विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/नि

विक्षनरी से

निंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० निण्डिका] मटर।

निंत पु
क्रि० वि० [सं० नित्य] दे० 'नित्य'। उ०—जेटि नारि हंसि पूँछे आमिय बचन जिमि निंत।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३७२।

निंता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० निमित्त] कारण। निमित्त। उ०— मानुस चिंत आन कछु निंता। करै गुसाँई न मन मँह चिंता।—जायसी ग्रं०, पृ० ३१५।

निंद पु
वि० [सं० निन्ध] दे० 'निंद्य'।

निंदक
संज्ञा पुं० [सं० निन्दक] निंदा करनेवाला। दूसरों के दोष या बुराई कहनेवाला। उ०— आन देव निंदक अभिमानी।— मानस, ७। ९७।

निंदन
संज्ञा पुं० [सं० निन्दन] [वि० निंदनीय, निंदित, निद्य] निंदा करने का काम।

निंदनीय पु †
क्रि० स० [सं० निन्दन] निंदा करना। बदनाम करना। बुरा कहना। उ०—(क) पिता मंदमति निंदत तेही। दक्ष शुक्र संभव यह देही।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हरि सब के मन यह उपजाई। सुरपति निंदत गिरिहि बड़ाई।—सूर (शब्द०)।

निंदनीय
वि० [सं० निन्दीय] १. निंदा करने योग्य। बुरा कहने योग्य। २. बुरा। गर्ह्य।

निंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० निन्दा] १. (किसी व्यक्ति या वस्तु का) दोषकथन। बुराई का बर्णन। ऐसी बात का कहना जिससे किसी का दुर्गुण, दोष, तुच्छता, इत्यादि प्रगट हो। अपवाद। जुगुप्सा। कुत्सा। बदगोई। २. अपकीर्ति। बदनामी। कृख्याति। जैसे—ऐसी बात से लोक में निदा होती है। क्रि० प्र०—करना।—होना। विशेष—यद्यपि निंदा दोप के कथन मात्र को कह सकते है चाहे कथन यथार्थ हो चाहे अययार्थ पर मनुस्मृति में ऐसे दोष के कथन को 'निंदा' कहा है जो यथार्थ न हो। जो दोष वास्तव में ही उसके कथन को 'परीवाद' कहा है। कुल्लूक ने अपनी व्याख्या में कहा है कि विद्यमान दोष के अभिधान को 'परीवाद' ओर अविद्यमान दोष के अभिधान को 'निंदा' कहते हैं।

निंदस्तुति
संज्ञा स्त्री० [हिं० निन्दास्तुति] १. निंदा के बहाने स्तुति। व्याजस्तुति। २. दोषकथन और प्रशंसा।

निंदित
वि० [सं० निन्दित] जो बुरा कहा गया हो। जिसे लोग बुरा कहते हों। दूषित। बुरा।

निंदु
संज्ञा स्त्री० [सं० निन्दु] मरे बच्चें को जन्म देनेवाली माता। मृतवत्सा माँ [को०]।

निंद्य
वि० [सं० निन्द्य] १. निंदा करने योग्य। निंदनीय। २. दूषित। बुरा।

निंद्या पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निन्दा] दे० 'निंदा'। उ०— असतुति निंद्या आसा छाँड़ै तजै मान अभिमाना। लोहा कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवाना।—कबीर ग्रं०, पृ० १५०।

निंब
संज्ञा स्त्री० [सं० निम्ब] १. नोम का पेड़। यौ०— पंचनिंब। महानिंब। २. एक वृक्ष। परिभद्र (को०)।

निंबतरु
संज्ञा पुं० [सं०निम्बतरु] १. नीब का पेड़। २. मंदार वृक्ष। ३. महानिंब। बकायन [को०]।

निंबपंचक
संज्ञा पुं० [सं० निम्बपञ्चक] नीब के पाँच अंग—पत्ती, फूल, फल, छाल और जड़ [को०]।

निंबबीज
संज्ञा पुं० [सं० निम्बबीज] राजादनी वृक्ष। चिरौंजी का पेड़ [को०]।

निंबर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आरिज'।

निंबादती पु †
वि० [सं० निम्बादित्य] निंबार्क संप्रदाय का अनुयायी। उ०— निंबादती होइ तौ तूँ कामना कटुक त्यागि, अमृत कौ पान करि अधिक अधाइए।—सुंदर०, ग्र० भा०, २ पृ० ६१२।

निंबादित्य
संज्ञा पुं० [सं०निम्बादित्य] निंबार्क संप्रादाय के आदि आचार्य। इनका दूसरा नाम 'अरुणि' भी था। ये श्री राधिका जो की कंकण के अवतार माने जाते हैं। विशेष— वृंदावन के पास ध्रुव नामक पहाड़ी पर ये रहते थे। वहीं पर इनके शष्यों ने इनकी गद्दी स्थापित की। कहते है, इनके पिता का नाम जगन्नाथ था। बाल्यावस्था में इनका नाम भास्कराचार्य था। बहुत से लोगे इन्हें सूर्य के अंश से उत्पन्न कहते थे। ये कृष्ण के बड़े भारी भक्त थे। इनके नाम के कारण इनके संबंध में एक विलक्षण कथा भक्तमाल में लिखी है। एक संन्यासी वा जैन यति इनसे दिन भर शास्त्रार्थ करता रहा। सूर्यास्त हो रहा था। इन्होंने उससे भोजन के लिये कहा। सुर्यास्त के उपरांत भोजन करने का नियम उसका नहीं था। इसपर निंबार्क ने सूर्य को रोक रखा। जबतक संन्यासी ने भोजन नहीं कर लिया तबतक सूर्य देवता एक नीम के पेड़ पर बैठे रहे।

निबार्क
संज्ञा पुं० [सं० निम्बार्क] १. निवादित्य। २. निंबादित्य का चलाया हुआ बैष्णव संप्रदाय। विशेष— निंबार्क मत वैष्णव धर्म के चार प्रमुख संप्रदायों (रामानुज, माध्य, विष्णुस्वामी तथा निंबार्क) में से एक है। द्वैताद्वैत अध्यात्मा दर्शन को आधार मान कर इसमें राधा और कृष्ण के युगलस्वरूप समभाव उपासना स्वीकृत है।

निंबू †
संज्ञा स्त्री० [सं० निम्बू] नीबू।

निंबूक
संज्ञा पुं० [सं० निम्बूक] दे० 'निंबू'।

निँदरना
क्रि० सं० [सं० निन्दा] निंदा करना। बदनाम करना। बुरा कहना।

निँदरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० निद्रा] नींद। निद्रा। उ०— मेरे लाल को आव निंदरिया काहे न आय सुआबै।—सूर (शब्द०)।

निँदाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० निराई] १. खेत के पौधों के पास की घास, तृण आदि की उखाड़कर या काटकर अलग करने का काम। २. निराने की मजदूरी।

निँदाना
क्रि० स० [सं०] दे० 'निराना'।

निँदासा
वि० [हिं० नींद + आसा (प्रत्य०)] १. जिसे नींद आ रही हो। उनींदा। २. आलस्ययुक्त। अलसाया।

निँदिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नींद + इया (स्वा, प्रत्य०)] नींद। ऊँघ। जैसे,—आव री निंदिया आव (बच्चों के सुलाने का वाक्य)। उ०— सोओ सुख निंदिया प्यारे ललन।— हरिश्चंद्र (शब्द०)।

निँवकौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० निम्ब + हिं० कौरी] नीम का फल। निबौरी।

निँवरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नीम + बारी] वह बारी या कुंज जिसमें सब पेड़ नीम के ही हों।

निः
अव्य० [सं० निस्] एक उपसर्ग। दे० 'निस्'।

निःअच्छर †
संज्ञा पुं० [सं० निः + अक्षर] ब्रह्म। ईश्वर। वह जिसका वर्णान अक्षरों के द्वारा न हो सके। उ०— निःअच्छर अब मिला अच्छर को ले क्या करना।—पलटू० भा० १, पृ० १७३।

निःकंप
वि० [सं० निष्कम्प] कंपरहिन। अचल।

निःकपट
वि० [सं० निष्कपट] दे० 'निष्कपट'।

निःकाज पु
वि० [नि + हिं० काज] बिना कार्य के। निष्प्रयोजन। उ०— निःकाज राज बिहाय नृप इव स्वप्न कारागृह परयौ।— तुलसी ग्रं० पृ० ५२४।

निःकाम
वि० [सं० निष्काम] दे० 'निष्काम'।

निःकारण
वि० [सं० निष्कारण] दे० 'निष्कारण'।

निःकासन
संज्ञा पुं० [सं० निष्कासन] दे० 'निष्कासन'।

निःकासित
वि० [सं० निष्कासित] निष्कासित। निकाला हुआ [को०]।

निःक्रामित
वि० [सं० निष्क्रामित] निकाला या भगाया हुआ।

निःक्षत्र
वि० [सं०] क्षत्रियरहित। क्षत्रियशून्य (देश आदि)।

निःक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. निक्षेप। फेंकना। प्रक्षेपण। २. जमा। गिरवी। आड़। ३. बिना किसी प्रतिबंध के जमा किया हुआ। सामान्य जमा। ४. प्रेषित करना। ५. परित्याग। ६. पोछंना। सुखाना। ७. गड़ा धन। भूगर्भस्थ धन [को०]।

निःक्षोभ
वि० [सं०] क्षोभहीन। जिसको क्षोभ न हो।

निःछल
वि० [सं० निश्छल] दे० 'निश्छल'।

निःपक्ष
वि० [सं० निष्रक्ष] दे० 'निष्पक्ष'।

निःपाप
वि० [सं०निष्पाप] दे० 'निष्पाप।

निःप्रभ
वि० [सं०] निष्प्रभ। प्रभाहिन। नष्टप्रभ [को०]।

निःप्रयोजन
वि० [सं० निष्प्रयोजन] दे० 'निष्प्रयोजन'।

निःफल
वि० [सं० निष्फल] दे० 'निष्फल'।

निःशंक
वि० [सं० निःशङ्क] भयहीन। निडर। निर्भय। जिसे डर न हो। २. जिसे किसी प्रकार का खटका या हिचक न हो।

निःशत्रु
वि० [सं०] शत्रुरहित। जिसका कोई शत्रु न हो [को०]।

निःशब्द
वि० [सं०] शब्द से रहित। जहाँ शब्द न हो या जो शब्द न करे।

निःशम
वि० [सं०] १. क्रोध। २. बेचैनी। अशांति [को०]।

निःशरण
वि० [सं०] शरणहीन। अरक्षित [को०]।

निःशलाक
वि० [सं०] निर्जन। एकांत। सुनसान। निराला। विशेष— मनु ने लिखा है कि मंत्रणा निःशलाक स्थान में करनी चाहीए।

निःशल्य
वि० [सं०] दे० 'निःशल्या'।

निःशल्या (१)
वि० [सं०] १. शल्यारहित। २. खटकनेवाली चीज से युक्त। प्रतिबिंधरहित। निष्कंटक।

निःशल्या (२)
संज्ञा स्त्री० दंती वृक्ष [को०]।

निःशाख
वि० [सं०] शाखरहित [को०]।

निःशील
वि० [सं०] शीलरहित [को०]।

निःशुक्र
वि० [सं०] १. शक्तिरहित। ओजहीन। २. उत्साह- हीन [को०]।

निःशूक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान।

निःशून्य
वि० [सं०] रिक्त। खाली [को०]।

निःशेष
वि० [सं०] १.जिसमें कुछ शोष न हो। जिसका कोई अंश न रह गया हो। समूचा। सब। २. समाप्त। पूरा। खतम। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निःशोक
वि० [सं०] शोकरहित। चिंतामुक्त [को०]।

निःशोध्य
वि० [सं०] जिसका साफ करना अनावश्यक हो। स्वच्छ। साफ [को०]।

निःश्रीक
वि० [सं०] श्रीहीन। कांतिहीन। तेजरहीत [को०]।

निःश्रयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निश्रेणी'।

निःश्रयिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निःश्रेणी'।

निःश्रेणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की घास। २. निश्रेणी [को०]।

निःश्रेणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काठ या बाँस आदि की सीढ़ी। २. खजूँर का वृक्ष [को०]।

निःश्रेणी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का उत्तम अश्व [को०]।

निःश्रेयस
वि० [सं०] १. मोक्ष। मुक्ति। २. मंगल। कल्याण। ३. भक्ति। ४. विज्ञान। ५. शिव। शंकर (को०)।

निःश्वसन
संज्ञा पुं० [सं०] श्वास का बहार निकालना।

निःश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणवायु का नाक से निकलना या नाक से निकाली हुई वायु। साँस। २. लंबी। साँस। दीर्घ श्वास।

निःसंकल्प
वि० [सं० निःसङ्कल्प] इच्छारहित।

निःसंकोच
क्रि० वि० [सं० निःसङ्कोच] बिना संकोच के। बेधड़क जैसे,— आप निःसंकोच चले आइए।

निःसंख्य
वि० [सं० निसङ्ख्य़] संख्यारहित। अगणित। बेशुमार।

निःसंग
वि० [सं० निःसङ्ग] १. बिना मेल या लगाव का। जो मेल या लगाव न रखना हो। २. निर्लिप्त। ३. जिसमें अपने मतलब का कुछ लगाव न हो।

निःसंचार
वि० [सं० निःसञ्चार] जिसमें गति न हो। जो संचरण न करे [को०]।

निःसंज्ञ
वि० [सं०] संजाशून्य। मूर्छित [को०]।

निःसंतान
वि० [सं० निःसन्तान] जिसके संतान न हो। निपूता या निपूती। लावल्द।

निःसंदेह (१)
वि० [सं० निःसन्देह] संदेहरहित। जिसे या जिसमें कुछ संदेह न हो। जैसे,—किसी आदमी का निःसंदेह होना, किसी बात का निःसंदेह होना।

निःसंदेह (२)
अव्य० १. बिना किसी संदेह के। २. इसमें कोई संदेह नहीं। ठीक है। बेशक।

निःसंधि
वि० [सं० निःसन्धि] १. संधिशून्य। जिसमें कहीं से दरार या छेद न हो। २. दृढ़। मजबूत। ३. कसा हुआ। गठा हुआ।

निःसंपात
वि० [सं० निःसम्पात] १. गमनागमनशून्य। जहाँ या जीसमे आना जाना न हो। जहाँ या जिसमें आवगमन न हो। जहाँ या जिसमें आमदरफ्त न हो। जैसे, निःसंपात मार्ग। २. रात। रात्री।

निसंबाध
वि० [सं० निःसम्बाध] १. विस्तीर्ण। फैला हुआ। अबाध [को०]।

निःसंशय
वि० [सं०] संदेहरहित। शंकारहित।

निःसत्व
वि० [सं० निःसत्व] १. जिसकी कुछ सत्ता न हो। जिसमें कुछ असालियत न हो। २. जिसमें कुछ तत्व या सार न हो। बिना सत का।

निःसपत्न
वि० [सं०] १.शत्रुरहित। जिसका कोई शत्रु न हो। २. निष्कंटक। ३. प्रतिरोधीरहित। अद्वितीय [को०]।

निःसरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकलना। २. निकलने का रास्ता। निकास। ३. कठिनाई से निकलने का रास्ता। ४. निर्वाण। ५. मरण।

निःसार (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कुछ सार न हो। जिसमें कुछ तत्व न हो। २. जिसमें कुछ असलियत न हो। ३. जिसमें प्रयोजन या महत्व की कोई बात न हो।

निःसार (२)
संज्ञा पुं० १. शाखोट वृक्ष। सहोरे का पेड़। २. श्योनाक वृक्ष। सोनापाठा।

निःसारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निःसरित] १. निकालना। २. निकास। निकलने का द्वार या मार्ग।

निःसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केले का वृक्ष। कदली [को०]।

निःसरित
वि० [सं०] निकाला हुआ। निष्कासित। बर्खास्त किया हुआ।

निःसारु
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ भेदों में से एक।

निःसीम
वि० [सं०] १. जिसकी सीमा न हो। बेहद। २. बहुत बड़ा या बहुत अधिक।

निःसुकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गेहूँ जिसके दाने छोटे होते हैं ओर जिसकी बाल में टूँड़ या सीगुर नहीं होते।— (भावप्रकाश)।

निःसृत
वि० [सं०] निकला हुआ।

निःस्नेहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीसी। अलसी।

निःस्पंद
वि० [सं० निःस्पन्द] जिसमें स्पंद न होता हो। जो हिलता डोलता न हो। निश्चल। स्थिर।

निःस्पृह
वि० [सं०] १. इच्छारहित। जिसे किसी बात की आकांक्षा न हो। २. जिसे प्राप्ति की इच्छा न हो। निर्लोभ।

निःस्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकास। २. अवशेष। बचत। निकासी (याज्ञवल्क्य०)।

निःस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यय। खर्च करने का भाव। २. माँड़। [को०]।

निःस्व
संज्ञा पुं० [सं०] जिसका अपना कुछ न हो। जिसके पास कुछ न ही। धनहीन। दरिद्र।

निःस्वादु
वि० [सं०] स्वादरहित [को०]।

निःस्वार्थ
वि० [सं०] १. जो अपना अर्थसाधन करनेवाला न हो। जो उपना मतलब निकालनेवाला न हो। जो अपने लाभ, सुख या सुभीते का ध्यान न रखता हो। २. (कोई बात) जो अपने अर्थसाधन के निमित्त न हो। जो अपना मतलब निकालने के लिये न हो। ३. निःस्वार्थ सेबा।

नि (१)
अव्य [सं०] एक उपसर्ग जिसके लगने से शब्दों मे इन अर्थों की विशेषता होती है— १. संघ या समूह। जैसे, निकर। २. अधोभाव। जैसे, निपतित। ३. भृश, अत्यंत। जैसे, निगृहीत। ४. आदेश। जैसे, निद्श। ५. नित्य जैसे। निविशिष्ट। ६. कौशल। जैसे, निपुण। ७. बंधन जैसे, निबंध। ८. अंतर्भाव। जैसे, निपित। ९. समीप। जैसे निकट। १०. दर्शन। जैसे, निदर्शन। ११. उपरम। जैसे निवृत। १२. आश्रम जैसे, निलय। मेदनी कोश में ये अर्थ और बतलाए गए हैं—१३. संशय। १४. क्षेप। १५. न। १६. मोक्ष। १७. विन्यास और १८. निषेध।

नि (२)
संज्ञा पुं० निषाद स्वर का संकेत।

निअर पु (१) †
अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअड] निकट। पास। समीप।

निअर पु (२)
वि० समान। तुल्य।

निअराना पु (१) †
अव्य० [हिं० निअर] निकट। जाना। समीप पहुँचना। उ०— आइ नगर निअरानी शरात बजावत।—तुलसी (शब्द०)।

निअराना (२)
क्रि० अ० निकट आना। पास होना। दूर न रह- जाना। उ०—अगे चले बहुरि रघुराया। ऋष्यमूक पर्वत निअराया— तुलसी (शब्द०)।

निआउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० न्याय] दे० 'न्याय'। उ०— नीक सगुन बिवारिहि ढगर होइहि धरम निआउ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९३।

निआथी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निःअर्थ अथवा निर्धन] धनहीनता। दरिद्रता। उ०— साथी आथि निआथि जो सकै साथ निर- बाहि। जो जिउ पिउ मिलै भेटु रे जिउ जरि जाहि।—जायसी (शब्द०)।

निआन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निदान] अंत। परिणाम। उ०—जो निआन तन होइहि छारा। माटिहि पोखि मरै को मारा।— जायसी ग्रं०, पृ० ५४।

निआन (२)
अव्य० अंत में। आखिर।

निआना †
क्रि० वि० [हि०न्यारा] न्यारा। अलग। उ०— अनु राजा सो जरै निआना। बादसाह के सेव न माना।—जायसी (शब्द०)।

निआमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] अच्छा और बहुमूल्य पदार्थ। अलभ्य पदार्थ।

निआरा †
वि० [हिं०] दे० 'न्यारा'।

निऋति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नैऋत्य या दक्षिणपश्चिम कोण की अधिष्ठातृ देवी। २. अलक्ष्मी। लक्ष्मी की बड़ी बहन दरिद्रा। ३. मृत्यु। नाश। ४. पृथ्वी का तत्व। ५. विपत्ति [को०]।

निऋति (१)
संज्ञा पुं० १. नैऋत्य कोण के अधिपति दिकपाल। २. राक्षास। ३. मरण। ४. आठ वसु में से एक वसु। ५. एक रुद्र। रुद्र का एक रूप। ६. मूल नामक नक्षत्र [को०]।

निऋति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निऋति'।

निकंटक पु
वि० [सं० निष्कण्टक] दे० 'निष्कंटक'।

निकंदन
संज्ञा पुं० [सं० नि + कन्दन(= नाश, वध)] नाश। विनाश।

निकंदना पु
क्रि० सं० [सं० निकन्दन] नाशा करना। संहार करना। उ०—आरति निकंदन मिलावै नंदनंदन सु।—घनानंद, पृ० १४९।

निकंदरोग
संज्ञा पुं० [सं०] एक योनिरोग। दे० 'योनिकंद'।

निक पु †
वि० [हिं० नीक] नीका। अच्छा। भला। उ०— कृपिन पुरुस कैं केओ नहिं निक कहु।—विद्यापति, पृ० ३८०।

निकट (१)
वि० [सं०] १. पास का। समीप का। जो दूर न हो। २. संबंध में जिससे विशेष अंतर न हो। जैसे, निकट संबंधी।

निकट (२)
क्रि० वि० पास। समीप। नजदीक। मुहा०— किसी के निकट = (१) किसी के प्रति। किसी से। जैसे,—किसी के निकट कुछ माँगना। (२) किसी के लेखे में। किसी की समझ में। जैसे,— तुम्हारे निकट तो यह काम कुछ भी नहीं है।

निकटता
संज्ञा स्त्री० [सं०] समीपता। समीप्य।

निकटपना
संज्ञा पुं० [सं० निकट + पना (प्रत्य०)] निकटता। समीप्य।

निकटवर्ती
वि० [सं० निकटवर्तिन्] [वि० स्त्री० निकटवर्तिनी] पासवाला। समीपस्थ। नजदीक का।

निकटस्थ
वि० [सं०] १. जो निकट हो। पास का। २. संबंध में जिससे बहुत अंतर न हो। जैसे, निकटस्थ संबंधी।

निकटठू पु †
वि० [हिं०] दे० 'निखट्टू'। उ०— बहुत दिनों में निकटठू आए। पैसा एक न पूँजी लाए।— दक्खिनी० पृ० ३१०।

निकती
संज्ञा स्त्री० [सं० निष्क + मिति] छोटा तराजू। काँटा।

निकम्मा
नि० [सं० निष्कर्म, प्रा०, निकम्म] [वि० स्त्री० निकम्मी] १. जो कोई काम धंधा न करे। जिससे कुछ करते धरते न बने। जैसे, निकम्मा आदमी। २. जो किसी काम का न हो। जो किसी काम में न आ सके। बेमसरफ। बुरा। जैसे, निकम्मी चीज।

निकर (१)
संज्ञा पुं० [अं० निकर वाकर्ज] एक प्रकार का घूटने तक का खुला पायजामा।

निकर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह। झुंड़। उ०— बिचरहि यामें रसिकवर, मधुकर निकर आपार।—रसखान०, पृ०, १२। २. राशि। ढेर। ३. न्यायदेय धन। ४. सार (को०)। ५. निधि। खजाना।

निकरना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निकलना'।

निकर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना। २. विदारण करना। फाड़ना [को०]।

निकर्मा
वि० [सं० निष्कर्मा] जो काम न करे। आलसी। जो कुछ उद्योग धंधा न करे।

निकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर या नगर के समीप खेल का मैदान। क्रिड़ाभूमि। २. घर के आगे खुला चबूतरा या प्रवेश- द्वार के पास का आँगन। ३. पड़ोस। ४. परती। बिना जोती भूमि [को०]।

निकलंक
वि० [सं० निष्कलङ्क] दोषरहित। निर्दोष। बेदाग। उ०— बुरी बुराई जो तजै तो मन खरे सकात। ज्यौं निकलंक मयंक लाखि गनै लोक उतपात।—बिहारी (शब्द०)।

निकलंकी (१)
संज्ञा पुं० [सं०निष्कलिङ्क] विष्णु का दसवाँ अवतार जो कलि के अंत में होना। कल्कि अवतार। उ०— द्वादश ये युग लक्षण गायो। निकलंकी अवतार बतायो।— रघुनाथ। (शब्द०)।

निकलंकी (२)
वि० दे० 'निकलंक'।

निकल
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक धातु जो सुरमे, कोयले, गंधक, संखिया आदि के साथ मिली हुई खानों में मिलती है। विशेष— साफ होने पर यह चाँदी की तरह चमकती है। यह बहुत कड़ी होती है और जल्दी गलती नहीं तथा लोहे की तरह चुंबक शक्ति को ग्रहण करती है। सन् १७५१ में एक जर्मन ने इसका पता लगाया। इसका साफ करना बहुत कठिन काम है। ताँबे के साथ मिलाने से यह विलायती चाँदी के रूप में ही जाती है। अलुमीनम के साथ इसे मिला देने से इसमें अधिक कड़ापन आ जाता है। यह धातु कंधार, राजपूताना तथा सिंहल द्वीप में थोड़ी बहुत मिलती है। काम मिलने के कारण इसका मूल्य कुछ अधिक होता है, इससे छोटे सिक्के बनाने के काम में यह लाई जाने लगी है।

निकलना
क्रि० अ० [हिं० निकालना] १. बाहर होना। भीतर से बाहर आना। निर्गत होना। जैसे, घर से निकलना, संदूक से निकलना, अंकुर निकलना, आँसू निकलना। संयो० क्रि०—आना।—चलना।—जाना।—पड़ना।—भागना। मुहा०—निकल जाना = (१) चला जाना। आगे बढ़ जाना। जैसे,— अब तो वे बहुत दूर निकल गए होगें। (२) न रह जाना। खो जाना। नष्ट हो जाना। ले लिया जाना। जैसे,— हाथ से चीज, काम या अवसर निकल जाना। (३) घट जाना। कम हो जाना। जैसे,—पाँच में से तीन निकल गए, दो बचे। (४) न पकड़ा जाना। भाग जाना। जैसे,— चोर निकल गया। (स्त्री का) निकल जाना = किसी पुरुष के साथ अनुचित संबंध करके धर छोड़कर चला जाना। २. व्याप्त या ओतप्रोत वस्तु का अलग होना। मिली हुई,लगी हुई या पैवस्त चीज का अलग होना। जैसे,— बीज से तेल निकलना, पत्ती से रस निकलना, फल का छिलका निकलना। संयो० क्रि०—आना।—जाना। ३. पार होना। एक ओर से दूसरी ओर चला जाना। अतिक्रमण करना। जैसे,— इस छेद में से गेंद नहीं निकलेगा। संयो० क्रि०—आना।—जाना। मुहा०—निकल चलना = वित्त से बाहर काम करना। इतराना। अति करना। ४. किसी श्रेणी आदि के पार होना। उत्तीर्ण होना। जैसे,— इस बार परीक्षा में तुम निकल जाओगे। संयो० क्रि०—जाना। ५. गमन करना। जाना। गुजरना। जैसे,— (क) वह रोज इसी रास्ते से निकलता है। (ख) बरात बड़ी धूम से निकली। संयो० क्रि०—जाना। ६. उदय होना। जैसे, चंद्रमा निकलना, सूर्य निकलना। संयो० क्रि०—आना। ७. प्रादुर्भूत होना। उत्पन्न होना। पैदा होना। जैसे,— इतने चिउँटे कहाँ से निकल पड़े। ८. उपस्थित होना। दिखाई पड़ना। ९. किसी ओर को बढ़ा हुआ होना। जैसे,— (क) घर का एक कोना पच्छिम ओर निकला हुआ है। (ख) कील की नोक नहीं निकली है। संयो० क्रि०—आना।—जाना। १०. निश्चित होना। ठहराया जाना। उद्भावित होना। जेसे,रास्ता। निकलना, दोष निकलना, परिणाम निकलना, उपाय निकलना। संयो० क्रि०—आना।—पड़ना। ११. खुलना। स्पष्ट होना। प्रकट होना। जैसे,—वाक्य का अर्थ निकलना, धोने पर कपड़े का रंग निकलना। संयो० क्रि०—आना। १२. मेल में से अलग होना। पृथक होना। जैसे,—गेहूँ में से बहुत कंकड़ी निकली है। संयो० क्रि०—आना।—जान। १३. छिड़ना। आरंभ होना। जैसे, बात निकलना, चर्चा निकलना। १४. प्राप्त होना सिद्ध होना। सरना। जैसे, काम निकलना, मतलब निकलना। संयो० क्रि०—आना।—जाना। १५. हल होना। किसी प्रश्न या समस्या का ठीक उत्तर प्राप्त होना। जैसे,— इतना सीधा सवाल तुमसे नहीँ निकलता। १६. लगातार दुर तक जोनेवाली किसी वस्तु का आरंभ होना। जैसे,— यह नदी कहाँ से निकली है। १७. लकीर के रूप में दूर तक जानेवाली वस्तु का विधान होना। फैलाव होना। जारी होना। जैसे, नहर निकलना, सड़क निकलना। १८. प्रचलित होना। जारी होना। जैसे, कानून निकलना, कायदा निकलना, रीति निकलना, चाल निकलना। संयो० क्रि०—जाना। १९. फैसा, बँधा या जुड़ा न रहना। छूटना। मुक्त होना। जैसे,— गले से फंदा निकलना, बंधन से निकलना, बटन निकलना। संयो० क्रि०—आना।—जाना। २०. नई बात का प्रगट होना। आविष्कृत होना। ईजाद होना। जैसे— कोई नई युक्ति निकलना, कल निकलना। २१. शरीर के ऊपर उत्पन्न होना। जैसे,— फोड़े फुंसी निकलना, चेचक निकलना। संयो० क्रि०—आना। २२. प्रामाणित होना। सिद्ध होना। साबित होना। जैसे,—(क) वह नौकर तो चोर निकला। (ख) उनकी कही हुई बात ठीक निकली। २३. लगाव न रखना। किनारे हो जाना। अलग हो जाना। जैसे,— दूसरों को इस काम में फँसाकर तुम तो निकल जाओगे। संयो० क्रि०—जाना।—भागना। २४. अपने को बचा जाना। बच जाना। जैसे,—कोई आधी बात कहकर निकल तो जाय। संयो० क्रि०—जाना।—भागना। २५. अपनी कही हुई बात से अपना संबंध न बताना। कहकर नहीं करना। मुकरना। नटना। जैसे,— बात कहकर अब निकसे जाते हो। संयो० क्रि०—जाना। २६. खपना। बिकना। जेसे,—जितनी पुस्तकें छपाई थीं सब निकल गई। संयो० क्रि०—जाना। २७. प्रस्तुत होकर सर्वसाधारण के सामने आना। प्रकाशित होना। जैसे,—उस प्रेंस से अच्छी पुस्तकें निकली हैं। संयो० क्रि०—जाना। २८. हिसाब किताब होने पर कोई रकम जिम्में ठहरना। चाहता होना। जैसे,—तुम्हारा जो कुछ निकलता हो हमसे लो। २९. फटकर अलग होना। उचड़ना। जैसे,— कुरता मोढ़े पर से निकल गया। संयो० क्रि०—जाना। ३०. प्राप्त होना। पाया जाना। मिलना। जैसे,— (क) हमारा रुपया किसी प्रकार निकल आता तो बड़ी बात होती। (ख) उसके पास चोरी का माल निकला है। संयो० क्रि०—आना। ३१. जाता रहना। दूर होना। हट जाना। मिट जाना। न रह जाना। जैसे,— (क) दवा लगाते हो सब पीड़ा निकल गई। (ख) एक चाँटा देंगे तुम्हारी सब बदमाशी निकल जायगी। संयो० क्रि०—जाना। ३२. व्यतीत होना। बीतना। गुजरना। जैसे,—इसी झंझट में सारा दिन निकल गया। संयो० क्रि०—जाना। ३३. घोड़े बैल, आदि का सवारी लेकर चलना आदि सीखना। शिक्षित होना। जैसे,—यह घोड़ा अभी निकला नहीं है।

निकलवाना
क्रि० सं० [हिं० निकालना का प्रे० रूप] निकालने का काम दूसरे से कराना।

निकलाना †
क्रि० सं० [हिं० निकालना] दे० 'निकलवाना'।

निकष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसौटी। २. कसौटी पर चढ़ाने का काम। ३. हथियारों पर सान चढ़ाने का पत्थर। ४. कसौटी पर कसने से बनी रेखा (को०)। ५. कोई वस्तु या कार्य जिससे किसी की परीक्षा हो (लाक्ष०)।

निकषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसौटी। २. कसौटी पर चढ़ाने का काम। ३. सान पर चढ़ाने का काम। ३. घिसने वा रगड़ने का काम।

निकषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुमालि की कन्या और विश्रवा की पत्नी एक राक्षसी जिसके गर्भ से रावण, कुंभकर्ण शूर्पणखा और विभीषण उत्पन्न हुए थे।

निकषात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] निशाचर। रात्रिचर। राक्षास [को०]।

निकषोपल
संज्ञा पुं० [सं०] वह काला पत्थर जिसपर सोना कसकर परखा जाता है। कसौटी [को०]।

निकस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निकष'।

निकसना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निकलना'। उ०— भूतल तें निकसाति कहूँ बिज्जुछटा की लोइ।—शकुंतला, पृ० २१।

निकसनी †
वि० [हिं० निकसना] निकलनेवाली। बाहर निकलने की। उ०— तियन की नहिंन निकसनी बेर। बेग जाहु घर होति अबेर।—नंद ग्रं०, पृ० ३१९।

निकाई पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निकाय] दे० 'निकाय'।

निकाई (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० नेक, हिं० नीक] १. भलाई। अच्छापन उम्दगी। २. खुबसूरती। सौदर्य। सुंगरता। उ०—गज मनि माल बीच भ्राजत, कहि जाति न पदर निकाई।— तुलसी (शब्द०)।

निकाज
वि० [हि० नि + काज] बेकाम। निकम्मा। उ०— जोबन चंचल ढोठ है करै निकाजाहि काज।—जायसी ग्रं०, पृ० २३८।

निकाना
क्रि० सं० [देश०] दे० 'निराना'।

निकाब
संज्ञा स्त्री० [फा० नकाब] नकाब। पर्दा। उ०— आँखों में लाल डोरे शरब के बदले। हैं जुल्फ छुटी रुख पर निकाब के बदले।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० २०३।

निकाम (१)
वि० [हिं० नि + काम] १. निकम्मा। २. बुरा। खराब।

निकाम (२)
क्रि० वि० व्यर्थ। निष्प्रयोजन। फजूल।

निकाम (३)
वि० [सं०] १. इष्ट। अभिलषित। २. यथेष्ट। पर्याप्त। काफी। ३. इच्छुक। ४. बहुत। अतिशय।

निकाम (४)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निकामन' [को०]।

निकामन
संज्ञा पुं० [सं०] आकांक्षा। इच्छा। अभिलाषा [को०]।

निकाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह। झुंड़। उ०— देखि सिंधु हरखाय नकाय चकोर निहारें।—दीन० ग्रं०, पृ० १९८। २. एक ही मेल की वस्तुओं का ढेर। राशि। ३. निलय। वासस्थान। घर। ४. परमात्मा। ५. शरीर। देह (को०)। ६. लक्ष्य (को०)। ७. वायु। पवन (को०)।

निकाय्य
संज्ञा पुं० [सं०] आवास। निवास। घर [को०]।

निकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराभव। हार। २. अपकार। ३. अपमान। अवमानना। मानहानि। ४. तिरस्कार। ५. अनाज ओसाना (को०)। ६. वध करना। मारण। हिंसन (को०)। ७. दुष्टता। बदमाशी (को०)।८. विरोध। द्वेष (को०)। ९. उत्थापन। उठाना (को०)।

निकार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० निकारना] १. निकलने का काम। निष्कसन। २. निकलने का द्वार। निकास। ३. ईख का रस पकाने का कड़ाहा।

निकारण
संज्ञा पुं० [सं०] मारण। वध।

निकारना पु †
क्रि० सं० [हिं० निकालना] दे० 'निकालना'।

निकाल
संज्ञा पुं० [हिं० निकालना] १. निकास। २. पेच का काट। वह युक्ति जिसमें कुश्ती में प्रतिपक्षी की घात से बचा जाय। तोड़। ३. कुश्ती का एक पेंच। विशेष—इसमें अपना दहिना हाथ जोड़ की बाई ओर से उसकी गरदन पर पहुँचाकर अपने बाएँ हाथ से उसके दाहिने हाथ को ऊपर उठाते हैं और फिर फुरती कै साथ उसके दहने भाग पर झुककर अपनी छाती उसकी दहनी पसलियों से भिड़ाते तथा अपना बायाँ हाथ उसकी दहनी जाँघ में बाहर की ओर से ड़ालकर उसे चित कर देते हैं।

निकालना
क्रि० सं० [सं० निष्कासन, हिं० निकासना] १. बाहर करना। भीतर से बाहर लाना। निर्गत करना। जैसे, घर से निकालना, बरतन में से निकालना, चुभा हुआ काँटा निकालना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।— लेना।—ले जाना। मुहा०—(स्त्री को) निकाल लाना या ले जाना = स्त्री ये अनुचित संबंध करके उसे उसके घर से अपने यहाँ लाना या लेकर कहीँ चला जाना। २. व्याप्त या ओतप्रोत वस्तु को पृथक् करना। मिली हुई, लगी हूई या पैवस्त चीज को अलग करना। जैसे, बीज से तेल निकालना, पत्ती से रस निकालना, फल से छिलका निकालना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। ३. पार करना। एक ओर से दूसरी ओर ले जाना या बढ़ाना। अतिक्रमण कराना। जैसे— दीवार के छेद में सें इसे उस पार निकाल दो। संयो० क्रि०—देना।—ले चलना।—ले जान। ४. गरम कराना। ले जाना। गुजर कराना। जैसे,—(क) वे बारात इसी सड़क से निकालेंगे। (ख) हम उसे इसी ओर से निकाल ले जायँगे। संयो० क्रि०—ले चलना।—ले जाना। ५. किसी ओर को बढ़ा हुआ करना। जैसे,— चबूतरे का एक कोना उधर निकाल दो। संयो० क्रि०—देना। ६. निश्चित करना। ठहराना। उदभावित करना। जैसे, उपाय निकालना, रास्ता निकालना, दोष निकालना, परिणाम निकालना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ७. प्रादुर्भूत करना। उपस्थित करना। मौजूद। करना। ८. खीलना। व्यक्त करना। स्पष्ट करना। प्रकट करना। जैसे,—वाक्य का अर्थ निकालना। ९. छेड़ना आरंभ करना। चलाना। जैसे,—बार निकालना, चर्चा निकालना। १०. सबके सामने लाना। देख में करना। जैसे,— अभी मत निकालो, लड़के देखेंगे तो रोने लगेंगे। ११. मेल या मिलेजुले समूह में से अलग करना। पृथक् करना। जैसे,— (क) इनमें से जो आम सड़े हों उन्हें निकाल दो। (ख) इनमें से जो तुम्हारे काम की चीजें हों उन्हें निकाल लो। संयो० क्रि०—डालना।—देना—लेना। १२. घटना। कम करना। जैसे,— पाँच में से तीन निकाल दो। संयो० क्रि०—देना।—डालना। १३. फँसा, बँघा, जुड़ा या लगा न रहने देना। अलग करना।छुड़ाना। मुक्त करना। जैस,—गले से फंदा निकालना, कोट से बटन निकालना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। १४. काम से अलग करना। नौकरी से छुड़ाना। बरखास्त करना। जैसे,— इस नौकर को निकाल दो। संयो० क्रि०—देना। १५. पास न रखना। दूर करना। हटाना। जैसे,— इस घोड़े को अब हम निकाल देंगे। संयो० क्रि०—देना। १६. बेंचना। खपाना। जैसे, माल निकालना। संयो० क्रि०—देना। १७. सिद्ध करना। फलीभूत करना। प्राप्त करना। जैसे,— अपना काम निकालने में वह बड़ा पक्का है। संयो० क्रि०—लेना। १८. निर्वाह करना। चलाना। जैसे,— किसी प्रकार काम नकालने के लिये यह अच्छा है। संयो० क्रि०—लेना। १९. किसी प्रश्न या समस्या का ठीक उत्तर निश्चित करना। हल करना। जैसे,— यह सवाल तुम नहीं निकाल सकते। २०. लकीर की तरह दूर तक जानेवाला वस्तु का विधान करना। जारी करना। फैलाना। जैसे, नहर निकालना, सड़क निकालना। संयो० क्रि०—देना। २१. प्रचलित करना, जारी करना। जैसे, कानून निकालना, कायदा निकालना, रीति निकालना। २२. नई बात प्रकट करना। आविष्कृत करना। ईजाद करना। जैसे, नई तरकीब निकालना, कल निकालना। २३. संकट, कठिनाई आदि से छुटकारा करना। बचाव करना। विस्तार करना। उद्धार करना। जैसे,— इस संकट से हमें निकालो। २४. प्रस्तुत करके सर्वसाधारण के सामने लाना। प्रचारित करना। प्रकाशित करना। जैसे,—(क) उस प्रकाशक ने अच्छी पुस्तकें निकाली हैं। (ख) अखबार निकालना। २५. रकम जिम्मे ठहरना। ऊपर ऋण या देना निश्चित करना। जैसे,— उसने सौ रुपए हमारे जिम्मे निकाने हैं। २६. प्राप्त करना। ढूँढ़कर पाना। बरामद करना। जैसे,— पुलिस ने उसके यहाँ चोरी का माल निकाला है। २७. दूसरे के यहाँ से अपने वस्तु ले लेना। जैसे, बैंक से रुपया निकालना। संयो० क्रि०—देना। २९. घोड़े, बैल आदि को सवारी लेकर चलना या गाड़ी आदि खींचना। सिखाना। शिक्षा देना। जैसे,— (क) यह सवार घोड़ा निकालना है। (ख) यह घोड़ा अभी गाड़ी में नहीं निकाल गया है। ३०. प्रवाहित करना। बहाना। ३१. सुई से बेल बूटे बनाना।

निकाला
संज्ञा पुं० [हिं० निकालना] १. निकालने का काम। २. किसी स्थान से निकाले जाने का दंड़। बहिष्कार। निष्कासन। क्रि० प्र०—मिलना।—होना। यौ०— देशनिकाला। नगरनिकाला।

निकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. जहाँ तक दृष्टि जाती हो वह स्थान। दृष्टिक्षेत्र। क्षितिज। २. प्रकाश। ज्योति। ३. एकांत। ४. सामीप्य। समीपता। ५. सादृश्य [को०]।

निकाष
संज्ञा पुं० [सं०] खुरचना। रगड़ना। घसना। मलना [को०]।

निकास
संज्ञा पुं० [हिं० निकसना, निकासना] १. निकलने की क्रिया या भाव। २. निकालने की क्रिया या भाव। ३. वह स्थान जिससे होकर कुछ निकले। निकलने के लिये खुला स्थान या छेद। जैसे, बरसाती पानी का निकास। ४. द्वारा। दरवाजा। जैसे— घर का निकास दक्खिन ओर मत रखो। ५. बाहर का खुला स्थान। मैदान। उ०— (क) खेलत बनै घौष निकास।—सूर (शब्द०)। (ख) खेलन चले कुँवर कन्हाई। कहत घोष निकास जइए तहाँ खेलै धाइ।— सूर (शब्द०)। ६. दूर तक जाने या फैलनेवाली चीज का आरंभ स्थान। उदगम। मूलस्थान। जैसे, नदी का निकास। ७. वंश का मूल। ८. संकट या कठिनाई से निकलने की युक्ति। बचाव का रास्ता। रक्षा का उपाय। छुटकारे की तदबीर। जैसे— अब तो इस मामले में फँस गए हो, कोई निकास सोचो। क्रि० प्र०—निकालना। ९. निर्वाह का ढंग। ढर्रा। वसीला। सिलसिला। जैसे,— इस समय तो तुम्हारे लिये कोई काम नहों है, खैर कौई निकास नीकालेंगे। १०. लाभ या आय का सूत्र। प्राप्ति का ढंग। आमदनी का रास्ता। ११. आय। आमदनी। निकासी।

निकासना †
क्रि० सं० [हिं० निकास] दे० 'निकालना'।

निकासपत्र
संज्ञा पुं० [हिं० निकास + पत्र] वह कागज जिसमें जमाखर्च और बचत का हिसाब समझाया गया हो।

निकासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० निकास + ई (प्रत्य०)] १. निकलने की क्रिया या भाव। २. किसी स्थान से बाहर जाने का काम। प्रस्थान। रवानगी। जैसे, बरात की निकासी। ३. वह धन जो सरकारी मालगुजारी आदि देकर जमीदार को बचे। मुनाफा। प्राप्ति। ४. आय। आमदनी। लाभ। जैसे,— जहाँ चार पैसे की निकासी होती है वहीं सब जाना चाहते है। ५. विक्रि के लिये माल की रवानगी। लदाई। भरती। ६. बिक्रि। खपत। ७. चुंगी। ८. रवन्ना।

निकाह
संज्ञा पुं० [अं०] मुसलमानी पद्धति के अनुसार किया हुआ विवाह। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—निकाह पढ़ना = विवाह करना। यौ०— निकाहनामा = विवाह की शर्तें या लिखापढ़ी। निकाहे- सानी = विधवा का पुनर्विवाह।

निकियाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निकियाना] निकियाने की मजदूरी। जैसे,— दमड़ी को मुरगी, नौ टका निकियाई।

निकियाना
क्रि० सं० [देश०] १. नोचकर धज्जी धज्जी अलग करना। २. चमड़े पर से पंख या बाल नोचकर अलग करना।

निकिष्ट पु †
वि० [सं० निकृष्ट] दे० 'निकृष्ट'।

निकुंच
संज्ञा पुं० [सं० निकुञ्च] चाभी। कुंजी। ताली।

निकुंचक
संज्ञा पुं० [सं० निकुञ्चक] १. एक परिमाण या तील जो आधी अंजली के बराबर और किसी किसी के मत से आठ तोले के बराबर होती है। कु़डव का चतुर्थांश। २. जलबेंत। अंबुवेतस।

निकुंचन
संज्ञा पुं० [सं० निकुञ्चन] १. दे० 'निकुंचक'। २. संकुचन। संकोचन।

निकुंचित
वि० [सं० निकुञ्चित] संकुचित।

निकुंज
संज्ञा पुं० [सं० निकुञ्च] १. लातागृह। ऐसा स्थान जो घने वृक्षों और घनी लताओं से घिरा हो। २. लताओं से आच्छादित मंड़प।

निकुंजिकाम्रा
संज्ञा पुं० [सं० निकुञ्जकाम्रा] दे० 'निकुजिकाम्ला'।

निकुंजिकाम्ला
संज्ञा स्त्री० [सं० निकुञ्जिकाम्ला] कुंज के वृक्ष का एक भेद। कुंचिका। कुंजिका।

निकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० निकुभ्म] १. कुभकर्ण का एक पुत्र जिसे हनुमान ने मारा था। यह रावण का मंत्री था। २. प्रह्लाद के एक पुत्र का नाम। ३. शतपुर का एक असुर राजा जो कृष्ण के हाथों मारा गया। इसने कृष्ण के भिन्न ब्रह्मदत्त की कन्याओं का हरण किया था। ४. हर्यश्व राजा का पुत्र (हरिवंश)। ५. एक विश्वदेव। ६. कौरव सेनापतियों में से एक राजा। ७. कुमार का एक गण। ८. महादेव का एक गण। ९. दंती बृक्ष। १०. जमालगोटा।

निकुंभाख्यबीज
संज्ञा पुं० [सं० निकुम्भाख्याबीज] जमालगोटा।

निकुंभिला
संज्ञा स्त्री० [सं० निंकुभ्मिला] १. लंका के पच्छिम एक गुफा। २. उस गुफा की देवी जिसके सामने यज्ञ और पूजन करके मेघनाद युद्ध की यात्रा करता था। ३. अचंन, पूजन का स्थान (को०)।

निकंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० निकुम्भी] १. दती वृक्ष। २. कुंभकर्ण की कन्या।

निकुती पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नुकती] मोतीचूर। बुँदिया। उ०— दादी बाँटै सौरनी लाडू निकुती नित्त। प्रथम कमाई पुत्र की सती अऊत निमित्त।—अर्घ० पृ० १४।

निकुरंब
संज्ञा पुं० [सं० निकुरम्ब] समूह। ढेर। उ०— निकर, प्रकर, निकुरंब, ब्रज, पूर, पूग, चय, व्यूह। कंदल, जाल, कलाप, कुल, निबह, निचय, संदूह।—नंद० ग्रं०, पृ० १००।

निकुरुंब
संज्ञा पुं० [सं० निकुरुम्ब] दे० 'निकुरंब'।

निकुलीनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंशानुक्रमागत कला। वंश- परंपरा से चली आ रही कला। २. वह कला जो जाति- विशेष में ही प्राप्त हो [को०]।

निकुट्टी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया।

निकूल
संज्ञा पुं० [सं०] वह देवता जिसके उद्देश्य से नरमेध यज्ञ और अश्वमेघ यज्ञ में बैठे यूप में पशुहनन होता था।— (शुक्ल यजुर्वेद)।

निकृंतन (१)
संज्ञा पुं० [सं० निकृन्तन] १. छेदन। खंडन। २. काटने का औजार। छेदन करने का अस्त्र (को०)।३. एक नरक (को०)।

निकृंतन (२)
वि० [स्त्री० निकृन्तनी] काटने या छेदन करनेवाला [को०]।

निकृत
वि० [सं०] १. निकाला हुआ। बहिष्कृत। बदनाम। लाछित। ३. तिरस्कृत। ४. नीच। शठ। ५. वंचित। जो ठगा गया हो। ६. पराभवप्राप्त। पराभूत (को०)।

निकृतप्रज्ञ
वि० [सं०] बदमाश। दुष्ट। बुरा सोचनेवाला [को०]।

निकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तिरस्कार। भर्त्सना। २. अपकार। ३. दैन्य। ४. शठता। नीचता। ५. पराभव। पराजय। ६. पृथिवी। ७. वंचना। प्रतारण। ८. संघ्या से उत्पन्न धर्मपुत्र। ९. एक वसु। आठवें वसु का नाम।

निकृती
वि० [सं० निकृतिन्] नीच। शठ। दुष्ट।

निकृत्त
वि० [सं०] १. मूल से छिन्न। जड़ से कटा हुआ। खंडित। २. विदारित। विदीर्ण (को०)।

निकृष्ट (१)
वि० [सं०] १. बुरा। अधम। नीच। तुच्छ। २. अशिष्ट। असभ्य। ग्राम्य (को०)। ३. समीप। नजदीक (को०)।

निकृष्ट (२)
संज्ञा पुं० समीप्य। समीपता [को०]।

निकृष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुराई। अधमता। नीचता। मंदता।

निकृष्टत्व
संज्ञा पुं० [सं०] बुराई। नीचता। मंदता।

निकेचाय
संज्ञा पुं० [सं०] बार बार संचित करना या एकत्र करना [को०]।

निकेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर। मकान। स्थान। जगह। २. चिह्न। निशान। प्रतीक (को०)।

निकेतक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निकेत'।

निकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वासस्थान। घर। मकान। २. पलांडु़। प्याज।

निकोचक
संज्ञा पुं० [सं०] अंकोल वृक्ष। ढेरा।

निकोचन
संज्ञा पुं० [सं०] संकुचन।

निकोठक
संज्ञा पुं० [सं०] ढेरा। अंकोल।

निकोना
क्रि० स० [देश०] उखाड़ देना। निकियाना। नीच फेकना। उ०— बहुतक जीव ठिकानो पैहैं आवागवन न होई। जम से दंड़ दहन पावक की तिनकूँ मूल निकोई।—सहजो०, पृ० ५८।

निकोश्य
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपशु के पेट की एक नाड़ी।

निकोसना †
क्रि० सं० [सं० निस् + कोश] १. दाँत निकालना। २. दाँत पीसना। कटकटाना। किचकिचाना।

निकौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० निकाना] १. निराई। निराने का काम। २. निराने की मजदूरी।

निक्का †
वि० [सं० न्यक्न (=नत, नीच)] [वि० स्त्री० निक्की] छोटा। नन्हा।(पंजाबी)।

निक्रीड़
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौतुक। क्रीड़ा। तमाशा। २. सामभेद।

निक्वण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीणाध्वनि। बीन की झनकार। २. किन्नरों का शब्द।

निक्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निक्वण' [को०]।

निक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] चुंबन।

निक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूँ का अंडा। लीख।

निक्षिप्त
वि० [सं०] १. फेंका हुआ। घाला हुआ। २. डाला हुआ। छोड़ा हुआ। त्यक्त। ३. किसी के यहाँ उसके विश्वास पर छोड़ा हुआ (द्रव्य, संपत्ति आदि) धरोहर रखा हुआ। अमानत रखा हुआ। ४. रखा हुआ। रक्षित (को०)। प्रेषित। भेजा हुआ (को०)।

निक्षुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्राह्मणी। २. सूर्य की एक पत्नी। का नाम।—(भाविष्य पुराण)।

निक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकने या डालने की क्रिया या भाव। २. चलाने की क्रिया या भाव। ३. छोड़ने या रखने की क्रिया या भाव। त्याग। ४. पोंछने की क्रिया या भाव। ५. धरोहर। अमानत। थाती। किसी के विश्वास पर उसके यहाँ कोई वस्तु छोड़ने या रखने का कार्य अथवा इस प्रकार छोड़ी या रखी हुई वस्तु। ६. अर्पण करना। अर्पण करने की क्रीया या भाव (को०)। ७. मजदूर को सफाई या मरम्मत के लिये कोई वस्तु देना [को०]।

निक्षेपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो निक्षेप करता हो। २. थाती या धरोहर रखनेवाला। ३. धरोहर में रखा हुआ पदार्थ या वस्तु (कौटि०)।

निक्षेपण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निक्षिप्य, निक्षेप्थ] १. फेंकना। ड़ालन। २. छोड़ना। चलान। ३. त्यागना। ४. थाती रखना (को०)। ५. देना। अरपना। अर्पण करना (को०)।

निक्षेपित
वि० [सं०] १. जिसका निक्षेप कराया गया हो। २. अमा- नत रखवाया हुआ।

निक्षेपी
वि० [सं० निक्षेपिन्] १. फेंकनेवाला। छोड़नेवाला। २. धरोहर रखनेवाला।

निक्षेप्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. निक्षेपक। फेंकनेवाला। छोड़ने वाला। २. धरोहर रखनेवाला।

निक्षेप्य
वि० [सं०] निक्षेप के योग्य। फेकने योग्य। छोड़ने योग्य।

निखंग पु
संज्ञा पुं० [निषङ्ग] दे० 'निषंग'। उ०— दारु बिन सिंग बानरहीत निखंग भयौ।—हम्मीर०, पृ० ५४।

निखंगी पु
वि० [सं० निषङ्गिन] दे० 'निषंगी'।

निखंड
वि० [सं० निस् + खण्ड] मध्य। न थोड़ा इधर न उधर। सटीक। ठीक। जैसे, निखंड़ आधी रात, निखंड बेला।

निखट्टर †
वि० [हिं० नि + कट्टर (= कंड़ा)] १. कड़े दिल का। कठोर चित्त का। २. निष्ठुर। निर्दय।

निखट्टू
वि० [हिं० उप० नि(= नहीं) + खटना(= टिकना, ठहरना; न टिकनेवाला, न ठहरनेवाला)] १. अपनी कुचाल के कारण कहीं न टिकनेवाला। जिसका कहीं ठिकाना न लगे। इधर उधर मारा मारा फिरनेवाला। २. जमकर कोई काम धंधा न करनेवाला। जिससे कोई काम काज न हो सके। निकम्मा। आलसी।

निखनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खनना। खोदना। २. मृत्तिका। मिट्टी। ३. गाड़ना।

निखरक पु †
क्रि० वि० [हिं० नि + खटकना] खटक से रहित। बेखटके। उ०— निधरक जान अलबेले निखरक ओर, दुखिया कहै या कहा तहाँ की उचित हौ न।— घनानंद, पृ० १०६।

निखरना
क्रि० अ० [सं० निक्षरण (= छँटना)] १. मैल छँटकर साफ होना। निर्मल और स्वच्छ होना। धुलकर झक होना। २. रंगत का खुलता होना। उ०— मंगल कुंकुम को श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली। भोला सुहाग इठलाता हो ऐसी हो जिसमें हरियाली।—कामायनी, पृ० १००। संयो० क्रि०—आना।—जाना।

निखरवाना
क्रि० सं० [हिं० निखारना] साफ कराना। धुलवाना।

निखरहर
वि० [देश०] विछोना रहित। विस्तर रहित। विना। विस्तर का (खाट, पलंग आदि)।

निखरी
संज्ञा स्त्री० [हि० निखरना] पक्की। घी की पकी हुई रसोई। घृतपक्व। सखरी का उलटा। विशेष— खानपान के आचार में घी दूध आदि के साथ पकाया हुआ अन्न (जैसे खीर, पूरी) उच्च वर्ण के लोग बहुत से लोगों के हाथ का खा सकते हैं, पर केवल पानी के संयोग से आग पर पकाई चीजें। (जैसे, रोटी, दाल आदि) बहुत कम लोगों के हाथ की खा सकते हैं।

निखर्व (१)
वि० [सं०] दस हजार करोड़। दस सहस्र कोटि।

निखर्व (२)
संज्ञा पुं० दस हजार करोड़ा की संख्या।

निखर्व (३)
वि० [सं०] बहुत मोटे डील का। वामन। बौना। नाटा।

निखवख पु †
वि० [सं० न्यक्ष (=सारा, सब)] बिलकुल। सब। और कुछ नहीं। उ०— तेहि अर्थ लगायो पोति बहायो निखवख रामै राम लिख्यो।—विश्राम (शब्द०)।

निखात
वि० [सं०] १. खोदा हुआ। २. गाड़ा हुआ। ३. खोदकर जमाया हुआ। जैसे, खूँटा [को०]।

निखाद
संज्ञा पुं० [सं० निषाद] दे० 'निषाद'।

निखार
संज्ञा पुं० [हिं० निखरना] १. निर्मलपन। स्वच्छता। सफाई। २. सजाव। शृंगार। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निखारना
क्रि० सं० [हिं० निखरना] १. स्वच्छ करना। साफ करना। माँजना। २. पवित्र करना। पापरहित करना।

निखारा
संज्ञा पुं० [हिं० निखारना] शक्कर बनाने का कड़ाह जिसमें डा़लकर रस उबाला जाता है।

निखालिस †
वि० [हिं० नि + अ० खलिस] विशुद्ध। जिसमें और किसी चीज का मेल न हो।

निखिल
वि० [सं०] संपूर्ण। सब। सारा।

निखूटना †पु
क्रि० अ० [सं० नि० + √ क्षुट्] १. घटना। समाप्त। होना। २. त्रुटित होना। छिन्न होना। खोट पड़ना। उ०— टूटे तागे निखुटी पानि, द्वार ऊपर झिलिकावहि कान।— कबीर ग्रं०, पृ० २९६।

निखूटना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निखुटना'।

निखेद पु
संज्ञा पुं० [सं० निषेध] दे० 'निषेध'। उ०— इहि विधि सब रचना करी, काहु न जाने भेद। जैसे है तैसे तब हती, अब को करौ निखेद।—कबीर सा०, पृ० ३१६।

निखेध पु
संज्ञा पुं० [सं० बिषेध] दे० 'निषेध'।

निखेधना पु
क्रि० सं० [सं० निषेध] निषेध करना। मना करना। वारण करना।

निखोट (१)
वि० [हिं० उप० गि + खोट] १. जिसमें कोई खोटाई या दोष न हो। निर्दोंष। उ०— नाम ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल, ओट बिनु भोट पाइ भयों ना निहाल को?—तुलसी (शब्द०)। २. साफ। जिसमें कुछ लगाव फँसाव न हो। स्पष्ट। खुला हुआ। जैसे, निखोट बात।

निखोट (२)
क्रि० वि० बिना संकोच के। बेधड़क। खुल्लम खुल्ला। खुलकर। उ०—(क) कियो सूर प्रणाम निखोट अली चख चंचल अंचल सों ढँपि कै।—कमलापति (शब्द०)। (ख) चढ़ी अटारी वाम वह कियो प्रणाम निखोट। तरनि किरन ते दृगन को करसरोज करि ओट।—मतिराम (शब्द०)।

नखोड़ना
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'निखोरना'।

निखोड़ा †
वि० [देश०] [स्त्री० निखोड़ी] कठोर चित्त का। निर्दय।

निखोरना †
क्रि० सं० [हिं० उप० नि + खोदना या सं० निः + क्षारण] नाखून से नोचना। उचाड़ना।

निगंठ
संज्ञा पुं० [सं०निर्ग्रन्थ (=बंधन रहित)] जैन धर्मावलंबी साधु। उ०— निगंठ जैनों की संज्ञा थी जो केवल कोपीन धारण करते थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २१५।

निगंद
संज्ञा पुं० [सं० निर्गन्ध?] जड़ी बूटी जो दवा के काम में आती है ओर रक्तशोधक समझी जाती है। विशेष— इस संबंध में यह प्रवाद है कि साँप जब केचली से भर जाने के कारण व्याकुल हो जाता है तब इसे चाट लेता है जिसमे केचली उतर जाती है।

निगंदना
क्रि० सं० [फा० निगंदह्(= बखिया, सीवन)] रजाई, दुलाई आदि रुई भरे कपड़े में ताग डालना।

निगँध पु
वि० [सं० निर्गन्ध] गंधहीन। निर्गन्ध। जिसमें कोई गंध न हो।

निगड़
संज्ञा स्त्री० [सं० निगड] १. हाथी के पैर बाँधने की जंजीर। आँटू। उ०— लाज की निगड़ गड़दार अड़दोर चहूँ चौंकि चितवनि चरखीन चमकोर है।.....लोचन अचल ये मतंग मतवारे हैं।—देव (शब्द)। २. बेड़ी। उ०— जिन तृन सम कुल लाज निगड़ सब तोरयो हरि रस माहीं।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४१८।

निगडन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंजीर से बांधना। २. बेड़ी डालना [को०]।

निगडित
वि० [सं०] १. जंजीर से बाँध हुआ। २. बेड़ी ड़ाला हुआ [को०]।

निगण
संज्ञा पुं० [सं०] हवन आदि से उत्पन्न धुआँ [को०]।

निगद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाषण। कथन। २. ऊँचे स्वर से किया हुआ जप। ३. मंत्र जो ऊंचे स्वर से जपा जाय (को०)। ४. बिना अर्थ जाने रटना (को०)।

निगदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाषण। कथन। २. याद की हुई या रटी हुई चीज का ऊँचे स्वर से पाठ करना [को०]।

निगदित
वि० [सं०] कथित। कहा हुआ।

निगम
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार्ग। पथ। २. वेद। ३. वणिक्- पथ। बनीयों की फेरी का स्थान। हाट। बाजार। ४. मेला। ५. माल का आना जाना। व्यापार। ६. निश्चय। ७. कायस्थों का एक भेद। ८. बड़े नगरों की प्रबंधक सभा। नगर निगम। म्युनिसिपल कारपोशेशन। ९. नगर। १०. दे० 'निगमन'। ११. न्याय शास्त्र (को०)। १२. वेदार्थबोधक या वेदसम्मत ग्रंथ (को०)।

निगमन
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में अनुमान के पाँच अवयवों में से एक। हेतु, डदाहरण ओर उपनय के उपरांत प्रतिज्ञा तो सिद्ध सूचित करने के लिय़े उसका फिर से कथन। सबित की जानेवाला बात साबित हो गई, यह जताने के लिये दलील वगैरह के पीछे उस बात को फिर कहना। नतीजा। जैसे, 'यहाँ पर आग है' (प्रतिज्ञा)। 'क्योंकि यहाँ पर धूआँ है (हेतु)। जहाँ धूँआ रहता है वहाँ आग रहती है' (उपनय)। इसलिये यहाँ पर आग है' (निगमन)। विशेष— प्रशस्तपाद के भाष्य में 'निगमन' को प्रात्याम्नाय भी कहा है। २. जाना। भीतर जाना (को०) ३. वेद का उद्धारण (को०)।

निगमनिवासी
संज्ञा पुं० [सं० निहमनिवासिन्] विष्णु। नारायण।

निगमबोध
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वीराज रासो के अनुसार दिल्ली के पास जमुना नदी के किनारे एक पवित्र स्थान। विशेष— रासो में लिखा है कि दानवराज धुंधु (ढुंढ या ढुंढा) शाप छुड़ाने के लिये विमान पर चढ़कर काशी जा रहे थे। रास्ते में उन्हें प्यास लगी ओर वे योगिनीपुर (दिल्ली) जल पीने के लिये उत्तरे जहाँ उन्हें एक ऋषि (हारिफ) मिले। ऋषि ने उन्हें जमुना के किनारे निगमबोध नाम की गुफा में नारायण की तुपस्या करने के लिये कहा। दानवराज तपस्या करने लगे। एक दिन पांडुवंशीय (?) राजा अनगपाल की कन्य़ा सखियों सहित स्नान करने के लिये जमुना के किनारे आई और पानी बरसने के कारण उस गुफा में उसने आश्रय लिया। तपस्वी को देख उसने उसे स्तुति से प्रसन्न किया और यह वर माँगाकि हमलोग वीरपत्नी हों और सदा एक साथ रहें। दानवराज ने अनंगपाल की कन्या को वर दिया कि तुम्हारा एक पुत्र बड़ा प्रतापी होगा और दूसरा पुत्र बड़ा भारी वक्ता होगा। इसके उपरांत दानवराज ने काशी जाकर अपना शरीर १०८ खंड़ो में काटकर गंगा में डाल दिया। उसके जिह्वांश से एक प्रसिद्ध भाट और २० खंड़ी से २० क्षत्रिय वीर अजमेर में उत्पन्न हुए। इन बीस क्षत्रियों में सोमेश्वर प्रधान थे जिनके पुत्र पृथ्वीराज हुए।

निगमागम
संज्ञा पुं० [सं०] वेद शास्त्र।

निगमी
वि० [सं० निगमिन्] वेद का ज्ञाता [को०]।

निगर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन। २. एक धरण की तौल में ५५ मोती चढे़ तो उन मोतियों के समूह का नाम निगर है। ३. हवन का धुवाँ (को०)। ४. गला (को०)। ५. पूरा पूरा ग्रहण करना या आत्मासात् करना (को०)।

निगर (२)
वि० [सं० निकर] सब। सारे। उ०— निगर नगारे नगर के बाजे एकहि बार।— केशव (शब्द०)।

निगर (३)
संज्ञा पुं० दे० 'निकर'।

निगरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भक्षण। निगलना। २. गला। ३. यज्ञाग्नि का धूम होमधूम।

निगराँ
संज्ञा पुं० [फा०] १. निगरानी रखनेवाला। २. निरीक्षक। ३. रक्षक।

निगरा (१)
वि० [हिं० उप० नि (= नहीं) + सं० गरण (=गीला या पनीला करण)] (ईख का रस) जो जल मिलाकर पतला न किया गया हो। खालिस। जैसे, निगार रस।

निगरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ५५ मोतियों की लड़ी जो तौल में ३२ रत्ती हो।

निगरा पु (३)
वि० [हिं० निगुरा] दे० 'निगुरा'। बेसहारा उ०— अरे हाँ रे पलटू निगरा सिगरा आदि कहो कोई रोगी भोगी।— पलटू०, पृ० ७६।

निगराना † (१)
क्रि० स० [सं० नव + करण] १. निर्णय करना। निबटाना। २. छाँटकर अलग अलग करना। पृथक् करना। ३. स्पष्ट करना। उ०— अगिनि पवन रज पानि के भाँति भाँति ब्योहार। आपु रहा सब माँहि मिलि, को निगरवै पार।—चित्रावली, पृ० १।

निगराना (२)
क्रि० अ० १. अलग होना। २. स्पष्ट होना।

निगरानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] देखरेख। निरीक्षण। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—में रहना।

निगरु पु
वि० [सं० नि + गुरु] हलका। जो भारी या वजनी न हो। उ०— निगरु देखी भए गिरिगण जलधि में ज्यों पात।—केशव (शब्द०)।

निगल, निगलन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निगरण' [को०]।

निगलना
क्रि० सं० [सं० निगरण, निगलन] १. लील जाना। गले के नीचे उतार देना। घोंट जाना। गटक जाना। २. खा जाना। ३. रूपया या धन पचा जान। दूसरे का धन या कोई वस्तु मार बैठना। संयो० क्रि०—जाना।

निगह
संज्ञा स्त्री० [फा०] निगाह। दृष्टि। नजर। यौ०—निगहबाँ = निगहबान। उ०— बअत राफचारों निगहबाँ किया। मकाँ मुक्ति के चार दर बाँ किया।—कबीर मं०, पृ० १३७।

निगहबान
संज्ञा पुं० [फा०] रक्षक। उ०— हमारे निगहबान हैं चाँद सूरज, मगर हम न समझे कि क्यों ज्योति छाया।— हंस, पृ० ४९।

निगहबानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] रक्षा। देखरेख। रखवाली। चौकसी। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निगाद
वि० [सं० निगाद] कथन। भाषण।

निगादी
वि० [सं० निगादिन्] वक्ता।

निगार (१)
संज्ञा पुं० [फा०] भक्षण।

निगार (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. चित्र। बेलबूटा। नक्काशी। यौ०—नक्श निगार। २. एक फारसी राग (मुकाम)।

निगारक
वि० [सं०] भक्षक। निगलनेवाला [को०]।

निगाल
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पहाड़ी बाँस जो हिमालय में पैदा होता है। इसे रिंगाल भी कहते हैं। २. घोड़े की गरदन। ३. जंजीर। साँकल (को०)।

निगालक
वि० [सं०] निगलनेवाला। भक्षण करनेवाला [को०]।

निगालवान्
संज्ञा पुं० [सं० निगालवत्] अश्व। घोड़ा [को०]।

निगालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आठ अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण् और लघु गुरु होते है। इसे 'प्रमाणिका' और 'नागास्वरूपिणी' भी कहते हैं। जैसे,— प्रभात भो, सुहात भो। हली छली, जगे बली। तिहों घरी उठ हरी। न देर हु कछू करी।

निगाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० निगाल] १. निगाल। बाँस की बनी हुई नली। २. हुक्के की नली जिसे मुँह में रखकर धूआँ खोंचते हैं।

निगाह
संज्ञा स्त्री० [फा०] दृष्टि। नजर। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. देखने की क्रिया या ढंग। चितवन। तकाई। मुहा०— दे० 'दृष्टि' 'नजर' ओर 'आँख'। ३. कृपादृष्टि। मेहरबानी। क्रि० प्र०—करना। —रखना। ४. ध्यान। विचार। समझ। ५. निरीक्षण। देखरेख। ६. परख। पहचान। क्रि० प्र०—होना।

निगिभ पु
वि० [सं० निगुह्य] अत्यंत गोपनीय। जिसका बहुत लोभ हो। बहुत प्यारी। उ०— निगिभ वस्तु जो होय तिहारी। सोइ सवति मम होय सुधारी।—रघुराज (शब्द०)।

निगीर्ण
वि० [सं०] १. निगला। हुआ। २. अंर्तभुक्त। समा- विष्ट [को०]।

निगुंफ
संज्ञा पुं० [सं० निगुम्फ] १. समूह। गुच्छा। २. अत्यंत गुंफन या गुँथाई। घनी गुँथाई (को०)।

निगु (१)
वि० [सं०] प्रसन्न करनेवाला। मनोहारी [को०]।

निगु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन। २. मल। ३. मूल। जड़। ४. चित्र। चित्रण [को०]।

निगुण पु
वि० [सं० निर्गुण] दे० 'निर्गुण'।

निगुणा पु (१)
वि० [सं० निर्गुण] १. कृतघ्न। नीच। एहसान फरा- मोश। उ०— (क) निगुण गुण मानै नहीं, कोटि करै जो कोइ। दादू सब कुछ सौपिए सो फिर बैरी होइ।— संतवाणी०, पृ० ८८। (ख) सगुण गुण केते करे, निदुणा न मानै नीच। दादू साधू सब कहैं, निगुणा के सिर मींच।—दादू०, पृ० ४४२।

निगुन, निगुना पु
वि० [सं० निर्गुण, हिं० निगुण] दे० 'निगुण' 'निगुणा'।

निगुनी पु
वि० [सं० उप० नि + गुनी] जो गुणी न हो। गुण रहित। उ०— गुनी गुनी सब कोइ कहत निगुनी गुनी न होत। सुन्यो कहूँ तरु अर्थ ते अर्क समान उदोत।-बिहारी (शब्द०)।

निगुरा
वि० [हिं० उप० नि + गुरु] जिसने गुरु न किया हो। जिसने गुरु से मंत्र न लिया हो। अदिक्षित। उ०— गुरुमुख होवैं सो भरि पीवै, निगुरा नहीं जल पावता है।— पलटू०, पृ० ३९।

निगूढ़ (१)
वि० [सं० निगूढ] अत्यंत गुप्त। उ०— माया विवश भए मुनि मूढ़ा। समुझि नहीं हरि गिरा निगूढ़ा।—तुलसी (शब्द०)।

निगूढ़ (२)
संज्ञा पुं० वनमुग्द। मोठ।

निगूढार्थ
वि० [सं०] जिसका अर्थ छिपा हो। विशेष— न्यायसभा में उपस्थित दोनों पक्षवालों के जो उत्तर उत्तराभास (जो उत्तर ठिक न हो) कहे गए हैं उनमें निगूढ़ार्थ भी है। जैसे, यदि प्रतिपक्षी से पूछा जाय कि क्या सौ रुपये तुम्हारे ऊपर आते हैं और वह उत्तर दे कि 'क्या मेरे ऊपर इसके रुपये आते है'। इस उत्तर से यह ध्वनि निकलती है कि दूसरे किसी के ऊपर आति हैं।

निगूना पु
वि० [सं० निर्गुण] दे० 'निर्गुण'। उ०— मरै सोई जो होई निगुना। पीर न जानै थिरह बिहूना।—जायसा (शब्द०)।

निगूहन
संज्ञा पुं० [सं०] गोपन। छिपाव।

निगृहीत
वि० [सं०] १. धरा हुआ। पकड़ा हुआ। घेरा हुआ। २. आक्रमित। आक्रांत। जिसपर आक्रमण किया गया हो। ३. पीड़ित। ४. दंडित। ५. वशीभूत (को०)। ६. पराजित बाद में परास्त (को०)।

निगृहीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाधा। रोक। २. पराभव। वश में करना [को०]।

निगेटिव
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह प्लेट या फिल्म जिसपर फोटो लिया जाता है और जिसपर प्रकाश और छाया की छाप उलटी पड़ती है, अर्थात् जहाँ खुलता ओर सफेद होना चाहिए काला और गहरा होता है और जहाँ गहरा और काला होना चाहिए वहाँ खुलता ओर सफेद होता है। कागज पर (पाजिटिव) सीधा छाप लेने से फिर पदार्थों का चित्र यथातथ्य उतर आता है।

निगोड़ा
वि० [हिं० निगुरा, देश०] [स्त्री० निगोड़ी] १. जिसके ऊपर कोई बड़ा न हो। २. जिसके आगे पीछे कोई न हो। जिसके प्राणी न हो। अभागा। ३. अभाग या चपल वा दुष्ट के लिये कभी कभी स्नेह या दुलार के साथ प्रयुक्त पद। यौ०—निगोड़ा। नाठा। = जिसके आगे पीछे कोई न हो। बिना प्राणी का। लावारिस। ३. दुष्ट। बुरा। नीच। कमीना। (गाली स्त्रि०)। उ०— जानवर क्या निगोड़ा मिट्टी का थूहा है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४।

निगोड़िन
वि० स्त्री० [हिं० निगुरा] दे० 'निगोड़ा'। उ०— हमारी ननद निगोड़िन जगे।—कबीर श०, भा० १, पृ० ६७।

निगोरा †
वि० [हिं०] दे० 'निगोड़ा'।

निग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोक। अवरोध। २. दमन। ३. चिकित्सा। रोकने का उपाय। ४. दंड। ५. पीड़न। सताना। ६. बंधन। ७. भर्त्सन। डाँट। फटकर। ८. सीमा। हद। ९. विष्णु। १०. शिव। ११. चित्तवृत्ति का निरोध (को०)। १२. अतिलंघन (को०)। १३. दे० 'निग्रहस्थान' (को०)।

निग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोकने का कार्य। थामने का कार्य। २. दंड देने का कार्य। ३. बंधन। बाँधना (को०)। ४. पराजय पराभव। हार (को०)।

निग्रहना पु
क्रि० सं० [सं० निग्रहण] १. पकड़ना। थामना। उ०— कंस केश निग्रहों भूमि को भार उतारों।— सूर (शब्द०)। २. रोकना। ३. दंड देना।

निग्रहस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वादविवाद या शास्त्रर्थ में वह अवसर जहाँ दो शास्त्रर्थ करनेवालों में से कोई उलटी पलटी या नासमझी की बात कहने लगे और उसे चुप करके शास्त्रार्थ बंद कर देना पड़े। यह पराजय का स्थान है। विशेष— न्याय में जहाँ विप्रतिपत्ति (उलटा पुलटा ज्ञान) या अप्रतिपति (अज्ञान) किसी ओर से हो वहाँ निग्रहस्थान होता है। जैसे, वादी कहे— आग गरम नहीं होती। प्रतिवादी कहे कि स्पर्श द्वारा गरम होन प्रमाणित होता है। इसपर वादी यदि बागल झाँकने लगे और कहे कि मैं यह नहीं कहता कि आग गरम होती, इत्यादि तो उसे चुप कर देना चाहिए या मूर्ख कहकर निकाल देना चाहिए। निग्रहस्थान २२ कहे गए हैं— प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञांतर, प्रतिज्ञा- विरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वंतर, अर्थातर, निरर्थक, अविज्ञा- तार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननु- भाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा पर्य्यनुयोज्यो- पेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग। अपसिद्धांत और हेत्वाभास।(१) प्रतिज्ञाहानि वहाँ होती है जहाँ प्रतिदृष्टांत के धर्म को अपने दृष्टांत में मानकर अपने प्रतिज्ञा को छोड़ता है। जैसे, एक कहता है—शब्द अनित्य है। क्योकि वह इंद्रियविषय है। जो कुछ इंद्रियविषय हो वह घर की तरह अनित्य है। शब्द इंद्रियविषय है। अतः शब्द अनित्य है। दूसरा कहता है— जाति (जैसे घटत्व) इंद्रियविषय होने पर भी नित्य है इसी प्रकार शब्द ही कयों नहीं। इसपर पहला कहता है— जो कुछ इंद्रियविषय हो वह घट की तरह नित्य है। उसके इस कथन से प्रतिज्ञा की हानि हुई। (२) प्रतिज्ञांतर वहाँ होता है जहाँ प्रतिज्ञा का विरोध होने पर कोई अपने दृष्टांत और प्रतिदृष्टांतं में विकल्य से एक और नए धर्म का आरोप करता है। जैसे, एक, आदमी कहता है— शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान इंद्रियों का विषय है। दूसरा कहता है—शब्द नित्य है, क्योंकि वह जाति के समान इंद्रियविषय है। इसपर पहला कहता है कि पात्र और जाति दोनों इद्रियविषय हैं। पर जाति सर्वगत है और घट सर्वगत नहीं। अतः शब्द सर्वगत न होने से घट के समान अनित्य है। यहाँ शब्द अनित्य है, यह पहली प्रतिज्ञा थी; शब्द सर्वगत नहीं, यह दूसरी प्रतिज्ञा हुई। एक प्रतिज्ञा की साधक दुसरी प्रतिज्ञा नहीं हो सकती, प्रतिजा के साधक हेतु और दृष्टांत होते हैं। (३) जहाँ प्रतिज्ञा और हेतु का विरोध हो वहाँ प्रतिज्ञाविरोध होता है; जैसे, किसी ने कहा—द्रव्य गुण से भिन्न हैं (प्रतिज्ञा), क्योंकि उसकी उपलब्धि रूपादिक से भिन्न नहीं होती। यहाँ प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध है क्योंकि यदि द्रव्य गुण से भिन्न है तो वह रूप से भी भिन्न हुआ। (४) जहाँ पक्ष का निषेध होनेपर माना हुआ अर्थ छोड़ दिया जाय वहाँ प्रतिज्ञा संन्यास होता है। जैसे, किसी ने कहा— 'इंद्रियविषय होने से शब्द अनित्य है'। दूसरा कहता है जाति इंद्रियाविषय है, पर अनित्य नहीं, इसी प्रकार शब्द भी समझिए। इस प्रकार पक्ष का निषेध होने पर यदि पहला कहने लगे कि कौन कहता है कि 'शब्द अनित्य है' तो उसका यह कथन प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान के अंतर्गत हुआ। (५) जहाँ अविशेष रूप से कहे हुए हेतु का निषेध होने पर उसमें विशेषत दिखाने की चेष्टा की जाती है वहाँ हेत्वंतर नाम का निग्रहस्थान होता है। जैसे, किसी ने कहा— 'शब्द अनित्य है' क्योंकि वह इंद्रियविषय है। दूसरा कहता है कि इंद्रियविषय होने से ही शब्द अनित्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि जाति (जैसे घटत्व) भी तो इंद्रियविषय है पर वह अनित्य नहीं। इसपर पहला कहता है कि इंद्रियविषय होना जो हेतु मैंने दिया है, उसे इस प्रकार का इंद्रियविषय समझना चाहिए जो जाति के अंतर्गत लाया जा सकता हो। जैसे, 'शब्द' जाति के अंतर्गत लाया जा सकता है (जैसे, शब्दत्व) पर जाति (जैसे घटत्व) फिर जाति के अंतर्गत नहीं लाई जा सकती। हेतु का यह टालना हेत्वंतर कहलाता है। (६) जहाँ प्रकृत विषय या अर्थ संबंध रखनेवाला विषय उपस्थित किया जाता है वहाँ अर्थातर होता है; जैसे, कोई कहे कि शब्द अनि़त्य है, क्योंकि वह अस्पृश्य है। विरोध होनेपर यदि वह इधर उधर की फजूल बाते बकने लगे, जैसे हेतु शब्द 'हिं' धातु सें बना है, इत्यादि, तो उसे अर्थांतर नामक निग्रहस्थान में आया हुआ समझना चाहीए। (७) जहाँ वर्णों की बिना अर्थ की योजना की जाय वहाँ निरर्थक होता है। जैसे कोई कहे क ख ग नित्य है ज व ग ड से। (८) जब पक्ष का विरोध होने पर अपने बचाव के लिये कोई ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे जो अर्थप्रसिद्ध न होने के कारण जल्दी समझ में न आए अथवा बहुत जल्दी ओर अस्पष्ट स्वर में बोलने लगे तब अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान होता है। (९) जहाँ अनेक पदों या वाक्यों का पूर्वापर क्रम से अन्वय न हो, पद और वाक्य असंबद्ध हों, वहाँ अपार्थक होता है। (१०) प्रतिज्ञाहेतु आदि अवयव क्रम से न कहे जायें, आगे पीछे उलट पुलटकर कहे जायँ वहाँ अप्राप्तकाल होता है। (११) प्रतिज्ञा आदि पाँच अव्यवों में से जहाँ कथन में कोई अव्यव कम हो वहाँ न्यून नामक निग्रहस्थान होता है। (१२) हेतु और उदाहरण जहाँ आवश्यकता से अधिक हो जायँ वहाँ अधिक नामक निग्रहस्थान होता है क्योंकि जब एक हेतु और उदाहरण से अर्थ सिद्ध हो गया तब दूसरा हेतु और उदाहरण व्यर्थ है। पर यह बात पहले नियम के मान लेने पर है। (१३) जहाँ व्यर्थ पुनःकथन हो वहाँ पुनरुक्त होता है। (१४) चुप रह जाने को अननुभाषण कहते हैं। जहाँ वादी अपना अर्थ साफ साफ तीन बार कहे ओर प्रतिवादी सुन कर समझकर भी कोई उत्तर न दे वहाँ अननुभाषण नामक निग्रहस्थान होता है। (१५) जिस बात को सभासद समझ गए हों उसी की तीन बार समझने पर भी यदि प्रतिवादी न समझे तो अज्ञान नामक निग्रहस्थान होता है। (१६) जहाँपर पक्ष का खंडन अर्थात् उत्तर न बने वहाँ अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान हाता है। (१७) जहाँ प्रतिवादि इस प्रकार टाल टूल कर दे कि 'मुझे इस समय काम है, फिर कहूँगा' वहाँ विक्षेप होता है। (१८) जहाँ प्रतिवादी के दिए हुए दोष को अपने पक्ष में अंगीकार करके वादी बिना उस दोष का उद्धार किएप्रतिवादी से कहे कि 'कुम्हारे कथन में भी तो यह दोष है' वहाँ मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान होता है। (१९) जहाँ निग्रहस्थान में प्राप्त हो जानेवाले का निग्रह न किया जाय वहाँ पर्यनुयोज्योपेक्षण होता है। (२०) जो निग्रहस्थान में न प्राप्त होनेवाले को निग्रहस्थान में प्राप्त कहे उसे निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान में गया समझना चाहिए। (२१) जहाँ कोई एक सिद्धांत को मानकर विवाद के समय उसके विरुद्ध कहता है वहाँ अपसिद्धांत नामक निग्रहस्थान होता है। (२२) दे० 'हेत्वाभास'।

निग्रही
वि० [सं० निग्रहिन्] १. रोकनेवाला। दबानेवाला। २. दमन करनेवाला। दंड देनेवाला।

निग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक्रोश। शाप। २. दंड (को०)।

निग्राहक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो अपराधियों को अनुचित तथा अन्याययुक्त दंड दे।

निग्रोध
संज्ञा पुं० [सं० न्यग्रोध] १. राजा अशोक के एक भतीजे का नाम। २. दे० 'न्यग्रोध'। उ०— जटी, कपर्दीं, रक्त फल, बहुपद, ध्रुव ,निग्रोध। यह वंशीवट देखि बलि, सब सुख निरवाघधि रोध।— नंद० ग्रं०, पृ० १०६।

निघंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० निघण्टिका] एक प्रकार का कंद। गुलंच।

निघंटु
संज्ञा पुं० [सं० निघण्टु] १. वैदिक शब्दों का संग्रह। वैदिक कोश। विशेष— यास्क ने निघंटु की जो व्याख्या लिखी है वह निरुक्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह निघंटु अत्यंत प्राचीन है क्योंकि यास्क के पहले भी शाकुपूर्णि और स्थौलष्ठीवी नामक इसके दो व्याख्याकार या निरुक्तकार हो चुके थे। महाभारत में कश्यप को निघंटु का कर्ता लिखा है। २. शब्दसंग्रह मात्र। जैसे, वैद्यक का निघंटु।

निघ (१)
वि० [सं०] जिसकी चाड़ाई और ऊँचाई बराबर हो [को०]। यौ०— निघानिध = विभन्न रूपों तथा आकारों का।

निघ (२)
संज्ञा पुं० १. कंदुक। गेंद। २. पाप [को०]।

निघटना पु (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घटना'। उ०— सँदेसन क्यों निघटत दिन राति।—सूर (शब्द०)।

निघटना (२)
क्रि० सं० [हिं० नि + घटना] मिटाना। नष्ट करना।

निघट्टना पु
क्रि० सं० [हिं० निधटना] दे० 'निघटना (२)'। उ०— चलत पंथ पंथनि धरम श्रुति करमानिघट्टन।—मतिराम (शब्द०)।

निघरघट
वि० [हिं० नि (= नहीं) + घरघाट] १. जिसका कहीं घर घाट न हो। जिसे कहीं ठिकाना न हो। जो घूम फिरकर फिर वहीं आए जहाँ से दुतकारा या हटाया जाय़। उ०— खोवत है यौं ही आयु कौ भए निपट ही निघरधट।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १२५। २. निर्लज्ज। ढीठ। बेहया। उ०— अघट घटाई भरयों निपट निघरघट, मो धट क्यौं रावरी बड़ाई लौं निबरि है।—घनानंद, पृ० ५३। मुहा०— निघरघट देना = लज्जित किए जाने पर झूठी बातें बनाना कि मै यहाँ था, मै वहाँ, था। बेहयाई से झूठी सफाई देना। उ०— दूरे न निघरघटी दिए ये रावरी कुचाल। विष सी लगाति है बुरी हँसी खिसी की लाल।—बिहारी (शब्द०)।

निघरघटपन
संज्ञा पुं० [हिं०] निर्लज्जता। बेहयाई। उ०— काम में ला खुला निघरघटपन। नाम मरदानगी मिटाना है।— चोखे०, पृ० २९।

निघरा
वि० [हिं० नि + घर] जिसके घर बार न हो। निगोड़ा (गाली)। उ०— मेरी भई यह आनि दशा निघरे विधि तोहि अरे यह पीर न।— गुमान (शब्द०)।

निघर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निघर्षण' [को०]।

निघर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] घर्षण। घिसना। रगड़ना।

निघस
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन। खाद्य। आहार [को०]।

निधा पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० निगाह] दे० 'निगाह'। उ०— सो पात्साह की उनपर बोहोत निघा रहती।—दो सा बावन०, भा० १, पृ० १०९।

निघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. आहनन। प्रहार। २. अनुदात्त स्वर।

निघाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लौहदंड। २. वह लोहे का खंड जिसपर हथोड़े आदि का आधात पड़े। निहाई।

निघाती
वि० [सं० निघातिन्] [वि० स्त्री० निघातिनी] १. मारनेवाला। प्रहार करनेवाला। २. वध करनेवाला।

निघुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वनि। शब्द। २. हल्ला। गुल्ला। शोरगुल [को०]।

निघृष्ट
वि० [सं०] १. घर्षित। रगड़ा हुआ। घर्षणयुक्त। २. मर्दित। पराभूत [को०]।

निघृष्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खुर। २. खुर का निशान। ३. वायु। हवा। ४. खच्चर या गदहा। ५. सूअर। ६. मार्ग। सड़क [को०]।

निघृष्व (२)
वि० १. निम्न। छोटा। तुच्छ। २. घर्षित। रगड़ा हुआ [को०]।

निघ्न (१)
वि० [सं०] १. अधीन। आयत्त। वशीभूत। २. निर्भर। अवलंबित। ३. गुणित। गुणा किया हुआ।

निघ्न (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्यवंशीय राजा अनरण्य का पुत्र (हरिवंश)।

निचँत पु
वि० [सं० निश्चिन्त; प्रा० णिर्च्चित] दे० 'निश्चिंत'। उ०— माँगण पंथी जाँणि कइ तब छड़िया निचंत।—ढोला०, दू० १८६।

निचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० निचन्द्र] एक दानव का नाम।

निचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिनापुर के एक राजा जो असीमकृष्ण के पूत्र थे। हस्तिनापुर को जब गंगा बहा ले गई तब इन्होने कौशांबी में राजधानी बसाई।

निचमन
संज्ञा पुं० [सं०] थोड़ा थोड़ा पीना।

निचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह। २. निश्चय। ३. संचय।

निचल पु
वि० [सं० निश्चल] दे० 'निश्चल'।

निचला (१)
वि० [हिं० नीचे + ला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० निचली] नीचे का नीचेवाला। जेसे, निचला भाग।

निचला (२)
वि० [सं० निश्चल] १. अचल। जो हिलता डोलता न हो। २. स्थिर। शांत। जो चंचल न हो। अचंचल। क्रि० प्र०—रहना।—होना। मुहा०—निचला बैठना = (१) स्थिर होकर बैठना। शांत भाव से बैठना। चंचलता न करना। (२) शिष्टतापूर्वक बैठना।

निचाई
संज्ञा हिं० [हिं० नीचा + आई (प्रत्य०)] १ नीचा होने का भाव। नीचापन। जैसे, ऊँचाई निचाई। २. नीचे की ओर दूरी या विस्तार। ३. नीच होने का भाव। नीचता। ओछापन। कमीनापन। उ०—(क) भले भलाई पै लहहिं लहहिं निचाई नीच।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नीच निचाई नाहिं तजैं जो पावैं सतसंग।—(शब्द०)।

निचान
संज्ञा स्त्री० [हिं० नीचा + आन, यान (प्रत्य०)] १. नीचा- पन। २. ढाल। ढालुवाँपन। ढलान।

निचिंत
वि० [सं० निश्चिन्त] चिंतारहित। बेफेक्र। सुचित।

निचि
संज्ञा पुं० [सं०] कानों के सहित गाय का सिर।

निचिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अच्छी गाय।

निचित
वि० [सं०] १. संचित। इकट्ठा। २. पूरित। व्याप्त। ३. तैयार। निर्मित। ४. संकीर्ण। ५. ढका हुआ (को०)। ६. पुंजीभूत। ढेर लगाया हुआ (को०)।

निचिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम (महाभारत)।

निचिता पु † (१)
क्रि० वि० [सं० निश्चिन्त] दे० 'निचिंत'। उ०— चेटक चितहि लगाय निचीते हौ भले। जुवती जन मद गंजन घातन ही पले।—घनानंद, पृ० १९२।

निचुड़ना
क्रि अ० [सं० उप० नि + च्यवन (= चूना)] १. रस से भरी या गीली चीज का इस प्रकार दबना कि रस या पानी टपककर निकल जाय। दबकर पानी या रस छोड़ना। गरना। जैसे,— धोती निचुड़ना। नीबू, निचुड़ना। संयो० क्रि०— जाना। २. भरे या समाए हुए जल आदि का दाब पाकर अलग होना या टपकना। छूटकर चूना। गरना। जैसे, गीली धोती का पानी निचुड़ना, नीबू, का रस निचुड़ना। उ०— कहे देत रँग रात को रँग निचुरत से नैन।—बिहारी (शब्द०)। संयो० क्रि०— जाना। ३. रस या सारहीन होना। ४. शरीर का रस या सार निकल जाने से दुबला होना। तेज और शक्ति से रहित होना। संयो० क्रि०—उठना।— जाना।

निचुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेंत। २. हिज्जल वक्ष। ईजड़ का पेड़। ३. दे० 'निचोल' (को०)।

निचुलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'निचोल' २. जिरह वक्तर। कवल। उरस्त्राण [को०]।

निचै पु
संज्ञा पुं० [सं० निचय]दे० 'निचय'।

निचोड़
संज्ञा पुं० [हिं० निचोड़ना] १. वह वस्तु जो निचोड़ने से निकले। निचोड़ने से निकला हूआ जल, रस आदि। २. सार वस्तु। सार। सत। ३. कथन का सारांश। मुख्य तात्पर्य। खुलासा। जैसे, सब बातों ता निचोड़।

निचोड़ना
क्रि० सं० [हिं० निचुड़ना] १. गीली या रसभरी वस्तु को दबाकर या ऐंठकर उसका पानी या रस निकालना। गारना। जैसे, गीली धोती निचोड़ना, नीबू निचोड़ना, धोती का पानी निचोड़ना, नीबू का रस निचोड़ना। संयो०क्रि०— ड़ालना।—देना।— लेना। २. किसी वस्तु का सार भाग निकाल लेना। ३. सब कुछ ले लेना। सर्वस्व हरण कर लेना। निर्धन कर देना। जैसे,— उनके पास अब कुछ नहीं रह गया, लोगों ने उन्हें निचोड़ लिया। संयो० क्रि० —लेना।

निचोना पु †
क्रि० सं० [सं० नि + च्यवन] निचोड़ना। उ०— (क) तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि फिरि बिकल अकास निचोयो।— तुलसी (शब्द०)। (ख) मुसुकानि भरी बलि बोलनि तें श्रुति माहि पियुष निचोती रही।—द्विजदेव (शब्द)।

निचोर पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निचोड़'।

निचोर पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० निचोल] दे० 'निचोल'। उ०— ध्वजा पताका कलस अरू तोरन। मंगल रूप सुरुप निचोरन।— ह० रासी०, पृ० १६।

निचोरना पु †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'निचोड़ना'। उ०— शशी और भानु निचोर, शोभा राखी शीश पर।— कबीर सा०, पृ० १०४।

निचोरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० निचोड़ना] निचोड़ने का कार्य़। उ०— रूचिर निचोरनि चुवत नीर लखि भे अधीर तनु। तब बिछुरन की पीर चोर अँसुअन रोवत जनु।— नंद० ग्रं० पृ०, ३६।

निचोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन वस्त्र। ऊपर से शरीर ढँकने का कपड़ा। २. ओहार। आच्छादन। ३. स्त्रीयों की ओढ़नी। घुँघट का कपड़ा। ४. उत्तरीय वस्त्र। ५. घाघरा। लहँगा। ६. वस्त्र। कपड़ा।

निचोलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोल। कंचुक। अंग। २. सन्नाह। वक्तर।

निचोवना पु †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'निचोना'।

निचौहाँ
वि० [हिं० नीचा + ओहाँ (प्रत्य०) (/?/सं० आवाह)] [वि० स्त्री० नीचौहीं] नीचे की ओर किया हुआ या झुका हुआ। नमित।— उ०— सखिन मध्य करि दीठि निचौहीं। राधा सकुच मरी। —सूर (शब्द०)।

निचौहैं
क्रि० वि० [हिं० नीचोहाँ] नीचे की ओर। उ०— बिछुरे जिये सकेच यह मुख ते कहत न बैन। दोऊ दोरि लगे हिए किये निचौहै नैन।— बिहारी (शब्द०)।

निच्छवि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीरझुक्ति देश। तिरहुत।

निच्छिवि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ब्रात्य क्षत्रिय। सवर्णा स्त्री से उत्पन्न ब्रात्य क्षत्रिय की संतान (मनु०)।

निछक्का (१)
संज्ञा पुं० [सं० निस् + चक्र (= मंड़ली)] वह समय या स्थान जिसमें कोई दूसरा न हो। निराला। एकांत। निर्जन। मुहा०— निछक्के में = एकांत में।

निछक्का † (२)
वि० सिर्फ। निरा। मात्र।

निछत्र (१)
वि० [सं निश्छत्र] १. जिसके सिर पर छत्र न हो। छत्रहीन। बिना छत्र का। २. बिना राजाचिह्म का। ३. बिना राज्य का।

निक्षत्र (२)
वि० [सं० निःक्षत्र्] क्षत्रियों से हीन। बिना। क्षत्रिय का। क्षत्रियों से रहित। उ०— मारयो मुनि बिनही अपराधहि कामधेनु लै आऊ। इकइस बार निछत्र तब कीन्हीं तहाँ न देखे हाऊ।— सूर (शब्द०)।

निछद्दम †
संज्ञा पुं० [सं०] एकांत स्थान। निर्जन स्थान।

निछनियाँ †
क्रि० वि० [हिं० निछान] दे० 'निछान'। उ०— यशुमति दौरि लये हरि कनियाँ। आजु गयो मेरी गाय चरावन हौ बलि गई निछनियाँ।—सूर (शब्द०)।

निछरावल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निछावर] दे० 'निछावर'। उ०— तन मन धन निछरावल करसाँ अठसिधि नवनिधि सारी ए।— राम०, धर्म० पृ० २५१।

निछल पु
वि० [सं० निश्छल] कपटरहित। छलहीन।

निछला †
वि० [?] बिना मिलावट का। बिलकुल। एकमात्र।

निछान †— (१)
वि० [हिं० उप० नि (= नहीं) + छान(=जो छानने से निकले, अच्छी तरह छान कर निकाला हुआ।)] १. खालिस। विशुद्ध। जिसमें मेल न हो। बिना मिलावट का। २. बिलकुल। निछला। निखवख। एक मात्र। केवल।

निछान (२)
क्रि० वि० एकदम। बिलकुल।

निछावर
संज्ञा स्त्री० [सं०न्यास + आवर्त = न्यासावर्ती; मि० अ० निसार] १. एक उपचार या टोटका जिसमें किसी की रक्षा के लिये कुछ द्रव्य या कोई वस्तु उसके सारे अंगों के ऊपर से धुमाकर दान कर देते या ड़ाल देते है। उत्सर्ग। वाराफेरा। उतारा। बखेर। विशेष— इसका अभिप्राय यह होता है कि जो देवता शरीर को कष्ट देनेवाले हो वे शरीर और अंगों के बदले में द्रव्य पाकर संतुष्ट हो जाँय। क्रि० प्र०— करना।— होना। मुहा०— निछावर करना = उत्सर्ग करना। छो़ड़ देना। त्यागना। दे ड़ालना।निछावर होना = दे दिया जाना। त्याग दिया जाना। (किसी का) किसी पर निछावर होना = किसी के लिये मर जाना। किसी के लिय़े प्राण त्यागना। २. वह द्रव्य या वस्तु जो ऊपर घुमाकर दान की जाय या छोड़ दी जाय। ३. इनाम। नेग।

निछावरि †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निछावर'। उ०— (क) करहि निछावरि आरति महा मुदित मन सासूरि। —मानस, १। ३३५। (ख) सभा समेत राउ अनुरागे। दुतन्ह देन निछावरि लागे। —मानस, १। २९३।

निछोह
वि० [हिं० नि + छोह] १. जिसे छोह या प्रेम न हो। २. निर्दय। निष्ठुर।

निछोही
वि० [हिं० नि + छोह] १. जिसे प्रेम या छोह न हो। २. निर्दय। निष्ठुर। उ०— कहु तै ऐस निछोही जोगी। जोउ लेइ कीन्हेसि हो रोगी।— चित्रा० पृ० १३१।

निज (१)
वि० [सं०] १. अपना। स्वीय। स्वकीय। पराया नहीं। विशेष— आजकल इस शब्द का प्रयोग प्राय़ः 'का' विभक्ति के साथ होता है, जैसे, निज का काम। कर्म की विभक्ति भी इसके साथ लगती है; जैसे, निज को, निजहि। कविता में और विभक्तियाँ भी दिखाई देती है पर कम। मुहा०— निज का = खास अपना। अपने शरीर, जन या कुटुंब से संबंध रखनेवाला। २. खास। मुख्य। प्रधान। उ०— (क) परम चतुर निज दास श्याम के संतत निकट रहत हौ। जल बूड़त अवलंब फेन को फिरि फिरि कहा गहत हौ। —सूर (शब्द०) (ख) कह मारुतसुत सुनह प्रभु ससि तुम्हार निज दास।—तुलसी (शब्द०)। ३. ठीक। सही वास्तविक। सच्चा। यथार्थ। उ०— (क) अब बिनती मन सुनहु शिव जो मोपर निज नेह। —तुलसी (शब्द०)। (ख) मन मेरो मानै सिख मेरी। जौ निज भक्ति चहै हरि केरी।—तुलसी (शब्द०)।

निज (२)
अव्य० १. निश्चय। ठीक ठीक। सही सही। सटीक। मुहा०— निज करके = बीस बिस्वे। निश्चय। अवश्य। जरूर। २. खासकर। विशेष करके। मुख्यतः उ०— देखु विचारि सार का साँची, कहा निगम निज गायो।—तुलसी (शब्द०)।

निजकाना †
क्रि० अ० [फा़० नजदीक ] निकट पहुँचाना। समीप आना। उ०—थाने थाने हनुमान अंगद सयाने रहो, जाने निजकाने दिन रावण मरण के। हनुमान (शब्द०)।

निजकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० निज + कर] १. बँटाई की फसल। वह जमीन जिसके लगाने में उससे उत्पन्न वस्तु ही ली जाय।

निजघास
संज्ञा पुं० [सं०] पार्वती के क्रोध से उत्पन्न् गणों में से एक।

निजन पु
वि० [सं० निर्जन, प्रा० णिज्जण; हिं० नि + जन] एकांत। सन्नाटा। सुनसान। निर्जन।

निजा
संज्ञा पुं० [अं० निज्राअ] झगड़ा। विवाद।

निजाई
वि० [अ० निज्राअ] विवादग्रस्त। झगड़ातलब।

निजात
संज्ञा स्त्री० [अ० नजात] १. बंधनमुक्ति। छुटकारा। भार- मुक्ति। उ०— अँधियारा पूरी तरह निगल लेगा तुमको, तब सारे मंथन से निजात मिल जायगी। —ठंड़ा० पृ० ६५। २. दे० 'नजात'-१।

निजाम
संज्ञा पुं० [अ० निजाम] १. बंदोबस्त। इंतजाम। २. क्रम। सिलसिला। तरतीब (को०)। ३. शैली। तर्ज। पद्धति। ४. हैदराबाद के नन्वाबों का पदवीसुचक नाम।

निजामत
संज्ञा पुं० [अं०] १. नाजिम का पद या कार्य। २. वह कार्यालय जिसमें नाजिम ओर उसके सहायक कर्मचारी रहते हों।

निजार †
वि० [फा नजार] क्षीण। दुर्बल। कमजोर। उ०— गया था सूँ ज्यों लाल उजार। फिर्या रूख हो सब जाफरानी निजार।—दक्खिनी०, पृ० १४४।

निजि
वि० [सं०] शुद्ध। जो शुद्धि के सहित हो।

निजी
वि० [सं० निज] दे० 'निज१'।

निजु
वि० [सं० निज] दे० 'निज'। उ०— (क) निति पूछौं सब जोगी जंगम। कोइ निजु बात न कहै बिहगम। —जायसी ग्रं० (गुप्त)।—पृ० ३६४।(ख) निजु ये अधिकारी सब सुखकारी सबही विधि संतोषी।—राम चं० पृ० ४२।

निजु †
वि० [हिं० निज] निज का। खास अपना।

निजोर पु †
वि० [हिं० उप० नि + फा़० जोर] निर्बल।

निझनक पु
वि० [हिं० नि + झनक] ध्वनिरहित। नीरव। निर्जन।

निझरना
क्रि० अ० [हिं० उप० नि + झरना] १. अच्छी तरह झड़ जाना। लगा या अँटका न रहना। जैसे, पेड़ से फलों का निझरना। संयो० क्रि०— जाना। २. लगी हुई वस्तु के झड़ जाने से खाली हो जाना। जैसे, पेड़ से निझरना। ३. सार वस्तु से रहित हो जाना। खुख हो जाना। ४. हाथ झड़कर निकल जाना। दोष से मुक्त बनना। अपने को निर्दोष प्रमाणित करना। सफाई देना। उ०— सदा चतुरई फबती नाहीं अतिही निझरि रही हो। सुर 'श्याम' धौ कहा रहत है' यह कहि कहि जो तही हौ। —सूर (शब्द०)।

निझाटना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निझोटना'।

निझाना (१)
क्रि० अ० [देश०] १.ताक झाँक करना। झाँक झूँक करना। आड़ में छिपकर देखना। २. समाप्त या रिक्त हो जाना। झरकर खत्म होना। ३. जलती हुई अग्नि का बुझना या बुझ सा जाना।

निझाना † (२)
क्रि० सं० आग बुझाना।

निझोटना †
क्रि० सं० [हिं० उप० नि + झपटना] खींचकर छीनना। झपटना।

निझोल
संज्ञा पुं० [हिं० उप० नि + झोल] हाथी का एक नाम।

निटर †
वि० [देश०] जिसमें कुछ दम न हो। जिसका जोर मर गया हो। मरा हुआ। जो उपजाऊ न रह गया हो। (खेत या जमीन के लिये)।

निटक, निटिल
संज्ञा पुं० [सं०] कपाल। मस्तक।

निटलाक्ष, निटिलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव। शंभु [को०]।

निटलेक्षण, निटिलेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निटलाक्ष'।

निटोल
संज्ञा पु० [हिं० उप० नि + टोला] टोला। मुहल्ला। पुरा। बस्ती। उ०— प्रब न कौनो चुक करिहैं यह हमारे बोल। किंकरिनि की लाज धरि ब्रज सुबस करो निटोल।—सूर (शब्द०)।

निट्ठि पु
क्रि० वि० [देश०] दे० 'नीठि'।

निठल्ला
वि० [हिं० उप० नि(+ नहीं) + ठाला] १. जिसके पास कोई काम धंधा न हो। खाली। २. बेरोजगार। बेकार। ३. जो कोई काम धंधा न करे। निकम्मा। निठल्लू। ठलुआ।

निठल्लू
वि० [हिं०] दे० 'निठल्ला-३'।

निठाला
संज्ञा पुं० [हिं० उप० नि + टहल(=काम)] १. ऐसा समय जब कोई काम धंधा न हो। खाली वक्त। २. वह समय जिसमें हाथ में कोई काम धंधा या रोजगार न हो। वह वक्त या हालत जिसमें कुछ आमदनी न हो। जीविका का अभाव। जैसे,—ऐसे निठाले में तुम भी माँगने आए।

निठुर
वि० [सं० निष्ठुर] कठोरहृदय। जिसे दुसरे की पीड़ा का अनुभव न हो। जो पराया कष्ट न समझे। निर्दय। क्रुर। उ०— सहिहि निठुर कठोर उर मोरा। —मानस,६। ६०।

निठुरई पु
स्त्री० [हिं० निठुर + ई (प्रत्य०)] दे० 'निठुराई'।

निठुरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निष्ठुरता] निर्दयता। क्रुरता। ह्वदय की कठोरता।

निठुराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० निठुर + आई (प्रत्य०)] निर्दयता। ह्वदय की कठोरता। क्रुरता। उ०— सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहु तनु धारि निठुराई।—मनस, २। ४१।

निठुराव †
संज्ञा पुं० [हिं० निठुर + आव (प्रत्य०)] निठुराई। निर्दयता।

निठौर
संज्ञा पुं० [हिं० नि + ठौर] १. बुरी जगह। कुठाँव। २. बुरा दाँव। बुरी दशा। ३. बिना स्थान का व्यक्ति। बेसहारा। मुहा०— निठौर पड़ना = कुदाँव में पड़ना। बुरी दशा में पड़ना। बेसहारा होना। उ०— बहुरि बन बोलन लागे मोर। जिनकी पिय परदेस सिधारो सो तिय परी निठोर।—सूर (शब्द०)।

निडर
वि० [ हिं० उप० नि + डर] १. जिसे डर न हो। जो न ड़रे। निशंक। निर्भय। २. साहसी। हिम्मतवाला। ३. ढीठ। धुष्ट।

निडरपन
संज्ञा पुं० [हिं० निडर + पन प्रत्य०] निडर होने का भाव। निर्भीकता। निर्भयता।

निडरपना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निडरपन'।

निड़ा पु
अव्य० [सं० निकट, प्रा० नियड़, हिं० नियर] निकट। नजदीक। पास। उ०—कान निड़ा पग दुर रहा, मुहड़ा आडों दीजो हाथ।—बी० रासी, पृ० ५३।

निडीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी या यान का धीरे धीरे ऊपर से नीचे आना [को०]।

निड़े, निड़ै
अव्य० [सं० निकट] दे० 'निड़ा'।

निढाल
वि० [हिं० उप० नि + ढाल(=गिरा हुआ)] १. गिरा हुआ। पस्त। शिथिल। थका माँदा। अशक्त। सुस्त। क्रि० प्र०— करना।— होना।मुहा०— जी निढाल होना = जी ड़ुबना। मुर्च्छा आना। बेहोशी आना। २. सुस्त। मरा हुआ। उत्साहहीन।

निढालपन
संज्ञा पुं० [हिं०] सुस्ती। आलस्य। उ०—परंतु यहाँ अनुभव होता है एक निढालपन, सुबह शाम दिसंबर का सा जाड़ा लगता है।— वो दुनिया, पृ० ९९।

निढिल पु
वि० [हिं० नि + ढिला] १. जो ढीला न हो। कसा या तना हुआ। २. कड़ा। उ०— गाढे़ गाढ़े कुच निढिल पिय हिय को ठहराय। उकसौहे ही तो हिये सबै दई उसकाय।—बिहारी (शब्द०)।

नितंत
क्रि० वि० [सं० नितान्त] दे० 'नितांत'।

नितंब
संज्ञा पुं० [सं० नितम्ब] १. कटि का पश्चादूभाग। कमर का पिछाला उभरा हुआ भाग। चुतड़। (विशेषतः स्त्रियों का)। २. स्कंध। कंधा। ३. तीर। तट। ४. पर्वत का ढालुआँ किनारा। ५. कटि। कमर (को०)।

नितंबिनी (१)
वि० स्त्री० [सं० नितम्बिनी] सुंदर नितंबवाली।

नितंबिनी (२)
संज्ञा स्त्री० सुंदर नितंबवाली स्त्री। सुंदरी।

नित
अव्य [सं०] १. प्रतिदिन। रोज। जैसे, —वह यहाँ नित आता है। यौ०— नित नित = प्रतिदिन। रोज रोज। नित नया=सब दिन नया रहनेवाला। कभी पुराना न पड़नेवाला। सदा ताजा रहनेवाला। २. सदा। सर्वदा। हमेशा।

नितराम्
अव्य [सं०] १. सदा। हमेशा। सर्वदा। २. अत्यंत। अधिक। बहुत अधिक (को०)। ३. पुर्णतः। पूरी तरह (को०)। ४. एकदम। नितांत (को०)।

नितल
संज्ञा पुं० [सं०] सात पातालों में से एक।

नितांत
वि० [सं० नितान्त] १. अतिशय। बहुत अधिक। २. बिल्कुल। सर्वथा। एकदम। निरा। निपट।

निति पु †
अव्य० [सं० नित्य] दे० 'नित'। उ०— नीति चंदन लागै जेहि देहा। सो तन देखु भरब अब खेहा। —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२९।

नित्त पु
वि० [सं० नित्य] दे० 'नित्य'। उ०— नित्त रास रस मत्त नित्त गोपीजन वल्लभ। नित्त निगम यों कहत नित्त नव तन अति दुर्लभ। —नंद० ग्रं० पृ० ३७।

नित्ति, नित्तु पु
अव्य० [सं० नित्य] हमेशा। उ०— (क) जिहि जाहु जाहु जस बुद्धि ह्वँ कहो वित्ति उत्तम सुभव।— ह० रासी० पृ० ६४। (ख) जेहि घर कंता रितु भली, आउ बसंता नित्तु।— जायसी ग्रं० पृ० ३४८।

नित्य (१)
वि० [सं०] १. जो सब दिन रहे। जिसका कभी नाश न हो। शाश्वत। अविनाशी। त्रिकालव्यापी। उत्पत्ति और विनाशरहित। जैसे,—ईश्वर नित्य है। विशेष— न्याय मत से परामाणु नित्य हैं। सांख्य मत से पुरुष और प्रकृति दोनों नित्य है। वेदांत इन सबका खंडन करके केवल ब्रह्म के नित्य कहता है। २. प्रतिदिन का । रोज का। जैसे, नित्यकर्म।

नित्य (२)
अव्य० १. प्रतिदिन। रोज रोज। जैसे— वह नित्य यहाँ आता है। २. सदा। सर्वदा। अनवरत। हमेशा।

नित्य (३)
संज्ञा पुं० [सं०] सागर। समुद्र [को०]।

नित्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं०नित्यकर्मन्] १. प्रतिदिन का काम। रोज का काम। २. वह धर्म संबंधी कर्म जिसका प्रतिदिन करना आवश्यक ठहराया गया हो। नित्य की क्रिया। जैसे, संध्या, अग्निहोत्र आदि। विशेष—मीमांसा में प्रधान या अर्थ कर्म तीन प्रकार के कहे गए है—नित्य, नैमित्तिक और काम्म। नित्यकर्म वह है जिसका प्रतिदिन करना कर्तव्य हो और जिसे न करने से पाप होता हो। दे० 'कर्म'।

नित्यकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नित्यकर्म'।

नित्यक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] नित्यकर्म। जैसे, शौच, स्नान, संध्या आदि।

नित्यगति
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा।

नित्यजात
वि० [सं०] नित्य पैदा होनेवाला।

नित्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नित्य होने का भाव। अनश्वरता।

नित्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] नित्यता।

नित्यदा
अव्य० [सं०] सर्वदा। हमेशा।

नित्यदान
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिदिन दान करना। नित्य दान देने का क्रिया [को०]।

नित्यनर्त
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।

नित्यनियम
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिदिन का बँधा हुआ व्यापार। रोज का कायदा।

नित्यनैमित्तिककर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पवँश्राद्ध, प्रायश्र्चित्त आदि कर्म। विशेष— पर्वश्राद्ध, प्रायश्र्वित्त आदि अवश्य कर्तव्य है और किसी निमित्त (जैसे पापक्षय) से भी किए जाते है इससे नित्य और नैमित्तिक दोनों हुए।

नित्यप्रति
अव्य० [सं०] प्रतिदिन। हर रोज।

नित्यप्रमुदित
वि० [सं०] हमेशा आनंदित रहनेवाला [को०]।

नित्यप्रलय
संज्ञा पुं० [सं०] नित्य होनेवाला प्रलय। विशेष— वेदांत परिभाषा में चार प्रकार के प्रलय कहे गए है— नित्य़, प्राकृत, नैमित्तिक और आत्यंतिक। इनमें से सुषुप्पि को नित्यप्रलय कहते है। जिस प्रकार प्रलयकाल में किसी कार्य का बोध नहीं होता उसी प्रकार इस सुषुप्ति की अवस्था में भी नहीं होता। यहा अवस्था प्रतिदिन होती हैँ।

नित्युबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पदार्थ को शाश्वत या नित्य समझना [को०]।

नित्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] शाश्वतता। नित्यता [को०]।

नित्यमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह मित्र जो निःस्वार्थ भाव से प्रीति या बढ़े हुए पुराने संबंधों की रक्षा करे।

नित्यमुक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परमात्मा। ईश्वर [को०]।

नित्यमुक्त (२)
वि० जो हमेशा के लिये स्वतंत्र या मुक्त हो [को०]।

नित्ययज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिदिन का कर्तव्य यज्ञ। जैसे, अग्निहोत्र।

नित्ययुक्त
वि० [सं०] हमेशा तैयार या तत्पर रहनेवाला [को०]।

नित्ययौवना (१)
वि० स्त्री० [सं०] जिसका योवन बराबर या बहुत काल तक स्थिर रहे।

नित्ययौवना (२)
संज्ञा स्त्री० द्रौपदी।

नित्यर्तु
वि० [सं०] हरेक ऋतु में समयानुसार होनेवाला [को०]।

नित्यशः
अव्य० [सं०] १. प्रतिदिन। रोज। २. सदा। सर्वदा।

नित्यश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कांति या प्रफुल्लता जो बराबर बनी रहे [को०]।

नित्यसत्वस्थ
वि० [सं०] १. संर्वदा सत्व गुण से युक्त।२. धैर्य का त्याग न करनेवाला [को०]।

नित्यसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जो २४ जाति अर्थात् केवल साधर्म्य और वैधर्म्य से अयुक्त खंड़न कहे गए हैँ उनमें से एक। वह अयुक्त खड़ंन जो इस प्रकार किया जाय कि अनित्य वस्तुओ में भी अनित्यता नित्य है अतः धर्म के नित्य होने से धर्मी भी नित्य हुआ। जैसे, किसी ने कहा शब्द अनित्य है क्योंकि बह घट के समान उत्पत्ति धर्मवाला है। इसका यदि कोई इस प्रकार खंडन करे कि यदि शब्द का अनित्यत्व नित्य है तो शब्द भी नित्य हुआ और यदि अनित्यत्व अनित्य है तो भी अनित्यत्व के अभाव से शब्द नित्य हुआ। इस प्रकार का दूषित खंड़न नित्यसम कहलाता है।

नित्यसमास
संज्ञा पुं० [सं०] अनिवार्य समास। वह समास जिसे तोड़ देने पर उसके अंशों से अभीष्ट अर्थ की निष्पत्ति न हो, जैसे, जयद्रथ, पावक [को०]।

नित्यसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा [को०]।

नित्यसेवक
वि० [सं०] हमेशा दूसरों की सेवा करनेवाला [को०]।

नित्यस्नायी
वि० [सं० नित्यस्नायिन्] प्रतिदिन स्नान करनेवाला [को०]।

नित्यस्वाध्यायी
वि०[ सं० नित्यस्वाध्यायिन्] प्रतिदिन वेदादि का अनुशीलन करनेवाला [को०]।

नित्यहोता
वि० [सं० नित्यहोतृ] प्रतिदिन हवन करनेवाला [को०]।

नित्यहोम
संज्ञा पुं० [सं०] रोज किया जानेवाला होम [को०]।

नित्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. मनसा देवी। ३. एक शक्ति का नाम।

नित्यानंद
संज्ञा पुं० [सं० नित्यानन्द] १. नह आनंदानुभूति जो सदा बनी रहे। २. वह जो सर्वदा आनंद से रहे [को०]।

नित्यानध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा अवसर, चाहे वह जिस बार या जिस तिथि तो पड़े जाय, जिसमें वेद के अध्य़यन अध्य़ापन का निषेध हो। विशेष— मनुस्मृति के अनुसार जब पानी बरसता, बादल गरजता और बिजली चमकती हो या आँधी के कारण धूल आकाश में छाई हो या उल्कापात होता हो तब अनध्याय रखना चाहिए।

नित्यानित्य
वि० [सं०] नश्वर और अविनश्वर। शाश्वत और क्षणिक [को०]।

नित्यानित्यवस्तुविवेक
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म के सत्य और जगत् मिथ्यातत्व का निश्चय [को०]।

नित्यानुगृहीत
वि० [सं०] (अग्नि) जिसका निरंतर रक्षण किया जाय।

नित्याभियुक्त
वि० [सं०] (योगी) जो केवल इतना ही भोजन करके रहे जितने से देहरक्षा होती रहे और सब त्याग करके योगसाधन करे।

नित्यामित्राभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के अनुसार ऐसा स्थान जहाँ घोर विरोधी या शत्रु निवास करें। वह भूमि जहाँ कै लोग सदा दुश्मनी करते हों या जिसमे शत्रु की प्रबलता हो।

नित्यार पु
अव्य० [सं० नित्य + हिं० आर (प्रत्य०)] नित्य। निरंतर। सर्वदा। उ०— लोला ललित मुरार की सुक मुनि कही अपार। ते बड़भागी देव नर जपत रहत नित्यार।—पृ० रा०, २।५६१।

नित्यारित्र
वि० [सं०] (जलयान) जो अपने आप चले [को०]।

नित्योदक
वि० [सं०] (स्थान) जो सदा जल से युक्त या पूरित हो [को०]।

नित्योदकी
वि० [सं० नित्योदकिन्] दे० 'नित्योदक' [को०]।

नित्योदित
वि० [सं०] १. सदा उत्पन्न होनेवाला। २. अपने आप उत्पन्न होनेवाला। जैसे, ज्ञान [को०]।

नित्योद्युक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम [को०]।

निथंभ पु
संज्ञा पुं० [सं० उप० नि + स्तम्भ] खंभा। स्तंभ। उ०— रची विरंचि वास सी निथंभ राजिका भली।— केशव (शब्द०)।

निथरना
क्रि० अ० [सं० निस्तरण; अथवा हिं० उप० नि + थिर + ना (प्रत्य०)] १.पानी या और किसी पतली चीज का स्थिर होना जिससे उसमें घुली हुई मैल आदि नीचे बैठ जाय। थिरकर साफ होना। २. घुली हुई चीज के नीचे बैठ जाने से जल का अलग हो जाना। पानी छन जाना।

निथार
संज्ञा पुं० [सं० निस्तार अथवा हिं० निथरना] १. घुली हुई चीज के बैठ जाने से अलग हुआ साफ पानी। २. पानी के स्थिर होने से उसके तल में बैठी हुई चीज। ३. निथरने की क्रिया।

निथारना
क्रि० सं० [हिं० निथरना] १. पानी और किसी पतली चीज को स्थिर करना जिससे उसमें घुली हुई मैल आदि नीचे बैठ जाय। थिराकर साफ करना। २.घुली चीज की नीते बैठाकर खाली पानी अलग करना। पानी छानना। पानी छानकर अलक करना।

निथालना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'निथारना'।

निद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जहर। विष [को०]।

निद (२)
वि० निंदक [को०]।

निदई पु
वि० [सं० निर्दयी] दे० 'निर्दयी'।

निदद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसे दाद का रोग न हो। २. मनुष्य। मानव [को०]।

निदरन पु
वि० [सं० उप० निर् = √ दु(= नष्ट करना)] निर्दलन करनेवाला। नष्ट करनेवाला। उ०— आवहु बलि बैसाख, दुख निदरन सुख करन पिय।— नंद० ग्रं० पृ० १६५।

निदरना पु
क्रि० सं० [सं० निरादर] १. निरादर करना। अपमान करना। अप्रतिष्टा काना। बेइज्जती करना। उ०— मोर प्रभाव विदित नहीं तोरे। बोलसि निदरि विप्र के भोरे।—तुलसी (शब्द०)। २. तिरस्कार करना। त्याग करना। ३. मात करना। बढ़ जाना। बढ़कर निकलना। तुच्छ ठहरना। उ०— (क) नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने।—तुलसी (शब्द०)। (ख) एक एक जीतहिं संसारा। उनहि निदरि पावत को पारा। —सबल (शब्द०)।

निदरसना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निदर्शना] दे० 'निदर्शना'। उ०— जहाँ बरनन पद अर्थ की बरनत है कविराज। निजरसना यह दुसरी, बरनत बिबुध समाज। —मति० ग्रं० , पृ० ३९३।

निदार पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निद्रा] दे० 'निद्रा'। उ०— दिन नहि चैन रात नहिं निदरा, खूखूँ खड़ी खड़ी।—संतवाणी, प०७७।

निदर्शक
वि० [सं०] निदर्शन करनेवाला। बतानेवाला। दिखानेवाला [को०]।

निदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिखाने का कार्य। प्रदर्शित करने का कार्य। प्रकट करने का कार्य। २. उदाहरण। द्दष्टांत।

निदर्शना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें एक बात किसी दूसरी बात को ठीक ठीक कर दिखाती हुई कही जाती है। यह ६ प्रकार की होती है। उ०— (क) सरिसंगम हित चले ठेलते नाले पत्थर। दिखालाते पथरोध प्रेमियों का अति दुष्कर। (ख) जात चंद्रिका चंद्र सह विद्दुत घन सह जाय। पिय सहगमन जो तियन को जड़ हु देत दिखाय। (ग) कहाँ सुर्य को वंश अरू कहाँ मोरि मति छुद्र। मैं डूडे ,सों मोहवश चाहत तरयो समुद्र। (ध) जंगजीत जे चहत है ती सों वैर बढ़ाय। जीबे की इच्छा करत कालकूट ते खाय। (च) उदय होन दिननाथ इत अथवत उत निशिराज। द्वय घंटायुत द्बिरद की छवि धारत गिरी आज। (छ) लघु उन्नत पद प्राप्त ह्वै तुरताहि लहत निपात। गिरि तें काँकर बात बस गिरत कहत यह बात। विशेष— इस अंलंकार के भिन्न भिन्न लक्षण आचार्यो ने लिखे हैं। जहाँ होता हुआ वस्तुसंबंध और न होता हुआ वस्तुसंबध दोनों बिबानुबिंब भाव से दिखाए जाते हैं वहाँ निदर्शना होती है। उ०—संपदयुत चिर थिर रहत नहिं कोउ जनहिं तपाय। चरमाचल चलि भानु सब कहे रहे जनाय। (साहित्य- दर्पण)। न होता हुआ वस्तुसंबंध जहाँ उपमा की कल्पना करे (प्रथन निदर्शना); अथवा जहाँ क्रिया से ही अपने और अपने हेतु के संबंध की उक्ति हो वहाँ निदर्शना अलंकार होता है (दूसरी निदर्शना)। उ०—लघु उन्नत पद प्राप्त ह्वै तुरतहि लहत निपात। गिरि ते काँकर बात बस गिरत कहत यह बात। (काव्यप्रकाश कारिका)। दंडो का यह लक्षण है— अर्थातर में प्रवृत्त कर्ता द्वारा अर्थातर के सदृश जो सत् या असत् फल दिखाया जाता है वह निदर्शना है। चंद्रालोककार का लक्षण-सदृश वाक्यार्थों की एकता का आरोप निदर्शता है। हिंदी के कवि प्रायःचंद्रालोककार का ही लक्षण ग्रहण करके चले हैं। जैसे,—सरिस वाक्य युग के अरथ करिए एक अरोप। भुषण ताहि निदर्शना कहत बुद्धि दै ओप।— भूषण (शब्द०)। प्रथम निदर्शना जो सो, जे ते, पदन करि असम वाक्य सम कौन। उ०—सुनु खगेश हरि भक्ति बिहाई। जे कुछ चाहहिं आन उपाई। ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहत जड़ करनी।—तुलसी (शब्द०)। दुसरी निर्दशना—थापिय गुन उपमान के उपमेयहि के अंग। उ०— जब कर गहत कमान सर देत अरिन को भीति। भाउसिंह में पाइए सब अरजुन की रीति।—मतिराम (शब्द०)। तीसरी निर्दशना। थापिय गुण उपमेय को उपमानहि के अंग। उ०— तुव बचनन की मधुरता रही सुधा महँ छाय। चारु चमक चल नैन की मीनन लई छिनाय। (शब्द०)।

निदलन पु
संज्ञा पुं० [सं० निदलन] दे० 'निर्दलन'।

निदहना पु
क्रि० स० [सं० निर्दहन] जलाना।

निदाघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरमी। ताप। २. धुप। घाम। ३. ग्रीष्मकाल। गरमी। ४. प्रस्वेद। पसीना (को०)। ५. पुलस्त्य ऋषि का एक पुत्र (विष्णुपुराण)।

निदाघकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुर्य। २. मदार। आक।

निदाघकाल
संज्ञा पुं० [सं०] गरमी की ऋतु [को०]।

निदाघवार्षिक
वि० [सं०] ग्रीष्म और वर्षा ऋतु संबंधी महीने।

निदाघसिंधु
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रीष्मऋतु की नदी जो शुष्कप्राय रहता है [को०]।

निदान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आदि कारण। २. कारण। ३. रोगनिर्णय। रोगलक्षण। रोग की पहचान। विशेष—सुश्रुत के पुछने पर धन्वंतरि जो ने कहा है कि वायु ही प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का मुल है। यह शरीर के दोषों का स्वामी और रोगों का राजा है। वायु पाँच हैं—प्राण, उदान, समान, व्यान और अपना । ये ही पाँचो वायु शरीर की रक्षा करती हैं। जिस वायु का मुख में संचरण होता है उसे प्राणवायु कहते हैं। इससे शरीर की रक्षा, प्राणधारण और खाया हुआ अन्न जठर में जाता हैं। इसके दूषित होने से हिचकी, दमा, आदि, रोग हेते हैं। जोवायु ऊपर की ओर चलती है उसे उदान वायु कहेत हैं। इसके कुपित होने से कंधे के ऊपर के रोग होते हैं। समान वायु आमाशय और पक्वाशय में काम करती है। इसके बिगड़ने से गुल्म, मंदाग्नि, अतीसार आदि रोग होते हैं। व्यान वायु सारे शीरर में घुमती है और रसों को सर्वत्र पहुँचाती है। इसी से पसीना और रक्त आदि निकलता है। इसके बिगड़ने से शरीर भर में होनेवाले रोग हो सकते हैं। अपान वायु का स्थान पक्वाशय है। इसके द्वारा मल, मुत्र, शुक, आर्तव, गर्भ समय पर खिंचकर बाहर होता है। इस वायु के कुपित होने से वस्ति और गुप्त स्थानों के रोग हेतो हैं। व्यान और अपान दोनों के कुपित होने से प्रमेह आदि शुक्ररोग होते हैं (सुश्रुत)। ४. अंत। अवसान। ५. तप के फल की चाह। ६. शुद्धि। ७. बछड़े का बंधन।

निदान (२)
अव्य० अंत में। आखिर। उ०—जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।—तुलसी (शब्द०)।

निदान (३)
वि० अंतिम या निम्न श्रेणी का। निकृष्ट। बहुत ही गया बीता। हद दरजे का। उ०—उत्तम खेती मध्यम बात। निरघिन सेवा भीख निदान (कहावत)।

निदारुण
वि० [सं०] १. कठिन। घोर। भयानक। २. दुःसह। निर्दय। कठोर।

निदाह पु
संज्ञा पुं० [सं० निदाघ] दे० 'निदाघ'।

निदिग्ध
वि० [सं०] १. छोपा हुआ लेप किया हुआ। २. बढ़ाया हुआ। प्रवर्धित [को०]।

निदिग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इलायची।

निदिग्धिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निदिग्धा'।

निदिध्यास
संज्ञा पुं० [सं०] 'निदिध्यासन'। उ०—कीयौ श्रवन मनन पुनि कीयौ ता पीछै कीयौ निदिध्यास।—सुंदर० ग्रं०, भा०१, पृ० १५५।

निदिध्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] फिर फिर स्मरण। बार बार ध्यान में लाना। विशेष—श्रुतियों और योगदर्शन में भी दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन आत्मज्ञान के लिये आवश्यक बतलाया गया है।

निदिष्ट
वि० [सं०] १. बनाया हुआ। निदर्शित। इंगित। २. आदिष्ट। आज्ञप्त [को०]।

निदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शासन। २. आज्ञा। हुक्म। ३. कथन। ४. पास। सामीप्य। ५. पात्र। बरतन [को०]।

निदेशक
वि० [सं०] निदेश करनेवाला। निर्देशक। (अंग्रेजी के 'डाइरेक्टर' पद के लिये प्रयुक्त हिंदी पारिभाषिक शब्द)।

निदेशिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] निदेश करनेवाली। हुक्म या आज्ञा देनेवाली [को०]।

निदेशिनी (२)
संज्ञा स्त्री० दिशा [को०]।

निदेशी
वि० [सं० निदेशिन्] [वि० स्त्री० निदेशिनी] आज्ञा करनेवाला।

निदेष्टा
वि० [सं० निदेष्ट] निदेशक। बताने या आज्ञा देनावाला [को०]।

नेदेस पु
संज्ञा पुं० [सं० नेदेश]दे० 'निदेश'। उ०—मातु पिता गुरु स्वामि निदेसु। सकल धरम धरनीधर सेसु।—मानस, २। ३०५।

निदोष पु
वि० [सं० निर्दोष]दे० 'निर्दोष'।

निद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० निधि]दे० 'निधि'।

निद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपसंहारक अस्त्र। उ०—जोतिष पावक निद्र दैत्यमंयन रति लेख्यो।—पद्माकर (शब्द०)।

निद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सचेष्ट अवस्था के बीच बीच में होनेवाली प्राणियों की वहर विश्चेष्ट अवस्था जिसमें उनकी चेतन वृत्तियाँ (और कुछ अचेतन वृत्तियाँ भी) रुकी रहती हैं। नींद। स्वप्न। सुप्ति। विशेष—गहरी निद्रा की अवस्था में मनुष्य की पेशियाँ ढीली हो जाती हैं, नाड़ी की गति कुछ मंद हो जाती है, साँस कुछ गहरी हो जाती है और कुछ अधिक अंतर देकर आती जाती है, साधारण संपर्क से ज्ञानेद्रिंय में संवेदन और कर्मद्रियों में प्रतिक्रिया नहीं होती; तथा आँतों के जिस प्रवाहवत् चलनेवाले आकुंचन से उनके भीतर का द्रव्य आगे खिसकता है उसकी चाल भी धीमी हो जाती है। निद्रा के समय मस्तिष्क या अंतःकरण विश्राम करता है जिससे प्राणी निःसंज्ञ या अतेचन अवस्था में रहता है। निद्रा के संमंध में सबसे अधिक माना जानेवाला वैज्ञानिक मत यह है कि निद्रा मस्तिष्क में कम रक्त पहुँचने के कारण आती है। निद्रा के समय मस्तिष्क में रक्त की कमी हो जाती है, यह बात तो देखी गई है। बहुत छोटे बच्चों के सिर के बीच जो पुलपुला भाग होता है वह उनके सो जाने पर कुछ अधिक धँसा मालूम होता है। यदि वह नाड़ी जो हृदय से मस्तिष्क में रुधिर पहुँचाती हैं, दबाई जाय तो निद्रा या बेहोशी आवेगी। निद्रा की अवस्था में मस्तिष्क में रक्त की कमी का होना तो ठीक है, पर यह नहीं कह जा सकता कि इस कमी के कारण निद्रा आती है या निद्रा (मस्तिष्क की निष्क्रियता) के कारण यह कमी होती है। हाल के दो वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि निद्रा संवेदसुत्रों या ज्ञानतंतुओं के घटकों (सेल्स) के संयोग तोड़ने से आती है। संवेदनसुत्र अनेक सुक्ष्म घटकों के योग से बने होते हैं और मस्तिष्करुपी केंद्र मे जाकर मिलते हैं। जाग्रत या सचेष्ट अवस्था में ये सब घटक अत्यंत सुक्ष्म सुत की सी उँगलियाँ निकालकर एक दुसरे से जुड़े हुए मस्तिष्टघटकों के साथ संबंध जोड़े रहते हैं। जब घटक श्रांत हो जाते हैं तब उंगलियाँ भीतर सिमट जाती हैं और मस्तिष्क का संबंध संवेदनसुत्रों से टुट जाता है जिससे तंद्रा या निद्रा आती है। एक और दुसरे वैज्ञानिक का यह कहना है कि मास्तिष्क के घटक दिन के समय जितना अधिक और जितनी जल्दी जल्दी प्राणद वायु (आक्सीजन) खर्च करते हैं उतनी उन्हें फेफड़ों से मिल नहीं सकती। अतः जबप्राणद वायु का अभाव एक विशेष मात्रा तक पहुँच जाता है तब मस्तिष्कधटक शिथिल होकर निष्क्रिय हो जाते हैं। सोने की दशा में आमदानी की अपेक्षा प्राणदवायु का खर्च बहुत कम हो जाता है जिससे उसकी कमी पुरी हो जाती है अर्थात् चेतना के लिये जितनी प्राणदवायु की जरुरत होती है उनती या उससे अधिक फिर हो जाती है और मनुष्य जाग पड़ता है। इतना तो सर्वसम्मत है कि निद्रा की अवस्था में शरीर पोषण करनेवाली क्रियाएँ क्षय करनेवाली कियाओं की अपेक्षा अधिक होती हैं। निद्रा के संबंध में यह ठीक ठीक नहीं ज्ञात होता कि विकास की किस श्रीणी के जीवों से नियमपुर्वक सोने की आदत शुरु होती है। स्तनपायी उष्णरक्त जीवों तथा पक्षियों से नीचे की कोटि के जीवों के यथार्थ रीति से सोने का कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता। मछली, साँप, कछुए आदि ठढे रक्त के जीवों की आँखों पर हिलनेवालो पलके तो होती नहीं कि उनके आँख मुँदने से उनके सोने का अनुमान कर सकें। मछिलियाँ घटों निश्चेष्टा अवस्था में पड़ी पाई गाई हैं पर उनकी यह अवस्था नियमति रुप से हुआ करती है, यह नहीं कहा जा सकता। पातंजल योगदर्शन के अनुसार निद्रा भी एक मनोवृत्ति है, जिसका आलंबन अभावप्रत्यय अर्थात् तमोगुण है। अभाव से तात्पर्य शेष वृत्तियों का अभाव है, जिसका प्रत्यय या कारण हुआ तमोगुण। सारांश थह है कि तमोगुण की अधिकता से सब विषयों को छोड़कर जो वृत्ति रहती है वह निद्रा है। निद्रा मन की एक क्रिया या वृत्ति है, इसके प्रमाण में भोज- वृत्ति में यह लिखा है कि 'मैं खुब सुख से सोया'। ऐसी स्मृति लोगों को जागने पर होती है और स्मृति उसी बात की होगी जिसका अनुभव हुआ होगा। यौ०—निद्रादरिद्र = जिसे नींद न आती हो। निद्राभंग जागरण। निद्रावृक्ष = अँधेरा। अंधकार।

निद्रागिण
वि० [सं०] १. सोता हुआ। निद्रित उ०—हृदय गिरी कंदरा निद्रागिण पितृवैरि केशरी जागु।—कीर्ति०, पृ० १८। २. बंद। अविकच। मीलित। मुँदा हुआ।

निद्राभिभूत
वि० [सं०] नींद से ग्रस्त। निद्रित [को०]।

निद्रायमान
वि० [सं० निद्रायमाण] जो नींद में हो। सोता हुआ।

निद्रालस
वि० [सं० निद्रा + अलस] १. निद्रायुक्त। सोया हुआ। २. उनींदा। तंद्रालु। उ०—चुक क्षमा माँगी नहीं, निद्रा- लस वंकिम विशाल नेत्र मुँदे रहे।—अपरा, पृ० ५।

निद्रालु (१)
वि० [सं०] १. निद्राशील। सोनेवाला। २. उनींदा [को०]।

निद्रालु (२)
संज्ञा स्त्री० १. बैंगन। भटा। २. बबरी। ममरी। बन- तुलसी। ३. नली नामक गंधद्रव्य।

निद्रालु (३)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम (भागवत)।

निद्रासंजनन
संज्ञा पुं० [निद्रासज्जनन] श्लेष्मा कफ। विशेष— कफ की वृद्धि से निद्रा आती है। अतः श्लेष्मा को निद्रासंजनन कहते हैं।

निद्रित
वि० [सं०] सुप्त। सोया हुआ।

निधड़क
क्रि० वि० [हिं० नि (= नहीं) + धड़क] १. बेरोक। बिना किसी रुकावट के। २. बिना संकोच के। बिना हिचक के। बिना आगा पीछा किए। ३. निःशक। बेखटक। बिना किसी भय या चिंता के।

निधन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश। २. मरण। ३. फलित ज्योतिष में लग्न से आठवाँ स्थान। विशेष—इस स्थान से अत्यंत संकट, आयु, शस्त्र आदि का बिचार किया जाता है। यदि लग्न से चौथे स्थान पर सुर्य हों और ग्रह पर शनि की द्दष्टि हो तो जिस दिन निधन स्थान पर शु्भग्रहों की द्दष्टि होगी, उसी दिन मृत्यु होगी। ४. जन्म नक्षत्र से सातवाँ, सोलहवाँ और तेईसवाँ नक्षत्र। ५. कुल। खानदान। ६. कुल का अधिपति। ७. विष्णु। ८. पाँच अवयव या सात अवयवयुक्त साम का अंतिम अवयव। यौ०—निधनकारी = नष्टकारक। नाशक। निधनक्रिया= अंत्येष्टि। निधनपति।

निधन (२)
वि० वनहीन। निर्धन। दरिद्र।

निधनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनहीनता। गरीबी [को०]।

निधनपति
संज्ञा वि० [सं०] प्रलयकर्ता। शिव।

निधनी
वि० [हिं० नि + धनी] निर्धन। धनहीन। दरिद्र। उ०—जैसे निधनी धनहिं पाए हरख दिन अरु राति।— सूर (शब्द०)।

निधरक †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'निधड़क'। उ०—निधरक बैठि कहै कटु बानी। सुवन कठिनता अति अकुलानी।—मानस, २।४१।

निधरकता †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निधरक + ता (प्रत्य०)] निधड़कपन। बेधड़की। बेखटकी। उ०—ताही प्रकार अपनी टहल निघरकतासों करयो करयो।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० २१७।

निधातव्य
वि० [सं०] स्थापनीय।

निधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधार। आश्रय। २. निधि। खजाना। ३. लयस्थान। वह स्थान जहाँ आकर कोई वस्तु लीन हो जाय। ४. स्थापन। रखना। ५. धन। सम्पत्ति (को०)। ६. विराम स्थान। आराम की जगह [को०]।

निधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गड़ा हुआ खजाना। खजाना। विशेष—पृथ्वी में गढ़ा हुआ धन यदि राजा को मिले तो उसे आधा ब्राह्मणादि को देकर आधा ले लेना चाहिए। विद्वान् ब्राह्मण यदि पावे तो उसे सब ले लेना चाहिए। यदि अपनि ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि पावें तो राजा को उन्हें छठा भाग देकर शेष ले लेना चाहिए। यदि कोई निधि पाकर राजा को संवाद न दे तो राजा को उसे दंड देना चाहिए और सारा खजाना ले लेना चाहिए (मिताक्षरा)। २. कुबेर के नौ प्रकार के रत्न। ये नौ रत्न ये हैं—पदम, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद नील और वर्च्च। विशेष—ये सब निधियाँ लक्ष्मी की अश्रित हैं। जिन्हें ये प्राप्त होती है उन्हें भिन्न भिन्न रुपों में घनागम आदि होता है।जैसे पदमनिधि के प्रभाव से मनुष्य सोने, चाँदी ताँबे आदि का खूब उपभोग औग क्रयविक्रय करता है, महापदमनिधि की प्राति से रत्न, मोती, मुँगे आदि की अधिकता रहती गै, इत्यादि। मार्कडेय पुराण इनमें अंतिम निधि को छोड़कर आठ निधि का उल्लेख करता है। अंतिम निधि वर्च्च को कहीं कहीं खर्ग नाग कहा गया है। ३. समुद्र। ४. आधार। घर। जैसे, जलनिधि, गुणनिधि। ५. विष्णु। ६. शिव। ७. नौ की संख्या। ८. जीवक नाम की ओषधि। ९. नलिका नामक द्रव्य। १०. व्यक्ति जो विविध गुणयुक्त हो (को०)। ११. वह स्थान जहाँ संपत्ति, द्रव्य आदि रखा जाय।

निधिगोप
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेदवेदांग में पारंगत होकर गुरुकुल से आया हो। अनूचान।

निधिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] निधियों के स्वामी, कुवेर।

निधिप
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर।

निधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर।

निधिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर।

निधीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुवेर। २. भैरव का एक नाम [को०]।

निधीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर।

निधुवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैथुन। २. नर्म। केलि। ३. हँसी ठट्ठा। ४. कंप।

निधूम पु
वि० [सं० निर्धूम] धूमरहित। बिना धुएँ का। उ०— अग्नि के जनु निधुम हैं ऊक। किधौं विभाकर के खिबि टुक।—नंद०, ग्रं०, पृ० २५४।

निधेय
वि० [सं०] स्थापनीय। स्थापन करने योग्य।

निध्यात
वि० [सं०] जिसका मनन या ध्यान किया गया हो। विचारित [को०]।

निध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. दर्शन। देवता। २. निदर्शन।

निध्यानि पु
वि० [सं० निध्यान] निध्यान करनेवाला। उ०— निःकामी निध्यानि सोइ अविगति यहि विधि जान।—कबीर सा०, पृ० ५९२।

निध्रुव
संज्ञा पुं० [सं०] एक गौत्रप्रवर्तक ऋषि।

निघ्रुवि
वि० [सं०] दृढ़। विश्वसनीय [को०]।

निध्वान
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द।

निनंक्षु
वि० [सं० निनङ्क्षु] १. मरने की इच्छा रखनेवाला। २. जो भागना या छिपना चाहता हो [को०]।

निनद
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। आवाज। घरघराहट। उ०—लाज गहौ धीरज धरौ ए पिय चतुर सुजान। स्रवन सुखद नुपुर निनद ननद न सुनिहै कान।—स० सप्तक, पृ० ३७२१।

निनदित
वि० [सं०]दे० 'निनादित' [को०]।

निनदी
वि० [सं० निनरिन्]दे० 'निनादी'।

निनद्द पु
संज्ञा पुं० [सं० निनद] निनाद। जोर की ध्वनि। उ०— डंका निनद्द छाये अहद्द। रनसिंह तुर बेहद्द सद्द।—सुजान०, पृ० १८।

निनय
संज्ञा स्त्री० [सं०] नम्रता। नौताई। आजजी।

निनयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निष्पादन। २. प्रणीता के जल को कुश से यज्ञ को वेदो पर छिड़कने का कार्य।

निनरा पु
वि० [सं० नि + निकट, प्रा० निनिअड़] न्यारा। अलग। जुदा। दुर। उ०—मानहु विबर गए चलि कारे तजि केंचुरी भए निनरे री।—सूर (शब्द०)।

निनाद
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। आवाज।

निनादित (१)
वि० [सं०] शब्दित। ध्वनित।

निनादित (२)
संज्ञा पुं० शब्द। ध्वनि। आवाज [को०]।

निनादी
वि० [सं० निनादिन्] [वि स्त्री० निनादिनी] शब्द करनेवाला। ध्वनि करनेवाला।

निनान पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निदान] १. अंत। २. लक्षण।

निनान पु (२)
क्रि० वि० अंत में। आखिर।

निनान पु (३)
वि० १. परले सिरे का। बिल्कुल। एकदम। घोर। २. बुरा। निकृष्ट। उ०—नमन नमन बहु अंतरा कबिरा नमन निनान। ये तीनों बहुतै नवै चीता, चोर, कमान।— कबीर (शब्द०)।

निनाया †
संज्ञा पुं० [देश०] खटमल।

निनार
वि० [हिं०] दे० 'निनारा'। उ०—छाड़ेन्हि लोग कुटँब सब कोऊ। भए निनार दुख सुख तजि दोऊ।— जायसी ग्रं० ५६।

निनारा
वि० [सं० निः + निकट, प्रा० निनिअड़, हिं० निनर अथवा हिं०] १. अलग। जुदा। भिन्न। न्यारा। उ०—विप्र असास विनति औधारा। सुआ जीउ नहिं करौं निनारा।—जायसी ग्रं०, पृ० ३२।२. दुर। हटा हुआ।

निनावाँ
संज्ञा पुं० [हिं० नन्हा?] जीभ, मसुड़े, तथा मुँह आदि के भीतर के और भागों में निकलनेवाले महीन लाल वाने जिनमें छरछराहट और पीड़ा होती है।

निनावीं †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नि (= बुरा) + नाम, नाँव] १. बिना नाम की वस्तु। वह वस्तु जिसका नाम लेना अशुभ या बुरा समझा जाता हो। २. चुड़ैल। भुतनी।

निनियाना †
क्रि० अ० [अनु०] गिड़गिड़ाना। निन्हियाना।

निनौना †
क्रि० [हिं० नवना (=झुकना)] नीचे करना। झुकाना। नवना। उ०—नैन निने बहु नेकहुँ कमलनैन नव नाथ। बालानि के मन मोहि ले बेचे मनमथ हाथ।—केशव (शब्द०)।

निनौरा
संज्ञा पुं० [हिं० नानी + औरा (प्रत्य०)] नाना या नानी का घर। वह स्थान जहाँ नाना नानी रहते हों।

निन्नानवे (१)
वि० [सं० नवनवति, प्रा, नवनवइ] नब्बे और नौ। जो संख्या में एक कम सौं हौं।

निन्नानवे (३)
संज्ञा पुं० नब्बे और नौ की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९९।मुहा०—निन्नानवे के फेर में आना या पड़ना = रुपया बढ़ाने की धुन में होना। धन बढ़ाने की चिंता में पड़ना। विशेष—इस मुहावरे कै संबंध में एक कहानी है। कोई मनुष्य बड़ा अपव्ययी था। एक दिन उसके मित्र ने उसे ९९०० रुपए दिए। उसी दिन से वह १००) पुरे करने के फेर में पड़ गया। जब १००) पुरे हो गए १०१) करने की चिंता में हुआ। इस प्रकार वह दिन रात रुपए के फेर में रहने लगा भारी कंजुस हो गया।

निन्नानवे
वि०, संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निन्नानवे'।

निन्यारा पु
वि० [हिं०] दे० 'निनारा'।

निन्हियाना †
क्रि० अ० [अनु० नी नी] गिड़गिड़ाना। दीनता प्रकट करना। आजजी दिखाना।

निपग पु
वि० [सं० नि + पङ्ग] जिसके हाथ पैर टुटे हों या काम न दे सकें। अपाहिज। निकम्मा। उ०—जाकी धन धरती हरी ताहि न लीजै संग। जो चाहै लेतो बनै तो करि डारु निपंग। गिरधर (शब्द०)।

निप
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलपात्र। कलश। २. कदंब। कमद का फूल या पेड़ [को०]।

निपज †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निपजना] उपज।

निपजना पु †
क्रि० अ० [सं० निष्पद्य, (+ ते) प्रा० निपज्जइ] १. उपजना। उत्पन्न होना। उगना। जमना। उ०—(क) राम नाम कर सुमिरन हंसि कर भावै खीज। उलटा सुलटा नीपजै ज्यों खेतम में बीज।—कबीर (शब्द०)। (ख) अमिरित बरसै हीरा निपजै घटा परै टकसार। तहाँ कबीरा पारखी अनुभव उतरे पार।—कबीर (शब्द०)। २. बढ़ना। पुष्ट होना। पकना। उ०—भली बुद्धि तेरे जिय उपजी। ज्यों ज्यों दिनी भई त्यों निपजी।—सूर (शब्द०)। ३. बनना। तैयार होना। उ०—सिख खाँड़ा गुरु मसकला चढ़ै शब्द खरसान। शब्द सहै सम्मुख रहै निपजै शिष्य सुजान।— कबीर (शब्द०)।

निपजी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० निपजना] १. लाभ। मुनाफा। २. उपज। उ०—निश्चय, निधी, मिलाय तत, सतगुरु साहस धीर। निपजी में साझी घना बाँटनहार कबीर।—कबीर (शब्द०)।

निपट
अब्य० [हिं० नि + पट] १. निरा। विशुद्ध। खाली। औऱ कुछ नहीं। केवल। एकमात्र। उ०—निपटाहिं द्विज करि जानेसि मोहीं। मै जस विप्र सुनावउँ तोहीं।—तुलसी (शब्द०)। २. सरसरा। एकदम। बिल्कुल। नितांत। बहुत अधिक। उ०—(क) आसे पासे जो फिरै निपट पिसावै सोय। कीला सों लगा रहै ताको विघ्न न होय।—कबीर (शब्द०)। (ख) भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुप अबुध असंकु।— तुलसी (शब्द०)। (ग) बाम्हन हुत इक निपट भिखारी। सौ पुनि चला चलत व्यापारी।—जायसी (शब्द०)। (घ) मै तेहि बारहि बार मनायो। सिर सों खेल निपट जिउ लायो।—जायसी (श्बद०)।

निपटना
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'निबटना'।

निपटान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] निबटने की क्रिया या भाव। निबटान।

निपटाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'निबटाना'।

निपटारा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबटारा'।

निपटावा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबटावा'।

निपटेरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबटेरा'।

निपठ, निपठन
संज्ञा पुं० [सं०] अध्ययन। पठन [को०]।

निपतन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निपतित] अधःपतन। गिरना। गिराव। पतन।

निपतित
वि० [सं०] गिरा हुआ। पतित। अधःपतित।

निपत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युद्ध की भूमि। २. गीली चिकनी जमीन। ऐसी भूमि जिसपर पैर फिसले।

निपत्र
वि० [सं० निष्पत्र] पत्रहीन। ठुँठा। उ०—बिन गँठ वृक्ष निपत्र ज्यों ठाढ़ ठाढ़ पै सुख।—जायसी (शब्द०)।

निपनिया पु †
वि० [हिं० नि + पानी ] १. पानी रहित। सुखा। उ०—पानी पिवो तो यहां पिवो भाई आगे देस निपनिया।— कबीर श०, भा०१, पृ० २२। २. निर्लज्ज। हया हीन।

निपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं० निष्परिग्रह] दे० 'अपरिग्रह'। उ०— अघ निग्रह संग्रह धर्म कथा, निपरिग्रह साधन को गुन है।—केशव० अमी०, पृ० ११।

निपलाश
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा पेड़ जिसके पत्ते झड़ गए हों [को०]।

निपाँगुर
वि० [हिं० नि + पंगुल] १. लँगड़ा। २. अपाहिज। जिसके हाथ पैर न चलते हों।

निपाक
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत ज्यादा पक जाना [को०]।

निपाख पु
वि० [सं० निष्पक्ष] १. पंख से रहित। बिना पाँख का। २. पक्ष या सहायक विहीन। निष्पक्ष। उ०—गुननि पकरि लै निपाख करि छोरि देहु।—रसखान०, पृ० ५५।

निपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निपठ' [को०]।

निपात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतन। गिरावा। पात। २. अधःपतन। ३. विनाश। उ०—और न कुछ देखै तन श्यामहि ताको करो निपातु। तु जो करै बात सोइ साँची कहा करों तोहि मातु।—सूर (शब्द०)। ४. मृत्यु। क्षय। नाश। उ०—बनमाला पहिरावत श्यामहि बार बार अंकवारि भरी धरि। कंस निपात करहुगे तुमही हम जानी यह बात सही परि।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। ५. शाब्दिकों के मत से वह शब्द जिसके बनने के नियम का पता न चले अर्थात् जो व्याकरण में दिए गए सामान्य नियमों के अनुसार निष्पन्न न होकर अव्युत्पन्न बना हो। ६. दुसरा सिरा। दुसरा भाग (को०)।

निपात पु (२)
वि० [हिं० नि + पात(= पता)] १. बिना पत्तों का। जिसमें पत्ते न हों। उ०—साँठहिं रहैं, साधि तन, निसँठहि आगरि भुख। बिनु गथ बिरिंछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सुख।—जायसी (शब्द०)। २. पंख रहित। बिना पंख का। उ०—जेहि पंखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात। सोई पंखी जाइ जरि, आखिर होइ निपात।—जायसी (शब्द०)।

निपात (३)
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार नहाने का स्थान।

निपातक
संज्ञा पुं० [सं०] पाप। कुकर्म [को०]।

निपातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिराने का कार्य। २. नाश। क्षय या ध्वंस करने का कार्य। ३. मारने का काम। वध करने का कार्य। ४. नीचे गिरना या उड़ते हुए नीचे की और आना (को०)। ५. व्याकरण में शब्द का निपात होना। अव्युत्पन्न रुप से शब्द का निष्पन्न होना (को०)।

निपातना पु
क्रि० स० [हिं० निपातन] १. गिराना। नीचे गिराना। उ०—(क) पिपर पात दुख झरे निपाते। सुख पलहा अपने दुख राते।—जायसी (शब्द०)। (ख) व्याकुल राउ शिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।—तुलसी (शब्द०)। २. नष्ट करना। काटकर गिराना। उ०—कह लंकेस कहत किन बाता। केहि तब नासा कान निपाता।—तुलसी (शब्द०)।३. मारना। मार गिराना। वध करना। उ०—(क) चंदन बास निवारहु तुम कारण बन काटिया। जीवत जिय जनि मारहु मुए ते सबै निपातिया।—कबीर (शब्द०)। (ख) तैसहिं भरतहिं सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।—तुलसी (शब्द०)। (ग) खोजत रह्यों तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावहुँ छाती।—तुलसी (शब्द०)।

निपाती (१)
वि० [सं० निपातिन्] १. गिरानेवाला। फेंकनेवाला। चलानेवाला। उ०—सायक निपाती चतुरंग के सँघाती ऐसे सोहत मदाती अरिघाती उग्रसेन के।—गोपाल (शब्द०)। २. मारनेवाला। घातक।

निपाती (२)
संज्ञा पुं० शिव। महादेव।

निपाती पु (३)
वि० [हिं० नि + पाती] बिना पत्ते का। पत्रहीन। ठुँठा उ०—तेहि दुख भए पलास निपाती। लोहु बुड़ उठी होई राती।—जायसी (शब्द०)।

निपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. तालाब। गड्ढा। खत्ता। २. कुएँ के पास दीवार घेरकर बनाया हुआ कुंड या खोदा हुआ गड्ढा जिसमें पशु पक्षियों आदि के पीने के लिये पानी इकट्ठा रहता है। ३. दुध दुहने का बरतन। ४. कुप। कुआँ (को०)। ५. पी जाना। सब पी जाना (को०)। ६. आश्रयस्थान। आश्रय- स्थल (को०)।

निपाना पु (१)
क्रि० स० [सं० निष्पेद्यते; प्रा० निपज्जइ, हिं० निपजै] उत्पन्न करना। बनाना। उ०—मारवणी भगताविया मारु राग निपाई।—ढोला०, दु० १०९।

निपाना पु † (२)
क्रि० स० [हिं० लिपवाना] लेप कराना। गोबर पानी आदि से लेपकर भुमि को शुद्ध कराना। उ०—सूरे गायरो गोबर मँगाऊँ घर आँगणियो निपाऊँ। कंचन कलस बधाय गुराँने मोतियाँ चोक पुराऊँ।—राम०, धर्म०, पृ० १।

निपीड़क
वि० [सं०च निपीड़क] १. पीड़ा देनेवाल। दुःखदायक। २. मलने दलनेवाला। ३. निचोड़नेवाला। ४. पेरनेवाला।

निपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० निपीडन अथवा निष्पीडन] १. कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने का कार्य। पीड़ित करना। तकलीफ देना। २. मलना दलना। ३. रसाना। पसेव निकालना। ४. पेरना। पेरकर निकालना (जैसे तेल निकाला जाता है)।

निपीड़ना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० निपीड़ना]दे० 'नीपीड़न' [को०]।

निपीड़ना (२)
क्रि० सं० [सं० निपीडन] १. दबाना। मलना दलना। उ०—भुजन भुजा भरि उरोजन उरहि मीड़ि कंठ कंठ सों निपीड़े रोप्यो हिय हियो है।—देव (शब्द०)। २. कष्ट पहुँचाना। पीड़ित करना। ३. पेरना निचोड़ना। गारना।

निपीड़ित
वि० [सं० निपीड़ित] १. दबाया हुआ। २. आक्रांत। ३. जिसे पीड़ा पहुँचाई गई हो। ४. पेरा हुआ। निचोड़ा हुआ। ५. आलिंगित (को०)।

निपीत
वि० [सं०] १. अच्छी तरह पान किया हुआ। २. मग्न डुबा हुआ। ३. पुर्णतः भुला हुआ। शोषित [को०]।

निपीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीने की क्रिया [को०]।

निपुड़ना
क्रि० अ० [सं० निष्पुट, प्रा० निप्पुड] (दाँत) खोलना। उघारना।

निपुण
वि० [सं०] १. दक्ष। कुशल। प्रवोण। चतुर। कार्य करने में पटु। २. पुर्ण। पुरा (को०)। ३. ठीक (को०)।

निपुणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षता। कुशलता।

निपुणाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० निपुण + आई (प्रत्य०)] निपुणता। दक्षता। कुशलता। चतुराई।

निपुत्री
वि० [हिं० नि + पुत्री] निपुता। निःसंतान। उ०— (क) वो निपुत्री को घर में क्या सुख कि जिस बिना वह सदा अंधकार रहता है।—सदल मिश्र (शब्द०)। (ख) जो नर ब्राह्मण हत्या कीन्हा। जन्म निपुत्री तेहि जग चीन्हा।— विश्राम (शब्द०)।

निपुन पु
वि० [सं० निपुण] दे० 'निपुण'।

निपुनई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निपुण + ई (प्रत्य०)] निपुणता।

निपुनता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'निपुणता'। उ०—लघु लाग विधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।—मानस, १। ९४।

निपुनाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'निपुणाई'। उ०—पुर शोभा अवलोक सुहाई। लागई लघु बिरंचि निपुनाई।—तुलसी (शब्द०)।

निपूत पु †
वि० [हिं० नि + पुत] [वि० स्त्री० निपूती] अपुत्र। पुत्रहीन। उ०—कीनो जिन रावण निपूतो यमहु ते यम कुते खेत मुँड़ आजहु ते न सिरात है।—हनुमान (शब्द०)।

निपूता
वि० [सं० निष्पुत्र, प्रा० निवुत्त] [वि० स्त्री० निपुती] जिसे पुत्र न हो। अपुत्र।

निपेटी पु
वि० स्त्री० [हिं०] भुक्खड़। भुखी। आतुर। उ०— ओछी बड़ी इतराति लगी मुँह नेकौ आघाति न आँखि निपेटी।—घनानंद, पृ० १३।

निपैद पु
संज्ञा पुं० [फा़० नापैद] विलय। नाश। उ०—पैदा करत निपैद करत हौं।—जग० बानी, पृ० ३५।

निपोटा पु
वि० [हिं० नि + पोटा (= कुवत)]। शक्तिहीन। असंपन्न। उ०—हे करतार हों तोसों कहों कबहुँ नहिं दिजीएकाहु के टोटो। और लिखो जनि काहु के भाग में मित्र के काज महीप निपोटो।—राम० धर्म०, पृ० २६८।

निपोड़ना †
क्रि० स० [सं० निष्पुट, या निष्पोडन, प्रा० निप्पुड + हिं० निपोरना] खोलना। उघारना। (दाँत के लेये)।? मुहा०—दाँत निपोड़ना = व्यर्थ हँसना।

निफन पु (१)
वि० [सं० निप्पन्न, प्रा० निष्फन्न] पुर्ण। पुरा। संपुर्ण।

निफन (२)
क्रि० वि० पूर्ण रुप से। अर्छी तरह। उ०—जोते बिनु बोएँ बिनु निफन निराए बिनु सुकृत सुखेत सुख सालि फुलि फरिगे। मुनिहुँ मनोरथ को अगम अलभ्य लाभ सुगम सो राम लघु लोगनि कौं करिगे।—तुलसी (शब्द०)।

निफरना पु (१)
क्रि० अ० [हिं० निफारना] चुभकर या घँसकर इस पार से उस पार होना। छिदकर आरपार होना। उ०— घायल सों घुमि रह्यो खड़गी घमंड भरो नेजा नोक लागी शीश कैकयी के नंद की। निफरि धँसी सो भुमि गौंडा गिरयो घुमि घूमि खासी रघुराज वाणी कढ़ी रघुनंद की।—रघुराज (शब्द०)।

निफरना पु (२)
क्रि० अ० [सं० नि + स्फुट या/?/निष्फाल] खुलना। उदघाटित होना। स्पष्ट होना। साफ होना। प्रकट होना।

निफल पु
वि० [सं० निफ्ल, प्रा० निष्फल] निरर्थक। निष्फल। व्यर्थ। उ०—(क) नाचै पंडुक मोर परेवा। निफल न जाय काहि की सेवा।—जायसी (शब्द)। (ख) निफल होहिं रावणसर कैसे। खल के सकल मनोरथ जैसे।—तुलसी (शब्द०)। (घ) ज्यौं तिय सुरत समय सितकारा। निफल जाहिं जौं बधिर भतारा।—नंद०, ग्रं०, पृ० ११२।

निफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष्मती लता।

निफाक
संज्ञा पुं० [अ० निफा़क़] १. विरोध। विद्रोह। वैर। २. फुट। भेद। बिगाड़। अनबन। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—होना।

निफारना (१)
क्रि० स० [हिं० नि + फारना] १. इस पार से उस पार तक छेद करना। आर पार करना। बेधना। २. इस पार से उस पार निकालना।

निफारना पु (२)
क्रि० स० [सं० नि + स्फुट] खोलना। उदघाटित करना। प्रकट करना। स्पष्ट करना। साफ करना।

निफालन
संज्ञा पुं० [सं०] दृष्टि। अवलोकन।

निफोट
वि० [सं० नि + स्फुट] स्पष्ट। साफ साफ। उ०— सुन ले निफोट ओट वज्र की न वचै कोऊ लागै भेद चोट सावधान को अचानक।—हनुमान (शब्द०)।

निफोटक पु
वि० [हिं० निफोट] स्पष्ट। साफ। कै मिलि कर मेरी कह्यो कै कर मेरो घात। पाछे बचन सँभारियो कहों निफोटक बात।—हनुमान (शब्द०)।

निबंध
संज्ञा पुं० [सं० निबन्ध] १. बंधन। २. वह व्याख्या जिसमें अनेक मतों का संग्रह हो। ३. लिखित प्रबंध। लेख। रचनात्मक गद्य साहित्य की एक विधा। ४. गीत। ५. नीम का पेड़। ६. आनाह रोग। पेशाब बंद होने की बीमारी। करक। ७. वह वस्तु जिसे किसी को देने का वाद कर दिया गया हो। ८. कोटिल्य के अनुसार सरकारी आज्ञा। ९. प्रतिबंध। रोक (को०)। १०. संलग्न होना। संलग्नता (को०)। ११. बँधन या जोड़ने का कार्य (को०)। १२. कारण (को०)। १३. आधार। नींव (को०)।

निबंधन
संज्ञा पुं० [सं० निबन्धन] [वि० निबद्ध] १. बंधन। उ०—तनु कंबु कंठ त्रिरेख राजति रज्जु सी उनमानिए। अविनीत इंद्रिय निग्रही तिनके निबंधन जानिए।—केशव (शब्द०)। २. व्यवस्था। नियम। बंधेज्ञ। ३. कर्तब्य। बंधन। ४. हेतु। कारण। ५. गाँठ। ६. वीणा या सितार की खूँटी। उपनाह। कान। ७. आश्रय। आधार (को०)। यौ०—निबंधन पुस्तक = रजिस्टर।

निबंधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० निबन्धनी] १. बंधन। २. बेड़ी।

निबंधा
संज्ञा पुं० [सं० निबन्धृ] १. लेखक। २. बाँधनेवाला [को०]।

निबंधी
वि० [सं० निबन्धिन्] १. निबंध करनेवाला। बाँधनेवाला। २. संलग्न। सँबद्ध। ३. कारण रुप। आधार- स्वरुप [को०]।

निब
संज्ञा स्त्री० [अं०] लोहे की चद्दर की बनी हुई चोंच जो अँगरेजी कलमों की नोक का काम देती है। जीभी। (यह ऊपर से खोंसी जाती है)।

निबकौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नीब, नीम + कौड़ी] १. नीम का फल। निबौली। निबौरी। २. नीम का बीज।

निबटना
क्रि० अ० [सं० निवर्त्तन, प्रा० निवट्टना] [संज्ञा निबटेरा, निबटना] १. निवृत्त होना। छुट्टी पाना। फुरसत पाना। फारिग होना। खाली होना। जैसे, सब कामों से निबटना। २. समाप्त होना। पुरा होना। किए जाने को बाकी न रहना। भुगतना। जैसे, काम निवटना। ३. निर्णित होना। तै होना। अनिश्चित दशा में न रहा जाना। जैसे, झगड़ा निबटना। ४. चुकना। खतम होना। न रह जाना। उ०—हे मुँदरी तेरो सुकृत मेरी ही सो हीन। फल सों जान्यो जात है मै निरनै कर लीन। अधिक मनोहर असन नख उन अँगुरिन की पाय। गिरी फेर तु आय जब पुन्न गयो निबटाय।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। †५. शौच आदि से निवृत्त होना।

निबटान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] निबटने की क्रिया या भाव।

निबटाना
क्रि० स० [हिं० निबटना] १. पुरा करना। समाप्त करना। खतम करना। करने को बाकी न छोड़ना जैसे, काम निबटाना। २. भुगताना। चुकाना। बेवाक करना। जैसे, कर्जा निबटाना। ३. तै करना। निर्णित करना। झंझट न रखना। जैसे, झगड़ा निबटाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना।

निबटारा, निबटाव
संज्ञा स्त्री० [हिं० निबटना] १. निबटने की भावना या क्रिया। निबटेरा। २. झगड़े का फैसला। निर्णय।

निबटेरा
संज्ञा पुं० [हिं० निबटना] १. निबटने का भाव या क्रिया। छुट्टी। २. समाप्ति। ३. झगड़े कर फैसला। निश्चय। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निबड़ पु
वि० [सं० निविड] घना।

निबड़ना पु
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'निबटना'।

निबड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा घड़ा।

निबद्ध (१)
वि० [सं०] १. बँधा हुआ। २. निरुद्ध। रुका हुआ। ३. ग्रथित। गुथा हुआ। ४. बैठाया हुआ। जड़ा हुआ। निवेशित। ५. लिखा हुआ। प्रणीत। रचित (को०)। ६. आवृत (को०)।

निबद्ध (२)
संज्ञा पुं० वह गीत जिसे गाते समय अक्षर, ताल, मान, गमक, रस आदि के नियमों का विशेष ध्यान रखा जाय।

निबर
वि० [हिं०]दे० 'निर्बल'।

निबरक पु
वि० [हिं० निबर + क (प्रत्य०)] निर्बल। निरीह। उ०—निबरक सुत ल्यौ कोरा। राम मोहि मारि कलि विष बोरा।—कबीर ग्रं०, पृ० २१३।

निबरना
क्रि० अ० [सं० निवृत्त, प्रा, निविड्ड] १. बँधी, फँसी या लगी वस्तु का अलग होना। छुटना। २. मुक्त होना उद्धार पाना। बच निकलना। पार पाना। उ०—(क) पाप के उराहनो, उराहनो न दीजो मोहि कालिकाला कासीगाथ कहे निबरत हैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कब लौ, कहौ पुजि निबरैगे बचिहैं बैर हमारे?—सूर (शब्द०)। (ग) कैसे निबरै निबल जन करि सबलन सों बैर।—सभाविलास (शब्द०)। ३. छुट्टी पाना। अवकाश पाना। फुरसत पाना। खाली होना। निवृत्त होना। उ०—हरि छबि जल जब ते परे तब तें छिन निबरै न। भरत ढरत, बूड़त, तरत रहत घरी लौं नैन।—बिहारी (शब्द०)। ४. (काम) पुरा होना। समाप्त होना। भुगतना। सपरना। निबटना। चुकना। उ०—सूरदास विनती कहा बिनवै दोषनि देह भरी। आपन विरद सँभारौगे तो यामें सब निबरो।— सूर (शब्द०)। (ख) चितव्त जितवत हित हिए किए तिरीछे नैन। भींजे तन दोऊ कँपै क्यों हुँ जप निबरै न।—बिहारी (शब्द०)। ५. निर्णय होना। तै होना। फैसला होना। ६. एक में मिली जुली वस्तुओं का अलग होना। बिलग होना। उ०—नैना भए पराए चेरे। नंदलाल के रंग गए रंगि अब नाहिं बस मेरे। जद्यपि जतन किए जुगवति हौं श्यामल शोभा घेरे। तउ मिलि गए दूध पानी ज्यों निबरत नाहि निबेरे।—सूर (शब्द०)। ७. उलझन दूर होना। सुलझना। फँसाव या अड़चन दुर होना। संयो० क्रि०—जाना। ५. जाता रहना। दुर होना। न रह जाना। खतम होना। उ०—अब नीके कै ससुझि परी। जिन लगि हती बहुत उर आसा सोऊ बात निबरी।—सूर (शब्द०)। ९. खत्म होना। मिट जाना। खेत रहना। समाप्त होना। उ०—धरी एक भारत भा, भा असवारन मेल। जुझि कुवर निबरे गोरा रहा अकेल।—जायसी ग्रं०, पृ० २९१।

निबर्हण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मारण। नष्ट करने की क्रिया या भाव।

निबर्हण (२)
वि० विनाशक। नष्टकारक।

निबल पु
वि० [सं० निर्बल] निर्बल। दुर्बल। उ०—कैसे निबहैं निबल जन करि सबलन सों बैर।—सभाविलास (शब्द०)।

निबलई, निबलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निबल] निर्बलता।

नबह पु
संज्ञा पुं० [सं० निवह] समुह। झुंड।दे० 'निवह'। उ०—मनहु उडगन निबह आए मिलत तम तजि द्वेषु।— तुलसी (शब्द०)।

निबहना
क्रि० अ० [हिं० निबाहना] १. पार पाना। निकलना। बचना। छुट्टी पाना। छुटकारा पाना। उ०—(क) मेरे हठ क्यो निबहन पैहो? अब तो रोकि सबनि को राख्यों कैसे कै तुम जैहौ?—सूर (शब्द०)। (ग) कैसे निबहैं निबल जन करि सबलन सों बैर।—सभाविलास (शब्द०)। २. निर्वाह होना। बराबर चला चलना। किसी स्थिति, संबंध आदि का लगातार बना रहना। पालन या रक्षा होना। जैसे, साथ निबहना, मित्रता, निबहना, प्रीति निबहना। उ०—(क) महमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकहि चित्त। यहि जग साथ जो निबहा ओहि जग बिछुरहि कित्त।—जायसी (शब्द०)। (ख) काल बिलोकि कहै तुलसी मन में प्रभु को परतीति अघाई। जन्म जहाँ तहाँ रावरे सों निबहैं भरि देह सनेह सगाई।—तुलसी (शब्द०)। ३. बराबर होता चलना। पूरा होना। सपरना। जैसे,—यहाँ का काम तुससे नहीं निबहेगा। ४. किसी बात के अनुसार निरंतर व्यवहार होना। पालन होना। पुरा होना। चरितार्थ होना। जैसे,—बचन निबहना, प्रतिज्ञा निबहना। संयो० क्रि०—जाना।

निबहुर †
संज्ञा पुं० [हिं० नि + बहुरना] वह स्थान जहाँ से जाकर कोई न लौटे। यमद्वार।

निबहुरा †
वि० [हिं० नि + बहुरना] जो चला जाय ओर न लौटे। सदा के लिये चला जानेवाला। (गाली)।

निबाज पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० नमाज] दे० 'नमाज'। उ०—बाँग निबाज न होय जँह, स्त्रवन कथा हरि बेस।—ह० रासो, पृ० ५९।

निबाह
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाह] १. निबाहने की क्रिया या भाव। रहन। रहायस। गुजारा। कालक्षेप। किसी स्थिति के बीच जीवन व्यतीत करने का कार्य। जैसे,—वहाँ तुम्हारा निबाह नहीं हो सकता। उ०—(क) उघरहिं अंत न होय निबाहु।— तुलसी (शब्द०)। (ख) लोक लाहु परलोक निबाहु।— तुलसी (शब्द०)। २. लगातार साधन। (किसी बात को) चलाए चलने या जारी रखने का कार्य। किसी बात के अनुसार निरंतर व्यवहार। संबंध या परंपरा की रक्षा। जैसे,—(क) प्रीति का निबाह, दोस्ती का निबाह। (ख) काम तो मैने अपने ऊपर ले लिया पर निबाह तुम्हारे हाथ है। ३. चरितार्थ करने का कार्य। पुरा करने का कार्य। पालन। साधन और पुर्ति। जैसे, प्रतिज्ञा का निबाह। ४. छुटकारे का ढंग। बचाव का रास्ता। जैसे,—बड़ी अड़चन में फँसे हैं, निबाह नहीं दिखाई देता।

निवाहक
वि० [सं० निर्वाहक] निबाह करनेवाला।

निबाहना
क्रि० स० [सं० निर्वाहन] १. निर्वाह करना। (किसी बात को) बराबर चलाए चलना। जारी रखना। बनाए रखना। संबंध या परंपार की रक्षा करना। जैसे, नाता निबाहना, प्रीति निबाहना, मित्रता निबाहना, धर्म निबाहना। उ०—(क) पहिले सुख नेहहि जब जोरा। पुनि होय कठिन निबाहत ओरा।—जायसी (शब्द०)। (ख) निबाहो बाँह गहे की लाज।—सूर (शब्द०)। २. पुरा करना। पालन करना। चररितार्थ करना। किसी बात के अनुसार निरंतर व्यवहार करना। जैसे, वचन निबाहना। उ०—यह परतिज्ञा जो न निबाहौं। तो तनु अपनो पावक दाहौ।—सूर (शब्द०)। ३. निरंतर साधन करना। बराबर करते जाना। सपराना। जैसे,—अभी काम न छोड़े थोड़े दिन ओर निबाह दो। संयो० क्रि०—देना।

निबिड़
वि० [सं० निविड]दे० 'निविड़'।

निबुआ पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'नीबु'।

निबुकना पु †
क्रि० अ० [सं० निर्मुक्त, प्रा० निम्मुत्त, या सं० निर्भुक्त] १. छुटकारा पाना। छुटना। बंधन से निकलना। उ०—(क) निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारी। भई सभीत निसाचर नारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सुग्रीवहु कै मुरछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती।—तुलसी (शब्द०)। (ग) दीठि निसेनी चढ़ि चल्यो ललचि सुचित मुख गोर। चिबुक गड़ारे खेत मै निबुकि गिरयो चित चोर।—श्रृ० सत०, (शब्द०)।२. बंधन आदि का खिसकना। ३. समाप्त होना। खत्म होना। संपन्न होना। संयो० क्रि०—जाना।

निबेड़ना पु
क्रि० स० [सं० निवृत्त, प्रा० निविड्ड?] १. (बंधन आदि) छुड़ाना। उन्मुक्त करना। बँधो, फँसी, या लगी वस्तु को अलग करना। २. परस्पर मिली हुई वस्तुओं की अलग अलग करना। बिलगाना। छाँटना। चुनना २. उलझन दुर करना। सुलझाना। लगाव फँसाव दुर करना।४. निबटाना। निर्णय करना। तै करना। फैसला करना। ५. छोड़ना। हटाना। दुर करना। अलग करना। ६. पुरा करना। निबटाना। सपराना। भुगताना।

निबेड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० निबेड़ना] १. छुटकारा। मुक्ति। २. बचाव। उद्धार। ३. एक में मिली जुली वस्तुओं के अलग होने की क्रिया या भाव। बिलगाव। छाँट। चुनाव। ४. सुलझाने की क्रिया या भाव। उलझन या फँसाव दुर होना। ५. त्याग। ६. निबटेरा। भुगतान। समाप्ति। चुकती। ७. निर्णय। फैसला।

निबेरना पु
क्रि० सं० [सं० निवृत्ति, प्रा० निविड्ड अथवा हिं०] १. (बंधन आदि) छुड़ाना। उन्मुक्ति करना। बँधी, फँसी या लगी वस्तु को अलग करना। उ०—औरन की तोहिं का परी अपनी आप निबरे।—कबीर (शब्द०)। २. एक में मिलो हुई वस्तुओं को अलग अलग करना। बिलगाना। छाँटना। चुनना। उ०—(क) नैना भए पराए चेरे। नंदलाल के रंग गए रँगि अब नाहिं बस मेरे। यद्यपि जतन किए जुगवति हों, श्यामल शोभा घेरे। तउ मिलि गए दुध पानी ज्यों निबरत नाहिं निबेरे।—सूर (शब्द०)। (ख) आगे भए हनुमान पाछे नील जांबवान लंका के निसंक सूर मारे हैं निबोरि कै।— हनुमान (शब्द०)। ३. उलझन दुर करना। सुलझाना। फँसाव या अड़चन दूर करना। ४. निर्णय करना। तै करना। फैसला करना। उ०—(क) जेहि कौतुक बक स्वान को प्रभु न्याव निबेरो। तेहि कौतुक कहिए कृपालु तुलसी है मेरो।— तुलसी (शब्द०)। (ख) प्रण करि के झुठो करि डारत सकल धरम तेहि केरो। जात रसातल जनु ते तुरतहि वेद पुरान निबेरो।—रघुराज (शब्द०)। ५. छोड़ना। त्यागना। तजना। उ०—मारी मरै कुसंग की ज्यो केरे ठिग बेर। वह हालै वह जीरह साकट संग निबेर।—कबीर (शब्द०)। ६. दुर करना। हटाना। मिटाना। उ०— मिटै न विपति भजे बिनु रघुपति श्रुति संदेह निबेरो।— तुलसी (शब्द०)। ७. (काम) पूरा करना। निबटाना। सपराना। भुगताना। उ०—प्रमुदित मुनिहि भाँवरी फेरी। नेग सहित सब रीति निबेरी।—तुलसी (शब्द०)।

निबेरा
संज्ञा पुं० [हिं० निबेरना] १. छुटकारा। मुक्ति। उद्धार। बचाव। उ०—व्याकुल अति भवजाल बीच परि प्रभु के हाथ निबेरो।—सूर (शब्द०)। २. मिली जुली वस्तुओं के अलग अलग होने कि क्रिया या भाव। बिलगाव। छाँट। चुनाव। ३. सुलझने की क्रिया या भाव। उलझन या फँसाव का दुर होना। ४. निर्णय। फैसला। निबटेरा। उ०—(क) जैसे बरत भवत तजि भजिए तैसहि गए फेरि नहीं हेरयो। सूर श्याम रस रसे रसीले पाको करे निबेरो।—सूर (शब्द०)। (ख) ब्राह्मण नृपति युधिष्ठिर केरो। जानै सब गुन ज्ञान निबेरो।—सबल (शब्द०)। ५. (काम का) निबटेरा। भुगतान। समाप्ति। पुर्ति।

निबेसित पु
वि० [सं० निवेशित]दे० 'निवेशित'।

निबेहना पु
क्रि० स० [हिं०]दे० 'निबेरना'।

निबोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. समझना। सीखना। जानना। २. बतलाना। समझाना [को०]।

निबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] समझने या बतलाने की क्रिया। निबोध [को०]।

निबोली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नीम]दे० 'निबौली'। उ०—पाप गुलीचा धरम निबोली देखि देखि फल चीख रे।—रे० बानी, पृ० ४०।

निबौरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निमोरी] दे० 'निबौली'। उ०— (क) दाख छाँड़ि कै तजि कटुक निबोरी को अपने मुख खैहे। गुणनिधान तजि सूर साँवरे को गुणहीन निबैहैं।—सूर (शब्द०)। (ख) तो रस राच्यो आन बस कह्यो कुटिल मति कूर। जीभ निबौरी क्यों लगै बोरी चाख खजूर।—बिहारी (शब्द०)।

निबौली
संज्ञा स्त्री० [सं० निम्ब + फल या वर्त्तुल] निबकौरी। नीम का फल।

निभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश। प्रभा। चमक दमक। २. छल कपट (को०)। ३. ब्याज। बहाना (को०)। ४. प्राकटय। अभिव्यक्ति (को०)।

निभ (२)
वि० तुल्य। समान। उ०—छतज नयन उर बाहु बिसाल। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला।—तुलसी (शब्द०)।

निभना
क्रि० अ० [हिं० निबहना] १. पार पाना। निकलना। बचना। छुट्टी पाना। छुटकारा पाना। २. निर्वाह होना। बराबर चला चलना। जारी रहना। लगातार बना रहना। संबंध, परंपरा आदि की रक्षा होना। जैसे, (क) साथ निभना, प्रीति निभना, मित्रता निभना, नाता निभना। (ख) इनकी उनकी मित्रता कैसे निर्भगी? ३. किसी स्थिति के अनुकुल जीवन व्यतीत होना। गुजारा होना। रहायस होना। जैसे,—(क) तुम वहाँ निभ नहीं सकते। (ख) जैसे इतने दिन निभा वैसे ही थोड़े दिन और सही। ४. बराबर होता चलना। पुरा होना। सपरना। भुगतना। जैसे,—जहाँ का काम तुमसे नहीं निभेगा। ५. किसी बात के अनुसार निरंतर व्यवहार होना। पालन होना। पुरा होना। चरितार्थ होना। जैसे, वचन निभना, प्रतिज्ञा निभना। दे० 'निबहना'। ६. समाप्त होना। बुझना। उ०—चलते पथ, चरण वितत, दीप निभा, हवा लगी।—बेला, पृ० ५०। संयो० क्रि०—जाना।

निभरम पु (१)
वि० [सं० निर्भ्रम] भ्रमरहित। जिसे या जिसमें किसी प्रकार की शंका न हो। जिसे या जिसमें कोई खटका न हो।

निभरम पु (२)
क्रि० वि० निःशक। बेखटके। बेधड़क।

निभरमा पु
वि० [सं० निर्भ्रम] जिसका परदा ढका न हो। जिसकी कलई खुल गई हो। जिसकी थाप या मर्यादा न रह गई हो। जिसका विश्वास उठ गया हो।

निभरमी पु
वि० [हिं० निभरम + ई] दे० 'निभरम१'। उ०— हँडवाई गाड़ी क हुँ और। नगदी माल निभरमी ठौर।— अर्ध०, पृ० २४।

निभरोस †
वि० [हिं० नि + भरोसा] [संज्ञा निभरोसा] जिसे भरोसा न हो। निराश। हताश।

निभरोसी पु †
वि० [हिं० न (= नही + भरोसा)] १. जिसे कोई भरोसा न रह गया हो। निराश। हताश। २. जिसे किसी का आसरा भरोसा न हो। निराश्रय। निराधार। बिना सहारे का। हीन। उ०—कीन्हेसि कोई निभरोसी कीन्हेसि, कोई बरियार। छारहिं ते सब कीन्हेसि पुनि कीन्हेसि सब छार।—जायसी (शब्द०)।

निभाउ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबाह'।

निभागा पु
वि० [हिं० नि + भाग, सं० भाग्य] अभागा। बदकिसम्त।

निभाना
क्रि० स० [हिं० निबाहना] १. निर्वाह करना। (किसी बात को) बारबार चलाए चलना। बनाए और जारी रखना। संबंध या परंपरा रक्षित रखना। जैसे, नाता निभाना, प्रीति निभाना, धर्म निभाना। २. किसी बात के अनुसार निरंतर व्यवहार करना। चरितार्थ करवा। पुरा करना। पालन करना। जैसे, प्रतिज्ञा निभाना, वचन, निभाना। उ०—सारंग बचन कह्यो करि हरि को सारंग वचन निभावति।—सूर (शब्द०)। ३. निरंतर साधन करना। बराबर करने जाना। सपराना। चलाना। भुगताना। जैसे, अभी काम न छोड़ो, थोड़े दिन और निभा दो। संयो० क्रि०—देना।

निभार पु †
संज्ञा पुं० [सं० निभालन] देखना। दर्शन। उ०— जमुन तट भए दिअ पसार। राधे गेनदे खेलन देखि निभार।— विद्यापति, पृ० १२६।

निभालन
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शन। प्रत्यक्षीकरण [को०]।

निभाव पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाह]दे० 'निवाह'। उ०—मृतक छोह निभाव उर धारो। कबीर सा०, पृ० ९।

निभाह पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाह] दे० 'निबाह'। उ०—मेछाँ राह निभाह कज, दिल्ली ओरँग साह। ज्युँ सामंद्र म्रजाद सूँ यूँ रहियौ खम दाह।—रा० रू०, पृ० १७।

निभूत
वि० [सं०] भुत। व्यतीत। बीता हुआ।

निभृत (१)
वि० [सं०] १. धरा हुआ। रखा हुआ। घृत। २. निश्चल। अटल। ३. गुप्त। छिपा हुआ। ४. बंद किया हुआ। ५. निश्चित। स्थिर। ६. भ्रम। विनीत। ७. शांत। अनुद्विग्न। धीर। ८. निर्जन। एकांत। सुना। उ०—दो काठों की संधि बीच उस निभृत गुफा में अपने। अग्निशिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने।—कामायनी, पृ० १३६। ९. भरा हुआ। पूर्ण। युक्त। (समास में प्रयुक्त)। १०. अस्त होने के निकट (सूर्य या चंद्रमा) ११. घीर। धैर्यशाली (को०)। १२. आवृत। आच्छादित (को०)। १३ धीमा। मंद। (को०)। यौ०—निभृतात्मा = अविचल। धीर।

निभृत (२)
संज्ञा पुं० नभ्रता। विनीतता [को०]।

निभै पु
वि० [सं० निर्भय]दे० 'निर्भय'। उ०—करनहार दुरनेस खींवक्रम, तेजल देवै आद निभै तन।—रा० रु०, पृ० ३१२।

निभ्रांत पु
वि० [सं० निर्भ्रान्त]दे० 'निर्भ्रात'।

निमंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० निमन्त्रण] [वि० निमंत्रण] १. किसी कार्य के लिये नियत समय पर आने के लिये ऐसा अनुरोध जिसका अकारण पालन न करने से दोष का भागी होना पड़ता हैं। बुलावा। आह्वान। क्रि० प्र०—करना।—देना। २. भोजन आदि के लिये नियत समय पर आने का अनुरोध। खाने का बुलावा। न्यौता। क्रि० प्र०—करना। देना। विशेष—'आमंत्रण' और 'निमत्रण' में यह भेद है कि निमंत्रण का पालन न करने पर दोष का भागी होना पड़ता है।

निमंत्रणपत्र
संज्ञा पुं० [सं० निमन्त्रणपत्र] वह पत्र जिसके द्वारा किसी पुरुष से भोज, उत्सव आदि में सम्मिलित होने के लिये अनुरोध किया गया हो।

निमंत्रना पु
क्रि० स० [सं० निमन्त्रण] न्योता देना। उ०— पुनि पुनि नृपहिं नमंत्रेउ मुनिवर। मान्यो नृप तब शासन मुनि कर।—रघुराज (शब्द०)।

निमंत्रित
वि० [सं० निमंत्रित] जो निमन्त्रित किया गया हो। जिसे न्योता दिया गया हो। आहुत। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निम
संज्ञा पुं० [सं०] शलाका। शंकु। कील।

निमक
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नमक'। यौ०—निमकहराम पु = दे० 'नमकहराम'। निमकहरामी पु = (१) दे० 'नमकहरामी'। (२) दे० 'नमकहराम'। उ०—चाकर रहै हजूर होइ ना निमकहरामी।—पलटू०, पृ० ४५।

निमकी
संज्ञा स्त्री० [फा़० नमक] १. नीबु का अचार। २. घी में तली हुई मैदे की मोयनदार नमकीन टिकिया।

निमकौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नीम] दे० 'निबकौरी', निबौली'।

निमग्न
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निमग्ना] १. डुबा हुआ। मग्न। २. तन्मय। क्रि० प्र०—करना।—होना।

निमछड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० नि + मच्छड़] ऐसा समय जिसमें कोई काम न हो। अवकाश। फुरसत। छुट्टी।

निमज्जक
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र आदि जलाशयों में डुब्बी लगानेवाला। गोते मारकर समुद्र आदि के नीचे की चीजों को निकालकर जीविका करनेवाला।

निमज्जथु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोता लगाना। डुबने की क्रिया। २. सोना। शयन करना [को०]।

निमज्जन
संज्ञा पुं० [सं०] डुबकर किया जानेवाला स्नान। अवगाहन। उ०—कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा।—मानस, २। ३११।

निमज्जना पु
क्रि० अ० [सं० निमज्जन] डुबना। गोता लगाना। अवगाहन करना। उ०—(क) सोक समुद्र निमज्जत काढ़ि कपीस कियो जग जानत जैसो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) देखि मिटै अपराध अगाध निमज्जत साधु समाज भलो रे।—तुलसी (शब्द०)।

निमज्जित
वि० [सं०] १. डुबा हुई। मग्न। निमग्न। २. स्नान। नहाया हुआ।

निमटना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निबटना'।

निमटाना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'निबटाना'।

निमटेरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबटेरा'।

निमडना पु
क्रि० अ० [सं० निवृत्त] चुकना। समाप्त होना। उ०—औघादार बोल्यो आँणि पैसो तो निमडि गो।— शिखर०, पृ० ४८।

निमता पु
वि० [हिं० नि + माँता] जो माँता न हो। जो उन्मत्त न उ०—माँते निमते गरजहि बाँधे। निसि दिन रहैँ महावत काँधे।—जायसी (शब्द०)।

निमद
संज्ञा पुं० [सं०] मंद स्वर में किया गया उच्चारण जो स्पष्ट हो [को०]।

निमन पु
वि० [हिं०] समान।—जमीन है जो गाजर की जड़ के निमन। व पानी में ज्यों के कँवल के निमन।— दक्खिनी०, पृ० ३३७।

निमय
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तुविनिमय। पदार्थोँ का अदल बदल। विशेष—गौतम धर्मसूत्र में लिखा है कि ब्राह्मण गौ, तिल, दूध, दही, फल, मूल, फूल, ओषधि, मधु, मांस, वस्त्र, सन, रेशम आदि पदार्थो का मुद्रा लेकर विक्रय न करें। यदि उनको ऐसा करने की जरूरत ही पड़े तो वे विनिमय कर लें। अन्नादि का अन्नादि से और पशुओं का पशुओँ से ही बदला किया जाय। नमक तथा पक्वान्न के लिये यह नियम नहों हैं। कच्चा पदार्थ देकर पक्वान्न लिया जाय। तिलों क्रय विक्रय में धान्य के सद्दश ही नियम हैं।

निमरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जो मध्यभारत में होती है। बरही। बँगई।

निमष पु
संज्ञा पुं० [सं० निमिष] दे० 'निमिष'। उ०—निमष एक न्यारा तन मन मंझि समाइ।—दादू०, पृ० ३९।

निमस्कार †
संज्ञा पुं० [सं० नमस्कार] दे० 'नमस्कार'। उ०— ग्रंथकरता गुरु कू भी इष्ट देवता सु अभेद करिके, ग्रंथ की विघनता दूरि करिबे के हेत बहुरि निमस्कार करत है।— पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ४८३।

निमाज
संज्ञा स्त्री० [फा़० नमाज] मुसलमानों के मत के अनुसार ईश्वर की आराधना जो दिनरात में पाँच बार की जाती है। इसलाम मत के अनुसार ईश्वरप्रार्थना। क्रि० प्र०—गुजारना।—पढ़ना।

निमाजगह पु †
संज्ञा पुं० [फा़० नमाजगाह] नमाज पढ़ने की जगह। नमाजगह। उ०—दरिगह, वरिगह निमाजगह। खोआरगह खोरम।—किर्ति०, पृ० ४०।

निमाजबंद
संज्ञा पुं० [फा़० नमाजबंद] कुश्ती का एक पेच जिसमें जोड़ के दाहिनी ओर बैठकर उसकी दहिनी कलाई को अपने दहिने हाथ से खीचा जाता है और फिर अपना बायाँ पैर उसकी पीठ की ओर से लाकर उसकी दहिनी भुजा को इस प्रकार बाँध लिया जाता है कि वह चूतड़ के बीचोबीच आ जाती है। इसके बाद उसके दहिने अँगूठे को अपने दहिने हाथ से खींचते हुए बाँए हाथ से उसकी जाँघिया पकड़कर उसे उलटकर चित कर देते हैँ। विशेष—इस पेच के विषय में प्रसिद्ब है कि इसके आविष्कर्त्ता इसलामी मल्लविद्या के आचार्य अली साहब है। एक बार किसी जंगल में एक दैत्य से उन्हें मल्लयुद्ब करना पड़ा। उसे नीचे तो वे ले आए, पर चित करने के लिये समय न था,क्योंकि नमाज का समय बीत रहा था। इसलिये उन्होंने उसे इस प्रकार बाँधा कि उसे उसी स्थिति में रखते हुए नमाज पढ़ सकें। जब वे खड़े होते तब उसे भी खड़ा होना और जब बैठते या झुकते तब बैठना या झुकना पड़ता। यही इसका निमाजबंद नाम पड़ने का कारण है।

निमाजी
वि० [फा़० नमाज] १. जो नियमपूर्वक नमाज पढ़ता हो। २. दीनदार। धार्मीक (मुसलमान)।

निमाणी पु †
वि० [हिं० निमानी] मान से रहित। सरल चित्तवाला। विनीत। दे० 'निमाना'। उ०—सहजे रहे निमाणी सूता। नानक कहै सोई अवधूता।—प्राण०, पृ० १०१।

निमान पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निम्न = गड्ढा (वेद); या निपान १. नीचा स्थान। गड्ढा। २. जलाशय। उ०—खोजहुँ दंडक जनस्थाना। सैल सिखर सर सरित निमाना।—(शब्द०)।

निमान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. माप। २. कीमत। मूल्य [को०]।

निमाना
वि० [सं० निम्न] [वि० स्त्री० निमानी] १. नीचा। ढालुआँ। नीचे की ओर गया हुआ। उ०—फिरत न पाछे नीर ज्यों भूमि। निमानी जाय। सो गति मो मन की भई कोजै कोन उपाय।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०)। २. नम्र। विनीत। सरल स्वभाव का। सीधा सादा। भोलाभाला। ३. दुब्बू।

निमि
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक ऋषि जो दत्तात्रेय के पुत्र थे। २. राजा इक्ष्वाकु के एक पुत्र का नाम। इन्हीं से मिथिला का विदेह वंश चला। उ०—भए विलोचन चारु अचंचल। मनहु सकुचि निमि तजे द्दगंचल।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—पुराणों में लिखा है कि एक बार महाराज निमि ने सहस्रवार्षिक यज्ञ कराने के लिये वशिष्ठ जी को बुलाया। वशिष्ठ जी ने कहा मुझे देवराज इंद्र पहले से हो पंचशत वार्षिक यज्ञ में वरण कर चुके है। उनका यज्ञ कराके में आपका यज्ञ करा सकूँगा। वशिष्ठ के चले जाने पर निमि ने गोतमादि ऋषियों को बुलाकर यज्ञ करना प्रारभ किया इंद्र का यज्ञ हो जाने पर जब वशिष्ठ जी देवलोक से आए तब उन्हें मालूम हुआ कि निमि गौतम को बुलाकर यज्ञ कर रहे हैं। वशिष्ठ जी ने निमि के यज्ञमंडप में पहुँचकर राजा निमि को शाप दिया कि तुम्हारा यह शरीर न रहेगा। वसिष्ठ के शाप देने पर राजा ने भी वशिष्ठ को शाप दिया कि आपका भी शरीर न रहेगा। दोनों का शरीर छूट गया। वशिष्ठ जी तो अपना शरीर छोड़कर मित्रावरुण के वीर्य से उप्तन्न हुए। यज्ञ की समाप्ति पर देवताओं ने निमि को फिर उसी शरीर में रखकर अमर कर देना चाहा पर राजा निमि ने अपने छोड़े हुए शरीर में जाना नहीं चाहा ओर देवताओं सें कहा कि शरीर के त्यागने में मुझे बड़ा दुःख हुआ है, मैं फिर शरीर नहीं चाहता। देवताओं ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसको मनुष्यों की आँखों की पलक पर जगह दी। उसी समय से निमि विदेह कहलाए और उनके वंशवाले भी इसी नाम से प्रसिद्ब हुए। ३. आँखों का मिचना। निमेष।

निमिख
संज्ञा पुं० [सं० निमिष] दे० 'निमिष'।

निमित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. हैतु। कारण। २. चिह्न। लक्षण। ३. शकुन। सगुन। ४. ब्याज। बहाना (को०)। ५. उद्देश्य। फल की ओर लक्ष्य। जैसे, पुत्र के निमित्त यज्ञ करना। यौ०—निमित्तविद = शकुनशास्त्र का ज्ञाता। ज्यौतिषी। निमित्तशास्त्र। = शकुन अपशकुन आदि को बतानेवाला शास्त्र।

निमित्तक (१)
वि० [सं०] किसी हेतु से होनेवाला। जनित। उत्पन्न। उ०—उदर निमित्तक बहुकृत वेषा।—तुलसी (शब्द०)।

निमित्तक (२)
संज्ञा पुं० चुंबन का एक भेद। (कामसूत्र)।

निमित्तकारण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी सहायता और कर्तृत्व से कोई वस्तु बने। जैसे, घड़े के बनने के निमित्त कारण कुम्हार चाक, दंड, सूत्र इत्यादि। (न्याय शास्त्र)। विशेष— दे० 'कारण'।

निमित्तकृत
संज्ञा पुं० [सं०] काक। कोआ [को०]।

निमिराज पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. निमिवंशी राजा जनक। उ०—दोउ समाज निमिराज रघुराज नहाने प्रात। बैठे सब वट बिटप तर मन मलीन कृशगात।—तुलसी (शब्द०)। २. दे० 'निमि'।

निमित्तवध
संज्ञा पुं० [सं०] बाँधने आदि निमित्त से होनेवाला मरण। जैसे, गाय आदि का [को०]।

निमिष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँखों का ढँकना। पलकों का गिरना। आँख मिचना। निमेष। २. उतना काल जितना पलक गिरने में लगता है। पलक मारने भर का समय। ३. सुश्रुत के अनुसार एक रोग जो पलक पर होता है। ४. विष्णु का एक नाम (को०)। ५. फूल का संपुटित होना या बंद होना (को०)।

निमिषक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] नैमषारण्य।

निमिषांतर
संज्ञा पुं० [सं० निमिष + अन्तर] पलक मारने भर का व्यवधान या अंतर [को०]।

निमिषित
वि० [सं०] निमीलित। मिचा हुआ।

निमीलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलक मारना। निमेष। उ०—नेत्र निमीलन करती माने प्रकृति प्रबुद्ध लगो होने।—कामायनी, पृ० २३। २. मरण। ३. पलक मारने भर का समय। पल। क्षण। ४. ज्योतिष। के अनुसार पूर्ण या खग्रास ग्रहण (को०)।

निमीला, निमीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आँख की झपक। निमोलन। २. व्याज। छल। ३. देखकर अनदेखा करना (को०)।

निमीलित
वि० [सं०] १. बंद। ढका हुआ। २. मृत। मरा हुआ। ३. सुन्न। जड़ीभूत (को०)। ४. लुप्त। गायब। ५. अंधकाराच्छन्न। अंधकार में निमग्न (को०)।

निमुछिय़ा †
वि० [हिं० न + मूँछ + इया (प्रत्य०)] बिना मूँछवाला। उ०—यद्यपि उसकी वह उम्र बीत चुकी थी जिस उम्र के निमुछिये गुंड़े से दूल्हे हमारे समाज में बड़े उत्साह से देखे जाते हैं।—शराबी, पृ० २९।

निमुहाँ
वि० [हिं० नि (= नहीं) + मुँह] [वि० स्त्री० निमुहीं]१.जिसे बोलने का मुँह या साहस न हो। २. न बोलनेवाला। कम बोलनेवाल। चुपका।

निमूँद पु (१)
वि० [हिं० मुँदना] मुँदा हुआ। मुद्रित। बंद। उ०—कौड़ा आँसू बूँद, कसि साँकर बरुनी सजल। कीने बदन निमूँद, द्दग मालिग ड़ारे रहत।—बिहारी र०, दो० २३०।

निमूँद पु (२)
वि० [हिं० नि (= नहीं) + मुँदना] जो मुँदा न हो। खुला।

निमूल
वि० [सं०] १. मूलरहित। २. प्रकाशन।

निमेख
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निमेष'।

निमेट पु †
वि० [हिं० नि + मिटना] न मिटनेवाला। बना रहनेवाला। उ०—काह कहौं हौं ओहि सौं जेइ दुख कीन्ह निमेट। तेहि दिन आगि करै वह जेहि दिन होइ सो भेंट।— जायसी (शब्द०)।

निमेय
संज्ञा पुं० [सं०] विनिमय। (वस्तुओं की) अदला बदली [को०]।

निमेरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० निबटेरा] दे० 'निबटेरा'। उ०— नीर छोर का मरम ना जानहि केहि बिधि होइ निमेरा।— सं० दरिया, पृ० १०६।

निमेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलक का गिरना। आँख का झपकना। उ०—(क) कहा करौं नीके करि हरि को रूप रेख नहिं पावति। संगहि संग फिरति निसि बासर नैन निमेष न लावति।—सूर (शब्द०)। (ख) मो डर ते डरपै सुरराजहु सोवत नैन लगाय निमेषै।—हनुमान (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगाना। २. पलक मारने भर का समय। पलक के स्वभावतः उठने और गिरने के बीच का काल। उतना वक्त जितना पलकों के उठकर फिर गिरने में लगता है। पल। क्षण। ३. आँख का एक रोग जिसमें आँखें फड़कती है। ४. एक यक्ष का नाम (महाभारत)। यौ०—निमेषद्युत्, निमेषरुच् = जुगनू।

निमेषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलक। २. खद्योत। जुगनू।

निमेषकृत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत्। बिजली।

निमेषण
संज्ञा पुं० [सं०] पलक गिरना। आँख मुँदना।

निमोची
संज्ञा स्त्री० [सं०] राक्षस विशेष।

निमोना
संज्ञा पुं० [सं० नवान्न] चने या मटर के पिसे हुए हरे दानों को हलदी मसाले के साथ घी में भूनकर बनाया हुआ रसेदार व्यंजन। उ०—ककरी, कचरी औ कचनारयौ। सरस निमोननि स्वाद सँवारयो।—सूर (शब्द०)। (ख) बहुत मिरिच दै कियो निमोना। बेसन के दस बीसक दोना।—सूर (शब्द०)।

निमौनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नवान्न] वह दिन जब ईख पहले पहल काटी जाती है।

निम्न
वि० [सं०] १. नीचा। २. गहरा। गंभीर। यौ०—निम्नवर्ग = समाज का निचला या पिछड़ा हुआ वर्ग।

निम्नग
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे जानेवाला।

निम्नगत
संज्ञा पुं० [सं०] नीचा स्थान [को०]।

निम्नगा
संज्ञा पुं० [सं०] नदी।

निम्ननाभि
वि० [सं०] दुबला पतला। कृशं [को०]।

निम्नयोधी
वि० [सं० निम्नयोधिन्] किले के नोचे से या नीची जमीन पर से लड़नेवाला। वि० दे० 'स्थलयोधी'।

निम्नलिखित
वि० [सं०] दे० 'निम्नांकित'।

निम्नांकित
वि० [सं० निम्न + अंङ्कित] नीचे लिखा हुआ। निम्न- लिखित।

निम्नारण्य
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ों की घाटी [को०]।

निम्नोन्नत
वि० [सं०] ऊबड़ खाबड़। जो समतल न हो। विषम [को०]।

निम्मन †
वि० [हिं०] दे० 'नीमन'।

निम्मल पु
वि० [सं० निर्मल, प्रा० निम्मल] स्वच्छ। निर्मल। साफ। उ०—सरिता सर निम्मल नीर बहैं।—ह० रासो, पृ० २१।

निम्लुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्यास्त [को०]।

निम्लोच
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का अस्त होना।

निम्लोचनी
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण की नगरी का नाम जो मानसोत्तर पर्वत के पश्चिम है।

निम्लोचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अप्सरा का नाम।

नियंतव्य
वि० [सं० नियन्तव्य] नियभित होने योग्य। प्रतिबद्ब होने योग्य। शासन योग्य।

नियंता
वि० संज्ञा पुं० [सं० नियन्तृ] [स्त्री० नियंत्री] १. नियम बाँधनेवाला। व्यवस्था करनेवाला। कायदा बाँधनेवाला। २. कार्य को चलानेवाला। विधायक। ३. शिक्षक। नियम पर चलानेवाला। शासक। ४. सारथी (को०)। ५. घोड़ा फेरनेवाला। घोड़ा निकालनेवाला। ६. विष्णु।

नियंत्रक
वि० [सं० नियन्त्रक] नियंत्रण करनेवाला। नियम की व्यवस्था करनेवाला। कार्य को चलानेवाला।

नियंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० नियन्ञण] १. नियमन। रोक। २. शासन। प्रतिबंधन। ३. सरकार द्बारा किसी वस्तु के मूल्य, समान वितरण आदि पर लगाया जानेवाला प्रतिबंध। कंट्रोल।

नियंत्रित
वि० [सं० नियन्ञित] नियम से बँधा हुआ। कायदे का पाबंद। जिसकी क्रिया सर्वथा स्वच्छंद न हो। जिसपर किसी प्रकार का प्रतिबंध हो। प्रतिबद्ब। यौ०—नियंत्रित भाव = सरकार द्बारा निर्धारित दर। कंन्ट्रोल रेट।

निय पु
वि० [सं निज, प्रा० णिय] निज। उ०—निय तिय तो पिय पहँ रमैं आवन चाहत आज। साजि आरती पाँउड़े अब अलि तज वह काज।—स० सप्तक, पृ० ३६४।

नियत (१)
वि० [सं०] १. नियम द्बारा स्थिर। बँधा हुआ। परिमित। संयत। बद्ब। पाबँद। २. ठहराया हुआ। स्थिर। ठीक किया हुआ। निश्चित। मुकर्रर। तैनात। जैसे,—किसी काम के लियेकोई दिन नियत करना, वेतन नियत करना। ३. नियोजित। स्थापित। प्रतिष्ठित। मुकर्रर। जैसे, किसी पद पर या काम पर नियत करना। ४. बाँधा हुआ। जैसे, नियतांजलि। ५. संयुक्त। आसक्त (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—नियतकाल = जिसका समय निश्चित हो। नियतव्रत = पवित्र। धार्मिक।

नियत (२)
संज्ञा पुं० महादेव। शिव।

नियत (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नीयत'।

नियत व्यावहारिक काल
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में पुण्य, दान, व्रत, श्राद्ब, यात्रा, विवाह इत्यादि के लिये नियत समय। विशेष—ज्योतिष में कालमान नौ प्रकार के माने गए हैं—सौर, सावन, चांद्र, नाक्षत्र, पिञ्य, दिव्य, प्राजापत्य (मन्वंतर), ब्राह्म (कल्प), और बार्हस्पत्य। इनमें से ऊपर लिखी बातों के लिये तीन प्रकार के कालमान लिए जाते हैं—सौर, चांद्र और सावन। संक्रांति, उत्तरायण, दक्षिणायन आदि पुण्यकाल सौर काल के अनुसार नियत किए जाते हैं। तिथि, करण, विवाह, क्षौर, व्रत, उपवास और यात्रा इत्यादि मे चंद्र काल लिया जाता है। जन्म, मरण (सूतक), चांद्रायण आदि प्रायश्चित्त, यज्ञदिनाधिपति, वर्षाधिपति और ग्रहों की मध्य- गति आदि का निर्णय सावन काल द्बारा होता है।

नियतात्मा
वि० [सं० नियतात्मन्] अपने ऊपर प्रतिबंध रखनेवाला। संयमी। जितेंद्रिय।

नियताप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] रूपक की पाँच अवस्थाओँ में से एक। नाटक में अन्य उपायों को छोड़ एक ही उपाय से फलप्राप्ति का निश्चय। जैसे, किसी का यह कहना कि अब तो ईश्वर को छोड़ और कौई उपाय नहीं है, वे अवश्य फल देंगे (साहित्यदर्पण)।

नियति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नियत होने का भाव। बंधेज। बद्ब होने का भाव। २. ठहराव। स्थिरता। मुकर्ररी। ३. भाग्य। दैव। अदृष्ट। ४. बँधी हुई बात। अवश्य होनेवाली बात। ५. पूर्वकृत कर्म का परिणाम जिसका होना निश्चित होता है। ६. आत्मसंयम (को०)। ७. जड़। प्रकृति (जैन)। यौ०—नियतिनटी।

नियतिवाद
संज्ञा पुं० [सं० नियति + वाद] नियति या भाग्य को प्रमुख माननेवाला सिद्धांत। भाग्य पर निर्भर रहनेवाला मत [को०]।

नियतिवादी
वि० [सं० नियतिवादिन्] नियति या भाग्यवाद का सिद्धांत माननेवाला [को०]।

नियती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा। भगवती।

नियतेंद्रिय
वि० [सं० नियतेन्द्रिय] इंद्रियों को वश में करनेवाला। जितेंद्रिय।

नियम
संज्ञा पुं० [सं०] १. विधि या निश्चय के अनुकूल प्रातिबंध। परिमिति। रोक। पाबंदी। नियंत्रण। जैसे,—तुम कोई काम नियम से नहीं करते। क्रि० प्र०—करना।—बाँधना। विशेष—जैनग्रंथों में चौदह वस्तुओं के परिमाण बाँधने को नियम कहा है—जैसे, द्रव्यनियम, विनयनियम, उपानहनियम, ताबूंल- नियम, आहारनियम, वस्त्रनियम, पुष्पनियम, वाहननियम श्य्यानियम इत्यादि। २. दबाव। शासन। ३. बँधा हुआ क्रम। चला आता हुआ विधान। परंपरा। दस्तूर। जैसे,—(को०)यहाँ तक आने का उनका नित्य का नियम है। (ख) सबेरे उठने का नियम। क्रि० प्र०—करना।—होना। ४. ठहराई हुई रीति। विधि। व्यवस्था। पद्बति। कायदा। कानून। जाब्ता। जैसे, ब्रह्मचर्य के नियम, व्यवहार के नियम, प्रकृति के नियम। क्रि० प्र०—करना।—बाँधना।—होना। मुहा०—नियम का पालन = नियम के अनुकूल व्यवहार। कायदे की पाबंदी। नियम का भंग = नियम के प्रतिकूल आचरण। ५. ऐसी बात का निर्धारण जिसके होने पर दूसरी बात का होना निर्भर किया गया हो। शर्त। जैसे,—दानपत्र के नियम बहुत कडे़ हैं। क्रि० प्र०—करना।—रखना। ६. किसी बात को बराबर करते रहने का संकल्प। प्रतिज्ञा। व्रत। जैसे,—आज से यह नियम कर लो झूठ न बोलेंगे। विशेष—योग के आठ अंगों में एक नियम भी है। शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, इन सब क्रियाओं का पालन नियम कहलाता हैं। शौच दो प्रकार का होता है— बाह्य और आभ्यंतर। जल, मिट्टी आदि से शरीर को साफ रखना बाह्य शौच है। करुणा, मैत्री, भक्ति, आदि सात्विक वृत्तियों को धारण करना अभ्यंतर शौच है। आवश्यक से अधिक की इच्छा न करना ही संतोष है। तप से अभिप्राय है गरमी सरदी सहना, धर्मशास्त्रों में लिखे हुए 'कृच्छ चांद्रायण' आदि व्रतों का करना। सब कामों को ईश्वर के नाम पर (ईश्वरार्पण) करना ईश्वरुप्रणिधान है। याज्ञवल्क्य स्मृति में दस नियम गिनाए गए हैं—स्नान, मौन, उपवास, यज्ञ- वेदपाठ, इंद्रियानिग्रह, गुरुसेवा, शौच, अक्रोध और अप्रमाद। जैनशास्त्र में गृहस्थधर्म के अंतर्गत १२ प्रकार के नियम कहे गए हैं—प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तदान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, दिग्व्रत, भोगोप- भोग नियम, धनार्थ दंडनिषेध, सामयिक शिक्षाव्रत, दिशाव- काशिक शिक्षाव्रत, औषध और अतिथि संविभाग। ७. एक अर्थालंकार जिसमें किसी बात का एक ही स्थान पर नियम कर दिया जाय अर्थात् उसका होना एक ही स्थान पर बतलाया जाय। जैसे,—हौ तुम ही कलिकाल में गुनगाहक नरराय। ८. विष्णु। ९. महादेव। १०. अप्राप्त अंश की पूरक विधि (को०)। ११. कवियों की एक वर्णनपद्धति (को०)। १२. लक्षण।

नियमतंत्र
वि० [सं० नियमतन्त्र] नियमों से बँधा हुआ। नियमों के अधीन।

नियमन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० नियमित, नियम्य] १. नियमबद्ब करने का कार्य। कायदा बाँधना। २. शासन। ३. दमन। निग्रह (को०)। ४. किसी के लिये वह विधान जिससे उसके सिवा अन्य का वारण हो सके (को०)।

नियमनिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नियमों का तत्परतापूर्वक पालन (को०)।

नियमपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिज्ञापत्र। शर्तनामा।

नियमपर
वि० [सं०] नियमानुवर्ती। नियमाधीन।

नियमबद्ध
वि० [सं०] नियमों से बँधा हुआ। नियमों के अनुकूल। कायदे का पाबंद।

नियमवती
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्त्री जिसे मासिक धर्म नियमित रूप से होता हो [को०]।

नियमसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्वार सुदी एकादशी से लेकर कार्तिक के अंत तक की जानेवाली विष्णु की उपासना [को०]। विशेष—इसी प्रकार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक पर्यत चातुर्मास्य नियमसेवा का विधान है।

नियमस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] तपस्पा।

नियमावली
संज्ञा स्त्री० [सं० नियम + अवली] किसी संस्था के संबंध में नियमों का संग्रह।

नियमित
वि० [सं०] १. बँधा हुआ। क्रमबद्ध। २. नियमों के भीतर लाया हुआ। नियमबद्ध। बाकायदा। कायदे कानुन के मुताबिक।

नियमी
संज्ञा पुं० [सं० नियमिन्] नियमपालन करनेवाला।

नियम्य
वि० [सं०] १. नियामित करने योग्य। नियमों से बाँधने योग्य। प्रतिबद्ब। होने योग्य। २. शासित होने योग्य। रोके या दबाए जाने योग्य।

नियर †
अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअङ; तुल० अं० नियर] समीप। पास। नजदीक।

नियराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नियराना] निकटता। सामीप्य।

नियराना †
क्रि० अ० [हिं० नियर से नामिक धातु] निकट पहुँचना। पास होना। नजदीक आना या जाना। उ०— आगे चले बहुरि रघुराई। ऋष्यमूक पर्वत नियराई।— तुलसी (शब्द०)।

नियरे †
अव्य० [सं० निकटे से हिं०] दे० 'नियर'।

नियाई पु
वि० [सं० न्यायिन्] दे० 'न्यायी'। उ०—साधो मन कुँजड़ी नीक नियाई।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४८।

नियाज
संज्ञा पुं० [फा़० नियाज] १.इच्छा। कांक्षा। २. प्रयोजन। जरूरत। ३. मुलाकात। साक्षात् भेंट। ४. प्रार्थना। निवेदन। ५. प्रसाद। चढ़ावा। उ०—निवाजे जिसे पाये साहब नियाज। मुहा०—नियाज हासिल करना = (श्रद्धास्पद का) दर्शन होना। यौ०—नियाजमंद = जरूरतमंद। कुछ चाहनेवाला।

नियातन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निपातन' [को०]।

नियान पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निदान] अंत परिणाम।

नियान पु (२)
अव्य० अंत में। आखिर। उ०—(क) अगिनि उठै जरि बुझै नियाना। धुआँ उठा उठि बीच बिलाना।— जायसी (शब्द०)। (ख) कोउ काहु का नाहि नियाना। मया मोह बाँधा उरझाना।—जायसी (शब्द०)।

नियान (३)
संज्ञा पुं० [सं०] गोष्ठ [को०]।

नियाम
संज्ञा पुं० [सं०] नियम।

नियामक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नियामिका] १. नियम करनेवाला।—नियम या कायदा बाँधनेवाला। २. व्यवस्था करनेवाला। विधान करनेवाला। प्रबंध करनेवाला। ३. मारनेवाला। ४. पोतवाह। माझी। मल्लाह। ५. सारथि रथ हाँकने वाला (को०)।

नियामकगण
संज्ञा पुं० [सं०] रसायन में पारे को मारनेवाली ओषधियों का समूह। विशेष—सर्पाक्षी, बनककड़ी, सतावर, शंखाहुली, सरफोंका, पुनर्नवा (गदहपुर्ना), मूसाकानी, मत्स्याक्षी, ब्रह्मदंड़ी, शिखंडिनी (घुँघची), अनंता, काकजंघा, काकमाची, पोतिक (पोई का साग), विष्णुक्रांता, पीली, कटसरैया, सहृदेइया, महाबला, बला, नागबला, मूर्वा, चकवँड़, करंज (कंजा), पाठा, नील, गोजिह्ला इत्यादि।

नियामत
संज्ञा स्त्री० [अ० निअमत] १. अलभ्य पदार्थ। दुर्लभ पदार्थ। २. स्वादिष्ट भोजन। उत्तम व्यंजन। मजेदार खाना। ३. धन। दौलत। माल।

नियामिका
वि० स्त्री० [सं०] नियम करनेवाली। दे० 'नियामक'।

नियार
संज्ञा पुं० [हिं० न्यारा ? ] जौहरी या सुनारों की दूकान का कूड़ा कतवार।

नियारना †
क्रि० स० [सं० निवारण] दे० 'निवारना'।

नियारा † (१)
वि० [सं० निर्निकट, प्रा० निन्निअड़] [वि० स्त्री० नियारी] अलग। जुदा। दूर। उ०—आज नेह सो होइ नियारा। आज प्रेम सँग चला पियारा।—जायसी (शब्द०)।

नियारा (२)
संज्ञा पुं० सुनारों या जौहरियों के यहाँ का कूड़ा करकट।

नियारिया
संज्ञा पुं० [हिं० नियारा, न्यारा] १. मिली हुई वस्तुओं को अलग अलग करनेवाला। २. सूनारों या जौहरियों की राख, कूड़ा करकट आदि में से माल निकालनेवाला। ३. चतुर मनुष्य। चालाक आदमी।

नियारे पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'न्यारे'।

नियाव पु †
संज्ञा पुं० [सं० न्यत्य] दे० 'न्याव', 'न्याय'।

नियासा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निराशा, प्रा० णिआसा, नियासा] दे 'निराशा'। उ०—धृक जीवन जेहि कंत नियासा। मरै वियोगिन दरस के आसा।—हिंदी प्रेम०, पृ० २३८।

नियुक्त
वि० [सं०] १. नियोजित। लगाया हुआ। २. (किसी काम में) लगाया हुआ। जोता हुआ। तैनात। मुकर्रर। ३. तत्पर किया हुआ। प्रेरित। ४. स्थिर किया हुआ। ठहराया हुआ।५. नियोग करनेवाला। जिससे नियोग कराया जाय (को०)। ६. किसी पद या कार्य के लिये तैनात। क्रि० प्र०—करना।—होना।

नियुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुकर्ररी। तैनाती।

नियुत्
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का अश्व। (वैदिक)।

नियुत (१)
वि० [सं०] १. एक लाख। लक्ष। २. दस लाख।

नियुत (२)
संज्ञा पुं० १. एक लाख की संख्या। २. दस लक्ष की संख्या।

नियुत्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] वायु।

नियुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] बाह्ययुद्ध। हाथाबाहीं। कुश्ती।

नियोक्तव्य
वि० [सं०] नियोजित करने योग्य।

नियोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० नियोक्त] १. नियोजित करनेवाला। लगानेवाला। २. नियोग करनेवाला।

नियोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. नियोजित करने का कार्य। किसी काम में लगाना। तैनाती। मुकर्रंरी। २. प्रेरणा। ३. अवधारण। ४. मनु के अनुसार प्राचीन आर्यों की एक प्रथा जिसके अनुसार यदि किसी स्त्री का पति न हो तो या उसे अपने पति से संतान न होती हो ती वह अपने देवर या पति के और किसी गोत्रज से संतान उत्पन्न करा लेती थी। पर कलि में यह रिति वर्जित है। ५. आज्ञा। ६. निश्चय। ७. वह आपत्ति जिसमें यह निश्चय हो कि इसी एक उपाय से यह आपत्ति दूर होगी, दूसरे से नहीं। (कौटि०)।

नियोगी (१)
वि० [सं०] १.जो नियोजित किया गया हो। जो लगाया या मुकर्रर किया गया हो। २. जो किसी स्त्री के साथ नियोग करे।

नियोगी (२)
संज्ञा पुं० १. अधिकारी। २. बंगालियों की जातिगत एक उपाधि या अल्ल।

नियोग्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभु। स्वामी [को०]।

नियोजक
संज्ञा पुं० [सं०] नियोजित करनेवाला। काम में लगानेवाला। मुकर्रर करनेवाला।

नियोजन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० नियोजित, नियोज्य, नियुक्त] १. किसी काम में लगाना। तैनात या मुकर्रर करना। प्रेरणा। २. स्थिर करना। एक सीमा में, जो अधिक या अत्यंत कम न हो, ठहराना। सीमित करना। जैसे, परिवार नियोजन।

नियोजित
वि० [सं०] नियुक्त किया हुआ। लगाया हुआ। मुकर्रर। तैनात।

नियोक्तव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका नियोजन किया जाय। कर्मचारी [को०]।

नियोद्धा
संज्ञा पुं० [सं०] मल्ल योद्धा। कुश्ती लड़नेवाला पहलवान।