विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/सि
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ सिऊँ, सिंऊँ पु ‡
प्रत्य [अप० सिऊँ (= समं)] दे० 'त्यों'। उ०— रतन जनम अपनो तै हास्यो गोविंद गत नहीं जानी। निमिष न लीन भयो चरनन सिऊँ बिरथा अउध सिरानी। — तेगबहादुर (शब्द०)।
⋙ सिंकना, सिँकना
क्रि० अ० [सं० श्रृत (=पका हुआ) + करण; हि० सेंकना] आँच पर गरम होना या पकना। सेंका जाना। जैसे, — रोटी सिँकना।
⋙ सिकली
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला, हि० सौकल] करधनी। मेखला। कमर में पहनने की जंजीर। उ०— खुटी सिंकली सूता एकावटी चुलि वलया मेषला त्रिका। — वर्ण, पृ०४।
⋙ सिंकोना
संज्ञा पुं० [अ०] कुनैन का पेड़।
⋙ सिखला
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला, हि० साँकल] १. दरवाजा बंद करने की सिकड़ी। साँकल। २. बंधन। घेरा। रोक। प्रतिबंध। अर्गला। उ०— तोरि सिखला गेह की हो लोक लाज भय खोय। 'हरीचंद' हरि सो मिलौं होनी होय सो होय। — भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ०३७४।
⋙ सिंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्ग] दे० 'सींग'।
⋙ सिंग † (२)
वि० [देशी] कुश। दुर्बल। — देशी० ८२८।
⋙ सिंगड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्ग+हि० ड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० सिंगड़ो] सींग का बना हुआ बारुद रखने का एक प्रकार का बरतन। उ०— तन बंदूक सुमन का सिंगड़ा ज्ञान का गज ठहकाई। — कबीर० श०, भा० १, पृ०२७।
⋙ सिंगरा †
संज्ञा पुं० [हि० सीग+रा (प्रत्य०)] दे० 'सिंगड़ा' उ०— (क) तन बंदूक सुमति कै सिंगरा ज्ञान के गज ठहकाई।—पलटू०, भा० ३, पृ०४०। (ख) रंजक दानी, सिंगरा तूलि पलीता दानी। — प्रेमधन०, भा० १ पृ०१३।
⋙ सिंगरफ
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिंगरफ] ईगुर।
⋙ सिंगरफी
वि० [फ़ा० शिंगरफी] ईगुर का। ईगुर से बना हुआ।
⋙ सिंगरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सींग] एक प्रकार की मछली जिसके सिर पर सींग से निकले होते हैं।
⋙ सिंगरौर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेर] प्रयाग के पश्चिमोत्तर नौ दस कोस पर एक स्थान जो प्राचीन श्रृगवेरपुर माना जाता है। यहाँ निषादराज गुह की राजधानी थी। उ०— सो जामिनि सिंगरौर गँवाई। — मानस, २।१५१।
⋙ सिंगल (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बड़ी मछली जो भारत और बरमा की नदियों में पाई जाती है। यह छह् फुट तक लंबी होती है।
⋙ सिंगल (२)
संज्ञा पुं० [अं० सिगनल] दे० 'सिंगनल'।
⋙ सिंगल (३)
वि० [अं० सिंगिल] एक। दे० 'सिंगल'। जैसे, — सिंगल कप (डबल = दो अर्थात् भरा हुआ पूर्ण और सिंगल = एक अर्थात् आधा)।
⋙ सिंगा (१)
संज्ञा पुं० [हि० सींग] फुँककर बजाया जानेवाला सींग या लोहे का बना एक बाजा। तुरही। रणसिंगा।
⋙ सिंगा † (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] फली। छीमी। फलियाँ।
⋙ सिंगार, सिँगार पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार, प्रा० सिंगार] १. सजावट। सज्जा। बनाव। २. शोभा। ३. शृंगार रस। उ०— ताही ते सिंगार रस बरनि कह्नो कवि देव। जारी है हरि देवता सकल देव अधिदेव। — देव (शब्द०)।
⋙ सिंगारदान
संज्ञा पुं० [हि० सिंगार+सं० आधान या फ़ा० दान (प्रत्य०)] वह पात्र या छोटा संदूक जिसमें शोशा, कंधी आदि शृंगार की सामग्री रखी जाती है। प्रसाधन की सामग्री रखने का संदूक।
⋙ सिंगारना, सिँगारना पु
क्रि० स० [हि० सिंगार+ना (प्रत्य०)] वस्त्र, आभूषण, अंगराग आदि से शरीर सुसज्जित करना। सजाना। सँवारना। उ०— (क) सुरभी वृषभ सिंगारि बहुविधि हरदी तेल लगाई। — सुर (शब्द०)। (ख) कटे कुंड कुंडल सिंगारे गंड पुंडन पै कटि मैं भुसुंड सुंड दंडन की मंडनी। — गि० दास (शब्द०)।
⋙ सिंगारपटार †
संजा पुं० [सं० श्रृङ्गार+प्रस्तार] अच्छी तरह किया हुआ शृंगार। शृंगार। सिंगार। उ०— साबुन मल मल कर हाथ मुँह धोया फिर इत्र पाउडर लगाकर सिंगारपटार किया। कंठहार, पृ०९८।
⋙ सिंगारभोग
संज्ञा पुं० [सं० शृंङ्गार+भोग] शृंगारकालीन भोग। वह भोग या नैवेध्य जो देवविग्रह के स्नान एवं धूप आरती के उपरांत तथा शृंगार आरती के पूर्व अर्पण किया जाता है। बालभोग। कलेवा। उ०— फेरि रसोइ में जाइ, समै भए भोग सराइ श्रीठाकुरजी की मंगला आदि करि, सिंगार करि सिंगार- भोग धरतेँ। — दो सौ बावन०, भा० १, पृ०१०१।
⋙ सिंगारमेज
संज्ञा स्त्री० [सं० शृंङ्गार+फ़ा० मेज] एक प्रकार की मेज जिसपर दर्पण लगा रहता है और शृंगार की सामग्री सजी रहती है। इसके सामने बैठकर लोग बाल संवारते और वस्त्र आभूषण आदि पहनते हैं।
⋙ सिंगारहाट
संज्ञा स्त्री० [हि० सिंगार+हाट (=बाजार)] १. सौंदर्य का बाजार। वेश्याओं के रहने का स्थान। चकला। २ वह बाजार जहां शृंगार या प्रसाधन की वस्तुएँ बिकती हों।
⋙ सिंगारहार
संज्ञा पुं० [सं० हारश्रृङ्गार] हरसिंगार नामक फूल। परजाता। उ०—नागेसर सदबरग नेवारी। औ सिंगारहार फुलवारी। — जायसी (शब्द०)।
⋙ सिंगारिया
वि० [सं० शृंङ्गार+हि० सिंगार+इया(प्रत्य०)] किसी देवमूर्ति का शृंगार करनेवाला, पुजारी।
⋙ सिंगारी, सिँगारी पु
वि० पुं० [सं० श्रृङ्गारिन् प्रा० सिंगारि, हि० सिंगार+ई (प्रत्य०)] १. शृंगार करनेवाला। शोभित करनेवाला। सजानेवाला। उ०— समर बिहारी सुर सम बलधारी धरि मल्लजुद्धकारी औ सिंगारी भट भेरु के। — गोपाल (शब्द)। २. सिंगारिया। शृंगार का विशेषज्ञ। रामलीला, नाटक आदि में पात्रों को सजानेवाल। उ०— आवत दूर दूर सौ सिच्छक गुनी सिंगारी। — प्रेमधन०, भा० १, पृ०३०।
⋙ सिंगाल †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी बकरा जो कुमायूँ से नैपाल तक पाया जाता है।
⋙ सिंगाला
वि० [हि० सींग+आला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री०सिंगाली] सींगवाला। जैसे, — गाय, बैल।
⋙ सिंहासन †
संज्ञा पुं० [सं० सिंघासन, प्रा० सिंहासन] दे० 'सिंहासन'।
⋙ सिंगिया
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिक] एक प्रसिद्ध स्थावर विष। विशेष—इसका पौधा अदरक या हल्दी का सा होता है और सिक्किम की ओर नदियों के किनारे की कीचड़वाली जमीन में उगता है। इसकी जड़ ही विष होती है, जो सूखने पर सींग के आकार की दिखाई पड़ती है। लोगों का विश्वास है कि यह विष यदि गाय की सीग में बाँध दिया जाय, तो उसका दूध रक्त के समान लाल हो जाय। यह कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में प्रयुक्त होता है।
⋙ सिंगिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङिगका, प्रा० सिंगिया] पिचकारी। फुहारा [को०]।
⋙ सिंगिल
वि० [अं०] १. अविवाहित। एकाकी २. एक मात्र। इक- हरा। जैसे, — सिंगिल लाईन सिंगिल रीड़ बाजा।
⋙ सिंगी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सोंग] १. सोंग का बना हुआ फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा। तुरही। विशेष—इसे शिकारी लोग कुत्तों को शिकार का पता देने के लिये बजाते हैं। २. सींग का बाजा जिसे योगी लोग फूँककर बजाते हैं। उ०— सिंगी नाद न बाजही कित गए जोगी। — दा्दू (शब्द०)। क्रि० प्र०— फूँलना — बजाना। ३. घोड़ों का एक बुरा लक्षण।
⋙ सिंगी (२)
संज्ञा स्त्री० १. एक प्रकार की मछली।विशेंष—यह मछली बरसाती पानी में अधिकता से होते है। इसके काटने या सींग गडा़ने से एक प्रकारर का विष चढ़ता है। यह एक फुट के लगभग लंबी होती है और खाने के योग्य नहीं होती। २. सींग की बनी नली जिससे घूमनेवाले देहाती जरहि शरीर का रक्त चूसकर निकालते हैं। क्रि० प्र.— लगाना।
⋙ सिंगीमोहरा
संज्ञा पुं० [हि० सिंगी+मुहरा] सिंगिया नामक विष।
⋙ सिंगुल पु
संज्ञा पुं० [हि० सींग +उल (प्रत्य०)] सींग। उ०— पीत वरण आरक्त खुर सिर सिंगुल सुकुमार। कमलासन के आग्र अरि गो गोरुप पुकार — प० रासी, पृ०७।
⋙ सिंगौटी, सिंगौटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० सींग + औटी (प्रत्य०)] १. सींग का आकार। २. बैल के सींग पर पहनाने का एक आभूषण। ३. सींग का बना हुआ घोंटना। ४. तेल आदि रखने के लिये सींग का पात्र। ५. जंगल में मरे हुए जानवरों के सींग।
⋙ सिंगौटी, सिँगौटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० सिंगार+औटी] सिंदूर, कंघी आदि रखने की स्त्रियों की पिटारी।
⋙ सिंघ पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० सिंह, प्रा० सिंघ] १. दे० 'सिंह'। २. शंख। ३. राजा। राव। ४. शूर। वीर। उ०— सिंघ सूर को कहत कवि बहुरि संख को सिंघ। सिंघ राव ओ सिंघ वपु धरो भेष नरसिंघ। — अनेकार्थ०, पृ०१६३।
⋙ सिंघण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिंहाण' [को०]।
⋙ सिंघपोरि †
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंह + हि० पौर] राजा के प्रासाद या मंदिर का मुख्य द्वार। सिंहपौर। उ० सौसुनिकै श्री रुक्मिनी जी आदि सब पटरानी निज सखी सहचारिन को संग ले कै सोरहहू सिंगार किए अपने अपने मंदिर तें निकसी। सो सिंघ- पोरि आई — दो सौ बावन०, भा० २, पृ०७।
⋙ सिंघल
संज्ञा पुं० [सं० सिंहल] दे० 'सिंहल'।
⋙ सिंघली
वि० [सं० सिंहल+ई] दे० 'सिंहली'।
⋙ सिंघा †
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गक, हि० सिंगा] दे० 'सिंगा'।
⋙ सिंघाड़ा, सिँघाण †
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गाटक] १. पानी में फैलनेवाली एक लता जिसके तिकोने फल खाए जाते हैं। पानी फल। विशेष—यह भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत में तालों और जलाशयों में रोपकर लगाया जाता है। इसकी जड़ें पानी के भीतर दूर तक फैलती है। इसके लिये पानी के भीतर कीचड़ का होना आवश्यक है, कँकरीली या बलुई जमीन में यह नीहं फैल सकता। इसके पत्ते तीन अंगुल चौड़े कटावदार होते हैं। जिनके नीचे का भाग ललाई लिए होता है। फूल सफेद रंग के होते हैं। फल तिकोने होते हैं जिनकी दो नोकें काँटे या सींग की तरह निकली होती हैं। बीच का भाग खुरदरा होता है। छिलका मोटा पर मुलायम होता है जिसके भीतर सफेद गूदा या गिरी होती है। ये फल हरे खाए जाते हैं। सूखे फलों की गिरी का आटा भी बनता है जो व्रत के दिन फलाहार के रुप में लोग खाते हैं। अबीर बनाने में भी यह आटा काम में आता है। वैद्यक में सिंघाड़ा शीतल, भारी कसैला वीर्यवर्द्घक, मलरोधक, वातकारक तथा रुधिरविकार और त्रिदोष को दूर करनेवाला कहा गया है। पर्या०—जलफल। वारिकंटक। त्रिकोणफल। २. सिंघाड़े के आकार की निकोनी सिलाई या बेल बूटा। ३. सोनारों का एक औजार जिससे वे सोने की माला बनाते हैं। ४. एक प्रकार की मुनिया चिड़िया। ५. समोसा नाम का नमकीन पकवान जो सिंघाड़े के आकार का तिकोना होता है। ६. सिंघाड़े के आकार की मिठाई। मीठा समोसा। ७. एक प्रकार की आतिशबाजी। ८. रहट की लाट में ठोकी हुईं लकड़ी जो लाट को पीछे की ओर घूमने से रोकती है।
⋙ सिंघाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिंघाड़ा] वह तालाब जिसमें सिंघाड़ा रोपा जाता है।
⋙ सिंघाण
संज्ञा पुं० [सं० सिङ्घाण] दे० 'सिंहाण'।
⋙ सिंघाणक
संज्ञा पुं० [सं० सिङ्घाणक] दे० 'सिंहाणक'।
⋙ सिंघारना पु †
क्रि० स० [सं० संहारण] संहार करना। उ०— धनुधारे ! रे धनुधारे। सर एका बाल सिंघारे।—रघु० रू०, पृ० १५५।
⋙ सिंघासन
संज्ञा पुं० [सं० सिंहासन, प्रा० सिंघासण, सिंघासन] दे० 'सिंहासन'। उ०—(क) दशरथ राउ सिंघासन बैठि बिराजहिं हो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तहाँ सिंघासन सुभग निहारा। दिव्य कनकमय मनि दुति कारा।—मधुसूदन (शब्द०)।
⋙ सिंघिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका [को०]।
⋙ सिंघिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका। नाक।
⋙ सिंघिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंह, प्रा० सिंघ + हिं० इनी (प्रत्य०)] दे० 'सिंहिनी'।
⋙ सिंघिया
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिक] दे० 'सिंहिनी' (विष)।
⋙ सिंघी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सींग] १. एक प्रकार की छोटी मछली जिसका रंग सुर्खी लिए हुए होता है। इसके गलफड़े के पास दोनों तरफ दो काँटे होते हैं। २. सोंठ। शुंडी।
⋙ सिंघू
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जीरा जो कुल्लू और बूशहर (फारस) से आता है और काले जीरे के स्थान पर बिकता है।
⋙ सिंघेला, सिँघेला †
संज्ञा पुं० [सं० सिंह, प्रा० सिंघ + हिं० एला (प्रत्य०)] शेर का बच्चा। उ०—तौ लगि गाज न गाज सिंघेला। सौंह साह सौं जुरौं अकेला।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिंचता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिञ्चता] दे० 'सिंचिता' [को०]।
⋙ सिंचन
संज्ञा पुं० [सं० सेचन] १. जल छिडकना। पानी के छींटे डालकर तर करना। २. पेड़ों में पानी देना। सींचना।
⋙ सिंचना, सिँचना †
क्रि० अ० [हिं० सींचना] सीचा जाना।
⋙ सिंचाई, सिँचाई
संज्ञा स्ञी० [हिं० √ सींच + आई (प्रत्य०)] १. पानी छिड़कने का काम। जल के छीटों से तर करने की क्रिया।उ०—निजकर पुनि पत्रिका बनाई। कुंकुम मलयज बिंदु सिंचाई।—रघुराज (शब्द०)। २. सींचने का काम। वृक्षों में जल देने का काम। ३. सींचने का कर या मजदूरी।
⋙ सिंचाना, सिँचाना
क्रि० स० [हिं० सींचना का प्रे० रूप] १. पानी से छिड़काना। २. सींचने का काम कराना।
⋙ सिंचित
वि० [सं० सिञ्चित] [स्त्री० सिंचिता] १. जल छिड़का हुआ छींटों से तर किया हुआ। सींचा हुआ।
⋙ सिंचिता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिञ्चिता] पिप्पली। पीपर।
⋙ सिंचौनी, सिँचौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सींचना + औनी (प्रत्य०)] दे० 'सिंचाई'।
⋙ सिंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिञ्जा] १. अलंकारों की ध्वनि। भूषणों की रुनझुन। २. दे० 'शिंजा'।
⋙ सिंजालपारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक औजार। विशेष दे० 'गाबलीन'।
⋙ सिंजित
संज्ञा स्त्री० [सं० सिञ्जित] शब्द। ध्वनि। झनक। झंकार। उ०—घुटुरुन चलन घुंघुरू बाजै। सिंजित सुनत हंस हिय लाजै।—लाल कवि (शब्द०)।
⋙ सिंडिकेट
संज्ञा पुं० [अं०] १. सिनेट या विश्वविद्यालय की प्रबंध सभा के सदस्यों या प्रतिनिधियों की समिति। २. धनी व्यापारियों या जानकर लोगों की ऐसी मंडली जो किसी कार्य को, विशेषकर अर्थसंबंधी उद्योग या योजना को अग्रसर करने के लिये बनी हो।
⋙ सिंदन पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० स्यन्दन] दे० 'स्यंदन'। उ०—गज बाजि सु सिंदन जान चढ़े।—ह० रासो, पृ० ७८।
⋙ सिंदरवानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की हलदी। विशेष—इस हलदी की जड़ से एक प्रकार का तीखुर निकलता है। यह असली तीखुर में मिला भी दिया जाता है।
⋙ सिंदुक
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर] सिंदुवार वृक्ष। संभालु।
⋙ सिंदुर पु
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर] दे० 'सिंदूर'।
⋙ सिंदुररसना
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दुर रसना ?] मदिरा। शराब। (अनेकार्थ०)।
⋙ सिंदुरिया
वि० [हिं० सिंदूर + इया (प्रत्य०)] सिंदूर जैसे रंग वाला। सिंदूरिया [को०]।
⋙ सिंदुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दूर] बलूत की जाति का एक छोटा पेड़ जो हिमालय के नीचे के प्रदेश में चार साढ़े चार हजार फुट तक पाया जाता है।
⋙ सिंदुवार
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दुवार] सँभालू वृक्ष। निर्गुंडी।
⋙ सिंदुवारक
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दुवारक] दे० 'सिंदुवार' [को०]।
⋙ सिंदूर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर] १. इँगुर को पीसकर बनाया हुआ एक प्रकार का लाल रंग का चूर्ण जिसे सौभाग्यवती हिंदू स्त्रियाँ अपनी माँग में भरती हैं। विशेष—सिंदूर स्त्रियों का सौभाग्य का चिह्न माना जाता है। गणेश और हनुमान की मूर्तियों पर भी यह घी में मिलाकर पोता और चढाया जाता है। आयुर्वेद में यह भारी, गरम, टूटी हड्डी को जोड़नेवाला, घाव को शोधने और भरनेवाला तथा कोढ़, खुजली और विष को दूर करनेवाला माना गया है। यह घातक और अभक्ष्य है। पर्या०—नागरेणु। वीरज। गणेशभूषण। संध्याराग। शृंगारक। सौभाग्य। अरुण। मंगल्य। २. बलूत की जाति का एक पहाड़ी पेड़ जो हिमालय के निचले भागों में अधिक पाया जाता है।
⋙ सिंदूरकारण
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूरकारण] सीसा नामक धातु।
⋙ सिंदूरतिलक
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूरतिलक] १. सिंदूर का तिलक। २. हाथी।
⋙ सिंदूरतिलका
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दुर तिलका] सधवा स्त्री।
⋙ सिंदूरदान
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूरदान] विवाह के अवसर की एक प्रधान रीति। वर का कन्या की माँग में सिंदूर डालना।
⋙ सिंदूरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दूरपुष्पी] एक पौधा जिसमें लाल रंग के फूल लगते हैं। वीरपुष्पी। सदा सुहागिन। पर्या०—सिंदूरी। तृणपुष्पी। करच्छदा। शोणपुष्पी।
⋙ सिंदूरबंदन
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर + बन्धन ?] विवाह संस्कार में एक प्रधान रीति जिसमें वर कन्या की माँग में सिंदूर डालता है। उ०—सिंदूरबंदन, होम लावा होन लागी भाँवरी। सिलपोहनी करि मोहनी मन हरयो मूरति साँवरी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५९।
⋙ सिंदूररस
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूररस] रस सिंदूर। विशेष—यह पारे और गंधक को आँच पर उड़ाकर बनाया जाता हैं और चंद्रोदय या मकरध्वज के स्थान पर दिया जाता है।
⋙ सिंदूरवंदन
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूरवन्दन] दे० 'सिंदूरदान'।
⋙ सिंदूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दूरिका] सिंदूर [को०]।
⋙ सिंदूरित
वि० [सं० सिन्दूरित] सिंदूरयुक्त। लाल किया हुआ। सिंदूर पोता हुआ [को०]।
⋙ सिंदूरिया (१)
वि० [सं० सिन्दूर + इया (प्रत्य०)] सिंदूर के रंग का। खूब लाल। जैसे,—सिंदूरिया आम।
⋙ सिंदूरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दूर (पुष्पी)] सदा सुहागिन नाम का पौधा। सिंदूरपुष्पी।
⋙ सिंदूरी (१)
वि० [सं० सिन्दूर + ई (प्रत्य०)] सिंदूर के रंग का। उ०— भली सँझोखी सैल सिंदूरी छाए बादर।—अंबिकादत्त (शब्द०)।
⋙ सिंदूरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्दूरी] १. धातकी। धव। २. रोचनी। हल्दी। लाल हल्दी। ३. सिंदूरपुष्पी। ४. कबीला। ५. लाल वस्त्र।
⋙ सिंदोरा
संज्ञा पुं० [हिं० सिँधोरा] लकड़ी की एक डिबिया जिसमें स्त्रियाँ सिंदूर रखती है। विशेष—यह सौभाग्य की सामग्री मानी जाती है।
⋙ सिंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धु] भारत के पश्चिम प्रांत का एक प्रदेश जो बंबई प्रांत के अंतर्गत था। अब यह पाकिस्तान का एक प्रांत है।
⋙ सिंध (२)
संज्ञा स्त्री० १. पंजाब की एक प्रधान नदी। २. भैरव राग की एक रागिनी।
⋙ सिंधव
संज्ञा पुं० [सं० सैन्धव] दे० 'सैंधव'। उ०—(क) सिंधव फटिक पषान का, ऊपर एकइ रंग। पानीं माहैं देखिए, न्यारा न्यारा अंग।—दादूदयाल (शब्द०)। (ख) सिंधव झष आराम मधि ते आज हेरायो श्याम। सूर (शब्द०)।
⋙ सिंधवी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धु] एक रागिनी। विशेष—यह रागिनी आभीरी और आशावरी के मेल से बनी मानी जाती है। इसका स्वरूप कान पर कमल का फूल रखे, लाल वस्त्र पहने, क्रुद्ध और हाथ में त्रिशूल लिए कहा गया है। हनुमत के मत से इस रागिनी का स्वरग्राम यह है—सा रे ग म प ध नि सा अथवा सा ग म प ध नि सा।
⋙ सिंधसागर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुसागर] पंजाब में एक दोआब। झेलम और सिंधु नदी के बीच का प्रदेश।
⋙ सिंधारा †
संज्ञा पुं० [देश०] श्रावण मास के दोनो पक्षों की तृतीया को लड़की की सुसराल में भेजा हुआ पकवान आदि।
⋙ सिंधी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिंध + ई (प्रत्य०)] सिंध देश की बोली या भाषा। विशेष—यह समस्त सिंध प्रांत और उसके आसपास लास बेला, कच्छ और बहावलपुर आदि रियासतों के कुछ भागों में बोली जाती है। इसमें फारसी और अरबी भाषा के बहुत अधिक शब्द मिल गए हैं। यह लिखी भी एक प्रकार की अरबी फारसी लिपि में ही जाती है। इसमें 'सिरैकी', 'लारी' और 'थरेली' तीन मुख्य बोलियाँ हैं। पश्चिमी पंजाब की भाषा के समान इसमें भी दो स्वरों के बीच में कहीं कहीं 'त' पाया जाता है।
⋙ सिंधी (२)
वि० सिंध देश का। सिंध देश संबंधी।
⋙ सिंधी (३)
संज्ञा पुं० १. सिंध देश का निवासी। २. सिंध देश का घोड़ा जो बहुत तेज और मजबूत होता है। अत्यंत प्राचीन काल से सिंध घोड़े की नस्ल के लिये प्रसिद्ध है।
⋙ सिंधु (१)
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धु] १. नद। नदी। २. एक प्रसिद्ध नद जो पंजाब के पश्चिम भाग में है। ३. समुद्र। सागर। ४. चार की संख्या। ५. सात की संख्या। ६. वरुण देवता। ७. सिंध प्रदेश। ८. सिंध प्रदेश का निवासी। ९. ओठों का गीलापन। ओष्ठ की आर्द्रता। १०. हाथी के सूँड़ से निकला हुआ पानी। ११. हाथी का मद। गजमद। १२. श्वेत टंकण। खूब साफ सोहागा। १३. सिंदुवार का पौधा। निर्गुंडी। १४. संपूर्ण जाति का एक राग। विशेष—यह राग मालकोश का पुत्र माना जाता है। इसमें गांधार और निषाद दोनों स्वर कोमल लगते हैं। इसके गाने का समय दिन को १० दंड से १६ दंड तक है। १५. गंधर्वों के एक राजा का नाम। १६. वरुण का एक नाम (को०)। १७. विष्णु का एक नाम (को०)। १८. एक नागराज (को०)। १९. बाढ़। प्लावन (को०)।
⋙ सिंधु (२)
संज्ञा स्त्री० १. नदी। सरिता। २. दक्षिण की एक छोटी नदी जो यमुना में मिलती है।
⋙ सिंधुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुक] निर्गुंडी। सँभालु वृक्ष।
⋙ सिंधुक (२)
वि० १. समुद्र में उत्पन्न। समुद्र का। समुद्र संबंधी। २. सिंध प्रदेश का [को०]।
⋙ सिंधुकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुकन्या] लक्ष्मी।
⋙ सिंधुकफ
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुकफ] समुद्रफेन।
⋙ सिंधुकर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुकर] श्वेत टंकण। सोहागा।
⋙ सिंधुकालक
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुकालक] नैऋत्य कोण के एक प्रदेश का प्राचीन नाम।
⋙ सिंधुखेल
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धु खेल] सिंध प्रदेश।
⋙ सिंधुज (१)
वि० [सं० सिन्धुज] १. समुद्र से उत्पन्न। २. सिंध देश में होनेवाला। ३. नदी से उत्पन्न (को०)। ४. जलोत्पन्न। जल में या जल से उत्पन्न (को०)।
⋙ सिंधुज (२)
संज्ञा पुं० १. सेंधा नमक। २. शंख। उ०—जाके क्रोध भूमि जल पटके कहा कहैगो सिंधुज पानी।—सूर (शब्द०)। ३. पारद। पारा। ४. सोहागा। ५. समुद्र का पुत्र, चंद्रमा (को०)।
⋙ सिंधुजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुजन्मन्] १. चंद्रमा। २. सेंधा नमक।
⋙ सिंधुजन्मा
वि० दे० 'सिंधुज १'।
⋙ सिंधुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुजा] १. समुद्र से उत्पन्न, लक्ष्मी। उ०—चौंर ढारत सिंधुजा जय शब्द बोलत सिद्ध। नारदादिक बिप्र मान अशेष भाव प्रसिद्ध।—केशव (शब्द०)। २. सीप जिससे मोती निकलता है।
⋙ सिंधुजात
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुजात] १. सिंधी घोड़ा। २. मोती।
⋙ सिंधुड़ा़
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धु] एक रागिनी जो मालव राग की भार्या मानी जाती है।
⋙ सिंधुतीरसंभव
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुतीरसम्भव] सुहागा।
⋙ सिंधुदेश
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुदेश] सिंध नाम का देश।
⋙ सिंधुनंदन
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुनन्दन] (समुद्र का पुत्र) चंद्रमा।
⋙ सिंधुनाथ
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुनाथ] नदियों का पति या स्वामी। समुद्र [को०]।
⋙ सिंधुपति
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुपति] दे० 'सिंधुराज'।
⋙ सिंधुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुपर्णी] गंभारी वृक्ष।
⋙ सिंधुपिव
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुपिव] अगस्त्य ऋषि का एक नाम, जो समुद्र पी गए थे।
⋙ सिंधुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुपुत्र] १. चंद्रमा। २. तिंदुक की जाति का एक पेड़।
⋙ सिंधुपुलिंद
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुपुलिन्द] एक जनपद का नाम [को०]।
⋙ सिंधुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुपुष्प] १. शंख। २. कदंब। कदम। ३. मौलसिरी। बकुल।
⋙ सिंधुप्रसूत
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुप्रसूत] सेंधा नमक।
⋙ सिंधुमंथ
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुमन्थ] १. पर्वत। २. समुद्रमंथन।
⋙ सिंधुमंथज
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुमन्थज] सेंधा नमक।
⋙ सिंधुमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुमातृ] नदियों की माता, सरस्वती।
⋙ सिंधुमुख
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुमुख] नदी का मुहाना। नदी का संगम स्थल [को०]।
⋙ सिंधुर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुर] [स्त्री० सिंधुरा] १. हस्ती। हाथी। उ०—चली संग बनराज के, रसे एक बन आहिं। सिंधुर यूथप बहुत तहँ, निकसे तेहि बन माहिं।—सबलसिंह (शब्द०)। २. आठ की संख्या।
⋙ सिंधुरद्वेषी
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुरद्वेषिन्] हाथी का शत्रु, सिंह।
⋙ सिंधुरमणि, सिंधुरमनि पु
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुरमणि] गजमुक्ता। उ०—पीत वसन कटि कलित कंठ सुंदर सिंधुरमनि माल। तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिंधुरवदन
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुरवदन] गजवदन। गणेश। उ०— गुरु सुरसइ सिंधुरवदन, ससि सुरसरि सुरगाइ। सुमिरि चलहु मग मुदित मन होइहि सुकृत सहाइ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिंधुरागामिनि पु
वि० स्त्री० [सं० सिंधुरागामिनी] 'सिंधुरागामिनी'। हाथी की सी चालवाली। उ०—गावत चली सिंधुरागामिनि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिंधुरागामिनी
वि० स्त्री० [सं० सिन्धुरागामिनी] गजगामिनी।
⋙ सिंधुराज
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुराज] १. जयद्रथ का नाम। २. सेंधा नमक। ३. समुद्र [को०]।
⋙ सिंधुराव
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुराव] निर्गुंडी। सँभालू।
⋙ सिंधुल
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुल] राजा भोज के पिता का नाम।
⋙ सिंधुलताग्र
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुलताग्र] मूँगा। प्रवाल।
⋙ सिधुलवण
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा नमक।
⋙ सिंधुवार
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुवार] १. सिंदुवार। निर्गुंडी। २. फारस या सिंध से खरीदा घोड़ा। ३. सिंध देश का अश्व (को०)।
⋙ सिंधुवारित
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुवारित] दे० सिंधुवार [को०]।
⋙ सिंधुवासो
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुवासिन्] सिंध देश का निवासी।
⋙ सिंधुविष
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुविष] हलाहल विष जो समुद्र मथने पर निकलता था। उ०—आसीविष, सिंधुविष पावक सों तो कछू हुतो प्रहलाद सों पिता को प्रेम छूट्यो है।—केशव (शब्द०)।
⋙ सिंधुवृष
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुवृष] विष्णु का एक नाम।
⋙ सिंधुवेषण
संज्ञा पुं० [सं० सिंन्धुवेषण] गंभारी वृक्ष।
⋙ सिंधुशयन
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुशयन] विष्णु।
⋙ सिंधुसंगम
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धु सङ्गम] नदियों का संगम या समुद्र मिलन [को०]।
⋙ सिंधुसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुसम्भवा] फिटकिरी।
⋙ सिंधुसर्ज
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुसर्ज] शाल वृक्ष। साखू।
⋙ सिधुसहा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुसहा] निर्गुंडी। सिंदुवार।
⋙ सिंधुसागर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुसागर] सिंधु नद तथा सागर के बीच का देश [को०]।
⋙ सिंधुसुत
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुसुत] जलंधर नामक राक्षस जिसे शिवजी ने मारा था। उ०—सिंधुसुत गर्व गिरि वज्र गौरीस भव दक्ष मख अखिल विध्वंसकर्त्ता।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिंधुसुता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुसुता] १. लक्ष्मी। २. सीप।
⋙ सिंधुसुतासुत
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुसुतासुत] सिंधुसुता, सीप का पुत्र अर्थात् मोती। उ०—सिंधुसुतासुत ता रिपु गमनी सुन मेरी तू बात।—सूर (शब्द०)।
⋙ सिंधुसौवीर
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुसौवीर] सिंधुनद के आस पास बसनेवाली जाति [को०]।
⋙ सिंधूत्थ
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धूत्थ] १. चंद्रमा। २. सेंधा नमक [को०]।
⋙ सिंधूद्भव
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धूद्भव] सेंधा नमक [को०]।
⋙ सिंधूपल
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धूपल] सेंधा नमक [को०]।
⋙ सिंधूरा
संज्ञा पुं० [सं० सिन्धुर] संपूर्ण जाति का एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है। विशेष—यह वीर रस का राग है। इसमें ऋषभ और निषाद स्वर कोमल लगते हैं। इसके गाने का समय दिन में ११ दंड से १५ दंड तक है।
⋙ सिंधूरी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिन्धुर + हिं० ई] एक रागिनी जो हिंडोल राग की पुत्रवधू मानी जाती है।
⋙ सिंधोरा, सिँधोरा
संज्ञा पुं० [हिं० सिंदूर + ओरा (प्रत्य०)] सिंदूर रखने का लकड़ी का पात्र जो कई आकार का बनता है। उ०— गृहि ते निकरी सती होन को देखन को जग दौरा। अब तो जरे मरे बनि आई लीन्हा हाथ सिंधोरा।—कबीर (शब्द०)।
⋙ सिँधोरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिंदूर + इया (प्रत्य०)] १. सिंदूर रखने की छोटी डिबिया। दे० 'सिंदूरिया'।
⋙ सिंधोरी, सिँधोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिंदूर] सिंदूर रखने की काठ की डिबिया। दे० 'सिंधोरा'। उ०—काहू हाथ चंदन के खोरी। कोइ सेंधूर कोइ गहे सिंधोरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिंपा †
संज्ञा स्त्री० [सं० शम्पा] विद्युत्। बिजली। उ०—खुरतालु के झमके सत सिंपा के सिलाव।—रघु० रू०, पृ० २५०।
⋙ सिंपी पु †
संज्ञा पुं० [सं० सीविन् (= सीनेवाला, दर्जी)] सीवक। छीपी। दर्जी। उ०—मन मेरी सुई तन मेरो धागा। खेचर जी के चरम पर नाम सिंपी लागा।—दक्खिनी०, पृ० १८।
⋙ सिंब
संज्ञा पुं० [सं० शिम्ब] दे० 'शिंब'।
⋙ सिंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिम्बा] १. शिंबी धान। शमी धान्य। २. नखी नामक गंध द्रव्य। हट्टविलासिनी। ३. सोंठ। ४. फली। छीमी (को०)। ५. सेम (को०)।
⋙ सिंबिजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिम्बिजा] द्विदल जातीय अन्न [को०]।
⋙ सिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिम्बी] १. छीमी। फली। २. सेम। निष्पावी। ३. बन मूँग।
⋙ सिभ पु
संज्ञा पुं० [सं० शम्भु] दे० 'सिंभु'।
⋙ सिंभालू
संज्ञा पुं० [सं० सम्भालू] सिंदुवार। निर्गुँडी।
⋙ सिंभु पु
संज्ञा पुं० [सं० शम्भु] शिव। शंकर। उ०—धरयो तन वस्त्र सुकोर कुआर। मँडी जनु सिंभु मनम्मथ रार।—पृ० रा०, १४।६१।
⋙ सिंमृति †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्मृति] स्मृति ग्रंथ। उ०—गुर मति वेद सिंमृति अभ्यास।—प्रा०, पृ० २२८।
⋙ सिंसप
संज्ञा पुं० [सं० शिंशपा] दे० 'शिंशपा'।
⋙ सिंसपा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशपा] दे० 'शिंशपा'।
⋙ सिंसिपा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशपा] दे० 'शिंशपा'। उ०—सरो सिंसिपा सीकम की शोभा शुभ झलकी।—श्यामा०, पृ० ३९।
⋙ सिंसुपा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशपा] १. एक पृक्ष। शिंशपा। सीसम। उ०—जहँ सिंसुपा पुनीत तरु रघुबर किय बिस्त्राम।—मानस, २।१९८। २. अशोक (को०)।
⋙ सिंह
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सिंहनी] १. बिल्ली की जाति का सबसे बलवान् पराक्रमी और भव्य जंगली जंतु जिसके नर वर्ग की गरदन पर बड़े बड़े बाल या केसर होते हैं। शेर बबर। विशेष—यह जंतु अब संसार में बहुत कम स्थानों में रह गया हैं। भारतवर्ष के जंगलों में किसी समय सर्वत्र सिंह पाए जाते थे, पर अब कहीं नहीं रह गए हैं। केवल गुजरात या काठियावाड़ की ओर कभी कभी दिखाई पड़ जाते हैं। उत्तरी भारत में अंतिम सिंह सन् १८३९ में दिखाई पड़ा था। आजकल सिंह केवल अफ्रिका के जंगलों में मिलते हैं। इस जंतु का पिछला भाग पतला होता है, पर सामने का भाग अत्यंत भव्य और विशाल होता है। इसकी आकृति से विलक्षण तेज टपकता है और इसकी गरज बादल की तरह गूँजती है, इसी से सिंह का गर्जन प्रसिद्ध है। देखने में यह बाघ की अपेक्षा शांत और गंभीर दिखाई पड़ता है और जल्दी क्रोध नहीं करता। रंग इसका ऊँट के रंग का सा और सादा होता है। इसके शरीर पर चित्तियाँ आदि नहीं होतीं। मुँह व्याघ्र की अपेक्षा कुछ लंबोतरा होता है, बिलकुल गोल नहीं होता। पूँछ का आकार भी कुछ भिन्न होता है। यह पतली होती है और उसके छोर पर बालों का गुच्छा सा होता है। सारे धड़ की अपेक्षा इसका सिर और चेहरा बहुत बड़ा होता है जो केसर या बालों के कारण और भी भव्य दिखाई पड़ता है। कवि लोग सदा से वीर या पराक्रभी पुरुष की उपमा सिंह से देते आए हैं। यह जंगल का राजा माना जाता है। पर्य्या०—मृगराज। मृगेंद्र। केसरी। पंचानन। हरि। पंचास्य। २. ज्योतिष में मेष आदि आदि बारह राशियों में से पाँचवीं राशि। विशेष—इस राशि के अंतर्गत मघा, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी के प्रथम पाद पड़ते हैं। इसका देवता सिंह और वर्ण पीतधूम्र माना गया है। फलित ज्योतिष में यह राशि पित्त प्रकृति की, पूर्व दिशा की स्वामिनी, कूर और शब्दवाली कही गई है। इस राशि में उत्पन्न होनेवाला मनुष्य क्रोधी, तेज चलनेवाला, बहुत बोलनेवाला, हँसमुख, चंचल और मत्स्यप्रिय बतलाया गया है। ३. वीरता या श्रेष्ठतावाचक शव्द। जैसे,—पुरुष सिंह। ४. छप्पय छंद का सोलहवाँ भेद जिसमें ५५ गुरु, ४२ लघु कुल ९७ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ५. वास्तुविद्या में प्रासाद का एक भेद जिसमें सिंह की प्रतिमा से भूषित बारह कोने होते हैं। ६. रक्त शिग्रु। लाल सहिंजन। ७. एक राग का नाम। ८. वर्त्तमान अवसर्पिणी के २४ वें अर्हत् का चिह्न जो जैन लोग रथयात्रा आदि के समय झंडों पर बनाते हैं। ९. एक आभूषण जो रथ के बैलों के माथे पर पहनाते हैं। १०. एक कल्पित पक्षी। ११. वेंकट गिरि का एक नाम। १२. कृष्ण के एक पुत्र का नाम (को०)। १३. विद्याधरों का एक राजा (को०)।
⋙ सिंहकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु की एक विशेष सज्जा। भवन के तोरण आदि पर बना वह ताखा या मुख जो सिंह की आकृति का हो [को०]।
⋙ सिंहकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाण चलाने में दाहिने हाथ की एक मुद्रा।
⋙ सिंहकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० सिंहकर्मन्] सिंह के समान वीरता से काम करनेवाला। वीर पुरुष।
⋙ सिंहकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ सिंहकेलि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसिद्ध बोधिसत्व मंजुश्री का एक नाम।
⋙ सिहकेशर, सिंहकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह की गरदन के बाल। २. मौलसिरी। बकुल वृक्ष। ३. एक प्रकार की मिठाई। सूत- फेनी। काता।
⋙ सिंहग
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
⋙ सिंहगर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिंहनाद'।
⋙ सिहग्रीव
वि० [सं०] सिंह के समान गर्दनवाला [को०]।
⋙ सिंहघोष
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ सिंहचित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मषवन। माषपरर्णी।
⋙ सिंहच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दूब।
⋙ सिहतल
संज्ञा पुं० [सं०] अंजलि। अँजुरी [को०]।
⋙ सिंहताल, सिंहतालाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिंहतल' [को०]।
⋙ सिंहतुंड
संज्ञा पुं० [सं० सिंहतुण्ड] १. सेहुँड़। स्नुही। थूहर। २. एक प्रकार की मछली।
⋙ सिंहतुंडक
संज्ञा पुं० [सं० सिंहतुण्डक] १. एक मत्स्य। सिंहतुंड [को०]।
⋙ सिंहदष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बाण। २. शिव का एक नाम। ३. एक असुर (को०)।
⋙ सिंहदर्प
वि० [सं०] सिंह के समान गर्ववाला [को०]।
⋙ सिहद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] प्रासाद का मुख्य द्वार या सदर फाटक जहाँ सिंह की मूर्ति बनी हो। उ०—सिंहद्वार आरती उतारत यशुमति आनँदकंद।—सूर (शब्द०)।
⋙ सिंहद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] एक द्वीप का नाम [को०]।
⋙ सिंहध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ सिंहध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिंह की गर्जना। २. युद्धघोष। रणनाद [को०]।
⋙ सिंहनंदन
संज्ञा पुं० [सं० सिंहनन्दन] संगीत में ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक।
⋙ सिंहनर्दी
वि० [सं० सिंहनर्दिन्] सिंह के समान नाद करनेवाला [को०]।
⋙ सिंहनाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह की गरज। २. युद्घ में वीरों की ललकार। युद्धघोष। रणनाद। ३. सत्यता के निश्चय के कारण किसी बात का निःशंक कथन। जोर देकर कहना। ललकार के कहना। ४. एक प्रकार का पक्षी। ५. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, सगण, सगण और एक गुरु होता है। कलहंस। नांदिनी। उ०—सजि सी सिंगार कलहंस गती सी। चलि आइ राम छवि मंडप दीसी। ६. संगीत में एक ताल। ७. शिव का एक नाम। ८. बौद्ध- सिद्धांतपरक ग्रंथों का पाठ (को०)। ९. एक असुर (को०)। १०. रावण के एक पुत्र का नाम।
⋙ सिंहनादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंघा नामक बाजा। २. सिंह की गरज। सिंहनाद (को०)। ३. युद्धघोष (को०)।
⋙ सिंहनाद गुग्गुल
संज्ञा स्त्री [सं०] एक यौगिक औषध जिसमें प्रधान योग गुग्गुल का रहता है।
⋙ सिंहनादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवासा। धमासा। दुरालभा। हिंगुआ।
⋙ सिंहनादी (१)
वि० [सं० सिहनादिन्] [स्त्री० सिहनादिनी] सिंह के समान गरजनेवाला।
⋙ सिंहनादी (२)
संज्ञा पुं० एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ सिहन
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिंह की मादा। शेरनी। २. एक छंद का नाम। विशेष—इसके चारों पदों में क्रम से १२, १८, २० और २२ मात्राएँ होती हैं। अंत में एक गुरु और २०, २० मात्राओं पर १ जगण होता है। इसके उलटे को गाहिनी कहते है।
⋙ सिंहपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी।
⋙ सिंहपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अडूसा। वासक।
⋙ सिंहपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सैंहली।
⋙ सिंहपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं० पिठवन] पृश्निपर्णी।
⋙ सिंहपुच्छिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सिंहपुष्पी'।
⋙ सिंहपुच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्रपर्णी। २. जंगली उरद। माष- पर्णी। ३. पृश्निपर्णी। पिठवन (को०)।
⋙ सिंहपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के नौ वासुदेवों में से एक वासुदेव।
⋙ सिंहपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन। पृश्निपर्णी।
⋙ सिंहपौर
संज्ञा पुं० [सं० सिंह + हिं० पौर] सिंहद्वार। प्रासाद का सदर फाटक (जिसपर सिंह की मूर्त्ति बनी हो)। उ०—भीर जानि सिंहपौर त्रियन की यशुमति भवन दुराई।—सूऱ (शब्द०)।
⋙ सिंहप्रगर्जन
वि० [सं०] सिंह की तरह गरजनेवाला [को०]।
⋙ सिंहप्रगर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह की गरज। सिंहनाद [को०]।
⋙ सिंहप्रणाद
संज्ञा पुं० [सं०] युद्धघोष। रणनाद। ललकार [को०]।
⋙ सिंहमल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की धातु या पीतल। पंचलौह।
⋙ सिंहमाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिंह की माया। सिंह की आकृति का भ्रम या वहम।
⋙ सिंहमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के एक गण का नाम। २. वह जिसका मुख सिंह के समान हो (को०)।
⋙ सिंहमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँस। २. अडूसा। वासक। ३. बन उरद। जंगली उड़द। ४. खारी मिट्टी। ५. कृष्ण निर्गुंडी। काला सँभालू।
⋙ सिंहयाना, सिंहरथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] (सिंह जिसका वाहन हो) दुर्गा।
⋙ सिंहरव
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहनाद। सिंह का गर्जन।
⋙ सिंहल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक द्वीप जो भारतवर्ष के दक्षिण में है और जिसे लोग रामायणवाली लंका अनुमान करते है। विशेष—जान पड़ता है कि प्राचीन काल में इस द्वीप में सिंह बहुत पाए जाते थे, इसी से यह नाम पड़ा। रामेश्वर के ठीक दक्षिण पड़ने के कारण लोग सिंहल को ही प्राचीन लंका अनुमान करते हैं। पर सिंहलवासियों के बीच न तो यह नाम ही प्रसिद्ध है और न रावण की कथा है। सिंहल के दो इतिहास पाली भाषा में लिखे मिलते हैं—महाबंसो और दीपबंसो, जिनसे वहाँ किसी समय यक्षों की बस्ती होने का पता लगता है। रावण के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि उसने लका से अपने भाई यक्षों को निकालकर राक्षसों का राज्य स्थापित किया था। बंग देश के विजय नामक एक राजकुमार का सिंहल विजय करना भी इतिहासों में मिलता है। ऐतिहासिक काल में यह द्वीप स्वर्णभूमि या स्वर्णद्वीप के नाम से प्रसिद्ध था, जहाँ दूर देशों के व्यापारी मोती और मसाले आदि के लिये आते थे। प्राचीन अरब स्वर्ण द्वीप को 'सरनदीब' कहते थे। रत्नपरीक्षा के ग्रंथों में सिंहल द्वीप मोती, मानिक और नीलम के लिये प्रसिद्ध पाया जाता है। भारतवर्ष के कलिंग, ताम्रलिप्ति आदि प्राचीन बंदरगाहों से भारतवासियों के जहाज बराबर सिंहल, सुमात्रा, जावा आदि द्वीपों की ओर जाते थे। गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त (सन् ४०० ईसवी) के समय फाहियान नामक जो चीनी यात्री भारतवर्ष में आया था, वह हिंदुओं के ही जहाज पर सिंहल होता हुआ चीन को लौटा था। उस समय भी यह द्वीप स्वर्ण- द्वीप या सिंहल ही कहलाता था, लंका नहीं। इधर की कहानियों में सिंहलद्वीप पद्मिनी स्त्रियों के लिये प्रसिद्ध है। यह प्रवाद विशेषतः गोरखपंथी साधुओं में प्रसिद्ध है जो सिंहल को एक प्रसिद्ध पीठ मानते हैं। उनमें कथा चली आती है कि गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्र नाथ (मछंदरनाथ) सिद्ध होने के लिये सिंहल गए, पर पद्मिनियों के जाल में फँस गए। जब गोरख- नाथ गए तब उनका उद्धार हुआ। वास्तव में सिंहल के निवासी बिलकुल काले और भद्दे होते हैं। वहाँ इस समय दो जातियाँ बसती हैं—उत्तर की ओर तो तामिल जाति के लोग और दक्षिण की ओर आदिम सिंहली निवास करते हैं। २. सिंहल द्वीप का निवासी। ३. टीन। रंग। राँगा (को०)। ४. एक धातु पीतल (को०)। ५. छाल। वल्कल (को०)। ६. पीपर। पिप्पली (को०)।
⋙ सिंहलक (१)
वि० [सं०] सिंहल संबंधी।
⋙ सिंहलक (२)
संज्ञा पुं० १. पीतल। २. दारचीनी। ३. सिंहल द्वीप (को०)।
⋙ सिंहलद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहल नाम का टापू जो भारत के दक्षिण में है। विशेष दे० 'सिंहल'।
⋙ सिंहलद्वीपी
वि० [सं० सिंहलद्वीपिन्] १. सिंहल द्वीप में होनेवाला। २. सिंहलद्वीप का निवासी। उ०—कनक हाट सब कुहकुह लीपी। बैठ महाजन सिंहलद्वीपी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिंहलस्थ
वि० [सं०] [स्त्री० सिंहलस्था] सिंहल निवासी।
⋙ सिंहलस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] सैंहली। सिंहली पीपल।
⋙ सिंहलांगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंहलाङ्गुली] पिठवन। पृश्निपर्णी।
⋙ सिंहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिंहल द्वीप। लंका। २. राँगा। ३. पीतल। ४. छाल। वकला। ५. दारचीनी।
⋙ सिंहलास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताड़ जो दक्षिण में होता है।
⋙ सिंहली (१)
वि० [हिं० सिंहल + ई (प्रत्य०)] १. सिंहल द्वीप का। २. सिंहल द्वीप का निवासी। विशेष—सिंहली काले और भद्दे होते हैं। वे अधिकांश हीनयान शाखा के बौद्ध हैं। पर बहुत से सिंहली मुसलमान भी हो गए हैं।
⋙ सिंहली (२)
संज्ञा स्त्री० १. सिंहली पीपल। २. सिंहल की बोली या भाषा (को०)।
⋙ सिंहली पीपल
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंहपिप्पली] एक लता जिसके बीज दवा के काम में आते हैं। विशेष—यह सिंहल द्वीप के पहाड़ों पर उत्पन्न होती है। इसका रंग और रूप साँप के समान होता है और बीज लंबे होते हैं। यह चरपरी गरम तथा कृमि रोग, कफ, श्वास और वात की पीड़ा को दूर करनेवाली कही गई है।
⋙ सिंहलील
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में एक ताल। २. कामशास्त्र में एक रतिबंध।
⋙ सिंहवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १ सिंह का मुख। २. एक राक्षस का नाम। २. एक नगर [को०]।
⋙ सिंहवत्स
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम [को०]।
⋙ सिंहवदना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अडूसा। २. माषपर्णी। बनउड़दी। ३. खारी मिट्टी।
⋙ सिंहवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अडूसा।
⋙ सिंहवाह
वि० [सं०] जो सिंह पर सवार हो।
⋙ सिंहवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह पर चढ़ने या सवारी करनेवाला। २. शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सिंहवाहना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा देवी।
⋙ सिंहवाहिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] सिंह पर चढ़नेवाली। उ०—सकल सिंगार करि सोहे आजु सिंहोदरी सिंहासन बैठी सिंहवाहिनी भवानी सी।—देव (शब्द०)।
⋙ सिंहवाहिनी (२)
संज्ञा स्त्री० दुर्गादेवी जिनका वाहन सिंह है। उ०—रूप रस एवी महादेवी देवदेवन की सिंहासन बैठी सौं हैं सोहैं सिंहवाहिनी।—देव (शब्द०)।
⋙ सिंहवाही
वि० पुं० [सं० सिंहवाहिन्] दे० 'सिंहवाह'।
⋙ सिंहविक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा। २. सगीत में एक ताल। ३. चंद्रगुप्त नरेश का एक नाम (को०)। ४. एक विद्याधर राज (को०)।
⋙ सिंहविक्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सिंहविक्रान्त] १. सिंह की चाल। २. अश्व। घोड़ा। ३. दो नगण और सात या सात से अधिक यगणों के दंडका का एक नाम।
⋙ सिंहविक्रांत (२)
वि० सिंह के समान पराक्रमवाला [को०]। यौ०—सिहविक्रांत गति = सिंह के समान गमन करनेवाला। सिंहविक्रांतगामिता सिंहविक्रांतगामी = दे० 'सिंहविक्रांतगति'।
⋙ सिंहविक्रांतगामिता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंहविक्रान्तगामिता] बुद्ध के अस्सी अनुव्यंजनों (छोटे लक्षणों) में से एक।
⋙ सिंहविक्रीड़
संज्ञा पुं० [सं० सिंहविक्रीड] दंडक का एक भेद जिसमें ९ से अधिक यगण होते है।
⋙ सिंहविक्रीड़ित
संज्ञा पुं० [सं० सिंहविक्रीडित] १. संगीत में एक ताल। २. एक प्रकार की समाधि। ३. एक बोधिसत्व का नाम। ४. एक छंद का नाम।
⋙ सिंहविजृंभित
संज्ञा पुं० [सं० सिंहविजृम्भित] एक प्रकार की समाधि (बौद्ध)।
⋙ सिंहविन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी।
⋙ सिंहविष्कंभित
संज्ञा पुं० [सं० सिंहविष्कम्भित] एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ सिंहविष्टर
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहासन [को०]।
⋙ सिंहवृंता
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंहवृन्ता] बन उड़दी। माषपर्णी।
⋙ सिंहशाव, सिंहशावक, सिंहशिशु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह का शिशु या छौना [को०]।
⋙ सिंहसंहनन (१)
वि० [सं०] १. सिंह के समान शक्ति या बलयुक्त। २. सुंदर। सुरूप। रूपवान [को०]।
⋙ सिंह संनहन (२)
संज्ञा पुं० सिंह का हनन [को०]।
⋙ सिंहसावक पु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह का बच्चा। उ०—सिंहसावक ज्यौं तजै गृह, इंद्र आदि डेरात।—सूर०, १।१०६।
⋙ सिंहस्कंध
वि० [सं० सिंहस्कन्ध] सिंह के समान कंधोंवाला [को०]।
⋙ सिंहस्थ
वि० [सं०] १. सिंह राशि में स्थित (बृहस्पति)। २. एक पर्व जो बृहस्पति के सिंह राशि में होने पर होता है। विशेष—सिंहस्थ बृहस्पति में विवाह आदि शुभ कार्य वर्जित हैं।
⋙ सिंहस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ सिंहहनु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह के समान दाढ़ या दाढ़ की हड्डी जो कि बुद्ध के बत्तीस प्रधान लक्षणों में से एक है।
⋙ सिंहहनु (२)
वि० जिसकी दाढ़ सिंह के समान हो।
⋙ सिंहहनु (३)
संज्ञा पुं० गौतम बुद्ध के पितामह का नाम।
⋙ सिंहा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाड़ी शाक। करेमू। २. भटकटैया। कटाई। कंटकारी। ३. बृहती। बनभंटा। ४. नाड़ी (को०)।
⋙ सिंहा (२)
संज्ञा पुं० १. नाग देवता। २. सिंह लग्न। ३. वह समय जब तक सूर्य इस लग्न में रहता है।
⋙ सिंहाचल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत [को०]।
⋙ सिंहाटक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गाटक] चतुष्पथ। चौराहा। उ०— और बनारस के बाहर सिंहाटक (चौराहे) पर मृगमांस बिकने का उल्लेख है।—हिंदु० सभ्यता, पृ०, २९९।
⋙ सिंहाढ्य
वि० [सं०] सिंहों से संकुल या भरा हुआ [को०]।
⋙ सिंहाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाक का मल। नकटी। रेंट। २. लोहे का मुरचा। जंग।
⋙ सिंहाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाक का मल। नकटी। रेंट। २. लोहे का मुरचा। जंग (को०)।
⋙ सिंहान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिंहाण'।
⋙ सिंहानक
संज्ञा पुं० [सं० सिंहाणक] दे० 'सिंहाणक'।
⋙ सिंहानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण निर्गुंडी। काला सँभालू। २. वासक। अड़ूसा।
⋙ सिंहारहार पु
संज्ञा पुं० [सं० हार + श्रृङ्गार] दे० हरसिंगार [को०]।
⋙ सिंहाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिंहली पीपल।
⋙ सिंहावलोक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृत्त। दे० 'सिंहावलोकन'—३।
⋙ सिंहावलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह के समान पीछे देखते हुए आगे बढ़ना। २. आगे बढ़ने के पहले पिछली बातों का संक्षेप में कथन। ३. पद्यरचना की एक युक्ति जिसमें पिछले चरण के अंत के कुछ शब्द या वाक्य लेकर अगला चरण चलता है। उ०— गाय गोरी सोहनी सुराग बाँसुरी के बीच कानन सुहाय मार मंत्र को सुनायगो। नायगो री नेह डोरी मेरे गर में फँसाय हिरदै थल बीच चाय वेलि को बँधायगो।—दीनदयाल (शब्द०)।
⋙ सिंहावलोकित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिंहावलोकन'।
⋙ सिंहासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा या देवता के बैठने का आसन या चौकी। विशेष—यह प्रायः काठ, सोने, चाँदी, पीतल आदि का बना होता है। इसके हत्थों पर सिंह का आकार बना होता है। २. कमल के पत्ते के आकार का बना हुआ देवताओं का आसन। ३. सोलह रतिबंधों के अंतर्गत चौदहवाँ बंध। ४. मंडूर। लौहकिट्ट। ५. दोनो भौंहों के बीच में बैठकी के आकार का चंदन या रोली का तिलक।
⋙ सिंहासनचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में मनुष्य के आकार का सत्ताइस कोठों का एक चक्र जिसमें नक्षत्रों के नाम भरे रहते हैं।
⋙ सिंहासनत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष का एक चक्र [को०]।
⋙ सिंहासनच्युत, सिहासनभ्रष्ट
वि० [सं०] सिंहासन से हटाया हुआ। राज्यच्युत [को०]।
⋙ सिंहासनयुद्ध, सिंहासनरण
संज्ञा पुं० [सं०] राज्यसिंहासन की प्राप्ति के लिये होनेवाला संग्राम।
⋙ सिंहासनस्थ
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सिंहासनस्था] सिंहासन पर स्थित। सिंहासन पर आसीन [को०]।
⋙ सिंहास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन अस्त्र [को०]।
⋙ सिंहास्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वासक। अडूसा। २. कोविदार। कचनार। ३. एक प्रकार की बड़ी मछली। ४. हाथों की एक विशिष्ट मुद्रा (को०)।
⋙ सिंहास्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अडूसा [को०]।
⋙ सिहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक राक्षसी जो राहु की माता थी। उ०—जलधि लंघन सिंह सिंहिका मद मथन, रजनिचर नगर उत्पात केतू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) ललित श्रीगोपाल लोचन स्याम शोभा दून। मनु मयंकहि अंक दीन्ही सिंहिका के सून।—सूर (शब्द०)। विशेष—यह राक्षसी दक्षिण समुद्र में रहकर उड़ते हुए जीवों की परछाईं देखकर ही उनको खींचकर खाती थी। इसको लंका जाते समय हनुमान ने मारा था। यौ०—सिंहिकाचित्तनंदन, सिंहिकातनय, सिंहिकापुत्र, सिंहिकासुत = सिंहिका का पुत्र, राहु। २. शोभन छंद का एक नाम। इसके प्रत्येक पद में १४, १० के विराम से २४ मात्राएँ और अंत में जगण होता है। ३. दाक्षायणी देवी का एक रूप। ४. टेढे घुटनों की कन्या जो विवाह के अयोग्य कही गई है। ५. अडूसा। ६. बनभंटा। ७. कंटकारी।
⋙ सिंहिकासूनु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहिका का पुत्र, राहु।
⋙ सिंहिकेय
संज्ञा पुं० [सं०] (सिंहिका का पुत्र) राहु।
⋙ सिंहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिंहनी] मादा सिंह। शेरनी। उ०—श्वान संग सिंहिनी रति अजगुत बेद विरुद्ध असुर करै आइ। सूरदास प्रभु बेगि न आवहु प्राण गए कहा लैहौ आइ।—सूर। (शब्द०)। २. बौद्धों के अनुसार एक देवी (को०)।
⋙ सिंही
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिंह की मादा। शेरनी। उ०—सिंही की गोद से छीनता है शिश कौन ?।—अपरा, पृ० १०। २. अडसा। ३. स्नुही। थूहर। ४. मुद्गपर्णी। ५. चंद्रशेखर के मत से आर्या का पचीसवाँ भेद। इसमें ३ गुरु और ५१ लघु होते हैं। ६. बृहती लता। ७. सिंघा नाम का बाजा। ८. पीली कौड़ी। ९. धमनी। नस । नाड़ी (को०)। १०. नाड़ी- शाक। करेमू। ११. राहु की माता सिंहिका।
⋙ सिंहीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैगन। भंटा।
⋙ सिंहेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ सिंहोड़
संज्ञा पुं० [सं० सेहुण्ड] दे० 'सेहुड़' या 'थूहर'।
⋙ सिंहोदरी
वि० स्त्री० [सं०] सिंह के समान पतली कमरवाली। उ०— सकल सिंगार करि सोहै आजु सिंहोदरी सिंहासन बैठी सिंह- वाहिनी भवानी सी।—देव० (शब्द०)।
⋙ सिंहोद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सिंहोन्नता' [को०]।
⋙ सिहोन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वसंततिलका वृत्त का दूसरा नाम। उ०— इसकी अन्य संज्ञाएँ उद्धर्षिणी, सिंहोन्नता, वसंततिलक प्रभृति हैं। छंदः०, पृ० १९५।
⋙ सिअनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सीवन, प्रा० सीवण, हिं० सीवन, सीअन] सिलाई। उ०—तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सोहावनि टाट पटोरें।—मानस, १। १४।
⋙ सिअर पु †
वि० [सं० शीतल] दे० 'सिअरा'। उ०—मेलेसि चंदन मकु खिनु जागा। अधिकौ सूत सिअर तन लागा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५२।
⋙ सिअरा पु (१)
वि० [सं० शीतल, प्रा० सीअड़] ठंडा। शीतल। उ०— सिअरे बदन सूखि गए कैसे। परसत तुहिन ताम रस जैसे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिअरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० छाया, फा़० सायह्] छाहँ। उ०—सिरसि टेपारो लाल नीरज नयन बिसाल सुंदर बदन ठाढ़े सुर तरु सिअरे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिअरा † (३)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल, प्रा० सिआड़] दे० 'सियार'।
⋙ सिआना
क्रि० स० [सं० सीव] दे० 'सिलाना'।
⋙ सिआमग
संज्ञा पुं० [सं० श्यामाङ्ग(= काले शरीरवाला)] सुमात्रा द्वीप में पाया जानेवाला एक प्रकार का बंदर।
⋙ सिआर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल० प्रा० सिआल] [स्त्री० सिआरी] श्रृगाल। गीदड़। उ०—भयो चलत असगुन अति भारी। रबि के आछत फेकर सिआरी।—सबल सिंह (शब्द०)।
⋙ सिउरना ‡
क्रि० स० [देश०] छाजन के लिये मुट्ठों को काँड़ियों पर बिछाकर रस्सी से बाँधना।
⋙ सिकजबीन
संज्ञा स्त्री० [फा़० सिकंजुबीन] सिरके या नीबू के रस में पका हुआ शरबत। विशेष—यह शर्बत ठंढा होता है और दवा के काम आता है। गर्मी के दिनों में ठंढक के लिये लोग इसे पीते हैं। यह सफरा और बलगम के लिये हितकर कहा गया है।
⋙ सिकजा
संज्ञा पुं० [फा़० शिकंजह्] दे० 'शिकंजा'।
⋙ सिकंदर
संज्ञा पुं० [फा़०] यूनान का एक प्रसिद्ध और प्रतापी नरेश जो मकदूनियाँ के फिलिप्स (फैलकूस या फैलक्स) का पुत्र और अरस्तू का शागिर्द था। मिस्र, ईरान, अफगानिस्तान जय करता हुआ यह हिंदुस्तान तक आया था और इसने तक्षशिला और सिंध का कुछ अंश भी जीत लिया था।
⋙ सिकंदरा
संज्ञा पुं० [फा़० सिकंदरा] रेल की लाइन के किनारे ऊँचे खंभे पर लगा हुआ हाथ या डंडा जो आती हुई गाड़ी की सूचना देता है। सिगनल। विशेष—कथा प्रसिद्ध है कि सिकंदर बादशाह जब सारी दुनिया जीतकर समुद्र पर भ्रमण करने गया, तब बड़वानल के पास पहुँचा। वहीं उसने जहाजियों को सावधान करने के लिये खंभे के ऊपर एक हिलता हुआ हाथ लगवा दिया जो उधर जानेवाले यात्रियों को बराबर मना करता रहता है और 'सिकंदरी भुजा' कहलाता है। इसी कहानी के अनुसार लोग सिगनल को भी 'सिकंदरा' कहने लगे।
⋙ सिकंदरी (१)
वि० [फा़०] सिकंदर का। सिकंदर संबंधी।
⋙ सिकंदरी (२)
संज्ञा स्त्री० घोड़े की ठोकर [को०]।
⋙ सिकटा †
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० सिकटी] खपड़े या मिट्टी के टूटे बरतनों का छोटा टुकड़ा।
⋙ सिकटी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटी कंकड़ी या टुकड़ी।
⋙ सिकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङखला] १. किवाड़ की कुडी। साँकल। जंजीर। २. जंजीर के आकार का सोने का गले में पहनने का गहना। ३. करधनी। तागड़ी। ४. चारपाई में लगी हुई वह दाँवनी जो एक दूसरी में गूँथ कर लगाई जाती है।
⋙ सिकड़ी पनवाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० सिकड़ी + पान] गले में पहनने की वह सिकड़ी जिसके बीच में पान सी चौकी होती है।
⋙ सिकत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सिकता] सिकता। रेत।
⋙ सिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बालू। रेत। उ०—बारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल। बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल। तुलसी (शब्द०)। २. बलुई जमीन। ३. प्रमेह का एक भेद। अश्मरी। पथरी। ४. चीनी। शर्करा। ५. लोणिका या लोनी नामक शाक। यौ०—सिकताप्राय = रेतीला तट। सिकतामय = (१) रेतीला तट। (२) रेतीला टापू। (३) रेतीला। सिकतामेह। सिकतावर्त्म। सिकता सेतु = बालू का बना बाँध।
⋙ सिकतामेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह जिसमें पेशाब के साथ बालू के से कण निकलते हैं।
⋙ सिकतावर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० सिकतावर्त्मन्] आँख की पलकों का एक रोग।
⋙ सिकतावान्
वि० [सं० सिकतावत्] रेतीला। सिकतामय [को०]।
⋙ सिकतिल
संज्ञा स्त्री० [सं०] रेतीला।
⋙ सिकतोत्तर
वि० [सं०] रेतीभरा। बालुकामय। सिकतिल [को०]।
⋙ सिकत्तर †
संज्ञा पुं० [अं० सेक्रेटरी] किसी संस्था या सभा का मंत्री। सेक्रेटरी।
⋙ सिकर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल] गीदड़। सियार।
⋙ सिकर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सीकड़] जंजीर। सिकड़ी।
⋙ सिकरवार
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों की एक शाखा। उ०—वीर बड़गूजर जसाउत सिकरवार, होत असवार जे करत निरवार हैं।—सूदन (शब्द०)।
⋙ सिकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिकड़ी] दे० 'सिकड़ी'।
⋙ सिकली
संज्ञा स्त्री० [अ० सैक़ल] धारदार हथियारों को माँजने और उनपर सान चढा़ने की क्रिया। उ०—सकल कबीरा बोलै बीरा अजहूँ हो हुसियारा। कह कबीर गुरु सिकली दरपन हरदम करौ पुकारा।—कबीर (शब्द०)।
⋙ सिकलीगढ़
संज्ञा पुं० [हिं० सिकली + फा़० गर] दे० 'शिकलीगर'। उ०—बढ़ई संगतरास बिसाती। सिकलीगढ़ कहार की पाती।—गिरधरदास (शब्द०)।
⋙ सिकलीगर
संज्ञा पुं० [अ० सैकल + फा़० गर] तलवार और हरी आदि पर बाढ़ रखनेवाला। सान धरनेवाला। चमक देनेवाला। उ०—यों छबि पावत है लखौ अंजन आँजे नैन। सरस बाढ़ सैफन धरी जनु सिकलीगर मैन।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ सिकसोनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] काक जंघा।
⋙ सिकहर, सिकहरा
संज्ञा पुं० [सं० शिक्य + धर] छींका। झींका। सींका।
⋙ सिकहुती, सिकहुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० सींक + औती या औली (प्रत्य०)] मूँज, कास आदि की बनी छोटी डलिया।
⋙ सिकाकोल
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिण की एक नदी।
⋙ सिकार ‡
संज्ञा पुं० [फा़० शिकार] दे० 'शिकार'। उ—(क) कंपहिं सिकार गज तुंड डर सब बिघंन गनपति हरय।—पृ० रा०, ६।९८। (ख) खिल्लत सिकार पिथ कुँअर डर पशु पीपंर दल थरहरै।—पृ० रा०, ६।१००।
⋙ सिकारी
वि०, संज्ञा पुं० [फा़० शिकारी] दे० 'शिकारी'। उ०—मारत खोज सिकार सिकारी जे अति चातुर।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २६।
⋙ सिकिलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिकली] दे० 'सिकली'। उ०—गुरू के भेद को पाइ कै सिकिलि करु।—पलटू०, पृ० १६।
⋙ सिकुड़न
संज्ञा स्त्री० [सं० सङ्कुचन, अथवा प्रा० संकुड, संकुडिअ] १. दूर तक फैली हुई वस्तु का सिमटकर थोड़े स्थान में होना। संकोच। आकुंचन। २. वस्तु के सिमटने से पड़ा हुआ चिह्न। बल। शिकन सिलवट।
⋙ सिकुड़ना
क्रि० अ० [सं० सङकुचन] १. दूर तक फैली वस्तु का सिमटकर थोड़े स्थान में होना। सुकड़ना। आकुंचित होना। बटुरना। २. संकीर्ण होना। तंग होना। ३. बल पड़ना। शिकन पड़ना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ सिकुरना पु †
क्रि० अ० [हिं० सिकुड़ना] दे० 'सिकुड़ना'।
⋙ सिकोड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिकुड़ना] दे० 'सिकुड़ना'। उ०—वृद्ध अनुभव की सिकोड़। वृथा मुझे सांत्वना मत दो।—ग्रंथि, पृ० ८४।
⋙ सिकोड़ना
क्रि० स० [हिं० सिकुडना] १. दूर तक फैली हुई वस्तु को समेट कर थोड़े स्थान में करना। संकुचित करना। २. समेटना। बटोरना। ३. संकीर्ण करना। तंग करना। संयो० क्रि०—देना।
⋙ सिकोरना पु †
क्रि० स० [हिं० सिकोड़ना] दे० 'सिकोड़ना'। उ०— सुनि अघ नरकहु नाक सिकोरी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिकोरा
संज्ञा पुं० [हिं० कसोरा] दे० 'सकोरा या 'कसोरा'।
⋙ सिकोली
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाँस के फट्टों, कास मूँज, बेंत आदि की बनी डलिया। उ०—प्रसादी जल की मथनी में झारी ठलाय, सिकोली में बीड़ा ठलाय, कसेंड़ी में चरणामृत ठलाय, पाछे पात्र सब धोय साजि के ठिकाने धरिए।—वल्लभ पु० (शब्द०)।
⋙ सिकोही
वि० [फा़० शिकोह (तड़क भड़क)] १. आनबानवाला। गर्वीला। दर्पवाला। २. बीर। बहादुर। उ०—तरवार सिरोही सोहती। लाख सिकोही कोहती।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ सिक्कक
संज्ञा पुं० [सं०] बाँसुरी में लगाने की जीभी या उसके स्वर को मधुर बनाने के लिये लगाया हुआ तार।
⋙ सिक्कड़
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्खल] दे० 'सीकड़'।
⋙ सिक्कर
संज्ञा पुं० [हिं० सीकड़] दे० 'सीकड़'। उ०—अकरि अकरि करि डकरि डकरि वर पकरि पकरि कर सिक्कर फिरावते।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ सिक्का
संज्ञा पुं० [अ० सिक्कह्] १. मुहर। मुद्रा। छाप। ठप्पा। २. रुपए, पैसे आदि पर की राजकीय छाप। मुद्रित चिह्न। ३. राज्य के चिह्न आदि से अंकित धातु खंड जिसका व्यवहार देश के लेन देन में हो। टकसाल में ढला हुआ धातु का टुकड़ा जो निर्दिष्ट मूल्य का धन माना जाता है। रुपया, पैसा, अशरफी आदि। मुद्रा। मुहा०—सिक्का बैठना या जमना = (१) अधिकार स्थापित होना। प्रभुत्व होना। (२) आतंक जमना। प्रधानता प्राप्त होना। रोब जमना। धाक जमना। सिक्का बैठाना या जमाना = (१) अधिकार स्थापित करना। प्रभुत्व जमाना। (२) आतंक जमाना। प्रधानता प्राप्त करना। रोब जमाना। सिक्का पड़ना = सिक्का ढलना। ४. पदक। तमगा। ५. माल का वह दाम जिसमें दलाली न शामिल हो। (दलाल)। ६. मुहर पर अंक बनाने का ठप्पा। ७. नाव के मुँह पर लगी एक हाथ लंबी लकड़ी। ८. लोहे की गावदुम पतली नली जिससे जलती हुई मशाल पर तेल टपकाते हैं। ९. वह धन जो लड़की का पिता लड़के के पिता के पास सगाई पक्की होने के लिये भेजता है।
⋙ सिक्की
संज्ञा स्त्री० [अ० सिक् कह्] १. छोटा सिक्का। २. चार आने (२५ पैसे) का सिक्का। चवन्नी। सूकी। ३. आठ आने (पचास पैसे) का सिक्का। अठन्नी।
⋙ सिक्ख (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिष्य] दे० 'सिख (३)'।
⋙ सिक्ख (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिक्षा, प्रा० सिक्खा, हिं० सीख] दे० 'सिख (१)'। उ०—दिन्नी जु सिक्ख तव सेख कौं, अप्प अप्प सिबरन गवय।—ह० रासो, पृ० ४३।
⋙ सिक्त
वि० [सं०] १. सिंचित। सींचा हुआ। २. भींगा हुआ। तर। गीला। ३. जिसे गर्भयुक्त किया गया हो। गर्भित (को०)।
⋙ सिक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिंचिंत होने या सींचे जाने की क्रिया या भाव [को०]।
⋙ सिक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सींचने की क्रिया। २. उद्गारण। स्राव। निषेक। निषेचन (को०)।
⋙ सिक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उबाले हुए चावल का दाना। भात का एक दाना। सीथ। २. भात का ग्रास या पिड। ३. मोम।४. मोतियों का गुच्छा (जो तौल में एक धरण हो)। ३२ रत्ती तौल का मोतियों का समूह। ५. नील।
⋙ सिक्थक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिक्थ'।
⋙ सिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिक्य' [को०]।
⋙ सिक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक। काँच। बिल्लौर [को०]।
⋙ सिखंड
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्ड] मोर की पूँछ। मयूरपक्ष। उ०— सिरनि सिखंड सुमन दल मंडन बाल सुभाय बनाए।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिखंडी
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्डी] दे० 'शिखंडी'।
⋙ सिख (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिक्षा, प्रा० सिक्खा, हिं० सीख] सीख। शिक्षा। उपदेश। उ०—(क) गुरु सिख देइ राय पहिं गएऊ।—मानस, २।१०। (ख) राजा जु सों कहा कहौं ऐसिन की सुनै सिख, साँपिनि सहित विष रहित फननि की।—केशव (शब्द०)। (ग) किती न गोकुल कुल बधू, काहि न किहि सिख दीन। कौने तजी न कुल गली ह्वै मुरली सुर लीन।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ सिख पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखा] चोटी। जैसे,—नखसिख।
⋙ सिख (३)
संज्ञा पुं० [सं० शिष्य, प्रा० सिक्ख] १. शिष्य। चेला। २. गुरु नानक तथा गुरु गोविंदसिंह आदि दस गुरुओं का अनुयायी संप्रदाय। नानकपंथी। ३. वह जो सिख संप्रदाय का अनुयायी हो। विशेष—इस संप्रदाय के लोग अधिकतर पंजाब में हैं। यौ०—सिखपाल = शिष्य का पालन। उ०—गुरु है दीनदयाल करै सिखपाल सदाई। अखै भक्ति परसंग सदा सेवक सुखदाई।—राम० धर्म०, पृ० १७५।
⋙ सिख इमलो
संज्ञा पुं० [हिं० सिख + अ० इल्म या इमला] भालू को नचाना सिखाने की रीति। विशेष—कलंदर लोग पहले हाथ में एक लोहे की चूड़ी पहनते हैं और उसे एक लकड़ी से बजाते हैं। इसी के इशारे पर वे भालू को नचाना सिखाते हैं।
⋙ सिखना †
क्रि० स० [सं० शिक्षण] दे० 'सीखना'।
⋙ सिखर (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिखर] १. शृंग। दे० 'शिखर'। उ०— अरुन अधर दसननि दुति निरखत, बिद्रुम सिखर लजाने। सूर स्याम आछौ वपु काछे, पटतर मेटि बिराने।—सूर०, १०।१७५६। २. मुकुट का किरीट।
⋙ सिखर (२)
संज्ञा पुं० [सं० शिक्य + धर] दे० 'सिकहर'।
⋙ सिखरन
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीखण्ड] दही मिला हुआ चीनी का शरबत जिसमें केसर, गरी आदि मसाले पड़े हों। उ०—(क) बासौंधी सिखरन अति सोभी। मिलै मिरच मेटत चकचौंधी।—सूर (शब्द०)। (ख) सिखरन सौध छनाई काढ़ी। जामा दही दूधि सों साढ़ी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिखरबंद
वि० [सं० शिखर + फा़० बंद (प्रत्य०)] शिखरयुक्त। कलशयुक्त। उ०—तब थोरी सी दूरि एक सिखरबंध एक देहरा दीस्यो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ०, १७८।
⋙ सिखरी पु
संज्ञा पुं० [सं० शिखरिन्] १. पहाड़। अनेकार्थ०, पृ० ५३। २. मयूर। मोर।
⋙ सिखलाना
क्रि० स० [हिं० सिखाना] दे० 'सिखाना'।
⋙ सिखवन
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षण, प्रा० सिक्खवण, सिक्खावण] शिक्षा। सीख। उ०—जो सिखवन समरथ का लेहो। ता कोल हमार आगे करि देहो।—कबीर सा०, पृ० ९२८।
⋙ सिखवना पु †
क्रि० स० [प्रा० सिक्खवण] दे० 'सिखाना'।
⋙ सिखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखा] दे० 'शिखा'।
⋙ सिखाना
क्रि० स० [सं० शिक्षण] १. शिक्षा देना। उपदेश देना। बतलाना। २. अध्ययन करना। पढ़ाना। ३. धमकाना। दंड देना। ताड़न करना। यौ०—सिखाना पढ़ाना=चालें बताना। चालाकी सिखाना। जैसे,— उसने गवाहों को सिखा पढ़ा कर खूब पक्का कर दिया है।
⋙ सिखापन पु
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षा + हिं० पन या सं० शिक्षापयन] १. शिक्षा। उपदेश। उ०—(क) साजि कै सिँगार ससिमुखी काज सजनी वै ल्याई केलि मंदिर सिखापन निधानै सी।—प्रतापनारायण (शब्द०)। (ख) सचिव सिखापन मधुर सुनायौ। जुहित सदहुँ परनाम सुहायौ।—पझाकर (शब्द०)। २. सिखाने का काम।
⋙ सिखावन
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षणया सं० शिक्षापयन] सीख। शिक्षा। उपदेश। उ०—(क) का मै मरन सिखावन सिखी। आयो मरें मीच हति लिखी।—जायसी (शब्द०)। (ख) उनको मैं यह दीन्ह सिखावन। थाहहु मध्यम कांड सुहावन।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ सिखावना पु †
क्रि० स० [सं० शिक्षापयन] दे० 'सिखाना'।
⋙ सिखिर पु †
संज्ञा पुं० [सं० शिखर] १. दे० 'शिखर'। २. पारस- नाथ पहाड़ जो जैनों का तीर्थ है।
⋙ सिखी
संज्ञा पुं० [सं० शिखिन्] दे० 'शिखी'। उ०—(क) धुनि सुनि उतै लिखो नाचौ, सिखी नाचै इते, पी करैं पपीहा उतै इते प्यारी सी करे।—प्रतापनारायण (शब्द०)। (ख) सिखी सिखर तनु धातु बिराजति सुमन सुगंध प्रवाल।—सूर (शब्द०)।
⋙ सिगता †
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिकता। बालू। रेत।
⋙ सिगनल
संज्ञा पुं० [अं०] १. दे० 'सिकंदरा'। २. इशारा। संकेत।
⋙ सिगर
संज्ञा पुं० [अ० सिगर] बाल्यावस्था। बचपन। यौ०—सिगरसिन=छोटी उम्र का। सिगरसिनी=शिशुता। बचपन। छोटाई।
⋙ सिगरा पु † (१)
वि० [सं० समग्र] [वि० स्त्री० सिगरी] सब। संपूर्ण। सारा। उ०—(क) त्यों पदमाकर साँझही ते सिगरी निशि केलि कला परगासी। —पद्माकर (शब्द०)। (ख) सिगरे जग माँझ हँसावत हैं। रघुबंसिन्ह पाप नसावत हैं।—केशव (शब्द०)।
⋙ सिगरा पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० सगुरु] सगुरा। दीक्षित। उ०—अरे हाँ रे पलटू निगरा सिगरा आहि कहो कोइ रोगी भोगी।— पलटू०,पृ० ७६।
⋙ सिगरेट
संज्ञा पुं० [अं०] तंबाकू भरी हुई कागज की बत्ती जिसका धुआँ लोग पीते हैं। छोटा सिगार।
⋙ सिगरी, सिगरौ पु †
वि० [सं० समग्र] दे० 'सिगरा'। उ०—(क) सिगरोई दूध पियो मेरे मोहन बलहिं न देषहु बाटी। सूरदास नँद लेहु दोहनी दुहहु लाल की नाटी।—सूर (शब्द०)। (ख) कुल मंडन छत्रसाल बुँदेला। आपु गुरू सिगरौ जग चेला।—लाल कवि (शब्द०)।
⋙ सिगा
संज्ञा स्त्री० [फा० सेहगाह] संगीत में चौबीस शोभाओं में से एक।
⋙ सिगार
संज्ञा पुं० [अं०] चुरुट।
⋙ सिगिनल †
संज्ञा [अं० सिगनल] दे० 'सिकंदर', 'सिगनल'। उ०— एक छोटा सा टुकड़ा बादल का भी सिगिनल सा झुका दिखाई देता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १०।
⋙ सिगोती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
⋙ सिगोन
संज्ञा स्त्री० [सं० सिगता, सिकता] नालों के पास पाई जानेवाली लाल रेत मिली मिट्टी।
⋙ सिचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़ा। परिधान। पोशाक। वस्त्र। २. फटा पुराना कपड़ा। चीथड़ा [को०]।
⋙ सिचान पु
संज्ञा पुं० [सं० सञ्चान] बाज पक्षी।—उ० निति संसौ हँसौ बचतु, मानौ इहि अनुमान। बिरह अगनि लपटिन सकै, झपट न मीच सिचान।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ सिचाना पु
क्रि० स० [सं० सिञ्वन] सिँचाना। सिंचित कराना। उ०—नारि सहित मुनिपद सिर नावा। चरन सलिल सब भवन सिचावा।—मानस, २। ६६।
⋙ सिच्छक पु
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षक] शिक्षा देनेवाला। गुरु। उ०— आवत दूर दूर सों सिच्छक गुनी सिँगारी।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३०। २. शास्त्रि करनेवाला। दंड देनेवाला (को०)।
⋙ सिच्छन पु
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षण] पढ़ाना। अध्यापन। उ०— बहुदर्शी बहुतै जानत नीकी सिच्छन बिधि।—प्रेमघन०, भा० १. पृ० २०।
⋙ सिच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिक्षा] दे० 'शिक्षा'। उ०—सैन बैन सब साथ है मन में सिच्छा भाव। तिल आपन शृंगार रस सकल रसन को राव।—मुबारक (शब्द०)।
⋙ सिच्छित पु
वि० पुं० [सं० शिक्षित] दे० 'शिक्षित'। उ०—भारत के भुज बल जग रक्षित। भारत विद्या लहि जग सिच्छित।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४९१।
⋙ सिजदा
संज्ञा पुं० [अ० सिज्दह्] प्रणाम। दंडवत। माथा टेकना। सिर झुकाना। (मुसल०)। उ०—सिजदा सिरजनहार कौं मुरशिद कौं ताजीम।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २८९।
⋙ सिजदागाह
संज्ञा पुं० [अ० सिजदा+ फा० गाह] पूजा का स्थल। प्रार्थनागृह।
⋙ सिजरा †
संज्ञा पुं० [अ० शज्रह्] वंशवृक्ष। वंशावली। कुर्सीनामा। उ०—कहि अंतर सिजरा लिखि दीन्हा। कहि जादू कहि भैरो कीन्हा।—संत० दरिया, पृ० ५५।
⋙ सिजल
वि० [हिं० सजीला] जो देखने में अच्छा लगे। सुंदर।
⋙ सिजली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो दवा के काम में आता है।
⋙ सिजादर
संज्ञा पुं० [लश०] पाल के चौखूँटे किनारे से बँधा हुआ रस्सा, जिसके सहारे पाल चढ़ाया जाता है।
⋙ सिज्या †
संज्ञा स्त्री० [सं० शय्या, प्रा० सिज्जा] दे० 'शय्या', 'सेज'। उ०—कोऊ सिज्या सम्हारत है।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३३। यौ०—सिज्या भोग = वह भोग जो भगवान् को शयन कराने के उपरांत सिरहाने रखा जाता है। उ०—वाकों श्रीनाथजी एक दिन सिज्या भोग को लडुवा उहाँई दियो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २११।
⋙ सिझना
क्रि० अ० [सं० सिद्ध, प्रा० सिज्झ] आँच पर पकाना। सिझाया जाना।
⋙ सिझाना
क्रि० अ० [सं० सिद्ध, प्रा० सिज्झ + हिं० आना (प्रत्य०)] १. आँच पर गलाना। पकाकर गलाना। २. पकाना। राँधना। उबालना। ३. मिट्टी को पानी देकर पैर से कुचल और साफ करके बरतन बनाने योग्य बनाना। ४. शरीर को तपाना या कष्ट देना। तपस्या करना। उ०—लेत घूँट भरि पानि सु रस सुरदानि रिझाई। पपीहरयो तप साधि जपी तन तपन सिझाई।—सुधाकर (शब्द०)। ५. रासायनिक प्रक्रिया द्वारा पकाना। विशेष दे० 'चमड़ा सिझाना'।
⋙ सिटकिनी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किवाड़ों के बंद करने या अड़ाने के लिये लगी हुई लोहे या पीतल की छड़। अगरी। चटकनी। चटखनी।
⋙ सिटनल †
संज्ञा पुं० [अं० सिगनल]दे० 'सिगनल'।
⋙ सिटपिटाना
क्रि० अ० [अनु०] १. दब जाना। मंद पड़ जाना। २. किंकर्त्तव्य विमूढ़ होना। स्तब्ध हो जाना। ३. सकुचाना। उ०—पहले तो पंचजी बहुत सिटपिटाए, किंतु सबों का बहुत कुछ आग्रह देख सभापति की कुर्सी पर जा डटे।—बालमुकुंद (शब्द०)।
⋙ सिटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सीटना]दे० 'सिट्टी'। मुहा०—सिटी बिटी भूलना = दे० 'सिट्टीपिट्टी भूलना'। उ०—हुश्न का रोब ऐसा छाया कि सब सिटी बिटी भूल गई।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २६२।
⋙ सिटी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] नगर। शहर। यौ०—सिटी बस = नगर में चलनेवाली राजकीय बस। सिटी बस सर्विस = राजकीय नगर परिवहन सेवा।
⋙ सिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सीटना] बहुत बढ़बढ़ कर बोलना। वाक्- पटुता।मुहा०—सिट्टी गुम हो जाना = दे० 'सिट्टी भूलना'। उ०— अधिकारी वर्ग की सिट्टी गुम हुई।—किन्नर०, पृ० २६। सिट्टी पिट्टी भूल जाना = सिटपिटा जाना। सिट्टी भूलना = घबरा जाना। सिटपिटा जाना।
⋙ सिट्टू
वि [हिं० सीटना] बहुत बढ़कर गप्प करनेवाला। बढ़कर बोलनेवाला। डींग मारनेवाल। उ०—सिपारसी डरपुकने सिट्टू बोलै बात अकासी—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३३३।
⋙ सिट्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिष्ट] बचा हुआ। दे० 'सीठी'।
⋙ सिठनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अशिष्ट] विवाह के अवसर पर गाई जानेवाली गाली। सीठना।
⋙ सिठाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० सीठी] १. फीकापन। नीरसता। २. मंदता।
⋙ सिड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० सिड़ी] १. पागलपन। उन्माद। बावलापन। २. सनक। धुन। क्रि० प्र०—चढ़ना। मुहा०—सिड़ सवार होना = सनक होना। धुन होना।
⋙ सिड़पन, सिड़पना
संज्ञा पुं० [हिं० सिड़ + पन (प्रत्य०)] १. पागलपन। बावलापन। २. सनक। धुन।
⋙ सिड़बिला, सिड़बिल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० सिड़ी + बिलल्ला] [स्त्री० सिड़बिली, सिड़बिल्ली] १. पागल। बावला। २. बेवकूफ। भोंदू। बुद्धू।
⋙ सिड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँटी] डेढ़ हाथ लंबी लकड़ी जिसमें बुनते समय बादला बँधा रहता है।
⋙ सिड़ी
वि० [सं० श्रृणीक] [स्त्री० सिड़िन] १. पागल। दीवाना। बावला। उन्मत्त। उ०—यह तौ सिड़ी है गया हैं इसके साथ रहने से मैं भी ऐसी बातें कहने लगा।—सकुंतला, पृ० १२९। २. सनकी। धुनवाला। ३. मनमौजी। मनमाना काम करनेवाला।
⋙ सिढ़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रेणी] दे० 'सीढ़ी'। उ०—गहि शशिवृत्त नरिंद सिढ़ी लंघत ढहि थोरी। काम लता कल्हरी पेम मारुत झकझोरी।—पृ० रा०, २५।३८१।
⋙ सितंबर
संज्ञा पुं० [अं० सेप्टेंबर] अंग्रेजी नवाँ महीना अक्तूबर से पहले और अगस्त के पीछे का महीना।
⋙ सित (१)
वि० [सं०] १. श्वेत। सफेद। उजला। शुक्ल। उ०—अरुण असित सित वपु उनहार। करत जगत में तुम अवतार।—सूर (शब्द०)। २. उज्जवल। शुभ्र। दीप्त। चमकीला। ३. स्वच्छ। साफ। निर्मल। ४. आबद्ध। बद्ध। बँधा हुआ (को०)। ५. घिरा हुआ। परिवेष्टित (को०)। ६. जाना हुआ। निश्चित। ज्ञात (को०)। ७. पूर्ण। समाप्त (को०)। ८. किसी से संयुक्त। युक्त (को०)।
⋙ सित (२)
संज्ञा पुं० १. शुक्र ग्रह। २. शु्क्राचार्य। ३. शुक्ल पक्ष। उजाला पाख। ४. चीनी। शक्कर। ५. सफेद कचनार। ६. स्कंद के एक अनुचर का नाम। ७. मूली। मूलक। ८. चंदन। ९. भोजपत्र। १०. सफेद तिल। ११. चाँदी। १२. श्वेत वर्ण। सुफेद रंग (को०)। १३. तीर। बाण (को०)।
⋙ सितकंगु
संज्ञा स्त्री० [सं० सितकङ्गु] रालं। सर्जनिर्यास।
⋙ सितकंटकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सितकण्टकारिका] सफेद कंटकारी [को०]।
⋙ सितकंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० सितकण्टा] श्वेत कंटकारी [को०]।
⋙ सितकंठ (१)
वि० [वि० सितकण्ठ] जिसकी गर्दन सफेद हो। सफेद गर्दनवाला।
⋙ सितकंठ (२)
संज्ञा पुं० मुर्गाबी। दात्यूह पक्षी।
⋙ सितकंठ (३)
संज्ञा पुं० [सं० सितिकण्ठ] शितिकंठ। महादेव। शिव। उ०—नीलकंठ सितकंठ शंभु हर। महाकाल कंकाल कृपाकर। सबलसिंह (शब्द०)।
⋙ सितकटभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पेड़।
⋙ सितकमल
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कमल [को०]।
⋙ सितकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीमसेनी कपूर। २. चंद्रमा।
⋙ सितकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली दूब।
⋙ सितकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सितकर्णी' [को०]।
⋙ सितकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अडूसा। वासक।
⋙ सितकर्मा
वि० [सं० सितकर्मन्] शुद्ध एवं पूत कर्मोंवाला [को०]।
⋙ सितकाच
संज्ञा पुं० [सं०] १. हलब्बी शीशा। २. बिल्लौर।
⋙ सितकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बला या बरियारा नामक पौधा।
⋙ सितकार पु
संज्ञा पुं० [सं० सीत्कार] दे० 'सीत्कार'। उ०—(क) लै सितकार सखिहि घुरि गई।—नंद० ग्रं०, पृ० १२६। (ख) ज्यों तिय सरत समय सितकारा। निकल जाहिं जौं बधिर भतारा।—नंद० ग्रं०, पृ० ११८।
⋙ सितकुजर
संज्ञा पुं० [सं० सितकुञ्जर] १. ऐरावती हाथी। श्वेत हस्ती। २. इंद्र का गज जो श्वेत है। ३. (ऐरावत हाथीवाले) इंद्र।
⋙ सितकुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० सितकुम्भी] श्वेत पाटल का वृक्ष। सफेद पाँड़र का पेड़।
⋙ सितक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा।
⋙ सितक्षुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद फूल की भटकटैया। श्वेत कंटकारी।
⋙ सितखंड
संज्ञा पुं० [सं० सितखण्ड] दे० 'सिताखंड'।
⋙ सितगुंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० सितगुञ्जा] श्वेत गुंजा। सफेद घुँघची [को०]।
⋙ सितचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] खैरा मछली। छिपुआ मछली।
⋙ सितच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत राजछत्र। २. सूत्रजाल। मर्करी आदि का जाला (को०)।
⋙ सितच्छत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंफ। २. सोवा।
⋙ सितच्छत्रित
वि० [सं०] श्वेत राजछत्र युक्त। सित छत्रयुक्त [को०]।
⋙ सितच्छत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंफ। शतपुष्पा। २. सोवा।
⋙ सितच्छद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस। मराल। २. लाल सहिंजन। रक्त शोभांजन।
⋙ सितच्छद (२)
वि० १. श्वेत पत्तों या श्वेत पंखों वाला।
⋙ सितच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दूब।
⋙ सितजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मधुखंड। मधुशर्करा।
⋙ सितजाफल
संज्ञा पुं० [सं०] मधु नारियल।
⋙ सितजाम्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कलमी आम।
⋙ सितता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेदी। श्वेतता।
⋙ सिततुरग
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन (जिनके रथ के घोड़े श्वेत वर्ण के हैं)।
⋙ सितदर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत कुश।
⋙ सितदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] (सफेद किरनवाला) चंद्रमा।
⋙ सितदीप्य
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद जीरा।
⋙ सितदूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत दूर्वा। सफेद दूब [को०]।
⋙ सितद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की लता।
⋙ सितद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्लवर्ण का वृक्ष। अर्जुन। २. मोरट। क्षीर मोरट।
⋙ सितद्विज
संज्ञा पुं० [सं०] हंस।
⋙ सितधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्लवर्ण की धातु। २. खरी। खरिया मिट्टी। दुद्धी।
⋙ सितपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस—जिसके पक्ष श्वेत हों। २. शुक्ल पक्ष। उजेला पाख (को०)। ३. श्वेत पंख।
⋙ सितपच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० सितपक्ष, प्रा० सितपक्ख] दे० 'सितपक्ष'।
⋙ सितपत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० शतपत्र] शतपत्र। कमल। उ०—सत सितपत्र प्रसान उघारियं वीर वृंदायं।—पृ० रा०, ७।१२८।
⋙ सितपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कमल [को०]।
⋙ सितपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्कपुष्पी। अंधाहुली।
⋙ सितपाटलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद पाँडर। श्वेत पाटला [को०]।
⋙ सितपुखा
संज्ञा स्त्री० [सं० सितपुङ्खा] एक प्रकार का पौधा।
⋙ सितपुडरीक
संज्ञा पुं० [सं० सितपुण्डरोक] श्वेत कमल। सितपद्म [को०]।
⋙ सितपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. तगर का पेड़ या कूल। गुलचाँदनी। २. एक प्रकार का गन्ना। ३. सिरिस का पेड़। श्वेत रोहित। ४. पिंड खजूर। ५. कैवर्त मुस्तक। केवटी मोया (को०)। ६. काँस तृण। कास (को०)।
⋙ सितपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बला। बरियारा। २. कंघी का पौधा। ३. एक प्रकार की चमेली। मल्लिका।
⋙ सितपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दागवाला। कोढ़। श्वेत कुष्ट। फूल। चरक।
⋙ सितपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्वेत अपराजिता। कैवर्त मुस्तक। केवटी मोथा नाम को घास। कास नामक तृण। ४. नागदंती। ५. नागवल्ली। पान।
⋙ सितप्रभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी।
⋙ सितप्रभ (२)
वि० [सं०] श्वेत प्रभावाला। उज्जवल [को०]।
⋙ सितभान पु
संज्ञा पुं० [सं० सितभानु] चंद्रमा। उ०—सुखहि अलक को छूटिबो अवसि करै दुतिमान। बिन विभावरी के नहीं जगमगात सितभान।—रामसहाय (शब्द०)।
⋙ सितभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ सितम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. गजब। अनर्थ। आफत। २. अनीति। जुल्म। अत्याचार। मुहा०—सितम ढाना = अनर्थ करना। जुल्म करना।
⋙ सितमगर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] जालिम। अन्यायी। दुःखदायी। उ०— यार का मुझको इस सबब डर है। शोख जालिम है औ सितमगर है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २९।
⋙ सितमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्फटिक। बिल्लौर।
⋙ सितमना
वि० [सं० सितमनस्] निर्मल मन का व्यक्ति। शुद्ध हृदयवाला [को०]।
⋙ सितमरिच
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद मिर्च। २. शिग्रुबीज। सहिंजन के बीज।
⋙ सितमाष
संज्ञा पुं० [सं०] राजमाष। लोबिया। बोड़ा।
⋙ सितमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत बादल। शरत् कालीन मेघ [को०]।
⋙ सितयामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाँदनी रात। चंद्रिका [को०]।
⋙ सितरंज
संज्ञा पुं० [सं० सितरञ्ज] कपूर। कर्पूर।
⋙ सितरंजन
संज्ञा पुं० [सं० सितरञ्जन] पीत वर्ण। पीला रंग।
⋙ सितरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद किरणोंवाला। चंद्रमा।
⋙ सितराग
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी। रजत। रौप्य।
⋙ सितरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत किरणवाला। चंद्रमा।
⋙ सितरुती
संज्ञा स्त्री० [देश०] गंध पलाशी। कपूर कचरी। विशेष—पहाड़ी लोग इसकी पत्तियों की चटाइयाँ बनाते हैं।
⋙ सितलता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमृतवल्ली नामक लता।
⋙ सितलता पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतलता] शीतल होने का भाव। शीतलता। उ०—अगिनि के पुंज हैं सितलता तन नहीं। विष और अमृत दोनु एक सानी।—कबीर० रे०, पृ० २७।
⋙ सितलशुन
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद लहसुन [को०]।
⋙ सितलाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सीतल + आई (प्रत्य०)] शीतलता। शैत्य। उ०—गोपद सिंधु अनल सितलाई।—मानस, ५।६।
⋙ सितलाय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतलता] शांति। शीतलता। ढंडापन। नम्रता। उ०—त्यागि दे बकवाद बकना गहे रहु सितलाय।—जग० बानी०, पृ० ६९।
⋙ सितली
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतल] वह पसीना जो बेहोशी या अधिक पीड़ा के समय शरीर से निकलता है। क्रि० प्र०—छुटना।
⋙ सितवराह
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत वाराह।
⋙ सितवराहतिय पु
संज्ञा पुं० [सं० सितवराह + हिं० तिय] पृथ्वी। धरा। उ०—सितवराहतिय ख्यात सुजस नरसिंह कोप धर। सँग भट बावन सहस सबै भृगुपति सम धनुधर।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ सितवराहपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी। धरती।
⋙ सितवर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] खिरनी। क्षीरिणी।
⋙ सितवर्षाभू
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद पुनर्नवा।
⋙ सितवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली जामुन। कठ जामुन।
⋙ सितवल्लीज
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद मिर्च।
⋙ सितवाजी
संज्ञा पुं० [सं० सितवाजिन्] अर्जुन का नाम।
⋙ सितवार, सितवारक
संज्ञा पुं० [सं०] शालिंत शाक। शांति शाक।
⋙ सितवारण
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत। श्वेत हाथी [को०]।
⋙ सितवारिक
संज्ञा पुं० [सं०] सैहली। सिंहली पीपल।
⋙ सितशायका
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद शरपुंखा। सरफोंका [को०]।
⋙ सितशिंबिक
संज्ञा पुं० [सं० सितशिम्बिक] एक प्रकार का गेहूँ।
⋙ सितशिंशपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत शिंशपा वृक्ष [को०]।
⋙ सितशिव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेंधा नमक। २. शमी का पेड़।
⋙ सितशूक
संज्ञा पुं० [सं०] जौ। यव।
⋙ सितशूरण
संज्ञा पुं० [सं०] वन सूरण। सफेद जमीकंद।
⋙ सितशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० शितश्रृङ्गी] अतीस। अतिविषा।
⋙ सितसप्ति
संज्ञा पुं० [सं०] (सफेद घोड़ेवाले) अर्जुन।
⋙ सितसर्षप
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत सर्षप। पीली सरसों [को०]।
⋙ सितसागर
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीर सागर। उ०—सितसागर ते छबि उज्ज्वल जाकी। जनु बैठक सोहत है कमला की।—गुमान (शब्द०)।
⋙ सितसायका
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत सरफोंका। सितशायक [को०]।
⋙ सितसार, सितसारक
संज्ञा पुं० [सं०] शालिंच शाक। शांति शाक। सोहमारक।
⋙ सितसिंधु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सितसिन्धु] क्षीर समुद्र।
⋙ सितसिंधु (२)
संज्ञा स्त्री० गंगा नदी जिनका जल श्वेत है।
⋙ सितसिंही
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद भटकटैया। श्वेत कंटकारी।
⋙ सितसिद्धार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद या पीली सरसों जो मंत्र या झाड़ फूँक में काम आती है।
⋙ सितसिद्धार्थक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सितसिद्धार्थ'।
⋙ सितसूर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुरहुर। आदित्यभक्ता।
⋙ सितह
संज्ञा स्त्री० [अ० सतह] दे० 'सतह'।
⋙ सितहूण
संज्ञा पुं० [सं०] हूणों की एक शाखा।
⋙ सितांक
संज्ञा पुं० [सं० सिताङ्क] एक प्रकार की मछली। बालुकागड़ मत्स्य।
⋙ सितांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० सिताङ्ग] १. शिव का नाम (को०)। २. श्वेत रोहितक वृक्ष। रोहिड़ा सफेद। ३. बेला। वार्षिकी पुष्प वृक्ष। ४. दे० 'सितांक' (को०)।
⋙ सितांग (२)
वि० श्वेत अंगवाला।
⋙ सितांबर (१)
वि० [सं० सिताम्बर] श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले।
⋙ सितांबर (२)
संज्ञा पुं० जैनों का श्वेतांबर संप्रदाय।
⋙ सितांबुज
संज्ञा पुं० [सं० सिताम्बुज] श्वेत कमल।
⋙ सितांभोज
संज्ञा पुं० [सं० सिताम्भोज] दे० 'सितांबुज'। उ०— उत्पल, राजिव, कोकनद, सितांभोज जलजात।—नंद० ग्रं०, पृ० ११०।
⋙ सितांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
⋙ सितांशुक
वि० [सं०] श्वेत वस्त्रधारी। सफेद वर्ण का वस्त्र धारण करनेवाला [को०]।
⋙ सिताँ (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. राष्ट्र। देश। २. निवासभूमि। ३. स्थान। जगह। ४. वह स्थान जहाँ किसी वस्तु का आधिक्य हो।
⋙ सिताँ (२)
वि० ग्रहण करनेवाला। ले लेनेवाला [को०]।
⋙ सिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चीनी। शक्कर। शर्करा। उ०—दूध औटि तेहि सिता मिलाऊँ मैं नारायण भोग लगाऊँ। रघुराज (शब्द०)। २. शुक्ल पक्ष। उ०—चैत चारु नौमी सिता मध्य गगन गत भानु। नखत जोग ग्रह लगन भल दिन मंगल मोद विधानु।—तुलसी (शब्द०)। ३. मल्लिका। मोतिया। ४. श्वेत कंटकारी। सफेद भटकटैया। ५. बकुची। सोमराजी। ६. विदारी कंद। ७. श्वेत दूर्वा। ८. चाँदनी। चंद्रिका। ९. कुटंबिनी का पौधा। १०. मद्य। शराब। ११. पिंगा। १२. त्रायमाण लता। १३. अर्कपुष्पी। अंधाहुली। १४. बच। १५. सिंहली पीपल। १६. आमड़ा। आम्रातक। १७. गोरोचन। १८. वृद्धि नामक अष्टवर्गीय ओषधि। १९. चाँदी। रजत। रूपा। २०. श्वेत निसोथ। २१. त्रिसंधि नामक पुष्प वृक्ष। २२. पुनर्नवा। सफेद गदहपूरना। २३. पहाड़ी अपराजिता। २४. सफेद पाड़र। पाटला वृक्ष। २५. सफेद सेम। २६. मूर्वा। गोकर्णी लता। मुरा। २७. आकर्षक महिला। सुंदरी स्त्री (को०)। २८. गंगा नदी (को०)। २९. मिस्त्री (को०)।
⋙ सिताइश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. तारीफ। प्रशंसा। २. धन्यवाद। शुक्रिया। ३. वाहवाही। शाबाशी।
⋙ सिताखंड
संज्ञा पुं० [सं० सिताखण्ड] १. मधुशर्करा। शहद से बनाई हुई शक्कर। २. मिस्त्री।
⋙ सिताख्य
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद मिर्च।
⋙ सिताख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दूब।
⋙ सिताग्र
संज्ञा पुं० [सं०] काँटा। कंटक।
⋙ सिताजाजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद जीरा।
⋙ सितातपत्र, सितातपवारण
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत आतपत्र। श्वेत चँदोवा या छत्र [को०]।
⋙ सितादि
संज्ञा पुं० [सं०] शक्कर आदि का कारण या पूर्व रूप, गुड़।
⋙ सितानन (१)
वि० [सं०] सफेद मुँहवाला।
⋙ सितानन (२)
संज्ञा पुं० १. गरुड़। २. बेल। बिल्व वृक्ष। ३. शिव का एक गण (को०)।
⋙ सितापांग
संज्ञा पुं० [सं० सितापाङ्ग] मयूर। मोर।
⋙ सितापाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिताखंड'।
⋙ सिताब पु (१)
क्रि० वि० [फ़ा० शिताब] जल्दी। तुरंत। झटपट। उ०—प्रीतम आवत जानिकै भिस्ती नैन सिताब। हित मग मैं कर देत है अँसुवन को छिरकाब।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ सिताब (२)
संज्ञा स्त्री० जल्दी। शीघ्रता। उ०—दिना दोइ में कूँच होइ आगै नवाब कौ। तातैं ढील न होइ काम यह है सिताब कौ।—सुजान०, पृ० ६२।
⋙ सिताबी (१)
क्रि० वि० [फ़ा० शिताब] दे० 'सिताब (१)'।
⋙ सिताबी (२)
संज्ञा स्त्री० १. चाँदनी। २. दे० 'सिताब (२)'।
⋙ सिताब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सितांबुज' [को०]।
⋙ सिताभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्पूर। कपूर। २. शर्करा। ३. वह जिसकी प्रभा श्वेत हो।
⋙ सिताभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तक्रा। तक्राह् वा क्षुप।
⋙ सिताभ्र, सिताभ्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद बादल। २. कपूर। कर्पूर।
⋙ सितामोधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद पाडर। श्वेत पाटला।
⋙ सितायुध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
⋙ सितार
संज्ञा पुं० [फ़ा०; या सं० सप्त + तार, फ़ा० सेहतार] एक प्रकार का प्रसिद्ध बाजा जिसमें सात तार होते हैं और जो लगे हुए तारों को उँगली से झनकारने से बजता है। एक प्रकार की वीणा। विशेष—यह काठ की दो ढाई हाथ लंबी और चार पाँच अंगुल चौड़ी पोली पटरी के एक छोर पर गोल कद्दू की तुंबी जड़कर बनाया जाता है । इसका ऊपर का भाग समतल और चिपटा होता है और नीचे का गोल। समतल भाग पर पर्दे बँधे रहते हैं जो सप्तक के स्वरों को व्यक्त करते हैं। इनके ऊपर तीन से लेकर सात तार लंबाई के बल में बँधे रहते हैं। इन तारों को कोण द्वारा झनकारने से यह बजता है।
⋙ सितारबाज
संज्ञा पुं० [हिं० सितार + फ़ा० बाज] सितार बजानेवाला। सितारिया।
⋙ सितारजन
संज्ञा पुं० [फ़ा० सितारज़न] सितारवादक।
⋙ सितारबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सितार + फ़ा० बाजी] सितार बजाना।
⋙ सितारवादक
संज्ञा पुं० [हिं० सितार + सं० वादक] सितार बजानेवाला। सितारिया।
⋙ सितारा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सितारह्] १. तारा। नक्षत्र। उ०— मनौ सितारे भूमि नभ फिरि आवत फिरि जात।—स० सप्तक, पृ० ३६३। २. भाग्य। प्रारब्ध। नसीब। मुहा०—सितारा चमकना = भाग्योदय होना। अच्छी किस्मत होना। सितारा बलंद या बुलंद होना = दे० 'सितारा चम- कना'। सितारा मिलना = (१) फलित ज्योतिष में ग्रहमैत्री मिलना। गणना बैठना। (२) मन मिलना। परस्पर प्रेम होना। ३. चाँदी या सोने के पत्तर की बनी हुई छोटी गोल बिंदी के आकार की टिकिया जो कामदार टीपी, जूते आदि में टाँकी जाती है या शोभा के लिये चेहरे पर चिपकाई जाती है। चमकी। उ०—नील सलमें सितारे या बादले।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८७। ४. दे० 'सितारा पेशानी'।
⋙ सितारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० सितार] दे० 'सितार'। उ०—जलतरंग कानून अमृत कुंडली सुबीना। सारंगी रु रवाब सितारा महुवर कीना।—सूदन (शब्द०)।
⋙ सिताराचश्म
वि० [फ़ा०] सितारे जैसे नेत्रोंवाला [को०]।
⋙ सिताराजबीँ
वि० [फ़ा०] दे० 'सितारापेशानी'।
⋙ सितारादाँ
संज्ञा पुं० [फ़ा०] नक्षत्रों का जानकार। ज्योतिषी।
⋙ सितारापरस्त
वि० [फ़ा०] तारों का उपासक [को०]।
⋙ सितारापेशानी
वि० [फ़ा०] (घोड़ा) जिसके माथे पर अँगूठे के छिप जाने योग्य सफेद टीका या बिंदी हो (ऐसा घोड़ा बहुत ऐबी समझा जाता है)।
⋙ सिताराबीं
वि० [फ़ा०] ज्योतिषी। नजूमी [को०]।
⋙ सिताराबीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] ग्रहों के द्वारा फलाफल का ज्ञान। ज्योतिष विद्या [को०]।
⋙ सिताराशनास
वि० [फ़ा०] ज्योतिषी [को०]।
⋙ सिताराशनासी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] ज्योतिष विद्या [को०]।
⋙ सितारिया
संज्ञा पुं० [फ़ा० सितार + हिं० इया (प्रत्य०)] सितार बजानेवाला।
⋙ सितारी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सितार] छोटा सितार। छोटा तंबूरा।
⋙ सितारी (२)
वि० [हिं० सितार] सितार बजानेवाला। सितारिया। उ०—कहाँ है रबाबी मृदंगी सितारी। कहाँ हैं गवैये कहाँ नृत्यकारी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७०५।
⋙ सितारेहिंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार की उपाधि जो सरकार की ओर से सम्मानार्थ दी जाती है। उ०—राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद थे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४१२। विशेष—यह शब्द वास्तव में अँग्रेजी वाक्य 'स्टार आफ इंडिया' का अनुवाद है।
⋙ सितार्कक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० सितालक [को०]।
⋙ सितार्जक
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत तुलसी।
⋙ सितालक, सितालर्क
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत अर्क। सफेद मदार।
⋙ सितालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमृतवल्ली। अमृतस्त्रवा। २. सफेद दूब।
⋙ सितालि
वि० [सं०] श्वेत रेखाओं या पंक्तियोंवाला।
⋙ सितालिकटभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किहिणी वृक्ष। सफेद कटभी।
⋙ सितालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ताल की सीपी। जलसीप। शुक्ति। सितुही।
⋙ सिताव
संज्ञा स्त्री० [देश०] बरसात में उगनेवाला एक पौधा जो दवा के काम आता है। सर्पदंष्ट्रा। पीतपुष्पा। विषापहा। दूर्वपत्रा। त्रिकोणबीजा। विशेष—यह पौधा हाथ डेढ़ हाथ ऊँचा और झाड़दार होता है। इसकी पत्तियाँ दूब से मिलती जुलती होती हैं। इसके डंठल भी हरे रंग के होते हैं। इसका मूसला कत्थई रंग का और बहुत बारीक रेशों से युक्त होता है। इसमें अंगुल डेढ़ अंगुलघेरे के गोल पीले फूल लगते हैं। इसके फलों की नोक पर बैगनी रंग का लंबा सूत सा निकला होता है। फलों के भीतर तिकोने कत्थई रंग के बीज होते हैं। यही बीज विशेषतः औषध के काम में आते हैं और 'सिताब' के नाम से बिकते हैं। ये बहुत कड़वे और गंधयुक्त होते हैं। पौधे की जड़ और पत्तियाँ भी दवा के काम में आती हैं। वैद्यक में सिताब गरम, कड़वी, दस्तावर तथा वात, कफ को नाश करनेवाली, रुधिर को शुद्ध करनेवाली, बल, वीर्य और दूध को बढ़ानेवाली तथा पित्त के रोगों में लाभकारी कही गई है।
⋙ सितावभेद
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधा जिसके सब अंग औषध के काम में आते हैं। विशेष—इसकी पत्तियाँ लंबी, गँठीली और कटावदार होती हैं और उनमें से तेल की सी कटु गंध आती है। फूल पीलापन लिए होते हैं। फलों में चार बीजकोश होते हैं जिनमें से प्रत्येक में ७ या ८ बीज होते हैं।
⋙ सितावर
संज्ञा पुं० [सं०] सिरियारी। सुनिष्णक शाक। सुसना का साग।
⋙ सितावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकची। सोमराजी।
⋙ सिताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन का एक नाम। २. चंद्रमा।
⋙ सितासित
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत और श्याम। सफेद और काला। उ०—कुच तें श्रम जलधार चलि मिलि रोमावलि रंग। मनो मेरु की तरहटी भयो सितासित संग।—मतिराम (शब्द०)। २. बलदेव। ३. शुक्र के सहित शनि। ४. जमुना के सहित गंगा।
⋙ सितासितनीर पु
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत और नीला या श्याम वर्ण का जल। गंगा यमुना का संगम। त्रिवेणी। उ०—सबिधि सितासित नीर नहाने।—मानस, २।२०३।
⋙ सितासितरोग
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग।
⋙ सितासिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बकची। सोमराजी। २. गंगा और यमुना। यमुना और गंगा।
⋙ सिताह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्र ग्रह। २. श्वेत रोहित वृक्ष। ३. सफेद फूलों का सहिंजन। ४. सफेद या हरे डंठल की तुलसी।
⋙ सिति (१)
वि० [सं०] दे० 'शिति'।
⋙ सिति (२)
संज्ञा स्त्री० १. श्वेत या श्याम वर्ण। २. बंधन। बाँधना [को०]।
⋙ सितिकंठ
संज्ञा पुं० [सं०] नीलकंठ। शिव। महादेव।
⋙ सितिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेतता। सफेदी।
⋙ सितिवार, सितिवारक
संज्ञा पुं० [सं० शितिवार] १. शिरियारी शाक। सुसना का साग। २. कुड़ा। कुटज वृक्ष। कोरैया।
⋙ सितिवास
संज्ञा पुं० [सं० सितिवासस्] (नीले वस्त्रवाले) बलराम।
⋙ सितिसारक
संज्ञा पुं० [सं०] शांति शाक। शालिंच शाक।
⋙ सितुई †
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्ति] ताल की सीपी। सुतही। सितुही।
⋙ सितुही
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्तिका] ताल की सीपी। सुतुही।
⋙ सितूदा
वि० [फ़ा० सितूद्ह] प्रशंसित। तारीफ के योग्य [को०]। यौ०—सितूदाकार = उत्तम या प्रशंसनीय कार्य करनेवाला।
⋙ सितून
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. स्तंभ। खंभा। थूनी। २. लाट। मीनार।
⋙ सितेक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गन्ना [को०]।
⋙ सितेतर (१)
वि० [सं०] (श्वेत से भिन्न) काला या नीला।
⋙ सितेतर (२)
संज्ञा पुं० १. कृषण धान्य। काला धान। २. कुलथी। कुरथी।
⋙ सितेतरगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि। आग।
⋙ सितोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कमल।
⋙ सितोदर
संज्ञा पुं० [सं०] (श्वेत उदरवाला) कुबेर।
⋙ सितोदरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] (श्वेत उदरवाली) एक प्रकार की कौड़ी।
⋙ सितोद्भव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन। संदल।
⋙ सितोद्भव (२)
वि० चीनी से उत्पन्न या बना हुआ।
⋙ सितोपल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कठिनी। खड़ी। खरिया मिट्टी। दुद्धी। २. बिल्लौर। स्फटिक मणि।
⋙ सितोपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिस्त्री। २. चीनी। शक्कर।
⋙ सितोष्णवारण
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद आतपत्र या छाता [को०]।
⋙ सिथिल पु
वि० [सं० शिथिल] दे० 'शिथिल'। उ०—पुलक सिथिल तनु बारि विमोचन। महि नख लिखन लगी सब सोचन।—मानस, २।२८०।
⋙ सिद
संज्ञा पुं० [देश०] बाकली।
⋙ सिदक †
संज्ञा स्त्री० [अ० सिद्क] निश्छलता। यथार्थता। सत्यता। उ०—व अव्वल जबाँ सू च इकरार कर। सो भई सिदक कर मानना दिल बेहतर।—दक्खिनी०, पृ० १९२।
⋙ सिदका
संज्ञा पुं० [अ० सदक़ह्] दे० 'सदका'।
⋙ सिदना पु
क्रि० स० [सं० सीदति] कष्ट पहुँचाना। पीड़ित करना। उ०—समै के दिलीप दिलीपति को सिदति है।—भूषण ग्रं०, पृ० ८२।
⋙ सिदरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सेहदरी] तीन दरवाजोंवाला कमरा या बरामदा। तिदुवारी दालान। उ०—बहु बेलिन बूटन संयुत सोहैं। परदा सिदरीन लगे मन मोहैं।—गुमान (शब्द०)।
⋙ सिदाकत
संज्ञा स्त्री० [अ० सदाक़त] सत्यता। सच्चाई। यथार्थता। उ०—मेरी हिमाकत का बयान आपकी लियाकत की सिदाकत करता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४।
⋙ सिदामा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीदामा] दे० 'श्रीदामा'।
⋙ सिदिक (१)
वि० [अ० सिद्क] सच्चा। सत्य। उ०—अबाबकर सिद्दीक सयाने। पहिले सिदिक दीन वै आने।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिदिक (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'सिदक'।
⋙ सिदौसी
संज्ञा स्त्री० [सं० सद्यस्] १. तड़के। मुँह अँधेरे। धुँधलका। उ०—खूब सिदौसी, मुँह अँधियारे बाकी चकिया जबै पुकारे, तब तू बाकी सुनियो ना; गुइयाँ, प्रीति को मरम काहूते बतैयो ना।—कुंकुम, पृ० ८३। २. जल्दी। शीघ्र। विना बिलंब लगाए। उ०—अमर नगर पहिचान सिदौसी तब नहि आवन जाना रे।—चरण० बानी, पृ० १०६।
⋙ सिदुगुंड
संज्ञा पुं० [सं० सिगुद्ण्ड] वह वर्णसंकर पुरुष जिसका पिता ब्राह्मण और माता पराजकी हो।
⋙ सिद्दीक
वि० [अ० सिद्दीक़] बहुत सच्चा। ईमानदार [को०]।
⋙ सिद्धंत पु
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्त] दे० 'सिद्धांत'। उ०—सोइ सुनिय सिद्धंत संत सब भाषत वोई।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३९।
⋙ सिद्ध (१)
वि० [सं०] १. जिसका साधन हो चुका हो। जो पूरा हो गया हो। जो किया जा चुका हो। सपन्न। संपादित। निबटा हुआ। अंजाम दिया हुआ। जैसे,—कार्य सिद्ध होना। २. प्राप्त। सफल। हासिल। उपलब्ध। जैसे,—मनोरथ सिद्ध होना। प्रयत्न सिद्ध होना। उद्देश्य सिद्ध होना। ३. प्रयत्न में सफल। कृतकार्य। जिसका मतलब पूरा हो चुका हो। कामयाब। ४. जिसका तप या योगसाधन पूरा हो चुका हो। जिसने योग या तप द्वारा अलौकिक लाभ या सिद्धि प्राप्त की हो। पहुँचा हुआ। जैसे,—बाबाजी बड़े सिद्ध महात्मा हैं। ५. करामाती योग की विभूतियाँ दिखानेवाला। ६. मोक्ष का अधिकारी। ७. लक्ष्य पर पहुँचा हुआ। निशाने पर बैठा हुआ। ८. जो ठीक घटा हो। जिस (कथन) के अनुसार कोई बात हुई हो। जैसे,—वचन सिद्ध होना, आशीर्वाद सिद्ध होना। ९. जो तर्क या प्रमाण द्वारा निश्चित हो। प्रमाणित। साबित। निरूपित जैसे,—अपराध सिद्ध करना। कथन को सत्य सिद्ध करना। व्याकरण का प्रयोग सिद्ध करना। १०. जिसका फैसला या निबटारा हो गया हो। फैसल। निर्णीत। ११. शोधित। अदा किया हुआ। चुकता (ऋण आदि)। १२. संघटित। अंतर्भूत। जैसे,—स्वभावसिद्ध बात। १३. जो अनुकूल किया गया हो। कार्यसाधन के उपयुक्त बनाया हुआ। गौं पर चढ़ाया हुआ। जैसे,—उसको हम कुछ रुपये देकर सिद्ध कर लेगें। १४. आँच पर मुलायम किया हुआ। सीझा हुआ। पका हुआ। उबला हुआ। जैसे,—सिद्ध अन्न। उ०—वही के सिद्ध रंग से उसे रंगते।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २३६। १५. प्रसिद्ध। विख्यात। १६. बना हुआ। तैयार। प्रस्तुत। उ०—पाछे दरजी वे बागा सब सिद्ध करि लायो।—दो सौ बावन०, पृ० १७२। १७. बसा हुआ। स्थापित (को०)। १८. वैध। न्याय्य (को०)। १९. सच माना हुआ (को०)। २०. वश में किया गया। जीता गया (को०)। २२. पूर्णतः विज्ञ दक्ष (को०)। २३. पावन। पवित्र। पुण्यात्मा (को०)। २४. दिव्य। अविनश्वर। नित्य (को०)। २५. संतुष्ट (को०)। २६. स्वकीय। निजी। व्यक्तिगत (को०)।
⋙ सिद्ध (२)
संज्ञा पुं० १. वह जिसने योग या तप में सिद्धि प्राप्त की हो। योग या तप द्वारा अलौकिक शक्ति प्राप्त पुरुष। जैसे,—यहाँ एक सिद्ध आए हैं। २. कोई ज्ञानी या भक्त महात्मा। मोक्ष का अधिकारी पुरुष। ३. एक प्रकार के देवता। एक देवयोनि। विशेष—सिद्धों का निवास स्थान भूवलोक कहा गया है। वायु- पुराण के अनुसार उनकी संख्या अठासी हजार है और वे सूर्य के उत्तर और सप्तर्षि के दक्षिण अंतरिक्ष में वास करते हैं। वे अमर कहे गए हैं पर केवल एक कल्प भर तक के लिये। कहीं कहीं सिद्धों का निवास गंधर्व, किन्नर आदि के समान हिमालय पर्वत भी कहा गया है। ४. अर्हत। जिन। ५. ज्योतिष का एक योग। ६. व्यवहार। मुकदमा। मामला। ७. काला धतूरा। ८. गुड़। ९. ज्योतिष में विष्कंभ आदि २७ योगों में से इक्कसीवाँ योग। १०. कृष्ण सिंदुवार। काली निर्गुडी। ११. सफेद सरसों। १२. सेंधा नमक (को०)। १३. जादूगर। ऐंद्रजालिक (को०)। १४. चौबीस की संख्यां (को०)। १५. बाजीगरी। १६. अलौकिक शक्ति (को०)।
⋙ सिद्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सँभालू। सिंदुवार वृक्ष। २. एक वृत्त या छंद (को०)। ३. शाल वृक्ष। साखू।
⋙ सिद्धकज्जल
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशिष्ट प्रकार का अंजन। जादू का काजल। सिद्धांजन [को०]।
⋙ सिद्धकाम
वि० [सं०] १. जिसकी कामना पूरी हुई हो जिसका प्रयोजन सिद्ध हो चुका हो। २. सफल। कृतार्थ।
⋙ सिद्धकामेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामाख्या अर्थात् दुर्गा की पंचमूर्ति के अंतर्गत प्रथम मूर्ति।
⋙ सिद्धकारी
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धकारिन्] [स्त्री० सिद्धकारिणी] धर्म- शास्त्र के अनुसार आचरण करनेवाला।
⋙ सिद्धकार्थ
वि० [सं०] जिसकी कामना पूर्ण हो गई हो। सिद्धकाम। सफल। कृतकार्य [को०]।
⋙ सिद्धक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ योग या तंत्र प्रयोग जल्दी सिद्ध हो। २. वह स्थान जहाँ सिद्ध रहते हों। सिद्धों का क्षेत्र (को०)। ३. दंडक बन के एक विशेष भाग का नाम।
⋙ सिद्धखंड
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धखण्ड] खाँड़ का एक भेद [को०]।
⋙ सिद्धगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदाकिनी। आकाश गंगा। स्वर्ग गंगा।
⋙ सिद्धगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मतानुसार वे कर्म जिनसे मनुष्य सिद्ध हो।
⋙ सिद्धगुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मंत्रसिद्ध गोली जिसे मुँह में रख लेने से अदृश्य होने आदि की अदुभुत शक्ति आ जाती है। दे० 'सिद्धि गुटिका'।
⋙ सिद्धग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का प्रेत जो उन्माद रोग उत्पन्न करता है। २. एक प्रकार का प्रेतजन्य उन्माद (को०)।
⋙ सिद्धजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कांजी। २. औटा हुआ जल।
⋙ सिद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिद्ध होने की अवस्था। २. प्रामाणि- कता। सिद्धि। ३. पूर्णता।
⋙ सिद्धतापस
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धिप्राप्त तपस्वी [को०]।
⋙ सिद्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिद्धता'।
⋙ सिद्धदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] अलौकिक शक्तियुक्त संत का दर्शन।
⋙ सिद्धदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] नव दुर्गा में से एक दुर्गा।
⋙ सिद्धदेव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।
⋙ सिद्धद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह द्रव्य या वस्तु जो सिद्ध की गई हो। ऐंद्रजालिक या जादू की वस्तु [को०]।
⋙ सिद्धधातु
संज्ञा पुं० [सं०] पारा। पारद।
⋙ सिद्धनर
संज्ञा पुं० [सं०] दैवज्ञ। ज्योतिषी। भविष्य या भाग्यकथन करनेवाला [को०]।
⋙ सिद्धनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिद्धेश्वर। महादेव। २. गुलतुर्रा।
⋙ सिद्धनामक
संज्ञा पुं० [सं०] अश्मंतक वृक्ष। आबुटा।
⋙ सिद्धपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रतिज्ञा या बात का वह अंश जो प्रमाणित हो चुका हो। २. प्रमाणित बात। साबित बात।
⋙ सिद्धपथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश। अंतरिक्ष।
⋙ सिद्धपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद के एक अनुचर का नाम।
⋙ सिद्धपोठ
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ, योग, तप या तांत्रिक प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त हो। उ०—साहसी समीरसुनु नीरनिधि लंघि लखि लंक सिद्धपीठ निसि जागो है मसान सो। तुलसी (शब्द०)।
⋙ सिद्धपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक कल्पित नगर जो किसी के मत से पृथ्वी के उत्तरी छोर पर और किसी के मत से दक्षिण या पाताल में है। (ज्योतिष)। २. गुजरात में एक तीर्थ जहाँ माता का श्राद्ध किया जाता है। मातृगया।
⋙ सिद्धपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सिद्धपुर'।
⋙ सिद्धपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जिसे सिद्धिलाभ हो गया हो। वह व्यक्ति जिसे अलौकिक सिद्धि प्राप्त हो [को०]।
⋙ सिद्धपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] करवीर। कनेर का पेड़। विशेष—यह सिद्ध लोगों को प्रिय और यंत्रसिद्धि में प्रयुक्त किया जाता है।
⋙ सिद्धप्रयोजन
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद सरसों। श्वेत सर्षप।
⋙ सिद्धभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिद्धपीठ। सिद्धक्षेत्र।
⋙ सिद्धमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धमन्त्र] सिद्ध किया हुआ मंत्र।
⋙ सिद्धमत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सिद्धांत या वाद जो पूर्णतः प्रमाणित हो। २. सिद्ध व्यक्तियों या संतों का मत।
⋙ सिद्धमनोरम
संज्ञा पुं० [सं०] कर्म मास [को०]।
⋙ सिद्धमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक देवी का नाम। २. एक प्रकार की लिपि।
⋙ सिद्धमानस
वि० [सं०] पूर्ण संतुष्ट मन या मस्तिष्कवाला [को०]।
⋙ सिद्धमोदक
संज्ञा पुं० [सं०] तुरंजवीन की खाँड़। तवराजखंड।
⋙ सिद्धयात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धिके निमित्त यात्रा करनेवाला व्यक्ति। दे० 'सिद्धियात्रिक' [को०]।
⋙ सिद्धयामल
संज्ञा पुं० [सं०] एक तंत्र का नाम।
⋙ सिद्धयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष का एक योग। २. एक यौगिक रसौषध।
⋙ सिद्धयोगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योगिनी का नाम।
⋙ सिद्धयोगी
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धयोगिन्] शिव। महादेव।
⋙ सिद्धर
संज्ञा पुं० [?] एक ब्राह्मण जो कंस की आज्ञा से कृष्ण को मारने आया था। उ०—सिद्धर बाभन करम कसाई। कह्यौ कंस सो वचन सुनाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ सिद्धरत्न
वि० [सं०] जिसके पास सिद्ध या अलौकिक शक्तिवाला रत्न हो [को०]।
⋙ सिद्धरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। पारद। २. रसेंद्र दर्शन के अनुसार वह योगी जिससे पारा सिद्ध हो गया हो। सिद्ध रसायनी।
⋙ सिद्धरसायन
संज्ञा पुं० [सं०] वह रसोषध जिससे दीर्घ जीवन और प्रभूत शक्ति प्राप्त हो।
⋙ सिद्धलक्ष
वि० [सं०] जिसका निशाना खूब सधा हो। जो कभी न चूके।
⋙ सिद्धलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी की एक विशेष मूर्ति [को०]।
⋙ सिद्धलोक
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धों का आवास या लोक [को०]।
⋙ सिद्धवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम।
⋙ सिद्धवर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐंद्रजालिक या जादू की एक प्रकार की बत्ती [को०]।
⋙ सिद्धवस्ति
संज्ञा पुं० [सं०] तैल आदि को वस्ति या पिचकारी। (आयुर्वेद)।
⋙ सिद्धविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक महाविद्या का नाम।
⋙ सिद्धविनायक
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश की एक मूर्ति।
⋙ सिद्धव्यजन
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धव्यञ्जन] तपस्वी के वेश में गुप्तचर [को०]।
⋙ सिद्धशावरतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धशावर तन्त्र] सावर तंत्र।
⋙ सिद्धशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मत के अनुसार ऊर्घ्वलोक का एक स्थान। विशेष—कहते हैं कि यह शिला स्वर्गपुरी के ऊपर ४५ लाख योजन लंबी, इतनी ही चौड़ी तथा ८ योजन मोटी है। मोती के श्वेतहार या गोदुग्ध से भी उज्जवल है; सोने के समान दमकती हुई और स्फटिक से भी निर्मल हैं। यह चौदहवें लोक की शिखा पर है और इसके ऊपर शिवपुर धाम है। यहाँ मुक्त पुरुष रहते हैं। यहाँ किसी प्रकार क बंधन या दुःख नहीं हैं।
⋙ सिद्धसंकल्प
वि० [सं० सिद्धसङ्कल्प] जिसकी सब कामनाएँ पूरी हों।
⋙ सिद्धसरित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाश गंगा। २. गंगा।
⋙ सिद्धतलिल
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी। सिद्धजल।
⋙ सिद्धताधक
संज्ञा पुं० [सं०] सब मनोरय पूर्ण करनेवाला कल्प वृक्ष।
⋙ सिद्धसाधन
संज्ञा सं० [सं०] १. सिद्धि के लिये योग या तंत्र की क्रिया या अनुष्ठान। २. तांत्रिक क्रियाओं की सिद्धि में काम आनेवाली वस्तु या पदार्थ (को०)। ३. सफेद सरसों। ४. प्रमाणित बात को फिर प्रमाणित करना।
⋙ सिद्धसाधित
वि० [सं०] जिसने व्यवहार द्वारा ही चिकित्सा आदि का अनुभव प्राप्त किया हो, शास्त्र के अध्ययन द्वारा नहीं।
⋙ सिद्धसाध्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मंत्र। २. सबूत। प्रमाण (को०)।
⋙ सिद्धसाध्य (२)
वि० १. जो किया जानेवाला काम पूरा कर चुका हो। २. प्रमाणित। साबित।
⋙ सिद्धसारस्वत
वि० [सं०] जो सरस्वती को सिद्ध कर चुका हो [को०]।
⋙ सिद्घसिंधु
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धसिन्धु] आकाश गंगा। मंदाकिनी।
⋙ सिद्धसिद्ध
वि० [सं०] तंत्रसार के अनुसार विशेष प्रभाव कारक एक मंत्र [को०]।
⋙ सिद्धसुसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मंत्र।
⋙ सिद्धसेन
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।
⋙ सिद्धसेवित
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव या भैरव का एक रूप। बटुक भैरव। २. वह जो सिद्धों द्वारा सेवित हो।
⋙ सिद्धस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सिद्धस्थली] वह स्थान जो सिद्ध या प्रभावकर हो।
⋙ सिद्धस्थाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिद्ध योगियों की बटलोई जिसमें से आवश्यकतानुसार जो भी ईप्सित हो और जितना चाहे उतना भोजन निकाला जा सकता है। विशेष—कहते हैं कि इस प्रकार की एक बटलोई व्यासजी ने पांडवों के बनवास के समय द्रौपदी को दी थी।
⋙ सिद्धहस्त
वि० [सं०] १. जिसका हाथ किसी काम में मँजा हो। २. कार्यकुशल। प्रवीण। निपुण।
⋙ सिद्धहस्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निपुणता। प्रवीणता। कौशल। उ०—उसकी सिद्धहस्तता पर मैं मुग्ध हूँ।—कंठहार (भू०), पृ० १।
⋙ सिद्धांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० सिद्धाङ्गना] सिद्ध नामक देवताओं की स्त्रियाँ। वह नारी जिसे सिद्धि प्राप्त हो।
⋙ सिद्धांजन
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धाञ्जन] वह अंजन जिसे आँख में लगा लेने से भूमि के नीचे की वस्तुएँ (गड़े खजाने आदि) भी दिखाई देने लगती हैं।
⋙ सिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्त] १. भलीभाँति सोच विचार कर स्थिर किया हुआ मत। वह बात जिसके सदा सत्य होने का निश्चय मन में हो। उसूल। २. प्रधान लक्ष्य। मुख्य उद्देश्य या अभिप्राय। ठीक मतलब। ३. वह बात जो विद्वानों या उनके किसी वर्ग या संप्रदाय द्वारा सत्य मानी जाती हो। मत। विशेष—न्याय शास्त्र में सिद्धांत चार प्रकार के कहे गए हैं। सर्वतंत्र सिद्धांत, प्रतितंत्र सिद्धांत, अधिकरण सिद्घांत, और अभ्युपगम सिद्धांत। सर्वतंत्र वह सिद्धांत है जिसे विद्वानों के सब वर्ग या संप्रदाय मानते हों अर्थात् जो सर्वसम्मत हो। प्रतितंत्र वह सिद्धांत है जिसे किसी शाखा के दार्शनिक मानते हों और किसी शाखा के विरोध करते हों। जैसे,—पुरुष या आत्मा असंख्य है, यह सांख्य का मत है, जिसका वेदांत विरोध करता है। अधिकरण वह सिद्धांत है जिसे मान लेने पर कुछ और सिद्धांत भी साथ मानने ही पड़ते हों यह मानना ही पड़ता है कि आत्मा मन आदि इंद्रियों से पृथक् कोई सत्ता है। अभ्युयगम वह सिद्धांत है जो स्पष्ट रूप से कहा न गया हो, पर सब स्थलों को विचार करने से प्रकट होता हो। जैसे, न्यायसूत्रों में कहीं यह स्पष्ट नहीं कहा गया है कि मन भी एक इंद्रिय है, पर मन संबंधी सूत्रों का वितार करने पर यह बात प्रकट हो जाती है। ४. सम्मति। पक्की राय। ५. निर्णींत अर्थ या विषय। नतीजा। तत्व की बात। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।—पर पहुँचना। ६. पूर्व पक्ष के खंडन के उपरांत स्थिर मत। ७. किसी शास्त्र (ज्योतिष, गणित आदि) पर लिखी हुई कोई विशेष पुस्तक। जैसे,—सूर्य सिद्धांत, ब्रह्म सिद्धांत।
⋙ सिद्धांतकोटि
संज्ञा स्त्री० [सं० सिद्धान्त कोटि] तर्क में निर्णायक स्थल [को०]।
⋙ सिद्धांतकौमुदी
संज्ञा स्त्री० [सं० सिद्धान्त कौमुदी] पाणिनि के संस्कृत व्याकरण पर भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित एक प्रसिद्ध ग्रंथ।
⋙ सिद्धांतज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्तज्ञ] सिद्धांत को जाननेवाला। तत्वज्ञ। विद्वान्।
⋙ सिद्धांतधर्मागम
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्त धर्मागम] परंपरा से आगत नियम। परंपरा प्राप्त विधि।
⋙ सिद्धांतपक्ष
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्त पक्ष] वाद में वह पक्ष जो तर्क संगत या सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त हो [को०]।
⋙ सिद्धांताचार
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्ताचार] तांत्रिकों का आचार। एकाग्र चित्त से शक्ति की उपासना।
⋙ सिद्धांतित
वि० [सं० सिद्धान्तित] तर्क द्वारा प्रमाणित। निर्णीत। निरूपित। साबित।
⋙ सिद्धांती
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धान्तिन्] १. आपत्तियों का निराकरण करते हुए अनुमान या पूर्व पक्ष की स्थापना करनेवाला। तार्किक। २. मीमांसा शास्त्र का अनुयायी। मीमांसक (को०)। ३. शास्त्र के तत्तव को जाननेवाला।
⋙ सिद्धांतीय
वि० [सं० सिद्धान्तीय] सिद्धांत संबंधी।
⋙ सिद्धांबा
संज्ञा स्त्री० [सं० सिद्धाम्बा] देवी दुर्गा [को०]।
⋙ सिद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिद्ध की स्त्री। देवांगना। २. एक योनि का नाम। ३. ऋद्धि नाम की जड़ी। ४. चंद्रशेखर के मत से आर्या छंद का १५ वाँ भेद, जिसमें १३ गुरु और ३१ लघु होते हैं।
⋙ सिद्धाई
संज्ञा स्त्री० [सं० सिद्ध + हिं० आई] सिद्ध होने की अवस्था। सिद्धपन। सिद्धई। उ०—झूठ मूठ जटा बढ़ा कर सिद्धाईकरते और जप पुरश्चरण आदि में फँसे रहते है।—दयानंद (शब्द०)।
⋙ सिद्धाचल
संज्ञा पुं० [सं०] काठियावाड़ में जैनियों का एक तीर्थ। उ०—सिद्धाचल दर्शण सुखद, आदिस्वर नौकार।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५९।
⋙ सिद्धाज्ञ
वि० [सं०] जिसकी आज्ञा सिद्ध अर्थात् मानी जाती हो [को०]।
⋙ सिद्धादेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्रष्टा का अनागत वा भविष्यकथन। २. वह जो भविष्यकथन करता हो। भविष्यद्वक्ता [को०]।
⋙ सिद्धान्न
संज्ञा पुं० [सं०] पका या उबला हुआ अन्न [को०]।
⋙ सिद्धापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिद्धों की नदी। आकाश गंगा। २. गंगा नदी।
⋙ सिद्धायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी जो २४ बुद्धों के शासनांतर्गत है। अर्हतों के आदेशांतर्गत एक देवी विशेष [को०]।
⋙ सिद्धारथ पु
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धार्थ] राजा दशरथ का एक मंत्री। उ०—धृष्ट जयंती अरु विजय सिद्धारथ पुनि नाम। तथा अर्थ साधन अपर, त्यों अशोक मति धाम।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ सिद्धारि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मंत्र।
⋙ सिद्धार्थ (१)
वि० [सं०] १. जिसकी कामनाएँ पूर्ण हो गई हों। सफल- मनोरथ। पूर्णकाम। २. जो लक्ष्य या सिद्धि तक ले जाय (को०)। ३. जिसका अर्थ या प्रयोजन ज्ञात हो। ज्ञाताभिप्राय (को०)।
⋙ सिद्धार्थ (२)
संज्ञा पुं० १. गौतम बृद्ध। २. स्कंद के गणों में से एक। ३. राजा दशरथ का एक मंत्री। ४. साठ संवत्सरों में से एक। ५. जैनों के २४ वें अर्हत् महावीर के पिता का नाम। ६. वह भवन जिसमें पशिचम और दक्षिण और बड़ी शालाएँ (कमरे का हाल) हों। ७. श्वेत सर्षप या पीली सरसो (को०)। ८. शिव (को०)। ९. एक मारपुत्र (को०)। १०. बटी वृक्ष (को०)। ११.प्रसिद्ध अर्थ (को०)।
⋙ सिद्धार्थक
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत सर्षप। सफेद सरसों। २. एक प्रकार का मरहम।
⋙ सिद्धार्थकारी
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धार्थकारिन्] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सिद्धार्थमति
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ सिद्धार्थमानी
वि० [सं० सिद्धार्थमानिन्] अपने को कृतकार्य या सफल मनोरथ माननेवाला [को०]।
⋙ सिद्धार्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जैनों के चौथे अर्हत् की माता का नाम। २. सफेद सरसों। ३. देशी अंजीर। ४. साठ संवत्सरों में से ५३ वें संवत्सर का नाम। ५. बटी वृक्ष (को०)।
⋙ सिद्धार्थी
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धार्थिन्] साठ संवत्सरों में से ५३ वें संवत्सर का नाम।
⋙ सिद्धासन
संज्ञा पुं० [सं०] हठ योग के ८४ आसनों में से एक प्रधान आसन। विशेष—मलेंद्रिय और मूत्रेंद्रिय के बीच में बाएँ पैर का तलुवा तथा शिश्न के ऊपर दाहिना पैर और छाती के ऊपर चिबुक रखकर दोनों भौहों के मध्य भाग को देखना 'सिद्धासन' कहलाता है।
⋙ सिद्धि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सिद्धि (२)
संज्ञा स्त्री० १. काम का पूरा होना। पूर्णता। प्रयोजन निकलना। जैसे,—कार्य सिद्ध होना। २. सफलता। कृतकार्यता। कामयाबी। ३. लक्ष्यबेध। निशाना मारना। ४. परिशोध। बेबाकी। चुकता होना (ऋण का)। ५. प्रमाणित होना। साबित होना। ६. किसी बात का ठहराया जाना। निश्चय। पक्का होना। ७. निर्णय । फैसला। निबटारा। ८. हल होना। ९. परिपक्वता। पकंना। सीझना। १०. वृद्धि। भाग्योदय। सुखसमृद्धि। ११. तप या योग के पूरे होने की अलौकिक शक्ति या संपन्नता। विभूति। विशेष—योग की अष्टसिद्धियाँ प्रसिद्ध हैं—अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व। पुराणों में ये आठ सिद्धियाँ और बतलाई गई हैं अंजन, गुटका, पादुका, धातुभेद, वेताल, वज्र, रसायन और योगिनी। सांख्य में सिद्धियाँ इस प्रकार कही गई हैं तार, सुतार, तारतार, रम्यक, आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक। १२. मुक्ति। मोक्ष। १३. अद्भुत प्रवीणता। कौशल। निपुणता। कमाल। दक्षता। १४. प्रभाव। असर। १५. नाटक के छत्तीस लक्षणों में से एक जिससे अभिमत वस्तु की सिद्धि के लिये अनेक वस्तुओं का कथन होता है। जैसे,—कृष्ण में जो नीति थी, अर्जुन में जो विक्रम था, सब आपकी विजय के लिये आप में आ जाय। १६. ऋद्धि या वृद्धि नाम की ओषधि। १७. बुद्धि। १८. संगीत में एक श्रुति। १९. दुर्गा का एक नाम। २०. दक्ष प्रजापति की एक कन्या जो धर्म की पत्नी थी। २१. गणेश की दो स्त्रियों में से एक। २२. मेढ़ासिगी। २३. भाँग। विजया। २४. छप्पय छंद के ४१ वें भेद का नाम जिसमें ३० गुरु और ९२ लधु कुल १२२ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। २५. राजा जनक की पुत्रवधू। लक्ष्मीनिधि की पत्नी। २६. किसी नियम या विधि की वैधता (को०)। २७. समस्या का समाधान (को०)। २८. तत्परता (को०)। २९. सिद्धपादुका जिसे पहनकर जहाँ कही भी आवागमन किया जा सके (को०)। ३०. अंतर्धान। लोप (को०)। ३१. उत्तम प्रभाव। अच्छा असर (को०)।
⋙ सिद्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धि से प्राप्त अलौकिक शक्ति [को०]
⋙ सिद्धिकर
वि० [सं०] १. सिद्धि करनेवाला। सफलता दिलानेवाला। २. समृद्धिकारक [को०]।
⋙ सिद्धिकारक
वि० [सं०] १. प्रभावी। असर करनेवाला। २. दे० 'सिद्धिकर' [को०]।
⋙ सिद्धिकारण
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धि या मुक्ति का कारण [को०]।
⋙ सिद्धिकारी
वि० [सं० सिद्धिकारिन्] सिद्धि करने या करानेवाला [को०]।
⋙ सिद्धि गुटिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गुटिका जिसकी सहायता से रसायन बनाया या इसी प्रकार की और कोई सिद्धि की जाती हो। उ०—सिद्धि गुटिका अब मो सँग कहा। भएउँ राँग सन हिय न रहा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सिद्धिद (१)
वि० [सं०] १. सिद्धि देनेवाला। २. ईश्वर सायुज्य या मोक्ष देनेवाला (को०)।
⋙ सिद्धिद (२)
संज्ञा पुं० १. बटुक भैरव। २. शिव (को०)। ३. पुत्रजीव नाम का वृक्ष। ४. बड़ा शाल वृक्ष।
⋙ सिद्धिदर्शी
वि० [सं० सिद्धिदर्शिन्] १. भविष्य की सफलता या स्थिति का ज्ञान रखनेवाला [को०]।
⋙ सिद्धिदाता
संज्ञा पुं० [सं० सिद्धिदातृ] [स्त्री० सिद्धिदात्री] (सिद्धि देनेवाले) गणेश।
⋙ सिद्धिदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक रूप। नव दुर्गा में अंतिम देवी [को०]।
⋙ सिद्धिप्रद
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सिद्धिप्रदा] सिद्धि देनेवाला।
⋙ सिद्धिभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ योग या तप शीघ्र सिद्ध होता हो।
⋙ सिद्धिमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धि प्राप्त करने का उपाय। २. सिद्ध लोक की प्राप्ति का मार्ग [को०]।
⋙ सिद्धियात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह यात्री जो योग की सिद्धि प्राप्त करने के लिये यात्रा करता हो।
⋙ सिद्धियोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में एक प्रकार का शुभ योग।
⋙ सिद्धियोगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योगिनी का नाम।
⋙ सिद्धियोग्य
वि० [सं०] जो सिद्धि के लिये जरूरी हो [को०]।
⋙ सिद्धिरस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सिद्धरस'।
⋙ सिद्धिराज
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ सिद्धिलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धि का प्राप्त होना [को०]।
⋙ सिद्धिली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी पिपीलिका। छोटी चींटी।
⋙ सिद्धिवर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सिद्धवर्ति' [को०]।
⋙ सिद्धिविनायक
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश की एक मुर्ति। सिद्धविनायक गणेश [को०]।
⋙ सिद्धिसाधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद सरसों। २. दमनक। दौने का पौधा।
⋙ सिद्धिस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुण्य स्थान। मोक्ष प्राप्ति का स्थान। तीर्थ। २. आयुर्वेद के ग्रंथ में चिकित्सा का प्रकरण।
⋙ सिद्धीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २.एक पुण्य क्षेत्र का नाम।
⋙ सिद्धेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सिद्धेश्वरी] १. बड़ा सिद्ध। महायोगी। उ०—सत्यनाथ आदिक सिद्धेशर। श्रीशैलादि बसैं श्री शंकर।—शंकरदिग्विजय (शब्द०)। २. शिव। महादेव। ३. गुलतुर्रा। शंखोदरी। ४. एक पर्वत का नाम। श्रीशैल नामक पर्वत (को०)।
⋙ सिद्धेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नव देवियों में एक का नाम [को०]।
⋙ सिद्धोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँजी। कांजिक। २. एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ सिद्धौघ
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के गुरुओं का एक वर्ग। मंत्र शास्त्र के आचार्य। विशेष—इस वर्ग के अंतर्गत ये पाँच योगी या ऋषि हैं—नारद, कश्यप, शंभु, भार्गव और कुलकौशिक।
⋙ सिद्धौषध
संज्ञा पुं० [सं०] अचूक दवा। अव्यर्थ ओषधि [को०]।