विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/दे

विक्षनरी से

देँवका †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'दीमक' ।

देँह
संज्ञा स्त्री० [सं० देह] देह । शरीर । उ०—कैसे आरत करौ तिहारी । महामलिन गति देँह हमारी ।—धरनी०, पृ० १६ ।

देँही †
संज्ञा स्त्री० [सं० देह] दे० 'देह' । उ०—होता बीज ओंट के लोहू सो देँही का राजा ।—मलूक०, पृ० १२ ।

दे (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० देवी] स्त्रियों के लिये एक आदरसूचक शब्द । उ०—यह छबि सूरदास सदा रहै बानी । नँदनंदन राजा राधिका दे रानी ।—सूर (शब्द०) ।

दे (२)
संज्ञा पुं० [सं० देव] बंगाली कायस्थों का एक भेद ।

देइ †
संज्ञा स्त्री० [सं० देवी] दे० 'देवी—२' । उ०—भनइ विद्यापति एहु रस जान, राजा सिवसिंध रूपनरायन लखिमा देइ रमान ।—विद्यापति, पृ० ५८ ।

देई
संज्ञा स्त्री० [सं० देवी] १. देवी । उ०—देव देई सुंदर सधन बन देखियत कुंजन में सुनियत गुंजन अलीन की ।—देव (शब्द०) । २. स्त्रियों के लिये एक आदरसूचक शब्द ।

देउ †
संज्ञा पुं० [सं० देव] दे० 'देव' । उ०—पुनि रे चलब घर आपुन पूजि बिसेसर देउ ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४६ ।

देउर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० देवर] दे० 'देवर' ।

देउर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० देवर] देवल । मंदिर । देहुरा । उ०—धोआ- उरि धाने मंदिरा साँध । देउर माँग मसीद बाँध ।—कीर्ति०, पृ० ४४ ।

देउरानी †
संज्ञा स्त्री० [सं० देवर] दे० 'देवरानी' ।

देउल †
संज्ञा पुं० [हिं० देवल] दे० 'देवल' । उ०—देउल के पीछे नामा अल्लक पुकारे । जिदर जिदर नामा उदर देउल ही कीरे ।—दक्खिनी०, पृ० १८ ।

देख
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना] देखने की क्रिया या भाव । अवलोकन । जैसे, देख रेख, देखभाल । विशेष—इस शब्द का प्रयोग अकेले कम होता है, समस्त पदों में में होता है । मुहा०—देख में = आँख के सामने । समक्ष ।

देखन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना] देखने की क्रिया या भाव । २. देखने का ढंग ।

देखनहारा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० देखना + हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० देखनहारी] देखनेवाला । उ०—सखि सब कौतुक देखनहारे ।—तुलसी (शब्द०) ।

देखना
क्रि० स० [सं० दृश्, द्रक्ष्यति, प्रा० देक्खइ] १. किसी वस्तु के अस्तित्व या उसके रूप, रंग आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा प्राप्त करना । अवलोकन करना । संयो० क्रि०—लेना । यौ०—देखना भालना = निरीक्षण करना । जाँच करना । मुहा०—देखना सुनना = जानकारी प्राप्त करना । जानना बूझना । पता लगाना जैसे,—बिना देखे सुने उसके विषय में कोइ क्या कह सकता है ? देखने में = (१) बाह्य लक्षणों के अनुसार । बाहरी चेष्टाओं से । साधारण व्यवहार में । जैसे,— देखने में तो वह बहुत सीधा है पर बड़ी बड़ी चालें चलता है । (२) रूप रंग में । वर्ण, आकृति आदि में । जैसे,—यह पेड़ देखने में बड़ा सुंदर है । किसी के देखते = रहते हुए । समक्ष । सामने । उपस्थित में । मौजूद रहते । जैसे,—(क) उसके देखते तो ऐसा कभी नहीं हो सकता । (ख) मेरे देखते क्या कोई चीज ले जा सकता है । देखते देखते = (१) आँखों के सामने । (२) तुरंत । फौरन । चटपट । जैसे,— देखते देखते वह घड़ी उड़ा ले गया । देखते रह जाना = हक्का बक्का रह जाना । चकपका जाना । चकित हो जाना । ऐसी स्थिति में हो जाना जिसमें कुछ करते धरते न बने । किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाना । जैसे,—वह एकबारगी आकर उसे मारने लगा, में देखता रह गया । देखना चाहिए देखा चाहिए, देखो या देखिए = (क्या होगा) मालूम नहीं । (आगे की बात) कोन जाने ? कह नहीं सकते (कि ऐसा होगा कि नहीं) (हम) देख लेंगे = उपाय करेंगे । प्रतिकार करेंगे । जो कुछ करना होगा करेंगे । जैसे,—उन्हें जो जी में आवे करने दो, हम देख लेंगे । देखा जायगा = (१) फिर विचार किया जायगा । (२) पीछे जो कुछ करना होगा किया जायगा । जैसे,—इस समय तो इन्हें टालो, फिर देखा जायगा । देखो = (१) ध्यान दो । विचारो । सोचो । जैसे,—देखो, इसी रुपए के लिये लोग कितना कष्ट उठाते है । (२) सावधान रहो । ख्याल रखो । खबरदार । जैसे,—देखो, फिर कभी ऐसा न करना । (३) सुनो । इधर आओ । (पुकारने का शब्द) सुनो । २. जाँच करना । दशा या स्थिति जानने के लिये निरीक्षण करना । मुआयना करना । जैसे,—कल इंस्पेक्टर साहब स्कूल देखने आवेंगे । ३. ढूँढ़ना । खोजना । तलाश करना । पता लगाना । जैसे,—तुम अपने संदूक में तो देखो, क्षायद उसी में हो । ४. परीक्षा करना । आजमाना । अनुभव करना । परखना । जैसे,—(क) इस औषध का गुण देख लें तब कुछ कहें । (ख) सबको देख लिया है, उस समय किसी ने मेरा साथ नहीं दिया । ५. किसी वस्तु पर ध्यान रखना जिसमें वह इधर उधर न होने पावे । निगरानी रखना । ताकते रहना । जैसे,—मेरा सामान भी देखते रहना, मैं थोड़ा पानी पी आऊँ । ६. समझना । सोचना । विचारना । जैसे, भलाई बुराई देखर काम करना चाहिए । ७. अनुभव करना भोगना । जैसे,—(क) उसने अपने जीवन में बहुत दुःख देखा । (ख) इन्होंने अच्छे दिन देखे हैं । उ०—एक यहाँ दुख देखत केशव होत वहाँ सुरलोक बिहारी ।—केशव (शब्द०) । ८. पढ़ना । बाँचना । जैसे,—उन्होंने बहुत ग्रंथ देखे हैं । ९. त्रुटि आदि जानने या दूर करने के लिये अवलोकन करना । परीक्षा करना । जाँचना । गुण दोष का पता लगाना । जैसे,—(क) देखो इस अँगूठी का सोना कैसा है । (ख) मेरे इस लेख को देख जाओ । १०. ठीक करना । संशोधित करना । शोधना । जैसे, प्रूफ देखना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना ।

देखनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना] दे० 'देखन' ।

देखनु, देखनो पु †
क्रि० स० [हिं० देखना] देखने का ढंग । देखन । उ०—(क) मोरक मुकुट छबि देत, मंद हँसनि, दृग देखनुँ ।—नंद ग्रं०, पृ० ३९५ । (ख) सखि मोर मुकुट छबि देति, बंक द्दगन हँसि देखनो ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८५ ।

देखभाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना + भालना] १. जाँच पड़ताल । निरीक्षण । निगरानी । २. दर्शन । देखादेखी । साक्षात्कार ।

देखराना पु †
क्रि० स० [हिं० दिखलाना] दे० 'दिखलाना' ।

देखरावना पु †
क्रि० स० [हिं० दिखलाना] दे० 'दिखलाना' ।

देखरेख
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना + सं० प्रेक्षण] देख भाल । निरीक्षण । निगरानी । जैसे,—उनकी देखरेख में यह काम हो रहा है । क्रि० प्र०—रखना ।

देखाऊ
वि० [हिं० देखना] १. जो केवल देखने के लिये हो । जो केवल ऊपर से देखने में भड़कीला या सुदंर हो, काम का न हो । झूठी तड़क भड़कवाला । जैसे, देखाऊ चीजें । देखाऊ सामान । २. जो ऊपर से दिखाने के लिये हो, वास्तविक न हो । बनावटी । जैसे, देखाऊ प्रेम ।

देखादेखी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना] आँखों से देखने की दशा या भाव । दर्शन । साक्षात्कार । अवलोकन । उ०—कहन सुनन की है नहीं, देखादेखी नाय । सार सबद जो चिन्ही, सोइ मिलेगा आय ।—कबीर सा०, पृ० ४७५ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

देखादेखी (२)
क्रि० वि० दूसरों को करते देखकर । दूसरों के अनुकरण पर । जैसे,—(क) देखादेखी पाप, देखादेखी पुण्य । (ख) उसकी देखादेखी तुम भी ऐसा करने लगे ।विशेष—यह वास्तव में संज्ञा शब्द है जिसके आगे 'से' विभक्ति लुप्त है अतः लिंग ज्यों का त्यों रहता है ।

देखाना पु †
क्रि० स० [हिं० दिखाना] दे० 'दिखाना' ।

देखाभाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० देखना + भालना] दे० 'देखभाल' ।

देखाव
संज्ञा पुं० [हिं० देखना] १. दृष्टि की सीमा । नजर की पहुँच । मुहा०—देखाव में = नजर के सामने । समक्ष । २. रूप, रंग दिखाने की क्रिया या भाव । बनाव । ३. ठाट- बाट । तड़क भड़क ।

देखावना
क्रि० स० [हिं० देखाना] दे० 'दिखाना' ।

देखौआ
वि० [हिं० देखाऊ] दे० 'देखाऊ' ।

देग (१)
संज्ञा पुं० [फा़० देग] चोड़े मुँह और चौड़े पेटे का बड़ा बरतन जिसमें खाना पकाया जाता है । ताँबिया । यौ०—देगअंदाज = बावर्ची । रसोइया ।

देग (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाज पक्षी ।

देगचा
संज्ञा पुं० [फा़० देगचहु] [स्त्री० अल्पा० देगची] छोटा देग ।

देगची
संज्ञा स्त्री० [फा़० देगचा] छोटा देगचा ।

देदोप्यमान
वि० [सं०] अत्यंत प्रकाशयुक्त । चमकता हुआ । दमकता हुआ ।

देन
संज्ञा स्त्री० [हिं० देना] १. देने की क्रिया या भाव । दान । २. दी हुई चीज । प्रदत्त वस्तु । जैसे,—यह तो ईश्वर की देन हैं ।

देनदार
संज्ञा पुं० [हिं० देना + फा़० दार] ऋणी । कर्जदार ।

देनदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० देन + फा़० दारी] ऋणी होने की अवस्था ।

देनलेन
संज्ञा पुं० [हिं० देना + लेना] ब्याज पर रुपया उधार देने का व्यापार । महाजनी का व्यवसाय ।

देनहार पु †
वि० [हिं०] दे० 'देनहरा' ।

देनहारा पु †
वि० [हिं० देना + हारा (प्रत्य०)] देनेवाला ।

देना (१)
क्रि० स० [सं० दान] १. किसी वस्तु पर से अपना स्वत्व हटाकर उसपर दूसरे का स्वत्व स्थापित करना । दूसरे के अधिकार में करना । प्रदान करना । जैसे,—(क) उसने अपना मकान एक ब्राह्मण को दे दिया । (ख) जो दे उसका भला, जो न दे उसका भला । संयो क्रि०—डालना ।—देना । २. अपने पास से अलग करना । सौंपना । हवाले करना । जैसे,— इसे हमें दे दो हम रखे रहें, जब काम पड़े ले लेना । ३. हाथ पर या पास रखना । थमाना । जैसे,—(क) छड़ी उसे दे दो और छाता तुम ले लो, तब चलो । (ख) जरा यह चिट्ठी उन्हें तो दे दो, वे पढ़कर देख लें । ४. रखना, लगाना या डालना । स्थापित, प्रयुक्त या मिश्रित करना । जैसे,—(क) सिर पर टोपी देना । (ख) छाता देना । (ग) जोड़ में पच्छड़ देना । (घ) तरकारी में चीनी देना । (ङ) यहाँ से लेकर वहाँ तक लकीर देना । उ०—बक बिकारी देत ज्यों दाम रुपैया होत ।—बिहारी (शब्द०) । ५. मारना । प्रहार करना । जैसे,— थप्पड़ देना, चाँटा देना, पेट में कटारी देना । मुहा०—दे मारना = पट देना । (किसी व्यक्ति को) । पकड़ कर जमीन पर गिरा देना । ६. अनुभव कराना । भोगाना । जैसे,—कष्ट देना, दुःख देना, सुख देना, आराम देना । ७. उत्पन्न करना । निकालना । जैसे,—(क) यह गाय कितना दूध देती है ? (ख) इस बकरी ने दो बच्चे दिए हैं । ८. बंद करना । भिड़ाना । जैसे,—किवाड़ देना, बोतल में डाट देना । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग प्रायः सब सकर्मक क्रियाओं के साथ संयो० क्रि० के रूप में होता है जैसे, कर देना, मार देना, गिरा देना, दे देना, बना देना, बिगाड़ देना, निकाल देना इत्यादि । बहुत सी क्रियाओं में तो इसे लगाने से यह भाव निकलता है कि वे क्रियाएँ दूसरे के लिये हैं । जैसे,— मेरा या उनका यह काम कर दो । मेरी घड़ी बना दो । जो क्रियाएँ केवल कर्ता ही के लिये होती हैं दूसरे के लिये नहीं, उनके साथ 'लेना' का प्रयोग होता है । जैसे, खा लेना, पी लेना । एक ही क्रिया केवल कर्ता के लिये भी हो सकती है और दूसरे के लिये भी । जैसे,—अपना काम कर लो, मेरा काम कर दो । अपनी घड़ी बना लो, मेरी घढ़ी बना दो । स० क्रि० के अरिरिक्त कुछ अ० क्रि० के साथ भी संयो० क्रि० के रूप में 'देना' का प्रयोग होता है, जैसे,—चल देना, हँस देना, रो देना इत्यादि ।

देना (२)
संज्ञा पुं० ऋण जिसे चुकाना हो । कर्ज । उधार लिया हुआ रुपया । जैसे,—तुम अपना सब देना चुकता कर दो । यौ०—देना पावना ।

देनिहारा पु
संज्ञा पुं [हिं० देना + हारा (= वाला)] देनेवाला । दाता ।

देमान पु †
संज्ञा पुं० [फा़० दीवान] मंत्री । अमात्य । उ०— देमान अब दगल गद्द वर, कुरु वक वैखल अदप कइ ।— कीर्ति०, पृ० ६२ ।

देय
वि० [सं०] देने योग्य । दान योग्य । दातव्य ।

देयधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] दान धर्म । विशेष—शिलालेखों में इस शब्द का विशेष रूप से प्रयोग मिलता है ।

देयासी †
संज्ञा पुं० [सं० देवोपासिन्] देवता का उपासक । ओझा ।

देर (१)
संज्ञा पुं० [प्रा० देर (= दार)] द्वार । दरवाजा । उ०— काली बीसल दे कियौ, दरब सिलातल देर । विमल कियो बछराज यह, अरब समपि अजमेर ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५७ ।

देर (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. अतिकाल । बिलंब । नियमित, उचित या आवश्यक से अधिक समय । जैसे,—(क) देर हो रही है, चलो । (ख) इस काम में देर मत करो । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—होना । २. समय । वक्त । जैसे,—तुम कितनी देर में आओगे । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग तभी होता है जबउसके पहुले कोई परिमाणवाचक विशेषण होता है । जैसे,— कितनी देर, बहुत देर ।

देरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० डेरा] दे० 'डेरा' । उ०—घड़ी घड़ी का लेवा लेहू । कर्मादिक देरा भर देहूँ ।—रामानंद०, पृ० २९ ।

देरी †
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'देर' । उ०—यों ही शंख असंख्य हो गए लगी न देरी ।—साकेत, पृ० ५१० ।

देवंग †
संज्ञा पुं० [सं० दैवज्ञ] दैवज्ञ । ज्योतिर्विद । ज्योतिषी । गणक । उ०—एक सुदिन देवंग सों बोलिय राज नरिंद । देउ मुहूरत दुज सु गुर तिहि हम करै अनंद ।—पृ० रा०, २४ । ३५४ ।

देवँक †पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'दीमक' ।

देवँकार †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'दीमक' ।

देव
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० देवी] १. स्वर्ग में रहने या क्रीड़ा करनेवाला अमर प्राणी । दिव्य शरीर धारी । देवता । सुर । २. पूज्य व्यक्ति । ३. तेजोमय व्यक्ति । ४. ब्राह्मणों की एक उपाधि । ५. बड़ों के लिये एक आदरसूचक शब्द या संबोधन । ६. राजा के लिये आदरसूचक शब्द या संबोधन । ७. मेघ । बादल । ८. पारा । ९. देवदार । १०. देवर । ११. ज्ञानेंद्रिय । १२. ऋत्विक् । १३. विष्णु (को०) । महादेव । शिव (को०) । १५. सुरराज । इंद्र (को०) । १६. इंद्रिय (को०) । १७. ईश्वर । परमात्मा (को०) । १८. स्नेही । प्रेमी (को०) । १९. (को०) । २०. शिशु । वत्स । बच्चा (को०) । २१. मूर्ख । बेवकूफ (को०) ।

देव (२)
वि० १. देव संबंधी । देवों से संबद्ध । २. स्वर्गिक । स्वर्गीय । स्वर्गसंबंधी । ३. संमान्य । पूज्य । आदरणीय । ४. ज्योतित । दीप्त । चमकदार [को०] ।

देव (३)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. दैत्य । राक्षस । दानव । २. दानव सा भीमकाय व्यक्ति (को०) ।

देवअंशी
वि० [सं० देव + अंशिन्] जो देवता के अंश से उत्पन्न हो । जो किसी देवता का अवतार हो ।

देवऋण
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के लिये कर्तव्य । यज्ञादि ।

देवऋषि
संज्ञा दे० [सं०] देवताओं के लोक में रहनेवाले नारद आदि ऋषि । विशेष—नारद, अत्रि, मरीचि, भरद्वाज, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु इत्यादि ऋषि देवर्षि माने जाते हैं ।

देवक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. एक यदुवंशी राजा जो देवकी के पिता अर्थात् श्री कृष्णचंद्र के नाना थे । इन्हें चार पुत्र और तीन कन्याएँ थीं । सभी कन्याओं का/?/इन्होंने वसुदेव के साथ कर दिया था । उग्रसेन इनके बड़े भाई थे । ३. युधिष्ठिर के एक पुत्र का नाम ।

देवक (२)
वि० १. देवतुल्य । वेवसंबंधी । देवसदृश । २. कीड़ाशील । खेलाड़ी [को०] ।

देवकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'देवकन्या' ।

देवकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवता की पुत्री । देवी ।

देवकपास
संज्ञा स्त्री० [देश०] नरमा । मनवा । राव कपास ।

देवकर्द्दम
संज्ञा पुं० [सं०] एक सुगंध द्रव्य, जो चंदन, अगर, कपूर और केसर को एक में मिलाने से बनता है ।

देवकर्म
संज्ञा पुं० [सं० देवकर्मन्] देवताओं को प्रसन्न करने के लिये किया हुआ कर्म । जैसे, यज्ञ, बलिवैश्वदेव इत्यादि ।

देवकाँडर
संज्ञा स्त्री० [सं० देव + काण्ड] एक बहुत छोटा पौधा जिसकी पत्तियों और डंठलों में राई की सी झाल होती है । विशेष— यह ऊँचे करारेवाली बड़ी नदियों के किनारे होती है । गंग के तट पर बहुत मिलती है । इसकी पत्तियाँ कटावदार और फाँकों में विभक्त होती है । यह पौधा उभरी हुई गिलटी बैठाने की अच्छी दवा है । अचार भी इसका पड़ता है । इसे लठनुरिया भी कहते हैं ।

देवकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं को प्रसन्न करने के लिये किया हुआ कर्म । होम, पूजा आदि ।

देवकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का देवदार ।

देवकिरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो मेघराग की भार्या मानी जाती है । ललिता मालती गौरी नाट देवकिरी तथा । मेघरागस्य रागिण्यो भवंतीमा सुमघ्यमा? ।—संगीत दामोदर ।

देवकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वसुदेव की स्त्री और श्रीकृषण की माता । विशेष—जब वसुदेव के साथ इसका विवाह हुआ तब नारद ने आकर मथुरा के राजा कंस से कहा कि मथुरा में तुम्हारी जो चचेरी बहन देवकी है, उसके आठवें गर्भ से एक ऐसा बालक उत्पन्न होगा जो तुम्हारा वध करेगा । कंस ने एक एक करके देवकी के छह बच्चों को मरवा डाला । जब सातवाँ शिशु गर्भ में आया तब योगमाया ने अपनी शक्ति से उस शिशु को देवकी के गर्भ से आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में कर दिया । आठवें गर्भ के समय देवकी पर कड़ा पहरा बैठाया गया । आठवें महीने में भादों बदी अष्टमी की रात को देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ । उसी रात को यशोदा को एक कन्या हुई । वसुदेव रातोंरात देवकी के शिशु श्रीकृषण को यशोदा को दे आए और यशोदा की कन्या को लाकर उन्होंने देवकी के पास सुला दिया । कंस ने उस कन्या का वध करने के लिये उसे पटक दिया । कहते हैं, कन्या, जो योगमाया थी, उसके हाथ से छुटकर आकाशमार्ग से उड़कर विंध्य पर्वत पर आई । इधर कृष्ण यशोदा के यहाँ बड़े हुए । दे० 'कृष्ण' ।

देवकीनंदन
संज्ञा पुं० [सं० देवकीनन्दन] श्रीकृष्ण ।

देवकीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण । विशेष—छांदोग्य उपनिषद् में भी घोर आंगिरस ऋषि के शिष्य देवकीपुत्र श्रीकृष्ण का उल्लेख हैं ।

देवकीमातृ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण (जिनकी माता देवकी हैं) ।

देवकीसुनु
संज्ञा पुं० [सं०] देवकी के पुत्र, श्रीकृष्ण [को०] ।

देवकीय
वि० [सं०] देवता संबंधा । देवता का ।

देवकुंड
संज्ञा पुं० [सं० देवकृण्ड] १. प्राकृतिक जलाशय । आपसे आप बना हुआ पानी का गड्ढा या ताल । २.वह जलाशय जो किसी देवता के निकट या नाम पर होने के कारण पवित्र माना जाता है ।

देवकुट
संज्ञा पुं० [सं०] देवालय । देवमंदिर [को०] ।

देवकुरुंबा
संज्ञा पुं० [सं० देवकुरुम्बा] बड़ा गूमा । गोमा ।

देवकुरु
संज्ञा पुं० [सं०] जंबूद्बीप के छह खंडों में से एक खंड जो सुमेरु और निषध के बीच माना गया है । (जैन हरिवंश) ।

देवकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का देवमंदिर, जिसका द्बार अत्यंत छोटा हो । २.देवताओं का समूह । देवताओं का वर्ग (को०) ।

देवकुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा नदी । २. मरीचि और पूर्णीमा की कन्या ।

देवकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] लवंग । लौंग । उ०—देवकुसुम श्री संग पुनि जायक जाको नाँउ ।—अनेकार्थ० पृ० ८९ ।

देवकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर के आठ पुत्रों में से एक, जो शिव- पूजन के लिये सूँघकर कमल ले गया था जिसके कारण वह कंस का भाई हुआ और श्रीकृष्ण चंद्र द्बारा मारा गया । २. एक पवित्र आश्रम जो वसिष्ठ के आश्रम के निकट था । (महाभारत) ।

देवकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें लपसी, शाक, दूध, दही, घी, इनमें से क्रमशः एक एक वस्तु तीन दिन तक खाते थे और उसके बाद तीन दिन तक वायु पर ही रहते थे ।

देवकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] सुरपु्न्नाग । एक प्रकार का पुन्नाग ।

देवखर †
संज्ञा पुं० [सं० देवगृह] देवघर । देवस्थान । उ०—भूत परेतन देव बहाई । देवखर लीपै मोर बलाई ।—मलूक०, पृ० ९ ।

देवखरा †
संज्ञा पुं० [हिं० देवखरा] [स्त्री० अल्पा० देवखरी] दे० 'देवहरा' । उ०—(क) हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान मसजीद । पलटू पूजै बोलता जो खाय दीद बर दीद ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ११० । (ख) माटी देवखरी बाँधि मुए की पूजा लावै ।—पलटु०, पृ० ७३ ।

देवखात
संज्ञा पुं० [सं०] १.श्रीकृत्रिम जलाश्य । ऐसा ताल या गड्ढा जो आपसे आप बन गया हो । २. देवमंदिर के पास निर्मित जलाशय । देवमंदिर का तालाब । विशेष—मनु ने लिखा है कि नदी, देवखात, तड़ाग, सरोवर, गर्भ और प्रस्रवण में नित्य स्नान करना चाहिए । ३. गुफा । खोह । कंदरा ।

देवखातक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवरात' [को०] ।

देवगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० देवगड्गा] एक छोटी नदी का नाम जो आसाम में है । इसे वहाँ 'दिवंग' कहते है ।

देवगंधर्व
संज्ञा पुं० [सं० देवगन्धर्व] १. नारद । २. गायन की पद्धति- विशेष [को०] ।

देवगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० देवगन्धा] महामेदा ।

देवगंधार
संज्ञा पुं० [सं० देवगान्धार] दे० 'देवगांधार' ।

देवगऊ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० देव + गौ] कामधेनु । उ०—कामना दानि खुमान लखे न कछू सुररूख न देवगऊ है । —भूषण ग्रं०, पृ० ३४ ।

देवगढ़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ईख ।

देवगण
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का वर्ग । देवताओं का अलग अलग समूह । विशेष—वैदिक देवताओं के ये गण हैं—८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य । इनमें इंद्र और प्रजापति मिला देने से ३३ देवता होते हैं (शतपथ ब्राह्मण) । पीछे से इन गणों के अतिरिक्त ये गण और माने गए—३० तुषित, १० विश्वेदेवा, १२ साघ्य, ६४ आभास्वर, ४९ मरुत्, २२० महाराजिक । इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को कुल संख्या ४१८ होती है । बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ग मानते हैं । २.फलित ज्योतिष में नक्षत्रों का एक समूह जिसके अंतर्गत अश्विनी, रेवती, पृष्य, स्वाती, हस्त, पुनवँसु, अनुराधा, मृग- शिरा और श्रवण है । ३. किसी देवता का अनुचर ।

देवगणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा । स्वर्वेंश्य [को०] ।

देवगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मरने के उपरांत उत्तम गति । स्वर्ग- लाभ । उ०—श्री रघुनाथ धनुष कर लीनो लागत वार्ण देव- गति पाई ।—सूर (शब्द०) । २. मरने पर देवयोनि की प्राप्ति ।

देवगन †पु
संज्ञा पुं० [सं० देवगण] दे० 'देवगण' ।

देवगर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] मेघरार्जन । बादल का गरजना [को०] ।

देवगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] वहु मनुष्य जो देवता के वीर्य से उत्पन्न हो । जैसे, कर्ण, जो सूर्य से उत्पन्न हुए थे ।

देवगांधार
संज्ञा पुं० [सं० देवगान्धार] एक राग का नाम जो भैरव राद का पुत्र माना जाता है । यह संपूर्ण जाति का राग है और इसमें ऋषभ और धैवत कोमल लगते है । इसका स्वर- ग्रम इस प्रकार है—ग म प ध नि स रे ।

देवगांधारी
संज्ञा स्त्री० [सं० देवगान्धारी] एक रागिनी जो श्रीराग की भार्या मानी जाती है । यह शिशिर ऋतु में तीसरे पहर से लेकर आधी रात तक गाई जाती है ।

देवगायक
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्व ।

देवगायन
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्व ।

देवगिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देववाणी । संस्कृत ।

देवगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] रैवतक पर्वत जो गुजरात में है । मिरनार । २. दक्षिण का एक प्राचीन नगर जो आजकल दौलताबाद कहलाता है और निजाम राज्य के अंतर्गत है । विशेष—यह यादव राजाओं की बहुत दिनों तक राजधानी रहा । प्रसिद्ध कलचुरि वंश का जब अधः पतन हुआ तब इसके आसपास का सारा प्रदेश द्बारसमुद्र के यादव राजाओं के हाथ आया । कई शिलालेखों में इन यादव राजाओं की जो वंशावली मिली है वह इस प्रकार है—सिंघन (१ ला) मल्लूगि भिल्लम (शक सं० ११०९—१११३) जैतूगि (१ ला) वा जैत्रपाल, जैत्रसिंह (शक १११३—११३१) सिंघन (२रा) वा त्रिभुवनमल्ल (शक ११३१—११६९) जैतूगि (२रा) या चैत्रपाल कृष्ण या कन्हार (शक ११६९—११८२) महादेव (शक ११८३—११९६) रामचंद्र या रामदेव (शक ११९३—१२३१) हितीय सिंघन के समय में ही देवगिरि यादवों की राजधानी प्रसिद्ध हुआ । महादेव की सभा में बोपदेव और हेमाद्रि ऐसे प्रसिद्ध पंडित थे । कृष्ण के पुत्र रामचंद्र रामदेव बड़े प्रतापी हुए । उन्होंने अपने राज्य का विस्तार खूब बढ़ाया । शक सं० १२१६ में अलाउद्दीन ने देवगिरि पर अकस्मात् चढ़ाई कर दी । राजा जहाँ तक लड़ते बना बहाँ तक लड़े पर अंत में दुर्ग के भीतर सामग्री घट जाने से उन्होंने आत्मसमर्पण किया शक सं० १२२८ में रामचंद्र ने कर देना अस्वीकार कर दिया उस समय दिल्ली के सिंहासन पर अलउद्दीन बैठ चुका था । उसने एक लाख सवारों के साथ मलिक काफूर को दक्षीण भेजा । राजा हार गए । अलाउद्दीन ने संमानपूर्वक उन्हें फिर देवगिरि भेज दिया । इधर मलिक काफूर दक्षिण के और रज्यों में लूटपाट करने लगा । कुछ दिन बीतने पर राजा रामचंद्र का जामाता हरिपाल मुसलमानों को दक्षिण से भगा कर देवगिरि के सिंहासन पर बैठा । छह बर्ष तक उसने पूर्ण प्रताप के साथ राज्य किया । अंत में शक सं १३४० में दिल्ली के बादशाह ने उसपर चढ़ाई की और कपटयुक्ति स उसको परास्त करके मार डाला । इस प्रकार यादव राज्य की समाप्ति हुई । मुहम्मद तोगलक पर जब अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरि ले जाने की सनक चढ़ी थी तब उसने देवगिरि का नाम दौलताबाद रखा था ।

देवगिरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो सोमेश्वर के मत से वसंत राग की, भरत के मत से हिंदोल राग के पुत्र नागध्वनि की, संगीतदर्पण के मत से नटकल्याण की और हनुमंत के मालकोश राग की भार्या मानी जाती है । विशेष—यह हेमंत ऋतु में दिन के चौथे पहर से लेकर आधी रात तक गाई जाती है । किसी के मत से यह रागिनी संकर है और शुद्ध पूर्वी और सारंग के मेल से और किसी के मत से सरस्वती, मालश्री और गांधारी के मेल से बनी है । यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।

देवगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के गुरु । बृहस्पति । २. देवताओं के गुरु अर्थात् पिता । कश्यप ।

देवागुही
संज्ञा स्त्री० [सं०]/?/।

देवगुहा
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु । २. वह रहस्य जो केवल देवताओं को ही ज्ञात हो [को०] ।

देवगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का घर । देवालय । २. राज- भवन । राजमहल (को०) ।

देवग्गि पु
संज्ञा पुं० [सं० दैवज्ञ, प्रा० देवग्ग] दे० 'दैवज्ञ' । उ०— सुअ/?/अंतर धरी कहत वचन देवग्गि । सीइ सु दिन आनंद करि चलौ सुराज गुनग्गि ।—पृ० रा०, २४ । ३५६ ।

देवधन
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जो बगीचों में लगाया जाता है ।

देवचक
संज्ञा पुं० [सं०] गवाभवन यज्ञ के अभिप्लव का नाम ।

देवचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवपूजा । देवार्चन [को०] ।

देवचाली
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रताल के छह भेदों में से एक ।— (संगीत दामोदर) ।

देवचिकित्सक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्विनीकुमार । २. दो की संख्या ।

देवचेली
संज्ञा स्त्री० [सं० देव + हिं० चेली] देवदासी । उ०—देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये किसी निर्धन की लड़की खरीदकर मंदिर में अर्पण कर देते हैं और वह देवचेली (देवदासी) कहलाने लगती है ।—नेपाल०, पृ० ७ ।

देवच्छंद
संज्ञा पुं० [सं० देवच्छन्द] एक प्रकार का हार, जो किसी के मत से १०० या १०८ लड़ियों का और किसी के मत से ८१ लड़ियों का होता है ।

देवज (१)
वि० [सं०] देवता से उत्पन्न । देवसंभूत ।

देवज (२)
संज्ञा पुं० १. सामभेद । २. सुर्यवंशीय संयम राजा के एक पुत्र का नाम ।

देवजग्ध
संज्ञा पुं० [सं०] रोहिष तृण । रोहिस घास ।

देवजग्धक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवजग्ध' ।

देवजन
संज्ञा पुं० [सं०] उपदव । गंधर्व ।

देवजनविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधवंविद्या । संगीत विद्या ।

देवजानी †
संज्ञा स्त्री० [सं० देवयानी] दे० 'देवयानी' । —वर्ण०, पृ० ५ ।

देवजुष्ट
वि० [सं०] देवता को चढ़ा हुआ ।

देवट
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पी । कारीगर ।

देवठान
संज्ञा पुं० [सं० देवोत्आन] १. विष्णु भगवान् का सोकर उठना । २. कार्तिक शुक्ला एकादशी । इस दिन विष्णु भगवान् सोकर उठते है इससे इसका माहात्म्य बहुत माना जाता है ।

देवड़ा †
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों की एक जाति । उ०—केई खीची केई देवड़ा केई गहिलोत सरिस परमार ।—बी० रासो, पृ० १७ ।

देवडोगरी †
संज्ञा पुं० [सं० देव + देश० डोंगरी] देवदाली लता । बंदाल ।

देवढ़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० डयोढ़ी] दे० 'डयोढ़ी' ।

देवतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के वृक्ष ।विशेष—स्वर्ग के वृक्ष पाँच माने जाते हैं—मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचंदन । २. चैत्य पर का वृक्ष । चैत्यवृक्ष (को०) ।

देवतर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं का नाम ले लेकर पानी देने की क्रिया ।

देवता
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग में रहनेवाला अमर प्राणी । विशेष—वेदों में देवता से कई प्रकार के भाव लिए गए हैं । साधारणतःवेदमंत्रों के जितने विषय हैं वे देवता कहलाते हैं । सिल, लोढ़े, मूसल, ओखली, नदी पहाड़ इत्यादि से लेकर घोड़े, मेंढक, मनुष्य (नाराशंस), इंद्र, वरुण, आदित्य इत्यादि तक वेदमंत्रों के देवता हैं । कात्यायन ने अनुक्रमणिका में मंत्र के वाच्य विषेय को ही उसका देवता कहा है । निरुक्तकार यास्क ने 'देवता शब्द को दान, दोपन और द्युस्थान- गत होने से निकाला है । देवताओं के संबंध में प्राचीनों के चार मत पाए जाते हैं—ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक और आध्यात्मिक । ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है । याज्ञिक लोग मंत्र ही को देवता मानते हैं जैसा जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है । मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का कोई रूपविग्रह आदि नहीं, वे मंत्रात्मक हैं । याजिकों ने देवताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया है ।—सीमप और असीमप । अष्टुवसु, एकादश रुद्र, द्बादश आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ये ३३ सोमप देवता कहलाते है । एकादश प्रयाजा, एकादश अनुयाजा और एकदश उपयाजा ये अमोमय देवता कहलाते है । सोमपायी देवता सोम से संतुष्ट हो जाते है और असीमपयी यज्ञपशु सें संतुष्ट होते है । नैरुक्तक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते है और तीन ही देवता मानते हैं; अर्थात् पृथिवी का अग्नि, अंतरिक्ष का इंद्ग या वायु और द्युस्थान का सूर्य । बाकी देवता या तो इन्हीं तीनों के अंतर्भूत हैं अथवा होता, अध्वर्यु , ब्रह्या, उग्दाता आदि के कर्मभेद के लिये इन्हीं तीनें के अलग अलग निम हैं । ऋवेद में कुछ ऐसे मंत्र भी हैं जिनमें भिन्न देवताओं की एक ही के अनेक नाम कहा है, जैसे, बृद्धिमान लोग इंद्र, मित्र, वरुण और अग्नि कहते है.. । इनके एक होने पर भी इन्हें बहुत बतलाते हैं । (ऋग्वेद १ । १६४ । ४६) ये ही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष या वेदांत के मूल बीज है । उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गई है । प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारी देख पड़ीं उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रों द्बारा किया । जिन देवताओं को प्रसन्न करने के लिये यज्ञ आदि होते थे उनकी कुछ विशेष स्थिति हुई । उनसे लोग धनधान्य युद्ब में जय, शत्रुओं का नाश आदि चाहते थे । क्रमशः देवता शब्द से ऐसी ही अगोचर सत्ताओं का भाव समझा जाने लगा और धीरे धीरे पौराणिक काल में रुचि के अनुसार और भी अनेक देवताओं की कल्पना की गई । ऋग्वेद में जिन देवताओं के नाम आए हैं अनमें से कुछ ये हैं—अग्नि,वायु, इंद्र, मित्र, वरुण, अशिवद्वय, विश्वेदेवा, मरुदगण, ऋतुगण, ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, सूर्य, विष्णु,/?/, यम, पर्जन्य, अर्यमा, पूषा, रुद्रगण, वसुगण, आदित्यमण, उशना, त्रित, त्रैलन, अहिर्बुध्न, अज, एकपात, ऋमुक्षा, गुरुत्मान इत्यादि । कुछ देवियों के नाम भी आए हैं, जैसे,—सरस्वती, सुनृता, इला, इंद्राणी, होत्रा, पृथिवी, उषा, आत्री, रोदसी, राका, सिनीवाली, इत्यादि । ऋग्बेद में मुख्य देवता ३३ माने गए हैं—८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य तथा इंद्र और प्रजापति । ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं की संख्या ३३३९ कही गई है । (३ । ९ । ९) । शतपथ ब्राह्मण और सांख्यायन श्रीतसूत्र में भी यह संख्या दी हुई है । इसपर सायण कहते है कि देवता ३३ ही हैं, ३३३९ नाम महिमा प्रकाशंक है । देवता मनुष्यों से भिन्न अमर प्राणी माने जाते थे । इसकी उल्लेख ऋवेद में स्पष्ट है—असुर वरुण ! देवता हों या मर्त्य (मनुष्य) हों, तुम सबके राजा हो । (ऋक् २ । २७ । १०) । पीछे पौराणिक काम में, जिसका थोड़ा बहुत सूत्रपात शुक और सूत के समय में हो चुका था, वेद के ३३ देवताओं से ३३ कोटि देवताओं की कल्पना की गई । इंद्र, विष्णु, रुद्र, प्रजापति, इत्यादि वैदिक देवताओं के रूप रंग, कुटुंब आदि की भी कल्पना की गई । द्युस्थान के वैदिक देवता विष्णु (जो १२ आदित्यों में थे) आगे चलकर चतुर्भुज, शंखचक्र- गदापद्यधारी, लक्षमी के पति हो गए । वैदिक रुद्र जटी त्रिशूल- धारी, पार्वती के पति गणेश और स्कद के पिता हो गए, और वैदिक प्रजापति वेद के वक्ता, चार मुँहवाले ब्रह्मा हो गए । देवताओं की भावना और उपासना में यह मेद महाभारत के समय से ही कुछ कुछ पड़ने लगा । कृष्ण के समय तक वैदिक इंद्र की पूजा हीती थी जो पीछे बंद हो गई, यद्यपि इंद्र देवताओं के राजा और स्वर्ग के स्वामी बने रहे । आजकल हिंदुओं में उपासना के लिये पाँच देवता मुख्य माने गए हैं—विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और दुर्गा । ये पंचदेव कहे जाते हैं । यजुवेंद, सामवेद, अथवंवेद और पुराणों के अनुसार इंद्र, चंद्र आदि देवता कश्यप से उत्पन्न हुए । पुराणों में लिखा है कि कश्यप की दिति नाम की स्त्री से दैत्य और अदिति नाम की स्त्री से देवता उत्पन्न हुए । बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं की साधारण आदमी मानते हैं और इसी पौराणिक रूप मे; भेद केवल इतना ही है कि वे देवताओं को बुद्ब, बोधिसत्व या तीर्थकरों से निम्न श्रेणी का मानते हैं । बौद्ब लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ण मानते हैं, जैसे—चातुरमहाराजिक, तुषिक आदि । जैन लोग चार प्रकार के देवता मानते हैं—वैमानिक या कल्पभव, कल्पातीत, ग्रँवेयक और अनुत्तर । वैमानिक १२ हैं— सौधर्म, ईशान, सनन्कुमार, महेंद्र, ब्रह्मा, अंतक, शुक्र, सह- स्रार, नत, प्राणत, आरण और अच्युत ।

देवताड़
संज्ञा पुं० [सं० देवताड] १. एक प्रकार का तुण या पौधा जिसमें इधर उधर टहनियाँ नहीं निकलतीं, तलवार कीतरह वो ढाई हाथ तक लंबे सीधे पत्ते पेड़ी से चारों ओर निकलते हैं । विशेष—यह पौधा अपने लंबे और कड़े पत्ते के कारण देखने में धीकुँवार के पौधे सा मालूम होता है । इस पौधे के पत्ते कड़े और कुछ नीलापन लिए होते है । इसके बीच का कांड डंडे की तरह छह सात हाथ ऊपर निकल जाता है जिसके सिरे पर फूलों के गुच्छे लगते हैं । पत्तों के रेशों से बहुत मजबूत रस्से बनते हैं । इसे रामबाँस भी कहते हैं । २. दे० 'देवताड़ी' । ३. राहु (को०) । ४. अग्नि (को०) ।

देवताड़क
संज्ञा पुं० [सं० देवताडक] दे० 'देवताड़' [को०] ।

देवताड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० देवताड़ी] १. देवदाली लता । बेंदाल । २. तुरई । तरोई ।

देवतात
संज्ञा पुं० [सं०] १. कश्यप जिनसे देवता उत्पन्न हुए । २. देवकार्य । यज्ञ (को०) ।

देवताति
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । ईश्वर । २. एक यज्ञ [को०] ।

देवतात्मा
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ दृक्ष जिसमें देवता रहते हैं । २. हिमवान् पर्वत जो वेवनिवास के कारण देवश्वरूप है [को०] ।

देवताधिप
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।

देवताध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद का एक ब्राह्मण ।

देवतापित्तर †
संज्ञा पुं० [सं० देव + पितृ] देवता और पितर । उ०—मैं तो बतेरा देवता पित्तर मनाता रहा ।—किन्नर०, पृ० ८३ ।

देवतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवपुजा के लिये उपयुक्त समय । २. अँगूठे को छोड़ उंगलियों का अग्रभाग जिससे होकर संकल्प या तर्पण का जल गिरता है ।

देवतुमुल
संज्ञा पुं० [सं०] बादल की ध्वनि । मेघ को गरज । [को०] ।

देवतुष्टिपति
संज्ञा पुं० [सं०] देवपूजक । पुजारी ।

देवत्त (१)
वि० [सं०] देवता का दिया हुआ । देंवदत्त ।

देवत्त † (२)
संज्ञा पुं० [सं० देवता] दे० 'देवता' । उ०—देवता देव देवाधिवर । नीत न मानत मजि सुवर । कहियंत गोप गोपी सु वर । विधि विधान निरमान नर । —पृ० रा०, २ ।३४० ।

देवत्य पु
वि० [सं० देव, या देवत्व] विवाह का एक भेद जिसे देव कहते हैं । उ०—देवत्य व्याह चहुआन कीन ।—पृ० रा०, २१ । १३९ ।

देवत्रयी
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीन देवताओं का समूह ।

देवत्रिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० देवस्त्री] देवांगना । स्वर्वेंश्या । अप्सरा । उ०—गंगा संगम देवत्रिय, जान विमान अनंतु ।—केशव ग्रं०, १ । १३५ ।

देवत्व
संज्ञा पुं० [सं०] देवता होने का भाव या धर्म ।

देवदंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० देवदण्डा] नागवला । गंगेरन ।

देवदत्त (१)
वि० [सं०] १. देवता का दिया हुआ । देवता से प्राप्त । २. जो देवता के निमित्त दिया गया हो ।

देवदत्त (२)
संज्ञा पुं० १. देवता के निमित्त दान की हूई संपत्ति । २. शरीर की पाँच वायुओं में से एक जिससे जँभाई आती है । ३. अर्जुन के शंख का नाम । ४. अष्टकुल नागों में से एक । ५. शाक्यवंशीय एक राजकुमार जो गौतम बुद्ध का चचेरा भाई था और उनसे बहुत बुरा मानता था । विशेष—बुद्ध और देवदत्त दोनों ही साथ पले थे, इससे सब बातों में बुद्ध को विशेष कुशल और तेजस्वी देखकर वह मन ही मन बहुत चिढ़ता था । यशोधरा से पहले यही विवाह करना चाहता था । जब यशोधरा ने बुद्ध को स्वीकार कर लिया तब यह और भी जला और बदला लेने की ताक में रहने लगा । गौतम के बुद्धत्व प्राप्त करने पर भी इसने द्बेष न छोड़ा । अवदानशतक में लिखा है कि बुद्ध जिस समय जेतवन आराम में ठहरे थे, देवदत्त ने उन्हें मारने के लिये बहुत से घातक भेजे थे । पीछे से यह बुद्ध के संघ में मिल गया था और अनेक प्रकार के उपाय बुद्ध और संघ को हानि पहुँचाने के लिये किया करता था । कौशांबी में आनंद और सारिपुत्र मौदगलायन की प्रधानता से कुढ़कर यह संघ छोड़कर राजगृह चला गया और वहाँ अजातशत्रु को मिलाकर उसने बुद्ध को अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाए, उनपर मत्त हाथी छुड़वाया, पत्थर लुढ़कवाया । अंत मे जब वह कुष्ट रोग आदि से पीड़ित और जीवन से निराश हुआ तब बुद्ध से क्षमा माँगने के लिये चला । बुद्ध ने उसे आता सुनकर कहा वह मेरे पास नहीं आ सकता । संयोगवश वह आने के पहले तालाब में नहाने घुसा और वहीं कीचड़ में फँसकर मर गया ।

देवदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १.देवता का दर्शन । २. नारद ऋषि का एक नाम (भागवत) ।

देवदानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी तोरई ।

देवदार
संज्ञा पुं० [सं० देवदारु] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो हिमालय पर ६००० फुट से ८००० फुट तक की ऊँचाई पर होता है । विशेष—देवदार के पेड़ अस्सी गज तक सीधे ऊँचे चले जाते हैं और पच्छिमी हिमालय पर कुमाऊँ से लेकर काश्मीर तक पाए जाते हैं । देवदार की अनेक जातियाँ संसार के अनेक स्थानों में पाई जाती हैं । हिमालयवाले देवदार के अतिरिक्त एशियाई कोचक (तुर्की का एक भाग) तथा लुबना और साइप्रस टापू के देवदार प्रसिद्ध हैं । हिमालय पर के देवदार की डालियाँ सीधी और कुछ नीचे की और झुकी होती हैं, पत्तियाँ महीन महीन होती हैं । डालियों के सहित सारे पेड़ का घेरा ऊपर की और बराबर कम अर्थात् गवदुम होता जाता है जिससे देखने में यह सरो के आकार का जान पड़ता है । देवदार के पेड़ डेढ़ डेढ़ दो दो सौ वर्ष तक पुराने पाए जाते हैं । ये जितने ही पुराने होते हैं उतने ही विशाल होते हैं । बहुत पुराने पेड़ों के धड़ या तने का घेरा १५—१५ हाथतक का पाया गया है । इसके तने पर प्रति बर्ष एक मंडल या छल्ला पड़ता है, इसलिये इन छल्लो को गिनकर पेड़ की अवस्था बतलाई जा सकती है । इसकी लकड़ी कड़ी, सुंदर, हलकी, सुगंधित और सफेदी लिए बादामी रंग की होती है और मजबूती के लिये प्रसिद्ध है । इसमें धुन कीड़े कुछ नहीं लगते । यह इमारतों में लगती है और अनेक प्रकार के सामान बनाने के काम आती है । काश्मीर में बहुत से ऐसे मकान हैं जिनमें चार चार सौ बरस की देवदार की घरनें आदि लगी हैं और अभी ज्यों की त्यों हैं । काश्मीर में देवदार की लकड़ी पर नक्काशी बहुत अच्छी होती है । कागड़े में इसे घिसकर चंदन के म्थान पर लगाते है । इससे एक प्रकार का अलकतरा और तारपीन की तरह का तेल भी निकलता है, जो चौपायों के घाव पर लगाया जाता है । देवदार को दियार, केलू और कहीं कहीं केलोन भी कहते हैं । पर्या०—शक्रपादप । पारिद्रक । भद्रदारु । दुकिलिम । पीड़दारु । दारु । पूतिकाष्ठ । सुरदारु । स्तिग्धदारु । दारुक । अमरदारु । शांभव । भूतहारि । भवदारु । भद्रवत् । इंद्रदारु । देवकाष्ठ ।

देवदारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताओं की स्त्री । अप्सरा । उ०—जिसे देखने के लिये ये देवदारा और गधर्व्र कन्याए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११९ ।

देवदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदार ।

देवदार्वादि
संज्ञा पुं० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार एक क्वाथ जिसे प्रसूता स्त्री को पिलाने से ज्वर, दाह, सिर की पीड़ा, अतीसार, मूर्छा आदि उपद्रव शात हो जाते हैं । विशेष—इस काढ़े, में ये वस्तुएँ बराबर बराबर पड़ती हैं—देवदार, वच, कुड़, पिप्पली, सौंठ, चिरायता, कायफल, मोथा, कुटकी, धनिया, हड़, गर्जापप्पली, जवासा, गोखरु भटकटैया (कंटकारि), गुलंचकंद, काकड़ासीणी और स्याहजीरा । काढ़ा तैयार हो जाने पर उसमें हींग और नमक ड़ाल देना चाहिए ।

देवदालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाकाल वृक्ष ।

देवदाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता जो देखने में तुरई की बेल से मिलती जुलती होती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ भी तुरई की पत्तियों के सामान पर उन से छोटी होती हैं और कोनो पर नुकीली नहीं होतीं । फल ककोड़े (खेखसे) की तरह काँटेदार होते हैं । वैद्यक में यह कड़ई, तीक्षण, वमनकारक, विरेचक, विषनाशक, क्षयरोग- नाशक, तथा ज्वर, खाँसी, अरुचि, हिचको, कृमि, चूहे के विष इत्यादि को दूर करनेवाली मानी जाती है । पर्या०—जीमूतक । कंटफला । गरागरी । वेणी । सहा । कोशफला । कटुफला । घोरा । कदंबा । विषहा । ककटी । सारमूषिका । आखुविषहा । वृत्तकोषा । धोषा । विषघ्नी । दाली । लोमशपत्रिका । तुरंगिका ।

देवदास
संज्ञा पुं० [सं०] देवता का दास । देवोपासक । २. देव- मंदिर का दास या सेवक [को०] ।

देवदासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या । २. मंदिरों की दासी य़ा नर्तकी । विशेष—ये जमन्नाथ से लेकर दक्षण के प्रायः सब मंदिरों में नाचती गाती हैं और वेश्यावृत्ति करती हैं । इनके माता, पिता बचपन ही में उन्हें मंदिर को दान कर देते हैं, जहाँ उस्ताद लोग इन्हें नाचना गाना सिखाते हैं । मरदास के चिमलपट जिले के कोरियों (कपड़ा बुननेवालों) में यह रीति हैं कि वे अपनी सबसे बड़ी लड़की को किसी मंदिर को दार कर देते हैं । इस प्रकार की दान की हुई कुमोंरियों की महाराष्ट्र देश में 'मुरली' और तैलंग देश में 'वसवा' कहते हैं । इन्हें मंदिरों से गुजारा मिलता है । मरने पर इनका उत्तराधिकारी पुत्र नहीं होता, कन्या होती है । मंदिरों में देवदासियाँ रखने की प्रथा प्राचीन है । कालिदास के मेधदूत में महाकाल के मंदिर में वेश्याओं के नृत्य करने की बात लिखी है । मिस्र, यूनान, बाबिलन आदि के प्राचीन देव- मंदिरों में भी देवनर्तकियाँ होती थीं । ३. जंगली बिड़ौरा नीबू । बिजौरा नीबू ।

देवदीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दीपक जो किसी देवता के निगित्त जलाया गया हो । २. आँख । नेत्र ।

देवदुदुंभि
संज्ञा पुं० [सं० देवदुन्दुभी] १. लाल तुलसी । २. देवताओं का नगाड़ा । ३. इंद्रा का एक नाम (को०) ।

देवदूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । आग । २. देवताओं का दूत (को०) ।

देवदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्ग को अप्सरा । २. बिजौरा नीबू ।

देवदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. ब्रह्मा । ३. विष्णु । ४. गणेश । ५. इंद्र । उ०—तहँ राजा दशरथ लसैं देवदेव अनुरूप ।— केशव (शब्द०) ।

देवद्युर
संज्ञा पुं० [सं०] भरतवंशीप एक राजा जो देवाजित् के पुत्र थे (भागवत) ।

देवद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्पवृक्ष, पारिजात आदि स्वर्ग के वृक्ष । देवतरु० उ०—सूको तरु सेवत कहा बिहँग देवद्रुम सेव ।— दीन० ग्रं०, पृ० २२२ । २. देवदार ।

देवद्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरघा जिसमें स्वयंभू लिय स्थापित किया जाता है । २. देवयात्रा । किसी देवता की मूर्ति को बाजे गाजे के साथ ग्राम में घुमाना ।

देवधन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता के निमित उत्सर्ग किया हुआ धन । उ०—यों ही बहुतेरे चिल्ला रहे है कि देवधन के विषय में... ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१ ।

देवधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमरपुरी । इंद्रपुरी [को०] ।

देवधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वार ।

देवधाम
संज्ञा पुं० [सं० देवधामन्] तीर्थस्थान । देवस्थान । मुहा०—देवधाम करना = तीर्थयाञा करना ।

देवधुनी
संज्ञा स्त्री० [ सं०] गंगा नदी । उ०—हमहि अगम आति दरस तुम्हार । जस मरुघरनि देवधुनि धारा ।—तुलसी (शब्द०) ।

देवधूप
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल । गूगुल ।

देवधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु ।

देवनंदी
संज्ञा पुं० [सं० देवनन्दिन्] इंद्र का द्वारपाल ।

देवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवहार । २. किसी से बढ़ चढ़कर होने की वासना । जिगीषा । ३. क्रीड़ा । खेल । ४. लीलो- द्यान । बगीचा । ५. पद्म । कमल । ६. परिवेदना । खेद । रंज । शोक । ७. द्यृति । कांति । ८. स्तुति । ९. गति । १०. द्यूत । जुआ । ११. पासे का खेल । चौसर ।

देवनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वे नक्षत्र जो यम नक्षत्र से भिन्न हों । दक्षिणायन के प्रारंभिक १४ नक्षत्र [को०] ।

देवनटि
संज्ञा स्त्री० [सं० देव + नटी (= नाचनेवाली)] अप्सरा । उ०—नितंति देवनटी छबि जटी । लटकै जनु कि छटन की छटी ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२७ ।

देवनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गमा । उ०—देवनदी अहियान पदी महिमान बदी स्त्रु ति साखि बिसेखी ।—घनानंद०, पृ० १४८ । २. सरस्वती और द्दषद्वती नदी ।

देवनल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नरकट या नरसल ।

देवना
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रीड़ा । खेल । २. सेवा । ३. द्यूतक्रीड़ा (को) । ४. शोक (को०) ।

देवनागरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारतवर्ष की प्रधान लिपि जिसमें संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि देशभाषाएँ लिखी जाती हैं ।
विशेष—'नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है । कुछ लोग इसका केवल 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहत' ऐसा अर्थ करके पीछा छुड़ाते हैं । बहुत लोगों का यह मत है कि गुज- रात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम मड़ा । गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खंड़ का प्रमाण देते हैं । नागर खंड़ में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाना लिखा है । उसमें यह भी वर्णित है कि एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर' । गुजरात के नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनंदपुर) को ही 'नगर' और अपना स्थान बतलाते हैं । अतः नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मान लेने पर भी यही मानना पड़ता है कि ये अक्षर गुजरात में वहीं से गए जहाँ से नागर ब्राह्मण गए । गुजरात में दुसरी ओर सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं । गुजरात में सबसे पुराना प्रामाणिक लेख, जिसमें नागरी अक्षर भी हैं, मुर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ (ई० स० ७०६) का ताम्रपत्र हैं । यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर (स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरीय भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती जुलती है । एक बात और भी है । गुजरात में जितने दानपत्र उत्तरीय भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं । राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यबह्वत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई । यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई । 'नागरी लिपि' का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता । इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में वह ब्राह्मी ही कहलाती थी, उसका कोई अलग नाम नहीं था । यदि 'नगर' या 'नागर' ब्राह्मणों से 'नागरी' का संबंध मान लिया जाय तो आधिक से अधिक यही कहना पड़ेगा कि यह नाम गुजरात में जाकर पड़ गया और कुछ दिनों तक उधर ही प्रसिद्ध रहा । बोद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में जो उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं । 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई० स० ३०८ में हुआ था । जैनों के 'पन्नवणा' सूञ और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है । उन्हीं के भगव्रतीसूञ का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि की नमैस्कार) से होता है । नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई० के पहले का बना है । 'नित्यासोडशिका- र्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणञयवदुद्भवी लेखो वस्य तत् । नागर लिप्या साम्प्र- दायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्) । यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' दना है । शेषकृष्ण नामक पंडित ने जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है । सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिंध नदी के पार के प्रदेशों (गाँधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है । अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं । इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध म्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंत्कि में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है । इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है । अतंर इतना ही है कि इनमें दार्घ म्वरचिह्नों का अभाव है । दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं । [ महा] वीर संवत् ८४ (= ई० स० पूर्व ४४३) का हैं । यह स्तंभ पर खुर्दे हुए किसी बड़े लेख का खंड है । उसमें'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है । जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है । जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा । जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है' । अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिंदी निकली है । अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई । मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है । ईसा की और नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है । किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरीं से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित होते होते बने हैं यह पंड़ित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला 'पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है । वह नकशा यहाँ अलग छापकर लगा दिया गया है जिससे नागरी लिपि का क्रमशः विकास स्पष्ट हो जायगा । इन अक्षरों का पहला रूप अशोक लिपि का है उसके उपरांत, दूसरे, तीसरे, चौथे क्रमशः पीछे के हैं जो भिन्न भिन्न प्राचीन लेखों से चुन गए हैं । मि० शामशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रकट किया है । उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे । ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे । उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे । इसी से इन अक्षरों का नाम ' देवनागरी' पड़ा' ।

देवनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

देवनामा
संज्ञा पुं० [सं देवनामन] १. कुशद्वीप के एक वर्ष का नाम । २. कुशद्वीप के राजा हिरणपरेता के एक पुत्र ।

देवनायक
संज्ञा पुं० [ सं०] सुरपति । इंद्र ।

देवनाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नरसल । बड़ा नरकट ।

देवनिंदक
संज्ञा पुं० [सं० देवनिन्दक] देवताओं की निदा करनेवाला । नास्तिक [को०] ।

देवनिंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० देवनिन्दा] देवताओं की निंदा । नास्तिकता [को०] ।

देवनिंकाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का समूह । २. देवताओं का स्थान । स्वर्ग ।

देवनिर्मित
वि० [सं०] १. प्रकृतिक । नैसर्गिक । २. देवताओं द्वारा निर्मित [को०] ।

देवनिर्मिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़ूची । गुरुच ।

देवनी
संज्ञा स्त्री० [ सं० देव + नी (हिं०)] देव की स्त्री । उ०— तो मैं क्या करूँ । आप भी तो देवनी से आजमाने चले । आज आपको मालूम हो जायया कि मैं इससे क्यों इतना दबता हुँ ।—काया०, पृ० २५४ ।

देंवपति
संज्ञा पुं० [सं०] सुरपति । इंद्र ।

देवपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] सोमनाथ मानक देवस्थान जो काठिया- बाड़ में है । विशेष—पुराणों में इस स्थान या क्षेत्र का नाम प्रभास और शिलालेखों में देवपतन मिलता है । इसे देवनगर भी कहते थे ।

देवपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवता की स्त्री । २. मध्वालु । एक प्रकार का कंद ।

देवपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. छायापथ । आकाश । २. वह मार्ग जो किसी देवमंदिर की और जाता हो ।

देवपद्मिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश में बहनेवाली गंगा का एक नाम ।

देवपर
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो संकट पड़ने पर कोई उद्योग न करे, किसी देवता का भरोसा किए बैठा रहे ।

देवपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] माचीपत्र ।

देवपशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता के नाम उत्सर्ग किया हुआ पशु । २. देवता का उपासक ।

देवपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि ।

देवपाद
संज्ञा पुं० [सं०] राजा या आश्रयदाता के लिये प्रयुत्त्क आदरव्यंजक शब्द ।

देवपान
संज्ञा पुं० [सं०] सोमपान करने का एक पात्र ।

देवपाल
संज्ञा पुं० [सं०] शाकद्वीप के एक पर्वत का नाम ।

देवपालित
वि० [सं०] १. (देश०) जिसमें वृष्टि ही के जल से खेती आदि का काम चलता हो । २. देवताओं द्वारा रक्षित (को०) ।

देवपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० देवपुत्री] देवता
का पुत्र ।

देवपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'देवपुत्री' ।

दवपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवता की पुत्री । २. इलायची । ३. कपूरी साग ।

देवपुर
संज्ञा पुं० [सं०] अमरावती ।

देवपुरी
संज्ञा० स्री० [सं०] इंद्र की राजधानी अमरावती जो स्वर्ग में है ।

देवपुरोहित
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति । देवगुरु [को०] ।

देव पू
संज्ञा पुं० [सं०] अमरावती । देवपुरी [को०] ।

देवपूजा
संज्ञा स्त्री० [ सं०] देवताओं का पूजन ।

देवपूज्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवगृरु । बृहस्पति [को०] ।

देवप्रतिकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' देवप्रतिमा' ।

देवप्रतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवता की पाषण या धातु आदि से निर्मित मूर्ति [को०] ।

देवप्रायाग
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय में टिहरी जिले के अंतर्गतएक तीर्थ जो गंगा और अखकनंदा के संगम पर है । स्कंद- पुराण के हिमवद् खंड में तीर्थ का माहात्म्य वार्णित है ।

देवप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह प्रश्न जो नक्षत्र, ग्रह, ग्रहण आदि के संबंध में हो । २. शुभाशुभ संबंधी वह प्रश्न लो किसी देवता के प्रति समझा जाय और जिसका उत्तर किसी युत्कि से निकाल जाय ।

देवप्रसूत
संज्ञा पुं० [सं०] जल । पानी [को०] ।

देवप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक पुरी का नाम जो कुरुक्षेत्र से पूर्व पड़ती थी और जिसका राजा सेनाबिंदु या ।

देवप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का पेड़ या फूल । २. पीत भृंगराज । पीली भँगरैया । ३. देवताओं के प्रिय, शिव (को०) ।

देवबंद
संज्ञा पुं० [सं० देवबंन्द] घोड़ों की एक भँवरी जो उनकी छाती पर होती है और शुभ लक्षण गिनी जाती है । जिस घोड़े में यह भँवरी हो उसमें यदि और दोष भी हों तो वे निष्फल समझे जाते हैं ।

देववला
संज्ञा पुं० [सं०] सहदेई । सहदेइया नाम की बूटी ।

देवबल्लभा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० देववल्लभ] दे० 'देववल्लभ' । उ०—कासमीर कुंकुंम रुधिर देवबल्लभा नाउँ ।—अनेकार्थ०, पृ० २३ ।

देवबाँस
संज्ञा पुं० [सं० देव + हिं० बास] एक प्रकार का मजबूत और ऊँचा बाँस । विशेष—यह बाँस पूरबी बंगाल और आसाम में बहुत होता है और उड़ीसा तक पाया जाता है । यह १५-२० हाथ से ४०-४५. हाथ तक उँचा होता है । यह मजबूत होता है और मकानों की छाजन में लगाने तथा चटाई, टोकरा आदि बनाने के काम में आता है । इसके नरम कल्लों का अचार भी पड़ता है ।

देवब्रह्वान्
संज्ञा पुं० [सं०] नारद ।

देवब्राह्मण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो किसी देवता की पूजा करके जीवननिर्वाह करे । पुजारी । पंडा ।

देवभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का घर या स्थान । २. स्वर्ग । ३. अश्वत्थ । पीपल ।

देवभाग
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं को दिया जानेवाला भाग । किसी वस्तु या संपत्ति का वह अंश जो देवता के लिये निकाला गया हो ।

देवभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] संस्कृत भाषा ।

देवभिषक्
संज्ञा पुं० [सं० देवभिषज्] अश्विनीकुमार ।

देवभ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' देवभूमि' ।

देवभू (२)
संज्ञा पुं० देवता [को०] ।

देवभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं का ऐश्वर्य । २. मंदाकिनी ।

देवभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग ।

देवभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] (देवताओं का भरण करनेवाले) १. इंद्र । २. विष्णु ।

देवभोज्य
संज्ञा पुं० [सं०] अमृत ।

देवमंजर
संज्ञा पुं० [सं० देवमञ्जर] कौस्तुभ मणि ।

देवभांदिर
संज्ञा पुं० [सं० देवमन्दिर] वह घर जिसमें किसी देवता की मूर्ति आदि स्थापित हो । देवालय ।

देवमई पु
वि० [सं० देवमयी] देव-अंश-युक्त । दिव्य । उ०— देवक जादव के इक कन्या । देवमई देवकी सुधन्या ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२१ ।

देवमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. कौस्तुभ मणि । ३. धोड़े की भँवरी । ४. महामेदा नाम की ओषधि ।

देवमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० देवामातृ] १. देवता की माता । २. आदिति । ३. दाक्षायणी ।

देवमातृक
वि० [सं०] (देश) जिसमें खेती आदि के लिये वर्षा का ही जल यथेष्ट हो । जहाँ इतनी वर्षा होती हो कि खेती आदि का सब काम उसी से चल जाता हो ।

देवमादन
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं को मोहित या मत्तकरनेवाला, सोम ।

देवमान
संज्ञा पुं० [सं०] काल की गणना में देवताओं का मान । जैसे, मनुष्यों के एक सौर वर्ष का देवताओं का एक दिन ।

देवमानक
संज्ञा पुं० [सं०] देवमणि । कौस्तुभ मणि ।

देवमाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं की माया । २. परमेश्वर की माया जो आविद्या रूप होकर जीवों को बंधन में ड़ालती है ।

देवमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] देवयान ।

देवमास
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ का आठवाँ महीना । विशेष—आठरवें महीने में गर्भ में स्मृति और ओज की उत्पत्ति हो जाती है । इससे उसे देवमास कहते हैं । २. देवताओं का महीना जो मनुष्यों के तीस वर्ष के बराबर होता है ।

देवमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] शाकल्य ऋषि का एक नाम ।

देवमित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमार की अनुचरी एक मातृका ।

देवमीढ़ ।
संज्ञा पुं० [सं० देवमीढ] १. वाल्मीकि रामायण में वर्णित मिथिला के एक प्राचीन राजा जो कीर्तिरथ के पुत्र और जनक (सीरध्वज) के पूर्वज थे । २. यदुवंशीय एक राजा ।

देवमीढ़ुष
संज्ञा पुं० [सं०] वसुदेव के पितामह का नाम ।

देवमुख्या
संज्ञा स्त्री० [ सं०] कस्तूरी । कामांधा ।

देवमुनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारद ऋषि । २. सूर नामक ऋषि ।

देवमूक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम । (गर्गसंहिता) ।

देवमूर्त्ति
संज्ञा पुं० [सं०] देवता की प्रतिमा ।

देवयजन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ की वेदी ।

देवयजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी ।

देवयजि
संज्ञा पुं० [सं०] देवता की आराधना करनेवाला व्यक्ति । पुजारी [को०] ।

देवयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] होमादि कर्म जो पंचयज्ञों में से एक हैं और गृहस्थों का प्रतिदिन का कर्तव्य हैं ।

विशेष—दे० 'पंचयज्ञ' ।

देवयात
वि० [सं०] देवत्व प्राप्त । जो देवता हो गया हो ।

देवयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी देवता या पूज्य महापुरुष की सवारी निकालने का पर्व [को०] ।

देवयात्री
संज्ञा पुं० [सं० देवयात्रिन्] हरिवंश में वर्णत एक दानव का नाम ।

देवयान
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर से अलग होने के उपरांत जीवात्मा के जाने के लिये दो मार्गों में से वह मार्ग जिससे होता हुआ वह ब्रह्मलोक को जाता है । विशेष—उपनिषदों में जीवात्मा के उत्क्रमण अर्थात एक शरीर से दूसरे शरीर या एक लोक दूसरे लोक की प्राप्ति की कथा बहुत आई है । प्रश्नोपनिषद् में लिखा हैं कि संवत्सर ही प्रजापति है । दक्षिण और उत्तर उसके दो अयन हैं । जो कोई इष्टापूर्त और कृत (यज्ञ आदि कर्मकांड) की उपासना करते हैं वे चांद्रमस लोक को प्राप्त होते हैं और फिर वहाँ से लोटकर दक्षिणायन को पाते हैं । जो 'रयी' (खाद्य, धान्य) या पितृयाण कहलाता है । इसी प्रकार जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मा का अन्वेषण करते हैं वे उत्तरायण मार्ग से आदित्य लोक को प्राप्त करते हैं । इस मार्ग से गमन करनेवाले नहीं लौटते । छादोग्य उपनिषद् में लिखा है कि जो श्रद्धा और तप की उपासना करते हैं वे अर्चि (आग की लौ) को पाते हैं । अर्चि से अह्न (दिन), अह्न से आपूर्यमाण या शुक्ल पक्ष, आपूर्यमाण पक्ष से उत्तरायण के छह महीनौं को, उत्तरायण से संवत्सर, संवत्सर से आदित्य को, आदित्य से चंद्रमा को, चंद्रमा से विद्युत् को प्राप्त होने हैं और वहाँ अमानव (अर्थात् देव) हो जाते हैं । इसी मार्ग को देवयान कहते हैं जिससे मरनेवाला ब्रह्म को पाता है । वृह- दारण्यक उपनिषद में सूर्य से एकबारगी विद्युत् को प्राप्त होना लिखा है, चंद्रमा को छोड़ दिया है और 'अमानव' के स्थान पर 'अमानस' शब्द आया है जिसका आभिप्राय वही है । देवयान और पितृयाण का अभिप्राय केवल यही है कि ब्रह्मज्ञानी मरने पर उत्तरोत्तर प्रकाशमान् लोकों या स्थितियों में होते हुए ब्रह्मलोक या ब्रह्म की प्राप्त करते हैं । और कर्मकांड में रत मनुष्य धूमरात्रि कृष्णपक्ष, दक्षिणायन आदि उत्तरोत्तर अंधकार की स्थिति को प्राप्त करते हैं और लौटकर फिर जन्म लेते हैं । सारांश यह कि एक ओर प्रकाश की उत्तरोत्तर वृद्धिपरंपरा का क्रम रखा गया हैं और दूसरी ओर अंधकार की । वेदांतसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जीव के इन दोनों मार्गो पर बहुत ऊहापोह किया गया है । गीता के आठवें आध्याय में श्रीकृण ने भी इन मार्गो का उल्लेख किया है । उपनिषद् में जो उत्तरा- यण को देवयान और दक्षिणायन को पितृयाण कहा गया, इस कारण सूर्य जब उत्तरायण रहता है तब मरना मोक्ष- दायक माना जाता है । इसीलिये महाभारत में भीष्म का उत्तरायण सूर्य होने तक शरशय्या पर पड़ा रहना लिखा गया है ।

देवयानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्राचार्य की जो राजा ययाति को ब्याही थी । विशेष—बृहस्पति का पुत्र कच मृतसंजीवनी विद्या सीखने के लिये दैत्यगुरु शुक्राचार्य का शिष्य हुआ । शुक्राचार्य की कन्या देवयानी उसपर अनुरक्त हुई । असुरों को जब यह विदित हुआ कि कच मृतसंजीवनी विद्या लेने के लिये आया है तब उन्होंने उसको मार डाला । इसपर देवयानी बहुत विलाप करने लगी । तब शुक्राचार्य ने अपनी मृत- संजीवनी विद्या के बल से उसे जिला दिया । इसी प्रकार कई बार असुरों ने कच का विनाश करना चाहा पर शुक्राचार्य उसे बचाते गए । एक दिन असुरों ने कच को पीसकर शुक्राचार्य के पीने की सुरा में मिला दिया । शुक्राचार्य कच को सुरा के साथ पी गए । जब कच कहीं नहीं मिला तब देवयानी बहुत विलाप करने लगी और शुक्राचार्य भी बहुत धबराए । कच में शुक्राचार्य के पेठ में से ही सब व्यवस्था कह सुनाई । शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि 'कच तो मेरे पेट में है, आब बिना मेरे मरे उसकी रक्षा नहीं सकती ।' पर देवयानी को इन दोनों में से एक बात भी नहीं मंजूर थी । अंत में शुक्राचार्य ने कच से कहा कि य़दि तुम कच रूपी इंद्र नहीं हो तो मृत- संजीवनी विद्या ग्रहण करो और उसके प्रभाव से बाहर निकज आओ । कच ने मृतसंजीवनी विद्या पाई और वह पेट से बाहर निकल आया । तब देवयानी ने उससे प्रेमप्रस्ताव किया और विवाह के लिये वह उससे कहने लगी । कच गुरु की कन्या से विवाह करने पर किसी तरह राजी न हुए । इसपर देवयानी ने शाप दिया कि तुम्हारी सीखी हुई विद्या फलवती न होगी । कच ने कहा कि यह विद्या अमोघ है । यदि मेरे हाथ से फलवती न होगी तो जिसे मैं सिखाऊँगा उसके हाथ से होगी । पर तुमने मुझे व्य़र्थ शाप दिया । इससे मैं भी शाप देता हूँ कि तुम्हारा विवाह ब्राह्मण से नहीं होगा । दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और देवयानी में परस्पर सखी भाव था । एक बार दोनों किनारे पर कपड़े रख जलाशय में जलविहार के लिये घुसीं । इंद्र ने वायु का रूप धरकर दोनों के वस्त्र एक स्थान पर कर दिए । शर्मिष्ठा ने जल्दी में देखा नहीं और निकलकर देवयानी के कपड़े पहन लिए । इसपर दोनों में झगड़ा हुआ और शर्मिष्ठा में देवयानी को कुएँ में ढ़केल दिया । शर्मिष्टा यह समझकर कि देव- यानी मर गई अपने घर चली आई । इसी बीच नहुष राजा का पुञ ययति शिकार खेलने आया था । उसने देवयानी को कुएँ से निकाला और उससे दो चार बातें करकें वह अपने नगर की और चला गया । इधर देवयानी ने एक दासी से अपना सब वृत्तांत शुक्राचार्य के पास कहला भेजा । शुक्राचार्य ने आकर अपनी कन्या को घर चलनै के लिये बहुत कहापर उसने एक भी न सुनी । वह शुक्राचार्य से कहने लगी कि 'शर्मिष्ठा तुम्हारा तिरस्कार करती थी, अतः मैं अब दैत्यों की राजधानी में कदापि न जाऊँगी' । यह सब सुनकर शुक्राचार्य भी दैत्यों की राजधानी छोड़ अन्यत्र जाने को तैयार हुए । यह खबर राजा वृषपर्वा को लगी और वह आकर शुक्राचार्य से बडी़ विनती करने लगा । शुक्राचार्य ने कहा ' देवयानी को प्रसन्न करो' । वृषपर्वा देवयानी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा । देवयानी ने कहा, 'मेरी इच्छा है कि शर्मिष्ठा सहस्त्र और कन्याओं सहित मेरी दासी हो । जाहाँ मेरा पिता मुझे दान करे वहाँ वह मेरी दासी होकर जाय' । बृषपर्वा इसपर सम्मत हुआ और अपनी कन्या शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर शुक्राचार्य के घर भेज दिया । एक दिन देवयानी अपनी नई दासियों के सहित कहीं क्रीड़ा कर रही थी कि राजा ययाति वहाँ आ पहुँचे । देवयानी नें ययाति से विवाह करने की इच्छा प्रकट की । राजा ययति नें स्वीकार कर लिया और शुक्राचार्य ने कन्यादान कर दिया । कुछ दिन पीछे ययाति से शर्मिष्ठा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब देवयानी नें पूछा तब शर्मिष्ठा ने कह दिया कि यह लड़का मुझे एक तेजस्वी ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है । इसके उपरांत देवयानी के गर्भ से अदु और तुवँसु नाम के दो पुत्र और शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्य, अणु और पुरु ये तीन पुत्र हुए । ययाति से शर्मिष्ठा को तीन पुत्र हुए, यह जानकर देवयानी अत्यंत कुपित हुई और अपने पिता के पास इसका समाचार भेजा । शुक्राचार्य ने क्रोध में आकर ययाति को शाप दिया कि 'तुमने अधर्म किया है इसलिये तुम्हें बहुत शीघ्र बुढ़ा़पा घेरेगा' । ययाति में शुक्राचार्य से विनयपूर्वक कहा—'महाराज मैंने कामवश होकर ऐसा नहीं' किया, शर्मिष्ठा ने ऋतृमती होने पर ऋतुरक्षा के लिये प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना को अस्वीकार करना मैंने पाप समझा । मेरा कुछ दोष नहीं' । शुक्राचार्य ने कहा' अब तो मेरा कहा हुआ निष्फल नहीं हो सकता । पर यदि कोई तुम्हारा बुढ़ा़पा ले लेगा तो तुम फिर ज्यों के त्यों जवान हो जाओगे ।'

देवयु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर ।देवता ।

देवयु (२)
वि० १. धर्मात्मा । पुण्यात्मा । धार्मिक । २. देवकार्य में सहयोग देनेवाला [को०] ।

देवयुग
संज्ञा पुं० [सं०] सत्ययुग ।

देवयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग, अंतरिक्ष, आदि में रहनेवाले उन सब जीवों की सृष्टि जो देवताओं के अंतर्गत माने जाते हैं । विशेष—अमरकोश में विद्याधर, अप्सरा, पक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक और सिद्ध ये देवयोनि के अंतर्गत गणितच हैं ।

देवयोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवस्त्री । अप्सरा [को०] ।

देवर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० देवरानी] १. पति का छोटा भाई । २. पति का भाई (छोटा या बड़ा) । विशेष—मनुस्मृतिं में लिखा है कि यदि किसी विधवा को अपने पति से कोई संतान न हो तो वह अपने देवर या पति के किसी अन्य सपिंड से एक संतान उत्पन्न करा ले, एक से अधिक नहीं । पर पराशर ने कलिकाल में इसका निषेध किया है ।

देवरक्षित (१)
वि० [सं०] जो देवताओं के द्वारा रक्षित हो ।

देवरक्षित (२)
संज्ञा पुं० देवक राजा के एक पुत्र का नाम ।

देवरक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवक राजा की एक कन्या ।

देवरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का रथ । विमान । २. सूर्य का रथ ।

देवरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० देव + हिं० रा (प्रत्य०)] [स्त्री० देवरी] छोटा मोटा देवता । उ०—पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघुनाथ ।—रहीम (शब्द०) ।

देवरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पटसन जो सुतली बनाने के काम में आता है ।

देवराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के राजा इंद्र । २. बुद्ध का नाम (को०) । ३. राजा । नरेश (को०) ।

देवराजा पु
संज्ञा पुं० [सं० देवराज] देवराज इंद्र । उ०—देवराजा लिए देवरानी मनो पुत्र संयुक्त भूलोक में सोहिये ।—केशव (शब्द०) ।

देवराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग ।

देवरात
संज्ञा पुं० [सं०] १. (देवताओं से रक्षित) राजा परीक्षित । २. निमिवंश का एक राजा जो सुकेतु का पुत्र था । ३. शुनः- शेप का एक नाम जो विश्वामित्र के यहाँ जाने पर पडा़ था । उ०—शुनःशेप का दूसरा नाम देवरात कहा जाता है ।—प्रा० भा० प०, पृ० २५३ । ४. याज्ञवल्य ऋषि के पिता का नाम । ५. एक प्रकार का सारस ।

देवरानी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० देवर] देवर की स्त्री । पति के छोटे भाई की स्त्री ।

देवरानी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० देव + रानी] देवराज इंद्र की रानी, शची । इंद्राणी । उ०—देवराजा लिए देवरानी मनो पुत्र संयुक्त भूलोक में सोहिए ।—केशव (शब्द०) ।

देवराय पु
संज्ञा पुं० [सं० देवराज] दे० 'देवराज' ।

देवरि पु
संज्ञा पुं० [सं०] असुर । दैत्य [को०] ।

देवरिधि पु
संज्ञा पुं० [सं० देवर्षि] दे० 'देवर्षि' । उ०—होइ न मृषा देवरिषि भाखा । उमा सो बचनु हृदय धरि राखा ।— मानस, १ ।६८ ।

देवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० देवरा] छोटी मोटी देवी ।

देवर्द्धि
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के एक प्रसिद्ध स्थविर का नाम जिन्होंने जैन सिद्धांत लिपिबद्ध किया था ।

देवर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं में ऋषि । २. नारद ऋषि का नाम (को०) । विशेष—नारद, अत्रि, मरीचि, भरद्वाज, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु इत्यादि ऋषि देवर्षि माने जाते हैं ।

देवल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो देवताओं की पूजा करके जीविका- निर्वाह करे । पुजारी । पंडा । विशेष—देवल ब्राह्मण पतित माना जाता है । हव्य, कव्य, श्राद्ध आदि में ऐसे ब्राह्मणों का निषेध है । २. धार्मिक पुरुष । ३. देवर । ४. नारद मुनि । ५. धर्मशास्त्र के वक्ता एक मुनि जो असित के पुत्र और वेदव्यास के शिष्य माने जाते हैं । ६. एक स्मृतिकार ।

देवल (२)
संज्ञा पुं० [सं० देवालय] देवालय । देवमंदिर । उ०—रूप अपूरब पेखीयई, इसी अस्त्री नहीं सयल संसार । ईसीय न देवल पुत्तली, जइ घरि आवी भोज कुँवार ।—बी० रासो०, पृ० २८ ।

देवल (३)
संज्ञा पुं० [सं० देव?] एक प्रकार का चावल । उ०— धनिया देवल और अजाना । कहँ लगि बरनत जावौ धाना ।—जायसी (शब्द०) ।

देवलक
संज्ञा पुं० [सं०] देवल । पुजारी ब्राह्मण । पंडा ।

देवलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवमल्लिका । नेवारी ।

देवलांगुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० देवलाङ्गुलिका] वृश्चिकाली ।

देवला †
संज्ञा पुं० [हिं० दिवा, दिवला ] [स्त्री० अल्पा० देवली] छोटा दीया ।

देवली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'दिउली' ।

देवलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । देवताओं का लोक । उ०—देव- लोक इंद्रलोक विधिलोक शिवलोक, बैकुंठ के सुखलौं गणिता- नंद गायौ है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६२२ । २. भूः, भुबः आदि सात लोक । विशेष—मत्स्यपुराण में भू, भुव, इत्यादि सातों लोक देवलोक कहे गए हैं ।

देववक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] (देवताओं का मुँह) अग्नि । विशेष—देवताओं के निमित्त हव्य, कव्य आदि का अग्नि में हवन होता है, इस कारण यह नाम पडा़ ।

देववती
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रामणी नामक गंधर्व की कन्या जो सुकेश राक्षस की पत्नी और माल्यवान्, सुमाली और माली की माता थी ।

देववधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवता की स्त्री । २. देवी । अप्सरा ।

देववार्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित भरद्वाज मुनि की कन्या जो विश्रवा मुनि की पत्नी और कुवेर की माता थी ।

देववर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० देववर्त्मन्] आकाश ।

देववर्द्धकि
संज्ञा पुं० [सं०] राजा देवक के एक पुत्र का नाम । देवकी के एक भाई और श्रीकृष्ण के मामा (भागवत) ।

देववर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक/?/श्रीक—ष्ण का मामा/?/(भागवत) ।

देववला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेवी । सहदेई नाम की बूटी ।

देववल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं की प्रिय । २. सुरपन्नाग वृक्ष । ३. केसर ।—अनेकार्थ (शब्द०) ।

देववाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संस्कृत भाषा । २. आकाशवाणी । किसी अदृश्य देवता का वचन जो अंतरिक्ष में सुनाई पड़े । उ०—दाँव बलराम को देखि उन छल कियो रुक्म जीत्यो कहन लगे सारे । देववाणी भई जीत भई राम की ताहु पै मूढ़ नाहीं । सँभारे ।—सूर (शब्द०) ।

देववात
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम ।

देववाद
संज्ञा पुं० [सं० देव + वाद] वह वाद या मत जिसके अनुसार प्राकृतिक दृश्यों और वस्तुओं में देवत्व की कल्पना की जाती हैं । उ०—प्राचीन आर्य काव्य में—क्या भारत के क्या योरप के—रहस्यवाद का नाम तक नहीं, सीधा देववाद है ।—चितामणि, भा० २, पृ० १३८ ।

देववायु
संज्ञा पुं० [सं०] बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम ।

देववाहन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि (जो देवताओं का द्वव्य ले जाकर पहुँचाते हैं) ।

देवविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं की विद्या । २. निरुक्त [को०] ।

देवविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता का अंश । देवांश । २. उत्तर दिशा । उदीची (को०) ।

देवविसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] देने योग्य किसी वस्तु को दें देना (को०) ।

देवविहाग
संज्ञा पुं० [सं० देवविभाग] एक राग जो कल्याण और विहाग अथवा सारंग और पूरबी के योग से बना है । यह संपूर्ण जाति का है ।

देववृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंदार वृक्ष । २. गूगल । ३. सतिवन ।

देवव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीष्म पितामह का नाम । २. एक प्रकार का सामगान । ३. देवताओं का प्रिय भोजन । ४. कार्तिकेय । स्कंद (को०) ।

देवशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] असुर । राक्षम ।

देवशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर राग जो शंकराभरण, कान्हडा़ और मल्हार से मिलकर बना है । इसमें गांधार कोमल लगता है । इसका गानसमय १७ दंड से २० दंड तक है ।

देवशिल्पी
संज्ञा पुं० [सं० देवशिल्विन्] विश्वकर्मा ।

देवशुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवलोक की कुतिया, सरमा । विशेष—इस देवशुनी की कथा महाभारत में इस प्रकार लिखी हे,—राजा जनमेजय कोई बडा़ यज्ञ कर रहे थे । इसी बीच एक कुत्ता वहाँ आया । जनमेजय के भाइयों ने उसे मारकर भगा दिया । उस कुत्ते ने अपनी माता सरमा से जाकर कहा— 'मैंने कोई अपराध नहीं किया था, यज्ञ की कोई सामग्री नहीं छुई थी, इसपर भी बिना अपराध के लोगों ने मुझे मारा' । देवशुनी सरमा यह सुनकर जनमेजय के पास जाकर बोली— 'मेरे इस पुत्र ने कोई अपराध नहीं किया था । तुम्हारा घी आदि कुछ भी नहीं चाटा था । तुमने मेरे इस पुत्र को बिना अपराध के मारा, इससे तुम्हारे ऊपर अकस्मात् कोई दुःख पडे़गा' । यह शाप देकर देवशुनी चली गई । विशेष— दे० 'सरमा' ।

देवशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] दमनक । दौने का पौधा ।

देवशेष
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में देवताओं का अंश निकालने से बचा हुआ भाग [को०] ।

देवश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० देवश्रवस्] १. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम । २. वसुदेव के भाई ।

देवश्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी ।

देवश्री (२)
संज्ञा पुं० यज्ञ [को०] ।

देवश्रुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. विष्णु (को०) । ३. नारद । ४. शास्त्र । ५. शुक्राचार्य के एक पुत्र का नाम । ६. अवसर्पिणी के एक जिन का नाम ।

देवश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं की पंक्ति । २. मूर्वा । मरोरफली । मुर्रा ।

देवश्रेष्ठ
वि० [सं०] २. देवताओं में श्रेष्ठ । २. बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम ।

देवसंघ
वि० [सं० देवसन्ध] दैवी । दैविक । अमानवीय [को०] ।

देवसंसद्
संज्ञा स्त्री० [सं० देवसंसद्] दे० 'देवसभा' ।

देवस पु †
संज्ञा पुं० [सं० दिवस] दे० 'दिवस' । उ०—एक देवत कोनिउ तिथि आई । मानसरोदक चली अन्हाई ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १५८ ।

देवसखा
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकि रामायण में वर्णित उत्तर दिशा का एक पर्वत ।

देवसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ का नाम ।

देवसद
संज्ञा पुं० [सं०] देवस्थान ।

देवसदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का आधार । २. पीपल का वृक्ष । ३. देवालय । मंदिर । ४. स्वर्ग ।

देवसभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं का समाज । २. राजसभा । ३. सुधर्मा नामक सभा जिसे भय ने अर्जुन या युधिष्ठिर के लिये बनाया था । ४. द्यूतगृह । जूआधर (को०) ।

देवसभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता का पुजारी । देवाराधक । २. जुआ खेलनेवाला व्यक्ति । जुआडी़ । ३. वह व्यक्ति जो जुआ खिलाता हो । जूआ खिलानेवाला [को०] ।

देवसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] सुधर्मा नाम की सभा ।

देवसरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा । नदी । उ०—उतरि देवसरि दूसर वासू । रामसखा सब कीन्ह सुपासू ।-मानस, २ ।३२१ ।

देवसरित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'देवसरि' [को०] ।

देवसर्पप
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सरसों ।

देवसहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद फूल का दंडोत्पल ।

देवसाक
संज्ञा पुं० [सं० देवशाक] दे० 'देवशाक' ।

देवसायुज्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवता में लीन हो जाना । देवस्वरूप प्राप्त करना [को०] ।

देवसार
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रताल के छह भेदों में से एक ।

देवसावर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] तेरहवें मनु का नाम (भागवत) ।

देवसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

देवसृष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा । मद्य ।

देवसेक पु †
क्रि० वि० [सं० दिवस + एक] एक दिन । उ०— देवसेक आइ हाथ पै मेला ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३९ ।

देवसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं की सेना । २. प्रजापति की कन्या जो सावित्री के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । इनका दूसरा नाम षष्ठी या महाषष्ठी भी है । ये मातृकाओं में श्रेष्ठ हैं और शिशुओं का पालन करनेवाली हैं । विशेष—महाभारत में कथा है कि इनको एक बार केशी दानव हार ले गया । इंद्र ने इनकी रक्षा की और स्कंद के साथ इनका विवाह करा दिया । विवाह में बृहस्पति ने होम, जप आदि किया था । ब्राह्मणों ने देवसेना को षष्ठी, लक्ष्मी, आशा, सुखप्रदा, सिनीवाली, कुहू, सदवृत्ति और अपराजिता नामों से पुकारा । जिस पंचमी तिथि को स्कंद श्रीयुक्त हुए थे, वह श्रीपंचमी कहलाई । जिस षष्ठी को स्कंद कृतकार्य हुए थे वह षष्ठी महातिथि कहलाई ।

देवसेनापति
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद ।

देवसेनाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवसेनापति [को०] ।

देवस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के रहने की जगह । २. देवालय । ३. एक ऋषि का नाम (महाभारत) । विशेष—इन्होंने पांडवों को उस समय सदुपदेश दिया था जब वे वनवास करते थे । पीछे जब युधिष्ठिर ने राज्य प्राप्त किया तब इन्होंने अनेक प्रकार के उपदेश देकर उन्हें राज्य छोड़ने से रोका था ।

देवस्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता की सेवा के लिये अर्पित किया हुआ धन । वह जायदाद जो किसी देवता की पूजा आदि के लिये अलग निकाल दी जाय । २. यज्ञशील मनुष्य का धन (मनुस्मृति) । विशेष—जो इस धन को लोभ से हरता है वह परलोक में गीध का जूठा खाकर जीता है ।

देवहंस
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बत्तख ।

देवहर
संज्ञा पुं० [सं० देवगृह] देवमंदिर । देवालय । उ०—देवहर पूजत समय सिरानी, कोऊ संग न जाती ।—गुलाल०, पृ० ६ ।

देवहरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० देव + घर] देवालय । मंदिर ।— उ०—पलटू तन करु देवहरा मन करु सालिगराम ।—पलटू०, पृ० ९५ ।

देवहरिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव ।

देवहवि
संज्ञा स्त्री० [सं० देवहविस्] देवता के निमित्त यज्ञ का पशु [को०] ।

देवहा †
संज्ञा स्त्री० [सं० देववहा या देविका] सरयू नदी ।

देवहू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं का आह्वान । २. अनाज से भरी गाडी़ । ३. बायाँ कान (भागवत) । ४. एक ऋषि का नाम ।

देवहूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं का आवाहन (को०) । २. स्वायंभुव मनु की तीन कन्याजों में से एक जो कर्दम मुनि को ब्याही थी । उ०—देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ।—मानस, १ ।१४२ । विशेष—भागवत में इनके संबंध में लिखा है कि महर्षि कर्दम ने इनकी सेवा से प्रसन्न हेकर इन्हें दिव्य ज्ञान दिया । इनके गर्भ से नौ कन्याएँ और एक पुत्र हुआ । सांख्यशास्त्र के कर्ता कपिल इन्हीं के पुत्र हैं ।

देवहेडन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता के प्रति किया गया अपराध [को०] ।

देवहेति
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवास्त्र ।

देवहृद्
संज्ञा पुं० [सं०] श्री पर्वत पर एक सरोवर जिसमें स्नान करने से यज्ञ का फल होता है । (महाभारत) ।

देवांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० देवाङ्गना] १. देवताओं की स्त्री । स्वर्ग की स्त्री । असरी । २. अप्सरा ।

देवांतक
संज्ञा पुं० [सं० देवान्तक] एक राक्षम जो रावण का पुत्र था और जिसे हनुमान ने राम-रावण-युद्ध में मारा था ।

देवांधस
संज्ञा पुं० [सं० देवान्धस्] १. अमृत । २. देवता के नैवेद्य का अन्न ।

देवांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता का भाग । २. ईश्वर का अंशभूत । परमात्मा का अंशावतार [को०] ।

देवा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पद्यचारिणी लता । २. पटसन ।

देवा † (२)
वि० [हिं० देना] देनेवाला । जैसे, पानीदेवा । † २. देनदार । ऋणी ।

देवाक्रोड़
संज्ञा पुं० [सं० देवाक्रीड] देवताओं का उद्यान । इंद्र का बगीचा ।

देवागार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवभवन' [को०] ।

देवाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं की पूजा करनेवाला । पुजारी । पंडा ।

देवाजीवी
वि० [सं० देवाजीविन्] दे० 'देवाजीव' [को०] ।

देवाट
संज्ञा पुं० [सं०] हरिहर क्षेत्र नामक तीर्थ (वाराहपुराण) ।

देवातन
संज्ञा पुं० [सं० देवायतन] देवालय । मंदिर । उ०— देव कौ देवातन गयौ तो कहा भयौ बीर । पीतरि की मोल सुतौ नाहिं कछु गयौ है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ४९९ ।

देवातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुवंशी एक राजा का नाम (भागवत) ।

देवातिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. दे० 'देवाधिदेव' ।

देवात्मा
संज्ञा पुं० [देवात्मन्] १. देवस्वरूप । २.अश्वत्थ । पीपल ।

देवाधिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । सर्वश्रेष्ट देवता । २. शिव जी । ३. विष्णु । ४. बुद्ध [को०] ।

देवाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के अधिपति । २. परमेश्वर । ३. इंद्र ।

देवान पु
संज्ञा पुं० [फा़० दीवान] १. दरबार । कचहरी । राज- सभा । उ०—मारे बागवान ते पुकारत देवान गे उचारे । बाग अंगद देखाए घाय तन मैं ।—तुलसी (शब्द०) । २. अमात्य । मंत्री । वजीर । ३. प्रबंधकर्ता ।

देवानांप्रिय
संज्ञा पुं० [सं० देवानाम्प्रिय] १. देवताओं को प्रिय । २. बकरा । ३. मूर्ख ।

देवाना (१)
वि० [फा़० दीवानहू] दे० 'दीवाना' ।

देवाना (२)
संज्ञा पुं० एक चिड़िया ।

देवानीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं की सेना । २. तीसरे मनु सावर्णि के एक पुत्र का नाम । ३. सगर के वंश का एक राजा ।

देवानुग
संज्ञा पुं० [सं० देव + अनुग] १. देवता का उपासक । २. दे० 'देवानुचर' [को०] ।

देवानुचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के साथ चलनेवाले विद्याधर आदि उपदेव । २. दे० 'देवानुग' ।

देवानुयायी
संज्ञा [सं० देवानुयायिन्] दे० 'देवानुग' [को०] ।

देवान्न
संज्ञा पुं० [सं०] हवि । चरु ।

देवापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवाताओं भी नदी, गंगा [को०] ।

देवापि
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम । विशेष—इस राजा के संबंध में वैदिक कथा इस प्रकार है । ऋषिथेण राजा के दो पुत्र थे—देवापि और शांतनु । दोनों में देवापि बडे़ थे पर राज्य शांतनु को मिला और देवापि तपस्या में लगे । शांतनु के राज्य में १२ वर्ष की अनावृष्टि हुई । ब्राह्मणों ने कहा कि तुम जेठे भाई के रहते राजसिंहासन पर बैठे हो इससे देवता लोग रुष्ट होकर पानी नहीं बरसाते हैं । इसपर शांतनु ने देवापि को सिंहासन पर बैठाया । देवापि ने शांतनु से कहा कि तुम यज्ञ करो, हम तुम्हारे पुरोहित होंगे । देवापि ने यज्ञ कराया जिससे खूब पानी बरसा । (निरुक्त २ ।१०) । महाभारत के अनुसार देवापि, पुरुवंशी राजा प्रतीप के पुत्र थे । महाराज प्रतीप के तीन पुत्र थे—देवापि शांतनु और वाह्लीक । इनमें देवापि अत्यंत धर्मात्मा थे । इन्होंने तपोबल से ब्राह्मणत्व लाभ किया । थे वाल्यावस्था से ही संसारत्यागी हो गए थे । ये अबतक सुमेरु पर्वत पर कलापग्राम में योगी के रूप में हैं । कलियुग समाप्त होने पर सत्ययुग में ये चंद्रवंश स्थापित करेगे ।

देवाब
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लेई जो धौंमर, गोंद, चूना, बीझन और पानी मिलाकर बनाई जाती है ।

देवाभियोग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी ऐसे देवता का शरीर में प्रवेश जो अनुचित कर्म करावे । (जैन) ।

देवाभीष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान ।

देवायतन
संज्ञा पुं० [सं०] देवमंदिर । देवालय । [को०] ।

देवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०देवायुस्] देवताओं की आयु । देवताओं का जीवनकाल जो बहुत अधिक होता है ।

देवायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का अस्त्र । २. इंद्रधनुष ।

देवार (१) †
संज्ञा पुं० [सं० फा़० दयार या हिं० + वारि?] दे० 'दियारा' । जैसे,—इसका कछारा जिसको बोली में देवार कहते हैं बहुत विस्तृत और चौडा़ होता है ।

देवार पु † (२)
वि० [देश०] देनेवाला । देवाला । जैसे, दंड देवार ।

देवारण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का वन या उपवन । २. एक तीर्थ का नाम (महाभारत) ।

देवाराधन
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं की पूजा ।

देवारि
संज्ञा पुं० [सं०] असुर ।

देवारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० दीपावली] दे० 'दीवाली' । उ०—अबहूँ निठुर आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ।—जायसी (शब्द०) ।

देवार्चन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवाराधन' ।

देवार्चना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'देवाराधन' ।

देवार्पण
संज्ञा पुं० [सं०] देवता के निमित्त किसी पस्तु का दान ।

देवार्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक अर्हत के एक गण का नाम (जैन) ।

देवार्ह
संज्ञा पुं० [सं०] सुरपर्ण । माचीपत्र ।

देवाल † (१)
वि० [हिं० देना] देनेवाला । दाता ।

देवाल (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० दीवार] दे० 'दीवार' । उ०—पलटू देवाल कहकहा मत कोउ झाँकन जाय ।—पलटू०, पृ० ३ ।

देवालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । २. वह घर जिसमें किसी देवता की मूर्ति रखी जाय । मंदिर ।

देवाला (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दिवाला' ।

देवाला (२)
संज्ञा पुं० [सं० देवालय] दे० 'देवालय' ।

देवालिया †
वि० [हिं० दिवाला] दे० 'देवालिया' । उ०—ए वाजै देवालिया ऊँधा ताला मार ।—बाँकी० ग्रं०, भा०, २, पृ० ६६ ।

देवाली
संज्ञा स्त्री० [सं० दीवाली] दे० 'दिवाली' ।

देवालेई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० देना + लेना] देने और लेने का काम । लेनदेन ।

देवावसथ
संज्ञा पुं० [सं०] देवालय [को०] ।

देवावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल का पेड़ । २.स्वर्ग । ३. देवता का मंदिर ।

देवावृध
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत (हरिवंश) ।

देवावृध
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम (हरिवंश) ।

देवाश्र्व
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चैःश्रवा । इंद्र का घोडा़ ।

देवासुर
संज्ञा पुं० [सं०] देवता और दैत्य । उ०—सृष्टि के आरंभ ही से देवता और दैत्यों कै साथ ही उत्पत्ति का प्रमाण पाते और देवासुर संग्राम की कथा सुनाते हैं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २३९ ।

देवाहार
संज्ञा पुं० [सं०] अमृत ।

देवाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम ।

देविक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० देविकी] १. देवता संबंधी । देवता का । २. दिव्य । स्वर्गिक । ३. धर्मप्राण [को०] ।

देविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] घाघरा नदी, जिसमें मिलने के कारण सरजू को लोग देवहा कहते हैं । एक नीद का नाम जिसमें कालिकापुराण के मत से सरजू मिली है । विशेष—पद्यपुराण के मत से यह आधा योजन चौडी़ और पाँच योजन लंबी है । मत्स्यपुराण के मत से यह नदी हिमालय के पाददेश से निकली है ।

देविता
संज्ञा पुं० [सं० देवितृ] द्यूतक्रीड़क । जुआरी [को०] ।

देविल
वि० [सं०] दे० 'देविक' ।

देवी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवता की स्त्री । देवपत्नी । २. दुर्गा । ३. वह रानी जिसका राजा के साथ विवाह हुआ हो । पटरानी । ४. ब्राह्मण स्त्रियों की एक उपाधि । ५. दिव्य गुणवाली स्त्री । सुशीला और सदाचारिणी स्त्री (आदरसूचक) । ६. मूर्वा । मरोरफली । मुर्रा । ७. पृक्का नाम की सुगंधित धास । असवरन । ८. आदित्यभक्ता । हुलहुल । हुरहुर । ९. लिंगिनी लता । पँचगुरिया । १०. बन ककोडा़ । बाँझ खखसा । ११. शालपर्णी । सरिवन । १२. महाद्रोणी । बडा़ गूमा । १३. पाठा । १४. नागरमोथा । १५. सफेद इंद्रायन । १६. हरीतकी । हड़ हरे । १७. अलसी । तीसी । १८. श्यामा पक्षी । उ०—(क) अहि सुरंग मनि दुत्ति देवि मंडै तंडव गति । बालमीक बिल अग्र इक्क फनि कुटिल क्रोध भरि ।—पृ० रा०, १७ ।३० । (ख) इतें देवि उड़ि बैठि अँब, चंचु गिराइय साग । दौरि महर तब हथ्थ किय, लै नरिंद तुअ भाग ।—पृ० रा० (उ०), पृ० २०५ । १९. रवि सक्रांति जो बडी़ पुण्यजनक समझी जाती है । २०. सरस्वती का नाम (को०) । २१. सावित्री का एक नाम (को०) ।

देवी (२)
संज्ञा पुं० [सं० देविन्] जुआडी़ । वह जो द्यूत खेलता हो [को०] ।

देवी (३)
संज्ञा स्त्री० [अं० डेविट्स] १. लकडी़ का एक मजबूत चौखटा, जिसमें दो खडे़ खंभों के ऊपर आडा़ बल्ला लगा रहता है । यह मस्तूल आदि के सहारे के लिये होता है । २. जहाज के किनारे पर लकडी़ या लोहे को दो चोंच की तरह बाहर की ओर झुके हुए खंभे जिसमें धिरनियाँ लगी होती है । इन धिरनियों पर पडे़ हुए रस्सों के द्वारा किश्तियाँ जहाज पर चढा़ई या जहाज से नीचे उतारी जाती हैं (लश०) ।

देवीकोट
संज्ञा पुं० [सं०] बाणासुर की राजधानी शोणितपुर का दूसरा नाम ।

देवीगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवी दुर्गा का मंदिर । देवीमंदिर । २. पट्टमहिषी का भवन [को०] ।

देवीपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपपुराण, जिसमें देवी का माहात्म्य आदि वर्णित है ।

देवीबीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देवीवीर्य' ।

देवीभागवत
संज्ञा पुं० [सं०] एक पुराण जिसकी गणना बहुत से लोग उपपुराणों में और कुछ लोग पुराणों में करते हैं । विशेष—श्री मदभागवत के समान इस पुराण में भी बारह स्कंध और १८०००श्लोक हैं । अतः इसका निर्णय कठिन है कि कौन पुराण है और कौन उपुपराण । पुराणों में एक दूसरे का विषय, श्लोक संख्या आदि दी हुई है जिसके अनुसार पुराणों की प्रामाणिकता का प्रायः निर्णय किया जाता है । मत्स्यपुराण में लिखा है कि 'जिस ग्रंथ मेंगायत्री का अवलंवन करके पर्मतत्व का सविस्तर वर्णन है और वृत्रासुर के वध का पूरा वृतांत हो, जिसमें सारस्वत कल्प के बीच नरों और देवताओं की कथा हो - - - और १८००० श्लोक हों, वही भागवत पुराण है । शैव पुराण के उत्तर खंड में लिखा है कि जिसमें भगवती दुर्गा का चरित्र हो वह भागवत है, देवी पुराण नहीं' । इसी प्रकार की ध्यवस्था कालिका नामक उपपुराण में भी दी है । यह तौ शैव और शाक्त पुराणों का साक्ष्य हुआ । अब वैष्णव पुराणों की व्यवस्था सुनिए । पद्यपुराण में लिखा है कि सब पुराणों में श्रीमद्भागवत श्रेष्ठ है, जिसमें प्रति पद में ऋषियों द्वारा कहा हुआ कृष्ण का महात्म्य है । इस कथा को परीक्षित की सभा में बैठकर शुकदेव जी ने कहा था' । नारद पुराण में भागवत उसको कहा गया है, जिसके दशम स्कंध में कृष्ण का बाल और कौमारचरित्, ब्रज में स्थिति, किशोरवस्था में मथुरावास, यौवन में द्वारकावास और भूभारहरण आदि विषय हों । देवी भागवत में प्रथम ही त्रिपदा गायत्री है किंतु विष्णु भागवत में नहीं, उसमें केवल 'धीमहि' इतना ही पद आया है । वृत्रासुर के वध की कथा दोनों में है । पर मत्स्यपुराण में बतलाया हुआ सारस्वतकल्प प्रसंग विष्णुभागवत में नहीं है, उसमें पाद्यकल्पप्रसंग है । मत्स्यपुराण में जो लक्षण दिया हुआ हैं उसमें सांप्रदायिक भाव की गंध नहीं जान पड़ती । शैव और वैष्णव विद्वानों में इन दोनों पुराणों के विषय में बहुत दिनों तक झगडा़ चलता रहा । दुर्जनमुखचपोटिका, दुर्जनमुखमहाचपेटिका, दुर्जनमुखपदपद्यपादुका आदि कई ग्रंथ इस विवाद में लिखे गए । बात यह है कि ये दोनों पुराण सांप्रदायिक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं । ऐसा जान पड़ता है कि भागवत नाम का कोई प्राचीन पुराण था, जो लुप्त हो गया था । बौद्ध धर्म के उपरांत हिंदूधर्म की जब फिर नए रूप में स्थापना हुई और शैवों वैष्णवों की प्रबलता हुई तब पुराणों में दिए गए लक्षण के अनुसार वैष्णव पंडितों ने श्रीमदभागवत की और शैव पडितों ने देवी भागवत की रचना की । रचना के विचार से यदि देखा जाय तो देवी भागवत की शैली अधिक अनुकूल और भागवत की शैली पांडित्यपूर्ण काव्य की शैली को लिए हुए है । जिस प्रकार श्रीमदभागवत में दार्शनिक भावों की प्रधानता है उसी प्रकार देवी भागवत में तांत्रिक भावों की है । इसमें देवी के गिरिजा, काली, भद्रकाली, महामाया आदि रुपों की उपासना की गई है । पार्वती के पीठस्थानों का वर्णन है । भैरव और वैताल विधि की उत्पत्ति, और उनकी पूजा की विधि बतलाई गई है । यहाँ तक की इसमें आसाम देंश के कामरूप देश और कामाक्षी देवी का बडे़ विस्तार के साथ वर्णन है । अस्तु, अपने वर्तमान रूप में देवी भागवत ईसा की ९ वी० और ११ वी शताब्दी के बीच बना होगा ।

देवीभोया †
संज्ञा पुं० [हिं० देवी + भोयना(= भुलाना)] देवी़ को माननेवाला । ओझा । सोखा ।

देवीवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक ।

देवीसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋग्वेद शाकल संहिता का एक सूक्त जिसका देवता देवी है । २. मार्कंडेय पुराणांतर्गत दुर्गा सप्तशती का एक सूक्त या स्तोत्र ।

देवेंद्र
वि० [सं० देवेन्द्र] देवताओं का राजा, इंद्र ।

देवेज्य
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति । देवगुरु [को०] ।

देवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का राजा, इंद्र । २. परमेश्वर । ३. महादेव । ४. विष्णु ।

देवेशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर । २. विष्णु ।

देवेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती । २. देवी ।

देवेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] देवेश । इंद्र ।

देवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं को प्रिय । २. गुग्गुल । महामेद ।

देवष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बडा़ बिजौरा ।

देवै पु
संज्ञा स्त्री० [सं० देवकी] दे० 'देवकी' । उ०—देवै कूख न औतरि आवा । ना जसवै ले गोद खिलावा ।—कबीर ग्रं०, पृ० २४३ ।

देवैया †
संज्ञा पुं० [हिं० देना] देनेवाला ।

देवोत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] वह संपत्ति जो किसी देवता के नाम अलग निकाल दी गई हो । देवता को अर्पित किया हुआ धन ।

देवोत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का शेष की शैया पर से उठना जो कार्तिक शुक्ला एकादशी को होता है ।

देवोद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के बगीचे जो चार हैं—नंदन, चैत्ररथ, वैभ्राज और सर्वतोभद्र । त्रिकांडशेष के अनुसार चार बगीचों के नाम ये हैं—वैभ्राज, चैत्ररथ, मिश्रक और सिध्रकारण ।

देवोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकरा का उन्माद । विशेष—देवोन्माद में रोगी पवित्र रहता है, सुगंधित फूलों की माला पहनता है, आँखें बंद नहीं करता और संस्कृत बोलता है । यह देवता के कोप से होता है । सुश्रुत में अमानुष प्रतिषेध के अंतर्गत इसका उल्लेख है ।

देवौकस्
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का स्थान । सुमेरु पर्वत ।

देव्युन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उन्माद या रोग । विशेष—इस उन्माद में रोगी को पक्षापात होता है, शरीर सूख जाता है, मुँह और हाथ पाँव टेढे हो जाते हैं तथा स्मरण शक्ति जाती रहती है । कहीं कहीं इसे विलासनी देवी या मावल्या भी कहते हैं ।

देश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विस्तार । जिसके भीतर सब कुछ है । दिक् । स्थान । विशेष—न्याय या वैशेपिक के अनुसार जिसके आगे पीछे, ऊपर नीचे उत्तर दक्षिण आदि का प्रत्यय होता है वह देश या दिग्दव्य है । काल के समान संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग देश के भी गुण हैं । देश के विभु और एक होने पर भी उपाधिभेद से उत्तर दक्षिण, आगे पीछे आदि भेट मान लिए गए हैं । देश संबंधा 'पूर्व' और 'पर'का विपर्यय हो सकता है, पर काल संबंधी पूर्वापर का नहीं । पश्चिमी दार्शनिकों में काँट आदि ने देश (और काल) को मन से बाहर की कोई वस्तु नहीं माना हैं, अंतःकरण का आरोप मात्र कहा है जो वस्तु संबंध ग्रहण के लिये वह अपनी ओर से करता है । दे० 'काल' । यौ०—देशकाल । २.पृथ्वी का वह विभाग जिसका कोई अलग नाम हो, जिसके अंतर्गत कई प्रांत, नगर, ग्राम आदि हों तथा जिसमें अधिकांश एक जाति के और एक भाषा बोलनेवाले लोग रहते हैं । जनपद । विशेष—देश तीन प्रकार के होते हैं—जांगल्य, अनूप और साधारण । तीन प्रकार के और देश माने गए हैं—देवमातृक (जिसमें वर्षा ही के जल से खेती आदि के सारे कार्य हों), नदीमातृक और उभयमातृक । ३. वह भूभाग जो एक ही राजा या शासक के अधीन अथवा एक शासनपद्धति के अंतर्गत हो । राष्ट्र । ४. स्थान । जगह । ५. शरीर का कोई भाग । अंग । जैसे, स्कंध देश, कटि देश । ६. एक राग जो किसी के मत से संपुर्ण जाति का और किसी के मत से षाड़व (ऋवर्जित) हैं । ७. जैनशास्त्रानुसार चौथा पंचक जिसक द्वारा अर्थानुसंधानपूर्वक तपस्या अर्थात् गुरु०, जन, गुहा, स्मशान और रुद्र की वृद्धि होती है ।

देशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपदेश करनेवाला । उपदेशक । उपदेष्टा । २. शासन करनेवाला । शास्ता (को०) । ३. शिक्षक । शिक्षा देनेवाला (को०) । ४. निर्देशक (को०) ।

देशकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसमे गांधार कोमल और बाकी सब स्वर शुद्ध लगते हैं ।

देशकार
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जो सबेरे एक दंड सै पाँच दंड दिन चढे़ तक गाया जाता है । विशेष—यह राग परज, सोरठ और सरस्वती को मिलाने से बनता है । यह दीपक राग का पुत्र माना जाता है । इसका स्वरग्राम इस प्रकार है— स ऋ ग म प ध नि क्  + अथवा ध नि स ऋ ग म प  +

देशकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी । विशेष—हनुमत के मत से यह मेध राग की पत्नी और किसी किसी के मत से हिंदोल राग की पत्नी मानी जाती है । यह संपूर्ण जाति की है । इसका सरगम इस प्रकार है— स ऋ ग म प ध नि स  + इसके गाने का काल वर्षा ऋतु का निशांत या प्रातः काल है ।

देशगांधार
संज्ञा पुं० [सं० देशगान्धार] एक राग जो सबेरे एक दंड से पाँच दंड तक गाया जाता ।

देशचरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] देश की प्रथा । रवाज । (को०) ।

देशचारित्र
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार गार्हस्य़ धर्म । विशेष—इसके १२ भेद हैं—(१) प्राणातियात विरमण व्रत । (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत । (३)—थूल अदत्तदान विरमण व्रत । (६) दिश परिमाण व्रत । (७) भोगोपभोग विरमण व्रत । (८) अनर्थ दँड विरमण व्रत । (९) सामायिक व्रत । (१०) दिशावकाशिक व्रत । (११) पौषधोपवास व्रत । (१२) अतिथि संदिभाग व्रत ।

देशज (१)
वि० [सं०] देश में उत्पन्न ।

देशज (२)
संज्ञा पुं० शब्द के तीन विभागों में से एक । वह शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश, बल्कि किसा प्रदेश में लोगों की बोलचाल से यों ही उत्पन्न हो गया हो ।

देशज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] देश का हाल जाननेवाला । देश की दशा, रीति, नीति आदि जाननेवाला ।

देशदूषण
वि० [सं०] देश का कलंक रूप । जिससे देश दूषित हो । उ०—जो लेखक...... देश जाति के हिताहित का ध्यान नहीं रखते या परखते वे.......देशदूषण ही ठहरते हैं ।—रस क०, पृ० ६ ।

देशद्रोही
वि० [सं० देश + द्रोहिन्] देश के साथ विश्वासधात करनेवाला । उ०—उधर विभीषण ने रावण को पुनः प्रेमवश समझाया । पर उस साधु पुरुष ने उलटा देशद्रोही पद पाया—साकेत, पृ० ३९० ।

देशधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] देश की रीति नाति, आचार व्यवहार । देश का आचार व्यवहार । विशेष—मनु का मत है कि राजा देश के धर्म का आदर करे और उसी के अनुसार शासन करे ।

देशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपदेश (जैन) ।

देशानिकाला
संज्ञा पुं० [हिं० देश + निकालना] देश से निकाल दिए जाने का दंड । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—होना ।

देशपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] देशकारी रागिनी का दूसरा नाम ।

देशपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० देशपीडन] प्रजा पर अत्याचार । राष्ट्र का हानि पहुँचाना (को०) ।

देशभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] देशाहित के लिये सर्वस्व निछावर कर देनेवाला व्यक्ति । वह जो व्यक्तिगत से देशहित को श्रेयस्कर समझे ।

देशभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] देश के प्रति अनुराग । देशप्रेम ।

देशभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भाषा जो किसी देश या प्रांत विशेष में ही बोली जाती हो । जैसे, बँगला, मराठी, गुजराती, इत्यादि ।

देशमल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब स्वर लगते हैं ।

देशमुख
संज्ञा पुं० [सं०] देश का मुख्य या प्रधान । अगुआ । पथ- प्रदर्शक । उ०—...विरोधियों का यह कहना कि कांग्रेसकदापि देशमुख नहीं हो सकती, अनर्गल है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७२ ।

देशरक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देश को शत्रुओं से बचाना । राष्ट्र की बाहरी और भीतरी शत्रुओं से रक्षा करना । उ०—भृत्यभरण उपजाप सेना प्रचार देशरक्षा बलाबलज्ञान संचय व्यूह- रचना ।—वर्ण०, पृ० ३ ।

देशराज
संज्ञा पुं० [सं०] आल्हा ऊदल के पिता का नाम जो राजा परमाल (प्रमर्दिदेव) के सामंतों में थे ।

देशरूप
संज्ञा पुं० [सं०] देश के अनुरूप । औचित्य । मुनासिबत । उपयुक्तता [को०] ।

देशव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी देश की चाल या रस्म । देश विशेष की प्रथा या व्यवहार [को०] ।

देशस्थ (१)
वि० [सं०] देश में स्थित । देश में रहनेवाला ।

देशस्थ (२)
संज्ञा पुं० महाराष्ट्र ब्राह्मणों का एक भेद । विशेष—महाराष्ट्र ब्राह्मणों में दो भेद होते हैं—कोंकणस्थ और देशस्थ ।

देशांकी
संज्ञा स्त्री० [?] एक रागिनी । हनुमत् के मत से जिसका स्वरग्राम यों है—ग म प ध नी सा ग, अथवा ग म प ध नि सा रे ग ।

देशांतर
संज्ञा पुं० [सं० देशान्तर] १. अन्यदेश । विदेश । परदेश । २. भूगोल में ध्रुवों से होकर उत्तर दक्षिण गई हुई किसी सर्व- मान्य मध्य रेखा से पूर्व या पश्चिम की दूरी । लंबांश । विशेष—भारतवर्ष में पहले यह मध्य रेखा लँका या उज्जयिनी से सुमेरु तक मानी जाती थी । अब यह यूरप और अमेरिका के भिन्न भिन्न स्थानों से गई हुई मानी जाती है । इस मध्य रेखा से किसी स्थान की दूरी उस कोण के अंशों के हिसाब से बतलाई जाती है जो उस स्थान पर होकर गई हुई रेखा ध्रुव पर मध्य रेखा से मिलकर बनाती है ।

देशांतरित पण्य
संज्ञा पुं० [सं० देशान्तरित पण्य] देसावरी भाल । विदेशी माल । दूर देश खा माल (को०) ।

देशांतरी
वि० [सं० देशांतरिन्] परदेशी । विदेशी [को०] ।

देशांश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देशांतर' ।

देशाका
संज्ञा पुं० [सं०] एक रागिनी । इसका सरगम यह है—ग म प ध नि स +  ।

देशाखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो हनुमत् के मत से हिंदोल की दूसरी रागिनी है । यह षाड्व जाति की है । स्वर गांधार होता है । गाने का समय वसंत ऋतु का मध्याह्न है ।

देशाचार
संज्ञा पुं० [सं०] देश की चाल या देश का व्यवहार ।

देशाटन
संज्ञा पुं० [सं०] देशभ्रमण । भिन्न भिन्न देशों की यात्रा ।

देशातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी अन्य देश से आया हो । परदेशवासी । विदेशी [को०] ।

देशाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] बादशाह । सम्राट् । उ०—एक दिन बीरबल देशाधिपति सों रजा लेकर श्री गोकल में दर्शन कूं मायो ।—अकबरी०, पृ० ९३ ।

देशाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] देश का स्वामी । राजा । नृपति । उ०— जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल जाता है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११ ।

देशावकाशिक (व्रत)
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार एक शिक्षा- व्रत, जिसमें स्वार्थ के लिये सब दिशाओं में आने जाने का जो प्रतिबंध है उनको और भी संक्षिप्त और कठिन करके पालन किया जाता है ।

देशिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथिक । बटोही । २. गुरु । शिक्षक । उपदेशक (को०) । ३. निर्देशक (को०) । ४. स्थानीय व्यक्ति (को०) ।

देशिक (२)
वि० देश का । देशसंबंधी [को०] ।

देशित
वि० [सं०] १. आदेशप्राप्त । आज्ञप्त । २. उपदिष्ट । जिसे उपदेश दिया गया हो ।

देशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूची । २. तर्जनी अँगुली ।

देशी (१)
वि० [सं० देशीय] १. देश का । देश संबंधी । २. स्वदेश का । अपने देश का । ३. अपने देश में उत्पन्न या बना हुआ । जैसे, देशी चीनी, देशी माल । मुहा०—देशी कौवा मरहठी भाषा = देश का होते हुए भी विदेशी आचार विचार की नकल करना । उ०—देशी कौवा मरहठी भाषा बोल रहे हैं ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५६ ।

देशी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रागिनी । विशेष—हनुमत् के मत से यह दीपक राग की भार्या है । इसमें पंचम वर्जित है । इसके गाने का समय ग्रीष्म काल का मध्याह्न है । यह मधुमाधव, सारंग पहाडी़ और टोड़ी के योग से बनी है । २. संगीत के दो भेदों में से एक । विशेष—संगीतदर्पण में नाचने, गाने और बजाने तीनों को संगीत कहा है । संगीत दो प्रकार का है—मार्ग अर्थात् शास्त्रीय और देशी अर्थात् देशविशेष का संगीत । ३. तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंगविक्षेप अधिक और अभिनय कम होता है ।

देशीय
वि० [सं०] दे० 'देशी' ।

देशापकारक
वि० [सं०] देश का उपकार या भला करनेवाला । उ०—काँग्रेस से सब प्रकार का देशोपकारक कार्य होगा ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २३२ ।

देश्य (१)
वि० [सं०] १. दे० 'देशांतर' । २.स्थानीय । ३. देश में उत्पन्न होनेवाला [को०] ।

देश्य (२)
संज्ञा पुं० १. पूर्व पक्ष । प्रमाणित किया जानेवाला विषय । २. प्रत्यक्षदर्शी । ३. देशवासी ।

देष्णु (१)
वि० [सं०] १. उदार । २. धृष्ट । ढीठ [को०] ।

देष्णु (२)
संज्ञा पुं० रक्षक । धोबी [को०] ।

देसंतर
संज्ञा पुं० [सं० देशान्तर] दे० 'देशांतर' । उ०—तरवर छानाफल नहीं, पिरथी से बनराय । सतगुरु छाना सिख नहीं, दूर देसंतर जाय ।—दरिया० बानी, पृ० ३९ ।

देस
संज्ञा पुं० [सं० देश] दे० 'देश' ।

देशकार
संज्ञा पुं० [सं० देशकार] दे० 'देशकार' ।

देसदुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० देश+ अ० दुनिया] देश दुनियाँ । संसार । जगत् । उ०—अकेली क्यों है, जो देसदुनी का रखवाला है सो तो तेरे पास बैठा है ।—शकुंतला, पृ० ५६ ।

देसपति पु
संज्ञा पुं० [सं० देशपति] राजा । नृपति ।

देसरा †
संज्ञा पुं० [सं० देश + रा (प्रत्य०)] उ०—नहिं पावस ओहि देसरा, नहि हेवंत बसंत ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५८ ।

देसवाल
वि० [हिं० देश + वाला] स्वदेश का, दूसरे देश का नहीं (मनुष्य के लिये) । जैसे, देसवाल बनिया ।

देसवाल (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पटसन ।

देसांतर
संज्ञा पुं० [सं० देशान्तर] दे० 'देशांतर' । उ०—तीति रजनिआँ तिनि जुगे जनिआ दीठिहुक ओत देसांतर रे ।— विद्यापति०, पृ० ९८ ।

देसाधिपति
संज्ञा पुं० [सं० देशाधिपति] देश का स्वमी । राजा । उ०—पाछें देसाधिपति सों मिलि कै गोधऱा के हाकिम कौ पट्टा बढा़ई कै गोधरा में आए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १६ ।

देसावर
संज्ञा पुं० [सं० देश + अपर] अन्य देश । विदेश । परेदस । देशांतर । जैसे, देसावर का माल ।

देसावरी
वि० [हिं० देसावर + ई (प्रत्य०)] देसावर का । दूसरे देश से आया हुआ (वस्तु या माल के लिये) । जैसे, देसावरी माल ।

देसिल पु †
वि० [सं० देशीय] देशी । उ०—देसिल बयना सब जन मिट्ठा । तं तैसन जंपओ अवहट्टा ।—कीर्ति०, पृ० ६ ।

देसी
वि० [सं० देशीय] स्वदेश का । दूसरे देश का नहीं । जैसे, देसी आदमी, देसी माल ।

देहंभर
वि० [सं० देहम्भर] अपने ही शरीर का पोषण करनेवाला ।

देह (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० देही ] २. शरीर । तन । बदन । उ०— (क) नाम एकतनु हेत तेहि देह न धरी बहोरि ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) अपराध बिना ऋषि देह धरी ।—केशव (शब्द०) । (ज) है हिय रहते हुई छई नई युक्ति यह जोय । आँखिन आँखि लगी रहै देह दूबरी होय ।—बिहारी (शब्द०) । विशेष—शऱीर आरंभ काल में कुछ दिनों तक बराबर बढ़ता है इससे उसका नाम देह (दिह = वृद्धि) है । न्याय के मत से पार्थिव देह दो प्रकार की होती है योनिज और अयोनिज । जरायुज और अंडज योनिज तथा स्वेदज और उद्रिज्ज अयोनिज कहलाते हैं । शुक्र शोणित आदि की योजना से स्वतंत्र अलोकिक देह को (जैसे, नारद आदि की) भी अयोनिज कहते हैं । इसी प्रकार सांख्य आदि के मत से स्थूल और सूक्ष्म आदि भी शऱीर के भेद माने गए हैं । विशेष दे० 'शरीर' । मुहा०—देह छूटना = जीवन समाप्त होना । मृत्यु होना । देह छोड़ना = मरना ।—उ०—मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ।— तुलसी (शब्द०) । देह घरना = जन्म लेना । उ०—देह धरे कर यह फल पाई । भजहू राम सब काम बिहाई ।— तुलसी (शब्द०) । देह लेना = दे० 'देह घरना' । देह बिसारना = तन की सुधि न रखना । होश हवास न रखना । २. शरीर का कोई अंग । ३. जीवन । जिंदगी । उ०—(क) सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जन्म जहाँ तहाँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह सगाई ।—तुलसी (शब्द०) । ४. विग्रह । मूर्ति । चित्र ।

देह (२)
संज्ञा पुं० [फा़०] गाँब । खेडा़ । मौजा । जैसे, गंगा अहीर, साकिन देह... । यौ०देहकान । देहात ।

देहकर
संज्ञा पुं० [सं०] जनक । पिता [को०] ।

देहकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० देहकर्तृ] १. पिता । २. सूर्य । ३. पंच महाभूत (क्षिति, जल, अग्नि, आकाश और वायु) । ४. ईश्वर [को०] ।

देहकान
संज्ञा पुं० [फा़० देहकान] १. किसान । कृषक । २. गँवार । ग्रामीण ।

देहकानियत
संज्ञा स्त्री० [अ० देहकानियत] देहातीपन । गँवार- पन [को०] ।

देहकानी
वि० [फा़० देहकानी] गँवारू । ग्रामीण ।

देहकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. पंच महाभूत [को०] ।

देहकोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमडा़ । २. पंख । पक्ष । [को०] ।

देहज
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र । बेटा [को०] ।

देहजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्री । कन्या [को०] ।

देहत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

देहद
संज्ञा पुं० [सं०] पारा । पारद ।

देहदीप
संज्ञा पुं० [सं०] चक्षु । आँख [को०] ।

देहदसा
संज्ञा स्त्री० [सं० देह + दशा] देह की अवस्था । शरीर की दशा । शरीरस्थिति । उ०—सो यह पालने को भाव रेंडा सुनिकै देहदसा भूलि गए ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७२ ।

देहधारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आत्मा । २. शरीर को धारण करनेवाला । ३. अस्थि । हाड़ ।

देहधारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीररक्षा । जीवनरक्षा । २. जन्म । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

देहधारी
संज्ञा पुं० [सं० देहधारिन्] [स्त्री० देहधारिणी] शरीर को धारण करनेवाला । जिसे शरीर हो । शरीरी ।

देहधि
संज्ञा पुं० [सं०] पक्ष । चिड़ियों का पंख । डैना ।

देहधृक
संज्ञा पुं० [सं० देहधृज्] दे० 'देहधृज्' ।

देहधृज्
संज्ञा पुं० [सं०] (शरीर को धारण करनेवाला) वायु ।

देहपात
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु । मौत । क्रि० प्र०—होना ।

देहपुर †
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर । कायागढ़ । उ०—करत पयान जपत वह नाऊँ । लिहे न बसेर देहपुर गाऊँ ।—इंद्रा० पृ० २६ ।

देहबंध
संज्ञा पुं० [सं० देहबन्ध] शरीर का ढाँचा [को०] ।

देहभाक्
संज्ञा पुं० [सं० देहभाज्] १. शरीरधारी । २. मनुष्य [को०] ।

देहभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'देहभुज्' [को०] ।

देहभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] १. देहाभिमानी जीव । २. सूर्य ।

देहभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] जीव ।

देहयाष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीररूपी छडी़ । उ०—देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के समूचे अखंड टुकडे सो यत्नपूर्वक खोदाई कर गढी़ थी ।—वै० न०, पृ० २० ।

देहयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मरण । मृत्यु । २. भरण पोषण । पालन । ३. भोजन ।

देहर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० देवह्लद] वह नीची भूमि जो किसी नदी के किनारे हो और जहाँ नदी के बढ़ने पर पानी आ जाता हो ।

देहर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० देव + घर] दे० 'देहरा' । उ०—रहस के देहर नाद बाज्या । एहि कारण भेष जाट धारि निकस्या । जा उद्यान मान पकरि रह्या ।—रामानंद०, पृ० १६ ।

देहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० देव + घर] देवावास । देवालय । उ०— (क) नेव बिहूना देहरा, देव बिहूना देव । कबिरा तहाँ बिलंविया करै अलख की सेव ।—कबीर (शब्द०) । (ख) दरसे वा सुभ देहरौ रामौ पीर उदार ।— रा० रू०, पृ० ३०५ ।

देहरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० देह + रा (प्रत्य०)] नरशरीर । नरदेह । उ०—कोठे ऊपर दौरना सुख नींदरी न सोय । पुण्ये पाया देहरा ओछी ठोर न खोय ।—कबीर (शब्द०) ।

देहरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० देहली] दे० 'देहरी' । उ०—संगहि सखिए, सुत देहरि भइसुरे । कइसे कए बाहर होएत बाजत नेपूरे ।—विद्यापति, पृ० १५३ ।

देहरिया †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० देहली] दे० 'देहरी' । उ०—समधिन की तो अतिहि चिकनी फिसिल फिसिल सब जात । देह- रिया रँग भीनि रही जहँ प्रविसत सबै बरात ।—भारतेंदु ग्रँ०, भा० २, पृ० ३७९ ।

देहरी †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० देहली] १. द्वारा की चौखट की वह लकडी़ जो नीचे हेती है और जिसे लाँघते हुए लोग भीतर घुसते हैं । दहलीज । उ०— (क) राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर बाहिरो जो चाहसि उजियार ।—तुलसी भीतर बाहिरो जो चाहसि उजियार ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) एक पग भीतर सु एक देहरी पै धरे, एक कर कंज एक कर है किवार पर ।—पद्याकर (शब्द०) । २. दे० 'देहर' (१) ।

देहलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का तिल [को०] ।

देहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] (शरीर को पुष्टि देनेवाली) मदिरा । शऱाब ।

देहली
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वार की चौखट की वह लकडी़ जो नीचे होती है और जिसे लाँघकर लोग भीतर घुसते हैं । दहलीज ।

देहलीदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देहली पर रखा हुआ दीपक जो भीतर बाहर दोनों ओर प्रकाश फैलाता है । यौ०—देहलीदीपक न्याय = देहली पर रखे हुए दोनों ओर प्रकाश फैलानेवाले दीपक के समान दोनों ओर लगनेवाली बात । २. एक अर्थालंकार जिसमें गिसी एक मध्यस्थ शब्द का अर्थ दोनों ओर लगाया जाता है । उ०—ह्वै नरसिंह महा मनुजाद हन्यो प्रहलाद को संकट भारी । दास विभीषणौ लंक दई निज रंक सुदामा को संपत्ति भारी । द्रौपदी चीर बढा़यो जहान में पांडव के जस की उजियारी । गर्विन के खनि गर्ब बहावत दीनन के सुख श्री गिरधारी ।—(शब्द०) । विशेष—ऊपर लिखे हुए सवैए के प्रत्येक चरण में यह अलंकार है । हन्यो, दई, बढा़यो और बहावत शब्दों का अर्थ दोनों ओर लगता है । इस अलंकार का लक्षण यह है—परै एक पद बीच में दुहू दिस लागै सोय । सो है दीपक देहरी जानत हैं सब कोय ।

देहवंत (१)
वि० [सं० देहवत् का बहुव०] जिसके देह हो । जो तनुधारी हो । उ०—(क) देहवंत प्राणी जो कसकवंत होती कहूँ सोने में सुगंध के सराहिबे को को हतो ।—ठाकुर (शब्द०) । (ख) नाक नथुनी के गज मोतिन की आभा, कैधौं देहवंत प्रगटित हिये को हुलास है ।—(शब्द०) ।

देहवंत (२)
संज्ञा पुं० वह जो शरीरवान् हो । शरीरधारी व्यक्ति । प्राणी । शरीरी । उ०—संतोष सम सीतल सदा दम देहवंत न लेखिए ।—तुलसी (शब्द०) ।

देहवान् (१)
वि० [सं०] शऱीरधारी ।

देहवान् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीरधारी व्यक्ति । देही । २. सजीव प्राणी ।

देहशंकु
संज्ञा पुं [सं० देहशङ्कु] पत्थर का खंभा ।

देहशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर को शुद्ध करने की प्रक्रिया । देहशुद्धि । उ०—मलसंचय को मुखवास द्वारा ऊपर को अथवा गुद द्वारा नीचे को निकाल दे, तिसको देहशोधन कहते हैं ।—शार्ङ्गधर सं०, पृ० ३७ ।

देहसंचारिणी
संज्ञा संज्ञा [सं० देहसञ्चारिणी] कन्या । लड़की ।

देहसार
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा धातु ।

देहांत
संज्ञा पुं० [सं० देहान्त] मृत्यु । मरण । मौत । क्रि० प्र०—होना ।

देहांतर
संज्ञा पुं० [सं० देहान्तर] १. दूसरा शरीर । २. दूसरे शरीर की प्राप्ति । जन्मांतर । उ०—बहुरयौ ताहि रोहिनी जने ।देहांतर बिनु कैसें बने ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१९ । ३. मृत्यु । मरण । यौ०—देहांतरप्राप्ति = मृत्यु के अनंतर आत्मा का दूसरे शरीर को प्राप्त करना ।

देहात
संज्ञा स्त्री० [फा़०] [वि० देहाती] गाँव । गँवई । ग्राम ।

देहाती
वि० [फा़० देहात] १. गाँव का । गाँव में होनेवाला । जैसे, देहाती चीज । २. गाँव में रहनेवाला । ग्रामीण । ३. गँवार ।

देहातीपन
संज्ञा पुं० [हिं० देहाती +पन] देहाती होने का भाव । ग्रामीण होने का भाव । गँवारपन ।

देहातीत
वि० [सं०] १. जो शरीर से परे हो । जो देह से परे हो । जो देह से स्वतंत्र हो । २. जिसे देहाभिमान न हो । जिसे शरीर की ममता न हो ।

देहात्मवाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक दार्शनिक सिद्धांत । चार्वाक मत [को०] ।

दहात्मवादी
संज्ञा पुं० [सं० देहात्मवादिन्] वह जो शरीर के अतिरिक्त आत्मा को न माने शरीर ही को आत्मा माने, जैसा चार्वाक मानता है ।

देहाध्यास
संज्ञा पुं० [सं०] देहधर्म को ही आत्मा समझने का भ्रम । देह या शरीर का मिथ्या ज्ञान । उ०—देहाध्यास इनको व्यापी नाहीं ।—दो सौ बाबन०, भा० १, पृ० ४५ ।

देहानुसंधान
संज्ञा पुं० [सं० देहानुसन्धान] शरीर की सुध बुध । उ०—सो देहानुसंधान न रह्यो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३३ ।

देहावरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवच । जिरह बख्तर । २. शरीर रूपी आवरण । ३. अँगरखा । वस्त्र [को०] ।

देहावसान
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु । देहांत । शरीरांत । उ०— देहावसान सबसे अधिक निश्चित एक भीषण तथ्य है ।— चिंतामणि, भा० २, पृ० ६९ ।

देहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कीडे़ का नाम ।

देही
संज्ञा पुं० [सं० देहिन्] (देह को धारण करनेवाला) जीवात्मा । आत्मा । विशेष—देह चैतन्य नहीं है पर देरी चैतन्य है । आत्मा देह के आश्रय से सुख दुःख आदि का भोगनेवाला होता है । पर शुद्ध देही नित्य, अवध्य आदि है । वि० दे० 'आत्मा', 'जीवात्मा' ।

देहुरा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'देहरा' । उ०—नींव बिहुणाँ देहुरा देह बिहूणाँ देव । कबीर तहाँ बिलंबिया, करे अलख की सेव ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१ ।

देहेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] देहाधिष्ठाता आत्मा ।

दैँत †
संज्ञा पुं० [सं० दैत्य] दे० 'दैत्य' । उ०—रावण सहत घण खल राखस दारुण दैंत दहल्ले ।—रघु० रू०, पृ० ६५ ।

दैती †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'दरेंती' ।

दै †
प्रत्य० [हिं०] से । उ०—झट दैं उचकि लियो गिरि ऐसे । साँप बेठता को सिसु जैसे ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०८ ।

देउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० दैव] दे० 'दैव' । उठ—सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तड़पि घन गाजा ।—जायसी (शब्द०) ।

दैजा †
संज्ञा पुं० [हिं० दायजा] दे० 'दहेज', 'दायजा' ।

दैत
संज्ञा पुं० [सं० दैत्य] दे० 'दैत्य' । उ०—नहि हिरनाकुस उदर बिदारा । दैत अनेग नहि छलि छलि मारा ।—सं० दरिया, पृ०४ ।

दैतेय (१)
वि० [सं०] दिति से उत्पन्न ।

दैतेय (२)
संज्ञा पुं० १ दिति की संतान । दैत्य । २. राहु का एक नाम । यौ०—दैतेयगुरु, दैतेयपुरोधा, दैतेयपूज्य = दे० 'दैत्यपुरोधा' । दैतेयानिषूदन = विष्णु । दैतेयमाता = दे० 'दैत्यमाता' । दैतेय मेदजा = पृथिवी का नाम ।

दैत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिति की संतति । कश्यप के वे पुत्र जो दिति नाम्नी स्त्री से पैदा हुए थे । असुर । २. लंबे डील या असाधारण बल का मनुष्य । जैसे,—वह पूरा दैत्य है । ३. अति करनेवाला आदमी । जैसे,—वह खाने में दैत्य है । ४. दुराचारी । नीच । दुष्ट व्यक्ति । ५. लोहा ।

दैत्यगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] खुक्राचार्य ।

दैत्यदेव
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों के देवता—१. वरुण । २. वायु ।

दैत्यद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ के पुत्रों में से एक (महाभारत) ।

दैत्यधूमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तारा देवी की तांत्रिक उपासना में एक मुद्रा जिसमें उल्टी हथेलियों को मिलाकर विशेष उँगलियों को एक दूसरे से फँसाते हैं ।

दैत्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों के अधिपति—१. हिरण्यकशिपु । २. प्रह्लाद । ३. बलि (भागवत) ।

दैत्यपुरोधा
संज्ञा पुं० [सं० दैत्यपुरोधस] दैत्यों के पुरोहित शुक्रचार्य ।

दैत्यमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० दैत्यमातृ] दैत्यों की माता दिति ।

दैत्यमेदज
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुग्गुल । गूगल ।

दैत्यमेदजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । धरित्री । दैतेय मेदजा । विशेष—पुराणानुसार पृथिवी की उत्पत्ति मधूकैटभ की मज्जा से कही गई है ।

दैत्ययुग
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों का युग जो देवताओं को १२ हजार बरसों या मनुष्यों के चार युगों के बराबर होता है ।

दैत्यसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रजापति की एक कन्या । विशेष—यह देवसेना की बहन थी और केशी दानव को बहुत चाहती थी । केशी इसे हर ले गया था और उसने इसके साथ विवाह किया था ।

दैत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दैत्य जाति की स्त्री । २. मुर्रा । कपूर कचरी । ३. चंडौषधि । ४. मद्य । मदिरा ।

दैत्यारि
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों के शत्रु—१. विष्णु । २. इंद्र । ३. देवता मात्र ।

दैत्याहोरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों का एक रात दिन जो मनुष्य के वर्ष के बराबर होता है ।

दैत्येंद्र
संज्ञा पुं० [सं० दैत्येंन्द्र] १. दैत्यों का राजा । २. गंधक ।

दैत्येज्य
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ।

दैधिषव्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री के दूसरे पति का पुत्र ।

दैनंदिन (१)
वि० [सं० दैनन्दिन] प्रतिदिन का । दिन दिन होनेवाला । नित्य का ।

दैनंदिन (२)
क्रि० वि० १. प्रतिदिन । रोज रोज । २. दिनों दिन ।

दैनंदिनी (१)
संज्ञा पुं० [सं० दैनन्दिन] पुराणानुसार एक प्रकार का प्रलय जो ब्रह्मा के पचास वर्ष बीतने पर होता है । मोहरात्रि ।

दैनंदिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दैनन्दिन + हीं० ई (प्रत्य०)] प्रति दिन का कार्य व्यापार आदि लिखने की पुस्तिका । डायरी । रोजनामचा ।

दैन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीन होने का भाव । दीनता । २. शोक । दुःख । पश्चात्ताप (को०) । ३. निम्नता । नीचता (को०) । ४. निर्बलता (को०) ।

दैन (२)
वि० [सं०] दिन संबंधी ।

दैन (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० देना] दे० 'देय' । विशेष—इस शब्द का प्रयोग समास में विशेषणवत् भी होता है जैसे,—सुखदैन = सुख देनेवाला । उ०—नैन सुखदैन मन मैन मलय लेखिए ।—केशव (शब्द०) ।

दैन (४)
संज्ञा पुं० [अ०] ऋण । कर्ज । उ०—बंदगी होय उसकी सब पर फर्ज ऐन । खल्क ऊपर ज्यों सर बसर मानिंद दैन ।— दक्खिनी०, पृ० १९३ ।

दैनिक (१)
वि० [सं०] १. प्रतिदिन का । रोज रोज का । २. जो रोज हो । नित्य होनेवाला । ३. जो एक दिन में हो । ४. दिन संबंधी ।

दैनिक (२)
संज्ञा पुं० एक दिन का वेतन । रोजाना मजदूरी ।

दैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीनता । दरिद्रता । २. गर्व या अहंकार के प्रतिकूल भाव । विनीत भाव । अपने को तुच्छ समझने का भाव । ३. काव्य के संचारी भावों में से एक, जिसमें दुःखादि से चित्त अति नम्र हो जाता है । कातरता ।

दैय †
संज्ञा पुं० [सं० दैव] दे० 'दैव' । उ०—सिंघल दीप राज घर बारी । महा सरूप दैय अवतारी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १५५ ।

दैयत
संज्ञा पुं० [सं० दैत्य] दैत्य । दानव । राक्षस । असुर । उ०— (क) वह हरी हठि हिरनाक्ष दैयत देखि सुंदर देह सो ।—केशव (शब्द०) । (ख) आपन ही रँग रच्यो साँवरो शुक ज्यौं बैठि पढा़वै । दासी हुती असुर दैयत की अब कुलबधू कहावै ।—सूर (शब्द०) ।

दैया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० दई] दई । दैव० । मुहा०—दैयन कै = दई दई करके । किसी प्रकार । कठिनता से ।

दैया (२)
अव्य० आश्चर्य, भय या दुःखसूचक शब्द जिसे स्त्रियाँ बोलती हैं । हे दई हे परमेश्वर ! उ०—बूझिहैं चवैया तब कहौं कहा, दैया ! इत पारिगो को, मैया, मेरी सेज पै कन्हैया को ।—पद्याकर (शब्द०) ।

दैया † (३)
संज्ञा स्त्री० दे० 'दाई' ।

दैयागति †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'दैवगति' ।

दैर
संज्ञा पुं० [फा़०] इबादतगाह । देवमंदिर [को०] । यौ०—दैरोहरम = मंदिर और मस्जिद । उ०—दैरो हरम को इबादत को क्यौं मुझसे छुड़वाया ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६१ ।

दैर्घ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'दैर्ध्य' [को०] ।

दैर्ध्य
संज्ञा पुं० [सं०] दीर्घता । लंबाई । बडा़ई ।

दैव (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० दैवी] १. देवता संबंधी । जैसे, दैव कार्य, दैवश्राद्ध । २. देवता के द्वारा होनेवाला । जैसे, दैवगति, दैवघंटना । ३. देवता को अर्पित ।

दैव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. योगियों के योग में होनेवाले पाँच प्रकार के विघ्नों में से एक प्रकार का विघ्न या उपसर्ग जिसमें योगी उन्मत्तों की तरह आँखें बंद करके चारों ओर देखता है (माकँडेय पुराण) । २. वह अर्जित शुभाशुभ कर्म जो फल देनेवाला हो । प्रारब्ध । अदृष्ट । भाग्य । होनेवाली बात या फल । होनी । विशेष—मत्स्यपुराण में जब मनु ने मत्स्य से पूछा कि दैव और पुरुषकार दोनों में कौन श्रेष्ठ है, तब मत्स्य ने कहा—'पूर्व जन्म के जो भले बुरे अर्जित कर्म रहते हैं वे ही वर्तमान जन्म में दैव या भाग्य होते हैं । दैव यदि प्रतिकूल हो तो पौरुष से उसका नाश भी हो सकता है । यदि पूर्व जन्म के कर्म अच्छे हों तो भी बिना पौरुष के वे कुछ भी फल नहीं दे सकते अतः पौरुष श्रेष्ठ है । यौ०—दैवगति । दैवय़ज्ञ । २. विधाता । ईश्वर । जैसे,—दुर्लब को दैव भी सताता है । मुहा०—(किसी को) दैव लगना = (किसी पर) ईश्वर का कोप होना । बुरे दिन आना । शामत आना । ३. आकाश । आसमान । मुहा०—दैव बरसना = मेंह बरसना । पानी बरसना । ४. एक प्रकार का श्राद्ध । दैवश्राद्ध (को०) । ५. दे० 'दैवतीर्थ' (को०) ।

दैवकृत
वि० [सं०] दे० 'दैवी' ।

दैवकृतदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य द्वारा कथित वह स्थान जो प्राकृतिक रूप में ही दुर्ग के समान दृढ़ और चारों ओर रक्षित हो ।

दैवकोविद
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का विषय जाननेवाला । २. दैवज्ञ । ज्योतिषी ।

दैवगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ईश्वरीय बात । दैवी घटना । २. भाग्य । कर्म । अदृष्ट । प्रारब्ध ।

दैवचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० दैवचिन्तक] ज्योतिषी ।

दैवज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० दैवज्ञा] १. ज्योतिषी । गणक । २. वंग देश में ब्राह्मणों की एक जाति ।

दैवतंत्र
वि० [सं० दैवतन्त्र] भाग्याधीन ।

दैवत (१)
वि० [सं०] देवता संबंधी ।

दैवत (२)
संज्ञा पुं० १. देवता संबंधी प्रतिमा आदि । २. देवता । ३. निरुक्त का वह भाग जिससे वेदमंत्रों के देवताओं का परिचय होता है ।

दैवतपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।

दैवत-संयोग-ख्यापन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी देवी देवता के साथ संबंध प्रसिद्ध करना । यह बात फैलाना कि हमें अमुक देवता इष्ट है या अमुक देवता ने हमें विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया है या युद्ध में अमुक देवता हमारी सहायता पर हैं । विशेष—कौटिल्य ने अपने पक्ष की सेना को उत्साहित और शत्रु सेना को उद्विग्न तथा हतोत्साहित करने के लिये यह नीति या ढंग बतलाया है । उसने कई प्रयोग कहे हैं । सुरंग के द्वारा देवमूर्ति के नीचे पहुँचकर कुछ बोलना, रात में सहसा प्रकाश दिखाना, पानी के ऊपर रात को रस्सी में बँधी कोई वस्तु तैरा कर फिर उसे गायब कर देना ।

दैवतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] आचमन करने में उँगलियों के अग्रभाग का नाम । उँगलियों की नोक ।

दैवत्त पु (१)
वि० [सं० दैवत] देवतुल्य । देवसदृश । उ०—दैवत्त बाँह द्रिग कमल रूप । अनपुच्छ लोइ जानियै भूप ।—पृ० रा०, १२ ।२० ।

दैवत्त (२)
संज्ञा पुं० [सं० दैवत या दैवत्य] दैव । भाग्य । देवता । उ०—जब दैवत्त् दिवाइहै तब सच्चा मुझ बैन । मृगतिस्ना ज्यों देखियै, प्यास न बुभझै नैन ।—पृ० रा०, १७ ।२६ ।

दैवत्य
संज्ञा पुं० [सं०] देव । देवता [को०] ।

दैवदत्त
वि० [सं०] नैसर्गिक । प्राकृतिक [को०] ।

दैवदीप
संज्ञा पुं० [सं०] नेत्र । आँख [को०] ।

दैवदुर्विपाक
संज्ञा पुं० [सं०] दैव की प्रतिकूलता । भाग्य की खोटाई ।

दैवदोष
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्भाग्य । भाग्य दोष [को०] ।

दैवपर
वि० [सं०] भाग्य को सब कुछ माननेवाला । भाग्यवादी ।

दैवप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो भाग्य पर विश्वास रखकर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे । विशेष—चाणक्य के मत से ऐसे व्यक्तियों को उपनिवेश बसाने के लिये भेज देना चाहिए । निर्जन स्थान में पहुँचकर वपे अपने आप कर्म करेंगे, अन्यथा कष्ट देंगे ।

दैवप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. भविष्य कथन । २. ज्योतिष । ३. देव— वाणी । आकाशवाणी । ४. भविष्य संबंधी शुभाशुभ की जिज्ञासा [को०] ।

दैवयुग
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का युग, जो मनुष्यों के चारों युगों के बराबर होता है । विशेष—मनुष्यों के एक वर्ष का देवताओं का एक रात दिन होता है ।

दैवयोग
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्य का आकस्मिक फल । संयोग । इत्तिफाक । जैसे,—दैवयोग से वह हमें मार्ग ही में मिल गया ।

दैवल
संज्ञा पुं० [सं०] १.देवल ऋषि की संतति । २. दे० 'दैवलक' (को०) ।

दैवलक
संज्ञा पुं० [सं०] भूतसेवक । भौत । प्रेतपूजक [को०] ।

दैवलेखक
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिषी । गणक ।

दैवधर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का वर्ष जो १३१५२१ सौर दिनों का होता है ।

दैववश
क्रि० वि० [सं०] संयोग से । दैवयोग से । अकस्मात् कदाचित् ।

दैववशात्
क्रि० वि० [सं०] दे० 'दैववश' ।

दैववाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाशवाणी । २. संस्कृत ।

दैववादी
संज्ञा पुं० [सं० दैववादिन्] १. भाग्य के भरोसे रहनेवाला । पुरुषार्थ न करनेवाला । २. आलसी । निरुद्योगी ।

दैववद्
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिषी । गणक ।

दैवविवाह
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों में लिखे आठ प्रकार के विवाहों में से एक । विशेष—ज्योतिष्टोम आदि बडा़ यज्ञ करनेवाला यदि उसी यज्ञ के समय ऋत्विज या पुरोहित को अलंकृत कन्या दान करे तो यह दैवविवाह हुआ ।

दैवश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह श्राद्ध जो देवताओं के उद्देश्य से हो ।

दैवसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं की सृष्टि । विशेष—सांख्य कारिका में कहा है किं इसके अंतर्गत आठ भेद हैं—ब्राह्म, प्राजापत्य, ऐँद्र, पैत्र, गांधर्व, यज्ञ, राक्षस और पैशाच ।

दैवहीन
वि० [सं०] भाग्यहीन । अभागा । तुर्भाग्यग्रस्त [को०] ।

दैवाकरि
संज्ञा पुं० [सं०] दिवाकर अर्थात् सूर्य के पुत्र—१. यम, २. शनि ।

दैवाकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] (सूर्य की पुत्री) यमुना नदी ।

दैवागत
वि० [सं०] दैवी । आकस्मिक । सहसा होनेवाला ।

दैवात्
क्रि० वि० [सं०] अकस्मात् । दैवयोग से । इत्तिफाक से । अचानक । उ०—दैवात्, दो तीन वर्ष यदि उक्त कारणों से किसान को कुछ न मिला ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६८ ।

दैवात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] दैवकृत उत्पात । अचानक आपसे आप होनेवाला अनर्थ ।

दैवाधीन
वि० [सं०] भाग्य के अधीन । दैवतंत्र [को०] ।

दैवायत्त
वि० [सं०] दे० 'दैवाधीन' [को०] ।

दैवारिप
संज्ञा पुं० [सं०] शंख ।

दैवाहोरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का दिन । देवताओं का रात दिन [को०] ।

दैविक
वि० [सं०] १. देवता संबंधी । देवताओं का । जैसे, दैविक श्राद्ध । २. दैवताओं का किया हुआ । उ०—दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज्य काहुइ नहिं व्यापा ।—तुलसी (शब्द०) ।

दैवी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. देवता संबंधिनी । २. देवताओं की की हुई । जैसे, दैवी लीला । ३. आकस्मिक । प्रारब्ध या संयोग से होनेवाली । जैसे, दैवी घटना । ४. सात्विक । जैसे, दैवी संपत्ति ।

दैवी (२)
संज्ञा स्त्री० १. दैव विवाह द्वारा ब्याही हुई पत्नी । २. एक वैदिक छंद ।

दैवी (३)
संज्ञा पुं० [सं० दैविन्] ज्योतिषी । गणक [को०] ।

दैवी गति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ईश्वर की की हुई बात । २. प्रारब्ध । भावी । होनहार । अदृष्ट ।

दैव्य (१)
वि० [सं०] देवता संबंधी ।

दैव्य (२)
संज्ञा पुं० १. दैव । २. भाग्य ।

दैशिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० दैशिकी] १. देश संबंधी । राष्ट्रीय । २. स्थानीय । ३. प्रदर्शक । बतानेवाला ।

दैशिक (२)
संज्ञा पुं० १. गुरु । विद्यादान करनेवाला । २. राह दिखानेवाला । पथप्रदर्शक [को०] ।

दैष्टिक (१)
वि० [सं०] भाग्य में लिखा हुआ । बदा हुआ [को०] ।

दैष्टिक (२)
संज्ञा पुं० नियतिवादी । भाग्य पर विश्वास रखनेवाला व्यक्ति [को०] ।

दैहिक
वि० [सं०] १. देह संबंधी । शारीरिक । उ०—दैहिक दैविक भौतिक तापा ।—तुलसी (शब्द०) । २. देह से उत्पन्न ।

दैह्य (१)
वि० [सं०] देह संबंधी । दैहिक [को०] ।

दैह्य (२)
संज्ञा पुं० आत्मा । रूह [को०] ।

दोँकना †
क्रि० अ० [देश०] गुर्राना ।

दोँकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] धौंकनी ।

दोँगा
संज्ञा पुं० [हिं० द्विरागमन] दे० 'गौना' ।

दोँच †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौच] दे० 'दोच' ।

दोँचन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दबोचना या दौंचना] दे० 'दोचना' ।

दोँचना †
क्रि० स० [हिं० दोचन] दबाव में डालना । उ०—तंदुल माँगि दोंचि के लाई सो दीन्हों उपहार ।—सूर (शब्द०) । २. दबा देना । दबाना ।

दोँर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का साँप ।

दोः
संज्ञा पुं० [सं० दोस्] भुजा । बाहु [को०] ।

दो
वि० [सं० द्वि] एक और एक । तीन से एक कम । मुहा०—दो एक = कुछ । थोडे़ । जैसे,—उनसे दो एक बातें करके चले आवेंगे । दो गाल हँसने बोलने का मौका मिलना = दो चार बातें कर लेने का सुअवसर प्राप्त करना । उ०— अब्बासी—(अपने दिल में) खुदा करें आएँ । दो गाल हँसने बोलने का मौका मिले ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १४० । (आँखें) दो चार होना = सामना होना । उ०—दो चार अब तुझसे क्यों कर होए हमचश्मी के दावे से ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३ । दो दिन का = बहुत ही थोडे़ समय का । दो दो दाने की फिरना = बहुत ही दरिद्र दशा में दूसरों से माँगते हुए फिरना । दो दो बातें करना = संक्षिप्त प्रश्नोत्तर करना । कुछ बातें पूछना और कहना । दो नार्वो पर पैर (पाँव) रखना = दो पक्षों का अवलंबन करना । दो प्दर्थों का आश्रय लेना । उ०—दुइ तरंग दुइ नाव पावँ धरि ते कहि कवन न मूठे ।—सूर (शब्द०) । किसके दो सिर हैं ? = किसे फालतू सिर है ? किसमें असंभव सामर्थ्य है । कौन इतना समर्थ है कि मरने से नहीं डरता । उ०—अनहित तोर प्रया केइ कीन्हा । केहि दुइ सिर, केहि जम जह लीना ?—तुलसी (शब्द०) ।

दोअक्खी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + आँख] भेद दृष्टि । एक नजर से न देखना । भेदभाव का बरताव करना । उ०—अभी घंटे भर वहाँ बैठे चिकनी चुपडी़ बातें करते रहे तो नहीं देर हुई, में क्षण भर को बुलाती हूँ तो भागे जाते हो । इसी दोअक्खी की तो तुम्हों सजा मिल रही है ।—काया०, पृ० १२१ ।

दोआ पु
संज्ञा स्त्री० [अ० दुआ] दे० ; 'दुआ' । उ०—फेरि दोआ पढ़ि, आमुखता सुनि, सबक पढ़ावै ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २१८ ।

दोआतशा
वि० [फा़०] जो दो बार भभके में खींचा या चुआया गया हो । दो बार का खींचा या उतारा हुआ । जैसे, दो आतशा शराब, दो आतशा गुलाब । विशेष—एक बार अर्क या शराब आदि खींच चुकने पर कभी कभी उसको बहुत तेज करने के लिये फिर से खींचते या चुआते हैं । ऐसे ही अर्क या शराब आदि को दोआतशा कहते हैं ।

दीआब
संज्ञा पुं० [फा़०] दो नदियों के बीच का प्रेदश । किसी देश का वह भाग जो नदियों के बीच में पड़ता हो ।

दोआबा
संज्ञा पुं० [फा़० दोआब] दे० 'दोआब' ।

दोइ † (१)
वि० [सं० द्वौ] दे० दो' । उ०—द्वै दल जाइ दोइ में कीन्हा ।—घट०, पृ० २३७ ।

दोइ (२)
संज्ञा पुं० दे० 'दो' ।

दोइत †,दोइति पु
संज्ञा पु० [सं० द्वैत] द्वैत । दो का भाव । दुविधा । उ०—गुरु चेला दोइत बिधि साजा ।—घट०, पृ० १९२ । (ख) साध हमारी आतमा हम साधन के दास । पलटू जो दोइति करै होय नरक में बास ।—पलटू०, भा० ३, पृ० १०६ ।

दोई
वि० [देश०] दे० 'दोइ' (१) । उ०—नौलख कँबल पार दल दोई परे चारि दल सोई हो ।—घट०, पृ० ३३ ।

दोउ पु †
वि० [हिं० दो] दोनों ।

दोऊ पु †
वि० [हिं० दो] दोनों ।

दोक
संज्ञा पुं० [हिं० दो + का (प्रत्य०)] दो वर्ष की उम्र का बछेडा़ ।

दोकडा़ †
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़] दे० 'टुकडा़' ।

दोकरा †
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़] दे० 'टुकडा़' ।

दोकला
संज्ञा पुं० [हिं० दो + कल] १. दो कल या पेंचवाला ताला । वह ताला जिसके अंदर दो कलें या पेंच होते हैं । २. एक प्रकार की मजबूत बेडी़ ।

दोकोहा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + कोह (= कूबर)] दो कूबरवाला ऊँट । वह ऊँट जिसकी पीठ पर दो कूबर हों ।

दोखंभा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + खंभा] एक प्रकार का नैचा जिसमें कुल्फी नहीं होती । यह नैचा काटकर लोहे की कमानी पर बनाया जाता है ।

दोख पु †
संज्ञा पुं० [सं० दोष] दे० 'दोष' । उ०—चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोख ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०६ ।

दोखना पु †
क्रि० स० [हिं० दोष + ना(प्रत्य०)] देष लगाना । ऐब लगाना ।

दोखी पु †
संज्ञा पुं० [हिं० दोष] १. दे० 'दोषी' । २. ऐबी । जिसमें कोई ऐब हो । ३. शत्रु । द्वेषी । बैरी (डिं०) ।

दोगंग
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + गंगा] दो नदियों के बीच का प्रदेश ।

दोगंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + गंडी = (गोल घेरा या चिह्न)] १. वह चित्ती या इमली का चीआँ जिसे लड़के जुआ खेलने में बेईमानी करने के लिये दोनों ओर से घिस लेते हैं और जिसके दोनों ओर का काला अंश निकल जाता और सफेद अंश निकल आता है । २. झगडा़ बखेडा़ करनेवाला मनुष्य । फसादी । उत्पाती । उपद्रवी ।

दोगर †
संज्ञा पुं० [हिं० डूँगर(= पहा़डी़)] दुग्गर देश का निवासी जिसे डोगरा कहते हैं ।

दोगला
संज्ञा पुं० [फा़० दोगलहू] [स्त्री० दोगली] १. वह मनुष्य जो अपनी माता के असली पति से नहीं बल्कि उसके यार से उत्पन्न हुआ हो । जारज । २. वह जीव जिसके माता पिता भिन्न भिन्न जातियों के हों । जैसे,देशी और विलायती से उत्पन्न दोगला कुत्ता ।

दोगला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० दो + कल] बाँस की कमचियों का बना एक गोल और कुछ गहरा (टोकरी का सा) पात्र जिससे किसान लोग पानी उलीचते हैं ।

दोगा
संज्ञा पुं० [सं० द्विक, हिं० तुक्का] १. एक प्रकार का लिहाफ जो मोटे देशी कपडे़ पर बेल बूटे छापकर बनाया जाता है । उ०—दोगा पहरे लाल बनात का कनपोट दिए....उन्हीं के पीछे खडा़ था ।—श्यामा०, पृ० १४५ । २. पानी में घोला हुआ चूना जिससे सफेदी की जाती है ।

दोगाडा़
संज्ञा पुं० [हिं० दो + गाड(= गड्ढा)?] दोनली बंदूक ।

दोगुना
वि० [हिं०] दे० 'दुगना' ।

दोग्ग †
वि० [देशी] जोडा़ । जुड़वाँ । युग्मक ।—देशी०, पृ० २०३ ।

दोचंद
वि० [फा़०] दुगना ।

दोच
संज्ञा स्त्री० [हिं० दबोच] १. दुबधा । असमंजस । २. कष्ट । दुःख । उ०—मनहि यह परतीत आई दूरि हरिहौ दोच । सूर प्रभु हिलि मिलि रहौंगी लाज डारों मोच ।—सूर (शब्द०) । ३. दबाव । दबाए जाने का भाव ।

दोचन
संज्ञा स्त्री० [हिं० दबोचन] १. दुबधा । असमंजस । २. दबाव में पड़ने का भाव । ३. कष्ट । दुःख । उ०—भवन मोहिं भाटी सो लागत मरत सोचही सोचन । ऐसी गति मेरी तुम आगे करत कहा जिय दोचन ।—सूर (शब्द०) ।

दोचना
क्रि० स० [हिं० दोच] दबाव डालना । कोई काम करने के लिये बहुत जोर देना ।

दोचल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० दो + चल्ला(= पल्ला)?] वह छाजन जो बीच में उभरी हुई और दोनों ओर ढालुई हो । दोपलिया छाजन ।

दोचित्ता
वि० [हिं० दो + चित्ता ] [वि० स्त्री० दोचित्ती] जिसका चित्त एकाग्र न हो, दो कामों या बातों में बँटा हो । उद्विग्न- चित्त ।

दोचित्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + चित्त] दोचित्त होने का भाव । चित्त की उद्विग्नता । ध्यान का दो कामों या बातों में बँटा रहना ।

दोचोबा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + फा़० चोब] वह बडा़ खेमा जिसमें दो दो चोबें लगती हों ।

दोज † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो] पक्ष की द्वितीया तिथि । दूज । उ०—दोज ससी ज्यों प्रेम, राजत स्याम अकार में । आडी़ भीत जु नेम, ता ऊपर हो देख ले ।—रसनिधि (शब्द०) ।

दोज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में अष्टताल का एक भेद ।

दोजई
संज्ञा स्त्री० [देश०] नक्काशों का एक औजार जो गोलाकार वृत्त बनाने के काम में आता है । यह छैनी के आकार का होता है ।

दोजक
संज्ञा पुं० [फा़० दोजख] दे० 'दोजख' । उ०—माल लेवूँ तो दोजक परूँ, दीन छोड दुनियाँ को भरूँ ।—दक्खिनी०, पृ० २० ।

दोजकि पु
संज्ञा पुं० [फा़० दोजख] दे० 'दोजख' । उ०—तौ पापी औइ दोजकि जावहिं ।—प्राण०, पृ० ३३ ।

दोजख (१)
संज्ञा पुं० [फा़० दोजख] १. मुसलमानों के धार्मिक विश्वास के अनुसार नरक जिसके सात विभाग हैं औंर जिसमें दुष्ट तथा पापी मनुष्य मरने के उपरांत रखे जाते हैं । उ०—दोजख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४८० । २. पेट ।

दोजख (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पौधा जिसके फूल बहुत सुंदर होते हैं ।

दोजखी
वि० [फा़० दोजखी] १. दोजख संबंधी । दोजख का । २. पापी । बहुत बडा़ अपराधी जो दोजख में भेजे जाने के योग्य हो ।

दोजग †
संज्ञा पुं० [फा़० दोजख] दे० 'दोजख' । उ०—आगल सुरग कपाट अघ, दोजग अगुओ देख ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४६ ।

दोजरबा
वि० [फा़०] दो बार भभके में खींचा या चुआया हुआ । दो आतशा । जैसे,—दोजरबा शराब । दोजरबा अरक ।

दोजर्बी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दोनली बंदूक ।

दोजा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० दो] वह पुरुष जिसका दूसरा विवाह हो । दोबारा ब्याहा हुआ आदमी । कल्याणभायँ ।

दोजा (२)
वि० [हिं० दूजा] दे० 'दूजा' ।

दोजानू
क्रि० वि० [फा़० दोजानूँ] घुटनों के बल या दोनों घुटने टेककर (बेठना) ।

दोजिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + जी या जीव] गर्भवती स्त्री । वह स्त्री जिसके पेट में बच्चा हो ।

दोजीरा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + जीरा] एक प्रकार का चावल ।

दोजीवा
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + जीव] गर्भवती स्त्री । वह स्त्री जिसके पेट में बच्चा हो ।

दोटूक
वि० [हिं० दो + टुकडा़] स्पष्ट । साफ साफ । खरी (बात) ।

दोटना †
क्रि० अ० [डिं०] दे० 'दौड़ना' । उ०—नाखे बारंबार निसासा, हत्या तेग गही चँद्रहासा । कीधो दारुण काप प्रकासा, दोट सिया सिर दैंण ।—रघु० रू०, पृ० २१ ।

दोढी़ †
संज्ञा स्त्री०[हिं० डयोढी़] दे० 'डयोढी़' । उ०—दोढी़ सिरै दवार नरेह निहारती । मिल कौसल्या मात, उतारी आरती ।—रघु० रू०, पृ० ९५ ।

दोत †
संज्ञा स्त्री० [फा़० दवात] दे० 'दावात' ।

दोतरफा (१)
वि० [फा़०] दोनों तरफ का । दोनों ओर संबंधी ।

दोतरफा (२)
क्रि० वि० दोनों तरफ । दोनों ओर ।

दोतर्फा
वि० पुं० [फा़०] दे० 'दोतरफा' ।

दोतला
वि० [हिं०] दे० 'दोतल्ला' ।

दोतल्ला
वि० [हिं० दो + तल] दो खंड का । दोमंजिला । का । दोमंजिला जैसे, दोतल्ला मकान ।

दोतही
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + तह] १. एक प्रकार की देसी मोटी चादर जो दोहरी करके बिछाने के काम में आती है । २. दोसूती ।

दोता
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दोतही' ।

दोतारा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० दो + तार(= सूत)] एक प्रकार का दुशाला ।

दोतारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० दो + तार(= धातु)] एकतारे की तरह का एक प्रकार का बाजा । एकतारे की अपेक्षा इसमें यह विशेषता होती है कि इसमें बजाने के लिये एक के बदले दो तार होते हैं । विशेष— दे० 'एकतारा' ।

दोदना †
क्रि० स० [हिं० दो (= दोहराना)] किसी की कही प्रत्यक्ष बात से इनकार करना । प्रत्यक्ष बात से मुकरना ।

दोदरी
संज्ञा स्त्री० [नैपाली] एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जो दारर्जिलिंग, सिकिम, भूटान और पू्र्वी बंगाल में पाया जाता है । इसकी लकडी़ काली, चिकनी और कडी़ होती है और इमारत के काम में आती है ।

दोदल
संज्ञा पुं० [सं० द्विदल] १.चने की दाल या तरकारी । २. कचनार की कलियाँ जिसकी तरकारी बनती है और अचार भी पड़ता है ।

दोदस्ता
वि० [फा़० दुदस्तह्] दोनों ओर । दुतरफा [को०] ।

दोदस्ता खिलाल
संज्ञा पुं० [फा़० दोदस्ता खिलाल] ताश के तुरुप के खेल में किसी एक खिलाड़ी का एक साथ बाकी दोनों खिलाड़ियों को मात करना ।

दोदस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. दोनों हाथों तलवार चलाना । २. कुश्ती का एक दाँव [को०] ।

दोदा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा कौवा (पक्षी), जिसकी लंबाई डेढ़ दो हाथ होती है । विशेष—इसका रंग काला, तथा चोंच और पैर चमकीले होते हैं । यह गाँव, देहात या जंगलों में बहुत होता है । इसकी आदतें मामूली कौवे की सी होती हैं । यह ऊँचे वृक्षों पर घोसला बनाता है और पूस से फागुन तक अंडे देता है । एक बार में इसके पाँच अंडे होते हैं ।

दोदाना
क्रि० सं० [हिं० दोदना] किसी को दोदने में प्रवृत्त करना । दोदने का काम दूसरे से कराना ।

दोदामी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दुदामी' ।

दोदिन
संज्ञा पुं० [देश०] रीठे की जाति का एक पेड़ जिसके फलों का व्यवहार साबुन की तरह कपड़े साफ करने में होता है । इसके पत्ते चौपायों को खिलाए जाते हैं और बीज दवा के काम में आते हैं ।

दोदिला
वि० [फा़० दुदिलह्] १. जिसका मन दो कामों या बातों में बँटा हो, एकाग्र न हो । जिसका चित्त एक बात पर जमा न हो बल्कि दो तरफ बँटा हो । दोचिता । चिंतित । २. वहमी ।

दोदिली
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + दिल] दोदिला होने का भाव । चित्त की अस्थिरता । दोचित्ती ।

दोध
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० दोधी] १. ग्वाला । अहीर । २ बछड़ा । गाय का बच्चा । ३. वह कवि जो पुरस्कार के लिये कविता करता हो ।

दोधक
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णवृत जिसमें तीन भगण और अंत में दो गुरु होते हैं । इसका दूसरा नाम 'बंधु' भी है । जैसे,— भागु न गो दुहि दे नंदलाला । पाणि गहे कहतीं ब्रजवाला । दोध करैं सब आरत बानी । या मिस लै घर जायँ सयानी ।

दोधार
संज्ञा पुं० [हिं० दो + धार] भाला । बरछा (डिं०) ।

दोधारा (१)
वि० [हिं० दो + धार] [वि० स्त्री० दोधारी] दोहरी बाढ़ का । जिसके दोनों ओर धार या बाढ़ हो ।

दोधारा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का थूहर ।

दोन (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्रोणि] दो पहाडड़ों के बीच की नीची जमीन ।

दोन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० दो + नद] १. दो नदियों के बीच की जमीन । दोआवा । २. दो नदियों का संगम स्थान । ३. दो नदियोंका मेल । ४. दो वस्तुओं की संधि या मेल । उ०—तिय तिथि तरणि किशोर वय पुन्यकाल सम दोन । काहू पुन्यनि पाइयत जैस संधि संक्रोन ।—बिहारी (शब्द०) ।

दोन (३)
संज्ञा पुं० [सं० द्रोण] काठ का वह लंबा और बीच से खोखला टुकड़ा जिससे धान के खेतों में सिंचाई की जाती है । विशेष—यह धान कूटने की ढेकली के आकार का होता है और उसी की तरह जमीन पर लगा रहता है । पानी लेने के लिये इसका एक सिरा बहुत चौड़ा होता है जो एक ताल में रहता है । इस सिरे को पहले ताल में डुबाते हैं और जब उसमें पानी भर आता है तब उसे ऊपर की ओर उठाते हैं, जिससे उसका दूसरा सिरा नीचे हो जाता है और उसके खोखले मार्ग से पानी नाली में चला जाता है । २. अन्न की एक माप । द्रोण ।

दोनली
वि० [हिं० दो + नल] दो नालवाली । जिसमें दो नालें हों । जैसे, दोनली बंदूक ।

दोनाँ
संज्ञा पुं० [हिं० दौना] दे० 'दौना' । उ०—दोनाँ मजरा चंपक फूला । तामै जीव बसै कर तूला ।—कबीर ग्रं०, पृ० २४० ।

दोना (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्रोण ] [स्त्री० दोनी] पत्तों का बना हुआ कटोरे के आकार का छोटा गहरा पात्र जिसमें खाने की चीजें आदि रखते हैं । उ०—कंदमूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना । —तुलसी (शब्द०) । मुहा०—दोना चढ़ाना = किसी की समाधि आदि पर फूल चढ़ाना । दोना देना = (१) दोना चढ़ाना । (२) अपने भोजन के थाल में से कुछ भोजन किसी को दे देना जिससे देनेवाले की प्रसन्नता और पानेवाले का सम्मान प्रगट होता है । दोना खाना या चाटना = बाजार की मिठाई आदि खाना । दोनों की चाट पड़ना = बाजारी भोजन का चस्का पड़ना ।

दोना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दौना' (मरुवा) ।

दोनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोना का स्त्री० अल्पा०] छोटा दोना । उ०—यक दोनिया महँ दियो बतासा । कह्यो देहु यक यक सब पासा ।—रघुराज (शब्द०) ।

दोनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोना का स्त्री० अल्पा०] छोटा दोना । उ०—(क) तुलसी स्वामी स्वामिनी जोहे मोही हैं भामिनी, सोभा सुधा पियैं करि अँखियाँ दोनी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) दूध भात की दोनी दैहौं सोने चोंच मढैहौं । जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहौं ।—तुलसी (शब्द०) ।

दोनु पु
वि० [हिं०] दे० 'दोनों' । उ०—तुम दोनु ही एक समान करी ।—नट०, पृ० ३३ ।

दोनोँ
वि० [हिं० दो + नों (प्रत्य०)] एक और दूसरा । ऐसे विशिष्ट दो (मनुष्य या पदार्थ) जिनका पहले कुछ वर्णन हो चुका हो और जिनमें से कोई भी छोड़ा न जा सकता हो । उभय । जैसे,—(क) राम और कृष्ण दोनों गए । (ख) वह कल और आज दोनों दिन आया । (ग) वह धन और मान दोनों चाहता है । (घ) उसके माँ बाप दोनों अंधे हैं ।

दोपंथी
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + पंथ] एक प्रकार की दोहरे खाने की जाली, स्त्रियाँ प्रायः जिसकी कुरतियाँ बनाती हैं ।

दोपट्टा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दुपट्टा' ।

दोपलका
वि० [हिं० दो + पलक या फलक] १. दो पल्ले का नगीना । वह नगीना जिसके भीतर नकली या हलका नग हो और ऊपर असली या बढ़िया हो । दोहरा नगीना । २. एक प्रकार का कबूतर ।

दोपलिया †
वि०, संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + पल्ला] दे० 'दोपल्ली' ।

दोपल्ली (१)
वि० [हिं० दो + पल्ला + ई(प्रत्य०)] दो पल्लेवाला । जिसमें दो पल्ले हों ।

दोपल्ली (२)
संज्ञा स्त्री० मलमल, अद्धी आदि की एक प्रकार की टोपी जिसमें कपड़े के दो टुकड़े एक साथ सिले होते हैं । इसका व्यव- हार लखनऊ, प्रयाग और काशी आदि में अधिकता से होता है ।

दोपहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + पहर] मध्याह्नकाल । सबेरे और संध्या के बीच का समय । वह समय जब सूर्य मध्य आकाश में रहता है । मुहा०—दोपहर ढलना = दोपहर के उपरांत और समय बीतना ।

दोपहरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दोपहर' ।

दोपहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दोपहर' । उ०—आ आकर विचित्र पशु पक्षी यहाँ बिताते दोपहरी ।—पंचवटी, पृ० ८ ।

दोपीठा (१)
वि० [हिं० दो + पीठ] दोरुखा । दोनों ओर समान रूप रंग का ।

दोपीठा (२)
संज्ञा पुं० कागज आदि का एक ओर छपने के उपरांत दूसरी ओर छपना (मुद्रण) ।

दोपौवा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + पाव] १. पान की आधी ढोली । (तंबोली) । २. किसी वस्तु का आधा ।

दोप्याजा
संज्ञा पुं० [फा़० दोप्याजा] एक प्रकार का पका हुआ मांस जिसमें तरकारी नहीं पड़ती और प्याज दो बार पड़ता है । एक प्रकार का मांस जिसमें पानी नहीं पड़ता केवल प्याज पड़ता है । उ०—कोर्मा होता, कलिया होती पुलाव दोप्याजे की तश्तरियाँ होतीं और रात रात भर बोतल के काग फटाफट खुलते रहते ।—शराबी, पृ० १०४ ।

दोफसली
वि० [हिं० दो + अ० फ़सल + ई (प्रत्य०)] १. दोनों फसलों के संबंध का । जैसे, दोफसली जमीन । २. जो दोनों ओर लग सके । दोनों ओर काम देने योग्य । जैसे, दो फसली बात ।

दोबल
संज्ञा पुं० [देश०] दोष । अपराध । उ०—(क) दोबल कहा देति मोहिं सजनी तू तो बड़ी सुजान । अपनी सी मैं बहुतै कीन्हीं रहति न तेरी आन ।—सूर (शब्द०) । (ख) दोबल देति आन ।—सूर (शब्द०) । (ख) दोबल देति सबै मोही को उन पठयो मैं आयो । —सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—देना ।

दोबारा (१)
क्रि० वि० [फा़०] दूसरी बार । दूसरी दफा । एक बार होने के उपरांत फिर एक बार ।

दोबारा (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. दो आतशा शराब । २. दो आतशा अरक आदि । ३. दो बार साफ की हुई चीनी । ४. एक बार तैयार होने के उपरांत उसी तैयार चीज से फिर दूसरी बार तैयार की हुई चीज ।

दोबाला
वि० [फा़० दुबाला] दूना । दुगुना ।

दोभा पु †
वि० [देश०] ढोला । मुलायम । उ०—ओछा कुल में अपना दोभा डावड़ियाँह । हौले बोलै होट में मूरख मावड़ि- याँह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १७ ।

दोभाषिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दुभाषिया' ।

दोमंजिला
वि० [फा़० दुमंजिलहु] दो खंड का । दोखंडा । जिसमें दो मंजिलें हों । जैसे, दोमंजिला मकान ।

दोमट
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + मिट्टी] वह भूमि जिसकी मिट्टी में कुछ बालू भी मिला हो । टूमट भूमि ।

दोमहला
वि० [हिं० दो + महल] दो खंड का । दोमंजिला । जैसे, दोमहला मकान ।

दोमरगा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + मार्ग] एक प्रकार का देशी मोटा कपड़ा जिसकी जनानी धोतियाँ बनाई जाती हैं । यह मिर्जा- पुर में बहुत बनता है ।

दोमाहा
संज्ञा पुं० [फा़० दुमाहह] दो महीने का वेतन या तनखाह [को०] ।

दोमुहाँ
वि० [हिं० दो + मुँह] १. दो मुँहवाला । जिसे दो मुँह हों । जैसे, दोमुहाँ साँप । २. दोहरी चाल चलने या बात करनेवाला । कपटी ।

दोमुहाँ साँप
संज्ञा पुं० [हिं० दोमुहाँ + साँप] १. एक प्रकार का साँप जो प्रायः हाथ भर लंबा होता है और जिसकी दुम मोटी होने के कारण मुँह के समान जान पड़ती हैं । विशेष—न तो इसमें विष होता है और न यह किसी को काटता है । इसके विषय में लोगों में यह प्रसिद्ध है कि छह महीने इसकी दुम का सिरा मुँह बन जाता है और पहलेवाला मुँह दुम बन जाता है । २. दो तरह की बातें कहनेवाला । कुटिल और कपटी व्यक्ति ।

दोमुही
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + मुँह] सोनारों का एक औजार जो नक्काशी के काम में आता है ।

दोय पु † (१)
वि० [सं० द्वौ] १. दे० 'दो' । २. दे० 'दोनों' ।

दोय (२)
संज्ञा पुं० दे० 'दो' ।

दोयज पु
वि० [हिं० दोय + सं० ज] दुविधेवाला । उलझन से भरा । चिंताजनक । उ०—दोयज धधा जगत का लागि रहै दिन रैन । कुटुंब महा दुख देत है कैसे पावै चैन ।—सहजो०, पृ० ५० ।

दोयण पु
संज्ञा पुं० [सं० दुर्जन, प्रा० दुज्जण, दुयण] १. दे० 'दुर्जन' । २. शत्रु । दुश्मन । उ०—जाहर जग जीवाड़णौ, मानै दोयण मेह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २१ ।

दोयम
वि० [फा़०] दूसरा । दूसरे नंबर का । जो क्रम में दो के स्थान पर हो ।

दोयरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जंगली पेड़ जो दारजिलिंग के जंगलों में बहुत होता है । विशेष—इसकी लकड़ी सफेद और मजबूत होती है संदूक आदि बनाने तथा इमारत के काम आदी है । इसकी लकड़ी का कोयला भी बनाया जाता है जो बहुत देर तक ठह- रता है ।

दोयल
संज्ञा पुं० [देश०] बया पक्षी ।

दोरंगा
वि० [हिं० दो + रंग] १. दो रंग का । जिसमें दो रंग हों । जैसे, दोरंगा किनारा, दोरंगा कागज । २. जो दो- मुँहा या दोतरफा हो । जो दोनों ओर लग या चल सके । दोनों पक्षों मे आ सकनेवाला । ३. जो व्यभिचार से उत्पन्न हुआ हो । वर्णसंकर । दोगला (क्व०) ।

दोरंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + रंग + ई (प्रत्य०)] १. दो- रंग या दोमुँहे होने का भाव । दोनों ओर चलने या लगने का भाव । २. छल । कपट ।

दोरंगी (२)
वि० स्त्री० [हिं० दोरंगा] दे० 'दोरंगा'—२ । उ०—यह दुनिया दोरंगी भाई । जिव गह शरण असुर की जाइ ।— कबीर सा०, पृ० ८१९ ।

दोर † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो] दोबारा जोती हुई जमीन । वह जमीन जो दो दफे जोती गई हो ।

दोर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] डोर । रस्सी । उ०—मन खेलार तन चंग नव उड़त रंग रस डोर । दूरिहि दोर बटोर जब जब पारै तब ठोर ।—स० सप्तक, पृ० २५१ ।

दोरक
संज्ञा पुं० [सं०] १.डोरी । डोर । २. धागा । डोरा । वीणा के पदों को बाँधने में काम आनेवाली ताँत [को०] ।

दोरदंड पु † (१)
वि० [सं० दुर्दण्ड] दे० 'दुर्दंड' ।

दोरदंड पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० दोर्दणड] दे० 'दोर्दंड' ।

दोरना †
क्रि० अ० [हिं० दौड़ना] दे० 'दौड़ना' । उ०—तब रूप चदनेदां दोरे ई आए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९२ ।

दोरस †
संज्ञा पुं० [हिं० दो + रस] दे० 'दोमट' ।

दोरसा (१)
वि० [हिं० दो + रस] दो प्रकार के स्वाद या रसवाला । जिसमें दो तरह के रस या स्वाद हों ।

दोरसा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पीने का तमाकू जिसका धूआँ कडुआ और मीठा मिला हुआ होता है ।

दोरा † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] हल के मुठिया के पास लगी हुई बाँस की वह नली जिसमें बोने के लिये बीज डाला जाता है । भाला ।

दोरा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० दोरक] डोरा । दोर । दोरक ।

दोराना †
क्रि० स० [हिं० दोरना] दे० 'दौड़ाना' । उ०—तब तत्काल नाव दोराई ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ११० ।

दोराहा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + राह] वह स्थान जहाँ से आगे की ओर दो मार्ग जाते हों ।

दोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोर] दे० 'डोरी' ।

दोरुखा
वि० [फा़० दोरुखह्] १. जिसके दोनों ओर समान रंग या बेल बूटे हों । जैसे, दोरुखा कपड़ा, दोरुखी साड़ी, दो- रुखा साफा । २. जिसके एक ओर एक रंग और दूसरी ओर दूसरा रंग हो । कपड़ों की इस प्रकार की रंगाई प्रायः लखनऊ और बीकानेर में होती हैं । ३. सोनारों का एक औजार जो हँसुली बनाने के काम में आता है ।

दोरेजी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] नील की वह दूसरी फसल जो पहले साल की फसल कट जोने के उपरांत उसकी जड़ों से फिर होती है ।

दोर
संज्ञा पुं० [सं०] दोः का समासप्राप्त रूप ।

दोर्ज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्यसिद्धांत के अनुसार वह ज्या जो भुज के आकार की हो ।

दोर्दड
संज्ञा पुं० [सं० दोर्दड] भुजदंड ।

दोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. झूला । हिंडोला । उ०—राधा माधव झूलिबों, अलि को अलि प्रति बैन । तेई दोल अनमोल हैं, लोल लसै सुख दैन ।—दीन० ग्रं०, पृ० ४ । २. डोली । चंडोल । ३. एक उत्सव । दोनोत्सव ।

दोल (२)
संज्ञा पुं० [फा़०] डोल । कुएँ से पानी निकालने का बर्तन [को०] ।

दोलड़ा †
वि० [हिं० दो + लड़ ] [वि० स्त्री० दोलड़ी] दो लड़ों का । जिसमें दो लड़ें हों ।

दोलत्ती
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दुलती' ।

दोलना
क्रि० अ० [सं० दोलन] १.हिलना । काँपना । लरजना । उ०—हरी बिछली धास । दोलती कलगी छरहरी बाजरे की ।—हरी घास०, पृ० ५७ । २. डौलना । घूमना । उ०— दिन दिन गढ जोधांणी ढोला । रसता झपट मिटैं नह रोला ।—रा० रू०, पृ० २८४ ।

दोला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पेड़ । २. हिंडोला । झूला । ३. डोली या चँडोल । ४. दे० 'दोलायंत्र' (को०) । ५. अनिश्चयात्मक स्थिति (को०) ।

दोलाधिरूढ़
वि० [सं० दोलाधिरूढ] १.झूले बा हिंडोले पर चढ़ा हुआ । २. अनिश्चित (लक्ष०) ।

दोलायंत्र
संज्ञा पुं० [दोलायन्त्र] वैद्यों का एक यंत्र जिसकी सहायता से वे ओषधियों के अर्क उतारते हैं । विशेष—एक घड़े में कुछ द्रव पदार्थ (तेल, घी, पानी आदि) भर कर उसे आग पर चढ़ाते हैं । कुछ ओषधियों की पोटली बाँधकर उस पोटली को एक डोरे से घड़े के मुँह पर रखी हुई लकड़ी से इस तरह लटकाते हैं कि वह पोटली उस द्रव पदार्थ के बीच में रहे पर घड़े की पेंदी से न छू जाय । इस प्रकार उन ओषजियों का अर्क उस तरल पदार्थ में उतर आता है ।

दोलायमान
वि० [सं०] १. झूलता हुआ । हिलता हुआ । २. अस्थिर । चंचल । ढुलमुल (को०) । ३. झूलता हुआ संशयात्मा । संशयग्रस्त (को०) ।

दोलायित
वि० [सं०] दोलित । झूलता हुआ [को०] ।

दोलायुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह युद्ध जिसमें बार बार दोनों पक्षों की हार जीत होती रहे और जल्दी किसी एक पक्ष की अंतिम विजय न हों ।

दोलावा †
संज्ञा पुं० [?] वह कुआँ जिसमें दोनों ओर दो गरा- ड़ियाँ लगी हो ।

दोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिंडोला । झूला । उ०—झूलत पिय नंदलाल, झुलवत सब ब्रज की बाल, बृंदा वन नवल- कुंज लोल दोलिका ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३६३ । २. डोली । पालकी ।

दोलित
वि० [सं०] १. झूलता हुआ । २. कंपित । हिलता हुआ । उ०—ऊपर शोभित मेघ छत्र सित, नीचे अमित नील जल दोलित ।—अपरा, पृ० २४ ।

दोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डोली । पालकी । २. झूला ।

दोलू
संज्ञा पुं० [?] दाँत (डिं०) ।

दोलात्सव
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णवों का एक त्यौहार जिसमें वे अपने ठाकुर जी को फूलों के हिंडोले पर झुलाते हैं । यह उत्सव फागुन की पूर्णिमा को होता है ।

दोलोही †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दुलोही' ।

दोवटी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दुपट्टी] दे० 'दुपटी' । उ०—सैन तेरी कोई न समझे जीभ पकरी आनि । पाँच गज दोवटी माँगी चून लीयौ सानि ।—कबीर ग्रं०, पृ० १९४ ।

दोवड़ पु
वि० [देशी] दे० 'दोहरा' । उ०—दूजा दोवड़ चोवड़ा, ऊँट कटालउ खाँण । जिण मुख नागरिबेलियाँ सो करहउ केकाँण ।—ढोला०, दू० ३०९ । यौ०—दोवड चोवड़ ।

दोवण पु †
संज्ञा पुं० [सं० दुर्मनस्, हिं० दुबन] शत्रु । वैरी । उ०— महाराजधिराज सुग्रीव मनाँरा सारा कारज सारे । कीधो भूप पुरी केकंधा दोवण दूर विदारे ।—रघु० रू०, पृ० १५६ ।

दोवा †
संज्ञा पुं० [हिं० देवबाँस] देवबाँस नाम का बाँस जो बंगाल में बहुत होता । वि० दे० 'देवबाँस' ।

दोश
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का लाख जिसका व्यवहार रंग बनाने में होता है ।

दोशमाल
संज्ञा पुं० [फा़०] वह अँगोछा या तौलिया जो कसाई अपने पास रखते हैं ।

दोशाखा
संज्ञा पुं० [फा़० दुशाखह] १. वह शमादान जिसमें दो बत्तियाँ हों । दो डालों की दीवारगीर । २. भाँग छानने की लकड़ी जिसमें दो शाखें होती हैं और जिसमें साफी बाँध कर भाँद छानते हैं । इसका आकार ऐसा होता है—?

दोशाला
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'दुशाला' ।

दोशीजगी
संज्ञा स्त्री० [फा़० दोशीजगी] अल्हड़ अवस्था । कुवाँरा- पन [को०] ।

दोशीजा (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० दोशीजह्] कुमारी कन्या । अल्हड़ और युवा लड़की । अंकुरितयौवना ।

दोशीजा (२)
वि० अंकुरितयौवना । अल्हड़ । उ०—कुंजों में छिप छिप छेड़ रहा दोशीजा कलियों को फागुन ।—ठंढा०, पृ० २७ ।

दोष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरापन । खराबी । अवगुण । ऐब । नुक्स । जैसे, आँख या कान का दोष, लिखने या पढ़ने का दोष, शासन के दोष आदि । मुहा०—दोष लगाना = किसी के संबंध में यह कहना कि उसमें अमुक दोष है । दोष का आरोप करना । दोष नीकालना = दोष का पता लगाना । अवगुण को प्रसिद्ध या प्रकट करना । यौ०—दोषकर, दोषकारी = दे० 'दोषकृत्' । दोषग्राही । दोषज्ञ । दोषत्रय = कफ, पित्त और वायु । दोषदृष्टि । दोषपत्र । दोषमाक् = दोषी । अपराधी । दोषदर्शी = दोष दिखलानेवाला । ऐब दिखलानेवाला । २.लगाया हुआ अपराध । अभियोग । लांछन । कलंक । मुहा०—दोष देना या लगाना = लांछन या कलंक का आरोप करना । यौ०—दोषारोपण = दोष देना या लगाना । ३. अपराध । कसूर । जुर्म । ४. पाप । पातक । ५. वैद्यक के अनुसार शरीर में रहनेवाले वात, पित्त और कफ, जिनके कुपित होने से शरीर में विकार अथवा ब्याधि उत्पन्न होती है । ६. न्याय के अनुसार वह मानसिक भाव जो मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न होता है और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य भले या बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है । ७. नव्य न्याय में वह त्रुटि जो तर्क के अक्यवों का प्रयोग करने में होती है । यह तीन प्रकार की होती है—अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असद्राव । ८. मीमांसा में वह अदृष्टफल जो विधि के न करने या उसके विपरीत आचरण से होता है । ९. साहित्य में वे बातें जिनसे काव्य के गुण में कमी हो जाती है । विशेष—यह पाँच प्रकार का होता है—पददोष, पदांशदोष, वाक्यदोष, अर्थदोष और रसदोष । इनमें से हर एक के अलग अलग कई गौण भेद हैं । १०. भागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक का नाम । ११. प्रदोष । गोधूलिकाल । १२. विकार । खराबी (को०) । १३. अशुद्धि । गलती (को०) । १४. वत्स । बछड़ा (को०) ।

दोष (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्वेष] द्वेष । विरोध । शत्रुता । उ०—सो जन जगत जहाज है जाके राग न दोष । तुलसी तृष्णा त्यागि कै गह्येउ शील संतोष ।—तुलसी (शब्द०) ।

दोषक
संज्ञा पुं० [सं०] वछड़ा । गौ का बच्चा ।

दोषकृत्
वि० [सं०] दोष करनेवाला । बुराई करनेवाला । अहितकर [को०] ।

दोषग्राही
संज्ञा पुं० [सं० दोषग्राहिन्] दुष्ट । दुर्जन ।

दोषघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह औषध जिससे कुपित कफ, वात और पित्त का दोष शांत हो ।

दोषघ्न (२)
वि० दोषों का शमन करनेवाला [को०] ।

दोषज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] पंडित । विद्वान् ।

दोषण † (१)
संज्ञा पुं० [सं० दूषण] दोष । उ०—वयण सगाई वेश, मिल्या साँच दोषण मिटै ।—रा० रू०, पृ० १३ ।

दोषण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दोष लगाना [को०] ।

दोषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दोष का भाव ।

दोषत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दोष का भाव ।

दोषदृष्टि
वि० [सं०] बुराई ढूँढनेवाला । छिद्रान्वेषी । दोष देखनेवाला [को०] ।

दोषन पु †
संज्ञा पुं० [सं० दूषण] दोष । दूषण । अपराध । उ०— महरि तुमहिं कछु दोषन नाहीं । हमको देखि देखि मुसकाहीं ।—सूर (शब्द०) ।

दोषना पु †
क्रि० स० [सं० दूषण + हिं० ना (प्रत्य०) अथवा सं० दोषण] दोष लगाना । अपराध लगाना । उ०—(क) चोरी होय सूलि पर मोखी । देय जो सूरी तेहिं नहिं दोखी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) कइ कइ फेरा नित यह दोषे । बारहिं बार फिर संतोषे ।—जायसी (शब्द०) ।

दोषपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह कागज जिसपर किसी अपराधी के अपराधों का विवरण लिखा हो । फर्द करारदाद जुर्म ।

दोषरण
संज्ञा पुं० [सं० दोष + रण] १. वह जो दोषों को मिटा दे । वह जो भक्तों के दोष दूर करे । २. दोषों से युद्ध । दोष का संघर्ष । उ०—चलता नीहं हाथ, कोई नहीं साथ, उन्नत, विनत माथ, दो शरण, दोषरण ।—गीतगुंज, पृ० ५० ।

दोपल
संज्ञा पुं० [सं०] जिसमें दोष हो । दोषयुक्त । दूषित ।

दोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि । रात । यौ०—दोषाकर । २. संध्या । ३. भुजा । बाँह ।

दोषाकर
संज्ञा पुं० [सं० ] १. चंद्रमा । २. दोषों का आकर । दोष समूह (को०) ।

दोषाक्लेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनतुलसी ।

दोषाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] लगाया हुआ अपराध । अभियोग ।

दोषातिलक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदीप । दीपक । दीआ ।

दोषारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पर दोष का आरोप करना । कलंक लगाना ।

दोषावह
वि० [सं०] दोषयुक्त । दोषपूर्ण । जिसमें दोष हों ।

दोषास्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदीप । दीप । दीया [को०] ।

दोषिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रोग । बीमारी ।

दोषिक (२)
वि० दे० 'दूषित' ।

दोषित
वि० [सं० दूषित] दोषवाला । दोषयुक्त । ऐबी [को०] ।

दोषिन †
संज्ञा स्त्री० [हीं० दोषी] १. अपराधिनी । २. पाप करनेवाली स्त्री । ३. वह कन्या जिसने कुँवारेपन ही में पुरुषप्रसंग किया हो ।

दोषिल †
संज्ञा पुं० [प्रा० दोसिल्ल] दे० 'दोषल' । उ०— लाग दोष गोहूँ के खाये । बिछुरा प्रीतम दोषिल पायें ।—इंद्रा०, पृ० ८५ ।

दोषी
संज्ञा पुं० [सं० दोषिन्] [स्त्री० दोषिणी] १. अपराधी । कसूरवार । २. पापी । ३. मुजरिम । अभियुक्त । ४.जिसमें दोष हो । जिसमें ऐब या बुराई हो ।

दोषैकदृक्, दोषैकदृष्टि
वि० [सं०] छिद्रान्वेषी । दोष मात्र ही देखनेवाला [को०] ।

दोस पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० दोष] दे० 'दोष' ।

दोस पु (२)
संज्ञा पुं० [फा़० दोस्त] दोस्त । मित्र । जैसे, दोसदार, दोसदारी में 'दोस' ।

दोसत पु †
संज्ञा पुं० [फा़० दोस्त] दे० 'दोस्त' । उ०—दादू दोसत जीव का जन रज्जब जग माँहि । के जिन सिरजे सो सही तीजा कोई नाँहि ।—रज्जब०, पृ० ३ ।

दोसदार पु
संज्ञा पुं० [फा़० दोस्तदार] मित्र । यार । उ०— किनायत अजब गंज है पायदार । फना जिसको हरगिज नहीं दोसदार ।—दक्खिनी०, पृ० २१२ ।

दोसदारी पु †
संज्ञा स्त्री० [फा़० दोस्तदारी] मित्रता । दोस्ता ।

दोसर †
वि० [हिं०] दे० 'दूसरा' । उ०—नायिकाक दोसर शरीर अइसन श्यामाजाति सखी ।—वर्ण०, पृ० ५ ।

दोसरता †
संज्ञा पुं० [हिं० दूसरा + ता (प्रत्य०)] द्विरागमन । गौना । मकलावा ।

दोसरा †
वि० [हिं० दूसरा] [वि० स्त्री० दोसरि, दोसरी] दे० 'दूसरा' । उ०—(क) भलेहिं रंग तोहि आछरि राता । मोहि दोसरें सौं भाव न बाता ।—जयसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २६१ । (ख) जौं जोगिहि सुठि बंदर काटा । एकै जोग न दोसरि बाटा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २६८ ।

दोसरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो] दो बार जोती हुई जमीन ।

दोसरी (२)
वि० स्त्री० [हिं० दूसरा] दे० 'दूसरा' । उ०—सोवारी रहट घाट वौसीस प्रकार पुरविन्यास, कथा कहुलोका, जनि दोसरी अमरावति क अवतार भा ।—कीर्ति०, पृ० २८ ।

दोसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० दोषा] दे० 'दोषा' ।

दोसा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो पानी में होती है । इसका बहुत अंश पानी में डूबा रहता है और इसमें एक प्रकार के दाने अधिकता से होते हैं ।

दोसाध
संज्ञा पुं० [हिं० दुसाध] दे० 'दुसाध' ।

दोसाल
संज्ञा पुं० [देश०] बरमा के हाथियों की एक जाति । विशेष—इस जाति का हाथी कुमरिया से कुछ छोटा होता है और साधारणतः लकड़ियाँ आदि ढोने या सवारी आदि के काम में आता है ।

दोसाला † (१)
वि० [हिं० दो + साल(= वर्ष)] दो वर्ष का । दो वर्ष का पुराना ।

दोसाला (२)
संज्ञा पुं० [फा़० दुशालहू] दे० 'दुशाला' । उ०—केसरि को यह तिलक पीतंमर दोसाला ।—सं० दरिया, पृ० १०३ ।

दोसाही †
वि० [हिं० दो + ?] दोफसला । (जमीन) जिसमें साल में दो फसलें पैदा हों ।

दोसी † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दही ।

दोसी (२)
संज्ञा पुं० [सं० दोषी] दे० 'दोषी' ।

दोसूती
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + सूत] दोतही या दुसूती नाम की मोटी चादर जो बिछाने के काम में आती है ।

दोस्त
संज्ञा पुं० [फा़०] १.मित्र । स्नेही । २.वह जिससे अनुचित संबंध हो । यार (बाजारू) ।

दोस्तदार
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'दोस्त' ।

दोस्तदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'दोस्ती' ।

दोस्ताना (१)
संज्ञा पुं० [फा़० दोस्तानह्] १. दोस्ती । मित्रता । २. मित्रता का व्यवहार ।

दोस्ताना (२)
वि० दोस्ती का । मित्रता का ।

दोस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १.मित्रता । स्नेह । २. अनुचित संबंध । याराना (बाजारू) ।

दोस्ती रोटी
संज्ञा स्त्री० [फा़० दोस्ती + हिं० रोटी] एक प्रकार की रोटी जो आटे की दो लोइयों के बीच में घी लगाकर और एक को दूसरी पर रखकर बेलते और तब तवे पर घी लगाकर पकाते हैं । दो परत की रोटी । दुपड़ी । विशेष—पकने पर इसमें की दोनो लौइवाँ अलग हो जाती हैं ।

दोस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. नौकर । दास । २. सेवा । दासत्व । ३. खेल । क्रीडा । ४. खेलनेवाला व्यक्ति [को०] ।

दोहु पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्रोह] दे० 'द्रोह' ।

दोह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोहन । दूहना । २. दुग्ध । दूध । ३. दूध दुहने का बर्तन । ४. किसी से लाभ उठाना । किसी वस्तु से फायदा प्राप्त करना [को०] । यौ०— दोहापनय । दोहज ।

दोहग †
संज्ञा पुं० [सं० दुर्भाग्य या दुर्भग, प्रा० दोहग्ग] विपरीत भाग्य । दुर्भाग्य । उ०—मन मिलिया तन गड्डिया दोहग दूरि गयाह । सज्जण पाणी खीर ज्यूँ खिल्लोखिल्ल थयाह ।—ढोला०, दू ५५३ ।

दोहगा †
संज्ञा स्त्री० [सं० दुर्भगा] वह स्त्री जिसका पति मर गया हो । और जिसको किसी दूसरे पुरुष ने रख लिया हो । रखनी । सुरैतिन । उपपत्नी । उ०—दोहगा सुतिय सोहागिन मेरी । गून जाति अच्युत कुल केरी ।—विश्राम (शब्द०) ।

दोहज
संज्ञा पुं० [सं०] दूध ।

दोहता †
संज्ञा पुं० [सं० दौहित्र] [स्त्री० दोहती] लड़की का लड़का । नाती । नवासा ।

दोहती † (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० दोस्ती] दे० 'दोस्ती रोटी' ।

दोहती † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दौहितृ] लड़की की लड़की । बेटी की बेटी । नतिनी ।

दोहत्थड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + हाथ या देश० हत्थल] दोनों हाथों से मारा हुआ थप्पड़ । क्रि० प्र०—पीटना ।—मारना ।

दोहत्था (१)
क्रि० वि० [हिं० दो + हाथ] दोनों हाथों से । दोनों हाथों के द्वारा ।

दोहत्था (२)
वि० दोनों हाथों का । जो दोनों हाथों से हो ।

दोहद
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गर्भवाली स्त्री की इच्छा । उकौना । उ०—प्रथम दोहदै क्यौं करौं निष्फल सुनि यह बात ।—केशव (शब्द०) । २.गर्भवती स्त्री की मतली इत्यादि । ३. गर्भा- वस्था । ४.गर्भ का चिह्न । ५. गर्भ । ६. एक प्राचीन विश्वास । कविसमय । कविप्रसिद्धि । विशेष— इसके अनुसार सुंदर स्त्री के स्पर्श से प्रियंगु, पान की पीक थूकने से मौलसिरी, चरणाघात से अशोक, दृष्टिपात से तिलक, आलिंगन से कुर्वक, मृदुवार्ता से मंदार, हँसी से पटु, फूँक मारने से चंपा, मधुर गान से आप और नाचने से कच- नार इत्यादि वृक्ष फूलते हैं । इस संबंध में संस्कृत साहित्य में निम्नांकित श्लोक प्रचलित है—'स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियंगुर्विकसति बकुलःशीधुगंडूष सेकात्' । पादाघातादशोकस्तिलककुरवकौ वीक्षणालिंगनाभ्याम् । मंदारी नर्मवाक्यात् पटु मृदुहमनात् चम्पको/?/क्त्रवातात् । चूतो गीतान्नमेरुर्विकसति च पुरो नर्त- नात् कर्णिकारः । ७. फलित ज्योतिष के अनुसार यात्रा के समय दिशा, वार या तिथि के भेद से उनके दोष की शांति के लिये खाए या पीए जानेवाले कुछ निश्चित पदार्थ । विशेष—इनको अलग अलग दिग्दोहद, वारदोहद और तिथि- दोहद कहते हैं । जैसे,—यदि पूर्व की ओर जाने में कोई दोष हो, तो उसकी शांति घी खाने से होती है । पश्चिम जाने में कोई दोष हो तो वह मछली खाने से, दक्षिण की ओर का दोष तिल की खीर खाने से और उत्तर की ओर का दोष दूध पीने से शांत होता है । इसी प्रकार रविवार को घी, सोमवार को दूध, मंगल को गुड़, बुध को तिल, बृहस्पति को दही, शुक्र को जौ और शनिवार को उंडद खाने से यात्रा संबंधी वारदोष की शांति हो जाती है । प्रतिपदा को मदार का पत्ता, द्वितीया को चावल का धोया हुआ पानी, तृतीया को घी आदि खाने से यात्रा संबंधी तिथिदोष की शांति हो जाती है । इस प्रकार दोहद से किसी दिशा, वार या तिथि की यात्रा से होनेवाले समस्त अनिष्टों या दुष्ट फलों का निवारण हो जाता है ।

दोहदलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भ का लक्षण या चिह्न । २. गर्भ- शिशु । भ्रूण । ३. अवस्थांतर । जीवन की एक अवस्था से दूसरी में गमन या प्रवेश [को०] ।

दोहदवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्मिणी । गर्भवती स्त्री जिसने गर्भ धारण किया हो ।

दोहदान्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'दोहदवती' ।

दोहदी
वि० [सं० दोहदिन्] अत्यंत इच्छुक । प्रबल इच्छायुक्त [को०] ।

दोहदोहीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकरा का वैदिक गीत या साम ।

दोहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुहना । गाय भैंस इत्यादि के स्तनों से दूध निकालना । २. दोहनी ।

दोहना पु
क्रि० स० [सं० द्रोह, प्रा० दोह + हिं० ना (प्रत्य०) अथवा सं० दोष + ना (प्रत्य०)] १. दोष लगाना । दूषित ठहराना । २. तुच्छ ठहराना । उ०—बेनी नवबाला की बनाय गुही बलभद्र, कुसुम असन पाट मन मोहियत है । काली सटकारी नीकी राजत नितंब नीचे पन्नग की नारिन की देह दोहियत है ।—बलभद्र (शब्द०) ।

दोहनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूध दुहंने की हाँड़ी । मिट्टी का वह बरतन जिसमें दूध दुहते हैं । उ०—दोहनी हाथ की हाथै रही न रह्यो मनमोहनी को मन हाथ में ।—शंभु (शब्द०) । २. दूध दुहने का काम ।

दोहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० दो + घड़ी (= तह)] एक प्रकार की चादर जो कपड़ों की दो परतो को एक में सीकर बनाई जाती है । विशेष—इसके चारों ओर गोट लगी रहती है । इसमें कभी कभी कपड़े की दोनों तहें एक ही कपड़े की होती हैं और कभी एक तह किसी मोटे कपड़े या छींट आदि की होती है और दूसरी तह मलमल आदि महीन कपड़े की ।

दोहरना (१)
क्रि० अ० [हिं० दोहरा] १. दो बार होना । दूसरी आवृत्ति होना । २. दोहरा होना । दो परतों का किया जाना । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।

दोहरना (२)
क्रि० स० दोहरा करना । संयो० क्रि०—देना ।

दोहरफ
संज्ञा पुं० [फा़०] धिक्कार । लानत । क्रि० प्र०—भेजना ।

दोहरा (१)
वि० पुं० [हिं० दो + हरा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० दोहरी] १. दो परत या तह का । २. दुगना ।

दोहरा (२)
संज्ञा पुं० १. एक ही पत्ते मे लपेटे हुए पान के दो बीड़े (तंबोली) । २. कतरी हुई सुपारी । सुपारी के छोटे छोटे टुकड़े । सुपारी, कत्था, लौंग, तंबाकू, चूने का मिश्रण । ३. दोहा नाम का छद । उ०—साखी सबदी दोहरा कहि निहनी उपखान । भगति निरूपहि भगत कलि निंदहिं वेद पुरान ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १५१ । वि० दे० 'दोहा' ।

दोहराना
क्रि० स० [हिं० दोहरा] १. किसी बात को पुनः करना या किसी काम को पुनः करना । किसी बात को दूसरी बार कहना या करना । किसी काम या बात की पुनरावृत्ति करना । †२. किसी कपड़े या कागज आदि की दो तहें करना । दोहरा करना । क्रि० प्र०—डालना ।— देना ।

दोहराहट
संज्ञा पुं० [हिं० दोहरा + हट (प्रत्य०)] दोहराने की क्रिया या भाव । दुहरापन । उ०—प्रभाव का अर्थ दोहराहट नहीं और यदि अन्यत्र कहीं हो तो भी मध्य प्रदेश में बिलकुल नहीं ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (सा०), पृ० ८९ ।

दोहरी पट
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोहरी + पट] कुश्ती का एक पेंच ।

दोहरी सखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोहरी + सखी] कुश्ती का एक पेंच ।

दोहल
संज्ञा पुं० [सं०] इच्छा । दोहद ।

दोहलवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भवती स्त्री ।

दोहला
वि० [हिं० दो + हल्ला] दो बार की ब्याई हुई (गौ आदि) (वह गौ आदि) जिसने दो बार बच्चा दिया हो ।

दोहली (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशोक का वृक्ष । २. आक का पेड़ । मंदार ।

दोहली (२)
संज्ञा स्त्री० वह भूमि जो ब्राह्मण को दी गई हो ।

दोहा
संज्ञा पुं० [हिं० दो + हा (प्रत्य०)] १. एक हिंदी छंद, जिसमें होते तो चार चरण हैं, पर जो लिखा दो पंक्तियों में जाता है, अर्थात् पहला और दूसरा चरण एक पंक्ति में और तीसरा और चौथा चरण दूसरी पंक्ति में लिखा जाता है । इसके पहले और तचीसरे चरण में १३—१३ मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे चरण में ११—११ मात्राएँ होती हैं । दूसरे और चौथे तरण का तुकांत मिलना चाहिए । जैसे,—राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर बाहिरो, जौ चाहसि उजियार । विशेष—इसी को उलट देने से सोरठा हो जाता है । २. संकीर्ण राग का एक भेद ।

दोहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दुहाई' । उ०—धरम की दोहाई देने, पाप पाप करने का कौन काम है ।—ठेठ०, पृ० २९ ।

दोहाक †
संज्ञा पुं० [सं० दौर्भाग्य] दे० 'दोहाग' ।

दोहाग पु †
संज्ञा पुं० [सं० दौर्भाग्य] दुर्भाग्य । बदनसीबी । बद- किस्मती । अभाग्य । उ०—परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ।—जायसी (शब्द०) ।

दोहागणी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोहाग] दुर्भाग्यवती । अभागिन स्त्री । उ०—नामि बिना दोहागणा भूली आवउ जाउँ ।—प्राण०, पृ० २१७ ।

दोहागा †
संज्ञा पुं० [हिं० दोहाग] [स्त्री० दोहागिन] अभागा । बदकिस्मत ।

दोहागिण पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० दुहागिणी, हिं० दोहागिन] दे० 'दुहागिन' । उ०—उत्तर आज स उत्तरउ, सीय पड़ेसी थट्ट । सोहागिण घर आँगणइ, दोहागिण रइ घट्ट ।—ढौला०, दू० २९० ।

दोहान †
संज्ञा पुं० [देश०] नौजवान बैल । बछवा ।

दोहापनय
संज्ञा पुं० [सं०] दूध ।

दोहाव
संज्ञा पुं० [हिं० दूहना] काश्तकारों की गौओं का वह दूध जो जमींदार के घर जाता है ।

दोहित (१)
वि० [सं०] दूहा हुआ । जिसे दूह लिया गाय हो [को०] ।

दोहित † (२)
संज्ञा पुं० [सं० दौहित्र] बेटी का बेटा । नाती ।

दोहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता] पुत्री । लड़की । तनया । उ०— सुता दोहिता कंठ लगाइ । लिए वस्त्र भूखन पहिराइ ।— अर्ध०, पृ० ५ ।

दोहिया
संज्ञा पुं० [देश०?] एक प्रकार का पौधा ।

दोही (१)
संज्ञा पुं० [हिं० दो] एक छंद जो दोहे की भाँति चार चरणों का होने पर भी दो ही पंक्तियों में लिखा जाता है । इसके पहले और तीसरे चरण में पंद्रह पंद्रह मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे चरण में ग्यारह ग्यारह मात्राएँ होती हैं । इसके अंत में एक लघु होना चाहिए । जैसे—विरद सुमिरि सुधि करत नित ही, हरि तुव चरन निहार । यह भव जल निधि तें मुहिं तुरत, कब प्रभु करिहहु पार ।

दोही (२)
संज्ञा पुं० [सं० दोहिन] १. दूध दुहनेवाला । २. ग्वाला ।

दोहीपु † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० दुहाई] दे० 'दुहाई' । उ०—दीठि को और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही ।— घनानंद, पृ० ६ ।

दोहुर †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह भूमि जिसमें बालू अधिक हो । बलुई जमीन ।

दोह्य (१)
वि० [सं०] दूहने योग्य । जो दूहा जा सके ।

दोह्य (२)
संज्ञा पुं० १. दूध । २. गाय, भैंस आदि जानवर जो दूहे जाते हैं ।

दौँ पु (१)
अव्य० [सं० अथवा] वा । अथवा । विशेष—दे० 'धौं' ।

दौँ पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दव] दे० 'दौ' ।

दौँकना पु
क्रि० अ० [हिं० दमकना] दे० 'दमकना' ।

दौँगड़ा †, दौँगरा
संज्ञा पुं० [हिं० दौ (= आग या गरमी)] वह हलकी वर्षा जो गरमी के दिनों में तपी हुई धरती पर होती है । बौछार । क्रि० प्र०—पड़ना ।

दौँध
संज्ञा स्त्री० [हिं०] ? दे० 'दोच' । २. दाब पड़ने से धातु में पड़ी हुई खराँच या विपटापन ।

दौँचना पु †
क्रि० स० [हिं० दबोचना] १. दबाव डालकर लेना । किसी न किसी प्रकार लेना । २. लेने के लिये अड़ना । उ०— तंदुल माँगि दौंचि कै लाई सो दीनों उपहार । फाटे वसन बाँधि कै द्विजवर अति दुर्बल तन हार ।—सूर (शब्द०) ।

दौँजा †
संज्ञा पुं० [देश०] मचान । पाड़ ।

दौँरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० दाँना या दाँवना] १. एक साथ रस्सी में बँधे हुए बैलों का झुंड जो कटी फसल के डंठलों पर दाना झाड़ने के लिये फिराया जाता है । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—नाधना ।—हाँकना । २. वह रस्सी जिसे उन बैलों के गले में डालते हैं जो दाँने के लिये फिराए जाते हैं । ३.झुंड ।

दौ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० दव] १. आग । जंगल की आग । उ०— (क) मन पाँचों के बस परा मन के बस नहीं पाँच । जित देखौ तित दौ लगी, जित भागौ तित आँच ।—कबीर (शब्द०) । (ख) तौ लौं मातु आपु नीके हरिबो । जौ लौं हौं ल्यावों रघुबीरहि दिन दस और दुसह दुख सहिबो ।...लंक दाहु उर आनि मानिबो साँचु रामसेवक को कहिबो । तुलसी प्रभु को सुर सुजस गैहैं मिटि जैहैं सबके सोच दौ दहिबो ।— तुलसी (शब्द०) । २. संताप । ताप । जलन । उ०—ससि ते शीतल मोको लागै माई री तरनि । याके उए बरति अधिक अंग अंग दौ, वाके उए मिटति रजनि जनित जरनि । सब विपरीत भये माधो बिनु, हित जो करत अनहित सत की करनि । तुलसीदास स्यामसुंदर विरह की दुसह दसा सो मोपै परती नहीं बरनि ।—तुलसी (शब्द०) ।

दौकूल (१)
वि० [सं०] कपड़े का । दुकूल संबंधी ।

दौकूल (२) †
संज्ञा पुं० १. उत्कृष्ट सिल्क । उत्तम चीनांशुक । २. रथ या गाड़ी जो रेशमी वस्त्रों से आच्छादित हो [को०] ।

दौगूल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'दौकूल (२)' [को०] ।

दौड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ना] १. दौड़ने की क्रिया या भाव । साधारण से अधिक वेग के साथ गति । द्रुतगमन । धावा । तेजी से चलने या जाने की क्रिया । यौ०—दौड़ मारना = (१) वेग के साथ जाना । (२) दूर तक पहुँचना । लंबी यात्रा करना । जैसे,—कलकत्ते से यहाँ आ पहुँचे, बड़ी लंबी दौड़ मारी । दौड़ लगाना = दे० 'दौड़ मारना' । जैसे,—बड़ी लंबी दौड़ लगाई । २.धावा । वेगपूर्वक आक्रमण । चढ़ाई । ३. उद्योग में इधर उधर फिरने की क्रिया । प्रयत्न । मुहा०—दौड़ मारना = उद्योग में इधर उधर फिरना । कोशिश में हैरान होना । ४. द्रुतगति । वेग । मुहा०—मन की दौड़ (दौर) = चत्त की सूझ । कल्पना । उ०—भक्ति रूप भगवंत की भेष जो मन की दौर ।—कबीर (शब्द०) । ५. गति की सीमा । पहुँच । जैसे,—मुल्ला की दौड़ मसजिद तक । ६. उद्योग की सीमा । प्रयत्नों की पहुँच । अधिक से अधिक उपाय या यत्न जो हो सके । ७. बुद्धि की गति । अक्ल की पहुँच । जैसे,—जहाँ तक जिसकी दौड़ होगी वहीं तक न अनुमान करेगा । ८. विस्तार । लंबाई । आयत । जैसे, दुशाले की बेल या हाशिये की दौड़ । ९. सिपाहियों का दल जो अपराधियों को एकबारगी पकड़ने के लिये जाय । जैसे, पुलिस की दौड़ । क्रि० प्र०—आना ।—जाना ।—पहुँचना । १०. जहाज पर की वह चरखी जिसमें लकड़ी डालकर घुमाने से वह जंजीर खिसकती है जिसमें पतवार बँधा रहता है । ११. दौड़ने की प्रतियोगिता । जैसे,—इस बार की दौड़ में वह प्रथम आया है ।

दौड़धपाड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ + धपाड़] दे० 'दौड़धूप' ।

दौड़धूप
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ + धूप] किसी कार्य के लिये इधर उधर फिरने की क्रिया या भाव । किसी काम के लिये बार बार चारों ओर आना जाना । परिश्रम । प्रयत्न । उद्योग । जैसे—(क) उसने बहुत दौड़धूप की है । (ख) अभी रोग का आरंभ है दौड़धूप करोगे तो अच्छा हो जायगा । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

दौड़ना
क्रि० अ० [सं० धोरण, हिं० धौरना] १. साधारण से अधिक वेग के साथ गमन करना । द्रुतगति से चलना । मामूली चलने से ज्यादा तेज चलना । जैसे,—(क) दौड़कर न चलो गिर पड़ोगे । (ख) वह लड़का उधर दौड़ा जा रहा है । संयो० क्रि०—आना ।—जाना । मुहा०—दौड़ पड़ना = एकबारगी वेग के साथ गमन करना । जैसे,—जहाँ वह दिखाई दिया कि आप उसकी ओर दौड़ पड़े । चढ़ दौड़ना = चढ़ाई करना । धावा करना । आक्रमण करना । दौड़ दौड़कर आना = जल्दी जल्दी आना । बार बार आना । जैसे,—मेरे पास क्या दौड़ दौड़कर आते हो, मैं कुछ नहीं कर सकता । दौड़ दौड़कर जाना = जल्दी जाना । बार बार जाना । जैसे,—उसके घर क्या रखा है जो दौड़ दौड़कर जाते हो? २. सहसा प्रवृत्त होना । झुक पड़ना । ढलना । जैसे,—तुम बुरा भला नहीं देखते हो, जो बात हुई उसी के पीछे दौड़ पड़ते हो । क्रि० प्र०—पड़ना । ३. किसी प्रयत्न में इधर उधर फिरना । किसी काम के लिये चारों ओर बार बार आना जाना । उद्योग करना । कोशिश में हैरान होना । उपाय या चेष्टा करना । जैसे,—(क) नौकरी के लिये बहुत दौड़ा, पर न मिली । (ख) उसकी बीमारी में वह बहुत दौड़ा । यौ०—दौड़ना धूपना । ४. फैलना । व्याप्त होना । छा जाना । जैसे, स्याही दौड़ना, लाली दौड़ना, चेहरे पर खून दौड़ना । क्रि० प्र०—जाना ।

दौड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ + आई (प्रत्य०)] १. दौड़ने का भाव या क्रिया । २. परेशानी । दौड़ धूप ।

दौड़ादौड़ (१)
क्रि० वि० [हिं० दौड़ + दौड़] [संज्ञा दैड़ादौड़ी] अविश्रांत । बेतहाशा । बिना कहीं रुके हुए । जैसे,—अभी बहाँ से दौड़ादौड़ चला आ रहा हूँ ।

दौड़ादौड़ (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'दौड़ादौड़ी' ।

दौड़ादौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० दोड़ना] १. दौड़धूप । २. बहुत से लोगों की एक साथ इधर उधर दौड़ने की क्रिया । ३. रवारवी । आतुरता । हड़बड़ी । जैसे,—दौड़ादौड़ी में कोई काम ठीक नहीं होता ।

दौड़ान
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ना] १ दौड़ने की क्रिया या भाव । द्रुतगमन । २. वेग । भोंक । ३. सिलसिला । ४. फेरा । बारी । पारी ।

दौड़ाना
क्रि० स० [हिं० दौड़ना का सकर्मक रूप] १. दौड़ने की क्रिया कराना । साधारण से अधिक वेग से चलाना । द्रुत- गमन कराना । जैसे, घोड़ा दौड़ाना, सिपाही दौड़ाना । संयो० क्रि०—देना । २.बार बार आने जाने के लिये कहना या विवश करना । हैरान करना । जैसे,— चार रुपए के लिये क्यों बार बार दौड़ाते हो? । ३. किसी वस्तु को याहँ से वहाँ तक ले जाना । एक जगह से खींचकर दूसरी जगह करना । जैसे,— इस चारपाई को जरा उधर दौड़ा दो । संयो० क्रि०—देना ।४. फैलाना । पोतना । जैसे, स्याही दौड़ाना । संयो० क्रि०—देना । ५. फैरना । जैसे, दीवार पर कूँची दौड़ाना ।

दौड़ाहा
संज्ञा पुं० [हिं० दौड़ + हा (प्रत्य०)] दौरा करनेवाला हाकिम । उ०—दौड़ाहा (दौरा करनेवाला हाकिम) किसानों के भूमि संबंधी झगडों को निपटाने के लिये अपनी पल्टन लेकर तराई में दौरा करने के लिये राणा सरकार की ओर से दूसरे तीसरे वर्ष भेजा जाता था ।—नेपाल०, पृ० १२० ।

दौढ़ †
वि० [सं० द्वि + अर्ध] डेढ़ । उ०—दौढ़ पहर हिंदू तुरक, कहर लड़े रिण ढाँण ।—रा० रू०, पृ० २७२ ।

दौत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दूत का काम ।

दौन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'दमन' ।

दौन † (२)
संज्ञा पुं० [सं० दुर्मनस्, हिं० दुवन] शत्रु । वैरी । उ०—महाँ सूरा पूरा कौन अहिनिशि जूझै दुरजन दौन ।—प्राण०, पृ० २७० ।

दौना (१)
संज्ञा पुं० [सं० दमकन] एक पौधा जिसकी पत्तियाँ गुल- दाऊदी की तरह कटावदार होती हैं और जिनमें से तेज पर कडुई सुगंध आती है । विशेष—इस पौधे की डालियों के सिरे पर एक पतली सींक में मंजरी लगती है जिसमें महीन महीन फूल होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर उस मंजरी के बीजकोशों में छोटे छोटे दाने पड़ते हैं जो पकने पर झड़ जाते हैं । पौधे बीजों से उत्पन्न होते और बरसात में उगते हैं पर पुराने पेड़ भी सालों रह जाते हैं । वैद्यक में दौना शीतल, कड़आ, कसैला, हृदय को हितकारी तथा खुजली, विस्फोटक आदि को दूर करनेवाला माना जाता है ।

दौना † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'दोना' । उ०—अरी माई मेरो मन हरि लीन्हों नंद को ढोटौना । चितवन में वाके कछु टौना । ...बौलत नहीं रहत वह मौना । दधि लै छीनि खात रह्यो दौना ।—सूर (शब्द०) ।

दौना (३)
क्रि० स० [सं० दमन हिं० दौन] दमन करना । उ०— केकई करी धौं चतुराई कौन? राम लखन सिय बनहिं पठाए पति पठए सुरभौन । कहा भलो धौं भयो भरत को लगे तरुन तन दौन ।—तुलसी (शब्द०) ।

दौनागिरि
संज्ञा पुं० [सं० द्रोणगिरि] द्रोणगिरि नामक पर्वत जो क्षीरोद समुद्रस्थ लिखा गया है । लक्ष्मण को शक्ति लगने पर हनुमान जी यहीं ओषधि लेने के लिये भेजे गए थे । उ०— दौनागिरि हनुमान सिधाए । संजीवनी को भेद न पायो तब सब शैल उचायो ।—सूर (शब्द०) ।

दौनाचल पु
संज्ञा पुं० [सं० द्रोणाचल] दे० 'दौनागिरि' ।

दौर (१)
संज्ञा पुं० [अ० दौर] १. चक्कर । भ्रमण । फेरा । २. दिर्नो का फेर । कालचक्र । ३.अभ्युदय काल । बढ़ती का समय । यौ०—दौरदौरा = (१) प्रधानता । प्रबलता । चलती । उ०— क्रामवेल के समय में प्रजासत्तात्मक राज्य स्थापित होने पर पयुरिटन लोगों का जैसा दौरदैरा ग्रेट ब्रिटेन में था, वैसा ही, इस समय अमेरिका के न्यू इंगलैंड नामक सूबे में हैं ।— स्वाधीनता (शब्द०) । (२) आतंक । उ०—वृर्भाग्य से भार- तीय इतिहास की विवेचना में अभी तक इसी लाल बुझक्क्ड़ व्याख्याशैली का जोर रहा है और विद्यार्थियों की पाठयपुस्तकों में तो उसका एकमात्र दौरदौरा है ।—भारत० नि०, पृ० ७ । ४. प्रताप । प्रभाव । हुकूमत । ५. दे० 'दौरा' । उ०—वीर जीत पूरब दिसि लीन्हौ । वीर दौर पश्चिम कौ कीन्हौ ।—लाल (शब्द०) । ६. बारी । पारी । मुहा०—दौर चलना = शराब के प्याले का बारी बारी से सबके सामने लाया जाना । ७. वार । दफा । जैसे,—दूसरे दौर मे यह इतना काम भी पूरा हो जायगा ।

दौर पु (२)
संज्ञा स्त्री० १. दे० 'दौड़' । २. धावा । आक्रमण । उ०— एक दौर करो रौर मेरो भर कौर कपि एक बार सिंधुधार सबको बहायहौ ।—हनुमान (शब्द०) । ३. वेग । द्रुतगति । उ०—जेती लहर समूद्र की तेती मन की दौर ।—कबीर (शब्द०) । ४. प्रयत्नों की पहुंच या सीमा । उ०—सीतापति रघुनाथ जी तुम लगि मेरी दौर ।—(शब्द०) ।

दौरान पु †
क्रि० अ० [हिं० दौड़ना] १. दे० 'दौड़ना' । २. फैलना । छा जाना । उ०—दूरि लौ दौरत दंतन की दुति ज्यों अधरा उधरैं अति मीठे ।—तोष (शब्द०) ।

दौराँनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० देवर] दे० 'देवरानी' । उ०—आवौ, आवौ, दौराँनी मेरी आवौ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१३ ।

दौरा (१)
संज्ञा पुं० [अ० दौर] १. चारो ओर घूमने की क्रिया । चक्कर । भ्रमण । क्रि० प्र०—करना । २.फेरा । भमण । गश्त । इधर उधर जाने या घूमने की क्रिया । ३. अफसर का अपने इलाके में जाँच परताल या देखभाल के लिये घूमना । निरीक्षण के लिये भ्रमण । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—दौरे पर रहना या होना = जाँच परताल या देखभाल के लिये सदर से बाहर रहना या होना । (असामी या मुकदमा) दौरा सुपूर्द करना = (असामी या मुकदमे को) विचार या फैसले के लिये सेशन जज के पास भेजना । (फौज- दारी के भारी मुकदमों को मजिस्ट्रेट सेशन जज के पास भेज देते हैं ।) दौरा सुपुर्द होना = सेशन जज के पास विचार के लिये भेजा जाना । उ०—हाकिम ने उन्हें दौरा सुपुर्द कर दिया ।—सेवा०, पृ० १४ । ४. ऐसा आना जाना जो समय समय पर होता रहता है । सामयिक आगमन । फेरा । जैसे,—डाकुओं के दौरे अब इधर फिर होने लगे हैं । ५. बार बार होनेवाली बात का किसी बार होना । ऐसी बात का प्रकट होना जो समय समय परहोती रहती है । ६. किसी ऐसे रोग का लक्षण प्रकट होना जो समय समय पर होता हो । आवर्तन । जैसे, मिरगी का दौरा । पागलपन का दौरा ।

दौरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्रोण] [स्त्री० अल्पा० दौरी] बाँस की फट्टियों, कास, मूँज, बेंत आदि का बना हुआ टोकरा ।

दौरात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुरात्मा का भाव । दुर्जनता । २. दुरात्मा का काम । दुष्टता । उ०—कुछ भी मुझको ज्ञान न था यह सौष्ठव का दौरात्म्य विशेष । में न जानता था जग में है, उदासीनता ही निःशेष ।—कुंकुम, पृ० ३३ ।

दौरादौर †
क्रि० वि० [हिं० दौड़ना] १. लगातार । अविश्रांत । २. धुन से । तेजी से ।

दौरादौरी †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौड़ना] दे० 'दौड़ादौड़ी' । उ०— आनंद प्रकासी सब पुरवासी करत ते दौरादौरी । आरती उतारैं सरबस वारैं अपनी अपनी पौरी ।—केशव (शब्द०) ।

दौरान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. दौरा । चक्र । २. कालचक्र । दिनों का फेर । ३. फेरा । बारी । पारी । ४. सिलसिला । झोंक ।

दौराना †पु
क्रि० स० [हिं० दौड़ाना] दे० 'दौड़ाना' । उ०— (क) भयो रजायसु जन दौराये ।—जायसी (शब्द०) । (ख) दौरावत चहूँ ओर हय देखत वात लजात ।— गुमान (शब्द०) ।

दौरित
संज्ञा पुं० [सं०] क्षति । हानि ।

दौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दौरा] बाँस या मूँज की छोटी टोकरी । चँगेरी । डलिया ।

दौर्गध्य
संज्ञा पुं० [सं० दौर्गन्ध्य] दुर्गधि । बदबू [को०] ।

दौर्ग
वि० [सं०] १. दुर्ग संबंधी । दुर्ग का । २. दुर्गा संबंधी । दुर्गा का ।

दौर्गत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १.दुर्गति । बुरी हालत । २. गरीबी । ३. व्यथा । पीड़ा [को०] ।

दौर्ग्य
संज्ञा पुं० [सं०] कठिनाई [को०] ।

दौर्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध यज्ञ [को०] ।

दौर्जन्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्जनता । दुष्टता ।

दौर्बल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्बलता । कमजोरी ।

दौर्भाग्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्भाग्य ।

दौर्भ्रात्र
संज्ञा पुं० [सं०] भाई भाई का आपसी झगड़ा । भाइयों का कलह [को०] ।

दौर्मनस्य
संज्ञा पुं० [सं०] 'दुर्मनस' होने का भाव । दुर्जनता । चित्त की खोटाई ।

दौर्य
संज्ञा पुं० [सं०] दूरी । उ०—ज्योतीष वसिष्ठादि ऋषियों की कृत है । उसमें वेद, अनध्याय तथा रेखा बीजगणित तथा सूर्यादि ग्रहों का दैर्य, सामीप्य और आपस का संयोग वियोग आदिक ब्यवहार लिखे हैं ।—श्रद्धाराम (शब्द०) ।

दौर्योधनि
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्योधन के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति ।

दौर्वृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुराचार । दुर्वृत्त का भाव [को०] ।

दौर्हार्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्हृद होने का भाव । दुष्ट स्वभाव । २. दुर्भाव । बैर ।

दौर्हृद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय की खोटाई । दुष्टता । २. दोहद ।

दौहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रुता । वैर । २. मन की मलिनता [को०] ।

दौर्हृदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भिणी स्त्री [को०] ।

दौलत
संज्ञा पुं० [अ०] धन । संपत्ति । क्रि० प्र०—उठाना ।—खर्चना ।—लगाना ।

दौलतखाना
संज्ञा पुं० [फा० दौलतखाना] निवासस्थान । घर । विशेष— इस शब्द का प्रयोग दूसरे के लिये आदरार्थक होता है । अपने लिये गरीबखाना लाया जाता है । जैस,—जापका दौलतखाना कहाँ है? मेरा गरीबखाना देहली है ।

दौलतमंद
वि० [फा०] धनी । संपन्न ।

दौलतमंदी
संज्ञा स्त्री० [फा०] संपन्नता । मालदारी । धनाढयता ।

दौलति पु
संज्ञा स्त्री० [फा० दौलत] दे० 'दौलत' । उ०— साहिन के उमराव जितेक सिवा सरजा सब लूटि लिए हैं । भूषन ते बिनु दौलति ह्वैके फकीर ह्वै देसविदेस गए हैं । लोग कहैं दमि दच्छिन जेय सिसौदिया रावरे हाल ठए हैं ? देत रिसाय के उत्तर यों हमही दुनिया ते उदास भए हैं ।—भूषण ग्रं०, पृ० ७० ।

दौली †
अव्य० [देश०] चारों ओर । उ०— दौली चौकी साहरी, विच दिल अकल सभाग । सोहे किर सामूद्र मैं, ज्वालवती बडवाग ।— रा० रू०, पृ० ३१ ।

दौलेय
संज्ञा पुं० [सं०] कच्छप । कछुवा ।

दौल्मि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।

दौवारिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वारपाल । २. एक प्रकार का वास्तु देव ।

दौवारिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रतिहारी । द्वारपालिका [को०] ।

दौवालिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम । उस देश का निवासी ।— (माहभारत) ।

दौश्चर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुश्चर्मा होने का भाव । दे० 'दुश्चर्मा' ।

दौश्चर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्टता । २. बुरा आचरण । बुरा कर्म [को०] ।

दौषबुद्धि †
संज्ञा स्त्री० [सं० दोषबुद्धि] दे० 'दोषबुद्धि' । उ०— सो कहे ते ? जो याते वैष्णव पर दौषबुद्धि कीनी, (और) तासों द्वेष कियो । —दो सौ वावन०, भा० १, पृ० ३४२ ।

दौष्कुल
संज्ञा पुं० [सं०] निम्न वंश या हीन वंश में उत्पन्न [को०] ।

दौष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्टता । नीचता (को०) ।

दौष्मंत
संज्ञा पुं० [सं० दौष्मन्त] १. दुष्मंत (दुष्यंत) का पुत्र । २. दुष्मंत के कुल में उत्पन्न व्यक्ति ।

दौष्मंति
संज्ञा पुं० [सं० दौष्मन्ति] दे० 'दौष्मंत' ।

दौष्यंति
संज्ञा पुं० [सं० दौष्यन्ति] १. दुष्यंत का पुत्र भरत, जिसका बालपन का नाम सर्वदमन था । २. दुष्यंत के वंश में उत्पन्न व्यक्ति ।

दौहन पु
संज्ञा पुं० [सं० दोहन] दे० 'दोहन' । उ०— कोइ गमनी तजि सौंहन, दौहन, भोजन सेवा । अंजन भंजन । चंदन द्विज पतिदेव निषेवा ।—नंद० ग्रं०, पृ० ४० ।

दैहित्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० दौहित्री] १. लडकी का लड़का । नाती । विशेष— धर्मशास्त्र में पौत्र और दौहित्र में कोई विशेष अंतर नहीं माना गया है । पौत्र के समान दौहित्र पिंडदान आदि द्वारा उद्धार करता है । जबतक दौहित्र न हो जाय, पिता कन्या के घर भोजन आदि नहीं कर सकता । यदि करे तो नरकगामी होता है । २. खड़्ग । तलवार । ३. तिल । ४. गाय का घी ।

दौहित्रक
वि० [सं०] दौहित्र संबंधी ।

दौहित्रायण
संज्ञा पुं० [सं०] दौहित्र का पुत्र [को०] ।

दौहित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या की कन्या । नतिनी [को०] ।

दौही पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० दुहाई] दे० 'दुहाई' । उ०—दस दिसा साह दौही फिरै । घन बीरा रस भुग्गिहै ।— पृ० रा०, २४ । ३२४ ।

दौहृद
संज्ञा पुं० [सं०] वह इच्छा जो स्त्रियों को गर्भिणी होने की दशा में होती है । दोहद ।

दौहृदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भवती स्त्री ।