विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/सं
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ स
⋙ स
हिंदी वर्णमाला का बत्तीसवाँ व्यंजन। यह ऊष्म वर्ण है। इसका उच्चारण स्थान दंत है, इसलिये यह दंती 'स' कहा जाता है।
⋙ सं (१)
अव्य० [ सं० सम्] १.एक अव्यय जिसका व्यवहार शोभा, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरंतरता, औचित्य आदि सूचित करने के लिये शब्द के आरंभ में होता है। जेसे,—संभोग, संयोग, संताप, संतुष्ट आदि। कभी कभी इसे जोड़ने पर भी मूल शब्द का अर्थ ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। २. से।
⋙ सं पु (२)
प्रत्य० [ हिं०] करण कारक और उपादान कारक का चिह्न। से। उ०—तैं एते सं तनु गुण हरयौ। न्याइ बियोगु विधाता करयौ। —छिताई०, पृ०९३।
⋙ संक पु †
संज्ञा स्त्री० [ सं० शङ्का ] दे० 'शंका'। उ०—(क) जलधि पार मानस अगम रावण पालित लंक। सोच विकल कपि भालु सबु दुहु दिस संकट संक।—तुलसी (शब्द०)। (ख) श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं। मानस, ३।२४।
⋙ संकट (१)
वि० [ सं० सम + कृत, सङ्कट, प्रा० संकट ] १. एकत्र किया हुआ। २. घनीभूत। ३. तंग। क्षीण। ४. दुर्गम। दुर्लध्य़। ५. भयानक। कष्टप्रद। दुःखदायी। ६. संकीर्ण। सँकरा। तंग। ७. पूर्ण। भरा हुआ [को०]।
⋙ संकट (२)
संज्ञा पुं० १. विपत्ति। आफत। मुसीबत। उ०—लालन गे जब तें तब तें बिरहानल जालन ते मन डाढे़। पालत हे ब्रजगायन ग्वाल हुतो जब आवत संकट गाढे़।—दिनदयाल (शब्द०)। २. दुःख। कष्ट। तकलीफ। ३. भीड़। समूह। ४. सँकरी राह। ५. वह तंग पहाड़ी रास्ता जो दो बड़े और ऊँचे पहाडों के बीच से होकर गया हो। जैसे, गिरिसंकट। यौ०—संकटचतुर्थी = दे० 'संकटचौथ'। संकटनाशन = विपत्तियों का नाश करनेवाला। संकटमुख = तंग या सँकरे मुँह का। संकटमोचन = (१) काशी में गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा स्थापित हनुमानजी की एक प्रसिद्ध मूर्ति। (२) संकट से मुक्त करनेवाला। संकटनाशन।
⋙ संकट (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बत्तख।
⋙ संकट चौथ
संज्ञा स्त्री० [ हि० संकट + चौथ ] माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी।विशेष—इस दिन संकट दूर करनेवाले गणेश देवता के उद्देश्य से व्रत आदि रखा जाता है। कुछ लोग श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को भी संकट चौथ कहते हैं।
⋙ संकटस्थ
वि० [ सं० सङ्कटस्थ ] १. संकट में पड़ा हुआ। विपदग्रस्त। २. दुःखी।
⋙ संकटा
संज्ञा स्त्री० [ सं० सङ्कटा ] १. एक प्रसिद्ध देवी मूर्ती जो वाराणसो में हैं और संकट या विपत्ति का निवारण करनेवाली मानी जाती है। २. ज्योतिष के अनुसार आट योगिनियों में से एक योगिनी। विशेष—बाकी सात योगिनियाँ ये हैं —मंगला, पिंगला, धन्या, भ्रमरी, भद्रिका, उल्का और सिद्धि।
⋙ संकटाक्ष (१)
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कटाक्ष ] धौ का पेड़। धव।
⋙ संकटापन्न
वि० [ सं० सङ्कटापन्न] संकट या विपत्ति में पड़ा हुआ। उ०—छुरी की धार के समान दुर्गम और संकटापन्न हे।—संत० दरिया, पृ०५९।
⋙ संकटी
वि० [ सं० सङ्कटीन् ] विपद्ग्रस्थ। दुखी। संकटापन्न [को०]।
⋙ संकटीत्तीर्ण
वि० [ सं० सङ्कटोत्तीर्ण] जो संकट को पार कर गया हो [को०]।
⋙ संकत पु
संज्ञा पुं० [ सं०सङ्केत] दे० 'संकेत'।
⋙ संकथन
संज्ञा पुं० [ सं० संकथन, सङ्कथन] १. वार्ता। बातचीत। २. वर्णन। व्याख्या [को०]।
⋙ संकथा
संज्ञा स्त्री० [सं० संकथा, सङ्कथा] १. वार्ता। बातचीत। २. व्याखया। प्रतिपत्ति [को०]।
⋙ संकथित
वि० [ सं० संकथित, संङ्कथित] कहा हुआ। वर्णित। व्याख्यात [को०]।
⋙ संकना पु †
क्रि० अ० [ सं० शङ्कन] १. शंका करना। संदेह करना। २. डरना। भयभीत होना। उ०—पाँइ परे पलिका पै परी चिय संकति सौतिन होति न सौंहीं।—देव (शब्द०)।
⋙ संकनी †
संज्ञा स्त्री० [ सं० शाकिनी] दे० 'शाकिनी'। उ०—डंकनी संकनी घेरि मारी।—रामानंद०, पृ० ४।
⋙ संकर (१)
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कर] १. वह धूल जो झाडू देने के कारण उड़ती है। २. आग के जलने का शब्द। ३. दो पदार्थों का परस्पर मिश्रण। दो चीजों का आपस में मिलना। ४. न्याय के अनुसार किसी एक स्थान या पदार्थ में अत्यंताभाव और समानाधिकरण का एक ही में होना। जैसे,—मन में मूर्तत्व तो है, पर भूतत्व नहीं है; और आकाश में भूतत्व है, पर मूर्तत्व नहीं है। परंतु पृथ्वी में भूतत्व भी है और मूर्तत्व भी है। ५. वह जिसकी उत्पत्ति भीन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से हुई हो। दोगला। ६. मल। विष्ठा (को०)। ७. काव्यशास्त्र के अनुसार एक वाक्य में दो या अधिक अलंकारों का मिश्रण (को०)। ८. ऐसी वस्तु जो किसी वस्तु से छू जाने पर दूषित हो जाय (को०)। ९. भिन्न जाति या वर्ण का मिश्रण। जो भिन्न वर्णों का एक में (विवाहादि द्वारा) मिलना (को०)। यौ०—वर्णसंकर = दोगला।
⋙ संकर (२)
संज्ञा पुं० [ सं० शङ्कर, प्रा० संकर] दे० 'शंकर'। शिव। उ०—करेहु सदा संकर पद पूजा। नारी धरम पतिदेव न दूजा। मानस, १।१०२।
⋙ संकर पु (३)
संज्ञा स्त्री० [ सं० श्रृङ्खल, प्रा० संकल] दे० 'संकल'। उ०— संकर सिंघ कि छुट्टि, छुट्टि इंद्रह कि गरुअ गज।—पृ० रा०, ५।५६।
⋙ संकरक
वि० [ सं० सङ्करक] मिश्रण करनेवाला।
⋙ संकरकारक
वि० [ सं० सङ्करकारक] मिश्रण या घालमेल करनेवाला। वि० [ सं० सङ्करकारिन्] १. किसी अन्य वर्ण की स्त्री से अवैध संबंध रखनेवाला। २. दे० 'संकरकारक' [को०]।
⋙ संकरधरनी पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० शङ्कर + गृहणी] शंकर की पत्नी, पार्वती।
⋙ संकरज
वि० [सं० सङ्करज] जो दो विभिन्न वर्णों के संयोग से उत्पन्न हो। मिश्र जाति से उत्पन्न [को०]।
⋙ संकरजात
वि० [सं० सङ्करजात] दे० 'संकरज' [को०]।
⋙ संकरजाति, संकरजातीय
वि० [सं०, सङ्करजाती, सङ्करजातीय] दे० 'संकरज' [को०]।
⋙ संकरता
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्करता] १. संकर होने का भाव या धर्म। २. सांकर्य। मिलावट। घालमेल।
⋙ संकरषन पु
संज्ञा पुं० [सं० संङकर्षण] १. शेषनाग। संकर्षण। उ०—संकर्षन फुंकरै काल हुंकरै उतल्लै।—हम्मीर०, पृ० १३। २. बलराम।
⋙ संकरा
संज्ञा पुं० [सं० शङ्कर] एक राग। दे० 'शंकरा'।
⋙ संकराश्व
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कराश्व] खच्चर।
⋙ संकरित
वि० [सं० सङ्करित] जिसमें मिलावट हो। मिला हुआ।
⋙ संकरिया
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कर + हि० इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का हाथी जो कमरिया और मिरगी के बीच की श्रेणी का होता है। इसका मूल्य कमरिया से होता है।
⋙ संकरी (१)
संज्ञा पुं०, [सं० सङ्करिन्] १. वह जो भिग्न वर्ण या जाति के पिता और माता से उत्पन्न हो। संकर। दोगला। २. मिला हुआ। मिश्रित। ३. अवैध संबंध रखनेवाला (को०)।
⋙ संकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्करी] दे० 'शंकरी'।
⋙ संकरीकरण
संज्ञा पुं० [सं० राङ्करीकरण] १. नौ प्रकार के पापों में से एक प्रकार का पाप जो गधे, घोड़े, ऊँट, मृग, हाथी, बकरी, भैड़, मीन, साँप या भैंसे का बध करने से होता है। इसकेप्रायश्चित के लिये कुच्छु या अतिकृच्छ व्रत करने का विधान है। २. दो पदार्थों को एक में मिलाने की क्रिया। ३. वर्णसंकरता करना । दो विभिन्न वर्ण या जातियों में संबंध करना।
⋙ संकर्ष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कर्ष] अपनी ओर खींचना। नजदीक लाना। समीप लाना [को०]।
⋙ संकर्षण
संज्ञा पुं० [सं० संङ्कर्षण] १. खींचने की क्रिया। २. हल से जोतने की क्रिया। ३. कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम। ४. एकादश रुद्रों में से एक रुद्र का नाम। ५. बैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक निंबाकचिर्य थे। ६. आकर्षण (को०)। ७. छोटा करना (को०)। ८. शेषनाग (को०)। ९. गर्व : घमंड। अहंकार। (को०)।
⋙ संकर्षण विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की विद्या जिसमे किसी स्त्री के गर्भ को दूसरी स्त्री में स्थापित किया जाता था। (देवकी के सातवें गर्भ को इसी विद्या द्वारा रोहिणी में स्थापित किया गया था। इसी से बलराम का एक नाम संकर्षण है)।
⋙ संकर्षीं
वि० [सं० सङ्कर्षिन्] १. खींच लेनेवाला। पास में कर लेनेवाला। २. छोटा करनेवाला। संकुचित करने या सिकोड़ लेनेवाला [को०]।
⋙ संकल † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला, प्रा० संकल] १. दरवाजे में लगाने की सिकड़ी या जंजीर। २. पशुओं को बाँधने का सिक्कड़। ३. सोने या चाँदी की जंजीर जो गले में पहनी जाती है। जंजीर। ४. शृंखला। बंधन। उ०—संकल ही ते सब लहै माया इहि संसार। ते क्यूँ छूटै बापुड़े बाँधे सिरजनहार।—कबीर ग्रं०, पृ० ३४।
⋙ संकल (२)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कल] १. बहुत सी चीजों को एक स्थान पर एकत्र करना। संकलन। एकत्रीकरण। २. योग। मिलाना। ३. गणित की एक क्रिया जिसे जोड़ कहते हैं। योग। दे० 'संकलन'। ४. राशि। ढेर (को०)।
⋙ संकलन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कलन] [स्त्री० संकलना] [वि० संकलित] १. एकत्र करने कौ क्रिया। संग्रह करना। २. संग्रह। ढेर। ३. गणित की योग नाम की क्रिया। जोड़। ४. अनेक ग्रंथों से अच्छे अच्छे विषय चुनने की क्रिया। ५. वह ग्रंथ जिसमें ऐसे चुने हुए विषय हों। ६. संपर्क। संबंध। ७. योग (को०)। ८. टक्कर। धक्का। मुठभेड़ (को०)। ९. योजन। मिलान। लपेटना (को०)।
⋙ संकलना
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कलना] दे० 'संकलन' [को०]।
⋙ संकलप
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कल्प] दे० 'संकल्प'। उ०—जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संवत भरि संकलप करेहू।—मानस, १।१६८।
⋙ संकलपना पु † (१)
क्रि० सं० [सं० सङ्कल्प + हि० ना (प्रत्य०) अथवा संकल्पना] १. किसी बात का दृढ़ निश्चय करना। उ०—जैसी पति तेरे लिये मैं संकल्प्यो आप। तैसो तै पायो सुता अपने पुन्न प्रताप।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। २. किसी धार्मिक कार्य के निमित्त कुछ दान देना। संकल्प करना।
⋙ संकलपना (२)
क्रि० अ० विचार करना। इच्छा करना। इरादा करना।
⋙ संकला (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाक्] शक द्वीप।
⋙ संकला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला, प्रा० संकला] दे० 'संकल'। उ०—मनों संकला हेम ते सिंघ छुट्टं।— पृ० रा०, २।५०३।
⋙ संकला (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कला] एकत्रीकरण। जोड़ना। मिलाना [को०]।
⋙ संकलित (१)
वि० [सं० सङ्कलित] १. चुना हुआ। संगृहीत। २. जोड़ लगाया हुआ। योजित। ३. इकट्ठा किया हुआ। एकत्र किया हुआ। ४. गृहीत। पुनः प्राप्त किया या पकड़ा हुआ [को०]।
⋙ संकलित (२)
संज्ञा पुं० जोड़। योग [को०]।
⋙ संकलुष
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कलुष ] कालुष्य। अशुद्धता [ को० ]।
⋙ संकल्प
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कल्प ] १. कार्य करने की वह इच्छा जो मन में उत्पन्न हो। विचार। इरादा। २. दान, पुराय या और कोई देवकार्य आरंभ करने से पहले एक निश्चित मंत्र का उच्चारण करते हुए अपना दृढ़ निश्चय या विचार प्रकट करना। ३. वह मंन्त्र जिसका उच्चारण करके इस प्रकार का निश्चय या विचार प्रकट किया जाता है। विशेष—इस मंत्र में प्रायः संवत्, मास, तिथि, वार, स्थान, दाता या कर्ता का नाम, उपलक्ष और दान या कृत्य आदि का उल्लेख होता है। ४. दृढ़ निश्चय। पक्का विचार। जैसे, — मैने तो अब यह संकल्प कर लिया है कि कभी उसके साथ कोई व्यावहार न रखुँगा। ५.उद्धेश्य। लक्ष्य (को०)। ६. विमर्श। ऊहा। कल्पना (को०)। ७. मन। हृदय (को०)। ८. पति के साथ सती होने की आकांक्षा (को०)। यौ०—संकल्पज। संकल्पजन्मा। संकल्पजूति = संकल्प चया कामना द्वारा प्रेरित। संकल्पप्रभव। संकल्पभव। संकल्पमूल = विचार या दृढ इच्छाशक्ति जिसके मूल में हो। संकल्पयोनि। संकल्प- रुप = इच्छा के अनुरुप। संकल्पसंपत्ति = कामना की पूर्ति। संकल्पसंभव= (१) संकल्प या विचार से उत्पत्र। (२) कामदेव। संकल्पसिद्ध = विचार मात्र से पूर्ण होनेवाला। संकल्पसिद्धि = उद्देश्य वह सिद्धि जो संकल्प द्वारा पूर्ण हो।
⋙ संकल्पक
वि० [ सं० सङ्कल्पक ] विचार करनेवाला। इच्छा करनेवाला। संकल्प करनेवाला [ को०]।
⋙ संकल्पज (१)
वि० [ सं० सङ्कल्पज ] इच्छा, विचार या संकल्प से उत्पत्र होनेवाला [ को०]।
⋙ संकल्पज (१)
संज्ञा पुं० १. इच्छा। काम। २. कामदेव [ को० ]।
⋙ संकल्पजन्मा
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कल्पजन्मन् ] दे० 'संकल्पज'।
⋙ संकल्पन
संज्ञा पुं० [ सं० सङ्कल्पन ] उद्देशय़ अभिलाषा। इच्छा [ को०]।
⋙ संकल्पना (१)
क्रि० स०, क्रि० अ० [ सं० संकल्प+हि० ना (प्रत्य०)] दें 'संकल्पना'। उ०— संकल्पि सिय रामहिं समर्पी सील सुख सोभामई। — तुलसी ग्रं०, पृ०५८।
⋙ संकल्पना (२)
संज्ञा स्त्री० [ सं० सङ्कल्पना ] १. संकल्प करने की क्रिया। २. वासना। इच्छा। अभिलाषा।
⋙ संकल्पनिय
वि० [ सं० ] १. कामना करने योग्य। जिसकी कामना या चाह की जाय। २. प्रतिज्ञा करने योग्य। जिसके लिये निश्चय किया जाया [ को०]।
⋙ संकल्पप्भव
संज्ञा पुं० [ सं०] कामदेव [ को०]।
⋙ संकल्पयोनि
संज्ञा पुं० [ सं० ] कामदेव। मदन। २. आकांक्षा। इच्छा। कामना [ को०]।
⋙ संकल्पा
संज्ञा स्त्री० [ सं० सङ्कल्पा ] दक्ष की एक कन्या जो धर्म की भार्या थी।
⋙ संकल्पात्मक
वि० [ सं० सङ्कल्पात्मक ] जीसमें संकल्प या दृढ़ इच्छा- शक्ति निहित हो। जिसका निश्चय किया गया हो [ को०]।
⋙ संकल्पित
वि० [ सं० सङ्कल्पित ] १. कल्पित। जिसकी कल्पना की गई हो। २. जिसका दृढ़ निश्चय किया गया हो। जिसके लिये प्रतेज्ञात हों। ३. इच्छित। विचारित। लक्षित [ को०]।
⋙ संकष्ट
संज्ञा पुं० [ सं० संङ्कष्ट ] दुःख। कष्ट। दे० 'संकट'। उ०— भक्त संकष्ट अवलोकि पितुवाक्य कृत गमन किय गहन वैतेहिभर्ता। — तुलसी ग्रं०, पृ०४८८।
⋙ संकसुक
वि० [ सं० सङ्कसुक ] १. जो स्थिर न हो। चंचल। २. संदिग्ध। संदेबास्पद। अनिश्चित। ३. बुरा। बदमाश। ४. कमजोर। बलहीन [ को०]।
⋙ संका
संज्ञा स्त्री० [ सं० शङ्का ] दे० 'शंका'। उ०— देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन मबें गरुड़ असंका।— मानस, ५।२०।
⋙ संकार (१)
संज्ञा पुं० [ सं० ] १. कूड़ा करकट या छूल जो झाङू देने से उड़े। २. आग के जलने का शब्द। यौ०—संकारकूट = कूड़े कचरे की राशी।
⋙ संकार पु ‡
संज्ञा स्त्री० [ सं० सङ्केत, या हि० सनकार ?] इशारा। संकेत।
⋙ संकारना †
क्रि० सं० [ हि० संकार+ना (प्रत्य०), या हि० सनकारना ] संकेत करना। इशारा करना।
⋙ संकारी (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० सङ्कारी ] वह कन्या जिसका कौमार्य सद्य? भंग हुआ हो [ को०]।
⋙ संकारी (२)
वि० [ सं० सङ्करिन् ] १. संकीर्ण। मिश्रित। संकर। २. मिश्रित या संकर जाति से उत्पन्न [ को०]।
⋙ संकाश (१)
अव्य० [ सं० सभ्काश ] १. समान। सदृश। मिलता जुलाता। (समासंत में)। उ०— तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं। — मानस, ७।१०८। २. समीप में। निकट या पास में [ को०]।
⋙ संकाश (२)
अव्य० समीप। निकट। पास।
⋙ संकाश (३)
संज्ञा पुं० १. उपस्थिति। मौजूदगी। २. पड़ोस। प्रतिवेश। संकास [ को०]।
⋙ संकाश (४)
संज्ञा पुं० [ सं० सम्+काश् (=चमकना) ] प्रकाश। चमक। दीप्ति।
⋙ संकास पु
अव्य० [सं० सङ्काश] दे० 'संकाश'। उ०—(क) देव- रिक्ष मर्कट विकट सुभट उद्रट समर सैल संकास रिपु त्रासकारी। बद्ध पाथोधि सुर निकर मोचन सकुल दलन दस- सीस भुज बीस भारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) स्वर्न सैल संकास कोटि रवि तरुन तेज घन।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ संकित पु
वि० [सं० शङ्कित] दे० 'शंकित'। उ०—(क) साहिब महेस सदा संकित रमेश मोहि, महातप साहस विरंचि लोन्हे मोल हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७६। (ख) तेवरों को देख उन्हें संकित सराहिए।—प्रेमधन०, भा० १, पृ०२०१।
⋙ संकिल
संज्ञा पुं० [सं० साङ्किल] लुकारी। जलती हुई लकड़ी या मशाल [को०]।
⋙ संकिस्त †
वि० [सं० सङ्कृष्ट = संकट (=सँकरा)] जो अधिक चौड़ा न हो। सँकरा। तंग।
⋙ संकीरन ‡
वि० [सं० सङ्कीर्ण] दे० 'संकीर्ण'।
⋙ संकीर्ण (१)
वि० [सं० सङ्कीर्ण] १. जो अधिक चौड़ या विस्तृत न हो। संकुचित। तंग। सँकरा। २. मिश्रित। मिला हुआ। ३. क्षुद्र। छोटा। ४. नीच। तुच्छ। ५. वर्णसंकर। ६. बिखरा हुआ। छिटकाया हुआ (को०)। ७. मदमत्त (हाथी) (को०)। ८. अव्यवस्थित। क्रमहीन। अस्पष्ट (को०)। यौ०—संकीर्णजाति = (१) वर्ण की संकरता से उत्पन्न व्यक्ति। (२) दोगली नस्ल का। जैसे, खच्चर। संकीर्णयुद्ध = वह युद्ध जिसमें अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग किया जाय। संकीर्णयोनि = दे० संकीर्णजाति।
⋙ संकीर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. वह राग या रागिनी जो दो अन्य रागों या रागिनियों को मिलाकर बने। विशेष—इसके १६ भेद कहे गए हैं —चैत्र, मंगलक, नगनिका, चर्च्चा, अतिनाठ, उन्नवी, दोहा, बहुला, गुरुबला, गीता, गोवि, हेम्ना, कोपी, कारिका, त्रिपदिका, और अधा। २. संकट। विपत्ति। ३. अंतर्जातीय संबंध से उत्पन्न या संकर जाति का व्यक्ति [को०]। ४. मतवाला हाथी [को०]।
⋙ संकीर्ण (३)
संज्ञा पुं० साहित्य में एक प्रकार का गद्य जिसमें कुछ वृत्तिगंधि और कुछ अवृत्तिगंधि का मेल होता है।
⋙ संकीर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कीर्णता] १. संकीर्ण होने का भाव। २. तंगी। सँकरापन। ३. नीचता। ४. क्षुद्रता। ओछापन।
⋙ संकीर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कीर्णा] पहेली का एक भेद [को०]।
⋙ संकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कीर्तन] [स्त्री० संकीर्तिना] [वि० संकी- र्तित] १. भली भाँति किसी की कीर्ति का वर्णन करना। प्रशंसा करना। २. किसी देवता की सम्यक् रुप से की हुई वंदना या भजन नाम आदि जपना। ३. किसी देवता की स्तुति। स्तवन [को०]।
⋙ संकीर्तित
वि० [सं० सभ्कीर्तित] १. जिसका संकीर्तन किया गया हो। स्तुत। प्रशंसित [को०]।
⋙ सकील
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कील] पुराणानुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ संकुचित
वि० [सं० सङ्कुच्चित] झुका हुआ। बक्र। टेढा [को०]।
⋙ संकु (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कु] विवर। सूराख। छिद्र [को०]।
⋙ संकु पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शङ्कु] १. कोई नोकदार वस्तु। २. भाला। बरछा।
⋙ संकुचन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कुचन] १. संकुचित होने की क्रिया। सिकुड़ना। २. बालकों का एक प्रकार का रोग जिसको गणना बालग्रह में होती है। ३. लज्जित होने की क्रिया [को०]।
⋙ संकुचित
वि० [सं० सङ्कुचित] १. संकोचयुक्त। लज्जित। जैसे, संकुचित दष्टि। २. सिकुड़ा हुआ। सिमटा हुआ। ३. तंग। सँकरा। संकीर्ण। ४. उदार का उलटा। अनुदार। क्षुद्र। ५. मुँदा हुआ। बंद (को०)। ६. नम्र। नत। झुका हुआ (को०)।
⋙ संकुट
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कट] दे० 'संकट'। उ०—(क) संकुट संसा नरक न नैनहु, ताकौं कबहुँ काल न खाइ। कंपन कोई भै भ्रम भागै, सब विधि ऐसी एक लगाई।—दाद्०, पृ०६६२।
⋙ संकुटि †
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त, हिं० शाकत, साकट] भांसभक्षी शाक्त। उ०—स्वादै हि संकुटि परचौ देखत ही नर अंधो रे। मूरखि मूठी छाड़ि दे होइ रह्नो निरबंधो रे।—दादू०, पृ०५८६।
⋙ संकुपित
वि० [सं० सङ्कुपित] क्रुद्ध। नाराज। उत्तेजित [को०]।
⋙ संकुल (१)
वि० [सं० सङ्कुल] १. संकुलित। संकीर्ण। धना। २. भरा हुआ। परिपूर्ण। ३. अव्यवस्थित (को०)। ४. विकृत (को०)। ५. असंगत (को०)। ६. उग्र। प्रबल। प्रचंड (को०)। ७. घबड़ाया हुआ (को०)।
⋙ संकुल (२)
संज्ञा पुं० १. युद्ध। समर। लड़ाई। २. समूह। झुंड। ३. भीड़। ४. जनता। ५. परस्पर विरोधी वाक्य। ६. ऐसे वाक्य जिनमें परस्पर किसी प्रकार की संगति न हो। असंगत वाक्य। ७. नाश (को०)।
⋙ संकुलता
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कुलता] १. संकुलित होने का भाव। परिपूर्णता। २. गड़बड़ी। असंगति। अव्यवस्थिति। ३. घनता। घनापन। ४. जटिलता [को०]।
⋙ संकुलित
वि० [सं० सङ्कुलित] १. जो संकुल या पूरा हो। भरा हुआ। २. एकत्र। ३. घना। ४. अव्यवस्थित। घबराया हुआ (को०)। ५. बँधा हुआ। उ०—शिरसि संकुलित कलकूट पिंगला जटा, पटल शत कोटि विद्युच्छटाभम्।—तुलसी ग्रं०, पृ०४६०।
⋙ संकुश
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कुश] एक प्रकार की मछली जिसे शंकु भी कहते हैं।
⋙ संकूजित
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कुजित] १. चकवा पक्षी की आवाज। २. पक्षियों का कूजन [को०]।
⋙ संकृति (१)
वि० [सं० सङ्कृति] १. इकट्ठा करनेवाला। २. ठीक करनेवाला। ३. तैयार करनेवाला [को०]।
⋙ संकृति (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार का छंद [को०]।
⋙ संकृति (३)
संज्ञा पुं० एक साम [को०]।
⋙ संकृत्त
वि० [सं०] टुकड़े टुकड़े काटा हुआ। काटकर टुकड़े टुकड़े किया हुआ [को०]।
⋙ संकृष्ट
वि० [सं०] १. खींचकर पास लाया हुआ। खींचा हुआ। २. एक साथ किया हुआ [को०]।
⋙ संकेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना भाव प्रकट करने के लिये किया हुआ कायिक परिचालन या चेष्टा। इशारा। इंगित। २. प्रेमी प्रेमिका के मिलने का पूर्वनिर्दिष्ट स्थान। वह स्थान जहाँ प्रेमी और प्रेमिका मिलना निश्चित करें। सहेट। ३. कामशास्त्र संबंधी इंगित। शृंगार चेष्टा। ४. प्रेमी और प्रेमिका द्वारा किया गया निश्चय (को०)। ५. परंपरा। करार। ठहराव (को०)। ६. व्यवस्था। विधान। शर्त (को०)। ७. चिह्न। निशान। ८. पते की बातें। उ०—सरुष जानकी जानि कपि कहे सकल संकेत। दीन्हि मुदिका लोन्हि सिय प्रीति प्रतीति समेत।—तुलसी (शब्द०)। ९. न्याय, व्याकरण आदि में एक वृत्ति। यह शब्द या पद इस प्रकार का अर्थबोधन करे यह संकेत या इच्छा (को०)। यौ०—संकेतकेतन, संकेतगृह, संकेतनिकेत, संकेतनिकेतन, संकेत- भुमि, संकेतस्थल, संकेतस्थान = प्रेमी प्रेमिका का मिलन स्थान। सहेट।
⋙ संकेतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्धारण। सहमति। निश्चय। २. संकेतस्थल। ३. मिलन का निश्चय करनेवाली नायिका या नायक [को०]।
⋙ संकेतग्रह, संकेतग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्केतग्रह, सङ्केतग्रहण] शब्द्रार्थ ग्रहण करने की क्रिया। शब्द की अर्थ बोध कराने की शक्ति का आधारभूत धर्म। संकेत या अभिप्राय का ग्रहण। उ०—शब्द की अर्थबोधन शक्ति, शब्द और अर्थ का संबंध अथवा संकेतग्रहण भाषाज्ञान के लिये आवश्यक है।—भाषा शि०, पृ० १८। विशेष—वक्ता द्वारा कहे गए शब्द सुनने पर श्रोता जिस क्रिया से वक्ता के शब्द का ठीक ठीक आभिप्राय आत्मगत करता है उसे संकेतग्रह या संकेतग्रहण कहते हैं।
⋙ संकेतन
संज्ञा पुं० [सं,० सङ्केतन] १. आपसी निश्चय। २. सहेट। मिलने का स्थान [को०]।
⋙ संकेतवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वपक्ष के व्यक्ति का परिचायक विशिष्ट शब्द [को०]।
⋙ संकेतित
वि० [सं० सङ्केतित] १. निश्चित किया हुआ। ठहराया हुआ। २. आहूत। निमंत्रित। ३. इशारा किया हुआ। इंगित [को०]। यौ०—संकेतितार्थ = वह अर्थ जो संकेतित या इंगित हो।
⋙ संकोच
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कोच] १. सिकुड़ने की क्रिया। खिचाव। तनाव। जैसे, अंगसंकोच, गात्रसंकोच। २. लज्जा। शर्म। ३. भय। ४. आगा पीछा। पसोपेश। हिचकिचाहट। ५. कभी। ६. एक प्रकार की मछली। ७. केसर। कुमकुम। ८. एक अलंकार जिसमें 'विकास अलंकार' से विरुद्ध वर्णन होता है या किसी वस्तु का अतिशय संकोच वर्णन किया जाता है। ९. बहुत सी बातों को थोड़े में कहना। १०. बंद होना। मुँदना। जैसे, कमलसंकोच, नेत्रसंकोच (को०)। ११. शुष्क होना।सूखना। उ०—जलसंकोच विकल भइ मीना।—मानस, ४। २०। १२. बंधन। बंध (को०)। झुकना। नम्र होना (को०)। यौं०—संकोचकारी = (१) नम्र होनेवाला। (२) लज्जालु। शरमीला। संकोचपत्रक। संकोचपिशुन। संकोचरेखा = सिकुड़न की रेंखा। झुरीं।
⋙ संकोचक
वि० [सं० सङ्कोचक] जो संकुचित करे। संकोचन करनेवाला [को०]।
⋙ संकोचन (१)
संज्ञा पुं० [सं० चसङ्कोचन] १. सिकुड़ने की क्रिया। २. एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ संकोचन (२)
वि० १. लज्जा करनेवाला। २. सिकुड़नेवाला [को०]।
⋙ संकोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कोचनी] लजालू नाम की लता।
⋙ संकोचपत्रक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कोचपत्रक] वृक्षों का एक प्रकार का रोग निसमें उनके पतों के ऊपर कुछ दाने से निकल आते हैं और पत्ते सिकुड़ जाते हैं।
⋙ संकोचपिशुन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कोचपिशुन] कुंकुम। केसर।
⋙ संकोचित (१)
वि० [सं० सङकोचित] १. संकोचयुक्त। जिसमें संकोच हो। २. जो विकसित या प्रफुल्लित न हो। अप्रफुल्लित। ३. लज्जित। शरमिंदा।
⋙ संकोचित (२)
संज्ञा पुं० तलवार के बत्तीस हाथों में से एक हाथ। तलवार चलाने का एक ढंग या प्रकार।
⋙ संकोची
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कोचिन्] १. संकोच करनेवाला। २. सिकुड़नेवाला। ३. जिसे संकोच या लज्जा हो। शर्म करनेवाला।
⋙ संकोपना पु
क्रि० अ० [सं० सम् + कोप + हि० ना० (प्रत्य०)] क्रोध करना। कुद्ध होना। गुस्सा करना।
⋙ संक्रंद
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कन्द] १. युद्ध। लड़ाई। २. कोलाहल। शोरगुल। ३. रोना। आकंदन। विलपना। ४. सोमरस को निकालने या निचोड़ने का साधन। अभिषवण [को०]।
⋙ संक्रंदन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कन्दन] १. शक्र। इंद्र। सुरपति। उ०— संक्रदन कृपाल सुरत्राता। बज्री भुक्ति मुक्ति के दाता।—गिरिधर (शब्द०)। २. पुराणानुसार भौत्य मनु के पुत्र का नाम। ३. लड़ाई। युद्ध। संग्राम (को०)। ४. दे० 'कंदन'। यौ०—संकंदननंदन, संकंदनपुत्र = (१) बालि नामक बानर। (२) अर्जुन। पार्थ।
⋙ संक्रम
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कम] १. कष्ट या कठिनतापूर्वक बढ़ने की क्रिया। संप्रवेश। २. पुल आदि बनाकर किसी स्थान में प्रवेश करना। ३. पुल। सेतु। ४. प्राप्ति। ५. संक्रमण। संक्रांति। ६. साथ गमन करना। साथ जाना (को०)। ७. गमन। गति (को०)। ८. भ्रमण। संचलन (को०)। ९. दुर्गम रास्ता। तंग राह (को०) । १०. उल्कापात। तारा टूटना (को०)। ११. विभिन्न राशियों में आकाशीय पिंड वा ग्रहों के संचरण की कक्षा या मार्ग (को०)। १२. सोपान। सीढी (को०)। १३. किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन या मार्ग (को०)।
⋙ संक्रमण
संज्ञा पुं०, [सं० सङ्क्रमण] १. गमन। चलना। २. अतिक्रमण। ३. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी राशी में प्रवेश करना। ४. घूमना। फिरना। पर्यटन। ५. मिलन। संयोग (को०)। ६. एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश। ७. सूर्य के उत्तरायण होने का दिन (को०)। ८. परलोक यात्रा। मृत्यु (को०)। ९. संगमन। सहमति (को०)। १०. मार्ग (को०)। ११. हस्तांतरण (को०)।
⋙ संक्रमणका
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्क्रमणका] दीर्धिका। गैलरी [को०]।
⋙ संक्रमित
वि० [सं० सङ्क्रमित] १. परिवर्तित। २. प्रविष्ट [को०]।
⋙ संक्रमिता
वि० [सं० सङ्क्रमिता] १. संक्रमण करनेवाला। २. गमन करनेवाला। ३. प्रवेश करनेवाला [को०]।
⋙ संक्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कांत] १. दायभाग के अनुसार वह धन जो कई पीढियों से चला आया हो। २. सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना। विशेष दे० 'संक्रांति'। ३. वह संपत्ति जो पति द्वारा स्त्री को प्राप्त हो। पति से प्राप्त स्त्री की संपत्ति (को०)।
⋙ संक्रांत (२)
वि० १. मिला हुआ। प्राप्त। २. बिता हुआ। गत। ३. प्रविष्ट (को०)। ४. स्थानांतरित। न्यस्त (को०)। ५. ग्रस्त। गृहीत (को०)। ६. प्रतिफलित। पिरतिविंबित (को०)। ७. चित्रित (को०)। ८. संक्रांतियुक्त (को०)।
⋙ संक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्क्रान्ति] १. एक राशि से दूसरी राशि में गमन। २. सूर्य का एक राशि से दूसरी में प्रवेश करने का समय। विशेष—प्रायः सूर्य एक राशि में ३० दिन तक रहता हैं। और जब वह एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में जाता है, तब उसे संक्रांति कहते हैं। वास्तव में संक्रांति काल वही होता है जब सूर्य दो राशियों की ठीक सीमा पर या बीच में होता हैं। यह संक्रांति काल बहुत थोड़ा होता है। पुराणा- नुसार यह काल बहुत पुनीत माना जाता है और इस समय लोग स्नान, दान, पूजन इत्यादि करते हैं। इस समय का किया हुआ शुभ कार्य बहुत पुण्यजनक माना जाता है। ३. वह दिन जिसमें सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में जाता है। ३, संगमन। मेल (को०)। ४. एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक का मार्ग (को०)। ५. हस्तांतरण (को०)। ६. प्रतिबिंब। ७. अंकन। चित्रण (को०)। ८. विद्या दान की शक्ति (को०)।
⋙ संक्रांतिचक्र
संज्ञा पुं० [सं० सङक्रान्तिचक्र] फलित ज्योतिष के अनुसार मनुष्यों के शुभ अशुभ जानने के हेतु बनाया हुआ मनुष्य के आकार का नक्षत्रों से अंकित एक प्रकार का चक्र जिससे यह जाना जाता है कि मनुष्य के लिये किस संक्रांति का फल शुभ और किसका अशुभ होगा।
⋙ संक्राम
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्राम] कष्ट या कठिनाई से युक्त प्रगति। संप्रवेश। दे० 'संक्रम'।
⋙ संक्रामक
वि० [सं० सङ्क्रामक] जो (रोग या दोष आदि) संसर्गया छूत आदि के कारण एक से औरों में फैलता हो। जैसे,— चेचक, प्लेग, महामारी, क्षयी आदि रोग संक्रामक होते हैं।
⋙ संक्रामयितव्य
वि० [सं० सङ्क्रामयितव्य] संक्रामित कराने के योग्य [को०]।
⋙ संक्रामित
वि० [सं० सङ्क्रामित] १. हस्तांतरित। दिया हुआ। २. बतलाया हुआ [को०]।
⋙ संक्रामी
संज्ञा पुं० [सं० सतङ्कामिन्] १. वह जो लोगों में रोगों का संक्रमण करता हो। रोग फैलानेवाला। २. वह जो संक्रमण करे या फैले। अन्य के पास जानेवाला [को०]।
⋙ संक्रीड़
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्रीड़] १. परिहास। हँसी ठट्टा। क्रीड़ा। विनोद। २. एक साम का नाम।
⋙ संक्रिड़न
संज्ञा पुं० [सं० संक्रीडन] १. खेल क्रीड़ा। विनोद। २. बहुतों का एक साथ क्रीड़ा, हास परिहास आदि करना [को०]।
⋙ संक्रीड़ित (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्रीड़त] रथ चलने के समय होनेवाली आवाज [को०]।
⋙ संक्रीडित (२)
वि० क्रीड़ित। खेला हुआ [को०]।
⋙ संक्रुद्ध
वि० [सं० सङ्क्रुद्ध] बहुत अधिक क्रुद्ध [को०]।
⋙ संक्रोन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कमण] संक्रमण। संक्रांति। विशेष दे० 'संक्रांति'। उ०—तिय तिथि तरनि किसोर वय, पुन काल सम दोन। काहू पुन्यनि पाइयत, बैस संधि संक्रोन।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ संक्रोश
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्रोश] १. जोर से शब्द करना। एक साथ चिल्लाना। २. एक साम का नाम। ३. क्रोध आदि के आवेश में बोलना (को०)।
⋙ संक्लिन्न
वि० [सं० सङ्क्लत्र] गीला। तरबर। आर्द्र। [को०]।
⋙ संक्लिष्ट
वि० [सं० सङ्क्लिष्ट] १. मर्दित। कुचला हुआ। २. धब्बेदार (जैसे—आईना)। ३. कठिनाइयों से भरा हुआ। जो क्लिष्ट हो [को०]। यौ०—संक्लिष्टकर्मा = वह जो किसी काम को बड़ी कठिनाई से करता हो।
⋙ संक्लेद
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्लेद] १. नमी। गीलापन। २. गर्भाशय से स्त्रवित होनेवाला वह द्रव पदार्थ जो गर्भाधान के बाद उत्पन्न होता है और जिससे भ्रुण को पोषण प्राप्त होता है [को०]।
⋙ संक्लेश
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्लेश] कष्ट। पीड़ा [को०]। यौ०—संक्लेशनिर्वाण = कष्ट से मुक्ति। पीड़ा से छुटकारा।
⋙ संक्लेशन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्लेशन] क्लेश देना [को०]।
⋙ संक्षय
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्षय] १. सम्यक् प्रकार से नाश। पूरी तरह बरबादी। २. विनाश। ध्वंस। बरबादी। ३. प्रलय। ४. आश्रय। गृह। ५. हानि। क्षति (को०)। ६. समाप्ति। अंत। लोप (को०)। ७. मृत्यु। मौत। ८. एक मरु- त्वान् [को०]।
⋙ संक्षर
संज्ञा पुं० [सं० सङक्षर] १. वह स्थान जहाँ दो नदियाँ आदि मिलती हों। संगम। २. साथ साथ बहना (को०)। ३. एक साम का नाम।
⋙ संक्षालन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्षालन] १. नहाने धोने के काम आनेवाला जल। २. प्रक्षालन। धोना [को०]।
⋙ संक्षालना
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्क्षालना] १. धोने की क्रिया। संक्षालन। २. मज्जन। स्नान [को०]।
⋙ संक्षिप्त
वि० [सं० संक्षिप्त, सङ्क्षिप्त] १. जो संक्षेप में कहा या लिखा गया हो। जो संक्षेप में किया गया हो। खुलासा। २. थोड़ा। अल्प। छोटा। ३. छोड़ा या फेंका हुआ। ४. पुंजीकृत। राशीकृत (को०)। ५. क्षीण किया हुआ। घटाया हुआ (को०)। ६. संयत। नियंत्रित (को०)। ७. अधिगृहीत (को०)।
⋙ संक्षिप्तत्व
संज्ञा पुं० [सं० सङिक्षप्तत्व] संक्षिप्त होने का भाव [को०]।
⋙ संक्षिप्तदैर्ध्य
वि० [सं० सङिक्षप्त दैर्ध्य] जिसकी दीर्घता कम की गई हो। जो कम लंबा हो [को०]।
⋙ संक्षिप्तलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लेखनप्रणाली। संकेत लिपि। विशेष—इसमें ध्वनियों के लिये ऐसे संक्षिप्त चिह्न या रेखाएँ नियत रहती हैं जिनके द्वारा लिखने से थोड़े काल और स्थान में बहुत सी बातें लिखी जा सकती हैं। व्याख्यान आदि के लिखने में यह अधिक सहायक होती है। व्यापारिक कार्यालयों में भी इसका प्रयोग होता है।
⋙ संक्षिप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० सङिक्षप्ता] ज्योतिष में बुध ग्रह की सात प्रकार की सतियों में से एक प्रकार की गति। विशेष—बुध जिस समय पुष्य, पुनर्वसु, पूर्व फल्गुनी और उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में होता है, उस समय उसकी गति संक्षिप्ता होती हैं। यह गति २२ दिन तक रहती है।
⋙ संक्षिप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटक में चार प्रकार की आरभटियों में से एक प्रकार की आरभटी, जहाँ क्रोध आदि उग्र भावों की निवृत्ति होती है (जैसे,—रामचंद्रजी की बातों से परशुराम के क्रोध की निवृत्ति होना) वहाँ यह वृत्ति मानी जाती है। विशेष दे० 'आरभटी'। २. साथ साथ फेंकने की क्रिया (को०)। ३. संक्षेपीकरण। घटाना। ठोस या घना करना (को०)। ४. प्रेषण। भेजना (को०)। ५. घात में रहना। किसी गुप्त स्थान में छिपना (को०)।
⋙ संक्षेप
संक्षा पुं० [सं० सङ्क्षेप] १. थोड़े में कोई बात कहना। २. संकोचन। घटाना। कम करना। ३. समाहार। संग्रह। समास। ४. चुंबक। ५. एक साथ फेंकना। ६. प्रेषण। भेजना (को०)। ७. संक्षिप्त करने का साधन (को०)। ८. अपहरण। ले लना (को०)। ९. किसी दूसरे व्यक्ति के कार्य में सहायता पहुँचाना (को०)। १०. संहार (को०)।
⋙ संक्षेपक
वि० [सं० सङ्क्षेपक] १. नष्ट करनेवाला। २. फेंकनेवाला। ३. संक्षेप करनेवाला। छोटा रुप देनेवाला [को०]।
⋙ संक्षेपण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्षेपण] १. काम करना। संक्षेप करना। २. काट छाँट करने की क्रिया। ३. एकत्र करना। ढेर करना। ढेर लगाना (को०)। ४. प्रेषण। भेजना (को०)।
⋙ संक्षेपण्य
वि० [सं० सङ्क्षेपणीय] १. फेंकने योग्य। २. संक्षेप करने योग्य [को०]।
⋙ संक्षेपतः
अव्य० [सं० सङ्क्षेपतस्] संक्षेप में। थोड़े में। सारांशतः।
⋙ संक्षेपतया
अव्य० [सं० सङ्क्षेपतया] थोड़े में। संक्षेप में।
⋙ संक्षेपदोष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्षेप दोष] साहित्य में एक प्रकार का दोष। जिस बात को जितने विस्तार से कहने या लिखने को आवश्यकता हो, उसे उतने विस्तार में न कह या लिखकर कम विस्तार से कहना या लिखना, जिससे प्रायः सुनने या पढ़नेवाले की समझ में उसका ठीक ठीक अभिप्राय न आवे।
⋙ संक्षोभ
संज्ञा पुं० [सं० सङ्क्षोभ] १. चंचलता। २. कंपन। काँपना। ३. विप्लव। ४. उलट पुलट। ५. गर्व। घमंड। अभिमान। शेखी।
⋙ संख
संज्ञा पुं० [सं० शङ्ख, प्रा० संख] दे० 'शंख'। उ०—झाँझि मृदंग संख सहनाई।—मानस, १।२६३।
⋙ संखड †
संज्ञा पुं० [देशी] कलह। झगड़ा। संकट [को०]।
⋙ संखनारी
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्खनारी] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक पद में दो यगण (य, य) होते हैं। इसे सोमराजी वृत्त भी कहते हैं।
⋙ संखला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला, प्रा० संकला संखला] दे० 'श्रृखला'। उ०—आनँदधन कुलकानि संखला डारी तोरि महा मदमातौ।—घनानंद, पृ०३६६।
⋙ संखहुली
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'शंखपुष्पी'।
⋙ संखा
संज्ञा पुं० [सं० शङ्कु] चक्की के ऊपरी पाट में लगी हुई लकड़ी की खूँटी जिसमें एक ओर छोटी लकड़ी जड़ी रहती है। हथवड़। हथ्था।
⋙ संखार
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका रंग अबलक होता है और जिसकी चोंच चिपटी होती है।
⋙ संखाल †
संज्ञा पुं० [देशी] मृग की एक जाति। साँभर मृग [को०]।
⋙ संखिया
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिका या श्रृङ्गविष] १. एक प्रकार की बहुत जहरीली प्रसिद्ध उपधातु या पत्थर। विशेष—यह उपधातु कुमाऊँ, चित्राल, स्वात, काश्गर (कासगर), उत्तरी बरमा और चीन आदि में पाई जाती है। प्रायः इसका रंग सफेद या मटमैला होता है और यह चिकना तथा चमकीला होता है। जिस समय यह खान से निकलता है, उस समय बहुत कड़ा होता है और कठिनता से गलता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक हरताल और मैनसिल को भी इसी के अंतर्गत मानते हैं। भारतवासी प्रायः यही समझते हैं कि पत्थर पर बहुत जहरीले बिच्छू के डंक मारने से यह संखिया बनता है। २. उक्त धातु का तैयार किया हुआ भस्म जो देशी भी होता है और विलायती भी। विशेष—यह बाजारों में सफेद, पीले, लाल, काले आदि कई रंगों का मिलता है और प्रायः औषधों में काम आता है। कुछ लोग कृत्रिम रुप से भी संखिया बनाते हैं। यह बहुत विकट विष होता है और प्रायः हत्या आदि के लिये काम में आता है। वैद्यक के अनुसार यह वीर्य तथा बलबंधक, कांति- जनक, लोहभेदक, दाहजनक, वमनकारक, रेचक, त्रिदोषध्न तथा सव प्रकार के दोषों का नाश करनेवाला माना जाता है। बैद्यक के अतिरिक्त हिकमत और डाक्टरी में भी इसका व्यव- हार होता है और उनमें भी इसे बहुत बलवर्द्धक माना गया है। पर्या०—आखुपाषाण। शंखविष। शृंगिक। गौरीपाषाण। सोमल। संबुल। संमुलखार।
⋙ संखोलो पुं
संज्ञा स्त्री० [हि० संख + ओली (प्रत्य०)] छोटा शंख। उ०—दीनी एक संखोली हाथ। पूजा की सामग्री साथ।—अर्ध०, पृ०२१।
⋙ संख्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ख्य] युद्ध। समर। लड़ाई।
⋙ संख्य (२)
वि० दे० 'संख्येय' [को०]।
⋙ संख्यक
वि० [सं० सङ्खयक] जिसमें संख्या हो। संख्यावाला (समासांत में प्रयुक्त) जैसे, बहुसंख्यक।
⋙ संखयता
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्खयता] संख्या का भाव या गुण। संख्यत्व।
⋙ संख्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'संख्यता'।
⋙ संख्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्ख्या] १. वस्तुओं का वह परिमाण जो गिनकर जाना जाय। एक, दो, तीन, चार, आदि की गिनती। तादाद। शुमार। २. गणित में वह अंक जो किसी वस्तु का, गिनती में, परिमाण बतलावे। अदद। ३. वैद्यक में संप्राप्ति के पाँच भेदों में से एक भेद। अन्य चार भेद विकल्प, प्राधान्य बल और काल है। ४. बुद्धि। ५. विचार। ६. रीति। पद्धति। ढंग (को०)। ७. योग। जोड़ (को०)। ८. नाम। आख्या। संज्ञा (को०)। ९. समाचार पत्रों पर दिया गया क्रमांक (को०)। १०. किसी सामयिक पत्र आदि की विशिष्ट संख्यावली प्रति (को०)। ११. रेखागणित में कोणमान (को०)। १२. संग्राम। युद्ध (को०)। यौ०—संख्यपद = अंक। संख्यापरित्यक्त = असंख्य। संख्यातीत। संख्यामंगलग्रंथि = बरसगाँठ समारोह। संख्यालिपि। संख्या- वाचक = (१) संख्यासूचक। संख्या बतानेवाला। (२) अंक। संख्याविधान = गणना करना। संख्याश्ब्द = अंक। संख्याविधान संख्यासमापन = शिव। संख्यासूचक = संख्यावाचक।
⋙ संख्याक
वि० [सं० सङ्ख्याक] संख्यावाला। संख्यक। जैसे, शत- संख्याक।
⋙ संख्यात (१)
वि० [सं० सङ्ख्यात] १. परिगणित। गिना हुआ। २. गिनती मिलाया हुआ। विचारित [को०]।
⋙ संख्यात (२)
संज्ञा पुं० १. संख्या। २. राशि। समूह [को०]।
⋙ संख्याता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्ख्याता] एक प्रकार की पहेली [को०]।
⋙ संख्याता (२)
वि० [सं० सङ्ख्यातृ] परीक्षक। जाँच पड़ताल करनेवाला। गणक। जैसे, गो संख्याता [को०]।
⋙ संख्यातिग
वि० [सं० सङ्ख्यातिग] दे० 'संख्यतीत' [को०]।
⋙ संख्यातीत
वि० [सं० सङ्ख्यातीत] जिसकी गिनती न की जा सके। जो गणना से परे हो। अनगिनत [को०]।
⋙ संख्यान
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ख्यान] १. संख्या। गिनती। २. गिनने की क्रिया। शुमार। ३. ध्यान। ४. प्रकाश। ५. माप [को०]।
⋙ संख्यालिपी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्ख्यालिपि] एक प्रकार की लेखन प्रणाली जिसमें वर्णों के स्थान पर संख्यासूचक चिह्न या अंक लिखे जाते हैं।
⋙ संख्यावान् (१)
वि० [सं० सङ्ख्यावता] १. संख्यावाला। गिना हुआ। २. हेतु या तर्क से युक्त [को०]।
⋙ संख्यावान् (२)
संज्ञा पुं० विद्वान् व्यक्ति [को०]।
⋙ संख्येय
वि० [सं० सङ्ख्येय] १. जिसकी गणना की जा सके। गिना जाने के योग्य। गण्य। २. विचारणीय (को०)।
⋙ संग (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग] १. मिलने की क्रिया। मिलन। २. संसर्ग। सहवास। सोहबत। जैसे,—बुरे आदमियों के संग में अच्छे आदमी भी बिगड़ जाते हैं। क्रि० प्र०—करना।— छोड़ना।— टूटना।— रखना। मुहा०—संग सोना = सहवास करना। समागम करना। उ०— संग सोई तो फिर लाज क्या (कहा०)। (किसी के) संग = साथ होलेना। पौछे लगना। (किसी को) संग लगना लेना = अपने साथ लेना या ले चलना। जैसे,—जब चलने लगना, तब हमें भी संग ले लेना। ३. विषयों के प्रति होनेवाला अनुराग। विषयवासना। ४. वासना। आसक्ति। ५. वह स्थान जहाँ दो नदियाँ मिलती हों। नदियों का संगम। ६. मैत्री। संपर्क। साथ (को०)। ७. योग। संगम (को०)। ८. मुठभेड़। लड़ाई (को०)। ९. बाधा (को०)। यौ०—संगकर = आसक्त करनेवाला। संगत्याग = विराग। संगरहित, संगवर्जित = आनासक्त। आसक्तिरहित। संग- विच्युत्ति = विषयों से विराग।
⋙ संग (२)
क्रि० वि० साथ। हमराह। सहित। जैसे,—(क) उनके संग चार आदमी आए हैं। (ख) मरने पर क्या कोई हमारे संग जायगा ? (ग) हम भी तुम्हारे संग चलेंगे।
⋙ संग (३)
संज्ञा पुं० [फा़०] पत्थर। पाषाण। जैसे,—संगमूसा, संगमरमर, संग असवद। यौ०—संग अंदाज = (१) ढेला फेंकने का यंत्र। गोफन। ढेलवास। (२) पत्थर फेकनेवाला व्यक्ति। (३) किले की दीवारों में बने हुए छेद जिनसे शत्रू पर गोली, तीर, पत्थर आदि फेंकते हैं। संग आसिया = चक्की का पाट। संगखारा। संगख्वार = शुतुर- मुर्ग। संगचीनी = एक तरह का पत्थर। संगजराहत। संगतराज = बाट। बटखरा। संगदिल। मंगपुश्त। संगफर्श = पत्थर का फर्श। संगबसरी। संगबार = पत्थर फेंकनेवाला। संगबारान = ढेलों की वर्षां। संग मरमर = दे० 'संगमर्मर'। संगमुरदार = सुरदासंख। संगयशब। संगसार। संग सुर्ख = एक प्रकार का लाल रंग का पत्थर। संग सुलेमानी।
⋙ संग (४)
वि० पत्थर की तरह कठोर। बहुत कड़ा। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्राय; यौगिक शब्द बनाने में उनके आरंभ में होता है। जैसे,—संगदिल = पाषाण हृदय। कठोर हृदय।
⋙ संग अंगूर
संज्ञा पुं० [संग?हि० अंगूर] एक प्रकार की वनस्पति। विशेष—यह हिमालय पर पाई जाती है और ओषधि के काम में आती है। इसे अंगूरशेफा, गिरी बूटी या पेवराज भी कहते हैं।
⋙ संग असवद
संज्ञा पुं० [फ़ा० संग + अ० असवद्] काले रंग का एक बहुत प्रसिद्ध पत्थर। विशेष—यह काबा की दीवार में लगा हुआ है और इसको हज करने के लिये जानेवाले मुसलमान बहुत पवित्र समझते तथा चूमते हैं। मुसलमानों का यह विश्वास है कि यह पत्थर स्वर्ग से लाया गया है; और इसे चूमने से पापों का नष्ट होना माना जाता है।
⋙ संगकूपी
संज्ञा स्त्री० [हि०] एक प्रकार की वनस्पति जो औषधि के काम में आदि है।
⋙ संगखारा
संज्ञा पुं० [फ़ा संग + खार] एक प्रकार का पत्थर जो कुछ नीलापन लिए भूरे रंग का और बहुत कड़ा होता है। चकमक पत्थर।
⋙ संगजराहत
संज्ञा पुं० [फ़ा संग + अ० जराहत] एक प्रकार का सफेद चिकना पत्थर जो घाव भरने के लिये बहुत उपयोगी होता है। विशेष—इसे पीसकर बारीक चूर्ण बनाते हैं जिसे 'गच' कहते हैं और जो साँचा बनाने के काम में भी आता है। इसका गुण यह है कि पानी के साथ मिलने पर यह फूलता है और सूखने पर कड़ा हो जाता है। इसलिये इससे मूर्तियाँ आदि भी बनाते हैं। इसे कुलगार, कारसी, सफेद सुरमा या सिल- खड़ी भी कहते हैं।
⋙ संगट पु
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कट] दे० 'संकट'। उ०—संगट तै हरि लेह उबारी। निसदिन सिबरौ नाँव तुमारी।—रामानंद, पृ०१९।
⋙ संगठन
संज्ञा पुं० [सं० संघटन, सङ्घटन या सम् + हि० गठना] १. बिखरी हुई शक्तियों, लोगों या अंगो आदि को इस प्रकार मिलाकर एक करना कि उनमें नवीन जीवन या बल आ जाय। किसी विशिष्ट उद्धेश्य या कार्यसिद्धि के लिये बिखरे हुए अवयवों को मिलाकर एक और व्यवस्थित करना। एक में मिलाने और उपयोगी बनाने के लिये की हुई व्यवस्था। विशेष—वास्तव में यह शब्द शुद्ध संस्कृत नहीं है, गलत गढ़ा हुआ है; पर आजकल यह बहुत प्रचलित हो रहा है। कुछ लोग इससे, संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार 'संगठित', 'संगठनात्मक' आदि शब्द भी बनाते हैं, जो अशुद्ध हैं। कुछ लोगों ने इसके स्थान पर 'संघटन' शब्द का व्यवहार करना आरंभ किया है, जो शुद्ध संस्कृत है।२. वह संस्था या संघ आदि जो इस प्रकार की व्यवस्था से तैयार हो।
⋙ संगठित
वि० [सधटित हिं० संगठन] जो भलीभाँति व्यवस्था करके एक में मिलाया हुआ हो। जो व्यवस्थित रुप में और काम करने के योग्य मिलाकर बनाया गया हो।
⋙ संगणक
संज्ञा पुं० [सं० सं + गणक] उच्च कोटि की सूक्ष्मतम एवं जटिल- तम गणना करनेवाला आधुनिक यंत्र विशेष। (अ० कंप्यूटर)।
⋙ संगणिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गणिका] अप्रतिरुप कथा। सुंदर वार्ता।
⋙ संगत (१)
वि० [सं० सड़गत] १. मिला या जुड़ा हुआ। संयुक्त। २. एकत्र किया हुआ। एक में मिलाया हुआ। ३. शादि- शुदा। विवाहित। ४. मैथुन संबंध में संसक्त। संभोग में लगा हुआ। ५. समुचित। युक्तियुक्त। उपयुक्त। ठीक। ६. कुंचित। सिकुड़ा हुआ [को०]। यौ०—संगतगात्र = संकुचित शरीरवाला।
⋙ संगत (२)
संज्ञा पुं० १. मिलन। २. साथ। साहचर्य। ३. मित्रता। दोस्ती। अंतरंगता। ४. सामंजस्यपूर्ण या उपयुक्त वाणी। युक्तियुक्त टिप्पणी [को०]।
⋙ संगत (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गति] १. संग रहने या होने का भाव। साथ रहना। सोहबत। संगति। २. संग रहनेवाला। साथी। ३. वेश्याओं या भाँड़ों आदि के साथ रहकर सारंगी, तबला, मँजीरा आदि बजाने का काम। क्रि० प्र०—बजाना।—में रहना। मुहा०—संगत करना = गानेवाले के साथ साथ ठीक तरह से तबला, सारंगी, सितार आदि का बजाना। ४. वह जो इस प्रकार किसी गाने या नाचनेवाले के साथ रहकर साज बजाता हो। ५. वह मठ जहाँ उदासी या निर्मले आदि साधु रहते हैं। ६. संबंध। संसर्ग। ७. प्रसंग। मैथुन। ८. दे० 'संगति'।
⋙ संगतसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गतसन्धि] १. कामंदक नीति के अनुसार अच्छे के साथ संधि जो अच्छे और बुरे दिनों में एक सी बनी रहती है। कांचन संधि। २. मित्रता के अनंतर होनेवाली संधि या सुलह (को०)।
⋙ संगतरा
संज्ञा पुं० [ पुर्त० > फ़ा०] एक प्रकार की बड़ी और मीठी नारंगी। संतरा।
⋙ संगतराश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पत्थर काटने या गढ़नेवाला मजदूर। पत्थरकट। २. एक औजार जो पत्थर काटने के काम में आता है।
⋙ संगतार्थ (१)
वि० [सं०] ठीक ठीक अर्थ देनेवाला। उपयुक्त अर्थ का बोधक [को०]।
⋙ संगतार्थ (२)
संज्ञा पुं० वह अर्थ जो ठीक या संगत हो [को०]।
⋙ संगति
संज्ञा स्त्री० [सं० सभ्गति] १. मिलने की क्रिया। मेल। मिलाप। २. संग, साथ, सोहबत। संगत। ३. प्रसंग। मैथुन। ४. संबंध। ताल्लुक। ५. ज्ञान। ६. किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिये बार बार प्रश्न करने की क्रिया। ७. युक्ति। ८. पहले लिखी या कही हुई बात के साथ बाद में लिखी या कही हुई बात का मेल। आगे पीछे कहे जानेवाले वाक्यों आदि का मिलान। क्रि० प्र० —बैठना।—मिलना।—लगना। लगाना। ९. दे० 'संगत'। १०.योग्यता। उपयुक्तता (को०)। ११. दैवयोग। संयोग (को०)। १२. संघ (को०)। १३. अधिकरण के पाँच अवयवों में से एक (को०)।
⋙ संगतिया
संज्ञा पुं० [हि० संगत + इया (प्रत्य०)] १. वह जो किसी गाने या नाचनेवाले के साथ रहकर सारंगी, तबला या और साज बजाता हो। साजिंदा। २. दे० 'संगाती'।
⋙ संगती
संज्ञा पुं० [हि० संगत + ई (प्रत्य०)] १. वह जो साथ में रहता हो। संग रहनेवाला। २. दे० 'संगतिया'।
⋙ संगथ
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गथ] संग्राम। युद्ध।
⋙ संगथा
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गथा] नदियों का संगम [को०]।
⋙ संगदिल
वि० [फा़०] जिसका हृदय पत्थर की तरह कठोर हो। कठोर- हृदय। निर्दय। दयाहीन।
⋙ संगदिली
संज्ञा स्त्री० [फा़०] संगदिल होने का भाव। कठोर हृद- यता। निर्दयता।
⋙ संगपुश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पत्थर की तरह कड़ी पीठवाला, कच्छप। कछुआ। कमठ।
⋙ संगबसरी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार की मिट्टी जिसमें लोहे का अंश अधिक होता है और जो इसी कारण दवा के काम में आती है। यह फारस में होती है और वहीं से आती है।
⋙ संगम
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गम] १. दो वस्तुओं के मिलने की क्रिया। मिलाप। संमेलन। संयोग। समागम। मेल। उ०—आपुहिं ते उठि जौ चलै तिय पिय के संकेत। निसिदिन तिमिर प्रकास कछु गनै न संगम हेत।—देव (शब्द०)। २. दो नदियों के मिलने का स्थान। जैसे,—गंगा यमुना का संगम प्रयाग में होता है। उ०—ज्योति जगै यमुना सी लगै जग लाल विलोचन पाप विपोहै। सूर सुता शुभ संगम तुंग तरंग तरंगिणि गंग सी सोहै।—केशव (शब्द०)। ३. साथ। संग। सोहबत। उ०—पद्मापत सों कह्नो विहंगम। कंत लुभाय रहैं जेहि संगम।—जायसी (शब्द०)। ४. स्त्री और पुरुष का संयोग। मैथुन। प्रसंग। यौ०—संगम साध्वस = संभोग काल की घबराहट। ५. ज्योतिष में ग्रहों का योग। कई ग्रहों आदि का एक स्थान पर मिलना या एकत्र होना। ६. उपयुक्त होने का भाव (को०)। ७. लड़ाई। समर (को०)। ८. संपर्क। स्पर्श (को०)।
⋙ संगमक
वि० [सं० सङगमक] मार्गदर्शक [को०]।
⋙ संगमन
संज्ञा पुं [सं० सङ्गमन] १. संयोग। मेल। संगम। २. यम- राज का एक नाम (को०)।
⋙ संगमर
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।
⋙ संगमर्मर
संज्ञा पुं० [फ़ा० संग + अ० मर्मर] एक प्रकार का बहुत चिकना, मुलायम और सफेद प्रसिद्ध पत्थर जो बहुत कीमती होता है। विशेष—यह पत्थर मूर्ति, मंदिर तथा महल इत्यादि बनाने में काम आता है। आगरे का ताजमहल इसी पत्थर का बना है। भारत में यह जयपुर में अधिक पाया जाता है। इसके अतिरिक्त अजमेर, किशनगढ़ और जोधपुर में भी इसकी कुछ खाने हैं।
⋙ संगमित
वि० [सं० सङ्गमित] मिलाया हुआ। संयुक्त या इकट्ठा किया हुआ [को०]।
⋙ संगसूसा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का काला, चिकना, कीमती पत्थर जो मूर्ति आदि बनाने के काम आता है।
⋙ संगयशब
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का कीमती पत्थर जिसका रंग कुछ हरापन लिए हुए होता है। इसे धो या घिसकर पीने से दिल का धड़कना कम हो जाता हैं। इसकी तावीज भी लोग पहनते हैं। हौल दिली।
⋙ संगर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गर] १. युद्ध। समर। संग्राम। २. आपद्। विपत्ति। ३. अंगीकार। स्वीकार। ४. प्रतिज्ञा। ५. प्रश्न। सवाल। ६. नियम। ७. विष। जहर। ८. शमी वृक्ष का फल। ९. निगल जाना (को०)। १०. ज्ञान (को०)। यौ०—संगरक्षभ = युद्ध योग्य। युद्ध करने में समर्थ या शक्त। संगरभूमि = लड़ाई का मैदान। युद्धभूमि। संगरस्थ = युद्धभूमि में स्थित। युद्धलिप्त।
⋙ संगर (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. वह धुस या दीवार जो ऐसे स्थान में बनाई जाती है, जहाँ सेना ठहरती है। रक्षा करने के लिये सेना के चारों ओर बनाई हुई खाई, धुस या दीवार। २. मोरचा।
⋙ संगरण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गरण] किसी के पीछे चलना। पीछा करना।
⋙ संगराम पु
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्राम] दे० 'संग्राम'।
⋙ संगरसिख
संज्ञा पुं० [हि० या फा़० हिं० का मिश्रण] ताँबे की मैल जो खिजाब बनाने के काम में आती है।
⋙ संगरेजा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े। कंकड़। बजरी।
⋙ संगल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशम जो अमृतसर से आता है। विशेष—यह दो तरह का होता है—बरदवानी और बशीरी। यह बारीक और मजबूत होता है; इसलिये गोटा, किनारी आदि बनाने के काम में बहुत आता है।
⋙ संगव
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गव] वह समय जब चरवाहा बछडों को दूध पिलाकर और गौओं को दुहकर चराने के लिये ले जाता है। प्रातःकाल के बाद तीन मुहूर्त का समय।
⋙ संगविनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गविनी] वह बाड़ा या खरका जहाँ गाएँ दुहने के लिये एकत्र की जाती है [को०]।
⋙ संगसार (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राणदंड। विशेष—यह दंडविधान प्रायः अरब, फारस आदि देशों में प्रचलित था। इस दंड में अपराधी भूमी में आधा गाड़ दिया जाता था और लोग पत्थर मार मारकर उसकी हत्या कर डालते थे।
⋙ संगसार (२)
वि० नष्ट। चौपट। ध्वस्त।
⋙ संगसाल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा पर एक पहाड़ी में कटी हुई पत्थर की बहुत बड़ी मूर्ति का नाम। विशेष—अफसानिस्तान को उत्तरीय सीमा पर तुर्किस्तान के मार्ग में समुद्र से आठ हजार फुट की ऊँचाई पर हिंदुकुश की घाटी में बहुत सी पुरानी इमारतों के चिह्न हैं। वहीं पहाड़ में बनी हुई दो बड़ी मूर्तियाँ भी हैं जिनमें से एक १८० और दूसरी ११७ फुट ऊँची है। वहाँवाले इन्हें संगसाल और शाहयम्मा कहते हैं।
⋙ संगसी
संज्ञा स्त्री० [हि० सँड़सी] दे० 'सँड़सी'।
⋙ संगसुरमा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] काले रंग की वह उपधातु जिसे पीसकर आँखों में लगाने का सुरमा बनाया जाता है। विशेष दे० 'सुरमा'।
⋙ संग सुलेमानी
संज्ञा पुं० [फ़ा० संग + अ० सुलेमानी] एक प्रकार के रंगीन पत्थर के नग जिनकी मालाएँ आदि बनाकर मुसलमान फकीर पहना करते हैं।
⋙ संगाती
संज्ञा पुं० [हि० संग + आती (प्रत्य०)] १. वह जो संग रहता हो। साथी। संगी। २. दोस्त। मित्र।
⋙ संगाम पु
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्राम] दे० 'संग्राम'। उ०—राउत्ता पुत्ता चलए बहुत्ता अतरे पटरे सोहंता। संगाम सुहब्वा जनि गंधव्वा ख्वें परमत मोहंता।—कीर्ति०, पृ०४८।
⋙ संगायन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गायन] बहुतों का एक साथ गाना या स्तवन करना।
⋙ संगाव
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गाव] वार्तालाप। बातचीत [को०]।
⋙ संगिनी
संज्ञा स्त्री० [हि० संगी का स्त्री० रुप] १. साथ रहनेवाली स्त्री। सहचरी। २. पत्नी। भार्या। जोरु।
⋙ संगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङिगन्, हि० संग + ई (प्रत्य०)] १. वह जो सदा संग रहता हो। साथी। २. मित्र। बंधु।
⋙ संगी (२)
वि० १. संयुक्त। मिला हुआ। २. अनुरक्त। आसक्त। ३. कामुक। ४. अविच्छिन्न। संतत। ५. बांछा करनेवाला। स्पृही [को०]।
⋙ संगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कपड़ा जो विवाह आदि में वर का पाजामा तथा स्त्रियों के लहँगे इत्यादि के बनाने के काम में आता हैं।
⋙ संगी (४)
वि० [फ़ा० संग (=पत्थर)] पत्थर का। संगीन। जैसे,— संगी मकान।
⋙ संगीत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गीत] १. नृत्य, गीत और वाद्य का समाहार। वह कार्य जिसमें नाचना, गाना और बजाना तीनों हों। विशेष—संगीत का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है; और भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न प्रकार से मनोरंजन के लिये गाना बजाना हुआ करता है। संभवतः भारतवर्ष में ही सबसे पहले संगीत की ओर लोगों का ध्यान गया था। वैदिक काल में ही यहाँ के लोग मंत्रों का गान करते और उसके साथ साथ हस्तक्षेप आदि करते और बाजा बजाते थे। धीरे धीरे इस कला ने इतनी उन्नति की कि 'सामवेद' की रचना हुई। इस प्रकार मानो सामवेद भारतीय संगीत का सबसे प्राचीन और पूर्वरुप है। पीछे संगीत का बड़ा प्रचार हुआ। सुर, नर सभी इससे प्रेम करने लगे। रामायण और महाभारत के समय में इस देश में इसका बड़ा आदर था। नाचने, गाने और बजाने का अभ्यास सभी सम्य लोग करते थे। संगीत शास्त्र के प्रथम आचार्य 'भरत' माने जाते हैं। इनके पश्चाता काश्यप, मतंग, पार्ष्टि, नारद, हनुमत् आदि ने संगीत शास्त्र की आलोचना की। कहते है कि प्राचीन यूनान, अरब और फारसवालों ने भारतवासियों से ही संगीत शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। कुछ लोगों का मत है कि स्वर, ताल, नृत्य, भाव, कोक और हस्त इन सातों के समाहार को संगीत कहते हैं; पर अधिकांश लोग गान, वाद्य और नृत्य को ही संगीत मानते हैं; और यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो शेष चारों का भी समा- वेश इन्हीं तीनों में हो जाता है। इनमें से गीत और वाद्य को 'श्राव्य संगीत' तथा नृत्य को संगीत कहते हैं। संगीत के और भी दो भेद किए गए हैं —मार्ग और देशी। कहते हैं कि किसी समय महादेव के सामने भरत ने अपनी संगीतविद्या का परिचय दिया था। उस संगीत के पथ प्रदर्शक ब्रह्मा थे और वह संगीत मुक्तिदाता था। वही संगीत 'मार्ग' कहलाता था। इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न देशों में लोग अपने अपने ढंग पर जो गाते, बजाते और नाचते हैं, उसे देशी कहते हैं। कुछ लोग केवल गाने और बजाने को ही और कुछ लोग केवल गाने को ही, भ्रम से, संगीत कहते हैं। २. सामूहिक गान। सहगान। एक साथ मिलकर गाया हुआ गान (को०)। ३. कई वाद्यों वा एक स्वर ताल में बजना।
⋙ संगीत (२)
वि० जो साथ मिलकर गाया गया हो [को०]।
⋙ संगीतक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गीतक] १. विभिन्न स्वरों या वाद्यों का पारस्परिक मेल। २. गीत, नृत्य और वाद्य द्वारा सामुहिक मनोरंजन [को०]।
⋙ संगीतज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गीतज्ञ] वह जो संगीतविद्या का ज्ञाता हो।
⋙ संगीतविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गीत + विद्या] दे० 'संगीत' शास्त्र। विशेष दे० 'संगीत' (१)।
⋙ संगीतवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गीतवेश्मन्] दे० 'संगीतशाला' [को०]।
⋙ संगीतशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गीतशाला] वह भवन जहाँ संगीत होता हो [को०]।
⋙ संगीतशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें गाने, बजाने, नाचने और हाव भाव आदि दिखलाने की कला का विवेचन हो।
⋙ संगीति
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गीति] १. वार्तालाप। बातचीत। २. दे० 'संगीत'। ३. बौद्धों की घर्मसभा (को०)। ४. आर्या गीति का एक भेद (को०)।
⋙ संगीन (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का अस्त्र जो लोहे का बना हुआ तिफला और नुकीला होता है। यह बंदूक के सिरे पर लगाया जाता है। इससे शत्रु को भोककर मारते हैं।
⋙ संकीन (२)
वि० १. पत्थर का बना हुआ। जैसे,—संगीन इमारत। २. गफ। मोटा। जैसे,—संगीन कपड़ा। ३. टिकाऊ। पायदार। मजबूत। जैसे,—कलाबत्तू का काम संगीन होता है। ४. विकट। असाघारण। जैसे,—संगीन जुर्म। संगीन मामला। ५. पेचीदा। ६. कठोर। जैसे,—संगीन दिल। यौ०—संगीन जुर्म = विकट अपराध। असाधारण अपराध। संगीनदिल = कठोर हृदयवाला। बेरहम। संगीनदिली = बेरहमी।
⋙ संगीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० संगीन] १. असाधारणता। २. कठोरता। कड़ापन। मजबूती।
⋙ संगीर्ण
वि० [सं० सङ्गीर्ण] १. समर्थित। स्वीकृत। २. जिसका वादा किया हुआ हो। प्रतिज्ञात [को०]।
⋙ संगुप्त (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गुप्त] एक बुद्ध का नाम।
⋙ संगुप्त (२)
वि० १. जो छीपाकर रखा गया हो। छिपाया हुआ। २. भली- भाँति संबधित या सुरक्षित [को०]।
⋙ संगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गुप्ति] १. गोपनता। छिपाव। दुराव। २. त्राण। रक्षण। सुरक्षा [को०]।
⋙ संगूढ़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गूढ] १. रेखा या लकीर आदि खींचकर निशान की हुई राशि या ढेर। विशेष—प्रायः लोग अन्न या और किसी प्रकार की राशी लगाकर उसे रेखाओं से घेर या अंकित कर देते हैं, जिसमें यदि कोई उस राशि में से कुछ चुरावे, तो पता लग जाय। इसी प्रकार अंकित की हुई राशि को संगूढ़ कहते हैं।
⋙ संगूढ़ (२)
वि० १. पूर्णतः गुप्त या छिपाया हुआ। २. संकुचित। संक्षिप्त। ३. मिला हुआ। संयुक्त। ४. एकत्रित। राशीकृत [को०]।
⋙ संगृभित
वि० [सं० सङ्गृभित] एकाग्र किया हुआ। समाहित किया हुआ [को०]।
⋙ संगृहीत
वि० [सं० सङ्गृहीत] संग्रह किया हुआ। एकत्र किया हुआ। जमा किया हुआ। संकलित। २. ग्रस्त। जकड़ा हुआ (को०)। ३. निग्रहीत या संयत किया हुआ। शासित (को०)। ४. आगत। प्राप्त। स्वीकृत (को०)। ५. संकोचित या संक्षिप्त किया हुआ (को०)। यौ०—संगृहीतराष्ट्र = जिसमे राज्यशासन सुव्यवस्थित कर लिया हो। सुशासित राज्यवाला (राजा)।
⋙ संगृहीता
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गृहीतृ] वह जो संग्रह करता हो। एकत्र करनेवाला। जमा करनेवाला।
⋙ संगृहीति
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्गृहीति] नियंत्रण। वशीभूत करना। निगृहीत करना [को०]।
⋙ संगृहीतृ
वि० [सं० सङ्गृहीतृ] १. जो पकड़ या काबू में रखे अथवा शासित करे। २. अश्वशिक्षक। सारथी [को०]।
⋙ संगोतरा
संज्ञा पुं० [हि० संगतरा] एक प्रकार की नारंगी। संगतरा। संतरा।
⋙ संगोपन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गोपन] छिपाने की क्रिया। पोशीदा रखना। छिपाना।
⋙ संगोपन (२)
वि० गुप्त रखने या छिपानेवाला [को०]।
⋙ संगोपनीय
वि० [सं० सङ्गोपनीय] छिपाने के योग्य। पोशीदा रखने के लायक।
⋙ संग्रंथन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रन्थन] एक साथ बाँधना या एक में बाँधना।
⋙ संग्रथन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रथन] १. एकत्र बाँधना। २. व्यवस्थित करना या मरम्मत करना [को०]।
⋙ संग्रथित
वि० [सं० सङ्ग्रथित] एक साथ नत्थी किया हुआ, पिरोया हुआ या बँधा हुआ [को०]।
⋙ संग्रसन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रसन] १. बहुत अधिक भोजन करना। २. दबोच लेना। दबा देना (को०)।
⋙ संग्रह
संज्ञा पु० [सं० सङ्ग्रह] १. एकत्र करने की क्रिया। जमा करना। संकलन। संचय। २. वह ग्रंथ जिसमें अनेक विषयों की बातें एकत्र की गई हों। ३. भोजन, पान, औषध इत्यादि खाने की क्रिया। ४. मंत्र बल से अपने फेंके हुए अस्त्र को अपने पास लौटाने की क्रिया। ५. सोम याग। ६. सूची। फेहरिस्त। ७. निग्रह। संयम। ८. रक्षा। हिफाजत। ९. कब्ज। कोष्ठबद्धता। १०. शिव का एक नाम। ११. पाणिग्रहण। विवाह। १२. जमघट। जमाव। १३. सभा। गोष्ठी। १४. मैथुन। स्त्री प्रसंग। १५. ग्रहण करने की क्रिया। १६. स्वीकार। मंजूरी। उ०— तेहि ते कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।—मानस, १। १७. चंगुल। पकड़ (को०)। १८. जोड़। राशि। समष्टि (को०)। १९. भंड़ारगृह (को०)। २०. बड़प्पन (को०)। २१. वेग (को०)। २२. हवाला। उल्लेख (को०)। २३. प्रयत्न। चेष्टा (को०)। २४. संयोजन (को०)। २६. वह जो संरक्षक हो (को०)। २७. कल्याण। मंगल (को०)। यौ०—संग्रहकार = संग्रह करनेवाला। संग्रहग्रहणी। संग्रह- वस्तु = संग्रह के योग्य वस्तु। संग्रह श्लोक = पूर्वकथित प्रसंग को संक्षिप्त रुप में बतानेवाला श्लोक।
⋙ संग्रहग्रहणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्ग्रहग्रहणी] दे०, 'संग्रहणी'।
⋙ संग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रहण] १. स्त्री को हर ले जाने की क्रिया। २. ग्रहण। ३. प्राप्ति। ४. नगों को जड़ने की क्रिया। ५. मैथुन। सहवास। ६. व्यभिचार। ७. स्त्री के स्तन, कपोल, केश, जंधा आदि वर्ज्य स्थानों का स्पर्श। विशेष—स्मृतियों में इस अपराध के लिये कठोर दंड लिखा गया है। ८. सहारा देना। प्रोत्साहन। बढा़वा (को०)। ९. संकलन। संचय करना (को०)। १०. नियंत्रण। वशीभूत या अपनी ओर करना (को०)। ११. आशा करना (को०)। १२. उल्लेख करना (को०)। १२. मिलावट। मिश्रण (को०)।
⋙ संग्रहणी
संज्ञा स्त्री० [सं सङ्ग्रहणी] १. एक प्रकार का रोग जिसमें भोजन किया हुआ पदार्थ पचता नहीं, बराबर पाखाने के रास्ते निकल जाता है। ग्रहणी। विशेष—इसमें पेट में पीड़ा होती है और दस्त दुर्गधयुक्त, कभी पतला कभी गाढ़ा होता है। शरीर दुर्बल और निस्तेज हो जाता है। यह रोग चार प्रकार का होता है —वातज, कफज, पित्तज और सन्निपातज। रात की अपेक्षा दिन के समय यह रोग अधिक कष्ट देता है। यह रोग प्रायः अधिक दिनों तक रहता और कठिनता से अच्छा होता है।
⋙ संग्रहणीय
वि० [सं० सङ्ग्रहणीय] १. संग्रह योग्य। २. ग्रहण करने या लेने योग्य। ३. सेवन करने योग्य (रोग शांति के लिये दवा आदि)। ४. नियंत्रणीय [को०]।
⋙ संग्रहना पु
क्रि० सं० [सं० सङ्ग्रहण] १. संग्रह करना। संचय करना। जमा करना। उ०—संग्रहै सनेह बस अधम असाध को। गिद्ध सेवरी को कहो करिहै सराध को।—तुलसी (शब्द०)। २. ग्रहण करना। पकड़ना। उ०—धायौ सु धरह बिन सीसधार। संग्रह्यौ बाँह बामें कटार।—पृ०, रा०, ६१।२२८७।
⋙ संग्रहलय
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रहालय] वह स्थान जहाँ विशिष्ट प्रकार की अलभ्य प्राचीन वस्तुओं का संग्रह किया जाय। अजायबधर।
⋙ संग्रही
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रहिन्] १. संग्रह करनेवाला। जो एकत्र या जमा करता हो। उ०—नहिं जाचक नहि संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ। ऐसे मानी माँगनेहिं को वारिद बिनु देइ।—तुलसी ग्र०, पृ०१२७। २. महसूल या लगान आदि उगाहनेवाला कर्मचारी। कर एकत्र करनेवाला।
⋙ संग्रहीता
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रहीतृ] १. वह जो संग्रह करता हो। जमा करनेवाला। एकत्र करनेवाला। २. स्वीकार या ग्रहण करनेवाला (को०)। ३. घोड़े आदि का नियमन करनेवाला। सारथी (को०)।
⋙ संग्राम
संज्ञा पुं० [सं० सङ्गा्म] युद्ध। लड़ाई। समर। यो०—संग्राम अंगन पुं० = दे० 'संग्रामांगण'। उ०—संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।—मानस, ६।१०२। संग्रामकर्म = लड़ाई। संग्रामतुला = युद्ध की कसौटी (हार जीत के रुप में)। संग्रामतूर्य = लड़ाई या युद्ध का बिगुल। रणतूर्य। संग्रामपटह। संग्राममूर्धा = युद्धभूमि में अगला मोर्चा। संग्राममृत्यु = युद्धभूमि में मरना। वीरगति।
⋙ संग्रामजित् (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रामजित्] सुभद्रा के उदर से उत्पन्न श्रीकृण्ण के एक पुत्र का नाम।
⋙ संग्रामजित् (२)
वि० युद्ध में विजयी [को०]।
⋙ संग्रामपटह
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रामपटह] रण में बजनेवाला एक प्रकार का बाजा। रणभेरी। रण डिमडिम।
⋙ संग्रामभूमी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङग्राम भुमि] वह स्थान जहाँ संग्राम होता हो। लड़ाई का मैदान। युद्ध क्षेत्र। उ०—संग्रामभूमि- बिराज रघुपति अतुलबल कोसल धनी।—मानस, ६।७०।
⋙ संग्रामांगण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्रामाङ्गण] युद्ध भूमी [को०]।
⋙ संग्रामार्थी
वि० [सं० सङ्ग्रामार्थिन्] लड़ाई चाहनेवाला। युद्धेप्सु [को०]।
⋙ संग्रामी
वि० [सं० सङ्ग्रामिन्] युद्ध करनेवाला। संग्रामलिप्त [को०]।
⋙ संग्राह
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्राह्] १. ढाल का दस्ता या मूठ। २. पकड़ना। बलपूर्वक पकड़ना। बलात् पकड़ना। ३. हाथ की बँधी हुई मुट्ठा। मुष्टिबंध। मुक्का। ४. मुट्ठी बाँधना। मुक्का बाँधना (को०)। ५. घोड़े के उत्प्लवन का एक प्रकार। घोड़े का हिनहिनाते हुए अगले पैरों से कूदना (को०)।
⋙ संग्राहक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्राहक] १. वह जो संग्रह करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला। संग्रहकारी। संकलन करनेवाला (को०)। २. रथ का सारथी (को०)। ३. कब्ज करनेवाला (को०)। ४. वह जो अपनी ओर खींचता या आकृष्ट करता हो (को०)।
⋙ संग्राहित
वि० [सं० सङ्ग्राहित] संग्रह किया हुआ। जो ग्रहीत या ग्रस्त हो।
⋙ संग्राही
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग्राहिन्] १. वह पदार्थ जो कफादि दोष, धातु, मल तथा तरल पदार्थों को खींचता हो। २. वह पदार्थ जो मल के पेट से निकलने में बाधक होता है। कब्जियत करनेवाली चीज। ३. कुटज वृक्ष। ४. दे० 'संग्राहक' (को०)।
⋙ संग्राह्य
वि० [सं० सङ्ग्राहय] १. संग्रह करने याग्य। जो संग्रह या एकत्र करने योग्य हो। २. जमा करने लायक। ३. ग्रहण या स्वीकरण योग्य (को०)। ४. किसी कार्य में लगाने, या रखने योग्य। ५. जिसे समझा जा सके। जिसे हृदयंगम किया जा सके। (शब्द आदि)। ६. जिसका अवरोध किया जा सके। रोकने योग्य (रक्तभाव आदि) ।
⋙ संघ
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घ] १. समूह। समुदाय। दल। गण। २. मनुष्यों का वह समुदाय जो किसी विशेष उद्देश्य से एकत्र हुआ हो। समिति। सभा। समाज। ३. प्राचीन भारत का एक प्रकार का प्रजातंत्र राज्य जिसमें शासनाधिकार प्रजा द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में होता था। ४. इसी संस्था के ढंग पर बना हुआ बौद्ध श्रमणों आदि का धार्मिक समाज। विशेष—इसकी स्थापना महात्मा बुद्ध ने की थी। पीछे से यह बाँद्ध धर्म के त्रिरत्नों में से एक रत्न माना जाता था। शेष दो त्रिरत्न बुद्ध और धर्म थे। ५. साधुओं आदि के रहने का मठ। संगत। ६. अंतरगता। घनिष्ठ संपर्क (को०)।
⋙ संधक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्धक] दल। झुंड। समूह। समुजाय [को०]।
⋙ संघगुप्त
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घगुप्त] वाग्भट के पिता का नाम।
⋙ संधचारी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्धचारिन्] १. जो अधिकांश लोगों का साथ दे। बहुमत, बहुपक्ष का अनुसरण करनेवाला। बहुमत के अनुसार आचरण करनेवाला। २. वे जो झुंड़ या समुदाय में चलते हों। जैसे,—वृक, मृग, हाथी इत्यादि। ३. मछली।
⋙ संघजीवी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घजीवी] १. वह जो समूह के साथ रहता हो। दल या वर्ग के रुप में रहनेवाला। २. मजदूर। कुली [को०]।
⋙ संघट (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घटन] १. सघटन। मिलन। सयोग। उ०— यह संघट तब होइ जब पुन्य पराकृत भूरि।—मानस, १।२०२। २. परस्पर संघर्ष। युद्ध। लड़ाई। झगड़ा। ३. समूह। उ०—सुभट मर्कट भालु करक संघट सजत नमत पद रावणानुज निवाजा।—तुलसी (शब्द०)। ४. राशि। ढेर।
⋙ संघट (२)
वि० [सं० सङ्घट] [वि० स्त्री० संधटा] ढेरी लगाया हुआ। राशीकृत [को०]।
⋙ संघटन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घटन] [स्त्री० संघटना] १. मेल। संयोग। २. संघर्ष। संघर्षण। ३. साहित्य में नाटिका का संयोग। मिलाप। ४. उपकरणों के द्वारा किसी पदार्थ का निर्माण। रचना। ५. बनावट। दे० 'संगठन'।
⋙ संघटना
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घटना] १. दे० 'संघटन'। २. स्वरों या शब्दों का संयोजन [को०]।
⋙ संघटबिधाई पु
वि० [हि० संघट + विधान] समूहबद्ध करनेवाला। जो समूह या दलबद्ध करे। उ०—जयति सौमित्रि रघुनंदनानंद कर रिच्छ कपि कटक संघटबिधाई।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४३७।
⋙ संघटित
वि० [सं० सङ्घटित्] १. एक जगह किया हुआ। एकत्रित। मिला या जुड़ा हुआ (को०)। २. (वाद्य आदि) जो बजाया हुआ हो। अभिघातित। वादित (को०)। ३. टकराया हुआ। संघट्टित। उ०—सुर विमान हिमभानु भानु संघटित परस्पर।—तुलसी ग्रं०, पृ०१५७।
⋙ संघट्ट
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घट्ट] १. रचना। बनावट। गठन। २. संघर्ष। ३. मुठभेड़। स्पर्धा (को०)। ४. आघात। चोट। ५. संघर्षण। रगड़ (को०)। ६. आलिंगन (को०)। ७. मिलन। संयोग (को०)।
⋙ संघट्ट चक्र
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घट्टचक्र] फलित ज्योतिष में युद्धफल विचारने का नक्षत्रों का एक चक्र। विशेष—इस चक्र के द्वारा यह जाना जाता है कि युद्ध में जीत होगी या हार। यदि युद्धार्थ प्रस्थान करनेवाले का जन्मनक्षत्र इस चक्र में शुभ होता है, तो वह युद्ध में विजय लाभ करता है; और यदि अशुभ होता है, तो पराजय। स्वरोदय में इस चक्र का विवरण इस प्रकार दिया है—एक त्रिकोण चक्र बनाकर इस चक्र में टेढ़ी रेखाएँ खींचकर उसमें अश्विनी आदि २७ नक्षत्र अंकित करने चाहिए। नौ नक्षत्रों का एक साथ वेध होता है। वेध क्रम इस प्रकार होता है। अश्विनी का रेवती के साथ, चित्रा नक्षत्र का श्लेषा और मूल के साथ, और ज्येष्ठा का मूल के साथ वेध होता है। यदि राजा का जन्म नक्षत्र इस चक्रवेध में न हो, या सौम्य ग्रह सहित वेध हो, तो उस समय युद्ध नहीं होगा। यदि क्रूर नक्षत्र के साथ वेध हो, तो उस समय भीषण युद्ध हौगा। सौम्य, स्वामी, मित्रामित्र आदि ग्रहगणों से युक्त तथा अतिचार प्रभृति गति द्वारा भी शुभाशुभ का निर्णय होता है।
⋙ संघट्टन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घट्टन] [स्त्री० संधट्टना] १. बनावट। रचना। गठन। २. मिलन। संयोग। ३. घटना। ४. दे० 'संघटन'।
⋙ संघट्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लता। वल्ली। बेल।
⋙ संघट्टित
वि० [सं० सङ्घट्टित] १. एकत्र किया हुआ। २. गठित। निर्मित। बना हुआ। रचित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. घर्षित। रगड़ा हुआ। ५. (आटा आदि) जो साना या गूँधा हुआ हो (को०)।
⋙ संघट्टितपाणि
संज्ञा पुं० [सं० संघट्टितपाणी] वर और वधू के आपस में जुड़े हुए हाथ (को०)।
⋙ संघट्टी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घट्टिन्] वह जो साथ लगा रहे। अनुगामी। माननेवाला। जैसे, कृष्णसंघट्टी, रामसंघट्टी [को०]।
⋙ संघतल
संज्ञा पुं० [सं० सङघतल] अंजलि [को०]।
⋙ संघती †
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घ, हि० संग, सँघाती, सँगाती] साथी। सहचर। उ०—तुम्ह अस हित संघती पियारी। जियत जीउ नहि करौं निनारी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ संघपति
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घपति] वह जो किसी संघ या समूह का प्रधान हो। दलपति। नायक।
⋙ संघपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घपुरुष] बौद्ध संघ का परिचारक संघ का सेवक [को०]।
⋙ संधपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्धपुष्पी] धातकी। धव। धौ।
⋙ संघभेद
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घभेद] बौद्ध संघ में मतभेद पैदा करना जो पाँच प्रकार के अक्षम्य अपराधों में एक माना गया है [को०]।
⋙ संघभेदक
वि० [सं० सङ्घभेदक] संघ में फूट पैदा करनेवाला [को०]।
⋙ संघरना पु
क्रि० स० [सं० संहार + हिं० ना (प्रत्य०)] १. संहार करना। नाश करना। २. मार डालना। उ०—गरगज चूर चूर होइ परहीं। हस्ति घोर मानुष संघरहीं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ संघर्ष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घर्ष] १. एक चीज का दूसरी चीज के साथ रगड़ खाना। संघर्षण। रगड़। घिस्सा। २. दो विरोधी व्यक्तियों या दलों आदि में स्वार्थ के विरोध के कारण होनेवाली प्रतियोगिता या स्पर्धा। ३. वह अंहकारसूचक वाक्य जो अपने प्रतिपक्षी के सामने अपना बड़प्पन जतलाने के लिये कहा जाय। ४. किसी चीज को घोटने या रगड़ने की क्रिया। रगड़ना। घिसना। ५. असूया। ईर्ष्या। डाह (को०)। ६. कामोद्दीपन। कामोत्तेजना (को०)। ७. शत्रुता। बैर भाव (को०)। ८. धीरे धीरे चलना। टहलना। ९. शर्त लगाना। बाजी लगाना।
⋙ संघर्षण
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घर्षण] १. दे० 'संघर्ष'। २. अम्यंजन। अनुलेपन। उबटन (को०)।
⋙ संघर्षजनन
वि० [सं० सङ्घर्षजनन] संघर्ष पैदा करनेवाला। जिससे संघर्ष हो।
⋙ संघर्षशाली
वि० [सं० सङ्घर्षशालिन्] १. द्वेष करनेवाला। द्वेष्टा। २. होड़ करनेवाला [को०]।
⋙ संघर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घर्षा] तरल या गीली लाह [को०]।
⋙ संघर्षी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घर्षिन्] १. वह जो किसी प्रकार का संघर्ष करता हो। २. वह जो किसी के साथ प्रतियोगिता करता हो। प्रतिस्पर्धा करनेवाला। ३. रगड़ने या घिसनेवाला।
⋙ संघवृत्त
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घवृत्त] कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार श्रेणी, समूह, संघ की आचारविधि या व्यवहार [को०]।
⋙ संघवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घवृत्ति] साथ कार्य करने के निमित्त एकत्र होने या संमिलित होने की क्रिया। सहयोग।
⋙ संघस
संज्ञा पुं० [सं० सम् (उप०) + √ घस् (= खाना)] भोजन की वस्तु। आहार [को०]।
⋙ संघाट
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घाट] १. दल, समूह या संघ आदि में रहनेवाला। वह जो दल बाँधकर रहता हो। २. लकडी आदि को जोड़ना या मिलाना। जोड़ने का काम। बढ़ईगिरी (को०)।
⋙ संघाटि
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घाटि] दे० 'संघाटी' [को०]।
⋙ संघाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घाटिका] १. स्त्रियों का प्राचीन काल का एक प्रकार का पहनावा। २. वह स्त्री जो प्रेमी प्रेमिका को मिलावे। दूती। कुट्टिनी। कुटनी। ३. युग्म। जोड़ा। ४. सिंघाड़ा। ५. कुंभी। ६. गंध। महक। बास (को०)। ७. घ्राणेंद्रिय। नाक (को०)।
⋙ संघाटी
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घाटी] बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का एक प्रकार का वस्त्र।
⋙ संघाणक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घाणक] श्लेष्मा। कफ जो नाक से निकलता है।
⋙ संघात (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घात] १. जमाव। समूह। समष्टि। २. आघात। चोट। ३. इत्या। बध। ४. इक्कीस नरकों में से एक नरक का नाम। ५. कफ। ६. नाटक में एक प्रकार की गति। ७. शरीर। उ०—सो लोचन गोचर सुखदाता। देखत चरण तमहुँ संघाता।—स्वामी रामकृष्ण (शब्द०)। ८. निवासस्थान। उ०—हो मुखराते सत्य के बाता। जहाँ सत्य तहँ धर्म संघाता।—जायसी (शब्द०)। ९. युद्ध। संघर्ष (को०)। १०. यात्रियों का दल। कारवाँ (को०)। ११. अस्थि। हड्डी (को०)। १२. कठोर अंश (को०)। १३. ओघ। गति। प्रवाह (को०)। १४. (व्या०) समास (को०)। १५. घनीभूत करना। ठोस बनाना (को०)। १६. संमिश्रणों का निर्माण (को०)।
⋙ संघात (२)
वि० सघन। निविड़। घना। यौ०—संघातकठिन = (१) एक साथ मिलने पर कठिन हो जानेवाला। (२) जो जम जाने से कठोर हो जाय।
⋙ संघातक
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घातक] १. घात करनेवाला। प्राण लेनेवाला। २. वह जो बरबाद करता हो। नष्ट करनेवाला। ३. एक प्रकार का नाटकीय अभिनय (को०)।
⋙ संघातचारी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घातचारिन्] वह जो अपने वर्ग के और प्राणियों या लोगों के साथ मिलकर, या उनका संघ बनाकर रहता हो।
⋙ संघातज
वि० [सं० सङ्घातज] त्रिदोष से उत्पन्न। सान्निपातिक। संनिपातवाला [को०]।
⋙ संघातपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घातपत्रिका] १. शतपुष्पा। सोआ। २. सौफ। मिश्रेया।
⋙ संघातन
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घातन] मारना। वध करना। नाश करना [को०]।
⋙ संघातबलप्रवृत्त
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घातबल प्रवृत्त] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का आधिभौतिक और आगंतुक रोग।
⋙ संघातमृत्यु
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घातमृत्यु] सामूहिक मृत्यु। बहुतों की एक साथ मौत होना [को०]।
⋙ संघातशिला
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घातशिला] १. पत्थर जैसा कड़ा पिंड। २. ठोस या बहुत कड़ा पत्थर [को०]।
⋙ संघातिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्घातिका] अरणि की लकड़ी। अरणि- काष्ठ जिससे आग पैदा की जाती है [को०]।
⋙ संघाती (१)
संज्ञा पुं० [सं० संघ, हिं० संग + आती (प्रत्य०)] १. साथी। सहचर। २. मित्र।
⋙ संघाती (२)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घातिन्] संघातक। प्राणनाशक।
⋙ संघात्य
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घात्य] दे० 'संघातक'।
⋙ संघाधिप
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घाधिप] संघ का स्वामी या प्रधान भिक्षु (जैन)।
⋙ संघार पु †
संज्ञा पुं० [सं० संहार] दे० 'संहार'।
⋙ संघारना पु
क्रि० स० [सं० संहार] १. संहार करना। नाश करना। २. मार डालना। हत्या करना। उ०—तहँ निषाद इक क्रौंच संघारछयौ। किय बिलाप ताकी तिय मारचौ।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ संघाराम
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घाराम] बौद्ध भिक्षुओं तथा श्रमणों आदि के रहने का मठ। विहार।
⋙ संघावशेष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घावशेष] बौद्ध मत के अनुसार एक प्रकार का पाप।
⋙ संघुषित (१)
वि० [सं०] १. ध्वनित। २. घोषणा किया हुआ। घोषित [को०]।
⋙ संघुषित (२)
संज्ञा पुं० आवाज। ध्वनि। शोरगुल। हल्ला [को०]।
⋙ संघुष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घुष्ट] आवाज। ध्वनि [को०]।
⋙ संघुष्ट (२)
वि० १. जो घोषित किया गया हो। २. ध्वनित। ३. जिसे बेचने के लिये उपस्थित या घोषित किया गया हो [को०]।
⋙ संघृष्ट
वि० [सं० सङ्घृष्ट] घिसा हुआ। रगड़ा हुआ [को०]।
⋙ संघेला †
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ग + एला (प्रत्य०)] १. साथी। सह- चर। संगी। २. मित्र। दोस्त।
⋙ संघोष
संज्ञा पुं० [सं० सङ्घोष] १. जोर का शब्द। २. गोप ग्राम। घोष। आभीर पल्ली।
⋙ संच पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चय] १. संग्रह करने की क्रिया। संचय। एकत्रीकरण। २. रक्षा। देखभाल। उ०—जननि जनक ते अधिक गाधि सुत करिहैं संच तिहारो। कौशिक शासन सकल शीश धरि सिगरो काज शिधारो।—रघुराज (शब्द०)। ३. शांति। कुशल।
⋙ संच (२)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्च] १. लिखने की स्याही। मसी। २. ग्रंथ आदि लिखने के निमित्त पत्रों का संचयन (को०)।
⋙ संच पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० सत्य, प्रा० सच्च, संच] सत्य। सव। उ०— संच तेता करि मान्यौ।—पृ० रा०, २६।१३।
⋙ संचक (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चय, हिं० संच + क (प्रत्य०)] दे० 'संचकर'।
⋙ संचक (२)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चक] साँचा जिसमें कोई वस्तु ढाली जाती है [को०]।
⋙ संचकर पु
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चय + कर] १. संचय करनेवाला। २. कृपण। कंजूस।
⋙ संचकित
वि० [सं० सम् + चकित, सञ्चकित] [वि० स्त्री० संचकिता] १. आश्चर्यग्रस्त। २. भौचक। भयभीत। ३. बुरी तरह डरा हुआ [को०]।
⋙ संचक्ष
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चक्षस्] ऋषि। आचार्य। पुरोहित [को०]।
⋙ संचत्
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चत्] १. वंचक। ठग। प्रतारक। २. ठगी। वंचना [को०]।
⋙ संचना पु †
क्रि० स० [सं० सञ्चयन] १. एकत्र करना। संग्रह करना। संचय करना। उ०—निरधन के धन अहैं स्याम अरु स्यामा दोऊ। सुकवि तिनहिं हम गह्मो और को संचहुकोऊ।—अंबिकादत्त (शब्द०)। २. रक्षा करना। देख- भाल करना।
⋙ संचय
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चय] १. राशि। समूह। ढेर। २. एकत्र या संग्रह करने की क्रिया। एकत्रीकरण। संकलन। जमा करना। ३. अधिकता। ज्यादती। बहुतायत। ४. ग्रंथि। कांड। जोड़। संधि (को०)।
⋙ संचयन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चयन] १. संचय करने की क्रिया। एकत्र या संग्रह करने की क्रिया। जमा करना। २. जले हुए मुर्दे की अस्थियाँ बटोरना। अस्थिसंचय [को०]।
⋙ संचयिक
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चयिक] वह जो संचय करता हो। एकत्र करनेवाला। जमा करनेवाला।
⋙ संचयिता
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चयितृ] दे० 'संचयिक'।
⋙ संचयी
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चयिन्] १. संचय करनेवाला। जमा करनेवाला। २. कृपण। कंजूस। ३. धनवान्। धनी (को०)।
⋙ संचर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चर] १. गमन। चलना। २. सेतु। पुल। ३. जल के निकलने का मार्ग। ४. मार्ग। पथ। रास्ता। ५. स्थान। जगह। ६. देह। शरीर। ७. साथी। सहायक। ८. ग्रहों का एक से दूसरी राशि में संक्रमण (को०)। ९. पतला रास्ता। सँकरा मार्ग (को०)। १०. प्रवेशद्वार (को०)। ११. वध। मार डालना (को०)। १२. विकास (को०)।
⋙ संचर (२)
वि० इतस्ततः घूमने या चलनेवाला [को०]।
⋙ संचरण
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चरण] १. संचार करने की क्रिया। चलना। गमन। २. प्रसारण। फैलाना। ३. गतिशील करना। प्रयोग में लाना (को०)। ४. काँपना।
⋙ संचरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रथ्या। वीथी। राह [को०]।
⋙ संचरना पु †
क्रि० अ० [सं० सञ्चरण] १. घूमना। फिरना। चलना। उ०—पवन न पावै संचरै भँवर न तहाँ बईठ।— पदमावत, पृ० १६२। २. फैलना। प्रसारित होना। उ०— सरद चाँदनी संचरत चहुँ दिसि आनि। विधुहि जोरि कर बिनवति कुल गुरु जानि।—तुलसी (शब्द०)। ३. चल निकलना। व्यवहृत होना। प्रचलित होना।
⋙ संचरिष्णु
वि० [सं० सञ्चरिष्णु] संचरण वा गमन के लिये व्यवस्थित [को०]।
⋙ संचर्वण
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चर्वण] चबाना। चर्वण करना [को०]।
⋙ संचल (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चल] सौवर्च्चल लवण। साँचर नमक।
⋙ संचल (२)
वि० कंपित। हिलता हुआ। भ्रमित [को०]।
⋙ संचलन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चलन] १. हिलना डोलना। २. चलना फिरना। ३. काँपना।
⋙ संचलनाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चलनाडी] धमनी। रग। नस।
⋙ संचा पु
संज्ञा पुं० [हिं० साँचा] दे० 'साँचा'। उ०—कुच सिरिफल संचा पूरि। कुंदि बइसाओल कनक कटोरि।—विद्यापति, पृ० २६९।
⋙ संचान
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चान] श्येन नामक पक्षी। बाज। शिकरा।
⋙ संचाय्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ संचार
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चार] १. गमन। चलना। २. फेलने या विस्तृत होने की क्रिया। ३. कष्ट। विपत्ति। ४. मार्ग प्रद- र्शन। नेतृत्व। रास्ता दिखलाने की क्रिया। ५. चलाने की क्रिया। संचालन। ६. साँप की मणि। ७. देश। ८. ग्रहों या नक्षत्रों का एक राशि से दूसरी राशि में जाना। विशेष—ज्योतिष के अनुसार संचार समय में चंद्र जिस रूप का होता है, उसी प्रकार का फल भी होता है। यदि चंद्र शुद्ध होता है, तो साथ में जिस ग्रह का शुभ भाव होता है, उस ग्रह के शुभ फल को वृद्धि होती है। यदि संचार काल में इंदु शुद्ध नहीं होता, तो शुभ भाववाले शुभ ग्रह के शुभ फल में न्यूनता होती है। यदि कोई अशुभ ग्रह शुद्ध चंद्र के साथ होता है, तो अशुभ फल की कमी होती है। फलित ज्योतिष में संचार के संबंध में इसी प्रकार की और भी बहुत सी बातें दी हुई हैं। ९. उत्तेजन। बढ़ावा देना। १०. कष्टमय यात्रा (को०)। ११. मार्ग। पथ। राह (को०)। १२. दूत। गुप्तचर। संदेशवाहक (को०)। १३. दर्शन एवं श्रवण द्वारा दूसरे का मोहन करना। १४. रतिमंदिर की अवधि। यौ०—संचारजीवी = खानाबदोश। संचारपथ = घूमने टहलने की जगह। संचारव्याधि = संक्रामक रोग।
⋙ संचारक
वि०, संज्ञा पुं० [सं० सञ्चारक] १. संचार करनेवाला। फैलानेवाला। २. वक्ता। ३. चलानेवाला। ४. दलपति। नायक। नेता। ५. स्कंद का एक अनुचर (को०)।
⋙ संचारण
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चारण] १. पास लाना या करना। २. मिलना। एक में करना। ३. (संदेशा) कहना [को०]।
⋙ संचारणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चारिणी] बौद्धों की एक देवी [को०]।
⋙ संचारना पु
क्रि० स० [सं० सञ्चारण] १. संचार का सकर्मक रूप। किसी वस्तु का संचार करना। २. प्रचार करना। व्यवहार में प्रयुक्त करना। फैलाना। उत्पन्न करना। जन्म देना। उ०—नूर मुहम्मद देखि तौ भा हुलास मन सोइ। पुनि इबलिस संचारेउ डरत रहे सब कोइ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ संचारयिता
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चारयितृ] नायक। नेता [को०]।
⋙ संचारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चारिका] १. संदेशवाहिका। दूती। २. कुट्टनी। कुटनी। ३. नाक। नासिका। ४. युग्म। जोड़ा। ५. गंध। महक (को०)। ६. वह दासी जो रुपये पैसे की व्यवस्था करती हो (को०)।
⋙ संचारिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चारिणी] १. हंसपदी नाम की लता। २. लाल लजालू।
⋙ संचारिणी (२)
वि० स्त्री० १. हिलती या काँपती हुई। २. भटकती हुई या घूमती हुई। ३. परिवर्तनशील। अस्थिर। ४. प्रभाव डालनेवाली। ५. आनुवंशिक रूप से संक्रमण करनेवाली या संस्पर्श द्वारा उत्पन्न होनेवाली बीमारी। ६. प्रवृत्त करनेवाली [को०]।
⋙ संचारित (१)
वि० [सं० सञ्चारित] १. जिसका संचार किया गया हो। चलाया या फैलाया हुआ। २. उकसाया हुआ। बढ़ाया हुआ (को०)। ३. (व्याधि या रोग) जो संक्रमित किया जाय (को०)।
⋙ संचारित (२)
संज्ञा पुं० वह व्यक्ति जो अपने स्वामी की आकांक्षाओं को कार्यान्वित करता हो [को०]।
⋙ संचारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चारिन्] १. धूप नामक गंध द्रव्य। २. धूप का उठा हुआ धूम्र (को०)। ३. वायु। हवा। ३. साहित्य में वे भाव जो रस के उपयोगी होकर जल की तरंगों की भाँति उनमें संचरण करते हैं। विशेष—ऐसे भाव मुख्य भाव की पुष्टि करते हैं और समय समय पर सुख्य भाव का रूप धारण कर लेते हैं। स्थायी भावों की भाँति ये रससिद्धि तक स्थिर नहीं रहते, बल्कि अत्यंत चंचलतापूर्वक सब रसों में संचरित होते रहते हैं। इन्हीं को व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। साहित्य में नीचे लिखे ३३ संचारी भाव गिनाए गए हैं—निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, मद, धृति, आलस्य, विषाद, मति, चिंता, मोह, स्वप्न, विबोध, स्मृति, आमर्ष, गर्व, उत्सुकता, अवहित्था, दीनता, हर्ष, ब्रोड़ा, उग्रता, निंदा, व्याधि, मरण, अपस्मार, आवेग, त्रास, उन्माद, जड़ता, चप- लता और वितर्क। ४. अस्थिरता। चंचलता। क्षणस्थायित्व। ५. संगीत शास्त्र के अनुसार किसी गीत के चार चरणों में से तीसरा चरण। ६. आगंतुक।
⋙ संचारी (२)
वि० [वि० स्त्री० सञ्चारिणी] १. संचरण करनेवाला। गति- शील। अस्थिर। २. संक्रामक। जैसे, रोग (को०)। ३. चढ़ने उतरनेवाला। जैसे, स्वर (को०)। ४. दुर्गम (को०)। ५. वंश- परंपरागत। आनुवंशिक (को०)। ६. क्षणस्थायी (को०)। ७. संलग्न। लगा हुआ (को०)। ८. प्रवेश करनेवाला (को०)। ९. घूमनेवाला। भ्रमण करनेवाला (को०)।
⋙ संचाल
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चलन] १. कंपन। काँपना। २. चलन। चलना।
⋙ संचालक
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चालक] १. वह जो संचालन करता हो। चलाने या गति देनेवाला। परिचालक। २. वह जो किसी प्रकार के उद्योग या संस्था आदि के ठीक से चलते रहने का प्रबंध करता हो (को०)।
⋙ संचालन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चालन] १. चलाने की क्रिया। परिचालन। २. काम जारी रखना या चलाना। प्रतिपादन। ३. नियंत्रण। ४. देखरेख।
⋙ संचाली
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चाली] गुंजा। घुँघची।
⋙ संचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चिन्तन] चिंतन करना। विचारना [को०]।
⋙ संचिंतित
वि० [सं० सञ्चिन्तित] १. सम्यक् विचारित। सुविचारित। २. निश्चित किया हुआ। व्यवस्थित। ३. आकांक्षित। इच्छित [को०]।
⋙ संचित
वि० [सं० सञ्चित] १. संचय किया हुआ। २. ढेर लगाया हुआ। ३. गिना हुआ। गणना किया हुआ (को०)। ४. भरा हुआ। सुसंपन्न। युक्त (को०)। ५. बाधित। अवरुद्ध (को०)। ६. घना। सघन (को०)। यौ०—संचितकर्म = पूर्वजन्म के वे एकत्रिच कर्म जो वर्तमान जीवन में प्रारब्ध के रूप में प्राप्त होते हैं और जिनका फल भोगना पड़ता है। संचितकोष, संचितनिधि = (१) जमापूँजी। (२) वेतनभोगी कर्मचारियों के वेतन से हर महीने कटकर जमा होनेवाली वह निश्चित रकम जो उन्हें नौकरी से अलग होने पर मिल जाती है। वेतन देनेवाला संस्थान भी कर्मचारियों की उस जमा रकम में अपनी ओर से उतनी ही रकम मिलाता है। प्राविडेंट फंड (अं०)।
⋙ संचिता
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चिता] एक प्रकार की वनस्पति।
⋙ संचिति
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चिति] १. एक पर एक रखना। तही लगना। २. संग्रह। संचय (को०)। ३. शतपथ ब्राह्मण के नवम खंड की आख्या (को०)।
⋙ संचित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चित्रा] मूषाकर्णी। मूसाकानी।
⋙ संचु
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जु] टीका। व्याख्या [को०]।
⋙ संचूर्णन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चूर्णन] अच्छी तरह चूर करना, टुकड़े टुकड़े करना या पीसना [को०]।
⋙ संचूर्णित
वि० [सं० सञ्चूर्णित] पिसा हुआ। टुकड़े टुकड़े किया हुआ। चूर्ण किया हुआ [को०]।
⋙ संचेय
वि० [सं० सञ्चेय] इकट्ठा करने योग्य। संग्रहणीय [को०]।
⋙ संचोदक
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चोदक] १. ललितविस्तर के अनुसार एक देवपुत्र का नाम।
⋙ संचोदन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चोदन] प्रेरित करना। बढ़ावा देना या उत्तेजित करना [को०]।
⋙ संचोदना
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्चोदना] १. वह वस्तु जो प्रेरणा वा उत्तेजना प्रदान करती हो। २. उत्तेजना। प्रेरणा [को०]।
⋙ संचोदित
वि० [सं० सञ्चोदित] उत्तेजित। आदिष्ट। प्रेरित [को०]।
⋙ संछन्न
वि० [सं० सम् + छन्न] १. पूर्णतः ढँका हुआ। आवृत। वस्त्राच्छादित। २. छिपा हुआ। छन्न। गुप्त। अज्ञात [को०]।
⋙ संछर्द्दन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्छर्दन] ग्रण में एक प्रकार का मोक्ष। विशेष—राहु यदि ग्राह्ममंडल में पूर्व भाग से ग्रसना आरंभ करके फिर पूर्व दिशा को ही चला आवे, तो उसको संछर्द्दन मोक्ष कहते हैं। फलित ज्योतिष के अनुसार इससे संसार का मंगल और धान्य की वृद्धि होती है।
⋙ संछादन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्छादन] आच्छादित करना। छिपाना। ढँकना [को०]।
⋙ संछादनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्छादनी] १. वह जो संछादन करे। २. त्वचा। खाल [को०]।
⋙ संछिदा
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्छिदा] विध्वंस। नाश [को०]।
⋙ संछिन्न
वि० [सं० सञ्छिन्न] टुकड़े टुकड़े किया हुआ। छिन्न। काटा हुआ [को०]।
⋙ संछेत्ता
संज्ञा पुं० [सं० सञ्छेतृ] वह जो संशय आदि को दूर करता या मिटाता हो [को०]।
⋙ संछेत्तव्य
वि० [सं० सञ्छेत्तव्य] जो छेदन के योग्य हो। भेद्य [को०]।
⋙ संछेद
संज्ञा पुं० [सं० सञ्छेद] १. काटना। अलग करना। २. हटाना। दूर करना [को०]।
⋙ संछेद्य
संज्ञा पुं० [सं० सञ्छेद्य] १. छेदने के योग्य। २. दो नदियों का साथ बहना अथवा संगम [को०]।
⋙ संज (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्ज] १.शिव का एक नाम। २. ब्रह्मा का एक नाम।
⋙ संज (२)
वि० [फ़ा०] तौलनेवाला। बया [को०]।
⋙ संज (३)
संज्ञा पुं० झाँझ या मजीरा नामक वाद्य [को०]।
⋙ संजन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जन] १. बाँधने की क्रिया। २. बंधन। ३. बिखरे हूए अंगों आदि को मिलाकर एक करना। संघट्टन।
⋙ संजनन (१)
वि० [सं० सञ्जनन] उत्पादक। उत्पन्न करनेवाला [को०]।
⋙ संजनन (२)
संज्ञा पुं० १. निर्माण। उत्पान। २. बढ़ाव। विकास [को०]।
⋙ संजनित
वि० [सं० सञ्जनित] उत्पन्न किया हुआ। निर्मित। रचित [को०]।
⋙ संजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैदिक काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे वध या हत्या की जाती थी।
⋙ संजम पु
संज्ञा पुं० [सं० संयम] दे० 'संयम'। उ०—राम करहु सब संजम आजू। जौं विधि कुसल निबाहइ काजू।—मानस, २।१०।
⋙ संजमना पु
क्रि० स० [सं० संयमन] एकत्र करना। बटोरना। संयमित करना। व्यवस्थित करना। उ०—पलटि पट संजमत केसनि मृदुल अंग अँगौछि।—घनानंद, पृ० ३०१।
⋙ संजमनी
संज्ञा स्त्री० [सं० संयमनी] यमराज की नगरी। (डिं०)।
⋙ संजमनीपति
संज्ञा पुं० [सं० संयमनीपति] यमराज। यमदेव। (डिं०)।
⋙ संजमी
संज्ञा पुं० [सं० संयमिन्] १. नियम से रहनेवाला। संयमी। २. व्रती। ३. जितेंदिय।
⋙ संजय
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जय] १. धृतराष्ट्र का मंत्री जो महाभारत के युद्ध के समय धृतराष्ट्र को उस युद्ध का विवरण सुनाता था। विशेष—कहते हैं कि इसे दिव्य दृष्टि प्राप्त थी; अतः यह हस्तिना- पुर में बैठा हुआ कुरुक्षेत्र में सारी घटनाएँ देखता था और उनका वर्णन अंधे धृतराष्ट्र को सुनाता था। २. सुपार्श्व का पुत्र। ३. राजन्य के पुत्र का नाम। ४. ब्रह्मा। ५. शिव। ६. विजय। जीत (को०)। ७. एक प्रकार का सैनिक व्यूह (को०)।
⋙ संजर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक शिकारी पक्षी। २. बादशाह। उ०—यक तौ सरपंजर कियौ अतन तनै सर सूल। दूजे यह सिसिरौ भयौ खंजर संजर तूल।—स० सप्तक, पृ० २४९।
⋙ संजल्प
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जल्प] १. वार्तालाप। बातचीत। २. बकवाद। ऊटपटाँग वार्ता। ३. हल्ला गुल्ला [को०]।
⋙ संजवन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जवन] १. चार अट्टालिकाओं की वह विशिष्ट चतुष्कोण स्थिति जिससे उनके बीच में आँगन बन जाय। २. मार्गदर्शक चिह्न [को०]।
⋙ संजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्जा] बकरी।
⋙ संजा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० संजह्] बाट। तौलने का बटखरा [को०]।
⋙ संजात (१)
वि० [सं० सञ्जात] १. उत्पन्न। २. प्राप्त। ३. व्यतोत। बीता हुआ (को०)। यौ०—संजातकोष = कुषित। क्रुद्ध। संजातकौतुक = विस्मित। चकित। संजातनिर्वेद = विरक्त। उदासीन। संजातविश्रंभ = आश्वस्त। संतुष्ट। संजातवेषयु = काँपनेवाला। काँपता हुआ। कंपित।
⋙ संजात (२)
संज्ञा पुं० पुराणानुसार एक जाति का नाम।
⋙ संजाफ (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० संजफ़ या संजाफ़] १. झालर। किनारा। कोर। २. चौड़ी और आड़ी गोट जो प्रायः रजाइयों और लिहाफों आदि के किनारे किनारे लगाई जाती है। गोट। मगजी। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।
⋙ संजाफ (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का घोड़ा जिसका रंग या तो आधा लाल, आधा सफेद होता है या आधा लाल, आधा हरा।
⋙ संजाफी (१)
वि० [हिं० संजाफ + ई (प्रत्य०)] जिसमें संजाफ लगी हो। किनारेदार। झालरदार। यौ०—संजाफी गंजा = खल्वाट व्यक्ति जिसकी खोपड़ी के किनारे पर बाल हों।
⋙ संजाफी (२)
संज्ञा पुं० वह घोड़ा जिसका रंग संजाफी हो। आधा लाल आधा हरा घोड़ा।
⋙ संजाब (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० संजाफ़] १. एक प्रकार का घोड़ा। दे० 'संजाफ'। उ०—पचकल्यान संजाब बखानी। महि सायर सब चुन चुन आनी।—जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का चमड़ा।
⋙ संजाब (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] चूहे के आकार का एक जंतु जो प्रायः तुर्किस्तान में होता है। विशेष—इस जंतु का मांस वक्षस्थल की पीड़ा, कास और व्रण के लिये उपकारक माना जाता है। इसकी खाल पर बहुत मुलायम रोएँ होते हैं, और उससे पोस्तीन बनाते हैं।
⋙ संजावन
संज्ञा पुं० [सं०] जमाने के लिये गरम दूध में जामन डालना [को०]।
⋙ संजिदा
वि० [फ़ा० संजिदह्] तौलनेवाला। बयाई करनेवाला [को०]।
⋙ संजिहानि
वि० [सं० सञ्जिहानि] (शय्या) त्याग करनेवाला। (बिस्तर) छोड़नेवाला [को०]।
⋙ संजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] तराजू पर तौलना। वजन करना।
⋙ संजीदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. विचार या व्यवहार आदि की गंभीरता। २. सहिष्णुता। शिष्टता। ३. संजीदा होना (को०)।
⋙ संजीदा
वि० [फ़ा० संजीदह्] १. जिसके व्यवहार या विचारों मेंगंभीरता हो। गंभीर। शांत। २. समझदार। बुद्धिमान्। ३. सहिष्णु (को०)। ४. संतुलित। तौला हुआ (को०)।
⋙ संजीव (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जीव] १. मरे हुए को फिर से जिलाना। पुनः जीवन देना। २. वह जो मरे हुए को जिलावे। फिर से जीवन दान करनेवाला। ३. बौद्धों के अनुसार एक नरक का नाम। यौ०—संजीवकरण = फिर से जीवित करना। पुनर्जीवन देना। संजीवकरणी।
⋙ संजीव (२)
वि० जीवित। प्राणवान् [को०]।
⋙ संजीवक
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जीवक] वह जो मरे हुए को जीवनदान देता हो। मुर्दे को जिलानेवाला।
⋙ संजीवकरणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्जीवकरणी] १. एक प्रकार की विद्या जिसके प्रभाव से मृत मनुष्य जीवित हो जाता है। (महाभारत में लिखा है कि शुक्राचार्य यह विद्या जानते थे)। २. एक प्रकार की कल्पित ओषधि जिसके सेवन से मृत व्यक्ति का जीवित होना माना जाता है।
⋙ संजीवन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जीवन] [वि० संजीवित] १. भलीभाँति जीवन व्यतीत करने की क्रिया। २. जीवन दान करना। पुनः जिलाना। ३. मनु के अनुसार इक्कीस नरकों में से एक नरक का नाम। ४. दे० 'संजवन' (को०)।
⋙ संजीवन (२)
वि० जिलानेवाला। जीवन देनेवाला [को०]।
⋙ संजीवनी (१)
वि० स्त्री० [सं० सञ्जीवनी] जीवनप्रदायिनी। जीवन- दायिनी। जीवन देनेवाली।
⋙ संजीवनी (२)
संज्ञा स्त्री० १. एक प्रकार की कल्पित ओषधि। कहते हैं कि इसके सेवन से मरा हुआ मनुष्य जी उठता है। २. वैद्यक के अनुसार एक औषध का नाम। विशेष—इसके लिये पहले बायबिडंग, सोंठ, पिप्पली, हड़ का छिलका, आँवला, बहेड़ा, बच, गिलोय, भिलावाँ, संशोधित सिंगी मोहरा इन सबके चूर्ण को एक दिन गोमूत्र में खरल करके एक रत्ती की गोलिंयाँ बनाते हैं। कहते हैं कि इसकी एक गोली अदरक के रस के साथ खिलाने से अजीर्ण, दो गोलियाँ खिलाने से विसूचिका, तीन गोलियाँ खिलाने से सर्पविष और चार गोलियाँ खिलाने से सन्निपात नष्ट होता है। ३. अन्न। खाद्य वस्तु (को०)। ४. कालिदास के महाकाव्य कुमार- संभव पर मल्लिनाथ सूरि की टीका का नाम।
⋙ संजीवनी विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सञ्जीवनी विद्या] एक प्रकार की कल्पित विद्या। विशेष—कहते है कि इस विद्या के द्वारा मरे हुए व्यक्ति को जिलाया जा सकता है। महाभारत में लिखा है कि दैत्यों के गुरु शु्क्राचार्य यह विद्या जानते थे; और इसी के द्वारा वे उन दैत्यों को फिर से जिला देते थे जो देवताओं के साथ युद्ध करने में मारे जाते थे। देवताओं के कहने से बृहस्पति के पुत्र कच यह विद्या सीखने के लिये शुकाचार्य के पास जाकर रहने लगे; और अनेक कठिनाइयाँ सहने के उपरांत अंत में उनसे यह विद्या सीखकर आए।
⋙ संजीवित
वि० [सं० सञ्जीवित] फिर से जिलाया हुआ [को०]।
⋙ संजीवी
संज्ञा पुं० [सं० सञ्जीविन्] वह जो मृतकों को जीवनदान देता हो। मुरदों को जिलानेवाला।
⋙ संजुक्त पु
वि० [सं० संयुक्त] दे० 'संयुक्त'। उ०—जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।—मानस, ७।१३।
⋙ संजुग पु
संज्ञा पुं० [सं० संयुग] संग्राम। युद्ध। लड़ाई। उ०— जीतेहु जे भट संजुग माहो। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं।—मानस, ६।८९।
⋙ संजुत पु
वि० [सं० संयुत] संयुक्त। मिश्रित। मिला हुआ। उ०— (क) उहँई कीन्हेंउ पिंड उरेहा। भइ संजुत आदम कै देहा।—जायसी (शब्द०)। (ख) श्रुति संमत हरिभक्ति पथ संजुत बिरति बिवेक।—मानस, ७।१००।
⋙ संजुता
संज्ञा स्त्री० [सं० संयुक्ता] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ग, होते है। इसे 'संयुत' या 'संयुता' भी कहते हैं।
⋙ संजोग पु
संज्ञा पुं० [सं० संयोग] अवसर। मौका। संयोग।
⋙ संजोगिता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] जयचंद की कन्या का नाम जिसका पृथ्वीराज चौहान ने हरण किया था।
⋙ संजोगिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० संयोगिनी] वह स्त्री जो अपने पति या प्रेमी के पास अथवा साथ हो। संयोगिनी। वह स्त्री जो वियोगिनी न हो।
⋙ संजोगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० संयोगिन्] १. वह जो संयुक्त या मिला हुआ हो। २. वह जो भार्या सहित हो। प्रिया के सहित व्यक्ति। दे० संयोगी। ३. दो जुड़े हुए पिंजड़े जो बहुधा तीतर पालनेवाले रखते हैं।
⋙ संजोगी (२)
वि० दे० 'संयोगी'।
⋙ संज्ञ (१)
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञ] १. वह जो सब बातें अच्छी तरह जानता हो। वह जो सब विषयों का अच्छा जानकार हो। २. पीतकाष्ठ। झाऊँ।
⋙ संज्ञ (२)
वि० १. संज्ञा का। नाम का। नामवाला। नामक। २. होश में आया हुआ। चेतनायुक्त। ३. जिसके दोनों घुटने परस्पर टकराते हों। ४. पूर्णतः जानकार। पूरी तौर से जाननेवाला [को०]।
⋙ संज्ञक
वि० [सं० सज्ञक] १. संज्ञावाला। जिसकी संज्ञा हो। २. विनाशक (को०)। विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः यौगिक बनाने में शब्द के अंत में होता है।
⋙ संज्ञपन
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञपन] १. मार डालने की क्रिया। हत्या। बलि देना। २. कोई बात लोगों पर प्रकट करने की क्रिया। विज्ञापन। ३. प्रतारणा। धोखाधड़ी (को०)।
⋙ संज्ञपित
वि० [सं० सज्ञपित] १. बलि चढ़ा हुआ। जिसकी बलि कर दी गई हो। २. संसूचित। जो ज्ञापित किया गया हो [को०]।
⋙ संज्ञप्त
वि० [सं० सज्ञप्त] दे० संज्ञपित [को०]।
⋙ संज्ञप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सज्ञप्ति] दे० 'संज्ञापन'।
⋙ संज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं० सज्ञा] १. चेतना। होश। २. बुद्धि। अक्ल। ३. ज्ञान। ४. किसी पदार्थ आदि का बोधक शब्द। नाम। आख्या। ५. व्याकरण में वह बिकारी शब्द जिससे किसी यथार्थ या कल्पित वस्तु का बोध होता है। जैसे,—मकान, नदी, घोड़ा, राम, कृष्ण, खेल, नाटक आदि। ६. हाथ, आँख या सिर आदि हिलाकर कोई भाव प्रकट करना। संकेत। इशारा। ७. गायत्री। ८. सूर्य की पत्नी का नाम जो विश्वकर्मा की कन्या थी। मार्कडेय पुराण के अनुसार यम और यमुना का जन्म इसी के गर्भ से हुआ था। विशेष दे० 'छाया'—७। ९. पदचिह्न (को०)। १० आज्ञा। आदेश (को०)। यौ०—संज्ञाकरण = (१) नामकरण। नाम धरना। (२) चेतना लाना। होश में लाना। संज्ञापुत्र = यम। संज्ञापुत्री। संज्ञा- विपर्यय = होश गायब होना। संज्ञासुत। संज्ञाहीन।
⋙ संज्ञाकरणरस
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञाकरणरस] वेद्यक के अनुसार चेतना लानेवाली एक औषध का नाम। विशेष—इस औषध में शुद्ध सिंगीमुहरा, सेंधा नमक, काली मिर्च रुद्राक्ष, कटाली, कायफल, महुआ और समुद्र फल आदि पड़ते हैं। इनकी मात्रा बराबर होती है। कहते हैं कि इसके सेवन से मनुष्य का संनिपात रोग दूर हो जाता है।
⋙ संज्ञात
वि० [सं० सज्ञात] ठीक ढंग से जाना या समझा हुआ। सुज्ञात [को०]। यौ०—संज्ञातरूप = जिसका आकार प्रकार या रूपरेखा सर्व- विदित हो।
⋙ संज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञान] १. संकेत। इशारा। २. सम्यग् अनुभूति। ३. ज्ञान। समझ। बोध [को०]।
⋙ संज्ञापन
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञापन] १. दूसरों पर कोई बात प्रकट करना। विज्ञापन। २. कथन। ३. शिक्षित करना। बतलाना। सिखाना (को०)। ४. मारना। वध (को०)।
⋙ संज्ञापुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० सज्ञापुत्री] यमुना का एक नाम। उ०— संज्ञापुत्री स्फुरच्छाया चंद्रावलि चंद्रलेख्या। तापकारनी नयनी चंद्र कांतिका स्मृता।—गिरधर दास (शब्द०)।
⋙ संज्ञासुत
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञासुत] शनि का एक नाम।
⋙ संज्ञासूत्र
संज्ञा पुं० [सं० सज्ञासूत्र] व्याकरण के अनुसार वे सूत्र जो संज्ञा का विधान करते हैं।
⋙ संज्ञावान्
वि० [सं० सज्ञावत्] १. नामवाला। २. सचेत। होश में आया हुआ। चेतनायुक्त [को०]।
⋙ संज्ञाहीन
वि० [सं० सज्ञाहीन] जिसे संज्ञा या चेतना न हो। चेतना- रहित। बेहोश। बेसुध।
⋙ संज्ञिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सज्ञिका] अभिधान। आख्या [को०]।
⋙ संज्ञित
वि० [सं० सज्ञित] १. विज्ञप्त। सूचित। २. संज्ञायुक्त। नामक। नामधारी।
⋙ संज्ञी (१)
वि० [सं० सज्ञिन्] १. नाम धारण करनेवाला। २. ज्ञानवान्। जानकारी रखनेवाला। सज्ञान। ३. जिसका नाम रखा जाय [को०]।
⋙ संज्ञी (२)
संज्ञा पुं० वह जिसमें संज्ञा हो। चेतन। (जैन)।
⋙ संज्ञु
वि० [सं० सज्ञ] जिसके घुटने आपस में टकराते हों। दे० 'संज्ञ (२)' [को०]।
⋙ संज्वर
संज्ञा पुं० [सं० सञ्ज्वर] [वि० संज्वरी] १. बहुत तीव्र ज्वर। बहुत तेज बुखार। २. किसी प्रकार का बहुत अधिक ताप। बहुत तेज गर्मी। ३. क्रोध आदि का बहुत अधिक आवेग।
⋙ संज्वरी
वि० [सं० सञ्ज्वरिन्] ज्वर या तापयुक्त [को०]।
⋙ संज्वलन
संज्ञा पुं० [सं० सञ्ज्वलन] इंधन। ईंधन [को०]।
⋙ संझल ‡
वि० [सं० सन्ध्या, प्रा० संझा + ल (प्रत्य०)] संध्या संबंधी। संध्या का।
⋙ संझवाती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्या + हिं० वाती] १. संध्या के समय जलाया जानेवाला दीपक। शाम का चिराग। उ०—चंद देख चकई मिलान सर फूले ऐसे, विपरीत काल है सुदेह कहियत है। बातीं संझवाती घनसार नीर चंदन सो बारि लीजियत न अनल चहियत है।—हृदयराम (शब्द०)। २. वह गीत जो संध्या समय गाया जाता है। प्रायः यह विवाह के अवसर पर होता है।
⋙ संझवाती (२)
वि० संध्या संबंधी। संध्या का।
⋙ संझा †
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्या, प्रा० संझा] सूर्यास्त का समय। संध्या। शाम। उ०—संग के सकल अंग अचल उछाह भंग ओज बिन सूझत सरोज बन संझा सी।—देव (शब्द०)।
⋙ संड (१)
संज्ञा पुं० [सं० सण्ड] षंढ। हीजड़ा। नपुंसक [को०]।
⋙ संड (२)
संज्ञा पुं० [सं० शण्ड] साँड़। यौ०—संडमुसंड।
⋙ संडमुसंड
वि० [सं० शण्ड, हिं० संड + मुसंड (अनु०)] हट्टा कट्टा। मोटा ताजा। बहुत मोटा।
⋙ संडा (१)
वि० [सं० शण्ड] मोटा ताजा। हृष्ट पुष्ट।
⋙ संडा (२)
संज्ञा पुं० मोटा और बलवान् मनुष्य। यौ०—संडा मुसंडा = दे० 'संडमुसंड'।
⋙ संड़ाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँड़] मशक की तरह बना हुआ भैंस आदि का वह हवा भरा हुआ चमड़ा जिसे नदी आदि पार करने के लिये नाव के स्थान पर काम में लाते हैं।
⋙ संडास
संज्ञा पुं० [सं० सम् + न्यास (= त्याग, विसर्जन)] १. कूएँ की तरह का एक प्रकार का गहरा पाखाना। शौचकूप। विशेष—यह जमीन के नीचे खोदा हुआ एक प्रकार का गहरा गड्ढा होता है जिसका ऊपरी भाग ढँका रहता है। केवल एक छिद्रबना रहता है जिसपर बैठकर मल त्याग करते हैं। मल उसी में जमा होता जाता है। अधिक दुर्गंध होने पर उसमें खारी, नमक आदि कुछ ऐसी चीजें छोड़ते हैं जिनमें मल गलकर मिट्टी हो जाता है। इसका प्रचार अधिकतर ऐसे नगरों में है, जिनमें नल नहीं होता और नित्य मल बाहर फेंकने में कठिनता होती है पर जबसे नल का प्रचार हुआ, तबसे इस प्रकार के पाखाने बंद होने लगे हैं। २. संडास से मिलता जुलता वह पाखाना जिसका आकार ऊँचे खड़े नल का सा होता है और जिसका नीचे का भाग पृथ्वी तल पर होता है। इसमें नीचे मकान से बाहर की ओर एक खिड़की रहती है जिसमें से मेहतर आकर मल उठा ले जाता है।
⋙ संडासी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सम् + दंशिका, हिं० सँड़सी] दे० 'सँड़सी'। उ०—एक बार ए दोऊ कथा। संडासी लोहार की जथा।—अर्ध०, पृ० ४।
⋙ संडिश
संज्ञा पुं० [सं० सण्डिश] सँड़सा। सँड़सी [को०]।
⋙ संडीन
संज्ञा पुं० [सं० सण्डीन] पक्षियों की एक तरह की सुंदर गति या उड़ान [को०]।
⋙ संढिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सणिढका] ऊँटनी। साँड़िनी [को०]।
⋙ संत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्त] संहतल। अंजलि। अँजुरी [को०]।
⋙ संत पु † (२)
वि० [सं० शान्त] दे० 'शांत'। उ०—राए बधिअउँ संत हुअ रोस, लज्जाइए निञ मनहि मन।—कीर्ति०, पृ० १८।
⋙ संत (३)
संज्ञा पुं० [सं० सत् शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन] १. साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष। महात्मा। उ०—या जग जीवन को है यहै फल जो छल छाँडि भजै रघुराई। शोधि के संत महंतनहूँ पदमाकर बात यहै ठहराई।—पदमाकर (शब्द०)। २. हरिभक्त। ईश्वर का भक्त। धार्मिक पुरुष। ३. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ होती हैं। ४. साधुओं को परिभाषा में वह संप्रदायमुक्त साधु या संत जो विवाह करके गृहस्थ बन गया हो।
⋙ संतक्षण
संज्ञा पुं० [सं० सन्तक्षण] चुभने या लगनेवाली बात। व्यंग्य [को०]।
⋙ संतत (१)
अव्य० [सं० सन्तत] सदा। निरंतर। बराबर। लगातार। उ०—संतत मोपर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहूँ। मानस, ३।६।
⋙ संतत (२)
वि० १. विस्तृत। फैलाया हुआ। २. हमेशा रहनेवाला। ३. बहुत। अधिक। ४. अविकल। अटूट [को०]।
⋙ संतत पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तति] दे० 'संतति'।
⋙ संतत ज्वर
संज्ञा पुं० [सं० सन्तत ज्वर] वह ज्वर जो आठों पहर रहे। सदा बना रहनेवाला ज्वर। विशेष—वैद्यक के अनुसार यदि ऐसा ज्वर वायु की प्रबलता के कारण होता है तो लगातार सात दिनों तक, यदि पित्त की प्रबलता के कारण हो तो दस दिनों तक रहता है। इसकी गणना विषम ज्वर में की जाती है।
⋙ संतत द्रुम
वि० [सं० सन्ततद्रुम] घने वृक्षोंवाला (जंगल)। (वन) जो सघन वृक्षयुक्त हो [को०]।
⋙ संततवर्षी
वि० [सं० संततवर्षिन्] अविरल या अटूट वृष्टि करनेवाला [को०]।
⋙ संतति
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तति] १. बच्चे। संतान। औलाद। २. प्रजा। रिआया। ३. गोत्र। ४. विस्तार। प्रसार। फैलाव। ५. समूह। दल। झुंड। ६. किसी बात का लगातार होते रहना। अविच्छिन्नता। ७. मार्कंडेय पुराण के अनुसार ऋतु की पत्नी का नाम जो दक्ष की कन्या थी। ८. अनुभूति (को०)।
⋙ संततिक
संज्ञा पुं० [सं० सन्ततिक] संतान। औलाद [को०]।
⋙ संततिनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं० सन्तति निग्रह] दे० 'संततिनिरोध'।
⋙ संततिनिरोध
संज्ञा पुं० [सं० सन्ततिनिरोध] जनसंख्या की वृद्धि रोकने के लिये प्रजनन रोकना। प्राकृतिक अथवा कृत्रिम उपायों से गर्भाधान न होने देना।
⋙ संततिपथ
संज्ञा पुं० [सं० सन्ततिपथ] योनि, जिसके मार्ग से संतान उत्पन्न होती है। स्त्री की जननेंद्रिय। भग।
⋙ संतितहोम
संज्ञा पुं० [सं० सन्तति होम] वैदिक काल का एक प्रकार का यज्ञ जो संतान की कामना से किया जाता था।
⋙ संतती पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तति] दे० 'संतति'। उ०—सो वा कायस्थ के और कोऊ संततो नाहीं—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९४।
⋙ संततेयु
संज्ञा पुं० [सं० सन्ततेयु] भागवत के अनुसार रौद्राश्व के एक पुत्र का नाम।
⋙ संतनु
संज्ञा पुं० [सं० सन्तनु] पुराणानुसार राधा के साथ रहनेवाले एक बालक का नाम।
⋙ संतपन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्तपन] १. अच्छी तरह तपने की क्रिया। २. बहुत अधिक संताप या दुःख देना।
⋙ संतपन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० संत + पन (प्रत्य०)] संत का भाव। संतई। साधुता।
⋙ संतपना †
संज्ञा पुं० [हिं० संत + पना (प्रत्य०)] दे० 'संतपन (२)'।
⋙ संतप्त (१)
वि० [सं० सम् + तप्त, सन्तप्त] १. बहुत अधिक तपा हुआ। अत्यंत तप्त। २. जला हुआ। दग्ध। ३. जिसे बहुत अधिक संताप हो। दुःखी। पीड़ित। ४. विमनस्। मलीन मन। ५. बहुत थका हुआ। श्रांत। ६. शुष्क। मुरझाया हुआ (को०)। ७. ताप की अधिकता से द्रवीभूत या पिघला हुआ। यौ०—संतप्तचामीकर = तपाया हुआ या ताप की अधिकता से द्रवीभूत स्वर्ण। संतप्तवक्षा = जिसे साँस लेने में हृदयपीड़ा होती हो। संतप्तहृदय = मानसिक पीड़ा से युक्त।
⋙ संतप्त (२)
संज्ञा पुं० कष्ट। दुःख। शोक [को०]।
⋙ संतप्तायस्
संज्ञा पुं० [सं० सन्तप्तायस्] तप्त लौह। तपने के कारण लाल रंग का लोहा [को०]।
⋙ संतमक
संज्ञा पुं० [सं० सन्तमक] श्वासकष्ट [को०]।
⋙ संतमस्
संज्ञा पुं० [सं० सन्तमस्] १. अंधकार। तम। अँधेरा। २. मोह।
⋙ संतरण (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्तरण] अच्छी तरह से तरने या पार होने की क्रिया।
⋙ संतरण (२)
वि० १. तारनेवाला। पार करनेवाला। तारक। २. नष्ट करनेवाला। नाशक।
⋙ संतरा
संज्ञा पुं० [पुर्त्त० संगतरा] एक प्रकार का बड़ा और मीठा नीबू। बड़ी नारंगी। दे० 'संगतरा'।
⋙ संतरी
संज्ञा पुं० [अं० सेंटरी] १. किसी स्थान पर पहरा देनेवाला सिपाही। पहरेदार। उ०—जब पहरा तिनके ह्वै गयौ। द्वितीय संतरी आवत भयो।—रघुराज (शब्द०)। २. द्वार पर खड़ा होकर पहरा देनेवाला। द्वारपाल। दौवारिक।
⋙ संतर्जन
संज्ञा पुं० [सं० सन्तर्जन] १. डाँट डपट करना। भर्त्सना करना। डराना धमकाना। २. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
⋙ संतर्जना
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तर्जना] संतर्जन की क्रिया। धमकी [को०]।
⋙ संतर्द्दन
संज्ञा पुं० [सं० सन्तदुर्दन] भागवत के अनुसार राजा धृष्टकेतु के एक पुत्र का नाम।
⋙ संतर्पक
वि० [सं० सन्तर्पक] संतुष्ट या प्रसन्न करनेवाला। तृप्त करनेवाला।
⋙ संतर्पण
संज्ञा पुं० [सं० सन्तर्पण] १. जो भली भाँति तुप्त करता हो। वह जो प्रसन्नता एवं संतोषदायक हो। २. अच्छी तरह तृप्त करना। प्रसन्न एवं संतुष्ट करना। ३. वह पदार्थ जो शक्ति एवं ओज का वर्धन करता हो। शक्तिवर्धक पदार्थ। ४. एक प्रकार का चूर्ण जिसमें दाख, अनार, खजूर, केला, शक्कर, लाजा (लाई) का चूर्ण, मधु और घृत पड़ता है।
⋙ संतर्पित
वि० [सं० सन्तर्पित] संतुष्ट एवं तृप्त किया हुआ [को०]।
⋙ संतस्थान
संज्ञा पुं० [सं० सन्तस्थान] संतों के रहने का स्थान। साधुओं का निवास स्थान। मठ।
⋙ संतान
संज्ञा पुं० [सं० सन्तान] १. बालबच्चे। लड़के बाले। संतति। औलाद। २. कल्पवृक्ष। देवतरु। ३. वंश। कुल। ४. विस्तार। फैलाव। ५. वह प्रवाह जो अविच्छिन्न रूप से चलता हो। धारा। ६. प्रबंध। इंतजाम। ७. महाभारत के अनुसार प्राचीन- काल के एक प्रकार के अस्त्र का नाम। ८. विचारों का अविच्छिन्न क्रम। विचारधारा। ९. रग। स्नायु नस (को०)। यौ०—संतानकर्म = संतति उत्पादन। संतानकर्ता = संतान पैदा करनेवाला। संतानगणपति। संतानगोपाल। संताननिग्रह = दे० 'संततिनिरोध'। संतानवर्धन = (१) वंश बढ़ाना। (२) संतान को बढ़ानेवाला। संतानसंधि।
⋙ संतानक (१)
वि० [सं० सन्तानक] १. जो दूर तक व्याप्त हो। फैला हुआ। विस्तृत। २. संतान करनेवाला। विस्तार करनेवाला। ३. प्रबंधक। इंतजाम या व्यवस्था करनेवाला (को०)।
⋙ संतानक (२)
संज्ञा पुं० १. कल्पवृक्ष। देवतरु। २. पुराणानुसार एक लोक जो ब्रह्मालोक से परे कहा गया है।
⋙ संतान गणपति
संज्ञा पुं० [सं० सन्तान गणपति] पुराणानुसार एक प्रकार के गणपति का नाम।
⋙ संतान गोपाल
संज्ञा पुं० [सं० सन्तान गोपाल] संतति देनेवाले कृष्ण। वासुदेव कृष्ण जिनकी पूजा संतानप्राप्ति के लिये की जाती है [को०]।
⋙ संतानसंघि
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तानसन्धि] कामंदकीय नीति के अनुसार वह संधि जो अपना लड़का या लड़की देकर की जाय। (कामंदक)।
⋙ संतानिक
वि० [सं० सन्तानिक] [वि० स्त्री० संतानिका] कल्पवृक्ष के पुष्पों से निर्मित। जैसे, हार, माला आदि [को०]।
⋙ संतानिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तानिका] १. क्षीर सागर। २. चाकू का फल। ३. फेन। ४. साढ़ी। मलाई। ५. मर्कटजाल। सुश्रुत के अनुसार ब्रणबंधन में प्रयुक्त एक द्रव्य। ६. पाकराजशेखर में वर्णित एक प्रकार का मिष्ठान्न (को०)। ७. स्कंद की एक मातृका (को०)।
⋙ संतानिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तानिनी] मलाई। साढ़ी [को०]।
⋙ संतानी
संज्ञा पुं० [सं० सन्तानिन्] अविच्छिन्न विचारप्रवाह का विषय या वस्तु [को०]।
⋙ संताप
संज्ञा पुं० [सं० सन्ताप] अग्नि या धूप आदि का ताप। जलन। आँच। २. दुःख। कष्ट। व्यथा। ग्लानि। ३. मानसिक कष्ट। मनोव्यथा। पछताव। ४. ज्वर। ५. शत्रु। दुश्मन। ६. दाह नाम का रोग। विशेष दे० 'दाह'—४। ७. आवेश। रोष (को०)। यौ०—संतापकर, संतापकारक, संतापकारी = संताप देनेवाला। कष्टदायक। संतापहर, संतापहारक, संतापहारी = व्यथा या ताप का शमन करनेवाला।
⋙ संतापन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्तापन] १. संताप देने की क्रिया। जलाना। २. बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक बाण का नाम। ४. पुराणानुसार एक प्रकार का अस्त्र जिसके प्रयोग से शत्रु को संताप होना माना जाता है। ५. आवेश। उत्तेजन। रोष (को०)। ६. शिव का एक अनुचर (को०)। ७. एक बालग्रह (को०)।
⋙ संतापन (२)
वि० १. ताप पहुँचानेवाला। जलानेवाला। २. दुःख देनेवाला। कष्ट पहुँचानेवाला।
⋙ संतापना पु् †
क्रि० स० [सं० सन्तापन] संताप देना। दुःख देना। कष्ट पहुँचाना। सताना। उ०—जाको काम क्रोध नित व्यापै। अरु पुनि लोभ सदा संतापै। ताहि असाधु कहत कवि सोई। साधु भेष धरि साधु न होई।—सूर (शब्द०)।
⋙ संतापवत्
संज्ञा पुं० [सं० सन्तापवत्] संताप या कष्ट से युक्त। जिसे संताप हो [को०]।
⋙ संतापित
वि० [सं० सन्तापित] १. जिसे बहुत संताप पहुँचाया गया हो। पीड़ित। संतप्त। २. तपाया हुआ। जलाया हुआ (को०)।
⋙ संतापी
संज्ञा पुं० [सं० सन्तापिन्] वह जो संतप्त करता हो। संताप देनेवाला। दुःखदायी।
⋙ संताप्य
वि० [सं० सन्ताप्य] १. जलाने के योग्य। २. कष्ट या दुःख देने के योग्य। तकलीफ देने के लायक।
⋙ संतार
संज्ञा पुं० [सं० सन्तार] १. पार करना। पार जाना। २. नदी आदि का वह छिछला स्थान जहाँ से हलकर नदी पार की जा सके। घाट। तीर्थ [को०]।
⋙ संतावना पु
सं० क्रि० [हिं० संतापना] दे० 'संतापना'। उ०—जिव दे जिव संतावते पलटू उनकी टेक।—पलटू०, भा० १, पृ० १८। यौ०—संतार नौ = वह नौका जिससे नदी आदि पार की जाय। घटहा।
⋙ संति
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ति] १. दान। भेंट। अँकोर। २. अवसान। अंत। समाप्ति।
⋙ संती (१)
अव्य० [सं० सन्ति ? प्रा० संतिअ, संतिगसं० सत्क ?] बदले में। एवज में। स्थान में। उ०—उसने उसकी पसालियों में से एक पसली निकाली और उसकी संती मास भर दिया।—दयानंद (शब्द०)।
⋙ संती पु † (२)
अव्य० [प्रा० सुन्तो] से। द्वारा। उ०—सो न डोल देखा गजपती। राजा सत्त दत्त दुहुँ संती।—जायसी (शब्द०)।
⋙ संतुलन
संज्ञा पुं० [सं० सन्तुलन] १. तौल। वजन। २. आपेक्षिक भार बराबर होना। ठीक अनुपात होना। वजन ठीक कायम रहना। ३. तौलने की क्रिया।
⋙ संतुलित वि० [सं० सन्तुजित]
१. ठीक ढंग से तौला हुआ। २. समान अनुपात का। पूर्ण नियंत्रित। जैसे,—संतुलित व्यवहार। ३. संयत। सुस्थिर। जैसे,—संतुलित व्यक्ति।
⋙ संतुषित
संज्ञा पुं० [सं० सन्तुषित] ललितविस्तर के अनुसार एक देवपुत्र का नाम।
⋙ संतुष्ट
वि० [सं० सन्तुष्ट] १. जिसका संतोष हो गया हो। जिसकी तृप्ति हो गई हो। तृप्त। २. जो मान गया हो। जो राजी हो गया हो। जैसे,—इन्हें किसी तरह समझा बुझाकर संतुष्ट कर लो; फिर सब काम हो जायगा। ३. प्रसन्न। खुश (को०)।
⋙ संतुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्तुष्टि] संतुष्ट होने का भाव। २. इच्छा की पूर्ति। तृप्ति। २. प्रसन्नता [को०]।
⋙ संतृण्ण
वि० [सं० सम् + तृण्ण] १. परस्पर बँधा हुआ या संलग्न। जुड़ा हुआ। २. आच्छादित। ढँका हुआ [को०]।
⋙ संतृप्त
वि० [सं० सम् + तप्त] पूर्ण रूप से तुप्त या अघाया हुआ।
⋙ संतृप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम् + तप्ति] पूर्ण संतुष्ट होने का भाव। संतुष्टि।
⋙ संतोख पु †
संज्ञा पुं० [सं० सन्तोष] दे० 'संतोष'।
⋙ संतोखी †
वि० [सं० सन्तोषिन्] दे० 'संतोषी'।
⋙ संतोष
संज्ञा पुं० [सं० सन्तोष] १. मन की वह वृत्ति या अवस्था जिसमें मनुष्य अपनी वर्तमान दशा में ही पूर्णा सुख का अनुभव करता है; न तो किसी बात की कामना करता है और न किसी बात की शिकायत। हर हालत में प्रसन्न रहना। संतुष्टि। सब्र। कनायत। उ०—गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान। जब आवत संतोष धन सब धन धूरि समान। तुलसी (शब्द०)। विशेष—हमारे यहाँ पातंजल दर्शन के अनुसार 'संतोष' योग का एक अंग और उसके नियम के अंर्तगत है। इसकी उत्पत्ति सात्विक वृत्ति से मानी गई है; और कहा गया है कि इसके पैदा हो जाने पर मनुष्य को अनंत और अखंड सुख मिलता है। पुराणानुसार धर्मानुष्ठान से सदा प्रसन्न रहना और दुःख में भी आतुर न होना संतोष कहलाता है। क्रि० प्र०—करना।—मानना।—रखना।—होना। २. मन की वह अवस्था जो किसी कामना या आवश्यकता की भली- भाँति पूर्ति होने पर होती है। तृप्ति। शांति। इतमीनान। जैसे,—पहले मेरा संतोष करा दीजिए, तब मैं आपके साथ चलूँगा। ३. प्रसन्नता। सुख। हर्ष। आनंद। जैसे,—हमें यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि अब आप किसी से वैमनस्य न करेंगे। ४. अंगूठा और तर्जनी (को०)।
⋙ संतोषक
वि० [सं० सन्तोषक] संतोष देनेवाला। संतोषदायक [को०]।
⋙ संतोषण
संज्ञा पुं० [सं० सन्तोषण] संतुष्ट या प्रसन्न करने का भाव। दे० 'संतोष'।
⋙ संतोषणीय
वि० [सं० सन्तोषणीय] १. संतोष करने योग्य। २. संतोष कराने योग्य।
⋙ संतोषन †
वि० स्त्री० [सं० सन्तोषिन्] जो संतोष करती हो। संतोष करनेवाली। उ०—गरीबिनी है। अच्छा बोलती बतलाती है और संतोषन भी है।—त्याग०, पृ० ९०।
⋙ संतोषना पु † (१)
क्रि० स० [सं० सन्तोष + हिं० ना (प्रत्य०)] संतोष दिलाना। संतुष्ट करना। तबीयत भरना। उ०—मेघनाद ब्रह्मा वर पायो। आहुति अगिनि जिवाइ संतोषी निकस्यो रथ बहु रतन बनायो। आयुध धरे समेत कवच सजि गरजि चढयो रणभूमिहि आयो। मनो मेघनायक ऋतु पावस बाण वृष्टि करि सैन खपायो।—सूर० (शब्द०)।
⋙ संतोषना (२)
क्रि० अ० संतुष्ट होना। प्रसन्न होना।
⋙ संतोषित (१)
वि० [सं० सम्तोषित] प्रसन्न किया हुआ। इतमीनान कराया हुआ। संतोष कराया हुआ।
⋙ संतोषित (२)
वि० [सं० संतोष, सं० सन्तुष्ट] जिसका संतोष हो गया हो। संतुष्ट। उ०—नामदेव कह इतनहिं लैहौं। इतने महँ संतोषित जैहौं।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—यह रूप अशुद्ध है; शुद्ध रूप संतुष्ट है। पर 'संतोषित' शब्द का भी प्रयोग कहीं कहीं हिंदी कविता में पाया जाता है।
⋙ संतोषी
संज्ञा पुं० [सं० सन्तोषिन्] १. वह जो सदा संतोष रखता हो। जिसे बहुत लालसा न हो। २. सब्र करनेवाला। संतुष्ट रहनेवाला।
⋙ संतोष्य
वि० [सं० सन्तोष्य] संतोष करने के योग्य।
⋙ संत्य
संज्ञा पुं० [सं० सन्त्य] अग्निदेव का एक नाम जो सब प्रकार के फल देनेवाले माने जाते हैं।
⋙ संत्यक्त
वि० [सं० सम्त्यक्त] १. पूर्णतः परित्यक्त या छोड़ा हुआ। त्यक्त। २. वंचित या रहित किया हुआ [को०]।
⋙ संत्यजन
संज्ञा पुं० [सं० सन्त्यजन] त्याग करना। छोड़ना [को०]।
⋙ संत्याग
संज्ञा पुं० [सं० सन्त्याग] छोड़ देना। त्यागना [को०]।
⋙ संत्याज्य
वि० [सं० सन्त्याज्य] परित्याग करने योग्य। छोड़ देने लायक [को०]।
⋙ संत्रस्त
वि० [सं० संत्रस्त] अत्यंत भयभीत। डर से कंपित [को०]। यौ०—संत्रस्तगोचर = जिसे देखकर डर लगे।
⋙ संत्राण
संज्ञा पुं० [सं० संत्राण] रक्षा। उद्धार [को०]।
⋙ संत्रास
संज्ञा पुं० [सं० सन्त्रास] भय। डर। त्रास [को०]।
⋙ संत्रासन
संज्ञा पुं० [सं० सन्त्रासन] [वि० संत्रासित] भयभीत या आतंकित करना [को०]।
⋙ संत्रासित
वि० [सं० सन्त्रासित] त्रस्त किया हुआ। भयभीत किया हुआ [को०]।
⋙ संत्री
संज्ञा पुं० [अं० सेन्ट्री, हिं० संतरी] दे० 'संतरी'।
⋙ संत्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्त्वरा] शीघ्रता। तत्परता। हड़बड़ी। जल्दबाजी [को०]।
⋙ संथा
संज्ञा पुं० [सं० संहिता या संस्था] १. चटसार। पाठशाला। २. एक बार में पढ़ाया हुआ अंश। पाठ। सबक। उ०—किसने कहा कि हम लोग धर्म के भंडेरिये हैं ? हम लोग गाते बजाते नहीं थे, संथा घोखते थे।—दुगप्रिसाद मिश्र (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना।
⋙ संथान पु
संज्ञा पुं० [सं० संस्थान] दे० 'संस्थान'। उ०—आसोंजै रानिंग राव परवत बेहान। सोवन गिरि संथान साथ सामंत सिवानै।—पृ० रा०, १२।५४।
⋙ संथाल
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बिहार का एक परगना। २. बहाँकी एक आदिवासी जाति और उसका मनुष्य।
⋙ संथाली (१)
वि० [हिं० संथाल + ई० (प्रत्य०)] संथाल जाति, देश या भाषा से संबद्ध। संथाल का।
⋙ संथाली (२)
संज्ञा स्त्री० १. संथाल जाति की स्त्री। १. संथालों की भाषा।
⋙ संदंश
संज्ञा पुं० [सं० सन्दंश] १. सँडसी नाम का लोहे का औजार। २. न्याय या तर्क के अनुसार अपने प्रतिपक्षी को दोनों ओर से उसी प्रकार जकड़ या बांध देना जिस प्रकार सँडसी से कोई बरतन पकड़ते है। ३. सुश्रुत के अनुसार सँडसी के आकार का, प्राचीन काल का एक प्रकार का औजार जिसकी सहायता से शरीर में गड़ा हुआ काँटा आदि निकालते थे। कर्कमुख। ४. स्वर वा व्यंजन आदि के उच्चारण के लिये जोर से दाँतों का संवरण, संपीडन या भीचना (को०)। ५. नरक- विशेष का नाम (को०)। ६. पुस्तक का कोई परिच्छेद (को०)। ७. गाँव का किनारा या पार्श्व (को०)। ८. शरीर के उन अंगों का नाम जिनसे कोई वस्तु पकड़ने का काम लेते हैं (को०)।
⋙ संदंशक
संज्ञा पुं० [सं० सन्दंशक] १. सँड़सी। २. चिमटा [को०]।
⋙ संदंशिका
संज्ञा पुं० [सं० सन्दशिका] १. सँड़सी। २. चिमटी। ३. कैची। ४. (चोंच से) काटना, नोचना या पकड़ना (को०)।
⋙ संदंशित
वि० [सं० सन्दंशित] जो कवच धारण किए हो। कवच- युक्त।
⋙ संद † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्धि] दरार। छेद। विल।
⋙ संद (२)
संज्ञा पुं० [सं० (उप०) सम् + √ दश्, दंश् (=दबाना) अथवा सन्दान (=एक साथ बाँधना ?)] दबाव। उ०—बोलि लिए यशुमति यदुनंदहि। पीत झगलिया की छबि छाजति विज्जुलता सोहति मनौ कंदहि। वाजापति अग्रज अंवाते अरजथान सुत माला गंदहि। मनो सुरग्रह ते सुरिरपु कन्या सीतै आवति ठुरि संदहि।—सूर (शब्द०)।
⋙ संद पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० समन्दन] एक ऋषि। सनंदन ऋषि।
⋙ संदर्प
संज्ञा पुं० [सं० सन्दर्प] घमंड। गरूर [को०]।
⋙ संदर्भ
संज्ञा पुं० [सं० सन्दर्भ] १. रचना। बनावट। २. साहित्यिक रचना या ग्रंथ। प्रबंध। निबंध। लेख। ३. वह ग्रंथ जिसमें किसी और ग्रंथ के गूढ़ वाक्यों आदि का अर्थ या स्पष्टीकरण आदि हो। ४. कोई छोटी पुस्तक। ५. वह पुस्तक जिसमें अनेक प्रकार की बातों का संग्रह हो। ६. विस्तार। फैलाव। ७. एक साथ क्रमबद्ध करना नत्थी करना। गूँथना (को०)। ८. प्रसंग। संबंध। जैसे—इस बात का संदर्भ क्या है ? इस संदर्भ में हमें कुछ नहीं कहना है। ९. संगीत। निरंतरता (को०)। १०. बुनना (को०)। संदर्भविरुद्ध = असंबद्ध। प्रसंगरहित। संदर्भशुद्ध = जिसका संदर्भ या संबंध ठीक हो। सदर्भशुद्धि = काव्यनिर्माण में पूर्वापर क्रम से संबंध निर्वाह की शुद्धता।
⋙ संदर्श
संज्ञा पुं० [सं० सन्दर्श] झलक। दृश्य [को०]।
⋙ संदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० सन्दर्शन] १. अच्छी तरह देखने की क्रिया। अवलोकन। २. घूरना। अपलक देखना। टकटकी लगाकर देखना (को०)। ३. दृष्टि। निगाह। नजर (को०)। ४. परीक्षा। इम्तहान। जाँच। पर्यवेक्षण। ५. ज्ञान। ६. आकृति। सूरत। शक्ल। ७. रामायण के अनुसार एक द्रीप का नाम। ८. व्यवहार (को०)। ९. दिखाना। प्रदर्शित करना (को०)। यौ०—संदर्शनद्रीप = एक द्रीप का नाम। संदर्शनपथ = दुष्टिपथ। आँख।
⋙ संदर्शयिता
वि० [सं० सन्दर्शयितृ] दिखाने या व्यक्त करनेवाला [को०]।
⋙ संदर्शित
वि० [सं० सन्दर्शित] दिखाया हुआ। व्यक्त किया हुआ।
⋙ संदल
संज्ञा पुं० [फा़०] श्रीखंड। चंदन। विशेष दे० 'चंदन'।
⋙ संदलित
वि० [सं० सन्दलित] विद्ध। निर्भिन्न। छिद्रित, कुचला या दला हुआ। दलित [को०]।
⋙ संदली (१)
वि० [फा़० संदल] संदल के रंग का। हलका पीला (रंग)। २. संदल का। चंदन का। जैसे,—संदली कलमदान।
⋙ संदली (२)
संज्ञा स्त्री० १. तिपाई। कुर्सी। चौघड़िया। २. संदल की बनी हुई वस्तु [को०]।
⋙ संदली (३)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का हलका पीला रंग। विशेष—यह रंग कपड़े को चंदन के बुरादे के साथ उबालने से आता है। इससे कपड़े में सुगंधि भी आ जाती है। आजकल कई तरह की बुकनियों से भी यह रंग तैयार किया जाता है। २. एक प्रकार का हाथी जिसे दाँत नहीं होते। ३. घोड़े की एक जाति।
⋙ संदष्ट (१)
वि० [सं० सन्दष्ट] १. आपस में मिलाकर दबाया हुआ। २. जिसे दाँतों से काटा गया हो। ३. चर्वित। चबाया हुआ [को०]।
⋙ संदष्ट (२)
संज्ञा पुं० उच्चारण संबंधी एक प्रकार का विशेष दोष जो दाँतों को दबाकर बोलने से होता है [को०]।
⋙ संदाता
वि० [सं० सन्दात] बाँधनेवाला [को०]।
⋙ संदान (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] एक प्रकार की निहाई जिसका एक कोना नुकीला ओर दूसरा चौड़ा होता है। अहरन। घन।
⋙ संदान (२)
संज्ञा पुं० [सं० सन्दान] १. बंधन। रस्सी। २. बाँधने की सिकड़ी आदि। ३. बाँधने की क्रिया। ४. हाथी का गंडस्थल जहाँ से उसका मद बहता है। ५. हाथी के पैरका वह भाग जिसमें साँकल बाँधी जाती है (को०)। ६. काटना। विभक्त करना (को०)।
⋙ संदानक
संज्ञा पुं० [सं० सन्दानक] कबुतर का घोंसला [को०]।
⋙ संदानिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्दानिका] १. दुर्गंध खैर। विटखदिर। बबुरि। २. एक प्रकार की मिठाई (को०)
⋙ संदानित
वि० [सं० सन्दानित] १. बाँधा हुआ। बद्ध। २. पाशवद्ध। निगडित [को०]।
⋙ संदानितक
संज्ञा पुं० [सं० सन्दानितक] एक वाक्य में निबद्ध तीन श्लोकों या पद्यों का नाम।
⋙ संदानिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्दानिनी] गौओं के रहने का स्थान। गोशाला।
⋙ संदाय
संज्ञा पुं० [सं० सन्दाय] प्रग्रह। पगहा। वल्गा [को०]।
⋙ संदाव
संज्ञा पुं० [सं० सन्दाव] भागने की क्रिया। पलायन।
⋙ संदास
संज्ञा पुं० [देश०] सफेद डामर धूप। मरहम। कहरुबा। विशेष—इसका वृक्ष प्रायः पच्छिमी घाट में पाया जाता है। यह सदा हरा रहता है।
⋙ संदाह
संज्ञा पुं० [सं० सन्दाह] १. वैद्यक के अनुसार मुख, तालु और होठों की जलन। २. जलना (को०)।
⋙ संदि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धि] मेल। संधि। उ०—रुप सँवर संदि सों वहु आपुयो अनयास। पाइ पूरण रूप को रमि भूमि केशवदास।—केशव (शब्द०)।
⋙ संदिग्घ (१)
वि० [सं० सन्दिग्घ] १. जिसमें किसी प्रकार का संदेह हो। संदेहपूर्ण। संशयजनक। मुश्तवह। २. सना हुआ। ढका हुआ। ३. भ्रांत। विह्वल। ४. सशंक (को०)। ५. अव्यवस्थित। अस्पष्ट। जैसे,—वाक्य। ६. खतरनाक। असुरक्षित (को०)। ७. विप से भरा हुआ। विपाक्त (को०)।
⋙ संदिग्घ (२)
संज्ञा पुं० १. उत्तराभास। मिथ्या उत्तर का एक लक्षण। २. एक प्रकार का व्यंग्य जिसमें यह नहीं प्रकट होता कि वाचक या व्यंजक में व्यंग्य है। ३. वह जिसपर किसी अपराध का संदेह किया जाय। जैसे,—राजनीतिक संदिग्ध। ४. संशय। अनिश्चय (को०)। ५. अनुलेपन। लेपन (को०)।
⋙ संदिग्धता
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्दिग्धता] दे० संदिग्धत्व [को०]।
⋙ संदिग्धत्व
संज्ञा पुं० [सं० सन्दिग्धत्व] १. संदिग्ध होने का भाव या धर्म। संदिग्धता। २. अलंकार शास्त्रानुसार एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब कि किसी उक्ति का ठीक ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता। अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
⋙ संदिग्धनिश्चिय
वि० [सं० सन्दिग्ध निश्चय] किसी बात या कार्य पर दृढ़ न हो सकनेवाला [को०]।
⋙ संदिग्धफल
वि० [सं० सन्दिग्धफल] १. विषाक्त वाण रखनेवाला। २. जिसकी नोक विपवुझी हो। जैसे,—तीर, गाँसी [को०]।
⋙ संदिग्दधवृद्धि
वि० [सं० सन्दिग्धवृद्धि] संदेही। शकी [को०]।
⋙ संदिग्धमति
वि० [सं० सन्दिग्धमति] दे० 'संदिग्धवृद्धि' [को०]।
⋙ संदिग्धार्थ (२)
वि० [सं० सन्दिग्धार्थ] संदिग्ध अर्थवाला। जिसका मतलब संदेहास्पद हो [को०]।
⋙ संदिग्धार्थ (२)
संज्ञा पुं० वह विषय जिसपर मतैक्य न हो। २. वह अर्थ जो संदेहास्पद हो [को०]।
⋙ संदिग्धीकृत
वि० [सं० सन्दिग्धीकृत] जिसे संदिग्ध किया गया हो जिसे संशय युक्त या संदेहास्पद किया गया हो।
⋙ संदित
वि० [सं० सन्दित] बाँधा हुआ। ग्रस्त। निगडित [को०]।
⋙ संदिष्ट (१)
वि० [सं० सन्दिष्ट] १. कथित। कहा हुआ। बताया हुआ। २. संकेतित। इंगित (को०)। ३. वादा किया हुआ। प्रति- ज्ञात (को०)। ४. निर्दिष्ट (को०)।
⋙ संदिष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. वार्ता। बातचीत। २. समाचार। खबर। ३. संदेशवाहक। चर (को०)।
⋙ संदिप्टार्थ
संज्ञा पुं० [सं० सन्दिप्टार्थ] वह जो एक का समाचार दूसरे तक पहुँचाता हो। सँदेसा ले जानेवाला दूत। कासिद।
⋙ संदिहान
वि० [सं० सन्दिहान] संदिग्ध। संशयपूर्ण [को०]।
⋙ संदी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्दी] शय्या। पलंग। खाट।
⋙ संदीपक
वि० [सं० सन्दीपक] उद्दीपन करनेवाला। उद्दीपक।
⋙ संदेपन (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्दीपन] १. उद्दीप्त करने की क्रिया। उद्दीपन। प्रज्वलित करना। २. कृष्ण के गुरु का नाम। विशेष दे० 'सांदीपनि'। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक बाण का नाम।
⋙ संदीपन (२)
वि० १. उद्दीपन करनेवाला। उत्तेजन करनेवाला। २. सुलगानेवाला। प्रज्वलित करनेवाला (को०)।
⋙ संदीपनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्दीपनी] संगीत में पंचम स्वर की चार श्रुतियों में से तीसरी श्रुति।
⋙ संदीपनी (२)
वि० संदीपन करनेवाली। उद्दीप्त करनेवाली।
⋙ संदीपित
वि० [सं० सन्दीप्त] १. जिसका संदीपन किया गया हो। संदीप्त। उद्दीप्त। २. जलाया हुआ। प्रज्वलित।
⋙ संदीप्त
वि० [सं० सन्दीप्त] १. प्रज्वलित। २. उद्दीप्त। ३. उत्तेजित। उकसाया हुआ [को०]।
⋙ संदीप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्दीप्य] मयूरशिखा नामक वृक्ष।
⋙ संदीप्य (२)
वि० संदीपन करने के योग्य। संदीपनीय।
⋙ संदुष्ट
वि० [सं०] १. कलुषित किया हुआ। खराब। २. नीच। दुष्ट। ३. विकृत। कुरूप [को०]।
⋙ संदूक
संज्ञा पुं० [अ० संदूक] [अल्पा० संदूकचा, संदुकची] लकड़ी, लोहे, चमड़े आदि का बना हुआ चौकोर पिटारा जिसमें प्रायः कपड़े, गहने आदि चीजें रखते हैं। पेटी। बकस।
⋙ संदूकचा
संज्ञा पुं० [अ० संदूक + चह् (प्रत्य०)] छोटा संदूक। छोटा बकस। छोटी पेटी।
⋙ संदूकत्ती
संज्ञा स्त्री० [अ० संदूक + ची (प्रत्य०)] छोटी पेटी या संदूक।
⋙ संदूकड़ी
संज्ञा स्त्री० [अ० संदूक + ड़ी (प्रत्ग०)] छोटा संदूक। छोटा बकस।
⋙ संदूकिया ‡
संज्ञा स्त्री० [अ० संदूक + हिं० इया (प्रत्य०)] संदूक। बकस। पेटी।
⋙ संदूकी
वि० [अ० संदूक] संदूक सा। बकसनुमा। संदूक के आकार का। जैसे, संदूकी कब्र।
⋙ संदूख
संज्ञा पुं० [हिं० संदूक] दे० 'संदूक'।
⋙ संदूर पु
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर] दे० 'सिंदूर'। उ०—नवल सिंसार बनाहत कीन्हा। सीस पसारहिं संदुर दीन्हा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ संदूषण
संज्ञा पुं० [सं० सन्दूषण] संदुष्ट करना। कलुषित या खराब करना [को०]।
⋙ संदूषित
वि० [सं० सन्दूषित] १. दूषित किया हुआ। २. (रोग) जो असाध्य हो गया हो। जिसकी हालत और भी खराब हो उठी हो (मर्ज)। ३. जिसकी निंदा की गई हो।
⋙ संद्दब्ध
वि० [सं० सन्दूब्ध] परस्पर गुँथा हुआ [को०]।
⋙ संद्दश्य
वि० [सं० सन्दृश्य] १. किसी के अनुरूप या समान देख पड़नेवाला। २. दे० 'संदृष्ट'।
⋙ संद्दष्ट
वि० [सं० सन्दृष्ट] १. पूर्ण रूप से सलोकित। भली भाँति देखा हुआ। २. निर्दिष्ट (को०)।
⋙ सन्देग्धा
वि० [सं० सन्देग्धृ] शक्की स्वगाव का। संदेहालु।
⋙ सदंव
संज्ञा पुं० [सं० सन्देव] हरिवंश के अनुसार देवक से एक पुत्र का नाम।
⋙ संदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्देवा] वसुदेव की स्त्री और देवक की कन्या का नाम। इनका दूसरा नाम श्रीदवा या सुदेवा भी हे।
⋙ संदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. समाचार। हाल। खबर। संवाद। २. एक प्रकार की बँगला मिठाई जो छेने और चीनी के योग से बनती है। ३. वाचिक कथन। सँदेसा। ४. दे० 'संदंश'। ५. आज्ञा। आदेश (को०)। यौ०—संदेशपद = समाचार के शब्द। संदेशबाक् = समाचार। हाल। सदेशवाहक, संदेशहारक, संदेशहारी = संदेश ले जानेवाला।
⋙ संदेशहर
संज्ञा पुं० [सं० सन्देशहर] संदेसा या समाचार ले जानेवाला। वार्तावाह। दूत। कासिद।
⋙ संदेशा
संज्ञा पुं० [सं० सन्देश] दे० 'संदेश'।
⋙ संदेशी
संज्ञा पुं० [सं० सन्देशिन्] संदेश लानेवाला। समाचार वाहक। वसीठ। दूत।
⋙ संदेस
संज्ञा पुं० [सं० सन्देश] दे० 'संदेश'।
⋙ संदेसड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० संदेस + राज० ड़ा (प्रत्य०)] संदेश। हालचाल। समाचार। कथन। उ०—अवसर जे नहिं आविया, वेला जे न पहुत्त। सज्जण तिण संदेसड़इ, करिजइ राज बहुत्त।—ढोला०, दू० १७९।
⋙ संदेसरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० संदेस + रा (प्रत्य०)] दे० 'संदेशड़ा'।
⋙ संदेसी †
संज्ञा पुं० [सं० सन्देशिन्] संदेशी। वसीठ। दूत।
⋙ संदेह
संज्ञा पुं० [सं० सन्देह] १. वह ज्ञान जो किसी पदार्थ की वास्तविकता के विषय में स्थिर न हो। किसी विषय में ठीक या निश्चित न होनेवाला मत या विश्वास। मन की वह अवस्था जिसमें यह निश्चय नहीं होता कि यह चीज ऐसी ही है या और किसी प्रकार की। अनिश्चयात्मक ज्ञान। संशय। शंका। शक। उ०—तव खगपति विरंचि पहि गएऊ। निज संदेह सुनाबत भएऊ।—मानस, ७। ६०। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—मिटना।—मिटाना।—होना। यौ०—संदेहगंध = संदेह का आभास या झलक। संदेहच्छेदन = शक दूर करना। संदेह न रहना। संदेहदायी = शंका उत्पन्न करनेवाला। शक धरानेवाला। संदेहदोलो = दुवधा की स्थिति। अनिश्चय की अवस्था। संदेहनाश = संशय मिटना। संदेहपद = संशय की जगह। संदेह का स्थान। संदेहभंजन = शक या शंका दूर करना। २. एक प्रकार का अर्थालंकार।विशेष—यह उस समय माना जाता है जब किसी चीज को देखकर संदेह बना रहता है, कुछ निश्चय नहीं होता। 'भ्रांति' में और 'संदेह' में यह अंतर है किं भ्रांति में तो भ्रमवश किसी एक वस्तु का निश्चय हो भी जाता है, पर इसमें कुछ भी निश्चय नहीं होता। कविता में इस अलंकार के सूचक प्रायः धौं, किधौं; आदि संदेहवाचक शब्द आते हैं। जैसे,—(क) की तुम हरिदासन महँ कोई। मोरे हृदय प्रीति अति होई। को तुम राग दीन अनुरागी। आए माहि करन वड़भागी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है। कुछ आचार्यों ने इसके निश्चयगर्म, निश्चयांत और शुद्ध ये तीन भेद माने हैं। ३. जोखिम। खतरा। डर (को०)। ४. शरीर के भौतिक उपकरणों का उपचयन (को०)।
⋙ संदेहात्मक
वि० [सं० सन्देहात्मक] संदिग्ध [को०]।
⋙ संदेहास्पद
वि० [सं० सन्देहास्पद] संदेह का स्थान। संदिग्ध।
⋙ संदेही
वि० [सं० सन्देहिन्] १. संदेहवाला। शक्की। २. अनिश्च- यात्मक [को०]।
⋙ संदोल
संज्ञा पुं० [सं० सन्दोल] काम में पहनने का कर्णफूल नाम का गहना।
⋙ संदोह
संज्ञा पुं० [सं० सन्दोह] १. समूह। झुंड। उ०—जयति निर्भरानंद संदोह कपि केसरी सुअन भुवनैक भर्ता।—तुलसी (शब्द०)। २. दूध दुहना (को०)। ३. गायों आदि के झुंड का सारा दूध (को०)।
⋙ संद्रव
संज्ञा पुं० [सं० सन्द्रव] १. गूँथने की क्रिया। गुंथन। २. पलायन। भागना (को०)।
⋙ संद्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध क्षेत्र से भागने की क्रिया। पलायन। २. चाल। गति (को०)। ३. दौड़ने का स्थान (को०)।
⋙ संध पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धि] दे० 'संधि'।
⋙ संध (२)
वि० [सं० सन्ध] १. रखनेवाला। धारण करनेवाला। २. मिला हुआ। युक्त [को०]।
⋙ संध (३)
संज्ञा पुं० योग। लगाव। संबंध [को०]।
⋙ संधना पु
क्रि० अ० [सं० सन्धि] संयुक्त होना। मिलना। उ०— पक्ष दू संधि संध्या संधी है मनो।—केशव (शब्द०)।
⋙ संधा
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धा] १. स्थिति। २. प्रतिज्ञा। करार। ३. संधान। संधि। मिलन। ४. सध्या काल। साँझ। यौ०—संधा भाषा = अस्पष्ट भाषा जो साफ न व्यक्त हो। संधा- भाष्य, संधावचन = अस्पष्ट कथन। घुमाफिरा कर कही हुई उलझन भरी उक्ति। ५. अनुसंधान। तलाश। ६. सीमा। हद (को०)। ७. घनिष्ट या प्रगाढ़ संबंध (को०)। ८. स्थिरता। स्थैर्य (को०)। ९. शराब चुबाना। मद्यसंधान (को०)।
⋙ संधातव्य
वि० [सं० सन्धातव्य] १. एक में मिलाने या युक्त करने के योग्य। २. जिससे संधान या संधि की जाय [को०]।
⋙ संधाता
संज्ञा पुं० [सं० सन्धातृ] १. शिव। २. विष्णु।
⋙ संधान
संज्ञा पुं० [सं० सन्धान] १. धनुष पर बाण चढ़ाने की क्रिया। लक्ष्य करने का व्यापार। निशाना लगाना। २. शराब बनाने का काम। ३. मदिरा। शराब। ४. संघट्टन। योजन। मिलाना। मिश्रण (ओषधि या अन्य पदार्थों का)। ५. अन्वेषण। खोज। ६. मुरदे को जिलाने की क्रिया। पुनर्जीवन। संजीवन। ७. एक मिश्रित धातु। काँसा। काँस्य। ८. संधि। जोड़। ९. अच्छे स्वाद की चीज। १०. काँजी। ११. मैत्री। मेल। दोस्ती (को०)। १२. अवधान (को०)। १३. निदेशन (को०)। १५. संभालना। सहारा देना (को०)। १६. अँचार आदि बनाना (को०)। १७. रकतस्त्राव का अवरोध करनेवाली औषधियों के द्रारा चमड़े की सिकुड़न (को०)। १८. सौराष्ट्र या काठियावाड़ का एक नाम। यौ०—संधानकर्ता = संधान करनेवाला। संधानताल = संगीत में एक ताल। संधानभांड = अचार आदि बनाने का पात्र। संधानभाव = दे० 'संधानताल'।
⋙ संघानना †
क्रि० स० [सं० सन्धान + ना (प्रत्य०)] १. धनुष चढ़ाना। धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष करना। निशाना लगाना। २. बाण छोड़ना। तीर चलाना। ३. किसी अस्त्र को प्रयोग करने के लिये ठीक करना।
⋙ संधाना
संज्ञा पुं० [सं० सन्धानिका] अचार। खटाई। उ०—पुनि संधाने आए बसाँधे। दूह दही के मुरंडा बाँधे।—जायसी ग्रं०, पृ० १२४।
⋙ संधानिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धानिका] प्राचीन काल का एक प्रकार का आम का अचार।
⋙ संघानित
वि० [सं० सन्धानित] १. मिलाया हुआ। साथ साथ नत्थी किया हुआ। २. बाँधा हुआ। कसा हुआ। ३. जिसका संधान किया गया हो [को०]।
⋙ संधानिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धानिनी] गौओं के रहने का स्थान। गोशाला।
⋙ संघानी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धानी] एक में मिलने या मिश्रित होने की क्रिया। मिलन। २. प्राप्ति। ३. बंधन। ४. अन्वेषण। तलाश। ५. पालन। ६. काँजी। ७. अचार। खटाई। ८. वह स्थान जहाँ ढलाई की जाती है। ९. वह स्थान जहाँ मदिरा बनाई जाती है। १०. दे० 'संधान'। ११. मदिरा बनाना। शराब चुआना (को०)।
⋙ संधानी (२)
वि० [सं० सन्धानिन्] १. निशाना लगाने में प्रवीण। २. मदिरा तैयार करनेवाला। ३. एक साथ मिलाने या मुक्त करनेवाला [को०]।
⋙ संघापगमन
संज्ञा पुं० [सं० सन्धापगमन] कामंदकीय नीति के अनुसार समीपवर्ती शत्रु से संधि कर दूसरे शत्रु पर चढ़ाई करना।
⋙ संधारण
संज्ञा पु० [सं० सन्धारण] [स्त्री० संधारण] [वि० संधार- णीय] १. रोक रखना। घारण करना। २. बरदाश्त करना।सहन करना। ३. अस्वीकार करना (प्रार्थना आदि)। ४. अनुसरण करना। अनुवर्तन करना [को०]।
⋙ संधारणीय
वि० [सं० सन्धारणीय] धारण करने योग्य [को०]।
⋙ संधार्य
वि० [सं० सन्धार्य] १. धारण या वहन करने लायक। २. अस्वीकृति के योग्य। ३. (नौकर) रखने योग्य [को०]।
⋙ संधालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धालिका] एक प्रकार का भोजन [को०]।
⋙ संधि
संज्ञा [सं०] १. दो चीजों का एक में मिलाना। मेल। संयोग। २. वह स्थान जहाँ दो चीजें एक में मिलती हों। मिलने की जगह। जोड़। ३. राजाओं या राज्यों आदि में होनेवाली वह प्रतिज्ञा जिसके अनुसार युद्ध बंद किया जाता है, मित्रता या व्यापार संबंध स्थापित किया जाता है, अथवा इसी प्रकार का और कोई काम होता है। विशेष—पहले केवल दो योद्धा राज्यों में ही संधि हुआ करती थी; पर अब बिना युद्ध के ही मित्रता का बंधन दृढ़ करने, पारस्परिक व्यवसाय वाणिज्य में सहायता देने और सुगमता उत्पन्न करने अथवा किसी दूसरे राज्य में राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति अथवा रक्षा के लिये भी संधि हुआ करती है। आजकल साधारणतः राज प्रतिनिधि एक स्थान पर मिलकर संधि का मसौदा तैयार करते है; और तब वह मसौदा अपने अपने राज्य के प्रधान शासक अथवा राजा आदि के पास स्वीकृति के लिये भेजते है; और जब प्रधान शासक अथवा राजा उसपर स्वीकृति की छाप लगा देता है, तब वह संधि पूरी समझी जाती है और उसके अनुसार कार्य होता है। जिस पत्र पर संधि की शर्तें लिखी जाती हैं, उसे 'संधिपत्र' कहते हैं। मनु भगवान् ने संधि को राजा के छह् गुणों में से एक गुण बतलाया है, (शेष पाँच गुण ये हैं—विग्रह, यान, आसन, द्रैध और आश्रय)। हमारे यहाँ प्राचीन काल में किसी शत्रु राज्य पर आक्रमण करने के लिये भी दो राजा परस्पर मिलकर संधि किया करते थे। हितोपदेश में संधि सोलह प्रकार की कही गई है—कपाल, उपहार, संतान, संगत, उपन्यास, प्रतीकार, संयोग, पुरुषांतर, अदृष्टतर, आदिष्ट, आत्मादिष्ट, उपग्रह, परिक्रय, ततोच्छिन, परभूषण और स्कंधोपनेय। जब संधि करनेवालों में से कोई पक्ष उस संधि की शर्तों को तोड़ता या उनके विरुद्ध काम करता है, तो उसे संधि का भंग होना कहते हैं। ४. सुलह। मित्रता। मैत्री। ५. शरीर में कोई वह स्थान जहाँ दो या अधिक हड्डियाँ आपस मे मिलती हों। जोड़। गाँठ। जैसे,—कुहनी, घुटना, पोर आदि। विशेष—वैद्यक के अनुसार ये संधियाँ दो प्रकार की हैं। चेष्टा- वान् और निश्चल। सुश्रुत के अनुसार सारे शरीर में सब मिलाकर २१० संधियाँ हैं। ६. व्याकरण में वह विकार जो दो अक्षरों के पास पास आने के कारण उनके मेल से होता है। विशेष—संधि हिंदी में नहीं होती, संस्कृत के जो सामासिक शब्द आते हैं, उन्हीं के निरूपण के लिये हिंदी में संधि की आव- श्यकता होती है। संस्कृत में संधि तीन प्रकार की होती है- (१) स्वर संधि (जैसे,—राम + अवतार = रामावतार); (२) व्यंजन संधि (जैसे,—जगत् + नाथ = जगन्नाथ); और (३) विसर्ग संधि (जैसे,—निः + अंतर = निरंतर)। ७. नाटक में किसी प्रधान प्रयोजन के साधक काथांशों का किसी एक मध्ववर्ती प्रयोजन के साथ होनेवाला संबंध। ये संधियाँ पाँच प्रकार की कही गई हैं—मुख संधि, प्रतिमुख संधि, गर्भ भंधि, अवमर्श या विमर्श संधि और निर्वहण संधि। ८. चोरी आदि करने के लिये दीवार में किया हुआ छेद। सेंध। ९. एक युग की समाप्ति और दूसरे युग के आरंभ के बीच का समय। युगसंधि। १०. किसी एक अवस्था के अंत और दूसरी अवस्था के आरंभ के बीच का समय। बयः संधि। जैसे,—शैशव और बाल्य अवस्था की संधि। ११. स्त्री की जननेंद्रिय। भग। १२. संवट्टन। १३. दो चीजों के वीच की खाली जगह। अवकाश। १४. भेद। १५. साधन। १६. वस्त्र आदि की तह। पर्तं (को०)। १७. उपयुक्त अवसर (को०)। १८. संकट का समय (को०)। १९. मद्य संधान। मद्य निष्कर्ष (को०)। २०. वह भूमि आदि जो मंदिर के लिये धर्मार्थ दी गई हो (को०)। २१. प्रबंध करना (को०)। २२. संध्या। गोधूली। साँझ (को०)। २३. दो स्तरों या पर्तों के बीच की विभाजन रेखा (को०)। २४. लंब और आधार का मिलन- स्थल। वह स्थान जहाँ लंब आधार से मिलता है (को०)। २५. दो त्रिभुजों की उभयनिष्ठ भुजा (को०)।
⋙ संधिक
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार सन्निपात रोग का एक भेद। विशेष—इस रोग में शरीर की संधियों में वायु के कारण अधिक पीड़ा होती है और कफ, संताप, शक्तिहीनता, निद्रानाश आदि उपद्रव होते हैं। इसका वेग एक सप्ताह तक रहता है।
⋙ संधिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिकर्भ] संधि करना। सुलह करना। विशेष—संधि के मुख्य दो भेद हैं—चालसंधि और स्थावरसंधि। चालसंधि वह है जिसे दोनों पक्ष शपथ करके करते है; और स्थावर संधि वह है जो कुछ दे लेकर की जाती है। कौटिल्य में चालसंधि को बहुत ही स्थायी कहा है, क्योंकि शपथ खाकर की हुई संधि राजा लोग कभी नहीं तोड़ते थे। कामंदक ने १६ प्रकार की संधियाँ कही हैं।
⋙ संधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिका] मद्य आदि चुवाना [को०]।
⋙ संधिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] संधि का समय। दो के मिलने का क्षण। दो तिथियों, मुहर्तों आदि के योग का काल। जेसे,—दिन और रात का संधिकाल।
⋙ संधिकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिकाष्ठ] प्रासादशिखर के नीचे लगाई जानेवाली लकड़ी [को०]।
⋙ संधिकुशल
वि० [सं० सन्धिकुशल] जो संधि करने में प्रवीण हो।
⋙ संधिकुसुमा
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिकुसुमा] त्रिसंधि नामक फूलदार पौधा।
⋙ सांधग
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिग] एक प्रकार का ज्वर। विशेष दे० 'संधिक'।
⋙ संधिगुप्त
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिगुप्त] वह स्थान जहाँ शत्रु की आनेवाली सेना पर छापा मारने के लिये सैनिक लोग छिपकर बैठते हैं।
⋙ संधिगृह
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिगृह] मधुमक्खी का छत्ता [को०]।
⋙ संधिग्रथि
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिग्रन्थि] शरीरावयवों के जोड़ पर की ग्रंथि या गाँठ [को०]।
⋙ संधिचोर, संधिचौर
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिचोर, सन्धिचौर] सेंध लगाकर चोरी करनेवाला। सेंधिया चोर।
⋙ संधिच्छेद
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिच्छेद] १. वह (पक्ष) जो संधि के नियमों का भंग करता हो। अहदनामे की शर्तें तोड़नेवाला। २. सेंध लगानेवाला (को०)।
⋙ संधिच्छेदक
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिच्छेदक] १. संधि तोड़नेवाला। २. संधिचोर। सेंधियाचोर।
⋙ संधिच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिच्छेदन] दे० 'संधिच्छेद' [को०]।
⋙ संधिज (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिज] १. (चुआकर तैयार किया हुआ) मद्य, आसव आदि। २. वह फाड़ा जो शरीर की किसी संधि या गाँठ पर हो।
⋙ संधिज (२)
वि० १. संधि द्रारा उत्पन्न। संधान द्रारा निर्मित (मद्य आदि)। २. ग्रंथि या गाँठ पर होनेवाला। जैसे,—संधिज व्रण। ३. व्याकरण में दो शब्दों की संधि से बना हुआ। जैसे,—संधिज शब्द [को०]।
⋙ संधिजीवक
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिजीवक] वह जो स्त्रियों को पुरुषों से मिलाकर जीविका चलता हो। कुटना। टाल।
⋙ संधित (१)
वि० [सं० सन्धित] १. जिसमें संधि हो। संधियुक्त। २. एक में मिलाया हुआ (को०)। ३. बद्ध। बँधा हुआ (को०)। ४. संधान किया हुआ। स्थिर किया हुआ। रखा हुआ। जैसे,— धनुष पर तीर (को०)। ५. अचार डाला हुआ (को०)। ६. जिसने संधि किया हो या जिससे संधि हुई हो (को०)।
⋙ संधित (२)
संज्ञा पुं० १. आसव। अर्क। २. अचार (को०)। ३. अलग हुए बालों को एक में बाँधना (को०)।
⋙ संधितस्कार
संज्ञा पुं० [सं० सन्धितस्कर] दे० 'संधिचोर' [को०]।
⋙ संधितटी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धितटी] संधि का स्थान। दो वस्तुओं के मिलने का स्थान। उ०—सोभा सुमेरु को संधितटी किधौं मान मवास गढ़ास की घाटी।—घनानंद, पृ० ३३।
⋙ संघिदूषण
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिदूषण] संधि या शर्त तोड़ना [को०]।
⋙ संधिनाल
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिनाल] नख या खुर [को०]।
⋙ संधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिनी] १. गाभिन गौ। २. वह गौ जो गाभिन होने पर भी दूध दे। ३. वह गौ जो बिना बछड़े के दूध दे। ४. वह गौ जो वेसमय या दिन रात में एक समय दूध दे।
⋙ संधिपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिपूजा] शारदीय नवरात्र में अष्टमी ओर नवमी के संधिकाल में दुर्गा की अर्चना।
⋙ संधिप्रच्छादन
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिप्रच्छादन] संगीत में स्वर साधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार होती है। आरोही—सा रे ग, रे ग म, ग म प, म प घ, प ध नि, ध नि सा। अबरोही—सा नि ध, नि ध प, ध प म, प म ग, म ग रे, ग रे सा।
⋙ संधिप्रवंघन
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिप्रबन्धन] दे० 'सधिबंधन'।
⋙ संन्धिबन्ध
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिबन्ध] १. भूइँ चंपा। २. स्नायु। नस (को०)। ३. दराज या संधि को जोड़नेवाली वस्तु। चूना या सीमेंट (को०)।
⋙ संधंबधन
संज्ञा पुं० [सं० संधिबन्धन] शिरा। नाड़ी। नस।
⋙ सधभग
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिभङ्ग] १. वैद्यक के अनुसार हाथ या पैर आदि के किसी जोड़ का टूटना। २. संधि की शर्तों की अवहेलना करना (को०)।
⋙ सवेभग्न
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिभग्न] एक प्रकार का रोग जिसमें अंग की संधियों में अत्यंत पीड़ा होती है।
⋙ सधेमुक्त
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिमुक्त] दे० 'संधिभंग'।
⋙ सधेमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिमोक्ष] जोड़ खुल जाना [को०]।
⋙ सधेमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिमोक्ष] पुरानी संधि तोड़ना। संधिभंग। विशोष दे० 'समाधि मोक्ष'।
⋙ सधेरंध्रका
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिरन्ध्रका] सुरंग। सेंध।
⋙ सघेराग
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिराग] १. सिंदूर। सेंदुर। २. साँझ या गबेरे की लाली (को०)।
⋙ सधेला
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिला] १. सुरंग। सेंध। दरार। २. गर्त। गड्ढा। ३. नदी। ४. मदिरा। शराव। ५. एकसाथ अनेक वाद्यों के वजने से उठनेवाली जोर की आवाज (को०)।
⋙ सधेविग्रह
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविग्रह] राजशसन की परराष्ट्र संबंधी दो नीतियाँ शांति और युद्ध। मैत्री और लड़ाई या शत्रुता।
⋙ सधेविग्रहक
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविग्रहक] दे० 'संधिविग्रहिक'।
⋙ सधेविग्रहाधिकार
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविग्रहधिकार] विदेश विभाग या पराराष्ट्र संबंधी मंत्रालय [को०]।
⋙ सधिविग्रहिक
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविग्रहिक] परराष्ट्रों के साथ युद्घ या संधि का निर्णय करनेवाला मंत्री या अधिकारी।
⋙ सधिविग्रही
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविग्रहिन्] दे० 'संधिविग्रहिक'।
⋙ सधिविचक्षण
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविचक्षण] वह व्यक्ति जो संधि करने में चतुर हो [को०]।
⋙ सधिविच्छेद
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविच्छेद] १. समझौता तोड़ना या टूटना। २. व्याकरण में संधिगत शब्दों को अलग अलग करना [को०]।
⋙ सधिविद्
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविद्] संधि की वार्तां करनेवाला [को०]।
⋙ सघिविद्ध
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविद्ध] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ पैर के जोड़ों में सूजन और पीड़ा होती है।
⋙ संधिविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिविपर्यय] भैत्री और शत्रुता। शांति ओर युद्ध [को०]।
⋙ संधिवेला
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धिवेला] १. सध्या का समय। सायकाल। शाम। २. कोई भी संधिकाल। वह काल जिसमें दो काल- विभागों का मेल हो (को०)।
⋙ संधिशूल
सज्ञा पुं० [सं० सन्धिशूल] एक रोग। दे० 'आमवात' [को०]।
⋙ संधिसभव
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिसम्भव] संयुक्त स्वर या सधि से वना वर्ण। जसे, आ=अ+अ; ए=अ+ई; क्ष=क्+प्; क्ष= ज्+ञ आदि।
⋙ संधिसितासित
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिसितासित] आँखों का एक प्रकार का रोग।
⋙ संधिस्थल
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिस्थल] १. वह स्थल जहाँ राषट्रों में संधि हो। २. किन्हीं दो के मिलने का स्थान। ३. सेंध लगाने का स्थान।
⋙ संधिहारक
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिहारक] वहद चोर जो सेंध लगाकर चोरी करता हो। सेंधिया चोर।
⋙ संधी
संज्ञा पुं० [सं० सन्धिन्] संधि का काम देखनेवाला मंत्री। सुलह समझौता करनेवाला मंत्री। परराष्ट्र मंत्री [को०]।
⋙ संघुक्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्धुक्षण] [वि० संधुक्षित] १. जलाना। प्रदीप्त करना। २. उकसाना। उत्तेजित करना [को०]।
⋙ संधुक्षण (२)
वि० उद्दीपक। उत्तेजक [को०]।
⋙ संधुक्षित
वि० [सं० सन्धुक्षित] प्रज्वलित या उद्दीप्त किया हुआ [को०]।
⋙ संधेय
वि० [सं० सन्धेय] १. जो संधि करने के योग्य हो। जिसके साथ संधि की जा सके। २. जिसे शांत किया जा सके। शांत करने या मनाने योग्य (को०)। ३. लक्ष्य साधने के योग्य (को०)। ४. जो पुनः जोड़ा या मिलाया जा सके। फिर से मिलने, जुड़ने या एक होने योग्य (को०)।
⋙ संध्यंग
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्यङ्ग] नाटक में मुखादि संधियों के अंग, उपांग [को०]।
⋙ संध्य
वि [सं० सन्ध्य] १. संधि सबंधी। संधि का। २. संधि पर आद्धृत (को०)। ३. जिसकी संधि होनेवाली हो (को०)। ४. विचारयुक्त। सोचता हुआ (को०)।
⋙ संध्यर्क्ष
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्यर्क्ष] वह नक्षत्र जिसमें दो राशियाँ हों। दो राशियों के बीच का नक्षत्र। जैसे,—कृतिका नक्षत्र, जिसके पहले पाद में भेष राशि और तीनों में वृष राशि है।
⋙ संध्यांश, संध्यांशक
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्यांश, सन्ध्यांशक] युगांत काल। दो युगों का संधिकाल। वह काल जिसमें एक युग की समाप्ति और दूसरे का आरंभ हो [को०]।
⋙ संघ्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्या] १. दिन और रात दोनों के मिलने का समय। संधिकाल। विशेष—दिन और रात के मिलने के दो समय हैं—प्रातः काल और सायंकाल। शस्त्रों में कहा है कि रात का अतिम एक/?/दिन का पहला एक दंड ये दोनों मिलाकर प्रातः/?/दिन का अंतिम एक दंड और रात/?/मिलकर सायं संध्याकाल होते/?/कुछ लोग ठीक दोपहर के समय एक/?/मानते है, जिसे मध्याह्न संध्या कहते हैं। २. दिन का अंतिम भाग। सूर्यास्त के लगभग का समय। शाम। सायंकाल। ३. आर्यों की एक विशिष्ट उपासना। विशेष—वह उपासना प्रतिदिन प्रातः काल, मध्याह्न ओर संध्या के समय होती है। इसमें स्नान और आचमन करके कुछ विशिष्ट मंत्रों का पाठ, अंगन्यास, और गायत्री का जप किया जाता है। द्धिजातियों के लिये यह उपासना अवश्य कर्तव्य कही गई है। ४. दूसरे युग की संधि का समय। दो युगों के मिलने का समय। युगसंधि। ५. एक प्राचीन नदी का नाम। ६. सीमा। हद। ७. संधान। ८. एक प्रकार का फूल। ९. प्रतिज्ञा। वादा (को)। १०. चिंतन। मनन (को०)। ११. योग। मेल (को०)। १२. ब्रह्मा की पत्नी (को०)। १३. दिन का कोई भी प्रभाग, जैसे पूर्वाह्नै, सध्याह्व, अपराह्व (को०)। १४. काल या सूर्य की स्त्री (को०)। यौ०—संध्याकार्य, संध्यावंदन = दे० 'संध्योपासन। संध्याकाल = (१) गोधूलि। झुटपुटा। (२) शाम। सायंकाल। संध्या- कालिक = शाम से संबंधित। संध्यापयोद = सायंकालीन वर्षा के बादल। शाम की बदली। संध्यापुष्पी। संध्यावल। संध्यावलि संध्यामंगल = साँझ के धार्मिक कृत्य।
⋙ संध्याचल
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्याचल] अस्ताचल [को०]।
⋙ संध्यानाटी
संज्ञा पुं० [सं० सन्धानाटिन्] शिव। महादेव।
⋙ सध्यापुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्यापुष्पी] १. जातीफल। जायफल। २. एक प्रकार की जूही या चमेली [को०]।
⋙ संध्याबंधू
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्याबधू] रात्रि। रात। निशि।
⋙ संध्याबल
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्याबल] निशाचर। राक्षस। निश्चर।
⋙ संध्याबलि
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्याबलि] १. शिव के मंदिर में बनी हुई नंदी की प्रतिमा। २. सायंकालीन बलिप्रदान आदि पूजा [को०]।
⋙ संध्याराम
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्यामकल्याण नाम का एक राग जिसका वर्ण संगीत शास्त्र के अनुसार काल माना गया है। २. सिंदूर। सेंदुर।
⋙ संध्याराम
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्याराम] ब्रह्मा।
⋙ संध्यासन
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्यासन] कामंदक नीति के अनुसार आपस में लड़कर शत्रुओं का कमजोर होकर बैठ जाना।
⋙ संध्योपासन
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्योपासन] सुबह, शाम और मध्याह्न के समय की जानेवाली उपासना। विशेष दे० 'संध्या'—३।
⋙ संध्बान
वि० [सं० सन्ध्वान] सन् सन् की आवाज या ध्वनि उत्पन्न करनेवाला [को०]।
⋙ संनिक्षेप्ता
संज्ञा पुं० [सं० सम् + निक्षेप्तृ] कौटिल्य के अनुसार श्रेणी या संध के धन को रखनेवाला। खजानची।
⋙ संन्यसन
संज्ञा पुं० [सं० सन्न्यसन] दे० 'संन्यसन'।
⋙ संन्यस्त
वि [सं० सन्न्यस्त] दे० 'संन्यस्त'।
⋙ संन्यास
संज्ञा पुं० [सं० सन्न्यास] १. भारतीय आर्यों के चार आश्रमों में से अंतिम आश्रम। वानप्रस्थ आश्रम के पश्चात् का आश्रम। विशेष—प्राचीन भारतीय आर्यों ने जीवन के चार विभाग किए थे, जो आश्रम कहलाते है। (दे० 'आश्रम') इनमें से अंतिम आश्रम संन्यास कहलाता है। पचीस वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में रहने के उपरांत ७५ वें वर्ष के अंत में इस आश्रम में प्रवेश करने का विघान है। इस आश्रम में काम्य और नित्य आदि सब कर्म किए तो जाते है, पर बिलकुल निष्काम भाव से किए जाते हैं; किसी प्रकार के फल की आशा रखकर नहीं किए जाते। विशेष दे० 'संन्यासी'। २. भावप्रकाश के अनुसार मूर्च्छा रोग का एक भेद। विशेष—यह बहुत ही भयानक कहा गया है। यह रोग प्रायः निर्बल मनुष्यों को हुआ करता है और इसमें रोगी के मर जाने की भी आशंका रहती है। साधारण मूर्छा से इसमें यह अंतर है कि मूर्च्छा में तो रोगी थोड़ी देर में आप से आप होश में आ जाता है, पर इसमें बिना औषध और चिकित्सा के होश नहीं होता। ३. जटामासी। (अन्य अर्थों के लिये दे० 'सन्यास' शव्द)।
⋙ संन्यासी
संज्ञा पुं० [सं० सन्न्यासिन्] वह जो संन्यास आश्रम में हो। संन्यास आश्रम में रहने और उसके नियमों का पालन करनेवाला। विशेष—संन्यासिबों के लिये शास्त्रों में अनेक प्रकार के विधान हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं—संन्यासी को सब प्रकार की तृष्णाओं का परित्याग करके घर बार छोड़कर जंगल में रहना चाहिए; सदा एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करना चाहिए; कहीं एक जगह जमकर न रहना चाहिए; गैरिक कौपीन पहनना चाहिए; दंड और कमंडलु अपने पास रखना चाहिए; सिर मुड़ाए रहना चाहिए; शिखा और सूत्र का परित्याग कर देना चाहिए; भिक्षा के द्रारा जीवन निर्वाह करना चाहिए; एकांत स्थान में निवास करना चाहिए; सब पदार्थों और सब कार्यों में समदर्शी होना चाहिए; और सदुपदेश आदि के द्रारा लोगों का कल्याण करना चाहिए। आजकल संन्यासियों के गिरि, पुरी, भारती आदि अनेक भेद पाए जाते हैं। एक प्रकार के कौल या वाममार्गी संन्यासी भी होते हैं जो मद्य मांस आदि का भी सेवन करते हैं। इनके अतिरिक्त नागे, दंगली, अघोरी, आकाशमुखी, मौनी आदि भी संन्यासियों के ही अंर्तगत माने जाते हैं। २. वह जो छोड़ देता है या जमा करता है (को०)। ३. वह जो पृथक् या अलग कर देता है (को०)। ४. भोजन का त्याग करनेवाला। त्यक्ताहार व्यक्ति (को०)।
⋙ संप
संज्ञा पुं० [सं० सम्प] छोड़ना। त्यागना। अलग करना [को०]।
⋙ संपक्व
वि० [सं० सम्पकव] १. अच्छी तरह पकाया हुआ। २. पका हुआ (फल)। ३. बूढ़ा। मरने के करीब पहूँचा हुआ [को०]।
⋙ समंत्
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत्] दे० 'संपद्'।
⋙ संपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत्ति] दे० 'संपत्ति'। उ०—(क) संपति सब रघुपति कै आही।—मानस, २।१८६। (ख) जगत विदित बूँदी नगर सुख संपति को धाम।—मतिराम (शब्द०)। (ग) तहों कियों भंदक्तं बिन संपति शोभा साज।—केशव (शब्द०)।
⋙ संपत्कुमार
संज्ञा पुं० [सं० सम्यत्कुमार] विष्णु का एक रूप।
⋙ संपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत्ति] १. ऐश्वर्य। वैभव। २. धत। दोलत। जायदाद। मिलकियत। ३. सफलता। पूर्णता। सिद्धि। ४. प्राप्ति। लाभ। ५. अधिकता। बहुतायत। ६. सौभाग्य। अच्छे दिन (को०)। ७. एक जड़ी। वृद्धि (को०)।
⋙ संपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत्नी] वह स्त्री जो अपने पति के साथ हो [को०]।
⋙ संपत्नीय
संज्ञा पुं० [सं० सम्पत्नीय] पितरों को जल देने का एक भेद।
⋙ संपत्प्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत् प्रदा] १. सौभाग्य देनेवाली एक भैरवी का नाम। २. एक बौद्ध देवी [को०]।
⋙ संपदू
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पद्] १. सिद्धि। पूर्णता। २. ऐश्वर्य। वैभव। गौरव। ३. सौभाग्य। अच्छे दिन। भले दिन। सुख की स्थिति। यौ०—संपद् वर। संपद् वसु। संपद् विपद् = सुख दुःख। ४. प्राप्ति। लाभ। फायदा। ५. अधिकता। पूर्णता। बहुतायत। ६. मोतियों का हार। ७. वृद्धि नाम की ओषधि। ८. धन। दोलत। ९. कोश। खजाना (को०)। १०. सद् गुणों की वृद्धि (को०)। ११. सजावट। अलंकरण (को०)। १२. ठोक ढंग। सही ढंग (को०)। १३. सौंदर्य। शोभा। कांति (को०)।
⋙ संपद (१)
वि० [सं० सम्पद] संपन्न। पूर्ण [को०]।
⋙ संपद (२)
संज्ञा पुं० पैरों को एक समान या एक साथ करके खड़ा होना।
⋙ संपदा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पद्] धन दौलत। ऐश्वर्य। वैभव।
⋙ संपदी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पदिन्] अशोक के एक पौत्र का नाम।
⋙ संपदूर
संज्ञा पुं० [सं० सम्पदूर] भूभृत्। राजा [को०]।
⋙ संपद्घसु
संज्ञा पुं० [सं० सम्पद्घसु] सूर्य की सात प्रमुख रश्मियों में से एक का नाम जिससे भौम ग्रह को ताप को प्राप्ति होती है [को०]।
⋙ संपन्न (१)
वि० [सं० सम्पन्न] १. पूरा किया हुआ। पूर्ण। सिद्ध। साधित। सुकम्मल। २. सहित। युक्त। भरा पूरा। उ०— ससिसंपन्न सोह महि कैसी।—तुलसी (शब्द०)। ३. जिसे कुछ कमी न हो। धन धान्य से पूर्ण। खुशहाल। ४. धनी। दौलतमंद। ५. ठीक। उचित। सही (को०)। ६. पूर्ण विकसित। परिपक्व (को०)। ७. प्राप्त। हासिल (को०)। ८. घटित। जो हुआ हो (को०)। ९. भाग्यशाली (को०)।
⋙ संपन्न (२)
संज्ञा पुं० १. सुस्वादु भोजन। व्थंजन। २. शिव (को०)। ३. धन दौलत (को०)।
⋙ संपन्नक
वि० [सं० सम्पन्नक] दे० 'संपन्न' [को०]।
⋙ संपन्नक्रम
संज्ञा पुं० [सं० सम्पन्नक्रम] एक प्रकार की समाधि। (बौद्ध)।
⋙ संपन्नक्षीरा
वि० [सं० सम्पन्नक्षीरा] अधिक दूध देनेवाली जो अधिक दूध देती हो। दुधारू [को०]।
⋙ संपन्नतम
वि० [सं० सम्पन्नतम] जो पूरी तौर से ठीक हो अथवा पूरा हो चुका हो [को०]।
⋙ संपन्नतर
वि० [सं० सम्पन्नतर] प्रत्यंत स्वादिष्ट [को०]।
⋙ संपन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पन्नता] भरा पूरा या संपन्न होने का भाव। युक्तता [को०]।
⋙ संपराय
संज्ञा पुं० [सं० सम्पराय] १. मृत्यु। मौत। २. अनादि काल से स्थिति। ३. युद्ध। लड़ाई। झगड़ा। ४. आपत्ति। दुर्दिन। ५. भविष्य।
⋙ संपरायक, संपरायिक
संज्ञा पुं० [सं० सम्परायक, सम्परायिक] युद्ध। संग्राम। लड़ाई [को०]।
⋙ संपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं० सम्परिग्रह] १. सौजन्यपूर्ण स्वीकार। दयालुता के साथ स्वीकार करना। २. धन दौलत। वैभव। संपत्ति [को०]।
⋙ संपरेत
वि० [सं० सम्परेत] १. जो मरनेवाला हो। आसन्न मृत्यु। २. मृत। मरा हुआ [को०]।
⋙ संपर्क
संज्ञा पुं० [सं० सम्पर्क] [वि० संपृक्त] १. मिश्रण। मिलावट। २. मेल। मिलाप। संयोग। ३. लगाव। संसर्ग। वास्ता। ४. स्पर्श। सटना। ५. योग। जोड़। (गणित)। ६. संभोग। मैथुन (को०)।
⋙ संपर्की
वि० [सं० सम्पर्किन्] संपर्क युक्त। संसर्ग विशिष्ट।
⋙ संपर्कीय
वि० [सं० सम्पर्कीय] संपर्क विशिष्ट। संपर्की [को०]।
⋙ संपवन
संज्ञा पुं० [सं० सम्पवन] शुद्ध करना। पवित्रीकरण [को०]।
⋙ संपा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पा] विद्युत्। बिजली। उ०—संपा घन बीच ऐसी चंपा बन बीच फूली, डारि सी कुँवरि कुभिलाति फूली डार गहें। भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६८। २. साथ साथ पान करना या पीना (को०)।
⋙ संपा (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] कांची। मेखला। करधनी [को०]।
⋙ संपाक (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाक] १. अच्छी तरह पकना। परिपाक होना। २. आरग्वध वृक्ष। अमलतास। ३. वह जो ठीक ढंग से तर्क करे। ठीक तर्क करनेवाला।
⋙ संपाक (२)
वि० १. लंपट। २. घूर्त। ३. अल्प। कम। ४. तर्कक। तर्क में प्रवीण। तर्क करनेवाला (को०)।
⋙ संपाचन
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाचन] १. अच्छी तरह पकाना। २. पका कर मुलायम करना। ३. सुश्रुत के अनुसार सेंककर फोड़े आदि को मुलायम करना [को०]।
⋙ संपाट
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाट] १. किसी त्रिभुज को बढ़ी हुई भुजा पर लंब का गिरना। २. तकला। तकुआ।
⋙ संपाठ
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाठ] वह पाठ जो सिलसिलेवार हो [को०]।
⋙ संपाठ्य
वि० [सं० सम्पाठ्य] एक साथ पढ़ने योग्य। लगातार पढ़ने योग्य [को०]।
⋙ संपात
संज्ञा पुं० [सं० सम्पात] १. एक साथ गिरना या पड़ना। २. संसर्ग। मेल। मिलान। ३. संगम। समागम। ४. संगम स्थान। मिलने की जगह। ५. कुदान। उड़ान। टूट पड़ना। झपट। ७. युद्ध का एक भेद। ८. प्रवेश। पहुँच। पैठ। ९. घटित होना। होना। १०. द्रव पदार्थ के नीचे बैठी हुई वस्तु। तलछट। ११. अवशिष्ट अंश। व्यवहार से बचा हुआ भाग। १२. अधःपतन। उतरना (को०)। १३. अस्त्रशस्त्रों का प्रहार होना। वाण आदि का चलना (को०)। १४. भेजना। प्रेषित करना। जैसे, दूतसंपात (को०)। १५. चलना। गमन। गतिशील होना (को०)। १६. हटाना। दूर करना (को०)। १७. गरुड़ के पुत्र का नाम (को०)। यौ०—संपातपाटव = भपटने या कूदने में पटुता।
⋙ संपाति
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाति] १. एक गीध जो गरूड़ का ज्येष्ठ पुत्र और जटायु का भाई था। २. माली नाम राक्षस का उसकी वसुदा नामक भार्या से उत्पन्न चार पुत्रों में से एक पुत्र, यह विभीषण का मंत्री था। ३. राम की सेना का एक बंदर।
⋙ संपातिक
संज्ञा पुं० [सं० सम्पातिक] दे० 'संपाति' [को०]।
⋙ संपातीं (१)
वि० [सं० सम्पातिन्] [वि० स्त्री० संपातिनी] १. एक साथ कूदने या झपटनेवाला। २. एक साथ उड़नेवाला (को०)। ३. उड़ने में स्पर्धा करनेवाला (को०)।
⋙ संपाती (२)
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाति] १. जटायु का भाई। उ०—गिरि कंदरा सुनी संपाती।—मानस, ४। २७। २. दे० 'संपाति'।
⋙ संपाद
संज्ञा पुं० [सं० सम्पाद] १. समाप्ति। पूर्ति। निष्पन्नता। सिद्धि। २. प्राप्ति। अधिग्रहण [को०]।
⋙ संपादक
संज्ञा पुं० [सं० सम्पादक] १. संपन्न करनेवाला। कोई काम पूरा करनेवाला। काम का अंजाम देनेवाला। २. प्रस्तुत करने- तैयार करनेवाला। ३. प्रदान करनेवाला। लाभ करनेवाला। वाला। ४. किसी समाचारपत्र या पुस्तक को क्रम से लगाकर निकालनेवाला। एडिटर। ५. उत्पादक। उत्पन्न करने वाला (को०)।
⋙ संपादकत्व
संज्ञा पुं० [सं० सम्पादकत्व] संपादन करने का भाव या अवस्था।
⋙ संपादकोय (१)
वि० [सं० सम्पाकोय] संपादक संबंधी। संपादक का।
⋙ संपादकीय (२)
संज्ञा पु० वह लेख या टिप्पणी जो संपादक द्रारा लिखा गया हो। अग्रलेख। (अं० एडिटोरियल)।
⋙ संपादन
संज्ञा पुं० [सं० सम्पादन] [वि० संपादनीय, संपादी, संपाद्य] १. किसी काम को पूरा करना। अंजाम देना। २. प्रस्तुत करना। प्रदान करना। ३. ठीक करना। तैयार करना।४. किसी पुस्तक या संवादपत्र आदि को क्रम, पाठ आदि लगाकर प्रकाशित करना। ५. उत्पन्न करना (को०)।
⋙ संपादना पु
क्रि० स० [सं० सम्पादन] संपादित करना। प्रस्तुत करना। संपादन करना।
⋙ संपादयिता
वि, संज्ञा पुं० [सं० सम्पादयितृ] [स्त्री० संपादयित्री] १. संपादन करनेवाला। २. पूरा करने या प्रस्तुत करनेवाला। ३. ठीक करनेवाला। ४. उत्पादन करनेवाला। उत्पन्न करनेवाला (को०)
⋙ संपादित
वि० [सं० सम्पादित] १. पूर्ण किया हुआ। अंजाम दिया हुआ। २. तैयार। प्रस्तुत। ३. क्रम, पाठ आदि लगाकर ठीक किया हुआ। (पत्र, पुस्तक आदि)।
⋙ संपादी
वि [सं० सम्पादिन्] [वि० स्त्री० संपादिनी] १. संपादन करनेवाला। २. प्रस्तुत करनेवाला। ३. जो संपादन कर सकता हो। उपयुक्त (को०)।
⋙ संपिडित
वि० [सं० सम्पिणिडत] १. एक साथ किया हुआ। ढेर लगाया हुआ। २. सिकुड़ा हुआ। संकुचित [को०]।
⋙ संपित
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जिसका टोकरा बनता है। यह खसिया की पहाड़ियों में होता है।
⋙ संपिधान
संज्ञा पुं० [सं० सम्पिधान] आच्छादन। ढकना। पिधान। ढक्कन [को०]।
⋙ संपिष्ट
वि० [सं० सम्पिष्ट] चूर किया हुआ। अच्छी तरह पीसा हुआ [को०]।
⋙ संपीड़
संज्ञा पुं० [सं० सम्पीड] १. पीड़ा देना। २. दलना, दबाना या निचोड़ना। ३. विक्षोभण। मथना। ४. भेजना। निदे- शन [को०]।
⋙ संपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० सम्पीडन] १. खुब दबाना या निचोड़ना। खूब मलना। खूब पीड़ा देना। ३. अतिशय पीड़ा। दंड। ४. शब्दोच्चारण का एक दोष। ५. भेजना। प्रेषण (को०)। ६. क्षुब्ध करना (को०)।
⋙ संपीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० सम्पीडा] अत्यधिक व्यया या कष्ट [को०]।
⋙ संपीड़ित
वि० [सं० सम्पीडित] १. जो पकड़ लिया गया हो। ग्रस्त। २. दबाया हुआ। ३. निचोड़ा हुआ [को०]।
⋙ संपीति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पीति] मिलाकर पीना। साथ साथ पान करना [को०]।
⋙ संपुंज
संज्ञा पुं० [सं० सम्पुञ्ज] राशि। ढेर [को०]।
⋙ संपुट (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्पुट] १. पात्र के आकार की वस्तु। कटोरे या दोने की तरह चीज जिसमें कुछ भरने के लिये खाली जगह हो। २. खप्पर। ठोकरा। कपाल। ३. दोना। ४. ढक्कनदार पिटारी या डिबिया। डिब्बा। मंजूषा। ५. अंजली। ६. फूल के दलों का ऐसा समूह जिसके बीच खाली जगह हो। कोश। ७. कपडे़ और गीली मिट्टी से लपेटा हुआ वह बरतन जिसके भीतर कोई रस या ओषधि फूँकते हैं। ८. कटसरैया का फूल। कुरबक। ९. हिसाब में बाकी या उधार। १०. एक तरह का रतिबंध (को०)। ११. गोलार्ध (को०)। १२. घुँघरू (को०)।
⋙ संपुट पु (२)
वि० ढका हुआ। मुँदा हुआ। बंद। आवृत। जैसे, संपुट पाठ।
⋙ संपुटक
संज्ञा पुं० [सं० सम्पुटक] १. गोल डब्बा या पिटारी। आवरण। आच्छादन। ढक्कन। ३. एक प्रकार का रतिबंध [को०]।
⋙ संपुटका, संपुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पुटका, सम्पुटिका] १. मंजूषा। पिटारी। २. संग्रह। निधि। ३. एक प्रकार का कंवल। ऊर्णायु। ४. आच्छादन। ढक्कन [को०]।
⋙ संपुटी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पुट] छोटी कटोरी या तश्तरी जिसमें पूजन के लिये घिसा हुआ चंदन, अक्षत आदि रखते हैं।
⋙ संपुटीकरण
संज्ञा पुं० [सं० सम्पुटीकरण] संपुट करना। आवृत करना। ढकना [को०]।
⋙ संपुष्ट
वि० [सं० सम्पुष्ट] १. पूर्णतः पुष्ट। भरा पूरा। २. पूरी तरह समर्थित।
⋙ संपुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पुष्टि] १. पूर्ण समृद्धता। २. संपुष्ट या समर्थन करना।
⋙ संपूजक
वि० [सं० सम्पूजक] संमान करनेवाला। आदर देनेवाला [को०]।
⋙ संपूजन (१)
वि० [सं० सम्पूजन] [वि० स्त्री० संपूजनी] श्लाघ्य। वंद्य। प्रशस्तियुक्त [को०]।
⋙ संपूजन (२)
संज्ञा पुं० १. समादृत करना। पूजित करना। प्रशंसन। बंदन। २. उपस्थित होना। संमुख होना।
⋙ संपूजनीय
वि० [सं० सम्पूजनीय] दे० 'संपूज्य'।
⋙ संपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पूजा] संमान। स्तुति। प्रशंसा। वंदना।
⋙ संपूजित
वि० [सं० सम्पूजित] जिसका भव्य रूप से आदर हुआ हो।
⋙ संपूज्य
वि० [सं० सम्पूज्य] पूजनीय। मान्य। आगरणीय [को०]।
⋙ संपूयन
संज्ञा पुं० [सं० सम्पूयन] पूर्णतः शुद्ध करना। पवित्र करना [को०]।
⋙ संपूरक
वि० [सं० सम्पूरक] पूरी तरह भरनेवाला। तृप्त या तुष्ट करनेवाला [को०]।
⋙ संपूरण (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्पूरण] पुष्टिकर भोजन से उदर पूरी तरह भरना [को०]।
⋙ संपूरण पु (२)
वि० [सं० संपूर्ण, सम्पूर्ण] दे० 'संपूर्ण'।
⋙ संपूरन पु (१)
वि० [सं० संपूर्ण, सम्पूर्ण] दे० 'संपूर्ण'।
⋙ संपूर्ण (१)
वि० [सं० सम्पूर्ण] १. खूब भरा हुआ। पूरी तौर से भरा हुआ। २. सब। बिलकुल। समस्त। पूरा। ३. समाप्त। खत्म। संपन्न। यौ०—संपूर्णकाम = (१) जिसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हों। (२) आकांक्षाओं से युक्त। संपूर्णकालीन = जो उचित या पूरे समय पर हो। समय की पूर्णता या ठीक समय पर होनेवाला। पूरे समय का। संपूर्णपुच्छ = पुँछ फैलानेवाला- मयूर। मोर। संपूर्ण फलभाग् = पूर्ण फल प्राप्त करनेवाला। संपूर्णमूर्च्छा। संपूर्णलक्षण = संख्या या लक्षणों में पूर्ण। सपूर्णविद्य = जो विद्याओं से पूर्ण हो। प्राप्तविद्य। संपूर्णस्पूह् = जिसकी आकांक्षा पूरी हो गई हो।४. पूर्ण रूप से युक्त। ५. अत्यधिक। अतिशय।
⋙ संपूर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. वह राग जिसमें सातो स्वर लगते हों। २. आकाश भूत।
⋙ संपूर्णतः
क्रि० वि० [सं० सम्पूर्णतस्] पूरी तरह से। पूर्ण रूप से।
⋙ संपूर्णतया
क्रि० वि० [सं० सम्पूर्णतया] पूरी तरह से। भली भाँति। अच्छी तरह।
⋙ संपूर्णतर
वि० [सं० सम्पूर्णतर] पूर्णतः भरा हुआ। भलीभाँति भरा हुआ। अधिक भरा हुआ।
⋙ संपुर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पूर्णता] १. संपूर्ण होने का भाव। पूरापन। २. समाप्ति।
⋙ संपूर्णत्व
संज्ञा पुं० [सं० सम्पूर्णत्व] दे० 'संपूर्णता' [को०]।
⋙ संपूर्णमूर्च्छा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पूर्णमूर्च्छा] युद्ध करने की एक कला या रीति [को०]।
⋙ संपूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पूर्ण] एकादशीविशेष।
⋙ संपूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णतः भर जाना। पूर्ण हो जाना [को०]।
⋙ संपृक्त
वि० [सं० सम्पृक्त] १. संसर्ग में आया हुआ। छूआ हुआ। २. मिला हुआ। मिश्रित। ३. मेल में आया हुआ। ४. संयुक्त। संबद्ध (को०)। ५. पूर्ण। भरा हुआ (को०)। ६. खचित। जटित (को०)।
⋙ संपृष्ट
वि० [सं० सम्पृष्ट] जिससे पूछताछ की गई हो। जो पूछा गया हो [को०]।
⋙ संपेष
संज्ञा पुं० [सं० सम्पेष] दे० 'संपेषण'।
⋙ संपेषण
संज्ञा पुं० [सं० सम्पेषण] पीसना। पीसने की क्रिया। चूर्ण करना [को०]।
⋙ संपै पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्पत्ति] वैभव। बढ़ती।
⋙ संपोषण
संज्ञा पुं० [सं० सम्पोषण] १. संवर्धन। पालन पोषण। २. समर्थन।
⋙ संपोषित
वि० [सं० सम्पोषित] १. संवर्धित। पालित पोषित। २. जिसकी पुष्टि की गई हो। समर्थित [को०]।
⋙ संपोष्य
वि० [सं० सम्पोष्य] १. संपोषण या पालन के योग्य। २. समर्थन करने योग्य [को०]।
⋙ संप्रकल्पित
वि० [सं० सम्प्रकल्पित] १. प्रतिष्ठित। व्यवस्थित। २. स्थापित। जिसकी प्रकल्पना की गई हो [को०]।
⋙ संप्रकाश
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रकाश] १. देदीप्यमान उदय। तेजयुक्त आविर्भाव। २. विशद या निर्मल रूपाकृति [को०]।
⋙ संप्रकाशक
वि० [सं० सम्प्रकाशक] व्यक्त करनेवाला। प्रकाशित करनेवाला [को०]।
⋙ संप्रकाशन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रकाशन] व्यक्त वा प्रकाशित करना। समक्ष करना। सामने लाना [को०]।
⋙ संप्रकाशित
वि० [सं० सम्प्रकाशित] अभिव्यक्त। प्रकाशित [को०]।
⋙ संप्रकाश्य
वि० [सं० सम्प्रकाश्य] जो संप्रकाशन के योग्य हो अथवा जिसका संप्रकाशन किया जाय [को०]।
⋙ संप्रकीए
वि० [सं० सम्प्रकीर्ण] जो एक में मिला हो। मिश्रित [को०]।
⋙ संप्रकीर्तित
वि० [सं० सम्प्रकोर्तित] १. अभिहिन। उक्त। कथित। २. वर्णित [को०]।
⋙ संप्रक्षाल
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रक्षाल] १. पूर्ण विधि से स्नान करनेवाला। २. एक प्रकार के यति या साधु। ३. प्रजापति के पैर धोए हुए जल से उत्पन्न एक ऋषि।
⋙ संप्रक्षालन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रक्षालन] १. अच्छी तरह धोना। खूब धोना। २. पूर्ण स्नान। ३. जलप्रलय। जलप्लावन।
⋙ संप्रक्षालनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रक्षालनी] एक प्रकार की जीविका या वृत्ति। (बौद्ध)।
⋙ संप्रक्षुभित
वि० [सं० सम्प्रक्षुभित] जो विशेष रूप से उत्तेजित या क्षुब्ध हो [को०]। यौ०—संप्रक्षुभितमानस = जिसका मन क्षुब्ध हो। व्याकुल।
⋙ सप्रर्गाजत
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रगर्जित] जोरों की चिल्लाहट। जोर से चिल्लाने की आवाज [को०]।
⋙ संप्रचोदित
वि० [सं० सम्प्रचोदित] १. प्रेरित। उत्साहित। आगे किया हुआ। २. आकांक्षित। इच्छित। अमीष्ट [को०]।
⋙ संप्रजात
वि० [सं० सम्प्रजात] उत्पन्न। उदुभूत। आविर्भूत। प्रकट। जात [को०]।
⋙ संप्रजाता
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रजाता] वह (गाय) जिसने बछड़ा जनन किया हो [को०]।
⋙ संप्रज्ञात (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रज्ञात] योग में समाधि के दो प्रधान भेर्दो में से एक। वह समाधि जिसमें आत्मा विषयों के बोध से सर्वथा निवृत्त न होने के कारण अपने स्वरूप के बोध तक न पहुँची हो। विशेष—ध्यान या समाधि की पूर्व दशा में चार प्रकार की समापत्तियाँ कहीं गई हैं जिनमें शब्द, अर्थ, विषय आदि में से किसी न किसी का बोध अवश्य बना रहता है। इन चारों में से किसी समापत्ति के रहने से समाधि संप्रज्ञात कहलाती है। संप्रज्ञात समाधि या समापत्ति के चार भेद हैं—सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार।
⋙ संप्रज्ञात (२)
वि० अच्छी तरह विवेचित, ज्ञात या बोधयुक्त [को०]। यौ०—संप्रज्ञात योगी = वह योगी जिसका विषयबोध बना हुआ हो। संप्रज्ञात समाधि = दे० 'संप्रज्ञात (१)'।
⋙ संप्रज्वलित
वि० [सं० सम्प्रज्वलित] १. जलता हुआ। जिसमें से खूब लौ निकल रही हो। २. द्योतित। प्रकाशित। दिप्त [को०]।
⋙ संप्रणर्दित
वि० [सं० सम्प्रर्णादत] चिल्लाया हुआ। शोर किया हुआ। नर्दित [को०]।
⋙ संप्रणाद
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रणाद] [वि संप्रणादित] आवाज। शोर गुल [को०]।
⋙ संप्रणादित
वि० [सं० सम्प्रणादित] जो छ्वनित किया हुआ हो [को०]।
⋙ संप्रणीत
वि० [सं० सम्प्रणीत] १. एक साथ किया हुआ या उपस्था- पित। २. विरचित। रचित। निबद्ध। जैसे, कविता, रचना आदि [को०]।
⋙ संप्रणेता
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रणेतृ] १. नायक (सेना आदि का)। २. विचारपति। शासक। ३. प्रणता। विधान करनेवाला। (दड, सजा आदि का)। ४. वह जो धारण, पालन या भरण करता हो [को०]।
⋙ संप्रतर्दन
वि० [सं० सम्प्रतदर्न] चुभनेवाला। भेदन या विदारण करनेवाला।
⋙ संप्रतापन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतापन] १. प्रतप्त करना। तपाना। जलाना। २. कष्ट देना। पीडन। उत्पीड़न। ३. मनु द्वारा उक्त एक नरक का नाम [को०]।
⋙ संप्रति (१)
अव्य० [सं० सम्प्रति] १. इस समय। अभी। आजकल। २. मुकाबले में। ३. ठीक तौर से। ठीक ढंग से। ४. उपयुक्त समय पर। ठीक समय पर।
⋙ संप्रति (२)
संज्ञा पुं० १. पूर्व अवसर्पिणी के २४ वें अर्हत् का नाम। (जैन)। २. अशोक का पोता। कुनाल का एक पुत्र।
⋙ संप्रतिनंदित
वि० [सं० सम्प्रतिनन्दित] पूर्णातः सत्कृत [को०]।
⋙ संप्रतिपत्ति
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतिपति] १. पहुँच। गुजर। २. प्राप्ति। लाभ। ३. सम्यक् बोध। ठीक ठीक समझ में आना। ४. समझ। बुद्धि। ५. मतैक्य। एकमत होना। एक राय होना। ६. स्वीकृति। मंजूरी। ७. अभियुक्त का न्यायालय में सत्य बात स्वीकार करना। (स्मृति)। ८. संपादन। सिद्धि। कार्य की पूर्णता । ९. प्रत्युत्पन्नमतित्व (को०)। १०. सहयोग (को०)। ११. हमला। आक्रमण (को०)। १२. मौजूदगी। उपस्थिति (को०)।
⋙ संप्रतिपन्न
वि० [सं०] १. पहुँचा हुआ। गया हुआ। उपस्थित। २. स्वीकृत। मंजूर। ३. उपस्थित बुद्धि का। तेज समझनेवाला। ४. संपन्न। पूर्ण किया हुआ (को०)।
⋙ संप्रतिपादन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतिपादन] १. प्राप्त कराना। २. देना (को०)।
⋙ संप्रतिप्राण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतिप्राण] शरीरस्थ प्राणवायु [को०]।
⋙ संप्रतिमास
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतिभास] वह उपलब्धि या अनुभव जो संमिलन की ओर अभिमुख करता हो [को०]।
⋙ संप्रतिमुक्त
वि० [सं० सम्प्रतिमुक्त] पूर्ण बद्ध। अच्छी तरह से कसा या बाँधा हुआ [को०]।
⋙ संप्रतिरोधक
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रतिरोधक] पूर्णतः अवरोध, रोक या बंधन। २. विघ्न। बाधा [को०]।
⋙ संप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रतिष्ठा] [वि० संप्रतिष्ठित] १. सुरक्षण। २. सातत्य। नैरंतर्य (शुरू होने या अंत का उलटा)। ३. उच्च पद या श्रेणी [को०]।
⋙ संप्रतिष्ठित
वि० [सं० सम्प्रतिष्ठित] १. दृढ़तापूर्वक स्थित। अच्छी तरह जमा हुआ। सुस्थिर। २. जो संप्रतिष्ठा से युक्त हो। ३. अस्तित्व युक्त। सत्तात्मक [को०]।
⋙ संप्रतीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रतीक्षा] अपेक्षा। आशा [को०]।
⋙ संप्रतीत
वि० [सं० सम्प्रतीत] १. प्रत्यावर्तित। वापस आया हुआ। २. पूरी तरह विश्वस्त। पूर्ण विश्वासवाला। ३. पूर्णतः विश्लेषित या निर्णीत। कृतनिश्चय। ४. पूर्णं ज्ञात। जिसे सब जानते हों। संमान्य। ५. विनम्र। विनययुक्त [को०]।
⋙ संप्रतीति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रतीति] १. पूर्ण विश्वास या प्रतीति। पूर्ण निर्णय या ज्ञान। ३. ख्याति। प्रसिद्धि। ४. विनय [को०]।
⋙ संप्रति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रत्ति] पूर्ण रूप से दे देना। पूरी तरह दे देना [को०]। यौ०—संप्रत्तिकर्म = पूर्णतः प्रदान करने की क्रिया।
⋙ संप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रत्यय] १. स्वीकृति। मंजूरी। मानने की क्रिया या भाव। २. दृढ़ विश्वास। पूरा यकीन। ३. ठीक ठीक समझ। सम्यक् बोध। ४. भावना। विचार।
⋙ संप्रत्यागत
वि० [सं० सम्प्रत्यागत] वापस। लौटा हुआ [को०]।
⋙ संप्रथित
वि० [सं० सम्प्रथित] जो लोगों में पूर्णतः ज्ञात वा प्रसिद्ध हो [को०]।
⋙ संप्रद
वि० [सं० सम्प्रद] उदार। दानशील।
⋙ संप्रदत्त
वि० [सं० सम्प्रदत्त] १. हस्तांतरित किया हुआ। जिसे पूर्ण रूप से प्रदान कर किया गया हो। २. विवाह में दिया हुआ [को०]।
⋙ संप्रदा ‡
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदाय] दे० 'संप्रदाय'।
⋙ संप्रदातन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदातन] इक्कीस नरकों में से एक।
⋙ संप्रदाता
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदातृ] देने अथवा हस्तांतरित करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ संप्रदान
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदान] १. दान देने की क्रिया या भाव। २. दीक्षा। मंत्रोपदेश। शिष्य को मंत्र देना। ३. उपहार। भेंट। नजर। ४. विवाह में देना (को०)। ५. हस्तांतरित करना या पूरी तौर से दे देना (को०)। ६. वह जो दान को ग्रहण करे। आदाता (को०)। ७. व्याकरण में एक कारक जिसमें शब्द देना क्रिया का लक्ष्य होता है। विशेष—हिंदी में इस कारक के चिह्न 'को' और 'के लिये' है। जैसे,—राम को दो। उसके लिये लाया।
⋙ संप्रदानीय
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदानीय] १. वह जो प्रदान करने के लिये हो। २. भेंट। उपहार। दान [को०]।
⋙ संप्रदाय
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदाय] [वि० साम्प्रदायिक] १. देनेवाला। दाता। २. गुरुपरंपरागत उपदेश। गुरुमंत्र। ३. कोई विशेषधर्म संबंधी मत। ४. किसी मत के अनुयायियों की मंडली। फिरका। ५. मार्ग। पथ। ६. परिपाटी। रीति। चाल। ७. भेंट। दान (को०)।
⋙ संप्रदायी
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रदायिन्] [स्त्री० संप्रदायिनी] १. देनेवाला। २. करनेवाला। सिद्ध करनेवाला। ३. किसी संप्रदाय से संबंध रखनेवाला। मत का माननेवाला। मतावलंबी।
⋙ संप्रदिष्ट
वि० [सं० सम्प्रदिष्ट] १. पूर्णतः ज्ञात। जाना हुआ। २. पूर्ण रूप से निर्दिष्ट। प्रदर्शित [को०]।
⋙ संप्रधान
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रधान] विचार। निर्णय। निश्चय [को०]।
⋙ संप्रधारण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रधारण] १. विचार विवेचना। २. किसी वस्तु के औचित्य अनौचित्य के विषय में निश्चय करना। निर्णय [को०]।
⋙ संप्रपद
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रपद] १. पादाग्र पर खड़ा होना। पादाग्र स्थिति। २. पर्यटन। भ्रमण [को०]।
⋙ संप्रपन्न
वि० [सं० सम्प्रपन्न] १. पहुँचा हुआ। २. पठा हुआ। प्रविष्ट। ३. संयुक्त। युक्त [को०]।
⋙ संप्रभग्न
वि० [सं० सम्प्रभग्न] तितर बितर। बिखरा हुआ। जैसे, संप्रभग्न सेना [को०]।
⋙ संप्रभव
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रभब] उदय। प्रादुर्भाव [को०]।
⋙ संप्रभिन्न
वि० [सं० सम्प्रभिन्न] १. विदीर्ण। फटा हुआ। मद- स्त्रावी (हाथी)। मतवाला [को०]।
⋙ संप्रमत्त
वि० [सं० सम्प्रमत्त] १. मदमत्त। मस्त (हाथी)। २. अत्य- धिक लापरवाह [को०]।
⋙ संप्रमापण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमापण] बध। हत्या [को०]।
⋙ संप्रमार्ग
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमार्ग] शुद्धि। शोधन। मार्जन [को०]।
⋙ संप्रमुखित
वि० [सं०] जो प्रमुख हो।
⋙ संप्रमुग्ध
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमुग्ध] अस्तव्यस्तता। विशृंख- लता [को०]।
⋙ संप्रमोद
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमोद] हर्षातिरेक। अत्यंत आनंद।
⋙ संप्रमोह
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमोह] पूर्ण विमूढ़ता। विमुग्धता [को०]।
⋙ संप्रयाण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमापण] गमन। प्रयाण [को०]।
⋙ संप्रमोष
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रमोष] हानि। नाश [को०]।
⋙ संप्रयुक्त
वि० [सं० सम्प्रयुक्त] १. जोड़ा हुआ। एक साथ किया हुआ। २. जोता हुआ। नधा हुआ। ३. संबद्ध। मिला हुआ। ४. भिड़ा हुआ। ५. व्यवहार में लाया हुआ। बर्ता हुआ। ६. मैथुनरत। संभोगलग्न (को०)। ७. प्रेरित। प्रोत्साहित (को०)। ८. युक्त। संलग्न (को०)। ९. अवलंबित। निर्भर (को०)। १०. संपर्कित। संपर्क में आगत (को०)।
⋙ संप्रयुक्तक
वि० [सं० सम्प्रयुक्तक] सहयोगी [को०]।
⋙ संप्रयुद्ध
वि० [सं० सम्प्रयुद्ध] युद्धरत। युद्घयमान [को०]।
⋙ संप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रयोग] १. जोड़ने की क्रिया या भाव। समागम। एक साथ करना। २. मेल। मिलाप। संयोग। ३. रति। रमण। ४. धनादि का विनियोग। ५. नक्षत्र में चंद्रमा का योग। ६. इंद्रजाल। ७. वशीकरण प्रभृति कार्य। ८. व्यवहार। प्रयोग (को०)। ९. सहयोग (को०)। १०. क्रमबद्ध विधान। क्रमिक व्यवस्था (को०)। ११. पार- स्परिक सबंध (को०)।
⋙ संप्रयोगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रयोगिन्] [स्त्री० संप्रयोगिनी] १. कामुक। लंपट। २. इंद्रजालिक। इंद्रजाल दिखानेवाला। ३. जोड़नेवाला। सयोजक (को०)। ४. गुदाभंजन करानेवाला। चुल्ली। गांडू (को०)।
⋙ संप्रयोगी (२)
वि० १. आपस में जोड़नेवाला। २. अत्यधिक कामवासना- युक्त। कामुक। लंपट [को०]।
⋙ संप्रयोजन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रयोजन] [वि० संप्रयोजनीय, संप्रयोज्य, संप्रयोजित, संप्रयुक्त, संप्रयोक्तव्य] अच्छी तरह जोड़ना या मिलाना।
⋙ संप्रयोजित
वि० [सं० सम्प्रयोजित] १. जोड़ा या मिलाया हुआ। २. प्रयुक्त या प्रयोग में आया हुआ। ३. जो प्रस्तुत किया गया हो। ४. उचित। उपयुक्त [को०]।
⋙ संप्रवदन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रवदन] १. बातचीत। वार्तालाप। कथो- पकथन [को०]।
⋙ संप्रवर्तक
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रवर्तक] [वि० संप्रवर्ती] १. चलानेवाला। आगे बढ़ानेवाला। २. जारी करनेवाला। चालू करनेवाला। ३. वह जो निर्माण करता हो। निर्माता (को०)।
⋙ संप्रवर्त्तन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रवर्तन] [वि० संप्रवर्तिनी, संप्रवृत्त] १. चलाना। गति देना। २. घुमाना। ३. जारी करना। आरंभ करना।
⋙ संप्रवर्ती
वि० [सं० सम्प्रवर्ती] व्यवस्थित करनेवाला [को०]।
⋙ संप्रवाह
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रवाह] १. अटूट धारा। २. लगातार क्रम या सिलसिला [को०]।
⋙ संप्रवृत
वि० [सं० सम्प्रवृत] १. आगे गया हुआ। बढ़ा हुआ। अग्रसर। २. उपस्थित। मौजूद। प्रस्तुत। ३. जारी किया हुआ। आरंभ किया हुआ। ४. संलग्न। आसक्त (को०)। ५. बोता हुआ। व्यतीत। गत (को०)। ६. पार्श्वस्थित। समोप स्थित (को०)।
⋙ संप्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रवृत्ति] १. आसक्ति। २. अनुकरण करने की इच्छा। ३. उपस्थिति। मौजूदगी। ४. संघ- टन। मेल।
⋙ संप्रविष्ट
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रवृष्ट] खूब पानी बरसना।
⋙ संप्रशांत
वि० [सं० सम्प्रशान्त] १. मरा हुआ। मृत। २. अलक्षित। लुप्त [को०]।
⋙ संप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रश्न] १. आश्रय। २. पूरी जाँच पड़ताल। ३. पूछताछ [को०]।
⋙ संप्रश्रय
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रश्रय] शिष्टता। विनम्रता [को०]।
⋙ संप्रश्रित
वि० [सं० सम्प्रक्षित] शिष्ट। नम्र। विनयी [को०]।
⋙ संप्रसत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रसत्ति] दे० 'संप्रसाद'।
⋙ संप्रसाद
संज्ञा पुं० [अं० सम्प्रसाद] १. प्रसन्न करना। तुष्टीकरण। २. अनुग्रह। कृपा। ३. शांति। सौभ्यता। ४. विश्वास। भरोसा। ५. आत्मा। ६. सुषुप्त अवस्था की पूर्ण शांति। निद्रा में मानसिक विश्रांति [को०]।
⋙ संप्रसादन
वि० [सं० सम्सप्रादन] प्रसन्न या शांत करनेवाला।
⋙ संप्रसाधन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रसाधन] १. अंगराग, आभूषण आदि शृंगार का प्रसाधन। २. पूर्ण करना। पूरा करना [को०]।
⋙ संप्रसारण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रसारण] १. फैलाना। विस्तार करना। २. संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल् का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन।
⋙ संप्रसिद्ध
वि० [सं० सम्प्रसिद्ध] १. भली भाँति पकाया हुआ। २. अतीव ख्यात या प्रसिद्ध [को०]।
⋙ संप्रसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रसिदि्ध] १. सफलता। कृतकार्य होना। २. सौभाग्य [को०]।
⋙ संप्रस्थान
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रस्थान] कूच करना। आगे बढ़ना [को०]।
⋙ संप्रहर्षण (१)
वि० [सं० सम्प्रहर्षण] कामोत्तेजक [को०]।
⋙ संप्रहर्षण (२)
संज्ञा पुं० प्रोत्साहन। प्रेरणा। उत्तेजना [को०]।
⋙ संप्रहार
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रहार] १. परस्पर चोट करना। २. मुठभेड़। संग्राम। ३. गमन। गति [को०]।
⋙ सप्रहास
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रहास] हँसी उड़ाना। चिढ़ाना [को०]।
⋙ संप्रहित
वि० [सं० सम्प्रहित] फेंका हुआ। धकेला हुआ। २. भेजा हुआ [को०]।
⋙ संप्राप्त
वि० [सं० सम्प्राप्त] १. पहुँचा हुआ। उपस्थित। २. पाया हुआ। ३. उत्पन्न (को०)। ४. प्रस्तुत (को०)। ५. घटित। जो हुआ हो। यौ०—संप्राप्तयौवन = जवान। संप्राप्तविद्य = पंडित।
⋙ संप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्राप्ति] १. प्राप्ति। लाभ। २. पहुँचना। उपस्थिति। ३. घटित होना। होना। ४. रोग का सन्निकृष्ट कारण। यह पाँच प्रकार का होता है—(१) संख्या, (२) विकल्प, (३) प्राधान्य, (४) बल और (५) काल।
⋙ संप्रिय
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रिय] परितोष। तृप्ति [को०]।
⋙ संप्रीणन
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रीणन] परितुष्ट करना। प्रसन्न करना। प्रसादन [को०]।
⋙ संप्रीणित
वि० [सं० सम्प्रीणित] जो पूरी तरह संतुष्ट या प्रसन्न किया गया हो [को०]।
⋙ संप्रीत
वि० [सं० सम्प्रीत] संतुष्ट। प्रसन्न [को०]। यौ०—संप्रीतमानस = जिसका मन संतुष्ट हो। प्रसन्नमन।
⋙ संप्रीति
संज्ञा [सं० सम्प्रीति] १. अनुराग। स्नेह। २. सदभावना। मित्रतापूर्ण सदभाव। ३. हर्ष। उल्लास आनंद। ४. पूर्णतः परितृप्ति [को०]।
⋙ संप्रीतिमत्
वि० [सं० सम्प्रीतिमत्] संतुष्ट। प्रसन्न। हर्षित।
⋙ संप्रेक्षक
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रेक्षक] दर्शक। देखनेवाला।
⋙ संप्रेक्षण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रेक्षण] [वि० संप्रेक्षित, संप्रेक्ष्य] १. अच्छी तरह देखना। २. खूब देखभाल करना। जाँच करना। गवेषणा करना। निरीक्षण करना।
⋙ संप्रेष
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रेष] दे० 'संप्रैष'।
⋙ संप्रेषण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रेषण] [वि० संप्रेषित, संप्रेष्य] १. अच्छी तरह भेजना। प्रेषण करना। २. छु़ड़ाना। बरखास्त करना। काम से हटाना।
⋙ संप्रेषणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रेषणी] मृतक का एक कृत्य जो द्वादशाह को होता है।
⋙ संप्रेषित
वि० [सं० सम्प्रेषित] १. भेजा हुआ। जिसका प्रेषण किया गया हो। २. आहूत [को०]।
⋙ संप्रैष
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रैष] १. यज्ञादि में ऋत्विजों को लगाना। नियुक्ति। २. आमंत्रण। आह्वान। ३. प्रेषण। भेजना (को०)। ४. हटना (को०)।
⋙ संप्रोक्त
वि० [सं० सम्प्रोक्त] १. कथित। कहा हुआ। बताया हुआ। जिसे घोषित किया गया हो। २. जिसे पुकारा गया हो। संबोधित [को०]।
⋙ संप्रोक्षण
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्रोक्षण] [वि० संप्रोक्षित, संप्रोक्ष्य] १. खूब पानी छिड़कना। अभिषेचन। सिंचन। २. खूब पानी छिड़क कर (मंदिर आदि) साफ करना। धोना।
⋙ संप्रोक्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्रोक्षणी] अभिषेचन या संप्रोक्षण के निमित्त उपकल्पित जल [को०]।
⋙ संप्लव
संज्ञा पुं० [सं० सम्प्लव] [वि० संप्लुत] १. जल से तराबोर होना। जल को बाढ़। बहिया। २. भारी समूह। घनी राशि। ३. हलचल। शोरगुल। हल्ला। ४. जलप्लावन। जलप्रलय (को०)। ५. महोर्मि। कल्लोल। लहर (को०)। ६. अंत। समाप्ति (को०)। ७. वर्षा। वृष्टि (को०)। ८. व्यतिक्रम। क्रम से न होना (को०)। ९. उच्छेद। विध्वंस (को०)।
⋙ संप्लुत
वि० [सं० सम्प्लुत] जल में तराबोर। डूबा हुआ।
⋙ संप्लुति
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्प्लुति] पीछे से हाथी पर कूदना [को०]।
⋙ संफल
संज्ञा पुं० [सं० सम्फल] १. वह जो फल या बीज से युक्त हो। २. दे० 'संफाल' [को०]।
⋙ संफाल
संज्ञा पुं० [सं० सम्फाल] मेष। भेड़।
⋙ संफुल्ल
वि० [सं० सम्फुल्ल] जो पूर्णतः विकसित हो। भली भाँति खिला हुआ [को०]।
⋙ संफेट
संज्ञा पुं० [सं० सम्फेट] १. क्रोध से परस्पर भिड़ना। भिड़ंत। लड़ाई। २. झगड़ा। कहासुनी। तकरार। ३. नाट्य में विमर्श संधि के तेरह भेदों में से एक का नाम। ४. नाट्य में आर- भटी का एक भेद। विशेष—नाट्यशास्त्र में विमर्श के तेरह भेदों में से एक संफेट भी है। रोष भरे भाषणा को संफेट कहा गया है। जैसे,— राजसभा में शकुंतला और दुष्यंत को कहा सुनी, वेणी सहार में दुर्योधन और भीम की रोषपूर्ण कहासुनी जो धूतराष्ट्र की राजसभा में हुई थी। आरभटी के चार भेदों में से भी एक संफेट है जिसमें दो पात्र परस्पर भिड़ते और एक दूसरे को दबाने का प्रयत्न करते हैं। जैसे,—मालती माधव नाटक में माधव और अघोरघंट की मुठभेड़।