विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ष
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हिन्दी शब्दसागर |
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⋙ ष
⋙ ष
संस्कृत या हिंदी वर्णमाला के व्यंजन वर्णों में ३१ वाँ वर्ण या अक्षर। इसका उच्चारणस्थान मूर्धा है। इससे यह मूर्धंन्य वर्णों में कहा गया है। इसका प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में होता है और उच्चारण दो प्रकार से होता है। कुछ लोग 'श' के समान इसका उच्घारण करते हैं और कुछ लोग 'ख' के समान। इसी से हिंदी की पुरानी लिखावट में इस अक्षर का व्यवहार कवर्गीय 'ख' के स्थान पर होता था। जैसे,— देषि (देखि), लषन (लखन) इत्यादि। अनेक धातुएँ जो दंत्य 'स' से आरंभ हैं वे संस्कृत धातुपाठ में मूर्धन्य 'ष' से लिखी गई हैं इस अक्षर का परिवर्तन अधिकतर 'श', 'स' और 'ख' के रूप में होता है। एक तरह से इसका शुद्ध उच्चारण 'ऋ' की तरह, लुप्तप्राय है। व्रज और अवधी में यह 'स' लिखा जाता है।
⋙ षंजन
संज्ञा पुं० [सं० षञ्जन] १. आलिंगन। २. मिलना। समागम।
⋙ षंड
संज्ञा पुं० [सं० षणड] १. राशि। समूह। २. झाड़ा। ३. प्रजनन के लिये पालित वृष। छुट्टा साँड़। ४. भेड़ बकरों का झुंड (को०)। ५. हीजड़ा। नपुंसक। नामर्द। विशेष—कुछ विद्वान् इनके १४ तथा कुछ २० प्रकार मानते हैं। ६. कमलों का समूह। ७. शिव का एक नाम। ८. लिंग। चिह्न। लक्षण (को०)। ९. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ षंडक
संज्ञा पुं० [सं० षण्डक] हीजड़ा। नपुंसक [को०]।
⋙ षंडत्व
संज्ञा पुं० [सं० षण्डत्व] नामर्दी। हीजड़ापन। पुंस्त्व का अभाव।
⋙ षंडयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्डयोनि] वह स्त्री जिसे मासिक धर्म न हो और जिसके स्तन न हो, अर्थात् जो पुरुषसमागम के अयोग्य हो।
⋙ षंडव पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खाण्डव] दे० 'खांडव'। उ०—रषि षंडव पंडब लष्षि ग्रहं।—पृ० रा०, १२। ४७।
⋙ षंडवेश
संज्ञा पुं० [सं० षण्डवेस] दे० 'षंडवेश'।
⋙ षंडामर्क
संज्ञा पुं० [सं० षण्डामर्क] शुक्राचार्य के पुत्र का नाम। उ०—कविसुत असुर वंश गुरु आमा। षंडामर्क रह्मो अस नामा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ षंडाली
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्डाली] १. तेल नापने की एक छोटी घरिया जिसमें एक छटाँक वस्तु आ सकती हो। २. दुश्चरित्रा स्त्री। व्यभिचारिणी। ३. ताल। तलैया।
⋙ षडी
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्ड] वह स्त्री जिसे मासिक धर्म न होता हो, स्तन छोटे हों, और जो पुरुषसमागम के अयोग्य हो।
⋙ षंढ
संज्ञा पुं० [सं० षण्ढक] दे० 'षंड'।
⋙ षंढक
संज्ञा पुं० [सं० षण्ढक] दे० 'षंडक' [को०]। यौ०—षंढकतिल = दे० 'षंढतिल'।
⋙ षंढतिल
संज्ञा पुं० [सं० षण्ढतिल] १. बाँझपन का तिल। २. (लाक्ष०) निकम्मा आदमी [को०]।
⋙ षंढवेश
संज्ञा पुं० [सं० षण्ढवेश] १. वह जो हिंजड़े का वेश धारण करे। २. जनखा। हींजड़े के वेश में रहनेवाला।
⋙ षंढा
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्ढा] वह स्त्री जिसकी चेष्टा पुरुषों की सी हो।
⋙ षंढिता
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्ढिता] दे० 'षंडा' [को०]।
⋙ षंढीयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं० षण्ढीयोनि] दे० 'षंडयोनि' [को०]।
⋙ ष (१)
संज्ञा पुं० १. विद्वान् पुरुष। आचार्य। २. कुच। चूचुक। ३. नाश। ४. शेष। बाका। ५. प्राप्त ज्ञान का क्षय। ६. मुक्ति। मोक्ष। ७. स्वर्ग। ८. अंत। समाप्ति। अवधि। ९. गर्भ। १०. धैर्य। सहिष्णुता। ११. निद्रा। नींद (को०)। १२. कच। केश। बाल (को०)। १३. गर्भविमाचन (को०)।
⋙ ष (२)
वि० १. बहुत अच्छा। उत्तम। श्रेष्ठ। २. विद्वान् (को०)।
⋙ षट (१)
वि० [सं०] गिनती में ६। छह्।
⋙ षट् (२)
संज्ञा पुं० १. छह् की संख्या। २. षाड़व जाति का एक राग। विशेष—यह राग दीपक राग का पुत्र माना गया है। इसके गाने का समय प्रातः १ दंड से ५. दंड तक है। इसमें सब कोमल स्वर लगते हैं। कोई कोई इसे आसावरी, ललित, टोड़ी और भैरवी आदि रागिनियों से उत्पन्न संकर राग मानते हैं।
⋙ षटक पु
संज्ञा पुं० [सं० षट्क] दे० 'षट्कर्म'। उ०—तौ पंडित आये बेद भुलाए षटक रमाए अपनाए।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ, २३७।
⋙ षटतुकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० षट् + हिं० तुक + ई (प्रत्य०)] छप्पय छंद। उ०—किए कवित षटतुकी बहुरि मनहर अरु इंदव। कुंडलिया पुनि साषि भक्ति विमुखनि को निंदव।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १४४।
⋙ षटबदन पु
संज्ञा पुं० [सं० षट् + वदन] (छह् मुँहवाले) कार्तिकेय। उ०—तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा।—मानस, १। १०३।
⋙ षट्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छह। ६ की संख्या। २. छह वस्तुओं का समूह। विशेष०—इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान के समूह को प्रायः षट्क कहते हैं। ३. दे० 'षड्विकार'।
⋙ षट्क (२)
वि० छह् संबंधी। छह का। छहवाला।
⋙ षट्कर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की वीणा या सितार जिसमें छह कान होते हैं।
⋙ षट्कर्ण (२)
वि० १. छह कानों से सुना गया। वक्ता या श्रोता के अतिरिक्त किसी तीसरे आदमी से भी सुना गया। २. जिसे छह् कान हों [को०]।
⋙ षट्कर्म
संज्ञा पुं० [सं० षट्कर्मन्] १. ब्राह्मणों के छह् कर्म— (१) यजन, (२) याजन, (३) अध्ययन, (४) अध्यापन, (५) दान देना और (६) दान लेना। २. स्मृतियों के अनुसार छह् काम जिनके द्वारा आपत्काल में ब्राह्मण अपनी जीविका कर सकता है (१) उंछ वृत्ति (कटे हुए खेतों में दाने बिनना), (२) दान लेना, (३) याचना करना, (४) कृषि, (५) वाणिज्य और (६) गोरक्षा (अथवा किसी किसी के मत से सूद पर रूपया देना)। ३. तांत्रिकों के बध आदि छह कर्म—(१) शांति, (२) वशीकरण, (३) स्तंभन, (४) विद्धेष, (५) उच्चाटन तथा (६) मारण। ७. योगाभ्यास संबंधी छह् क्रियाएँ (१) धोती, (२) वस्ती, (३) नेती, (४) नौकिली या नौलिक, (५) त्राटक तथा (६) कपालभाती (को०)।
⋙ षट्कर्मा
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजन याजन आदि नियत कर्मों को करनेवाला ब्राह्मण। कर्मनिष्ठ ब्राह्मण। २. तांत्रिक।
⋙ षट्कल
वि० [सं०] (मुहूर्त आदि) जो छह् कलाओं तक रहे [को०]।
⋙ षट्कला
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ब्रह्मताल के चार भेदों में से एक भेद।
⋙ षट्कसंपत्ति
संज्ञा पुं० [सं० षट्कसम्पत्ति] छह् प्रकार के कर्म—(१) शम, (२) दम (३) उपरति, (४) तितिक्षा, (५) श्रद्धा और (६) समाधान।
⋙ षट्कुलीय
वि० [सं०] छह् कुलोंवाला [को०]।
⋙ षट्कूटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भैरवी का एक रूप [को०]।
⋙ षट्कोण (१)
वि० [सं०] छह् कोनोंवाला। छह्कोना। छह्पहला।
⋙ षट्कोण
संज्ञा पुं० ज्योतिष में लग्न से छठा घर जो रिपुक स्थान कहा जाता है। २. एक प्रकार का यंत्र जिसमें छह् कोण की आकृति रहती है। ३. इंद्र का वज्र। ४. हीरा [को०]।
⋙ षट्कोप
संज्ञा पुं० [सं०] एक पुराने आचार्य का नाम।
⋙ षट्खंड
वि० [सं० षट्खण्ड] जिसमें ६. खंड हों। छह् खंडों या विभागोंवाला [को०]।
⋙ षट्चक्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग में माने हुए कुंडलिनी के ऊपर पड़नेवाले छह् चक्र जो मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञ चक्र कहे गए हैं।
⋙ षट्चक्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० षट् + चक्र (=चक्कर या घेरा)] किसी के विरुद्ध आयोजन। भीतरी चाल। षड्यंत्र। क्रि० प्र०—चलाना।—खड़ा करना।—रचना।
⋙ षट्चरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भ्रमर। भौंरा। २. जूँ। यूका (को०)। ३. टिड्डा (को०)।
⋙ षट् चिति, षट् चितिक
वि० [सं०] छह् स्तरों या तहोंवाला [को०]।
⋙ षट् तंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० षट्तन्त्री] छह् दर्शनों का एक नाम षड्दर्शन [को०]।
⋙ षट्तक्रतैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक का एक तेल जिसमें तेल से छह् गुना अधिक तक्र (मठ्ठा) मिलाया जाता है।
⋙ षट्ताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृदंग का एक ताल जो आठ मात्राओं का होता है।विशेष—इसमें पहले २ आघात, १ खाली, फिर ४ आघात और अंत में एक खाली होता है। २. एक प्रकार का ख्याल जो एकताला ताल पर बजाया जाता है।
⋙ षट्तिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ महीने के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम। इसमें तिल के व्यवहार ओर दान का बहुत फल कहा गया है। उ०—यहिकर नाम षट्तिला अहई। करि व्रत नेम निकर अघ दहई।—विश्रामसागर (शब्द०)।
⋙ षट्तिली
संज्ञा पुं० [सं० षट्तिलिन्] तिल को ६ प्रकार से व्यवहार करनेवाला व्यक्ति। विशेष—इसके व्यवहार के ढंग ये है—(१) तिलोद्वर्तन, (२) तिलस्नान, (३) तिलहोम, (४) तिल का दान, (५) तिल- भक्षण और (६) तिलवपन।
⋙ षट्त्रिंश
वि० [सं०] छत्तीसवाँ [को०]।
⋙ षट्त्रिंशत्
संज्ञा पुं० [सं०] छत्तीस की संख्या [को०]।
⋙ षट्पंचाशत्
संज्ञा पुं० [सं० षट्पञ्चाशत्] छप्पन की संख्या [को०]।
⋙ षट्पत्र
वि० [सं०] छह् पत्तों या दलों से युक्त। जिसमें छह् पत्ते हों [को०]।
⋙ षट्पद (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० षट्पदी] छह् पैरवाला।
⋙ षट्पद (१)
संज्ञा पुं० १. भ्रमर। भौंरा। २. किलनी। ३. छह् पदोंवाला छंद। गोति छंद (को०)।
⋙ षट्पदज्य
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का धनुष जो भ्रमरश्रेणी का बना माना जाता है [को०]।
⋙ षट्पदप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. नागकेशर का वृक्ष।
⋙ षट्पदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राकृत छंद [को०]।
⋙ षट्पदातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] १. (जहाँ भ्रपर अतिथि रूप में हा अर्थात्) आम का वृक्ष। २. चंपक। चंपा।
⋙ षट्पदानंदवर्धन
संज्ञा पुं० [सं० षट्पदानन्दर्धन] (भ्रमर के आनंद का बढ़ानेवाला) किंकिरात का वृक्ष।
⋙ षट्पदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'षट्पदा' [को०]।
⋙ षट्पदी (१)
वि० स्त्री० [सं०] छह् पैरवाली।
⋙ षट्पदी (२)
संज्ञा स्त्री० १. भ्रमरा। भौंरी। २. एक छंद जिसमें छह् पद या चरण होते हैं। छप्पय। ३. किलनी या जूँ (को०)। ४. भूख प्यास, शोक अव्यवस्थित चेतना, वाधंक्य तथा मृत्यु नाम को छह् स्थितियाँ। ५. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मान नाम की छह् भावनाए (को०)।
⋙ षट्पाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'षट्पद' [को०]।
⋙ षट्पितापुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ताल का एक भेद जिसमें १२ मात्राऐ होती हैं। एक प्लुत, एक लघु, दो गुरु, एक लघु, एक प्लुत, यह इसका प्रमाण है।
⋙ षट्प्रज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, लोकार्थ और तत्वार्थ का ज्ञाता। २. उच्छृ खंल। ३. कामुक। ४. अच्छे स्वभाववाला पडोसी (को०)।
⋙ षट्मुख
संज्ञा पुं० [सं०] कार्त्तिकेय। उ०—गिरिवेध षट्मुख जीति तारकनंद को जब ज्यों हस्यो।—केशव (शब्द०)।
⋙ षट्रस
संज्ञा पुं० [सं०] छह प्रकार के रस या स्वाद। विशेष दे० 'षड्रस'। यौ०—षट्रस भोजन।
⋙ षट्राग
संज्ञा पुं० [सं० षट् + राग] १. संगीत के ६. राग—भैरव, मलार, श्रोराग, हिंडोल मालकोस और दीपक। २. बखेड़ा। जंजाल। आडबर। जैसे—इसमें बड़ा षट्राग है, हमसे न होगा। ३. झंझट।
⋙ षट्रिपु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'षड्रिपु'।
⋙ षट्शास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं के ६ दर्शन।
⋙ षट्शास्त्री
संज्ञा पुं० [सं० षटशास्त्रिन्] छह् दर्शनों का जाननेवाला।
⋙ षट्वांग
संज्ञा पुं० [सं० षट्वाङ्ग] खट्बांग नामक राजर्षि जिन्हें केवल दो घड़ी की साधना से मुक्ति प्राप्त हुई थी। उ०—एक षट्वांग राजऋषि भयऊ। असुर विजय हित सो दिवि गयऊ।—रघुराज (शब्द०)। २. शिव का एक शस्त्र। दे० 'खट्वांग।'
⋙ पडंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० षडङ्ग] १. बेद के छह अंग—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छद और ज्योतिष। २. शरीर के छह अवयव—दो पैर, दो हाथ, सिर और धड़। तथा कुछ लोगों के मत से हृदय, शिर, शिखा, नेत्र, कवच तथा अस्त्र। ३. गाय से प्राप्त होनेवाली पवित्र छह वस्तुएँ—गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोधृत, गोदधि, गोरोचन (को०)। ४. छह वस्तुओं का समाहार (को०)। ५. छठा भाग। पष्ठांश (को०)। ६. छोटा गोखरू (को०)।
⋙ षडंग
वि० जिसके छह् अंग या अवयव हों।
⋙ षडंगजित्
संज्ञा पुं० [सं० षडङ्गजित्] सब अंगों को वश में करनेवाले विष्णु।
⋙ षडंगधूप
संज्ञा पुं० [सं० षडङ्गधूप] एक प्रकार का धूप जिसमें ६ वस्तुएँ मिली रहती हैं।
⋙ षडंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० षडङ्गिनी] अपने सभी अंगों से पूर्ण सेना [को०]।
⋙ षडंघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० षडङ्घि] भ्रमर। भौंरा।
⋙ षडक्षरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णावों के रामानुज संप्रदायवालों का मुख्य मंत्र।
⋙ षडक्षीण
संज्ञा पुं० [सं०] मछली जिसे छह् आँखें कही जाती हैं।
⋙ षडग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कर्मकांड के अनुसार छह् प्रकार की अग्नि। विशेष—इनके नाम इस प्रकार कहे गए हैं—गाईपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सभ्याग्नि, आवसथ्य और औपासनाग्नि। इनमें से प्रथम तीन प्रधान हैं। कुछ लोगों ने अग्नि के ये ६ भेद किए है—धूमाग्नि, मंदाग्नि, दीपाग्नि, मध्यमाग्नि, खराग्नि और भयाग्नि।
⋙ षडधिक
वि० [सं०] छह् से अधिक जैसे, षडधिक दश = सोलह [को०]।
⋙ षडभिज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध या बोधिसत्व।
⋙ षडष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार एक प्रकार का योग [को०]।
⋙ षडशीत
वि० [सं०] छियासीवाँ [को०]।
⋙ षडशीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छियासी की संख्या। २. सूर्य का एक राशि से दूसरे राशि पर जाने का चार मार्ग [को०]।
⋙ षडह
संज्ञा पुं० [सं०] छह् दिनों का समय [को०]।
⋙ षडात्मा
वि० [सं० षडात्मन्] अग्नि जो छह् स्वरूपोंवाला है [को०]।
⋙ षडानन (१)
वि० [सं०] जिसे छह मुँह हों।
⋙ षडानन (२)
संज्ञा पुं० १. कार्तिकेय। २. संगीत में स्वरसाधन की एक प्राणाली जो इस प्रकार होती है—आरोही सा रे ग म प ध रे ग म प ध नि, ग म प ध नि सा। अवरोही—सा नि ध प म ग नि ध प म ग रे, ध म प ग रे सा।
⋙ षडाम्नाय
संज्ञा पुं० [सं०] छह् तंत्र [को०]।
⋙ षडायतन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छह् इंद्रियों के छह् स्थान [को०]।
⋙ षडायतन (२)
वि० १. जो षट् आयतन से युक्त हो। २. विज्ञान, भूमि, जल, आकाश, अग्नि और वायु के आयतनवाला [को०]।
⋙ षडायतन भेदक
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध [को०]।
⋙ षडार
वि० [सं०] जिसमें छह् किनारे या कोण हों [को०]।
⋙ षडूषण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में ये छह् गरम मसाले—पीपल, पिपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ और काली मिर्च।
⋙ षड्गया
संज्ञा स्त्री० [सं०] गयादित्य, गयागज, गायत्री, गदाधर, गया- सुर तथा गया क्षेत्र—जो मोक्षदायक हैं [को०]।
⋙ षड्गव
संज्ञा पुं० [सं०] १. छह् बैलों की जोड़ी। २. वह जुवा जिसमें छह् बैल जोते जायँ [को०]।
⋙ षड्गवीय
वि० [सं०] छह् बैलों से खींचा जानेवाला [को०]।
⋙ षड्गुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छह् गुणों का समूह। २. राजनीति की छह् बातें—संधि, विग्रह, यान (चढ़ाई), आसन (विराम), द्वैधीभाव और संश्रय।
⋙ षड्गुण (२)
वि० १. छगुना। २. जो छह गुणों से युक्त हो [को०]।
⋙ षड्ग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० षड्ग्रन्थ] १. मीठी बच। विशेष दे० 'बच'। २. करंज का एक भेद [को०]।
⋙ षड्ग्रंथा
संज्ञा स्त्री० [सं० षड्ग्रन्था] १. इरसा की जड़ जो काश्मीर और काबुल से आती है। २. बच। ३. श्वेत बच (को०)। ४. शटी (को०)। ५. महाकरंज (को०)।
⋙ षड्ग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० षड्ग्रन्थि] दे० 'षड्ग्रंथिका'।
⋙ षड़ग्रंथिका
संज्ञा स्त्री० [सं० षड्ग्रन्थिका] १. पीपलामूल। पिपरा- मूल। २. शटी। शठी।
⋙ षड्ज
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर। विशेष—यह गदहे के स्वर से मिलता जुलता माना गया है। इसके उच्चारणस्थान छह् कहे गए हैं—नासा, कंठ, उर, तालु, जिह्ना और दंत; इसी से इसका नाम षड्ज पड़ा। मूल स्थान दंत और अंत स्थान कंठ है। देवता इसके अग्नि हैं। वर्ण रक्त, आकृति ब्रह्मा की, ऋतु हिम, वार रविवार, छंद अनुष्टुप् और संतति इसकी भैरव राग है। कुछ के मतानुसार यह प्रथम स्वर है और मोर के स्वर से मिलता जुलता है।
⋙ षड्दरशनी पु
संज्ञा पुं० [सं० षड्दर्शन + हिं० ई (प्रत्य०)] दर्शनों का जाननेवाला। ज्ञानी। उ०—षड्दरशनी अभाव सर्वथा घट करि मानै।—(शब्द०)।
⋙ षड्दर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय, मीमांसा आदि हिंदुओं के छहु दर्शन।
⋙ षड्धा
अव्य० [सं०] छह् प्रकार का। छह् प्रकार से [को०]।
⋙ षड्दुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] छह् प्रकार के दुर्ग जिनके नाम धन्व दुर्ग, मही दुर्ग, गिरि दुर्ग, मनुष्य दुर्ग, मृद् दुर्ग और बन दुर्ग हैं [को०]।
⋙ षड्बिंदु
संज्ञा पुं० [सं० षड्बिन्दु] विष्णु। दे० 'षड्विंदु'।
⋙ षड्भाग
संज्ञा पुं० [सं०] छठा हिस्सा। छठा भाग या अंश [को०]।
⋙ षड्भुज (१)
वि० [सं०] १. छह् भुजाओंवाला। २. छह् पहल का।
⋙ षड्भुज (२)
संज्ञा पुं० १. चैतन्यदेव का एक नाम। षड्भुज क्षेत्र [को०]।
⋙ षड्भुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खरबूजा। २. दुर्गा का एक नाम (को०)।
⋙ षड्यंत्र
संज्ञा पुं० [सं० षड्(= छह) + यन्त्र (कौशल)] १. किसी मनुष्य के विरुद्ध गुप्त रीति से की गई काररवाई। भीतरी चाल। २. जाल। कपटपूर्ण आयोजन। क्रि० प्र०—करना।—चलाना।—रचना।
⋙ षड्योग
संज्ञा पुं० [सं०] योगाभ्यास में प्रयुक्त छह् प्रकार के तरीके [को०]।
⋙ षड्योनि
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत। शिलाजतु। विशेष—राँगा, सीसा, ताँबा, रूपा, सुवर्ण और लोहा इन छह धातुओं में से किसी एक की सुगंध शिलाजीत में अवश्य आती है, इसी से इसे षड्योनि कहते हैं। कारण यह है कि ऊपर कही हुई धातुओं में से जिस किसी एक धातु का अंश जिसमें होगा उसी पर्वत से शिलाजीत की उत्पत्ति होगी।
⋙ षड्रस
संज्ञा पुं० [सं०] छह् प्रकार के रस या स्वाद—मधुर लवण, तिक्त, कटु, कषाय और अम्ल अर्थात् मीठा, नमकीन, तीता, कड़ुआ, कसैला और खट्टा। यौ०—षड्रस भोजन = अनेक प्रकार के व्यंजन या खाद्य पदार्थ।
⋙ षड्रसायन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लसीका'।
⋙ षड्राग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'षट्राग'।
⋙ षड्रात्र
संज्ञा पुं० [सं०] छह् रात का समय [को०]।
⋙ षड्ररिपु
संज्ञा पुं० [सं०] काम, क्राध आदि मनुष्य के छह् विकार।
⋙ षड्रेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खरबूजा।
⋙ षड्वक्त्
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय। षडानन।
⋙ षड्वदन
संज्ञा पुं० [सं०] षडानन। कार्तिकेय।
⋙ षड्वर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] छह वस्तुओं का समूह या वर्ग। २. ज्योतिष में क्षेत्र, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, द्वादशांश और त्रिशांश जो षड्वर्ग कहलाते हैं। २. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का समूह।
⋙ षड्विंदु
संज्ञा पुं० [सं० षडिंवन्दु] १. विष्णु। २. गुबरीले की जाति का एक कीड़ा जिसकी पीठ पर छह् गोल बिदियाँ होती है। इसे पूरब में 'छबुँदवा' कहते हैं।
⋙ षड्विंदुतैल
संज्ञा पुं० [सं० षडि्वन्दुतैल] वेद्यक का एक तैल जिसकी छह् बूँद नास लेने से सिर का दर्द दूर होता है और आँख तथा दाँत को लाभ पहुँचता है। विशेष—रेंड की जड़, तगर, सौंफ, सेंधा नमक, पुत्रजीवा, रास्ना, जलभँगरा, बायविडंग, मुलेठी, सोंठ, इन सबका चौगुना जल, भँगरे का रस और आठ गुना तेल इन सबको कड़ाही में मंद- मंद पकावे। जब रसादिक जलकर तेल मात्र रह जाय, तो छान ले।
⋙ षड्विंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामवेद का एक ब्राह्मण।
⋙ षड्विंशति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छब्बीस की संख्या [को०]।
⋙ षड्विकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणी के छह विकार या परिणाम, अर्थात् (१) उत्पत्ति, (२) शरीरवृद्धि, (३), बालपन (४) प्रौढ़ता, (५) वृद्धता और (६) मृत्यु। २. काम, क्रोध आदि छह् विकार।
⋙ षड्विध
संज्ञा पुं० [सं०] छह् प्रकार का। छह्गुना [को०]।
⋙ षण्णवति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छानबे की संख्या।
⋙ षण्णाडीचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] ज्यौतिष के अनुसार एक प्रकार का चक्र।
⋙ षण्णाभि, षण्णाभिक
वि [सं०] चक्र या पहिया जिसमें छह् नाभि हों।
⋙ षण्मतस्थापक
संज्ञा पुं० [सं०] शंकराचार्य [को०]।
⋙ षण्मास
संज्ञा पुं० [सं०] छह् महीने की अवधि [को०]।
⋙ षण्मासनिचय
वि० [सं०] छह् मास की भोजनसामग्री इकट्ठा करनेवाला [को०]।
⋙ षणमासिक
वि० [सं०] अर्धवार्षिक [को०]।
⋙ षण्मुख (१)
वि० [सं०] छह् मुँहवाला।
⋙ षण्मुख (२)
संज्ञा पुं० षडानन। कार्तिकेय।
⋙ षण्मुखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खरबूजा [को०]।
⋙ षन्मुख पु
संज्ञा पुं० [सं० षण्मुख] दे० 'षणमुख'। उ०—जग जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुसारथु महा।—मानस, ११०३।
⋙ षप्र पु
संज्ञा पुं० [हिं० खप्पर] दे० 'खप्पर'। उ०—भरि रुद्धि षप्र जुगनीय ईस मुंडन भर वथ्थिय। पलचर रूधिचर पूरि सक्क करि कारज सथ्यिय।—पृ० रा०, २।२६३।
⋙ षर्षपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
⋙ षष्ट
वि० [सं०] साठवाँ।
⋙ षष्टि (१)
वि० [सं०] जो गिनती में पचास से दस अधिक हो। साठ।
⋙ षष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० साठ की संख्या।
⋙ षष्टिक (१)
वि० [सं०] १. साठवाला। २. जो साठ पर खरीदा जाय।
⋙ षष्टिक (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का धान जो बहुत जल्दी तैयार होता हैं। साठी घान।
⋙ षष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] साठी धान [को०]।
⋙ षष्टिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह खेत जिसमें साठी धान बोया गया हो। २. वह खेत जो साठी धान बोने लायक हो। ३. साठी धान से परिपूर्ण खेत [को०]।
⋙ षष्टितम
वि० [सं०] साठवाँ। उनसठ के बाद का [को०]।
⋙ षष्टिभाग
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ षष्टिमत
स्त्री० पुं० [सं०] दे० 'षष्ठिमत्त'।
⋙ षष्टियोजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] साठ योजन की यात्रा या दूरी [को०]।
⋙ षष्टिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ्रमरमारी नाम का पौधा। विशेष दे० 'भ्रमरमारी' [को०]।
⋙ षष्टिवर्षी
वि० [सं० षष्टिवर्षिन्] जो साठ वर्ष का हो।
⋙ षष्टिवासरज
संज्ञा पुं० [सं०] साठी धान। षष्टिक [को०]।
⋙ षष्टिशालि
संज्ञा पुं० [सं०] साठी धान।
⋙ षष्टिसंवत्सर
संज्ञा पुं० [सं०] साठ वर्ष की अवधि। साठ वर्ष का समय। प्रभव आदि साठ संवत्सर या वर्ष [को०]।
⋙ षष्टिहायन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० षष्ठिहायन [को०]।
⋙ षष्टिह्रद
संज्ञा पुं० [सं०] एक तोर्थ का नाम [को०]।
⋙ षष्टयंशक
संज्ञा पुं० [सं०] एक यंत्र जिससे जहाज पर नक्षत्रों की स्थिति देखकर यह स्थिर करते हैं कि जहाज पृथवी के किस भाग में है।
⋙ षष्ठ
वि० [सं०] [वि० स्त्री० षष्ठी] जिसका स्थान पाँचवें के उपरांत हो। छठा।
⋙ षष्ठक
वि० [सं०] छठा [को०]।
⋙ षष्ठकाल
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का छठा समय जो तीसरे दिन का सायंकाल है [को०]।
⋙ षष्ठकालोपवास
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत। दे० 'षष्ठान्न काल'।
⋙ षष्ठभक्त (१)
वि० [सं०] छठे समय अर्थात् तीसरे दिन शाम को भोजन करनेवाला [को०]।
⋙ षष्ठभक्त (२)
संज्ञा पुं० छठा भोजन। षष्ठकाल का आहार [को०]।
⋙ षष्ठम
वि० [सं०] छठा [को०]।
⋙ षष्ठमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] षष्ठी तिथि [को०]।
⋙ षष्ठांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. छठा हिस्सा। २. कर के रूप में दिया जानेवाला उपज का छठा भाग या हिस्सा। राजस्व के रूप में राजा को दिया जानेवाला कृषि का छठा अंश [को०]।
⋙ षष्ठांशवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] नरेश। वह जिसकी वृत्ति राजस्व के रूप में प्राप्त कृषि का छठा भाग हो। राजा जो कर के रूप में मिले कृषि के छठे अंश द्वारा कार्यवृत्ति संपादित करता है [को०]।
⋙ षष्ठान्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह भोजन जो तीन दिनों के बीच में केवल एकबार किया जाय। षष्ठान्नकाल नाम के व्रत की विधि के अनुसार तीसरे दिन सायंकाल किया जानेवाला आहार।
⋙ षष्ठान्नकाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जिसमें तीन दिन में केवल एक बार, विशेषतः सायकाल के समय, भोजन किया जाता है।
⋙ षष्ठान्नकालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] षष्ठान्नकाल व्रत के अनुसार भोजन करना [को०]।
⋙ षष्ठान्नकालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'षष्ठालुकालुक' [को०]।
⋙ षष्ठालुकालुक
संज्ञा पुं० [सं०] तीन दिन में केवल एक बार किया जानेवाला भोजन [को०]।
⋙ षष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक देवी। षष्ठी देवी। २. जातक के जन्म से छठे दिन का उत्सव जिसम षष्ठी देवी की पूजा विधेय है [को०]।
⋙ षष्ठिमत्त
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी। वह हाथी जो साठ वर्ष का हो। विशेष—कहते है कि हाथी की सोठ वर्ष की अवस्था होने पर उपक गंडस्थल से मदस्त्राव होता है।
⋙ षष्ठिहायन
संज्ञा पुं० १. हाथी। २. साठी धान।
⋙ षष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी पक्ष का छठा दिन। शुक्ल या कृष्ण पक्ष की छठी तिथि। २. षाडश मातृकाओं में से एक। देवसेना। ३. कात्यायानी। दुर्गा। ४. (व्याकरण में) संबंध कारक। ५. बालक उत्पन्न होने से छठा दिन तथा उक्त दिन का उत्सव। यौ०—षष्ठोजाय = जिसने छठा विवाह किया हो। षष्ठातत्पुरुष = तत्पुरुष समास का एक भेद जिसने पूवपद में षष्ठा। विभाक्त होती है। षष्ठापूजन = प्रसव के छठें दिन होनेवाला पूजा। षष्ठाव्रत = व्रताविशेष। षष्ठा समास = दे० 'षष्ठा' तत्पुरुष।
⋙ षष्ठीप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद। कार्तिकेय [को०]।
⋙ षष्ठय
संज्ञा पुं० [सं०] छठा हिस्सा। छठा अंश।
⋙ षहसानु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मयूर। मोर। २. यज्ञ [को०]।
⋙ षहसानु (२)
वि० सहिष्णुता स परिपूर्ण [को०]।
⋙ षीड
संज्ञा पुं० [सं० षाण्ड] शिव का एक नाम। षंड।
⋙ षांडय
संज्ञा पुं० [सं० षाणड्य] हींजड़ापन। नपुंसकता।
⋙ षाट्कौशिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० षाट्कोशिका] जो ६. कोश या तह में लिपटा हुआ हो [को०]।
⋙ षाट्पौरूषिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० षाट्पौरुषिका] ६. पोढ़ियाँ से संबंध रखनेवाला। ६. पीढ़ा या पुस्त का [को०]।
⋙ षाड़व
संज्ञा पुं० [सं० षाडव] १. राग का एक जाति जिसने केवल छह् स्वर (स, रे, ग, म, प और ध) लगते है और निषाद वजित है। जैसे,—दीपक और मेघ। षाड़व दो प्रकार का होता है— (१) शुद्ध षाड़व और (२) ब्राह्म षाड़व। २. मिठाई। ३. हलवाई का काम। ४. मनोराग। मनोविकार। ५. गाना। संगीत (को०)।
⋙ षाडविक
संज्ञा पुं० [सं०] मिठाई बनानेवाला। हलवाई [को०]।
⋙ षाड्गुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. छह् उत्तम गुणों का समूह। २. नीति के छहू अंग। विशेष दे० 'षड्गुण'। ३. किसी वस्तु को छह् से गुणा करने से प्राप्त गुणनफल। ४. तत्व (को०)। यौ०—षाड्गुण्य प्रयोग = राजनीति के ६ अंगों का प्रयोग करना षाड्गुण्यवेदी = नीति के छहो अंगों का जानकार। षाड्गुण्य युत, षाड्गुणयसंयुत = ६. गुणों से युक्त जो नीति के छहों अंर्गों से युक्त हो।
⋙ षाड्रसिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसे छहो रसों का ज्ञान हो। २. वह जिसमें छहो रसों का स्वाद प्राप्त हो।
⋙ षाड्वर्गिक
वि० [सं०] पाँचों ज्ञानेंद्रियों और मन से संबंध रखनेवाला [को०]।
⋙ षाण्मातुर
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय (जिनका पालन छह् कृत्तिकाओं ने किया था)।
⋙ षाणमासिक (१)
वि० [सं०] १. छह् महीने का। २. छह् महीने में होनेवाला। ३. छठे महीने में पड़नेवाला।
⋙ षाण्मासिक (२)
संज्ञा पुं० मृतक संबंधी एक कृत्य जो किसी की मृत्यु के छह् महीने पीछे जाता है। छमसी। छमासी।
⋙ षादतर
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक बनावटी सप्तक जो मंद से भी नीचा होता है। यह सप्तक केवल बजाने के काम में आता है।
⋙ षाष्टिक
वि० [सं०] साठ वर्ष की अवस्थावाला [को०]।
⋙ षाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] छठा [को०]।
⋙ षाष्ठिक (१)
वि० [सं०] छठे से संबंधित [को०]।
⋙ षाष्ठिक (२)
संज्ञा पुं० चार मास का एक व्रत जिसमें प्रति छठे दिन खाया जाता है [को०]।
⋙ षिंग
संज्ञा पुं० [सं० षिङ्ग] १. व्यभिचारी। स्त्रैण। कामुक। २. शूरवीर।
⋙ षिड्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामुक व्यक्ति। २. विट। ३. वेश्था रखनेवाला पुरुष [को०]।
⋙ षु, षू
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसव [को०]।
⋙ षेध
संज्ञा पुं० [सं०] निषेध। वारण [को०]।
⋙ षोड़त्
संज्ञा पुं० [सं० षोडत्] छहू दाँत का बैल। जवान बैल।
⋙ षोड़श (१)
वि० [सं० षोडश] [वि० स्त्री० षोडशी] सोलहवाँ।
⋙ षोड़श (२)
वि० [सं० षोडशन्] जो गिनती में दस से छह अधिक हो। सोलह।
⋙ षोड़श (३)
संज्ञा पुं० सोलह की सख्या।
⋙ षोडशक (१)
वि० [सं०] जिसमें सोलह अंश हों [को०]।
⋙ षोडशक (२)
संज्ञा पुं० सोलह की संख्या।
⋙ षोडशकल
वि० [सं०] सोलह कलाओं या अंशों से युक्त।
⋙ षोड़शकला
संज्ञा स्त्री० [सं० षोडशकला] चंद्रमा के सोलह भाग जो क्रम से एक एक करके निकलते और क्षीण होते हैं। विशेष दे० 'कला'—२।
⋙ षोड़शगण
संज्ञा पुं० [सं० षोडशगण] पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच भूत और एक मन इन सबका समूह।
⋙ षोडशदान
संज्ञा पुं० [सं०] सोलह प्रकार के दान जो ये हैं—(१) भूमि, (२) आसन; (३) पानी, (४) कपड़ा, (५) दीपक, (६) अन्न, (७) पान, (८) छत्र, (९) सुगधि, (१०) फूलमाला, (११) फल, (१२) सेज, (१३) खड़ाऊँ, (१४) गाय, (१५) सोना और (१६) चाँदी।
⋙ षोडशधूप
संज्ञा पुं० [सं०] 'तंत्रसार' के अनुसार एक धूप जो सोलह वस्तुओं के मिश्रण से तैयार होता है और देव पितृ कार्यों में इसका प्रयोग विहित है [को०]।
⋙ षोडशपक्षशायी
संज्ञा पुं० [सं० षोडशपक्षशायिन्] मेढक, जो सोलह पक्ष तक निश्चेष्ट रहता है [को०]।
⋙ षोड़शपूजन
संज्ञा पुं० [सं० पोडशपूजन] सोलहो सामग्री के साथ पूजन। विशेष दे० 'षोड़शोपचार'।
⋙ षोडशभुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा देवी का एक रूप [को०]।
⋙ षोडशभेदित
वि० [सं०] जो सोलह भागों में विभक्त हो। सोलह भागों में बँटा हुआ [को०]।
⋙ षोड़शमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं० षोडशमातृका] एक प्रकार की देवियाँ जो सोलह हैं—(१) गौरी, (२) पद्मा, (३) शची, (४) मेधा, (५) सावित्री, (६) विजया, (७) जया, (८) देवसेना, (९) स्वधा, (१०) स्वाहा, (११) शांति, (१२) पुष्टि, (१३) धृति, (१४) तुष्टि, (१५) आत्मदेवता।
⋙ षोडशविध
वि० [सं०] सोलह प्रकार का। सोलह भेद का [को०]।
⋙ षोडश शृंगार
संज्ञा पुं० [सं० षोडशश्रृङ्गार] पूर्ण शृंगार जिसके अंतर्गत सोलह बातें हैं। पूरा सिंगार। विशेष दे० 'शृंगार-२' तथा 'सोलह सिंगार'। विशेष—प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश शृंगार की गणना अज्ञात प्रतीत होती है। अनुमानतः यह गणना वल्लभदेव की सुभाषितावली (१५ वीं शती या १२ वीं शती) में प्रथम बार आती है। उनके अनुसार वे इस प्रकार हैं— आदौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्राञ्जनं कुडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ। सौगन्ध्य करकङ्कणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता शृंगारका षोडण।। अर्थात् (१) मज्जन, (२) चीर, (३) हार, (४) तिलक, (५) अंजन, (६) कुंडल, (७) नासामुक्ता, (८) केशविन्यास, (९) चोली (कंचुक), (१०) नूपुर, (११) अंगराग (सुगंध), (१२) कंकण, (१३) चरणराग, (१४) करधनी, (१५) तांबूल तथा (१६) करदर्पण (आरसो नामक अंगूठी)। पुनः १६ वीं शती में श्रीरूपगोस्वामी के उज्वलनीलमणि में शृंगार की यह सूची इस प्रकार गिनाई गई है— स्नातानासाग्रजाग्रन्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणिः सोत्त सा चर्चिताङ्गी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। ताभ्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघ्रिः स्फुरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम्।। उक्त प्रमाण से शृंगारों की यह सूची बनती है— अर्थात् (१) स्नान, (२) नासा मुक्ता, (३) असित पट, (४) कटि सूत्र (करधनी), (५) वेणीविन्यास, (६) कर्णावतंस, (७) अंगों का चर्चित करना, (८) पुष्पमाल, (९) हाथ में कमल, (१०) केश में फूल खोंसना, (११) तांबूल, (१२) चिबुक का कस्तुरी से चित्रण, (१३) काजल, (१४) शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, (१५) अलक्तक और (१६) तिलक। यहाँ वल्लभदेव के तथा श्रीरूपगोस्वामी के काल तक की शृंगार सूची में विभिन्नता स्पष्ट है। हिंदी कवियों में जायसी के अनुसार ये शृंगार यों हैं—(१) मज्जन, (२) स्नान (जायसी ने मज्जन, स्नान को अलग रखा है), (३) वस्त्र, (४) पत्रावली, (५) सिंदूर, (६) तिलक, (७) कुंडल, (८) अंजन, (९) अधरों का रंगना, (१०) तांबूल, (११) कुसुमगंध, (१२) कपोलों पर तिल, (१३) हार, (१४) कंचुकी , (१५) छुद्रघंटिका ओर (१६) पायल। रीतिकाव्य के आचार्य केशवदास ने भी सोलह शृंगार की गणना इस प्रकार की है— प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो। अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल ललित लोल लोचन निहारिबो। बोलन, हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो। 'केसौदास' सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै सिंगारन सिंगारिबो। उक्त छंद की टीका करते हुए सरदार कवि ने ये शृंगार यों गिने हैं—(१) उबटन, (२) स्नान, (३) अमल पट्ट, (४) जावक, (५) वेणी गूँथना, (६) माँग में सिंदूर, (७) ललाट में खौर, (८) कपोलों में तिल, (९) अंग में केसर लेपन, (१०) मेंहदी, (११) पुष्पाभूषण, (१२) स्वर्णाभूषण, (१३) मुखवास (१४) दंत मंजन, (१५) तांबूल और (१६) काजल। यहाँ स्पष्ट है कि टीकाकार ने कई उपकरण अपनी ओर से जोड़े हैं। नगेंद्रनाथ वसु ने हिंदी विश्वकोश में इन शृंगारों को गणना निम्नलिखित दी है— (१) उबटन, (२) स्नान, (३) वस्त्रधारण, (४) केश प्रसाधन, (५) काजल, (६) सिंदूर से माँग भरना, (७) महावर, (८) तिलक, (९) चिबुक पर तिल, (१०) मेंहदी, (११) सुगंध लगाना, (१२) आभूषण, (१३) पुष्पमाल, (१४) मिस्सी लगाना, (१५) तांबूल, और (१६) अधरों को रंगना।उक्त विभिन्न सूचियों से पता चलता है कि षोडश शृंगार को कोई निश्चित परिभाषा या सूची नहीं रही है। देश और काल के अनुसार उसमें भिन्नता होती रही।
⋙ षोड़श संस्कार
संज्ञा पुं० [सं० षोडश संस्कार] वैदिक रीति के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृतक कर्म तक के १६ संस्कार जो द्विजातियों के लिये कहे गए हैं। विशेष दे० 'संस्कार'।
⋙ षोड़शांग (१)
वि० [सं० षोडशाङ्ग] सोलइ अंगोंवाला। जिसके सोलह भाग या प्रकार हों [को०]।
⋙ षोड़शांग (३)
संज्ञा पुं० दे० 'षोड्शधूप'।
⋙ षोड़शांग चूर्ण
संज्ञा पुं० [सं० षोडशाङ्ग चूर्ण] वैद्यक में एक चूर्ण जो विषमज्वर में दिया जाता है। विशेष—चिरायता, नीम की छाल, कुटकी, गिलोय, हड़ का छिलका, नागर मोथा, धनिया, अडूसा, त्रायमाण, कटियाली, काकड़ासिंगी, सोंठ, पित्तपापड़ा, प्रियंगु पुष्प, पेखलं, पीपल, कचुर सब सामान लेकर पीस डाले और ११ टंक प्रति दिन ठंढे जल से आठ दिन तक सेवन करे।
⋙ षोड़शांगुलक
वि० [सं० षोडशाङ्गलक] जो सोलह अंगुल माप का हो। सोलह अंगुल के नाप की चौड़ाई का [को०]।
⋙ षोड़शांघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० षोडशाङ्घ्रि] केकड़ा।
⋙ षोड़शांशु
संज्ञा पुं० [सं० षोडशांशु] शुक्र ग्रह, जिसमें सोलह किरनें मानी गई हैं।
⋙ षोडशात्मक
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा [को०]।
⋙ षोडशार (१)
वि० [सं०] १. सोलह अराओं वाला। जैसे, षोडशार चक्र। २. जिसमें सोलह पखड़ियाँ हों [को०]।
⋙ षोडशार (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कमल।
⋙ षोडशार्चि
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र ग्रह [को०]।
⋙ षोड़शावर्त
संज्ञा पुं० [सं० षोडसावर्त] शंख।
⋙ षोड़शाश्रि
संज्ञा पुं० [सं० षोडशाश्रि] वह घर या मंदिर जो सोलह कोनों का हो। ऐसे घर में सदा अँधेरा रहता है। (बृहत्संहिता)।
⋙ षोडशाह
संज्ञा पुं० [सं०] व्रत या उपवास आदि जो सोलह दिनों तक चलता रहे [को०]।
⋙ षोड़शिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० षोडशिकी] दे० 'षोडशक'।
⋙ षोड़शिका
संज्ञा स्त्री० [सं० षोडशिका] एक प्राचीन तौल जो मागधी मान से १६ माशे और व्यावहारिक मान से एक ताले के बराबर होती थी।
⋙ षोडशिकाम्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तौल जिसे पल कहते हैं [को०]।
⋙ षोड़शी (१)
वि० स्त्री० [सं० षोडशी] १. सोलहवीं। २. सोलह वर्ष की (लड़की या स्त्री)। जैसे,—षोड़शी बाला।
⋙ षोड़शी (२)
संज्ञा स्त्री० १. सोलह वर्ष की स्त्री। नव यौवना स्त्री। २. दस महाविद्याओं में से एक। ३. एक यज्ञपात्र। ४. एक प्राचीन तौल। पल का एक भेद जो मागधी मान से ५ तोले और व्यावहारिक मान से ४ तोले के बराबर होता था। ५. इन सोलह पदार्थों का समूह-ईक्षण, प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, इंद्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म ओर नाम। ६. मृतक संबधी एक कर्म जो मृत्यु के दसवें या ग्यारहवें दिन होता है। यौ०—षोड़शी सपिंडी।
⋙ षोडशी (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोमयुक्त पात्र विशेष। २. अग्निष्टोम यज्ञ का विभेद या रूपांतर विधान [को०]। यौ०—षोडशीग्रह = अग्निष्टोम यज्ञ में दिवता के निमित्त दिया हुआ पेयनिषेक वातर्पण।
⋙ षोड़शोपचार
संज्ञा पुं० [सं० षोडशोपचार] पूजन के पूर्ण अंग जौ सोलह माने गए हैं। विशेष—इनके नाम इस प्रकार हैं—(१) आवाहन, (२) आसन, (३) अर्ध्यपाद्य, (४) आचमन, (५) मधुपर्क, (६) स्नान, (७) वस्त्राभरण, (८) यज्ञोपवीत, (९) गंधन (चंदन), (१०) पुष्प, (११) धूप, (१२) दीप, (१३) नैवेद्य, (१४) ताबूल, (१५) परिक्रमा और (१६) बंदना। तंत्रसार के अनुसार इनके नाम इस प्रकार है,—(१) आसन, (२) स्वागत,(३) पाद्य, (४) अर्ध्य, (५) आचमन, (६) मधुपर्क, (७) आचमन, (८) स्नान, (९) वस्त्र, (१०) आभरण, (१११) गंध, (१२) पुष्प, (१३) धूप, (१४) दीप, (१५) नैवेद्य और (१६) वंदना।
⋙ षोढा
क्रि० वि० [सं०] छह् ढंग से। छह् प्रकार से। षड्धा [को०]।
⋙ षोढान्यास
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र में छह् प्रकार अंगन्यास [को०]।
⋙ षोढामुख
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय जिनके छह् मुख कहे जाते हैं षणमुख [को०]।
⋙ षोदत्
संज्ञा पुं० [सं०] जवान वृष। दे० 'षोडत्' [को०]।
⋙ ष्ठीवन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ष्ठीवित, ष्ठचुत] १. थूकना। २. लाला। लार (को०)।
⋙ ष्ठीवित
वि० [सं०] दे० 'ष्ठचूत' [को०]।
⋙ ष्ठेव, ष्ठेवन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ष्ठीवन' [को०]।
⋙ ष्ठेविता
वि० [सं० ष्ठेवितृ] थूकनेवाला।
⋙ ष्ठचुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. प्रकाश। ३. जल। ४. सूत्र। डोरा। ५. शुभता। कल्याण [को०]।
⋙ ष्ठचूत
वि० [सं०] थूका हुआ।
⋙ ष्ठचूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूकना। ष्ठीवन करना।