विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/प
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ प
⋙ प
हिंदी वर्णमाला में स्पर्श व्यंजनों के अंतिम वर्ग का पहला वर्ग। इसका उच्चारण ओठ से होता है इसलिये शिक्षा में इसे ओष्ठ्य वर्ण कहा गया हे। इसके उच्चारण में दोनों ओठ मिलते हैं इसलिए यह स्पर्श वर्ण है। इसके उच्चारण मे शिक्षा के अनुसार विचार,श्वास, घोष और अल्पप्राण नामक प्रयत्न लगते हैं।
⋙ पंक
संज्ञा पु० [सं पड़्क] १. कीचड़। कीच। यौ०—पंकज। पंकरुह। २. पानी के साथ मिला हु्आ पोतने योग्य पदार्थ। लेप। उ०— श्याम अंग चंदन की आभा नागरि केसरि अंग। मलयज पंक कुमकुमा मिलिकै जल जमुना इक रंग।—सूर (शब्द०) ३. पाप (को०)। ४. बड़ा परिणाम। घनी राशि (को०)।
⋙ पककर्वट
संज्ञा पुं० [पङ्कर्वट] जलयुक्त कीचड़ [को०]।
⋙ पंककीर
संज्ञा पुं० [स० पङ्ककीर] टिटिहरी नाम की चिड़िया।
⋙ पंकक्रीड़ (१)
वि० [सं० पङ्कक्रीड] कीचड़ में खेलनेवाला।
⋙ पंकक्रीड़ (२)
संज्ञा पुं० सूअर।
⋙ पंकक्रीडनक
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कक्रीडनक] दे० 'पंकक्रीड'।
⋙ पंकगड़क
संज्ञा पुं० [पङ्कगडक] एक प्रकार की छोटी मछली।
⋙ पंकग्राह
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कग्राह] मगर।
⋙ पंकचर
संज्ञा पुं० [अं० पंक्चर] छेद। छिद्र। पंचर। उ०—हमें न चाहिए डनलप टायर, पंकचर ले शैतान सँभाल।—बंदन०, पृ० १४५।
⋙ पंकच्छिद
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कच्छिद] एक प्रकार का वृक्ष। निर्मली [को०]।
⋙ पंकज (१)
वि० [सं० पङ्कज] कीचड़ मे उत्पन्न होनेवाला।
⋙ पंकज (२)
संज्ञा पुं० १. कमल। यौ०—पंकज बन = (१) कमल का वन। उ०—तू भूल न री पंकजवन में, जीवन के इस सूनेपन में, ओ प्यार पुलक से भरी ढुलक।—लहर, पृ० २। सारस पक्षी (को०)।
⋙ पंकजजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजजन्मन्] ब्रह्मा, जो कमल से उद्भूत हैं [को०]।
⋙ पंकजन्म
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजन्मन्] कमल [को०]।
⋙ पंकजन्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजन्मन्] कमल।
⋙ पंकजन्मा (२)
वि० [सं० पङ्कजजन्मन्] कीचड़ से पैदा होनेवाला [को०]।
⋙ पंकजनाभ
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजनाभ] विष्णु [को०]।
⋙ पंकजराग
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजराग] पद्मराग मणि। उ०— परिजन सहित राय रानिन कियो मज्जन प्रेम प्रयाग। तुलसी फल चार को ताके मनि मरकत पंकज राग।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंकजवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्कजवाटिका] तेरह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण, एक नगण, दो जगण और अंत में एक लघु होता है। इसे एकावली और कंजावली भी कहते हैं। जैसे,—श्री रघुवर तुम हौ जगनायक। देखहु दशरथ को सुखदायक। सोदर सहित पिता पदपावन। बंदन किय तब ही मनभावन। केशव (शब्द०)।
⋙ पंकजात
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजात] कमल।
⋙ पंकजासन
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजासन] ब्रह्मा।
⋙ पंकजित्
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कजित्] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
⋙ पंकजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्कजिनी] १. पद्माकर। कमलाकर। २. कमलिनी। कमलवृक्ष।
⋙ पंकण
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कण] चांडाल का निवासस्थान [को०]।
⋙ पंकत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पङि्क्त] दे० 'पंक्ति'। उ० —(क) बक पंकत रद नीर, गरजण गाज पिछाँण।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १७। (ख) चंडीसूल पार जात मरालां पंकताँ चंगी।—रघु०, रू०, पृ० २४६।
⋙ पंकदिग्ध
वि० [सं० पङ्कदिग्ध] पंकयुक्त। जिसपर मिट्टी पोती गई हो [को०]।
⋙ पंकदिग्धशरीर
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कदिग्धशरीर] एक दानव का नाम।
⋙ पंकदिग्धांग (१)
वि० [सं० पङ्कदिग्धाङ्ग] वह जिसके अंगों पर कीचड़ का लेप किया गया हो [को०]।
⋙ पंकदिग्धांग (२)
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कदिग्धाङ्ग] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
⋙ पंकधूम
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कधूम] जैनियों के एक नरक का नाम।
⋙ पंकपर्पटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्कपर्पटी] सौराष्ट्रमृत्तिका। गोपी़चंदन।
⋙ पंकप्रभा
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कप्रभा] कीचड़ से भरे हुए एक नरक का नाम।
⋙ पकभाक्
वि० [सं० पङ्कभाज्] कीचड़ में डूबा हुआ। पंकिल [को०]।
⋙ पंकभारक
वि० [सं० पङ्कभारक] कीचवाला। पंकिल। जिसमें कीचड़ भरा हो [को०]।
⋙ पंकमंडूक
[सं० पङ्कमण्डूक] १. घोंघा। २. छोटी सीप। सुतही।
⋙ पंकरुह
संज्ञा पुं० [सं० पङ्केरुह] कमल। उ०—पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। बोली गिरिजा वचन बर मनहु प्रेम रस सानि।—मानस, १।११६।
⋙ पंकवारि
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्कवारि] काँजी।
⋙ पंकवास
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कवास] केकड़ा। कर्कट।
⋙ पंकशुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्कशुक्ति] १. ताल में होनेवाली सीप। सुतही। २. घोंघा।
⋙ पंकशूरण
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कशूरण] कमल की जड़। [को०]।
⋙ पंकसूरण
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कसूरण] दे० 'पंकशूरण' [को०]।
⋙ पंकार
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कार] १. एक पेड़ जो गड़हों के कीचड़ों में होता हैं। इस पौधे में स्त्री और पुरुष दो अलग जातियाँ होती हैं। २. जलकुब्जक। ३. सिंघाड़ा। ४. सेवार। ५. पुल। ६. बाँध। सेतु। ७. सीढ़ी।
⋙ पंकिल (१)
वि० [सं० पङ्किल] जिसमें कीचड़ हो। कीचड़वाला। उ०—उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर पंकिल हुई, सलिल देह कलुषित हुआ।—अनामिका, पृ० ७।
⋙ पंकिल (२)
संज्ञा पुं० बड़ी नाव। बजड़ा।
⋙ पंकिलता
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्किलता] कीचयुक्त होने की अवस्था या भाव। २. मैल। गंदगी। ३. कालिमा। कलुष [को०]।
⋙ पंकेज
संज्ञा पुं० [सं० पङ्केज] दे० 'पंकज'।
⋙ पंकेरुह
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्केरुह] १. पंकरुह। कमल। २. सारस (को०)।
⋙ पंकेशय
वि० [सं० पङ्केशय] कीचड़ में निवास करनेवाला [को०]।
⋙ पंकेशया
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्केशया] जोंक।
⋙ पंक्चर
संज्ञा पुं० [अं०] (रबड़ के) ट्यूब या ब्लैडर में किसी नोकदार चीज के चुभने से होनेवाला छेद। उ०—मोटरकार के पिछले दोनों पहियों में पंक्चर हो गए।—तारिका, पृ० १५४।
⋙ पंक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० पङि्क्त] १. ऐसा समूह जिसमें बहुत सी (विशेषतः एक ही या एक ही प्रकार की) वस्तुएँ एक दूसरे के उपरांत एक सीध में हों। श्रेणी। पाँती। कतार। लाइन। २. चालीस अक्षरों का एक वैदिक छंद जिसका वर्ण नील, गोत्र भार्गव, देवता वरुण और स्वर पंचम है। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में पाँच पाँच अक्षर अर्थात् एक भगण और अंत में दो गुरु होते हैं। ४. दस की संख्या। ५. सेना में दस दस योद्धाओं की श्रेणी। ६. कुलीन ब्राह्मणों की श्रेणी। यौ०—पंक्तिच्युत। पंक्तिपावन। ७. भोज में एक साथ बैठकर खानेवालों की श्रेणी। जैसे,— उनके साथ हम एक पंक्ति में नहीं खा सकते। यौ०—पंक्तिभेद। विशेष—हिंदू आचार के अनुसार पतित आदि के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने का निषेध है।८. (जीवों या प्राणियों की) वर्तमान पीढ़ी (को०)। ९. पृथ्वी (को०)। १०. प्रसिद्धि (को०)। ११. पाक (को०)।
⋙ पंक्तिकंटक
वि० [सं० पङि्क्तकण्टक] पंक्तिदूषक।
⋙ पंक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पङि्क्तका] पंक्ति। लाइन [को०]।
⋙ पंक्तिकृत
वि० [सं० पङि्क्तकृत] श्रेणीबद्ध।
⋙ पंक्तिग्रीव
संज्ञा पुं० [सं० पंङि्क्तग्रीव] रावण।
⋙ पंक्तिचर
संज्ञा पुं० [सं० पङि्क्तचर] कुरर पक्षी।
⋙ पंक्तिच्युत
वि० [सं० पङि्क्तच्युत] किसी कलंक, दोष आदि के कारण जाति की श्रेणी से बाहर किया हुआ। बिरादरी से निकाला हुआ।
⋙ पंक्तिदूष
वि० [सं० ] दे० 'पंक्तिदूषक' [को०]।
⋙ पंक्तिदूषक (१)
वि० [सं० पङि्क्तदूषक] पंगत को दूषित करनेवाला। नीच। कुजाति। जिसके साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं कर सकते।
⋙ पंक्तिदूषक (२)
संज्ञा पुं० ऐसे ब्राह्मण जिनको मनु आदि के मत से श्राद्ध में भोजन कराना या दानादि देना निषिद्ध माना गया है। विशेष—इनकी गणना मनुस्मृति अध्याय ३ में दी गई है।
⋙ पंक्तिपावन
संज्ञा पुं० [सं० पङक्तिपावन] १. वह ब्राह्मण जिनको यज्ञादि में बुलाना, भोजन कराना और दान देना श्रेष्ठ माना गया है। विशेष—मनु आदि स्मृतियों में ऐसे ब्राह्मणों की गणना दी गई है। शास्त्रों का कथन है कि ऐसा ब्राह्मण यदि एक भी मिले तो वह ब्राह्मणों की पंक्ति को पवित्र कर देता है। २. वह गृहस्थ जो पंचाग्नियुक्त हो।
⋙ पंक्तिवद्ध
वि० [सं० पङि्क्तबद्ध] श्रेणीबद्ध। पाँति में लगा हुआ। कतार में बँधा हुआ।
⋙ पंक्तिबाह्य
वि० [सं० पङि्क्तबाह्य] पंगत से निकाला हुआ। जातिच्युत।
⋙ पंक्तिबीज
देश० पुं० [सं० पङि्क्तबीज] १. बबूल। २. उरगा। ३. कर्णिकार।
⋙ पंक्तिरथ
संज्ञा पुं० [सं० पंङि्क्तरथ] राजा दशरथ।
⋙ पंक्ती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पंङि्क्त] एक वर्णिक छंद। दे० 'पंक्ति' ३। उ०—भाग गुनै को। नारि नरा को। नाहिं लखंती। अक्षर पंक्ती।
⋙ पंक्यज पु †
संज्ञा पुं० [सं० पङ्कज] दे० 'पंकज'। उ०—सिव सनकादिक नारदा, ब्रह्म लिया निज बास जी। कहैं कबीर पद पंक्यजा, अब नेड़ा चरण निवास जी।—कबीर ग्रं० पृ० ९८।
⋙ पंख
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. पर। डैना। वह अवयव जिससे चिड़िया, फतिंगे आदि हवा में उड़ते हैं। उ०—(क) पंख छत्ता परबस परा सूआ के बुधि नाहि।—कबीर (शब्द०)। (ख) काटेसि पंख परा खग धरनी।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—पंख जमना = (१) न रहने को लक्षण उत्पन्न होना। भागने या चल जाने का लक्षण देख पड़ना। जैसे,—इस नौकर को भी अब पंख जमे यह न रहेगा। (२) इधर उधर घूमने की इच्छा देख पड़ना। बहकने या बुरे रास्ते पर जाने का रंग ढंग दिखाई पड़ना। जैसे,—इस लड़के को भी अब पंख जम रहे हैं। (३) प्राण खोने का लक्षण दिखाई देना। शामत आना। विशेष—बरसात में चींटों, चींटियों तथा और कीड़ों को पर निकलते हैं और वे उड़ उड़कर मर जाते हैं, इससे यह मुहा- वरा बना है। पंख लगना = पक्षी के समान वेगवान् होना। पंख लपेटे सिर धुनना = मधु के लोभ से मधु की मक्खी सा बनना। स्वयं ही परेशानी में डालकर पछताना। उ०—पंख लपेटे सिर धुनै, मनहीं मन पछताय।—धरनी०, पृ० ८४। २. तीर के आगे दोनों और निकला हुआ फल।
⋙ पंखराउ पु
सेज्ञा पुं० [सं० पक्षिराज] गरुड़। उ०—बरबागूँ के साँचे पंखराउ सीधाव।—रघु० रु०, पृ० २४०।
⋙ पंखरी
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, हिं० पंख + ड़ी (स्वा० प्रत्य०)] दे० 'पँखड़ी'। उ०—सब जग छेली काल कसाई कर्द लिए कँठ काटै। पंच तत्त की पंख पंखरी खंड खंड करि बाँटै।—दादू०, पृ० ३९४।
⋙ पंखा
संज्ञा पुं० [हिं० पंख] [स्त्री० अल्पा० पंखी] वह वस्तु जिसे हिलाकर हवा का झोंका किसी ओर ले जाते है। बिजना। बेना। उ०—अवनि सेज पंखा पवन अब न कछू परवाह।— पद्माकर (शब्द०)। विशेष—यह भिन्न भिन्न वस्तुओं का तथा भिन्न आकार और आकृति का बनाया जाता है और इसके हिलाने से वायु चलकर शरीर में लगती है। छोटे छोटे बेनों से लेकर जिसे लोग अपने हाथों में लेकर हिलाते हैं, बड़े बड़े पंखों तक के लिये, जिसे दूसरे हाथ में पकड़कर हिलाते हैं, या जो छत में लटकाए जाते हैं और डोरी के सहारे से खींचे जाते हैं या जिन्हें चरखी से चलाकर या बिजली आदि से हिलाकर वायु में गति उत्पन्न की जाती हैं, सबके लिये केवल 'पंखा' शब्द से काम चल सकता है। इसे पंख के आकार का होने के कारण अथवा पहले पंख से बनाए जाने के कारण पंखा कहते हैं। क्रि० प्र०—चलाना।—खींचना।—झलना।—हिलाना।— डुलाना। मुहा०—पंखा करना = पंखा हिला या डुलाकर वायु संचारित करना। २. भुजमूल का पार्श्व। पखुआ। पखुरा।
⋙ पंखाकुली
संज्ञा पुं० [हिं० पंखा + कुली] वह कुली जो पंखा खींचने के लिये नियत किया हो।
⋙ पंखाज
संज्ञा पुं० [सं० पक्षवाद्य, हिं० पखावज, पखाउज] दे० 'पखावज'।
⋙ पंखापोश
संज्ञा पुं० [हिं० पंखा + फा़० पोश] पंखे के ऊपर का गिलाफ।
⋙ पंखापोस पु
[हिं० पंखा + फा़० पोश] दे० 'पंखापोश'। उ०—पिहित पराई बात इंगित सो बोध करे पी को देखि श्रमित उतारयो पंखापोस है।—दूलह (शब्द०)।
⋙ पंखाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० पंक्षालु] गिद्ध आदि पक्षी। उ०— बरंगा राल बरमाल सूरा बरैं। त्रिपत पंखाल दिल खुले ताला।—रघु० रू०, पृ० २०।
⋙ पंखि पु
संखा पुं० [सं० पक्षी] दे० 'पंख्री'। उ०—ककनूँ पंखि जैस सर साजा। सर चढ़ि तबहिं जरा चह राजा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५८।
⋙ पंखी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पक्षी, पा० पक्खी] १. पक्षी। चिड़िया। उ०—पगै पगै भुईं चंपत आवा। पंखिन देखि सबन डर खावा।—जायसी (शब्द०)। २. कबूतर के पंख से बँधी हुई सूत की बत्ती जिसे ढरकी के छेदों में अँटकाते हैं। (जुलाहे)। ३. पाँखी। फतिंगा। ४. एक प्रकार का ऊनी कपड़ा जो भेड़ के बाल से पहाड़ों में बुना जाता है। ५. वह पतली पतली हलकी पत्तियाँ जो साखू के फल के सिरे पर होती हैं। ६. पँखड़ी।
⋙ पंखी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंखा] छोटा पंखा।
⋙ पंखीसेढ़
संज्ञा पुं० [हिं० पंखी + अं० सेल] चौकोर पाल जो मस्तूल से तिरछे एक तिहाई निकला रहे।
⋙ पंखुरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पंखड़ी'। उ०—बोलता मध्ये में बसे हीरा बरन सरूप। सात पंखुरी सुरत की किंचित वस्तु अनूप।—कबीर (शब्द०)।
⋙ पंग (१)
वि० [सं० पङ्गु] १. लँगड़ा। २. स्तब्ध। बेकाम। उ०— नख सिख रूप देखि हरि जू के होत नयन गति पंग।— सूर (शब्द०)।
⋙ पंग (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जो आसाम की ओर सिलहट कछार आदि में होता हैं। विशेष—इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और मकानों में लगती हे। इसका कोयला भी बहुत अच्छा होता है। लकड़ी से एक प्रकार का रंग भी निकलता है।
⋙ पंग (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का नमक जो लिवरपूल से आता है।
⋙ पंग पु (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] जयचंद की एक उपाधि। दलपंगुर। जयचंद, कन्नौज का राजा। उ०—भूल्यौ नृप इन रंग महि, पंग चढ़यो हम पुट्ठि। सुनि सुंदर बर बज्जने अई अपुब्ब कोइ दिट्ठ।—पृ० रा०, ६१।११४७। यौ०—पंगजा = पंग की पुत्री। संयोगिता।
⋙ पंगई
संज्ञा स्त्री० [?] नाव खेने का छोटा डाँड़ा जिसका एक जोड़ा लेकर एक ही आदमी नाव चला सकता है। हाथ हलेसा। चमचा। बैठा। चप्पू (लश०)।
⋙ पंगत, पंगति
संज्ञा स्त्री [सं० पंङ्क्कि, पा० पंति] १. पाँती। पंक्ति। उ०—बरदंत की पंगति कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की। चपला चमकै घन बीच जगै छबि मोतिन माल अमोलन की। घुँघुराली लटै लटकै मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की। निवछावर प्रान करे तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन की।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—जोड़ना। २. भोज के समय भोजन करनेवालों की पंक्ति। क्रि० प्र०—बैठना।—उठना।—लगना। ३. भोज। क्रि० प्र०—करना।—लगाना।—होना।—देना। ४. समाज। सभा। ५. जुलाहों के करघे का एक औजार जो दो सरकंडों से बनाया जाता है। विशेष—इसे कैची की तरह स्थान स्थान पर गाड़ देते हैं। इनके ऊपरी छेदों पर ताने के किनारे के सूत इसलिए फँसा दिए जाते हैं जिसमे ताना फैला रहे।
⋙ पंगरण पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रावरण, प्रा० पंगुरण] वस्त्र। कपड़ा। उ०—विहद कोर गोटे बणे, पातर रे पोसाक। परणी फाटे पंगरण, बेली फाटे बाक।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ९।
⋙ पंगा
वि० [सं० पङ्गु] [वि० स्त्री० पंगी] १. लंगड़ा। २. स्तब्ध। बेकाम। उ०—नागरी सकल संकेत आकारिनी गनत गुनगनन मति होत पंगों।—नागरीदास (शब्द०)।
⋙ पंगानी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कोई वस्तु जो पंग संबंधी हो। उ०—जिन मंत्री कैमास बंध बंध्यौ पंगानी।—पृ० रा०, ५७।६६। २. पंग की पुत्री। संयोगिता।
⋙ पंगायत †
संज्ञा पुं० [हिं० पग] पायताना। गोड़वारी।
⋙ पंगाप्त
संज्ञा [?] एक प्रकार की मछली।
⋙ पंगो (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्क, हिं० पाँक] धान के खेत मे लगनेवाला एक कीड़ा।
⋙ पंगो पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कीर्ति। यश। उ०—पंगी गंग प्रवाह, निरमल तन कीधो नहीं। चित्त क्यूँ राखैं चाह तिके सरग पावण तणी।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ४६।
⋙ पंगु (१)
वि० [सं० पङ़्गु] जो पेर से चल न सकता हो। लँगड़ा। उ०—(क) मूक होइ बाचाल पंगु चढे़ गिरिवर गहन। जासु कृपा सो दयाल, द्रवो सकल कलिमल दहन।—मानस, १।१ (ख) मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी उपमा न पवै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंगु (२)
संज्ञा पुं० १. शनैश्चर। २. एक रोग। यह मनुष्य पैरों में और जाँघों की मे होता है। विशेष—यह बात रोग का भेद है। वैद्यक का मत है कि कमर में रहनेवाले वायु जोघों की नसों को पकड़कर सिकोड़ देती है जिससे रोगी के पैर सिकुड़ जाते है और वह चल फिर नहीं सकता। ३. एक प्रकार का साधु जो भिक्षा वा मलमूत्रोत्सर्ग के अतिरिक्त अपने स्थान से उठकर किसी और काम के लिए दिन भर मे एक योजन से बाहर नहीं जाता।
⋙ पंगुगति
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्गुगति] वर्णिक छंदों का एक दोष।विशेष—जब किसी वर्णिक छंद मे लघु के स्थान मे गुरु या गुरु के स्थान मे लघु आ जाता है तब यह दोष माना जाता है। जैसे,—'फूटि गए श्रुति ज्ञान के केशव आँखि अनेक विवेक की फूटी। इसमें ज्ञान के साथ 'और' विवेक के साथ 'की' गुरु हैं। यहाँ नियमानुसार लघु होना चाहिए था।
⋙ पंगुग्राह
संज्ञा पुं० [सं० पंङ्गुग्राह] १. मगर। २. मकर राशि।
⋙ पंगुड़ा़
वि० [सं० पङ्गुला] पति के पीछे चलनेवाली। उ०— किसकी ममा चचा पुनि किसका पंगुड़ा जोई। यहु संसार बजार मँड्या है, जानेगा जन कोई।—कबीर ग्रं०, पृ० १२०।
⋙ पंगुता
संज्ञा पुं० [सं० पङ्गुला] १. लँगड़ापन। २. स्तब्धता [को०]।
⋙ पंगुर पु
वि० [सं० पङ्गुल] दे० 'पंगुल'। उ०—(क) जैसे नर पंगुरो विन सु झंगुरी न चल्ल हि। आधारित झंगरी हरूवह वत्त न चल्लहि।—पृ० रा०, ६१।१०२८। (ख) सब पंगुर किहि बिधि कहत यह जयचंद सु इंद।—पृ० ६१। १०२७।
⋙ पंगुल (१)
संज्ञा पुं० [सं० पंड्गुल] १. अंड़ी का पेड़। २. सफेद घोड़ा जो सफेद काँच के रंग का हो। ३. सफेद रंग का घोड़ा।
⋙ पंगुल (२)
क्रि० [सं० पङ्गु] पंगु। लँगड़ा। उ०—पंगुला मेरु सुमेर उड़ावै, त्रिभुवन माहीं डोलै।—कबीर श०, भा० २, पृ० २६।
⋙ पंगुल्यहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० पंङ्गुल्यहारिणी] चंगोनी।
⋙ पंगो
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँक] मिट्टी जो नदी अपने किनारे बरसात बीत जाने पर डालती है।
⋙ पंघरना ‡
क्रि० अ० [हिं० पिघलना] द्रवित होना। पिघलना। भावाभिभूत होना। उ०—तपा जी तुम्हारे बचन सुण कर मोम की न्याई पंघर गए हाँ जी।—प्राण०, पृ० २६२।
⋙ पंच (१)
वि० [सं० पञ्चन्] पाँच। जो संख्या में चार से एक अधिक हो। यौ०—पंचपात्र। पंचानन। पंचामृत। पंचशर। पंचेंद्रिय। पंचअसनान = सत्य, शील, गुरु के वचन का पालन, शिक्षा देना, और दया करना ये पाँच प्रकार के स्नान।— गोरख०, पृ० ७६।
⋙ पंच
संज्ञा पुं० १. पाँच या अधिक मनुष्यों का समुदाय। समाज। जनसाधारण। सर्वसाधारण। जनता। लोक। जैसे,—पंच कहैं शिव सती विवाह। पुनि अवड़ेरी नरायनि ताही।— तुलसी (शब्द)। (ख) साँई तेली तिलन सो कियो नेह निर्वाह। छाँटि पटकि ऊजर करी दई बड़ाई ताहि। दई बड़ाई ताहि/?/सिगरे जानी। दै कोल्हू मे पेरि करी एकतर घानी।—गिरिधर (शब्द)। मुहा०—पंच की भीख = दस आदमियों का अनुग्रह। सर्वसाधारण की कृपा। सबका आशीर्वाद। उ०—और ग्वाल सब गृह आए गोपालहि बेर भई।....... राज करैं वे धेन तुम्हारी नँदहि कहति सुनाई। पंच की भीख सूर बलि मोहन कहति जशोदा माई।—सूर (शब्द)। पंच की दुहाई = ३. पाँच वा अधिक अदमियों का समाज जो किसी भगड़े या मामले को निबटाने के लिये एकत्र हो। न्याय करनेवाली सभा। क्रि० प्र०—बुलाना। यौ०—सरपंच। पंचनामा। मुहा०—(किसी को) पंच मानना या वदना = झगड़ा निबटाने के लिये किसी को नियत करना। झगड़ा निबटानेवाला स्वीकार करना। उ०—दोनों ने मुझे पच माना।— शिव- प्रसाद (शब्द०)। वह जो फौजदारी के दोर के मुकदमें में दौरा जज की अदालत में मुकदमे के फैसले में जज की सहायता के लिये नियत हो। ५. दलाल। (दलाल)। ६. किसी विषय विशेष में मुख्यता प्राप्त करनेवाला व्यक्ति।
⋙ पंच (२)
वि० [सं० पञ्च] विस्तृत। फैला हुआ।
⋙ पंचक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चक] १. पाँच का समूह। पाँच का संग्रह। जैसे, इंद्रियपंचक, पद्यपंचक। २. वह जिसके पाँच अवयव या भाग हों। ३. पाँच सैकड़े का व्याज। ४. धनिष्ठा आदि पाँच नक्षत्र जिसमें किसी नए कार्य का आरंभ निषिद्ध है। (फलित ज्यो०)। पचखा। ५. शकुन शास्त्र। ६. पाशुपत दर्शन में गिनाई हुई आठ वस्तुएँ जिनमें प्रत्येक के पाँच पाँच भेद किए गए हैं। ये आठ वस्तुएँ ये हैं—लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशुद्धि दीक्षा, कारिक और बल। ७. पाँच प्रतिनिधियों की सभा। पंचायत। ८. युद्धक्षेत्र। रणभूमि (को०)।
⋙ पचकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चकन्या] पुराणनसार पाँच स्त्रियाँ जो सदा कन्या ही रहीं अर्थात् विवाह आदि करने पर भी जिनका कन्यात्व नष्ट नहीं हुआ। अहल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा और मंदोदरी ये पाँच कन्याएँ कही गई हैं।
⋙ पंचकपाल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकपाल] वह पुरोडाश जो पाँच कपालों में पृथक् पृथक् पकाया जाय।
⋙ पंचकपाल (२)
वि० पाँच कपालों में तैयार किया हुआ।
⋙ पंचकर्प, पंचकर्पट
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकर्प, पञ्चकर्पट] महाभारत के अनुसार एक देश जो पश्चिम और था जिसे नकुल ने राजसूय यज्ञ के समय जीता था।
⋙ पंचकर्म
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकर्मन्] १. चिकित्सा की पाँच क्रियाएँ। वमन, विरेचन, नस्य, निरूहवस्ति और अनुवस्ति (अनुवासन)। कुछ लोग निरूहवस्ति और अनुवस्ति (अनुवासन) के स्थान में स्नेहन और वस्तिकरण मानते हैं। २. वैशेषिक के अनुसार पाँच प्रकार के कर्म—उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन।
⋙ पंचकल्याण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकल्याण] वह घोड़ा जिसका सिर (माथा) और चारों पैर सफेद हों और शेष शरीर लाल, काला या किसी रंग का हो। ऐसा घोड़ा सुख देनेवाला माना जाता है।
⋙ पंचकवल
संज्ञा पुं [सं० पञ्चकवल] पाँच ग्राम अन्न जो स्मृति के अनुसार खाने के पूर्व कुत्ते, पतित, कोढ़ी, रोगी, कौए आदि के लिये अलग निकाल दिया जाता है। यह कृत्य वलिवैश्व- देव का अंग माना जाता है। अग्राशन। अगरासन। उ०— पंचकवल करि जेवत लागे। गारि गान करि अनि अनुरागे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंचकषाय
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकषाय] तंत्र के अनुसार इन पाँच वृक्षों का कषाय—जामुन, सेमर, खिरैटी, मोलसिरी ओर बैर। विशेष—यह कषाय छाल को पानी में भिगोकर निकाला जाता है और दुर्गा के पूजन में काम आता है।
⋙ पंचकाम
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकाम] तंत्रसार के अनुसार पाँच कामदेव जिनके नाम ये हैं—काम, मन्मथ, कंदर्प, मकरध्वज और मीनकेतु।
⋙ पंचकारण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकारण] जैनशास्त्र के अनुसार पाँच कारण जिनसे किसी कार्य की उत्पति होती हैं। वे ये हैं— काल, स्वभाव, नियति, पुरुष और कर्म।
⋙ पंचकी पु
वि० [पञ्चक] १. पंचेद्रियों से संबंध रखनेवाली। २. दुनिया की। लोगों की। उ०—/?/ट की मानि अनीति सब मन की मेटि उपाधि। दादू परहर पंचकी राम कहैं ते साध।—दादू०, पुं० ४१०।
⋙ पंचकृत्य
स्त्री० पुं० [सं० पञ्चकृत्य] १. ईश्वर या महादेव के ये पाँच प्रकार के कर्म—सृष्टि, स्थिति, ध्वंस, विधान ओर अनुग्रह (सर्वदर्शानसंग्रह) २. पक्तपोड़ वृक्ष। पखौड़े का पेड़।
⋙ पंचकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकृष्ण] सुश्रुत के अनुसार एक किट का नाम।
⋙ पंचकोण (१)
संजा पुं [पुं० पच्चकोण] १. पाँच कोने। २. कुंडली में लग्न से पाँचवाँ और नवाँ स्थान।
⋙ पंचकोण (२)
वि० जिसमें पाँच कोने हों। पँचकोना।
⋙ पंचकोल
संज्ञा पुं [सं० पञ्चकोल] पीपल, पिपरामूल, चव्य, चित्रकमूल ओर सींठ। वैद्यक में इन्हें पावन, रुचिकर तथा गुल्म और प्लीहा रोगनाशक माना है।
⋙ पंचकोश
संज्ञा पुं [सं० पञ्चकोश] उपनिषद् और वेदांत के अनुसार शरीर संगठित करनेवाले पाँच कोश (स्तर)। विशेष—इनके नाम और इनकी परिभाषा ये हैं—अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश ओर आनंद- मय कोश। इनमें स्थूल शरीर को अन्नमय कोश, पाँचों कर्मेन्द्रियों सहित प्राण को प्राणमय कोश, पाँचों ज्ञानोन्द्रियों के सहित मन को मनोमय कोश, पाँचो ज्ञानेन्द्रियों के सहित बुद्धि को विज्ञानमय कोश तथा अहंकारात्मक या अविद्यात्मक को आनंदमय कोश कहते हैं। पहले को स्थूल शरीर, दूसरे को सूक्ष्म शरीर ओर तीसरे, चौथे ओर पाँचवें को कारण शरीर कहते हैं।
⋙ पंचकोष
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकोश] दे० 'पंचकोश'।
⋙ पंचकोस
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकोश] [स्त्री० पञ्चकोसी] पाँच कोस की लंबाई ओर चौड़ाई के बीच वसी हुई काशी की पवित्र भूमि। काशी। उ०—पंचकोस पुन्य को सुआरथ परमारथ की जानि आप अपने सुपास बास दियो हैं।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंचकोसी
संज्ञा पुं० [हिं० पञ्चकोश] १. काशी की परिक्रमा। ३. वह व्यक्ति जो पाँच कोस दूर का हो। उ० —मगर सुना पंचकोसी आदमी अगर आए तो सार भेद खुल जाय। नहीं पाँच कोस के उघर का आदमी अगर आए तो उसपर जादू का असर खाक न हो।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २०।
⋙ पंचक्रोश
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकोश] पंचकोस। काशी। उ०— स्वारथ परमारथ परिपूरन पंचक्रोश महिमा सी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंचक्लेश
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चक्लेश] योगशास्त्रानुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक पाँच प्रकार के क्लेश।
⋙ पंचक्षारगण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चक्षारगण] वैद्यक के अनुसार पाँच मुख्य क्षार या लवण—काचलवण, सैंधव, सामुद्र, विट् और सौवर्चल।
⋙ पंचखट्व
संज्ञा पुं० [पञ्चखट्व] पाँच खाटों का समूह [को०]।
⋙ पंचखट्वी
संज्ञा स्त्री० [पञ्चखट्वी] पाँच छोटी खाटें [को०]।
⋙ पंचगंग
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगङ्ग] पाँच नदियों का समूह। दे० 'पंचगंगा'—१।
⋙ पंचगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चगङ्गा] १. पाँच नदियों का समूह— गंगा, यमुना, सरस्वती, किरणा और धूतपापा। इसे पंचनद भी कहते हैं। २. काशी का एक प्रसिद्घ स्थान जहाँ गंगा के साथ किरणा और धूतपापा नदियाँ मिली थीं। ये दोनों नदियाँ अब पटकर लुप्त हो गई हैं।
⋙ पंचगण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगण] वैद्यकशास्त्रानुसार इन पाँच ओषधियों का गण—विदारीगंधा, बृहती, पृश्निपर्णा, निदि- ग्घिका और भूकूष्मांड। यौ०—पंचणयोग।।
⋙ पंचगत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगत] बीजगणित के अनुसार वह राशि जिसमें पाँच वर्ण हों।
⋙ पंचगब्ब पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगव्य, प्रा० पंच + गव्व] दे० 'पंचगव्य'। उ० —पञ्चगब्ब अस्नान करि सीस सहस घट मंडि। दीपदान धृत सहस सिव कुसुमंजलि सिर छंडि।—पृ० रा०, ७। २।
⋙ पंचगव
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगव] पाँच गायों का समूह [को०]।
⋙ पंचगव्य
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगव्य] गाय से प्राप्त होनेवाले पाँच द्रव्य—दूध, दही, घी, गोबर ओर गोमूत्र जो बहुत पवित्र माने जाते हैं और पापों के प्रायश्चित आदि में खिलाए जाता हैं। विशेष—पंचगव्य में प्रत्येक द्रव्य का परिमाण इस प्रकार कहा गया है—घी, दूध, गोमूत्र एक एक पल, दही एक प्रसृति (पसर) और गोबर तीन तोले।
⋙ पंचगव्यघृत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगव्यघृत] आयुर्वेद के अनुसारबनाया हुआ एक घृत अपस्मार (मिरगी) और उन्माद में दिया जाता हैं। विशेष—गाय का दूध, घी, दही, गोबर का रस और गोमृत्र चार चार सेर और पानी सोलह सेर सबको एक साथ एक दिन पकाने पर यह बनता है।
⋙ पंचगीत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगीत] श्रीमदभागवत के दशमस्कंध के अंतर्गत पाँच प्रसिद्घ प्रकरण जिनके नाम हैं, बेणुगीत, गोपी- गीत, युगलगीत भ्रमरगीत और महिषीगीत।
⋙ पंचगु
वि० [सं० पञ्चगु] पाचँ गाएँ देकर विनिमय किया हुआ [को०]।
⋙ पंचगुण (१)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगुण] १. शब्द, स्पर्श, रूप रस तथा गंध—ये पाँच गुण। २. आयुर्वेदीक्त एक प्रकार का वात- नाशक तैल।
⋙ पंचगुण (२)
वि० पाँचगुना [को०]।
⋙ पंचगुणी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चगुणी] जमीन। पृथ्वी [को०]।
⋙ पंचगुप्त
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगुप्त] १. कछुवा। २. चार्वक दर्शन जिसमें पंचों द्रिय का गोपन प्रधान माना गया हैं।
⋙ पंचगुप्तिरसा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चगुप्तिरसा] असवरग। स्पृक्का।
⋙ पंचगौड़
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चगौड़] देशानुसार विंध्य के उत्तर बसनेवाले ब्राह्मणों के पांच भेद—सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, मैथिल और उत्कल। विशेष—यह विभाग स्कंदपुराण के सह्याद्रि खंड में मिलता हैं और किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलता। दे० गौड़।
⋙ पंचग्रामी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चग्रामी] पाँच गाँवें का समाहार [को०]।
⋙ पंचग्रास
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चग्रास] पाँच ग्रास। पाँच कौर। उ०— केचित् करहि कष्ट तन भारी। भोजन पंचग्रास आहारी।—सुंदर ग्रं० भा० १, पृ० ९१।
⋙ पंचघात
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चघात] संगीत में प्रयुक्त एक ताल [को०]।
⋙ पंचचक्र
स्त्री० पुं० [सं० पञ्चचक्र] तंत्रशास्त्रानुसार पाचँ प्रकार के चक्र जिनके नाम ये हैं—राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र,वीरचक्र और पशुचक्र।
⋙ पंचचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चचक्षुस्] गौतम बुद्घ का एक नाम [को०]।
⋙ पंचचत्वारिंश
वि० [सं० पंञ्चचत्वारिंश] पैतलीसवाँ।
⋙ पंचचत्वारिंशत्
संज्ञा स्त्री० [सं० पंञ्चचत्वारिंशत्] पैंतालीस।
⋙ पंचचामर
संज्ञा पुं० [सं० पंञ्चचामर] एक छंद का नाम। इसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण, जगण, रगण, मगण और अंत में गुरु होते हैं। इसे नाराच और गिरिराज भी कहते हैं। दे० 'नाराच'।
⋙ पंचचीर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चचीर] एक बुद्ध। मंजुघोष [को०]।
⋙ पंचचूड़
वि० [सं० पञ्चचूड़] पाँच कलँगियोंवाला। पाँच चोटियोंवाला [को०]।
⋙ पंचचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चचूड़ा] एक अप्सरा। (रामायण)।
⋙ पंचचोल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चचोल] हिमालय पर्वत पर एक भाग [को०]।
⋙ पंचजन
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चजन] १. पाँच वा पाँच प्रकार के जनों का समूह। २. गंधर्व, पितर, देव, असुर और राक्षस। ३. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद। ४. मनुष्य। जन- समुदाय। ५. पुरुष। ६. मनुष्य जीव और शरीर से संबंध रखनेवाले प्राण आदि। ७. एक प्रजापति का नाम। ८. एक असुर जो पाताल में रहता था। विशेष—यह कृष्णचंद्र के गुरु संदीपनाचार्य के पुत्र को चुरा ले गया था। कृष्णचंद्र इसे मारकर गुरु के पुत्र को छुड़ा लाए थे। इसी असुर की हड्डी से 'पाँचजन्य' शंख बना था जिसे भगवान् कृष्णचंद्र बजाया करते थे। ९. राजा सगर के पुत्र का नाम।
⋙ पंचजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पंञ्चजनी] १. पाँच मनुष्यों की मंडली। पंचायत। २. विश्वरूप की कन्या। का नाम (भागवत)।
⋙ पंचजनीन
संज्ञा पुं० [सं पंञ्चजनीन] १. भाँड़। नकल करनेवाला। २. नट। स्वाँग बनानेवाला। अभिनेता।
⋙ पंचजन्य
संज्ञा पुं० [सं० पंञ्चजन्य] एक प्रसिद्ध शंख जिसे कृष्णचंद्र बजाया करते थे। यह एक राक्षस की हड्डी का था। जिसका नाम पंचजन था। वि० दे० 'पंचजन' —८।
⋙ पंचमजाती पु
संज्ञा स्त्री० [हि० पाँच + अ० जमाअत + ई (प्रत्य०)] पाँच ज्ञानोंद्रियाँ। उ०—दादू काया मसीति करि, पंच जमाती मनहीं मुलां इमामं। आप अलेख इलाही आगै तह सिजदा करै सलामं।—दादू०, पृ० १२८।
⋙ पंचज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चज्ञान] १. वह जो पाँच प्रकार के ज्ञान से युक्त हो। २. बुद्ध का एक नाम।
⋙ पंचतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतन्त्र] संस्कृत की एक प्रसिद्ध पुस्तक जिसमें विष्णुगुप्त द्वारा नीतिविषयक कथाओं का संग्रह है। विशेष—इसमें पाँच तंत्र हैं जिनके नाम क्रनशः मित्रलाभ, सुहृदभेद, काकोलूकीय, लब्धप्रणाश ओर अपरीक्षित कारक हैं।
⋙ पंचतंत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पंञ्चतन्त्रिन्] एक प्रकार की वीणा जिसमें पाँच तार लगते हैं।
⋙ पंचतंत्री (२)
वि० जिसमें पाँच तार हों। पाँच तार का बना हुआ।
⋙ पंचतत्व
संज्ञा पुं० [सं० पंञ्चतत्व] १. पंचभूत। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। उ०—पश्चाद्वर्ती भारतीय दार्शनिकों ने पंचतत्व का प्रतिपादन किया है।—सं० दारिया (भू०), पृ० ५४। २. वाम मार्ग के अनुसार मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, और मैथुन। इन्हें 'पाँच प्रकार' भी कहते हैं। ३. तंत्र के अनुसार गुरुतत्व, मंत्रतत्व, मनस्तत्व, देवतत्व और ध्यानतत्व।
⋙ पंचतन्मात्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतन्मात्र] सांख्य में पाँच स्थूल महाभूतों के कारणरूप, सूक्ष्म महाभूत जो अतींद्रिय माने गए हैं। इनके नाम हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। तन्मात्र ये इस कारण कहलाते हैं कि ये विशुद्ध रूप में रहते हैं अर्थात् एक में किसी दूसरे का मेल नहीं रहता। स्थूल भूत विशुद्ध नहीं होते। एक भूत में दूसरे भूत भी सूक्ष्म रूप में मिले रहते हैं। विशेष—दे० 'तन्मात्र'।
⋙ पंचतप
संज्ञा पुं० [सं० पंञ्चतप] पंचाग्नि [को०]।
⋙ पंचतपा
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतपस्] पंचाग्नि तापनेवाला तपस्वी। चारों ओर आग जलाकर धूप में बैठकर तप करनेवाला।
⋙ पंचतय
वि० [सं० पञ्चतय] पँचगुना [को०]।
⋙ पंचतरु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतरु] पाँच वृक्ष—मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचंदन।
⋙ पंचता
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चता] १. पाँच का भाव। २. शरीर घटित करनेवाले पाँचो भूतों का अलग अलग अवस्थान। मृत्यु। विनाश।
⋙ पंचताल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चताल] अष्टताल का एक भेद। इस भेद में पहले युगल, फिर एक, फिर युगल ओर अंत में शून्य होता है।
⋙ पंचतालेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतालेश्वर] शुद्ध जाति का एक राग।
⋙ पंचतिक्त
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतिक्त] आयुर्वेद में इन पाँच कड़ुई ओषधियों का समूह—गिलोय (गुरुच), कंटकारि (भट कटैया), सोंठ, कुट और चिरायता (चक्रदत्त)। विशष—पंचतिक्त का काढ़ा ज्वर में दिया जाता है। भावप्रकाश में पंचतिक्त ये हैं—नीम की जड़ की छाल, परवल की जड़, अड़ूसा, कंटकारि (कटैया) और गिलोय। यह पंचतिक्त ज्वर के अतिरिक्त विसर्प और कुष्ठ आदि रक्तदोष के रोगों पर भी चलता है।
⋙ पंचतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतीर्थ] पाँच तीर्थो का समूह। दे० 'पंचतीर्थो'। उ०—फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल गिरिमाला पर, है प्राण चपल।—तुलसी० पृ० २५।
⋙ पंचतीर्थी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चतीर्थी] पाँच तीर्थ स्थान। पाँच तीर्थ। विशेष—ये तीर्थ भिन्न भिन्न स्थानों में विभिन्न नाम के हैं। काशी खंड के अनुसार काशी की पंचतीर्थो निम्नांकित है— ज्ञानवापी, नंदिकेश, तारकेश महाकालेश्वर और दंडपाणि। वाराह पुराण के अनुसार विश्रांति, शौकर, नैमिष, प्रयाग और पुष्कर ये पाँचतीर्थ।
⋙ पंचतृण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चतृण] इन पाँच तृणों का समूह—कुश, काँस, शर (सरकंडा), दर्भ (डाभ) और ईख। भाव- प्रकाश के मत से शालि (धान), ईख, कुश, काश और शर।
⋙ पंचतोलिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का झीना महीन कपड़ा।
⋙ पंचतोरिया पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का झीना महीन कपड़ा। पंचतोलिया। उ०—सेत जरतारी की उज्यारी कंचुकी को कसि अनियारी डीठी प्यारी पेन्हीं पंचतोरिया।—देव (शब्द०)।
⋙ पंचत्रिंश
वि० [सं० पञ्चत्रिंश] पैतीसवाँ।
⋙ पंचत्रिंशत्
वि० [सं० पञ्चत्रिंशत्] पैंतीस।
⋙ पंचत्व
संज्ञा पुं० [सं० पंञ्चत्व] १. पाँच का भाव। २. शरीर संघटित करनेवाले पांचों भूतों का अलग अलग अवस्थान। मृत्यु। विनाश। कि० प्र०—होना। मुहा०—पंचत्व प्राप्त होना = मरना।
⋙ पंचथु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चथु] कोयल।
⋙ पंचदश
वि० [सं० पञ्चदशन्] पंद्रह।
⋙ पंचदश
संज्ञा पुं० पंद्रह की संख्या।
⋙ पंचदशी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चदशी] १. पूर्णमासी। २. अमावस्या। ३. वेदांत का एक प्रसिद्ध ग्रंथ।
⋙ पंचदेव
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चदेव] पाँच प्रधान देवता जिनकी उपासना आजकल हिंदुओं में प्रचलित है—आदित्य, रुद्र, विष्णु, गणेश और देवी। विशेष—इन देवताओं में यद्यपि तीन वैदिक हैं तथापि सबका ध्यान श्रौर सबकी पूजा पौराणिक और तांत्रिक पद्घति के अनुसार होती है। इन देवताओं में प्रत्येक के अनेक विग्रह हैं जिनके अनुसार अनेक नाम रूपों से उपासना होती है। कुछ लोग तो पाँचों देवताओं की उपासना समान भाव से करते हें और कुछ लौग किसी विशेष संप्रदाय के अंतर्गत होकार किसी विशेष देवता की उपासना करते हें। विष्णु के उपासक वैष्णव, शिव के उपासक शैव, सूर्य के उपासक सौर और गणपति के उपासक गाणपत्य कहलाते हैं।
⋙ पंचद्रविड़
सज्ञां पुं० [सं० पञ्चद्रविड] उन ब्राह्मणों कें पाँच भेद जो विंध्याचल के दक्षिण बसते हैं— महाराष्ट्र, तैलंग, कर्णाट, गुजंर ओर द्रविड़।
⋙ पंचधा
कि० वि० [सं० पञ्चधा] पाँच प्रकार से। पाँच ढंग को [को०]।
⋙ पंचनख
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चनख] १. वह पशु जिसके हाथ और पैरों में पाँच पाँच नख हौते हैं। जैसे, बंदर। २. हाथी (को०)। ३. कच्छप। कूर्म (को०)। ४. बाध। व्याघ्र। (को०)। विशेष— स्मृतियों में इनके मांस खाने का निषेध है।
⋙ पंचनखराज
संज्ञा पु० [सं० पञ्चनखराज] दे० 'पंचनखी' [को०]।
⋙ पंचनखी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चनखी] गोह। पेड़ो पर रहनेवाली बड़ी छिपकली [को०]।
⋙ पंचनद
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चनद] १. पाँच नादियों का समाहार। पंजाब की वे प्रधान पाँच नदिया जो सिंधु में मिलती हैं— सतलज, व्यास रावी, चनाब और झेलम। २. पंजाब प्रदेश जहाँ उक्त पाँच नदियाँ बहती हैं। ३. काशी के अंतर्गत एक तीर्थ जिसे पंचगंगा कहते हैं।
⋙ पंचनवत
वि० [सं० पञ्चनवत] पंतानबेबाँ।
⋙ पंचनवति
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चनवति़] पंचानवे की संख्या।
⋙ पंचनाथ
संज्ञा पुं० [सं० पञ्च + नाथ] वदरीनाथ, द्वारकानाथ, जगन्नाथ, रगनाथ, और श्रीनाथ। उ०—पंचनाथ कलिपानन जोई। निगद नर नारायण होई।— गोपाल (शब्द०)।
⋙ पंचनामा
संज्ञा पुं० [हिं० पंच + फा० नाम] वह कागज जिसपर पंच लोगों ने अपना निर्णय या फैसला लिखा हो।
⋙ पंचनिंब
संज्ञा पुं० [सं० पन्चनिम्ब] नीम के बाँम अवयव—पत्ता, छाल, फूल, फल और मूल।
⋙ पंचनी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षिणी०, प्रा० पंखणी] पक्षिणी। उ०—चालंत कटक गोरी प्रबल भूषी चाली पंचनिय।—पृ० रा०, ११। ५।
⋙ पंचनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चनी] १. कपड़े की बनी पासा खेलने की विसात। २. शतरंज की बिसात [को०]।
⋙ पंचानीराजन
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चनीराजन] पाँच प्रकार की आरती [को०]।
⋙ पंचपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपक्षिन्] एक प्रकार का शकुन शास्त्र जिसमें अ, ई, उ, ए और ओ ईन पांच वर्णो को पक्षी कल्पना करके शुभाशुभ विचार किया जाता है।
⋙ पंचपत्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपत्र] एक पेड़। चंड़ाल कंद।
⋙ पंचपदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चपदी] १. पाँच कदम या डग। २. थोड़ी देर का संबंध। ३. एक प्रकार की ऋचा [को०]।
⋙ पंचपनड़ो †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पंचौली'।
⋙ पंचपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरक्षी नाम का पौधा।
⋙ पंचपर्व
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपर्वन्] अषृमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या और सूर्य की संक्रांति [को०]।
⋙ पंचपल्लव
संज्ञा पुं० [पुं० पञ्चपल्लव] इन पाँच वृक्षों के पल्लव- आम, जामुन, कैय, विजौरा (वीजपूरक) और वेल। कोई कोई आम, वट और मौलसिरी के पल्लवों को पंचपल्लव में लेते हैं। पूजा में घर के ऊपर रखने के लिये पंचपल्लव का प्रयोजन पड़ता है। विभिन्न पद्धतियों में विभिन्न प्रकार के पल्लवों का उल्लेख मिलता है।
⋙ पंचपात
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपत्र] पँचौली नाम का पौधा। पंचपनड़ी।
⋙ पंचपात्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपात्र] १. गिलास के आकार का चौड़े मुँह का एक बरतन जो पूजा में ज/?/रखने के काम में आता है। हसके मुँह का घेरा पेदे के घेरे के बराबर ही हीता है। २. पार्वण श्राद्ध। ३. पाँच पात्रों का समूह (को०)।
⋙ पंचपाद्
वि० [सं० पञ्चपाद्] पाँच पैरोंवाला (को०)।
⋙ पंचपाद् (२)
संज्ञा पुं० एक संवत्सर [को०]।
⋙ पंचपिता
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपितृ] पिता, आचार्य श्वसुर, अन्नदाता और भय से रक्षक।
⋙ पंचपितृ
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपितृ] दे० 'पंचपिता'।
⋙ पंचपित्त
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपित्त] वैद्यक शास्त्र के श्रनुसार वराह, छाग, महिष, मत्स्य और मयूर का पिता।
⋙ पंचपीरिया
संज्ञा पुं० [हि० पाँच + फा० पीर] मुसलमानों के पाँचों पीरों की पूजा करनेवाला।
⋙ पंचपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चपुष्प] देवी पुराणाअनुसार ये पाँच फूल- जो देवताओं को प्रिय है—चंपा, आम, शमी, कमल और कनेर।
⋙ पंचप्रस्थ
वि० [सं० पञ्चप्रस्थ] पँचगुनी ऊँचाईवाला [को०]।
⋙ पंचप्राण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चप्राण] पाँच प्राण या वायु—प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान।
⋙ पंचप्रासाद
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चप्रासाद] १. वह प्रासाद जिसमें पाँच शृंग या गुंबद हों। २. एक प्रकार का देवगृह जिसे 'पंचरत्न' या 'पचरतन' कहते हैं।
⋙ पंचबंध
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चबन्ध] मिताक्षारा के अनुसार एक प्रकार का अर्थदंड जो खराब हुई वस्तु के मूल्य का पंचमांश हो [को०]।
⋙ पंचबटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चवटी] दे० 'पंचवटी'।
⋙ पंचबला
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चबला] वैद्यक के बला, अतिबला, नागबला, राजबला और महाबला नामक ओषधियों का समूह।
⋙ पंचबाइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चवायु] दे० 'पंचवायु'। उ०— पंचबाइ जे सहजि समावै, ससिहर के घरि आणें सूर।— सीतल मिलै सदा सुखदाई अनहद शब्द बजावै तूर।—दादू०, पृ० ६७४।
⋙ पंचबाण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवाण] दे० 'पंचवाण'।
⋙ पंचबान पु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। पंचवाण। उ०—कहै पद्माकर प्रपंची पंचबान हू के सुकानन के माँन पै परी त्यों घोर घानें सी।—पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ४६४।
⋙ पंचबाहु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चबाहु] शिव [को०]।
⋙ पंचबिंदुप्रसृत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चबिन्दु प्रसृत] एक प्रकार की नृत्यमुद्रा [को०]।
⋙ पंचबिंस पु
वि० [सं० पञ्चविंश] पच्चीसवाँ। पच्चीस की संख्यावाला। उ०—अब सुनि पंचबिंस अध्याई। पंचबिंस निर्मल ह्वै जाई।—नंद ग्रं०, पृ० ३०७।
⋙ पंचबिडाल पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चबिडाल] बौद्ध शास्त्रों में निरु- पित आलस्य, हिंसा काम, विचिकित्सा और मोह ये पाँच प्रतिबंध। उ०—काआ तरुवर पंचबिडाल।—इतिहास, पृ० १२।
⋙ पंचबीज
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चबीज] ककड़ी, खीर अनार, पद्मबीज ओर पानरीबीज—ये पाँच प्रकार के बीज [को०]।
⋙ पंचभद्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चभद्र] १. वैद्यक में एक ओषधिगण जिसमें गिलोय, पित्तपापड़ा, मोथा, चिरायता और सोंठ है। २. पंचकल्याण घोड़ा।
⋙ पंचभद्र
वि० १. पाँच गुणों से युक्त (व्यंजन आदि)। २. पापी। दुष्ट [को०]।
⋙ पंचभर्तारी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्च + भर्तार + हिं० ई (प्रत्य०)] द्रौपदी।
⋙ पंचभागी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चभागिन्] पंच महायज्ञों की पाँच देवियाँ [को०]।
⋙ पंचभुज (१)
वि० [सं० पञ्चभुज] पाँच भुजाओंवाला [को०]।
⋙ पंचभुज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँच भुजाओंवाला क्षेत्र या कोण। २ गणेश का एक नाम [को०]।
⋙ पंचभूत
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच प्रधान तत्व जिनसे संसार की सृष्टि हुई है—आकाश, वायु, अग्नि, जल, ओर पृथिवी। उ०— लेत उठी मुख माधव नामा। पंचभूत मैं किये विश्रामा।— हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २१८। विशेष—दे० 'भूत'।
⋙ पंचभृंग
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चभृङ्ग] पाँच वृक्ष जिनके नाम हैं— देवदाली, शमी, भंगा, निर्गुंडी और तमालपत्र [को०]।
⋙ पंचमंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चमण्डली] पाँच भलेमानसों की सभा। पंचायत। विशेष—चंद्रगुप्त द्वितीय के साँचीवाले शिलालेख में यह शब्द आया है।
⋙ पंचम (१)
वि० [सं० पञ्चम] [वि० स्त्री० पंचमी] १. पाँचवाँ। जैसे, पंचम वर्ण, पंचम स्वर। २. रुचिर। सुंदर। ३. दक्ष। निपुण।
⋙ पंचम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सात स्वरों में पाँचवाँ स्वर। विशेष—यह स्वर पिक या कोकिल के अनुरूप माना गया है। संगीत शास्त्र में इस स्वर का वर्ण ब्राह्मण, रंग श्याम, देवता महादेव, रूप इंद्र के समान और स्थान क्रौंच द्वीप लिखा है। यमली, निर्मली और कोमली नाम की इसकी तीन मूर्च्छनाएँ मानी गई हैं। भरत के अनुसार इसके उच्चारण में वायु नाभि, उरु, हृदय, कंठ और मूर्धा नामक पाँच स्थानों में लगती है, इसलिये इसे 'पंचम' कहते हैं। संगीत दामोदर का मत है कि इसमें प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान एक साथ लगते हैं इसिलिये यह 'पंचम' कहलाता है। स्वरग्राम में इसका संकेत 'प' होता है। २. एक राग जो छह प्रधान रागों में तीसरा है। विशेष—कोई इसे हिंडोल राग का पुत्र का और कोई भैरव का पुत्र बतलाते हैं। कुछ लोग इसे ललित और वसंत के योग से बना हुआ मानते हैं और कुछ लोग हिंडोल, गांधार और मनोहर के मेल से। सोमेश्वर के मत से इसके गाने का समय शरदऋतु और प्रातःकाल है और विभाषा, भूपाली, कर्णाटी, वडहंसिका, मालश्री, पटमंजरी नाम की इसकी छह रागिनियाँ हैं, पर कल्लिनाथ त्रिवेणी, स्तंभतीर्था, आभीरी, ककुभ, वरारी और सौवीरी को इसकी रागिनियाँ बतलाते हैं। कुछ लोग इसे ओडव जाति का राग मानते हैं और ऋषभ, कोमल पंचम और गांधार स्वरों को इसमें वर्जित बताते हैं। ३. वर्ग का पाँचवाँ अक्षर—ङ, ञ, ण, न और म। ४. मैथुन।
⋙ पंचमकार
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमकार] वाम मार्ग के अनुसार मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन।
⋙ पंचमतान
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमतान] मीठी आवाज। उ०— शिथिल आज है कल का कूजन पिक की पंचमतान।— अनामिका, पृ० ६४।
⋙ पंचमवेद
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमवेद] पाँचवाँ वेद—महाभारत, पुराण एवं नाट्य।
⋙ पंचमहापातक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहापातक] पाँच प्रकार के महापाप। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार ये पाँच महापातक हैं—ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरु की स्त्री से व्यभिचार और इन पातकों के करनेवालों के साथ संसर्ग।
⋙ पंचमहाभूत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहाभूत] दे० 'पंचभूत'। उ०— पंचमहाभूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश उत्पन्न हुए और इन पंचभूतों से समस्त संसार हुवा।—कबीर मं०, पृ० ३०९।
⋙ पंचमहायज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहायज्ञ] स्मृतियों और गृह्य सूत्रों के अनुसार वे पाँच कृत्य जिनका नित्य करना गृहस्थों के लिये आवश्यक है। विशेष—गृहस्थों के गृहकार्य से पाँच प्रकार से हिंसा होती है जिसे धर्मशास्त्रों में 'पंचसूना' कहते हैं। इन्हीं हिंसाओं के पाप से निवृति के लिये धर्मशास्त्रों में इन पाँच कृत्यों का विधान है। वे कृत्य ये हैं (१) अध्यापन—जिसे ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। संध्यावंदन इसी अध्यापन के अंतर्गत है। (२) पितृतर्पण—जिसे पितृयज्ञ कहते हैं। (३) होम—जिसका नाम देवयज्ञ है। (४) बलिवैश्वदेव वा भूतयज्ञ। (५) अतिथिपूजन—नृयज्ञ वा मनुष्ययज्ञ।
⋙ पंचमहाव्याधि
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहाव्याधि] वैद्यकशास्त्र के अनुसार ये पाँच बड़े रोग—अर्श, यक्ष्मा, कुष्ठ, प्रमेह और उन्माद।
⋙ पंचमहाव्रत
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहाव्रत] योगशास्त्र के अनुसार ये पाँच आचरण—अहिंसा, सूनृता, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। विशेष—पतंजलि जी ने इन्हें 'यम' माना है। जैन यतियों के लिये इनका ग्रहण जैन शास्त्र में आवश्यक बतलाया गया है।
⋙ पंचमहाशब्द
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहाशब्द] पाँच प्रकार के बाजे जिन्हे एक साथ बजवाने का अधिकार प्राचीन काल में राजाओं महाराजाओं को ही प्राप्त था। इसमें ये पाँच बाजे माने गए हैं—शृंग (सींग), तम्मट (खँजड़ी ?), शंख, भेरी और जयघंटा।
⋙ पंचमहिष
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमहिष] सुश्रुत के अनुसार भैंस से प्राप्त पाँच पदार्थ—मूत्र, गोबर, दही, दूध और घी।
⋙ पंचमांग
संज्ञा पुं० [पुं० पञ्चमाङ्ग] पाँचवा भाग या अंग।
⋙ पंचमांगी
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमङ्गिन्] दूसरे (शत्रु) देशों से गुप्त संबंध स्थापित कर अपने देश को हानि पहुंचानेवाला व्यक्ति।देशद्रोही। भेदिया। उ०—सरकार की दृष्टि में समर्थक बनने के लिये एक ओर तो वे पंचमागियों का कार्य करते रहे।—नेपाल०, पृ० १२१।
⋙ पंचमास्य (१)
वि० [सं० पञ्चमास्य] पाँच महीने का। पाँच महीने पर होनेवाला।
⋙ पंचमास्य (२)
संज्ञा पुं० कोकिल।
⋙ पंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चमी] १. शुक्ल या कृष्णपक्ष की पाँचवीं तिथि। विशेष—व्रत आदि के लिये चतुर्थीयुक्ता पंचमी तिथि ग्राह्य मानी गई है। २. द्रैपदी। ३. एक रागिनी। ४. व्याकरण में अपादान कारक। ५. एक प्रकार की ईंट यो एक पुरुष की लंबाई के पाँचवें भाग के बराबर होती थी और यज्ञों में बेदी बनाने में काम आती थी। ६. तंत्र में एक मंत्रविधि। ७. एक प्रकार की बिसात जिसपर गोटियाँ खेलते थे (को०)।
⋙ पंचमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमुख] १. शिव। २. सिंह। ३. एक प्रकार का रुद्राक्ष जिसमें पाँच लकीरें होती हैं। ४. पाँच फलोंवाला बाण (को०)।
⋙ पंचमुख (२)
वि० पाँच मुखोंवाला। जैसे, पंचमुख गणेश। पंचमुख शिव। [को०]।
⋙ पंचमुखी (१)
वि० [सं० पञ्चमुखिन्] पाँच मुखवाला।
⋙ पंचमुखी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वासा। अड़ूसा। २. जवा। गुड़हल का फूल। ३. सिंही। सिंह की मादा। ४. पार्वती।
⋙ पंचमुद्रा
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमुद्रा] तंत्र के अनुसार पूजनविधि में पाँच प्रकार की मुद्राएँ—आवाहनी, स्थापनी, सन्नीधापनी, संबोधिनी, सम्मुखीकरणी।
⋙ पंचमुष्टिक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमुष्टिक] वैद्यक में एक औषध जो सन्निपात में जाती है। विशेष—जौ, बेर का फल, कुलथी, मूँग और काष्ठमलक एक एक मुट्ठी लेकर अठगुने पानी में पकाने से यह बनती है।
⋙ पंचमूत्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमूत्र] गाय, बकरी, भेंड़, भैस और गधी इन पाँच पशुओं का मूत्र [को०]।
⋙ पंचमूल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमूल] वैद्यक में एक पाचन औषध जो औषधियों की जड़ लेकर बनती है। विशेष—औषधिभेद से पंचमूल कई हैं जैसे—बृहत्, स्वल्प, तृण, शतावर्त, जीवन, बला, गोखुर इत्यादि। बृहत्पंचमूल—बेल, सेनापाठा (श्योनाक), गँभारी, पाँडर और गनियारी। स्वल्पपंचमूल—शालपर्णी, पृश्निपर्णी (पिठवन), बड़ी भटक- टैया, छोटी भटकटैया और गोखरू। तृणपंचमूल—कुश, काश, शर, इक्षु और दर्भ।
⋙ पंचमूली
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चमूलिन्] स्वल्प पंचमूल।
⋙ पंचमेल
विं० [हिं० पाँच + मेल या मिलाना] १. जिसमें पाँच प्रकार की चीजें मिली हों। जैसे, पँचमेल मिठाई। २. जिसमें सब प्रकार की चीजे मिलि हों। मिला जुला ढेर। ३. साधारण।
⋙ पंचमेली
वि० [हिं० पंचमेल] पाँच चीजों की मेलवाली (मिठाई- आदि)। मिश्रित।
⋙ पंचमेवा
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + मेवा] किसमिस, बदाम, गरी, छुहाड़ा और चिरौंजी यह पाँच प्रकार का मेवा।
⋙ पंचमेश
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चमेश] फलित ज्योतिष के अनुसार पाँचवें घर का स्वामी।
⋙ पंचयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चयज्ञ] पंचमहायज्ञ।
⋙ पंचयाम
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चयाम] दिन। विशेष—शास्त्रों में दिन के पाँच पहर और रात के तीन पहर माने गए हैं। रात के पहले चार दंड और पिछले चार दंड दिन में लिए गए हैं।
⋙ पंचरंग
वि० [हिं० पाँच + रंग] १. पाँच रंग का। अनेक रंगों का। रंग बिरंग का।
⋙ पंचरक्षक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चरक्षक] पखौड़ा वृक्ष।
⋙ पंचरत्न
संजा पुं० [सं० पञ्चरत्न] पाँच प्रकार के रत्न। विशेष—कुछ लोग सोना, हीरा, नीलम, लाल और मोती को पंचरत्न मानते हैं ओर कुछ लोग मोती, मूँगा, वैक्रांत, हीरा और पन्ना को। २. महाभारत के पाँच प्रसिद्ध आख्यान— गीता, विष्णुसस्त्रनाम, भीष्मस्तवराज, अनुस्मृति ओर गजेंद्र- मोक्ष (को०)।
⋙ पंचरश्मि
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चरश्मि] सूर्य [को०]।
⋙ पंचरसा
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चारसा] आमला।
⋙ पंचरात्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चरात्र] १. पाँच रातों का समूह। २. एक यज्ञ जो पाँच दिन में होता था। ३. वैष्णव धर्म का एक प्रसिद्ध ग्रंथ। ४. भास कवि का एक नाटक।
⋙ पंचराशिक
संजा पुं० [सं० पञ्चराशिक] गणित में एक प्रकार का हिसाब जिसमें चार ज्ञात राशियों के द्वारा पांचवीं अज्ञात राशि का पता लगाया जाता है।
⋙ पंचरीक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चरिक] संगीत शास्त्र के अनुसार एक ताल।
⋙ पंचल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चल] शकरकंद।
⋙ पंचलक्षण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलक्षण] पुराण के पाँच चिह्न या लक्षण जो ये हैं, 'सर्गश्च' प्रतिसर्गश्च वँशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम्। अर्थात्—सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, दिवताओं की उत्पत्ति और परंपरा, मन्वंतर मनु के वंश का विस्तार।
⋙ पंचलवण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलवण] वैद्यक शास्त्रानुसार पाँच प्रकार के लवण—काँच, सेंधा, सामुद्र, विट ओर सोंचर।
⋙ पंचलांगलक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलाङ्गलक] एक महादान जिसमें पाँच हल के जोत के बराबर भूमि दी जाती है [को०]।
⋙ पंचलोकपाल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलोकपाल] पाँच संरक्षक देव— विनायक, दुर्गा, वायु, आकाश और अश्विनीकुमार [को०]।
⋙ पंचलोह
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलोह] दे० 'पंचलौह'।
⋙ पंचलोहक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चलोहक] दे० 'पंचलौह'।
⋙ पंचलौह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँच धातुएँ—सोना, चाँदी, ताँबा, सीसा और राँगा। २. पाँच प्रकार का लोहा—वज्रलोह, कांतलोह, पिंडलोह ओर क्रौंचलोह।
⋙ पंचवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवक्त्र] दे० 'पंचमुख' [को०]।
⋙ पंचवक्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चवक्त्रा] दुर्गा [को०]।
⋙ पंचवट
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवट] यज्ञोपवीत [को०]।
⋙ पंचवटी
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवटी] रामायण के अनुसार दंड़कारण्य के अनंर्गत एक स्थान जहाँ रामचंद्र जी वनवास में रहे थे। यह स्थान गोदावरी के किनारे पर नासिक के पास हैं। सीता हरण यहीं हुआ था। २. पाँच वृक्षों का वह समूह जो ये हैं—अश्वत्थ, विल्व, वट, धात्री ओर अशोक। विशेष—हेमाद्रि व्रतखंड़ में इनके लगाने की विधी का वर्णन है ओर कहा गया है कि ऐसे स्थान पर तपस्या ओर मंन्त्रसिद्धि होती है।
⋙ पंचवदन
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवदन] शिव।
⋙ पंचवर्ग
संजा पुं० [सं० पञ्चवर्ग] १. पाँच वस्तुऔं का समूह। जैसे, पाँच प्रकार के चर, पाँच हड्डीया। २. पंच महाभूत—क्षिति, जल, पावक, गगन ओर समीर (को०)। ३. पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (को०)। ४. पंचमहायज्ञ (को०)। ५. पाँच प्रकार के गुप्तचर— कापटिक, उदास्थित, गृहपति व्यंजन, वैदेहिक व्यंजन ओर तापस व्यंजन,) (को०)।
⋙ पंचवर्ण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवर्ण] १. प्रणव के पाँच वर्ण अर्थात् अ, उ, म, नाद ओर विंदु। २. एक वन का नाम। ३. एक पर्वत का नाम।
⋙ पंचवर्षदेशीय
वि० [सं० पञ्चवर्णदेशीय] लगभग पाँच वर्ष पुराना। पाँच वर्ष का [को०]।
⋙ पंचवर्षीय
वि० [सं० पञ्चवर्षीय] पाँच वर्ष का। पाँच वर्ष तक चलनेवाला। जैसे, पंचवर्षीय योजना।
⋙ पंचवल्कल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवल्कल] वट, गूलर, पीपल, पाकर और बेत या सिरिस की छाल।
⋙ पंचवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [पञ्चवल्लाभा] द्रोपदी का नाम [को०]।
⋙ पंचवाण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवाण] १. कामदेव के पाँच वाण जिनके नाय ये हैं—द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्मादन। कामदेव के पाँच पुष्पवाणों के नाम ये हैं—कमल, अशोक, आम्र, नवमल्लिका और नीलोत्पल। २. कामदेव।
⋙ पंचवातीय
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवातीय] राजसूय के अंतर्गत एक प्रकार का होम। उ०—शुनासीरीय और पंचवातीय याग अनुष्ठान हुआ।—वैशाली०, पृ० ४१३।
⋙ पंचवाद्य
संज्ञा पुं० [पुं०] तंत्र, आनद्ध, सुषिर, धन ओर वीरों का गर्जन।
⋙ पचवान
संज्ञा पुं० [सं० पञचवाण ?] राजपूतों की एक जाति।
⋙ पंचवायु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवायु] शरीरस्थ पाँच वायु जिनके नाम हैं—प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान। उ०—अन्नमय कोश सु तौ पिंड है प्रगट यह प्रानमय कोश पंचवायु हू बषानिये।—सुंदर ग्रं०, भा० २ पृ० ५९८।
⋙ पंचवार्षिक
वि० [सं० पञ्चवार्षिक] हर पाँचवें वर्ष होनेवाला [को०]।
⋙ पंचविंश (१)
वि० [सं० पञ्चविंश] पच्चीसवाँ [को०]।
⋙ पंचविंश (२)
संज्ञा पुं० (पच्चीस तत्वों से युक्त) विष्णु (को०)।
⋙ पंचविंशति
वि० [सं० पचविंश] पच्चीस [को०]।
⋙ पंचविध
वि० [सं० पञ्चविध] १. पँचगुना। २. पाँच प्रकार का [को०]। यौ०—पंचविधप्रकृति = शासन के पाँच अवयव—अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, अर्थ, और दंड।
⋙ पंचवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवृक्ष] पाँच देववृक्ष जिनके नाम हैं— मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचंदन [को०]।
⋙ पंचशब्द
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशब्द] १. पाँच मंगलसूचक बाजे जो मंगल कार्यों में बजाए जाते हैं—तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही। दे० 'पंचमहाशब्द'। २. व्याकरण के अनुसार सूत्र, वार्तिक, भाष्य, कोश और महाकवियों के प्रयोग। ३. पाँच प्रकार की ध्वनि—वेदध्वनि, बंदीध्वनि, जयध्वनि, शंख- ध्वनि और निशानध्वनि।
⋙ पंचशर
संज्ञा सं० [सं०] १. कामदेव के पाँच वाण। २. कामदेव।
⋙ पंचशस्य
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशस्य] देवकार्य में प्रयुक्त होनेवाले धान, मूँग, तिल, उड़द, और जो ये पाँच अन्न [को०]।
⋙ पंचशाख
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशाख] १. हाथ। २. पनसाखा। ३. हाथी (को०)।
⋙ पंचशारदीय
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशारदीय] एक प्रकार का यज्ञ [को०]।
⋙ पंचशिख
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशिख] १. सिंघा बाजा। २. एक मुनि जो महाभारत के अनुसार महर्षि कपिल के पुत्र थे। विशेष—सांख्य शास्त्र के ये एक प्रधान आचार्य थे। सांख्य सूत्रों में इनके मत का उल्लेख मिलता है। इनको लोग द्वितीय कपिल कहते हैं। ये कपिल की शिष्यपरंपरा के आसुरि के शिष्य थे। ३ सिंह (को०)।
⋙ पंचशीष
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशीर्ष] एक प्रकार का सर्प [को०]।
⋙ पंचशील
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशील] १. बौद्ध धर्म के अनुसार शील या सदाचार के पाँच सिद्धांत जिसका आचरण प्रत्येक धर्मशील व्यक्ति के लिये आवश्यक बताया गया है—(१) अस्तेय (चोरी न करना); (२) अहिंसा (हिंसा न करना), (३) ब्रह्मचर्य (व्यभिचार न करना), (४) सत्य (झूठ न बोलना) और (५) मादक द्रव्यों का भोग न करना। २. पाँच राज- नितिक सिद्धांत जो सन् १९५४ के बाँदुंग संमेलन में एशिया और अफ्रीका के प्रमुख देशों द्वारा शांति बनाए रखने के उद्देश्य से स्थिर किए गए हैं। ये इस प्रकार हैं।—(१)राज्य की अखंडता और प्रभुता के प्रति परस्पर संमान, (२) परस्पर अनाक्रमण का आश्वासन, (३) आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप, (४) परस्पर समानता का भाव और (५) शांतिमय सहअस्तित्व।
⋙ पंचशूरण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशूरण] वैद्यक में पाँच विशेष कंद— अत्यम्लपर्णी, कांडबेल, मालाकंद, सूरन, सफेद सूरन।
⋙ पंचशैरीषक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशैरीषक] सिरिस वृक्ष के पाँच अंग जो औषध के काम आते हैं—जड़, छाल, पत्ते, और फल।
⋙ पंचशैल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशैल] पुराणों में वर्णित एक पर्वत [को०]।
⋙ पंचष
वि० [सं० पञ्चष] पाँच या छह [को०]।
⋙ पंचषष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चषष्टि] पैंसठ की संख्या।
⋙ पंचषष्टि (२)
वि० पैंसठ।
⋙ पंचसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चसन्धि] व्याकरण में संधि के पाँच भेद—स्वर संधि, व्यंजनसंधि, विसर्गसंधि, स्वादिसंधि और प्रकृति भाव। २. रूपक की प्रकृति तथा अवस्थाओं के संमिश्रण से होनेवाली पाँच संधियाँ। से इस प्रकार हैं—मुख प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण (को०)।
⋙ पंचसप्ताति (१)
स्त्री० स्त्री० [सं० पञ्चसप्तति] पचहत्तर की संख्या।
⋙ पंचसप्तति (२)
वि० पचहत्तर।
⋙ पंचसबद पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशब्द] दे० 'पंचशब्द'। उ०—(क) इतने सुभट्ट सजि जूह धार। बजि पंचसबद बाजे करार।— पृ० रा० ८। १५। (ख) पंचसबद धुनि मंगल गाना। पट पावड़े परहिं बिधि नाना।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंचसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशर] कामदेव। दे० 'पंचशर'। उ०— मदन मनोभव पंचसर मयन कुसुमसर मार।—अनेकार्थ०, पृ० १८।
⋙ पंचसर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्च + स्वर या देश०] दे० 'पंचशब्द'। उ०—सुरधर प्रगट थयौ महराजा। बाजै सु सुर पंचसर बाजा। रा० रू० पृ० ३०१।
⋙ पंचसिक
वि० [हिं० पचीस + एक] पचीस। उ०—एक कोट पंचसिक द्वारा पंचे मागहि हाला।—कबीर ग्रं०, पृ० २७३।
⋙ पंचसिद्धांसी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चसिद्धान्ती] ज्योतिष संबंधी सूर्य सिद्धांत आदि पाँच सिद्धांत [को०]।
⋙ पंचसिद्धोषधि
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चसिद्धौषधि] वैद्यक में ये पाँच ओषधियाँ—सालिव मिस्त्री, बराहीकंद, रोदंती, सर्पाक्षी और सरहटी।
⋙ पंचसुगंधक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चसुगन्धक] वैद्यक में ये पाँच सुगंध ओषधियाँ—लौंग, शीतलचीनी, अगर, जायफल, कपूर, अथवा कर्पूर, शीतलचीनी, लौंग, सुपारी और जायफल।
⋙ पंचसूना
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चसूना] मनु के अनुसार पाँच प्रकार की हिंसा जो गृहस्थों से गृहकार्य करने में होती है। वे पाँच काम जिनके करने में छोटे छोटे जीवों की हिंसा होती है। विशेष—वे पाँच काम ये हैं—चूल्हा जलाना, आटा आदि पीसना, झाड़ू देना, कूटना और पानी का घड़ा रखना। इन्हें मनु ने चुल्ली, पेषणी, उपस्कर, कंडनी और उद्कुंभ लिखा है। इन्हीं पाँच प्रकार की हिसाओं के दोषों की निवृत्ति के लिये पंचमहायज्ञों का विधान किया गया है। दे० 'पंचमहायज्ञ'।
⋙ पंचसूरण
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चसूरण] दे० 'पंचशूरण'।
⋙ पंचस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चस्कन्ध] बौद्ध दर्शन में गुणों की समष्टि जिसे स्कंध कहते हैं। विशेष—स्कंध पाँच हैं—ऱूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध संस्कार स्कंध और विज्ञानस्कंध रूपस्कंध का दूसरा नाम वस्तुतन्मात्रा है। इस स्कंध के अनर्गत ४ महाभूत, ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ तन्मात्राएँ, २ लिंग (स्त्री ओर पुरुष), ३ अवस्थाएँ (चेतना, जीवितेंन्द्रिय और आकार), चेष्टा, वाणी, चित्तप्रसादन, स्थितिस्थापन, समता, समष्टि, स्थायित्व, ज्ञेयत्व और परिवर्तनशीलता नामक २५ गुण माने जाते हैं। रूपस्कंध से ही वेदनास्कंध की उत्पत्ति होती है। यह वेदनास्कांध पाँच ज्ञानेंद्रियों और मन के भेद से छह प्रकार का होता है, जिनमें प्रत्येक के रुश्चि, अरुचि, स्पृहशून्यता ये तीन तीन भेद होते हैं। संज्ञास्कंध को अनुमित- तन्मात्रा, भी कहते हैं। इंद्रिय और अतःकरण के अनुसार इसके छह भेद हैं। वेदना होने पर ही संज्ञा होती है। चौथा संस्कारस्कंध है जिसके ५२ भेद हैं—स्पर्श, वेदना, संज्ञा, चेतना, मनसिकार, स्मृति, जीवितोंद्रिय, एकाग्रता, वितर्क, विकार, वीर्य, अधिमोक्ष, प्रीति, चंड, मध्यस्थता, निद्रा, तंद्रा, मोह, प्रज्ञा, लोभ, अलोभ, उत्ताप, अनुताप, ही, अही, दोष, अदोष, विचिकित्सा, श्रद्धा, दृष्टि, द्विविध प्रसिद्धि (शारीर और मानस), लघुता, मृदुता, कर्मज्ञता, प्राज्ञता, उद्योतना, साम्य, करुणा, मुदिता, ईर्षा, मात्सर्य, कार्कश्य, औद्धत्य और मान। पाँचवाँ विज्ञान स्कंध है। हिंदू शास्त्रों में कहे हुए चित्त, आत्मा और विज्ञान इसके अंतर्भूत हैं। इस स्कंध के चेतना के धर्माधर्म भेद से ४९ भेद किए गए हैं। बोद्ध दर्शानों के अनुसार विज्ञानस्कंघ का क्षय होने से ही निर्वाण होता है।
⋙ पंचस्नेह
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चस्नेह] धी, तेल, चरबी, मज्जा और मोम।
⋙ पंचस्रोतस्
संजा पुं० [सं० पञ्चस्त्रोतस्] १. एक तीर्थ का नाम। २. एक यज्ञ।
⋙ पंचस्वेद
स्त्री० पुं० [सं० पञ्चस्वेद] वैद्यक के अनुसार लोष्टस्वेद, बालुकास्वेद, वाष्पस्वेद और ज्वालास्वेद।
⋙ पंचहजारी
संज्ञा पुं० [फा़० पंजहजारी] १. पाँच हजार की सेना का अधिपति। २. एक पदवी जो मुगल साम्राज्य में बड़े बड़े लोगों को मिलती थी।
⋙ पंचांग † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाङ्ग] १. पाँच अंग या पाँच अंगों से युक्त वस्तु। २. वृक्ष के पाँच अंग—जड़, छाल, पत्ती, फूल ओर फल (वैद्यक)। ३. तत्र के अनुसार ये पाँच कर्म—जप, होम, तर्पण, अभिषेक ओर विप्रभोजन जो पुरश्चरण में केए जाते हैं। ४. ज्योतिष के अनुसार वह तिथिपत्र जिसमें किसी संवत् के वार, तिथि, नक्षत्र, योग और करणव्योरेवार दिए गए हों। पत्रा। ५. राजनीतिशास्त्र के अंनर्गत सहाय, साधन, उपाय, देश-काल-भेद और विपद्- प्रतिकार। ७. प्रणाम का एक भेद जिसमें घुटना, हाथ और माथा पृथ्वी पर टेककर आँख देवता की ओर करके मूहँ से प्रणामसूचक शब्द कहा जाता हैं। ७. तांत्रिक उपासना में किसी इष्टदेव का कवच, स्तोत्र, पद्धति, पटल और सहस्र नाम। ८. वह घोड़ा जिसके चारो पैर टाप के पास सफेद हों और माथे पर सफेद टीका हो। पंचभद्र। पंचकल्याण। ९. कच्छप। कछुवा। यौ०—पंचांग मास = पत्रा के अनुसार चलनेवाला महीना। पंचाग वर्ष = संवत्। पंचांग शुद्धि = ज्योतिष में वार, तिथि, नक्षत्र, योग ओर करण की शुद्धता।
⋙ पंचांग (२)
वि० पांच अंगोंवाला [को०]।
⋙ पंचांगिक
वि० [सं० पञ्चाङ्गिक] पांच अंगोंवाला [को०]।
⋙ पंचांगुल (१)
वि० [सं० पञ्चाङ्गुल] [वि० स्त्री० पंचांगुला, पंचांगुली] जो परिमाण में पाँच अगुल का हो या जिनमें पाँच उँगलियाँ हों।
⋙ पंचांगुल (२)
संज्ञा पुं० १. एरंड। रेंड़। अंडी। २. तेजपत्ता। ३. पंजे के आकार का एक उपकरण (को०)।
⋙ पंचांगुलि
वि० [सं० पञ्चाङ्गुलि] पाँच अंगुलियोंवाला [को०]।
⋙ पंचांगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चाङ्गुली] तक्राह्वा नामक क्षुप [को०]।
⋙ पंचांतरीय
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चान्तरीय] बौद्ध मत के अनुसार पाँच प्रकार के पातक-माता, पिता, अर्हत और बुद्ध का घात ओर याजकों के साथ विवाद।
⋙ पचांन पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चानन] सिंह। पंचानन। उ०—भालि वीर वाराह हक्क बज्जी चावाद्दिसि मुक्कि थांन पंचांन मिले संमूह सूर धसि।—पृ० रा०, १७। १।
⋙ पंचांश
संज्ञा [सं० पञ्चांश] पाँचवाँ हिस्सा। पाँचवाँ भाग [को०]।
⋙ पंचाइण पु †
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चानन] सिंह। पंचानन। उ०— पंचाइण नइँ पाखरयउ मइगल नइ मद कीध। मोहण बोली मारुइ कंत पेम रस पीध।—ढोला० दू० ५५४।
⋙ पंचाइत
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंचायत] दे० 'पंचायत'।
⋙ पंचाक्षर (१)
वि० [सं० पञ्चाक्षर] जिसमें पाँच अक्षर हों। जैसे, पंचाक्षर मंत्र, पंचाक्षर शब्द, पंचाक्षर वृत्ति।
⋙ पंचाक्षर (२)
संज्ञा पुं० १. प्रतिष्ठा नामक वृत्ति जिसमें पाँच अक्षर होते हैं। २. शिव का एक मंत्र जिसमें पाँच अक्षर हैं— ऊँ नमः शिवाय।
⋙ पंचाग्नि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चाचाग्नि] १. अन्वाहार्य पचन, गार्हपत्य, आहवनीय, आवसथ्य ओर सभ्य नाम की पाँच अग्नियाँ। २. छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार सूर्य, पर्जन्य, पृथिवी, पुरुष ओर योषित्। यौ०—पंचाग्नि विधा = छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार सूर्य, बादल, पृथ्वी, पुरुष और स्त्री संबंधी तात्विक विज्ञान। ३. एक प्रकार का तप जिसमें तप करनेवाला अपने चोरो और अग्नि जलाकर दिन में धूप में बैठा रहता है। यह तप प्रायः ग्रीष्म ऋतु में किया जाता है। ४. आयुर्वेद के अनुसार चीता चिचड़ी, भिलावाँ, गंधक और मंदार नामक ओषधियाँ जो बहुत गरम मानी जाती है।
⋙ पंचाग्नि (२)
वि० १. पंचाग्नि की उपासना करनेवाला। २. पंचाग्नि विद्या जानेवाला। ३. पंचाग्नि तापनेवाला।
⋙ पंचाज
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाज] बकरी से प्राप्त होनेवाला पाँच पदार्थ—दूध दही, घी, पुरीष (लेंड़ी) और मूत्र [को०]।
⋙ पंचातप
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चातप] चारो ओर आग जलाकर ग्रीष्मऋतु में बैठकर तप करना। पंचाग्नि।
⋙ पंचातिग
वि० [सं० पञ्चातिग] मुक्त [को०]।
⋙ पंचात्कोप
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चात्कोप] कौटिल्य के अनुसार राजा के विजय के लिये आगे वढ़ने पर राज्य में विद्रोह फैलाना।
⋙ पंचात्मक
वि० [सं० पञ्चात्मक] जिसमें पाँच तत्व हों। पाँच तत्वों से युक्त, जैसे शरीर [को०]।
⋙ पंचात्मा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चात्मन्] पंचप्राण।
⋙ पंचानन (१)
वि० [सं० पञ्चानन] जिसके पाँच मुँह हों। पंचमुखी।
⋙ पंचानन (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। २. सिंह। उ०—सबै सेन अवसान मुक्कि लग्यो बर तामस। तब पंचानन हक्कि धक्कि चहुआना पामिस।—पृ० रा० १७। ८। विशेष—(१) सिंह को पंचानन कहने का कारण लोग दो प्रकार से बतलाने हैं। कुछ लोग तो पाँच शब्द का अर्थ विस्तृत करके पंचानन का अर्थ 'चौड़े मुँहवाला' (पंचं विस्तृतं आननं यस्य) करते हैं। कुछ लोग चारों पंजों को जोड़कर पाँच मुँह गिना देते हैं। (२) विषय और अध्ययन की दृष्टि से सर्वोच्चता एवं गुरुत्व तथा श्रेष्ठता का बोध कराने के लिये इस शब्द का प्रयोग नाम आदि के साथ भी होता है। जैसे, न्यायपंचानन, तर्कपंचानन। ३. संगीत में स्वरसाधन की एक प्रणाली। आरोही—सा रे ग म प। रे ग म प ध। ग म प ध नि म प ध नि सा। अवरोही—सा नि ध प म। नि ध प म ग। ध प म ग रे। प म ग रे सा। ४. ज्योतिष में सिंह राशि (को०)। ५. वह रुद्राक्ष जिसमें पाँच रेखाएँ हों (को०)।
⋙ पंचाननी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चाननी] १. दुर्गा। २. सिंह की मादा। शेरनी (को०)।
⋙ पंचानबे
वि० [सं० पञ्चनवति, पा० पंचनवइ] नब्बे और पाँच। पाँच कम सौ।
⋙ पंचानबे (२)
संज्ञा पुं० नव्बे से पाँच अधिक की संख्या या जो इस प्रकार लिखा जाता है—९५।
⋙ पंचाप्सर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाप्सरस्] रामायण और पुराणों के अनुसार दक्षिण में पंपा नामक तालाब जहाँ शातकर्णि मुनि तप करते थे। इनके तप से भय इंद्र ने इनको तपसे च्युत करने के लिये पाँच अप्सराएँ भेजी थीं। रामायण में शातकर्णि को मांडकर्णि लिखा है। पंपासर।
⋙ पंचामरा
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चामरा] वैद्यक में दूर्वा, विजया, विल्व- पत्र, निर्गुंडी और काली तुलसी।
⋙ पचामृत (१)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चामृत] १. एक प्रकार का स्वादिष्ट पेय द्रव्य जो दूध, दही, घी, चीनी और मधु मिलाकर बनाया जाता है। पुराण, तंत्रादि के अनुसार यह देवताओं को स्नान कराने और चढ़ाने के काम में आता है। २. वैद्यक में पाँच गुणकारी ओषधियाँ—गिलोय, गोखरू, मुसली, गोरखमुंडी और शतावरी।
⋙ पंचामृत (२)
वि० पाँच वस्तुओं के योग से निर्मित [को०]।
⋙ पंचाम्नाय
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाम्नाय] तंत्र में वे पाँच शास्त्र जो शिव के पाँच मुखों से उत्पन्न माने जाते हैं [को०]।
⋙ पंचाम्र
पुं० [सं० पञ्चाम्र] अश्वत्थ आदि पाँच वृक्ष [को०]।
⋙ पंचाम्ल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाम्ल] वैद्यक में ये पाँच अम्ल या खट्टे पदार्थ—अम्लवेद, इमली, जँभीरी नीबू, कागदी नीबू और बिजौरा। मतांतर से—बेर, अनार, विषावलि, अम्लवेद और बिजौरा नींबू।
⋙ पंचायत
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चायतन] १. किसी विवाद, झगड़े या और किसी मामले पर विचार करने के लिये अधिकारियों या चुने लोगों का समाज। पंचों की बैठक या सभा। कमेटी। जैसे—(क) बिरादरी की पंचायत। (ख) उन्होंने अदालत में न जाकर पंचायत से निपटारा कराना हि ठीक समझा। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठना।—बटोरना। २. बहुत से लोगों का एकत्र होकर किसी मामले या झगड़े पर विचार। पंचों का वाद विवाद। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—पंचायत घर = वह स्थान जहाँ समाज के लोग पंचों के साथ बैठकर किसी मामले के संबँध में निर्णय करते हैं। ३. एक साथ बहुत से लोगों की बकवाद।
⋙ पंचायतन
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चायतन] [स्त्री० पंचायतनी] पाँच देवताओं की प्रतिमा। वह स्थान जहाँ पंचदेव की प्रतिमाएँ हों [को०]।
⋙ पंचायती
वि० [हिं० पंचायत] १. पंचायत का किया हुआ। पंचायत का। २. पंचायत संबंधी। ३. बहुत से लोगों का मिला जुला। साझे का। जिसपर किसी एक आदमी का अधिकार न हो। जो कई लोगों का हो। जैसे,—पचायती अखाड़ा। ४. सब पंचों का। सर्वसाधारण का। यौ०—पंचायती राज = जनता का राज्य। बहुत से लोगों का मिला जुला शासन। जनतंत्र।
⋙ पंचारी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चारी] चौसर, शतरंज आदि की बिसात [को०]।
⋙ पंचार्चि
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चार्चिस्] बुध ग्रह [को०]।
⋙ पंचाल
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाल] १. एक देश का प्राचीन नाम जो ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रंथों से लेकर पुराणों तक में पाया जाता है। विशेष—इस देश की सीमा भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न रही है। यह देश हिमालय और चंबल के बीच गंगा नदी के दोनों ओर माना जाता था। गंगा के उत्तर प्रदेश को उत्तर पंचाल और दक्षिण प्रदेश को दक्षिण पंचाल कहते थे। इस देश को देवपंचाल से भिन्न समभना चाहिए जो सौराष्ट्र देश का एक भाग था। इस देश का पंचाल नाम पड़ने के संबंध में पुराणों में यह कथा है : महाराज महाराज हर्यश्व अपने भाई से लड़कर अपनी ससुराल मधुपुरी चले गए और अपने ससुर मधु की सहायता से उन्होंने अयोध्या के पश्चिम के देशों पर अधिकार कर लिया। जब लोगों ने आकर उनसे अयोध्या के राजा के आक्रमण की बात कही तब उन्होंने पाँच पुत्रों (मुदराण, सृंजय, बृहदिषु, प्रवीर और कांपिल्य) की और देखकर कहा की ये पाँचो हमारे राज्य की रक्षा के लिये अलम् (पंचालम्) हैं। तभी से उनके अधिकृत देश का नाम पंचाल पड़ा। हरिवंश में लिखा है कि हर्यश्व ने सौराष्ट्रे देश में आनर्तपुर नामक नगर बसाया था। इसी अधार पर कुछ लोग देवपंचाल को ही पंचाल कहते हैं। पर महाभारत में हिमालय के अंचल से लेकर चंबल तक फैले हुए गंगा के उभयपार्श्वस्थ देश का ही वर्णन पंचाल के अंतर्गत आया है। पांडवों के समय में इस देश का राजा द्रुपद था जिससे द्रोणाचार्य ने उत्तरपंचाल छीन लिया था। महाभारत में उत्तरपंचाल की राजधानी अहिच्छत्रपुर और दक्षिण की कंपिल लिखी है। द्रोपदी यहीं के राजा की कन्या होने के कारण 'पांचाली' कही गई है। २. [स्त्री० पंचाली] पंचाल देशवासी। ३. पंचाल देश का राजा। ४. एक ऋषि जो वाभ्रव्य गोत्र के थे। ५. महादेव। शिव। ६. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण (/?/) होता है। ७. दक्षिण देश की एक जाति। इस जाति के लोग बढ़ई और लोहार का काम करते हैं और अपने को विश्वकर्मा के वंश का बतलाते हैं। ये जनेऊ पहनते हैं। ८. एक सर्प का नाम। ९. एक विषैला कीड़ा।
⋙ पंचालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चालिका] १. पुतली। गुड़िया २. नटी। नर्तकी। उ०—नचति मंच पंचालिका कर संकलित अपार।—केशव (शब्द०)।
⋙ पंचालिस †
वि० [हिं० पंच + चालिस] दे० 'पैंतालिस'।
⋙ पंचालिष्ठ
विं [?] दे० 'पैंतालिस'।
⋙ पंचाली
संझा स्त्री० [सं० पञ्चाली] १. पुतली। गुड़िया। २. पांचाली। द्रोपदी। ३. एक प्रकार का गीत। पांचाली। ४. चौसर की बीसात। पंचारी :
⋙ पंचावयव
वि० [सं० पञ्चावस्थ] पाँचवीं अवयव अर्थात् अंगोंवाला [को०]।
⋙ पंचावस्थ (१)
वि० [सं० पञ्चावस्थ] पाँचवीं अवस्था में पहुँचा हुआ अर्थात् मृत।
⋙ पंचावस्थ (२)
संज्ञा पुं० पंचत्व। शव। मुर्दा [को०]।
⋙ पंचाविक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाविक] भेड़ से प्राप्त होनेवाले पाँच पदार्थ—दूध, दही, घी, पुरीष और मूत्र [को०]।
⋙ पंचावी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चावी] वह गाय जिसके तले ढाई वर्ष का बच्चा हो।
⋙ पंचाश
वि० [सं० पञ्चाश] पचासवाँ।
⋙ पंचाशत्
वि० [सं० पञ्चाशत्] पचास।
⋙ पंचाशिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चाशिका] १. वह पुस्तक जिसमें पचास श्लोक कवित्त आदि हो। जैसे, चौरपंचाशिका। २. पचास का समूह (कौ०)।
⋙ पंचाशीत
वि० [सं० पञ्चाशीत] पच्चासीवाँ।
⋙ पंचाशीति
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चाशीति] पच्चासी की संख्या।
⋙ पंचास
वि० [सं० पञ्चाश] दे० 'पचास'। उ० प्रसन चंद सम जतिय दिन्न इक मंत्र इष्ट जिय। इह आराधत भट्ट प्रगट पंचास बीर वीय।—पृ० राठ, ६। २६।
⋙ पंचास्य (१)
वि० [सं० पञ्चास्य] पाँच मुँहवाला।
⋙ पंचास्य (२)
संज्ञा पुं० १. सिंह। विशेस-दे० 'पंचानन'। २. शिव।
⋙ पंचाह
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चाह] १. एक यज्ञ का नाम जो पाँच दिन में होता था। २. सोमयाग के अंतर्गत वह कृत्य जो सुत्या के पाँच दिनों में किया जाता है।
⋙ पंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चिका] पाँच अध्यायों वा खंडों का समूह। २. एक प्रकार का जूआ जो पाँच गोटियों से खेला जाता है (को०)। ३. रजिस्टर। खाता। वही। लेखा (को०)।
⋙ पंचीकरण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चीकरण] वेदांत में पंचभूतों का विभाग विशेष। विशेष—वेदांतसार के अनुसार प्रत्येक स्थूल भूत में शेष चार भूतों के अंश भी वर्तमान रहते हैं। भूतों की यह स्थूल स्थिति पंचीकरण द्वारा होती हैं जो इस प्रकार होता है। पांचों भूतों को पहले दो बराबर बराबर भागों में विभक्त किया, फिर प्रत्येक के प्रथमार्द्ध को चार चार भागों में बाँटा। फिर इन सब बीसों को लेकर अलग रक्खा। अंत में एक एक भूत के द्वितीयार्ध में इन बीस भागों में से चार चार भाग फिर से इस प्रकार रक्खे कि जिस भूत का द्वितियार्ध हो उसके अतिरिक्त शेष चार भूतों का एक एक भाग उसमें आ जाय।
⋙ पंचीकृत
वि० [सं० पञ्चीकृत] (भूत) जिसका पंचीकरण हुआ हो।
⋙ पंचूरा
संजा पुं० [हिं० पानी + चूना] लड़कों के खेलने का मिट्टी का एक बरतन या खिलौना जिसके पेंदे में वहुत से छेद होते हैं। पानी भरने से वह छेदों में से होकर टपकने लगता हैं।
⋙ पंचेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चेन्द्रिय] पाँच ज्ञानेंद्रियाँ जिसके द्वारा प्राणियों को बाह्य जगत् का ज्ञान होता हैं। दें० 'इंन्द्रिय'।
⋙ पंचेषु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चेषु] कामदेव (जिसके पाँच इषु या शर हैं)।
⋙ पंचो
संज्ञा पुं० [देश०] गुल्ली डंडे के खेस में डंडे से गुल्ली को मारकर दूर फेंकने का एक ढंग। इसमें गुल्ली को बाएँ हाथ से उछालकर दाहिने हाथ से मारते हैं।
⋙ पंचोपचार
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चोपचार] पूजा में प्रयुक्त होनेवाले या साधन रूप पाँच द्रव्य। गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य—ये पाँच देवपूजन में प्रयुक्त होनेवाले पदार्थ [को०]।
⋙ पंचोपविष
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चोपविष] हड़, मदार, कनेर, जल- पीपल और कुचला—ये पाँच कृत्रिम और सामान्य विष [को०]।
⋙ पंचोषण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चोषण] पिपली, पिपलीमूल, चव्य, मिर्च और चित्रक नामक पाँच ओषधियाँ।
⋙ पंचोष्मा
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चोष्मन्] शरीर के भीतर, भोजन पचानेवाली पाँच प्रकार की अग्नि।
⋙ पंचौदन
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चौदन] एक यज्ञ का नाम।
⋙ पंचौबान पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवाण] पंचवाण। कामदेव। उ०— पंचगानि कहा साधै पंचौबान हमैं दाधै हरै बेदरद होय अग्नि माँझ धर दै।—ब्रज० यं०, पृ० १३२।
⋙ पंचौली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्च + आवलि] एक पौधा जो पश्चिम भारत, मध्यप्रदेश, बंबई और बरार में मिलता है। पंचपात। पंचपानड़ी। विशेष—इसकी पत्तियों और डंठलों से एक प्रकार का सुगंधित तेल निकलता है जिसका व्यवहार यूरोप के देशों में होता है। इसकी खेती पान के भीटों में की जाती है। पौधे दो दो फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं। एक बार के लगाए हुए पौधों से दो बार छह छह महीने पर फसल काटी जाती हैं। दूसरी फसल कट जाने पर पौधे खोदकर फेंक दिए जाते हैं। डंठल सूख जाने पर बड़े बड़े गट्ठों में बाँधकर बिक्री के लिये भेज दिए जाते हैं। इन डंठलों से भबके द्वारा तेल निकाला जाता हैं। ६६ सेर लकड़ी से लगभग बारह से पंद्रह सेर तक तेल निकलता है। यूरोप में इस तेल का व्यवहार सुगंध द्रव्य की भाँति होता है। इसे 'पंचपात' और 'पंचपानड़ी' भी कहते हैं।
⋙ पंचौली (२)
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चकुल, पञ्चकुली] वंशपरंपरा से चली आती हुई एक उपाधि। विशेष—प्राचीन समय में किसी नगर या गाँव में व्यवस्था रखने और छोटे मोटे झगड़ों को निपटाने के लिये पाँच प्रतिष्ठित कुल के लोग चुन जाते थे जो 'पंच' कहलाते थे।
⋙ पंछा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + छाल] १. पानी की तरह का एक स्राव जो प्राणियों के शरीर से या पेड़ पौधों के अंगों से चोट लगने पर या यों ही निकलता है। २. छाले, फफोले, चेचक आदि के भीतर भरा हुआ पानी।
⋙ पंछाला
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + छाला] १. फफोला। २. फफोले का पानी। उ०—केतकी ने कहा काँटा अड़ा तो अड़ा और छाला पड़ा तो पड़ा पुर निगोड़ो तू क्यों पंछाला हुई।—इनशा० (शब्द०)।
⋙ पंछिराज पु
संज्ञा पुं० [सं० पक्षिराज] दे० 'पक्षिराज'।
⋙ पंछी
संज्ञा पुं० [सं० पक्षी] चिड़िया। पक्षी। उ०—भई यह साँझ सबन सुखदाई। मानिक गोलक सम दिनमणि मनु संपुट दियो छिपाई। अलसानि दृग मूँदि मूँदि कै कमल लता मन भाई। पंछी निज निज चले बसेरन गावत काम बधाई।— हरिश्चंद्र (शब्द०)।
⋙ पंज
वि० [फ़ा०] पाँच [को०]। यौ०—पंचआयत। पंचगंज। पंचगूना = पँचगुना। पंजगोशा = पंचकोण युक्त। पँचकोना। पंजतन। पंजनोश। पंजहजारी।
⋙ पंजआयत
संज्ञा स्त्री० [फा़०] कुरान की पाँच छोटी छोटी आयतें जो प्रायः गमी या फातिहे के समय पढ़ी जाती हैं [को०]।
⋙ पंजगंज
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पाँचेंद्रिय समूह। पाँच इंद्रियाँ [को०]।
⋙ पंजतन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पाँच व्यक्ति।
⋙ पंजनोश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. मंडूर, लौह, ताँबा, अभ्रक और पारद का रासायनिक मिश्रण। २. लोहे का मैल। मंडूर [को०]।
⋙ पंजर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जर] १. शरीर का वह कड़ा भाग जो अणुजीवों तथा बिना रीढ़ के और क्षुद्र जीवों में कोश या आवरण आदि के रूप में ऊपर होता है और रीढ़वाले जीवों में कड़ी हड्डियों के ढाँचे के रूप में भीतर होता है। हड्डियों का ठट्टर या ढाँचा जो शरीर के कोमल भागों को अपने ऊपर ठहराए रहता है अथवा बंद या रक्षित रखता है। ठठरी। अस्थिसमुदाय। कंकाल। २. पसलियों से बना हुआ परदा। ऊपरी धड़ (छाती) का हड्डियों का घेरा। पार्श्व, वक्षस्थल आदि की अस्थिपंक्ति। उ०—जान जान कीने जो तैं नेहिन ऊपर वार। भरे जो नैन कटाच्छ के खंजर पंजरफार।— रसनिधि (शव्द०)। ३. शरीर। देह। ४. पिंजड़ा। उ०— पंजर भग्न हुआ, पर पक्षी अब भी अटक रहा है आर्ष।— साकेत, पृ० ३९६। यौ०—पंजरशुक = पालतू तोता। पालतू सुग्गा। पिंजड़े में पालित सुग्गा। ५. गाय का एक संस्कार। ६. कलियुग। ७. कोल कंद।
⋙ पंजरक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जरक] १. खाँचा। झाबा। बेंत या लचीले डंठलों आदि का बुना हुआ बड़ा टोकरा। २. पिंजरा। पिंजर (को०)।
⋙ पंजरना पु
क्रि० अ० [सं० प्रज्ज्वल] दे० 'पजरना'।
⋙ पंजराखेट
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जराखेट] एक प्रकार का झाबा या जाल जो मछली पकड़ने में काम आता है [को०]।
⋙ पंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जर (= ठठरी)] अर्थी। टिकठी।
⋙ पंजरोजा
वि० [फ़ा० पंजरोजह्] पाँच दिनों का। चंद दिनों का। अस्थायी [को०]।
⋙ पंजवी पु
वि० [सं० पञ्चमी] पाँच की संख्यावाली। पाँचवीं। उ०—पंजवी नाड़ि इंद्री की करी। नानक किसै विरले सोझी परी।—प्राण०, पृ० १६।
⋙ पंजशाखा
संज्ञा पुं० [अ० पंजशाखह्] एक तरह की मशाल। एक तरह की बैठकी (दीपाधार) जिसमें पाँच शाखाओं पर दीप या मोमबत्ती जलाई जाती है। दे० 'पनसाखा' [को०]।
⋙ पंजहजारी
संज्ञा पुं० [फा़० पंजहज़ारी] एक उपाधि जो मुसलमान राजाओं के समय में सरदारें और दरबारियों को मिलती थी। ऐसे लोग या तो पाँच हजार सेना रख सकते थे अथवा पाचँ हजार सेना के नायक बनाए जाते थे।
⋙ पंजा
संज्ञा पुं० [फा़० पंजह् तुलनीय वि० सं० पंचक] १. पाँच का समूह। गाही। जैसे, चार पंजे आम। २. हाथ या पैर की पाँचों उँगलियों का समूह, साधारणतः हथेली के साहित हाथ की और तलवे के अगले भाग के साहित पैर की पाँचों उँगलियाँ। जैसे, हाथ या पैर का पंजा, बिल्ली या शेर का पंजा। मुहा०—पंजा फेरना या मोड़ना = पंजा लड़ाने में दूसरे का पंजा मरोड़ देना। पंजे की लड़ाई में जीतना। पंजा फैलाना या बढ़ाना = लेने या अधिकार में करने के लिये हाथ बढ़ाना। हथियाने का डौल करना। लेने का उद्योग करना। पंच मारना = लेने के लिये हाथ लपकाना। झपाटा मारना। पंजे झाड़कर पीछे पड़ना या चिमटना = हाथ धोकर पीछे पड़ना। जी जान से लगना या तत्पर होना। सिर हो जाना। पंजे में = (१) पकड़ में। मुट्ठी में। ग्रहण में। जैस, पंजे में आया हुआ शिकार। (२) अधिकार में। कब्जे में। वश में। ऐसी स्थिति में जिसमें जो चाहे किया जा सके। जैसे,—अब तो तुम हमारे पंजे में फँस गए (या आ गए) हो; अब कहाँ जाते हो ? पंजे में कर लेना = अधिकार में कर लेना। उ० —हित ललक से भरी लगावट ने, कर लिया है किसे न पंजे में।—चोखे०, पृ० २०। पंजे, से = पकड़ से। मुट्ठी से। अधिकार से। कब्जे से। जैसे, पंजे से छूटना, पंजे सें निकलना। पंजा लड़ाना = एक प्रकार की कसरत या बलपरीक्षा जिसमें दो आदमी एक दूसरे की उँगलियाँ फँसाकर मरोड़ने का प्रयत्न करते हैं। उ०—भैरवो मेरो तेरी झंझा। तभी बजेगी मृत्यु लड़ाएगी जब तुझसे पंजा।—अपरा, पृ० २३३। पंजा लेना = पंजा लड़ाना। पंजों के बल चलना = बहुत ऊँचा होकर चलना। ईतराना। गर्व करना। जमीन पर पैर ना रखना। ३. पंजा लड़ाने की कसरत या बलपरीक्षा। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—पंजा ले जाना = पंजा लड़ाने में जीत जाना। दूसरे का पंजा मरोड़ देना। ४. उँगलियों के सहित हथेली का संपुट। चंगुल। जैसे, पंजा भर आटा। ५. जूते का अगला भाग जिसमें उँगलियाँ रहती हैं। जैसे,—इस जूते का पंजा दबाता है। ६. बैल या भैंस की पसली की चौड़ी हड्डी जिससे भंगी मैला उठाते हैं। ७. पंजे के आकार का बना हुआ पीठ खुजलाने का एक औजार। ८. मनुष्य के पंजे के आकार का कटा हुआ टीना या और किसी धातु की चद्दर का टुकड़ा जिसे लंबे बाँस आदि में बाँधकर झंडे या निशान की तरह ताजिए के साथ लेकर चलते हैं। ९. पुट्ठे के ऊपर का (चिक या कसाई)।१०. ताश का वह पत्ता जिसमें पाँच चिह्न या बूटियाँ हो। जैसे, इँट का पंजा। ११. जुए का दाँव जिसे नककी भी कहते हैं। मुहा०—छक्का पंजा = दाँव पेंच। चालबाजी। उ० —नीकी चाल काहू की सिखाई जो न मानै औन जानै भली भाँति चलिबे को व्यवहार है। छक्का पंजा बंद कामादिक कै ना चूकै सौन जीवन के रंग बदरंग को प्रचार है।—चरण चंद्रिका (शब्द०)।
⋙ पंजातोड़ बैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंजा + तोड़ना + बैठक] कुश्ती का एक पेंच जिसमें सलामी का हाथ मिलाते हुए जोड़ के पंजे को तिरछा लेते हैं, फिर अपनी कुहनी उसके पेट के नीचे रख पकड़े हुए हाथ को अपनी गर्दन या कंधे पर से ले जाकर बगल में दबाते हैं और झटके साथ खींचकर जोड़ को चित गिराते हैं।
⋙ पंजाब
संज्ञा पुं० [फा़०] [वि० पंजाबी] भारत के उत्तरपश्चिम का प्रदेश जहाँ सतलज, व्यास, रावी, चनाब और झेलम नाम की पाँच नदियाँ बहती हैं। विशेष—प्रचानी ग्रंथों में इसका नाम पंचनद आया है। विद्वानों की धारणा है कि ऋग्वेद में जिस सप्तसिधु का उल्लेख है वह यदी प्रदेश है। उसमें अंशुमती, अंजसी, अनितभा, अशमन्वती असिक्नी, ककुभा (काबुल नदी), क्रमु, शुतुद्री, वितस्ता, शिफा, शर्यणावती, सरस्वती, सुवास्तु (स्वात) इत्यादि जिन बहुत सी नदियों का उल्लेख है वे प्रायः सब पंजाव की ही हैं। सरस्वती के किनारे का सारस्वती प्रदेश वैदिक काल में बहुत पुनीत माना जाता था और वहाँ अनेक बड़े बड़े यज्ञ हुए हैं। मनुसंहिता का ब्रह्मर्षि देश भी पंजाब के दी अंतर्गत था। महाभारत में आए हुए मद्र, आरट्ट, सिंधु, गंधार आदि देश पंजाब में पड़ते थे। महाभारत में मद्र देश के वासियों का आचार व्यवहार निंदित कहा गया है।
⋙ पंजाबल
संज्ञा पुं० [हिं० पंजा + बल] पालकी के कहारों की बोली, यह सूचित करने के लिय कि आगे की भूमि ऊँची है। विशेष—यह वाक्य अगले कहार पिछले कहारों की सूचना के लिये बोलते हैं।
⋙ पंजाबी (१)
वि० [फा़०] पंजाब संबंधी। पंजाब का। जैसे, पंजाबी घोड़ा, पंजाबी भाषा, पंजाबी जूता।
⋙ पंजाबी (२)
संज्ञा पुं० [ स्त्री० पजाबिन] पंजाब का रहनेवाला। पंजाब निवासी।
⋙ पंजारा
संज्ञा पुं० [ सं० पिञ्जा (= रूई) अथवा पिञ्जकार] १. रुई से सूत कातनेवाल। २. रुई धुलेवाला। धुनिया।
⋙ पंजाह
वि० [फा़० तुल सं० पञ्चाशत्] पचास [को०]।
⋙ पंजि
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जि] १. रुई की पिउनी या गोल पहल जिसे हाथ में लेकर काता जाता है। २. आलेख। बही। रजिस्टर। ३. पंचांग। पत्रा। जंत्री [को०]। यौ०—पंजिकार। पंजिकारक।
⋙ पंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जिका] १. पंचांग। २. शब्दशः व्याख्या करनेवाली टीका। विस्तृत टीका। ३. बही खाता (को०)। ४. यम का वह खाता जिसमें प्राणी के कर्मों का लेखा रहता हे (को०)। ५. पूनी। पिउनी (को०)।
⋙ पंजिकारक
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जिकारक] १. पंचांगनिर्माता। २. लेखक। बहीखाता लिखनेवाला। ३. एक जाति। कायस्थ [को०]।
⋙ पंजी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जी] दे० 'पंजि'।
⋙ पंजीकरण
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जीकरण] १. लेख आदि का बही या रजिस्टर पर लिखा जाना। २. रजिस्टर होना। रजिस्टर में लिखकर पक्का करना।
⋙ पंजीकार
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जीकार] १. पंजी या बही लिखनेवाला व्यक्ति। लेखक। मुनीम। २. पंचांग का निर्माता। ज्योतिषी।
⋙ पंजीरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + जीरा] एक प्रकार की मिठाई जो आँटे को घी में भूनकर उसमें धनिया, सोंठ, जीरा आदि मिलाकर बनाई जाता है। विशेष—इसका व्यवहार विशेषतः नैबेद्य में होता है। जन्माष्टमी के उत्सव तथा सत्यनारायण की कथा में पंजीरी का प्रसाद बँटता है। पंजीरी प्रसूता स्त्री कि लिये भी बनती है ओर पठावे में भी भेजी जाती है।
⋙ पंजीरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिण का एक पौधा जो मालाबार, मैसूर तथा उत्तरी सरकार में होता है ओर ओषधि के काम में आता है। यह उत्तेजक, स्वेदकारक और कफानाशक होता है। जुकाम या सर्दी में इसकी पत्तियों ओर डंठलों का काढ़ा दिया जाता है। संस्कृत में इसे इंदुहर्णी ओर अजपाद कहते हैं।
⋙ पंजुम
वि० [फा०] पंचम। पाँचवाँ। उ०—पंजुम ख्वाब देखा जो है इक शहर। मर्द जन वहाँ की रहे घर ब घर।—दक्खिनी०, पु० ३०१।
⋙ पंटलि पु †
संज्ञा पुं० [सं० पटल] आवरण। पद। उ०—परगृह जाय न देखे चंचलि। गुरुमुखि त्यागे माया पंटलि।— प्राण०, पृ० ११।
⋙ पंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० पणड़] १. नपुंसक। हिंजड़ा। २. वह (पेड़) जिसमें फल न लगे।
⋙ पंड़ पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डव] दे० 'पाडंव'। उ०—सँग्राम पंड कैरवे' कि खंड बांण सोणियं। रा० रू० पृ० ६०।
⋙ पंड (३)
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड़] दे० 'पिड'। उ०—वसै अपंडी पंड में ता गति लषै न कोइ।—कबीर ग्रं०, पृ० १८।
⋙ पंडक
संज्ञा पुं० [सं० पण्डक] दे० 'पंड़'।
⋙ पंडग
संज्ञा पुं० [सं० पण्डग] खोजा। नपुंसक।
⋙ पंडरा
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + ढरना (ढरा)] परनाला। पनाला। नाबदान।
⋙ पंडल (१)
वि० [सं० पाण्डुर] पांड़ु वर्ण का। पीला। उ०—(क) लोने मुख पंडल पै मंडल प्रकाश देव, जैसे चंद्र मंडल पै चंदन चढ़ाइयतु।—देव (शब्द०)।
⋙ पंडल (२)
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड, हिं० पंड + ल] पिंड। शरीर। उ०—(क) आसा एकहि नाम की जुग जुग पुरवै आस। ज्यों पंडल कोरी रहै बसे जो चंदन पास।—कबीर (शब्द०)। (ख) पंडल पिंजर मन भँबर अरथ अनूपम बास। एक नाम सींचा अमी फल लागा विश्वास।—कबीर (शब्द०)।
⋙ पंडव, पंडवा
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डव] दे० 'पांडव'।
⋙ पंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पण्डित] [स्त्री० पंडाइन] १. किसी तीर्थ या मंदिर का पुरोहित या पुजारी। तीर्थ पुरोहित। मंदिर का पुजारी। घाटिया। पुजारी। उ०—माया महा ठगिन हम जानी। तिर्गुन फाँस लिए कर डोलै बोलै मधुरी बानी। केशव के कमला ह्वै बैठी शिव के भई भवानी। पंडा के भूरति ह्वै बैठी तीरथ में भई पानी।—कबीर (शब्द०)। २. रोटी बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया।
⋙ पंडा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्डा] १. विवेकात्मिका बुद्धि। विवेक। ज्ञान। बृद्धि। २. शास्त्रज्ञान।
⋙ पंडाइन
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंडा] १. पंडा की स्त्री। २. रसोइया की स्त्री या रसोई बनानेवाली औरत।
⋙ पंडापूर्व
संज्ञा पुं० [सं० पण्ड़ापूर्व] मीमांसा शास्त्रानुसार वह धर्मा- धर्मात्मक अदृष्ट जो अपने कर्म का फल देने में अयोग्य हो। विशेष—मीमांसा का मत है कि प्रत्येक कर्म के करते ही, चाहे वह अधर्म हो या धर्म एक अदृष्ट उत्पन्न होता है। इस अदृष्ट में अपने कर्म के शुभाशुभ फल देने की योग्यता होती है। पर कितने कर्मों के शुभाशुभ फल तो मिलते हैं और उनके फलों के मिलने का वर्णन अर्थवाद वाक्यों में भी हैं पर कितने ऐसे भी कर्म हैं जिनका फल नहीं मिलता। ऐसे कर्मों की विधि तो शास्त्रों में है पर उनका अर्थवाद नहीं है। इस प्रकार के कर्मों के करने से जो अदृष्ट उपन्न होता है 'पंडापूर्व' कहते हैं। मीमांसकों का मत है के ऐसे अदृष्टों में स्पष्ट फल देने की योग्यता नहीं होती पर वे पाप और पुण्य का क्षय करते हैं। नैयायिक इस प्रकार के अदृष्ट को नहीं मानते।
⋙ पंडाल
संज्ञा पुं० [अं०] किसी भारी समारोह के लिये बनाया हुआ विस्तृत मंडप। जैसे, संमेलन का पंडाल। कांग्रेस का पंडाल।
⋙ पंडावत
वि० [सं० पण्डावत] बुद्धिमान या पढ़ा लिखा [को०]।
⋙ पंडित (१)
वि० [वि० स्त्री० पण्डित] [पंडिता, पंड़िताइन पंडितानी] १. विद्धान्। शास्त्रज्ञ। ज्ञानी। विशेष—लोक में 'पंडित' शब्द का प्रयोग पढ़े लिखे ब्राह्मणों ही के लिये होता है। शिष्टाचार में ब्राह्मणों के नाम के पहले यह शब्द रखा जाता है। २. कुशल। प्रवीण। चतुर। ३. संस्कृत भाषा का विद्वान्।
⋙ पंडित (२)
संज्ञा पुं० १. पढ़ा लिखा शास्त्रज्ञ ब्राह्मण। २. वह जो सदमद् के विवेकज्ञान से युक्त हो। शास्त्रज्ञ विद्वान्। ३. ब्राह्मण। ४. एक प्रकार का गंधद्रव्य। सिह्लक (को०)।
⋙ पंडितक (१)
संज्ञा पुं० [सं० पण्डितक] १. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। २. विद्वान व्यक्ति (को०)।
⋙ पंडितक (२)
वि० शास्त्रज। विद्वान्। शिक्षित [को०]।
⋙ पंडितजातीय
वि० [सं० पण्डितजातीय] अल्प चतुर। कुछ कुशल [को०]।
⋙ पंडितमंडल
संज्ञा पुं० [सं० पण्डितमंण्डल] [स्त्री० पंण्डितमंडली] पंडितों की गोष्ठी। विद्वानों की मंडली [को०]।
⋙ पंडितमानिक
वि० [पंडितमानिक] दे० 'पंडीतम्मन्य' [को०]।
⋙ पंडितमानी
वि० [सं० पंण्डितमानिन्] दे० 'पंडितम्मन्य' [को०]।
⋙ पंडितम्मन्य
वि० [सं० पण्डितम्मन्य] अपने को विद्वान् माननेवाला। पंडित्याभिमानी। मूर्ख।
⋙ पंडितराज
संज्ञा पुं० [सं० पण्डितराज] १. प्रकांड विद्वान्। बहुत बड़ा पंडित। २. संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'रसगंगाधर' के रचयिता विद्वान् जगन्नाथ की उपाधि [को०]।
⋙ पंडितवादी
वि० [सं० पण्डितवादिन्] पंडित होने का स्वाँग या ढोंग करनेवाला [को०]।
⋙ पंडिता
वि० स्त्री० [सं० पण्डिता] विदुषी। उ०—तू तो आप बड़ी पंडिता है, मैं तुझे क्या समझाऊँगी।—भारतेदु ग्रं० भा० १, पृ० ३५।
⋙ पंडिताइन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंडित] दे० 'पंडितानी'।
⋙ पंडिताई
संज्ञा स्त्री० [हि० पंडित + आई (प्रत्य०)] विद्वात्ता। पंडित्य। वैदुष्य।
⋙ पंडिताऊ
वि० [हिं० पंडित] पंडितों के ढंग का। जैसे, पंडि- ताऊ हिंदी।
⋙ पंडितानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंडित] १. पंडित की स्त्री। २. ब्राह्मणी।
⋙ पंडितिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्डितिमन्] पांडित्य। विद्वत्ता [को०]।
⋙ पंडी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पङक्ति] दे० 'पंक्ति'। उ० —दुती कि नाग चंदन। चढंत दुद्ध पंडियं।—पृ० रा० २५। ३१०।
⋙ पंडु
वि० [सं० पण्डु] १. पीलापन लिए हुए मटमैला। २. श्वेत। सफेद। ३. पीला। ४. पाँच की संख्या का वाचक।—रघु० रू०, पृ० ५०।
⋙ पंडुक
संज्ञा पु० [सं० पाण्डु] [स्त्री० पंडुकी] कपोत या कबूतर की जाति का एक पक्षी जो ललाई लिए भूरे रंग का होता है। उ० —इस सुंदर तथा खेमावार वृक्ष पर शुक, मयूर, पंडुक इत्यादि सहस्रों प्रकार के पक्षियों का निवास है।—कबीर मं०, पृं० ४९६। विशेष—यह प्रायः जंगली झाड़ियों और उजाड़ स्थानों में होता है। नर की बोली कड़ी होती है और उसके गले मे कंठा सा होता है जो नीचे की ओर अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ता है पर ऊपर साफ नही मालूम होता। पंडुक दो प्रकार का होता है, एक बड़ू दूसरा छोटा। बडे़ का रंग भूरा और खुलता होता है। छोटे का रंग मटमैला लिए ईट सा लाल होता है। कबूतर की तरह पंडुक जल्दी पालतू नहीं होता। पंडुक और सफेद कबूतर के जोड़ से कुमरी पैदा होता है। पर्या०—पिंडुक। पेड़की। फाख्ता।
⋙ पंडुर † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. पानी मे रहनेवाला साँप। डेढ़हा।उ० —ऐसे हरि सों जगत लरतु है। पंडुर कतहूँ गरूड़ धरतु है।—कबीर (शब्द०)।
⋙ पंडुर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पण्डुर, प्रा० पंडुर] पीलापम। (भय आदि के कारण) शरीर का पीला या सुफेद हो जाना। पांडुर। उ० —भेद बचन तन षेद सुतन पंडुर चढ़ि आइय। उष्ट धरद्धर कंपि सु तन प्राक्रर जंभाइय।—पृ० रा०, १। २७५।
⋙ पंढोह †
संज्ञा पुं० [हिं० पानी + दह] नाबदान। परनाला। पानाला।
⋙ पंड्र
संज्ञा पुं० [सं० पण्ड्र, पण्ड्रक] वह जो वात रोग से ग्रस्त हो। पंगु आदमी। २. हिंजड़ा [को०]।
⋙ पंत †
संज्ञा, पुं० [सं० पन्थ] मार्ग। रास्ता। उ०—जेथ बरफ बरसै जमै, परबत सिखराँ पंत।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५७।
⋙ पंती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्क्ति, प्रा० पंतिय] श्रेणी। पाँत। पंक्ति। उ०— अग्गै सुंदति पंतिय विरूर। षलकंत अंदु मत झरत भूर। पृ० रा०, १। ६२४।
⋙ पंथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० पन्थ] १. मार्ग। रास्ता। राह। उ०—(क) बरनत पंथ विविध इतिहासा। विश्वनाथ पहुँचे कैलास।— मानस, १। ५८। (ख) जो न होत अस पुरुष उँजारा। सूझि न परत पंथ अँधियारा।—जायसी (शब्द०) (ग) बिरहिन कभी पंथ सिर पंथी पूँछै धाय। एक शब्द कहो पीव का कब रे मिलैंगे आय।—कबीर (शब्द०)। २. आचार- पद्धति। व्यवहार का क्रम। चाल। रीति। व्यवस्था। यौ०—कुपंथ । उ०—रघुबंसिन्ह कर सबज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरैं न काऊ।—मानस, १। २३१। सुपंथ। मुहा०—पंथ गहना = (१) रास्ता पकड़ना। चलने के लिये रास्ते पर होना। चलना। उ०—बिछुरत प्रान पयान करेंगे रहौ आजु पुनी पंथ गहौ।—सुर (शब्द)। (२) चाल पकड़ना। ढंग पर चलना। विशेष प्रकार के कर्म में प्रवृत्त होना। आचरण ग्रहण करना। पंथ करना = दे० 'पंथ गहना उ०— क्रम क्रम ढोला पंथ कर, ढाण म चूके ढाल।—ढोला०, दू० ४४०। पंथ दिखाना = (१) रास्ता बाताना। (२) धर्म या आचार की रीति बताना। उपदेश देना। उ०—गुरु सेवा येइ पथ दिखावा। बिनु गुरु जगत् को निर्गुन पावा ?—जायसी (शब्द०)। पंथ देखाना या निहारना = रास्ता देखाना। बाट जोहना। प्रतिक्षा करना। इंतजार करना। उ०—(क) तुमरो पंथ निहारौं स्वामी, कबहिं मिलौगे अंतर्जामी।—सूर (शब्द०)। (ख) माखन खाव लाल मेरे आई। खेलत आज अबार लगाई।......मैं बैठी तुम पंथ निहारौं। आवो तुम पै तम मन वारौं।—सुर (शब्द०)। पंथ न सूझना = रास्ता म देखाई पड़ना। उ०—आगे चलो पंथ नहिं सूझै पीछे दोष लगावै।—कबीर सा० सं०, पृ० ४९। पंथ में या पंथ पर पाँव देना = (१) चलना। चलने के लिये पैर उठाना या बढ़ाना। (२) रीति या ढंग पर चलना। विशेष प्रकार के कर्मों में प्रक्तृ होना। आचरण ग्रहण करना। जैसे,—भूल कर भी बुरे पंथ मे पाँव न देना। पंथ पर लगना = (१) रास्ते पर होना। (२) चाल ग्रहण करना। किसी के पँथ लगाना = (१) किसी के पीछे होना। अनुसरण करना। अनुयायी होना। (२) किसी के पीछे पड़ना। बराबर तंग करना। लगातार कष्ट देना। उ०—किन्नर, सिद्ध, मनुज, सुर नागा। हठि सबही के पंथहि लागा।—तुलसी (शब्द०)। पंथ पर लाना या लगाना = (१) ठीक रास्ते पर करना। (२) अच्छी चाल पर ले चलना। उत्तम आचरण सिखाना। धर्मोपदेश करना। उ०—अगुआ भयउ सेख बुरहानू। पंथ लाय मोहिं दीन्ह गियानू।—जायसी (शब्द०)। पंथ सेना या सेवना = राह देखना। बाट जोहना। आसरा देखना। उ०— हारिल भई पंथ मै सेवा। अब तोहि पठवों कोन परेवा।—जायसी (शब्द०)। ३. धर्मर्माग। संप्रदाय। मत। जैसे, कबीरपंथ, नानकपंथ, दाथूपंथ। उ०—सैयद अशरफ पीर पियारा। जिन मोंहिं पंथ दीन उजियारा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पंथ (२)
संज्ञा पुं० [सं० पथ्य] वह हल्का भोजन जो रोगी को लंघन या उपवास के पीछे शरीर कुछ स्वस्थ होने पर दिया जाता है। जैसे, मूँग की दाल आदि।
⋙ पंथक
वि० [सं० पन्थक] मार्ग में पैदा हुआ। मार्ग में पैदा होनेवाला [को०]।
⋙ पंथकी पु
संज्ञा पुं० [सं० पथिक] राही। पथिक। राह चलता मुसाफिर। उ०—(क) मँदिरन्ह जगत दीप परगसी। पंथकि चलत बसेरन बसी।—जायसी (शब्द०)। (ख) कौन हौ ? किततें चले ? कित जात हौ ? केहि काम ? जू। कौन की दुहिता, बहू कहि कौन की यह बाम, जू। एक गाँव रहौ कि साजन मित्र बंधु बखानिए। देश के ? परदेश के ? किधों पंथकी ? पहिचानिए।—केशव (शब्द०)।
⋙ पंथड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० पंथ + ड़ा (प्रत्य०)] मार्ग। रास्ता। पंथ। उ०—पंथड़ै जाय पाँव नहिं तोड़ू घर बैठा ऋधि पाऊँगा।—राम० धर्म०, पृ० १८।
⋙ पंथवान †
संज्ञा पुं० [सं० पन्थ + हिं० वान (प्रत्य०)] पथिक। मुसाफिर। उ०—पंथवान पुच्छयौ नदी उत्तारि तिन अष्षिय।—पृ० रा०,७। ७२।
⋙ पंथा पु
संज्ञा पुं० [सं० पन्थ] दे० 'पंथ'। उ०— करहिं पयान भोर उठि नितहिं कोस दस जाहिं। पंथी पंथा जो चलहिं ते का रहन ओताहिं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पंथान पु
संज्ञा पुं० [सं० पन्थ या पथ] मार्ग। उ०—एहि महँ रुचिर सप्त सोपना।—रघुपति भगति केर पंथाना।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पंथिक ‡
संज्ञा पुं० [सं० पथिक] दे० 'पथिक'। उ०—पंथिक सो जो दरब सो रूसै। दरब समेंटि बहुत अस मूसै।—जायसी ग्रं० पृ० २२३।
⋙ पंथिनी
वि० स्त्री० [सं० पन्थ + हिं० इनी (प्रत्य०)] राह पर चलनेवाली। उ०—मै मानूँगी अधिक उनमें हैं महामोहमग्ना। तो भी प्रायः प्रणयपंथ की पंथिनी ही सभी हैं।— प्रिय०, पृ० २४९।
⋙ पंथी
संज्ञा पुं० [सं० पँथिन्] १. राही। बटोही। पथिक। उ०— (क) बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे छाँह खजूर। पंथी छाँह न बैठहीं फल लागा तो दूर।—कबीर (शब्द०)। (ख) करहिं पयान भोर उठि नितहिं कोस दस जाहिं। पंथी पंथा जो चलहिं ते कित रहैं ओताहिं।—जायसी (शब्द०)। २. किसी संप्रदाय का अनुयायी। जैसे, कबीरपंथी, दादूपंथी इत्यादि।
⋙ पंद (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] शिक्षा। सीख। उपदेश। उ०—नफस नाँव सो मारिए गोसमाल दे पंद। दूई है सो दूरि करि तब घर में आनंद।—दादू (शब्द०)।
⋙ पंद † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'फंदा'। उ०—जगमग दिवारी हैं कि दामिनी उज्यारी है कि, देवता सवारी है कि मंद हास पंद है।—ब्रज ग्रं०, पृ० १५०।
⋙ पंदरह (१)
वि० [सं० पञ्चदश, पा० पण्णरस, प्रा० पणरह] जो संख्या में दस और पाँच हो।
⋙ पंदरह (२)
संज्ञा पुं० दस और पाँच की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है— १५।
⋙ पंदरहवाँ
वि० [फा़० पंदरह] [वि० स्त्री० पंदरहवीं] जो पंदरह के स्थान पर हो। जिसके स्थान चौदह और पदार्थों के पीछे हो।
⋙ पंदार
वि० [फा़० पंद] सुझाव या शिक्षा लेनेवाला [को०]।
⋙ पंद्रह
संज्ञा पुं० [हिं० पंदरह] दे० 'पंदरह'। उ०— पंद्रह दश इकीहि सप्त, मन मैं धरै परोय।—प्राण०, पृ० ५५।
⋙ पंघलाना
क्रि० स० [देश०] फुसलाना। बहलाना।
⋙ पंना पु
संज्ञा पुं० [हिं० पन्ना] एक रत्न। दे० 'पन्ना'। उ०— पदि पंना मानिक मँगवाए। गोमोदिक लीलागन ल्याए।— प० रासो, पृ० २२।
⋙ पंप
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह नह जिसके द्वारा पानी ऊपर खींचा या चढ़ाया जाता है अथवा एक ओर से दूसरी ओर पहुँचाया जाता है। २. पिचकारी। हवा भरने की पिचकारी। क्रि० प्र०—करना। ३. एक प्रकार का हलका अँगरेजी जूता जिसमें पंजे से इधर का भाग ढँका रहता है।
⋙ पंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० पम्पा] दक्षिण देश की एक नदी और उसी से लगा हुआ एक ताल और नगर जिनका उल्लेख रायायण और महाभारत में है। विशेष—रामायण में लिखा है कि पंपा नदी से लगा हुआ ऋष्यमूक पर्वत है। ये दोनों कहाँ हैं इसका ठीक ठीक निश्चय नहीं हुआ है। विल्सन साहब ने लिखा है कि पंपा नदी ऋष्यमूक पर्वत से निकलकर तुंगभद्रा नदी में मिल गई है। रामायण से इतना पता तो और लगता है कि मलय और ऋष्यमूक दोनों पर्वत पास ही पास थे। हनुमान ने ऋष्यमूकसे मलयगिरि पर जाकर राम से मिलने का वृत्तांत सुग्रीव से कहा था। आजकल त्रावंकोर (तिरुवांकुर)राज्य में एक नदी का नाम 'पंबे' है। यह पश्चिम घाट से निकलती है जिसे वहाँवाले 'अनमलय' कहते हैं। अस्तु यही नदी पंपा नदी जान पड़ती है और ऋष्यमूक पर्वत भी वहीं हो सकता है जिससे यह नदी निकली है।
⋙ पंपाल पु
वि० [सं० पापालु] पाप या बुरे कर्म करनेवाला। पापी।
⋙ पंपासर
संज्ञा पुं० [सं० पम्पासर] दे० 'पँपा'। उ०—पंपासरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।—मानस, ३। ३०।
⋙ पंबा
संज्ञा पुं० [फा़० पुंबा (= कपास)] एक प्रकार का पीला रंग जो उन रँगने में काम आता हैं। विशेष—४ छटाँक मोखा हलदी की बुकनी १ १/२ छटाँक गंधक के तेजाब में मिलाई जाती है। हल हो जाने पर उसे ९ सेर उब- लते हुए पानी में मिला देते हैं। इस जल में धुला हुआ उन एक घंटे तक छाया में सुखाया जाता है। यह रंग कच्चा होता है पर यदि हलदी की जगह अकलबीर मिलाया जाय तो रंग पक्का होता है।
⋙ पंमार पु
संज्ञा पुं० [हिं० पँवार] पँवार नाम की क्षत्रिय जाति। दे० 'परमार'। उ०—सपनानुराग बढयौ नृपति अरु स्रोतानन राग भय। पंमार मोहि छोरे सलष अनष एन आबू सुलय।— पृ० रा०, १२। १३।
⋙ पंसाखा †
संज्ञा पुं० [हिं० पनसाखा] एक प्रकार का मशाल। पाँच शाखाओं का दीपस्तंभ या दीपाधार। पनसाखा। उ०—हम खींच खींचकर चरबी पंशाखा बालेंगे।—भारतेंदु ग्रं० भा० १ पृ० २९९।
⋙ पंसा पु †
अव्य० [सं० पार्श्व, हिं० पास] दे० 'पास'। उ०— जैसी देह सँवारी हंसा। तैसी लेहु हमारे पंसा।—कबीर सा०, पृ० ५६५। पु २. दे० 'पासा'।
⋙ पंसारी
संज्ञा पुं० [सं० पण्यशाली] हलदी, धनिया आदि मसाले तथा दवा के लिये जड़ी बूटी बेचनेवाला बनिया।
⋙ पंसासार
संज्ञा पुं० [सं० पाशक, हिं० पासा + सारि (= गोटी)] पासे का खेल। उ०—अनिरुद्ध जी और राजकन्या निद्रा से चौक पंसासार खेलने लगे।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ पंसासारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पाशक, हिं० पासा + सारि (=गोटी)] पासे का खेल। उ०—कोउ खेलत कहु पंसासारी। खेलत कौतुक की बलभारी।—सबलसिंह (शब्द०)।
⋙ पंसेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + सेर] पाँच सेर की तौल।
⋙ पँखड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पखड़ी'।
⋙ पँखिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंख] १. भूसे या भूसी के महीन टुकड़े। पाँकी। २. पखड़ी। उ०—देव कछु अपनो बस ना रस लालच लाल चेतै भइ चेरी। वेगि ही बूड़ि गई पँखिया आँखियाँ मधु की मखियाँ भइ भेरी।—इतिहास, २६९।
⋙ पँखुड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० पत्त, हिं० पंख] मनुष्य के शरीर में कंधे के पास का वह भाग जहाँ हाथ जुड़ा रहता है। पखोरा। कंधे और बाँह का जोड़।
⋙ पँखुड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंख] फूल का दल। पखड़ी। उ०— कमल सूख पँखुड़ी भइ रानी। गलि के मिलि छार भुरानी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पँखुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंख] दे० 'पँखुड़ी'। उ०—(क) मैं बरजी कै बार तू इत कित लेते करौट। पँखुरी गड़ै गुलाब की परिहै गात खरौट।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ पँखुरा
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, हिं० पंख] दे० 'पँखुड़ा'।
⋙ पँखेरू
संज्ञा पुं० [सं० पक्षालु] दे० 'पखेरू'। उ०—भएउ अचल धुव जोगि पँखेरू। फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१२।
⋙ पँग †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उपंग'।
⋙ पँगरा
संज्ञा पुं० [देश०] १. मझोले आकार का एक प्रकार का कँटाला वृक्ष। डौलढाक। ढाक। मदार। विशेष—यह वृक्ष प्रायः सारे भारत में पाया जाता है। शीत ऋतु में इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। इसकी लकड़ी बहुत मुलायम, पर चिमड़ी होती है और तलवार की म्यान या तख्ते आदि बनाने के काम में आती है।
⋙ पँगला
विं [सं० पङ्गु + ल (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पँगली] पंगु। लँगड़ा।
⋙ पँगुला पु
वि० [सं० पड्गुल] दे० 'पँगुल'। उ०—गूँगा हूआ बावरा, वहिरा हूआ कान। पाँयन से पँगुला हुआ, सतगुरु मारा बान।—कबीर सा० सं० पृ० ९।
⋙ पँचकल्यान
संज्ञा पुं० [हिं० पंचकल्यान] दे० 'पंचकल्यान'। उ०— षिन्न संदली बौरता, चगर सिराजी हंस। पँचकल्यान कुमैत हय रौहालिक महिया बंस।—प० रासो, पृ० १३८।
⋙ पँचकुर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + कूरा] एक प्रकार की बँटाई जेसमें खेत की उपज के पाँच भागों में से एक भाग जमींदार लेता है।
⋙ पँचगोटिया
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + गोटी] वह खेल जो ५-५ गोटियों से खेला जाय।
⋙ पँचतोरिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वस्त्र। पंचतोलिया। उ०—सहज सेत पँचतोरिया पहिरे आति छबि देत।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ पँचमेल
वि० [हिं० पाँच + मेल] दे० 'पंचमेल'।
⋙ पँचमेली
वि० [हिं० पँचमेल] १. पाँच चीजों की मेलवाली (मिठाई आदि)। २. मिश्रित। उ०—पँचमेली भाषा लिखि जात बरन उन माहीं।—प्रेमघन, भा० २, पृ० ४१६।
⋙ पँचरँग
वि० [हिं० पाँच + रंग] १. पाँच रंग का। उ०—पँचरँग सारी मँगाओ। बंधुजन सब पहारावो।—सूर (शब्द०)। २. अनेक रंगों का। रंगबिरंग। ३. पांचभौतिक (लाक्ष०)। उ०—चारु पिछोरी साजि पँचरँग नव चोली है।—द०, ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ पँचलड़ा
वि० [हिं० पाँच + लड़] पाँच लड़ों का। जैसे, पँच लड़ा हार।
⋙ पँचलड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + लड़] गले में पहनने की पाँच लड़ो की माला।
⋙ पँचलरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँचलड़ी'।
⋙ पँचवान पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चवाण ?] राजपूतों की एक जाति। उ०—पत्ती औ पँचवान बघेले। अगरपार चौहान चँदेले।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पँचसर पु
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चशर] दे० 'पंचशर'। उ०— जब कोउ या तन तनक नेहारें। ताकौं निधरक पँचसर मारै।— नंद० ग्रं०, पृ० १२०।
⋙ पँचहरा †
वि० [सं० पञ्च + स्तर] १. पाँच तह या पर्त का। २. पाँच बार का किया हुआ।
⋙ पँचालिका पु
संजा स्त्री० [सं० पञ्चालिका] १. नटी। नर्तकी। उ०—नाचति मंच पँचालिका कर संकलित अपार।— केशव (शब्द०)।
⋙ पँछिराज
संज्ञा पुं० [सं० पक्षिराज] दे० 'पक्षिराज'। उ०—अब कहना कछु नाहिं, मस्ट भलो पँछिराज।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६८।
⋙ पँजड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्च, फा० पंज] चौसर के एक दाँव का नाम।
⋙ पँजना
क्रि० क० [सं० पअज (= वृद्ध होना, रुकना)] धातु के बरतन में टाँके आदि द्वारा जोड़ लगना। भलना। भाल लगना।
⋙ पँजनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'पैंजनी'। उ०—बजनी पँजनी पायलौ मन भजनी फुर बाम। रजनी नींद न परति है सजनी बिन घनस्याम।—राम० धर्म०, पृ०
२३७।
⋙ पँजरना †
क्रि० अ० [सं० प्रज्ज्वलन] दे० 'पजरना'।
⋙ पँजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्चर] १. पसली। पंजर। २. अरथी जिसपर जलाने के लिये शव ले जाते हैं।
⋙ पँड़रा †
संज्ञा पुं० [?] दे० 'पँड़वा'।
⋙ पँड़री †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पड़ना] वह भूमि जो ईख बोने के लिये रखी गई हो। उखाँड़। पँडुवा। क्रि० प्र०—रखना। छोड़ना।
⋙ पँड़रू †
संज्ञा पुं० [?] [स्त्री० पँडरी] दे० 'पँड़वा'।
⋙ पँडवा
संज्ञा पुं० [?] भैंस का बच्चा।
⋙ पँडुवा †
संज्ञा स्त्री० [हिं० परना] दे० 'पँड़री'।
⋙ पँतीजना †
क्रि० स० [सं० पिञ्जन (= धुनकी)] रूई से बिनौले निकालकर अलग करना। रूई ओटना। पींजना।
⋙ पँतीजी
संजा स्त्री० [सं० पिञ्चन (=धुनकी)] रूई धुमने की धुनकी। उ०—चरख पँतीजी चरख चढ़ि ज्यों ढ़ाँकत जग सूत।— वृंद (शब्द०)।
⋙ पँत्यारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पंक्ति। श्रेणी। कतार।
⋙ पँदरोह †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पंडोह'।
⋙ पँवड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पँवाड़ा'। उ०—उर विज्ञान जन साथराम पँवड़ा भर लिजै। निभैर नित आनंद अगम घर आसण काजै।—राम धर्म०, पृ० २४५।
⋙ पँवनारि
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्मनाल] पद्मनाल। कमलदंड। उ०— भुज उपमा पँवनारि न पूजी खीन भई तिहिं चिंत।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९५।
⋙ पँवर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँवरी'।
⋙ पँवर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रभार] सामान। सामग्री। उ०—भसम गंग लोचन अहि डमरू, पंचचत्व सूचक अस भौंरू। हर के बस पाँचउ यह पँवरू, जिनसे पिंड उरेह।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ पँवरना †
क्रि० अं० [सं० प्लवन] १. तैरना। २. थाह लेना। पता लगाना। उ०—सूकर स्वान सियार सिंह सरप रहहिं घट माहिं। कुंजर कीरी जीव सब पँवरहिं जानाहिं नाहिं।— कबीर (शब्द०)।
⋙ पँवरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुर (= धर), या पुरस (=आगे)] प्रवेशद्वार या गृह। वह फाटक या घर जिससे होकर किसी मकान में जायँ। ड्योढ़ी। उ०—(क) पँवरी पँवरि गढ़ लाग केवारा। औ राजा सों भई पुकारा।—जायसी (शब्द०)। (ख) उधरी पँवरी चला सुलताना।—जायसी (शब्द०)। (ग) पँवरिहि पँवरी सिंह लिखि काढ़े।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पँवरिया
संज्ञा पुं० [हिं० पँवरी, पौरि] १. द्वारापाल। दरबान। ड्यौढ़ीदार। २. पुत्र होने पर या किसी और मंगल अवसर पर द्वार पर बैठकर मंगलगीत गानेवाला याचक।
⋙ पँवरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पौरि] दे० 'पँवरी'।
⋙ पँवरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँव] खड़ाऊँ। पादत्राण। पाँवरी। उ०—पायन पहिरि लेहु सब पँवरी। काट न चुमै गड़ै अँकरौरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पँवाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाद] १. लंबी चौड़ी कथा जिसे सुनते जी उबे। कल्पित आख्यान। कहानी। दास्तान। २. बढ़ाई हुई बात। व्यर्थ विस्तार के साथ कही हुई बात। बात का बतक्कड़। ३. एक प्रकार का गीत जिसमें वंश की कीर्ति और शौर्य का वर्णन रहता है।
⋙ पँवार
संज्ञा पुं० [सं० परमार] राजपूतों की एक जाति। दे० 'जाति'।
⋙ पँवारना †
क्रि० स० [सं० प्रवारण (=रोकना)] हटाना। दूर करना। फेंकना। उ०—(क) सावज न होई भाई सावज न होइ। बाकी मांसु भखै सब कोइ। सावज एक सकल संसारा अवि- गति वाकी बाता। पेट फारि जो देखिए रे भाई आहि करेज न आँता। ऐसी वाकी मांस रे भाई पल पल मांसु बिकाई। हाड़ गोड़ लै धुर पँवारै आगि धुवाँ नहिं खाई।—कबीर (शब्द०)। (ख) सुआ सुनाक कठोर पँवारी। वह कोमल तिल कुसुम सँवारी।—जायसी (शब्द०)। दे० 'पवारना'।
⋙ पँवार पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाल] प्रवाल। मूँगा। उ०—देखि दशा सुकुमारि की युवती सब धाई। तरु तमाल, बूभत फिरैं कहि कहि मुरभाई। नँदनंदन देखे कहूँ मुरली करधारी। कुंड़ल मुकुट बिराजै तनु कुंडल भारी। लोचन चारु विलास है नासा अति लोनी। अरुत अघर दशानावली छबि बरनै कौनी। बिंब पँवारे लाजहीं दामिनि दुति थोरी। ऐसे हरि हमको कहो कहुँ देखे हौ री।—सूर (शब्द०)।
⋙ पँवारा पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाद] १. कीर्ति की गाथा। वीरता का आख्यान। उ०—बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो। सो हनुमान हनी मुठिका, गिरि गो गिरिराज ज्यों गाऊ को मारो।—तुलसी ग्र०, पृ० १९१। दे० 'पँवाड़ा'।
⋙ पँवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद किया जाता है।
⋙ पँसरहट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० पंसारी + हट्ट, हाट] वह बाजार जहाँ पंसारियों की दूकानें हों।
⋙ पँसियाना †
क्रि० स० [हिं० पासा] पासे से मारना।
⋙ पँसुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँसुली'।
⋙ पँसुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पसली'।
⋙ पँह
अव्य० [सं० पार्श्व] १. पास। समीप। २. से।
⋙ प (१)
वि० [सं०] १. पीनेवाला। जैसे,—द्विप, अनेकप, मद्यप। २. रक्षा या शासन करनेवाला। जैसे, क्षितिप, नृप।
⋙ प (२)
संज्ञा पुं० १. वायु। हवा। २. पत्ता। ३. अंडा। ४. पीने की क्रिया। ५. संगीत में पंचम स्वर का संकेत [को०]।
⋙ पइ पु †
अव्य० [सं० प्रति, प्रा० पडि, पइ, हिं० पं] पास। समीप। उ०—एक दिवस पूगल सहदर सउदागर आवंत। तिण पइ घोड़ा अति घणा बेच्या लाख लहंत।—ढोला० दू० ८३।
⋙ पइआल पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाताल] दे० 'पाताल'। उ०—सगल खंड महि रहै अखंड सुरग पइआल अरु ब्रह्मंड।—प्राण०, पृ० ६।
⋙ पइग ‡
संज्ञा पुं० [सं० पग] दे० 'पैग', 'पग'।
⋙ पइज ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] दे० 'पैज'।
⋙ पइठ ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रविष्टि] दे० 'पैठ'।
⋙ पइठना ‡
क्रि० अ० [सं० प्रविष्ट से धातुरूप] दे० 'पैठना'। उ०— झाबकि पइठी झालि, सुंदरि काइ न सलसलइ। बोलइ नहीं जबाल धण धंधूणी जोइयउ।—ढोला०, दू० ६०३।
⋙ पइता
संज्ञा पुं० [देश०] एक छंद जिसे पाइता भी कहते हैं। इसमें एक मगण, एक भगण और सगण होता है। जैसे,— ताके दोनों कुल गनिए, औ दोनों लोचन मनिये। जेते नारी गुण गनियो। सो है लागे श्रुति सुनियो।
⋙ पइना ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैना'।
⋙ पइभर पु
संज्ञा० पुं० [सं० पदाति + भट] दे० 'पैदल'। उ०—गज बाजि रथ्थ पइभर गहर सजिय सेन सनमुख चलिय।—पृ० रा०, १। ६१८।
⋙ पइयाँ
संज्ञा स्त्री० [देश०] जंगली चेरी। उ०—पइमों की प्रसन्न पंखड़ियाँ उड़ती थीं पिछवारे। महक रहे थे नीबू, कुसुमों में रजगंध सँवारे।—अतिमा, पृ० १५।
⋙ पइया
संज्ञा पुं० [देश०] वह धान जिसके दाने नष्ट हो जाते हैं, पर छिलका जैसे का तैसा रहता है। खोलना धान। कीड़े से खायाहुआ बेकार धान। उ०— पइया करम ध्यान सों फटको जोग जुक्ति करि सूपे।—भीखा श०, पृ० २०।
⋙ पइरना पु †
क्रि० स० [हिं० पैरना] तैरना। पैरना। उ०— पइरि मोभँ अइलिहुँ तरनि तरंग। लाँघल साए सहस भुजंग। विद्यापति, पृ० २५८।
⋙ पइलइ † पु
वि० [हिं० परला] उस ओर का। दूसरी तरफ का। दे० 'परला'। उ०— कूँ झँडियाँ कलिअल कियउ, सरवर पइ- लइ तीर। निसि भरि सज्जण सल्लियाँ, नयणे वूहा नीर।— ढोला०, दू० ५९।
⋙ पइला †
संज्ञा पुं० [देश०] अनाज मापने का एक बरतन जिसमें पाँच सेर अनाज आता है।
⋙ पइस †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रविश, प्रा० पइस] पैठ। प्रवेश। गति। रसाई। पहुँच।
⋙ पइसना †
क्रि० अ० [सं० प्रविश] दे० 'पैसना'। उ०—(क) हियडइ भीतर पइसि करि, ऊगउ सज्जण रूख। नित सूकइ नित पल्हवइ, नित नित नवला दूख।—ढोला०, दू० १८। (ख) खेलां पइसइ माँडली। आखर आखर आणजे जोड़ि। बि० रासो, पृ० ४।
⋙ पइसार †
संज्ञा पुं० [हिं० पइसना] पैठ। प्रवेश। उ०—अति लघु रूप धरौं निसि नगर करउँ पइसार।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पइहरना पु †
क्रि० स० [हिं० पहनना] पहनना। पहिरना। धारण करना। उ०—(क) गलि पइहरउ मोतीय कौ हार।—बी० रासो, पृ० ७२। (ख) जान तणी साजति करउ, जीरह रंगावली पइहरज्यो टोप।-बी० रासो, पृ० ११।
⋙ पई पु †
संज्ञा० पुं० [सं० पद, प्रा० पय, पइ] पैर। पाँव। उ०— अष्टजाम चित लगै रहतु प्रभु जी के परलुँ पई।—गुलाल०, पृ० ४२।
⋙ पई (२)
संज्ञा पुं० [देशी पइअ] पहिया। रथचक्र। उ०— बड़कै ओघण बंधिया, पैसे पई पताल। सोच करै नह सागड़ी धवल तणी दिस भाल।—बाँकी० ग्र०, भा० १, पृ० ३८।
⋙ पउँअ ‡ पु
संज्ञा पुं० [सं० पद्म, प्रा० पउम] दे० 'पद्म'। उ०— पउँअ नाल अइयपन भल भैल। रात परीहन पल्ल देल। विद्यापति, पृ० १६५। यौ०—पउअनाल = पद्मनाल। पँवनार।
⋙ पउँरि, पउँरी
संज्ञा स्त्री [हिं०] डचौढ़ी। दे० 'पौरि'।
⋙ पउड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पँवारि] प्रवेशद्वार। डयौढ़ी। उ०— ऊची पउड़ी लै गगनंतरि चढ़ीआ। अनहद बीचारु चमकी जोतीड़ीआ।—प्राण० पृ० २२३।
⋙ पउढना
क्रि० अ० [देशी पवड्ढ] शयन करना। पौढ़ना। उ०—ढोलउ मारू पउढिया, रसमइँ चतुर सुजाँण। च्यारे दिसि चउकी फिरइ सोहत भूप जुवाँण।—ढोला०, दू० ५९९।
⋙ पउवी
संज्ञा स्त्री० [देश०] ढक्कनदार टोकरी। संदूकची। उ०— नानी को सीकों से पंखी, बिजनी, पान सुपारी रखने का डिब्बा, धुथरी, पउती, बिड़हाड़ा, रिकाबी, डलिया, चँगेरी फुलड़ाली बनाने का भारी शौक था।—नई०, पृ० ११२।
⋙ पउनार †
संज्ञा स्त्री० [सं० पद्मनाल] दे० 'पौनार'।
⋙ पउनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटा पौना।
⋙ पउरुसर पु †
संज्ञा पुं० [सं० परुष] दे० 'परुष'। उ०—पियासनों पउरुस ककेतोजे बोलकए, जिह तोरि टुटि न पड़ली।— विद्यापति, पृ० १००।
⋙ पउल †
संज्ञा पुं० [सं० पौर, प्रा० पउर, हिं० पोल (=दरवाजा)] दरवाजा। डयौढ़ी। प्रवेशद्वार। उ०—जोगी बईठो पउलइ जाई, बभूत सरी सी बोल कराई।—बी० रासो, पृ० ७१।
⋙ पउला
संज्ञा पुं० [हिं० पावँ + ला (प्रत्य०)] भद्दे प्रकार की खड़ाऊँ जिसमें खूँटी के स्थान पर ऊँगलियाँ फँसाने के लिए रस्सी लगी रहती है। पवाई।
⋙ पउवा पु † (१)
वि० [हिं० पाना] पानेवाला। प्राप्त करनेवाला। उ०— पउवा प्रेम पगर जो नावै उनमुनि जाय गगन घर धावै।— गुलाल०, पृ० ५८।
⋙ पउवा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाद] दे० 'पौवा'।
⋙ पएदा ‡
संज्ञा पुं० [फा० प्यादा] दे० 'प्यादा'। उ०—सब्बस्स सराब षराब कइ ततत कबावा दाम अविषेक करीबी कहजो का पाछा पएदा लेले भम।—कीर्ति०, पृ० ४०।
⋙ पएर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पैर] दे० 'पैर'। उ०— पएर पखाल रोसे नहिं खाए। अंधरा हाथ भेटल हर जाए।—विद्यापति, पृ० ३१३।
⋙ पकठोस †
वि० [देश०] पक्का और ठोस। प्रौढ़ आयु का। उ०— पंद्रह साल की कच्ची छोकरी पचास साल के पकठोस दूल्हा के साथ किस तरह अपनी जिनगी काटेगी।—नई०, पृ० २६।
⋙ पकड़
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रकृष्ट, प्रा० पक्कड़] १. पकड़ने की क्रिया या भाव। धरने का काम। ग्रहण। जैसे,—तुम उसकी पकड़ से नहीं छूट सकते। यौ०—धर पकढ़। मुहा०—पकड़ में आना = (१) पकड़ा जाना। गृहीत होना। मिलना। हाथ लगना। (२) दाँव पर चढ़ना। घात में आना। वश में होना। २. पकड़ने का ढंग। ३. लड़ाई या कुश्ती आदि में एक एक बार आकार परस्पर गुथना। भिड़ंत। हाथापाई। जैसे,— (क) हमारी तुम्हारी एक पकड़ हो जाय। (ख) वह कई पकड़ लड़ चुका है। ४. दोष, भूल आदि ढूँढ़ निकालने की क्रिया या भाव। जैसे,—उसकी पकड़ बड़ी जबरदस्त है, उसने कई जगह भूलें दिखाई। उ०— जहाँ शब्दों की ही पकड़ है और बात बात में वितर्क होता है वहाँ निश्चित रूप से किसी सिद्धांत का संक्षिप्तीकरण सुलभ नहीं।—रस क०, पृ० २४। ५. रोक। अवरोध। बंधन। उ०—इतना न चमत्कृत हो बाले ! अपने मनका उपकार करो। मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो वुछ सोच विचार करो।—कामायनी,पृ० १००। ६. समझ। ७. किसी राग का परिचायक स्वरग्राम।
⋙ पकड़ धकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पकड़] दे० 'धर पकड़'।
⋙ पकड़ना
कि० स० [सं० प्रकृष्ट, + प्रा० पक्कड्ढ] १. किसी वस्तु को इस प्रकार दृढ़ता से स्पर्श करना या हाथ में लेना कि वह जल्दी छूट न सके अथवा इधर उधर जा या हिल डोल न सके। धरना। थामना। गहना। ग्रहण करना। जैसे,— (क) छड़ी पकड़ना। (ख) उसका हाथ पकड़े रहो, नींह तो वह गिर पड़ेगा। (ग) किसी वस्तु को उठाने के लिये चिमटी से पकड़ना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. छिपे हुए या भागते हुए को पाना और अछिकार में करना। काबू में करना। गिरफ्तार करना। जैसे, चोर पकड़ना। ३. गति या व्यापार न करने देना। कुछ करने से रोक रखना। स्थिर करना। ठहराना। जैसे, बोलते हुए की जबान पकड़ना, मारते हुए का हाथ पकड़ना। संयो० क्रि०—लेना। ४. ढूँढ़ निकालना। पता लगाना। जैसे, गलती पकड़ना, चोरी पकड़ना। ५. कुछ करते हुए को कोई विशेष बात आने पर रोकना। टोकना। जैसे,—जहाँ वह भूल करे वहाँ उसे पकड़ना। ६. दौड़ने, चलने या और किसी बात में बढ़े हुए के बराबर हो जाना। जैसे,—(क) दौड़ में पहले तो दूसरा आगे बढ़ा था पर पीछे इसने पकड़ लिया। (ख) यदि तुम परिश्रम से पढ़ोगे तो दो महीने में उसे पकड़ लोगे। ७. किसी फैलनेवाली वस्तु में लगकर उनका अपने में संचार करना। जैसे, फूस का आग को पकड़ना, कपड़े का रंग पकड़ना। ८. लगकर फैलना या मिलना। संचार करना। जैसे आग का फूस को पकड़ना। ९. अपने स्वभाव या वृत्ति के अंतर्गत करना। धारण करना। जैसे, चाल पकड़ना, ढंग पकड़ना। १०. आक्रांत करना। ग्रसना। ग्रसना। छोपना। घेरना। जैसे, रोग पकड़ना, गठिया पकड़ना।
⋙ पकड़वाना
क्रि० स० [हिं० पकड़ना का प्रे० रूप] पकड़ने का काम दूसरे से कराना। ग्रहण करना। जैसे, चोर को सिपाही से पकड़वाना। संयो० क्रि—देना।—मँगाना।
⋙ पकड़ना
क्रि० स० [हिं० पकड़ना का प्रे० रूप] १. किसी के हाथ में देना या रखना। थमाना। जैसे,—यह किताब उन्हें पकड़ा दो। २. पकड़ने का काम कराना। ग्रहण कराना। जैसे, चोर पकड़ाना। संयो० क्रि—देना।
⋙ पकना
क्रि० अ० [सं० पक्व, हिं० पक्का, पका + ना (प्रत्य०)] १. पक्वावस्था को पहुँच जाना। कच्चा न रहना। अनाज, फल आदि का पुष्ट होकर काटने या खाने के योग्य होना। ऐसी अवस्था को पहुँचना जिसमें स्वाद, पूणता आदि आ जाती है। जैसे, आम पकना, खेत में अनाज पकना। संयो० क्रि—जाना। मुहा०—बाल पकना = (बुढ़ापे के कारण) बाल सफेद होना। २. आँच या गरमी खाकर गलना या तैयार होना। सिद्ध होना। सीझना। रिंधना। जैसे, दाल पकना, रोटी पकना, रसाई पकना। मुहा०—(मिट्टि का) बरतन पकना = आँवे में तैयार होना। कलेजा पकना = जी जलना। संताप होना। ३. फोड़े, फुंसी, घाव, आदि का इस अवस्था में पहुँचाना कि उसमें मवाद आ जाय। पीब से भरना। ४. चौसर में गोटियों का सब घरों को पार करके अपने घर में आ जाना। ५. कीमत ठहरना। सौदा पटना। मामला तै होना।
⋙ पकमान पु †
संज्ञा पुं० [सं पक्वान्न] दे० 'पकवान'। उ०— चीर कपूर पान हमें साजल, पाअस आओ पकमाने।— विद्यापति, पृ० ३२५।
⋙ पकरना पु †
क्रि० स० [हिं० पकड़ना] दे० 'पकड़ना'। उ०— नट नायक नँदलाल को मन पकरि नचावै।—घनानंद०, पृ० ४५५।
⋙ पकरना पु †
क्रि० स० [हिं० पकड़ाना] दे० 'पकड़ाना'। उ०— चीर लपेटि सु पिय पकराए।—नंद० ग्रं, पृ० १३।
⋙ पकरिया ‡
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० पर्कटी, हिं० पाकर + इया (प्रत्य०)] दे० 'पाकर'। उ०— उम्र नौ दस साल की, स; तोलता दिल कि चढ़कर पकरिए पर बोलता।—कुकुर०, पृ० ६४।
⋙ पकला
संज्ञा पुं० [हिं० पकना] फोड़ा।
⋙ पकवान
संज्ञा पुं० [सं० पक्वान्न] घी में तलकर बनाई हुई खाने की वस्तु। जैसे, पूरी, कचौरी आदि। उ०— दादू एकै अलह राम है, सम्रथ साँई सोइ। मैद के पकवान सब, खाताँ होय सो होइ।—दादू० पृ०३५।
⋙ पकवाना
क्रि० स० [हिं० पकाना का प्रे० रूप] १. पकाने का काम कराना। पकाने में प्रवृत्त करना। २. आँच पर तैयार कराना। जैसे, रसोई पकवाना।
⋙ पकसना †
क्रि० अ० [हिं पकना] किसी वस्तु (फल आदि) का पकने की ओर अग्रसर होना।
⋙ पकसालू
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस। विशेष—यह पूर्व और बंगाल, आसाम, चटगाँव तथा बरमा में होता है। पानी भरने के लिये इसके चोंगे बनते हैं। छाता वनाने के काम में भी यह आता है। इसकी पतली फट्टियों से टोकरे भी बनते हैं।
⋙ पकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पकाना] १. पकाने की क्रिया या भाव। २. पकाने की मजदूरी।
⋙ पकाना
क्रि० स० [हिं० पकना] दे० फल आदि को पुष्ट और तैयार करना। जैसे, पाल में आम पकाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। —लेना। २. आँच या गरमी के द्वारा गलाना या तैयार करना। रींधना। सिझाना। जैसे, खाना पकाना, रोटी पकाना।मुहा०—(मिट्टी का) बरतन पकाना = आँवें में आँच के द्वारा कड़ा और पुष्ट करना। कलेजा पकाना = जी जलाना। संताप पहुँचाना। ३. फोड़े, फुंसी, घाव आदि को इस अवस्था में पहुँचाना कि उसमें पीब या मवाद आ जाय। ४. मात्रा पूरी करना। सौदा पूरा करना। लगाना। जैसे,—चार रुपए का गुड़ पका दो (बनिये)।
⋙ पकार
संज्ञा पुं० [सं० प + कार] 'प' अक्षर।
⋙ पकाव
संज्ञा पुं० [हिं० पकना] १. पकने का भाव। २. पीब। मवाद।
⋙ पकावन
संज्ञा पुं० [सं० पक्वान्न] दे० 'पकवान'। उ०—दूती बहुत पकावन साघे। मोतिलाडू और खेरौरा बाँधे।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पकौड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पका + बरी, बड़ी] [स्त्री० अल्पा० पकौड़ी] घी या तेल में पकाकर फुलाई हुई बेसन या पीठी की बट्टी, बड़ी।
⋙ पकौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पकौड़ा] दे० 'पकौड़ा'।
⋙ पक्वण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चांडाल की झोपड़ी या घर। २. चांडालों की बस्ती [को०]।
⋙ पक्वरस
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरा।
⋙ पक्ववारि
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी।
⋙ पक्का
वि० [सं० पक्व][वि० स्त्री० पक्की] अनाज या फल जो पुष्ट होकर खाने के योग्य हो गया हो। जो कच्चा न हो। पका हुआ। जैसे, पक्का आम। २. जिसमें पूर्णता आ गई हो। जिसमें कसर न हो। पूरा। जैसे, पक्का चोर, पक्का धूर्त। ३. जो अपनी पूरी बाढ़ या प्रौढ़ता को पहुँच गया हो। पुष्ट। जैसे, पक्की लकड़ी। मुहा०—पक्का पान = वह पान जो कुछ दिन रखने से सफेद और खाने में स्वादिष्ट हो गया हो। ४. जिसके संस्कार वा संशोधन की प्रक्रिया पूरी हो गई हो। साफ और दुरुस्त। तैयार। जैसे, पक्की चीनी, पक्का शोरा। ५. जो आँच पर कड़ा या मजबूत हो गया हो। जैसे, मिट्टी का पक्का बरतन। ६. जिसे अभ्यास हो। जो मँज गया हो। जो किसी काम को करते करते जमा या बैठा हो। पुख्ता। जैसे पक्का हाथ। ७. जिसका पूरा अभ्यास हो। जो अभ्यस्त वा निपुण व्यक्ति के द्वारा बना हो। जैसे, पक्का खत, पक्के अक्षर। ८. अनुभवप्राप्त। तजरुबेकार। निपुण। दक्ष। होशियार। जैसे,—हिसाब में अब वह पक्का हो गया। ९. आँच पर गलाया या तैयार किया हुआ। आँच पर पका हुआ। मुहा०—पक्का खाना या पक्की रसोई = घी में पका हुआ भोजन। जैसे, पूरी कचौरी, मालपूआ आदि। पक्का पानी = (१) औटाया पानी। (२) स्वास्थकर जल। निरोग और पुष्ट जल। १०. दृढ़। मजबूत। टिकाऊ। जैसे,—इस मंदिर का काम बहुत पक्का है, यह जल्दी गिर नहिं सकता। मुहा०—पक्का काम = असली चाँदी सोने के तार के बने बेल बूटे का काम। असली कारचोबी का काम। जैसे,—इस टोपी पर पक्का काम है। पक्का घर या मकान = सुरखी चूने के मसाले और ईटों से बना हुआ घर। पक्का रंग = न छूटनेवाला रंग। बना रहनेवाला रंग। ११. स्थिर। दृढ़। न टलनेवाला। मिश्रित। जैसे, पक्की बात, पक्का इरादा, विवाह पक्का करना। १२. प्रमाणों से पुष्ट। प्रामाणिक। जिसे भूल या कसर के कारण बदलना न पड़े या जो अन्यथा न हो सके। ठीक जँचा हुआ। नपा तुला। जैसे,—(क) वह बहुत पक्की सलाह देता है। (ख) पक्की दलील। मुहा०—पक्का कागज = वह कागज जिसपर लिखी हुई बात कानून से दृढ़ समझी जाती है। स्टांप का कागज। पक्की बही या खाता = वह बही जिसपर ठीक जँचा हुआ या तै किया हुआ हिसाब उतारा जाता है। पक्का चिट्ठा = ठीक ठीक जँचा चिट्ठा। १३. जिसका मान प्रामाणिक हो। टकसाली। जैसे, पक्का मन, पक्की तोल, पक्का बीघा। यौ०—पक्का गवैया = पक्का गाना गानेवाला। शास्त्रीय संगीत गानेवाला। पक्का गाना = शास्त्रीय संगीत। पक्का पानी = (शरीर आदि का) गेहुआँ वर्ण।
⋙ पक्काइत
संज्ञा स्त्री० [हिं० पक्का] दृढ़ता। मजबूती। निश्चय। पोढ़ाई।
⋙ पक्खर पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाखर] दे० 'पाखर'।
⋙ पक्खर (२)
वि० [सं० पक्व, प्रा० पक्क] पक्का। पुख्ता। उ०—लक्ख में पक्खर तिक्खन तेज जे सूर समाज में गाज गने हैं।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पक्खा †
संज्ञा पुं० [हिं० पाखा] दे० 'पाखा'। उ०— पानी पक्खा पीस जन अपना आयु गवाउ।—प्राण०, पृ० २५९।
⋙ पक्तपौड
संज्ञा पुं० [सं०] पखौड़ा नाम का एक पेड़।
⋙ पक्तव्य
वि० [सं०] पकाने लायक। २. पचाने योग्य [को०]।
⋙ पक्ता (१)
वि० [सं० पक्तृ] पकानेवाला। पचा सकनेवाला [को०]।
⋙ पक्ता (२)
संज्ञा पुं० १. जठराग्नि। २. वह जो रसोई बनाता हो। रसोइया [को०]।
⋙ पक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रसोई तैयार करना। भोजन पकाना। भोजन पकाने की क्रिया। २. जठराग्नि जिससे खाया हुआ अन्न पचता है। ३. फल आदि का पक्वावस्था प्राप्त करना। पकना। ४. गौरव। यश। ख्याति। ५. भोजन की थाली। यौ०—पक्तिनाशन = पाचन क्रिया को खराब करनेवाला। पक्तिशूल = पाचन की गड़बड़ी से पेट में होनेवाला दर्द। पक्तिस्थान = जहाँ भोजन पचता है। पाचनस्थान।
⋙ पक्त्रिम
वि० [सं०] १. पक्व। पका हुआ। २. पकाया हुआ। ३. उबालने से प्राप्त। पकाने से प्रप्त। जैसे, नमक [को०]।
⋙ पक्व (१)
वि० [सं०] १. पका हुआ। २. पक्का। ३. परिपुष्ट। दृढ़। ४. सेंका हुआ। पकाया हुआ (को०)। ५. पूरी तरह से विकसित (को०)। ६. श्वेत। सफेद। जैसे, पक्व केश (को०)।
⋙ पक्व (२)
संज्ञा पुं० पकाया हुआ भोजन या अन्न [को०]।
⋙ पक्वकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकानेवला। सूपकार। २. (फोड़े आदि को पकानेवाली) नीम।
⋙ पक्वता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पक्व होने का भाव। पक्कापन।
⋙ पक्वरस
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरा मद्य [को०]।
⋙ पक्ववारि
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी। काँजिक [को०]।
⋙ पक्वश
संज्ञा पुं० [सं०] एक अँत्यज नीच जाति।
⋙ पक्वातीसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अतीसार। आमाती- सार का उलटा। विशेष—आमातीसार में मल के साथ आँव गिरती है, पक्वाती- सार में नहीं।
⋙ पक्वाधान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पक्वाशय' [को०]।
⋙ पक्वान
संज्ञा पुं० [सं० पक्वान्न] दे० 'पक्वान्न'।
⋙ पक्वानहटा ‡
संज्ञा पुं० [सं० पक्वान्न + हट्ट] मिठाई बाजार। पकवान की दूकानें। उ०—मचूर पौरजन पदसम्हार सहीन्न धनहटा, सोनहटा, पनहटा, पक्वानहटा, मछरहटा करेओ सुख- रव कथा कहते।—कीर्ति०, पृ० ३०।
⋙ पक्वान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. पका हुआ अन्न। २. घी पानी आदि के साथ आग पर पकाकर बनाई हुई खाने की चीज। पकवान।
⋙ पक्वाशय
संज्ञा पुं० [सं०] पेट में वह स्थान जहाँ आमाशय में ढीला होकर अन्न जाता है और यकृत् और क्लोम ग्रंथियों से आए हुए रस से मिलता है। यह वास्तव में अंत्र का ही एक भाग है। विशेष—थूक के साथ मिलकर खाया हुआ भोजन अन्न की नली से होकर नीचे उतरता है और आमाशय में जाता है जो मशक के आकार की थैली सा होता है। इस थैली में आकर भोजन इकट्ठा होता है और आमाशय के अम्लरस से मिलकर तथा मांस के आकुंचन प्रसारण द्वारा मथा जाकर ढीला और पतला होता है। जब भोजन अम्लरस से मिलकर ढीला हो जाता है तब पक्वाशय का द्वारा खुल जाता है और आमाशय बड़े वेग से उसे उस ओर ढकेलता है। पक्वाशय यथार्थ में छोटी आँत के ही प्रारंभ का बारह अंगुल तक का भाग है जिसके तंतुओं में एक विशेष प्रकार की कोष्ठाकार ग्रथियाँ होती हैं। इसमें यकृत् से आकर पित्त रस और क्लोम से आकर क्लोम रस भोजन के साथ मिलता है। क्लोम रस में तीन विशेष पाचक पदार्थ होते हैं जो आमाशय से कुछ विश्लेषित होकर आए हुए (अधपचे) द्रव्य का और सूक्ष्म अणुओं में विश्लेषण करते हैं जिससे वह घुलकर श्लेष्ममयी कलाओं से होकर रक्त में पहुँचने के योग्य हो जाता है। पित्त रस के साथ मिलने से क्लोम रस में तीव्रता आती है और वसा या चिकनाई पचती है।
⋙ पक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी स्थान वा पदार्थ के वे दोनों छोर या किनारे जो अगले और पिछले से भिन्न हों। किसी विशेष स्थिति से दहिने और बाएँ पड़नेवाले भाग। और। पार्श्व। तरफ। जैसे, सेना के दोनों पक्ष। विशेष—'ओर', 'तरफ' आदि से 'पक्ष' शब्द में यह विशेषता है कि यह वस्तु के ही दो अंगों को सूचित करता है, वस्तु से पृथक् दिक् मात्र को नहीं। २. किसी विषय के दो या अधिक परस्पर भिन्न अंगों में से एक। किसी प्रसंग के संबंध में विचार करने की अलग अलग बातों में से कोई एक। पहलू। जैसे,—(क) सब पक्षों पर विचार कर काम करना चाहीए। (ख) उत्तम पक्ष तो यही है कि तुम खुद जाओ। ३. किसी विषय पर दो या अधिक परस्पर भिन्न मतों में से एक। वह बात जिसे कोई सिद्ध करना चाहता हो और किसी दूसरे की बात के विरुद्ध हो। जैसे,—(क) तुम्हारा पक्ष क्या है ? (ख) तुम शास्त्रार्थ में एक पक्ष पर स्थिर नहीं रहते। यौ०—उत्तम पक्ष। पूर्बपक्ष। पक्षखंडन। पक्षग्रहण। पक्षमंडन। पक्षसमर्थन। मुहा०—पक्ष गिरना = मत का युक्तियों द्वारा सिद्ध न हो सकना। शास्त्रार्थ या विवाद में हार होना। पक्ष निर्बल पड़ना = मत का युक्तियों द्वारा पुष्ट न हो सकना। पक्ष प्रबल पड़ना = मत का युक्तियों द्वारा पुष्ट होना। दलील मजबूत होना। पक्ष सँभालना = किसी मत या बात का खंडन होने से बचाना। पक्ष में = मत या बात के प्रमाण में। कोई बात सिद्ध करने के लिये। ४. दो या अधिक बातों में से किसी एक के संबंध में (किसी की) ऐसी स्थिति जिससे उसके होने की इच्छा, प्रयत्न आदि सूचित हो। अनुकूल मत या प्रवृत्ति। जैसे,—तुम देने के पक्ष में हो कि न देने के ? मुहा०—किसी बात के पक्ष में होना = किसी बात का होना ठीक या अच्छा समझना। ५. ऐसी स्थिति जिससे एक दूसरे के विरुद्ध प्रयत्न करनेवालों में से किसी एक की कार्यसिद्धि की इच्छा या प्रयत्न सूचित हो। झगड़ा या विवाद करनेवालों में से किसी के अनुकूल स्थिति। जैसे,—इस मामले में वह हमारे पक्ष में है। मुहा०—(किसी का) पक्ष करना = दे० 'पक्षपात करना'। पक्ष ग्रहण करना = पक्ष लेना। (किसी का) पक्ष लेना = (१) (झगड़े में) किसी की ओर होना। किसी की सहायता में खड़ा होना। सहायक होना। (२) पक्षपात करना। तरफदारी करना। ६. निमित्त। लगाव। संबंध। जैसे,—ऐसा करना तुम्हारे पक्ष में अच्छा न होगा। ७. वह वस्तु जिसमें साध्य की प्रतिज्ञा करने हैं। जैसे, 'पर्वत वह्निमान है'। यहाँ पर्वत पक्ष है जिसमेंसाध्य वह्निमान की प्रतिज्ञा की गई है (न्याय)। ८. किसी की ओर से लड़नेवालों का दल सा समूह। फौज। सेना। बल। ९. सहायकों या सवर्गों का दल। साथ रहनेवाला समूह। उ०—अंग पक्ष जाने बिना करिय न बैर बिरोध।—(शब्द०)। यौ०—केशपक्ष = बालों का समूह। १०. सहायक। सखा। साथी। ११. किसी विषय पर भिन्न भिन्न मत रखनेवालों के अलग अलग दल। विवाद या झगड़ा करनेवालों की अलग अलग मंडलियाँ। वादियों प्रतिवादियों के अलग अलग समूह। जैसे,—(क) दोनों पक्षों को साव- धान कर दो कि झगड़ा न करें। (ख) तुम कङी इस पक्ष में मिलते हो कभी उस पक्ष में। १२. चिड़ियों का डैना। पंख। पर। १३. शरपक्ष। तीर में लगा हुआ हुआ पर। १४. एक महीने के दो भागों में से कोई एक। चांद्रमास के पंद्रह पंद्रह दिनों के दो विभाग। पंद्रह दिन का समय। पाख। विशेष—पर्व दो होते हैं—कृष्ण और शुक्ल। कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक कृष्ण पक्ष कहलाता है क्योंकि उसमें चंद्रमा की कला प्रतिदिन घटती जाती हैं, जिसमें रात अँधेरी होती है। शुक्ल प्रतिप्रदा से लेकर पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष कहलाता है क्योंकि उसमें चंद्रमा की कला प्रतिदिन बढ़ती जाती है जिससे रात उजेली होती है। कृष्ण पक्ष में सूर्यास्त से और शुक्ल पक्ष में सूर्योदय से तिथि ली जाती है। १५. गृह। घर। १६. चूल्हे का छेद। १७. हाथ में पहनने का कड़ा। २०. महाकाल। शिव। २१. नीव। भित्ती। दीवार (को०)। २२. पड़ोस (को०)। २३. दीवार का ताख। पाख (को०)। २४. शुद्धता। पूर्णता (को०)। २५. स्थिति। दशा (को०)। २६. शरीर (को०)। २७. सूर्य (को०)। २८. दो की संख्या का सूचक शब्द (को०)।
⋙ पक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पार्श्व द्वार। २. खिड़की। चोर दरवाजा। ३. ओर। पक्ष। ४. सहायक। तरफदार। ५. पंखा [को०]।
⋙ पक्षका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बगल की दीवार [को०]।
⋙ पक्षगम
वि० [सं०] पंखों से उड़नेवाला [को०]।
⋙ पक्षग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] दो में से कोई एक पक्ष या दल चुनना। किसी पक्ष का समर्थन करना [को०]।
⋙ पक्षघात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पक्षाघात'।
⋙ पक्षचर
संज्ञा पुं० [पुं०] १. झुँड से बहका हुआ हाथी। २. चंद्रमा। ३. सेवक। भृत्य [को०]।
⋙ पक्षच्छिद
संज्ञा पुं० [सं०] (पर्वतों के पंख काटनेवाला) इंद्र का एक नाम [को०]।
⋙ पक्षज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ पक्षजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० पक्षजन्मन्] दे० 'पक्षज' [को०]।
⋙ पक्षति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। २. पंख की जड़। पखना। डैना [को०]।
⋙ पक्षद्वय
संज्ञा पुं० [सं०] विवाद के दोनों दल या पक्ष। २. दो पाख। महीना [को०]।
⋙ पक्षद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] खिड़की। चोर दरवाजा।
⋙ पक्षधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्ष का आदमी। तरफदार। २. पक्षी। चिड़िया। ३. चंद्रमा (को०)। ४. समूह से भटका हुआ हाथी (को०)।
⋙ पक्षधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पक्ष में हेतु के होने का अनुमान [को०]।
⋙ पक्षनाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंख की खोखली डंडी जिससे कलम तैयार की जाती है [को०]।
⋙ पक्षनिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पक्ष या विवाद में डालने की क्रिया। २. पंख गिराना [को०]।
⋙ पक्षपात
संज्ञा पुं० [सं०] बिना उचित अनुचित के विचार के किसी के अनुकूल प्रवृत्ति या स्थिति। तरफदारी। २. रुचि। इच्छा (को०)। ३. अनुराग। आसक्ति (को०)। ४. (चिड़ियों के) पंखों का गिरना (को०)।
⋙ पक्षपातिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पक्षपाती होने की क्रिया या भाव। पक्षग्रहण। २. मित्रता। ३. पंखों का संचालन (को०)।
⋙ पक्षपातित्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पक्षपातिता' [को०]।
⋙ पक्षपाती
वि० [सं० पक्षपातिन्] तरफदार। बिना उचित अनुचित के विचार के किसी के अनुकूल प्रवृत्त होनेवाला।
⋙ पक्षपालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पक्षद्वार। खिड़की [को०]।
⋙ पक्षपुट
संज्ञा पुं० [सं०] पंख। पर। डैना [को०]।
⋙ पक्षपोषण
वि० [सं०] कोई एक पक्ष लेनेवाला। झगड़ा करानेवाला [को०]।
⋙ पक्षप्रद्योत
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में हस्तमुद्रा का एक भेद [को०]।
⋙ पक्षबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० पक्षबिन्दु] दे० 'पक्षबिंदु' [को०]।
⋙ पक्षभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँख। पसली और कूल्हे के बीच का मांसवाला भाग। २. हाथी का पार्श्व [को०]।
⋙ पक्षभुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दूरी जो सूर्य एक पखवारे में पूरी करता है [को०]।
⋙ पक्षभेद
संज्ञा पुं० [सं०] किसी विवाद का दो पक्षों में बँटवारा [को०]।
⋙ पक्षमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. डैना। पर। २. प्रतिपदा तिथि।
⋙ पक्षरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी के पक्षसाधन के लिये रचा हुआ आयोजन। षड्यंत्र। चक्र।
⋙ पक्षरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की क्रीड़ा। एक खेल [को०]।
⋙ पक्षरूप
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।
⋙ पक्षवंचितक
संज्ञा पुं० [सं० पक्षवञ्चितक] नृत्य में हाथ की एक विशेष मुद्रा [को०]।
⋙ पक्षवध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पक्षाघात' [को०]।
⋙ पक्षवर्धिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षवर्द्धिनी] वह द्वादशी तिथि जो सूर्योदय से लेकर सूर्योदय तक रहे।
⋙ पक्षवाद
संज्ञा पुं० [सं०] एकपक्षीय बयान। एकतरफा बयान [को०]।
⋙ पक्षवान् (१)
वि० [सं० पक्षवत्] [वि० स्त्री० पक्षवती] १. पक्षवाला। परवाला। २. उच्च कुल में उत्पन्न।
⋙ पक्षवान् (२)
संज्ञा पुं० पर्वत। विशेष—पुराणों में कथा है कि पहले पर्वतों को पंख होते थे और वे उड़ते थे। पीछे इंद्र ने उनके पर काट लिए। इसी से इंद्र का एक नाम 'पक्षच्छिद' भी है।
⋙ पक्षवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] चिड़िया। पक्षी।
⋙ पक्षबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० पक्षविन्दु] कंका पक्षी।
⋙ पक्षव्यापी
वि० [सं०] किसी विवाद पर छा जानेवाला [को०]।
⋙ पक्षसुंदर
संज्ञा पुं० [सं० पक्षसुन्दर] लोध्र।
⋙ पक्षहत
वि० [सं०] जिसका एक पार्श्व लकवे के आघात से बेकाम हो गया हो [को०]।
⋙ पक्षहर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। २. दगाबाज। विश्वासघाती [को०]
⋙ पक्षहोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक पखवारे तक चलनेवाला यज्ञ [को०]।
⋙ पक्षांत
संज्ञा पुं० [सं० पक्षान्त] १. अमावस्या। २. पूर्णिमा। ३. सैन्यदल का अंतिम छोर [को०]।
⋙ पक्षांतर
संज्ञा पुं० [सं० पक्षान्तर] दो पक्षों में से कोई एक पक्ष। दूसरा पक्ष [को०]।
⋙ पक्षाघात
संज्ञा पुं० [सं०] अर्धांग रोग जिसमें शरीर के दाहिने या बाएँ किसी पार्श्व के सब अंग (जैसे, हाथ पैर, कंधा, इत्यादि) क्रियाहीन हो जाते हैं। आधे अंग का लकवा। फालिज। विशेष—वैद्यक के अनुसार इस रोग में कुपित वायु शरीर के अर्धांग में भरकर और उसकी शिराओं और स्नायुओं का शोषण करके संधिबंधनों और मस्तिष्क को शिथिल कर देती है जिससे उस पार्श्व के सब अंग निष्क्रिय और निश्चेष्ट हो जाते हैं। डाक्टरों के अनुसार पक्षाघात दो प्रकार का का होता है, एक तो वह जिसमें अंगों की गति मारी जाती है, दूसरा वह जिसमें संवेदना नष्ट हो जाती है और अंग सुन्न हो जाते हैं।
⋙ पक्षाभास
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धांताभास।
⋙ पक्षालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमार की अनुचरी मातृका।
⋙ पक्षालु
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी।
⋙ पक्षावसर
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्णिमा।
⋙ पक्षाहार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो पखवारे में एक बार भोजन करे [को०]।
⋙ पक्षि
वि० [सं० पक्षिन्] पंखवाला। डैनेवाला [को०]।
⋙ पक्षिकीट
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी चिड़िया [को०]।
⋙ पक्षिणी (१)
वि० [सं०] पक्षवाली।
⋙ पक्षिणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. चिड़िया। मादा चिड़िया। २. पूर्णिमा। ३. दो दिन और एक रात का समय (स्मृति)। ४. बाल- घातिनी पूतना (को०)।
⋙ पक्षितीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक तीर्थ। विशेष—प्राचीन काल में यह तीर्थ हिंदुओं और बौद्धों के बीच प्रसिद्ध था। यह मदरास से १६-१७ कोस दक्षिण पड़ता है। आजकल इसका नाथ 'तिरुक्कडुकुनरमु' है।
⋙ पक्षिपति
संज्ञा पुं० [सं०] संपाति का नाम [को०]।
⋙ पक्षिपानीयशालिका
संज्ञा स्त्री [सं] पक्षियों के पानी पिलाने के लिये निर्मित पात्र या हौज [को०]।
⋙ पक्षिपाल
वि० [सं० पक्षिपालक] चिड़िया पालनेवाला। उ०— पक्षिपाल ना पायहै अंडा। सो लौ धर्म रचै नव खंडा।— कबीर सा०, पृ० ७।
⋙ पक्षिपुंगव
संज्ञा पुं० [सं० पक्षिपुङ्गव] १. जटायु। २. गरुड [को०]।
⋙ पक्षिमार्ग
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायु [को०]।
⋙ पक्षिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षियों का राजा, गरुड़। २. जटायु। ३. एक प्रकार का धान।
⋙ पक्षिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'पक्षिलस्वामी'। २. मददगार। सहायक। सहयोगी।
⋙ पक्षिलस्वामी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन आचार्य। हेमचंद्र के मत से वात्स्यायन ही का नाम पक्षिल स्वामी है।
⋙ पक्षिशार्दूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०]।
⋙ पक्षिशाला
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोंसला। २. पिंजरा। पिंजर। ३. चिड़ियाघर [को०]।
⋙ पक्षींद्र
संज्ञा पुं० [सं० पक्षीन्द्र] गरुड [को०]।
⋙ पक्षी
संज्ञा पुं० [सं० पक्षिन्] १. चिड़िया। २. तरफदार। ३. बाण (को०)। ४. शिव (को०)।
⋙ पक्षी (२)
वि० १. पक्षवाला। पंखवाला। २. पक्ष विशेष का समर्थक। तरफदार [को०]।
⋙ पक्षीपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पक्षिपति'।
⋙ पक्षीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०]।
⋙ पक्षीय
वि० [सं०] (समस्त के अंत में) किसि पक्ष, समूह आदि से संबंध रखनेवाला। जैसे, कुरुपक्षीय।
⋙ पक्षेष्टि (१)
वि० [सं०] एक पक्ष में होनेवाला। पाक्षिक।
⋙ पक्षेष्टि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पाक्षिक याग। वह यज्ञ जो प्रति पक्ष किया जाय।
⋙ पक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष्मन्] १. आँख की बिरनी। बरौनी। २. महीन धागा। धागे का कोना (को०)। ३. पंख (को०)। ४. फूल की पंखुड़ी (को०)। ५. पशुओं के मुख का बाल। मूँछ। जैसे, सिंह, बिल्ली आदि के (को०)। ६. पशुओं के शरीर का बाल (को०)।
⋙ पक्ष्मकोप
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की बिरनी या पलकों का एक रोग।
⋙ पक्ष्मल
वि० [सं०] १. लंबी और सुंदर बरौनियोंवाला। २. रोमश। बालोंवाला। ३. मुलायम। चिकना। [को०]।
⋙ पक्ष्य (१)
वि० [सं] १. पखवारे में होने या घटनेवाला। २. प्रत्येक पाख में बदलनेवाला। ३. पक्षपात करनेवाला [को०]।
⋙ पक्ष्य (२)
संज्ञा पुं० तरफदार। पक्ष लेनेवाला [को०]।
⋙ पंखड
संज्ञा पुं० [सं० पाखण्ड] दे० 'पाखंड'। उ०—आसन वासन मानुस अंडा। भए चौखंड जो ऐस पखंडा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पखंडी (१)
वि० [हिं० पखंड + ई (प्रत्य०)] दे० 'पाखंडी'।
⋙ पखंडी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पाखंडी] वह जो कठपुतलियाँ नचाता हो। कठपुतली का नाच दिखानेवाला व्यक्ति। उ०—कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा। कतहुँ पखंडी काठ नचावा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पख
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. वह बात जो किसी बात के साथ जोड़ दी जाय और जिसके कारण व्यर्थ कुछ और श्रम या कष्ट उठाना पड़े। ऊपर से व्यर्थ बढ़ाई हुई बात। तुर्रा। जैसे,—मैं आऊँगा अवश्य पर साथ में लाने की पख न लगाइए। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। २. ऊपर से बढ़ाई शर्त। बाधक नियम। अड़ंगा। जैसे,—इम्तहान की पख न होती तो ये उस जगह पर हो जाते। ३. झगड़ा। बखेड़ा। झंझट। हैरान करनेवाली बात। जैसे,—तुमने मेरे पीछे अच्छी पख लगा दी है यह रुपयों के लिये बराबर मुझे घेरा करता है। क्रि० प्र०—करना।—फैलाना।—मचाना। ४. दोष। त्रुटि। नुक्स। जैसे,—वे इस हिसाब में यह पख निकालेंगे कि इसमें अलग अलग ब्योरा नहीं है।
⋙ पखड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्ष्म] फूलों का रंगीन पटल जो खिलने के पहले आवरण के रूप में गर्भ या परागकेसर को चारों ओर से बंद किए रहता है और खिलने पर फैला रहता है। पुष्पदल। जैसे, गुलाब की पखड़ी, कमल की पखड़ी।
⋙ पखतूट
संज्ञा पुं० [देश०] डिंगल में एक प्रकार का काव्यदोष।— रघु० रू०, पृ० १४।
⋙ पखनारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्ष + नाल] चिड़ियों के पंखों की डंठी जिसे ढरकी के छेद में तिली रोकने के लिये लगाते है (जुलाहे)।
⋙ पखपान
संज्ञा पुं० [हिं० पग + पान] पैर में पहनने का एक गहना जिसे पाँवपोश भी कहते हैं।
⋙ पखरना पु
क्रि० स० [हिं० पखारना] प्रक्षालन करना। धोना। पखारना।
⋙ पखरवाना
क्रि० स० [हिं० पखारना] दे० 'पखराना'।
⋙ पखराना
क्रि० स० [हिं० पखारना का प्रे० रूप] घुलवाना। पखारने का काम कराना।
⋙ पखरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'पाखर'। २. दे० 'पँखड़ी'।
⋙ पखरैत
संज्ञा पुं० [हिं० पाखर + ऐत (प्रत्य०)] वह घोड़ा या बैल या हाथी जिसपर लोहे की पाखर पड़ी हो।
⋙ पखरौटा †
संज्ञा पुं० [हिं० पखड़ी + औटा (प्रत्य०)] सोने या चाँदी के वर्क से लपेटा हुआ पान का बीड़ा।
⋙ पखवाड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष + वार] दे० 'पखवारा'।
⋙ पखवारा
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष + वार] १. चांद्रमास का पूर्वार्ध या उत्तरार्ध। महीने के पंद्रह पंद्रह दिन के दो विभागों में से कोई एक। २. पंद्रह दिन का काल। उ०—परखेसु मोहिं एक पखवारा। नहिं आवौं तो जानेसु मारा।—मानस ४।६।
⋙ पखा पु
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष] १. दाढ़ी। श्मश्रु। २. पंख। उ०— मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माल गरे पहिरौंगी।—रसखान०, पृ० १३।
⋙ पखाउज
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पखावज'।
⋙ पखाटा
संज्ञा पुं० [देश०] धनुष का कोना।
⋙ पखान पु
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'। उ०—नहीं चंद्र मनि जो द्रवै यह तेलिया पखान।—दीनदयाल (शब्द०)।
⋙ पखाना पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० उपाख्यान] कहावत। कहनूत। कथा। मसल। उ०—बालापन ते निकट रहन ही सुन्यो न एक पखानो।—सूर (शब्द०)।
⋙ पखाना † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पाखाना'।
⋙ पखापखी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षापक्षि ?] निरंतर किसी न किसी एक पक्ष के स्वीकरण की स्थिति या क्रिया। उ०—दादू पखा- पखी संसार सब निरपख बिरला कोई।—दादू० पृ० ३१९।
⋙ पखारना
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन, प्रा० पक्खाडन] पानी से मैल आदि साफ करना। धोना। जैसे, पैर पखारना। उ०— (क) पाँव पखारि निकट बैठारे समाचार सब बूझे।—सूर (शब्द०)। (ख) जो प्रभु पार अवसि गा चहहू। तौ पद पदुम पखारन कहहू।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पखाल
संज्ञा स्त्री० [सं० पय (= पानी) + हिं खाल] १. बैल के चमड़े की बनी हुई बड़ी मशक जिसमें पानी भरा जाता है। उ०—भीतर मैला बाहेरी चोखा, पाणी प्यंड पखाले धोना।—दक्खिनी०, पृ० ३४। २. धौंकनी।
⋙ पखालना पु †
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन] दे० 'पखारना'। उ०— पएर पखाल रोसे नहि खाए, अंधरा हाथ भेटल हर जाए। विद्यापति, पृ० ३१३।
⋙ पखाल पेटिया
संज्ञा पुं० [हिं० पखाल + पेट] १. वह जिसका पेट पखाल की तरह बढ़ा हो। बड़े पेटवाला। २. बहुत खानेवाला आदमी। पेटू।
⋙ पखाली
संज्ञा पुं० [हिं० पखाल] पखाल या मशक में पानी भरनेवाला। भिश्ती।
⋙ पखवज
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्ष + वाद्य] एक बाजा जो मृदंग से कुछ छोटा होता है।
⋙ पखावजी
संज्ञा स्त्री० [सं० पखावज + ई (प्रत्य०)] पखावज बजानेवाला।
⋙ पखिया
संज्ञा पुं० [हिं० पख + इया (प्रत्य०)] झगड़ालू। बखेड़ा मचानेवाला।
⋙ पखी पु
संज्ञा पुं० [सं० पक्षिन्] दे० 'पक्षी'।
⋙ पखीरी पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पक्षी'।
⋙ पखुड़ी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पख = पंख] दे० 'पखड़ी'।
⋙ पखुरा
संज्ञा पुं० [सं० पक्षमूल] दे० 'पखुवा'।
⋙ पखुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पख] दे० 'पखड़ी'। उ०—मनहुँ खिलायो कमल कछु प्रात अरुण ने आय। नैक पखुरिन बीच में अंतर परत लखाय।—शकुंतला, पृ० १३९।
⋙ पखुवा
संज्ञा सं० [सं० पक्ष, हिं० पक्ख] बाँह का वह भाग जो किनारे या बगल में पड़ता है। पखुरा। भुजमूल का पार्श्व। पार्श्व। बगल। मुहा०—पखुवे से लगकर बैठना = बगल में सटकर बैठना।
⋙ पखेरुवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पखेरू'।
⋙ पखेरू
संज्ञा पुं० [सं० पक्षालु, प्रा० पक्खाडु] पक्षी। चिड़िया। उ०—मधुबन तुम कत रहत हरे। विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ?......ससा स्यार औ बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।—सूर (शब्द)।
⋙ पखेव
संज्ञा पुं० [देश०] वह खाना जो भैस या गाय को, बच्चा जनने पर, छह दिनों तक दिया जाता हे। इसमें सोंठ, गुड़, हलदी, मँगरैला और उर्द का आटा होता है।
⋙ पखौंड़ा
संज्ञा पुं० [सं०] पक्तपौड़ वृक्ष। एक पेड़ का नाम।
⋙ पखौआ †
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष] पंख। पर। उ०—कारे रँग के काग पखौआ, पटियन जात उनारे। ककरिजिया खों ओढ़ ईसुरी खकल कलेजे डारे।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० १५७।
⋙ पखौटा
संज्ञा पुं० [हिं० पख] १. डैना। पर। २. मछली का पर।
⋙ पखौड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पखौरा] दे० 'पखौरा'।
⋙ पखौरा
संज्ञा पुं० [पक्ष + हिं० औरा (प्रत्य०)] कंधे और भुजदंड की संधि। कंधे पर की हड्डी।
⋙ पक्खर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाखर] दे० 'पाखर'। उ०—सजे डंबरं अंबरं साज बाजं। बनी पक्खरं बाजि साजं समाजं।—ह० रासो, पृ० ३४।
⋙ पग
संज्ञा पुं० [सं० पदक, प्रा० पअक, पक] १. पैर और पाँव। २. चलने में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैर रखने की क्रिया की समाप्ति। डग। फाल। ३. चलने में जिस स्थान से पैर उठाया जाय और जिस स्थान पर रखा जाय दोनों के बीच की दूरी। डग। फाल। मुहा०—पग परना = पैरों पर सिर रखकर प्रणाम करना। पाँव लगना या छूना। उ०—अस कहि पग परि पेम अति सिय हित विनय सुनाइ।—मानस, २।२८४। पग फूँककर धरना = सावधान होकर और सोच समझकर कदम रखना। उ०—धनमानों को प्रति पग फूँककर धरना पड़ता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७९। पग रोपना = कोई प्रतिज्ञा करके किसी जगह दृढ़तापूर्वक पैर जमाना।
⋙ पगचंपी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + चाँपना] पैर दबाने की क्रिया। पैर दबाना। उ०—नारायण देवा मही, ज्यूँ नारायण चंद। कमला पगचंपी करै बंक संक तज बंद।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४०।
⋙ पगडंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + डंडी] जंगल या मैदान में वह पतला रास्ता जो लोगों के चलते चलते बन गया हो।
⋙ पगड़ा पु †
संज्ञा पुं० [फा़० पगाह] प्रभात। दे० 'पगरा'। उ०— सघली रैनि आनंदघन बरस्या पगड़ै म्हाँ पर छाया।—घनानंद, पृ० ३८९।
⋙ पगड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पटक, हिं० पाग + ड़ी (प्रत्य)] वह लंबा कपड़ा जो सिर लपेटकर बाँधा जाता है। पाग। चीरा। साफा। उष्णीष। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना। मुहा०—(किसी से) पगड़ी अटकना = बराबरी होना। मुका- बला होना। पगड़ी उछलना = दुर्गति होना। बुरी नौबत आना। पगड़ी उछालना = (१) बेइज्जती करना। दुर्दशा करना। (३) उपहास करना। हँसी उड़ाना। पगड़ी उतरना = मान या प्रतिष्ठा भंग होना। बेइज्जती होना। पगड़ी उतारना = (१) मान या प्रतिष्ठा भंग करना। बेइ- ज्जती करना। (२) वस्त्रमोचन करना। ठगना। लूटना। धन संपत्ति हरण करना। (किसी को) पगड़ी बँधना = (१) उत्तराधिकार मिलना। वरासत मिलना। (२) उच्च पद या स्थान प्राप्त होना। सरदारी मिलना। अधिकार प्राप्त होना। (३) प्रतिष्ठा मिलना। सम्मान प्राप्त होना। (किसी को) पगड़ी बाँधना = (१) उत्तराधिकार देना। गद्दी देना। (२) उच्च पद या अधिकार देना। सरदार बनाना। (किसी के साथ) पगड़ी बदलना = भाई चारे का नाता जोड़ना। मैत्री करना। (किसी की) पगड़ी रखना = मानरक्षा करना। इज्जत बचाना। (किसी के आगे) पगड़ी रखना = बहुत नम्रता करना। गिड़गिड़ाना। हा हा खाना।
⋙ पगतरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + तल] जूता।
⋙ पगदासी †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + दासी] १. जूता। २. खड़ाऊँ उ०—देखि द्वार भीर, पगदासी कटि बाँधी धीर, कर सो उछीर करि, चाहैं पद गाइयै। भक्तमाल (प्रिया०), पृ० ४८९।
⋙ पगना
क्रि० स० [सं० पाक] १. शरबत या शीरे में इस प्रकार पकना कि शीरा चारो ओर लिपटः और घुस जाय। रस के साथ परिपक्व होकर मिलना। जैसे, पेठे का चीनी में पगना २. किसी लसलसे पदार्थ के साथ इस प्रकार मिलना कि वह उसमें भर जाय। सनना। रस आदि के साथ ओतप्रोत होना। ३. बहुत अधिक अनुरक्त होना। किसी के प्रेम में डूबना। मग्न होना। उ०—कहैं पद्माकर पगी यों पतिप्रेम ही में, पदमिनी तोसी, तिया तोही पेखियत है।पद्माकर (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ पगनियाँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० पग + नियाँ (प्रत्य०)] जूती। उ०— तानियां न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न घामै घुमराती छोड़ि सेजिया सुखन की।—भूषण (शब्द०)।
⋙ पगपान
संज्ञा पुं० [हिं० पग + पान] पैर में पहनने का एक भूषण जिसे पलानी या गोड़संकर भी कहते हैं। उ०—पगपान चाँदी को चरन पहिनन लागी सोभा देखि रंभा रति गर्वहू गरत सो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८२४।
⋙ पगरखी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + रखी] खड़ा़ऊँ। पादत्राण। पगतरी। उ०—इनको अच्छी प्रकार से अंग माँज माँज केस्नान कराकर, पगरखी तथा कमली आदि नई मँगवा दी।—भक्तमाल (प्रिया०), पृ० ५६२।
⋙ पगरना
संज्ञा पुं० [देश०] सोने चाँदी के नक्काशों का एक औजार जो नक्काशी करते समय छोटा गड्ढा बनाने के काम में आता है।
⋙ पगर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पग + रा (प्रत्य०)] पग। डग। कदम। उ०—सूर सनेह ग्वारि मन अटको छाँड़िहु दिए, परत नाहिं पगरो। परम मगन ह्वै रही चितै मुख सबही ते भाग याहि को अगरो।—सूर (शब्द०)।
⋙ पगरा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० पगाह (= सबेरा)] यात्रा आरंभ करने का समय। प्रभात। चलने का समय। सबेरा। तड़का। उ०—(क) पौ फाटी पगरा हुआ जागे जीवा जून। सब काहू को देत हैं चोच समाना चून।—कबीर (शब्द०)। (ख) कबिरा पगरा दूर है, बीच परी है राति। ना जाने क्या होयगा ऊगंता परभात।—कबीर (शब्द०)।
⋙ पगरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाग] दे० 'पगड़ी'। उ०—प्यार पगी पगरी पिय की घर भीतर आपने सीस सँवारी।—मति० ग्रं०, पृ० ३४५।
⋙ पगला
वि० पुं० [हिं०] [वि० स्त्री० पगली] दे० पागल'।
⋙ पगवाह †
संज्ञा पुं० [हिं० पग + सं० वाहन] पैदल सेना। उ०—वागाँ ली विचित्राँ पगवाहाँ।—रा० रू०, पृ० ३३४।
⋙ पगहा †
संज्ञा पुं० [सं० प्रग्रह, प्रा० पग्गाह] [स्त्री० पगही] वह रस्सी जिससे पशु बाधाँ जाता है। गिरावँ। पघा।
⋙ पगा †
संज्ञा पुं० [हिं० पाग] १. पटका। दुपट्टा। उ०—झगा झंगा अरु पाग पिछौरी ढाढ़िन को पहिराए।—सूर (शब्द०)। २. पाग। पगड़ी। पाग। उ०—सीस पगा न झगा तन में प्रभु जाने को आहि बसै किहि ग्रामा।—कविता कौ०, भा० १, पृ० १४९।
⋙ पगा (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रग्रह] दे० 'पघा'। उ०—तृण दशनन लै मिलु दसकंधर कंठहिं मेलि पगा।—सूर (शब्द०)।
⋙ पगा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पगरा] दे० 'पगरा'।
⋙ पगाना
क्रि० स० [सं० पक्व या पाक] १. पागने का काम कराना। २. अनुरक्त करना। मग्न। उ०—का कियो योग अजा- मिल जू गनिका कबही मति प्रेम पगाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पगार पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० आकार] गढ़, प्रासाद या बाग बगीचे के रक्षार्थ बनी हुई चहारदीवारी। रखवाली के लिये बनी हुई दीवार। ओट की दीवार। उ०—(क) बीथिका बजार प्रति अटनि अगार प्रति पँवरि पगार प्रति बानर बिलोकिए।— तुलसी (शब्द०)। (ख) नाँधती पगारन नगारन की घमकै।—भूषण (शब्द०)।
⋙ पगार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पग + गारना] १. पैरों से कुचली हुई मिट्टी, कीचड़ वा गारा। २. ऐसी वस्तु जिसे पैरों से कुचल सकें। ३. वह पानी वा नदी जिसे पैदल चलकर पार कर सकें। पायाब। उ०—गिरि ते ऊँचे रसिक मन बूड़े़ जहाँ हजार। वहै सदा पसु नरन कों प्रेम पयोधि पगार।—(शब्द०)।
⋙ पगार (३)
संज्ञा पुं० वेतन। तनख्वाह।
⋙ पगार † (४)
संज्ञा० पुं० [हिं० पग] मार्ग। रास्ता। उ०—छडक पगारा नोर छित, घुरै नगारा धोर।—रघु० रू०, पृ० ९४।
⋙ पगारना
क्रि० सं० [हिं० पगार + ना ?] फैलाना।
⋙ पगाह
संज्ञा० स्त्री० [फ़ा०] यात्रा आरंभ करने का समय। भोर। तड़का। दे० 'पगरा'।
⋙ पगिआ पु †
संज्ञा० स्त्री० [हिं० पाग + इया (प्रत्य०)] दे० 'पगड़ी'। उ०—जटा फटके लटके पगिया घट ना परचो रस रहत जो भीने।—सं० दरिया, पृ० ६३।
⋙ पगिआना †पु
क्रि० सं० [हिं० पगाना] दे० 'पगाना'।
⋙ पगिया पु
संज्ञा० स्ञी० [हिं० पाग + इया (प्रत्य०)] दे० 'पगड़ी'। उ०—कुटिल अलक समात नहिं पगिया, आलस सो झलमले। नंद० ग्रं०, पृ० ३५३।
⋙ पगियाना
क्रि० स० [हिं० पगाना] दे० 'पगाना'।
⋙ पगु पु †
संज्ञा० पुं० [हिं० पग] दे० 'पग'। उ०—राम सकल कुल रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धांरा।—मानस, १।२५।
⋙ पगुराना †
क्रि० अ० [हिं० पागुर] १. पागुर करना। जुगाली करना। २. हजम कर जाना। डकार जाना। ले लेना।
⋙ पगेरना
संज्ञा० पुं० [देश] कसेरों की एक प्रकार की छेनी जो बरतनों पर नकाशी करने के काम में आती है।
⋙ पग्गा †
संज्ञा० पुं० [हिं० पागना या पकाना] पीतल या ताँबा गलाने की घरिया। पागा।
⋙ पग्घ पु
संज्ञा० पुं० [हिं० पाग] पाग। पगड़ी। उ०—गज गही दौरि सिर पग्घ सुंड।—पृ० रा०, ५।२५।
⋙ पघरना †
संज्ञा० पुं० [हिं० पिघलना] दे० 'पिघलना'। उ०—ज्यौ पाले का पिंड पघरना। समुझि देषि निश्चै करि मरना।— सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३३४।
⋙ पघा
संज्ञा० पुं० [सं० प्रग्रह, प्रा० पग्गह] वह रस्सा जो गायों, बैलों आदि चौपायों के गले में बाँधा जाता है। ढोरों को बाँधने की मोटी रस्सी। पगहा।
⋙ पघाल
संज्ञा० पुं० [देश०] एक प्रकार का, बहुत कड़ा लोहा।
⋙ पघिलना †
क्रि० अ० [हिं० पिघलना] दे० 'पिघलना'।
⋙ पघिलाना
क्रि० स० [हिं० पघिलना] दे० 'पिघलाना'।
⋙ पघैया †
संज्ञा० पुं० [हिं० पग (= पैर, पैदल) + इया (प्रत्य०] गावों आदि में घूम घूमकर माल बेचनेवाला व्यापारी।