विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/पान
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ पान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी द्रव पदार्थ को गले के नीचे घूँट घूँट करके उतारना। पीना। उ०—(क) रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेही पाना।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रुधिर पान करि आत माल धरि जब जब शब्द उचारी।—सूर (शब्द०)। यौ०—जलपान। मद्यपान। निषपान, आदि। २. मद्यपान। शराब पीना। उ०—करसि पान सोवसि दिन राती। सुधि नहिं तब सिर पर आराती।—तुलसी (शब्द०)। ३. पीने का पदार्थ। पेप द्रव्य। जैसे, जल, मद्य, आदि। ४. मद्य। मदिरा। उ०—सँग ते यती कुमंत्र ते राजा। मान ते ज्ञान पान ते लाजा।—तुलसी (शब्द०)। ५. पानी। उ०—(क)सीस दीन मैं अगमन प्रेम पान सिर मेलि। अब सो प्रीति निबाहउ चलो सिद्ध होइ खेलि।—जायसी (शब्द०)। (ख) गुरु को मानुष जो गिनै चरणामृत को पान। ते नर नरके जायँगे जन्म जन्म होइ स्वान।—कबीर (शब्द०)। ६. वह चमक जो शस्त्रों को गरम करके द्रव पदार्थ में बुझाने से आती है। पानी। आब। ७. पीने का पात्र। कटोरा। प्याला। ८. कुल्या। नहर। ९. कलवार। १०. रक्षा रक्षण। ११. प्याऊ। पौसाला। १२. नि?श्वास। १३. जय। १४. पीना। चूसना। चूमना। चुंबन। जैसे, अधरपान।
⋙ पान पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्राण] प्राण। उ०—पान अपान व्यान उदान और कहियत प्राण समान। तक्षक धनंजय पुनि देवदत्त और पौड्रक संख द्युमान।—सूर (शब्द०)।
⋙ पान (३)
संज्ञा पुं० [सं० पर्ण, प्रा० पणण] १. पत्ता। पर्ण। उ०— औषध मूल फूल फल पाना। कहें नाम गनि मंगल जाना।— तुलसी (शब्द०)। उ०—हाथी कौ सौ कान किधौं, पीपर कौ पान किधौं, ध्वजा कौ उड़ान कहौं थिर न रहतु है।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४५७। २. एक प्रसिद्ध लता जिसके पत्तों का बीड़ा बनाकर खाते हैं। तांबूलवल्ली। तांबूली। नागिनी। नागरवल्ली। विशेष—यह लता सीमांत प्रदेश और पंजाब को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष तथा सिंहल, जावा, स्याम, आदि उष्ण जलवायुवाले देशों में अधिकता से होती है। भारत में पान का व्यवहार बहुत अधिक है। कत्था, चूना, सुपारी आदि मसालों के योग से बना हुआ इसका बीड़ा खाकर मन प्रसन्न तथा अतिथि आदि का सत्कार करते हैं। देवताओं और पितरों के पूजन में इसे चढ़ाते हैं और इसका रस अनेक रोगों में औषध का अनुपान होता है। पान की जड़ भी, जिसे कुलंजन या कुलींजन कहते हैं, दवाई के काम आती है। उपर्युक्त दो प्रांतों को छोड़कर भारत के सभी प्रांतों में खपत और जलवायु की अनुकूलता के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में इसकी खेती की जाती है। इसकी खेती में बड़ा परिश्रम और झंझट होता है। अत्यंत कोमल होने के कारण अधिक सरदी गरमी यह नहीं सहन कर सकती। इसकी खेती प्रायः तालाब या झील आदि के किनारे भीटा बना कर की जाती है। धूप और हवा के तीखे झोंकों से बचाव के लिये भीटे के ऊपर बाँस, फूस आदि का मंडप छा देते हैं जिसके चारों ओर टट्टियाँ लगा दी जाती हैं। मंडप के भीतर बेलें चढ़ाई जाती हैं। इस मंडप को पान का बँगला, बरेव या बरौजा कहते हैं। इसके छाने में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि पौधे तक थोड़ी सी धूप छनकर पहुँच सके। भीटा बीच में ऊँचा, चौरस और अगल बगल, कभी कभी एक ही ओर, ढालू होता है, इससे वर्षा का जल उसपर रुकने नहीं पाता। भीटे पर आधा फुट गहरी और दो फुट चौड़ी सीधी क्यारियाँ बनाई जाती हैं। इन्हीं में थोड़ी थोड़ी दूर पर कलमें रोपी जाती हैं। जो पौधे पूरी बाढ़ को पहुँच चुकते हैं और जिनमें पत्ते निकलना बंद हो जाता है वे ही कलमें तैयार करने के काम आते हैं। उड़ीसा में इससे भी अधिक समय तक उससे अच्छे पत्ते निकलते जाते हैं। इसलिये पान की खेती वहाँ सबसे अधिक लाभदायक है। कहीं कहीं पान की बेलें भीटे पर नहीं किंतु किसी पेड़, अधिकतर सुपारी, के नीचे लगाई जाती हैं। पान की अनेक जातियाँ हैं। जैसे, बँगला, मगही, साँची, कपूरी, महोबी, अछुवा, कलकतिहा, आदि। गया का मगही पान सबसे अच्छा समझा जाता है। इसकी नसें बहुत पतली औरमुलायम होती हैं। इसका बीड़ा मुँह में रखते ही गल जाता है। इसके बाद बँगला पान का नंबर है। महोबी पान कड़ा पर मीठा होता है और अच्छे पानों में गिना जाता है। कलकतिहा कड़ा और कड़वा होता है। कपूरी बहुत कड़वा होता है। उसके पत्ते लंबे लंबे होते हैं और उससे कपूर की सी सुगंधि आती है। वैद्यक के अनुसार पान उत्तेजक, दुर्गंधि- नाशक, तीक्ष्ण, उष्ण, कटु, तिक्त, कषाय, कफनाशक, वातघ्न श्रमहारक, शांतिजनक, अंगों को सुंदर करनेवाला और दाँत, जीभ आदि का शोधक है। वेदों, सूत्रग्रंथों, वाल्मीकि रामायण और माहाभारत में पान का नाम नहीं आया है, परंतु पुराणों और वैद्यक ग्रंथों में इसका उल्लेख बार बार मिलता है। विदेशी पर्यटकों नें भारतवासियों की पान खाने की आदत का उल्लेख किया है। अत्यंत प्राचीन ग्रंथों में इसका नाम न आने से यह सूचित होता है कि इसका व्यवहार पहले से पूर्व और दक्षिण में ही था। वैदिक पूजन में पान नहीं है। पर आजकल प्रचलित तांत्रिक पद्धति में पान का काम पड़ता है। यौ०—पानदान। मुहा०—पान उठाना = कोई काम करने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होना। बीड़ा उठाना या लेना। पान कमाना = पान को उलटना पुलटना और सड़े अंश या पत्तों का अलग करना। पान चीरना = व्यर्थ के काम करना। ऐसे काम करना जिससे कोई लाभ न हो। पान खिलाना = वर कन्या के ब्याह संबंध में उभय पक्ष का वचनवद्ध होना। मँगनी करना। सगाई करना। पान देना = किसी काम, विशेषतःकिसी साहसपूर्ण काम के कर डालने के लिये किसी से हामी भरवाना। बीड़ा देना। उ०—वाम वियोगिनि के बध कीवे को काम बसंतहिं पान दियो है।—रघुनाथ (शब्द०)। पान पत्ता = (१) लगा या बना हुआ पान। (२) तुच्छ, पूजा या भेंट। पान- फूल। पान फूल = (१)सामान्य उपहार या भेंट। (२) अत्यंत कोमल वस्तु। पान फेरना = पान कमाना। पान बनाना = (१) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना। (२) दे० 'पान कमाना'। पान लेना = किसी काम के कर डालने की प्रतिज्ञा करना या हामी भरना। बीड़ा लेना। उ०—नृपति कै लै पान मन कियो अभिमान करत अनुमान चहुँपास धाऊँ।—सूर (शब्द०)। पान सुपारी = किसी शुभ अवसर पर निमंत्रित जनों का सत्कार करने की रीति। ३. पान के आकार की चौकी या ताबीज जो हार में रहती है। ४. जूते में पान के आकार का वह रंगीन या सादे चमड़े का टुकड़ा जो एँड़ी के पीछे लगता है। ४. ताश के पत्तों के चार भेदों में से एक जिसमें पत्ते पर पान के आकार की लाल लाल बूटियाँ बनी रहती हैं।
⋙ पान पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० पाणि] दे० 'पानि' या 'पाणि'। उ०— बैठी जसन जलूस करि फरस फवी सुखदान। पानदान तैं लै दऐ पान पान प्रति पान।—स० सप्तक, पृ० ३६४।
⋙ पान (५)
संज्ञा पुं० [देश०] लड़ी। गून। (लश०)।
⋙ पान (६)
संज्ञा स्त्री० सूत को माँड़ी से तर करके ताना करना। (जुलाहा)।
⋙ पानक
संज्ञा पुं० [सं०] विशेष क्रिया से बनाया हुआ खट्टा तरल पदार्थ जो पीने के काम में आता है। पना। विशेष—पके नीबू, आम या इमली के रस में पानी और चीनी मिलाकर पना या पानक बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त और अनेक पदार्थों का भी बनाया जाता है।
⋙ पानकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पांडु रोग जिसमें हाथ पैरों में सूजन, अतिसार, ज्वर आदि होते हैं।—माधव०, पृ० ७५।
⋙ पानगोष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्थान जहाँ तांत्रिक लोग एकत्र होकर मद्यपान तथा कुछ पूजन आदि करते हैं। मद्यपान चक्र। २. दे० 'पानगोष्ठी'।
⋙ पानगोष्ठी
संज्ञा संज्ञा [सं०] १. वह सभा या मंडली जो शराब पीने के लिये बैठी हो। पानसभा। शराब की मजलिस। २. मद्यशाला। शराब की दूकान (को०)।
⋙ पानडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पान + ड़ी (प्रत्य०)] एक प्रकार की पत्ती जो प्रायः मीठे पेय पदार्थों तथा तेल और उबटन आदि में उन्हें सुगंधित करने के लिये छोड़ी जाती है।
⋙ पानदान
संज्ञा पुं० [हिं० पान + फा़० दान (प्रत्य०)] १. वह डिब्बा जिसमें पान और उसके लगाने की सामग्री रखी जाती है। पलडब्बा। २. वह डिबिया जिसमें पान के बीड़े रखे जाते हैं। गिलौरीदान। खासदान। मुहा०—पानदान का खर्च = वह रकम जो पान तथा दूसरी निजी आवश्यकताओं के लिये दी जाय। पिटारी का खर्च।
⋙ पानदोष
संज्ञा पुं० [सं०] मद्यपान का व्यसन। शराबखोरी की लत।
⋙ पानन
संज्ञा पुं० [हिं० पान या देश०] १. मझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और उत्तरी भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में होता है। विशेष—इसकी पत्तियाँ जाड़ों में झड़ जाती हैं। लकड़ी पकने पर लाल रंग की, चिकनी और भारी होती है और बहुत दिन तक रहती है। इस लकड़ी से सजावट की चीजें, गाड़ी तथा घर के सँगहे बनाए जाते हैं। इसका गोंद दवा के काम में आता है। २. साँदन नाम का मझोले आकार का एक वृक्ष जिसकी लकड़ी से सजावट के सामान बनते हैं। वि० दे० 'साँदन'।
⋙ पानप
संज्ञा पुं० [सं०] मद्यप। शराबी। पियक्क़ड।
⋙ पानपर
वि० [सं०] मद्यप। शराबी [को०]।
⋙ पानपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पात्र जिसमें मद्यपान किया जाता है। २. पीने का पात्र। गिलास। उ०—नेत्रादिक इंद्रियगन जिते। हमरे पानपात्र प्रभु तिते।—नंद० ग्रं० पृ० २७२।
⋙ पानभांड
संज्ञा पुं० [सं० पानभाण्ड] पानपात्र।
⋙ पानभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] पानपात्र।
⋙ पानभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ एकत्र होकर लोग शराब पीते हैं।
⋙ पानभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पानभूमि'।
⋙ पानमंडल
संज्ञा पुं० [सं० पानमण्डल] पानगोष्ठी।
⋙ पानमत्त
वि० [सं०] नशे में मतवाला। नशे में चूर।
⋙ पानरत
वि० [सं०] दे० 'पानपर' [को०]।
⋙ पानरा †
संज्ञा पुं० [हिं० पनारा] दे० 'पनारा'। उ०—पाकी को मन पानरै कै गोबर कै गार। और जनम कहाँ पाइए, यह तो चालाहार।—कबीर (शब्द०)।
⋙ पानरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पानही'। उ०—पति पद पानरी के प्रनव कुबुंद कैधों बिबुध विदग्ध चित्त मृदु मधुराई तें।—पजनेस०, पृ० २३।
⋙ पानवणिक
संज्ञा पुं० [सं० पानवणिज्] मद्यविक्रेता। कलवार। शराब बेचनेवाला [को०]।
⋙ पानवणिज
संज्ञा पुं० [सं० पानवणिज्] मद्य बेचनेवाला। कलवार।
⋙ पानविभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] पानात्यय नामक रोग। विशेष—दे०'पानात्यय'।
⋙ पानशौंड
संज्ञा पुं० [सं० पानशौण्ड] अत्यधिक मद पीनेवाला शराबी [को०]।
⋙ पानस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की शराब जो पनस (कठहल) से बनाई जाती थी।
⋙ पानस (२)
वि० पनस (कठहल) से संबंध रखनेवाला।
⋙ पानही †
संज्ञा स्त्री० [सं० उपानह, हिं० पनही] जूता। ऊ०— बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ। मानस, २। २६१।
⋙ पाना (१)
क्रि० स० [सं० प्रापणा, प्रा० पावण] १. अपने पास या अधिकार में करना। ऐसी स्थिति में करना जिससे अपने उपयोग या व्यवहार में आ सके। उपलब्ध करना। लाभ करना। प्राप्त करना। हासिल करना। जैसे,—उसके हाथ में गई वस्तु कोई नहीं पा सकता। २. फल या पुरस्कार रूप में कुछ पाना। कृत कर्म का भला बुरा परिणाम भोगना। जैसे,—(क) जागे सो पावे, सोवे सो खोवे। (ख) जैसा किया वैसा पाया। ३. किसी को दी हुई चीज वापस मिलना या कोई खोई हुई चीज फिर मिलना। जैसे,—(क) यह किताब तुसमें हमने तीन बरस के बाद आज पाई है। (ख) यह अँगूठी मैंने चार बरस के बाद आज पाई है। ४. पता पाना। भेद पाना। तह तक पहुँचना। समझना। जैसे,—(क) आपने उसका रोग भी पाया है या यों ही नुसखा लिखते हैं। (ख) मैंने तुम्हारे मन की बात पा ली। ५. किसी की कोई बात अपने तक पहुँचना। कुछ सुन या जान लेना। जैसे, सुध पाना समाचार पाना, सँदेशा पाना। ६. देखना। साक्षात् करना। जैसे,—(क) तुमको जैसा सुना था वैसा ही पाया। (ख) भारत में अब सिंह प्रायः नही पाए जाते। ७. अनुभव करना। भोगना। उठाना। जैसे, दुख पाना, सुख पाना। ८. समर्थ होना। सकना। विशेष—इस अर्थ में पाना क्रिया संयोज्य होती है और जिस क्रिया या धातु के आगे लगाई जाती है उससे शक्यता या समाप्ति की शक्यता का अर्थ निकलता है। जहाँ समाप्ति का भाव होता है वहाँ धातु के आगे यह क्रिया आती है। जैसे,—तुम वहाँ जाने नहीं पाओगे, मैं अभी वह चिट्ठी नहीं लिख पाया। ९. पास तक पहुँचना। जैसे,—(क) मत दौड़ो, तुम उसे नहीं पा सकते। (ख) इस डाल को तुम उछलकर नहीं पा सकते। १०. किसी बात में किसी के बराबर पहुँचना। बराबर होना। जैसे,—पढ़ने में तुम उसे नहीं पा सकते। ११. भोजन करना। आहार करना। खाना। जैसे, प्रसाद पाना (साधु)। उ०— तेहि छन तहँ सिसु पावत देखा। पलना निकट गई तहँ देखा।—विश्राम (शब्द०)। १२. ज्ञान प्राप्त करना। अनुभव। करना। जानना। समझना। जैसे, किसी का मतलब पाना। उ०—समरथ सुभ जो पावई पीर पराई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाना (२)
वि० १. पाने का हक। पावना। २. जिसे पाने का हक हो। प्राप्तव्य। पावना।
⋙ पानागार
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोग मिलकर शराब पीते हों।
⋙ पानाजीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो अधिक मद्य आदि पीने से होता है। उ०—पानात्यय, परमद, पानाजीर्ण और पानविभ्रम इत्यादिक भयंकर विकार होते हैं।—माधव०, पृ० ११७।
⋙ पानात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो बहुत अधिक मद्यपान करने से हो जाता है। विशेष—वैद्यक में अन्य रोगों के समान वात, पित्त, कफ, और सन्निपात भेद से इसके भी चार भेद माने गए हैं। इसमें हृदय में दाह और पीड़ा होती है, मुँह पीला हो जाता और सूख जाता है। रोगी को मूर्छा आती है, वह अंडबंड बकता है और उसके मुँह से झाग गिरने लगती है।
⋙ पानि ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाणि] हाथ। उ०—जड़ चेतन जग जीव जन सकल राममय जानि। बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पानि पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पानीय] दे० 'पानी'।
⋙ पानिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो शराब बेचता हो। मद्यविक्रेता। २. कलवार।
⋙ पानिग्रहण पु
संज्ञा पुं० [सं० पाणिग्रहण] दे० 'पाणिग्रहण'।
⋙ पानिग्रहन पु
संज्ञा पुं० [सं० पाणिग्रहण] दे० 'पाणिग्रहण'। उ०—पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिय हरषे तब सकल सुरैसा।—मानस,१। १०१।
⋙ पानिप
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + प (प्रत्य०)] १. ओप। द्युति। कांति। चमक। आब। उ०—पानिप के भारन सँभारति न गात, लंक लचि लचि जाति कच भारन के हलके।—द्विजदेव (शब्द०)। २. पानी। जल।
⋙ पानिय पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पानीय] दे० 'पानी' [को०]।
⋙ पानिय पु (२)
वि० रक्षणीय। रक्षा के योग्य [को०]।
⋙ पानिल
संज्ञा पुं० [सं०] पानपात्र। पानभाजन [को०]।
⋙ पानी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पानीय] १. एक प्रसिद्ध द्रव जो पारदर्शक, निर्गंध और स्वादरहित होता है। स्थावर और जंगभ सब प्रकार की जीवसृष्टि के लिये इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। वायु की तरह इसके अभाव में भी कोई जीवधारी जीवित नही रह सकता। इसी से इसका एक पर्याय 'जीवन' है। यौ०—पनचक्की। पनबिजली। पानीपाँडे़। पानीफल। विशेष—पानी यौगिक पदार्थ है। अम्लज और उद्जन नामक दो गैसों के योग से इसकी उत्पत्ति हुई है। विस्तार के विचार से इसमें दो भाग उद्जन और एक भाग अम्लजन; और गुरुत्व के विचार से १६ भाग अम्लजन और १ भाग उद्जन होता है, क्योंकि अम्लजन का परमाणु उद्जन के परमाणु से १६ गुना अधिक भारी होता है। गरमी की अधिकता से भाप बनकर उ़ड जाने और कमी से पत्थर की तरह ठोस हो जाने का द्रव पदार्थों का धर्म जितना पानी में प्रत्यक्ष होता है उतना औरों में नहीं होता। तापमान की ३२ अंश (फारेन- हाइट) की गरमी रह जाने पर यह जमकर बर्फ और २१२ अंश की गरमी पाने पर भाप हो जाता है। इनके मध्यवर्ती अंशों की गर्मी में ही वह अपने अप्रकृत रूप—द्रव रूप—में रहता है। पानी में कोई रंग नहीं होता पर अधिक गहरा पानी प्रायः नीला दिखाई पड़ता है जिसका कारण गहराई है। स्वाद और गंध भी उसमें उन द्रव्यों के कारण, जो उसमें घुले होते हैं, उत्पन्न होता है। ३९ अंश की गरमी में पानी का गुरुत्व अनुय द्रव्यों के सापेक्ष गुरुत्व के निश्चय के लिये प्रमाण रूप माना जाता है; सब तरल और ठोस द्रव्यों का गुरुत्व इसी से तुलना करके स्थिर किया जाता है। अवस्थाभेद से पानी के अनेक भेद हैं। यथा—भाप, मेघ, बूँद, ओला, कुहिरा, पाला, औस, बर्फ आदि। बूँद, कुहिरा, पाला, ओस आदि उसके तरल रूपांतर हैं, भाप और बादल वायव या अर्धवायव और ओला तथा बर्फ घनीभूत रूपांतर हैं। संसार को पानी मुख्यतः वृष्टि से प्राप्त होता है। झरनों और कुओं से भी थोड़ा बहुत मिलता है। पानी विशुद्ध अवस्था में बहुत ही कम पाया जाता है। प्रावः कुछ न कुछ खनिज, जांतव और वायव द्रव्य उसमें अवश्य मिले रहते हैं। वृष्टि का जल यदि पृथ्वी से ऊँचाई पर और कुछ दिनों तक वृष्टि हो चुकने अर्थात वायुमंडल स्वच्छ हो जाने पर किसी बरतन में एकत्र किया जाय तो शुद्ध होता है अन्यथा उसमें भी उपर्युक्त द्रव्य मिल जाते हैं। प्राकृतिक बर्फ का पानी भी प्रायः शुद्ध होता है। भभके में से खींचा हुआ पानी भी सब प्रकार के मिश्रणों से शुद्ध होता है, दवाइयों में यही पानी मिलाया जाता है। जो नदियाँ उजाड़ स्थानों, कठोर चट्टानों और कँकरीली भूमि से होकर जाती हैं उनका जल भी प्रायः शुद्ध होता है, पर जिनका रास्ता गरम भूमि और चट्टानों तथा धनी आबादी के बीच से है उनके पानी में कुछ न कुछ अन्य द्रव्य मिले रहते हैं। समुद्र के जल में क्षार और नमक के अंश अन्य प्रकार के जलों की अपेक्षा बहुत अधिक होते हैं जिससे वह इतना खारा होता है कि पिया नहीं जा सकता। भभके के द्वारा उड़ा लेने से सब प्रकार का पानी शुद्ध हो जाता है। समुद्र का पानी भी इस क्रिया से पेय बनाया जा सकता है। बैद्यक के अनुसार पानी शीतल, हलका, रस का कारण रूप, श्रमनाशक, ग्लानिहारक, बलकारक, तृप्तिदायक, हृदय को प्रिय, अमृत के समान जीवनदायक, मूर्छा, पिपासा, तंद्रा, वमन, निद्रा और अजीर्ण का नाश करनेवाला है। खारा जल पित्तकारक और वायु तथा कफ का नाशक है, मीठा जल कफकारक और वायु तथा पित्त को घटानेवाला है। भादों या क्वार में विधिपूर्वक एकत्र किया हुआ वृष्टिजल अमृत के समान गुणकारी, त्रिदोषशांतिकर, रसायन, बल- दायक, जीवनरूप, पाचन और वुद्धिवर्धक है। वेग से बहनेवाली और हिमालय से निकली हुई नदियों का जल उत्तम होता है, तथा मंद गति से बहनेवाली और सह्याद्रि से निकली हुई नदियों का पानी कोढ़, कफ, वात आदि विकारों को उत्पन्न करता है। झरने का और प्राकृतिक बर्फ के पिघलने से उत्पन्न जल उत्तम है। कुएँ का जल, यदि उसके सोते अधिक गहराई और कड़ी कँकरीली मिट्टी पर से निकले हों तो, उत्तम होता है, अन्यथा दोषकारक होता है। जिस पानी में कोई गंध या विशेष स्वाद न हो उसे उत्तम और जिसमें ये बातें हों उसे सदोष समझना चाहिए। पकाने से पानी के सब दोष मिट जाते हैं। प्राचीन आर्य तत्वज्ञानियों ने पानी को पाँच महाभूतों अर्थात् उन मूल तत्वों में जिनके योग से जगत् को और सब पदार्थों की उत्पत्ति हुई है, चौथा माना है। रस तन्मात्र से उत्पन्न होने के कारण रस इसका प्रधान गुण है और तीन पूर्ववर्ती तत्वों के गुण शब्द स्पर्श और रूप को गौण गुण कहा है। पाँचवें महाभूत या मूलतत्व पृथ्वी के गंध गुण का इसमें अभाव माना है। इसका रूप अर्थात् वर्ण सफेद, रस अर्थात् स्वाद मधुर और शीतल माना है। परमाणु में इसे नित्य और सावयव अर्थात् स्थूल रूप में अनित्य कहा है। पाश्चात्य देशों के द्रव्यशास्त्रविद् भी वर्तमान विज्ञान युग के आरंभ के पहले सहस्रों साल तक पानी को अपने माने हुए चार मूल तत्वों अग्नि, वायु, पानी और मिट्टी में से एक मानते रहे हैं।पर्या०—अर्ण। क्षोद। पद्म। नभ। अंभ। कबंध। सलिल। वाः। वन। घृत। मधू। पुरीष। पिप्पल। क्षीर। विष। रेत। कश। वुस। तुग्य। सुक्षेम। वरुण। सुरा। अरविंद। धनुंधतु। जामि। आयुध। क्षय। अहि। अक्षर। स्त्रोत। तृप्ति। रस। उदक। पय। सर। भेषज। सह। ओज। सुख। क्षत्र। शुभ। यादु। भूत। भुवन। भविष्यत्। महत्। अप। व्योम। यश। महः। सर्णीक। स्वृतीक। सतीन। गहन। गंभीर। गंभलंग। ईम्। अन्न। हवि। सदन। ऋत। योनि। सत्य। नीर। रयि। सत्। पूर्ण। सर्व। अक्षित। वर्हि। नाम। सर्पि। पवित्र। अमृत। इंदु। स्वः। सर्ग। संवर। वसु। अंबु। तोय। तूप। शुक्र। तेजः। वारि। जल। जलाष। कमल। कीलाल। पाथ। पुष्कर। सर्वतोमुख। पानीय। मेघपुष्प। सल। जड़। क। अंध। उद। नार। कुश। कांड। सवर। कर्व्वुर। व्योम। संव। इरा। वाज। तामर। कंवल। स्यंदन। क्षर। ऊर्ज। सोम। मुहा०— पानी आना = (१) पानी का रस रसकर एकत्र होना। (२) कुएँ या तालाब में पानी का सोता खुलना। (३) घाव या आँख, नाक आदि में पानी भर आना। (४) घाव, आँख, नाक आदि से पानी गिरना। पानी उठाना = (१) पानी सोखना। पानी चूसना। जैसे,—मुलायम आटा खूब पानी उठाता है। (२) पानी अटाना। (दौरी या हत्थे में जितना पानी अँटता है, किसान लोग उसे उतना पानी उठाना बोलते हैं।) जैसे,—वह हत्था खूब पानी उठाता है। पानी उतरना = पानी की तल या सतह का नीचा होना। पानी घटना। उतार होना। बाढ़ पर न रहना। (काम को) पानी करना = साध्य या सरल कर देना। सहज कर डालना। जैसे,—मैंने इस काम को पानी कर दिया। पानी का आसरा = नाव की बारी पर लगा हुआ कुछ कुछ झुका हुआ तख्ता जिसपर छाजन की ओलती का पानी गिरता है। आधी बारी। (लश०)। पानी काटना = (१) पानी का बाँध काट देना। (२) एक नाली से दूसरी में पानी ले जाना। (३) तैरते समय हाथ से पानी को हटाना। पानी चीरना। पानी का बताशा = (१) बुलबुला। बुदबुद। (२) क्षणभंगुर वस्तु। क्षणस्थायी पदार्थ। पानी का बुलबुला = (१) बुलबुले की तरह क्षण में नष्ट या रूपांतरित होनेवाला। क्षणभंगुर। (३) नाशवान्। विनाशशील। पानी की तरह बहाना = अंधाधुंध खर्च करना। किसी चीज का आवश्यकता से बहुत अधिक मात्रा में खर्च करना। उड़ाना या लुटाना। जैसे,—उन्होंने लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए। पानी की पोट = (१) जिसमें पानी ही पानी हो। जिसमें पानी के सिवा और कुछ न हो। (२) वे साग, पात, तरकारियाँ आदि जिनमें जलीय अंश ही अधिक होता है, ठोस पदार्थ बहुत ही कम होता है। पानी के मोल = पानी की तरह सस्ता। बहुत सस्ता कौड़ियों के मोल। पानी के रेले में बहाना = (१) पानी में फेंक देना। नष्ट कर देना। उड़ा देना। (२) पानी के मोल देच देना। कौड़ियों में लुटा देना। पानी चढ़ना = (१) पानी का ऊपर चढ़ना या ऊँचाई की ओर जाना। पानी की गति ऊँचाई की ओर होना। जैसे—इस नल में ऊपर पानी नहीं चढ़ता है। उ०—सावर उबट शिखर को पाटी। चढ़ा पानि पाहन हिय फाटी।—जायसी (शब्द०)। (२) पानी बढ़ना। (३) सींचे जानेवाले खेत तक पानी पहुँचना। (४) सींचा जाना। (इस मुहावरे का प्रयोग केवल खेती के लिये किया जाता हैं, बारी बगीचे आदि के लिये नहीं)। पानी चढ़ाना = (१) पानी को ऊँचाई पर ले जाना। (२) पानी को चूल्हे पर रखना। अदहन देना। (३) सिंचाई के लिये खेत तक पानी ले जाना। (४) सींचना। पानी चलाना = पानी फेरना। नष्ट करना। चौपट करना। (क्व०)। उ०—ऐसे समय लखेउ ठकुरानी। पतिब्रत माझ चलायो पानी।—लाल (शब्द०)। पानी छानना = एक विशेष कृत्य जो हिंदुओं के यहाँ किसी को शीतल या चेचक रोग होने पर किया जाता है। विशेष—(नाम धरने अर्थात् रोगी को चेचक होना मान लिए जाने के तीसरे, पाँचवें और सातवें दिनों में जिस दिन शुक्रवार या सोमवार हो, स्त्रियाँ रोगी के सिर से कपड़ा छुलाकर उससे पानी छानती हैं। इस पानी में पहले से चना भिगोया रहता है। यदि वर्षा होती हो तो उसी का पानी लेकर छाना जाता है। इस कृत्य के हो जाने पर उन निषेधों का पालन नहीं करना पड़ता जिनका पालन नाम धरने के दिन से आवश्यक समझा जाता है)। पानी छूटना = रस रसकर पानी निकलना। थोड़ा थोड़ा पानी निकलना। रसना। पानी छूना = मलत्याग के अनंतर जल से गुदा को धोना। आबदस्त लेना (ग्राम्य)। (किसी वस्तु का) पानी छोड़ना = किसी चीज का रसना। थोड़ा थोड़ा पानी निकलना या देना। जैसे, किसी तरकारी का आगपर चढ़ाने पर छोड़ना। पानी टूटना = कुएँ ताल आदि में इतना कम पानी रह जाना कि निकाला न जा सके। कुएँ ताल आदि का पानी खर्च होकर बहुत थोड़ा रह जाना। पानी तोड़ना = पानी को डाँड़या बल्ली से चीरना या हटाना। पानी काटना (मल्लाह)। पानी थामना = धार की ओर नाव ले जाना। धार चढ़ाना। (लश०)। पानी दिखाना =(१) घोड़े बैल आदि को पानी पिलाने के लिये उनके सामने पानी भरा बरतन रखना या उन्हें पानी तक ले जाना। (२) पशुओं को पानी पिलाना। पानी देना = (१) सींचना। पानी से भरना। पानी से तर करना। (२) पितरों के नाम अंजलि में लेकर पानी गिरना तर्पण करना। जैसे,—उसके कुल में कोई पानी देनेवाला भी नहीं रह गया। पानी न माँगना = किसी आघात या विष आदि से इतनी जल्दी मर जाना कि एक शब्द भी मुँह से न निकले। चटपट दम तोड़ देना। तत्क्षण मर जाना। उ०—साँप इस मुल्क के बाजे ऐसे जहरीले होते हैं कि जिनकाकाटा आदमी फिर पानी न माँगे।—शिवप्रसाद (शब्द०)। पानी पड़ा = ढीला ढाला। जो कसा या तना न हो। जैसे,— कनकौवा पानी पड़ा है अर्थात् उसकी डोर ढीली है। पानी भर नींव डालना या देना = ऐसा काम आरंभ करना जो टिकाऊ न हो। ऐसी वस्तु को आधार बनाना जिसकी स्थिति दृढ़ न हो। पानी पर नींव होना = किसी काम या आयोजन का आधार दृढ़ न होना। किसी काम या वस्तु का टिकाऊ न होना। पानी पड़ना = जल अभिमंत्रित करना। मंत्र पढ़कर पानी फूँकना। पानी पर दम करना। पानी फूँकना। पानी पाड़ना = दे० 'पानी छानना'। पानी पर बुनियाद होना = दे० 'पानी पर नीवँ होना'। पानी परोरना = पानी पढ़ना या फूँकना। पानी पानी करना = अत्यंत लज्जित होना। लज्जा के मारे पसीने पसीने हो जाना। लज्जा से कट जाना। जैसे,—वह इस बात को सुनकर पानी पानी हो गया। पानी पीकर जाति पूछना = काम कर चूकने पर उसके औचित्य की विवेचना करना। पानी पी पीकर = निरतंर। अविराम। हर समय। लगातार। विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग उस समय किया जाता है जब कोई घंटों तक लगातार किसी को गालियाँ देता या कोसता रहता है। भाव यह होता है कि उसने इतनी अधिक गालियाँ दी कि कई बार उसका गला सूख गया और उसे पानी पीकर उसे तर करना पड़ा। जैसे,—वह उन्हें पानी पी पीकर कोसता रहा। (किसी वस्तु पर) पानी फिरना या फिर जाना = नष्ट होना। चौपट हो जाना। मिट्टी में मिल जाना। बराबाद हो जाना। पानी फूँकना = मंत्र पढ़कर पानी पर फूँक मारना। पानी पढ़ना। पानी फूटना = (१) बाँध या मेड़ को तोड़कर पानी को निकालना। (२) पानी में उबाल आ जाना। पानी खौलने लगना। (किसी पर) पानी फेरना या फेर देना = ऐसा कुछ करना जिससे किया कराया उद्योग या परिश्रम विफल हो जाय या कोई बनी बात बिगड़ जाय। चौपट कर देना। मिट्टी कर देना। मटियामेट कर देना। मिटा देना। जैसे,—इस एक बात ने आज तक के हमारे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया। पानी बराना = (१) छोटी नालियाँ बनाकर और क्यारियाँ काटकर खेत को सींचना। (२) जिसमें नालियाँ तोड़कर पानी बह न जाय इसलिये इसकी रखवाली करना। पानी बाँधना = (१) जिस मार्ग से पानी बह रहा हो उसे बंद करना। पानी का बहाव रोकना। (२) बाँध बाँधकर या मेंड़ बनाकर पानी को ताल या खेत में एकत्र करके बाहर न जाने देना। पानी का रोकना या एकत्र करना। (३) जादू से बरसते या बहते हुए पानी की धार रोकना। जलस्तंभ करना। पानी बुझाना = लोहे, ईंट या सोने चाँदी आदि के टुक़ड़े को आग में लाल करके पानी में बुझाना। पानी बघारना। विशेष—इस प्रकार बुझाया हुआ पानी विकाररहित होता है और रोगी के लिये पथ्य समझा जाता है। (किसी के सामने) पानी भरना = किसी से तुलना में उसके दास के बारबर ठहरना। अत्यंत तुच्छ प्रतीत होना। फीका पड़ना। लज्जित होना। उ०—चूना उसका ऐसा सफेद, साफ और चमकदार है कि संगमरमर भी उसके सामने पानी भरे।—शिवप्रसाद (शब्द०)। पानी भरी खाल = अनित्य शरीर। क्षणभंगुर देह। क्षणिक जीवन। उ०— रावरी शपथ राम नाम ही गति मेरे इहाँ झूठों मुँठों सो तिलोक तिहुँ काल है। तुलसी को भलो पै तुम्हारेई किए कृपाल कीजे न बिलंब बलि पानी भरी खाल है।—तुलसी (शब्द०)। पानी मरना = किसी स्थान पर पानी का एकत्र होकर सोखा जाना या जज्ब होना। जैसे,— (क) जहाँ पानी मरता है वहीं धान होता है। (क) इस दीवार की जड़ में बरसात का पानी मरता है। (किसी के सिर) पानी मरना = दोषी या अपराधी सिद्ध होना। साबित होना। जैसे,—देखिए, इस मामले में किसके सिर पानी मरता है। पानी में आग लगाना =(१) असंभव को संभव करना। जो बात दूसरे से न हो सकती हो उसे कर डालना। (२) जहाँ झगड़ा होना असंभव हो वहाँ झगड़ा करा देना। शांतिभक्तों में कलह करा देना। विशेष—मुख्य अर्थ पहला होने पर भी दूसरे अर्थ में इस मुहावरे का अधिक प्रयोग होने लगा है। आग लगाने का अर्थ है चुगुलखोरी करके झगड़ा करा देना। कदाचित् यही इसका दूसरे अर्थ में अधिक प्रयुक्त होने का कारण है। पानी में फेंकना या बहाना = नष्ट करना। बरबाद करना। खो देना। पानी में फेंक देना। पानी लगना = (१) पानी इकट्ठा होना। पानी जमा होना। (२) पानी की ठंढक से दातों में टीस होना। पानी का स्पर्श दाँतों को असह्य होना। (३) स्थानविशेष की परिस्थिति के कारण बुरी वासनाएँ उत्पन्न होना। स्थानविशेष के गुण से शरारत सुझना। जैसे,—अब इनको बनारस का पानी लग चला। पानी लेना = (१) कुएँ, ताल आदि से खेत को सींचने के लिये पानी ले जाना। (२) पानी छूना = आबदस्त लेना। पानी से पतला = (१) जिसका कुछ भी महत्व या मान न हो। अत्यंत तुच्छ। निहायत अदना। (२) अत्यंत अपमानित। सर्वथा मानच्युत। सख्त बदनाम। (३) अत्यंत सुगम। निहा- यत आसान। पानी से पहले पुल, पाड़ या बाँह बाँधना = असंभव संकट की आशंका से कोई यत्न करना। जिस बात का होना असंभव हो उसके प्रतीकार का उपाय करना। अकारण सिर खपाना। व्यर्थ कष्ट करना। सूखे में पानी में डूबना = भ्रम में पड़ना। धोखा खाना। उ०—धनी संग न संगे पूरे। पानी बुड़ रात दिन झूरे।—जायसी (शब्द०)। कच्चा पानी = वह पानी जो पकाया हुआ न हो। पक्का पानी = पकाया हुआ पानी। औटाया हुआ पानी। भभके का पानी = वह पानी जो भभके की सहायता से साधारणपानी को भाप के रूप में परिणत करके तैयार किया गया हो। उड़ाया या खींचा हुआ पानी। नरम पानी = वह पानी जिसके बहाव में अधिक वेग न हो। ठहरा हुआ पानी (लश०)। मीठा पानी = वह पानी जो पीने में खारा न हो। सुस्वादु पानी। पेय जल। खारा पानी = वह पानी जिसका स्वाद नमकीन लिए हुए तीखा होता है। अपेय जल। भारी पानी = वह पानी जिसमें खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में मिले हुए हों। हलका पानी = वह पानी जिसमें खनिज पदार्थ बहुत थोड़े हों। पानी भरना या भर आना = पंछा या राल का किसी स्थान में एकत्र होना। जैसे—मुँह या आँख में पानी भर आना। उ०—मेरी आँखों में आँसू न थे। यह निशीथ काल की शीतल और तीव्र वायु का कारण है कि उनमें पानी भर आया नहीं तो आँसू कैसे, रोने के दिन अब गए।—अयोध्यासिंह (शब्द०)। मुँह में पानी आना या छूटना = (१) स्वाद लेने का गहरा लालच होना। चखने के लिये जीभ का व्याकुल होना। (२) गहरा लोभ होना। लालच के मारे रहा न जाना। (२) वह पानी का सा पदार्थ जो जीभ, आँख, त्वचा, घाव पदार्थ से रसकर निकले। जैसे,—पसीना, पसेव, राल, लार, पंछा। मुहा०—पानी आना = किसी चीज से पसेव, लार, आदि निकलना। जैसे, घाव में पानी आना। मुँह में पानी आना। ३. मेहँ। वर्षा। वृष्टि। जैसे,—इस वर्ष इतना कम पानी पड़ा कि पृथ्वी की प्यास एक बार भी न बुझी। मुहा०—पानी आना = (१) पानी बरसने पर होना। मेह पड़ने का सामान होना। (२) मेह पड़ना। वर्षा होना। पानी उठना = घटा घिरना। बादल छा जाना। अब उठना। पानी गिरना = मेह पड़ना। वर्षा होना। पानी टूटना = झड़ी रुकना। मेह थमना। वर्षा बंद होना। पानी निकलना = बूँदें टूटना। वृष्टि बंद होना। पानी पड़ना = मेह बरसना वर्षा होना। ४. तेल, घी चरबी आदि के अतिरिक्त कोई द्रव पदार्थ। कोई वस्तु जो पानी जैसी पतली हो। जैसे, पाचक का पानी, केले का पानी, नारियल का पानी। मुहा०—पानी उतरना = (१) अंडकोष में पानी जैसी पतली चीज का नसों के द्वारा आकर एकत्र हो जाना, जिससे उसका परिमाण बढ़ जाता है। अंडवृद्धि। (२) आँखों से प्रायः हर समय कुछ कुछ गरम पानी गिरना जिससे देखने की शक्ति मारी जाती है। नजला। पानी करना = लोहै या किसी ऐसे ही कड़े पदार्थ को गलाकर पानी की तरह तरल करना। पानी होना = किसी पदार्थ का गलकर पानी की तरह पतला हो जाना। जैसे,—सारा नमक गलकर रानी हो गया। मीठा पानी = लेमनेड। खारा पानी = सौडा वाटर। विलायती पानी = लेमनेड या सोडावाटर। गरम पानी = मद्य। शराब। ५. वह द्रव पदार्थ जो किसी चीज के निचोड़ने से या उससे निथरकर निकले किसी वस्तु का वह अंश जो जल क रूप में हो। रस। अर्क। जूस। जैसे, नीम का पानी, दाल का पानी। ६. चमक। ओप। आब। कांति। छवि। जैसे, मोती का पानी। उ०—मोतिन मलिन जो होइ गइ कला। पुनि सो पानि कहाँ निरमला।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—पानी देना = जला करना। चमकाना। ७. तलवार आदि धारदार हथियारों के लोहे का वह हलका स्याह रंग और उसपर चींटी के पैर के चिह्नों के से अकृ- त्रिम चिह्न जिनसे उसकी उत्तमता की पहचान होती है। (ऐसे लोहे की धार खूब तीक्ष्ण और कतड़ी होती है)। आब जौहर। ८९. मान। प्रतिष्ठा। इज्जत। आबरू। साख। उ०—(क) महमद हाशिम शंका मानी। चपे चौधरी उतरयो पानी।—लाल (शब्द०)। (ख) बोली बचन हास करि रानी। राख्यो तुम पांडव कर पानी।— सबलसिंह (शब्द०)। यौ०—पतपानी। मुहा०—पानी उतरना = साख जाती रहना। इज्जत उतरना। मान न रह जाना। उ०—चपे चौधरी उतरयो पानी।— लाल (शब्द०)। पानी उतारना = अपमानित करना। इज्जत उतारना। उ०—जिन नहिं नेकु कानि मम मानी। दीन उतारि छनक में पानी।—सबलसिंह (शब्द०)। पानी जाना = प्रतिष्ठा नष्ट होना। इज्जत जाना। मान न रह जाना। पानी बचाना = किसी की प्रतिष्ठा या आबरू की रक्षा करना। किसी की इज्जत बचाना। पानी रखना या पानी राखना पु = दे० 'पानी बचाना'। उ०—राख्यो तुम पांडव कर पानी।—सबलसिंह (शब्द०)। पानी लेना = किसी की प्रतिष्ठा या इज्जत नष्ट करना। किसी की बेआ- बरूई करना। आबरू लेना। उ०—सुंदर नयन निहारि लियो कमलन को पानी।—सूर (शब्द०)। बे पानी करना = प्रतिष्ठा नष्ट करना। पानी लेना। यौ०—पानीदेवा। ९. वर्ष। साल। जैसे, पाँच पानी का सूअर अर्थात् ऐसा सूअर जिसने पाँच बरसातों देखी हैं अर्थात् जिसके पाँच साल पूरे हो चुके हों। १०. मुलम्मा। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—फेरना। ११. वीर्य। शुक्र। नुत्फा (बाजारू)। मुहा०—पानी गिराना = स्त्रीप्रसंग करना। (बाजारू)। १२. पुंस्त्व। मरदानगी। जीवट। हिम्मित। स्वाभिमान। जैसे,—उसमें तनिक भी पानी नहीं है। १३. थोड़े आदि पशुओं की वंशगत विशेषता या कुलीनता। घोड़े आदि की नस्ल। जैसे,—यह जानवर पानी और खेत का अच्छा है। १४. पानी की तरह ठंढा पदार्थ। जैसे,—तवा तो पानी हो रहा है। मुहा०—पानी करना या कर देना = किसी के चित्त को ठंढाकर देना। किसी का गुस्सा उतार देना। जैसे,—मैने दो ही बातों में उन्हें पानी कर दिया। (किसी का) पानी होना या हो जाना = (१) क्रोध उतर जाना। गुस्सा जाता रहना। जैसे,—मुझे देखते ही वे पानी हो गए। (२) उग्रता या तेजी न रह जाना। मंद पड़ जाना। धीमा हो जाना। १५. एकबारगी, गीली, नरम या मुलायम चीज (अत्युक्ति)। १६. पानी की तरह फीका या स्वादहीन पदार्थ। जैसे,— (क) शोरवे में बस पानी का मजा है। (ख) दाल क्या है, बिलकुल पानी है। १७. कुश्ती या लड़ाई आदि। द्वंद्व युद्ध। जैसे,—(क) यह बटर दो पानी हार चुका। (ख) इन दोनों में भी एक पानी हो जाने दो। १८. बार। बेर। दफा। जैसे,—अबकी उन्हे जहाँ दो पानी पीटा कि वे दुरुस्त हुए (बाजारू)। १९. मद्य। शराब (बोलचाल)। १०. अवसर। समय। मौका। जैसे—अब वह पानी गया। २१. जलवायु। आबहवा। जैसे,—यहाँ का पानी हमारे अनुकूल नही। मुहा०—कड़ा पानी = ऐसी जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले मनुष्य पशु फुरतीले, शूर, साहसी, जीवटवाले, सहिष्णु तथा कट्ठर स्वभाव के हों। नरम पानी = ऐसी जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले मनुष्य या पशु मंद, ढीले बदन के, जीवटहीन और असहिष्णु हों। पानी लगना = स्थानविशेष के जलवायु के कारण स्वारथ्य बिगड़ना या कोई रोग होना। उ०—लागत अति पहार कर पानी। विपिन विपति नहिं जाय बखानी।—तुलसी (शब्द०)। २२. परिस्थिति। सामाजिक दशा। लोगों की चाल ढाल या रंग ढंग। जैसे,—(क) बनारस का पानी ही ऐसा है कि रंग ढंग बदल जाता है। (ख) अब उन्हें कलकत्ते का पानी लग चला। विशेष—इस शब्द से केवल बुरी परिस्थिति, बदमाशी, चालढाल या चरित्र बिगड़नेवाली सामाजिक दशा व्यंजित होती है, अच्छी सामाजिक परिस्थिति नहीं। मुहा०—पानी लगना = परिस्थिति का प्रभाव पड़ना। नए नए लोगों के साथ का असर पड़ना।
⋙ पानी पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाणि] दे० 'पाणि'। उ०—जयति जय बज्र तनु, दसन, नख, मुख विकट, चंड भुजंदंड, तरु सैल पानी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६७।
⋙ पानी आलू
संज्ञा पुं० [सं० पानीयालु] एक कद जो त्रिदोषनाशक है। पानीयालु।
⋙ पानीतराश
संज्ञा पुं० [फा०] जहाज वा नाव के पेंदे में वह बड़ी लकड़ी जो पानी को चीरती है (लश०)।
⋙ पानीदार
वि० [हिं० पानी + फा० दार (प्रत्य०)] १. आबदार। चमकदार। २. इज्जतदार। माननीय। आबरूदार। ३. जीवटवाला। मरदाना। आनवाला। आत्माभिमानी।
⋙ पानीदेवा
वि० [हिं० पानी + देवा (= देनेवाला)] १. तर्पण या पिंड़दान करनेवाला। २. पुत्र। तनय। तनुज। ३. अपने कुल का। स्ववंशीय। मुहा०—पानीदेवा न रह जाना = वंश उच्छेद हो जाना। वंश का समूल नाश हो जाना। कुल में एक भी व्यक्ति जीवित न रह जाना। जैसे,—उसके वंश में न कोई नामलेवा रहा न पानीदेवा।
⋙ पानीपत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध युद्धक्षेत्र जो दिल्ली और अंबाला के बीच में है। विशेष—यहाँ कई प्रसिद्ध और राज्य पलटनेवाले युद्ध हुए हैं। इसी के पास कुरुक्षेत्र है जिसमें महाभारत का युद्ध हुआ था। पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन गोरी का वह युद्ध इसी के पास हुआ था जिससे भारत में मुसलमानी राज्य का आरंभ हुआ। पठानों के हाथ से राजलक्ष्मी इसी मैदान में मोगलों के हाथ गई। मरहठों के साथ अहमदशाह दुर्रानी का युद्ध इसी मैदान में हुआ था और हिंदु साम्राज्य फिर स्थापित होते होते रह गया।
⋙ पानीपोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी = पोट] मुसलाधार पानी। उ०—अब न सम्हरिहैं तब कहा करिहैं परिहैं पानी पोट।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २६४।
⋙ पानीफल
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + सं० फल] सिंघाड़ा।
⋙ पानीबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + बेल] एक प्रकार की बड़ी लता जिसकी पत्तियाँ तीन से सात इंच तक लंबी होती हैं। मूसल। विशेष—गरमी के दिनों में इसमें ललाई लिए भूरे रंग के छोटे फूल लगते हैं और वर्षा ऋतु में यह फलती है। इसके फल खाए जाते हैं और जड़ का ओषधि के रूप में व्यवहार होता है। यह रुहेलखंड अवध और ग्वालियर के आसपास औऱ विशेषतः साल के जंगलों में पाई जाती है। इसे मूसल भी कहते हैं।
⋙ पानीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। उ०—बरसि प्रेम पानीय हिय हरित करो अभिराम।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९७। २. मद्य। शराब (तंत्र)।
⋙ पानीय (२)
वि० १. पीने योग्य। जो पीया जा सके। २. रक्षा करने योग्य। रक्षा संबंधी। रक्षा करने का। उ०—सभा माँझ द्रुपदी पति राखी पानिय गुण है जाकी। वसन ओट करि कोटि विश्वंभर परन न पायो झाँकी।—सूर (शब्द०)।
⋙ पानीयकल्याण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में त्रिफला, एलुआ, हलदी, अनंतमूल, मजीठ, नागकेसर लालचंदन आदि अनेक ओषधियों के योग से बनाया हुआ एक प्रकार का घृत जो अपस्मार, उन्माद, ज्वर, खाँसी, क्षय, आदि रोगों को दूर करनेवाला माना जाता है।
⋙ पानीयकाकिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक समुद्री पक्षी [को०]।
⋙ पानीयकाकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पानीयकाकिक'।
⋙ पानीयचूर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रेत। बालू।
⋙ पानीयनकुल
संज्ञा पुं० [सं०] ऊदबिलाव।
⋙ पानीयपृष्ठज
संज्ञा पुं० [सं०] जलकुंभी।
⋙ पानीयफल
संज्ञा पुं० [सं०] मखाना।
⋙ पानीयमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] बकुची।
⋙ पानीयवर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालू।
⋙ पानीयशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ प्यासों को पानी पिलाया जाता है। जलसत्र। पौसरा। प्याऊ।
⋙ पानीयशालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पानीयशाला'।
⋙ पानीयामलक
संज्ञा पुं० [सं०] पानी आँवला।
⋙ पानीयालु
संज्ञा पुं० [सं०] पानी आलू नामक कंद। यह त्रिदोष- नाशक और तृप्तिकारक माना जाता है। पर्या०—अनुपालु। जलालु। क्षुपालु। अपालुक।
⋙ पानीयाश्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास। बल्वजा।
⋙ पानूस पु
संज्ञा पुं० [फा० फानूस] दे० 'फानूस'। उ०—बाल छबीली तियनु मैं बैठी आपु छिपाई। अरगट ही पानूस सी परगट होति लखाइ।—बिहारी र०, दो० ६०३।
⋙ पानौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पानी'। उ०—जुग जुग बिरह यहै चलि आयौ, भक्तनि हाथ बिकानौ। राजसूय मैं चरन पखारे श्याम लिए कर पानी।—सूर०, १। ११।
⋙ पानौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० पान + बरा] पान के पत्ते का पकौड़ी। उ०—पानौरा, रायता, पकौरी। डुभकौरी मुँगछी सुठि सौरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ पान्यो ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] पानी। जल।
⋙ पान्हर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का सरपत।
⋙ पाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कर्म जिसका फल इस लोक और परलोक में अशोक हो। वह आचरण जो अशुभ अदृष्ट उत्पन्न करे। कर्ता का अघःपात करनेवाला कर्म। ऐसा काम जिसका परिणाम कर्ता के लिये दुःख हो। ब्यक्ति और समाज के लिये अहितकर आचरण। धर्म या पुण्य का उलटा। बुरा काम। निंदित काम। अकल्याणकर कर्म। अनाचार। गुनाह। पर्या०—अधर्म। दुर्दृष्ट। पंक। किल्विष। कल्मष। वृजिन। एनस्। अघ। अंहस्। दुष्कृत। पातक। शल्यक। पापक। विशेष—जिस प्रकार अकर्तव्य कर्म का करना पाप है, उसी प्रकार अवश्य कर्तव्य का न करना भी पाप है। धर्मशास्त्रा- नुसार निषिद्ध कार्यों अनुष्ठान और विहित कर्मों का अननुष्ठान, दोनों ही पाप हैं। पाप का फल पतन और दुख है। वह कर्ता का अनेक जन्मों में अहित करता है। पापी से संसर्ग रखनेवाला भी पापभागी और दुख का अधिकारी होता है। प्रायश्चित्त और भोग इन्हीं दो उपायों से पाप की निवृत्ति मानी गई है। यदि इन उपायों से उसके संस्कार भलो भाँति क्षीण न हुए तो वह मरणोपरांत कर्ता को नरक और जन्मांतर में अनेक प्रकार के रोग शोक आदि प्राप्त कराता है। स्वानिष्टाजनन पाप अर्थात् ऐसे पाप जिनसे तत्काल या कालांतर में केवल कर्ता का ही अनिष्ट होता है, जैसे, अभक्ष्यभक्षण, अगम्यागमन आदि, यथाविधि प्रायश्चित्त करने से नष्ट होते हैं। परंतु परानिष्टजनन पाप अर्थात् तत्काल कर्ता के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति का और कालांतर में कर्ता का अपकार करनेवाले पाप, जैसे, चोरी, हिंसा आदि ऐसे हैं जिनके संस्कार यथोचित राजदंड भुगत लेने से क्षीण होते हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि समाज के सामने अपना पाप प्रकट कर देने और उसके लिये अनुताप करने से वह क्षीण हो जाता है। यौ०—पापपुण्य। मुहा०—पाप उदय होना = संचित पाप का फल मिलना। पिछले जन्मों के पाप का बदला मिलना। कोई भारी हानि या अनिष्ट होना जिसका कारण पिछले जन्मों के बुरे कर्म समझे जायँ। जैसे,—कोई भारी पाप उदय हुआ है तभी उसको इस बुढ़ापे में लड़के का शोक सहना पड़ा है। पाप कटना = पाप का नाश होना। प्रायश्चित्त या दंडभोग से पापसंस्कारों का क्षय होना। पाप कमाना या बटोरना = पाप कर्म करना। लगातार या बहुत से पाप करना। ऐसे बुरे कर्म करते जाना जिनका फल बुरा हो। भविष्यत् या जन्मांतर में दुःख भोगने का समान करना। पाप काटना = पाप से मुक्त करना। किसी के पाप का नाश कर देना। निष्पाप करना। पापरहित कर देना। पाप की गठरी या मोट = पापों का समूह। किसी व्यक्ति के संपूर्ण पाप। किसी के जन्म भर के पाप। पाप गलना = पाप पड़ना। पाप होना। दोष होना। जैसे,—(क) पापी के संसर्ग से भी पाप लगता है। (ख) ऐसे महात्मा की निंदा करने से पाप लगता है। २. अपराध। कसूर। जुर्म। ३. वध। हत्या। ४. पापबुद्धि। बुरी नियत। बदनीयती। खोट। बुराई। जैसे,—उसके मन में अवश्य कुछ पाप है। ५. अनिष्ट। अहित। बुराई। खराबी। नुकसान। ६. कोई क्लेशदायक कार्य कार्य या विषय। परेशान करनेवाला काम या बात। बखेड़े का काम। झंझट। जंजाल। (केवल हिंदी में प्रयुक्ति)। मुहा०—पाप कटना = बाधा कटना। झगड़ा दूर होना। जंजाल छूटना। जैसे,—वह आप ही यहाँ से चला गया अच्छा हुआ, पाप कटा। पाप काटना = झगड़ा मिटाना। बला काटना। जंजाल छुड़ाना। पाप मोल लेना = जान बूझकर किसी बखेड़े के काम में फँसना। दर्द सर खरीदना। झगड़े में पड़ना। पाप गले या पीछे लगना = अनिच्छापूर्वक किसी बखेड़े या झंझट के काम में बहुत समय के लिये फँस जाना। कोई बाधा साथ लगना। ७. कठइनाई। मुश्किल। संकट। (क्व०)। मुहा०—पाप पड़ना पु—सामर्थ्य से बाहर हो जाना। मुश्किल पड़ जाना। कठिन हो जाना। उ०—सीरे जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिन तनु ताप। बसिबे को ग्रीषम दिननि परयो परोसिनि पाप।—बिहारी (शब्द०)। ८. पापग्रह। क्रूरग्रह। अशुभग्रह।
⋙ पाप (२)
वि० १. पापयुक्त। पापिष्ठ। पापी। २. दुष्ट। दुरात्मा। दुराचारी। बदमाश। ३. नीच। कमीना। ४. अशुभ। अमंगल। विशेष—पाप शब्द का विशेषण के रूप में अकेले केवल संस्कृत में व्यवहार होता है। हिंदी में वह समास के साथ ही आता है। जैसे, पापपुरुष, पापग्रह, आदि।
⋙ पापक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पाप।
⋙ पापक (२)
वि० पापयुक्त। पापी।
⋙ पापकर
वि० [सं०] पापी। पाप करनेवाला [को०]।
⋙ पापकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] अनुचित कार्य। बुरा काम। वह काम जिसके करने में पाप हो।
⋙ पापकर्मा
वि० [सं० पापकर्मन्] पापी। पातकी।
⋙ पापकर्मी
वि० [सं० पापकर्मिन्] [वि० स्त्री० पापकर्मिणी] पाप करनेवाला। पापी।
⋙ पापकल्प
वि० [सं०] पापी का सा आचरण रखनेवाला। पापी तुल्य। दुष्कर्मी। पापकर्म से जीविका करनेवाला। बदमाश।
⋙ पापकारक
वि० [सं०] पाप करनेबाला। पापी [को०]।
⋙ पापकारी
वि० [सं० पापकारिन्] पाप कर्म करनेवाला [को०]।
⋙ पापकृत्
वि० [सं०] दे० 'पापकारक' [को०]।
⋙ पापक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पापों का नष्ट होना। २. वह स्थान जहाँ जाना से पापों का नाश हो। तीर्थ।
⋙ पापगण
संज्ञा पुं० [सं०] छंद शास्त्र के अनुसार ठगण का आठवाँ भेद।
⋙ पापगति
वि० [सं०] भाग्यहीन। अभागा [को०]।
⋙ पापग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष के अनुसार कृष्णाष्टमी से शुक्लाष्टमी तक का चंद्रमा। वह चंद्रमा जो देखने में आधे से कम हो। २. फलित ज्योतिष के अनुसार सूर्य, मंगल, शनि और राहु, केतु ये ग्रह, अथवा इनमें से किसी ग्रह से युक्त बुध। ये ग्रह अशुभ फलकारक माने जाते हैं। उ०— पापग्रह तृतीय, षष्ठ, दशम, एकादश में हों।—बृहत्०, पृ० ३०१।
⋙ पापघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तिल।
⋙ पापघ्न (२)
वि० पापनाशक। जिसके पाप नष्ट हो।
⋙ पापघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी।
⋙ पापचंद्रमा
संज्ञा पुं० [सं० पापचन्द्रमा] फलित ज्योतिष के अनुसार विशाखा और अनुराधा नक्षत्र के दक्षिण भाग में स्थित चंद्रमा।
⋙ पापचर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पापचरा] पापचारी। पापी।
⋙ पापचर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। यातुधान। २. पाप में रत। पापी [को०]।
⋙ पापचारी
वि० [सं० पापचारिन्] [वि० स्त्री० पापचारिणी] पापी। पाप करनेवाला। पातकी।
⋙ पापचेता
वि० [सं० पापचेतस्] बुरे चित्तवाला। जिसके चित्त में सदा पाप बसता हो। दुष्टचित्त।
⋙ पापचेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा।
⋙ पापचेली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा।
⋙ पापचैल (१)
वि० [सं०] जो बुरे वस्त्र पहने हो। अशुभ या अभद्र वस्त्रधारी।
⋙ पापचैल (२)
संज्ञा पुं० अशुभ वस्त्र। अभद्र वस्त्र [को०]।
⋙ पापजीव
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार स्त्री, शूद्र, हुण और शवर आदि जीव।
⋙ पापड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्पट, प्रा० पप्पड़] उर्द अथवा मूँग की धोई के आटे से बनाई हुई मसालेदार पतली चपाती। विशेष—इसके बनाने की विधि यह है कि पहले आटे को केले, लटजीरे आदि के क्षार अथवा सोडा मिले हुए परानी में गूँधते हैं, फिर उसमें नमक, जीरा, मिर्च आचि मसाला देकर और तेल चुपड़ चुपड़कर बट्टे आदि से खूब कूटते हैं। अच्छी तरह कुट जाने पर एक तोले के बराबर आटे की लोई करके बेलन से उसे खूब बारीक बेलते हैं। फिर छाया में सुखाकर रख लेते हैं। खाने के पहले इसे घी या तेल में तलते या यों ही आग पर सेक लेते हैं। पापड़ दो प्रकार का होता है— सादा और मसालेदार। सादे पापड़ में केवल नमक, जीरा आदि मसाले ही पड़ते हैं और वह भी थोड़ी मात्रा में। परंतु मसालेदार में बहुत सै डाले जाते हैं और उनकी मात्रा भी अधिक होती है। दिल्ली, आगरा, मिर्जापुर आदि नगरों का पापड़ बहुत काल से प्रसिद्ध है। अब कलकत्ते आदि में भी अच्छा पापड़ बनने लगा है। हिंदुओं, विशेषतः नागारिक हिंदुओं के भोज में पापड़ एक आवश्यक व्यजंन है। मुहा०—पापड़ बेलना = (१) कठोर परिश्रम करना। भारी प्रयास करना। बड़ी मिहनत करना। जैसे,—आपसे किसने रहा था कि इस काम में आप इतने पापड़ बेलें? (२) कठइनाई या दुःख से दिन काटना। बहुत से पापड़ बेलना = बहुत तरह के काम कर चुकना। बहुत जगह भटक चुकना। जैसे,—उसने बहुत से पापड़ बेले हैं।
⋙ पापड़ (२)
वि० १. बारीक। पतला। कागज सा। २. सूखा। शुष्क।
⋙ पापड़ा
संज्ञा पुं० [सं० पर्पट] १. छोटे आकार का एक पेड़ जो मध्यप्रदेश, बंगाल, मद्रास आदि में उत्पन्न होता है। विशेष—इसकी पत्तियाँ हर झड़कर नई निकलती हैं। इसकी लकड़ी भीतर से चिकनी, साफ और पीलापन लिए भूरे रंग की तथा कड़ी और मजबूत होती है। उससे कंघी और खराद की चीजें बनाई जाती हैं। खुटाई का काम भी उसपर अच्छा होता है। इसे वनएडालु भी कहते हैं। २. दे० 'पित्तपापड़ा'।
⋙ पापड़ाखार
संज्ञा पुं० [सं० पर्पटक्षार] केले के पेड़ का क्षार।
⋙ पापड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पापड़ा] एक पेड़ जो मध्यप्रदेश, पंजाब और मद्रास में बहुत होता है। विशेष—इसका धड़ लंबा होता है। इसकी पत्तियाँ हर वर्ष झड़जाती हैं। इसकी लकड़ी पीलापन लिए सफेद होती है और घर, संगहे तथा गाड़ियों के बनाने में काम आती है।
⋙ पापदर्शी
वि० [सं० पापदर्शिन्] बुरी नीयत या निगाह से देखनेवाला। अनिष्ट करने की इच्छा से देखनेवाला।
⋙ पापदृष्टि
वि० [सं०] १. जिसकी दृष्टि पापमय हो। २. अशुभ या अमंगल दृष्टिवाला। जिसकी दृष्टि पड़ने से हानि पहुँचे। निंदितदृष्टि।
⋙ पापधी
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि पापमय या पापसक्त हो। पापमति। पापचेता। निंदित या दुष्ट बुद्धिवाला।
⋙ पापनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में ज्येष्ठा आदि कुछ नक्षत्र जो बुरे या निंदित माने जाते हैं।
⋙ पापनापित
संज्ञा पुं० [सं०] वह नापित जो धूर्त हो [को०]।
⋙ पापनामा
वि० [सं० पापनामन्] १. जिसका नाम बुरा हो। अमंगल या अभद्र नामवाला। २. बदनामा। अपकीर्तियुक्त। जिसकी निंदा या बदनामी हुई हो।
⋙ पापनासक
वि० [सं०] पापों का नाश करनेवाला [को०]।
⋙ पापनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पाप का नाश करे। पाप का नाश करनेवाला। पापनाशी। २. वह कर्म जिससे पाप का नाश हो। प्रायशिचत्त। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. पापनाश का भाव अथवा क्रिया। पाप का नाश होना या करना।
⋙ पापनाशिनी
संज्ञा पुं० [सं०] १. शमीवृक्ष। २. कृष्ण तुलसी।
⋙ पापनिश्चय
वि० [सं०] जिसने पाप करने का निश्चय किया हो। पाप करने को कृतसंकल्प। दुष्कर्म करने का निश्चय करनेवाला। खओटा काम करने को तैयार।
⋙ पापनिष्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रायश्चित्त [को०]।
⋙ पापपति
संज्ञा पुं० [सं०] उपपति। जार।
⋙ पापपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पापमय पुरुष। पापप्रकृति पुरुष। दुष्ट। २. तंत्र में माना हुआ एक पुरुष जिसके संपूर्ण शरीर का उपादन केवल पाप होता है। विशेष—इसके सिर के लेकर रोएँ तक संपूर्ण अंग प्रत्यंग किसी न किसी महापातक या उपपातक से बने माने जाते हैं। इसका वर्ण काजल की तरह काला और आँखें लाल होती हैं। यह सर्वदा क्रुद्ध और तरवार और ढाल लिए रहता है।
⋙ पासफल
वि० [सं०] वह (कर्म) जिसका फल पाप हो। पापोत्पादक। अशुभ फल देनेवाला।
⋙ पापबुद्धि
वि० [सं०] पापी। सदा पाप कर्म में लगा रहनेवाला [को०]।
⋙ पापभक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] कालभैरव।
⋙ पापभाक्
वि० [सं० पापभाज्] पापी। पाप करनेवाला [को०]।
⋙ पापभाव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पापमति' [को०]।
⋙ पापमति
वि० [सं०] जिसकी मति सदा पाप में रहे। पापबुद्धि। पापचेता। उ०—ऐसे जगमगाति ही जहाँ। आयौ कंस पाप- मति तहाँ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २२५।
⋙ पापमय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पापमथी] जिसमें सर्वत्र पाप ही पाप हो। पाप से ओतप्रोत। पाप से भरा हुआ। जो सर्वदा पापवासना या पापचेष्टा में लिप्त रहे।
⋙ पापमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्ट मित्र। अहित करनेवाला साथी [को०]।
⋙ पापमुक्त
वि० [सं०] जिसे पापों से छुटकारा मिल गया हो। निष्पाप [को०]।
⋙ पापमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] पापों का नाश करने की क्रिया। पाप का प्रक्षालन। २. पापों का नाश करनेवाला देवता, संत, तीर्थ आदि [को०]।
⋙ पापमोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी।
⋙ पापयक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं०] राजयक्ष्मा। क्षयरोग। तपेदिक।
⋙ पापयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] निकृष्ट या निंदित योनि। पाप से प्राप्त होनेवाली योनि। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि की योनि। उ०—स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि कह कह जो धर्माचरण के अनधिकारी समझे जाते थे।—कंकाल, पृ० १५३।
⋙ पापर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्बत] दे० 'पापड़'। उ०—फेनी पापर भूजै भए अनेक प्रकार। भइ जाउर भिजयावर सीझी सब ज्योनार।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पापर (२)
संज्ञा पुं० [अं० पाँपर] १. मुफलिस आदमी। निर्धन व्यक्ति। २. वह व्यक्ति जो मुफलिसी या निर्धनता के कारण दीवानी में बिना किसी प्रकार के अदालती रसूम या खर्च के किसी पर दावा दायर करने या मामला लड़ने की स्वीकृति पाता है। विशेष—ऐसे व्यक्ति को पहले प्रमाणित करना पड़ता है कि मैं मुफलिस हूँ। दावा दायर करने या मामला लड़ने कि लिये मेरे पास पैसा नहीं है। अदालत को विश्वास हो जाने पर वह उसे अदालती रसूम या खर्च से बरी कर देता है। पर हाँ, मामला जीतने पर उसे खर्च देना पड़ता है।
⋙ पापरोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रोग जो कोई विशेष पाप करने से होता है। पापविशेष के फल से उत्पन्न रोग। विशेष—धर्मशास्त्रानुसार कुष्ठ, यक्ष्मा, कुनख, श्यावर्दत (दाँतों का काला या बदरंग होना), पीनस, पूनिवक्त्र (श्वासवायु से दुर्गंध निकलना), हीनांगता, श्वित्र, श्वेतकुष्ठ, पंगुत्व, मूकता, लोलजिह्वता, उन्माद, अपस्मार, अंधत्व, काणत्व, भ्रामर (सिर में चक्कर आना), गुल्म श्लीपद (फीलपा) आदि रोग पापरोग माने गए हैं जो ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्णहरण आदि विशेष विशेष पापों के कर्ता को नरक और पशु, कीट, पतंग आदि की योनियों से पुनः मनुष्यजन्म प्राप्त करने पर होते हैं। २. मसूरिका। वसंत रोग। छोटी माता।
⋙ पापरोगी
वि० [सं० पापरोगिन्] [वि० स्त्री० पापरोगिणी] पाप- रोगयुक्त। जिसे कोई पापरोग हुआ हो।
⋙ पापर्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० पापर्द्धि] मृगया। आखेट। शिकार। विशेष—मृगया से पाप की ऋद्धि (बढ़ती) होना माना गया है, इसी से उसकगी पापर्धि संज्ञा हुई।
⋙ पापल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन परिमाण [को०]।
⋙ पापल (२)
वि० १. जो पाप का कारण या हेतु हो। २. पाप लेनेवाला। पापग्राहक (को०)।
⋙ पापलेन
संज्ञा पुं० [फा० पापलिन] एक सूती कपड़ा। एक प्रकार का डोरिया।
⋙ पापलोक
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पापलोक्य] पापियों कै रहने का स्थान। पापी को मिलनेवाला लोक। नरक।
⋙ पापलोक्य
वि० [सं०] १. नरक का। नारकीय। २. नरक से संबंध रखनेवाला। नरक [को०]।
⋙ पापवाद
संज्ञा पुं० [सं०] अशुभसूचक शब्द। अमंगल ध्वनि। कौवे आदि की ऐसी बोली जो अशुभसूचक मानी जाय।
⋙ पापविनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] पाप का नाश करने की क्रिया। पापमोचन [को०]।
⋙ पापशमनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] पापनाशिनी। पापनिवारिणी।
⋙ पापशमनी (२)
संज्ञा स्त्री० शमीवृक्ष।
⋙ पापशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप से शुद्ध होने की क्रिया या भाव। पापनिवारण। २. तीर्थस्थान।
⋙ पापसंकल्प
वि० [सं० पापसङ्कल्प] पापनिश्चय। जिसने पाप करने का पक्का इरादा कर लिया हो।
⋙ पापसूदनतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ स्थान।
⋙ पापहर (१)
वि० पुं० [सं०] पापनाशक। पापहारक।
⋙ पापहर (२)
संज्ञा पुं० एक नदी का नाम।
⋙ पापहा
वि० [सं० पापहन्] पाप का नाशक। पाप का हनन करनेवाला।
⋙ पापंकुशा
संज्ञा स्त्री० [सं० पापङ्कुश] आश्विन मास की शुक्ला एकदशी।
⋙ पापांत
संज्ञा पुं० [सं० पापन्त] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ पापा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुध की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है। पापख्या।
⋙ पापा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा कीड़ा जो ज्वार, बाजरे आदि की फसल में प्रायः उस वर्ष लग जाता है जिस वर्ष बरसात अधिक होती है।
⋙ पापा (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. बच्चों की एक स्वाभाविक बोली या शब्द जिससे वे बाप को संबोधित करते हैं। बाबू। पिता के लिये संबोधन। उ०—पापा ! अम छैर कन्ने जा रहे हैं।—भस्मावृत०, पृ० १७। विशेष—इस समय प्रायः युरोपियनों ही के बच्चे इस शब्द का प्रयोग करते हैं। २. प्राचीन काल में बिशप पादरियों और वर्तमान में केवल यूनानी पादरियों के एक विशेष वर्ग की सम्मानसूचक उपाधि।
⋙ पापाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुध की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा जेष्ठा नक्षत्र में रहता है। पापा।
⋙ पापचरण
संज्ञा पुं० [सं०] पाप का आचरण। पापपूर्ण कार्य। उ०—पुण्यात्मा होता है पुण्याचरण से और पापात्मा पापचरण से।—सं०, दरिया (भू०), पृ० ६०।
⋙ पापाचार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पापाचारी] पाप का आचरण। पापकार्य। दुराचार।
⋙ पापाचार (२)
वि० पाप का आचरण करनेवाला। पापी। दुराचारी।
⋙ पापात्मा
वि० [सं० पापात्मन्] जिसकी आत्मा सदा पापकर्म में फँसी या लिप्त रहे। पाप में अनुरक्त। पापी। दुष्टात्मा।
⋙ पापाघम
संज्ञा पुं० [सं०] महापापी। अत्यंत पापी [को०]।
⋙ पापनुबंध
संज्ञा पुं० [सं० पापनुबन्ध] पाप का परिणाम। पाप का फल [को०]।
⋙ पापनुवसित
वि० [सं०] पापत्मा। पापी [को०]।
⋙ पापापनुत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] पाप दूर करना। प्रायश्चित्त [को०]।
⋙ पापरंभ
वि० [सं० पापारम्भ] पाप कर्म करनेवाला। पापी [को०]।
⋙ पापाशय
वि० [सं०] मन में पाप रखनेवाला। पापचेता [को०]।
⋙ पापाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशौच का दिन। सूतक काल। २. निंदित दिन। अशुभ दिन।
⋙ पापाही
संज्ञा पुं० [सं० पापाहि] सर्प। साँप।
⋙ पापिग्रह †
संज्ञा पुं० [सं०] अशुभ ग्रह। दे० 'पापग्रह'। उ०— एख नक्षत्र में चार या पाँच पापग्रहों के मिलने से संवर्त्त कहा जाता है।—बृहत्० पृ० १०८।
⋙ पापिष्ठ
वि० [सं०] अतिशय पापी। बहुत बड़ा पापी। जो सदा पाप करता रहता हो। बहुत बड़ा गुनहगार।
⋙ पापी (१)
वि० [सं० पापिन्] [वि० स्त्री० पापिनी] १. पाप में रत या अनुरक्त। पाप करनेवाला। पापयुक्त। अघी। पातकी। उ०—(क) परगट गुपुत सरब विआपी। धर्मी चीन्ह न चीग्है पापी।—जायसी (शब्द०)। २. क्रूर। निर्दय। नृशंस। परपीड़क।
⋙ पापी (२)
संज्ञा पुं० पाप करनेवाला व्यक्ति। पापकारी। अपराधी वा दुराचारी मनुष्य।
⋙ पापीयसी
वि० स्त्री० [सं०] [वि० पुं० पापीयस्] अत्यंत। पापिनी। अधिक पापवाली। उ०—मम सदृश मही में कौन पापीयसी है। हृदयमणि गँया के नाथ जो जीविता हूँ।— प्रिय०, पृ० ८१।
⋙ पापोश
संज्ञा पुं० [फा०] जूता। उपानह।
⋙ पापोशकार
वि० [फा०] जूते बनानेवाला। मोची। [को०]।
⋙ पापोशकारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. जूता बनाने का काम। २. जूते पड़ना। जूतों से किसी की मरम्मत [को०]।
⋙ पापोस
संज्ञा पुं० [फा० पापोश] पापोश। जूता। उ०—अज्ज पुन्न पुरिसथ्थ पातिसाह पापोस पाइअ।—कीर्ति०, पृ० ५८।
⋙ पाप्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाप्मन्] १. पाप। २. दोष। अपराध (को०)। ३. अभाग्य। दुर्भाग्य (को०)।
⋙ पाप्मा (२)
वि० १. पापी। २. अपराधी (को०)।
⋙ पाबंद
वि० [फा०] [संज्ञा स्त्री० पाबंदी] १. बँधा हुआ। बद्ध। अस्वाधीन। कैद। २. किसी नियम, आज्ञा, वचन आदि के पूर्ण रूप से अधीन होकर काम करनेवाला। आचरण में किसी विशेष बात की नियमपूर्वक रक्षा करनेवाला। किसी बात का नियमित रूप से अनुसरण करनेवाला। नियम प्रतिज्ञा आदि का पालनकर्ता। जैसे,—(क) मैं तो सदा आपके हुक्म का पाबंद रहता हूँ। (ख) वे जन्म भर में कभी अपने वादे के पाबंद नहीं हुए। ३. नियमितः अथवा न्यायतः कोई विशेष कार्य करने के लिये बाध्य या लाचार। जो किसी वस्तु का अनुसरण करने के लिये बाध्य हो। नियम, प्रतिज्ञा, विधि, आदेश आदि का पालन करने के लिये बिबश। जैसे,— (क) जो प्रतिज्ञा मुझपर दबाब डालकर कराई गई उसका पाबंद मै क्यों होऊँ? (ख) आपका हर एक हुक्म मानने के लिये मै पाबंद नहीं हूँ।
⋙ पाबंद (२)
संज्ञा पुं० १. घोड़े की पिछाड़ी। २. बेड़ी (को०)। ३. नौकर। दास। सेवक।
⋙ पाबंदी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. पाबंद होने का भाव। बद्धता। अधीनता। उ०—सरकारी उच्च पदों से हिंदू वंचित थे। उनके सामाजिक कार्यों पर पाबंदियाँ थीं।—अकबरी०, पृ० १२। २. मजबूरी। लाचारी। ३. किसी वस्तु के अधीन हाकर काम करने का भाव। नियमित रूप से किसी बात का अनुसरण। नियम, प्रतिज्ञा, आदेश, विधि आदि का पालन। जैसे,—वे सदा अपने वादों की पाबंदी करते हैं। ४. कोई विशेष कार्य करने की बाध्यता या लाचारी। किसी वस्तु के अनुसरम की आवश्यकता। किसी कार्य का अवश्य- कर्तव्य या फर्ज होना। जैस,—आपकी सभी आज्ञाओं की मुझपर कोई पाबंदी नहीं है।
⋙ पाबोर
संज्ञा पुं० [हिं० पा + बोरना] कहारों अथवा डोली ढोनेवालों की बोलचाल में वह स्थान जहाँ कुछ अधिक पानी हो। वह स्थान जहाँ घुटने तक या घुटना डूबने भर पानी भरा हो। विशेष—रास्ते में जब कहीं ऐसा स्थान पड़ता है जिसमें कुछ अधिक पानी भरा होता है तब अगले कहार इस शब्द को कहकर पिछले कहारों को सावधान करते हैं।
⋙ पाबोस
वि० [फा०] १. आदर प्रणाम करनेवाला [को०]। पैर छूनेवाला।
⋙ पावोसी
संज्ञा स्त्री० [फा०] पैर छूना। प्रणाम करना। पैर चूमना [को०]।
⋙ पाम (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह डोरी जो गोटे, किनारी आदि के किनारों पर मजबूती के लिये बुनते समय डाल दी जाती है : २. लड़। रस्सी। डोरी। (लश०)।
⋙ पाम (२)
संज्ञा पुं० [सं० पामन्] १. दानेदार चकत्ते या फुंसियाँ जो चमड़े पर हो जाती हैं। २. खाज। खुजली।
⋙ पाम पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पाँव] दे० 'पाँव'। उ०—अरी अनोखी बाम, तूँ आई गौने नई। बाहर धरसि न पाम, है छलिया तुव ताक में।—रसखान०, पृ० १९।
⋙ पामध्न
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।
⋙ पामध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटकी।
⋙ पामड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पाँव + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'पावँड़ा'। उ०— सी सी कै उझकै झुकै चलत रुकै यदुराय। नव मखमल के पामड़े हाय गड़े ये पाय।—शृंगारसतसई (शब्द०)।
⋙ पामन्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाम'।
⋙ पामन
वि० [सं०] जिसे या जिसमें पाम रोग हुआ हो।
⋙ पामना †
क्रि० स० [हिं० पावना, पाना] प्राप्त करना। पाना। उ०—सुचिताँ होय भजो साहबनो, पामौ सदगत प्राणी।— रघु० रू०, पृ० २७।
⋙ पामर
वि० [सं०] १. खल। कमीना। पाजी। उ०—अरे पामर जयचंद ! तेरे उत्पन्न हुए विना मेरा क्या डूबा जाता था ?—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४७१।
⋙ पामरयोग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का निकृष्ट योग जिसके द्वारा भारतवर्ष के नट, बाजीगर आदि अदभुत अदभुत लाग के खेल किया करते हैं। इसके साधन से अनेक रोगों का नाश और अदभुत शक्तियों की प्राप्ति होना माना जाता है। कुछ लोग इसे 'मिस्सेरिजम' के अंतर्गत मानते हैं।
⋙ पामरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। उ०—मोही साँवरे सजनी तब ते गृह मोको न सोहाई। द्वार अचानक होई गए री सुंदर बदनदिखाई। ओढ़े पीरी पामरी पहिरे लाल निचोल। भौहें काँट कटीलियाँ सिक कीन्हीं विन मोल।—सूर (शब्द०)।
⋙ पामरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँव + री (प्रत्य०)] दे० 'पावँड़ी'। उ०—छोटे छोटे नूपुर सो छोटे छोटे पावँन में छोटी जरकसी लसी सामरी सु पामरी।—रघुराजसिंह (शब्द०)।
⋙ पामारि
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।
⋙ पामाल
वि० [फा० पा + माल (= मलना, दलना, रौंदना)] [संज्ञा पामाली] १. पैर से मला हुआ। रौंदा हुआ। पादा- क्रांत। पददलित। २. तबाह। बरबाद। चौपट। सत्यानाश।
⋙ पामालो
संज्ञा स्त्री० [फा०] तबाही। बरबादी। नाश।
⋙ पामोज
संज्ञा पुं० [हिं० पा + मोजा?] १. एक प्रकार का कबूतर जिसके पैर की उँगलियाँ तक परों से ढँकी रहती है। २. वह घोड़ा जो सवारी के समय सवार की पिंडली को अपने मुँह से पकड़ता है।
⋙ पायंटमैन
संज्ञा पुं० [अं० प्वायंटसमैन] वह आदमी जिसके जिम्मे रेलवे लाइन इधर से उधर करने या बदलने की कल रहती है।
⋙ पायंदगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] नित्यता। इस्तकलाख। स्थायित्व। उ०—किया नीर कूँ चश्म ए जिंदगी। पवन कूँ दिया उम्र पायंदगी।—दक्खिनी०, पृ० ११७।
⋙ पायंदा
वि० [फा० पायंदह्] अविनाशी। स्थायी। नित्य [को०]।
⋙ पायंदाज
संज्ञा पुं० [फा० पायंदाज] पैर पोछने का बिछावन। फर्श के किनारे का वह मोटा कपड़ा जिसपर पैर पोंछकर तब फर्श पर जाते हैं। उ०—दृगपग पोछन को किए भूषण पायंदाज।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ पायँ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाद] दे० 'पाँव'। उ०—पायँ परौ फगुआ नव दैहों मुरली देहु अँकोर।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३५६।
⋙ पायँचा
संज्ञा पुं० [हिं० पावँ] पाजामे का वह भाग जो पावँ को ढकता है। उ०—हाथ में पायँचा लेकर निखरी आती है।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९०।
⋙ पायँजेहरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायँ + जेहरी] पैर में पहनने का घुँघरूदार गहना। पायजेब।
⋙ पायँत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पायँती'।
⋙ पायँता
संज्ञा पुं० [हिं० पायँ + सं० स्थान, हिं० थान] १. पलंग या चारपाई का वह भाग जिधर पैर रहता है। सिरहाने का उलटा। पैताना। २. वह दिशा जिधर सोनेवाले के पैर हों। जैसे,—तुम्हारे पाँयते रखा हुआ है, उठकर ले लो।
⋙ पायँती
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिं० पायँता] पायँता। पैताना।
⋙ पायँपसारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] निर्मली का पौधा या फल।
⋙ पाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जल। पानी [को०]।
⋙ पाय पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाद] पैर। पाँव। उ०—बादल केरि जसोवै माया। आइ गहेसि बादल कर पाया।—जायसी, (शब्द०)।
⋙ पायक (१)
संज्ञा पुं० [सं० पादातिक, पायिक] १. धावन। दूत। हरकारा। उ०—है दससीस मनुज रघुनायक? जाके हनुमान- से पायक।—तुलसी (शब्द०)। २. दास। सेवक। अनुचर। ३. पैदल सिपाही। उ०—असी लक्ख पायक सहित, चढयौ अलाउद्दीन।—हम्मीर०, पृ० २४।
⋙ पायक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पान करनेवाला। पीनेवाला।
⋙ पायक्क पु
संज्ञा पुं० [सं० पताका] ध्वजा। पताका। उ०— पायक्क बंध डौंगर सुवीर।—प० रासो, पृ० १०६।
⋙ पायखाना
संज्ञा पुं० [फा० पाखनह्] दे० 'पाखाना'।
⋙ पायज
संज्ञा पुं० [देश०] मूत्र। पेशाब।
⋙ पायजामा
संज्ञा पुं० [फा० पाएजामह्] दे० 'पाजामा'।
⋙ पायजेब
संज्ञा स्त्री० [फा० पाजेब] दे० 'पाजेब'। उ०—बिछिया पग राई बेलि चित की गति हरती, पंकज को पायजेब पायजेब करती।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४३९।
⋙ पायठ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पाइठ'।
⋙ पायड़ा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैंडा'।
⋙ पायड़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पायँ] रकाब। पाँव अड़ाने का स्थान। उ०—हरि घोड़ा ब्रह्मा कड़ी, बिस्नू पीठ पलान। चंद सूर ह्वै पायड़ा, चढ़सी संत सुजान।—संतवाणी०, पृ० ३८।
⋙ पायतख्त
संज्ञा पुं० [फा० पायःतख्त, पाएतख्त] राजनगर। शासनकेंद्र। राजधानी।
⋙ पायताबा
संज्ञा पुं० [फा०] खोली की तरह का पैर का एक पहनावा जिससे उँगलियौं से लेकर पूरी या आधी टाँगें ढकी रहती हैं। मोजा। जुराबि।
⋙ पायदल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैदल'। उ०—कहे कासी पंडत लाल झेंडे बहुत। पायदल जावे तहत क्या खबर लाव।— दक्खिनी, पृ० ४६।
⋙ पायदान
संज्ञा पुं० [फा० पाएदान] दे० 'पावदान'।
⋙ पायदार
वि० [फा०] बहुत दिनों तक टिकनेवाला। बहुत दिनों तक चलनेवाला। जल्दी न टूटने फूटने या नष्ट होनेवाला। टिकाऊ। दृढ़। मजबूत।
⋙ पायदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] मजबूती। दृढ़ता।
⋙ पायन
संज्ञा पुं० [सं०] पिलाना [को०]।
⋙ पायना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तेज करना। सान धरना। २. पिलाने की क्रिया। ३. आर्द्र करना। सींचना। गीला करना [को०]।
⋙ पायपोश
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'पापोश'।
⋙ पायबोसी
संज्ञा स्त्री० [फा० पाबोसी] चरणचुंबन। पैर चूमना।
⋙ पायमाल
वि० [फा० पामाल, पाएमाल] १. पैरों से रौंदा हुआ। २. विनष्ट। बरबाद। ध्वस्त। उ०—तुलसी गरब तजि, मिलिबे को साज सजि, देहि सिय नतु पिय पायमाल जाहिगो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पायमाली
संज्ञा स्त्री० [फा० पामाली] १. दुर्गति। अधोगति। २. खराबी। बरबादी। नाश।
⋙ पायर पु
संज्ञा पुं० [हिं० पायल] नूपुर। पायजेब। उ०— नटनागर पायर पान मै, बृषभानु सुता यो चह्यो करिए। अहो माखन चोर। यही विधि सों, मम आँखिन बीच रह्यो करिए।—नट०, पृ० ७५।
⋙ पायरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पायड़ा, पाय+ रा (=रखना)] घोड़े की जीन या चारजामे के दोनों ओर लटकता हुआ पट्टी या तसमें में लगा हुआ लोहे का आधार जिसपर सवार के पैर टिके रहते हैं। रकाब।
⋙ पायरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कबूतर।
⋙ पायरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँवरी] दे० 'पावँड़ी'। उ०—आँखियाँ भरि आवतीं मेरी अजौं सुमिरे उनकी पग पायरियाँ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८८।
⋙ पायल
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाय+ ल (प्रत्य०)] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना जिसकमें घुँघरू लगे होते हैं। नूपुक। पाजेब। उ०—बजनी पँजनी पायलों मनभजनी पुर बाम। रजनी नींद न परति है सजनी बिन धनस्याम।—स० सप्तक, पृ० २३७। २. तेज चलनेवाली हथिनी। ३. वह बच्चाजन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर हों । ४. बाँस की सीढ़ी।
⋙ पायस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूध और शर्करा के साथ पकाया हुआ चावल। खीर। २. क्षीर। दुग्ध। दूध (को०)। ३. सरल- निर्यास। सलई का गोंद जो बिरोजे की तरह का होता है।
⋙ पायस (२)
वि० दूध या जल का। दुग्ध या जल से संबद्ध [को०]।
⋙ पायसा पु †
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पड़ोस। आसपास का स्थान। उ०—बौरानी जेठानी सासु ननद सहेली दासी पायसे की बासी तिय तिनके हो गोल में।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ पायसिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पायसिकी] जिसे उबाला या औटाया हुआ दूध प्रिय हो [को०]।
⋙ पाया
संज्ञा पुं० [सं० पाद, हिं० पाव फा० पायह्] १. पंलग, कुरसी, चौकी, तख्त आदि में खड़े डंडे या खंभे के आकार का वह भाग जिसके सहारे उसका ढाँचा या तल ऊपर ठहरा रहता है। गोड़ा। पावा। जैसे, तख्त का पाया, पलंग के चारों पाये। २. खंभा। स्तंभ। ३. पद। दरजा। रुतबा। ओहदा। ४. घोड़ों के पैर में होनेवाली एक बीमारी। ५. सीढ़ी। जीना।
⋙ पायाब
वि० [फा०] हलकर पार करने लायक। उथला। जो गहरा न हो। गाध [को०]।
⋙ पायाबी
संज्ञा स्त्री० [फा०] गाधता। छिछलापन। उथलापन [को०]।
⋙ पायान पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रथाण] १. गमन। प्रयाण। उ०— सुभ्रित सकल लिय बोलि पुच्छि परिहार तिनहि मत। चाहु- आन पायान कहत आखेट जुदध बत।—पृ० रा०, ७। ६५। २. आक्रमण। चढ़ाई। हमला। धाना। उ०—पायान राय जय- चंद को विगरि पिथ्थ कुन अंगमै।—पृ० रा०, ६१। १०६०।
⋙ पायिक
संज्ञा पुं० [सं०] [वास्तव में पादातिक का प्रा० रूप] १. पादातिक। पैदल सिपाही। २. दुत। चर।
⋙ पायित
संज्ञा पुं० [सं०] उदकदान। जल देना। जलप्रदान [को०]।
⋙ पायी
वि० [सं० पायिन्] पीनेवाला।
⋙ पायु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलद्वार। गुदा। उ०—श्रोत्र त्वक चक्षु घ्राण रसना रस को ज्ञान वाक्य पाणिपाद पायु उपस्थ हि बंध जू।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५८८। विशेष—पायु कर्मेंद्रियों में माना गया है। २. भरद्वाज ऋषि के एक पुत्र का नाम। ३. रक्षक। वह जो रक्षा करे। गोप्ता। पालक [को०]।
⋙ पायुभेद
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रग्रहण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें मोक्ष या तो नैऋत कोण या वायु कोण से होता है। विशेष—यदि नैऋत कोण से मोक्ष हो तो उसे दक्षिण पायुभेद और यदि वायु कोण से हो तो वाम पायुभेद कहते हैं। इन दोनों प्रकार के मोक्षों से सामान्य गुह्य पीड़ा और सुवृष्टि होती है।
⋙ पाथ्य (१)
वि० [सं०] १. पान करने के योग्य। पीने के लायक। २. निम्न। निंदनीय [को०]।
⋙ पाथ्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। २. परिमाण (को०)। ३. पेशा। व्यवसाय (को०)। ४. रक्षण (को०)। ५. पीना। पान करना (को०)।
⋙ पारंगत
वि० [सं० पारङ्गत] १. पार गया हुआ। २. जिसने किसी शास्त्र या विद्या को पढ़कर पार किया हो। जिसने किसी विषय को आदि से अंत तक पूरा पढ़ा हो। पूर्ण पंडित। पूरा जानकार। दे० 'पारगत'।
⋙ पारंपरीण
वि० [सं० पारम्परीण] परंपरागत। एक के पीछे दूसरा इस क्रम से बराबर चला आता हुआ।
⋙ पारंपर्य
संज्ञा पुं० [सं० पारम्पर्य] १. परंपरा का भाव। २. परंपराक्रम। ३. कुलक्रम। वंशपरंपरा। ४. आम्नाय। परंपरा से चली आती हुई रीति। यौ०— पारंपर्यक्रम = परंपरा से चला आता हुआ क्रम या सरणि।
⋙ पारंपर्येण
क्रि० वि० [सं० पारंपर्येण] क्रमशः। एक के बाद एक के क्रम से [को०]।
⋙ पारंपर्योपदेश
संज्ञा पुं० [सं० पारम्पर्येपदेश] परंपरा से चला आता हुआ उपदेश। ऐतिह्य जो प्रमाण के रूप में माना जाता है [को०]।
⋙ पारंभ पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रारंभ] दे० 'प्रारंभ'। उ०— चिंति मत आरंभ सेन पारंभ विचारिय। बाल वीर प्रथिराज देइ नाहीं परिहिरय।—पृ० रा०, ७। २८।
⋙ पार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी दूर तक फैली हुई वस्तु के विशेषतः नदी, समुद्र, झील, ताल आदि जलाशयों के आमने सामने के दोनों किनारों में उस किनारे से भिन्न किनारा जहाँ (या जिसकी ओर) अपनी स्थिति हो। दूसरी ओर का किनारा। अपर तट की सीमा। जैसे,— (क) यह नाव पार जायगी। (ख) जंगल के पार गाँव मिलेगा। (ग) वे पार से आ रेह हैं। (घ) नदी पार के आम अच्छे होते हैं। उ०— अंगद कहइ जाऊँ मैं पारा। जिय संसय कछु फिरती बारा।— तुलसी (शब्द०)। विशेष— इस शब्द के साथ सप्तमी की विभक्ति 'मे' प्रायः लुप्त ही रहती है, इससे इसका प्रयोग अव्ययवत् ही जान पड़ता है। यौ०— आरपार = (१) यह किनारा और वह किनारा। (२) इस किनारे से उस किनारे तक। जैसे,— नाले के आरपार लकड़ी का एक बल्ला रख दो। वारपार = यह किनारा और वह किनारा। जैसे,— जब नाव बीच धार में पहुँची तव वार- पार नहीं सूझता था। मुहा०—पार उतरना = (१) नदी आदि के बीच से होते हुए दूसरे किनारे पर पहुँचना। (२) जिस काम में लगे रहे हों उसे पूरा कर चुकना। किसी काम से छुट्टी पाना। (३) मतलब को पहुँचना। सिद्धि या सफलता प्राप्त करना। (४०) मरकर समाप्त होना। मर मिटना (स्त्री०)। पार उतरजाना = दे० 'पार उतरना' (१), (२), (३), (४) और (५)। मतलब साधकर अलग हो जाना। किनारे हो जाना। जैसे,— तुम तो ले देकर पार उतर गए, बोझ मेरे सिर पड़ा। पार उतारना = (१) दूसरे किनारे पर पहुँचाना। जल आदि के ऊपर का रास्ता तै कराना। (२) पूरा कर चुकना। समाप्ति पर पहुँचाना। (३) उद्धार करना। दुःख या कष्ट से बाहर करना। उबारना। उ०— रघुबर पार उतारिए, अपनी ओर निहारि।—(शब्द०)। (४) समाप्त करना। ठिकाने लगाना। मार डालना। (नदी आदि) पार करना= (१) नदी आदि के बीच से होते हुए उसके दूसरे किनारे पर पहुँचना। जल आदि का मार्ग तै करना। (२) पूरा करना। समाप्ति पर पहुँचना। तै करना। निबटाना। भुगताना। (३) निबाहना। बिताना। जैसे, जिंदगी पार करना। (किसी वस्तु या व्यक्ति को, नदी आदि के) पार करना = (१) नदी आदि के बीच से ले जाकर दूसरे किनारे पर पहुँचाना। जैसे, नाव को पार करना, किसी आदमी को पार करना। (२) दुर्गम मार्ग तै कराना। (३) कष्ट या दुःख के बाहर करना। उद्धार करना। पार लगना = नदी आदि के बीच से होते हुए उसके दूसरे किनारे पर पहुँचना। किसी का पार लगना = निर्वाह होना। जीवन के दिन काटना। कालक्षेप होना। जैसे,— तुम्हारा कैसे पार लगेगा? (इस मुहा० में 'बेड़ा' शब्द लुप्त समझना चाहिए)। किसी से पार लगना = पूरा हो सकना। हो सकना। जैसे— तुम्हारा काम हमसे नहीं पार लगेगा। पार लाना = (१) किसी वस्तु के बीच से ले जाकर उसके दूसरे किनारे पर पहुँचाना। उ०— हरि मोरी नैया पार लगा।— गीत (शब्द०)। (२) कष्ट या दुःख के बाहर करना। उद्धार करना। जैसे,— ईश्वर ही पार लगावे। (२) पूरा करना। समाप्ति पर पहुँचाना। खतम करना। जैसे,— किसी प्रकार इस काम को पार लगाओ। किसी का पार लगाना = निर्वाह करना। जीवन व्यतीत कराना। पार होना = (१) किसी दूर तक फैली हुई वस्तु के बीच से होते हुए उसके दूसरे किनारे पर पुहँचना। जैसे, नदी पार होना, जंगल पार होना। (२) किसी काम को पूरा कर चुकना। किसी काम से छुट्टी ग जाना। (३) मतलब साधकर अलग हो जाना। जैसे,— तुम तो अपना ले देकर पार हो जाओ काम चाहे हो या न हो। पार हो जाना= दे० 'पार होना' — (१), (२) और (३)। (४) छुट्टी पा जाना। मुक्त हो जाना। रिहाई पा जाना। फँसाव, झंझट, जवाबदेही आदि से छूट जाना। निकल जाना। जैसे— तुम तो दूसरों के सिर दोष मढ़कर पार हो जाओगे। लड़की पार होना = लड़की का ब्याह हो जाना। कन्या के बिवाह से छुट्टी पा जाना। २. सामनेवाला दूसरा पार्श्व। दूसरी तरफ। जैसे— (क) तीर कलेजे से पार होना। (ख) गेंद का दीवार के पार जाना। यौ०— आर पार = किसी वस्तु से होता हुआ उसके इस ओर से उस ओर तक। किसी वस्तु के ऊपर, नीचे या भीतर से होता हुआ उसकी एक तरफ से दूसरी तरफ तक। जैसे,— (क) दीवार के आरपार छेद हो गया। (ख) यह सड़क पहाड़ के आरपार गई है। (ग) बाँध के आरपार सुरंग खोदी गई। मुहा०— पार करना = किसी वस्तु के ऊपर, नीचे या भीतर से होते हुए उसकी दूसरी ओर पहुँचना। किसी वस्तु से होते हुए उसके आगे निकल जाना। लाँघते, भेदते या ऊपर से होते हुए दूसरे पार्श्व में जाना। जैसे, (क) मनुष्य या रास्ते का पहाड़ को पार करना। (ख) गेंद का दीवार को पार करना (ग) सुरंग का बाँध को पार करके निकलना। (घ) तीर का कलेजे को पार करना। विशेष— यदि कोई दूसरे मार्ग से जहाँ वह वस्तु न पड़ती हो जाकर उस वस्तु की दूसरी ओर पहुँच जाय तो उसे पार करना न कहेंगे। पार करने का अभिप्राय है वस्तु से होकर उसकी दूसरी तरफ पहुँचना। (किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के) पार करना = (१) किसी वस्तु के ऊपर, नीचे या भीतर से ले जाकर उसको दूसरी ओर पूहँचाना। लँघाकर या घुसाकर दूसरी ओर निकालना या जे जाना। जैसे,— (क) इस अंधे को हाथ पकड़ाकर टीले के पार कर दो। (ख) इस बार तीर पेड़ के पार कर देंगे। (ग) भाला कलेजे के पार कर दिया। (२) कष्ट या दुःख से बाहर करना। उबारना। उद्धार करना। जैसे,— किसी प्रकार इस विपत्ति से पार करो। पार होना= किसी वस्तु के ऊपर, नीचे या भातर से होते हुए उसकी दूसरी ओर पहुँचना। किसी वस्तु पर से जाकर, उसे लाँघकर या उसमें घुसकर उसकी दूसरी तरफ निकलना। जैसे, (क) गेंद का दीवार के पार होना। (ख) कटार का कलेजे के पार होना। उ०— इत मुख तें गग्गा कढ़ी उतै कढ़ी जमधार। 'वार' कहन पायो नहीं, भई करेजे पार। (शब्द०)। ३. आमने सामने के दोनों किनारों में से एक दूसरे की अपेक्षा से कोई एक। किसी वस्तु के पूरे विस्तार के बीचोबीच से गई हुई कल्पित रेखा के दोनों छोरों पर पड़नेवाले तटों या पार्श्वों में से कोई एक। ओर। तरफ। जैसे,— (क) नदी के इस पार से उस पार तुम नहीं जा सकते। (ख) दीवार में इस पार से उस पार तक छेद हो गया। (ग) जब पोस्ती ने पी पोस्त तब कूँड़ी के इस पार या उस पार।— हरिश्चंद्र (शब्द०)। विशेष— इस शब्द का प्रयोग उसी किनारे या पार्श्व के अर्थ में होगा जिसका कथन सामने के दूसरे किनारे या पार्श्व का संबंध लिए हुए होगा। जैसे, इस पार कहने से यह समझा जाता है कि कहनेवाले के ध्यान में दोनों किनारे हैं जिनमें से वह एक ही ओर इंगित करता है। यही कारण है, जिससे 'इस' और 'उस' की जगह 'एक' और 'दो' संख्यावाचक पदों का प्रयोग इस शब्द के पहले नहीं करते। 'एक पार से दूसरे पार तक' नहीं बोला जाता। इसी प्रकार दोनों 'किनारे' के अर्थ में 'दोनों पार' बोलना भी ठीक नहीं जान पड़ता।संख्यावाचक शब्द तब रख सकते जब 'पार' का व्यवहार सामान्यतः (बिना किसी विशेषता के) 'किनारा' के अर्थ में होता है। पर उसका प्रयोग सापेक्ष है। ४. छोर। अंत। अखीर। हद। परिमिति। मुहा०— पार पाना = अंत तक पहुँचना। समाप्ति तक पहुँचना। आदि से अंत तक जाना या पूरा करना। क०— शेष शारदा सहस श्रुति कहत न पावैं पार।— तुलसी (शब्द०)। किसी से पार पाना= किसी के विरुद्ध सफलता प्राप्त करना। जीतना जैसे,— वह बड़ा चालाक है, तुम उससे नहीं पार पा सकते।
⋙ पार (२)
अव्य० परे। आगे। दूर। लगाव से अलग। उ०— विप्र, धेनु, सुर, संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पार (३)
वि० [सं० पर] अन्य। पर। पराया। दे० 'पर'। उ०— पार कइ सेवइ राज दुवार।— वी० रासो०, पृ० ६९।
⋙ पारई †
संज्ञा स्त्री० [सं० पार] मिट्टी का बड़ा कसोरा। परई। उ०— मनि भाजन मधु पारई पूरन अमी निहारि। का छाँड़िय का संग्रहि कहहु बिबेक बिचारि।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पारक्
संज्ञा पुं० [सं०] सोना।
⋙ पारक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पारकी] १. पालन करनेवाला। २. प्रीति करनेवाला। ३. पूर्ति करनेवाला। ४. पार करनेवाला। ५. उद्धार करनेवाला।
⋙ पारकाम
वि० [सं०] उस पार जाने का इच्छुक। जो उस पार जाना चाहता हो [को०]।
⋙ पारक्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुण्य कार्य जिससे परलोक सुधरता है। २. विरोधी। अरि। शत्रु [को०]।
⋙ पारक्य (२)
वि० पराया। परकीय। दूसरे का।
⋙ पारख पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० परीक्षा, प्रा० परिक्ख, हिं० परिख, परिख] दे० 'परिख', 'पारख'।
⋙ पारख † (२)
वि० [सं० परीक्षक] जिसमें परखने या जाँचने की शक्ति हो। पारखी। उ०— (क) इतने समय पर्यंत तो बिना पारख गुरु के कोई मुक्ति नहीं पावेगा।— कबीर मं०, पृ० १६९। (ख) बिना पारख गुरु के अंधों की तरह टटोलते फिरते हैं।— कबीर सा०, पृ० ९७५।
⋙ पारखद पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पार्षद'।
⋙ पारखि
संज्ञा पुं० [हिं० पारखी] परीक्षक दे० 'पारखी'। उ०— रतन छिपाए ना छिपै पारखि होइ सो परीख।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०३।
⋙ पारखी
संज्ञा पुं० [हिं० पारिख + ई(प्रत्य०)] १. वह जिसे परख या पहचाने हो। वह जिसमें परीक्षा करने का योग्यता हो। २. परखनेवाला। जाँचनेवाला। परीक्षक। जैसे, रतनपारखी।
⋙ पारग (१)
वि० [सं०] १. पार जानेवाला। २. काम को पूरा करनेवाला। समर्थ। ३. पूरा जानकार। पूर्ण ज्ञाता।
⋙ पारग (२)
संज्ञा पुं० पूर्ण करना। निभाना। पालना। जैसे, प्रतिज्ञा, वादा [को०]।
⋙ पारगत (१)
वि० [सं०] १. जिसने पार किया हो। २. जिसने किसी विषय को आदि अंत तक पूरा किया हो। ३. समर्थ। ४. पूरा जानकार।
⋙ पारगत (२)
संज्ञा पुं० अर्हत। जिन (जैन)।
⋙ पारगामी
वि० [सं० पारगामिन्] दे० 'पारगत'। पार जानेवाला [को०]।
⋙ पारगिरामी †
वि० [वि० पारगामी?] दे० 'पारगामी'। उ०— बिनु शब्दै नही पारगिरामी। बिनु शब्दे नाहीं अंतरि- जामी।— प्राण०, पृ० १४०।
⋙ पारग्रामिक
वि० [सं०] १. परकीय। विदेशी। अन्यदेशीय। २. विरेधी। शत्रु [को०]।
⋙ पारग्रामी †
वि० [सं० पारगमी] दे० 'पारगामी'। उ०—और नासफेत पुरान कैसी है। महापवित्र है जैसे कोई प्रानी एकाग्र चित्त दै करि सुनै पढै़ जो पारग्रामी होइ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८१।
⋙ पारचा
संज्ञा पुं० [फा० पारचह्] १. टुकड़ा। खंड। धज्जी (विशे- षतः कपडे़, कागज आदि की)। २. कपड़ा। पट। वस्त्र। यौ०—पारचाफरोश = वस्त्र का व्यवसायी। बजाज। पारचाफरोशी = बजाजी। कपडे़ का व्यापार। पारचावाक = जुलाहा। कोरी। पारचावाफी = कपड़ा बुनने का काम। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. पहनावा। पोशाक। ५. कुएँ के मुँह के किनारे पर भीतर की ओर कुछ बढ़ाकर रखी हुई पटिया या लकड़ी जिसके उस पार से डोरी लटकाकर पानी खींचा जाता है। विशेष— यह इसलिये रखी जाती है जिसमें नीचे यटा ऊपर आते समय पानी का बर्तन कुएँ की दीवार से दूर रहे, उससे बार बार टकराया न करे। इसपर पानी खींचते समय कभी कभी पैर भी रख देते हैं।
⋙ पारज्
संज्ञा पुं० [सं०] सोना। सुवर्ण।
⋙ पारजन्मिक
वि० [सं०] अन्य जन्म का। दूसरे जन्म से संबंद्ध [को०]।
⋙ पारजात पु
संज्ञा पुं० [सं० पारिजात] दे० 'पारिजात'।
⋙ पारजायिक
वि० [सं०] पर-स्त्री-लंपट। व्यभिचारी [को०]।
⋙ पारटीट, पारटीनि
संज्ञा पुं० [सं०] शिला। चट्टान [को०]।
⋙ पारण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी व्रत या उपवास के दूसरे दिन किया जानेवाला पहला भोजन और तत्संबंधी कृत्य। विशेष— व्रत के दूसरे दिन ठीक रीति से पारण न करे तो पूरा फल नहीं होता। जन्माष्टमी को छोड़कर और सब व्रतों में पारण दिन को किया जाता है। देवपूजन करके और ब्राह्मण खिलाकर तब भोजन या पारण करना चाहिए। पारण के दिन काँसे के बर्तन में न खाना चाहिए, मांस, मद्य, मधु न खाना चाहिए, मिथ्याभाषण, व्यायाम, स्त्रीप्रसंगआदि भी न करना चाहिए। ये सब बातें वैष्णवों के लिये विशेष रूप से निषिद्ध हैं। २. तृप्त करने की क्रिया या भाव। ३. मेघ। बादल। ४. समाप्ति। खातमा। पूरा करने की क्रिया या भाव। ५. अध्ययन। पठन। पढ़ना (को०)। ६. किसी ग्रंथ का पूर्ण विषय (को०)।
⋙ पारण (२)
वि० १. पार करनेवाली। २. उद्धारक। रक्षक [को०]।
⋙ पारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०]< १. दे० 'पारण' उ०— बरित करू घरि आपणंइ, पारणो कीधो द्वादशी जोग।— बी० रासो, पृ० ५१। २. भोजन। खाना। भक्षण (को०)।
⋙ पारणीय
वि० [सं०] १. पूरा करने योग्य। (क्व०)। २. जो पूर्ण हो गया हो। पूर्णताप्राप्त (को०)।
⋙ पारतंत्र्य
संज्ञा पुं० [सं० पारतन्त्र्य] परतंत्रता। पराधीनता। उ०— वह है बौद्धधर्म जो देश काल, व्यक्ति के विविध पारतंत्र्य से मुक्त कर देता है।— किन्नर०, पृ० १०२।
⋙ पारत
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। पारद। २. एक देश और एक प्राचीन म्लेच्छ जाति का नाम। वि० दे० 'पारद'।
⋙ पारतल्पिक
वि० [सं०] जो पराई स्त्री के साथ गमन करे। व्यभिचारी।
⋙ पारत्रिक
वि० [सं०] १. परलोक संबंधी। पारलौकिक। २. (कर्म) जिससे परलोक बने। मरने के पीछे उत्तम गति देनेवाला।
⋙ पारत्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] परत्र या परलेक में प्राप्त होनेवाला फल [को०]।
⋙ पारथ
संज्ञा पुं० [सं० पार्थ] पार्थ। अर्जुन। उ०— भारत के पारथ और भीषम समान ये, हमीर औ अलाउदीन दोऊ दरसत हैं।— हम्मीर०, पृ० ५३। यौ०— पारथतिय = अर्जुन की स्त्री। द्रौपदी। उ०— पारथ तिय कुरुराज सभा मैं बोलि करन चहै नंगी।— सूर०, १। २१।
⋙ पारथि पु
संज्ञा पुं० [सं० पार्थ, हिं० पारथ] दे० 'पार्थ'। उ०— तीसर बूडे़ पारथि भाई। जिन बन दाह्यो दावा लाई।— कबीर वी० (शिशु०), पृ० ६२।
⋙ पारथिव पु
संज्ञा पुं० [सं० पार्थिव] दे० 'पार्थिव'। उ०— तब मज्जन करि रघुकुल नाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पारथ्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० पार्थ, हिं० पारथ] दे० 'पार्थ'। उ०— दल दिष्षि संग दीपंत तेम। भारथ्थ सैन पारथ्थ जेम।— प० रासो, पृ० १६५।
⋙ पारद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। २. एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कास्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। इसके हाथ में बहुत दिनों तक पारस साम्राज्य रहा। दे० 'पारस'। विशेष— महाभारत, मनुस्मृति, बृहत्संहिता इत्यादि में पारद देश और पारद जाति का उल्लेख मिलता है। यथा— 'पौंड्र- काश्चौंखूद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः। पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः। (मनु० १०। ४४)। इसी प्रकार बृहत्संहिता में पश्चिम दिशा में बसनेवाली जातियों में 'पारत' और उनके देश का उल्लेख है— 'पञ्चनद रमठ पारत तारक्षिति शृंग वैश्य कनक शकाः। पुराने शिलालेखों में 'पार्थव' रूप मिलता हैं जिससे युनानी 'पार्थिया' शब्द बना है। युरोपीय विद्वानों ने 'पह्लव' शब्द को इसी 'पार्थिव' का अपभ्रंश यटा रूपांतक मानकर पह्लव और पारद को एक ही ठहराया है। पर संस्कृत साहित्य में ये दोनों जातियाँ भिन्न लिखी गई हैं। मनुस्मृति के समान महाभारत और बृहत्संहिता में भी 'पह्लव' 'पारद' से अलग आया है। अतः 'पारद 'का'पह्लव' से कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। पारस में पह्लव शब्द शाशानवंखी सम्राटों के समय से ही भाषा और लिपि के अर्थ में मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में पारसियों को लिये भारतीय ग्रंथों में हुआ है। किसी समय में पारस के सरदार 'पहलबान' कहलाते थे। संभव है, इसी शब्द से 'पह्लव' शब्द बना हो। मनुस्मृति में 'पारदों' और 'पह्लवों' आदि को आदिम क्षत्रिय कहा है जो ब्राह्मणों के अदर्शन से संस्कारभ्रष्ट होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो गए।
⋙ पारदर्शक
वि० [सं०] १. जिसके भीतर से होकर प्रकाश की किरणों के जा सकने के कारण उस पार की वस्तुएँ दिखाई दें। जिससे आरपार दिखाई पडे़। जैसे,— शीशा पारदर्शक पदार्थ है। २. पार को दिखानेवाला (को०)।
⋙ पारदर्शिका
वि० स्त्री० [सं० पारदर्शक] आरपार दिखाई देनेवाली। उ०— नव मुकुर नीलमणि फलक अमल, ओ पारदर्शिका चिर चंचल।—लहर, पृ० ४८।
⋙ पारदर्शी
वि० [सं० पारदर्शिन्] १. उस पार तक देखनेवाला। २. दूर तक देखनेवाला। परिणामदर्शी। दूरदर्शी। चतुर। बुद्धिमान्। ३. जिसका खूब देखा सुना हो। जो पूरा पूरा देख चुका हो।
⋙ पारदाकार
वि० [सं०] पारे के समान श्वेत और चमकदार। उ०— पुनि ऋषीकेश अंकित अति शोभित कंठ पारदाकार।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ५१।
⋙ पारदारिक
संज्ञा पुं० [सं०] परस्त्रीगामी। जार।
⋙ पारदार्य
संज्ञा पुं० [सं० पारदार्य्य] परई स्त्री के साथ गमन। पर-स्त्री-गमन। व्यभिचार।
⋙ पारदृश्वा
वि० [सं० पारदृश्वन्] १. पारदर्शी। दूरदर्शी। २. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता [को०]।
⋙ पारदेशिक
वि० [सं०] १. विदेश का। अन्य देश का। विदेशी। २. यात्रा करनेवाला। मुसाफिर [को०]।
⋙ पारदेश्य
वि० [सं०] दूसरे देश से संबंधित। पारदेशिक [को०]।
⋙ पारधि पु
संज्ञा पुं० [सं० पापर्द्धिक, प्रा० पारद्धिथ, हिं० पारधी] दे० 'पारधी'। उ०— पहिलें पारधि जाइ बन घात करै चहुँ फेर। सपरि कुँअर तब कटक लै, खेसै जाइ अहेर।— त्रित्रा० पृ० २३।
⋙ पारधी (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिधान (=आच्छादन) अथवा सं० पापर्द्धिक, प्रा० पारद्धिअ] १. टट्टी आदि की ओट से पशु पक्षियों के पकड़ने या मारेनावाला। बहेलिया। ब्याध। उ०— मृग पारधी की मति कहा कीनी बाद-रस प्याइ बान मारयो तानि।— घनानंद, पृ० ३५६। २. शिकारी। अहेरी। हत्यारा। बधिक।
⋙ पारधी (२)
संज्ञा स्त्री० ओट। आड़। मुहा०— पारधी पड़ना = ओट से होकर कोई व्यापार देखना या किसी की बात सुनना।
⋙ पारन
संज्ञा पुं० [सं० पारणा] दे० 'पारण'।
⋙ पारना (१)
क्रि० सं० [हिं० पारना (पड़ना) क्रि० स० रूप] १. डालना। गिराना। उ०—पारि पायन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ७६। २. खड़ा या उठा न रहने देना। जमीन पर लंबा डालना। ३. लोटाना। उ०— (क) पारिगो न जाने कौन सेज पै कन्हैया को।— (शब्द०)। (ख) धन्य भाग तिहि रानि कौशिला छोट सूप महँ पारै।— रघुराज (शब्द०)। ४. कुश्ती या लड़ाई में गिराना। पछाड़ना। उ०— सोइ भुज जिन रण विक्रम पारै।— हरिचंद्र (शब्द०)। ५. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु में रखने, ठहराने या मिलाने के लिये उसमें गिराना या रखना। ६. रखना। उ०— मन न धरति मेरो कह्यो तू आपनी सयान। अहे परनि परि प्रेम की परहथ पार न प्रान।— बिहारी (शब्द०)। यौ०— पिंडा पारना = पिंडदान करना। उ०— जाय बनारस जारयो कया। पारयो पिंड नहायो गया।—जायसी (शब्द०)। ७. किसी के अंतर्गत करना। किसी वस्तु या विषय के भीतर लेना। शामिल करना। उ०— जे दिन गए तुमहिं विनु देखे। ते विरंचि जनि पारहि लेखे। तुलसी (शब्द०)। ८. शरीर पर धारण करना। पहनना। उ०— श्याम रंग धरि पुनि बाँसुरी सुधारि कर, पीत पट पारि बानी मधुर सुनावैंगी।— श्रीधर (शब्द०)। ९. बुरी बात घ़टित करना। अव्यवस्था आदि उपस्थित करना। उत्पात मचाना। उ०— औरै भाँति भएब ये चौसर चंदन चंद। पति बिनु अति पारत बिपति, मारत मारू चंद।— बिहारी (शब्द०) १०. साँचे आदि में डालकर या किसी वस्तु पर जमाकर कोई वस्तु तैयटार करना। जैसे, ईंटे या खपडे़ पारना, काजल पारना। ११. सजाना। बनाना। सँवारना। उ०— माँग भरी मोतिन सों पटियाँ नीकै पारी। नंद० ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ पारना पु † (२)
क्रि० अ० [सं० पारय (=योग्य) वा हिं० पार, जैसे, पार लगना (= हो सकना)] सकना। समर्थ होना। उ०— प्रभु सन्मुख कछु कहइ न पारइ। पुनि पुनि चरन सरोज निहारइ।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पारना पु † (३)
क्रि० स० [सं० पालन] दे० 'पालना'। उ०— नेमनि संग फिरै भटक्यो पल मूँदि सरूप निहारत क्यौं नहिं। स्याम सुजान कृपा घनआनँद प्रान पपीहनि पारत क्यों नहीं।—घनानंद, पृ० १५१।
⋙ पारबती
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्वती] 'पार्वती'। उ०— पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी।— मानस, १। १०७।
⋙ पारब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं० परब्रह्म] दे० 'परब्रह्म'। उ०— सभै काल बसि होय, मौत कालौ की होती। पारब्रह्म भगवान मरै ना अविगत जोती।— पलटू०, भा० १, पृ० २१।
⋙ पारभृत
संज्ञा पुं० [सं० प्राभृत] उपायन। उपहार। भेंट [को०]।
⋙ पारमहंस्य
वि० [सं०] परमहंस से संबंधित। परमहंस का [को०]।
⋙ पारमार्थिक
वि० [सं०] १. परमार्थ संबंधी। जिससे परमार्थ सिद्ध हो। जिससे मनुष्य को पारलौकिक सुख हो। २. वास्तविक। जो केवल प्रतीति या भ्रम न हो। सदा ज्यों का त्यों रहनेवाला। नाम रूप से भिन्न शुद्ध सत्य। जैसे, पारमार्थिकी सत्ता, पारमार्थिक ज्ञान। ३. सर्वोत्तम। अत्युत्तम। सर्वोंत्कृष्ट (को०)। ४. परस्पर विभक्त (को०)।
⋙ पारमार्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] परम सत्य। शुद्ध सत्य [को०]।
⋙ पारमिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० परमिकी] श्रेष्ठ। सर्वोत्तम। मुख्य [को०]।
⋙ पारमित
वि० [सं०] १. उस पार या किनारे गया हुआ। २. सर्वातिशायी। सर्वोत्कृष्ट [को०]।
⋙ पारमिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णता। गुणों की पराकाष्ठा [को०]। विशेष— पारमिता छह कही गई हैं, — (१) दाल, (२) शील, (३) क्षमा, (४) धैर्य, (५) ध्यान और (६) प्रज्ञा। कुछ लोगों के मत में सत्य, अधिष्ठान, मैत्र और उपेक्षा को मिलाकर यह १० कही गई हैं।
⋙ पारमेश्वर
वि० [सं०] परमेश्वर संबंधी। परब्रह्म संबंधी [को०]।
⋙ पारमेष्ठय
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठता। सर्वोच्च स्थान। सर्वेश्वरता। २. राजचिह्न [को०]।
⋙ पारय
वि० [सं०] उपयुक्त। योग्य [को०]।
⋙ पारयिष्णु
वि० [सं०] १. संतोषजनक। तृप्तिदायक। २. पार करने या पूरा करने में शक्त। ३. जिसने पार कर लिया हो जिसने पूर्ण कर लिया हो [को०]।
⋙ पारलोक्य
वि० [सं०] दे० 'पारलौकिक' [को०]।
⋙ पारलौकिक (१)
वि० [सं०] १. परलोक संबंधी। २. परलोक में शुभ फल देनेवाला।
⋙ परलौकिक (२)
संज्ञा पुं० अंत्येष्ठि कर्म [को०]।
⋙ पारवत
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर। पारावत [को०]।
⋙ पारवर्ग्य
वि० [सं०] अन्य वर्ग या दल का। अपर पक्ष का। अन्यदलीय। विरोधी [को०]।
⋙ पारवश्य
संज्ञा पुं० [सं०] परवशता। परतंत्रता।
⋙ पारविषयिक
वि० [सं०] दूसरे राज्य का। विदेशी (कौटि०)।
⋙ पारशव (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पारशवी] १. लौहनिर्मित। लोहे का बना हुआ। २. परशु का। परशु संबंधी [को०]।
⋙ पारशव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न पुरुष या जाति। २. पराई स्त्री से उत्पन्न पुत्र। ३. लोहा। ४. एक देश का नाम जहाँ मोती निकलते थे।
⋙ पारश्व पु
वि० [सं० पार्श्व] ओर। तरफ। पार्श्व। उ०— जाके दुहूँ पारश्व पँचमहले महल छबि छाजते।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११४।
⋙ पारश्वव, पारश्वधिक
संज्ञा पुं० [सं०] परशुधारी व्यक्ति। फरसा लेकर युद्ध करनेवाला योद्धा [को०]।
⋙ पारश्वय
संज्ञा पुं० [सं०] सुवर्ण। सोना।
⋙ पारषद पु
संज्ञा पुं० [सं० पार्षद] दे० 'पार्षद'।
⋙ पारषी
संज्ञा पुं० [सं० परीक्षक] दे० 'पारखी'। उ०— रत्न पारषी ने ऐसे दरिद्र के हाथ में ऐसी अनमोल रत्नजडित अँगूठी को देखकर मन में चोर समझा और कोतवाल के पास भेजा।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ३१।
⋙ पारस (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श, हिं० परस] १. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यदि लोहा उससे छुलाया जाय तो सोना हो जाता है। स्वर्णमणि। उ०— पारस मनि लिय अप्प कर दिय प्रोहित कह दान।—प० रासो, पृ० ३३। विशेष—इस प्रकार के पत्थर की बात फारस, अरब तथा योरप में भी रसायनियों अर्थात् कीमिया बनानेवालों के बीच प्रसिद्ध थी। योरप में कुछ लोग इसकी खोज में कुछ हैरान भी हुए। इसके रूप रंग आदि तक कुछ लोगों ने लिखे। पर अंत में सब ख्याल ही ख्याल निकला। हिंदुस्तान में अब तक बहुत से लोग नैपाल में इसके होने का विश्वास रखते हैं। २. अत्यंत लाभदायक और उपयोगी वस्तु। जैसे,— अच्छा पारस तुम्हारे हाथ लग गया है।
⋙ पारस (२)
वि० १. पारस पत्थर के समान स्वच्छ और उत्तम। चंगा। नीरोग। तंदुरुस्त। जैसे,— थोडे़ दिन यह दवा खाओ, देखो देह कैसी पारस हो जाती है। २. जो किसी दूसरे को भी अपने समान कर ले। दूसरों को अपने जैसा बनानेवाला। उ०— पारस जोनि लिलाटहि ओती। दिष्टि जो करै होई तेहि जोती।— जायसी (शब्द०)।
⋙ पारस (३)
संज्ञा पुं० [हिं० परसना] १. खाने के लिये लगाया हुआ भोजन। परसा हुआ खाना। २. पत्तल जिसमें खाने के लिये पकवान मिठाई, आदि हो। जैसे,— जो लोग बैठकर नहीं खायँगे उन्हें पारस दिया जायगा।
⋙ पारस (४)
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व] १. पास। निकट। समीप। उ०— (क) भृकुटी कुटिल निकट नैनन के चपल होत यहि भाँति। मनहु तामरस पारस खेलत बाल भृंग की पाँति।— सूर (शब्द०)। (ख) उत श्यामा इत सखा मंडली, इत हरि उत ब्रजनारि। मनो तामरस पारस खेलत मिलि मधुकर गुंजारि।—सूर (शब्द०)। २. घेरा। मंडल।
⋙ पारस (५)
संज्ञा पुं० [सं० पलास] बादाम या खूबानी की जाति का एक भझोला पहाड़ी पेड़ जो देखने में ढाक के पेड़ सा जान पड़ता है। विशेष— यह हिमालय पर सिंधु के किनारे से लेकर सिक्किम तक होता है। इसमें से एक प्रकार का गोंद और जहरीला तेल निकलता है जो दवा के काम में आता है। इसे गीदड़ ढाक और जामन भी कहते हैं।
⋙ पारस (६)
संज्ञा पुं० [सं० पारस्य] हिंदुस्तान के पश्चिम सिंधुनदी और अफगानिस्तान के आगे पड़नेवाला एक देश। प्राचीन कांबोज और वाह्लीक के पश्चिम का देश, जिसका प्रताप प्राचीन काल में बहुत दूर दूर तक विस्तृत था और जो अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के लिये प्रसिद्ध चला आता है। विशेष—अत्यंत प्राचीन काल से पारस देश आर्यों की एक शाखा का वासस्थान था जिसका भारतीय आर्यों से घनिष्ट संबंध था। अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा सरयू के किनारे तक की काली भूमि आर्यभूमि थी, जो अनेक प्रेदशों में विभक्त थी। इन प्रदेशों में भी कुछ के साथ आर्य शब्द लगा था। जिस प्रकार यहाँ आर्यांवर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वींय प्रदेश 'अरियान' या 'ऐर्यान' (यूनानी— एरियाना) कहलाता था जिससे ईरान शब्द बना है। ईरान शब्द आर्यावास के अर्थ में सारे देश के लिये प्रयुक्त होता था। शाशानवंशी सम्राटों ने भी अपने को 'ईरान के शाहंशाह' कहा है। पदाधिकारियों के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है।— जैसे 'ईरान-स्पाहपत' (ईरान के सिपाहपति या सेनापति), 'ईरान अंबारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ आर्य शब्द बडे़ गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट् दारयवहु (दारा) ने अपने को 'अरियपुत्र' लिखा है। सरदोरों के नामों में भी आर्य शब्द मिलता है, जैसे, अरियशम्न, अरियोवर्जनिस, इत्यादि। प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बँटा था उनमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़नेवाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पड़ा। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पार्सिपोलिस) थी, जहाँपर आगे चलकर 'इश्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम हखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिये व्यवहृत होने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता। पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में पारस्य और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों में उपासना,कर्मकांड आदि में भेद नहीं था। वे अग्नि, सूर्य वायु आदि की उपासना और अग्निहोत्र करते थे। मिथ (मित्र = सूर्य), वायु (= वायु), होम (= सोम), अरमइति (= अमति), अहमन् (= अर्यमन्), नइर्यसंह (= नरार्शस) आदि उनके भी देवता थे। बे भी बडे़ बडे़ यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अथ्रवन (अथर्वन्) नामक याजक काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्यभाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली हैं। प्राचीन पारसी और वैदिक संस्कृत में कोई विशेष भेद नहीं जान पडता। अवस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं। जैसे, हप्तहिंदु (सप्तसिंधु = पंजाब), हरख्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू) इत्यादि। वेदों से पता लगता है कि कुछ देवताओं को असुर संज्ञा भी दी जाती थी। वरुण के लिये इस संज्ञा का प्रयोग कई बार हुआ है। सायणाचार्य ने भाष्य में असुर शब्द का अर्थ लिखा है— 'अमुर सर्वेषां प्राणद'। इंद्र के लिये भी इस संज्ञा का प्रयोग दो एक जगह मिलता है, पर यह भी लिखा पाया जाता है कि 'यह पद प्रदान किया हुआ है'। इससे जान पड़ता है कि यह एक विशिष्ट संज्ञा हो गई थी। वेदों में क्रमशः वरुण पीछे पड़ते गए हैं और इंद्र को प्रधानता प्राप्त होती गई है। साथ ही साथ असुर शब्द भी कम होता गया है। पीछे तो असुर शब्द राक्षम, दैत्य के अर्थ में ही मिलता है। इससे जान पड़ता है कि देवोपासक और असुरोपासक ये दो पक्ष आर्यों के बीच हो गए थे। पारस की ओर जरथुस्त्र (आधु० फा० जरतुश्त) नामक एक ऋषि या ऋत्विक् (जोता सं० होता) हुए जो असुरोपासकों के पक्ष के थे। इन्होंने अपनी शाखा ही अलग कर ली और 'जंद अवस्ता' के नाम से उसे चलाया। यही 'जंद अवस्ता' पारसियों का धर्मग्रंथ हुआ। इससे देव शब्द दैत्य के अर्थ में आया है। इंद्र या वृत्रहन् (जंद, वेरेयघ्न) दैत्यों का राजा कहा गया है। शश्रोर्व (शर्व) और नाहंइत्य (नासत्य) भी दैत्य कहे गए हैं। अंघ्र (अंगिरस?) नामक अग्नियाजकों की प्रशंसा की गई है और सोमपान की निंदा। उपास्य अहुरमज्द (सर्वज्ञ असुर) है, जो धर्म और सत्यस्वरूप है। अह्रमन (अर्यमन्) अधर्म और पाप का अधिष्ठाता है। इस प्रकार जरयुस्त्र ने धर्म और अधर्म दो द्वंद्व शक्तियों की सूक्ष्म कल्पना की और शुद्धाचार का उपदेश दिया। जरथुस्त्र के प्रभाव से पारस में कुछ काल के लिये एक अहुर्मज्द की उपासना स्थापित हुई और बहुत से देवताओं की उपासना और कर्मकांड कम हुआ। पर जनता का सतोष इस सूक्ष्म विचारवाले धर्म से पूरा पूरा नहीं हुआ। शाशानों के समय में मग याजकों और पुरोहितों सा प्रभाव बढ़ा तब बहुत से स्थूल देवताओं की उपासना फिर ज्यों की त्यों जारी हो गई और कर्मकांड की जटिलता फिर वही हो गई। ये पिछली पद्धतियाँ भी 'जंद अपस्ता' में बी मिल गई। 'जंद अवस्ता' में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंथ्र (मंथ) हैं। इसके कई विभाग हैं जिनमें 'गाथ' सबसे प्राचीन और जरथुस्त्र के मुँह से निकला हुआ माना जाता है। एक भाग का नाम 'यश्न' है जो वैदिक 'यज्ञ' शब्द का रूपांतर मात्र है। विस्पर्द, यस्त (वैदिक इष्टि), बंदिदाद् आदि इसके और विभाग हैं। बदिदाद् में जरयुस्त्र और अहुरमज्द का धर्म संबंध में संवाद है। 'अवस्ता' की भाषा, विशेषतः गाथा की, पढ़ने में एक प्रकार की अपभ्रंश वैदिक संस्कृत सी प्रतीत होती है। कुछ मंत्र तो वेदमंत्रों से बिलकुल मिलते जुलते हैं। डाक्टर हाग ने यह समानता उदाहरणों से बताई है और डा० मिल्स ने कई गाथाओं का वैदिक संस्कृत में ज्यों का त्यों रूपांतर किया है। जरथुस्त्र ऋषि कब हुए थे इसका निश्चय नहीं हो सका है। पर इसमें संदेह नहीं कि ये अत्यंत प्राचीन काल में हुए थे। शाशानों के समय में जो 'अवस्ता' पर भाष्य स्वरूप अनेक ग्रंथ बने उनमें से एक में व्यास हिंदी का पारस में जाना लिखा है। संभव है वेदव्यास और जरथुस्त्र समकालीन हों।
⋙ पारसनाथ
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्वनाथ] दे० 'पार्श्वनाथ'।
⋙ पारसव पु
संज्ञा पुं० [सं० पारशव] दे० 'पारशव'।
⋙ पारसा
वि० [फा०] पतिव्रता। सच्चरित्र। सती साध्वी। उ०— अथी यों पाकदामन पारसा नार, नमाज पंच वक्ताँ होर जिक्र चार।—दक्खिनी० पृ० २४६।
⋙ पारसाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] सच्चरित्रता। सदाचार। उ०— पारसाई और जवानी क्यों कर हो, एक जगह आग पानी क्यों कर हो।— कविता कौ०, भा० ४ पृ० २७।
⋙ पारसिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारसीक' [को०]।
⋙ पारसी पु (१)
वि० [फा० पारस] पारस देश का। पारस देश संबंधी। जैसे, पारसी भाषा पारसी बिल्ली।
⋙ पारसी (२)
संज्ञा पुं० १. पारस का रहनेवाला व्यक्ति। पारस का आदमी। २. हिंदुस्तान में बंबई और गुजरात की ओर हजारों वर्ष से बसे हुए वे पारसी जिनके पूर्वज मुसलमान होने के डर से पारस छोड़कर आए थे। विशेष— सन् ६४० ई० में नहाबंद की लड़ाई के पीछे जब पारस पर अरब के मुसलमानों का अधिकार हो गया और पारसी मुसलमान बनाए जाने लगे तब अपने आर्यधर्म की रक्षा के लिये बहुत से पारसी खुरासान में आकर रहे। खुरासान में भी जब उन्होंने उपद्रव देखा तब वे पारस की खाड़ी के मुहाने पर उरगूज नामक टापू में जा बसे। यहाँ पंद्रह वर्ष रहे। आगे बाधा देख अंत में सन् ७२० में वे एक छोटे जहाज पर भारतवर्ष की ओर चले आए जो शरणागतों की रक्षा के लिये बहुत काल से दूर देशों में प्रसिद्ध था। पहले वे दीऊ नामक टापू में उतरे, फिर गुजरात के एक राजा जदुराणा ने उन्हें संमान नामक स्थान में बसाया और उनकी आग्निस्थापना और मंदिर के लिये बहुत सी भूमि दी। भारत के वर्तमान पारसी उन्हीं की संतति हैं। पारसी लोग अपने संवत् काआरंभ अपने अंतिम राजा यज्दगर्द के पराभव काल से लेते हैं।
⋙ पारसीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारस देश। २. पारस देश का निवासी। उ०— कुमार०-आज तो कुछ पारसीक नर्तकियाँ आनेवाली हैं।— स्कंद०, पृ० १४। ३. पारस देश का घोड़ा।
⋙ पारसीक यमानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खुरासानी अजवायन।
⋙ पारसीक वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खुरासानी बच।
⋙ पारसीकेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंकुम।
⋙ पारसीकेय (२)
वि० पारस देश संबंधी। पारस देश का [को०]।
⋙ पारस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का प्राचीन नाम। २. एक गृह्यसूत्रकार मुनि।
⋙ पारस्त्रैणेय
संज्ञा पुं० [सं०] पराई स्त्री से उत्पन्न पुत्र। जारज पुत्र।
⋙ पारस्परिक
वि० [सं०] परस्परवाला। परस्पर में होनेवाला। आपस का।
⋙ पारस्य
संज्ञा पुं० [सं०] पारस देश।
⋙ पारस्स पु
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श] दे० 'पारस' (मणि)। उ०— कुब्बेर अति सुख पाय, पारस्स मनि दिय आय।— प० रासो, पृ० २५।
⋙ पारहंस्य
वि० [सं०] दे० 'पारमहंस्य '[को०]।
⋙ पारा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी जो पारियात्र पर्वत से उत्पन्न कही गई है [को०]।
⋙ पारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पारद] चाँदी की तरह सफेद, और चमकीली एक धातु जो साधारण गरमी या सरदी में द्रव अवस्था में रहती है। विशेष— खूब सरदी पाकर पारा जमकर ठोस हो जाता है। यह कभी कभी खानों में विशुद्ध रूप में भी बहुत सा मिल जाता है, पर अधिकतर और द्रव्यों के साथ मिला हुआ पाया जाता है। जैसे, गंधक और पारा मिला हुआ जो द्रव्य मिलता है उसे ईंगुर कहते हैं। गंधक और पारा ईंगुर से अलग कर दिए जाते हैं। पारा पृथ्वी पर के बहुत कम प्रदेशों में मिलता है। भारतवर्ष में पारे की खानें अधिक नहीं हैं, केबल नैपाल में हैं। अधिकतर पारा चीन, जापान और स्पेन से ही यहाँ आता है। पारा यद्यपि द्रव अवस्था में रहता है, तथापि बहुत भारी होता है। ईंगुर से पारा निकालने में स्वेदनविधि काम में लाई जाती है। ईंगुर का टुकड़ा तेज गरमी द्वारा भाप के रूप में कर दिया जाता है जिससे विशुद्ध पारे के परमाणु अलग हो जाते हैं। भाप रूप में फिर पारा अपने असली द्रव रूप में लाया जाता है। पारा बहुत से कामों में आता है। इसके द्वारा खान से निकले हुए अनेकद्रव्यमिश्रित खडों से सोना चाँदी आदि बहुमूल्य धातुएँ अलग करके निकाली जाती हैं। यह इस प्रकार किया जाता है कि खंड या टुकडे़ का चूर्णं कर लेते हैं, फिर उसके साथ युक्ति से पारे का संसर्ग करते हैं। इससे यह होता है कि सोने या चाँदी के परमाणु पारे के साथ मिल जाते हैं। फिर इस सोने या चाँदी में मिले हुए पारे को स्वेदनविधि से भाप के रूप में अलग कर देते हैं और खालिस सोना या चाँदी रह जाता है। बात यह है कि इन धातुओं में पारे के प्रति रासायनिक प्रवृत्ति या राग होता है। इसी विशेषता के कारण पारा रसराज कहलाता है और इसके योग से धातुओं पर अनेक प्रकार की क्रियाएँ की जाती हैं। पारे के योग से, राँगे, सोने, चाँदी आदि को दूसरी धातु पर करई या मुलम्मे के रूप में चढ़ाते हैं। जिस धातु पर मुलम्मा चढ़ाना होता है उसपर पहले पारे-शोरे से संघटित रस मिलाते हैं, फिर १ भाग सोने और ८ भाग पारे का मिश्रण तैयार करके हलका लेप कर देते हैं। गरमी पाकर पारा तो उड़ जाता हैं, सोना लगा रह जाता है। पारे पर गरमी का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है इसी से गरमी नामने के यंत्र में उसका व्यवहार होता है। इन सब कामों के अतिरिक्त औषध में भी पारे का बहुत प्रयोग होता है। पुराणों और वैद्यक की पोथियों में पारे की उत्पत्ति शिव के वीर्य से कही गई है और उसका बड़ा माहात्म्य गाया गया है, यहाँ तक कि यह ब्रह्म या शिवस्वरूप कहा गया है। पारे को लेकर एक रसेश्वर दर्शन ही खड़ा किया गया है जिसमें पारे ही से सृष्टि की उत्पत्ति कही गई है और पिंडस्थैर्य (शरीर को स्थिर रखना) तथा उसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति के लिये रससाधन ही उपाय बताया गया है। भावप्रकाश में पारा चार प्रकार का लिखा गया है— श्वत, रक्त, पीत और कृष्ण। इसमें श्वेत श्रेष्ठ है। वैद्यक में पारा कृमि और कुष्ठनाशक, नेत्रहितकारी, रसायन, मधुर आदि छह रसों से युक्त, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, योग- वाही, शुक्रवर्धक और एक प्रकार से संपूर्ण रोगनाशक कहा गया है। पारे में मल, वह्नि, विष, नाम इत्यादि कई दोष मिले रहते हैं, इससे उसे शुद्ध करके खाना चाहिए। पारा शोधने की अनेक विधियाँ वैद्यक के ग्रंथों में मिलती हैं। शोधन कर्म आठ प्रकार के कहे गए हैं— स्वेदन, मर्दन, उत्थापन, पातन, बोधन, नियामन और दीपन। भावप्रकाश में मूर्छन भी कहा गया है जो कुछ ओषधियों के साथ मर्दन का ही परिणाम है। पर्या०—रसराज। रसनाथ। महारस। रस। महातेजभ्। रसेलह। रसोत्तम। सुतराट्। चपल। चैत्र। शिवबीज। शिव। अमृत। रसेंद्र। लोकेश। दुर्धर। पुरभु। रुद्रज। हरतेजः। रसधातु। स्कंद। देव। दिव्यरस। यशोद। सूतक। सिद्धधातु। पारत। हरवीज। मुहा०— पारा पिलाना =(१) किसी वस्तु में पारा भरना। (२) किसी वस्तु को इतना भारी करना जैसे उसमें पारा भरा हो। भारी करना। वजनी करना।
⋙ पारा (३)
संज्ञा पुं० [सं० पारि (=प्याला)] दीए के आकार का पर उससे बड़ा मिट्टी का बरतन। परई।
⋙ पारा (३)
संज्ञा पुं० [फा० पारह] १. टुकडा। २. वह छोटी दीवार जो चूने गारे से जोड़कर न बनी हो, केवल पत्थरों के टुकडे़ एक दूसरे पर रखकर बनाई गई हो। ऐसी दीवार प्रायः बगीचे आदि की रक्षा के लिये चारो ओर बनाई जाती है।
⋙ पारा (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० पाराशर] दे० 'पाराशर'। उ०— पारा ऋषि मछोदरी ते कामक्रीड़ा करी। कृस्न गोपिन के संग भीना।— कबीर रे०, पृ० ४५।
⋙ पारापत
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर। कपोत। पारावत [को०]।
⋙ पारापार
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। सागर। २. आर पार। दोनों तट [को०]।
⋙ पारापारीण
वि० [सं०] समुद्रगामी। पारावारीण [को०]।
⋙ पारायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. समाप्ति। पूरा करने का कार्य। २. समय बाँधकर किसी ग्रंथ का आद्योपांत पाठ। ३. पार जाना (को०)।
⋙ पारायणिक
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] १. पुराण आदि का पाठ करनेवाला। आद्योपांत पढ़नेवाला। २. छात्र।
⋙ पारायणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती का एक नाम। २. कार्य। कर्म। क्रिया। ३. प्रकाश। ज्योति। ४ मनन। चिंतन [को०]।
⋙ पारारुक
संज्ञा पुं० [सं०] चट्टान। शिला। पत्थर।
⋙ पारावत
स्त्री० पुं० [सं०] १. परेवा। पंडुक। उ०— तीतर कपोत पिक कंकी कोक पारावत।— केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १४४। २. कबूतर। कपोत। उ०— सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले। प्रेम के आदर्श पारावत पले।— साके, पृ० ४। ३. बंदर। ४. तेंदु का वृक्ष। ५. गिरि। पर्वत। ६. एक नाग का नाम (महाभारत)। ७. एक प्रकार का खट्टा पदार्थ (सुश्रुत)। ८. दत्तात्रेय के गुरु।
⋙ पारावतक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान।
⋙ पारावतकालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी मालकँगनी। महा ज्योति- ष्मती लता।
⋙ पारावतघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी [को०]।
⋙ पारावतपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मालकँगनी। २. काकजंघा।
⋙ पारावतांघ्रिपिच्छ
संज्ञा पुं० [सं० पारावतङि्घ्रपिच्छ] एक प्रकार का कबूतर [को०]।
⋙ पारावताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] धृष्टद्युमन का एक नाम [को०]।
⋙ पारावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लवली फल। हरफा रेवड़ी। २. गोपगीत। ग्वालों का गीत। ३. एक नदी का नाम।
⋙ पारावार
संज्ञा पुं० [सं०] १. आर पार। वार पार। दोनों तट। २. सीमा। अंत। हद। जैसे,— आपकी महिमा का पारावार नहीं। २ . समुद्र।
⋙ पारावारोण
वि० [सं०] १. जो दोनों ओर जाय। जो किसी वस्तु के दोनों किनारों को पहुँचा हो। २. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता। पारंगत ३. पारावार अर्थात् समुद्रगामी [को०]।
⋙ पाराशर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराशर का पुत्र या वंशज। २. व्यास।
⋙ पाराशर (२)
वि० १. पराशर संबंधी। २. पराशर का बनाया हुआ। जैसे, पाराशर स्मृति।
⋙ पाराशरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराशर के पुत्र वेदव्यास। २. शुकदेव।
⋙ पाराशरी
संज्ञा पुं० [सं० पाराशरिन्] वेदव्यास के भिक्षुसूत्र का अध्ययन करनेवाला। संन्यासी। चतुर्थाश्रमी।
⋙ पाराशरीय
वि० [सं०] पाराशर के पास का प्रदेश आदि।
⋙ पाराशर्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेदव्यास।
⋙ पारासर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पारशर'। उ०— सिंगी ऋषि पारासर आए।— कबीर श०, भा० ४, पृ० २११।
⋙ पारिंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० पारिन्द्र] सिंह। शेर [को०]।
⋙ पारिंद पु (२)
संज्ञा पुं० [फा० परंद] पक्षी। परंदा। चिड़िया। उ०— सात सिकारी चौदह पारिंद, भिन्न भिन्न निरतावै।—कबीर श०, भा० ३, पृ० १।
⋙ पारि (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पार] १. हद। सीमा। २. ओर तरफ। दिशा। उ०— मोचि दृग बारि सोच सोचती विचारि देव चितै चहूँ पारि घरी चार लौं चकि रही।— देव (शब्द०)। ३. जलाशय का तट।
⋙ पारि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मद्य पीने का पात्र। प्याला।
⋙ पारिक
वि० [हिं० पार] पार करनेवाला। उद्धार करनेवाला। उ०— पारिक, मैं सांसारिक, अविद्या हो व्यंग्यदाम।— आराधना, पृ० १४।
⋙ पारिकांक्षक
संज्ञा पुं० [सं० पारिङ्काक्षक] दे० 'पारिकांक्षी' [को०]।
⋙ पारिकांक्षी
संज्ञा पुं० [सं० पारिङ्कक्षिन्] ब्रह्मज्ञान का अभिलाषी। तपस्वी।
⋙ पारिकुट
संज्ञा पुं० [सं०] सेवक। भृत्य। नौकर।
⋙ पारिकोट पु
संज्ञा पुं० [सं० परिकोट, हिं० परकोटा] दे० 'परकोटा'। उ०— सोझति सोलंकी पहिलि चोट सै लोट किए धर पारिकोट।— पृ० रा०, १। ४२८।
⋙ पारिक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] परीक्षित के पुत्र जनमेजय।
⋙ पारिख (१)
वि० [सं०] परिखा संबंधी। परिखा का।
⋙ पारिख (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० परख] दे० 'परख'।
⋙ पारिख (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. गुजरातियों की एक जाति। २. परखनेवाला। पारखी व्यक्ति।
⋙ पारिखेय
वि० [सं०] परिखा या खाई से घिरा हुआ [को०]।
⋙ पारिगमिक
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर।
⋙ पारिग्रामिक
वि० [सं०] गाँव के चारों ओर स्थित [को०]।
⋙ पारिजात
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देववृक्ष जो स्वर्गलोक में इंद्र के नंदनकानन में है। विशेष— इसके फूल जिस प्रकार की गंध कोई चाहे, दे सकते हैं। इसकी भिन्न भिन्न शाखाओं में अनेक प्रकार के रत्न लगते हैं। इसी प्रकार इस वृक्ष के अनेक गुण पुराणों में कहे गएहैं। सत्यभामा की प्रसन्नता के लिये इसे श्रीकृष्ण स्वर्ग से इंद्र से युद्ध करके लाए थे और फिर उसका पूरा भोग करके इसे स्वर्ग में रख आए थे। यह समुद्रमंथन के समय में निकला था। २. परजाता। हरसिंगार। ३. कोविदार। कचनार। ४. पारिभद्र। फरहद। ५. ऐरावत के कुल का एक हाथी। ६. सितोद पर्वत। ७. एक मुनि का नाम।
⋙ पारिजातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देववृक्ष। पारिजात। २. परजाता। हरसिंगार। २. फरहद। पारिभद्र।
⋙ पारिणामिक
वि० [सं०] १. जो पच जाय। पाच्य। २. विकासो- न्मुख। जिसका विकास हो सके [को०]।
⋙ पारिणाय्य (१)
वि० [सं०] १. परिणय में प्राप्त। विवाह में पाया हुआ (धन)। २. विवाह से संबंधित [को०]।
⋙ पारिणाय्य (२)
संज्ञा पुं० १. वह धन जो स्त्री को विवाह में मिले। २. विवाह का तय होना [को०]।
⋙ पारिणाहय
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर गृहस्था का सामान। जैसे, चारपाई, बरतन, घड़ा इत्यादि।
⋙ पारितथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिर पर बालों के ऊपर पहनने का स्त्रियों का एक गहना। २. बालों को बाँधने की मोतियों की लड़ी [को०]।
⋙ पारिताप पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परिताप'। उ०— अत्यंत पारिताप का विषय तो यह है कि।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० २९१।
⋙ पारितोषिक (१)
वि० [सं०] आनंदकर। प्रीतिकर।
⋙ पारितोषिक (२)
संज्ञा पुं० वह धन या वस्तु जो किसी पर परितुष्ट या प्रसन्न होकर उसे दी जाय अथवा जो किसी को प्रसन्न करने के लिये उसे दी जाय। इनाम।
⋙ पारिध्वजिक
संज्ञा पुं० [सं०] झंडाबरदार। झंडा या ध्वजा लेकर चलनेवाला [को०]।
⋙ पारिपंथिक
संज्ञा पुं० [सं० पारिपन्थिक] बटंपार। डाकू। चोर।
⋙ पारिपाट्य
संज्ञा पुं० [सं०] परिपाटी। ढंग। तरीका [को०]।
⋙ पारिपातिकरथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह रथ जो इधर उधर सैर करने के काम का होता था।
⋙ पारिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] सप्त कुलपर्वतों में से एक जो विंध्य के अंतर्गत है। विशेष— इससे निकली हुई ये नदियाँ बताई गई हैं— वेदस्मृति, वेदवती, वृत्रघ्नी, सिंघ्, सानंदिनी, सदानीरा, मही, पारा, चर्मण्यवती, नृपी, विदिशा, वेत्रवती, शिप्रा इत्यादि (मार्क- डेंय पुराण)। विष्णु पुराण में लिखा है कि मरुक और मालव जाति इस पर्वत पर निवास करती थी। कहीं कहीं 'पारियात्र' भी इसका नाम मिलता है। चीनी यात्री 'हुएन्सांग' ने दक्षिण के 'पारिपात्र' राज्य का उल्लेख किया है।
⋙ पारिपात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारिपात्र नामक पर्वत पर वगनेवाला। २. दे० 'पारिपात्र' [को०]।
⋙ पारीपार्श्व
संज्ञा पुं० [सं०] पारिषद्। अनुचर। अरदली।
⋙ पारीपार्श्वक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारिपार्श्विक' [को०]।
⋙ पारिपार्श्विक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पास खड़ा रहनेवाला सेवक। परिषद। अरदली। २. नाटक के अभिनय में एक विशेष नट जो स्थापक का अनुचर होता है। यह भी प्रस्तावना में सूत्रधार, नटी आदि के साथ आता है।
⋙ पारिप्लव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक जलपक्षी। २. अश्वमेधादि यज्ञों में कहा जानेवाला एक आख्यान (शतपथ ब्राह्मण)। ३. नाव। जहाज। ४. एक तीर्थ (महाभारत)। ५. व्याकुलता। बेचैनी (को०)।
⋙ पारिप्लव (२)
वि० १. क्षुब्ध। चंचल। २. कंपायमान। ३. अस्थिर। विचलित। ४. तिरता हुआ। उतराता हुआ [को०]।
⋙ पारिप्लाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस। २. व्याकुलता। बेचैनी। ३. चंचलता। अस्थिरता। ४. कंपन [को०]।
⋙ पारिभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. फरहद का पेड़। २. देवदार। ३. सरल वृक्ष। सलई का पेड़। ४. कुट।
⋙ पारिभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. फरहद। २. देवदार। ३. नीम। कुट।
⋙ पारिभाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिभू या जामिन होने का भाव। २. कुट नामक ओषधि।
⋙ पारिभाषिक
वि० [सं०] जिसका अर्थ परिभाषा द्वारा सूचित किया जाय। जिसका व्यवहार किसी विशेष अर्थ के संकेत के रूप में किया जाय। जैसे, पारिभाषिक शब्द।
⋙ पारिमांडल्य
संज्ञा पुं० [सं० पारिमाण्डल्य] अणु या परमाणु का परिमाण।
⋙ पारिमाष्य
संज्ञा पुं० [सं०] घेरा। परिधि [को०]।
⋙ पारिमित्य
संज्ञा पुं० [सं०] सीमा। परिसीमा [को०]।
⋙ पारिमुखिक
वि० [सं०] जो समक्ष हो। सामने का। २. निकट। समीप [को०]।
⋙ पारिमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपस्थिति। मौजूदगी। २. निकटता। समीपता [को०]।
⋙ पारियात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारिपात्र'।
⋙ पारियात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारिपात्रिक' [को०]।
⋙ पारियानिक
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रा का यान। वह सवारी जिसपर यात्रा की जाय [को०]।
⋙ पारिरक्षक, पारिरक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्वी। साधु।
⋙ पारिवारिक
वि० [सं० पारिवार + इक (प्रत्य०)] परिवार से संबंधित। परिवार का।
⋙ पारिवित्य
संज्ञा पुं० [सं०] बडे़ भाई के अविवाहित रहते छोटे भाई का विवाह हो जाना [को०]।
⋙ पारिवेत्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारिवित्य' [को०]।
⋙ पारिव्राजक, पारिव्राज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारिव्राजक का कर्म या भाव। २. एक प्रकार का अश्वत्थ।
⋙ पारिश
संज्ञा पुं० [सं०] पारिस पीपल। परास पीपल।
⋙ पारिशील
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पूआ या मालपूआ।
⋙ पारिशेय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो छोड़ दिया गया हो। अवशिष्ट। [को०]।
⋙ पारिश्रमिक
संज्ञा पुं० [सं०] किए हुए काम की मजूरी। मेहनताना।
⋙ पारिषद
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिषद में बैठनेवाला। सभा में बैठनेवाला। सभासद। सभ्य। पंच। २. अनुयायिवर्ग। गण। जैसे, शिव के पारिषद; विष्णु के पारिषद।
⋙ पारिषद्य
संज्ञा पुं० [सं०] परिषद् में बैठनेवाला दर्शक।
⋙ पारिस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पारस'। उ०— जाकौं पारिस पिय नहीं तजै दिन दिन मदन महोत्सच सजै।— नंद० ग्रं०, पृ० १५७।
⋙ पारिस पीपल
संज्ञा पुं० [सं० पारीश पिप्पल] भिंडी की जाति का एक पेड़ जिसमें कपास के डोडे के आकार का फल लगता है। विशेष— यह फल खाने में खट्टा होता है। इसमें भिंडी के समान ही सुंदर पाँच दलों के बडे़ बडे़ फूल लगते हैं। इसकी जड़ मीठी और छाल का रेशा मीठा कसैला होता है। वैद्यक में इसके फल गुरुपाक, कृमिघ्न, शुक्रवर्धक और कफकारक कहे गए हैं।
⋙ पारिसीर्य
वि० [सं० पारिसीर्य्य] जो बिना जोते हुए हो। जो हल की खेती से न उपजा हो। जैसे, तिन्नी का चावल।
⋙ पारिहारिक (१)
वि० [सं०] १. परिहार करनेवाला। २. हरण करनेवाला। ग्रहण करनेवाला (को०)। ३. घेरनेवाला (को०)।
⋙ पारिहारिक (१)
संज्ञा पुं० हार या मालाएँ बनानेवाला [को०]।
⋙ पारिहारिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ढंग की पहेली [को०]।
⋙ पारिहार्य
संज्ञा पुं० [सं० पारिहार्य्य] १. परिहारत्व। २. वलय। हाथ का कड़ा।
⋙ पारिहासिक
वि० [सं० पारिहास + इक (प्रत्य०)] परिहास- युक्त। हँसी दिलल्गी करनेवाला। हास्य विनोद से भरा हुआ। उ०— होली में पारिहासिक नंबर निकालने की।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३०२।
⋙ पारिहास्य
संज्ञा पुं० [सं०] हिँसी मजाक। दिल्लगी [को०]।
⋙ पारिहीणिक
संज्ञा पुं० [सं०] क्षतिपूर्ति। नुकसानी। हरजाने की रकम।
⋙ पारींद्र
संज्ञा पुं० [सं० पारीन्द्र] १. सिंह। २. अजगर।
⋙ पारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बार, बारी अथवा पाली] किसी बात का अवसर जो कुछ अंतर देकर क्रम से प्राप्त हो। बारी। ओसरी। दे० 'बारी'। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—होना।
⋙ पारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पारना] गुड़ आदि का जमाया हुआ बड़ा ढोका।
⋙ पारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुरवा। चुक्कड़। प्याला। २. जलसमूह। ३. हाथी के पैर की रस्सी। ४. पुष्प रज। पराग (को०)।
⋙ पारी (४)
संज्ञा स्त्री० [फा० या ?] जहाज के मस्तूल के नीचे का भाग (लश०)।
⋙ पारीक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] १. परीक्षित का पुत्र या वंशज। २. जममेजय। ३. परीक्षित राजा [को०]।
⋙ पारीण
वि० [सं०] १. दूसरी ओर होने या दूसरी ओर जानेवाला। २. किसी विद्या में पारंगत। किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता। ३. पूरा करनेवाला। समाप्त करनेवाला [को०]।
⋙ पारीणाहय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पारिणाह्य' [को०]।
⋙ पारीय (१)
वि० [सं०] पूर्णाज्ञाता। पारंगत [को०]।
⋙ पारीय (२)
वि० [सं० पार + ईय (प्रत्य०)] पार का। नदी या समुद्र के उस पार स्थित। जैसे, समुद्रपारीय देश।
⋙ पारीरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कछुआ। २. डंडा। छड़ी (को०)। ३. प्रकार का पहनावा। एक पोशाक (को०)।
⋙ पारीश
संज्ञा पुं० [सं०] पारिल पीपल का पेड़।
⋙ पारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. सूर्य।
⋙ पारुष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी [को०]।
⋙ पारुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वचन की कठोरता। वाक्य की अप्रियता। बात का कड़वापन। २. परुषता। रुखाई। ३. इंद्र का वन। ४. अगर। ५. बृहस्पति।
⋙ पारेरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तलवार या कटार।
⋙ पारेव पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परेवा'। उ०— लष एक लष्ष लष्या मुहा पारेवह जिन पंष लिय।—पृ० रा० ११। ५।
⋙ पारेवत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खजूर।
⋙ परेवा पु
संज्ञा पुं० [हि०] परेवा। पक्षी। उ०—संदेसउ जिन पाठवइ, मरिस्यउँ हीया फूटि। परेवा का झूल जिउँ, पड़िनइँ आँगणि त्रूटि।—ढोला०, दू०, १४३।
⋙ परोकियाँ
संज्ञा स्त्री० [सं० परकीया] दे० 'परकीया'। उ०— बीजुलियाँ परोकियाँ नीठ ज नीगमियाँह। अजइ न सज्जण बाहुणे बलि पाछी बलियाँह।— ढोला०, दू० १५३।
⋙ पारोक्ष
वि० [सं०] अस्पष्ट। रहस्यमय।
⋙ पारोक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] भेद। रहस्य [को०]।
⋙ पारोवर्य
संज्ञा पुं० [सं०] परंपरा [को०]।
⋙ पार्क
संज्ञा पुं० [अं०] बड़ा बगीचा। उपवन।
⋙ पार्घट
संज्ञा पुं० [सं०] राख। भस्म।
⋙ पार्जन्य
वि० [सं०] पर्जन्य संबंधी। वर्षा संबंधी (को०)।
⋙ पार्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. नाटकांतर्गत कोई भूमिका या चारित्र जो किसी अभिनेता को अभिनय करने को दिया जाय। भूमिका। जैसे— उसने प्रताप सिंह का पार्ट बढ़ी उत्तमता से किया। २. हिस्सा। भाग। जैसे—आज कल वे सभा सोसाइ- टियों में पार्ट नहीं लेते। ३. (पुस्तक का) खंड़। भाग। हिस्सा।
⋙ पार्टिशन
संज्ञा पुं० [अं०] बाँटने या विभाग करने की क्रिया। किसी चीज के दो या अधिक भाग या हिस्से करना। विभाग। बँटवारा। जैसे बंगल पार्टिशन। पार्टिशन सूट।
⋙ पार्टी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. मंडली। दल। २. पक्ष। ३. दावत। भोज। क्रि० प्र०—देना।
⋙ पार्टीबंदी
संज्ञा स्त्री० [अं० पार्टी + फा० बंदी] दलबंदी। गुटबाजी।
⋙ पार्ण (१)
वि० [सं०] १. पत्तों का बना हुआ (कुटी आदि)। २. पत्तियों से प्राप्त (कर)। ३. पत्तों से संबंधित [को०]।
⋙ पार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वीपति। २. (पृथा का पुत्र) अर्जुन। ३. युधिष्ठिर और भीम। विशेष— कुंती का नाम 'पृथा' भी था इसी से कुंती की तीन संतानों में से प्रत्येक को 'पार्थ' कहते थे। ४. अर्जुन वृक्ष।
⋙ पार्थक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथक् होने का भाव। भेद। २. जुदाई। वियोग।
⋙ पार्थव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथु होने का भाव। भारीपन। २. बड़ाई। विशालता। ३. स्थूलता। मोटाई।
⋙ पार्थव (२)
वि० पृथु संबंधी।
⋙ पार्थसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन के सारथी, कृष्ण। २. मीमांसा के एक आचार्य [को०]।
⋙ पार्थिव
वि० [सं०] १. पृथिवी संबंधी। २. पृथ्वी से उप्तन्न। पृथिवी का विकार रूप। जैसे, पार्थिव शरीर। ३. मिट्टी आदि का बना हुआ। ४. संसारिक। संसार संबंधी (को०)। ५. राजा के योग्य। राजसी। ६. पृथिवी का शासक (को०)।
⋙ पार्थिव (२)
संज्ञा पुं० १. राजा। २. तगर का पेड़। ३. एक संवत्सर। ४. मंगल ग्रह। ५. मिट्टी का बर्तन। ६. पृथिवी पर रहनेवाले प्राणी। सांसारिक जीव (को०)। ७. शरीर। देह (को०) ८. पार्थव लिंग। मिट्टी का शिवलिंग जिसके पूजन का बड़ा। फल माना जाता है।
⋙ पार्थिव आय
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमीन की आमदनी। मालगुजारी लगान।
⋙ पार्थवकन्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपुत्री। राजकुमारी [को०]
⋙ पार्थिवता
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्थिव + ता (प्रत्य०)] धरती से उत्पन्न होने का भाव। लौकिकता। उ०— दूसरी ओर उनकी पार्थिवता धरती के उस गुरुत्व से बँधी हुई है जो आज की पहली आवश्यकता है।—अपरा, पृ० ९।
⋙ पार्थिवनंदन
संज्ञा पुं० [सं० पार्थिवनन्दन] सूर्य [को०]।
⋙ पार्थिवनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा की पुत्री। राज- कुमारी [को०]।
⋙ पार्थिवपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]। यौ०—पार्थिवपुत्रपौत्र = यम के पुत्र युधिष्ठिर।
⋙ पर्थिवलिंग
संज्ञा पुं० [सं० पार्थिव लिङ्ग] १. राजा का गुण। २. राजचिह्न [को०]।
⋙ पार्थिवश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वश्रेष्ठ राजा [को०]।
⋙ पार्थिवसुत
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।
⋙ पार्थिवसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा की पुत्री। राजकुमारी [को०]।
⋙ पार्थिवात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।
⋙ पार्थिवाधम
संज्ञा पुं० [सं०] अधम राजा। नीच राजा [को०]।
⋙ पार्थिवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. (पृथिवी से उत्पन्न) सीता। २. उमा। पार्वती। ३. लक्ष्मी (को०)।
⋙ पार्थी †
संज्ञा पुं० [पुं० पार्थिव] मिट्टी का शिवलिंग।
⋙ पार्पर
संज्ञा पुं० [सं०] १. यम। २. मुट्ठी या अँजुरी भर चावल (को०)। ३. क्षय रोग (को०)। ४. राख। भस्म (को०)। ५. कदंब का केसर (को०)।
⋙ पार्यतिक
वि० [सं० पार्यन्तिक] अंतिम। निर्णायक (को०)।
⋙ पार्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० पार्य्य] १. एक रुद्र का नाम (शुक्ल यजु०)। २. अंत। निश्चय। समाप्ति। परिणाम (को०)।
⋙ पार्य (२)
वि० [सं०] १. जो दूसरे तट पर या दूसरी ओर हो। २. ऊपरी। ३. अंतिम। निर्णायक। ४. प्रभावकरी। सफल (को०)।
⋙ पार्लामेंट
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह सभा जो देश या राज्य के शासन के लिये नियम बनाए। कानून बनानेवाली सबसे बड़ी सभा। विशेष— इस शब्द का प्रयोग विशेषतः अँगरेजी राज्य की शासनव्यवस्था निर्धांरित करनेवाली महासभा के लिये होता है जिसके सदस्य जनता के भिन्न भिन्न वर्गों द्वारा चुने जाते हैं। अँगरेजी साम्राज्य के भीतर कनाडा आदि स्वराज्य- प्राप्त देशों की ऐसी सभाओं के लिये भी यह शब्द आता है।
⋙ पार्वण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह श्राद्ध जो किसी पर्व में किया जाय। जैसे, अमावास्या या ग्रहण आदि के दिन किया जानेवाला श्राद्ध।
⋙ पार्वण (२)
वि० अमावास्या या किसी पर्व के दिन किया जानवाला [को०]।
⋙ पार्वत (१)
वि० [सं०] १. पर्वत संबंधी। २. पर्वत पर होनेवाला। ३. जहाँ पहाड़ हो।
⋙ पार्वत (२)
संज्ञा पुं० १. महनिंब। बकायन। २. ईंगुर। ३. शिलाजतु। सिलाजीत। ४. सीसा धातु। ५. एक अस्त्र।
⋙ पार्वतपीलु
वि० [सं०] अक्षोट। अखरोट।
⋙ पार्वतायन
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत ऋषि की परंपरा या गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
⋙ पार्वतिक
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतक्षेणी। पर्वतमाला [को०]।
⋙ पार्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिमालय पर्वत की कन्या, शिव की अर्धांगिनी देवी जो गौरी, दुर्गा आदि अनेक नामों से पूजीजाती हैं। शिवा। भवानी। पर्या०—उमा। गिरिजा। गौरी। २. शल्लकी। सलई। ३. गोपीचंदन। ४. सिंहली पीपल। ५. छोटा पखानभेद। ६. धाय का पौधा। ७. अलसी। तीसी। ८. द्रौपदी (को०)। ९. पहाड़ी नाला (को०)। १०. गोपी। गोपिका (को०)।
⋙ पार्वतीनंदन
संज्ञा पुं० [सं० पार्वतीनन्दन] १. कार्तिकेय। २. गणेश (को०)।
⋙ पार्वतीनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पार्वतीलोचन' [को०]।
⋙ पार्वतीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत संबंधी। पहाड़ का। पहाड़ी।
⋙ पार्वतीय (२)
संज्ञा पुं० एक पर्वती जाति [को०]।
⋙ पार्वतीलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ भेदों में से एक।
⋙ पार्वतीसख
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ पार्वतेय (१)
वि० [सं०] पर्वत पर होनेवाला।
⋙ पार्वतेय (२)
संज्ञा पुं० १. अंजन। सुरमा। २. हुरहुर का पौधा। ३. जिंगिनी। जिगनी। ४. धाय का पेड़।
⋙ पार्वत्य
वि० [सं०] पहाड़ी। पर्वतीय। उ०— क्वार की त्रयोदशी का चंद्रमा पार्वत्य प्रदेश के निर्मल आकाश में ऊँचा उठ अपने शीतल आभा से आकाश और पृथ्वी को स्तंभित किए था।—पिंजरे०, पृ० १०।
⋙ पार्शव
संज्ञा पुं० [सं०] पर्शु या फरसे युद्ध करनेवाला योद्धा।
⋙ पार्शुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्श्व की हड्डी। पसली। पंजर की हड्डी।
⋙ पार्श्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष का अधोभाग। काँख के नीचे का भाग। छाती के दाहिने या बाएँ का भाग। बगल। उ०— एक और विशाल दर्पण है लगा। पार्श्व से प्रतिबिंब जिसमें है जगा।— साकेत, पृ० १२। २. इधर उधर पड़नेवाला स्थान। अगल बगल की जगह। पास। निकटता। समीपता। यौ०— पार्शवर्ती = पास में बैठनेवाला।— साथी या मुसाहिब। ३. पार्श्वस्थि। पसली। ४. कुटिल उपाय। टेढ़ी चाल। ५. पार्श्वनाथ (को०)। ६. पहिए की धुरी का छोर या किनारा (को०)।
⋙ पार्श्व
वि० समीप का। निकट का। नजदीकी।
⋙ पार्श्वक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनेक प्रकार के कुटिल उपाय रचकर धन कमानेवाला। चालबाजी के सहारे अपनी बढ़ती चाहनेवाला। २. चोर। ठग (को०)। ३. ऐंद्रजालिक। बाजीगर (को०)। ४. साथी। मित्र [को०]।
⋙ पार्श्वकर
संज्ञा पुं० [सं०] वकाया मालगुजारी। पिछले साल की बाकी जमा।
⋙ पार्श्वग (१)
वि० [सं०] बगल में चलनेवाला। साथ में रहनेवाला।
⋙ पार्श्वग (२)
संज्ञा पुं० १. सहचर। २. परिचारक (को०)।
⋙ पार्श्वगत
वि० [सं०] १. जो बगल में हो। जो निकट या साथ हो। २. रक्षित [को०]।
⋙ पार्श्वगय
वि० [सं०] दे० 'पार्श्वग' [को०]।
⋙ पार्श्वगायक
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व + गायक] [स्त्री० पार्श्वगायिका] पार्श्व में रहकर गानेवाला व्यक्ति। अभिनय या नाटक में ओट से गानेवाला व्यक्ति। विशेष— दे० 'पार्श्वगायन'।
⋙ पार्श्वगायन
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व + गायन] पर्दें के पीछे से गाना। अभिनय या नाटक में ओट से गाना। विशेष— पार्श्वगायन का उपयोग सिनेमा में अधिक होता है। जो अभिनेता या अभिनेत्रियाँ अभिनय के साथ गा नहीं पाते उनके गीतों के अन्य गायक गायिका से गावाया जाता है। ये गायक पर्दें पर सामने नहीं आते इनके गीत ध्वनि अंकित करनेवाली मशीन (टेप रिकार्डर) पर अंकित कर लिए जाते हैं जिन्हें अभिनय के समय यथास्थान बजाकर संमिलित कर लिया जाता है। इस प्रकार के गायक या गायिका को पार्श्वगायक या पार्श्वगायिका कहते हैं।
⋙ पार्श्वचर
वि० [सं०] दे० 'पार्श्वग' [को०]।
⋙ पार्श्वतोय
वि० [सं०] बगल में स्थित। पार्श्ववर्ती [को०]।
⋙ पार्श्वद
संज्ञा पुं० [सं०] नौकर। सेवक। उ०— पार्श्वद गण इधर उधर दोड़ धूप करके अपना अपना काम करने लगे।—वैशाली, पृ० २४९।
⋙ पार्श्वदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व + दर्शन] बगल से देखना। बगल से देखने की क्रिया। उ०— धर्मांक्त विरक्त पार्श्वदर्शन से खींच नयन।— अपरा, पृ० ६२।
⋙ पार्श्वदेश
संज्ञा पुं० [सं०] बगल। पार्श्व [को०]।
⋙ पार्श्वनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के तेईसवें तीर्थकर। विशेष— वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे जो बड़े धर्मात्मा थे। उनकी रानी वामा भी बड़ी विदुषी और धर्मशीला थीं। उनके गर्भ से पौष कृष्ण दशमी को एक महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका वर्ण नील था और जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। सब लोकों में आनंद फैल गया। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार अपने पार्श्व में एक सर्प देखा था इससे पुत्र का नाम 'पार्श्व' रखा गया। पार्श्व दिन दिन बढ़ने लगे और नौ हाथ लंबे हुए। कुशस्थान के राजा प्रसेनजित् की कन्या प्रभावती 'पार्श्व' पर अनुरक्त हुई। यह सुन कलिंग देश के यवन नामक राजा ने प्रभावती का हरण करने के विचार से कुशस्थान को आ गेरा। अश्वसेन के यहाँ जब यह समाचार पहुँचा तब उन्होंने बड़ी भारी सेना के साथ पार्श्व को कुशस्थल भेजा। पहले तो कलिंगराज युद्ध के लिये तैयार हुआ पर जब अपने मंत्री के मुख से उसने पार्श्व का प्रभाव सुना तब आकार क्षमा माँगी। अंत में प्रभावती के साथ पार्श्व का विवाह हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी पंचाग्नि ताप रहा है और अग्नि में एक सर्प मरापड़ा है। पार्श्व ने काहा— 'दयाहीन' धर्म किसी काम का नहीं'। एक दिन बगीचे में जाकर उन्होंने देखा कि एक जगह दीवार पर नेमिनाथ चरित्र अंकित है। उसे देख उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने दीक्षा ली तथा स्थान स्थान पर उपदेश और लोगों का उद्धार करते घूमने लगे। वे अग्नि के समान तेजस्वी, जल के समान निर्मल और आकाश के समान निरवलंब हुए। काशी में जाकर उन्होंने चौरासी दिन तपस्या करके ज्ञानलाभ किया और त्रिकालज्ञ हुए। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्र- लिप्त में उनके शिष्य हुए। अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर समेत शिखर (पारसनाथ की पहाड़ी जो हजारीबाग मैं है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला अष्टमी को योग द्वारा उन्होंने शरीर छोड़ा।
⋙ पार्श्वपरिवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. करवट बदलना। २. भाद्रपद मास के कृत्णपक्ष में द्वादशी के दिन पड़नेवाला एक त्योहार [को०]।
⋙ पर्श्वभाग
संज्ञा पुं० [सं०] बगल का भाग। बाजू [को०]।
⋙ पार्श्वभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्श्व + भूमि] पृष्ठभूमि। आधार। उ०— यहाँ तक कि प्रेमचंद जैसे लेखक को भी मैं स्वतंत्र पार्श्वभूमि नहीं दे सका हूँ।—नया०, पृ० ४।
⋙ पार्श्वमंडली
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्वमणडलिन्] नृत्य में एक विशेष प्रकार की मुद्रा [को०]।
⋙ पार्श्वमौलि
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक मंत्री।
⋙ पार्शवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव [को०]।
⋙ पार्श्ववर्ती (१)
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्ववर्तिन्] [स्त्री० पाश्ववर्तिनी] पास रहनेवाला। निकटस्थ जन। मुसाहब। सेवक।
⋙ पार्श्ववर्ती (२)
वि० १. जो बगल में हो। जो पास में हो। २. निकटस्थ। पास में या निकट में ही स्थित [को०]।
⋙ पार्श्वशय
वि० [सं०] १. बगल में सोनेवाला। २. करवट से सोनेवाला [को०]।
⋙ पार्श्वशूल
संज्ञा पुं० [सं०] पसली का दर्द। विशेष— सुश्रुत में लिखा है कि इसमें सूई छेदने की सी पीड़ा होती है और साँस कष्ट से निकलती है। यह कफ और वायु के बिगड़ने से होता है।
⋙ पार्श्वसंगीत
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व + सङ्गीत] १. वह गीत जो नाटक या सिनेमा में अभिनय के साथ साथ पृष्ठभूमि में चलता रहता है। २. वह संगीत जो पार्श्वगायक या पार्श्व गायिका द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
⋙ पार्श्वसंधान
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्वसन्धान] बगल से ईटा को रखकर जुड़ाई करना [को०]।
⋙ पार्श्वसूत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक आभूषण।
⋙ पार्श्वस्थ (१)
वि० [सं०] १. पास खड़ा रहनेवाला। २. निकट का। निकटस्थ [को०]।
⋙ पार्श्वस्थ (२)
संज्ञा पुं० १. अभिनय के नटों में से एक। दे० पारिपा- र्श्वक। २. सहचर। साथी [को०]।
⋙ पार्श्वानुचर
संज्ञा पुं० [सं०] नौकर। सेवक [को०]।
⋙ पार्शायात
वि० [सं०] जो बहुत अधिक नजदीक आ गया हो।
⋙ पार्श्वार्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पार्श्वशूल' [को०]।
⋙ पार्श्वासन्न
वि० [सं०] बगल में बैठा या खड़ा हुआ। पास ही में उपस्थित [को०]।
⋙ पार्श्वासीन
वि० [सं०] बगल ने बैठा हुआ [को०]।
⋙ पार्श्वास्थि
संज्ञा पुं० [सं०] पसली की हड्डी।
⋙ पार्श्विक (१)
वि० [सं०] १. बगलवाला। पार्श्वसंबंधी। २. अन्याय से रुपया कमाने कि फिक्र में रहनेवाला।
⋙ पार्श्विक (२)
संज्ञा पुं० १. पक्षपाती। तरफदार। २. सहयोगी। ३. सहचर। साथी। ४. धोखेबाज। चोर। ठग [को०]।
⋙ पार्श्वैकादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्र शुक्ल एकादशी जिस दिन विष्णु भगवान् करवट लेते हैं।
⋙ पार्श्वोदरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] केकड़ा [को०]।
⋙ पार्षत (१)
वि० [सं०] १. पृषत संबंधी। २. द्रुपद राजा संबंधी।
⋙ पार्षत (२)
संज्ञा पुं० द्रुपद का पुत्र धृष्टद्मुम्न।
⋙ पार्षती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दौपदी। २. दुर्गा [को०]।
⋙ पार्षद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पास रहनेवाला सेवक। परिषद। २. सुसाहब। मंत्री। उ०— अमात्यों और पार्षद वर्गों में भी भाषा के सुकवि वर्तमान थे।— प्रेमघन०, भा०, २, पृ० ३०९। ३. विख्यात पुरुष।
⋙ पार्षद (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सभा। परिषद् [को०]।
⋙ पार्षद्य
संज्ञा पुं० [सं०] परिषद् का सदस्य। सभासद [को०]।
⋙ पार्ष्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एँड़ी। २. पृष्ठ। ३. सैन्यपृष्ठ। चंदावल। ४. ठोकर। पादाघात (को०)। ५. जोतने की अभिलाषा। विजयेच्छा। (को०)। ६. जाँच पड़ताल। तहकीकात (को०)। ७. कुलटा स्त्री (को०)। ८. कुंती का एक नाम (को०)।
⋙ पार्ष्णिक्षेम
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वेदेवा में से एक।
⋙ पार्ष्णिग्रह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अनुयायी [को०]।
⋙ पार्ष्णिग्रह (२)
वि० पीछे से आक्रमण करनेवाला [को०]।
⋙ पार्ष्णिग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु पर पीछे से आक्रमण करना या उसे धमकाना [को०]।
⋙ पार्ष्णिग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना को पीछे से दबोचनेवाला (शत्रु) या सहायता पहुँचनेवाला (मित्र)। २. सेना के पिछले भाग का संचालन करनेवाला सेनानायक (को०)। ३. समर्थक राजा या मित्र (को०)।
⋙ पार्ष्णिघात
संज्ञा पुं० [सं०] लात मारना। पदाघात [को०]।
⋙ पार्ष्णित्र
संज्ञा पुं० [सं०] पीछे रखी जानेवाली सेना। सुराक्षित सेना (को०)।
⋙ पार्ष्णिप्रतिविधानी
संज्ञा पुं० [सं०] सेना के पिछले भाग को कमजोर पड़ने पर पुष्ट करना।
⋙ पार्ष्णिप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पार्ष्णिघात' [को०]।
⋙ पार्स पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श, हिं० पारस] दे० 'पारस' (मणि)। उ०— गुरु स्वाती गुरु रूप स्वरूपा। गुरू पार्स है आदि अनूपा।—कबीर सा०, पृ० ९०८।
⋙ पार्सल
संज्ञा पुं० [अं०] पुलिंदा। बँधी हुई गठरी। पैकेट। २. डाक या रेल से रवाना करने के लिये बँधा हुआ पुलिंदा या गठरी। मुहा०— पार्सल करना = बाँधकर या लपेटकर डाक या रेल द्वारा भेजना। पार्सल लगाना = बँधी हुई गठरी या पुलिंदे को डाकघर या रेलवे में बाहर भेजने के लिये देना। यौ०— पार्सल क्लार्क = वह कर्मचारी जो पार्सल की व्यवस्था करता है। पार्सलघर = वह स्थान जहाँ पार्सल लिए और दिए जाते है। पार्सलगाड़ी, पार्सल ट्रेन = रेलगाड़ी जिससे पार्सल भेजा जाता है। पार्सलवाबू = पार्सल क्लार्क।
⋙ पार्स्व पु
वि० [सं० पार्श्व] दे० 'पार्श्व'। उ०— निकट पार्श्व अविदूर तट उपसमीप अभ्यास।—अनेकार्थ०, पृ० ४९।
⋙ पालंक
संज्ञा पुं० [सं० पालङ्क] १. पालक शाक। पालकी। २. बाज पक्षी। ३. एक रत्न जो काला, हरा और लाल होता है।
⋙ पालंकी
संज्ञा स्त्री० [सं० पालङ्की] १. पालक शाक। पालकी। २. कंदुरु नाम का गंधद्रव्य।
⋙ पालंक्य
संज्ञा पुं० [सं० पालङ्क्य] पालक का साग।
⋙ पालंखी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यङ्क पर्यङ्किका, पल्यङ्क; पल्लंक; पलिअंक; हिं० पलंग; राज० पालंखी] शय्या। पलंग। उ०— सज्जण चाल्या हे सखी काज्या विरह निसांण। पालंखी विसहर भई, मंदिर भंयउ समाँण।—ढोला०, दू०, ३५२। २. एक सबारी। पालकी।
⋙ पालँग †
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] दे० 'पलंग'। उ०— पालँग पाँव कि आछै पाटा। नेत। बिछाव चलै जौ बाटा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ पाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालक। पालनकर्ता। २. चरवाहा। ३. पीकदान। ओगालदान। ४. चित्रक वृक्ष। चीते का पेड़। ५. बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने साढे़ तीन सौ वर्ष तक वंग और मगध में राज्य किया। ६. बंगालियों की एक उपाधि। ७. राजा। नरेश (को०)।
⋙ पाल (२)
संज्ञा पुं० [हि० पालना] १. फलों को गरमी पहुँचाकर पकाने के लिये पत्ते बिछाकर रखने की विधि। विशेष— अब कारबाइड नामक रासयनिक चूर्ण से भी फल आदि पकाए जाने लगे हैं। इससे आम आदि अपेक्षाकृत शीघ्र पकते हैं। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। २. फलों को पकाने के लिये भूसा या पत्ते कागज आदि विछाकर बनाया हुआ स्थान। जैसे,— पाल का पका आम अच्छा होता है। मुहा०— पाल का या डाल का =पाल द्वारा पका हुआ या डाल पर पका हुआ।
⋙ पाल (३)
संज्ञा पुं० [सं० पट या पाट] १. वह लंबा चौड़ा कंपड़ा जिसे नाव के मस्तूल से लगाकर इसलिये तानते है जिसमें हवा भरे और नाव को ढकेले। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—तानना।—उतारना। २. तंबू। शामियाना। चँदोवा। ३. गाड़ी या पालकी आदि ढकने का कपड़ा ओहार।
⋙ पाल (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० पालि] १. पानी को रोकनेवाला बाँध या किनारा। मेड़। उ०— सतगुरु बरजै सिष करै क्यूँ करि बंचै काल। दुहु दिसि देखत बहि गया पाणी फोड़ी पाल।—दादू० पृ० १८। २. मोटा। ऊँचा किनारा। कगार। उ०— खेलत मानसरोदक गई। जाइ पाल पर ठाढ़ी भई।—जायसी (शब्द०)। ३. पानी के कटाव से कुआँ, नदी आदि के किनारे पर भोतर की ओर बननेवाला खोखला स्थान।
⋙ पाल (५)
संज्ञा पुं० [?] कबूतरों का जोड़ा खाना। कपोत- मैथुन। क्रि० प्र०—खाना।
⋙ पाल (६)
संज्ञा पुं० [?] तोप, बंदुक या तमंचे की नाल का घेरा या चक्कर। (लश०)।
⋙ पाल पु † (७)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० पाल] एक आभूषण। दे० 'पायल'। उ०— घम्म घमंतइ घुघरइ, पग सोनेरो पाल। मारू चाली मंदिरे, जाणि जाणि छुटो छंछाल।— ढोला० दू०, ५३९।
⋙ पालउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] दे० 'पालव', 'पल्लव'।
⋙ पालक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालनकर्ता। २. राजा। नरपति (को०)। ३. अश्वरक्षक। साईस। ४. अश्व। तुरग (को०)। ५. चोते का पेड़। ५. पाला हुआ लड़का। दत्तक पुत्र। ७. पालन करनेवाला। पिता (को०)। ८. रक्षण। बचाव (को०)। ९. वह व्यक्ति जो किसी बात का निर्वांह करे (को०)।
⋙ पालक (२)
वि० रक्षक। त्राता।
⋙ पालक (३)
संज्ञा पुं० [सं० पालङ्क] एक प्रकार का साग। विशेष— इसके पौधे में टहनियाँ नहीं होतीं, लंबे लंबे पत्ते एक केंद्र से चारों ओर निकलते हैं। केंद्र के बीच से एक डंठल निकलता है जिसमें फूलों का गुच्छा लगता है।
⋙ पालक पु (४)
संज्ञा पुं० [हि० पलंग] पलंग। पर्य्यंक। उ०— को पालक पौढे़ को माढ़ी। सोवनहार परा बँदि गाढ़ी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ पालक जीही
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है।
⋙ पालकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलँग] लकड़ी का टुकड़ा जो चारपाई के सिरहाने के पायों के नीचे उसे ऊँचा करने के लिये रखा जाता है।
⋙ पालकाप्य, पालकाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि जो करेणु के पुत्र थे और जिन्होंने सर्वप्रथम हाथियों के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी प्रस्तुत की। उ०— पालकाव्य के विरह करि अंग भए अति खीन।— पृ० रा०, २७७। २. हाथियों कि विद्या। हाथियों के विषय में वह शास्त्र जिसमें उनके लक्षण गुण आदि का वर्णन रहता है (को०)।
⋙ पालकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पल्यङ्क] एक प्रकार की सवारी जिसे आदमी कंधे पर लेकर चलते हैं। और जिसमें आदमी आराम से लेट सकता है। स्माना। खड़खड़िया। अच्छी डोली। विशेष— पीनस, चौपाल, तामजान इत्यादि, इसके कई भेद होते हैं। कहार इसे कंधे पर लेकर चलते हैं।
⋙ पालकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पालङ्क] पालक का शाक।
⋙ पालकी गाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० पालकी + गाड़ी] वह गाड़ी जिसपर पालकी के समान छत हो।
⋙ पालखी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पालकी'। उ०—आठ सेहस नेजा घणी। पालखी बइठ सहस पचास।—बी० रासी, पृ० ११।
⋙ पालगर पु
वि० [हिं० पालना + फा० गर (प्रत्य०)] पालक। पालन करनेवाला। उ०— प्रथमी छट्ठा पालगर नर मट्ठा कर- नार। तरख बयट्ठा सूध कवि थट्टा नगर मझार।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५७।
⋙ पालघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. छत्राक। खुमी। २. जलतृण।
⋙ पालट (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पटेबाजी की एक चोट का नाम।
⋙ पालट (२)
संज्ञा पुं० [सं० पालन, हिं०, √ पाल + ट(प्रत्य०)] १. पाला हुआ लड़का। दत्तक पुत्र। २. वह व्यक्ति जो किसी के बदले में कार्य करे। वह व्यक्ति जिसके विषय में यह माना जाता हो कि उसे किसी की ओर से कार्य करने का अधिकार मिला है। प्रतिनिधि (व्यंग्य)। उ०— वही तुम्हारा जवान पालट, जिसने बुढ़ौती में तुम्हारी तकदीर की उल्टे छूरे से हजामत बना दी।— शराबी, पृ० ११४।
⋙ पालटना पु
क्रि० अ० [हिं० पलटना] दे० 'पलटना'। उ०— दिण परषौ दिस पालटइ, सखी बाब फरूकती जाइ संसार।—बी० रासी०, पृ० ६८।
⋙ पालड़ा
संज्ञा पुं० [हि० पलड़ा] दे० 'पलड़ा'। उ०— एक पालड़े सीस धरि तौले ताके साथ।— सुंदर०, ग्रं० भा० २, पृ० ७३१।
⋙ पालणो †
वि० [हिं० पालना] पाली हुई। पालित। पाली पोसी। उ०— भणत नामदेव सुनो त्रिलोचन, वाकी पालणी पौटिला। दक्खिनी० पृ० ३३।
⋙ पालती (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० प्लेट?] जोड़ या सीमन के तख्ते। (लश०)।
⋙ पालती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पालथी'।
⋙ पालतू
वि० [सं० पालना] पाला हुआ पोसा हुआ। जैसे, पालतू कुत्ता।
⋙ पालथि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पालथी] दे० 'पालथी'। उ०— तर गेरि पटंबर अंबरयं। करि पालथि छोरिय कंमरयं।— ह० रासो, पृ० ४६।
⋙ पालथी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्य्यस्त(=फैला हुआ) एक प्रकार का बैठना जिसमें दोनों जघे दोनों ओर फैलाकर जमीन पर रखे जाते हैं और घुटनों पर से दोनों टाँगे मोड़कर बायाँ पैर दहिने जंघे पर और दहिना बाएँ पर टिका दिया जाता है। पद्मासन। कमलासन। क्रि० प्र०— मारना। लगाना।
⋙ पालन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० पालनीय पालित, पाल्य] १. भोजन वस्त्र आदि देकर जीवनरक्षा। भरण पोषण। रक्षण। परवरिश। २. तुरंत की ब्याई गाय का दूध। ३. लड़कों को बहलाने का गीत। ४. अनुकूल आचरण द्वारा किसी बात की रक्षा या निर्वाह। भंग न करना। न टालना। जैसे, आज्ञा- पालन, प्रतिज्ञापालन, वचन का पालन।
⋙ पालन (२)
वि० रक्षा करनेवाला। रक्षक। यौ०— पालनपोषण = भोजन, कपड़ा आदि सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करना। परवरिश। पालनहार = पूरा करनेवाला। पालनेवाला। उ०—साँई तुम ब्रत पालन- हारे।—जग० श०, भा० २, पृ०, १०४।
⋙ पालना (१)
क्रि० स० [सं० पालन] १. पालन करना। भोजन वस्त्र आदि देकर जीवनरक्षा करना। रक्षा करना। भरण पोषण करना। परवरिश करना। जैसे,—इसी के लिये माँ बाप ने तुम्हें पालकर इतना बड़ा किया। २. पशु पक्षी आदि को रखना। जैसे, कुत्ता पालना, तोता पालना। ३. भंग न करना। न टालना। अनुकूल आचरण द्वारा किसी बात की रक्षा या निर्वाह करना। जैसे, आज्ञा पालना, प्रतिज्ञा पालना।
⋙ पालना (२)
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] रास्सियों के सहारे टँगा हुआ एक प्रकार का गहरा खटोला या विस्तरा जिसपर बच्चों को सुलाकर इधर से उधर झुलाते हैं। एक प्रकार का झूला या हिंड़ोला पिंगूरा। गहवारा। उ०— (क) पालनौ अति सुंदर गढ़ि ल्याउ रे बढैया।—सूर, १०। ४१। (ख) जसोदा हारि पालनै झुलावै।—सूर०, १०। ४३।
⋙ पालनीय
वि० [सं०] १. जिसकी रक्षा की जाय। २. जो रक्षणीय हो [को०]।
⋙ पालयिता
संज्ञा पुं० [सं० पालयितृ] रक्षक। अभिभावक [को०]।
⋙ पालरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पलरा'। उ०— सार शब्द के बने पालरा सत कै डाँड़ी लगी हो।— कबीर श०, भा० ३, पृ० ५१।
⋙ पालल
वि० [सं०] तिल के चूर्ण से बना हुआ [को०]।
⋙ पालवंश
संज्ञा पुं० [सं०] बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने साढे़ तीन सौ वर्ष तक मगध और वंग देश पर राज्य किया था। विशेष— इस वंश के संस्थापक गोपाल थे जो सन् ७७५ ई० सेलेकर ७८५ ई० तक रहे। अंतिम राजा गोविंद पाल थे जिन्होंने सन् ११४० ई० से लेकर ११६१ ई० तक राज्य किया। एक ताम्रपत्र थे। डा० हानेले का मत है कि पाल वंश के राजा बौद्ध थे।
⋙ पालब
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] १. पल्लव। पत्ता। २. कोमल पत्ता।
⋙ पालवणी पु
संज्ञा पुं० [डिं०] एक प्रकार का डिंगलगी। उ०— चार पदा द्वाला चवाँ, मोहरा चार मिलाण। लघु गुरु नेमन ल्याइये, पालवणी परमाण।—रघु० रू०, पृ० १६५।
⋙ पाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रालेय] १. हवा में मिली हुई भाप के अत्यंत सूक्ष्म अणुओं की तह जो पृथ्वी के बहुत ठंढा हो जाने पर उसपर सफेद सफेद जम जाती है। हिम। उ०— जल तें पाला, पाला तें जल, आतम परमातम इकलास।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १५६। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा— पाला पड़ना = दे० 'पाला मार जाना'। पाला मार जाना= पौधे या फसल का पाला गिरने से नष्ट हो जाना। पाला मारना = दे० 'पाला मार जाना'। २. हिम। ठंढ से ठोस जमा हुआ पानी। बर्फ। ३. ठंढ। सरदी। शीत।
⋙ पाला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पल्ला] संबंध का अवसर। लगाव का मौका। व्यवहार करने का संयोग। वास्ता। साबिका। विशेष— यह शब्द केवल 'पड़ना' के साथ मुहा०, के रूप में आता है। जैसे,— खूबों को जानता था गरमी करेंगे मुझसे। दिल सर्द हो गया है जब से पड़ा है पाला।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ९। मुहा०— (किसी से) पाला पड़ना = व्यवहार करने का संयोग होना। वास्ता पड़ना। काम पड़ना। जेसे,—बड़े भारी दुष्ट से पाला पड़ा है। (किसी के) पाले पड़ना = वश में होना। काबू में आना। पकड़े में आना। उ०—(क) परेहु कठिन रावण के पाले।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जो सदा मारते रहे पाला। वे पड़े टालटूल के पाले।— चुभते०, पृ० २५।
⋙ पाला (३)
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव, हिं० पाली] झड़बेरी की पत्तियाँ जो राजपूताने आदि में चारे के काम में आती हैं।
⋙ पाला (४)
संज्ञा पुं० [सं० पट्ट हिं० पाड़ा] १. प्रधान स्थान। पीठ। सदर मुकाम। २. सीमा निर्दिष्ठ करने के लिये मिट्टी का उठाया हुआ मेड़ या छोटा भीटा। धुस। ३. कबड़्डी के खेल में हद के निशान के लिये उठाया हुआ मिट्टी का धुस या खींची हुई लकीर। मुहा०— पाला मारना = कबड्डी के खेल में सभी प्रतिपक्षियों को हराना। उ०— जो सदा मारते रहे पाला। वे पड़े टालटूल के पाखे।— चुभते०, पृ० १५१। ४. अनाज भरने का बड़ा बरतन जो प्राया कच्ची मिट्टी का गोल दीवार के रूप में होता है। डेहरी। ५. अखाड़ा। कुश्तीलड़ने या कसरत करने की जगह। ६. दस पाँच आदिमियों के उठने बैठने की जगह।
⋙ पाला पु (५)
संज्ञा पुं० [सं० पालक, प्रा०, पालय, हिं० पालना] दे० 'पालक'। उ०— पुहविए पाला आवन्ता।—कीर्ति०, पृ० ४६।
⋙ पालागन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँय + लगना] प्रणाम। दंडवत। नमस्कार। विशेष— प्रणाम करने में, विशेषतः ब्राह्मणों को, इस शब्द का मुँह से उच्चारण भी किया जाता है, जैसे, पंडित जी पालागन।
⋙ पालागल
संज्ञा पुं० [सं०] हरकारा। संवादवाहक [को०]।
⋙ पालागली
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा की चौथी और सबसे कम आदर पानेवाली पत्नी [को०]।
⋙ पालान पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्याण, प्रा०, पल्लाश] दे० 'पलान'। उ०— ज्ञान रंग पालान, सुरति की काठी हो।—धरनी० श०, पृ० ४४।
⋙ पालाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. तमालपत्र। तेजपत्ता। २. हरा रंग। हरित वर्ण [को०]।
⋙ पालाश
वि० १. पालाश से संबंधित। २. पलाश की लकड़ी का बना हुआ। ३. हरे रंग का [को०]।
⋙ पालाशखंड
संज्ञा पुं० [सं० पालाशखण्ड] मगध देश [को०]।
⋙ पालाशि
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि जो पलाश गोत्र के प्रवर्तक थे [को०]।
⋙ पालिंद
संज्ञा पुं० [सं० पालिन्द] कुँदुरु नामक सुगंध द्रव्य।
⋙ पालिंदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरिवन। सालसा। २. काला निसोथ। कृष्ण निसोथ।
⋙ पालिंधी
संज्ञा स्त्री० [सं० पालिन्धी] दे० 'पालिंदी'।
⋙ पालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कर्णलताग्र। कान की लौ। कान के पुट के नीचे का मुलायम चमड़ा। विशेष— पुट के जिस निचले भाग में छेद करके बलियाँ आदि पहनी जाती है उसे पालि कहते हैं। इस स्थान पर कई प्रकार के रोग हो जाते हैं, जैसे, उत्पाटक जिसमें चिराचिराहट होती है, कंड़ु जिसमें खुजली होती है, ग्रंथिक जिसमें जगह जगह गाँठें सी पड़ जाती हैं, श्याव जिसमें चमड़ा काला हो जाता है, स्नावी जिसमें बराबर खुजली होती और पनछा बहा करता है, आदि। २. कोना। ३. पंक्ति। श्रेणी। कतार। ४. किनारा। ५. सीमा। हद। ६. मेड़। बाँध। उ०— ढाढी एक संडेसड़उ ढोलइ लागि लइ जाइ। जोबण फट्टि तलावड़ा, पालि न बंधउ काँई।— ढोला०, दू०, १२२। ७. पुल। करारा। कगार। भीटा। उ०— खेलत मानसरोदक गई। जाइ पालि पर ठाढ़ी भई।— जायसी (शब्द०)। ८. देग। बटलोई। ९. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी। १०. वह बँधा हुआ भोजन जो छात्र या व्रह्मचारी को गुरुकुल में मिलता था। ११. अंक। गोद। उत्संग। १२. परिधि। १३. जूँ याचीलर। १४. स्त्री जिसकी दाढ़ी में बाल हों। १५. अंक। चिह्न। १६. संस्तवन। प्रशंसन (को०)। १७. श्रोणी। नितंब (को०)। १८. लंबा तालाब (को०)।
⋙ पालिक
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्कक] १. पलँग। चारपाई। २. पालकी।
⋙ पालिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पालन करनेवाली। २. कान का वह नीचे का भाग जो अत्यंत कोमल होता है (को०)। ३. तलवार या किसी अन्य शस्त्र का पैना किनारा (को०)। ४. छूरी छोटा चाकू (को०)। ५. स्थाली या पात्र (को०)।
⋙ पालिका (२)
वि० स्त्री० पालन करनेवाली। रक्षिका।
⋙ पालिज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर [को०]।
⋙ पालिटिक्स
संज्ञा पुं० [अं०] १. नीति शास्त्र का वह अंग जिसमें राष्ट्र या राज्य की शांति, सुव्यवस्था और सुखसमृद्धि के लिये नियम, कायदे और शासनविधियाँ हों। रागनीति शास्त्र। २. वे बातें जिनका राजनीति से संबंध हो। ३. अधिकारप्राप्ति के लिये राजनीतिक दलों की प्रतिद्वंद्विता।
⋙ पालित (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पालिता] १. पाला हुआ। पोसा हुआ ! २. रक्षित।
⋙ पालित (२)
संज्ञा पुं० सिहोर का वृक्ष [को०]।
⋙ पालिता मंदार
संज्ञा पुं० [सं० पालित + मंदार] एक मझोला पेड़ जिशकी शाखाओं और टहनियों में काले रंग के काँटे होते हैं। विशेष— कुछ लोग इसी पेड़ को मंदार कहते है। इसकी पत्तियों एक सींके के दोनों ओर लगती हैं और तीन तीन एक साथ रहती हैं। फूल के दल छोटे बड़े और क्रमविहीन होते हैं। यह पेड़ बंगाल में समुद्रतट के पाट होता है। मदरास और बरमा में भी इसकी कई जातियाँ होती हैं। इसे बाड़ की भाँति लगाते हैं।
⋙ पालित्य
संज्ञा पुं० [सं०] वृद्धावस्था के कारण बालों में सफेदी आ जाना। बुजुर्गी [को०]।
⋙ पालिधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पारिभद्र वृक्ष। फरहद का पेड़।
⋙ पालिनी
वि० स्त्री० [सं०] पालन करनेवाली। रक्षा करनेवाली।
⋙ पालिभंग
संज्ञा पुं० [सं० पालिभङ्ग] बाँध या सेतु का टूटना [को०]।
⋙ पालिश
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. चिकनाई और चमक। ओप। २. रोगन या मसाला जिसके लगने से चिकनाई और चमक आ जाय। मुहा०— पालिश करना = रोगन या मसाला रगड़कर चमकाना। रोगन से चिकना और साफ करना। जैसे,— जूते पर पालिश कर दो। पालिश होना = रोगन से चिकना और चमकीला किया जाना। पालिश देना = दे० 'पालिश करना'।
⋙ पालिसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. नीति। कार्यसाधन का ढंग। उ०— है ! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं, मूर्ख !—भारतेंदु ग्रं०, भाग १, पृ० ४७४। २. वह प्रमाण या प्रतिज्ञापत्र जो बीमा करनेवाली कंपनी की ओर से बीमा। करानेवाले को मिलती है, जिसमें लिखा रहता है कि अमुक शर्तें पूरी होने या बीच में अमुक दुर्घटना संघटित होने पर बीमा करानेवाले या उसके उत्तपाधिकारी को इतना रुपया मिलेगा। वि० दे० 'बीमा'। यौ०—पालिसी होल्डर।
⋙ पालिसी होल्डर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसके पास किसी बीमा कंपनी की पालिसी हो। बीमा करनेवाला।
⋙ पाली (१)
वि० [सं० पालिन्] [वि० स्त्री० पालिनी] १. पालन करनेवाला। पोषण करनेवाला। २. रखनेवाला। रक्षा करनेवाला।
⋙ पाली (२)
संज्ञा पुं० पृथु के पुत्र का नाम। (हरिवंश)।
⋙ पाली (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० पल्लि (= विशिष्ट स्थान)] वह स्थान जहाँ तीतर, बुलबुल, बटेर आदि पक्षी लड़ाए जाते हैं।
⋙ पाली (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० या सं० पालि (= बरतन)] १. बरतन का ढक्कान। पारा। परई। २. दे० 'पलि'।
⋙ पली (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० पालि (= पंक्ति)] एक प्राचीन भाषा जिसमें बौद्धों के धर्मग्रंथ लिखे हुए हैं और जिसका पठन पाठन स्याम, बरमा, सिंहल आदि देशों में उसी प्रकार होता है जिस प्रकार भारतवर्ष में संस्कृत का। विशेष— बौद्ध धर्म के अभ्युदय के समय में इस भाषा का प्रचार वाह्लीक (बलख) सै लेकर स्याम देश तक और उत्तर भारत से लेकर सिंहल तक हो गया था। कहते हैं, बुद्ध भगवान् ने इसी भाषा में धर्मोपदेश किया था। बौद्ध धर्मग्रंथ त्रिपिटक इसी भाषा में हैं। पाली का सबसे पुराना व्याकरण कच्चायन (कात्यायन) का सुगंधिकल्प है। ये कात्यायन कब हुए थे ठीक पता नहीं। सिंहल आदि के बोद्धों में यह प्रसिद्ध है कि कात्यायन बुद्ध भगवान् के शिष्यों में से थे और बुद्ध भग- बान् ने हो उनसे उस भाषा का व्याकरण रचने के लिये कहा था जिसमें भगवान् के उपदेश होते थे। पर कात्यायन के व्याकरण में ही एक स्थान पर सिंहल द्विप के राजा तिष्य का नाम आया है जो ईसा से ३०७ वर्ष पहले राज्य करता था। इस बाधा का उत्तर लोग यह देते हैं कि पाली भाषा का अध्ययन बहुत दिनों तक गुरु शिष्य परंपरानुसार ही होता आया था। इससे संभव है कि 'तिष्य' वाला उदाहरण पीछे से किसी ने दे दिया हो। कुछ लोग वररुचि को, जिनका नाम कात्यायन भी था, पाली व्याकरणाकार कात्यायन समझते हैं, पर यह भ्रम है। कात्यायन ने अपने व्याकरण में पाली की मागधी और मूल भाषा कहा है। पर बहुत से लोगों ने मागधी से पाली को भिन्न माना है। कुछ पाली ग्रंथकारों ने तो यहाँ तक कहा है कि पाली बुद्धों, बोधिसत्वों और देवताओं की भाषा है और मागधी मनुष्यों की। बात यह मालूम होती है कि मागधी शब्द का व्यवहार मगध की प्राकृत के लिये बहुत पीछे तक बराबर होता रहा है। जैसे साहित्यदर्पणकार ने नाटकों के लिये यह नियम किया है कि अंतःपुरचारी लोग मागधी मेंबातचीत करते दिखाए जायँ और चेट, राजपुत्र तथा वणिक् लोग अर्धमागधी में। पर पाली भाषा एक विशेष प्राचीनतर काल की मागधी का नाम है जिसे व्याकरणबद्ध करके कात्यायन आदि ने उसी प्रकार अचल और स्थिर कर दिया जिस प्रकार पाणिनि आदि ने संस्कृत को। इससे परवर्ती काल के पढे़ लिखे बौद्ध भी उसी प्राचीन मागधी का व्यवहार अपनी शास्त्रचर्चा में बराबर करते रहे। 'पाली' शब्द कहाँ से आया इसका संतोषप्रद उत्तर कहीं से नहीं प्राप्त होता है। लोगों ने अनेक प्रकार की कल्पनाएँ की हैं। कुछ लोग उसे सं०, पल्लि (= बस्ती, नगर) से निकालते हैं, कुछ लोग कहते हैं, 'पालाश' से, जो मगध का एक नाम है, पाली बना है। कुछ महात्मा पह्लवी तक जा पहुँचे हैं। पटने का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र या इससे कुछ लोगों का अनुमान है कि पाठलि की भाषा, ही पाली कहलाने लगी। पर सबसे ठीक अनुमान यह जान पड़ता है कि 'पाली' शब्द का प्रयोग पंक्ति के अर्थ में था। अब भी संस्कृत के छात्र और अध्यापक किसी ग्रंथ में आए हुए वाक्य को 'पक्ति' कहते हैं, जैसे, पक्ति नहीं लगती है। मागधी का बुद्ध के समय का रूप बौद्धशास्त्रों में लिपिबद्ध हो जाने के कारण पाली (सं० पालि = पंक्ति) कहलाने लगी। हीनयान शाखा में तो पाली का प्रचार बराबर एक सा चलता रहा, पर महायान शाखा के बौद्धों ने अपने ग्रंथ संस्कृत में कर लिए।
⋙ पाली पु (६)
संज्ञा स्त्री० [सं० पल्यडक] पालकी। उ०— होउ बाध्यउ पाटको। पालीय परगह अंत न पार।— बी० रासो, पृ० १३।
⋙ पाली (७)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पारी] पारी। बारी।
⋙ पालीवत
संज्ञा पुं० [देश० या सं०] एक पेड़ का नाम। विशेष— बृहत्संहिता में द्राक्षा, बिजोरा आदि कांडरोप्य (=जिसकी डाल लगाने से लग जाय) पेड़ों में इसका नाम आया है।
⋙ पालीवाल
संज्ञा पुं० [?] मारवड़ी ब्राह्मणों का एक वर्ग।
⋙ पालीशोष
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक रोग।
⋙ पालू
वि० [हिं० पालना] पाला हुआ। पालतू।
⋙ पाले
संज्ञा पुं० [हिं० पल्ला] दे० 'पाला'।
⋙ पालो (१)
संज्ञा पुं० [सं० पालि?] पाँच रुपए भर का बाट या तौल। (सुनार)।
⋙ पालो पु † (२)
क्रि० वि० [सं० पदाति?] पैदल। उ०— पहुँचावण डेरा लग पालो सगलानू सनमानियाँ। पाणां। जोड़ किया भूपत सूँ जाजा राजी जानिया।—रघु०, रू०, पृ० ८७।
⋙ पाल्य
वि० [सं०] पालन के योग्य।
⋙ पाल्लवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक खेल जो पल्लवों या टहनियों से खेला जाता है [को०]।
⋙ पाल्लाविक
वि० [सं०] १. फैलनेवाला। विस्तृत होनेवाला। २. असंबद्ध। असंगत [को०]।
⋙ पाल्वल (१)
वि० [सं०] तलैया या गड़ढा संबंधी। तलैया संबंधी। २. तलैया में होनेवाला। तलैया का।
⋙ पाल्वल (२)
संज्ञा पुं० क्षुद्र जलाशय का जल। तलैया का पानी।
⋙ पाल्हवना पु †
[सं० पल्लवित] पल्लवित होना। पत्तों से युक्त होना। हरा होना। उ०— सखी सु सज्जण आविया हुँता मुभझ हियाह। सूका था सू पाल्हव्या पाल्हविया फलि- याह। — ढोला०, दु०, ५३३।
⋙ पावँ
संज्ञा पुं० [सं० पाद] पैर। दे० 'पाँव'।
⋙ पावँड़
संज्ञा पुं० [हि० पाँव + डा़ (प्रत्य०)] वह कपड़ा या बिछौना जो आदर के लिये किसी के मागँ में बिछाया जाता है। पैर रखने के लिये फैलाया हुआ कपड़ा। पायंदाज। उ०— (क) देत पावँड़े अरघ सुहाए। सादर जनक मंड़पहि। लाए। — तुलसी (शब्द०)। (ख)पौरि के दुवारे ते लगाय केलिमंदिर लौं पदमिनि पावँड़े पसारे मखमल के। — (शब्द०)। क्रि० प्र०— डालना।— देना।—पसारना।—बिछाना।
⋙ पावँडी़
संज्ञा स्त्री० [हि० पावँ + ड़ी (प्रत्य०)] १. पादत्राण। खड़ाऊँ। २. जूता। उ०— सपनेहु में बर्राय के जो रे कहेगा राम। वाके पग के पावँड़ी मेरे तन को चाम। —कबीर (शब्द०)। ३. गोटा पट्टा बुननेवालों का एक औजार जिसे बुनते समय पैरों से दबाना पड़ता है और जिससे ताने का बादला नीचे ऊपर होता है। विशेष— यह काठ का पहरा सा होता है जिसमें दो खूटियाँ लगी रहती हैं। इन दोनों खूँटियों के बीच लोहे की एक छड़ लगी रहती है जिसमें एक एक बालिश्त लंबी, नुकीले सिरे की ५—६ लकड़ियाँ लगी रहती हैं। बादला बुनने में यह प्राय़? वही काम देता है जो करघे में राछ देती है।
⋙ पावँर पु (१)
वि० [सं० पामर] १. तुच्छ। खल। नीच। दुष्ट। २. मुर्ख। निर्बुद्बि। उ०— (क) तुम त्रिभुवन गुरू वेद बखाना। आन जीव पावँर का जाना। —तुलसी (शब्द०)। (ख) छुँछो मसक पवन पानी ज्यों तैसोई जन्म विकारी हो। पाखँड़ धर्म करत है नाहिन चलत तुम्हारी हो। — सूर (शब्द०)।
⋙ पावँर † (२)
संज्ञा पुं० [हि० पावँ] दे० 'पावँड़ा'। उ०— कुंड़ल गहे सीस भुइ लावा। पावँर होउँ जहाँ पावा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ पावँर (३)
संज्ञा स्त्री० दे० 'पावँड़ी'।
⋙ पावँरी
संज्ञा स्त्री० [हि० पावँ + री (प्रत्य०)] दे० पावँड़ी'।
⋙ पाव (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाद (=चतुर्थाश) ] १. चौथाई। चतुर्थ भाग। जैसे, पाव घंटा, पाव कोस, पाव सेर, पाव आना। २. एक सेर का चौथाई भाग। एक तौल जो सेर की चौथाई होती है। चार छटाँक का मान। जैसे, पाव भर आटा। ३. पैर। उ०— कियों कान्ह पै घाव पाव ठहरन नहीं पाए— ब्रज० ग्रं०, प० १४।
⋙ पाव (२)
संज्ञा पुं० [सं० पावःया सं० प्रावय० दे० प्रा पावय; गुज० पावो] एक वाद्य। वंशी अलगोजा।
⋙ पावक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। तेज। ताप। विशेष— महाभारत वन पर्व में लिखा है कि २७ पावक ऋषि ब्रह्मा के अंग से उत्पन्न हुए जिनके नाम ये हैं— अंगिरा, दक्षिण, गार्हपत्प, आहवनीय, निर्मथ्य, विद्युत्, शूर, संवर्त, लौकिक, जाठर, विषग, क्रव्य, क्षेमवान्, बैष्णव, दस्युमान्, वलद, शांत, पुष्ट विभावस्तु, ज्योतिष्मान, भरत, भद्र, स्विष्टकृत्, वसुमानू, क्रतु, सोम ओर पितृमान्। क्रियाभेद से अग्नि के ये भिन्न भिन्न नाम है। २. सदाचार। ३. अग्निमंथ वृक्ष। अगेथु का पेड़। ४. चित्रक वृक्ष। चीते का पेड़। भल्लातक। भिलावाँ। ६. विड़ग। वायविडंग। ७. कुसुम। ८. वरुण। ९. सूर्य। १०. संत। तपस्वी (को०)। ११. विद्यत् की ज्वाला। बिजली को अग्नि (को०)। १२. तीन की संख्या क्योंकि कर्मकांड में तीन अग्नि प्रधान कहे गए हैं (को०)। यौ०— पावककण = अग्निकण। अग्निस्फुलिंग।उ०— गा, कोकिल, बरसा पावक कण। — युगांत, पृ० ३. पावकमणि। पावकशिख = केसर।
⋙ पावक (२)
वि० शुद्ब करनेवाला। पावन करनेवाला। पवित्र करनेवाला।
⋙ पावकमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यकांत मणि। २. आतशी शीशा।
⋙ पावका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती (वेद)।
⋙ पावकात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकुवंशीय दुयोंधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र।
⋙ पावकि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पावक का पुत्र। कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकु- वंशीय दुर्याधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन। विशेष— मनु के पुत्र इक्ष्वाकुवंशीय सुदुर्जय नाम का एक पुत्र हुआ जिसे सुदर्शना नाम की एक कन्या थी। उसके रूप लावण्य पर मुग्ध होकर पावक या अग्निदेव रूप बदलकर दुर्योधन के यहाँ आए और उन्होंने कन्या के लिये प्रार्थना की। दुयौधन सम्मत न हुए। पावक देवता निराश होकर चले गए। एक बार राजा ने यज्ञ किया। यज्ञ में अग्नि ही प्रज्वलित न हुई। राजा और ऋत्विक लोगों ने अग्नि की बहुत उपासना की। पावक ने प्रकट होकर फिर कन्या माँगी। दुर्याधन ने कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया। अग्नि देवता उस कन्या के साथ मुर्ति धारण कर माहिष्मती पुरी में रहने लगे। पावक से जो पूत्र सुदर्शना को हुआ उसका नाम सुदर्शन पड़ा। वह बडा़ धर्मात्मा और ज्ञानी था।
⋙ पावकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की स्त्री। २. पावका। सरस्वती [को०]।
⋙ पावकुलक
संज्ञा पुं० [सं० पादाकुलक] पादाकुलक छंद। चौपाई।
⋙ पावट †
संज्ञा स्त्री० [हि० पायल] पैर का एक आभूषण। पायल। नूपुर। उ०— जंध केदली पगु में पावट झमकि झमकि ललचावै। कहें दरिया कोइ संत विवेकी वाके निकट न जावै। —सं० दरिया, पृ० १३६।
⋙ पावडी †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'पावँड़ी'। उ०—आयो भरथ अवध अभंग, मंड़े पावडी उतमंग। — रघु, रु०, पृ० १२२।
⋙ पावती
संज्ञा स्त्री० [हि० पावना, पाना] १. प्राप्तिस्वीकार। किसी वस्तु के प्राप्त होने की रसीद। २. वह रसीद जो किसी से रूपया लेते समय रुपया लेनेवाला देता है।
⋙ पात्रदान
संज्ञा पुं० [हि० पाव + दान (प्रत्य०)] १. पैर रखने के लिये बना हुआ स्थान या वस्तु। २. काठ की छोटी चौकी जो कुरसी पर बैठे हुए आदमी के पैर रखने के लिये मेज के नीचे रखी जाती है। ३. इक्के गाड़ी आदि की बगल में लटकाई हुई लोहे की छोटी पटरी जिसपर पैर रखकर नीचे से गाड़ी पर चढ़ते है। ४. गाड़ी के भीतर पैर रखने या लटकाने का स्थान।
⋙ पावन (१)
वि० [सं०] १. पवित्र करनेवाला। शुदध करनेवाला। २. पवित्र। शुदध। पाक। उ०— के प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा। —भारतेंदुं ग्रं० भा० १, पृ० ४५४। ३. पवन या हवा पीकर रहनेंवाला।
⋙ पावन (२)
संज्ञा पुं० १. पावकाग्नि। अग्नि। २. प्रायश्चित्त। शुदिध। ३. जल। ४. गोबर। ५. रूद्राक्ष। ६. कुष्ट। कुट। ७. पीली भँगरैया। पीत भृंगराज। ८. चित्रक वृक्ष। चीता। ९. चंदन। १०. सिह्लक। शिलारस। ११. सिदघ पुरुष। १२. व्यास का एक नाम। १३. विष्णु। १४. संप्रदाय का बोघक। चिह्ना (को०)।
⋙ पावनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पवित्रता।
⋙ पावनताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पावनता + ई(प्रत्य०)] पवित्रता। पावनता उ०— कहि दंड़क बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहि गाई।—मानस, ७। ६६।
⋙ पावनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पवित्रता।
⋙ पावनध्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] शख।
⋙ पावन पु (१)
क्रि० सं० [सं० पायण, प्रा० पावण] १. पाना। प्राप्त करना। २. ज्ञान प्राप्त करना। अनुभव करना। जानना। समझना। उ०— समरथ सुभ जो पावई पीर पराई —तुलसी (शव्द०)। ३. भोजन करना। आहार करना। जीमना। उ०— तेहि छन तहँ शिशु पावत देखा। पलना निकट गई तहँ पेखा। —विश्राम (शब्द०)। †३. पिलाना। पीने के लिये देना। उ० जुम्हाँ को प्रीय पाछी बाहुड़इ। सोवन कचौली तोही पावस्युँ दूघ। —बी० रासी, पृ० ५९। विशेष दे० 'पाना'।
⋙ पावना
संज्ञा पुं० १. दूसरे से रूपया आदि पाने का हक। लहना। २. रूपया जो दुसरे से पाना हो। रकम जो दुसरे से वसुल करनी हो। जैसे—देना पावना ठीक करके हिसाब साफ कर दो (बाजारू)।
⋙ पावनि
संज्ञा पुं० [सं०] पवन के पुत्र हनुमान आदि।
⋙ पावनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. पवित्र करनेवाली। शुद्ध या साफ करनेवाली। २. पवित्र।
⋙ पावनी (२)
संज्ञा स्त्री० १. हरीतकी। हड़। २. तुलसी। ३. गाय। ४. गंगा। ५. शाकद्वीप की एक नदी का नाम (मत्स्यपुराण)।
⋙ पावनेदार
संज्ञा पुं० [हिं० पावना + दार] १. लहनेदार। कर्ज देनेवाला। महाजन। २. अन्य से धन पाने का अधिकारी।
⋙ पावमान
वि० [सं०] पवमान अर्थात् अग्नि से संबंधित [को०]।
⋙ पावमानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद की एक ऋचा।
⋙ पावमुहर
संज्ञा स्त्री० [हि० पाव(= चौथाई) †मुहर)०] शाहजहाँ के समय का सोने का एक सिक्का जिसका मुल्य एक अशरफी या एक मुहर का चौथाई होता था।
⋙ पावर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १, पासे का वह पार्श्व जिसपर दो बिंदियाँ बनी रहती है। २. इस तरह का पासा। ३. इस प्रकार के पासे को फेकने का विशेष ढंग [को०]।
⋙ पावर (२)
वि० [सं० पामर, प्रा० पावर] दे० 'पामर' उ०— तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पावर का जाना।— मानस १। १११।
⋙ पावर (३)
संज्ञा पुं० [अं०] १. अधिकार। प्रभाव। शक्ति। सामर्थ्य। बल। २. शासन। हुकूमत। ३. सेना। चमु। ४. बिजली आदि की वह शक्ति जिससे मशीन चलती है। यंत्रों को गतिशील करनेवाली शक्ति [को०]। यौ०—पावरलूम=यंत्रशक्ति से चलनेवाला करघा। पावर- स्टेशन= दे०'पावरहौस'।
⋙ पावरहौस
संज्ञा पुं० [अं० पावरहाउस] वह स्थान जहाँ मशीनों से बिजली उत्पन्न ती जाती है। विशेष— दे० 'बिजली'। उ० यहाँ सुरक्षित जगह में पावरहौस (शक्तिभवन) बनाना होगा। —किन्नर०, पृ० ४५।
⋙ पावरी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० पाँव] रिकाब। पायदान। उ०— ज्ञान कै घोड़ा घ्यान के पाखर जुक्ति कै जीन बनाई। सत्त सुकृट दोउ लगी पावरी, बिबेक लगाम लगाई।— कबीर श०, भा० २. प० ७८।
⋙ पावरोटी
संज्ञा स्त्री० [पुर्त० पाव + सं० रोटी] एक प्रकार की मोटी और फूली हुई रोटी जो मैदे का खमीर उठाकर बनाई जाती है।
⋙ पावल †
संज्ञा स्त्री० [सं० ? या हि० पाव + ल (प्रत्य०)] दे० 'पायल', 'पावट'।
⋙ पावली
संज्ञा स्त्री० [हि० पाव (=चौथाई) + ला (प्रत्य०)] एक रूपए का चौथाई सिक्का। चार आने का सिक्का। चवन्नी।
⋙ पावस †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रावृष, प्रा० पाउस] वर्षाकाल। सावन भादों का महीना। बरसात। उ०— गिरिघारन पावस आवत ही बकवृंद अकाश उड़ान लगे। धुरवा सब ओर दिखान लगे मोरवान के शोर सुनान लगे।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ पावा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाद० हि० पावँ, पाव] चारपाई, पलँग, चौकी वैशाली से पश्चिम कुरसी आदि का पाया। दे० 'पाया'।
⋙ पावा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्राचीन और बौद्बकालीन गाँव जो वैशाली से पश्चिम और गंगा के उत्तर था। विशेष— यहाँ बुद्ब भगवान् कुछ दिन ठहरे थे ओर बुद्ब के निर्वाण के पीछे पावा के लोगों को भी बुद्ध के शरीर का कुछ अंश मिला था जिसके ऊपर उन्होंने एक स्तूप उठाया। यह गाँव अब भी इसी नाम से जाना जाता है और गोरख- पुर जिले में गडक नदी से ६ कोस पर है। गोरखपुर से यह बोस कोस उत्तरपश्चिम पड़ता है।
⋙ पावासर पु †
संज्ञा पुं० [?] मानसरोवर। उ०— मोताहल हंसाँ मिलै, पावासर रै पास।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४८।
⋙ पावी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना। विशेष— इसकी लंबाई १७-१८ अंगुल होती है। यह ऋतु के अनुसार रंग बदला करती है और पंजाब के अतिरिक्त सारे भारत में पाई जाती है। यह प्रायः ४ या ५ अंडे देती है।
⋙ पावा
संज्ञा पुं० [सं०] १. रस्सी, तार, ताँत, आदि के कई प्रकार के फेरों और सरकनेवाली गाँठों आदि के द्वारा बनाया हुआ घेरा जिसके बीच में पड़ने से जीव बँध जाता है और कभी कभी बंधन के अधिक कसकर बैठ जाने से मर भी जाता है। फंदा। फाँस। बंधन। जाल। विशेष— प्राचीन काल में पाश का व्यवहार युदध में होता था और अनेक प्रकार का बनता था। इसे शत्रु के ऊपर डालकर उसे बाँधते या अपनी ओर खींचते थे। अग्निपुराण में लिखा है कि पाश दस हाथ का होना चाहिए, गोल होना चाहिए। उसकी डोरी सूत, गून, मूँज, ताँत, चमडे़ आदि की हो। तीस रस्सियाँ होनी चाहीए इत्यादि। वैशंपायनीय धनुर्वेंद में जिस प्रकार के पाश का उल्लेख है वह गला कसकर मारने के लिये उपयुक्त प्रतीत होता है। उसमें लिखा है कि पाश के अवयव सूक्ष्म लोहे के त्रिकोण हों, परिधि पर सीसे की गोलियाँ लगी हों। युद्ध के अतिरिक्त अपराधियों को प्राणदंड देने में भी पाश का व्यवहार होता था, जैसे आजकल भी फाँसी में होता है। पाश द्वारा बध करनेवाले चांडाल 'पाशी' कहलाते थे जिनकी संतान आजकल उत्तरीय भारत में पासी कहलाती हैं। २. पशु पक्षियों को फँसाने का जाल या फंदा। विशेष— जिस प्रकार किसी शब्द के आगे 'जाल' शब्द रखकर समूह का अर्थ निकालते हैं उसी प्रकार सूत के आकार की वस्तुओं के सूचक शब्दों के आगे 'पाश' शब्द रहने से समूह का अर्थ लेते हैं, जैसे,— केशपाश। कर्ण के आगे पाश शब्द से उत्तम समझा जाता है। जैसे, कर्णपाश अर्थात् सुंदर कान। ३. बंधन। फँसानेवाली वस्तु। उ०— प्रभु हो मोह पाश क्यों छूटैं।— तुलसी (शब्द०)। विशेष— शैव दर्शन में छह पदार्थ कहे गए हैं— पति, विद्या, अविद्या, पशु, पाश और कारण। पाश चार प्रकार के कहे गए हैं— मल, कर्म, माया, ओर रोध शक्ति। (सर्वदर्शन- संग्रह)। कुलार्णव तंत्र में 'पाश' इतने बतलाए गए हैं— घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति।मतलब यह कि तांत्रिकों को इन सबका त्याग करना चाहिए। ४. फलित ज्योतिष में एक योग जो उस समय माना जाता है जब सब राशि ग्रहपंचक में रहती है।
⋙ पाशकंठ
वि० [सं० पाशकण्ठ] जिसके गले में फंदा हो [को०]।
⋙ पाशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का खेल या जआ। पासा। चौपड़। २. पाश। फंदा। बंधन।
⋙ पाशकपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. जूआ खेलने का स्थान। २. चौपड़ खेलने की बिसात [को०]।
⋙ पाशकेरली
संज्ञा पुं० [सं० पाश+ केरल (देश)] ज्योतिष की एक गणना जो पासे फेंककर की जाती है। यूनान, फारस आदि पश्चिमी देशों में पुराने समय में इसका बहुत प्रचार था। वहीं से शायद दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में यह विद्या आई हो।
⋙ पाशक्रीडा़
संज्ञा स्त्री० [सं०] पासे का खेल। जुआ [को०]।
⋙ पाशजाल
संज्ञा पुं० [सं०] दृश्यमान जगत्। संसार [को०]।
⋙ पाशधर
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण देवता (जिनका अस्त्र पाश है)।
⋙ पाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. फंदा। जाल। २. पाश से बाँधना। जाल में फँसाना [को०]।
⋙ पाशपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण देवता (जिनका अस्त्र पाश) है।
⋙ पाशपाश
वि० [फा़०] चूर चूर। टुकडे़ टुकडे़ [को०]।
⋙ पाशबंध
संज्ञा पुं० [सं० पाशबन्ध] फंदा। घेरा। फाँस [को०]।
⋙ पाशबंधक
संज्ञा पुं० [सं० पाशबन्धक] जिडी़मार। बहेलिया [को०]।
⋙ पाशबंधन
संज्ञा पुं० [सं० पाशबन्धन] जाल [को०]।
⋙ पाशबद्ध
वि० [सं०] फंदे में पडा़ हुआ। जाल में फँसा हुआ [को०]।
⋙ पाशभृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण। २. वह व्यक्ति जो पाश लिए हुए हो [को०]।
⋙ पाशमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक मुद्रा जो दाहिने और बाएँ हाथ की तर्जनी को मिलाकर प्रत्येक के सिरे पर अँगूठा रखने से बनती है।
⋙ पाशरजु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँधने की रस्सी। २. श्रृँखला। बेड़ी (को०)।
⋙ पाशव (१)
वि० [सं०] १. पशु संबंधी। पशुओं का। उ०— क्या दुःख दूर कर दे बंधन, यह पाशव पाश और क्रंदन।— बेला, पृ० ४९। २. पशुओं का जैसा। जैसे, पाशव व्यवहार।
⋙ पाशव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं का झुंड [को०]।
⋙ पाशवता
संज्ञा स्त्री० [सं० पाशव+ ता (प्रत्य०)] पशुता। उ०— निर्बलता का साथ छोड़ दो। पाशवता का पाश तोड़ दो। ग्रामिका, पृ० १२२।
⋙ पाशवपालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चरागाह। पशुओं के घास चरने का मैदान। २. चारा। घास [को०]।
⋙ पाशवान् (१)
वि० [सं० पाशवन्] [वि० स्त्री० पाशवती] पाशवाला। पाशधारी।
⋙ पाशवान् (२)
संज्ञा पुं० वरुण।
⋙ पाशवासन
संज्ञा पुं० [सं०] बैठने की एक प्रकार की मुद्रा या आसन [को०]।
⋙ पाशविक
वि० [सं० पाशव + हिं० इक (प्रत्य०)] पशुओं के जैसा क्रूर या निर्दयतापूर्ण। उ०— जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबर्दस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार का निष्कंटक साधन। — काया०, पृ० २३५।
⋙ पाशहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण। २. यम (को०)। ३. शतभिषा नक्षत्र।
⋙ पाशांत
संज्ञा पुं० [सं० पाशान्त] पोशाक के पीछे का भाग [को०]।
⋙ पाशा
संज्ञा पुं० [तु० फा० पादशाह] तुर्की सरदारों की उपाधि।
⋙ पाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] फंदे या जाल में चिड़िया फँसानेवाला। बहेलिया।
⋙ पाशित
संज्ञा पुं० [सं०] बँधा हुआ। पाशबद्ध।
⋙ पाशी (१)
वि० [सं० पाशिन्] पाशवाला। पाश धारण करनेवाला।
⋙ पाशी (२)
संज्ञा पुं० १. वरुण। २. ब्याध। बहेलिया। ३. यम। ४. प्राणदंड पाए हुए अपराधियों के गले में फाँसी का फंदा लगानेवाला चांडाल।
⋙ पाशी पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० पाश] दे० 'पाश'। उ०— पुनि जीव लक्ष चौरासी, डारी सबहिन् कौं पाशी।— सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १२४।
⋙ पाशुक
वि० [सं०] पशुसंबंधी।
⋙ पाशुपत (१)
वि० [सं०] १. पशुपति संबंधी। शिवसंबधी। २. पशुपति का। ३. शिव द्वारा प्रदत्त (को०)। ४. शिवकथित (को०)।
⋙ पाशुपत (२)
संज्ञा पुं० १. पशुपति या शिव का उपासक। एक प्रकार का शैव। २. शिव का कहा हुआ तंत्रशास्त्र। ३. अथर्ववेद का एक उपनिषद। ४. वक पुष्प। अगस्त का फूल।
⋙ पाशुपत दर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक सांप्रदायिक दर्शन जिसका उल्लेख सर्वदर्शनसंग्रह में है। इसे नकुलीश पाशुपति दर्शन भी कहते हैं। विशेष— इस दर्शन में जीव मात्र की 'पशु' संज्ञा है। सब जीवों के अधीश्वर पशुपति शिव हैं। भगवान् पशुपति ने बिना किसी कारण, साधन या सहायता के इस जगत् का निर्माण किया, इससे वे स्वतंत्र कर्ता हैं। हम लोगों से भी जो कार्य होते हैं उनके भी भूल कर्ता परमेश्वर ही हैं, इससे पशुपति सब कार्यों के करण स्वरुप हैं। इस दर्शन में मुक्ति दो प्रकार की कही गई है : एक तो सब दुःखों की अत्यंत निवृत्ति, दुसरी पार- मैश्वर्य प्राप्ति। और दार्शनिकों ने दुःख की अत्यंत निवृत्ति को ही मोक्ष कहा है। किंतु पाशुपत दर्खन कहता है कि केवल दुःख की निवृत्ति ही मुक्ति नहीं हैं, जबतक साथ ही पारमैश्वर्यप्राप्तिभी न हो तबतक केवल दुःखनिवृत्ति से क्या ? पारमैश्वर्य मुक्ति दो प्रकार की शक्तियों की प्राप्ति है— दृक् शक्ति और क्रिया शक्ति। दृक् शक्ति द्वारा सब वस्तुओं और विषयों का ज्ञान हो जाता है, चाहे वे सूक्ष्म से सूक्ष्म, दूर से दूर, व्यवहित से व्यवहित हों। इस प्रकार सर्वज्ञता प्राप्त हो जाने पर क्रिया शक्ति सिद्ध होती है जिसके द्वारा चाहे जिस बात की इच्छा हो वह तुरंत हो जाती है। उसकी इच्छा की देर रहती है। इन दोनों शक्तियों का सिद्ध हो जाना ही पारमैश्वर्य मुक्ति है। पूर्णप्रज्ञ आदि दार्शनिकों तथा भक्तों का यह कहना कि भग- बद्दासत्व की प्राप्ति ही मुक्ति है, विडंबना मात्र है। दासत्व किसी प्रकार का हो, बंधन ही है, उसे मुक्त (छुटकारा) नहीं कह सकते। इस दर्शन में प्रत्यंक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण माने गए हैं। धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं। विधि दो प्रकार की होती है— 'व्रत' और 'द्वार'। भस्मस्नान, भस्म- शयन, जप, प्रदक्षिणा, उपहार आदि को व्रत कहते हैं। शिव का नाम लेकर ठहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि 'उपहार' हैं। व्रत सबके सामने न करना चाहिए। 'द्वार' के अंतर्गत क्राथन, स्पंदन, मंदन, शृंगारण, अतित्करण और अवितदभाषण है। सुप्त न होकर भी सुप्त के से लक्षण प्रदर्शन को क्राथन; जैसे हवा के धक्के से शरीर झोंके खाता है उसी प्रकार झोंके खिलाने को स्पंदन; उन्नत्त के समान लड़खडा़ते हुए पैर रखने को मंदन, सुंदरी स्त्री देख वास्तव में कामार्त न होकर कामुकों की सी चेष्टा करने को शृंगारण; अनिवेकियों के समान लोकनिंदित कर्मों की चेष्टा को अवितत्करण तथा अर्थहीन और व्याहत शब्दों के उच्चारण को अवितदभाषण कहते हैं। चित्त द्वारा आत्मा और ईश्वर के संबंध का नाम 'योग' है।
⋙ पाशुपतरस
संज्ञा पुं० [सं०] एक रसौषध। विशेष— रसेंद्रसारसंग्रह में इसके बनाने की विधि दी हुई है। यह इस प्रकार तैयार होती है— एक भाग पारा, दो भाग गंधक, तीन भाग लोहा भस्म, और तीनों के बराबर विष लेकर चीते के काढे़ में भावना दे, फिर उसमें ३२ भाग धतूरे के बीज का भस्म मिलावे। इसके उपरांत सोंठ, पीपल, मिर्च, लौंग, तीन तीन भाग, जावित्री और जायफल आधा आधा भाग, तथा विट, सैधव, सामुद्र, उदभिद, सोंचर, सज्जी, एरंड (अंडी), इमली की छाल का भस्म, चिचड़ीक्षार, अश्वत्थक्षार, हड़, जवाखार, हींग, जीरा, सोहागा, सब एक एक भाग मिलाकर नीबू के रस में भावना दे और घुँघची के बराबर गोली बना ले। भिन्न भिन्न अनुपान के साथ इसका सेवन करने से अग्निमांद्य, अपच और हृदय के रोग दूर होते हैं तथा हैजे में तुरंत फायदा होता है। तालमूली के रस में देने से उदरामय मोचरस के साथ अतीसार, मट्ठे और सेंधा नमक के साथ ग्रहणी इत्यादि रोग दूर होते हैं।
⋙ पाशुपतास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का शूलास्त्र जो बडा़ प्रचंड था। अर्जुन ने बहुत तप करके इसे प्राप्त किया था।
⋙ पाशुपाल्य
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं को पालना। पशु पालने का व्यवसाय [को०]।
⋙ पाशुबंधक
संज्ञा पुं० [सं० पाशुबन्धक] वह स्थान जहाँ यज्ञ का बलिपशु बाँधा जाता है।
⋙ पाशुबंधका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाशुबन्धका] बलि का स्थान। बलि करने की वेदी [को०]।
⋙ पाश्चात्य (१)
वि० [सं०] १. पीछे का। पिछला। २. पीछे होनेवाला। ३. पश्चिम दिशा का। पश्चिम में रहनेवाला। पश्चिम संबंधी।
⋙ पाश्चात्य (२)
संज्ञा पुं० पिछला भाग। बाद का अंश [को०]।
⋙ पाश्चिमोत्तर
वि० [सं० पश्चिमोत्तर] पश्चिम और उत्तर के कोण का। वायुकोण का।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४२।
⋙ पाश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] जाल। पाश [को०]।
⋙ पाषंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाखण्ड या पाषण्ड] १. वेद का मार्ग छोड़कर अन्य मत ग्रहण करनेवाला। वेदविरुद्ध आचरण करनेवाला। झूठा मत माननेवाला। मिथ्याधर्मी। विशेष— बौद्धों और जैनों के लिये प्रायः इस शब्द का व्यवहार हुआ है। कौलिक आदि भी इस नाम से पुकारे गए हैं। पुराणों में लिखा गया है कि पाषंड लोग अनेक प्रकार के वेश बनाकर इधर उधर घूमा करते हैं। पद्यपुराण में लिखा गया है कि 'पाषंडों' का साथ छोड़ना चाहिए और भले लोगों का साथ सदा करना चाहिए। मनु ने भी लिखा है कि कितव, जुआरी, नटवृत्तिजीवी, क्रूरचेष्ट और पाषंड इनको राज्य से निकाल देना चाहिए। ये राज्य में रहकर भलेमानुसों को कष्ट दिया करते हैं। २. झूठा आडंबर खडा करनेवाल। लोगों को ठगने और धोखा देने के लिये साधुओं का सा रुप रंग बनानेवाला। धर्म- ध्वजी। ढोंगी आदमी। कपटवेशधारी। ३. संप्रदाय। मत। पंथ। विशेष— अशोक के शिलालेखों में इस शब्द का व्यवहार इसी अर्थ में प्रतीत होता है। यह अर्थ प्राचीन जान पड़ता है, पीछे इस शब्द को बुरे अर्थ में लेने लगे। 'पाषंड' का विशेषण 'पाषंडी' बनता है। इससे इसका संप्रदायवाचक होना सिद्ध होता है। नए नए संप्रदायों के खडे़ होने पर शुद्ध वैदिक लोग सांप्रदायिकों को तुच्छ दृष्टि से देखते थे।
⋙ पाषंड (२)
वि० दे० 'पाखंड'।
⋙ पाषंडक
वि० [सं० पाषण्डक] पाषंडी [को०]।
⋙ पाषंडिक
वि० [सं० पाषण्डिक] पाषंडी [को०]।
⋙ पाषंडी
वि० [सं० पाषंण्डिन्] १. पाषंड। वेदाचार। परित्यागी।वेदविरुदध मत और आचरण ग्रहण करनेवाला। झूठा मत माननेवाला। विशेष— मनुस्मृति में लिखा है कि पाषंडो, विकर्मस्थ (निषिद्ध कर्म से जीविका करनेवाला) , बैडालव्रतिक, हेतुवाद द्वारा वेदादि का खंडन करनेवाले, वकव्रती यदि अतिथि होकर आवें तो वाणी से भई उनका सत्कार न करे। अवैदिक लिंगी (वेदविरुद्ध सांप्रदायिक चिह्न धारण करनेवाले) आदि को पाषंडी कहने में तो स्मृति पुराण आदि एकमत हैं, पर पद्मपुराण आदि घोर सांप्रदायिक पुराणों में कहीं शैव और कहीं वैष्णव भी पाषंडी कहे गए हैं। जेसे पद्मपुराण में लिखा है कि 'जो कपाल भस्म और अस्थि धारण करें, जो शंख, चक्र, ऊर्ध्वपुंड्रादि न धारण करें, जो नारायण को शिव और ब्रह्मा के ही बराबर समझें...वे सब पाषंडी हैं'। दे० 'पाषंड'। २. वेश बनाकर लोगों को धोखा देने और ठगनेवाला। धर्म आदि का झूठा आडंबर खडा़ करनेवाला। ढोंगी। धूर्त।
⋙ पाषक
संज्ञा पुं० [सं०] पैर में पहनने का एक गहना।
⋙ पाषर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रक्षर, प्रा० प्रक्खर] दे० 'पाखर'। उ०— टाटर पाषर संजति कियो राव। धार नगरी राजा परणवा जाई।— बी० रासो०, पृ० १३।
⋙ पाषाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्थर। प्रस्तर। शिला। २. पन्ने और नीलम का एक दोष। —रत्नपरीक्षा (शब्द०)। ३. गंधक।
⋙ पाषाणकाल
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण + काल] ऐतिहासिक क्रम में वह काल या समय जब लोगों ने पत्थर की वस्तुएँ बनाना सीखा।
⋙ पाषाणगर्दभ
संज्ञा पुं० [सं०] हनुसंधिजात नामक एक क्षुद्र रोग। दाढ़ सूजने का रोग।
⋙ पाषाणगैरिक
संज्ञा पुं० [सं०] गेरु। गिरिमाटी।
⋙ पाषाणचतुर्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्रहायण शुक्ला चतुर्दशी। अगहन सुदी चौदस। — तिथितत्व (शब्द०)। विशेष— इस तिथि को स्त्रियाँ गौरी का पूजन करके रात को पाषाण (पत्थर के ढोंको) के आकार की बड़ियाँ बनाकर खाती हैं।
⋙ पाषाणदारक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रस्तर काटने का औजार। पत्थर काटनने की छेनी [को०]।
⋙ पाषाणभेद
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा जो अपनी पत्तियों की सुंदरता के लिये बगीचे में लगाया जाता है। पखानभेद। पथरचूर। पथरचट। विशेष— वैद्यक में पखानभेद भारी, चिकना तथा मूत्रकृच्छ, पथरी, दाद, वात और अतीसार को दूर करनेवाला माना जाता है।
⋙ पाषाणभेदक, पाषाणभेदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाषाणभेद'।
⋙ पाषाणभेदी
संज्ञा पुं० [सं० पाषाणाभेदिन्] पखानभद। पथरचूर।
⋙ पाषाणयुग
संज्ञा पुं० [सं० पाषाणा + युग] दे० 'पाषाणकाल'।
⋙ पाषाणरोग
संज्ञा पुं० [सं०] अश्मरी। पथरी।
⋙ पाषाणसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० पाषाणसन्धि] चट्ठान के भीतर की गुफा या रिक्त स्थान [को०]।
⋙ पाषाणसंभवपल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० पाषाणासम्भवपल्ली] प्रवाल। मूंगा।
⋙ पाषाणहृदय
वि० [सं०] [वि० स्त्री प्राषाणाहृदया] क्रूर। पत्थर की तरह कठोर दिलवाला।
⋙ पाषाणांतक
संज्ञा पुं० [सं० पाषाणान्तक] अश्मंतक तृण।
⋙ पाषाणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्थर का टुकडा़ जो तौलने के काम में आवे। बटखरा। २. कुंत। भाला (को०)।
⋙ पाषाणी
वि० स्त्री० [सं० पाषाण + ई (प्रत्य०)] कठोर हृदयवाली (स्त्री०)। क्रूरहृदया [को०]।
⋙ पाषान पु
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'। उ०— जौ न हसै मुहि अवर कोई। तौ दिष्यौ पाषान। — पृ० रा०, २४। ३८३।
⋙ पासंग
संज्ञा पुं० [फा़०] १. तराजू की डंडी बराबर न होने पर उसे बराबर करने के लिये उठे हुए पलरे पर रखा हुआ पत्थर या और कोई बोझ। पासंधा। मुहा०— (किसी का) पासंग भी न होना= किसी के मुकाबले में बहुत कम या कुछ न होना। किसी के पासंग बराबर न होना = दे० (किसी का) 'पसंगा' भी न होना। २. तराजू की डाँड़ी बराबर न होना। डाँड़ी या पलड़ों का अंतर।
⋙ पासंगा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पासंग] दे० 'पासंग'। उ०— बनिया बानि नहिं छोड़ता है, फिर फिर पासंगा मारता है। — पलटू०, पृ० ३४।
⋙ पासंदर
संज्ञा पुं० [अं० पैसेंजर] यात्री। मुसाफिर। (लश०)।
⋙ पासँग
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पासंग'।
⋙ पास (१)
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व] १. बगल। ओर। तरफ। उ०— (क) बेंत पानि रक्षक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा। — तुलसी (शब्द०)। (ख) अति उतुंग जलनिधि चहुँ पासा। — तुलसी (शब्द०)। २. सामीप्य। निकटता। समीपता। जैसे,— (क) उसके पास में भी तो किसी को रहना चाहिए। (ख) बुरे लोगों का पास ठीक नहीं। (ग) उनेक पास से हट जाओ। यौ०—पासपडो़स। आसपास। ३. अधिकार। कब्जा। रक्षा। पल्ला। (केवल 'के', 'में' और 'मे' बिभक्तियों के साथ प्रयुक्त)। जैसे,— (क) जब आदमी के पास में धन नहीं रह जाता तब उसकी कोई नहीं सुनता। (ख) दे दो, तुम्हारे पास का क्या जाता है। (ग) हम क्या अपने पास से रुपया देंगे।
⋙ पास (२)
अव्य० ? बगल में। निकट। समीप। नजदीक। दूर नहीं। जैसे,— (क) उसके पास जाकर बैठो। (ख) यहाँ से उसका घर पास ही पड़ता है। यो०—आसपास= (१) अगल बगल। इधर उधर। समीप। जैसे,— घर के आस पास कोई पेड़ नहीं है। (२) लगभग। करीब। जैसे,— ठीक देना नहीं मालूम, (१०) के आसपास होगा। मुहा०— (किसी स्त्री के) पास आना या जाना =समागम करना। संयोग करना। पास पास = (१) एक दूसरे के समीप। परस्पर निकट। जैसे,— दोनों पुस्तकें पास पास रखी हैं। (२) लगभग। (किसी के) पास बैठना= (१) बगल में बैठना। निकट बैठना। (२) संगत में रहना। सुहबत में रहना। साथ करना। जैसे, — भले आदमियों के पास बैठने से शिष्टता आदी है। (३) पुहँचना। फल या दशा को प्राप्त होना। जैसे, — अब अपने किए के पास बैठ, रोता क्या है ? पास बैठनेवाला = संगत में रहनेवाला। साथ करनेवाला। मेल जोल रखनेवाला। (२) मुसाहिब। पार्श्ववर्ती। (किसी स्त्री के) पास रहना =समागम करना। संभोग करना। पास फटकना= निकट जाना। जैसे,— तुम उसके पास न फटकने पाओगे (विशेषतः निषेध वाक्यों में)। २. अधिकार में। कब्जे में। रक्षा में। पल्ले। जैसे,— तुम्हारे पास कितने रुपए हैं। ३. निकट जाकर। संबोधन करके। किसी के प्रति। किसी से। उ०— (क) माँगत हैं प्रभु पास यह बार बार कर जोरी। — सूर (शब्द०)। (ख) सोई बात भई, बहु बाज्यों नहिं सोच परयो, पूछै प्रभु पास याकी न्यूनता बताइए। — प्रियादास (शब्द०)।
⋙ पास (३)
संज्ञा पुं० [अं०] १. कहीं जाने का अधिकारचिह्न या पत्र। वह टिकट या आज्ञापत्र जिसे लेकर कहीं बेरोकटोक जा सेकं गमनाधिकार पत्र। राहदारी का परवाना। जैसे, —(क) उन्हों हिंदुस्तान से बाहर जाने का पास मिल गया। (ख) रेलवे के नौकरों को रेल में आने जाने के लिये पास मिलता है। २. किसी राह या स्थान से आगे बढ़ने का संकेत या अवसर।
⋙ पास (४)
वि० १. पार किया हुआ। तै किया हुआ। निकट गया हुआ। जैसे,— ट्रेन स्टेशन पास कर गई। २. किसी अवस्था, श्रेणी, कक्षा आदि के आगे निकला हुआ। उन्नति क्रम में कोई निर्दिष्ट स्थिति पार किया हुआ। किसी दरजे के आगे गया हुआ। जैसे,— आठवाँ दरजा तुमने कब पास किया ? ३. जाँच या परीक्षा में ठीक उतरा हुआ। उत्तीर्ण। सफलीभूत। इम्तहान में कामयाब। फैल का उलटा। जैसे,— (क) वह इस सान इम्तहान में पास हो गया। (ख) उन्होने सब लड़कों को पास कर दिया। क्रि० प्र०— करना।—होना। ४. स्वीकृत। मंजूर। जैसे,— (क) सभा ने प्रस्ताव पास कर दिया। (ख) कलक्टर ने बिल पास कर दीया। ५. जारी। चलता। प्रचलित।
⋙ पास (५)
संज्ञा पुं० [सं० पाश] दे० 'पाश'।
⋙ पास (६)
संज्ञा पुं० [सं० पाशक] दे० 'पासा'।
⋙ पास (७)
संज्ञा पुं० [सं० प्रास (=बिछाना, डालना)] आँवें के ऊपर उपले जमाने का काम।
⋙ पास (८)
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़ों के बाल कतरने की कैंची का दस्ता।
⋙ पास (९)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. एक पहर का समय। पहर। २. निरीक्षण। निगरानी। हिफाजत। रक्षा। ३. लिहाज। शील संकोच [को०]। यौ०— पासदार=(१) निरीक्षक। (२) पक्षपाती। तरफदार। पासदारी=(१) निरीक्षण। (२) पक्षपात। तरफदारी।
⋙ पासना
क्रि० अ० [सं० पयस (=दूध)] इस अवस्था में होना कि थनों में दूध उतर आवे। थनों में दूध आना। जैसे,— भैंस देर में पासती है (ग्वाले)।
⋙ पासनो
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राशन] अन्नप्राशन। बच्चे को पहले पहल अनाज चटाने की रीति। उ०— प्रगट पासनी में छवि छाई। भुव भर सहित कृपान उठाई।— लाल (शब्द०)। विशेष— अन्नप्राशन के दिन बालक के सामने अनेक वस्तुएँ रखकर शकुन देखते हैं कि किस वस्तु पर उसका पहले हाथ पड़ता है। उससे यह समझा जाता है कि वही उसकी जीविका होगी।
⋙ पासपोर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का का अधिकारपत्र या परवाना जो, एक देश से दूसरे देश को जाते समय, सरकार से प्राप्त करना पड़ता है और जिससे एक देश का मनुष्य दूसरे देश में संरक्षण प्राप्त कर सकता है। अधिकारपत्र। छूट- पत्र। पारपत्र। विशेष— अनेक देशों में ऐसा नियम है कि उन देशों की सरकारों से पासपोर्ट या अधिकारपत्र प्राप्त किए बिना कोई विदेश नहीं जाने पाता। पासपोर्ट देना या न देना सरकार की इच्छा पर निर्भर है। अवांछनीय व्यक्तिय़ों या राजनीतिक संदिग्धों को पासपोर्ट नहीं मिलता, क्योंकि इनसे अधिकारियों को आशंका रहती है कि ये विदेशों में जाकर सरकार के विरुद्ध काम करेंगे। हिंदुस्तान से बाहर जानेवालों को भी पासपोर्ट लेना आवश्यक होता है। २. वह अधिकारपत्र या परवाना जो युद्ध के समय विरोधी देश के लोगों को अपने देश में निरापद पहुँचने के लिये दिया जाता है। बिना नियमित कर या महसूल के विदेश से माल मँगाने या भेजने का प्रमाणपत्र या लाइसेंस।
⋙ पासबंद
संज्ञा पुं० [हिं० पास + फा़०बंद] दरी बुनने के करघे की वह लकड़ी जिससे बै बँधी रहती है और जो नीचे ऊपर जाया करती है।
⋙ पासबाँ, पासबान (१)
वि० [फा़०] रक्षा करनेवाला। रक्षक।
⋙ पासबान (२)
संज्ञा स्त्री० रखेली स्त्री। रखनी (राजपूताना)।
⋙ पासबानो
संज्ञा स्त्री० [फा़०] निरीक्षण। देखभाल।
⋙ पासबुक
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. बंक की वह पुस्तक जिसमें किसी प्रकार के लेनदेन का हिसाब किताब हो। २. वह वही या किताब जिसमें सौदागर उधार ली गई चीजों के नाम लिखकरखरीददार के पास दस्तखत कराने के लिये भेजता है। ३. वह किताब जिसमें किसी बैंक का हिसाब किताब रहता है।
⋙ पासमान पु
संज्ञा पुं० [हिं० पास + मान (प्रत्य०)] पास रहनेवाला दास। पार्श्ववर्ती। उ०— ताकी रानी नाम की रत्नावली प्रसिद्ध। पासमान ताकी रही गही भक्ति तजि सिद्ध।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ पासरणा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] फैलना। छा जाना। प्रसरण। उ०— मगध धरा पासरणा कीजै।— रा० रु०, पृ० २७५।
⋙ पासवर्ती पु
वि० [सं० पाश्ववर्ती] दे० 'पार्श्ववर्ती'।
⋙ पासवान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पासमान'।
⋙ पाससार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पासासार'।
⋙ पासा
संज्ञा पुं० [सं० पाशक, प्रा० पासा] १. हाथीदाँत या हड्डी के उँगली के बराबर छह पहले टुकडे़ जिनके पहलों पर बिंदियाँ बनी होती हैं और जिन्हें चौसर के खेलने में खेलाडी़ बारी बारी फेंकते हैं। जिस बल ये पड़ते हैं उसी के अनुसार बिसात पर गोटियाँ चली जाती हैं और अंत में हार जीत होती है। उ०— राजा करै सो न्याय। पासा पडे़ सो दाँव (शब्द०)। मुहा०— (किसी का) पासा पड़ना=(१) पासे का किसी के अनुकूल गिरना। जीत का दाँव पड़ना। (२) भाग्य अनुकूल होना। किसमत जोर करना। पासा पलटना=(१) जिसके अनुकूल पहलो पासा गिरता रहा हो उसके प्रतिकूल गिरना। पासे का इस प्रकार पडने लगना कि हार होने लगे। दाँव फिरना। (२) अच्छे से मंद भाग्य होना। जमाना बदलना। दिन का फेर होगा। (३) युक्ति या तदबीर का उलटा फल होना। पासा फेंकना=(१) अनुकूल या प्रतिकूल दाँव निश्चित करने के लिये पासे का गिराना। भाग्य की परीक्षा करना। किस्मत आजमाना। ऐसे काम में हाथ डालना जिसका फल कुछ भी निश्चित न हो। २. वह खेल जो पासों से खेला जाता है। चौसर का खेल। विशेष— दे० 'चौसर'। ३. मोटी बत्ती के आकार में लाई हुई वस्तु। कामी। गुल्ली। जैसे, सोने के पासे। ४. पीतल या काँसे का चौखूँटा लंबा ठप्पा जिसमें छोटे छोटे गोल गड्डे बने होते हैं। घुँघरु या लोग घुंडी बनाने में सुनार सोने के पत्तर को इसी पर रखकर ठोकते हैं जिससे वह कटोरी के आकार का गहरा हो जाता है (सुनार)।
⋙ पासान पु
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'। उ०— पासान कुट्टिम भीति भीतर चूह उप्पर परिया। — कीर्ति०, पृ० २६।
⋙ पासार पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रसार] फैलाव। दे० 'पसार'। उ०— बट के बीज जैस आकार। पसरयो तीन लोक पासार।— संत वाणी०, भा० २, पृ० ३५।
⋙ पासासार
संज्ञा पुं० [सं० पाशक हिं० पासा + सं० सारि = (गोटी)] १. पासे की गोटी। २. पासे का खेल।
⋙ पासाह पु
संज्ञा पुं० [फा़० बादशाह] राजा। अधिपति। बादशाह। उ०—आप भया पासाह कौन के मुजरे जावै।—पलटु०, पृ० २३।
⋙ पासाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पातशाही'। उ०—निरगुन सरगुन दोउ न जाही। तेहि घर सत पासाही।—घट०, पृ० २१९।
⋙ पासि पु
संज्ञा पुं० [सं०] फंदा। पाश।
⋙ पासिक
संज्ञा पुं० [सं० पाश] पाश। फंदा। जाल। बंधन। उ०—खैंचत लोभ दसौ दिसि को महि, मोह महा हत पासिक डारे।—केशव (शब्द०)।
⋙ पासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पास। फंदा। जाल। बंधन। उ०— भ्रुंव तेग, सुनैन के बान लिए मति बेसरि की सँग पासिका है। बहु भावन की परकासिका है तुव नासिका धीर विनासिका है।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ पासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाशिन्, पाशी] १. जाल या फंदा डालकर चिड़िया पकड़नेवाला। २. एक नीच और अस्पृश्य मिनी जानेवाली जाति जो मयुरा से पुरब की ओर पाई जाती है। विशेष—इस जाति के लोग सुअर पालते तथा कहीं कहीं ताड़ पर से ताड़ी निकालने का काम करते हैं। प्राचीन काल में इनके पुर्वज प्राणदंड पाए हुए अपराधियों के गले में फाँसी का फंदा लगाते थे इसी से यह नाम पड़ा।
⋙ पासी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाश, हिं० पास + ई (प्रत्य०)] १. फंदा। फाँस। पाश। फाँसी। २. घास बाँधने की जाली। ३. घोड़े के पैर बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी।
⋙ पासीहारा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पासी (=फाँसी + हारा (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो फाँसी लगाता है। फाँसीवाला। उ०—यहु औसा रुप छलावा। ठग पासीहार आवा। सब ऐसा देखि विचारे। ये पारनघात बटवारे।—दादु०, पृ० ५४६।
⋙ पासुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पसली'।
⋙ पाहँ पु
अव्य० [सं० पार्श्व, प्रा० पास, पाह] १. निकट। समीप। पास। उ०—मैं जानेउ तुम्ह मोही माहाँ। देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ।—जायसी (शब्द०)। २. पास जाकर। संबोधन करके। किसी के प्रति। किसी से। उ०—जाइ कहौ उन पाहँ सँदेसु—जायसी (शब्द०)।
⋙ पाह (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाहन] एक प्रकार का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी और अफीम को घिसकर पर चढ़ाने का लेप बनाते हैं।
⋙ पाह (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'प्यास'। उ०—कोटि अरब्ब षरब्ब असंषि प्रिथी पति हौन की पाह जगैगी।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४२३।
⋙ पाहण पु
संज्ञा पुं० [हिं० पाषाण, प्रा० पाहण] दे० 'पाषाण'। उ०—जल तिरिया पाहण सुजड़ पतसिय नाम प्रताप।— रघु० रु०, पृ० २।
⋙ पाहत
संज्ञा पुं० [सं०] शहतुत का वृक्ष [को०]।
⋙ पाहन पु
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण प्रा० पाहण, पाहण] १. पत्थर। प्रस्तर। उ०—(क) महिमा यह न जलधि कै बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कै करनी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पाहन ते हरि कठिन कियो हिय कहत न कछु बनि आई।—सुर (शब्द०)। २. पारस पत्थर। स्पर्श मणि।
⋙ पाहरु पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रहर, हिं० पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार। चौकसी करनेवाला। रखवाली करनेवाला। उ०—(क) नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद यंत्रिक प्रान जाहिं केहि बाट।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जागत कामी चिंतित चकोर, बिरही बिरहिन पाहरु चोर।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाहा
संज्ञा पुं० [सं० पथ, हिं० पाथ] पान की बेलों या किसी ऊँची फसल के खेतों के बीच का रास्ता। मेड़।
⋙ पाहात
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मदारु वृक्ष। शहतुत का पेड़।
⋙ पाहि
अव्य० [सं० पार्श्व, प्रा० पास, पाह] १. पास। निकट। समीप। २. पास जाकर। संबोधन करके। किसी के प्रति। किसी से। उ०—कोउ न बुझाइ कहै नृप पाही। ये बालक, अस हठ भल नाहीं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाहि
क्रिया पद [सं०] एख संस्कृत पद जिसका अर्थ है 'रक्षा करो', 'बचाओ'। उ०—पाहि पाहि ! रघुबीर गुसाईं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाही
अव्य० [सं० पार्श्व] दे० 'पाहिं'। उ०—निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। ताते बिनय करौं सब पाहीं।—मानस १। ८।
⋙ पाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाह] वह खेती जिसका किसान दुसरे गाँव में रहता है।
⋙ पाहुँच
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुँचना] दे० 'पहुँच'। उ०—आपनी भाँति सब काहु कही है। मंदोदरी, महोदर, मालिवान, महामति राजनीति पाहुँच जहाँ लौं जाकी रही है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाहुन पु
संज्ञा पुं० [हिं० पाहुना] दे० 'पाहुना'।
⋙ पाहुना
संज्ञा पुं० [सं० प्राघुर्ण, प्राघुर्णक, प्राघुणा (=अतिथि); अथवा सं० उप० प्र + आह्वयनेय, प्राह्वयनेय, पा० पाहुणेय्य] [स्त्री० पाहुनी] १. अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। संबंधी, इष्ट- मित्र या कोई अपरिचित मनुष्य जो अपने यहाँ आ जाय और जिसका सत्कार उचित हो। २. दामाद। जामाता। विशेष—इस शब्द की व्युत्पत्ति यों तो प्राघुण से सुगम जान पड़ती है। पर प्राघुण शब्द से ही बनाया गया है। प्राघुर्ण शब्द का प्रयोग भी प्राचीन नहीं है। कथा सरित्- सागर में प्राधुण और पंचतंत्र में प्राघुर्ण शब्द आया हैं। नैषध में भी प्राघुणिक मिलता है। कोशों में तो 'प्राहुण' तक संस्कृत शब्दवत् आया है। पृथ्वीराज रासो (६६।३६०) में 'प्राहुन्ना' शब्द का प्रयोग मिलता है—'चित्रंग राय रावर चवै प्राहुन्ना बग्गा फिरै'। पाली का 'पाहुणेय' शब्द इन सबसे पुराना प्रतीत होता है और उसकी व्युत्पत्ति वही है जो ऊपर दी गई है।
⋙ पाहुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाहुना] स्त्री अतिथि। अभ्यागत स्त्री। मेहमान औरत। उ०—पाहुनी करि दै तनक मह्यो। हौं लागी गृहकाज रसोई जसुमति विनय कह्यो।—सुर (शब्द०)। ३. आतिथ्य। मेहमानदारी। अतिथि का आदर सत्कार। खातिर तवाजा।
⋙ पाहुर
संज्ञा पुं० [सं० प्राभृत, प्रा० पाहुड़ (=भेंट)] १. भेंट। नजर। वह द्रव्य जो किसी के संमानार्थ उसे दिया जाय। २. वह वस्तु या धन जो किसी संबंधी या इष्टमित्र के यहाँ व्यहार में भेजा जाय। सौगात।
⋙ पाहु
संज्ञा पुं० [?] मनुष्य। व्यक्ति। शख्स।