विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/च
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ च
⋙ च
संस्कृत या हिंदी वर्णमाला का २२ वाँ अक्षर और छठा व्यंजन जिसका उच्चारण स्थान तालु है । यह स्पर्श वर्ण है और इसके उच्चारण में श्वास, विवार, घोष और अल्पप्राण प्रयत्न लगते हैं ।
⋙ चंक पु
वि० [सं० चक्र] १. पूरा पूरा । समूचा । सारा समस्त । २. एक उत्सव जो उत्तर भारत तथा मध्यप्रदेश आदि में फसल कटने पर होता है ।
⋙ चंका पु
क्रि० वि० [हिं० चौका या चहुँघा] चारों ओर से । सब तरफ से । उ०—चक्रवती चकवा चतुरंगिनी चारिउ चापि लई दिसि चंका ।—भूषण ग्रं०, पृ, ९६ ।
⋙ चंकुण
संज्ञा पुं० [सं० चङ्कुण] १. रथ । यान । २. वृक्ष [को०] ।
⋙ चकुर
संज्ञा पुं० [सं० चङ्कुर] १. रथ । यान । २. वृक्ष । पेड़ ।
⋙ चंक्रम
संज्ञा पुं० [सं० चङंक्रम] टहलने का स्थान । उ०—बाहर चंक्रम पर भिक्षुणियों का छोटा सा समूह प्रवारण के लिये अपनी ओर से प्रतिनिधि भेजने का चुनाव कर रहा था ।— इरा०, पृ० १७ ।
⋙ चंक्रमण
संज्ञा पुं० [सं० चङ्क्रमण] १. धीरे धीरे इधर से उधर घूमना । टहलना । २. बार बार घूमना । बहुत घूमना । २. मंद गति से या टेढ़े मेढ़े जाना (को०) । ४. उछलना । कूदना । फाँदना (को०) ।
⋙ चंक्रमा
संज्ञा स्त्री० [सं० चङ्क्रमा] १. इधर उधर जाना । २. घूमना । टहलना [को०] ।
⋙ चंक्रमित
वि० [सं० चङ्क्रमित] बार बार घूमा या चक्कर खाया हुआ [को०] ।
⋙ चंक्रायण
संज्ञा पुं० [सं० चङ्क्रायण] एक प्रवर का नाम ।
⋙ चंग (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. डफ के आकार का एक छोटा बाजा जिसे लावनीवाले बजाया करते हैं । लावनीबाजों का बाजा । उ०—बजत मृदंग उपंग चंग मिलि भजनन जति तति जास ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ४७४ । यौ०—चंगनवाज = चंग बजानेवाला व्यक्ति । २. सितारियों की परिभाषा में सितार का चढ़ा हुआ सुर ।
⋙ चंग (२)
संज्ञा पुं० [?] गंजीफे के आठ रेगों में से एक रंग ।
⋙ चंग (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का तिब्बती जौ । २. एक प्रकार की जौ की शराब जो भूटान में बनती है ।
⋙ चंग (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पतंग । गुड्डी । उ०—रहे राखि सेवा पर भालू । चढ़ी चंगु जनु खैंचि खेलारू ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—चंग चढ़ना या उमहना = बढ़ी चढ़ी बात होना । खूब जोर होना । उ०—त्यौ पद्माकर दीजै मिलाय क्यों चंग चवाइन की उमही है—पद्माकर (शब्द०) । चंग पर चढ़ाना = (१) इधर उधर की बातें कहकर किसी को अपने अनुकूल करना । किसी को अभिप्रायसाधन के अनुकूल करना । (२) आसमान पर चढ़ा देना । मिजाज बढ़ा देना ।
⋙ चंग (५)
वि० [सं० चङ्ग] १. दक्ष । कुशल । २. स्वस्थ । तंदुरूस्त । ३. सुंदर । शोभायुक्त । रम्य । मनोहर । उ०—लही ललिता बन लोचन चँग । कहौ कहुँ कान्ह जुहे तुम चंग ।—पृ० रा०, २ । ३५७ ।
⋙ चंगबाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चंग + बाई] एक प्रकार का वात रोग जिसमें हाथ पैर जकड़ जातै हैं ।
⋙ चंगला
संज्ञा स्त्री० [सं० चङ्गल] एक रागिनी जो मेघ राग की पुत्रवधू कही जाती है ।
⋙ चंगा
वि० [सं० चङ्ग] [वि० स्त्री० चंगी] १. स्वस्थ । तंदुरुस्त । नीरोग जैसे—इस दवा से तुम दो दिन में चंगे हो जाओगे । क्रि० प्र—करना ।—होना । २. अच्छा । भला । सुंदर । उ०—भले जू भले नंदलाल, वेऊ भली चरन जावक पाग जिनहिं रंगी । सूर प्रभु देखि अंग अंग बानिक कुशल मैं रही रीझि वह नारि चंगी ।—सूर (शब्द०) । ३. निर्मल । शुद्ध । जैसे—मन चंगा तो कठौती में गंगा । उ०—कथा माँहि एकसुना प्रसंगा । राम नाम नौका चित चंगा ।—घट०, पृ० २२६ ।
⋙ चंगिम पु
वि० [सं० चङ्ग] सुंदर । उ०—तुम मुख चंगिम अधिक चपल भेल कतिखन धरब लुकाइ ।—विद्यापति, पृ० २१८ ।
⋙ चंगु पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौ(= चार) + अंगुल] १. चंगुल । पंजा । उ०—चरण चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर । तुलसी परबस हाड़पर परिहै पुहुमी नीर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०७ । यौ०—चंगुगत । २. पकड़ । वश । अधिकार ।
⋙ चंगुल
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + अंगुल या फा० चंगाल] १. चिड़ियों या पशुओं का टेढ़ा पंजा जिससे वे कोई पस्तु पकड़ते या शिकार मारते हैं । उ०—(क) फिरत न बारहिं बार प्रचारयो । चपरि चोंच चंगुल हय हति रथ खंड खँड करि डारयो ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चीते के चंगुल में फँसि कै करसायल घायल हैं निबहै ।—देव (शब्द०) । २. हाथ के पंजों की वह स्थिति जो उँगलियों को बिना हथेली से लगाए किसी वस्तु को पकड़ने, उठाने या लेने के समय होती है । बकोट । जैसे—चंगुल भर आँटा साई को । मुहा०—चंगुल में फँसना = पंजे में फँसना । वश या पकड़ में आना । काबू में होना ।
⋙ चंच (१)
संज्ञा पुं० [सं० चञ्च] १. पाँच अंगुल की एक नाप । २. डलिया । चँगेरी (को०) ।
⋙ चंच (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चु] दे० 'चंचु' ।
⋙ चंचत्क
वि० [सं० चञ्चत्क] १. उछलनेवाला । कूदनेवाला । २. गमनशील । चलनेवाला । ३. काँपनेवाला । हिलनेवाला [को०] ।
⋙ चंचत्पुट
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चत्पुट] संगीत में एक ताल जिसमें पहले दो गुरु, तब एक लघु, फिर एक प्लुत मात्रा होती है । द्विकल के अतिरिक्त यह चतुष्कल और अष्टकल भी होता है ।
⋙ चंचनाना (१)
क्रि० अ० [हिं०] 'चुनचुनाना' ।
⋙ चंचनाना † (२)
क्रि० अ० [अनु०] १. झगड़ना । लड़ना । २. बुड़- बृड़ाना । बकना झकना । ३. उत्तेजित होना । आविश में आना । ४. मटर की फली का सूखकर विखरना । ५. ज्यादा आँच से दरार पड़ना । जैसे,—नरिया या लालटेन का शीशा । चंचनाना ।
⋙ चंचरा
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चरा] एक वर्णवृत । दे० 'चंचरी'—४ ।
⋙ चंचरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चरकी] १. भ्रमरी । भँवरी ।२. चाँचरि । होली में गाने का एक गीत । ३. हरिप्रिया छंद । इसी को भिखारीदा अपने पिंगल में 'चंचरी' कहते है । इसके प्रत्येक पद में १२ + १२ + १२ + १० के विराम से ४६ मात्राएँ होती हैं । अंत में एक गुरु होता है । जैसे,—सुरज गुन दिसि सजाय, अंतै गुरु चरण ध्याय, चित्त दै हरि प्रियहिं, कृष्ण कृष्ण गावो ।४. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में र स ज ज भ र (/?/) होते हैं । इसे 'चंचरा', 'चंचली' और 'विवुधप्रिया' भी कहते हैं । जैसे,—री सजै जु भरी हरी नित वाणि तू । औ सदा लहमान संत समाज में जग माँहि तू । भूलि के जु बिसारि रामहिं आन को गुण गाइहै । चंपकै सम ना हरी जन चंचरी मन भाइहै । ५. एक मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक पद में २६ मात्राएँ होती हैं । जैसे,—सेतु सीतहि शोभना दरसाइ पंचवटी गए । पाँय लागि अगस्त्य के पुनि अत्रि पै ते विदा भए । चित्रकूट विलोकि कै कै तबही प्रयाग बिलोकियो । भरद्राज बसै जहाँ जिनते न पावन है वियो ।
⋙ चंचरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चरिन्] भौंरा [को०] ।
⋙ चंचरीक
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चरीक] [स्त्री० चंचरीकी] भ्रमर । भौंरा । उ०—तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंचरीकावली
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चरीकावली] १. भौंरों की पंक्ति । २. तेरह अक्षरों के एक वर्णवृत्त का नामजिसके प्रत्येक चरण में यगण, मगण, दो रगण और एक गुरु होता है । (/?//?/) । जैसे,—यमौ रे । रागै छाँड़ौ यहै ईश भावै । न भूलो माधो को विश्व ही जो चलावै । लखौ या पृथ्वी को बाटिका चंपकी ज्यौ । बसौ रागै त्यागै चंचरीकावली ज्यों ।
⋙ चंचल (१)
वि० [सं० चञ्चल] [वि० स्त्री० चंचला] १. चलायमान । अस्थिर । हिलता डोलता । एक स्थिति में न रहनेवाला । २. अधीर । अव्यवस्थित । एकाग्र न रहनेवाला । अस्थितप्रज्ञ । जैसे,—चंचलबुद्धि, चंचलचित्त । ३. उद्धिग्न । घबराया हुआ । ४. नटखट । चुलबुला । जैसे,—चंचल बालक । उ०—देखी बनबारी चंचल भारी तदपि तपोधन मानी । केशव (शब्द०) ।
⋙ चंचल (२)
संज्ञा पुं० १. हवा । वायु । २. रसिक । कामुक । ३. घोड़ा । उ०—अतरै मुकन कमँध आपड़ियौ चंचल साहित निजर खल चडियौ ।—रा० रू०, पृ० ३३५ । ४. [स्त्री० चंचला] व्यभिचारी (को०) ।
⋙ चंचलता
संज्ञा स्त्री [सं० चञ्चलता] १. अस्थिरता । चपलता । २. नटखटी । शरारत ।
⋙ चंचलताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चलता+हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'चंचलता' ।
⋙ चंचला
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चला] १. लक्ष्मी । २. बिजली । ३. पिप्पली । ४. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १६ अक्षर होते है (र ज र ज र ल—/?/) । इसका दूसरा नाम चित्र भी है । जैसे,—री जरा जुरी लखो कहाँ गयो हमैं बिहाय । कुंज बीच मोहि तीय ग्वाल बाँसुरी बजाय । देखि गोपिका कहैं परी जु टूटि पुष्प माल । चंचला सखी गई बिलाय आजु नंदलाल ।
⋙ चंचलाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चल+हिं० आई (प्रत्य०)] चपलता । चंचलता । अस्थिरता । चुलबुलाहट ।
⋙ चंचलाख्य
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चलाख्य] एक सुगंधित पदार्थ [को०] ।
⋙ चंचलातिशय उक्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चलातिशयोक्ति] दे० 'अतिशयोक्ति' । उ०—बरनन हेतु प्रसक्ति ते उपजत हैं जहँ काज । चंचलातिशय उक्ति तहँ बरनत है कबिराज ।—माति ग्रं० पृ० ३८८ ।
⋙ चंचलास्य
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चलास्य] एक सुगंधित द्रव्य ।
⋙ चंचलाहट
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चल+हिं० आहट (प्रत्य०)] दे० 'चंचलता' ।
⋙ चंचलो
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चली] चंचरी नामक वर्णवृत्त । वि० दे० 'चंचरी—४' ।
⋙ चंचा
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चा] १. घास फूस या बेत आदि का पुतला जिसे खेतों में पक्षियों आदि की डराने के लिये गाड़ते हैं । २. बेत की बनी हुई कोई चीज जैसे चटाई आदि (को०) । ३. निकम्मा या सारहीन व्यक्ति (को०) । यौ०—चञ्चापुरुष (१) घास फूस या बेत आदि का पुतला जो खेतों में जानवरों आदि को डराने रोकने के लिये रख दिया जाता है । (२) निःसार व्यक्ति । तुच्छ व्याक्ति ।
⋙ चंचु (१)
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चु] १. एक प्रकार का साग । चेंच । विशेष—यह बरसात में उत्पन्न होता है और इसमें पीये पीले फूल और छोटी छोटी फलियाँ लगती हैं । यह कई तरह का होता है । वैद्यक में यह शीतल, सारक, पिच्छिल और बलकारक माना जाता है । २. रेंड़ का पेड़ । ३. मृग । हिरन ।
⋙ चंचु (२)
वि० १. ख्यात । प्रसिद्ध । यशस्वी । २. दक्ष । कुशल । जैसे—अक्षरचंचु [को०] ।
⋙ चंचु (३)
संज्ञा स्त्री० चिड़ियों की चोंच ।
⋙ चंचुका
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चुका] चोंच ।
⋙ चंचुपत्र
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चुपत्र] चेंच का साग ।
⋙ चंचुपुट
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चपुट] चोंच । ठोर ।
⋙ चंचुपुटी
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चुपुटी] दे० 'चंचुपुट' । उ०—ज्योंसुंदर धन स्वाति की माई । चातक चंचुपुटी न समाई ।— नंद० ग्रं०, पृ० १२८ ।
⋙ चंचुप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चु प्रवेश] किसी विषय का थोड़ा ज्ञान । साधारण या अल्पज्ञान [को०] ।
⋙ चंचु्प्रहार
संज्ञा पुं० [सं० चंचुप्रहार] चोंच से प्रहार करना । चोंच से मारना [को०] ।
⋙ चंचुभृत्
संज्ञा पुं० [सं० चचुभृत्] पक्षी ।
⋙ चंचुमान्
संज्ञा पुं० [सं० चंचुमत्] पक्षी ।
⋙ चंचुर (१)
वि० [सं० चञ्चुर] दक्ष । निपुण ।
⋙ चंचुर (२)
संज्ञा पुं० चेंच का साग ।
⋙ चंचुल
पु० [सं० चञ्चुल] हरिवंश के अनुसार विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ चंचुसूची
संज्ञा पु० [सं० चञ्चुसूची] हंस की जाति की एक चिड़िया । एक प्रकार का बतख । कारंडव पक्षी ।
⋙ चंचू
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चू] चोंच [को०] ।
⋙ चचूर्यमाण
वि० [सं० चंचूर्यमाण] [वि० स्त्री० चंचूर्यमाण] अभद्रता पूर्वक संकेत या इशारा करनेवाला [को०] ।
⋙ चंट
वि० [सं० चण्ड] १. चालाक । होशियार । सयाना । २. धूर्त । छँटा हुआ । चालबोज ।
⋙ चंड़ (१)
वि० [सं० चण्ड] [वि० संज्ञा चंड़ा] १. तेज । चीक्ष्ण । उग्र । प्रखर । प्रबल । घोर । २. बलवान् । दुर्दमनीय । ३. कठोर । कठिन । विकट । ४. उग्र स्वभाव का । उद्धत । क्रोधी । गुस्सावर । ५. जिसके लिंग के अग्रभाग का चमड़ा कटा हो (को०) । ६. उष्ण । तप्त । जैसे—चंङाशु (को०) । ७. तेज । स्फूतिंमान (को०) ।
⋙ चंड़ (२)
संज्ञा पुं० १. ताप । गरमी । २. एक यमदूत । ३. एक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था । ४. कार्तिकेय । ५. एक शिवगण । ६. एक भेरव । ७. इमली का पेड़ । ८. विष्णु का एक पारिषद । ९. राम की सेना का एक बंदर । १०. सम्राट् पृथ्वीराज का एक सामंत जिसे साधारण लोग 'चौंड़ा' कहते थे । इसका नाम चामुंड राय था । ११ पुराणों के अनुसार कुबेर के आठ पुत्रों में से एक । विशेष—यह शिवपूजन के लिये सूँघकर फूल लाया था, और इसी पर पिता के शाप से जन्मातर में कंस का भाई हुआ था और कृष्ण के हाथ से मारा गया था । १२. शिव (को०) । १३. क्रोध । आवेश (को०) ।
⋙ चंडकर
संज्ञा पुं० [सं० चण्डकर] तीक्ष्ण किरणवाला—सूर्य । उ०— जयति धय बालकपि केलि कौतुक उदित चंड़कर मंडल ग्रास- कर्त्त ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६६ ।
⋙ चंडकौशिक
संज्ञा पुं० [सं० चण्डकौशिक] १. एक मुनि का नाम । २. एक नाटक जिसमें विश्वामित्र और हरिश्चद्र की कथा है । ३. जैन पुराणनुसार एक विषधर साँप । विशेष—इसने महावीर स्वामी के दर्शन कर डसना आदि छोड़ दिया था और बिल में मुँह डाले पड़ा रहता था । यहाँ तक कि जब उसे चीटियों ने घेरा, तब भी उसने उनके दबने के डर से करवट तक न बदली ।
⋙ चंडता
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डता] १ उग्रता । प्रबलता । घोरता । २. बल । प्रताप । उ०—तुलसी लषन राम रावन विबुध विधि चक्रपानि चंडीपति चंडता सिहात है ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंडतुंडक
संज्ञा पुं० [सं० चण्डतुण्डक] गरुड़ के एक पुत्र का नाम ।
⋙ चंडत्व
संज्ञा पुं० [सं० चण्ड़त्व] उग्रता । प्रबलता ।
⋙ चंडदीधिति
संज्ञा पुं० [सं० चण्डदीधिति] सूर्य ।
⋙ चंडनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डनायिका] १. दुर्गा । २. ताँत्रिकों की अष्टनायिकाओं मे से एक जो दुर्गा की सखी मानी जाती हैं ।
⋙ चंडभानु
संज्ञा पुं० [सं० चण्डभानु]दे० 'चंडकर' [को०] ।
⋙ चंडभार्गव
संज्ञा पुं० [सं० चण्डभार्गव] च्यवनवंशी एक ऋषि । विशेष—यह महाराज जनमेजय के सर्पयज्ञ के होता थे ।
⋙ चंडमुंड
संज्ञा पुं० [सं० चण्डमुराड] दो राक्षसों के नाम जो देवी के हाथों से मारे गए थे ।
⋙ चंडमुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डमुण्डा] चामुंडा देवी ।
⋙ चंडमुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डमुण्डी] महास्यान स्थित तांत्रिकों की एक देवी ।
⋙ चंडरश्मि
संज्ञा पुं० [सं० चण्डरश्मि] सूर्य [को०] ।
⋙ चंडरसा
संज्ञा पुं० [सं० चण्डरसा] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक यगण होता है । इसी को चौबंसा, शशिवदना और पादांकुलक भी कहते हैं । जैसे,— नय धरु एका, न अनेका । गहु पन साखो, शशिवदना सो ।
⋙ चंडरुद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डरुद्रिका] तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की सिद्धि जो अष्ट नायिकाओं के पूजन से प्राप्त होती है ।
⋙ चंडरूपा
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डरूपा] एक देवी [को०] ।
⋙ चंडवान्
वि० [सं० चण्डवत] [वि० स्त्री० चंडवती] १. उष्ण । २. उग्र । प्रखर [को०] ।
⋙ चंडवती
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डवती] १. दुर्गा । २. अष्ट नायिकाओं में से एक ।
⋙ चंडवात
संज्ञा पुं० [सं० चण्डवात] तेज चलनेवाली हवा जिसके बीच में कभी कभी पानी भी बरसता हो [को०] ।
⋙ चंडविक्रम
[सं० चण्डविक्रम] बहुत अधिक शक्तिवाला । प्रचंड शक्तिवाला [को०] ।
⋙ चंडवृत्ति
वि० [सं० चण्डवृत्ति] १. विद्रोह करनेवाला । विद्रोही । २. जिद्दी । हठी [को०] ।
⋙ चंडवृष्टिप्रपात
संज्ञा पुं० [सं० चराडवृष्टिप्रपात] एक दंडक वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण (/?/) और सात रगण (/?/) होते हैं । जैसे,—न नर गिरि धरै भूलि कै राख जो चंडवृष्टि प्रपाताकुलै गोकुलै ।
⋙ चंडशक्ति (१)
वि० [सं० चण्डशक्ति] दे० 'चंडविक्रम' [को०] ।
⋙ चंडशक्ति (२)
संज्ञा पुं० बलि की सेना के एक दानव का नाम [को०] ।
⋙ चंडशील
वि० [सं० चण्डशील] कामी [को०] ।
⋙ चंडांशु
संज्ञा पुं० [सं० चण्डाशु] तीक्ष्ण किरणवाला सूर्य । उ०— भरे अतर के अमल बिराजत कनक पराता । चारु चंद्र चंडांशु अकारहि थार विविध अवदाता ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ चंडा (१)
वि० स्त्री० [सं० चण्डा] उग्र स्वभाव की । कर्कशा ।दे० 'चंड' ।
⋙ चंडा (२)
संज्ञा स्त्री० १. अष्टनायिकाओं में से एक । दुर्गा । २. चोर नामक गंधद्रव्य । ३. केवाँच । कौंछ । ४. सफेद दूब । ५. सौंफ । ६. सोवा । ७. एक प्राचीन नदी का नाम ।
⋙ चंडाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चणड+हिं० आई (प्रत्य०)] १. उतावला- पन । २. शीघ्रता । ३. उपद्रव । अत्याचार [को०] ।
⋙ चंडात
संज्ञा पुं० [सं० चण्डात] १. एक सुगंधित घास या पौधा । २. सुगंधयुक्त करवीर (को) ।
⋙ चंडातक
संज्ञा पुं० [सं० चण्डातक] १. स्त्रियों की चोली या कुरता । २. लहैगा । साय (को०) ।
⋙ चंडाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० चाण्डाल] [स्त्री० चंडालिन, चंडालिनी] १. चांडाल । श्वपच । डोम । वि० दे० 'चांडाल' । २. एक वर्ण- संकर जाति जिसकी उत्पत्ति शूद्र पिता और ब्राह्माणी से मानी जाती है (को०) । ३. इस जाति का व्यक्ति (को०) ।
⋙ चंडाल (२)
वि० नीच कर्म करनेवाला । क्रूर कर्म करनेवाला [को०] ।
⋙ चंडालकंद
सज्ञा पुं० [सं० तण्डालकन्द] एक कंद । विशेषयह कफ—पित—नाशक, रक्तशोधक और विषघ्न माना जाता है । पत्तियों की संख्या के हिसाब से इसके पाँच भेद माने गए हैं ।
⋙ चंडालता
संज्ञा स्त्री० [सं०चण्डालता] १. चंडाल होने का भाव । २. नीचता । अधमता ।
⋙ चंडालत्व
संज्ञा पुं० [सं० चण्डालत्व] दे० 'चडालता' ।
⋙ चंडालपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० चण्डालपक्षिन्] काक । कौवा । उ०— सठ स्वपक्ष तव हृदय बिसाला । सपदि होहि पक्षी चंडाला ।— मानस, ७ ।११२ ।
⋙ चंडालबाल
संज्ञा पुं० [हि० चंडाल+बाल] वह कड़ा और मोटा बाल जो किसी के माथे पर निकल आता है और बहुत अशुभ माना जाता है ।
⋙ चंडालवल्लकी
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डालवल्लकी] दे० 'चंडाल— वीणा ।'
⋙ चंडालवीणा
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डालवीणा] एक प्रकार का तंबूरा या चिकारा ।
⋙ चंडालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चंण्डालिका] १. दुर्गा । २. चंडाल- वीणा । ३. एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ आदि दवा के काम में आती हैं ।
⋙ चंडालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० चण्डालिनी] १. चंडाल वर्ण की स्त्री । २. दुष्टा स्त्री । पापिनी स्त्री । ३. एक प्रकार का दोहा जो दूषित माना जाता है । जिस दोहे के आदि में जगण पडे, उसको चंडालिनी दोहा कहते हैं । जैसे, —जहाँ विषम चरननि परै, कहूँ जगण जो आन । बखानना, चंडालिनी, दोरा सुख की खान । विशेष—प्रथम और तृतीय चरण के आदि के एक ही शब्द में जगण पडे तो दुषित है । यदि आदि के शब्द में जगण पुरा न हो और दूसरे शब्द से अक्षर लेना पडे ते उसमें दोष नहीं है । पर यदि यह भी बचाया जा सके, तो और भी उत्तम है ।
⋙ चंडावल
संज्ञा पुं० [सं० चणड + आवलि] १. सेना के पीछे का भाग । पीछे रहनेवाले सिपाही । 'हरावल' का उलटा । चंदावल । २. वीर योद्धा । बहादुर सिपाही । ३. संतरी । पहरेदार । चौकीदार ।
⋙ चंडाह
संज्ञा पुं० [देश०] गाढे की तरह का एक मोटा कपडा ।
⋙ चंडि
संज्ञा स्त्री० [सं० चणिड] दे० 'चंडिका' [को०] ।
⋙ चंडिआ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का देशी लोहा ।
⋙ चंडिक
वि० [सं० चणिडक] १. कर्कश स्वरवाला । २. जिसके लिंग के अग्रभाग का चमडा कटा हो [को०] ।
⋙ चंडिकघंट
संज्ञा पुं० [सं० चणिडकघणट] शिव । महादेव ।
⋙ चंडिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चंणिडका] १. दुर्गा । २. लडाकी स्त्री । कर्कशा स्त्री । ३. गायत्री देवी ।
⋙ चंडिका (२)
वि० स्त्री० लडाकी । कर्कशा ।
⋙ चंडिमा
संज्ञा स्त्री [सं० चंणिडमन्] १. आवेश । उग्रता । तीक्ष्णता । क्रोध । २. उष्णता । गर्मी । ताप [को०] ।
⋙ चंडिल
संज्ञा पुं० [सं० चंणिडल] १. रुद्र । २. बथुआ का साग । ३. हज्जाम । नाई [को०] ।
⋙ चंडी
संज्ञा स्त्री [सं० चणडी] १. दुर्गा का वह रुप जो उन्होंने महिषासुर के वध के लिये धारण किया था और जिसकी कथा मार्कंडेय पुराण में लिखी है । दुर्गा । २. कर्कशा और उग्र स्त्री । ३. तेरह अक्षरों का एक वर्णपृत्त जिसमें दो सगण और एक गुरू होता है । जैसे, —न नसु सिगरि नर । आयु तु अल्पा । निसि दिन भजत विलासिनी तल्पा । कुबुध कुजन अध ओघन खंडी । भजहु भजहु जनपालिनी चंडी ।
⋙ चंडीकुसुम
संज्ञा पुं० [सं० चंण्डीकुसुम] लाल कनेर ।
⋙ चंडीपति
संज्ञा पुं० [सं० चणडीपति ] शिव । महादेव ।
⋙ चंडीश
संज्ञा पुं० [सं० चंणडीश] शिव ।
⋙ चंडीश्वर
संज्ञा पुं० [सं० चणडीश्वर] शिव । महादेव [को०] ।
⋙ चंडीसुर
संज्ञा पुं० [सं० चणडीश्वर] एक तीर्थ का नाम ।
⋙ चंडु
संज्ञा पुं० [सं० चण्डु] १. चूहा । २. एक प्रकर का छोटा बंदर ।
⋙ चंडू
संज्ञा पुं० [सं० चण्ड(=तीक्ष्ण)?] अफीम का किवाम जिसका धूआँ नशे के लिये एक नली के द्वारा पीते हैं । क्रि० प्र०—पीना । विशेष—चीनी लोग चंडू बहुत पीते थे । अफगानिस्तान सेचंडू बनकर हिंदुस्तान में आता है । वहाँ चंडू बनाने के लिये अफीम को तरल करके कई बार ताव दे देकर छानते हैं ।
⋙ चंडूखाना
संज्ञा पुं० [हिं० चंडू + खाना] वह घर या स्थान जहाँ लोग इकट्ठे होकर चंडू पीते हैं । मुहा०—चंडूखाने की गप = मतवालों की झूठी बकवाद । बील- कुल झूठी बात ।
⋙ चंडूबाज
संज्ञा पुं० [हिं० चंडू + फा० बाज (प्रत्य०) ] चंडू पीनेवाला । चंडू पीने का व्यसनी ।
⋙ चंडूल
संज्ञा पुं० [देश० ] १. खाकी रंग की एक छोटी चिडीया । विशेष—यह पेडों और झाडियों में बहुत सुंदर घोंसला बनाती है और बहुत अच्छा बोलती है । मुहा०—पुराना चंडूल = बेडौल, भद्दा या बेबकूफ आदमी ।— (बाजारु) ।
⋙ चंडेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० चणडेश्वर] रक्तवर्ण शरीरधारी शिव का एक रुप ।
⋙ चंडोग्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० चणडोग्रा] दुर्गा की एक शक्ति [को०] ।
⋙ चंडोदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चणडोदरी] एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता को समझाने के लिये नियत किया था ।
⋙ चंडोल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र + दोल] १. प्रकार की पालकी जो हाथी को हौदे या अंबारी के आकार को होती है और जिसे चार आदमी उठाते हैं । २. मिट्टी का एक खिलौना जिसे चौघडा भी कहते हैं । उ०—तीन एक चंडोल में, रैदास शाह कबीर । —कबीर मं०, पृ० १२१ ।
⋙ चंडोला
संज्ञा पुं० [हिं० चंडोल] पालकी । मियाना । खड़खडिया । क्रि० प्र०—चढना= किसी कन्या का विवाह के बाद पालकी पर ससुराल जाना ।
⋙ चंडोलो (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चणडोली] मेघराग की एक रागिनी । उ०—बीरा धर गज अरु केवारा । चंडोली घऱ नित उजि- यारा । —माघवानल०, पृ०१९४ ।
⋙ चंडोलो (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चंडोल का स्त्री०] पालकी ।
⋙ चंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] १. दे० 'चंद्र' । २. एक राग । दे० 'चंद्रक' । उ०—रामसरी खुमरी लागी रट धूया माठा चांद धरु । बेलि०, दू० २४६ । ३. हिंदी के एक प्राचीन कवि । विशेष—ये दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की सभा में थे । इनका बनाया हुआ पृथ्वीराज रासो बहुत बडा काव्य है । ये लाहौर के रहनवाले थे ।
⋙ चंद (२)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द] १. चंद्रमा । २. कपूर [को०] ।
⋙ चंद (३)
वि० [फा०] १. थोडे से कुछ । जैसे, —अभी उन्हें आए चंद रोज रुए हैं । २. कई एक । कुछ । जैसे, —चंद आदमी वहाँ बैठे हैं । यौ०—चंद दर चंद = कुछ न कुछ । उ०—हर काम के आगाज में चंद दर चंद नुक्स नुमायाँ होते हैं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३२ । चंदरोजा = अस्थायी । थोडे दिनों का । उ०—यह झूठी कलई की हुई मनोहर इमारत चंद रोजा नुमाइश के लिये . . . ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ ० १६८ ।
⋙ चंदक
संज्ञा पुं० [सं० चन्दक] १. चंद्रमा । २. चांदनी । ३. एक प्रकार की छोटी चमकीली मछली । चाँद मछली । ४. माथे पर पहनने का एक अर्द्ध चंद्राकार गहना । विशेष—इसके बीच में नग और किनारे पर मोती जडे रहते हैं । सिर में यह तीन जगह से बँधा रहता है । ५. नथ में पान के आकार की बनावट जिसमें उसो आकार का नग या हीरा बैठाया रहता है और किनारे पर छोटे छोटे मोती चडे रहते हैं ।
⋙ चंदकपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० चन्दकपुष्प] १. लौंग । २. दे० 'चंद्रकला' ।
⋙ चंदचूड
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रचूड] शिव [को०] ।
⋙ चंदचूर पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्दन] शिव ।
⋙ चंदधर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रधर] ध्रूपद राग का एक भाग [को०] ।
⋙ चंदन
संज्ञा पुं० [सं० चन्दन] १. एक पेड जिसके हीर की लकडी बहुत सुगंधित होती है और जो दक्षिण भारत के मैसूर, कूर्ग, हैदराबाद, करनाटक, नीलगिरी, पश्चिमी घाट आदि स्थानों में बहुत होता है । उत्तर भारत में भी कहीं कहीं यह पेड लगाया जाता है । चंदन की लकडी औषध तथा इत्र , तेल आदि बनाने के काम में आती है । हिंदू लोग इसे घिसकर इसका तिलक लगाते हैं और देवपूजन आदि में इसका व्यवहार करते हैं । विशेष—चंदन की कई जातियाँ होती हैं जिनमें से मलयागिरि या श्रीखंड(सफेद चंदन) ही असली चंदन समझा जाता है और सबसे सुंगधित होता है । इसका पेड २०, ३० फुट ऊँचा और सदाबहार होता है । पत्तियाँ इसकी डेढ इंच लंबी और बेल की पत्तियों के आकार की होती हैं । फूल पत्तियों से अलग निकली हुई टहनियों में तीन तीन चार चार के गुच्छों में लगते हैं । यह पेड प्रायः सूखे स्थानों में ही होता है । इसके हीर की लकडी कुछ मटमैलापन लिए सफेद होती है जिसमें से बडी सुंदर महक निकलती है । यह महक एक प्रकार के तेल की होती है जो लकडी को अंदर होता है । जड में यह तेल सबसे अधिक होता है, इससे तेल य़ा इत्र खींचने के लिये इसकी जड की बडी माँग रहती है । चदन की लकडी से चौखटे, नक्काशीदार संदूक आदि बहुत से सामान बनते हैं जिनमें सुगंध के कारण घुन नहीं लगता । हिंदू लोग इसकी लकडी को पत्थर पर पानी के साथ घिस— कर तिलक लगाते हैं । इसका बुरादा धूप के समान सुगंध के लिये जलाया जाता है । चीन, बरमा आदि देशों के मंदिरों में चंदन के बुरादे की धूप बहुत जलती है । चंदन का पेड वास्तव में उस जाति के पेडो में है, जो दूसरे पौधों के रस से अपना पोषण करते हैं (जैसे, — बाँदा, कुकुरमुत्ता आदि) । इसी से यह घास, पौधों और छोटी छोटी झाडियों के बीच में अधिक उगता है । कौन कौन पौधे इसके आहार के लिये अधिक उपयुक्त होते हैं, इसका ठीक ठीक पत्ता न चलने से इसे लगाने में कभी कभी उतनी सफलता नहीं होती । यों ही अच्छी उपजाऊ जमीन में लगा देने से पेड बढता तो खूब है, पर उसकी लकडी में उतनी सुगंध नहीं होती ।सरकारी जंगल विभाग के एक अनुभवी अफसर की राय है कि चंदन के पेड के नीचे खूब घास पात उगने देना चाहिए, उसे काटना न चाहिए । घास पात के जंगल के बीच में बीज पडने से जो पौधा उगेगा और बढेगा, उसकी लकडी में अच्छी सुगंध होगी । श्रीखंड या असली चंदन के सिवा और बहुत से पेड हैं जिनकी लकडी चंदन कहलाती है । जजीबार (अफ्रीका) से भी एक प्रकार का श्वेत चंदन आता है, जो मलयागिरि के समान व्यवहृत होता है । हमारे यहाँ रंग के अनुसार चंदन के कुछ भेद किए गए हैं । जेसे, — श्वेत चंदन, पीत चंदन, रक्त चंदन इत्यादि । श्वेत चंदन और पीत चंदन एक ही पेड से निकलते हैं । रक्त चंदन का पेड भिन्न होता है । उसकी लकडी कडी होती है और उसमें महक भी वैसा नहीं होती । निघंटु रत्नाकर आदि बैद्यक के ग्रंथों में चंदन के दो भेद किए गए हैं—एक वेट्ट, दुसरा सुक्कडि । मलयागिरि के अंतर्गत कुछ पर्वत हैं जो वेट्ट कहलाते हैं । अतः उन पर्वतों पर होनेबाले चंदन का भी उल्लेख है जिसे कैरातक भी कहते हैं । संभव है, यह किरात देश (आसाम और भूटान) से आता रहा हो । चंदन के विषय में अनेक प्रकार के प्रवाद लोगों में प्रचलित हैं । ऐसा कहा जाता है कि चंदन के पेड में बडे बडे साँप लिपटे रहते हैं । चंदन अपनी सुगंध के लिये बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है । अरबवाले पहले भारतवर्ष, लंका आदि से चंदन पश्चिम के देशों में ले जाते थे । भारतवर्ष में यद्यपि दक्षिण ही की ओर चंदन विशेष होता है, तथापी उसके इत्र और तेल के कारखाने कन्नौज ही में हैं । पहले लखनऊ और जौनपुर में भी कारखाने थे । तेल निकालने के लिये चंदन को खूब महीन कूटते हैं । फिर इस बुकनी को दो दिन तक पानी में भिगोकर उसे भभके पर चढाते हैं । भाप होकर जो पानी टपकता है, उसके ऊपर तेल तैरने लगता है । इसी तेल को काछकर रख लेते हैं । एक मन चदन में से २ से ३सेर तक तेल निकलता है । अच्छे चंदन का तेल मलयागिरि कहलाता है और घटिया मेल का कठिया या जहाजी । चंदन औषध के काम में भी बहुत आता है । क्षत या घाव इससे बहुत जल्दी सूखते है । वैद्यक में चंदन शीतल और कडुआ तथा दाह, पित्त, ज्वर, छर्दि, मोह, तृषा आदि को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या०—श्रीखंड । चंद्रकांत । गोशीर्ष । भोगिवल्लभ । भद्रसार । मलयज । गंधसार । भद्रश्री । एकांग । पटरी । वर्णक । भद्राश्रय । सेव्य । रौहिण । ग्राम्य । सर्पेष्ट । पीतसार । महर्घ । मलयोदभव । गंधराज । सुगंध । सर्पावास । शीतल । शीतगंध । तैलपर्णिक । चंद्रद्युति । सितहिम, इत्यादि । २. चंदन की लकडी । चंदन की लकडी या टुकडा । क्रि० प्र०—घिसना ।—रगडना । मुहा०—चंदन उतारना = पानी के साथ चंदन की लकडी को घिसना जिसमें उसका अंश पानी में घुल जाय । ३. वह लेप जो पानी के साथ चंदन को घिसने से बने । घिसे हुए चंदन का लेप । मुहा०—चंदन चढाना = घिसे हुए चंदन को शरीर में लगाना । ४. गंधपसार । पसरन । ५. राम की सेना का एक बंदर । ६. छप्पय छंदन के तेरहवें भेद का नाम । ७. एक प्रकार का बडा तोता । विशेष—यह उत्तरीय भारत, मध्य भारत, हिमालय की तराई और काँगडे आदि में पाया जाता है ।
⋙ चंदनगिरि
सज्ञा पुं० [सं० चन्दनगिरि] मलयाचल पर्वत ।
⋙ चंदनगोपा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दनगोपा] अनंतमूल नामक लता [को०] ।
⋙ चंदनगोह
संज्ञा पुं० [हिं० चंदन +गोह] एक प्रकार की गोह जो बहुत छोटी होती है ।
⋙ चंदनधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दनधेनु] वह गाय जो पुत्र द्वारा सौभाग्यवती मृत माता के उद्देश्य से चंदन से अंकित करके दी जाती है । विशेष—यह दान वृषोत्सर्ग के स्थान में होता है; क्योंकि पिता की उपस्थित में पुत्र को वृषोत्सर्ग का अधिकार नहीं होता ।
⋙ चंदनपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० चन्दनपुष्प] ११. चदन का फूल । २. लौंग । लवंग ।
⋙ चंदनबावना पु
संज्ञा पुं० [हिं० चंदन+ बावना=वामन] चंदन बिरवा उ०—साधू चंदन बावना, (जाके) एक राम की आस । —दरिया० बानी, पृ० ३३ ।
⋙ चंदनयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दनयात्रा] अक्षयतृतीया । वैशाख सुदी तीज । अखै तीज ।
⋙ चंदनवती (१)
वि० स्त्री [सं० चन्दनवती] चंदन से युक्त ।
⋙ चंदनवती (२)
संज्ञा स्त्री० केरल देश की भूमि ।
⋙ चंदनशारिवा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दनशारिवा] एक प्रकार की शारिवा जिसमें चंदन की सी सुगंध होती है ।
⋙ चंदनसार
संज्ञा पुं० [सं० चन्दनसार] १. वज्रसार । नौसादर । २. घिसा हुआ चंदन ।
⋙ चंदनहार
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र + हिं० हार ] गले में पहनने की एक प्रकार की माला जो कई तरह की होती है । वि० दे० 'चंद्रहार' ।
⋙ चंदना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दना] चंदनशारिवा ।
⋙ र्चदना (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमस्] चंद्रमा ।
⋙ चंदना (३)
क्रि० स० [सं० चन्दन] चंदन का लेपन करना । शरीर में चंदन पोतना ।
⋙ चंदनादि
संज्ञा पुं० [सं० चन्दनादि] चंदन, खस, कपूर, बकुची, इलायची आदि पित्तानाशक दवाओं का वर्ग ।
⋙ चंदनादि तैल
संज्ञा पुं० [सं० चन्दनादि तैल] लाल चंदन के योग से बनने वाला आयुर्वेद में एक प्रसिद्ध तेल । विशेष—यह तैल शरीर के अनेक रोगों पर चलता है और शरीर में नई कांति लानेवाला माना जाता है । रक्त चंदन, अगर, देवदारु, पद्यकाठ, इलायची, केसर, कपूर, कस्तूरी, जाय- फल, शीतल चीनी, दाल चीनी, नागकेसर इत्यादि को पानी केसाथ पीसकर तेल में पकाते हैं और पानी के जल जाने पर तेल छान लेते हैं ।
⋙ चंदनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दनी] एक नदी का नाम जिसका उल्लेख रामयण में है ।
⋙ चंदनी (२)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँदनी] दे० 'चाँदनी' । उ०— चमवकै सनाहं उपंमा सु चंडी । मनो चंदनी रैन प्रतिब्यंब मंडी ।—पृ० रा०, २४ ।१०९ ।
⋙ चंदनी (३)
वि० [सं० चन्दनिन्] चंदन से संबंधित [को०] ।
⋙ चंदनी (४)
संज्ञा पुं० शिव [को०] ।
⋙ चंदनीया
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रनीया] गोरोचन ।
⋙ चंदपखान पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रपाषाण] दे० 'चंद्रकांत' । उ०— चंद की चाँदनी के परसे मलौं चंदपखान पहार चने च्चै ।— मति० ग्रं०, प० ३४४ ।
⋙ चंदबान पु
संज्ञा पुं० [सं० चंन्द्रबाण] एक प्रकार का बाण । उ०—चले चंदबान, घनबान और कुहूकबान ।—भूषण (शब्द०) । विशेष—इस बाण के सिरे पर लोहे की अर्द्ध चंद्राकार गाँसी या फल लगा रहता है । इस बाण को उस समय काम में लाते हैं, जब किसी का सिर काटना होता है ।
⋙ चंदबि पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+ हिं० वि०] मोरचंद्रिका । उ०— मोरनि नव तन चंदबि धारे । देखि दृग होत दुखारे ।—नंद० ग्रं०, पृ० १६४ ।
⋙ चंदसिरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रश्री] एक प्रकार का बडा गहना जो हाथी के मस्तक पर पहनाया जाता है ।
⋙ चंदा
वि० [फा०] १. इतना । २. बहुत । अधिक ।
⋙ चंदा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र या चन्द ] चंद्रमा । उ०—ज्यों चकोर चंदा को निरखै इत उत दृष्टि न जाहि । सूर श्याम बिन छिन छिन युग सम क्यों करि रैन बिहाँहि ।—सूर (शब्द०) । यौ०—चंदामामा = लडकों को बहलाने का एक पद । जैसे,— 'चंदा मामा दौडि आ । दूध भरी कटोरिया' इत्यादि ।
⋙ चंदा (२)
संज्ञा पुं० [फा० चंद (=कई एक)] १. वह थोडा थोडा धन जो कई एक आदमियों से उनके इच्छानुसार किसी कार्य के लिये लिया जाय । बेहरी । उगाही । बरार । २. किसी सामयिक पत्र या पुस्तक आदि का बार्षिक या मासिक मूल्य । ३. वह धन जो किसी सभा, सोसाइटी आदि की उनके सदस्यों या सहायकों द्वारा नियत समय पर दिया जाता है ।
⋙ चंदावत
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] क्षत्रियों की एक जाति या शाखा ।
⋙ चंदावती
संज्ञा स्त्री० [से० चन्द्रावती] श्री राग की सहचरी एक रागिनी ।
⋙ चंदावल
संज्ञा पुं० [फा०] सेना के पीछे रक्षार्थ चलनेवाले सैनिक । चंडावल ।
⋙ चंदिका पु
संज्ञा स्त्री० [स०चन्द्रिका] दे० 'चंद्रिका' ।
⋙ चंदिनि, चंदिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्र] चाँदनी । चंद्रिका । उ०— चौत चतुरदसी चंदिनी अमल उदित निसिराजु । उडगन अवलि लसीं दस दिसि उमगत आनंद आजु ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंदिनि, चंदिनी (२)
वि० चाँदनी । उजेली । उ०—तिन्हहिं सुहाइ न अवध बधावा । चोरहिं चंदिनि रात न भावा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंदिर
संज्ञा पुं० [सं० चन्दिर] १. चंद्रमा । उ०—(क) रच्यो विश्वकर्मा सो मंदिर । परम प्रकाशित मानहुचंदिर । — रघुराज (शब्द०) (ख) हेम कलश कल कोट कंगूरे । — कहुँ मंदिर चंदिर सम रुरे ।—रघुराज (शब्द०) २. हाथी । ३. कयूर [को०] ।
⋙ चंदिरा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्दिर] चाँदनी । ज्योत्स्ना । उ०— शारदिया चंदिरा सी, कौन है कर धन्य जो मधुभार मुझपर डालती ।—अग्नि०, पृ० २५ ।
⋙ चंदे
अव्य० [फा० ] कुछ दिन । थोड़ा समय ।
⋙ चंदेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चँदेरी] दे० 'चँदेरी' ।
⋙ चंदेरीपति
संज्ञा पुं० [हिं० चँदेरी+ पति] दे० 'चँदेरीपति' ।
⋙ चंदेल
संज्ञा पुं० [सं० चंन्देल ] क्षत्रियों की एक शाखा जो किसी समय कालिंजर और महोबे में राज्य करती थी । परमर्दिदेव या राजा परमाल इसी वंश के थे, जिनके सामंत आल्हा और ऊदल प्रसिद्ध हैं । संस्कृत लेखों सें यह वंश चंद्रात्रेय के नाम से प्रसिद्ध है । विशेष—चंदेलों की उत्पत्ति के विषय में यह कथा प्रसिद्ध है कि काशी के राजा इंद्रजित् के पुरोहित हेमराज की कन्या हेमवती बडी सुंदरी थीं । वह एक कुंड में स्नान कर रही थी । इसी बीच में चंद्रदेव ने उसपर आसक्त होकर उसे आलिंगन किया । हेमवती ने जब बहुत कोप प्रकट किया, तब चंद्रदेव ने कहा 'मुझसे तुम्हें जो पुत्र होगा, वह बडा प्रतापी राजा होगा और उसका राजवंश चलेगा ' । जब उसे कुमारी अवस्था ही में गर्भ रह गया, तब चंद्रमा के आदेशनुसार उसने अपने पुत्र को ले जाकर खजुराहो के राजा को दिया । राजा ने उसका नाम चंद्रवर्मा रखा । कहते हैं कि चंद्रमा ने राजा के लिये एक पारस पत्थर दिया था । पुत्र बडा प्रतापी हुआ । उसने महोबा नगर बसाया और कालिंजर का किला बनवाया । खजुराहो के शिलालेखों सें लिखा है कि मरीचि के पुत्र अत्रि को चंद्रात्रेय नाम वा एक पुत्र था । उसी के नाम पर यह चंद्रात्रेय नाम का वंश चला । सन् ९०० ईसवी से लेकर १५४५ तक इस वंश का प्रबल राज्य बुंदेलखंड और मध्य भारत में रहा । परमर्दिदेव के समय से इस वंश का प्रताप घटने लगा ।
⋙ चंदोल
संज्ञा पुं० [फा० चंदावल] दे० 'चंदावल' । उ०—तुंगतन अकंपन देख वड तेलरा, दस बदन मुसाहिब किया चदो— लरा ।—रघु० रु०, पृ० १८८ ।
⋙ चंदोवा
संज्ञा पुं० [हिं० चँदवा] दे० 'चँदवा' । उ०—पाँच भाँडे धातु के होई । सोरह हाथ चंदोवा सोई । —कबीर सा०, पृ० ८८४ ।
⋙ चंद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] १. चंद्रमा । विशेष—समास में इस शब्द का प्रयोग बहुत अधिक होता है ।जैसे,—मुखचंद्र, चंद्रमुखी । कहीं कहीं यह श्रेष्ठ का अर्थ भी देता है । जैसे,—पुरुषचँद्र । वि० दे० 'चंद्रमा' । २. संख्या सूचित करने का काव्यशैली में एक की संख्या । २. मोर की पूँछ की चंद्रिका । उ०—मदन मोर के चंद्र की झलकनि निदरति तन जोति । —तुलसी (शब्द०) ।४. कपूर । ५. जल । ६. सोना । स्वर्ण । ७. रोचनी नाम का पौधा । ८. पौराणिक भूगोल के १८ उपद्वीपों में से एक । ९. वह बिंदी जो सानुनासिक वर्ण के ऊपर लगाई जाती है । १०. लाल रंग का मोती । ११. पिंगल में टगण का दसवाँ भेद (/?/) । जैसे —मुरलीधर । १२ हीरा । १२. मृगशिरा नक्षत्र । १४ । कोई आनंददायक वस्तु । हर्षकारक वस्तु । आल्हादजनक वस्तु । १५. नैपाल का एक पर्वत । १६. चंद्रभागा में गिरनेवाली एक नदी । १७ अर्ध विसर्ग का चिह्न (को०) । १९. । लाल या रक्तवर्ण मोती (को०) । १९. सुंदर वस्तु (को०) ।
⋙ चंद्र (२)
वि० १. आहलादजनक । आनंददायक । २. सुंदर । रमणीय ।
⋙ चंद्रक
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रक] १. चंद्रमा । २. चंद्रमा के ऐसा मंडल या घेरा । ३. चंद्रिका । चाँदनी । ४. मोर की पूँछ की चंद्रिका । ५. नहँ । नाखून । ६. एक प्रकार की मछली । ७. कपूर । उ०—करी उपचार थकी चही चलि उताल नैदनंद । चंद्रक चंदन चंद तें ज्वाल जगी चौचंद ।—शृं० सत० (शब्द०) । ८. मालकोश राग का एक पुत्र (संगीत) ।९. सफेद मिर्च । १०. सहिंजन ।
⋙ चंद्रकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रकन्यका] एला । इलायची । उ०—चंद्रकन्यका, निष्कुटी, त्रिपुटी पुलकनि बोली । —नंद ग्रं०, पृ० १४६ ।
⋙ चंद्रकर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकर ] चंद्रिका । चाँदनी । ज्योत्स्ना । चंद्रमा की किरण [को०] ।
⋙ चंद्रकला
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रकला] १. चंद्रमंडल का सोलहवाँ अंश । वि० दे० 'कला' । २. चँद्रमा की किरण या ज्योति । उ०—धनिद्वैज की चंद्रकला आबला सो लला की सजीवन मूरि भई है । —सेवक (शब्द०) । ३. एक वर्णवृत्त जो आठ सगण और एक गुरु का होता है । इसका दूसरा नाम सुंदरी भा है । यह एक प्रकार का सवैया है । जैसे,—सब सों गहि पाणि मिले रघुनंदन भेंटि कियो सब को बड भागी । ४. माथे पर पहनने का एक गहना । ५. छोटा ढोल । ६. एक प्रकार की मछली जिसे बचा भी कहते हैं । ७. एक प्रकार की बँगला मिठई । ८. एक प्रकार का सातताल ताल । विशेष—इसमें तीन गुरु और तीन प्लुत के बाद एक लघु होता है । इसका बोल यह है —तक्किट किट तक्किट किट धिक तां तां तां धिम धिम तां तां तां धिम धिक तां तां तां धिम धा । ९. नखाघात का चिह्न । नखक्षत (को०) ।
⋙ चंद्रकवान्
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकवत्] मयूर । मोर ।
⋙ चंद्रकलाधर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकलाधर ] महादेव ।
⋙ चंद्रकांत
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकान्त] १. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार एक मणि या रत्न । विशेष—इसके विषय में प्रसिद्ध हे कि यह चंद्रमा के सामने करने से पसीजता है और इससे बूँद बूँद पानी टपकता है । यौ०—चन्द्रकांत मणि । २. एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है । ३. चंदन । ४. कुमुद । ५. लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु की राजधानी का नाम ।
⋙ चंद्रकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रकान्ता] १. चंद्रमा कि स्त्री । २. रात्रि । रात ।३. मल्लभूमि की एक नगरी जहाँ लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु राज्य करते थे । ४. पंद्रह अक्षरों की एक वर्णवृत्त ।
⋙ चंद्रकांति
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रकान्ति] १. चाँदि । २. चाँदनी (को०) ।
⋙ चंद्रकाम
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकाम] वह पीडा जो किसी पुरुष को उस समय होती है, जब कोई स्त्री उसे वशीभूत करने के लिये मंत्र तंत्र आदि का प्रयोग करती है ।
⋙ चंद्रकी
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रकिन्] वह जिसे चंद्रक हो । मोर । मयूर ।
⋙ चंद्रकुमार
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकुमार] १. चंद्रमा का पुत्र — बुध । २. बौद्धों के एक जातक का नाम ।
⋙ चंद्रकुल्या
संज्ञा स्त्री० [से० चन्द्रकुल्या] काश्मीर की एक नदी का प्राचीन नाम ।
⋙ चंद्रकूट
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकूट] कामरुप प्रदेश का एक पर्वत जिसका बहुत कुछ माहात्म्य कालिका पुराण में लिखा है ।
⋙ चंद्रकूप
संज्ञा पुं० [चंन्द्रकूप] काशी का एक प्रसिद्ध कूआँ जो तीर्थ स्थान माना जाता है ।
⋙ चंद्रकेतु
संज्ञा पुं० [सं० चंन्द्रकेतु] लक्ष्मण के एक पुत्र का नाम जिन्हें भरत के कहने से राम ने उत्तर का चद्रकांत नामक प्रदेश दिया था ।
⋙ चंद्रकीड
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रकीड] संगीत का एक ताल [को०] ।
⋙ चंद्रक्षय
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रक्षय] अमावस्या ।
⋙ चंद्रगिरि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रगिरि] नेपाल का एक पर्वत । विशेष— यह काठमांडू के पास है और इसकी ऊँजाई ८५०० फुट है ।
⋙ चंद्रगुप्त
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रगुप्त] १. चित्रगुप्त जो यम की सभा में रहते हैं । २. मगध देश का प्रथम मौर्यवंशी राजा । विशेष—इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी और इसने बलख के यूनानी (यवन) राजा सील्यूकस पर विजय प्राप्त करके उसकी कन्या ब्याही थी । कौटिल्य चाणक्य की सहायता से महानंद तथा और नंदवंशियों को मारकर इसने मगध का राजसिंहासन प्राप्त किया था, जिसकी कथा, विष्णु, ब्रह्मा, स्कंद , भागवत आदि पुराणों में मिलती है । इसी कथा को लेकर संस्कृत का प्रसिद्ध नाटक मुद्राराक्षस बना है । चंद्रगुप्त बडा प्रतापी राजा था । इसने पंजाब आदि स्थानों से यवनों (यूनानियों) को निकाल दिया था । यह ईसा से ३२१ वर्ष पूर्व मगध के राजसिंहासन पर बैठा और १४ वर्ष तक राज्य करता रहा । ३. गुप्त वंश का एक बडा प्रतापी राजा ।विशेष—इसे विक्रम या विक्रमादित्य भी कहते थे । इसका विवाह लिच्छवी राज की कन्या कुमारी देवी से हुआ था । शिलालेखों से जाना जाता है कि इस राजा ने सन् ३१८ के लगभग समस्त उत्तरी भारत पर साम्राज्य स्थापित किया था । लोगों का अनुमान है कि इसी प्रथम चंद्रगुप्त ने गुप्त संवत् चलाया था । ४. गुप्त वंश का एक दूसरा राजा । विशेष—यह प्रथम चंद्रगुप्त के पुत्र समुद्रगुप्त का पुत्र था । इसे विक्रमांक और देवराज भी कहते थे । इसने अपना विवाह नेपाल के राजा की कन्या ध्रुवदेवी के साथ किया था । इसने दिग्विजय करके बहुत से देशों में अपनी कीर्ति स्थापित की थी । शिलालेखों से पत्ता लगता है कि इसने ईसवी सन् ४०० से ४१३ तक राज्य किया था ।
⋙ चंद्रगृह
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रगृह ] कर्क राशि । विशेष— चंद्र या उसके किसी पर्य्यावाची शब्द में गृह या उसके किसी पर्यायवाची शब्द के लगने से 'कर्क राशि' अर्थ होता है ।
⋙ चंद्रगोल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रगोल] चंद्रमंडल । चंद्रलोक ।
⋙ चंद्रगोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रगोलिका] चंद्रिका । चाँदनी ।
⋙ चंद्रग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रग्रहण] चंद्रमा का ग्रहण वि० दे० 'ग्रहण' ।
⋙ चंद्रघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रघणटा] नौ दुर्गाओं में से एक [को०] ।
⋙ चंद्रचंचल
संज्ञा पुं० [चन्द्रचञ्चल] खरसा मछली ।
⋙ चंद्रचंचला
सज्ञा स्त्री० [सं०चन्द्रचञ्चला] दे० 'चंद्रचंचल' [को०] ।
⋙ चंद्रचित्र
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रचित्र] एक देश का नाम जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में है ।
⋙ चंद्रचूड
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रचूड] मस्तक पर चंद्रमा को धारण करनेवाले— शिव । महादेव ।
⋙ चंद्रचूडामणि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रचूडामणि] फलित ज्योतिष में ग्रहो का एक योग । जब नवम स्थान का स्वामी केंद्रस्थ हो तब यह योग होता है । उ.— केंद्री है नवयें कर स्वामी योग चंद्रचूडामणि । गुरु द्विज भक्त सकल गुण सागर दाता शूर शिरोमणि (शब्द०) ।
⋙ चंद्रज
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रज] बुध, जो चंद्रमा के पुत्र माने जाते हैं ।
⋙ चंद्रजनक
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+जनक] समुद्र । सागर ।
⋙ चंद्रजोत
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्र +ज्योति] १. चंद्रमा का प्रकाश । २. महताबी नाम की आतिशबाजी । उ०— भारत सरस्वती आती है, सफेद चंद्रजोत छोडी जाय । — भारतेंदु ग्रं० भा० १. पृ ५०१ ।
⋙ चंद्रताल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रताल] एक प्रकार का बारहताला ताल जिसे परम भी कहते हैं ।
⋙ चंद्रदारा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रदारा] २७ नक्षत्र जो पुराणानुसार तक्ष की कन्याएँ हैं और चंद्रमा को ब्याही हैं ।
⋙ चंद्रदेव
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+ देव] १. चंद्रमा । २. महाभारत में कौरवों की ओर से लडनेवाले एक यौद्धा का नाम [को०] ।
⋙ चंद्रद्युति
संज्ञा स्त्री० † [सं० चन्द्रद्युति] १. चंद्रमा का प्रकाश या किरण । २. चंदन ।
⋙ चंद्रद्वीप
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+ द्वीप] १८ पौराणिक द्वीपों में एक द्वीप का नाम [को०] ।
⋙ चंद्रपंचांग
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रपञ्चाङ्ग] वह पंचांग जो चांद्र तिथि मास के आधार पर निर्मित होता है [को०] ।
⋙ चंद्रपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रपर्णी ] प्रसारिणी लता ।
⋙ चंद्रपाद
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रपाद] चंद्रमा की किरणें [को०] ।
⋙ चंद्रपाषाण
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रपाषाण] वह पत्थर जिसमें से चंद्रकिरणों का स्पर्श होने से जल की बूँदें टपकने लगती हैं । चंद्रकांत ।
⋙ चंद्रपुत्र
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रपुत्र] चंद्रमा का पुत्र — बुध [को०] ।
⋙ चंद्रपुली
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्र + हिं० पूर] एक प्रकार की बँगला मिठाई जो गरी से बनाई जाती है ।
⋙ चंद्रपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रपुष्पा] १. चाँदनी । २. बकुची । ३. सफेद भटकटैया ।
⋙ चंद्रप्रभ (१)
वि० [सं० चन्द्रप्रभ] चंद्रमा के समान ज्योतिवाला । कांतिवान् ।
⋙ चंद्रप्रभ (२)
संज्ञा पुं० १. जैनों के आठवें तीर्थकर । इनके पिता का नाम महासेन और माता का नाम लक्ष्मणा था ।२. तक्षशिला के राजा एक बोधिसत्व जो बड़े दानी थे । विशेष—एक बार ब्राम्हण ने आकर इनसे इनका मस्तक माँगा । इन्होंने बहुत धन देकर उसे संतुष्ट करना चाहा; पर जब उसने न माना, तब इन्होंने अपने मस्तक पर से राजमुकुट उतारकर उसके आगे रखा । तव ब्राम्हण इन्हें एकांत में ले गया और वहाँ जाकर उसने इनका सिर काट लीया ।
⋙ चंद्रप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रप्रभा] १. चंद्रमा की ज्योति । चाँदनी । चंद्रिका । २. बकुची नाम की ओषधि । ३. कचूर । ४. वैद्यक की एक प्रसिद्ध गुटिका जो अर्श, भगंदर आदि रोगों पर दी जाती है ।
⋙ चंद्रप्रासाद
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+ प्रासाद] छत पर स्थित वह कमरा जिसमें बैठकर लोग चाँदनी का आनंद लेते हैं [को०] ।
⋙ चंद्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबन्धु] १. चंद्रमा का भाई । शंख (क्योंकि चंद्रमा के साथ वह भी समुद्र से निकला था) । २. कुमुद ।
⋙ चंद्रबधूटी
संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्रवधू (= इंदुवधू)] बिरबहूंटी । उ०— नाथ लटू भए लालन जू लखि भामिनि भाल की बंदन बूटी - चोप सों चारु सुधारस लोभ विधी बिधु मैं मनो चंद्रबधूटी ।— नाथ (शब्द०) ।
⋙ चंद्रबाण
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबाण] अर्द्धचंद्र बाण जो सिर काटने के लिये छोडा जाता था । विशेष—इसका फल अर्द्धचंद्राकार बनता था, जिसमें गले में पूरा बैठ जाय ।
⋙ चंद्रबाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रबाला ] १. चंद्रमा की स्त्री । २. चंद्रमा की किरण । ३. बडी डलायची ।
⋙ चंद्रबाहु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबाहु ] एक असुर का नाम ।
⋙ चंद्रबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबिंन्दु] अर्द्ध अनुस्वार की बिंदी । अर्द्धचंद्राकार चिह्नयुक्त बिंदु जो सानुनासिक वर्ण के ऊपर लगता है । जैसे,—' गाँव' में 'गा' के ऊपर ।
⋙ चंद्रबिंब
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबिम्ब] संपुर्ण जाति का एक राग जो दिन के पहले पहर नें गाया और हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है ।
⋙ चंद्रबोडा
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+ बँ० बोडा] एक प्रकर का अजगर ।
⋙ चंद्रभवन
संज्ञा पुं० [चन्द्रभवन] एक रागिनी का नाम ।
⋙ चंद्रभस्म
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रभस्म] कपूर ।
⋙ चंद्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रमा ] १. चद्रमा का प्रकाश । २. सफेद भटकटैया ।
⋙ चंद्रभाग
संज्ञा पुं० [चन्द्रभाग] १. चंद्रमा की कला । २. सोलह की संख्या । ३. हिमालय के अंतर्गत एक पर्वत या शिखर का नाम जिससे चंद्रभागा या चनाव निकली है । ऐसी कथा है कि किसी समय ब्रह्मा ने इसी पर्वत पर बैठकर देवताओं और पितरों के निमित्त चंद्रमा के भाग किए थे ।
⋙ चंद्रभागा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रभागा] पंजाब की चनाब नाम की नदी जो हिमालय के चंद्रभाग नामक खंड से निकलकर सिंधु नदी में मिलती है । वि० दे० 'चनाब' । उ०— शुभ कुरुखेत, अयोध्या, मिथिला, प्राग, त्रिवेनी न्हाए । पुनि शतद्रु औरहु चँद्रभागा, गंग ब्यास अन्हवाए ।— सूर (शब्द०) । विशेष—कालिका पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा के आदेश से चंद्रभाग पर्वत से शीता नाम की नदी उत्पन्न हुई । यह नदी चंद्रमा को डुबाती हुई एक सरोवर में गिरी । चंद्रमा के प्रभाव से इसका जल अमृतमय हो गया । इसी जल से चंद्रभागा नाम की कन्या उत्पन्न हुई जिसे समुद्र ने ब्याहा । चंद्रमा ने अपनी गदा की नोक से पहाड में दरार कर दिया जिससे होकर चंद्रभागा नदी बह निकली ।
⋙ चंद्रभाट
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र + हिं० भाट] एक प्रकार के भिक्षुक साधु । विशेष—ये शिव और काली के उपासक होते है और अपने साथ गाय, बैल, बकरी और बंदर आदि लेकर चलते हैं । ये प्रायः गृहस्थ होते हैं और खेतीबारी करते हैं ।
⋙ चंद्रभानु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रभानु ] श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा के १० पुत्रों में से सातवें पूत्र का नाम । उ०— भानुस्वभाव तथा अभिमानू । बृहदभानु स्वरमानु प्रभानू । चंद्रभानु श्रीरवि प्रतिभानू । भानुमान सह दस मतिमानू ।— गोपाल (शब्द०) ।
⋙ चद्रभाल
संज्ञा पु० [सं० चन्द्रभाल ] मस्तक पर चंद्रमा को धारण करनेवाले, शिव । महादेव ।
⋙ चंद्रभास
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रभास] तलवार [को०] ।
⋙ चंद्रुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रभूति ] चाँदी ।
⋙ चंद्रभूषण
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रभूषण] महादेव । उ०— सित पाख बाढति चंद्रिका जनु चंद्रभूषण भालहीं ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंद्रमंडल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमण्डल] १. चंद्रमा का बिंब । २. चंद्रमा का घेरा या मंडल [को०] ।
⋙ चंद्रमण पु †
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमणि ] दे० 'चंद्रमणि' । उ । — मोल मगाडै चंद्रमण दहण सुथंभण दाह । दाह हिये लालच दहण, जतन न थंमण जाह । — बाँकी ० ग्रं०, भ० ३, पृ० ५८ ।
⋙ चंद्रमणि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमणि ] १. चंद्रकांत मणि । उ०— (क) चौकी हेम चंद्रमणि लागी हीरा रतन जराय खची । भुवन चतुर्दश की सुंदरता राधे के मुख मनहि रची ।— सूर (शब्द०) । (ख) केती सोमकला करो, करो सुधा को दान । नहीं चंद्रमणि जो द्रवै, यह तेलिया पखान ।— दीनदयाल (शब्द०) । २. उल्लाला छंद का एक नाम ।
⋙ चंद्रमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रमल्लिका ] एक प्रकार की चमेली [को०] ।
⋙ चंद्रमल्लो
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रमल्ली] दे० 'चंद्रमल्लिका' । उ०— चंद्रमल्ली पुंज की नव कुंज बिहरत आय़ ।— घनानंद०, पृ० ३०१ ।
⋙ चंद्रमस्
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमस्] चंद्रमा ।
⋙ चंद्रमह
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमह ] कुत्ता [को०] ।
⋙ चंद्रमा
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमस्] आकाश में चमकनेवाला एक उपग्रह जो महीने में एक बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है और सूर्य से प्रकाश पाकर चमकता है । विशेष— यह उपग्रह पृथ्वी के सब से निकट है; अर्थात् यह पृथ्वी से २३८८०० मील की दूरी पर है । इसका व्यास २१६२ मील है और इसका परिमाण पृथ्वी का ४ १/९ है । इसका गुरुत्व पृथ्वी के गुरुत्व का ८ १/० वाँ भाग है । इसे पृथ्वी के चारों ओर घूसने में २७ दिन, ७ घंटे, ४३ मिनट और ११ १/२ सेकडे लगते हैं, पर व्यवहार में जो महीना आता है, वह २९ दिन, १२ घंटे, ४४ मिनट २.७ सेकडे का होता है । चंद्रमा के परिक्रमण की गति में सूर्य की क्रिया से बहुत कुछ अंतर पड़ता रहता है । चंद्रमा अपने अक्ष पर महीने में एक बार के हिसाब से घूमता है; इससे सदा प्रायः उसका एक ही पार्श्व पृथ्वी की ओर रहता है । इंसी विलक्षणता को देखकर कुछ लोगों को यह भ्रम हुआ था कि यह अक्ष पर घूमता ही नहीं है । चंद्रमंडल में बहुत से धब्बे दिखाइ देते हैं जिन्हें पुराणानुसार जनसाधारण कलंक आदि कहते हैं । पर एक अच्छी दूरबीन के द्वारा देखने से ये धब्बे गायब हो जाते हैं और इनके स्थान पर पर्वत , घाटी, गर्त्त, ज्वालामुखी पर्वतों से विवर आदि अनेक पदार्थ दिखाई पड़ते हैं । चंद्रमा का अधिकांश तल पृथ्वी के ज्वालामुखी पर्वतों से पूर्ण किसी प्रदेश का सा है । चंद्रमा में वायुमंडल नहीं जान पडता और न बादल या जल ही के कोई चिह्न दिखाई पडते हैं । चंद्रमा में गरमी बहुत थोडी दिखाई पडती है । प्राचीन भारतीय ज्योतिषियों के मत से भी चद्रमा एक ग्रह है, जो सुर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है । भास्कराचार्य के मत से चंद्रमा जलमय है । उसमें निज का कोई तेज नहीं है । उसका जितना भाग सूर्य के सामने पडता है, उतना दिखाई पडता है — ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार धूप में घडा रखने से उसका एक पार्श्व चमकता है और दूसरा पार्श्व उसी की छाया से अप्रकाशित रहता है । जिस दिन चंद्रमा के नीचे के भाग पर अर्थात् उस भाग पर जोहम लोगों की ओर रहता है, सूर्य का प्रकाश बिलकुल नहीं पडता, उस दिन अमावस्या होती है । ऐसा तभी होता है, जब सूर्य और चंद्र एक राशिस्थ अर्थात् समसूत्र में होते हैं । चंद्रमा बहुत शीघ्र सूर्य की सीध मे पूर्व की ओर हट जाता हैं और उसकी एक एक कला क्रमशः प्रकाशित होने लगती है । चंद्रमा सुर्य की सीध (समसूत्र पात) से जितना ही अधिक हट जायगा, उसका उतना ही अधिक भाग प्रकाशित होता जायगा । द्वितीया के दिन चंद्रमा के पश्चिमांश पर सूर्य का जितना प्रकाश पडता है, उतना भाग प्रकाशित दिखाई पडता हैं । सूर्य सिद्धांत के मतानुसार जब चंद्रमा सूर्य की सीध से ६ राशि पर चला जाता है तब उसका समग्र आधा भाग प्रकाशित हो जाता हैं और हमें पूर्णिमा का पूरा चंद्रमा दिखाई पडता हैं । पूर्णिमा के अनंतर ज्यों ज्यों चंद्रमा बढ़ता जाता हैं, त्यों त्यो सूर्य की सीध से उसेका अंतर कम होता जाता है; अर्थात् वह सूर्य की सीध की ओर आता जाता हैं और प्रकाशित भाग क्रमशः अंधकार में पड़ता जाता हैं । अनुपात के मतानुसार प्राकाशित और अप्रकाशित भागों के इस ह्वास और वृद्धि का हिसाब जाना जा सकता है । यही मत आर्यभट्ट, श्रीपति, ज्ञानराज लल्ल, ब्रह्मपुत्र, आदि सभी पुराने ज्योतिषियों का है । चंद्रमा में जो धब्बे दिखाई पडते हैं, उनके विषय में सूर्यसिद्धांत, सिद्धांतशिरोमणि, बृहत्संहिता इत्यादि में कुछ नहीं लिखा है । हरिवश में लिखा हैं कि ये धब्बे पृथ्वी की छाया हैं । कवि लोगों ने चकोर और कुमुद को चंद्रमा पर अनुरक्त वर्णन किया हैं । पुराणा- नुसार चंद्रमा समुद्रमंथन के समय निकले हुए चोदह रत्नों में से है और देवताओं में गिना जाता है । जब एक असुर देवताओं की पंक्ति में चुपचाप बैठकर अमुत पी गया, तब चंद्रमा ने यह वृत्तांत विष्णु से कह दिया । विष्णु ने उस असुर के दो खंड कर दिए जो राहु और केतु हुए । उसी पुराने वैर के कारण राहु ग्रहण के समय चंद्रमा को ग्रसा करता हैं । चंद्रमा के धब्बे के विषय में भी भिन्न भिन्न कथाएँ प्रसिद्ध हैं । कुछ लोग कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के शाप से चंद्रमा को राजपक्ष्मा रोग हुआ; उसी की शांति के लिये वे अपनी गोद में एक हिरन लिए रहते हैं । किसी किसी के मत से चंद्रमा ने अपनी गुरुपत्नी के साथ गमन किया था; इसी कारण शापवश उनके शरिर पर काला दाग पड गया है । कहीं कहीं यह भी लिखा हैं कि जब इंद्र ने अहल्या का सतीत्व भंग किया था, तब चंद्रमा ने इंद्र को सहायता दी थी । गौतम ऋषि ने क्रोधवश उन्हें अपने कमडल और मृगचर्म से मारा, जिसका दाग उनके शरीर पर पड गया । रुस और अमेरिका चंद्रमा संबंधी अभियान और अनुसंधान में लगे हैं । १९५९ के ४ अक्तूबर के दिन रुस ने एक स्वयंचालित अंतर्ग्रही स्टेशन चंद्रमा की ओर छोडा जिसने चंद्रमा के अदृश्य भाग के फोटो ४० मिनट तक लिये । अमेरिका भी यह काम कर चुका हैं । दोनों के मानवहीन अंतरिक्ष यान मंदतम गति से चंद्रतल पर अवतरण कर चुके हैं । मानव को वहाँ उतारने की चेष्टा में दोनो देश लगे हैं । यह हो जाने पर अनेक नवीन तथ्यों का पता लगेगा । पर्या०—हिमाशु । इंदु । कुमुदबांधव । विधु । सुधांशु । शुभ्रांशु । ओषधीश । निशाब्जति । अज । जैवातृक । सोम । ग्लौ । मृगांक । कलानिधि । द्विजराज । शशधर । नक्षत्रराज । क्षपाकर ।दोषाकर । निशानाथ । शर्वरीश । एणांक । शीत- रश्मि । सारस । श्वेतवाहन । नक्षत्रनेमि । उडुप । क्षुधासूति । तिथिप्रणी । अमति । चंदिर । चित्राचीर । पक्षधर । रोहि- णीश । अत्रिनेत्रज । पत्रज । सिंधुजन्मा । दशास्य । तारापीड- निशामणि । मृगलांछन । दाक्षायणीपति । लक्ष्मीसहज । सुधाकर । सुधाधार । शीतभानु तमोहर । तुषारकिरण । हरि । हिमद्युति । द्विजपत्ति । विश्वस्पा । अमृतदीधिति । हरिणांक । रोहिणीपति । सिंधुनंदन । तमोनुद् । एणतिलक । कुमुदेश । क्षीरोदनंदन । कांत कलावान् । यामिनीपति । सिप्र । सुधानिधि । तुंगी । पक्षजन्मा । समुद्रनवनीत । पीयूषू- महा । शीतमरीचि । त्रिनेत्रचूडामणि । सुधाँग । परिज्ञा । तु गीपति । पर्ब्बधि । क्लेदु । जयंत । तपस । खचमस । विकस । दशवाजी । श्वेतवाजी । अमृतसू । कौमुदीपति । कुमुदिनीपति । दक्षजापति । कलामृत । शशभृत् । चणभृत् । छरयाभृत् । निशारत्न । निशाकर । रजनीकर । क्षपाकर । अमृत । श्वेतद्युति । शशलांछन । मृगलांछन ।
⋙ चंद्रमात्रा
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमात्रा ] संगीत में तालों के १४ भेदों में से एक ।
⋙ चंद्रमाललाट
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमा + ललाट] वह जिसके माथे पर चंद्रमा हो— शिव ।— महादेव ।
⋙ चंद्रमाललाम
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमा +ललाम (= तिलक , मस्तक पर का चिह्न)] महादेव । शंकर । शिव । उ०— तहाँ दसरथ के समत्थ नाथ तुलसी के चपरि चढायो चाप चद्रमाललाम को ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंद्रमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रमाला] १२८ मात्राओं का एक छंद । उ०— नृपहि महाभट गुणि अति रिस करि अगणित सायक मारयो— (शब्द०) । २. एक प्रकार का हार । चंद्रहार ।
⋙ चंद्रमास
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रमास या चन्द्रमास ] दे ० 'चांद्रमास' ।
⋙ चंद्रमुख
वि० [सं० चन्द्रमुख] [स्त्री० चन्द्रमुखी] चंद्रमा की तरह सुंदर मुखवाला [को०] ।
⋙ चंद्रमौलि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रमौलि] मस्तक पर चंद्रमा को धारण करनेवाले— शिव । महादेव । उ०— तजिहउँ तुरत देइ तेहि हेतु । उर धऱि चंद्रमौलि वृषकेतू ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चंद्ररत्न
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्ररत्न] मोती [को०] ।
⋙ चंद्ररेखा, चंद्रलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं० चंन्द्ररेखा, चंन्द्रलेखा] १. चंद्रमा की कला । २. चंद्रमा की किरण ।३. द्वितीया का चंद्रमा । ४. बकुची । ५. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में म र म य य (/?/) होता है । उ०— मैं री मैया यही लैहौं चंद्रलेखा खिलौना ।—(शब्द०) ।
⋙ चंद्ररेण
संज्ञा पुं० [सं० चंन्द्ररेणु] शब्दचोर । काव्यचोर [को०] ।
⋙ चंद्रलल्लम
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रलल्लम ] शिव । महादेव [को०] ।
⋙ चंद्रलोक
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रलोक] चंद्रमा का लोक । उ०— चंद्रलोक दीन्हों शशि को तब फगुआ में हरि आप । सब नक्षत्र को राजा कीन्हों शशिमंडल में छाप ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ चंद्रवंश
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रवश ] क्षत्रियों के दो आदि और प्रधान कुलों में से एक जो पुरुरवा से आरंभ हुआ था ।
⋙ चंद्रवंशी
वि० [सं० चन्द्रवंशिन्] चंद्रवंश का । जो क्षत्रियों के चंद्रवेश में उत्पन्न हुआ हो ।
⋙ चंद्रवदन
वि० [सं० चन्द्रवदन] [वि० स्त्री० चन्द्रवदनी] दे० 'चंद्रमुख' [को०] ।
⋙ चंद्रवधू
संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्रबधू] बीरबहूटी । उ— द्युतिवंतन कौं विपदा बहु कीन्ही । धरनी कह चंद्रबधू धरि दीन्हीं ।— रामचं०, पृ०८८. । विशेष— जान पडता है, इंद्रबधू को किसी कवि ने 'इंदुबधू' समझकर ही इस शब्द का इस अर्थ में प्रयोग किया है ।
⋙ चंद्रवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रवर्त्म] एक वर्णवृत्त का नास, जिससे प्रत्येक चरण रगण, नगण, भगण और सगण (/?//?/) होते हैं । जैसे— रे नभा शिव ललाट शशि समा । जानि त्यागहु धतू हिय तमा ।
⋙ चंद्रवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रवल्लरी] सोमलता ।
⋙ चंद्रवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रवल्ली] १. सोमलता । २. माधवी लता । ३. प्रसारिणी । पसरन ।
⋙ चंद्रवा
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रातप] चँदवा । चँदोवा । उ०— माँडि रहे चंद्रवा तणै मिसि फण सहसेई सहसफणि ।— बेलि०, दू०१६० ।
⋙ चंद्रवार
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रवार ] सोमवार ।
⋙ चंद्रवाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रवाला] बडी इलायची ।
⋙ चद्रविंदु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रबिदु] दे० 'चंद्रबिन्दु' ।
⋙ चंद्रविहंगम
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रविहङ्गम] एक प्रकार का पक्षी [को०] ।
⋙ चंद्रवेष
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रवेष] शिव । महादेव । उ०— जहँ चंद्रवेष करिकै वनिता को ह्वां रहे ।— लल्लू (शब्द०) ।
⋙ चंद्रव्रत
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रब्त] दे० 'चांद्रायण' ।
⋙ चंद्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रशाला ] १. चाँदनी । चंद्रिका २. धुर ऊपर की कोठरी । सबसे ऊपर का बँगला । अटारी । उ०—(क) चंद्रशाला, केलिशाला, पानशाला , पाकशाला, गजशाला हेम की जडी मनी ।— रघुराज (शब्द०) । (ख) चौकचंद्रशाला छबिमाला । रजत कनक की बनी दिवाला । रघुराज (शब्द०) । (ग) चढी उतंगु चद्रशाला में लखी अयोध्या नगरी ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ चंद्रशालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रशालिका] दे० 'चंद्रशाला' [को०] ।
⋙ चंद्रशिला
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रशिला] चद्रकांत मणि [को०] ।
⋙ चंद्रशुक्ल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रशुक्ल] जंबुद्वीप के एक उपद्वीप का नाम [को०] ।
⋙ चंद्रशूर
संज्ञा पुं० [सं० चंन्द्रशुर] हालों या हालिम नाम का पौधा । चंसुर ।
⋙ चंद्रशृंग
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रशृंङ्ग] द्वितीया के दोनों नुकीले छोर ।
⋙ चंद्रशेखर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रशेखर] १. वह जिसका शिरोभूषण चंद्रमा है । शिव । महादेव । २. एक पर्वत का नाम । विशेष— इस नाम का एक पर्वत अराकान ब्रह्मदेश (बर्मा) में । ३. एक पुराणप्रसिद्ध नगर का नाम । ४. संगीत में अष्टतालों में से एक । एक प्रकार का सातताला ताल जिसका बोल इस प्रकार है । ......... झें झें । तक धी तक .../?/... दिधि तक दिगिदां । थोंगा । गिडिथों ।
⋙ चंद्रसंज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रसंज्ञ] कपूर [को०] ।
⋙ चंद्रसंभव
संज्ञा पुं० [ सं० चन्द्रसम्भव] बुध (ग्रह) [को०] ।
⋙ चंद्रसंभघा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रसम्भवा] छोटी इलायची [को०] ।
⋙ चंद्रस †
संज्ञा पुं०[देश०] गंधाबिरोजा ।
⋙ चंद्रसरोवर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रसरोवर] ब्रज का एक तीर्थस्थान जो गोवर्द्धन गिरि के समीप है ।
⋙ चंद्रसेखर पु
संज्ञा पुं० [ सं० चन्द्रशेखर ] दे० 'चंद्रशेखर' । उ०— धरयो विषै को ध्यान चंद्रशेखर नहिं ध्यायौ ।— ब्रज ० ग्रं०, पृ० १०९ ।
⋙ चंद्रसौध
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र + सौध] दे० 'चंद्रशाला' । उ०— मैंने चंद्रसौध में आपके शयन का प्रबंध करने के लिये कह दिया है ।— चंद्र०, पृ० १८५ ।
⋙ चंद्रस्तुत
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रस्तुत] बुध (ग्रह) [को०] ।
⋙ चंद्रहार
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रहार ] गले में पहनने का एक गहना या माला । नौलखा हार । विशेष— इसमें अर्द्धचंद्राकार क्रमशः छोटे बडे अनेक मनके होते हैं । बीच में पूर्णचंद्र के आकार का गोल पान होता है । यह हार सोने का बनता है और प्रायः जडाऊ होता है ।
⋙ चंद्रहास
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रहास] १. खङ्ग । तलवार । २. रावण की तलवार का नाम । उ०— चंद्रहास हर मम परितापं । रघुपति विरह अनल संजातं ।— तुलसी (शब्द०) । ३. चाँदी ।
⋙ चंद्रहासा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रहासा] सोमलता ।
⋙ चंद्रांक
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्राङ्क] आभूषण विशेष ।
⋙ चंद्रांकित
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्राङ्कित] महादेव । शिव ।
⋙ चंद्रांशु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्राशु] १. चंद्रामा की किरण ।२. विष्णु का एक नाम [को०] ।
⋙ चंद्रा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रा] १. छोटी इलायची । २. वितान । चँदवा । चँदोवा । ३. गुडची । गुर्च ।
⋙ चंद्रा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्र] मरने के समय की वह अवस्था जब टकटकी बँध जाती है, गला कफ से रुँध जाता है और बोला नहीं जाता । जैसे— उधर बाप को चंद्रा लग रही थी, इधर बेटे का ब्याह हो रहा था । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ चंद्रागति घात
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रागतिघात] मृदंग की एक थाप । उ०— ताल धरे बनिता मृदंग चंद्रागतिंघात बजै थोरी ।—(शब्द०) ।
⋙ चंद्रातप
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रातप] १. चाँदनी । चंद्रिका । २. चँदवा । वितान ।
⋙ चंद्रात्मज
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रात्मज ] चंद्रमा का पुत्र । बुध [को०] ।
⋙ चंद्रानन (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रानन] कार्तिकेय [को०] ।
⋙ चंद्रानन (२)
वि० [वि० स्त्री० चन्द्रानना] चंद्रमा के समान मुखवाला [को०] ।
⋙ चंद्रापीड
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रापीड] १.शिव । महादेव । २. काश्मीर का एक राजा । विशेष— इसका दूसरा नाम वज्रादित्य था । यह प्रतापा- दित्य का ज्येष्ठ पूत्र था और उसकी मृत्यु के उपरांत ६०४ शकाब्द में सिंहासन पर बैठा था । यह अत्यंत उदार और धर्मात्मा था ।
⋙ चंद्रायण पु
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रायण] दे० 'चांद्रायण' ।
⋙ चंद्रायतन
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रायतन] चंद्रशाला ।
⋙ चंद्रायन पु
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रायण] एक प्रकार के छंद का नाम । जैसे, आल्ह गयव दरबार कहिय परिमाल सौं । घाइल हति बिन चुक्कलह लिय माल सौ ।— प० रासो, पृ० ४७ ।
⋙ चंद्रारि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रारि ] राहु । उ०— चंद रहा चंद्रारि मझारा । मुकुत मिलेउ कौमुदी पसारा— इंद्रा०, पृ० १६४ ।
⋙ चंद्रार्क
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रार्क ] १. चंद्रमा और सूर्य । चाँदी , ताँबे आदि के मिश्रण से बनी हुई एक धातु [को०] ।
⋙ चद्रार्ध
संज्ञा पुं०[ सं० चन्द्रार्ध] चंद्रमा का आधा भाग । अर्धचंद [को०] ।
⋙ चंद्रार्द्ध चूडामणि
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रार्द्धचूडामणि] महादेव । शिव ।
⋙ चंद्रालोक
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रालोक] १. चंद्रमा का प्रकाश । २. जयदेव नामक कवि रचित अलंकार का एक संस्कृत ग्रंथ । विशेष— अधिकांश लोगो का मत है कि चंद्रालोककार जयदेव, गीतगोविंदकार जयदेव से भिन्न है ।
⋙ चंद्रावती
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रावती] दे० 'चद्रावर्त्ता' ।
⋙ चंद्रावर्त्ता
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रावर्त्ता] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक पद में ४ नगण पर १ सगण होता है और ८+७ पर विराम । विराम न होने से 'शशिकला' (मणिगुण शरभ) वृत्त होता है । इसका दूसरा नाम 'मणिगुण निकर' है । जैसे,— नचहु सुखद यशुमति सुत सहिता । लहहु जनम इह सखि सुख अमिता ।
⋙ चंद्रावली
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रावली] कृष्ण पर अनुरक्त एक गोपी का नाम जो चद्रभानु की कन्या थी ।
⋙ चंद्रिकांबुज
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रिका +अम्बुज] श्वेतकुमुद् [को०] ।
⋙ चंद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रिका ] १. चंद्रमा का प्रकाश । चाँदनी । ज्योत्स्ना । कौमुदी । २. मोर की पूँछ पर का वह अर्द्ध- चंद्राकार चिह्न जो सुनहले मंडल से घिरा होता है । मोर की पूँछ के पर का गोल चिह्न या आँख । उ०— सोभित सुमन मयूर चंद्रिका नील नलिन तनु स्याम ।— सूर (शब्द०) । ३. बडी इलायची । ४. छोटी इलायची । ५. चाँदा नाम की मछली । ६. चंद्रभागा नदी । ७. कर्णस्फोटा । कनफोडा घास । ८. जूही या चमेली । ९. सफेद फूल की भटकटैया । १० ० मेथी । ११. चंद्रशूर । चनसुर । १२. एक देवी । १३. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में न न त त ग (/?/) और ७+६ पर यति होती है । जैसे,—न नित तगि कहूँ आन को धाव रे । भजहू हर घरी राम को बावरे । १४. वासपुष्पा । १५. संस्कृत व्याकरण का एक ग्रंथ । १६. माथे पर का एक भूषण । बेंदी । बेदा । उ०— यहि भाँति नाचन गोपिका सब थकित ह्वै झुकि झुकि रहीं । कहिं माल पायल चंद्रिका खसि परी नकबेसर कहीं ।— विश्राम (शब्द०) । १७. स्त्रीयों का एक प्रकार का मुकुट या शिरोभूषण जिसे प्राचीन काल की रानियाँ धारण करती थीं । चंद्रकला ।
⋙ चंद्रिकातप
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रिकातप] चाँदनी की उज्वलता । चांदनी । उ०— चारु चंद्रिकातप से पुलकित निखिल धरातल ।— ग्राम्या, पृ० ६८ ।
⋙ चंद्रिकाद्राव
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रिकाद्राव] चंद्रकांत मणि [को०] ।
⋙ चंद्रिकापायो
संज्ञा पुं० [सं० चंद्रिकापायिन्] चकोर [को०] ।
⋙ चंद्रिकाभिसारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चंद्रिकाभिसारिका] शुक्ला- भिसारिका नायिका ।
⋙ चंद्रिकोत्सव
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रिकोत्सव] शरद पूनो का उत्सव । शरदोत्सव ।
⋙ चंद्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रिमा] चाँदनी [को०] ।
⋙ चंद्रिल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रिल] १. शिव । महादेव । २. नाइ [को०] ।
⋙ चंद्री
वि० [सं० चन्द्रिन्] १. चंद्र की तरह आहलादक । उ०— चित्ररेष बाला विचित्र चंद्री चंद्रानन ।— पृ० रा०, २५ । १०९ ।२. सुनहला । सुवर्ण (सोने) वाला (को०) । ३. बुध (को०) ।
⋙ चंद्रेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रेष्टा] कुमुदनी [को०] ।
⋙ चंद्रोदय
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रोदय] १. चंद्रमा का उदय । २. वैद्यक में एक रस जो गंधक, पारे और सोने को भस्म करके बनाया जाता है । मरणासन्न मनुष्य को देने से उसकी बेहोशी थोडी तेर के लिय दूर हो जाती है । इसे पुष्टई की तरह भी लोग खाते हैं । ३. चँदवा । चँदोवा । वितान ।
⋙ चंद्रोपराग
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रोपराग] चंद्रग्रहण ।
⋙ चंद्रोपल
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रोपल] चंद्रकांतमणि ।
⋙ चंद्रौंल
संज्ञा स्त्री०[ सं० चन्द्र] राजपूतों की एक जाति या शाखा ।
⋙ चंप
संज्ञा पुं० [सं० चम्पक] १. चंपा । २. कचनार । कोविदार वृक्ष ।
⋙ चंपई
वि० [हिं० चंपा] चंपा के फूल के रंग का । पीले रंग का ।
⋙ चंपक
संज्ञा पुं० [सं० चम्पक ] १. चंपा । २. चंपा केला । ३. सांख्य में एक सिद्धि जिसे रम्यक भी कहते हैं । वि० दे० 'रम्यक' । ४. संपूर्ण जाति का एक राग जिसके गाने का समय तोसरा पहर है । यह दीपक राग का पुत्र माना जाता है ।
⋙ चंपकमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पकमाला] १. चपा के फूलों कीमाला । २. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक पद में भगण, मगण, सगण और एक गूरु (/?/) होता है । जैसे,— भूमि सगी काहू कर नाहीं । कृष्ण सगा साँचो जग माहीं ।
⋙ चंपकरंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पक रम्भा] चंपा केला [को०] ।
⋙ चंपकलो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'चंपाकली' । उ०— गल में कटवा, कंठा हँसली , उर में हुमेल, कल चंपाकली ।— ग्राम्या, पृ० ४० ।
⋙ चंपकारण्य
संज्ञा पुं० [सं० चम्पकारध्य] एक पुराना तीर्थ । आधुनिक चंपारन [को०] ।
⋙ चंपकालु
संज्ञा पुं० [सं० चम्पालु] जाक या रोटी फल का पेड़ ।
⋙ चंपकावती
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पकावती] चंपापुरी [को०] ।
⋙ चंपकुंद
संज्ञा पुं० [सं० चम्पकुन्द] एक प्रकार की मछली [को० ] ।
⋙ चंपकोश
संज्ञा पुं० [ सं० चम्पकोश] कटहल [को०] ।
⋙ चंपत
वि० [देश०] चलता । गायब । अंतर्द्धान । क्रि० प्र०— बनना ।— होना ।
⋙ चंपा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चम्पक] १. मझोले कद का एक पेड । विशेष— इसमें हलके पीले रंग के फूल लगते हैं । इन फूलों में बडी तीव्र सुगंध होती है । चंपा दो प्रकार का होता है । एक साधारण चंपा, दूसरा कटहलिया । कटहलिया चंपा के फुल की महक पके कटहल से मिलती हुई होती है । ऐसा प्रसिद्ध है कि चंपा के फूल पर भौंरे नहीं बैठते । जंगलों में चंपे के जो पेड होते हैं, वे बहुत ऊँचे और बडे होते हैं । इसकी लकडी पीली, चमकीली और मुलायम, पर बहुत मजबूत होती है और नाव, टेबुल, कुरसी आदि बनाने और इमारत के काम में आती है । हिमालय की तराई, नैपाल, बंगाल, आसाम तथा दक्षिण भारत के जंगलों में यह अधिकता से पाया जाता है । चित्रकूट में इसकी लकडी की मालाएँ बनती हैं । २. चंपा का फूल । उ०— अलि अवरंगजेब चंपा सिवराज है ।— भूषंण ग्रं०, पृय १०१ ।३. एक प्रकार का मीठा केला जो बंगाल में होता है । ४. घोडे की एक जाति । ५. एक प्रकार का कुसियार या रेशम का कीडा जिसके रेशम का व्यवहार पहले आसाम में बहुत होता था । ६. एक प्रकार का बहुत बडा सदाबहार पेड । विशेष— यह वृक्ष दक्षिण भारत में अधिकता से पाया जाता है । इसकी लकडी कुछ पीलापन लिए बहुत मजबूत होती है और इमारत के काम के अतिरिक्त गाडी, पालकी, नाव आदि बनाने के काम में भी आती है । इसे 'सुल्ताना चंपा' भी कहते हैं ।
⋙ चंपा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पा] एक पुरी जो प्राचीन काल में अंग देश की राजधानी थी । यह वर्तमान भागलपुर के आस पास कहीं रही होगी । कर्ण यहीं का राजा था ।
⋙ चंपाकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चम्पा + कली] गले में पहनने का स्त्रियों का एक गहना जिसमें चंपा की कली के आकार के सोने के दाने रेशम के तागे में गुँथे रहते हैं । उ०— चंपक की कली बनी चंपाकली भारी फूलन के हार कंठ सोहत रुचिकारी ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४० ।
⋙ चंपानेर
संज्ञा पुं० [हिं० चंपा+नगर] एक पुराना नगर । विशेष—इस नगर के खँडहर अबतक बंबई के पंचमहाल जिले के अंतर्गत है । ईसवी १५वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक यह एक राजपूत सरदार के अधिकार में था । पर सन् १४८२ में अहमदाबाद के बादशाह महमद ने राजपूतों के आक्रमण से तंग आकर इसे ले लिया और इसके पास ही महम्मदाबाद चंपानेर बसाया । इस नगर को हुमायूँ ने सन् १५३३ में उजाड़ दिया । सन् १८०३ तक इसमें ४००, ५०० आदमियों की बस्ती थी । पर अब दो चार घर रह गए हैं ।
⋙ चंपापुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पापुरी] अंगदेश के राजा की राजधानी । कर्णपुरी । उ०—आषेट जाइ फंदनि पकरि दुरद आनि चंपापुरिय ।—पृ० रा०, २६ ।६ ।
⋙ चंपारण्य
संज्ञा पुं० [सं० चम्पारण्य] प्राचीन काल का एक जंगल जो कदचित् उस स्थान पर रहा हो, जिसे आजकल चंपारन कहते हैं ।
⋙ चंपारन
संज्ञा पुं० [सं० चम्पारण्य] बिहार प्रांत का एक प्रदेश या जिला ।
⋙ चंपाल
संज्ञा पुं० [सं० चम्पालु] दे० 'चंपकालु' [को०] ।
⋙ चंपावती
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पावती] दे० 'चंपापुरी' [को०] ।
⋙ चंपू
संज्ञा पुं० [सं० चम्पू] गद्यपद्यमय काव्य । वह काव्यग्रंथ जिसमें गद्य के बीच बीच में पद्य भी हो । जैसे, नलचंपू ।
⋙ चंपेल पु †
संज्ञा पुं० [सं० चम्पा+हिं० तेल] चमेली का तेल । उ०—बाँधउँ बड़री छाँहड़ी, नीरूँ नागरवेल । डाँभ सँभालुँ करहला, चोपड़िसू चंपेल ।—ढोला०, दू० ३२० ।
⋙ चंबक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चुंबक' । उ०—सुई होहिं चेतन्य यथा चंबक कै संगा ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५९ ।
⋙ चंबल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मण्वती] १. एक नदी जो विध्य पर्वत से निकलकर इटावे से १२ कोस पर जमुना में जा मिली है । २. नहरों या नालों के किनारे पर लगी हुई लकड़ी जिससे सिंचाई के लिये पानी ऊपर चढ़ाते हैं ।
⋙ चंबल (२)
संज्ञा पुं० पानी की बाढ़ । मुहा०—चंबल लगना = खूब पानी बढ़ना । जलमय होना ।
⋙ चंबल (३)
संज्ञा पुं० [फा़ चुंबल] १. भीख माँगने का कटोरा या खप्पर । २. चिलम का सरपोश ।
⋙ चंबली
संज्ञा स्त्री० [फा० चुंबल] एक प्रकार का छोटा प्याला ।
⋙ चंबी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कागज या मोमजामे का एक तिकोना टुकड़ा जो कपड़ों पर रंग छापते समय उन स्थानों पर रखा जाता है, जहाँ रंग चढ़ाना मंजूर नहीं होता । पट्टी । कतरनी ।
⋙ चंबू
संज्ञा पुं० [?] १. एक प्रकार का धान जो पहाड़ों में बिना सींची हुई जमीन पर चैत में होता है । २. ताँबे. पीतल या और किसी धातु का छोटे मुँह का सुराहीनुमा बरतन जिससे हिंदू देवमूर्तियों पर जल चढाते हैं । ३. एक प्रकार का लोटा जोविशेषकर ओड़छा में बनता है । इसका फूल बहुत उत्तम होता है ।
⋙ चँसुर
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रशूर] हालों या हालिम नाम का पौधा । विशेष—यह पौधा लगभग दो फुट ऊँचा होता है । इसके पत्ते पतले और कटावदार गुलदावदी के पत्तों के से होते हैं । पत्तों का लोग साग खाते हैं । पौधे के बीज को भी चँसुर कहते हैं ।
⋙ चँगना पु
क्रि० स० [हिं० चंगा या फा० तंग] तंग करना । कसना । खींचना । उ०—राम रंग ही सों रँगरेजवा मेरी अँगिया रंग दे रे ।.... त्रिगुन करम तागन से बीनी, रोम रोम झाँझरि अति झीनी, बड़े सुकृत रतनन से कीनी, खसक होई तो चँगि दे रे ।—देव स्वामी (शब्द०) ।
⋙ चँगेर, चँगेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चङ्गेरिक] १. बाँस की पट्टियों की बनी हुई छिछली डलिया । थाली के आकार की बाँस की चौड़ी टोकरी । २. फूल रखने की डलिया । डगरी । उ०— रघुनाथ काल्हि भेजे मेवा भाँति भाँतिन के फूलन के हार सों चँगेर सोने की भरी ।—रघुनाथ (शब्द०) । ३. चमड़े का जलपात्र । मशक । पखाल । ५. रस्सी में बाँधकर लटकाई हुई टोकरी जिसमें बच्चों को सुलाकर पालना झुलाते हैँ । बहुत छोटे बच्चों का वह झूला जिसे बच्चा जनमने पर फूफी आदि संबंधी स्त्रियाँ बच्चे की माँ को भेंट करती हैं । उ०— रघुकुल की सब सुभग सुवासिनि शीसन लिए चँगेरी । विविध भाँति की जटित जवाहिर दीपावली घनेरी ।—रघुराज (शब्द०) । ५. चाँदी का एक जालीदार पात्र जो प्रायः प्याले के आकार का होता है । यह भी फूल रखने के काम में आता है ।
⋙ चँगेरा
संज्ञा पुं० [हिं० चंगेरी] बड़ी चंगेर । टोकरा ।
⋙ चँगेल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास जो पुराने खेड़े या गिरी हुए मकानों के खँडहरों में उत्पन्न होती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ गोल गोल होती है और खाने में कुछ कनकनाती हैं । इसमें कुछ कालापन लिए लाल रंग के घंटी के आकार के फूल लगते हैं । बीज गोल गोल होते हैं और हकीमी चिकित्सा में ये खुब्बाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं । यह घास फारस के शीराज, मर्जदरान आदि प्रदेशों में बहुत होती है ।
⋙ चँगेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चँगेरी] दे० 'चँगेर' या 'चँगेरी' ।
⋙ चँचरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. माझियों की भाषा में पत्थर के ऊपर से होकर बहनेवाला पानी । २. एक चिड़िया जो भारत में स्थिर रूप से रहती है । यह छोटा घोंसला बनाती है जो जमीन पर घास आदि के नीचे छिपा रहता है । यह प्रायः तीन अंडे देती है । ३. वह अन्न जो दाना पीटने पर भी बाल में लगा रहे । गूरी । कोसी । करही । भूडरी । (ज्वार, मूँग आदि के लिये) ।
⋙ चँचोरना
क्रि० स० [अनु०] दाँतों से दबा दबाकर चूसना । जैसे, हड्डी चँचोरना । दे० 'चचोड़ना' । उ—या माया के कारने, हरि सों बैठा तोरि । माया करक कदीम है, केता गया चँचोरि ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चँड़ाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चणड(=तेज)] १. शीघ्रता । जल्दी । फुरती । चटपटी । उतावली । उ०—(क) देखहु जाइ कहा जेवन कियों जसुमति रोहिनी तुरत पठाई । मैं अह्यवाए देति दुहुन कों तुम भीतर अति करौ चँडाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) कहा भयो जो हम पै आई कुल की रीति गमाई । हमहूँ कों विधि को डर भारी अजहूँ जाहु चँड़ाई ।—सूर (शब्द०) । २. प्रबलता । जबरदस्ती । अधम अत्याचार । उ०—करत चँड़ाई फिरत हौ नागर नंदकिशोर ।—(शब्द०) ।
⋙ चँदनौता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का लहँगा । उ०—चँदनौता जों खर दुख भारी । बाँसपूर झिलमिल की सारी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चँदर पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] दे० 'चंद्र' । उ०—सेत पियर मन जोत बिलौके और चँदर सम त्रास न रोकै ।—इंद्रा०, पृ० ३७ ।
⋙ चँदराना †
क्रि० स० [सं० चन्द्र (दिखलाना)] १. झुठलाना । बहकाना । बहलाना । २. जान बूझकर कोई बात पूछना । जान बूझकर अनजान बनना ।
⋙ चँदला
वि० [हिं० चाँद(=खोपड़ी)] जिसकी चाँद के बाल झड़ गए हों । गंजा । खल्वाट ।
⋙ चँदवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रक या चन्द्रातप] १. एक प्रकार का छोटा मंडप जो राजाओं के सिहासन या गद्दी के ऊपर चाँदी या सोने की चार चोबों के सहारे ताना जाता है । चँदोवा । २. चँदरछत । ३. बितान । उ०—ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरंग बिछाव बिछावा ।—जायसी (शब्द०) विशेष—इसकी लंबाई चौड़ाई दो ढाई गज से अधिक नहीं होती और यह प्रायः मखमल, रेशम आदि का होता है, जिसपर कारचोब का काम बना रहता है । इसके बीच में प्रायः गोल काम रहता है ।
⋙ चँदवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रक] १. गोल आकार की चकती । गोल थिगली या पैबंद । जैसे टोपी का चँदवा । २. [स्त्री० चँदियाँ] तालाब के अदर का गहरा गड़ढा जिसमें मछलियाँ पकड़ी जाती हैं । ३. मोर की पूँछ पर का अर्द्ध चंद्राकार चिह्न जो सुनहले मंडल के बीच में होता है । मोरपंख की चंद्रिका । उ०—(क) मोरन के चँदवा माथे बने राजत रुचिर सुदेस री । बदन कमल ऊपर अलिगन मनों घूँघरवारे केस री ।—सूर (शब्द०) । (ख) सोहत हैं चँदवा सिर मोर के जैसिय सुंदर पाग कसी हैं ।—रसखान (शब्द०) । ४. एक प्रकार की मछली ।
⋙ चँदवार
संज्ञा पुं० [हिं० चंदवार] दे० 'चंदवार' । उ०—जेठ मास बरसात में पगधारे चँदवार ।—कबीर मं०, पृ० ५९३ ।
⋙ चँदिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद+इया (प्रत्य)] १. खोपड़ी । सिर का मध्य भाग । मुहा०—चँदिया पर बाल न छोड़ना=(१) सिर के बाल तक न छोड़ना । सब कुछ ले लेना । सर्वस्व हरण कर लेना । (२) सिर पर जूते लगाते लगाते बाल उड़ा देना । खूब जूते उड़ाना । चँदिया से परे सरक = सिर के ऊपर से अलग जाकर खड़ा हो । पास से हट जा । चँदिया मूँड़ना = (१) सिर मूड़ना । हजामत बनाना । (२) लूटकर खाना । धोख देकर किसी का धन आदिं ले लेना । (३) सिर परखूब जूते लगाना । चँदिया खाना = (१) बकवाद से तंग करना । सिर खाना । सिर में दर्द पैदा करना । (२) सब कुछ हरण करके दरिद्र बना देना । चँदिया खुजाना = (१) सिर खुजलाना । (२) गारया जूते खाने को जो जो चाहना । मार खाने का काम करना । २. छोटी सी रोटी । बचे हुए आटे की टिकिया । पिछली रोटी; ३. किसी ताल में वह स्थान जहाँ सबसे अधिक गहराई हो । जैसे,—इस साल तो ऐसी कम वर्षा हुई कि तालों की चँदिया भी सूख गई । ४. चाँदी की टिकिया ।
⋙ चँदेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चेदि या हिं० चन्देल] एक प्राचीन नगर । उ०—राव चँदेरी को भूपाल । जाको सेवत सब भूपाल ।— सूर (शब्द०) । विशेष—यह ग्वालियर राज्य के नरवार जिले में है । आज कल की बस्ती में ४, ५ कोस पर पुरानी इमारतों के खँडहर हैं । पहले यह नगर बहुत समृद्ध दशा में था; पर अब कुछ उजड़ गया है । यहाँ की पगड़ी प्रसिद्ध है । चँदेरी में कपड़े (सूती और रेशमी) अब भी बहुत अच्छे बुने जाते हैं । यहाँ एक पुराना किला है जो जमीन से २३० फुट की ऊँचाई पर है । इसका फाटक 'खूनी दरवाजा' के नाम से प्रसिद्ध है; क्योंकि पहले यहाँ अपराधी किले की दीवार पर से ढकेले जाते थे । रामायण, महाभारत और बौद्ध ग्रंथों के दिखने से पता लगता है कि प्राचीन काल में इसके आसपास का प्रदेश चेदि, कलचुरी या हैहय वंश के अधिकार में था और चेदि देश कहलाता था । जब चंदेलों का प्रताप चमका, तब उनके राजा यशोवर्मा (संवत् ९८२ से १०१२ तक) ने कलचुरि लोगों के हाथ से कालिंजर का किला तथा आसपास का प्रदेश ले लिया । इसी से कोई कोई चँदेरी शब्द की ब्युत्पति 'चंदेल' से बतलाते हैं । अलबरूनी ने चँदेरी का उल्लेख किया है । सन् १२५१ ईसवी में गयासुद्दीन बलबन ने चँदेरी पर अधिकार किया था । सन् १४३८ में यह नगर मालवा को बादशाह महमूद खिलजी के अधिकार में गया । सन् १५२० में चित्तौर के राणा साँगा ने इसे जीतकर मेदिनीराव को दे दिया । मेदिनीराव से इस नगर को बाबर ने लिया । सन् १५८६ के उपरांत बहुत दिनों तक यह नगर बुंदेलों के अधिकार में रहा और फिर अंत में सन् १८११ में यह ग्वालियर राज्य के अधिकार में आया ।
⋙ चँदेरीपति
संज्ञा पुं० [हिं० चंदेरी+सं० पति] चँदेरी का राजा । शिशुपाल ।
⋙ चँदोआ
संज्ञा पुं० [हिं० चंदवा] दे० 'चँदवा' । उ०—संसार ताप से बचाने के निमित्त भक्ति के मंडप का चंदोआ रचा हुआ है । भक्तमाल (श्री०), पृ० ३८२ ।
⋙ चँदोया †
संज्ञा पुं० [हिं० चँदवा] दे० 'चँदवा' ।
⋙ चँदोवा
संज्ञा पुं० [हिं० चँदवा] दे० 'चँदवा' ।
⋙ चँपना
क्रि० अ० [सं० चप्] १. बोझ से दबना । दबना । २. लज्जा से दबना । लज्जित होना । ३. उपकार से दबना । एहसान से दबना ।
⋙ चँपौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँपना] जुलाहों के करघे की भँजनी में एक पतली लकड़ी जो दूसरी भाँज को दबाने के लिये लगी रहती है ।
⋙ चँबेलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमेली] दे० 'चमेली' । उ०—कोइ चँबेलि नागेसरि बरना । जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४७ ।
⋙ चँबेलिया †
वि० [हिं० चमेली] दे० 'चमेलिया' ।
⋙ चँबेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमेली] दे० 'चमेली' ।
⋙ चँभार †
संज्ञा पुं० [हिं० चमार] दे० 'चमार' । उ० जा तन सूँ मुजे कछु नहिं प्यार, असते के नहिं हिंदु धेड चँभार ।— दक्खिनी०, पृ० १०१ ।
⋙ चँवर
संज्ञा पुं० [सं० चामर] [स्त्री० अल्पा० चँवरी] १. सुरा गाय की पूँछ के बालों का गुच्छा जो काठ, सोने, चाँदी आदि की डाँड़ी में लगा रहता है । विशेष—यह राजाओं या देवमूर्तियों के सिर पर, पीछे या बगल से डुलाया जाता है, जिससे मक्खियाँ आदि न बैठने पावें । कभी कभी यह खस का भी बनता है । मोर की पूँछ का जो चँवर बनता है, उसे मोरछल कहते हैं । चँवर प्रायः तिब्बती और भोटिया ले आते हैं । यौ०—चँवरी गाय = वह गाय जिसकी पूँछ के बाल से चँवर बनाया जाता है । २. घोड़ों और हाथियों के सिर पर लगाने की कलगी । उ०— तैसे चँवर बनाए औ घाले गल झंप । बँधे सेत गजगाह तहँ जो देखै सो कप ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चँवरढार
संज्ञा पुं० [हिं० चंवर+ढारना] चँवर डोलानेवाला सेवक । उ०—चँवरढार दुइ चँवर डोलावहिं ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चँवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चँवर] लकड़ी के बेंट या डाँड़ी में लगा हुआ घोड़े पूँछ के बालों का गुच्छा जिससे घोड़े के ऊपर की मक्खियाँ उड़ाई जाती हैं ।
⋙ चँहकार †
संज्ञा स्त्री० [हि० चहकार] दे० 'चहकार' । उ०— चातक की चँहकार और किलकार से कूजित ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११ ।
⋙ च (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कच्छप । कछुआ । २. चंद्रमा । ३. चोर । ४. दुर्जन । ५. शिव (को०) । ६. चर्वण । भक्षण (को०) ।
⋙ च (२)
वि० १. निर्बींज । २. बुरा । अधम । ३. शुद्ध [को०] ।
⋙ च (३)
अव्य० [सं०] और [को०] ।
⋙ चइ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] महावतों की बोली का एक शब्द जिसका व्यवहार हाथी को घुमाने के लिये किया जाता है ।
⋙ चइत †
संज्ञा पुं० [सं० चैत्र] दे० 'चैत' ।
⋙ चइन †
संज्ञा पुं० [हिं० चैन] दे० 'चैन' ।
⋙ चई
संज्ञा स्त्री० [सं० चव्य] पिपरामूल की जाति और लता की तरह का एक प्रकार का पेड़ । वि० दे० 'चाव' । विशेष—यह दक्षिण भारत तथा अन्य स्थानों में नदियों औरजलशयों के किनारे होता है । इसकी जड़ जल्दी नष्ट नहीं होती; और यदि वृक्ष काट भी लिया जाय, तो उसमें फिर पत्ते निकल आते हैं । इसके पत्तों का आकार पान का सा होता है । इसकी जड़ तथा लकड़ी दवा के काम में आती है ।
⋙ चउँकना पु †
क्रि० अ० [हिं० चौंकना] दे० 'चौंकना' ।
⋙ चओंकना पु
क्रि० अ० [हिं० चौंकना] दे० 'चौंकना' । उ०— हरि धरि हार चओंकि परु राधा । अध माधव कर गिम रहु आधा ।—विद्यापति, पृ० ५५० ।
⋙ चउँहान
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' ।
⋙ चउक †
संज्ञा पुं० [हिं० चौक] दे० 'चौक' ।
⋙ चउकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकी] दे० 'चौकी' ।
⋙ चउगुन पु †
वि० [सं० चतुर्गुण] 'चौगुन' । उ०—चाँद वदनी धनि चकोर नयनी । दिवसे दिवसे भेलि चउगुन मलिनी ।— विद्यापति०, पृ० १८५ ।
⋙ चउतरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौतरा] दे० 'चबूतरा' ।
⋙ चउथा †
वि० [हिं० चौथा] दे० 'चौथा' ।
⋙ चउदस †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौदस] दे० 'चौदस' ।
⋙ चउदह †
वि० [हिं० चौदह] दे० 'चौदह' ।
⋙ चउपाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपाई] दे० 'चौपाई' ।
⋙ चउपारि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपाल] दे० चौपाल ।
⋙ चउर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चँवर] मोरछल । उ० धरि धरि सुंदर वेष चले हरषित हिये । चउर चीर उपहार हार मनिगन लिये ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चउरा
संज्ञा पुं० [हिं० चौरा] दे० 'चौरा' ।
⋙ चउरासी पु
वि० [हिं० चौरासी] दे० 'चौरासी' । उ०—चरित्र चउरासी हू आलबूँ, बिलबिलती काँई मेल्हे जाई ।—बी० रासो, पृ० ४७ ।
⋙ चउरास्या
संज्ञा पुं० [हिं०] चारों ओर बैठनेवाले मुसाहिब । जागीरदार । उ०—धार नगरी राजा भोज नरेस । चउरास्या जे कै बसइ असेस ।—बी० रासो, पृ० ६ ।
⋙ चउहट्ट पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+हाट] चौहट्ट । चौराहा । उ०— चउहट्ट हाट सुबट्ट वीथी चाक पुर बहुविधि बना ।— मानस, ६ ।२ ।
⋙ चउहान पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' ।
⋙ चक (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र, प्रा० चक्क] १. चकई नाम का खिलौना । उ०—इत आवत दै जात दिखाई ज्यों भँवरा चक डोर । उततें सूत न टारत कतहूँ मोसों मानत कोर ।—सूर (शब्द०) । २. चक्रवाक पक्षी । चकवा । उ०—संपति चकई भरत चक, मुनि आयसु खेलवार । तेहि निसि आश्रम पींजरा, राखे भा भिनसार ।—तुलसी (शब्द०) । ३. चक्र नामक अस्त्र । ४. चक्का । पहिया ५. जमीन का बड़ा टुकड़ा । भूमि का एक भाग । पट्टी । यौ०—चकबंदी । मुहा०—चक काटना = भूमि का विभाग करना । जमीन की हद बाँधना । ६. छोटा गाँव । खेड़ा । पट्टी । पुरवा । ७ करघे की बैसर के कुलवाँसे से लटकती हुई रस्सियों से बँधा हुआ डंडा जिसके दोनों छोरों पर चकडोर नीचे की ओर जाती है ।— (जुलाहे) ८. किसी बात की निरंतर अधिकता । तार । मुहा—चक बँधना = बराबर बढ़ता जाना । एक पर एक अधिक होता जाना । तार बँधना । जैसे,—यहाँ आकर काम करो; देखो रुपयों का चक बँध जाता है । ९. अधिकार । दखल । मुहा०—चक जमना = रंग जमना । अधिकार होना । १०. सोने का एक गहना जिसका आकार गोल और उभारदार होता है । इसका चलन पंजाब में है । चौक ।
⋙ चक (२)
वि० भरपूर । अधिक । ज्यादा । उ०—(क) उन्होंने चक माल मारा है । (ख) उनकी चक छनी है ।—(भंगड़) ।
⋙ चक (३)
वि० [सं०] चकपकाया हुआ । भ्रांत । भौचक्का । उ०—चक चकित चित्त चरबीन चुभि चकचकाइ चंडी रहत ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ चक (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधु । २. खल ।
⋙ चकई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकवा] मादा चकवा । मादा सुरखाब । वि० दे० 'चकवा' । उ०—(क) सीते सिख दाहक भइ कैसे । चकइहि सरद चंद निसि जैसे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) संपति चकई भरत चक मुनि आयसु खेलवार ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चकई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र] घिरनी या गड़ारी के आकार का एक छोटा गोल खिलौना जिसके घेरे में डोरी लपेटी रहती है । इसी डोरी के सहारे लड़के इसे फिराते या नचाते हैं । उ०—(क) भौंरा चकई लाल पाट को लेडुआ माँगु खेलौना ।—सूर (शब्द०) । (ख) इततै उत उततै इतै छिन न कहूँ ठहराति । जक न परति चकई भई, फिरि आवति फिरि जाति ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चकई (३)
वि० गोल बनावट का । जैसे,—चकई आडू । चकई छाती ।
⋙ चकचकाना
क्रि० अ० [अनु०] १. पानी, खून, रस या और किसी द्रव पदार्थ का सूक्ष्म कणों के रूप में किसी वस्तु के अंदर से निकलना । रस रसकर ऊपर आना । जैसे,—जहाँ जहाँ बेंत लगा है, खून चकचका आया है । २. भींग जाना । उ०— चख चकित चित्त चरबीन चुभि चकचकाइ चंडिय रहत । पद्माकर ग्रं०, पृ० २३० ।
⋙ चकचकी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] करताल नाम का बाजा ।
⋙ चकचाना †
क्रि० अ० [अनु०] चौधियाना । चकाचौंध लगना । उ०—तो पद चमक चकचाने चंदचुड़ चष चितवत एकटक जंक बँध गई है ।—चरण (शब्द०) ।
⋙ चकचाल †
संज्ञा पुं० [सं० चक+ हिं० चाल] चक्कर । भ्रमण । फेरा । उ०—माया मत चकचाल करि चँचल कीए जीब । साया माते मत पिया दाप दिसरा पीव ।—दातू (शब्द०) ।
⋙ चकचाव पु
संज्ञा पुं० [अनु०] चकाचौंध । उ०—गोकुल के चष से चक चाव गो चोर लौ चौकि अयान बिसासी ।—(शब्द०) ।
⋙ चकचून
वि० [सं० चक्र+चूर्ण] चूर किया हुआं । पिसा हुआ । चकना- चूर । उ०—पान, सुपारी खैर कहँ मिलै करै चकचून । तब लगि रंग न राचै जब लनि होय न चून ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चकचूर (१)
वि० [हिं० चक + चूर] दे० 'चकचून' । उ०—तिनको निरखे दिन चारि गये छिन में चकचूर ह्वै धूर समाये ।—दीन० ग्रं०, पृ० १४६ ।
⋙ चकचूर (२)
संज्ञा पुं० [हि०] मस्त । बेखुद । उ०—द्रव्य और अधिकार के नशे में ऐसा चकचूर हुआ कि लोक परलोक की कुछ खबर नहीं रही ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २९१ ।
⋙ चकचूरना
क्रि स० [हिं० चक+चूरन] टुकड़े टुकड़े कर डालना । चकनाचूर करना ।
⋙ चकचूरा
वि० [हिं० चकचूर] दे० 'चकचून' । उ०—अगम पथ सूँ पग न डिगावै होय जाय चकचूरा ।—चरण० बानी, पृ० ८६ ।
⋙ चकचूहट पु †
क्रि० अ० [हिं० चकचकाना] चिंता । सोच । धुकधुकी । उ०—नइहर अहै पियारा, चकचूहट जिय होइ ।— इंद्रा०, पृ० ५७ ।
⋙ चकचोंहट—पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकचूहट] दे० 'चकचूहट' । उ०—जागत कै चकचोंहट लागा । जस पंछी कर तें उड़ भागा ।—हिंदी प्रेम०, पृ० २५८ ।
⋙ चकतोढ़ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चकचौंध,' । उ०—फगुवा ताहि मोहिं चकचोढ़ौ यह रसरीति ठई ।—घनानंद, पृ० ४७४ ।
⋙ चकचोह
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चकचोही' ।
⋙ चकचोही
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकचोहा] हँसी मजाक । चुहल ।
⋙ चकचौंध (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकाचौंध] दे० 'चकाचौंध' ।
⋙ चकचौंध (२)
वि० चकित । विस्मित । उ०—कोउ जु रहे चकचौंध रुचिर पीतांबर छवि पर ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७८ ।
⋙ चकचौंधना (१)
क्रि० अ० [हिं० चख + चौंधना] आँख का अत्यंत अधिक प्रकाश के सामने ठहर न सकना । अत्यंत प्रखर प्रकाश के सामने दृष्टि स्थिर न रहना । आँख तिलमिलाना । चकाचौंध होना ।
⋙ चकचौंधना (२)
क्रि० स० आँख में चमक उत्पन्न करना । अःख में तिलमिलाहट पैदा करना । चकाचौंधी उत्पन्न करना । उ०— (क) अंध धुंध अबर ते गिरि पर मानौ परत वज्र के तीर । चमकि चमकि चपला चकचौंधति श्याम कहत मन धीर ।— सूर (शब्द०) । (ख) चकचौंधति सी चितवै चित मैं चित । सोवत हूँ महँ जागत है ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ चकचौंधा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चकचौध' । उ०—गरजि बुला- वति तोहिं चंचला चमकत राह दिखाई । औरन के चकचौंधा लावत तेरी करत सहाई ।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० १११ ।
⋙ चकचौंधी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकाचौंध] दे० 'चकाचौध' ।
⋙ चकचौंह पु
संज्ञा स्त्री [देश०] चकाचौंध ।
⋙ चकचौबंद पु
वि० [हिं० चक + फां० चौबद] दे० 'चाकचौंबद' ।
⋙ चकचौहना
क्रि० अ० [देश०] चाह से देखना । आशा लगाए टक बाँधकर देखना । उ०—जनु चातक सुख बूँद सेवाती । राजा चकचौहत तेहि भाँती ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चकड़बा
संज्ञा पुं० [हिं० चकरबा] दे० 'चकरबा' ।
⋙ चकडोर
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकई+डोर] १. चकई की डोरी । चकई नामक खिलौने में लपेटा हुआ सूत । उ०—(क) खेलत अवध खोरि गोली भँवरा चकडोरि, मूरति मधुर बसै तुलसी के हियरे । तुलसी (शब्द०) । (ख) दे मैया भँवरा चकडोरी । जाइ लेहु आरे पर राखो काल्हि मोल लै राखै कोरी ।—सूर (शब्द०) । २. जुलाहों के करघे में वह डोरी जो चक या नचनी में लगी हुई नीचे लटकती है और जिसमें बेसर बँधी रहती है ।
⋙ चकडोल
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रदोल] पुराने ढंग की एक पालकी ।
⋙ चकत
संज्ञा पुं० [हिं० चकत्ता] दाँत की पकड़ । चकोटा । मुहा०—चकत मारना=दाँत से मांस आदि नोच लेना । बकोटा मारना । दाँतो से काट खाना ।
⋙ चकता
संज्ञा पुं० [तु० चगताई] दे० 'चकत्ता' ।
⋙ चकताई पु
संज्ञा पुं० [तु० चगताई] दे० 'चकता' ।
⋙ चकती
संज्ञा स्त्री [सं० चक्रवत्?] १. किसी चद्दर के रूप की वस्तु का छोटा गोल टुकड़ा । चमड़े, कपड़े आदि में से काटा हुआ गोल या चौकोर छोटा टुकड़ा । पट्टी । गोल या चौकोर धज्जी । जैसे,—इस पुराने कपड़े में से एक चकती निकाल लो । २. किसी कपड़े, चमड़े, बरतन आदि के फटे या फूटे हुए स्थान पर दूसरे कपड़े, चमड़े या धातु (चद्दर) इत्यादि का टँका या लगा हुआ टुकड़ा । किसी वस्तु के फटे टूटे स्थान । को बंद करने या मूँदने के लिये लगी हुई पट्टी या धज्जी । थिगली । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—बादल में चकती लगाना=अनहोनी बात करने का प्रयत्न करना । असंभव कार्य करने का आयोजन करना । बहुत बढ़ी चढ़ी बातें कहना । ३. दुंबे भेड़े की गोल और चौड़ी दुम ।
⋙ चकत्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र+वत्त] १. शरीर के ऊपर बना गोल दाग । चमड़े पर पड़ा हुआ धब्बा या दाग । विशेष—रक्तविकार के कारण चमड़े के ऊपर लाल, नीले या काले चकत्ते पड़ जाते हैं । २. खुजलाने आदि के कारण चमड़े के ऊपर थोड़े से घेरे के बीच पड़ी हुई चिपटी और बराबर सूजन जो उभड़ी हुई चकती की तरह दिखाई देती है । ददोरा । ३. दाँतों से काटने का चिह्न । दाँत चुभने का निशान । क्रि० प्र०—डालना । मुहा०—चकत्ता भरता=दाँतों से काटना । दाँतों से मांस निकाल लेना । चकत्ता मारना=दाँतों से काटना ।
⋙ चकत्ता (२)
संज्ञा पुं० [तु० चगताई] १. मोगल या तातार अमीर चगताई खाँ जिसके वंश में बाबर, अकबर आदि भारतवर्ष के मुगल बादशाह थे । उ०—मोटी भई चंडी बिनु चोटी के चबाय सीस, खोटी भई संपत्ति चकत्ता के घराने की ।— भूषण (शब्द०) । २. चगताई वंश का पुरुष । उ०— मिलतहि कुरुख चकत्ता कौ निरखि कीनो सरजा सुरेस ज्यों दुचित ब्रजराज को ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ चकदार
संज्ञा पुं० [हिं० चक+फा़ दार (प्रत्य०)] वह जो दूसरे की जमीन पर कूआँ बनवावे और जमीन का लगान दे ।
⋙ चकन पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] गुलचाँदनी नाम का फूल । उ०— कमल गुलाब चकन की सैना । हौत प्रफुल्लित नव तिय नैना ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ४१ ।
⋙ चकना पु
क्रि० अ० [सं० चक(=भ्रांत)] १. चकित होना । भोचक्का । होना । चकपकाना । विस्मित होना । उ०—(क) चित्त चितेरी रही चकि सी जकि एक तें ह्वै गइ द्वै तस्वीर सी ।— बेनीप्रवीन (शब्द०) । (ख) जदुबंसी धनि धनि मुख कहहीं । हरि की रीति देखि चकि रहहीं ।—रघुराज (शब्द०) । २. चौंकन्ना । आशंकायुक्त होना । उ०—(क) चित्र लिये नल को कर मैं । भवन अकेली ह्वै भरमैं । संग सखीनंहु सों चकि कै । यौ समता मिलवै तकि कै ।—गुमान (शब्द०) । (ख) फूलत फूल गुलाबन के चटकाहटि चौंकि चकी चपला सी ।—पद्माकर (शब्द०) । (ग) उचकी लची चौंकी चकी मुख फेरि तरेरि बड़ी आँखियाँ चितई ।—बेनी (शब्द०) ।
⋙ चकनाचूर
वि० [हिं० चक=भरपूर+चूर] १. जिसके टूट फूटकर बहुत से छोटे छोटे टुकड़े हो गए हों । चूरचूर । खंड खंड । चूर्णित । उ०—साहब का घर दूर है जैसे लंबी खजूर । चढ़ै तो चाखै प्रेम रस गिरै तो चकनाचूर ।—कबीर (शब्द०) । २. बहुत थका हुआ । श्रम से शिथिल । अत्यंत श्रांत । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ चकपक
वि० [सं० चक(=भ्रांत)] भौचक्का । चकित । हक्का बक्का । स्तंभित ।
⋙ चकपकाना
क्रि० अ० [सं० चक(=भ्रांत)] १. आश्चर्य से इधर उधर ताकना । विस्मित होकर चारों ओर देखना । भौचक्का होना । उ०—कुँअर को देखते ही बधाईं बधाई का चारों ओर से शोर मच गया । कुँअर बहुत चकपकाया कि यह मामला क्या है ?—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८०८ । २. आशंका से इधर उधर ताकना । चौंकना ।
⋙ चकफेर
संज्ञा पुं० [सं० चक्र+हिं० फेर] चक्कर । फेरी । उ०— अरी भटू हिय ह्वै लटू खाय रह्वौ चकफेर । ब्रजनिधि मन कौ लै गयौ नेक न लागी बेर ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ३६ ।
⋙ चकफेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चक+फेरी] किसी वृत्त या मंडल के चारों ओर फिरने की क्रिया । परिक्रमा । भँवरी । क्रि० प्र०—करना ।—होगा ।
⋙ चकबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चक + फा० बंदी] भूमि के कई छोटे छोटे भागों को एक में संमिलित करने की क्रिया । जमीन की हदबंदी ।
⋙ चकबँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चक+बाँटना] भूमि के बड़े खंड को कई हिस्सों में बाँटना ।
⋙ चकबस्त (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] जमीन की हदबंदी । किश्तवार ।
⋙ चकबस्त (२)
संज्ञा पुं० काश्मीरी ब्राह्मणों का एक भेद ।
⋙ चकबाक
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाक] एक पक्षी । उ०—उरज मठौना चकबाकन के छौना कैधों मदन खिलौना ये सलौना प्रान ।— पजनेस०, पृ० २५ ।
⋙ चकमक
संज्ञा पुं० [तु० चक़माक] एक प्रकार का कड़ा पत्थर जिसपर चोट पड़ने से बहुत जल्दी आग निकलती है । विशेष—पहले यह बंदुकों पर लगाया जाता था और इसी के द्वारा आग निकालकर बंदुक छोड़ी जाती थी । दियासलाई निकलने के पहले इसी पर सुत रखकर और लोहे से चोट देकर आग झाड़ते थे ।
⋙ चकमकना
क्रि० अ० [हिं० चकपकाना] अचंभित होना । उ०— अदभुत कर्म कुँवर कान्ह के । निरखि गोप सब अति चकमके ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१० ।
⋙ चकमा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक (=भ्रांत)] १. भुलावा । धोखा । उ०—कल तो तुमने उसको गहरा चकमा दिया । मुहा०—चकमा खाना = धोखा खाना । भुलावे में आना । चकमा देना=धोखा देना । भुलवाना । भ्रांत करना । २. हानि । नुकसान । क्रि० प्र०—उठाना ।—देना । ३. लड़कों के एक खेल का नाम ।
⋙ चकमा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बबून नामक बंदर की एक जाति ।
⋙ चकमाक
संज्ञा पुं० [तु० चुकमाक] दे० 'चकमक' ।
⋙ चकमाकी (१)
वि० [तु० चुकमाक] चकमक का । जिसमें चकमक लगा हो ।
⋙ चकमाकी (२)
संज्ञा स्त्री० बंदूक ।—(लश०) ।
⋙ चाकर पु †
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] १. चक्रवाक पक्षी । चकवा । २. दे० 'चक्कर' । यौ०—चकरमकर = धोखा । भुलावा । झाँसा ।—(लश०) ।
⋙ चकरवा
संज्ञा पुं० [सं० चक्रव्यूह] १. चक्कर । फेर । कठिनस्थिति । ऐसी अवस्था जिसमें यह न सूझे कि क्या करना चाहिए । असमंजस । २. झगड़ा । बखेड़ा । टंटा । क्रि० प्र०—में पड़ना ।
⋙ चकरसी
संज्ञा पुं० [देश०] एक बहुत बड़ा पेड़ जो पुरबी बंगाल, आसाम और चटगाँव में होता है । विशेष—इसके हीर की चमकीली और मजबूत लकड़ी मेज, कुरसी आदि सामान बनाने के काम में आती है । इसकी छाल से चमड़ा सिझाया जाता है ।
⋙ चकरा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] पानी का भँवर ।
⋙ चकरा (२) †
वि० [वि० स्त्री० चौड़ी] चौड़ा । विस्तृत । उ०—सौ योजन विस्तार कनकपुरि चकरी जोजन बीस ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चकराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकरा (=चौड़ा)] चौड़ाई । उ०— योजन चार की है चकराई, योजन चार लग गंध उड़ाई ।— कबीर सा०, पृ० ४६१ ।
⋙ चकराना (१)
क्रि० अ० [सं० चक्र] १. (सिर का) चक्कर खाना । (सिर) घूमना । जैसे,—देखते ही मेरा सिर चकराने लगा । २. भ्रांत होना । चकित होना । भूलना । जैसे,—वहाँ जाते ही तुम्हारी बुद्धि चकरा जायगी । ३. आश्चर्यं से इधर उधर ताकना । चकपकाना । चकित होना । हैरान होना । घबराना ।
⋙ चकराना (२)
क्रि० स० आश्चर्य में डालना । चकित करना । हैरान करना ।
⋙ चकराना (३)
क्रि० अ० [फा़० चाकर] चाकर या सेवक होना ।
⋙ चकरानी
संज्ञा स्त्री० [फा़० चाकर] दासी । सेवकिनी । टहलुई ।
⋙ चकरिया (१)
संज्ञा पुं० [फा़० चकरी +हा (प्रत्य०)] चाकरी करने— वाला । नौकर । सेवक । टहलुवा ।
⋙ चकरिया (२)
वि० नौकरी चाकरी करनेवाला ।
⋙ चकरिहा †
संज्ञा पुं० [फा़० चाकर] दे० 'चकरिया' ।
⋙ चकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्री] १. चक्की । २. चक्की का पाट । उ०—जँतइत के धन हेरिनि ललइच कोदइत के मन दौरा हो । दुइ चकरी जिन दरन पसारहु तब पैहौ ठिक ठौरा हो ।—कबीर (शब्द०) । ३. चकई नाम का लड़कों का खिलौना । उ०—(क) बोलि लिये सब सखा संग के खेलत स्याम नंद की पौरी । तैसेइ हरि तैसेइ सब बालक कर भौंरा चकरीन की जोरी ।—सूर (शब्द०) । (ख) चकरी लौं सकरी गलिन छिन आवति छिन जाति । परी प्रेम के फंद में बधू बितावति राति ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १९९ ।
⋙ चकरी (२)
वि० चक्की के समान इधर उधर घुमनेवाला । भ्रमित । अस्थिर । चंचल । उ०—हमारे हरि हारिल की लकरी । मन क्रम बचन नंद नंदन उर यह दृढ़ करि पकरी । जागत सोवत स्वप्न दिवस निकि 'कान्ह कान्ह' जक री । सुनत हिये लागत हमैं ऐसी ज्यों निकि करुई कँकरी । सु तौ व्यधि हमकों लै आए देखी सुनी न करी । यह तौ सूर तिन्हैं लै सौंपी जिनके मन चकरी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चकरी (३)
वि० स्त्री० [हिं० चकरा] चौड़ी । दे० 'चकरा' ।
⋙ चकरोगिरह
संज्ञा स्त्री० [जहाजी] बेड़े में लगी हुई रस्सी का गाँठ जो उसे रोके रखती है । (लश०) ।
⋙ चकल
संज्ञा पुं० [हिं० चक्का] १. किसी पौधे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने के लिये मिट्टी समेत उखाड़ने की क्रिया । २. मिट्टी की वह पिंडी जो पौधे को दूसरी जगह लगाने के लिये उखाड़ते समय जड़ के आस पास लगी रहती है । क्रि० प्र०—उठाना ।
⋙ चकलई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकला] चौड़ाई ।
⋙ चकला
संज्ञा पुं० [सं० चक्र, हिं० चक+ला (प्रत्य०)] १. पत्थर या काठ का गोल पाटा जिसपर रोटी बेली जाती है । चौका । २. चक्की । ३. देश का एक विभाग जिसमें कई गाँव या नगर हेते हैं । इलाका । जिला । यौ०—चकलेदार ।—चकलाबंदी । ४. व्यभिचारिणी स्त्रियों का अड्डा । रंडियों के रहने का घर या मुहल्ला । कतबीखाना ।
⋙ चकला (२)
वि० [स्त्री० चकली] चौड़ा ।
⋙ चकलाना (१)
क्रि० स० [हिं० चकल] किसी पौधे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने के लिये मिट्टी समेत उखाड़ना । चकल उठाना ।
⋙ चकलाना (२)
क्रि० स० [हिं० चकला] चौड़ा करना ।
⋙ चकली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चाक] २. घिरनी । गड़ारी । २. छोटा चकला या चौका जिसपर चंदन घिसते हैं । होरसा ।
⋙ चकली (२)
वि० स्त्री० चौड़ी ।
⋙ चकलेदार
संज्ञा पुं० [देश०] किसी प्रदेश का शासक या कर संग्रह करनेवाला । किसी सूबे का हाकिम या मालगुजारी वसुल करनेवाला । विशेष—अवध में नवाब की ओर से जो कर्मचारी मालगुजारी वसूल करने के लिये नियुक्त होते थे, वे चकलेदार कहलाते थे ।
⋙ चकवँड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्रमर्द] एक हाथ से डेढ़ दो हाथ तक ऊँचा एक पौधा । पमार । पवाड़ । विशेष—इसकी पत्तियाँ डंठल की ओर नुकीली और सिरे की ओर गोलाई लिए हुए चौड़ी होती हैं । पीले रंग के छोटे छोटे फूलों के झड जाने पर इसमें पतली लंबी फलियाँ लगती हैं । फलियों के अंदर उरद के दाने के ऐसे बीज होते हैं जो खाने में बहुत कड़ुए होते हैं । इसकी पती, जड़, छाल, बीज सब औषध के काम में आते हैं । वैद्यक में यह पित्त वात नाशक, हृदय को हितकारी तथा श्वास, कुष्ट, दाद, खुजली आदि को दूर करनेवाला माना जाता है ।
⋙ चकवँड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र (= चाक) + भाँड] कुम्हारों का वह बरतन जो पानी से भरा हुआ चाक के पास रखा रहता है । पानी हाथ में लगाकर चाक पर चढ़े हुए बरतन के लोंदे को चिकना करते हैं ।
⋙ चकवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाक] [स्त्री० चकई] एक पक्षी जो जाड़े में नदियों और बड़े जलाशयों के किनारे दिखाई देता है और बैसाख तक रहता है । उ०—चकवा चकई दो जने, इन मत मारो कोय । ये मारे करतार के, रैन बिछोहा होय (शब्द०) । विशेष—अधिक गरमी पड़ते ही यह भारतवर्ष से चला जाता है । यह दक्षिण को छोड़ और सारे भारतवर्ष में पाया जाता है । यह पक्षी प्रायः झुंड में रहता है । यह हंस की जाति का पक्षी है । इसकी लंबाई हाथ भर तक होती है । इसके शरीर पर कई भिन्न भिन्न रंगों का मेल दिखाई देता है । पीठ और छाती का रंग पीला तथा पीछे की ओर का खैरा होता है । किसी के बीच बीच में काली और लाल धारियाँ भी होती हैं । पूँछ का रंग कुछ हरापन लिए होता है । कहीं कहीं इन रंगों में भेद होता है । डैनों पर कई रंगों का गहरा मेल दिखाई देता है । यह अपने जोड़े से बहुत प्रेम रखता है । बहुत काल से इस देश में ऐसा प्रसिद्ध है कि रात्रि के समय यह अपने जोड़े से अलग रहता है । कवियोंने इसके रात्रिकाल के इस वियोग पर अनेक उक्तियाँ बाँधी है । इस पक्षी को सुरखाब भी कहते हैं ।
⋙ चकवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] १. हाथ से कुछ बढ़ाई हुई आटे की लोई । २. जुलाहों की चरखी तथा नटाई में लगी हुई बाँस की छड़ी ।
⋙ चकवा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो मध्य प्रदेश, दक्षिण भारत तथा चटगाँव की ओर बहुत मिलता है । विशेष—इसके हीर की लकड़ी बहुत मजबुत और छाल कुछ स्याही लिए सफेद या भूरी होती है । इसके पत्ते चमड़ा सिझाने के काम में आते हैं ।
⋙ चकवाना पु †
क्रि० अ० [देश०] चकपकाना । हैरान होना । चकित होना । उ०—मुखचंद की देखि प्रभा दिन में चकवा चकई चकवाने रहैं ।—देव (शब्द०) ।
⋙ चकवार, चकवारि †
संज्ञा पुं० [?] कछुआ । कच्छप ।
⋙ चकवाह पु
संज्ञा पुं० [हिं० चकवा] दे० 'चकवा' ।
⋙ चकवी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकवा का स्त्री०] दे० 'चकई', 'चकवा' ।
⋙ चकवै पु
संज्ञा पुं० [हिं० चक्कवै] दे० 'चक्कवै' ।
⋙ चकसेनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] काकजंघा ।
⋙ चकहा †
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] पहिया । चक्का । उ०—महा उतंग मनि जोतिन के संग आनि कैयो रंग चकहा गहत रवि रथ के ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ चकही
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकई] दे० 'चकई' । उ०—गई कंदला सरबर पासा । चकही जान्यौं चंद्र प्रकासा ।—माधवानल०, पृ० १९८ ।
⋙ चकाँडू
संज्ञा पुं० [हिं०] चकैया आँड़ू । चिपटा आड़ू ।
⋙ चका पु (१) †
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] १. पहिया । चक्का । चाक । उ०—बदन बहल कुंडल चका भौंह जुवा हय नैन । फेरत चित मैदान मै बहलवान वइ मैन ।—रसनिधि (शब्द०) । २. परवाह । प्रतीक्षा । उ०—पहिलै धकै पाँच सौ पड़िया, मुगलां प्राण चका से मुड़िया ।—राज रू०, पृ० २२७ ।
⋙ चका †
संज्ञा पुं० [हिं० चकवा] [स्त्री० चकी] चक्रवाक । चकवा । उ०—नैकु निमेष न लायत नैन चकी चितवै तिय देव तिया सी । मतिराम (शब्द०) ।
⋙ चकाकेवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चक या चक्का+ केवल] काले रंग की मिट्टी जो सूखने पर चिटक जाती और पानी पड़ने से लसदार होती है । यह कठिनता से जोती जाती है ।
⋙ चकाचक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तलवार आदि के लगातर शरीर पर पड़ने का शब्द ।
⋙ चकाचक (२)
वि० १. तर । तराबोर । लथपथ । डूबा हुआ । जैसे,— घी में चकाचक । २. पूर्ण सुंदर । दिव्य । उ०—इस तरह मेरे चितेरे हृदय की, बाह्य की, प्रकृति बनी चकाचक चित्र थी ।— पल्लव, पृ० ८ ।
⋙ चकाचक (३)
क्रि० वि० [सं० चक (=तृप्त होना) खूब । भरपूर । अधाकर । पेट भर के । जैसे,—आज उनकी चकाचक छनी है ।
⋙ चकाचाक
क्रि० वि० [हिं० चकाचक] दे० 'चकाचक' । उ०— बढ़ेउ कमठ कहँ दाह कराहू । चकाचाक भा धाधक हाहू ।—इंद्रा० पृ० ९८ ।
⋙ चकाचौंध
संज्ञा स्त्री० [हिं० चक < चख (= सं० चक्षु) या चमक असवा सं० चक् (=चमकना)+चौ (=चारोंओर)+अंध] अत्यंत अधिक चमक या प्रकाश के सामने आँखों की झपक । अत्यंत प्रखर प्रकाश के कारण दृष्टि की अस्थिरता । कड़ो रोशनी के सामने नजर का न ठहरना । तिलमिलाहट । तिलमिली । क्रि० प्र०—लगना ।—होना ।
⋙ चकाचौंधी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकाचौंध] 'चकाचौंध' ।
⋙ चकातरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार के पेड़ का नाम ।
⋙ चकाना पु
क्रि० अ० [सं० चक+ (भ्रांत)] चकपकाना । चकराना । अचंभे से ठिठक जाना । हैरान होना । घबराना । उ०—(क) रही कहाँ चकआइ चित चल पिय सादर देख । लोहा कंचन होत तहँ पारस परस बिसेख ।—रसनिधि (शब्द०) । (ख) दुराधर्ष हर्षी दोऊ युद्ध ठाने । लखैं राक्षसौ वानरौ से चकाने ।—रघुराज (शब्द०) । (ग) दूत दबकाने चित्रगुप्त हू चकाने औ, जकाने जमजाल पापपुंज लुंज त्वै गए ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० २५९ ।
⋙ चकाबू
संज्ञा पुं० [सं० चक्रव्यूह] प्राचीन काल में युद्ध के समय किसी व्यक्ति या वस्तु की रक्षा के लिये उसके चारों ओर के पीछे एक कई मंडलाकार पंक्तियों में सैनिकों की स्थिति । चक्रव्यूह ।
⋙ चकाबूह
संज्ञा पुं० [सं० चक्रव्यूह] दे० 'चक्रव्यूह' । उ०—का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु जो जूझा ।— जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० ३२० । विशेष—इसकी रचना ऐसी चक्करदार होती थी कि इसके अंदर मार्ग पाना बड़ा कठिन होता था । यह एक प्रकार की भूलभुलैयाँ थीं । वि० दे० 'चक्रव्यूह' । मुहा०—चकाबू में पड़ना या फसना = फेर में पड़ना । चक्कर में पड़ना । ऐसी स्थिति में होना जिसमें कर्तव्य न सूझ पड़े ।
⋙ चकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्णमालों में छठा व्यंजन वर्ण । २. दुःख या सहानुभूतिसूचक शब्द । जैसे,—वह वही खड़ी सब देखता था पर उसके मुँह से चकार तक न निकला ।
⋙ चकावल
संज्ञा स्त्री० [देश०] घोड़े के अगले पैर में गामचे की हड्डी का उभार ।
⋙ चकि
वि० [सं० चकित] दे० 'चकित' । उ०—जाहि निरखि वृज- वासी गन चकि गये मूढ बनि ।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ६१ ।
⋙ चकित (१)
वि० [सं०] १. चकपकाया हुआ । विस्मित । आश्यर्यान्वित । दंग । हक्का बक्का । भौचक्का । भ्रांत । २. हैरान । घबराया हुआ । उ०—(क) अजित रूप ह्वै शैल घरो हरि जलनिधि माथिबे काज । सुर अरु असुर चकित भए देखे किए भक्त के काज ।—सूर (शब्द०) (ख) लछिमन दीख उमाकृत वेषा । चकित भए भ्रम हृदय विशेषा ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) जागै बुध विद्या हित पंडित चकित चित जागै लोभी लालचीधरनि धन धाम के ।—तुलसी (शब्द०) । ३. चौकन्ना । सशंकित । डरा हुआ । ४. डरपोक । कायर ।
⋙ चकित (२)
संज्ञा पुं० १. विस्मय । २. आशंका । व्यर्थ भय । ३. कायरता ।
⋙ चकितवंत पु
वि० [सं० चकित+ वत् (प्रत्य०)] आश्चर्ययुक्त । विस्मित । भ्रांत । उ०—अब अति चकितवंत मन मेरो । आयो हौं निर्गुन उपदेसन भयों सगुन को चेरो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चकिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में गणों का क्रम इस प्रकार होता है—/?/जैसे,—भो सुमति ! न गोविंदा जानो निपट नरा । देखति जिन गोपि ग्वाल के जो गिरिहिं धरा ।
⋙ चकिचाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकित] चकित होने की अवस्था । विस्मय । अचंभा ।
⋙ चकिया
संज्ञा स्त्री० [चक्रिका] चक्की ।
⋙ चकुंदा †
संज्ञा पुं० [सं० चक्रमर्द] चकवँड़ । पमाड़ । दे० 'चकवँड़' ।
⋙ चकुरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र] छोटी हाँड़ी ।
⋙ चकुला पु †
संज्ञा पुं० [देश०] चिड़िया का बच्चा । चेंटुवा । उ०— अंडन के मनो मंडल मध्य तें द्वै निकसे चकुला चकवा के ।— गंग (शब्द०) ।
⋙ चकुलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रकुल्या] एक प्रकार का पौधा या झाड़ी ।
⋙ चकूँधना पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चकार्चौध' । उ०—कूँधत माँह चकूँ धत जीऊ । केहि के कंठ लगै बिन पीऊ ।—हिंदी प्रेम०, पृ० २७९ ।
⋙ चकृत पु
वि० [सं० चकित] दे० 'चकित' । उ०—राजत वंसी मधुर धुनि मन मोहन की आन । सुनत थकित चकृत रही अदभुत अति ही तान ।—ब्रज० ग्र०, पृ० ३७ ।
⋙ चकेठ
संज्ञा पुं० [सं० चक्र+ यष्टि] बाँस या लकड़ी का एक नोकदार डंडा जिससे कुम्हार अपना चाक घुमाते हैं । कुलालदंड ।
⋙ चकेड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रभण्डिका, प्रा० चक्कहंडिया] चकवँड ।
⋙ चकेव †
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाक, हिं० चकवा] चकवा । उ०— कुचजुग चकेव चरइ गंगाधारे—विद्यापति०, पृ० १८ ।
⋙ चकोट
संज्ञा पुं० [हिं० चकोटना] चकोटने की क्रिया या भाव ।
⋙ चकोटना
क्रि० स० [हिं० चिकोटी] चुटकी से मांस नोचना । चिकोटी काटना । उ०—चंचल चपेट चोट चरन चकोटि चाहै हहरानी फौज भहरानी जातुधान की ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चकोतरा
संज्ञा पुं० [सं० चक्रगोला] एक प्रकार का बड़ा जबीरी नीबू । बड़ा नीबू । महा नीबू । सदाफल । सुगंधा । मातुलंग । मधुकर्कटी । विशेष—इसका स्वाद खट्टापन लिए मीठा होता है । इसकी फाँकों का रंग हलका सुनहला होता है । यह फल जाड़े के दिनों में मिलता है ।
⋙ चकोता
संज्ञा पुं० [हिं० चकत्ता] एक रोग जिसमें घुटने के नीचे छोटी—छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और बढ़ती चली जाती है ।
⋙ चकोर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चकोरी] १. एक प्रकार का बड़ा पहाड़ी तीतर जो नैपाल, नैनीताल आदिस्थानों तथा पंजाब और अफगानिस्तान के पहाड़ी जंगलों में बहुत मिलता है । उ०—नयन रात निसि मारग जागे । चख चकोर जानहुँ ससि लागे ।—जायसी (शब्द०) । विशेष—इसके ऊपर का एक रंग काला होता है, जिसपर सफेद सफेद चित्तियाँ होती हैं । पेट का रंग कुछ सफेदी लिए होता है । चोंच और आँखें इसकी बहुत लाल होती हैं । यह पक्षी झुंड़ों में रहता है और बैसाख जेठ में बारह बारह अंडे देता है । भारतवर्ष में बहुत काल से प्रसिद्ध है कि यह चंद्रमा का बड़ा भारी प्रेमी है और उसकी ओर एकटक देखा करता है; यहाँ तक कि यह आग की चिनगारियों को चंद्रमा की किरनें समझकर खा जाता है । कवि लोगों ने इस प्रेम का उल्लेख अपनी उक्तियों में बराबर किया है । लोग इसे पिंजरे में पालते भी हैं । २. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण, एक गुरु और एक लघु होता है । यह यथार्थ में एक प्रकार का सवैया है । जैसे,—भासत ग्वाल सखीगन में हरि राजत तारन में जिमि चंद ।
⋙ चकोरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा चकोर । सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चकोह †
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाह] प्रवाह में घूमता हुआ पानी । भँवर ।
⋙ चकौंड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० चकवँड़] दे० 'चकवँड़' ।
⋙ चकौंध पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चकाचौंध' । उ०—सेस सीस मनि चमक चकौंधन तनिकहु नहिं सकुचाही ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ चकौटा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का लगान जो बीधे के हिसाब से नहीं होता । २. वह पशु जो ऋण के बदले में दिया जाय । इसे 'मुलवन' भी कहते हैं ।
⋙ चक्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पीड़ा । दर्द ।
⋙ चक्क (२)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] १. चक्रवाक । चकवा । उ०—हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति ।—इतिहास, पृ० २०४ । यौ०—चक्क चक्कि । चक्क चक्की । २. कुम्हार का चाक । २. दिशा । प्रांत । उ०—(क) पैज प्रतिपाल भूमिहार को हमाल चहुँ चक्क को अमाल भयो दंडक जहान को ।—भूषण (शब्द०) । (ख) भूषन भनत वह चहूँ चक्क चाहि कियो पातसाहि चक ताकि छाती माहिं छेवा है । भूषण (शब्द०) (ग) आन फिरत चहुँ चक्क धाक- धक्कन गढ़ धुक्कहिं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८ ।
⋙ चक्कर
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] १. पहिए के आकार की कोई (विशेषतः घूमनेवाली) बड़ी गोल वस्तु । मंडलाकार पटल । जाक । जैसे—उस मशीन में एक बड़ा चक्कर है जो बराबरघूमता रहता है । २. गोल या मंडलाकार घेरा । वृत्ताकार परिधि । मंडल । २. मंडलाकार मार्ग । गोल सड़क या रास्ता । घुमाव का रास्ता । जैसे,—उस बगीचे में जो चक्कर है, उसके किनारे किनारे बड़ी सुंदर घास लगी है । ४. मंडलाकार गति । चक्राकार या उसके समान गति अथवा चाल परिक्रमण । फेरा । ५. पहिए के ऐसा भ्रमण । अक्ष पर घुमना । मुहा०—चक्कर काटना=वृत्ताकार परिधि में घूमना । परिक्रमा करना । मँडराना । चक्कर खाना=(१) पहिए की तरह घूमना । अक्ष पर घूमना । (२) घुमाव फिराव के साथ जाना । सीधे न जाकर टेड़े मेढ़े जाना । जैसे,—(क) उतना चक्कर कौन खाय, इसी बगीचे से निकल चलो । (ख) यह रास्ता बहुत चक्कर खाकर गया है । (३) भटकना । भ्रांत होना । हैरान होना । जैसे,—घंटों से चक्कर खा रहै हैं, यह सवाल नहीं आता है । चक्कर देना=(१) मंडल बाँधकर घूमना । परिक्रम करना । मँडराना । (२) दे० 'चक्कर खाना (२)' । चक्कर पड़ना=जाने के लिये सीधा न पड़ना । घुमाव या फेर पड़ना । जैसे,—उधर से क्यों जाते हो, बड़ा चक्कर पड़ेगा । चक्कर बाँधना=मंडलाकार मार्ग बनाना । वृत्त बनाते हुए घूमना । चक्कर मारना=(१) पहिए की तरह अक्ष पर घूमना । (२) वृत्ताकार परिधि में घूमना । परिक्रमा करना । (३) चारों ओर घूमना । इधर उधर फिरना । जैसे,—दिन भर तो चक्कर मारते ही रहते हो, थोड़ा बैठ जाओ । चक्कर में आना=चकित होनाय़ । भ्रांत होना । हैरान होना । दंग रह जाना । जैसे,—सब लोग उनकी अदभुत वीरता देख चक्कर में आ गए । चक्कर में डालना=(१) चकित करना । हैरान करना । (२) कठिनता या असमंजस में डालना । फेर में डालना । ऐसी स्थिति में करना जिससे यह न सुझ पड़े कि क्या करना चाहिए । हैरान करना । चक्कर में पड़ना=(१) असमंजस में पड़ना । दुबधा में पड़ना । कठिन स्थिति में पड़ना । (२) हैरान होना । माथा खपाना । चक्कर लगाना=(१) परिक्रमा करना । मँडराना । (२) चारों ओर घुमना । इधर उधर फिरना । फेरा लगाना । आना जाना । घुमना फिरना । जैसे,—(क) हम बड़ी दुर का चक्कर लगाकर आ रहे हैं । (ख) तुम इनके यहाँ नित्य एक चक्कर लगा जाया करो । ६. घुमाव । पेंच । जटिलता । दुरुहता । फेर फार । जैसे,—यह बड़े चक्कर का सवाल है । मुहा०—किसी के चक्कर में आना या पड़ना=किसी के धोखे में आना या पड़ना । भुलावे में आना । ७. सिर घुमना । घुमरी । घुमटा । बेहोशी । मुर्च्छा । क्रि० प्र०—आना । ८. पानी का भँवर । जंजाल । ९. चक्र नामक अस्त्र । मुहा०—चक्कर पड़ना=वज्रपात होना । विपत्ति आना । (स्त्रियाँ) । १०. कुश्ती का एक पेंच जिसमें अपने दोनों हाथ पेट में घुसे हुए विपक्षी के दोनों मोढों पर रखकर उसकी पीठ अपने सामने कर लेते हैं और फिर टाँग मारकर उसे चित्त कर देते हैं ।
⋙ चक्करदार
वि० [हिं० चक्कर+ फा० दार] मोड़, घुमाव या उलझनवाला ।
⋙ चक्करी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चक्कर] दे० 'चकई' । उ०—सु नष्षई सुरंग छाप बाज ताज उट्ठहीं । मनों कि डोरि चक्करी सुहथ्थ हथ्थि नष्षहीं ।—पृ० रा०, २१ ।५३ ।
⋙ चक्कल
वि० [सं०] गोल । वर्तुल [को०] ।
⋙ चक्कवइ पु
वि० [सं० चक्रवर्ती] चक्रवर्ती (राजा) । सार्वभौम (राजा) । उ०—ससुरु चक्कवइ कोसलराऊ । भुवन चारि दस प्रगट प्रभाऊ ।—मानस, २ ।९८ ।
⋙ चक्कवत पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवर्ती] चक्रवर्ती राजा ।
⋙ चक्कवा पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाक] चकवा । चक्रवाक । उ०— रघुबर कीरति सज्जननि सीतल खलनि सु ताति । ज्यौं चकोर चय चक्कवनि तुलसी चदिन राति ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चक्कवै पु
वि० [सं० चक्रवर्ती, प्रा० चक्कवत्ती, चक्कवइ] चक्रवर्ती (राजा) । आसमुद्रांत पृथ्वी का राजा । उ०—(क) नव सत्त अंत मेवातपति, इक्क छत्त महि चक्कवै ।—पृ० रा०, ३ ।२६ । (ख) नहिं तनु सम्हारहिं, छबि निहारहिं निमिष रिपु जन रन जए । चक्कवै लोचन राम रूप सुराज सुख भोगी भए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५८ ।
⋙ चक्कस
संज्ञा पुं० [फा० चकस] बुलबुल, बाज आदि पक्षियों के बैठने का अड्डा ।
⋙ चक्का
संज्ञा पुं० [सं० चक्र, प्रा० चक्क] १. पहिया । चाका । २. पहिए के आकार की कोई गोल वस्तु । ३. बड़ा चिपटा टुकड़ा । बड़ा कतरा । जैसे,—मिट्टी का चक्का, खली का चक्का । ४. जमा हुआ कतरा । अँथरी । अंठी । थक्का । जैसे,— चक्का दही । ५. इँटों या पत्थरों का ढेर जो माप या गिनती के लिये क्रम से लगाया गया हो । क्रि० प्र०—बाँधना ।
⋙ चक्की (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रिका, प्रा० चक्की] नीचे ऊपर रखे हुए पत्थर के दो गोल और भारी पहियों का बना हुआ यंत्र जिसमें आटा पीसा जाता है या दाना दला जाता है । आटा पीसने या दाल दलने का यंत्र । जाँता । यौ०—पनचक्की । क्रि० प्र०—चलना । चलाना । यौ०—चक्की का पाट = चक्की का एक पत्थर । चक्की की मानी = (१) चक्की के नीचे के पाट के बीच में गड़ी हुई वह खूँटी जिसपर ऊपर का पाट घूमता है । (२) ध्रुव । ध्रुवतारा । मुहा०—चक्की छूना = (१) चक्की में हाथ लगाना । चक्की चलाना आरंभ करना । चक्की चलाना । (२) अपना चरखा शुरू करना । अपना वृत्तांत आरंभ करना । अपनी कथा छेड़ना । आपबीती सुनाना । चक्की पीसना = (१) चक्की मेंडालकर गेहूँ आदि पीसना । चक्की चलाना । (२) कड़ा परिश्रम करना । बड़ा कष्ट उठाना । चक्की रहाना = चक्की को टाँकी से खोद खोदकर खुरदरा करना जिसमें दाना अच्छी तरह पिसे । चक्की कूटना ।
⋙ चक्की (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रिका] १. पैर के घुटने की गोल हड्डी । २. ऊँटों के शरीर का गोल घट्टा । पृ † ३. बिजली । वज्र ।
⋙ चक्की (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र] दे० 'चकई' । उ०— हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिले अति ।—अकबीर०, पृ० ११८ ।
⋙ चक्कीघर
संज्ञा पुं० [हिं० चक्की+ घर] १. पनचक्की । २. आटा पीसने का स्थान । ३. कल । उ०—इसी चक्कीघर में काम करो, तो पाँच छह आने रोज मिलें ।—रंगभूमि, भा०२, पृ० ५६६ ।
⋙ चक्कीरहा
संज्ञा पुं० [हिं० चक्की+रहाना] वह व्यक्ति जो चक्की को टाँकी से कूटकर खुरदरी करता है ।
⋙ चक्कू †
संज्ञा पुं० [हिं० चाकू] दे० 'चाकू' ।
⋙ चक्कोर पु
संज्ञा पुं० [सं० चकोर] दे० 'चकोर' । उ०—चल्यो सु वारिधि नंद । चक्कोर आनंदकंद । धनपत्ति दीन पठाय । लिय परिसमणि सुखपाय ।—प० रासो, पृ० २५ ।
⋙ चक्ख पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु, प्रा०, चक्ख, राज० चाख] दे० 'चख' । उ०—खंजर नेत विसाल गय चाही लागइ चक्ख । एकण साटइ मारुणी, देह एराकी लक्ख ।—ढोला०, दू० ४५८ ।
⋙ चक्खना †
क्रि० स० [हिं० चखना] दे० 'चखना' । उ०— मुसकाकर छोड़ चले मेरी मधुशाला तुम ? प्रिय, अब क्या चक्खोगे औरों की हाला तुम ? क्वासि, पृ० ३१ ।
⋙ चक्खी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चखना] १. स्वाद के लिये चरपरी खाने की चीज । चाट । २. बटेरों की चुगाई ।
⋙ चक्नस
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेईमानी । वंचना । छल कपट [को०] ।
⋙ चक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहिया । चाका । २. कुम्हार का चाक । ३. चक्की । जाँता । ४. तेल पेरने का कोल्हू । ५. पहिए के आकार की कोई गोल वस्तु । ६. लोहे के एक अस्त्र का नाम जो पहिए के आकार का होता है । विशेष—इसकी परिधि की धार बड़ी तीक्ष्ण होती है । शुक्रनीति के अनुसार चक्र तीन प्रकार का होता है—उत्तम, मध्यम और अधम । जिसमें आठ आर (आरे) हों वह उत्तम, जिसमें छह हों वह मध्यम, जिसमें चार हों वह अधम है । इसके अतिरिक्त तोल का भी हिसाब है । विस्तारभेद से १६ अंगुल का चक्र उत्तम माना गया है । प्राचीन काल में यह युद्ध के अवसर पर नचाकर फेंका जाता था । यह विष्णु भगवान् का विशेष अस्त्र माना जाता था । आजकल भी गुरु गोविंदसिंह के अनुयायी सिख अपने सिर के बालों में एक प्रकार का चक्र लपेटे रहते हैं । मुहा०—चक्र गिरना या पड़ना=वज्रपात होना । विपत्ति आना । चक्र चलाना = जाल रचना । षड्यंत्र करना । ७. पानी का भँवर । ८. वातचक्र । बंवडर । ९. समूह । समुदाय । मंडली । १०. दल । झुंड । सेना । ११. एक प्रकार का व्यूह या सेना की स्थिति । दे० 'चक्रव्यूह' । १२. ग्रामों या नगरों का समूह । मंडल । प्रदेश । राज्य । १३. एक समूद्र से दूसरे समूद्र तक फैला हुआ प्रदेश । आसमुद्रांत भूमि । यौ०—चक्रवर्ती १४. चक्रवाक पक्षी । चकवा । १५. तगर का फूल । गुलचाँदनी । १६. योग के अनुसार मूलाधार स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि शरीरस्थ छह पद्म । १७. मंडलाकार घेरा । वृत । जैसे,— राशिचक्र । १८. रेखाओं से घिरे हुए गोल या चौखूँटे खाने जिनमें अंक, अक्षर, शब्द आदि लिखे हों । जैसे,—कुंडलीचक्र । विशेष—तंत्र में मंत्रों के उद्धार तथा शुभाशुभ विचार के लिये अनेक प्रकार के चक्रों का व्यवहार होता है । जैसे,—अकडम चक्र, अकथचक्र, कुलालचक्र आदि । रुद्रयामल आदि तंत्र ग्रंथों में महाचक्र, राजचक्र, दिव्यचक्र आदि अनेक चक्रों का उल्लेख है । मंत्र के उद्धार के लिये जो चक्र बनाया जाते हैं, उन्हें यंत्र कहते हैं । १९. हाथ की हथेली या पैर के तलवे में घूमी हुई महीन महीन रेखाओं का चिह्न जिनसे सामुद्रिक में अनेक प्रकार के शुभाशुभ फल निकाले जाते हैं । २०. फेरा । भ्रमण । घुमाव । चक्कर । जैसे,—कालचक्र के प्रभाव से सब बातें बदला करती हैं । २१. दिशा । प्रांत । उ०—कहै पद्माकर चहौं तो चहूं चक्रन को चीरि डालौं पल में पलैया पैज पन हौं । पद्माकर (शब्द०) । २२. एक वर्णवृत का नाम जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक भगण, तीन नगण और फिर लघु, गुरु होते हैं । जैसे—भौननि लगत न कतहुँ ठिकनवाँ । राम विमुख रहि सुख मिल कहवाँ । २३. धोखा । भुलावा । जाल । फरेब । यौ०—चक्रधर = बाजीगर । २४. चक्रव्यूह । २५. सैनिकों द्वारा राइफल या बंदूक से एक साथ गोली चलाना । बाढ़ । राउंड । २६. एक विशेष पद (को०) ।
⋙ चक्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नव्य न्याय में एक तर्क । २. एक प्रकार का सर्प । ३. युद्ध की एक रीति (को०) ।
⋙ चक्रक (२)
वि० १. पहिए जैसा । २. गोल या वर्तुलाकार [को०] ।
⋙ चक्रकारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नखी नामक गंधद्रव्य । २. हाथ का नाखून ।
⋙ चकुक्रल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्रपर्णी लता । पिठवन ।
⋙ चक्रक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] घटना के बार बार होने का क्रम [को०] ।
⋙ चक्रगंडु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रगण्डु] गोल तकिया [को०] ।
⋙ चक्रगज
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ ।
⋙ चक्रगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिधि या गोलाई में गमन करना [को०] ।
⋙ चक्रगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रतीर्थ' [को०] ।
⋙ चक्रगुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक वृक्ष ।
⋙ चक्रगोप्ता
संज्ञा पुं० [सं० चक्रगोप्तृ] १. रथ का रक्षक । २. राज्यरक्षक । ३. सेनापति [को०] ।
⋙ चक्रगोसा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेनापति । २. राज्यरक्षक । ३. वह कर्मचारी या योद्धा जो रथ, चक्र आदि की रक्षा करे ।
⋙ चक्रग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] परिखा । खाई [को०] ।
⋙ चक्रग्रहणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्ग की रक्षा के निमित्त बनाया हुआ प्राचीर । २. खाई [को०] ।
⋙ चक्रचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेली । २. कुम्हार । ३. गाडी़वान । ४. बाजीगर (को०) ।
⋙ चक्रचारी
संज्ञा पुं० [सं० चक्रचारिन्] रथ [को०] ।
⋙ चक्रजीवक
संज्ञा पुं० [सं०] कुम्हार ।
⋙ चक्रजीवी
संज्ञा पुं० [सं० चक्रजीविन्] दे० 'चक्रजीवक' [को०] ।
⋙ चक्रत पु
वि० [सं० चकित] 'चकित' । उ०—सो नारायनदास और सगरी सभा वा भेद को समुझे नाहीं । ताते चक्रत ह्नै रहे ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १० ।
⋙ चक्रताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चौताला ताल जिसमें तीन लघु (लघु की एक मात्रा) और एक गुरु (गुरु की दो मात्राएँ) होती हैं । इसका बोल यह है—ताहं । धिमि धिमि । तकितां । विधिगन थों । २. एक प्रकार का चौदह ताला ताल जिसमें क्रम से चार द्रुत (द्रुत की आधी मात्रा), एक लघु (लघु की एक मात्रा), एक द्रुत (द्रुत की आधी मात्रा), और एक लघु (लघु की आधी मात्रा) होती है । इसका बोल यह है—जग० जग० नक० थै० ताथै । थरि० कुकु० धिमि० दांथै । दां० दां० धिधिकट । धिधि० गन था ।
⋙ चक्रतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण में वह तीर्थ स्थान जहाँ ऋष्यमूक पर्वतों के बीच तुंगभद्रा नदी घूमकर बहती है । उ०—चक्रतीर्थ महँ परम प्रकासी । बसैं सुदर्सन प्रभु छबि रासी ।—रघुराज (शब्द०) । २. नैमिषारण्य का एक कुंड । विशेष—महाभारत तथा पुराणों में अनेक चक्रतीर्थों का उल्लेख है । काशी, कामरूप, नर्मदा, श्रीक्षेत्र, सेतुबंध रामेश्वर आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध तीर्थों में एक एक चक्रतीर्थ का वर्णन है । स्कंदपुराण में प्रभास क्षेत्र के अंतर्गत चक्रतीर्थ का बडा़ माहात्म्य लिखा है । उसमें लिखा है कि एक बार विष्णु ने बहुत से असुरों का संहार किया जिससे उनका चक्र रक्त से रंग उठा । उसे धोने के लिये विष्णु ने तीर्थो का आह्वान किया । इसपर कई कोटि तीर्थ वह आ उपस्थित हुए और विष्णु की आज्ञा से वहीं स्थित हो गए ।
⋙ चक्रतुंड
संज्ञा पुं० [सं० चक्रतुण्ड] एक प्रकार की मछली जिसका मुँह गोल होता है ।
⋙ चक्रदंड
संज्ञा पुं० [सं० चक्रदण्ड] एक प्रकार की कसरत जिसमें जमीन पर दंड करके झट दोनों पैर समेट लेते हैं और फिर दाहिने पैर को दाहिनी ओर और बाएँ को बाईं ओर चक्कर देते हुए पेट के पास लाते हैं ।
⋙ चक्रदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्रदन्ती] १. दंतीवृक्ष । २. जमालगोटा ।
⋙ चक्रदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर ।
⋙ चक्रधर (१)
वि० [सं०] जो चक्र धारण करे ।
⋙ चक्रधर (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो चक्र धारण करे । २. विष्णु भगवान । ३. श्रीकृष्ण । ४. बाजीगर । ऐंद्रजालिक । ५. कई ग्रामों या नगरों का अधिपति । ६. सर्प । साँप । ७. गाँव का पुरोहित । ८. नट राग से मिलता जुलता षाडव जाति का एक राग जो षडज स्वर से आरंभ होता है और जिसमें पंचम स्वर नहीं लगता । यह संध्या समय गाया जाता है ।
⋙ चक्रधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चक्र की परिधि [को०] ।
⋙ चक्रधारी
संज्ञा पुं० [दे० चक्रधारिन्] दे० 'चक्रधर' ।
⋙ चक्रनख
संज्ञा पुं० [सं०] व्याघ्रनख नामक औषधि । बघनहाँ ।
⋙ चक्रनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंडकी नदी ।
⋙ चक्रनाभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहिए का वह स्थान जिसमें धुरा घूमता है । पहिए के बीच का स्थान [को०] ।
⋙ चक्रनाम
संज्ञा पुं० [सं० चक्रनामन्] १. माक्षिक धातु । सोना— मक्खी । २. चकवा पक्षी ।
⋙ चक्रनायक
संज्ञा पुं० [सं०] व्याघ्रनख नाम की ओषधि ।
⋙ चक्रनेमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहिए का घेरा [को०] ।
⋙ चक्रपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाडी़ की लीक । २. गाडी़ चलने का मार्ग ।
⋙ चक्रपद्माट
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ [को०] ।
⋙ चक्रपरिव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] आरग्वध या अमलतासका पेड़ [को०] ।
⋙ चक्रपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन ।
⋙ चक्रपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में चक्रधारण करनेवाले, विष्णु ।
⋙ चक्रपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाडी़ । रथ । २. हाथी ।
⋙ चक्रपादक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रपाद' [को०] ।
⋙ चक्रपानि पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रापाणि] दे० 'चक्रपाणि' । उ०— कहै पद्माकर पवित्र पन पालिबे कों चौरे चक्रपानि के चरित्रन कों चाहिए ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २१८ ।
⋙ चक्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रदेश का शासक । सूबेदार । चकलेदार । २. वह जो चक्र धारण करे । ३. वृत्त । गोलाई । ४. शुद्ध राग का एक भेद । ५. सेनापति (को०) । ६. व्यूहरक्षक (को०) । ७. क्षितिज (को०) ।
⋙ चक्रपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक पूजाविधि ।
⋙ चक्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक अस्त्र जिसमें गोल फल लगा रहता है ।
⋙ चक्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० चक्रबन्ध] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें एक चक्र या पहिए के चित्र के भीतर पद्य के अक्षर बैठाए जाते हैं ।
⋙ चक्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रबन्धु] सूर्य ।
⋙ चक्रबांधव
संज्ञा पुं० [सं० चक्रबान्धव] सूर्य । विशेष—सूर्य के प्रकाश में चकवा चकई एक साथ रहते हैं ।
⋙ चक्रबाड
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रवाल' [को०] ।
⋙ चक्रबाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंडल । घेरा । २. समूह । पुंज । ३. क्षितिज । ४. दे० 'चक्रवाल' । ५. चकवा पक्षी [को०] ।
⋙ चक्रबालधि
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता [को०] ।
⋙ चक्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चक्र धारण करे । २. विष्णु ।
⋙ चक्रभेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात । रात्रि । विशेष—रात में चकवा चकई का जोडा़ अलग हो जाता है ।
⋙ चक्रभोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में यह की वह गति जिसकेअनुसार वह एक स्थान से चलकर फिर उसी स्थान पर प्राप्त होता है । इसे परिवर्त भी कहते हैं ।
⋙ चक्रभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] सान । खराद [को०] ।
⋙ चक्रभ्रमर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य ।
⋙ चक्रभ्रंमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चक्रभ्रम' [को०] ।
⋙ चक्रभ्रांति
संज्ञा स्त्री० [चक्रभ्रान्ति] चक्र की गति । चक्र का घूमना [को०] ।
⋙ चक्रमंडल
संज्ञा पुं० [सं० चक्रमण्डल] एक प्रकार का नृत्य जिसमें नाचनेवाला चक्र की तरह घूमता है । विशेष—इस प्रकार के नृत्य में शरीर के प्रायः सब अंगों का संचालन होता है ।
⋙ चक्रमंडली
संज्ञा पुं० [सं० चक्रमण्डलिन्] अजगर साँप ।
⋙ चक्रमन पु
संज्ञा पुं० [सं० चङ्क्रमण] दे० 'चक्रमण' । उ०— 'केसोदास' कुसल कुलालचक्र चक्रमन चातुरी चितै कै चारु आतुरी चलत भाजि ।—केशव ग्रं० पृ० ११८ ।
⋙ चक्रमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ ।
⋙ चक्रमर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रमर्द' [को०] ।
⋙ चक्रमीमांसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैष्णवों की चक्र मुद्रा धारण करने की विधि । २. विजयेंद्र स्वामी रचित एक ग्रंथ जिसमें चक्र—मुद्रा—धारण की विधि आदि लिखी है ।
⋙ चक्रमुख
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर ।
⋙ चक्रमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चक्र आदि विष्णु के आयुधों के चिह्न जो वैष्णव अपने बाहु तथा और अंगों पर छापते हैं । विशेष—चक्र मुद्रा दो प्रकार की होती है, तप्त मुद्रा और शीतल मुद्रा । जो चिह्न आग में तपे हुए चक्र आदि के ठप्पों से शरीर पर दागे जाते हैं, उन्हें तप्त मुद्रा कहते हैं । जो चंदन आदि से शरीर पर छापे जाते हैं, उन्हें शीतल मुद्रा कहते हैं । तप्त मुद्रा का प्रचार रामानुज संप्रदाय के वैष्णवों में विशेष है । तप्त मुद्रा द्वारका में ली जाती है । जैसे,—मूँडे़ मूँड़, कंठ वनमाला मुचिद्रक्र दिए । सब कोउ कहत गुलाम श्याम को सुनत सिरात हिए ।—सूर (शब्द०) । २. तांत्रिकों की एक अंगमुद्रा जो पूजन के समय की जाती है । इसमें दोनों हाथों को सामने खूब फैलाकर मिलाते और अँगूठे को कनिष्ठा उँगली पर रकते हैं ।
⋙ चक्रमेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि [को०] ।
⋙ चक्रयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० चक्रयन्त्र] ज्योतिष का एक यंत्र ।
⋙ चक्रयान
संज्ञा पुं० [सं०] पहिए से चलनेवाला यान । वह सवारी या गाडी़ जिसमें पहिए हों [को०] ।
⋙ चक्ररद
संज्ञा पुं० [सं०] सुअर [को०] ।
⋙ चक्ररिष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बक । बगला ।
⋙ चक्रलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुरुच । गुडूची ।
⋙ चक्रलिप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में राशिचक्र का कलात्मक भाग अर्थात २१,६०० भागों में से एक भाग ।
⋙ चक्रव्रत पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवर्तिन्] दे० 'चक्रवर्ती' । उ०—माँडी कमधे मिसलता चक्रवत देखण चाम ।—राज रू०, पृ० २९५ ।
⋙ चक्रवती पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवर्ती] चक्रवर्ती । राजा । उ०—धर काज मिसलत धार, चक्रवतिय जन विचार । दिस मरुस्थल पति देस, व्रत अलख चख पँडवेस । राज रू०, पृ० ३० ।
⋙ चक्रवर्ती पु
वि० [सं० चक्रवर्तिन्] चक्रवर्ती । उ०—चूडौ वीरम घर चक्रवत्ती घार सार मुँह लई धरत्ती ।—राज रू०, पृ० १४ ।
⋙ चक्रवर्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी दल या समूह की अधीश्वरी । २. जनी नामक गंधद्रव्य । पानडी़ । ३. अलक्तक । आलता (को०) । ४. जटामासी (को०) ।
⋙ चक्रवर्ती (१)
वि० [सं० चक्रवर्तिन्] [स्त्री चक्रवर्तिनी] आसमुद्रांत भूमि पर राज्य करनेवाला । सार्वभौम ।
⋙ चक्रवर्त्ती (२)
संज्ञा पुं० १. एक चक्र का अधश्वर । एक समुद्र से लेकर दूसरे समुद्र तक की पृथ्वी का राजा । आसमुद्रांत भूमि का राजा । उ०—चक्रवर्ति के लक्षण तोरे । देखत दया लागि अति मोरे—तुलसी (शब्द०) । २. किसी दल का अधिपति । समूह का नायक । ३. वास्तुक नामक शाक । वथुआ ।
⋙ चक्रवाक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चक्रवाकी] चकवा पक्षी । यौ०—चक्रवाकबंधु = सूर्य ।
⋙ चक्रवाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. हद । सीमा । २. चिरागदान । ३. कार्य में लीन होना [को०] ।
⋙ चक्रवाड
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रवाल' ।
⋙ चक्रवात
संज्ञा पुं० [सं०] वेग से चक्कर खाती हुई वायु । वातचक्र । बवंडर । उ०—तृणावर्त विपरीत महाखल सो नृप राय पठायो । चक्रवात ह्नै सकल घोष मैं रज धुंधर ह्वै छायो ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ चक्रवान्
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौराणिक पर्वत का नाम जो चौथे समुद्र के बीच स्थित माना गया है । विशेष—यहाँ विष्णु भगवान् ने हयग्रीव और पंचजन नामक दैत्यों को मारकर चक्र और शख दो आयुध प्राप्त किए थे ।
⋙ चक्रवाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पुराणप्रसिद्ध पर्वत जो भूमंडल को चारो ओर स्थित प्रकाश और अंधकार (दिन रात) का विभाग करनेवाला माना गया है । लोकालोक पर्वत । २. मंडल । घेरा । ३. दे० 'चक्रवाल' ।
⋙ चक्रविरहित
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र] दे० 'चक्रप्रवृत्ति' ।
⋙ चक्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण, तीन नगण और अत में लघु गुरु होते हैं ।
⋙ चक्रवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सूद या ब्याज जिसमें उत्तरोत्तर ब्याज पर भी व्याज लगता जाता है । सूद दर सूद । विशेष—मनु ने इसे अत्यंत निंदनीय ठहराया है । २. गाडी़ आदि का भाडा़ ।
⋙ चक्रवै पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्रवर्ती, हिं० चक्कवै] दे० 'चक्कवै' । उ०— दास पलटू कहै संत सोइ चक्रवै भया अद्वैत जब भर्म भागी ।—पलटू०, भा० २, पृ० २९ ।
⋙ चक्रव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के युद्ध समय में किसी व्यक्ति या वस्तु की रक्षा के लिये चारो ओर कई घेरों में सेना की कुंडलाकार स्थिति ।विशेष—इसकी रचना इतनी चक्करदार होती थी कि इसके भीतर प्रवेश करना अत्यंत कठिन होता था । महाभारत में द्रोणाचार्य ने यह ब्यूह रचा था जिसमें अभिमन्यु मारे गए थे । इसका आकार इस प्रकार माना जाता है ।
⋙ चक्रशल्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद घुँघुची । २. काकतुंडी ।
⋙ चक्रश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्रशृंगी । मेढा़सींगी ।
⋙ चक्रसंज्ञ
स्त्री पुं० [सं०] १. वंग धातु । राँगा । २. चकवा पक्षी ।
⋙ चक्रसंवर
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम ।
⋙ चक्रसाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] चक्रवाक । चकवा [को०] ।
⋙ चक्रस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० चक्रस्वामिन्] दे० 'चक्रहस्त' [को०] ।
⋙ चक्रहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ चक्रांक
संज्ञा पुं० [सं० चक्राङ्क] चक्र का चिह्न जो वैष्णव अपने बाहु आदि पर दगवाते हैं । यौ०—चक्रांकपुच्छ = (१) मोर । मयूर । (२) मोरपंख । मयूरपंख ।
⋙ चक्रांकित (१)
वि० [सं० चक्राङ्कित] जिसने चक्र का चिह्न दगवाया हो । जिसने चक्र का छापा लिया हो ।
⋙ चक्रांकित (२)
संज्ञा पुं० वैष्णवों का एक संप्रदायभेद । इस संप्रदाय के लोग चक्र का चिह्न दगवाते हैं ।
⋙ चक्रांकी
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्राङ्की] चक्रावाकी । चकई [को०] ।
⋙ चक्रांग
संज्ञा पुं० [सं० चक्राङ्ग] १. चकवा । २. रथ या गाडी़ । ३. हंस । ४. कुटकी नाम की ओषधि । ५. एक प्रकार का शाक । हिलमोचिका ।
⋙ चक्रांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्राङ्गा] १. काकडा़सिंगी । २. सुदर्शन लता ।
⋙ चक्रांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्राङ्गी] १. कुटकी । २. हंसिनी । मादा- हंस । ३. एक प्रकार का शाक । हुलहुल । हुरहुर । हिल- मोचिका । ४. मंजीठ । ५. काकडा़सींगी । वृषपर्णी । मूसाकरनी ।
⋙ चक्रांत
संज्ञा पुं० [सं०] किसी अनुचित कार्य या किसी के अनिष्ट- साधन के लिये कई मनुष्यों की गुप्त अभिसंधि ।
⋙ चक्रांतर
संज्ञा पुं० [सं० चक्रान्तर] एक बुद्ध का नाम ।
⋙ चक्रांश
संज्ञा पुं० [सं०] राशिचक्र का ३६० वाँ अंश ।
⋙ चक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागरमोथा । २. काकडा़सींगी ।
⋙ चक्राकार
वि० [सं०] पहिए के आकार का । मंडलाकार । गोल ।
⋙ चक्राकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हँसिनी । मादा हंस । २. चक्रवाकी । चकई ।
⋙ चक्राकृति
वि० [सं०] दे० 'चक्राकार' [को०] ।
⋙ चक्राट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदारी । साँप पकड़नेवाला । २. साँप का विष झाड़नेवाला । ३. धूर्त । धोखेबाज । ४. सोने का एक सिक्का । दीनार ।
⋙ चक्राथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक कौरव योद्धा का नाम ।
⋙ चक्राधिवासी
संज्ञा पुं० [सं० चक्राधिवासिन्] नारंगी ।
⋙ चक्रानुक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्रक्रम' [को०] ।
⋙ चक्रायुध
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।
⋙ चक्रार
संज्ञा पुं० [सं०] पहिए की परिधि और धुरी को मिलानेवाली अराएँ [को०] ।
⋙ चक्रावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोलाई में होनेवाली गति । २. आँधी [को०] ।
⋙ चक्रावल
संज्ञा पुं० [सं० चक्रावलि] घोडों का एक रोग जिसमें उनके पैरों में घाव हो जाता है । इससे कभी कभी वे लँगडे़ भी हो जाते हैं ।
⋙ चक्राश्म
संज्ञा पुं० [सं०चक्राश्मन] वह यंत्र जिससे पत्थर दूर तक फेंका जाता था [को०] ।
⋙ चक्राह्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. चकवा पक्षी । चकवाक । २. चकवँड़ ।
⋙ चक्राह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चक्राह्व' [को०] ।
⋙ चक्रि
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ता [को०] ।
⋙ चक्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] चक्र धारण करनेवाला ।
⋙ चक्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घुटने पर की गोल हड्डी । चक्की । २. झुंड । समूह (को०) । ३. सेना (को०) । ४. दुरभिसंधि (को०) ।
⋙ चक्रित पु
वि० [सं० चकित] दे० 'चकित' । उ०—चहुँ दिसि चितै चक्रित ऋषि भयऊ ।—ह० रासो, पृ० २७ ।
⋙ चक्रिय
वि० [सं०] १. रथ पर जानेवाला । २. सफर करनेवाला । यात्रा करनेवाला [को०] ।
⋙ चक्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्रिन्] [स्त्री० चक्रिणी] १. वह जो चक्र धारण करे । २. विष्णु । ३. ग्रामजालिक । गाँव का पंडित या पुरोहित । ४. चक्रवाक । चकवा । ५. कुलाल । कुम्हार । ६. सर्प । उ०—मिलि चक्रिन चदन वात वहै अति मोहत न्यायन ही मति को ।—राम च०, पृ० ८१ । ७.सूचक । गोइंदा । जासूस । मुखबिर । दूत । चर । ८. तेली । ९. बकरा । १०. चक्रवर्ती । ११. चक्रमर्द । चकवँड़ । १२. तिनिश वृक्ष । १३. व्याघ्रनख नाम का गंधद्रव्य । बघनहाँ । १४. काक । कौआ । १५. गदहा । गधा । १६. वह जो रथ पर चढा़ हो । रथ का सवार । १७. चंद्रशेखर के मत से आर्य्या छद का २२ वाँ भेद जिसमें ६ गुरू और ४५ लघु होते हैं । १८. एक वर्णसंकर जाति जिसका उल्लेख औशनस के 'जातिविवेक' में है । १९. सभा । उ०—चक्री विचाल रघुवर विताल ।—रघु० रू०, पृ० २४३ । २०. शिव (को०) । २१. मंडल का अधिपति (को०) । २२. ऐद्रजालिक । बाजीगर (को०) । २३. षड्यंत्र करनेवाला (को०) । २४. वंचक (को०) ।
⋙ चक्री (२)
वि० १. चक्रयुक्त । चक्रवाला । २. चक्रधर । चक्रधारी । ३. रथारूढ़ । ४. गोल । गोलाईवाला । ५. सूचक [को०] ।
⋙ चक्रेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चक्रवर्ती । २. तांत्रिकों के चक्र का अधिष्ठाता । ३. चक्र या मंडल का अधिपति (को०) । ४. विष्णु (को०) ।
⋙ चक्रेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों की महाविद्याओं में से एक ।
⋙ चक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] नकली । या बनावटी मित्र [को०] ।
⋙ चक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. गजक । चाट । मद्य के ऊपर खाने की वस्तु । २. कृपादृष्टि । अनुग्रह । ३. कथन । ४. चखना (को०) ।
⋙ चक्षम
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति । २. उपाध्याय ।
⋙ चक्षा
संज्ञा पुं० [सं० चक्षस्] १. बृहस्पति । २. आचार्य । ३. गुरू । स्पष्टता । ४. दर्शन । दृष्टि । नेत्र । ५. चक्षु [को०] ।
⋙ चक्षुः
संज्ञा पुं० [सं०] चक्षुस् का समासगत रूप [को०] ।
⋙ चक्षुःपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दृष्टिपथ । २. क्षितिज [को०] ।
⋙ चक्षुःपीडा़
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्षुःपीडा] आँख में होनेवाली पीडा़ [को०] ।
⋙ चक्षुःराग
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की ललाई [को०] ।
⋙ चक्षुःश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० चक्षुःश्रवस्] वह जीव जो आँख ही से सुने । साँप । सर्प ।
⋙ चक्षु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षुष्] १. दर्शनेंद्रिय । आँख । मुहा०—चक्षु चार होना = दे० 'आँखें चार होना' । उ०—कोई कुरंगलोचनी किसी नवयुवक से चक्षु चार होते ही ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० ११९ । २. विष्णु पुराण में वर्णित अजमीढ वंशी एक राजा जिसके पिता का नाम पुरुजानु और पुत्र का नाम हर्यश्व था । ३. एक नदी का नाम जिसे आजकल आक्सस या जेहूँ कहते हैं । विशेष—वेदों में इसी का नाम वंक्षुनद है । विष्णुपुराण में लिखा है कि गंगा जब ब्रह्मलोक से गिरी, तब चार नदियों के रूप में चार ओर प्रवाहित हुई । जो नदी केतुमाल पर्वत के बीच से होती हुई पश्चिम सागर में जाकर मिली, उसका नाम चक्षुस् हुआ । ४. देखने की शक्ति (को०) । ५. प्रकाश या रोशनी (को०) । ६. कांति । तेज (को०) ।
⋙ चक्षुर
संज्ञा पुं० [सं०] चक्षुस्' का समासगत रूप [को०] ।
⋙ चक्षुरपेत
संज्ञा पुं० [सं०] अधा [को०] ।
⋙ चक्षुरिंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्षुरिन्द्रिय] देखने की इंद्रिय । आँख ।
⋙ चक्षुर्गोचर
वि० [सं०] दृष्टिगोचर [को०] ।
⋙ चक्षुर्दर्शनावरण
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्र में वह कर्म जिसके उदय होने से चक्षु द्वारा सामान्य बोध की लब्धि का विघात हो ।
⋙ चक्षुर्दान
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणप्रतिष्ठा के समय मूर्ति के नेत्रों में अजन आदि देना या रंग भरना [को०] ।
⋙ चक्षुर्निरोध
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पट्टी । वह पट्टी जो आँख पर लगाई जाय [को०] ।
⋙ चक्षुर्बध
संज्ञा पुं० [सं० चक्षुर्बन्ध] आँख ढकना [को०] ।
⋙ चक्षुर्बहल
संज्ञा पुं० [सं०] अजशृंगी [को०] ।
⋙ चक्षुर्भुत
वि० [सं०] दृष्टिवर्धक [को०] ।
⋙ चक्षुर्मल
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का मल । कीचड़ [को०] ।
⋙ चक्षुर्वर्द्धनिका
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार शाकद्वीप की एक नदी ।
⋙ चक्षुर्वन्य
वि० [सं०] नेत्र रोगवाला [को०] ।
⋙ चक्षुर्वहन
संज्ञा पुं० [सं०] अजश्रुंगी । मेढा़सींगी ।
⋙ चक्षुर्विषय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दृष्टिक्षेत्र । स्थिति । दृश्यता । २. दृष्टि का विषय । कोई दृश्य पदार्थ । ३. क्षितिज [को०] ।
⋙ चक्षुर्हन्
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्रकार का सर्प जिसे देखते ही जीव जंतुओं की आँखें फूट जाती हैं ।
⋙ चक्षुर्हा
वि० [सं० चक्षुर्हन्] जिसके देखने से आँख फूट जाय [को०] ।
⋙ चक्षुष्
संज्ञा पुं० [सं०] 'चक्षुस्' का समासगत रूप ।
⋙ चक्षुष्कर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] साँप । सर्प [को०] ।
⋙ चक्षुष्पति
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ चक्षुष्मान्
वि० [सं० चक्षुष्मत्] १. आँखोंवाला । २. सुंदर आँखों— वाला [को०] ।
⋙ चक्षुष्य (१)
वि० [सं०] १. जो नेत्रों को हितकारी हो (ओषधि आदि) । २. सुंदर । प्रियदर्शन । ३. नेत्रों से उत्रन्न । नेत्र संबंधी ।
⋙ चक्षुष्य (२)
संज्ञा पुं० १. केतकी । केवडा़ । २. शोभांजन । सहजन का पेड़ । ३. अंजन । सुरमा । ४. खपरिया । तूतिया ।
⋙ चक्षुष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनकुलथी । चाकसू । २. मेढा़सींगी । अजशृंगी । ३. सुंदरी स्त्री (को०) ।
⋙ चक्षुसू
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख । २. आक्सस या जेहूँ नदी जो मध्य एशिया में है ।
⋙ चख (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षुस्] आँख । उ०—मन समुद्र भयो सूर को, सीप भये चक लाल ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ७३ । मुहा०—चख से मसि चुराना पु = दे० 'आँख का काजल चुराना' । उ०—अस बड़ चोर कहत नहि आवै । चोरि कें चखन ते मसिहि चुरावै । नंद० ग्रं०, पृ० २४६ ।
⋙ चख (२)
संज्ञा पुं० [फा़० या अनु०] [वि० चखिया] झगडा़ । तकरार । कलह । टंटा । यौ०—चख चख = तकरार । बकबक । झकझक । कहासुनी ।
⋙ चखचौध †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चकचौंध] दे० 'चकचौंध' ।
⋙ चखना
क्रि० स० [सं० चष] स्वाद लेना । स्वाद लेने के लिये मुँह में रखना । स्वाद या मजा लेते हुए खाना । उ०— साहब का घर दूर है जैसे लंब खजूर । चढै़ तो चाखै प्रेम रस गिरै तो चकनाचूर (शब्द०) । संयो० क्रि०—डालना ।—लेना ।
⋙ चखा †
वि० [हिं० चखना] १. चखनेवाला । स्वाद लेनेवाला । २. प्रेमी ।
⋙ चखाचखी
संज्ञा स्त्री० [फा़० चख (= झगडा़)] लाँगडाँट । विरोध । बैर । क्रि० प्र०—चलना होना ।
⋙ चखना
क्रि० स० [हिं० 'चखना' का प्रे० रूप] खिलाना । स्वाद दिलाना ।
⋙ चखि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चख (=आँख)] दे० 'चख' । उ०—हैं चकृति चखि सुर—नर—मुनिवर दुहुँ दिसि नेह किए बरन ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७२ ।
⋙ चखिया
वि० [फा़० चख (= झगडा़)] झगडा़लू । तकरार करनेवाला । झकझक करनेवाला ।
⋙ चखु पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] दे० 'चक्षु' । उ०—सखिन कहा हो पान पियारी । मारेहु चखु सर गिरा भिखारी ।— इंद्रा०, पृ० ६२ ।
⋙ चखैया
संज्ञा पुं० [हिं० √ चख+ऐया (प्रत्य०)] चखनेवाला । स्वाद लेनेवाला । वस्तु का स्वाद लेते हुए खानेवाला । उ०— चरब्बी चखैया चटं चारु सच्चै ।—प० रासो, पृ० ८२ ।
⋙ चखोडा़ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चख+ओड़] मस्तक पर काजल की लंबी रेखा जो बच्चों को नजर से बचाने के लिये लगाई जाती है । दिठौना । डिठौना । उ०—(क) लट लटकनि सिर चारु चखोडा़ सुठि शोभा सोहै शिशु भाल ।—सूर (शब्द०) । (ख) अजन दोउ दृग भरि दीनो । भुव चारु चखोडा़ कीनो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चखौंडा़ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चखोडा़] दे० 'चखोडा़' ।
⋙ चखौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० चखाना] चटपटा खाना । तीक्ष्ण स्वाद का भोजन ।
⋙ चगड़
वि० [देश०] चालाक । चतुर ।
⋙ चगताई
संज्ञा पुं० [तु० चग़ताई] मध्य एसिया के निवासी तुर्को का एक प्रसिद्ध वंश जो चगताई खाँ से चला था । बाबर, अकबर, आदि भारत के मोगल बादशाह इसी वंश के थे ।
⋙ चगताई खाँ
संज्ञा पुं० [तु० चगताई खाँ] प्रसिद्ध मोगल विजेता चंगेज खाँ का एक पुत्र जो अत्यंत न्यायशील और धार्मिकथा । विशेष—चंगेज खाँ ने १२२७ ई० में इसे बलख बदख्शाँ, काशगर आदि प्रदेशों का राज्य दिया था । सन् १२४१ में इसकी मृत्यु हुई । बाबर इसी के वंश में था ।
⋙ चगत्ता
संज्ञा पुं० [हिं० चकता] दे० 'चकत्ता' ।
⋙ चगथा पु
संज्ञा पुं० [हिं० चकता = मोगल] दे० 'चकत्ता' । उ०— हलकार भड़ाँ ललकार हुवै । चगथां मुख तेज सरेज चुवै ।— रा० रू०, पृ० १९६ ।
⋙ चगर
संज्ञा पुं० [देश०] १. घोड़ों की एक जाति । २. एक प्रकार की चिड़िया ।
⋙ चगुनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो संयुक्त प्रांत, बंगाल और बिहार की नदियों में पाई जाती है । यह १८ इंच लंबी होती है ।
⋙ चघड़
वि० [देश०] चतुर । रगड़ । धूर्त । चालाक । उ०—चघड़ों की चालों को मिथ्या और तिरस्करणीय प्रमाणित कर जनसाधारण के भ्रम को मिटाएँ ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० २९२ ।
⋙ चचर
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह जमीन जो बहुत दिन तक परती रहकर एक बार ही बोई जाती हो ।
⋙ चचरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ ।
⋙ चचा
संज्ञा पुं० [सं० तात] [ स्त्री० चची] बाप का भाई । पितृव्य । मूहा०—चचा बनाना = यथोचित दंड देना । खूब बदला लेना । दूरुम्त करना । चचा बनाकर छोड़ना = खूब बदला लेकर छोड़ना । यौ०—चचाजाद = चचा से पैदा । चचेरा ।
⋙ चचिया
वि० [हिं० चचा > चच + इया(प्रत्य०)] चाचा के बराबर का संबंध रखनेवाला । यो०—चचिया ससुर = पतिया पत्नी का चाचा । चचिया सास = पति या पत्नी की चाची ।
⋙ चचींडा †
संज्ञा पुं० [सं० चिचिण्ड] १. तोरई की तरह की एक बेल जिसमें हाथ हाथ भर लंबे और दो ढाई अंगुल मोटे साँप की तरह के फल लगते हैं । इन फलों की तरकारी होती है । इसे कहीं कहीं परवल भी कहते हैं । विशेष—चचींडा बरसात के आरंभ में बोया जाता है और भादों कुआर में फलता है । इसमें सफेद रंग के पतले लंबे फूल लगते हैं । इसे चढ़ाने के लिये टट्टियाँ लगानी पड़ती हैं । इसकी कुछ जातियाँ बहुत कड़ई होने के कारण खाई नहीं जातीं । वैद्यक में यह वात-पित्त-नाशक, बलकारक, पथ्य और शोष रोग को दूर करनेवाला माना जाता है । २. अपामार्ग । चिचड़ा ।
⋙ चाची
संज्ञा स्त्री० [हिं० चचा ] चाचा की स्त्री ।
⋙ चचेंड़ा
संज्ञा पुं० [सं० चिचिण्ड] दे० 'चचीड़ा' ।
⋙ चचेरा
वि० [ हिं० चचा + एरा (प्रत्य०)] चचा से उत्पन्न । चचाजाद । जैसे, — चचेरा भाई । चचेरी बहिन ।
⋙ चचेड़ना
क्रि० स० [अनु था देश०] दाँत मे खींच खींच या दबा दबाकर रस या सार चूसना । दबा दबाकर चूसना । जैसे,—कुत्ता हड्डी चचोड़ रहा है ।
⋙ चचोड़वाना
क्रि० स० [हिं० चचोड़ना का प्रे० रूप] चचोड़ने का कामकराना । चचोड़ने देना । दबा दबाकर चूसना देना ।
⋙ चच्चर पु
संज्ञा पुं० [सं० चत्वर] चौराहा । चतुष्पथ । उ०— चच्चर सीचन रंग गति विधि बंधन रिन चाह ।— पृ० रा० २५ । ३९९ ।
⋙ चच्चरी पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० चर्चरी] १. एक नृत्य । २. एकगीत । उ०— सुअंत सथ्यं विथ्थुरं अनेक भाँति वाहई । मनो कि दंड उच्चरीय बालकं उछाहई । पृ० रा०, १२ । ३४१ ।
⋙ चच्चल पु
वि० [सं० चञ्चल] चंचल । गतिशील । उ०— छुट्ठंत पट्ठं बान छुट्ठं षुट्ठं चच्चलं । बलिराय जग्ग मान मग्गं भिरे भग्गं अच्चल ।—पृ० रा०, २ ।२२१ ।
⋙ चच्चर पु
संज्ञा पुं० [सं० चर्चरी] चाँचर ।
⋙ चच्चा †
संज्ञा पुं० [हिं० चाचा या चचा ] पिता का भाई । पितृव्य ।
⋙ चच्ची
संज्ञा स्त्री० [हिं० चच्चा का स्त्री० ] दे० 'चाची' । उ०—उर्दू की चच्ची वा अरबी की बच्ची ।— प्रेमघन, भा० २ । पृ० ३४४ ।
⋙ चच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] दे० 'चक्षु' । उ०—उठी बंक मुच्छं लगी जाय चच्छं ।—ह० रासो, पृ० १३५ ।
⋙ चच्छु पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] दे० 'चक्षु' । उ०— चच्छु सुच्छु नाहिन प्रभु तुच्छ रूप रह लागि । मोरपच्छ धर पच्छ धरि ब्रजनिधि में अनुरागि ।— ब्रज० ग्र०, पृ० १० ।
⋙ चछ पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] नेत्र । चक्षु । उ०— निमिषं जुग जोजनयं विसषं । चित चंचल नारि चछं मुरषं ।— पृ० रा०, १२ ।३६ ।
⋙ चछी पु
वि० [हिं० चछ +ई (प्रत्य०)] नेत्रवाला । चक्षुष्मान् । सहस्त्राक्ष । उ०— आगे सु चक लिन्नौ गुविंद आगै सु वज्र कर चछी इंद । — पृ रा० १ ।६२३ ।
⋙ चट (१)
क्रि० वि० [सं० चटुल (= चंचल)] जल्दी से । झट । तुरंत । फौरन । शीघ्र । यौ०—चटपट । चट से = जल्दी से । शीघ्र । मुहा०—चट मँगनी पट ब्याह = कोई काम तत्काल हो जाना । उ०— पहले जोरे जाले, फिर पैगाम भेजा । चलिए चट मँगनी और पट ब्याह हो गया ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १७६ ।
⋙ चट (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० चित्र, हिं० चित्ती (=दाग)] १. दाग । धब्बा । २. गरमी के घाव या जख्म का दाग । घाव का चकत्ता । ३. कलंक । दोष । ऐब ।
⋙ चट (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. वह शब्द जो कड़ी वस्तु के टूटने पर होता है जैसे, — लकड़ी चट से टूट गई । यौ०—चटचट । विशेष— खट, पट आदि इस प्रकार के और शब्दों के समान इस शब्द का प्रयोग भी 'से' के साथ ही क्रि० वि० के समान होता है । अतः इसके लिंग का विचार व्यर्थ है । यौ० 'चटचट' शब्द को स्त्री० मानेंगे । २. वह शब्द जो उँगलियों को मोड़कर दबाने से होता है । उँगली फूटने का शब्द । उ०— तुव जस शीतल पौन परसि चटकी गुलाब की कलियाँ । अति सुख पाइ असीस देत सोइ करि अँगुरिन चट अलियाँ ।— हरिश्चंद (शब्द०) ।
⋙ चट (४)
संज्ञा पुं० [हिं० चाटना] चाट पोंछकर सफा कर देना । क्रि० प्र०—करना ।—कर जाना = (१) अच्छी तरह खा जाना । बाकी न छोडना । (२) निगल जाना ।
⋙ चट (५)
वि० [हिं० चाटना] १. चाट पोंछकर खाया हुआ । मुहा०—चट कर जाना = (१) सब खा जाना । (२) पचा जाना । हजम कर लेना । दूसरे की वस्तु लेकर न देना । २. चाटनेवाला । जैसे,—पतलचट या पतरचट, लँड़चट । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रवोग समस्त शब्दों के अंत में होता है ।
⋙ चटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चटका] १. गौरा पक्षी । गौरवा । गौरैया । चीड़ा । यौ०—चटकाली= गौरों की पंक्ति । गौरों का झुंड । २. पिपरामूल ।
⋙ चटक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चटुल (=सुंदर)] चटकीलापन । चमक- दमक । कांति । उ०—(क) मुकुट लटक अरु भ्रुकुटि मटक देखो, कुंडल की चटक सों अटकि परी दृगनि लपटि ।—सूर (शब्द०) । (ख) जो चाहै चटक न घटै मैलो होय न मित्त । रस राजस न छुवाइए नेह चीकने चित्त ।—बिहारी (शब्द०) । (ग) केसरि चटक कौन लिखें लेखियति है ।—घनानंद०, पृ० ५८ । यौ०—चटक मटक ।
⋙ चटक (३) †
वि० चटकीला । चमकिला । शोख । उ०—ऐसो माई एक कोद को हेत । जैने वसन कुसुँभ रंग मिलि कै नेकु चटक पुनि श्वेत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चटक (४)
संज्ञा स्त्री० [चटुस(=चंचल)] तेजी । फुरती । शीघ्रता ।
⋙ चटक (५)
क्रि० वि० चटपट । तेजी से । शीघ्रता से । तुरंत । उ०— भरि जल कलस कंध धरि पाछे चल्यो चटक जग मीता ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ चटक (६) †
वि० फुरतीला । तेज । आलस्यहीन ।
⋙ चटक (७)
वि० [अनुष्चट] चटपटा । चटकारा । चरपरा । तीक्ष्ण स्वाद का । नमक, मिर्च, खटाई आदि से तेज किया हुआ । मजोदार ।
⋙ चटक (८)
संज्ञा पुं० [देश०] छपे हुए कपड़ों को साफ करके धोने की रीति । विशेष—भेड़ी की मेगनी और पानी में कपड़ों को कई बार सौंद सौंदकर सुखाते हैं ।
⋙ चटकई
संज्ञा स्त्री० [हिं०चटक+ई (प्रत्य०)] तेजी । फुर्ती ।
⋙ चटकका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा चटक [को०] ।
⋙ चटकदार
वि० [हिं० चटक+फा० दार (प्रत्य०)] चटकीला । भड़कीला । चमकीला ।
⋙ चटकन †
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] दे० 'चटकना (२)' । उ०—इतना कह सुशीला के गाल पर एक चटकन जड़ी किवह रोने लगी ।— श्यामा०, पृ० ५४ ।
⋙ चटकना
क्रि० अ० [अनु० चट] १. 'चट' शब्द करके टूटना या फूटना । बिना किसी प्रबल बाहरी आघात के फटना या फूटना । हलकी आवाज के साथ टूटना । तड़कना । कड़कना । जैसे,—आँच से चिमनी चटकना, हाँड़ी चटकना । उ०— चटके न पाटी पाँव धरिए पलंग ऐसे है हरि हरा के मेरी जेहर न खटकै ।—ठाकुर०, पृ० २४ । संयो० क्रि०—जाना । २. कोयले, गँठीली लकड़ी आदि का जलते समय चटपट करना । ३. चिड़चिड़ाना । बिगड़ना । झुँझलाना । क्रोध से बोलना । झल्लाना । जैसे,—चटककर बोलना । ४. धूप या खुली हवा में पड़ी रहने के कारण लकड़ी या और किसी वस्तु में दरज पडना । स्थान स्थान पर फटना । ५. मोड़कर दबाने पर उँगलियों का चटचट शब्द करना । उँगली फूटना । ६. कलियों का फूटना या खिलना । प्रस्फुटित होना । उ०—तुव जस सीतल पौन परसि चटकी गुलाब की कलियाँ । अति सुख आइ असीस देत सोई । करि अँगुरिनचट अलियाँ ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ७. अनबन होना । खटकना । जैसे,—उन दोनों में आजकल चटक गई है । विशेष—इस अर्थ में इस क्रिया का प्रयोग 'खटकना' की तरह स्त्री० ही में होता है; क्योंकि इसका कर्ता 'बात' लुप्त है ।
⋙ चटकना (२)
संज्ञा पुं० [अनु चट] चपत । तमाचा । थप्पड़ । क्रि० प्र०—देना । मारना । लगाना ।
⋙ चटकनी
संज्ञा स्त्री० [अनु० चट] किवाड़ों को बंद रखने या अड़ाने के लिये लगी हुई छड़ । सिटकिनी । अगरी ।
⋙ चटक मटक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटक + मटक] बनाव सिंगार । वेशविन्यास और हावभाव । नाज नखरा । ठसक । चमक दमक । जैसे,—चटक मटक से चलना ।
⋙ चटकला मटकला पु
संज्ञा पुं० [हिं० चटक + ला(प्रत्य०) मटक ला (प्रत्य०)] दे० 'चटकमटक' । उ०—चटकला मटकला मोही न मुहाई धन कई हीवडइ हाथ न लाई ।—वी० रासो० पृ० ४७ ।
⋙ चटकवाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटक +वाही (प्रत्य०)] शीघ्रता । जल्दी । फुरती ।
⋙ चटका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चट] फुरती । चल्दी । शीघ्रता ।
⋙ चटका (२)
क्रि० वि० फुरती से । जल्दी से । शीघ्रता से । उ०—प्रभु हौं बड़ी बेर को ठाढ़ो । और पतित तुम जैसे तारे तिनही में लिखि गाढ़ो । जुग जुग यहै विरद चलि आयो टेरि कहत हौं या ते । मरियत लाज पाँच पतितन में होय कहाँ चटका ते । कै प्रभु हार मानि के बेठहु कै करो विरद सही । सूर पति ते जो झूठ कहतु है देखौ खोजि बही ।—सूर (शब्द०) । यौ—चटका चटकी = बात की बात में । आनन फानन । तत्काल ।
⋙ चटका (३)
संज्ञा पुं० [देश०] चने का वह हरा ढोढ़ दिलमें अच्छी तरह दाने न पडे़ हों । पपटा ।
⋙ चटका (४)
संज्ञा पुं० [हिं० चित्र, हिं० चित्ती,चट्टा] दाग । धब्बा । चकत्ता ।
⋙ चटका (५)
संज्ञा पुं० [हिं० चाट] १. चरपरा स्वाद । चटकारा । २. चसका ।
⋙ चटका (६)
संज्ञा पुं० [हिं० चटकना ] १. चटकने की क्रिया या भाव । २. उच्चाटन की क्रिया या भाव । ३. तमाचा । थप्पड़ ।४. अनबन । मनमुटाव । ५. बिगड़ना । क्रुद्ध होना । यौ०—चटका चटकी = लड़ाई झगड़ा । कहा सुनी । तकरार ।
⋙ चटका (७)
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] दे० 'चुटकी' । उ०—दौडे ऊमर चटका देती छित जिम बादल छाटा ।—रघु० रू०, पृ० १६ । क्रि० प्र०—देना = चुटकी बजाना ।
⋙ चटकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटक + आई (प्रत्य०)] चटकीलापन । चमक । कांति । उ०—तेल फुलेल चमक चटकाई । टेढ़ी पाग छोर ओरमाई ।—घट० पृ० ३०० ।
⋙ चटकाना
क्रि स० [अनु० चट] १. ऐसा करना जिसमें कोई वस्तु चटक जाय । तोड़ना । २. उँगलियों को खीचकर या मोड़ते हुए दबाकर चट चट शब्द निकालना । उँगलियाँ फोड़ना । ३. एक वस्तु पर किसी दूसरी चीमड़ वस्तु को बार- बार टकराना जिससे चट चट शब्द निकले । जैसे,—गेंद चटकाना । चतियाँ चटकाना । मुहा०—जूतियाँ चटकाना = (१) फटा हुआ या चट्टी जूता पहनकर इधर उधर घूमना जिससे तला बार बार ऐड़ी से लगकर चट चट शब्द करे । जूता घसीटते हुए फिरना । (२) बुरी दशा में इधर उधर पैदल फिरना । मारा मारा फिरना । जैसे,—अपने पास का सब खोकर अब बह गली गली जूतियाँ चटकाता फिरता हैं । ४. उचाटना । अलग करना । दूर करना । छोड़ना ।५. चिढ़ाना । कुपित करना । जैसे,—तुमने उसे नाहक चरुका दिया नहीं तो कुछ और बातें होतीं ।
⋙ चटकामुख
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक अस्त्र जिसका उल्लेख महाभारत में है ।
⋙ चटकार †
वि० [हिं० चटकारा] दे० 'चटकारा' ।
⋙ चटकारा (१)
वि० [सं० चटुल] १. चटकीला । चमकीला । २. चंचल । चपल । तेज । उ०—अटपटात अलसात पलक पट मूँदत कबहूँ करत उधारे । मनहुँ मुदित करकत मणि आँगन खेलत खंजरीट चटकारे सूर (शब्द०) ।
⋙ चटकारा (२)
वि० [अनु० चट] वह शब्द जो किसी स्वादिष्ट वस्तु को खाते समय तालू पर जीभ लगने से निकलता है । स्वाद से जीभ चटकाने का शब्द । मुहा०—चटकारे का = चरपरा । मदोगाप । तीक्ष्ण स्वाद का जैसे,—चटकारे का सालन । चटकारे का भुरता । चटकारे भरना = खूब जीभ से चाट चाटकर स्वाद लेना । ओठ— चाटना ।
⋙ चटकारी †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चटकी ।
⋙ चटकाली
संज्ञा स्त्री० [सं० चटक आलि] १. गोरों की पंक्ति । गौरैया नाम की चिड़ियों का झुंड । २. चिड़ियों की पंक्ति या समूह । उ०—नभ लाली चाली मिसा चटकाली धुनि कीन । रति पाली आली अनत आए बनमाली न ।—बिहारी र०, दो० ११५ ।
⋙ चटकाशिरा
संज्ञा पुं० [चटकाशिरस्] पिपरामूल ।
⋙ चटकाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटकना] १. चिटकने या फूटने का शब्द । २. चटकने या तड़कने का भाव । ३. कलियों के खिलने का अस्फुट शब्द । कलियों के प्रकुटित होने का भाव । उ०—फूलति कली गुलाब की, तटकाहट चहुँ ओर ।— बिहारी र०, दो० ८४ ।
⋙ चटकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा चटक [को०] ।
⋙ चटकी
संज्ञा स्त्री० [सं० चटक] बुलबुल की तरह की एक चिड़िया जो ८ या १० अंगुल लंबी होती है । विशेष—यह पंजाब और राजपूताना को छोड़ सारे भारतवर्ष में होती है । यह गरमी के दिनों में हिमालय की ओर चली जाती है और वहीं चट्टानों के नीचे या पेड़ों पर अंडे देती है ।
⋙ चटकीला
वि० [हि० चटक + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चटकीली] १. जिसका रंग फीका न हो । खुलता । शोख । भड़कीला । जैसे,—चटकीला रंग । उ०—चटकीलो पट लपटानो कटि वंशीवट यमुना के तट, नागर नट ।—सूर (शब्द०) । २. चमकीला । चमकदार । आभायुक्त । उ०—चटकी धोई धोवती, चटकीली मुख जोति । फिरति रसोई के बगर जगरमगर दुति होति ।—बिहारी (शब्द०) ३. जिसका स्वाद फीका न हो । जिसका स्वाद नमक, खटाई, मिर्च आदि के द्वारा तीक्ष्ण हो । चरपरा । चटपटा । मजेदार ।
⋙ चटकीलापन
संज्ञा पुं० [हिं० चटकीला +पन(प्रत्य०)] १. चमक दमक । आभा । शोखी । २. चरपरापन ।
⋙ चटकोरा †
संज्ञा पुं० [अनु०] एक किलौना ।
⋙ चटक्क पु
क्रि० वि० [हिं० चटक] दे० 'चटक' । उ०—दानव तब गय दौरि करे इक बंध कटक्कं । हुअ देवासुर जुद्ध चढे़ देवता चटक्क्रं । पृ० रा० २ ।१३० ।
⋙ चटक्कड़ा पु
संज्ञा पुं० [अनु० चट् चट्] पशु को छड़ी से मारने वा ताडने का चट् चटू शब्द । उ०—लाँबी काब चटक्कड़ा गय लंबावइ जाल । ढोलउ अजे न बाहुड़इ प्रीतम भो मन साल ।—ढोला०, दू० ४१० ।
⋙ चटक्का पु
संज्ञा पुं० [हिं० चटका] दे० 'चटका (५)' । उ०— ताजन मारु चटाक चटक्का सनमुखं सेजा भाँजी ।—सं० दरिया, पृ० १०७ ।
⋙ चटखना (१)
क्रि० स० [हिं० चटकना] दे० 'चटकना' ।
⋙ चटखना (२)
संज्ञा पुं० दे० 'चटकना' ।
⋙ चटखनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटकनी] दे० 'चटकनी' ।
⋙ चटखार
संज्ञा पुं० [हिं० चट] चाटने का शब्द । उ०—हिम के जो कण उनकी जीभ पर बैठ जाते थे उन्हें चटखार भरे शब्द के साथ निगल जाते थे—जिप्सी, पृ० २३८ ।
⋙ चटखारा
संज्ञा पुं० [हिं० चट] स्वादिष्ट वस्तु खाते समय मुँह से आनेवाली आवाज । मुहा०—चटखारे भरना = मजे लेकर खाना । खाने के बाद ओठ चाटना ।
⋙ चटखौता
संज्ञा पुं० [हिं० चरखा] भालुओं का चरखा कातने का खेल ।—(कलंदर) । क्रि० प्र०—कातना ।
⋙ चटचट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. चटकने का शब्द । ट्टने का शब्द । २. जलती लकडियों का चटचट शब्द । ३. वह शब्द जो उँगलियों को खींचने या मोड़कर दबाने से निकलता है । उँगली फूटने का शब्द । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—चट चट बलैया लेना = किसी प्रिय व्यक्ति (विशेषतः बच्चे) की विपत्तिया बाधा दूर करने या मंगल के लिये उँगलियाँ चटकाकर प्रार्थना करना । विशेष—स्त्रियाँ किसी शत्रु का नाश मनाती हुई हाथों की उँगलियाँ चटकाती हैं । चड बच्चों को नजर लगती है तब प्रायः ऐसा करती हैं जिसका अभिप्राय यह होता हैं कि नजर लगानेवाले का नाश हो जाय ।
⋙ चटचटा (१) †
संज्ञा पुं० [अनु०] चाट चाट का शब्द । क्रि० प्र०—उठना ।
⋙ चटचटा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अस्त्रों की टकराहट से होनेवाला शब्द । २. लड़की आदि के जलने से होनेवाला शब्द ।
⋙ चटचटाना
क्रि० अ० [सं० चट (=भेदन)] १. चटचट करते हुए टूटना या फूटना । उ०—गर्व बचन प्रभु सुनत तुरत ही तनु विस्तारयो । हाय हाय करि उरग बारही बार पुकारयो । शरन शरन अब मरत हौं मौं नहिं जान्यों तोहिं । चटचटात अँन फूटहीं राखु राखु प्रभु मोहिं ।—सूर (शब्द०) २. गँठीली लकड़ी, कोयले आदि का चटचट शब्द करते हुए जलना । ३. तेल या गोंद जैसी चीजों के लगने पर सूख चलने की स्थिति में छूने से होनेवाली हलकी ध्वनि ।
⋙ चटचटायन
संज्ञा पुं० [सं०] जलती हुई लकड़ी या आग का चटपट शब्द करते हुए जलना [को०] ।
⋙ चटचेटक
संज्ञा पुं० [सं० चेटक] टोना । जादू । उ०—मोहन बसीकरण चटचेटक, मंत्र, जंत्र सब जानै हो । तातें भले भले सब तुमको भले भले करि मानै हो ।—ब्रज०, पृ० ९० ।
⋙ चटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चटकना । फटना । २. दरार पड़ना । ३. छोटे छोटे टुकड़े में फटना [को०] ।
⋙ चटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाटना] १. चाटने की चीज । वह गीली वस्तु जिसे एक उँगली से थोड़ा थोड़ा उठाकर जीभ पर रख सकें । अवलेह । २. वह गीली चरपरी वस्तु जो पुदीना, हरा धनिया, मिर्च, खटाई, आदि को एक साथ पीसने से बनती है और भोजन का स्वाद तीक्ष्ण करने के लिये थोड़ी थोड़ी खाई जाती है । मुहा०चटनी करना—(१) बहुत महीन पीसना । (२) पीस डालना । चूर चूर कर देना । (३) मार डालना । (४) खा जाना । चटनी का तरह चाटना या चाट जाना = खतम कर देना । सरलता से समाप्त करना । चटनी बनाना = दे० 'चटनी करना' । चटनी समझना = आसान समझना । चटनी होना = (१) खूब पिस जाना । (२) चट हो जाना । चटपट खा लिया जाना । खाने भर को न होना । (३) चुक जाना । खतम हो जाना । उड़ जाना । ३. काठ आदि का चार पाँच अंगुल मुख्यतः रंगीन और चमकदार एक खिलौना जिसे छोटे बच्चे मुँह में डालकर चाटने या चूसते हैं ।
⋙ चटपट
क्रि० वि० [अनु०] शीघ्र । जल्दी । तुरंत । झटपट । तत्क्षण । तत्काल । फौरन । उ०—एकै जीव जीवत है उमर अंदाज भर एकै जीव होतै हिंसु होत चटपट हैं ।—ठाकुर०, पृ० १३ । मुहा०—चटपट की गिरह = वह फंदा जिसे खींच लेने से चट से गाँठ पड़ जाय । सकरमुद्धी । (लश०) । चटपट होना = चटापट मर जाना । थोड़ी ही देर में समाप्त हो जाना । बात की बात में मर जाना ।
⋙ चटपटा
वि० [हिं० चाट] [स्त्री० चटपटी] चटपरा । तीक्ष्ण स्वाद का । मजेदार ।
⋙ चटपटाना †
क्रि० अ० [हिं० चटपट] जल्दी करना । हड़बड़ी मचाना ।
⋙ चटपटि पु
क्रि० वि० [हिं० चटपटी] दे० 'चटपटी' । उ०—कोउ चटपटि सों उर लपटी कोउ कर वर लपटी । कोउ गल लपटी कहति भलै भलै कान्हर कपटी ।—नंद०, ग्रं०, पृ० १९ ।
⋙ चटपटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटपट] [वि० चटपटिया] १. आतुरता । हड़बड़ी । उतावली । शीघ्रता । उ०—तब रंचक तुम हिय मैं आइ । बहुस्यौ गए चटपटी लाई ।—नंद ग्रं०, पृ० २७१ । क्रि० प्र०—पड़ना ।—मचाना ।—होना । २. घबराहट । व्यग्रता । आकुलता । ३. वह बेचैनी जो किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिये हो । उत्सुकता । आकुलता । छटपटी । उ०—(क) देखे बिना चटपटी लागाति कछू मूँड़ पड़ि पर ज्यों ।—सूर (शब्द०) । (ख) नैननि चटपटी मेरे तब तैं लगी रहति कहाँ प्राण प्यारे निर्धन को धन ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चटपटी (२)
वि० स्त्री० [हिं० चटपटा] दे० 'चटपटा' ।
⋙ चटपटी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटपटा] चटपटी चीज । जैसे,—कचालू आदि ।
⋙ चटपट्टी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटपटी] आकुलता । बेचैनी । छटपटी । उ०—हहरि हिरन हारियव, हेरि कातरख रट्टिय । अप्प त्रास भय मोह विरह लग्गी चटपट्टिय ।—पृ० रा०, ६ ।१०० ।
⋙ चटर
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी चीमड़ वस्तु के किसी कडी वस्तु पर बार बार पड़ने का शब्द । चटपट शब्द । मुहा०—चटर करना—मस्तूल आदि को घुमाना या फेरना । चक्कर देना— । (लश०) । यौ०—चटरचटर = चट चट की आवाज । चटरपटर = चटपट की ध्वनि ।
⋙ चटरजी
संज्ञा पुं० [बं०] बंग देश के ब्राह्मणों की एक शाखा । चट्टोपाध्याय ।
⋙ चटरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] खेसारी नाम का कुधान्य । लतरी । चिपटैया ।
⋙ चटवाना
क्रि० स० [हिं० चाटना का प्रे० रूप] ?. चाटने का काम कराना । चाटने में प्रवृत्त करना । चटाना । २. छुरी, तलवार आदि पर सान रखवाना । सान पर चढ़वाना ।
⋙ चटशाला
संज्ञा स्त्री० [प्रा० चट=विद्यार्थी + सं० शाला] बच्चों के पढ़ने का स्थान । छोटी पाठशाला ।
⋙ चटसार पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटशाला] बच्चों के पढ़ने का स्थान । पाठशाला । उ०—अब समझी हम बात तुम्हारी पढ़ें एक चटसार—सूर (शब्द०) ।
⋙ चटसाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटशाला] दे० 'चटशाला' । उ०— तिनके सँग चटसाल पठायो । राम नाम सों तिन चित लायो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चटा
संज्ञा स्त्री० [प्रा० चट (विद्यार्थी)] चट्टा । चेता । विद्दार्थी । उ०—मनौ मार चटसार सुठार चटा से पढ़हीं ।—नंद० ग्रं०, पृ० २०३ ।
⋙ चटाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कट (= चटाई) वह बिछावन जो घास फूस, सींक ताड़ के पत्तों, बाँस की पतली फट्ठियों आदि का बनता है । तृण का डासना । साथरी ।
⋙ चटाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाटना] चाटने की क्रिया ।
⋙ चटाक (१)
संज्ञा [अनु०] लकड़ी आदि के टूटने, चटकने या चपत के पड़ने आदि का शब्द । जैसे,—चटाक से छड़ी टूटना, चटाक से उँगली फूटना । चटाक से चपत लगाना इत्यादि । उ०—महा भुजदंड द्वै अंडकटाह चपेट के चोट चटाक दै फोरौ ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—चट, खट आदि अन्य अनुकरण शब्दों के समान इस शब्द का प्रयोग भी 'से' विभक्ति के साथ ही क्रि० वि० पद के समान होता है, अतः इसके लिंग का विचार व्यर्थ है । यौ०—चटाक पटाक = चटाक या चटपट शब्द के साथ ।
⋙ चटाक
संज्ञा पुं० [हिं० चट्टा] चकत्ता । दाग । धब्बा । विशेषतः शरीर पर का । जैसे,—कुष्ठ आदि का ।
⋙ चटाकर
संज्ञा पुं० [हिं० चट्टा] एक पेड़ जिसका फल खट्टा होता है । विशेष—यह मध्य भारत के सागर आदि स्थानों में विशेष होता है ।
⋙ चटाका
संज्ञा पुं० [अनु०] १. लकड़ी या और किसी कड़ी वस्तु के जोर से टूटने का शब्द । क्रि० प्र०—होना । यौ०—चटाके का=बहुत तेज । उग्र । प्रचंड । जैसे,—चटाके की धूप । चटाके की प्यास । विशेष—इसका प्रयोग गरमी तथा उसके कारण लगी हुई प्यास आदि की अधिकता ही के लिये प्रायः करते हैं । २. थप्पड़ । तमाचा । मुहा०—चटाका जड़ना या लगाना=थप्पड़ मारना ।
⋙ चटाख
संज्ञा पुं० [हिं० चटाक] दे० 'चटाक' । यौ०—चटाख पटाख = दे० 'चटाक पटाक' ।
⋙ चटाचट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किसी वस्तु के टूटने में चट चट शब्द ।
⋙ चटाना
क्रि० स० [हिं० चाटना का प्रे० रूप] १. चाटने का काम कराना । जीभ लगाकर किसी वस्तु का थोड़ा थोड़ा अंश मुँह में डालने देना । २. थोड़ा थोड़ा किसी दूसरे के मुँह में डालना । खिलाना । जैसे,—अन्न चटाना । ३. कुछ घूस देना । रिश्वत देना । जैसे,—उन्होंने कुछ चटाया होगा, तब नौकरी मिली है । ४. छुरी तलवार आदि पर सान रखवाना । सान पर चढ़वाना ।
⋙ चटापटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चटपट] १. शीघ्रता । जल्दी । फुरती । २. किसी संक्रामक रोग के कारण बहुत से मनुष्यों की जल्दी जल्दी मृत्यु । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ चटारा
संज्ञा पुं० [देश०] चिता बनानेवाला । उ०—चिरगट फारि चटारा लै गयो तरी तागरी छूटी ।—कबीर ग्रं०, पृ० २७७ ।
⋙ चटावन
संज्ञा पुं० [हिं० चटाना] बच्चे को पहले पहल अन्न चटाने का संस्कार । अन्नप्राशन ।
⋙ चटिक पु
क्रि० वि० [हिं० चट] उसी समय तत्क्षण । तत्काल । उ०—सुनत भूप भाषित चतुरानन । चले चटिक प्रियव्रत जेहि कानन ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ चटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिपरामूल । पिप्पलीमूल । २. मादा चटक या गौरैया (को०) । यौ०—चटिकाशिरस = पिप्पलीमूल ।
⋙ चटियल
वि० [देश०] अनावृत । खुला हुआ । जिसमें पेड़ पौधे न हों । निचाट (मैदान) ।
⋙ चटिहाट †
वि० [देश०] जड़ । मूर्ख । उजड्ड ।
⋙ चटिया
संज्ञा पुं० [हिं०चटी+ इया (प्रत्य०)] १. शिष्य । विद्यार्थी । उ०—लाखन छोहरी संग मानहु चटिया होना ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४९ ।
⋙ चटी (१)
वि० [सं० चटक?] चटसार । पाठशाला । उ०—मुनिवृंद जहाँ जिहि वेद पठी, शुक सारस हंस चकीर चटी ।—(शब्द०) ।
⋙ चटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा या चटपट] एक प्रकार की जूती, जो एँड़ी की ओर खुली होती है । चट्टी ।
⋙ चटीचरि
संज्ञा पुं० [देश०] पेच विशेष । एक प्रकार का पेच ।
⋙ चटु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाटु । प्रिय वाक्य । खुशामद । चापलूसी । २. व्रतियों का एक आसन । ३. उदर । पेट । ४. चिल्लाहट । चीत्कार (को०) ।
⋙ चटुक
संज्ञा पुं० [सं०] काठ का बरतन । कठौता [को०] ।
⋙ चटुकार
वि० [सं० चटु] खुशामद करनेवाला [को०] ।
⋙ चटुल
वि० [सं०] १. चंचल । चपल । चालाक । २. सुंदर । प्रिय— दर्शन । मनोहर । उ०—छठि छ राग रस रागिनी हरि होरी है । ताला तान बंधान अहो हरि होरी है । चटुल चारु रतिनाथ के हरि होरी है । सीखन होइ औधान अहो हरि होरी है ।—सूर (शब्द०) । (ख) मंजुल महरि मयूर चटुल चातक चकोर गन ।—भूषन (शब्द०) । (ग) मोती लटकन को नवल नट नाचै नयन निरत बर वानि की चटुल चटसार मै ।—देव (शब्द०) । (घ) उसके नैनों की पलकैं, तरुणतर केतकी के दल के सदृश दीर्घ किंचित् चटुल और किंचित सालस शोभायमान थी ।—श्यामा०, पृ० २६ ।
⋙ चटुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली ।
⋙ चटुलालस
वि० [सं०] खुशामदपसंद । जो अपनी खुशामद कराना पसंद करता हो [को०] ।
⋙ चटुलित
वि० [सं०] १. हिलाया हुआ । २. सजाया हुआ [को०] ।
⋙ चटुलोल, चटुल्लोल
वि० [सं०] १. चंचल । चपल । २. सुंदर । सौंदर्यशाली । ३. मृदुभाषी [को०] ।
⋙ चटोर
वि० [हिं० चटोरा] दे० 'चटोरा' ।
⋙ चटोरपन
संज्ञा पुं० [हिं० चटोर + पन (प्रत्य०)] दे० 'चटोरापन' ।
⋙ चटोरा
वि० [हिं० चाट + ओरा (प्रत्य०)] १. जिसे अच्छी अच्छी चीजें खाने का व्यसन हो । जिसे स्वाद का व्यसन हो । स्वादिष्ट वस्तु खाने का लालची । स्वादलोलुप । जैसे,— चटोरा आदमी । चटोरी जबान । २. लोलुप । लोभी । उ०— अघर ड़ोर बंसी सुनिल छबि जल बसुधा बाल । रूप चटोरका मीन दृग आइ फँसत ततकाल ।—मुबारक (शब्द०) ।
⋙ चटोरापन
संज्ञा पुं० [हिं० चटोरा + पन (प्रत्य०)] अच्छी अच्छी चीजें खाने का व्यसन । स्वादलोलुपता ।
⋙ चट्ट †
वि० [हि० चाटना] १. चाट पोछकर खाया हुआ । २. समाप्त । नष्ट । गायब । उ०—दया चट्ट हो गई, धर्म धँसि गयो धरणी मैं—(शब्द०) ।
⋙ चट्टा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० चेटक(=दास) या प्रा० चट=शिष्य या अनुकरणात्मक चट्टा का अंश] चेला । शिष्य ।
⋙ चट्टा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कट(= चटाई)] बाँस की चटाई ।
⋙ चट्टा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] चटियल मैदान । खुला मैदान । ऐसा मैदान जिसमें पेड़ आदि न हो ।
⋙ चट्टा (४)
संज्ञा पुं० [हिं० चकत्ता] शरीर पर कुष्ठ आदि के कारण निकला हुआ चकत्ता । दाग ।
क्रि० प्र०—निकलना ।—पड़ना ।
⋙ चट्टान
संज्ञा स्त्री० [हिं० चट्टा] पहाड़ी भूमि के अंतर्गत पत्थर का चिपटा बड़ा टुकड़ा । विस्तृत शिलापटल । शिलाखंड़ ।
⋙ चट्टाबट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० चट्टू (= चाटने का खिलौना) (+ बट्टा =) अनुकरणात्मक समानभिन्न उच्चारणत्म द्विरुक्ति] १. छोटे बच्चों के खेलने के लिये काठ के खिलौनों का समूह जिसमें चट्टू झुनझुने और गोले इत्यादि रहते हैं । २. गोले और गोलियाँ जिन्हें बाजीगर एक थैली में से निकालकर लोगें को तमाशा दिखाते हैं । मुहा०—एक ही थली के चट्टे बट्टे = एक ही गुट्ठ के मनुष्य । एक ही स्वभाव और रुचि के लोग । एक ही मेल के आदमी । एक ही विचार के लोग । चट्टी बट्टी लड़ाना = इधर की उधर लगाकर लड़ाई करना । चुटकुला छोड़ना । ऐसी बात कहना जिसमें कुछ लोग आपस मे लड़ जायाँ । जैसे,—तुम्हें बहुत चट्टे बट्टे लडा़ना आता है ।
⋙ चट्टी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. टिकान । पड़ाव मंजिल । उ०— सो कहु आगे द्विप लखाई । तहँ एकक चट्टी परम सुहाई ।— रघुराज (शब्द०) । २. फर्रु खाबाद के जिले में पैर में पहनने का एक गहना ।
⋙ चट्टी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा या अनु० चटचट ] एँड़ी की और खुला हुआ जूता । स्लिपर । चटी ।
⋙ चट्टी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाट (= चपत)] हानि । घाटा । टोटा । मुहा०—चटटी भरना = हानि पूरी करना । २. दंड़ । जुरमाना । मुहा०—चटटी धरना = दंड़ लगाना ।
⋙ चट्ट (१)
वि० [हिं० चाट] स्वादलोलुप । चटोरा ।
⋙ चट्टू (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चट्टान या अनु० । चट] पत्थर का बड़ा खरल ।
⋙ चट्टू (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चाटना] १. काठ का एक खिलौना जिसे लड़के मुँह में ड़ालकर चाटते हैं ।
⋙ चट्टू (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की दूब जिसे खुरैया भी कहते हैं ।
⋙ चड़
संज्ञा [अनु०] सुखी लकड़ी आदि के फटने का शब्द । विशेष—चट पट आदि शब्दों के समान इसका प्रयोंग भी 'से'विभक्ति के साथ ही क्रि० वि० वत् होता है, अतः इसके लिंग का विचार व्यर्थ है ।
⋙ चड़कपूजा
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरखपूजा] दे० 'चरखपूजा' ।
⋙ चड़चड़
संज्ञा पुं० [अनु०] सूखी लकड़ी के टूटने या जलने का शब्द ।
⋙ चड़बड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] टें टे । बक बक । निरर्थक प्रलाप । मुहा०—चड़बड़ चड़बड़ करना = बकवाद करना ।
⋙ चड़स
संज्ञा पुं० [हिं० चरस] दे० 'चरस' । उ०—अलक डोरि तिल चड़स वो निरमल चिबुक निवाँण । सींचै नित माली समर प्रेम बाग पहचाँण ।—बाँकी०, ग्रं०, भा०, ३, पृ० ३६ ।
⋙ चड़सी
संज्ञा पुं० [हिं० चरस] चरस पीनेवाले लोग । चरसी ।
⋙ चड़ाक (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी वस्तु के टूटने का या फूटने या फटने से होनेवाला शब्द ।
⋙ चड़ाक (३)
वि० [आनुध्व०] भग्न । भंजित । उ०—रस का परिपाक हो गया । चढ़ता चाप चड़ाक हो गया ।—साकेत, पृ०, ३५६ ।
⋙ चड़ाना पु
क्रि० सं० [हिं० चढ़ाना] दे० 'चढ़ाना' । उ०—धरि आनए बाँभन बरुआ मँथा चड़ावए गाइक चुड़ुआ ।—किर्ति०, पृ० ४४ ।
⋙ चड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० चरण ?] वह लात जो उछलकर मारी जाय । क्रि० प्र०—जमाना ।—मारना ।—लगाना ।
⋙ चड्डा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] जाँघ की जड़ । जंघे का ऊपरी भाग ।
⋙ चड़्डा (२)
वि० [सं० जड़] गावदी । मूर्ख ।
⋙ चड्डी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का लंगोट । २. बच्चों । की जाँघिया ।
⋙ चड़ढना पु
क्रि० अ० [हिं० चढ़ना] दे० 'चढ़ाना' । उ०—बिन मग्ग सकै पंछी न चड़ढ ।—ह० रासी,
⋙ चड़ढी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] लड़कों का वह खेल जिसमें एक लड़का दूसरे की पीठ पर चढ़कर चलाता है । इसमें जो लड़का हारता है, उसी की पीठ पर सवारी की जाती है । क्रि० प्र०—चढ़ना । मुहा०—चड़्ढी गाँठना = सवार होना । सवारी करना । चड़ढी देना = (१) हारकर पीठ पर चढाना । (२) गुदामैथुन कराना । २. कच्छा । कछौटी ।
⋙ चढ़उतर
संज्ञा स्त्री० [चढ़ना + उतरना] चढ़ना उतरना । आवा- जाही । आना जाना । उ०—ऋतुऔं की चढ़ उत्तर किंतु तुममें तूफान उठा कब पाई ?—हिम०, पृ० ७७ ।
⋙ चढ़त
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ाना] किसी देवता की चढाई हुई वस्तु । देवता की भेंट ।
⋙ चढ़ता
वि० [हि० चढ़ना] १. निकलता और ऊपर आता हुआ । बराबर ऊपर की ओर जाता हुआ । जैसे,—चढता चाँद । २. आरंभ होका ओर बढ़ता हुआ । अग्रसर होता हुआ । जैसे,—चढ़ती जवानी, चढती बैस ।
⋙ चढ़ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] १. दे० 'चढ़त' । २. अभ्युदय । उन्नति । उ०—पूँजी पाई साच दिनोदिन होती बढ़ती । सतगुरु के परताप भई है, दोलत चढ़ती । पलटू०, भा० १. पृ० ३९ । यौ०—चड़ती कला = उभारता या निखरता हुआ सौंदर्य । उ०— और उस मुई बेसवा की इस जमाने में ऐसी चढ़ती कला थी और रती बुलंद जो कहती थी वहिं यह करते थे ।—सैर०, पृ० १४ ।
⋙ चढ़न पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] चढ़ने की क्रिया या भाव ।
⋙ चढ़नदार
संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ाना + फा० दार (प्रत्य०)] वह मनुष्य जिसे व्यापारी गाड़ी, नाव आदि पर माल के साथ रक्षा के लिये भेजते हैं ।—(लश०) ।
⋙ चढ़ना
क्रि० अं० [सं० उच्चालन, प्रा० उच्चडन, चनड़्ढ] नीचे से ऊपर को जाना । ऊँचे स्थान पर जाना । 'उतरना' का उलटा । जैसे,—सीढ़ी पर चढना । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—सूरज या चाँद का चढ़ना = सूर्य या चंद्रमा का उदय हो कर क्षितिज के ऊपर आना । दिन चढ़ना = (१) दिन का प्रकाश फैलना । (२) दिन या काल व्यतीत होना । जैसे,— चार घड़ी दिन चढ़ा । वि० दे० 'दिन' । २. ऊपर उठना । उड़ना । उ०—गगन चढै़ रज पवन प्रसंगा । तुलसी (शब्द०) । ३. नीचे तक लटकती हुई किसी वस्तु का सिकुड़ या खिसककर ऊपर की ओर हो जाना । ऊपर की ओर सिमटना । जैसे—आस्तीन चढ़ना, बाहीं चढ़ना, पायजामा चढ़ना, फायँचा चढ़ना, मोहरी चढ़ना । ४. एक वस्तु के ऊपर दूसरी वस्तु का सटना । आवरण के रूप में लगाना । ऊपर से टँकना । मढ़ा जाना । जैसे,—किताब पर जिल्द या कागज चढ़ाना, छाते पर कपड़ा चढ़ाना, तकिए पर खोल या गिलाफ चढ़ना, गोट चढ़ना । ५. उन्नत्ति करना । बढ़ना । मुहा०—चढ बढ़कर या बढ़ चढ़कर होना = श्रेष्ठ होना । अधिक महत्व का होना । चढ़ा बढ़ा या नढ़ा चढ़ा होना = श्रेष्ठ होना । अधिक बड़ा या अच्छा होना । अधिक होना । विशेष होना । चढ़ बनाना = मनोरथ सफल होना । सुयोग मिलना । लाभ का अवसर हाथ आना । जैसे,—उनकी आजकल खूब चढ़ बनी है । चढ़ बजना = बात बनना । पौ बारह होना । खूब चलती होना । उ०—अधर रस मुरली लूटि करावति । आपुन बार बार लै अँचवति जहाँ तहाँ ढ़रकावति । आजु महा चढ़ि बाजी वाकी जोई कोई करै बिराजै । कारि सिंहासन बैठि अधर सिर छत्र धरे वह गाजै ।—सूर (शब्द०) । ६. (नदी या पानी का) बाढ़ पर आना । बढ़ना । जैसे,— (क) बरसात के कारण नगी खूब चढ़ी थी । (ख) आज तीन हाथ पानी चढ़ा । ७. आक्रमण करना । धावा करना । चढ़ाई करना । किसी शत्रु से लड़ने के लिये दल बल सहित जाना । क्रि० प्र०—आना ।—जाना ।—दौड़ना । ८. बहुत से लोगों का दल बाँधकर किसी काम के लिये जाना । साज बाज के साथ चलना । गाजे बाजे के साथ कहीं जाना । उ०—आपके साथ मैं सारे इंदरलोक को समेट कुँवर उदयभान को ब्याहने चढ़ूँगा ।—इंशाअल्ला (शब्द०) । ९. महँगा होना । भाव का बढ़ना । जैसे,—आज कल घी बहुत चढ़गया है । १० स्वर का तीव्र होना । सुर ऊँचा होना । आवाज तेज होना । ११. नदी या प्रवाह में उस ओर को चलना, जिधर से प्रवाह आता हो । धारा का बहाव के विरुद्ध चलना । १२. ढोल, सितार आदि की डो़री या तार का कस जाना । तनना । जैसे,—ढ़ोल चढ़ना, ताश चढ़ना । मुहा०—नस चढ़ना = नस का अपने स्थान से हट जाने के कारण तन जाना । १३. किसी देवता, महात्मा आदि को भेंट दिया जाना । देवार्पित । होना । जैसे, माला फूल चढ़ना । बलि चढ़ना । बकारा चढ़ना उ०—बात यह चित से कभी उतरे नहीं । हैं उतरते फूल चढ़ने के लिये ।—चुभते० पृ०, ११ । १४ सवारी पर बैठना । सवारी करना । सवार होना । जैसे—घोड़े पुर चढ़ना । गाड़ी पर चढ़ना । संयो० क्रि०—जाना ।—बैठना । १५. किसी निर्दिष्ट कालविभाग जैसे,—वर्ष, मास, नक्षत्र आदि, का आरंभ होना । जैसे, असाढ़ चढ़ना, महीन चढ़ना, दशा चढ़ना । उ०—(क) चढ़ा असाड़ दुंद घन गाजा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) चढ़ ति दसा यह उतरति जाति निदान । कहउँ न कबहूँ करकस भौंह कमान ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—वार, तिथिया उसल छोटे कालविभाग के लिये 'चढ़ना' का प्रयोंग नहीं होता । १६. किसी के ऊपर ऋण होना । कर्ज होना । पावना होना । जैसे,—(क) व्याज चढ़ना (ख) इधर कई महीनों के बीच में उसपर सैकड़ों रुपये महाजनों के चढ़ गए । १७. किसी पुस्तक, बही या कागज आदि पर लिखा जाना । टँकना । दर्ज होना । (यह प्रयोग ऐली रकम, वस्तु या नाम के लिये होता है जिसका लेखा रखाना होता है ।) जैसे,—(क) ५. रुपए आज आए हैं, वे बही पर चढ़ कि नहीं ? (ख) रजिस्टर पर लड़के का नाम चढ़ गया । १८. किसी वस्तु का बुरा और उद्बेगजनक प्रभाव होना । बुरा असर होना । आवेश होना । जैसे,—क्रोध चढ़ना, नशा चढ़ना, ज्वर चढ़ना । मुहा०—पाप या हत्या चढ़ना = पाप या हत्या के प्रभाव से बुद्धि का ठिकाने न रहना । १९. पकने या आँच खाने के लिये चूल्हे पर रखा जाना । जैसे,— दाल चढ़ना, भात चढ़ना, हाँड़ी चढ़ना, कड़ाह चढ़ना । २०. लेप होना । लगाया जाना । पोता जाना । जैसे,—(अंग पर) दवा चढ़ना, वारनिश चढ़ना, रोगन चढ़ना, रंग चढ़ना । मुहा०—रंग चढ़ना = रंग का किसी वस्तु पर आना । रंग का खिलना । वि० दे० 'रंग' । उ०—सूरदास खल कारी कामरि चढ़त न दूजो रंग ।—सूर (शब्द०) । २१. किसी मामले को लेकर अदालत तक जाना । कचहरी तक मामला ले जाना । जैसे,—चार आदमी जी कह दें, वही मान लो; कचहरी चढ़ने क्यों जाते हो ?
⋙ चढ़पट पु
क्रि० वि० [हिं० चटपट] शीघ्र । जल्दी । वि० दे० 'चटपट' । उ०—सोमेस सुअन विरचंत रन चढ़पट घट भट्टह लुटिहि । इय अयुत बत्त पिष्षत नरह भुजति भार अंनक फुटहि ।—पृ० रा०, १३ ।१४१ ।
⋙ चढ़वाना
क्रि० सं० [हिं० चढ़ाना का प्रे० रूप] चढ़ाने का काम कराना ।
⋙ चढ़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] १. चढ़ने की क्रिया या भाव । २. ऊँचाई की और ले जानेवाली भूमि । वह स्थाना जो आगे की ओर बराबर ऊँचा होता गया हो और जिस पर चलने में पैर कुछ उठाकर रखने के कारण अधिक परिश्रम पड़े । जैसे,—आगे जो कोस की चढ़ाई पड़ती है । ३. शत्रु से लड़ने के लिये दलबल के सहित प्रस्थान । धावा । आक्रमण । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ४. किसी देवता की पूजा का आयोजन । ५. किसी देवता को पूजा या भेंट चढ़ाने की क्रिया । चढ़ावा । कड़ाही । उ०— सूर नंद सो कहत जसोदा दिन आए अब करहु चढ़ाई ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ चढ़ाउ †
संज्ञा पुं० [हिं०चढ़ाव] दे० 'चढ़ाव' ।
⋙ चढ़ाउतरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ाना + उतरना] बार बार चढ़ने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—चढ़ा उतरी लगाना = बार बार चढ़ना उतरना ।
⋙ चढ़ाऊपरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना + ऊपर] एक दूसरे के आगे होने या बढ़ने का प्रयत्न । लाँग डाट । होड़ । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—चढ़ा ऊपरी लगाना=एक दूसरे के आगे होने या बढ़ने का प्रयत्न करना होड़होड़ी करना ।
⋙ चढ़ाचढ़ा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ाचढ़ी] दे० 'चढाचढ़ी' । उ०— ज्यों कुच त्यों ही नितंब चढ़े कुछ त्यों ही नितंब त्यों चातुरई सी । जानी न ऐसी चढ़ाचढ़ी में किहिं धौं कटि बीच ही लूटि लई सी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ०, ८३ ।
⋙ चढ़ाचढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] एक दूसरे से बढ़ जाने का प्रयत्न । होड़ाहो़ड़ी । लागड़ाँट । खींचतान । उ०—देखतै बनी है दुहूँ दल ती चढ़ाचढ़ी मैं राम दृग हूँ पै नेकु लाली जो चढै लगी ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ चढ़ान
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] दे० 'चढ़ानी' । यौ०—सीधी चढ़ान = वह चढ़ाई जिसमें झुकाव या तिरछापन न हो ।
⋙ चढ़ाना
क्रि० स० [हिं० चढ़ाना का प्रे० रूप] १. नीचे से ऊपर ले जाना । ऊँचाई पर पहुँचाना । जैसे,—यह चारपाई ऊपर चढ़ा दो । क्रि० प्र०—देना ।—लेना । २. चढ़ने का काम कराना । चढ़ने में प्रवृत्त करना । जैसे,— उसे व्यर्थ पेड़ क्यों चढ़ाते हो, गिर पड़ेगा । क्रि० प्र०— देना । ३. नीचे तक लटकती हुई वस्तु को सिकोड़ या खिसकाकरऊपर की ओर ले जाना । ऊपर की ओर समेटना । जैसे,— आस्तीन चढ़ाना, मोहरी चढ़ाना । धोती चढ़ाना । क्रि० प्र०—देना ।—लेना । ४. आक्रमण कराना । धावा कराना । चढ़ाई कराना । दूसरे को आक्रमण में प्रवृत्त करना । मुहा०—चढ़ा लाना = आक्रमण या चढ़ाई के लिये किसी को दल बल सहित साथ लाना । जैसे,—वह नादिरशाह को दिल्ली पर चढ़ा लाया । ५. महँगा करना । भाग बढ़ाना । ६. स्वर तीव्र करना । सुर ऊँचा करना । आवाज तेज करना । ७. ढ़ोल सितार आदि की ड़ोरी को कसना या तानना । ८. किसी देवता या महात्मा आदि को भेंट देना । देवार्पित करना । नजर रखना । जैसे, फूल चढ़ाना, मिठाई चढ़ाना । ९. सवारी पर बैठाना । सवार कराना । जैसे,—घोड़े पर चढ़ाना, गाड़ी पर चढ़ाना । १०. चटपट पी जाना । गले से उतार जाना । जैसे,—वह आज एक लोटा भाँग चढ़ा गया । विशेष—शिष्टता के व्यवहार में इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग नहीं होता । इसमें पीनेवाले पर अधिक पी जाने आदि का आरोप व्यंग या विनोद के अवसर पर ही होता है । ११. किसी के माथे ऋण निकालना । किसी को देनदार ठहराना । जैसे,—उसके ऊपर क्यों इतना कर्जा चढ़ाते जाते हो ? १२. किसी पुस्तक, बही कागज आदि पर लिखना । टाँकना । दर्ज करना । (यह प्रयोग किसी ऐसी रकम, वस्तु या नाम के लिये होता है जिसका लेखा रखना होता है) । जैसे,—इन रुपयों को भी बही पर चढ़ा लो । १३. पकने या आँच खाने के लिये चूल्हे पर रखना । जैसे,—दाल चढ़ाना, हाँड़ी चढ़ाना । १४. लेप करना । लगाना । पोतना । जैसे,—माथे पर चदन चढ़ाना, दवा चढ़ाना, कपड़े पर रंग चढ़ाना । १५. एक वस्तु के ऊपर दूसरी वस्तु सटाना । मढ़ना । ऊपर से लगाना । आवरण रूप में लगाना । ऊपर से टाँकना । जैसे—जिल्द चढ़ाना, कि ताब पर कागज चढ़ाना, छाते पर कपड़ा चढ़ाना, खोल या गिलाफ चढ़ाना, गोट चढ़ाना । १६. सितार, सारंगी, धनुष आदि में तार या ड़ोरी कसकर बाँधना । जैसे—रोदा चढ़ाना । मुहा०—धनुष चढ़ाना = धनुष की कोटि पर पतंचिका चढ़ाना । धनुष की ड़ोरी को तानकर छोर पर बाँधना या अटकाना । वि० दे० 'धनुष' ।
⋙ चढ़ानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०चढ़ाना] ऊँचाई की ओर ले जानेवाली सतह । वह स्थान जो आगे की ओर बराबर ऊँचा होता गया हो, और जिसपर चलने में अधिक परिश्रम पड़े । जैसे,—आगे उस पहाड़ की बड़ी कड़ी चढ़ानी है ।
⋙ चढ़ाव
संज्ञा पुं० [हिं०चढ़ाना] १. चढ़ने का भाव । यौ०—चढ़ाव उतार = ऊँचा नीचा स्थान । ऐसा स्थान जहाँ बार बार चढ़ना और फिर उतरना पड़ता हो । २. बढ़ने का भाव । उत्तरोत्तर अधिक होने ता भाव । । वृद्धि । बाढ़ । जैसे,—पानी का चढ़ाव, नदी का चढ़ाव । यौ०—चढ़ाव उतार = एक सिरे पर मोटा और दूसरे सिरे की और क्रमशः पतला होते जाने का भाव । गायदुम आकृति । जैसे,—इस छड़ी का चढ़ाव उतार देखो । ३. वह गहना जो दूल्हे के घर की ओर से दुलहिन को विवाह के दिन पहनाया जाता है । ४. विवाह के दिन दुलहिन को दूल्हा के यहाँ से आए हुए गहने पहनाने की रीति । उ०— अब मैं गवनब जहाँ कुमारी । करिहौं चढ़न चढ़ाव तयारी ।— रघुराज (शब्द०) ५. दरी के करघे का वह बाँस जो बुननेवाले के पास रहता है । ६. वह दिशा जिधर से नदी या पानी की धारा आई हो । बहाव का उलटा । जैसे,—चढ़ाव पर नाव ले जाने में बड़ी मेहनत पड़ती है ।
⋙ चढ़ावनी पु
वि० [हिं० चढ़ाना] चढ़ानेवाली । पहुँचानेवाली । ले जानेवाली । उ०—प्रेम की पढ़ावनी बढ़ावनी विरति ज्ञान, अंत में चढ़ावनी श्री रामराजधानी में—राम० धर्म०, पृ० २९० ।
⋙ चढ़ावा
संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ाना] १. वह गहना दो दूल्हे की ओर से दुलहिन को विवाह के दिन पहनाया जाता है । उ०—इसके कुछ दिनों पीछे रमानाथ के साथ देवबाला का ब्याह ठीक हो गया, चढ़ावा भी चढ़ गया ।—ठेठ० प० १९ । २. वह सामग्री जो किसी देवता को चढ़ाई जाय । पुजापा । ३. टोटके की वह सामग्री जो बीमारी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिये किसी चौराहे या गाँव के किनारे रख दी जाती है । ४. बढ़ावा । दस । उत्साह । मुहा०—चढ़ाना बढ़ाना देना = जी बढ़ाना । उत्साह बढ़ना । उसकाना । उत्तेजित करना ।
⋙ चढ़ैत
संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ाता + ऐत (प्रत्य०)] चढ़ोनेवाला । सवार होनेवाला ।
⋙ चढ़ैता
संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ाना + ऐता (प्रत्य०)] दूसरों का घोड़ा फेरनेवाला । चाबुक सवार ।
⋙ चढ़ैया पु
वि० [हिं० चढ़ना + ऐसा (प्रत्य०)] चढ़ने या चढ़ानेवाला ।
⋙ चढ़ौआ †
संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ौवा] दे० 'चढ़ावा' ।
⋙ चढ़ौवा
वि० [हिं० चढ़ना] १. उठी हुई एँड़ी का जूता । खड़ी एँडी का जूता । २. चढ़ाना । ३. दे० 'चढावा'—१ ।
⋙ चण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चना [को०] ।
⋙ चण (२)
वि० प्रसिद्ध । ख्यात । जैसे,—अक्षरचण । विशेष—समास में अंतिम पद के रूप में ही इनका प्रयोग मिलता है । संस्कृत व्याकरण के अनुसार चणय् = चण प्रत्यय है । इसका प्रयोग 'निष्णात' या विद्या अथवा विषय में पारंगत या विख्यात अर्थ में होता है ।
⋙ चणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चना । २. एक गोत्रकार ऋषि ।
⋙ चणका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीसी [को०] ।
⋙ चणकात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] चाणक्य ।
⋙ चणद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रोग का नाम । २. क्षुद्र गोक्षुर (को०) ।
⋙ चणपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुदंती नाम का पौधा जिसकी पत्तियाँ चने की पत्तियों के समान होती हैं ।
⋙ चणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक घास जिसके खाने से गाय को दूध अधिक होता है ।विशेष—यह घास औषध के काम में भी आती है और वृष्य तथा बलकारक समझी जाती है ।
⋙ चणिया
संज्ञा पुं० [गुज० चणियो] एक छोटा लहँगा या घाघरा ।
⋙ चतरंग
संज्ञा पुं० [हिं० चतुरंग] दे० 'चतुरंग' ।
⋙ चतर † (१)
वि० [हिं० चतुर] दे० 'चतुर' ।
⋙ चतर पु (२) †
संज्ञा पुं० [सं० छत्र, हिं० छतर] छत्र ।
⋙ चतरना (१)
क्रि० अ० [हिं० छितराना] छितरना । बिखरना ।
⋙ चतराना (२)
क्रि० स० छितराना ।
⋙ चरतभंग
संज्ञा पुं० [सं० छत्रभङ्ग] बैलों का एक दोष, जिसमें उनके ड़िल्ले का मांस एक ओर लटक जाता है । विशेष—जिस बैल में यह दोष हो उसका रखना या पालना हानिकारक और अशुभ समझा जाता है ।
⋙ चतरभांगा
[हिं० वि० चतरभग] (वह बैल) जिसे चतरभंग का रोग हो ।
⋙ चतरोई
संज्ञा स्त्री० [देश०] पाँच छह हाथ ऊँची एक प्रकार की झड़ी विशेष—यह हिमालय में हजारा से नैपाल तक ९००० फुटकी ऊँचाई तक पाई जाती है । इसकी छाल सफेद रंग की होती है और फागुन चैत में इसमें पीले रंग के छोटे फूल लगते हैं । इसकी लकड़ी के रस से एक प्रकार की रसौत बनाते हैं ।
⋙ चतस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० चतस्त्तः] चार । विशेष—संस्कृत में यह शब्द 'चोर' वाचक चतसृ के स्त्री लिंग रूप के प्रथमा बहुवचन का अवशेष है ।
⋙ चतुःपंच
वि० [सं० चतुःपञ्च्च] चार या पाँच [को०] ।
⋙ चतुःपंचाश
वि० [सं०] चौवनवाँ ।
⋙ चतुःपंचाशत्
संज्ञा पुं० [सं०] चौवन की संख्या ।
⋙ चतुःपाद्, चतुःपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चार चरणों से युक्त हो । २. न्यायांग में अभियोगों की जाँच पड़ताल की एक कार्यविधि जिसमें चार प्रकार की प्रक्रियाएँ हों अर्थात् तर्क, पक्षसमर्थन, प्रयुक्ति और निर्णय । ३. धनुर्वेद जिसके ग्रहण, धारण, प्रयोंग और प्रतिकार ये चार चरण हैं । यौ०—चतुःपादसंपत्ति = दे० 'चतुष्पद' ३.—माधव०, पृ०, ५९ ।
⋙ चतुःशफ
वि० [सं०] चार खुरोंवाला [को०] ।
⋙ चतुःशाख
वि० [सं०] चार शाखाओंवाला [को०] ।
⋙ चतुःशाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मकान जिसमें चार बड़े बड़े कमरे हों । २. चौपाल । बैठक । दीवानखाना ।
⋙ चतुःषष्ठ
वि० [सं०] चौंसठवाँ ।
⋙ चतुःषष्ठी
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं०] चौंसठ की संख्या या अंक ।
⋙ चतुःष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुष्टोम' [को०] ।
⋙ चतुःसंप्रदाय
संज्ञा पुं० [सं० चतुःसम्प्रदाय] वैष्णवों के चार प्रधान संप्रदाय—श्री, माध्व रुद्र और सनक ।
⋙ चतुःसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा के चार पुत्र ।—सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार जो विष्णु के अवतार माने जाते हैं [को०] ।
⋙ चतुःसप्तत्
वि० [सं०] चौहत्त रवाँ ।
⋙ चतुःसप्तति
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं०] चौहत्तर की संख्या या अक ।
⋙ चतुःसम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुस्सम' [को०] ।
⋙ चतुःसीमा
संज्ञा देश० [सं०] चारो ओर की सीमा । हद [को०] ।
⋙ चतुठ पु
वि० [सं० चतुष्टय] चारो ओर स्थित रहनेवाला । उ०— चहुवान चतुठ चावद्दिसा ६ । हिंदवान वर भांन विधि ।— गुन रूप सहज लच्छी सु नर सहज बीर बंधी सु सिधि । पृ० रा०, २१ । १५९ ।
⋙ चतुरंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० चतुरङ्ग] १. वह गाना जिसमें चार प्रकार (जैसे, साधारण गाना, सरगम, तराना, और तबले, मृदंग, सितार आदि) के बोल गठे हों । उ०—ग सा रे रे म म प प नि नि स स नि स रे स नि ध प प ध म म नि ध प ध प म ग रे । तनन तनन तुम दिर दिर तूम दिर तारे दानी । सोरठ चतुरंग सप्त सुरन से । धा तिरकिट धुम किट धा तिर किट धुम किट धा तिर किट धुम किट धा । २. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना ।३. चतुरंगिणी सेना का प्रधान अधिकारी । ४. सेना के चार अंग हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल । ४. चतुरंगिणी सेना ।
⋙ चतुरंग † (२)
वि० १. चार अंगोंवाली । चतुरंगिणी (सेना) । उ०— प्रात चली चतुरंग चमू बरनी सों न केशव कैसहु जाई ।— केशव (शब्द०) । २. चार अंगोंवाला ।
⋙ चतुरंग पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर + अड़ग] दूत । चर । उ०— बर अथवंत सु दीह आइ चतुरंग सपन्नौ । मझ्झ महल नृप बोल वंचि कग्गद कर लिन्नौ ।—पृ० रा०, २६ । १४ ।
⋙ चतुरंग (३)
संज्ञा पुं० [सं० चतुरङ्ग] शतरंज का खेल । विशेष—इस खेल के उत्पत्तिस्थान के विषय में लोगों के भिन्न भिन्न मत हैं । कोई इसे चीन देश से निकला हुआ बतलाते हैं, कोई मिस्त्र से और कोई यूनान से । पर अधिकांश लोगों का मत है, और ठीक भी है, कि यह खेल भारतवर्ष से निकला है । यहाँ से यह खेल फारस में गया; फारस से अरब में और अरब से यूरोपीय देशों में पहुँचा । फारसी में इसे चतरंग भी कहते हैं । पर अरबवाले इसे शातरंज, शतरंज आदि कहने लगे । फारस में ऐसा प्रवाद है कि यह खेल नौशेरवाँ के समय में हिंदुस्तान से फारस में गया और इसका निकालनेवाला दहिर का बेटा कोई सस्सा नामक था । ये दोनों नाम किसी भारतीय नाम के अपभ्रंश हैं । इसके निकाले जाने का कारण फारसी पुस्तकों में यह लिखा है कि भारत का कोई युद्धप्रिय राजा, जो नौशोरवाँ का समकालीन था, किसी रोग से अशक्त हो गया । उसी का जी बहलाने के लिये सस्सा नामक एक व्यक्ति ने चतुरंग का खेल निकाला । यह प्रवाद इस भारतीय प्रवाद से मिलता जुलता है कि यह खेल मंदोदरी ने अपने पति को बहुत युद्धसक्त देखकर निकाला था । इसमें तो कोई संदेह नहीं कि भारतवर्ष में इस खेल का प्रचार नौशेरवाँ से बहुच पहले था । चतुरंग पर संस्कृत में अनेक ग्रंथ हैं, जिनमें से चतुरंगकेरली, चतुरंग- क्रीड़न, चतुरंगप्रकाश और चतुरंगविनोद नामक चार ग्रंथ मिलते हैं । प्रायः सात सौ वर्ष हुए त्रिभंगचार्य नामक एक दक्षिणी विद्वान् इस बिद्या में बहुत निपुण थे । उनके अनेकउपदेश इस क्रीड़ा के संबंध में हैं । इस खेल में चार रंगों का व्यवहार होता था—हाथी, घोड़ा, नौका, और बट्टे (पैदल) । छठी शताब्दी में जब यह खेल फारस में पहुँचा और वहाँ से अरब गया, तब इसमें ऊँट और वजीर आदि बढ़ाए गए और खेलने की क्रिया मे भी फेरफार हुआ तिथितत्व नामक ग्रंथ में वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर को इस खेल का जो विवरण बताया है, वह इस प्रकार है,—चार आदमी यह खेल खेलते थे । इसका चित्रपट (बिसात) ६४ घरों का होता था जिसके चारो ओर खेलनेवाले बैठते थे । पूर्व और पश्चिम बैठनेवाले एक दल में और उत्तर दक्षिण बैठनेवाले दूसरे दल में होते थे । प्रत्यक खिलाड़ी के पास एक राजा, एक हाथी, एक घोड़ा, एक नाव और चार बट्टे या पैदल होते थे । पूर्व की ओर की गोटीयाँ लाल, पश्चिम की पीली, दक्षिण की हरी और उत्तर की काली होती थीं । चलने की रीति प्रायः आज ही कल के ऐसी थी । राजा चारों ओर एक घर चल सकता था । बट्टे या पैदल यों तो केवल एक घर सीधे जा सकते थे, पर दूसरी गोटी मारने के समय एक घर आगे तिरछे भी जा सकते थे । हाथी चारों ओर (तिरछे नहीं) चल सकत था । घोड़ा तीन घर तिरछे जाता था । नौका दो घर तिरछे जा सकती थी । मोहरे आदि बनाने का क्रम प्राय; वैसा ही था, जैसा आजकल है । हार जीत भी कई प्रकार की होती थी । जैसे,—सिंहसन, चतुराजी, नृपाकृष्ट, षट्पद काककाष्ट, बृहन्नौका इत्यादि ।
⋙ चतुरंगिक
संज्ञा पुं० [सं० चतुरङ्गिक] एक प्रकार का घोड़ा जिसके माथे पर चार भौंरी होती है [को०] ।
⋙ चतुरंगिणी (१)
वि० स्त्री० [सं० चतुरङ्गिणी] चार अंगोंवाली (विशेषतः सेना) ।
⋙ चतुरंगिणी (२)
संज्ञा स्त्री० वह सेना जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदल, ये चारे अंग हों ।
⋙ चतुरंगिनी पु
वि०, संज्ञा स्त्री० [चतुरङ्गिणी] दे० 'चतुरंगिणी' ।
⋙ चतुरंगी पु
वि० [सं० चतुरङ्गिन्] १. जिसकी गति चारो ओर हो । २. चतुर । उ०— चित्रनहारे चित्रि तूं रे चतुरंगी नाह । का चहुआन सु कित्ति कवि मन मनुछत्र हरि लाह ।—पृ०, रा०, १ । ७६६ ।
⋙ चतुरंगल (१)
संज्ञा पुं० [सं० चतुरङ्गुल] अमलतास ।
⋙ चतुरंगुल (२)
वि० चार अंगुल लंबा या चौड़ा [को०] ।
⋙ चतुरंगुला
संज्ञा स्त्री० [पुं० चतुरङ्गुला] शीतली लता ।
⋙ चतुरंत (१)
वि० [सं० चतुरन्त] चौतरफा किनारेवाला [को०] ।
⋙ चतुरंत (१)
संज्ञा पुं०, स्त्री० पृथिवी ।
⋙ चतुरंता
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुरन्ता] पृथिवी [को०] ।
⋙ चतुर (१)
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री० चतुरा] १. टेढी चाल चलनेवाला । वक्रगामी । २. फुरतीला । तेज । जिसे आलस्य न हो ३. प्रवीण । होशियार । निपुण । उ०—कवि न होउँ नहिं चतुर प्रवीनू । सकल कला सब विद्या हीनू । ४. धूर्त । चालाक । ५. सुंदर (को०) ।
⋙ चतुर (२)
संज्ञा पुं० १. शृंगार रस में नायक का एक भेद । वह नायक जो अपनी चातुरी से प्रेमिका के संयोंग का साधन करे । इसके दो भेद हैं—क्रियाचतुर और वचनचतुर । २. वह स्थान जहाँ हाथी रहती हों । हाथीखाना । ३. नृत्य मे एक प्रकार की चेष्टा । ४. वक्र गति । टेढ़ी चाल (को०) । ५. धूर्तता । प्रवीणता । होशियारी (को०) । ६. गोल तकिया (को०) ।
⋙ चतुरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चतुराई] चतुरता । चतुराई । क्रि० प्र०—करना ।—दिखाना ।—सीखना । मुहा०—चतुरई छोलना = चालाकी करना । धोखा देना । उ०— जाहु चले गुन प्रकट सूर प्रभु कहाँ चतुरई छोलत हैं ।—सूर (शब्द०) । चतुराई तौलना = चालाकी करना । उ०—बहु- नायकी आजु मैं जानी कहा चतुरई तौलत हों ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चतुरक
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर ।
⋙ चतुरक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताल जिसमें दो दो गुरु, दौ प्लुत और इनके बाद क गुरु होता है । यह ३२ अक्षरों का होता है और इसका व्यवहार शृंगार रस में होतता है ।
⋙ चतुरजाति
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर्जातक] सं० 'चतुर्जातक' ।
⋙ चतुरता
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर + ता (प्रत्य०)] चतुर का भाव । चतुराई । प्रवीणता । होशियारी ।
⋙ चतुरथी पु
वि० [सं० चतुर्थ] दे० 'चतुर्थ' । उ०—आकाश चतुरथी तत्त बनाया ।—प्राण० पृ०, ३९ ।
⋙ चरतुनीक
संज्ञा पुं० [सं०] चतुरानन । ब्रह्मा ।
⋙ चतुरपन †
संज्ञा पुं० [हिं० चतुर + पन] चतुराई । चतुरता चतुराई ।
⋙ चतुरबीज पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्बीज] दे० 'चतुर्बीज' ।
⋙ चतुरभुज पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्भुज] दे० 'चतुर्भुज' ।
⋙ चतुरमास पु
संज्ञा पुं० [सं० चातुर्मांस] दे० 'चातुर्मास ।
⋙ चतुरमुख पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्मुख] दे० 'चतुर्मुख' ।
⋙ चतुरम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अलमबेत, इमली, जँबीरी और कागजी नीबू, इन चार खटाइयों का समूह ।—(वैद्यक) ।
⋙ चतुरशीति
वि० [सं०] चौरासी ।
⋙ चतुरवर पु
वि० चतुर लोगों में श्रेष्ठ । उ०—कोइक दिन गुरु राम पै पढ़ी सु विद्दा अप्प । चवदसु विद्या चतुरवर सीख लई पट लिप्प ।—पृ० रा०, १ । ७२९ ।
⋙ चतुरश्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मसंतान नामक केतु । २. ज्योतिष में चौथी या आठवीं राशी । ३. दे० 'चतुरस्त्र' (को०) ।
⋙ चतुरश्र (२)
वि० जिसके चार कोने हों । चौकोर ।
⋙ चतुरसम †
संज्ञा पुं० [सं० चतुस्सम] दे० 'चतुस्सम' । उ०—मंगलमय निज निज भवन लोगन रचे बनाय । बीथी सींची चतुरसम चौकें चारु पुराय ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चतुरस्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तिताला ताल जिसमें क्रम से एक गुरु (गुरु की दो मात्राएँ), एक लघु (लघु की एक मात्रा), एक प्लुत (प्लुत की तीन मात्राएँ) होता है । इसका बोल यह है—थरिकुकु थाँ थाँ धिगदाँ । धिधि धिमि धिधि गन थों थों डे । २. नृत्य में एक प्रकार का हस्तका । ३ चतुर्भुज क्षेत्र (को०) । ४. ज्योतिष में चौथी या आठवीं राशी (को०) । ५. ब्रह्मसंतोष नामक केतु (को०) ।
⋙ चतुरस्र
वि० १. चतुष्कोण (माणिक्य की एक विशेषता) । २. सर्वांगीण [को०] । यौ०—चतुरस्र पांड़ित्य = सर्वतोमुखी ज्ञान या विद्वत्ता ।
⋙ चतुरह
संज्ञा पुं० [सं० चतुरहन्] १. वह याग जो चार दिनों में हो । २. चार दिन ता समय या काल [को०] ।
⋙ चतुरा † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नृत्य में धीरे—धीरे भौंह कँपाने की क्रिया ।
⋙ चतुरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चतुर] [स्त्री० चतुरी] १. चतुर । प्रवीण । २. धूर्त । चालाक ।
⋙ चतुराई
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर + आई (प्रत्य०)] १. होशियारी । निपुणता । दक्षिण । २. धूर्तता । चालाकी ।
⋙ चतुरात्मा
संज्ञा पुं० [सं० चतुरा्त्मन्] १. ईश्वर । २. विष्णु ।
⋙ चतुरानन
संज्ञा पुं० [सं०] चार मुखवाले । ब्रह्मा । यौ०—चतुरानन का अस्त्र = ब्रह्मास्त्र ।
⋙ चपुरापन †
संज्ञा पुं० [हिं० चतुरा + पन (प्रत्य०)] चतुराई । होशियारी । उ०—फिर बात चले चतुरापन की चित चाव चढ्यौ सुधि बार दई ।—रघुनाथ (शब्द०) ।
⋙ चतुराम्ल
संज्ञा पुं० [सं० चतुरम्ल] दे० 'चतुरम्ल' ।
⋙ चतुराश्रम
संज्ञा पुं० [चतुर + आश्रम] जीवन के चारों आश्रम— ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास ।
⋙ चतुरिंद्रिय
संज्ञा पुं० [सं० चतुर + इन्द्रिय] चार इंद्रियोंवाले जीव । विशेष—प्राचीन काल के भारतवासी मक्खी, भौंरे, साँप आदि की श्रवणेंद्रिय नहीं मानते थे; इसी से उन्हें चतुरिंद्रिय कहते थे ।—(वैद्यक) ।
⋙ चतुराशी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुरशीति] दे० 'चौरासी' । उ०— चतुराशी के दुःख नहीं कछु बरने जाँहीं ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ८ ।
⋙ चतुरासीत पु
वि० [सं० चकतुरशीति] दे० 'चौरासी' । उ०—कला बहत्तर करि कुसल अति निबद्ध जिय जानि । हेत आदि जानन निपुन चतुरसीत विग्यान ।—पृ०, रा०, १ ।७३८ ।
⋙ चतुरी
संज्ञा [देश०] पुराने ढ़ंग की एक प्रकार की पतली नाव जो प्रायः एक ही लकड़ी में खोदकर या और किसी प्रकार से बनाई जाती है ।
⋙ चतुरुपण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार सोंठ, मिर्च, पीपर और पिपरामूल, इन चार गरम पदार्थों का समूह ।
⋙ चतुर (१)
वि० [सं० चतः चतुर्] चार ।
⋙ चतुर् (२)
संज्ञा पुं० चार की संख्या । विशेष—हिंदी में इसका प्रयोग केवल समस्त पदों ही में होता है । जैसे—चतुरंगिणी, चतुरानन ।
⋙ चतुगीति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कछुआ । २. विष्णु । ३. ईश्वर ।
⋙ चतुगंव
संज्ञा पुं० [सं०] चार बैलों द्वारा जीती जानेवाली गाड़ी [को०] ।
⋙ चतुर्गुण
वि० [सं०] १. चौगुना । २. चार गुणोंवाला ।
⋙ चतुर्जातक
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार इलायचो (फल), दारचीनी (छाल), तेजपत्ता (पत्ता), और नागकेसर (फूल) इन चार पदार्थो का समूह ।
⋙ चतुर्णवत्
वि० [सं०] चौरानबेवाँ ।
⋙ चतुर्णवति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौरानबे की संख्या ।
⋙ चतुर्णवति (२)
वि० चौरानबे ।
⋙ चतुर्थ (१)
वि० [सं०] चार की संख्या पर का । चौथा । जैसे,—चतुर्थ परिच्छेद ।
⋙ चतुर्थ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तिताला ताल ।
⋙ चतुर्थक
संज्ञा पुं० [सं०] वह बुखार जो हर चौथे दिन आए । चौथिया बुखार ।
⋙ चतुर्थकाल
संज्ञा पुं० [सं०] शास्त्र के अनुसार वह काल जिसमें भोजन करने का विधान है । दोपहर या उसके लगभग का समय । भोजन का समय ।
⋙ चतुर्थभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्थ काल' ।
⋙ चतुर्थभाज
वि० [सं०] वह जो प्रजा के उत्पन्न किए हुए अन्न आदि में से कर स्वरूप एक चौथाई अंश ले ले । राजा । विशेष—मनु के मत से कोई विशेष आवश्यकता या आपत्ति आ पड़ने के समय, केवल प्रजा के हितकर कामों में ही लगाने के लिये, राजा को अपनी प्रजा से उसकी उपज का एक चौथाई तक अंश लेने का अधिकार है ।
⋙ चतुर्थांश
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्थ + अंश] १. किसी चीज के चार- भागों में से एक । चौथाई । २. चार अंशों में से एक अंश का अधिकारी । एक चौथाई का मलिक ।
⋙ चतुर्थांशी
वि० [सं० चतुर्थ + अंशिन्] चौथा भाग पानेवाला [को०] ।
⋙ चतुर्थाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] संन्यास ।
⋙ चतुर्थिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्थिकर्मन्] दे० 'चतुर्थी' ।
⋙ चतु्र्थिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक का एक परिमाण जो चार कर्ष के बराबर होता है । पल ।
⋙ चतुर्थी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी पक्ष की चौथी तिथि । चौथ । विशेष—(क) इस तिथि की रात, और किसी किसी के मत से रात के पहले पहर में अध्ययन करना शास्त्रों में निषिद्ध बतलाया गया है । (ख) भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीं को चंद्रमा के दर्शन करने का निषेध है । कहते हैं, उस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से किसी प्रकार का मिथ्या कलंक या अपवाद आदि लगता है । २. वह विशिष्ट कर्म जो विवाह के चौथे दिन होता है और जिससे पहले वरवधू का संयोग नहीं हो सकता । गंगा प्रभृति नदियों और ग्रामदेवता आदि का पूजन इसी के अंतर्गत है । ३. एक रसम जिसमें किसी प्रेतकर्म करनेवाले के यहाँ मुत्यु से चौथे दिन बिरादरी के लोग एकत्र होते हैं । चौथा । ४. एक तांत्रिक मुद्रा । ५. संस्कृत में व्याकरण में संप्रदान में लगनेवाली विभक्ति (को०) ।
⋙ चतुर्थी (२)
संज्ञा पुं० तत्पुरुष समास का भेद जिसमें संप्रदान की विभक्ति लुप्त रहती है [को०] ।
⋙ चतुर्थी क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चतुर्थी'—३ [को०] ।
⋙ चतुर्थी तत्पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्थी (२)' ।
⋙ चुतुर्थीविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौथा वेद । अथर्ववेद । उ०—किंतु हमारी विशिष्ट दृष्टि में चतुर्थी विद्या अर्थात् अथर्ववेद भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ।—सं० दरिया, पृ० ५५ ।
⋙ चतुर्दंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. कार्तिकेय की सेना । ३. एक राक्षस का नाम ।
⋙ चतुर्दंत
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत हाथी, जिसके चार दाँत हैं ।
⋙ चतुर्दश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चौदह ।
⋙ चतुर्दश (२)
वि० दे० 'चतुर्दश' । उ०—धूरिहि ते यह तन भयो, धूरिहि सों ब्रह्मांड । लोक चतुर्दश धूरि के सप्त दीप नवखंड़ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १७६ ।
⋙ चतुर्दशपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंग्रेजी की एक विशेष प्रकार की कविता, जिसमें चौदह चरण होते हैं । उक्त भाषा में इसे सानेट कहते हैं ।
⋙ चतुर्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पक्ष की चौदहवीं तिथि । चौदस ।
⋙ चतुर्दिक् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चारो दिशाएँ ।
⋙ चतुर्दिक (२)
क्रि० वि० चारो ओर ।
⋙ चतुर्दिश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चारो दिशाएँ ।
⋙ चतुर्दिश (२)
क्रि० वि० चारो ओर ।
⋙ चतुर्दोंल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार ड़ंड़ों का हिंड़ोला या पालना । २. वह सवारी जिसे चार आदमी कंधों पर उठावें । जैसे,— पालकी, नालकी, आदि । ३. चंड़ोल नाम की सवारी ।
⋙ चतुर्द्दल (१)
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्दल] जिसमें चारदल या चार पंखुरिया हों । उ०—शिव प्रथम चक्र आधार जानि । तहाँ अक्षर चारि चतुर्द्द लानि । सुंदर० ग्रं०, भाग १, पृ० ४५ ।
⋙ चतुद्विर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह घर जिसमें चारो ओर दरवाजे हों । २. चार दरवाजेवाला घर (को०) ।
⋙ चतुर्धा
अव्य० [सं०] चार तरह से । चार प्रकार से । उ०— श्री कृष्ण भगवान् का लोक एक होकर भी लीला भेद से चतुर्धा प्रकाशित होता है ।—पोद्दार अभिनय, पृ०, ६३७ ।
⋙ चतुधार्म
संज्ञा पुं० [सं०] चारो धाम । चार मुख्य तीर्थ । वि० दे 'धाम' ।
⋙ चतुर्बाहु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । महादेव । २. विष्णु ।
⋙ चतुर्बाहु (२)
वि० चार भुजाओंवाला [को०] ।
⋙ चतुर्बिंस
वि० [सं० चतुर्विंश] चौबीस । उ०—चतुर्बिंस अध्याय यह कोउ चतुर सुनिहै जु । जै दिन बीतै अनसुने, तिन कौं सिर धुनिहै जु ।—नंद० ग्रं०, पृ०, ३०७ ।
⋙ चतुर्बीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्वीज' [को०] ।
⋙ चतुर्भद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों का समुच्चय ।
⋙ चतुर्भद्र (२)
वि० [सं०] [स्त्री० चतुर्भुजा] चार भुजाओंवाला । जिसमें चार भुजाएँ हों ।
⋙ चतुर्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ चतुर्भुज
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. वहक्षेत्र जिसमें चार भुजाएँ ओर चार कोण हों । जैसे, यौ०—सम चतुर्भुज = चार भुजाओं वाला वह क्षेत्र जिसमें चार समकोंण हों और जिसकी चारो भुजाएँ समान हों । जैसे,—
⋙ चतुर्भुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक विशिष्ट देवी । २. गायत्री रूप- धारिणी महाशक्ति ।
⋙ चतुर्भुजी (१)
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्भुज + ई (प्रत्य०)] १. एक वैष्णव सप्रदाय जिसके आचार व्यवहार आदि रामानंदियों से मिलते जुलते होते हैं । विशेष—लोग कहते हैं, इस संप्रदाय के प्रवर्तक किसी साधु ने एक बार चार भुजाएँ धारण की थीं, इसी से उसके संप्रदाय का नाम चतुर्भुजी पड़ा । २. इस संप्रदाय का अनुयायी ।
⋙ चतुर्भुजी (२)
वि० चार भुजाओंवाला । जैसे,—चतुर्भुजी मूर्ति ।
⋙ चतुर्मास
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्मास] बरसात के चार महीने । अषाढ, सावन, भादों और कुआर का चौमसा ।
⋙ चतुर्मुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चौताला ताल जिसमें क्रम से एक लघु (लघु की एक मात्रा), एक गुरु (गुरु की दो मात्राएँ),एक लघु (लघु की एक मात्रा) और एक प्लुत (प्लुत की तीन) मात्रा होती है । इसका बोल यह है—तांह । तकि तकि तांह/?/थकि थरि । तकि तकि दिधि गन थोंड़े । २. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा । ३. विष्णु ।
⋙ चतुर्मुख (२)
वि० [स्त्री० चतुर्मुखी] जिसके चार मुख हों । चार मुँहवाला ।
⋙ चतुर्मुख (३)
क्रि० वि० चारों ओर ।
⋙ चतुर्मूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] विराट्, सूत्रात्मा, अध्याकृत और तुरीय इन चारो अवस्थाओं में रहनेवाला, ईश्वर ।
⋙ चतुर्मेध
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने चार बलिदान किए हों । चारो के नाम ये हैं—अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध तथा पितृमेध [को०] ।
⋙ चतुर्युग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्युगी' [को०] ।
⋙ चतुर्युगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चारों युगों ता समय । उतना समय जितने में चारों युग एकवार बीत जायँ । ४३२०००० वर्ष का समय । चौजुगी । चौकड़ी ।
⋙ चतुर्वक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] चार मुँहवाले, ब्रह्मा ।
⋙ चतुर्वर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ।
⋙ चतर्वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण क्षत्रिय वेश्य और शूद्र ।
⋙ चतुर्वाही
संज्ञा पुं० [सं०] चार घोड़ों की गाड़ी । चौकड़ी ।
⋙ चतुर्विध (१)
वि० [सं०] चार रूपोंवाला । चौतरफा [को०] ।
⋙ चतर्विध (२)
क्रि० वि० चार रूपों में [को०] ।
⋙ चतुर्विंश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का याग ।
⋙ चतुर्विंश (२)
वि० चौबीसवाँ ।
⋙ चतुर्विंशति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौबीस ।
⋙ चतुर्विद्य
वि० [सं०] चारो वेदों का ज्ञाता [को०] ।
⋙ चतुर्विद्या (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चारों वेदों की विद्या ।
⋙ चतुर्विद्या (२)
चारो वेद जाननेवाला ।
⋙ चतुर्बीज
संज्ञा पुं० [सं० चतुर् + वीज] काला जीरा, अजवाइन, मेथी, और हलिम इन चार प्रकार के दानों या बीजों का समूह ।—(वैद्यक) ।
⋙ चतुर्वीर
संज्ञा पुं० [सं०] चार दिनों में होनेवाला एक प्रकार का सोम याग ।
⋙ चतुर्वेद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर । ईश्वर । २. चारो वेद ।
⋙ चतुर्वेद (२)
वि० चारों वेद जाननेवाला ।
⋙ चतुर्वेदी
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्वेदिन्] १. चारो वेदों का जाननेवाला पुरुष । २. ब्राह्मणों की एक जाति ।
⋙ चतुर्व्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार मनुष्यों अथवा पदार्थों का समूह । जैसे,—(क) राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न । (ख) कृष्ण, बलदेव, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । (ग) संसार, संसार का हेतु, मोक्ष, और मोक्ष का उपाय । २. विष्णु । विशेष—विष्णुसहस्त्रानाम के भाष्यकार के अनुसार विष्णु के शरीरपुरुष, छंदपुरुष, वेदपुरुष और महापुरुष चार रूप हैं । और पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि के कार्यों के लिये वासु- देव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार रूपों में अवतार लिया था; हसलिये उन्हें चतुर्व्यूह कहते हैं । ३. योग शास्त्र । ४. चिकित्सा शास्त्र ।
⋙ चतुर्हायण, चतुर्हायन
वि० [सं०] १. चार वर्षों का । २. चार बरसों में पैदा हुआ (को०) ।
⋙ चतुर्होता
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर्होतृ । वेद में वर्णित चारो होम करने— वाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ चतुर्होत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर । २. विष्णु ।
⋙ चतुल
संज्ञा पुं० [सं०] स्थापन करनेवाला । स्थापक ।
⋙ चतुश्चक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चक्र जिसके अनुसार तांत्रिक लोग मंत्रों के शुभ या अशुभ होने का विचार करते हैं ।
⋙ चतुश्चत्वारिंश
वि० [सं०] चौवालीसवाँ ।
⋙ चतुश्चत्वारिंशत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौवालीस की संख्या ।
⋙ चतुश्चरण (१)
वि० [सं०] १. चार पैरोंवाला । २. चार विभागों या भागोंवाला [को०] ।
⋙ चतुश्चरण (२)
संज्ञा पुं० जानवर [को०] ।
⋙ चतुश्शृंग
संज्ञा पुं० [सं० चतुंश्श्रृङ्ग] १. वह जिसके चार सींग हो । २. पुराणों के अनुसार कुशद्वीप के एक वर्षपर्वत का नाम ।
⋙ चतुष्क (१)
वि० [सं०] जिसके चार अंग या पार्श्व हों । चौपहल ।
⋙ चतुष्क (१)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का घर । २. एक प्रकार की छड़ी या डंड़ा ।
⋙ चतुष्कर, चतुष्करी
संज्ञा पुं० [सं०] वह जंतु जिसके चारो पैरों के आगे के भाग हाथी के पैर के समान हों । पंजेवाले जानवर ।
⋙ चतुष्कर्ण
वि० [सं०] १. (बात) जिसे दो आदमी जानते हों । २. (बात) जो गुप्त न हो (को०) ।
⋙ चतुष्कर्णी
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम ।
⋙ चतुष्कल
वि० [सं०] चार कलाओंवाला । जिसमें चार मात्राएँ हों । जैसे—छंदःशास्त्र में चतुष्कल गण, संगीत में चतुष्कल ताल ।
⋙ चतुष्काष्ठ
अव्य० [सं०] चारो ओर से । चारो तरफ से [को०] ।
⋙ चतुष्की
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुष्करिणी का एक भेद । २. मसहरी । ३. चौकी ।
⋙ चतुष्कोण (१)
[सं०] चार कोणवाला । चौकोर । चौकोना ।
⋙ चतुष्कोण (२)
वि० संज्ञा पुं० वह जिसमें चार कोण हों ।
⋙ चतुष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार की संख्या । २. चार चीजों का समूह । जैसे—अंतःकरण चतुष्टय । ३. जन्मकुंड़ली में केंद्र लग्न और लग्न से सातवाँ तथा दसवाँ स्थान ।
⋙ चतुष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार स्तोमवाला एक यज्ञ । २. अश्वमेध यज्ञ का एक अंग । ३. वायु ।
⋙ चतुष्पंचाश
वि० [सं० चतुष्पञ्च्चाश] चौवनवाँ ।
⋙ चतुष्पंचाशत्
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्पञ्च्चाशत्] चौवन की संख्या या अंक ।
⋙ चतुष्पत्री
संज्ञा पुं० [सं०] सुसना नाम का साग । वि० दे० 'चतुष्पणीं' ।
⋙ चतुष्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौराहा । चौमुहानी । २. ब्राह्मण ।
⋙ चतुष्पथरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम ।
⋙ चतुष्पद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार पैरोंवाला जीव या पशु । चौपाया । यौ०—चतुष्पदवैकृत । २. ज्योतिष में एक प्रकार का करण । फलित ज्योतिष के अनुसार इस करण में जन्म लेनेवाला दुराचारी, दुर्बल ओर निर्धन होता है । ३. वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक इन चारों का समूह ।
⋙ चतुष्पद (२)
वि० चार पदोंवाला । जिसमें अथवा जिसके चार पद हों ।
⋙ चतुष्पदवैकृ
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति के चौपायों का दूसरी जाति के चौपायों से गमन करना, उनको स्तनपान कराना अथवा इसी प्रकार का और कोई नियमविरुद्ध कार्य करना । विशेष—फलित ज्योतिष में इस प्रकार की क्रीया को अशुभ और अमंगलसूचक माना है; और ऐसा करनेवाले पशुओं के त्याग का विधान किया गया है ।
⋙ तुचष्पदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौपैया छंद, जिसका प्रत्येक चरण ३० मात्राओं का होता है जैसे,—भे प्रगट कृपाला, दीन, दयाला, कोशल्या हितकारी । हर्षित महतरी, मृनिमनहारी, अदभुत रूप निहारी ।—तुलसी ।
⋙ चतुष्पदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चौपाई छंद जिसके प्रत्यके चरण में १५ मात्राएँ ओर अंत में गुरु लघु होते हैं । जैसे,—रामरमापति तुम मम देव । सम दिशि देखो यह यश लेव । २. चार पद का गीत ।
⋙ चतुष्पर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी अमलोनी । २. सुपना नामक साग जो पानी के किनारे हाता है और जिसमें चार चार पत्तियाँ होती हैं ।
⋙ चतुष्पाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी ।
⋙ चतुष्पाठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्यार्थियों के पढ़ने का स्थान । पाठशाला ।
⋙ चतुष्पाणि (१)
वि० [सं०] जिसके चार हाथ हों । चार हाथोंवाला ।
⋙ चतुष्पाणि (२)
संज्ञा पुं० विष्णु ।
⋙ चतुष्पाद
वि० [सं०] दे० 'चतुष्पद' [को०] ।
⋙ चतूष्पार्श्व
वि० [सं०] चौतरफा । चौपहला [को०] ।
⋙ चतुष्फल
वि० [सं०] जिसमें चार फल या पहल हों । चौपहला ।
⋙ चतुष्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवला नामक औषधि ।
⋙ चतुस्तन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चार स्तनोंवाली, गाय ।
⋙ चतुस्तन (२)
वि० चार स्तनोंवाली [को०] ।
⋙ चतुस्तना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चतुस्तन' [को०] ।
⋙ चतुस्तना (२)
वि० दे० 'चतुस्तन' [को०] ।
⋙ चतुस्तनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चतुस्तना' (१) [को०] ।
⋙ चतुस्तनी (२)
वि० दे० 'चतुस्तना' (२), [को०] ।
⋙ चतुस्ताल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चौताला ताल जिसमें तीन द्रुत और एक लघु होता है । इसका बोल यह है — (१) धा० धरि० धिमि० धिरि था । अथवा (२) धा० धधि० गण धो ई ।
⋙ चतुस्त्रिंश
वि० [सं०] चौंतीसवाँ ।
⋙ चतुस्संप्रदाय
संज्ञा पुं० [सं० चतुस्सम्प्रदाय] वैष्णवों के चार संप्रदाय श्री, माध्व, रुद्र और सनक ।
⋙ चतुस्त्रिंशत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौंतीस की संख्या या अंक ।
⋙ चतुस्सन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सनक, सनत्कुमार, सनंदन और सनातन ये चारो ऋषि । २. विष्णु ।
⋙ चतुस्सम
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक औषध जिसमें लौंग जीरा, आजवा— इन और हड़ सम भाग होते हैं । यह पाचक, भेदक और आमशूलनाशक होती है । २. एक गंधद्रव्य जिसमे २ भाग कस्तूरी, ४ भाग चंदन, ३ भाग कुंकुम ओर ३ भाग कपूर का रहता है ।
⋙ चतुस्सीमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौहददी [को०] ।
⋙ चतुस्सूत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यासदेव कृत वेदांत के पहले चार सूत्र जो बहुत कठिन हैं और जिनपर भाष्यकारों का बहुत कुछ मतभेद है । चतुः सूत्रों पर आचार्य शंकर का भाष्य सर्व प्रिसिद्ध है । ये चारों सूत्र पढ़ने के लिये लोग प्रायः बहुत अधिक परिश्रम करते हैं ।
⋙ चतुरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] चार रात्रियों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।
⋙ चतौना पु †
क्रि० सं० [हि० चेतांना] चेतावनी देना । सतर्क करना । जगाना । उ०—वो उस दल अमृत रस पीवै, उपरि द्वै दल करैं चतौना ।—सुंदर ग्रं०, भा०, २, पृ० ८६२ ।
⋙ चत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० चित्त] दे० 'चित्त' । उ० = सुकी सरिस सुक उच्चरयो, धरयो नारी सिर चित्त । समन सजोगिय संभरै, मन मै मंड़ित हित्त ।—पृ०, रा०, १४ । २ ।
⋙ चत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० चत्वार] दे० 'चतुर' या 'चार' । यौ०—चत्रमास = चार महीना । चौमासा । उ०—दुय चत्र मास वदियो दिखणी, भोमगई सो लिखत भवेस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १०५ ।
⋙ चत्रगुन पु
संज्ञा पुं० [सं०शत्रुघ्न] राम के सबले छोटे भाई । शत्रुघ्न । उ०—अव वरतंत कहौ याही सौ, भरत चत्र गुन भाई । दरसत । सीता और कौशिल्या, सिया लछमन लहाई ।—घट०, पृ० १९६ ।
⋙ चत्रु पु
वि० [सं० चतुर] दे० 'चतुर' । उ०—पुत्री दोइ राजं सुराजं विचारी । इकं रूप सारं वियं चत्रुनारी । पृ० रा०, २ । २३४ ।
⋙ चत्रुदश पु
सं० पुं० [सं० चतुर्दश] दे० 'चतुर्दश' । उ०—चत्रुदश लोक लीला वरनन करैं । रचा वैराट जग बिध वनावा ।—तुरसी श०, पृ०, १५ ।
⋙ चत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौमुहानी । चौरस्ता । २. वह स्थान जहाँ भिन्न भिन्न देशों से लोग आकर रहें । ३. होम से लिये साफ किया हुआ स्थान । ४. चार रथों का समूह (को०) । यौ०—चत्वरतरु = चौराहे का वृक्ष ।
⋙ चत्वरवा सनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम ।
⋙ चत्वारिंश
वि० [सं०] चालीसवाँ ।
⋙ चत्वारिशत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] चालीस की संख्या या अंक ।
⋙ चत्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. होमकुंड़ । २. कुश नाम की घास । ३. गर्भ । ४. वेदी । चबूतरा ।
⋙ चदरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चादर] दे० 'चादर' ।
⋙ चदिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर २. चंद्रमा । ३. हाथी । ४. साँप ।
⋙ चद्दर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० चादर] १. चादर । २. किसी धातु का लंबा चौड़ा चौकोर पत्तर । क्रि० प्र०—काटना ।—जड़ना ।—मढ़ना । ३. नदी आदि के तेज बहाब में पानी का वह बहता हुआ अंश जिसका ऊपरी भाग कुछ विशेष अवस्थाओं में बिलकुल समतल या चादर के समान हो जाता है । विशेष—इस प्रकार की चादर में जरा भी लहर नहीं उठती और यह चादर बहुत ही भयानक समझी जाती है । यदि नाव या मनुष्य किसी प्रकार इस चद्दर में पड़ जाय, तो उसका निकलना बहुत कठिन हो जाता है । मुहा०—चद्दर पड़ना = नदी के बहुते हुए पानी के कुछ अंश का एकदम समतल हो जाना । विशेष—दे० 'चादर' । ४. एक प्रकार की तोप । उ०—गुरद चद्दर गंज गुबारे । लिए लगाई तीर कस भारे ।—हम्मीर०, पृ०, ३० । विशेष—इसमें बहुत सी गोलियाँ अथवा लोहे के टुकड़े एक साथ तोप में भरकर चलाते थे और यह चद्दर कहलाती थी ।
⋙ चनक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० चणक] चना । उ०—जानत हैं चारो फल चार ही चनक कौ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चनक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चनकना] चनकने का भाव या स्थिति ।
⋙ चनक (३)
वि० [सं० क्षण] १. क्षणिक । २. खुलना और बंद होना । उ०—चनक मूँद खग मृग सब चकैं । मदन गुपाल केलि रस छकैं ।—घनानंद, पुं० २८९ ।
⋙ चनकन
संज्ञा पुं० [देश०] शलगम ।
⋙ चनकट पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] थप्पड़ । उ०—तहँ हने एकन की जु मुठिका हनी एकन चनवटैं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ०, १४९ ।
⋙ चनकना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'चटकना' । उ०—विरह आँच नहिं सहि सकी सखी भई बेताब । क्नक गई सीसी गयो छिरकत छनकि गुलाब ।—शृं० सत० (शब्द०) ।
⋙ चनकाम्ल
संज्ञा पुं० [सं० चणकाम्ल] दे० 'चणकाम्ल' ।
⋙ चनखना पु †
क्रि० अ० [हिं० अनखना] खफा होना । चिढ़ना । चिटकना । उ०—श्री हरिदास कै स्वामी श्यामा कुंजबिहारी सौं प्यारी जब तूँ बोलत चनख चनख ।—हरिदास (शब्द०) ।
⋙ चनचना
संज्ञा पुं० [अनु०] एक कीड़ा जो तमाखू की फसल को हानि पहुँचाता है । यह तमाखू के पत्तों की नसों में छेद कर देता है दिससे पत्ते सूख जाते हैं । इसे झनझना भी कहेते हैं ।
⋙ चनचनाना पु †
क्रि० अ० [हिं०] १. चिढ़ना । खफा होना । क्रुद्ध होना । २. कलह करना । क्रोध प्रकट करना ।
⋙ चनन पु
संज्ञा पुं० [सं० चन्दन] चंदन । संदल । उ०—ओठकी चनन केवरिया जोहौं बाट । उड़िगै सोनचिरैया पिंजर हाथ ।—रहीम (शब्द०) ।
⋙ चनवर पु †
संज्ञा पुं० [देश०] कौर । ग्रास ।
⋙ चनसित
संज्ञा पुं० [सं०] श्रेष्ठ । महान् । विशेष—वैदिक काल में समान के लिये नाम के पहले इस शब्द को लगाकर ब्राह्मणों को संबोधित करते थे ।
⋙ चना
संज्ञा पुं० [सं० चणक] चैती फसल का एक प्रधान अन्न जिसका पौधा हाथ ड़ेढ़े हाथ तक ऊँचा होता है । विशेष—इसकी छोटी कोमल पत्तियाँ कुछ खटाई और खार लिए होती हैं और खाने में बहुत स्वदिष्ट होतो हैं । इस अन्न के दाने प्रायः गोल होते हैं और इसके ऊपर का छिलका उतार देने पर अंदर से दो दालें निकलती हैं, जो ओर दालो की तरह उबालकर खाई जाती हैं । यह इनेक प्रकार से खाने के काम आता है । ताजा चना लोग कच्चा भी खाते है; और सूखा चना भाड़ में भूनकर खाया जाता है । इससे कई तरह की मिठाइयाँ और खाने की नमकीन चीजें बनती हैं । यह वहुत बलवर्द्धक और पुष्टिदायक समझा जाता है, पर कुछ गुरुपाक होता है । भारत में यह घोड़ों और दूसरे चौपायो की बलिष्ठ करने के लिये दिया जाता है । वैद्यक में इसे मधुर रूखा और मेह, कृमि तथा रकतपित्त नाशक, दीपन, रुचि तथा बलकारक माना गया है । इसे बूट, छोले और रहिला भी कहते हैं । पर्या०—हिरमंथ । चण । मुगंफ । कृष्णचंचुक । बालभोज्य । राजिभक्ष्य । कंचुकी । यौ०—चना चबेना = रूखा सूखा भोजन । मुहा०—चने का चारा मरना = इतना दुर्बंल होना कि बहुत जरा मी चोट से मर जाय । नाकों चने चबवाना = बहुत तंग करना । बहुत दिक या हैरान करना । नाकों चने चबाना = बहुत हैरान होना । लोहे का चना = अत्यंत कठिन काम । दुष्कर कार्य । विकट कार्य । लोहे का चना चबाना = अत्यंत कठिन कार्य करना ।
⋙ चनाखार
संज्ञा पुं० [हिं० चना + खार ] चने के डंठलों और पत्तियों आदि को जला कर निकाला हुआ खार ।
⋙ चनाब
संज्ञा स्त्री० [सं० चन्द्रभागा] पंजाब की पाँच नदियों में से एक । विशेष—यह लद्दाख के पर्वतों से निकलकर सिंध में मिलती है । यह प्रायः ६०० मील लंबी है ।
⋙ चनार
संज्ञा पुं० [फ़ा० चनार] एक प्रकार का बहुत ऊँचा पेड़ जो उत्तर भारत, विशेषतः काश्मीर में बहुत अधिकता से होता है । विशेष—इसके पत्ते पंजे के आकार के होते हैं और जाडे़ में बिलकुल झड़ जाते है । इसकी लकड़ी पीलापन लिए सफेद रंग की और बहुत मजबूत होती है । यह बहुत देर में जलती है और मेज कुरसियाँ आदि बनाने के काम आती है ।
⋙ चनियारी
संज्ञा स्त्री० [?] एक जलपक्षी जो साँभर झील के निकट और बरमा में अधिकता से पाया जाता है । विशेष—इसके पर बहुत सुंदर होते हैं और मेमों की टोपियों में लगाने तथा गुलूबंद बनाने के काम में आते हैं । इसे 'हरगीला' भी कहते हैं ।
⋙ चनुअरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चनारी] दे० 'चनोरी' ।
⋙ चनेठ
संज्ञा पुं० [हिं० चना + एठ (प्रत्य०)] १. एक की प्रकार घास । विशेष—इसकी पत्ती चने की पत्ती से मिलती जुलती होती है । यह बहुधा पशुओं की ओषधि में काम आती है । २. इस घास से बनी हुई औषध जो प्रायः पशुओं को दी जाती है ।
⋙ चनोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद] वह भेड़ जिसके सारे शरीर के रोएँ सफेद हों ।—(गडे़रिया) ।
⋙ चन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण] दे० 'चरण' । उ०—डिगे षंभ ब्रह्मंड दिगपाल हल्ली । धरा चन्न भारं तु लाजे मतुल्ली । पृ० रा०, २ ।१८४ ।
⋙ चन्नण पु †
संज्ञा पुं० [सं० चन्दन, प्रा० चंदण] दे० 'चंदन' । उ०— चन्नण केसर चरच कियौ उच्छव मछरीका ।—रा० रू०, पृ० ३५८ ।
⋙ चन्ना पु †
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्रक] दे० 'चाँद' । उ०—चन्नी रात का चन्ना पड़ मेरी म्हाड़पो । बिजली तेरी दाद साँई करतै बात ।—दक्खिनी०, पृ० ३८६ ।
⋙ चन्नी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चंदिनी या चाँदनी] दे० 'चाँदनी' । उ०—चन्नी रात का चन्ना पडमेरी म्हाडी पो ।—दक्खिनी० पृ० ३८६ ।
⋙ चन्हारिन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जंगली चिड़िया ।