विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/वि
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ विंख
संज्ञा पुं० [सं० विङ्ख] घोड़े का खुर [को०]।
⋙ विंगन †
वि० [सं० व्यङ्ग्य ?] व्यंग्यजन्य। संकेतित। उ०— दुसरी बानी विंगन कही। पिंडज बानि में बोलै सही।—कबीर सा०, पृ० ८८०।
⋙ विंगेश
संज्ञा पुं० [सं०?] अग्नि। आग।
⋙ विंजना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० व्यञ्जना]दे० 'व्यंजना'। उ०—कवित की जाति बहु भाँति गुनि रोत धुनि, लच्छना कहाँ लों वाच्य विंजना जनाओ मैं।—दीन० ग्रं०, पृ० ६।
⋙ विंजामर
संज्ञा पुं० [सं० विञ्जामर] आँख का वह भाग जो सफेद होता है।
⋙ विंजोलि, विंजोली
संज्ञा स्त्री० [सं० विञ्जोलि, विञ्जोली] श्रेणी। पंक्ति। कतार।
⋙ विंझ पु
वि० [सं० विन्ध्य या विद्ध, प्रा० विज्झ] घना। गंभीर। गझिन। उ०—नयणा आडा विंझ बन, मनह न आडउ कोइ।—ढोला०, दू० २१३।
⋙ विंझासंनि पु
संज्ञा स्त्री०[सं० विन्ध्यवासिनी] दुर्गा, विंध्य पर निवास करनेवाली देवी। उ०—एक सूदिन संध्या समय विंझासनि के थान।—पृ० रा०, २४। ४६१।
⋙ विंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० विन्द] १. अवंती के एक राजा का नाम। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ३. दिन का एक विशेष भाग। ४. प्राप्ति। लाभ।
⋙ विंद (२)
वि० १. प्राप्त करनेवाला। लाभ करनेवाला। २. जिसने प्राप्त किया हो।
⋙ विंद (३)
संज्ञा पुं० [सं० वृन्द]दे० 'वृंद'। उ०—कलिंदजा के सुख मूल लतान के विंद वितान तने हैं।—दास (शब्द०)।
⋙ विंद (४)
संज्ञा पुं० [सं० विन्द] दे० 'विंदु'।
⋙ विंदक पु
संज्ञा पुं० [सं० विन्दक] १. प्राप्त करनेवाला। पानेवाला। २. जाननेवाला। ज्ञाता। वेत्ता। उ०—(क) परम साधु परमारथ विंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भव कि परहिं परमातंम विंदक। सुखी कि होंहि कबहुँ परनिंदक।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विंदण †
संज्ञा पुं० [सं० वन्दीजन] स्तुतिपाठक। उ०—जै जया सबद विंदण भणे, वयण राजा बामहा। लाखीक खड़े अकबर लियाँ, दुरगे दक्खण सामहा।—रा० रू०, पृ० १७३।
⋙ विंदु (१)
संज्ञा पुं० [सं० बिन्दु] १. जलकण। बुँद। २. बुंदकी। बिंदी। ३. रंग की बिंदी जो हाथी के मस्तक पर शोभा के लिये वनाई जाती है। ४. अनुस्वार। ५. शून्य। ६. दांत का लगाया हुआ क्षत। दंतक्षत। ७. गो भौहों के बीच की बिंदी। ८. एक बूँद परिमाण। ९. रेखागणित के अनुसार वह जिसका स्थान नियत हो, पर विभाग न हो सके। १०. छोटा टुकड़ा। कण। कनी। उ०—कनक बिंदु दुह चारि के देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।—तुलसी (शब्द०)। ११. रत्नों का एक दोष या धब्बा जो चार प्रकार का कहा गया है—आवर्त्त (गोल), वर्ति (लंबा), आरक्त (लाल) और यव (जौ के आकार का) १२. मूँज या सरकँडे का धूआँ।
⋙ विंदु (२)
वि० १. ज्ञानी। वेत्ता। जानकर। २. उदार। दाता। ३. जानने योग्य।
⋙ विंदुचित्रक
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुचित्रक] वह मृग जिसके शरीर पर गोल गोल सफेद बुँदिकियाँ होती हैं। सफेद चित्तियों का हिरन।
⋙ विंदुजाल
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुजाल] सफेद बिंदियों का समूह जो हाथी के मस्तक और सूंड़ पर बनाया जाता है।
⋙ विंदुजालक
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुजालक] हाथियों का पद्मक नामक रोग।
⋙ विंदुतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुतन्त्र] १. चौपड़ आदि की बिसात। अक्ष। सारिफलक। २. तुरंगक।
⋙ विंदुतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुतीर्थ] काशी के प्रतिद्ध पंचनद तीर्थ का नामांतर जहाँ बिंदुमाधव का मंदिर है। पंचगंगा।
⋙ विंदुत्रिवेणी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दुत्रिवेणी] गाने में स्वरसाधन की एक प्रणाली जिसमें तीन बार एक स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके बाद के स्वर का उच्चारण करते हैं। फिर तीन बार उस दूसरे स्वर का उच्चारण करके एक बार तीसरे स्वर का उच्चारण करते हैं; और अंत में तीन बार सातवें स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके अगले सप्तक के पहले स्वर का उच्चारण करते हैं। यथा-आरोही-सा सा सा रे, रे रे रे ग, ग ग ग म, म म म प, प प प ध, ध ध ध नि, नि नि नि सा। अवरोही—सा सा सा नि, नि नि नि ध, ध ध ध प, प प प म, म म म ग; ग ग ग रे, रे रे रे सा।
⋙ विंदुपत्र
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुपत्र] भोजपत्र।
⋙ विंदुमति
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दुमति]दे० 'विंदुमती'।
⋙ विंदुमती
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दुमती] राजा शशिविंदु की कन्या का नाम।
⋙ विंदुमाधव
संज्ञा पुं० [सं० बिन्दुमाधव] काशी की एक प्रसिद्ध विष्णु- मूर्ति का नाम। विशेष—इनके विषय में काशी खंड में लिखा है कि एक बार भगवान् विष्णु शिव जी की संमति पाकर काशी आए और यहाँ के राजा दिवोदास को बाहर निकाल दिया। उस समय अग्निविंदु नामक ऋषि ने विष्णु की स्तुति को और भगवान् ने प्रसन्न होकर उससे वर माँगने के लिये कहा। ऋषि ने कहा कि मोक्षाभिलाषियों के हितार्थ पंचनद तीर्थ पर आप अवस्थान करें और हमारे नाम से प्रसिद्ध होकर सबको मुक्ति प्रदान करें। विष्णु भगवान् ने 'एवमस्तु' कहकर कहा कि आज से हम तुम्हारा आधा नाम अपने नाम के आगे जोड़कर विंदुमाधव नाम से प्रख्यात होकर पंचनद तीर्थ (पंचगंगा) पर वास करेंगे। पंचनद तीर्थ भी विंदुतीर्थ कहलावेगा।
⋙ विंदुर पु
संज्ञा पुं० [सं० विंदु+र (प्रत्य०)] किसी पदार्थ पर दूसरे रंग के लगे हुए छोटे छोटे चिह्न। बुंदकी। उ०—सिंदुर विंदुर वान के चिह्न चुनी जरि केसर कुंदन कीजै।—सुंदरी सं०। (शब्द०)।
⋙ विंदुराजि
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुराजि] एक प्रकार का साँप। राजमन।
⋙ विंदुल
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुल] अगिया नामक कीड़ा जिसके छुने से शरीर मे फफोंले निकल आते हैं।
⋙ विंदुसर
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुसर] १. पुराणानुसार एक सरोवर का नाम जिसके उत्तर कैलाश पर्वत है। विशेष—कहते है, भगीरथ ने गंगा के लिये हसी सर के किनारे तप किया था। गंगा जी इसी स्थान से निकली हैं। देवताओं ने यहाँ अनेक यज्ञ किए थे और भगवती गंगा के जितने विंदु पृथ्वी पर उतरते समय गिरे, वे इसी स्थान पर थे। इससे वह सर बन गया और विंदुसर कहलाने लगा। २. उड़ीला में भुवनेश्वर क्षेत्र के एक प्राचीन सरोवर का नाम।
⋙ विंदुसार
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुसार] चद्रगुप्त के एक पुत्र का नाम। विशेष—यह चंद्रगुप्त के बाद मगध का राजा हुआ था। सम्राट् अशोक इसी का पुत्र था।
⋙ विंध पु
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्य] विंध्याचल। विंध्य पर्वत। उ०— कुसमउ देखि सनेह सँभारा। बढ़त विंध जिमि घटज निवारा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विंधपत्र
संज्ञा पुं० [सं० विंन्धपत्र] बेलसोंठ। विल्व। शलाटु।
⋙ विधपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्धपत्री] दे० 'विंधपत्र'।
⋙ विंधस
संज्ञा पुं० [सं० विन्धस] चंद्रमा [को०]।
⋙ विंध्य
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्य] एक प्रसिद्ध पर्वत या पर्वतश्रेणी का नाम।विशेष—यह पर्वत भारतवर्ष के मध्य में पूर्व से पश्चिम को फैला हुआ है। आर्यावर्त देश की दक्षिण सीमा पर यह पर्वत है। विंध्य पर्वत के दक्षिण का प्रदेश दक्षिणापथ या दक्षिण कहलाता है। इससे दो प्रधान नदियाँ नर्मदा और ताप्ती दक्षिण और पश्चिम दिशा में बहकर अरब की खाड़ी में गिरती हैं। इस पर्वत के पत्थर प्रायः बलुए और परतदार होते हैं। इसकी अनेक शाखा प्रशाखाएँ सतपुरा आदि नाम से विख्यात हैं। पुराणानुसार यह सात कुलपर्वतों में है और मनु के अनुसार मध्य देश की दक्षिणी सीमा है। महाभारत में कथा है कि विध्य ने सूर्य से कहा कि मेरु के समान तुम हमारी प्रदक्षिणा किया करो। जब सूर्य ने न माना; तब विंध्य ऊपर बढ़ने लगा और यह आशंका हुई कि यह सूर्य का मार्ग ही रोक देगा। देवताओं ने अगस्त्य जी से प्रार्थना की। अगस्त्य उसके पाल गए और उसने साष्टांग दंडवत किया। मुनि ने कहा कि जबतक मैं न० लौटूं, तबतक इसी तरह पड़े रहना। इतना कहकर अगस्त्य जी चले गए और फिर वापस नही आए। कहते है कि इसी लिये यह पर्वत अब तक ज्यों का त्यों लेटा पड़ा है; और इसी लिये इसका इतना अधिक विस्तार है। यौ०—विंध्यकूट। विंध्यकूटक। विंध्यकूटन। विध्यकैलास- वासिनी। बिंघ्यगिरि=विंध्याचल। विंध्यचूलक। विंध्यचूलिक। विंध्यनिलया। विंध्यनिवासी। विंध्यवासी। विंध्यपति। विंध्यवासिनी। विंध्यशैल। विंध्यस्थ।
⋙ विंध्यकूट
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यकूट] १. विध्य पर्वत। २. अगस्त्य मुनि का एक नाम।
⋙ विंध्यकूटक, विंध्यकूटन
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यकूटक, विन्ध्यकूटन] विंध्य पर्वत। विंध्यकूट। २. अगस्त्य मुनि।
⋙ विंध्यकैलासवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्ध्यकैलासवासिनी] विन्ध्य- वासिनी देवी [को०]।
⋙ विंध्यगिरि
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यगिरि] विंध्य नाम का पर्वत।
⋙ विंध्यचूलक
संज्ञा पुं० [सं० विन्द्यचूलक] विंध्य पर्वत के दक्षिण का प्रदेश। महाभारत के अनुसार यहाँ एक प्राचीन जंगली जाति बसती थी।
⋙ विंध्यचूलिक
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यचूलिक] दे० 'विंध्यचूलक'।
⋙ विंध्यनिलया
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्ध्यनिलया] दे० 'विंध्यवासिनी'।
⋙ विंध्यवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्घ्यवासिनी] देवी की एक प्रसिद्ध मूर्ति। विशेष—यह मूर्ति मिर्जापुर जिले में विंध्य के एक टोले पर अवस्थित है। पुराणों में इस मूर्ति के संबंध में अनेक आख्यान हैं। वामन पुराण का मत है कि इंद्र ने भगवती दुर्गा को विंध्य पर्वत पर ले जाकर स्थापित किया था। किसी किसी का मत है कि सती के देह परित्याग करने पर जब शिव जी उनके शव को अपनी पीठ पर लादकर फिरने लगे, तब विष्णु धनुष वाण लेकर उनके पीछे पीछे चले; और जहाँ जहाँ अवकाश पाया, शव को काट काटकर गिरते गए। उसी समय एक अंग यहँ भी गिरा था, जिससे यह सिद्धपीठ हो गया। यह मूर्ति बहुत प्राचीन है; क्योंकि प्राकृत के गोड़वहो (गोड़बध) काव्य में वाक्पतिराज ने, जो आठवीं शताब्दी में था, इसका वर्णन किया है। राजतरंगिणी में विंध्यवासिनी को भ्रमरवासिनी नाम से लिखा है। जिस स्थान पर वह मूर्ति है, वह स्थान विंध्याचल कहलाता है।
⋙ विंध्यवासी
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यवासिन्] १. व्याकरण के एक आचार्य व्याड़ि मुनि का एक नाम। २. वह जो विंध्य का निवासी हो। विंध्य पर्वत का रहनेवाला।
⋙ विंध्यशक्ति
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यशक्ति] एक यवन राजा का नाम।
⋙ विंध्यशैल
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यशैल] विंध्य नाम का पर्वत।
⋙ विंध्यस्थ
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यस्थ] १. व्याडि मुनि का एक नाम। २. विंध्य का निवासी।
⋙ विंध्या (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्ध्या] १. एक नदी का नाम। २. लवली नाम का वृक्ष जिसे हरफारेवड़ी भी कहते हैं (को०)। ३. इलायची (को०)। ४. समय का एक अत्यंत सूक्ष्म मान या विभाग दे० 'लुटि'—८ (को०)।
⋙ विंध्या (२)
संज्ञा पुं० दे० 'विंध्य'।
⋙ विंध्याचल
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्याचल] १. विंध्य पर्वत। २. विंध्य पर्वत की एक शाखा पर बसी हुई एक छोटी सी बस्ती जिसमें विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है। यह मिर्जापुर से थोड़ी दूर पर है।
⋙ विंध्याटवी
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्याटवी] विंध्य का अरण्य। विंध्य पर्वत पर का जंगल [को०]।
⋙ विंध्याद्रि
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यादि] विंध्य पर्वत।
⋙ विंध्यारि
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्यारि] अगस्त्य मुनि [को०]।
⋙ विंध्यावली
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्ध्यावली] राजा बलि की स्त्री का नाम। यौ०—विंध्यावली पुत्र, विंध्यावली सुत=वाणासुर।
⋙ विंब
संज्ञा पुं० [सं० बिम्ब]दे० 'बिंब' [को०]।
⋙ विंबक
संज्ञा पुं० [सं० विम्बक]दे० 'विंबक' [को०]।
⋙ विंबट
संज्ञा पुं० [सं० विम्बट] सरसों का पौधा।
⋙ विंबा, विंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विम्बा, विम्बिका] एक लता। कुंदरू।
⋙ विंबु
संज्ञा पुं० [सं० विम्बु] सुपारी का पौधा। दे० 'बिंबु' [को०]।
⋙ विबोष्ठ, विबौष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बोष्ठ, बिम्वौष्ठ]दे० 'बिंबोष्ठ'।
⋙ विंश (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विंशी] क्रम में बीस के स्थान पर पड़नेवाला। बीसवाँ।
⋙ विंश (२)
संज्ञा पुं० बीसवाँ हिस्सा। बीसवाँ अंश [को०]।
⋙ विंशक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विंशकी] १. बीस (रुपए आदि) में खरीदा हुआ। २. बीस अंश या भाग का। ३. बीस [को०]।
⋙ विंशत
वि० [सं०] बीस। (कुछ समस्त शब्दों में)।
⋙ विंशति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बीस की संख्या। २. इस संख्या का सूच्क अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२०। ३. सेना के व्यूह का एक प्रकार (को०)।
⋙ विंशति (२)
वि० जो गिनती में बीस हो।
⋙ विंशतिक
वि० [सं०] बीस के योग्य [को०]।
⋙ विंशतितम
वि० [सं०] बीसवाँ [को०]।
⋙ विंशतिप
संज्ञा पुं० [सं०] बीस गाँवों का अधिपति।
⋙ विंशतिबाहु, विंशतिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] रावण का एक नाम। विंशद् बाहु।
⋙ विंशतिम
वि० [सं०] बीसवाँ। बीस की संख्या का [को०]।
⋙ विंशतीश
संज्ञा पुं० [सं०] बीस गाँवों का अधिपति।
⋙ विंशतीशी
संज्ञा पुं० [सं० विंशतीशिन्] बीस गाँवों का अधिपति। विंशतीश।
⋙ विंशी
संज्ञा पुं० [सं० विंशिन्] बीस। विंशति [को०]।
⋙ विंशोत्तरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार मनुष्य के शुभाशुभ फल जानने की एक रीति, जिसमें मनुष्य की आयु १२० वर्ष मानकर उसके विभाग करके नक्षत्रों और ग्रहों के अनुसार शुभाशुभ फल की कल्पना की जाती है। यथा— ग्रह काल नक्षत्र सूर्य ३वर्ष कृत्तिका, उत्तर फाल्गुनी और उत्त राषाढ़। चंद्र १०वर्ष रोहिणी, हस्त और श्रवण। मंगल ७वर्ष मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा। राहु १८वर्ष आर्द्रा, स्वाती और शत- भिषा। बृहस्पति १६वर्ष पुनर्वसु, विशाखा और पूर्व भाद्र। शनि १९वर्ष पुष्य, अनुराधा और उत्तर भाद्र। बुध १७वर्ष अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती। कतु ७वर्ष मधा, मूल और अश्विनी। शुक्र २०वर्ष पूर्वफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और - भरणी। कुल १२०वर्ष
⋙ विःकृंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विःकृन्धिका] १. मेंढकों की बोली। २. टर्र टर की आवाज। कर्कश ध्वनि। टर्राहट।
⋙ वि (१)
उप० [सं०] एक उपसर्ग जो शब्द के पहले लगकर इस प्रकार अर्थ देता है—१. पृथक्ता। वियोजन; जैसे,—वियोग। २. निषेध या वैपरीत्य। जैसे,—विक्रय, विकच्छ। ३. प्रभाग। भाग। जैसे,—विभाग। ४. क्रम। व्यवस्था। जैसे,—विधा। ५. विशे- षता; जैसे,—विकराल, विहीन। ६. वैरुप्य; जैसे,—विविध।
⋙ वि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न। २. आकाश। ३. चक्षु। आँख। ४. बोड़ा। ५. सोम का एक नाम। ६. पक्षी। ७. बागडोर [को०]।
⋙ वि (३)
संज्ञा स्त्री० पक्षी।
⋙ विआरिया
संज्ञा पुं० [देश०] पूर्वाह्न भोजन। वह भोजन जो दोपहर के पहले किया जाता है।—देशी०, पृ० ३०१।
⋙ विआल
संज्ञा पुं० [देशी, तुल० बंग० बिकाल] संध्या। सायंकाल।— देशी०, पृ०३१०।
⋙ विए पु
वि० [सं० द्वितीय] अन्य। दूसरा। उ०—सोमेसर परिगह प्रबध सित उप्पने खित्रिवर। हुए बीस अजमेर विए उप्पने अपर धर।—पृ० रा०, १।५८३।
⋙ विकंकट
संज्ञा पुं० [सं० विकङ्कट] १. गोक्षुर। गोखरू। २. एक वृक्ष। विकंकत (को०)।
⋙ विकंकत
संज्ञा पुं० [सं० विकङ्कत] एक जंगली वृक्ष का नाम। यक्षादि में स्त्रुवा इसी का बनता था। विशेष—इसे कटाई, किंकिणी और बंज कहते हैं। इसके पत्ते छोटे छोटे और डालियों में काँटे होते हैं। इसके फल बेर के आकार के तथा पकने पर मीठे होते है; पर अधपकी अवस्था में खटमीठे होते हैं। वैद्यक में यह लधु, दीपन और पाचक तथा कमल और प्लीहा का नाशक लिखा है। यज्ञों के लिये स्त्रुवा इसी की लकड़ी का बनाने का विधान है। पर्या०—ग्रंथिल। सुवावृक्ष। स्वादुकंटक। कंटकी। व्याघ्रपाद। कंटकारी। वृतिकंट। स्त्रुग्दारु। मधुपर्णो। बहुफल। गोपघटी। दंतकाष्ठ। ब्रह्मपादप। हिमक। पिंडार। पृथुवीज। रावण। पादरोहण। सुधावृक्ष, इत्यादि।
⋙ विकंकता
संज्ञा स्त्री० [सं० विकङ्कता] अतिबला।
⋙ विकंटक
संज्ञा पुं० [सं० विकणटक] १. जवासा। २. विकंकट।
⋙ विकंप
वि० [सं० विकम्प] १. चपल। चंचल। अस्थिर। काँपता हुआ। २. दीर्ध साँस लेनेवाला [को०]।
⋙ विकंपन
संज्ञा पुं० [सं० विकम्पन] १. एक राक्षस का नाम। २. सूर्य की गति या कंपन (को०)। ३. कंपन। काँपना (को०)।
⋙ विकंपित (१)
वि० [सं० विकम्पित] काँपता हुआ। हिलता हुलता हुआ [को०]।
⋙ विकंपित (२)
संज्ञा पुं० १. स्वरों का गलत उच्चारण करना। २. मंद पड़ते हुए स्वर का एक भेद [को०]।
⋙ विकंपी
संज्ञा स्त्री० [सं० विकम्पी] संगीत में एक श्रुति [को०]।
⋙ विकंपी
वि० [सं० विकम्पिन्] काँपनेवाला। काँपता हुआ या हिलता हुआ [को०]।
⋙ विक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सद्यः प्रसूता गाय का दूध। तुरंत की व्याई गौ का दूध। पेउस। पीयुष।
⋙ विक (२)
वि० १. जलरहित। जलविहीन। २. जो प्रसन्न न हो। शुष्क। सूखा [को०]।
⋙ विकच
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के धूमकेतु। विशेष—इनकी संख्या ६५ है। ये बृहस्पति के पुत्र माने जाते हैं। इनमें शिखा नहीं होती। इनका वर्ण सफेद होता है और ये प्राय; दक्षिण दिशा में उदय होते हैं। इनके उदय का फल अशुभ माना जाता है। (बुहत्संहिता)। २. ध्वजा। केतु ३. क्षपणक।
⋙ विकच (२)
वि० १. विकसित। खिला हुआ। २. जिसमें बाल न हो। बिना वाल का। केशहीन। ३. विस्तृत। फंला हुआ। विस्तीर्ण(को०)। ४. सुस्पष्ट। व्यक्त। स्फुट (को०)। ५. उज्वल। दीप्तिमत् (को०)। यौ०—विकचश्री=विकसित सौंदर्य से युक्त। दीप्त। शोभायुक्त।
⋙ विकचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदंबपुष्पी। महामुंडी [को०]।
⋙ विकचित
वि० [सं०] प्रफुल्ल। खिला हुआ [को०]।
⋙ विकच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] (नदी) जिसके दोनों ओर तराई या कछार न हो। जिसके किनारे पर दलदल या गीली जमीन न हो।
⋙ विकट (१)
वि० [सं०] १. विशाल। २. विकराल। भयंकर। भीषण। ३. वक्र। टेढ़ा। उ०—(क) भृकुटी विकट निकट नैनन के राजत अति बर नारि। मनहुँ मदन जग जीति जेर करि राख्यो धनुष उतारि।—सूर (शब्द०)। (ख) विकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लीचन रतनारे।—तुलसी (शब्द०)। ४. कठिन। मुश्किल। उ०—(क) नित प्रति सबै उरहने के मिस आवति हैं उठि प्रात। अनसमुझे अपराध लगावति विकट बनावति बात।—सूर (शब्द०)। (ख) नट कृत कपट विकट खगराया। नट सेवकहिं न ब्यापहि माया।—तुलसी (शब्द०)। ५. दुर्गम। जैसे, विकट मार्ग ६. दुस्साव्य। ७. बिना चटाई का। ८. गर्वयुक्त। घमंड से भरा हुआ। दर्पयुक्त (को०)। ९. सौंदर्य युक्त। सुंदर (को०)। १०. जिसके दाँत लंबे हो। लबदंत (को०)। ११. विकृत। भद्दा (को०)।
⋙ विकट (२)
संज्ञा पुं० १. विस्फोटक। व्रण। फोड़ा। २. सोमलता। ३. घृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।४. गणेश [को०]। ५. चंदन। मलयज (को०)। ६. श्वेत फेनाश्म। मैनसिल। मनः शिला (को०)।
⋙ विकटक
वि० [सं०] भद्दी आकृति या देहवाला [को०]।
⋙ विकटमूर्ति
वि० [सं०] डरावने शक्ल का। जिसका आकार भयंकर हो।
⋙ विकटवदन
संज्ञा पु० [सं०] १. दुर्गा देवी के एक अनुचर का नाम। २. वह जिसकी आकृति भयावनी हो। डरावने मुहँवाला [को०]।
⋙ विकटविषाण
संज्ञा पुं० [सं०] बारहसिंहा [को०]।
⋙ विकटशृंग
संज्ञा पुं० [सं० विकटश्रृङ्ग] बारहसिंगा [को०]।
⋙ विकटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध देव की माता माया देवी का एक नाम।
⋙ विकटाकृति
वि० [सं०] दे० 'विकटमूर्ति'।
⋙ विकटाक्ष
वि० [सं०] जिसकी आँखें विकट हों। भयंकर आँखोंवाला।
⋙ विकटानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। २. वह जिसका मुख विकट हो।
⋙ विकतिक
संज्ञा पुं० [पालि] ऊनी चद्दर। पलंगपोश। ऐसा शय्यास्तरण जिसपर शेर, वाध आदि की आकृतियाँ काढ़ी रहती हैं। उ०—वहाँ स्थान स्थान पर करीने से आसंदी, पलंग, चित्रक, पटिक, पर्यलक, तुलिका, विकतिक, उछलोमी, एकांतलोमी, कटिस्स, कौशेय और समूरी मृग के खालों के कोमल कीमती बिछौने बिछे थे।—वैशाली०, पृ० ६५।
⋙ विकत्थन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंबी चौड़ी बातें करना। डींग हाँकना। २. व्याजोक्ति। व्यग्योक्ति। झूठी प्रशंसा। ३. प्रशंसा [को०]।
⋙ विकत्थन (२)
वि० १. शेखी बधारनेवाला। डींग हाँकनेवाला। २. व्यंग्योक्तिपुर्वक प्रशंसा करनेवाला [को०]।
⋙ विकत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डींग। श्लाघा। २. झूठी प्रशंसा। व्यंग्योक्ति। ३. स्तवन। स्तुति। प्रशंसा। बड़ाई। ४. उद् घो- षणा। कोई बात जोरों से कहना। घोषणा [को०]।
⋙ विकत्थी
वि० [सं० विकत्थिन्] विकत्था करनेवाला। शेंखी मारनेवाला। आत्मश्लाघी [को०]।
⋙ विकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशिष्ट कथा। २. कुत्सित कथा। (जैन)।
⋙ विकद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] यादवों के एक भेद का नाम।
⋙ विकनिकांहिकं
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ विकर
संज्ञा पं० [सं०] १. रोग। व्याधि। युद्ध का एक ढंग। २. तलवार के ३२ हाथों में से एक का नाम।
⋙ विकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिवर्तन। संशोधन। सुधार। २. व्याकरण में क्रियारूपों की रचना के समय धातु और कालवाचक लकार प्रत्ययों के मध्य में रखे जानेवाले विंशिष्ट गणद्योतक प्रत्यय अथवा चिह्न।
⋙ विकरार पु (१)
वि० [सं० विकराल] विकराल। भयंकर। डरावना। उ०—(क) कान नाक बिनु भइ विकरारा। जनु स्त्रव सैल गेरु कै धारा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कियो युद्ध अति ही विकरार। लागी चलन रुधिर की धार।—सूर (शब्द०)।
⋙ विकरार (२) पु
वि० [अ० फ़ा० बेकरार] विकाल। बेचैन। व्याकुल। उ०—खनहिं चेत खन होइ विकरारा। भा वंदन वंदन सब छारा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विकराल
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विकराला, विकराली] भीषण। भयानक। डरावना। उ०—कितनी आतुरता से देखे अपने पचें आली। निर्दय परीक्षकों की कृतियाँ कैसी हैं विकराली।—कुंकुम, पृ० ७९।
⋙ विकराला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूर्गा। २. एक वेश्या का नाम [को०]।
⋙ विकराली (१)
वि० [सं० विकरालिन्] ऊष्म। गरम [को०]।
⋙ विकराली (२)
संज्ञा स्त्री० ऊष्मा। ताप। गरमी [को०]।
⋙ विकर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्ण के एक पुत्र का नाम। २. दुर्योधन के भाई का नाम जो कुरुक्षेत्र की लड़ाई में मारा गया था। ३. एक साम का नाम। ४. एक प्रकार का बाण।
⋙ विकर्ण (२)
वि० १. श्रवण शक्ति से हीन। बधिर। २. जिसे कान न हों। ३. जिसके कान बड़े बड़े हों [को०]।
⋙ विकर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की गँठिवन। २. शिव का व्याडि नामक गण।
⋙ विकर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] सारस्वत प्रदेश।
⋙ विकर्णी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की इँट, जिसका व्यवहार यज्ञ की वेदी बनाने में होता था।
⋙ विकर्णी (२)
संज्ञा पुं० एक साम का नाम।
⋙ विकर्णी (३)
संज्ञा पुं० [सं० विकर्णिन] एक प्रकार का बाण [को०]।
⋙ विकर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. मंदार। आक। ३. वह पुत्र जो अपने पिता को राज्यच्युत करके राजा बना हो (को०)। ४. वह व्यक्ति जो विकर्तन करे। काटनेवाला (को०)।
⋙ विकर्म (१)
संज्ञा पुं० [सं० विकर्मन्] १. निषिद्ध कर्म। विरुद्धाचार। २. अनेक प्रकार के काम। विविध कार्य (को०)। ३. कार्य व्यापार से मुक्त होना (को०)। यौ०—विकर्मकृत्=निषिद्ध कर्म करनेवाला। विकर्मक्रिया=निषिद्ध कार्य। अविहित कर्म। विकर्मस्थ=पापात्मा।
⋙ विकर्म (२)
संज्ञा पुं० [सं० वि०+कर्म] विशिष्ट कार्य। उत्तम कर्म। उ०—अकर्म से दूर भागना और विकर्म से मनुष्य अपने को मुक्त और भाग्यवान बनाता है।—कबीर सा०, पृ० ९६४।
⋙ विकर्मा
वि० [सं० विकर्मन्] कर्मभ्रष्ट। दुराचारी।
⋙ विकर्मस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्रानुसार वह पुरुष जो वेदविरुद्ध कर्म करता हो। वेद के विरुद्ध आचार करनेवाला व्यक्ति। पापात्मा।
⋙ विकर्मिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार और मेले का निरीक्षक [को०]।
⋙ विकर्मिक (२)
वि० १. अविहित या निषिद्ध कर्म करनेवाला। दुष्कर्म करनेवाला। २. जो अनेक प्रकार के कार्यों में लगा हो। विभिन्न काम करनेवाला [को०]।
⋙ विकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण। तीर। २. खींचना। आकर्षण (को०)। ३. दूरी। फासला। अंतर (को०)।
⋙ विकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकर्षण। खींचना। २. विभाग। हिस्सा। ३. एक शास्त्र का नाम, जिसमें आकर्षण करने की विद्या का वर्णन, है। उ०—सत्य अस्त्र मायास्त्र महाबल घोर तेज तनुकारी। पुनि पर तेज विकर्षण लीजै सौम्य अस्त्र भयहारी—(शब्द०)। ४. कामदेव के एक वाण का नाम (को०)। ५. निवारण। हटाना। दूरीकरण (को०)। ६. खाद्य से परहेज। अन्न से परहेज करना (को०)। ७. अन्वेषण। जाँच। ८. कुश्ती का एक ढँग। अपनी ओर खींचकर गिराना या फेंकना (को०)। ९. प्रतिकूल कर्षण। विपरीत दिशा की ओर खींचना (को०)।
⋙ विकलंक
वि० [सं० विकलङ्क] कलकरहित। निर्दोष। दीप्तियुक्त।
⋙ विकल (१)
वि० [सं०] १. विह्वल। व्याकुल। बेचैन। २. कलाहीन। अंशनहित। ३. खडित। अपूर्ण। जैसे—विकलांग। ४. घटा हुआ। ह्नासप्राप्त। ५. अस्वाभाविक। अनैसर्गिक। ६. असमर्थ। ७. त्रस्त। भयभीत। डरा हुआ (को०)। ८. प्रभाव रहित। प्रभावहीन (को०)। ९. हतोत्साह। जिसका उत्साह समाप्त हो गया हो (को०)।
⋙ विकल (२)
संज्ञा पुं० दे० 'विकला'—५।
⋙ विकलकरण
वि० [सं०] शिथिलांग। स्त्रस्तांग। श्लथ। क्षीण- शक्ति [को०]।
⋙ विकलकरुण
वि० [सं०] दयनीय। असहाय। निरवलंब [को०]।
⋙ विकंलपाणिक
संज्ञा पुं० [सं०] लूला। वह आदमी जिसके हाथ कट गए हों [को०]।
⋙ विकलांग
वि० [सं० विकलाङ्ग] जिसका कोई अंग टूटा या खराब हो। न्युनांग। अंगहीन। जैसे, लूला, लँगड़ा काना, खंजा आदि।
⋙ विकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कला का साठवाँ अंग। २. वह स्त्री जिसका रजोदर्शन होना बंद हो गया हो। ऋतुहीना। ३. वह स्त्री जो ऋतुमती हो। रजस्वला (को०)। ४. बुध ग्रह की गति का नाम। ५. समय का एक अत्यंत छोटा भाग।
⋙ विकलाई
संज्ञा स्त्री० [सं० विकल+हिं० आई (प्रत्य०)] व्याकुलता। विकलता। उ०—सूझों का पहिन कलेवर सा, विकलाई का कल जेवर सा। धुल धुल आँखों के पानी में, फिर छलक छलक बन छंद चलो; पर मंद चलो।—हिम त०, पृ० ३।
⋙ विकलाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विकल+हिं० आना (प्रत्य०)] व्याकुल होना। धबराना। बेचैन होना। उ०—(क) निठुर बचन सुनि स्याम के युवती विकलानी। मनों महानिधि पाइकै खोए पछितानी।—सूर (शब्द०)। (ख) एक एक ह्वै ढूढहीं तरुनी बिकलाहीं। सूर प्रभू कहु नाहिं मिले ढूँढ़ति द्रुम पाही।—सूर (शब्द०)।
⋙ विकलाना पु (२)
क्रि० स० व्याकुल करना। विचलाना।
⋙ विकलास
संज्ञा पुं० [सं० विकलास्य] एक प्रकार का प्राचीन बाजा, जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था।
⋙ विकलित
वि० [सं०] १. व्याकुल। बेचैन। २. दुःखी। पीड़ित।
⋙ विकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुहीना स्त्री [को०]।
⋙ विकलेंद्रिय
वि० [सं० विकलेन्द्रिय] १. जिसकी इंद्रियाँ वश में न हों। २. जिसकी कोई इंद्रिय खराब हो, अथवा बिल्कुल न हो। न्यूनेंद्रिय। जैसे,—लूला, लंगड़ा, काना, खंजा इत्यादि।
⋙ विकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. भ्रांति। भ्रम। धोखा। २. एक बात मन में बैठाकर फिर उसके विरुद्ध सोच विचार। संकल्प का उलटा। ३. विपरीत कल्पना। विरुद्ध कल्पना। ४. विशेष रूप से कल्पना करना या निर्धारित करना। जैसे,—दंड विकल्प। ५. विविध कल्पना। नाना भाँति से कल्पना करना। ६. कई प्रकार की विधियों का मिलना। विशेष—मीमांसा में विकल्प दो प्रकार का माना गया है—एक व्यवस्थायुक्त, दूसरा इच्छानुयायी। जिसमें दो प्रकार की विधियाँ मिलती हों, उसे व्यवस्थायुक्त कहते हैं। यथा 'दर्श पौर्णमास याग में यव द्वारा होम करे, ब्रीहि द्वारा होम करे इसमें दो प्रकार की विधियाँ हैं। इनमें यदि कर्ता यव से होम करे या ब्रीहि से तो यह इच्छानुयायी विकल्प होगा। इच्छा विकल्प में आठ दोष होते हैं-प्रमाणत्व परित्याग, अप्रामाणय कल्पना, अप्रामाण्योपजीवन और प्रामाण्यहानि। ये चारों उक्त दोनों में लगने से आठ हो जाते हैं। ७. योग शास्त्रानुसार पचविध चित्तवृत्तियों में एक। विशेष—यह चित्तवृत्ति ऐसे शब्दज्ञान की शक्ति है जिसका वाच्य वस्तु नहीं होती। इसमें मनुष्य इस बात की खोज नहीं करता कि अमुक शब्द का वाच्य कोई पदार्थ है या नहीं, अथवा हो सकता है या नहीं। परंपरा से उसके वाच्य के संबंध मेंजैसा लोग मानते आते है वैसा ही वह भी मान बैठता है। जैसे,—पारस पत्थर न मिला और न किसी ने देखा है। पर पारस पत्थर शब्द से लोग यही समझते हैं कि कोई ऐसा पत्थर है, जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। इस प्रकार के शब्दों के वाच्य के संबंध में जो वृत्ति चित्त में उत्पन्न होती है, उसे विकल्प कहते हैं। ८. अवांतर कल्प। ९. एक काव्यालंकार जिसमें दो विरुद्ध बातों को लेकर कहा जाता है कि या तो यही होगा या यही। जैसे,—कै लखिहौं मुख मोहन को कै पलास प्रसून की आगि जरौंगी। १०. वैचित्र्य। विलक्षणता। ११. समाधि का एक भेद जिसे सविकल्प कहते हैं। १२ व्याकरण में एक ही विषय के कई नियमों में से किसी एक का इच्छानुसार ग्रहण। १३. गणना (को०)। १४. उपाय (को०)। १५. कथन। वक्तव्य (को०)। १६. उत्पत्ति (को०)। १७. देवता। ईश्वर (को०)। १८. कूटयुक्ति। कला (को०)।
⋙ विकल्प आपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य द्वारा व्याख्यात वह आपत्ति जो दूसरे मार्ग के अवलंवन से वचाई जा सकती हो।
⋙ विकल्पक
वि० [सं०] विभेदक। विच्छेदक। विभाग कल्पक [को०]।
⋙ विकल्पजाल
संज्ञा पुं० [सं०] अनिश्चय का घेरा। अनेक प्रकार की दुविधा।
⋙ विकल्पन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनिश्तय। खंदेह। द्विविधा। २. दो में से फिसी एक का निश्चय करने की छूट। ३. विचारशून्यता [को०]।
⋙ विकल्पसंप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० विकल्पसम्प्राप्ति] वातादि दोषों की मिश्रित अवस्था में प्रत्येक के अंशांश की कल्पना करना। (वैद्यक)।
⋙ विंकल्पसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायदर्शन में २४ जातियों में से एक जिसमें वादी के दिए हुए द्दष्टांत में अन्य धर्म की योजना करते हुए साध्य में भी उसी धर्म का आरोप करके अथवा द्दष्टांत को असिद्ध ठहराकर वादी की युक्ति का मिथ्या खंडन किया जाता है। जैसे—वादी—'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह उत्पत्ति धर्मवाला है, घट के समान'। प्रतिवादी—'अनित्य और मूर्त है। क्योंकि वह उत्पत्ति धर्मवाला है घट के समान जो अनित्य और मूर्त है'। यहाँ प्रतिवादी का अभिप्राय यह है कि या तो शब्द को मूर्त मानो अथवा उसका नित्य होना स्वीकार करो।
⋙ विकल्पित
वि० [सं०] १. जिसके संबंध में निश्चय न हो। संदिग्ध। २. जिसका कोई नियम न हो। अनियमित। ३. क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित (को०)। ४. विभाजित। विभक्त (को०)।
⋙ विकल्मष
वि० [सं०] जिसमें पाप न हो। निष्पाप। पापरहित। निर्दोष।
⋙ विकवच
वि० [सं०] वर्म से रहित। बिना कवच का [को०]।
⋙ विकश्वर
वि० संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विकस्वर'।
⋙ विकषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ विकस
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ विकसन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विकसित] प्रस्फुटन। फूटना। खिलना।
⋙ विकसना
क्रि० अ० [सं० विकसन]दे० 'बिकसना'।
⋙ विकसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ [को०]।
⋙ विकसाना पु
क्रि० स० [हिं० बिकसना का प्रे० रूप] खिलाना। विकसित करना।
⋙ विकसित
वि० [सं०] १. प्रफुल्ल। खिला हुआ। २. प्रसन्न [को०]।
⋙ विकस्वर (१)
वि० [सं०] १. विकासशील। खिलनेवाला। २. खुला हुआ। फूला हुआ (को०)। ३. जो स्पष्ट सुनाई दे (ध्वनि)। ऊँचे स्वरवाला (को०)। ४. निष्कपट (को०)।
⋙ विकस्वर (२)
संज्ञा पुं० एक काव्यालंकार जिसमें पहले कोई विशेष बात कहकर उसकी पुष्टि सामान्य बात से की जाती है। उ०—मधुप मोह मोहन तज्यो यह स्यामन की रीति। करौ आपने काज लौं तुम्हैं भाति सौ प्रीति।
⋙ बिकस्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल रंग की पुनर्नवा। लाल गदहपुरना।
⋙ विकांक्ष
वि० [सं० विकाङ्क्ष] कांक्षा या इच्छा रहित। इच्छा रहित। निष्काम [को०]।
⋙ विकांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० विकाङ्क्षा] १. मिथ्या कथन व्सिंवाद। २. इच्छा का अभाव। ३. दुबिधा। अनिश्चय [को०]।
⋙ विकांक्षी
वि० [सं० विकाङि्क्षन्] दे० 'विकांक्ष'।
⋙ विकाम
वि० [सं०] कामना रहित। निष्काम [को०]।
⋙ विकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु का रूप, रंग आदि बदल जाना। विकृति। २. मिरुकत के चार प्रधान नियमां में एक जिसके अनुसार एक बर्ण के स्थान में दूसरा वर्ण हो जाता है। ३. दोष की प्राप्ति। बिगड़ना। खराबी। ४. दोष। बुराई, अवगुण। ५. मन की वृत्ति या अवस्था। मनोवेग या प्रवृत्ति। वासना। उ०—सकल प्रकार विकार बिहाई। मन क्रम वचन करेहु सेवकाई।—तुलसी (शब्द०)। ६. वेदांत और सांख्य दर्शन के अनुसार किसी पदार्थ के रूप आदि का बदल जाना। परिणाम। जैसे,—ककण सोने का विकार है; क्योंकि वह लोने से ही रूपांतरित होकर बना है। ७. उपद्रव। हानि। ८. बीमारी। रोग। व्याधि (को०)। ९. घाव। जख्म। क्षत (को०)। १०. परिवर्तन। रद्दोबदल (को०)। ११. मनोवृत्ति या विचार का बदलना (को०)।
⋙ विकारण
वि० [सं०] विना कारण के। अकारण (को०)।
⋙ विकारित
वि० [सं०] विकृत किया हुआ। विकारयुक्त बनाया हुआ। परिवर्तित।
⋙ विकारी (१)
वि० [सं० विकारिन्] १. जिसमें विकार हो। विकार- युक्त। २. क्रोधादि मनोविकारों से युक्त। दुष्ट वासनावाला। उ०—रे रे अंध बीसहूँ लोचन परतिय हरन। विकारी। सूने भवन गवन तै कीनो शेष रेख नहिं टारौ —सूर (शब्द०)। ३. जिसमें विकार या परिवर्तन हुआ हो। परिवर्तित। उ०— तो हूं क्रोध न कियो विकारि। महादेव हू फिरे विहारि।—सूर (शब्द०)। ४. परिवर्तनशील। ५. प्रेमासक्त। आसक्त (को०)।
⋙ विकारी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर का नाम।
⋙ विकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] अहंकार जो विकार से होता है [को०]।
⋙ विकाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतिकाल। देर। २. ऐसा समय जब देवकार्य या पितृकार्य करने का समय बीत गया हो। ३. सायं- काल का समय। पर्या०—सायं। दिनांत। सायाह्न। विकालक।
⋙ विकाल (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्विकाल, प्रा० वि+काल] दोनों काल—प्रातः सायं। उ०—होम जाप अस्नान विकाला। तजहि न एकौ तिनहुँ क हाला।—चित्रा०,पृ० ११।
⋙ विकालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विकाल' (१)।
⋙ विकालत
संज्ञा स्त्री० [अ० वकालत] दे० 'वकालत'।
⋙ विकालतनामा
संज्ञा पुं० [फा० वकालतनामह] दे० 'वकालतनामा'। उ०—(क) विकालतनामा में लिखूँ कर्मसिंह के नाम। नागरी मेरा नाम है आर्यावर्त है धाम।—नागरी० उर्दू०, पृ० ४। (ख) मिरजा साहब के नाम विकालतनामा इस प्रकार लिखा दिया।—नागरी० उर्दू०, पृ० ५।
⋙ विकालिका
संज्ञा स्त्री० [स०] घड़ियाल का कटोरा। जलघड़ी।
⋙ विकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रंकाश। २. प्रसार। फैलाव। विस्तार। वृद्धि। ३. आकाश। ४. विषम गति या सुस्पष्ट पद्धति। ५. प्रस्फुटन। खिलना। ६. एक काव्यालंकार जिसमें किसी वस्तु का बिना निज का आधार छोड़े अत्यंत विक- सित होना वर्णन किया जाता है। ७. किसी वस्तु की वृद्धि के लिये उसके रूप आदि में उत्तरोत्तर परिवर्तन होना। ८. प्रदर्शन। प्रकटीकरण। दिखलावा (को०)। ९. हर्ष। आनंद (को०)। १०. उत्सुकता। प्रबल उत्कंठा (को०)। ११. एकांत स्थान। एकाकीपन (को०)।
⋙ विकाश (१)
वि० निर्जन। एकांत।
⋙ विकाशक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विकाशिका] प्रदर्शित करनेवाला। व्यक्त करनेवाला। खोलनेवाला [को०]।
⋙ विकाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकटीकरणय़। प्रदर्शन। २. खिलना।
⋙ विकाशना पु
क्रि० स० [सं० विकाश] दे० 'विकासना'। उ० छटपटाहिं वै अर्थ विकाशै। ये पुनि आतम अर्थ प्रकाशैं। (शब्द)।
⋙ विकाशित
वि० [सं०] दे० 'विकासित'।
⋙ विकाशी (१)
संज्ञा पुं० [सं० विकाशिन्] धातुओं को शिथिल करनेवाली औषध। उ०—जो औषध धातुओं को शिथिल कर दे तिसको विकाशी कहते है।—शार्ङ्गधर०, पृ० ४०।
⋙ विकाशी (२)
वि० १. दिखाई देनेवाला। चमकनेवाला। २. फूलनेवाला। खिलनेवाला। ३. खिलानेवाला [को०]।
⋙ विकास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसार। फैलाव। २. खिलना। प्रस्फुटित होना। ३. किसी पदार्थ का उत्पन्न होकर अंत या आरंभ से भिन्न रूप धारण करते हुए उत्तरोत्तर बढ़ना। क्रमशः उन्नत होना। जैसे,—सृष्टि का विकास, मानव सम्यता का विकास, बीज से पेड़ों का विकास, गर्भादि से शरीर का विकास। ४. एक प्रसिद्ध पाश्चात्य सिद्धांत जिसके आचार्य डार्विन नामक प्राणिविज्ञानवेत्ता हैं। विशेष—इस सिद्धांत में यह माना जाता है कि आधुनिक समस्त सृष्टि और उसमें पाए जानेवाले जीवजंतु तथा वृक्ष आदि एक ही मूल तत्व से उत्तरोत्तर निकलते गए हैं। यह सिद्धांत इस बात का विरोधी है कि सारी सृष्टि जैसी है, वैसी ही एक बारगी उत्पन्न हो गई थी। इसे विकासवाद भी कहते हैं।
⋙ विकास (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वि+काश] एक प्रकार की घास जो नीची भूमि में होती है। इसकी पत्तियाँ दूब की भाँति पर कुछ बड़ी होती हैं। चौपाए इसे बड़े चाव से खाते हैं।
⋙ विकासन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विकाशन' [को०]।
⋙ विकासना पु (१)
क्रि० स० [सं० विकास] १. प्रकट करना। निकालना। उ०—जनु अमृत होइ बचन विकासा। कमल जो बास बास धन बासा।—जायसी (शब्द०)। २. विकसित करना। प्रस्फुटित करना। खिलने में प्रवृत्त करना।
⋙ विकासना (२)
क्रि० अ० १. विकसित होना। खिलना। २. प्रकट होना। जाहिर होना।
⋙ विकासमान्
वि० [सं० विकासमत्] उत्तरोत्तर विकसित होनेवाला। उ०—उन्होंने ईश्वर संबंधी मनुष्य की कल्पना को विकासमान् स्वीकार किया है।—आचार्य०, पृ० ७०।
⋙ विकासित
वि० [सं०] १. विकास किया हुआ। खिला हुआ। विस्तारित। उ०—विकासित केसर कुकुम काम।—पृ० रा०, २५। २३३। २. प्रस्फोटित। ३. प्रकाशित। प्रदर्शित।
⋙ विकिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। चिड़िया। २. कूआँ। ३. वह चावल आदि जो पूजा के समय विघ्न आदि दूर करने के लिये चारों ओर फेंका जाता है। अक्षत। ४. पेड़ (को)। ५. बूँद बूँद करके (तटवर्ती वालु आदि से) चूनेवाला जल (को०)। ६. अपमृत्यु (आग में जलकर, पानी में डूबकर आदि) प्राप्त पितरों को दिया जानेवाला पिंड (को०)। ७. छिचराई या बिखेरी हुई वस्तु (को०)।
⋙ विकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. छितराना। इधर उधर बिखेरना। २. हिंसन। मारना। ३. ज्ञान। ४. किरणों का एकत्र करना। ५. अर्क वृक्ष। ६. एक समाधि [को०]।
⋙ विकष्कु
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का बढ़इयों का एक प्रकार का गज जो प्रायः सवा दो हाथ या ४२ इंच का होता था।
⋙ विकीरण
संज्ञा पुं० [सं०] आक। मदार।
⋙ विकीरन पु
संज्ञा पुं० [सं० विकीर्णन] फैलाना। छितराना। उ०—मंद मंद आवै देखो प्रात समीरन करत सुगंध चारो ओर विकीरन।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १,पृ० ६८६।
⋙ विकीर्ण (१)
वि० [सं०] १. चारों ओर फैला या छितराया हुआ। अस्तव्यस्त। बिखरा हुआ। २. विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर। ३. प्रसूत (को०)।
⋙ विकीर्ण (२)
संज्ञा पुं० स्वर के उच्चारण में होनेवाला एक प्रकार का दोष।
⋙ विकीर्णक
वि० [सं०] फैलाने या विखेरनेवाला [को०]।
⋙ विकीर्णकेश, विकीर्णमूर्धज
वि० [सं०] अस्तव्यस्त या खुले विखरे बालवाला। [को०]।
⋙ विकीर्णरोम
संज्ञा पुं० [सं० विकीर्णरोमन्] एक प्रकार का सुगंधित पौधा।
⋙ विकीर्णसंज्ञ
दे० संज्ञा पुं० [सं०] 'विकीर्णरोम'।
⋙ विकुंचन
संज्ञा पुं० [सं० विकुञ्जन] सिकुड़ने या सिमटने की क्रिया। मुड़ने की क्रिया।
⋙ विकुंचित
वि० [सं० विकुञ्चित] सिकुड़ा या सिमटा हुआ। मुड़ा हुआ। मोड़दार [को०]।
⋙ विकुंज
संज्ञा पुं० [सं० विकुञ्ज] महाभारत के अनुसार एक जाति का नाम।
⋙ विकुंठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० विकुण्ठ] १. वैकुंठ। विष्णुलोक। उ०— (क) हरि रस माते मगन रहइ। निरमल भगति प्रेमरस पीवइ आन न पूजा भाव धरइ। सहजइ सदा राम रसराते, मुझि विकुंठइ कहा करइ।—दादू (शब्द०)। (ख) नारायण सुंदर भुज चारी। बसहि विकुठहि सदा सुरारी।—रघुराज (शब्द०)। २.विष्णु का एक नाम (को०)।
⋙ विकुंठ (१)
वि० [सं० विकुण्ठ] १. जो कुंठित न हो। तेज धारवाला। कुंद या भुथरा का उलटा। २. जो धारहीन हो। कुंद या अत्यंत भुथरा (को०)।
⋙ विकुंठा
संज्ञा स्त्री० [सं० विकुण्ठा] १.विष्णु की माता। २. मन को केंद्रस्थ करना (को०)।
⋙ विकुंठित
वि० [सं० विकुण्ठित] १. शक्तिहीन। अशक्त। २. धारहीन। कुंद। भोथरा (को०)।
⋙ विकुंभांड
संज्ञा पुं० [सं० विकुम्भण्ड] पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ विकुक्षि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्या के राजा कुक्षि के पुत्र का नाम।
⋙ विकुक्षि (२)
वि० जिसका पेट फूला या आगे को निकला हुआ हो। तोंदवाला।
⋙ विकुचित
संज्ञा पु० [सं०] युद्ध का एक प्रकार। लड़ने की एक प्रकार की पद्धति [को०]।
⋙ विकुज
वि० [सं०] १. भौम ग्रह से रहित। २. मंगल के व्यति- रिक्त (दिन)। यौ०—विकुजरबींदु=मंगल, सूर्य और चंद्रमा रहित।
⋙ विकुत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विगर्हणा [को०]।
⋙ विकुर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. इच्छानुकुल रूप धारण की शक्ति। कामरूपता (बौद्ध०) [को०]।
⋙ विकुर्वाणा
वि० [सं०] १. प्रसन्न। खुश। २. परिवर्तनशील। ३. आत्मशोधक (को०)।
⋙ विकुर्वित
संज्ञा पुं० [सं०] नाना रूप धारण करना [को०]।
⋙ विकुस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ विकुजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलरव करना। पक्षियों का चहचहाना। २. उदर में वायुविकार से होनेवाली गुड़गुड़ाहट [को०]।
⋙ विकूजित
संज्ञा पुं० [सं०] कूजन। गुंजार। पक्षियों का कलरव [को०]।
⋙ विकूणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. टेढ़ी चितवन। कटाक्ष। २. सँकोचन [को०]।
⋙ विकूणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका। नाक।
⋙ विकृत (१)
वि० [सं०] १. जिसमें किसी प्रकार का विकार आ गया हो। बिगड़ा हुआ। २. जो भद्दा या कुरूप हो गया हो। उ०—पुरुष के शुक्र और स्त्री के आर्तव में कैसा दोष हो जाने से संतान नहीं होती अथवा विकृत संतान होती है।—जगन्नाथ शर्मा (शब्द०)। ३. असाधारण। अस्वाभाविक। अप्राकृतिक। ४. असंस्कृत (को०)। ५. अपूर्ण। अधूरा। अंगहीन। छित्र भिन्न। ६. विद्रोही। अराजक।७. रोगी। बीमार। ८. आवेश- ग्रस्त। भावाविष्ट (को०)। ९. बीभत्स। घृणास्पद (को०)। १०. पराङ् मुख। विरक्त (को०)। ११. विच्छिन्न (को०)। यौ०—विकृतदर्शन=जिसका रूप बदल गया हो या विकारयुक्त हो। विकृतद्दष्टि। विकृतरक्त=लाल रँगा हुआ या लाल धब्बोंवाला। विकृतवदन=भद्दी आकृतिवाला। बदशकल। विकृतवेषी=वस्त्रादि को असंस्कृत रूप से पहननेवाला। विकृतस्वर।
⋙ विकृत स्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्वर जो अपने नियत स्थान से हटकर दूसरी श्रुतियों पर जाकर ठहरता है। विशेष—संगीत शास्त्र में १२ विकृत स्वर माने गए हैं—(१) च्युत षड़ज, (२) अच्युत षडज, (३) विकृत षड़ज, (४) साधारण गांधार, (५) अंतर गांधार, (६) च्युत मध्यम, (७) अच्युत मध्यम, (८) त्रिश्रुति मध्यम, (९) कैशिक पंचम, (१०) विकृत धैवत, (११) कैशिक निषाद और (१२) काकली निषाद।
⋙ विकृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योगिनी का नाम।
⋙ विकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विकार। खराबी। बिगाड़। २. वह रूप जो विकार के उपरांत प्राप्त हो। विगड़ा हुआ रूप। ३. रोग। बीमारी। ४. सांख्य के अनुसार मूल प्रकृति का वह रूप जो उसमें विकार आने पर होता है। विकार। परिणाम। ५. परिवर्तन। ६. मन में होनेवाला क्षोभ। ७. विद्रोही होने का भाव। शत्रुता । ८. मूल धातु से बिगड़कर बना हुआ शब्द का रूप। ९. उन्नति। विकास। १०. माया का एक नाम। ११२३ वर्ण के वृत्तों की संज्ञा। १२. गर्भपात। गर्भच्युति (को०)।
⋙ विकृती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रोग। २. विकार। ३. डिंब। ४. मदिरा (को०)।
⋙ विकृषृ
वि० [सं०] १. खींचा हुआ। आकृष्ट। २. अलग किया हुआ। (को०)। ३. फैलाया हुआ। विस्तृत किया हुआ (को०)। ४. ध्वनित। शब्दायमान (को०)। ५. लुटा हुआ (को०)। यौ०—विकृष्टकाल=चिरकाल।
⋙ विकेट
संज्ञा पुं० [अं०] क्रिकेट के खेल में दोनों पक्षों की ओर आमने सामने गाड़े गए तीन तीन स्टंप या डंडे और उनके ऊपर लगाई जानेवाली दो दो गुल्लियाँ।यौ०—विकेट कीपर=बल्लेबाज के पीछे के स्टंप के पास रहनेवाला प्रतिपक्ष का खिलाड़ी।
⋙ विकेट डोर
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार का छोटा चक्करदार दरवाजा या जाने का रास्ता, जो प्रायः कमर तक ऊँचा और ऊपर से बिलकुल खुला हुआ होता है। विशेष—यह बागों आदि के बड़े दरवाजों के पास ही इसलिये लगाया जाता है कि आदमी तो आ जा सकें, पर पशु आदि न आ सकें। इसके रूप प्रायः इस प्रकार के होते हैं— (१) (/?/); (२) [x]; (३) [/?/]
⋙ विकेतु
वि० [सं०] ध्वजाविहीन। पताका से रहित [को०]।
⋙ विकेश (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विकेशी] १. जिसके बाल खुले या बींडर हों।
⋙ विकेश (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. पुच्छल तारा। ३. एक प्रकार के प्रेत।
⋙ विकेशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षोमबंव [को०]।
⋙ विकेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मही (पृथ्वी) रूप शिव की पत्नी का नाम। २. एक प्रकार की राक्षसी या पूतना। ३. बालों की छोटी छोटी लटों को मिलाकर बनाई गई चोटी। वेणी (को०)। ४. विखरे वालोंवाली स्त्री (को०)। ५. गंजी स्त्री।
⋙ विकोक
संज्ञा पुं० [सं०] वृकासुर के पुत्र और कोक के छोटे भाई का नाम।
⋙ विकोदर पु
संज्ञा पुं० [सं० वृकोदर] दे० 'वृकोदर'। उ०—गोयंद का सुंदर विकोदर सा बाहाँ। समर की मरजाद धरम के राहाँ।—रा० रू०, पृ० १२३।
⋙ विकोश
वि० [सं०] दे० 'विकोष' [को०]।
⋙ विकोष
वि० [सं०] १. कोष या म्यान से निकली हुई (तलवार)। २. जिसके ऊपर किसी प्रकार का आवरण या आच्छादन न हो। बिना छिलके का।
⋙ विकौतुक
संज्ञा पुं० [सं०] उत्सुकता रहित। उदासीन [को०]।
⋙ विक्क
संज्ञा पुं० [सं०] करभ। हस्तिशावक। हाथी का बच्चा [को०]।
⋙ विक्कण पु
संज्ञा पुं० [सं० विक्रयण] दे० 'विक्रय'। उ०—वेवहार मुल्लहिं वणिक विक्कण कीनि आनहिं वव्वरा।—कीर्ति०, पृ० २८।
⋙ विक्केणुअ
वि० [सं० विक्रेय] दे० 'विक्रेय'।—देशी०, पृ० ३००।
⋙ विक्टोरियाँ (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. ब्रिटेन की महारानी जिसके शासन- काल में भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाथ में चला गया था। २. एक प्रकार की घोड़ागाड़ी जो देखने में प्रायः फिटन से मिलती जुलती, पर उससे कुछ छोटी और हलकी होती है और जिसे प्रायः एक एक हो घोड़ा खींचता है।
⋙ विक्टोरिया (२)
संज्ञा पुं० एक छोटे ग्रह का नाम जिसका पता हैंड नामक एक युरोपियन ने सन् १८५० में लगाया था।
⋙ विक्त
वि० [सं०] १. पृथक् किया हुआ। २. खाली। रिक्त [को०]।
⋙ विक्रम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। उ०—कटि तट प्रगट प्रताप महान त्रिविक्रम रक्षै। पृष्ठ देस महँ परम रास वर विक्रम रक्षै।—गोपाल (शब्द०)। २. बल, शौर्य या शक्ति की अधिकता। ताकत का ज्यादा होना। बहादुरी। पराक्रम। उ०—(क) कासी भूपति चलेउ प्रकासी विक्रम रासी।—गोपाल (शब्द०)। (ख) वर भोगी भूषन को धरे पंचानन विक्रम अधिक।—गोपाल (शब्द०)। (ग) विपुल बल मूल सर्दूल विक्रम जलदनाद मर्दन महाबीर भारी।— तुलसी (शब्द०)। ३. ताकत। बल। ४. गति। ५. प्रकार। ढंग। मार्ग। ६. साठ संवत्सरों में से चौदहवाँ संवत्सर। ७. वेदपाठ की वह प्रणाली जिसमें क्रम का अभाव हो। ८. दे० 'विक्रमादित्य'। ९. पादविक्षेप। कदम। डग (को०)। १०. चंडता। तीव्रता उत्कर्ष (को०)। ११. स्थिति (को०)। १२. चरण (को०)। १३. विसर्ग का उष्म में न बदलना (को०)। १४. कुंडली के लग्न चक्र का तीसरा स्थान (को०)। १५. संस्कृत भाषा के एक जैन कवि जिन्होंने मेघदूत के पदों को लेकर नेमिदूत नामक काव्य की रचना की थी।
⋙ विक्रम पु (२)
वि० श्रेष्ठ। उत्तम। उ०—सुवा सुफल लै आएउँ तेहि गुन ते मुख रात। क्या पीत सो तासों सवरौं विक्रम बात।— जायसी (शब्द०)।
⋙ विक्रमक
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक गण का नाम।
⋙ विक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलना। कदम रखना। २. विष्णु का एक डग (को०)। ३. शूरता। वीरता (को०)। ४. (पाशुपत) अलौकिक शक्ति (को०)।
⋙ विक्रमशील
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौद्ध बिहर का नाम [को०]।
⋙ विक्रमस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध मठ। बिहार [को०]।
⋙ विक्रमाजीत
संज्ञा पुं० [सं० विक्रमादित्य] दे० 'विक्रमादित्य'।
⋙ विक्रमादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] उज्जयिनी के एक प्रसिद्ध- प्रतापी राजा का नाम। विशेष—इनके संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। ये बहुत बड़े विद्याप्रेमी, कवि, उदार, गुणग्राहक और दानी कहे जाते हैं, यह भी कहा जाता है कि इनकी सभा में नौ बहुत बड़े बड़े और प्रसिद्ध पंडित रहा करते थे, जो 'नवरत्न' कहलाते थे और जिनके नाम इस प्रकार हैं—कालिदास, बररुचि, अमरसिंह, धनवंतरि, क्षपणक, वेतालभद्द, घटकर्पर, शंकु और वाराहमिहिर। परंतु ऐतिहासिक द्दष्टि से इन नौ विद्धानों का एक ही समय में होना सिद्ध नहीं होता, जिससे 'नवरत्न' को लोग कल्पित ही समझते हैं। आजकल जो विक्रमी संवत् प्रचलित है, उसके संबंध में भी लोगों की यही धारणा है कि इन्हीं राजा विक्रमा- दित्य का चलाया हुआ है, पर इस बाक का भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक नहीं मिला है कि विक्रमी संवत् के आरंभ होने के समय मालव देश में या उसके आसपास विक्रमादित्य नाम का कोई राजा रहता था। विक्रमी सवत् किस राजा विक्रमा- दित्य का चलाया हुआ है, इसका अभी तक कीई ठीक ठीक पता नहीं चला है। कुछ विद्वानो का मत है कि विक्रम संवत् का विक्रमादित्य नाम के किसी राजा के साथ कोई संबध नहीं है और न वह किसी एक व्यक्ति का चलाया हुआ है। उनका मत है किईसवी सन् से ५८ वर्ष पूर्व शक नहपाण को गौतमीपुत्र ने युद्ध में बुरी तरह परास्त करके उसे मार डाला था। इस युद्ध में उसने अपना जो विक्रम (वीरता) दिखलाया था, उसी की स्मृति के रूप में मालवों के गण ने उसी तिथि मे 'कृत युग का आरंभ माना' और इस प्रकार इस विक्रम संवत् का प्रचार हुआ। तात्पर्य यह है कि संवत् वाला 'विक्रम' शब्द किसी विक्रमादित्य नामक संवत् चलानेवाले राजा का सूचक नहीं है, बल्कि वह पीछे के किसी राजा के विक्रम या वीरता का बोधक है। स्कंद- पुराण में लिखा है कि कलियुग के तीन हजार वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नाम का एक बहुत प्रतापी राजा हुआ था। मोटे हिसाब से यह समय ईसवी सन् से प्रायः सौ वर्ष पूर्व पड़ता है; पर यह राजा कौन था, इसका निश्चय नहीं होता। यह भी प्रसिद्ध है कि इस राजा ने शकों को एक घोर युद्ध में पराजित किया था और उसी विजय के उपलक्ष में अपना संवत् भी चलाया था। शकों को पराजित करने के कारण ही इसकी एक उपाधि 'शकारि' भी हो गई थी। बौद्धों और जैनियों के धर्मग्रंथों तथा चीनी और अरबी आदि यात्रियों के यात्राविवरणों में भी विक्रमादित्य के संबंध में कुछ फुटकर बातें पाई जाती है। पर न तो यही ज्ञात है कि इन्होंने कब से कब तक राज्य किया और न इनके जीवन की और बातों का ही कोई क्रपबद्ध इतिहास मिला है। इतिहास से यह भी पता चलता है कि गुप्तवंशीय प्रथम चंद्रगुप्त ने उत्तर भारत में शकों को परास्त करके 'विक्रमादित्य' के उपाधि धारण की थी, परंतु ये सवत् चलानेवाले विक्रमादित्य के बहुत वाद के हैं। इसके अतिरिक्त इसी गुप्तवंश के समुद्रगुप्त के पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त ने भी 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। ईसवी सातवीं शताब्दी के आरंभ में काश्मीर में भी विक्रमादित्य नाम का एक राजा हुआ था जिसके पिता का नाम रणादित्य था। इसी प्रकार चालुक्य वंश में भी इस नाम के कई राजा हो गए हैं। पीछे से तो मानो यह प्रथा सी चल पड़ी थी कि जहाँ कोई राजा कुछ अधिक बढ़ निकलता था, वहाँ वह अपने नाम के साथ 'विक्रमादित्य' की उपाधि लगा लिया करता था। यहाँ तक कि अकबर की बाल्यावस्था में जब हेमूँ ढूसर ने दिल्ली पर अधिकार किया, तब वहु भी विक्रमादित्य बन बैठा था। उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य का पता अब चल गया है। वह मालव गणतंत्र का प्रधान था। ऊपर के अनुच्छेद में इसे ही गौतमीपुत्र के नाम से पुकारा गया है। वह इतना पराक्रमी निकला था कि बाद के प्रभावशाली नरेशों ने भी अपने नाम के आगे उसका नाम जोड़ने में गौरव का अनुभव किया। ई० सन् से ५७ वर्ष पूर्व उसने भयंकर युद्ध करके शकों को परास्त करके भारत से बाहर निकाल दिया था। इस विषय में तथ्य के निर्णय में कतिपय शिलालेख और उज्जयिनो में खुदाई मे निकले मंदिर आदि अत्यंत सहायक सिद्ध हुए हैं।
⋙ विक्रमाब्द
स्त्री० पुं० [सं०] विक्रमादित्य के नाम से चला हुआ संवत्। विक्रम संवत्।
⋙ विक्रमार्क
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विक्रमादित्य'।
⋙ विक्रमित
संज्ञा पुं० [सं०] शौर्य। वीर्य। पौरुष [को०]।
⋙ विक्रमी (१)
संज्ञा पुं० [सं० विक्रमिन्] १. वह जिसमें बहुत अधिक बल हो। विक्रमवाला। पराक्रमी। उ०—अति विक्रमी मोरध्वज- नंदन। नाम ताम्रध्वज दुष्ट निकंदन।—रघुराथ (शब्द०)। २. विष्णु। ३. शेर।
⋙ विक्रमी (२)
वि० विक्रम का। विक्रम संबंधी। जैसे,—विक्रमी संवत्।
⋙ विक्रमीय
वि० [सं०] विक्रमादित्य संबंधी।
⋙ विक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मूल्य लेकर कोई पदार्थ देना। बेचना। बिक्री। उ० इस दलील के आधार पर क्रय विक्रय के मामूली व्यापार में दस्तंदाजी करना—अर्थात् किसी चीज के बेचने या मोल लेने की मनाई कर देना—और भी अनुचित बात होगी।—स्वाधीनता (शब्द०)। यौ०—क्रय विक्रय।
⋙ विक्रयक
संज्ञा पुं० [सं०] बेचनेवाला। विक्रेता।
⋙ विक्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] बेचने की क्रिया। विक्रय। बिक्री।
⋙ विक्रयपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पत्र जिसमें यह लिखा हो कि अमुक पदार्थ अमुक व्यक्ति के नाम इतने मूल्य पर बेचा गया। बैनामा। २. सामानों की खरीद की रसीद। नगदी खरेद की रसीद। कैशमेमो।
⋙ विक्रय प्रतिक्रोष्टा
संज्ञा पुं० [सं० विक्रय प्रतिकोष्ट] बोली बोलकर बेचनेवाला। नीलाम करनेवाला।
⋙ विक्रयिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विक्रय करता या बेचता हो। बेचनेवाला। विक्रेता।
⋙ विक्रयी
संज्ञा पुं० [सं० विक्रयिन्] विक्रय करनेवाला। बेचनेवाला। विक्रेता।
⋙ विक्रय्य
वि० [सं०] बेचने योग्य। जो बेचा जानेवाला हो [को०]।
⋙ विक्रस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ विक्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० विक्रान्त] १. वैक्रांत मणि। २. शूर। वीर। बहादुर। ३. शेर। सिंह। ४. पुराणानुसार हिरण्याक्ष के एक पुत्र का नाम। ५. व्याकरण में एक प्रकार की संधि जिसमें विसर्ग अविकृत ही रहता है। ६. एक प्रजापति का नाम। ७. पुराणानुसार कुवलयाश्व के पुत्र का नाम जिसका जन्म मदालसा के गर्भ से हुआ था। ८. चलने का ढंग। ९. साहस। हिम्मत। १०. एक प्रकार का मादक पेय पदार्थ।
⋙ विक्रांत (२)
वि० १. जिसकी क्रांति नष्ट हो गई हो। २. तेजस्वी। प्रतापी। यौ०—विक्रांतगति = सिंह के समान गति या चालवाला। सुंदर गतिवाला। विकांतयोधी = पराक्रमी वा उच्चकोटि का योद्धा।
⋙ विक्रांता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्रांता] १. अग्निमंथ वृक्ष। अरणी। २. जयंती। ३. मूसाकानी। ४. अडहुल। गुड़हर। ५. अपराजिता। ६. लाल लजालू। छुई मुई। ७. हंसपदी नाम की लता।
⋙ विक्रांता (२)
संज्ञा पुं० [सं० विक्रान्तृ] १. शूरवीर। वीर। योद्धा। २. शेर। सिंह। ३. विजेता [को०]।
⋙ विक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्रान्ति] १. गति। २. घोड़े की सरपट चाल। ३. विक्रम। बल। ४. वीरता। शूरता। बहादुरी।
⋙ विक्रायक
संज्ञा पुं० [सं०] बेचनेवाला। विक्रेता।
⋙ विक्रायिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विकयिक' [को०]।
⋙ विक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विकार। खराबी। २. किसी क्रिया के विरुद्ध होनेवाली क्रिया। ३. परिवर्तन (को०)। ४. उत्तेजना। उद्धेग (को०)। ५. क्रोध। ६. प्रतिकूलता (को०)। ७. भौंहों का संकोचन (को०)। ८. रोमांच (को०)। ९. रोगग्रस्तता। बीमारी (को०)। १०. उल्लंघन। कर्तव्य का पालन न होना (को०)। ११. चावल पकाना (को०)। १२. क्षति। हानि। १३. बुझाना। निर्वाण (दीपक का)।
⋙ विक्रियोपमा
संज्ञा [सं०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें किसी विशिष्ट क्रिया या उपाय का अवलंबन कहा जाता है।
⋙ विक्री
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्रय] १. बेचने की क्रिया या भाव। विक्रय। बिक्री। २. वह धन जो बेचने पर मिले।
⋙ विक्रीड
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेल का मैदान। २. खेलने की वस्तु। खिलौना [को०]।
⋙ विक्रीत (१)
वि० [सं०] जो बेच दिया गया हो। बेचा हुआ।
⋙ विक्रीत (२)
संज्ञा पुं० बिक्री। विक्रयण [को०]।
⋙ विक्रुष्ट (१)
वि० [सं०] १. निष्ठुर। निर्दय। निठुर। २. कोसा हुआ। गर्हित। निंदित।—विरुद्ध (को०)। ३. उत्क्रोशित। उद्धोषित (को०)।
⋙ विक्रुष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. गाली। अपशब्द। २. सहायता प्राप्त करने के लिये चिल्लाना। दुहाई देना। गुहार [को०]।
⋙ विक्रेतव्य
वि० [सं०] विक्रय के योग्य। बेचने लायक [को०]।
⋙ विक्रेता
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मूल्य लेकर देता हो। बेचनेवाला। बिक्री करनेवाला।
⋙ विक्रेय, विक्रोय्य
वि० [सं०] जो विक्रय होने को हो। बिकनेवाला। जो बिकने योग्य हो।
⋙ विक्रोध
वि० [सं०] शांत। क्रोधहीन [को०]।
⋙ विक्रोश, विक्रोशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुहार। दुहाई। २. गाली। अपशब्द [को०]।
⋙ विक्रोष्टा
संज्ञा पुं० [सं० विक्रोष्ट] १. वह जो सहायतार्थ गुहार करता हो। २. अपशब्दों का प्रयोग करनेवाला [को०]।
⋙ विक्लव (१)
वि० [सं०] १. विह्लल। बेचैन। २. भयभीत। चौंका हुआ। त्रस्त (को०)। ३. डरपोक। कायर (को०)। ४. अभिभूत। ग्रस्त। परास्त (को०)। ५. दुःखी। कष्टग्रस्त। सतप्त (को०)। ६. ऊबा हुआ (को०)। ७. हकलाने या लड़खड़ानेवाला (को०)।
⋙ लिक्लव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विह्वलता। व्याकुलता। बैचैनी। २. खौफ। डर। भय [को०]।
⋙ विक्लवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भीरुता। कायरता [को०]।
⋙ विक्लवित
संज्ञा पुं० [सं०] भय से भरी बात। भयभीत बचन।
⋙ विक्लांत
वि० [सं० बिक्लांत] १. थका हुआ। श्रांत। पस्त हिभ्मत। २. हतोत्साह [को०]।
⋙ विक्लित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्द्रता। क्लिन्नता। गीलापन [को०]।
⋙ विक्लिध
वि० [सं०] पसीने से तर। प्रस्वेद से भींगा हुआ। [को०]।
⋙ विविलन्न
वि० [सं०] १. जो पुराना होने के कारण सड़ या गल गया हो। जीर्ण शीर्ण। २. अत्यंत गीला। पूरी तरह भीगा हुआ (को०)। ३. मुर्झाया हुआ। म्लान। शुष्क (को०)।
⋙ विक्लिष्ट (१)
वि० [सं०] १. अत्यंत कष्टग्रस्त। दुःखी। २. क्षतिग्रस्त। नष्ट किया हुआ [को०]।
⋙ विक्लिष्ट (२)
संज्ञा पुं० उच्चारण दोष [को०]।
⋙ विक्लेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. आर्द्रता। गीलापन। २. भली भाँति तर या गीला होना। ३. बिगलन द्रवीकरण [को०]।
⋙ विक्लेदन
संज्ञा पुं० [सं०] मुलायम या आर्द्र करने की क्रिया [को०]।
⋙ विक्लेश
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्य वर्णों का अशुद्ध उच्चारण [को०]।
⋙ विक्षत (१)
वि० [सं०] १. जिसमें क्षत लगा हो। जिसमें खराश पड़ी हो। घायल। जख्मी। २. पीटा हुआ (को०)। ३. प्रभावित। अभिभूत (को०)।
⋙ विक्षत (२)
संज्ञा पुं० घाव। जख्म [को०]।
⋙ विक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जो अधिक मद्यपान करने से होता है।
⋙ विक्षर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. कृष्ण। ३. एक राक्षस [को०]।
⋙ विक्षर (२)
वि० प्रवहमान। बहता हुआ [को०]।
⋙ विक्षरण
संज्ञा पुं० [सं०] बहना [को०]।
⋙ विक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्यशाली दैवी घटना।
⋙ विक्षाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाँसी। कास। २. शब्द। ध्वनि [को०]।
⋙ विक्षित
वि० [सं०] १. नीचे गिरा हुआ। २. हीन। दुःखी [को०]।
⋙ विक्षिप्त (१)
वि० [सं०] १. फेंका या छितराया हुआ। २. जिसका त्याग किया गया हो। त्यक्त। ३. जिसका दिमाग ठिकाने न हो। पागल। उ०—(क) उसकी नींद भी उड़ जाती होगी और जो रात दिन जागता होगा, तो विक्षिप्त या अतिरोगी होगा।—दयानंद (शब्द०)। (ख) तुमहिं कह्मो श्रुति शास्त्रन माहीं। जहँ विक्षिप्त भूप ह्वै जाहीं।—रघुराज (शब्द०)। ४. घबराया हुआ। पागलों का सा। विकल। व्याकुल। ५. भेजा हुआ। प्रेषित (को०)। ६. जिसका खंडन किया गया हो। निराकृत (को०)। ७. कंपित। विक्षुब्ध। जैसे, विक्षिप्त भ्रू विलास (को०)।
⋙ विक्षिप्त (२)
संज्ञा पुं० योग में चित्त की वृत्तियों या अवस्थाओं में से एक जिसमें चित्त प्रायः अस्थिर रहता है, पर बीच बीच में कुछ स्थिर भी हो जाता है। कहा गया है कि ऐसी अवस्था योग की साधना के लिये अनुकूल या उपयुक्त नहीं होती। विशेष—दे० 'चित्तभूमि' और 'योग'।
⋙ विक्षिप्तक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मृत शरीर जो जलाया या गाड़ा न गया हो, बल्कि यों ही कहीं फेंक दिया गया हो। (बौद्ध)।
⋙ विक्षिप्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विक्षिप्त या पागल होने का भाव। पागलपन। उ०—यहाँ तक कि कुछ काल के पश्चात् स्वयँ उसे ही अपनी विक्षिप्तता को देखकर विस्मित होना पड़ता है।—निबंधमालादर्श (शब्द०)।
⋙ विक्षीणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवमंडली। २. शिव के अनुचरों का प्रधान। ३. वह स्थान जहाँ से आमिषाहारी हटा दिए गए हों। ४. विध्वंस या नष्ट करनेवाला व्यक्ति। विनाशक [को०]।
⋙ विक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] आक। मदार।
⋙ विक्षीरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुद्धी। दुग्धिका।
⋙ विक्षुण्ण
वि० [सं०] १. प्रोत्साहित। प्रेरित। २. चूर्णित। मर्दित। ३. पददलित [को०]।
⋙ विक्षुद्र
वि० [सं०] जो अपेक्षाकृत छोटा हो [को०]।
⋙ विक्षुब्ध
वि० [सं०] जिसके मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ हो। जिसका मन चंचल हो। क्षुब्ध।
⋙ विक्षुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाया का एक नाम।
⋙ विक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर की ओर अथवा इधर उधर फेंकना। डालना। २. इधर उधर हिलाना। झटका देना। ३. (धनुष की डोरी) खींचना। चिल्ला चढ़ाना। ४. मन को इधर उधर भटकाना। इंद्रियों को वश में न रखना। संयम का उलटा। उ०—ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेप आदि दोषों से अलग हो के सत्य आदि गुणों को धारण करे।—दयानंद (शब्द०)। ५. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जो फेंककर चलाया जाता था। ६. सेना का पड़ाव। छावनी। ७. एक प्रकार का रोग। ८. बाधा। विघ्न। खलल। जैसे,— इस काम में कई विक्षेप पड़े हैं। उ०—समाधि की प्राप्ति होने पर भी उसमें चित्त स्थिर न होना ये सब चित्त की समाधि होने में विक्षेप अर्थात् उपासनायोग के शत्रु हैं।—दयानंद (शब्द०)। ९. भेजना। प्रेषण (को०)। १०. खटका। भय (को०)। ११. तर्क का निराकरण (को०)। १२. ध्रुवीय अक्षरेखा (को०)। १३. व्यर्थ गवाँना (को०)। १४. अनव- धानता (को०)।
⋙ विक्षेपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊरक अथवा इधर उधर फेंकने की क्रिया। २. हिलाने या झटका देने की क्रिया। ३. धनुष की डोरी खींचने की क्रिया। ४. विघ्न। वाधा। खलल। ५. प्रेषण। भेजना (को०)। ६. व्यमोह। व्यग्रता। चित्तविक्षेप (को०)।
⋙ विक्षेपलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक प्रकार की प्राचीन लिपि या लेख प्रणाली।
⋙ विक्षेपशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेदांतदर्शन के अनुसार माया की शक्ति। अविद्या [को०]।
⋙ विक्षेपावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्षेप + अवस्था] असंयम की दशा। अस्थिरता की स्थिति। उ०—जहाँ उसकी यह विक्षेपावस्था विरोधावस्था में बदली कि उसका आवरण डालना बंद हो जाता है।—साहित्य०, पृ० २३६।
⋙ विक्षेप्ता
वि० [सं० विक्षेप्तृ] विक्षेप करनेवाला। फेंकनेवाला। तितर बितर करनेवाला [को०]।
⋙ विक्षोभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन की चंचलता या उद्विग्नता। क्षोभ। २. हाथी की छाती का एक भाग या पार्श्व। ३. हलचल। कंपन। जैसे, वीचिविक्षोभ (को०)। ४. द्वंद्व। संघर्ष (को०)। ५. विदीर्णन। विदारण (को०)। ६. आतंक। भय। खौफ (को०)।
⋙ विक्षोभण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराण नुसार एक दानव का नाम। २. मन में बहुत अधिक क्षोभ उत्पन्न होना या करना। ३. कंपित करना। हिलाना (को०)।
⋙ विक्षोभित
वि० [सं०] क्षुब्ध किया हुआ। हिलाया हुआ [को०]।
⋙ विक्षोभी
वि० [सं० विक्षोभिन्] [वि० स्त्री० विक्षोभिणी] जो क्षोभ उत्पन्न करे। क्षोभकारी। विक्षुब्ध करनेवाला।
⋙ विखंडित
वि० [सं० विखण्डित] १. तोड़ा हुआ। टुकड़ों में विभक्त। विघटित। २. दो भागों में किया हुआ। दो टुकड़ों में विभक्त। ३. अंगभंग किया हुआ। ४. जिसका खंडन या निराकरण किया गया हो (न्याय)। ५. क्षुब्ध। अशांत। हीन (को०)।
⋙ विखंडी
वि० [सं० विखण्डिन्] विखंडित या विभिन्न करनेवाला। नष्ट करनेवाला [को०]।
⋙ विख (१)
वि० [सं०] जिसकी नाक न हो। बिना नाकवाला।
⋙ विख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० विष, प्रा० विख्] दे० 'विष'।
⋙ विखइ, विखउ पु
संज्ञा पुं० [सं० विषम या विषय] विपत्ति। सकट। दुर्दिन। उ०—(क) आज विखइ द्याँ दीकरी, हाँसउ हसिसि लोइ।—ढोला०, दू० ७। (ख) परदेसे घाँघल घणा विखउ न जाणइ मुध्ध।—ढोला०, दू० १७।
⋙ विखनन
संज्ञा पुं० [सं०] खोदना। खोदने का काम। खोदाई [को०]।
⋙ विखना
संज्ञा पुं० [सं० विखनस्] १. प्रजापति। ब्रह्मा। २. एक मुनि का नाम [को०]।
⋙ विखम पु
वि० [सं० विषम] दे० 'विषम'। उ०—लै षहुँचायो कीस दस, जहँ गिरि विखम उजारि। घीरी चार निसि बीत पुनि, भयो नषत उजियार।—चित्रा०, पृ० २७।
⋙ विखहा
संज्ञा पुं० [सं० विषहा] विषैले सर्पों के शत्रु, गरुड़।
⋙ विखाद पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० विषाद] दे० 'विषाद'। उ०—अवतार अंस अगजीत ग्रह वंस विखाद पलट्टिया।—रा० रू०, पृ० ३७७।
⋙ विखाद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नष्ट करना। ध्वस्त करना। ध्वंसन। २. खादन। निगलना। भक्षण। खाना [को०]।
⋙ विखादितक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मृत शरीर जिसे पशुओं ने खा डाला हो। (बौद्ध)।
⋙ विखान पु
संज्ञा पुं० [सं० विषाण] सींग।
⋙ विखानस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बैखानस'।
⋙ विखाना पु †
क्रि० स० [सं० वीक्षण, प्रा० विक्खण ?] दिखाना। उ०—सौहँणि सूरती नू अख्याँ तपदाँ आनँदघन मुख आणि विखावै।—घनानंद०, पृ० ३६९।
⋙ विखायँध
संज्ञा स्त्री० [हिं० विख (= जहर) + आयँध (गंध) (प्रत्य०)] कड़वी या जहर की सी गंध। बिखायँध। उ०—जो अन्हवाय भरै अरगजा। तौहु विखाँयध ओहि नहिं तजा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विखासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिह्वा रसना [को०]।
⋙ विखु
वि० [सं०] नासाहीन। विख [को०]।
⋙ विखुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। २. चोर।
⋙ विखेद
वि० [सं०] खेदरहित। आलम्यहीन। चुस्त [को०]।
⋙ विखै (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विषय] विपत्ति काल। उ०—(क) विखै के तुम नायक और सब के मुदायत, सो जंग की ढील मैं वरम जैसी सायत।—रा० रू०, पृ० ११७। (ख) उरषण भीम हठौ मत ऊजल। एताँ आद विखै ची आगल। —रा० रू०, पृ० ३११।
⋙ विख्य
वि० [सं०] नासाहीन [को०]।
⋙ विख्यात
वि० [सं०] १. जिसे सब लोग जानते हों। प्रसिद्ध। मशहूर। उ०—(क) यक्ष प्रबल बाढ़े भुव मँडल तिन मारयो निज भ्रात। तिनके काज अंशहरि प्रगटे ध्रूव जगत विख्यात।—सूर (शब्द०)। (ख) मन तें बढ़ि रथ जात केतु फहरात बात बस। लखि लजात सुरतात बहुत विख्यात जगत जस।—गोपाल (शब्द०)। २. नामवाला। नामवर। नामधारी (को०)। ३. मान्य। स्वीकृत। माना हुआ (को०)।
⋙ विख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विख्यात होने का भाव। प्रसिद्धि। शोहरत। उ०—राम नाम सुमिरत सुजस भाजन भएउ कुजाति। कु तरु कु सरु पुर राज बन लहत भुवन विख्याति।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ विख्यापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसिद्ध करना। मशहूर करना। २. व्याख्यान, व्याख्या या विवेचन करना (को०)। ३. स्वीकरण। स्वीकार करना (को०)।
⋙ विख्र०, विख्रु
वि० [सं०] नासाहीन। नासिकारहित [को०]।
⋙ विगंडीर
संज्ञा पुं० [सं० विगण्डरी] एक तरह का फूल। अम्लान पुष्प [को०]।
⋙ विगंध
वि० [सं० विगन्ध] १. जिसमें किसी प्रकार की गंध न हो। २. बदबूदार। उ०—कंटक कलित त्रिन बलित विगंध जल तिनके तलपत लता को ललचात जू।—केशव (शब्द०)।
⋙ विगंधक
संज्ञा पुं० [सं० विगन्धक] इंगुदी वृक्ष।
⋙ विगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विगन्धिका] १. हपुषा। हाउबेर। २. अजगंधा। तिलवन।
⋙ विगणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिसाब लगाना। लेखा करना। २. विचारना। विचार विनिमय करना (को०)। ३. ऋण से मुक्त होना। कर्ज चुकाना।
⋙ विगणित
वि० [सं०] १. विचारित। २. चुकता किया हुआ। अदा किया हुआ (कर्ज)। ३. जिसका विगणन किया गया हो [को०]।
⋙ विगत (१)
वि० [सं०] १. जो गत हो गया हो। जो बीत चुका हो। विशेष—जब यह शब्द यौगिक अवस्था में किसी सज्ञा के पहले आता है तब इसका अर्थ होता है—'जिसका नष्ट हो गाया हो'। जैसे,—विगतज्वर = जिसका ज्वर उतर गया हो। विगत- नयन = जिसकी आँखें नष्ट हो गई हों। विगतत्रास = जिसका भय दूर हो गया हो। उ०—विगतत्रास प्रमुदित मन माहीं। निरखि राम छबि दृग न अघाहीं।—रामाश्वमेध (शब्द०)। २. गत से पहले का। अंतिम या बीते हुए से पहले का। जैसे,— विगत सप्ताह = गत सप्ताह से पहले का सप्ताह। ३. जो कहीं इधर उधर चला गया हो। ४. जिसकी प्रभा या कांति नष्ट हो गई हो। जिसकी चमक आदि जाती रही हो। निष्प्रभ। ५. रहित। विहीन। उ०—(क) विगत मान सम सीतल मन पर गुन नहिं दोस कहौंगो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) प्रमुदित जनक निरखि अंबुज मुख विगत नयन मन पीर।—सूर (शब्द०)। ६. मृत (को०)। ७. खोया हुआ। लुप्त (को०)। ८. अंधकारा च्छन्न। अस्पष्ट। धुँधला (को०)। यौ०—विगतकल्मष = निष्पाप। पवित्र। विगतक्लम = अक्लांत क्लांतिरहित। विगतज्ञान = नष्टज्ञान। विनष्टबुद्धि। विगत- नयन = नेत्रहीन। अंधा। विगतभी = निर्भय। निडर। विगत- राग = विगतस्पृहा। विगतलक्षण = अभागा। विगतश्रीक = कांतिहीन। अभागा। विगतस्पृहा = आकांक्षाहीन उदासीन।
⋙ विगत (२)
संज्ञा पुं० पक्षियों का उड़ना [को०]।
⋙ विगत (३)
संज्ञा पुं०० [सं० विगत (= व्यतीत)] १. बीता हुआ। व्यतीत। २. असलीयत। ब्यौरा। हालचल। उ०—सब भाँत विगत विवाह सुणतां अंग प्रफुलत आंण।—रघु० रू०, पृ० ८१।
⋙ विगतवार
कि० वि० [हिं० विगत + वार]दे० ब्योरेवार'। उ०—या समैं आजानबाह जेते सरदार। कवि जेते जानै सो बखानै विगतवार।—रा० रू०, पृ० ११८।
⋙ विगता
वि० स्त्री० [सं०] १. जो विवाह करने के योग्य न रह गई हो। २. जो परपुरुष से प्रेम करती हो।
⋙ विगतार्तवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह औरत जिसका ऋतुस्राव बंद हो गया हो [को०]।
⋙ विगतासु
वि० [सं०] मृत। निष्प्राण [को०]।
⋙ विगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्दशा। दुर्गति। खराबी।
⋙ विगतोवद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ विगत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० बिगति (= व्यतीत)] ब्यौरा। विवरण। उ०—उल्लसै वेल परसै अरस, ग्यान न लोक विगत्तरौ।—रा० रू०, पृ० १५३।
⋙ विगद (१)
वि० [सं०] गद रहित। नीरोग। स्वस्थ [को०]।
⋙ विगद (२)
संज्ञा पुं० एक साथ अनेक प्रकार के शब्द होना [को०]।
⋙ विगदित
वि० [सं०] १. चतुर्दिक् फैला हुआ (जनरव)। २. कहा हुआ। बातचीत किया हुआ। वर्णित [को०]।
⋙ विगम
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रस्थान। अनुपस्थिति। चला जाना। प्रयाण। २. समाप्ति। अंत। खातमा। ३. नाश। हानि। ४. मोक्ष। ५. परित्याग (को०)। ६. मृत्यु (को०)। ७. पार्थक्य। अलगाव (को०)।
⋙ विगर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन का त्याग करनेवाला व्यक्ति। २. नग्न यति। नागा। नंगा यति। ३. पर्वत। पहाड़ [को०]।
⋙ विगर्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भर्त्सना करना। डाँटना। डपटना। धिक्कार। फटकार।
⋙ विगर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र की लहरों की गर्जनध्वनि [को०]।
⋙ विगर्हणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भर्त्सना। डाँट। फटकार।
⋙ विगर्हणीय
वि० [सं०] बुरा। दुष्ट। निंद्य [को०]।
⋙ विगर्हा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुत्सा। भर्त्सना। निंदा [को०]।
⋙ विगर्हित (१)
वि० [सं०] १. जिसे भर्त्सना की गई हो। जिसे डाँट या फटकार बतलाई गई हो। तिरस्कृत। २. बुरा। खराब। निंदनीय। ३. निषिद्ध। ४. नीच। दुष्ट (को०)।
⋙ विगर्हित (२)
संज्ञा पुं० निंदा [को०]।
⋙ विगर्ही
वि० [सं० विगर्हिन्] निंदक [को०]।
⋙ विगर्ह्म
वि० [सं०] जो भर्त्सना करने योग्य हो। डाँटने डपटने या निंदा करने के योग्य।
⋙ विगलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरना। श्लथ होना। शैथिल्य। २. नाश। ३. एकरूप होना। घुलना। ४. रिसना। वह जाना। ५. गल जाना [को०]।
⋙ विगलित
वि० [सं०] १. जो गिर गया हो। अधःपतित। २. जो बह गया हो। जो चूकर या टपककर निकल गया हो। ३. ढीला पड़ा हुआ। छुटा हुआ। शिथिल। ४. बिगड़ा हुआ। उ०— ऋतुपति तरु विगलित सुदल, तहँ कुरूपता बास। बासी अरुचि यक अघन में, पाप न बस्यो विनास—रामस्वयंवर (शब्द०)। ५. अंतर्हित। गया हुआ। लुप्त (को०)। ६. तितर बितर। अस्तव्यस्त (को०)। ७. विदीर्ण। यौ०—विगलितकेश = विखरे बालोंवाला। विगलितनीवी = जिसकी नीवी खुल गई हो। विगलितबंध = बंधनमुक्त। विग- लितलज्ज = धृष्ट। ढीठ। निर्लज्ज। विगलितवसन, विगलित- वस्त्र = विवस्त्र। नग्न। नंगा। विगलितशुच्, विगलितशोक = दुःखरहित। कष्टरहित। वेदनामुक्त।
⋙ विगसना पु
क्रि० अ० [सं० विकसन] विकसित होना। खिलना। उ०—हीरा मन निज दास है, सब दासन को दास। सतगुरु से परिचय भई, विगसा प्रेम प्रकाश।—सं० दरिया, पृ० ४५।
⋙ विगाढ़
वि० [सं० विगाढ़] १. अतिशय। आगे बढ़ा हुआ। ३. धंसा हुआ (शस्त्र)। ४. स्नात। अवगाहित। ५. प्रगाढ़। ६. गहरा घुसा हुआ। डूबा हुआ। निमज्जित [को०]।
⋙ विगाथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्या छंद का एक भेद जिसके विषम (प्रथम और तृतीय) पदों में १२, दूसरे में १५ और चौथे में में १८ मात्राएँ होतो हैं और अंत का वर्ण गुरु होता है। विषम गणों (पदों) में जगण नहीं होता, पहले दल का छठा गण (२७ ही मात्रा के कारण) एक लघु का मान लिया जाता है। इसे 'विग्गाहा' और 'उद्गीति' भी कहते हैं।
⋙ विगान
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंदा। भर्त्सना। मानहानि। अपमान। २. परस्पर विरोधी युक्ति। असंगति [को०]।
⋙ विगाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. डुबकी लगाना। २. प्रवेश। ३. स्नान करना [को०]।
⋙ विगाहना पु
क्रि० अ० [सं० विगाहन] अवगाहन करना। अवगाहना।
⋙ विगाहमान
वि० [सं०] विलोडन या अवगाहन करनेवाला [को०]।
⋙ विगाहा
संज्ञा स्त्री० [सं० विगाथा] दे० 'विगाथा'।
⋙ विगीत
वि० [सं०] १. निंदित। बुरा। कुत्सित। २. परस्पर विरोधी। असंगत। ३. बुरे ढंग से गाया हुआ।
⋙ विगीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निंदा। झि़ड़की। २. परस्पर विरोधी उक्ति। ३. आर्याछंद का एक भेद [को०]।
⋙ विगुण (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कोई गुण न हो। गुणरहित। निर्गुण। विशेष दे० 'निर्गुण'। उ०—द्दशि रूप मनं तमजं विगुणं। हृदयस्थ लखौ सब त्यागि भ्रमं।—स्वामी रामकृष्ण (शब्द०)। २. बुरा। निकम्मा (को०)। ३. बिना रस्सी का (को०)। ४. सूक्ष्म (को०)। ५. अव्यवस्थित। अस्तव्यस्त (को०)। ६. असफल (को०)। ७. अपर्याप्त। थोडा़। अधूरा (को०)। ८. बिकृत। उलटा। विपरीत। उ०—मन का अट- रोध होने से वायु विगुण (उलटा) होकर अफरा वात, शूल और मूत्र इनका नाश करे तब मूत्रकृच्छ्र प्रगट होय।—माधव० पृ० १७१।
⋙ विगुल्फ
वि० [सं०] प्रचुर। अधिक [को०]।
⋙ विगूढ़
वि० [सं० विगूढ] १. गुप्त। छिपा हुआ। २. निंदित [को०]।
⋙ विगृहीत
वि० [सं०] १. विभक्त। भग्न किया हुआ। २. पकड़ा हुआ। अभिभूत। ३. मुकाबला किया हुआ। विरोध किया हुआ। ४. प्रतिवद्ध। निरुद्ध [को०]।
⋙ विगृह्मगमन
संज्ञा पुं० [सं०] कामंदक नीति के अनुसार चारों ओर से मित्रों तथा शत्रुओं से घिरकर पानी में से भागना।
⋙ विगृह्मयान
संज्ञा पुं० [सं०] चढ़ाई। हमला [को०]।
⋙ विगृह्यवाद
संज्ञा पुं० [सं०] कहासुनी [को०]।
⋙ विगृह्यास
संज्ञा पुं० [सं०] कामंदक नीति के अनुसार शत्रु की शक्ति आदि की कुछ भी परवाह न करके की जानेवाली अंधाधुंध चढ़ाई।
⋙ विगृह्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुश्मन को छेड़कर या उसकी जमीन आदि छीनकर चुपचाप बैठना। २. शत्रुस्थित दुर्ग को जीतने में असमर्थ होकर घेरा डालकर बैठना।
⋙ विग्गाहा
संज्ञा स्त्री० [सं० विगाथा] विगाथा नामक छंद जो आर्या का एक भेद है।
⋙ विग्न
वि० [सं०] १. कंपित। क्षुब्ध। २. त्रस्त। भीत [को०]।
⋙ विग्यपति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विज्ञप्ति > विग्यपति] दे० 'विज्ञप्ति'। उ०—विग्यपति ये है देव। भृति भयौ भाषै मेव। सुंदर सुधा समुद्र ग्रंथ मोहि भायौ है।—सुंदर० ग्रं० (जी०) भा० १, पृ० ६२।
⋙ विग्र
वि० [सं०] १. नासाहीन। बिना नाक का। २. शक्तिशाली। मेधावी। बली [को०]।
⋙ विग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूर या अलग करना। २. विभाग। ३. यौगिक शब्दों अथवा समस्त पदों के किसी एक अथवा प्रत्येक शब्द को अलग करना (व्याकरण)। ४. कलह। लड़ाई। झगड़ा। ५. युद्ध। समर। ६. नीति के छह गुणों में से एक। विपक्षियों में फूट या कलह उत्पन्न करना। ७. आकृति। शकल। ८. शरीर। ९. मूर्ति। १०. सजावट। शृंगार। ११. सांख्य के अनुसार कोई तत्व। १२. शिव का एक नाम। १३. स्कंद के एक अनुचर का नाम। १४. दूसरे के प्रति हानिकारक उपायों का प्रत्यक्ष प्रयोग। १५. विस्तार। फैलाव। प्रसार (को०)।
⋙ विग्रहग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] रूपाकार धारण करना [को०]।
⋙ विग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] रूप धारण करना। शक्ल में आना।
⋙ विग्रहपर
वि० [सं०] युद्ध या लड़ाई के लिये तुला हुआ।
⋙ विग्रहवान
वि० [सं० विग्रहवत्] शरीरधारी [को०]।
⋙ विग्रहावर
संज्ञा पुं० [सं०] देह का पिछला भाग। पीठ [को०]।
⋙ विग्रही
संज्ञा पुं० [सं० विग्रहिन्] १. लड़ाई झगड़ा करनेवाला। २. युद्ध करनेवाला। ३. युद्ध विभाग का मंत्री या सचिव।
⋙ विग्रहेच्छु
वि० [सं०] युद्ध चाहनेवाला। युद्धाभिलाषी [को०]।
⋙ विग्राहित
वि० [सं०] बुरी धारणा रखनेवाला [को०]।
⋙ विग्राह्य
वि० [सं०] जो इस योग्य हो कि उसके साथ लड़ाई की जा सके। जिसके साथ युद्ध हो सके।
⋙ विग्रीव
वि० [सं०] ग्रीवा रहित। जिसकी गरदन कट गई हो। [को०]।
⋙ विघटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. संयोजक अंगों को अलग अलग करना। २. तोड़ना फोड़ना। उ०—प्रगटी धनु विघटन परिपाटी।—तुलसी (शब्द०)। ३. नष्ट या बरबाद करना।
⋙ विघटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] समय का एक छोटा मान। लगभग २३- २४ सेकेंड के बराबर का काल। घड़ो का २३ वाँ या ६० वाँ भाग। पल।
⋙ विघटित
वि० [सं०] १. जिसके संयोजक अंग अलग अलग किए गए हों। २. जो तोड़ फोड़ डाला गाया हो। ३. नष्ट।
⋙ विघट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोलना। २. पटकना। ३. रगड़ना। ४. दे० 'विघटन'। ५. प्रहार करना। टक्कर मारना (को०)। ६. ठेस पहुँचाना। व्यथित करना (को०)।
⋙ विघट्टनीय
वि० [सं०] १. पृथक् करने योग्य। २. जिसका विघटन किया जाय। विघटन करने योग्य [को०]।
⋙ विघट्टित
वि० [सं०] १. खुला हुआ। २.तोड़ा फोड़ा हुआ। ३. विभक्त या अलग अलग किया हुआ (को०)। ४. रगड़ा हुआ (को०)। ५. हिलाया हुआ। विलोडित (को०)। ६. आधारित (को०)।
⋙ विघट्टी
वि० [सं० विघट्टिन्] विघटित करनेवाला [को०]।
⋙ विघन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आघात करना। चोट पहुँचाना। २. एक प्रकार का बहुत बड़ा हथौड़ा। घन। ३. इंद्र।
⋙ विघन (२)
वि० १. अत्यंत ठोस। कठिन। कठोर। २. घनता से रहित। कोमल। मृदु। ३. मेघविहीन। बादलों से रहित [को०]।
⋙ विघन पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० विघ्न] दे० 'विघ्न'।
⋙ विघर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी तरह रगड़ने या घिसने की क्रिया।
⋙ विघस
संज्ञा पुं० [सं०] १. आहार। भोजन। खाना। २. वह अन्न जो देवता, पितर, गुरु या अतिथि आदि के खाने पर बच रहे। उ०—अतिथि के भोजन से बचा हुआ अन्न 'विघस' और पंचयज्ञ से बचा अन्न 'अमृत' कहलाता था।—प्रा० भा० प०, पृ० ३२९। ३. आधा चबाया हुआ ग्रास (को०)। ४. खाद्य पदार्थ (को०)। ५. सिक्थक। मोम (को०)।
⋙ विघसाश
संज्ञा पुं० [सं०] विघस नामक अन्न का भक्षक। भुक्तशेष अन्न खानेवाला। जैसे, कौआ, कुत्ता आदि [को०]।
⋙ विघसाशी
संज्ञा पुं० [सं० विघसाशिन्] दे० 'विघसाश'।
⋙ विघात
संज्ञा पुं० १. आघात। प्रहार। चोट। २. टुकड़े टुकड़े करना। तोड़ना फोड़ना। ३. नाश। ४. बाधा। विघ्न। रोक। ५. सफल न होना। विफलता। ६. हत्या। वध (को०)। ७. परित्याग करना। छोड़ना (को०)। ८. ब्याकुलता (को०)।
⋙ विघातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विघ्न डालनेवाला। बाधक। २. विघात करनेवाला। घातक (को०)।
⋙ विघातन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विघात करने की क्रिया। २. मार डालना। हत्या करना।
⋙ विघातन (२)
वि० विघात करनेवाला। निवारण करने या हटानेवाला।
⋙ विधाती
संज्ञा पुं० [सं० विधातिन्] [स्त्री० विघातिनी] १. विघात करनेवाला। २. बाधा डालनेवाला। ३. हत्या करनेवाला। घातक।
⋙ विघुष्ट
वि० [सं०] उच्च स्वर से कथित। उद्धोषित [को०]।
⋙ विघूणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका। नाक।
⋙ विघूर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] चारों ओर घुमाना। चक्कर देना।
⋙ विघूर्णित
वि० [सं०] १. कँपाया हुआ। कंपित। २. चारों ओर घुमाया या चक्कर दिया हुआ [को०]।
⋙ विघृष्ट
वि० [सं०] १. भली भाँति रगड़ा हुआ। घिसा हुआ। २. पीड़ित [को०]।
⋙ विघोषण
संज्ञा पुं० [सं०] घोषणा करना। जोरों से चिल्लाना [को०]।
⋙ विघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी काम के बीच में पड़नेवाला अड़चन। रुकावट। बाधा। व्याधात। अंतराय। खलल। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—दूर करना।—पड़ना।— होना। विशेष—जब इस शब्द के साथ नायक, नाशक अथवा इनके पर्यायवाची शब्दों का योग होता है तब इसका अर्थ 'गणेश' होता है। २. कृष्ण पाकफला। काली मकोय। ३. कष्ट। कठिनाई (को०)।
⋙ विघ्नक, विघ्नकर,विघ्नकर्ता
वि० [सं०] विघ्न करनेवाला। बाधा डालनेवाला।
⋙ विघ्नकारी
संज्ञा पुं० [सं० विघ्नकारिन्] वह जो विघ्न डालता हो। बाधा उपस्थित करनेवाला।
⋙ विघ्नकृत्
वि० [सं०] दे० 'विघ्नक' [को०]।
⋙ विघ्नजित्
संज्ञा पुं० [सं०] विनायक। गणेश।
⋙ विघ्नायक
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्ननाशक
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्ननाशन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०]।
⋙ विघ्नपति
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्नराज
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्नविनायक
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्नसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विघ्न का दूर होना [को०]।
⋙ विघ्नहंता
संज्ञा पुं० [सं० विघ्नहन्तृ] गणेश [को०]।
⋙ विघ्नहरण
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०]।
⋙ विघ्नहारी
संज्ञा पुं० [सं० विघ्नहारिन्] गणेश।
⋙ विघ्नित
वि० [सं०] १. वाधायुक्त। अंतराययुक्त। अवरुद्ध। २. मलिन। आकुलित [को०]।
⋙ विघ्नेश
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ विघ्नेशकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० विघ्नेशकान्ता] सफेद दूर्वा।
⋙ विघ्नेशवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश जी का वाहन। मूसा। चूहा [को०]।
⋙ विघ्नेशान
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०]। यौ०—विघ्नेशानकांता = श्वेत दूर्वा।
⋙ विघ्नेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश। गणपति।
⋙ विचंद्र
वि० [सं० विचन्द्र] चंद्रमारहित। जिसमें चंद्रमा न हो [को०]।
⋙ विचकित
वि० [सं०] घबराया हुआ।
⋙ विचकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की मल्लिका या चमेली। २. मदनक। मदन वृक्ष।
⋙ विचक्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ विचक्र (२)
वि० जो चक्ररहित हो। चक्रविहीन [को०]।
⋙ विचक्षण
वि० [सं०] १. प्रकाशवान्। चमकता हुआ। २. जो स्पष्ट दिखाई दे। ३. जो किसी विषय का अच्छा ज्ञाता हो। निपुण। पारदर्शी। ४. पंडित। विद्वान्। ५. बहुत बड़ा चतुर या बुद्धिमान्। उ०—परम साधु सब बात विचक्षण। बसे ताहि महँ सकल सुलक्षण।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विचक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदंती।
⋙ विचक्षन पु
वि० [सं० विचक्षण] दे० 'विचक्षण'। चतुर। बुद्धिमान्। उ०—अंतरवेद विचक्षन नारि निरंतर अंतर की गति जानै।—देव (शब्द०)।
⋙ विचक्षा
संज्ञा पुं० [सं० विचक्षस्] आध्यात्मिक गुरु [को०]।
⋙ विचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० विचक्षुस्] १. अंधा। नेत्रहीन। २. आकुल। घबराया हुआ। ३. विमनस्क। उदास [को०]।
⋙ विचच्छन पु
संज्ञा [सं० विचक्षण, प्रा० विचच्छन] बहुत बड़ा बुद्धि- मान् या चतुर। उ०—(क) रन परम विचच्छन गरम तर धरम सुरच्छन करम कर।—गोपाल (शब्द०)। (ख) लच्छ रथी अध्यच्छ प्रबल प्रत्यक्ष विचच्छन। कसे कच्छ निज सैनु रच्छ करि पर बल भच्छन।—गोपाल (शब्द०)। (ग) ह्वै कपूर मनिमय रही मिलि तन दुति मुकुतालि। छिन छिन खरी विचच्छनौ लखति छवाय तिन आलि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ विचच्छिन पु
वि० [सं० विचक्षण]दे० 'विचक्षण'। उ०—मुग्धा में धीरादिक लच्छिन। प्रगट नहीं पै लखै विचच्छिन।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७।
⋙ विचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकत्र करना। इकट्ठा करना। जमा करना। २. जाँच पड़ताल करना। परीक्षा करना। अन्वेषण। खोजना। ढूँढना (को०)। ३. विशिष्ट रूप से रखना। क्रम या तरतीब से रखना (को०)।
⋙ विचयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इकट्ठा करना। एकत्र करना। २. जाँचना। परीक्षा करना। दे० 'विचय'।
⋙ विचर
वि० [सं०] १. घूमा हुआ। भ्रमित। भ्रमण किया हुआ। २. भूला हुआ। भटका हुआ [को०]।
⋙ विचरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलना। २. घूमना फिरना। पर्यटन करना। उ०—आर्य संतान उस दिन अपने प्राचीन वेष में विचरण करती थी।—बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)।
⋙ विचरणीय
वि० [सं०] विचरण के योग्य। आचरणीय [को०]।
⋙ विचरन पु
संज्ञा पुं० [सं० विचरण] दे० 'विचरण'। उ०—(क) पूछ पूरी सोभा विचरन नरचपैं दीह सीकर की चरनन रचना ऊपर है।—गोपाल (शब्द०)। (ख) भए कबीर प्रगट मथुरा में। विचरन लगे सकल बसुधा में।—कबीर (शब्द०)।
⋙ विचरना
क्रि० अ० [सं० विचरण] चलना फिरना। उ०—(क) जग महँ विचरि विचरि सब ठौरा। हरि विमुखन किय हरि की ओरा।—रघुराज (शब्द०)। (ख) भोग समग्री जुरी अपार। विचरन लागे सुख संसार।—सूर (शब्द०)। (ग) रामचरण धरि हृदय मुदित मन विचरत फिरत निशंक।—सूर (शब्द०)।
⋙ विचरनि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विचरण] चलने फिरने या विचरण करने की क्रिया या भाव।
⋙ विचरित (१)
वि० [सं०] १. घूमा हुआ। विचरण किया हुआ। २. (लाक्ष०) अनुष्ठित। कृत। आचरित। (को०)।
⋙ विचरित (२)
संज्ञा पुं० घूमना। विचरण [को०]।
⋙ विचर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें दाने निकलते और खुजली होती है। ब्योंची। २. छोटी फुंसी।
⋙ विचर्मा
वि० [सं० विचर्मन्] विना ढाल का। जिसके पास चर्म अर्थात् ढाल न हो [को०]।
⋙ विचल
वि० [सं०] १. जो बराबर हिलता रहता हो। २. जो स्थिर न हो। अस्थिर। ३. डिगा हुआ। स्थान से हटा हुआ। ४. व्यग्र। घबड़ाया हुआ (को०)। ५. अभिमानी। घमंडी (को०) ६. प्रतिज्ञा या संकल्प से हटा हुआ। मुहा०—चलविचल होना = मन का किसी एक बात पर न ठहरना। चित्त का चंचल होना।
⋙ विचलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचल होने की क्रिया या भाव। चंचलता। अस्थिरता। २. घबराहट।
⋙ विचलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्थिरता। २. इतस्ततः भ्रमण। ३. गर्व। घमंड [को०]।
⋙ विचलना पु †
क्रि० अ० [सं० विचलन] १. अपने से हट जाना या चल पड़ना। (विशेषतः घबराहट या गड़बड़ी आदि के समय)। उ०—(क) औ जोबन मैमंत बिधाँसा। विचला बिरह बिरह लै नासा।—जायसी (शब्द०)। (ख) दल विचलत लखिकै भट सगरे। धरि धरि धनुष गदादिक अगरे।—गोपाल (शब्द०)। (ग) जो सीता सत ते विचलै तौ श्रीपति काहि सँभारै। मोसे मुग्ध महापापी को कौन क्रोध करि तारै।—सूर (शब्द०)। २. विचलित होना। अधीर होना। घबराना। उ०—(क) जेंहि भजन वि/?/इक इकरदन चलत समर विचलत प्रबल।—गोपाल (शब्द०)। (ख) चलत जबै रन हेत तबै विचलत लखिकै पर।—गोपाल (शब्द०)। ३. प्रतिज्ञा या संकल्प पर द्दढ़ न रहना। बात पर जमा न रहना।
⋙ विचलाना पु †
क्रि० स० [सं० विचलन] १. इधर उधर हटाना या चलाना। विचलित करना। उ—एहि विधान भरि जोर सकल यदु दल विचलायो।—गोपाल (शब्द०)। २. ऐसा काम करना जिससे कोई घबरा जाय वा स्थिर न रह सके।
⋙ विचलित
वि० [सं०] १. जो विचल हो गया हो। अस्थिर। चंचल। जैसे,—किसी चीज को देखकर मन विचलित होना। उ०— (क) उसकी बुद्धि ऐसी तीक्ष्ण थी कि कोई कैसा ही दुर्घट काम हो, परंतु वह, कभी विचलित न होता।—कादंबरी (शब्द०)। (ख) तेहि ते अब यह रूप दुरावहु। विचलित सकल लोक सुख पावहु।—शं० दि० (शब्द०)। २. प्रतिज्ञा या संकल्प से हटा हुआ। जो द्दढ़ न रहा हो। डिगा हुआ। ३. गया हुआ। गत। चलित (को०)। ४. घबराया हुआ। व्यग्र।
⋙ विचष्षन पु
वि० [सं० विचक्षण, प्रा० विचक्खन, विचष्षन] दे० 'विचक्षण'। उ०—आनन इंदु उदोत सु मानौं। जानन भोज विचष्षन जानौं। रवि ज्यों सत्रुन के तन तापन। कामिनी कौं मकरध्वज मानन।—पृ० रा०, १।७५३।
⋙ विचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो कुछ मन से सोचा जाय अथवा सोचकर निश्चित किया जाय। किसी विषय पर कुछ सोचने या सोचकर निश्चय करने की क्रिया। २. वह बात जो मन में उत्पन्न हो। मन में उठनेबाली कोई बात। भावना। खयाल। जैसे,—अभी मेरे मन में विचार आया है कि चलकर उससे बातें करूँ। ३. राजा या न्यायाधीश आदि का वह कार्य जिसमें वादी और प्रतिवादी के अभियोग और उत्तर आदि सुने जाते हैं; यह निश्चित किया जाता है कि किस पक्ष का कथन ठीक है; और तब कुछ निर्णय किया जाता है। मुकदमें की सुनवाई और फैसला। जैसे,—राजकर्मचारी दोनों को पकड़कर उनका विचार कराने के लिये उन्हें राजद्वार पर ले गया (शब्द०)। यौ०—विचारकर्ता। विचारविमर्श। विचारसभा। विचारस्थल। ४. विचरना। घूमना। ५. घुमाना। फिराना। ६. चयन (को०) ७. संकोच। संदेह (को०)। ८. दूरदर्शिता। सतर्कता (को०)। ९. विमर्श। गवेषणा। तत्वार्थनिर्णय (को०)। १०. विवेक। तर्कण (को०)। ११. परीक्षण (को०)।
⋙ विचारक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० विचारिका] १. वह जो विचार करता हो। विचार करनेवाला। उ०—इन बातों पर ध्यान करके विचारक पुरुष जानते हैं कि ऐसा वृत्तांत केवल कवीश्वर का कल्पित मात्र है।—मतपरीक्षा (शब्द०)। २. फैसला करनेवाला। न्यायकर्ता। उ०—तब तक विरोधा विचारकों का होना बहुत ही जरूरी है।—स्वाधीनता (शब्द०)। ३. नेता। पथप्रदर्शक। ४. गुप्तचर। जासूस।
⋙ विचारकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० विचारकर्तृ] १. वह जो किसी प्रकार का विचार करता हो। सोचने विचारनेवाला। २. वह जो अभियोग आदि सुनकर उनका निर्णय करता हो। न्यायाधीश।
⋙ विचारज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विचार करना जानता हो। विचार करने में कुशल या प्रवीण। २. वह जो अभियोग आदि का निर्णय या निपटारा करता हो।
⋙ विचारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचार करने की क्रिया या भाव। २. घूमना फिरना। ३. घुमाना फिराना। ४. संदेह। हिचक (को०)। ५. परीक्षण। पर्यालोचन। अन्वेषण (को०)।
⋙ विचारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार करने की क्रिया या भाव। उ०—क्योंकि केवल अपनी वुद्धि, या अपने ज्ञान या अपनी विचारण पर आदमी का विश्वास जितना कम होता है, उतना ही ससार की प्रमादहीनता या निर्भ्रमता पर उसका विश्वास अधिक होता है।—स्वाधीनता (शब्द०)। २. घूमने फिरने या घुमाने फिराने की क्रिया या भाव । ३. संदेह। हिचक (को०)। ४. परीक्षण। गवेषण (को०)। ५. दर्शन शास्त्र की मीमांसा पद्धति (को०)।
⋙ विचारणीय
वि० [सं०] १. जो विचार करने के योग्य हो। जिसपर कुछ विचार करने की आवश्यकता हो। उ०—अब यह अवश्य- मेव विचारणीय है कि यदि ऐसा ही है तो बिना कारण किसी को दूषित करना और व्यर्थ उसपर दोषारोपण कर लोगों में उसकी योग्यता कम करने के लिये यत्न करना नीचता एवं अधमता है।—निबंधमालादर्श (शब्द०)। २. जो सिद्ध न हो। जिसे प्रमाणित करने की आवश्यकता हो। चिंत्य। सदिग्ध।
⋙ विचारना
क्रि० अ० [सं० विचार + हिं० ना (प्रत्य०)] १. विचार करना। सोचना। समझना। गौर करना। उ०—(क) कृष्णदेव द्वारावति अहैं। मन में बहुत विचारत रहैं।—सबल (शब्द०)। (ख) फिर मैंने यह बात विचारी की लिखने में तो कुछ अधिक अनर्थ नहीं होता।—श्रद्धाराम। (शब्द०)। (ग) आजु ही अजादवी धरा करौं विचारि कै।—गोपाल (शब्द०) (घ) रचो विरंचि विचार तहँ, नृपमणि मधुकर शाहि।—केशव (शब्द०)। २. पूछना। ३. ढूँढ़ना। पता लगाना। उ०—तुलसी तेहि अवसर लावनता दस चारि नव तीनि एकीस सबै। मति भारति पंगु भई जो निहारि विचारि फिरी उपमा न पवै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विचारपति
संज्ञा पुं० [सं० विचार + पति] वह जो किसी बड़े न्यायालय में बैठकर मुकदमों आदि के फैसले करता हो। विचा- रक। न्यायाधीश।
⋙ विचारपरिणीत
वि० [सं० विचार + परिणीत] जिसका विचार द्वारा ग्रहण किया गया हो। विचारित। भली भाँति विचार किया हुआ। संकल्प द्वारा गृहीत। उ०—वर श्रम प्रसूति से की कृतार्थ तुमने विचारपरिणीत उक्ति।—युगांत, पृ० ५५।
⋙ विचारभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अदालत। न्यायालय। २. यम का न्यायासन। यमराज का न्यायालय [को०]।
⋙ विचारमूढ़
वि० [सं० विचारमूढ़] १. निर्णय लेने में असमर्थ। जो भला बुरा समझने में असमर्थ हो। २. जड़। मूर्ख। अज्ञ [को०]।
⋙ विचारवान्
संज्ञा पुं० [सं० विचारवत्] वह जिसमें सोचने समझने या विचारने की अच्छी शक्ति हो। विचारशील।
⋙ विचारशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह शक्ति जिसकी सहायता से विचार किया जाय। सोचने या भला बुरा पहचानने की शक्ति। उ०—मनुष्य जानता तो है कि मैं जीता हूँ और सोच विचार भी करता हूँ, परंतु प्राण और विचारशक्ति किससे बनाई गई।—गोलविनोद (शब्द०)।
⋙ विचारशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] मीमांसा शास्त्र।
⋙ विचारशील
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसमें किसी विषय को सोचने विचारने की अच्छी शक्ति हो। विचारवान्। उ०—(क) जिसका सत्य विचारशील ज्ञान और अनंत ऐश्वर्य है, इससे उस परमात्मा का नाम ईश्वर है।—सत्यार्थप्रकाश (शब्द०)। (ख) विद्वान्, बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं वह तीर्थ बन जाती है।—शिवशंभु (शब्द०)।
⋙ विचारशीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विचारशील होने का भाव या धर्म। बुद्धिमत्ता। अक्लमंदी। उ०—आत्मकर्त्तव्य का मामूली अर्थ विचारशीलता या बुद्धिमानी है।—स्वाधीनता (शब्द०)।
⋙ विचारशृंखला
संज्ञा स्त्री० [सं० विचार + श्रृङ्खला] परंपरा द्वारा प्राप्त विचार की सरणि। विचारों की परंपरा या कड़ी। उ०—इस तरह अनेक विचारशृंखलाएँ अर्थात् अनेक व्यवस्थित दर्शन होते हैं।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १९१।
⋙ विचारसरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विचार करने का ढंग। विचार करने की पद्धति [को०]।
⋙ विचारस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ किसी विषय पर विचार होता हो। २. न्यायालय। अदालत। ३. तर्कसंगत चर्चा जिसपर विचार विमर्श किया जा सके।
⋙ विचारस्वातंत्र्य
संज्ञा पुं० [सं० विचार + स्वातन्त्र्य] १. किसी विषय पर अपने हृद्गत भावों को व्यक्त करने की छूट या आजादी। २. जो चाहे कहने की छूट। भाषण करने की स्वतंत्रता। शासन की आलोचना करने में प्रतिबंध न होना।
⋙ विचाराध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो न्याय विभाग का प्रधान हो। प्रधान विचारक। प्रधान न्यायाधीश।
⋙ विचारालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ अभियोगों आदि का विचार होता हो। न्यायालय। कचहरी। उ०—बड़े बड़े आचार्य, नीतिक्ष, धर्मशास्त्री लोग विचारालय में बैठे विचार कर रहे हैं।—कादबरी (शब्द०)।
⋙ विचारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल की वह दासी जो घर में लगे हुए फूल पौधों की देखभाल तथा इसी प्रकार के और काम करती थी। २. वह स्त्री जो अभियोगों आदि का विचार करती हो।
⋙ विचरित (१)
वि० [सं०] १. जिसपर विचार किया जा चुका हो। जो सोचा समझा जा चुका हो। निर्णीत। निश्चित। २. जो अभी विचाराधीन हो। जिसपर अभी विचार होने को हो। संदिग्ध। अनिश्चित।
⋙ विचारित (२)
संज्ञा पुं० १. विचार। मंतव्य। २. संदेह। संशय [को०]।
⋙ विचारितसुस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य का वह प्रकार जिसमें वैचारिक प्रौढ़ता रहती है। बुद्धिप्रधान साहित्य। उ०— साहित्य विषय के दो प्रभेद हैं विचारितसुस्थ और अविचारित- रमणीय।—पा० सा० सि०, पृ० ७।
⋙ विचारी
संज्ञा पुं० [सं० विचारिन्] १. वह जिसपर चलने के लिये बहुत बड़े बड़े मार्ग बने हों (जैसे, पृथ्वी)। २. जो इधर उधर चलता हो। विचरण करनेवाला। ३.वह जो विचार करता हो। विचार करनेवाला। ४. कबंध के एक पुत्र का नाम। ५. जो लंपट वा कामुक हो (को०)।
⋙ विचारु
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
⋙ विचार्य
वि० [सं०] जो विचार करने के योग्य हो। जिसपर विचार करने की आवश्यकता हो। विचारणीय।
⋙ विचाल (१)
वि० [सं०] मध्यस्थ। मध्यवर्ती। बीच का [को०]।
⋙ विचाल (२)
संज्ञा पुं० १. विभाग करना। अलग करना। पृथक् करना। २. मध्यवर्ती स्थान या काल। अंतराल। अंतर। उ०—अरणव सांते उदर, विरछ रोमांच विचालें।—रघु० रू०, पृ० ४४।
⋙ विचालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हटाना या चलाना। २. नष्ट करना।
⋙ विचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० विचिन्तन] [स्त्री० विचिन्तना] चिंता करना। सोचना। २. देखभाल। निरीक्षण [को०]।
⋙ विचिंतनीय
वि० [सं० विचिन्तनीय] १. जो चिंता करने या सोचने यीग्य हो। २. देख भाल करने लायक (को०)।
⋙ विचिंता
संज्ञा स्त्री० [सं० विचिन्ता] १. सोच विचार। २. देखभाल। निरीक्षण।
⋙ विचिंतित
वि० [सं० विचिन्तित] विचारा हुआ [को०]।
⋙ विचिंत्य
वि० [सं० विचिन्त्य] १. जो चिंतन करने या सोचने के योग्य हो। २. जिसमें किसी प्रकार का संदेह हो। संदिग्ध। ३. निरीक्षण या देखभाल करने योग्य (को०)।
⋙ विचि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीची। तरंग। लहर।
⋙ विचि पु (२)
क्रि० वि० [हिं० बीच] बीच में। मध्य में। उ०—सो मुख ब्रज अवलोकन करै। तब जु आइ विचि पलकैं परै।— नंद० ग्रं०, पृ० १६३।
⋙ विचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संदेह। अनिश्चय। शक। २. वह संदेह जो किसी विषय में कुछ निश्चय करने के पहले उत्पन्न होऔर जिसे दूर करके कुछ निश्चय किया जाय। ३. अनवधा- नता। भूल। प्रमोद (को०)।
⋙ विचिकित्सित
वि० [सं०] संदिग्ध। संदेहास्पद [को०]।
⋙ विचिकीर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० वि० (उप०) + चिकीर्षा] करने की इच्छा या अभिलाषा।
⋙ विचिकीर्षु
वि० [सं० वि (उप०) + चिकीर्षु] करने की इच्छा रखनेवाला।
⋙ विचिचीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्वेषण की आकांक्षा [को०]।
⋙ विचिचीषु
वि० [सं०] अन्वेषण करने की इच्छावाला [को०]।
⋙ विचित
वि० [सं०] जिसका अन्वेषण किया जाय।
⋙ विचिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार। सोचना। २. अनुसंधान।
⋙ विचित्त (१)
वि० [सं०] १. अचेत। बेहोश। २. जिसका चित्त ठिकाने न हो। जो अपना कर्तव्य न समझ सकता हो।
⋙ विचित्त पु (२)
वि० [सं० विचित्र, प्रा० विचित्त] दे० 'विचित्त'। उ०— अद्भुत चरित्त चंदह चरिचि सुर विचित्त हिय हथ्थ किय।— पृ० रा०, ६।४९।
⋙ विचित्तर †
वि० [सं० विचित्र, प्रा० विचित्त] दे० 'विचित्र'। उ०—कभी नागा नहीं करती थी अक्सर। चतुर सब औरताँ में थी विचित्तर।—दक्खिनी०, पृ० २४६।
⋙ विचित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेहोशी। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य का चित्त ठिकाने न रहे।
⋙ विचत्र (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कई प्रकार के रंग हों। कई तरह के रंगों या वर्णोंवाला। रंग बिरंगा। २. जिसमें किसी प्रकार की विलक्षणता हो। जिसमें किसी प्रकार की असाधारणता हो। विलक्षण। जैसे,—(क) ऐसा विचित्र पक्षी मैंने पहले नहीं देखा था। (ख) तुम भी बड़े विचित्र आदमी हो। ३. जिसके द्वारा मन में किसी प्रकार का आश्चर्य उत्पन्न हो। विस्मित या चकित करनेवाला। ४. सुंदर। खूबसूरत। ५. रंगीन। चित्रित। रँगा हुआ (को०)। यौ०—विचित्रचरित्र = अद्भूत चरित्रवाला। विचित्रदेह = (१) सुंदर शरीरवाला। (२) जिसकी देह चितकबरी हो। विचित्ररूप = विविध प्रकार का। अनेक रूपोंवाला। विचित्र- वीर्य। विचित्रशाला।
⋙ विचित्र (२)
संज्ञा पुं० १. पुराणनुसार रौच्य मनु के एक पुत्र का नाम। २. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय होता है, जब किसी फल की सिद्धि के लिये किसी प्रकार का उलटा प्रयत्न करने का उल्लेख किया जाता है। उ०—(क) करिबैकौ उज्वल सुघा सों अभिराम देखो, मन ब्रजवाम रँगती हैं श्याम रंग में (ख) राम कहेउ रिस तजहु मुनीसा। कर कुठार आगे यह सीसा।—तुलसी (शब्द०)। (ग) जीवन हित प्रानहिं तजत नवैं ऊँचाई हेत। सुख कारण गुख संग्रहैं बहुधा पुरुष सचेत (शब्द०)। (घ) क्यौं नहिं गंगा को सुमिरि दरस परस सुख लेत। जाके तट में मरत नर अमर होन के हेत (शब्द०)। ३. अनेक रंगों का समूह। विभिन्न रंगों का एकीभवन। (को०)। ४. आश्चर्य (को०)।
⋙ विचित्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजपत्र का वृक्ष। २. आश्चर्य। विचित्र।
⋙ विचित्रक (२)
वि० दे० 'विचित्र'।
⋙ विचित्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रंग बिरंगे होने का भाव। २. विलक्षण या अद् भुत होने का भाव।
⋙ विचित्रताई
संज्ञा स्त्री० [सं० विचित्र+सं० ताति/?/हिं० ताई (प्रत्य०)] दे० 'विचित्रता'। उ०— उस विचित्रता से बढ़कर विचित्रताई दिखा सकने की आशा इन्हें होती।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६।
⋙ विचित्रदेह
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ विचित्रवर्षी
वि० [सं० विचित्रवर्षिन्] इधर उधर बरसनेवाला। जहाँ तहाँ बरसनेवाला (मेघ)।
⋙ विचित्रवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रवंशी राजा शांतनु के पुत्र का नाम. जिनको कथा महाभारत में है। विशेष—जब राजा शांतनु ने अपने पुत्र भीष्म के आजन्म ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा करने पर सत्यवती के साथ विवाह कर लिया था, तब उसी सत्यवती के गर्भ से उन्हें चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद तो छोटी अवस्था में ही एक गंधर्व द्वारा मारा गया था; पर विचित्रवीर्य ने बड़े होने पर राज्याधिकार पाया था। इसने काशिराज की अंबिका और अंबालिका नाम की दो कन्याओं के साथ विवाह किया था, जिन्हें भीष्म इसी के लिये हरण कर लाए थे। परंतु थोड़े ही दिनों बाद निःसंतान अवस्था में ही इसकी मृत्यु हो गई। सत्यवती को विवाह से पहले ही पराशर ऋषि से गर्भ रह चुका था और उससे द्वैपायन (व्यास) का जन्म हुआ था। विचित्रवीर्य के निःसंतान मर जाने पर सत्यवती ने अपने उसी पहले पुत्र द्वैपायन को बुलाया और उसे विचित्रवीर्य की विधवा स्त्रियों के साथ नियोग करने को कहा। तदनुसार द्वैपायन ने अंबिका और अंबालिका से धृत- राष्ट्र और पाडु तथा एक दासी से विदुर (विशेष दे० 'विदुर') नाम के तीन पु्त्र उत्पन्न किए थे।
⋙ विचित्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के विचित्र पदार्थों का संग्रह हो। अजायबघर।
⋙ विचित्रांग
संज्ञा पुं० [सं० विचित्राङ्ग] १. मोर। जिसकी देह चित- कबरी हो। २. व्याघ्र। बाघ।
⋙ विचित्रांग (२)
वि० चितकबरे शरीरवाला [को०]।
⋙ विचित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रागिनी, जिसे कुछ लोग भैरव राग की पाच स्त्रियों में से एक और कुछ लोग त्रिवण, बरारी, गौरी ओर जयंती के मेल से बनी हुई संकर जाति की मानते हैं। २. श्वेत हिरन (को०)।
⋙ विचित्रित
वि० [सं०] १. जो कई तरह के रंगों आदि से बना हो। अनेक प्रकार के रंगों से चित्रित। रग बिरंगा। २. आभूषित। अलंकृत (को०)। ३. आश्चर्यजनक (को०)।
⋙ विचिन्वत्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्वेषण। तलाश। खोज। २. योद्धा। शूरवीर। ३. गवेषणा [को०]।
⋙ विचिलक
संज्ञा पुं० [सं०] सूश्रुत के अनुसार एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
⋙ विची
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीची। तरंग। लहर।
⋙ विचीर्ण
वि० [सं०] १. अधिकृत। अधिकार में लिया हुआ। २. जिसकी विदीर्ण किया गया हो। ३. जिसमें प्रवेश किया गया हो [को०]।
⋙ विचुंबन
संज्ञा पुं० [सं० विचुम्बन] चुंबन। चूमना। चुम्मा [को०]।
⋙ विचुंबित
वि० [सं० विचुम्बित] १. चूमा हुआ। जिसका चुंबन किया गया हो। २. स्पृष्ट। छूआ हुआ [को०]।
⋙ विचेतन
वि० [सं०] १. जिसे चेतना न हो। संज्ञाहीन। अचेतन। बेहोश। २. निर्जीव। प्राणहीन (को०)। ३. जिसे भले बुरे का ज्ञान न हो। विवेकहीन। ४. संभ्रांत। हतबुद्धि। कातर। अधीर (को०)।
⋙ विचेतना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचेतन होने का भाव। संज्ञाहीन। अचेतनता। अधीरता। व्याकुलता।
⋙ विचेता
संज्ञा पुं० [सं० विचेतस्] १. जिसका चित्त ठिकाने न हो। घबराया हुआ। २. बेहोश। ३. जिसे किसी विषय का विशेष ज्ञान हो। चतुर। विशेषज्ञ। ४. दुष्ट। पाजी। ५. मूर्ख। बेवकूफ।
⋙ विचेष्ट
वि० [सं०] जिसमें किसी प्रकार की चेष्टा न हो। जो हिलता डोलता न हो।
⋙ विचेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. (पीड़ा आदि से) बुरी चेष्टा करना। इधर उधर लोटना। तड़पना। २. (घोड़े का) लात फेकना या लोटना (को०)।
⋙ विचेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुरी या खराब चेष्टा करना। मुँह बनाना या हाथ पैर पटकना। २. प्रयत्न। उद्यम। कोशिश। गति (को०)। ३. व्यवहार। आचार (को०)।
⋙ विचेष्टित (१)
वि० [सं०] १. जिसके लिये उद्योग या प्रयत्न किया गया हो। २. परोक्षित। ३. अविचारित या मूर्खता के साथ किया हुआ। ४. अन्वेषित (को०)।
⋙ विचेष्टित (२)
संज्ञा पुं० १. कार्य। काम। २. प्रयत्न। उद्योग। ३. इंगित। संकेत। भावभगी। ४. कार्य। आचार। ५. अभिसंधि। षड्यंत्र। ६. बुरा कार्य। दुष्कर्म [को०]।
⋙ विच्छंद (१)
वि० [सं० विच्छन्द] विविध प्रकार के छंदों से युक्त। अनेक छंदोंवाला [को०]।
⋙ विच्छंद (२)
संज्ञा पुं० दे० 'विच्छंदक'।
⋙ विच्छंदक
संज्ञा पुं० [सं० विच्छन्दिक] १. देवमंदिर। देवालय। २. प्रासाद। महल।
⋙ विच्छत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सुसनी का साग।
⋙ विच्छर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवमंदिर। देवायतन। देवालय। २. प्रासाद। महल।
⋙ विच्छर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कै। वमन। २. उपेक्षा। अवमानना। ३. क्षय (को०)।
⋙ विच्छर्दिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वमन। कै।
⋙ विच्छर्दित
वि० [सं०] १. जो वमन किया गया हो। कै किया हुआ। २. जिसकी उपेक्षा की गई हो। जो तुच्छ समझा गया हो। ३. त्यक्त। छोड़ा हुआ। परित्यक्त (को०)। ४. कम किया हुआ। न्यून किया हुआ (को०)।
⋙ विच्छल
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत की लता।
⋙ विच्छाय
संज्ञा सं० [सं०] १. पक्षियों की छाया। २. मणि। ३. वह जिसकी छाया न पड़ती हो। विशेष—प्रायः ऐसा माना जाता है कि देवताओं, भूतों और प्रेतों आदि की छाया नहीं पड़ती।
⋙ विच्छाय (२)
वि० १. कांतिहीन। श्रीहीन। २. छायाहीन। प्रतिबिंब या छायारहित (को०)।
⋙ विच्छिअ
वि० [देशी० यासं०विच्छेदित] पाटित। विदारित। फाड़ा हुआ।—देशी०, पृ० ३१०।
⋙ विच्छित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काटकर अलग या टुकड़े करना। २. विच्छेद। अलगाव। ३. कमी। त्रुटि। ४. वेशभूषा आदि में होनेवाली लापरवाही या बेढंगापन। ५. रंगों आदि से शरीर को चित्रित करना। ६. कविता में यति। ७. एक प्रकार का हार। ८. साहित्य में एक हाव, जिसमें स्त्री थोड़े शृंगार से पुरुष को मोहित करने की चेष्टा करती है। यथा—बेंदी भाल, तमोल मुख, सीस सिलसिले बार। द्दग आँजे, राजे खरी, साजे सहज सिंगार। ९. मकान की सीमा। हद (को०)। १० विनाश। लोप (को.)। ११. वैचित्र्य। विचित्रता (को०)। १२. बाधा। रोक। रुकावट।
⋙ विच्छिन्न (१)
वि० [सं०] १. जो काट या छेदकर अलग कर दिया गया हो। जिसका अपने मूल अंग के साथ कोई संबंध न रह गया हो। विभक्त। २. जुदा। अलग। उ०—बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए वरच और युक्त हो गए।—शिवशंभु (शब्द०)। ३. जिसका विच्छेद हुआ हो। ४. जिसका अंत हा गया हो। ५. कुटिल। ६. विभिन्न रंगों से युक्त (को०)। ७. लुप्त। तिरोहित (को०)। ८. उबटन आदि से लेपित (को०)। ९. जिसका निवारण किया गया हो। यौ०—विच्छिन्नप्रसार=जिसकी प्रगति का प्रसार निरुद्ध हो गया हो। विच्छिनमद्य= वह जिसने बहुत दिनों से मदिरापान बंद कर दिया हो।
⋙ विच्छिन्न (२)
संज्ञा पुं० [सं०] योग में अस्मिता' राग, द्वेष और अभिनि- वेश इन चारों क्लेशों की वह अवस्था जिसमें बीच में उनका विच्छेद हो जाता है। वह बीच की अवस्था जिसमें कोई क्लेश वर्तमान नहीं रहता,पर जिससे कुछ पहले और कुछ बाद वह वर्तमान रहता है।
⋙ विच्छुर
वि० [सं० विच्छुरित]दे० 'विच्छुरित'। उ०—थिर चितवन से चिर मिलनातुर, विष की शत वाणी से विच्छुर।—अर्चना, पृ० १०६।
⋙ विच्छुरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिड़कना। २. लेपन करना। मल देना [को०]।
⋙ विच्छुरित (१)
वि० [सं०] १. लिप्त किया हुआ। २. छिड़का हुआ। ३. ढका हुआ। उ०—विच्छुरित वह्नि राजीव नयन हतलक्ष्य बाण।—अपरा, पृ० ३७।
⋙ विच्छुरित (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की समाधि।दे०'विच्छिन्न'।
⋙ विच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. काट या छेदकर अलग करने की क्रिया। २. क्रम का बीच से टूट जाना। सिलसिला न रह जाना। ३. किसी प्रकार अलग या टुकड़े टुकड़े करना। सबमें से कुछ अलग करना। ४. नाश। उ०—जैसे इस समय बद्धमुक्त जीव हैं, वैसे ही सर्वदा रहते हैं, अत्यंत विच्छेद बंधमुक्ति का कभी नहीं होता, किंतु बंध और मुक्ति सदा नहीं रहती।—दयानंद (शब्द०)। ५. विरह। वियोग। ६. पुस्तक का प्रकरण या अध्याय। परिच्छेद। ७. बीच में पड़नेवाला खाली स्थान। अवकाश। ८. कविता में यति। ९. वंशपरंपरा का लोप होना (को०)। १०. प्रतिषेध। रोक। निषेध (को०) ११. हानि। क्षति (को०)। १२. अनबन। मतभेद। फूट (को०)।
⋙ विच्छेदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विच्छेद करता हो। २. वह जो काट या छेदकर अलग करता हो। ३. विभाग करनेवाला। विभाजक।
⋙ विच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काट या छेदकर अलग करने की क्रिया। अलग करना। २. नष्ट करना। बरबाद करना। दे० 'विच्छेद'।
⋙ विच्छेदनीय
वि० [सं०] १. जो काट या छेदकर अलग करने के योग्य हो। २. जो विच्छेद करने के योग्य हो।
⋙ विच्छेदी
संज्ञा पुं० [सं० विच्छेदिन्] १. वह जो विच्छेद करता हो। विच्छेदन करनेवाला। २. जिसमें विच्छेद हो। वह जिसमें अंतर हो (को०)।
⋙ विच्छेद्य
वि० [सं०] जो विच्छेद करने के योग्य हो। जो काटने या विभाग करने के योग्य हो।
⋙ विच्छोही पु
संज्ञा पुं० [देशी] बिछोह। वियोग। विरह। देशी०, पृ० २९७।
⋙ विच्युत
वि० [सं०] १. जो कटकर अथवा और किसी प्रकार इधर उधर गिर पड़ा हो। २. जो जीवित अंग में से काटकर निकाला गया हो। (वैद्यक)। ३. जो अपने स्थान से गिर या हट गया हो। स्थानभ्रष्ट। च्युत। ४. विनष्ट। (को०)। ५. जो सफल न हो। जो सफल न ही सका हो।
⋙ विच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी पदार्थ का अपने स्थान से हट या गिर जाना। च्युत होना। २. गर्भ का गिर जाना। गर्भपात।
⋙ विछल पु
[सं० वत्सल] पुत्रवत् प्रेम करनेवाला। उ०—राम टेक जुग जुग अमर परगट भक्त निसाण। भक्त विछल विरद बिस्त- रयो भगवद वचन प्रमाण।—राम० धर्म०, पृ० २४३।
⋙ विछलना पु †
क्रि० अ० [सं० विच्छिल, हिं० फिसलना] १. फिसलना। २. विचलित होना। उ०—उछल्यो उदधिराज विछल्यो ग्रहन राज ध्यान की धमारि भूरि भूली भूतराज की।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विछाडना †
क्रि० अ० [हिं० छोड़ना या सं० वि + √ छद्] लक्ष्य पर छोड़ना। चलाना। उ०—कोमंड लियो रघुवीर कराँ सारंग विछाडे साँध सराँ।—रघु० रू०, पृ० १३३।
⋙ विछाल पु †
वि० [सं० विशाल, या सं० विस्तार, प्रा० विच्छार] दे० विशाल'। उ०—छाडयो नयर विछाल छौ छाडया साँभरि का रिणवास।—बी० रासो, पृ० ६०।
⋙ विछेद पु †
संज्ञा पुं० [सं० विच्छेद] प्रिय से अलग या दूर होना। वियोग। विछोह। उ०—सूर श्याम के परम भावती पलक न होत विछेद।—सूर (शब्द०)।
⋙ विछेप पु †
संज्ञा पुं० [सं० विक्षेप, प्रा० विच्छेव] दे० 'विक्षेप'। उ०— देहिक दैविक छुटै भवतिक सोइ अनन्य कहावनं। इंद्री रहित विछेप नाहीं सोई है आतीतनं।—पलटू०, पृ० ६२।
⋙ विछोई पु †
संज्ञा पुं० [हिं० विछोह + ई (प्रत्य०)] वह जिसका अपने प्रिय से विच्छेद हो गया हो। वियोगी। उ०—हितू पियारा मीत विछोई। साथ न लाग आप गा सोई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विछोह पु †
संज्ञा पुं० [सं० विच्छेद, देशी विच्छोह] प्रिय से अलग या दूर होना। वियोग। उ०—जस बिछोह जल मीन दुहेला। जल हति काढ़ अँगन महँ मेला।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विजंघ
वि० [सं० विजङ्घ] १. जिसकी जाँघें कट गई हों या न हों। २. (गाड़ी) जिसमे धुरी और पहिए आदि न हों।
⋙ विज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्, प्रा० विज्जु, विज्ज] बिजली। विद्युत्। उ०—आवृत्त घत्त आजान भुअ मनु कजल कोट कि विज लहि।—पृ० रा०, ७।१४२।
⋙ विजई पु †
संज्ञा पुं० [सं० विजयिन्]दे० 'विजयी'।
⋙ विजउरा †
संज्ञा पुं० [सं० बीजपूरक, प्रा० बीयऊरय] दे० 'विजौरा'। उ०—करहा नीरुँ सोई चर वाट चलतउ पूर। द्राख विजउरा नीरती, सो धण रही सू दूर।—ढोला०, ४२९।
⋙ विजट
वि० [सं०] मुक्त। खुला हुआ। जैसे, केश [को०]।
⋙ विजड़ित
वि० [सं० विजडित] १. स्थिर। अडोल। उ०—चरण हुए थे विजड़ित मधुभार से।—लहर, पृ० ६६।२. जड़ा हुआ। जटित।
⋙ विजन (१)
वि० [सं०] जिसमें अथवा जहाँ आदमी न हो। जनरहित। एकांत। निराला। उ०—तहाँ सचिव सब लेहिं सुधारी। भूपहि विजन भवन मह डारी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विजन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्जन या एकांत स्थान। २. गवाह या साक्ष्य का अभाव [को०]।
⋙ विजन पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० व्यजन] हवा करने का पंखा। बीज्न। उ०—(क) मुरछल चँवर विजन बहु करते। मृदु कहि राह परिस्रम हरते।—गोपाल (शब्द०)। (ख) कोऊ विजन डोलावन लागे। कोउ सींचे जल अति अनुरागे।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विजनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजन होने का भाव। एकांत का भाव।
⋙ विजनन
संज्ञा पुं० [सं०] जनन करने की क्रिया। प्रसव।
⋙ विजना पु †
संज्ञा पुं० [सं० विजन] पंखा। उ०—इत एक सखी बतराय रही विजना इत एक डुलाय रही।—संगीत शाकुंतल (शब्द०)।
⋙ विजनित
वि० [सं०] उत्पन्न। जनित। जन्म लिया हुआ [को०]।
⋙ विजन्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० विजन्मन्] १. किसी स्त्री का उसके उपपति या यार से उत्पन्न पुत्र। जारज। दोगला। २. मनु के अनुसार एक वर्णसंकर जाति। ३. वह जो जातिच्युत कर दिया गया हो।
⋙ विजन्मा (२)
संज्ञा पुं० उत्पत्ति। पैदाइश। जनन [को०]।
⋙ विजन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो प्रसव करने को हो। गर्भवती। गर्भिणी।
⋙ विजपिल
संज्ञा पुं० [सं०] कर्दम। कीचड़ [को०]।
⋙ विजयंत
संज्ञा पुं० [सं० विजयन्त] इंद्र का एक नाम।
⋙ विजयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विजयन्तिका] एक योगिनी का नाम।
⋙ विजयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० विजयन्ती] १. एक अप्सरा का नाम। २. ब्राह्मी बूटी।
⋙ विजय (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युद्ध या विवाद आदि में होनेवाली जीत। विपक्षी या शत्रु को दबाकर अपना प्रभुत्व या पक्ष स्थापित करना। जय। जीत। पराजय का उलटा। उ०—पांडव विजयी यह कथा राजा सुन के कान। विजय होय सब जगत में शत्रु होय क्षय जान।—सबल (शब्द०)। २. एक प्रकार का छंद जो केशव के अनुसार सवैया का मत्तगयंद नामक भेद है। ३. हरिवंश के अनुसार जयंत (इंद्र का पुत्र) के पुत्र का नाम (को०)। ४. जैनों के अनुसार पाँच अनुत्तरों में से पहला अनुत्तर या सबसे ऊपर का स्वर्ग। ५. विष्णु के एक पार्षद का नाम। ६. अर्जुन का एक नाम। ७. यम का नाम। ८. जैनियों के एक जिन देव का नाम। ९. कल्कि के एक पुत्र का नाम। १०. कालिकापुराण के अनुसार भैरववंशी कल्पराज के पुत्र का नाम जो काशिराज नाम से प्रसिद्ध थे। ११. विमान १२. संजय के एक पुत्र का नाम। १३. जयद्रथ के एक पुत्र का नाम। १४. एक प्रकार का शुभ मुहूर्त। †१५. प्रस्थान। गमन (आदारार्थ), जैसे—विजययात्रा। उ०—श्री गुसाईं जी फेरि श्री गोकुल को विजय करे।—दो सौ बावन०, पृ० १९३। १६. एक संवत्सर का नाम (को०)। १७. वर्ष का तीसरा मास (को०)। १८. एक प्रकार का सैन्य व्यूह (को०)। १९. एक प्रकार की मान या तौन (को०)। २०. जीत का पारितोषिक। लूट का माल (को०)। २१. प्रदेश। जिला (को०)। २२. एक प्रकार की बाँसुरी (को०)। २३. कृष्ण के पुत्र का नाम (को०)। २४. शिव का त्रिशूल (को०)। २५. राजकीय शिविर (को०)।
⋙ विजय † (२)
संज्ञा पुं० [सं० व्यञ्जन < पू० हिं० विजन, विजय वीजन] भोजन करना। खाना। (पूरब)।
⋙ विजयक
वि० [सं०] जो विजय करता हो। सदा जीतनेवाला।
⋙ विजयकर
वि० [सं०] दे० 'विजयक' [को०]।
⋙ विजयकुंजर
संज्ञा पुं० [सं० विजयकुञ्जर] १. राजा की सवारी का हाथी। २. लड़ाई के मैदान में जानेवाला हाथी।
⋙ विजयकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ध्वजा जो शत्रु पर विजय प्राप्त करके फहराई जाती है। विजय पताका। २. एक विद्याधर का नाम (को०)।
⋙ विजयछंद
संज्ञा पुं० [सं० विजयच्छन्द] १. पाँच सों मोतियों का हार। २. एक प्रकार का कल्पित हार, जो दो हाथ लंबा और ५०४ (कुछ के मत) से ५०० लड़ियों का माना जाता है। कहते। हैं कि ऐसा हार केवल देवता लोग पहनते हैं।
⋙ विजयडिंडिम
संज्ञा पुं० [सं० विजयडिण्डिम] प्राचीन काल का एक प्रकार का बड़ा ढोल, जो युद्ध के समय बजाया जाता था।
⋙ वियजतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ विजयदंड
संज्ञा पुं० [सं० विजयदण्ड] १. सैनिकों का वह समूह अथवा सेना का वह विभाग जो सदा विजयी रहता हो। २. सेना का एक विशिष्ट विभाग जिसपर विजय विशेष रूप से निर्भर करती है। ३. विजयसूचक दंड।
⋙ विजयदशमी
संज्ञा स्त्री० [सं० विजय (विजया) + दशमी] दे० 'विजया दशमी'।
⋙ विजयदुंदुभि
संज्ञा स्त्री० [सं० विजयदुन्दुभि] युद्ध में विजय होने पर बजनेवाला धौंसा या नगाड़ा। विजयडिंडिम [को०]।
⋙ विजय द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि का नाम [को०]।
⋙ विजयध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विजयपताका'। उ०—फिर चले छोड़कर गृह त्याग के विजयध्वज से।—अपरा, पृ० २१३।
⋙ विजयनंदन
संज्ञा पुं० [सं० विजयनन्दन] इक्ष्वाकुवंश के राजा जय का एक नाम।
⋙ विजयनगर
संज्ञा पुं० [सं०] एक नगर का नाम जो कर्नाटक के अंत- र्गत है [को०]।
⋙ विजयपताका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना में की वह पताका जो जीत के समय फहराई जाती है। २. विजय का सूचक कोई चिह्न।
⋙ वियजपर्पटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की औषध। विशेष—यह पारे, जंयती के पत्तों, रेंड़ की जड़ और अदरक आदि के योग से बनाई और संग्रहणी रोग में दी जाती है।
⋙ विजयपूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजयदशमी के उपरांत पड़नेवाली पूर्णिमा। आश्विन को पूर्णिमा। विशेष—इस तिथि को बंगाल में लक्ष्मी का पूजन होता है और उत्सव मनाया जाता है।
⋙ विजयभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस। विशेष—इसमें हड़ का छिलका, चीता, इलायची, तज, संभालू, पीपल, लोहसार आदि के योग से गंधक और पारे की कजली तैयार की जाती है। यह सब प्रकार के रोगों और दुर्बलता को दूर करनेवाला माना जाता है।
⋙ विजयभैरव तैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार तेल। विशेष—यह तेल, मालकंगनी, अजवायन, काले जीरे, मेथी और तिल को कोल्हू में पेरकर निकाला जाता है और सब प्रकार के वायुरोगों का नाशक माना जाता है।
⋙ विजयमर्दल
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। ढक्का।
⋙ विजययात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह यात्रा जो किसी पर किसी प्रकार की विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाय।
⋙ विजयरस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे, गंधक और सीसे के योग से बनता और प्रायः अजीर्ण रोग में दिया जाता है।
⋙ विजयलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजय की अधिष्ठात्री देवी। वह देवी जिसकी कृपा पर विजय निर्भर मानी जाती है।
⋙ विजयशील
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बराबर विजय करता हो। सदा जीतनेवाला।
⋙ विजयश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजय की अधिष्ठात्री देवी, जिसकी कृपा पर विजय निर्भर मानी जाती है।
⋙ विजयसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष, जिसकी लकड़ी औजार बनाने और इमारत के काम में आती है। विशेष दे०'विजैसार'।
⋙ विजयसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजयप्राप्ति। सफलता। कामयाबी [को०]।
⋙ विजया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार पार्वती की एक सखी का नाम, जो गौतम की कन्या थी। २. दुर्गा। ३. यम की भार्या का नाम। ४. हरीतकी। हर्रे। ५. बच। ६. जयंती। ७. मजीठ। ८. एक प्रकार का शमी। ९. अग्निमंथ। १०. भाँग। सिद्धि। भंग। उ०—(क) संसार के सब दुःखों और समस्त चिंताओं को जो शिवशंभु शर्मा दो चुल्लू बूटी पीकर भुला देता था, आज उसका उस प्यारी विजया पर भी मन नहीं है।—शिवशंभु० (शब्द०)। (ख) हम तो यह जानते हैं कि यदि किसी मंत्र, यंत्र से सर्पादि के डंक का कष्ट या कोई ज्वर, शूल विजयादि के विषों पर पढ़ा हुआ भी अवश्य फल करे।—श्रद्धाराम (शब्द०)। ११. एक योगिनी का नाम। १२. वर्तमान अवसर्पिणी के दूसरे अर्हत् की माता का नाम। १३. दक्ष को एक कन्या का नाम। १४. श्रीकृष्ण की माला का नाम। १५. इंद्र की पताका पर की एक कुमारी का नाम। १६. प्राचीन काल का एक प्रकार का बड़ा खेमा। १७. काश्मीर के एक पवित्र क्षेत्र का नाम। १८. दस मात्राओं का एक मात्रिक छंद जिसमें अक्षरों का कोई नियम नहीं होता और जिसके अंत में रगण रखना कर्णमधुर होता है। १९. एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं। इसके अंत में लघु और गुरु अथवा नगण भी होता है। उ०—बरन बसु चारिए। चरण प्रति धारिए। लगन ना बिसारिए। सुविजया सम्हारिए। २०. दे० 'विजयादशमी'। २१. एक विद्या का नाम जिसे ऋषि विश्वामित्र ने रामचंद्र को सिखाया था (को०)। २२. षोडश मातृकाओं में से एक का नाम।
⋙ विजया एकादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी। २. फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
⋙ विजया दशमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी। विशेष—यह हिंदुओं का और विशेषतः क्षत्रियों का एक बहुत बड़ा त्योहार है। प्राचीन काल में राजा लोग इसी दिन अपने शत्रुओं पर आक्रमण करने अथवा दिग्विजय आदि करने के लिये निकला करते थे। इस दिन देवी, घोड़े, हाथी और खड्ग आदि का पूजन तथा राजा के दर्शन करने का विधान है। इस दिन किसी नए कार्य का आरंभ करना बहुत ही शुभ समझा जाता है।
⋙ विजयानंद
संज्ञा पुं० [सं० विजयानन्द] १. संगीत में ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। २. वैद्यक में एक प्रकार की औषध जो पारे और हरताल के योग से बनाई जाती और कुष्ठरोग में में दी जाती है।
⋙ विजयाभ्युपाय
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध में विरोधी पर विजय प्राप्त करने का उपाय [को०]।
⋙ विजयार्थी
वि० [सं० विजयार्थिन्] विजय का इच्छुक। विजय पाने की कामना रखनेवाला [को०]।
⋙ विजयार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ विजयावटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की वटिका या गोली जो पारे और गंधक के योग से बनाई जाती है और जिसका व्यवहार संग्रहणी में होता है।
⋙ विजया सप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार किसी मास के शुक्ल पक्ष की वह सप्तमी जो रविवार को पड़े। विशेष—ऐसी तिथि को पुराणानुसार रामचंद्र जी का पूजन और दान करने का विधान है।
⋙ विजयी
संज्ञा पुं० [सं० विजयिन्] [वि० स्त्री० विजयिनी] १. वह जिसने विजय प्राप्त की हो। विजय करनेवाला। जीतनेवाला। उ०—(क) सीजर भी उसी धर्म के प्रभाव से ऐसी विजयी सेना संग होने पर भी काँप उठता है।—तोताराम (शब्द०)। (ख) ऐरावत विजयी द्वीरद मत्त उसके सब। मेघों से टक्कर मार खेलते हैं अब।—द्वीवेदी (शब्द०)। (ग) शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त विकल बिखरे है, हो निरुपाय, समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।—कामायनी, ५९। २. अर्जुन।
⋙ विजयेश
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम, जो विजय के देवता माने जाते हैं।
⋙ विजयोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह उत्सव जो आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को होता है। विजया दशमी को होनेवाला उत्सव। २. वह उत्सव जो किसी प्रकार की विजय प्राप्त करने पर होता है।
⋙ विजर (१)
वि० [सं०] १. जिसे जरा या बुढ़ापा न आता हो। जरा- रहित। २. नवीन। नया।
⋙ विजर (२)
संज्ञा पुं० वृक्ष का तना या डंठल [को०]।
⋙ विजरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मलोक की एक नदी का नाम।
⋙ विजर्जर
वि० [सं०] १. बहुत जीर्ण। कमजोर। २. सड़ा हुआ। जैसे काष्ठ [को०]।
⋙ विजल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल या वर्षा का अभाव। अनावृष्टि। सूखा। २. जल का न होना। पानी का अभाव। ३. दे० 'विजिल' (को०)।
⋙ विजल (२)
वि० जलहीन। निर्जल [को०]।
⋙ विजला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंचु या चेंच नाम का साग।
⋙ विजल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. सच, झूठ और तरह तरह की ऊटपटाँग बातें करना। व्यर्थ की बहुत सी बकवाद। २. किसी सज्जन या भले आदमी के संबंध में द्वेषपूर्ण झूठी बातें कहना। ३. सामान्य कथन या वार्ता (को०)।
⋙ विजल्पित
वि० [सं०] १. निरर्थक या ऊटपटाँग कहा हुआ। २. कथित। कहा। अस्पष्ट या तुतलाहट से भरा हुआ [को०]।
⋙ विजवल
वि० [सं०] पिच्छिल। फिसलाहट से भरा हुआ [को०]।
⋙ विजाग पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वियोग] विमोह। वियोग। उ०—सूरज जरत हिमंचल ताका। बिरह विजाग सौंह रथ हाँका।— जायसी (शब्द०)।
⋙ विजाग पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्राग्नि, हिं० बजागि] बिजली। उ०— छण रुचि, छटा, अकाल की, तड़ित चंचला होइ। विद्युत, संप, विजाग, विजु, दामिनि घन बिनु सोइ।—नंद० ग्र०, पृ० ८८।
⋙ विजागी पु
संज्ञा पुं० [सं० वियोगिन्] जिसका अपने प्रिय से विछोह हुआ हो। वियोगी। उ०—तेहिं के जरत जो उठै विजागी। तीनों लोक जरहिं तेहि लागी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विजात (१)
वि० [सं०] १. वर्णसंकर। दोगला। हरामजादा। २. उत्प- न्न या जनमा हुआ (को०) ३. रूपांतरित। जो दूसरे रूप में परिणत हो (को०)।
⋙ विजात (२)
संज्ञा पुं० सखी छंद का एक भेद विशेष—इसके प्रत्येक चरण में ५-५-४ के विश्राम से १४ मात्राएँ और अंत में मगण या यगण होता है। इसकी पहली और आठवीं मात्राएँ लघु रहती हैं। इसके अंत में जगण, तगण या रगण नहीं होना चाहिए।
⋙ विजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जारज लड़की। दोगली। २. वह स्त्री जिसे हाल में संतान हुई हो। जच्चा। ३. माता (को०)।
⋙ विजाति (१)
वि० [सं०] १. भिन्न या दूसरी जाति का। भिन्न वर्ग का। उ०—जो विजातियों और सजातियों में भेद नहीं मानते।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २२८।
⋙ विजाति (२)
संज्ञा स्त्री० विभिन्न जाति या वर्ग [को०]।
⋙ विजातीय
वि० [सं०] १. जो दूसरी जाति का हो। एक अथवा अपनी जाति से भिन्न जाति का। उ०—(क) हम विजातीय कार्य- कर्त्ताओं की बनाई हुई वस्तुओं को काम में लाते हैं। (ख) ब्रह्म से पृथक् कोई सजातीय, विजातीय और स्वगत अवयवों के भेद न होने से एक ब्रह्म ही सिद्ध होता है।—दयानंद (शब्द०)। २. विभिन्न प्रकार का। असमान। विषम (को०)। ३. मिली- जुली जाति का। मिश्रित जातिवाला (को०)।
⋙ विजानक
वि० [सं०] ज्ञाता। परिचित। विज्ञ [को०]।
⋙ विजानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चतुरता। बुद्धिमत्ता [को०]।
⋙ विजानना पु
क्रि० स० [सं० (उप०) वि० + हिं० जानना] जानना। भली भाँति जानना। विशेष रूप से जानना। उ०—आतम कवन अनातम को है। याकौ तत्त्व विजानत जो है।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ विजानु
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार चलाने के ३२ हाथों में से एक हाथ या प्रकार। उ०—तिमि सब्य जानु विजानु संकोचित सुआहित चित्त को।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विजापयिता
वि०, संज्ञा पुं० [सं० विजापयितृ] वह जो विजय दिलावे। विजय करानेवाला [को०]।
⋙ विजायठ †
संज्ञा पुं० [सं० विजय?]दे० 'बिजायठ'। उ०—आभूषणों में सोने के बने विजायठ, शिरोभूषण, हार, मुकुट आदि थे।— आ० भा०, पृ० ४१।
⋙ विजार
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मटिया भूमि जिसमें धान और कभी कभी चना भी बोया जाता है।
⋙ विजारत
संज्ञा स्त्री० [अ० विजा़रत] वजीर का पद, धर्म या भाव। मंत्रित्व। उ०—वजीर की तनखाह १. लाख रुपए की और विजारत के दस्तूर समेत २ लाख रुपए की सालाना है।—देवी प्रसाद (शब्द०)। २. दे० 'वजारत'।
⋙ विजारौ पु †
वि० [देश० या सं० विजेतृ = विजेतर्] विजय करनेवाला। उ०—छात्र विजारौ सोनगिर, वात सुणै संसार।— रा० रू०, पृ० ३५५।
⋙ विजिगीत
वि० [सं०] ख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर [को०]।
⋙ विजिगीष
वि० [सं०] विजिगोषु। विजयेच्छु [को०]।
⋙ विजिगीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह इच्छा जिसके अनुसार मनुष्य यह चाहता है कि मुझे कोई यह न कह सके कि मैं अपना पेट पालने में असमर्थ हूँ। २. विजय प्राप्त करने की इच्छा। उ०— परस्पर की विजिगीषा के कारण दोनों दल जीतोड़ परिश्रम करेंगे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३२४। ३. व्यवहार। ४. उत्कर्ष। उन्नति।
⋙ विजिगीषु
वि० [सं०] १. विजय की इच्छा करनेवाला। २. महत्वा- कांक्षी (को०)। ३. योद्धा। शूर वीर (को०)। ४. प्रतिद्वंदी। प्रतिपक्षी (को०)।
⋙ विजिगीषुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजिगीषु होने भाव या धर्म।
⋙ विजिघत्स
वि० [सं] भूख पर विजय पानेवाला [को०]।
⋙ विजिघांसु
वि० [सं०] मारने की इच्छा रखनेवाला। हनन या विनाश करने को उस्तुक [को०]।
⋙ विजिज्ञासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जानने की विशिष्ट इच्छा। २. अन्वे- षण। शोध। खोज [को०]।
⋙ विजिज्ञासु
वि० [सं०] जो पूर्णतया जानना चाहता हो। जानने समझने की इच्छावाला। [को०]।
⋙ विजिट
संज्ञा स्त्री० [अं० विजि़ट] १. भेंट। मुलाकात। २. डाक्टर आदि का रोगी के देखने के लिये आना। उ०—मालती को भी एक विजिट करनी थी।—गोदान, पृ० १३४। ३. वह धन जो डाक्टर आदि को आने के उपलक्ष्य में दिया जाय। डाक्टर की फीस।
⋙ विजिटर
वि० [अं० विजि़टर] विजिट करनेवाला [को०]।
⋙ विजिटर्स बुक
संज्ञा स्त्री० [अ० विजि़टर्स बुक] किसी सार्वजनिक संस्था की वह पुस्तक जिसमें वहाँ के आने जानेवाले अपना नाम और कभी कभी उस संस्था के संबंध में अपनी संमति भी लिखते हैं।
⋙ विजिटिंग कार्ड
संज्ञा पुं० [अं० विजिटिंग कार्ड] एक प्रकार का बढ़िया छोटा कार्ड जिसपर लोग अपना नाम, पद और पता छपवा लेते हैं, और जब किसी से मिलने जाते हैं; तब उसे अपने आगमन की सूचना देने के लिये पहले यह कार्ड उसके पास भेज देते हैं।
⋙ विजित
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसपर विजय प्राप्त की गई हो। वह जो जीत लिया गया हो। २. वह प्रदेश जिसपर विजय प्राप्त की गई हो। जीता हुआ देश। ३. कोई प्रांत या प्रदेश। ४. फलित ज्योतिष में वह ग्रह जो युद्ध में किसी दूसरे ग्रह से बल में कम होता है। ५. जीत। विजय (को०)।
⋙ विजितवान्
वि० [सं० विजितवत्] विजेता। विजयी [को०]।
⋙ विजिता (१)
संज्ञा पुं० [सं० विजितृ] १. निर्णायक। २. भागीदार। हिस्सेदार [को०]।
⋙ विजिता (२)
वि० १. पृथक्। २. भीत। डरा हुआ। ३. कंपित [को०]।
⋙ विजितात्मा
संज्ञा पुं० [सं० विजितात्मन्] १. शिव का एक नाम। २. वह जिसने अपनी वासनाओं का दमन कर लिया हो।
⋙ विजितामित्र
वि० [सं०] अमित्रों को जीतनेवाला। शत्रुंजय। विजितारि [को०]।
⋙ विजितारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम। २. वह जिसने अपने शत्रु को जीत लिया हो।
⋙ विजिताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] राजा पृथु के एक पुत्र का नाम।
⋙ विजितासु
संज्ञा पुं० [सं०] एक मुनि का नाम [को०]।
⋙ विजिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विजय। जीत। २. प्राप्ति।
⋙ विजिती
वि० [सं० विजितिन्] विजयी [को०]।
⋙ विजितेंद्रिय
वि० [सं० विजितेन्द्रिय]दे० 'जितेंद्रिय' [को०]।
⋙ विजितेय
वि० [सं०] जिसे जीतना हो। विजय करने योग्य [को०]।
⋙ विजित्वर
वि० [सं०] जीतनेवाला। विजेता।
⋙ विजित्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम।
⋙ विजिन
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विजिल'।
⋙ विजिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा भोजन जिसमें अधिक रस न हो। २. एक प्रकार का दही।
⋙ विजिविल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विजिल' [को०]।
⋙ विजिहीर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनोरंजन की लालसा। २. घूमने की कामना [को०]।
⋙ विजिहीर्षु
वि० [सं०] मनोरंजन या घूमने के लिये इच्छुक [को०]।
⋙ विजिह्म
वि० [सं०] १. कुटिल। झुका हुआ। मुड़ा हुआ। २. बेइ- मानी। ३. तिरछा। टेढ़ा। ४. शून्य। ५. निष्प्रभ। फीका। विच्छाय [को०]।
⋙ विजिह्न
वि० [सं०] १. जिह्वारहित। २. मूक। गूँगा [को०]।
⋙ विजीवित
वि० [सं०] प्राणहीन। मृत [को०]।
⋙ विजीष
वि० [सं०] जिसे जय प्राप्त करने की इच्छा हो।
⋙ विजु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी के शरीर का वह अग जहाँ से डैने निकलते हैं [को०]।
⋙ विजु पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्, प्रा० विज्जु] बिजली। उ०—विद्युत संप विजाग विजु दामिनि घन बिनु सोइ।—नंद० ग्रं०, पृ० ८८
⋙ विजुल
संज्ञा पुं० [सं०] शाल्मलि कंद।
⋙ विजुली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार एक देवी का नाम।
⋙ विजुली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्] दे० 'बिजली'।
⋙ विजृंभ
संज्ञा पुं० [सं० विजृम्भ] १. सिकोड़ना। संकोचन (भौंह आदि का)। २. जँभाई [को०]।
⋙ विजृंभक
संज्ञा पुं० [सं० विजृम्भक] एक विद्याधर [को०]।
⋙ विजृंभण
संज्ञा पुं० [सं० विजम्भण] १. किसी पदार्थ का मुँह खोलना। २. बौर आना। कली आना। खिलना। ३. जँभाई लेना। उबासी लेना। ४. धनुष की डोरी खींचना। ५. (भौं) सिकोड़ना। ६. कामक्रीड़ा। आमोद प्रमोद। रँगरेली (को०)।
⋙ विजृंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० विजृभ्भा] उबासी। जँभाई।
⋙ विजृंभिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विजृंम्भिका] १. जृंभा। जंभाई। २. हफनी। हाँफ [को०]।
⋙ विजृंभित (१)
वि० [सं० बिजृम्भित] १. जम्हाई लिया हुआ। २. उद्धाटित। विकसित। फैलाया हुआ। ३. प्रदर्शित। ४. उपस्थित। आविर्भूत। ५. क्रीडित। खेला हुआ [को०]।
⋙ विजृंभित (२)
संज्ञा पुं० १. क्रीड़ा। मनोरंजन। २. अभिलाषा। इच्छा। ३. प्रदर्शन। प्रदर्शनी। ४. कृत्य। कर्म। आचार। ५. फल। परिणाम। ३. जंभाई [को०]।
⋙ विजेतव्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विजेतब्या] जो विजित करने के योग्य हो। जो जीतने के योग्य हो।
⋙ विजेता
संज्ञा पुं० [सं० विजेतृ] जिसने विजय पाई हो। जीतनेवाला। विजय करनेवाला।
⋙ विजेय
वि० [सं०] जिसपर विजय प्राप्त की जाने को हो। जीता जाने के योग्य।
⋙ विजै पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विजय]दे० 'विजय'। उ०—हारि जात नर करि उपाय। कपट न तिनको यह कँपाय। सोइ अकंपन पद कहाय। त्रैलोक्य विजै जौ रहा पाय।—देव स्वामी (शब्द०)।
⋙ विजैसार
संज्ञा पुं० [सं० विजयसार] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जो साल का एक भेद माना जाता है। विशेष—यह पूर्वी भारत तथा बरमा में बहुत अधिकता से पाया जाता है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और खेत के औजार बनाने तथा इमारत आदि के काम में आती है।
⋙ विजैसाल
संज्ञा पुं० [सं० विजयसार]दे० 'विजैसार'।
⋙ विजोग पु
संज्ञा पुं० [सं० वियोग] बिछोह। वियोग। उ०—जूँ राणी सूँ पड़इ विजोग।—बी० रासो, पृ० ६३।
⋙ विजोगी
वि० [सं० वियोगी]दे० 'वियोगी'।
⋙ विजोर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बीजपूरक]दे० 'बिजौरा'।
⋙ विजोर (२)
वि० [हिं० वि + जोर (= बल)] अशक्त। निर्बल। कमजोर। उ०—जीव को सुख दुख तनु सँग होई। जोर विजोर तन के संग सोई।—सूर (शब्द०)।
⋙ विजोहा
संज्ञा पुं० [सं० विमोहा] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण होते हैं। इसे 'जोहा', 'विमोहा' और 'विज्जोहा' भी कहते है।
⋙ विज्जन
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विज्जल'।
⋙ विज्जनु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० विज्ज] बिजली। विद्युत्। उ०—प्राची प्रमान संमुह अनिय मुष पंगुर विज्जनु मनिय।—पृ० रा०, ५५।७।
⋙ विज्जल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की लपसी या चटनी। २. शर। तीर। वाण। ३. शाल्मली कंद [को०]।
⋙ विज्जल (२)
वि० फिसलनेवाला। पिच्छल [को०]।
⋙ विज्जलत्ता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युल्ल्ता] बिजली। विद्युत् की लता। दे० 'बिजली'। उ०—ठनक्कंत घंटा बलै अंग मोरै। मनौं कूलटा छैल चित चालि चोरै। झमैकंत दती सुनैनं बिराजैं। मनौं बिज्जलत्ता नभं मध्य छाजैं। ब—पृ० दा०, १२।१७८।
⋙ विज्जव
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष प्रकार का वाण या तीर।
⋙ विज्जाहार पु
संज्ञा पुं० [सं० विद्याधर; प्रा०] उ०—इंद चंद सुर सिद्ध चरण विज्जाहारणह भरिञ वीर जुज्झ देष्खह कारण।—कीर्ति०, पृ० १०६।
⋙ विज्जिल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विज्जल' [को०]।
⋙ विज्जु पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्] विद्युत। बिजली। उ०—ससि विज्जु मनहुँ दोउ दिसि बसत उड़गन को बखतर धरे।— गोपाल (शब्द०)।
⋙ विज्जुझला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युज्ज्वाला, प्रा० विज्जुझला] बिजली की चमक। विद्युत् की ज्योति। उ०—तरवारि चमक्कइ विज्जुझला।—कीर्ति०, पृ० ११०।
⋙ विज्जुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्वचा। छिलका। २. दारचीनी।
⋙ विज्जुलता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युल्लता] विद्युत्। बिजली। उ०— कर लीने मनि रस्मि रस्मि राह फैलि अथोरी। विज्जुलता बढ़ि मनहुँ रची बिसुकरमा डोरी।—गोपालचंद्र (शब्द०)।
⋙ विज्जुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जतुका या पहाड़ी नाम की लता।
⋙ विज्जोहा
संज्ञा पुं० [सं० विमोहा] दे० 'विजोहा'।
⋙ विज्ञ (१)
वि० [सं०] १. जो जानता हो। जानकार। २. बुद्धिमान्। समझदार। ३. विद्वान्। पंडित।
⋙ विज्ञ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्धिमान् व्यक्ति। पंडित। २. मुनि। ऋषि [को०]।
⋙ विज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विज्ञ होने का भाव। जानकारी। २. बुद्धिमत्ता। ३. पांडित्य। विद्वत्ता।
⋙ विज्ञत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विज्ञता'।
⋙ विज्ञप्त
वि० [सं०] जो बतलाया या सूचित किया गया हो। जतलाया हुआ।
⋙ विज्ञप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जतलाने या सूचित करने की क्रिया। २. विज्ञापन। इश्तहार। ३. शिक्षा। उपदेश (को०)। ४. निवेदन। प्रार्थना (को०)।
⋙ विज्ञाप्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रार्थना। निवेदन।
⋙ विज्ञबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी।
⋙ विज्ञराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषिश्रेष्ठ। २. पंडितराज [को०]।
⋙ विज्ञात
वि० [सं०] १. जाना या समझा हुआ। २. प्रसिद्ध। मशहूर।
⋙ विज्ञातवीर्य
वि० [सं०] जिसकी शक्ति प्रख्य़ात हो [को०]।
⋙ विज्ञातव्य
वि० [सं०] जो जानने या समझने के योग्य हो।
⋙ विज्ञातस्थाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामान्य ढंग से तैयार किया हुआ पात्र [को०]।
⋙ विज्ञाता
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञातृ] वह जो जानता या समझता हो।
⋙ विज्ञातार्थ
वि० [सं०] जो स्थिति को जानता हो या जो उससे अच्छी तरह परिचित हो।
⋙ विज्ञाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्ञान। समझ। २. जानकारी। ३. एक प्रकार की देवयोनि जिसे गय भी कहते हैं। ४. एक कल्प का नाम।
⋙ विज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्ञान। जानकारी। २. किसी विशिष्ट विषय के तत्वों या सिद्धांतों आदि का विशेष रूप से प्राप्त किया हुआ ज्ञान जो ठीक क्रम से एकत्र या संगृहीत हो। किसी विषय की जानी हुई बातों का ठीक तरह से किया हुआ संग्रह जो एक अलग शास्त्र के रूप में हो। शास्त्र। जैसे,—पदार्थ विज्ञान, राजनीति विज्ञान, शरीर विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान, समाज- विज्ञान आदि। ३. किसी विषय का अनुभवजन्य, पूरा और अच्छा ज्ञान। कार्यकुशलता। ४. कर्म। ५. माया या अविद्या नाम की वृत्ति। ६. बौद्धों के अनुसार आत्मा के स्वरूप का ज्ञान। आत्मा का अनुभव। ७. ब्रह्म। ८. आत्मा। ९. आकाश। १०. निश्चयात्मिका बुद्धि। ११. मोक्ष। १२. संगीत (को०)। १३. चौदह विद्याओं का ज्ञान (को०)। १४. व्यवसाय। नियोजन (को०)।
⋙ विज्ञानकृत्स्न
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र का एक कृत्स्न। (बौद्ध०)।
⋙ विज्ञानकेवल
संज्ञा पुं० [सं०] जीवात्मा [को०]।
⋙ विज्ञानकोश
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत के अनुसार ज्ञानेंद्रियाँ और बुद्धि। विज्ञानमय कोश। विशेष दे० 'कोष'।
⋙ विज्ञानधन
संज्ञा पुं० [सं०] केवल ज्ञान। विशुद्ध ज्ञान [को०]।
⋙ विज्ञानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विज्ञान का भाव या धर्म।
⋙ विज्ञानपति
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो परम ज्ञानी हो।
⋙ विज्ञानपाद
संज्ञा पुं० [सं०] वेदव्यास का एक नाम।
⋙ विज्ञानमय
वि० [सं०] प्रज्ञायुक्त। विशुद्ध ज्ञान से मंडित [को०]।
⋙ विज्ञानमय कोष
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञानेंद्रियों और बुद्धि का समूह। विशेष दे० 'कोष'।
⋙ विज्ञानमातृक
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धि का एक नाम।
⋙ विज्ञानयोग
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध ज्ञान तक पहुँचने का साधन। प्रमाण [को०]।
⋙ विज्ञानवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वाद या सिद्धांत जिसमें ब्रह्म और आत्त्मा की एकता प्रतिपादित हो। उ०—विज्ञानवाद को मैं अब तक इतना प्रिय समझता था।—मानव०, पृ० ४१७। २. वह वाद या सिद्धांत जिसमें केवल आधुनिक विज्ञान की बातें ही प्रतिपादित या मान्य की गई हों।
⋙ विज्ञानवादी
संज्ञा पुं० [सं० बिज्ञानवादिन्] १. वह जो योग के मार्ग का अनुसरण करता हो। योगी। २. वह जो आधुनिक विज्ञान शास्त्र का पक्षपाती हो। विज्ञान के मत का समर्थन करनेवाला।
⋙ विज्ञानहंस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परमहंस'। उ०—और ब्रह्मज्ञानी स बढ़कर विज्ञानहंस है।—कबीर मं०, पृ० ३०६।
⋙ विज्ञानिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिसे ज्ञान हो। २. विज्ञ। पंडित। ३. दे० 'वैज्ञानिक'।
⋙ विज्ञानिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विज्ञानी का भाव या धर्म। किसी विषय का पूर्ण ज्ञान।
⋙ विज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञानिन्] १. वह जिसे किसी विषय का अच्छा ज्ञान हो। २. वह जो किसी विज्ञान का अच्छा वेत्ता हो। वैज्ञानिक। ३. वह जिसे आत्मा तथा ईश्वर आदि के स्वरूप के संबंध में विशेष ज्ञान हो।
⋙ विज्ञानीय
वि० [सं०] विज्ञान संबंधी। वैज्ञानिक।
⋙ विज्ञानेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक महात्मा का नाम जिन्होंने याज्ञ- वल्क्य स्मृति की व्याख्या मिताक्षरा नाम से की थी। उ०— हिंदू व्यवहार के प्रसिद्ध व्याख्याता तथा 'मिताक्षरा' के के उन्नायक तथा विधायक विज्ञानेश्वर उसी के आश्रय में रहते थे।—आ० भा०, पृ० ५५८।
⋙ विज्ञापक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विज्ञापन करता हो। समझाने, बतलाने या जतलानेवाला।
⋙ विज्ञापन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विज्ञापनीय] १. किसी बात को बतलाने या जतलाने की क्रिया। जानकारी कराना। सूचना देना। २. वह पत्र या सूचना आदि जिसके द्वारा कोई बात लोगों को बतलाई जाय। इश्तहार। ३. निवेदन। प्रार्थना (को०)।
⋙ विज्ञापना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विज्ञप्त करना। जतलाना। बतलाना। २. निवेदन (को०)।
⋙ विज्ञापनीय
वि० [सं०] १. जो बतलाने या जतलाने के योग्य हो। सूचिंत करने के योग्य। २. निर्वदनोय। प्रार्थनीय।
⋙ विज्ञापित
वि० [सं०] १. जो बतलाया जा चुका हो जिसको सूचना दी जा चुकी हो। २. जिसका इश्तहार दिया जा चुका हो।
⋙ विज्ञापी
वि० [सं० विज्ञापिन्] जतलाने या बतलानेवाला। सूचना देनेवाला।
⋙ विज्ञाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विज्ञाप्ति'।
⋙ विज्ञाप्य (१)
वि० [सं०] बतलाने योग्य। सूचित करने योग्य।
⋙ विज्ञाप्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रार्थना। निवेदन [को०]।
⋙ विज्ञिप्सु
वि० [सं०] जतलाने, सूचना देने अथवा निवेदन करने का अभिलाषी। [को०]।
⋙ विज्ञेय
वि० [सं०] १. जो जानने, सीखने, या समझने के योग्य हो। २. सम्मान्य (को०)।
⋙ विज्य
वि० [सं०] जिस धनुष से कसी डोर उतार दी गई हो। (वह धनुष) जिसमें डोर न हो। २. (धनुष) जो गुण या प्रत्यंचा विहीन हो [को०]।
⋙ विज्वर
वि० [सं०] १. जिसका ज्वर उतर गया हो। जिसका बुखार छूट गया हो। २. जिसे सब प्रकार की चिंताओं से छुटकारा मिल गया हो। निश्चिंत। बेफिक्र। ३. जो सब प्रकार के क्लेशों आदि से मुक्त हो। जिसे किसी प्रकार का शोक या सताप न हो।
⋙ विझर्झर
वि० [सं०] १ अप्रिय। २. विषम। बेमेल [को०]।
⋙ विटंक (१)
वि० [सं० विटङ्क] सुंदर। मनोहर।
⋙ विंटक (२)
संज्ञा पुं० १. सब से ऊँचा सिरा या स्थान। २. पक्षियों का पिंजड़ा। कबूतर का दरबा। काबुक। ३. बड़ी ककड़ी।
⋙ विटंकक (१)
वि० संज्ञा पुं० [सं० विटङ्क्क]दे० 'विटंक' [को०]।
⋙ विटंकित
वि० [सं० बिटङ्कित] १. टंकित। मुद्रांकित। २. उत्थित। खड़ा हुआ। अंचित [को०]।
⋙ विट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसमें कामवासना बहुत आधिक हो। कामुक। लपट। २. वह जो किसी वेश्या का यार हो या जिसने किसी वेश्या को रख लिया हो। ३. धूर्त। चालाक। ४. साहित्य में एक प्रकार का नायक। साहित्यदर्पण के अनुसार जो व्यक्ति विषय भोग में अपनी सारी संपत्ति नष्ट कर चुका हो, भारी धूर्त हो, फल या परिणाम का एक ही अंग देखता हो, वेष भूषा और बातें बनाने में बहुत चतुर हो, वह विट कहलाता है। ५. एक पर्वत का नाम। ६. एक प्रकार का खैर जिसे 'दुर्गंध खैर' भी कहते हैं। ७. नारंगी का वृक्ष। ८. चूहा। ९. साँवर नमक। १०. विष्टा। गुह। मल। उ०— (क) कवि भस्म विट परिनाम तन तेहि लागि जगु बैरी भयो। (ख) पाछे तें शूकर सुत आवा। विट ऊपर मुख मारि गिरावा।—विश्राम (शब्द०)। ११. (नाटक में) एक पात्र। नायक का सखा (को०)। १२. गांडू। इल्लती (को०)। १३. पल्लवयुक्त शाखा। पत्तोंवाली डाली (को०)।
⋙ विटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल की एक जाति का नाम। २. पुराणानुसार एक प्राचीन देश जो नर्मदा नदी के तट पर था। ३. फोड़ा। ब्रण।
⋙ विटकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० विटकान्ता] हरिद्रा। हल्दी [को०]।
⋙ विटका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विटों के मिलने का कक्ष [को०]।
⋙ विटकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ विटकृमि
संज्ञा पुं० [सं०] चुन्ना या चुनचुना नाम का कीड़ा जो बच्चों की गुदा में उत्पन्न होता है।
⋙ विटप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष या लता की नई शाखा। कोंपल। २. छतनार पेड़। झाड़ी। ३. वृक्ष। पेड़। उ०—ठहर गए नृप वहीं विटप की छाँह में, हुआ विस्फुरण शकुनरूप वर बाँह में।—शकुं०, पृ० ४७। ४. आदित्य पत्र। ५. विस्तार। फैलाव (को०)। ६. लता (को०)। ७. अंडकोश पटल (को०)।
⋙ विटपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्ट। पाजी। २. वृक्ष (को०)।
⋙ विटपि
संज्ञा पुं० [सं० विटपी]दे० 'विटपी'। उ०—नियममयी उलझन लतिका का भाव विटपि से आकार मिलना। जीवन वन की बनी समस्या आशा नभकुसुमों का खिलना।—कामा- यनी, पृ० २६५।
⋙ विटपिमृग
संज्ञा पुं० [सं०] वानर। बंदर [को०]।
⋙ विटपी
संज्ञा पुं० [सं० विटपिन्] १. जिसमें नई शाखाएँ या कोंपलें निकली हों। २. वृक्ष। पेड़। उ०—बढ़ते हैं विटपी जिधर चाहता मन है।—साकेत, पृ० २१२। ३. अंजीर का पेड़। ४. वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
⋙ विटपीमृग
संज्ञा पुं० [सं०] शाखामृग। बंदर।
⋙ विटपेटक
संज्ञा पुं० [सं०] धूर्तमंडली। धूर्तो का समुदाय [को०]।
⋙ विटप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] मोगरा नामक फूल या उसका पौधा।
⋙ विटभूत
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक असुर का नाम।
⋙ विटमाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी नाम का खनिज द्रव्य।
⋙ विटलवण
संज्ञा पुं० [सं०] साँचर नमक।
⋙ विटवल्लभा
संज्ञा स्ञी० [सं०] पाटली वृक्ष।
⋙ विटाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धूर्तो का मिलन कक्ष। विट लोगों का आश्रय या गृह। २. एक प्रकार का मुस्तक या मोथा [को०]।
⋙ विटि, विटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाल चंदन। २. पीत चंदन [को०]।
⋙ विट्
संज्ञा पुं० [सं०] साँचर नमक।
⋙ विट्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष। जहर। २. मल (को०)।
⋙ विट्घात
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात नामक रोग।
⋙ विट्चर
संज्ञा पुं० [सं०] गांवों में रहनेवाला सूअर।
⋙ विट्ठल
संज्ञा पुं० [सं०] पंढरपुर (महाराष्ट्र) की विष्णु की एक मूर्त्ति का नाम।
⋙ विट्पति
संज्ञा पुं० [सं०] जामाता। दामाद।
⋙ विट् प्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुमार या सूँस नामक जलजंतु।
⋙ विट्शूल
संज्ञा पुं० [सं०] शुश्रृत के अनुसार एक प्रकार का शूल रोग।
⋙ विट्संग
संज्ञा पुं० [सं० विट्सङ्ग] मलरोध। कब्जियत।
⋙ विट्सारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ विठंक
वि० [सं० विठङ्क] नीच। दुर्वृत्त। कमीना [को०]।
⋙ विठर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति का एक नाम। २. बावदूक। वाग्मी व्यक्ति। पंडित। ३. मूर्ख आदमी [को०]।
⋙ विठल
संज्ञा पुं० [सं० विट्ठल ?] दे० 'विट्ठल'।
⋙ विठोबा
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'विट्ठल'।
⋙ विठ्ठल
संज्ञा पुं० [सं० या सं० विष्टरश्रवस् = विष्णु (कृष्ण) के एक नाम का संक्षिप्त रूप, स० विष्टर> प्रा० विठ्ठल] १. विष्णु या कृष्ण की एक मूर्ति जो पंढरपुर में है।
⋙ विठ्ठलनाथ
संज्ञा पुं० [हिं०] वल्लभाचार्य के द्वीतीय पुत्र का नाम जिन्होंने 'वल्लभ मत' के आठ प्रधान भक्त कवियों को लेकर 'अष्ट छाप' की स्थापना की।
⋙ विडंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० विडङ्ग] बायबिडंग।
⋙ विडंग (२)
वि० अभिज्ञ। जानकार। निपुण [को०]।
⋙ विडंग (३)
संज्ञा पुं० [देश०] अश्व। घोड़ा। उ०—तिणिमइ लेस्या टालिमा वाँकड मुहाँ विडंग—ढोला०, दू० २२७।
⋙ विड़ँग पु
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ा। उ०—निस प्रथम जाम आलोझनर, दारण सोनागिर दुरग। कर वाचपाद अकबर कुशल, वीदहरे सझिया विड़ँग।—रा० रू०, पृ० १७०।
⋙ विडंगी पु
वि० [हिं० बेढंग] बेढंगी। उ०—आया मृग मार सेसनू' आखे बंधव सूणो सबीता। दारुण कुटी विडंगी दीसै सही गमाई सीता।—रघु० रू०, पृ० १३८।
⋙ विडंब (१)
संज्ञा पुं० [सं० विडम्ब] १. नकल। अनुकरण। २. दुखी करना। तंग करना। ३. मजाक। परिहास। ठिठोली [को०]।
⋙ विडंब
वि० १. अनुकरण। करनेवाला। नकल करनेवाला।
⋙ विडंबक
संज्ञा० पुं० [सं० विडम्बक] १. ठीक ठीक अनुकरण करनेवाला। पूरी पूरी नकल करनेवाला। २. अनुकरण करके चिढ़ाने या अपमान करनेवाला। ३. निंदा या परिहास करनेवाला।
⋙ विडंबन
संज्ञा पुं० [सं० विडम्बन] १. किसी के रंगढंग या चाल- ढाल आदि का ठीक ठीक अनुकरण करना। पूरी पूरी नकल करना। २. चिढ़ाने या अपमानित करने के लिये नकल करना। भाँड़पन करना। मजाक करना। मजाक का विषय बनाना। ३. निंदा या उपहास करना। ४. धोखेबाजी। जालसाजी (को०)। ५. क्लेश। संताप (को०)। ६. निराश करना (को०)।
⋙ विडंबना
संज्ञा स्त्री० [सं० विडम्बना] [वि० विडंबनीय, विडंबित] १. अनुकरण करना। नकल उतारना। २. किसी को चिढ़ाने या बनाने के लिये उसकी नकल उतारना। ३. हँसी उडा़ना। मजाक करना। ४. हँसी का विषय। उ०—संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर हृदय को धोखा देता रहा। परंतु कैसी विडंबना ! लक्ष्मी के लालों के भ्रूभंग और क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्या ?—स्कंद० पृ० १६। ५. डाँटना डपटना। फटकारना। दे० 'विडंबन'।
⋙ विडंबनीय
वि० [सं० विडम्बनीय] १. जो अनुकरण करने के योग्य हो। नकल उतारने लायक। २. चिढ़ाने या उपहास करने योग्य। दे० 'विडंबित'।
⋙ विडंबित
वि० [सं० विडम्बित] १. नकल किया हुआ। २. जिसका परिहास किया गया हो। ३. वंचित। छला हुआ। ४. संतप्त किया हुआ। जो हताश किया गया हो। ५. नीच। हेय। कमीना।
⋙ विडंबी
संज्ञा पुं० [सं० विडम्बिन्] वह जो किसी प्रकार की विडंबना करता हो। विडबना करनेवाला।
⋙ विडंब्य
संज्ञा पुं० [सं० विडम्ब्य] वह जो विडंबना के लायक हो। उपहास का विषय [को०]।
⋙ विड
संज्ञा पुं० [सं०] १. विट् लवण। काला नमक। २. खंड। अंश। टुकड़ा (को०)।
⋙ विडगंड
संज्ञा पुं० [सं० विडगण्ड] विट् लवण। साँचर नामक।
⋙ विड़द ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बिरद] दे० 'विरुद'। उ०—भाट विड़द तिहाँ ऊचरै। धनि धनि हो वीसल चहूँवाण—बी० रासो, पृ० ११०।
⋙ विडरना पु †
क्रि० अ० [सं० विधारित ? या सं० तलव, हिं० डालना या सं० वितरण] १. इधर उधर होना। तितर बितर होना। उ०—(क) विडरत बिझुकि जानि रथ ते मृग जनु ससंकि शशि लंगर सारे।—सूर (शब्द०)। (ख) जानत नहीं कौन गुण यहि तन जाते सब विडरे।—सूर०। २. भागना। दौड़ना। उ०—हाँके मुगल ताल की जोरी। भजें विडरि बालक चहुँ ओरी।—छत्रप्रकाश (शब्द०)। ३. चौंकना। भौचक होना। ४. डरना। भीत होना।
⋙ विडराना पु †
क्रि० स० दे०। 'विडारना'।
⋙ विडाँणा, विडाणा पु †
वि० [देश०] [वि० स्त्री० बिडाँणी] बिराना। विगाना। पराया। उ०—(क) थल मथ्थइ ऊजासड़इ, थे इण केहइ रंग। धण लीजइ प्री मारिजइ, छाँड़ि विड़ाँणउ संग।— ढोला०, दू० ६३२। (ख) रामनाम निशि दिन भजो तजो विड़ाणी तात। जन हरिया नर देह सो औसर बीतो जात।— राम० धर्म०, पृ० ५८। (ग) आँखडियाँ डंवर हुई नयण गमाया रोय। से साजण परदेश महँ रह्या विडाणा होय।— ढोला०, दू० १६५।
⋙ विडारक
संज्ञा पुं० [सं०] विडाल। बिल्ली।
⋙ विडारना
क्रि० स० [हिं० विडरना का सक० रूप] १. तितर बितर करना। इधर उधर करना। छितराना। उ०—हारे लै बिडारे जोइ। पति पै पुकारे कहो वजमारे मति जोवो हरि गाम्।— नाभादास (शब्द०)। २. नष्ट करना। उ०—विष्वकसेन रूप हरि लेगे कोन्हों शिव को हेत। असुर मारि सब तुरत विडारे दीन्हे रुद्र निकेत।—सूर (शब्द०)। ३. भगाना। दौड़ाना। ४. चौंकाना। आश्चर्यचकित कर दोना।
⋙ विडाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख का पिंड। २. आँख की एक प्रकार की दवा जो जेठी मधु, गेरू, दारु हल्दी और रसांजन आदि से बनती है और जिसका आँख के चारों ओर लेप किया जाता है। ३. आँख के चारों ओर किया जानेवाला कोई लेप। ४. बिल्ली। ५. गंधमार्जार। मुश्क बिलाव। ६. हरताल। दे० 'बिडाल'।
⋙ विडालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल। २. बिल्ली। ३. आँख की एक औषध। विडाल।
⋙ विडालपद
संज्ञा पुं० [सं०] दो तोले का परिमाण।
⋙ विडालपदक
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक परिभाषा के अनुसार एक कर्म का परिमाण।
⋙ विडालाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम जो महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में गया था।
⋙ विडालाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी का नाम [को०]।
⋙ विडाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदारी कंद। २. बिल्ली।
⋙ विडीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षियों की उड़ान का एक प्रकार।
⋙ विडीनक
संज्ञा सं० [सं०] पक्षियों की उड़ान का एक भेद। पक्षियों का अलग अलग होकर उड़ना [को०]।
⋙ विड्डल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बेत [को०]।
⋙ विडूरज
संज्ञा पुं० [सं०] एक बहुमूल्य रत्न। वैदूर्य मणि [को०]।
⋙ विडोजा, विडौजा
संज्ञा पुं० [सं० विडोजस् विडौजस्] इंद्र का एक नाम।
⋙ विड्
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विड' [को०]।
⋙ विड्गंध
संज्ञा पुं० [सं० विड्गन्ध] विड लवण।
⋙ विड्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कोष्ठबद्धता। कब्जियत। मलरोध।
⋙ विड्घात
संज्ञा पुं० [सं०] मलमूत्र का अवरोध। पेशाब और पाखाना रुकना।
⋙ विड्ज
संज्ञा पुं० [सं०] विष्ठा आदि से उत्पन्न होनेवाले कीड़े मकोड़े।
⋙ विड्ड
संज्ञा पुं० [सं०] अस्थि। हड्डी [को०]।
⋙ विड्ढल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विठ्ठल' [को०]।
⋙ विड्बंध
संज्ञा पुं० [सं० विड्बन्ध] मल का अवरोध। कब्जियत।
⋙ विड्भंग
संज्ञा पुं० [सं० विड्भ्ङ्ग] बहुत दस्त होना। पेट चलना।
⋙ विड्भव
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विड्ज' [को०]।
⋙ विड्भुक
संज्ञा पुं० [सं० बिड्भुज्] १. गुबरैला। २. सूअर [को०]।
⋙ विड्भेद
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत दस्त होना। पेट चलना।
⋙ विड्भेदी
संज्ञा पुं० [सं० विड्भेदिन्] वह ओषधि या द्रव्य जो विरेचक हो। दस्तावर चीज या दवा।
⋙ विड्भोजी
संज्ञा पुं० [सं० विड्भोजिन्] वह जो विष्ठा खाता हो। शूकर, गुबरैला आदि।
⋙ विड्लवण
संज्ञा पुं० [सं०] विट्लवण। साँचर नमक।
⋙ विड्वराह
संज्ञा पुं० [सं०] गाँवों में रहनेवाला सूअर।
⋙ विड्विघात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मूत्रघात रोग।
⋙ विढना पु †
क्रि० अ० [सं० वि + दहन तुल० हिं० बेढ़ना] युद्ध करना। भिड़ना उ०—आया साह अलावदी, विढ कटकाँसूँ वीर।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ८१।
⋙ विणज †
संज्ञा पुं० [सं० वणिज्] व्यापार उ०—दारुण नगर सक जुत देखे। दोलत विणज बजार न देखे।—रधु० रू०, १।११२।
⋙ विणठना †
क्रि० अ० [सं० विनष्ट, प्रा० विणाट्ठ + हिं० ना (प्रत्य०)] नष्ट होना। उ०—तन विणठा जीउ खेलिया छाडि चलिया घर घारु।—प्राण०, पृ० २५९।
⋙ विणसना †
क्रि० अ० [सं० विनशन] नष्ट होना। उ०—कलिजुग पाप जअवतरयो रजि के कारण विणसस लंक।—बी० रासो, पृ० ८९।
⋙ विणास †
संज्ञा पुं० [प्र०] दे० 'विनाश'। उ०—अस्त्री चरित गति को लहइ ? एकई आखर रस सबइ विणास।—बी० रासो, पृ० २।
⋙ वितंड
संज्ञा पुं० [सं० वितण्ड] १. हाथी। २. एक प्रकार का ताला (को०)।
⋙ वितंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० वितण्डा] १. न्यायशास्त्र में सोलह प्रकार की तर्क प्रणालियों में से एक। दूसरे के पक्ष को दबाते हुए अपने मत की स्थापना करना। २. व्यर्थ का झगड़ा या कहासुनी। ३. कचूर। ४. दर्वी। ५. करवीरी (को०)। ६. शिलारस।
⋙ वितंडावाद
संज्ञा पुं० [सं० वितण्डावाद] व्यर्थ के तर्क का आश्रय लेना। उ०—आधुनिक प्रवृत्तियों के प्रवाद और वितंडावाद कहकर उनकी निंदा की थी।—आचार्य०, पृ० १४०।
⋙ वितंत पु
संज्ञा पुं० [सं० वि० + तन्त्र] वह बाजा जिसमें तार न लगे हों। बिना तार का बाजा। उ०—तंत वितंत सुम्रघन बाजहिं शब्द होय झनकारा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ वितंतु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वितन्तु] ऊँची जाति का घोड़ा। अच्छा घोड़ा [को०]।
⋙ वितंतु (२)
संज्ञा स्त्री० पतिहीना स्त्री। विधवा [को०]।
⋙ वितंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० वितन्त्री] वह वीणा जिसके तारों के स्वरों में एकरूपता न हो [को०]।
⋙ वितंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षियों अथवा छोटे छोटे पशुओं आदि को फँसाने का जाल। २. पिंजड़ा (को०)।
⋙ वित पु
वि० [सं० विद्] १. जाननेवाला। ज्ञाता। उ०—सब शस्त्र विसारद अस्त्र वित विदित बली मनि जगत जित।—गोपाल (शब्द०)। २. चतुर। निपुण। उ०—रन जु आन रद वित नृप लस्यो करद मगध महराज को।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ वित पु
संज्ञा पुं० [सं० वित्त] धन दौलत।
⋙ वितघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी अरणी।
⋙ वितड़ना ‡
कि० स० [सं० वितरणा] १. बाँटना। २. अर्पित करना। दान करना। उ०—दादू ज्यौं आवै त्यौं जाइ विचारी। विलसी वितड़ी न माथै मारी।—दादू०, पृ० २३७।
⋙ वितत (१)
वि० [सं०] १. विस्तृत। फैला हुआ। २. आयत। विशाल। विस्तीर्ण (को०)। ३. किया हुआ। संपन्न। कार्यन्वित (को०)। ४. ढका हुआ। आच्छादित (को०)। ५. खींचा हुआ। कर्षित। झुकाया हुआ (धनुष या ज्या)। जैसे, विततधनु, विततज्या (को०)।
⋙ वितत (२)
संज्ञा पुं० १. वीणा अथवा उससे मिलता जुलता हुआ और कोई बाजा। २. मृदंग या ढोल आदि आनद्ध बाजों से उत्षन्न होनेवाला शब्द। ३. दे० 'प्रतान' (को०)।
⋙ विततधन्वा
वि० [सं० विततधन्वन्] धनुष की प्रत्यंचा या डोरी को खींचनेवाला [को०]।
⋙ विततवपु
वि० [सं०] लंबे चौड़े शरीरवाला [को०]।
⋙ वितताना पु
वि० अ० [सं० व्यथा] व्याकुल होना। बेचैन होना। उ०—देखे आइ तहाँ हरि नाहीं, चितवति जहाँ तहाँ वित- तानी।—सूर (शब्द०)।
⋙ विततायुध
वि० [सं०] जिसने धनुष की प्रत्यंचा या डोरी कान तक तान दी हो [को०]।
⋙ वितति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विस्तार। फैलाव। आतिशय्य। आधिक्य। २. संग्रह। गुल्म। झुंड (को०)। ३. रेखा। कतार। पंक्ति (को०)।
⋙ विततोत्सव
वि० [सं०] जिसने उत्सव की व्यवस्था की हो [को०]।
⋙ वितथ
वि० [सं०] [संज्ञा वितथता] १. मिथ्या। झूठ। २. व्यर्थ। निरर्थक। बेफायदा।
⋙ वितथता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वितथ का भाव। मिथ्यात्व।
⋙ वितथप्रयत्न
वि० [सं०] निष्फल यत्न करनेवाला।
⋙ वितथमर्याद
वि० [सं०] अनाचारी। आचारहीन [को०]।
⋙ वितथवादी
वि० [सं० बितथवादिन्] असत्यभाषी।
⋙ वितथाभिनिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] असत्य बोलने की प्रवृत्ति या आदत [को०]।
⋙ वितथ्य
वि० [सं०] १. मिथ्या। असत्य। झूठ। २. व्यर्थ। निरर्थक।
⋙ वितद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] पंजाब की वितस्ता या झेलम नदी का एक नाम।
⋙ वितन पु
वि०, संज्ञा पुं० [सं० वितनु]दे० 'वितनु'।
⋙ वितनिता
वि०, संज्ञा [सं० वितनितृ] विस्तृत करनेवाला। वह जो विस्तृत करता हो। विस्तारक।
⋙ वितनु (१)
वि० [सं०] १. जो बहुत ही सूक्ष्म हो। २. शरीररहित (को०)। ३. सुंदर (को०)। ४. कोमल। मृदु (को०)। ५. निस्तत्व। सारहीन (को०)।
⋙ वितनु (२)
संज्ञा पुं० कामदेव [को०]।
⋙ वितपन्न (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्युत्पन्न] वह जो किसी काम में कुशल हो। व्युत्पन्न। दक्ष। प्रधीण। उ०—(क) सूरज प्रभु वितपन्न कोक गुन ताते हरि हरि ध्यावत।—सूर (शब्द०) (ख) संगहिं रहति सदा पिय प्यारी क्रीड़त करति उपाधा। कोककला वितपन्न भई हौ कान्हरूप तनु आधा।—सूर (शब्द०)।
⋙ वितपन्न (२)
वि० [सं० विपत् + पन्न = विपन्न] घबराया हुआ। व्याकुल। उ०—उनहिं मिले वितपन्न भई अब वै दिन गए भुलाइ।—सूर (शब्द०)।
⋙ वितमस्क
वि० [सं०] जिसमें अंधकार न हो। २. जिसमें तमोगुण न हो।
⋙ वितमा
वि० [सं० वितमस्]। दे० 'वितमस्क' [को०]।
⋙ वितर
वि० [सं०] जो आगे पहुँचावे (मार्ग आदि)। आगे पहुँचानेवाला [को०]।
⋙ वितरक
संज्ञा पुं० [सं०] बितरण करनेवाला। बाँटनेवाला। उ०— नुनु धुनि पूरत ताते नूपुर वितरक अर्थ सुरायन में।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ वितरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दान करना। अर्पण करना। देना। २. बाँटना। ३. वितरक (को०)। ४. पार करना। पार जाना (को०)। ५. छोड़ देना। त्याग करना। तिलांजलि देना (को०)।
⋙ वितरन पु
संज्ञा पुं० [सं० बितरण] १. बाँटनेवाला। वितरण करनेवाला। जैसे—तरन तरन दुति भवतरन वितरन सुख हित रनकरन।—गोपाल (शब्द०)। २. दे० 'वितरण'। उ०—कछुदिन प्रभु तहँ कियो निवासा। वितरन वैष्णव वृंद हुलासा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ वितरना पु
क्रि० स० [सं० वितरण] वितरण करना। बाँटना। उ०—(क) ये लहुरे अति रहैं उदारा। वितरहिं सब को द्रव्य अपारा।—रघुराज (शब्द०)। (ख) सुवरण तनु तिनके किए, सुवरण वितरि अपार।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ वितरिक्त पु
अव्य० [सं० व्यतिरिक्त] अतिरिक्त। सिवा। उ०— हरि वितरिक्त जाहि शिर नावै मूरति तुरत फूटि सो जावे।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ वितरित
वि० [सं०] जो वितरण किया गया हो। बाँटा हुआ।
⋙ वितरिता
वि० संज्ञा पुं० [सं० वितरितृ] १. वितरण करनेवाला। बाँटनेवाला। २. दान देनेवाला [को०]।
⋙ वितरेक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्यतिरेक] व्यतिरेक अलंकार। दे० 'व्यतिरेक'।
⋙ वितरेक पु (२)
क्रि० वि० [सं० व्यतिरिक्त] छोड़कर। सिवा। उ०— वितरेक तोहि निर्दय महाबल आनु कहु को कहि सकै।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ वितर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक तर्क के उपरांत होनेवाला दूसरा तर्क। युक्ति। दलील। २. सदेह। शक। ३. अटकल। अनुमान। ४. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी प्रकार के संदेह या वितर्क का उल्लेख होता है और कुछ निर्णय नहीं होता। ६. विचार विनिमय (को०)। ७. आध्यात्मिक गुरु (को०)। ८. अभिप्राय। प्रयोजन (को०)।
⋙ वितर्कण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वादविवाद। २. तर्क करने की क्रिया। ३. संदेह। ४. अटकल करना। अंदाज लगाना [को०]।
⋙ वितर्कित
वि० [सं०] विचारित [को०]।
⋙ वितर्क्य़
वि० [सं०] १. जिसमें किसी प्रकार के वितर्क या संदेह का स्थान हो। २. जो विचार करने योग्य हो (को०)। ३. जी देखने में बहुत विलक्षण हो।
⋙ वितर्दि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेदी। मंच। वेदिका। २. छज्जा। बरामदा (को०)।
⋙ वितर्दिका, वितर्दी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वितर्दि' [को०]।
⋙ वितर्द्धि, वितर्द्धिका, वितर्द्धी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वितर्दि' [को०]।
⋙ वितल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सात पातालों में से तीसरा पाताल। विशेष—देवी भागवत के अनुसार यही दूसरा पाताल है। कहते हैं, इस पाताल में शिव जी 'हाटकेश्वर' नाम से अपने पार्षदों के साथ रहते हैं। इनके वीर्य से हाटकी नाम की नदी बहती है जिसे हुताशन पीते हैं। उन्हीं हुताशन के मुँह से जब फुफकार निकलता है, तब उससे हाटक नामक सोना निकलता है।
⋙ वितली
संज्ञा पुं० [सं० वितलिन्] वितल लोक को धारण करनेवाले, बलदेव। उ०—वलिनं मुशलिनं देव हलिनं वितलिनं स्वर्य।— गर्गसंहिता (शब्द०)।
⋙ वितष्ट
वि० [सं०] १. काटा हुआ। २. खोदा हुआ। ३. समतल या हमवार किया हुआ [को०]।
⋙ वितसारूँ ‡
१. अव्य० [देश० या सं० वित्त + सार] यथाशाक्ति। उ०— दान सदा वितसारूं देवै, नित रसणा लेवै हरिनाम।—रघु० रू०, पृ० २४।
⋙ वितस्त
संज्ञा पुं० [सं० वितस्ति] वितस्ति। बालिश्त। एक बित्ता। बारह अंगुल।
⋙ वितस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंजाब की झेलम नामक नदी का प्राचीन नाम। उ०—वितस्तातीर स्वच्छ स्थल।—का० सुषमा, पृ० १।
⋙ वितस्ताख्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार तक्षक नाग का निवासस्थान।
⋙ वितस्ताद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] राजतरंगिणी के अनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ वितस्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतना परिमाण जितना हाथ अँगूठे और उँगली को पूरा पूरा फैलाने से होता है। बालिश्त। बित्ता। २. बारह अंगुल का परिमाण।
⋙ विता †
अव्य० [हिं० उतना—उत्ता] उतने। उ०—बहूँवचन विते बजाँ बहिश्त म्याँने जिते थे विते गुनहगार आदम हब्वाकर कते।—दक्खिनी०, पृ० ३३२।
⋙ विताड़न
संज्ञा पुं० [सं० विताडन] मारना। ताड़ना करना [को०]।
⋙ वितान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ। २. विस्तार। फैलाव। ३. बड़ा चँदोआ या खेमा। ४. समूह। संघ। जमाव। ५. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बंधन जो सिर पर के आघात या घाव आदि पर बाँधा जाता है। ६. अवसर। अवकाश। ७. घृणा। नफरत। ८. शून्य। खाली स्थान। ९. अग्निहोत्र आदि कर्म। १०. वेदिका। वेदी (को०)। ११. गद्दी (को०)। १२. प्राचुर्य। आधिक्य (को०)। १३. एक प्रकार का छंद। १४. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण, एक भगण और दो गुरु होते हैं। उ०—सुभगंगा जल तेरो। सुखादता जन केरो। नसिकै भौ दुख नाना। जस को तान विताना।—जगन्नाथ (शब्द०)।
⋙ वितान (२)
वि० १. मंद। धीमा। २. शून्य। खाली। ३. उदास। हतो- त्साह (को०)। ४. जड़ बुद्धिहीन। ५. खल। दुष्ट (को०)। ६. सारहीन। तुच्छ (को०)।
⋙ वितानक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया।
⋙ वितानक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा चँदोआ या खेमा। २. समूह। जमावड़ा। ३. धन। संपत्ति। ४. बिछाने की बड़ी चाँदनी (को०)। ५. माड नामक वृक्ष (को०)।
⋙ वितानना पु †
क्रि० स० [सं० वितान] १. शामियाना आदि तानना। २. कोई चीज तानना। उ०—मनी हीन छीन फनी, मीन बारि सों बिहीन ह्वै कै मलीन मति दीनता वितानई।—रसकुसुमाकर (शब्द०)।
⋙ वितानमूल
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।
⋙ वितानमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] उशीर। गाडर। खस।
⋙ वितामस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाश। उजाला।
⋙ वितामस (२)
वि० १. जिसमें तमोगुण न हो। २. अंधकार रहित।
⋙ वितार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार का केतु या पुच्छल तारा। २. वह रात्रि जिसमें तारे न हों।
⋙ वितारक
संज्ञा पुं० [सं०] विधारा नामक जड़ी।
⋙ विताल
वि० [सं०] १. अशुद्ध (ताल)। २. (संगीत में) तालहीन [को०]।
⋙ वितिक्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यतिक्रम] क्रम का भंग होना। व्यति- क्रम। गड़बड़ी। उ०—प्रीति परीक्षा तिहुन की बैर वितिक्रम जानि।—तुलसी (शब्द)।
⋙ वितिमिर
वि० [सं०] अंधकाररहित [को०]।
⋙ वितिलक
वि० [सं०] सांप्रदायिक तिलक से हीन ललाटवाला [को०]।
⋙ वितिहोतर
संज्ञा पुं० [सं० वीतिहोतृ] अग्नि। (डिं०)।
⋙ वितीत पु †
वि० [सं० व्यतीत]दे० 'व्यतीत'। उ०—आम मंजरी संग सनेह सों कछु दिन करत वितीत।—सं० शा० (शब्द०)।
⋙ वितीपात
संज्ञा पुं० [सं० व्यतीपात] एक योग। दे० 'व्यतीपात'।
⋙ वितीपाती
संज्ञा पुं० [सं० व्यतीपात + हिं० ई (प्रत्य०)] वह जो बहुत अधिक उपद्रव करता हो। पाजी। शरारती (लड़का)।
⋙ वितीर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वितरण'।
⋙ वितीर्ण (२)
वि०दे० 'उत्तीर्ण'।
⋙ वितुंड
संज्ञा पुं० [सं० वि० + तुण्ड] हाथी। उ०—(क) जादो पुंड के वितुंड चित्र तुंड झुंड झुंड मुंड धरे कुंड सुंड कुंडल करे करे।—गोपाल (शब्द०)। (ख) तहँ वसिष्ठ आदिक मुनिराई। चढ़े विर्तुडन आनँद छाई।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ वितु पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० बित्त] धन। संपत्ति। उ०—दै चितु कै हित लै सब छबि वितु विधि निज हाथ सँवारे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ वितुड
संज्ञा पुं० [सं०] नीला थोथा। तूतिया।
⋙ वितुद
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक साहित्य के अनुसार एक प्रकार की भूतयोनि।
⋙ वितुन्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिरियारी या सुसना नामक साग। २. सेवार।
⋙ वितुन्न (२)
वि० छिन्न। चीरा या काटा हुआ [को०]।
⋙ वितुन्नक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनिया। २. तूतिया। ३. कैवर्त- मुस्तक। ४. भुइँ आँवला। ५. कान का छेद जिसमें आभूषण पहनते हैं (को०)।
⋙ वितुन्नका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुईं आँवला।
⋙ वितुन्नभूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुइँआँवला।
⋙ वितुन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुइँआँवला।
⋙ वितुन्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वितुन्ना'।
⋙ वितुष
वि० [सं०] तुषहीन। तुषरहित। जिसका छिलका निकाल लिया गया हो [को०]।
⋙ वितुष्ट
वि० [सं०] जो संतुष्ट न हो। असंतुष्ट।
⋙ वितृट्
वि० [सं० वितृष्] तृषारहित। जिसे प्यास न हो [को०]।
⋙ वितृण
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ तृण या घास आदि न होती हो।
⋙ वितृतीय
वि० [सं०] अंतर देकर होनेवाला। जैसे, ज्वर [को०]।
⋙ वितृप्त
वि० [सं०] १. जो तृप्त या संतुष्ट न हुआ हो। २. जो पूर्ण संतुष्ट हो (को०)।
⋙ वितृप्तक
वि० [सं०]दे० 'वितृप्त' [को०]।
⋙ वितृप्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वितृप्त या असंतुष्ट होने का भाव।
⋙ वितृष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसे किसी प्रकार की तृष्णा न रह गई हो। निस्पृह। उदासीन। २. वह जिसे तृषा न हो (को०)।
⋙ वितृष्ण
वि० [सं०] इच्छा या कामनारहित। तृष्णारहित [को०]।
⋙ वितृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तृष्णा का अभाव। तृष्णा का न होना। विरक्ति। २. संतुष्टि (को०)। ४. प्रबल कामना। तीव्र इच्छा (को०)।
⋙ वितोय
वि० [सं०] निर्जल। जलविहीन [को०]।
⋙ वित्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन। संपत्ति। उ०—पर हुई गति और ही नृप चित्त की। सोच कर घटना। वणिक के वित्त की।— शकुं०, पृ० ४०। २. प्राप्त वस्तु (को०)। ३. अधिकार (को०)। शक्ति (को०)। ५. सोना (को०)। ६. कुंडली के जन्मलग्न का दूसरा स्थान (को०)।
⋙ वित्त (२)
वि० १. सोचा या विचारा हुआ। २. जाना या समझा हुआ। ३. मिला या पाया हुआ। ४. विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर। ५. परीक्षित [को०]।
⋙ वित्तक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त + क (अल्पार्थक प्रत्य०)] चरित्र। बीतक। आचरण। बात। उ०—(क) जिहि निसि सो बर वित्तक वित्ती। ज्यों राजन कैमास सु हत्ती।—पृ० रा०, ५७। ११६। (ख) अब्बुअ पति पामार पह, लिय गिर गुज्जर राइ। ता पछ वित्तक वित्त यौ, कह्यौ चंद बरदाइ।—पृ० रा०, १२।१०९।
⋙ वित्तक (२)
वि० [सं०] विशेष प्रसिद्ध [को०]।
⋙ वित्तकाम
वि० [सं०] धन संपत्ति की कामना रखनेवाला [को०]।
⋙ वित्तकोश
संज्ञा पुं० [सं०] रूपए पैसे आदि रखने की थैली।
⋙ वित्तगोप्ता
संज्ञा पुं० [सं० वित्तगोप्तृ] कुबेर के भंडारी का नाम।
⋙ वित्तजानि, वित्तजाय
वि० [सं०] विवाहित [को०]।
⋙ वित्तद
वि० [सं०] दानी। दाता [को०]।
⋙ वित्तदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ वित्तनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक नाम।
⋙ वित्तप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो धन की रक्षा करता हो। भंडारी। २. कुबेर का एक नाम।
⋙ वित्तपति
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक नाम। उ०—लज्यो वित्तपति चित्त महँ, कहि घनि अनुज हमार।—रघुराज० (शब्द०)।
⋙ वित्तपाल
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक नाम।
⋙ वित्तपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुबेर की पुरी, अलका।
⋙ वित्तपेटा, वित्तपेटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुपया पैसा रखने की थैली। विसकोश [को०]।
⋙ वित्तमात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन। संपत्ति [को०]।
⋙ वित्तरक्षी
संज्ञा पुं० [सं० वित्तरक्षिन्] वह जिसके पास वित्त रक्षित हो। संपन्न व्यक्ति। धनी व्यक्ति [को०]।
⋙ वित्तराग पु
संज्ञा पुं० [सं० वीतराग]दे० 'वीतराग'। उ०—काप- डिया बीर कहा कहौ कित्ति। मन वित्तराग लै मुक्ति जित्ति— पृ० रा०, ६।८३।
⋙ वित्तवान्
संज्ञा वि० [सं० वित्तवत्] धनी [को०]।
⋙ वित्तविवर्धी
संज्ञा पुं० [सं० वित्तविवर्धिन्] १. वह जो धन की अभि- वृद्धि करता हो। २. ब्याज। सूद [को०]।
⋙ वित्तशाठ्य
संज्ञा पुं० [सं०] लेनदेन में धोखाधड़ी [को०]।
⋙ वित्तहीन
संज्ञा पुं० [सं०] धनहीन। दरिद्र। गरीब। उ०—सब परिवार मेरो याही लागे राजाजू हौं दीन वित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ वित्तागम
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन की प्राप्ति या आगम। २. धन की प्राप्ति का साधन [को०]।
⋙ वित्ताढ्य
वि० [सं०] बहुत धनी [को०]।
⋙ वित्तान पु
संज्ञा पुं० [सं० वितान] दे० 'वितान'। उ०—सिंधुजा रच्यो भक्ति वित्तान।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ३८१।
⋙ वित्ताप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन की प्राप्ति।
⋙ वित्तायन
वि० [सं०] धन लानेवाला [को०]।
⋙ वित्तार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर आदमी। निपुण व्यक्ति [को०]।
⋙ वित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार। २. लाभ। प्राप्ति। ३. ज्ञान। ४. संभावना।
⋙ वित्तीय
वि० [सं०] वित्त संबंधी। वित्त की व्यवस्था के अनुसार। जैसे, वित्तीय वर्ष।
⋙ वित्तेश
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर।
⋙ वित्तेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर।
⋙ वित्तेहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वित्तैषणा' [को०]।
⋙ वित्तैषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन का लोभ। संपत्ति पाने की लालसा। उ०—लोकैषणा, वित्तैषणा तथा दारैषणा की यथोचित संतृप्तिः भौतिक तथा आध्यत्मिक सुख एवं साफल्य की प्राप्ति समीक्षा शक्ति के ऊपर ही निर्भर है।—स० दर्शन, पृ० ९६।
⋙ वित्थार पु
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार, विथ्थार] प्रसार। विस्तार। फैलाव।
⋙ वित्रप
वि० [सं०] निर्लज्ज। बेहया। बेशरम।
⋙ वित्रस्त
वि० [सं०] विशेष रूप से त्रस्त। बहुत डरा हुआ। उ०—यों तुम अपनी विजय घोषणा कर सकते हो क्योंकि मेरी गजवाहिनी तुम्हारे अश्वारोहियों से वित्ररत हो चुकी है।—राज्यश्री, पृ० ५।
⋙ वित्रास
संज्ञा पुं० [सं०] आतंक। भय। डर। खौफ।
⋙ वित्रासन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भयभीत करना। डराना [को०]।
⋙ वित्रासन (२)
वि० भयानक। डरावना [को०]।
⋙ वित्रासित
वि० [सं०] किसी के द्वारा भयभीत कराया हुआ। डराया हुआ [को०]।
⋙ वित्रिभलग्नक
संज्ञा पुं० [सं०] क्षितिज के ऊपर रविमार्ग का सबसे ऊँचा बिंदु [को०]।
⋙ वित्त्व
संज्ञा पुं० [सं०] वेत्ता होने का भाव।
⋙ वित्सन
संज्ञा पुं० [सं०] बैल। साँड़।