विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/गु
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ गुंकार
संज्ञा पुं० [अनु०?] हुंकार । ललकार । उ०—येहि कार के लार गुंकार भयौ ।—घट०, पृ० ९८ ।
⋙ गुंग (१)
वि० [फ़ा०] दे० 'गूँगा' । उ०—गुंग सकल पिंगल पढ़ै, पंगु चढ़ै गिरि मेर ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१६ ।
⋙ गुंग (२)पु
क्रि० स० [अनु०] गुं गुं की ध्वनि करना । बजना । उ०—गहरि गुंग नींसाँन जाँन बददल गुर गज्जिय ।—पृ० रा०, ७ ।३२ ।
⋙ गुंगा †
वि० [हिं० गुंग] गूँगा ।
⋙ गंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गूंगा] दोमुहाँ साँप । चुकरैंड ।
⋙ गुंगी (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुँग + ई (प्रत्य०)] १. गूँगापन । वाक्- शक्ति का अभाव । २. चुप्पी । मौन । यौ०—गुंगी साधना = चुप हो जाना ।
⋙ गुंगी (३)
वि० [हिं०] दे० 'गुँग, गुगी' ।
⋙ गुंचा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुचह्] १. कली । कोरक । २. नाच रंग । विहार । जश्न । मुहा०—गुंचा खिलना = खूब नाच रंग होना । जश्न होना । आनंद उड़ाना । ३. झुरमुट । यौ०—गुंचादहन = (१) कली जैसे छोटे मुँहवाला । (२) सुमुख (३) प्रेमपात्र या माशूक ।
⋙ गुंची
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा] दे० 'घुँघची' ।
⋙ गुंज (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्ज] १. भौंरों के भनभनाने का शब्द । गुंजार । २. आनदध्वनि । कलरव । ३. दे० 'गुंजा' । यौ०—गुंजमाल । गुंजहार । ४. सोने के तार को गूँथकर बनाया हुआ कई लड़ का गहना जो गले में पहना जाता है । गोप । ५. फूलों का फलियों का गुच्छा (को०) ।
⋙ गुंज (२)
संज्ञा पुं० [देश०] सलई का पेड़ ।
⋙ गुंज (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सलाह । उ०—अजन कणेगढ़ ईखवा, धरियो गुंज सधीर ।—रा० रू०, पृ० ३५५ ।
⋙ गुंजक (१)
संज्ञा पुं० [सं० गुञ्जक] एक प्रकार का पौधा [को०] ।
⋙ गुंजक (२)
वि० गुंजन करनेवाला । भनभनानेवाला [को०] ।
⋙ गुंजन
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जन] १. भौरों के गूँजने की क्रिया । कोमल मधुर ध्वनि निकालने की क्रिया । भनभनाहट । २. गुनगुनाने की क्रिया या स्थिति [को०] । ३. चिड़ियों का बसेरा लेते हुए या प्रातः काल चहचहाना (को०) ।
⋙ गुंजना
क्रि० अ० [हिं० गुंज] भौरों का भनभनाना । मधुर ध्वनि निकालना । गुनगुनाना । उ०—सुंदर बन कुमुमति अति सोभा । गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गुंजनिकेतन
संज्ञा पुं० [सं० गुञ्ज + निकेतन] भौंरा । मधुकर । उ०—अति मंजुल बंजुल कुंज बिराजैं । बहु गुंजनिकेतन पुंजनि साजैं ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गुंजर
संज्ञा पुं० [हिं० गुंजार] गुंजार । गुंजन ।
⋙ गुंजरण
संज्ञा पुं० [गुञ्जन, हिं० गुंजार] गुंजार । गूँज । उ०—मधुर गुंजरण भर, अब बहता प्राण समीरण सुख से चंचल ।—युगपथ, पृ० १४५ ।
⋙ गुंजरना
क्रि० अ० [हिं० गुंजार] १. गुंजार करना । भौरों का गुँजना । भनभनाना । मधुर ध्वनि निकालना । उ०—और भाँति कुंजन में गुंजरत भौंर भीर और डौर झोरन में बौरन के ह्नै गए ।—पद्माकर (शब्द०) । २. शब्द करना । गरजना । उ०—बाध सिंह गुंजरत,? गुंज कुंजर तरु तोरत ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ गुंजलक
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. गेंडुली । कुंडली । २. कपड़ें आदि की शिकन । सिलवट । ३. उलझन की बात । गुत्थी । ४. गाँठ । ग्रंथि ।
⋙ गुंजल्क
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुंजलक] कुंडली या कुंडल । उ०— चाँदनी०, पृ० १०८ ।
⋙ गुंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा] १. घुँघुची नाम की लता । विशेष-यह जंगल में झाड़ों पर चढ़ती है और इसकी फलियों में से अरहर के बराबर खूब लाल दाने निकलते हैं । वि० दे० 'घुँघची' ।
⋙ गुंजाइश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. स्थान । जगह । अँटने की जगह ।समाने भर को स्थान । अवकाश । जैसे,—इस कोठरी में दस आदमियों से अधिक की गुंजाइश नहीं है । २. समाई । सुबीता । जैसे,—इस समय इतने की गुंजाइश तो हमारे यहाँ नहीं है । ३. लाभ । बचत ।
⋙ गुंजान
वि० [फ़ा०] घना । अविरल । सघन ।
⋙ गुंजायमान
वि० [सं० गुञ्जायमान] मधुर ध्वनि करता हुआ । गुंजारता हुआ । गूँजता हुआ ।
⋙ गुंजार
संज्ञा पुं० [सं० गुंज + आर] भौंरों की गूँज । भनभनाहट । उ०—जहँ वृंदावन आदि अजर जहँ कुंजलता विस्तार । तहँ विहरन प्रिय दोऊ निगम भृंग गुँजार ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गुंजारना
क्रि० अ० [हिं० गुंजार] भौरों की गूँजना । २. मधुर ध्वनि करना ।
⋙ गुंजारित
नि० [हिं० गुंजार + इत (प्रत्य०)] गुँजाया हुआ । गुंजित ।
⋙ गुंजाहल पु
संज्ञा पुं० [सं० गुञ्जा + फल] गुंजा । गुंजा का बीज । उ०—अहर रंग रत्तउ हुवइ, मुख कागज मसि ब्रन्न । जाँरायउ गुंजाहल अछइ, तेण न ढूकउ मन्न ।—ढोला०, दू०, ५७२ ।
⋙ गुंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जिका] घुँघची [को०] ।
⋙ गुंजिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँज = लपेटा हुआ पतला तार] एक प्रकार का जेवर जिसे औरतें कान में पहनती हैं ।
⋙ गुंजी
वि० [सं० गुञ्जिन्] गुंजनयुक्त । २. गुँजनेवाला [को०] ।
⋙ गुँझ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थि] उलझन । गुत्थी । उ०—करै दिखाया और को आप सामनै गुंझ ।—दरिया० बानी, पृ० ३८ ।
⋙ गुंझल पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुंजलक, और गुरझन] झुरियाँ । उ०—तन गुंझल पड़ने लगी सूखन लागी आँत ।—सहजो०, पृ० २६ ।
⋙ गुंटा
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड अथवादेश०] ताल । छोटा जलाशय ।
⋙ गुंठ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा घोड़ा । टट्टू । टाँघन । उ०—कोई किसमी भुठार फुलवाई । गरी गुंठ जुम्मिल दरियाई ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ गुंठन
संज्ञा पुं० [सं० गुण्ठन] १. आच्छादन । ढक्कन । २. घूँघट । ३. लेपन । जैसे,—भस्मगुंठन [को०] ।
⋙ गुंठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गठना] एक प्रकार का घोड़ा जो नाटे कद का होता है । दाँगन ।
⋙ गुंठा (२) †
वि० [देश०] नाटे कद का । नाटा । बौना ।
⋙ गुंठित
वि० [सं० गुण्ठित] १. ढका हुआ । २. छिपा हुआ । ३. आवृत । ४. लेपन किया हुआ । लेपित [को०] ।
⋙ गुंड (१)
संज्ञा पुं० [?] मलार राग एक का भेद । उ०—पिक बैनी मृग लोचनी सारद ससि तुंड । राम सुयश सब गावही सस्वर सारँग गुंड ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गुंड (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसेरू का पौधा । २. पेषण । चूर्ण । करना (को०) ।
⋙ गुंड (३)
वि० पिसा हुआ । चूर्ण किया हुआ ।
⋙ गुंडई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुंडा] गुंड़ापन । शोहदापन । बदमाशी ।
⋙ गुंडक
संज्ञा पुं० [सं० गुणडक] १. धूल । २. चूर्ण । ३. तैल रखने का बरतन । तैलपात्र । ४. कर्णप्रिय कोमल मधुर ध्वनि । ५. गंदा आटा । ६. गंदी धूल मिली भोज्य सामग्री (को०) ।
⋙ गुंडन
संज्ञा पुं० [सं० गुण्डन] गुंठन । छिपाव ।
⋙ गुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] कुंडली । गेंडुरी (को०) ।
⋙ गुंडा (१)
[सं० गुणडक = मालिन] [वि० स्त्री० गुंडी] १. दुर्वृत्त । पापी । बदचलन । कुमार्गी । बदमाश । २. छैला । चिकनिया ।
⋙ गुंडा (२)
संज्ञा पुं० बदमाश आदमी ।
⋙ गुंडा
संज्ञा पुं० [सं० गुण्ड] गोला । उ० अति गह सुमर खोदाए खाए लें भाँग क गुडा ।—कीर्ति०, पृ० ४० ।
⋙ गुंडाना
वि० [हिं० गुंडा] गुंडो का । गुंडापन लिए हुए ।
⋙ गुंडापन
संज्ञा पुं० [हिं० गुंडा + पन (प्रत्य०)] बदमाशी ।
⋙ गुंडासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुण्डासिनी] एक प्रकार का तृण । विशेष—यह वैद्यक में कटु, तिक्त, उष्ण और पित्त, दाह, शोष तथा व्रण दोष का नाशक कहा है । पर्या० —गुंडाल । गुडा़ला । गुच्छामूलिका । चिपिटा । तृणापत्री । यवासा । पृथुला । विष्टरा ।
⋙ गुंडिक
संज्ञा पुं० [सं० गुण्डिक] आटा । चूर्ण [को०] ।
⋙ गुंडिचा
संज्ञा स्त्री० [सं० गुण्डिचा] १. पुरुषोत्तम के १२ उत्सवों में से एक । २. एस उत्सव का स्थान । ३. उत्कल खंड [को०] ।
⋙ गुंडित
वि० [सं० गुण्डित] १. चूर्ण किया हुआ । २. धूल से ढका हुआ [को०] ।
⋙ गुंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] सुत की लच्छी । गेडुरी ।
⋙ गुडी (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड] पीतल का छोटा जलपात्र या कलसा ।
⋙ गुंडीर
वि० [सं०] १. चूर्ण करनेवाला । पीसनेवाला । २. नष्ट भ्रष्ट करनेवाला [को०] ।
⋙ गुंदल
संज्ञा पुं० [सं० गुन्दल] छोटे नगाड़े या ढोल की मंद ध्वनि [को०] ।
⋙ गुंदाल
संज्ञा पुं० [सं० गुन्दाल] चातक । पपीहा (को०) ।
⋙ गुंद्र
संज्ञा पुं० [सं० गुन्द्र] एक प्रकार की घास । शर तृण [को०] ।
⋙ गुंद्राल
संज्ञा पुं० [सं० गुन्द्राल] चातक । पपीहा (को०) ।
⋙ गुंफ
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फ] [वि० गुंफित] १. उलझन । फँसाव । दो या कई वस्तुओं का परस्पर गुत्थमगुत्था । २. गुच्छा । ३. दाढ़ी । गलमुच्छा । ४. कारणमाला अलंकार । ५. सज्जा (को०) । ६. बाजूबंद (को०) । ७. संयोजक । रचना । व्यवस्था (को०) ।
⋙ गुंफन
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फन] [वि० गुंफित] १. उलझन । फँसाव । गुत्थमगुत्था । गूँधना । गाँधना । २. क्रमबद्ध करना (को०) ।
⋙ गुंफना
संज्ञा स्त्री० [सं० गुंफना] १. गुँथना । २. व्यवस्था । रचना । ३. शब्दों और अर्थ की वाक्य में सम्यक् रचना (को०) ।
⋙ गुंफा
संज्ञा पुं० [सं० गुहा; मरा० हिं० गुफा] दे० 'गुफा' । उ०— मथुरा की जैन मूर्तियाँ और कलिंग की जैन गुंफाओं की मुर्तियाँ प्रायः एक सी हैं ।—भा० इ० रू०, पृ० ९४१ ।
⋙ गुंबज
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुंबद] देवालयों की गोल गेंदनुमा छत । यौ० —गुंबजदार ।
⋙ गुंबजदार
वि० [फ़ा० गुंबददार] जिसपर गुंबज हो ।
⋙ गुंबद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] दे० 'गुंबज' ।
⋙ गुंबदी
वि० [फ़ा०] १. गुंवद की शक्ल का । गुंवदवाला ।
⋙ गुंबा
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + अंब आम] वह कड़ी गोल सूजन जो सिर या मत्थे पर चोट लगने से होती है । गुलमा । गूमड़ा ।
⋙ गंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुम्फ = गुच्छा] अंकुर ।
⋙ गुंमज
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुंबद, हिं० गुंघज] दे० 'गुंबद' । उ०— कसे कंचुकी मैं दुलो उच कुच करत बिहार । गुंमज के गजकुंभ के गरभ गिरावनहार ।—स० सप्तक, पृ० ३५३ ।
⋙ गुंमट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गुंबद' । उ०—गुंमट में जब जाय लगा, मुक्ता सो नजर में आवत है ।—पलटू०, पृ० ११ ।
⋙ गुंमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गून = रस्सी] पाल खींचने की रस्सी । मुहा० —गुम्मी बाँधना—पाल को खींच खाँचकर ठीक करना ।—(लश०) ।
⋙ गुँगबहरा
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँगा + बहरा] एक प्रकार की लंबी मछली जो देखने में साँप की तरह मालूम होती है । बाम । बाँबी ।
⋙ गुँगुआना
क्रि० अ० [अनु०] १. धुआँ देना । अच्छी तरह न जलना । उ०—बिरह की ओदी लाकरी सपचै औ गुँगुआय । दुख ते तबहीं बांचिहौ, जब सगरो जरि जाय ।—कबीर (शब्द०) । २. गूँ गूँ शब्द करना । अस्पष्ट शब्द निकालना । गूँगे की तरह बोलना ।
⋙ गुँजरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० गजरा] दे० 'गजरा' । उ०—गुँजरा हियरे विहरै तन सोभित, घातु विचित्र लह्यौ किरये ।— नट०, पृ० १६ ।
⋙ गुँजाना पु
क्रि० स० [हिं० गूँजना] गुंजनमय करना । गूँज से भरना ।
⋙ गुँडली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] १. फेटा । कुंडली । २. गेंडुरी । इदुरी ।
⋙ गुँथना †
किक्र अ० [हिं० गुथना] दे० 'गुथना' ।
⋙ गुँदला
संज्ञा पुं० [सं० गुण्डाला] नागरमोथा नाम की घास जो प्रायः दलदल के पास होती है ।
⋙ गुँदीला †
वि० [हिं० गोंदीला] दे० 'गोंदीला' ।
⋙ गुँधना (१)
क्रि० अ० [सं० गुध = क्रीडा अथवा हिं० गुँधना का अक० रूप] पानी में सानकर मसला जाना । माँड़ा जाना । साना जाना । जैसे,—आटा गुंध रहा है ।
⋙ गुँधना (२)
क्रि० अ० [सं० गुल्थ या गुत्थ = गुच्छ] तागों, बाल की लटों, या इसी प्रकार की और वस्तुओं का गुच्छेदार लड़ी के रूप में बनना । गुँथना । जैसे, चोटी गुँधना ।
⋙ गुँधवाना
क्रि० स० [हिं० गूँधना का प्रे० रूप] गूँधने का काम दूसरे से करना ।
⋙ गुँधाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँधना] १. गूँधने या माड़ने की क्रीया या भाव । २. गूँधने या माड़ने की मजदूरी । ३. गूँधने की क्रिया या भाव । ४. गूँधने या गूँधने की मजदूरी । जैसे,—चोटी गुँधाई ।
⋙ गुँधावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँधना] १. गूँधने या गूँथने की क्रिया । गूँथने या गूँधने का ढंग ।
⋙ गुआ
संज्ञा पुं० [सं० गुवाक] १. एक प्रकार की सुपारी । चिकनी सुपारी । उ०—गुआ सुपारी जायफर सब फर फरे अपूर । आस पास घन इँविली अउ घन तार खजूर ।—जायसी (शब्द०) । २. सुपारी । उ०—घोंटा कुकर्म गुआ पुनि पूग सुपारी जाहि ।—नंददास (शब्द०) ।
⋙ गुआर
संज्ञा स्त्री० [सं० गोराणी] ग्वार ।
⋙ गुआरपाठा
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वारपाठा] दे० 'ग्वारपाठा' ।
⋙ गुआरि
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार] दे० 'ग्वार' ।
⋙ गुआरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार] दे० 'ग्वार' ।
⋙ गुआलिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार] दे० 'ग्वार' ।
⋙ गुइयाँ (१)
संज्ञा स्त्री० पुं० [हिं० गोहन = साथ] १. खेल का साथी । २. सखा । मित्र । सँघाती । ३. सखी । सहचरी । उ०— तुम्हारे धन्य भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके मैं जो इनकी लड़कपन की गइया हूँ मुझे अपने साथ ले के आई हैं ।—अयोध्या० (शब्द०) । दे० 'गोइयाँ' ।
⋙ गुईं
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुइयाँ] दे० 'गुईयाँ' । उ०—नहीं गुईँ, इसमें बड़ा भेद है, उसे सुनोगी तो छाकी में छेद हो जायगा ।— श्यामा०, पृ० ८२ ।
⋙ गुखरू
संज्ञा पुं० [हिं० गोखरू] दे० 'गोखरू' ।
⋙ गुगरल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बत्तख ।
⋙ गुगानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पानी के ऊपर की हलकी हिलोर जो थोड़ी हवा के कारण उठती है । खलभली ।—(लश०) ।
⋙ गुगुलिया
संज्ञा पुं० [अनु०] बंदर नचानेवाला । मदारी ।
⋙ गुग्गुर
संज्ञा पुं० [सं० गुन्गुल] दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गुग्गुल
संज्ञा पुं० [सं०] एक काँटेदार पेड़ । विशेष—यह सिंध, काठियावाड़, राजपूताना, खानदेश आदि में होता है । इस पेड़ के छिलके को जाड़े के दिनों में स्थान स्थान पर छील देते हैं जिससे उन स्थानों से कुछ हरापन लिए भूरे रंग का गोंद निकलता है । यही गोंद बाजार में गुग्गुल के नाम से बिकता है । यह पेड़ वास्तव में मरुभूमि का है इससे अरब और अफ्रीका में इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं । बलसाँ और बोल (मुर) नाम के गोंद जो मक्का और अफ्रीका से आते हैं पश्चिमी गुग्गुल ही से निकलते हैं । इनमें से करम या बंदर करम उत्तर और मीटिया या चिनाई बोल मध्यम होता है । भारतवर्ष में गुग्गल की चलान विशेषकर अमरावती से होती है । बंबई में इसे गारे में भी मिलाते हैं जो दर्जबंदी के काम में आता है । गुग्गुल को चंदन इत्यादि के साथ मिलाकर सुगंध के लिये जलाते हैं । वैद्यकमें गुग्गुल वीर्यजनक, बलकारक, टूटी हड्डी जोड़नेवाला, स्वरशोधक तथा वातव्याधि और कोढ़ को दूर करनेवाला माना जाता है । राजनिघंटु में गुग्गुल के रस के अनुसार पाँच भेद किए हैं । प्रयोगामृत में गुग्गुल की परीक्षाविधि इस प्रकार लिखी है, जो आग में गिरने से जल जाय, गरमी पाकर पिघल जाय, और गरम जल में डालने से घुल जाय वह गुग्गुल उत्तम होता है । औषध मै नया गुग्गुल काम में लाना चाहिए, पुराना नहीं । खाने के लिये गुग्गुल प्रायः शोधकर काम में लाया जाता है । इसे कई प्रकार से शोधते हैं । कोई गिलोय यचा त्रिफला के काढ़े अथवा दूध में पकाते हैं, कोई दशमूल के गरम काढ़े में डालकर उसे छान लेते हैं और फिर धूप में सुखा देते हैं । पर्या०—कालनिर्यास । महिषाक्ष । पलंकष । जटायु । कौशिक । देवधूप । शिवपुर । कुंभ । उलूखलक । सर्वसह । उष । कुंती । पनद्विष्ट पुट । वायुध्न । रूक्षगंधक । २. एक बड़ा पेड़ जो दक्षिण में कोंकण आदि प्रदेशों में होता है । विशेष—इसके पत्ते जब तक नए रहते हैं प्याजी रंग के दिखाई पड़ते हैं । पच्छिमी घाट के पहाड़ों पर इन पेड़ों की बड़ी शोभा दिखाई पड़ती है । इनमें से एक प्रकार की राल या गोंद निकलता है जौ दक्षिण का काला डामर कहलाता है । यह राल बारनिश बनाने के काम में विशेष आती है । पेड़ को राल धूप और मंद धूप भी कहते है । ३. सलई का पेड़ जिससे राल या धूप निकलती है ।
⋙ गुग्गुलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गुग्गुलु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गुच
संज्ञा पुं० [हिं०] डाढ़ीदार भेड़ । विशेष—यह भेड़ पंजाब में पाई जाती है ।
⋙ गुची
संज्ञा स्त्री० [सं० गुच्छ] सौ पानों की गड्डी । आधी ढोली ।
⋙ गुच्चो (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भूमि में बना हुआ बहुत छोटा गढ्ढा जिसे लड़के गोली या गुल्ली डंडा खेलते समय बनाते हैं ।
⋙ गुच्ची (२)
वि० बहुत छोटी । नन्ही । जैसे,—गुच्ची आँख (शब्द०) ।
⋙ गुच्चीपारा
संज्ञा पुं० [हिं० गुच्ची = गडढ़ा + पारना = डालना] एक खेल जिसमें लड़के एक छोटा सा गड्ढा बनाकर उसमें कौड़ियाँ या गोलियाँ फेकते हैं ।
⋙ गुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुच्छा । २. एक में बँधे या लगे हुए फूलों का समूह । ३. घास की जूरी । यौ०—गुच्छदंतिका । गुच्छपत्र । गुच्छपुष्प । गुच्छफल । गुच्छ— मूलिका । गुच्छार्ध । ३. वह पौधा जिसमें दृढ़ कांड या पेड़ी न हो, केवल पत्तियाँ या पतली लचीली टहनियाँ फैलें । झाड़ । जैसे,—धान्यमल्लिका आदि । ४. बत्तीस लड़ी का हार । ५. मोती का हार । ६. मोर की पूँछ ।
⋙ गुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुच्छ' ।
⋙ गुच्छकणिश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अन्न । रागी धान [को०] ।
⋙ गुच्छकरंज
संज्ञा पुं० [सं० गुच्छकरञ्ज] कंरज का एक प्रकार [को०] ।
⋙ गुच्छदंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गुच्छदन्तिका] कदली । केला ।
⋙ गुच्छपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ का पेड़ ।
⋙ गुच्छपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशोक वृक्ष । २. सतिवन या छतिवन का पेड़ । ३. रींठा । ४. धवई या धाय का पेड़ । धातकी ।
⋙ गुच्छफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रीठा । २. निर्मली । ३. दौना । ४. मकोय । काकमाची । ५. अंगूर । ६. कदली ।
⋙ गुच्छफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्राक्षा । २. कदली [को०] ।
⋙ गुच्छमूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोंदला घास ।
⋙ गुच्छल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास [को०] ।
⋙ गुच्छा
संज्ञा पुं० [सं० गुच्छ] १. एक में लगो या बँधे कई पत्तों, फूलों या फलों का समूह । जैसे,—अंगूर का गुच्छा, फूलों का गुच्छा । २. एक में लगी, गुँथी या बँधी छोटी वस्तुओं का समूह । जैसे,—घुघुरुओं का गुच्छा कुंजियों का गुच्छा । ३. फुलरा । फुँदना । झब्बा ।
⋙ गुच्छातारा
संज्ञा पुं० [हिं० गुच्छा + तारा] कचपचिया नाम का तारा ।
⋙ गुच्छार्द्ध, गुच्छार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] चौबीस लड़ी का हार । (किसी किसी के मत से) सोलह लड़ी का हार ।
⋙ गुच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुच्छ] १. करंज । कंजा । २. रीठा । ३. एक प्रकार का पौधा । विशेष—यह पंजाब के ठंढ़े स्थानों में तथा कश्मीर में होता है । इसके फूलों या बीजकोश के गुच्छों की तरकारी बनती है और वे सुखाकर बाहर भेजे जाते हैं ।
⋙ गुच्छेदार
वि० [हिं० गच्छा + फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिसमें गुच्छा हो ।
⋙ गुज
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस की एक कील जो तीखी और परे के गोड़ के छेदों में लगाई जाती है । (रेशम खोलनेवाले) ।
⋙ गुजर
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुजर] १. निकास । गति । जैसे,—उस रास्ते से गुजर मुशकिल है । २. पैठ । पहुँच । प्रवेश । जैसे,— वहाँ फरिश्तों तक का तो गुजर नहीं आदमी की कौन चलावे । ३. निर्वाह । कालक्षेप । जैसे,—इतने वेतन में कैसे गुजर हो सकता है । यौ०—गुजर बसर । गुजरबान । गुजरगाह । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गुजरगाह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुजर + गाह (स्थान)] १. रास्ता । बाट । २. घाट जहाँ से कोई से कोई नदी पार की जाय ।
⋙ गुजरना (१)
क्रि० अ० [फ़ा० गुजर + हिं० ना (प्रत्य०)] १. समय व्यतीत करना । होना । कटना । बीतना । जैसे,—रात तो जैसे तैसे गुजरी पर दिन कैसे कटेगा । मुहा०—किसी पर गुजरना = किसी पर (संकट या विपत्ति) पड़ना । जैसे,—हमपर जो गुजरी, हमीं जानते हैं । २. किसी से होकर आना या जाना । जैसे,—बड़े लाट साहेब शिमला से कलकत्ता जाते समय बनारस से गुजरेंगे ।मुहा०—गुजर जाना = मर जाना । जैसे,—कई दिन हुई वे गुजर गए । ३. नदी पार करना । ४. निर्वाह होना । पटना । निपटना । बनना । निभना । जैसे,—तुम चिंता न करो, उन दोनों की खूब गुजरेगी । ५. (दर्खास्त आदि का) पेश होना । ६. मन में आना । विचार में आना ।
⋙ गुजरनामा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुजरनाह्] किसी मार्ग से जाने का अधिकारपत्र । राहदारी का परवाना । पारपत्र ।
⋙ गुजर बसर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] निर्वाह । गुजारा । कालक्षेप । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—गुजर बसर करना = किसी प्रकार समय व्यतीत करना । गुजर बसर होना = किसी प्रकार समय व्यतीत होना ।
⋙ गुजरबान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. मल्लाह । पार उतारनेवाला । २. वह व्यक्ति जो घाट की उतराई वसूल करता हो ।
⋙ गुजरात
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर + राष्ट्र] [वि० गुजराती] भारत- वर्ष के पश्चिम प्रांत का एक देश जो राजपूताने के आगे पड़ता है ।
⋙ गुजराती (१)
वि० [हिं० गुजराती] १. गुजरात देश का । गुजरात का निवासी या रहनेवाला । गुजरात देश संबंधी । गुजरात देश में उत्पन्न । जैसे,—गुजराती इलायची । २. गुजरात का बना हुआ । जैसे—गुजराती सेंदुर ।
⋙ गुजराती (२)
संज्ञा स्त्री० १. गुजरात देश की भाषा । ३. छोटी इलायची । जैसे, गुजराती इलायची ।
⋙ गुजराती (३)
संज्ञा पुं० गुजरात का निवासी । गुजरात में रहनेवाला ।
⋙ गुजरान
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुज़रान] निर्वाह । गुजर । कालक्षेप । उ०—केवल कंदमूल पर अपनी गुजरान करना ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०३, पृ० ३८० ।
⋙ गुजरानना पु
क्रि० स० [हिं० गुजरना] १. उपस्थित या पेश करना । २. बिताना । व्यतीत करना ।
⋙ गुजरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजरी] १. गूजर जाति की स्त्री । ग्वालिन । गोपी । २. † धोबियों के नृत्य में स्त्री के रूप में नाचनेवाला । उ०—लो छनछन, छनछन, छनछन, छनछन, नाच गुजरिया हरती मन ।—ग्राम्या०, पृ० ३१ ।
⋙ गुजरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजर] १. कलाई में पहनने की एक प्रकार की पहँची । विशेष—इसके गोल दानों की कोर पर छोटी बिंदियाँ रहतीहैं । मारवाड़िनें इसे बहुत पहनती है । २. दीपक राग की एक रागिनी । विशेष—कोई कोई इसे मेघ राग की रागिनी मानते हैं । ३. वह भेड़ जिसके कान न हों या कटे हुए हों । बूची ।
⋙ गुजरी (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजरी] दे० 'गूजरी' । उ०—'गुजरी' एक वृंदाबन माँही । तिन पुनि कथा सुनी एकठाहीं ।—घट०, पृ० २२६ ।
⋙ गुजरी † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुजरना] शाम को सड़क या मार्ग के किनारे लगनेवाला बाजार ।
⋙ गूजरेटा
संज्ञा पुं० [हिं० गूजर] १. गूजर का पुत्र । गूजर लड़का । २. गूजर जाति का व्यक्त ।
⋙ गूजरेटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजर] १. गूजर जाति का कन्या । गूजर ती बेटी । २. गूजरी । ग्वालिन ।
⋙ गुजश्ता
वि० [फ़ा० गुजशतह्] बीता हुआ । व्यतीत । भूत (काल) । जैसे, गुजश्ता हाल ।
⋙ गुजाना पु
क्रि० स० [हिं० गुँजाना] दे० 'गुँजाना' । उ—नर वीर दिवादिव देवस पुब्बह ग्रब्ब गुजाइया पुब्ब ढरे ।—पृ० रा०, १३ ।१२१ ।
⋙ गुजार
वि० [फ़ा० गुजार] गुजारनेवाला । करनेवाला । जैसे,—शुक्र— गुजार, मालगुजार । विशेष—इसका प्रयोग समस्त पद में ही अंत में मिलता है ।
⋙ गुजरना
क्रि० स० [फ़ा० गुज़ार + हिं० ना (प्रत्य०)] १. बिताना । काटना । २. उपस्थित या पेश करना (को०) । ३. (कष्ट में) डालना । मुहा०—नमाज गुजारना = ईश्वर की प्रार्थना करना । अरजी गुजारना = किसी बड़े हाकिम के हरबार में प्रार्थनापत्र पेश करना ।
⋙ गुजारा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुजारह] १. गूजर । गूजरान । निर्वाह । २. वृत्ति जो किसी को जीवननिर्वाह के लिये दी जाय । ३. नाव या घाट की उचराई । ४. महसूल लेने का स्थान जो सड़क पर हो । ५. मार्ग । ६. घाट ।
⋙ गुजारिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुजारिश] निवेदन ।
⋙ गुजारिशनामा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुज़ारिशनामह्] प्रार्थनापत्र । निवेदनपत्र ।
⋙ गुजारेदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुजारह् + दार] जीवननिर्वाह के लिये वृत्ति पानेवाला व्यक्ति ।
⋙ गुजी †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्य] नाक का मल जो सूखकर नथुनों के भीतर ही जम जाता है । नकटी ।
⋙ गुजुवा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गुजी, गुजुई] एक प्रकार का काला कीड़ा या गुबरैला जो बरसात में पैदा होता है । यह गोबर के नीचे बिल बनाकर रहता है ।
⋙ गुज्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] दे० 'गूजर' । उ—बुल्यौ बर गामिय गुज्ज गवार । कहै सुरतानप सेन उबार ।—पृ० रा०, १२ ।१३९ ।
⋙ गुज्जर †
संज्ञा पुं० [हिं० गूजर] दे० 'गूजर' ।
⋙ गुज्जरी
संज्ञा पुं० [सं०] १. गूजरी । २. एक रागिनी जो भैरव राग की स्त्री है । विशेष—किसी किसी का मत है कि यह मेघ राग की स्त्री है ।
⋙ गुज्झ पु
वि० [हिं० गुज्झा] दे० 'गुज्झा' । उ०—महरम दिलजानी भँउरा गुज्झ गलाँ दी घुंढियाँ खोलम ।—घनानंद, पृ० ५४८ ।
⋙ गुज्झना पु
क्रि० अ० [सं० गुह्य] छिपना ।
⋙ गुज्झा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गुह्यक] १. गोझा नाम की बाँस की कील । दे० 'गोझा' । २. एक प्रकार की कँटीली घास । गोझा । ३. गूदा । रेशेदार गूदा ।
⋙ गुज्झा (२) †
वि० छिपा हुआ । अप्रकट । गुप्त । भीतरी (पश्चिम) ।
⋙ गुज्झाना
क्रि० स० [सं० गुह्य] छिपाना । गुप्त करना ।
⋙ गुझबाती
संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्य + हिं० बात] १. गुप्त बात । छिपी हुई बात । रहस्यमय बात ।
⋙ गुझरोट †पु
संज्ञा पुं० [सं० गुह्य, प्रा० गुज्झ + स० आवर्त्त प्रा० आवट्ट, आडट्ट] १. कपड़े की सिकुड़ना । शिकन । सिलवटा । उ०—कर उठाय घूँघट करति, उसरन पट गुझरोट । सुख मोटैं लूटी ललन लखि ललना की लोट ।—बिहारी (शब्द०) । २. स्त्रियों की नाभि के पास का भाग जहाँ त्रिवली या पेटी रहती है ।
⋙ गुझरौट
संज्ञा पुं० [हिं० गुझरोट] दे० 'गुझरोट' ।
⋙ गुझरौटा
संज्ञा पुं० [हिं० गुझरोट] दे० 'गुझरोट' ।
⋙ गुझिया
संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्यक, प्रा० गुज्झअ, गुज्झा] १. एक प्रकार का पकवान । कुसली । पिराक । विशेष—मैदे की छोटी लोई में मीठा, मसाला आदि पूर भरकर उसे दोहर देते हैं और फिर उसकी धनुषाकार औंठ या किनारे को मोड़ तोड़कर बंद कर देते हैं । अंत में इसी बंद लोई को घी में छान लेते हैं । २. खोए की एक मिठाई । विशेष—यह ऊपर लिखे पकवान के आकार की होती है और इसके भीतर थोड़ी मिश्री अथवा इलायची और मिर्च रहती है ।
⋙ गुझी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्य] गुप्त । छिपी हुई । उ०—साई सिका सउकेला, गुझी गालि सुनाइड़े ।—दादू०, पृ० ५४४ ।
⋙ गुझौट †
संज्ञा पुं० [हिं० गुझरौट] दे० 'गुझरौट' ।
⋙ गुट (१)
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ = समूह] १. किसी विशेष अभिप्राय से बनाया हुआ दल । २. दे० 'गुट्ट' । क्रि० प्र०—बनाना ।—बाँधना । यौ०—गुटबंदी । गुटबाज । गुटबाजी ।
⋙ गुट (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] कबूरतों के बोलने का स्वर [को०] ।
⋙ गुटकना (१)
क्रि० अ० [अनु०] कबूतर की तरह गुटरगूँ करना ।
⋙ गुटकना † (२)
क्रि० स० [हिं० गुटकना] १. निगलना । खा जाना ।
⋙ गुटका
संज्ञा पुं० [सं० गुटिका] १. दे० 'गुटिका' । २. छोटे आकार की पुस्तका । ३. लट्टू । ४. गुपचुप मिठाई । ५. एक प्रकार का मसाला । विशेष—यह जावित्री, पिस्ता, कत्था, लौंग, इलायची, सुपारी इत्यादि मिलाकर बनाया जाता है और कहीं कहीं पान के स्थान पर खाया जाता है ।
⋙ गुटकाना
क्रि० स० [अनु०] १. (तबला आदि) बजाना । २. गुट गुट की ध्वनि करना ।
⋙ गुटकी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] दे० 'गुटिका' ।
⋙ गुटनिरपेक्ष
वि० [हिं० गुट + सं० निरपेक्ष] वह व्यक्ति या राष्ट्र जो किसी गुट विशेष में न हो । पर्या०—तटस्थ ।
⋙ गुटांदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुट + फ़ा० बंदी] १. कुछ लोगों का आपस में मिलकर छोटा या दल बनाना । २. किसी किसी संस्था में विरोध या स्वार्थ के आधार पर कुछ लोगों का गुट बनना ।
⋙ गुटबैंगन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कँटीला पौधा ।
⋙ गुटरगूँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] कबूतरों की बोली ।
⋙ गुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बटिका । बनी । गोली । २. एक सिद्धि । उ०—अंजन, गुटिका, पादुका, धातुभेद, बैताल, वज्र रसा— यन जोगिनी, मोहिं सिद्ध यहि काल ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । विशेष—इसके अनुसार एक गोली या गुटका मुँह में रख लेने से कहते हैं कि जहाँ चाहे वहाँ चले जायँ और कोई देख नहीं सकता ।
⋙ गुटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोटी] दे० 'गोट' ।
⋙ गुट्ट
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ = समूह, प्रा, गोट्ठ] झुंड । दल । यूथ । जैसे,—उन लोगें का गुट्ट ही अलग है । मुहा०—गुट्टकरना = मिल जुलकर सलाह कहरना । गुट्ट बनाना गुट्ट बाँधना = झुंड इकट्ठा करना । जैसे,—डाकू गुट्ट बाँधकर चलते हैं ।
⋙ गुट्टा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोटी] लाख की बनी हुई चौकोर गोटी जिनसे लड़कियाँ खेला करती हैं ।
⋙ गुट्ठा (२)
वि० [देश०] नाटा । ठिंगना ।
⋙ गुट्ठल (१)
वि० [हिं० गुठली] १. (फल) जिसमें बड़ी गुठली हो । २. जड़ । मूर्ख । कूढ़ मगज । ३. गुठली के आकार का ।
⋙ गुट्ठल (२)
संज्ञा पुं० १. किसी वस्तु के इकट्ठा होकर जमने से बनी हुई गाँठ । गुलथी । जैसे,—न जाने यह रजाई कैसे भरी गई है कि जगह जगह गुटठल पड़ गए हैं । क्रि० प्र०—पड़ना । २. गिलटी ।
⋙ गुट्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थि, हिं० गाँठ] १. कोई मोटी गोल या लंबोतरी गाँठ । २. दे० 'बल्ब (१)' ।
⋙ गुठला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गुठली] १. मोटी और बड़ी गुठली । २. गुठली के आकार प्रकार ती कोई कड़ी चीज ।
⋙ गुठला (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्थल अङ्गृ प्रा० अंगुठ्ठल] अँगूठे में पहनने का एक प्रकार का आभूषण ।
⋙ गुठला (३)
वि० [सं० कुण्ठ] कुंठित । भोथरा ।
⋙ गुठलाना (१)
क्रि० अ० [हिं० गुठली] १. गुठली की तरह कड़ा और गोल होना ।
⋙ गुठलाना
क्रि० अ० [सं० कुण्ठ] चाकू या अस्त्र शस्त्र की धार का कुंठित अथवा भोथरा होना ।
⋙ गुठली
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थिल्, गुटिका] १. किसी फल का बड़ा और कड़ा बीज । ऐसे फल का बीज जिसमें केवल एक ही बड़ा बीज होती हो । जैसे,—आम की गुठली । बेर की गुठली । २. गिलटो ।
⋙ गुठाना पु
वि० [सं० कुण्ड] कुंठित । मंद ।
⋙ गुडांब
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़ + अंब, आम] १. कच्चा आम जो उबालकर शीरे में डाला गया हो । २. गुड़ या चीनी में कच्चे आम को डालकर हुआ एक पदार्थ ।
⋙ गुड
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुड़ । २. गेंद । कुंकुद । ३. ग्रास । कौर । ४. हाथी का कवच । ५. कपास के पेड़ । ६. गोली [को०] ।
⋙ गुड़
संज्ञा पुं० [सं०] कड़ाह में गाढ़ा पकाकर जमाया हुआ ऊख का रस जो कतरे, बट्टी या भेली के रूप में होता है । विशेष—खजूर के फलों के रस का भी गुड़ बनता है । यौ०—गुड़ भरा हँसिया = असमंजस का काम जिसे न तो करते बने और न तो छोड़ते ही । ऐसा काम जिसे करने से भी जी हिचकता है और छोड़ने को भी जी नहीं चाहता । गूँगे का गुड़ = दे० 'गूँगा' का मुहा० । मुहा०—कुल्हिया में गुड़ फुटना = (१) गुप्त रीति से कोई कार्य होना । छिपे छिपे कोई सलाह होना । (२) गुप्त रीति से कोई पाप होना । गुड़ गोबर करना = बिगड़ना । खराब करना । गुड़ गोबर होना = बिगड़ जाना । खराब हो जाना । जो गुड़ खाएगा सो कान छेदावेगा = जो कुछ धन लेगा उसे कष्ट भी उठाना होगा । विशेष—लड़कों का कान छेदते समय प्रायः रीति है कि लड़कों के हाथ में कुछ मिठाई दे देते हैं जिससे वे उसी में भूले रहें और झट से कान छेद दिए जायँ । गुड़ खाएगी अँधेरे में आएगी = जो कुछ लाभ उठावेगा उसे समय पर काम देना ही पड़ेगा । गुड़ खिलाकर ढेला मारना = कुछ लालच देकर फिर ऐसा बरताव करना जिससे कुछ प्राप्त न हो, उलटा कष्ट उठाना पड़े । गुड़ दिए मरे तो जहर क्यों दे = जब कोमल व्यवहार से काम निकले तो कड़ाई करने की क्या आवश्यकता । जब सीधे से काम चले तब जोई उग्र उपाय क्यों करे । गुड खाना गुलगुलों से घिनाना या परहेज करना = कोई बड़ी बुराई करना और छोटी बुराई से बचना । किसी कार्य का बड़ा अंश करना और छोटे से दूर रहना । गुड़ होगा तो मक्खियाँ बहुत आ जाएँगी = पास में धन होगा तो खानेवाले बहुत आ जायँगे । जब गुड़ गजन सहे तब मिसरी नग्म धराए = कष्ट पाने के बाद ही भाग्योदय होता है । उ०— 'अरे भाई' ! यह सब महतमा जी का परताप है । कौन सह सकता है ? जब गुड़ गंजन सहे तो मिसरी नाम धराए ।— मैला०, पृ० ३१ ।
⋙ गुडईवनिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] संध्या के समय का अँगरेजी अभि- वादन का वचन जो किसी से मिलने के समय कहा जाता है और जिसका अभिप्राय है—यह संध्या आपके लिये शुभ हो ।
⋙ गुडक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोल पदार्थ । २. ग्रास । कौर । ३. गुड़ में पकाकर बनाई गई दवा (को०) ।
⋙ गुडकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी । गुर्जरी [को०] ।
⋙ गुड़गुड़
संज्ञा पुं० [अनु०] वह शब्द जो जल में नली आदि के द्वारा वेगपूर्वक वायु घुसने और बुलबुला छूटने से होता है, जैसा हुक्के में ।
⋙ गुड़गुड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] गुड़गुड़ शब्द होना । जैसे,—आज तो पेट गुड़गुड़ा रहा है । विशेष—जल के भीतर वेग से नली आदि के द्वारा वायु के घुसने से ऐसा शब्द होता है ।
⋙ गुड़गुड़ाना (२)
क्रि० स० [अनु०] हुक्का पीना । हुक्का या फरशी को मुँह से लगाकर इस प्रकार खींचना कि उसमें से गुड़गुड़ शब्द निकले । जैसे,—तुम तो जब देखों तब हुक्का गुड़गुड़ाया करते हो ।
⋙ गुड़गुड़ाना (३)
क्रि० स० [देश०] गुड़ना का सकर्मक रूप ।
⋙ गुडगुडायन
संज्ञा पुं० [सं०] खाँसी से होनेवाली कंठ की ध्वनि [को०] ।
⋙ गुड़गुड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड़गुड़ाना + हट (प्रत्य०)] गुड़गुड़ शब्द होने का भाव ।
⋙ गुड़गुड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड़गुड़ाना] फरशी । एक प्रकार का हुक्का । पेचवान ।
⋙ गुड़च
संज्ञा स्त्री० [सं० गुडुची] दे० 'गुरुच' ।
⋙ गुड़ची
संज्ञा स्त्री० [सं० गुडूची] दे० 'गुड़च' ।
⋙ गुडतृण
संज्ञा पुं० [सं० गुडतृण] ईख ।
⋙ गुडत्वच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारचीनी [को०] ।
⋙ गुडत्वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गुडत्वच्' ।
⋙ गुडदारु
संज्ञा पुं० [सं०] ईख [को०] ।
⋙ गुड़धनियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड + धान] लड्डू जो भुने हुए गेहूँ को गुड़ में पागकर बाँधे जाते हैं । विशेष—ऐसे लड्डू प्रायः महाबीर या गणेश को चढ़ाए जाते हैं ।
⋙ गुड़धानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड + धान] दे० 'गुड़धनियाँ' ।
⋙ गुड़धेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दान में देने के लिये बनाई हुई गुड़ की गाय [को०] ।
⋙ गुड़ना पु
क्रि० अ० [देश०] चलना । जाना । उ०—अस्सी सहस हाथी गुड्या ।—बी० रासो, पृ० १०५ ।
⋙ गुड़ना
क्रि० स० [देश०] डंडे को एस तरह फेंकना कि वह अपने सिरों के बल पलटा खाता हुआ दूर तक चला जाय । विशेष—लड़के एक प्रकार का खेल खेलते हैं जिसमें इस प्रकार का डंडा फेंकते हैं ।
⋙ गुडनाइट
संज्ञा स्त्री० [अं०] संख्या या रात के समय किसी से बिदा होने पर कहा जानेवाला एक अँगरेजी अभिवादन वचन जिसका अभिप्राय है—'यह रात आपके लिये शुभ हो' ।
⋙ गुडपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुड की चाशनी में डालकर ओषधि बनाने की एक प्रक्रिया । २. इस प्रकार की बनी हुई ओषधि ।
⋙ गुडपिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] आटे और गुड़ के योग से पागकर बनाई हुई मिठाई [को०] ।
⋙ गुडपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] महुवा [को०] ।
⋙ गुडफल
संज्ञा पुं० [सं०] पीलु वृक्ष [को०] ।
⋙ गुडबाई
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी से बिदा होने के समय कहा जानेवाला अँगरेजी अभिवादन वचन जिसका वास्तविक अभिप्रायहै—ईश्वर तुम्हारे साथ रहे या तुम्हारा रक्षक हो । यह अभिवादन किसी समय किया जा सकता है ।
⋙ गुडमार्निंग
संज्ञा पुं० [अं०] प्रातःकाल किसी से मिलने या विदा होने के समय कहा जानेवाला एक अभिवादन वचन ।
⋙ गुडरू †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जिसे गडुरी भी कहते हैं । उ०—धरे परेवा पंडुक हेरी । खेरा गुडरू और बगेरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गुडशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीनी [को०] ।
⋙ गुडशृंग
संज्ञा पुं० [सं० गुडश्रृङ्ग] कलश । गुंबद [को०] ।
⋙ गुडशृंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गुडश्रृङ्गिका] गेंद फेंकने का एक आला या औलाद [को०] ।
⋙ गुड़हर
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़ + हर] १. अड़हुल का पेड़ या फूल । जपा । विशेष—पुराना विश्वास है कि गुपड़हर का फूल यदि घर में रखा जाता है तो लड़ाई होती है । २. एक छोटा वृक्ष । विशेष—इसकी पत्तियाँ और इसके फूल अरहर के से होते हैं । इसकी दी तीन पत्तियाँ चबाकर यदि गुड़ खाया जाया तो गुड़ का स्वाद ही नहीं जान पड़ता ।
⋙ गुडहरीतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़ की चाशनी में डुबाकर रखी गई हर्रे [को०] ।
⋙ गुड़हल
संज्ञा पुं० [हिं० गुडहर] दे० 'गुड़हर' ।
⋙ गुड़हुर
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़हर] दे० 'गुड़हर' । उ०—भले पधारे पाहुने ह्वै गुड़हुर को फूल (शब्द०) ।
⋙ गुडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दाख । उ०—गुडा, प्रयाला, गोस्तनी, चारुफला पुनि सोइ ।—नंद०, ग्रं०, पृ० १०४ । २. कपास का पेड़ (को०) । ३. गोली (को०) ।
⋙ गुडाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तंद्रा । आलस्य । २. नींद [को०] ।
⋙ गुडाकू
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़] गुड़ मिला हुआ पीने का तमाकू ।
⋙ गुडाकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । महादेव । २. अर्जुन ।
⋙ गुडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी गेंद । २. गोली । बटिका [को०] ।
⋙ गुड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड या गुड्डा] कपड़ों की बनी हुई पुतली जिससे लड़ किया खेलती हैं । क्रि० प्र०—खेलना । यौ०—गुड़ियों का ब्याह = (१) लड़कियों का खेल जिसमें वे गुड़डे और गुड़िया की शादी करती हैं । (२) गरीब आदमी का ब्याह जिसमें बहुत धूमधाम नहीं होती । मुहा०—गुड़िया सी = छोटी और सुंदर । रूपवती । गुड़िया सँवारना = वित्त के अनुसार लड़की का ब्याह करना । गुड़ियों का खेल = सहज काम ।
⋙ गुड़िला †
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़िया] १. बड़ी गुडियाँ । २. किसी का बनी हुई आकृति । मूर्ति । पुतला ।
⋙ गुड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुड्डी] पतंग । चंग । कनकौवा । गुड्डी । उ०—गुड़ी उड़ी लखि लाल की अँगना अँगना महिं । बौरी लौं दौरी फिरै छुवत छबीली छाहिं ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गुड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० †[सं० गुडिका] १. गाँठ । गोली । २. कपट की गाँस । मनमोटाव । कीना । द्वेष । ३. ऐंठन ।
⋙ गुड़ीला †
वि० [हिं० गुड + ईला (प्रत्य०)] १. गुड़ का सा मीठा । २. उत्तम । बढ़िया ।
⋙ गुड़ुच
संज्ञा स्त्री० [सं० गुडुची] दे० 'गुरुच' ।
⋙ गुड़ुची
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुरुच । गुर्च [को०] ।
⋙ गुड़ुरू †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुणडल] १. द्वार में लगा हुआ लकड़ी का टुकड़ा । ठेहरी । चूल । विशेष—यह नीचे दीवार में धँसा रहता है और इसपर किवाड़ के घूमने के लिये गड्ढा बना रहता है । २. मंडलाकार रेखा । ३. छोटा गड्ढ़ा या बिल ।
⋙ गुड़ुवा
संज्ञा पुं० [सं० गुड = खेलने की गोली] कपड़े का बना हुआ पुतला ।
⋙ गुडूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुरुच । गिलोय ।
⋙ गुड़ेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोलाकृति । २. गेंद । कंदुक । ३. ग्रास । कौर [को०] ।
⋙ गुड़ेरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोलाकृति । २. गेंद । कंदुक । ३. ग्रास । कौर [को०] ।
⋙ गुड़्डा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गुड = खेलने की गोली] गुड़वा । कपड़े का बना हुआ पुतला जिसे लड़कियाँ खेलती हैं । मुहा०—गुड्डा बाँधना = अपकीर्ति करते फिरना । निंदा करना । विशेष—भाट लोग जब अपने किसी जजमान से इच्छानुसार धन नहीं पाते तब एक लंबे बाँस में एक पुतला बाँधकर लटकाते हैं और उस पुतले को वहीं सूम जजमान मानकर उसकी निंदा करते फिरते हैं । इसी को गुड्डा बाँधना कहते हैं । अवध में इसे 'पुतला बाँधना' बोलते हैं जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है, अब तुलसी पूतरा बाँधि है सहि न जात मोसों परिहास एते ।
⋙ गुड्डा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गुड्डी] बड़ी पतंग ।
⋙ गुड्डी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुरु + उड्डीन] पतंग । कनकौवा । चंग । उ०—हम दासी बिन मोल की ऊधो ज्यौं गुड्डी बस डोर ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ गुड्डो (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] १. घुटने की हड्डी । यौ०—हड्डी गुड्डी । जैसे,—ऐसी मार मारूँगा कि हड्डी गुड्डी न बचेगी । मुहा०—हड्डी गुड्डी तेडना = बहुत अधिक मारना पीटना । २. एक प्रकार का छोटा हुक्का । ३. चिड़िया के डैनों या पैरों की वह स्थिति जो उड़ने के कुछ पहले होती है । कुंदा ।
⋙ गुड्डू (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुडुरू] दे० 'गुड़रू' ।
⋙ गुड्डू (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गुढ़ुरू] एक छोटा कीड़ा । विशेष—यह धूल में घर बनाकर रहता है । इसका घल भँवर के आकार का होता है । बहुत लड़के चींटी पकड़कर उसमें डालते हैं जिसे वह कीड़ा खा जाता हैं ।
⋙ गुढ़ पु
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़] छिपकर रहने का स्थान । बचकर रहने की जगह ।
⋙ गुढ़ना पु
क्रि० अ० [सं० गूढ़] आड़ में होना । छिपना । लुकना । उ०—लखि दारत पिय कर कटकु वास छुड़ावन काज । बरुनिन बन गाढ़े दृगनु रही गुढ़ौ करि लाज ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गुणी] १. किसी वस्तु में पाई जानेवाली वह बात जिसके द्वारा वह दूसरी वस्तु से पहचानी जाय । वह भाव जो किसी वस्तु के साथ लगा हुआ हो । धर्म । सिफत । विशेष—सांख्याकार तीन गुण मानते हैं । सत्व, रज और तम; और इन्हीं की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं जिससे सृष्टि का विकास होता है । सत्वगुण हलका और प्रकाश करनेवाला, रजोगुण चंचल और प्रवृत्त करनेवाला और तमोगुण भारी और रोकनेवाला माना गया है । तीनों गुणों का स्वभाव है कि वे एक दूसरे के आश्रय से रहते तथा एक दूसरे को उत्पन्न करते हैं । इससे सिद्ध होता है कि सांख्य में गुण भी एक प्रकार का द्रव्य ही है जिसके अनेक धर्म हैं और जिससे सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं । विज्ञानभिक्षु का मत है कि जिससे आत्मा के बंधन के लिये महत्तत्व आदि रज्जु तैयार होती है उसी को सांख्यकार ने गुण कहा है । वैशेषिक गुण को द्रव्य का आश्रित मानता है और उसने उसकी परिभाषा इस प्रकार की है—जो द्रव्य में रहनेवाला हो, जिसमें कोई गुण न हो, जो संयोग विभाग का कारण न हो वह गुण है । रूप, रस, गंध, स्पर्श, परत्व, अपरत्व, गरुत्व, द्रवत्व, स्नेह और वेग ये मूर्त द्रव्यों के गुण हैं । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना और शब्द ये अमूर्त द्रव्यों के गुण हैं । संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, और विभाग ये मूर्त और अमूर्त दोनों के गुण हैं । गुण दो प्रकार के माने गए हैं, विशेष और सामान्य । रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक, द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना और शब्द ये विशेष गुण है, अर्थात् इतने द्रव्यों में भेद जाना जाता है । संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, नैमित्तिक द्रवत्व और वैग ये सामान्य गुण हैं । द्रव्य स्वयं आश्रय हो सकता है पर गुण स्वयं आश्रय नहीं हो सकता । कर्म संयोग विभाग का कारण होता है, गुण नहीं । २. निपुणता । प्रवीणता । ३. कोई कला या विद्या । हुनर । यौ०—गुणग्राहक । गुणग्राही । क्रि० प्र०—आना ।—जानाना ।—सिखाना ।—सीखना । ४. असर । तासीर । प्रभाव । फल । जैसे,—यह दवा अवश्य ही अपना गुण दिखावेगी । क्रि० प्र०—करना ।—दिखाना । ५. तारीफ की बात । अच़्छा स्वभाव । शील । सदवृत्ति । जैसे,— यही तो उनमें बड़ा भारी गुण है कि वे क्रोध नहीं करते । संज्ञा पुं० [हिं० गुड़िया] यौ०—गुणगाथा । उ०—प्रानपियारे की गुनगाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ । श्रीधर (शब्द०) । मुहा०—गुण गाना = प्रशंसा करना तारीफ करना । गुण मानना = एहसान मानना । निहोरा मानना । कृतज्ञ होना । ६. विशेषता । स्वभाव । लक्षण । खासियत । प्रवृति । जैसे,— अपने इन्हीं गुणों से तो तुम मार खाते हो । ७. तीन की संख्या । ८. राजनीति में परराष्ट्र के साथ व्यवहार के छहढंग- संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय । ९. प्रकृति (छांदोग्य) । १०. व्याकरण में 'अ', 'ए' और 'ओ' को गुण कहते हैं । ११. रस्सी या तागा । डोरा । सूत । १२. धनुष की प्रत्यंचा । १३. वह रस्सी जिससे मल्लाह नाव खींचते हैं । १४. लाभ । फायदा (को०) । १५. स्नायु (को०) । १६. ज्ञानेंद्रिय का विषय (को०) । १७. बत्ती (को०) । १८. पाचक (को०) । १९. सूद (को०) । २०. भीम (को०) । २१. परित्याग (को०) । २२. विभाग (को०) । २३. काव्य को सौंदर्य प्रदान करनेवाला तत्व, (ओज, प्रसाद, माधुर्य) (को०) ।
⋙ गुण (२)
प्रत्य० एक प्रत्यय जो संख्यावाचक शब्दों के आगे लगता है और उतनी ही बार किसी विशेष संख्या, मात्रा या परिमाण को सूचित करता है । जैसे, द्विगुण, चतुर्गुण ।
⋙ गुणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अंक जिससे किसी अंकको गुणा करें । २. माली (को०) ।
⋙ गुणकथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुणगान । प्रशंसा । २. नाटक में नायिका की एक दशाविशेष (को०) ।
⋙ गुणकर
वि० [सं०] फायदेमंद । लाभदायक ।
⋙ गुणकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी । विशेष—यह किसी के मत से भैरव राग की और किसी के मत से हिंडोल राग की भार्या मानी जाती है । हनुमत् के मत से इसका स्वरग्राम इस प्रकार है—प नि सा रा म प नि । अथवा—सा ग म प नि सा । इसके गाने का समय सबेरे १ दंड से ५ दंड तक है ।
⋙ गुणकर्म
संज्ञा पुं० [सं० गुणकर्मन्] दे० 'कर्म' ।
⋙ गुणकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी । दे० 'गुणकारी' । उ०— सखि गावती अहलादिनी अहलादिनी वर रागिनी । गुणकली रामकली भली सुरकली सरस सुहागिनी ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गुणकार
संज्ञा पु० [सं०] १. संगीत विद्या का पूर्ण ज्ञाता । २. पाककर्ता । रसोइया । बाबर्ची । पाचक । ३. पाकशास्त्र का ज्ञाता । ४. भीमसेन (पांडव) ।
⋙ गुणकारक
वि० [सं०] फायदा करनेवाला । लाभदायक ।
⋙ गुणकारी
वि० [सं० गुणकारिन्] [वि० स्त्री० गुणकारिणी] लाभदायक । फायदेमंद । विशेष—औषध के लिये अधिक आता है ।
⋙ गुणकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] गुणगान । प्रशंसा [को०] ।
⋙ गुमगाथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रशंसा । बडा़ई ।
⋙ गुणगान
संज्ञा पुं० [सं०] गुणवर्णन । प्रशंसाकथन [को०] ।
⋙ गुणगोरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गौरी के समान गुणवाली कोई सौभाग्यवती स्त्री । पतिव्रता स्त्री । सोहा गिन स्त्री । २. स्त्रीयों का एक व्रत । उ०—द्यौस गुणगौरि के सु गिरिजा गोसाइन को आवत यहाँ की अति आनंद इतै रहै ।— पद्माकर (शब्द०) । विशेष—यह चैत में चौथ के दिन किया जाता है । सौभाग्यवती स्त्रियाँ इस दिन व्रत करती हैं ।
⋙ गुणग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] (किसी का) गुण या महत्त्व समझना । गुण का आदर करना ।
⋙ गुणग्राम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुणों का समूह ।
⋙ गुणग्राम (२)
वि० गुणकर । गुणनिधान ।
⋙ गुणग्राहक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुण की खोज करनेवाला मनुष्य । गुणियों का आदर करनेवाला मनुष्य । कदरदान ।
⋙ गुणग्राहक (२)
वि० गुण की खोज करनेवाला । गुणियों का आदर करनेवाला ।
⋙ गुणग्राही
वि० [सं० गुणग्राहिन्] [वि० स्त्री० गुणग्राहिनी] गुण की की खोज करनेवाला । गुणियों का आदर करनेवाला ।
⋙ गुणघाती
वि० [सं० गुणघातिन्] द्वेषी । ईर्ष्यालु [को०] ।
⋙ गुणज्ञ
वि० [सं०] १. गुण का जाननेवाला । गुण को पहचाननेवाला । गुण का पारखी । २. गुणी ।
⋙ गुणाज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुण की जानकारी । गुण की परख । गुण की पहिचान ।
⋙ गुणतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गुणतन्त्र] गुणों के आधार पर विचार [को०] ।
⋙ गुणत्रय, गुणत्रितय
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति के तीन गुण—सत्व, रज और तम [को०] ।
⋙ गुणधर्म
संज्ञा सं० [सं०] गुण विशेष की प्राप्ति के लिये धर्म या कर्तव्य [को०] ।
⋙ गुणन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गुणय, गुणनीय, गुणित] गुणा । जरब ।
⋙ गुणनफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक या संख्या जो एक अंक को दूसरे अंक के साथ गुणा करने से आवे ।
⋙ गुणना पु
क्रि० स० [सं० गुणन] जरब देना । गुणन करना ।
⋙ गुणनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटक में वह अनुष्ठान जो नट लोग अभिनय आरंभ करने से पहले ग्रहों की शांति के लिये करते हैं । पूर्वरंग ।
⋙ गुणनिधान
वि० [सं०] गुणगार । गुणी [को०] ।
⋙ गुणनिधि
वि० [सं०] गुणागार । गुणी [को०] ।
⋙ गुणनीय
वि० [सं०] गुणा करने योग्य ।
⋙ गुणभोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० गुणभोक्त] पदार्थों से गुणों का समझनेवाला [को०] ।
⋙ गुणराग
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों के गुणों पर आनंदित होनेवाला [को०] ।
⋙ गुणराशि (१)
वि० [सं०] गुणनिधि । गुणसमूह (को०) ।
⋙ गणराशि (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०] ।
⋙ गुणलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] आंतरिक गुण का परिचायक चिह्न संकोत [को०] ।
⋙ गुणलयनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खेमा । तंबू [को०] ।
⋙ गुणलयनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खेमा । तंबू [को०] ।
⋙ गुणवंत
वि० [सं० गुणवत्] [वि० स्त्री० गुणवती] जिसमें गुण हो । गुणी ।
⋙ गुणवचन
संज्ञा पुं० [सं०] गुण का परिचायक शब्द । विशेषण [को०] ।
⋙ गुणवती
वि० स्त्री० [सं०] गुणवाली । जिसमें कुछ गुण हो ।
⋙ गुणवाचक (१)
वि० [सं०] जो गुण को प्रकट करे । यौ०—गुणवाचक संज्ञा = व्याकरण में वह संज्ञा जिससे द्रव्य का गुम सूचित हो । विशेषण ।
⋙ गुणवाचक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] गुण का परिचायक शब्द । विशेषण [को०] ।
⋙ गुणवाद
संज्ञा पुं० [सं०] मीमांसा में अर्थवाद का एक भेद । विशेष—कुमारिल के अनुसार अर्थवाद तीन प्रकार का है, गुणवाद, अनुवाद और भूतार्थवाद । जहाँ विशेषण और विशेष्य का एक में अन्वय करने से ठीक अर्थ महीं सिद्ध होता वहाँ विशेषण का कुछ दूसरा अर्थ कर लेते हैं और उसे अंगकथन या गुणवाद कहते हैं । जैसे—यज्ञमानः प्रस्तरः । प्रस्तर शब्द का अर्थ है कुशमुष्टि । यहाँ विशेषण और विशेष्य के द्वार कोई अर्थ नहीं निकलता इससे प्रस्तर का कुशमुष्टिधारी अर्थ कर लिया गया ।
⋙ गुणवान्
वि० [सं० गुणवत्] [वि० स्त्री० गुणवती] गुणवाला । गुणी ।
⋙ गुणविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीमांसा में वह विधि जिसमें गुण कर्म का विधान हो । जैसे—'दध्ना जुहोति' दही से अग्निहोत्र करे । अग्निहोत्र करने का विधिवाक्य दूसरा है । अतः उसी अग्निहोत्र के अंतर्गत जो आहुति का विधान है उसकी विधि इस वाक्य में है । वि० दे० 'कर्म' ।
⋙ गुणवृक्ष, गुणवृक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] नाव बाँधने का खूँटा [को०] ।
⋙ गुणवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौण वृत्ति (को०) ।
⋙ गुणव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों में मूलव्रतों की रक्षा करनेवाले तीन व्रत—दिग्व्रत, भोगोपभोग नियम और अनर्थदड निषेध ।
⋙ गुणशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] विशेषण (को०) ।
⋙ गुणसंग
संज्ञा पुं० [सं० गुणसंङ्ग] १. गुणों का मेल । २. इंद्रिया— सक्ति (को०) ।
⋙ गुणसागर (१)
वि० [सं०] गुणों का समुद्र । गुणों से भरा ।
⋙ गुणसागर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंडोल राग का एक पुत्र । २. ब्रह्मा (को०) । ३. गुणी व्यक्ति [को०] ।
⋙ गुणहीन
वि० [सं०] गुणरहित । जिसमें गुण न हो [को०] ।
⋙ गुणांक
संज्ञा पुं० [सं० गुणाङ्क] वह अंक जिसको गुणा करना हो ।
⋙ गुणा
संज्ञा पुं० [सं० गुणन] [वि० गुण्य, गुणित] गणित की एक क्रिया । एक अंक पर दूसरे अंक का ऐसा प्रयोग जिसके द्वारा वही फल निकलता है जो पहले अंक को उतनी ही बार अलग—अलग रखकर जोड़ने से निकलता है जितना दूसरा अंक है । जरब ।
⋙ क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—सीखना ।
⋙ गुणाकर
वि० [सं०] गुणों की खान । अत्यंत गुणी ।
⋙ गुणाकार
वि० क्रि० वि० [सं०] गुणा के चिह्न जैसा [को०] ।
⋙ गुणागार
वि [सं०] गुणों का भंडार । अत्यंत गुणी ।
⋙ गुणाढय (१)
वि० [सं०] गुणपुर्ण । बहुत गुणोंवाला ।
⋙ गुणाढय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध कवि । विशेष—इसने पैशाची भाषा में वह बडा़ ग्रंथ लिखा था जिसके आधार पर पीछे से क्षेमेंद्र ने वृहत्कथामंजरी और सोमदेव ने कथासरित्सागर नाम की पुस्तकें लिखीं । कथासरित्सागर में गुणाढय की कथा इस प्रकार लिखा है । प्रतिष्ठानपुर में सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसे श्रुतार्थ नाम की एक परम सुंदरी कन्या थी । इस कन्या के साथ नागराज बासुकि के छोटे भाई कीर्ति ने गांधर्व विवाह किया । इसी कन्या के गर्भ से गुणाढय का जन्म हुआ । गुणाढय के बचपन ही में उसका पिता मर गया । गुणाढय ने दक्षिणापथ में जाकर खूब अध्ययन किया और वह बडा़ प्रसिद्ध विद्वान् होकर प्रतिष्ठान देश के राजा सातवाहन की सभा में रहने लगा । राजा संस्कृत नहीं जानता था, मूर्ख था । एक दिन वह अपनी रानी के व्यवहार से अपनी मूर्खता पर बडा़ लज्जित हुआ और उसने संस्कृत सीखने का विचार किया । गुणाढय ने उसे छह वर्षों में व्याकरण सिखा देने का वादा किया । शर्व शर्मा नामक एक पंडित ने छह महीने में ही राजा को व्याकरण सिखा देने को कहा । इसपर गुणाढय ने चिढ़कर कहा 'यदि तुम राजा को छह महीने में व्याकरण सिखा दोगे तो मैं संस्कृत और प्राकृत आदि समस्त देशी भाषाओं का व्यवहार छोड दूँगा ।' शर्वशर्मा ने कलाप व्याकरण का निर्माण करके छह महीने में राजा को व्याकरण सिखा दिया । इसपर अपमानित गुणाढय ने बस्ती का रहना छोड़ दिया और वह जंगल में जाकर पिशाचों के बीच रहने और उन्हीं की भाषा का व्यवहार करने लगा । वहाँ पर उससे काणभूति से साक्षात्कार हुआ जो कुवेर के शाप से पिशाच हो गया था । काणभूति के मुख से उसने पुष्पदंत का कहा हुआ सप्तकथामय उपाख्यान सुना और उसे लेकर सात लाख श्लोकों का, पिशाच भाषा का एक ग्रंथ लिखा । राजसभा में उपस्थित होने पर, ग्रंथ की भाषा पैशाची होने से लोगों ने पुनः उसकी उपेक्षा की । दुःखी गुणाढय वन में पशुपक्षियों को यह ग्रंथ सुनाने और प्रत्येक पृष्ठ को अग्नि में जलाने लगा । कालांतर में राजा ने अपनी भूल का परिमार्जन किया पर ग्रंथ का एक अंश ही बचा पाए जिसके आधार पर सोम- देव और क्षेमेंद्र ने अपने अपने ग्रंथ लिखे ।
⋙ गुणातीत (१)
वि० [सं०] गिणों से परे । जो गुणों के प्रभाव से अलग हो । त्रिगुणात्मिक से निर्लिप्त ।
⋙ गुणातीत (२)
संज्ञा पुं० परमेश्वर ।
⋙ गुणानुरोध
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छे गुणों की अनुकूलता [को०] ।
⋙ गुणानुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] गुणकथन । प्रशंसा । तारीफ । बडा़ई ।
⋙ गुणान्वित
वि० [सं०] गुणों से युक्त [को०] ।
⋙ गुणालय
वि० [सं०] गुणों का भंडार । अनेक गुणों से संपन्न [को०] ।
⋙ गुणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गिल्टी । २. सूजन [को०] ।
⋙ गुणित
वि० [सं०] १. गुणा किया हुआ । २. एकत्र । संगृहीत (को०) । ३. जिसकी गणना की गई हो (को०) ।
⋙ गुणी (१)
वि० [सं० गुणिन्] गुणवाला । जिसमें कोई गुण हो । जो किसी कला या विद्या में निपुण हो ।
⋙ गुणी (२)
संज्ञा पुं०— निपुण मनुष्य । कलाकुशल पुरुष । हुनरमंद आदमी । २. झाड फूँक करनेवाला । उ०—श्याम भुजंग डस्यो हम देखत ल्यावहु गुणी बोलाई । रोवन जननि कंठ लपटानी सूर गुनराई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गुणीभूत
वि० [सं०] १. मुख्यार्थ से रहित । २. गौण बनाया हुआ [को०] ।
⋙ गुणीभूत व्यंग्य
संज्ञा पुं० [सं० गुणीभूत व्यङ्ग्य] काव्य में वह व्यंग्य जो प्रधान न हो, चरन् वाच्यार्थ के साथ गौण रूप से आया हो ।
⋙ गुणेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीनों गुणों पर प्रभुत्व रखनेवाला ईश्वर । २. चित्रकूट पर्वत ।
⋙ गुणोपेत
वि० [सं०] १. गुणी । गुणयुक्त । जिसमें गुण हो । २. किसी कला में निपुण ।
⋙ गुण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक जिसको गुणा करना हो ।
⋙ गुण्य (२)
वि० १. गुणा करने योग्य । २. गुणी । ३. वर्णनीय [को०] ।
⋙ गुण्यांक
संज्ञा पुं० [सं० गुण्याङ्क] वह अंक जो गुणा किया जाय ।
⋙ गुतेला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली जिसे बंगू भी कहते हैं ।
⋙ गुत्ता †
संज्ञा पुं० [देश०] १. लगान पर खेत देने का व्यवहार । २. लगान ।
⋙ गुत्थ
संज्ञा पुं० [हिं० गुथना] १. हुक्के के नैचों की वह बुनावट जो चटाई की बुनावट के ढंग की होती है । २. इसी बुनावट का नैचा ।
⋙ गुत्थमगुत्था
संज्ञा पुं० [हिं० गुथना] १. उलझाव । फँसाव । दो या कई कस्तुओं का ऐसा मिलना या जुटना कि दोनों लिपट गए हों । २. हाथपाई । भिड़ंत । लड़ाई ।
⋙ गुत्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुथना] वह गाँठ जो कई वस्तुओं के एक में गुथने से बने । गिरह । उलझन । क्रि० प्र०—पड़ना । मुहा०—गुत्थी सुलझाना = समस्या हल करना । कठिनाई दूर करना ।
⋙ गुत्स
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुच्छ' ।
⋙ गुत्सक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुच्छा । २. फूलों का गुच्छा । ३. चँवर । ४. ग्रंथ का भाग या अध्याय [को०] ।
⋙ गुथना
क्रि० अ० [सं० गुत्सन, प्रा० गुत्थन] १. कई वस्तुओं का तागे आदि के द्वारा एक में बँधना या फँसना । कई वस्तुओं का एक लड़ी या गुच्छे में नाथा जाना । २. किसी वस्तु कादूसरी वस्तु में सुई तागे आदि के सहारे टँकना । गाँथा जाना । जैसे,—झूल में मोती गुथे हुए थे । ३. भद्दी सिलाई होना । टाँका लगना । टाँके या सिलाई द्वारा दो वस्तुओं का जुड़ना । ४. एक का दूसरे के साथ लड़ने के लिये जाना । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना ।
⋙ गुथवाना
क्रि० स० [हिं० गुथना का प्रे०] गूथने का काम करवाना ।
⋙ गुथुवाँ
वि० [हिं० गुथना] जो गूथकर बनाया गया हो ।
⋙ गुद
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाँड । मलद्वार ।
⋙ गुदकार, गुदकारा
वि० [हिं० गूदा या गुदार] १. गूदेदार । जिसमें गूदा हो । २. गुदगुदा । मोटा । उ०—चारु कपोल गोल गुदकारे अरु सुंदर सी ठोड़ी । परति धाइ कै होड़ाहोड़ी सबकी डीठि निगोड़ी ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गुदकील, गुदकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] अर्श रोग । बवासीर ।
⋙ गुदगर †
वि० [हिं० गूदा + गर = (प्रत्य०)] दे० 'गुदगुदा' ।
⋙ गुदगुदा
वि० [हिं० गूदा] १. गूदेदार । मांसल । मांस से भरा हुआ । २. गुदगुदा । जिसकी सतह दबाने से दब जाय । मुलायम ।
⋙ गुदगुदाना
क्रि० अ० [हिं० गुदगुदा] १. काँख, तलवे, पेट आदि मांसल स्थानों पर उँगली आदि फेरना जिससे सुरसुराहट या मीठी खुजली मालूम हो और आदमी हँसने और उछलने कूदने लगे । किसी को हँसाने या छेडने के लिये उसके तलवे, काँख आदि को सुहराना । २. मन बहलाव या विनोद के लिये छेड़ना । मुहा०—गुदगुदाना वहीं तक जहाँ तक हँसी आवे = उतनी ही हँसी दिल्लगी करना जितनी अच्छी लगे । ३. चित्त को चलायमान करना । उमगाना । उत्कंठा उत्पन्न करना ।
⋙ गुदगुदाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुदगुदाना + आहट (प्रत्य०)] दे० 'गुदगुदी' ।
⋙ गुदगुदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुदगुदाना] १. वह सुरसुराहट या मीठी खुजली जो काँख, पेट आदि मांसल स्थानों पर उँगली आदि छू जाने से होती है । क्रि० प्र०— लगना ।—होना । मुहा०—गुदगुदी करना = गुदगुदाना । २. उत्कंठा । शौक । ३. आह्लाद । उल्लास । उमंग । ४. प्रसंगेच्छा । काम का वेग । चुल ।
⋙ गुदग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कोष्ठबद्धता का रोग । उदावर्त्त रोग ।
⋙ मुदड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० गुदड़ + इया (प्रत्य०)] १. गुदड़ी पहनने या ओढ़नेवाला । यौ०—गुदड़िया फकीर = गुदड़ी पहननेवाला फकीर । गुदड़िया पीर = गाँव के पास का वह पेड़ जिसपर ग्रामीण जन चिथडे़ इत्यादि बाँधते और मनौती मानतो हैं । २. फटे पुराने कपडे़ आदि बेचनेवाला । ३. खेमा, फर्श, दरी आदि भाडे़ पर देनेवाला ।
⋙ गुदडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूथना]=मोटी सिलाई करना] फटे पुराने कपड़ों की कई तहों को एक में गाँथ या सीकर बनाया हुआ ओढ़ना या बिछावन । फटे, पुराने टुकड़ों को जोड़कर बनाया हुआ कपडा़ । कंथा । विशेष—साधुओं की गिदडी़ में कभी कभी रंग बिरंगे कपडों के जोड़ भी लगते हैं । मुहा०—गुदडी़ में लाल = तुच्छ स्थान में उत्तम वस्तु । छोटे स्थान में बहुमूल्य वस्तु या गुणी व्यक्ति । गुदडी़ की लाल = कोई ऐसा धनी या गुणी जिसके रूप रंग, वेश आदि से उसका धन या गुण न प्रकट होता हो । क्या गुदडी़ है ? = क्या वित्त है ? क्या मजाल है ? क्या हकीकत ?
⋙ गुदड़ी फरोश
संज्ञा पुं० [हिं० गुदड़ी + फ़ा० फरोश] रद्दी और फटा पुराना सामान बेचनेवाला ।
⋙ गुदड़ीबाजार
संज्ञा पुं० [हिं० गुदड़ी + फ़ा० बाजार] वह बाजार जहाँ फटे पुराने कपडे़ या टूटी फूटी चीजें बिकती हों । यह बाजार प्रायः संध्या समय लगता है ।
⋙ गुदन
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोदना] वह स्त्री जिसके शरीर पर गोदना गुदा हुआ हो (पश्चिम) ।
⋙ गुदनहर
संज्ञा पुं० [हिं० गोदनहारी का पुं०] दे० 'गोदनहर' ।
⋙ गुदनहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोदनहारी] दे० 'गोदनहारी' ।
⋙ गुदना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोदना] दे० 'गोदना' ।
⋙ गुदना (२)
क्रि० अ० [हिं० गोदना] चुभना । धँसना । गड़ना । खुभना ।
⋙ गुदनिर्गम
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा का एक रोग । काँच निकलना [को०] ।
⋙ गुदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोदनी] दे० 'गोदनी' ।
⋙ गुदपाक
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा पक जाने का रोग । विशेष—छोटे बच्चों को यह रोग बहुधा हुआ करता है ।
⋙ गुदभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] काँच निकलने का रोग ।
⋙ गुदमी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा और मुलायम कंबल जो ठंढ़े पहाडी़ देशों में बुना जाता है ।
⋙ गुदरना † पु
क्रि० अ० [फ़ा० गुजर + हिं० ना (प्रत्य०)] १. त्याग करना । अलग रहना । दर गुजर करना । उ०—मिलि न जाय नहिं गुदरत बनई । सुकबि लखन मन की गति भनई ।—तुलसी (शब्द०) । निवेदन करना । हाल कहना । उ०—तब द्वापर ही नृप सों गुदरे । सुकदेव अबैं दरबार खरे ।—केशव (शब्द०) । ३. व्यतीत होना । बीतना । गुजरना । मंतर लेहु हेहु सँग लागू । गुदर जाइ तब होइहि आगू । जायसी (शब्द०) । ४. उपस्थित किया जाना । पेश होना ।
⋙ गुदरानना †
क्रि० स० [फ़ा० गुजरान + हिं० ना (प्रत्य०)] १. पेश करना । सामने रखना । उपस्थित करना । नजर करना । भेंट देना । उ०—गुदरानी तेहि दूरि ते पारिजात की माल ।—गुमान (शब्द०) २. निवेदन करना । हाल कहना । उ०—देखि तिन्हैं तब दूरि ते गुदरान्यो प्रतिहार । आए विश्वामित्र जू जनु दूजो करतार ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गुदरिया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुदडी़ + इया (प्रत्य०)] दे० 'गुदडी़' ।
⋙ गुदरिया (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का नीबू ।
⋙ गुदारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुदडी़] दे० 'गुदडी़' ।
⋙ गुदरैन † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुदरना] १. पढ़ा हुआ पाठ शुद्धतापूर्वक सुनाना जिससे ज्ञात हो जाय कि पाठ भली भाँति याद किया गया है । जायजा । २. परीक्षा । इम्तहान । परताल । उ०— सारो शुक शुभ मराल, केकी कोकिल रसाल बोलत कल पारावत भूरि भेद गुनिए । मनहु मदन पंडित ऋषि शिष्य गुणन मंडित करि अपनी गुदरैन देन पठन प्रभु सुनिए ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ गुदवदन
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा [को०] ।
⋙ गुदवाना
क्रि० स० [हिं० गोदना] दे० 'गुदना' ।
⋙ गुदस्तंभ
संज्ञा पुं० [गुदस्तम्भ] कब्ज [को०] ।
⋙ गुदांकुर
संज्ञा पुं० [सं० गुदाङ्कर] बवासीर ।
⋙ गुदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मलद्वार । गाँड़ ।
⋙ गुदाज
वि० [फ़ा० गुदाज] गूदेदार । गदराया हुआ । गुदकार । माँस से भरा हुआ ।
⋙ गुदाना
क्रि० स० [हिं० गोदना का प्रे०] गोदने की क्रिया करना ।
⋙ गुदाभंजन
संज्ञा पुं० [सं० गुदा + भञ्जन] पुरुष का पुरुष से मैथुन । समलैंगिक मैथुन । क्रि० प्र०-करना ।-कराना ।
⋙ गुदाम (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोदाम] दे० 'गोदाम' ।
⋙ गुदाम (२) †
संज्ञा पुं० [सं० पुर्त० बोताव, हिं० बुताम] बटन । घुंडी ।
⋙ गुदार †
वि० [हिं० गूदा + आर (प्रत्य०)] गूदेदार । जिसमें अधिक गूदा हो । मँसीला । गुदाज । गुदकारा ।
⋙ गुदारा (१) पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुजारह्] १. नाव पर नदी पार करने की क्रिया । उतारा । उ०—यहि बिधि राति लोग सब जागा । भा भिनसार गुदारा लागा ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना । २. दे० 'गुजारा' ।
⋙ गुदारा (२)
वि० [हिं० गूदा + आरा (प्रत्य०)] दे० 'गुदार' ।
⋙ गुदावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] कोष्ठबद्धता [को०] ।
⋙ गुदियारा †
वि० [हिं० गुदकारा] दे० 'गुदाकारा' ।
⋙ गुदी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] नदियों के किनारे का वह स्थान जहाँ नावें बनती हैं या मरम्मत के लिये रखी जाती हैं ।
⋙ गुदुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदरना] १. मटर की फली । २. एक प्रकार का कीडा़ जो मटर और चने की फसल को हानि पहुँचाता है । क्रि० प्र०—आना ।—निखोरना ।—लगना ।
⋙ गुदौष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा के मुख पर का चमडा़ [को०] ।
⋙ गुद्दा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गूदा] दे० 'गूदा' ।
⋙ गूद्दा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] पेड़ की मोटी डाल ।
⋙ गुद्दी †
संज्ञा पुं० [हिं० गूदा] १. मींगी । गिरी । किसी फल के भीतर का गूदा । मग्ज । २. सिर का पिछला भाग । ल्यौंडी । मुहा०—आँखें गुद्दी में होना या चली जाना = सुझाई न देना । देख न पड़ना । समझ में न आना । किसी वस्तु के प्रत्यक्ष होते हुए भी उसे न देखना या न समझना या न मानना । गुद्दी नापना = गुद्दी पर धौल लगाना । गुद्दी की नागिन = गरदन के पीछे बालों की भौंरी जिसे लोग अशुभ समझते हैं । गुद्दी से जीभ खींचना = जबान खींच लेना । बहुत कडा़ दंड देना । (गाली) । ३. हथेली का माँस ।
⋙ गुण पु †
संज्ञा पुं० [सं० गुण] दे० 'गुण' ।
⋙ गुनकारी †
वि० [हिं०गुणकारी] दे० 'गुणकारी' ।
⋙ गुनगाहक †
संज्ञा पुं०, वि० [सं० गुणग्राहक] दे० 'गुणग्राहक' ।
⋙ गुनगुना (१)
वि० [अनु०] नाक में बोलनेवाला ।
⋙ गुनगुना (२)
वि० [हिं० कुनकुना] दे० 'कुनकुना' ।
⋙ गुनगुनाना
क्रि० अ० [अनु०] १. गुनगुन शब्द करना । २. नाक मे बोलना । ३. अस्पष्ट स्वर में गाना ।
⋙ गुनगौरि †
संज्ञा पुं० [हिं० गुणगौरि] १. पतिव्रता स्त्री । सौभागिनी । उ०—धनि धनि तुव बहिंयाँ ए गुनगौरि । कंकन की जहँ कोमत लाख करोरि ।—सेवक (शब्द०) । २. दे० 'गुणगौरि' ।
⋙ गुनग्राम पु
संज्ञा पुं० [सं० गुणग्राम] गुणों का समूह । उ०—जग मंगल गुनग्राम राम के । दानी मुकुति धन धरम धाम के ।—मानस, १ ।३२ ।
⋙ गुनना पु †
क्रि० अ० [सं० गुणन] १. मनन करना । विचार करना । जैसे,—पढ़ना गुनना । २. समझना । सोचना । उ०—(क) सुनि चितउर राजा मन गुना । विधि सँदेस मैं कासौं सुना ।—जायसी (शब्द०) (ख) सुमति महामुनि सुनिए । तन धन कै मन गुनिए ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गुनमंत †
वि० [हिं० गुनवंत] दे० 'गुनवंत' ।
⋙ गुनरखा
संज्ञा पुं० [हिं० गून] १. दे० 'गोनरखा' । २. दे० 'गुनिया (३)' ।
⋙ गुनवंत †
वि० [हिं० गुन + वंत (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० गुनवती] जिसमें कोई गुण हो । गुणी । उ०—जो कह झूठ मसखरी जाना । कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ।—मानस; ७ । ९८ ।
⋙ गुनवंतिन पु †
वि० स्त्री० [हिं० गुनवंती] गुणवाली । गुणवती ।
⋙ गुनवान †
वि० [सं० गुणवत्] दे० 'गुणवान्' ।
⋙ गुनहगार
वि० [फ़ा०] १. पाप । २. दोषी । अपराधी ।
⋙ गुनहगारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. पाप । २. दोष । अपराध ।
⋙ गुनही †
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुनह + हिं० ई (प्रत्य०)] गुनहगार । अपराधी । उ०—जौ गुनही तौ मारिए आँखिन माँहि अगोटि । -बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गुना
संज्ञा पुं० [सं० गुणन] १. एक प्रत्यय जो केवल संख्यावाचक शब्दों के अंत में लगता है । यह जिस संख्या के अंत में लगता है उतनी ही बार कोई मात्रा, संख्या या परिमाण सूचित करता है । जैसे,—दुगुना, चौगुना, दसगुना, बीसगुना । २. गुणा । (गणित) ।
⋙ गुना (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] गेहूँ के आटे और गुड़ से बना हुआ एक पकवान ।
⋙ गुनावन †
संज्ञा पुं० [सं० गुणन] १. सोच विचार । २. सलाह मशविरा ।
⋙ गुनाह
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. पाप । २. दोष । कसूर । अपराध ।
⋙ गुनाहगार
वि० [फ़ा०] १. गुनाह करनेवाला । पाप करनेवाला । २. अपराध करनेवाला । कसूर करनेवाला । दोषी ।
⋙ गुनाहगारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] गुनहगार का भाव । अपराधी या दोषी होने का भाव ।
⋙ गुनाही
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. पाप करनेवाला । पापी । २. अपराध करनेवाला । दोषी । कुसूरवार ।
⋙ गुनिया (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० गुन + इया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसमें गुण हो । गुणवान् ।
⋙ गुनिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोन, कोनिया] राजों, बढ़इयों और संगतराशों का एक औजार जिससे वे कोने की शीध नापते हैं । साधन । दे० 'गोनिया' ।
⋙ गुनिया (३)
संज्ञा पुं० [सं० गुण, हिं० गुन + इया (प्रत्य०)] वह मल्लाह जो नाव कीं गून खींचता है । गुनरखा ।
⋙ गुनियाला पु
वि० [हिं० गुण] गुणवाला । गुणी ।
⋙ गुनी
वि० संज्ञा पुं० [हिं० गुणी] दे० 'गुणी' ।
⋙ गुनोबर
संज्ञा पुं० [फ़ा० सनोबर] एक प्रकार का देवदार या सनोबर का पेड़ । विशेष—यह उत्तर पश्चिमी हिमालय में ६००० से १००० फुट की ऊँचाई तक होता है । इसकी लकडी़ बडी मजबूत और कडी़ होती है । पर उसका कोई विशेष उपयोग नहीं होता । चिलगोजा नाम का मेवा इसी का फल है । इस वृक्ष को चीरी भी कहते हैं ।
⋙ गुन्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुण, हिं० गून रस्सी] एक प्रकार का कोडा़ जिससे ब्रजमंडल में होली के अवसर पर स्त्री पुरुष एक दूसरे को मारते हैं ।
⋙ गुप (१)
वि० [हिं० घुप] दे० 'घुप' ।
⋙ गुप (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] सुनसान होने का भाव । सन्नाटा ।
⋙ गुपचुप (१)
क्रि० वि० [हिं० चुप + चुप] बहुत गुप्त रीति से । छिपाकर । चुपचाप । चुपके से । जैसे,—तुम अपना काम करके वहाँ से चुपचुप चले आना ।
⋙ गुपचुप (२)
संज्ञा स्त्री० १. एक प्रकार की मिठाई जो मुहँ में रखते ही घुल जाती है । विशेष—यह खोवे और मैदे या सिंघाडे़ के आटे को घी में पकाकर और शीरे में डालकर बनाई जाती है । २. लड़कों का एक खेल जिसमें एक गाल फुलाता है और दूसरा उसपर घूँसा मारता है । ३. एक प्रकार का खिलौना ।
⋙ गुपाल † पु
संज्ञा पुं० [सं० गोपाल] दे० 'गोपाल' ।
⋙ गुपिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. रक्षक [को०] ।
⋙ गुपुत पु
वि० [सं० गुप्त] दे० 'गुप्त' । उ०—सूझहि रामचरित मनि मानिक । गुपुत प्रकट जहँ जो जेहि खानिक ।—मानस, १ ।१ ।
⋙ गुप्त (१)
वि० [सं०] १. छिपा हुआ । पोशीदा । यौ०— गुप्तचर । गुप्त गोष्ठी । गुप्तदान । २. गूढ़ । जिसके जानने में कठिनता हो । ३. रक्षित ।
⋙ गुप्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पदवी जिसका व्यवहार वैश्य अपने नाम के साथ करते हैं । २. एक प्राचीन राजवंश जिसने पहले मगध देश में राज्य स्थापित करके सारे उत्तरीय भारत में अपना साम्राज्य फैलाया । विशेष— इस वंश में समुद्रगुप्त बडा़ प्रतापी सम्राट् हुआ । इस वंश का राज्य ईसा की ५वीं और ६ठीं शताब्दी में वर्तमान था । चंद्रगुप्त । समुद्रगुप्त और स्कंदगुप्त आदि इसी वंश में हुए थे । गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त का दूसरा नाम विक्रमादित्य भी था । बहुत लोगों का मत है कि प्रसिद्ध विक्रमादित्य चंद्रगुप्त ही हैं ।
⋙ गुप्तक
संज्ञा पुं० [सं०] सुरक्षित रखनेवाला [को०] ।
⋙ गुप्तकाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक तीर्थ जो हरिद्वार और बदरीनाथ के बीच में है ।
⋙ गुप्तगति
संज्ञा पुं० [सं०] भेदिया । गुप्तचर [को०] ।
⋙ गुप्तगृह
संज्ञा पुं० [सं०] शयनगृह [को०] ।
⋙ गुप्तगोदावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्रकूट के निकट एक तीर्थस्थान [को०] ।
⋙ गुप्तचर
संज्ञा पुं० [सं०] वह दूत जो किसी बात का चुपचाप भेद लेता हो । भेदिया । जासूस ।
⋙ गुप्तदान
संज्ञा पुं० [सं०] वह दान जिसे देते समय दाता ही जाने और कोई न जाने । विशेष— ऐसा दान लोग प्रायः बिना अपना नाम प्रगट किए अथवा वस्तु को छिपाकर देते हैं । ऐसा दान बहुत श्रेष्ठ समझा जाता है ।
⋙ गुप्तमतदान
संज्ञा पुं० [सं०] वह मतदान या वोट देना जो अपना मत प्रकट किए बिना गुप्त रूप से दिया जाय ।
⋙ गुप्तमार
संज्ञा स्त्री० [सं० गुप्त + हिं० मार] १. ऐसा आघात जिसका शरीर पर कुछ चिह्न न रहे । ऐसी मार जिससे शरीर से रक्त आदि न निकले, जैसे, घूँसे, थप्पड़ आदि की । भीतरी मार । २. छिपा हुआ दाँवपेंच । ऐसा अनिष्ट जो बहुत छिपाकर किया जाय ।
⋙ गुप्तवेश
वि० [सं०] छद्यवेशी । जो भेष बदले हुए हो [को०] ।
⋙ गुप्तस्नेह
वि० [सं०] गुप्त रूप से प्रेम करनेवाला [को०] ।
⋙ गुप्तांग
संज्ञा पुं० [सं० गुप्ताङ्ग] स्त्री या पुरुष के गोपनीय अंग । उपस्थ ।
⋙ गुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह नायिका जो सुरति छिपाने का उद्योग करती है । विशेष— यह छह प्रकार की परकीया नायिकाओं में से मानी गई है । काल के अनुसार इसके तीन भेद हैं— (क) भूत— *सुरति-गुप्ता, (ख) वर्तमान-सुरति-गुप्ता और (ग) भविष्य-सुरति-गुप्ता । २. रखी हुई स्त्री । सुरैतिन । रखैल ।
⋙ गुप्तासन
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धासन [को०] ।
⋙ गुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छिपाने की क्रिया । २. रक्षा करने की क्रिया । ३. तंत्र के अनुसार ग्रहण किए जाने वाले मंत्र का एक संस्कार । ४. कारागार । कैदखाना । ५. गुफा । गड्ढा । ७. अहिंसा आदि योग के अंग । यम । ८. मलद्वार (को०) । ९. नाक का छेद (को०) ।
⋙ गुप्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० गुप्त] वह छड़ी जिसके अंदर गुप्त रूप से किरच या पतली तलवार इस प्रकार रखी हो कि आवश्यकता पड़ने पर तुरंत बाहर निकाली जा सके । क्रि० प्र०— चलाना ।
⋙ गुप्तोत्प्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उत्प्रेक्षा जिसमें 'मानो', 'जानो' आदि सादृश्यवाचक शब्द न हों । प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा ।
⋙ गुप्फा
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फ ] १. फुँदना । झब्बा । २. फूलों का गुच्छा ।
⋙ गुफा
संज्ञा स्त्री० [सं० गुहा] वह गहरा अँधेरा गड्ढा जो जमीन या पहाड़ के नीचे वहुत दूर तक चला गया हो । कंदरा । गुहा ।
⋙ गुफ्त
वि० [फा० गुफ्त] कथित ।
⋙ गुफ्तगू
संज्ञा स्त्री० [फा० गुफ्तगू] बातचीत । वार्तालाप ।
⋙ गुफ्तार
संज्ञा स्त्री० [फा० गुफ्तार] १. वाणी । बोली । आवाज । २. बातचीत । वार्तालाप ।
⋙ गुफ्तोशनीद
संज्ञा स्त्री० [फा० गुफ्तोशुनीद] १. वार्तालाप । गुफ्तगू । २. कहा सुनी । वाद विवाद । ३. तर्क वितर्क ।
⋙ गुबरैला
संज्ञा पुं० [हिं० गोबर + ऐला (प्रत्य०)] एक प्रकार का कीडा़ जो गोबर और मल आदि खाता तथा इकट्ठा करता है । विशेष— यह गोबर की गोलियाँ लुढ़काता हुआ प्रायः खेतों आदि में पाया जाता है ।
⋙ गुबार
संज्ञा पुं० [अ० गुबार] १. गर्द । धूल । यौ०—गर्द गुबार । क्रि० प्र०—उठना ।—उड़ना ।—आना । २. मन में दबाया हुआ क्रोध, दुःख या द्वेष आदि । क्रि० प्र०—निकलना ।—निकालना ।—रखना । मुहा०—गुबार निकालना = कटु और अप्रिय बातें कहकर मन का क्रोध दूर करना ।
⋙ गुबारा
संज्ञा पुं० [फा० गुब्बारह्] दे० 'गुब्बारा' ।
⋙ गुबिद पु
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्द, प्रा० गोविंद ] दे० 'गोविंद' ।
⋙ गुब्बा
संज्ञा पुं० [देश०] रस्सी के बीच में डाला हुआ फंदा ।—(लश०) ।
⋙ गुब्बाडा़ †
संज्ञा पुं० [हिं० गुब्बारा] दे० 'गुब्बारा' ।
⋙ गुब्बार
संज्ञा पुं० [हिं० गुबार ] दे० 'गुबार' ।
⋙ गुब्बारा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुब्बारह्] १. थैली या उसके आकार की और कोई चीज जिसके अंदर गरम हवा या हवा से हलकी किसी प्रकार की भाप आदि भरकर आकाश में उडा़ते हैं । विशेष—इसके बनाने में पहले रेशम या इसी प्रकार की और किसी चीज के थैले पर रबर की या और बार्निश चढा़कर उसमें से हवा या भाप निकलने का मार्ग बंद कर देते हैं और तब उसमें गरम हवा या हवा से हलकी और कोई भाप भर देते हैं । इस थैले को एक जाल में भरकर उस जाल के नीचे कोई बडा़ संदूक या खटोला बाँध देते हैं जिसमें आदमी बेठते हैं । गुब्बारा हवा से हलका होने के कारण आकाश में उड़ने लगता है । उसे नीचे लाने के लिये इसमें की गरम हवा या भाप निकाल देते हैं । २. गुब्बारे के आकार का कागज का बना हुआ बडा़ गोला । विशेष—इसके नीचे तेल से भीगा हुआ कपडा़ जलाकर रख देते हैं । इसके धुएँ से गोला भर जाता और आकाश में उड़ने लगता है । इसका व्यवहार आतिशबाजी में या विवाह आदि शुभ अवसरों पर होता है । ३. एक प्रकार का बडा़ गोला जो आकाश की ओर फेंकने पर फट जाता है और जिसमें से आतिशबाजी छूटती है । क्रि० प्र०—उड़ना ।—उडा़ना ।—छूटना ।—छोडना ।
⋙ गुभ
संज्ञा पुं० [देश०] समुद्र की खाड़ी ।—(लश०) ।
⋙ गुभी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुम्फ= गुच्छा] अंकुर । गाभ । उ०—मुरली मोर मनोहर बानी सुनि इकटक जु उभी । सूरदास मनमोहन निरखत उपजी काम गुभी ।—सूर०, १० ।१८७० ।
⋙ गुमीला
संज्ञा पुं० [देश०] गोटा जो मल रुकने के कारण पेट में रुक जाता है ।
⋙ गुम (१)
वि० [फ़ा०] १. लुप्त । छिपा हुआ । अप्रकट । २. अप्रसिद्ध । ३. खोया हुआ । क्रि० प्र०—करना ।—जाना ।—होना । यौ०—गुमनाम । गुमराह ।
⋙ गुम
संज्ञा पुं० [देश०] वातावरण की वह स्थिति जिसमें हवा न चल रही हो ।
⋙ गुमक
संज्ञा स्त्री० [हिं० गमक] दे० 'गमक' ।
⋙ गुमकना
क्रि० स० [सं० गम] शब्द का भीतर ही भीतर गूँजना ।
⋙ गुमका †
संज्ञा पुं० [देश०] भूसी से दाना अलग करने का काम ।
⋙ गुमचा †
संज्ञा पुं० [सं० गुञ्जा] गुंजा । घुमची ।
⋙ गुमची †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा] गुंजा । घुमची ।
⋙ गुमजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुमटी] दे० 'गुमटी' ।
⋙ गुमटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कीडा़ । विशेष— यह कपास के फूल को नष्ट कर देता है जिससे फसल मारी जाती है ।
⋙ गुमटा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुम्बा+ हिं० टा(प्रत्य०)] वह गोल सूजन जो मत्थे या सिर पर चोट लगने से होती है । गुलमी ।
⋙ गुमटी (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुंबद] १. मकान के ऊपरी भाग में सीढी़ या कमरों आदि की छत जो शेष भाग से अधिक ऊपर उठी हुई होती है । २. गोलाकार या चौकोर कोठरी या कमरा जो रेलवे लाइन के किनारे प्रायः लाइन पार जानेवाले मार्गों पर बना होता है । वि० दे० 'गिमटी' ।
⋙ गुमटी (२)
संज्ञा पुं० [?] नाव या जहाज में का पानी फेकनेवाला मल्लाह या खलासी ।
⋙ गुमना †
क्रि० अ० [फ़ा० गुम] गुम होना । खो जाना ।
⋙ गुमनाम
सं० [फ़ा०] अप्रसिद्ध । अज्ञात । जिसे कोई न जानता हो । यौ०—गुमनाम पत्र= ऐसा पत्र जिसमें लेखक ने अपना नाम न दिया हो ।
⋙ गुमर
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुमान] १. अभीमान । घमंड । शेखी । २. मन में छिपाया हुआ क्रोध या द्वेष आदि । गुबार । ३. धीरे धीरे की बातचीत । कानाफूसी । उ०—मेरे नैन अंजन तिहारेअधरन पर शोभा देखि गुमर बढा़यो मब सखियाँ ।—रस- कुसुमाकर (शब्द०) ।
⋙ गुमरना पु
क्रि० अ० [हिं० घुमड़ना] घिरना । गुमड़ना ।
⋙ गुमराह
वि० [फ़ा०] १. कुपथगामी । बुरे मार्ग में चलनेवाला ।२. भूला हुआ । भटका हुआ ।
⋙ गुमराही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. भूल । भ्रम । २. कुपंथ । बुरा मार्ग । कुमार्ग ।
⋙ गुमशुदा
वि० [फ़ा० गुमशुदह्] गुम । खोया हुआ । भूला हुआ ।
⋙ गुमसुम (१)
वि० [फ़ा० गुम + अनु० सुम] १. चुप । जो कुछ भी बोल न रहा हो । २. बिल्कुल हिल डुल न रहा हो । ३. उदास । चिंतित । ४. खोया हुआ ।
⋙ गुमसुम (२)
क्रि० वि० १. चुपचाप । शांतिपूर्वक । २. ध्यानस्थ । खोया हुआ सा । क्रि० प्र०—बैठना ।—होना ।
⋙ गुमान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. अनुमान । कयास । २. घमंड । अहं— कार । गर्व । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. लोगों की बुरी धारणा । बदगुमानी । लोकापवाद । उ०— तुलसी जुपै गुमान कौ होतौ कछू उपाउ । तौ कि जानकिहि जानि जिय परिहरते रघुराउ ।— **तुलसी (शब्द०) । ४. शंका । सुबहा ।
⋙ गुमाना †
क्रि० स० [फ़ा० गुम= खोया हुआ] खोना । गँवाना । क्रि० प्र०—देना ।— बैठना ।
⋙ गुमानी
वि० [हिं० गुमान] घमंडी । अहंकारी । गरूर करनेवाला ।
⋙ गुमाश्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुमाश्तह्] वह मनुष्य जो किसी बडे़ व्यापारी या कोठीवाल की ओर से बही आदि लिखने या माल खरीदने और बेचने पर नियुक्त हो ।
⋙ गुमाश्तागीरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुमाश्तह्गीरी] १. गुमाश्ते का पद २. गुमाश्ते का काम ।
⋙ गुमिटना †
क्रि० अ० [सं० गुम्फित] लिपटना । लपेटा जाना ।
⋙ गुमेटना †
क्रि० स० [सं० गुम्फित] लपेटना ।
⋙ गुम्मट
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुंबद] । गुंबज ।
⋙ गुम्मर
संज्ञा पुं० [हिं० गुम्मट] चेहरे या किसी और अंग पर निकला हुआ बहुत बडा़ गोल मसा या माँस का लोथडा़ ।
⋙ गुम्मा
संज्ञा पुं० [देश०] बडी़ मोटी ईंट जो अँगरेजी ढंग की इमारतों में लगती है ।
⋙ गुरंबा †
संज्ञा पुं० [हिं० गुडंबा] दे० 'गुडंबा' ।
⋙ गुर (१)
संज्ञा पुं० [सं० गुरुमंत्र] वह साधन या क्रिया जिसके करते ही काम तुरंत हो जाय । मूलमंत्र । सार ।
⋙ गुर (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुण] तीन की संख्या । (डिं०) ।
⋙ गुर (३) †
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़] दे० 'गुड' ।
⋙ गुर (४) †पु
संज्ञा पुं० [सं०गुरु] दे० 'गुरु' ।
⋙ गुरखई †
संज्ञा स्त्री० [सं० गो + हिं० रखना] एक प्रकार की रेहन या बंधक ।
⋙ गुरखाई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह रेहन जिसमें रेहन रखनेवाला । रेहन रखी हुई जमीन का ३/४ मालगुजारी देता हे ।
⋙ गुरगा
संज्ञा पुं० [सं० गुरुग] [स्त्री० गुरगी] १. गुरु का अनुगामी । चेला । शिष्य । २. टहलुआ । नौकर । छोकरा । अनुचर । ३. चर । दूत । गुप्तचर । जासूस । मुहा०—गुर्गे छूटना= दूतों या गुप्तचरों का किसी कार्य के लिये प्रस्थान करना ।
⋙ गुरगाबी
संज्ञा पुं० [फा०] मुंडा जूता ।
⋙ गुरच
संज्ञा पुं० [सं० गुडूची] दे० 'गुरुच' ।
⋙ गुरचना †
क्रि० अ० [हिं० गुरुच] १. किसी वस्तु का उलझकर टेढा़ मेढा़ होना । २आपस में उलझना ।
⋙ गुरचियाना †
क्रि० अ० [हिं० गुरुच] सिकुड़कर टेढा़ मेढा़ हो जाना ।
⋙ गुरची †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुरुच] सिकुड़न । बट । बल ।
⋙ गुरचों †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] परस्पर धीरे धीरे वातें करना । कानाफूसी । यौ०—गुरचों गुरचों । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गुरज
संज्ञा पुं० [फा० गुर्ज] दे० 'गुर्ज' ।
⋙ गुरजा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसे लोवा करते हैं ।
⋙ गुरझन
स्त्री० [हिं० गुरझना] उलझन । पेंच की बात । ग्रंथि ।
⋙ गुरझना
क्रि० स० [हिं० उलझना] उलझना ।
⋙ गुरझनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुरझना] दे० 'गुरझन' ।
⋙ गुरझियाना
क्रि० अ० [हिं० गुरझना] सिकुड़कर टेढा़ हो जाना । गाँठ या उलझन पड़ना ।
⋙ गुरझियाना (२)पु
क्रि० स० [हिं० गुरझना] गाँढ ङालना या उलझाना ।
⋙ गुरण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रयत्न । चेष्टा । उद्योग [को०] ।
⋙ गुरदा
संज्ञा पुं० [फा० सं० गोर्द] १. रिढ़दार जीवों के अंदर का एक अंग जो पीठ और रीढ़ के दोनों ओर कमर के पास होता है । विशेष— इसका रंग लाली लिए भूरा और आकार आलू का सा होता है । इसके चारो ओर चरबी मढी़ होती है । साधारणतः जीवों में दो गुरदे होते हैं जो रीढ़ के दोनों ओर स्थित रहते हैं । शरीर में इनका काम पेशाब को बाहर निकालना और खून को साफ रखना है । यदि इनमें किसी प्रकार का दोष आ जाय तो रक्त बिगड़ जाता और जीव निर्बल हो जाता है । मनुष्य में बाँया गुरदा कुछ ऊपर की ओर और दारिना कुछ नीचे की ओर हटकर होता है । मनुष्य के गुरदे प्रायः ८—९अंगुल लंबे, ५अगुल चौडे़ और २अंगुल मोटे होते हैं । २. साहस । हिम्मत । जैसे—(क) वह बडे़ गुरदे का आदमी है । (ख) यह बडे़ गुरदे का काम है । ३. एक प्रकार की छोटी तोप । ४. लोहे का एक बडा़ चमचा या करछा जिससे गुड़ बनाते समय उबलता हुआ पाग चलाते हैं ।
⋙ गुरना पु
क्रि० अ० [हिं० धुलना] गलना । घुलना ।
⋙ गुरनियआलू
संज्ञा पुं० [देश०] रतालू, जमीकंद आदि की जाति का एक कंद ।विशेष—यह वंगाल और मध्य, पश्चिम तथा दक्षिण भारत में होता है । इसका रंग ऊपर से लाल होता है । इसकी लता बहुत बडी़ होती है ।
⋙ गुरबत
संज्ञा स्त्री० [अ० गुर्बत] १. विदेश में रहना । प्रवास । २. परदेश । विदेश ।२. कंगाली । दरीद्रता ।
⋙ गुरबिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुर्विणी] दे० 'गुर्विणी' ।
⋙ गुरबी पु
वि०[सं० गर्विन्] अभिमानी । घमंडी ।
⋙ गुरमुख
वि० [हिं० गुरु+ मुख] जिसने गुरु से मंत्र लिया हो । दीक्षित । दीक्षाप्राप्त ।
⋙ गुरमुखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुरुमुखी] दे० 'गुरुमुखी' ।
⋙ गुरम्मर †
संज्ञा पुं० [हिं० गुड़+ अंब] मोटे आम का बृक्ष । आम का वह वृक्ष जिसका फल बहुत मीठा होता हो । उ०—वृक्ष गुरम्मर बैठि अमृत फल खाइए । जन्म जन्म की भूख सो तुर्त बुझाइए ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ गुरम्मा †
संज्ञा पुं० [हिं० गुडंबा] दे० 'गुडंबा' ।
⋙ गुरवार
संज्ञा पुं० [सं० गुरुवार] दे० 'गुरुवार' ।
⋙ गुरवी †
वि० [सं० गर्व्व] घमंडी । अहंकारी । उ०— देहै कृष्ण दूसरी उरवी । गुरु के सरिस बुझावत गुरवी ।—(शब्द०) ।
⋙ गुरसल
संज्ञा पुं० [देश०] गिलगिलिया । सिरोही । किलहँटी ।
⋙ गुरसी †
संज्ञा स्त्री० दे० [हिं०] 'गोरसी' या 'बोरसी' ।
⋙ गुरसुम
संज्ञा पुं० [देश०] सोनारों की एक प्रकार की छेनी ।
⋙ गुरहा
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह तख्ता जो छोटी नावों में अंदर की ओर दोनों सिरों पर जडा रहता है । इन्हीं तख्तों में से एक पर खेनेवाला मल्लाह बैठता है । २. एक प्रकार की छोटी मछली चो प्रायः एक बालिश्त लंबी होती है । यह उत्तर प्रदेश बंगाल और आसाम की नदियों में पाई जाती है ।
⋙ गुराइ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोराई] दे० 'गुराई' ।
⋙ गुराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरा] दे० 'गोराई' ।
⋙ गुराउ (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुराब] दे० 'गुराब' ।
⋙ गुराउ (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० गोरा > गुर+ आउ(प्रत्य०)] गोरापन । गोराई ।
⋙ गुराब
संज्ञा पुं० [देश०] १. तोप लादने की गाडी़ । उ०—तिमिघर- नाल और करनालै सुतरवाल जंजालै । गुर गुराब रहँकले भले तहँ लागे विपुल बयालै ।—रघुराज (शब्द०) । २. वह बडी़ नाव जिसमें केवल एक मस्तूल हो (लश०) ।
⋙ गुराव †
संज्ञा पुं० [हिं० गुरिया] १. चौपायों को खिलाने के लिये चारा टुकडे़ टुकडे़ करने की क्रिया । २. वह हथियार जिससे चारा काटा जाता है । गँडा़सा ।
⋙ गुरिंदा
संज्ञा पुं० [फा० गोइंदह्] गुप्तचर । भेदिया । गोइंदा । जैसे—कोतवाल तथा उनके गुरिंदों ने छेदालाल जी का जीवन भारभूत कर दिया ।—प्रताप (शब्द०) ।
⋙ गुरिद †पु
संज्ञा [फा० गुर्ज] १. गदा ।—(क्व०) । उ०—बाँधै आयुधि गुरिद सदाई । महि पर पटकत अरि मर जाई ।— रघुराज (शब्द०) । २. गुर्ज ।
⋙ गुरिदल
संज्ञा पुं० [देश०] १. किलकिला की जाति का एक पक्षी जो जलाशयों के निकट रहता है और मछली खाता है । इसे बदामी कहते हैं । २. कचनार का पेड़ ।
⋙ गुरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] १. वह दाना, मक्का या गाँठ जो किसी प्रकार की माला या लडी़ का एक अंश हो । जैसे— माला की गुरिया,रीढ़ की गुरिया, साँप की गुरिया आदि । २. चौकौर या गोल छोटा टुकडा़ जो काटकर अलग किया गया हो । कटा हुआ छोटा खंड । ३. मांस का छोटा टुकडा़ । बोटी ।
⋙ गुरिया (२)
संज्ञा स्त्री [देश०] १. दरी बुनने के करघे की वह बडी़ लकडी़ या शहतीर जिसमें बै का बाँस लगा रहता है । इसे झिल्लन भी करते हैं । २. हेंगे या पोटे की वह रस्सी जिसका एक सिरा हेंगे में और दूसरा बैलों की गरदन के पास जूए के बीच में बँधा रहता है ।
⋙ गुरिल्ला
संज्ञा पुं० [अं० गोरिला] दे० 'गोरिल्ला' ।
⋙ गुरीरा †
वि० [हिं० गुड़ + ईला(प्रत्य०)] १. गुड़ का सा मीठा । २. सुंदर । बढ़िया । उत्तम । उ०— सूर परस सों भयो गुरीरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गुरु (१)
वि० [सं०] [संज्ञा गुरुत्व, गुरुता] १. लंबे चौडे़ आकारवाला । बडा़ । २. भारी । वजनी । जो तौल में अधिक हो । ३. कठिनता से पकने या पचनेवाला (खाद्य पदार्थ) । ४. चौडा़ (डिं०) । ५. पूजनीय (को) । ६. महत्वशील (को०) । ७. कठिन (को०) । ८.दीर्घमाञावाला (वर्ण) (को०) । ९. प्रिय (को०) । १०. तीव्रतापूर्ण (को०) । ११. संमान्य (को०) । सर्वो त्तम । सुंदर (को०) । १२. दर्पपूर्ण (बात) । १३. अदमनीय (को०) । १४. शक्तिशाली । बलवान् (को०) । १५. मूल्यवान् (को०) ।
⋙ गुरु (२)
संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० गुरुआनी] १. देवताओं के आचार्य बृहस्पति । २. बृहस्पति नामक ग्रह । यौ०—गुरुवार । ३. पुष्य नक्षत्र । जिसके अधिष्ठाता बृहस्पति हैं । ४. अपने अपने गृह्य के अनुसार यज्ञोपवीत आदि संस्कार करानेवाला, जो गायत्री मंत्र का उपदेष्टा होता है । आचार्य । ५. किसी मंत्र का उपदेष्टा । ६. किसी विद्या या कला का शिक्षक । सिखाने , पढा़ने या बतलानेवाला । उस्ताद । यौ०—गुरुकुल; गुरुगृह = गुरुकुल । ७. दो मात्राओंवाला अक्षर । दीर्घ अक्षर जिसकी दो मात्राएँ या कलाएँ गिनी जाती हैं । जैसे—राम में रा ।—(पिंगल) । विशेष—संयुक्त अक्षर के पहलेवाला अक्षर (लघु होने पर भी) गुरु माना जाता है । पिंगल में गुरु वर्ण का संकेत है । अनुस्वार और विसर्गयुक्त अक्षर भी गुरु ही माने जाते हैं । ८. वह ताल जिसमें एक दीर्घ या दो साधारण मात्राएँ हों । विशेष—पिंगल के गुरु की भाँति ताल के गुरु का चिह्न भी ही है । —(संगीत) ।९. वह व्यक्ति जो विद्या, बुद्धि बल, वय या पद में सबसे बडा़ हो । यौं०—गुरुजन । गुरुवर्य । १०. ब्रह्मा । ११. विष्णु । १२. शिव । १३. कौँछ । १४. पिता (को०) । १५. द्रोणाचार्य (को०) ।
⋙ गुरुप्रई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुरु+ अई(प्रत्य०)] दे० 'गुरुआई' ।
⋙ गुरुप्राइन
संज्ञा स्त्री [सं० गुरु + आइन(प्रत्य०)] १. गुरु की स्त्री । २. वह स्त्री जो शिक्षा देती हो ।
⋙ गुरुप्राई
संज्ञा स्त्री [सं० गुरु + आई(प्रत्य०)] १. गुरु का धर्म । २. गुरु का कृत्य । गुरु का काम । ३. चालाकी । धूर्तता ।
⋙ गुरुपानी
संज्ञा स्त्री० [हीं० गुरु + आनी(प्रत्य०)] दे० 'गुरुआइन' ।
⋙ गुरुकंठ
संज्ञा पुं० [सं० गुरुकण्ठ] मयूर । मोर [को०] ।
⋙ गुरुकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] कोई गंभीर कार्य । गंभीर महत्व का कार्य । २. आध्यात्मिक गुरु का कार्य । आचार्य का कार्य अथवा । आचार्य का पद [को०] ।
⋙ गुरुक
वि० [सं०] १. थोडा़ । भारी । २. दिर्घ (पिंगल) [को०] ।
⋙ गुरुकार
संज्ञा पुं० [सं०] उपासना । पूजा [को०] ।
⋙ गुरुकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० गुरुकुण्डली] फलित ज्योतिष में एक चक्र । विशेष—इसके द्वारा जन्मनक्षत्र के अनुसार एक एक वर्ष के लिये अधिपति ग्रह का निश्चय किया जाता है । इस चक्र के मध्य में गुरु अर्थात् बृहस्पति रखे जाते हैं और उनके आठ ओर आठ ग्रह रखे जाते हैं । इसी से चक्र की गुरुकुंडली कहते हैं ।
⋙ गुरुकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुरु, आचार्य या शिक्षक के रहने का वह् स्थान जहाँ वह विद्यार्थियों को अपने साथ रखकर शिक्षा देता हो । गुरुगृह । विशेष—प्राचीन काल में भारतवर्ष में यह प्रथा थी कि गुरु और आचार्य लोग साधारण मुनष्यों के निवासस्थान से बहुत दूर एकांत में रहते थे और लोग अपने बालकों को शिक्षा के लिये वहीं भेज देते थे । वे बालक, जबतक उनकी शिक्षा समाप्त न होती, बहीं रहते थे । ऐसे ही स्थानों को गुरुकुल कहते थे । २. प्राचीन परिपाटी के रहन सहन का विद्यालय ।
⋙ गुरुकृत
वि० [सं०] १. पूजित । मानित । २. अत्यधिक किया हुआ [को०] ।
⋙ गुरुक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] गुरुपरंपरा द्वारा दी जानेवाली शिक्षा [को०] ।
⋙ गुरुगंधर्व
संज्ञा पुं० [सं० संगीत शास्त्र में गुरुगन्धर्व] इंद्रताल के छह भेदों में से एक भेद ।
⋙ गुरुगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुरुकुल । २. धनु और मीन नामक राशियाँ [को०] ।
⋙ गुरुघ्न (१)
संज्ञा पुं०[ सं०] १. वह पापी जिसने अपने किसी गुरुजन को मार डाला हो । गुरु को मार डालनेवाला व्यक्ति । २. सफेद सरसों (को०) ।
⋙ गुरुघ्न (२)
वि० गुरु या गुरुजन को मार डालनेवाला [को०] ।
⋙ गुरुच
संज्ञा स्त्री० [सं० गुडूची] एक प्रकार की मोटी बेल जो रस्सी के रूप में बहुत दूर तक चली जाती है । विशेष— यह बेल पेड़ों पर चढी़ मिलती है और बहुत दिनों तक रहती है । इसकी पत्तियाँ पान के आकार की गोल गोल होती हैं । इसकी गाँठों में से जटाएँ निकलती हैं जो बढ़कर जड पकड़ लेती हैं । गुरुच दो प्रकार की देखने में आती है । एक में फल नहीं लगते । दूसरी में गुच्छों में मकोय की तरह के फूल, फल लगते हैं और उसके पत्ते कुछ छोटे होते हैं । गुरुच के डंठल का आयुर्वेदिक औषधियों में बहुत प्रयोग होता है । वैद्यक में गुरुच तिक्त, उष्ण, मलरोधक, अग्निदीपक तथा ज्वर, दाह, वमन कोढ़ आदि को दूर करनेवाली मानी जाती है । नीम पर की गुरुच दवा के लिये अच्छी मानी जाती है । इसे कूटकर इसका सत भी बनाते हैं । ज्वर में इसका काढा़ बहुत दिया जाता है । पर्या०—गुडूची । अमृतवल्ली । कुंडली । मधुपर्णी । सोमवल्ली । विशल्या । तंत्री । निर्जरा । वत्सादनी । छिन्नरुहा । अमृता । जीवतिका । उद्धारा । वरा । ज्वरारि । श्यामा । चक्रांगी । मधुपर्णिका । रसायनी । छिन्ना । भिषकप्रिया । चंद्रहासा । नागकुमारिका । छद्या ।
⋙ गुरुच खाप
संज्ञा पुं० [देश०] बढ़इयों का रंदे की तरह का एक औजार जिससे लकडी़ गोल की जाती है ।
⋙ गुरुचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुरु की सेवा [को०] ।
⋙ गुरुचांद्री
वि० [सं० गुरुचान्द्रीय] गुरु और चंद्रमाकृत । जो गुरु और चंद्रमा के योग से होता हो (ज्योतिष) । विशेष—ज्योतिष में बुहस्पति और चंद्रमा का कर्कराशि में होना ही गुरुचांद्री योग कहलाता है । जिसकी जन्मकुंडली में यह योग लग्न या दशम स्थान में पड़ता है वह दीर्घजीवी और भाग्यवान् होता है ।
⋙ गुरुज पु †
संज्ञा पुं० [फा० गुर्ज] दे० 'गुर्ज' । उ०—तीसर खड़ग कूँड़ पर लावा । काँध कुरुज हूत घाव न आवा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गुरुजन
संज्ञा पुं० [सं०] बडे़ लोग । माता पिता, आचार्य आदि ।
⋙ गुरुडम
संज्ञा पुं० [सं० गुरु + अं० डम (प्रत्य०)] गुरुआई का दंभ ।
⋙ गुरुतल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. विमाता से गमन करनेवाला पुरुष । विशेष—मनु ने ऐसे पुरुष को महापातकी लिखा है और उसके लिये यही प्रायश्चित्त या दंड लिखा है कि वह या तो लोहे की जलती हुए बरतन में सोकर या लोहे की जलती हुई स्त्री का आलिंगन करके मर जाए । २. गुरु की शैया (पत्नी) (को०) ।
⋙ गुरुतल्पग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुरुतल्प' ।
⋙ गुरुतल्पी
संज्ञा पुं० [सं० गुरुतल्पिन्] दे० 'गुरुतल्प' [को०] ।
⋙ गुरुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुरुत्व । भारीपन । २. महत्व । बड़प्पन । ३. गुरुपन । गुरु का कर्तव्य । गुरुआई ।
⋙ गुरुताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुरुता + ई (प्रत्य०) ] दे० 'गुरुता' ।
⋙ गुरुताल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत का एक ताल [को०] ।
⋙ गुरुतोमर
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद जो तोमर छंद के अंत में दो मात्राएँ रख देने से बन जाता है । जैसे,—सल और प्रसेन पुकारि कै । लरते भये धनु धारि कै ।
⋙ गुरुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारीपन । वजन । बोझ । विशेष— पदार्थ विज्ञान के अनुसार पदार्थों का गुरुत्व वास्तव में उस वेग या शक्ति की मात्रा है जिससे वह पृथ्वी की आकर्षण शक्ति द्वारा नीचे की ओर जाता है । वेग की इस मात्रा में उस अंतर का भी विचार कर लिया जाता है जो अक्ष पर घूमती हुई पृथ्वी के उस वेग के कारण पड़ता है जिससे वह पदार्थों को (केंद्र से) बाहर हटाती है । अतः आकर्षण वेग की मात्रा समुद्रतल और क्रांति वृत्त पर ३८५.१. और ध्रुव पर ३८७.१ इंच प्रति सेकंङ़ होती है । यह गुरुत्व वेग समुद्र- तल पर की अपेक्षा पहाङों पर कुछ कम होता है, अर्थात् उसमें प्रति दो मील की ऊँचाई पर सहस्त्रांश की कमी होती जाती है । किसी पदार्थ का वजन जितना क्रांतिवृत्त पर तौलने से होगा उससे ध्रुव पर उसे ले जाकर तौलने से १/१८१ वाँ भाग अधिक रहेगा । वैशेषिक सुत्र में रूप रस आदि केवल १७ गुण बतलाए हैं पर प्रशस्तपाद भाष्य में गुरुत्व, द्रवत्व आदि ६ गुण और बतलाए हैं । गुरुत्व को मूर्त और सामान्य गुण माना है, अर्थात् ऐसा गुण जो पृथ्वी, जल, वायु आदि स्थूल या मूर्त द्रव्यों में पाया जाता है तथा जो अनेक ऐसे द्रव्यों में रहता है । प्राचीन नैयायिक केवल जल और मिट्टी में ही गुरुत्व मानते थे । उनके मत से तेज, वायु आदि में गुरुत्व नहीं । सांख्य मतवाले गुरुत्व को तमोगुण का धर्म मानते हैं, सत्व या रजोगुण में गुरुत्व नहीं मानते । आजकल की परीक्षाओं द्वारा वायु आदि का गुरुत्व अच्छी तरह सिद्ध हो गया है । २. महत्व । बड़प्पन । ३. गुरु का काम ।
⋙ गुरुत्वकेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० गुरुत्वकेन्द्र] पदार्थ विज्ञान में पदार्थों के बीच वह विंदु जिसपर यदि उस पदार्थ का सारा विस्तार सिमटकर आ जाय तो भी गुरुत्वाकर्षण में कुछ अंतर न पडे़ । किसी पदार्थ में वह विंदु जिसपर समस्त वस्तु का भार एकत्र हुआ और कार्य करता हुआ मान सकते हैं । विशेष—इस गुरुत्वकेंद्र का पत्ता कई रीतियों से लग सकता है । वृत्ताकर या गोल वस्तुओं का केंद्र ही गुरुत्वकेंद्र होता है । पर बेडौल या विस्तार की वस्तुओं में गुरुत्वकेंद्र वह होता है । जिसे किसी नोकपर टिकाने से वह पदार्थ ठीक ठीक तुल जाय, इधर उधर झुका न रहे । प्रत्येक तराजू या तुला में इस प्रकार का गुरुत्वकेंद्र होता है ।
⋙ गुरुत्वलंब
संज्ञा पुं० [सं० गुरुत्वलम्ब] वह रेखा जो किसी पदार्थ के गुरुत्वकेंद्र से नीचे की ओर खींची जाय ।
⋙ गुरुत्वाकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वह आकर्षण जिसके द्वारा भारी वस्तुएँ पृथ्वी पर गिरती हैं । विशेष—इस आकर्षण शक्ति का थोडा़ बहुत पता भास्कराचार्य को १२०० संवत् में लगा था । उल्होंने अपने सिद्धांत शिरोमणि मे स्पष्ट लिखा है—'आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तया । आकृष्टते तत्पततीव भाति, समे समंतात् क्व पतत्वियं खे ।' अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है इसी से वह आकाशस्थ (निराधार) भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है; जो पदार्थ गिरते हैं वे पृथ्वी के आकर्षण से ही गिरते हैं । योरप में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का पता सन् १६८७ ई० में न्यूटन को लगा । उसने अपने अपने बगीचे में पेड़ से फल नीचे गिरते देखा । उसने सोचा कि यह फल जो ऊपर या अगल बगल की ओर न जाकर नीचे की ओर गिरा उसका कारण पृ्थ्वी ती आकर्षण शक्ति है । इस आकर्षण की विशेषता है कि यह उत्पन्न और नष्ट नहीं किया जा सकता और न कोई व्यवधान बीच में पड़ने से उसमें कुछ रुकावट या अंतर डालता है ।
⋙ गुरुदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्या पढ़ने पर जो दक्षिणा गुरु को दी जाय । आचार्य को दी जानेवाली भेंट । विशेष— जब लोग गुरु के पास विद्या पढ़ने जाते थे तब घर आने के समय गुरु को वही दक्षिणा देते थे जो गुरु माँगे और गुरु का भरपूर संतोष कर स्नातक की पदवी पाकर गृहस्थ होते थे ।
⋙ गुरुदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्य नक्षत्र ।
⋙ गुरुद्वारा
संज्ञा पुं० [सं० गुरु + द्वार] १. गुरु का स्थान । आचार्य या गुरु के रहने की जगह । २. सिखों का मंदिर या मठ ।
⋙ गुरुपत्र, गुरुपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] बंग धातु या राँगा [को०] ।
⋙ गुरुपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली का पेड़ [को०] ।
⋙ गुरुपाक
वि० [सं०] जो ठीक से न पच सके । देर से पचनेवाला [को०] ।
⋙ गुरुपुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति के दिन पुष्य नक्षत्र के पड़ने का योग । ज्योतिष में यह एक अच्छा योग माना जाता है ।
⋙ गुरुपूर्णिंमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आषाढ़ मास की पूर्णिमा जिस दिन गुरु की पूजा होती है [को०] ।
⋙ गुरुबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] संकीर्ण राग का एक भेद ।
⋙ गुरुबिनी पु
संज्ञा पुं० [सं० गुर्विणी] दे० 'गुर्विणी' ।
⋙ गुरुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुष्य नक्षत्र । २. मीन राशी । ३. धन राशि ।
⋙ गुरुभाई
संज्ञा पुं० [सं० गुरु + हि० भाई] दो या दो से अधिक ऐसे पुरुष जिनमें से प्रत्येक का गुरु वही हो जो दूसरे का । एक ही गुरु के शिष्य ।
⋙ गुरुभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. महत्व । बड़प्पन । २. भार [को०] ।
⋙ गुरुमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गुरुमन्त्र] गूरु का दिया हुआ मंत्र [को०] ।
⋙ गुरुमर्दल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ढोल या नगाड़ा [को०] ।
⋙ गुरुमुख
वि० [सं० गुरु + मुख] दीक्षित । जिसने गुरु से मंत्र लिया हो । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गूरुमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुर = मुखी] गुरु नानक की चलाई हुई एक प्रकार की लिपि । विशेष— **यह पंजाब में प्रचलित है और देवनागरी का परिवर्त्तित रूप मात्र हैं ।
⋙ गुरुर्वात, गुरुवर्तिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुरु या गुरुजन के प्रति संमानपूर्ण आचरण ।
⋙ गुरुरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. पोखराज नाम का रत्न । २. गोमेद नाम का रत्न ।
⋙ गुरुवर्चोघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] चूना [को०] ।
⋙ गुरुवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० गुरुवर्तिन्] वह ब्रह्मचारी जो गुरु के यहाँ निवास करता हो [को०] ।
⋙ गुरुवार
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति का दिन । बृहस्पति । बीफै । सप्ताह का पाँचवाँ दिन । विशेष—बृहस्पति जो देवताओं के गुरु थे इसी से गुरु शब्द से बृहस्पति का ग्रहण होता है ।
⋙ गुरुवासर
संज्ञा पुं० गुरुवार । बीफै ।
⋙ गुरुवासी
संज्ञा पुं० [सं० गुरुवासिन्] गुरुगृह में रहनेवाला शिष्य । अंतेवासी [को०] ।
⋙ गुरुवृत्ति
संज्ञा स्ञी० [सं०] १. शिष्य का गुरु के प्रति कर्तव्य । २. गुरुआई [को०] ।
⋙ गुरुव्यथ
वि० [सं०] अत्याधिक दुःखी [को०] ।
⋙ गुरुशिखरी
संज्ञा पुं० [सं० गुरुशिखरिन्] हिमालय [को०] ।
⋙ गुरुश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंत्रस्वरूपा गायत्री [को०] ।
⋙ गुरुसमुत्थ
वि० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र में कथित (राष्ट्र या राजा) जो लड़ाई के लिये बड़ी मुश्किल से तैयार हो ।
⋙ गुरुसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्व जो उस समय लगता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर आता है । उ०— सुनो प्रभास महातम राजा । अघ कहँ हरत पुन्य कर ताजा । गोदावरि गुरुसिंह नहाई कुंभ माहि हरि क्षेत्र सुहाई ।—गि० दा०,(शब्द०) । विशेष— इस पर्व में नासिक क्षेत्र की यात्रा और गोदावरी नदी का स्नान पुराय समझा जाता है ।
⋙ गुरुस्व
संज्ञा पुं० [सं०] गुरु की संपत्ति [को०] ।
⋙ गुरु
संज्ञा पुं० [सं० गुरु] गूरु । अध्यापक । आचार्य । यौ०—गुरुघंटाल = (१) बड़ा भारी चालाक । अत्यंत चतुर । (२) धूर्त । चालबाज ।
⋙ गुरेट
संज्ञा पुं० [हि० गुर, गुड़ = बेंट] चार पाँच हाथ के डंड़े में लगा हुआ एक प्रकार का बेलन जिससे कड़ाह में पकता हुआ ईख का रस चलाया जाता है ।
⋙ गुरेरना †
क्रि० सं० [सं० गुरु = बड़ा + हेरना = ताकना] आँखें फाड़कर देखना । घूरना । यौ०—गुरेरा गुरेरी = एक दूसरे को क्रोध से देखना ।
⋙ गुरेरा पु
संज्ञा पुं० [हि० गुलेला] दे० 'गुलेला' । उ०— वेई गाड़ि गाड़ै परीं उपटयौ हार हिये न । आन्यौ मोरि मतंग मनु मारि गुरेरनि मैन ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गुर्ग
संज्ञा पुं० [फा़०] भेड़िया ।
⋙ गुर्गआशनाई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] कपटपूर्ण मित्रता । ऊपर से मित्रता भीतर से छल ।
⋙ गुर्गा
संज्ञा पुं० [हि० गुरगा] दे० 'गुरगा' ।
⋙ गुर्ज
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुर्ज] गदा । सोटा । उ०—कोइ कूकर शूकर पर कोई । कर मे गुर्ज भयानक सोई ।—(रघुनाथ शब्द०) । यौ०—गुर्जदार = गदाधारी सैनिक ।
⋙ गुर्ज
संज्ञा पुं० [फ़ा० बुर्ज] कोट या शहरपनाह की दीवार का वह स्थान जो कुछ गोलाकार बना दिया जाता है । यहा पर योद्धाओं के लिये विशेष ओट होती है जिसमें छिपे छिपे वे आक्रमणकारी शत्रु पर वार कर सकते है । गुर्जा । बुरज । उ०—कंचन कोट कँगूरे कलशा गोपुर गुर्ज दुआरा ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गुर्जना
क्रि० सं० [हि० गर्जना] १. गर्जना । गर्जन करना । २. डाँटना फटकारना ।
⋙ गुर्जबरदार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गदाधारी सैनिक ।
⋙ गुर्जमार
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुर्ज + हि० मार] एक प्रकार के मुसलमान फकीर जो लोहे का गुर्ज लिए रहते है । विशेष-ये दूकानों पर माँगते फिरते हैं । यदि ये कही कुछ नहीं पाते है तो उसी गुर्ज से वे अपनी आँख या और किसी अंग पर आघात करते हैं । इन्हें मुँड़चिरे भी कहते हैं ।
⋙ गुर्जर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुजरात देश । २. गुजरात देश का निवासी । ३. एक जाति । गूजर ।
⋙ गुर्जराट
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर + राष्ट्र] गुजरात देश ।
⋙ गुर्जरी
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुजरात देश की स्त्री । २. भैरव राग की स्त्री । विशेष—यह संपूर्ण जाति की रागिनी है । इसमें तीव्र मध्यम और शेष सब स्वर कोमल लगते हैं । यह रामकली और ललित को मिलाकर बनती है । इसके गाने का समय दिन में १०. दंड से १६ दंड तक है । ३गूजर जाति की स्त्री [को०] । यौ०—गुर्जरी टोड़ी = संपू्र्णा जाति का एक राग जिसमें सब कोमल स्वर लगती है ।
⋙ गुर्जा
संज्ञा स्त्री० [हि० गुर्ज का अल्पा०] छोटा गुर्ज ।
⋙ गुर्द
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गुर्दिस्तान का निवासी ।
⋙ गुर्दा
संज्ञा पुं० [हि० गुरदा] दे० 'गुरदा' ।
⋙ गुर्दिस्तान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] फारस के उत्तर का एक प्रदेश जिसका कुछ भाग आजकल रूम राज्य के अंतर्गत पड़ता है । इसे कुर्दिस्तान भी कहते हैं ।
⋙ गुर्र
संज्ञा स्त्री० [अनु० या हिं० गुर्राना] गुर्राहट ।
⋙ गुर्रा (१)
संज्ञा पुं० [हि० गुर्री] वह रस्सी जिससे धुनिया धनुही का फरहा कसते हैं ।
⋙ गुर्रा (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] १. मौन । चुप्पी । सन्नाटा । क्रि० प्र०—खींचना = सं० मारना । दस साधना ।
⋙ गुर्रा (३)
संज्ञा पुं० [अ० गुरह्] १. मुहर्रम महीने की द्बितीया का चाँद । द्वितीया तिथि । २. तातील । नागा । मुहा०—गुर्रा करना = (१) तातील करना । छुट्टी करना । (२) लंघन करना । फाका करना । गुर्रा देना = (१) नागा करना ।(२) लंघन करना । फाका करना । गुर्रा बताना = (१) तातील का वादा करना । (२) नागा करना । (३) लंघन करना । (४) टालटूल करना ।
⋙ गुर्रा (४)
संज्ञा पुं० [अनु०] ऐंठन । मोड़ । मरोड़ । क्रि० प्र०—देना = उमेठना । मरोड़ देना ।
⋙ गुर्रादार
वि० [हि० गुर्रा + फ़ा० दार (प्रत्य०)] ऐंठनदार । मरोड़दार ।
⋙ गुर्राना
क्रि० अ० [अनु०] क्रोधवश गले से भारी आवज निका— लना । डराने के लिये घुर-घुर की तरह गंभीर शब्द करना । (जैसा, कुत्ते बिल्ली आदि करते हैं ।) जैसे, कुत्ता गुर्राकर चढा़ बैठा । २. क्रोध या अभिमान के कारण भारी और कर्कश स्वर से बोलना । जैसे,—तुम काम भी बिगाड़ते हो और कहने से गुर्राते हो ।
⋙ गुर्राहट
संज्ञा स्त्री० [हि० गुर्राना] गुर्राने की क्रिया ।
⋙ गुर्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] भुने हुए जौ ।
⋙ गुर्वादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य और बृहस्पति का एक राशी पर गमन । गुर्वस्त । विशेष—विवाह आदि शुभ कार्य इस योग में वर्जित हैं ।
⋙ गुर्विणी
वि० स्त्री० [स०] १. सगर्भा । गर्भवती । उ०— प्रियतमा पतिदेवता जेहिं उमा रमा सिहाहि । गुर्वीणी सुकुमारि सिय तियमणि समुझि सकुचाहिं ।—तुलसी (शब्द०) । २. बड़ी या श्रेष्ठ स्त्री (को०) । ३. गुरु की पत्नी (को०) ।
⋙ गुर्वी (१)
वि० स्त्री० [सं०] गर्भवती । गर्भिणी ।
⋙ गुर्वी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ी या श्रेष्ठ स्त्री । उ०—निगम आगम अगम गुर्वि तव गुण कथन उर्विधर करत जेहि सहस जीहा ।— तुलसी (शब्द०) । २. गर्भिणी । अंतःसत्वा । ३. गुरुपत्नी (को०) ।
⋙ गुलंट
संज्ञा पुं० [सं० गुलञ्च] एक प्रकार का कंद ।
⋙ गुलंचा †
संज्ञा पुं० [सं० गुड़्ची] दे० 'गुरुच' ।
⋙ गुलंदाज पु
संज्ञा पुं० [हि० गोलंदाज] दे० 'गोलंदाज' ।
⋙ गुल (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. गुलाब का फूल यौ०—गुलकंद । गुलरोगन । २. फूल । पुष्प । यौ०—गुलदान । गुलदस्ता । गुलकारी, आदि । मुहा०-गुल खिलना = (१) विचित्र घटना होना । अदभुत बात होना । ऐसी बात होना जिसका अनुमान पहले से लोगों को न हो । मजेदार बात होना । कोई ऐसी घटना होना जिससे लोगों को कुतूहल हो । (२) बखेड़ा खड़ा होना । उपद्रव मचना ।—जैसे,—हमने उसकी सारी करतूत उसके घर कह दी है, देखों कैसा गुल खिलता है । गुल खिलाना = (१) विचित्र घटना उपस्थित करना । ऐसी बात उपस्थित करना जिसका अनुमान पहले से लोगों को न हो । (२) बखेड़ा खड़ा करना । उपद्रप मचाना । गुल कतरना = (१) कागज या कपड़े आदि के बेल बूटे बनाना । (२) कोई विलक्षण या अनोखा काम करना । गुल खिलाना । ३. पशुओं के शरीर में फूल के आकार का भिन्न रंग का गोल दाग । क्रि० प्र०—पड़ना । ४. फूल के आकार का वह गड्ढा जो फूले हुए गालों में हँसने आदि के समय पड़ता है । क्रि० प्र०-पड़ना । ५. वह चिह्न जो मनुष्य या पशु के शरीर पर गरम की हुई धातु आदि के दागने से पड़ता है । दाग । छाप । मुहा०—गुल खिलना = अपने शरीर पर गरम धातु से दगवाना । क्रि० प्र०—दागना ।-देना । ६. दीपक आदि में बत्ती का वह अंश जो बिलकुल जल जाता है । क्रि० प्र० = काटना ।—झड़ना ।—पड़ना । यौ०—गुलगीर = चिराग का गुल काटने की कैंची । मुहा०—(चिराग)गुल करना = (चिराग) बुझाना या ठंढा करना । (चिराग) । गुल होना = (चिराग) बुझना । ७. तमाकू का वह जला हुआ अंश जो चिलम पीने के बाद बच रहता है । जट्ठा । ८. जूते के तले का चमड़ा जो एड़ी के नीचे रहता है और जिसमें नाल आदि लगाई जाती है । जूते का पान । क्रि० प्र०—लगना ।—जड़ना । ९. कारचोबी की बनी हुई फूल के आकार की बड़ी टिकुली जिसे कहीं कहीं स्त्रियाँ सुंदरता के लिये कनपटी पर लगाती हैं । १०. चूने की वह गोल बिंदी जो आँखे दुखने के समय उनकी लाली दूर करने के लिये कनपटियों पर लगाते हैं । क्रि० प्र०—लगाना । ११. किसी चीज पर बना हुआ भिन्न रंग का कोई गोल निशान । क्रि० प्र०—पड़ना ।—बनना । १२. आँख का डेला । १३. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना । १४. जलता हुआ कोयला । अंगारा । मुहा०—गुल बँधना = (१) आग का अच्छी तरह सुलग जाना । (२) पास में कुछ धन हो जाना । कुछ पूँजी हो जाना । १५. कोमले या गोबर का बना हुआ छोटा गोला जिसे आग को अधिक देर तक रखने के लिये अँगीठी आदि में राख के नीचे गाड़ देते हैं । १६. सुंदरी स्त्री । नायिका ।
⋙ गुल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. हलवाई का भट्ठा । २. खेतों में बहुत दूर तक पानी ले जाने के लिये बना हुआ वह बरहा जो जमान से कुछ ऊँचा होता हैं । ३. आँख और कान के बीच का स्थान । कनपटी । उ०—गुल तासु गोली सों फुटी । कर की न बाग तऊ छुटी ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गुल (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुड़ । २. लिंग या शिश्न का अग्र भाग । ३. भगनासा (को०) ।
⋙ गुल (४)
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल] शोर । हल्ला । यौ०—गुलगपाड़ा ।
⋙ क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।
⋙ गुलअंदाम
वि० [फ़ा०] फूल जैसा कोमल । मृदुल । पुष्पांगी । पुष्पांगना ।
⋙ गुलअकीक
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल +अ० अकी़क़] एक प्रकार का फूलदार पौधा । विशेष—इसके बीसियों भेद पाए जाते हैँ । यह प्रायः फाल्गुन, चैत या सावन भादों में लगाया जाता है ।
⋙ गुलअजायब
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + अ० अजायब < अजीब का बहु०,] १. एक प्रकार का फूल । इस फूल का पौधा ।
⋙ गुल अनार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अनार का फूल ।
⋙ गुल अब्बास
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + अ० अब्बास] अब्बास नाम का पौधा । जिसमें बरसात के दिनों में लाल या पीले रंग के फूल लगते हैं ।
⋙ गुल अब्बासी
वि० [फ़ा० गुल +अब्बास + ई (प्रत्य०)] हलकी स्याही लिए हुए एक प्रकार का खुलता लाल रंग । विशेष—यह ४ छँटाक शहाब के फूल, १/२ छंटाक आम की खटाई और ८-९ माशे नील के मिलाने से बनता है । इसमें यदि नील की मात्रा बढा़ने जायँ तो क्रमशः करौंदिया, किरमिजी, अबीरी और सौसनी रंग बनता जाता है ।
⋙ गुल अशर्फी
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल अशर्फी] एक प्रकार का पीले रंग का फूल ।
⋙ गुल आतशी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गहरे लाल रंग का गुलाब ।
⋙ गुलउर †
संज्ञा पुं० [हि० गुलौर] दे० 'गुलौर' ।
⋙ गुल औरंग
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का गेंदा ।
⋙ गुलकंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलकंद] मिस्त्री या चीनी में मिली हुई गुलाब के फूलों की पंखुरियाँ जो धूप की गरमी से पकाई जाती हैं । इनका व्यवहार प्रायः दस्त साफ लाने के लिये होता है । विशेष— सेवती के फूलों का जो गुलकंद बनता है उसकी तासीर ठंढी होती है । इसमें विशेषता यह है कि इसे चंद्रमा की चाँदनी में सिद्ध करते हैं ।
⋙ गुलकट
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + हि० काटना] शीशम की लकड़ी का बना हुआ छीपियों का एक प्रकार का ठप्पा जिससे कपड़े पर बेल बूटे छापे जाते हैं ।
⋙ गुलकदा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलकदह्] १. फुलवारी । बगीचा । २. वह घर जहाँ अत्याधिक फूल हों ।
⋙ गुलकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] किसी प्रकार के बेल बूटे बनानेवाला कारीगर ।
⋙ गुलकारी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. किसी प्रकार के बेलबूटे या फूल पत्ती इत्यादि बनाने, तराशने या काढ़ने का काम । २. कोई ऐसा काम जिसमें बेल बूटे आदि बने हों ।
⋙ गुलकेश
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + केश] १. मुर्गकेश का पौधा । कलगा । २. मुर्गकेश या कलगे का फूल । उ०— जो गुलकेश के फूल सराहै । मैन तुरीन के जीन झबाहैं ।— गुमान (शब्द०) ।
⋙ गुलखन
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलखन] १. भट्ठी । भाड़ । २. चूल्हा ।
⋙ गुलखैरू
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + खँरू] १. एक पौधा जिसमें नीले रंग के फूल लगते हैं । २. इस पौधे का फूल ।
⋙ गुलगचिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गिलगिलिया' ।
⋙ गुलगपाड़ा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + हिं० गप्प] बहुत अधिक चिल्लाहट । शोर । गुल । हल्ला ।
⋙ गुलगश्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बाग की सैर ।
⋙ गुलगीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] चिराग का गुल कतरने की कैंची ।
⋙ गुलगुल
वि० [हिं० गुलगुला] नरम । मुलायम । कोमल ।
⋙ गुलगुला (१)
वि० [हिं० गुदगुदा] कोमल । नरम । मुलायम ।
⋙ गुलगुला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + गोला] १. एक प्रकार का पकवान । विशेष—यह खमीरी आटे या मैदे के लड्डू के आकार के गोल टुकड़े बनाकर घी या तेल में पकाने से बनता है । यह प्रायः मीठा और कभी कभी नमकीन भी होता है । २. कनपटी । आँख और कान के बीच का वह स्थान जहाँ आँख के कुछ रोगों को रोकने के लिये गुल लगवाए जाते हैं ।
⋙ गुलगुला (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो प्रायः ऊसर जमीन में उगती है ।
⋙ गुलगुलाना †
क्रि० सं० [हिं०गुलगुल] १. किसी गूदेदार या उसी प्रकार की और किसी चीज को दबा या मलकर मुलायम करना । जैसे,—रस चूसने के लिये आम गुलगुलाना । २. गुदगुदाना ।
⋙ गुलगुलिया (१) †
संज्ञा पुं० [?] बंदर नचानेवाला । मदारी ।
⋙ गुलगुलिया (२) †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी । गिलगिलिया ।
⋙ गुलगुली (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली । विशेष—यह हिमालय के झरनों में बहुत पाई जाती है और लगभाग दो हाथ तक लंबी होती है । इसका मांस बहुत काँटेदार होता है ।
⋙ गुलगुलो (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुलगुलाना] दे० 'गुदगुदी' ।
⋙ गुलगुली (३) †
वि० [हिं० गुलगुलाना] मुलायम । कोमल । उ०— झालरनदार झुकि झूमत बितान बिछे गहब गलीचा अरु गुलगुली गिलमै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११७ ।
⋙ गुलगूँ
वि० [फ़ा०] गुलाबी रंग का । गुलाबी ।
⋙ गुलगूना
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलगूनह] एक प्रकार का उबटन । विशेष—इसका व्यवहार स्त्रियाँ सौंदर्यवृद्धि के लिये अपने चेहरे पर करती हैं ।
⋙ गुलगोथना
संज्ञा पुं० [हिं० गुलगुल + तन] ऐसा नाटा मोटा आदमी जिसके गाल आदि अंग खूब फूले हों । वह जिसका शरीर खूब भरा और फूला हो । मुहा०—गूलगोथना सा = मोटा ताजा । फूले हुए गालवाला ।
⋙ गुलचना †पु
क्रि० सं० [हिं० गुलचा] गुलचा मारना ।
⋙ गुलचमन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] फूलों का बाग ।
⋙ गुलचश्म
संज्ञा पुं० [हिं० गोला + चलाना] गोना चलानेवाला । तोप दागनेवाला । तोपची ।
⋙ गुलचश्म
वि० [फ़ा०] जिसकी आँख में फूली हो ।
⋙ गुलचाँदनी
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + हिं० चाँदनी] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें फूल लगते हैं । २. इस पौधे का फूल जो रंगत में सफेद होता और प्रायः रात को खिलता है ।
⋙ गुलचा
संज्ञा पुं० [हिं० गाल] हाथ की उँगलियों से या मुट्ठी बाँध— कर धीरे से और प्रेमपूर्वक किया हुआ आघात । क्रि० प्र०—खाना ।—देना ।—पड़ना ।—मारना ।—लगाना ।
⋙ गुलचाना †पु
क्रि० सं० [हिं० गुलचा + ना] गुलचा मारना या लगाना ।
⋙ गुलचियाना †पु
क्रि० सं० [हिं० गुलचा] दे० 'गुलचाना' ।
⋙ गुलचीं
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १.फूल चुननेवाला, माली । २. एक सदाबहार का फूल । ३. उक्त फूल का पेड़ ।
⋙ गुलची
संज्ञा स्त्री० [?] रंदे की तरह बढ़इयों का एक औजार जिससे लकड़ी मे गलता बनाया जाता है ।
⋙ गुलचोन
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष । विशेष—यह कलम से लगाया जाता है और बारहों महीने फूलता है । इसका पेड़ बड़ा होता है और पत्ते बहुत कड़े तथा लंबे होते हैं । २. इस वृक्ष का फूल । विशेष—यह ऊपर से सफेद और भीतर की ओर कुछ पीले रंग का होता है और इसमें चार पंखुरियाँ होती हैं । कहते हैं, इस फूल को अधिक सूँघने से पीनस रोग हो जाता है ।
⋙ गुलचीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] फूल चुनना ।
⋙ गुलछर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० गोली + छर्रा] वह भोग विलास या चैन जो बहुत स्वच्छंदतापूर्वक और अनुचित रीति से किया जाय । मुहा०—गुलछर्रै उड़ाना = नि्र्द्वद्व रूप से अनुचित और बहुत भोग विलास करना ।
⋙ गुलजलील
संज्ञा पुं० [फ़ा०] असबर्ग का फूल जिससे रेशम रँगा जाता है और जो खुरासान से आता है ।
⋙ गुलजार (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलजार] बाग । बाटिका ।
⋙ गुलजार (२)
वि० हरा भरा । आनंद और शोभायुक्त । जो देखने में बहुत भला मालूम हो । चहल पहल से भरा । जैसे,—उसके रहने से सारा महल्ला गुलजार रहता था ।
⋙ गुलझटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोल + सं झट = जमाव] १. तागे आदि की वह उलझन जो बैठकर गोली के आकार की हो जाती है । उलझन की गाँठ । मुहा०—गुलझटी पड़ना = जी में गाँठ पड़ना । मनोमलिन्य होना । गुलझटी निकलना = मनोमालिन्य दूर करना । २. सिकुड़न । शिकन । क्रि० प्र०—पड़ना ।—निकलना ।
⋙ गुलझडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुलझटी] दे० 'गुलझटी' ।
⋙ गुलटप्पा †
संज्ञा पुं० [देश०] गप्प ।
⋙ गुलतराश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. वह कैंची जिससे चिराग का गुल काटते हैं । २. वह नौकर जो चिराग का गुल काटता है । ३. वह कैंची जिससे माली लोग बाग के पौधों को कतरते या छाँटते हैं । बाग के पौधों की काटने छाँटनेवाला माली । ५. संगतराशों का वह औजार जिससे वे पत्थरों पर फूल पत्तियाँ बनाते है । विशेष—इसका आकार नहरनी का सा होता है और इसमें लकड़ी का दस्ता लगा रहता है ।
⋙ गुलता
संज्ञा पुं० [हिं० गोल] मिट्टि की बनी हुई वह गोली् जो गुलेले से छोड़ी जाती है ।
⋙ गुलतुर्रा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कलगा नाम के पौधे का फूल जो गहरे लाल रंग का होता है । मुर्गकेश । जटाधारी ।
⋙ गुलत्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुलथी] उबाला हुंआ चावल जो भात से अधिक गीला और गला हो । विशेष—यह प्रायः बच्चों और पेट के रोगियों को दिया जाता है ।
⋙ गुलथी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोल + सं० अस्थि] पानी ऐसी पतली वस्तुओं के गाढ़े होकर स्थान स्थान पर जमने से बनी हुई गुठली या गोली ।
⋙ गुलदस्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलदस्तह्] १. एक विशेष प्रकार से बाँधा हुआ कई प्रकार के सुंदर फूलों और पत्तियों का समूह जो सजावट या किसी को उपहार देने के काम में आता है । फूलों का गुच्छा । २. वह घोड़ा जिसका अगला बाँया पैर गाँठ तक सफेद हो और दहिने पैर का रंग पिछले दोनों पैरों के रंग के समान हो । विशेष—ऐसा घोड़ा ऐबी नहीं समझा जाता ।
⋙ गुलदाउदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल+दाउदौ] १. एक प्रकार का छोटा पौधा जिसकी लंबी कटावदार पत्तियों में भी उसके फूल की भाँति हलकी भीनी खुशबू होती है । विशेष—कर्तिक अगहन में इसमें कई रंग के छोटे और बड़े फूल लगते है जो देखने में बहुत सुंदर होते हैं । वर्षा के पानी में यह पेड़ नष्ट हो जाता है इसलिये लोग इसे गमलों में लगाकर छाया में रखते हैं । २. इस पौधे का फूल ।
⋙ गुलदान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गुलदस्ता रखने का पात्र । विशेष—गुलदान प्रायः लंबोतरा और चीनी मिट्टी, काँच या इसी प्रकार के किसी और पदार्थ का बनाया जाता है । इसके ऊपर शोभा के लिये अच्छा पालिश करके रंग बिरंगे बेल बूटे बना देते हैं ।
⋙ गुलदाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलदानह्] बुँदिया नाम की मिठाई जिससे लडड़ू भी बनते हैँ ।
⋙ गुलदार (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक प्रकार का सफेद रंग का कबूतर जिसपर लाल या काले रंगे के छोटे छोटे कई चिह्न होते हैं । २. एक प्रकार का कसीदा । ३. चीता ।
⋙ गुलदार (२)
वि० जिसपर गोल फूल के आकार के कुछ चिह्न बने हों । फूलदार ।
⋙ गुलदावदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुलदाउदी]दे० 'गुलदाउदी' ।
⋙ गुलदुपहरिया
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल +हिं० दुपहरिया] १. एक प्रकार का पौधा जो दो ढाई हाथ ऊँचा होता है । विशेष-इसकी एक सीधी डाल होती है और इसमें चारों ओर टहनियाँ नहीं निकलतों । इसकी पत्तियाँ लंबी और कटावदार होती हैं और उनका रंग कालापन लिए हुए गहरा हरा होता है । २. इस पौधे का फूल जो कटोरे के आकार का और गहरे लाल रंग का होता है । विशेष—इसका घेरा एकहरे दल का होता है । यह फूल अधिक धूप चढ़ने पर फूलता है । कुछ लोग भूल से सूरजमुखी को भी गुलदुपहरिया कहते हैं ।
⋙ गुलदुम
संज्ञा [फ़ा०] बुलबुल ।
⋙ गुलनरगिस
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] एक प्रकार की लता ।
⋙ गुलनार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. अनार का फूल । २. एक प्रकार का रंग जो अनार के फूल का सा गहरा लाल होता है । विशेष—यह रंग रँगने के लिये कपड़े को पहले हलदी में और तब शहाब में रंगते हैं । ३. एक प्रकार का अनार । विशेष—इसमें फल नहीं लगते, केवल बड़े बड़े सुंदर फूल ही लगते हैं ।
⋙ गुलपपड़ी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल + हिं० पपड़ी] सोहन हलुवे की तरह की एक मिठाई जिसे पपड़ी भी कहते हैं ।
⋙ गुलप्यादा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलप्यादह्] सदागुलाब । (इस गुलाब) में महक कम होती है ।)
⋙ गुलफानूस
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलफानूस] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जो शोभा के लिये लगाया जाता है ।
⋙ गुलफा़म
वि० [फ़ा० गुलफा़म] जिसके शरीर का रंग फूल के समान हो । सुंदर । खूबसूरत ।
⋙ गुलफिरकी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल + हिं० फिरकी] एक प्रकार का बड़ा पौधा जिसमें गुलाबी रंग के फूल लगते हैं ।
⋙ गुलफिशाँ (३)
वि० [फ़ा० गुलफिशाँ] १. फूल बिखेरनेवाला । २. मधुर बात कहनेवाला । सुवक्ता ।
⋙ गुलफिशाँ (२)
संज्ञा पुं० १. फुलझड़ी । २. गुलाब छिड़कने की शीशी ।
⋙ गुलफिशानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलफिशानी] १. फूल बरसाना । २. मधुर बात का कथन । खुशबयानी ।
⋙ गुलफुँदना
संज्ञा पुं० [हिं० गोल+ फुँदना] एक प्रकार की घास जो खेतों में उगती है ।
⋙ गुलबकावली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल +सं० बकावली] १. एक प्रकार का पेड़ । विशेष—यह नर्मदा नदी के उदगम के पास अमरकंटक के वन में होता है । यह हल्दी के पेड़ से मिलता जुलता है । १. इस पौधे का फूल । विशेष-यह रंगत में सफेद और बहुत सुगंधित होता है । जिस प्रांत में यह होता है उस प्रांत के लोग इसे पीसकर आई हुई आँखों पर लगाते हैं । कहते हैं, यह आँख के कई रोगों की अच्छी दवा है । ३. उर्दू की एक प्रसिद्ध कहानी [को०] । विशेष-गुलबकावली के संबंध में लोगों में कई तरह की दंत— । कथाएँ प्रसिद्ध हैं ।
⋙ गुलबक्सर
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + देश० बक्सर] नकस के खेल में एक प्रकार की जीत की बाजी जो एक खिलाड़ी के हाथ में दो बादशाह और एक एक्का या दो बेगमें और एक एक्का आ जाने से बनती है । (जुआरी) । मुहा०—गुल फँसना = (किसी खेलाड़ी के) दो बादशाहों या बेगमों के बीच में एक एक्का मिलना ।
⋙ गुलबदन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का बहुमूल्य रेशमी कपड़ा जो प्रायः लहरियादार या धारीदार होता है । विशेष—यह पहले केवल लाल या गुलाबी रंग का होता और काशी में बनता था, पर अब यह सब रंगों का और पंजाब के कुछ नगरों में भी बनने लगा है ।
⋙ गुलबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलबाजी] एक दूसरे के ऊपर फूल फेंकना । फूलों का खेल । पुष्पक्रीडा़ ।
⋙ गुलबादला
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ऊदल नांम का पेड़ जिसके रेशों से मोटे रस्से बनते हैं । बूटी ।
⋙ गुलबूटा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + हिं० बूटा] (किसी चीज पर बनाया हुआ) बेलबूटा । नक्काशी ।
⋙ गुलबेल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल + हिं० बेल] एक प्रकार की लता ।
⋙ गुल मखमल
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलमखमल] १. एक प्रकार का पौधा जिसके बीजों से पहले पनीरी तैयार करके तब पौधे लगाए जाते हैं । २. इस पौधे का फूल जो देखने में मखमल की घुंडियों के समान जान पड़ता है । विशेष—यह सफेद लाल और पीला कई रंग का तथा बहुत मुलायम और चिकना होता है ।
⋙ गुलमा (१)
संज्ञा पुं० [?] मसालेदार कीमा भरी हुई बकरी की अँतड़ी दुलमा । लँगूचा ।
⋙ गुलमा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुल्म] [स्त्री० गुलमी] वह गोल कड़ी सूजन जो चोट लगने से सिर या मत्थे पर होती है ।
⋙ गुलमेंहदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुल + हिं० मेंहदी] १. एक प्रकार का पौधा जो कुआर में फूलता है । २. इस पौधे के फूल जो कई रंगों का होता है ।
⋙ गुलमेख
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलमेख] वह कील जिसका सिरा फूल के आकार का गोल होता है । फुलिया ।
⋙ गुलमोहर
संज्ञा पुं० [अ० गोल्डमोर] एक बड़ा फूलदार वृक्ष । विशेष—इसमें गरमी के दिनों में फल आते हैं जो गुच्छों में लगते हैं और कई मास तक रहते हैं ।
⋙ गुलरंग
वि० [फ़ा०] गुलाब के फूल जैसे रंग का । गुलाबी ।
⋙ गुलरुख
[फ़ा० गुलरुख] वि० दे० 'गुलरू' ।
⋙ गुलरू
वि० [फ़ा०] फूल के समान आकृतिवाला । सुंदर । खूबसूरत ।
⋙ गुलरेज (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलरेज] १. आतिशबाजी की एक प्रकार की फुलझड़ी । विशेष—इससे से कई तरह के बड़े बड़े फूल झड़ते है । यह शोरा, गंधक, कोयला, लोहचून और बारूद मिलाकर बनती है । २. एक कपड़ा ।
⋙ गुलरेज (२)
संज्ञा पुं० फूल बरसानेवाला ।
⋙ गुललाला
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुललालह्] १. एक प्रकार का पौधा जो पोस्ते के पौधे के समान होता है । २. इस पौधे का फूल जो लाल रंग का, बहुत सुहावना और कोमल होता है । दे० 'गुल्लाला' ।
⋙ गुलशकर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] गुलकंद ।
⋙ गुलशकरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. चीनी और गुलाब के फूल से बनी हुई मिठाई । २. गँगेरन ।
⋙ गुलशन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वाटिका । बाग । फुलवारी ।
⋙ गुलशब्बो
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. लहसुन से मिलता जुलता एक प्रकार का छोटा पौधा जिसको रजनीगंधा, सुगंधराज भी कहते हैं । २. इस पौधे का फूल, जो सफेद रंग का और बहुत सुगंधित होता है । यह रात के समय फूलता है । ३. एक खेल जो चिराग बुझाकर खेला जाता है । इसमें लोग एक दुसरे को चपत लगाते हैं ।
⋙ गुलसुम
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + हिं० सुमन] सोनारों का, नक्काशी करने का, एक औजार जिससे वे फूल आदि बनाते हैं ।
⋙ गुलसौसन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का फूल जो हलके आसमानी रंग का होता है । यह फारस में बहुत होता है ।
⋙ गुलह जारा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलह् जारह्] एक प्रकार का गुललाला ।
⋙ गुलहथी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुलत्थी] दे० 'गुलत्थी' ।
⋙ गुलाब
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक झाड़या कँटीला पौधा जिसमें बहुत सुंदर सुगंधित फूल लगते हैं । विशेष—गुलाब के सैकड़ों भेद होते हैं पर मुख्य ३० जतियाँ मानी गई हैं । गुलाब प्रायः सर्वत्र १९ से लेकर ७० अक्षांश तक भूगोल के उत्तरार्ध में होता है । भारतवर्ष में यह पौधा बहुत दिनों से लगाया जाता है और कई स्थानों में जंगली भी पाया जाता है । कश्मीर और भूटान में पीले फूल के जंगली गुलाब बहुत मिलते हैं । वन्य अवस्था में गुलाब में चार पाँच छितराई हुई पंखड़ियों की एक हरी पंक्ति होती है पर बगीचों में सेवा और यत्नपूर्वक लगाए जाने से पंखड़ियों की संख्या में बृद्धि होती है पर केसरों की संख्या घट जाती हैं । कलम पैबंद आदि के द्बारा सैकड़ों प्रकार के फूलवाले गुलाब भिन्न भिन्न जातियों के मेल से उत्पन्न किए जाते हैं । गुलाब की कलम ही लगाई जाती है । इसके फूल कई रंगों के होति हैं, लाल (कई मेल के हलके गहरे) पीले, सफेद इत्यादि । सफेद फूल के गुलाब को सेवती कहते हैं । कहीं कहीं हरे और काले रंग के भी फूल होते हैं । लता की तरह चढ़नेवाले गुलाब के झड़ भी होते हैं जो बगीचों में टट्टियों पर चढ़ाए जाते हैं । ऋतु के अनुसार गुलाब के दो भेद भारतबर्ष में माने जाने हैं सदागुलाब और चैती । सदागुलाब प्रत्येक ऋतु में फूलता और चैती गुलाब केवल बसंत ऋतु में । चैती गुलाब में विशेष सुगंध होती है और वही इत्र और दवा के काम का समझ जाता है । भारतवर्ष में जो चैती गुलाब होते है वे प्रायः बसरा या दमिश्क जाति के हैं । ऐसे गुलाब की खेती गाजीपुर में इत्र और गुलाबजल के लिये बहुत होती है । एक बीघे में प्रायः हजार पौधे आते हैं जो चैत में फूलते है । बड़े तड़के उनके फूल तोड़ लिए जाते हैं और अत्तारों के पास भेज दिए जाते हैं । वे देग और भभके से उनका जल खींचते हैं । देग से एक पतली बाँस की नली एक दूसरे बरतन में गई होती है जिसे भभका कहते हैं और जो पानी से भरी नाँद में रक्खा रहता है । अत्तार पानी के साथ फूलों को देग में रख देते है जिसमें में सुगंधित भाप उठकर भभके के बरतन में सरदी से द्रव होकर टपकती है । यही टपकी हुई भाप गुलाबजल है । गुलाब का इत्र बनाने की सीधी युक्ति यह है कि गुलाबजल को एक छिछले बरतन में रखकर बरतन को गोली जमीन में कुछ गाड़कर रात भर खुले मैदान में पडा़ रहने दे । सबेरे सरदी से गुलाबजल के ऊपर इत्र की बहुत पतली मलाई सी पड़ी मिलेगी जिसे हाथ से काँछ ले । ऐसा कहा जाता है कि गुलाब का इत्र नूरजहाँ बेगम ने १६१२ ईसवी में अपने विबाह के अवसर पर निकाला था । भारतवर्ष में गुलाब जंगली रूप में उगता है पर बगीचों में दह कितने दिनों से लगाया जाता है । इसका ठिक ठीक पता नहीं लगता । कुछ लोग 'शतपत्री', 'पाटलि' आदि शब्दों को गुलाब का पर्याय मानते है । रशीउद्दीन नामक एक मुसलमान लेखक ने लिखा है कि चौदहवीं शताब्दी में गुजरात में सत्तर प्रकार के गुलाब लगाए जाते थे । बाबर ने भी गुलाब लगाने की बात लिखी है । जहाँगीर ने तो लिखा है कि हिंदुस्तान में सब प्रकार के गुलाब होते है । गुलाब का फूल कोमलता और सुंदरता के लिये प्रसिद्ध है, इसी से लोग छोटे बच्चों की उपमा गुलाब के फूल से देते हैं । २. गुलाबजल । मुहा०-गुलाब छिड़कना = गलाबजल छिड़कना । गुलाब छिड़काई की रसम करना
⋙ गुलाब अफशाँ
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलाबअफशाँ] गुलाबपाश ।
⋙ गुलाब चश्म
संज्ञा पुं० [फ़ा०] खैर रंग की एक प्रकार की चिड़िया विशेष—इसकी चोंच काली और पैर लाल होते है । यह मधुर स्वर में और अधिक बोलती है ।
⋙ गुलाब छिड़काई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलाब + हि० छिड़कना] १. विवाह में एक रीति जिसमें वर पक्ष और कन्या पक्ष के लोग एक दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते है और कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष को कुछ भेंट देते हैं । २. वह द्रव्य जो ऊपर लिखी रसम में दिया जाय ।
⋙ गुलाबजम
संज्ञा पुं० [?] आसाम की पहाड़ियों में होनेवाली एक प्रकार की झडी़ ।विशेष—इसकी पत्तियों से एक प्रकार का भूरा रंग निकलता है और इसकी छाल के रेशे से रस्सियाँ बनती हैं । इसे सोनाफूल भी कहते हैं ।
⋙ गुलाबजल
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलाब + सं० जल] गुलाब का अर्क ।
⋙ गुलाबजामुन
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलाब + हि० जामुन] १. एक प्रकार की मिठाई । विशेष— इसे बनाने के लिये पहले खोवे में मैदा या सिंघाड़े का आटा मिलाते हैं और तब उसकी गोल या लंबोतरे टुक़ड़े करके घी में छानते और पीछे चाशनी में ङुबो देते है । २. एक प्रकार का वृक्ष जो बंगाल और आसाम में अधिकता से होता है । विशेष—यह देखने में बहुत सुंदर होता है और प्रायः बागों में शोभा के लिये लगाया जाता है । गरमी के अंत और बरसात के आरंभ में इसमें फल लगते हैँ । ३. इस वृक्ष का फल । विशेष—यह रंगत में नासपाती का सा और आकार में नीबू के बराबर कुछ चपटा होता है । इसके अंदर खाकी रंग का गोल बीज होता है और ऊपर की ओर मोटे दल का गूदेदार मीठा छिलका सा होता है जिसमें से गुलाब की सी सुगंध आती है और जो खाने में बहुत स्वादिष्ट होता है ।
⋙ गुलाबतालू
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलाब + तालू] वह हाथी जिसका तालू गुलाबी रंग का हो । ऐसा हाथी बहुत अच्छा समझा जाता है ।
⋙ गुलाबपाश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] झारी के आकार का एक प्रकार का लंबा पात्र जिसके मुँह पर हजारा लगा रहता है और जिसमें गुलाबजल आदि भरकर शुभ अवसरों पर लोगों पर छिड़कते है ।
⋙ गुलाबपाशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] गुलाबजल छिड़कने की क्रिया ।
⋙ गुलाबबाड़ी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलाब + हि० बाड़ी] वह आमोद या उत्सव जिसमें कोई स्थान गुलाब के फूलों से सजाया जाता है, गाना बजाना होता है और लोग गुलाबी कपड़े पहनते है । चैत के महीने में यह उत्सव होता है ।
⋙ गुलाबाँस
संज्ञा पुं० [हि० गुलअब्बास] दे० 'गुल अब्बास' या 'अब्बास' ।
⋙ गुलाबा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का बरतन । उ०—चमचा, चमची, जाम, तवा, तंदूर गुलाबा ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गुलाबी (१)
वि० [फ़ा०] १. गुलाब के रंग का । जैसे—गुलाबी गाल, गुलाबी कागज । २. गुलाब संबंधी । ३. गुलाब जल से बसाया हुआ । जैसे,—गुलाबी रेवड़ी । ४. थोड़ा या कम । हलका । विशेष—इस अर्थ में गुलाबी शब्द का प्रयोग केवल 'जा़ड़ा' और 'नशा, अथवा इनके पर्यायवाची शब्दों के साथ पाया जाता है ।
⋙ गुलाबी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रंग जो गुलाब की पत्तियों के रंग से मिलता जुलता है और शहाब और खटाई के मेल से बनाया जाता है ।
⋙ गुलाबी (३)
संज्ञा स्त्री० १. शराब पीने की प्याली । २. गुलाब की पंखड़ियों से बनी हुई मिंठाई । ३. एक प्रकार की मैना । विशेष—यह मैना ऋतुभेद के अनुसार अपना रंग बदलती है । गरमी के दिनों में यह पहाड़ों में चली जाती है । यह मध्य एशिया और युरोप में भी पाई जाती है और प्रायः बड़े बड़े झुड़ों में रहती है । यह घोंसला नहीं बनाती बल्कि थोड़ी घास बिछाकर उसी पर रहती है और पत्थरों या कँकड़ों के नीचे ४-५ अंडे देती है ।
⋙ गुलाम
संज्ञा पुं० [अ० गुलाम] १. मोल लिया हुआ दास । खरीदा हुआ नौकर । मुहा०—(मनुष्य आदि को) गुलाम करना या बनाना = अपने वश में करना । पूरी तरह से अधिकार में करना । गुलाम का तिलाम = बहुत ही तुच्छ सेवक । सेवक का सेवक । यौ०—गुलाम गर्दिश । गुलाम माल । विशेष—कभी कभी बोलनेवाला (उत्तम पुरुष) भी नम्रता प्रकट करने के लिये इस शब्द का प्रयोग करता है । जैसे,— गुलाम (मैं) हाजिर है, क्या आज्ञा है । २. साधारण सेवक । नौकर । ३. गंजीफे का एक रंग । ४. ताशा में दहले से बड़ा और बेगम से छोटा एक पत्ता । इसपर दास के रूप में एक आदमी का चित्र बना रहता है ।
⋙ गुलाम गर्दिश
संज्ञा स्त्री० [अ० गुलाम + फा० गर्दिश] १. वह छोटी दीवार जो जनानखाने में अंदर की ओर सदर दरवाजे के ठीक सामने अथवा जनानखाने और दीवानखाने के बीच में परदे के लिये बनी हो । विशेष-इस दीवार के रहने से स्त्रियाँ आँगन में घूम फिर सकती हैं और बाहर के लोगों की दृष्टि उनपर नहीं पड़ सकती । २. कोठी या महल आदि के चारों ओर बना हुआ वह बरामदा जहाँ अरदली, चपरासी, दरवान और दूसरे नौकर चाकर रहते हों ।
⋙ गुलाम चोर
संज्ञा पुं० [अ० गुलाम + हिं० चोर] ताश का एक प्रकार का खेल जो दो से सात आठ आदमियों तक में खेला जाता हैं । विशेष—इसमें एक गुलाम या ओर कोई पत्ता गड्डी से अलग से दिया जाता है; और तब सब खेलनेवालों में बराबर बराबर पत्ते बाँट दिए जाते हैं । हर एक खिलाड़ी अपने अपने पत्तों के जोड़ (जैसे,—दुक्की दु्ककी, छ्क्का छक्का, दहला दहला) निकालकर अलग रख देता है और सब एक दूसरे से एक एक पत्ता लेते हुए इसी प्रकार का जोड़ मिलाकर निकालते हैं । अंत में जिसके पास अकेला गुलाम या निकाले हुए पत्ते का जोड़ बच रहता है, वही चोर और हारा हुआ समझा जाता है ।
⋙ गुलामजादा
संज्ञा पुं० [अ० गुलाम + फा० जादह्] १. दासी— पुत्र । २. विनय में बेटे के लिये प्रयुक्त ।
⋙ गुलाम माल
संज्ञा पुं० [अ० गुलाम + माल] थोड़े दामों की पर बहुता दिनों तक चलनेवाली और सब तरह का काम देनेवाली चीज । जैसे,—कबंल, लोई आदि ।
⋙ गुलामी
संज्ञा स्त्री० [अ० गुलाम + हिं० ई (प्रत्य०)] १. गुलाम का भाव । दासत्व । २. सेवा । नौकरी । ३. पराधीनता । परतंत्रता ।
⋙ गुलाल
संज्ञा पुं० [फा० गुललालह्] एक प्रकार की लाल बुकनी या चूर्ण जिसे हिंदू लोग होली के दिनों में एक दूसरे के चेहरों पर मलते हैं अथवा कुमकुमे आदि में भरकर फेंकते और उड़ाते हैं । उ०—जिन नैनन में बसत है रसनिधि मोहन लाल । तिनमें क्यों घालत अरी तै भर मूठ गुलाल ।—रसनिधि । (शब्द०) । क्रि० प्र०—उड़ाना ।—मलना । विशेष—पहले गुलाब या टेसू की पंखड़ियों में चंदन का बुरादा और केसर मिलाकर गुलाल बनाया जाता था, पर आजकल शिंगरफ या शहाब में रँगा हुआ सिंघाड़े का आटा ही गुलाल कहलाता है ।
⋙ गुलाला पु
संज्ञा पुं० [हिं० गुललाला] दे० 'गुललाला' ।
⋙ गुलिया
वि० [हिं० गुल्ली] महुए के बीज की भिंगी । गुली से निकाला हुआ ।जैसे,—गुलिया तेल ।
⋙ गुलियाना (१) †
क्रि० सं० [सं० गिल = निगलना] औषध या और कोई तरल पदार्थ बाँस के चोंगें में भरकर पशु को पिलाना । इसे 'ढरका देना' भी कहते हैं ।
⋙ गुलियाना (२)
क्रि० सं० [हिं० गोलियाना] दे० 'गोलियाना' ।
⋙ गलिस्ताँ
संज्ञा पुं० [फा़०] १. वह स्थान जहाँ फूलों के बहुत से पौधे आदि लगे हों । बाग । उपवन । बाटिका । २. फारसी के प्रसिद्ध कवि शेख सादी शिराजी का बनाया हुआ नीति संबंधी एक प्रसिद्ध ग्रंथ ।
⋙ गुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुल्ली] दे० 'गुल्ली' ।
⋙ गुलुंछ
संज्ञा पुं० [सं० गुलुञ्छ] गुच्छा [को०] ।
⋙ गुलुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] गुच्छा [को०] ।
⋙ गुलुफ †
संज्ञा पुं० [दे० गुल्फ] दे० 'गुल्फ' ।
⋙ गुलू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. नेपाल की तराई, बुंदेलखंड और बंगाल की खुश्क चट्टानों पर तथा छोटी छोटी पहाड़ियों पर और दक्षिण भारत तथा बरमा के जंगलों में होनेवाला एक प्रकार का बड़ा पेड़ । विशेष—यह २५ से ४० हाथ तक ऊँचा होता है । इसमें टहनियों के सिरों पर गुच्छों में लंबी पत्तियाँ लगती है । जाड़े में इसका पतझड़ होता है और माघ फागुन में इसमें गंदकी रंग के छोटे फूल लगते हैं । इस वृक्ष की टहनियों, पत्तियों और कतीरा नाम के गोंद का उपयोग औषध में बहुत होता है और गरीब लोग इसके बीज भूनकर खाते हैं । कहीं कहीं लोग इसकी जड़ भी खाते हैं । इस वृक्ष की ऊपरी छाल मुलायम होती है और उसमें पर्त निकलती है । जब यह वृक्ष दस बरस का पुराना हो जाता है तब इसके तने के चार चार हाथ लंबे टुकड़े काट लेते हैं और उनके ऊपर की छाल निकाल लेते हैं । इसके हीर में से बहुत बढ़िया रेशा निकलता है जिससे रस्से बनते हैं और एक प्रकार का कपड़ा भी बुना जाता है । इसकी लकड़ी से कई तरह के खिलौने आदि बनते हैं । प्रायः अकाल में इसकी छोटी छोटी टहनियाँ पशुओं के चारे का काम देती हैं । कतीरा नाम का गोंद इसी बृक्ष से निकलता है । २. एक प्रकार की मछली जो हाथ सवा हाथ लंबी होती है । ३. एक प्रकार की बटेर ।
⋙ गुलू (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गला । गरदन ।
⋙ गुलूखलासी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलू + अ० ख़लास] गला छूटना । मुक्ति । छुटकारा ।
⋙ गुलूबंद
पुं० [फ़ा०] १. सलाई से या करघे पर बुनी हुई वह सूती, ऊनी या रेशमी लंबी और प्रायः एक बालिश्त चौड़ी पट्टी जो सरदी से बचने के लिये सिर, गले या कानों पर लपेटी जाती । २. स्त्रियों के पहनने का एक प्रकार का जेवर जो गले से सटा रहता है ।
⋙ गुलूला
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलूलह्] १. गुलेल का गुल्ला । २. बंदूक की गोली । ३. दवा की गोली ।
⋙ गुलेंदा
संज्ञा पुं० [हि० गोल] महुए का पका फल । कोयँदा ।
⋙ गुले
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ । विशेष-यह उत्तर भारत में अधिकता से होता है । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और चमकदार होती है जिसपर खुदाई का काम बहुत अच्छा होता है । कहीं कहीं इसके बीजों की माला बनाई जाती है । इसे रंगचोल भी कहते हैं ।
⋙ गुलेटन
संज्ञा पुं० [हि० गोल] कुरंड पत्थर का वह छोटा गोला जिससे सिकलीगर अपना मसाला रगड़ते हैं ।
⋙ गुलेनार
संज्ञा पुं० [हि० गुलनार] दे० 'गुलनार' ।
⋙ गुलेराना
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुल + अ० राना] १. सुंदर फूल । २. एक फूल जो भीतर की ओर लाल और बाहर की ओर पीला होता है ।
⋙ गुलेल (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गिलूल] वह कमान या धनुष जिससे चिड़ियों और बंदरों आदि को मारने के लिये मिट्टी की गोलियाँ चलाई जाती हैं । उ०—(क) गुप्त गुलेल सोलयें धारे । रिपु चिरई दिन लाखक मारे ।—हनुमान (शब्द०) । (ख) तिलक विंदु को मानि निशाना । गूरा हनत गुलेल महाना ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गुलेल (२) †
संज्ञा पुं० [फ़ा० गिलोय] दे० 'गुरुच' ।
⋙ गुलेलची
संज्ञा पुं० [हि० गुलेल + ची (प्रत्य०)] गुलेल चलानेवाला । वह मनुष्य जो गुलेल चलाने मे चतुर हो ।
⋙ गुलेलबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुलेल + बाजी] १. गुलेल चलाना । २. गुलेल से चिड़ियाँ आदि मारना ।
⋙ गुलेला
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलूला] १. मिट्टी की बनाई हुई गोली जिसको गुलेल से फेककर चिड़ियों का शिकार किया जाता है । २. गुलेल ।
⋙ गलैंदा
संज्ञा पुं० [हि० गुलेंदा] दे० 'गुलेंदा' ।
⋙ गुलोह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गिलोय] गुड़ुच । गुरुच ।
⋙ गुलौर †
संज्ञा पुं० [सं० गुल=गुड़ + ओर (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ रस पकाने का भट्ठा हो और जहाँ गुड़ बनाया जाता हो ।
⋙ गुलौरा
संज्ञा पुं० [सं० गुल + हिं० औरा (प्रत्य०)] दे० 'गुलौर' ।
⋙ गुल्गा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का ताड़ । विशेष—यह सुंदरबन में पानी के किनारे लता की तरह फैलता है तथा चटगाँव—बरमा आदि में पाया जाता है । इसके पुराने फल जिसे गोलफल कहते हैं बहुत बड़े बड़े होते हैं और समुद्र में बहते बहते दूर तक चले जाते है । पत्तों के ड़ंठलों को एक में बाँधकर उनपर सुंदरबन के लट्ठो बहाए जाते हैं । पत्ते छप्पर बनाने के काम में आते हैं और 'गोलपत्ता' कहलाते हैं ।
⋙ गुल्फ
संज्ञा पुं० [सं०] एँड़ी के ऊँपर की गाँठ ।
⋙ गुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा पौधा जो एक जड़ से कई होकर निकले और जिसमें कड़ी लकड़ी या डंठल न हो । जैसे,—ईख, शर आदि । विशेष—अर्कप्रकाश में गुल्म गण के अंतर्गत बरियारा, पाठा, तुलसी, काकजंघा, चिरचिरा आदि पौधे लिए गए हैं । २. सेना का एक समुदाय जिसमें ९ हाथी, ९ रथ, २७ घोड़े और ४५ पैदल होते हैं ।३. पेट का एक रोग जिसमें उसके भीतर एक गोला सा बँध जाता है । विशेष—हृदय के नीचे से लेकर पेड़ू तक के बीच कहीं पर यह गोला उत्पन्न हो सकता है । भावप्रकाश के अनुसार यह गोला अनियमित आहार विहार तथा वायु और पित्त के दूषित होने से होता है । ४. नसों की सूजन जो गाँठ के आकार की ही । ५. झा़ड़ी (को०) । ६. दुर्ग । किला (को०) । ७. खाईबंदी (को०) । ८. ग्राम का थाना (को०) । ९. नदी के किनारे या घाट पर सुरक्षा के लिये बनी हुई चौकी (कौ०) । १०. शिविर । सेनानिवेश (को०) ।
⋙ गुल्मकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लवेतस [को०] ।
⋙ गुल्मकेश
वि० [सं०] झबरीले बालोंवाला [को०] ।
⋙ गुल्ममूल
संज्ञा पुं० [सं०] ताजी अदरक [को०] ।
⋙ गुल्मप
संज्ञा पुं० [सं०] एक गुल्म का नायक । गौल्मिक ।
⋙ गुल्मवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमलता [को०] ।
⋙ गुल्मवात
संज्ञा पुं० [सं०] तिल्ली का एक रोग [को०] ।
⋙ गुल्मी (१)
वि० [सं० गुल्मिन्] [स्त्री० गुल्मिनी] १.झुरमुट के रूप में उत्पन्न होनेवाला । २. तिल्ली के रोग से पीड़ित [को०] ।
⋙ गुल्मी (२)
संज्ञा स्त्री० १. पेड़ों का झुंड । झाड़ । २. बेर । ३. छोटी इलायची का पेड़ । ४ तंबू । खेमा । ६. आँवले का पेड़ [को०] ।
⋙ गुल्मोदर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुल्मवात' [को०] ।
⋙ गुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] मिठास । मीठापन [को०] ।
⋙ गुल्लक
संज्ञा पुं० [हि० गोलक] वह संदूक या थैली जिसमें बिक्री द्वारा या और किसी प्रकार आई हुई रोजाना आमदनी रखी जाती हैं ।
⋙ गुल्लरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गूलर] दे० 'गूलर' ।
⋙ गुल्ला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोला] १. मिट्टी की बनी हुई गोली जो गुलेल से फेंकी जाती है । २. एक बँगला मिठाई । विशेष—यह फटे दूध के छेने की गोल गोल पिंडियों को शीरे में डु़बोने से बनती है । इसे रसगुल्ला भी कहते हैं ।
⋙ गुल्ला (२)
संज्ञा पुं० [अ० गुल] शोर । हल्ला । ऊँचा शब्द । उ०— आये निशाचर साहनी साजि मरीच सुबाहु सुने मख गुल्ला ।— रघुराज (शब्द०) । यौ०—हल्ला गुल्ला = शोरगुल ।
⋙ गुल्ला (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गुल्ली] १. ईख का कटा हूआ छोटा टुकड़ा । गँडेरी । गाँड़ा । २. ईख का एक पोर जिसमें से ऊपर का कठोर हिस्सा या चेंफ और गाँठ निकाल दिया गया हो ।
⋙ गुल्ला (४)
संज्ञा पुं० [हिं० गुलेल] वह धनुष जिससे मिट्टी की गोली फेंकी जाती है । गुलेल । उ०—चूक उनहुँ ते होय दे बाँधे बरछी गुल्ला ।—गिरधर (शब्द०) ।
⋙ गुल्ला (५)
संज्ञा पुं० [देश०] दरी कालीन बुनने के करघे में वह बाँस जिसमें बज के दोनों सिरे बँधे रहते हैं ।
⋙ गुल्ला (६)
संज्ञा पुं० [देश०] वह ताना जो रेशमी धोतियों के किनारे बुनने में अलग तनकर भाँज में लगाया जाता है ।
⋙ गुल्ला (७)
संज्ञा पुं० [हिं० गुल्ली] रस्सी में बँधी हुई वह छोटी लकड़ी जो पानी सींचने की लोटी (लुटिया) में पड़ी रहती है और जिसके अँटकाव के कारण भरी हुई लोटी रस्सी के साथ खिंच आती है ।
⋙ गुल्ला (८)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पहाड़ी पेड़ जो बहुत ऊँचा होता हैं । विशेष—इसके हीर की लकड़ी सुगंधित, हलकी और भूरे रंग की होती है तथा मजबूत होने के कारण इमारत के काम में आती हैं । नैनीताल में यह पेड़ पेड़ बहुत होता है । इसे 'सराय' भी कहते हैं ।
⋙ गुल्ला (९)
संज्ञा पुं० [देश०] गोटा पट्टा बुननेवालों का एक डोरा जो मजबूत होता है और जिसके दोनों सिरों पर सरकंडे की लकड़ियाँ लगी होती है । विशेष—यह डोरा ताना के बदले में पड़ा रहता है । इसका एक सिरा ढेंकली में लगा रहता है और दूसरा सिरा पावँड़ी में बँधा होता है ।
⋙ गुल्ला (१०)
संज्ञा पुं० [हिं० गुल्ली] रुई ओटने की चरखी के बीच में लगा हुआ लोहे का छड़ । विशेष—यह लगभग ड़ेढ़ बालिश्त लंबा होता है । पिढ़ई और खूटों के बीच में ठोका रहता है । इससे पिढ़ई या खूँटे सरकने या हिलने नहीं पाते ।
⋙ गुल्लाला
संज्ञा पुं० [फ़ा० गुलेलालाह्] एक प्रकार का लाल फूल । उ०—कत लपटैयत मोगरे सोनजुही निस सैन । जेहि चंपकबरसी करे गुल्लाला रँग नैन ।— बिहारी (शब्द०) । विशेष—इसका पौधा पोस्ते के पौधे के समान होता है । फूल भी पोस्ते ही के समान पर लाल होता है ।
⋙ गुल्ली
संज्ञा स्त्री० [स० गुलिका = गुठली] १. किसी फल की गुठली । किसी फल का बड़ा और लंबोतरा वीज । २. महुए की गुठली । गुलैंदे का बीज । गुल्लू । कोयँदा । ३. किसी वस्तु का कोई लंबोतरा छोटा टुकड़ा जिसका पेटा गोल हो । जैसे,—काठ की गुल्ली, सोने की गुल्ली, रुपयों की गुल्ली इत्यादि ।— उ०—हल के पीछे जो लोहे की तीखी गुल्ली रहती है उससे धरती खुदती है ।—शिवप्रसाद (शब्द०) । मुहा०—गुल्ली बँधना = वीर्य का पुष्ट होना । युवावस्था आना । ४. काठ का चार छह अंगुल लंबा टुकड़ा । जिसके दोनों छोर जौ की तरह नुकीले होते हैं तथा पेटा मोटा और गोल होता है । इसे डंडे से मार मारकर लड़के एक प्रकार का खेल खेलते हैं । अंटी अँटई । जैसे,—यह लड़का दिन भर गुल्ली डंडा खेलता हैं । ५. छत्ते में वह जगह जहाँ मधु होता है । ६. केवड़े का फूल । ७. मकई की बाल जिसके दाने निकाल लिए गए हों । खुखड़ी । ८. एक प्रकार की मैना । गंगा मैना । ९. ईख की गड़ेरी । गाँड़ा । १०. छोटा गोल पासा । कोई पासा । यौ०-गुल्लीवाला = पासा बनानेवाला । ११. सिकलीगरों का एक औजार जिससे वे तलवार या किसी हथियार का मोरचा खुरचते हैं । १२. जिल्दसाजों का एक औजार जिससे रगड़कर वे जिल्द की सीवन बराबर करतें हैं । १३. पगड़ी बुननेवालों का एक औजार जिसे बुनते समय पाग के दोनों ओर इसलिये लगाते हैं जिसमें पाग तनी रहे । विशेष—कई और पेशेवालों के गुल्ली के आकार औजार भी इसी नाम से प्रसिद्ध हैं ।
⋙ गुल्लीडंडा
संज्ञा पुं० [हिं० गुल्ली + डंडा] लड़कों का एक खेल जिसमें गुल्ली को डंडे से मारकर दूर फेंका जाता है । क्रि० प्र०—गुल्ली डंडा खेलना = खेलकूद अथवा अनावश्यक कामों में समय नष्ट करना ।
⋙ गुवा पु
संज्ञा पुं० [सं० गुवाक] सुपारी । उ०—कोइ जाइफर लौंग सुपारी । कोइ नरियर कोइ गुवा छुहारी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गुवाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुपारी । २. चिकनी सुपारी ।
⋙ गुवार पु †
संज्ञा पुं० [सं० गोपाल, प्रा० गोवाल, पु० हिं० गुवाल] दे० 'ग्वाल' ।
⋙ गुवारपाठा
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वारपाठा] दे० 'ग्वारपाठा' ।
⋙ गुवाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० गोपाल, प्रा० गोवाल] दे० 'ग्वाल' ।
⋙ गुविंद पु †
संज्ञा पुं० [गोपेन्द्र सं० प्रा०, गोविन्द] दे० 'गोविंद' ।
⋙ गुसल
संज्ञा पुं० [अ० गुस्ल] दे० गु्स्ल' ।
⋙ गुसलखाना पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गुस्लखाना] दे० 'गुस्लखाना' । उ०—अरे ते गुसलखाने बीच ऐसे उमराव, लै चले मनाय महाराज शिवराज को ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ गसाँई
संज्ञा पुं० [हिं० गोसाई] दे० 'गोसाई' या 'गोस्वामी' ।
⋙ गुसा पु †
संज्ञा पुं० [अ० गुस्सह्] दे० 'गुस्सा' । उ०—सूरदास चरणन के बलि बलि कौन गुसा ते कृपा बिसारी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गुसीला पु †
वि० [हिं० गुस्सा + ईला (प्रत्य०)] गुस्सैल । उ०— जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि मनु कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे ।—भूषण ग्रं०, पृ० १०२ ।
⋙ गुसुलखान पु
संज्ञा पुं० [हिं० गुस्लखाना] दे० 'गुस्लखान' । उ०— भूषन भनत है गुसुलखान पै खुमान अवरंग साहिबी हथ्याय हरि लाई है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ५९ ।
⋙ गुसैयाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोसाईं' या 'गोस्वामी' ।
⋙ गुसैल
वि० [हिं० गुस्सा + ऐल (प्रत्य०)] दे० 'गुस्सैल' ।
⋙ गुस्ताख
वि० [फ़ा० गुस्ताख] धृष्ट । ढीठ । अशालीन । अशिष्ट । बेअदब । बड़ों का संकोच न रखनेवाला ।
⋙ गुस्ताखाना
क्रि० वि० [फ़ा० गुस्ताखानह्] अशिष्टतापूर्वक । बेअदबी से ।
⋙ गुस्ताखी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गुस्ताखी] धृष्टता । ढिठाई । अशिष्टता । बेअदबी ।
⋙ गुस्ल
संज्ञा पुं० [अ० गुस्ल] स्नान । यौ०—गुस्लखाना ।
⋙ गुस्लखाना
संज्ञा पुं० [अ० गुस्ल + फ़ा० खानह्] स्नानागार । नहाने का घर ।
⋙ गुस्लसेहत
संज्ञा पुं० [अ०] बीमारी से ठीक होने के बाद किया जानेवाला पहला स्नान ।
⋙ गुस्सा
संज्ञा पुं० [अ० गुस्सह्] [वि० ग़ुस्सावार, गुस्सैल] क्रोध । कोप । रिस । क्रि० प्र०—आना ।—करना ।— होना ।—में आना । मुहा०—गुस्सा उतरना = क्रोध शांत होना । (किसी पर) गुस्सा उतारना= (१) क्रोध में जो इच्छा हो उसे पूर्ण करना । कोप प्रकट करना । अपने कोप का फल चखाना । (२) एक के ऊपर जो क्रोध हो दूसरे पर प्रकट करना । जैसे,— उससे तो जीतते नहीं, हमारे ऊपर गुस्सा उतारते हो । गुस्सा चढ़ना = क्रोध का आवेश होना । रिस का लगना । गुस्सा थूक देना = क्रोध को दूर कर देना । क्षमा करना । गई गुजरी करना । (स्त्रियाँ) गुस्सा निकालना = दे०'गुस्सा उतारनी ।' नाक पर गुस्सा होना = बहुत जल्दी क्रोध में आना । बात बात पर क्रोध करना । क्रोध करने के लिये सदा तैयार रहना । गुस्सा पीना = क्रोध रोकना । भीतर ही भीतर क्रोध करके रह जाना, प्रकट न करना । गुस्सा मारना = क्रोध रोकना । गुस्से से लाल होना = क्रोध सें तमतमाना । क्रोध के आवेश में आना ।
⋙ गुस्साना
क्रि० प्र० [हिं० गुस्सा से नाम०] गुस्सा करना । क्रुद्ध होना ।
⋙ गुस्सावर
वि० [हिं० गुस्सा + फ़ा० आवर (प्रत्य०)] गुस्सैल । गुस्सा करनेवाला ।
⋙ गुस्सैल
वि० [अ० गुस्सा + हिं० ऐल (प्रत्य०)] जिसे जल्दी क्रोध आवे । गुस्सावर । थोड़ी थोड़ी बात पर बिगड़नेवाला । जैसे— वह बड़ा गुस्सैल आदमी है, उससे मत बोलो ।
⋙ गुह (१)
संज्ञा पुं० [स०] १. कार्तिकेय । २. अश्व । घोड़ा । ३. विष्णु का एक नाम । ४. निषाद जाति का एक नायक जो शृंगवेरपुर में रहता था और राम का मित्र था । गुह जाति का व्याक्ति । ५. सिंहपुच्छी लता । पिठवन । ६. शालपर्णी । सरिवन । ७. गुफा । ८. हृदय । ९. माया । १०. मेढ़ा । ११. बुद्ध । १२. बंगाली कायस्थों की एक जाति ।
⋙ गुह (२)
संज्ञा पुं० [सं० गृह्य अथवा गूः = मल, विष्ठा] गुह । मैला । विशेष—मुहावरों आदि के लिये दे० 'गूह' ।
⋙ गुहड़ा
संज्ञा पुं० [ देश०] चौपायों का एक रोग जिसे खुरपका भी कहते हैं । विशेष—इसमें उनके मुँह लार बहती है, खुर में दाने पड़ जाते हैं और उनका शरीर गरम रहता है । चलने में भी वे लँगड़ाते हैं ।
⋙ गुहना †
क्रि० स० [सं० गुम्फन] १. गूँथना । एक में पिरोना । गूँधना । गाँथना । उ०— (क) शंभु जू मंजु गुहे गुह सो उर डारत औरे बढी़ दुति नारि की ।—शंभु (शब्द०) । (ख) पर काजै कहा यहि गाँव के लोग गुहैं चरचान को चौसर हैं ।— सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । २. सुई तागे से दृढ़ करके सी देना ।
⋙ गुहराज
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रासाद या महल जो गुह (कार्तिकेय) के आधार का बनता है । इसका विस्तार सोलह हाथ का होता है ।—(बृहत्संहिता) ।
⋙ गुहराना †
क्रि० स० [हिं० गुहार] पुकारना । चिल्लाकर बुलाना । उ०—कहै रघुराज सो करिंद तजि फंद सब कर अरविंद लै गोविंद गुहरायो है ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गुहवाना
क्रि० स० [हिं० गुहना का प्रे० रूप] गुहने का काम कराना । गुँधवाना ।
⋙ गुहषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगहन सुदी छठ जो कार्तिक की जन्मातिथि मानी जाती है ।
⋙ गुहांजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गृह्य + अञ्जन] आँख की पलक पर होनेवाली फुड़िया । बिलनी । घुरघुरी । अंजनहारी ।
⋙ गुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुफा । कंदरा । खोह । माँद । उ०— कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा । भागि पैठ गिरि गुहा गँभीरा ।— तुलसी (शब्द०) । २. गुप्त स्थान । छिपने का स्थान (को०) । ३. (ला०) हृदय । अंतः करण (को०) । ४. बुद्धि (को०) । ५. सिहपुष्पी (को०) । ६. शालपर्णी (को०) ।
⋙ गुहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुहना] १. गुहने की क्रिया या भाव । २. गुहने की मजदूरी ।
⋙ गुहाचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म ।
⋙ गुहाचर (२)
वि० गुहा में निवास करनेवाला [को०] ।
⋙ गुहाना
क्रि० स० [हिं०] दे० ' गुहवाना' ।
⋙ गुहार
संज्ञा स्त्री० [सं० गो + हार] रक्षा के लिये पुकार । दोहाई । वि० दे० ' गोहार' । यौ०—पड़ना ।—मारना ।—लगना ।—लगाना ।
⋙ गुहारि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुहार] दे० 'गुहार' । उ०—नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गुहारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० गुहारा । उ०—बात कहत भई देश गुहारी—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गुहाल †
संज्ञा पुं०[सं० गोशाला] गोशाला । गायों के रहने का स्थान ।
⋙ गुहाहित (१)
वि० [सं०] हृदयस्थ । हृदय में स्थित [को०] ।
⋙ गुहाहित (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा [को०] ।
⋙ गहिन
संज्ञा पुं० [सं०] जगल । वन [को०] ।
⋙ गुहिल
संज्ञा पुं० [सं०] धन । संपत्ति [को०] ।
⋙ गुहेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिभावक । रक्षक । २. लोहार [को०] ।
⋙ गुहेरा
संज्ञा पुं० [सं० गोध, हिं० गोह] गोह नाम का कीड़ा । गोध ।
⋙ गुहेरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० गौधेरिका] गुहाँजनी । बिलनी ।
⋙ गुहय (१)
वि० [सं०] १. गुप्त । छिपा हुआ । पोशीदा । २. गोपनीय । छिपाने योग्य । ३. गूड़ । जिसका तात्पर्य सहज में न समझा जा सके ।
⋙ गुह्य (२)
संज्ञा पुं० १. छल । कपट । दंभ । २. कछुआ । कच्छप । ३. गुदा, भग, लिंग आदि गोपनीय अंग । ४. विष्णु । ५. शिव ।
⋙ गु्ह्यक
संज्ञा पुं० [सं०] वे यक्ष जो कुबेर के खजानों की रक्षा करते है । निधिरक्षक यक्ष । यौ०—गृ्ह्यकेश्वर ।
⋙ गृ्ह्यकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।
⋙ गृह्यदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] जुगुनू [को०] ।
⋙ गुह्यद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] मलद्वार । गुदा [को०] ।
⋙ गुह्यनिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० गुह्यनिष्यन्द] मूत्र [को०] ।
⋙ गुह्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।
⋙ गुह्यपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल [को०] ।
⋙ गृह्यबीज
संज्ञा पुं० [सं०] भूतृण [को०] ।
⋙ गृह्यभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्त वार्ता । गुप्त मंत्रणा [को०] ।
⋙ गृह्यभाषित
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्त वार्ता । गुप्त मंत्रणा ।
⋙ गूँ
प्रत्य० [फ़ा०] यह समस्त पदों के अंत में लगकर १. रंग, २. ढंग, ३. भेद वर्ग, आदि अर्थ प्रकट करता है । जैसे, मीलगूँ, गेदुमगूँ आदि ।
⋙ गूँग पु †
[फ़ा० गुँग] १. गूँगा । उ०—वहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंग चलै सिर छत्र धराइ ।—सूर०, १ ।१ । । २. न बोलनेवाला । चुप ।
⋙ गूँगा (१)
वि० [फ़ा० गुंग = जो बोल न सके] [वि० स्त्री० गूँगी] जो बोल न सके । जिसके मुँह से स्पष्ट शब्द न निकले । जिसे वाणी न हो । मूक ।
⋙ गूँगा (२)
संज्ञा पुं० वह मनुष्य या प्राणी जो बोल न सके । मुहा०—गूँगा का गुड़ होना= ऐसी बात होना जिसका अनुभव हो पर वर्णन न हो सके । ऐसी बात जो कहते न बने । उ०—अमृत कहा अमित गुन प्रगटै सो हम कहा बतावैं । सूरदास गूँगे के गुर ज्यों बूझति कहा बुझावै—सूर (शब्द०) । विशेष—गूँगा मनुष्य गुड़ का स्वादा अनुभव तो करता है पर उसे प्रकट नहीं कर सकता । गूँगे का गुड़ खाना = गूँगे के द्वारा गुड़ का खाया जाना । उ०— (क) नैनहिं ढुरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाय रहा है गूँगा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) ज्यों गूँगा गूर खाइकै स्वाद न सके बखानि ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—बहुत लोगों ने विशेषकर उर्दू वालों ने 'गूँगे का गुड़ का मतलब 'गूँगे का दिया हुआ गुड़' समझा है और इसी अर्थ में इसका प्रयोग भी किया है । ऐसा प्रयोग अशुद्ध है, जैसा हिंदी कवियों के उदाहरणों से स्पष्ट है । गूँगे का सपना होना = दे० गूँगे का गुड़ होना' ।
⋙ गूँगी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँगा] १. स्त्रियों की उँगली में पहनने की एक प्रकार की बिछिया जो आकार में गोल होती है । २. दो मुहाँ साँप । † ३. चुप्पी । मौन । क्रि० प्र०—साधना = चुप्पी साधना । चुप हो जाना । यौ०—गूँगी पहेली = वह पहेली जो मुँह से न कही जाय, इशारों में कही जाय ।
⋙ गूँगी (२)
वि० स्त्री० [हिं० 'गूँगा' का स्त्री०] गूँगापन वाली । जो बोल न सकती हो ।
⋙ गूँच (१)
संज्ञा स्त्री०[सं० गुञ्ज अथवा सं० गुञ्जा] गुंजा । घुँघची ।
⋙ गूँच (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली ।
⋙ गूँछ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बड़ी मछली । बूँछ । विशेष—यह छह फुट तक लंबी होती है और भारत की सब नदियों में पाई जाती है । इसका मुँह नीचे की ओर होता है । आकार भी इसका बहुत भद्दा होता है । यह प्रायः बहुत गहरे पानी में रहती है । इससे जल्दी नही फँसती ।
⋙ गूँज
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्ज] १. भौरों के गूँजने का शब्द । कलध्वनि । गुँजार । भिनभिनाहट । उ०— अपनी मीठी गूँज से (भौंरा) उसके रस को उभाड़ता है और तब उसपर रस लेने के लिये बैठता है ।—अयोध्या (शब्द०) । २. प्रतिध्वनि । व्याप्तध्वनि । देर तक बना रहनेवाला शब्द । ३. लट्टू में नीचे की ओर जड़ी हुई लोहे की वह कील जिसपर लट्टू घूमता है । ४. कान में पहनने की बालियों आदि में शोभा के लिये थोड़ी दूर तक लपेटा छोटा पतला तार ।
⋙ गूँजना
क्रि० अ० [सं० गुञ्जन] १. भौरों या मक्खियों का भिन— भिनाना । भौरों का मधुर ध्वनि करना । गुंजारना । उ०— फूले बर बसंत बन बस में कहुँ मालती नवेली । तापै मदमाते से मधुकर गूँजत मधुरस रेली ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । २. (किसी स्थान का) प्रतिध्वनित होना । शब्द से व्याप्त होना । जैसे,— बाजे के स्बर से सारा घर गूँज उठा । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना । ३. शब्द का खूब फैलना और देर तक बना रहना । ध्वनि व्याप्त होना । प्रतिध्वनित होना । जैसे,—यहाँ आवाज खूब गूँजती है ।
⋙ गूँजनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुज्जन, हिं० गूँजन] दे० ' गूँज' । उ०— गरजनि गूँजनि सुनि सुनि महा । दलकन हिय दुख कहिए कहा ।—नंद० ग्रं०, पृ० १६७ ।
⋙ गूँट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०घूँट] दे० 'घूँट' । उ०—कीजै नीबरी गूँट ज्यूँ पीजै प्यालौ कालकूट केम ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२६ ।
⋙ गूँठ
संज्ञा पुं० [ हिं० गोंठ = छोटा, नाटा] पहाड़ी टट्टू । टाँगन ।
⋙ गूँड़ौ पु
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़] आत्मरक्षा का स्थान । गोपनीय स्थान । उ०—देवलियै गूँड़ौ कियौ, धणीं थयौ सुप्रसन्न ।— रा० रू०, पृ० ३४७ ।
⋙ गूँण पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौन] दे० 'गौन' । उ०—खग इण साकर खोररे, संगन साँकर गूँण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४० ।
⋙ गूँथन पु
संज्ञा पुं० [हिं० गूँथना] गूँथने की क्रिया । ग्रंथन । उ०— झबी जराऊ जोरि अमित गूँथननि सँवारी ।— नंद ग्रं०, पृ० १८६ ।
⋙ गूँथना (१)
क्रि० स० [हिं० गूथना] दे० 'गूथना' ।
⋙ गूँथना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गूँधना' ।
⋙ गूँदना
क्रि० स० [हिं० गूथना] 'गूँधना' ।
⋙ गूँदा
संज्ञा पुं० [हिं० गोंद] दे० 'गोंदा' ।
⋙ गूँदी (१)
संज्ञा स्त्री० [दे०] गँधेला नाम का पेड़ । विशेष—यह गिरगिट्टी की जाति का होता है और इसकी छाल और पत्तियाँ औषध के काम में आती हैं ।
⋙ गूँदी पु
वि० [ हिं० गूँथना] गुही हुई । बनाई हुई । उ०—मूँदिन राखत प्रीति भटू यह गूँदी गुपाल के हाथ की बैनी ।—मति० ग्रं०, पृ० २८८ ।
⋙ गूँधना (१)
क्रि० स० [सं० गुध = क्रीड़ा] पानी में सानकर हाथों के दबाना या मलना । माँड़ना । मसलना । जैसे,—आटा गूँधना ।
⋙ गूँधना (२)
क्रि० स० [सं० गुम्फन या हिं० गूथना] १. गूँथना । पिरोना । जैसे,—माला गूँधना । १. कई तागों या बालों की लटों को घुमा कर इस प्रकार एक दूसरे पर चढ़ाते हुए फँसाना कि एक लड़ी सी बन जाय । बालों या तागों को लेकर इस प्रकार बटना कि बराबर गुच्छे बनते जायँ । जैसे,—चोटी गूँधना ।
⋙ गू
संज्ञा पुं० [सं० गूः = मल, पाखाना] दे० 'गूह' ।
⋙ गूगल
संज्ञा [ सं० गुग्गुल] दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गूगुल
संज्ञा पुं० [सं० गुग्गुल] दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गूघट पु
संज्ञा पुं० [हिं० घूँघट] दे० ' घूँघट' । उ०—नटनागर निरखण दो नरखो जितिहारो गूघट कोर ।—नट०, पृ० १२१ ।
⋙ गूघर पु
संज्ञा पुं० [ हिं० घुँघरु] दे० 'घुघरू' । उ०—मिल चहुर मूछा भुहर भर, बज पखर गूघर भिड़ज वर ।— रघु० रू०, पृ० २१९ ।
⋙ गूजर
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] [स्त्री० गूजरी, गुजरिया] १. अहीरों की एक जाति । ग्वाला । २. क्षत्रियों का एक भेद ।
⋙ गूजरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजर] दे० 'गूजरी' । उ०—कुछ मील चढ़ने पर अपनी भैसों के रेवड़ को लिए मुस्लिम गूजर और गूजरनियाँ मिलीं ।—किन्नर०, पृ० ९ ।
⋙ गूजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुर्जरी] १. गूजर जाति की स्त्री । ग्वालिन । २. पैर में पहनने का जेवर । उ०—सौतिन को करि डारिहै कूजरी ऊजरी गूजरी गूजरी तेरी ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । ३. एक रागिनी ।
⋙ गूजी †
संज्ञा पुं० [सं० गुजुवा का स्त्री०] एक प्रकार का छोटा काला कीड़ा ।
⋙ गूझा
संज्ञा पुं० [सं० गुह्यक, प्रा० गुञ्झा] [स्त्री० गुझिया] १. बड़ी पिराक । आटे या मैदे का एक पकवान । विशेष—यह आकार में अर्धचंद्र होता । इसके भीतर मीठा तथा गरी, चिरौंजी, किसमिस आदि मेवे भरे रहते हैं । २. गूदा । ३. फलों के भीतर का रेशा ।
⋙ गूटी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] लीची का पेड़ लगाने की एक युक्ति ।
⋙ गूटी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चौपायों का एक रोग ।
⋙ गूड़ पु
वि० [हिं० गूढ़] दे० 'गूढ़' । उ०—लालु गुलालु शादि गुर गूड़ा़ ।—प्राण०, भा० १, पृ० ९७ ।
⋙ गूड़र पु
संज्ञा पुं० [हिं० गोयड़] गाँव का पड़ोस । उ०—हसती घोड़ा गाँव गढ गूड़र, कनड़ा पाइक आगी ।—कबीर ग्रं०, पृ० १८९ ।
⋙ गूड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुहा या गुह्य] ज्वार या बाजरे की बाल में वह गड्ढा या प्याली जिसमें दाना गड़ा रहता है ।
⋙ गूढ़ (१)
वि० [सं० गूढ़] १. गुप्त । छिपा हुआ । यौ०—गूढ़जत्रु, गूढ़पाद—सर्प । २. जिसमें बहुत सा अभिप्राय छिपा हो । अभिप्रायगर्भित । गंभीर । जैसे,—उसकी बातें अत्यंत गूढ़ होती हैं । उ०— कह मुनि विहँसि गूढ़ मृदु बानी । सुना तुम्हारि सकल गुण खानी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. जिसका आशय जल्दी न समझ में आवे । अबोधगम्य । कठिन । जटिल । गैसे, गूढ़ विषय ।
⋙ गूढ़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़] १. स्मृति में पाँच प्रकार की साक्षियों में से एक साक्षी जिसे अर्थी ने प्रत्यर्थी का वचन सुना दिया हो । २. एक अलंकार जिसे सूक्ष्म भी कहते हैं । गूढो़त्तर । गूढो़क्ति । दे० 'सूक्ष्मालंकार' । विशेष—सूक्ष्म, पर्यायोक्ति और विवृतोक्ति नामक अलंकार सब इसी के अंतर्गत आ सकते हैं । ३. एकांत या निर्जन स्थान (को०) । ४. रहस्य । भेद (को०) । ५. गुप्तांग [को०] ।
⋙ गूढ़चर
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़चर] भेदिया । गुप्तचर [को०] ।
⋙ गूढ़चारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़चारिन्] गुप्तचर । भेदिया [को०] ।
⋙ गूढ़चारी (२)
वि० भेद लेनेवाला । छिपकर टोह लेनेवाला [को०] ।
⋙ गूढ़ज
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़ज] बाहर प्रकार के पुत्रों में से एक । वह पुत्र जिसे पति के घर रहते हुए भी पत्नी ने अपने किसी गुप्त जार से पैदा किया हो और वह जार उसके पति का सवर्ण ही हो ।
⋙ गूढ़जात
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़जाता] दे० 'गूढ़ज' ।
⋙ गूढ़जीवी
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़जीविन्] १. वह जिसकी जीविका का पता न चलता हो । वह जिसके संबंध में यह पता न हो कि वह किस प्रकार अपना निर्वाह करता है । २. गुप्त रूप से चोरी डकैती आदि के द्वारा जीवन निर्वाह करनेवाला व्यक्ति ।
⋙ गूढ़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० गूढ़ता] १. गुप्तता । छिपाव । पोशीदगी । २. अबोधगम्यता । गंभीरता । कठिनता ।
⋙ गूढ़त्व
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़त्व] १. गूढ़ता । छिपाव । पोशीदगी । २. अबोधगम्यता । गंभीरता । कठिनता ।
⋙ गूढ़नीड़
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़नीड़] खंजन पक्षी ।
⋙ गूढ़पत्र
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़पत्र] १. करील वृक्ष । २. अंकोट का पेड़ ।
⋙ गूढ़पथ
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़पथ] १. छिपा हुआ मार्ग । २. पगडंडी । ३. मन । बुद्धि [को०] ।
⋙ गूढ़पद
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़पद] सर्प । साँप ।
⋙ गूढ़पा पु
संज्ञा पुं० [ सं० गूढ़पाद्] पुं० 'गूढ़पाद' ।
⋙ गूढ़पाद्
संज्ञा पुं० [सं० गूड़पाद्] साँप [को०] ।
⋙ गूढ़पाद
संज्ञा पुं० [सं० गूढपाद] दे० 'गूढ़पद' ।
⋙ गूढ़पुरुष
संज्ञा पुं० [सं गूढ़पुरुप] भेदिया । जासुस [को०] ।
⋙ गूढ़पुष्प
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़पुष्प] १. पीपल, बड़, गूलर, पाकर इत्यादि वृक्ष । २.मौलसिरी । बकुल वृक्ष ।
⋙ गूढ़फल
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़फल] बेर का पेड़ ।
⋙ गूढ़भाषित
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़भाषित] गूढ़ बात । ऐसी बात जो सबकी समझ में न आए [को०] ।
⋙ गूढ़मंडप
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़मणडप] किसी देवमंदिर के भीतर का बरामदा या दालान ।
⋙ गूढ़मार्ग
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़मार्ग] सुरंग [को०] ।
⋙ गूढ़मैथुन
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़मैथुन] काक । कौवा ।
⋙ गूढ़व्यंग्य
संज्ञा स्त्री० [सं० गूढव्यङ्ग] काव्य में एक प्रकार की लक्षणा जिसमें व्यंग्य का अभिप्राय सर्वसाधारण को जल्दी समझ में नहीं आ सकता ।
⋙ गूढ़ांग
संज्ञा पुं० [सं० गूढ़ाङ्ग] कछुवा ।
⋙ गूढ़ांघ्रि
संज्ञा पुं० [ सं० गूढ़ाङघ्रि] सर्प । साप ।
⋙ गूढ़ां (१)
संज्ञा पुं० [ सं० गूढ़] मोटी और लंबी लकड़ी जो नाव में कोटभन्यि के ऊपर लगाई जाती है । विशेष—यह किश्ती की लंबाई के हिसाब से ड़ेढ ड़ेढ या दो दो हाथ की दूरी पर मजबूती के लिये लगाई जाती है ।
⋙ गूढ़ा (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गूढ़] पहेली । प्रहेलिका । उ०—गाहा गूढ़ा़ गीत गुण कहि का नवली वाति ।—ढोला०, दू० ५६७ ।
⋙ गूढ़ोत्कि
संज्ञा स्त्री० [ सं० गूढोक्ति] एक अलंकार जिसमें कोइ गुप्त बात किसी दुसरे के ऊपर छोड़ किसी तीसरे के प्रति कही जाती है । जैसे—वृष भागहु पर खेत से आयो रक्षक खेत ।यहाँ चरते हुए बैल के बहाने परकीया के नायक के प्रति बात कही गई है ।
⋙ गूढो़त्तर
संज्ञा पुं० [सं० गूढोत्तर] वह काव्यालंकार जिसमें प्रश्न का उत्तर कोई गूढ़ अभिप्राया या मतलब लिय हुए दिया जाता है । जैसे ग्वालिन देहुं बताइ हौं मोहिं कछू तुम देहु । बंसीवट की छाँह में लाल जाय तुम लेहु ।—मतिराम (शब्द०) । यहाँ उत्तर में लाल शब्द के द्वार नायक से मिलने का संकेत है ।
⋙ गूण पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौन] दे० 'गौन' । उ०—ताँड़ै नायक नाम निज गुण की गूण भराय ।—राम० धर्म०, पृ० ५३ ।
⋙ गूता पु
वि० [सं० गुप्त] दे० 'गुप्त' । उ०—यह मैं वचन कहौं निज गूता ।—कबीर सा०, पृ० २७ ।
⋙ गूथ
संज्ञा पुं० [सं०] मल । विष्ठा [को०] ।
⋙ गूथना
क्रि० स० [ सं० ग्रन्थन] १. कई वस्तुओं को तागे आदि के द्वारा एक में बाँधना या फँसना । कई चीजों को एक में बाँधना या फँसाना । कई चीजों को एक गुच्छे या लड़ी में नाथना । पिरोना । जैसे—माला गूथना । २. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु में तागे से अटकाना । टाँकना । जैसे,—झूलों पर स्थान स्थान मोती गूथे गए थे । ३. टाँके आदि के द्वारा दो वस्तुओं को एक में जोड़ना । टाँके से जोड़ मिलाना । ४. भद्दी सिलाई करना । टाँका मारना । सीना । गाँथना । मुहा०—गुथागाँथी = (१) भद्दी और मोटी सिलाई । (२) किसी काम को फूहड़ ढंग से करना ।
⋙ गूद † (१)
संज्ञा पुं० [सं गुप्त, प्रा० गुत्त] गुदा । मग्ज । उ०—खाइ विरह गा ताकर गुद मांस की खान ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २९६ ।
⋙ गुद (२)
संज्ञा स्त्री० [ सं० गर्त्त] १. गडढा । गर्त । २. गहरा चिह्न । निशान । दाग । जैसे—उसके चेहरे पर शीतला की गुदै थीं ।
⋙ गूदड़
संज्ञा पुं० [हिं० गुथना] [स्त्री०गूदड़ी] चिपटा । फटा पुराना कपड़ा । यौ०—गूदड़शाह या गूदड़ साँई =गुदड़ी पहननेवाला साधु या फकीर ।
⋙ गूदर पु †
संज्ञा पुं० [ हिं 'गूदड़'] दे० 'गूदड़' । उ०—हम गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ । कंचनमणि खोलि ड़ारि काँच गर बँधाऊँ । कुंकुम को तिलक मेटि काजर मुख लाऊँ । पाटंबर अंबर तजि गूदर पहिराऊँ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गूदरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूदर]दे० 'गुदड़ी' । उ०—प्रेम भभूति विवेक की फावड़ी, गूदरी खुसी अरु आड़ माला ।—पलटू०, भा० २. पृ० १० ।
⋙ गूदला पु
वि० [हिं० गँदला] दे० 'गँदला' । उ०—गूदले व्योम ढँके गरद, रवि लुक्के धूआँ रवण ।—रा० रू०, पृ० १५५ ।
⋙ गूदा
संज्ञा पुं० [सं० गुप्त, प्रा० गुत्त] [स्त्री० गूदी] १. किसी फल का सार भाग जो छिलके के नीचे होता है । फल के भीतर का वह अंश जिसमें रस आदि रहता है । २. भेजा । मग्ज । खोपड़ी का सार भाग ।— उ०—सोनित सो सानि गूदा खात सतुआ से एक एक प्रेत पियत बहोरि घोरि घोरि कै ।— तुलसी (शब्द०) । मुहा०—मारते मारते गूदा निकालना = गहरी मार मारना । ३. किसी चीज के भीतर का सार भाग । मींगी । गिरी । ४. किसी वस्तु का सार भाग । मुहा०—बातों का गूदा निकालना = बाला की खाल निकालना । बहुत खोद विनोद करना ।
⋙ गूदेदार
वि० [ हि० गूदा + फा० दार] गूदायुक्त । जिसमें गूदा हो । जिसमें पर्याप्त गूदा हो । गुदार ।
⋙ गूधना पु
संज्ञा० पुं० [हिं०] दे० ' गूथना' । उ०—बेइलि चमेलि ग्रिव गुधिए हार । सोधा चरचित करूँ सिंगार ।—सं० दरिया, पृ० १७३ ।
⋙ गून (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुण = रस्सी] १. रस्सी जिससे नाव खींचते हैं । २. रीहा घास ।
⋙ गून (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुण] दे० 'गुण' । उ०—जौवन याहि कम नहि ऊन, धनि तुअ विसय देखिअ सब गून ।—विद्यापति, पृ० ३१५ ।
⋙ गूनसराई
संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक प्रकार का वृक्ष । रोहू । विशेष—यह पूर्वी हिमालय और विशेषतः दारजिलिंग तथा आसास में पाया जाता है ।
⋙ गूना (१)
संज्ञा पुं० [फा० गूनह् = रंग] एक प्रकार का सुनहला रंग जो सोने या पीतल से बनाया जाता है और सदूकों, शीशों तथा धतु की अन्य वस्तुओं पर चढा़या जाता है ।
⋙ गूना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गुना]दे० 'गुना' । उ०—दह गूना दल साहि सज्जि चतुरंग सजी उर ।—पृ० रा०, २७ ।२६ ।
⋙ गूनागून पु
[सं गुण + अगुण] अच्छे बुरे गुण । गुण और अवगुण ।
⋙ गूप पु
वि० [हिं० गुप] दे० 'गुप्त' । उ०—नाम नहीं औ नाम सब रूप नीहीं सब रूप । सहजो सब कुछ ब्रह्म है हरि परगट हरि गूप ।—सहजो०, पृ० ४६ ।
⋙ गूमट
संज्ञा पुं० [हिं० गुम्मट] दे० 'गुम्मट' ।
⋙ गूमठ पु
संज्ञा पुं० [हिं० गुम्मट] दे० 'गुम्मट' । उ०—गूमठ में जब जाय लगो, मुराकबे नजरि में आवता है ।—पलटू० पृ० ५१ ।
⋙ गूमड़ा
संज्ञा पुं० [सं० गुल्म] वह गोल और कड़ी सूजन जो सिर या माथे चोट लगने से होती है ।
⋙ गूमना †
क्रि० स० [देश०] १ गूँधना । माँड़ना । आटे की तरह माँड़ना । २. कुचलना । रौंदना ।
⋙ गूमा
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भा, गुम्भा] एक छोटा पौधा । विशेष—इसकी गाँठ गाँठ पर गुच्छा सा होता है । इसी गुच्छे पर दो पत्ते निकलते हैं और सफेद फूल भी लगते यहैं । यह औषध के काम में आता है । इसे गूम और गूँम भी कहते हैं । पर्या०—द्रोण । द्रोणपुष्पी । कुंभा । कुंभयोनि ।
⋙ गूरण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रयत्न । उद्योग [को०] ।
⋙ गूरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गुल्ला] गुल्ला । ढेला ।
⋙ गूरू पु
संज्ञा पुं० [सं० गुरू] दे० 'गुरू' । उ०—सूरी मेलु हस्ति कर पूरू । हौं नहिं जानौ जानौ गुरू ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २८४ ।
⋙ गूर्जर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुर्जर' [को०] ।
⋙ गूर्ण
वि० [सं०] कृतज्ञ । आभारी (को०) ।
⋙ गूर्त
वि० [सं०] कृतज्ञ । कनौड़ा । कनावड़ा [को०] ।
⋙ गूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रशंसा । २. सहमति [को०] ।
⋙ गूर्द
संज्ञा पुं० [सं०] कुदान । कूदने की क्रिया [को०] ।
⋙ गूलड़ पु
संज्ञा पुं० [ हिं० गूलर] दे० 'गूलर' । उ०—आम और जामुन के फल हैं, कुछ गूलड़, कुछ गुल्लू कच्चे ।—आराधना पृ० ७४ ।
⋙ गूलभाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० फूल का अनु० गूल + हिं० भाँग] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की भाँग का मादा पेड़ जिसकी टहनियों से रेशे निकाले जाते हैं ।
⋙ गुलर (१)
संज्ञा पुं० [सं० उदुंबर ?] वट वर्ग अर्थात् पीपल और बरगद की जाति का एक बड़ा पेड़ जिसकी पेड़ी । ड़ाल आदि से एक प्रकार का दूध निकलता है । विशेष—इसके पत्ते महुवे के पत्ते के आकार के पर उससे छोटे होते हैं । पेड़ी और ड़ाल की छाल का रंग ऊपर कुछ सफेदी लिए और भीतर ललाई लिए होता है । अश्वत्थवर्ग के और पेड़ों के समान इसके सूक्ष्म फूल भी अंतर्मुखअर्थात् एक कोश के भीतर बंद रहते हैं । पुं० पुष्प और स्त्री० पुष्प के अलग अलग कोश होते हैं । गर्भाधान कीड़ों की सहायता से होता है । पुं० केसर की वृद्धि के साथ साथ एक प्रकार के कीड़ों की उत्पत्ति होती है जो पुं० पराग को गर्भकेसर में ले जाते है । यह नहीं जाना जाता कि कीड़े किस प्रकार पराग ले जाते हैं । पर यह निश्चय है किले अवश्य जाते हैं और उसी से गर्भाधान होता है तथा कोश बढ़कर फल के रूप में होते हैं । यह मांसल और मुलायम होता है । इसके ऊपर कड़ा छिलका नहीं होता, बहुत महीन झिल्ली होती है । फल को तोड़ने से उसके भीतर गर्भकेसर और महीन महीन बीज दिखाई पड़ते हैं तथा भुनगे या कीड़े भी मिलते हैं । गूलर की छाया बहुत शीतल, मानी जाती है । वैद्यक में गुलर शीतल, घाव को भरनेवाला, कफ, पित्त और अतीसार को दूर करनेवाला माना है । इसकी छाल स्त्री गर्भ को हितकारी, दुग्धवर्धक और व्रणनाशक मानी जाती है । अंजीर आदि वट जाति के और फलों के समान इसका फल भी रेचक होता है । पर्या०—उदुंबर । असुमा । क्षीरी । खस्पत्रिका । कुष्ठघ्नी । राजिका । फल्गुवाटिका । अजीजा । फल्गुनी । मलयु । मुहा०—गूलर का कीड़ा = एक ही स्थान पर पड़ा रहनेवाला । अनुभव प्राप्त करने के लिये घर या देश से बाहर न निकलनेवाला । इधर उधर कुछ खबर न रखनेवाला । कूपमंड़ूक । गूलर का फूल = वह जो कभी देखने में न आवे । दुर्लभ व्यक्ति या वस्तु । गुलर का होना = कभी देखने में न आना । दुर्लभ होना । गुलर का पेट फड़वाना = गुप्त या दबी दबाई बात प्रकट कराना । भंडा फोड़वाना । भेद खुलवाना । गूलर फोड़कर जीव उडा़ना = गुप्त भेद प्रकट करना ।
⋙ गूलर (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] मेढक । दादुर ।
⋙ गूलरकबाब
संज्ञा पुं० [हिं० गूलर + फा० कबाब] एक प्रकार का कबाब । विशेष—यह उबले और पिसे हुए मांस के भीतर अदरक, पुदीना आदि भरकर भूनने से बनता है ।
⋙ गूला
संज्ञा पुं० [हिं० गोला] हूरा । छोर । उ०—ठंढाई के चढ़ते हरे नशे में रामसिंह आँखे खोल मूँद रहे थे कि जमींदार का सिपाही लट्ठ का बँधा गूला जमीन पर दे मारकर रामसिंह के साधारण जमींदार को साथ लिए बोला । —काले० पृ० २२ ।
⋙ गूलू
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक वृक्ष का नाम जिसे पुंड़्रक भी कहते हैं । विशेष—इससे एक प्रकार का सफेद गोद निकलता है जिसे कतीला या कतीरा कहते हैं और जो पानी में नहीं घुलता । इस वृक्ष की छाल की रस्सीयाँ बटी जाती हैं । जब यह वृक्ष दस वर्ष का हो जाता है तब इसे काट डालते हैं और डालियों को छाँटकर तने के छह छह फुट के टुकडे़ कर डालते हैं । फिर छाल को उतारकर रस्सियाँ बटते हैं । पत्तियाँ और डालियाँ चारे और दवा के काम आती हैं । लकडी़ से खिलौने तथा सितार सारंगी आदि बाजे बनते हैं । कोई कोई जडों की तरकारी भी बनाते हैं या उन्हें गुड़ के साथ मिलाकर खाते हैं । यह उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिण तथा बर्मा के सखे जंगलों में होता है । पश्चिमी घाट के पहाड़ों पर यह बहुत मिलता है ।
⋙ गूवाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुवाक' ।
⋙ गूषणा
संज्ञा पुं० [सं०] मोर की पूँछ पर बना हुआ अर्धचंद्र चिह्न ।
⋙ गूह
संज्ञा पुं० [सं० गूः] गलीज । मल । मैला । विष्ठा । बीट । मुहा०—गूह उठाना =(१) पाखाना साफ करना । (२) तुच्छ से तुच्छ सेवा करना । बडी़ सेवा करना । गूह की तरह बचाना = घृणापूर्वक दूर रहना । जैसे—हम ऐसे आदमियों को गूह की तरह बचाते हैं । गूह की तरह छिपाना = निंदा और लज्जा के भय से गुप्त रखना । गूह उछलना = कलंक फैलना । निंदा होना । गूह उछालना = बदनामी कराना । गूह करना = गंदा और मैला करना । गूह का चोथ = भद्दा और घिनौना (वस्तु या व्यक्ति) । गूह का टोकरा = बदनामी का टोकरा । कलंक का भार । गूह खाना = बहुत अनुचित और भ्रष्ट कार्य करना । गूह गोड़ते फिरना = अगम्या स्त्रियों से गमन करते फिरना । गूह थापना = पागलपन के काम करना । होश में न रहना । गूह में ढेला फेंकना = बुरे आदमी से छेड़छाड़ करना । (बच्चों और रोगियों का) गूह मूत करना = मलमूत्र साफ करना । मुँह में गूह देना = बहुत धिक्कारना । किसी को छी छी कहना ।
⋙ गूहन
संज्ञा पुं० [सं०] छिपाना । छिपाव [को०] ।
⋙ गूहाँजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुहाँजनी] दे० 'गुहाँजनी' ।
⋙ गूहाछीछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूह + छीछी] १. अश्लील और गाली भरी कहा सुनी । बदनामी । २. अपवाद । कलंक ।
⋙ गृंजन
संज्ञा पुं० [सं० गृञ्जन] १. गाजर । २. शलगम । ३. लाल लहसुन (को०) । ४. गाँजा (को०) । ५. विषैले बाण से मारे हुए जानवर का मांस (को०) ।
⋙ गृंडिब, गृंडीव
संज्ञा पुं० [सं० गृणिडंव, गृणडीव] एक प्रकार का सियार [को०] ।
⋙ गृत्स (१)
वि० [सं०] १. कुशल । दक्ष । प्रवीण ।२. विवेकी । विचा— रक । ३. धूर्त । चालाक [को०] ।
⋙ गृत्स (२)
संज्ञा पुं० कामदेव [को०] ।
⋙ गृद्ध (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० गृध्र] दे० 'गृध्र' । उ०—चुंचनि चुत्थैं गृद्ध मांस जंबुक मिलि भच्छै ।—हम्मीर० पृ० ५८ ।
⋙ गृद्ध (२)
वि० [सं०] १. चाहनेवाला । इच्छा करनेवाला । २ फिदा । आसक्त [को०] ।
⋙ गृधु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव [को०] ।
⋙ गृधु (२)
वि० विषयी । कामी [को०] ।
⋙ गृधू (१)
वि० [सं०] खल । दुष्ट [को०] ।
⋙ गृधू
संज्ञा स्त्री० १. अपान वायु । २. समझ । बुद्धि [को०] ।
⋙ गृध्नु
वि० [सं०] १. लालची । लोभी । २. उत्सुक । इच्छुक [को०] ।
⋙ गृध्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा । २. लोभ [को०] ।
⋙ गृध्य (२)
वि० १. इच्छा के योग्य । चाहने योग्य । २. लोभनीय [को०] ।
⋙ गृध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इच्छा । २. लोभ [को०] ।
⋙ गृध्या
वि० १. कामना योग्य । चाहने योग्य । २. लोभनीय [को०] ।
⋙ गृध्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिद्ध । गीध पक्षी । २. जटायु, संपाति आदि पौराणिक पक्षी । यौ०—गृध्रकूट । गृध्रव्यूह ।
⋙ गृध्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] राजगृह के निकट एक पर्वत का नाम ।
⋙ गृध्रराज
संज्ञा पुं० [सं०] जटायु [को०] ।
⋙ गृध्रव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] सेना की एक प्रकार की रचना या स्थिति जो गीध के आकार की होती थी । उ०—तब प्रद्युम्न तुरत प्रभु टेरा । गृध्रव्यूह विरचहु दल केरा । —रघुराज (शब्द) ।
⋙ गृध्रसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वातरोग । विशेष—यह पहले कूल्हे से उठता है और धीरे धीरो नीचे को उतरता हुआ दोनों पैरों को जकड़ लेता है । इसमें सुई चुभने की सी पीडा़ होती है, पैर काँपते हैं और रोगी बहुत धीरे चलता है, तेज नहीं चल सकता ।
⋙ गृध्राण
वि० [सं०] १. गृध्र जैसा (लोभ में) ।२. उत्कट भव से चाहनेवाला [को०] ।
⋙ गृध्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिद्धों की आदि माता जो कश्यप और ताम्रा की पुत्री थी [को०] ।
⋙ गृध्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा गिद्ध [को०] ।
⋙ गृभ
संज्ञा पुं० [सं०] घर । गृह [को०] ।
⋙ गृभित, गृभीत
वि० [सं०] १. पकडा़ हुआ बंदी । गिरफ्तार । २. गर्भयुक्त । गर्भाया हुआ (फल) [को०] ।
⋙ गृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो केवल एक बार ब्याई हो । जवान गाय । २. वह स्त्री जिसको केवल एक ही पुत्र उत्पन्न हुआ हो [को०] ।
⋙ गृह
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गृही] १. घर । मकान । निवासस्थान । आश्रम । २. कुटुंब । खानदान । वंश । ३. पत्नि । गृहिणी (को०) । ४. गृहस्थाश्रम (को०) । ५. मेषादि राशि (को०) । यौ०—गृहविज्ञान = घरेलू जानकारी संबंधी शास्त्रीय ज्ञान ।
⋙ गृहउद्योग
संज्ञा पुं० [सं०] घर में किया जानेवाला उद्योग धंधा । कुटीर उद्योग ।
⋙ गृहकन्या, गृहकुमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घीकुवार । घृतकुमारिका । ग्वारपाठा ।
⋙ गृहकपोत, गृहकपोतक
संज्ञा पुं० [सं०] पालतू कबूतर [को०] ।
⋙ गृहकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. घरेलू कामधंधा । २. भवननिर्माण [को०] ।
⋙ गृहकर्म
संज्ञा पुं० [सं० गृह + कर्मन्] १. घरेलू कार्य । गृहस्थ के लिये विहित कार्य [को०] ।
⋙ गृहकलह
संज्ञा पुं० [सं०] १. घरेलू झगडा़ । आंतरिक संघर्ष ।
⋙ गृहकारक
संज्ञा पुं० [सं०] भवननिर्माता । स्थपति । राज [को०] ।
⋙ गृहकारी
संज्ञा पुं० [सं० गृहकारिन्] १. भवन का निर्माता । २. एक प्रकार की बर्रे या भिड़ [को०] ।
⋙ गृहकार्य, गृहकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] घर का काम धंधा ।
⋙ गृहगोधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली । बिसतुइया ।
⋙ गृहगोधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकिली । बिसतुइया ।
⋙ गृहचेता
वि० [सं० गृहचेतस्] घर की चिंता करनेवाला [को०] ।
⋙ गृहछिद्र
संज्ञा पुं० [सं० गृहच्छिद्र] १. परिवार की गोपनीय बात । २. परिवार का कलंक । अपवाद [को०] ।
⋙ गृहज
वि० [सं०] दे० 'गृहजात' [को०] ।
⋙ गृहजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिवार । कुटुंब । २. परिवार के सदस्य । कुटुंबी विशेषतया पत्नी (को०) ।
⋙ गृहजात (दास)
संज्ञा पुं० [सं०] वह दास जो घर में दासों से पैदा हुआ हो ।
⋙ गृहजालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छल । कपट [को०] ।
⋙ गृहज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० गृहज्ञानिन्] वह जिसका ज्ञान घर तक ही सीमित हो । वह जो घर में ही पांडित्य दिखला सकता हो । अज्ञानी । मूर्ख [को०] ।
⋙ गृहणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काँजी ।
⋙ गृहतटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घर का अग्र भाग [को०] ।
⋙ गृहत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] घर का छोड़ना । गृहस्थाश्रम छोड़ना [को०] ।
⋙ गृहत्यागी
वि० [सं०] घर छोड़कर चला जानेवाला । संन्यासी [को०] ।
⋙ गृहदास
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गृहदासी] घर का नौकर [को०] ।
⋙ गृहदाह
संज्ञा पुं० [सं०] घर में आग लगना [को०] । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गृहदीप्ति
संज्ञा पुं० [सं०] घर की ज्योति अर्थात् सती साध्वी स्त्री [को०] ।
⋙ गृहदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि से ब्रह्मा तक के घर के ४५ देवता जो भिन्न भिन्न कार्यों के लिये हैं [को०] ।
⋙ गृहदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृहिणी । २. जरा नाम की राक्षसी [को०] ।
⋙ गृहदेहली
संज्ञा स्त्री० [सं०] घर का द्वार या चौखटा [को०] ।
⋙ गृहद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] मेढ़शृंगी [को०] ।
⋙ गृहनमन
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा । [को०] ।
⋙ गृहनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली कबूतर ।
⋙ गृहनीड़
संज्ञा पुं० [सं० गृहनीड] गौरा पक्षी । गौरैया ।
⋙ गृहप
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का मालिक । २. घर का रक्षक । चौकीदार । ३. कुत्ता । उ०—(क) गृहप गोध गोमाक कलौ— लै । छांटत मूँड़ कपाली डोलैं ।—विश्राम (शब्द०) । (ख) यथा गृहप शवकास्थि लै चपि चाबत सह प्रीति । निज तालूगत तनुज भखि मानत तोष अभीति ।—विश्राम (शब्द०) । ४. अग्नि । आग ।
⋙ गृहपति
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गृहपत्नी] १. घर का मालिक । २. कुत्ता । ३. अग्नि । ४. मेजमान । उ०—तुम नहीं हो अतिथि, तुम हो नित्य गृहपति मुदित मनहर ।—अपलक, पृ० ८० ।
⋙ गृहपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घर की मालकिन । गृहस्वामिनी [को०] ।
⋙ गृहपशु
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता ।
⋙ गृहपातक व्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० गृहपातकब्यञ्जन] कौटिल्य के अनुसार सामान्य गुहस्थ के रूप में रहनेवाले गुप्तचर जो लोगों के रहन सहन, आमदनी आदि की खबर रखते थे । ये समाहर्ता के अधीन रहते थे ।
⋙ गृहपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का रक्षक । चौकीदार । पहरू । २. कुत्ता । उ०—गृहपालहू ते अति निरादर खान पान न पावई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गृहपालित
वि० [सं०] घर में पोषित या पाला हुआ [को०] ।
⋙ गृहपिंडी
संज्ञा स्त्री० [गृहपिणडी] घर की नींव [को०] ।
⋙ गृहपोतक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी घर या गृह का स्थान । वह भूमि जिसमें कोई गृह निर्मित होता है । वह स्थान जो घर के घेरे में हो [को०] ।
⋙ गृहपोषण
संज्ञा पुं० [सं०] घर का निर्वाह या पोषण [को०] ।
⋙ गृहप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं०] गृह का संचालन या व्यवस्था [को०] ।
⋙ गृहप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] नवनिर्मित घर में धर्मिक विधान या विधिपूर्व प्रवेश करना [को०] ।
⋙ गृहबलि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] घर में दी जानेवाली बलि, जो पशुओं, लोकातीत या दैवी प्राणियों विशेषतः परिवार के देवताओं को दी जाती है [को०] ।
⋙ गृहबलिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] बगुला । बक [को०] ।
⋙ गहबलिभुक
संज्ञा पुं० [ सं० गृहवलिभृज] १. कौआ । २. गौरैया [को०] ।
⋙ गहभंग
संज्ञा पुं० [गृहभङ्ग] १. घर से निकला हुआ व्यक्ति ।२ घर का नाश । ३. घर की सेंध । ४. गृह या संस्था का विफल होना, गिर जाना या नष्ट होना [को०] ।
⋙ गृहभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सभाकक्ष । बैठक [को०] ।
⋙ गृहभर्ता
संज्ञा पुं० [पुं० गृहभर्तृ] घर का स्वामी [को०] ।
⋙ गृहभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जिसपर मकान बना हो या बननेवाला हो (को०) ।
⋙ गृहभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर में झगडा़ होना । २. घर में सेंध लगना [को०] ।
⋙ गृहभेदी
संज्ञा पुं० [सं० गृहभेदिन्] [वि० स्त्री० गृहभेदिनी] १. घर में झगडा़ लगानेवाला । २. घर में सेंध लगानेवाला [को०] ।
⋙ गृहभोज
संज्ञा पुं० [सं०] गृहप्रवेश के अवसर पर होनेवाला या किया जानेवाला भोज ।
⋙ गृहभोजी
वि० [सं० गृहभोजिन्] उसी घर में रहने या खानेवाला [को०] ।
⋙ गृहमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० गृहमन्त्रिन्] राज्य अथवा देश का वह मंत्री जिसके ऊपर आंतरिक सुरक्षा तथा शासन का भार हो । (अं० होम मिनिस्टर) ।
⋙ गृहमणि
संज्ञा पुं० [सं०] दिपक । चिराग ।
⋙ गृहमाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ [को०] ।
⋙ गृहमार्जनी
देश० स्त्री० [सं०] घर की नौकरनी । गृहदासी [को०] ।
⋙ गृहमुखी
संज्ञा पुं० [सं० गृहमुख + ई (प्रत्य०)] जो अपना घर छोड़कर बाहर (विदेश) न जाना चाहता हो । उ०—समुद्र- तट के अधिवासी साधारणतः मछुए, साहसी नाविक तथा कुशल व्यापारी और अंतर्वर्ती देशों जैसे चीन आदि के लोग गृहमुखी होते हैं —भारत० नि०, पृ० १० ।
⋙ गृहमृग
संज्ञा पुं० [सं०] मृग ।
⋙ गृहमेध
संज्ञा पुं० [सं०] गृह की पंक्ति । मकानों का समूह [को०] ।
⋙ गृहमेध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गृहस्थ । २. पंचयज्ञ [को०] ।
⋙ गृहमेध (२)
वि० १. गृहस्थाश्रमी । २. पंचयज्ञ करनेवाला [को०] ।
⋙ गृहमेधी
वि० [सं० गृहमेधिन्] १. गृहस्थाश्रमी । २. पंचयज्ञ करने— वाला [को०] ।
⋙ गृहमेधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृहस्थ की पत्नी । २. सत्यगुण की बुद्धि [को०] ।
⋙ गृहमोचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ [को०] ।
⋙ गृहयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गृहयन्त्र] वह डंडा जिसपर उत्सवादि के समय झंडा फहराया जाता है [को०] ।
⋙ गृहयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गृहमेध' [को०] ।
⋙ गृहयालु
वि० [सं०] पकड़ने या धरने का इच्छुक [को०] ।
⋙ गृहयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह युद्ध जो एक ही देश या राज्य के निवासियों में आपस में हो । अंतःकलह । गृह का कलह ।
⋙ गृहरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० गृहरन्ध्र] पारिवारिक कलह या झगडा़ [को०] ।
⋙ गृहलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुशीला पत्नी ।
⋙ गृहवाटिका, गृहवाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घर से सटा हुआ बाग या वाटिका [को०] ।
⋙ गृहवासी— (१)
संज्ञा पुं० [सं० गृहवासिन्] १. गृहस्थ । २. सदा घर में रहनेवाला । घर में घुसा रहनेवाला [को०] ।
⋙ गृहवासी (२)
वि० १. गृही । घरवाला । २. घर में घुसा रहनेवाला । घरघुसुवा [को०] ।
⋙ गृहविच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] घर का बरबाद होना [को०] ।
⋙ गृहवित्त
संज्ञा पुं० [सं०] घर का मालिक [को०] ।
⋙ गृहव्रत
वि० [सं०] गृह या गृहस्थ आश्रम में स्थित (को०) ।
⋙ गृहशायी
संज्ञा पुं० [सं० गृहशायिन्] कबूतर [को०] ।
⋙ गृहशुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालतू शुक । २. घर का कवि [को०] ।
⋙ गृहसंवेशक
संज्ञा पुं० [सं०] घर बनाने का धंधा करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ गृहसचिव
संज्ञा पुं० [सं० गृह + सचिव] दे० 'स्वराष्ट्र सचिव' ।
⋙ गृहसार
संज्ञा पुं० [सं०] संपत्ति । जायदाद [को०] ।
⋙ गृहस्त †
संज्ञा पुं० [सं० गृहस्थ] दे० 'गृहस्थ' ।
⋙ गृहस्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मचर्य के उपरांत विवाह करके दूसरे आश्रम में रहनेवाला व्यक्ति । ज्येठाश्रमी । २. घरबारवाला । बाल बच्चोंवाला आदमी । ३. खाने पीने से खुश आदमी । वह मनुष्य जिसके यहाँ खेती आदि होती हो । किसान ।
⋙ गृहस्थ (२)
वि० [सं०] घर में रहनेवाला । गृहवासी [को०] ।
⋙ गृहस्थाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] चार आश्रमों में से दूसरा आश्रम जिसमें ब्रह्मचर्य अर्थात् विद्याध्ययन आदि के उपरांत लोग विवाह करके प्रवेश करते थे और घर का कामकाज देखते थे । जीवन की वह अवस्था जिसमें लोग स्त्री पुत्र आदि के साथ रहते और उनका पालन करते हैं ।
⋙ गृहस्थाश्रमी
वि० [सं० गृहस्थाश्रम + ई (प्रत्य०) ] गृहस्थाश्रम में रहनेवाला [को०] ।
⋙ गृहस्थिन
संज्ञा स्त्री० [सं० गृहस्थ + हिं० इन (प्रत्य०) ] गृहिणी । घर की मालकिन । उ०—लेखक ने शुरू में उसे बिलकुल मामूली गृहस्थिन के रूप में उतारा है ।—सुनीता, पृ० १३ ।
⋙ गृहस्थी
संज्ञा स्त्री० [सं० गृहस्थ + ई (प्रत्य०) ] १. गृहस्थाश्रम । गृहस्थ का कर्तव्य । २. घर बार । गृह व्यवस्था । ३. कुटुंब । लड़के बाले । जैसे,—वे अपनी गृहस्थी लेने गए हैं । मुहा०—गृहस्थी सँभालना = घर का कामकाज देखना । कुटुंब का पालन पोषण करना । ४. घर का सामान । माल असबाब । जैसे,—इतनी गृहस्थी कौन ढोकर ले जाय । † ५. खेतीबारी । कामकाज ।
⋙ गृहाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] झरोखा । गवाक्ष [को०] ।
⋙ गृहागत
वि० [सं०] घर आया हुआ (अतिथि) [को०] ।
⋙ गृहाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान का मालिक । मकानदार । २. राजभवन का प्रधान अधिकारी । विशेष—शुक्रनीति में कहा गया है कि वह राजकर्मचारी जिसका काम राजभवन की देखभाल करना होता था, गृहाधिपति कहलाता था ।
⋙ गृहापण
संज्ञा पुं० [सं०] हाट । बाजार [को०] ।
⋙ गृहाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी [को०] ।
⋙ गृहाराम
संज्ञा पुं० [सं०] गृहवाटिका [को०] ।
⋙ गृहालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली [को०] ।
⋙ गृहाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] गृहस्थाश्रम [को०] ।
⋙ गृहासक्त
वि० [सं०] घर गृहस्थी में अधिक रुचि रखनेवाला [को०] ।
⋙ गृहिजन
संज्ञा पुं० [सं०] घर के व्यक्ति । परिवार के लोग । उ०— श्रमित चरण लौटे गृहिजन निज निज द्वार ।—अपरा, पृ०, ३५ ।
⋙ गृहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घर को मालकिन । २. भार्या । स्त्री ।
⋙ गृही (१)
संज्ञा पुं० [सं० गृहिन] [स्त्री० गृहिणी] गृहस्थ । गृहस्थाश्रमी ।
⋙ गृही (२)
वि० गृहस्थ । गृहस्थाश्रमी । उ०—गृही लोग, हम अनिकेतन की क्या जाने हम पीर ?—अपलक, पृ० ७२ ।
⋙ गृहित
वि० [सं० ] १. लिया हुआ । ग्रहण किय़ा हुआ । २. पकडा़ हुआ । ३. प्राप्त किया हुआ । ४. स्वीकृत । स्वीकार किया हुआ । ५. संग्रह किया हुआ । एकत्र । ६. मंजूर । वादा किया हुआ । ७. समझा हुआ । ज्ञात [को०] ।
⋙ गृहीतगर्भा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भवती स्त्री [को०] ।
⋙ गृहीतगर्भा (२)
वि० गर्भवती [को०] ।
⋙ गृहीतानुवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार देने के बाद कुछ और दे देना ।
⋙ गृहीतार्थ
वि० [सं०] जो अर्थ या तात्पर्य को समझता है । तात्पर्य का दाता । अर्थ का ज्ञाता [को०] ।
⋙ गृहोद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] गृहवाटिका [को०] ।
⋙ गृहोद्योग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गुहउद्योग' [को०] ।
⋙ गृहोपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] घर का सामान, बरतन आदि [को०] ।
⋙ गृहोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली [को०] ।
⋙ गृह्य (१)
वि० [सं०] १. गृह संबंधी । गृहस्थी से संबंध रखनेवाला । २. जिसको आकर्षित या प्रसन्न किया जाय (को०) । ३. आश्रित (को०) । ४. पालतू (को०) । ५. घर में किया जानेवाला (कार्य) (को०) । ६. ग्रहणीय (को०) । ७. पकड़ने योग्य (को०) ।
⋙ गृह्य (२)
संज्ञा पुं० १. गुदा । २. पारिवारिक कृत्य । ३. पालतू पशु— पक्षी । ४. घर के लोग । गृहजन । ५. गृहाग्नि [को०] ।
⋙ गृह्यक (१)
वि० [सं०] १. पालतू । २, गृह संबंधी । गृहविषयक [को०] ।
⋙ गृह्यक
संज्ञा पुं० पालतू जानवर [को०] ।
⋙ गृह्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि [को०] ।
⋙ गृह्यसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह वैदिक पद्धति की पुस्तक जिसमें लिखे हुए नियमों के अनुसार गृहस्थ लोग मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि सब संस्कार और कार्य करते हैं । पाँच गृह्यसूत्र बहुत प्रसिद्ध हैं—१. आश्वलायन, २. कात्यायन, ३. सांख्यायन, ४. मानव और ५. गोभिल ।
⋙ गृह्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] नगर से सटा हुआ गाँव । कस्बा [को०] ।
⋙ गेंगटा
संज्ञा पुं० [सं० कर्कट] केकडा़ ।
⋙ गेंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० गृष्टि, प्रा० गिट्ठि, गेट्ठि] बराही कंद ।
⋙ गेंट्ठि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रंथि, प्रा० गंठि] दे० 'गाँठ' । उ०—भुओ जुआल भौह युगल, भरें गेंट्ठि पैल्लिजउँ अहर बिंब पफ्फुरिअ ।—कीर्ति० पृ० ६० ।
⋙ गेंड़ (१) †
संज्ञा पुं० [सं० काणड] ऊख के ऊपर का पत्ता । अगौरा ।
⋙ गेंड़ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. ऊख की पत्तियों, सरसों की डंठलों और अरहर की काँड़ियों से बना हुआ घेरा जिसमें नीचे ऊपर भूसा देकर किसान अन्न रखते हैं । क्रि० प्र०—डालना ।—देना । २. किसी प्रकार का घेरा ।
⋙ गेंड़ना
क्रि० स० [हिं० गेंड] १. किसी खेत को पतली छोटी दीवार से घेरना । खेतों को मेंड़ से घेरकर हद बाँधना ।२. अन्न रखने के लिये गेंड़ बनाना । ३. घेरना । गोंठना ।४. लकडी़ के बडे़ छोटे टुकडे़ काटने के लिये उसके चारों ओर कुल्हाडी़ में छेव लगाना ।
⋙ गेंड़ली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] कुंडल । फेटा । रस्सी की ऐसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें एक दूसरे के अंदर कई मंडलाकार घेरे हों । जैसे,—साँप गेंड़ली मारकर बैठा है । क्रि० प्र०—बाँधना ।—मारना ।
⋙ गेंड़हिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] गडे़रियों की बोली में सव रंग मिले हुए रोएँ या ऊन ।
⋙ गेंडा़
संज्ञा पुं० [सं० काण्ड] १. ईख के ऊपर के पत्ते । अगोरी । २. ईख । गन्ना । ३. ईख की वडी़ गडे़री । ४. ईख के कटे हुए टुकडे़ जो खेत में बोए जाते हैं । ५. पत्थर की निहाई जिसपर पीतल ताँबा लाल करके पीटते हैं । इसका व्यवहार प्रायः मिर्जापुर में है । ६. दे० 'गैंडा़' ।
⋙ गेंडा़
संज्ञा पुं० [सं० गण्डक] दे० 'गैंडा़' ।
⋙ गेडु †
संज्ञा पुं० [सं० गेण्डु] १. गेंद । कंदुक । २. गद्दा (को०) ।
⋙ गेंडुआ (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गण्डुक = तकिया] तकिया । सिरहाना । उसीसा । उ०—(क) लोगनि भलो मनाइबो भलो होन की आस । करत गगन को गेंडुआ सो सठ तुलसीदास ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) अंग को कि अंगराग गेडुआ की गलसुई किधौं कटि जेब ही उर को कि हारु है ।—केशव (शब्द०) । (ग) चंपक दल द्युति गेंडुये । मनहुँ रूप के रूपक उये ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गेंडुआ (२) †
संज्ञा पुं० [सं० गेण्डु या गेण्डुक] बडा़ गेंद ।
⋙ गेंडुक
संज्ञा पुं० [सं० गेण्डुक] गेंद । कंदुक ।
⋙ गेंडुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] १. रस्सी का बना हुआ मेंडरा जिसपर घडा़ रखते हैं । इँडुरी । बिड़वा । उ०—अतिहि करत तुम श्याम अचगरी । काहू की छीनत हो गेंडुरी काहू की फोरत हौ गगरी ।—सूर (शब्द०) । २. फेंटा । कुंडली । ३. तबले या बाएँ के नीचे की इँडुरी जिसमें बद्धी लगाकर कसते हैं । ४. साँपों का कुंडलाकार होकर गोल बैठना । क्रि० प्र०—मारना ।—मारकर बैठना ।
⋙ गेंडुली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] दे० 'गेंडुरी' ।
⋙ गेंडुवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० गडुवा] सं० 'गडुवा' । उ०—निरति के गेंडुवा गंगाजल पानी ।—कबीर श०, पृ० १० ।
⋙ गेंती (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा वृक्ष । विशेष— यह अवध में छोटी छोटी नदियों और सोतों के किनारे तथा नैपाल की तराई में अधिकता से पाया जाता है । इसकी पत्तियाँ चार पाँच अगुल लंबी और प्रायः इतनी ही चौडी़ होती हैं । गरमी के आरंभ में इसमें हरापन लिए हुए पीले रंग के छोटे छोटे फूलों के गुच्छे भी लगते हैं ।
⋙ गेंती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कुदाल ।
⋙ गेंद
संज्ञा पुं० [सं० गेन्दुक, कन्दुक] १. कपडे, रबर या चमडे़ का गोला जिससे लड़के खेलते हैं । कंदुक । उ०— लागे खेलन गेंद कन्हाई । चढे़ विटप शिशु मारिसि धाई ।— विश्राम (शब्द०) । क्रि० प्र०—उछालना ।—खेलना ।—फेंकना ।—मारना । यौ०—गेंदघर । गेंदतडी़ । गेंदबल्ला । २. कालिब जिसपर रखकर टोपी बनाते हैं । कलबूत । ३. रोशनी करने की एक वस्तु जिसमें तार की जालियों से बने हुए एक गोले के अंदर रोशनी जलती है ।
⋙ गेंदई (१)
वि० [हिं० गेंदा] गेंदे के फूल के रंग का । पीले रंग का ।
⋙ गेंदई (२)
संज्ञा पुं० गेंदे के फूल के समान पीला रंग ।
⋙ गेंदघर
संज्ञा पुं० [हिं० गेंद + घर] १. वह स्थान जहाँ लोग क्रिकेट, टेनिस आदि खेल खेलते और आमोद प्रमोद करते हैं । क्लब घर ।२. वह मकान जिसमें अँगरेज बिलियर्ड नामक खेल खेलते हैं । विलियर्ड रूम ।
⋙ गेंदतडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० गेंद + तडा़तड़] लड़कों का एक खेल जिसमें वे एक दूसरे को गेंद मारते हैं । जिसे गेंद लगता हैं, वह चोर होता है ।
⋙ गेंदना पु
संज्ञा पुं० [हिं० गेंदा] गेंदा । एक प्रकार का फूल । उ०— फूल गेंदना एक नवल मेलत मृदु मुसुकाइ ।— स० सप्तक०, पृ० ३५२ ।
⋙ गेंदबल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० गेंद + बल्ला] गेंद और उसे मारने की लकडी़ । २. वह खेल जिसमें लकडी़ की एक पटरी से गेंद मारते हैं ।
⋙ गेंदरा मारना
क्रि० अ० [हिं० गेंद] लंगर डाले हुए जहाज का हवा या लहर के कारण इधर उधर हो जाना ।— (लश०)
⋙ गेंदवा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गेणड्डक] तकिया । उसीसा । सिरहाना । उ०— प्रेम क पलंगा दियो है बिछाय । सुरति के गेंदवा दिए ढरकाय ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ गेंदवा (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० गेंद] दे० 'गेंद' । उ०— मोहिनि एक जो सूंदर शरीरा । फूल कै गेंदवा खेलहि तीरा ।— सं० दरिया, पृ० ३ ।
⋙ गेंदा
संज्ञा पुं० [हिं० ] १. दो ढाई हाथ ऊँचा एक पौधा जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं । विशेष— इसमें लंबी पतली पत्तियाँ सींके के दोनों ओर पंक्तियों में लगती हैं । यह दो प्रकार का देखने में आता है, एक जंगली या टिर्री जिसके फूल चार ही पाँच दल के होते हैं और बीच का केसरगुच्छ दिखाई पड़ता है और दूसरा हजारा जिसमें बहुत दल होते हैं । फूलों के रंगों में भी भिन्नता होती है,कोई हलके पीले रंग के होते हैं, कोई नारंगी रंग के होते हैं । एक लाल रंग का गेंदा भी होता है जिसकी डंठलें कालापन लिए लाल होती हैं और फूल भी उसी मखमली रंग के लगते हैं । गेंदे की सुखाई हुई पंखड़ियों को फिटकिरी के साथ पानी में उबालने से गंधकी रंग बनता है । २. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें गेंदे के फूल की आकृति के गुल निकलते हैं । ३. सोने या चाँदी का सुपारी के आकार का एक घुँघरूदार गहना जो जोशन या बाजू में घुंडी के स्थान पर होता है और नीचे लटकता रहता है ।
⋙ गेंदुक पु
संज्ञा पुं० [सं० गेन्दुक] गेंद । कंदुक । उ०— सारी कंचुकि केसर टीको । करि सिंगार सब फूलनि ही को । कर राजत गेंदुकि नौलासी । छुटि दामिनि सी ईषद हाँसी ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ गेंदुर †
संज्ञा पुं० [हिं० गेदुर] दे० 'गादुर' ।उ०—कटहल लीची आम घूक गेंदुर से कंपित ।— ग्राम्या, पृ० ६८ ।
⋙ गेदुवा
संज्ञा पुं० [सं० गेणडुक] गेडु़आ । उसीसा । तकिया । गोल तकिया । उ०— गुलगुली गोल मखतूल कौ सौ गेंदुआ गडै़ न गुडी़ जी मैं जऊ करत ढिठाई सी ।— देव (शब्द०) ।
⋙ गेंदौड़िया
संज्ञा स्त्री० [देश०] वैश्यों की एक जाति ।
⋙ गेंदौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गेंद + औरा (प्रत्य०)] एक मिठाई । चीनी की रोटी । खाँड़ की रोटी । दे०'गिंदौडा' । विशेष— चीनी की चाशनी को गाढा़ करते करते गुँधे हुए आटे की तरह कर डालते हैं और तब उसकी पाव या आध आध सेर की लोइयाँ (पेडे़) बनाकर कपडे़ पर फैला देते हैं और उन लोइ यों पर दबाकर उँगलियों के चिह्न बना देते हैं । ये लोइयाँ विवाह आदि उत्सवों पर बिरादरी में बैने के रूप में बाँटी जाती हैं ।
⋙ गेंन पु
संज्ञा पुं० [हिं० गैन] दे० 'गैन' । उ०—बजै उक्क डौरू डमंक कडक्कै । धकै पेरु धुज्जे हके गेंन हक्कै ।— पृ० रा०, १ ।३९० ।
⋙ गे पु †
क्रि० अ० [हिं० गा का वहु० व०] दे० 'गया (२)' । उ०— भजि और भ्रत्त छंडे रिनह गे राज बिजपाल तहाँ ।— पृ० रा०, १ । ६५४ ।
⋙ गोआन पु †
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञान] दे० 'ज्ञान' । उ०— अनहद गरजे अमी रस झरै उपजे ब्रह्म गेआना ।— रामानंद०, पृ०३२ ।
⋙ गेगम
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक धारीदार या चारखाना कपडा़ । मूँगिया । सीकिया ।
⋙ गेगला (१)
संज्ञा पुं० [देश०?] मसूर की जाति का एक प्रकार का जंगली पौधा । विशेष—यह पंजाब से बंगाल तक ६००० फुट की ऊँचाई तक होता है । यह प्रायः आप ही आप होता है पर कभी कभी चारे के लिये बोया भी जाता है । इसके दाने काले रंग के होते हैं और प्रायः गेहूँ में मिले हुए देखे जाते हैं । गेहूँ के खेत में उत्पन्न होकर यह फसल को कुछ हानि भी पहुँचाता है ।
⋙ गेगला (२)
वि० [देश०] १. मूर्ख । जड़ । बेवकूफ । भोंदू । २. बात अनसुनी कर जानेवाला । ढीठ ।
⋙ गेगलाना
क्रि० अ० [हिं० गेगला] बात अनसुनी करना । ढिठाई करना । टालमटोल करना । बिलल्लापन करना । मूर्खता कर बैठना ।
⋙ गेगलापन
संज्ञा पुं० [हिं० गेगला] १. मूर्खता । जड़ता । भोंदूपन । २. धृष्टता । अनसुनी करने की टेव या बान । ढिठाई । टालम- टूल । बिलल्लापन ।
⋙ गेगली
वि० स्त्री० [हिं० गेगला] दे० 'गेगला' । उ०— हमारे अब वह दिन लद गए अब तुम्हारे दिन हैं । अब तुम खेलो कूदो दिल खोल के । मगर तुम गेगली हो ।—सैर कु०, पृ०, २८ ।
⋙ गेजुनिया †
संज्ञा पुं० [देश०] गुल दुपहरिया ।
⋙ गेटिस
संज्ञा पुं० [अं० गेटर्स] १. कपड़े या चमड़े का बना हुआ एक आवरण जिससे घुटने से लेकर एड़ी तक पैर ढँका रहता है । इसे सवार लोग अधिक काम में लाते हैं । २. मोजा आदि बाँधने के लिये रबर या चमड़े का फीता ।
⋙ गेठा
संज्ञा पुं० [देश०] मोका नाम का वृक्ष जिसकी लकड़ी सजावट के सामान बनाने के काम में आती है । वि० दे० 'मौका' ।
⋙ गेड़ना
क्रि० स० [सं० गराड = चिह्न हिं० गंडा] १. लकीर से घेरना । मंडलाकार रेखा खींचना । २. परिक्रमा करना । चारों ओर घूमना ।
⋙ गेड़ली †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुराडली] दे० 'गेंड़ली' ।
⋙ गेड़ो
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़ = चिह्न हिं० गढ़ा] १. लड़कों का एक खेल । विशेष— इससे पृथ्वी पर एक लकीर खींचकर कुछ दूर पर एक लकड़ी रख देते हैं । जो लड़का उस लकड़ी पर चोट लगाकर उसे लकीर के पास कर देता है वह जीतता है । २. वह लकड़ी जो इस खेल में रखी जाती हैं ।
⋙ गेड़ुआ पु
संज्ञा पुं० [सं० गेराडुक] दे० 'गेंडुआ' । उ०— दुहुँ दिसि गेडुआ औ गलसुई । काचे पाट भरी धुनि रुई । —जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ०, ३१८ ।
⋙ गेड़ुली पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गेंड़ुली या गेड़ुरी] दे० 'गेंडुली' ।
⋙ गेद पु †
संज्ञा पुं० [देश०] १. गोद का बच्चा । शिशु । २. छोटा बच्चा । नादान बालक । उ०—तुम मोंहिं कीन्ह हाल को गेदो इत उत यहँ भरमाई ।—भीखा श०, पृ०, ७४ ।
⋙ गेदहरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गेद] १. गोद का बच्चा । २. छोटा बालक ।
⋙ गेदा
संज्ञा पुं० [देश०] चिड़िया का वह बच्चा जिसे पर न निकले हों ।
⋙ गेनुर
संज्ञा पुं० [देश०] एक बारामासी घास । विशेष— यह पशुओं के चारे के काम आती है और सूखने पर छाजन के काम आती हैं । इसे गोनर या गूनर भी कहते हैं ।
⋙ गेबा
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताने की कंघी की तीलियाँ । (जुलाहे) । विशेष—इन तीलियों के बिच में ताने के सूत पिरोए रहते हैं जिसमें वे एक दूसरे से सटकर उलझने न पावें । इनकीसंख्या ताने के सूत की संख्या के हिसाब से होती है । ये तीलियाँ लकड़ी की चिरी हुई पतली फट्टियों की होती हैं ।
⋙ गेय
वि० [सं०] गाने के योग्य । गाने के लायक । कीर्तन करने के योग्य ।
⋙ गेयकाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्य जो गाया जा सके । गीतात्मक काव्य । उ०— गिति काव्य ओर गेय काव्य दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं । —पोद्दार अभि ग्रें०, पृ०, १६७ ।
⋙ गेयपद
संज्ञा पुं० [सं०] नाटयशास्त्र के अनुसार लास्य के दस अंगों में से एक । वीणा या तानतूरा आदि यंत्र लेकर आसन पर बैठे हुए केवल गाना ।
⋙ गेरना (१) †
क्रि० स० [सं० गिरण] १. गिराना । नीचे डालना । २. ढालना । उँडेलना । ३. गिराना । झपकाना । उ०— बारंबार जगावति माता लोचन खोलि पलक पुनि गेरत ।—सूर (शब्द०) । ३. डालना । आरोप करना । जैसे,— सुरमा गेरना (आँख में), अचार गेरना । ४. धारण करना । पहनना । उ०— भाल पै लाल गुलाल गुलाल सों गेरि गरै गजरा अलबेलौ ।—पझाकर ग्रं०, पृ०, ९० ।
⋙ गेरना (२) पु
क्रि० स० [हिं० घेरना] परिक्रमा करना । चारो ओर फिरना । उ०— बीजौं कलाँ पाँतरै अमीरदौलो गेर बेठो ।— बाँकी०, ग्रं०, भा०, ३, पृ० १२६ ।
⋙ गेरवाँ †
संज्ञा पुं० [सं० ग्रैवेयक, तुलनीय फा गरेबाँ] पशुओँ के गेराँव । बंधन का वह अंश जो गले में लपेटा रहता है ।
⋙ गेराँईं †
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रैवेय, तुलनीय फा गरेबाँ] गेराँव ।
⋙ गेराँव †
संज्ञा पुं० [सं० ग्रैवेय, तुलनीय फा० गरेवाँ] चौपायों के बंधन का वह अंश जो गले में लपेटा रहता है ।
⋙ गेरुआ (१)
वि० [हिं० गेरू + आ (प्रत्य०)] १. गेरू के रंग का । मटमैलापन लिए लाल रंग का । २. गेरू में रँगा हुआ । गैरिक । जोगिया । भगवा । उ०—चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु । कोस बीस चारिहु दिसि जानौ फूला टेसु ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ गेरुआ (२)
संज्ञा पुं० १. गेरू के रंग का एक कीड़ा जो माघ के महीने में अधिक वर्षा से उत्पन्न होता है और अन्न के खेतों में लग जाता है जिससे अनाज के पेड़ पीले पड़ जाते हैं । २. गेहूँ के पौधों का एक रोग जिसके कारण वे कमजोर पड़ जाते हैं और अन्न नहीं पैदा कर सकते । इसे गेरुई और कुकुही भी कहते हैं ।
⋙ गेरुआबाना
संज्ञा पुं० [हिं० गेरुआ + बाना] गेरुआ रंग की पोशाक । साधुओं का पहनावा ।
⋙ गेरुई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गेरू] चैत की फसल का एक रोग जो अनाज के पौधों की जड़ के पास लाल रंग के महीन महीन कीड़े उत्पन्न हो जाने के कारण होता है । विशेष— ये कीड़े फैल जाते हैं और पत्तों पर लाली छा जाती है । इससे दाने मारे जाते हैं । सबसे अधिक इसका असर गेहूँ की फसल पर होता है । जिस साल कुआर के पीछे जाड़े में वर्षा अधिक होती है उस साल यह रोग होता है ।
⋙ गेरू
संज्ञा स्त्री० [सं० गवेरुक] एक प्रकार की लाल कड़ी मिट्टी जो खानों से निकलती है । विशेष— यह दो रूपों में मिलती है—एक तो भुरभुरी होती है और कच्ची गेरू कहलाती है, दूसरी कड़ी होती है और पक्की गेरू कहलाती है । गेरू कई कामों में आती है । इससे सोने के गहनों पर रंग दिया जाता है । रँगरेज भी इसके मेल से कई प्रकार के रंग बनाते हैं । छीपी इसे छींट छापने के काम में लाते हैं । औषध में भी इसका व्यवहार होता है । पर्या०—लालमिट्टि । गिरमाटी । गिरिमृत । सुरंगधातु । गवेरुक । गैरिक । ताम्रवर्णक । कठिन ।
⋙ गेला
संज्ञा पुं० [अं० गेली] छापेखाने में बड़ी गेली ।
⋙ गेली
संज्ञा स्त्री० [अ०] छापेखाने में धातु या लकड़ी की एक छिछली किस्ती । विशेष—इसपर टाइप रखकर पहले पहल वह कागज छापा जाता है जिसपर संशोधन होना रहता है । इसके ऊपर पहले टाइप जमाकर रखे और रस्सी से कस दिए जाते हैं, फिर कागज छाप लिया जाता हैं ।
⋙ गेलीप्रूफ
संज्ञा पुं० [अं० गेली + प्रूफ] कंपोज किए हुए मैटर का वह प्रूफ जो पृष्ठ बाँधने के पहले का होता है ।
⋙ गेल्हा
संज्ञा पुं० [देश०] चमड़े का कुप्पा जिसमें तेली तेल रखते हैं ।
⋙ गेवर
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ । दे० 'गँगवा' ।
⋙ गेष्णु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गानेवाला । गायक । २. अभिनेता [को०] ।
⋙ गेसू
संज्ञा पुं० [फा०] १. जुल्फ । अलक । २. पीठ पर लटकनेवाले लंबे बाल । ३. केश । बाल । उ०— जहर, जो गेसुओं की पर्त में सौ पेंच खाता हो । कहर उस वक्त कोई रुमझुमाकर और ढाता हो । —ठंढा, पृ० २३ ।
⋙ गेसूदराज
वि० [फा०] जिसके बाल बहुत लंबे हों ।
⋙ गेह
संज्ञा पुं० [सं० गृह] घर । मकान । निवासस्थान । उ०— करि दंडवत चली ललिता जो गई राधिका गेह । —सूर (शब्द०) ।
⋙ गेहनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गेह या सं० गृहिणी] घरवाली । गृहिणी । भार्या । पत्नी । उ०— तुम रानी वसुदेव गेहनी हौं गवाँरि ब्रजवासी । पठै देहु मेरो लाड़ लडैता वारौं ऐसी हाँसी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गेहपति
संज्ञा पुं० [हिं० गेह + सं० पति] गृहस्वमी । घर का मालिक ।
⋙ गेहरा पु
संज्ञा पुं० [सं० गेह + हिं० रा (प्रत्य०)] दे० 'गेह' । उ०— भावसी न सौज और शून्य सौ न गेहरा ।—सुंदर ग्रं०, भा०, २, पृ० ५९७ । विशेष— हिंदी का यह 'रा' प्रत्यय विशेषार्थ सूचक होता है ।
⋙ गेहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.घर की मालकिन । गृहस्वामिनी । घरनी । पत्नी [को०] ।
⋙ गेही
संज्ञा पुं० [सं० गेहिन्] [स्त्री० गेहिनी] गृहस्थ । घरबारवाला । उ०—तो गेही कैसे सहे दुहिता प्रथम बिछोह ।—शकुंतला, पृ० ७० ।
⋙ गेहुँ अन
संज्ञा पुं० [हिं० गेहूँ] एक प्रकार का अत्यंत विषधर फनदार साँप जिसका रंग मटमैला होता है ।
⋙ गेहुँआँ
वि० [हिं० गेहूँ] गेहूँ के रंग का बादामी ।
⋙ गेहूँ
संज्ञा पुं० [सं० गोधूम या गोधुम] एक अनाज जिसकी फसल अग- हन में बोई जाती और चैत में काटी जाती है । विशेष—इसका पौधा डेढ़ या पौने दो हाथ ऊँचा होता है और इसमें कुश की तरह लंबी पतली पत्तियाँ पेड़ों से लगी हुई निकलती हैं । पेड़ों के बीच से सीधे ऊपर की और एक सींक निकलती है जिसमें बाल लगती है । इसी बाल में दाने गुछे रहते हैं । गेहुँ की खेती अत्यंत प्राचीन काल से होती आई है; चीन में ईसा से २७०० वर्ष पूर्व गेहुँ बोया जाता था । मिस्त्र के एक ऐसे स्तूप में भी एक प्रकार का गेहूँ गड़ा पाया गया जो ईसा से ३३५९ वर्ष पूर्व का माना जाता है । जंगली गेहूँ अब- तक कहीं नहीं पाया गया है । कुछ लोगों की राय है कि गेहूँ जवगोधी या खपली नामक गेहूँ से उन्नत करके उत्पन्न किया गया है । गेहूँ प्रधानतः दो जाति के होते हैं, एक टूँड़वाले दूसरे बिना टूँडके । इन्हीं के अंतर्गत अनेक प्रकार के गेहूँ पाए जाते हैं, कोई कड़े कोई नरम, कोई सफेद और कोई लाल । नरम या अच्छे गेहूँ उत्तरीय भारत में ही पाए जाते हैं । नर्मदा के दक्षिण में केवल कठिया गेहूँ मिलता है । संयुक्त प्रदेश और बिहार में सफेद रंग का नरम गेहूँ बहुत होता है और पंजाब में लाल रंग का । गेहूँ के मुख्य मुख्य भेदों के नाम ये हैं-दूधिया (नरम और सफेद), जमाली (कड़ा भूरा), गंगाजली, खेरी (लाल कड़ा), दाउदी (उत्तम, नरम और श्वेत), मुँगेरी, मुँड़ियाँ (बिना टूँड का नरम, सफेद), पिसी (बहुत नरम और सफेद), कठिया (कड़ा और लसदार), बंसी (कड़ा और लाल) । भारतबर्ष में जितने गेहूँ बोए जाते हैं वे अधिकांश टूँडदार हैं क्योंकि किसान कहते हैं कि बिना टूँड के गेंहुँओं को चिड़ियाँ खा जाती हैं । दाऊदी गेहूँ सबसे उत्तम समझा जाता है । जललिया की सूजी अच्छी होती है । बंबई प्रांत में एक प्रकार का बखशी गेहूँ भी होता है । खपली या जवगोधी नाम का बहुत मोटा गेहूँ सिंध से लेकर मैसूर तक होता है । इसमें विशेषता यह है कि यह खरीफ की फसल है और सब गेहूँ रबी की फसल के अंतर्गत हैं । यह खराब जमीन में भी हो सकता है ओर इसे उत्पन्न करन में उतना परिश्रम नहीं पड़ता । भारतवर्ष में गेहूँ के तीन प्रकार के़ चूर्ण बनाए जाते हैं, मैदा, आटा और सूजी । मैदा बहुत महीन पीसा जात है और सूजी के बड़े बड़े रवे या कणा होते हैं । नित्य के व्यवहार में रोटी बनाने के काम में आटा आता है, मैदा अधिकतर पूरी, मिठाई आदि बनाने के काम में आता है, सूजी का हलवा अच्छा होता है । पर्या०—गोधूम । बहुदुग्ध । अरूप । म्लेच्छभोजन । यवन । निस्तुष । क्षीरी । रसाल । शुमन ।
⋙ गेहेशूर
वि० [सं०] वह जो घर में ही बहादुरी दिखाता हो । कायर [को०] ।
⋙ गेह्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गृहकार्य । गृहप्रबंध । २. संपत्ति [को०] ।
⋙ गेह्य (२)
वि० १ घरेलू । गेह संबधी । २. घर में ही रहनेवाला [को०] ।
⋙ गैंची
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली । उ०—एक दो सेर गैंची मछली निकाल लाएँगी ।—मैला०, पृ० १३ ।
⋙ गैंटा †
संज्ञा पुं० [देश०] कुल्हाड़ी ।
⋙ गैंड़ा
संज्ञा पुं० [सं० गण्डक] भैंसे के आकार का एक बड़ा पशु जो नदी के किनारे के ऐसे दलदलों और कछारों में रहता है जहाँ जंगल होता है । विशेष—यह जंगली झाड़ियों कि जड़ों और नरम कोपलों को खाता है और प्रायः किचड़ में पड़ा रहता है । यह जिस प्रकार डीलडौल में बड़ा है उसी प्रकार बलवान् भी होता है, पर बिना छेड़े किसी से बोलता नहीं । इसे काटनेवाले कुकुरदंत नहीं होते केवल दाढ़े होती हैं । इसके पैरों में तीन तीन अँगलियाँ होती हैं । इसका चमड़ा बिना बाल का तथा अत्यंत मोटा और ठोस होता है । इसकी नाक की हड्डी बड़ी मजबूत होती है और उसपर एक पैना सींग होता है जौ चमड़े और बालों से दूर तक ढका रहता है । क्रुद्ब होने पर यह इसी से चोट करता है । इसके चमड़े की ढा़लें बनती हैं । इसके थूथन पर सींग का भारतवर्ष में अर्घा बनता है जो पितृ्तर्पण के लिये उत्तम माना जाता है । गंगासागर के पास सुंदर वन में गैड़ै बहुत मिलते हैं ।
⋙ गैंती
संज्ञा स्त्री० [सं० खनित्रिका अथवा गर्तकृत्] जमीन खोदने का एक औजार । कुदाल ।
⋙ गैंद (१) पु
संज्ञा पुं० [हिं० गयंद] दे० 'गयंद' । उ०— चित्र महावत गैंद बहुरि उतरै न अवर पर । —पृ०, रा०, २५ । ३४ ।
⋙ गैंद (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० गेंद] दे० 'गेंद' । उ०— लै लै गैंद परसपर मेलैं । बाल बृंद मिलि मिलि सुख झेलै ।— ह० रासो०, पृ० २६ ।
⋙ गैंदुवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० गेंदा] दे० 'गेदा' । उ०— कंठ फूल बनगो, फैंटा फूल फूल गादी, गैंदुवा फूल । हँसि बैठे हैं स्यामा स्याम सोभा को नहिं पार । —नंद ग्रं०, पृ० ३७९ ।
⋙ गैंन पु
संज्ञा पुं० [सं० गगन, प्रा०, गगण, गयण] दे० 'गगन' । उ०— गैंन गहर गंभीर धुनि सुनि ससंक भय गात ।—पृ०, रा०, ६ । ३१ ।
⋙ गैंवर पु
संज्ञा पुं० [हिं० गैवर] दे० 'गैवर' । उ०— है गै गैंवर सघन घन छत्र धजा पुरराइ ।—कबीर ग्रं०, पृ० ५३ ।
⋙ गैज
संज्ञा पुं० [अ० गैज] अति क्रोध । भारी गुस्सा ।
⋙ गैजेट
संज्ञा पुं० [अँ०] दे० 'गैजेटियर' ।
⋙ गैजेटियर
संज्ञा पुं० [अं० गैजेटियर] वह पुस्तक जिसमें कहीं का भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक वृत्त वर्णानुक्रम से हो । भौगोलिक कोश । जैसे,— डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर, इंपीरिअल गैजेटियर ।
⋙ गैजेटेड अफसर
संज्ञा पुं० [अ० गैजेटेड आफिसर] वह सरकारी कर्मचारी जिसकी नियुक्ति की सूचना सरकारी गजट में प्रकाशित होती है । राजपत्रित कर्मचारी । विशेष— सरकारी गैजेट में उन्हीं कर्मचारियों की नियुक्ति कीसूचना छपती है जिनका पद बड़ा और महत्व का समझा जाता है । इस प्रकार गवर्नर तक की नियुक्ति की सूचना गैजेट में निकलती है । इनके वेतन का विशेष क्रम होता है । इनकी नियुक्ति लोकसेवा आयोग द्बारा होती है । सब इंस्पेक्टर, जमादर आदि छोटे कर्मचारियों की नियुक्ति की सूचना गैजेट में नहीं निकलती ।
⋙ गैताल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. निम्न श्रेणी का बैल । २. साधारण पशु । ३. बेकार चीज ।
⋙ गैताल (२)
वि० १. नष्ट । बरबाद । २. टूटा फूटा । निकम्मा । बेकार । ३. समाप्त ।
⋙ गैती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पेड़ जो हिमालय के किनारे होता है । विशेष— इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और अंदर से सुर्ख होती है । यह नक्काशी के लिये बहुत अच्छी होती है और इससे अनेक प्रकार के सामान बनते हैं । कुमाऊँ और नेपाल मे इससे डोल और कटोरे भी बनाए जाते हैं ।
⋙ गैन (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० गमन] गैल । मार्ग । रास्ता । उ०—(क) प्रीत चलावै जित इन्हैं तितै धरै ये गैन । नेह मनोरथ रथ रहै वे अबलख हय नैन ।—रसनिधि (शब्द०) । (ख) तारायन शशि रैन प्रति सूर होहिं शशि गैन तदपि अँधेरो है सखी पिउ न देखे नैन । —रहीम (शब्द०) ।
⋙ गैन (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० गगन, प्रा० गयण] गगन । आसमान । आकाश । उ०— ओछे बड़े न ह्वै सकैं लगौं सतर ह्वै गैन । दिरघ होहिं न नैंकहुँ फारि निहारैं नैन ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गैना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गाय] [स्त्री० गैनी] छोटी जाति का बैल । नाटा बैल । उ०— गैना नैना लाल के हित मैं जानत नाह । नहे नेह के बहल में घुरला जानत नाह ।— रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ गैंना पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गैव] दे० 'गैन' । उ०— भग्गिय सब सैना लखत न गैना बुल्लत बैना दीन तबै ।— प० रासो, पृ० १२९ ।
⋙ गैनारि पु
संज्ञा पुं० [हिं० गैन + अरि = चक्र] सहस्त्रार । ग्रह्मांड ।—प्राण०, पृ० २८० ।
⋙ गैफल
संज्ञा पुं० [?] जहाज के आगे की तरफ का एक छोटा सा पाल ।—(लश०) ।
⋙ गैफलकंजा
संज्ञा पुं० [?] पाल के चढ़ाने उतारने की एक रस्सी ।—(लश०) ।
⋙ गैब
संज्ञा पुं० [अ० गैब] परोक्ष । वह जो सामने न हो । उ०— भया उजाला गैब का, दौड़े देख पतंगा ।—दरिया० बानी, पृ० १३ । यौं०—गैबदाँ । गैबदानी ।
⋙ गैबत
संज्ञा स्त्री० [अ० गैबत] १. अनुपस्थिति । गैरहाजिरी । २. पीठ । पीछा । परोक्ष । ३. अंतधनि होना । ४. निंदा । चुगली ।
⋙ गौबदाँ
वि० [अ० गैब + फा० दाँ (प्रत्य०)] परोक्ष का जाननेवाला । सर्वदेश और सर्वकालज्ञ । ऐसी बातों का जाननेवाला जो प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा न जानी जा सके ।
⋙ गैबर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिड़िया । विशेष— इसके ड़ैने, छाती और पीठ सफेद , दुम काली तथा चोंच और पैर लाल होते हैं ।
⋙ गैवर (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० गौवर] दे० 'गोवर' । उ०— धीर सघन बन माँझ ह्वै , गुरु उर गैवर ठेलि ।—नंद ग्रं० पृ० १५५ ।
⋙ गैबाना पु
वि० [अ० गैब] अदुश्य । गुप्त । उ०—पाँच पसीस अहैं संग बासी ते तौ हहिं गैबाना ।—जग० बानी, पृ० ९७ ।
⋙ गैबी
वि० [अ० गैब + फा० ई (प्रत्य०)] १. गुप्त । छिपा हुआ । २. अजनबी । अज्ञात । अबोधगम्य । उ०—(क) गैबी तो गलियाँ फिरै, अजगैबी कोइ एक । अजगैबी कोसों लखे, जाके ह्वदय विवेक ।—कबीर (शब्द०) । (ख) गैबी जामें आय समाना नरियर में जस दूध झँके । जज्ञ भूमि सरजू उत्तर दिसि ए तीनौं जहँ आइ नके ।—देवस्वामी (शब्द०) ।
⋙ गैयर पु
संज्ञा पुं० [सं० गजवर] हाथी । गज । उ०— बहु नागन पर नौबत बाजैं । तिनके गुरु गैयर गन गाजैं ।
⋙ गैया
संज्ञा स्त्री० [सं० गो] गाय । गऊ । उ०— धनि वह बृंदाबन की रेनु । नंदकुमार चराई गैयाँ मुखन बजाई बेनु ।— सूर०, (शब्द०) ।
⋙ गैर (१)
वि० [अ० गैर] १. अन्य । दूसरा । २. अजनबी । अपने कुटुंब या समाज से बाहर का (व्यक्ति) । पराया । जैसे, —(क) चीनी लोग गैर आदमी को अपने देश में नहीं आने देते थे । (ख) आप कोई गैर तो हैं नहीं, फिर आपसे क्यों बात छिपावें । विशेष—इस शब्द का प्रयोग विरुद्ब अर्थवाची उपसर्ग के समान भी होता है । जिसे विशेषण शव्द के पहले यह लगाया जाता है उसका अर्थ उलटा हो जाता है, जैसे,—गैरमुमकिन, गैर मुनासिब, गैरहाजिर ।
⋙ गैर (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० गैर] अत्याचार । अनुचित बर्ताव । अँधेर । उ०— (क) मेरे कहे मेर करु, सिवा जी सों बैर करि गैर करि नैर निज नाहक उतारे तैं । —भूषण (शब्द०) । (ख) आवत हैं हम कछु दिन माहीं । चलै गैर तिनकी तब नाहीं ।—विश्राम (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ गैर (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गैगर] दे० 'गैयर' ।
⋙ गैर (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गैल] दे० 'गैल' । उ०— उड़े गैर गैर माहिं रोस रस अकसै ।—शिखर०, पृ० ३३१ ।
⋙ गैर (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घैर] दे० 'घैर' ।
⋙ गैर (६)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० गैरी] १. गिरि संबंधी । २. गिरि पर उत्पन्न [को०] ।
⋙ गैरआबाद
वि० [अ० गैर + फा० आबाद] जो न बसा हुआ हो । उजाड़ । परती (भूमि) ।
⋙ गैरइनसाफी
संज्ञा स्त्री० [अ० गैर + इंसाफ + फा० ई (प्रत्य०)] अन्याय । बेइनसाफी । अन्याय ।
⋙ गैरइलाका
संज्ञा पुं० [अ० गैर + इलाक़ह्] १. दूसरे का इलाका । दूसरे का क्षेत्र । २. देश । मुल्क ।
⋙ गैरखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गर रखी] हँसुली ।—(सुनारों की बोली) ।
⋙ गैरजरूरी
वि० [अ० गैर + जरूर + फा० ई (प्रत्य०)] अनावश्यक ।
⋙ गैरजिम्मेदार
वि० [अ० गैर + फा० जिम्मेदार] अनुत्तरदायी । अपनी जिम्मेदारी न समझनेवाला ।
⋙ गैरजिम्मेदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० गैर + फा० जिम्मेदारी] अनुत्तरदयित्व । जिम्मेदारी न समझने का भाव ।
⋙ गैरत
संज्ञा स्त्री० [अ० गैरत] लज्जा । शर्म हया । उ०— इंद्री बस गुन गैरत माई ।—घट०, पृ० २८१ । यौ०—गैरतदार ।
⋙ गैरतदार
वि० [फा०] १. लज्जाशील । २. स्वाभिमानी ।
⋙ गैरतमंद
वि० [फा०] दे० 'गैरतदार' ।
⋙ गैरमजरूआ
वि० [अ०] परती या बिना जोती बोई गई जमीन ।
⋙ गैरमनकूला
वि० [अ० गैरमनकूला] जिसे एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थाना पर न ले जा सकें । स्थिर । अचल । विशेष— इस शब्द का प्रयोग जायदाद शब्द के साथ कानूनी कार्रवाइयों में विशेषकर होता है । जायदाद गैरमनकूला ऐसी संपत्ति को कहते हैं जो या तो भूमि हो या भूमि में बिलकुल गड़ी हुई हो, जैसे,—घर, खेत, पेड़ इत्यादि ।
⋙ गैरमर्द
संज्ञा पुं० [अ० गैर + फा मर्द] १. अजनबी व्याक्ति । २. पति से भिन्न व्यक्ति ।
⋙ गैरमामूली
वि० [अ० गैरमामूली] १. असाधारण । २. नित्यनियम के विरुद्ध ।
⋙ गैरमिसिल पु
वि० [अ० गैर + फा० मिसाल] अयोग्य या अनुचित (स्थान में) ।उ०—भूषण कुमिस गैरमिसिल खरे किए को ।—भूषण ग्रं०, पृ० २१ ।
⋙ गैरमुकम्मल
वि० [अ० गैर + मुकम्मल] जो पूर्ण न हो । अधूरा । अपूर्ण ।
⋙ गैरमुनासिब
वि० [अ० गैरमुनासिब] अनुचित । आयोग्य ।
⋙ गैरमुमकिन
वि० [अ० गैरमुमकिन] असंभव । न होने योग्य ।
⋙ गैरमुल्की
वि० [अ० गैर + मुल्की + फा० ई (प्रत्य०)] दूसरे देश का । विदेशी ।
⋙ गैरमुस्तकिल
वि० [अ० गैरमुस्तकिल] जो हमेशा के लिये न हो । अस्थायी ।
⋙ गैरमौरूसी
वि० [अ० गैरमौरूसी] वह जमीन या जायदाद जो पैतृक न हो या जिसपर मौरूसी हक न लागू होता हो ।
⋙ गैररस्मी
वि० [अ० गैर + फा० रस्मी] जो रस्म रिवाज के अनुसार न हो । अनौपचारिक ।
⋙ गैरवसली
संज्ञा स्त्री० [अ० गैरवसली] कच्चे मकानों की छत छाने की वह क्रिया जिसमें बाँस की पतली कमाचियों को दुढ़ता- पूर्वक केवल बुन देते हैं और उन्हें रस्सियों से नहीं बाँधते ।
⋙ गैरवसूल
वि० [अ० गैरवसूल] जो वसूल न किया गया हो । अप्राप्त ।
⋙ गैरवाजिब
वि० [अ० गैरवाजिब] अयोग्य । अनुचित । बेजा ।
⋙ गैरसरकारी
वि० [अ० गैर + फा० सरकारी] जो सरकारी न हो । जो किसी सरकार या राज्य का (आदमी या नौकर) न हो । जिसका किसी सरकार या राज्य से संबंध न हो । जैसे,—गैर सरकारी सदस्य ।
⋙ गैरसाल पु
वि० [अ० गैरसालह्] १. अशुद्ध । दूषित । उ०— गैरसाल है बदलि दै कहै विप्र मम नाहिं ।—अर्ध०, पृ० ४६ । २. दुर्जन । ३. नाशरीफ ।
⋙ गैरहाजिर
वि० [अ० गैरहाजिर + फा० ई (प्रत्य०)] अनुपस्थित । जो मौजूद न हो ।
⋙ गैरहाजिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० गैरहाजिरी] अनुपस्थिति । नामौजूदगी ।
⋙ गौरिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेरू । यौ०—गैरिकाक्ष । २. सोना ।
⋙ गैरिक (२)
वि० [वि० स्त्री० गैरिकी] १. जो पहाड़ से उत्पन्न हो । २. गेरू के रंग का [को०] ।
⋙ गैरिकाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जल महुआ ।
⋙ गैरियत
संज्ञा स्त्री० [अ० गैरीयत] परायापन । गैरपन ।
⋙ गैरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] खरही । डाँठ का ढेर । खेत से कटे हुए डंठलों का ढेर ।
⋙ गैरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लांगलिकी वृक्ष । विषलाँगला ।
⋙ गैरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्त या अ० गार] गड्ढा । वह गड्ढा जिसमें किसान खाद इकट्ठा करते हैं । कूड़ा, करकट, गोबर आदि फेंकने का गड्ढा ।
⋙ गैरीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० गैरीयत] दे० 'गैरियत' ।
⋙ गैरेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिलाजतु । शिलाजीत । २. गेरू (को०) ।
⋙ गैरैय (२)
वि० १. गिरि से उत्पन्न । गिरि पर उत्पन्न । २. गिरि संबंधी । पहाड़ी [को०] ।
⋙ गैल
संज्ञा स्त्री० [हिं० गली] मार्ग । राह । रास्ता । गली । कूचा । उ०— (क) हौ तुम प्रान हितू सिगरी कवि सेखर देहु सिखावन यामैं । गैल में गोपद नीर भरयों सखि चौथ को चंद परयो लखि तामें ।—सेखर (शब्द०) । (ख) मूसा कहै बिलार सों सुन रे ढीठ ढिठैल । हम निकसत हैं सैर को, तुम बैठत हौ गैल । —गिरिधर (शब्द०) । मुहा०—किसी की गैल जाना =(१) किसी के साथ जाना । (२) किसी का अनुसरण करना । किसी को गैल करना= किसी को साथ कर देना । गैल बताना= दे० 'रास्ता बताना' । गैल लेना साथ में लेना ।
⋙ गैलड़
संज्ञा पुं० [अ० गैर+हिं० लड़का] किसी स्त्री के पहले पति का लड़का जिसे लेकर वह दूसरे के यहाँ जाय ।
⋙ गैलन
संज्ञा पुं० [अं०] पानी, दूध आदि द्रव पदार्थ मापने का एक अँगरेजी मान जो तीन सेर का होता है ।
⋙ गैलरी
संज्ञा पुं० [अं०] १. नीचे ऊतर बैठने का सीढ़ीनुमा स्थान जैसे थिएटरों और व्याख्यानालयों . संसद्, विधानसभाओं आदि में दर्शकों के लिये रहता है । २.सौदागरों की सीढ़ीनुमादूकान जिसमें बिक्री की वस्तुएँ पंक्तियों में सजाकर रखी जाती हैं ।
⋙ गैला पु
संज्ञा पुं० [हिं० गैल] १.गाड़ी के पहिए की लीक । पहिए की लकीर । २. गाड़ी का मार्ग । वह चौड़ा रास्ता जिससे गाड़ी जा सके ।
⋙ गैला पु
वि० [देश०] मूर्ख । गँवार । उ०— नातर गैला जगत से, बकि बकि मरै बलाय ।—संतवाणी०, भा० १, पृ० १३३ ।
⋙ गैलागीर पु
संज्ञा पुं० [हिं० गैल + फा० गीर (प्रत्य०)] राहगीर । उ०— गैलागीर आता सो ढकोला नाषि जाता । —शिखर०, पृ०, —८ ।
⋙ गैलारा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गैला' ।
⋙ गैवर पु
संज्ञा पुं० [सं० गजवर] हाथी । गज । उ०— बिबिध भाँति के बाजन बाजे । हैवर गैवर गण बहु गाजे ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ गैशबत्ती
संज्ञा स्त्री० [अं० गैस + हिं० बत्ती] गैस से जलनेवाली एक प्रकार की बड़ी लालटेन । उ०—भकभक गैशबत्ती की सी रोशनी होने लगी ।—मैला०, पृ० ९८ ।
⋙ गैस
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. प्रकृति में वायु के समान एक अत्यंत अगोचर और सूक्ष्म द्रव्य जिसके भिन्न भिन्न रूपों के संयोग से जल, वायु आदि पदार्थ बनते हैं । वह द्रव्य जिसके अणु अत्यंत तरल या चंचल हों और जो अत्यंत प्रसरणशील हो । विशेष— गैसों के अणु निरंतर गति में रहते हैं और वे एक सीध में चलकर एक दूसरे से टकराते हैं तथा जिस बरतन में गैस रहती है उसकी दीवारों पर दबाव डालते हैं । अधिक दबाव ओर सरदी से गैस द्रवीभूत हो सकती है; पर भिन्न भिन्न गैसों के लिये भिन्न भिन्न मात्रा के दबाव और सरदी की आवश्यकता होती है । गैस की बड़ी भारी विशेषता यह है कि यह जितना खाली स्थान पाती है उतने भर में फैलकर भरना चाहती है, अर्थात् उसका कोई परिमित तल या बिस्तार नहीं होता । बोतल में यदि हम बोतल भर पानी न डालेंगे तो पानी बोतल में कुछ दूर तक ही रहेगा । यदि उसी बोतल में गैस भरेंगे तो वह सारी बोतल में भर जायगी । २. एक प्रकार की तीव्र और गंधयुक्त वायु जो कोयले की खानों आदि से निकलती है । ३. बहुत सी भिन्न भिन्न गैसों का ऐसा मिश्रण जिससे गरमी पहुँचाने या रोशनी करने का काम लिया जाता है । ४. दे० 'गैसबत्ती' ।
⋙ गैहगड़ पु
वि० [हिं० गहगडु] दे० 'गहगड्ड' । उ०— राग रंग गैहगढ़ मच्यौ री, नंदराइ दरबार ।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ६०८ ।
⋙ गैहना पु
क्रि० स० [हिं० गाहना] दे० 'गहना' । उ०— आँचली गैहती बइसाड़ी छइ आँण । हँसि गललाइ नई भाँजिय काँण ।—बि० रासो०, पृ० ५५ ।
⋙ गैहवर पु
वि० [हिं० गहबर] दे० 'गह्नर' । उ०— स्यामा प्यारी आगे चलि आगे चलि , गैहबर बन भीतर जहाँ बोलत कोइल री ।—पोददार अभि० ग्रं०, पृ० ३९० ।