वह टीला जिसपर चाँदमारी का अभ्यास किया जाता है (को०) ।
⋙ तून (१)
संज्ञा पुं० [सं० तुन्नक] १. तुन का पेड़ । वि० दे० 'तुना' । २. तूल नाम का लाल कपडा़ ।
⋙ तून पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० तृण] दे० 'तृण' ।
⋙ तून पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूण' । उ०—तू न लखति कसि तून कटि सजि प्रसून धनु बान ।—स० सप्तक, पृ० ३८४ ।
⋙ तूना
क्रि० अ० [हिं० चूना] १. चूना । टपकना । २. खडा़ न रह सकना । गिरना । ३. गर्भपात होना । गर्भ गिरना । विशेष— दे० 'तुअना' ।
⋙ तूनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मूत्राशय और पक्वाशय में उठनेवाली पीडा़ । उ०—स्त्री पुरुषों के गुह्य स्थल में पीडा़ करे उस रोग को तूनी कहते हैं ।—माधव०, पृ० १४४ ।
⋙ तूनीर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूणीर' । उ०—उपासंम तूनीर पुनि इषुधी तून निषंग ।—अनेकार्थ०, पृ० ३६ ।
⋙ तूफान
संज्ञा पुं० [अ० तूफान] १. डुबानेवाली बाढ । २. वायु के वेग का उपद्रव । ऐसा अंधड़ जिसमें खूब धूल उठे, पानी बरसे, बादल गरजें तथा इसी प्रकार के और उत्पात हों । आँधी । क्रि० प्र०—आना ।—उठना ।३. आपत्ति । ईति । प्रलय । आफत । ४. हल्लागुल्ला । वावैला । ५. झगडा । बखेडा़ । उपद्रव । दंगा फसाद । हलचल । जैस,— थोडी़ सी बात के लिये इतना तूफान खडा़ करने की क्या जरूरतः । क्रि० प्र०—उठना ।—खडा़ करना । ६. ऐसा कलंक या दोषारोपण जिससे कोई भारी उपद्रव खडा़ हो । झूठा दोषारोपण । तोहमत । क्रि० प्र०—उठना ।—उठाना । मुहा०—तूफान जोड़ना या बाँधना = झूठा कलंक लगाना । झूठा दोषारोपण करना । तूफान बनाना = दे० 'तूफान जोड़ना' ।
⋙ तूफानी
वि० [फा़० तूफानी] १. तूफान खडा़ करनेवाला । ऊधमी । उपद्रवी । बखेडा़ करनेवाला । फसादी । २. झूठा कलंक लगानेवाला । तोहमत जोड़नेवाला । ३. उग्र । प्रचंड । प्रबल ।
⋙ तूबा पु
संज्ञा पुं० [देश०] स्वर्ग का एक वृक्ष जिसके फल परम स्वादिष्ट माने जाते हैं । उ०—और तूबा वृक्ष तथा कल्पवृक्षों की बडी़ सुगंधि आती थी ।—कबीर मं०, पृ० २१२ ।
⋙ तूम †
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम' । उ०—तब वह लरिकिनी वा ब्रजवासी के ढिंग आयकै पूछयों, जो तूम कौन हो ?—दो सौ बावन, भा० २, पृ० ३८ ।
⋙ तूमडी़
संज्ञा स्त्री० [दे० तूँबा + डी़ (प्रत्य०)] १. तूँबी । २. तूँबी का बना हुआ एक प्रकार का बाजा जिसे सँपेरे बजाया करते हैं । विशेष—तूँबी का पतला सिरा थोडी़ दूर से काट देते हैं । और नीचे की और एक छेद करके उसमें दो जीभियाँ दो पतली नलियों में लगाकर डाल देते हैं और छेद को मोम से बंद कर देते हैं । नलियों का कुछ भाग बाहर निकला रहता है । एक नली में स्वर निकालने के सात छेद बनाते हैं जिन— पर बजाते वक्त उँगलियाँ रखते जाते हैं ।
⋙ तमतडा़क
संज्ञा स्त्री० [फा़० तमतराक] १. तड़क भड़क । शान शौकत । आन बान । २. ठसक । बनावट ।
⋙ तूम तनाना
संज्ञा पुं० [अनु०] अधिक आलाप । स्वर को अत्यधिक खींचने की क्रिया । उ०—सब्र करो, होली के दिन तुम्हारी नजर दिला दूँगा, मगर भाई, इतना याद रक्खो कि वहाँ पक्का गाना गाया और निकाले गए । तूम तनाना की धुन मत बाँध देना ।—काया०, पृ० २९५ ।
⋙ तूमना
क्रि० स० [सं० स्तोम(= ढेर) + ना (प्रत्य०)] १.रुई आदि के जमे हुए लच्छों को नोच नोच कर छुडा़ना । उँगली से रुई इस प्रकार खींचना कि उसके रेशे अलग अलग हो जायँ । रुई के गाले के सटे हुए रेशों को कुछ अलग अलग करना । उधेड़ना । बिथूरना । २. धज्जी धज्जी करना । उ०—सदियों का दैन्य तमिस्र तूम, धुन तुमने काते प्रकाश सूत ।—युगांत, पृ० ५४ । ३. मलना । दलना । ४. बात का उधेड़ना । रहस्य खोलना । सब भेद प्रकट करना ।
⋙ तूमर पु
संज्ञा पुं० [सं० तुम्बा] दे० 'तूँबा' । उ०—ताखी और तिलक भाल सेल्ही और तूमर माल ।—भीखा० श०, पृ० ५६ ।
⋙ तूमरी †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तूमडी़' । उ०—सीस जय कर तूमरी, लिये बुल्लि चर दोय ।—प० रासों पृ० ७० ।
⋙ तूमा पु
संज्ञा पुं० [सं० तुम्बक] दे० 'तूँबा' । उ०—तूमा तीन भारती बनायो चौथे नीर भरि हाथ लगायो ।—गुलाल०, पृ० ५७ ।
⋙ तूमार
संज्ञा पुं० [अ०] बात का व्यर्थ विस्तार । बात का बतंगड़ । क्रि० प्र०—बाँधना ।
⋙ तूमरिया सूत
संज्ञा पुं० [हिं० तूमना + सूत] खूब महीन कता हुआ सूत । ऐसा सूत जो तूमी हुई रूई से काता गया हो ।
⋙ तूया
संज्ञा स्त्री० [देश०] काली सरसों ।
⋙ तूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बाजा । नगाडा़ । उ०—तोरन तोरन तूर बजै बर भावत भाँटिन गावति ठाढी़ ।—केशव (शब्द०) । २. तुरही नाम का बाजा । सिंघा ।
⋙ तूर (२)
वि० शीघ्रता करनेवाला । जल्दबाज [को०] ।
⋙ तूर (३)
संज्ञा पुं० हरकारा [को०] ।
⋙ तूर (४)
संज्ञा स्त्री० [फा़० तूल(= लंबाई)] १. गज डेढ़ गज लंबी एक लकडी़ जो जुलाहों के करघे में लगी रहती है और जिसमें तानी लपेटी जाती है । इसके दोनों सिरों पर दो चूर और चार छेद होते हैं । २. वह रस्सी जिसे जनानी पालकी के चारों ओर इसलिये बाँधते हैं जिसमें परदा हवा से उड़ने न पावे । चौबंदी ।
⋙ तूर (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० तुवरी] अरहर ।
⋙ तूर (६)
संज्ञा पुं० [अ०] शाम या सीरिया का एक पहाड़ जिसपर हज— रत मूसा ने ईश्बर का जल्वा देखा था । यौ०—कोह तूर = तूर नामक पहाड़ ।
⋙ तूरज पु
संज्ञा पुं० [सं० तूर्य] दे० 'तूर्य' ।
⋙ तूरण पु
क्रि० वि० [सं० तूर्य] दे० 'तूर्ण' ।
⋙ तूरंत
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी ।
⋙ तूरन पु
संज्ञा पुं० [सं० तूर्ण] दे० 'तूर्ण' । उ०—नंददास की कृति संपूरन । भक्ति मुक्ति पावै सोइ तूरन ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१५ ।
⋙ तूरना (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।
⋙ तूरना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तोड़ना' । उ०—संभु सतावन हैं जग को है कठोर महा सबको मद तूरत ।—शंभु (शब्द०) ।
⋙ तूरना (३)
संज्ञा पुं० [सं० तूर] तुरही । उ०—ताकत सराध कें विवाह कै उछाह कछू डोलि लोल बूझत सबद ढोल तूरना ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तूरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेग । गति [को०] ।
⋙ तूरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० तूर] तुरही नाम का बाजा । उ०—निसि दिन बाजहिं मादर तूरा । रहस कूद सब भरे सेंदूरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तूरान
संज्ञा पुं० [फा़०] फारस के उत्तरपूर्व पड़नेवाला मध्य एशिया का सारा भूभाग जो तुर्क, तातारी, मुगल आदि जातियों का निवासस्थान है । हिमालय के उत्तर अल्टाई पर्वत का प्रदेश ।विशेष—फारस या ईरानवालों का तूरानियों के साथ बहुर्त प्राचीन काल से झगडा़ चला आता था । यह तूरानी जाति वही थी जिसे भारतवासी शक कहते थे । अफरासियाब नामक तूरानी बादशाह से ईरानियों का युद्ध होना प्रसिद्ध है । प्राचीन तूरानी अग्नि की उपासना करते थे और पशुओं की बलि चढा़ते थे । ये आर्यो की अपेक्षा असभ्य थे । इनके उत्पातों से एक बार सारा युरोप और एशिया तंग था । चंगेज खाँ, तैमूर, उसमान आदि इसी तू रानी जाति के अंतर्गत थे ।
⋙ तूरानी (१)
वि० [फा़०] तूरान देश का । तूरान संबंधी ।
⋙ तूरानी (२)
संज्ञा पुं० तूरान देश का निवासी ।
⋙ तूरि
संज्ञा पुं० [सं० तूर] दे० 'तूरि' । उ०—सुनो प्रयाण के विषाण तूरि भेरि ब्रज उठे ।—युगपथ, पृ० ८८ ।
⋙ तूरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धतूरे का पेड़ ।
⋙ तूरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तूर] तूर्य । तूरही ।
⋙ तूरू पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूर' । उ०—जस मारइ कँह बाजा तूरू । सूरी देखि हँसा मंसूरू ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २९५ ।
⋙ तूर्ण (१)
क्रि० वि० [सं०] शीघ्र । जल्दी । तुरंत । उ०—तू तूर्ण और हो पूर्ण सफल, नव नवोमियों के पार उतर ।—गीतिका, पृ० ७ ।
⋙ तूर्ण (२)
वि० फुर्तीला । वेगवान् [को०] ।
⋙ तुर्ण (३)
संज्ञा पुं० त्वरण । वेग । फुर्ती [को०] ।
⋙ तूर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का चावल जिसे त्वरितक भी कहते हैं ।
⋙ तूर्णि (१)
वि० [सं०] फुर्तीला । तेज [को०] ।
⋙ तूर्णि (२)
संज्ञा स्त्री० वेग । गति [को०] ।
⋙ तूर्त (१)
क्रि० वि० [सं०] तुरत । तत्काल । शीघ्र ।
⋙ तूर्त (२)
वि० फुर्तीला । तेज [को०] ।
⋙ तूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुरही । सिंघा । २. मृदंग (को०) ।
⋙ तूर्यओघ
संज्ञा पुं० [सं०] वाद्यवृंद [को०] ।
⋙ तूर्यखंड, तूर्यगंठ
संज्ञा [सं० तूर्यखणड, तूर्यगण्ड] एक प्रकार का मृदंग [को०] ।
⋙ तूर्यमय
वि० [सं०] संगीतात्मक [को०] ।
⋙ तूर्व
क्रि० वि० [सं०] तुरत । शीघ्र ।
⋙ तूर्वयाण
वि० [सं०] १. फुर्तीला । वेग । २. विजेता । ३. सर्वोच्च । श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ तूर्वि
वि० [सं०] तूर्वयाण [को०] ।
⋙ तूल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश । २. तूत का पेड़ । शहतूत । ३. कपास, मदार, सेमर आदि के डोडे के भीतर का धूआ । रूई । उ० । उ०—(क) जेहि मारु तगिरि मेरु उडा़हीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) व्याकुल फिरत भवन वन जहँ तहँ तूल आक उधराई ।—सूर (शब्द०) । ४. घास या तृण का सिरा (को०) । ५. फूल या पौधों का गुल्म (को०) । ६. धतूरा (को०) ।
⋙ तूल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तून = एक पेड़ जिसके फूलों से कपडे़ रँगते हैं ।] हैं । १. सूती कपडा़ जो, चटकीले लाल रंग का होता है । २. गहरा लाल रंग ।
⋙ तूल पु (३)
वि० [सं० तुल्य] तुल्य । समान । उ०—तदपि संकोच समेत कवि कहहिं सीय सम तूल ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तूल (४)
संज्ञा पुं० [अ०] १. लंबेपन का विस्तार । लंबाई । दीर्घता । यौ०—तूल अर्ज = लंबाई और चौडा़ई । तूल तकेल = लंबा चौडा़ । विस्तृत । मुहा०—तूल खींचना = किसी बात या कार्य का आवश्यकता से बहुत बढा़ना । जैसे,—(क) ब्याह का काम बहुत तूल खींच रहा है । (ख) उन लोगों का झगडा़ बहुत तूल खींच रहा है । तूल देना = किसी बात को आवश्यकता से बहूत बढा़ना । जैसे,—हर एक बात को तूल देने की तुम्हारी आदत है । उ०—अफसरों ने कहा खुदा के लिये बातों को तूल न दो ।—फिसाना, भा० ३, पृ० १७६ । तूल पकड़ना = दे० 'तूल— खींचना' । २. विलंब । देर । तवालत (को०) । ३. ढेर (को०) ।
⋙ तूलक
संज्ञा पुं० [सं०] रूई [को०] ।
⋙ तूलकार्मुक, तूलचाप, तूलधनुष
संज्ञा पुं० [सं०] धुनकी [को०] ।
⋙ तूलत
संज्ञा स्त्री० [हिं० तुलना] जहाज की रेलिंग या कटहरे की छड़ में लगी हुई एक खूँटी जिसमें किसी उतारे जानेवाले भारी बोझ में बँधी रस्सी इसलिये अटका दी जाती है जिसमें बोझ धीरे धीरे नीचे जाय, एक दम से न गिर पडे़ ।—(लश०) ।
⋙ तूकतवील
वि० [अ०] बहुत लंबा । उ०—बेगम—बडा़ तूल तवील किस्सा है कोई कहाँ तक बयान करें ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ७२ ।
⋙ तूलता
संज्ञा स्त्री० [सं० तुल्यता] समता बराबरी ।
⋙ तूलना (१)
क्रि० स० [हिं० तुलना] १. धुरी में तेल देने के लिये पहिए को निकालकर गाडी़ को किसी लकडी़ के सहारे पर ठहराना । २. पहिए की धुरी में तेल या चिकना देना ।
⋙ तूलना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० तुलना] तुल्य होना । तुलित होना । उ०—सु मध्य सीस फुलयं, दिनेस तेल तूलयं ।—ह० रासो, पृ० २४ ।
⋙ तूलनालिका, तूलनाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूनी [को०] ।
⋙ तूलपटिका, तूलपटी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] रजाई [को०] ।
⋙ तूलपिचु
संज्ञा पुं० [सं०] रुई [को०] ।
⋙ तूलफजूल
संज्ञा पुं० [अ० तूल + फुजूल] व्यर्थ विवाद । अनावश्यक झंझट । उ०—यदि बिना तूलफजूल किए ही जमीन नकदी हो रही है तो सोशलिस्ट पार्टी में जाने की क्या जरूरत है ।—मैला०, पृ० १५३ ।
⋙ तूलमतूल
क्रि० वि० [सं० तुल्य या अ० तूल (= लंबाई)] आमने सामने । बराबरी पर । उ०—कंत पियारे भेट देखौ तूलम तूल होइ । भए बयस दुइ हेंठ मुहमद निति सरवरि करैं ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तूलवती
संज्ञा स्त्री० [सं० ] नील ।
⋙ तूलवृत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शाल्मली वृक्ष । सेमर का पेड़ ।
⋙ तूलशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपास का बीज । बिनौला ।
⋙ तूलसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] रूई से सूत कातने का काम ।
⋙ तूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपास । २. दिए की बत्ती [को०] ।
⋙ तूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तूलिका [को०] ।
⋙ तूलीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्रकारों की कूँची जिससे वे रंग भरते हैं । तसवीर बनानेवालों की कलम । २. रूई की बत्ती (को०) । ३. रूई का गद्दा (को०) । ४. बरमा (को०) । ५. धातु का साँचा (को०) ।
⋙ तूलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मणकंद । २. सेमर का पेड़ ।
⋙ तूलिफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेमर का पेड़ ।
⋙ तूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का वृक्ष या पौधा । २. रंग भरने की कूँची । ३. लकडी़ का एक औजार जिसमें कूँची के रूप में खडे़ रेशे जमाए रहते हैं और जिससे जुलाहे फैलाया हुआ सूत बैठाते हैं । जुलाहों की कूँची । ४. दिए की बत्ती या बाती (को०) ।
⋙ तूव पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूँबा' । उ०—कटि केस वेस मनु उई दूब । कट मुंड परे ज्यों वेलि तूव ।—सुजान०, पृ० २२ ।
⋙ तूवर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तुवरक' ।
⋙ तूवरक
संज्ञा पुं० [सं०] १.डूँडा़ बैल । बिना सींग का बैल । २. बिना दाढी़ मौंछ का मनुष्य । हिजडा़ । २. कषाय रस । कसैला रस । ४. अरहर ।
⋙ तूवरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरहर । २. गोपीचंदन ।
⋙ तूवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तूवरिका' ।
⋙ तूष
संज्ञा पुं० [सं०] कपडे़ का किनारा [को०] ।
⋙ तूष्णी (१)
वि० [सं० तूष्णीम् (अव्य०)] मौन । चुप ।
⋙ तूष्णी (२)
संज्ञा स्त्री मौन । खामोशी । चुप्पी । उ०—वंचकता, अपमान, अमान, अलाभ भुजंग भयानक तूष्णी ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ तूष्णी (३)
क्रि० वि० चुपचाप । बिना बोले हुए [को०] ।
⋙ तूष्णीक
वि० [सं०] मौनावलंबी । मौन साधनेवाला ।
⋙ तूष्णदंड
संज्ञा पुं० [सं० तूष्णीदण्ड] ऐसा दंड जो गुप्त रूप से दिया जाय [को०] ।
⋙ तूष्णीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] मौनभाव । चुप्पी [को०] ।
⋙ तूष्णी युद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य कथित वह युद्ध जिसमें षड्यंत्र के द्वारा शत्रु के मुख्य व्यक्तियों को अपने पक्ष में कर लिया जाय ।
⋙ तूष्णीशील
संज्ञा पुं० [सं०] चुप रहनेवाला । चुप्पा । बहुत कम बोलनेवाला [को०] ।
⋙ तूस (१)
संज्ञा पुं० [सं० तुष] भूसी । भूसा । उ०—जे दिन षीन रे तिहूँ ते बढ़ित ते सब सुष्षत्त नभ न तूस ।—अकबरी०, पृ ३१८ ।
⋙ तूस (१)
संज्ञा पुं० [तिब्बती योश] [वि० तूसी] १. एक प्रकार का बहुत उत्तम ऊन जो हिमालय पर काश्मीर से लेकर नैपाल तक पाई जानेवाली एक पहाडी़ बकरी के शरीर पर होता है । पशम । पशमीना । उ०—तूस तुराई में दुरे दूरो जाय न त्यागि ।—राम० धर्म०, पृ० २३४ । विशेष—यह पहाडी़ बकरी हिमालय पर बहुत ऊँचाई तक, बर्फ के निकट तक, पाई जाती है । यह ठंढे से ठंढे स्थानों में रह सकती है और काश्मीर से लेकर मध्य एशिया में अलटाई पर्वत तक मिलती है । इसके शरीर पर घने मुलायम रोयों की बडी़ मोटी तह होती है जिसके भीतरी ऊन को काशमीर में असली तूस या पशम कहते हैं । यह दुशालों में दिया जाता है । खालिस तूस का भी शाल बनता है जिसे तूसी कहते हैं । ऊपर के ऊन या रोएँ से या तो रस्सियाँ बटी जाती हैं या पट्टू नाम का कपडा़ बुना जाता है । तूसवाली बकरियाँ लद्दाख में जाडे़ के दिनों में बहुत उतरती हैं और मारी जाती हैं । २. तूस के ऊन का जमाया हुआ कंबल या नमदा ।
⋙ तूस पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] भय । त्रास । उ०—अधम गीत मूसे अडर, त्रिविध कुकवि विण तूस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ७८ ।
⋙ तूसदान
संज्ञा पुं० [पुर्त्त० कारटूश + दान (प्रत्य)] कारतूस ।
⋙ तूसना पु (१)
क्रि० स० [सं० तुष्ट] १. संतुष्ट करना । तृप्त करना । २. प्रसन्न करना ।
⋙ तूसना (२)
क्रि अ० संतुष्ट होना ।
⋙ तूसा
संज्ञा पुं० [सं० तुष] चोकर । भूसी ।
⋙ तूसी (१)
वि० [हिं० तूस] तूस के रंग का । स्लेट या करंज के रंग का करंजई ।
⋙ तूसी (२)
संज्ञा पुं० एक रंग जो करंज या स्लेट के रंग की तरह का होता है । विशेष—यह रंग हड़, माजूफल और कसीस से बनता है ।
⋙ तूस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूल । रेणु । रज । २. अणु । कणिका । ३. जटा । ४. चाप । धनुष । ५. पाप (को०) ।
⋙ तृंढ
वि० [सं० तृण्ढ] १आहत । २. दुःखी । ३. मारा हुआ । निहत [को०] ।
⋙ तृंहण
संज्ञा पुं० [सं०] १ आघात, कष्ट या दुःख देना । २. वध [को०] ।
⋙ तृत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कश्यप ऋषि ।
⋙ तृत्क्षाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।
⋙ तृख
संज्ञा पुं० [सं०] जातीफल । जायफल ।
⋙ तृखा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तृषा] दे० 'तृषा' ।
⋙ तृखावंत
वि० [सं० तृषा, हिं० तृखा + वंत] दे० 'तृषावंद' । उ०— जैसे भूखे प्रीत अनाज, तृखावंत जल सेती काज ।—दक्खिनी०, पृ० ४४ ।
⋙ तृगुनता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिगुण + ता (प्रत्य०)] दे० 'त्रिगुणता' ।उ०—तन परिहरि मन दै तुव पद हैं लोक तृगुनता छीनी ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५८१ ।
⋙ तृच
संज्ञा पुं० [सं०] तीन छँदोंवाला पद्य [को०] ।
⋙ तृजग
वि० [सं० तिर्यक्] दे० 'तिर्यक्' । उ०—तृजग जोनि गत गीध जनम भरि खरि खाइ कुजंतु जियो हों ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—तृजग जोनि = तिर्यक् योनि ।
⋙ तृण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह उद्भिद् जिसकी पेडी़ या कांड में छिलके और हीर का भेद नहीं होता और जिसकी पत्तियों के भीतर केवल समानांतर (प्रायः लंबाई के बल) नसे होती हैं, जाल की तरह वुनी हुई नहीं । जैसे, दूब, कुश, सरात, मूँज, बाँस, ताड़ इत्यादि । घास । उ०—ऊसर बरसे तृण नहिं जामा ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—तृण की पेडी़ या कांडों के तंतु इस प्रकार सीधे क्रम से नहीं बैठे रहते कि उनके द्वारा मंडलांतर्गत मंडल बनते जायँ, बल्कि वे बिना किसी क्रम के इधर उधर तिरछे होकर ऊपर की और गए रहते हैं । अधिकांश तृणों के कांडों में प्रायः गाँठें थोडी़ थोडी़ दूर पर होती हैं और इन गाँठों के बीच का स्थान कुछ पोला होता है । पत्तियाँ अपने मूल के पास डंठल को खोली की तरह लपेटे रहती हैं । पृथ्वी का अधिकांश तल छोटे तृणों द्वारा आच्छादित रहता है । अर्क— प्रकाश नामक वैद्यक ग्रंथ में तृणगण के अंतर्गत तीन प्रकार के बाँस, कुश, काँस, तीन प्रकार की दूब, गाँडर, नरकट, गूँदी, मूँज, डाभ, मोथा इत्यादि माने गए हैं । मुहा०—तृण गहना या पकड़ना = हीनता प्रकट करना । गिड़— गिडा़ना । तृण गहाना या पकड़ना = नम्र करना । विनीत करना । वशीभूत करना । उ०— कहो तो ताको तृण गहाय के जीवत पायन पारौं ।—सूर (शब्द०) । (किसी वस्तु पर) तृण टूटना = किसी वस्तु का इतना सुंदर होना कि उसे नजर से बचाने के लिये उपाय करना पडै़ । उ०—आजु को बानिक पै तृण टूटत है कही न जाय कछू स्याम तोहि रत ।—स्वा० हरिदास (शब्द०) । विशेष—स्त्रियाँ बच्चे पर से नजर का प्रभाव दूर करने के लिये टोटके की तरह पर तिनका तोड़ती हैं । तृणवत् = तिनके बराबर । अत्यंत तुच्छ । कुछ भी नहीं । तृण बराबर या समान = दे० 'तृणपत्' । उ०—अस कहि चला महा अभिमानी । तृण समान सुग्रीवहिं जानी ।—तुलसी (शब्द०) । तृण तोड़ना = किसी सुंदर वस्तु को देख उसे नजर से बचने के लिये उपाय करना । उ०—(क) गाँथे महामनि मोर मंजुल अंग सब तृण तोरहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखत छवि जननी तृण तोरी ।—तुलसी (शब्द०) । (किसी से) तृण तोड़ना = संबंध तोड़ना । नाता मिटाना । उ०—भुजा छुडाइ तोरि तृण ज्यों हित करि प्रभु निठुर हियो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ २. तिनका (को०) । ३. खर पात (को०) ।
⋙ तृणक
संज्ञा पुं० [सं०] घास की खराब पत्ती [को०] ।
⋙ तृणकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि ।
⋙ तृणकांड
संज्ञा पुं० [सं० तृणकाण्ड] घास का ढेर [को०] ।
⋙ तृणकीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] घासवाली जमीन [को०] ।
⋙ तृणकुंकुम
संज्ञा पुं० [सं० तृणकुङ्कुम] एक सुगंधित घास । रोहित घास ।
⋙ तृणकुटी,तृणकुटीर, तृणकुटीरक
संज्ञा पुं० [सं०] घास फूस की बनी मडै़या या झोपडी़ [को०] ।
⋙ तृणकूट
संज्ञा पुं० [सं०] घास का ढेर [को०] ।
⋙ तृणकूर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कूँची या छोटी झाडू [को०] ।
⋙ तृणकूर्म
संज्ञा पुं० [सं०] गोल कददू ।
⋙ तृणकेतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तीखुर ।
⋙ तृणकेतु
संज्ञा पुं० दे० [सं०] 'तृणकेतुक' ।
⋙ तृणकेतुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस । २. ताड़ का पेड़ ।
⋙ तृणगोधा
संज्ञा स्त्री० [सं] एक प्रकार का गिरगिट [को०] ।
⋙ तृणगौर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तृणकुंकुम' [को०] ।
⋙ तृणग्रंथी
संज्ञा स्त्री० [सं० तृणग्रन्थी] स्वर्णजीवंती ।
⋙ तृणग्राही
संज्ञा पुं० [सं० तृणग्राहिन्] एक रत्न का नाम । नीलमणि ।
⋙ तृणचर (१)
वि० [सं०] तृण चरनेवाला (पशु) ।
⋙ तृणचर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] गोमेदक मणि ।
⋙ तृणजंभा
वि० [सं० तृणजम्भन्] घास चरने योग्य । घास चरनेवाला ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ तृणजलायुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तृणजलौका' ।
⋙ तृणजलौका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की जोंक ।
⋙ तृणजलौका न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] तृणजलौका के समान । विशेष—इस वाक्य का प्रयोग नैयायिक लोग उस समय करते हैं उन्हें जब आत्मा के एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाने का दृष्टांत देना होता है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार जोंक जल में बहते हुए तिनके के अंत तक पहुँच जब दूसरा तिनका थाम लेती है, तब पहले कौ छोड़ देती है । इसी प्रकार आत्मा जब दूसरे शरीर में जाती है, तब पहले को छोड़ देती है ।
⋙ तृमजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनस्पति जिसमें घास और शाक आदि गृहीत हैं [को०] ।
⋙ तृणज्योतिस्
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष्मती लता ।
⋙ तृणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तृणवत्ता । निरर्थकता । २. धनुष [को०] ।
⋙ तृणद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ का पेड़ । २. सुपारी का पेड़ । ३. खजूर का पेड़ । ४. केतकी का पेड़ । ५. नारियल का पेड़ । ६. हिंताल ।
⋙ तृणधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिन्नी का चावल । मुन्यन्न । तिन्नी का धान ।२सावाँ ।
⋙ तृणध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस । २. ताड़ का पेड़ ।
⋙ तृणनिंब
संज्ञा पुं० [सं० तृणनिम्ब] चिरायता ।
⋙ तृणप
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक गंधर्व का नाम ।
⋙ तृणपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इक्षुदर्भ नामक तृण ।
⋙ तृणपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] इक्षुदर्भ नामक तृण [को] ।
⋙ तृणपीड़
संज्ञा पुं० [सं० तृणपीड] एक प्रकार की लडा़ई । हाथों के द्वारा लडा़ई ।
⋙ तृणपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृणकेशर । २. ग्रंथिपर्णी । गठिवन ।
⋙ तृणपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिंदूरपुष्पी नामक घास ।
⋙ तृणपूलिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गर्भपात [को०] ।
⋙ तृणपूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] नरकट की चटाई [को०] ।
⋙ तृणप्राय
वि० [सं०] तृणवत् । तिनके जैसा । तुच्छ [को०] ।
⋙ तृणबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० तृणबिन्दु] दे० 'तृणविंदु' [को०] ।
⋙ तृणमत्कुण
संज्ञा पुं० [सं०] जमानत देनेवाला । जमिन [को०] ।
⋙ तृणमणि
संज्ञा पुं० [सं०] तृण को आकर्षिक करनेवाला मणि । कहरुबा ।
⋙ तृणमय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तृणमयी] घास का बना हुआ ।
⋙ तृणराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. खजूर । २. ताड़ । ३. नारियल ।
⋙ तृमवत्
वि० [सं०] तिनके के समान ।अत्यंत तुच्छ [को०] ।
⋙ तृणविदुं
संज्ञा पुं० [सं० तृणविन्दु] एक ऋषि जो महाभारत के काल में थे और जिनसे पांडवों से वनवास की अवस्था में भेंट हुई थी ।
⋙ तृणवृत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तृणद्रुम' [को०] ।
⋙ तृणशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] घास का बीछौना । चटाई । साथरी ।
⋙ तृणशाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ । २. बाँस का पेड़ [को०] ।
⋙ तृणशीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोहिस घास जिसमें से नीबू की सी सुगंध आती है । २. जलपिप्पली ।
⋙ तृणशीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक सुगंधित घास [को०] ।
⋙ तृणशून्य (१)
वि० [सं०] बिना तृण का । तृण से रहित ।
⋙ तृणशून्य (२)
संज्ञा पुं० १. मल्लिका । २. केतकी ।
⋙ तृणशूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता का नाम ।
⋙ तृणशोषक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप ।
⋙ तृणषट्पद्
संज्ञा पुं० [सं०] बरें । ततैया [को०] ।
⋙ तृणसंवाह
संज्ञा पुं० [सं०] पवन [को०] ।
⋙ तृणसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदली । केला ।
⋙ तृणसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का सिंह । २. कुल्हाडी़ [को०] ।
⋙ तृणस्पर्श परीषह
संज्ञा पु० [सं०] दर्भादि कठोर तृणों को बिछा— कर लेटने और उनके गड़ने की पीडा़ को सहने की क्रिया । (जैन) ।
⋙ तृणहर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] घास फूस की झोपडी़ [को०] ।
⋙ तृणांजन
संज्ञा पुं० [सं० तृणाञ्जन] एक प्रकार का गिरगिट [को०] ।
⋙ तृणाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घास फूस की ऐसी आग जो जल्दी बुझ जाय । २. जल्दी बुझनेवाली । ३. घास फूल की आग से अपराधी को जलाकर दिया जानेवाला दंड [को०] ।
⋙ तृणाढ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का तृण जो ओषध के काम में आता है । पर्व तृण । २. जंगल जो तृणबहुल हो (को०) ।
⋙ तृणाग्न
संज्ञा पुं० [सं०] तृणधान्य । तिन्नी [को०] ।
⋙ तृणाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] लवण तृण । नोनिया । अमलोनी ।
⋙ तृणारणि न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] तृण और अरणी रूप स्वतंत्र कारणों के समान व्यवस्था । विशेष—अग्नि के उत्पन् होने में तृण और अरणी दोनों कारण तो हैं पर परस्पर निरपेक्ष अर्थात् अलग अलग कारण हैं । हैं । अरणी से आग उत्पन्न होने का कारण दूसरा है और तृण में आग लगने का कारण दूसरा ।
⋙ तृणावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] चक्रवात । बबंडर । २ एक दैत्य का नाम । विशेष—इसे कंस ने मथुरा से श्रीकृष्ण को मारने के लिये गोकुल भेजा था । यह चक्रवात (बवंडर) का रूप धारण करके आया था और बालक कृष्ण को ऊपर उड़ा ले गया था । कृष्ण ने ऊपर जाकर जब इसका गला दबाया तब यह गिरकर चूर चूर हो गया ।
⋙ तृणेंद्र
संज्ञा पुं० [सं तृणेन्द्र] ताड़ का पेड़ ।
⋙ तृणेत्क्षु
संज्ञा पुं० [सं०] वल्वजा । सागे बागे ।
⋙ तृणोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] उखर्वल । उखल तृण ।
⋙ तृणोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] मुन्यन्न । तिन्नी धान । पसही ।
⋙ तृणोल्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] घास फूस की मशाल ।
⋙ तृणौक
संज्ञा पुं० [सं० तृणौकस्] घास फूस की झोपड़ी [को०] ।
⋙ तृणौषध
संज्ञा पुं० [सं०] एलुवा । एलुवालुक नामक गंधद्रव्य ।
⋙ तृण्णा
वि० [सं०] १. काटा हुआ । २. कटा हुआ [को०] ।
⋙ तृण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] घास या तिनकों का ड़ेर [को०] ।
⋙ तृतिय पु
वि० [हिं०] दे० 'तृतीय' । उ०—तृतिय प्रतीप बखा— नहीं, तहँ कविकुल सिरमौर ।—भूषण ग्रं०, पृ० ८ ।
⋙ तृतिया पु
वि० [हिं०]दे० ' तृतीया' । उ०—तृतिया अनुसयना कही, हौं न गई पछिताय ।—मति ग्रं०, पृ० २९० ।
⋙ तृतीय (१)
वि० [सं०] तीसरा ।
⋙ तृतीय (२)
संज्ञा पुं० १. किसी वर्ग का तीसरा व्यंजन वर्ण । २. संगीत का एक मान ।
⋙ तृतीयक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीसरे दिन आनेवाला ज्वर । तिजार । यौ०—तृतीयक ज्वर = तिजरा । २. तीसरी बार होनेवाली स्थिति (को०) । ३. तीसरा क्रम (को०) ।
⋙ तृतीयप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरुष और स्त्री के अतिरित्क एक तीसरी प्रकृतिवाला । नपुंसक । क्लीव । हिजड़ा ।
⋙ तृतीय सवन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निष्टोम आदि यज्ञों का तीसरा सवन जिसे सायं सवन भी कहते हैं । दे० 'सवन' ।
⋙ तृतीयांश
संज्ञा पुं० [सं०] तीसरा भाग ।
⋙ तृतीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रत्येक पक्ष का तीसरा दिन । तीज । २. व्याकरण में करण कारक ।
⋙ तृतीया तत्पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] तत्पुरुष समास का एक भेद ।
⋙ तृतीया नायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० तृतीया + नायिका] नायिका भेद के अनुसार अधमा या सामान्या नायिका । दे० 'नायिका' । उ०—वास्तव में पश्चिमीय सभ्यता अभी बाला और तृतीया नायिका वा वेश्या—वृत्ति—धारणी है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५९ ।
⋙ तृतीयाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] तीसरा आश्रम । वानप्रस्थ ।
⋙ तृतीयी
वि० [सं० तृतीयिन्] १. तीसरे का हकदार । जिसे किसी संपत्ति का तृतीयांश पाने का स्वत्व हो (स्मृति) । २. तीसरी श्रेणी प्राप्त करनेवाला (को०) ।
⋙ तृन (१)
संज्ञा पुं० [सं० तृण] दे० 'तृण' । मुहा०—तृन सा गिनना = कुछ न समझना । तृन ओट पहार छपाना = (१) असंभव कार्य के लिये प्रयत्न करना । (२) निष्फल चेष्टा करना । उ०—मैं तृन सो गन्यो तीनहू लोकनि, तू तृन ओट पहार छपावै ।—मति० ग्रं०, पृ० ४३४ । तृन तोड़ना = दे० 'तृण तोड़ना' । उ०—झूलत में लोट पोट होत दोऊ रंग भरे निरखि छबि नंददास बलि बलि तृन तौरै ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७७ ।
⋙ तृन पु (२)
वि० [हिं०] दे० 'तीन' । उ०—तृन अंश बृस्चिक के इला— नंद । ससि बीस नंद अज अंस मंद ।—ह० रासो, पृ० १४ ।
⋙ तृन जोक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० तृन + जोक] तृणजलौका । दे० 'तृण— जलौकान्याय' । उ०— ज्यौं तृन जोक तृनन अनुसरै । आगे गहि पाछे परिहरै ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२२ ।
⋙ तृनद्रुमा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृणद्रुम' । उ०—ताल खजूरी, तृनद्रुमा, केतकि पकरति पाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०५ ।
⋙ तृनावर्त्त पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तृणावर्त' । उ०—पुनि जब एक बरष को भयौ । तृनावर्त उड़ि लै नभ गयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१० ।
⋙ तपत्
संज्ञा पुं० [सं०] १.चंद्रमा । २. छाता [को०] ।
⋙ तृपतना पु
क्रि० अ० [सं० तृप्ति] तृप्त होना । संतुष्ट होना । अघाना । उ०—निरवधि मधु की धारा आहि । सु को जु तृपतै पीवत ताहि ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७९ ।
⋙ तृपता पु
वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०—दादू जब मुख माहैं मेलिये, सबही तृपता होइ ।—दादू०, पृ० १८७ ।
⋙ तृपति पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृप्ति' । उ०—भोजन करै तृपति सो होई । गुरू शिष्य भावै किन कोई ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३६ ।
⋙ तृपल (१)
वि० [सं०] १. प्रसन्न । खुश । २. संतुष्ट । ३. बेचैन । व्याकुल [को०] ।
⋙ तृपल (२)
संज्ञा पुं० उपल । पत्थर [को०] ।
⋙ तृपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लता । २. त्रिफला ।
⋙ तृपित पु †
वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' ।
⋙ तृप्त
वि० [सं०] १. तुष्ट । अघ्राया हुआ । जिसकी इच्छा पूरी हो गई हो । २, प्रसन्न । खुश ।
⋙ तृप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इच्छा पूरी होने से प्राप्त शांति और आनंद । संतोष । उ०—फिरत वृथा भाजन अवलोकत सूने सदन अजान । तिहिं लालच कबहुँ कैसेहुँ तृप्ति न पावत प्रान ।—सूर (शब्द०) । २. प्रसन्नता । खुशी ।
⋙ तृप्पना पु
क्रि० स० [सं० तृत्पि] तृप्त करना । संतुष्ट करना । उ०—ज्वालनिय माल तृप्पय नृपति, अति सुदेव नइवेद जुल ।—पृ० रा०, २४ । २७९ ।
⋙ तृप्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत । घी । २. पुरोडाश । ३. तृप्त करनेवाला । तर्पक ।
⋙ तृफू
संज्ञा स्त्री० [सं०] सर्प जाति [को०] ।
⋙ तृबैनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] डे० 'त्रिवेणी' । उ०—पावन परम देखि, मदन मद तृबैनी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४८ ।
⋙ तृभंगी
वि० [हिं०] दे० 'त्रिभंगी' । उ०—धरै टेढ़ी पाग, चंद्रिका टेढ़ी टेढ़े लसै तृभंगी लाल ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५० ।
⋙ तृश्ना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तृष्णा] दे० 'तृष्णा' । उ०—जोगी दुखिया जंगम दुखिया तपसी को दुख दूना हो । आसा तृश्ना सबको व्यापै कोई महल न सूना हो ।—कबीर श०, भा० १, पृ० १९ ।
⋙ तृषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० तृषित, तृष्य] १. प्यास । २. इच्छा अभिलाषा । ३. लोभ । लालच । ४. कलिहारी । करियारी ।
⋙ तृषाभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेट में जल रहने का स्थान । क्लोम ।
⋙ तृषाया पु
वि० [सं० तृषित] तृषित । प्यासा । उ०— संग सोई पिये, नहिं फिरे तृषाया बहर ।— दरिया० बानी, पृ० ३१ ।
⋙ तृषालु
वि० [सं०] प्यासा । पियासित । तृषित । तृषार्त ।
⋙ तृषावंत
वि० [सं० तृषावान् का बहुव०] प्यासा । उ०— तृषावंत जिमि पाय पियूषा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तृषार्त
वि० [सं०] प्यास से व्याकुल । प्यासा [को०] ।
⋙ तृषावान्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तृषावती] प्यासा ।
⋙ तृषास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] क्लोम ।
⋙ तृषाह
संज्ञा पुं० [सं०] पानी [को०] ।
⋙ तृषाहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंफ ।
⋙ तृषित
वि० [सं०] १. प्यासा । उ०—तृषित वारि बिनु जो तनु त्यागा । मुए करै का सुधा तड़ागा ।—तुलसी (शब्द०) । २. अभिलाषी । इच्छुक ।
⋙ तृषितोत्तरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] असनपर्णी । पटसन ।
⋙ तृषु
वि० [सं०] १. लोभी । इच्छुक । २. वेगवान् । क्षिप्र [को०] ।
⋙ तृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्ति के लिये आकुल करनेवाली इच्छा । लोभ । लालच । २. प्यास ।
⋙ तृष्णाकुल
वि० [सं० तृष्णा + आकुल] प्यास से विकल । तृषित । उ०—तृष्णाकुल होंगे प्रिय जाओ । सलिल स्नेह मिल मधुर पिलाओ ।—गीतिका, पृ० ४४ ।
⋙ तृष्णात्क्षय
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा का समाप्त होना । २. मानसिक शांति । चित की स्थिरता । ३. संतोष ।
⋙ तृष्णारि
संज्ञा पुं० [सं०] पितपापड़ा ।
⋙ तृष्णार्त
वि० [सं० तृष्णा + आर्त] प्यास से कातर । तृष्णा से आर्त । उ०—दूर हो दूरित जो जग जागा तृष्णातँ ज्ञान ।— गीतिका, पृ० ७० ।
⋙ तृष्णालु
वि० [सं०] १. प्यासा । २. लालची । लोभी ।
⋙ तृष्य (१)
वि० [सं०] इच्छा करने योग्य । चाहने लायक [को०] ।
⋙ तृष्य (२)
संज्ञा पुं० १. लोभ । लालच । २. प्यास [को०] ।
⋙ तृसंधि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रि + सन्धि] तीन काल । तीन पहर । उ०—समीं साँझै सोइबा मंझै जागिबा तृसँधि देणा पहरा ।—गोरख०, पृ० ८६ ।
⋙ तृसालवाँ पु
वि० [सं० तृषा] तृषालु । प्यासा । उ०—अरहर बहै तृसालवाँ, सूलै काँटा भागा ।—गोरख०, पृ० ११२ ।
⋙ तेंदुस
संज्ञा पुं० [सं० टिण्डश] डेड़सी नाम की तरकारी ।
⋙ तँ पु †
प्रत्य० [सं० तस् (प्रत्य०)] १. से । द्वारा । उ०—रज तें रजनी दिन भयो पूरि गयो असमान ।—गोपाल (शब्द०) । २. से (अधिक) । उ०—(क) को जग मंद मलिन मति मो तें ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) नैना तेरे जलज ते है खंजन तैं अति नाचैं ।—सूर (शब्द०) । (ग) चपला तें चमकत अति प्यारी कहा करौगी श्यामहिं ।—सूर (शब्द०) । विशेष—कहीं कहीं 'अधिक' बढ़कर' आदि शब्दों का लोप करके भी 'तें' से अपेक्षाकृत आधिक्य का अर्थ निकालते हैं । वि० दे० 'से' । ३. (किसी काल या स्थान) से । उ०—द्यौसक तें पिय चित चढ़ी कहै चढ़ौहैं त्यौर ।—बिहारी (शब्द०) । विशेष— दे० 'से' ।
⋙ तेँतरा
संज्ञा पुं० [देश०] बैलगाड़ी में फड़ के गीचे लगी हुई लकड़ी ।
⋙ तेँतालिस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेँतालीस' ।
⋙ तेँतालिसवाँ
वि० [हिं०] दे० 'तेँतालीसवाँ' ।
⋙ तेँतालीस (१)
वि० [सं० त्रिचत्वारिंश्त, पा० तिचतालीसा] जो गिनती में बयालिस से एक अधिक और चौवालीस से एक कम हो । चालीस और तीन ।
⋙ तेँतालीस (२)
संज्ञा पुं० चालीस से तौन अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—४३ ।
⋙ तेँतालीसवाँ
वि० [हिं० तेतालीस + वाँ] क्रम में तेँतालीस के स्थान पर पड़नेवाला । जिसकै पहले बयालिस और हों ।
⋙ तेँतिस
वि०, संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेंतीस' ।
⋙ तेँतिसवाँ
वि [हिं०] दे० 'तेतीसवाँ' ।
⋙ तेँतीस (१)
वि० [सं० त्रयस्ञिंशत् पा० तितिंसति, प्रा० तितीसा] जो गीनती में तीस से तीन अधिक हो । तीस और तीन । उ०—नौ खेलै तेंतीस तीन । तेज बेद विष संग लीन ।— कबीर श०, भा० २, पृ० ११५ ।
⋙ तेँतीस (२)
संज्ञा पुं० तीस से तीन अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार ल्खी जाती है—३३ ।
⋙ तेँतीसवाँ
वि० [हिं० तेँतीस + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में तेंतीस के स्थान पर पड़े । जिसके पहले बत्तीस और हों ।
⋙ तेँदुआ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बिल्ली या चीते की जाति का एक बड़ा हिंसक पशु जो अफ्रीका तथा एशिया के घने जंगलों में पाया जाता है । विशेष—बल और भयंकरता आदि में शेर और चीते के उपरांत इसी का स्थान है । यह चीते से छोटा होता है और चीते की तरह इसकी गरदन पर भी अयाल नहीं होता । इसकी लंबाई प्रायः चार पाँच फुट होती है और इसके शरीर का रंग कुछ पीलापन लिए भूरा होता है । इसके शरीरपर काले काले गोल धब्बे या चित्तियाँ होती हैं । इस जाति का कोई कोई जानवर काले रंग का भी होता है ।
⋙ तेँदुन्आ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेँदू' ।
⋙ तेँदू
संज्ञा पुं० [सं० तिन्दुक] १. मझोले आकार का एक वृक्ष जो भारतवर्ष, लंका, बरमा और पूर्वी बंगाल के पहाड़ी जंगलों में पाया जाता है । विशेष—यह पेड़ जब बहुत पुराना हो जाता है तब इसके हीर की लकड़ी बिलकुल काली हो जाती है । वही लकड़ी आबनूस के नाम से बिकती है । इसके पत्ते लंबोतरे, नोकदार, खुरदुरे और महुवे के पत्तों की तरह पर उससे नुकीले होते हैं । इसकी छाल काली होती है जो जलाने से चिड़चिड़ाती है । पर्या०—कालस्कंघ । शितिशारथ । केंदु । तिंदु । तिंदुल । तिंदुकी । नीलसार । अतिमुत्कक । कालसार । २. इस पेड़ का फल जो नींबू की तरह का हरे रंग का होता है और पकने पर पाला हो जाता और खाया जाता है । विशेष—वैद्यक में इसके कच्चे फल को स्निग्ध, कसैला, हलका, मलरोधक, शीतल, अरुचि और वात उत्पन्न करनेवाला और पक्के फल को भारी, मधुर, स्वादु, कफकारी और पित्त, रक्तरोग और वात का नाशक माना है । ३. सिंध और पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का तरबूज जिसे ' दिलपसंद' भी कहते हैं ।
⋙ ते पु † (१)
अव्य० [हिं०] दे० 'तेँ' । उ०—के कुदरत ते पैदा किया यक रतन ।—दक्खिनी०, पृ० ११७ ।
⋙ ते † (२)
सर्व [सं० ते] वे । वे लोग । उ०—(क) पलक नयन फनिमनि जेहि भाँती । जोगवहिं जननि सकल दिन राती । ते अब फिरत विपिन पदचारी । कंद मूल फल फूल अहारी ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) राम कथा के ते अधिकारी । जिनको सतसंगति आति प्यारी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तेइ पु
संज्ञा पुं० [हिं० ते] उसे । उ०—कवि तौ तेइ पाहन सम मानै । नदिन पखान पखान बखानै ।—नंद० ग्रं० पृ० ११८ ।
⋙ तेइस † (१)
वि० [हिं०] दे० 'तेईस' ।
⋙ तेइस † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेईख' ।
⋙ तेइसवाँ †
वि० [हिं०] दे० 'तेईसवाँ' ।
⋙ तेईस
[सं० त्रिबिंशति, पा० तेवीसति, प्रा० तेवीस] जो गिनती में बीस से तीन अधिक हो । बीस और तीन ।
⋙ तेईस (२)
संज्ञा पुं० बीस से तीन अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखई जाती है— २३ ।
⋙ तेईसावाँ
वि० [हिं० तेईस + वाँ (प्रत्य०)] क्रम में तेईस के स्थान पर पड़नेवाला । जिसके पहले बाईस और हों ।
⋙ तेउँ
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' । उ०—/?/परेम की, जेउँ भावे तेउँ खेलु ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६१ ।
⋙ तेक पु०
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तेग' । उ०—तेक तोकि तक्यौ तुरी ।—पृ० रा०, ७ ।१००५ ।
⋙ तेखना (१)पु
क्रि० अ० [सं० तीक्ष्ण, हिं० तेहा] बिगड़ना । क्रुद्ध होना । नाराज होना । उ०—उ० (क) सुंभ बोल्यो तबै भैम सों तेखि कै । लाल नैना धरे वक्रता देखि कै ।—गोपाल (शब्द०) । (ख) हनुमान या कौन बलाय बसी कछु पूछे ते ना तुम तेखियो री । हित मानि हमारो हमारे कहे भला मो मुख की छबि देखियो री ।—हनुमान (शब्द०) । (ग) मोही को झूँठी कहौं झगरो करि सौंह करौं तब और ऊ तेखौ । बैठे हैं दोऊ बगीचे में जायकै पाई परों अब आइकै देखौ ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ तेखना (२)पु
क्रि० अ० [हिं०] प्रसन्न होना । उमंग में आना । उ०—डारत अतर लगाइ अरगजा रँगिली समधिन तेखि ।— पृ० ३८० ।
⋙ तेखी पु
वि० [हिं० तीखा] क्रोधयुक्त । क्रुद्ध । उ०—दिस लंक अंगद आद द्वादस, तहकिया तेखी ।—रघु० रु०, पृ० १६१ ।
⋙ तेग
संज्ञा स्त्री० [फा़० तेग्र] तलवार । खंग । उ०—(क) जो रनसूर तेग तजि देवैं । तो हमहूँ तुम्हरो मत लेवैं ।—विश्राम (शब्द०) । (ख) बरनै दिनदयाल हरषि जो तेग चलैहौ । ह्वैहो जीते जसी, लरे सुरलोकहि पैहो ।—दीनदयालु (शब्द०) ।
⋙ तेगा
संज्ञा पुं० [फा़० तेग] १. खाँड़ा । खंग (अस्त्र) । उ—तेगा ये द्दग मौत के पानि पवार सुघाट । अंजन बाढ़ दीए बिना करत चौगुनी काट ।—रसनिधि (शब्द०) । २. किसी मेहराव के नीचे के भाग या दरवाजे को ईंट पत्थर मिट्टी इत्यादि से बंद करने की क्रिया । ३. कुश्ती का एक दाँव या पेंच जिसे कमरतेगा भी कहते हैं ।
⋙ तेज (१)
संज्ञा पुं० [सं० तेजस्] दीप्ति । कांति । चमक । दमक । आभा । उ०—जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ।—तुलसी (शब्द०) । २. पराक्रम । जोर । बल । ३. वीर्य । उ०— पतित तेज जो भयो हमारो कहो देव को धारी ।—रघुराज (शब्द०) । ४. किसी वस्तु का सार भाग । तत्व । ५.ताप । गर्मी । ५. पित्त । ७. सोना । ८. तेजी । प्रचंडता । उ०— (क) तेज कृशानु शेष महि शेषा । अथ अवगुन धन धनी धनेसा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) थल सो अचल शील, अनिल से चलचित्त, जल सो अमल तेज कैसो गायो है ।— केशव (शब्द०) । ९. प्रताप । रोब दाब । १० । मक्खन । नैनू । ११. सत्वगुण से उत्पन्न लिंगशरीर । १२. मज्जा । १३. पाँच महाभूतों में से तीसरा भूत जिसमें ताप और प्रकाश होता है । अग्नि । विशेष—सांख्य में इसका गुण शब्द, स्पर्श और रूप माना गया है । न्याय या वैशोषिक के अनुसार यह दो प्रकार का होता है—नित्य और अनित्य । परमाणु रूप में यह नित्य और कर्म रूप में अनित्य होता है । शरीर, इंद्रिय और विषय के भेद से अनित्य तेज तीन प्रकार का होता हैं । शरीर तेज वह तेज है जो सारे शरीर में व्याप्त हो । जैसा, आदित्यलोक में । इंद्रिय तेज वह है जिससे रूप आदि का ग्रहण हो । जैसा, नेत्र में । विषय तेज चार प्रकार का है—भौम, दिव्य, औदर्य और आकरज । भौम वह है जो लकडी़ आदि जलाने से हो; दिव्य वह है जो किसी दैवी शक्ति अथवा आकाश में दिखाई दे; जैसे, बिजली; औदर्य वह है जो उदर में रहता है और जिससे भोजन आदि पचता है; और आकरज वह है जो खनिज पदार्थों में रहता है, जैसा सोने में । शरीर में तेज रहने से साहस और बल होता है, खाद्य पदार्थ पचते हैं और शरीर सुंदर बना रहता । १४. घोडे़ का वेग या चलने की तेजी । विशेष—यह तेज दो प्रकार का है—सततोत्थित और भयोत्थित । सततोत्थित तो स्वाभाविक है और भयोत्थित वह है जो चाबुक आदि मारने से उत्पन्न होता है । १५तीक्ष्णता (को०) । १६. तीक्ष्ण धार (को०) । १७. दिव्य ज्योति (को०) । १८. उग्रता (को०) । १९. अधीरता (को०) । २०. प्रभाव (को०) । २१. प्राणभय की भी स्थिति में अपमान आदि न सहने की प्रकृति (को०) । २२. उष्ण प्रकाश (को०) । २३. भेजा (को०) । २४. दूसरों को अभिभूत करने की शक्ति (को०) । २५. सत्वगुण से उत्पन्न लिंग शरीर (को०) । २६. रजोगुण (को०) । २७. तेजोमय व्यक्ति (को०) । २८. आँख की स्वच्छता (को०) ।
⋙ तेज (२)
वि० [फा़० तेज] १. तीक्ष्ण धार का । जिसकी धार पैनी हो । उ०—यह चाकू बडा़ तेज है । २. चलने में शीघ्रगामी । उ०—यदपि तेज रौहाल वर लगी न पल को वार । तउ ग्वैंडो़ घर को भयो पैंडो़ कोस हजार ।—बिहारी (शब्द०) । ३. चटपट काम करनेवाला । फुरतीला । जैसे,—यह नौकर बडा़ तेज है । ४. तीक्ष्ण । तीखा । झालदार । जैसे, तेज सिरका । ५. महँगा । गराँ । बहुमूल्य । उ०—आजकल कपडा़ बहुत तेज है । ६. उग्र । प्रचंड । क्रि० प्र०—पडना । ७. चटपट अधिक प्रभाव करनेवाला । जिसमें भारी असर हो । जैसे, तेज जहर । ८. जिसकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण हो । जैसे, यह लड़का बहुत तेज है । ९. बहुत अधिक चंचल या चपल । १०. उग्र । प्रचंड । जैसे, तेज मिजाज ।
⋙ तेज पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताजी'—१' । उ०—काबिल्ली उर तेज रोम रोमी पंजाबी ।—पृ० रा०, ११ ।५ ।
⋙ तेजधारी
वि० [सं० तेजोधारिन्] तेजस्वी । जिसके चेहरे पर तेज हो । प्रतापी । उ०—तेज न रहेगा तेजधारियों का नाम को भी मंगल मर्यक मंद मंद पड़ जायँगे । इतिहास, पृ० ६२७ ।
⋙ तेजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस । २. मूँज । ३. रामशर । ४. सरपत । ४. दीप्त करने या तेज उत्पन्न करने की क्रिया या भाव ।
⋙ तेजनक
संज्ञा पुं० [सं०] शर । सरपत ।
⋙ तेजना पु
क्रि० स० [सं० त्याज्य] दे० 'तजना' । उ०—तेजि कुमति बेकार, सुमति गहि लीजिए ।—धरम०, पृ० ४१ ।
⋙ तेजनाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] मूँज ।
⋙ तेजनी
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्वा । २. मालकँगनी । ३. चव्य । चाव । ४. तेजबल । ५. चटाई (को०) । ६. गुच्छा (को०) । ७. घोडे़ की अयाल (को०) ।
⋙ तेजपत्ता
संज्ञा पुं० [सं० तेजपत्र] दारचीनी की जाति का एक पेड़ जो लंका, दारजिलिंग, काँगडा़ जयंतिथा और खासी की पहाड़ियों में होता है और जिसकी पत्तियाँ दाल तरकारी आदि में मसाले की तरह डाली जाती हैं । जिस स्थान पर कुछ समय तक अच्छी वर्षा होती हो और पीछे कडी़ धूप पडती हो वहाँ यह पेड़ अच्छी तरह बढ़ता है । विशेष—जयंतिया और खासी में इसकी खेती होती है । पहले सात सात फुट की दूरी पर इसके बीज बोए जाते हैं और जब पौधा पाँच वर्ष का हो जाता है तब उसे दूसरे स्थान पर रोप देते हैं । उस समय तक छोटे पौधों की रक्षा की बहुत आवश्यकता होती है । उन्हें धूप आदि से बचाने के लिये झाड़ियों की छाया में रखते हैं । रोपने के पाँच वर्ष बाद इसमें काम आने योग्य पत्तियाँ निकलने लगती हैं । प्रति वर्ष कुआर से अगहन तक और कहीं कहीं फागुन तक इसकी पत्तियाँ तोडी़ जाती है । साधारण वृक्षों से प्रति वर्ष और पूराने तथा दुर्बल वृक्षों से प्रति दूसरे वर्ष पत्तियाँ ली जाती हैं । प्रत्येक वृक्ष से प्रति वर्ष १० से २५ सेर तक पत्तियाँ निकलती हैं । वृक्ष से प्रायः छोटी छोटी डालियाँ काट ली जाती हैं और धूप में सुखाई जाती हैं । इसके बाद पत्तियाँ अलग कर ली जाती हैं और उसी रूप में बाजार में बिकती हैं । ये पत्तियाँ शरीफे की पत्तियों की तरह पर उनसे कडी़ होती हैं और सुगंधित होने के कारण दाल तरकारी आदि में मसाले की तरह डाली जाती हैं । इन पत्तियों से एक प्रकार का सिरका तैयार होता है । इसे हरें के साथ मिला कर इनसे रंग भी बनाया जाता है । तेजपत्ते के फूल और फल लौंग के फूलों और फलों की तरह होते हैं, लकडी़ लाली लिए हुए सफेद होती है और उससे मेज कुरसी आदि बनती हैं । कुछ लोग दारचीनी और तेजपत्ते के पेड़ को एक ही समझते हैं पर वास्तव में ये दोनों एक ही जाति के पर अलग अलग पेड़ हैं । तेजपत्ते के किसी किसी पेड़ से भी पतली छाल निकलती है जो दारचीनी के साथ ही मिला दी जाती है । इसकी छाल से एक प्रकार का तेल भी निकलता है जिससे साबुन बनाया जाता है । पत्तियों और छाल का व्यव— हार औषध में भी होता है । वैद्यक में इसे लघू, उष्ण, रूखा और कफ, वात, कंडू, आम तथा अरूचि का नाशक माना है । पर्या०—गंधजात । पत्र । पत्रक । त्वक्पत्र । वरांग । भृंग । चोच । उत्कट । तमालपत्र ।
⋙ तेजपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] तेजपत्ता । एक जंगली वृक्ष का पत्ता जो सुगंधित होता है और इसी लिये मसाले में पड़ता है । इसके वृक्ष सिलहट की पहाड़ियों पर बहुत होते हैं । इसे तेजपत्ता और तेजपात भी कहते हैं ।
⋙ तेजपात
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेजपत्ता' ।
⋙ तेजबल
संज्ञा पुं० [सं० तेजोवती] एक काँटेदार जंगली वृक्ष जो प्रायः हरिद्वार और उसके पास के प्रांतों में अदिकता से होता है । विशेष—इसकी छाल लाल मिर्च की तरह बहुत चरपरी होती है और कहीं कहीं पाहाडी़ लोग दाल मसाले आदि में इसकी जड़ का मिर्च की तरह व्यवहार भी करते हैं । इसकी छाल या जड़ चबाने से दाँत का दर्द मिट जाता है । वैद्यक में इसे गरम, चरपरा, पाचक कफ और वातनाशक, तथा श्वास, खाँसी, हिचकी और बवासीर आदि को दूर करनेवाला माना है । पर्या०—तेजवती । तेजस्विनी । तेजन्या । लघुवल्कला । परिजात । शीता । तिक्ता । तेजनी । विडालघ्नी । सुतेजसी ।
⋙ तेजमान
वि० [हिं०] दे० 'तेजवान्' । उ०—पै सिंहासन पै सूरज के समान तेजमान, चंद समान सीतल सुभाव ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८९ ।
⋙ तेजय पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेज' । उ०—तेजय जल सब सिंधुमद एऊ ।—कबीर सा०, पृ० २६ ।
⋙ तेजल
संज्ञा पुं० [सं०] चातक । पपीहा ।
⋙ तेजवंत
वि० [हिं० तेज + वंत] दे० 'तेजवान' । उ०—तेजवंत लघु गनिय न रानी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तेजवरण पु
वि० [सं० तेज + हिं० वरण] ज्योतिर्मय । उ०— तेजवरण चंदा अधिकारी ।—कबीर सा०, पृ० १०० ।
⋙ तेजवान
वि० [सं० तेजोवान्] [वि० स्त्री० तेजवती] १. जिसमें तेज हो । तेजस्वी । उ०—मघवा मही मैं तेजवान सिवराज वीर, कोटि करि सकल सपच्छ किए सैल है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ४६ । २. वीर्यवान । ३. बली । ताकतवाला । ४. कांतिमान् । चमकीला ।
⋙ तेजस्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तेज' । यौ०—तेजस्कर । तेजस्काम = शक्ति प्रताप आदि की इच्छावाला ।
⋙ तेजस पु
संज्ञा पुं० [सं० तेजस्] तेज । उ०—बिस्व तेजस पराग आत्मा, इनमें सार न जाना ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ६६ ।
⋙ तेजसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तेजस्] अनाहत चक्र की दूसरी मात्रा । उ०—द्वादश दल १२ द्वादश माला १२ क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ—बहिर्मात्रा २१ रुद्राणी १—तेजसा२— ।—कबीर मं०, पृ० ३१३ ।
⋙ तेजसि पु
वि० [हिं०] दे० 'तेजसी' । उ०—तेजसि हाते महाबली, ते जम तेज अपार ।—रा० रू०, पृ० १३० ।
⋙ तेजसी पु
वि० [हिं० तेजस्वी] तेजयुक्त । उ०—रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिय न ताहु । अजहुँ देत दुःख रवि शशिहि सिर अवशेषित राहु ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तेजस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] तेज बढा़नेवाला । जिससे तेज की वृद्धि हो ।
⋙ तेजस्व
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।
⋙ तेजस्वत्
वि० [सं०] तेजस्वी । तेजयुक्त ।
⋙ तेजस्वान्
वि० [सं० तेजस्वत्] दे० 'तेजस्वत्' [को०] ।
⋙ तेजस्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेजस्वी होने का भाव ।
⋙ तेजस्विनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालकँगनी ।
⋙ तेजस्विनी (२)
वि० स्त्री० [सं०] तेजयुक्त [को०] ।
⋙ तेजस्वी (१)
वि० [सं० तेजस्विन्] [स्त्री० तेजस्विनी] १. कांतिमान् । तेजयुक्त । जिसमें तेज हो । २. प्रतापी । प्रतापवाला । प्रभावशाली ।
⋙ तेजस्वी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ तेजहत
वि० [सं० तेजो + हत] तेजहीन । जिसमें तेज न हो । उ०—निशाचर तेजहत रहे जो वन्य जन ।—गीतिका, पृ० १७० ।
⋙ तेजा
संज्ञा पुं० [फा़० तेज] १. चूने आदि से बना हुआ एक प्रकार का काला रंग जिससे रंगरेज लोग मोरपंखी रंग बनाते हैं । †२. महँगी । तेजी ।
⋙ तेजाब
संज्ञा पुं० [फा़० तेजाब] [वि० तेजाबी] किसी क्षार पदार्थ का अम्ल सार जो द्रावक होता हैं । जैसे,गंधक का तेजाब, शोरे का तेजाब नमक का तेजाब, नीबू का तेजाब आदि । विशेष—किसी चीज का तेजाब तरल रूप में होता है और किसी का रवे के रूप में, पर सब प्रकार के तेजाब पानी में घुल जाते हैं, स्वाद में थोडे़ या बहुत खट्टे होते है और क्षारों का गुण नष्ट कर देते हैं । किसी धातु पर पड़ने से तेजाब उसे काटने लगता है । कोई कोई तेजाब बहुत तेज होता है और शरीर में जिस स्थान पर लग जाता है उसे बिलकुल जला देता है । तेजाब का व्यवहार बहुधा औषधों में होता है ।
⋙ तेजाबी
वि० [फा़० तेजाबी] तेजाब संबंधी । यौ०—तेजाबी सोना = दे० 'सोना' ।
⋙ तेजारत †
संज्ञा स्त्री० [अ० तिजारत] दे० 'तिजारत' ।
⋙ तेजारती †
वि० [हिं०] दे० 'तिजारती' ।
⋙ तेजाली पु
संज्ञा पुं० [फा़० ताजी] तेज घोडा़ । उ०—त्यार किया तेजाली चढ़ियो करस खंभ ।—नंट०, पृ० १६९ ।
⋙ तेजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालकँगनी ।
⋙ तेजित
वि० [सं०] १. पैना किया हुआ । तेज किया हुआ । २. उत्तेजित किया हुआ [को०] ।
⋙ तेजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेजबल ।
⋙ तेजिष्ठ
वि० [सं०] तेजस्वी ।
⋙ तेजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तेजी] १. तेज होने का भाव । तीक्ष्णता २. तीव्रता । प्रबलता । ३. उग्रता । प्रचंडता । ४. शीघ्रता । जल्दी । ५. महँगी । गरानी । मंदी का उलटा । ६. सफर का महीना या मास (को०) । यौ०—तेजी का चाँद = सफर महीने का चाँद ।
⋙ तेजेयु
संज्ञा पुं० [सं०] रौद्राक्ष राजा के एक पुत्र का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में आया हे ।
⋙ तेजो
संज्ञा पुं० [सं०] तेजस् का समासगत रूप, जैसे तेजोबल, तेजोमय ।
⋙ तेजोबीज
संज्ञा पुं० [सं०] पज्जा [को०] ।
⋙ तेजोभंग
संज्ञा पुं० [सं० तेजोभङ्ग] अपमान । तिरस्कार [को०] ।
⋙ तेजोभीरु
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाया । परछाई [को०] ।
⋙ तेजोमंडल
संज्ञा पुं० [सं० तेजोमण्डल] सूर्य, चंद्रमा आदि आकाशीय पिडों के चारों ओर का मंडल । छटामंडल ।
⋙ तेजोमंथ
संज्ञा पुं० [सं० तेजोमन्थ] गनियारी का पेड़ ।
⋙ तेजोमय
वि० [सं०] १. तेज से पूर्ण । जिसमें खूब तेज हो । जिसमें बहुत आभा, कांति या ज्योति हो । उ०—तेजोमय स्वामी तहँ सेवक हुँ तेजोमय ।—सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० ३० ।
⋙ तेजोमूर्ति (१)
वि० [सं०] तेजयुक्त । तेज से परिपूर्ण [को०] ।
⋙ तेजोमूर्ति (२)
संज्ञा पुं० सूर्य [को०] ।
⋙ तेजोरूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्म । २. जो अग्नि या तेज रूप हो ।
⋙ तेजोवत्
वि० [सं०] दे० 'तेजस्वत्' [को०] ।
⋙ तेजोवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गजपिप्पली । २. चव्य । ३. माल— कँगनी । तेजबल ।
⋙ तेजवान्
वि० [सं० तेजोवत्] [स्त्री० तेजोवती] १. तेजवाला । २. उत्साही [को०] ।
⋙ तेजोविंदु
संज्ञा पुं० [सं० तेजोविन्दु] मज्जा ।
⋙ तेजोवृत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी अरणी का वृक्ष ।
⋙ तेजोहत
वि० [सं०] जिसका तेज समाप्त हो गया हो [को०] ।
⋙ तेजोह्न
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तेजबल । २. चव्य ।
⋙ तेटकी पु
क्रि० वि० [हिं० तेता] दे० 'तेतिक' । उ०—जाकौ जितनौ रच्यौ विधाता ताकौ आवै तेटकी ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८३३ ।
⋙ तेडंडिक
वि० [सं० त्रिदण्ड] त्रिदंड धारण करनेवाला ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २१५ ।
⋙ तेड़ना पु
क्रि० स० [राज०] दे० 'टेरना' । उ०—पिंगल राजा पाठवइ, ढोला तेड़न काज ।—ढोला०, दू० ८१ ।
⋙ तेढाँ पु
वि० [हिं०] दे० 'टेढा़' । उ०—भाजेवाँ तेढ़ाँ भड़ाँ, वेढाँ तणौ विसन्न ।—रा० रू०, पृ० १३७ ।
⋙ तेण पु
सर्व० [हिं० ते] उस । उ०—हणे कुंभणेसा जोधहर श्रीहवाँ, करै कुँण तेण परमाण काया ।—रघु० रू०, पृ० २९ ।
⋙ तेणि पु
सर्व० [सं० तेन; प्रा० तेण, तेणं] १. तिससे । उस कारण से । इसलिये । इससे । उ०—तेणि न राखी सासरइ अजे स मारू बाल ।—ढोला०, दू० ११ ।
⋙ तेतना †
वि० [हिं०] दे० 'तितना' । उ०—मास षट बिहार तेतने निमिष हूँ न जाने रस नंददास प्रभु संग रैन रंग जागरी ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३६५ ।
⋙ तेता †
वि० पुं० [सं० तावत्] [स्त्री० तेती] उतना । उसी कदर । उसी प्रमाण का । उ०—(क) हरि हर विधि रवि शक्ति समेता । तुंडी ते उपजत सब तेता ।—निश्चल (शब्द०) । (ख) तेजी संगति कृपन कै तेती तू मत जोर । बड़त जात ज्यों ज्यों उरज त्यों त्यों होत कठोर ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ तेतालीस (१)
वि० [हिं०] दे० 'तेंतालीस' ।
⋙ तेतालीस (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेंतालीस' ।
⋙ तेतिक पु †
वि० [हिं० तेता] उतना ।
⋙ तेती पु
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'तेता' । उ०—कितहिं बुझावै का करै तिहि घर तेती आगि ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३७ ।
⋙ तेतीस
वि० संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेँतीस' ।
⋙ तेतो पु †
वि० [हिं०] दे० 'तेता' ।
⋙ तेथ पु
अव्य० [सं० तत्र] तहाँ । उ०—जेय तेथ प्राणी जलै लालच दंदी लाय ।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ६० ।
⋙ तेन
संज्ञा पुं० [सं०] गीत का आरंभिक स्वर [को०] ।
⋙ तेनु
सर्व० [सं० तत्] उसने । उ०—धरमाँन नाम कायथ सुघर, तेनु चरित लिष्षे सबैं ।—पृ० रा०, १९ ।२३ ।
⋙ तेम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गीला होना । आर्द्र होना । आर्द्रता [को०] ।
⋙ तेम (२)पु
अव्य० [हिं०] दे० 'तिमि' । उ०—योग ग्रंथ माँहे लिखे मैं समुझाये तेम ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ४१ ।
⋙ तेमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यंजन । पका हुआ भोजन । २. गोला करने की क्रिया (को०) । ३. आर्द्रता । गीलापन ।
⋙ तेमनो
संज्ञा स्त्री० [सं०] चूल्हा [को०] ।
⋙ तेमरू
संज्ञा पुं० [देश०] तेंदू का वृक्ष । आबमूस का पेड़ ।
⋙ तेयागना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'त्यागना' । उ०—हमारे कहने का मतलब यह है कि सब कोई भेदभाव तेयाग के, एक होकर के परमारथ कारज मै सहजोग दीजिए ।—मैला०, पृ० २९ ।
⋙ तेर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तेरह' । उ०—सय तेर परे हिंदू सयन कोस तीन रन अद्ध परि ।—पृ० रा०, ९ ।२०६ ।
⋙ तेरज
संज्ञा पुं० [देश] खतियौनी का गोशवारा ।
⋙ तेरना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टेरना' । उ०—पूनम तिथि मंगल दिनह, गृह तेरिय आजान । आसन छंडि सु अथ दिय, बहु आदर सनमान ।—पृ० रा०, ४ ।९ ।
⋙ तेरपन पु
वि० [हिं०] दे० 'तिरपन' । उ०—सत्रासै तेरपन सैर सीकरी नैं बसायो ।—शिखर०, पृ० ४८ ।
⋙ तेरवाँ †
वि० [हिं०] दे० 'तेरहवाँ' ।
⋙ तेरस
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रयोदश] किसी पक्ष की तेरहवीं तिथि । त्रयोदशी ।
⋙ तेरसि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रयोदशी] दे० 'तेरस' । उ०—तेरसि तिथि ससि सम्मर पथ निसि दसमि दसा मोरि भेलि ।—विद्या पति, पृ० १७८ ।
⋙ तेरह (१)
वि० [सं० त्रयोदश, प्रा० तेद्दह, अद्धमा० तेरस] जो गिनती में दस से तीन अधिक हो । दस और तीन । उ०—कासी नगर भरा सब झारी । तेरह उतरे भौजल पारी ।—घट०, पृ० २९३ ।
⋙ तेरह (२)
संज्ञा पुं० दस से तीन अधिक की संख्या और उस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है ।—१३ ।
⋙ तेरहवाँ
वि० [हिं० तेरह + वाँ (प्रत्य०)] दस और तीन स्थान के— वाला । क्रम में तेरह के स्थान पर पड़नेवाला । जिसके पहले वाला । क्रम में तेरह के स्थान पर पड़नेवाला । जिसके पहले बारह और हों ।
⋙ तेरहीं
संज्ञा स्त्री० [हिं० तेरह + ई (प्रत्य०)] किसी के मरने के दिन से अथवा प्रेतकर्म की तीरहवीं तिथि, जिसमें पिंडदान और ब्राह्मणभोजन करके दाह करनेवाला और मृतक के घर के लोग शुद्ध होते हैं ।
⋙ तेरा (१)
सर्व० [सं० ते (= तव) + हिं० रा (प्रत्य०)] [स्त्री० तेरी] मध्यम पूरुष एकवचन की षष्ठी का सूचक सर्वनाम शब्द । मध्यम पुरुष एकवचन सबंध कारक सर्वनाम । तू का संबंध कारक रूप । उ०—तू नहिं मानन देति आली री मन तेरों मानबे कों करत ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६८ । मुहा०—तेरी सी = तेरे लाभ या मतलब की बात । तेरे अनुकूल बात । उ०—बकसीस ईस जो की खीस होत देखियत, रिस काहे लागति कहत तो हौं तेरी सो ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—शिष्ट समाज में इसका प्रयोग बड़े या बराबरवाले के साथ नहीं होता बल्कि अपने से छोटे के लिये होता है ।
⋙ तेरा पु (२)
वि० [हि०] दे० 'तेरह' । उ०—चंद्रमा मिथुन को तेरा १३ अंस, मनि लग्न मैं देह होगी ।—ह० रासो०, पृ० ३० ।
⋙ तेरिज
संज्ञा पुं० [अं० तिराज ?] १. खुलासा । स्पष्ट । २. सार । संक्षेप । उ०—तत्त की तेरिज बेरिज बुधि की ।—धरनी०, पृ० ४ ।
⋙ तेरुस पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरुस' ।
⋙ तेरुस (३)
संज्ञा स्त्री० दे० [हिं०] 'तेरस' ।
⋙ तेरू पु
वि० [हिं० तैरना] तैरनेवाला । उ०—इसी तेरू कँवण फाड आवै उदध, लछीवर कवण नरपाल लाभै ।—रघु० क०, पृ०, २६७ ।
⋙ तेरे †
अव्य० [हिं० ते] से । उ०—(क) तब प्रभु कह्यो पवनसुत तेरे । जनकसुतहिं जावहु ढिग मेरे ।—विश्राम (शब्द०) । (ख) यहि प्रकार सब वृक्षन तेरे । भेटि भेंटि पूँछै प्रभु हेरे ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ तेरो पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तेरा' । उ०—तेरी मुख चंदा चकोर मेरे नैना ।—(शब्द०) ।
⋙ तेलंग
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तैलंग' । उ०—तेलंगा वंगा चोल कलिंगा राआपुत्ते मंडोआ ।—कीर्ति०, पृ० ४८ ।
⋙ तेल
संज्ञा पुं० [सं० तैल] १. वह चिकना तरल पदार्थ जो बीजों वनस्पतियों आदि से किसी विशेष क्रिया द्बारा निकाला जाता है अथवा आपसे आप निकलता है । यह सदा पानी से हलका होता है, उसमें घुल नहीं सकता, अलकोहल में घुल जाता है । अधिक सरदी पाकर प्रायः जम जाता है और अग्नि के संयोग से धूआँ देकर जल जाता है । इसमें कुछ न गंध भी होती है । चिकना । रोगन । विशेष—तेल तीन प्रकार का होता है—मसृण, उड़ जानेवाला और खनिज । मसृण तेल वनस्पति और जंतु दोनों से निकलता है । वानस्पत्य मसृण वह है जो बाजों या दानों आदि को कोल्हू में पेरकर या दबाकर निकाला जाता है, जैसे, तिल, सरसों, नीम, गरी, रेंड़ी, कुसुम आदि का तेल । इस प्रकार का तेल दीआ जलाने, साबुन और वार्निश बनाने, सुगंधित करके सिर या शरीर में लगाने, खाने की चीजें तलने, फलों आदि का आचार डालने और इसी प्रकार के और दूसरे कामों में आता है । मशीनों के पुरजों में उन्हे घिसने से बचाने के लिये भी यह डाला जाता है । सिर में लगाने के चमेली, बेले आदि के जो सुगंधित तेल होते हैं वे बहुधा तिल के तेल की जमीन देकर ही बनाए जाते हैं । भिन्न भिन्न तेलों के गुण आदि भी एक दूसरे से भिन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के वृक्षों से भी आपसे आप तेल निकलता है । जो पीछे से साफ कर लिया जाता है, जैसे—ताड़पीन आदिं । जंतुज तेल जानवरों की चरबी का तरल अंश है और इसका व्यवहार प्रायः औषध के रूप में ही होता है । जैसे, साँप का तेल, धनेस का तेल, मगर का तेल आदि । उड़ जानेवाला तेल वह है जो वनस्पति के भिन्न भिन्न अंशों से भभके द्बारा उतारा जाता है । जैसे, अजवायन का तेल, ताड़पीन का तेल, मोम का तेल, हींग का तेल आदि । ऐसे तैल हवा लगने से सूख या उड़ जाते हैं और इन्हैं खैलाने के लिये बहुत अधिक गरमी की आवश्यकता होती है । इस प्रकार के तेल के शरीर में लगने से कभी कभी कुछ जलन भी होती है । ऐसे तेलों का व्यवहार विलायती औषधों और सुगंधों आदि में बहुत आधि— कता से होता है । कभी कभी वारनिश या रंग आदि बनाने में भी यह काम आता है । खनिज तेल वह है जो केवल खानों या जमीन में खोदे हुए बड़े बड़े गड़्ढों में से ही निकलता है । जैसे, मिट्टी का तेल (देखो 'मिट्टी का तेल' और 'पेट्रोलियम') आदि । आजकल सारे सँसार में बहुधा रोशनी करने और मोटर (इंजिन) चलाने में इसी का व्यवहार होता है । आयुर्वेद में सब प्रकार के तेलों को वायुनाशक माना है । वैद्यक के अनुसार शरीर में तेल मलने से कफ और वायु का नाश होता है, धातु पुष्ट होती है, तेज बढ़ता है, चमड़ा मुलायम रहता है, रंग खिलता है और चित्त प्रसन्न रहता है । पैर के तलवों में तेल मलने से अच्छी तरह नींद आती है और मस्तिष्क तथा नेत्र ठंढे रहते हैं । सिर में तेल लगाने से सिर का दर्द दूर होता है, मास्तिष्क ठंढा रहता है, और बाल काले तथा घने रहते हैं । इन सब कामों के लिये बैद्यक में सरसों य़ा तिल के तेल को अधिक उत्तम और गुणाकारी बतलाया है । वैद्यक के अनुसार तेल में तली हुई खाने की चीजें विदाही, गुरुपाक, गरम, पित्तकर, त्वचादोष उत्पन्न करनेवाली और वायु तथा द्दष्टि के लिये अहितकर मानी गई हैं । साधारण सरसों आदि के तेल में अनेक प्रकार के रोग दूर करने के लिये तरह तरह की ओषधियाँ पकाई जाती हैं । क्रि० प्र०—जलना ।—जलाना ।—निकलना ।—निकालना ।—पेरना ।—मलना ।—लगाना । मुहा०—तेल में हाथ डालना = (१) अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिये खौलते हुए तेल में हाथ डालना (प्राचीन काल में सत्यता प्रमाणित करने के लिये खोलते हुए तेल में हाथ ड़लवाने की प्रथा थी) । (२) विकट शापथ खाना । आँख का तेल निकालना = दे० 'आँख' के मुहावरे । २. विवाह की एक रस्म जो साधारणतः विवाह से दो दिन और कहीं कहीं चार पाँच दिन पहले होती है । इसमें वर के वधू का नाम लेकर और वधू को वर नाम लेकर हल्दी मिला हुआ तेल लगाया जाता है । इस रस्म के उपरांत प्रायः विवाह संबंध नहीं छूट सकता । उ०—अभ्युदयिक करवाय श्राद्ध विधि सब विवाह के चारा । कुत्ति तेल मायन करवैहैं ब्याह विधान आपारा ।—रघुराज (शब्द०) । मुहा०—तेल उठाना या चढा़ना = तेल की रस्म पूरी होना । उ०—तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार ।—कोई कवि (शब्द०) । तेल चढ़ाना = तेल की रस्म पूरी करना । उ०—प्रथम हरहि बंदन करि मंगल गावहिं । करि कुलरीति कलस थपि तेल चढ़ावहिं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तेलगू
संज्ञा स्त्री० [तेलुगु] आंध्र राज्य की भाषा ।
⋙ तेल चलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० तेल + चलाना] देशी छींट की छपाई में मिंडाई नाम की क्रिया । वि० दे 'मिंड़ाई' ।
⋙ तेलवाई
संज्ञा पुं० [हिं० तेल + वाई (प्रत्य०)] १. तेल लगाना । तेल मलना । २. विवाह का एक रस्म जिसमें वधू पक्षवाले जनवासे में वर पक्षवालों के लगाने के लिये तेल भेजते हैं ।
⋙ तेलसुर
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली वृक्ष जो बहुत ऊँचा होता है । विशष—इसके हीर की लकड़ी कड़ी और सफेदी लिए पीली होती है । यह वृक्ष चटगाँव और सिलहट के जिलों में बहुत होता है । इसकी लक़ड़ी से प्रायः नावें बनाई जाती हैं ।
⋙ तेलहँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० तेल + हंडा] [स्त्री० अल्पा० तेलहँड़ी] तेल रखने का मिट्टी का बड़ा बरतन ।
⋙ तेलहँड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तेल + हँड़ी] तेल रखने का मिट्टी का छोटा बरतन ।
⋙ तेलहन
संज्ञा पुं० [हिं० तेल + हिं० हन (प्रत्य०) वे बीज जिनसे तेल निकलता है । जैस, सरसों, तिल, अलसी, इत्यादि ।उ०—तिरगुन तेल चुआवै हो तेलहन संसार । कोइ न बचे जोगी जती बारंबार ।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ३६ ।
⋙ तेलहा †
वि० [हिं० तेल + हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० तेलही] १. तेलयुक्त । जिसमें तेल हो । जिसमें से तेल निकल सकता हो । २. तेल— वाला । तेल संबंधी । ३. जिसमें चिकनाई हो । ४. तैल निर्मित । तेल से बना हुआ ।
⋙ तेला
संज्ञा पुं० [देश०] तीन दिन रात का उपवास । उ०—जिसे कतल का हुक्म हो तेला अर्थात् तीन उपवास करे जिसमें परलोक सुधरे ।—शिवप्रसाद (शब्द०) ।
⋙ तेलिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० तेली का स्त्री०] १. तेली की स्त्री । तेली जाति की स्त्री । २. एक बरसाती कीड़ा । विशेष—यह कीड़ा जहाँ शरीर से छू जाता है वहाँ छाले पड़ जाते हैं ।
⋙ तेलियर
संज्ञा पुं० [देश०] काले रंग का एक पक्षी जिसके सारे शरीर पर सफेद बुँदकियाँ या चित्तियाँ होती हैं ।
⋙ तेलिया (१)
वि० [हिं० तेल] तेल की तरह तिकना और चमकीला । चिकने और चमकीले रंगवाला । तेल के से रंगवाला । जैसे,— तेलिया अमौवा ।
⋙ तेलिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तेल + इया (प्रत्य०)] १. काल, चिकना और चमकीला रंग । २. इस रंग का घोड़ा । ३. एक प्रकार का बबूल । ४.एक प्रकार की छीटी मछली । ५. कोई पदार्थ, पशु या पक्षी जिसका रंग तेलिया हो । ६. सींगिया नामक विष ।
⋙ तेलियाकंद
संज्ञा पुं० [सं० तेलकन्द] एक प्रकार का कंद । विशेष—यह कंद जिस भूमि में होता है वह भूमि तेल से सींची हुई जाना पड़ती है । बैद्यक में इसे लोहे को पतला करनेवाला चरपरा, गरम तथा वात, अपस्मार, विष और सूजन आदि को दूर करनेवाला, पारे को बाँधनेवाला और तत्काल देह को सिद्ध करनेवाला माना हैं ।
⋙ तेलियाकत्था
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + कत्था] एक प्रकार का कत्था जो भीतर से काले रंग का होता है ।
⋙ तेलियाकाकरेजी
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिय + काकरजी] कालापन लिए गहरा ऊदा रंग ।
⋙ तेलियाकुमैत
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + कुमैत] १. घोड़े का एक रंग जो आधिक कालपन लिए लाल या कुमैत होता है । २. वह घोडा़ जिसका रंग ऐसा हो ।
⋙ तेलियागर्जन
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + सं० गर्जन] दे० 'गर्जन' ।
⋙ तेलियापखान
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया +सं० पाषाण] एक प्रकार का कला और चिकना पत्थर । उ०— नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान ।—दीनदयाल (शब्द०) ।
⋙ तेलियापानी
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + पानी] बहुत खारा और स्वाद में बुरा मालूम होनेवाला पानी, जैसे, प्रायः पुराने कुओं से निकलता रहता है ।
⋙ तेलियासुरंग
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + सुरंग] दे० 'तेलिया कुमैत' ।
⋙ तेलियासुहागा
संज्ञा पुं० [हिं० तेलिया + सुहागा] एक प्रकार का सुहागा जो देखने में बहुत चिकना होता है ।
⋙ तेली
संज्ञा पुं० [हिं० तेल + ई (प्रत्य०)] [स्त्री० तेलिन] हिंदुओं की एक जाति जिसकी गणना शूद्रों में होती हैं । विशेष—ब्रह्मावैवर्त पुराण के अनुसार इस जाति की उत्पत्ति कोटक स्त्री और कुम्हार पुरुष से है । इस जाति के लोग प्रायः सारे भारत में फैले हुए हैं और सरसों, तिल आदि पेर— कर तेल निकालने का व्यवसाय करते हैं । साधारणतः द्बिज लोग इस जाति के लोगों का छूआ जल नहीं गहण करते । मुहा०—तेलो का बैल = हर समय़ काम में लगा रहनेवाला । व्यक्ति ।
⋙ तेलौंची
संज्ञा स्त्री० [हिं० तेल + औंची (प्रत्य०)] पत्थर, काँच या लकड़ी आदि की वह छोटी प्याली, जिसमें शरीर में लगाने के लिये तेल रखते हैं । मालिया ।
⋙ तेवर
संज्ञा स्त्री० [देश०] सात दिर्घ अथवा १४ लघु मात्राओं का एक ताल जिसमें तीन आघात और एक खाली रहता है । इसके + ३ ० तबले के बोल ये हैं ।—धिन् धिन् धाकेटे, धिन् धिन् धा, तिन् १ + तिन् ताकेटे धिन् धिन् धा । धा ।
⋙ तेवड पु (१)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' । उ०—जेवड साहिब तेवड दाती दे दे करे रजाई ।—प्राण०, पृ० १२३ ।
⋙ तेवड़ पु (२)
वि० [हिं०] दे० 'तेहरा' । उ०—क्यूँ लीजै गढ़ा बंका भाई, । दोवर कोट अरु तेवड़ खाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० २०८ ।
⋙ तेवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रीड़ा । २. वह स्थान, विशेषतः वन आदि जहाँ आमोदप्रमोद और क्रिड़ा हो । विहार । उपवन । ३. नजरबाग । पाई बाग ।
⋙ तेवन पु (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' (१) । उ०—जैसे श्वान अपावन राजित तेवन लागी संसारी ।—कबीर मं०, पृ० ३९१ ।
⋙ तेवर
संज्ञा पुं० [हिं० तेह (= क्रोध)] १. कुपित द्दष्टि । क्रोध भरी चितवन । मुहा०—तेवर आना = मूर्छा आना । चक्कर आना । उ०—यह कहकर बडी़ बेगम को तेवर आया और धड़ से गिर पड़ीं ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०९ । तेवर चढ़ाना = दृष्टि का ऐसा हो जाना जिससे क्रोध प्रकट हो । तेवर चढ़ा लेना या तेवर चढ़ाना = क्रुद्ध होना । दृष्टि को ऐसा बना लेना । जिससे क्रोध प्रकट हो । उ०—क्यों न हम भी आज तेंवर लें चढ़ा । हैं बुरे तेवर दिखाई दे रहे ।—चोखे०, पृ० ५२ । तेवर तनना = दे० 'तेवर चढ़ना' । उ०— भाल भाग्य पर तने हुए थे तेवर उसके ।—साकेत, पृ० ४२३ । तेवर बदलना या बिगड़ना = (१) बेमुरोवत हो जाना । (२) खफा हो जाना । उ०—अगर स्त्रियों की हँसी की आवाज कभी मरदानों मनें जाती तो वह तेवर बदले घर में आता ।—सेवासदन, पृ० २०८ । (३) मृत्युचिह्न प्रकट होना । तेंवर बुरे नजर आना या दिखाई देना' = अनुराग में अंतर पड़ना । प्रेम भाव में अंतर आ जाना । तेवर पर बल पड़ना = दे० 'तेवर बुरे नजर आना या दिखाई देना' । उ०—डर हमें तिरछी निगाहों ।का नहीं । देखिए अब बल न तेवर पर पड़े ।—चोखे०, पृ० ५२ । तेवर मैले होना = दृष्टि से खेद, क्रोध या उदासीनता प्रकट होना । तेवर सहना = क्रोध या क्षीभ सहना । क्रोध का विरोध न करना । उ०—जो पड़े सिर रहें सहते उसे, पर न ओरों के बुरे तेवर सहें ।—चुभते० पृ० १९ । २. भौंह । भृकुटी ।
⋙ तेवरसी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ककड़ी । २. खीरा । ३.फूट ।
⋙ तेवरा
संज्ञा पुं० [देश०] दुन में बजाया हुआ रूपक ताल । (संगीत) ।
⋙ तेवराना (१)
क्रि० अ० [हिं० तेवर + आना (प्रत्य०)] १. भ्रम में पड़ना । संदेह में पड़ना । सोच में पड़ना । २. विस्मित होना । आश्चर्य करना । दे० 'तेवराना' । ३. मुर्च्छित हो जाना । बेहोश हो जाना ।
⋙ तेवराना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तेवारी] तिवारियों की वस्ती ।
⋙ तेवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्योरी' ।
⋙ तेवहार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्यौहार' । उ०—सखि मानहिं तेवहार सब, गाइ देवारी खेलि ।—जायसी ग्रं० (गुप्त) ।, पृ० ३५७ ।
⋙ तेवान पु †
संज्ञा पुं० [देश०] सोच । चिंता । फिकर । उ०—मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उबार जीउ डर पूरा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तेवान
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तावान' । उ०—गयो अजपा भूलि झूले, गयो बिसरि तेवान ।—जग० श०, पृ० १४ ।
⋙ तेवाना पु †
क्रि० अ० [देश०] सोचना । चिंता करना । उ०— (क)सँवारि सेज धन मन भइ संका । ठाढि तेवानि टेककर लंका ।—जायसी (शब्द०) । (ख) रहौं लजाय तो पिय चलै कहों तो कहैं मोहि ढ़ीठ । ठाढ़ि तेवानी का करौं भारी दोउ बसीठ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तेवारी †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तिवारी' ।
⋙ तेह पु †
संज्ञा पुं० [सं० तक्ष्णय, हिं० तेखना] १. क्रोध । गुस्सा । उ०—हम हारी कै कै हहा पायन पारयो प्यैरु । लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेरे त्यौरु ।—बिहारी (शब्द०) । २. अहंकार । घमंड । ताव । उ०—आवै तेह वश भूप करहिं हठ पुनि पाछे पछितैहैं । अवधकिशोर समान और बर जन्म प्रयंत न पैहैं ।—रघुराज (शब्द०) । ३. तेजी । प्रचंडता । उ०— शेष भार खाइकै उतारै फन हु ते भूमि कमठ बराह छो़ड़ि भागैं क्षिति जेह को । भानु सितभानु तारा मंडल प्रतीचि उवैं सोखै सिंधु बाडव तरणि तजै तेह को—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ तेहज पु
संज्ञा [हिं० ते] उसी को । उ०—दादू तेहज लीजिए रे, साचौ सिरजनहार ।—दादू० बानी, पृ० ५८ ।
⋙ तेहनौ
सर्व० [हिं० ते] उसी को । उ०—ते पुर प्राणी तेहनी अविचल सदा रहंत ।—दादू०, पृ० ५८४ ।
⋙ तेहबार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्योहार' । उ०—'हरीचंद' दुख मेटि काम को घर तेहबार मनाओ ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४३२ ।
⋙ तेहर †
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रि + हार] तीन लड़ की सिकडी़, करधनी या जंजीर जिसे स्त्रियाँ कमर में पहनती हैं । उ०—जेहर, तेहर, पाँय, बिछुवन छबि उपजायल ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८६ ।
⋙ तेहरा
वि० पुं० [हिं० तीन + हरा(प्रत्य०)] [वि० स्त्री० तेहरी] १. तीन परत किया हुआ । तीन लपेट का । २. जिसकी एक साथ तीन प्रतियाँ हों । जो एक साथ तीन हो । उ०— दोहरे तेहरे चौहरे भूषण जाने जात ।—बिहारी (शब्द०) । ३. जो दो बार होकर फिर तीसरी बार किया गया हो । जैसे, तेहरी मेहनत । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार ऐसे ही कामों के लिये होता है जो पहले दो बार करने पर भी उत्तम रीति से या पूर्ण न हुए हों । ४. तिगुना । (क्व०) ।
⋙ तेहराना
क्रि० स० [हिं० तेहरा] १. तीन लपेट या परत का करना । २. किसी काम को उसकी त्रुटि आदि दूर करने अथवा उसे बिलकुल ठीक करने के लिये तीसरी बार करना ।
⋙ तेहराव †
संज्ञा पुं० [हिं० तेहरा + आव (प्रत्य०)] तीसरी बार की क्रिया या भाव ।
⋙ तेहवार
संज्ञा पुं० [सं० तिथि + वार] दे० 'त्योहार' ।
⋙ तेहा
संज्ञा पुं० [हिं० तेह] १. क्रोध । गुस्सा । २. अहंकार । शेखी । अभिमान । घमंड । यौ०—तेहेदार । तेहेबाज ।
⋙ तेहातेह
क्रि० वि० [हिं० तह] तह पर तह । खूब गहरे में । उ०—त्रीजै प्रहरै रैण कै मिलिया तेहातेह । धन नहिं धरतौ हुइ रही, कंत सूहावौ मेह ।—ढोला०, दू० ५८४ ।
⋙ तेहि पु †
सर्व० [सं० ते] उसको । उसे । उ०—छबि सो छबीले छैल भेंटि तेहि छिनहिं उडा़वत ।—नंद० प्रं०, पृ० ३६ ।
⋙ तेही (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तेह + ई (प्रत्य०)] १. गुस्सा करनेवाला । जिसमें क्रोध हो । क्रोधी । २. आभिमानी । घमंडी ।
⋙ तेही पु (२)
सर्व० [हिं० ते + ही] उसे । उसी को ।
⋙ तेहीज पु
सर्व [हिं० तेहीं + ज] उसी को । उ०—अरध दख गाड़यो रहई, जीग सीरज्यो होई तेहीज खाय ।—बी० रासो, पृ० ४६ ।
⋙ तेहेदार †
संज्ञा पुं० [हिं० तेहा + फा़० दार (प्रत्य०)] दे० 'तेही' ।
⋙ तेहेबाज †
संज्ञा पुं० [हिं० तेहा + फा़० बाज (प्रत्य०)] दे० 'तेही' ।
⋙ तैंतिडीक
वि० [सं० तैन्तिडीक] तिंतिडी या इमली की काँजी से बनाया हुआ या तैयार किया हुआ [को०] ।
⋙ तैँ पु †
क्रि० वि० [हिं० तैं] से । दे० 'तें' उ०—कुंज तैं कहूँ सुनि कंत को गमन लखि आगमन तैसो मनहरन गोपाल को ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ तैँ पु
सर्व० [सं० त्वम्] तू । उ०—त्रिय संग लरहिं न भट रिपु अगनी । बक मम भ्राता तैं मम भगनी ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ तैंतालीस
वि० दे० [हिं०] तेंतालीस ।
⋙ तैंतीस
वि० [हिं०] दे० 'तेंतीस' । उ०—खुसू तैंतीस जब कटे भुज बीस । धरि मारू दससीस मन राउ रानी ।—पलटू० भा० २, पृ० १०८ ।
⋙ तै † (१)
क्रि० वि० [सं० तत्] उतना । उस कदर । उस मात्रा का । जैसे,—अब जै नंबर के बाद कहिये तै नंबर के बाद आपका ताश निकले ।—रामकृष्ण वर्मा (शब्द०) ।
⋙ तै (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. समाप्ति । खात्मा । यौ०—तै तमाम = अंत । समाप्ति । २. चुकता । बेबाकी (को०) । ३. निर्णय । फेसला । निबटारा । (को०) । ४. रास्ता चलना । जैसे, मंजिल तै कर ली । उ०— बहुतों ने राह तै की सँभले न पाँव फिर भी ।—बेला, पृ० ९० ।
⋙ तै (३)
वि० १. जिसका निबटेरा या फैसला हो चुका हो । निर्णीत । २. जो पूरा हो चुका हो । समाप्त । जैसे, झगडा़ तै करना । रास्ता तै करना ।
⋙ तै † (४)
संज्ञा पुं० [फा़० तह] दे० 'तह' ।
⋙ तैकायन
संज्ञा पुं० [सं०] तिक ऋषि के वंशज या शिष्य ।
⋙ तैक्त
संज्ञा पुं० [सं०] तिक्त का अभाव । तीतापन । चरपराहट । तिताई । तिक्तत्व ।
⋙ तैत्क्ष्ण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीक्ष्णता । तीक्ष्ण का भाव । २. भयं— करता (को०) । ३. पैनाप्न (को०) । ४. निर्दयता (को०) ।
⋙ तैखाना पु †
संज्ञा पुं० [फ़० तहखानह्] दे० 'तहखाना' ।
⋙ तैजस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धातु, मणि अथवा इसी प्रकार का और कोई चमकीला पदार्थ । २. घी । ३. पराक्रम । ४. बहुत तेज चलनेवाला घोडा़ । ५. सुमति के एक पुत्र का नाम । ६. जो स्वयंप्रकाश और सूर्य आदि का प्रकाशक हो, भगवान । ७. वह शारीरिक शक्ति जो आहार को रस तथा रस को धातु में परिणत करती है । ८. एक तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है । ९. राजस अवस्था में प्राप्त अहंकार जो एकादश इंद्रियों और पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति में सहायक होता है और जिसकी सहायता के बिना अहंकार कभी सात्विक या तामसी अवस्था प्राप्त नहीं करता । विशेष—दे० 'अहंकार' । १०. जंगम (को०) ।
⋙ तैजस (२)
वि० [सं०] १. तेज से उत्पन्न । तेज संबंधी । जैसे, तैजस पदार्थ । २. चमकीला । द्युतिमान (को०) । ३. प्रकाश से परिपूर्ण (को०) । ४. उत्तेजित । उत्साही (को०) । ५. शक्तिशाली । साहसी (को०) । ६. राजसी वृत्तिवाला । रजोगुणी (को०) ।
⋙ तैजसावर्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाँदी सोना गलाने की घरिया । मूषा ।
⋙ तैजसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली ।
⋙ तैतित्क्ष
वि० [सं०] धैर्यवान् । सहनशील [को०] ।
⋙ तैडे़ पु
सर्व० [राज०] तेरा । उ०—नागर तट तैडे़ देखे बिन वेकलियाँ दिल नू ।—नट०, पृ० १२६ ।
⋙ तैतिर
संज्ञा पुं० [सं० तीतर] तीतर ।
⋙ तैतिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्यारह करणों में से चौथा करण । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इस करण में जन्म लेनेवाला कलाकुशल, रूपवान्, वक्ता, गुणी, सुशील और कामी होता है । २. देवता । ३. गैंडा ।
⋙ तैत्तिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीतरों का समूह । २. तीतर । ३. गैंडा़ ।
⋙ तैत्तिरि
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद के प्रवर्तक एक ऋषि का नाम जो वैशंपायन के बडे़ भाई थे ।
⋙ तैत्तिरिक
संज्ञा पुं० [सं०] तीतर पकड़नेवाला [को०] ।
⋙ तैत्तिरीय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृष्ण यजुर्वेद की छियासी शाखाओं में से एक । विशेष—यह आत्रेय अनुक्रमणिका और पाणिनि के अनुसार तित्तिरि नामक ऋषि प्रोक्त है । पुराणों में इसके संबंध में लिखा है कि एक बार वैशंपायन ने ब्रह्महत्या की थी । उसके प्रयाश्चित के लिये उन्होंने अपने शिष्यों को यज्ञ करने की आज्ञा दी । और सब शिष्य तो यज्ञ करने के लिये तैयार हो गए, पर याज्ञवल्क्य तैयार न हुए । इसपर वैशंपायन ने उनसे कहा कि तुम हमारी शिष्यता छोड़ दो । याज्ञवल्क्य ने जो कुछ उनसे पढा़ था वह सब उगल दिया; और उस वमन को उनके दूसरे सहपाठियों ने तीतर बनकर चुग लिया । २. इस शाखा का उपनिषद् । विशेष—यह तीन भागों में विभक्त है । पहला भाग संहितोष— निषद या शिक्षावल्ली कहलाता है; इसमें व्याकरण और अद्वैतवाद संबंधी बातें हैं । दूसरा भाग आनंदवल्ली और तीसरा भाग भृगुवल्ली कहलाता है । इन दोनों संमिलित भागों को वारुणी उपनिषद भी कहते हैं । तैत्तिरीय उपनिषद् में बह्मविद्या पर उत्तम विचारों के अतिरिक्त श्रुति, स्मृति और इतिहास संबंधी भी बहुत सी बातें हैं । इस उपनीषद् पर शंकराचार्य का बहुत अच्छा भाष्य है ।
⋙ तैत्तिरीयक
संज्ञा पुं० [सं०] तैत्तिरीय शाखा का अनुयायी या पढ़नेवाला ।
⋙ तैत्तिरीयारण्यक
संज्ञा पुं० [सं०] तैत्तिरीय शाखा का आरण्यक अंश जिसमें वानप्रस्थों के लिये उपदेश है ।
⋙ तैत्तिल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तैतिल' ।
⋙ तैनात
वि० [अ० तअय्युन] किसी काम पर लगाया या नियत किया हुआ । मुकर्रर । नियत । नियुक्त जैसे,—भीड़ भाड का इंतजाम करने के लिये दस सिपाही वहाँ तैनात किए गए थे ।
⋙ तैनाती
संज्ञा स्त्री० [हिं० तैनात + ई (प्रत्य०)] किसी काम पर लगने की क्रिया या भाव । नियुक्ति । मुकर्ररी ।
⋙ तैमित्य
संज्ञा पुं० [सं०] जड़ता [को०] ।
⋙ तैमिर
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग [को०] । विशेष—इस रोग में आँखों में धूँधलापन आ जाता है ।
⋙ तैया
संज्ञा पुं० [देश०] मिट्टी का वह छोटा बरतन जिसमें छीपी कपडा़ छापने के लिये रंग रखते हैं । अहर ।
⋙ तैयार
वि० [अ०] १. जो काम में आने के लिये बिलकुल उपयुक्त हो गया हो । सब तरह से दुरुस्त या ठीक । लैस । जैसे, कपडा़ (सिलकर) तैयार होना, मकान (बनकर) तैयार होना, फल (पककर) तैयार होना, गाडी़ (जुतकर) तैयार होना, आदि । मुहा०—गला तैयार होना = गले का बहुत सुरीला और रस— युक्त होना । ऐसा गला होना जिससे बहुत अच्छा गाना गाया जा सके । हाथ तैयार होना = कला आदि में हाथ का बहुत अभ्यस्त और कुशल होना । हाथ का बहुत मँज जाना । २. उद्यत । तत्पर । मुस्तैद । जैसे—(क) हम तो सबेरे से चलने के लिये तैयार थे, आप ही नहीं आए । (ख) जब देखिए तब आप लड़ने के लिये तैयार रहते हैं । ३. प्रस्तुत । उपरस्थित । मौजूद । जैसे,—इस समय पचास रुपए तैयार हैं, बाकी कल ले लीजिएगा । ४. हृष्ट पुष्ट । मोटा ताजा । जिसका शरीर बहुत अच्छा और सुडौल हो । जैसे, यह घोडा़ बहुत तैयार है । ५. संपूर्ण । मुकम्मल (को०) । ६. समाप्त । खत्म (को०) । ७. पक्व । पुख्ता (को०) । ८. कटिबद्ध । आमादा (को०) । ९. सुसज्जित । आरास्ता (को०) ।
⋙ तैयारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तैयार + ई (प्रत्य०)] १. तैयार होने की क्रिया या भाव । दुरुस्ती । संपूर्णता । २. तत्परता । मुस्तैदी । ३. शरीर की पुष्टता । मोटाई । ४. धूमधाम । विशेषतः प्रबंध आदि के संबंध की धूमधाम । जैसे,—उनकी बरात में बडी़ तैयारी थी । ५. सजावट । जैसे,—आज तो आप बडी़ तैयारी से निकले हैं । ६. समाप्ति । खात्मा (को०) । ७. प्रयोग के काबिल होना (को०) । ८. रचना । निर्माण । सृष्टि (को०) ।
⋙ तैयों पु
सर्व० [सं० त्वम् हिं० तें] तुमसे । उ०—तूँ आप करण कारण हे तेरा ही कीना होया सब कुछ है । तैयों कुछ छपिया नहीं ।—प्राण०, पृ० २०२ ।
⋙ तैयो †
क्रि० वि० [हिं०]दे० 'तऊ' । उ०—सहस अठासी मुनि जौं जेवैं तौयो न घंटा बाजै । कहहिं कबीर सुपज के जेए घंट मगन ह्वै गाजै ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ तैरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप जिसकी पत्तियों आदि को वैद्यक में तिक्त और व्रणनाशक माना है । पर्या०—तैर । तैरणी । कुनीली । रागद ।
⋙ तैरना
क्रि० अ० [सं० तरण] १. पानी के ऊपर ठहरना । उतराना । जैसे, लकडी़ या काग आदि का पानी पर तैरना । २. किसी जीव का अपने अंग संचालित करके पानी पर चलना । हाथ पैर या और कोई अंग हिलाकर पानी पर चलना । पैरना । तरना । विशेष—मछलियाँ आदि जलजंतु तो सदा जल में रहते और विचरते ही हैं; पर इनके अतिरिक्त मनुष्य को छोड़कर बाकी अधिकाँश जीव जल में स्वभावतः बिना किसी दूसरे की सहा— यता या शिक्षा के आपसे आप तैर सकते हैं । तैरना कई तरह से होता है और उसमें कैवल हाथ, पैर, शरीर का कोई अंग अथवा शरीर के सब अंगो को हिलाना पड़ता है । मनुष्य को तैरनै सीखना पड़ता है और तैरने में उसे हाथों और पैरों अथवा केवल पैरों को गति देनी पड़ती है । मनुष्य का साधारण तैरना प्रायः मेंढक के तैरने की तरह का होता है । बहुत से लोग पानी पर चुपचाप चित भी पड़ जीते हैं और बराबर तैरते रहते हैं । कुछ लोग तरह तरह के दूसरे आसनों से भी तैरते हैं । साधारण चौपायों को तैरने में अपने पैरों को प्रायः वैसी ही गति देनी पड़ती है जैसी स्थल पर चलने में, जैसे, घोडा़, गाय, हाथी, कुत्ता आदि । कुछ चौपाए ऐसे भी होते हैं जिन्हें तैरने में अपनी पूँछ भी हिलानी पड़ती है, जैसे,ऊद— बिलाव, गंधबिलाव आदि । कुछ जानवर केवल अपनी पूँछ और शरीर के पिछले भाग को हिलाकर ही बिलकुल मछलियों की तरह तैरते हैं, जैसे, ह्नेल । ऐसे जानवर पानी के ऊपर भी तैरते हैं और अंदर भी । जिन पक्षियों के पैरों में जालियाँ होती है, वे जल में अपने पैरों की सहायता से चलने की भाँति ही तैरते हैं, जैसे, बत्तक, राजहंस आदि । पर दूसरे पक्षी तैरने के लिये जल में उसी प्रकार अपने पर फटफटाते हैं जिस प्रकार उड़ने के लिये हवा में । साँप, अजगर आदि रेंगनेवीले जान— वर जल में अपने शरीर को उसी प्रकार हिलाते हुए तैरते हैं जिस प्रकार वे स्थल में चलते हैं । कछुए आदि अपने चारों पैरों का सहायता से तैरते हैं । बहुत से छोटे छोटे कीडे़ पानी की सतह पर दौड़ते अथव चित पड़कर तैरते हैं ।
⋙ तैरय पु
सर्व० [सं० तव] तेरा । उ०—पंच सखी मिली बइठी छइ आइ । तैरय लिखी सखी माँहि सुणाई ।—बी० रासो, पृ० ७४ ।
⋙ तैराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० तैरना + ई (प्रत्य०)] १. तैरने की क्रिया या भाव । २. वह धन जो तैरने के बदले में मिले ।
⋙ तेंराक (१)
वि० [हिं० तैरना + आक(प्रत्य०)] तैरनेवाला । जो अच्छी तरह तैरना जानता हो ।
⋙ तैराक (२)
संज्ञा पुं० तैरने में कुशल व्यक्ति ।
⋙ तैराना
क्रि० स० [हिं० तैरना का प्रे० रूप] १. दूसरे को तैरने में प्रवृत करना । तैरने का काम दूसरे से कराना । २. घुसाना । धँसाना । गोदना । जैसे,—चोर ने उसके पेट में छुरी तैरा दी ।
⋙ तैरू पु
वि० [हिं० तैरना] तैराक । तैरनेवाला । उ०—दरिया गुरू तैरू मिलाकर दिया पैले पार ।—संतवाणी०, पृ० १२ ।
⋙ तैर्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह कृत्य जो तीर्थ में किया जाय ।
⋙ तैर्थ (२)
वि० तीर्थ संबंधी ।
⋙ तैर्थिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शास्त्रकार । जैसे, कपिल, कणाद आदि । २. साधु । संत (को०) । ३. तीर्थस्थान का पवित्र जल (को०) ।
⋙ तैर्थिक (२)
वि० १. पवित्र । २. तीर्थ से आनेवाला । तीर्थ से संबंद्ध । ३. तीर्थों अथवा मंदिरों में जानेवाला [को०] ।
⋙ तैर्थवनिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ ।
⋙ तैर्थग्योन
वि० [सं०] तिर्थक् योनि संबंधी [को०] ।
⋙ तैलंग
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकलिङ्ग] १. दक्षिण भारत का एक प्रचीनदेश जिसका विस्तार श्रीशैल से चोल राज्य से मध्य तक था । इसी देश की भाषा तेलुगु कहलाता है । विशेष—इस देश में कालेश्वर, श्रीशैल और भीमेश्वर नामक तीन पहाड़ हैं जिनपर तीन शिवलिंग हैं । कुछ लोगों का मत है कि इन्हीं तीनों शिवलिंगों के कारण इस देश का नाम त्रिलिंग पडा़ है; इसका नाम पहले त्रिकलिंग था । महाभारत में केवल कलिंग शब्द आया है । पीछे से कलिंग देश के तीन विभाग हो गए थे जिसके कारण इसका नाम त्रिकलिंग पडा़ । उडी़सा के दक्षिण से लेकर मदरास के और आगे तक का समुद्रतटस्थ प्रदेश तैलंग या तिलंगाना कहलाता है । २. तैलंग देश का निवासी । यौ०—तैलंग ब्राह्मण ।
⋙ तैलंगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तिलंगा' ।
⋙ तैलंगी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तैलंग + ई (प्रत्य०)] तैलंग देशवासी ।
⋙ तैलंगी (२)
संज्ञा स्त्री० तैलंग देश की भाषा ।
⋙ तैलंगी (३)
वि० तैलंग देश संबंधी । तैलंग देश का ।
⋙ तैलंपाता
संज्ञा स्त्री० [सं० तैलम्पाता] स्वधा जिसमें मुख्यतः तिल की आहुति दी जाती है [को०] ।
⋙ तैल
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिल, सरसों आदि को पेरकर निकाला हुआ तैल । २. किसी प्रकार का तेल । ३. धूप । गुग्गुल (को०) ।
⋙ तैलकंद
संज्ञा पुं० [सं० तैलकन्द] तेलियाकंद ।
⋙ तैलकल्कज
संज्ञा पुं० [सं०] खली [को०] ।
⋙ तैलकार
संज्ञा पुं० [सं०] तेली (जाति) । विशेष—ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इस जाति का उत्पति कोटक जाति की स्त्री और कुम्हार पुरुष से बतलाई गई है । दे० 'तेली' ।
⋙ तैलकिट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] खली ।
⋙ तैंलकीट
संज्ञा पुं० [सं०] तेलिन नाम का कीडा़ ।
⋙ तैलत्क्षौम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वस्त्र जिसकी राख का प्रयोग घाव पर होता है [को०] ।
⋙ तैलचित्र
संज्ञा पुं० [सं० तैल + चित्र] तैल रंगों से बना हुआ चित्र ।
⋙ तैलचौरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेलचट्टा [को०] ।
⋙ तैलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] तेल का भाव या गुण ।
⋙ तैलद्रौणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काठ का एक प्रकार का बडा़ पात्र जो प्राचीन काल में बनाया जाता था और जिसकी लंबाई आदमी की लंबाई के बराबर हुआ करती थी । विशेष—इसमें तेल भरकर चिकित्सा के लिये रोगी लिटाए जाते थे और सड़ने से बचाने के लिये मृत शरीर रखे जाते थे । राजा दशरथ का सरीर कुछ समय तक तैलद्रोणी में ही रखा गया था ।
⋙ तैलधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] धान्य का एक वर्ग जिसके अंतर्गत तीनों प्रकार की सरसों, दोनों प्रकार की राई, खस और कुसुम के बीज हैं ।
⋙ तैलपर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] गठिवन ।
⋙ तैलपर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चंदन । २. लाल चंदन । ३. एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ तैलपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तैलपर्णी [को०] ।
⋙ तैलपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सलई का गोंद । २. चंदन । ३. शिलारस या तुरुष्क नाम का गंधद्रव्य ।
⋙ तैलपा, तैलपायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेलचट्टा । चपडा़ [को०] ।
⋙ तैलपाती
संज्ञा पुं० [सं० तैलपायिन्] १. झींगुर । चमडा़ (कीडा़) । २. तलवार (को०) ।
⋙ तैलपिंज
संज्ञा पुं० [सं० तैलपिञ्ज] सफेद तील [को०] ।
⋙ तैलपिपीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चींटी ।
⋙ तैलपिष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] खली ।
⋙ तैलपीत
वि० [सं०] जिसने तेल पिया हो [को०] ।
⋙ तैलपूर
वि० [सं०] (दीपक) जिसमें तेल भरने की आवश्यकता न हो [को०] ।
⋙ तैलप्रदीप
संज्ञा पुं० [सं०] तेल का दीपक [को०] ।
⋙ तैलफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंगुदी । २. बहेंडा़ । ३. तिलका ।
⋙ तैलबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० तैल + बिन्दु] किसी संक्षिप्त उक्ति को बढा़ चढा़कर कहना । उ०—किसी संक्षिप्त उक्ति को खूब बढा़कर ग्रहण करना तैलबिंदु कहा गया है ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २६३ ।
⋙ तैलभाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमेली का पेड़ ।
⋙ तैलमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेल की बत्ती । पलीता ।
⋙ तैलयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तैलयन्त्र] कोल्हू ।
⋙ तैलरंग
संज्ञा पुं० [सं० तैल + रङ्ग] एक प्रकार का रंग जो तेल में मिलाकर बनाया जाता है और जिस रंग से तैलचित्र बनते हैं ।
⋙ तैलवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतावरी । शतमूली ।
⋙ तैलसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] शीतल चीनी । कबाब चीनी ।
⋙ तैलस्फटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंबर नामक गंधद्रव्य । २. तृण— मणि । कहरुबा ।
⋙ तैलस्यंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० तैलस्यन्दा] १. कोकर्णी नाम की लता । मुरहटी । २. काकोली नाम की ओषधि ।
⋙ तैलांबुका
संज्ञा स्त्री० [सं० तैलाम्बुका] तेलचट्टा । चपडा़ [को०] ।
⋙ तैलाक्त
वि० [सं०] जिसमें तेल लगा हो । तैलयुक्त । उ०— उड़ती भीनी तैलाक्त गंद, फूली सरसों पीली पीली ।—ग्राम्या, पृ० ३५ ।
⋙ तैलाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस या तुरुष्क नाम का गंधद्रव्य ।
⋙ तैलागुरु
संज्ञा पुं० [सं०] अगर की लकडी़ ।
⋙ तैलाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरें । भिड़ ।
⋙ तैलाभ्यंग
संज्ञा पुं० [सं० तैलाभ्यङ्ग] शरीर में तेल मलने की क्रिया । तेल की मलिश ।
⋙ तैलिक (१)
संज्ञा पु० [सं०] तिलों से तेल निकालनेवाला । तेली ।
⋙ तैलिक (२)
वि० तेल संबंधी ।
⋙ तैलिक यंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तैलिक यन्त्र] कोल्हू । उ०—समर तैलिक यंत्र तिल तमीचर निकर पेरि डारे सुभट घालि घानी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तैलिन
संज्ञा पुं० [सं० तैलिनम्] तिल का खेत [को०] ।
⋙ तैलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बत्ती ।
⋙ तैलिशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ तेल पेरने का कोल्हू चलता हो ।
⋙ तैली
संज्ञा पुं० [सं० तैलिन्] तेली ।
⋙ तैलीन
संज्ञा पुं० [सं० तैलिनम्] तील का खेत [को०] ।
⋙ तैलीशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० तैलिनशाला] तेल पेरने का स्थान [को०] ।
⋙ तैल्वक (१)
वि० [सं०] लोध की लकडी़ से बाना हुआ ।
⋙ तैल्वक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] लोध ।
⋙ तैश
संज्ञा पुं० [अ०] अवेशयुक्त क्रोध । गुस्सा । मुहा०—तैश दिखाना = ऐसा कार्य करना जिससे कोई क्रुद्ध हो । क्रोध चढाना । तैश में आना = क्रुद्ध होना । बहुत कुपित होना ।
⋙ तैष
संज्ञा पुं० [सं०] चांद्र पौष मास । पौष मास की पूर्मिना के दिन तिष्य (पुष्य) नक्षत्र होता है, इसी से उसका नाम तैष पडा़ है ।
⋙ तैषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुष्य नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी । पूस की पूर्णिमा ।
⋙ तैस †
वि० [सं० तादृश, प्रा० तइस] दे० 'तैसा' । उ०— पवन जाइ तहँ पुहँचै चहा । मारा तैस टूटि भुइँ बहा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२९ ।
⋙ तैसई पु
वि० [हिं० तैस + ई (प्रत्य०)] तैसी ही । वैसे ही । उसी प्रकार के । उ०—तैसई मंत्री अरु सब पुरुष प्रधान ।— प्रेगघन०, भा० १, पृ० ७० ।
⋙ तैसही पु
वि० [हिं० तैस + ही (प्रत्य०)] दे० 'तैसई' । उ०—वरिहै विजैश्री आप हूँ कहूँ श्यामसुंदर तैसही ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११६ ।
⋙ तैसा
वि० [सं० तादृश, प्रा० ताइस] उस प्रकार का । 'वैसा' का पुराना रूप ।
⋙ तैसील पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तहसील१' । उ०—मिलिकै बादिसाहूँ का अमल कौं उठाया । ऊ तीन बरस होगा तैसील कूँ न आया ।—शिखर०, पृ० २३ ।
⋙ तैसे
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'वैसे' ।
⋙ तैसों पु
वि० [हिं०] दे० 'वैसा' । उ०—रँग रँगीले सँग सखा गन रँगीली नव बधु तैसोंई जम्यौ रँगीली वसंत रागु ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९७ ।
⋙ तैसो पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तैसे' । उ०—अंगनि मैं कीनो मृगमद अंगराग तैसो आनन ओढा़य लीनो स्याम रंग सारी मैं ।—मति० ग्रं०, पृ० ३१३ ।
⋙ तैँ पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' ।
⋙ तोँअर पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'तोमर' । उ०—सब मंत्री परधान थान पर । गए जहाँ पावासर तोंअर ।—पृ० रा०, १ ।४६४ । २. तोमर नामक अस्त्र ।
⋙ तोँद
संज्ञा स्त्री० [सं० तुन्द—तुन्दिल] पेट के आगे का बढा़ हुआ भाग । पेट का फुलाव । मर्यादा से अधिक फूला या आगे की ओर बढ़ा हुआ पेट । क्रि० प्र०—निकलना । मुहा०—तोंद पचकना = (१) मोटाई दूर होना । (२) शेखी निकल जाना ।
⋙ तोँदल
वि० [हिं० तोंद + ल (प्रत्य०)] तोंदवाला । जिसका पेट आगे की ओर बढ़ा और खूब फूला हुआ हो ।
⋙ तोँदा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] तालाब से पानी निकलने का मार्ग ।
⋙ तोँदा (२)
संज्ञा पुं० [फा़० तोदा] १. वह टीला या मिट्टी की दीवार, जिसपर तीर या बंदूक चलाने का अभ्यास करने के लिये निशाना लगाते हैं । २. ढेर । राशि । (क्व०) ।
⋙ तोँदियल
वि० [हिं०] दे० 'तोंदल' ।
⋙ तोँदी
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्डी] नाभि । ढोंढी ।
⋙ तोँदीला
वि० [हिं०] दे० [वि० स्त्री० तोंदीली] दे० 'तोंदल' ।
⋙ तोँदूमल
वि० [हिं० तोंदू + मल्ल] दे० 'तोंदल' । उ०—तोंद बना लो, नहीं उल्लू बनाकर निकाल दिए जाओगे या किसी तोंदूमल को पकड़ो ।—काया०, पृ० २५१ ।
⋙ तोँदैल
वि० [हिं० तोंद + ऐल] दे० 'तोंदल' ।
⋙ तोँन पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तौन' । उ०—होत दीर्घ (जो) अंत है हरि सम सब थल तोंम ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५३३ ।
⋙ तोँबा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूँबा' ।
⋙ तोँबी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तूँबी' ।
⋙ तोँर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' । उ०—तहँ तोर तीषन ताकिये, रन विरद जिनके बाँकिये ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ७ ।
⋙ तो पु (१)
सर्व० [सं० तव] तेरा ।
⋙ तो पु (२)
अव्य० [सं० तद्] तब । उस दशा में । जैसे,—(क) यदि तुम कहो तो मैं भी पत्र लिख दूँ । (ख) अगर वे मिलें तो उनसे भी कह देना । उ०—जो प्रभु अवसि पार गा चहहू । तो पद पदुम पखारन कहहू ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—पुरानी हिंदी में इस शब्द का, अर्थ में प्रयोग प्रायः 'जो' के साथ होता था ।
⋙ तो (३)
अव्य० [सं० तु] एक अव्यय जिसका व्यवहार किसी शब्द पर जोर देने के लिये अथवा कभी कभी यों किया जाता है । जैसे,—(क) आप चलें तो सही, मैं सब प्रबंध कर लूँगा । (ख) जरा बैठो तो । (ग) हम गए तो थे, पर वे ही नहीं मिले । (घ) देखो तो कैसी बहार है?
⋙ तो (४)
सर्व० [सं० तव] तुझ । तू का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के समय प्राप्त होता है, जैसे, तोको ।
⋙ तो (५)
क्रि० अ० [हिं० हतो (= था) था । (क्व०) । उ०—कालकरम दिगपाल सकल जग जाल जासु करतल तो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तोइ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० तोय] पाना । जल । उ०—दीठ डोरने मोर दिय छिरक रूप रस तोइ । मथि मो घट प्रीतम लिए मन नवनीत बिलोइ ।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ तोइ पु (२)
अव्य० [सं० ततः + अपि] १. फिर भी । उ०—मारु तोइण कणमणइ साल्ह कुमर बहु साठ ।—ढोला०, दृ० ६०५ ।
⋙ तोई (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. अंगे या कुरते आदि में कमर पर लगी हुई पट्टी या गोट । २. चादर या दोहर आदि की गोट । ३. लहँगे का नेफा ।
⋙ तोई पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोय' । उ०—जौं लगि तोई डोलै बोलै, तौं लगि गाया माहीं ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ७९ ।
⋙ तोऊ पु
अव्य० [हिं०] दे० 'तऊ' । उ०—तोऊ दुसंग पाइ बहिमुँख ह्वै रह्यो है ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५३ ।
⋙ तोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिशु । अपत्य । लड़का या लड़की । २. श्रीकृष्णचंद्र के एक सखा का नाम ।
⋙ तोकक
संज्ञा पुं० [सं०] चातक [को०] ।
⋙ तोकना पु
क्रि० स० [?] उठाना । उ०—तेक तोकि तक्यौ तुरी ।—पृ० रा०, ७ ।१०५ ।
⋙ तोकरा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता जो अफीम के पौधों पर लिपटेकर उन्हें सुखा देती हैं ।
⋙ तोकवत्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० तोकवती] पुत्रवान [को०] ।
⋙ तोकाँ पु †
सर्व० [हिं० तो + को] तुझको । तुझे । उ०—औ विधि रूप दीन्ह है तोकाँ ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २६१ ।
⋙ तोका पु
सर्व० [हिं० तो + को] तुझको । तुझे । उ०—करसि बियाह धरम है तोका ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११५ ।
⋙ तोक्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंकुर । २. जौ का नया अंकुर । हरा और कच्चा जौ । ४. हरा रंग । ५. बादल । मेघ । ६. कान का मैल ।
⋙ तोख पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोष' या 'संतोष' । उ०—विरिरा होइ कंत कर तोखू । किरिरा किहें पाव धनि मोखू ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३३४ ।
⋙ तोखना पु
क्रि० स० [हिं० तोख] प्रसन्न करना । संतुष्ट करना । उ०—तिय ताकी पतिबरता अहै । पति ही पोख्यो तोख्यो चहै ।—नंद० ग्रं० पृ० २१२ ।
⋙ तोखार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तुखार' । उ०—पाँवरि तजहु देहु पग पैरी आवा वाँक तोखार ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०८ ।
⋙ तोगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तौक' । उ०—ज्ञातिपुत्र सिंह ने एथेंस का बना एक महामूल्यवान तोगा पहना था ।—वैशाली०, पृ० १२४ ।
⋙ तोछ पु
वि० [हिं०] दे० 'तुच्छ' । उ०—सेना तोछ तपस्या सब्बल ।—रा० रू०, पृ० ९५ ।
⋙ तोटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार सगण (/?/) होते हैं । जैसे, — ससि सों सखियाँ बिनती करतीं । टुक मंद न हो पग तो परती । हरि के पद अंकनि ढूँढन दे । छिन तो टक लाय निहारन दे । २. शंकराचार्य के चार प्रधान शिष्यों में से एक । इनका एक नाम नंदीश्वर भी था ।
⋙ तोटका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टोटका' । उ०—औषध अनेक जंत्र मंत्र तोटकादि किये वादि भए देव्रता मनाए अधिकाति है ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तोटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टोटा' । उ०—सौदा सतगुरु सूँ किया राम नाम धन काज । लाभ न कोई छोहड़ो तोटा सबही भाज ।—राम० धर्म०, पृ० ५२ ।
⋙ तोठाँ पु
सर्व० [हिं० तो + ठा (प्रत्य०)] तुम्हारा । उ०—हुवमूँ सूर तोठाँ गाँव सोला की लिषावटि ।—शिखर०, पृ० १०९ ।
⋙ तोड़
संज्ञा पुं० [हिं० तोड़ना] १. तोड़ने की क्रिया या भाव (क्व०) । २. किले की दिवारों आदि का वह अंश जो गोले की मार से टूट फूट गया हो । ३. नदी आदि के जल का तेज बहाव । ऐसा बहाव जो सामने पड़नेवाली चीजों को तोड़ फोड़ दे । ४. कुश्ती का वह पेंच जिससे कोई दूसरा पेंच रद्द हो । किसी दाँव से बचने के लिये किया हुआ दाँव । ५. किसी प्रभाव आदि को नष्ट करनेवाला पदार्थ या कार्य । प्रतिकार । मारक । जैसे—अगर वह तुम्हारे साथ कोई पाजीपन करे तो उसका तोड़ हमसे पूछना । यौ०—तोड़ जोड़ । तोड़ फोड़ । ६. दही का पानी । ७. बार । दफा । झोंक । जैसे,—पहुँचते ही वे उनके साथ एक तोड़ लड़ गए । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ऐसे ही कार्यों के लिये होता है जो बहुत आवेशपूर्वक या तत्परता के साथ किए जाते हैं ।
⋙ तोड़क
वि० [हिं० तोड़ + क (प्रत्य०)] तोड़नेवाला । जैसे, जाति पाँत तोड़क मंडल ।
⋙ तोड़ जोड़
संज्ञा पुं० [हिं० तोड़ + जोड़] १.दाँव पेंच । चाल । युक्ति । २. अपना मतलब साधने के लिये किसी को मिलाने और किसी को अलग करने का कार्य । चट्टे बट्टे लड़ाकर काम निकालना । क्रि० प्र०—भिड़ाना ।—लगाना ।
⋙ तोड़न
संज्ञा पुं० [सं० तोडनम्] १. फाड़ना । विभाजित करना । २. चिथड़े चिथड़े करना । ३.आघात या चोट पहुँचाना ।
⋙ तोड़ना
क्रि० स० [हिं० टूटना] १. आघात या झटके से किसी पदार्थ के दो या अधिक खंड करना । भग्न, विभक्त या खंडित करना । टुकड़े करना । जैसे, गन्ना तोड़ना, लकड़ी तोड़ना, रस्सी तोड़ना, दीवार तोड़ना, दावात तोड़ना, बरतन तोड़ना, बंधन तोड़ना । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार प्रायःकड़े पदार्थों के लिये अथवा ऐसे मुलायम पदार्थों के लिये होता है जो सूत के रूप में लंबाई में कुछ दूर तक चले गए हों ।संयो० क्रि०—डालना ।—देना । यौ०—तोड़ा मरोड़ी । २. किसी वस्तु के अंग को अथव उसमें लगी हुई किसी दूसरी वस्तु को नोच या काटकर, अथवा और किसी प्रकार से अलग करना । जैसे, पत्ती फूल या फल तोड़ना, (कोट में लगा हुआ) बटन तोड़ना, जिल्द तोड़ना, दाँत तोड़ना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना । मुहा०—तोड़ना = मार डालना । समाप्त कर देना । उ०— उस बाज ने कबूतर को पकड़कर तोड़ डाला ।—कबीर मं०, पृ० ४८५ । ३. किसी वस्तु का कोई अंग किसी प्रकार खंडित, भन्न या बेकाम करना । जैसे, मशीन का पुरजा तोड़ना, किसी का हाथ या पैर तोड़ना । ४. खेत में हल जोतना (क्व०) । ५. सेंध लगाना । ६. किसी स्त्री के साथ प्रथम समागम करना । किसी का कुमारीत्व भंग करना । ७. बल, प्रभाव, महत्व, विस्तार आदि घटाना या नष्ट करना । क्षीण, दूर्बल या अशक्त करना । जैसे,—(क) बीमारी ने उन्हें बिलकुल तोड़ दिया । (ख) युद्ध ने उन दोनों देशों को तोड़ दिया । (ग) इस कुएँ का पानी तोड़ दे । ८. खरीदने के लिये किसी चीज का दाम घटाकर निश्चित करना । जैसे, वह तो १५० माँगता था पर मैंने तो़ड़कर १०० पर ही ठीक कर लिया । ९. किसी संगठन, व्यवस्था या कार्यक्षेत्र आदि को न रहने देना अथवा नष्ट कर देना । किसी चलते काम कार्यालय आदि को सब दिन के लिये बंद करना । जैसे, महकमा तोड़ना, कंपनी तोड़ना, पद तोड़ना, स्कूल तोड़ना । १०. किसी निश्चय या नियम आदि को स्थिर या प्रचलित न रखना । निश्चय के विरुद्ध आचरण करना अथवा नियम का उल्लंघन करना । बात पर स्थिर न रहना । जैसे, ठेका तोड़ना, प्रतिज्ञा तोड़ना । ११. दूर करना । अलग करना । मिटा देना । बना न रहने देना । जैसे, संबंध तोड़ना, गर्व तोड़ना, दोस्ती तोड़ना, सगाई तोड़ना । १२. स्थिर या दृढ़ न रहने देना । कायम न रहने देना । जैसे, गवाह तोड़ना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । मुहा० —कलम तोड़ना = दे०'कलम' के मुहा० । कमर तोड़ना = दे० 'कमर' के मुहा० । किला या गढ़ तोड़ना = दे० 'गढ़' के मुहा० । तिनका तोड़ना = दे० 'तिनका' के मुहा० । पैर तोड़ना = दे० 'पेर' के मुहा० । मुँह तोड़ना = दे० 'मुँह' के मुहा० । रोटियाँ तोड़ना = दे० 'रोटी' के मुहा० । सिर तोड़ना = दे० 'सिर' के मुहा० । हिम्मत तोड़ना = दे० 'हिम्मत' के मुहा० ।
⋙ तोड़फोड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोड़ना + फोड़ना] नष्ट करने की क्रिया । नष्ट करना । खराब करना ।
⋙ तोड़मरोड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोड़ना + मरोड़ना] १. तोड़ने मरोड़ने का कार्य । २. गलत अर्थ लगाना । कुतर्क से भिन्न अर्थ सिद्ध करना ।
⋙ तोडर पु
संज्ञा पुं० [हिं० तोड़ा] एक आभूषण का नाम । उ०— मुद्रिक तोडर दए उतारी । उ०—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १९५ ।
⋙ तोड़वाना
क्रि० स० [हिं० तोड़ना प्रे० रूप] दे० 'तुड़वाना' ।
⋙ तोड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तोड़ना] १. सोने चाँदी आदि की लच्छेदार और चौड़ी जंजीर या सिकड़ी जिसका व्यवहार आभूषण की तरह पहनने में होता है । विशेष—आभूषण के रूप में बना हुआ तोड़ा कई आकार और प्रकार का होता है, और पैरों, हाथों या गले में पहना जाता है । कभी कभी सिपाही लोग अपनी पगड़ी के ऊपर चारों ओर भी तोड़ा लपेट लेते हैं । २. रुपए रखने की टाट आदि की थैली जिसमें १०००) रु० आते हैं । विशेष—बड़ी थैली भी जिसमें २०००) रु० आते हैं, 'तोड़ा' ही कहलाती है । मुहा०—(किसी के आगे) तोड़े उलटना या गिनना = (किसी को) सैकड़ों, हजारों रुपए देना । बहुत सा द्रव्य देया । ३. नदी का किनारा । तट । ४. वह मैदान जो नदी के संगम आदि पर बालू, मिट्टी जमा होने के कारण बन जाता है । क्रि० प्र०—पड़ना । ५. घाटा । घटी । कमी । टोटा । उ०—तो लाला के लिये दूध का तोड़ा थोड़ा ही है ।—मान०, भा० ५, पृ० १०२ । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना । ६. रस्सी आदि का टुकड़ा । ७. उतना नाच जितना एक बार में नाचा जाय । नाच का एक टुकड़ा । ८. हल की वह लंबी लकड़ी जिसके आगे जूआ लगा होता है । हरिस ।
⋙ तोड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड या टोंटा] नारियल की जटा की वह रस्सी जिसके ऊपर सूत बुना रहता था और जिसकी सहायता से पुरानी चाल की तोड़दार बंदूक छोड़ी जाती थी । फलीता । पलीता । उ०—तोड़ा सुलगत चढ़े रहैं घोड़ा बंदूकन ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२४ । यौ०—तोड़ेदार बंदूक = वह बंदूक जो तोड़ा या फलीता दागकर छोड़ी जाय । आजकल इस प्रकार की बंदूक का व्यवहार उठ गया है । दे०'बंदूक' ।
⋙ तोड़ा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. मिसरी की तरह की बहुत साफ की हुई चीनी जिससे ओला बनाते हैं । कंद । २. वह लोहा जिसे चकमक पर मारने से आग निकलती है । ३. वह भैंस जिसने अभी तक तीन से अधिक बार बच्चा न दिया हो । तीन बार तक ब्याई हुई भैंस ।
⋙ तोड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुड़ाई' ।
⋙ तोड़ाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तुड़ाना' ।
⋙ तोड़िया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तोड़ी' ।
⋙ तोड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सरसों ।
⋙ तोण पु †
संज्ञा पुं० [सं० तूण] निषंग । तरकस ।
⋙ तोत † (१)
संज्ञा पुं० [फा़० तोदह् या तूदह् (= ढेर)] १. ढेर । समूह । उ०—घर घर उनही के जुरे बदनामी के तोत । भाजत जे हित खेत तैं नेकनाम कब होत ।—(शब्द०) । २.खेल (क्व०) ।
⋙ तोत पु (२)
संज्ञा पुं० [?] कपट । उ०—पातसाह सुणतां दुख पायौ एक हजूर तोत उपजायौ ।—रा० रू०, पृ० ३०८ ।
⋙ तोतई (१)
वि० [हिं० तोता + ई (प्रत्य०)] सुग्गे जैसा । तोते के रंग का सा । धानी ।
⋙ तोतई (२)
संज्ञा पुं० वह रंग जो तोते के रंग का सा हो । घानी रंग ।
⋙ तोतरंगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो पितपित्ता की सी होती है ।
⋙ तोतर †
वि० [हिं०] दे० 'तोतला' ।
⋙ तोतरा
वि० [हिं०] दे० 'तोतला' ।
⋙ तोतराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तुतलाना' । उ०—पूछत तोतरात बात मातहि जदुराई । अतिसै सुख जाते तोहि मोहि कछु समुझाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तोतरि पु
वि० स्त्री० [हिं० तोतराना] दे० 'तोतला' । उ०— लरिकाई लटपट जग खेला । तोतरि बत मात सँग बोला ।— घट०, पृ० ३७ ।
⋙ तोतला
वि० [हिं० तुतलाना] १. वह जो ततलाकर बोलता हो अस्पष्ट बोलनेवाला । जैसे,तोतला बालक । २. जिसमें उच्चारण स्पष्ट न हो । जैसे, तोतली जबान ।
⋙ तोतलाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तुतलाना' ।
⋙ तोतली
वि० [हिं० तोतलाना] दे० 'तोतला' । उ०—खिला हुआ मुख कंज, मंजु दशनावली, अरुण अधर, कलकंठ तोतली काकली ।—शकुं० पृ० ४८ ।
⋙ तोता
संज्ञा पुं० [फा़०] १. एक प्रसिद्ध पक्षी जिसके शरीर का रंग हरा और चोंच का लाल होता है । कीर । सुआ । विशेष—इसकी दुम छोटी होती है और पैरों में दो आगे और दो पीछे इस प्रकार चार उँगलियाँ होती हैं । ये आदमियों की बोली की बहुत अच्छी तरह नकल करते हैं, इसलिये लोग इन्हें घर में पालते हैं और 'राम राम' था छोटे मोटे पद सिखलाते हैं । ये फल या मुलायम अनाज खाते हैं । तोते की छोटी, बड़ी सैकड़ों जातियाँ होती हैं जिनमें से अधिकाँस फलाहारी और कुछ मांसाहारी भी होती हैं । तोते साधारण छोटी चिड़ियों से लेकर तीन फुट तक की लंबाई के होते हैं । कुछ जातियों के तोतों का स्वर तो बहुत मधुर और प्रिय होता है और कुछ का बहुत कटु तथा अप्रिय । इनमें नर और मादा का रंग प्रायः एक सा ही होता है । अमेरिका में बहुत अधिक प्रकार के तोते पाए जाते हैं । हिरामन, कातिक, नूरी, काकातूआ आदि तोते की जाति के ही हैं । तीतर, मुरगे, मोर, कबूतर आदि पक्षी जिस स्थान पर बहुत दिनों तक पाले जाते हैं यदि कभी लड़कर इधर उधर चले जाँय तो प्रायः फिर लौटकर उसी स्थान पर आ जाते हैं पर साधारण तोते छूट जाने पर फिर अपने पालनेवाले के पास प्रायः नहीं आते । इसलिये तोतों की बेमुरौवती मशहूर है । मुहा०—हाथों के तोते उड़ जाना = बहुत घबरा जाना । सिर पीटा जाना । तोते की तरह आँखें फेरना या बदलना = बहुत बेमुरौवत होना । तोते की तरह पढ़ना = बिना समझे बूझे रटना । तोता पालना = किसी दोष, दुर्व्यसन या रोग को जान बूझकर बढ़ाना । किसी बुराई या बीमारी से बचने का कोई प्रयत्न न करना । यौ०—तोताचश्म । तोताचश्मी । २. बंदूक का घोड़ा ।
⋙ तोताचश्म
संज्ञा पुं० [फा़०] तोते की तरह आँख फेर लेनेवाला । वह जो बहुत बेमुरौक्त हो ।
⋙ तोताचश्मी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तोताचश्म + ई० (प्रत्य०)] बे— मुरौवती । बैवफाई । मुहा०—तोताचश्मी करना = बेमुरौवत होना । बेवफाई करना । उ०—यकीन नहीं आता कि आजाद न आएँ और ऐसी तोता— चश्मी करें ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २८ ।
⋙ तोतापंखी
वि० [हिं० तोता + पंख + ई (प्रत्य०)] तोते के पंखों जैसे पीत वर्ण का । पीताभ । उ०—तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी । यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहना अनकहनी ।—ठंडा०, पृ० २० ।
⋙ तोती
संज्ञा स्त्री० [फा़० तोता] १. तोते की मादा । उ०—बोलहिं सुक सारिक पिक तोती । हरिहर चातक पोत कपोती ।—नंद० ग्रं०, पृ० ११९ । २. रखी हुई स्त्री । उपपत्नी । रखनी । सुरैतिन । (क्व०) ।
⋙ तोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह छड़ी या चाबुक आदि जिसकी सहायता से जानवर हाँके जाते हैं ।
⋙ तोत्रवेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु के हाथ का दंड ।
⋙ तोथी पु
अव्य० [हिं०] वही । उ०—लाहो लेता जनम गौ तुम करै तिसी तोथी होई ।—बि० रासो, पृ० ४४ ।
⋙ तोद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीड़ा । व्यथा । उ०—आनँदघन रस बरसि बहायौ जनम जनम को तोद ।—घनानंद, पृ० ४८९ । २. सूर्य (को०) । ३. चलना । हाँकना (को०) ।
⋙ तोद (२)
वि० पीड़ा पहुंचानेवाला । कष्टदायक ।
⋙ तोदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोत्र । चाबुक, कोड़ा, चमोटी आदि । २. व्यथा । पीड़ा । ३. एक प्रकार का फलदार पेड़ जिसके फल को वैद्यक में कसैला, मीठा, रूखा तथा कफ और वायु— नाशक माना है ।
⋙ तोदरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] फारस में होनेवाला एक प्राकर का बड़ा कँटीला पेड़ जिसमें पतले छिल के दाले फूल लगते हैं । विशेष—इसके बीज भटकटैया के बीजों की तरह चपटे पर उससे कुछ बड़े होते हैं और औषध के काम में आने के कारण भारत के बाजारों में आकर बिकते हैं । ये बीज तीन प्रकार के होते हैं—लाल, सफेद और पीले । तीनों प्रकार के बीजबहूत रक्तशोधक, पौष्टिक और बलवर्धक समझे जाते हैं । कहते हैं, इनके सेवन से शरीर का रंग खूब निखरता है और चेहरे का रंग लाल हो जाता है ।
⋙ तोदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का ख्याल (संगीत) ।
⋙ तोन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूण' । उ०—हनुमान हर्थ्य सँदेस सु कथ्यं । धरै पिट्ठ तोन लछी बीर सथ्यं ।—पृ० रा०, २ ।२९७ ।
⋙ तोनि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूण' । उ०—कर खग्ग धनुष कटि लसै तोनि ।—ह० रासो०, पृ० १२ ।
⋙ तोप
संज्ञा स्त्री० [तु०] एक प्रकार का बहुत बड़ा अस्त्र जो प्रायः दो या चार पहियों की गाड़ी पर रखा रहता है और जिसमें ऊपर की और बंदूक की नली की तरह एक बहुत बड़ा नल लगा रहता है । इस नल में छोटी गोलियों या मेखों आदि से भरे हुए गोल या लंबे गोले रखकर युद्ध के समय शत्रुओं पर चलाए जाते हैं । गोले चलाने के लिये नल के पिछले भाग में बारूद रखकर पलीते आदि से उसमें आग लगा देते हैं । उ०—छुटहिं तोप घनघोर सबै बंदूक चलावै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४० । विशेष—तोपें छोटी, बड़ी मैदानी, पहाड़ी और जहाजी आदि अनेक प्रकार की होती हैं । प्राचीन काल में तोपें केवल मैदानी और छोटी हुआ करती थीं और उनको खींचने के लिये बैल या घोड़े जोते जाते थे । इसके अतिरिक्त घोडों, ऊँटों या हाथियों आदि पर रखकर चलाने योग्य तोपें अलग हुआ करती थीं जिनके नीचे पहिए नहीं होते थे । आजकल पाश्चात्य देशों में बहुत बड़ी बड़ी जहाजी, मैदानी और किले तोड़नेवाली तोपों बनती हैं जिनमें से किसी किसी तोप का गोला ७५—७५ मील तक जाता है । इसके अतिरिक्त बाइसिकिलों, मोटरों और हवाई जाहजों आदि पर से चलाने के लिये अलग प्रकार की तोपें होती हैं । जिनका मुँह ऊपर की ओर होता है, उनसे हवाई जहाजों पर गोले छोड़े जाते हैं । तोपों का प्रयोग शत्रु की सेना नष्ट करने और किले या मोरचेबंदी तोड़ने के लिये होता है । राजकुल में किसी के जन्म के समय अथवा इसी प्रकार की और किसी महत्वपूर्ण घटना के समय तोपों में खाली बारूद भरकर केवल शब्द करते हैं । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—छूटना ।—छोड़ना ।—दगना ।—दागना ।—भरना ।—मारना ।—सर करना । यौ०—तोपची । तोपखाना । मुहा०—तोप कीलना = तोप की नाली में लकड़ी का कुंदा खूब कसकर ठोंक देना जिससे उसमें से गोला न चलाया जा सके । [प्राचीन काल में मौका पाकर शत्रु की तोपें अथवा भागने के समय स्वयं अपनी ही तोपें इस प्रकार कील दी जाती थीं ।] तोप की सलामी उतारना = किसी प्रसिद्ध पुरुष के आगमन पर अथवा किसी महत्वपुर्ण घटना के समय बिना गोले के केवल बारूद भरकर शब्द करना । तोप के मुँहपर छोड़ना = बिलकुल निराश्रित छोड़ देना । खतरे के स्थान पर छोड़ना । उ०—फिर तुम उस बेचारी को अकेली तोप के मुँह पर छोड़ आए हो ।—रति०, पृ० ४४ । तोप के मुँह पर रखकर उड़ाना = बहुत कठिन दंड या प्राणदंड देना । तोप के मुहरे पर उड़ा देना = दे० 'तोप' के मुँहपर रखकर उड़ाना' । उ०— ऐसी बद औरतों को तोप के मुहरे पर उड़ा दे बस ।— सैर कु० पृ० १८ । तोप दम करना = दे०'तोप के मुँह पर रखकर उड़ाना' । किसी पर या किसी के सामने तोप लगाना = किसी वस्तु को उड़ाने के लिये तोप का मुँह उसकी ओर करना ।
⋙ तोपखाना
संज्ञा पुं० [फा़० तोप + खानह्] १. वह स्थान जहाँ तोपें और उनका कुल सामान रहता हो । २. गोलों और सामान की गाड़ीयों आदि के सहित युद्ध के लिये सुसज्जित चार से आठ तोपों तक का समूह ।
⋙ तोपची
संज्ञा पुं० [फा़० तोप + ची (प्रत्य०)] तोप चलानेवाला । वह जो तोप में गोला भरकर चलाता हो । गोलंदाज ।
⋙ तोपचीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चोबचीनी' ।
⋙ तोपड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का कबूतर । २. एक प्रकार की मक्खी ।
⋙ तोपना †
क्रि० स० [देश०] नीचे दबाना । ढाँकना । छिपाना ।
⋙ तोपवाना †
क्रि० स० [हिं० तोपना प्रे० रूप] तोपने का काम दूसरे से कराना । ढँकवाना । छिपवाना ।
⋙ तोपा
संज्ञा पुं० [हिं० तुरपना] एक टाँके में की हुई सिलाई । मुहा०—तोपा भरना = टाँके लगाना । सीना । सीधी सिलाई करना ।
⋙ तोपाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोपना] १. तोपने की क्रिया या भाव । २. तोपने की मजदूरी ।
⋙ तोपाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तोपवाना' ।
⋙ तोपास
संज्ञा पुं० [देश०] झाडू देनेवाला । झाडू़ बरदार ।
⋙ तोपी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टोपी' ।
⋙ तोफ पु
संज्ञा पुं० [फा़० तुफ़ (अव्य०)] दुःख । पश्चात्ताप । अफसोस । उ०—तालिब मतलूब को पहुँचै तोफ करै दिल अंदर ।—कबीर सा०, पृ० ८८८ ।
⋙ तोफगी
संज्ञा स्त्री० [फा़० तोहफा़] तोफा या उम्दा होने का भाव । खूबी । अच्छापन ।
⋙ तोफाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तोप' । उ०—दगै तोफाँ वहै गोला रोहला मोरछा दोला ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२७ ।
⋙ तोफा (१) †
वि० [अ० तोहफा़] बढ़िया ।
⋙ तोफा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'तोहफा' ।
⋙ तोफान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूफान' । उ०—साहिब वह कहाँ है कहाँ फिर नहीं है, हिंदू और तुरूक तोफान करता ।—सं० दरिया, पृ० २७ ।
⋙ तोबड़ा
संज्ञा पुं० [फा़० तोबरा या तुबरा] चमड़े या टाट आदि का वह थैला जिसमें दाना भरकर घोड़े के खाने के लिये उसके मुँह पर बाँध देते हैं । क्रि० प्र०—चढ़ाना । मुहा०—तोबड़ा चढ़ाना = बोलने से रोकना । मुँह बंद करना ।
⋙ तोबा
संज्ञा स्त्री० [अ० तौबह्] अपने किए पापों या दुष्कृत्यों आदि का स्मरण करके पश्चात्ताप करने और भविष्य में वैसा पाप या दुष्कृत्य न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा । किसी कार्य को विशेषतः अनुचित कार्य को भविष्य में न करने की शपथपूर्वक दृढ़ प्रतिज्ञा । उ०—लखे जग लोक दुखदाई । नग्र तोबा हाय हाई ।—संत तुलसी०, पृ० ४४ । विशेष—इस शब्द का व्यवहार कभी कभी किसी व्यक्ति या पदार्थ के प्रति घृणा प्रकट करने के समय भी होता है । मुहा०—तोबा तिल्ला करना या मचाना = रोते, चिल्लाते या दीनता दिखलाते हुए तौबा करना । तोबा तोड़ना = प्रतिज्ञा भंग करना । जिस काम से तोबा कर चुके हों, उसे फिर करना । तोबा करके (कोई बात) कहना = अभिमान छोड़— कर अथवा ईश्वर से डरकर (कोई बात) कहना । तोबा बुलवाना = किसी को इतना तंग या विवश करना कि उसे तोबा करनी पड़े । पूर्ण रूप से परास्त करना । चीं बुलवाना ।
⋙ तोम
संज्ञा पुं० [सं० स्तोम] समूह । ढेर । उ०—(क) जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो महामीन वास तिमि तोमनि को थल भो ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) दिनकर के उदय तोम तिमिर कटत ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) चहुं घाँ तें मही तरपै बिजुरी तम तोम में आजु तमासे करै ।—किशोर (शब्द०) ।
⋙ तोमड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तूमड़ी' ।
⋙ तोमर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाले की तरह एक प्रकार का अस्त्र जिसका व्यवहार प्राचीन काल में होता था । इसमें लकड़ी के डंडे में आगे की ओर लोहे का बड़ा फल लगा रहता था । शर्पला । शापल । २. बारह मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में एक गुरु और एक लघु होता है । जैसे, तब चले बान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल । कोप्यो समर श्रीराम । चले विशिख निसित निकाम ।—तूलसी (शब्द०) । ३. एक देश का नाम जिसका उल्लेख कई पुराणों में है । ४. इस देश का निवासी । ५. राजपूत क्षत्रियों का एक प्राचीन राजवंश जिसका राज्य दिल्ली में आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक था । विशेष—प्रसिद्ध राजा अनंगपाल (पृथ्वीराज के नाना) इसी वंश को थे । पीछे से तोमरों ने कन्नौज को अपना राजनगर बनाया था । कन्नौज में इस वंश के प्रसिद्ध राजा जयपाल हुए थे । आजकल इस वंश के बहुत ही कम क्षत्रिय पाए जाते हैं ।
⋙ तोमरग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] तोमरधारी सैनिक [को०] ।
⋙ तोमरघर
संज्ञा पुं० [सं०] १. 'तोमस्ग्रह' । २. अग्नि [को०] ।
⋙ तोमरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तुवरिका' ।
⋙ तोमरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'तूमड़ी' । २. कडुआ कददू ।
⋙ तोमा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तूँबा' । उ०—मेहर का जामा और तोमा भी मेहर का । मेहर का आपा इस दिल को पिलाइए ।—मलूक०, पृ० ३१ ।
⋙ तोय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल । पानी । पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र ।
⋙ तोय पु (२)
अव्य [हिं० तो] तो भी । फीर भी । उ०—चहुवाँणाँ कुल चल्लणी, वियौ न चल्लै कोय । चाड न घट्टै खूँद की सीस पलट्टै तोय ।— रा० रू०, पृ० ११६ ।
⋙ तोय (३)
सर्व० [हिं० तो] दे० 'तुझे' । उ०—मैं पठई वृषभानु कै, करनि सगाई तोय ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९५ ।
⋙ तोयकर्म
संज्ञा पुं० [सं० तोयकर्मन्] तर्पण ।
⋙ तोयकाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बेंत जो जल के समीप उत्पन्न होता है । वानीर ।
⋙ तोयकाम (२)
वि० १. जल चाहनेवाला । २. प्यासा [को०] ।
⋙ तोयकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० तोयकुम्भ] सेवार ।
⋙ तोयकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत्त । विशेष—इसमें जल के सिवा और कुछ आहार ग्रहण नहीं किया जाता । यह व्रत एक महीने तक करना होता है ।
⋙ तोयक्रीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० तोयक्रीडा] जल में खेल करना । जल— क्रीड़ा [को०] ।
⋙ तोयगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल [को०] ।
⋙ तोयचर
संज्ञा पुं० [सं०] जलचर [को०] ।
⋙ तोयडिंब
संज्ञा पुं० [सं० तोयडिम्ब] ओला । पत्थर । करका ।
⋙ तोयडिंभ
संज्ञा पुं० [सं० तोयडिम्भ] दे० 'तोयडिंब' [को०] ।
⋙ तोयद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. नागरमोथा । ३. घी । ४. वह जो जल दान करता हो (जलदान का माह— त्म्य बहुत अधिक माना जाता है ।)
⋙ तोयद (२)
वि० जल देनेवाला ।
⋙ तोयदागम
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु । बरसात ।
⋙ तोयदात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] शरद ऋतु [को०] ।
⋙ तोयधर
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ । बादल ।
⋙ तोयधार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । २. मोथा । ३. वर्षा (को०) ।
⋙ तोयधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । सागर । २. चार की संख्या (को०) ।
⋙ तोयधिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] लौंग ।
⋙ तोयनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । सागर । २. चार की संख्या (को०) ।
⋙ तोयनीबी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी ।
⋙ तोयपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] करेला ।
⋙ तोयपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपिप्पली ।
⋙ तोयपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाटला वृक्ष । पाँढर ।
⋙ तोयप्रष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाटला वृक्ष । पाँढर [को०] ।
⋙ तोयप्रसादन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तोयप्रसादनफल' ।
⋙ तोयप्रसादनफल
संज्ञा पुं० [सं०] निर्मली ।
⋙ तोयफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरबूज या ककड़ी आदि की बेल ।
⋙ तोयमल
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र का फेन [को०] ।
⋙ तोयमुच्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । २. मोथा ।
⋙ तोययंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तोययन्त्र] १. जलघड़ी । २. फौवारा [को०] ।
⋙ तोयरस
संज्ञा पुं० [सं०] आर्द्रता । नमी [को०] ।
⋙ तोयराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. वरुण [को०] ।
⋙ तोयराशि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. तालाब या झील [को०] ।
⋙ तोयवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] करेले की बेल ।
⋙ तोयवृत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सेवार ।
⋙ तोयवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल का किनारा । तीर । तट [को०] ।
⋙ तोयव्यतिकर
संज्ञा पुं० [सं०] संगम । जैसे, नदियों का [को०] ।
⋙ तोयशुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीपी [को०] ।
⋙ तोयशूक
संज्ञा पुं० [सं०] सेवार [को०] ।
⋙ तोयसर्पिका
संज्ञा पुं० [सं०] मेंढ़क [को०] ।
⋙ तोयसूचक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में वह योग जिसमें वर्षा होने की सूचना मिले । २. मेंढक (को०) ।
⋙ तोयांजलि
संज्ञा स्त्री० [सं० तोयाञ्जलि] दे० 'तोयकर्म' [को०] ।
⋙ तोयाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाडव अग्नि [को०] ।
⋙ तोयात्मा
संज्ञा पुं० [सं० तोयात्मन्] ब्रह्म [को०] ।
⋙ तोयाधार
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्करिणी । तालाब ।
⋙ तोयाधिवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाटला वृक्ष ।
⋙ तोयालय
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र । सागर [को०] ।
⋙ तोयाशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. झील । २. कुआँ कूप । ३. जल— संग्रह [को०] ।
⋙ तोयेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. शतभिषा नक्षत्र । ३. पूर्वा— षाढ़ा नक्षत्र ।
⋙ तोयोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा [को०] ।
⋙ तोर (१)
संज्ञा पुं० [सं० तूवर] अरहर ।
⋙ तोर पु † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोड़' । उ०—आदि चहुआण रजपूती का तोर । पाछै मुसलमान बादसाही का जोर ।— शिखर०, पृ० ५५ ।
⋙ तोर पु † (३)
वि० [हिं०] दे० 'तेरा' ।
⋙ तोर पु (४)
संज्ञा स्त्री० [अ० तौर] तौर । तरीका । ढंग । उ०— तो राखे सिर पर तिको, तज जबरी रा तोर ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ११५ ।
⋙ तोरई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुरई' ।
⋙ तोरकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की वनस्पति जो भारत के गरम प्रदेशों और लंका में प्रायः घास के साथ होती है । विशेष—पश्चिमी भारत में अकाल के दिनों में गरीब लोग इसके दानों आदि की रोटिय़ाँ बनाकर खाते थे ।
⋙ तोरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी घर या नगर का बाहरी फाटक । बहिर्द्वार । विशेषतः वह द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार तथा मालओं और पताकाओं आदि से सजाया गया हो । उ०—स्वच्छ सुंदर और विस्तृत घर बने; इंद्रधनुषाकार । तोरण हैं तने ।—साकेत, पृ० ३ । २. वे मालाएँ आदि जो सजावट के लिये खंभों और दीवारों आदि में आदि में बाँधकर लटकाई जाती हैं । बंदनवार । ३. ग्रीवा । गला । ४. महादेव ।
⋙ तोरणमाल
संज्ञा पुं० [सं०] अवंतिका पुरी ।
⋙ तोरणस्फटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्योधन की उस सभा का नाम जो उसने पांडवों की मय दानववाली सभा देखकर ईर्ष्यावश बनवाई थी ।
⋙ तोरन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोरण' ।
⋙ तोरन तेगा पु
संज्ञा पुं० [हिं० तोड़ना+ तेगा] एक प्रकार का तेगा । उ०—तुरकन के तेगा तोरन तेगा सकल सुबेगा रुधिर मरे ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० २८ ।
⋙ तोरना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तोड़ना' । उ०—काहे को लगायो सनेहिया रे अब तोरलो न जाय ।—पलटू०, पृ० ८२ ।
⋙ तोरय पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम्हारा' । उ०—खुले सुभाग्य मोरयं, लह्यौ दरस्स तोरयं ।—ह० रासो, पृ० १३ ।
⋙ तोरश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० तोरश्रवस्] अंगिरा ऋषि का एक नाम ।
⋙ तोराँ पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तोरा' । उ०—नानक बगोयद जी तोराँ तिरा चाकरा पारवाक ।—कबीर मं०, पृ० ४११ ।
⋙ तोरा पु (१)
संज्ञा पुं० [फा़० तुर्रह्] तुर्रा । कलगी ।
⋙ तोरा पु † (२)
सर्व० [हिं०] दे० 'तेरा' । उ०—अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १४३ ।
⋙ तोराई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्वरा + हिं० ई (प्रत्य०)] वेग । शीघ्रता । तजी ।
⋙ तोरादार पु
वि० [हिं० तोड़ा(=आभुषण) + फा़० दार] तोड़ेदार । मध्ययुग के वे ताजीमी सरदार या मनसबदार, जिन्हें बादशाह सम्मानार्थ पैरों में पहनने के लिये सोने के तोड़े या कड़े प्रदान करता था । श्रेष्ठ । प्रतिष्ठित । उ०—तोरादार सकल तिहारे मनसबदार ।—भूषण ग्रं०, पृ० २७७ ।
⋙ तोराना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तुड़ाना' ।
⋙ तोरावती पु
वि० [हिं०] वेगवाली । उ०—विषम विषाद तोरावति धारा । भय भ्रम भँवर अवर्त अपारा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तोरावान् पु †
वि० [सं० त्वरावत्] [वि० स्त्री० तोरावती] वेगवान् । तेज ।
⋙ तोरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तूरी] गोटा किनारी आदि बुननेवालों का लकड़ी का वह छोटा बेलन जिसपर वे बुना हुआ गोटा पट्टा और किनारी आदि बराबर लपेटते जाते हैं ।
⋙ तोरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोरना (= तोड़ना) + ईया (प्रत्य०)] १. वह गाय या भैंस जिसका बच्चा मर गया हो और जिसका दूध दूहने के लिये कोई युक्ति करनी पड़ती हो ।
⋙ तोरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सरसों । तोरी ।
⋙ तोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुरई' ।
⋙ तोरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काली सरसों ।
⋙ तोरी (३)
सर्व० [हिं०] दे० 'तेरा' । उ०—कहै धर्मदास कर जोरी । चलो जहँ देस है तोरी ।—धरम० श०, पृ० ९ ।
⋙ तोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोला (तौल) जो ८० रत्ती के बराबर होता है । २. तौल । वजन ।
⋙ तोल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] नाव का डाँड़ा । (लश०) ।
⋙ तोल पु (३)
वि० [हिं०] दे० 'तुल्य' । उ०—साने कोने आवे बुझए बोल मदने पाओल आपन तोल ।—विद्यापति, पृ० १२० ।
⋙ तोलक
संज्ञा पुं० [सं०] तोला (तोल) । बारह माशे का वजन ।
⋙ तोलन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोलने की क्रिया । २. उठाने की क्रिया ।
⋙ तोलन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्तोलन] वह लकड़ी जो छत के नीचे सहारे के लिये लगाई जाती है । चाँड़ ।
⋙ तोलना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तोलना' । उ०—लोचन मृग सुमग जोर राग रूप भए भोर भौंह धनुष शर कटाक्ष सुरात व्याध तौले री ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—तोल तोलकर बोलना = दे० 'तौल तौलकर बोलना' । उ०—अतः वक्ता अपनी बातों को तोल तोलकर नहीं बोलता ।—शैली, पृ० ४९ ।
⋙ तोलवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तौलवाना' ।
⋙ तोला
संज्ञा पुं० [सं० तोलक] १. एक तौल जो बारह माशे या छानबे रत्ती की होती है । २. इस तौल का बाट ।
⋙ तोलाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तौलाना' ।
⋙ तोलि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोला' । उ०—पंच तोलि पंच मुहरै सु मानि ।—ह० रासी, पृ० ६० ।
⋙ तोलिवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तौलिया' ।
⋙ तोली
वि० [हिं० तुलना] तुली हुई । उ०—यह आँख कहीं कुछ बोली । यह हुई श्याम की तोली ।—अर्चना पृ० ३४ ।
⋙ तोल्य (१)
वि० [सं०] जिसे तौला जाय [को०] ।
⋙ तोल्य (२)
संज्ञा पुं० तौलना । तौलने की क्रिया [को०] ।
⋙ तोवालाँ पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम्हारा' । उ०—अवध भूप दरसै तोवालाँ अवनी मौहे रूप उद्योत ।—रघु० रू० पृ० २४९ ।
⋙ तोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसा । २. हिंसा करनेवाला । हिंसक ।
⋙ तोशक
संज्ञा स्त्री० [तु०] दोहरी चादर या खोल में रूई, नारियल की जटा आदि भरकर बनाया हुआ गुदगुदा बिछौना । हलका गद्दा । यौ०—तोशकखाना ।
⋙ तोशकखाना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोशाखाना' ।
⋙ तोशदान
संज्ञा पुं० [फा़० तोशदान] १. वह थैली आदि जिसमें मार्ग के लिये यात्री, विशेषतः सैनिक अपना जलपान आदि या दूसरी आवश्यक चीजें रखते हैं । २. चमड़े का वह छोटा बक्स या थैली जो सिपाहियों की पेटी में लगी रहती है और जिसमें करतूस रहता है ।
⋙ तोशल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोषल' । उ०—विदित है बल वज्र शरीरता विकटता शल तेशल कूट की ।—प्रिय०, पृ० ३१ ।
⋙ तेशा (१)
संज्ञा पुं० [फा़० तोशह्] १. वह खाद्य पदार्थ जो यात्री मार्ग के लिये अपने साथ रख लेता है । यौ०—तोशे आकबत = पुण्य । धर्माचरण (जिसमें परलोक बने) । २. साधारण खाने पीने की चीज । जैसे, तोशा से भरोसा ।
⋙ तोशा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गहना जिसे गाँव की स्त्रियाँ बाँह पर पहनती हैं ।
⋙ तोशाखाना
संज्ञा पुं० [तु० तोषक + फा़० खानह्] वह बड़ा कमरा या स्थान जहाँ राजाओं और अमीरों के पहनने के बढ़िया कपड़े और गहने आदि रहते हों । वस्त्रों और आबूषणों आदि का भंडार । उ०—जो राजा अपने दफ्तर या खजाने, तोशे— खाने को कभी नहीं सम्हालते, जो राजा अपने बड़ों की धरो— हर शस्त्रविद्या को जड़ मूल से भूल गए, उनके जीतब पर धिक्कार है ।—श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० ८५ ।
⋙ तोष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अघाने या मन भरने का भाव । तुष्टि । संतोष । तृप्ति । २. प्रसन्नता । आनंद । ३. भागवत के अनुसार स्वायंभुव मन्धंतर के एक देवता का नाम । ४. श्रीकृष्ण— चंद्र के एक सखा नाम ।
⋙ तोष (२)
वि० [सं० तष] अल्प । थोड़ा ।—(अनेकार्थ०) ।
⋙ तोषक
वि० [सं०] संतुष्ट करनेवाला । तोष देने या तृप्त करनेवाला ।
⋙ तोषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृप्ति । संतोष । २. संतुष्ट करने की क्रिया या भाव ।
⋙ तोषणी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दुर्गा [को०] ।
⋙ तोषना पु
क्रि० अ० [सं० तोष] १. संतुष्ट करना । तृप्त करना । उ०—प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति विवेक धर्म जुत रचना ।—मानस, १ ।७७ । २. संतुष्ट होना । तृप्त होना ।
⋙ तोषपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें राज्य की ओर से जागीर मिलने का उल्लेख रहता है । बख्शिशनामा ।
⋙ तोषल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंस के एक असुर मल्ल का नाम जिसे धनुयंज्ञ में श्रीकृष्ण ने मार डाला था । २. मूसल ।
⋙ तोषार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तुखार' । उ०—तुरुक तोषारहिं चलल हाट भमि हेडा मंगइ ।—कीर्ति०, पृ० ४८ ।
⋙ तोषित
वि० [सं०] जिसका तोष हो गया हो, अथवा जिसे तृप्त किया गया हो । तुष्ट । तृप्त ।
⋙ तोषी
वि० [सं० तोषिन्] १. जिससे संतुष्ट हुआ जाय । २. संतुष्ट करनेवाला । प्रसन्न करनेवाला । (विशेषतः समासांत में प्रयुक्त) ।
⋙ तोस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोष' । उ०—सूर धपाए खुज्जडाँ तौ डरपावै तोस ।—रा० रू०, पृ० ७६ ।
⋙ तोसक †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोशक' । उ०—गुन कर पलँग ज्ञान कर तोसक सूरत तकिया लगावो । जो सुख चाहो सोई सतमहल बहुर दुक्ख नहिं पावो ।—कबीर श०, भा० १, पृ० १० ।
⋙ तोसदान
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोशदान' । उ०—तोसदान चकमक पचहा गोलीन भरानी ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३ ।
⋙ तोसय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तोशक' । उ०—करम्म रूम तोसयं ढके पलंग पोसयं ।—पृ० रा०, १७ । ५४ ।
⋙ तोसल पु †
संज्ञा पुं० [सं० तोषल] दे० 'तोषल' ।
⋙ तोसा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोशा' । उ०—कुछ गाँठि खरची मिरह तोसा खैर खुबीरा थीर बे ।—रै० बानी, पृ० ३३ ।
⋙ तोसाखाना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोशाखाना' । उ०—तेरे काज गजी गज चरिक, भरा रहै तोसाखाना ।—संतवाणी०, पृ० ७ ।
⋙ तोसागार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० तोस + सं० आगार] दे० 'तोशाखाना' ।
⋙ तोसौ पु
सर्व [हिं० तो + सौ] तुझसे । उ०—अहो तोसौं नंद लाडिलै झगरौंगी । मेरे संग की दूरि जाति हैं मटुकी पटकि कै डग— रौंगी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६१ ।
⋙ तोहफगी
संज्ञा स्त्री० [अ० तोहफहू + फा़० गी (प्रत्य०)] भलाई । अच्छापन । उम्दगी ।
⋙ तोहफा (१)
संज्ञा पुं० [अ० तोहफ़ह्] सौगात । उपायन । भेंट । उपहार ।
⋙ तोहफा (२)
वि० अच्छा । उत्तम । बढ़िया ।
⋙ तोहमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] मिथ्या अभियोग । वृथा लगाया हुआ दोष । झूठा कलंक । क्रि० प्र०—जोड़ना ।—देना ।—धरना ।—लगाना ।—लेना । मुहा०—तोहमत का घर या हट्टी = वह कार्य या स्थान जिसमें वृथा कलंक लगने की संभावना हो ।
⋙ तोहमती
वि० [अ० तोहमत + फा़० ई (प्रत्य०)] झूठा अभियोग लगानेवाला ।
⋙ तोहरा †
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम्हारा' । उ०—हमहु संग सब तोहरे आयब ।—कबीर सा०, पृ० ५३१ ।
⋙ तोहार †
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम्हारा' ।
⋙ तोहि †
सर्व० [हिं० तू या तै] १. तुझको । तुझे । २. तुम्हारा । उ०—हिव मालवणी वीनवइ, हूँ प्रिय दासी तोहि ।—ढोला०, दू० ३४१ ।
⋙ तोहे पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तोहि' । उ०—चरण भलि नहि तुअ रीति एहि मति तोहे कलंक लागल ।—विद्यापति, पृ० २३० ।
⋙ तौं पु (१)
अव्य [हिं०] दे० 'तउ' । उ०—तौं लौं रहि प्यारी जौं लौं लाल ही ले आऊँ ।—नंद ग्रं०, पृ० ३७१ ।
⋙ तौं पु (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' । उ०—ऐसै प्रभु पैं कीन हँकारे । तौं तौं बढ़ें गुपाल पियारे ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९२ ।
⋙ तौंकना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तौंसना' ।
⋙ तौंबर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' । उ०—लोहाया तौंबर अभंग मुहर सब्ब सामंत ।—पृ० रा०, ४ । १९ ।
⋙ तौंस †
संज्ञा स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताव + ऊष्म, हिं० ऊमस, औस] वह प्यास जो धूप खा जाने के कारण लगे और कीसी भाँति न बुझे ।
⋙ तौंसना
क्रि० अ० [हिं० तौंस] १. गरमी से झुलस जाना । गरमी के कारण संतप्त होना । २. प्यासा होना । पिपासित होना ।
⋙ तौंसा (१)
सं० पुं० [सं० ताप, हिं० ताव + सं० ऊष्म, हिं० ऊमस, औंस] अधिक ताप । कड़ी गरमी ।
⋙ तौ †पु (१)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तो' ।
⋙ तौ (२)
क्रि० अ० [हिं० हतौ] था । उ०—बेऊ आए द्वारे हूँ हुती अगवारे और द्वारे अगवारे कोऊ तौ न तिहि काल मैं ।— पद्याकर (शब्द०) ।
⋙ तौक
संज्ञा पुं० [अ० तौक़] १. हँसुली के आकार का गले में पहनने का एक प्रकार का गहना । यह पटरी की तरह कुछ चौड़ा होता है और इसके नीचे घुँघरू आदि लगे होते हैं । विशेष—प्रायः मुसलमान लोग अपने बच्चों को इसी प्रकार का चाँदी का घेरा या गंडा भी पहनाते हैं जिसमें तावीज आदि बँधी होती है । कभी कभी यह केवल मन्नत पूरी करने के लिये भी पहनाया जाता है । २. इसी आकार की पर तौल में बहुत भारी वृत्ताकर पटरी या मँडरा जिसे अपराधी या पागल के गले में इसलिये पहना देते हैं जिसमें वह अपने स्थान से हिल न सके । ३. इसी प्रकार का वह प्राकृतिक चिह्न जो पक्षियों आदि के गले में होता है । हँसुली । ४. पट्टा । चपरास । ५. कोई गोल घेरा या पदार्थ ।
⋙ तौकीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तौकी़र] संमान । प्रतिष्ठा । इज्जत । उ०—इस सत्यगुरु की खादिम तौकीर में देखो ।—कबीर मं०, पृ० ४६७ ।
⋙ तौके गुलमी
संज्ञा पुं० [अ० तौकेगुलामी] गुलाम होने की धिक्कार [को०] ।
⋙ तौत्क्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] धनुराशि ।
⋙ तौचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गहना जिसे कहीं कहीं देहाती स्त्रियाँ सिर पर पहनती हैं ।
⋙ तौजा (१)
संज्ञा पुं० [अ० तौजी] वह द्रव्य जो खेतिहरों को विवाहादि में खर्च करने के लिये पेशगी दिया जाता है । बियाही ।
⋙ तौजा (२)
वि० हाथ उधार । दस्तगर्दा ।
⋙ तौजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताजियागीरी । मुहर्रम मनाना । उ०— तौजी और निमाज न जानूँ ना जानूँ धरि रोजा ।—मलूक०, पृ० ७ ।
⋙ तौतातिक
वि० [सं०] कुमारिल भट्ट से संबद्ध या संबंध रखनेवाला । विशेष—कुमारिल भट्ट का विशेषण तुतात या तुतातित था ।
⋙ तौतातिस
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनियों का भेद । २. कुमारिल भट्ट का एक नाम ।
⋙ तौतिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुक्ता । मोती । ३. मोती का सीप । शुक्ति ।
⋙ तौन (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह रस्सी जिससे गैया दुहने के समय उसका बछड़ा उसके अगले पैर से बाँध दिया जाता है ।
⋙ तौन † (२)
सर्व० [सं० ते] वह । सो । उ०—उनकी छाया सबको भाई । तौन छाँह सब घटहि समाई ।—कबीर सा०, पृ० ९१० । विशेष—इस शब्द का प्रयोग दो वाक्यों का संबंध पूरा करने के लिये 'जौन' के साथ होता है ।
⋙ तौन पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'तूण' । उ०—चढ़ि नरिंद कमधज्ज तौन तन सज्जन वारो ।—पृ० रा०, २६ ।१९ ।
⋙ तौना †
वि० [हिं० तोना] जिससे कोई चीज ताई या मूँदी जाय ।
⋙ तौनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तवा का स्त्री० अल्पा० रूप] रोटि सेंकने का छोटा तवा । तई । तवी ।
⋙ तौनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तौन' ।
⋙ तौनी (३)
सर्व० [हिं०] दे० 'तौन' ।
⋙ तौफ पु
संज्ञा पुं० [अ० तौफ़] चक्र । परिक्रमा । उ०—चहुतै तौफ जाय तब वायफ ना देव जाय पहाड़ समुंदर ।—कबीर सा०, पृ० ८८८ ।
⋙ तौफीक
संज्ञा स्त्री० [अ० तोफी़क] १. संयोगात् किसी वस्तु का सुगमतापूर्वक प्राप्त हो जाना । २. दैवकृपा । ईश्वरानुग्रह । ३. शक्ति । सामर्थ्य । ३. हौसला । उमंग । ५. योग्यता । पात्रता [को०] ।
⋙ तौफीर पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तौफी़र] अधिकता । प्रचुरता । उ०— रख अपने पनह् गुनह ब तौफीर ।—कबीर मं०, पृ० ४२२ ।
⋙ तौबा
संज्ञा स्त्री० [अ० ] दे० 'तोबा' ।
⋙ तौरंगिक
संज्ञा पुं० [सं० तौरङ्गिक] साईस [को०] ।
⋙ तौर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ ।
⋙ तौर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. चालढाल । चालचलन । यौ०—तौर तरीक या तौर तरीका = चाल चलन । मुहा०—तौर बेतौर होना = रंग ढंग खराब होना । लक्षण बिगड़ना । २. अवस्था । दशा । हालत । मुहा०—तौर बेतौर होना = अवस्था बिगड़ना । दशा खराब होना । विशेष—उक्त दोनों अर्थों में इस शब्द का व्यवहार प्रायः बहुवचन में होता है । ३. तरीका । तर्ज । ढंग । ४. प्रकार । भाँति । तरह ।
⋙ तौर (३)
संज्ञा पुं० [देश०] मथानी मथने की रस्सी । नेत्री ।
⋙ तौतश्रवस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम (गान) ।
⋙ तौरात
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तौरेत' ।
⋙ तौरायणिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो तूरायण यज्ञ करता हो ।
⋙ तौरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँवरि] धुमेर । घुमरी । चक्कर ।
⋙ तौरीत
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तौरेत' । उ०—उसका समाचार तौरीत में उत्पति की पुस्तक में है ।—कबीर मं०, पृ० ४२ ।
⋙ तौरुष्किक
वि० [सं०] तुरुष्क देश या जाति संबंधी [को०] ।
⋙ तौरूप
संज्ञा पुं० [सं०] कामरूप में प्राप्त एक प्रकार का चंदन [को०] ।
⋙ तौरेत
संज्ञा पुं० [इब०] यहूदियों का प्रधान धर्मग्रंथ जो हजरत मूसा पर प्रकट हुआ था । इसमें सृष्टि और आदम की उत्पत्ति आदि विषय हैं । उ०—जिसमें बनी इसराईल इस नियम पर चले और इस नियमावली का नाम तौरेत पुस्तक ठहरा ।—कबीर० मं०, पृ० १९७ ।
⋙ तौर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढोल मँजीरा आदि बाजे । २. ढोल मँजीरा आदि बजाना ।
⋙ तौर्यत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] नाचना, गाना और बाजे बजाना आदि काम । विशेष—मनु ने इसे कामज व्यसन कहा है और त्याज्य बत— लाया है ।
⋙ तौल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तराजू । २. तुला रशि ।
⋙ तौल (२)
संज्ञा स्त्री० १. किसी पदार्थ के गुरुत्व का परिमाण । भार का मान । वजन । दे० 'गुरुत्व' । विशेष—भारत की प्रधान तौल ये हैं— ४ छटाँक = १ पाव १६ छटाँक = १सेर ५सेर = १ पंसेरी ८ पंसेरी या४० सेर =१. मन इनसे अन्न, तरकारी आदि भारी और अधिक मान में होने— वाली चीजें तौली जाती हैं । हलकी और थोड़ी चीजें तौलने के लिये इससे छोटी तौल यह है— ८ चावल = १ रत्ती ८ रत्ती = १ माशा १२ माशा = १ तोला ५ तोला = १ छटाँक उपर्युक्त तौलों का प्रचलन अब बंद हो गया है । अब तौल दाशमिक प्रणाली पर चल रही है, जिसमें वजन क्विंटल, किलो अथवा ग्रामों में किया जाता है । इसमें सबसे अधिक वजन की तौल क्विंटल है और सबसे कम वजन की तौल मिलीग्राम । २. तौलने की क्रिया या भाव ।
⋙ तौलना
क्रि० स० [सं० तोलन] १. किसी पदार्थ के गुरुत्व का परिमाण जानने के लिये उसे तराजू या काँटे आदि पर रखना । वजन करना । जोखना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । मुहा०—तौल तौलकर कदम धरना = सावधानी के साथ चलना । इस प्रकार धीरे चलना कि चलने में एक विशेषता आ जाय । उ०—कुछ नाज व अदा से तौल तौलकर कदम धरती हैं ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० २११ । किसी का तौलना =किसी की खुशामद करना । २. समझ बूझकर व्यवहार करना । ऐसा व्यवहार करना कि किसी प्रकार की गलती न हो । मुहा०—तौल तौलकर बोलना = अत्यंत सावधानी के साथ बोलना । ऐसे बोलना कि किसी प्रकार की गलती न हो जाय । ३.किसी अस्त्र आदि को चलाने के लिये हाथ को इस प्रकार ठीक न करना कि वह अस्त्र अपने लक्ष्य पर पहुँच जाय । साधना । उ०—लोचन मृग सुभग जोर राग रूप भए भोर भौंह धनुष शर कटाक्ष सुरति व्याध तौले री ।—सूर (शब्द०) ।४. दो या अधिक वस्तुओं के गुण, मान आदि का परस्पर तुलना करके विचार करना । तारतम्य जानना । मिलान करना । उ०—गए सब राज केते जग माँह जो बाह वली बल बोलत हैं ।—सं० दरिया, पृ० ६३ । ५. गाड़ी का पहिया औंगना । गाड़ी के पहिए में तेल देना ।
⋙ तौलवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तौलाई' ।
⋙ तौलवाना †
क्रि० स० [हिं० तौलना का प्रे० रूप] तौलने का काम दूसरे से कराना । दूसरे का तौलने में प्रवृत्त करना । तौलाना ।
⋙ तौला
संज्ञा पुं० [हिं० तौलना] १. दूध नापने का मिट्टी का बरतन । २. अनाज तौलनेवाला मनुष्य । बया । ३. तँबिया । ४. मिट्टी का कमोरा । ५. महुए की शराब ।
⋙ तौलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० तौल + आई (प्रत्य०)] १. तौलने की क्रिया या भाव । २. वह धन जो तौलने के बदले में दिया जाय । तौलने की मजदूरी ।
⋙ तौलाना
क्रि० स० [हिं० तौलना का प्रे० रूप] तौलने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को तौलने में प्रवृत्त करना ।
⋙ तौलिक
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रकार ।
⋙ तौलिकिक
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रकार ।
⋙ तौलिया
संज्ञा स्त्री० [अं० टावेल] एक विशेष प्रकार का मोटा अँगोछा जिससे स्नान आदि करने के उपरांत शरीर पोंछते हैं ।
⋙ तौली (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की मिट्टी की छोटी प्याली । २. मिट्टी का चौड़े मुँह का बड़ा बरतन जिसमें अनाज आदि, विशेषतः गुड़, रखते हैं ।
⋙ तौली (२)
संज्ञा पुं० [सं० तौलिन्] १. तौलनेवाला । २. तुलाराशि [को०] ।
⋙ तौलैया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तौलना + ऐया (प्रत्य०)] अनाज तोलने— वाला मनुष्य । बया ।
⋙ तौलैया † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तौलाई] तौलने का काम ।
⋙ तौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वजन । भार । २. समता । सादृश्य ।
⋙ तौषार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुषार का जल । पाले का पानी । २. हिम । पाला (को०) ।
⋙ तौषार (२)
वि० [वि० स्त्री० तौषारी] बर्फीला । हिमयुक्त [को०] ।
⋙ तौसन
संज्ञा पुं० [फा़०] घोड़ा । अश्व । तुरंग । उ०—तौसने ऊमरे खाँ दम भर नहीं रुकता 'रसा' ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५० ।
⋙ तौसना † (१)
क्रि० अ० [हिं० तौअ] गरमी से बहुत व्याकुल होना । उ०—नाम लै चिलात बिललात अकुलात अति तात तात तौसियत झौंसियत झार हीं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तौसना (२)
क्रि० स० गरमी पहुंचाकर व्याकुल करना ।
⋙ तौहीद
संज्ञा स्त्री० [अ०] एकेश्वरवाद । उ०—कहे तौहीद क्या हैं मुँज कहो अब ।—दक्खिनी०, पृ० ११९ । यौ०—तौहीदपरस्त = एकेश्वरवादी ।
⋙ तौहीन
संज्ञा स्त्री० [अ०] अपमान । अप्रतिष्ठा । बेइज्जती । यौ०—तौहीने अदालत = न्यायालय का अपमान ।
⋙ तौहीनी पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तौहीन] दे० 'तौहीन' ।
⋙ तौहू पु
अव्य० [हिं० तऊ] तब भी । तो भी । तिसपर भी । उ०—पानी माहीं घर करै, तौहू मरे पियास ।—कबीर सा०, पृ० ५ ।