विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/चु
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ चुंग †
संज्ञा पुं० [देश०] सिर का आभूषण ।
⋙ चुंगल
संज्ञा पुं० [हिं० चों+अंगुल या फा० चंगाल] २. चिडियों या जानवरों का पंजा जो कुछ टेढा या झुका हुआ होता है । चुंगल । २. मनुष्य के पंजे की वह स्थिति जो उँगलियों को बिना हथेली से लगाए किसी वस्तु को लेने या पकडने में होती है । बटोरा हुआ पंजा । बकोटा । चंगुल । जैसे—चुंगल भर आटा साँई को दो । मुहा०—चुंगल में फँसना = वश में आना । काबू में होना । पकड में आना ।
⋙ चुंगली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाक में पहनने का एक आभूषण जिसे 'समथा' भी कहते हैं । एक प्रकार की नथ ।
⋙ चुंगा †
संज्ञा पुं० [हिं० चोंगा] दे० 'चोंगा' ।
⋙ चुंगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुंगल] १. चुंगल भर वस्तु । चुटकी भर चीज । यौ०—चुंगी पैंठ = वह पैठ या बाजार जिसमें हर एक दूकानदार से जमींदार को चुंगल भर चीज मिलती हो । २. वह महसूल जो शहर के भीतर आनेवाले बाहारी माल पर लगता हो । यौ०—चुंगी कचहरी = नहरपालिका का कार्यालय जहाँ अन्य कार्यों के साथ चुंगी वसूलने का भी कार्य होता है । चुंगी घर = चुंगी की बसूली के लिये बना हुआ घंर । चुंगी चौकीं—वह स्थान जो चुंगी की वसूली और देख रेख के लिये बना हो ।
⋙ चुंगुल पु
संज्ञा पुं० [हिं० चुंगल] दे० 'चुंगल'—१ । उ०—ज्यों छुधित बाज लखि गन कुलंग । चुंगल चपेट करि देत भंग ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ चुंच †
संज्ञा स्त्री० [चञ्चु] दे० 'चोंच' ।
⋙ चुंचरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चुञ्चुरी] दे० 'चुंचुरी' ।
⋙ चुंचु (१)
संज्ञा पुं० [सं० चुञ्चु] १. छछुँदर । २. वैदेहिक स्त्री और व्राह्मण से उत्पन्न एक संकर जाति ।
⋙ चुंचु (२)
संज्ञा स्त्री० १. बूटी या पौधा । चिनियारी ।
⋙ चुंचुक
संज्ञा पुं० [सं० चुञ्चुक] बृहत्सहिता के अनुसार नेऋर्त्य कोण पर स्थित एक देश ।
⋙ चुंचुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चुञ्चुरी] वह जुआ जो इमली के चीओं से खेला जाय ।
⋙ चुंचुल
संज्ञा पुं० [सं० चुञ्चुल] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम जो संगीत शास्त्र का बडा भारी पंडित था ।
⋙ चुंचुली
संज्ञा स्त्री० [सं० चुञ्चुली] दे० 'चुंचुरी' ।
⋙ चुंटली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] घुँघची ।
⋙ चुंटा, चुंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० चुण्टा, चुण्टी] दे० 'चुंडा' ।
⋙ चुंडा
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० चूंडी] कूआँ । कूप ।
⋙ चुंडित पु
वि० [हिं० चुंडी] चुटियावाला । चुंडीवाला । उ०— योगी कहै योग है नीको द्वितीया और न भाई । चुंडित मुंडित मौन जटाधरि तिनहुं कहाँ सिधि पाई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चुंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुंदी] दे० 'चुंदी' ।
⋙ चुंदी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चुन्दी] कुटनी । दूती ।
⋙ चुंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० चूडा] बालों की शिखा जिसे हिंदू सिर पर रखते हैं । चुटैया ।
⋙ चुंधा
वि० [हिं० चौ (= चार+अंध)] [स्त्री० चुंधी] १. जिसे सुझाई न पडे । २. छोटी छोटी आँखों वाला ।
⋙ चुंधियाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'चुँधलाना' ।
⋙ चुंब
संज्ञा पुं० [सं० चुम्ब] दे० 'चुंबन' (को०) ।
⋙ चुंबक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चुंबन करे । २. कामुक । कामी । ३. धूर्त मनुष्य । ४. ग्रंथों को केवल इधर उधर उलटनेवाला । विषय को अच्छी तरह न समझनेवाला । ५. पानी भरते समय घडे के मुँह पर बँधा हुआ फंदा । फाँस । ६. एक प्रकार का पत्थर या धातु जिसमें लोहे को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है । विशेष—चुंबक दो प्रकार का होता है —एक प्रकृतिक दुसरा कृत्रिम । प्राकृतिक चुंबक एक प्रकार का लोहा भिला पत्थर होता है जो बहुत कम मिलता है । इससे कृत्रिम या बनावटी चुंबक ही देखने में अधिक आता है डो या तो घोडे की नाल के आकार का होता है या सीधी छड के आकार का । यदि चुंबक की छड को लोहे के चूर के ढेर में डालें तो दिखाई पडेगा कि लोहे का चूर उस छड में यहाँ से बहाँ तक बराबर नहीं लिपटता बल्कि दोनों छोरों पर सबसे अधिक लिपटता है । इन दोनों छोरों को आकर्षण प्रांत कहते हैं । कभी कभी किसी छड के आकर्षण प्रांत दो से अधिक होते हैं । यदि किसी चुंबक- शलाका को उसके मध्यभाग (मध्याकर्षण केंद्र) पर से ऐसा ठहरावें कि वह चारों ओर घूम सके तो वह घूमकर उत्तर- दक्खिन रहेगी, अर्थात् उसका एक सिरा उत्तर की ओर और दूसरा दक्खिन की ओर रहेगा । ध्रुवदर्शक यंत्र में इसी प्रकार की शलाका लगी रहती है । पर ध्यान रखना चाहिए कि शलाका का यह उत्तर दक्षिण हमारे भौगोलिक उत्तर दक्षिण से ठीक ठीक मेल नहीं खाता कहीं ठीक उत्तर से कई अंश पूर्व और कहीं पश्चिम की ओर होता है । इस अंतर को चुंबक प्रवृत्ति कहते हैं । इसे निकालने के लिये भी एक यंत्र होता है । यह चुंबक प्रवृत्ति पृथ्वी के भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न होती है जिसके हिसाब किताब जहाजी रखते हैं । इसके अतिरिक्त किसी स्थान की यह चुंबकप्रवृत्ति सब काल में एक सी नहीं रहती, शताब्दियों के हेर फेर के अनुकार कुछ मौलिक परिवर्तनों के कारण वह बदला करती है । किसी चुंबक का एक प्रांत दूसरे चुंबक के सी प्रांत को आकर्षित न करेगा, अर्थात् एक चुंबकशलाका का उत्तर प्रांत दूसरी चुंबक शलाका के उत्तर प्रांत को आकर्षित न करेगा, दक्षिण प्रांत को करेगा । जिस वस्तु के चुंबक के दोनों प्रांत आकर्षित करें. वह स्थायी चुंबक नहीं है, केवल आकर्षित होने की शक्ति रखनेवाला है । जैसे, साधारण लोहा आदि । स्थायी चुंबक के पास लोहे का टुकडा लाने से उसमें भी चुंबक का गुण आ जायगा, अर्थात् वह भी दूसरे लोहे को आकर्षित कर सकेगा । ऐसे चुंबक को स्थायी चुंबक कहते हैं । इस्पात में यद्यपि चुंबक शक्ति अधिक नही दिखाई देती, पर एक बार उसमें यदि चुंबक शक्ति आ जाती है, तो फिर वह जल्दी नहीं जाती । इसी से जितने कृतिम स्थायी चुंबक मिलते हैं, वे इस्पात ही के होते हैं । कृत्रिम चुंबक या तो चुंबक के संसर्ग द्वारा बनाए जाते हैं अथवा इस्पात की छड में विद्युत्प्रवाह दौडाने से । विद्युत्प्रवाह द्वारा बडे शक्तिशाली चुंबक तैयार होते हैं । अब यह निश्चित हुआ है कि चुंबक विद्युत का ही गुण है ।
⋙ चुंबकीय
वि० [सं०] १. चुंबक संबंधी । २. जिसमें चुंबक का गुण हो । उ०—और ठेले जाने की वह क्रिया चुंबकीय खिंचाव—कभी कभी ऐसा प्रबल होता है कि उसके लिये अकूल समुद्र में फाँद पडने या चट्टान से टकराकर उसपर अपना सिर पटकने के लिये भी वह स्वेच्छा से राजी हो जाती है ।—जिप्सी, पृ०३६९ ।
⋙ चुंबन
संज्ञा पुं० [सं० चुम्बन] [वि० चुंबनीय, चुंचित] प्रेम के आवेग में होने से (किसी दुसरे के) गाल आदि अंगों को स्पर्श करने या दबाने की क्रिया । चुम्मा । बोसा । क्रि० प्र०—करना । होना ।
⋙ चुंबना पु
क्रि० स० [सं० चुम्बन] १. चूमना । बोसा लेना । उ०— कबहुँक माखन रोटी लै कै खेल करत पुनि माँगत । मुख चुंबत जननी समझवत आय कंठ पुनि लागत ।—सूर (शब्द०) । २. स्पर्श करना । छुना । उ.—धवल धाम, ऊपर नभ चुंबत । कलस मनहु रबि ससि दुति निदत ।—मानस, ७ । २७ ।
⋙ चुंबा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चुम्बा] चुंबन [को०] ।
⋙ चुंबा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'सुंबा' । (लश०) ।
⋙ चुंबित
वि० [सं० चुम्बित] १. चूमा हुआ । २. प्यार किया हुआ । ३. स्पर्श किया हुआ । छुआ हुआ ।
⋙ चुंबी
वि० [सं० चुम्बिन्] १. चुमनेवाला । जो चूमे । २. छूनेवाला । स्पर्श करनेवाला (को०) । विशेष—यौगिक शब्द बनाने में इसका प्रयोग अधिक होता है । जैसे, गगनचुंबी ।
⋙ ३. संपर्कयुक्त । संबंधित (को०) ।
⋙ चुँगना पु †
क्रि० अ० [हिं० चुगना] दे० 'चुगना' ।
⋙ चुँगाना पु †
क्रि० स० [हिं० चुगाना] दे० 'चुगाना' ।
⋙ चुँघाना
क्रि० स० [हिं० चुसाना] चुसाना । चुसाकर पिलाना । उ०—अब न तो कुछ शीत उष्ण में बचाव करना पडेगा और न भूख प्यास से समय दूध ही चुँघाना पडेगा । ये सिद्ध लोगों के दिए हुए धागे यंत्र आपही बालक की रक्षा करेंगे ।— श्रद्धाराम (शब्द०) ।
⋙ चुँदरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनरी या चूनरी] दे० 'चुनरी' ।
⋙ चुँदरीगर
संज्ञा पुं० [हिं० चूँदरी+फा० गर] चुँदरी तैयार करनेवाला रँगरेज ।
⋙ चुँधलाना †
क्रि० अ० [हिं० चौ (=चार)+अंध (= अंधा)] आँखों का सहसा अधिक प्रकाश के सामने पडने के कारण स्तब्ध होना । चौंधना । चकाचौंध होना । आँखों का तिलमिलाना ।
⋙ चुँभना पु †
क्रि० अ० [हिं० चुभना] दे० 'चुभना' ।
⋙ चुअना (१) † पु
क्रि० अ० [हिं० चूना]दे० 'चूना' ।
⋙ चुअना (२)
वि० चूनेवाला । यौ०—चुअना लोटा । चुअना घर ।
⋙ चुअना † (३)
संज्ञा पुं० छाजन या छप्पर का वह स्थान जहाँ से होकर पानी चूता है ।
⋙ चुआ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पाहाडी देश ।
⋙ चुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोआ]दे० 'चोआ' ।
⋙ चुआई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुआना] १. चुआने का काम । टपकाने की क्रिया । २. चुआने की मजदूरी ।
⋙ चुआक
संज्ञा पुं० [हिं० चुआना (=टपकाना)] वह छेद जिससे पानी आवे (लश०) ।
⋙ चुआन
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूना] जल आने का स्थान । खाई । नहर । गड्ढा । सोता । उ०—(क) सब देवताओं को वश में कर नगर में चारों ओर जल की चुआन चौडी करवाई और अग्नि पवन का कोट बनाय निर्भय हो वह सुख से राज्य करने लगा । लल्ल (शब्द०) । (ख) वह पुरी किस की है कि जिसके चहूँ ओर ताँबे का कोट और पक्की चुआन, चौडी खाई, स्फटिक के चार पाटक इत्यादि हैं ।—लल्लू (शब्द०) ।
⋙ चुआना
क्रि० स० [हिं० चूना (=टपकना)] १. टपकना । बूँद बूँद गिरना । २. चुपडना । चिकनाना । रसमय करना । रसीला बनाना । उ०—वेष सुबनाइ सुचि बचन कहै चुआइ जाइ तो न जरनि धरनि धन धाम की ।—तुलसी (शब्द०) । ३. भमके से अर्क उतारना । जैसे,—शराब चुआना । ४. दे० 'दूहाना' ।
⋙ चुआव
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुआना] चुआने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुकंदर
संज्ञा पुं० [फा०] गाजर या शलगम की तरह की एक जड जो सुर्खी लिए होती है और तरकारी के काम में आती है । विशेष—इसका स्वाद कुछ मीठापन लिए होता है । कहीं कहीं इससे खाँड भी निकाली जाती है । चुंकदर ऐसे स्थानों पर बहुत उपजता है जहाँ खारी मिट्टी या खारा पानी मिलता है । समुद्र के किनारे चुकंदर की पैदावार अच्छी होती है । इसके लिये शोर और नमक मिला पानी खाद का काम करता है ।
⋙ चुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० चुक्र]दे० 'चुक' ।
⋙ चुक (२)पु
अव्य० [हिं० कुछ] थोडा । किंचित् । उ०—मुख चुक्र दिखलाई मिहिर नजर बरसाई ।—घनानंद, पृ० ४५९ ।
⋙ चुकचुकाना (१)
क्रि० अ० [हिं० चूना+टपकना] १. किसी द्रव पदार्थ का बहुत बारीक छेदों से हेकर सूक्ष्म कणों के रूप में बाहर आना । रस का बाहर फैलना । उ०—चमडें पर रगड लगने से खून चुकचुका आया । २. पसीजना । आर्द्र होना । चुचाना ।
⋙ चुकचुकाना (२)
क्रि० अ० [हिं० चुकना की द्विरूक्ति] बिलकुल चक जाना । समाप्त होना । जैसे,—अब सारी चीज चुकचुका गई । सब चुकचुकाने पर तुम आए ।
⋙ चुकचुहिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. छोटी चिडिया जो बहुत तडके बोलने लगती हा । २. कागज या चमडों का बना हुआ एक खिसौना जो हिलाने या दबाने से चूँ चूँ शब्द करता है ।
⋙ चुकट पु
संज्ञा पुं० [हिं० चुटका]दे० 'चुकटा' । उ०—जग में भक्त कहावई, चुकट चून नहिं देय । सिव जोरू का ह्नै रहा, नाम गुरू का लेय ।—संतवाणी०, पृ० ५३ ।
⋙ चुकट
संज्ञा पुं० [हिं० चुटका]दे० 'चुटका' ।
⋙ चुकटा
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुटका] चंगुल । चुटकी । मुहा०—चुटका भर = चंगुल भर । उतना (आटा आदि) जितना चंगुल या चुटकी में आवे ।
⋙ चुकटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुटकी] दे० 'चुटकी' । उ०—सो उह गाम में एक वैष्णव चुटकी माँगती ।—दो सौ बावन०, भा २, पृ० २०८ ।
⋙ चुकता
वि० [हिं० चुकना] बेबाक । नि?शेष । अदा (ऋण या रूपए पैसे के हिसाब किताब के संबंध में इसे बोलते हैं ।) जैसे,—एक महीने में हम तुम्हारा सब रूपया चुकता कर देंगे ।
⋙ चुकताना †
क्रि० स० [हिं० चुकता+ना (प्रत्य०)] चुकता करना । चुकाना ।
⋙ चुकती
वि० [हिं० चुकता] दे० 'चुकता' ।
⋙ चुकना (१)
क्रि० अ० [सं० च्युत्कृ, प्रा० चुविक्] १. समाप्त होना । खतम होना । नि?शेष होना । न रह जाना । बाकी न रहना । उ०—(क) सारी किताब छपने को पडी है, कागज अभी से चुक गया । (ख) प्रान पियारे की गुन गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ । गाते गाते चकै नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ ।— श्रीधर (शब्द०) । २. बेबाक होना । अदा होना । चुकता होना जैसे,—उनका सब ऋण चुकता हो गया । ३. तै होना । निबटना । जैसे,—झगडा चुकना । पु ४. चूकना । भूल करना । त्रुटि करना । कसर करना । अवसर के अनुसार कार्य न करना । उ०—(क) काल सुभाउ करम बरिआई । भलेइ प्रकृति बस चुकइँ भलाई—मानस, १ । ७ (ख) तेउ न पाइअस समय चुकाहीं । देखु विचारि मातु मन माहीं ।—तुलसी (शब्द०) । पु ५. खाली जाना । निष्फल होना । व्यर्थ होना । लक्ष्य पर न पहुँचना । उ०—चित्रकूट जनु अचल अहेरी । चुकइ न घात मार मुठ भेरी ।—मानस, २ । १३३ । विशेष—यह क्रिया और क्रियाओं के साथ समाप्ति का अर्थ देने के लिये संयुक्त रूप में भी आती है । जैसे,—तुम यह काम कर चुके ? तुम कब तक खा चुकोगे ? वह अब चल चुके होंगे । व्यंग्य के रूप में भी इस क्रिया का प्रयोग बहुत होता है । जैसे, तुम अब आ चुके, अर्थात तुम अब नहीं आओगे । 'वह दे चुका' अर्थात् वह न देगा ।
⋙ चुकाना (२)
वि० चुकनेवाला । अवसर खोनेवाला । भूलनेवाला ।
⋙ चुकरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] रेवंद चीनी ।
⋙ चुकरैंड
संज्ञा पुं० [देश०] दोमुहाँ साँप जिसे गूँगा भी कहते हैं । उ०—लेखनि डंक भुजंग की रसना अयननि जानि । गज रद मुख चुकरैड के कक्षा शिक्षा बखानि ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ चुकवाना
क्रि० स० [हिं० चुकाना का प्रे० रूप] अदा करना । दिलाना । बेबाक करना ।
⋙ चुकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुकता] चुकने या चुकाता होने का भाव ।
⋙ चुकाना
क्रि० स० [हिं० चुकना] १. बेबाक करना । किसी प्रकार का देना साफ करना । अदा करना । परिशोधकरना । जैसे,— दाम चुकाना, रूपया चुकाना, ऋण चुकाना । २. निबटना । तै करना । ठहरना । जैसे,—सौदा चुकाना । झगडा चुकाना ।
⋙ चुकाव
संज्ञा पुं० [हिं० चुकना] चुकने, चुकाए जाने की स्थिति, क्रिया या भाव [को०] ।
⋙ चुकावडा
संज्ञा पुं० [हिं० चुकाव+डा (प्रत्य०)] बेबाकी । चुकाने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुकावरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चुकाना] कर्जा चुका देने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुकिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] तेलियों की घानी में पानी देने का बरतन । कुल्हिया ।
⋙ चुकौता
संज्ञा पुं० [हिं० चुकाना+औता (प्रत्य०)] ऋण का परिशोध । कर्ज की सफाई । मुहा०—चुकौता लिखना = भरपाई का कागज लिखकर देना । कर्जा चुकता पाने की रसीद देना । भरपाई करना ।
⋙ चुक्का †
संज्ञा पुं० [सं० चुक्र] दे० 'चूक (२)' (खटाई) [को०] ।
⋙ चुक्कड
संज्ञा पुं० [हिं० चखना ?] १. मिट्टी का गोल छोटा बरतन जिसमें शराब आदि पीते हैं । २. पुरवा ।
⋙ चुक्कार
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहनाद । गरज । गर्जन ।
⋙ चुक्की †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूक] धोखा । छल । कपट । क्रि० प्र०—खाना ।—देना ।
⋙ चुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूक नाम की खटाई । चुक । महाम्ल । वृक्षाम्ल । २. एक प्रकार का खट्टा शाक । ३. अमलबेद । ४. सडाया हुआ अम्लरस । काँजी । संधान ।
⋙ चुक्रक
संज्ञा पुं० [सं०] चुका का साग ।
⋙ चुक्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] इमली ।
⋙ चुक्रवास्तुक
संज्ञा पुं० [सं०] अमलोनी का साग ।
⋙ चुक्रवेधक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की काँजी ।
⋙ चुक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमलोनी का साग । २. इमली ।
⋙ चुक्राम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूक नाम की खटाई । २. चूका का साग ।
⋙ चुक्राम्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमलेनी का साग ।
⋙ चुक्रिका, चुक्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमलोनी का साग । नोनिया । २. इमली ।
⋙ चुक्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० चुक्रिमन्] खट्टापन । खटास [को०] ।
⋙ चुक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिंसा । वध । २. क्षालन । प्रक्षालन [को०] ।
⋙ चुखाना
क्रि० स० [सं० चुष] १. दुहते समय गाय के थन से दुध उतारने के लिये पहले उसके बछडे को पिलाना । उ०—आई ही गई दुहाइबे कों सुचकाइ चली न बछानि को घेरति । नैंकु डेराय नहीं की वह माय रिसाय अटा चढि टेरति ।— देव (शब्द०) । २. चखाना । उ०—भरि अपने कर कनक कचोरा पीवति प्रियहिं चुखाए । सूर (शब्द०) ।
⋙ चुगद (१)
संज्ञा पुं० [फा० चुगद] १. उल्लू पक्षी । २. मुर्ख व्यक्ति । मूढ व्यक्ति । बेवकूफ आदमी ।
⋙ चुगद (२)
वि० मूर्ख । मूढ । बेवकूफ ।
⋙ चुगाना (१)
क्रि० स० [सं० चयन] चिडियों का चोंच से दाना उठाकर खाना । चोंच से दाना बीनना । उ०—उथलहिं सीप मोति उतराहीं । चुगहिं हंल औ केलि कराहीं ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चुगना (२)
संज्ञा पुं० चिडियों का आहार । चुग्गा ।
⋙ चुगल
संज्ञा पुं० [फा० चुगुल] १. परोक्ष में दूसरे की मिंदा करनेवाला । पीठ पीछे शिकायत करनेवाला । इधर की उधर लगानेवाला । लुतरा । उ०—कहा करै रसखान को, कोऊ चुगल लबार । जो पै राखनहार है माखन चाखनहार ।— रसखान (शब्द०) । २. वह कंकड जिसे चिलम के छेद में रखकर तंबाकू भतरे हैं । गिट्टी । गिट्टक ।
⋙ चुगलखोर
संज्ञा पुं० [फा० चुगुलखोर] परोक्ष में निंदा करनेवाला । पीठ पीछे शिकायत करनेवाला । इधर की उधर लगानेवाला । लुतरा ।
⋙ चुगलखोरी
संज्ञा स्त्री० [पा० चुगुलखोरी] चुगली खाने का काम । परोक्ष में निंदा करने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुगलस
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लकडी ।
⋙ चुगला
संज्ञा पुं० [हिं० चुगल] दे० 'चुगलखोर' ।
⋙ चुगलाना †
क्रि० स० [हिं० चुभवाना]दे० 'चुभलाना' ।
⋙ चुगली
संज्ञा स्त्री० [फा० चुगली] पीठ पीछे की शिकायत । दूसरे की निंदा जो उसकी अनुपस्थिति में तीसरे से की जाय । उ०—अपन् नृप को इहै सुनायो । ब्रजवारिन बटपारिन हैं सब चुगली आपहिं जाय लगायो ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—चुगली खाना = पीठ पीछे निंदा करना । झुठी निंदा करना ।
⋙ चुगा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुगना] वह अन्न आदि जो चिडियों के आगे चुगने के लिये डाला जाय । चिडियों का चारा ।
⋙ चुगा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोगा]दे० 'चोगा' ।
⋙ चुगाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुगाना+ई (प्रत्य०)] चुगने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुगाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुगाना+ई (प्रत्य०)] चुगाने की क्रिया या भाव । २. चुगाने की मजदूरी ।
⋙ चुगाना
क्रि० स० [हिं० चुगना] चिडियों को दाना खिलाना । चिडियों को चारा डालना । उ०—छाँडु मन हरि विमुखन को संग । जिनके सग कुबुधि उपजत है परत भजन में भंग । कहा होत पय पान कराए, विष नहिं तजत भुंजग । कागहि कहा कपुर चुगाए स्वान न्हवाए गंग ।—सूर (शब्द०) । संयो० क्रि०—दोना ।
⋙ चुगल पु †
संज्ञा पुं० [फा० चुगुल]दे० 'चुगल' ।
⋙ चुगलखोर
संज्ञा पुं० [फा० चुगलखोर] दे० 'चुगुलखोर' ।
⋙ चुगुलखोरी
संज्ञा स्त्री० [फा० चुगुलखोरी] दे० 'चुगुलखोरी' ।
⋙ चुगली पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० चुगुलीं] दे० 'चुगली' ।
⋙ चुग्गा
संज्ञा पुं० [हिं० चुगना] दे० 'चुगा' ।
⋙ चुग्घी
संज्ञा स्त्री० [देश०] चखने की थोडी सी वस्तु । चाट । चसका ।
⋙ चुचआना पु
क्रि० अ० [हिं० चुचाना] दे० 'चुचाना' । उ०— सोभित स्रवनति जडित सुकुंडल स्वेद बुंद चुचआइ ।—नंद ग्रं०, पृ० ३९ ।
⋙ चुचकना †
क्रि० अ०— [हिं०चुचुकना] दे० 'चुचुकना' ।
⋙ चुचकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुचकारना या अनु०] चुमकारने या चुचकारने की ध्वनि या क्रिया । चुचकारी ।
⋙ चुचकारना
क्रि० स० [अनु०] प्यार से चुँबन के ऐसा शब्द मुँह से निकालकर बोलना । चुमकारना । पुचकारना । दुलारना । प्यार दिखाना । उ०—(क) मैया बहुत बुरो बलदाऊ । कहन लगे बन बडो तमासो, सब मोडा मिलि आऊ । मोहूँ को चुचकारि गये लैं, जहाँ सघन बन बाऊ । भागि चले कहि गयो उहाँ ते, काटि खाइहै हाऊ ।—सूर (शब्द०) । (ख) चाहि चुचकारि चूँबि लालत लावत उर तैसे फल पावत जैसे सुबीज बए हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चुचकारी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चुचकारने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुचाना
क्रि० अ० [सं० च्यवन] कण कण या बूँद बूँद करके निकालना । चूना । टपकना । रसना । निचुडना । गरना । ('चूना' या 'टपकना' क्रिया के समान इसका प्रयोग भी टपकनेवाली वस्तु (जैसे, पानी) तथा जिसमें से टपके (जैसे, घर) दोनों के लिये होता है ।) उ०—(क) अकुलित जे पुलकित गात । अनुराग नैन चुचात । — सूर (शब्द०) । (ख) बाल भाव जिय में सुध आई अस्तन चले चुचाय । — सूर (शब्द०) (ग) चौगुनो रंग चढो चित मैं चुनरी के चुचात लला के निचोरत ।— देव (शब्द०) ।
⋙ चुचावना पु
क्रि० अ० [हिं० चुचाना] दे० 'चुचान' । उ०— रहौ गुही बेनी, लखे, गुहिबे के त्यौहार । लागे नीर चुचावने, नीठि सुखाए बार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्तन । चूँची । २. थन । ऐन [को०] ।
⋙ चुचु
संज्ञा पुं० [सं० चच्चु]दे० 'चच्चु' ।
⋙ चुचुआना
क्रि० अ० [हिं० चुचाना] दे० 'चुचाना' ।
⋙ चुचुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुचाग्र भाग । स्तन के सिरे या नोक पर का भाग जो गोल घुंडी के रुप में होता है । ढिपनी । २. दक्षिण भारत का एक प्राचीन देश । ३. उक्त देश का निवासी ।
⋙ चुचुकना †
क्रि० अ० [सं० शुष्क+ना (प्रत्य०) या देश] सूखकर सिकुड जाना । ऐसा सूखना जिसमें झुर्रियाँ पड जायँ । नीरस होकर संकुचित हो जाना, जैसे, — फल का चुचुकना, चेहरे का चुचुकना ।
⋙ चुचुकारना †
क्रि० स० [हिं० चुचकारना]दे० 'चुचकारना' ।
⋙ चुचूक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'चुचुक' [को०] ।
⋙ चुच्चु
संज्ञा पुं० [सं०] पालक की तरह का एक प्रकार का साग जिसे़ चौपतिया भी कहते हैं ।
⋙ चुच्चू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चुच्चु' [को०] ।
⋙ चुटक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गलीचा या कालीन ।
⋙ चुटक (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० चोट+क(=करनेवाला)] कोडा । चाबुक ।
⋙ चुटक (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु० चुटचुट] चुटकी ।
⋙ चुटकना (१)
क्रि० स० [हिं० चोट] कोडा मारना । चाबुक मारना । उ०— करे चाह सौं चुटकि कै खरै उडौहैं मैन । लाज नवाऐं तरफरत, करत खूँद सी नैन ।— बिहारी र०, दो० ५४२ ।
⋙ चुटकना (२)
क्रि० स० [हिं० चुटकी] १. चुटकी से तोडना । जैसे, — साग चुटकना, फूल चुटकना ।
⋙ चुटकना (३) †
क्रि० अ० [देश०] साँप काटना ।
⋙ चुटकला
संज्ञा पुं० [हिं० चुटकुला]दे० 'चुटकुला' ।
⋙ चुटका
संज्ञा पुं० [हिं० चुटकी] १. बडी चुटकी । २. चुटकी भर आटा या और कोई अन्न । क्रि० प्र० — देना ।— लेना ।
⋙ चुटकार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुटकी+आर (प्रत्य०)] चुटकी बजाने की ध्वनि या क्रिया ।
⋙ चुटकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुटकार] दे० 'चुटकी' । उ०— मदन महीप जू कौ बालक बसंत ताहि, प्रात ही जगावत गुलाब चुटकारी दै ।— पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० १५७ ।
⋙ चुटकी
संज्ञा स्त्री० [अनु० चुट चुट] १. अँगूठे और बीच की उँगली (अथवा तर्जनी) की वह स्थिति जो दोनों को मिलाने या एक को अन्य पर रखने से होती है । किसी वस्तु को पकडने, दबाने या लेने आदि के लिये अँगूठे और बीच की (अथवाऔर किसी) उँगली का मेल । जैसे,— चुटकी में लेना । चुटकी से उठाना । २. अँगूठे और मध्यमा और तर्जनी के योग से ध्वनि पैदा करना । विशेष— चुटकी प्रायः संकेत करने, किसी का ध्यान आकर्षित करने, किसी को बुलाने, जगाने अथवा ताल देने आदि के लिये बजाई जाती है । हिंदुओं में यह प्रथा है कि जब किसी को जँभई आदि है, तब पास के लोग चुटकियाँ बजाते हैं । यौं०— चुटकी बजानेवाला = खुशामदी । चापलूस । चुटकी भर = उतना जितना अँगूठे और मध्यमा के मिलाने पर दोनों के बीच आ जाय । बहुत थोडा । जरा सा जैसे, चुटकी भर आटा, चुटकी भर नमक । चुटकियों में = बहुत शीघ्र । चट पट । जैसे, — देखते रहो, अभी चुटकियों में यह काम होता है । मुहा०—चुटकी देना=दे० 'चुटकी बजाना' । उ०— जो मूरति जल थल में व्यापक निगम न खोजत पाई । सो मूरति तू अपने आँगन चुटकी दैं दै नचाई ।—सूर(शब्द०) । चुटकी बजाना = अँगूठें को बीच की उँगली पर रखकर जोर से छटकाकर शब्द निकालना । चुटकी बजाने में या चुटकी बजाते = उतनी देर में जितनी देर चुटकी बजती है । चट पट । देखते देखते । बात की बात में । जैसे, — यह काम तो चुटकी बजाते होगा । चुटकी बैठाना = किसी ऐसे काम का अभ्यास होना जो चुटकी से पकडकर किया जाय । जैसे,— उखाडना नोचना आदि । चुट- कियों में या चुटकियों पर उड़ाना = (१) बात की बात में निब- टाना । अत्यंत तुच्छ या सहज समझना । (२) कुछ न समझना । कुछ परवाह न करना जैसे,— (क) ऐसे मामलों को तो मैं चुटकियों में उडाता हूँ ।(ख) वह मेरा क्या कर सकता है, ऐसो को तो मैं चुटकियों पर उड़ाता हूँ । चुटकी लगाना = (१) किसी वस्तु को पकडने नोचने, खींचने दबाने आदि के लिये अँगूठे और मध्यमा (अथवा और किसी उँगली) को मिलाकर काम में लाना । कपडे के थान को उँगलियों से फाड़ना । थान पर से कपडा उतारना । (३) रुपया पैसा चुराने के लिये उँगलियों से जेब फाडना । जेब काटना । (४) दुध दुहने के लिये चुटकी से गाय का थन पकड़ना । (५) चुटकी से पत्तों को मोडकर दोना बनाना । २. चुटकी भर आटा । थोडा आटा । जैसे,— साधु को चुटकी दे दौ । क्रि० प्र० — देना । मुहा०— चुटकी माँगना = भिक्षा माँगना । ३. चुटकी बजाने का शब्द । वह शब्द जो अँगूठे को बीच की उँगली पर रखकर जोर से छटकाने से होता है । उ० किलकि किलकि नाचत चुटकी सुनि डरपति जननि पानि छुटकाएँ ।— तुलसी (शब्द०) । ४. अँगूठे और तर्जनी के संयोग से किसी प्राणी के चमडे को दबाने या पीडित करने की क्रिया । क्रि० प्र० — काटना । मुहा०— चुटकी उड़ाना = दे० 'चुटकी लेना' । चुटकी भरना = (१) चुटकी काटना । (२) चुभती या लगती हुई बात कहना । वि० दे० 'चुटकी लेना' । चुटकी लगाना = चुटकी से पकडना । चटकी लेना = (१) हंसी उडाना । दिल्लगी उड़ाना । ठट्ठा करना । उपहास करना । २. व्यंग्य वचन बोलना । चुभती या लगती बात कहना । ३. चुटकी से खोदना । चुटकी से दबाना । चुटकी भरना । उ०—बार बार कर गहिगहि निरखत घूँघट ओट करौ किन न्यारो । कबहुँक कर परसत कपोल छुइ चुटकी हयाँ हमहिं निहारो ।—सूर (शब्द०) । ५. अगुठे और उँगली से मोड़कर बनाया हुआ गोखरू, गोटा या लचका । (कभी कभी यह किश्तीनुमा भी होता है, जिसे किश्ती की चुटकी कहते हैं) । ६. बंदूक के प्याले का ढकना । बंदूक का घोड़ा । (लश०) । ७. कटावदार गुलबदन या मशरू ८. पैर की उँगलियों में पहनने का चाँदी का एक गहना । एक प्रकार का चौड़ा छल्ला । ९. कपड़ा छापने को एक रीति । १० काठ आदि की बनी हुई एक प्रकार की चिमटी जिसमें कागज या किसी और हलकी वस्तु की पकडा देने से वह इधर उधर उड़ने नहीं पती । ११. पेचकश । १२. दरी के ताने का सूत ।
⋙ चुटकुला
संज्ञा पुं० [हिं० चोट या चुट (= छोटी, छीटी) + कला] १. विलक्षण बात । विनोदपूर्ण बात । चमत्कारपूर्ण उक्ति । थोड़ेमें कही हुई ऐसी बात जिससे लोगों की कुतूहल हो । मजेदार बात । यौ०—चुटकुलाबाज । चुटकुलाबाजी । चुटकुलेबाज । चुटकुलेबाजी । मुहा०—चुटकुला छेड़ना या छोड़ना = (१) विलक्षण बास कह बैठना । दिल्लगी की बात करना । २. कोई ऐसी बात कहना जिससे एक नया मामला खड़ा हो जाय । जैसे,—उसने एक ऐसा चुटकुला छोड़ दिया कि दोनों आपस में ही लड़ पड़े । २. दवा का कोई छोटा सा नुसखा जो बहुत गुणकारक हो । लटका ।
⋙ चुटपुटिया †
संज्ञा स्त्री० [अमुध्व०] चुटपुट की आवाज करनेवाली एक प्रकार की बारूद की छोटी टिक्की जिसे बच्चे जमीन पर घिसकर छोड़ते हैं ।
⋙ चुटफुट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] फुटकर वस्तु । फुटकर चीज ।
⋙ चुटला (१)
वि० [हिं० चुटिला] दे० 'चुटीला' ।
⋙ चुटला (२)
संज्ञा पु [हिं० चोटी या सं० चूड़ा] १. एक गहना जो सिर पर चोटी या वेणी के ऊपर पहना जाता है । २. स्त्रियों की बाँधी हुई वेणी । जूरा ।
⋙ चुटाना †
क्रि० अ० [हिं० चोट से नामिक घातु] चोट खाना घायल होना ।
⋙ चुटिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोटी + इया (प्रत्य०)] बालों की वह लट जो सिर के बीचोबीच रखी जाती है । शिखा । चुंदी । (हिंदू, चीनी आदि इस प्रकार की शिखा रखते हैं ।) मुहा०—(किसी की) चुटिया हाथ में होना = (किसी का) अपने अधीन होना । (किसी का) अपने नीची दबना ।
⋙ चुटिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोट या चोटी] चोरों या ठगों का सरदार ।
⋙ चुटियाना †
क्रि० स० [हिं० चोट] १. चोट पहुँचाना । घाव करना । घायल करना । जख्मी करना । २. काटना । डसना ।
⋙ चुटियाना (१)
क्रि० अ० चोट खाया जाना । घायल होना ।
⋙ चुटिला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चुटीला (२)' ।
⋙ चुटीलना
क्रि० स० [हिं० चोट] चोट करना या पहुँचाना ।
⋙ चुटीला (१)
वि० [हिं० चोट] [वि० स्त्री० चुटिली] १. चोट खाया हुआ ।जिसे चोट लगी हो । जिसे घाव लगा हो । २. लगनेवाला । चुभनेवाला । जैसे,—उनका वाक्प्रहार बड़ा चुटीला था ।
⋙ चुटीला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोटी] छोटी चोटी । अगल बगल की पतली चोटी । मेंढ़ी । सखि, राधावर कैसा सजीला । देखो री गुइयाँ नजर नहिं लागे अँगुरिन कर चट काट चुटीला ।—हरिश्चंद्र, (शब्द०) ।
⋙ चुटीला (२)
वि० चोटी का । सिरे का । सबसे बढिया । भड़कदार ।
⋙ चुटुकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुटकी] दे० 'चुटकी' ।
⋙ चुटैल
वि० [हिं० चोट] १. जो चोट खाए हो । जिसे चोट लगी हो । घायल । २. चोट करनेवाला । आक्रमण करनेवाला ।
⋙ चुट्टना
क्रि० स० [सं० विञ्(= चमने), प्रा० चुंट; अप०, राज० चुट्ट] दे० 'चुनना' ।
⋙ चुट्टा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुटला]दे० 'चुटला' ।
⋙ चुड़ (१)
सज्ञा स्त्री० [सं० चूड्ड] दे० 'चुड्ड' ।
⋙ चुड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० चुर्ण] चूड़ा ।
⋙ चुड़ना
क्रि० अ० [हिं० चूरना] दे० 'चुरना' ।
⋙ चुड़ला
संज्ञा पुं० [हिं० चुड़ा + ला (प्रत्य०)]दे० 'चूड़ा' (हाथ में पहननेवाला) । वि० दे० 'चुरिला' ।
⋙ चुड़ाव
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली जाति ।
⋙ चुड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड़ी] दे० 'चूड़ी' ।
⋙ चुड़िहारा
संज्ञा पुं० [हिं० चूड़ि+हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० चूड़ि- हारिन] चूड़ी बनाने या बेचनेवाला ।
⋙ चुडुक्का (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चिड़िया] लाल की तरह एक छोटी सी चिड़िया । विशेष—इसकी चोंच और पैर काले, पीठ मटमैले रंग की तथा पूँछ कुछ लंबी होती है । यह स्थिर नहीं रहती; बराबर इधर उधर फुदकती रहती है ।
⋙ चुडुक्का (२)
वि० [अनु०] धूर्त । लंपट । इधर उधर बातलगानेवाला ।
⋙ चुड़ेलवाल
संज्ञा स्त्री० [देश०] वैश्यों की जाति ।
⋙ चुड़ैल
संज्ञा स्त्री० [चूड़ा (= चोटी)+ऐल (प्रत्य०)] १. भूत की स्त्री । भूतनी । डायन । प्रेतनी । पिशाचिनी । विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है कि चुड़ैलों के सिर में बड़ी भारी चोटी होती है जिसे काट लेने से वे वशीभूत हो सकती हैं । २. कुरूपा और विकराल स्त्री । ३. क्रूर स्वभाव की स्त्री । दुष्टा स्त्री ।
⋙ चुडु
संज्ञा स्त्री० [च्युत=भग] भग । योनि ।—(पंजावी) ।
⋙ चुड्डो
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड] एक प्रकार की गाली जो स्त्रियों को दी जाती है । छिनाल ।
⋙ चुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुदद्रार । गुदा का द्वारा ।
⋙ चुत पु (२)
वि० [सं० च्युत] दे० 'च्युत' ।
⋙ चुत्थना पु †
क्रि० स० [हिं० चोथना या चोथना] दे० 'चोंथना' ।
⋙ चुत्थल (१)
वि० [हि० चुहल] ठट्ठे बाज । ठठोल । विनोदप्रिय । मसखरा ।
⋙ चुत्थल (२)
संज्ञा पु० [हिं० चुत्था] दे० 'चुत्था' ।
⋙ चुत्थलपना
संज्ञा पुं० [हिं० चुत्थल+पन] ठठोली । हँसी । दिल्लगी । मसखरापन ।
⋙ चुत्था (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चोंथना] वह बटेर जिसी लड़ाई में दूसरे बटेर ने घायल किया हो ।
⋙ चुत्था (२)
वि० नोचा हुआ । चोंथा । घायल किया हुआ (बटेर) ।
⋙ चुथना
क्रि० अ० [हिं० चोथना या चोंथना] १. नोचा खसोटा जाना । २. घायल होना ।
⋙ चुथाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० (चोथाई)] चुथने की क्रिया या स्थिति ।
⋙ चुथाना
क्रि० स० [हिं० चुथना का प्रे० रूप] चोथने का काम किसी और से कराना ।
⋙ चुथौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुथना + औवल (प्रत्य०)] नोच बकोट । नोचा खसोटी ।
⋙ चुदक्कड़
वि० पुं०, स्त्री० [हिं० चोदना] १. बहुत अधिक चोदने वाला । अत्यंत कामी । २. बहुत अधिक चुदानेवाली ।
⋙ चुदना
क्रि० अ० [हिं० चोदना] चोदा जाना । पुरुष से संयुक्त होना । किसी स्त्री का मैथुन कराना ।
⋙ चुदवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुदाई' ।
⋙ चुदवाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुदवाना] वह धन जो प्रसंग करने या कराने के बदले में दिया जाय ।
⋙ चुदवाना
क्रि० अ०, कि० स० [हिं०] दे० 'चुदाना' ।
⋙ चुदवास
संज्ञा स्त्री० [हिं०चुदवाना+आस(प्रत्य०)][वि० चुदवासी] चुदवाने की इच्छा मैथुन कराने की कामना । क्रि० प्र०—लगाना ।
⋙ चुदवासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुदवाना] वह स्त्री जिसे मैथुन कराने की कामना हो ।
⋙ चुदवैया
संज्ञा पुं० [हिं० चुद + वैया (प्रत्य०)] १. वह जो चोदनेवाला है । वह जो स्त्रीप्रसंग करनेवाला है । २. पति । भतार (गाली) ।
⋙ चुदाई (१)
संज्ञा स्त्री [हिं० चोदना] चोदने का क्रिया या भाव । स्त्री- प्रसंग । मैथुन ।
⋙ चुदाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०चुदवाना] वह धन जो चुदाने के बदले में मिले ।
⋙ चुदाना (१)
क्रि० अ० [हिं० चोदना का प्रे० रूप] चोदने का काम कराना । (स्त्री का) पुरुष से प्रसंग कराना । मैथुन कराना ।
⋙ चुदाना (२)
क्रि० स० किसी स्त्री का पुरुष—समागम कराना । किसी स्त्री को पुरुष से संयुक्त कराना ।
⋙ चुदास
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोदना + आस (प्रत्य०)] चोदने की इच्छा । स्त्रीप्रसंग करने की कामना ।
⋙ चुदासा
संज्ञा पुं० [हिं० चोदना] [स्त्री० चुदासी] वह पुरुष जिसे स्त्रीप्रसंग करने की कामना हो ।
⋙ चुदैया
वि० [हिं०] दे० 'चुदवैया' ।
⋙ चुदौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोदना] चोदना । चोदाने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुनंदा †
वि० [हिं० चुनिंदा] चुना हुआ । अच्छा बढ़िया ।
⋙ चुन
संज्ञा पुं० [अं० चूर्ण, हिं० चून] १. आटा । पिसान । २. चूर । चूर्ण । बुकनी । रेत । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः समास में होता है । जैसे,—लोहचुन, बैरचुन ।
⋙ चुनचुना (१)
संज्ञा पुं० [देश०] कसेरों का लोहे का एक औजार ।
⋙ चुनवुना (२)
वि० [देश०] १. जिसके छूने या खाने से चुनचुनाहट उत्पन्न हो । जिसके स्पर्श से कुछ जलन लिए हुए पीड़ा उत्पन्न हो । जिसकी झाल या तीक्ष्णता छूने से जान पड़े । २. चिढ़नेवाला । रोनेवाला । बात बात पर पिनकनेवाला (लड़का) ।
⋙ चुनचुना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चुनचुनाना] सूत के ऐसे महीन सफेद कीड़े जो पेट में पड़ जाते है और मल के साथ निकलते हैं । बच्चों को ये कीड़े बहुत कष्ट देते । मुहा०—चुनचुना लगना = (१) मलद्वार में कृमियों के काटने के कारण जलन ओर खुजली होना । (२) बहुत बुरा लगना ।
⋙ चुनचुनाना
क्रि० अ० [अनु०] १.जीभ या चमड़े पर तीक्ष्ण लगना । कुछ जलन लिए हुए चुभने की सी पीड़ा करना । जैसे, राई का लेप बदन पर चुनचुनाता है । २. ठिनकना । रोना । चीं चीं करना (लड़ कों के लिये) ।
⋙ चुनचुनाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुनचुना + हट(प्रत्य०)] शरीर पर कुछ जलन लिए चुभने की सी पीड़ा । झाल या तीक्ष्णता जिसका अनुभव त्वचा को हो ।
⋙ चुनचुनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनचु नाना] १. चुनचुनाने की क्रिया या भाव । २. जलन ।
⋙ चुनचुनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुलचुली' ।
⋙ चुनट
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + ट (प्रत्य०)] वह सिकुड़न जो दाब पड़ने के कारण कपड़े, कागज आदि में पड़ जाती है । चुनन । चुनावट । बल । शिकन । सिलवट । विशेष— प्रायः लोग टोपी, धोती, कुरते आदि पर उँगली या चिएँ आदि से दबादबाकर शोभा के लिये चुनट डालते हैं । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।—लाना ।
⋙ चुनत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० [हिं०] 'चुनट' ।
⋙ चुनन
संज्ञा पुं० [हिं० चुनना] वह सिकुड़न जो दाब पाकर कपड़े, कागज आदि पर पड़ती है । सिलवट । शिकन । चुनट ।
⋙ चुननदार
वि० [हिं० चुनन + दार] जिसमें चुनन पड़ो हो । जो चुना गया हो ।
⋙ चुनना
क्रि० स० [सं० √ चि + नु (विकरण प्रत्य०)] १. छोटी वस्तुओं को हाथ,चोंच आदि से एक एक करके उठाना । एक एक करके इकट्ठा करना । बीनना । जैसे,—दाना चुनना । २. बहुतों में से छाँटकर अलग करना । समूह में से एक एक वस्तु पृथक् करके निकालना या रखना । जैसे,—अनाज में से कंकड़ियाँ तुनकर फेंकना । ३. बहुतों में से कुछ को पसंद करके रखना या लेना । समूह या ढेर में से यथारुचि एक को छाँटना । इच्छानुसार संग्रह करना । जैसे,—(क) इनमें जो पुस्तकें अच्छी हों उन्हें चुन लो । (ख) इस संग्रह में अच्छी अच्छी कविवाएँ चुनकर रखी गई हैं । मुहा०—चुना हुआ = बढ़िया । उत्तम । श्रेष्ठ । ४. सजाकर रखना । तरतीब से लगाना । क्रमसे स्थापित करना । सजाना । जैसे,—आलमारी में किताबें चुन दो । २. तह पर तह रखना । जोड़ाई करना । दीवार उठाना । उ०—कंकड़ चुन चुन महल उठाया लोग कहैं घर मेरा । ना घर मेरा ना घरतेरा चिड़िया रैन बसेरा ।—(शब्द०) । मुहा०—दीवार में चुनना = किसी मनुष्य को खड़ा करके उसके ऊपर ईटों की जोड़ाई करना । जीते जी किसी को दीवार में गड़वा देना । ६. चुटकी या खर्रेंसे दबा । दबाकर कपड़े में चुनन या सिकुड़न डालना । शिकन डालना । जैसे, धोती चुनना, कुरता चुनना । इत्यादि । ७. नाखून या उँगलियों से खोंटना । चुटकी से कपटना । चुटकी से नोचकर अलग करना । जैसे, फूल चुनना । उ०—माली आवत देखि कै, कलियाँ करी पुकार । फूली फूली चुन लई कालि हमारी बार ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चुनरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + री (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का लाल रँगा हुआ कपड़ा जिसके बीच में थोड़ी थोड़ी दूर पर सफेद बुंदकियाँ । विशेष—चुनरी रँगते समय कपड़े को स्थान पर चुनकर बाँध देते हैं जिससे रंग में डुबाने परबँधे हुए स्थानों पर सफेद सफेद बुँदकियौ छूट जाती हैं । अब चुनरी कई रँगों और कई प्रकार की बूटियों से बनती हैं । २. लाल रंग के एक नग का छोटा टुकड़ा । याकूत । चुन्नी ।
⋙ चुनवट
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + वट (प्रत्य०)] चुनने की क्रिया या भाव । चुनट ।
⋙ चुनवा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुनना] लड़का । शागिर्द (सुनार) ।
⋙ चुनवाँ (२)
वि० चुका हुआ । चुनिंदा । बढ़िया ।
⋙ चुनवाना
क्रि० स० [हिं० चुननाका प्रे० रूप] चुनने का काम कराना । वि० दे० 'चुनना' ।
⋙ चुनवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + वारी (प्रत्य०)] दे० 'चुनरी' । उ०—चिक्कन चिलकदार चुनवारी कारी सोधे भीनी । भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४१४ ।
⋙ चुनवारी (२)
वि० [हिं० चुनट (= चुनना)] चुन्नटवाली । उ०—मुख पर तेरे लटरी लटलटकी । काली घूँघरवाली प्यारी चुनवारी मेरे जिअ खटकी ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग २, पृ० १८० ।
⋙ चुनांचि
अव्य० [फा़० चुना + चह] दे० 'चुनांचे' । उ० चुनांचि रौला को किसी के हाथ का भोजन पाने में कोई एतराज नहीं ।—किन्नर०, पृ० १०२ ।
⋙ चुनाँचुनीं
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. ऐसा वैसा । इस तरह उस तरह । इधर उधर की बात । वह जो मतलब की बात न हो । जैसे,— अब चुनाँचुनी मत करो, रुपया लाओ । २. बनावटी बात । क्रि० प्र०—करना ।—निकालना ।
⋙ चुनांचे
अव्य० [फा़० चुनाँ + चह्] इसलिये । इस वास्ते । अतः । उ०—चुनाँचे मैं खुद गौर करता हूँ तो मुझे रणधीर सिंह की तबियत शराब और रंडी से निहायत मुतनपिकर मालूम देती है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३२ ।
⋙ चुनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + आई (प्रत्य०)] १. चुनने की क्रिया था भाव । बिनने की क्रिया या भाव । २. दीवार की जुड़ाई या उसका ढंग । ३. चुनने की मजदूरी ।
⋙ चुनाखा
संज्ञा पुं० [हिं० चूड़ी + नख] वृत्त बनाने का औजार । परकार । कपास ।
⋙ चुनाना
क्रि० स० [हिं० चुनाना का प्रे०] १. बिनवाना । इकठ्ठा करवाना । २. अलग करवाना । छँटवाना । ३. सजवाना । क्रम या ढंग से लगवाना । ४. दीवार की जोड़ाई कराना । ५. दीवार में गड़वाना । ६. चुनन शिकन डलवाना ।
⋙ चुनाव
संज्ञा पुं० [हिं० √ चुन + आव (प्रत्य०)] १. चुनने का काम । बिनने का काम । २. बहुतों में से कुछ को या किसी एक को किसी कार्य के लिये पसंद या नियुक्त करने का काम । जैसे,—इस वर्ष कौसिल का चुनाव अच्छो हुआ है । ३. बहुमत के आधार पर किसी को चुनना । यौ०—चुनावचिह्न = उम्मीदवार की मतपेटिका का चिह्नविशेष । चुनाव प्रचार = किसी को चुनने के लिये उसका प्रचार करना । चुनावयाचिका = चुने हुए व्यक्ति के चुनाव को अवैध मानने की न्यायालय में प्रार्थना करना । मुहा०—चुनाव लड़ना = चुने जाने के लिये उम्मीदवार होना ।
⋙ चुनावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुन + आवट (प्रत्य०)] चुनन । चुनट । दे० 'चुनवट' ।
⋙ चुनावना पु
क्रि० स० [हिं०] १. चुनवाना ।२. चुगाना । खिलाना (विशेषतया चिड़ियों को) ।
⋙ चुनिंदा
वि० [फा़० चुनीदह् अथवा हिं० + चुनना + इंदा (प्रत्य०)] १. चुना हुआ । छँटा हुआ । २. बहुतों में से पसंद किया हुआ । अच्छा । बढ़िया । ३. गण्य । प्रधान । खास खास ।
⋙ चुनियाँ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुन्नी] दे० 'चुन्नी' ।
⋙ चुनिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] (सुनारों की बोली में) लड़की । कन्या ।
⋙ चुनिया गोंद
संज्ञा पुं० [चूनी + गोद] ढाक का गोंद । पलास का गोंद । कमरकस । (यह औषध के काम में आता है) ।
⋙ चुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० चूर्णिका या चर्णीकृत्] १. मानिकया और किसी रत्न का बहुत छोटा टुकड़ा । चूनी । चुन्नी । उ०—चहचही चहल चहूँघा चारु चंदन की चंदक चुनीन चौक चौजन चढ़ी हैं आब ।—पद्माकर (शब्द०) । २. मोटे अन्न या दाल आदि का पीसा हुआ चूर्णा जिसे प्रायः गरीब लोग खाते हैं । यौ०—चुनी भूसी = मोटे अन्न का पीसा हुआ चूर्ण या चोकर आदि ।
⋙ चुनुयाँ
संज्ञा पुं० [हिं० चुनवाँ] दे० चुनवाँ ।
⋙ चुनैटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनौटी] दे० 'चुनौटी' ।
⋙ चुनौटिया (रंग)
संज्ञा पुं० [हिं० चुनौटी] एक रंग जो कालापन लिए लाल होता है । एक प्रकार का खैरा या काकरेजी रंग । उ०—पचरँग रँग बेंदी बनी, खरी उठी मुखजोति । पहिरैं चीर चुनौटिया चटक चौगुनी होति ।—बिहारी (शब्द०) । विशेष—यह रंग हल्दी, दर्रा, कसीस ओर पतंग (बकम) की लकड़ी के संयोग से बनता है । इसकी रँगाई लखनऊ में होती है । यह आकिलखानी रंग से कुछ अधिक काला होता है ।
⋙ चुनौटी
संज्ञा स्त्री [हिं० चूना + औटी(प्रत्य०)] डिबिया की तरह का वह बरतन जिसमें पान लगाने या तंबाकू में मिलाने के लिये गीला चूना रखा जाता है ।
⋙ चुनौती (१)
संज्ञा स्त्री० [?] १. प्रवृत्ति बढ़ानेवाली बात । उत्तेजना । बढ़ावा । चिट्टा । उ०—मदन नृपति को देश महामद बुद्धि बल बसि न सकत उर चैन । सूरदास प्रभुदूत दिनहि दिन पठवत चरित चुनौती दैन ।—सूर (शब्द०) । २. युद्ध के लिये उत्तेजना या आहवान । ललकार । उ०— (क) लछिमन अति लाघव सों नाक कान बिनु कीन्हि । ताके कर रावन कहँ मनहु चुनौती दीन्हि ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) छठे मास नहिं करि सकै बरस दिना करि लेय । कहै कबीर सो संत जन यमै चुनौती देय ।—कबीर (शब्द०) । क्रि० प्र०— देना । ३. वह आह्वान जो किसी को वादविवाद करके अथवा और किसी प्रकार किसी विषय का निर्णय या अपना पक्ष प्रमाणित करने के लिये दिया जाता है । प्रचार ।
⋙ चुनौती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनौटी] दे० 'चुनौटी' ।
⋙ चुन्नट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुनट' । यौ०—चुन्नटदार । उ०—बंगाली सज्जन रेशमी कुर्ता और चुन्नटदार धोती पहने थे और ऊपर से रेशमी चादर ओढ़े थे ।—संन्यासी, पृ० १८४ ।
⋙ चुन्नत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुनट' ।
⋙ चुन्नन
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनन] दे० चुनन' ।
⋙ चुन्ना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुरना] दे० 'चुरना' ।
⋙ चुन्ना † (२)
वि० [वि० स्त्री० चुन्नी] चुननेवाला । जैसे चुन्नी दाल ।
⋙ चुन्ना (३)
क्रि० स० [हिं० चुनना] दे० 'चुनना' ।
⋙ चुन्ना (४) †
संज्ञा पुं० [हिं० चूना] दे० 'चूना' ।
⋙ चुन्ना (५)
वि० [हिं० चुना = टपकना] चूने या रिसनेवाला । जैसे,— चुन्ना लोटा ।
⋙ चुन्नी
सज्ञा स्त्री० [सं० चूर्णिका या चूर्णीकृत] १. मानिक, याकूत या और किसी रत्न का बहुत छोटा टुकड़ा । बहुत छोटा नग । २. अनाज का चूर । भूसी मिले अन्न के टुकड़े । ३. स्त्रियों की चददर । ओढ़नी । ४. लकड़ी का बारीक चूर जो ओरी से चीरने पर निकलता है । कुनाई । ५. चमकी या सितारे जो स्त्रियाँ अपना सौदर्य बढ़ाने के लिये माथे और कपोलों पर चिपकाती हैं । उ०—तिलक सँवारि जो जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जानहुँ कचपची ।—जायसी (शब्द०) । मुहा०—चुन्नी रचना = मस्तक और कपोलों पर सितारे या चमकी लगाना ।
⋙ चुप
वि० [सं० चुप (चोपन) = मौन] जिसके मुँह से शब्द ननिकले । अवाक् । मौन । खामोश । जैसे,—चुप रहो । बहुत मत बोलो । क्रि० प्र०—करना ।—रहना ।—साधना ।—होना । यौ०—चुपचाप = (१) मौन । खामोश । (२) शांत भाव से । बिना चंचलता के । जैसे,—यह लड़का घड़ी भर भी चुपचाप नहीं बैठता । (३) बिना कुछ कहे सुने । बिना प्रकट किए । गुप्त रीति से । धीरे से । छिपे छिपे । जैसे,—(क) वह चुप- चाप रुपया लेकर चलता हुआ । (ख) उसने चुपचाप उसके हाथ में रुपए दे दिए । (४) निरुद्योग । प्रयत्नहीन । अयत्न- वान् । निठल्ला । जैसे—अब उठो, यह चुपचाप बैठने का समय नहीं है । चुपचुप = दे० 'चुपचाप' । चुपछिनाल = (१) छिपे छिपे व्यभिचार करनेवाली स्त्री । (२) छिपे छिपे कोई काम करनेवाला । गुप्त गुंडा । छिपा रुस्तम । मुहा०—चुप करना = (१) बोलने न देना । †(२) चुप होना । मौन रहना । जैसे,—चुप करके बैठो । चुपनाधना, चुप लगाना, चुप साधना = मौनावलंबन करना । खामोश रहना । †चुप मापना = मौन होना । चुपके से = दे० 'चुपका' का मुहा० ।
⋙ चुप (२)
संज्ञा स्त्री० मौन । खामोशी । जैसे,—(क) सबसे भली चुप । (ख) एक चुप सौ को हरावे । उ० ऐसी मीठी कुछ नहीं जैसी मीठी चुप । कबीर (शब्द०) ।
⋙ चुप (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पक्के लोहे की वह तलवार जिसमें टूटने से बचाने के लिये एक कच्चा लोहा लगा रहता है ।
⋙ चुपका
हि० [हिं० चुप] [वि० स्त्री० चुपकी] १. मौन । खामोश । क्रि० प्र०—होना । मुहा०—चुपके से = बिना किसी से कुछ कहे सुने । शांत भाव से । छिपाकर । गुप्त रूप से । २. चुप्पा । घुन्ना ।
⋙ चुपकाना †
क्रि० स० [हिं० चुपका] मौन करना । न बोलने देना । खामोश करना ।
⋙ चुपकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुप] मौन । खामोशी । क्रि० प्र०—साधना । मुहा०—चुपकीलगाना = मुँह से बात न निकालना । सन्नाटे में रहना ।
⋙ चुपचाप
क्रि० वि० [हिं० चुप + अनुध्व० चाप] दे० 'चुप' शब्द का यौगिक चुपचाप ।
⋙ चुपचुप
क्रि० वि० [हिं०] दे० यो० 'चुपचाप' ।
⋙ चुपचुपाते
क्रि० वि० [हिं० चुपचुपाना] दे० यौ० 'चुपचुप' ।
⋙ चुपचुपाना
क्रि० अ० [अनुध्व या हिं० चिपचिपाना] दे० 'चिपचिपाना' ।
⋙ चुपड़ना
क्रि० स० [अनुर०] १. किसी गीली वस्तु को फैलाकर लगाना । किसी विपचिपी वस्तु का लेप करना । पोतना । जैसे,—रोटी में घी चुपड़ना । दोष छिपाना । किसी दोष का आरोप दूर करने के जिये इधर उधर की बातें करना । जैसे,—उसने अपराध तो किया ही है, अब आपके चुपड़ने से क्या होता है । ३. चिकनी चुपड़ी कहना । चाप- लूसी करना । खुशामद करना ।
⋙ चुपड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० √ चुपड़ + आ (प्रत्य०)] वह जिसकी आँखों में बहुत कीचड़ हो । कीचड़ से भरी आँखोंवाला ।
⋙ चुपड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुपड़ना] १. घी लगाई हुई सादी रोटी । क्रि० प्र०—खाना । २. चिकनी बात । प्रिय वचन । खुशामद की बात ।
⋙ चुपरना †
क्रि० स० [हिं० चुपड़ना] दे० 'चुपड़ना' ।
⋙ चुपरी आलू
संज्ञा पुं० [देश०] पिंडालू या खालू जो मद्रास और मध्य भारत में अधिकता से होता है ।
⋙ चुपाना †पु
क्रि० अ० [हिं० चुप] चुप हो रहना । मौन रहना । खामोश रहना । न बोलना ।
⋙ चुपाना (२)
क्रि० स० चुप करना । शांत करना । खामोश करना ।
⋙ चुप्पा
वि० [हिं० चुप] [वि० स्त्री० चुप्पी] जो बहुत कम बोले । जो अपनी बात को मन में लिए रहे । जो बात का उत्तर जल्दी न दे । घुन्ना ।
⋙ चुप्पी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुप] मौन । खामोशी । क्रि०, प्र०—साधना ।
⋙ चुबकी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुमकी] दे० 'चुभकी' । उ०—जोग जुक्ति सूँ चूबकी लेकरि काग प टि हंसा होइ जावो ।— चरण० बानी, पृ० ६९ ।
⋙ चुबलाना
क्रि० स० [अनु०] किसी वस्तु को जीभ पर रखकर स्वाद लेने के लिए मुँह में इधर उधर डुलाना । मुँह में लेकर धीरे धीरे आस्वादन करना ।
⋙ चुबुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चिबुक' [को०] ।
⋙ चुब्र
संज्ञा पुं० [सं०] मुख । चेहरा [को०] ।
⋙ चुभकना
क्रि० अ० [अनु०] पानी में चुभ चुभ शब्द करते हुए गोता खाना । बार बार डूबना उतराना ।
⋙ चुभकाना
क्रि० स० [अनु०] पानी में गोता देना । बार बार पकड़कर डुबाना ।
⋙ चुभकी
संज्ञा स्त्री० [अनु० चुभ चुभ] १. डुब्बी । गोता । उ०— (क) लै चुभकी चलि जाति जित जित जलकेलि अधीर । कीजत केसरि नीर से तित तित केसरि नीर ।—बिहारी र०, दो १५२ । (ख) जल बिहार मिस भीर में ल चुभरी इक बार । दह भीतर मिलि परस्पर दोऊ करत बिहार । पद्माकर (शब्द०) । २. चुभकने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुभन
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुभना] १. चुभने की क्रिया का भाव । २. दर्द । टीस । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ चुभना
क्रि० स० [अनु०] १. किसी नुकीली वस्तु का दबाव पाकर किसी नरम वस्तु के भीतर घुसना । गड़ना । धँसना । जैसे,— काँटा चुभना, सुई चुभना । २. हृदय में खटकना । चित्तपर चोट पहुँचना । मन में व्यथा उत्पन्न होना । जैसे, उसकी चुभती हुई बातें क्हाँ तक सुनें । ३. मन में बैठना । हृदय पर प्रभाव करना । चित्त में बना रहना । जैसे,—उसकी बात मेरे मन में चुभगई । उ०—टरति न टारे यह छबि मन मेंचुभी ।—सूर (शब्द०) । ४. मग्न । लीन । तन्मय । उ०— जिमि बालि चल्यो लखि दुंदुभी तिमि सोह्यो मति रन चुभी ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ चुभर चुभर
क्रि० वि० [अनु०] १. ओंठ से चूस चूसकर पीने का शब्द । २. बच्चों के दूध पीने का शब्द ।
⋙ चुभलाना
क्रि० स० [अनुध्व०] दे० चुबलाना' ।
⋙ चुभवाना
क्रि० स० [हिं० चुभना का प्रे० रूप] चुभाने का कार्य दूसरे से कराना ।
⋙ चुभाना
क्रि० स० [हिं० चुभना का प्रे० रूप] धँसाना । गड़ाना ।
⋙ चुभीला पु
वि० [हिं० चुभना + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चुभीली] १. नुकीला । १. मन में खटकने या चुभनेवाला । ३. मन को आकर्षित करनेवाला ।
⋙ चुभोना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'चुभाना' ।
⋙ चुभौना पु †
वि० [हिं० चुभना + औना(प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चुभौनी] दे० 'चुभीला' ।
⋙ चुमकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूमना + कार] चूमने का सा शब्द जो प्यार दिखाने के लिये निकालते हैं । पुचकार ।
⋙ चुमकारना
क्रि० स० [हिं० चुमकार] प्यार दिखाने के लिये चूमने का सा शब्द निकालना । पुचकारना । दुलारना । जैसे,—वह बच्चे से चुमकारकर सब बातें पूछने लगा ।
⋙ चुमकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुमकार' ।
⋙ चुनवाना
क्रि० स० [हिं० चूमना का प्रे०, रूप] चूमने का काम दूसरे से कराना ।
⋙ चुमाना
क्रि० स० [हिं० चूमना] किसी दूसरे के सामने चूमने के लिये प्रस्तुत करना ।
⋙ चुमुचुमायन
संज्ञा पुं० [सं०] घाव की खुजलाहट जो उसके पूजने के लगभग होती है [को०] ।
⋙ चुमुन पु
संज्ञा पुं० [सं० चुम्बन] दे० 'चुंबन' । उ०—साजनि तोहर सिनेह भल भेल । पहिया चुमुन कि दूर गेल ।—विद्यापति, पृ० ३०९ ।
⋙ चुम्मक †
संज्ञा पुं० [सं० चुम्बक] दे० 'चुंबक' ।
⋙ चुम्मा †
संज्ञा पुं० [सं० चुम्बा, हिं० चूमना] चुंबन । बोसा । क्रि० प्र०—देना ।—लेना । यौ०—चुम्माचाटी = चुम्मा देना तथा प्यार से अंगों को चाटना ।
⋙ चुरंगी
संज्ञा पुं० [हिं० चौरंगी] चार अंग या विभागवाला । दे० 'चौंरंगी' । उ०—चुरंगी सु बीर, जुटे जुद्ध भीरं । छुटे मोष बान, मुदे आसमानं ।—पृ० रा०, १ । ६४० ।
⋙ चुर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. बाघ आदि के रहने का स्थान । माँद । २. चार पाँच आदमियों के बैठने का स्थान । बैठक । उ०—घाट, बाट, चौपार, चूर, देवल, हाट, मसान ।—भगवत रसिक ।—(शब्द०) ।
⋙ चुर (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] कागज, सूखे पत्ते आदि के मुड़ने या टूटने का शब्द ।
⋙ चुर (३)पु
[सं० प्रचुर] बहुत । अधिक । ज्यादा । उ०—प्रेम प्रशंसा विनय युत वेग वचन ये आहिं । तोहि ते होत अनंद चुर फुर उर लागत नांहि ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ चुरडल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुड़ैल] दे० 'चुड़ैल' । उ०—देखि रूप मुख परचै खरा । विधि एह चुरइल कै अपछरा ।— चित्रा० पृ० ३३ ।
⋙ चुरकट (१) †
संज्ञा पं० [हिं०] दे० 'चिरकुट' ।
⋙ चुरकट (२)
वि० [हिं०] दे० 'चुरकुट' ।
⋙ चुरकट (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चोरकट] दे० 'चोरकट' ।
⋙ चुरकना
क्रि० अ० [अनु०] १. बोलना । चहचहाना । चहकना । चीं चीं करना । चें चें करना । (व्यंग्य या तिरस्कार में बोलते हैं) । †२. चटकना । चूर होना । ३. टूटना । फटना ।
⋙ चुरकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोटी] चुटिया । शिखा ।
⋙ चरकुट
क्रि० वि० [हिं० चूर+कूटना] चकनाचूर । चूर चूर । चूर्णित । उ०—मुष्टिकौ गद मरदि चार गूर चुरकुट करयो कंस मनु कंप भयो भई रंगभूमि अनुराग रागी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चूरकुस पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चर] चूर चूर । चूरमूर । चूर्ण बुकनी । उ०—तिलक पलीता माथे दसन बज्र के बान । जेहि हेरहिं तेहि मारहिं चुरकुस करै निदान ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चुरगना
क्रि० अ० [हिं० चुरकना] १. दे० 'चुरकना' २. प्रसन्न होकर बोलना । अल्हड़पन से बोलना ।
⋙ चुरगम †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुरगना] १. प्रसन्न होकर की जानेवाली बात । २. कानाफूसीवाली बात ।
⋙ चुरचुरा
वि० [अनु०] जो खरा होने के कारण जरा सा दबाने से चूर चुर शब्द करके टूट जाय । जैसे,—कुमकुमा, पापड़ आदि ।
⋙ चुरचुराना (१) †
क्रि० अ० [अनु०] १. बहुत थोड़े आघात से चूर चूर हो जाना । २. चुर चुर शब्द करना या होना । ३. पक जाना । चुर जाना । चुरना ।
⋙ चुरचुराना (२)
क्रि० स० १. किसी खरी चीज की चूर चूर करना । २. चूर चूर शब्द उत्पन्न करना ।
⋙ चूरट
संज्ञा पुं० [हिं० चुरट] दे० चुरुट' ।
⋙ चुरना (१) †
क्रि० अ० [सं० चूर(= जलना, पकना)] १. आँच पर खौलते हुए पानी की साथ किसी वस्तु का पकना । गीली वस्तु का गरम होना । सीझना । जैसे,—दाल चुराना । २. आपस में गुप्त मंत्रणा या बातचीत होना ।
⋙ चुरना (२)
संज्ञा पुं० [चुनचुनाना] सूत के से महीन सफेद कीड़े जो पेट में पड़ जते हैं और मल के साथ निकलते हैं । ये कोड़े बच्चों को बहुत कष्ट देते हैं । चुनचुना । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ चुरना (३)
वि० चुरनेवाला । जिसकी सहायता से कोई वस्तु जल्दी से चुर जाय । जैसे,—चुरना नमक ।
⋙ चुरना † (४)
क्रि० अ० [हिं०] चोरी जाना ।
⋙ चुरमुर (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] खरी या कुरकुरी वस्तु के टूटने का शब्द । करारी चीजों के टूटने की आवाज । जैसे,—सूखी पत्तियों का चुरमुर होना । उ०—चना चुरमुर बोलै । बाबू खाने को मुँह खोलै ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ चुरमुर (२) †
वि० [हिं०] दे० 'चुरमुरा' ।
⋙ चरमराना (१)
क्रि० अ० [अनु०] चुरमुर शब्द करके टूटना ।
⋙ चुरमुराना (२)
क्रि० स० [अनु०] चुरमुर शब्द करके तोड़ना । जैसे,—चना, पापड़ आदि चुरमुराना ।
⋙ चुरवाना (१)
क्रि० स० [हिं० चुराना (= पकाना)] पकाने का काम करना ।
⋙ चुरवाना (२)
क्रि० स० [हिं० चुराना का प्रे० रूप] 'चोरबाना' ।
⋙ चुरस (१)
संज्ञ स्त्री० [देश०] कपड़े आदि की शिकन । सिलवट । सिकुड़न ।
⋙ चुरस (२)
संज्ञा पु० [हिं०] चुरुट ।
⋙ चुरा पु (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चूरा' । उ०—देखत चुरे कपूर ज्यों उपै जाय जिन लाल । छिन छिन होत खरी खरी छीन छबीली बाल ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चुरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चारी ।
⋙ चुराई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुरना] चुरने की क्रिया या भाव । पकने का काम ।
⋙ चुराई (२)
वि० [हिं० चुर + आई (प्रत्य०)] चोरी की हुई । जैसे, चुराई कविता, चुराई धोती ।
⋙ चुराना (१)
क्रि० स० [सं० चुर (= चोरी करना)] १. किसी वस्तु की उसके स्वामी के परोक्ष या अनजान में ले लेना । किसी दूसरे की वस्तु की इस प्रकार ले लेना कि उसे खबर न हो । गुप्त रूप से पराई वस्तु हरण करना । चोरी करना । मुहा०—चित चुराना = मन को आकर्षित करना । मन मोहित करना । २. परोक्ष में करना । लोगों की दृष्टि से बचाना । छिपाना । जैसे,—वह लड़का पैसा हाथ में चुराए है । मुहा०—आँख चुराना = नजर बचाना । सामने मुँह न करना । जी चुराना = (१) वशीभूत करना । (२) काम की उपेक्षा करना । मन लगाकर काम न करना । ३. किसी वस्तु के देने या काम के करने में कसर । जैसे,— (क) यह गाय दुध चुराती है । (ख) यह गवैया सुर चुराता है । मुहा०—जाँगर चुराना = काम करने में कसर रखना । ४. किसी के भाव आदि अपना लेना । भाव चुराना ।
⋙ चुरावना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'चुराना' । उ० —मोरि मुखै मुसकाय के चारु चितै 'मतिराम' चुरावन लागी ।—मति० ग्रं०, पृ० ३८३ ।
⋙ चुरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चुरी' [को०] ।
⋙ चुरिला †
संज्ञा पुं० [हिं० चुड़ला] १. काँच का मोटा टुकड़ा जिससे लड़के तख्ती या पट्टी को रगड़कर चमकाते हैं । २. लोहे की एक चूडी जिसमें तागा बाँधकर नचनी के बीचो बीच में बाँध देते हैं । (जुलाहे) ।
⋙ चुरिहार †
संज्ञा पुं० [हिं० चुड़िहारा] दे० 'चुड़िहारा' ।
⋙ चुरिहारा
संज्ञा पुं० [हिं० चुड़िहारा] दे० 'चुड़िहारा' ।
⋙ चुरी पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड़ी] दे० 'चूड़ी' । उ०— (क) किंकिनी कटि कुनित कंकन कर चुरी झनकार । हृदय चौकी चमकि बैठी सुभग मोतिन हार ।—सूर (शब्द०) । (ख) घर घर हिंदुनि तुरुकिनी देति असीस सराहि । पतिन राखि चादर, चुरी चै राखी जयसाहि ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा कुँआ ।
⋙ चुरुट
संज्ञा पुं० [अ० शेरूट (= चेरूट)] तंबाकू के पत्ते या चूर की बत्ती जिसका धूआँ लोग पीते हैं । इसका दोनों सिरा कटा रहता है । सिगार का केवल एक सिरा कटा रहता है ।
⋙ चुरू पु
संज्ञा पुं० [सं० चुलुक] चुल्लू । उ०—(क) हँसि जननी चुरु भरवाए । तब कछु कछु मुख पखराए ।—सूर (शब्द०) । (ख) धरि तुष्टी झारी जल ल्याई । भरचो चुरू खरिका लै आई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चुरैल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुड़ैल] दे० 'चुड़ैल' ।
⋙ चुट
संज्ञा पुं० [हिं० चुरुट] दे० 'चुरुट' ।
⋙ चुस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुरुट] दे० 'चुरुट' ।
⋙ चुर्स
संज्ञा पु० [हिं० चुरस] दे० 'चुरस' ।
⋙ चुल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चल (= चंचल) १. किसी अंग के मले या सहलाए जाने की इच्छा । खुजलाहट । २. मस्ती । कामोद्वेग । मुहा०—चुल उठना = (१) खुजलाहट होना । (२) प्रसंग की इच्छा होना । काम का वेग होना । चुल मिटाना = कामवासना तृप्त करना ।
⋙ चल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुर] दे० 'चुर' (माँद) ।
⋙ चुलका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिश की एक नदी का नाम ।
⋙ चुलचुलाना
क्रि० अ० [हिं० चुल] खुजलाहट होना । चुल होना ।
⋙ चुलचुलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुलचुलाना] चुल या खुजली उठने का भाव । चुल । खुजलाहट । क्रि० प्र०—उठना मिटना । मिटाना ।—होना ।
⋙ चुलचुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुलचुलाना] चुल । खुजलाहट । क्रि० प्र०—उठना । मिटना ।—मिटाना
⋙ चुलबुल
संज्ञा स्त्री० [सं० चल + बल अथवा चलोद्वल] चुलबुलाहट । चंचलता । चपलता ।
⋙ चुलबुला
वि० [सं० चल + बल] [वि० स्त्री० चुलबुली] १. जिसके अंग उमंग के कारण बहुत अधिक हिलते डोलते रहें । चंचल । चपल । २. नटखट ।
⋙ चुलबुलाना
क्रि० अ० [हिं० चुलबुल] १. चुलबुल करना । रह रहकर हिलना डोलना । २. चंचल होना । चपलता करना ।
⋙ चुलबुलापन
संज्ञा पुं० [हिं० चुलबुल + पन(प्रत्य०)] चंचलता । चपलता । शोखी ।
⋙ चुलबुलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुलबुल + आहट (प्रत्य०)] चंचलता । चरलता । शोखी ।
⋙ चुलबुलिया
वि० [हिं० चुलबुला + इया (प्रत्य०)] दे० 'चुलबुल' ।
⋙ चुलबुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुलबुल + ई (प्रत्य०)] चंचलता । चपलता । शोखी ।
⋙ चुलहाया †
वि० [हिं० चुल + हाया (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चुलहाई] कामोद्वेग युक्त । काम की प्रबलतावाला ।
⋙ चुलाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'चुवाना' ।
⋙ चुलाव (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वह पुलाव जिसमें मांस न पड़ा हो ।
⋙ चुलाव (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चुवाना] चलाने या चुवाने का भाव या क्रिया ।
⋙ चुलियाला
संज्ञा पुं० [? अथवा देश०] एक मात्रिक छंद का नाम जिसमें १३ और १६ के विश्राम से २९ मात्राएँ होती हैं । इसके अंत में एक जगण और एक लघु होता है । विशेष—दोहे के अंत में एक जगण और एक लघु रखने से यह छंद सिद्ध होता है । कोई इसके दो और कोई चार पद मानते हैं । जो दो पद मानते हैं; वे दोहे के अंत में एक जगण और एक लघु रखते हैं । जो चार पद मानने हैं, वे दोहे के अंत में एक यगण रखते हैं । जैसे,—(क) मेरी बिनती मानि कै हरि जू देखो नेक दया करि । नाहीं तुम्हारी जात है दुख हरिवे की टेक सदा कर (ख) हरि प्रभु माधव बीर बर मन मोहन गोपति अविनासी । कर मुरलीधर धीर नरबरदायक काटत भव फाँसो । जम बिपदाहर राम प्रिय मन भावन संतन घटबासी । अब मम ओर निहारि दुख दारिद हटि कीने सुखरासी ।
⋙ चुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूल्लू] १. दान करने के लिये हथेली में जल लेकर दिया जाने वाला संकल्प । २. चुल्लू । चुल्ली ।
⋙ चुलुपं
संज्ञा पुं० [सं० चुलुम्प] बच्चों का लाड़ प्यार करना । शिशुओं का लालन [को०] ।
⋙ चुलुंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० चुलुम्पा] बकरी [को०] ।
⋙ चुलुंपी
संज्ञा पुं० [सं० चुलुम्पिन्] एक प्रकार का मत्स्य [को०] ।
⋙ चुलुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. उर्द के डूबने भर को जल । २. भारी दलदल । गहरा कीचड़ा । ३. गहरी की हुई हथेली जिसमें पानी इत्यादि पी सकें । चुल्लू । ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का बरतन जो नापने के काम में आता था । ५. एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम । ६. उड़द का धोवन (को०) ।
⋙ चुलुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिलका वर्णन महाभारत में आया है ।
⋙ चुलुकी
संज्ञा पुं० [सं० चुलुकिन्] जलसूकर (को०) ।
⋙ चुलुपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकरी [को०] ।
⋙ चूलूक पु
संज्ञा पुं० [हिं० चुलुक] दे० 'चुल्लु' ।
⋙ चुल्ल (१)
वि० [सं०] कीचड़ भरी आँखवाला [को०] ।
⋙ चुल्ल (२)
संज्ञा पुं० कीचड़ भरी आँख [को०] ।
⋙ चुल्ल (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुल] दे० 'चुल' ।
⋙ चुल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] चुल्लू [को०] ।
⋙ चुल्लपन
संज्ञा पुं० [हिं० चुल्ला + पन (प्रत्य०)] चंचलता । नट— खटपना । पाजीपन । शरारतीपन ।
⋙ चुल्लकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शिशुमार या सूँस नाम का एक जलजंतु । २. एक प्रकार का जलपात्र (को०) ।
⋙ चुल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ा(= वलय)] काँच का छोटा छल्ला जो जुलाहों के करघे में लगा रहता है ।
⋙ चुल्ला (२)
वि० [अनु०] चिलबिल्ला । नटखट । पाजी ।
⋙ चुल्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चुल्ली' [को०] ।
⋙ चुल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्न्याधान । चूल्हा । २. चिता । ३. तीन विभागोंवाला विशाल कक्ष जिसका एक विभाग उत्तरमुख, दूसरा पूर्वमुख और तीसरा पश्विममुखी हो (को०) ।
⋙ चुल्ली (२) †
वि० [हिं चुल्ल + ई (प्रत्य०)] चिलबिला । नटखट ।
⋙ चुल्ली (३) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुल्लू' ।
⋙ चुल्लू
संज्ञा पुं० [सं० चुलुक] गहरी की हुई हथेली जिसमें भरकर पानी आदि पी सकें । एक हाथ की हथेली का गड्ढा । (इस शब्द का प्रयोग पानी आदि द्रव पदार्थों के ही संबंध में होता है । जैसे, चुल्लू भर पानी, चुल्लू से दूधपीना, इत्यादि ।) यौ०—चुल्लू भर = उतना (जल, दूध आदि) जितना चुल्लू में आ सके । मुहा०—चुल्लू चुल्लू साधना = थोड़ा थोड़ा करके अभ्यास करना । चुल्लू भर पानी में डूब मरी = मुँह न दिखाओ । लज्जा के मारे मर जाओ । (जब कोई अत्यंत अनुचित कार्य करता है तब उसके प्रति धिक्कार के रूप में यह मुहा० बोलते हैं) । चुल्लू भर लहु पीना = शत्रु का वध करने के बाद चुल्लू भर खून पीना (प्राचीन काल में इसका चलन था । महाभारत के अनुसार भीम ने दुःशासन के साथ यही किया था) । चुल्लू में उल्लू होना = बहुत थोड़ी सी भाँग या शराब में बेसुध होना । चुल्लू में समुद्र न समाना = छोटे पात्र में बहुत वस्तु न आना । कुपात्र या क्षुद्र मनुष्य से कोई बड़ा या अच्छा काम न हो सकना । विशेष—यद्यपि कुछ लोग दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाई हुई अँजली को भी चुल्लू कहते हैं, पर यह ठीक नहीं है ।
⋙ चुल्हौना
संज्ञा पुं० [हिं० चूल्हा + औना(प्रत्य०)] दे० 'चूल्हा' । उ०—समधी के घर समधी आयो, आयो बहू को भाई । गोड़ चुल्हौने दै रहे, चरखा दियो उड़ाई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चुवना (१)
क्रि० अ० [हिं० चुअना] दे० 'चूना' ।
⋙ चुवना (२)
क्रि० स० [हिं० चुगना] दे० 'चुगना' ।
⋙ चुवना (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चुअना' (३) ।
⋙ चुवा †
संज्ञा पुं० [देश०] हड्डी की नली के अंदर का माँस । मज्जा । भेजा ।
⋙ चुवा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौआ (चार पैरोंवाला)] पशु । चौपाया । उ०—चारु चुवा चहुँ ओर चलैं लपटैं झपटैं सो तमीचर तौकी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चुवा (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चोवा] दे० 'चोवा' । उ०—चंदन खौरि चुवा ही की बेंदी नवेली तिया सब संग सँघाती ।—गंग०, पृ० ३७ ।
⋙ चुवाना
क्रि० स० [हिं० चूना का प्रे० रूप] टपकाना । गिराना । बूँद बूँद करके गिराना । थोड़ा थोड़ा गिराना । उ०—(क) । रीभत गाय बच्छ हित सुधि करि प्रेम उमँगि थन दूध चुवावत । जसुमति बोलि उठी हरषित ह्वै कान्हौ धेनु चराये आवत ।—सूर (शब्द०) । (ख) कोई मुख सीतल नीर चुवावैं । कोइ अँचल सों पवन डोलावैं ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चुवावनि पु
संज्ञ स्त्री० [हिं० चुवाना] चुवाने का कार्य या स्थिति । उ०—चुसनि, चुवावनि, चाटनि, चूमनि । नहिं कहि परति प्रेम की घूरनि ।—नंद ग्रं०, पृ० २६६ ।
⋙ चुशमा पु
संज्ञा पुं० [हिं० चश्मा] दे० 'चश्मा' । सोता । उ० दुइ चुशमे पानी के करे । पानी साथ समपूर्ण भरे ।—प्राण०, पृ० २२ ।
⋙ चुसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूसना] चूसने का कार्य या स्थिति । उ०—चुसनि चुवावनि चाटनि चूमनि । नहिं कहि परति प्रेम की घूरनि ।—नंद० ग्रं०, पृ० २६६ ।
⋙ चुस पु
वि० [सं० चोष्य] दे० 'चोष्य' । उ०—चारि प्रकार बिचित्र सुव्यंजन । भक्ष्य भोज्य चुस, लिह मनरंजन ।—नद० ग्रं०, पृ० ३०२ ।
⋙ चुसकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चसक] मद्य पीने का पात्र । पानपात्र । प्याला ।—(डिं०) ।
⋙ चुसकी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूसना] १. औठ से किसी पीने की चीज को सुड़कने की क्रिया । ओठ से लगाकर थोड़ा थोड़ा करके पीने की क्रिया । सुड़का । २. उतना जितना एक बार सुड़का जाय । घूँट । दम । जैसे,—दो चुसकियाँ और लेने दो । क्रि० प्र०—लगाना ।—लेना ।
⋙ चुसना (१)
क्रि० अ० [हिं० चूसना] १. चूसा जाना । ओठ से खींचकर पिया जाना । चचोड़ा जाना । २. निचुड़ जाना । गर जाना । निकल जाना । ३. सारहीन होना । शक्तिहीन होना । ४. धनशून्य होना । देते देते पास में कुछ रह न जाना । जैसे,—हम तो चुस गए, अब हमारे पास रहा क्या ? संयों० क्रि०—जाना ।
⋙ चुसना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चुसनी] बड़ी चुसनी ।
⋙ चुसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूसना] १. बच्चों का एक खिलौना जिसे वे मुँह में डालकर चूसते हैं । २. दूध पिलाने की शीशी ।
⋙ चुसवाना
क्रि० स० [हिं० चूसना का प्रे० रूप] चूसने का काम कराना । चूसने में प्रवृत्त करना । चूसने देना ।
⋙ चुसाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०चूसना] चूसने की क्रिया या भाव ।
⋙ चुसाना
क्रि० स० [हिं० चूसना का प्रे० रूप] चूसने का काम कराना । चूसने में प्रवृत्त करना । चूसने देना ।
⋙ चुसौअल
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ चुस + औवल (प्रत्य०)] दे० 'चुसौवल' ।
⋙ चुसौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूसना] १. अधिकता से चूसने की क्रिया । २. बहुत से आदमियों द्वारा चूसने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—मचना ।—होना ।
⋙ चुस्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुसकी] दे० 'चुसकी' । उ०—क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा ।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ४६२ ।
⋙ चुस्त (१)
वि० [फ़ा०] १. कसा हुआ । जो ढोला न हो । संकुचित । जैसे,—यह अंगा बहुत चुस्त है । २. जिसमें आलस्य न हो । तत्पर । फुरतीला । चलता । यौ०—चुस्त चालाक = तेज और समझदार । चुस्तदम = दृढ़ व्यक्तित्व जिसका हो । जिसके निश्चय में ढीलढाल न हो । दृढ़ निश्चयवाला । उ०—इस राह पहुँचै चुस्तदम करि नाँव उसका लेह ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २८४ । ३. दृढ़ । मजबूत ।
⋙ चुस्त (२)
संज्ञा पुं० जहाज का वह भाग जो अदर की ओर झुका हो । मूढ़ा ।—(लश०) ।
⋙ चुस्त (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूने हुए मांस का जला हुआ भाग । २. भूना हुआ मांस । ३. तुष । भूसी । ४. छाल । छिलका [को०] ।
⋙ चुस्ता
संज्ञा पुं० [सं० चुस्त(= मांसपिंडविशेष)] बकरे के बच्चे का आमाशय जिसमें पिया हुआ दूध भरा रहता है ।
⋙ चुस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. फुरती । तेजी । २. कसावट । तंगी । ३. दृढ़ता मजबूती ।
⋙ चुहचाँना पु †
क्रि० अ० [अनुध्व०] चिड़ियों का बोलना । चहचहाना । उ०—चिरैया चुहचाँनी, सुन चकई की बानी, कहत जसोदा रानी जागौ मेरे लाला ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३७ ।
⋙ चुहँटी पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] चुटकी । उ०—चुहँटी चिबुक चाँपि चूमि लोल लोचन कौ रस मैं विरस कह्यो बचन मलीनो है ।—(शब्द०) ।
⋙ चुहचाहट †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चिड़ियों का शब्द । चहकार ।
⋙ चुहचुहा
वि० [अनु०] [वि० स्त्री० चुहचुही] १. चुहचुहाता हुआ । रसीला । २. चटकीला । शोख । उ०—पहिरे चीर सुहि सुरंग सारी चुहुचुहु चूनरी बहुरंगनो । नील लहँगा लाल चोली कसि उबटि केसरि सुरं गनो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चुहचुहाहट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहचुह + आहट (प्रत्य०)] दे० 'चुहचाहट' । उ०—मैं तेरी हूँ इसकी साखी दिला जा, जरा चुह चुहाहट सुनने को आजा ।—हिम०, पृ० ४८ ।
⋙ चुहचुहाता
वि० [हिं० चुहचुहाना] रसभरा । रसीला । सरस । रँगीला । मजेदार । जैसे,—कोई चुहचुहाता । कवित सुनाइए ।
⋙ चुहचुहाना
क्रि० अ० [अनु०] १. रस टपकना । चटकीला लगना । २. चिड़ियों का बोलना । चहकार मचाना । कलरव करना । चहचहाना । उ०—चिरई चुहचुहानी चंद की ज्योति परानी रजनी बिहानी प्राची पिय री प्रवीन की ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चुहचुही (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चमकोली काले रंग की एक बहुत छोटी चिड़िया जो प्रायः फूलों पर बैठती है । विशेष—यह देखने में बहुत चंचल और तेज होती है । बोली भी इसकी प्यारी होती है । इसे 'फुलसुँघनी' भी कहते हैं ।
⋙ चुहचुही (२)
वि० [अनु०] दे० 'चुहचुहा' उ०—चारु चुहचुही मँजी एड़िन ललाई लखें, चपरि चलत च्वै बरन बूकी रोरी को ।—घनानंद, पृ० २०८ ।
⋙ चुहचूही पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहचुही] दे० 'चुहचुही' । उ०— भोर होत बोलहिं चुहचूही । बोलै पाँडुक एकैं तूही ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ चुहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहटना] १. चुहटने की क्रिया या भाव । २. शपथ । कसम । सौंगंध ।
⋙ चुहटना (१)
क्रि० स० [देश०] १. रौंदना । कुचलना । उ०—फिरिफेरी अहुटत चलत चुहटत दुहु पहटत आइ ।—सूदन (शब्द०) । २. चिकोटी काटना ।
⋙ चुहटना (२)
क्रि० अ० चिमटना ।
⋙ चुहटनी †
संज्ञा [देश०] घुँघची । गुंजा ।
⋙ चुहड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'चुहड़ा' ।
⋙ चुहड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० चुहड़ी] भंगी १. हलालखोर । २. नीच । धोखेबाज व्याक्ति । वह व्यक्ति जो फरेब रचता हो । (ला०) ।
⋙ चुहना †
क्रि० स० [सं० चूषण] दाँतों से दबाकर किसी वस्तु के रस को चूसना । जैसे,—ऊख चुहना ।
⋙ चुहरवाजी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहलबाजी] दे० 'चुहलबाजी' । उ०—संत की चाल संसार से भिन्न है, सकल संसार में चुहरबाजी ।—कबीर० रे०, पृ० १६ ।
⋙ चुहल
संज्ञा स्त्री० [अनु० चुहचुह्(= चिड़ियों की बोली)] हँसी । ठठोली । विनोद । मनोरंजन । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।—होना ।
⋙ चुहलपन
संज्ञा पुं० [हिं० चुहल + पन (प्रत्य०)] दे० 'चुहलबाजी' ।
⋙ चुहलबाज
वि० [हिं० चुहल + फ़ा० बाज(प्रत्य०)] ठठोल । मसखरा । दिल्लगीबाज । ठट्ठेबाज । विनोदी ।
⋙ चुहलबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहलबाज + ई (प्रत्य०)] हँसी । ठठोली । दिल्लगी । मसखरापन ।
⋙ चुहादंती
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूहादती] दे० 'चूहादंती' ।
⋙ चुहिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूहा] चूहा का स्त्री० और अल्पा० रूप ।
⋙ चुहिल
वि० [हिं० चुहचुहाना] जहाँ रौनक न हो । रमणीक । विशेष—स्थान के संबंध में बोलते हैं ।
⋙ चुहिली
संज्ञा स्त्री० [देश०] चिकनी सुपारी ।
⋙ चुहुँटना पु (१)
क्रि० स० [अनु०] १. चिकोटी काटना । २. चुटकी से पकड़ना ।
⋙ चुहुँटना (२)
वि० १. चिकोटी काटनेवाला । २. कसकर पकड़ने या दबानेवाला ।
⋙ चुहुकना †
क्रि० स० [सं० चूष] चूसना ।
⋙ चुहुटना (१) †
क्रि० अ० [हिं० चिमटना] चिमटना । चिपकना । पकड़ना ।
⋙ चुहुटना (२)
वि० [वि० स्त्री० चुहुटनी] चिमटनेवाला । चिपकने या पकड़नेवाला । उ०—हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहिं दिना लाल । राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहुटनी माल ।— बिहारी (शब्द०) । विशेष—यहाँ चुहुटनी शब्द श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ घुँघची या गुंजा दूसरा अर्थ चिपकने या पकड़नेवाली है ।
⋙ चुहुटनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] गुंची । घुँघची । उ०—हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहि दिना लाल । राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहुटनी माल ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चूँ
संज्ञा पुं० [अनु०] १. छोटी चिड़ियों या उनके बच्चों के बोलने का शब्द । उ०—चूँ चूँ चूँ चूँ चूँ चूँ क्या सब बेचूँ बेचूँ करती हैं ।—नजीर (शब्द०) । २. चूँ शब्द । मुहा०—चूँ तक न करना = चुप रहना । एकदम मौन रहना । चूँ न होना या चूँ तक न होना = सन्नाटा होना । शांति होना । कोई उज्र या विरोध न करना । उ०—महरी—ओर आदमी इधर उधर से शड़ाप शड़ाप कोड़ जमाते हैं । कोई चूँ तक नहीं करता ।—फसाना०, भा० ३, पृ० ४ ।
⋙ चूँ
क्रि० वि० [फ़ा०] १. किस कारण से । क्यों । उ०—दादू दृग दीदार हिये के चूँ बेचूँ बेज्वाबी । घट०, पृ० २११ । २. जो । यदि । अगर (को०) । ३. सदृश । समान (को०) । यौ०—चूँ चाँ = दे० 'चूँचरा' ।
⋙ चूँकि
क्रि० वि० [फ़ा०] इस कारण से कि । क्योंकि । इसलिये कि ।
⋙ चूँच पु †
संज्ञा पुं० [सं० चञ्च] दे० 'चोंच' । उ०—तान चूँच सो पकरि के, चित चिरिया हो जाय ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५२ ।
⋙ चूँचरा
संज्ञा पुं० [फ़ा० चूँ (= क्यों)+(चरा = क्या)] १. प्रति- वाद । विरोध । २. आपत्ति । उज्र । ३. बहाना । मिस ।
⋙ चूँची †
संज्ञा स्त्री० [सं० चुचि] दे० 'चूची' ।
⋙ चूँचूँ
संज्ञा पुं० [अनु०] १. चिड़ियों के बोलने का शब्द । दे० 'चूँ' । क्रि० प्र०—चूँ चूँ होना = चिड़ियों का चहचहाना । २. किसी प्रकार का चूँ चूँ शब्द । ३. कोलाहल । निरर्थक शब्द । बेमतलब की बात । यौ०—चूँ चूँ का मुरब्बा = अनेक बेमेल चीजों का मेल । मुहा०—चूँ चूँ करना = बेमतलब की बात करना । चूँ चूँ लगाना = बेमतलब का शोर करना । ४. एक प्रकार का खिलौना जिसे दबाने या खींचने से चूँ चूँ शब्द होता है ।
⋙ चूँटना
क्रि० स० [हिं० चुटकना] तोड़ने कि लियें चुटकी से पकड़ना ।
⋙ चूँदरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूनरी] दे० 'चुनरी' । उ०—दै उर जेब जवाहिर की चुनि चोप सों चूँदरी लै पहिरावत । (शब्द०) ।
⋙ चूँदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुँदी] दे० 'चुँदी' ।
⋙ चूँप
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोप] उत्साह । चोप । उमंग । उ०— चावंडदास का भैरूँदास भैरूँ के रूप । चावडसी चद्रं प्रहास अरी ग्रास की चूँप ।—रा० रू, पृ० १५१ ।
⋙ चूअरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] जरदालू । खूबानी ।
⋙ चूऊ
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रियों के पहनने का एक प्रकार का महीन ऊनी कपड़ा जो पहाड़ी देशों में बनता है ।
⋙ चूक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूकना] १. भूल । गलती । उ०—इह जानि चूक चिंत्यौ नृपति रहै बत्त सुबिहान कौ ।—पृ० रा०, १० । १० । क्रि० प्र०—करना ।—जाना ।—पड़ना ।—होना । २. दरार । दर्ज । शिगाफ ।—(लश०) । ३. छल । कपट । फरेब । दगा । धोखा । उ०—(क) अहौ हरि बलि सों चूक करी ।—परमानंद दास (शब्द०) । (ख) धरम राज सौ चूककरि दुरजोधन लै लीन्ह । राजपाट अरु बित्त सब बनबास दै दीन्ह ।—लल्लू (शब्द०) ।
⋙ चूक (२)
संज्ञा पुं० [सं० चुक] १. नीबू, इमली, आम, अनार या आँवले आदि किसी खट्टे फल के रस को गाढ़ा करके बनाया हुआ एक पदार्थ जो अत्यंत खट्टा होता है । वैद्यक में इसे दीपन और पाचन कहा है । २. एक प्रकार का खट्टा साग । चूका ।
⋙ चूक (३)
वि० बहुत अधिक खट्टा । इतना खट्टा जो खाया न जा सके ।
⋙ चूकना
क्रि० अ० [सं० च्युत्कृ, प्रा० चुक्कि] १. भूल करना । गलती करना । २. लक्ष्यभ्रष्ट होना । २. सुअवसर खो देना । उ०—समय चूकि पुनि का पछिताने ।—तुलसी (शब्द०) । †४. समाप्त होना । चुकना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ चूका
संज्ञा पुं० [सं० चुक] एक प्रकार का खट्टा साग जिसे चूक भी कहते हैं । वैद्यक में इसे हलका, रुचिकारक और दीपक माना है ।
⋙ चूखना पु
क्रि० स० [सं० चूषण, हिं० चुहुकना] चूसना । उ०—देखैं परहित लागि प्रेम रस चूखैं ऊखन ।—पलटू०, भा०१, पृ० ११ ।
⋙ चूघना पु
क्रि स० [हिं० चोंघना] चोंघना । चुगना । आहार करना । उ०—कह कबीर परगट भईखेड़ । ले ले कौ चूघें नित भेड़ ।—कबीर ग्रं०, पृ० २७४ ।
⋙ चूच पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चु] दे० 'चोंच' उ०—जैसे पंखी चूच करि चुगत अहार पुनि तैसे ज्ञानी उर में उपासना धरत हैं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६४० ।
⋙ चूची
संज्ञा स्त्री० [सं० चुचि या चू चुक] १. स्तन का अग्रभाग । कुच के ऊपर की घुंड़ी । २. स्त्री की छाती । स्तन । कुच । यौ०—चूचीपीता = बहुत छोटा (बच्चा) । नासमझ । नादान । मुहा०—चूची पीना = चूची को मुँह में लगाकर उसका दूध पीना । स्तनपान करना । चूची मलना = (पुरुष का) संभोग के समय आनंदवृद्धि के लिये स्त्री के स्तन को हाथों से दबाना, मलना या मर्दन करना ।
⋙ चुचुक
संज्ञा पुं० [सं०] कुच का अग्र भाग । चूची की ढेपनी । उ०—चूचुक सारी परसि रहे तेहि निहुरि लखति सी । सुकवि श्याम को निरखि निरखि विहँसति सकुचति सी ।— व्यास (शब्द०) ।
⋙ चूजा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० चूजह] मुरगी का बच्चा ।
⋙ चूजा (२)
वि० जिसकी अवस्था अधिक न हो । कमसिन । (बाजारू) ।
⋙ चूड़, चूड़क
संज्ञा पुं० [सं० चूड़, चूड़क] १. चोटी । शिखा । २. मस्तक पर की कलगी, जैसी मुरगे या मोर के सिर पर होती है । ३. शंखचूड़ नामक दैत्य । ४. खंभे, मकान, या पहाड़ आदि का ऊपरी भाग । कंकण । ५. छोटा कूआँ ।
⋙ चूड़ांत (१)
वि० [सं० चूड़ान्त] चरम सीमा । परकाष्ठा ।
⋙ चूड़ांत (२)
क्रि० वि० अत्यंत । बहुत अधिक ।
⋙ चूड़ा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चूड़ा] १. चोटी । शिखा । चुरकी । यौ०—चूड़ाकरण । चूड़ाकमे । चूड़ामणि । चूणारत्न । २. मोर के सिर पर की चोटी । ३. छाजन आदि में वह सबसे ऊँचा भाग जिसे मँगरा कहते हैं । ४. कूआँ । ५. घुँघची । ६. मस्तक । ७. प्रधान (नायक या नायिका) । अग्र । श्रेष्ठ । ८. बाँह में पहनने का एक प्रकार का अलंकार । ९. चूड़ाकरण नाम का संस्कार । १०. पर्वतशिखर । पहाड़ का शृंग (को०) ।
⋙ चूड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ा (= बाहुभूषण)] १. कंकण । कड़ा । वलय । २. हाथों में पहनने के लिये छोटी बड़ी बहुत सी चूड़ियों का समूह जो किसी जाति में नववधू और किसी किसी जाती में प्रायः सब विवाहिता स्त्रियाँ पहनती हैं । विशेष—चूड़े प्रायः हाथी दाँत के बनते हैं । उनमें की सबसे छोटी चूड़ी पहुँचे के पास रहती है और बीच की चूड़ियाँ गावदुम रहती हैं ।
⋙ चूड़ा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चुहडा] दे० 'चुहड़ा' ।
⋙ चूड़ा (४)
संज्ञा पुं० [हिं० चिउड़ा] दे० 'चिउड़ा' ।
⋙ चूड़ाकरण
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ाकरण] किसी बच्चे का पहले पहल सिर मुड़वाकर चोटी रखवाना । मुंडन । विशेष—हिंदुऔं के १६ संस्कारों में से यह भी एक संस्कार है । यह बच्चे की उत्पत्ति से तीसरे या पाँचवे वर्ष होता है ।
⋙ चूड़ाकर्म
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ाकर्मन्] चूड़ाकरण ।
⋙ चूड़ामाणि
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ामणि] १. सिर में पहनने का शीशफूल नाम का एक गहना । बीज । २. सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति । सबमें श्रेष्ठ । सरदार । मुखिया । अग्रगराय । ३. घुँघची । गुंजा ।
⋙ चूड़ाम्ल
संज्ञा पुं० [सं० चूड़ाम्ल] इमली ।
⋙ चूड़ार
वि० [सं० चूडार] १. जिसकी मस्तक पर चूड़ा हो । (मनुष्य) । २. (पक्षी) जिसके सस्तक पर कलँगी हो । [को०] ।
⋙ चूड़ाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० चूडाल] सिर [को०] ।
⋙ चूड़ाल (२)
वि० चूड़ायुक्त [को०] ।
⋙ चूड़ाला
संज्ञा स्त्री० [सं० चूडाला] १. सफेद घुँघची । २. नागर- मोथा । ३. एक प्रकार की घास जिसे निर्विषी भी कहते हैं ।
⋙ चूड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० चूड़ी + इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा ।
⋙ चूड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड़ा] १. हाथ में पहनने का एक प्रकार का वृत्ताकार गहना जो लाख, काँच, चाँदी या सोने आदि का बनता है । विशेष—भारतीय स्त्रियाँ चूड़ी को सौभाग्य चिह्न समझती हैं और प्रत्येक हाथ में कई कई चूड़ियाँ पहनती हें । पहनी हुई चूड़ी का टूट जाना अशुभ समझा जाता है । युरोप, अमेरिका आदि की स्त्रियाँ केवल दाहिने हाथ में और प्रायः एक ही चूडी पहनती हैं पर अब विदेशों में भी चूडी पहनने का रवाज हो गया है । क्रि० प्र०—उतारना ।—चढ़ाना ।—पहनना । पहनाना । मुहा०—चूड़ियाँ ठढी करना या तोड़ना = पति के मरने के समय स्त्री का अपनी चूड़ियाँ उतारना या तोड़ना । वैधव्य का चिह्नधारण करना । चूडियाँ पहनना = स्त्रियों का वेश धारण करना । औरत बनना (व्यंग्य और हास्य में) । जैसे,—जब तुम इतना भी नहीं कर सकते, तो चूड़ियाँ पहन लो । (किसी पर या किसी के नाम की) चूडियाँ पहनना = स्त्री का किसी को अपना उपपति बना लेना । स्त्री का किसी के घर बैठ जाना । चूडियाँ पहनाना = विधवा स्त्री से अथवा विधवा स्त्री का विवाह कराना । चूड़ियाँ बढ़ाना—चूड़ियाँ उतारना । चूड़ियों को हाथों से अलग करना । (चूड़ियों के साथ 'उतारना' शब्द का प्रयोग स्त्रियों में अनुचित और अशुभ समझा जाता है ।) २. वह मंडलाकार पदार्थ जिसकी परिधि मात्र हो और जिसके मध्य का स्थान बिल्कुल खाली हो । वृत्ताकार पदार्थ । जैसे, मशीन की चूड़ी (जो किसी पुरजे को खसकने से बचाने के लिये पहनाई जाती है; । ३. फोनोग्राफ या ग्रामोफोन बाजे का रेकार्ड जिसमें गाना भरा रहता है अथवा भरा जाता है । विशेष—पहले पहल जब केवल, फोनोग्राफ का आविष्कार हुआ था, तब उसके रेकार्ड लबे और कुंडलाकार बनते थे और उक्त बाजे में लगे हुए लंबे नल पर चढ़ाकर बजाए जाते थे । उन्हीं रेकार्डों को चूड़ी कहते थे । पर आजकल के ग्रामो- फोन के रेकार्डों को भी, जो तवे के आकार की गोल पटरियाँ होती हैं, चूड़ी कहते हैं । ४. चूड़ी की आकृति का गोदना जो स्त्रियाँ हाथों पर गोदाती हैं । ५. रेशम साफ करनेवालों का एक औजार । विशेष—यह चंद्राकार मोटे कड़े की शकल का होता है और मकान की छत में बाँस की एक कमानी के साथ बँधा रहता है । इसके दोनों और दो टेकुरियाँ होती हैं । बाईं और की टेकुरी में साफ किया हुआ और दाहिनी ओर की टेकुरी में उलझा हुआ रिशम लपेटा रहता है ।
⋙ चूड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड़ा] वे छोटी छोटी मेहराबें जिसमें कोई बड़ी मेहराब विभक्त रहती है ।
⋙ चूड़ीदार
वि० [हिं० चूड़ी + फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें चूड़ी या छल्ले अथवा इसी आकार के घेरे पड़े हों । यौ०—चूड़ीदार पायजामा = तंग और लंबी मोहरी का एक प्रकार का पायजामा जिसमें चुस्तऐंठन के कारण पैर के पास चूड़ी के आकार के घेरे या शिकनें पड़ी रहती हैं ।
⋙ चूड़ो †
संज्ञा पुं० [हिं० चूहड़ा] दे० चुहड़ा ।
⋙ चूत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़ । चौ०—चूतकलिका । चूतमजरी । चूतलतिका । चूतांकुर । चूतायष्टि = आम की शाखा या डाल ।
⋙ चूत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० च्युति (= भग)] स्त्रियों की भगेंद्रेय । योनि । भग । यौ०—चूतसलामी = मुसलमानों की एक रस्म और उसमें सुहाग- रात को पति द्वारा पत्नी को दिया जानेवाला उपहार ।
⋙ चूतड़
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम का पेड़ । २. छोटा कुआ (को०) ।
⋙ चूतड़
संज्ञा पुं० [हिं० चूत + तल] कमर के नीचे और जाँघ के ऊपर गुदा के बगल का मांसल भाग । नितंब । मुहा०—चूतड़ दिखाना = कठिन समय पर भाग जाना । पीठ दिखाना । चूतड़ पीटना या बजाना = बहुत प्रसन्न होना । खूब खुश होना । चूतड़ों का लहु मरना = एक स्थान पर जमकर बैठने के योग्य होना ।
⋙ चूतर †
संज्ञा पुं० [हिं० चूतड़] दे० 'चूतड़' ।
⋙ चूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुदा । चूतड़ [को०] ।
⋙ चूतिया
वि० [हिं० चूत+ ईया (प्रत्य०)] नासमझ । गावदी । उ०—चूतिया चलाक चोर चौपट चबाई च्युत चौकस चिकि- त्सक चिबिल्ला औ चमार है ।—गंग०, पृ० १२९ । क्रि० प्र०—फँसना ।—फेंसाना ।—बनाना ।—समझना ।
⋙ चूतियाखआता
वि० [हिं० चूतिया + खाता] दे० 'चूतिया' ।
⋙ चूतियाचक्कर
वि० [हिं० चूतिया+ चक्कर] दे० 'चूतिया' ।
⋙ चूतियापंथी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूतिया+ पथी] मूर्खता । नासमझी । बेवकूफी ।
⋙ चूतियाशहीद
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूतिया+ फ़ा० शहीद] मूर्खों का सिरताज । बहुत बड़ा मूर्ख ।
⋙ चून (१)
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] १. आटा । पिसान । २. दे० 'चूना' ।
⋙ चून (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा थूहड़ जो हिमालय के दक्षिणी भाग में तथा पंजाब के कुछ जिलों में अधिकता से होता है । विशेष—इसके दूध में गटापारचा का अंश बहुत अधिक होता है । ताजे दूध में बहुत सुगंध होती है और वह आँख के लिये बहुत हानिकारक होता है । बासी दूध लगने से शरीर में छाले पड़ जाते हैं ।
⋙ चून (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चूनन] दे० 'चूग्गा' । उ०—मूढ़ काग समझै नहीं मोह माया सेवै । चून चुनावै कोयली, अपनी कर लेवै ।—दरिया० बानी०, पृ० ३ ।
⋙ चूनर, चूनरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चुनरी' ।
⋙ चूना (४)
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] एक प्रकार का तीक्ष्ण क्षार भस्म जो पत्थर, कंकड, मिट्टी, सीप, शंख या मोती आदि पदार्थों को भट्ठइयों में फूँककर बनाया जाता है । विशेष—तुरंत फूँककर तैयार किए हुए चूने को कली या बिना बुझा हुआ चूना कहते हैं । यह ढोंके या उसी स्वरूप में होता है जिसमें उसका मूल पदार्थ फूँके जाने से पहले रहता है । कंकड़ का बिना बुझा चूना 'बरी' कहलाता है । बिना बुझा चूना हवा लगने से अपनी शक्ति और गुण के अनुसार तुरंत या कुछ समय में चूर्ण के रूप में हो जाता है और उसकी शक्ति और गुण में कमी होने लगती है । पर पानी के संयोग से बिना बुझे चूने की यह दशा बहुत जल्दी हो जाती है । उस अवस्था में उसे 'भरका' या बुझा हुआ चूना कहते हैं । बिना बुझे चूने पर जब पानी डाला जाता है, तब पहले तो वह पानी को खूब सोखता है, पर थोड़ी ही देर बाद उसमें से बुलबुले छूटने लगते हैं और बहुत तेज गरमी निकलती है । तेज चूने के संयोग से शरीर चर्राने लगता है और उसमें कभी कभी छाले तक पड़ जाते है । पत्थर का चूना बहुत तेज होता है और मकान की दीवारों पर सफेदी करने, खेत में खाद की तरह डालने, छींट आदि छापने, पान के साथ लगाकर खाने और दवाओं आदि के काम में आता है । कंकड़ का चूना भी प्रायः इन्हीं कामों में आता है; पर इसका सबसे अधिक उपयोग इमारत के काम में, ईंट पत्थर आदि जोड़ने और दीवारों पर पलस्तर करने के लिये होता है । शंख, सीप और मोती आदि का चूना प्रायः खाने और औषध के काम में ही आता है । मुहा०—चूना काटना = खुजली होना । चूना छूना या फेरना = चूने को पानी में घोलकर दीवारों पर सफेदी करने के लिये पोतना । दीवारों पर चूने की सफेदी करना । चूना लगाना = खूब धोखा देना, हानि पहुँचाना या दिक करना । बहुत लज्जित करना । यौ०—चूनादानी । चुनौटी ।
⋙ चूना (२)
क्रि० अ० [सं० च्यवन] १. पानी या किसी दूसरे द्रव पदार्थ का किसी छेद या छोटी दरज में से बूँद बूँद होकर नीचे गिरना । टपकना । जैसे,—छत में से पानी चूना, लोटे में से दूध चूना, भींगे कपड़े से पानी चूना आदि । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । २. किसी चीज का, विशेषतः फल आदि का, अचानक ऊपर से नीचे गिरना । जैसे, आम चूना, महुआ चूना । ३. किसी चीज में ऐसा छेद या दरज हो जाना जिसमें से होकर कोई द्रव पदार्थ बूँद बूँद गिरे । जैसे, छत चूना, लोटा चूना, पीपा चूना आदि । ४. गर्भपात होना । गर्भ गिरना । (क०) उ०— दिक पालन की, भुव पालन की, लोक पालन की किन मातु गई च्वै ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ चूना (३) †
वि० [हिं० चूना (क्रि० अ०,)] चूअना जिसमें किसी चीज के चूने योग्य छेद या दरज हो । जैसे,—चूना घड़ा, चूना घर ।
⋙ चूनादानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूना+ फ़ा० दान] वह छोटी डिबिया या इसी प्रकार का कोई पात्र जिसमें पान या सुरती के साथ खाने के लिये चूना रखा जाता है । चुनौटी ।
⋙ चूनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० चूर्णिका] १. अन्न का छोटा टुकड़ा । अन्नकण । यौ०—चूनी भूसी = मोटे अन्न का पीसा हुआ चूर्ण या चोकर आदि । २. रत्नकण । चून्नी । दे० 'चून्नी' ।
⋙ चूनेदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूनादानी] दे० 'चूनादानी' ।
⋙ चूप पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोप] दे० 'चोप (१)' । उ०—श्रवन शब्द कौं ग्रहत है नयन ग्रहत हैं रूप । गंध ग्रहत है नासिका रसना रस की चूप ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ५० ।
⋙ चूपड़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुपड़ना] घी चुपड़ी हुई रोटी । किसी चिकनी वस्तु का लेप की हुई वस्तु । उ०—रूखा सूखा खाइ कौ, ठंढा पानी पीव । देखि बिरानी चूपड़ी, मत ललचावै जीव ।—संतवाणी०, पृ० ६ ।२
⋙ चुमचाम
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूमा से विरुद्ध स्वर द्विरुक्त] चूमना । सहलाना । प्यार दिखाना । उ०— छू मत तू प्रणय गान जिसके उलझे वितान । मादक, मोहक, मलीन चूमचाम की लुभान । कर न मुझे चाहक्रीत, एक गीत, एक गीत ।— हिम० पृ० ६० ।
⋙ चूमना (१)
क्रि० स० [सं० चुम्बन] प्रेम के आवेश में अथवा यों ही होठों से (किसी दूसरे के) गाल आदि अंगों को अथवा किसी और पदार्थ को स्पर्श करना, चूसना या दबाना । चुंमा लेना । बोसा लेना । मुहा०— चूमकर छोड़ देना = किसी भारी कार्य को आरंभ करके या किसी वस्तु को छूकर बिना उसका पूरा उपयोग किए छोड़ देना । चूमना चाटना प्यार करना । चूमना । विशेष— किसी किसी देश में आदर सम्मान के लिये भी बड़ों के हाथ आदि अंगों को चूमते हैं ।
⋙ चूमना (२)
संज्ञा पुं० हिंदुओं में विवाह कि एक रस्म जिसमें वर की अँजुली में चावल और जौ भरकर पाँच सोहागिनी स्त्रियाँ मंगल गीत गाती हुई वर के माथे, कंधे और घुटने आदि पाँच अगों को हरी दूब से छूती और तब उस दूब को चूमकर फेंक देती हैं ।
⋙ चूमनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूमना] चूमने का कार्य । चुंबन । उ०— चुषनि, चुवावनि, चाटनि चूमनि । नहीं कहि परति प्रेम की घूरनि । नंद० ग्रं०, पृ० २६६ ।
⋙ चूमा
संज्ञा पुं० [सं० चुम्बन, हिं० चूमना] चूमने की क्रिया । चुंबन । चुम्मा । मिट्ठी । क्रि० प्र० — देना ।—लेना । यौ०— चूमाचाटी ।
⋙ चूमाचाटी
संज्ञा पुं० [हिं० चूमना + चाटना] चूसने और चाटने का काम । चूम और चाटकर प्रेम प्रकट करने की क्रिया । क्रि० प्र० — करना — होना ।
⋙ चूर
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] १. किसी पदार्थ के बहुत छोटे छोटे टुकडे जो उस पदार्थ को खूब तोड़ने, कूटने आदि से बनते हैं । मूहा०— चूर करना या चूर चूर करना = किसी पदार्थ को तोड़ फोड़ कर उसके बहुत महीन कण जो इस पदार्थ को रेती से रेतने अथवा आही से चीरने आदि से निकलते हैं । बुरादा । भूर । यौ०— चूरचार = बहुत छोटा या बारीक टुकड़ा ।
⋙ चूर (२)
वि० १. (किसी कार्य आदि में) तन्मय । निमग्न । तल्लीन । जैसे— काम में चूर, शेखी में चूर । २. जिसपर नशे का बहुत अधिक प्रभाव हो । नशे में बहुत मदमस्त । जैसे, — भाँग में चूर, शराब में चूर, गाँजे में चूर ।
⋙ चूर (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूल] दे० 'चूल (३)' ।
⋙ चूरण (३)
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] दे० 'चूर्ण' (१) ।
⋙ चूरण (२)
वि० दे० 'चूर्ण' ।
⋙ चूरन
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] १. दे० 'चूर्ण ' । २. बहुत महीन पीसी हुई पाचक औषधों का चूर्ण ।
⋙ चूरनहार
संज्ञा पुं० [सं० चूर्णहार ] एक प्रकार की जंगली बेल जिसके पत्ते बहुत लंबे, चिकने और कुछ मोटे होते हैं । विशेष— इसमें मीठी गंधवाले छोटे छोटे फूल भी लगते हैं । इसकी जड़, पत्तियों और छाल आदि का व्यवहार औषधों में होता है । वैद्यक में इसे कसैला, गरम त्रिदोषनाशक, रुधिरविकार को दूर करनेवाला और कृमिनाशक माना है । कहते हैं, विषम ज्वर की यह बहुत अच्छी दवा है ।
⋙ चूरना †पु
क्रि० स० [सं० चूर्णन] १. चूर करना । टुकडे़ टुकडे़ करना । २. तोड़ना । तोड़ डालना । उ०— (क) ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यों मिल्यो घुलोक जाई । गेह चूरि ज्यों चकोर चंद्रमैं मिलै ऊड़ाय । — केशव (शब्द०) । (ख) बाँधि गा सुवा करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ चूरमा
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] रोटी या पूरी को चूर चूर करके घी में भूना हुआ और चीनी मिलाया हुआ एक खाद्य पदार्थ । बहुधा यह बाजरे का बनता है ।
⋙ चूरमूर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वे खूँटियाँ जो जौ या गैहूँ के कट जाने पर खेत में रह जाती हैं ।
⋙ चूरमूर (२)
नष्ट । टूटा हुआ । तोड़ा हुआ । क्रि० प्र० — करना ।— होना । उ०— औरन की सुधि सहज भुलावत हिय हुलसावत । सब जगचिंता चूरमूर करि दूर बहावत । —प्रेमघन, भा० १, पृ० ३ ।
⋙ चूरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चूर्ण] किसी वस्तु का पीसा हुआ भाग । चूर्ण । बुरादा । वि० दे० 'चूर' ।
⋙ चूरा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चूडा] दे० 'चिउड़ा' ।
⋙ चरामणि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चूडामणि] दे० 'चूड़ामणि' ।
⋙ चूरामनि
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूड़ामणि] १. श्रेष्ठ । शिरोमणि । उ०— बिधु बदन चकोर चारु चतुर चूरामनि चदचित चरन ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८८ । २, दे० 'चूडामणि' ।
⋙ चूरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूडी] दे० 'चूडी' । यौ०— चूरीगर = चूडी बनानेवाला । मनिहार । उ०— टूक, टूक चूरीगर लीन्हा । धरिय़ा करम आंच पुनि दीन्हा ।— घट० पृ० २२३ ।
⋙ चूरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चूर्ण] १. चूर । चूरा । २. चूरमा ।
⋙ चूरू
संज्ञा पुं० [हिं० चूर] एक प्रकार की चरस जो गाँजे के मादा पेड़ों से निकलती और कूछ निकृष्ट समझी जाती है ।
⋙ चूर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुखा पीसा हुआ अथवा बहुत ही छोटे छोटे टुकडे़ में किया हुआ पदार्थ । सफूफ । बुकनी । २. कई पाचक औषधों का बारिक पीसा हुआ सफूफ ।३. अबीर । ४. धूल । गर्द । ५. चूना । ६. कौड़ी । कपर्दक । ७. आटा । पिसान (को०) । ८. गंधद्रवय का चूर्ण (को०) ।
⋙ चूर्ण (२)
वि० १. जो किसी प्रकार तोड़ा फोड़ा या नष्ट भ्रष्ट किया गया हो । जैसे, — गर्व चूर्ण करना । २. चूर्ण किया हुआ । चाँदी, सोना आदि का किया हुआ चूर [को०] ।
⋙ चूर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सत्तू । सतुआ । २. वह गद्य जिसमें छोटे छोटे शब्द हों तथा लंबे समासवाले शब्द और कठोर या श्रुतिकटु अक्षर न हों । ३. एक प्रकार का वृक्ष । शाल्मली विशेष ।४. एक प्रकारका शालिधान्य । ५. गंधद्रव्य का चूर्ण (को०) ।
⋙ चूर्णकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूर्ण करनेवाला ।२. आटा बेचनेवाला ।३. एक वर्णसंकर जाति । विशेष— पराशर के मत से यह नट जाति की स्त्री और पुंडूक जाति के पुरुष से उत्पन्न हुई थी ।
⋙ चूर्णकार (२)
वि० १. चूर्ण करनेवाला । पिसनेवाला ।२. चूना फूँकनेवाला [को०] ।
⋙ चूर्णकुंतल
संज्ञा पुं० [सं० चूर्णकुन्तल] अलक । जुल्फ । लट ।
⋙ चूर्णखंड
संज्ञा पुं० [सं० चूर्णखण्ड] ककड़ ।
⋙ चूर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] चूर्ण करना [को०] ।
⋙ चूणपारद
संज्ञा पुं० [सं०] शिगरफ ।
⋙ चूर्णमुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुट्ठी भर गधद्रव्य का चूर्ण [को०] ।
⋙ चूर्णयोग
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत से सुगंधित पदार्थों का मिश्रण ।
⋙ चुर्णशाकांक
संज्ञा पुं० [सं० चूर्णशाकाड्क] गोरसुवर्ण नाम का साग जो चित्रकूट में अधिकता से होता है । वि० दे० 'गोरसुवर्ण' ।
⋙ चूर्णहार
संज्ञा पुं० [सं०] चूरनहार नाम की बेल ।
⋙ चूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आर्या छंद का का दसवाँ भेद जिसमें १८ गुरु और २१ लघु होते हैं । २. तौल में ३२ रत्ती मोतियों की संख्या के हिसाब से भिन्न भिन्न लड़ियाँ ।
⋙ चूर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कीड़ा । कपर्दक । यौ०— चूर्णिदासी = चक्की पीसनेवाली । पिसनहारी । २. चूर्णन । चूर्ण करना या बनाना (को०) । ३. एक सौ कोड़ियों का समूह (को०) । ४. कार्षापण नामक प्राचीन सिक्का (को०) । ५. पाणिनि कृत अष्टाध्यायी के सूत्रों पर पतंजलि मुनिप्रणीत महाभाष्य (को०) । यौ०— चूर्णिकृत् = महाभाष्यकार पतंजलि ।
⋙ चूर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्तू । सतुआ । २. गद्य का एक भेद । दे० 'चूर्णक' । ३. ग्रथ की जानकारी के लिये उसका भाष्य या शब्दार्थ आदि देना ।
⋙ चूर्णिकृत
संज्ञा पुं० [सं० चूर्णिकृत] महाभाष्यकार पतंजलि मुनि ।
⋙ चूर्णित
वि० [सं०] १. चूर्ण किया हुआ । २. पीसा हुआ (को०) ।
⋙ चूर्णी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कार्षापण नामक पुराना सिक्का या कौड़ी । २. एक प्राचीन नदी का नाम । पतंजलि प्रणीत व्याकरण का भाष्य ।
⋙ चूर्णी (२)
वि० [सं० चूर्णिन्] चूर्ण । मिलाया हुआ या चूर्ण से बनाया हुआ [को०] ।
⋙ चूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जाना । गमन करना [को०] ।
⋙ चूर्मा †
संज्ञा पुं० [हिं० चूरमा] दे० 'चूरमा' ।
⋙ चूल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चूला] १. चोटी । शिखा । २. रीछ के बाल ।— (कलंदरों की भाषा) ३. सिर के बाल (बंग०) । ४. सबसे ऊपर का कमरा (को०) ।
⋙ चूल (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] किसी लकड़ी का वह पतला सिरा जो किसी दूसरी लकड़ी के छेद में उसके साथ जोड़ने के लिये ठोंका जाय । मुहा०— चूलें ढीली होना = अधिक परिश्रम के कारण बहुत थकावट होना ।
⋙ चूल (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का थूहड़ । वि० दे० 'चून' (३) ।
⋙ चूलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी की कनपटी । २. हाथी के कान का मैल । ३. खंभे का ऊपरी भाग । ४. किसी घटना या विषय की परोक्ष से सूचना ।
⋙ चूलका
संज्ञा स्त्री० [सं० चूर्णिका] दे० 'चूर्णिका (३)' । उ०— व्यवहार - सूत्र की चूलका में लिखा है कि पाँचवें काल में किसी मनुष्य की मुक्ति नहीं होगी ।— कबीर मं०, पृ० २४९ ।
⋙ चूलदान
संज्ञआ पुं० [सं० चुल्लि + आधान] १. बार्बर्चिखाना । रसोई- घर पाकशाला — (लश०) । २. बैठने या चीजें आदि रखने के लिये सीढ़ीनुमा बना हुआ स्थान । गेलरी ।— (लश०) ।
⋙ चूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.चोटी । शिखा । २. सबसे ऊपर का कमरा । चंद्रशाला [को०] ।
⋙ चूलिक
संज्ञा पुं० [सं०] लूची नामक पक्वान्न । मैदे की पतली पूरी । लुचुई ।
⋙ चूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चूलका । २. नाटक का एक अंग जिसमें नेपथ्य से किसी घटना के हो जाने की सूचना दी जाती है । विशेष— संस्कृत साहित्यके नियमानुसार रंगशाला पर युद्ध या मृत्यु आदि का दृश्य दिखलाना निषिद्ध है; इसलिये उसकी सूचना नेपथ्य से हो जाया करती है । संस्कृत के नाटककार भवभूतिकृत वीरचरित नाटक में इस प्रकार की एक चूलिका है । उसमें नेपथ्य से कहा जाता है — 'राम ने परशुराम पर विजय पा ली है; अतः हे विमानपर बैठनेवालो, आप लोग मंगलगीत आरंभ करें' । ३. मुर्गे की कलँगी (को०) । ४. हाथी की कनपटी या कर्णमूल (को०) । ५. धनुष का सिरा या ऊपरी भाग (को०) ।
⋙ चूलिकोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं० चुल्लि] अथर्ववेदीय एक उपनिषद् का नाम ।
⋙ चूली
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष । उ०— खेतों का सबसे बड़ा भूभाग जंगलों से अलग है, और बहाँ चूली, वेमी, अखरोट के अतिरिक्त दूसरे तरह के वृक्ष नहीं हैं ।— किन्नर० पृ० ६५ ।
⋙ चूल्हा
संज्ञा पुं० [सं० चुल्ली] अगीठी की तरह का मिट्टी या लोहे आदि का बना हुआ पात्र जिसका आकार प्रायः घोडे़ की नाल का साया अर्द्ध चंद्राकार होता है और जिसपर नीचे आग जलाकर, भोजन पकाया जाता है । यौ०— दोहरा चूल्हा = वह चूल्हा चिसपर एक साथ दो चिजें पकाई जा सके । मुहा०— चूल्हा जलना = भोजन बनना । जैसे, — आज उनके घर चूल्हा नहीं जला । चूल्हा न्यौतना = घर के सब लोगों को निमंत्रण देना । चूल्हा फूँकना = भोजन पकाना । चूल्हे में ड़ालना = (१) नष्ट भ्रष्ट करना । (२) दूर करना । चूल्हे में जाना = नष्ट भ्रष्ट होना । अस्तित्व मिटना । चूल्हे में पड़ना = दे० 'चूल्है में जाना' ।(इन मुहावरों का प्रयोग क्रोध में या अत्यंत निरादर प्रकट करने के समय होता है) जैसे,— चूल्हे में जाय तुम्हारा तमाशा । चूलहे में डालो अपनी सौगात । चूल्हे से निकलकर भाड़ या भट्ठी में जाना = छोटी विपत्ति से निकलकर बड़ी विपत्ति में फँसना ।
⋙ चूषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चूषणीय, चूष्य] चूसने की क्रिया ।
⋙ चूषणीय
वि० [सं०] चूसने योग्य । चो चूसा जाय ।
⋙ चूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी की कमर में बाँधी जानेवाली बड़ी पेटी या पट्टा । २. चूसने का क्र्य या स्थिति (को०) । ३. पेटी या कमर बंद (को०) ।
⋙ चूष्य
वि० [सं०] चूसने के योग्य । जो चूसा जाय या जो चूसा जा सके ।
⋙ चूसना
क्रि० स० [सं० चूषणा] १. जीभ और होंठ के संयोग से किसी पदार्थ का रस खींच खींचकर पीना । जैसे, — आम चूसना, गँडेरी चूसना । २. किसी चीज का सार भाग ले लेना । जैसे— किसी स्त्री का पुरुष को चूस लेना । किसी बदमाश का भले आदमी को चूसना अर्थात् उसका धन आदि अपहरण करना । संयो० क्रि० — डालना ।— लेना । ३. किसी वस्तु को चूस चूसकर समाप्त करना जैसे, — लेमनचूस का चूसना । किसी वस्तु का गीला पन सोख लेना ।
⋙ चूहड़
संज्ञा पुं० [हिं० चूहड़ा] दे० 'चूहड़ा' ।
⋙ चूहड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० चूहड़ी] १. भंगी या मेहतर । चांडाल । श्वपच । २. निम्न प्रकार का या लफगा व्यक्ति ।
⋙ चूरह पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चूहड़ा] दे० 'चूहड़ा' ।
⋙ चूहरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चूहड़ा] दे० 'चूहड़ा' । उ०— जीभ का फूहरा, पंथ का चूहरा । तेज तमा धरै आप खोवै ।— कबीर रे०, पृ० २ ।
⋙ चूहरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुरिहारिन] चूड़ी बेचने या पहनानेवाली स्त्री । चुड़िहारिन ।
⋙ चूरही (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] 'चूहड़ा' का स्त्री० रूप ।
⋙ चूहा
संज्ञा पुं० [अनु० चूँ + हा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० चूहिया, चूही आदि] चार पैरोंवाला एक प्रसिद्ध छोटा जंतु जो प्रायः घरों या खेतों में बिल बनाकर रहता है । मूसा । मूषक । विशेष— यह समस्त एशिया, युरोप और अफ्रिका में पाया जाता है और इसकी छोटी बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं । साधारणतः भारतीय चूहों का रंग कालापन लिए खाकी होता है, पर नीचे के भाग में कुछ सफेदी भी होती है । इसके दाँत बहुत तेज होते हैं और यह खाने पीने की चीजों के सिवा कपड़ों और दूसरी चीजों को भी काटकर बहुत हानि पहुँचाता है । कभी कभी यह मनुष्यों को भी काटता है । इसके काटने से एकप्रकार का हलका विष चढ़ता है । किसी किसी जाति के चूहे बहुत लड़ाके होते हैं और आपस में खूब लड़ते हें । इसकी मादा एक साथ कई बच्चे देती है । इस देश में विलायत से मिलते जुलते एक प्रकार के सफेद चूहे भी आदे हैं जिन्हें विलायती चूहा कहते हैं । इनके एक जोड़े से बढ़कर एक साल के अंदर कई सौ चूहे हो जाते हैं । इस जाति के चूहे प्रायः अपने बच्चो को जन्मते ही या कुछ दिनों के अंदर खा जाते हैं । साधारणतः चूहे प्रायः और विशेषतः बिल्लियों के शिकार हो जाते हैं ।
⋙ चूहादंती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूहा + दाँत] स्त्रीयों के पहनने की एक प्रकार की पहुँची जो चाँदी या सोने की बनती है । विशेष— इसके दाने चूहे के दाँत से लंबे और नुकीले होते हैं और रेशम या सूत में पिरोए रहते हैं ।
⋙ चूहादंती (२)
वि० चूहे के दाँत के आकार का ।
⋙ चूहादन
संज्ञा पुं० [हिं० चूहा + फ़ा० दान] [स्त्री० चूहादानी] चूहों को फँसाने का एक प्रकार का पिंजड़ा । चूहेदानी ।
⋙ चूही
संज्ञा स्त्री० [हिं०चूहिया] दे० 'चुहीया' । उ०— कौन कुबुद्धि लगी यह तोकों होत सिंह तै चूही ।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८३९ ।
⋙ चहेदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूहादानी] दे० 'चूहादान' ।
⋙ चैँज
संज्ञा पुं० [अं०] १. (एक स्थान से दूसरे स्थान को) वायु— परिवर्तन के लिये जाना । वायुपरिवर्तन । हवा बदलना । जैसे,— डाक्टरों की सलाह से वे चेंज में गए हैं । २. (किसी जंकशन पर) एक गाड़ी से उतरकर दूसरी पर चढ़ना । बदलना । जैसे, मुगलसराय में चेंज करना पड़ेगा । ३. बड़े सिक्कों का छोटे सिक्कों में बदलना । विनिसय । जैसे,— (क) आपके पास नोट का चेंज होगा ? (ख) टिकट बाबू को नोट दिया है, चेंज ले लूँ तो चरना हूँ ।
⋙ चेँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चिड़ियों के बोलने का शब्द । चें चें । मुहा०— चें बोलना = दे० 'चीं' के मुहा० में 'चीं बोलना' ।
⋙ चेँगड़ा †
संज्ञा पुं० [अनु०] [स्त्री० चेंगड़ी] छोटा बच्चा । बालक ।
⋙ चेँगना
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'चेंगड़ा' ।
⋙ चेँगा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चेगड़ा' ।
⋙ चेँगा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेनगा] दे० 'चेनगा' ।
⋙ चेँगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] चमड़े की चाकती अथवा सन या सुतली का घेरा जिसे पैजनी और पहिए के बीच में इसलिये पहना देते हैं कि जिसमें दोनों एक दूसरे से रगड़ न खायँ ।
⋙ चेँघी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेंगी] दे० 'चेंगी' ।
⋙ चेँच
संज्ञा पुं० [सं० चञ्चु] एक प्रकार का साग जो बरसात में बहुत उगता है । विशेष— इसमें पीले फूल और फलियाँ लगती हैं । इसकी पत्तियाँ लुआबदार होती हैं ।
⋙ चेँचर †
वि० [चें चें से अनु०] चें चें करनेवाला । बक बक करनेवाला । बकवादी । बक्की ।
⋙ चेँचियाना †
क्रि० अ० [अनुध्व० या हिं० चिचियाना] दे० 'चिचियाना' उ०— चेंचियाकर महाराजिन ने सचेत किया ।— भस्मावृत० पृ० ९३ ।
⋙ चेंचुआ †
संज्ञा पुं० [चें चें से अनु०] चातक का बच्चा ।
⋙ चेँचुला †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्वान्न । विशेष— इसके बनाने में पहले गूँधे हुए आटे या मैदे को पूरी की तरह पतला बेलकर गोंठते और चौखूँटा बनाकर कुछ दबा देते हैं और तब घी आदि में तल लेते हैं ।
⋙ चेँ चेँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. चिडियों के बोलने का शब्द । चीं चीं । २. व्यर्थ की बकवाद । बकबक । क्रि० प्र०— करना ।— मचना ।— होना ।
⋙ चेँबर
संज्ञा पुं० [अं०] वह बड़ा कमरा जिसमें किसी विषय की मंत्रणा हो । सभागृह ।
⋙ चेँबर आफ कामर्स
संज्ञा पुं० [अं० चेँबर आँव् कामर्स] किसी नगर के प्रधान व्यापारियों की वह सभा जिसका संटघन उन व्यापारियों के व्यापार संबंधी स्वत्वों की रक्षा के लिये हुआ हो ।
⋙ चेँटियारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] अबलक रंग का एक प्रकार का बहुत बड़ा जलपक्षी । विशेष— इसके पैर प्रायः हाथ भर लंबे और चोंच एक बालिश्त की होती है । इसके सिरपर बाल या पर नहीं होते । इसका मांस स्वादिष्ट होता है और इसी लिये इसका शिकार किया जाता है ।
⋙ चेँटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चींटी] दे० 'चिउँटी' ।
⋙ चेँटुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० चिड़िया] चिड़िया का बच्चा । उ०— अंड फोरि करयो चेंटुआ तुष परयो नीर निहारि । गहि चंगुल चातिक चतुर डारयो बाहिर बारि ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चेँडा †
संज्ञा पुं० [हिं० चेँगडा] दे० 'चेंगड़ा' ।
⋙ चेँथरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मस्तक का सबसे ऊपरी भाग । उ०— अक्कल चेथरी में चढ़ गई सो अब उने कछु सूझत नइयाँ ।— झाँसी०, पृ० १६१ ।
⋙ चेँधी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेंगी] दे० 'चेंगी' ।
⋙ चेँपेँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. वह धीमा शब्द या कार्य जो किसी बडे़ के सामने किसी प्रकार का विरोध प्रकट करने के लिये किया जाय । चीं चपड़ । २. व्यर्थ की बकवाद । बकबक ।
⋙ चेँफ †
संज्ञा पुं० [देश०] ऊख का छिलका ।
⋙ चेअर
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बैठने की कुरसी । यौ०— ईजी चेअर = आराम कुरसी । २. किसी विश्वविद्यालय में किसी विषय के पढ़ाने के लिये किसी महान् व्यक्ति के नाम पर स्थापित की हुई व्यवस्था । जैसे,— इतिहास की बड़ौदा चैंयर, कानून की टैगोर चेंयर । ३. अध्यक्ष के पद पर बैठा हुआ व्यक्ति । जैसे— चेंअर का प्रस्ताव ।
⋙ चेयरमैन
संज्ञा पुं० [अं०] किसी सभा या बैठक का प्रधान । सभापति । अध्यक्ष ।
⋙ चेउरी †
संज्ञा पुं० [हिं० जेवडी (= रस्सी)] कुम्हार का वह डोरा जिसके द्वारा चाक पर तैयार किया हुआ बरतन शेष मिट्टी से काटकर अलग किया और उतारा जाता है ।
⋙ चेक
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह रुक्का या आज्ञापत्र जो किसी बंक आदि के नाम लिखा गया हो और जिसके देने पर वहाँ से उसपर लिखी हुई रकम मिल जाय । एक प्रकार की हुंडी । विशेष— साधारणः चेकों का एक निश्चित स्वरूप हुआ करता है । किसी बंक के नाम चेक लिखने का अधिकार उसी को होता है जिसका रुपया बैंक में जमा हो । मुहा०— चेक काटना = चेक लिखकर (चेक बुक में से अलग कर या उसमें से काटकर) देना । यौ०— चेक बुक— बहुत से सादे चेकों को सीकर बनाई हुई किताब । २. बहुत सी सीधी रेखाओं पर आड़ी खींची हुई रेखाएँ जिनसे बहुत से चौकोर खाने बन जाँय । चारखाना । ३. एक प्रकार का चारखाने का कपड़ा ।
⋙ चेकित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।
⋙ चेकित (२)
बि० बहुतबड़ा ज्ञानी ।
⋙ चेकितान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । शिव । २. केकय देश के राजा धृष्टकेतु के पुत्र का नाम जिसने महाभारत के युद्ध में पांडवों की सहायता की थी ।
⋙ चेकितान (२)
वि० बहुत बड़ा ज्ञानी ।
⋙ चेचक
संज्ञा स्त्री० [फा़०] शीतला या माता नामक रोग ।
⋙ चेचकरू
संज्ञा पुं० [फा़०] वह जिसके मुँह पर शीतला के दाग हों ।
⋙ चेजा
संज्ञा पुं० [हिं० छेद?] सूराख । छेद । छिद्र । उ० आँखड़ियाँ रतनालिया चेजा करै पताल । मैं तोही बूझौं माछली तूँ क्यों बंधी जाल । — कबीर (शब्द०) ।
⋙ चेजारा
संज्ञा पुं० [देश०] दिवाल उठानेवाला । दिवाल की चुनाई करनेवाला । स्थपति । थवई । राजगीर । उ०— कबीर मंदिर ढहि पड्या सैंट भई सैबार । कोई चेजारा चिणि गया, मिल्या न दूजी बार । — कबीर ग्रं०, पृ० २२ ।
⋙ चेट
संज्ञा पुं० [सं० ] [स्त्री० चेटी या चेटिका] १. दास । सेवक । नौकर । २. पति । खाविंद । ३. नायक और नायिका को मिलानेवाला प्रवीण पुरुष । भडुवा । ४. एक प्रकार की मछली । भाँड़ ।
⋙ चेटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेरक दास । नौकर । २. चटक मटक । ३. दूत ।४. जल्दी । फुरती । ५. चाट । चसका । मजा । क्रि० प्र० — लगना । ६. उपपति । जार (को०) ।
⋙ चेटक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. जादू या इंद्रजाल विद्या । नजरबंद का तमाशा । उ०— कोऊ न काहू की कानि करै, कछु चेटक सो जु करयौ जदुरैया ।— ब्रज०, पृ० १५० । २. भाड़ों का तमाशा । कौतुक । उ०— (क) कतहूँ नाद शब्द हो भला । कतहूँ नाटक चेटक कला । — जायसी (शब्द०) ।(अ) नट ज्यों जिन पेट कुपेट कुकोटिक चेटक कोटिक ठाट ठटयो ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चेटकनो पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चेटक] 'चेटक' का स्त्री० रूप ।
⋙ चेटका
संज्ञा स्त्री० [सं० चिता ] १. मुरदा जलाने की चिता । २. श्मशान । मरघट । उ०— जरे जूह नारी चढ़ी चित्रसारी । मनो चेटका में सती सत्यधारी ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ चेटकी
संज्ञा पुं० [हिं० चेटक] १. इंद्रजाली । जादूगर । उ०— किसवी किसान कुल बनिक, भिखारी, भाट चाक चपल नट, चोर, चार चेटकी ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २२० । २. अनेक प्रकार के कौतुक करनेवाला । कौतुकी । उ०— परम गुरु रतिनाथ हाथे सिर दियो प्रेम उपदेश । चतुर चेटकी मथुरानाथ सो कहियो जाय आदेश ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ चेटवा †
संज्ञा पुं० [हिं० चेटुवा] दे० 'चेटुवा' ।
⋙ चेटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेवा करनेवाली स्त्री । दासी ।
⋙ चेटिकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चेटिका] दे० 'चेटिका' ।
⋙ चेटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी । लौंडी ।
⋙ चेटुक †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चेटुका' ।
⋙ चेटुका पु
संज्ञा पुं० [हिं० चेटुक] दे० 'चेटुवा' । उ०— अलल पच्छ कै चेटुका, वाको कौन कहौ उपदेश । उलटि मिलै परिवार में, वासे कौन कहै संदेस ।— पलटू०, भा० ३, पृ० ५१ ।
⋙ चेटुवा
संज्ञा पुं० [हिं० चिड़िया] चिड़िया का बच्चा । उ०— देव मृदु निनद विनोद मदनालै रव रटत समोद चारु चेटुवा चटक के ।— देव (शब्द०) ।
⋙ चेड़
संज्ञा पुं० [सं० चेड] दे० 'चेटक' [को०] ।
⋙ चेड़क
संज्ञा पुं० [सं० चेडक] दे० 'चेटक' ।
⋙ चेड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० चेडिका] दे० 'चेटिका' [को०] ।
⋙ चेड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० चेंडी] दे० 'चेटी' [को०] ।
⋙ चेतंत †
वि० [हिं०] १. सावधान । चौकन्ना ।२. चेतन । सचेत ।
⋙ चेत्
अव्य० [सं०] १. यदि । अगर । २. शायद । कदाचित् ।
⋙ चेत
संज्ञा पुं० [सं० चेतस्] १. चित्त की वृत्ति । चेतना । संज्ञा । होश । २. ज्ञान । बोध । उ०— मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम ।— तुलसी (शब्द०) । ३. सावधानी । चौकसी । ४. खयाल । स्मरण । सुध । क्रि० प्र० — करना । — कराना । — दिलाना ।— घराना । — रखाना ।— पड़ना । होना । ५. चित्त । मन ।
⋙ चेतक (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० चेतकी] हर्रे । उ०— अभया, पथ्या, अब्यथा, अमृता, चेतक होई ।— नंद० ग्रं०, पृ० १०४ ।
⋙ चेतक (२)
संज्ञा पुं० महाराणा प्रताप का प्रसिद्ध ऐतिहासिक घोड़ा ।
⋙ चेतक (३)
वि० [सं०] १. सचेत करनेवाला । २. चेतन [को०] ।
⋙ चेतक (४)
वि० [सं० चेटक] जादूभरी । उ०— घात लै अनूठी भरैं चेतक चितौन मूठी, धूँधरि चिलक चौंध बीच कौंध सों टिकै ।— घनानंद०, पृ० ४४ ।
⋙ चेतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हरीतकी । साधारण हड़ । २. सात प्रकार की हड़ों में से एक विशेष प्रकार की हड़ जिसपर तीन धारियाँ होती हैं । विशेष— यह हड़ दो प्रकार की होती है । एक सफेद और बड़ी जो प्रायः पाँच छह अंगुल लंबी होती है; और दूसरी काली और छोटी जो प्रायः एक अंगुल लेबी होती है । भाव- प्रकाश के अनुसार पहले प्रकार की हड़ के पेड़ के नीचे जाने से भी पशुओं और पक्षियों तक को दस्त हो जाता है । आजकल के बहुत से देशी चिकित्सकों का विश्वास है कि इस प्रकार की हड़ को हाथ में लेने या सूँघने से दस्त हो जाता है; पर इस जाति की हड़ अब कहीं नहीं मिलती । ३. चमेली का पौधा । ४. एक रागिनी का नाम जिसे कुछ लोग श्री राग की प्रिया मानते हैं ।
⋙ चेतत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेत + त (प्रत्य०)] दे० 'चेतना' ।
⋙ चेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आत्मा । जीव । २. मनुष्य । आदमी । ३. प्राणी । जीवधारी । ४. परमेश्वर । यौ०— चेतन मन = मन का वह स्तर या भाग जिसमें विचारों के प्रति मन उद्यत रहता है ।
⋙ चेतनकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरीतकी । हड़ ।
⋙ चेतनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चेतन का धर्म । चैतन्य । सज्ञानता ।
⋙ चेतनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चेतनता' ।
⋙ चेतना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि । २. मनोवृत्ति । ३. ज्ञानात्मक मनोवृत्ति । ४. स्मृति । सुधि । याद । ५. चेतनता । चैतन्य । संज्ञा । होश ।
⋙ चेतना (२)
क्रि० अ० [हिं० चोत + ना (प्रत्य०)] १. संज्ञा में होना । होश में आना । २. सावधान होना । चौकस होना । उ०— यह तन हरियर खेत, तरुनी हरिनी चर गई । अजहूँ चेत अचेत, यह अधचरा बचाइ लै ।— सम्मन (शब्द०) ।
⋙ चेतना (३)
क्रि० स० [सं० चिन्तन] विचारना । समझना । ध्यान देना । सोचना । जैसे, — धर्म चेतना, आगम चेतना, भला चेतना, बुरा चेतना ।
⋙ चेतनीय
वि० [सं०] १. जो चेतन करने योग्य हो ।२. जानने योग्य । ज्ञान करने योग्य ।
⋙ चेतनीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋद्धि नामक लता ।
⋙ चेतन्य
वि० [सं० चैतन्य] दे० 'चैतन्य' ।
⋙ चेतवनि (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेतावनी] दे० 'चेतावनी' ।
⋙ चेतवनि (२)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चितवन] दे० 'चितवन' ।
⋙ चेतव्य
वि० [सं०] जो चयन (संग्रह) करने योग्य हो । इकट्ठा करने लायक । संग्रह योग्य ।
⋙ चेता (१)
संज्ञा पुं० [सं० चित्] १. संज्ञा । होश । वुद्धि । २. स्मृति । याद । — (पश्चिम) । मुहा० — चेता भूलना = याद न रहना । स्मरण न रहना ।
⋙ चेता (२)
वि० [सं० चेतम्] चेतनावाला । विशेष— समस्त पदों के अत में ही इसका प्रयोग मिलता है । जैसे, धर्मचेता ।
⋙ चेताना
क्रि० स० [हिं० चेत या चेतना ] १. भूली बात याद दिलाना । २. ज्ञानोपदेश करना ।३. चेतावनी देना ।४. जलाना या सुलगाना (पूर्वी) । जैसे, आग या चूल्हा चेताना । ५. धमकी देना ।
⋙ चेतावनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेतना] वह बात जो किसी को होशियार करने के लिये कही जाय । सतर्क होने की सूचना । क्रि० प्र० — देना । मिलना ।
⋙ चेतिका पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चिति] मुरदा जलाने की चिता । सरा । उ०— चेतिका करुणा रची, सब छाँड़ि और उपाइ । क्यों जियों जननी बिना, मरिहूँ मिलै जो आइ । — केशव (शब्द०) ।
⋙ चेतुरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो संसार के सब भागों में पाई जाती है । विशेष— इसके नर और मादा के रंग में भेद होता है । यह पेड़ों पर कटोरे के आकार का घोंसला बनाती है ।
⋙ चेतुवा पु
वि० [हिं० चेत + उवा (प्रत्य०)] चेतनेवाला । उ०— जात सबन कह देखिया, कहहि कबीर पुकार । चेतुवा है तो चेतहु, दिवस परतु हैं धार । — कबीर बी०, पृ० १६९ ।
⋙ चेतोजन्मा †
संज्ञा पुं० [सं० चेतोजन्मन्] कामदेव ।
⋙ चेतोभव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चेतोजन्मा' [को०] ।
⋙ चेतोभू
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव [को०] ।
⋙ चेतोविकार
संज्ञा पुं० [सं०] चित्त संबंधी विकार [को०] ।
⋙ चेतोहर
वि० [सं०] चेतना का हरण करनेवाला [को०] ।
⋙ चेतौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेतावनी] दे० 'चेतावनी' ।
⋙ चेत्य
वि० [सं०] १. जो जानने योग्य हो । ज्ञातव्य । २. जो स्तुति करने योग्य हो ।
⋙ चेदि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम । विशेष— यह किसी समय शुक्तिमती नदी के पास था । महाभारत का शिशुपाल इसी देश का राजा था । वर्तमान बुंदेलखंड का चंदेरी नगर इसी प्राचीन देश की सीमा के अतर्गत है । इस देश का नाम त्रैपुर और चौद्य भा है । २. इस देश का राजा । ३. इस देश का निवासी । ४. कौशिक मुनि के पुत्र का नाम ।
⋙ चेदिर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चेदि' ।
⋙ चेदिपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चेदिराज' ।
⋙ चेदिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिशुपाल नामक राजा जिसका वध श्रीकृषण ने किया था । २. एक वसु का नाम जिन्हें इंद्र से एक विमान मिला था और जो पृथ्वी पर नहीं चलते थे, ऊपर ही ऊपर आकाश में भ्रमण करते थे । इनका दूसरा नाम उपरिचर भी था ।
⋙ चेन (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] बहुत सी छोटी छोटी कड़ियों को एक में गूथकर बनाई हुई शृंखला । सिकड़ी । जंजीर । जैसे,— रेलगाड़ी के दो डिव्बों को जोड़ने की चेन, घड़ो में लगाने की चेन ।
⋙ चेन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चैन] दे० 'चैन' । उ०— दिन रात्रि सेवा बिनु चेन परत नाहीं ।— दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ८३ ।
⋙ चेन (३) †
संज्ञा पुं० [सं० चणक, हिं० चेना] दे० 'चेना (१)' । उ०— बारह पानी चेन, नहीं तो लेन का देन । — लोकोक्ति ।
⋙ चेनआ
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेनवा] दे० 'चेनवा' ।
⋙ चेनगा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली जो उत्तर तथा पश्चिम भारत की नदियों और बडे़ बडे़ तालाबों, विशेषतः ऐसी नदियों और तालाबों में जिनमें घास अधिक हो, पाई जाती है । विशेष— यह प्रायः एक बालिश्त लंबी होती है और इसका सिर गिरई से कुछ बड़ा होता है । इसे प्रायः नीच जाति के और गरीब लोग खाते हैं । इसे चेंगा या चेनआ भी करते हैं ।
⋙ चेनवां †
संज्ञा पुं० [हिं० चेना] दे० 'चेना' ।
⋙ चेना (१)
संज्ञा पुं० [सं० चणक] १. कँगनी या साँवाँ की जाति का एक अन्न जो चैत बैसाख में बोया या असाढ़ में काटा जाता है । विशेष— इसके दाने छोटे, गोल और बहुत सुंदर होते हैं । इसे पानी की बहुत आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि काटने से तीन चार दिन पहले तक इसमें पानी दिया जाता है । इसी लिये खेतिहरों में एक मसल है —'बारह पानी चेन, नहीं तो लेन का देन ।' कहते हैं, इस देश में यह अन्न मिश्र या अरब से आया है । यह हिमालय में १०, ००० फुट की ऊँचाई तक होता है । यह पानी या दूध में चावल की तरह पकाकर खाया जाता है और बहुत पौष्टिक समझा जाता है । शिमला के आसपास के लोग इसकी रोटियाँ भी बनाकर खाते है । पंजाब में इसकी खेती प्रायः चारे के लिये ही होती है । वैद्यक में इसे शोतल, कसैला, शक्तिवर्धक और भारी माना है । २. चेंच नामक साग ।
⋙ चेना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चीना] दे० 'चीनी कपूर' ।
⋙ चेप (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चिपचिप से अनु०] १. कोई गाढ़ा चिपचिपा या लसदार रस । जैसे, — आम का चेप, सीतला का चेप । २. लासा जो चिड़ियों को फँसाने के लिये बाँस की लग्घियों में लगाया जाता हैं । उ०— बनतन कौ निकसत लकत हँसत हँसत उत आय । दृगखंजन गहि लै गयो, चितवनि चेप लगाय ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चेप (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोप] चाव । उत्साह ।
⋙ चेप (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] ढेला । मिट्टी का ढेला । उ०— हमरे बचने जे तोहहि बिराम । फेके लेओ चेप पवि पुनु ठाम ।— विद्यापति, पृ० ३०३ ।
⋙ चेपदार
वि० [हिं० चेप+ फा़० दार (प्रत्य०)] जिसमें चेप या लस हो । चिपचिपा ।
⋙ चेपना †
क्रि० स० [हिं० चेप से नामिक धातु] चिपकना । सटाना ।
⋙ चेपांग
संज्ञा पुं० [देश०] नैपाल में रहनेवाली एक पहाड़ी जाति ।
⋙ चेबुला
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जिसकी छाल चमड़ा सिझाने और रंग बनाने में काम आदि है । विशेष—यह ऊँचाई में ८० या १०० फुट तक होता है और समस्त भारत में पाया जाता है ।
⋙ चेय (१)
वि० [सं०] जो चयन करने योग्य हो । जो संग्रह करने योग्य हो । चयनीय ।
⋙ चेय (२)
संज्ञा पुं, स्त्री० [सं०] वह अग्नि जिसका विधानपूर्वक संस्कार हुआ हो ।
⋙ चेयर
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'चेअर' ।
⋙ चेयरमैन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'चेअरमैन' ।
⋙ चेराँ पु
संज्ञा पुं० [सं० चेड या चेड ] दास । सेवक । गुलाम ।
⋙ चेरना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छेनी जिससे नकाशी करनेवाले सीधी लकीर बनाते हैं ।
⋙ चेरा (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० चेटक, प्रा० चेडअ, चेडा] [स्त्री० चेरी] १. नौकर । दास । सेवक । गुलाम ।उ०— करम बचन मन राउर चेरा । राम करहु तेहिके उर डेरा । — मानस, २ । १३१ ।२. चेला । शिष्य । शागिर्द । विद्यार्थी ।
⋙ चेरा
संज्ञा पुं० [देश०] मोटे ऊन का बना हुआ । गलीचा ।
⋙ चेराइ †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेरा+ई] दासत्व ।सेवा । नौकरी । उ०— ऐसे करि मोकों तुम पायो मनो इनकी मैं करों चेराई । सूरश्याम वे दिन बिसराये जब बाँधे तुम ऊखल लाई । — सूर (शब्द०) ।
⋙ चेरायता †
संज्ञा पुं० [हिं० चिरायता] दे० 'चिरायता' ।
⋙ चेरि, चेरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चेटि, या चेडि अथवा चेटी, चेडी] 'चेरा' का स्त्री० रूप ।
⋙ चेरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्राम । गाँव । २. ततुवाय या बुनकरों की बस्ती या मुहल्ला [को०] ।
⋙ चेरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० चेटिका, चेडिका, प्रा० वेडिया] दासी । जेसे— रानी की बात, चेरिया सुभाव नहीं जाता ।
⋙ चेरु
वि० [सं०] जिसे संग्रह करने का अभ्यास हो । संग्रह करनेवाला ।
⋙ चेरुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] एक खाद्य पदार्थ जो सतुआ सानकर पिठौरा की तरह बनाकर अदहन में पकाने से तैयार होता है ।
⋙ चेरुई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] घडे के आकार का, पर उससे कुछ बडा एक प्रकार का मिट्टी का बरतन ।
⋙ चेरु
संज्ञा स्त्री० [सं० सेरु (जकडने वाले) अथवा देश०] एक जंगली जाति जिसके रीति रिवाज क्षत्रियों से प्रायः मिलते जुलते हैं । विशेष— पाँच छह सौ वर्ष पहले भारत के अनेक स्थानों में इस जाति का बहुत जोर था, और अनेक प्रदेशों में इसका राज्य था । कहते हैं, यह नाम जाति के अंतर्गत है । विहार के अनेक स्थानों में इस जाति के लोगों की बनवाई हुई बहुत सी पुरानी इमारतें हैं । आजकल इस जाति के लोग मिरजापुर जिले तथा दक्षिण भारत में पाए जाते हैं ।
⋙ चेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वस्त्र । कपडा । यौ०— चेलगंगा = महाभारत में वर्णित एक नदी जो गोकर्ण के समीप है । चेलचीरा = वस्त्र से फाडा हुआ टुकडा । चेलधावक, चेलनिर्णेजक, विलप्रक्षालक = धोबी ।
⋙ चेल (२)
वि० अधम ।निकृष्ट । विशेष— इसका प्रयोग समस्त पद के अंत में होता है । जैसे, — भार्याचेल = अधम या निकृष्ट पत्नी ।
⋙ चेलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक मुनि का नाम ।
⋙ चेलक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चेंगडा या हिं० चेला] १. बालक । कुमार । शिशु । उ०— गोरि मद्धि इक चेलक बासं । देव सरुप कोटि रवि भासं । —पृ० रा० , २४ । ३२१ । २. चेला । शिष्य ।
⋙ चेलकाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेला] चेलहाई । चेलों का समूह । शिष्यवर्ग ।
⋙ चेलकी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेलक ] दे० 'चेटिका' उ०— हास्यारथ करे चेलकी ।भोज धणां देसी तेइबहोड ।—बि० रासो, पृ० २४ ।
⋙ चेलगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० चेलगङ्गा] एक प्राचीन नदी का नाम जो किसी समय गोकर्ण क्षेत्र (वर्तमान मालाबार) में बहती थी, और जिसका उल्लेख महाभारत में आया है ।
⋙ चेलप्रक्षालक (१)
वि० [सं०] कपडा धोनेवाला [को०] ।
⋙ चेलप्रक्षालक (२)
संज्ञा पुं० धोबी [को०] ।
⋙ चेलवा †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेला+हाई(प्रत्य०) ] चेलों का समूह । शिष्यवर्ग । मुहा०— चेलहाई करना = भेंट और पूजा आदि संग्रह करने के लिये चेलों में घूमना ।
⋙ चेला † (१)
संज्ञा पुं० [सं० चेटक, प्रा० चेडआ, वेडा] [स्त्री० चेलिन, चेली ] १. वह जिसने देक्षा ली हो ।वह जिसने कोई धार्मिक उपदेश ग्रहण किया हो ।शिष्य । क्रि० प्र० — करना । — बनना ।— बनाना ।— होना । मुहा०— चेला मूँडना = चेला बनाना । शिष्य बनाना । विशेष— संन्यासियों में दिक्षा के समय दीक्षित का सिर मूँडा जाता है; इसी से यह मुहावरा बना है । २. वह जिसने शिक्षा ली हो । वह जिसने कोई विषय सीखा हो । शागिर्द । विद्यार्थी । छात्र । विशेष— दिक्षा या शिक्षा देनेवाले को गुरु और दिक्षा या शिक्षा लेनेवाले को उस (गुरु) का चेला कहते हैं । यौ०—चेलाचाटी— चेलों का वर्ग या समूह ।
⋙ चेला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का साँप जो बंगाल में अधिकता से पाया जाता है । २. एक प्रकार की छोटी मछली । चेल्हा ।
⋙ चेलान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज की लता ।
⋙ चेलान (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०चेला+आन (प्रत्य०)] [स्त्री० चेलानी] १. चेलों का समूह । २. चेलों की बस्ती या निवास ।
⋙ चेलाल
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज की लता ।
⋙ चेलाशक
संज्ञा पुं० [सं०] कपडे आदि में लगनेवाला कीडा ।
⋙ चेलिक
वि० [सं० चेटक, हिं० चेला] शिष्य । शागिर्द । उ०— बूढ न बार तरुन नहिं चेलिक वाको तिलक लगाई हो ।— धरम० , पृ० ५० ।
⋙ चेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चिउली नाम का रेशमी कपडा । २. चोली । अँगिया (को०) ।
⋙ चेलिकाई †
संज्ञा स्त्री० दे० [हीं०] दे० 'चेलकाई' या 'चेलहाई' । उ०— रैनिदिवस मैं तहवाँ नारि पुरुष समताई हो । ना मैं बालक ना मैं बूढो ना मोरे चेलिकाई हो ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ चेलिन, चेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेला का स्त्री० रुप] शिष्या ।
⋙ चेलुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के बौद्ध भिक्षु ।
⋙ चेल्हवा
संज्ञा स्त्री० [सं० चिल(=मछली) ] एक तरह की छोटी मछली जो चमकीली और पतली होती है ।
⋙ चेल्हा
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेल्हवा] दे० 'चेल्हवा' ।
⋙ चेवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो दक्षिण और पश्चिम भारत में होता है । विशेष— इसकी चटाइयाँ और टोकरियाँ बनाई जाती हैं और इसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं ।
⋙ चेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी का नाम ।
⋙ चेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंगों की गति । भावभंगी । २. क्रिया [को०] ।
⋙ चेष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चेष्टा करे । चेष्टा करनेवाला । २. एक प्रकार का रतिबंध ।
⋙ चेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] चेष्टा करना । चेष्टा का भाव या स्थिति [को०] ।
⋙ चेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर के अंगों की वह गति या अवस्था जिससे मन का भाव या विचार प्रकट हो । वह कायिक व्यापार जो आंतरिक विचार या भाव का द्योतक हो । २. नायिका या नायक का वह प्रयत्न या उपाय जो नायक नायिका के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिये हो । ३. उद्योग । प्रयत्न । कोशिश । ४. कार्य । काम ।५. श्रम । परिश्रम । ६. इच्छा । कामना । ख्वाहिश । ७. मुँह की वह आकृति जिससे मानसिक स्थिति प्रकट होती है (को०) ।
⋙ चेष्टानाश
संज्ञा पुं० [सं० ] सृष्टि का अंत । प्रलय ।
⋙ चेष्टानिरुपण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी व्यक्ति की चेष्टा को देखना या लक्षित करना [को०] ।
⋙ चेष्टावल
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में ग्रहों का विशेष गति या स्थिति के अनुसार अधिक बलवान् हो जाना । जैसे, उत्तरा- यण में सूर्य या वक्रगामी मंगल अथवा चंद्रमा के साथ संयुक्त कोई ग्रह । इससे ग्रह का शुभ या अशुभ फल बढ जाता है ।
⋙ चेष्टित (१)
वि० [सं०] चेष्टायुक्त । सचेष्ट । उ०— आत्मरक्षा के लिये चेष्टित नहीं दिखलाते ... ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१२ ।
⋙ चेष्टित (२)
संज्ञा पुं० १. कार्य । व्यवहार । २. गतिविधि [को०] ।
⋙ चेष्टिता
वि० स्त्री० [सं०] गतिवाली । स्थितियुक्त । क्रियावाली । उ०— जनसिंधु तरंगवेष्टिता । नगरी थी अब द्वीपचेष्टिता ।— साकेत, पृ० ३४२ ।
⋙ चेस
संज्ञा पु० [अं०] १. एकार का लोहे का चौकठा, जिसके बीच में कंपोज किए हुए टाइप रखकर प्रेस पर छापने के लिये कसे जाते हैं । जब टाइप इसमें रखकर कस दिए जाते हैं । तबफिर वे कहीं इधर उधर खिसक नहीं सकते । २. शतरंज का खेल । यौ०— चेस बोर्ड = शतरंज की बिसात ।
⋙ चेस्टर
संज्ञा स्त्री० [अं०] बडा और लंबा कोट । उ०— चेस्टर में सर्दी से सिकुडता हुआ ।— भस्मावृत०, पृ० १७ ।
⋙ चेहरई (१)
वि० [हिं० चेहरा] हलका गुलाबी (रंग) ।
⋙ चेहरई (२)
संज्ञा स्त्री० १. चित्रकला में मूर्ति की बनावट । २. चेहरे में रंग भरना । ३. वह छडी जिसपर चेहरा बना हो ।
⋙ चेहरा
संज्ञा पुं० [फा० चेहरह] १. शरीर का वह ऊपरी गोल और अगला भाग जिसमें मुँह, आँख, माथा, नाक आदि सम्मिलित है । मुखडा । बदन । यौ०— चेहरा मोहरा = सूरत शकल । आकृति । चेहराशाही = वह रुपया जिसपर किसी बादशाह का चेहरा बना हो । चेहराकुशा = चित्रकार । चेहरानवीश = हलिया लिखनेवाला । चेहराबंदी = हुलिया । मुहा०— चेहरा उतरना— लज्जा, शोक, चिंता या रोग आदि के कारण चेहरे का तेज जाता रहना । चेहरा जर्द होना = चेहरा सूखना । चेहरे का रंग उतर जाना । उ०— क्या बताऊँ हाथों के तोते उड गए ।अरे अब क्या होगा सिपहरआरा का चेहरा जर्द हो गया ।— फिसाना० भा० ३, पृ० २९१ । चेहरा तमतमान = गरमी या क्रोध आदि के कारण चेहरे का लाल हो जाना । चेहरा बिगडना = (१) मार खाने के कारण चेहरे की रंगत फीकी पड जाना । (२) निस्तेज या विवर्ण हो जाना । चेहरा बिगाडना = इतना मारना कि सूरत न पहचानी जाय । बहुत मारना । चेहरा भँपना = किसी के मन की बात जेहरे से जान लेना । चेहरा होना = फौज में नाम लिखा जाना । चेहरे पर हवाइयाँउडना = घबराहट से चेहरे का रंग उतर जाना । २. किसी चीज का अगला भाग । सामने का रुख । आगा । ३. कागज, मिट्टी या धातु आदि का बना हुआ किसी देवता, दानव या पशु आदि की आकृति का वह साँचा जो लीला या स्वाँग आदि में स्वरुप बनने के लिये चेहरे के ऊपर पहना या बाँधा जाता है । प्रायःबालक भी मनोविनोद और खेल के ऐसा चेहरा लगाया करते हैं । क्रि० प्र०—उतारना ।— बाँधना । — लगाना । मुहा० — चेहरा उठान = नियमपूर्वक पूजन आदि के उपरांत किसी देवी या देवता का चेहरा लगाना । विशेष— हिंदुओं का नियम है कि जिस दिन नृसिंह, हनुमान या काली आदि देवी देवताओं का चेहरा उठाना (लगाना) होता है, उस दिन वे दिन भर उस देवी या देवता के नाम से व्रत या उपवास करते हैं; और तब संध्या समय विधिपूर्वक उस देवी या देवता का पूजन करने के उपरांत चेहरा उठाते हैं ।
⋙ चेहल (१)
वि० [फा०] चालीस [को०] ।
⋙ चेहल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहल] दे० 'चहल' ।
⋙ चेहलुम
संज्ञा पुं० [फा०] १. वह रसम जो मुहालमानों में मुहर्रम के चालीसवे दिन होती है ।२. मृत्यु का चालीसवाँ दिन (को०) । ३. उक्त दिन होनेवाला उत्सव ।
⋙ चेहात
क्रि० अ० [हिं० चिहाना] दे० 'चिहाना' ।
⋙ चैबर
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'चेंबर' ।
⋙ चैंसलर
संज्ञा पुं० [अं० चांसलर] दे० 'चैसेलर' ।
⋙ चैंसेलर
संज्ञा पुं० [अ० चांसलर] १ जर्मनी के राष्ट्रपति का अभिधान ।३. यूनिवर्सिटी का प्रधान । विश्वविद्यालय का मुख्य अधिकारी ।चांसलर । विशेष— युनिवर्सिटि में चैंसलर का वही काम है, जो प्रायः सभा समितियों में सभापति का हुआ करता है । चैंसलर के साथ एक सहायक या वाइस चैंसेलर भी होता है । चैंसलर के अधिकांश कार्य प्रायः वाइस चैंसेलर को ही करने पडते हैं ।
⋙ चैँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चैँटी या चोंटी] दे० 'चिउँटी' ।
⋙ चै पु
संज्ञा पुं० [सं० चय] समूह । ढेर ।उ०— उठयो चट चौंकि चहुँ ओर चितवन लग्यो चित्त चिंता जगी चैन चे चोरिगो ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ चैक
पुं० [अं० चेक] दे० 'चेक' ।
⋙ चैकित
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम ।
⋙ चैकितान
वि० [सं०] जो चेकितान के वंश में उत्पन्न हुआ हो ।
⋙ चैकित्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चैकित ऋषि के गोत्र का हो ।
⋙ चैत
संज्ञा पुं० [सं० चैत्र] १. वह चांद्र मास जिसकी पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पडे । फागुन के बाद और बैसाख से पहले का महीना । †२. चैती फसल । रबी की फसल ।
⋙ चैतन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चितस्वरुप आत्मा । चेतन आत्मा । २. ज्ञान । विशेष— न्याय में ज्ञान और चैतन्य को एक ही माना है । और उसे आत्मा का धर्म बतलाया है । पर साँख्य के मत से ज्ञान से चैतन्य भीन्न है । यद्यपि इसमें रुप, रस, गंध आदि विशेष गुण नहीं हैं, तथापी संयोग, विभाग और परिमाण आदि गुणों के कारण सांख्य में इसे अलग द्रव्य माना है और ज्ञान को बुद्धि का धर्म बतलाया है । ३. परमेश्वर । ४. प्रकृति ।५. एक प्रसिद्ध बंगाली वैष्णव धर्मप्रचारक जिनका पूरा नाम श्रीकृष्ण चैतन्यचंद्र था । विशेष— इनका जन्म नवद्वीप में १४०७ शकाब्द के फागुन की पूर्णिमा को रात में चंद्रग्रहण के समय हुआ था । इनकी माता का नाम शची और पीता का नाम जगन्नाथ मिश्र था । कहते हैं बाल्यवस्था में ही इन्होंने अनेक प्रकार की विलक्षण लिलाएँ दिखलानी आरंभ कर दी थीं । पहले इनका विवाह हुआ था, पर पीछे ये संन्यासी हो गए थे । ये सदा भगवदभजन में मग्न रहते थे । पहले इनके शिष्यों और तदुपरांत अनुयायियों की भी संख्या बहुत बढ गई थी । अबभी वंगाल में इनके चलाए हुए संप्रदाय के बहुत से लोग हैं जो इन्हें श्रीकृष्णचंद्र का पूर्ण अवतार मानते हैं । ४८ वर्ष की अवस्था में इनका शरीरांत हो गया था । इनके चैतन्य महाप्रभु और निमाई आदि और भी कई नाम हैं । यौ०—चैतन्यचरितामृत = कृष्णादास कविराज लिखित चैतन्यदेव का जिवनचरित । चैतन्यवाहिनी नाडी = इंद्रियज ज्ञान को मस्तिष्क तक पहुँचानेवाली नाडी । चैतन् संप्रदाय = चैतन्य— देव द्वारा प्रवर्तित मत ।
⋙ चैतन्य
वि० १. चोतनायुक्त ।सचोत ।२. होशियार । सावधान ।
⋙ चैतन्यघन
संज्ञा पुं० [सं०] चैतन्य रुप परमात्मा । उ०— सर्वदिस सब काल, पुरि रहयौ चैतन्यधन । सदा एकरस चाल, बंदन वा परब्रह्म कौ । — ब्रज० ग्रं० , पृ० १०६ ।
⋙ चैतन्यता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चेतनता' ।
⋙ चैतन्यभैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक भैरवी का नाम ।
⋙ चैतन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनाहत चक्र की चौथी मात्रा ।
⋙ चैतसिक
वि० [सं०] चित्त या चेतन संबंधी । उ०— अमुक अमुक प्रकार के सत्वों को जो कायिक और चैतसिक धर्म सामान्य है उनको आगम 'समागत' संज्ञा से प्रज्ञप्त करता है । — संपूर्णा० अबि० ग्रं० , पृ० ३३४ ।
⋙ चैता (१)
संज्ञा पुं० [सं० चित्रित] एक पक्षी जिसका सिर काला छाती चितकवरी और पीठ काली होती है ।
⋙ चैता (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चैत+आ (प्रत्य०)] दे० चैती
⋙ चैतस्वर †
संज्ञा पुं० [हिं० चैत+स्वर] चैत में गाया जानेवाला गीत । चैतागीत (बिहार) ।
⋙ चैती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चैत+ई (प्रत्य०) ] १. वह फसल जो चैत में काटी जाय । रब्बी । क्रि० प्र० — कटना ।—बोना ।—होना । २. जमुआ नील जो चैत में बोया जाता है । ३. एक प्रकार का चलता गाना जो चैत में गाया जाता है ।
⋙ चैती (२)
वि० चैत संबंधी । चैत का । जैसे, — चैती गुलाब ।
⋙ चैतीगौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चैती+गौरी] चैत में संध्या समय गाई जानेवाली एक रागिनी । विशेष 'चैत्रगीडी' ।
⋙ चैतुआ
संज्ञा पुं० [हिं० चैत+उआ (प्रत्य०)] रब्बी की फसल काटनेवाला ।
⋙ चैत्त (१)
वि० [सं०] चित्त संबंधी । चित्त का ।
⋙ चैत्त (२)
संज्ञा पुं० बौद्धों के मत से विज्ञान स्कंध के अतिरिक्त शेष सब स्कंध । विशेष— बौद्ध लोग रुप, वेदना, विज्ञान , संज्ञा और संस्कार ये पाँच स्कंध मानते हैं । वि० दे० 'स्कंध' और 'संज्ञा' ।
⋙ चैतक
वि० [सं०] दे० 'चैत' ।
⋙ चैत्तसिक
वि० [सं०] चित्त या चेतस् संबंधी [को०] ।
⋙ चैत्तिक
वि० [सं०] चित्त या बुद्धि संबंधी [को०] ।
⋙ चैत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान । घर । २. मंदिर । देवाल । ३. वह स्थान जहाँ यज्ञ हो । यज्ञशाला । ४. वृक्षों का वह समूह जो गाँव की सीमा पर रहता है । ५. बुद्ध ६. बुद्धि की मूर्ति । ७. अश्वत्थ का पेड । ८. बेल का पेड । ९. बौद्ध संन्यासी या भिक्षु । १०. बौद्ध संन्यासियों के रहने का मठ । विहार । ११. वह मंदिर जो आदिबुद्ध के उद्देश्य से बना हो । १२. चिता । १३. वल्मीक । बमौट (को०) । १४. भूमिभाग का सूचक पत्थर का ढेर (को०) । १५. समाधिमंदिर (को०) । १६. चिंतन । विचार (को०) । १७. राजमार्गस्थित कोई वृक्ष (को०) । यौ०— चैत्यतरु । चैत्यद्रुम । चैत्यवृक्ष । चैत्यपाल ।
⋙ चैत्य (२)
वि० चिता संबंधी । चिता का ।
⋙ चैत्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ । पीपल । २. चैत्य का प्रधान अधिकारी । ३. वर्तमान राजगृह के पास के एक प्राचीन पर्वत का नाम । विशेष— इस पर्वत पर एक चरणचिह्न है जिनके दर्शनों के लिये प्राय; जैनी वहाँ जाते हैं ।
⋙ चैत्यतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ । पीपल । २. गाँव का कोई प्रसिद्ध वृक्ष ।
⋙ चैत्यद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ । पीपल । २. अशोक का पेड ।
⋙ चैत्यपाल
संज्ञा पुं० [सं०] चैत्य का रक्षक । चैत्यक । प्रधान अधिकारी ।
⋙ चैत्यमुख
संज्ञा पुं० [सं०] कमंडलु ।
⋙ चैत्ययज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जिसका वर्णन आश्वला यन गृह्यमूत्र में आया है । विशेष— प्राचीन काल में इस यज्ञ का संकल्प किसी चीज के खो जाने परऔर अनुष्ठान उस चीज के मिल जाने पर होता था ।
⋙ चैत्यवंदन
संज्ञा पुं० [सं० चैत्यवन्दन] १. जैनियों या बौद्धों की मूर्ति । २. जैनियों या बौद्धों का मंदिर । ३. चैत्य या देवालय संबंधी धन की रक्षा ।
⋙ चैत्यविहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्धों का मठ । २. जैनियों का मठ ।
⋙ चैत्यवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] 'चैत्यतरु' ।
⋙ चैत्यस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ बुद्धदेव की मूर्ति स्थापित हो । २. कोई पवित्र स्थान ।
⋙ चैत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मास जिसकी पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पडे । संवत् का प्रथम मास । चैत । २. सात वर्षपर्वतों में से एक ।३. बौद्ध भिक्षुक । ४. यज्ञभूति । ५. देवालय । मंदिर । ६. चैत्य । ७. पुराणानुसार चित्रा नक्षत्र के गर्भ से उत्पन्न बुध ग्रह का एक पुत्र जो पुराणोक्त सातों द्वीपों का स्वामी माना जाता है ।
⋙ चैत्र (२)
वि० चित्रा नक्षत्र संबंधी । चित्रा । नक्षत्र का ।
⋙ चैत्रक
संज्ञा पु० [सं०] चैत्रमास । चैत्र ।
⋙ चैत्रगौडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ओड़व जाति की एक रागिनी जो संध्या समय अथवा रात के पहले पहर में गाई जाती है । विशेष— कोई कोई आचार्य इसे श्रीराग की पुत्रवधू मानते हैं ।
⋙ चैत्रमख
संज्ञा पुं० [सं०] चैत्र मास के उत्सव जो प्रायः मदन संबंधी होते हैं ।
⋙ चैत्ररथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर के बाग का नाम जो चित्ररथ का बनाया हुआ और इलावर्त खंड के पूरब में अवस्थित माना जाता है । २. एक प्राचीन मुनि का नाम जिनका जिक्र महाभारत में आया है ।
⋙ चैत्ररथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का बाग । चैत्ररथ ।
⋙ चैत्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी जिसका नाम हरिवंश में आया है ।
⋙ चैत्रसखा
संज्ञा पुं० [सं० चैत्रसख] कामदेव । मदन ।
⋙ चैत्रावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चैत्रशुक्ला त्रयोदशी । २. चैत्र की पूर्णिमा । पर्या०— मधुत्सवासुवसत । काममह । वासंती । कर्दमी ।
⋙ चैत्रि
संज्ञा पुं० [सं०] चैतमास । चैत [को०] ।
⋙ चैत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चैत्रि' [को०] ।
⋙ चैत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्रा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा । चैत की पूर्णिमा ।
⋙ चैत्री (२)
संज्ञा पुं० [सं० चैमिन्] चैतमास [को०] ।
⋙ चैदिक
वि० [सं०] चोदि देश संबंधी । चोदि देश का ।
⋙ चैद्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुपाल ।
⋙ चैद्य (२)
वि० चेदि संबंधी । चेदि का [को०] ।
⋙ चैन (१)
संज्ञा पुं० [सं० शयन] १. आराम । सुख । आनंद । क्रि० प्र० — आना । — करना । देना । — पडना । — मीलना । होना । मुहा०— चैन उडाना = चैन करना । आनंद करना । चैन पडना = शांति मिलना । सुख मिलना । चैन से कटना = सुखपूर्वक समय बितना । चैन की बाँसुरी बजाना = आनंद का भोग करना । २. शांति । मानसिक शांति ।
⋙ चैन (२)
संज्ञा पुं० [सं० चैलक ?] एक नीच जाति ।
⋙ चैपला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी । उ०— कहत पीपलौ पीपली, नितहि चैपला आइ । मीत खूब यह अरथ कौ समझ लिहु चित लाइ ।— रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ चैयाँ पु †
संज्ञा स्त्री० [?] बाँह । उ०— चैयाँ चैयाँ गहौ चैयाँ बैयाँ बैयाँ ऐसे बोल्यो । सूर (शब्द०) ।
⋙ चैराही †
वि० [हिं०] दे० 'चोहरई' (रंग) ।
⋙ चैल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपडा । वस्त्र । २.पहनने के योग्य बना हुआ कपडा । पोशाक । यौ०—चैलधावक = धोबी ।
⋙ चैलक
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र पिता और क्षत्रिया माता से उत्पन्न एक प्राचीन वर्णसंकर जाति ।
⋙ चैला
संज्ञा पुं० [हिं० चीरना, छीलना] [स्त्री० अल्पा चैली] कुल्हाडी से चीरी हुई लकडी का टुकडी जो जलाने के काम में आता है । फट्ठा ।
⋙ चैलाशक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छोटा कीडा जो कपडे में लगनेवाले कीडों को खाता है ।
⋙ चैलिक
संज्ञा पुं० [सं०] कपडे का टुकडा ।
⋙ चैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चैला] १. लकडी का छोटा टुकडा जो छीलने या काटने से निकलता है । २. जमे हुए खून का टुकडा या लच्छा जो गरमी के कारण नाक से निकलता है । क्रि० प्र०— गिरना ।— पडना ।
⋙ चैलेंज
संज्ञा पुं० [अं०] किसी प्रकार लडने, झगडने अथवा मुकाबला या वादविवाद आदि करने के लिये दी हुई ललकार । चिनौती । चुनौती । क्रि० प्र०— करना ।— देना ।— मिलना ।
⋙ चौँ †
अव्य०[फा० चूँ] क्यों । उ०— 'चना के लडुआ चों लायौ, मेरे पीहर में जलेबी रसदार' ।— पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० ८७६ ।
⋙ चोँक पु
संज्ञा स्त्री० [?] वह चिहन जो चुंबन में दाँत लग जाने के कारण गाल पर पड जाता है । उ०— चहचही चुभके चुभी हैं चोंक चुंबन की लहलही लाँमी लटैं लटकी सुलक पर ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ चोंकना †
क्रि० स० [हिं० चोंका से नामिक धातु] १. स्तन मुँह से लगाकर दूध पीना । २. पानी पीना ।
⋙ चोँकर †
संज्ञा पुं० [हिं० चोकर] दे० 'चोकर' ।
⋙ चोँका
संज्ञा पुं० [सं० चूषण या देश०] १. चुसने की क्रिया या भाव । २. गाय या भैंस के स्तन को दबाकर उससे दूध की धारा फोडकर मुँह में डालना । मुहा०— चोंका पीना = (१) बच्चों का माँ के स्तन में मुँह लगाकर दूध पीना । (२) गाय या भैंस के स्तन से धार फोडकर मुँह में डालना ।
⋙ चोँकूटा †पु
वि० [हिं० चौखूँटा] चौखूंटा । चतुष्को । उ०— किए रुपइया एकठे चोकूटे अरु गोल । रीते हाथिन वै गए सु हरि बोलौ हरि बोल । सुंदर० ग्रं० , भा० १ पृ० ३१५ ।
⋙ चोँख पु
वि० [हिं० चोखा] दे० 'चोखा' । उ०— अबतो पियहु चोंख मद मेरा । होइ की पूजै कारजतोरा । — इंद्रा०, पृ० ७९ ।
⋙ चोँखना †
क्रि० स० [हिं० ] दे० 'चोखना' ।
⋙ चोँगा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चुंगी] बाँस की वह खोखली नली या पोर जिसका एक सिरा गाँठ के कारण बंद हो और दूसरा सिरा घुला हो । सोनार आदि इसमें प्रायः अपने औजार रखते हैं । २. इस आकार की कागज आदि की बनी हुई नली जो कोई चीज रखने के लिये बनाई जाय ।
⋙ चोँगा † (२)
वि० [हिं०] अनाडी । मूर्ख । बेवकूफ ।
⋙ चोँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोंगा का स्त्री० अल्पा०] भाथी में की वह नली जिसके द्वारा होकर हवा निकलती है ।
⋙ चोँघना पु
क्रि० स० [हिं० चुगना] दे० 'चुगाना' । उ०— कबिरा टुक टुक चोंघता, पल पल गई बिहाय । जीव जँजालों परि रहा, दिया दमामा आय ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ चोँघा †
वि० [हिं० ] बेवकुफ । मूर्ख । नासमझ ।
⋙ चोँच
संज्ञा स्त्री० [सं० चञ्चु] १. पक्षीयों के मुँह का अगला भाग जो हड्डी का होता है और जिसके द्वारा वै कोई चीज उठाते, तोडते और खाते हैं । पक्षियों के लिये यह सम्मिलित हाथ, होंठ और दाँत का काम देती है । टोंट । तुंड । २. मुँह । (हास्य या व्यंग्य में) । जैसे, — बहुत हुआ , अब अपनी चोंच बंद करो । मुहा०— चोंच खोलना = बात कहना । उ०— जवाब जरुर दो देखें तो क्या कहती हो । जरा चोंच तो खोलो ।— फिसाना० भाग ३, पृ० ५८३ । दो दो चोंचे होना = कहा सुनी होना । कुछ लडाई झगडा होना । चोंच बंद करना या कराना = भय से चुप रहना या भय दिखाकर चुप करना ।
⋙ चोँचला †
संज्ञा पुं० [हिं० चोचला] दे० 'चोचला' ।
⋙ चोँचाल
वि० [हिं० चंचल या चोचला] चंचल । चपल । नटखट उ०— रामू कितना चोंचाल था— गोदान, पृ० २९९ ।
⋙ चोँटना पु
क्रि० स० [हिं० चोकोटी या अनु०] नोचना । तोडना । उ०— बढत निकसि कुच कोर रुचि, कढत गौर भुजमूल । मनु लुटि गौ लोटनु चढत चोंटत ऊँचे फूल । — बिहारी र०, दो० ६९५ ।
⋙ चोँटली
संज्ञा स्त्री० [? ] सफेद घुँघची ।
⋙ चोँडा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० चूडा] १. स्त्रियों के सिर के बाल । जूडा । झोंटा । मुहा०— चोंडे पर (कोई काम करना) = सिर पर चढकर या सामने होकर (कोई काम करना) । २. सिर । माथा । मस्तक ।
⋙ चोंडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० चुणडा (= छोटा कुआँ)] वह छोटा कच्चा कुआँ जो खेत के आसपास सिंचाई के लिये खोद लिया जाता है ।
⋙ चोँतरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौतरा] दे० 'चबूतरा' । उ०— अपने चोंतरा पर बैठे हतो । दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३०० ।
⋙ चोँथ (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] गाय भैंस आदि के उतने गोबर का ढेर जितना हगते समय एक बार गिरे । मुहा०— चोंथ लगाना = हगकर गुह का ढेर लगाना ।
⋙ चोँथ (२)
संज्ञा स्त्री०[हिं० चोंथना] चोंथने की क्रिया या भाव ।
⋙ चोँथना †
क्रि स० [अनु०] १. किसी चीज में से उसका कुछ अंश बुरी तरह फाडना या नोचना । चीथना । २.हाथापाई में बुरी तरह घायल करना । नोचना बकोटना । ३. किसी का घन जबरदस्ती ले लेना ।
⋙ चोँधना †
क्रि० स० [हिं० चोघना] दे० 'चोँघना' ।
⋙ चोँधर
वि० [हिं० चौधियाना] १. जिसकी आँखें बहुत छोटी हों । २. मूर्ख । गावदी ।
⋙ चोँधरा †
वि० [हिं० चोंधर] दे० 'चोंधर' ।
⋙ चोँप (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० चोप] दे० 'चोप' ।
⋙ चोँप (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोब] दे० 'चोब' ।
⋙ चोँहका †
संज्ञा पुं० [हिं० चोंका] दे० 'चोंका' ।
⋙ चोआ
संज्ञा पुं० [हिं० चुआना (= टपकाना)] १. एक प्रकार का सुगंधित द्रव पदार्थ जो कई गंधद्रव्यों को एक साथ मिलाकर गरमी की सहायता से उनका रस टपकाने से तैयार होता है । विशेष—इसके तैयार करने की कई रीतियाँ हैं — (क) चंदन का बुराद, देवदार का बुरादा और मरसे के फूलों को एक में मिलाते और गरम करके उनमें से रस टपकाते हैं । (ख) केसर, कस्तूरी आदि को मरसे के फूलों के रस में मिलाते और गरम करके उसमें से रस टपकाते हैं । (ग) देवदार के निर्यास को गरम करके टपकाते हैं । २. वह कंकड, पत्थर या इसी प्रकार की और कोई चिज जो किसी बाट की कमी को पूरा करने के लिये पलडे पर रखी जाती है । पसँगा । ३. खेल में लगे हुए दो समूहों में से किसी समूह का वह आदमी किसी खिलाडी के थक जाने पर या चोट खाने पर उसके स्थान पर खेलता है । मुहा०— चोवा लगना = किसी की ओर से कोई काम करना । ४. वह थोडी चीज जो किसी प्रकार की कमी पूरी करने के लिये उसी जाति की अधिक चीज के साथ रखी जाती है । ५. वह दाँव जो मुख्य जुआरी के साथ दूसरे जुआरी छोटी रकम के रुप में लगाते हैं । ६. दे० 'चोटा' या 'छोवा' ।
⋙ चोईँ †
संज्ञा स्त्री० [?या हिं०] कुछ मछलियों के शरीर पर होनेवाला गोलाकार छिलका ।
⋙ चोई
संज्ञा स्त्री० [?] दाल का वह छिलका जो उसको भिगो और मलकर अलग किया जाता है और जो दाल चुरते समय आपसे आप दाने से अलग होकर ऊपर उतरा जाता है । कराई ।२. मछली के ऊपर का चमकदार छिलका ।
⋙ चोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भडभाँड या सत्यानासी नामक क्षुप की जड जिसका व्यवहार ओषधि में होता है ।
⋙ चोका (२)
संज्ञा पुं० [चोआ] चोआ नाम का गंधद्रव्य । उ०— केसर अगर कपूर, चोक (व) वेदोकत चन्नण । — रा० रु०, पृ० ३५९ ।
⋙ चोकर
संज्ञा पुं० [देश० या हिं० चून (= आटा)+कराई (= छिलका)] आटे का वह अंश जो छानने के बाद छलनी में बच जाता है । यह प्रायःपीसे हुए अन्न (गेहूँ, जौ आदि) की भूसी या छिलका होता है ।
⋙ चोकस
वि० [गुज० चोकस, हिं० चौकस] टे० 'चौकस' । उ०— एक भाइ चोकस हतो । दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २०९ ।
⋙ चौका (१) †
संज्ञा पुं० [सं० चुषण] चूसने की क्रिया । चूसना । मुहा० — चोका लगाना = मुँह लगाकर चूसना । उ०— ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधर रस लेंहीं ।— जायसी ग्रं०, पृ० १४० ।
⋙ चोका † (२)
वि० [हिं० चोखा] दे० 'चोखा' ।
⋙ चोकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकी] दे० 'चौकी' ।
⋙ चोक्ष
वि० [सं०] १. शुद्ध । पवित्र । २. दक्ष । होशियार । ३. तीक्ष्ण । तेज । ४. जिसकी प्रशंसा की गई हो ।
⋙ चोख (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोखा] तेजी । फुरती । वेग । उ०— एक जे सयाने भर माठी जल आने लै चढाए धाम धाम फेट बाँधि ठाढे चोख सों ।— हनुमान (शब्द०) ।
⋙ चोख (२)
वि० [सं० चोक्ष] दे० 'चोखा' ।
⋙ चोख † (३)
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु, हिं० चख] आँख (बँग०) ।
⋙ चोखना †
क्रि० स० [सं० चूषण हिं० चूसना] चूसना या चूसकर पीना ।
⋙ चोखना (२)
क्रि० अ० १. स्तनपान किया जाना (बच्चों द्वारा) । २. दुहा जाना (गाय आदि का) । ३. धार तेज किया जाना ।
⋙ चोखना (३) †
संज्ञा पुं० [सं० चिक्किर] चूहा । मूसा ।
⋙ चोखनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोखना] चोखने की क्रिया या भाव । चूषण ।
⋙ चोखा (१)
वि० [सं० चोक्ष] १. जिसमें किसी प्रकार का मैल, खोट या मिलावट आदि न हो । जो शुद्ध और उत्तम हो । जैसे,— चोखा घी, चोखा माल । २. जो सच्चा और ईमानदार हो । खरा । जैसे,— चोखा असामी । ३. जिसकी धार तेज हो । धारदार । ४. सबमें चतुर या श्रेष्ठ । जैसे, तुम्हीं चोखे निकले जो अपना सब काम करके छुट्टी पा गए ।
⋙ चोखा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. उबाले या भूने हुए बैगन, आलू या अरुई आदि को नमक मिर्च आदि के साथ मलकर (और कभी कभी घी या तेल में छौंककर) तैयार किया हुआ सालन । भरता । भुरता । २. चावल ।— (डीं०) ।
⋙ चोखी
वि० स्त्री० [हिं० चोखा]दे० 'चोखा'१ । मुहा०— चोखी चुटकियाँ लेना = खिल्ली उडाना । उ०— उनकी चूक पर चोखी चुटकियाँ ले उनकी अंतरात्मा दुखाई जाय ।— प्रेमधन०, भा० २, पृ० ४६७ । चोखी छुरी चलाना = चुभती बात कहना । उ०— उन्हीं पर अपनी जीभ की चोखी छुही चलाते ।— प्रेमघन० , फा० २, पृ० २०६ ।
⋙ चोंखाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोखा+ई (प्रत्य०)] 'चोखा' का भाव । चोखापन ।
⋙ चोखाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोखना] 'चोखना' का भाव या काम । चूसने की क्रिया या भाव । चुसाई ।
⋙ चोखाना (१)
क्रि० स० [हिं० चौखना] १. स्तनपान करना (बच्चों द्वारा) । २. (गाय आदि का) दूध दुहना । ३. धार चोखी करना ।
⋙ चोखाना (२) †
क्रि० अ० [हिं० चोख से नामिक धातु] उग्र होना । प्रचंड होना । जैसे, — किसके बूते पर इतना चोखाते हो ?
⋙ चोगडद पु †
क्रि० वि० [हिं० चौगिंद] दे० 'चौगिर्द' । उ०— पाँच सात छोरा चोगडदे बैंडो कहि कहि बोलै । — राम० धर्म० पृ० ४५ ।
⋙ चोगद
संज्ञा पुं० [हिं० चुगद] दे० 'चुगद' ।
⋙ चोगर
संज्ञा पुं० [फा० चुगद] वह घोडा जिसकी आँखे उल्लू की सी हों । विशेष— ऐसा घोडा ऐबी समझा जाता है ।
⋙ चोगा (१)
संज्ञा पुं० [तुं० चोगा] पैरों तक लटकता हुआ बहुत ढिला ढाला एक प्रकार का पहनावा जिसका आगा बंद नहीं होता और जिसे प्रायः बडे आदमी पहलते हैं । लबादा ।
⋙ चोगा (२)
संज्ञा पुं० [हिं चुगा] दे० 'चुगा' ।
⋙ चोगान †
संज्ञा पुं० [हिं० चौगान] दे० 'चौगान' ।
⋙ चोच
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाल । वल्कल ।२. चमडा । खाल । ३. तेजपत्ता । ४. दालचीनी । ५. नारियल । ६. केला । ७. फल का वह अश जो खाद्य न हो (को०) ।८. तालफल । ताड का फल (को०) ।
⋙ चोचक
संज्ञा पुं० [सं०] वल्कल । छाल(को०) ।
⋙ चोचलहाई †
वि० स्त्री० [हिं० चोचला+हाई (प्रत्य०)] चोचला करनेवाली । नखरेबाज ।
⋙ चोचला
संज्ञा पुं० [अनु०] १. अंगों की वह गति या चेष्टा जो प्रिय के मनोरंजनार्थ । या किसी को मोहित करने के लिये अथवा हृदय की किसी प्रकार की, विशेषतः जवानी की, उमंग में की जाती है । हाव भाव । २. नखरा । नाज । यौ— चोचनेबाज = नखरेबाज । चोचलेबाजी = नखरा या नखरे- बाजी । मुहा.— चोंचला दिखाना या बघारना = प्रसन्न करने के लिये हाव भाव दिखाना ।
⋙ चोज
संज्ञा पुं० [सं० √ चुद्] १. वह चमत्कारपूर्ण उक्ति जिससे लोगों का मनोविनोद हो । दूसरों को हँसानेवाली युक्तिपूर्ण बात । सुभाषित ।२. हँसी ठट्ठा , विशेषतः व्यग्यपूर्ण उपहास । उ०— किहि के बल उत्तर दीजै उन्हें सो सुनै बनै चोज चवाइन को ।— प्रताप(शब्द०) ।
⋙ चोज्य पु
वि० [देश०] स्वादु । स्वादयुक्त । उ०— भक्ष्य भोज्य अह लेज्य चोज्य ओ चोस्य पेय ले अमित भरें । ब्रज० ग्रं० , पृ० १६८ ।
⋙ चोट
संज्ञा स्त्री० [सं० चुट (= काटना)] १. एक वस्तु पर किसी दूसरी वस्तु का वेग के साथ पतन या टक्कर । आघात । प्रहार । मार । जैसे,— लाठी की चोट, हथौडे की चोट । उ०— पत्थर की चोट से यह शीशा फूटा है । — (शब्द०) । क्रि० प्र० — देना ।— पडना ।— पहुँचाना ।— मारना ।— लगना ।— लगाना ।— सहना । मुहा०— चोट खाना = आघात ऊपर लेना । प्रहार सहना । २. आघात या प्रहार का प्रभाव । घाव । जख्म । जैसे, — (क) चोट पर पट्टी बाँध दो । (ख) उसे सिर में बडी चोट आई । यौ०— चोट चपेट = घाव । जख्म । क्रि० प्र०— आन ।— पहुँचना ।—लगना । मुहा०—चोट उभरना = चोट में फिर से पीडा होना । चोट खाए हुए स्थान का फिर से दर्द करना । ३. किसी को मारने के लिये हथियार आदि चलाने की क्रिया । वार । आक्रमण । क्रि० प्र.— करना ।— सहना । मुहा.— चोट खाली जाना = वार का निशाने पर न बैठना । आक्रमण व्यर्थ होना । चोट बचाना = चोट न लगने देना ।४. किसी हिंसक पशु का आक्रमण । किसी जानवर का काटने या खाने के लिये झपटना । जैसे, —यह जानवर आदमियों पर बहुत कम चोट करता है । क्रि० प्र० — करना । ५. हृदय पर का आघात । मानसिक व्यथा । मर्मभेदी दुःख । शोक । संताप । जैसे, — इस दुर्घटना से उन्हें बडी चोट पहुँची । ६. किसी के अनिष्ट के लिये चली हुई चाल । एक़ दूसरे को परास्त करने की युक्ति । एक दूसरे की हानि के लिये दाँव पेंच । चकाचकी ।जैसे, — आजकल दोनों में खूब चोटें चल रही हैं । क्रि० प्र०— चलना । ७. व्यंग्यपूर्ण विवाद । आवाजा । बौछार । ताना । जैसे,— इन दोनों कवियों में खूब चोटें चलती हैं । ८. विश्वासघात । धोखा । दगा । जैसे,— यह आदमी ठीक वक्त पर चोट कर जाता है । ९. बार । दफा । मरतबा । उ०— (क) आओ एक चोट हमारी तुम्हारी हो जाय । (ख) कल यह बूलबूल कईचोट लडा । विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसे ही कार्यों के लिये होता है जिसमें विरोध की भावना होती है ।
⋙ चाटइल †
वि० [हिं० चोट+ इल (प्रत्य०)] दे० 'चूटैल' ।
⋙ चोटडियाल पु †
वि० [हिं० चोटडी+याल (प्रत्य)] चोटीवाला । उ०— बहलायण आतुर मेघ वले । जिम चोटडियाल समुद्र चले ।— रा० रु० , पृ० १०४ ।
⋙ चोटडी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोटी] चुटीया । शिखा ।
⋙ चोटना
क्रि० स० [हिं० चोटना] दे० 'चकोटना' । उ०— चोटले के समान पीडा होय, यह मांस मेदोगत वायु का लक्षण है ।— माधव० , पृ० १३५ ।
⋙ चोटहा
वि० [हिं० चोट+हा (प्रत्य०)] [स्त्री० चोटही] जिसपर आघात का चिह्न हो । जिसपर चोट या निशान हो ।
⋙ चोटहिल †
वि० [हिं० चोट+हिल (प्रत्य०)] दे० 'चोटइल' ।
⋙ चोटा
संज्ञा पुं० [हिं० चोआ ] राब का वह पसेव जो उसे कपडे में रखकर दबाने या छानने से निकलता है । इसका व्यवहार प्रायः तंबाकू या देशी शराब स्पिरिट आदि बनाने में होता । लपटा । ओआ । माठ । छोआ । जूसी ।
⋙ चोटना (१) †
क्रि० अ० [हिं० चोट से नामिक धातु] चोट खाना । घायल हो जाना ।
⋙ चोटाना (२) †
क्रि० स० चोट या प्रहार करना ।
⋙ चोटार †
वि० [हिं० चोट+आर (प्रत्य०)] १. चोट करनेवाला । चोट पहुँचानेवाला । उ०— आयसि कवनेउ ओखा सुगना सार । परिगौ दास अधरवा चोट चोटार । — रहीम (शब्द०) । २. चोट खाया हुआ । चुटैल ।
⋙ चोटारना †
क्रि० अ० [हिं० चोटार+ना] १. चोट करना । उ०— पहले निहारि नैन चोटनि चोटारि फेरि हाय मोहिं सौप्यो पास प्यारी पंचसर के । रसकुसुमाकर (शब्द०) ।२. थोड़ा थोड़ा कुचलना । कुचकुचाना (कच्चा आम आँवला आदि) ।
⋙ चोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लहँगा (को०) ।
⋙ चोटियाल †
वि० [चोट+इयल (प्रत्य०)] चोट करनेवाला । चुटैल ।
⋙ चोटिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोटी+इया (प्रत्य०)] दे० 'चोटी' ।
⋙ चोटिया † (२)
संज्ञा पुं० चोटीधारी । चोटीवाला । छात्र ।
⋙ चोटियाना (१) †
क्रि० स० [हिं० चोट से नामिक धातु] चोट लगाना वा मारना ।
⋙ चोटियाना (२)
क्रि० स० [हिं० चोटी] १. चोटी पकडना । २. बल- प्रयोग करना ।
⋙ चोटियाल पु †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गीत । विशेष— गरवत गीत के दो दो पदों के बाद दस मात्राएँ रखकर तुकांत करने से चोटियाल गीत बनता है । जैसे,— गरवत कीजै गीत, पद दुय, दुय रे ऊपरैं । मोहरा दसकल गीत, चोटियाल तिणनूँ चवँ ।— रघु० रू० , पृ० १३० ।
⋙ चोटियाल (२) †
वि० [हिं० चोटी] [वि० स्त्री० चोटियाली] लंबे केशोवाला ।
⋙ चोटियाल (३) †
संज्ञा पुं० भूत । प्रेत । पिशाचादि ।
⋙ चोटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चूडा] १. सिर के मध्य में के थोडे़ से और कुछ बडे़ बाल जो प्रायः हिंदू नहीं मुड़ाने या काटते । शिखा । चुंदी । मुहा०—चोटी कटाना = (१) साधु या संन्यामी होना । (२) बस में होना (ला०) । चोटी कतरना = बस में करना । चोटी दबाना = दे० 'चोटी हाथ में होना' । चोटी रखना = चोटी के लिये सिर के बीच के बाल बढ़ाना । (किसी की) चोटी (किसी के) हाथ में होना = किसी प्रकार के दबाव में होना । काबू में होना । जैसे,— अब वे कहाँ जाँयगे उनकी चोटी तो हमारे हाथ में है । यौ०—चोटीवाला । २. एक में गुँथे हुए स्त्रियों के सिर के बाल । मुहा०— चोटी करना = सिर के बालों को एक में मिलाकर गूँथना । वि० दे० 'कंघी चोटी करना' । क्रि० प्र० — गूँधना । — बाँधना । ३. सूत या ऊन आदि का वह डोरा जिसके व्यवहार स्त्रियों को चोटी गूँधने और अंत में बालों को बाँधने में होता है । ४. पान के आकार का एक प्रकार का आभूषण जिसे स्त्रीयाँ अपने जूडे़ में खोंसती या बाँधती हैं । ५. पक्षियों के सिर के वे पर जो आगे की ओर ऊपर उठे रहते हैं । कलगी । ६. सबसे ऊपर का उठा हुआ भाग । शिखर । जैसे, — पहाड़ की चोटी । मकान की चोटी । मुहा०— चोटी का = सबसे बढ़िया । अच्छा । सर्वोत्तम । ७. चरम सीमा । जैसे, — आजकल दाल का भाव चोटी पर है ।
⋙ चोटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लहँगा । साया । पेटीकोट [को०] ।
⋙ चोटीदार
वि० [हिं० चोटी+फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिसके चोटी हो । चोटीवाला ।
⋙ चोटीपोटी †
वि० स्त्री० [देश०] १. चिकनी चुपड़ी (बात) ।खुशामद से भरी हुई (बात) । २. झूठी या बनावटी (बात) । इधर उधर की (बात) । उ०— तुम जानति राधा है छोटी । चतुराई अँग अँग भरी है पूरन ज्ञान न बुद्धि की मोटी । हम सों सदा दुरावति सो यह बात कहत मुख चोटी पोटी । — सूर (शब्द०) ।
⋙ चोटीवाला
संज्ञा पुं० [हिं० चोटी+वाला] भूत, प्रेत या पिशाच ।
⋙ चोट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+टा (प्रत्य०)] [स्त्री० चोट्टी] वह जो चोरी करता है । चोर । यौ०— चोंठ्टी का या चोट्टी वाला = एक प्रकार की गाली ।
⋙ चोड़
संज्ञा पुं० [सं० चोड] १. उत्तरीय वस्त्र । २. चोल नामक प्राचीन देश । ३. कुरती । अंगिया । चोली (को०) ।
⋙ चोड़क
संज्ञा पुं० [सं० चोडक] एक प्रकार का पहनने का कपड़ा ।
⋙ चोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० चोडा] बड़ी गोरखमुंडी ।
⋙ चोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० चोडी] १. स्त्रियों के पहनने की साड़ी । २. कुरती । चोली (को०) ।
⋙ चोढ़ †
संज्ञा पुं० [?] उमंग । उ०— गूज गरे सिर मोरपखा मतिराम हों गाय चरावत चोढे़ । —मतिराम ग्रं०, पृ० ३४८ ।
⋙ चोतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दालचीनी । २. छाल । वल्कल ।
⋙ चोथ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चोंथ' ।
⋙ चोथना †
क्रि० स० [हिं० चोंथना] १. नोचना । २. फाड़ना ।
⋙ चोथाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोंथ + आई (प्रत्य०)] १. चोंथने का काम या स्थिति । २. चोंथने की मजदूरी ।
⋙ चोद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाबुक । २. वह लंबी लकड़ी जिसके सिरे पर कोई तेज और नुकीला लोहा लगा हो ।
⋙ चोद (२)
वि० प्रेरक (को०) ।
⋙ चोदक (१)
वि० [सं०] चोदना करनेवाला । प्रेरणा करनेवाला । कोई काम करने के लिये उकसानेवाला ।
⋙ चोदक (३)
संज्ञा पुं० । कार्य में प्रवृत्त करानेवाला विधि वाक्य (को०) । यौ०—चोदकवाक्य ।
⋙ चोदक्कड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चोदना] बहुत अधिक स्त्रीप्रसंग करनेवाला । अत्यंत कामी । — (बाजारू) ।
⋙ चोदक्कड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुदना या चुदक्कड़] बहुत चोदवानेवाली स्त्री ।
⋙ चोदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चोदना' (१) ।
⋙ चोदना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह वाक्य जिसमें कोई काम करने का विधान हो । विधि वाक्य । २. प्रेरणा । ३. योग आदि के संबंध का प्रयत्न ।
⋙ चोदना
क्रि० स० स्त्रीप्रसंग करना । संभोग करना । सयो० क्रि०— डालना । — देना ।
⋙ चोदवास †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चोदास' ।
⋙ चोदवासा †
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० चोदवासी] दे० 'चोदासा' ।
⋙ चोदाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोदना+ई (प्रत्य०)] १. चोदने की क्रिया । संभोग । २. चोदने का भाव ।
⋙ चोदास
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोदना+आस (प्रत्य०)] स्त्री को पुरुषप्रसंग की अथवा पुरुष को स्त्रीप्रसंग की प्रबल कामना । कोमेच्छा । क्रि० प्र० —लगना ।
⋙ चोदासा
वि० पुं० [हीं० चोदास] [वि० स्त्री० चोदासौ] जिसे चोदास लगी हो । जिसे संभोग की प्रबल इच्छा हो ।
⋙ चोदू (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चोदना ] दे० 'चोदक्कड़' ।
⋙ चोडू (२)
वि० [हिं० चोदू (= चूतिया)] कायर । डरपोक । उ०— मंगण मिलेयाँ रोय दे, चोदू खूँब कहाय । —बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३८ ।
⋙ चोद्य (१)
वि० [सं०] जो प्रेरणा करने योग्य हो ।
⋙ चोद्य (२)
संज्ञा पुं० १. प्रश्न । सवाल । २. वादविवाद में पूर्वपक्ष ।
⋙ चोप पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चाव] १. चाह । इच्छा । ख्वाहिश । २. चाव । शौक । रुचि । उ०— दै उर जेब जवाहिर का पुनि चोप सो चूँदरि लै पहिरावत । —सुंदरी सिंदूर (शब्द०) । ३. उत्साह । उमंग । उ०— (क) अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप । मनहु मत्त गजगन निरखि सिंघ किसोरहि चोप — मानस १ ।२६७ । (ख) चीर के चोंच चकोरन की मनो चोप ते चंग चुवावत चारे ।— (शब्द०) । क्रि० प्र० — चढ़ना । ४. बढ़ावा । उत्तेजना । क्रि० प्र० — देना ।
⋙ चोप (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चूना (—टपकना)] कच्चे आम की ढेपनो का वह रस जो उसमें से सींके तोड़ते समय बहता है । विशेष— इसका असर तेजाब का सा होता है । शरीर में जहाँ लग जाता है, वहाँ छाला पड़ जाता है ।
⋙ चोप (३)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० चोब] दे० 'चोब' ।
⋙ चोपदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० चोबदार] दे० 'चोबदार' ।
⋙ चोपन (१)
वि० [सं०] हिलने डुलनेवाला [को०] ।
⋙ चोपन (२)
संज्ञा पुं० मंदगति ।
⋙ चोपड़ (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चुपड़ना] घी तेल इत्यादि स्नेह पदार्थ । जो चुपड़ा जा सके । उ०— कापड़ चोपड़ पान रस, दे सह खाँचै दाम ।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६० ।
⋙ चोपड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौपड़] दे० 'चोपड़' । उ०— सो श्री गोवर्धन नाथजी आप वासों बाते करें, चोपड़ खेलें । — दो सौ बावन०, भा० पृ० ८२ ।
⋙ चोपना पु
क्रि० अ० [हिं० चोप ] किसी वस्तु पर मोहित हो जाना । मुग्ध हो जाना ।
⋙ चोपरना पु
क्रि० स० [हिं० चुपड़ना] दे० 'चुपड़ना' । उ०— तेल फुलेल कहा चोपरना । समुझि देखि निश्चै करि मरना ।— सुंदर ग्रं० भा० १, पृ० ३३४ ।
⋙ चोपी (१)पु
वि० [हिं० चोप] १. इच्छा रखनेवाला । चाह रखने— वाला । २. जिसके मन में उत्साह हो । उत्साही ।
⋙ चोपी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोप+ई (प्रत्य०)] कच्चे आम की ढेपी तोड़ देने पर निकलनेवाला रस । चोप ।
⋙ चोब
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. शामियाना खड़ा करने का बड़ा खंभा । २. नगाड़ा या ताशा बजाने की लकड़ी ।३. सोने या चाँदि से मढ़ा हुआ डंडा । यौ०— चोबदार । ४. छड़ी । सोंटा । डंडा ।
⋙ चोबकारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] एक प्रकार का जरदोजी का काम ।
⋙ चोबचीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] एक काष्ठौषध । विशेष— यह चीन और जापान में होनेवाली एक लता की जड़ है जिसके पत्ते अश्वगंधा के पत्रों के समान होते हैं । इसका रंग कुछ पीलापन लिए हुए सफेद होता है । यह रक्तशोधक होती है और गरमी तथा गठिया आदि की दवाओं में पड़ती है । वैद्यक में इसे तिक्त, उष्णवीर्य, अग्निदीपक, मलमूत्र शोधक और शूल, वात फिरंग, उन्माद तथा अपस्मार आदि रोगों को दूर करनेवली कहा है ।
⋙ चोबदस्त, चोबदस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] लाठी (को०) ।
⋙ चोबदार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह नौकर जिसके पास चोब या असा रहता है । असाबरदार । विशेष— ऐसे नौकर प्रायः राजों, महाराजों और बहुत से रईसों की ड्यौढ़ियों पर समाचार आदि ले जाने और ले आने तथा इसी प्रकार के दूसरे कामों के लिये रहते हैं । सवारी या बारात आदि में ये आगे आगे चलते हैं ।
⋙ चोबा
संज्ञा पुं० [हिं० चोब] दे० 'चोब' —१ ।
⋙ चोबी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोब] दे० 'चोब' । उ०— छिमा भाव सहज की चोबी झोरी ज्ञान की डोरी । — कबीर० श०, भा० ३, पृ० ४२ ।
⋙ चोभ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुभना] १. चुभने की स्थिति या भाव । चुभन । २. चुभनेवाली चीज ।
⋙ चोभना †
क्रि० स० [हिं० चोभ] दे० 'चुभाना' ।
⋙ चोभा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० चोभना] १. वह पोटली जिसमें कई दवाएँ बँधी होती हैं और जिसमें शरीर के किसी पीड़ित अंग विशेषतः आंख को सेंकते हैं । लोथा । मुहा०— चोभा देना = औषध को पोटली में बाँधकर उससे शरीर के किसी पीडित अग को सेंकना । २. एक प्रकार का औजार जिसमें लकड़ी के दस्ते या लट्टू में आगे की ओर चार पाँच मोटी सूइयाँ रहती हैं । विशेष— इस औजार से आँवले या पेठे आदि का मुरब्बा बनाने के पहले उसे इसलिये कोंचते हैं कि उसके अंदर तक रस या शीरा चला जाय ।
⋙ चोभकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोभना+फ़ा० कारी] बहुमूल्य पत्थरों पर रत्नों या सोने आदि का ऐसा जड़ाव जो कुछ उभरा हुआ हो ।
⋙ चोभाना †
क्रि० स० [हिं० चुभाना] दे० 'चुभाना' ।
⋙ चोम
संज्ञा स्त्री० [अ० जोम] १. जोश । उत्साह । २. गर्व । घमंड । अभिमान (राज०) ।
⋙ चोया
संज्ञा पुं० [हिं० चोआ] दे० 'चोआ' ।
⋙ चोर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो छिपकर पराई वस्तु का अपहरण करे । स्वामी की अनुपस्थिति या अज्ञानता में छिपकर कोई चीज ले जानेवाला मनुष्य । चूराने या चोरी करनेवाला । मुहा०— चोर की दाढ़ी में तिनका = चोर का सशंकित रहना । चोर के घर छिछोर = दे० 'चोर के घर ढिंढोर' । चोर के घर ढिंढोर = पक्के बदमाश से किसी नौसिखुए का उलझना । चौर के घर में मोर पड़ना = धूर्त के साथ धूर्तता होना । चोर के पाँव कितने = चोर की हिम्मत कम होती है । उ०— इन गीदड़ भपकियों में हम न आने के चोर के पाँव कितने । — फिसाना०, भा० ३, पृ० २३८ । चोर चोर मौसेरै भाई = बुरै लोगों में स्नेह सहयोग होना । चोर पड़ना = चोर का आकर कुछ चुरा ले जाना । चोर पर मोर पड़ना = धूर्त के साथ धूर्तता होना । चालाक के साथ चालाकी होना । चोर से कहे चोरी करो, शाह से कहना जागता हर = दो विरोधी तत्वों को प्रोत्साहन देना । उ०— पुलिसवाले चोर से कहें चोरी कर शाह से कहें जागता रह । — फिसाना० , भा० ३, पृ० ८४ । चोरों का पीर उठाईगीर = चोरों से भी बड़ा उचक्का । चोरी से धोखा बड़ा ठहराना । उ०— यह शख्स बदमास भी परले सिरे के थे । चोरों के पीर उठाई गीरों के लँगोटिए यार । — फिसाना०, भा० ३, पृ० ४१ । मन में चोर बैठना=मन में किसी प्रकार का खटका या संदेह होना । यौ०— चोर चकार = चोर उचक्का । चोरीचकारी, चोरीचिकारी = चोरी पूर्ण मजाक । उ०— क्या चोरीचिकारी की । खुदा न ख्वासता किसी को कत्ल कर डाला किसी को मार डाला किसी का घर फाँदे । — फिसाना० भा० ३, पृ० ७९ । कामचोर । मुँहचोर । २. घाव आदि में वह दूषित या विकृत अंश जो अनजान में अंदर रह जाता है और जिसके ऊपर का घाव अच्छा हो जाता है । विशेष— ऐसा दूषित अंश अंदर ही अंदर बढ़था रहता है और शीघ्र ही उस घाव का मुँह फिर से खोलना पड़ता है । ३. वह छोटी संधि या अवकाश जिसमें से होकर कोई पदार्थ बह या निकल जाय जिसके कारण इसी प्रकार का और कोई अनिष्ट हो । जैसे, छत में का चोर । मेंहदी का चोर । विशेष— मेंहदी का चोर हथेली की संधियों आदि का वह सफेद अंश कहलाता है जिसपर असावधानी से मेंहदी नहीं लगती या दाब पड़ने से मेंहदी के सरक जाने के कारण रंग नहीं चढ़ता । यद्यपि इससे किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं होता, तथापि यह देखने में भद्दा जान पड़ता है । ४. खेल में वह लड़का जिससे दूसरे लड़के दाँव लेते हैं और जिसे औरों की अपेक्षा अधिक श्रम का काम करना पड़ता है । विशेष— चोर को प्रायः दूसरे खिलाड़ियों को छूना, ढूँढ़ना या अपनी पीठ पर चढ़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना पड़ना है । खेत में चोर जिसे छूता या ढूँढ लेता है वही चोर हो जाता है ।मुहा०— चोर चोर खेलना = इस प्रकार का खेल खेलना । ५. ताश या गंजीफे आदि का वह पत्ता जिसे खिलाड़ी अपने हाथ में दबाए या छिपाए रहता है और जिसके कारण दूसरे खिलाड़ियों की जीत में बाधा पड़ती है । यों०— गुलाम चोर = ताश का एक खेल जिसमें गड्डी में का एक पत्ता गुप्त रूप से निकालकर छिपा दिया जाता है और शेष पत्ते सब खिलाड़ियों में रंग और टिप्पियों के हिसाबसे जोड़ा मिलाने के लिये बाँट दिए जाते हैं । अंत में किसी खिलाड़ी के हाथ में छिपाए हुए पत्ते के जोड़ का पत्ता रह जाता है । जिसके हाथ में वह पत्ता रह जाता है, वह भी चोर कहलाता है । ६. चोरक नाम का गंधद्रव्य । ७. (मन गी) दुर्भावना । जैसे, मन का चोर । ८. रहस्य संप्रदाय का पारिभाषिक शब्द जिसका अर्थ है षड्विकार या मृत्यु ।
⋙ चोर (२)
वि० १ जिसके वास्तविक स्वरूप का ऊपर से देखने से पता न चले ।
⋙ चोर उरद
संज्ञा पुं० [हिं० चोर + उरद] उरद का वह कड़ा दाना जो न तो चक्की में पिसता है और न गलाने से गलता है ।
⋙ चोरकंटक
संज्ञा पुं० [सं० चोरकण्टक] चोरक नामक गंधद्रव्य ।
⋙ चोरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गठिवन जिसकी गणना गंधद्रव्यों में होती है । विशेष— बैद्यक में इसे तीव्रगंध, कड़ुआ और वात, कफ, नाक तथा मुँह के रोग, अजीर्ण, कृमिदोष, रुधिरविकार और मेद आदि का नाशक माना जाता है । २. एक प्रकार का गंधद्रव्य जिसका व्यवहार औषधों में भी होता है और जिसे असबरग भी कहते हैं ।
⋙ चोरकट
संज्ञा पुं० [हिं० चोह + कट(=कोटनेवाला)] चोर । चोट्ठा । उचक्का ।
⋙ चोरकर्म
संज्ञा पुं० [सं० चोरकर्मन्] चोरी [को०] ।
⋙ चोरखाना
संज्ञा पुं० [हिं० चोर + फ़ा० खानह्] १. संदूक आदि में का गुप्त खाना । २. पिंजडे़ आदि में का वह छोटा खाना जो बडे़ खाने के अंदर हो ।
⋙ चोरखिड़की
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर + खिड़की] छोटा चोर दरवाजा ।
⋙ चोरगढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० चोर + हि० गढ़ा] गुप्त या छिपा हुआ गड्ढा ।
⋙ चोरगणेश
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के एक गणेश । विशेष— इनके विषय में यह विश्वास है कि यदि जप करने के समय हाथ की उँगलियों में संधि रह जाय तो ये उसका फल हरण कर लेते हैं ।
⋙ चोरगली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर + गली] १. वह पतली और तंग गली जिसे बहुत सम लोग जानते हों । २. पायजासे का वह भाग जो दोनो जाँघों के बीच में रहता है ।
⋙ चोरचकार
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+अनु० चकार] [स्त्री० चोर ] चकारी । चोर । उचक्का ।
⋙ चोरचमार †
वि० [हिं० चोर+चमार] चोरी करनेवाला । नीच कार्य करनेवाला ।
⋙ चोरछिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] दो चीजों के बीच का अवकाश । संधि । दरज ।
⋙ चोरछेद †
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+छेद] दे० 'चोरछिद्र' ।
⋙ चोरजमीन
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+जमीन] वह जमीन जो ऊपर से देखने में तो ठीक जान पडे़, पर नीचे से पोली हो और जिसपर पैर रखते ही नीचे धँस जाय ।
⋙ चोरटा
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+टा (प्रत्य०)] [स्त्री० चोरटी] दे० 'चोट्टा' ।
⋙ चोरताला
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+ताला] वह ताला जिसका पता दूर से या ऊपर से न लगे । विशेष— ऐसा ताला प्रायः किवाडों के पल्ले के अंदर लगा रहता है ।
⋙ चोरथन
वि० [हिं० चोर+थन] दुहने के समय अपना पूरा दूध न देनेवाली और थनों में कुछ दूध चुरा रखनेवाली (गो, भैंस या बकरी आदि) ।
⋙ चोरदंत
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+ दंत] वह दाँत जो बत्तीस दाँतों के अतिरिक्त निकलता है और निकलने के समय बहुत कष्ट देता है ।
⋙ चोरदंता †
संज्ञा पुं० [हिं० चोरदंत+आ (प्रत्य०)] दे० 'चोरदंत' ।
⋙ चोरदंता †
वि० जिसके चोरदंत निकले हों । चोरदाँत वाला ।
⋙ चोरदरवाजा
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+दरवाजा] किसी मकान में पीछे की ओर या अलग कोने में बना हुआ कोई ऐसा गुप्त द्वार जिसका ज्ञान बहुत कम लोगों को हो ।
⋙ चोरदाँत
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+दाँत] दे० 'चोरदंत' ।
⋙ चोरद्बार
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+द्वार] दे० 'चोरदरवाजा' ।
⋙ चोंरधज
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+धज ] तलवार की लड़ाई का एक तरीका ।
⋙ चोरना पु
क्रि० स० [हिं० चोर से नामिक धातु] चुराना ।
⋙ चोरपट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+पाट (सन)] एक प्रकार का जहरीला पौधा जो दक्षिण हिमालय, आमास, बरमा और लंका में अधिकता से होता है । विशेष— अगिया की तरह इसके पत्तों और डंठलों पर भी बहुत जहरीलें रोएँ होते हैं जो शरीर में लगने मे सूजन पैदा करते हैं । सूजे हुए साथन पर बड़ी जलन होती है और वह कई दिनों तक रहती है । इसमें से बहुत वढ़िया रेशा निकल सकता है, पर इसी दोष के कारण कोई इसे धूता नहीं; और इसलिए इसका कोई उपयोग भी नहीं हो सकता । इसे सूरत भी कहते हैं ।
⋙ चोरपहरा
संज्ञा पुं० [हिं० चोर (=गुप्त)+पहरा] १. वह पहराजो शत्रु के जासूसों से सेना की रक्षा के लिये गुप्त रूप से बैठाया जाता है २. किसी प्रकार का गुप्त पहरा ।
⋙ चोरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चोरपुष्पी' ।
⋙ चोरपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चोरपुष्पी' ।
⋙ चोरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप जिसका डंठल कुछ लाली लिए होता है । विशेष— इसके पत्ते लबे और रोएँदार होते हैं । इसमें आसमानी रंग का फूल लगता है । जो नीचे की ओर लटका रहता है । वैद्यक में इसे नेत्रों के लिये हितकारी और मूढगर्भ को आक- र्षण करनेवाला माना है । इसे अंधाहूली या शंखाहुली भी कहते हैं । पर्या०— शंखिनी केशिनी । अधःपुष्पो । अमरपुष्पी । राज्ञी ।
⋙ चोरपेट
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+पेट] १. वह पेट जिसमें के गर्भ का जल्दी पता न लगे । २. किसी चीज के मध्य में वह गुप्त स्थान जिसमें रखी हुई कोई चीज लोगों पर प्रकट न हो । ३. वह चीज जिसके मध्य में कोई ऐसा गुप्त स्थान हो ।
⋙ चोरपैर
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+पैर ] ऐसे ढंग से रखे जानेवाले पैर जिनकी आहट न मालूम हो ।
⋙ चोरबजार
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+बाजार ] वह बाजार जहाँ अवैध व्यापार होता हो या चोरी से चीजें बिकती हों ।
⋙ चोरबजरिया
वि० [हिं० चोरबजार+इया (प्रत्य०)] चोरबाजारी करनेवाला ।
⋙ चोरबत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+बत्ती] बिजली की एक प्रकार की बत्ती जो बटन दबाकर जलाई जाती है । यह सूखी बैटरी से जलती है । टार्च । विशेष— यह चोरों के लिये विशेष लाभप्रद होता है क्योंकि इसे जलाने के लिये दियासलाई की जरूरत नहीं पड़ती तथा इसका प्रकाश चौतरफा न पड़कर सामने पड़ता है । अतः गुप्त स्थान में पड़ी वस्तु देखी जा सकती है और साथ ही दूसरे इसका प्रकाश करनेवाले को नहीं देख सकते । यदि किसी व्यक्ति के मुँह पर इसका प्रकाश डाला जाय तो उसकी आँख चौंधने लगती है तथा वह चोरबत्ती जलानेवाले को नहीं पहचान सकता । अतः चोर भागते समय भी इससे लाभ उठा लेते हैं ।
⋙ चोरबदन
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+फ़ा० बदन] वह मनुष्य जिसकी मोटाई प्रकट न हो । वह मनुष्य जो वास्तव में बलवान् हो, पर देखने में दुबला जान पडे़ ।
⋙ चोरबाजार
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+बाजार ] काला बाजार । चोरी से खरीदा या बेचा जाना । गैरकानूनी व्यापार । निश्चित मूल्य से अधिक पर बेचा जाना ।
⋙ चोरबाजारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+बाजारी] चोर बाजार का व्यापर । चोर बाजार में खरीदने या बेचे जाने की स्थिति या भाव ।
⋙ चोरबालू
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+बालू] वह बालू या रेत जिसके नीचे दलदल हो ।
⋙ चोरमहल
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+महल] वह महल या बड़ा मकान जहाँ राजा और रईस अपनी अविवाहिता स्त्री या प्रेमिका रखते हैं । विशेष—कभी कभी लोग 'चोर महल' से अविवाहिता स्त्री या गुप्त प्रेमिका का भी अर्थ लेते हैं ।
⋙ चोरमिहीचनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+(मीचना = बंद करना] आँखमिचौली नाम का खेल ।
⋙ चोरमूँग
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+मूँग] मूँग का वह कड़ा दाना जो न तो चक्की में पिसता है और न गलाने से गलता है ।
⋙ चोररस्ता
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+रस्ता] दे० 'चोरगली' ।
⋙ चोरसीढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+सीढ़ी] वह सीढ़ी जिसका पता जल्दी न लगे । गुप्त सीढ़ी ।
⋙ चोरस्नायु
संज्ञा पुं० [सं०] कौवाठोंठी ।
⋙ चोरहटिया †
संज्ञा पुं० [हिं० चोर+ हटिया] वह दूकानदार जो चोरों से माल खरीदता हो ।
⋙ चोरहुली
संज्ञा स्त्री० [सं० चोरपुष्पी] दे० 'चोरपुष्पी' ।
⋙ चोरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोरपुष्पी । शंखाहुली ।
⋙ चोराख्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चोरपुष्पी' ।
⋙ चोराचोरी † पु
क्रि० वि० [हिं० चोर+चोर] छिपे छिपे । चुपके चुपके ।
⋙ चोराना †
क्रि० स० [हिं० चोराना] दे० 'चुराना' ।
⋙ चोरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चुराने का काम । चोरी ।
⋙ चोरिला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया चार जिसके दाने कभी कभी गरीब लोग आनाज की तरह खाते हैं । पशुओं को यह चारा बीज पड़ने से पहले खिलाया जाता है ।
⋙ चोरित
वि० [सं०] चुराया हुआ [को०] ।
⋙ चोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोर+ई] १. छिपकर किसी दूसरे की वस्तु लेने का काम । चुराने की क्रिया । २. चुराने का भाव । यौ०—चोरीचारी या चोरी छिनाला = दूषित निंदित कर्म । मुहा०—चोरी चोरी = छिपकर । गुप्त रूप से । चोरी लगना = चोरी के दोष का आरोप होना । चोरी लगाना = चोरी करने का दोष आरोपित करना । चोरी का अभियोग लगाना ।
⋙ चोरीठा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौरेठा] दे० 'चौरेठा' ।
⋙ चोलंडुक, चोलोंडुक
संज्ञा पुं० [सं० चोलण्डुक, चोलोण्डुक] पगड़ी [को०] ।
⋙ चोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम । विशेष—इसका विस्तार मदरास प्रांत के वर्तमान कोयंबतूर, त्रिचनापल्ली और तंजौर आदि से मैसूर के आधे दक्षिणी भाग तक था । रामायण और महाभारत आदि में इस देश का जिक्र आया है । २. उक्त देश का निवासी । ३. स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की अँगिया । चोली । ४. कुरते के ढंग का एक प्रकार काबहुत लंबा पहनावा जिसे चोला कहते हैं । ५. मजीठ । ६. छाल । वल्कल । ७. कवच । जिरह बकतर ।
⋙ चोल (२)
वि० मजीठ का रंग । लाल (रंग) । उ०—ढोला ढीली हर मुझ, दीठउ घणो जमेह । चोल बरन्न कप्पडे़, सावर धन आमेह । —ढोला०, दू० १३९ ।
⋙ चोलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चोल' ।
⋙ चोलकी
संज्ञा पुं० [सं० चोलकिन्] १. बाँस का कल्ला । २. नारंगी का पेड़ । ३. हाथ की कलाई । ४. करील का पेड़ ।
⋙ चोलशंड
संज्ञा पुं० [सं० चोल+खण्ड] कपडे़ का वह टुकड़ा जो ऐसे हिसाब से बुना जाता है कि उसमें से एक चोली बनकर तैयार हो । विशेष—इसके गले और बाँहवाले अंशों पर प्रायः कलाबत्तू या जरदोजी आदि की बेलें बनी होती हैं ।
⋙ चोलन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चोलकी' ।
⋙ चोलना (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. वस्त्र । परिधान । २. दे० 'चोला' । उ०—भला बना संयोग प्रेम की चोलना । तन मन अर्पों सीस साहेब हँसि बोलना । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ चोलना † (२)
क्रि० स० [देश०] थोड़ी मात्रा में कोई चीज खाना ।
⋙ चोलरंग
संज्ञा पुं० [सं० चोल (= मजीठ)+हिं० रंग] मजीठ का रंग जो पक्का और लाल होता हौ ।
⋙ चोलसुपारी
संज्ञा स्त्री० [सं० चोल+हिं० सुपारी] चिकनी सुपारी जो प्रायः चोल देश में अधिकता से होता है ।
⋙ चोला
संज्ञा पुं० [सं० चल] १. एक प्रकार का बहुत लंबा और ढीला ढाला कुरता जो प्रायः साधु, फकीर और मुल्ला आदि पहनते हैं । एक रसम जिसमें नए जनमे हुए बालक को पहले पहल कपडे़ पहनाए जाते हैं । यह रसम प्रायः अन्न- प्राशन आदि के समय होती है । ३. वह कपड़ा जो पहले पहल बच्चे को पहनाया जाता है । क्रि० प्र०—पड़ना । ४. शरीर । बदन । जिस्म । तन । जैसे,—कुछ दिनों तक यह दवा खाओ, कंचन सा चोला हो जायगा । मुहा०—चोला छोड़ना = मरना । प्राण त्यागना । चोला बद- लना । (१) एक शरीर परित्याग करके दूसरा शरीर धारण करना (साधुओं की बोली) । (२) नया रूप धारण करना ।
⋙ चोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्रियों का एक पहनावा जो अँगिया से मिलता जुलता होता है । विशेष—अँगिया से इसमें भेद यह होता है कि इसमें पीछे की ओर बंद नहीं होता, बल्कि दोनों बगलों से कपडे़ का ही कुछ बढ़ा रहता है जिसे खींचकर स्त्रियाँ पेट के ऊपर गाँठ देकर बाँध लेती हैं । २. चोला नाम का एक प्रकार का कुरता । दे० 'चोला' ३. डलिया जिसमें पान आदि रखते हैं । ४. अँगरखें आदि का वह ऊपरी अंश जिसमें बमद लगे रहते हैं । मुहा०—चोली दामन का साथ = बहुत अधिक साथ या घनि- ष्ठता । ऐसा साथ जिसके जल्दी छूटने की संभावना न हो ।
⋙ चोलोमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वाममार्ग का एक भेद । विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है कि इस मार्ग के अनुयायी स्त्री पुरूष एक स्थान पर एकत्र होकर मांस, मद्य और मत्स्य आदि को सेवन करते हैं और तदुपरांत सब उपस्थित स्त्रियों की चोलियाँ एक घडे में रख दी जाती हैं । प्रत्येक मनुष्य बारी बारी से उस घडे में हाथ डालता और एक चोली निकालता है । जिसके हाथ में जिस स्त्री की चोली आ जाती है, वह उसी के साथ संभोग करता है ।
⋙ चोल्ला पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चोला] दे० 'चोला' । उ०—चूहा आसिक भैंस पद्मिनी, मेंढक ताल लगावे । चोल्ला पहिर के गदहा नाचे, ऊँट विसुनपद गावे ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चोवडा पु
वि० [हिं० चौहरा] चौगुना । उ०—दूजा दोवण चोवड़ा, ऊँटकटालऊ खाँण । जिण मुखि नागर बेलियाँ सो करहउ के काँण ।—ढोला०, दू० ३०९ । यौ०—दोवड चौवड =दुगना चौगुना ।
⋙ चोवा
संज्ञा पुं० [हिं० चोआ]दे० 'चोआ' । उ०—चोवा चित चेतन पर- कासा आवत बास घनो री ।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ८५ ।
⋙ चोवना
क्रि० स० [हिं० चुवाना]दे० 'चुवाना' उ०—दशवैं द्वारे चौवै माठी । तीरथ परसै सै सै साठी—प्राण०, पृ० १०३ ।
⋙ चोष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भावप्राकाश के मत से एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी को बगल में ऐसी जलन मालूम होती है कि मानो उसके आसपास आग जलती हो ।
⋙ चोष (२)पु †
वि० [बँग० चोख, हिं० चख]दे० 'चोख' । उ०— पुनि अंतह कोषं निर्मल चोषं नाँहीं घोषं गुन सोषं ।— सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २४३ ।
⋙ चोषक
वि० [सं०] चुसनेवाला ।
⋙ चोषण
संज्ञा पुं० [सं०] चूसने की क्रिया । चूसना ।
⋙ चोषना पु
क्रि० स० [सं० चोषण] चूसना ।
⋙ चोष्य
वि० [सं०] जो चूसने के योग्य हो । जो चूसा जा सके । चूष्य ।
⋙ चोसर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौसर]दे० 'चौसर' ।
⋙ चोसा
संज्ञा पुं० [देश०] लकडी रेतने की एक प्रकार की रेती जो प्रायः एक हाथ लंबी और दो अंगुल चौडी होती है ।
⋙ चोस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम जाति का घोडा । २. सिंदुवार नाम का पेड ।
⋙ चोहल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चुहल] दे० 'चुहल' । उ०—आज इसके आगे हँस चोहल की बातें कर, गाने की चर्चा छोड, शास्त्र का प्रसंग ला, इनके मन की रूचि परख लें ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १६ ।
⋙ चोहला
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० चोहली] छोटे गड्ढा जिसमें पानी और कीचड रहता है ।
⋙ चोहान †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'चौहान' ।
⋙ चोंबक
वि० [सं० चौम्बक] १. जिसमें चुंबक शक्ति हो । आकर्षण करनेवाला । २. जिसमें चुंबक मिला हो ।
⋙ चोँ †
अव्य० [फा० चूँ] क्यों । किसलिये । उ०—चौं भय्या हरीशंकर का हैं रयो है ।—सत्य० (भू०), पृ० ४ ।
⋙ चौँक
संज्ञा स्त्री० [सं० चमत्कृत, प्रा० चमँक्कि, चवक्कि, चवँकि] वह चंचलता जो भय, आश्चर्य या पीडा के सहसा उपस्थित होने पर हो जाती है । एकाएक डर जाने या आश्चर्य में पड जाने के कारण शरीर का झटके के साथ हिल उठना और चित्त का उचट जाना । झिझक । भडक । क्रि० प्र०—उठना ।—जाना ।—पडना ।
⋙ चौँकडा
संज्ञा पुं० [देश०] करील का पौधा ।
⋙ चौँकधन पु
अव्य० [?] चारो तरफ । उ०—चौंकधन उसका पडया था जग में हाँक । वो नगिना अस्ल में ता पाँव टँक ।—दक्खिनी० पृ० १८४ ।
⋙ चौँकना
क्रि० अ० [हिं० चौंक+ना (प्रत्य०)] १. भय या पीडा के सहसा उपस्थित हो जाने से चंचल हो उठना । एकाएक डर जाने या पीडा आदि अनुभव करने पर झट से काँप या हिल उठना । झिझकना । जैसे,—(क) बंदूक छुटते ही वह चौंक उठा । (ख) वह बच्चा न जाने क्यों सोते से चौंक चौंक उठता है । (ग) सूई चुभाते ही वह चौंककर उठ पडा । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।—पडना । २. चौकन्ना होना । खबरदार होना । सतर्क होना । जैसे,—वे तो रूपया दिए देते थे, पर उसकी बातें पिछली बातें याद कर चौंक गए । संयो० क्रि०—जाना । ३. चकित होना । भौचक्का होना । हैरान होना । विस्मित होना । जैसे,—उसके मरने का हाल सुनकर वे चौंककर कहने लगे—'हैं अभी तो मैंने उसको कल देखा था' । क्रि० प्र०—उठना ।—पडना । ४. किसी कार्य में प्रवृत्त होने से डरना । भय या आशंका से हिचकना । भडकना । जैसे—चौंकते क्यों हो, इसे हाथ में लेते क्यों नहीं । ५. किसी आशंका या आहट के कारण जानवरों का भडकना ।
⋙ चौँकाना
क्रि० स० [हिं० चौंकना का प्रे० रूप] १. एकबारगी भय उत्पन्न करके चंचल कर देना । जी धडका देना । भडकाना । जैसे,—उसने बाजा बजाकर घोडे को चौंका दिया । २. चौकन्ना करना । खबरदार करना । सतर्क करना । किसी बात का खटका पैदा कर देना । भडकाना । जैसे,— तुम यों ही हमारे गाहकों को चोका दिया करते हो । ३. चकित करना । विस्मित करना । आश्चर्य में डालना ।
⋙ चौँचा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+फा० चह] सिंचाई के लिये पानी इकट्ठा करने का वह गड्ढा जिसमें नीचे से पानी चढाकर लाया जाता हैं ।
⋙ चौँटना पु
क्रि० स० [हिं० चूँटना या चोंटना] चुटकी के सहारे तोड़ना । चोंटना ।
⋙ चौँटली
संज्ञा पुं० [सं० चूडाला या श्वेतोच्चट्टा] सफेद घुँघची । श्वेत चिरभिटी ।
⋙ चौँडोंल †
संज्ञा पुं० [हिं० चंडोल]दे० 'चंडोल' ।
⋙ चौँडा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० चुण्डा] वह स्थान जहाँ खेत सींचनेवाले कूएँ से मोटे द्वारा अथवा बाहे से दोगला या बेडी द्वारा निकालकर पानी गिराते हैं । पानी गिराने के कुएँ की ढाल । चिउलारा । लिलारी ।
⋙ चौँडा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चोंडा] दे० 'चोंडा' । (स्त्रियों के सिर का बाल) ।
⋙ चौँढा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौंडा] दे० 'चौंडा' ।
⋙ चौंतरा †
संज्ञा पुं० [सं० चत्वर, हिं० चौतरा] दे० 'चबूतरा' ।
⋙ चौँतिस (१)
वि० [सं० चतुस्त्रिंशत् प्रा० चतुत्तिसो, पा० चउतीसो] जो गिनती में तीस ओर चार हो ।
⋙ चौँतिस (२)
संज्ञा पुं० तीस और चार की संख्या जो अंको में इस प्रकार लिखी जाती है—३४ ।
⋙ चौंतिसवाँ
वि० [हिं० चौंतिस+वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में तेंतीसवे के उपरांत पडे । जिसका स्थान तैंतीस और वस्तुओं के पिछे हो ।
⋙ चौँतीस †
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० चौंतीस]दे० 'चौंतिस' ।
⋙ चौँध
संज्ञा स्त्री० [सं० √ चक्(= चमकना)या चौं (=चारो ओर)+अंध ] अत्यंत अधिक चमक या प्रकाश के सामने दृष्टि की अस्थिरता । चकाचौंध । तिलमिलाहट ।
⋙ चौँधना पु †
क्रि० अ० [ हिं० चौँध ] १. किसी वस्तु का क्षणिक प्रकाशित होना । चमकना । चौँध होना । २. तेज प्रकाश आँखों पर पडने से अंधकार के अलावा कुछ न दिखाई देना ।
⋙ चौँधा (१)
संज्ञा पुं० [ हिं० चौँध ] चकाचौँध ।
⋙ चौँधा (२) †
संज्ञा पुं० [ सं० चतुर+ध्यान ] सावधानता । जागरुकता । सतर्कता । यौ०— चौँधा चाटक = सावधानी और प्रतिभा ।
⋙ चौँधियाना
क्रि० अ० [ हिं० चौँध ] १. अत्यंत अधिक चमक या प्रकाश के सामने दृष्टि का स्थिर न रह सकना । चकाचौँध होना । जैसे,—आँख चौँधियाना । २. दृष्टि मंद होना । आँखों से सुझाई न पडना (तिरस्कार) ।
⋙ चौँधी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौँध ] १. चकचौँध । तिलमिलाहट । उ०— चितवत मोहिं लगी चौंधी सी जानौ न कौन कहाँ तें आए ।—तुलसी (शब्द०) । २. आँखों का एक रोग जो दिन में बराबर ताप खाने से या कमजोरी से हो जाता है । इसके रोगी को रात में केवल रोशनी दिखाई देती है और कुछ नहीं ।
⋙ चौँप पु †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चोप ]दे० 'चोप' ।
⋙ चौँरंगाय
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौर+गाय ] सुर नाम की गाय ।
⋙ चौँर
संज्ञा पुं० [ सं० चामर ] १. सुरों या चौंरी मृग (= चामर मृग) गाय की पूँछ के बालों का गुच्छा जो एक डांडी में लगा रहता है और पिछे या बगल से राजा महाराजाओं या देव- मूर्तियों के सिरों पर इसलिये हिलाया जाता है जिसमें मक्खियाँ आदि न बैठने पावें । चँवर ।दे० 'चँवर' । क्रि० प्र०—करना ।—डुलाना ।—होना । मुहा०— चौंर ढलना = सिर पर चेँवर हिलाया जाना । चौंर ढालना = सिर पर चौंर हिलाना । चौंर ढुरना = दे० 'चौंर ढलना' । चौंर ढुराना =दे० 'चौंर ढालना' । २. भडभाँड की जड । सत्यानाशी की जड । चोक । ३. पिंगल
⋙ में मगण के पहले भेद (s) की संज्ञा । जैसे, श्री.... । ४ झालर । फुँदना । उ०—(क) तैसइ चौंर बनाए औ घाले गल झंप । बँधे सेत गजगाह तहँ जो देखै सो कंप ।—जायसी (शब्द०) । (ख) बहु फूल की माल लपेटि के खंभन धूप सुगंध सो ताहि धुपाइए । तापै चहूँ दिसि चंद छपा से सुसोभित चौंर घने लटकाइए ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।
⋙ चौँरा (१)
संज्ञा पुं० [ सं० चुणड (= गड्ढा)] १. अनाज रखने का गड्डा । गाड़ । †२. चौडा़ ।
⋙ चौँरा (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० ] चँवर । चौर । उ०— तीन एक चंडोल में, रैदास शाह कबीर । गरीबदास चौँरा करे, बादशाह बलबीर ।—कबीर मं०, पृ० १२१ ।
⋙ चौँरा (३)पु
संज्ञा पुं० [ हिं० चौँर+आ (प्रत्य०)] सफेद पूँछवाला बैल ।
⋙ चौँराना पु
क्रि० [ सं० चामर] १. चँवर डुलाना । चँवर करना । २. कूँचा फेरना । झाडू देना । बुहारना । उ०— चौंरावत सब राजमग चंदत जल छिरकाइ । प्रकट पताका धर घऱन बाँधत हिय हरसाइ ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ चौँरी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चामर, हिं० चौंर+ ई (प्रत्य०)] १. काठ की डांडी में लगा हुआ घोडे की पूँछ के बालों का गुच्छा जो मक्खियाँ उडाने के काम में आता है । घोडे के सवार इसे प्रायः अपने पास रखते हैं । २. वहडोरी जिससे स्त्रीयाँ सिर के बाल गूँथकर बाँधती है । चोटी या वेणी बाँधने की डोरी । उ०— चौँरी डोरी विगलीत केश । झूमत लटकत मुकुट सुदेश ।—सूर (शब्द०) । ३. सफेद पूँछवाली गाय । ४. सुरा गाय । ५. किसी चीज के आगे लटकनेवाला फुँदना ।
⋙ चौँसठ (१)
वि० [ सं० चतुःषष्ठि, प्रा० चउसट्ठि ] जो गिनती में साठ और चार हो ।
⋙ चौसठ (२)
संज्ञा पुं० साठ और चार की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखि जाती है—६४ ।
⋙ चौसठवाँ
वि० [ हिं० चौंसठ+वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में तिरसठवे के उपरांत पडे । जिसका स्थान तिरसठ और वस्तुओं के बाद हो ।
⋙ चौँह †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'गलफडा' ।
⋙ चौँही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] हल की एक लकडी जिसे परिहारी भी़ कहते हैं ।
⋙ चौ (१)
वि० [ सं० चतु; प्रा० चउ ] चार (संख्या) । यौ०—चौपहल । चौबगला । चौमासा । चौधडा । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग अब समास ही में होता है ।
⋙ चौ (२)
संज्ञा पुं० मोती तौलने का एक मान । जौहरियों का एक तौल ।
⋙ चौ (३)
प्रत्य० [ सं० स्य अथवा त्यक्, प्रा० च्चआ, तुल मरा० चा ] [ अन्य रूप चइ, चउ, ची, चो ] संबंध कारक विभक्ति । का । उ०— सादूलौ लाजै ससाँ, घात करण घिरताँह कूँभाथल चौ खाय पल, गजमोती खिरताँह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३१ ।
⋙ चौअन
वि० संज्ञा पुं० [हिं० चौवन ]दे० 'चौवन' ।
⋙ चौआ (१)
संज्ञा पुं० [ सं० चतुष्पाद ] गोय, बैल, भैंस आदि पशु । चौपाया (विशेषकर गाय बैल के लिये) ।
⋙ चौआ (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० चौ (= चार) ] १. हाथ की चार उँगलियों का विस्तार । चार अंगुल की माप । २. ताश का वह पत्ता जिसपर चार बूटियाँ हो । वि० दे० 'चौवा' ।
⋙ चौआई †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौवाई ] दे० 'चौवाई' ।
⋙ चौआई †पु
क्रि० अ० [ हिं० चौंकना ] १. चकपकाना । चकित होना । विस्मित होना । उ०— भोर भए जागे यतिराई । चहुँ दिशि लखत भए चौआई ।—रघुराज (शब्द०) ।२. चौकन्ना होना । घबरा जाना । उ०— साँच दाम जेतनो रह्यो, तेतनो लिख्यो देखान । पीपा कह तू बावरो, वणित चित्त चौआन ।—रघुराज (शब्द०) । ३. सतर्क होना ।
⋙ चौक
संज्ञा पुं० [ सं० चतुष्क, प्रा० चउक्क ] १. चौकौर भूमि । चौखूँटी खुली जमीन । २. घर के बीच की कोठरियों और बरामदों से घिरा हुआ वह चौखूँटा स्थान जिसके ऊपर किसी प्रकार की छाजन न हो । आँगन । सहन । ३. चौखूँटा चबूतरा । बडी़ वेदी । ४. मंगल अवसरों पर आँगन में या और किसी समतल भूमि पर आटे, अबीर आदि की रेखाओं से बना हुआ चौखूँटा क्षेत्र जिसमें कई प्रकार के खाने और चित्र बने रहते हैं । इसी क्षेत्र के ऊपर देवताओं का पूजन आदि होता है । उ०—(क) कदली खंभ, चौक मोतिन के, बाँधे बंदनवार ।—सूर (शब्द०) । (ख) मंगलचार भए घर घर में मोतिन चौक पुराए ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पूरना ।—बैठना । ५. नगर के बीच में वह लंबा चौडा खूला स्थान जहाँ बडी बडी दुकानें आदि हों । शहर का बडा बाजार । ६. वेश्याओं की वस्ती या मुहल्ला जो अधिकतर चौक या मुख्य चौराहों के पास होता है । उ०— चौक में जाके अपने कुनबे की किसी को बिठाओ । खुद जाके बैठो ।—सैर०, भा० १, पृ० २५ । मुहा०— चौक में बैठना = वैश्यावृत्ति करना । वेश्या का धंधा या पेशा करना । उ०— जो चौक में बैठना होता तो यह छह रूपे और खाने पर न पडे रहते । —सैर०, भा० १, पृ० २८ । ७. नगर के बीच का वह स्थान जहाँ से चारों ओर रास्ते गए हों । चौराहा । चौमुहानी । ८. चौसर खेलने का कपडा । बिसात । उ०— राखि सत्रह पुनि अठारह चोर पाँचों मारि । डारि दे तू तीन काने चतुर चौक निहारि ।—सूर (शब्द०) । ९. सामने के चार दाँतो की पंक्ति । उ०— दसन चौक बैठेजनु हीरा । औ बिच बिच रँग स्याम गँभीरा । —जायसी (शब्द०) । १०० सीमंत कर्म । अठवाँसा । भोडें । ११. चार समूह । उ०— पुनि सोरहो सिंगार जस चारिहु चौके कुलीन । दीरघ चारि चारि लघु चारि सुभट चौ खीन ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौकगोभी
संज्ञा स्त्री० [ देश० चौक ?+ हिं० गोंभी ] एक प्रकार की गोभी ।
⋙ चौकचाँदनी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौक+चाँदनी] भादों के कृष्ण पक्ष में पड़नेवाला एक त्योहार ।
⋙ चौकठ
संज्ञा पुं० [ हिं०] दे० 'चौखट' । क्रि० प्र०—पूजना = मुख्य द्वार पर किवाड लगाते समय एक प्रकार का पूजन संस्कार करना जो मंगल के लिये होता है ।—लाँघना ।
⋙ चौकठा
संज्ञा पुं० [ हिं० चौकठ ]दे० 'चौखटा' ।
⋙ चौकड़
वि० [ हिं० चौ + सं० कला (= अग, भाग) ] दुरूस्त । बढिया । अच्छा । जैसे,— चौकड माल ।—(बाजारू) ।
⋙ चौकडपाऊ †
संज्ञा पुं० [१.] बुंदेलखंड में होली के दिनों में गाया जानेवाला एक गीत ।
⋙ चौकडा
संज्ञा पुं० [ हिं० चौ+कडा ] १. कान में पहनने की बाली जिसमें दो दो मोती हों । २. फसल की एक प्रकार की बँटाई जिसमें से जमींदार को चौथाई मिलता है ।
⋙ चौकडी (१)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौ (= चार) + सं० कला (=अंग)] १. हरिण की वह दौड जिसमें वह चारों पैर एकसाथ फेंकता हुआ जाता है । चौफालकुदान । फलाँग । कुलाँच । उडान । छलाँग । क्रि० प्र०—भरना । मुहा०— चौकडी भूल जाना = एक भी चाल न सूझना । बुद्धि का काम न करना । किंकर्तव्यविमूढ होना । सिटपिटा जाना । घबरा जाना । भौचक्का रह जाना । २. चार आदमियों का गुट्ट । मंडली । यौ०—चांडाल चौकडी = उपद्रवी मनुष्य की मंडली । ३. एक प्रकार का गहना । ४. चार युगों का समूह । चतुर्यगी । ५. पलथि । क्रि० प्र०—मारना । ६. चारपाई की वह बुनावट जिसमें चार चार सुतलियाँ इकट्ठी करके बुनी गई हों । ७.मंदिरों का शिखर जो चार खंभो पर स्थित रहता हो ।
⋙ चौकडी (२)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौ+घोडी ] वह गाडी जिसमें चार घोडे़ जुतें । चार घोड़ो की गाडी ।
⋙ चौकनिकास
संज्ञा पुं० [ हिं० चौक+निकास ] वह कर या महसूल जो किसी चौक (बाजार) में बैठनेवाले दुकानदारों से लिया जाता है ।
⋙ चौकना पु †
क्रि० अ० [ हिं० चौंकना ]दे० 'चौंकना' । उ०— देव कहा कहों राधिका के गुनतौ तिन सौतिन के डर सालैं । आजु लौं लाज लजी चित चौकति सीख यथोचितु सादर चालैं ।— देव ग्रं०, पृ० ९५ ।
⋙ चौकन्ना
वि० [ हिं० चौ (=चारो ओर)+ कान] १. सावधान । होशियार । चौकस । सजग । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. चौंका हुआ । आशंकित । ३.विपत्ति का सामना करने के लिये प्रस्तुत ।
⋙ चौकरी पु †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौकडी ] दे० 'चौकडी' ।
⋙ चौकल
संज्ञा पुं० [सं०] चार मात्राओं का समूह । इसके पाँच भेद है । (ss, IIs, IsI sII IIl) >
⋙ चौकलिआई †
वि० [ हिं० छिकुला ] छिलकेदार । उ०— हूँ तौ राँधन कैती धौबा दारि, चौकलिमाई राँध गई ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९५६ ।
⋙ चौकस
वि० [हिं० चौ (= चार) कस + (कस = कसा हुआ)] १. सावधान । सचेत । चौकन्ना । होशियार । खबरदार । २. ठीक । दुरूस्त । पूरा । जैसे,—चौकस माल ।
⋙ चौकसाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकसी]दे० 'चोकसी' ।
⋙ चौकसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकस+ई (प्रत्य०)] सावधानी । होशि- यारी । निगरानी । निगहबानी । खबरदारी । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—होना ।
⋙ चौका
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्क, प्रा० चउक्का] १. पत्थर का चौकोर टुकडा । चौखूँटी सिल । २. काठ या पत्थर का पाट जिसपर रोटी बेलते हैं । चकला । ३. सामने के चार दाँतों की पंक्ति । उ०—नैकु हँसौही बानितजि लख्यो परत मुँहुँ नीठि । चौका चमकनि चौंधि में परति चौधि सी डीठि ।—बिहारी (शब्द०) । ४. सिर का एक गहना । सीसफूल । ५. वह ईंट जिसकी लंबाई चौडाई बराबर हो । ६. वह लिपा पुता स्थान जहाँ हिंदू लोग रसोई बनाने खाते हैं । (इस स्थान पर बाहारी लोग या बिना नहाए धोए घर के लोग भी नहीं जोने पाते ।) । ७. मिट्टी या गोबर का लेप जो सफाई के लिये किसी स्थान पर किया जाय । मिट्टी या गोबर की तह जो लीपन यो पोतने में भूमि पर चढे । क्रि० प्र०—देना ।—फेरना ।—लगाना । यौ०—चौका बरतन चौका बासन = बरतन माँजना और रसौई- घर की सफाई तथा लिपाई पुताई करना । उ०—कुछ दिनों से नौकर हटाकर घर का काम धंधा करना शुरू कर दिया है, चौका बासन भी करती है ।—सुनीता, पृ० २२ । चौकाचार = चौके चूल्हे का आचार । उ०—चौकाचार विचार राग अनुरागेऊँ ।—जग० श०, पृ० ६१ । चौके रकी राँड = जो विवाह के तुरंत बाद ही विधवा हो गई हो । मुहा०—चोका बरतन करना = बरतन माँजने और रमोई का घर लीपने पोतने का काम करना । चौका धोलना = दे० 'चौका लगाना' । चौका लगाना = (१) लीप पोतकर बराबर करना । (२) सत्यानाश करना । चौपट करना । उ०—कियो तीन तेरह सबै चौक चौका लाय ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ८. एक प्रकार का जंगली बकरा जिसे सींग होते हैं । विशेष—यह प्रायः जलाशय के आसपास की झाडियों में रहता है । रंग इसका बादामी होता है । यह २ फुट ऊँचा और ४, ५ फुट लंबा होता है । बचपन ही से यदि यह पाला जाय तो रह सकता है । इसके बाल पतले और रूखे होते हैं । इसे चौसिंघ कहते हैं । ९. एक ही स्थान पर मिला या सटाकर रखी हुई एक ही प्रकार की चार वस्तुओं का समूह । जैसे, अंगौछे का चौका, चुनरी का चौका, चौकी का चौका, मोतियों का चोका । १०. ताश का वह पत्ता जिसमें चार बूटियाँ हों । जैसे, ईंट का चौका । ११. एक प्रकार का मोटा कपडा जो फर्ज या जाजिम बनाने के काम में आता है । १२. एक बरतन का नाम । १३.किसी स्थान को लीपकर उसमें आटे से रैखाँएँ पारना । इस स्थान पर पवित्र कार्य या विवाह आदि होता है । १३. कुलाँच भरना । उ० हमारी कुम्मैत घोडी जुते हुए खेत में चौका चलती है । ज्ञान०, पृ० ९९ ।
⋙ चौकाल
वि० [?] चौगुना । उ०—मुश्क से खुशबू में रेशम से चमक में ये चौकाले हैं । जुल्फ के फदे तुम्हारे सबसे यार निराले हैं ।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०२ ।
⋙ चौकिया सोहागा
संज्ञा पुं० [हिं० चौकी+ सोहागा] छोटे छोटे टुकडों में कटा हुआ सोहागा जो औषध के लिये विशेष उपयुक्त होता है ।
⋙ चौकी
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्की] १. काठ या पत्थर का चौकोर आसन जिसमें चार पाए लगे हों । छोटा तख्त । उ०—चौक में चौकी जराय जरी जिहि पै खरी बार बगारत सौधे ।—पद्माकर (शब्द०) । २. कुरसी । मुहा०—चौकी देना = बैठने के लिये कुरसी देना । कुरसी पर बैठाना । ३. मंदिर में मंडप की ओर के खंभों के उपर का वह घेरा जिसपर उसका शिखर स्थित रहता है । ४. मंदिर में मंडप के खंभों के बीच का स्थान जिसमें से होकर मंडप में प्रवेश करते हैं । ५. पड़ाव या ठहरने की जगह । टिकान । अड्डा । सराय । जैसे—चले चलो आगे की चौकी पर डेरा डालेंगे । मुहा०—चौकी जाना = कसब कमाने जाना । खरची पर जाना । ६. वह स्थान जहाँ आसपास की रक्षा के लिये थोडे से सिपाही आदि रहते हों । जैसे, पुलिस की चौकी । ७. किसी वस्तु की रक्षा के लिये या किसी व्यक्ति को भागने से रोकने के लिये रक्षकों या सिपाहियों की नियुक्ति । पहरा । खबर- दारी । रखवाली । उ०—करिके निसंक तट बट के तटे तू बास चौंके मत चौकी यहाँ पाहरू हमारे की ।—कविंद (शब्द०) । यौ०—चौकी पहरा । मुहा०—चौकी देना = पहरा देना । रखवाली करना । चौका बैठना = पहरा बैठना या निगरानी के लिये सिपाही तैनात होना । चौकी बैठाना = पहरा बैठाना । खबरदारी के लिये पहरा बैठाना । चौकी भरना = पहरा पूरा करना । अपनी बारी के अनुसार पहरा देना । ८. वह भेंट या पूजा जो किसी देवी देवता, ब्रह्म, पीर आदि के स्थान पर चढाई जाती है । मुहा०—चौकी भरना = किसी देवी या देवता के दर्शनों को मन्नत के अनुसार जाना । ९. जादु । टोना । १०. तेलियों के कोल्हू में लगी हुई एरक लकड । ११. गले में पहनने का एक गहना जिसमें चौकोर पटरी होती है । एक प्रकार की जुगनी । पटरी । उ०—(क) चौकी बदलि परी प्यारे हरि ।—हरिदास (शब्द०) (ख) मानो लसी तुलसी हनुमान हिए जग जीत जराय के चौकी ।—तुलसी (शब्द०) । १२. रोटी बेलने का छोटा चकला । १३. भेड़ों ओर बकरियों का रात के समय किसी खेत में रहना । विशेष—खाद के लिये किसान प्रायः भेड़ो को खेत में रखते हैं, जिनके मल मूत्र से खाद होता है । १४. मेलों के अवसर पर निकलनेवाली देवमूर्तियों की सवारी । क्रि० प्र०—उठना ।—चलना । पहुँचना ।
⋙ चौकीदार
संज्ञा पुं० [हिं० चौक+फा० दार] १. पहरा देनेवाला । २. गोडैत । ३. वह टा जो महतो की बगल में भाँज की डोरी फँसाने के लिये गडा रहता है । (जुलाहे) ।
⋙ चौकीदीरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौकीदार+आ (प्रत्य०)] चौकीदार रखने का चंदा । चौकीदारी ।
⋙ चौकीदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकीदार+ ई (प्रत्य०)] १. पहरा देने का काम । रखवाली । पहरेदेरी । २. चौकीदार का पद । ३. वह चंदा या कर जो चौकीदार रखने के लिये दिया जाय ।
⋙ चौकीदौड
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौकी+दौड] प्रतियोगिकात्मक दौड का एक प्रकार जिसमें दौडनेवालों के लिये चौकियाँ रखी रहती हैं ।
⋙ चौकुर †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + कूरा] फसल की बटाई जिसमें से तीन चौथाई आसामी और एक चौथाई जमींदार लेता है ।
⋙ चौकोन †
वि० [सं० चौ + कोन]दे० 'चौकोना' ।
⋙ चौकोना
वि० [सं० चतुष्कोण, प्रा० चउवकोण] [स्त्री० चौकोनी] [वि० चौकोनियाँ] जिसके चार कोने हों । चौखूँटा चतुष्कोण ।
⋙ चौकोर
वि० [सं० चतुष्कोण, प्रा० चउक्कोण] १. जिसके चार कोने हों । चौखुँटा । चतुष्कोण । २. क्षत्रियों की एक जाति या शाखा ।
⋙ चौक्ष
वि० [सं०] १. पवित्र । निर्मल । स्वच्छ । २. सुंदर । लुभावना । आनंददायक । ३. चोखा [को०] ।
⋙ चौखंड (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [वि० चौखडी] १. वह घर जिसमें चार खंड हों । चौमंचिला मकान । २. वह घर जिसमें चार आँगन या चौक हों ।
⋙ चौखंड (२)
वि० चार खंडोंवाला । उ०—आसन बासन मानुस अंडा । भए चौखंड जो ऐसा पखंडा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौखंडा (१)
संज्ञा पुं० वि० [हिं० चौखंड+आ (प्रत्य०)]दे० 'चौखंड' ।
⋙ चौखंडा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चखौडा] डीठा । अनख । काला विंदु जिसे स्त्रियाँ बच्चों के सिर में इसलिये लगा देती है जिससे उन्हें नजर न लगे । डिठौना । उ०—पुनि नैनन महँ काजर कीन्हा । दिष्टनेवार चौखंडा दीन्हा ।—चित्रा०, पृ० १९७ ।
⋙ चौखंडी
संज्ञा पुं० [हिं० चौखंड] चौपाल । बैठक । उ०—ता ऊपर जो कृंदन मंडी । सो चित्रवलि की चौखंडी ।—चित्रा० पृ० ९० ।
⋙ चौखट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + काठ] १. द्वार पर लगा हुआ चार लकडियों का ढाँचा जिसमें किवाड के पल्ले लगे रहते हैं । २. देहली । डेहरी । दहलीज ।मुहा०—चौखट लाँघना = घर के अंदर या बाहार जाना ।
⋙ चौखटा
संज्ञा पुं० [हिं० चौखट] १. 'चोखट' । २. चार लकड़ियों का ढाँचा जिसमे मुहँ देखने का या तसवीर का शीशा जडा जाता है । आइना, तसवीर आदी का फ्रेम ।
⋙ चौखटा (२)पु
क्रि० स० [हिं० सं० चोषण, चोखना] चखना । आस्वादन करना । उ०—मौन बरिस घन सुनिआरे चौखतहु तसु नाम ।—विद्यापति, पृ० ३४३ ।
⋙ चौखना (२)
वि० [हिं० चौ+सं० खण्ड > हिं० खन (जैसे, सतखन] चार खंड का । चौमंजिला (मकान) ।
⋙ चौखा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+खाई] वह स्थान जहाँ चार गाँवों की सीमा मिलती हो ।
⋙ चौखाना †
वि० संज्ञा पुं० [हिं० चारखाना] दे० 'चारखाना' ।
⋙ चोखानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + खानि (= जाति, प्रकार)] अंडज पिंडज, स्वेदज, उदि्भज आदि चार प्रकार के जीव । उ०—मानुष तै बड पापिया, अक्षर गुरूहि न मानि । बार बार मन कुकुही गर्भ धरे चौखानि ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ चौखूँट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+खूँट] १. चारो दिशा । २. भूमंडल ।
⋙ चौखूँट (२)
क्रि० वि० चारो ओर ।
⋙ चौखूँट (३)
वि० दे० चौखूँटा ।
⋙ चौखूँटा
वि० [हिं० चौ+खूँट] जिसमें चार कोने हों । चौकोना । चतुष्कोण ।
⋙ चौगडा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+ गोड (= पैर)] १. खरहा । खरगोश ।
⋙ चौगडा (२)
वि० चार पैरोंवाला ।
⋙ चौगडा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चौघडा] दे० 'चौघडा' ।
⋙ चौपड्डा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+गड्ड (= मेल)] १. वह स्थान जहाँ चार गावों की सीमा मिली हों । चौहद्दा । चौसिंहा । चौखा । २. चार चीजों का समूह ।
⋙ चौगड्डी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ+ गड्ढा] बाँस की फट्टियों का वह ढाँचा जिसमें जानवर फँसाते है ।
⋙ चौगान
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक खेल जिसमें लकडी के बल्ले से गेंद मारते हैं । यह घोडे पर चढ़कर भी खेला जाता है । यह खेल हाकी या पोलो नामक अँगरेजी खेलों के ही समान होता है । उ०—(क) ते तव सिर कुंदंक सम नाना । खेलिहहिं भालु कीस चौगाना ।—मानस ६ । २ । (ख) श्री मोहन खेलत चोगान । द्वारावती कोट कंचन में रच्यो रूचिर मैदान । यादव बीर बराई बटाई इक हलधर इक आपै ओर । निकसै सबै कुँवर असवारी उच्चैश्रवा के पोर । लीले सुरँग, कुमैत श्याम तेहि पर दै सब मन रंग ।—सूर (शब्द०) । २. चौगान खेलने का लकडी जो आगे की ओर टेढी या झुकी होती है । उ०—(क) कर कमलनि विचित्र चौगाने खेलन लगे खेल रिझए ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) लै चौगान बटा करि आगे प्रभु आए जब बाहर । सूर श्याम पूछत सब ग्वालन खेलैगे केहि ठाहर । सूर (शब्द०) । ३. चौगान खेलने का मैदान । उ०—अंतः पुर चौगान लौं निकसत कसमस होई । नरनारी धावत सुख छावत पूछत कोउ नहिं कोइ ।—रघुराज (शब्द०) । ४. नगाडा बजाने की लकड़ी
⋙ चौगानी
संज्ञा स्त्री० [ फा० चौगान ?] हुक्के की सीधी नली जिससे धुआँ खींचते हैं । निगाली । सटक ।
⋙ चौगिर्द
क्रि० वि० [ हिं० चौ+फा० गिर्द (= तरफ)] चारो ओर । चारो तऱफ ।
⋙ चौगुन †
वि० [ चतुर्गुण, हिं० चौगुना ] दे० 'चौगुना' ।
⋙ चौगुना
वि० [चतुर्गुण, प्रा० चउग्गुण ] [ बि० स्त्री० चौगुनी ] चार बार उतना ही । चतुर्गुण । चहारचंद । मुहा०— मन चौगुना होना = उत्साह बढाना । चित्त और प्रसन्न होना । उ०— विंध्यावली तिया सी न देखी कहूँ तिया नैना वीध्यो प्रभु पिया देखि कियो मन चौगुनी ।—प्रिया (शब्द०) ।
⋙ चौगुनो पु †
वि० [ हिं० चोगुना ]दे० 'चौगुना' । उ०— चौगुनो रंगु चढ्यौ चित्त मैं चुनरी के चुचात लला के निचोरत ।—देव ग्रं०, पृ० १५० ।
⋙ चौगून पु †
वि० [ हिं० चौगुना ]दे० 'चौगुना' ।
⋙ चौगून (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० चौगुना ] १. चौगुना होने का भाव । २. आरंभ में गाने या बजाने में जितना समय लगाया जाय, आगे चलकर उसके चौथाई समय में गाना या बजाना । दून से भी आधे समय में गाना या बजाना । विशेष— प्रायः किसी चीज के गाने या बजाने का आरंभ धीरे धीरे होता है, पर आगे चलकर उसकी लय बढा दी जाती है और वही गाना या बजाना जल्दी जल्दी होने लगता है । जब गाना या बजाना साधारण समय से आधे समय में हो तब उसे दून, तिहाई समय में हो, तह उसे तिगून और जब चौथाई समय में हो, तब उसे चौगून कहते हैं ।
⋙ चौगाडा (१)
वि० [ हिं० चौ (= चार) + गोड (= पैर)] चार पैरोंवाला ।
⋙ चौगाडा (२)
संज्ञा पुं० खरगोश । खरहा ।
⋙ चौगोड़िया
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौ (= चोर) + गोड (= पैर)] १. एक प्रकार की ऊंची चौकी जिसके पायों में चढने में लिये सीढी की तरह डंडे लगे रहते हैं । टिकटि । विशेष—यह छत, दिवार आदि ऊँचे स्थानों तक पहुँचने, झा़डने पोंछने, सफेदी या रंग आदि करने के लिये काम में आती है । २. बाँस की तीलियों का बना हुआ एक ढाँचा या फंदा जिसके चारों पल्लों में तेल पकाया हुआ पीपल का गोंद लगा रहता है । विशेष—बहेलिए इससे चिडिया फँसाते हैं । † ३. मेंढक । मंडूक ।
⋙ चौगोशा
संज्ञा पुं० [ हिं० चौ + फा० गोशा ] चौखूँटी तश्तरी जिसमें मेवे, मिठाइयाँ आदि रखकर कहीं भेजते हैं ।
⋙ चौगोशिया (१)
वि० स्त्री० [फा०] चार कोनेवाली ।
⋙ चौगोशिया (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की टोपी जो कपडे के चार तिकोने टुकडों को सीकर बनाई जाती है ।
⋙ चौगोशिया (३)
संज्ञा पुं० तुरकी घोड़ा ।
⋙ चौघड़
संज्ञा पुं० [हिं० चौ(=चार)+दाढ ] किनारे का वह चौड़ाऔर चिपटा दाँत जो आहार कूँचने वा चबाने के काम में आता है ।
⋙ चौघड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (=चार)+घर (=खाना)] १. चाँदी सोने आदि का बना हुआ एक प्रकार का डिब्बा जिसमें चार खाने बने रहते हैं । विशेष— यह कई आकार के बनते हैं । विशेषतः गोल होता है और खाने फूल की पँखुडी के आकार के बनाए जाते हैं । इन खानों में इलायची, लौंग, जावित्री, सुपारी इत्यादि भरकर महफिलों में रखते हैं । २. चार खानों का बरतन जिसमें मसाला आदि रखते हैं । ३. दिवाली के दिनों में बिकनेवाला मिट्टी का एक खिलौना जिसमें आपस में जुडी हुई चार छोटी छोटी कुल्हियाँ होती है । लड़के इसमें मिठाई आदि रखकर खाते हैं । ४. पत्ते की खोंगी जिसमें चार बीडे पान हों । जैसे,—दो चौघडे़ उधर दे आओ । ५. बडी जाति की गुजराती इलायची । ६. एक प्रकार का बाजा । चौडोल । उ०— सौ तुषार तेइस गज पावा । दुंदुभि औ चौघडा दियावा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौघड़िया (१)
वि० [हिं० चौ (=चार)+घडी+इया (प्रत्य०)] चार घड़ियों का । चार घड़ी संबंधी । जैसे, चौघड़िया मुहूर्त ।
⋙ चौघड़िया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (=चार)+गोडा (=पावा)] एक प्रकार की छोटी ऊँची चौकी जिसमें चार पावे होते हैं । तिरपाई । तिपाई । स्टूल ।
⋙ चौघड़िया मुहूर्त
संज्ञा पुं० [हिं० चौघडिया+सं० मुहूर्त ] एक प्रकार का मुहूर्त जो प्रायः किसी जल्दी काम के लिये, एक के दिन के अंदर ही निकाला जाता है । विशेष— जब कोई शुभ मुहूर्त दूर होता है, और यात्रा या इसी प्रकार का और कोई काम जल्दी करना होता है, तब इस प्रकार मुहूर्त निकलवाया जाता है । ऐसा मुहूर्त दिन के दिन या एक दो दिन के अंदर ही निकाला जाता है । ऐसा मुहूर्त घड़ी, दो घड़ी या चार घड़ी का होता है और उतने ही समय में उस कार्य को आरंभ कर दिया जाता है ।
⋙ चौघड़ी †
वि० स्त्री० [हिं० चौ+घेरा ] चार तह की । चार परत की ।
⋙ चौघर † (१)
वि० [ देश०] घोडों की एक चाल । चौफाल । पोइयाँ । मरपट । उ०— अबलक अबरस लखी सिराजी । चौघर चाल समुँद सब ताजी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौघर पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौघड]दे० 'चौघड' ।
⋙ चौघरा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+घर] १. पीपल की दीयट जिसके दीये में चार बत्तियाँ जलती है । २. दे० 'चौघडा' ।
⋙ चौघरिया पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] शहनाई । रोशनचौकी । उ०— बाजन लागु चपल चौघरियां चित्त चतुरता भागि रै ।— धरनी०, पृ० २८ ।
⋙ चौघोडी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ+घोडा ] चौकडी गाड़ी । चार घोड़ों की गाड़ी या रथ ।
⋙ चौचंद पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चौथ+चंद या चबाव+चंड ] १. कलंक- सूचक अपवाद । बदनामी की चर्चा । निंदा । उ०— सखि ! हौ वा रँगीले रंगी रंगी ये चबाइनै चौचंद कीबो करै ।—शृं० सत० (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—चौचंद पारना = चबाव करना । बदनामी करना । २. शोर । उ०— चित्त चोपन चाह के चौचंद मैं हहराय हिराय के हारि परौं ।—घनानँद० पृ० २६ ।
⋙ चौचँदहाई पु
वि० स्त्री० [हिं० चौचंद + हाई (प्रत्य०)] चबाव करनेवाली । बदनामी फैलानेवाली । दूसरों की बुराई करनेवाली । उ०— चौचंदहाई जरै ब्रज की जे परायो बनो सब भाँति बिगारै ।—ठाकुर (शब्द०) ।
⋙ चौज
संज्ञा पुं०[चोज] दे० 'चोज'
⋙ चौजाम
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + जाम (प्रहर)] चार प्रहर ।
⋙ चौजामा पु
वि० [हिं० चौजामा + आ (प्रत्य०)] चार प्रहर की । चार पहर की । उ०—मुसाफिर चेत करो निसि बीत गई चौजामा ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग २, पृ० ८४६ ।
⋙ चौजुगी
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर्यगी हिं० चौ+ सं० युग] चार युगों का काल ।
⋙ चठी
संज्ञा स्त्री० [चतुर्थी हिं०, चौथी] लबनी का चौथा अंश । ताडी़ चुआने के बर्तन का चौथा भाग ।
⋙ चौजुत्त पु
वि० [चौ + सं० युक्त, प्रा० जुक्त] चतुर्दिक् । चारो ओर ।
⋙ चौड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० चौड] चूडा़करण संस्कार ।
⋙ चौड़ (२) †
वि० [हिं० चौपट] चौपट । सत्यानाश । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ चौड़कर्म
संज्ञा पुं० [सं० चौडकर्मन्] दे० 'चौड़' ।
⋙ चौड़ना †
क्रि० स० [हिं० चौड़] चौपट करना । सत्यानाश करना ।
⋙ चौडा़ (१)
वि० [हिं० चौ (= चार) + पाट (= चौडा़ई) या सं० चिविट = चिपटा] [वि० स्त्री० चौडी़] लंबाई की ओर के दोनों किनारों के बीच विस्तृत । लंबाई से भिन्न दिशा की ओर फैला हुआ । चकला । यौ०चौडा़ चकला ।
⋙ चौडा़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० चुटा (= कूएँ के पास का गड्ढा)] १. कूएँ के पास का वह गड्ढा जिसमें मोट आदि से निकला हुआ पानी गिरता है । चौडा़ । २. गड्ढा । वह गड्ढा जिसमें अनाज रखते हैं ।
⋙ चौडा़ई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौडा़ + ई (प्रत्य०)] लंबाई से भिन्न दिशा की ओर का विस्तार । लंबाई के दोनों किनारों के बीच का फैलाव ।
⋙ चौडा़न
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौडा़ + आन (प्रत्य०)] चौडा़ई ।
⋙ चौडा़ना
क्रि० स० [हिं० चौडा़ से नामिक धातु] चौडा़ करना । फैलाना ।
⋙ चौडा़व †
संज्ञा पुं० [हिं० चौडा़ + आव (प्रत्य०)] दे० 'चौडा़न' ।
⋙ चौडी़
वि० स्त्री० [हिं० चौडा़ का स्त्री०] दे० 'चौडा़' ।
⋙ चौडोल (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चंडोल' ।
⋙ चौडोल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+ डोल ?] एक प्रकार का बाजा जिसे चौघडा़ भी कहते हैं । उ०— आसपास बाजत चौडोला । दुंदुभि झाँझ तूरडफ ढोला ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौतग्गी
वि० [हिं० चौ + तागा] वह डोरा जिसमें चार तागे लगे हों ।
⋙ चौतनियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + तनी (= बंद)] १. चौतनी । उ०— भाल तिलक मसि बिंदु विराजत सोहति सीस लाल चौतनियाँ ।—तुलसी (शब्द०) । २. अँगिया । चोली । चौबंदी । उ०— नारँगी नीबू उरोजनि जानि दए नख बानर चौतनियाँ में ।—सेवक श्याम (शब्द०) ।
⋙ चौतनिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौतनी + इया (प्रत्य०)] दे० 'चौतनियाँ' । उ०— (क) करत सिंगार चार भैया मिलि शोभा बरनि न जाइ । चित्र विचित्र सुभग चौतनिया इंद्रधनुष छबि छाइ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चौतनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + तनी (= बंद)] बच्चों की टोपी जिसमें चार बंद लगे रहते हैं । उ०— (क) पीत चौतनी सिरन सुहाई । तुलसी (शब्द०) (ख) रुचिर चौतनी सुभग सिर मेचक कुंचित केस । नख सिख सुंदर बंधु दोउ शोभा सकल सुदेस । —मानस, १ ।२१९ ।
⋙ चौतरका
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + तड़क (= लकडी, धरन)] एक प्रकार का खेमा या तंबू ।
⋙ चौतरफ
क्रि० वि०, वि० [हिं० चौ + तरफ] चारों ओर । सभी ओर ।
⋙ चौतरफा
अव्य० [हिं० चौ + तरफ] चारों ओर । चारों तरफ ।
⋙ चौतरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चत्वरक] दे० 'चबूतरा' ।
⋙ चौतरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+ तार] एकतारे की तरह का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिये चार तार होते हैं ।
⋙ चौतरा (३)
वि० चार तारोंवाला । जिसमें चार तार हों ।
⋙ चौतरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौतरा] छोटा चबूतरा ।
⋙ चौतरिया (२)
वि० [हिं० चौ + तार + इया + (प्रत्य०)] चार तारोंवाला ।
⋙ चौतहा †
वि० [हिं० चौ + तहा] चार तहोंवाला ।
⋙ चौतही
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + तह] खेस की बनावट (लहरिएदार) का एर कपडा़ जो इतना लंबा होता है कि चार तह करके बिछाने पर भी एक मनुष्य के लेटने भर को होता है ।
⋙ चौतार
संज्ञा पुं० [सं० चतुष्पद] चौपाया । चतुष्पद ।
⋙ चौताल
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + ताल] १. मृदंग का एक ताल । विशेष— इसमें छह दीर्घ अथवा १२ लघु मात्राएँ होती हैं और चार आघात और दो खाली होते हैं । इसका बोल यह है— धा धा धिनता कत्ता गेदिनता तेटेकता गँदिधिन । २. एक प्रकार का गीत जो होली में गाया जैता है ।
⋙ चौताला
वि० [हिं० चौ + ताल] चार तालोंवाला । जिसमें चार ताल हों ।
⋙ चौतालो †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कपास की ढेंढी या डोडा जिसमें से रूई निकलती है ।
⋙ चौतुका (१)
वि० [हिं० चौ + तुक + आ (प्रत्य०)] जिसमें चार तुक हों ।
⋙ चौतुका (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का छंद जिसके चारों चरणों की तुक मिली हो ।
⋙ चौथ (१)
संज्ञा स्त्री० [पुं० चतुर्थी, प्रा० चउत्थि, हिं० चउथि] १. प्रतिपक्ष की चौथी तिथि । हर पखवारे का चौथा दिन । चतुर्थी । मुहा०— चौथ का चाँद = भाद्र शुक्ल चतुर्थी का चंद्रमा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यदि कोई देख ले तो झूठा कलंक लगता है । उ०— लगै न कहुँ ब्रज गलिन में आवत जात कलंक । निरखि चौथ को चंद यह सोचत सुमुखि ससंक ।— पद्माकर (शब्द०) । विशेष— भागवत आदि पुराणों में लिखा है कि श्रीकृष्ण ने चौथ का चंद्रमा देखा था; इसी से उन्हें स्यमंतक मणि की चोरी लगी थी । अबतक हिंदू भादों सुदी चौथ के चंद्रमा का दर्शन बचाते हैं; और यदि किसी को झूठ मूठ कलंक लगता है तो कहते हैं कि उसने चौथ का चांद देखा है । काशी में लोग इसे ढेला चौथ कहते हैं । २. चतुर्थांश । चौथाई भाग । ३. मराठों का लगाया हुआ एक प्रकार का कर जिसमें आमदंनी या तहसील का चतुर्थांश ले लिया जाता था ।
⋙ चौथ (२)पु †
वि० चौथा । उ०—चंपकलता चौथ दिन जान्यो मृगमद सीर लगायो ।—सूर(शब्द०) ।
⋙ चौथपन पु
संज्ञा पुं० [सं० चौथा + पन] मनुष्य के जीवन की चौथी अवस्था । बुढा़ई । बुढा़पा । उ०— होई न विषय विराग भवन बसत भा चौथपन । हृदय बहुत दुख लाग जनम गएउ हरि भगति बिनु ।—मानस १ ।१४२ ।
⋙ चौथा (१)
वि० [सं० चतुर्थ, प्रा० चउत्थ] [वि० स्त्री० चौथी] क्रम में चार के स्थान पर पड़नेवाला । तीसरे के उपरांत का । जिसके पहले तीन और हों ।
⋙ चौथा (२)
संज्ञा पुं० मृतक के घर होनेवाली एक रीति जिसमें संबंधी तथा बिरादरी के लोग इकट्ठे होते हैं और दाह करनेवाले को रुपया पगडी़ आदि देते हैं । यदि मृतक की विधवा स्त्री जीवित हो तो उसे धोती चद्दर आदि दी जाती है । जैसे,— कल तुम उनके चौथे में गए थे ?
⋙ चौथाई
संज्ञा पुं० [हिं० चौथा + ई (प्रत्य०)] चौथा भाग । चार सम भागों में से एक भाग । चतुर्थांश । चहारुम ।
⋙ चौथि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौथ] दे० 'चौथ' ।
⋙ चौथिआई †
संज्ञा पुं० [हिं० चौथाई] दे० 'चौथाई' ।
⋙ चौथिहार †
वि०, संज्ञा पुं० [चौथी + हार (प्रत्य०)] चौथी लानेवाला ।
⋙ चौथिया
संज्ञा पुं० [हिं० चौथा] १. वह ज्वर जो प्रति चौथे दिन आए । क्रि० प्र०—आना ।यौ०— चौथिया जर । चौथिया बुखार । २. चौथाई का हकदार । चतुर्थांश का अधिकारी ।
⋙ चौथी (१)
वि० स्त्री० [हिं० चौथा का स्त्री०] दे० 'चौथा' ।
⋙ चौथी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर्थी] १. विवाह की एक रीति जो विवाह हो जाने पर चौथे दिन होती है । इसमें वर कन्या के हाथ के कंगन खोले जाते हैं । उ०— चौथे दिवस रंगपति आए । विधि चौथी कर चार कराए ।—रघुराज (शब्द०) । मुहै०— चौथी का जोडा़ = वह जोडा़ या लँहगा जो वर के घर से आता है और जिसे दुलहिन चौथी के दिन पहनती है । चौथी खेलना = चौथे के दिन दूल्हा दूलहिन का एक दूसरे के ऊपर मेवे, फल आदि फेंकना । चौथी छूटना = चौथी के दिन वर कन्या के हाथों का कंगन खुलना । चौथी की रीति होना । चौथी छुडा़ना = चौथी की रीति करना । २. विवाह तथा गौने के चौथे दिन वधू के घऱ से वर के घर आनेवाला उपहार । उ०— गौने के द्यौस छ सातक बीते न, चौथी कहा अबहीं चलि आई ।—मति० ग्रं०, पृ० ३१६ । विशेष— चौथी भेजने की प्रथा दो प्रकार की है । एक के अनुसार विवाह ताथा गौना दोनों में चौथी भेजी जाती है । परंतु कहीं कहीं वधू के ससूराल रहने पर ही चौथी भेजी जाती है । यह चार दिनों के पूर्व या बाद भी भेजी जाती है । ३. मुसलमानों की एक प्रथा, जिसमें शादी के बाद लड़का अपनी पत्नी से मिलने के लिये ससुराल आता है । इस प्रथा के अनुसार मिलन चौथी आने पर ही होता है । ४.फसल की बाँट जिसमें जमींदार चौथाई लेता है और असामी तीन चौथाई । चौकुर ।
⋙ चौथैया (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० चौथाई] चौथाई । चतुर्थांश ।
⋙ चौथैया (२)
संज्ञा स्त्री० छोटी नाव जिसमें बहुत थोडा़ बोझ लद सके ।
⋙ चौदंता (१)
वि० [सं० चततुर्दन्त] [वि० स्त्री० चौदंती] १. चार दातोंवाला । जिसके चार दाँत हो । जो पूरी बाढ़ कों न पहूँचा हो । बचपन और जवानी के बीच का । उभड़ती जवानी का विशेष— इस शब्द का व्यवहार घोडे़ के बच्चों और बैलों आदि के लिये होता है । २. अल्हड़ । उग्र । उद्यंड ।
⋙ चौदंता (२)
संज्ञा पुं० स्याम देश के हाथी की एक जाति जिसे चार दाँत होते हैं ।
⋙ चौदंती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौदंता] अल्हड़पन । उद्दंडता । धृष्टता । ढिठाई ।
⋙ चौदंती (२)
वि० स्त्री० दे० 'चौदंता' ।
⋙ चौद पु †
वि० [हिं० चौदह] दे० 'चौदह' । उ०— चौद ब्रह्मंड रह्या भर पानी ।—रामानंद०, पृ० ११ ।
⋙ चौदश
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर्दशी] दे० 'चौदस' ।
⋙ चौदस
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर्दशी, प्रा० चउद्दसि] वह तिथि जो किसी पक्ष में चौदहवें दिन होती हैं । चतुर्दशी । उ०—फागुन बदि चौदस को शुभ दिन अरु रविवार सुहायो । नखत उत्तरा आप विचारयो काल कंस को आयो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ चौदसि पु †
वि० [हिं० चौदस] क्रम में चौदस को पड़नेवाला । दे०'चौदस' । उ०— कीन्ह अरनजा मरदन, औ सखि दीन्ह अन्हान । पूनि भै चाँद जो चौदसि, रूप गएउ छबि भान ।—जायसी ग्रं०(गुप्त), पृ० ३४३ ।
⋙ चौदसी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौदस] १. चतुर्दशी । २. पूर्णिमा (मुसलमान पूनम को चौदहवीं कहते हैं) । मुहा०—चौदसी का चांद = (१) पूर्ण कथाओं से उदित होनेवाला चाँद । (२) बहुत सुंदर व्यक्ति (ला०) ।
⋙ चौदह (१)
वि० [सं० चतुर्दश प्रा०, चउदद्स, अप० चउदद्ह] जो गिनती में दस और चार हो । जो दस से चार अधिक हो ।
⋙ चौदह (१)
संज्ञा पुं० दस और चार के जोड की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है— १४ । मुहा०— चौदह विद्या, चौदह भुवन० चौदह रत्न = दे०'विद्या', 'भुवन' और 'रत्न' । यौ०— चौदह खंड = चौदह भुवन । उ०— चौदह खंड बसै जाके मुख, सबको करत अहारा हो ।—कबीर श०, भा० २, पृ० १४ । चौदह चंदा = चौदह विद्याओं का प्रकाश । उ०— चौसंठ दीवा जोय के, चौदह चंदा माहिं । तेहिं घल किसका चाँदना, जेहिं धर सतगुरु नाहिं । कबीर सा० सं० भा० १, पृ० १७ । चौदह ठहर = चौदह लोक । उ०— बाखारि एक विधाते कीन्हा चौदह छहर पाठ सो लीन्हा । कबीर बी०, पृ० १२ ।
⋙ चौदहवाँ
वि० [हिं० चौदह + वाँ (प्रत्य०)] जिसका स्थान तेरहवेँ स्थान के उपरांत हो । जिसके पहले तेरह और हों ।
⋙ चौदहवीं
संज्ञा स्त्री० [ हिं० चौदह + वीं = (प्रत्य०)] मुसलमानों के अनुसार पुर्णिमा की तिथि । मुहा०— चौदहबीं का चाँद = (१) पूनम का चाँद । (२) पूरे चाँद जैसा सुंदर व्यक्ति ।
⋙ चौदाँत पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + दाँत] दो हाथियों की लडा़ई । हाथियों की मुठभेड़ । उ०— पीलहि पील देखावा भयो दोहूँ चौदाँत । राजा चहै बुर्द भा शाह चहै मात ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौदावाँ
वि० [हिं० चौ(= चार) + दाँव] यह खेल (विशेषतः सोरही या इसी प्रकार का और जूए का खेल) जिसमें चार दाँव हो । वह खेल जिसमें चार दाँव लग सके ।
⋙ चौदा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौना] दे० 'चौना' ।
⋙ चौदा पु † (२)
वि० [हिं० चौदह] दे० 'चौदह' । उ०—जब बरस चौदा मने ओ आया । इल्म होर हिकमत हुनर सब पाया ।—दक्खिनी०, पृ० ३६३ ।
⋙ चौदानिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौदानी] दे० 'चौदानी' ।
⋙ चौदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + दाना + ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार की बाली जिसमें चार पत्तियों की सोने कीजडा़ऊ टिकडी़ लगी होती है । २. कान की वह बाली जिसमें मोती के चार दाने लगे हों ।
⋙ चौदायनिन
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि का नाम ।
⋙ चौदौआँ, चौदौवाँ
वि० [हिं० चौदाँवाँ] दे० 'चौदाँवाँ' ।
⋙ चौधर (१)
क्रि० वि० [हिं० चौ + धर] चारों ओर । चारों तरफ । उ०— रचा दो तख्त जल्वे का खशी सूँ, के चौधर चौंक मोतियाँ सूँ सँवारे ।—दक्खिनी०, पृ० ७५ ।
⋙ चौधर
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति । उ०— ऐराकी कक्षी सबज सुरषा समद सुरंग । बादामी अबलष बनै, चौधर नुकर पिलंग ।—प० रासो, पृ० १३८ ।
⋙ चौधराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौधरी] १. चौधरी का काम । २. चौधरी का पद ।
⋙ चौधरात
संज्ञा स्त्री० [हिं०चौधरी] दे० 'चौधराना' ।
⋙ चौधराना
संज्ञा पुं० [हिं० चौधरी] चौधरी का काम । २. चौधरी का पद । ३. वह जो चौधरी को उसके कामों के बदले मिले । ४. कुनबियों का मुहल्ला या टोला ।
⋙ चौधरानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौधरी] चौधरी की स्त्री ।
⋙ चौधरी
संज्ञा पुं० [सं० चतुर (= तकिया, मसनद) + घर (= धरनेवाला)] १. किसी जाति, समाज या मंडली का मुखिया जिसके निर्णय को उस जाति, समाज या मंडली के लोग मानते हैं । प्रधान । उ०— भनै रघुराज कारपण्य पणय चौधरि है जग के विकार जेते सबै सरदार है ।—(शब्द०) । २.कुनबी या कुर्मी नामक जाति । विशेष— कुछ लोग इस शब्द की व्युत्पत्ति 'चतुधुँ राँण' शब्द से बतलाते हैं ।
⋙ चौधारी (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ(= चार) + धारा] वह कपडा़ जिसमें आडी़ और बेडी़ धारियाँ वनी हों । चारखाना । उ०— षेमया डोरिया औ चौधारी । साम, सेत; पीयर हरियारी । जायसी (शब्द०) ।
⋙ चौधारी (२)
वि० [देश०] चौपहलू । उ०— दोनों चरणों का इकसार चौधारी (चौपहलू) चूरा, घुँघरू और नुपूर ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १९३ ।
⋙ चौना †
संज्ञा पुं० [पुं० च्यवन] कूँए पर का वह ढालुवाँ स्थान जहाँ खेत सींचनेवाले ढेंकुली या चरस आदि से पानी निकालकर गिराते हैं । चीकर । लिलारी ।
⋙ चौनावा
वि० [हिं० चौ + नाव (वि० रेखा)] [स्त्री० चौनावी] (तलवार आदि का फल) जिसपर चार नावें बनी हों । जिसमें गड्डे बने हों ।
⋙ चौप
संज्ञा पुं० [हिं० चोप] दे० ' चोप' ।
⋙ चौपई
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्पदी] एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १५ मात्राएँ होती है और अंत में गुरु लघु होते हैं । जैसे,— राम रमापति तुम मम देव । नहिं प्रभु होत तुम्हारी सेव । दीन दयानिधि भेव अभेव मम दिशि देखो यह यश लेव ।
⋙ चौपखा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ(=चार) + सं० पक्ष, हिं० पाख] परिखा । चहारदीवारी ।
⋙ चौपग †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + पग] चार पैरों वाला पशु । चौपाया ।
⋙ चौपट (१)
वि० [हिं० चौ (= चार) + पट (= किवाडा़), या हिं० चापट] चारों ओर से खुला हुआ । अरक्षित । क्रि० प्र०—छोड़ना ।
⋙ चौपट (२)
वि० [हिं० चौ (= चार) + पट (= सतह) ताप्तर्य, चारो तरफ से बराबर या विपरीत (= नष्ट)] नष्ट भ्रष्ट । विध्वंस । तबाह । बरबाद । सत्यानाश । उ०— जौ दिन प्रति अहार कर सोई । बिस्व बेगि सब चौपट होई ।—मानस, १ ।१८० । यौ०—चौपट चरण = जिसके कहीं पहुँचते ही सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो जाय । सब्जकदम । चौपटा ।
⋙ चौपटहा †
वि० [हिं० चौपट + हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चोपटही] चौपट करनेवाला । नष्ट करनेवाला । सर्वनाशी ।
⋙ चौपटा
बि० [हिं० चौपट] चौपट करनेवाला । नाश करनेवाला । काम बिगाड़नेवाला । सत्यानाशी ।
⋙ चौपटानंद
वि० [हिं० चौपटा + नंद] अत्यंत सत्यानाशी । जिसका आगैछ बुरा हो ।
⋙ चौपड़
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुप्पट, प्रा० चफष्पट] १. चौसर नामक खेल । नर्दबाजी । २. इस खेल की बिसात और गोटियाँ आदि । २. पलंग आदि की वह बनावट जिसमें चौसर के से खाने बने हों । ४. आँगन की बनावट जिसमें चौसर के खाने बने हों ।
⋙ चौपत †
१ संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + परत] कपड़ें की तह या घडी़ जो लगाई जाती है ।
⋙ चौपत (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'चौपातिया' ।
⋙ चौपत (३)
संज्ञा पुं० पत्थर का वह टुकडा़ जिसमें एक कील लगी रहती है और जिसपर कुम्हार का चाक रहता है ।
⋙ चौपतना
क्रि० स० [हिं० चौपत से नामिक धातु] तह लगाना । परत लगाना । (कपडे़ आदि की) ।
⋙ चौपताना †
क्रि० स० [हिं० चौपत] कपडे़ आदि की तह लगाना । घडी़ लगाना ।
⋙ चौपतिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + पत्ती] १. एक प्रकार की घास जो गेहूँ के खेत में उत्पन्न होकर फसल को बहुत हानि पहुंचाती है । २. एक प्रकार का साग । उटगन । ३. कशीदे आदि में वह बूटी जिसमें चार पत्तियाँ हों ।
⋙ चौपतिया (२)
वि० २. चार पत्तियोंवाला । २. (कशीदा) जिसमें चार पत्तियाँ दिखलाई गई हों ।
⋙ चौपथ
संज्ञा पुं० [पुं० चतुष्पथ] १. चौराहा । चौरस्ता । चौमुहानी । २. चौपत नाम का पत्थर जिसपर चाक रहता है ।
⋙ चौपद पु †
संज्ञा पुं० [पुं० चतुष्पद] चार पैरों वाला पशु । चौपाया ।
⋙ चौपया †
संज्ञा पुं० [हिं० चौपाया] दे० 'चौपाया' ।
⋙ चौपर (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपड] दे० 'चौपड़' ।
⋙ चौपर (२)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपड़ (चौसर के खानेवाला आँगन)] आँगन । प्राँगण । उ०—स्यामगौर कर मूदरी हीरन की जु उदोत । मनौ मदनपुर चौपरै दीपमालिका होत ।—ब्रज ग्रं०, पृ० ६६ ।
⋙ चौपरतना
क्रि० स० [हिं० चौ (=चार) + परत + ना (प्रत्य०)] कपडे़ आदि की तह लगाना । कपडे़ आदि को चारों ओर से कई फेर मोड़कर परत बैठाना ।
⋙ चौपरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपड़] दे० 'चौपड़' । उ०— मनपति सोहत स्याम ढिग सरसुति राधै संग । दंपतिहित संपतिसहित खेलत चौपारि रंग ।—ब्रज ग्रं०, पृ० ६५ ।
⋙ चौपल
संज्ञा पुं० [पुं० चतुष्फलक] चौपत नाम का पत्थर जिसपर कुम्हार का चाक रहता है ।
⋙ चौपहरा
वि०—[हिं० चौ (= चार) + पहर] १. चार पहर का । चार पहर संबंधी । २. चार चार पहर के अंतर का । मुहा०—चौपहरा देना = चार चार पहर के अंतर पर घोडे़ से काम लेना ।
⋙ चौपहल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + पहल] चार पहल या पार्श्व ।
⋙ चौपहल (२)
वि० [हिं० चौ + फा० पहलू, मि० सं० फलक] जिसके चार पहल या पार्श्व हों । जिसमें लंबाई, चौडा़ई और मोटाई हो । वर्गात्मक ।
⋙ चौपहला (१)
वि० [हिं० चौपहल + आ(प्रत्य०)] दे० 'चौपहल' ।
⋙ चौपहला (२)
वि० [हिं० चौपहल + आ (प्रत्य०)] एक प्रकार का डोला । वि० दे० 'चौपाल५' ।
⋙ चौपहलू
वि० [हिं० चौपहल + ऊ (प्रत्य०)] दे० 'चौपहला' ।
⋙ चौपहिया (१) †
वि० [हिं० चौ + पहिआ] चार पहियों का । जिसमें चार पहिए हों ।
⋙ चौपहिया (२)
संज्ञा स्त्री० चार पहियों का गाडी़ ।
⋙ चौपहलू पु
वि० [हिं० चैपहला] दे० 'चौपहला' । उ०— हाथनि चारि चारि चूरी पाइनि इक सार चूरा चौपहिलू इक टक रहे हरि हेरि ।—स्वामी हरिदास (शब्द) ।
⋙ चौपही पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपाई] दे० 'चौपाई' । उ०— कथा संसकृत सुनि कछु थोरी । भाषा बाँधि चौपही जोरो ।— माधवानल०, पृ० १८७ ।
⋙ चौपा †
संज्ञा पुं० [पुं० चतुष्पाद] दे० 'चौपाया' ।
⋙ चौपाई
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्पदी] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती है । इसके बनाने में केवल द्विकल और त्रिकल का ही प्रयोग होता है । इसमें किसी त्रिकल के बाद दो गुरु और सबसे अंत में जगण या तगण न पड़ना चाहिए । इसे रूप चौपाई या पादाकुलक भी कहते हैं । विशेष—वास्तव में चौपाई (चतुष्पदी) वही है जिसमें चार चरण हों और चारों चरणों का अनुप्रास मिला हो । जैसे,— छूअत सिला भइ नारि सुहाई । पाहन तें न काठ कठिनाई । तरनिउ मुनिधरनी होइ जाई । बाट परइ मोरि नावउडा़ई । पर साधारणतः लोग दो चरणों को ही (जिन्हें वास्तव में अर्धाली कहते हैं) चौपाई कहते और मानते हैं । मात्रिक के अतिरिक्त कुछ चौपाइयाँ ऐसी भी होती हैं जो वर्णवृत्त के अंतर्गत आती हैं और जिनके अनेक भेद और भिन्न भिन्न नाम हैं । उनका वर्णन अलग अलग दिया गया है । †२. चारपाई । खाट ।
⋙ चौपाड़
संज्ञा पुं० [हिं० चौपाल] दे० 'चौपाल' ।
⋙ चौपायनि
संज्ञा पुं० [सं०] चुप नामक ऋषि के वंशज ।
⋙ चौपाया (१)
संज्ञा पुं० [सं० चतुष्पद, प्रा चउप्पाव] चार पैरोंवाला पशु । गाय, बैल, भैंस आदि पशु । (प्रायः गाय बैल आदि के लिये ही अधिक बोलते हैं) ।
⋙ चौपाया (२)
वि० जिसमें चार पावे लगे हों ।
⋙ चौपार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौपाल] दे० 'चौपाल' ।
⋙ चौपाल
संज्ञा पुं० [हिं० चौबार] १. खुली हुई बैठक । लोगों के बैठने उठने का वह स्थान जो ऊपर से छाया हो, पर चारों ओर खुला हो । विशेष—गाँवों में ऐसे स्थान प्रायः रहते हैं जहाँ लोग बैठकर पंचायत, बातचीत आदि करते हैं । २. बैठक । उ०—सब चौपारहिं चंदन खँभा । बैठा राजा भइ तब सभा ।—जायसी (शब्द०) । ३. दालान । बरामदा । ४. घर के सामने का छायादार चबूतरा । ५. एक प्रकार की खुली पालकी जिसमें परदे या किवाड़ नहीं होते । चौपहला ।
⋙ चौपास पु †
क्रि० वि० [हिं० चौ (= चार) पास + (= तरफ)] चारों ओर । उ०—बेढ़ल सकल सखी चौपासा । अति खीन स्वास बहइ तसु नास ।—विद्यापति, पृ० ४८३ ।
⋙ चौपुरा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + पुर (= चारस) + आ (प्रत्य०)] वह कुआँ जिसपर चार पुर या मोट एक साथ चल सके । वह कुआँ जिसपर चार चरसे एक साथ चलते हों ।
⋙ चौपेज
वि० [हिं० चौ (= चार) + अ० पेज (= पृष्ठ)] १. चार पृष्ठोंवाला । २. एक ताव कागज में चार पृष्ठ होनेवाला । (पुस्तकों की छपाई आदि) । यौ०—चौपेजी छपाई ।
⋙ चौपैया
संज्ञा पुं० [सं० चतुष्पदी] १. चार चरणों वाले एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १०,८ और १२ के विश्राम से ३० मात्राएँ होती हैं और अंत में एक गुरु होता है । विशेष—इसके आरंभ में एक द्विकल के उपरांत सब चौकल होने चाहिए और प्रत्येक चौकल में सम के उपरांत सम और विषम के उपरांत विषम कल का प्रयोग होना चाहिए; साथ ही चारो चरणों का अनुप्रास भी मिलना चाहिए । जैसे,—भै प्रकट कृपाला, दीन दयाल, कौशल्या हितकारी । हर्षित महतारी, मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी । लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा, निज आयुध भुजचारी । भूषन बनमाला, नयन विशाला, शोभा सिंधु खरारी । †२. चारपाई । खाट ।
⋙ चौफला
वि० [हिं० चौ + फल] जिसमें चार फल या धारदार लोहे हों (चाकू) ।
⋙ चौफुलिया
वि० [हिं० चौ + फूल + इया (प्रत्य०)] १. जिसमें चार फूल एक साथ निकलते हों (पौधा) । २. जिसमें चार फूल एक साथ बने हों (चित्र) ।
⋙ चौफेर
क्रि० वि० [हिं० चौ + फेर] चारो ओर । चारो तरफ ।
⋙ चौफेरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + फेरा] चारों ओर गूमना । परिक्रमा ।
⋙ चौफेरी (२) †
क्रि० वि० चारो ओर ।
⋙ चौफेरी (३)
संज्ञा स्त्री० मुगदर का एक हाथ जिसमें बगली का हाथ करके मुगदर को पीठ की ओर से सामने छाती के समानांतर लाकर इतना तानते हैं कि वह छाती की बगल में बहुत दूर तक निकल जाता है ।
⋙ चौबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + बंद] १. एक प्रकार का छोटा चुस्त अंगा या कुरती जिसमें जामे की तरह एक पल्ला नीचे और एक पल्ला ऊपर होता है और दोनों बगल चार बंद लगते हैं । बगलबंदी । † २. राजस्व । कर । ३. घोडे़ के चारो सुमों की नालबंदी । ४. चारों ओर से बंद करने, घेरने, बाँधने का भाव ।
⋙ चौबंसा
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक यगण होता है । जैसे,—नय धरु एका । न भजु अनेका । इसे शशिवदना, चंडरसा और पावकुलक भा कहते हैं ।
⋙ चौबगला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौ + बगल + आ (प्रत्य०)] मिरजई, फतुही, कुरती, अंगे इत्यादि में बगल के नीचे और कली के ऊपर का भाग ।
⋙ चौबगला (२)
वि० चारो ओर का । जो चारों ओर हो ।
⋙ चौबगला † (३)
क्रि० वि० चारों ओर । चारो तरफ ।
⋙ चौबगली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + अ० बगल] बगलबंदी ।
⋙ चौबच्चा
संज्ञा पुं० [हिं० चहबच्चा] १. कुंड । हौज । छोटा गड्ढा जिसमें पानी रहता है । २. वह गड्ढा जिसमें धन गडा़ हो । जैसे, किले के भीतर कई चौबच्चे भरे पडे़ हैं ।
⋙ चौबरदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (= चार) + बर्द (= बैल) + ई (प्रत्य०)] चार बैलों की गाडी़ ।
⋙ चौबरसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ + बरस + ई (प्रत्य०)] १. वह उत्सव या क्रिया, आदि जो किसी घटना के चौथे बरस हो । २. वह श्राद्ध आदि जो किसी के निमित्त उसके मरने के चौथे बरस हो ।
⋙ चौबरा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (चिहनचार) + बाँट (= हिस्सा)] फसल की वह बँटाई जिसमें से जमींदार चतुर्थाश लेता है ।
⋙ चौबरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौबारी + इया (प्रत्य०)] दे० 'चौबारा' । उ०—खेलत रहलौं बाबा चौबरिया आइ गए अनहार हो ।—धरम०, पृ० ३४ ।
⋙ चौबा
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्वेदी] [स्त्री० चौबाइन] १. ब्राह्मणों की एक जाति या शाखा । २. मथुरा का पंडा । दे० 'चौबे' ।
⋙ चौबाइन
संज्ञा स्त्री० [हि० चौबे] चौबे की स्त्री० ।
⋙ चौबाई †
संज्ञा स्त्री० [हि० चौ+बाई(= हवा)] १. चारों ओर से बहनेवाली हवा । २. अफवाह । किंवादंती । उड़ती खबर । ३ धुमधाम की चर्चा ।
⋙ चौबाछा
संज्ञा पु० [हि० चौ(=चार)+बाछना(=कर या चंदा वसूल करना] एक प्रकार का कर जो दिल्ली के बाहशाहों के समय मे लगता था । विशेष— यह कर चार वस्तुओं पर लगाता था—पाग (प्रति मनुष्य), ताग अर्थात् करधनी (प्रति बालक), कूरी अर्थात् अलाव या कौड़ा, (प्रति घर), और पूँछी (प्रति चौपाया) ।
⋙ चौबानी
संज्ञा स्त्री० [हि० चौ+बानी] चार प्रकार की वाणी, हैं—परा, पश्यंती, मघ्यमा और बैखरी । उ०— परा पसंती मधमा बैखरी, चौबानी ना मानी । पाँच कोष नीचे कर देखो, इनमें सार न जानी ।—कबीर० श०, भा०, २. पृ० ६६ ।
⋙ चौबार
संज्ञा पु० [हि० चौबारा] दे० 'चौबारा' ।
⋙ चौबारा (१)
संज्ञा पु० [हि० चौ (= चार)+बार(=द्बार)] १. कोठे के ऊपर की वह कोठरी जिसके चारों ओर दरवाजे हों । बँगला । बालाखाना । २.खुली हुई बैठक । लोगों के बैठने उठने का ऐसा स्थान जो ऊपर से छाया हो, पर चारों ओर खूला हो ।
⋙ चौबारा (२)
क्रि० वि० [हि० ची(=चार)+बार(=दफा)] चौथी दफा । चौथी बार ।
⋙ चौबारी †
संज्ञा स्त्री० [हि० चौबारा का स्त्री०] दे० 'चौबारा' ।
⋙ चौबाहा (१) †
वि० [चौ+बाहना(=जोतय़ा)] बोने से पूर्व चार बार जोता जानेवाला (खेत) ।
⋙ चौबाहा †
संज्ञा पु० चार बार जोतने की क्रिया ।
⋙ चौबिस †
वि० [हि० चौबीस]दे० 'चौबीस' ।
⋙ चौबीस (१)
वि० [सं० चतुर्विशत्, प्रा० चउबीसा] जो गिनती में बीस और चार ही । बीस से चार अधिक ।
⋙ चौबीस (२)
संज्ञा पु० बीस से चार अधिक की संख्या जो अंको में इस प्रकार लिखी जाती है—२४ ।
⋙ चौबीसवाँ
वि० [हि० चौबीस+वाँ (प्रत्य०)] क्रम में जिसका स्थान तेइसवें के आगे हो । जिसके पहले तेईस और हौ ।
⋙ चौबे
संज्ञा पु० [सं० चतुर्विदी, प्रा० चउब्बेदी, हि० चउबेदी] [स्त्री० चौबाइन] ब्राह्णणों की एक जाति या शाखा । विशेष—मथुरा के सब पड़े चौबै कहलाते है ।
⋙ चौबोला
संज्ञा पु० [हि० चौ+बोला] एत मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चंरण में ८ और ७ के विश्राम से १५ मात्राएँ होती है । अंत में लघु गुरु होता है । जैसे,— रघुबर तुम सों विनती करौं । कीजै सोई जाते तरौ । भिखारीदास, ने इसके दुगने का चौबोला मानकर १६ और १४ मात्राओं पर यति मानी है ।
⋙ चौमड़
संज्ञा स्त्री० [हि० चौ+दाढ़] दाढ का वह चौड़ा, चिपटा और गड़्ढेदार दाँत जिससे आहार कूचते या चबाते हैं
⋙ चौमर
संज्ञा स्त्री० [हि० चौमर] दे० 'चौभर' ।
⋙ चौभी †
संज्ञा स्त्री० [हि० चोभना] नाँगर या नगरा से मिला हुआ हल का वह वह भाग जिसमें फल लगा होता है और जुताई के समय जिसका कुछ भाग फाल के साथ जमीन के अंदर रहता है ।
⋙ चौमंजिला
वि० [हि० चौ(=चार)+फा० मजिल] चार मरातिब या खंडोवाला (मकान आदि) ।
⋙ चौमस †
संज्ञा पु० [हि० चौ+मास] वह खेत जो रबी की बोबाई के लिय़े वर्षा के चार मास जोता गया हो । चौमासा ।
⋙ चौमसिया (१)
वि० [हि० चौ+मास] १. चार महीने का । २. वर्षा के चार महीनों में होनेवाला । ३. मौसम सबंधी ।
⋙ चौमसिया (२)
संज्ञा पु० वह हसवाहा जो चार महीने के लिये नौकर रखा गया हो ।
⋙ चौमसिया (३)
संज्ञा पु० [हि० चार+माशा] चार माशे का बाट । चार माशे तौल का बटखरा ।
⋙ चौमहला
वि० [हि० चौ+महल] चार खंड़ों का । चार मरतिब का (मकान) ।
⋙ चौमाप
संज्ञा पु० [हि० चौ+माप] [वि० चौमापी] १. किसी चीज की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई तथा काल नापने का चार अंग । २. उक्त चारों अंगों कता समन्वित रूप । चारों आयाम ।
⋙ चौमार्ग †
संज्ञा पु० [सं० चतुर्मार्ग] चौरस्ता । चौमुहानी ।
⋙ चौमास
संज्ञा पु० [हि० चौमासा] दे० 'चौमासा' ।
⋙ चौमासा (१)
संज्ञा पु० [सं० चातृमसि] १. वर्षा काल के चार महीने आषाढ, श्रावण, भद्रापद और आश्विन । चातुमर्सि । २. वर्षा ऋतु के संबंध की कविता । ३. खरीफ की फसल उगने का समय । ४. वह खेत जो वर्षा काल के चार महीनों (असाढ०, सावन, भादों और कुवार) में जोता गया हो । ५. किसी स्त्री के गर्भवती होने के चौथे महीने में किया जानेवाला उत्सव । ६. दे० 'चौमसिया' ।
⋙ चौमासा (२)
वि० १. चौमासे में होनेवाला । चौमासा संबंधी । २. चार मास मे होनेवाला ।
⋙ चौमासी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० चौमास+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना जो प्रायः बरसात में गाया जाता है ।
⋙ चौमासी
वि० दे० 'चौमासा' ।
⋙ चौमुख (१)
क्रि० वि० [हि० चौ (=चार)+मुख(=ओर)] चारो ओर । चारो तरफ । उ०— चमचमात चामीकर संदिर चौमृख चित्त विचारु । —रधुराज (शब्द०) ।
⋙ चौमुख (२)
वि० दे० 'चौमुखा' । जैसे, चौमुख दियना (= दीपे) ।
⋙ चौमुखा
वि० [हि० चौं = चार+मुख = आ = (प्रत्य०) । [स्त्री० चौमुखी] १. चार मुँहोवाला । जिसके मुँह चारों ओर हों । यौ०—चौमुखा दीया = वह दीपक जिसमें चारों ओर चार बत्तियाँ जलदी हों । मुहा०—चौमुखा दिया जलाना = दिवाला निकालना । विशेष—लोग कहते हैं कि प्राचीन समय में जब महाजन को अपने दिवाले की, सूचना देनी होती थी, तब वह अपनी दूकान पर चौमुख दीया जला देता था ।
⋙ चौमुहानी
संज्ञा स्त्री० [हि० चौ (= चार)+फा० मूहाना] चौराहा चौरस्ता । चतुष्पथ ।
⋙ चौमेंड़ा
संज्ञा पुं० [हि० चौ(=चार)+मेंड़+आ (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ पर चार मेंड़ या सीमाएँ मिलती हों ।
⋙ चौमेखा (१)
वि० [हि० चौ (=चार)+मेख+अ (प्रत्य०) ] चार मेखोंवाला । जिसमें चार मेख या कीले हों ।
⋙ चोमेखा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कठोर दंड़ जिससे अपराधी को जमीन पर चित या पट लिटाकर उसके दोनें हाथों और दोनों पैरों में मेखं ठोंक देते थे ।
⋙ चौरंग (१)
संज्ञा पुं० [हि० चौ(=चार)+रंग(=प्रकार, ढब)] तलवार का एक हाथ । तलवार चलाने का एकढ़ब जिससे चीजे कटकर चार टुकड़े हो जाती हैँ । खङ्ग प्रहार का एक ढंग
⋙ चौरंग (२)
वि० १. तलवार के वार से कई टुकड़ों में कटा हुआ । खङ्ग के आघात से खंड़ खंड़ । उ०—कहुँ तेग को घालिकै, करहि टूक चौरंग । सुनि, लखि पितु बिसुनाथ नृप, होत मनहि मन दंग ।—(शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—काटना । मुहा०—चौरग उड़ाना या काटना = (१) तलवार आदि से किसी चीज को बहुत सफाई से काटना । (२) एक में बँधे हुए ऊँट के चारों पैरो को तलवार के एक हाथ मनें काटना । विशेष—देशी रियासतों तथा अन्य स्थानों में विरता की परीक्षा के लिये यह परीक्षा थी । इसमें ऊँट के चारों पैर एक साथ बाँध दिए जाते है । ऊँट के पैर की नलियाँ बहुत मजबूत होती है; इसलिये जो उन चारों पैरों को एक ही हाथ में काट देता है,वह बहुत बीर समझा बीर समझा जाता है । २. चार रंगोंवाला । ३. चारों तरफ समान रूप से होनेवाला । ४. जो चारों तरफ एक जैसा हो ।
⋙ चौरंगा
वि० [हि० चौ+रंग] [वि० स्त्री० चौरंगी] चार रंगों का । जिसमें चार रंग हो । सुंदर । चित्र विचित्र । उ०—बहन बटी सौ तुरंग चमर पसगी चौरंगा । पंच घाट पंचास अस्ति तबोली षंगा । —पृ० रा०, १२ । ११८ ।
⋙ चौरंगिया
संज्ञा पुं० [हि० चौ+रंग] मालखंभ की एक कसरत जिसमें बेत को एक जंघे पर बाहार की ओर की ओर से लेकर पिंड़री को छुलाते हुए उसी पैर कै अँगूठे में अटकाते है और फिर दूसरे जघे से उसे भीतर लेकर पिंड़री से बाहर करते हुए दुसरे अँगूठे में अटकाते हैं ।
⋙ चौरंगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. चौराहा । बंगाल में कलकत्ते का एक प्रमुख स्थान ।
⋙ चौर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरों की वस्तु चुरानेवाला । चोर । यौ०—चौकर्म = चोरी । २. एक गंध द्रव्य । ३. चौरपुष्पी । चौरपंचाशिका के रचयिता संस्कृत के एक कवि का नाम ।
⋙ चौर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० चमर] दे० 'चमर' । उ०—चौर इले हैं न्याचे पवन चेरी । —दक्खिनी०, पृ० ३० ।
⋙ चौर (३)
संज्ञा पुं० [सं० चुण्ड़ा] ताल जिसमें बरसाती पानी बुहत दिन तक रुका रहे । खादर ।
⋙ चौरई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चौराई' ।
⋙ चौरचार †
संज्ञा स्त्री० [देश०] चहल पहल ।
⋙ चौरठ †
संज्ञा पुं० [हि० चाउर+पीठा] 'चौरेठा' ।
⋙ चौरठा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चोरेठा' ।
⋙ चौरदार †
संज्ञा पुं० [सं० उमर, हि० चौर + फा० दार (प्रत्य०)] दे० 'चँवरदार' । उ०—चौरदार सूखपाली गइया । चौरा पर उन खबर जनइया । —घट०, पृ०१९२ ।
⋙ चौरस (१)
वि० [हिं० चौ (= चार) + (एक) रस (= समान] १. जो ऊँचा नीचा न हो । समथल । हमवार । बारबर । जैसे, चौरस मैदान । २. चौपहल । वर्गात्मक ।
⋙ चौरस (२)
संज्ञा पुं० १. ठठेरों का एक औजार जिससे वे खुरचकर बर— तन चिकने करते है । २. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और एक यगण होता है । इसको 'तुनुमध्या' कहते हैं । जैसे,—तू यों किमि आली । घूमें मतवाली (सुनार) ।
⋙ चौरसा (१)
संज्ञा पुं० [हि० चौ + रस] १. ठाकुर जो की शय्या की चदुदर २. चार रूपये भर का बाट (सुनार) ।
⋙ चौरसा (२)
वि० जिसमे चार रस हों । चार रसोंवाला ।
⋙ चौरसाई
संज्ञा स्त्री० [हि० चौरसाना] १. चौरसाने की क्रिया । २. चौरसाने का भाव । ३. चौरसाने की मजदूरी ।
⋙ चौरसाना
क्रि० सं० [हि० चौरस से नामिक धातु] चौरस करना । बराबर करना । हमवार करना ।
⋙ चौरसी
संज्ञा स्त्री० [हि० चौरस] १. बाँह पर पहनने का एक चौखुँटा गहना । विशेष—सीतापूर आदि जिलों में इसका प्रचार है । २. चौरस करने का औजार । ३. अन्न रखने का कोठा या बखार ।
⋙ चौरस्ता
संज्ञा पुं० [हि० चौ + फा० रास्ता] चौराहा ।
⋙ चौरह †
संज्ञा पुं० [हि० चौरा]दे० 'चौरा' । उ०—जब वह लहरे मारता कबीरचौरह के समीप पहुँचा, तब सामने कबीर साहब को बैठा दैखा । —कबीर मं०, पृ० ८० ।
⋙ चौरहा †
संज्ञा पुं० [हि० चौ+राह+आ (प्रत्य०)] दे० 'चौराहा' ।
⋙ चौरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चत्वरक प्रा० चउर] [स्त्री० अल्पा० चोरी] । १. चौतरा । चबूतरा । वेदी । २. किसी देवी, देवता सती, मृत महात्मा, भूत, प्रेत आदिका स्थान जहाँ बेदी या चाबुतरा बना रहता है । जैसे, सती का चौरा । उ०—पेट को मारि मरै पुनि ह्वँ चौरा पुजावत देव समानै । —रघुराज भूत (शब्द०) । ३. चौपाल । चौबारा ।
⋙ चौरा (२)पु †
संज्ञा पुं० [हि० चौला या देश०] लोबिया । बोड़ा । अखाँ । रवाँस । उ०—गेहुँ चाँवर चाना उरद जब मुँग मोठ खिल । चौरा मटर मसूर तुवर सरसों मड़ुवा मिल । —सूदन (शब्द०) ।
⋙ चौरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० चामर] वह बैल जिसकी पूँछ सफेद हो ।
⋙ चौरा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गायत्री का एक नाम ।
⋙ चौराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ+राई] १. चौलाई नाम का साग । उ०—चौराई तो राई तौराई मुरई मुरब्बा भारी जी ।— विश्राम (शब्द०) । २. अगरवाले बनियों की एक रीति जिसमें किसी उत्सव पर किसी को निमंत्रण देते समय उसके द्वार पर हल्दी में रँगे पीले चावल रख आते हैं । ३. एक चिड़िया । विशेष—इसकी गरदन मटमैली, ड़ैंने चितकबरे, दुम नीचे सफेद और ऊपर लाल और चोंच पीले होती है । इसके पैर भी पीले ही होते हैं ।
⋙ चौरानबे (१)
वि० [सं० चतुर्नवति, प्रा० चउण्णवइ] नब्बे से चार अधिक ।
⋙ चौरानबे (२)पु †
संज्ञा पुं० नब्बे से चार अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—९४ ।
⋙ चौराया †पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौराहा]दे० 'चौराहा' । उ०— बिकट चौरायौ पवन चहुँ ओर की ।—पोद्दार० अभि० ग्रं०, पृ० ५७५ ।
⋙ चौराष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] षाड़व जाति का एक संकर राग जो प्रातःकाल गाया जाता है ।
⋙ चौरासी (१)
वि० [सं० चतुरशीति, प्रा० चउरासीइ] अस्सी से चार अधिक । जो संख्या में अस्सी और चार हो ।
⋙ चौरासी (२)
संज्ञा पुं० १. अस्सी से चार अधिक की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—८४ । २. चौरासी लक्ष योनि । उ०— आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी—मानस, १ ।८ । विशेष—पुराणों के अनुसार जीव चौरसी लाख प्रकार के माने गए हैं । मुहा०—चौरासी में पड़ना या भरमना = निरंतर बार बार कई प्रकार के शरीर धारण करना । आवागमन के चक्र में पड़ना । उ०—चौरासी पर नाचत उस उपदेसत छबिधारी ।— देवस्वामी । (शब्द०) । ३. एक प्रकार का घुँघरू । पैर में पहनने का घुँघुरूओं का गुच्छा जिसे नाचते समय पहनते हैं । उ०—मानिक जड़े सीम ओ काँधे । चँवर लाग चौरासी बाँधे—जायसी (सब्द०) । ४. पत्थर काटने की एक प्रकार की टाँकी । ५. एक प्रकार की रूखानी ।
⋙ चौराहा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार)+राह (=रास्ता)] वह स्थान जहाँ चार रास्ते या सड़कें मिलती हों । वह स्थान जहाँ से चार तरफ के चार रास्ता गए हों ।
⋙ चौरियाना †
क्रि० अ० [हिं० चौरी से नामिक धातु] दूब या घास का फेलाकर घना होना ।
⋙ चोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौरा] १. छोटा चबूतरा । बेदी । उ०— रची चौरी आप ब्रह्मा चरित कंभा लगाइ के ।—सूर (शब्द०) २. किसी देवी, देवता सती आदि के लिये बनाया हुआ छोटा चौरा या चबूतरा जिसके ऊपर एक छोटा सा स्तुप जैसा बनाहोता है । इस स्तूप में मूर्ति या प्रतिक की पूजा की जाती है । कहीं कहीं स्तूप में एक ओर तिकोना या गोल गड़्ढा होता है जिसमें दिया रखते हैं । दे० 'चौरा'—२ । †३. मूल स्थान । आदि स्थान । ४. अकेली दूब का या जमीन पर पसरनेवाली किसी एक घास का घना और छोटा विस्तार । घास या दूब का थक्का । जैसे,—दूब की चारी ।
⋙ चौरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक पेड़ जो हिमालय पर तथा रावी नदी के किनारे रके जंगलों में हेता है । मदरास तथा मध्य प्रदेश में भी यह पेड़ मिलता है । विशेष—इसकी लकड़ी चिकनी और बहुत मजबुत होती है और मेज, कुरसी, आलमारी, तसबीर के चौखटे आदि बनाने के काम में आती हा । इसकी छाल दवा के काम में आती । २. एक पेड़ जिसकी छाल से रंग बनता और चमड़ा सिझाया जाता है ।
⋙ चौरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चोरी । २. गायत्री का एक नाम ।
⋙ चोरेठा
संज्ञा पुं० [हिं० चाउर+पीठा] पानी के साथ पीसा हुआ चावल ।
⋙ चौर्य
संज्ञा पुं० [सं०] चोरी । स्तेय । यौ०—चौर्यरत = गुप्त मैथुन । चौर्यवृत्ति = (१) चौरी पर जीविका चलानेवाला । (२) चोरी करनेवाला ।
⋙ चौर्यक
संज्ञा पुं० [सं०] चोरी [को०] ।
⋙ चौल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चोल नामक देश । वि० दे० 'चोल' ।
⋙ चौल (२)
वि० [सं०] चूड़ाकर्म संबंधी [को०] ।
⋙ चौल (३)
संज्ञा पुं० मुंड़न । चूड़ाकर्म [को०] ।
⋙ चौलकर्म
संज्ञा पुं० [सं० चौलकर्मन्] चूड़ाकर्म । मुंड़न ।
⋙ चौलड़ा
वि० [हिं० चौ+लड़] जिसमें चार लड़ें हों ।
⋙ चौला
संज्ञा पुं० [देश०] लोबिया । बोड़ा ।
⋙ चौलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ+राई (=दाने)] एक पौधा जिसका साग खाया जाता है । उ०—चौलाई लाल्हा अरू पोई । मध्य मेलि निबुओन निचोई ।—सूर (शब्द०) । विशेष—यह हाथ भर के करीब ऊँचा होता है । इसकी गोल पत्तियाँ सिरे पर तिपटा होता हैं और ड़ंठलों का रंग लाल होता है । यह पौधा वास्तव में छोटा जाति का मरसा है । इसमें भी मरसे के समान मंजरियाँ लगती हैं जिनमें राई के इतने बड़े काले दाने पड़ते हैं । वैद्यक में चौलाई हलकी, शीतल रूखी, पित—कफ—नाशक, मल—मुत्र—नि?सारक, विष— नाशक और दीपन मानी जाती है । पर्याय—तंड़ुलीय । मेघनाद । कांड़ेर । तंड़ुलेरक । झंड़ीर । विषध्न । अल्पमारिष, इत्यादि ।
⋙ चौलावा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+लाना (=लगाना)] ऐसा कुआँ जिसमें एक साथ चार मोट चल सकें ।
⋙ चौलि
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।
⋙ चौलुक्य †
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुलुक ऋषि के वंशज । २. 'चालुक्य' ।
⋙ चौली
संज्ञा पुं० [देश०] बोड़ा ।
⋙ चौवन (१)
वि० [सं० चतुपञ्चाशत्, प्रा० चतुपञ्जासी, प्रा० चउवण्ण] पचास से चार अधिक । जो गिनती में पचास से चार ऊपर हो ।
⋙ चौवन (२)
संज्ञा पुं० पचास से चार आधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—५४ ।
⋙ चौवा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (=चार)] १. हाथ की चार उँगलीयों का समूह । २. अँगूठे को छोड़कर बाकी चार उँगलियों की पंक्ति में लपेटा हुआ तागा । जेसे,—एक चोवा तागा । मुहा०—चौवा करना = चार उँगलियों में तागा आदि लपेटना । ३. हाथ की चार उँगलियों का विस्तार । चार अंगुल की माप । ४. ताश का वह पत्ता जिसमें चार बूटियाँ हो । †५. गुड़्ड़ी की ड़ोर को पंजा फैलाकर अगुठे और कनिष्ठिका में इस प्रकार लपेटना जिसमें एक ड़ोर एक दूसरे को बीज से काटती हुई जाय । इसका आकार अंग्रेजी अंक ८ की तरह होता है ।
⋙ चौवा †
संज्ञा पुं० [सं० चतुष्पाद] गाय, बैल, आदि पशु । चौपाया ।
⋙ चौवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ+वाई (=वात)] दे० 'चौबाई' ।
⋙ चौवालीस
वि० [सं० चतुश्चत्वारिंशत्, प्रा० चतुचत्तालीसति, प्रा० चउव्वालीसइ] चालिस से चार अधिक । जो गिनती चार ऊपर चालीस हो ।
⋙ चौवालीस
संज्ञा पु० चालीस से चार अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है— ४४ ।
⋙ चौवाह पु
वि० [सं० चतुर्बाहु] चार वाहुवाला । चतुर्बाहु । उ०— चतुर वीर चहुवान च्यार मुष्षौ चौवाहँ ।—पृ० रा०, १ । २७९ ।
⋙ चौस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० (=कृषि)] १. चार बार जोता हुआ खेत । दे० 'चौबाहा' । २. खेत का चौथी बार जोता जाना ।
⋙ चौस (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] बुकनी । चूरा । चूर्ण ।
⋙ चौसई पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक बहुत मोटा कपड़ा । दुसूती से भी मोटा गरीबों के काम का सस्ता कपड़ा । उ०—ताके आगे चौसई आनि धरै बहुतेर । सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६९ ।
⋙ चौसठ
वि० [हिं०] दे० 'चौंसठ' । यौ०—चौसठो घड़ी = दिन रात । सारा दिन । आठो पहर । चौसठ सींढिया = तांत्रिकों एवं सिद्धनाथों की परंपरा में ६४ वर्णो की सीढी । ये वर्ण मूला-से लेकर ऊपर के कमालों के दलों पर होता हैं । कुछ वर्णो और दलों का योग ६४ होता है । उ० अकृत निर्झ (र) लाई । उलट दरियाव निर्भरिया । यहि विधि चढता चौसठ सीढिया ।—रामानंद०, पृ० १० ।
⋙ चौसर
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (=चार)+सर (=बाजी) [अथवा सं० चतुस्सारि] १. एक प्रकार का खेल जो विसात पर चार रगों की चार चार गोटियों और तीन पासों से दो मनुष्यों में खेला जाता है । चौपड़ । नर्दवाजी । विशेष—दोनों खेलनेवाले दो दो रंगों का आठ आठ गोटियाँ ले लेते हैं और बारी बारी से पासे फेंकते हैं । पासों के दाँव आने पर कुछ विशेष नियमों के अनुसार गोटियाँ चली जाती हैं । यह खेल जब पासों के बदले सात कौड़ियाँ फेंककर खेला जाता है, तब उसे पचासा कहते हैं ।क्रि० प्र०—खेलना । २. इस केल की बिसात जो प्रायः कपड़े की बना होती है । विशेष—इसका मध्य भाग थैली का सा होता है जिसमें खेल की समाप्ति पर गोटियाँ भरकर रखी जाती हैं । मध्य भाग के चारो सिरों की तरफ चार लंबे चौकोर टुकड़े सिले रहते हैं । जिनमें से हर एक की लंबाई में आठ आठ चौकोर खानों का तान तीन पंक्तियाँ होती हैं । क्रि० प्र०—बिछाना । यौ०—चौसर का बाजार = चौक बाजार । वह स्थान जिसके चारों ओर एक ही तरह के चार बाजार हों ।
⋙ चौसर (२)
संज्ञा पुं० [चतुरसृक्] चौलड़ी । चार लड़ों का हार उ०—(क) चौसर हार अमोल गरे को देहु न मोरी माई ।*— सूर (शब्द०) । (ख) और भाँति भए बए चौसर चंदन चंद । बिहारी (शब्द०) ।
⋙ चौसरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौसर]दे० 'चौसर' ।
⋙ चौसल्ला †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+सालना] किसी वस्तु को ऊपर रखने के लिये आधार स्वरूप रखी चार लकड़ियाँ । २. चौसल्ले पर रखी हुई वस्तु ।
⋙ चौसिंघा (१)
वि० [हिं० चौ (=चार)+सींघ] चार सींगोंवाला । जिसके चार सींग हों । जैसे, चौसिंघा बकरा ।
⋙ चौसिंघा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौसिंहा]दे० 'चौसिंहा' ।
⋙ चौसिंहा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (=चार)=सींव (सीमा) + हा (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ चार गाँवों की सीमाएँ मिलती हों ।
⋙ चौहट पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+हाट] दे० 'चौहट्टा' । उ०— चौहट हाट समान वेद चहुँ जानिए । विविध भाँति की वस्तु बिकत तहँ मानिए । —विश्राम (शब्द०) ।
⋙ चौहटा
संज्ञा पुं० [हिं० चौहट+आ (प्रत्य०)] चौहट्टा । बाजार । उ०— चुरे हैं कंचन चौहटे अपुने अपुने टोल ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८८ ।
⋙ चौहट्ट
संज्ञा पुं० [हिं० चौ+हट्ट] दे० 'चौहट्ट' । उ०—चौहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथी चारू पुर बहु बिधि बना ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ चौहट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (चार)+हाट] १. स्थान जिसके चारों ओर दूकानें हों । चौक २. चौमुहानी । चौरस्ता । चौराहा ।
⋙ चौहड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चौभड़] दे० 'चौभड़' ।
⋙ चौहड़ (२)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चोहड] छोटा जलाशय । जोहड़ ।
⋙ चौहत्तर (१)
वि० [सं० चतु?सप्तति?, प्रा० चौहत्तरि] जो सत्तर से चार अधिक हो । जो गिनती में सत्तर और चार हो ।
⋙ चौहत्तर (२)
संज्ञा पुं० तिहत्तर के बाद की संख्या । सत्तर से चार अधिक की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—७४ ।
⋙ चौहद्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चातुर्भद्र, प्रा चाउहद्द + ई (प्रत्य०)] एक अवलेह जो जायफल, पिप्पली, काकड़ासिंगी और पुष्करमूल को पीसकर शहद में मिलाने से बनता है ।
⋙ चौहद्दी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० यौ + अ० हद + हिं० ई (प्रत्य०)] चारों ओर की सीमा ।
⋙ चौहरा (१)
वि० [हिं० यौ (=चार)+हर (प्रत्य०)] १. जिसमें चार फेरे या तहें हों । चार परतवाला । जैसे, चौहरा कपड़ा । †२. चौगुना । जो चार बार हो । उ०—दोहरे, तिहरे, चौहरे भूषन जाने जात । बिहारी र०, दो ६८० । ३. चार लड़वाला । उ०—हीरा लाल जवहिर घर के मानिक मोती चौहरा । कौन बात की कमी हमारै भरि भरि राषै भौंहरा ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९१४ ।
⋙ चौहरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चौघड़ा] वह पत्ता जिसमें पान के बीड़े लपेटे हों । चौघड़ा ।
⋙ चौहडका
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (=चार)+अ०हलका ?] गलीचे की बुनावट का एक प्रकार ।
⋙ चौहान
संज्ञा पुं० [देश०] अग्निकुल के अंतर्गत क्षत्रियों की प्रसिद्ध शाखा विशेष—इसके मूल पुरूष के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि उसके चार हाथ थे और उसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये वशिष्ठ जी के यज्ञकुंड़ से हुई थी । प्रायः एक हजार वर्ष पहले मालवे और राजपूताने में इस जाति के राजाओं का राज्य था और पीछे इसका विस्तार दिल्ली तक हो गया था । भारत के प्रसिद्ध अतिम सम्राट पृथ्वीराज इसी चौहान जाति के थे । कुछ लोगों का यह भी अनुमान है कि इस जाति के मूल पुरूष माणिक्य नामक एक राजा थे जो लगभग ईस्वी सन् ८०० में अजमेर में राज्य करते थे । इस जाति के क्षत्रिय प्रायः सारे उत्तरीयभारत में फैले ए हैं ।
⋙ चौहैं पु
क्रि० वि० [देश०] चारों ओर । चारों तरफ । उ०—राम कहै चकित चुरैलैं चहुँ अल्लै त्यों सबी सकरि ऊल्लैं चौहैं चकित मसान को ।—रामकवि (शब्द०) ।
⋙ च्यवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूना । झरना । टपकना । २. एक ऋषि का नाम । विशेष—इनके पिता भृगु और माता पुलोमा थीं । इनके विषय में कथा है कि जब ये गर्भ में थे, तब एक राक्षस इनकी माता को अकेली पाकर हर ले जाना चाहता था । यह देख च्यवन गर्भ से निकल आए और उस राक्षस के उन्होंने अपने तेज से भस्म कर डाला । ये आपसे आप गर्भ से गिर पड़े थे, इसी से इनका नाम च्यवन पड़ा । एक बार एक सरोवर के किनारे तपस्या करते इन्हें इतने दिन हो गए कि इनका सारा शरीर वल्मोक (बिमौट = दीमक की मिट्टी) से ढक गया, केवल चमकली हुई आँखें खुली रह गई । राजा शर्याति की कन्या सुकन्या ने इनकी आँखों को कोई अद्भुत वस्तुसमझ उनमें काँटे चुभा दिए । इसपर च्यवन ऋषि ने क्रुद्ध होकर राजा शर्याति की सारी सेना और अनुचर वर्ग का मलमूत्र रोक दिया । राजा ने घबराकर च्यवन ऋषि से क्षमा माँगी और उनकी इच्छा देख अपनी कन्या सुकन्या का उनके साथ व्याह कर दिया । सुकन्या ने भी उस वृद्ध ऋषि से विवाह करने में कोई आपत्तिनहीं की । विवाह के पीछे एक दिन अश्विनीकुमार ने आकर सुकन्या से कहा—'बूढे पति को छोड़ दो, हम लोगों से विवाह कर लो' । पर जब वह किसी प्रकार समत व हुई, तब अश्विनीकुमारों मे प्रसन्न हेकर च्यवन ऋषि के बूढे से सुंदर युवक कर दिया । इसके बदले में च्यवन ऋषि ने राजा शर्याति के यज्ञ में अश्विनीकुमारों को सोमरस प्रदान किया । इंद्र ने इसपर आपत्ति की । जब इन्होंने नहीं माना, तब इद्र ने इसपर वज्र चलाया । च्यवन ऋषि ने इसपर क्रुद्ध होकर एक महा विकराल असुर उत्पन्न किया, जिसपर इंद्र भयभीत होकर इनकी शरण में आया ।
⋙ च्यवनप्राश
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद में एक प्रसिद्ध अवलेह जिसके विषय में यह कथा है कि च्यवन ऋषि का वृद्धत्व और अंधत्व नाश करने के लिये अश्विनीकुमारों ने इसे बनाया था । विशेष—इसका वर्णन इस प्रकार है—पके हुए बड़े बड़े ताजे ५०० आँबले लेकर मिट्टी के पात्र में पकाकर रस निकाले और उस रस में ५०० टके भर मिस्री ड़ालकर चाशनी बनावे । यदि संभव हो तो इसे चाँदी के बरतन में रखे; नहीं तो उसी मिट्टी के पात्र में ही रहने दे । फिर उसमें मुनक्का, अगर, चंदन, कमलगट्टा, इलायची, हड़ का छिलका, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा महामेदा, जीवक, ऋषभक, गुरच, काकड़ासिंगी, पुष्करमूल कचुर, अड़ूसा, विदारीकंद, बरियारा, जीवंती, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, दोना, कटियाली, बेल की गिरी अरल कुंभेर और पाठ ये सब चीजें टके भर मिलावे और ऊपर से मधु ६ टके भर, पिप्पली २ टके भर, तज २ टंक, तेजपात २ टंक, नागकेशर २ टंक, इलायची २ टंक और बंसलेचन २ टंक इन सबका चूर्ण कर ड़ाले । फिर सबके मिलाकर रख ले । इससे स्वरभेग, यक्ष्मा, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं और स्मृति, कांति, इंद्रियसामर्थ्य, बलवीर्थ्य आदि की अत्यंत वृद्धि होती है ।
⋙ च्यार पु
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० चार ] दे० 'चार' ।
⋙ च्यावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुआना । २. निकाल देना ।
⋙ च्यावना पु
क्रि० स० [सं० च्यावन] चुआना । उ०—पूरन इंदु सी कुंदन सी मृदु मंद हँसी रस बुँदनि च्यावै ।चंपक फूलनि पीत दुकूलनि पी गल मैं भुजमूलनि ल्यावै ।—देव ग्रं०, पृ० ७२ ।
⋙ च्युत
वि० [सं०] १. टपका हुआ । गिरा हुआ । चुआ हुआ । झड़ा हुआ । २. गिरा हुआ । पतित । ३. भ्रष्ट । ४. अपने स्थान से हटा हुआ । ५. विमुख । पराङ्मुख । जैसे, कर्तव्य से च्युत । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—च्युतात्मा = कुटिल । च्युताधिकार = पद से हटाया हुआ ।
⋙ च्युतमध्यम
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक विकृत स्वर जो पीति नामक श्रुति से आरंभ होता है । इसमें दो श्रुतियाँ होती हैं ।
⋙ च्युतषड़ज
संज्ञा पुं० [सं० च्युतषड़ज] संगीत में एक विकृत स्वर जो मेदा नामक श्रुति से आरंभ होता है । इसमें दो श्रुतियाँ होती है ।
⋙ च्युतसंस्कारता
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्यदर्पण के मत से काव्य का वह दोष जो व्याकरणविरूद्ध पदविन्यास से होता है । काव्य का व्याकरण सबंधी दोष । विशेष—यह दोष प्रधान दोषों में है ।
⋙ च्युतसंस्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'च्युतसंस्कारता' ।
⋙ च्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पतन । स्खलन । झडना । गिरना । २. गति । उपयुक्त स्थान से हटाना । ३. चूका । कर्तव्यविमुखता । ४. अभाव । कसर । ५. गुदद्वार । गुदा । ६. भग । योनि ।
⋙ च्युप
संज्ञा पुं० [सं०] मुख । चेहरा [को०] ।
⋙ च्यूँटा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चिउँटा' ।
⋙ च्यूँटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'चिउँटी' ।
⋙ च्यूडा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चिउडा' ।
⋙ च्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड या फल ।
⋙ च्योना
संज्ञा पुं० [देश०] घटिया ।
⋙ च्योल
संज्ञा पुं० [सं०] चूना । टपकना । गिरना [को०] ।