विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ज
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ज
⋙ ज
हिंदी वरणमाला में चवर्ग के अंतर्गत एक व्यंजन वर्ण । यह स्पर्श वर्ण है और चवर्ग का तीसरा अक्षर है । इसका बाह्म प्रयत्न संवार और नाद घोष है । यह अल्पप्राण माना जाता है । 'झ' इस वर्ण का महाप्राण है । 'च' के समान ही इसका उच्चारण तालु से होता है ।
⋙ जंकशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ दो या अधिक रेलवे लाइनें मिली हों । जैसे,—मुगलसराय जंकशन । २. वह स्थान जहाँ दो रास्ते मिले हों । संगम । जैसे,—कालेज स्ट्रीट और हैरिसव रोड के जंकशन पर गहरा दंया हो गया ।
⋙ जंग (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०, सं० जङ्ग] [वि० जंगी] लड़ाई । युद्ध । समर । उ०—अपदखान करि हल्ल जंग दुहुँ ओर मचाइय । सनंमुख अरि डट्टि सुभट बहु कट्टि हटाइय ।—सूदन (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—मचना ।—मचाना ।—होना । यौ०—जंगआवर । जंगजू ।
⋙ जंग (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० जक] एक प्रकार की बड़ी नाव जो बहुत चौड़ी होती है । क्रि० प्र०—खोलना ।
⋙ जंग (३)
संज्ञा पुं० [फा़० जंग] १. लोहे का मुरचा । धातुजन्य मैल । क्रि० प्र०—लगना । २. घंटा । घड़ियाल (को०) । ३. हबशियों का देश (को०) ।
⋙ जंगआवर
वि० [फा़०] लड़नेवाला योद्धा लड़ाका ।
⋙ जंगजू
वि० [फा़०] लड़ाका । वीर । योद्ध । उ०—और सुना है प्रताप बड़े जोश के साथ फौज मुहय्या । कर रहा है और जंगजू राजपूत व भील बराबर आते जाते हैं ।—महाराणा प्रताप (शब्द०) ।
⋙ जंगम (१)
वि० [सं० जङ्गम] १. चलने फिरनेवाला । चलता फिरता । चर । उ०—पुष्पराशि समान उसकी देख पावन कांति । भूप को होने लगी जंगम लता की भ्रांति ।—शकुं०, पृ० ७ । २. जो एक स्थल से दूसरे स्थल पर लाया जा सके । जैसे, जंगम संपति, जंगम दिष । ३. गमनशील प्राणी से उत्पन्न या प्राणिजन्य ।
⋙ जंगम (२)
संज्ञा पुं० दाक्षिणात्य लिंगायत शैव संप्रदाय के गुरु । विशेष—ये दो प्रकार के होते हैं—विरक्त और गृहस्थ । विरक्त सिर पर जटा रखते हैं और कौपीन पहनते हैं । इन लोगों का लिंगायती में बड़ा मान है । ३. गमनशील यति । जोगी । उ०—कहैं जंगम तुं कौन नर क्यों आगम ह्याँ कीन ।—पृ० रा०, ६ ।२२ । ४. जाना । गमन । उ०—तिन रिषि पूछिय ताहि, कवन कारन इत अंगम । कवन थान, किहि नाम, कवन दिसि करिब सु जगंम ।—पृ० रा०, १ ।५६१ ।
⋙ जंगमकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं० जङ्गमकुटी] छतरी [को०] ।
⋙ जंगमगुल्म
संज्ञा पुं० [सं० जङ्गमगुल्म] पैदल सिपाहियों की सेना ।
⋙ जंगम विष
संज्ञा पुं० [सं० जङ्गमविष] वह विष जो चर प्राणियों कि दंश, आघात या विकार आदि से उत्थन्न हो । षिशेष—सुश्रुत ने सोलह प्रकार के जंगम विष माने हैं—द्दष्टि, निःश्वास, दंष्ट्रा, नख, मूत्र, पुरीष, शुक्र, लाला, आर्तव, आल (आड़), मुखसंदेश, अस्थि, पित्त, विशद्धित, शूक और शव या मृत देह । उदाहरण के लिये जैसे, दिव्य सपँ के श्वास में विष; साधारण सर्प के दंशन में विष; कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गोह आदि के नख और दाँत में विष; बिच्छू, भिड़, सकुची मछली आदि के आड़ में विष होता हैं ।
⋙ जंगल
संज्ञा पुं० [सं० जङ्गल] [वि० जंगली] १. जलशुन्य भूमि । रेगिस्तान । २. वन । कानन । अरण्य । मुहा०—जंगल खँगालना = जंगल मँझाना । जंगल की जाँच पड़ताल करना या छानना । जंगल में मंगल = सुनसान स्थान में चहल पहल । जंगल जाना = टट्टी जाना । पाखाने जाना । ३. माँस । ४. एकांत या निर्जन स्थान (को०) । ५. बंजर भूमि । ऊसर (को०) ।
⋙ जंगल जलेबी
संज्ञा पुं० [हिं० जंगल + जलेबी] १. गू । गलीज । गू का लेंड़ । २. बरियारे की जाति का एक पौधा जिसके पीले रंग के फूल के अंदर कूंड़लाकार लिपटे हुए बीज होते हैं । जलेबी ।
⋙ जंगला (१)
संज्ञा पुं० [पुत्ते० जेगिला] १. खि़ड़की, दरवाजे, बरामदे आदि में लगी हुई लोहे की छड़ों की पंक्ति । कटहरा । बाड़ । २. चौखट या खिड़की जिसमें जाली या छड़ लगी हों । जँगला । क्रि० प्र०—लगाना । ३. दुपट्टे आदि के किनारे पर काढ़ा हुआ बेल बूटा ।
⋙ जंगला (२)
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गल्य] १. संगीत के बारह मुकामों में से एक । २. एक राग का नाम । ३. एक मछली जो बारह इंच लंबी होती है और बंगाल की नदियों में बहुत मिलती है । ४. अन्न के वे पेड़ या डंठल जिनसे कूटकर अन्न निकाल लिया गया हो ।
⋙ जंगली
वि० [हिं० जंगल] १. जंगल में मिलने या होनेवाला । जंगल संबंधी । जैसे, जंगली लकड़ी, जंगली कंड़ा । २. आपसे आप होनेवाला । (वनस्पति) । बिना बोए या लगाए उगनेवाल । जैसे, जंगली आम, जंगली कपास । ३. जंगल में रहनेवाला । बनैला । जैसे, जंगली आदमी, जंगली जानवर, जंगली हाथी । ४. जो घरेलू या पालतू न हो । जैसे, जंगली कबूतर । ५. असभ्य । उजड्ड । बिना सलोके का । जैसे, जंगली आदमी ।
⋙ जंगली बादाम
संज्ञा पुं० [हिं० जंगली + बादाम] १. कतीले की खाति का एक पेड़ । पूल । पिनार । विशेष—वह वृक्ष भारतवर्ष के पश्चिमी घाट के पहाड़ों तथा वर्तमान और टनासरिन के ऊपरी भागों में होता है । इसमें के एक प्रकार का गोंद निकलता है । यह पेड़ फागुन चैत में फूटता है और इसके फूलों से कड़ी दुर्गंध आती है । इसके फलों के बीज कौ उबालकर तेल निकाला जाता है । इन बीजों को महँनी के दिनों में लोग भूनकर भी खाते हैं । फूल और पत्तियाँ औषध के काम में आती हैं । इसे पून ओर पिनार भी कहते हैं । २. हड़ की जाति का एक पेड़ । विशेष—वह अंडमन के टापू तथा भारतवर्ष और बर्मा में भी उत्पन्न होता है । इसकी छाल से एक प्रकार का गोंद निकलता है और इसके बीज से एक प्रकार का बहूमूल्य तेल निकलता है जो गंध और गुण में बादम के तेल के समान ही होता है । इसकी पत्तियाँ कसंली होती है और चमड़ा सिझाने के काम में आती हैं । इसके बीज को लोग गजक की तरह खाते है और इसकी कली सुअरों को खिलाई जाती है । इसकी छान, पत्ती, बीज, तेल आदि सब औषध के काम में आते हैं । लोग इसकी पत्तियाँ रेशम के कीड़ों को भी खिलाते हैं । इसे हिंदी बदाम और नट बदाम भी कहते है ।
⋙ जंगली रेंड़
संज्ञा पुं० [हिं० जंगली + रेंड़] दे० 'बन रेंड' ।
⋙ जंगला
संज्ञा पुं० [फा़० जंगूला] धुँघख का दाना । बोर ।
⋙ जंगार
संज्ञा पुं० [फा़० जंगार] [वि० जंगारी] १. ताँबे का कखाव । तूतिया । २. एक प्रकार का रंग । उ०—तस्वीर वही शंबरको जंगार में आया ।—कबीर मं०, पृ० ३२० । विशेष—यह ताँबे का कसाव है जिसे सिरकाकश लोग निकालते हैं । वे ताँबे के चूर्ण को सिरके के अकं में डाल देने हैं । सिरके का बरतन रात भर मुँह बंद करके ओर दिन को मुँह खोल करके रखा रहता है । चौबीस घंठे के बाद सिरके को उस बरतन से निकालकर छिछले वरतन में सुखने के लिये रख देते है । जब पानी सूख जाता है तब उसके नीचे चमकीली नीले रंग की बुकनी निकलती है जो रँगाई के काम में जाती है ।
⋙ जंगारी
वि० [फा़० जंगार] नीले रंग का । नीला ।
⋙ जंगाल (१)
संज्ञा पुं० [फा़० जंगार] दे० 'जंगार' । उ०—और जंगाल रंग तेहि माई । येहि विधि पाँचो तत दरसाई ।— धट०, पृ० २३८ ।
⋙ जंगाल (२)
संज्ञा पुं० [सं० जङ्गाल] पानी रोकने का बाँध ।
⋙ जंगाली (१)
वि० [फा़० जंगार] दे० 'जंगारी' । उ०—स्याही सुरल सफेदी होई । जरह जाति जंगाली सोई ।—धट०, पृ० ६७ ।
⋙ जंगाली (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो चमकीले नीले रंव का होता है ।
⋙ जंगालीवट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंगारी + पट्टी] गंधा बिरोजा की बनी मीजे रंग की बट्टी जो फोड़े फुंसियों पर लगाई जाती है ।
⋙ जंगी (१)
वि० [फा़०] १. लड़ाई से संबंध रखनेवाला । जैसे, जंगी जहाज, जंगी कानून । २. फौजी । सेनिक । सेना संबंधी । जैसे, जंगी लाट, जंगी अफसर । यौ०—जंगी लाट = प्रधान सेनापति । ३. बड़ा । बहुत बड़ा । दीर्मकाय । जैसे, जंगी घोड़ा । ४. वीर । लड़ाका । बहादुर । जैसे, जंगी आदमी । ५. स्वस्थ । पुष्ट । जैसे, जंगी जवान ।
⋙ जंगी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] (कहारों की बोलचाल में) घोड़ा । जैसे,— दाहने जंगी, बचा के ।
⋙ जंगी (३)
वि० [फा़०] जंगवार का । हवश देश का । जैसे, जंगी हड़ ।
⋙ जंगी (४)
संज्ञा सं० जंगवार देश का निवासी । हबशी ।
⋙ जंगी जहाज
संज्ञा पुं० [फा़० जंगी + अ० जहाज] लड़ाई के काम का जहाज । युद्धपोत ।
⋙ जंगी बेड़ा
संज्ञा पुं० [फा़० जंगी + हिं० बेड़ा] लड़ाकू जहाजों का समूह । युद्धपोतों का काफिला ।
⋙ जंगी हड़
संज्ञा स्त्री० [फा़० जंगी + हिं० हड़] काली हड़ । छोटी हड़ ।
⋙ जंगुल
संज्ञा पुं० [सं० जंगुल] जहर । विष ।
⋙ जंगे जरगरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० जंगेजरगरी] केवल दिखावटी या झूठमूठ की लड़ाई । कूटयुद्ध [को०] ।
⋙ जंगेला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वूक्ष जिसे चौरी, मामरी और रूही भी कहते है । वि० दे० 'रूही' ।
⋙ जंगैं
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंगी] बड़ी घुँघरू लगी कमरपट्टी जिसे अहीर या धोबी अपने जातीय नाच के समय कमर में बाँधते है ।
⋙ जंगोजदल
संज्ञा स्त्री० [फा़० जंगो + अ० जदल] रक्तपात । मारकाट । लड़ाई झगड़ा । उ०—नई हमको हगिंज है वह बल । ता उससे करें हम जंगोजदल ।—दक्खिनी०, पृ० २२२ ।
⋙ जंगोजिदाल
संज्ञा पुं० [फा़० जंगो + अ० जिदाल] दे० 'जंगो- जदल' ।
⋙ जंघ (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जङ्घा] दे० 'जंघा' । उ०—जानु जंघ त्रिभंग सुंदर कलित कंचन दंड़ । काछनी कटि पीत पट दुति, कमल किसर खंड ।—सूर०, १ ।३०७ ।
⋙ जंघ (२) †
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घा] जाँघ में पहनी जानेवाली जाँघिया ।
⋙ जंघा
संज्ञा स्त्री० [सं० जङ्घा] १. पिंडली । २. जाँघ । रान । उरु । ३. कैंची का दस्ता जिसमें फल और दस्ताने लगे रहते हैं । यह प्रायः कैंची के फलों के साथ ढाला जाता है पर कभी कभी यह पीतल का भी होता है ।
⋙ जंघाकर, जंघाकार
संज्ञा पुं० [सं० सं० जङ्धाकर, जङ्धाकार] हरकारा । धावक [को०] ।
⋙ जंघात्राण
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध में जाँघों की रक्षा के काम में उपवोगी कवच [को०] ।
⋙ जंघापब
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घापथ] पैदल रास्ता [को०] ।
⋙ जंघाफार
संज्ञा पुं० [हिं० जंघा + फारना] कहारों की बोली में वह खाँई जो पालकी के उठानेवाले कहारों के रास्ते में पड़ती है ।
⋙ जंघाबंधु
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घाबन्धु] एक ऋषि का नाम [को०] ।
⋙ जंघाबल
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घाबल] दौड़ने की शक्ति । जाँघ की ताकत [को०] ।
⋙ जंघामथानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंघा + मथानी] छिनाल स्त्री । पुंश्चली । कुलटा ।
⋙ जंघार
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंघा + आर] वह फोड़ा जो जाँघ में हो । विशेष—यह आकृति में लंबा और कड़ा होता है और बहुत दिनों में पकता है । इसमें अधिक पीड़ा और जलन होती है ।
⋙ जंघारथ
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घारथ] १. एक ऋषि का नाम । २. जंघारथ नामक ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष ।
⋙ जंघारा
संज्ञा पुं० [देश० अथवा सं० जज्ज (= लड़ना); या सं० जङ्ग (= युद्ध) + हिं० आर (प्रत्य०)] राजपूतों की एक जाति जो बड़ी झगड़ालू होती है । उ०—तव जैघारो बीर बर स्वामि सु आगे आइ ।—पृ० रा०, ६१ ।२४०० ।
⋙ जंघारि
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घारि] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम ।
⋙ जंघाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० जङ्घाल] १. धावन । धावक । दूत । २. भावप्रकाश के अनुसार मृग की सामान्य जाति । विशेष—इस जाति के अंतर्गत हरिण, एण, कुरंग, ऋष्य, पृषत, न्यंकु, शंवर, राजीव, मुंडी आदि हैं । तामड़े रंग के हिरन को हरिण, कृष्णवर्ण को एण, कुछ ताम्र वर्ण लिए काले को कुरंग, नीलवर्ण को ऋष्य, हरिण से कुछ छोटे चंद्रविदुयुक्त को पुषत, बहुत से सींगोंवाले को मृग, न्यंकु इत्यादि कहते हैं ।
⋙ जंघाल (२)
वि० वेग से दौड़नेवाला [को०] ।
⋙ जंघिल
वि० [सं० जङ्घिल] शीघ्रगामी । फुर्तीला । प्रजवी । तेजी से दौड़नेवाला [को०] ।
⋙ जंजपूक
संज्ञा पुं० [सं० जञ्जपूक] मंद स्वर से जप करनेवाला भक्त । उ०—जंजपूक गठरी सो बैठचो झुको कमर सन ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १६ ।
⋙ जंजबील
संज्ञा स्त्री० [अ० जं जबील] सोंठ । सूखी अदरक । शुंठि [को०] ।
⋙ जंजर (१) †पु
वि० [सं० जर्जर] दे० 'जंजल' ।
⋙ जंजर (२)पु
संज्ञा पुं० [फा़० जंजीर] शृंखला । जंजीर । उ०— तबई लगि दिढ़ जंजर जेरी । मोह लोह की पाइनि बेरी ।— नंद० ग्रं०, पृ० २७३ ।
⋙ जंजरित पु
वि० [हिं० जं (= जनु) + सं० जटित, हिं० जरित] ग्रथित सा । जड़ा हुआ सा । उ०—नयन उदय पुंडरिक प्रसन अमरीय सु राजै । गुंजहार जंजरित तड़ित बद्दरि सु विराजै ।—पृ० रा० २ ।५१० ।
⋙ जंजल पु †
वि० [सं० जजंर, प्रा० जज्जर] पुराना और कमजोर । बेकाम । जीर्ण शीर्ण ।
⋙ जंजार पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + जाल] दे० 'जजाल' उ०—कहा पढ़ावै वावरै ओर सकल जंजार ।—संत र०, पृ० १४३ ।
⋙ जंजाल पु †
संज्ञा पुं० [हिं० जग + जाल] [वि० जंजालिया, जंजाली] १. प्रपंच । झंझट । बखेड़ा । उ०—अस प्रभु दीनबंघु हरि, कारन रहित दयाल । तुलसिदास सठ ताहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ।—तुलसी (शब्द०) । २. बंधन । फँसान । उलझन । उ०—(क) आज्ञा लै के चल्यो नुपति वहँ उत्तर दिशा विशाल । करि तप विप्र जनम जब नीन्हों, मिटयो जन्म जंजाल ।—सूर० (शब्द०) । (ख) हदय की कबहुं न पीर घटी । दिन दिन होन छीन भई काया, दुख जंजाल जटी ।—सूर० (शब्द०) । मुहा०—जंजाल तोड़ना = बंधन या फँसाव को दूर करना । उ०—भव जंजाल तोरि तरु वन के पल्लव हृदय विदाचो ।—सूर० (शब्द०) । जंजाल में पड़ना या फँसना = कठिनता में पड़ना । संकट में पड़ना । उलझन में फँसना । ३. पानी का भँवर । ४. एक प्रकार की बड़ी पलीतेदार बदूक जिसकी नाल बहुत लंबी होती है । यह बहुत भारी होती है और दूर तक मार करती है । उ०—सूरज के सूरज गहि लुट्टिय । तुपक तेग जंजालन छुट्टिय ।—सूदन (शब्द०) । ५. एक बड़े मुँह की तोप । इसमें कंकड़ पत्थर आदि भरकर फेंके जाते थे । यह बहुधा किले का धुस तोड़ने के काम में आती थी । ६. बड़ा जाल ।
⋙ जंजालिया
वि० [हिं० जंजाल + इया (प्रत्य०)] १. जंगजाल या जंजाल रचनेवाला । बखेड़ा करनेवाला । उ०—वाह रे ईश्वर । तेरे सरीखा जंजालिया कोई जालिया भी न निकलैगा ।— श्यामा०, पृ० ५ । २. झगड़ालु । उपद्रवी । फसादी ।
⋙ जंजाली (१)
वि० [हिं० जंजाल] झगड़ालु । बखेड़िया । फसादी ।
⋙ जंजाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंजाल] वह रस्सी ओर विरनी जिससे पाल चढ़ाते या गिराते हैं ।
⋙ जंजीर
संज्ञा स्त्री० [फा़० जंजीर] [वि० जंजीरी] १. साँकल । सिकड़ी । कड़ियों की लड़ी । जैसे, लोहे की जंजीर । उ०— तुम सु छुड़ावहु मंत कहु, बहुरि जरहु जंजीर ।—पु० रा०, ६ ।१६२ । । २. बेड़ी । मुहा०—जंजीर डालना = पैर में बेड़ी डालना । बाँधना । बंदी करना । पैर में जंजीर पड़ना = (१) जंजीर में जकड़ा जाना । बंदी होना । (२) स्वच्छंदता का अपहरण होना । वाथा या विवशता । उ०—प्रीतम बसंत पहार पर, हम जमुना के तीर । अब तो मिलना कठिन है, पाँव परी जंजीर ।—(शव्द) । ३. किवाड़ की कुंडी या सिकड़ी । मुहा०—जंजीर बजाना = कुंडौ खटखटाना । जंबीर लगाना = कुंड़ी बंद करना ।
⋙ जंजीरखाना
संज्ञा पुं० [फा़० जाजीरखानह्] कारागृह । जेलखाना । कैदखाना [को०] ।
⋙ जंजीरा
संज्ञा पुं० [हिं० जंजीर] एक प्रकार की सिलाई जो देखने में जंजीर की तरह मालूम पड़ती है । यह फाँस डालकर सी जाती है और यह केवल कसीदे और सूईकारी में काम आती है । लहरिया । क्रि० प्र०—डालना ।
⋙ जंजीरि पु
वि० [हिं० जंजीर + ई] जंजीरदार । जिसमें जंजीर लगी हो ।
⋙ जंजीरी
वि० [फा़० जंजीरी] १. जंजीरेदार । २. जंजीर में बंधा । बंदी [को०] । मुहा०—जंजीरी गोला = तोप के वे गोले जो कई एक साथ जंजीर में लगे रहते हैं । ये साधारण गोलों की अपेक्षा अधिक भयानक होते हैं ।
⋙ जंजीरेदार
वि० [हिं० जंजीरा + दार] जिसमें जंजीरा पड़ा हो । जंजीरा डाला हुआ । लहरियादार । बिशेष—यह केवल सिलाई के लिये प्रयुक्त होता है । जैसे, जंजीरे— दार सिलाई ।
⋙ जंट
संज्ञा पुं० [अं० स्वाइंह] विला मजिस्ट्रेट के नीचे का सिवीलियन माजिस्ट्रेट । जेट मजिस्टर ।
⋙ जंटिलमैन
संज्ञा पुं० [अं०] १. भलामानुस । सभ्य पुरुष । २. अँगरेजी चाल ढाल से रहनेवाला आदमी । उ०—तुम लोग अबी जंटिलमैन से ट्रीट करना बिलकुल नहीं जानता ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७६ ।
⋙ जंड
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली पेड़ जिसे साँगर भी कहते हैँ । इसकी फलियों का अचार बनाया जाता है । उ०—डेले, पीलू, आक और जंड के कुड़मुड़ा़ए वृक्ष ।—ज्ञानदान, पृ० १०३ ।
⋙ जडैल (१)
वि० [हि० जंट + एल (प्रत्य०)] १. प्रधान । बड़ा । २. स्वस्थ । तंदुरुस्त । हट्टाकट्टा ।
⋙ जंडैल (२) †
संज्ञा पुं० [अं० जनरल] सैनिक अफसर । नायक । उ०—झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा—हम तुम्हारे जंडैल के पास जाउता है ।—झाँसी०, पृ० ४३५ ।
⋙ जंत (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० जन्तु] प्राणी । जीव । जंतु । उ०— कर्माहि करि उपजत ये जंत । कर्महि करि पुनि सबकौं अंत ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०९ । यौ०—जीवजंत = जीव जंतु । उ०—(क) जीवजंत घन विघन बन जीव जीव बल छीन ।—पृ० रा०, ६ ।२२ । (ख) जा दिन जीव जंत नहीं कोई ।—रामानंद, पृ० १२ ।
⋙ जंत (२)
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र; प्रा० जंत] यंत्र । तांत्रिक यंत्र । जंतर । यौ०—जंत मंत = जंतर मंतर
⋙ जंतर
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र, प्रा० र्जत्र] १. कल । औजार । यंत्र । २. तांत्रिक यंत्र । यौ०—जंतर मंतर । ३. चौकोर या लंबी ताबीज जिसमें तांत्रिक यंत्र या कोइ टोटके की वस्तु रहती है । इसे लोग अपनी रक्षा या सिद्धि के लिये पहनते हैं । उ०—जंतर टोना मूड़ हिलावन ता कूँ साँच न मानो ।—चरण० बानी, पृ० १११ । ५. गले में पहनने का एक गहना जिसमें चाँदीं या सोने के चौकोर या लंबे टुकड़ेपाट में गुंथे होते हैं । कठुला । तावीज । ५. यंत्र जिससे वेद्य या रासायानिक तेल या आसव आदि तैयार करते हैं । ६. जंतर मंतर । मानमंदिर । आकाशलोचन । † ७. पत्थर, मिट्टी आदि का बड़ा ढोंका । ८. वीणा । बीन नामक बाजा ।
⋙ जंतर मंतर
संज्ञा पुं० [हिं० यन्त्र + मन्त्र] १. यंत्र मंत्र । टोना टोटका । जादू टोना । २. आकाशलोचन । मानमंदिर जहाँ ज्योतिषी नक्षत्रों की स्यिति, गति आदि का निरीक्षण करते हैं ।
⋙ जंतरा
संज्ञा स्त्री० [सं० थन्त्री] एक रस्सी जो गाड़ी के ढाँचे पर कसी या तानी जाती है । जंत्रा ।
⋙ जंतरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्र] १. छोटा जंता जिसमें सोनार तार बढ़ाते हैं । वि० दे० 'जंता—२' । मुहा०—जंतरी में खींचना = (१) तारों को जंते में डालकर पतला और लंबा करना । (२) सीधा करना । दुरुस्त करना । कज निकालना । टेढ़ापन दूर करना । २. पत्र । तिथिपत्र । एक तरह का पंचांग । उ०—मेरे यहाँ की संग्रह की जंतरियों आदि को देखकर ही यह बात लिखी है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १ (जी०) पृ० १२१ ।
⋙ जंतरी (२)
संज्ञा पुं० १. जादूगर । भानमती । २. बाजा बजानेवाला । वाद्यकुशल व्याक्ति । उ०—बिना जंतरी यंत्र बाजता गगन में ।—पलटू०, पृ० ९४ ।
⋙ जंता (१)
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] [स्त्री० जंती, जंतरी] १. यंत्र । कल । जैसे, जंताघर । २. सोनारों और तारकसों का एक औजार जिसमें डालकर वे तार खोंचते हैं । विशेष—यह औजार लोहे की एक लंबी पटरी होती है जिसमें बहुत से ऐसे छेद कई पंक्तियों में होते हैं जो क्रमशः छोटे होते जाते हैं । सोनार सोने या चाँदी के तारों को पहले बड़े छेदों में, फिर उससे छोठे छेदों में, फिर और छोटे छेदों में क्रमानुसार निकालकर खीचते हैं जिससे तार पतले होकर बढ़ते जाते हैं ।
⋙ जंता (२)
वि० [सं० यान्त्रि (= यंता)] यंत्रण देनेवाला । दंड़ देनेवाला । शासन करनेवाला । उ०—साकिनी डाकिनी पूतना ग्रेत बैताल भूत प्रथम जूथ जंता ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६७ ।
⋙ जंता (३)
संज्ञा पुं० [सं० यन्ता] अश्वरथ का वाहक । सारथी उ०— जाकों तु भयौ जात है जंता । अठयौं गर्भ सु तेरो हुंता ।— नंद० ग्रे०, पृ० २२१ ।
⋙ जंता (४)पु
संज्ञा पुं० [सं० जनितृ > जनिता] [स्त्री० जती] पिता । बाप ।
⋙ जंती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जंता] छोटा जंता जिससे सोनार बारीक तार खींचते हैं । जंतरी ।
⋙ जंती (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० जनितृ > जनिता, या हिं० जनना] माता । माँ ।
⋙ जंतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्म लेनेवाला जीव । प्राणी । जानवर । यौ०—जीवजंतु = प्राणी । जानवर । २. महाभारत के अनुसार सोमक राजा का एक पुत्र जिसकी चरबी से होम करने के पीछे सौ पुत्र हो गए । ३. आत्मा । जीवस्थ आत्मा (को०) । ४. क्षुद्र जीव । निम्न कोटि का जानवर । कीट पतंग आदि (को०) ।
⋙ जंतुकंवु
संज्ञा पुं० [सं० जन्तुकम्वु] १. शंख का कीड़ा । २. शंख ।
⋙ जंतुका
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुका] लाख । जतुका । लाक्षा ।
⋙ जंतुघ्न (१)
वि० [सं० जन्तुघ्न] प्राणिनाशक । कृमिघ्न ।
⋙ जंतुघ्न (२)
संज्ञा पुं० १. विडंग । वायविडंग । २. हींग । ३. बिजौरा नीवू । ४. वह औषध जिसके संपर्क से कीड़े मर जाते हों ।
⋙ जंतुघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुघ्नी] वायविडंग । विडंग ।
⋙ जंतुनाशक
संज्ञा पुं० [सं० जन्तुनाशक] हींग ।
⋙ जंतुपादप
संज्ञा पुं० [सं० जन्तुपादप] कोशाम्र या कोसम नाम का वृक्ष । वि० दे० 'कोसम' [को०] ।
⋙ जंतुफल
संज्ञा पुं० [सं० जन्तुफल] उदुंवर । गूलर । ऊमर ।
⋙ जंतुमति
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुमती] पृथ्वी । धरती [को०] ।
⋙ जंतुमारी
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुमारी] नीबू ।
⋙ जंतुला
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुला] काँस नाम की घास ।
⋙ जंतुशाला
संज्ञा पुं० [सं० जन्तुशाला] चिड़ियाघर ।
⋙ जंतुहंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्तुहन्त्री] वायाविड़ंग । जंतुघ्नी ।
⋙ जंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] १. कल । औजार । २. तांत्रिक यंत्र । यौ०—जंत्रमंत्र । ३. ताला । ४. तंत्र वाद्य । बाजा । वि० दे० 'यंत्र' । उ०—कबीर जंत्र न बाजही, टूटि गया सब तार ।—कबीर सा० सं०, पृ० ७९ ।
⋙ जंत्रना (१)
क्रि० स० [हिं० जत्र] ताला लगाना । ताले के भीतर बंद करना । जकड़बंद करना । उ०—सभा राउ गुरुमहिसुर मंत्री । भरत भगति सबकै मति जंत्री ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जंत्रना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रणा] दे० 'यंत्रणा' ।
⋙ जंत्रमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र मन्त्र] दे० 'जंतर मंतर', 'यंत्र मंत्र' । उ०—जयति पर जंत्र मंत्राभिचार ग्रसन, कारमनि कूट कृत्थादि हंता ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६७ ।
⋙ जंत्रा
संज्ञा पुं० [हिं० जंतरा] दे० 'जंतरा' ।
⋙ जंत्रित
[सं० यान्त्रित] १. नियंत्रित । बंद । बँधा । उ०—जयति निरुपाधि भाक्तिभाव जंत्रित हृदय बंधु हित चित्रकूटादि चारी ।—तुलसी (शब्द०) । २. ताला लगा हुआ । ताले में बंद । उ०—नाम पाहरू राति दिन, घ्यान तुम्हार कपाट । लोचन निजपद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट ।—मानस, ५ ।३० ।
⋙ जंत्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० यान्त्रिक] वीणा आदि बजानेवाला । बाजा बजानेवाला ।
⋙ जंत्री (२)
वि० यंत्रित करनेवाला । बद्ध करनेवाला । जकड़बंद करनेवाला ।
⋙ जंत्री (३)
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्रिन्] बाजा । उ०—बाजन दे बैजंतरा जग जंत्री ना छेड़ । तुझे विरानी क्या पड़ी अपनी आप निवेर ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ जंत्री (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का तिथिपत्र । पत्रा । जंतरी ।
⋙ जंद (१)
संज्ञा पुं० [फा़० जंद; मि० सं० छन्दस्] १. पारसियों का अत्यंत प्राचीन धर्मग्रंथ । विशेष—इसकी भाषा वैदिक भाषा से मिलती जुलती है । इसके श्लोक को 'गाथा' या मंथ्र (मि० सं० मंत्र) कहते हैं । इसके छंद और देवता वेदों के छंदौ और देवताऔ से मिलते हैं । २. वह भाषा जिसमें पारसियों का जंद अवेस्ता नामक धर्मग्रंथ लिखा गया है । यौ०—जंद अवेस्ता = जरथुस्त्र रचित पारसियों का धर्मग्रंथ ।
⋙ जंदरा
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र > हिं० जंतर > जदरा] १. यंत्र । कल । मुहा०—जंदरा ढीला होना = (१) कल पुर्जे बेकार होना । (२) हाथ पैर सुस्त होना । थकावट आना । नस ढीली होना । २. जाँता । जैसे, कुछ गेहुँ गीले, कुछ जंदरे ढीले । † ३. ताला ।
⋙ जंदा †
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र हिं० जन्त्र] ताला । उ०—जिस विषम कोठड़ी जंदे मारे । बिनु बीजी क्यों खूलहि ताले ।—प्राण०, पृ० ३२ ।
⋙ जंघाला
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्राला] १२८ हाथ लंबी, १६ हाथ चौड़ी, और १२ ४/५ हाथ ऊँची नाव ।
⋙ जंपती
संज्ञा पुं० [सं० जम्पती] दंपती । पतिपत्नी ।
⋙ जंपना पु †
क्रि० अ० [सं० जल्प; प्रा० जप्प, जप; सं० जल्पना] कहना । कथन करना । उ०—(क) इम जंपै चंद बरद्दिया कहा निघट्टै इय प्रलौ ।—पृ० रा० ५७ ।२३६ । (ख) सम बनिता बर बंदि चंद जंपिय कोमल कल ।—पृ० रा०, १ ।१३ । (ग) यों कवि भूषण जंपत है लखि संपति को अलकापति लाजै ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ जंब (१)
संज्ञा पुं० [सं० जम्ब] कर्दम । कीचड़ । पंक ।
⋙ जंब (२)
संज्ञा पुं० [अ० जंब] पाप । दोष । गुनाह । उ०—नफ्स तेरा जंब अती बोले है जान । लायक उस है बैजन्न पछान ।— दक्खिनी०, पृ० ३८१ ।
⋙ जंबक (१)
संज्ञा पुं० [अ० जंबक्र; तुल० सं० चम्पक] चंपा का फूल [को०] ।
⋙ जंबक (२)
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुक] जंबुक । उ०—ऐसा एक अचंभा देखा । जंबक करै केहरि सूँ खेला ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३५ ।
⋙ जंबाल
संज्ञा पुं० [सं० जम्बाल] १. कीचड़ । काँदो । पंक । २. सेवार । शैवाल । ३. काई । ४. केवड़ा ।
⋙ जँबाला
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बाला] केतकी का वृक्ष ।
⋙ जँबालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बालिनी] नदी । सरिता [को०] ।
⋙ जंबीर
संज्ञा पुं० [सं० जम्बीर] १. जंबीरी नीबू । २. मरुवा । ३. सफेद या हल्के रंग की तुलसी । ४. बनतुलसी ।
⋙ जंबीरी नीबू
संज्ञा पुं० [सं० जम्बीर] एक प्रकार का खट्टा नीबू । विशेष—इसका फल कागदी नीबू से बड़ा होता है । इसके फल के ऊपर का छिलका मोटा और उभड़े महीन महीन दानों के कारण खुरदुरा होता है । कच्चा फल श्यामता लिए गहरा हरा होंता है, पर पकने पर पीला हो जाता है । इसका पेड़ बड़ा और कँटीला होता है । बसंत ऋतु में इसमें फूल लगते है और बरसात में फल दिखाई पड़ते है जो कार्तिक के उपरांत खाने योग्य होते हैं । फल इसमें बहुत आते है और बहुत दिनों तक रहते है ।
⋙ जंबील
संज्ञा स्त्री० [फा़० जम्बील] झोली । पिटारी । टोकरी ।
⋙ जंबु
संज्ञा पुं० [सं० जम्बु] १. जंबू वृक्ष । जामुन । २. जामुन का फल । उ०—जुत जंबु फल चारि तकि सुख करौं हौं ।— धनानंद०, पृ० ३५२ । पु ३. जांबवान् । उ०—बंधि पाज सागरह हनुअ अंगद सुग्रीवह । नील जंबु सु जटाल बली राहुन अप जीवह ।—पृ० रा०, २ ।२७१ ।
⋙ जंबुक
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुक] [स्त्री० जंबुकी] १. बड़ा जामुन । फरेंदा । २. श्योनाक बृक्ष । ३. सुवर्ण केतकी । केबड़ा । ४. श्रृगान । गीदड़ । ५. वरुण । ६. एक वृक्ष । ७. टेंटू का पेड़ । सोना पाढ़ा । ८. स्कंद का एक अनुचर । ९. नीच व्याक्ति । निम्न कोटि का आदमी । [को०] ।
⋙ जंबुका पु
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुक] श्रृगाल । गीदड़ । जंबुक । उ०—/?/बरनी वह मन जंबुका बहुत अभोजन खात ।—संत- वानी०, भा० १, पृ० ११६ ।
⋙ जंबुखंड
संज्ञा पुं० [सं०/?/जम्बुखंण्ड] दे० 'जंबुद्वीप' ।
⋙ जंबुद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०/?/जम्बुद्वीप] पुराणानुसार सात द्वीपों में से एक द्वीप । विशेष—यह दीप पृथवी के मष्य में माना गया है । पुराण का मत है कि यह गोल है और चारो ओर से खारे समुद्र से घिरा है । यह एक लाख योजन विस्तीर्ण है और इसके नौ खंड माने गए है जिनमें प्रत्येक खंड़ नौ नौ हजार योजन विस्तीर्ण हैं । इन नौ खंड़ों को वर्ष भी कहते है । इलावृत खंड इन खंडौ के बीच में बतलाया गया है । इलावृत खंड के उत्तर में तीन खंड है—रम्यक, हिरण्मय, और कुरुवर्ष । नील, श्वेत और शृंगवान् नामक पर्वत क्रमशः इलावृत और रम्यक, रम्यक और हिरण्मय तथा हिरण्मय और कुरुवर्ष के मध्य में है । इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण में भी तीन वर्ष हैं जिनके नाम हरिवर्ष, पुरुष और भारतवर्ष है; और दो दो वर्षों के बीच एक एक पर्वत है जिनके नाम निषध, हेमकूट और हिमालय है । इलावृत के पूर्व में मद्राश्व और पश्चिम में केतुमाल वर्ष है; तथा गंधमादन और माल्य नाम के दो पर्वत क्रमशः इलावृत खंड़ के पूर्व और पश्चिम सीमारूप हैं । पुराणों का कथन है कि इस द्वीप का नाम जंबुद्वीप इसलिये पड़ा है कि इसमें एक बहुत बड़ा जंबु का पेड़ है जिसमें हाथी के इतने बड़े फल लगते हैं । बोद्ध लोग जंबुद्वीप से केवल भारतवर्ष का ही ग्रहण करते हैं ।
⋙ जंबुध्बज
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुघ्वज] जंबुद्वीप ।
⋙ जंबुनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बुनदी] दे० 'जंबू नदी' ।
⋙ जंबुप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुप्रस्थ] एक प्राचीन नगर । विशेष—इस नगर का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है । भरत जब अपने ननिहाल केकय देश से लौट रहे थे तब मार्ग में उन्हें यह नगर पड़ा था । कुछ लोग अनुमान करते हैं कि आजकल का जम्बू या जम्मू (काश्मीर) वही नगर है ।
⋙ जंबुमत्
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुमत्] १. एक नगर का नाम जिसे जांबवान् भी कहते हैं । २. पर्वत [को०] ।
⋙ जंबुमति
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बुमति] एक अप्सरा का नाम ।
⋙ जंबुमान
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुमत्] दे० 'जंबुमत्' [को०] ।
⋙ जंबुमाली
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुमालिन्] एक राक्षस का नाम ।
⋙ जंबुर पु †
संज्ञा पुं० [फा़० जंबूर] दे० 'जंबूर' । उ०—लाखन मीर बहादुर जंगी । जंबुर कमाने तीर खदंगी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जंबुल
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुल] १. जंबु । जामुन । २. केतकी का पेड़ । ३. कर्णपाली नामक रोग । इसमें कान की लौ पक जाती है । सुपकनवा ।
⋙ जंबुवनज
संज्ञा पुं० [सं० जम्बुवनज] दे० 'जंबुवनज' ।
⋙ जंबुस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० जंबुस्वामिन्] एक जैन स्थविर का नाम जिनका जन्म राजा श्रेणिक के समय में ऋषभदत्त सेठ की स्त्री धारिणी के गर्भ से हुआ था ।
⋙ जंबू
संज्ञा पुं० [सं० जम्बू] १. जामुन । २. जामुन का फल । ३. नागदमनी । दौना । ४. काश्मीर का एक प्रसिद्ध नगर । विशेष—संस्कृत में यह शब्द स्त्री० है पर जामुन फल के अर्थ में क्लीव भी है ।
⋙ जंबू (१) †
वि० बहुत बड़ा । बहुत ऊँचा ।
⋙ जंबूका
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बूका] किशमिश ।
⋙ जंबूखंड
संज्ञा पुं० [सं० जम्बूखण्ड] दे० 'जंबुखंड' ।
⋙ जंबूद्वीप
संज्ञा पुं० [सं० जम्बृद्वीप] दे० 'जंबुद्वीप' ।
⋙ जंबूनद पु
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बूनद] स्वर्ण । सोना । उ०— जंबूनद को मेरू बनायव । पंच बृक्ष सुर तहाँ गायव । दुतिय रजत गिरि जहाँ सुहायव । ताहि नाम कैलाश घरायव ।—प० रासो, पृ० २२ ।
⋙ जंबूनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्बूनदी] १. पुराणानुसार जंबुद्विप की एक नदी । विशेष—यह नदी उस जामुन के वृक्ष के रस से निकली हुई मानी जाती है जिसके कारण द्वीप का नाम जंबुद्वीप पड़ा है और जिसके फल हाथी के बराबर होते है । महाभारत में इस नदी की सात प्रधान नदियों में गिनाया है और इसे बह्मलोक से निकली हुई लिखा है ।
⋙ जंबूर
संज्ञा पुं० [फा़ जंबूर] १. जंबूरा । २. तोप की चरख । ३. पुरानी छोटी तोप जो प्रायः ऊँटों पर लादी जाती थी । जंबूरक । ४. भिड़ । वर्र (को०) । ५. शहद की मकली (को०) । ६. एक औजार (को०) ।
⋙ जंबूरक
संज्ञा स्त्री० [जम्बूरक] छोटी तोप जो प्रायः ऊँटो पर लादी जाती है । २. तोप की चर्ख । ३. भवर कली ।
⋙ जंबूरची
संज्ञा पुं० [फा़० जंबूरची] १. जंबूर नामक छोटी तोप का चलानेवाला । तोपची । बर्कदाज । सिपाही । तुपकची ।
⋙ जंबूरा
संज्ञा पुं० [फा़० जंबूरह्] १. चर्ख जिसपर तोप चढ़ाई जाती है । २. भँवर कड़ी । भँवर कली । ३. सोने लोहे आदि धातुओं के बारीक काम करनेवालों का एक औजार जिससे वे तार आदि को पकड़कर ऐंठते, रेतते या घुमाते हैं । विशेष—यह काम के अनुसार छोटा या बड़ा होता है और प्रायः लकड़ी के टुकड़े में जड़ा होता है । इसमें चिमटें की तरह चिपककर बैठ जानेवाले दो चिपटे पल्ले होते हैं । इन पल्लों की बगल में एक पेंच रहता है जिससे पल्ले खुलते और कसते है । कारीगर इसमें चीजों को दबाकर ऐंठते, रेतते, तथा और काम करते हैं । ४. लकड़ी का एक बल्ला जो मस्तूल पर आड़ा लगा रहता है और जिसपर पाल का ढाँचा रहता है ।—(लश०) ।
⋙ संबूल
संज्ञा पुं० [सं० जम्बूल] १. जामुन का वृक्ष । २. केवड़े का पेड़ ।
⋙ जंबूवनज
संज्ञा पुं० [सं० जम्बूवनज] श्वेत जपा पुष्प । सफेद गुड़हल का फूल ।
⋙ जंभ
संज्ञा पुं० [सं० जम्भ] दाढ़ । चौभर । २. जबड़ा । ३. एक दैत्य का नाम जो महिषासुर का पिता था और जिसे इंद्र ने मारा था । उ०—इंद्र ज्यों जंभ पर, बाड़ौ सुअंभ पर रावण सदंभ पर रघुकुलराज है ।—भूषण (शब्द०) । यौ०—जंभद्धिष । जंभभेदी । जंभरिपु = इंद्र का नाम । ४. प्रह्लाद के तीन पुत्रों में से एक । ६. जंबीरी नीबू । ७. कंधा और हँसली । ८. भक्षण । ९. जम्हाई ।
⋙ जंभक (१)
संज्ञा पुं० [सं० जम्भक] १. जँबीरी नीबू । २. शिव । ३. एक राजा का नाम ।
⋙ जंभक (२)
वि० १. जम्हाई या नींद लागेवाला । २. हिंसक । भक्षक । ३. कामुक ।
⋙ जंभका
संज्ञा स्री० [सं० जम्भका] जम्हाई ।
⋙ जंभन
संज्ञा पुं० [सं० जम्भन] १. भक्षण । २. रति । संयोग । ३. जम्हाई ।
⋙ जंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्भा] जैभाई । जमुहाई ।
⋙ जंभाराति
संज्ञा पुं० [सं० जम्भाराति] जंभ असुर के शत्रु इंद्र [को०] ।
⋙ जंभारि
संज्ञा पुं० [सं० जम्भारि] १. इंद्र । २. आग्नि । ३. बज्र । ४. विष्णु ।
⋙ जंभिका
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्भिका] जम्हाई । जंभा [को०] ।
⋙ जंभी, जंभीर
संज्ञा पुं० [सं० जम्भिन्; जम्भीर] दे० 'जंबीरी नीबू' । उ०—कहुँ दाख दाड़िम सेब कटहल तुत अरु जंभीर है ।— भूषण ग्रं०, पृ० ४ ।
⋙ जंभीरी
संज्ञा पुं० [सं० जम्भीर] दे० 'जंबीरी नीबू' ।
⋙ जंभूरा †
संज्ञा पुं० [फा़० जबूरह > जंबूरा] दे० 'जंबूरा' ।
⋙ जंवालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० जम्वालिनी] नदी ।
⋙ जँगरा
संज्ञा पुं० [देश०] उर्व, मूँग इत्यादि के वे डंठल जो दाना निकाल लेने के बाद शेष रह जाते है । जेंगरा ।
⋙ जँगरैत
वि० [हिं० जाँगर + एत (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० जंगरेतिन] १. जाँगरवाला । २. परिश्रमी । मेहनती ।
⋙ जँगला
संज्ञा पुं० [हि० जंगला] १. दे० 'जंगला' (१) । २. दे० 'जंगला' (२) ।
⋙ जँचना
क्रि० अ० [हिं० जाँचना] १. जाँचा जाचा । देख भाल करना । २. जाँच में पूरा उतरना । द्दष्टि में ठौक वा अच्छा ठहरना । उचित तथा अच्छा ठहरना । उचित या अच्छा प्रतीत होना । ठीक या अच्छा जान पड़ना । जैसे,—(क) हमें तो उसके सामने यह कपड़ा नहीं जँचता । (ख) मुझे उसकी बात जँच गई । ३./?/बान बड़ना । प्रतीत होना । निश्चय होना । मन में बैठना । जैसे,—मुझे तुम्हारी बात नहीं जँचती ।
⋙ जँचा
वि० [हिं० जँचना] १. जंचा हुआ । सुपरीक्षित । २. अव्यर्थ । अचूक । जैसे,—जाँचा हाथ ।
⋙ जँजाल पु
संज्ञा पुं० [हि० जंग + आल] एक प्रकार की प्राचीन बंदूक । जंजाल । उ०—छुट्टी एक कालै विसालै जँजालै ।— हिम्मत०, पृ० १२ ।
⋙ जँजीरनी पु
वि० [हि० जंजीर] बाँधनेवाली । उ०—कच मेचक जाल जंजीरनी तू ।—प्रेमघन०, भाग १, पृ० २१० ।
⋙ जँतसर †
संज्ञा पुं० [हिं० जाँत + सर (प्रत्य०)] [स्त्री० जँतसरी, जँतसारी] वह गीत जिसे स्त्रियाँ चक्की पीसते समय गाती है । जाँते का गीत ।
⋙ जँतसार
संज्ञा स्त्री० [सं० यन्त्रशाला] जाँता गाड़ने का स्थान । वह स्थान जहाँ जाँता गाड़ा जाता है ।
⋙ जँताना
क्रि० अ० [हिं० जाँता] १. जाँते में पिस जाना । २. कुचल जाना । चूरचूर होना ।
⋙ जँबुर पु
संज्ञा पुं० [फा़० जंबूर] एक प्रकार की तोप जो प्रायः ऊँटों पर चलती थी । जंबूरक । उ०—लाखन मार बहादुर जंमी । जंबुर, कमानै तीर खदंगी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १२२ ।
⋙ जँभाई
संज्ञा स्त्री० [सं० जूम्भा] मुँह के खुलने की एक स्वाभाविक क्रिया जो निद्रा या आलस्य मालूम पड़ने, शरीर से बहुत अधिक खून निकल जाने या दुर्बलता आदि के कारण होती है । उबासी । विशेष—इसमें मुँह के खुलते ही साँस के साथ बहुत सी हवा धीरे धीरे भीतर की ओर खिंच आती है और कुछ क्षण ठहरकर धीरे घीरे बाहर निकलती है । यद्यपि यह क्रिया स्वाभाविक और बिना प्रयत्न के आपसे आप होती है, तथापि बहुत अघिक प्रयत्न करने पर दबाई भी जा सकती है । प्रायः दूसरे को जँभाई लेते हुए देखकर भी जँभाई आने लगती है । हमारी यहाँ के प्राचौन ग्रंथों में लिखा है कि जिस वायु के कारण जँभाई आती है उसे 'देवदत्त' कहते हैं । वैद्यक के अनुसार जँभाई आने पर उत्तम सुगंधित पदार्थ खाना चाहिए । क्रि० प्र०—आना ।—लेना ।
⋙ जँभाना
क्रि० अ० [सं० जृम्भण] जँभाई लेना ।
⋙ जँवाई †
संज्ञा पुं० [सं० जामातृ, प्रा० जामाउ, हिं० जामाई] जामाता । दामाद ।
⋙ जँवारा †
संज्ञा पुं० [सं० यवाप्र या हिं० जौ] १. दे० 'जवारा' । २. नवरात्र । उ०—नेवरात को लोग जँवारा भी कहते हैं ।— शुक्ल आभि० ग्रं० (सा०), पृ० १३२ ।
⋙ ज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्युंजय । २. जन्म । ३. पिता । ४. विष्णु । ५. विष । ६. भुक्ति । ७. तेज । ८. पिशाच । ९. वंन । १. छंदशास्त्रानुसार एक गण जो तीन अक्षरों का होता है ।/?/वनण । विशेष—इसके आदि और अंत के वर्ण लघु और मध्य का वर्ण गुरु होता है । (/?/) । जैसे, महेश, रमेश, सुरेश आदि । इस का देवता साँप और फल रोग माना गया है ।
⋙ ज (२)
वि० १. वेगवान । वेगित । तेज । २. जीतनैवाला । जेता ।
⋙ ज (३)
प्रत्य० उत्पन्न । जात । जैसे,—देशज, पित्तज, वातज, आदि । विशेष—वह प्रत्यय मायः तत्पुरुष समास के पदों के अंत में आता है । पंचमी तत्पुरुष आदि में पंचम्यंत पदों की विभक्ति लुप्त हो जाती है, जँसे, पादज, द्विज इत्यादि । पर सप्तमी तत्पुरुष में '/?/'शरत्', 'काल' और/?/इन चार शब्दों के अतिरिक्त , जहाँ विभक्ति बनी रहती है (जैसे, प्रावृषिज, शरदिज, कालेज, दिविज) शेष स्थलों में विभक्ति का लोप विवक्षित होता है, जैसे, मनसिज, मनोज, सरसिज, सरोज इत्यादि ।
⋙ ज पु (४)
अव्य० पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त । उ०—चंद्र सूर्य का गम नहीं जहाँ ज दर्शन पावै दास ।—रामानंद० पृ० १० ।
⋙ जइँ पु
क्रि० वि० [सं० यत्र] दे० 'जहाँ' । उ०—बालूँ ढोला/?/देसणउ, जँ पाणी कूँवेण ।—ढोला०, दू० ६५७ ।
⋙ जइ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० जय, हिं० जै] दे० 'जय' । उ०—निय भासा/?/, साहस कंपइ, जइ सूरा जइ पाण्डीआ ।—कीतिं०, पृ० ४८ ।
⋙ जइस पु †
वि० [सं० या/?/श] [अन्य रूप जइसन, जइसे] दे० जैसा । उ० (क) गए/?/हंसन की पाँती । ता मघ्ये उन जइस अजाती ।—कबीर सा०, पृ० ६५ । (ख) बेबि सरोरुह ऊपर देखल चइसन दूतिअ चंदा ।—विद्यापति०, पृ० २४ । (ग) सुनइत रस कथा थापए चीत । जइसे कुरंविनी सुनए संगीत ।—विद्यापति०, पृ० ४०९ ।
⋙ जई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यव, प्रा० जव, हिं० जौ] १. जौ की जाति का एक अन्न । विशेष—इसका पौधा जौ के पौधे से बहुत मिलता जुलता है और जौ के पोधै से अधिक बढ़ता है । जौ, गेहूँ आदि की तरह यह अन्न भी वर्षा के अंत में बोया जाता है । बोने के प्रायः एक महीने बाद इसके हरे डंठल काट लिए जाते हैं जो पशुओं के चारे के काम आते हैं । काटने के बाद डंठल फिर बढ़ते हैं और थोड़े ही दिनों में फिर काटने के योग्य हो जाते हैँ । इस प्रकार जई की फसल तीन महीने में तीनबार हरी काटी जाती है और अंत मे अन्न के लिये छोड़ दी जाती है । चौथी बार इसमें प्रायः हाथ भर या इससे कुछ कम लंबी बालें लगती है । इन्हीं वालों में जई के दाने लगते हैं । बोने के प्रायः साढ़े तीन या चार महीने बाद इसकी फसल तैयार हो जाती है । फसल पकने पर पीली हो जाती है और पूरी तरह पकने से कुछ पहले ही काट ली जाती है, क्योंकि अधिक पकने से इसके दाने झड़ जाते हैं और डंठल भी निकम्मे हो जाते है । एक बीघे मे प्रायः बारह तेरह मन अर और अठारह मन डंठल होते हैं । इसके लिये दोमट भूमि अच्छी होतो है और अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । इस देश में जई बहुधा घोड़ो आदि को ही खिलाई जाती है, पर जिन देशों में गेहुँ, जौ आदि अच्छे अन्न नहीं होते वहाँ इसके आटे की रोटियाँ भी बनती हैं । इसके हरे डंठल गेहूँ और जौ के भूसे से अधिक पोषक होते है और गौएँ, भैंसें और घोड़े आदि उन्हें बड़े चाव से खात है । २. जौ का छोटा अंकुर । विशेष—हिंदुओं के यहां नवरात्र में देवी की स्थापना के साथ थोड़े से जौ भी वोए जाते है । अष्टमी या नवमी के दिन वे अंकुर उखाड़ लिए जाते है और ब्राह्मण उन्हें लेकर मंगल— स्वरूप अपने यजमानों की भेंट करते है । उन्हीं अंकुरों को जई कहते है । इस अर्थ में इनके साथ 'देना' 'खोंसना' आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है । मुहा०—जई डालना = अंकुर निकालने लिये किसी अन्न को भिगोना या तर स्थान में रखना । जई लेना = किसी अन्न को इस बात की परीक्षा के लिये बोना कि वह अंकुरित होगा कि नहीं । जैसे,—धान की जई लेना, गेहूँ की जई लेना, आदि । ४. उन फलों की बतिया या फली जिनमें बतिया के साथ फूल भी लगा रहता है । जैसे, खीरे की जई, कुम्हड़े की जई । उ०—(क) सरुख बरजि तरजिए तरजनी कुम्हिलैहैं कुम्हड़े की जई है ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—निकलना ।—लगना । उ०—बचन सुपत्र मुकुल अवलोकनि, गुननिधि पहुप मई । परस परम अनुराग सींचि मुख, लगी प्रमोद जई ।—सूर०, १० ।१७६२ ।
⋙ जई (२)
वि० [सं० जयिन्, प्रा० जई] दे० 'जयी' ।
⋙ जईफ
वि० [अ० जईफ़] [वि० स्त्री० जईफा] बुड्ढा । वुद्ध ।
⋙ जईफी
संज्ञा स्त्री० [फा़० जईफी] बुढ़ा़पा । वुद्धावस्था । उ०— जवानी का कमाया जईफी में काम आयगा ।—ओनिवास ग्रं०, पृ० ३४ ।
⋙ जंउँन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यमुना] दे० 'जमुना' । उ०—सब पिरथमी असीसइ, जोरि जोरि कै हाथ । गांग जउँन जौ लहि जल, तौ लहि अम्मर माथ ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३० ।
⋙ जउवा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक तरह का रोगकीट । उ०—जउबा नारू दुखित रोग ।—दरिया० बानी, पृ० ५० ।
⋙ जऊ पु †
क्रि० वि० [सं० यद्यपि] जो । अगर । यदपि । यद्यपि । उ०—धन तन पानिप को जऊ, छकत रहै दिन राति । तऊ ललन लोयननि की, नैसुक प्यास न जाति ।—स० सप्तक, पु० २४७ ।
⋙ जकंद पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० जगंद] छलाँग । उछाल । चौकड़ी ।
⋙ जकंदना पु †
क्रि० अ० [हिं० जकंद + ना (प्रत्य०)] १. कूदना । उछलना । उ०—सजोम जकंदत जात तुरंग । चढे़ रन सुरनि रंग उमंग ।—हम्मीर०, पृ० ५० । २. टूट पड़ना । उ०— जमन जोर करि घाइया तब भरत जकंदे । मानो राहु सपट्टिया भच्छन नू चंदे ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ जक (१)
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्ख] १. धनरक्षक भूत प्रेत । यक्ष । २. कंजूस आदमी ।
⋙ जक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० झक] [वि० भक्की] १. जिद्द । हठ । अड़ । उ०—हुती जितीं जग मैं अधमाई सो मैं सबै करी । अधम समूह उधारन कारन तुम जिय जक पकरी ।—सूर०, १ ।१३० । क्रि० प्र०—पकड़ना । २. धुन । रट । ज०—जदपि नाहिं नाहिं नहीं बदन लगी जक जाति । तदपि भौंह हाँसी भरिनु, हाँसी पै ठहराति ।—बिहारी (शब्द०) । कि० प्र०—लगना । मुहा०—जक बँधना = रट लगना । धुन लगना । उ०—तव पद चमक चकचाने चंद्रचूर चख चितवत एक टक जक बँध गई है ।—चरण (शब्द०) ।
⋙ जक (३)
संज्ञा स्त्री० [फा़० जक] १. हार । पराजय । उ०—यही हैं अकसर कजा के जिनसे फरिश्ते भी, जक उठा चुके हैं ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५७ । २. हानि । घाटा टोटा । क्रि० प्र०—उठाना ।—पाना । ३. पराभव । लज्जा । ४. डर । खौफ । भय ।
⋙ जक (४)
संज्ञा स्त्री० [अ० जका] सुख । शांति । चैन । उ०—सुख चाहै अरु उद्यमी जक न परे दिन राति ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पु० १७४ ।
⋙ जकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० जकड़ना] जकड़ने का भाव । कसकर बाँधना । मुहा०—जकड़बंद करना = (१) खूब कसकर बाँधना । (२) अच्छी तरह फँसा लेना । पूरी तरह अपने अधिकार में कर लेना ।
⋙ जकड़ना (१)
क्रि० स० [सं० युक्त + करण या श्रृङ्गल (= सिकड़ी)] कसकर बाँधना । जैसे,—उसके हाथ पैर जकड़ दो । संयो० क्रि०—देना ।—डालना ।
⋙ जकड़ना † (२)
क्रि० अ० अकड़ने आदि के कारण अंगों का हिलने डुंलने के योग्य न रह जाना । जैसे,हाथ पैर जकड़ना । संयो० क्रि०—जाना ।—उठना ।
⋙ जकन
संज्ञा पुं० [अ० जकन] ठुड्ढी । ठोढ़ी । उ०—जब से चाहा है तेरा चाहे जकन, अब्र चश्मो से मेरे जारी है ।—कविता कौ०, भा० ४,पृ० २१ ।
⋙ जकना पु
क्रि० अ० [हिं० छक या चकपकाना अथवा देश०] [वि० जकित] अचंभे में आना । भैंचक्का । होना । चकपकाना । उ०—(क) तकि तकि चहूँ ओर जकि सी रही थकि, बकि बकि उठै छकि छैल की लगन में ।—दीनदयालु (शब्द०) । (ख) तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ ।......कोउ रहे आकाश देखत, कोउ रहे सिर नाइ । घरिक लों जकि रहे तहँ तहँ देह गति बिसराइ ।—सूर०, १० ।३८७ । (ग) दूत दबकाने, चित्रगुप्त हू चकाने औ जकाने जमलाल पापपुंज लुंज त्वै गए ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५९ ।
⋙ जकर
संज्ञा पुं० [अ० जकर] शिशन । पुरुषेंद्रिय । २. नर । ३. फौलाद [को०] ।
⋙ जकरना पु
क्रि० स० [हिं० जकड़ना] दे० 'जकड़ना' । उ०— श्यामा तेरे नेह की डोर जकरि जिय मोर ।—श्यामा०, पृ० १७१ ।
⋙ जकरिया
संज्ञा पुं० [अ० जकरिया] एक यहूदी पैगंबर या भविष्य— वक्ता जो आरे से चीरे गए थे । उ०—योहन जकरिया भविष्यवक्ता का पुत्र था ।—कबीर मं०, पृ० २६५ ।
⋙ जकात (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० जकात] दान । खैरात । क्रि० प्र०—देना ।—करना ।—पाना ।
⋙ जकात (२)
[अ० जका (= वृद्धि?)] कर । महसूल । उ०—(क) उस समय उड़ीसा में कौड़ियों के द्वारा क्रय विक्रय होता था । यहाँ की मुख्य आय जमीदारी और जकात से थी ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (इति०), पृ० ११५ ।
⋙ जकाती
संज्ञा पुं० [हिं० जकात] दे० 'जगाती' ।
⋙ जकित पु
वि० [हिं० चकित] चकित । विस्मित । स्तंभित । उ०—हरिमुख किधौ मोहिनी माई ।...... सूरदास प्रभु बदन बिलोकत जकित थकित चित अगत न जाई ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ जकुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलयाचल । २. कुत्ता । ३. बेगन का फूल । ४. जोड़ा । युग्म (को०) ।
⋙ जक्की (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बुलबुल की एक जाति । विशेष—इस जाति की बुलबुल आकार में छोटी होती है और जाड़े के दिनों में उत्तर या पश्चिम हिंदुस्तान के अतिरिक्त सारे भारतवर्ष में पाई जाती है । गरमी के महीनों में यह हिमालय पर चली जाती है ।
⋙ जक्की (२)
वि० [हिं० झक] दे० 'झक्की' ।
⋙ जक्त पु †
संज्ञा पुं० [सं० जगत्] दे० 'जगत' । उ०—ओर ते छोर ले एक रस रहत है, ऐसे जान जक्त में विरले प्रानी ।— कबीर० रे०, पृ० २७ ।
⋙ जक्ष पु †
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष] दे० 'यक्ष' ।
⋙ जक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] भक्षण । भोजन । खाना । उ०— सचु शव्द की सची जक्षण । नानक कहे उदासी लक्षण ।— प्राण०, पृ० १६८ ।
⋙ जक्ष्मा †
संज्ञा स्त्री० [सं० यश्मा] दे० 'यक्ष्मा' या 'क्षयी' ।
⋙ जख †
संज्ञा स्त्री० [अ० जाका, हिं० जक] सुख । चैन । उ०—उन संतन के साथ से जिवड़ा पावै जख । दरिया ऐसे साघ के चित चरनो ही रख ।—दरिया० बानी, पृ० २ ।
⋙ जखन †
क्रि० वि [हिं० जिस + सं० क्षण] जिस समय । जब । उ०—जषने चलिय सुरतान लेख परि सेष जान को ।—कीर्ति०, पृ० ९६ ।
⋙ जखनो (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यक्षिणी प्रा० जक्खिनी] दे० 'यक्षिणी'
⋙ जखनी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० यखनी] दे० 'अखनी' ।
⋙ जखम
संज्ञा पुं० [फा़० जल्म, मि० सं० यक्ष्म] १. वह क्षत जो शरीर में आघात या अस्ञ आदि के लगनेग के कारण हो जाय । घाव । २. मानसिक दुःख का आघात । सदमा । क्रि० प्र०—करना ।—खाना ।—देना ।—पूजना ।—भरना ।— लगना ।—होना । मुहा०—जखम ताजा या हरा हो आना = वीते हुए कष्ट का फिर लौट आना । गई हुई विपत्ति का फिर आ जाना । जखम पर नमक छिड़कना = दुःख बढ़ाना ।
⋙ जखमी
वि० [फा़० जख्मी] जिसे जखम लगा हो । घायल । चुटैला ।
⋙ जखीर
संज्ञा पुं० [अ० जाखीरह्, हिं० जखीरा] खजाना । कोष । संग्रह । उ०—किल्ला में पाया ओर जेता जखीर । साबक ही खंडपुर नैं कीनाँ बहीर ।—शिखर०, पृ० २३ ।
⋙ जखीरा
संज्ञा पुं० [अ० जाखीरह्] १. वह स्थान जहाँ एक ही प्रकार की बहुत सी चीजों का संग्रह हो । कोष । खजाना । २. संग्रह । ढेर । समूह । उ०—रहै जखीरा गढ़ कै जेता ।—ह० रासो, पृ० ५९ । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना । यौ०—जखीरा अंदोज = दे० 'जखीरेबाज' । जखीराअदोजी दे० 'जखीरेबाजी' । ३. वह बाग का स्थान जहाँ विक्री के लिये तरह तरह के पेड़ पौधे और बीज आदि मिलते हों ।
⋙ जखीरेवाज
वि० पुं० [अ० जखीरड्ड + फा़० बाज (प्रत्य०)] जखीरे- बाजी करनेवाला । अन्न आदि का अपसंचय करवेवाला ।
⋙ जखीरेवाजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० जखीरेबाज + ई] अघ आदि या उपमोग में आनेवाली और बिकनेवाली वस्तुओं का इस विचार से संचय करना कि जब महँगी होगी तब इसे बेचेंगे ।
⋙ जखेड़ा
संज्ञा पुं० [फा़० जखीरह, हिं० जखीरा] १. दे० 'जखीरा' । २. जमाव । यूथ । समूह । ३. दे० 'बखेड़ा' ।
⋙ जखैया †
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्ख] । एक प्रकार का कल्पित भूत जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह लोगों को अधिक कष्ट देता है ।
⋙ जख्ख पु
संज्ञा पुं० [सं० यक्षा, प्रा० जक्ख] दे० 'यक्ष' ।
⋙ जख्म
संज्ञा पुं० [फा़० जख्म] दे० 'जखम' । यौ०—जख्मखुर्दा = घायल । जख्मी । जख्मेजिगर = दिल की चोट । इश्क का घाव । प्रेम की पीड़ा ।
⋙ जगंद
संज्ञा स्त्री० [फा़० जगंद] छलाँग । चौकड़ी । कुदान [को०] ।
⋙ जग (१)
संज्ञा पुं० [सं० जगत्] १. संसार । विश्व । दुनिया । उ०— तुलसी या जग आइ के सबसे मिलिए धाय । का जाने केहि भेष में नारायण मिलि जाय ।—तुलसी (शब्द०) । २. संसार के लोग । जनसमुदाय । उ०—साँच कहौ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ जग (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ, प्रा० जग्य, जग्ग] दे० 'यज्ञ' । उ०— सुन्यौ इंद्र मेरौ जग मेटा । यह मदमत्त नंद कौ बेटा । नंद० ग्रं०, पृ० १८१ ।
⋙ जगकर
संज्ञा पुं० [हिं० जग + कर] दे० 'जगकर्ता' ।
⋙ जगकर्ता पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + कर्ता] संसार के निर्माता । ईश्वर । उ०—वे जगकताँ सब कछू अहहीं । बेद शास्त्र सब तिन कहँ कहहीं ।—कबीर सा०, पृ० ४८२ ।
⋙ जगकारन
संज्ञा पुं० [हिं० जग + कारन] जगत के कारणभूत । परमात्मा । उ०—जगकारन तारन भव भंजन धरनी भार ।—मानस, ५ ।१ ।
⋙ जगचख पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + सं चक्षु] दे० 'जगच्चक्षु' । उ०—आदू ऊतन धाम अजोध्या जगचख वंस अंस हरि जोधा ।—रा० रू०, पृ० ११ ।
⋙ जगचार पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + चार (प्रत्य०)] लौकिक रस्म । नेग । उ०—किया ज्यों जो संमुख हो जगंचार अमीर । न ले कुच की जब फिर चल्या वह फकीर ।—दक्खिनी०, पृ० १३७ ।
⋙ जगच्चक्षु
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + चक्षु] सूर्य ।
⋙ जगजंत पु
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + यन्त्र] जगतचक्र । उ०— कृपा घन आनंद अधार जगजंत है ।—घनानंद, पृ० १६५ ।
⋙ जगजगा (१) †
संज्ञा पुं० [जगमग से अनु०] पीतल आदि का बहुत पतला चमकीला तख्ता जिसके छोटे छोटे दुकड़े काटकर टिकुली और ताजिये आदि पर चिपकाए जाते हैं । पन्नी ।
⋙ जगजगा (२)
वि० चमकीला । प्रकाशित । जो जगमगाता हो ।
⋙ जगजगाना
क्रि० अ० [अनु०] चमकना । जगमगाना ।
⋙ जगजननि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जगत् + जननी] दे० 'जगज्जननी' । उ०—संग सती जगवननि भवानी ।—मानस ।
⋙ जगजामिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जगत् + यामिनी] भवनिशा । संसाररूपी रात्रि । उ०—एहि जगजामिनी जागहि जोगी । मानस, २ ।९३ ।
⋙ जगजाहिर
वि० [हिं० जग + अ० जाहिर] व्यक्त । स्पष्ट । सर्व- ज्ञात । सर्वविदित । उ०—क्यों वह जगजाहिर हो ।—सुनीता, पृ० ३१० ।
⋙ जगजोनि पु
संज्ञा पुं० [सं० जगयोनिः] ब्रह्मा । उ०—सोक कनकलोचन मति छोनी । हरी विमल गुनगन जगजोनी ।— मानस, २ ।२९६ ।
⋙ जगज्जननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जगदंबिका । जगद्धात्री । पर- मेश्वरी [को०] ।
⋙ जगज्जयी
वि० [सं० जगत् + जयिन्] बिश्वविजयी [को०] ।
⋙ जगझंप
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े से मढ़ा हुआ एक प्रकार का बाजा जो प्राचीन काल में युद्ध में बजाया जाता था । आजकल भी कहीं कहीं विवाह तथा पूजा आदि के अवसरों पर इसका व्यवहार होता है ।
⋙ जगड़्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] आडंबर । व्यर्थ का आयोजन ।
⋙ जगण
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल शास्त्र के अनुसार तीन अक्षरों का एक गण जिसमें मध्य का अक्षर गुरु और आदि और अंत के अक्षर लघु होते हैं । जैसे,—महेश, रमेश, गणेश, हसंत । विशेष—दे० 'ज—१०' ।
⋙ जगत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । २. महादेव । ३. जंगम । ४. विश्व । संसार । यौ०—जगत्कर्ता; जगत्कारण, जगत्तारण, जगत्पति, जगतपिता, जगत्स्रष्टा = परमेश्वर । ईश्वर । जगत्पऱायण = विष्णु । जगत्प्रसिद्ध = विश्वप्रसिद्ध । लोक में ख्यात । पर्या०—जगती । लोक । भुवन । विश्व । ५. गोपाचंदन ।
⋙ जगत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० जगति = घर की कुरसी] कुएँ के ऊपर चारों ओर बना हुआ चबूतरा जिसपर खड़े होकर पानी भरते हैं ।
⋙ जगत (२)
संज्ञा पुं० [सं० जगत्] दे० 'जगत्' । यौ०—जगतजनक = ईश्वर । जगतजननि = दे० 'जगज्जननी' । जगतारन = परमात्मा । जगतसेठ ।
⋙ जगतसेठ
संज्ञा पुं० [सं० जगत्+श्रेष्ठ] बहुत बड़ा धनी महाजन, जिसकी साख सारे संसार में मानी जाय ।
⋙ जगती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संसार । भुवन । २. पृथिवी । भूमि । यौ०—जगतीचर = मानव । मनुष्य । जगतीजानि = राजा । भूपति । जगतीपति, जगतीपाल, जगतीभर्ता = दे० 'जगतीजानि' । ३. एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में बारह बारह अक्षर होते हैं । ४. मनुष्य जाति । मानव जाति (को०) । ५. गऊ । गाय (को०) । ६. मकान की भूमि । गृह के निमित्त या घर से संबद्ध भूमि (को०) । ७. जामुन के वृक्ष से युक्त स्थान । वह जगह जहाँ जामुन लगा हो (को०) ।
⋙ जगतीतल
संज्ञा पुं० [सं०] पृथिवी । भूमि ।
⋙ जगतीधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोधिसत्व । २. भूधर । पर्वत (को०) ।
⋙ जगतीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष । पेड़ । पौधा [को०] ।
⋙ जगत्कर्ता
संज्ञा पुं० [सं० जगत्कर्तृ] १. ईश्वर । परमेश्वर । २. धाता । विधाता । ब्रह्मा [को०] ।
⋙ जगत्प्रभु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पितामह ब्रह्मा । २. नारायण । विष्णु । ३. महेश । शंकर । शिव [को०] ।
⋙ जगत्प्राण
संज्ञा पुं० [सं०] समीरण । वायु । हवा [को०] ।
⋙ जगत्साक्षी
संज्ञा पुं० [सं० जगत्साक्षिन्] भानु । सूर्य ।
⋙ जगत्सेतु
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर ।
⋙ जगदंतक
संज्ञा पुं० [सं० जगत्+अन्तक] मृत्यु । काल ।
⋙ जगदंबा जगदंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० जगत्+अम्बा; -अम्बिका] दुर्गा । भवानी । उ०—(क) जगदंबा जहँ अवतरी सो पुर बरनि कि जाय ।—मानस, १ ।४ । (ख) जगदंबिका जानि भव भामा ।—मानस, १ ।१०० ।
⋙ जगद
संज्ञा पुं० [सं०] पालक । रक्षक ।
⋙ जगदातमा पु
संज्ञा पुं० [सं० जगदात्मन्] परमात्मा । परमेश्वर । उ०—जगदातमा महेस पुरारी ।—मानस, १ ।६४ ।
⋙ जगदात्मा
संज्ञा पुं० [सं० जगदात्मन्] १. परमात्मा । २. वायु [को०] ।
⋙ जगदादि
संज्ञा पुं० [सं० जगदादिः] १. ब्रह्मा । २. परमेश्वर ।
⋙ जगदादिज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ जगदाधार
संज्ञा पुं० [सं० जगदाधार] १. परमेश्वर । २. वायु । हवा । ३. काल । समय (को०) । ४. शेषनाग । जगत् को धारण करनेवाले । उ०—(२) जय अनंत जय जगदाधारा ।—मानस ६ ।७६ । (ख) जगदाधार शेष किमि उठई चले खिसियाइ ।—मानस, ६ ।५३ ।
⋙ जगदानंद
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + आनन्द] परमेश्वर ।
⋙ जगदायु
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + आयुः] वायु । हवां ।
⋙ जगदीश
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + ईश] १. परमेश्वर । २. विष्णु । ३. जगन्नाथ ।
⋙ जगदीश्वर
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + ईश्वर] १. परमेश्वर । जगदीश । २. इंद्र । मघवा (को०) । ३. शिव का नाम (को०) । ४. राजा । भूपति (को०) ।
⋙ जगदीश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवती ।
⋙ जगदगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर । २. शिव । ३. विष्णु (को०) । ४. ब्रह्मा (को०) । ५. नारद । ६. अत्यंत पूज्य या प्रतिष्ठित पुरुष जिसका सब लोग आदर करें । ७. शंकराचार्य की गद्दी पर के महंतों की उपाधि ।
⋙ जगद् गौरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा देवी ।२. मनसा देवी का एक नाम । विशेष—यह नागों की बहन और जरत्कारु ऋषि की पत्नी थी ।
⋙ जगद्दीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. महादेव । शिव । ३. आदित्य । सूर्य (को०) ।
⋙ जगद्धाता
संज्ञा पुं० [सं० जगद्धातृ] [स्त्री० जगद्धात्री] १. ब्रह्मा । २. बिष्णु । ३. महादेव ।
⋙ जगद्धात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा की एक मूर्ति । २. सरस्वती ।
⋙ जगद्वल
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा ।
⋙ जगद्विज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ जगदयोनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. विष्णु । ३. ब्रह्मा । ४. परमेश्वर ।
⋙ जगद् योनि (२)
संज्ञा स्त्री० पूथिवी । धरा ।
⋙ जगदवंद्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० जगतू + वन्द्य] श्रीकृष्ण का एक नाम [को०] ।
⋙ जगद् वंद्य (२)
वि० संसार द्वारा पूजनीय या पूज्य ।
⋙ जगद्वहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी ।
⋙ जगद् विख्यात
वि० [सं० जगत् + विख्यात] लोकप्रसिद्ध । सर्वख्यात ।
⋙ जगद्विनाश
संज्ञा पुं० [सं०] प्रलय काल ।
⋙ जगन पु
संज्ञा पुं० [सं० यजन्] दे० 'यज्ञ' । उ०—जोवेजाँ गृहि गृहि जगन जागवै, जगनि जगनि कीजै तप जाप ।— बेलि, दू० ५० ।
⋙ जगनक
संज्ञा पुं० [सं० यजनक, अथवा देश०] महोबा के राजा परमाल के दरबार का प्रसिद्धं कवि ।
⋙ जगना
क्रि० अ० [सं० जागरण] १. नींद से उठना । निद्रा त्याग करना । सोने की अवस्था में न रहना । क्रि० प्र०—उठना ।—जाना ।—पड़ना । २. सचेत होना । सावधान होना । खबरदार होना । ३. देवी देवता या भूत प्रेत आदि का अधिक प्रभाव दिखाना । ४. उत्तेजित होना । उमड़ना या उभड़ना । वेग से प्रकट होना । जैसे, शरीर में काम जगना । ५. (आग का) जलना । बलना । दहकना । जैसे, आग जगना । उ०—करि उपचार थकी सवे चल उताल नँदनंद । चंदक चंदन चंद ते ज्वाल जगी चौचंद ।—शृं० संत० (शब्द०) । ६. जगमगाना । चमकना । जैसे, ज्योति जगना ।
⋙ जगनिवास
संज्ञा पुं० [सं० जगन्निवास] दे० 'जगन्निवास' । उ०— जगंनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक विश्राम ।—मानस १ ।१९१ ।
⋙ जगनीदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जग + नींदी] उनींदी । अर्धसुप्त । सोते जागते सी दशा । उ०—वह सोता तो रहा पर जग भी रहा था । सच पूछो, तो वह जगनींदी में पड़ा था ।—सुनीता, पृ० ३०८ ।
⋙ जगनु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जगन्नु' [को०] ।
⋙ जगन्नाथ
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + नाथ] जगत् का नाथ । ईश्वर । २. विष्णु । ३. विष्णु की एक प्रसिदूध मूर्ति जो उड़ीसा के अंतर्गत पुरी नामक स्थान में स्थापित है । विशेष—यह मूर्ति अकेली नहीं रहती, बल्कि इसके साथ सुभद्रा और बलभद्र की भी मूतियाँ रहती हैं । तीनों मूर्तियाँ चंदन की होती है । समय समय पर पुरानी मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है और उनके स्थान पर नई मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती हैं । सर्वसाधारण इस मू्र्ति बदलने को 'नवकलेवर' या 'कलेवर बदलना' कहते है । साधारणतः लोगों का विश्वास है कि प्रति बारहवें वर्ष जगन्नाथ जो का कलेवर बदलता है । पर पंडितों का मत है कि जब आषाढ़ में मलसास और दो पूर्णिमाएँ हों, तब कलेवर बदलता है । कूर्म, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, नृसिंह, अग्नि, ब्रह्म और पद्म आदि पुराणों में जगन्नाथ की मूर्ति और तीर्थ के संबंध में बहुत से कथानकऔर माहात्म्य दिए गए हैं । इतिहासों से पता चलता है कि सन् ३१८ ई० में जगन्नाथ जी की मूर्ति पहले पहल किसी जंगल में पाई गई थी । उसी मूर्ति को उड़ीसा के राजा ययाति- केसरी ने, जो सन् ४७४ में सिंहासन पर बैठा था, जंगल से ढूँढ़कर पुरी में स्थापित किया था । जगन्नाथ जी का वर्तमान भव्य ओक विशाल मंदिर गंगवंश के पाँचवें राजा भीमदेव ने सन् ११४८ से सन् ११६८ तक में बनवाय था । सन् १५६८ में प्रसिद्ध मुसलमान सेनापति काला पहाड़ ने उड़ीसा को जीतकर जगन्नाथ जी की मूर्ति आग में फेंक दी थी । जगन्नाथ और बलराम की आजकल की मूर्तियों में पैर बिलकुल नहीं होते और हाथ बिना पंजों के होते हैं । सुभद्रा की मूर्तियों में न हाथ होते हैं और न पैर । अनुमान किया जाता है कि या तो आरंभ में जंगल में ही ये मूर्तियाँ इसी रूप में मिली हों और या सन् १५३८ ई० में अग्नि में से निकाले जाने पर इस रूप में पाई गई हो । नए कलेवर में मूर्तियाँ पुराने आदर्श पर ही बनती हैं । इन मूर्तियों को अधिकांश भात और खिचड़ी काही भोग लगता है जिसे महाप्रसाद कहते हैं । भोग लगा हुआ महाप्रसाद चारो वर्णों के लोग बिना स्पर्शास्पर्श का विचार किए ग्रहण करते हैं । महाप्रसाद का भात 'अटका' कहलाता है, जिसे यात्री लोग अपने साथ अपने निवासस्थान तक ले जाते और अपने संबंधियों में प्रासाद स्वरूप बाँटते हैं । जगन्नाथ को जगदीश भी कहते हैं । यौ०—जगन्नाथ का अटका या भात = जगन्नाथ जी का महाप्रसाद । ४. बंगाल के दक्षिण उड़ीसा के अंतर्गत समुद्र के किनारे का प्रसिद्ध तीर्थ जो हिंदुओं के चारो धार्मो के अंतर्गत है । विशेष—इसे पुरी, जगदीशपुरी, जगन्नाथपुरी, जगन्नाथ क्षेत्र और जगन्नाथ धाम भी कहते हैं । अधिकांश पुराणों में इस क्षेत्र को पुरुषोत्तम क्षेत्र कहा गया है । जगन्नाथ जी का प्रसिदूध मंदिर यहीं है । इस क्षेत्र में जानेवाले यात्रियों में जातिभेद आदि बिलकुल नहीं रह जाता । पुरी में समय समय पर अनेक उत्सव होते है जिनमें से 'रथयात्रा' और 'नवकलेवर' के उत्सव बहुत प्रसिदूध हैं । उन अवसरों पर यहाँ लाखों यात्री आते हैं । यहाँ और भी कई छोटे बड़े तीर्थ हैं ।
⋙ जगन्नियंता
संज्ञा पुं० [सं० जगान्नियन्तृ] परमात्मा । ईश्वर ।
⋙ जगन्निवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । परमेश्वर । २. विष्णु ।
⋙ जगन्नु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. जंतु । कीट । ३. पशु । जानवर (को०) ।
⋙ जगन्मय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।
⋙ जगन्मयी
संज्ञा पुं० [सं०] १. लक्ष्मी । २. समस्त संसार को चलानेवाली शक्ति ।
⋙ जगन्माता
संज्ञा स्त्री० [सं० जगत् + मातृ] १. दुर्गा का एक नाम । २. लक्ष्मी [को०] ।
⋙ जगन्मोहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. महामाया ।
⋙ जगपतिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यज्ञपत्नी] याज्ञिकों की वे स्त्रियाँ जो कृष्ण को भोजन देने गई थीं । उ०—जगपतिनीन अनुग्रह दैन । बोले तब हरि करुना ऐन ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०० ।
⋙ जगप्रान पु
संज्ञा पुं० [जगत् + प्राण] वायु । समीरण । उ०— थावत ही हेमंत तो कंपन लगो जहान । कोक कोकनद भे दुखी अहित भए जगप्रान ।—दीन० ग्रं०, १९५ ।
⋙ जगबंद पु
वि० [सं० जगत् + वन्द्य] जिसकी वंदना संसार करे । संसार द्वारा पूजित । जगद्वंद्य । उ०—आपनपौ जु तज्यों जगबंद है ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ जगबीती
संज्ञा स्त्री० [हिं० जग + बीती] जगत् की चर्चा । लौकिक वृत्त ।
⋙ जगभिषक पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + भिषक्] सोंठ ।—अनेकार्थ०; पु० १०४ ।
⋙ जगमग (१)
वि० [अनु०] १. प्रकाशित । जिसपर प्रकाश पड़ता है । २. चमकीला । चमकदार । उ०—हंसा जगमग जगमग होई ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ६ ।
⋙ जगमग (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'जगमगाहट' । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ जगमगना पु
वि० [हिं० जगमग] जगमगानेवाला । जगमग करनेवाला । चमकनेवाला । उ०—फूलन के खंभा दोऊ फूलन के डाड़ी चारु, फूलन की चौकी बनी हीरा जगमगना ।—नंद ग्रं०, पृ० ३७४ ।
⋙ जगमगा
वि० [हिं० जगमग] दे० 'जगमग' । उ०—जगमगा चिकुर अतिहि सोहै राजै जैसे पुरसही ।—कबीर सा०, पृ० १०४ ।
⋙ जगमगाना
क्रि० अ० [अनु०] किसी वस्तु का स्वयं अथवा किसी का प्रकाश पड़ने के कारण खूब चमकना । झलकना । दमकना । उ०—तरनितनया तीर जगमगत ज्योतिमय पुहमि पै प्रगट सब लोक सिरताजै ।—घनानंद, पृ० ४६२ ।
⋙ जगमगाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० जगमग] चमक । चमचमाहट । जगमगाने का भाव ।
⋙ जगमोहना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जग + मोहन] मंदिर का बाहरी प्रांगण । उ०—सो वह ब्रह्मन तो बाहिर जगमोहन में प्रभुन की आज्ञा पाय के बैठ्यो ।—दो सौ बावन०; भा० १, पृ० २९१ ।
⋙ जगमोहन (२)
वि० [सं० जगत् + मोहन] [वि० स्त्री० जगमोहिनी] विश्व को मुग्ध करनेवाला ।
⋙ जगर
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । जिरहबकतर ।
⋙ जगरन पु †
संज्ञा पुं० [सं० जागरण] दे० 'जागरण' उ०— जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ जगरनाथ †
संज्ञा पुं० [सं० जगन्नाथ] दे० 'जगन्नाथ' ।
⋙ जगरमगर
संज्ञा पुं० [हिं०] १. चकपकाहट । चकाचौंध । २. माया । दे० 'जगमग' । उ०—जगरभगर को खेल कोऊ नर पावई । लोक की फेर जो सबै नचावई ।—गुलाल०, पृ० ६९ ।
⋙ जगरा †
संज्ञा स्त्री० [सं० शर्करा] खजूर की खाँड़ ।
⋙ जगल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिष्टी नामक सुरा । पीठी से बना हुआ मद्य । २. शराब की सीठी । कल्क । ३. मदन वृक्ष । मैनी । ४. कवच । ५. गोमय । गोबर ।
⋙ जगल
वि० धूर्त । चालाक ।
⋙ जगवाना
क्रि० स० [हिं० जगना] १. सोते से उठवाना । निद्रा भंग करवाना । २. किसी वस्तु को अभिमंत्रित करके उसमें कुछ प्रभाव लाना ।
⋙ जगसूर पु
संज्ञा पुं० [सं० जगत् + सूर] राजा (क्व०) । उ०— बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा । ए जगसूर ! सीउ मोहिं लागा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जगहँसाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जग + हँसाई] लोकनिंदा । बदनामी । कुख्याति । उ०—बेवफाई न कर खुदा सूँ डर । जगहँसाई न कर खुदा सूँ डर ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ५ ।
⋙ जगह
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायगाह] १. वह अवकाश जिसमें कोई चीज रह सके । स्थान । स्थल । जैसे,—(क) उन्होंने मकान बनाने के लिये जगह ली है । (ख) यहाँ तिल धरने को जगह नहीं है । क्रि० प्र०—करना ।—छोड़ना ।—देना ।—निकालना ।—पाना । ।—बनाना ।—मिलना, आदि । मुहा०—जगह जगह = सब स्थानों पर । सब जगह । २. स्थिति । पद । विशेष—कुछ लोग इस अर्थ में 'जगह' को क्रिया विशेषण रूप में बिना विभक्ति के ही बोलते हैं । जैसे,—हम उन्हें भाई की जगह समझते हैं । ३. मौका । स्थल । अवसर । ४. पद । ओहदा । जैसे,—(क) दो महीने हुए उन्हें कलक्टरी में जगह मिल गई । (ख) इस दफ्तर में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है ।
⋙ जगहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० जगना] जगना । जगने की अवस्था । जगने का भाव ।
⋙ जगाजोत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] जगर मगर । जगमगाहट ।
⋙ जगात †
संज्ञा पुं० [अ० जगात] १. वह धन आदि जो पुण्य के लिये दिया जाय । दान । खैरात । २. महसूल । कर ।
⋙ जगाती †
संज्ञा पुं० [हिं० जगात या फा़० जकाती] १. महसुल या कर लगानेवाला कर्मचारी । वह जो कर वसूल करे । उ०—घर के लोग जगाती लागे छीन लेंय करधनिया ।—कबीर श०, भा० १, पृ० २२ । २. कर उगाहने का काम या भाव ।
⋙ जगाना
क्रि० स० [हिं० जागना या जगना का प्रे० रूप] नींद त्यागने के लिये प्रेरणा करना । जैसे,—वे बहुत देर से सोए हैं, उन्हें जगाओ । २. चेत में लाना । होश दिलाना । उद्धोधन कराना । चैतन्य करना । ३. फिर से ठीक स्थिति में लाना । ४. बुझती या बहुत धीमी आग को तेज करना । सुलगाना । ५. गाँजा । आदि की अग्नि को तेज करना, जैसे, चिलम जगाना । ६. यंत्र या सिद्धि आदि का साधन करना । जैसे,—मंत्र जगाना । भूत प्रेत जगाना । संयों० क्रि०—डालना ।—देना ।—रखना ।—लेना ।
⋙ जगामग
वि० [अनु०] दे० 'जगमग' । उ०—चमकत नूर जहूर जगामग ढाके सकल सरीर ।—भीखा० श०, पृ० २४ ।
⋙ जगार
संज्ञा स्त्री० [हिं० जग + आर (प्रत्य०)] जागरण । जागृति । उ०—नैना ओछे चोर सखी री । श्याम रूप निधि नेखे पाई देखन गए भरी री । कहा लेहि, कह तजै, विवश भय तैसी करनि करी री । भोर भए मोरे सो ह्वै गयो धरे जगार परी री ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ जगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मोर की जाति का एक पक्षी । जवाहिर नाम का पक्षी । विशेष—यह शिमले के आसपास के पहाड़ो में मिलता है और प्रायः दो हाथ लंबा होता है । नर के सिर पर लाल कलगी होती है और मादा के सिर पर गुलाबी रंग की गाँठें होतीं हैं । नर का सिर काला, गला लाल और पीठ गुलाबी रंग की होती है और उसके पखों पर गुलाबी धारियाँ होती हैं । उसकी दुम लंबी और काली होती है और छाती तथा पेट के नीचे के पर भी काले होते हैं जिनपर ललाई की झलक होती है और एक छोटी सफेद बिंदी भी होती है । मादा का रंग कुछ मैला और पीलापन लिए होता है । यह पक्षी दस दस बारह बारह के झुंड में रहता है । जाड़े के दिनों में यह गरम देशों में आकर रहता है । इसकी बोली बकरी के बच्चे की तरह होती है और यह उड़ते समय चात्कार करता है । इसका चीत्कार बहुत दूर तक सुनाई पड़ता है । अँगरेज लोग इसका शिकार करते हैं । इसे जवाहिर भी कहते हैं ।
⋙ जगीर †
संज्ञा स्त्री० [फा़० जागीर] दे० 'जागीर' । उ०—फाका जिकर किनात ये तीनों बात जगीर ।—पलटू०, भा० १, पृ० १४ ।
⋙ जगीस पु
संज्ञा पुं० [हिं० जग + ईस] दे० 'जगदीश' । उ०— मिले सब पित्र सु दीन असीस । भए सुअ निरभय पित्र जगीस । रासो, पृ० ८ ।
⋙ जगीला †
वि० [हिं० जागना] जागने के कारण अलसाया हुआ । उनींदा । उ०—दुरति दुराए ते न रति, बलि कुंकुम उर मैन । प्रगट कहै पति रतजगे जगी जगीले नैन ।—शृं० सत० (शब्द०) ।
⋙ जगुरि
संज्ञा पुं० [सं०] जंगम ।
⋙ जगौया †
वि० [हिं० जागना] १. जगानेवाला । प्रबुद्ध करनेवाला । २. जागनेवाला ।
⋙ जगोटा †
संज्ञा पुं० [हिं० जोग + बाट] योग का मार्ग । जोगियों का पंथ । उ०—कवन जगोटा कवन अधारी ।—प्राण०, पृ० ७९ ।
⋙ जगौहाँ पु †
वि० [हिं० जागना] दे० 'जगीला' ।
⋙ जग्ग पु † (४)
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ, प्रा० जग्ग] दे० 'यज्ञ' । उ०— आयौ सु गंग तट काज जग्ग ।—पृ० रा०, १ ।५७५ ।
⋙ जग्ग (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० जगत्] संसार ।
⋙ जग्ध (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन । आहार । खाना । २. वह स्थान जहाँ भोजन किया गया हो [को०] ।
⋙ जग्ध (३)
वि० खाया हुआ । भुक्त । भक्षित [को०] ।
⋙ जग्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खाने की क्रिया । भोजन । २. कई आदमियों का साथ मिलकर खाना । सहभोजन ।
⋙ जग्मि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा ।
⋙ जग्मि (२)
वि० जो चलता हो । जो गति में हो ।
⋙ जग्य (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ] दे० 'यज्ञ' । उ०—पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ।—मानस, १ ।६१ । यौ०—जग्यउपवीत = यज्ञोपवीत ।
⋙ जग्योपवीत पु
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञोपवीत] दे० 'यज्ञोपवीत' । कमलासन आसनह मंडि जग्योपवीत जुरि ।—पृ० रा०, १ ।२५५ ।
⋙ जघन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटि के नीचे आगे का भाग । पेड़ू । २. नितंब । चूतड़ । उ०—सरस विपुल मम जघनन पर कल किंकिनि कलश सजावो ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ३. सेना का पिछला भाग । उपयोगार्थ संरक्षित सैन्यदल (को०) । यौ०—जघनकूप = दे० 'जघनकूपक' । जधनगौरव । जघनचपला ।
⋙ जघनकूपक
संज्ञा पुं० [सं०] चूतड़ पर का गड़ढा ।
⋙ जघनगौरव
संज्ञा पुं० [सं०] नितंब की गुरुता । नितंबभार [को०] ।
⋙ जघनचपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामुकी स्त्री । २. कुलटा । ३. आर्या छंद के सोलह भेदों में से एक । वह मात्रावृत्त जिसका प्रथमार्ध आर्या छंद के प्रथमार्ध का सा और द्रितीयार्ध चपला छंद के द्वितीयार्ध का सा हो ।
⋙ जघनी
वि० [सं० जघनिन्] बड़े नितंबों से युक्त [को०] ।
⋙ जघनेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठूमर ।
⋙ जघन्य (१)
वि० [सं०] १. अंतिम । चरम । २. गर्हित । त्याज्य । अत्यंत बुरा । ३. क्षुद्र । नीच । निकृष्ट । ४. निम्न कुलोत्पन्न । नीच कुल का (को०) ।
⋙ जघन्य (२)
संज्ञा पुं० १. शूद्र । २. नीच जाति । हीन वर्ण । ३. पीठ का वह भाग जो पुट्ठे के पास होता है । ४. राजाओं के पाँच प्रकार के संकीर्ण अनुचरों में से एक । विशेष—बृहत्संहिता के अनुसार ऐसा आदमी घनी, मोटी बु्द्धि का, हँसोड़ और क्रूर होता है ओर उसमें कुछ कवित्व शक्ति भी होती है । ऐसे मनुष्य के कान अर्धचंद्राकार, शरीर के जोड़ अधिक दृढ़ और उँगलियाँ मोटी होती हैं । इसकी छाती, हाथों और पैरों में तलबार् और खाँड़े आदि के से चिह्न होते हैं । ५. दे० जघन्यभ । ६. लिंग । शिश्न (को०) ।
⋙ जघन्यज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र । २. अंत्यज । ३. छोटा भाई (को०) ।
⋙ जघन्यता
संज्ञा स्त्री० [सं० जधन्य + ता (प्रत्य०)] क्रूरता । क्षुद्रता । नीचता । उ०—अपने कुरूप मंदबुद्धि बालक के स्थान और स्वत्व को दूसरे के बालक को दे देना कैसी कुछ विचित्र मूर्खता और जघन्यता है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६६ ।
⋙ जघन्यभ
संज्ञा पुं० [सं०] आर्द्रा, अश्लेषा, श्वाति, ज्येष्ठा, भरणी और शतभिषा ये छह नक्षत्र ।
⋙ जघ्नि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वध करता हो । २. वह अस्त्र जिससे वध किया जाय ।
⋙ जघ्नु
वि० [सं०] निहंता । प्रहारक । वधकारी [को०] ।
⋙ जघ्रि
वि० [सं०] १. सूँघनेवाला । २. अनुमानयुक्त [को०] ।
⋙ जचगी
संज्ञा स्त्री० [फा़० जचगी] प्रसव की अवस्था । प्रसूतावस्था । [को०] ।
⋙ जचना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'जँचना' ।
⋙ जचा
संज्ञा स्त्री० [फा़० जच्चह्] दे० 'जच्चा' ।
⋙ जच्चा
संज्ञा स्त्री० [फा० जच्चह्] प्रसूता स्त्री । वह स्त्री जिसे तुरंत संतान हुई हो । विशेष—प्रसव के बाद चालीस दिनों तक स्त्रियाँ जच्चा कहलाती हैं । यौ०—जच्चाखाना = सूतिकागृह । सौरी । जच्चा बच्चा = प्रसूता और प्रसूत संतति । जच्चागरी, जच्चागीरी = धात्री कर्म । बच्चा पैदा कराने का काम । कौमारभृत्य ।
⋙ जच्छ †
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्ख, जच्छ] दे० 'यक्ष' । उ०— देखि विकट भट बड़ि कटकाई । जच्छ जीव लै गए पराई ।— मानस, १ ।१७९ । यौ०—जच्छपति । जच्छराज । जच्छेश ।
⋙ जच्छपति पु
संज्ञा पुं० [सं० यक्षपति] यक्षों के स्वामी । कुबेर; उ०—अब तहँ रहहि सक्र के प्रेरे । रच्छक कोटि जच्छपति केरे ।—मानस, १ ।१७९ ।
⋙ जज (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. न्यायाधीश । विचारपति । न्याय करनेवाला । २. दीवानी और फौजदारी के मुकदमों का फैसला करनेवाला बड़ा हाकिम । विशेष—भारतबर्ष में प्रायः एक या अधिक जिलों के लिये एक बज होता हैं, जो डिस्ट्रिक्ट जज (जिला जज) कहलाता है । जिले के अंदर अंतिम अपील जज के यहाँ हो होती है । यौ०—दौरा या सेशंस (सेशन) जज = वह जज जो कई जिलों में घूम घूमकर कुछ विशेष बड़े मुकदमों का फैसला कुछ विशिष्ट अवसरों पर करें । सबजज = दे० 'सदराला' । सिविल जज = दीवानी की छोटी अदालत का हाकिम ।
⋙ जज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] योद्धा ।
⋙ जजन पु
संज्ञा पुं० [सं० यजन, प्रा० जजन] यज्ञ कार्य । यज्ञ करना । उ०—तीरथ ब्रत आदि देवा पूजन जजन । सत नाम जाने बिना नर्क परन ।—भीखा० श०, पृ० २२ ।
⋙ जजना पु
क्रि० स० [सं० यजन] सम्मान करना । आदर करना । पूजा करना । उ०—कलि पूजैं पाखंड़ कों जजै नश्रुति आचार । मागध नट विट दान दै तथा न द्विज करे प्यार ।—दीन० ग्रं०, पृ० ७६ ।
⋙ जजबात
संज्ञा पुं० [अं० जज्वह् का बहुव० जज्बात] भावनाएँ । विचार । उ०—लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवाह नहीं करते तो ।—काया०, पृ० ४२ ।
⋙ जजमनिका †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जजमान] पुरोहिती । उपरोहिती । यजमानी ।
⋙ जजमान
संज्ञा पुं० [सं० यजमान] दे० 'यजमान' ।
⋙ जजमानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जजमान + ई (प्रत्य०)] दे० 'यजमानी' ।
⋙ जजमेंट
संज्ञा पुं० [अं०] फैसला । निर्णय । जैसे,—मामले की सुनवाई हो चुकी, अभी जजमेंट नहीं सुनाया गया ।
⋙ जजा
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रतिकार । बदला । प्रतिफल । परिणाम उ०—किसे दिन गुजर गए वले इस बजा । न पाया बुताँ ते उनें कुच जजा ।—दक्खिनी०, पृ० २६५ ।
⋙ जजात पु
संज्ञा पुं० [सं० ययाति] दे० 'ययाति' । उ०—बलि वैणु अंबरीष मानधाता प्रहलाद कहिये कहाँ लौ कथा रावण जजात की ।—राम० धर्म०, पृ० ६४ ।
⋙ जजाल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जजाल] एक प्रकार की बंदूक । दे० 'जंजाल'—४ । उ०—कितेक लंबय्रीव चढ्ढि लै जजाल दग्गई ।—सुजान०, पृ० ३० ।
⋙ जजिमान
संज्ञा पुं० [सं० यजमान] दे० 'यजमान' ।
⋙ जजिया
संज्ञा पुं० [सं० जिज्यह] १. दंड़ । २. एक प्रकार का कर जो मुसलमानी राज्यकाल में अन्य धर्मवालों पर लगता था ।
⋙ जजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जज + ई (प्रत्य०)] १. जज की कचहरी । जज की अदालत । २. जज का काम । जज का पद या ओहदा ।
⋙ जजीरा
संज्ञा पुं० [अ० जजीरह] टापू । द्वीप । यौ०—जजीरानुमा = जमीव का वह भाग जो तीन, ओर पानी से घिरा हो ।
⋙ जजु पु
संज्ञा पुं० [सं० यजुष्, प्रा० जउ, जजु] दे० 'यजुर्वेद' । उ०— चतुर वेद मति सव ओहि पाहाँ । रिग जजु साम अथर्वन माहाँ ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पु० १९१ ।
⋙ जजुर पु
संज्ञा पुं० [सं० थजुष] दे० 'यजुर्वेद' । उ० जजुर कहैं सरगुन परमेसर, दस औतार धराया ।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ५४ ।
⋙ जज्ज †
संज्ञा पुं० [अं० जज] दे० 'जज' । उ०—फूलि न जो तू लै ययो राजा बाबू आमला जज्ज ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५५१ ।
⋙ जज्ब
संज्ञा पुं० [अ० जज्ब] १. आकर्षण । खिचाव । २. नेस्ती । ३. सोखना । आत्मसात् करना [को०] ।
⋙ जज्बा
संज्ञा पुं० [अ० जज्बह्] भावना । भाव । मनोवृत्ति । उ०— उ०—जोश और जज्बा का झंझा, औ तूफान किसी ने फूंके ।—बंगाल०,पृ० ४४ । यौ०—जज्बए इश्क = प्रेम का आकर्षण । जज्बए दिल = हृदय की भावना या आकर्षण ।
⋙ जज्बाती
वि० [अ० जज्बाती] भावना में बहनेवाला । भावुक [को०] ।
⋙ जझकना पु
क्रि० अ० [अनु०] बिचकना । उझकना । चौंकना । उ०—जझकत झझकत लाल तंरंगहि ।—माधवानल०, पृ० १९४ ।
⋙ जझर †
संज्ञा पुं० [हिं० झरना] लोहे की चद्दर का तिकोना टुकड़ा जो उसमें से तवे काटने के बाद बच रहता है ।
⋙ जज्ञ पु †
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ] दे० 'यज्ञ' । उ०—केन वारि समुझाने भँवर न काटे बेध । कहैं मरौ तै चितउर जज्ञ करौ असुमेध ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जज्ञास पु
वि० [सं० जिज्ञासु] दे० 'जिज्ञासु' । उ०—जो कोई जज्ञास है, सदगुरु सरणै जाइ । सुंदर ताहि कृपा करे ज्ञान कहैं समुझाइ ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ ८१५ ।
⋙ जट (१)
संज्ञा पुं० [देश० हिं० झाड़] एक प्रकार का गोदना जो झाड़ी के आकार का होता है ।
⋙ जट (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जाट' ।
⋙ जट पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० जटा] दे० 'जटा' । उ०—मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ माँटी । मण दसना जट का दस गाँठी ।—कबीर ग्रं०, पृ० १७६ । यौ०—जटजूट = जटाजूट । उ०—कोदंड कठिन चढाइ सिर जटजूट बाँधत सोह क्यों ।—मानस, ३ ।१२ ।
⋙ जटना (१)
क्रि० स० [हिं० जाट] धोखा देकर कुछ लेना । ठगना । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।
⋙ जटना पु (२)
क्रि० स० [सं० जटन] जड़ना । ठोंककर लगाना । उ०—पाट जटी अति श्वेत सो हीरन की अवली ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ जटल
संज्ञा स्त्री० [सं० जटिल] व्यर्थ और झूठ मूठ की बात । गप । बकवाद । उ०—अपना बहुत समय...... इघर उधर की जटल हाँकने में खो देते हैं ।—शिक्षागुरू (शब्द०) । क्रि० प्र०—मारना ।—हाँकना । यौ०—जटल काफिया = गपशप । बेतुकी बात । ऊटपटाँग बात । जटलबाज = बकवादी । गप हाँकनेवाला ।
⋙ जटल्ली †
वि० [हिं० जटल] गप्पी । जटलबाज ।
⋙ जटवा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० जटा] दे० 'जटा' । उ०—कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले ।—कबीर० श०, भा० २, पृ० १५ ।
⋙ जटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक में उलझे हुए सिर के बहुत बड़े बड़े बाल, जैसे प्रायः साधुओं के होते हैं । पर्या०—जटा । जटि । जटी । जूट । शट । कोटीर । हस्त । २. जड़ के पतले पतले सूत । झकरा । ३. एक में उलझे हुए बहुत से रेशे आदि । जैसे, नारियल की जटा, बरगद की जटा । ४. शाखा । ५. जटामाँसी । ६. जूट । पाट । ७. कौंछ । केवाँच । ८. शातावर । ९. रुद्रजटा । बालछड़ । १०. वेदपाठ का एक भेद जिसमें मत्र के दो या तीन पदों को क्रमानुसार पूर्व और उत्तरपद को पृथक् पृथक् फिर मिला— कर दो बार पढ़ते हैं ।
⋙ जटाऊ पु
संज्ञा पुं० [सं० जटायु] दे० 'जटायु' । उ०—आगे मारग रोक जटाऊ । मार गयो तिहिं रावण राऊ ।—कबीर सा०, पृ० ४० ।
⋙ जटाचीर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।
⋙ जटाजिनी
संज्ञा पुं० [सं० जटाजिनिन्] जटा और मृगचर्म धारण करनेवाला ।
⋙ जटाजूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. जटा का समूह । बहुत से लंबे बढ़े हुए बालों का समूह । उ०—जटाजूट दृढ़ बाँधे माथे ।—मानस, ६ ।८५ । २. शिव की जटा ।
⋙ जटाज्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] दीप । चिराग [को०] ।
⋙ जटाटंक
संज्ञा पुं० [सं० जटाटङ्क] शिव । महादेव ।
⋙ जटाटीर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव ।
⋙ जटाधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. एक बुद्ध का नाम । ३. दक्षिण के एक देश का नाम जिसका वर्णन वृहत्संहिता में आया है । ४. जटाधारी । ५. संस्कृत के एक कोशकार का नाम (को०) ।
⋙ जटाधारी (१)
वि० [सं० जटाघारिन्] जो जटा रखे हो । जिसके जट हो । जटावाला ।
⋙ जटाधारी (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । महादेव । २. मरसे की जाति का एक पौधा जिसके ऊपर कलगी के आकार के लहरदार लाल फूल लगते हैं । मुर्गकेश । ३. साधु । बैरागी ।
⋙ जटाना (१)
क्रि० स० [हिं० जटना] जटने का प्रेरणर्थक रूप ।
⋙ जटाना (२)
क्रि० अ० [हिं० जटना] धोखे में आकर अपनी हानि कर बैठना । ठगा जाना ।
⋙ जटापटल
संज्ञा पुं० [सं०] वेदपाठ करने का एक बहुत जटिल प्रकार या क्रम । कहते हैं, यह क्रम हयग्रीव ने निकाला था ।
⋙ जटामंडल
संज्ञा पुं० [सं० जटामण्डल] जटाजूट । जूड़ा़ । जटापिंड [को०] ।
⋙ जटामाली
संज्ञा पुं० [सं० जटामालिन्] महादेव । शिव ।
⋙ जटामांसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जटामासी' ।
⋙ जटामासी
संज्ञा स्त्री० [सं० जटामांसी] एक सुगांधित पदार्थ जो एक बनस्पति की जड़ है । बालछड़ । बालूचर । विशेष—यह वनस्पति हिमालय में १७००० फुट तक की ऊँचाई पर होती है । इसकी डालियाँ एक हाथ से डेढ़ दो हाथ तक लंबी और सोंके की तरह होती हैं जिनमें आमने सामने डेढ़ दो अंगुल लंबी और आधे से एक अंगुल तक चौड़ी पत्तियाँ होती हैं । इसके लिये पथरीली भूमि, जहाँ पानी पड़ा करता हो या सर्दि बनी रहती हो, अधिक उत्तम है । इसमें छोटी उँगली के बराबर मोटी काली भूरी पत्तियाँ होती हैं जिनपर तामड़े रंग के बाल या रेशे होते हैं । इसकी गंध तेज और मीठी तथा स्वाद कड़ुआ होता हैं । वैद्यक में जटामासी बलकारक, उत्तेजक, विषघ्न तथा उन्माद और कास, श्वास आदि को दूर करनेवाली मानी गई है । लोगों का कथन है कि इसे लगाने से बाल बढ़ते और काले होते हैं । खींचने से इसमें से एक प्रकार का तेल भी निकलता है जो औषध और सुगंध के काम आता है । २८ सेर जटामासी में से डेढ़ छटाँक के लंगभग तेल निकलता है । इसे वालछड़, बालूचर आदि भी कहते हैं ।
⋙ जटायु
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण का एक प्रसिद्ध गिद्ध । विशेष—यह सूर्य के सारथी अरुण का पुत्र था जो उसकी श्येनी नाम्नी स्त्री से उत्पन्न हुआ था । यह दशरथ का मित्र था और रावण से, जब वह सीता को हरण कर लिए जाता था, लड़ा था । इस लड़ाई में यह घायल हो गया था । रामचंद्र के आने पर इसने रावण के सीता को हर ले जाने का समाचार उनसे कहा था । उसी समय इसके प्राण भी निकल गए थे । रामचंद्र ने स्वयं इसकी अंत्योष्टि क्रिया की थी । संपाति इसका भाई था । २. गुग्गुल ।
⋙ जटाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बटबृक्ष । बरगद । २. कचूर । ३. मुष्कक । मोखा । ४. गुग्गुल ।
⋙ जटाल (२)
वि० जटाधारी । जो जटा रखे हो ।
⋙ जटाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी ।
⋙ जटाव (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काली मिट्टी जिससे कुम्हार घड़े आदि बनाते हैं । कुम्हरौटी ।
⋙ जटाव † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जटना] जट जाने या जटने की क्रिया ।
⋙ जटावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी ।
⋙ जटावल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुद्रजटा । शंकरजटा । २. एक प्रकार की जटामासी जिसे गंधमासी भी कहते हैं ।
⋙ जटासुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध राक्षस । विशेष—यह द्रौपदी के रूप पर मोहित होकर ब्राह्मण के वेश में पांडवों के साथ मिल गया था । एक बार इसनें भीम की अनुपस्थिति में द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव को हरण कर ले जाना चाह था, पर मार्ग में ही भीम ने इसे मार डाल था । २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम ।
⋙ जटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्लक्ष वृक्ष । पाकर का पेड़ । २. बरगद का पेड़ । ३. जटा । ४. समूह । ५. जटामासी ।
⋙ जटित
वि० [सं०] जड़ा हुआ । जैसे, रत्नजटित ।
⋙ जटियल
वि० [हिं० जटल] १. निकम्मा । रद्दी । २. नकली । दिखावटी । ३. जटनेवाला ।
⋙ जटिल (१)
वि० [सं०] १. जटावाला । जटाधारी । २. अत्यंत कठिन । जटा के उलझे हुए बालों की तरह जिसका सुलझना बहुत कठिन हो । दुरूह । दुर्बोध । ३. क्रूर । दुष्ट । हिंसक ।
⋙ जटिल (२)
संज्ञा पुं० १. सिंह । २. ब्रह्मचारी । ३. जटामासी । ४. शिव । विशेष—जिस समय शिव के लिये पार्वती हिमालय पर तपस्या कर रही थीं, उस समय शिव जी जटिल वेश धारण करके उनके पास गए थे । उसी के कारण उनका यह नाम पड़ा । ५. बकरा (को०) । ६. साधु (को०) ।
⋙ जटिलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम । २. इस ऋषि के वंशज ।
⋙ जटिलता
संज्ञा स्त्री० [सं० जटिल + ता (प्रत्य०)] कठिनाई । उलझन । पेचीदगी ।
⋙ जटिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मचारिणी । २. जटामासी । ३. पिप्पली । पीपल । ४. वचा । बच । ५. दौना । दमनक । ६. महाभारत के अनुसांर गौतम वंश की एक ऋषिकन्या का नाम जिसका विवाह सात ऋषिपुत्रों से हुआ था । यह बड़ी धर्मपरायण थी ।
⋙ जटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाकर । २. जटामासी । दे० 'जटि' ।
⋙ जटी (२)
संज्ञा पुं० [सं० जटिन्] १. शिव । २. प्लक्ष या वट का वृक्ष । ३. वह हाथी जो साठ वर्ष का हो [को०] ।
⋙ जटी (३)
[सं० जटिन्] [वि० स्त्री० जटिनी] जटाधारी उ०—विमन जटी, तपसी भए मुनि मन गति भूली ।—छीत०, पृ० २० ।
⋙ जटी पु
वि० [सं० जटित] दे० 'जटित' ।—उ०—जौ पै नहि होती ससिमुखी मृगनैनी केहरि कटी, छवि जटा की सी छटी रस लपटी छूटी छटी—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९३ ।
⋙ जटुल
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के चमड़े पर का एक विशेष प्रकार का दाग या धब्बा जो जन्म से होता है । लोग इसे लच्छन या लक्षण कहते हैं ।
⋙ जटुली †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बच्चों के केश । उ०—धूलि धूसर जटा जटुली हरि लियो हर भेष ।—पोद्धार अभि० ग्रं० पृ० २५२ ।
⋙ जट्टा †
संज्ञा पुं० [हिं० जाट] जाट जाति ।
⋙ जट्टी
संज्ञा स्त्री० [देश०] जली तंबाकू । उ०—एक ही फूंक में चिलम की जट्टी तक चूस जाते ।—प्रेमघन०, भा०२. पृ० ८४ ।
⋙ जट्टू †
वि० [हिं० जटना] ठगनेवाला । गैरवाजिब मूल्य लेनेवाला ।
⋙ जठर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट । कुक्षि । यौ०—जठरगद । जठरज्वाल = भूख । जठरज्वाला । जठरयंत्रणा, जठरयातना = गर्भवास का कष्ट । जठराग्नि । जठरानल । २. भागवत पुराणानुसार एक पर्वत का नाम । विशेष—यह मेरु के पूर्व उन्नीस हजार योजन लंबा हो और नील पर्वत से निषघ गिरि तक चला गया है । यह दो हजार योजच चौड़ा और इतना ही ऊँचा है । ३. एक देश का नाम । विशेष—बृहत्संहिता के मत से यह देश श्लेषा, मघा और पूर्वा- फाल्गुनी के अधिकार मैं है । महाभारत में इसे कुक्कुर देश के पास लिखा है । ४. सुश्रुत के अनुसार एक उदर रोग । विशेष—इस उदर रोग में पेट फूल जाता है । इसमें रोगी बलहीन और वर्णहीन हो जाता है तथा उसे भोजन से अरुचि हो जाती है । ५. शरीर । देह । ६. मरकत मणि का एक दोष । विशेष—कहते हैं कि इस दोषयुक्त मरकत के रखने से मनुष्य दरिद्र हो जाता है ।
⋙ जठर (२)
वि० १. बृद्ध । बूढ़ा । २. कठिन । ३. बँधा हुआ (को०) ।
⋙ जठरगद
संज्ञा पुं० [सं०] आँत की व्याधि [को०] ।
⋙ जठरज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुधाग्नि । बुभुक्षा । भूख । २. उदर की पीड़ा । उदरशुल [को०] ।
⋙ जठरनुत्
संज्ञा पुं० [सं०] अमलतास ।
⋙ जठरा †
वि० [हिं० जेठ या जठर] [वि० स्त्री० जेठरी] जेठा । बड़ा ।
⋙ जठरागि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जठराग्नि] दे० 'जठराग्नि' ।
⋙ जठराग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेट की वह गरमी या अग्नि जिसमें अन्न पचता है । विशेष—वित्त की कमी वे/?/से जठराग्नि चार प्रकार की मानी गई है; नंदाग्नि, विषमाग्नि, तीक्ष्अग्नि, और समाग्नि ।
⋙ जठरानल
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जठराग्नि' ।
⋙ जठरामय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतिसार रोग । २. चलोदर रोग ।
⋙ जठल
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल का एक प्रकार का जलपात्र जिसका आकार उदर का सा होता था ।
⋙ जठारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जेठारी] दे० 'जेठावी' । ड०—देखि जठाणी, लागौ छड़ जैठ ।—यी० रासो, पृ० ६९ ।
⋙ जठागनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जठराग्वि] दे० 'जठराग्नि' । उ०— कइ खाय सिराय पचाय जठागनि दाय सहाय सबाय मरै ।— राम०/?/०, पृ० ३०५ ।
⋙ जठोड़ी
वि० [हिं० जूठा + औड़ी (प्रत्य०)] जूठा कर देनेवाला । जूठा करनेवालौ स्वभाव का । (भ्रमर) । उ०—चंचरीक चेटुवा को लागो है चरन, कुभि अग्रभाग तग्र मृदु मंजुल जठोड़ी को ।—पजनेस०, पृ० २१ ।
⋙ जठेरा
वि० [हिं० जेठ या जठर] [स्त्री० जठेरी] जेठा । बड़ा । उ०—बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी ।—मानस, २ ।४९ ।
⋙ जड
वि०, संज्ञा पु० [सं०] दे० जड़ [को०] ।
⋙ जडक्रिय
वि० [सं०] सुस्त । दिर्घसूत्री ।
⋙ जडुल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जडुल' [को०] ।
⋙ जडूला †
संज्ञा पुं० [देश०] मारवाड़ में बच्चे के मुंडन संस्कार को जडूला कहते हैं ।—उ०—दादू ही कौ सब शुभ और अशुभ कार्यो (विवाह, जन्म, जडूला) में मानते है और स्मरण करते हैं ।—सुंदर ग्रं० (जी०), भा० १पृ०८ ।
⋙ जड्ड पु
वि० [सं० जड़] दे० 'जड़' । उ०—बाहर चेतन की रहन, भीतर जड्ड अचेत ।—दरिया० बानी, पृ० ३४ ।
⋙ जड्डा पु
संज्ञा स्त्री० [सं जटा] दे० 'सटा' । उ०—न तिष्षा गिर बज्र कै पुंछन तिष्षारे । कंध सु जड्डा केहरी नेना ज्यों तारे ।—पृ० रा०, २४ ।१४६ ।
⋙ जड़ (१)
वि० [सं० जड] १. जिसमें चेतनता न हो । अचेतन । २. जिसकी इंद्रियों की शक्ति मारी गई हो । चेष्टाहीन । स्तब्ध ३. मंदबुद्धि । नासमझ । मूर्ख । ४. सरदी का मार याठिठुरा हुआ । ५. शीतल । ठंढा । ६. गुँगा । मूक । ७ जिसे सुनाई न दे । बहरा । ८. अनजाना । अनभिज्ञ । ९. जिसके मन में मोह हो । जो वेद पढ़ने में असमर्थ हो (दायभाग) ।
⋙ जड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० जडम्] १. जल । पानी । २. बरफ । ३. सीसा नाम की धातु । ४. कोई भी अचेतन पदार्थ (को०) ।
⋙ जड़ (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० जटा (= वृक्ष की जड़)] वृक्षों और पौधों आदि का वह भाग जो जमीन के अंदर दबा रहता है और जिसके द्वारा उनका पोषण होता है । मूल । सोर । विशेष—जड़ के मुख्य दो भेद हैं । एक मूसल या डंडे के आकार की होती है और जमीन के अंदर सीधी नीचे की और जाती है; और दूसरी झकरा जिसके रेशे जमीन के अंदर बहुत नीचे नहीं जाते और थोड़ी ही गहराई में चारो तरफ फैलते है । सिचाई का पानी और खाद आदि जड़ के द्रारा ही वृक्षों और पौधों तक पहुँचती है । यौ०—जड़मूल । वह जिसके ऊपर कोई चीज स्थित हो । नींव । बुनियाद । मुहा०—जड़ उखाड़ना, काटना या खोदना = किसी प्रकार की हानि पहुँचाकर या बुराई करके समूल नाश करना । ऐसा नष्ट करना जिसमें वह फिर अपनी पूर्वस्थिति तक न पहुँच सके । खड़ जमना = द्दढ़ या स्थायी होना । जड़ पकड़ना जमना । दृढ़ होना । मजबूत होना । जड़ पड़ना=नींव पड़ना बुनियाद पड़ना । शुरू होना । जड़ बुनियाद से, जड़मूल से = आमुलतः । समूल । जड़ में पानी देना या भरना = दे० 'जड़ उखाड़ना' । जड़ में मट्ठा डालना = सर्वनाश का प्रयोग करना । जड़ सींचना = आधार को पुष्ट करना । ३. हेतु । कारण । सबब । जैसे,—यही तो सारे झगड़ों की जड़ है । ४. वह जिसपर कोई चीज अवलंबित हो । आधार ।
⋙ जड़आमला
संज्ञा पुं० [हिं० जड़+आमला] भुइँ आँवला ।
⋙ जड़क्रिया
वि० [सं० जड़क्रिय] जिसे कोई काम करने में बहुत देर लगे । सुस्त । दीर्घसूची ।
⋙ जड़काला
संज्ञा पुं० [हिं० जाड़ा + सं० काल] सर्दि के दिन । जाड़े का समय । उ०—लागेउ माघ परै अज पाला । विरहा काल भएउ जड़काला ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५४ ।
⋙ जडजगत
संज्ञा पुं० [सं० जड़ + जगत्] अचेतन पदार्थ । जड्प्रकृति ।
⋙ जड़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० जड़ का भाव, जडता] १. अचेतनता । २. मूर्खता । बेवकूफी । ३. साहित्यदर्पण के अनुसार एक संचारी भाव । विशेष—यह संचारी भाव किसी घटना के होने पर चित्त के विवेकशून्य होने की दशा में होता है । यह भाव प्रायः घबराहट, दुःख, भय या मोह आदि में उत्पन्न होता है । ४. स्तब्धता । अचलता । चेष्टा न करने का भाव । स०—निज जड़ता लोगन पर डारी । होहु हरुअ रधुपतिहि निहारी ।— तुलसी (शब्द०)
⋙ जड़ताई
संज्ञा स्त्री० [सं० जड़ + (वै०) ताति (प्रत्य०) अथवा हिं०] दे० 'जड़ता' । उ०—हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई ।—मानस, १ ।२४९ ।
⋙ जड़त्ब
संज्ञा पुं० [सं० जडत्व] १. चेतनता का विपरीत भाव । अचेतन पदार्थो का वह गुण जिससे वे जहाँ के तहाँ पड़े रहते हैं और स्वयं हिल डोल या किसी प्रकार की चेष्टा आदि नहीं कर सकते । २. स्थिति और मति की इच्छा का अभाव । वैशेषिक के अनुसार परमाणुऔं का एक गुण ।
⋙ जड़ना
क्रि० स० [सं० जटन] [संज्ञा जड़िया, जड़ाई, वि० जड़ाऊ] १. एक चीज को दूसरी चीज में पच्ची करके बैठाना । पच्ची करना । जैसे, अंगुठी में नग जड़ना । २. एक चीज को दूसरी चीज में ठीक कर बैठाना । जैसे, कील जड़ना, नाल जड़ना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—रखना । ३. किसी वस्तु से प्रहार करना । जैसे, धौल जड़ना, थप्पड़ जड़ना । ४. चुगली या शिकायत के रूप में किसी के विरुद्घ किसी से कुछ कहना । कान भरना । जैसे,—किसी ने पहले ही उनसे जड़ दिया था, इसीलिये वे यहाँ नहीं आए । संयो० क्रि०—देना । उ०—और बन्नो को सुनिए कि चट जा के बेगम साहब से जड़ दी कि हुजूर, अब जरी गफलत न करें । सैर कु०, पृ० २९ ।
⋙ जड़पदार्थ
संज्ञा पुं० [सं० जड़ + पदार्थ] भौतिक द्रव्य । अचेतन पदार्थ ।
⋙ जड़प्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० जड़ + प्रकृति] दे० 'जड़जगत' ।
⋙ जड़भरत
संज्ञा पुं० [सं० जडभरत] अंगिरस गोत्री एक ब्राह्मण जो जड़वत् रहते थे । विशेष—भागवत में लिखा है कि राजा भरत ने अपने बानप्रस्थ आश्रम में एक हिरन के बच्चे को पाला था और उसके साथ उनका इतना प्रेम था कि मरते दम तक उन्हें उसकी चिंता बनी रही । मरने पर वे हिरन की योनि में उत्पन्न हुए, पर उन्हें पुण्य के प्रभाव से पूर्व जन्म का ज्ञान बना रहा । उन्होंने हिरन का शरीर त्याग कर फिर ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया । वह संसार की भावना से बचने के लिये जड़वत् रहते थे इसीलिये लोग उन्हें जड़भरत कहते थे ।
⋙ जड़लग
संज्ञा स्त्री० [देश०] तलवार । उ०—सझ सारत समधा सब कोई । जड़लग वह गई संग जिनोई ।—रा० रू०, पृ० २५५ ।
⋙ जड़वत
वि० [सं० जड + वत्] जड़ के समान । चेतनारहित । बेहोश । उ०—जड़वत देख दोउ के संगा । चेतन देख दोउ में रंगा ।—घट०, पृ० २५७ ।
⋙ जड़वाद
संज्ञा पुं० [सं० जड़ + वाद] वह दार्शनिक मत या विचार- धारा जिसमें पुनर्जन्म और चेतन आत्मा का अस्तित्व मान्य नहीं । उ०—जड़वाद जर्जरित जग में तुम अवतरित हुए आत्मा महान ।—युगांत, पृ० ५७ ।
⋙ जड़बादी
वि० [सं० जड़वादिन्] जड़वाद का अनुगामी ।
⋙ जड़वाना
क्रि० स० [हिं० जड़ना] १. नग इत्यादि जड़ने के लियेप्रेरणा करना । जड़ने का काम कराना । २. कील इत्यादि गड़वाना ।
⋙ जड़विज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० जड + विज्ञान] भौतिक विज्ञान । जड़वाद ।
⋙ जड़वी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़] धान का छोटा पौधा जिसे जमे हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ हो ।
⋙ जड़हन
संज्ञा पुं० [हिं० जड़ + हनन (= गाड़ना)] धान का एक प्रधान भेद जिसके पौधे एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह बैठाए जाते हैं । विशेष—यह धान असाढ़ में घना बोया जाता है । जब पौधे एक या दो फुट ऊँचे हो जाते हैं, तब किसान इन्हें उखाड़कर ताल के किनारे बीचे खेतों में बैठाते हैं । वह खेत, जिसमें इसके बीज पहले बोए जाते हैं, 'बियाड़' कहलाता है, और पौधे के बीज को 'बेहन' तथा बीज बोने को 'बेहन डालना' कहते हैं । बीज को बियाड़ से उखाड़कर दूसरे खेत में बैठाने कौ 'रोपना' या 'बैठाना' कहते हैं; और वह खेत जिसमें इसके पौधे रोपे जाते है, 'सोई', 'डाबर', आदि कहलाता है । जड़हन पौधों में कुआर के अंत में वाल फूटने लगती है, और अगहन में खेत पककर कटने योग्य हो जाता है । इस प्रकार के धान की अनेक जातियाँ होती हैं जिनमें से कुछ के चावल मोटे और कुछ के महीन होते है । यह कभी कभी तालों के किनारे या बीच में भी थोड़ा पानी रहने पर बोया जाता है; और ऐसी बोआई को 'बोआरी' कहते हैं । अगहनी के अतिरिक्त धान का एक और भेद होता है जिसे कुआरी कहते हैं । इस भेद के धान 'ओसहन' कहलाते हैं ।
⋙ जड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० जडा] १. भुइँ आँवला । २. कौछ । केवाँच ।
⋙ जड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़ना] १. जड़ने का काम । पच्चीकारी । २. जड़ने का भाव । ३. जड़ने की मजदूरी ।
⋙ जड़ाऊ
वि० [हिं० जड़ना] जिसपर नग या रत्न आदि जड़े हों । पच्चीकारी किया हुआ । जैसे, जड़ाऊ मंदिर ।
⋙ जड़ान
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़ना] दे० 'जड़ाई' ।
⋙ जड़ाना (१)
क्रि० स० [हि० जड़ना] जड़ने का प्रेरणार्थक रूप । जड़ने का काम दूसरे से कराना ।
⋙ जड़ाना (२)
क्रि० अ० [हिं० जाड़] १. जाड़ा सहना । ठंढ खाना । २. सरदी की बाधा होना । शीत लगना । उ०—पूस जाड़ थरथर तन काँपा । सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५८ ।
⋙ जड़ाव
संज्ञा पुं० [हिं० जड़ना] जड़ने का काम या भाव । उ०— पुनि अभरन बहु काढ़ा, नाना भाँति जड़ाव । फेरि फेरि सब पहिरहिं, जैस जैस मन भाव ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जड़ावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़ना] जड़ने का काम या भाव । जड़ाव ।
⋙ जड़ावर
संज्ञा पुं० [(देशी जड्डा़ + सं० आ + √ वृ > आ वर, अथवा हिं० जाड़ा] जा़ड़े में पहनने के कपड़े । नरम कपड़े । क्रि० प्र०—देना । = स्वल्प वेतनभोगी कर्मचारियों को जाड़े के कपड़े या उसके विनिमय में धन देना ।—मिलना ।
⋙ जड़ावल †
संज्ञा पुं० [हिं० जड़ावर] दे० 'जड़ावर' ।
⋙ जड़ावल †
वि० [हिं० जड़ना] जड़ाया हुआ । खचित ।
⋙ जड़ित पु
वि० [हिं० जड़ना या सं० जटित] जो किसी चीज में जड़ा हुआ हो । २. जिसमें नग आदि जडे़ हों ।
⋙ जड़िमा
संज्ञा स्त्री० [सं० जडिमन्] १. जड़ता । जड़त्व । २. एक भाव जिसमें मनुष्य को इष्ट अनिष्ट का ज्ञान नहीं होता और वह जड़ हो जाता है । ३. मौर्ख्य । मूर्खता ।
⋙ जड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० जड़ना] १. नगों के जड़ने का काम करनेवाला पुरुष । वह जो नग जड़ने का काम करता हो । कुंदनसाज । उ०—हकनाहक पकरे सकल जड़िया कोठीवाल । अर्ध०, पृ० ४३ । २. सोनारों की एक जाति या वर्ग जो गहने में नग जड़ने का काम करती है ।
⋙ जड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़] वह वनस्पति जिसकी जड़ औषध के काम में लाई जाय । बिरई । यौ०—जड़ी बूटी = जंगली औषधि या वनस्पति ।
⋙ जड़ीभूत
वि० [सं० जडीभूत] स्तब्ध । निश्चल । जड़भाव को प्राप्त । गतिहीन । उ०—गौतम ने जिस परिवर्तन के अमर सत्य को पहचाना था, क्या वही गतिशील होकर चल सका । लौटकर आया कहाँ जहाँ शाश्वत जड़ीभूत स्थिरता का पाषाण आकाश चूमने का प्रयत्न कर रहा था ।—प्रा० भा० प०, पृ० ४७५ ।
⋙ जड़ीला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जड़+ईला (प्रत्य०)] १. वह वनस्पति जिसकी जड़ काम में आती हो । जैसे, मूली, गाजर । २. वह ऊँची उठी हुई जड़ जो रास्ते में मिली ।—(कहार) ।
⋙ जड़ीला † (२)
जड़दार । जिसमें जड़ हो ।
⋙ जड़ूआ
संज्ञा पुं० [हिं० जड़ना] चाँदी का एक गहना जो छल्ले की तरह पैर के अँगूठे में पहना जाता है ।
⋙ जडुल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जटुल' ।
⋙ जड़ैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाड़ा + ऐया (प्रत्य०)] वह बुखार जिसके आरंभ में जाड़ा लगता हो । जूड़ी़ ।
⋙ जढ़ †
वि० [सं० जड़] दे० 'जड़' ।
⋙ जढ़ता †
संज्ञा स्त्री० [सं० जडता] दे० 'जड़ता' ।
⋙ जढा़ना †
क्रि० अ० [हिं० जड़ या जढ़] जड़ हो जाना । २. हठ करना । जिद करना । अपनी बात पर अड़े रहना ।
⋙ जत †पु (१)
वि० [सं० यतू] जितना । जिस मात्रा का ।
⋙ जत (२)
संज्ञा पुं० [सं० यति] वाद्य के बारह प्रबंधों में से एक । होली का ठेका या ताल ।
⋙ जतन †पु
संज्ञा पुं० [सं० यत्न] दे० 'यत्न' । उ०—बार बार मुनि जतन कराहीं । अंत राम कहि आवत नाहीं ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जतना †पु
क्रि० स० [यत्न, हिं० जतन] यत्न करना । उ०—अब कै ऐसै जतनन जतौ । विष्णुहिं गर्भ बीच ही हतौं ।— नंद० ग्रं०, पृ० २२२ ।
⋙ जतनी (१)
संज्ञा पुं० [सं० यत्न] १. यत्न करनेवाला । २. सुचतुर । चालाक ।
⋙ जतनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यत्न (= रक्षा)] वह रस्सी या डोरी जिसे चखें (रँहट) की पंखुरियों के किनारे पर माल के टिकाव के लिये बाँधते हैं ।
⋙ जतनु पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'यत्न' । उ०—करेहु सो जतनु विबेकु विचारी ।—मानस १ ।५२ ।
⋙ जतरा †
संज्ञा स्त्री० [सं० यात्रा] दे० 'यात्रा' । उ०—माँ और स्त्री को साथ लेकर वह जगन्नाथ जी की जतरा कर आया था ।— नई०, पृ० १०७ ।
⋙ जतलाना †
क्रि० स० [हिं० जताना] दे० 'जताना' ।
⋙ जतसर †
संज्ञा पुं० [हिं० जाँता] दे० 'जँतसर' ।
⋙ जता पु †
वि०, अव्य० [सं० यत्] दे० 'जितना' । उ०—मेरे पास धन माल हैं होर मता । तुजे देऊगी मैं सारा जता ।— दक्खिनी०, पृ० ३७६ ।
⋙ जताना (१)
क्रि० स० [सं० ज्ञात] १. जानने का प्रेरणार्थक रूप । ज्ञात कराना । बतलाना । २. पहले से सूचना देना । आगाह करना ।
⋙ जताना (२) †
क्रि० अ० [हिं० जाँता] दे० 'जँताना' ।
⋙ जतारा †
संज्ञा पुं० [हिं० जाति या सं० यूथ] वंश । खानदान । कुल । जाति । घराना ।
⋙ जति (१)पु
क्रि० [सं० जेतृ] जेता । जीतनेवाला । उ०—चरन पीठ उन्नत नत पालक, गुढ़ गुलुफ जंघा कदली जति ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१५ ।
⋙ जति (२) †
संज्ञा पुं० [सं० यति] दे० 'यति' । उ०—स्वान खग जति न्याउ देख्यो आपु बैठि प्रबीन । नीचु हति महिदेव बालक कियो मीचु बिहीन ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४२२ ।
⋙ जती (१)
संज्ञा पुं० [सं० यतिन्] संन्यासी । दे० 'यति' । उ०—जती पुरुष कहुँ ना गहैं परनारी कौ हाथ ।—शकुंतला०, पृ० ९७ ।
⋙ जती (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० याति] छंद में विराम । दे० 'यति (२)' ।
⋙ जतु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष का निर्यास । गोंद । २. लाख । लाह । ३. शिलाजतु । शिलाजीत ।
⋙ जतु (२)
संज्ञा स्त्री० गेदुर । चमगादड़ [को०] ।
⋙ जतुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हींग । २. लाख । लाह । ३. शरीर के चमड़े पर का एक विशेष प्रकार का चिह्न जो जन्म से ही होता है । इसे लच्छन या लक्षण भी कहते हैं ।
⋙ जतुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पहाड़ी नामक लता जिसकी पत्तियाँ औषध के काम में आती हैं । २. चमगादड़ । ३. लाक्षा । लाख । लाह (को०) ।
⋙ जतुकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्पटी या पपड़ी नाम की लता ।
⋙ जतुकृत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जतुकृष्णा' [को०] ।
⋙ जतुकृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जतुका या पपड़ी नाम की लता ।
⋙ जतुगृह
संज्ञा पुं० [सं०] घास फूस ऐसी चीजों का बना हुआ घर जो जल्दी जल सकै । २. लाख का बना घर जैसा वारणावत में दुर्योंधन ने पांडवों को भस्म करने के लिये बनवाया था । लाक्षागृह (को०) ।
⋙ जतुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ ।
⋙ जतुपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शतरंज का मोहरा । २. चौसर की गोटी । ३. लाख का बना हुआ रूप या आकार [को०] ।
⋙ जतुमणि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें दाग पड़ जाता है । जटुल । जतुक ।
⋙ जतुमुख
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का धान ।
⋙ जतुरस
संज्ञा पुं० [सं०] लाख का बना हुआ रंग । अलक्तक । महावर ।
⋙ जतू
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पक्षी का नाम । चमगादड़ । २. लाख का बना हुआ रंग ।
⋙ जतूकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।
⋙ जतूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जतुका' ।
⋙ जतेक पु
क्रि० वि० [सं० यतू या हिं० जितना+एक] जितना । जिस मात्रा का । जिस संख्या का ।
⋙ जतैं पु
क्रि० वि० [सं० यत्र, प्रा० जत्थ] जहाँ । उ०—ब्रजमोहन मोह की मूरति राम जतै घनि रोहिनि पुन्य फली ।— घनानंद०, पृ० २०० ।
⋙ जत्था
संज्ञा पुं० [सं० यूथ] बहुत से जीवों का समूह । झुंड । गरोह । क्रि० प्र०—बाँधना । यौ०—जत्थादार, जत्थेदार = जत्था अर्थात् समूह का प्रधान या नायक ।
⋙ जत्र पु
क्रि० वि० [सं० यत्र] जहाँ । जिस जगह । उ०—किते जीव संमूह देखंत भज्जैं । मृगं व्याघ्र चीते रिछं जत्र गज्जैं ।— ह० रासो, पृ० ३६ ।
⋙ जत्रानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] जाटों की एक जाति जो रुहेलखंड में बसती है ।
⋙ जत्रु
संज्ञा पु० [सं०] १. गले के सामने की दोनों ओर की वह हड्डी जो कंधे तक कमानी की तरह लगी रहती है । हँसली । हँसिया । उ०—यज्ञोपवीत पुनीत बिराजत गूढ़ जत्रु बनि पीन अंस तति ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१५ । २. कंधे और बाँह का जोड़ ।
⋙ जत्बश्मक
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत ।
⋙ जथ पु
संज्ञा पुं० [सं० यूथ] जत्था । जूथ । यूथ । उ०—झाँझ/?/करत घोर घंटा घहरि घने । घुँघरू थिरत फिरत मिलि एक जथ ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग २, पृ० ४४७ ।
⋙ जथा (२)
क्रि० वि० [सं० यथा] १. दे० 'यथा' । उ०—जथा भूमि सब बीज मैं, नखत निवास अकास । रामनाम सब धरम मैं जानत तुलसीदास ।—तुलसी ग्रं०, भाग २, पृ० ८८ । यौ०—जथाजोग । जयाथित । जथारुचि = अपने इच्छानुसार । उ०—बटु करि कोटि कुतर्कं जथारुचि बोलइ ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४ । जथालाभ = जो भी मिल जाय उसमें । जोभी प्रास हो उससे । उ०—जथालाभ संतोष सदाई ।—मानस, ७ ।४६ ।
⋙ जथा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यूथ] मंडली । गरोह । समूह । टोली । कि० प्र०—बाँधना ।
⋙ जथा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गथ] पूँजी । धन । संपत्ति । यौ०—जमा जथा ।
⋙ जथाजोग पु
क्रि० वि० [सं० यथायोग्य] दे० 'यथायोग्य' । उ०— जथाजोग भेटे पुरवासी गए सूल, सुखसिंधु नहाए ।—सूर०, ९ ।१६८ ।
⋙ जथाथित पु
क्रि० वि० [सं० यथास्थित] जैसा था वैसा ही । ज्यों का त्यों । उ०—शिवहिं विलोकि ससंकेउ यारू । भयड जथाथित सबु संसारू ।—मानस, १ ।८६ ।
⋙ जथारथ पु
अब्य० [सं० यथार्थ] दे० 'यथार्थ' । उ०—जे जन नियुत जथारथबेदी । स्वारथ अरु परमारथ भेदी ।—नंद ग्रं०, पृ० ३०२ ।
⋙ जथारथवेदी पु
वि० [सं० यथार्थ + वेदिन्] यथार्थवेत्ता । सच्चाई को जाननेवाला ।
⋙ जथावकास पु
क्रि० वि० [सं० यथावकाश] अवकाश के अनुसार । उ०—जाके जठर मध्य जग जितो । जथावकास रहत है तितौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२९ ।
⋙ जथासंखि पु
अब्य० [सं० यथासंख्य] क्रम के अनुसार । जैसा क्रम हो उसके अनुसार । उ०—वसै वर्ण च्यारचौ जथासंखि बासं । चहूँ आश्रमं औ तजं लोभ आसं ।—ह० रासो, पृ० १७ ।
⋙ जद † (१)
क्रि० वि० [सं० यदा] जब । जब कभी । उ०—(क) वह जागूँ तद एकली, जब सोऊँ तब बेल ।—ढोला०, दू० ५११ । (ख) ब्रजमोहन घनआनँद जानी जद चस्मों विच आया है ।—घनानंद०, पृ० १८१ ।
⋙ जद † (२)
अव्य० [सं० यदि] अगर । यदि ।
⋙ जद (३)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जद] १. आघात । चोट । २. लक्ष्य । निशाना । ३. सामना [को०] ।
⋙ जदनी
वि० [फ़ा० जदनी] मारने या बध करने योग्य ।
⋙ जदपि
क्रि० वि० [सं० यद्यपि] दे० 'यद्यपि' उ०—जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ।— मानस, १ ।७६ ।
⋙ जदबद †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जद्दबद्द' ।
⋙ जदल
संज्ञा पुं० [अ०] १. युद्ध । संघर्ष । २. झगड़ा । हुज्जत [को०] ।
⋙ जदवर, जदवार
संज्ञा पुं० [अ०] जहर के असर को दूर करनेवाली एक घास । निर्विषी ।
⋙ जदा
वि० [फ़ा० जदह्] पीड़ित । संत्रस्त । मारा हुआ । जैसे, गमजदा । मुसीबतजदा = विपत्ति का मारा ।
⋙ जदि पु
अव्य० [सं० यदि] अगर । जो ।
⋙ जदीद
वि० [अ०] नया । हाल का । नवीन ।
⋙ जदु पु
संज्ञा पुं० [सं० यदु] दे० 'यदु' ।
⋙ जदुईस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जदुपति' ।—अनेकार्थ०, पृ० ९१ ।
⋙ जदुकुल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'यदुवंश' ।
⋙ जदुनाथ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'यदुनाथ' उ०—बिनु दीन्हैं ही देत सूर प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गुसाइँ ।—सूर०, १ ।३ ।
⋙ जदुपति पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुपति] श्रीकृष्ण । उ०—कोऊ कोरिक संग्रंहौ कोअ लाख हजार । मों संपति जदुपति सदा विपति बिदारनहार ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ जदुपाल पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुपाल] श्रीकृष्ण ।
⋙ जदुपुरी पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुपुरी] राजा यदु का नगर । यदुकुल की राजधानी, मथुरा अथवा यदुओं की पुरी द्वारका । उ०— द्दष्टि पडी जदुपुरी सुहाई ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१३ ।
⋙ जदुबंशी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'यदुवंशी' । उ०—कुंज कुटीरे जमुना तीरे तू दिखता जदुवंशी ।—हिम कि०, पृ० २४ ।
⋙ जदुराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुराज] यदुपति । श्रीकृष्णचंद ।
⋙ जदुराज पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुराज] श्रीकृष्णचंद ।
⋙ जदुराम पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुराम] यदुकुल के राम । बलदेव ।
⋙ जदुराय पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुराज] श्रीकृष्णचंद्र ।
⋙ जदुवर पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुवर] श्रीकृष्णचंद्र ।
⋙ जदुवीर पु
संज्ञा पुं० [सं० यदुवीर] श्रीकृष्णचंद्र ।
⋙ जद्द पु (१)
वि० [अ० ज्यादह्] अधिक । ज्यादा ।
⋙ जद्द (२)
वि० [सं० योद्धा] प्रचंड । प्रबल । उ०—छागलि चलेउ समद्द भूप बलहद्द जद्द अति ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ जद्द (३)
संज्ञा पुं० [अ०] दादा । पितामह । बाप का बाप ।
⋙ जद्दपि †पु
क्रि० वि० [सं० यद्यपि] दे० 'यद्यपि' ।
⋙ जद्दबद्द
संज्ञा पुं० [सं० यत्अवद्य अथवा हिं० अनु०] अकथतीय बात । वह बात जो न कहने योग्य हो । दुर्वचन ।
⋙ जद्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] चेष्टा । कोशिश । प्रयत्न । दौड़धूप [को०] ।
⋙ जद्दी (२)
वि० [अ०] मौल्सी । बापदादे की [को०] ।
⋙ जद्दोजहद
संज्ञा स्त्री० [अ०] दौड़धूप । चेष्टा । प्रयत्न । उ०— व्याक्ति विलीन दलों के दुर्मद, जद्दोजहद में रददोबदल में ।— मिलन०, पृ० १७३ ।
⋙ जद्यपि
क्रि० वि० [सं० यद्यपि] दे० 'यद्यपि' । उ०—सहज सरल रघुबर बचन, कुमति कुटिल फरि जान । चलै जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिल समान ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०१ ।
⋙ जनंगम
संज्ञा पुं० [सं० जनङ्गम] चांडाल ।
⋙ जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोक । लोग । यौ०—जनअपवाद = अफवाह । लोकापवाद । उ०—जन अपवाद गूँजता था, पर दूर ।—अपरा, पृ० १३९ । जन आंदोलन = उद्देश्यपूर्ति के लिये जनसमूह द्वारा किया हुआ सामूहिक प्रयत्न या हलचल । जनजीवन = लोकजीवन । जनप्रवाद । जनक्षय । जनश्रुति । जनवल्लभ । जनसमूह । जनसमाज । जनसमुदाय । जनसमुद्र = जनसमूह । जनसाधारण । जनसेवक । जनसेवा, आदि । २. प्रजा । ३. गँवार । देहाती । ४. जाति । ५. वर्ग । गण । उ०—आर्य लोग इस समय अनेक जनों में विभक्त थे । प्रत्येकजन एक पृथक् राजनैतिक समूह मालूम होता है ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३३ । ६. अनुयायी । अनुचर । दास । उ०— (क) हरिजन हंस दशा लिए डोलैं । निर्मल नाम चुनी चुनि बोलैं ।—कबीर (शब्द०) । (ख) हरि अर्जुन कौ निज जन जान । लै गए तहँ न जहाँ ससि भान ।—सूर०, १० । ४३०९ । (ग) जन मन मंजु मुकर मन हरनी । किए तिलक गुन गन बस करनी ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—हरिजन । ७. समूह । समुदाय । जैसे, गुणिजन । ८. भवन । ९. वह जिसकी जीविका शरीरिक परिश्रम करके दैनिक वेतन लेने से चलती हो । १०. सात महाव्याहृतियों में से पाँचवीं व्याहृति । ११. सात लोकों में से पाँचवाँ लोक । पुराणनुसार चौदह लोकों के अंतर्गत ऊपर के सात लोकों में सें पाँचवाँ लोक जिसमें ब्रह्मा के मानसपुत्र और बड़े बड़े योगींद्र रहते हैं । १२. एक राक्षस का नाम । १३. मनुष्य । व्यक्ति ।
⋙ जन (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जन] १. महिला । नारी । २. स्त्री । पत्नी । भार्या । उ०—मुसल्ला बिछा उसका जन बनियाज ।—दक्खिनी०, पृ० २१५ ।
⋙ जन (३)पु
वि० [सं० जन्य] उत्पन्न । जनित । जात । उ०—सतसैया तुलसी सतर तम हरि पर पद देत । तुरत अबिद्या जन दुरित बर तुल सम करि लेत ।—स० सप्तक, पृ० २५ ।
⋙ जनउ पु
संज्ञा पुं० [हिं० जनेउ] दे० 'जनैऊ' । उ०—फोट चाट जनउ तोड ।—कीर्ति०, पृ० ४४ ।
⋙ जनक (१)
वि० [सं०] पैदा करनेवाला । जन्मदाता । उत्पादक ।
⋙ जनक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिता । बाप । २. मिथिला के एक राजवंश की उपाधि । विशेष—ये लोग अपने पूर्वज निमि विदेह के नाम पर वैदेह भी कहलाते थे । सीता जी इस कुल में उत्पन्न सीरध्वज की पुत्री थीं । इस कुल में बड़े बडे़ ब्रह्माज्ञानी उत्पन्न हुए हैं जिनकी कथाएँ ब्राह्माणों, उपनिषदों, महाभारत और पुराणों में भरी पड़ी हैं । ३. सीता जी के पिता सीरध्वज का नाम । यौ०—जनकतनया = सीता । जनक की पुत्री । उ०—तात जनक- तनया यह सोई ।—मानस, १ ।२३१ । जनकनंदिनी । जनक- दुलारी । जनकपुर । जनकसुता = दे० जनकात्मजा । उ०— जनकसुता जगजननि जानकी ।—मानस, १ ।१८ । ४. संबरासुर का चौथा पुत्र । ५. एक वृक्ष का नाम ।
⋙ जनकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पन्न करने का भाव या काम । २. उत्पन्न करने की शक्ति ।
⋙ जनकदुलारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जनक + हिं० दुलारी] सीता । जानकी ।
⋙ जनकनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० जनकनन्दिनी] सीता । जानकी । उ०—जनकनंदिनी जनकपुर जब ते प्रगटी आइ । तब तें सब सुख संपदा अधिक अधिक अधिकाइ ।—तुलसी ग्रं०,पृ० ८३ ।
⋙ जनकपुर
संज्ञा पुं० [सं०] मिथिला की प्राचीन राजधानी । विशेष—इसका स्थान आजकल लोगं नेपाल की तराई में बतलाते है । यह हिंदुओं का प्रधान तीर्थ है और हिंदु यात्री प्रति वर्ष वहाँ दर्शन के लिये जाते हैं ।
⋙ जनकात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता । जानकी [को०] ।
⋙ जनकारी
संज्ञा पुं० [सं० जनकारिन्] लाख का बना हुआ रंग । आलक्तक ।
⋙ जनकौर पु
संज्ञा पुं० [हिं० जनक + औरा (प्रत्य०)] १. जनक का स्थान । जनक नगर । उ०—बाजाहिं ढोल निसान सगुन सुभ पाइन्हि । सिय नैहर जनकौर नगर नियराइन्हि ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६ । २. जनक राजा के वंशज या संबंधी । उ०— कोसलपति गति सुनि जनकौरा । भे सब लोक सोक बस बौरा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जनक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] महामारी । लोकनाश [को०] ।
⋙ जनखदाँ
संज्ञा पुं० [फा० जनख + दाँ] ठोढ़ी । चिबुक । उ०—जन- खदाँ में तेरे मुझ चाहे जमजम का असर दिसता ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ९ ।
⋙ जनखा
वि० [फ़ा० जनकह् या जनानह्] १. जिसके हाव भाव आदि औरतों के से हों । २. हीजड़ा । नपुंसक ।
⋙ जनगणना
संज्ञा स्त्री० [सं० जन + गणना] मर्दुमशुमारी । जनसंख्या की गिनती ।
⋙ जनगी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मछली ।
⋙ जनघर †
संज्ञा पुं० [सं० जन + गृह] मंडप ।—(डिं०) ।
⋙ जनचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० जनचक्षुस्] सूर्य ।
⋙ जनचर्चा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोकवाद । सर्वसाधारण में फैली हुई बात ।
⋙ जनजल्पना
संज्ञा पुं० [सं० जनजल्पना] लोकचर्चा । अफवाह [को०] ।
⋙ जनजागरण
संज्ञा पुं० [सं० जन + जागरण] जनसमुदाय में स्वहित की दृष्टि से चेतना उत्पन्न होना ।
⋙ जनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जनन का भाव । २. जनसमूह । सर्व- साधारण । यौ०—जनता जनार्दन = जनसमूह रूपी ईश्वर । लोकरूपी ईश्वर ।
⋙ जनतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० जन + तन्त्र] जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का शासन । लोकतंत्र । प्रजातंत्र । यौ०—जनतंत्रवादी = लोकतंत्र को माननेवाला ।
⋙ जनतांत्रिक
वि० [सं० जन + तान्त्रिक] जनतंत्र संबंधी । उ०— विजित हो रहा यांत्रिक मानव । निखर रहा जनतांत्रिक मानव ।—अणिमा, पृ० १२० ।
⋙ जनत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाता या इसी प्रकार की और कोई चीज जिससे धूप और वृष्टि से रक्षा हो ।
⋙ जनत्राता
संज्ञा पुं० [सं० जन + त्राता] सेवक की रक्षा करनेवाला । लोक का रक्षक । उ०—मइ बन गएउ भलन जनत्राता ।— मानस, ७ ।११० ।
⋙ जनथोरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] ककड़बेल । बेंदाल ।
⋙ जनजाति
संज्ञा स्त्री० [सं० जन + जाति] जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों में रहनेवाली जाति या वर्ग ।
⋙ जनधन
संज्ञा पुं० [सं० जनघन] १. मनुष्य और संपत्ति । २. सार्वजनिक धन ।
⋙ जनधा
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । आग ।
⋙ जनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्पत्ति । उदभव । २. जन्म । ३. आविर्भाव । ४. तंत्र के अनुसार मंत्रों के दस संस्कारों में से पहला संस्कार जिसमें मंत्रों का मात्रिका वर्णों से उद्धार किया जाता है । ५. यज्ञ आदि में दीक्षित व्यक्ति का एक संस्कार जिसके उपरांत उसका दीक्षित रूप में फिर से जन्म ग्रहण करना माना जाता है । ६. वंश । कुल । ७. पिता । ८. परमेश्वर ।
⋙ जनना
क्रि० स० [सं० जनन (= जन्म)] संतान को जन्म देना । प्रसव करना । उ०—(क) जनत पुत्र नभ बजे नगारा । तदपि वनसि उर सोच अपारा ।—कबीर (शब्द०) । (ख) रंभ खंभ जंघन दुति देखत नशत जनन जग माँही ।—रघुराज (शब्द०)
⋙ जननाशौच
संज्ञा पुं० [सं० जनन + अशौच] वह अशौच जो घर में किसी का जन्म होने के कारण लगता है । वृद्धि ।
⋙ जननि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जननि] दे० 'जननी' । समुझि महेस समाज सब, जननि जनक मुसुकाहिं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) हौं इहाँ तेरे ही कारन आयौ । तैरी सौं सुनि जननि जसोदा मोहिं गोपाल पठायौ ।—सूर०, १० ।४७८ ।
⋙ जननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पन्न करनेवाली । २. माता । माँ । उ०—(क) जननी जनकादि हितू भए भूरि बहोरि भई उर की जरनी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) करनी करुनासिंधु की मुख कहत न आवै । कपट हेत परसैं बकी जननी गति पावै ।— सूर०, १ ।४ । ३. जूही का पेड़ । ४. कुटकी । ५. मजीठ । ६. जटामाँसी । ७. अलता । ८. पपड़ी । पपरिका । ९. चमगादड़ । १०. दया । कृपा । ११. जनी नाम का गंधद्रव्य ।
⋙ जननोंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० जनन + इन्द्रिय] १. वह इंद्रिय जिससे प्राणियों की उत्पत्ति होती है । भग । योनि । २. उपस्थ (को०) ।
⋙ जनपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. देश । २. सर्वसाधारण । निवासी । देशवासी । प्रजा । लोक । लोग । उ०—ज्यों हुलास रनिवाँस नरेशहिं त्यों जनपर रजधानी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. राज्य । ४. आंचलिक क्षेत्र । ५. मनुष्य जाति (को०) ।
⋙ जनपदकल्याणी
संज्ञा स्त्री० [सं० जनपद + कल्याणी] गणंतत्र की सामान्य (जनभोग्या) विशिष्ट गणिका ।
⋙ जनपदी
संज्ञा पुं० [सं० नपदिन्] देश, समाज, क्षेत्र का शासक [को०] ।
⋙ जनपदीय
वि० [सं०] जनपद का । जनपद संबंधी ।
⋙ जनपाल, जनपालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्यों का पोषण करनेवाला । सेवक या अनुचर का पालन करनेवाला ।
⋙ जनप्रवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोकप्रवाद । लोकनिंदा । २. जनरव । अफवाह । किंवदंती ।
⋙ जनप्रिय (१)
वि० [सं०] सबसे प्रेम रखनेवाला । सर्वप्रिय । सबका प्यारा ।
⋙ जनप्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. धान्यक । धनिया । २. शोभांजन वृक्ष । सहँजन का पेड़ । ३. महादेव । शिव ।
⋙ जनप्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सबके प्रिय होने का भाव । सर्वप्रियता । लोकप्रियता ।
⋙ जनप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुलहुल का साग ।
⋙ जनबगुल
संज्ञा पुं० [हिं० जन+बगुला] एक प्रकार का बगुला ।
⋙ जनम
संज्ञा पुं० [सं० जन्म] १. उत्पत्ति । जन्म । दे० 'जन्म' । उ०— बहु विधि राम शिवहि समुझावा । पारबती कर जनम सुनावा ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—धारना ।—पाना ।—लेना ।—होना । यौ०—जनमघूँटी । जनमपत्ती । जनमपत्री । ३. जीवन । जिदगी । आयु । उ०—(क) होय न विषण बिराग, भवन बसत भा चौथपन । हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरि भगति बिनु ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तुलसीदास मोको बड़ो सीचु है तू जनम कवन विधि भरिहै ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—जनम गँवाना = व्यर्थ जनम या समय नष्ट करना । जनम बिगड़ना = धर्म नष्ट होना । जनम करम के ओछे = जन्मना और कर्मणा उभय प्रकार से हीन । उ०—ऐसे जनम करम के औछे, ओछन हूँ ब्यौहारत ।—सूर०, १ ।२२ । जनम भरना = जीवन बिताना । उ०—नैहर जनमु भरब बरु जाई । जियंत न करब सवति सेवकाई ।—मानस, २ ।२१ । जनम भर जलना = आजीवन दुःख भोगना । उ०—वह अनपढ़, गँवार, मूफट्ट, लोह लट्ठ के पाले पड़कर जनम भर जला करे ।—ठेठ०, पृ० १० । जनम हारना = आजीवन किसी की सेवा के लिये संकल्प धारण करना । उ०—अब मैं जनम संभु सै हारा ।—मानस, १ ।८१ ।
⋙ जनमघूँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनम+घूँटी] वह घूँटी जो बच्चों को जन्मते समय से दो तीन वर्ष तक दी जाती है । मुहा०—(किसी बात का) जनमघूँटी में पड़ना = जन्म से ही (किसी बात की) आदत पड़ना । (किसी बात का) इतना अभ्यस्त हो जाना कि उससे पीछा न छूट सके । जैसे,—झूठ बोलना तो इनकी जनमघूँटी में पड़ा है ।
⋙ जनमजला
वि० [हिं० जनम + जलना] [वि० स्त्री० जनमजली] दुर्भाग्यग्रस्त । भाग्यहीन । अभागा ।
⋙ जनमत
संज्ञा पुं० [सं० जन + मत] सर्वसाधारण जनता की राय । लोकमत । उ०—जनमत राजा को निकाल सकता था ।— प्रा० भा० प०, पृ० १८६ । यौ०—जनमत सग्रह = जनता की राय का संकलन । लोकमत का संकलन जिससे लोक की राय जानी जाय । उ०—जनमत संग्रह के पूर्व सब दलों को अपने अपने मत के प्रचार का अधिकार होगा ।—भारतीय०, पृ० २२६ ।
⋙ जनमदिन
संज्ञा पुं० [हिं० जनम + दिन] दे० 'जन्मदिन' ।
⋙ जनमधरतो †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनम + धरती] दे० 'जन्मभूमि' ।
⋙ जनमना (१)
क्रि० अ० [सं० जन्म] १. पैदा होना । उत्पन्न होना । जन्म लेना । उ०—(क) जे जनमे कलिकाल कराला ।— मानस, २ ।१२ । (ख) कै जनसत मरि गई एक दासी घरवारी ।—हम्मीर०, पृ० ४५ । २. चौसर आदि खेलों में किसी नई या मरी हुई गोटी का, उन खेलों के नियमानुसार खेले जाने के योग्य होना ।
⋙ जनमना (२)
क्रि० स० [सं० जन्म या हिं० जनमाना] जन्म देना । उत्पन्न करना । उ०—कैकय सुता सुमित्रा दोऊ । सुंदर सुत जनमत भै औऊ ।—मानस, १ ।१९५ ।
⋙ जनमपत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनम + पत्ती] चाय कुलियों की बोलचाल की भाषा में चाय की वह छोटी पत्ती या फुनगी जो पहले पहल निकलती हैं ।
⋙ जनमपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्मपत्री] दे० 'जन्मपत्री' ।
⋙ जनमरक
संज्ञा पुं० [सं०] वह बीमारी जिससे थोड़े समय में बहुत से लोग मर जायँ । महामारी ।
⋙ जनमर्य्यादा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लौकिक आचार या रीति ।
⋙ जनमसंगी
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० जनमसंगिनी] जिसका साथ जनम भर रहे (पति या पत्नी) ।
⋙ जनमसँघाती पु †
संज्ञा पुं० [हिं० जनम + सघाती] वह जिसका साथ जन्म से ही हो । बहुत दिनों से साथ रहनेवाला मित्र । २. वह जिसका साथ जन्म भर रहे ।
⋙ जनमाना
क्रि० स० [हिं० जनम] १. जनमने का काम कराना । प्रसव कराना । २. दे० 'जनमना' ।
⋙ जनमु पु †
संज्ञा पुं० [सं० जन्म, हिं० जनम] दे० 'जन्म' । उ०— राम काज लगि जनमु जग, सुनि हरषे हनुमान ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८६ ।
⋙ जनमुरीद
वि० [फा० जन + मुरीद] पत्नीपरायण । पत्नीभक्त । जोरू का गुलाम । उ०—पत्नी की सी कहता हूँ तो जनमुरीद की उपाधि मिलती है ।—मान०, भा० १, पृ० १५४ ।
⋙ जनमेजय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जन्मेजय' ।
⋙ जनयिता (१)
वि० [सं० जनयितृ] [वि० स्त्री० जनायित्रो] जन्मदाता । पैदा करनेवाला ।
⋙ जनयिता (२)
संज्ञा पुं० पिता । बाप ।
⋙ जनयित्रो (१)
वि० [सं०] जन्म देनेवाली । उ०—शीतलता, सरलता महत्री । द्विजपद प्रीति धरम जनयित्री ।—मानस, ७ ।३८ ।
⋙ जनयित्री (२)
संज्ञा स्त्री० माता । माँ ।
⋙ जनयिष्णु
वि० [सं०] जननकर्ता । उत्पादक [को०] ।
⋙ जनरंजन
वि० [सं० जन + रञ्जन] मनुष्यों को या सेवकों को सुख पहुँचानेवाला [को०] ।
⋙ जनरल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] फोजौ का एक बड़ा अफसर जिसके अधिकार में कई रेजिपेंट होती है । अंग्रेजी सेना का सेनापति या सेनानायक ।
⋙ जनरल (२)
वि० साधारण । आम । लैसे, इंस्पेक्टर जनरल ।
⋙ जनरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. किंवदंती । जनश्रुति । अफवाह । २. लोकनिंदा । बदनामी । ३. बहुत से लोगों का कोलाहल । हल्ला । शोरगुल ।
⋙ जनलोक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊपर के सप्तलोकों में से पाँचवाँ लोक । दे० 'जन' ११ ।
⋙ जनवरी
संज्ञा स्त्री० [अं० जनुअरी] अंग्रेजी साल का पहिला महीना जो इकतीस दिनों का होता है ।
⋙ जनवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत रोहित का पेड़ । सफेद रोहिड़ा । २. जनप्रिय । लोकप्रिय ।
⋙ जनवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनाना] दे० 'जनाई'- (२) ।
⋙ जनवाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जनरव' ।
⋙ जनवाना (१)
क्रि० स० [हिं० जनना] जनने का प्रेरणार्थक रूप । प्रसव कराना । लड़का पैदा कराना ।
⋙ जनवाना † (२)
क्रि० स० [हिं० जानना] समाचार दिलवाना । किसी दूसरे के द्वारा सूचित कराना ।
⋙ जनवास
संज्ञा पुं० [सं० जन्य + वास] १. सर्वसाधारण के ठहरने या टिकने का स्थान । लोगों के निवास का स्थान । २. बरातियों के ठहरने का स्थान । वह जगह जहाँ कन्या पक्ष की ओर से बरातियों के ठहरने का प्रबंध हो । उ०—(क) सकल सुपास जहाँ दीन्ह्यो जनवास तहाँ कीन्ह्यो सन्मान दे हुलास त्यों समाज को ।—कबीर (शब्द०) । (ख) दीन्ह जाय जनवास सुपास किए सब । घर घर बालक बात कहन लागे सव ।— तुलसी (शब्द०) । ३. सभा । समाज ।
⋙ जनवासना
क्रि० स० [सं० जनवास + ना (प्रत्य०)] आगत जन को ठहरने या बैठने का स्थान देना । उ०—तोरन सुचारु आचार करि कै जनवासत मंडपहि ।—पृ० रा०, ७ ।१७७ ।
⋙ जनवासा
संज्ञा पुं० [सं० जन्यवास] दे० 'जनवास'—२ । उ०—अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा । जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ।—मानस, १ ।३०६ ।
⋙ जनव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] लोकप्रसिद्ध या लोक में प्रचलित चलन या रीति रिवाज [को०] ।
⋙ जनशून्य
वि० [सं०] जनहीन । निर्जन । सुनसान ।
⋙ जनश्रुत
वि० [सं०] प्रसिद्ध । विख्यात । मशहूर ।
⋙ जनश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह खबर जो बहुत से लोगों में फैली हुई हो पर जिसके सच्चे या झूठे होने का कोई निर्णय न हुआ हो । अफवाह । किंवदंती । क्रि० प्र०—उठना ।—फैलना
⋙ जनसंख्या
संज्ञा स्त्री० [सं० जन + संख्या] किसी स्थानविशेष पर बसने या रहनेवाले लोगों की गिनती । आबावी । जैसे,— (क) काशी की जनसंख्या दो लाख के लगभग है । (ख) कलकत्ते की जनसंख्या में बंबई की अपेक्षा इस बार कम वृद्धि हुई है ।
⋙ जनसंवाध
वि० [सं०] सधन बसा हुआ [को०] ।
⋙ जनसमूह
संज्ञा पुं० [सं० जन + समूह] सर्वसाधारण मनुष्यों का समुदाय । आम जनता का मजमा ।
⋙ जनसाधारण
संज्ञा पुं० [हिं०] सामान्य जन । आम जनता ।
⋙ जनसेवक
वि० [सं० जन + सेवक] जनता की सेवा करनेवाला । जनता का हितू । जनसेवी ।
⋙ जनसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं० जन + सेवा] सर्वसाधारण जनता के हित का काम ।
⋙ जनसेवी
वि० [सं० जन + सेविन्] दे० 'जनसेवक' ।
⋙ जनस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] दंडकारण्य । दंडकबन ।
⋙ जनहरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक दंडक वृत्त का नाम । विशेष—यह मुक्तक का दूसरा भेद है और इसके प्रत्येक चरण में तीस लघु और गुरु होता है । जैसे,—लघु सब गुरु इक तिसर न मन धर भजु नर प्रभु अघ जन हरण ।
⋙ जनहित
संज्ञा पुं० [सं० जन + हित] लोकोपकारी कार्य । लोक- कल्याण । उ०—कान कियौ जनहित जदुराई ।—सूर०, १ ।६ ।
⋙ जनहीन
वि० [सं० जन + हीन] निर्जन । विजन । जनशून्य ।
⋙ जनांत
संज्ञा पुं० [सं० जनान्त] १. वह प्रदेश जिसकी सीमा निश्चित हो । २. यम । ३. वह स्थान जहाँ मनुष्य न रहते हों ।
⋙ जनांत (२)
वि० मनुष्यों का नाश करनेवाला ।
⋙ जनांतिक
संज्ञा पुं० [सं० जनान्तिक] १. दो आदमियों में परस्पर वह सांकेतिक बातचीत जिसे और उपस्थित लोग न समझ सकें । विशेष—इसका व्यवहार बहुधा नाटकों में होता है । २. व्याक्ति का सामीप्य ।
⋙ जना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पात्ति । पैदाइश । २. महिष्मती के राजा नीलध्वज की स्त्री का नाम । जैमिनी । विशेष—भारत के अनुसार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को पकड़नेवाला प्रवीर इसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । उस घोड़े के लिये प्रवीर और पाँडवों में जो युद्ध हुआ था । उसमें इसने (जैमिनी ने) अपने पुत्र को बहुत सहायता और उत्तेजना दी थी । जब युद्ध में प्रवीर मारा गया तब यह स्वयं युद्ध करने लगी । श्रीकृष्ण को इससे पांडवों की रक्षा करने में बहुत कठिनता हुई थी ।
⋙ जना (२)
संज्ञा पुं० [अ० जिनाँ] दे० 'जिना' ।
⋙ जना (३)
वि० [सं० जन्य] [वि० स्त्री० जनी] उत्पन्न किया हुआ । जन्माया हुआ ।
⋙ जना पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० जनी (= माता)का हिं० पुं० रूप] उत्पन्न करवेवाला पिता । उ०—एकै जनी जना संसारा । कौन ज्ञान से भयउ न्यारा ।—कबीर वी०, पृ० १२ ।
⋙ जनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनना] ४. जनानेवाली । दाई । २. जनाने की उजरत । पैदा कराई का हक या नेग । दाई की मजदूरी ।
⋙ जनाउ †पु
संज्ञा पुं० [हिं० जनाव] दे० 'जनाव' । उ०—अवध- नाथ चाहत चलन, भीतर करहु जवाउ । भए प्रेम वस सचिव सुनि, विप्र सभासव राट ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जनाकर
वि० [सं० जन + आकर] मनुष्यों से भरा हुआ । जनाकीर्ण । स०—ग्राम नहीं वे ग्राम आज औ नगर न नगर जनाकर । ग्राम्या, पृ० ११ ।
⋙ जनाकार
वि० [अ० जिनह् + फ़ा० कार] बुरा काम करनेवाला । व्यभिचारी । उ०—कहीं मजमा है मर्दोजन जनाकार ।—कबीर म०, नृ० ४७ ।
⋙ जनांकीर्ण
वि० [सं०] सघन आबादीवाला । आदमियों से भरा हुआ । जनाकर । उ०—हबड़ा के जनाकीर्ण स्थान में उन दोनों ने अपने को ऐसा छिपा लिया, जैसे मधुमक्खियों के छत्ते में कोई मक्खी ।—तितली, पृ० २१९ ।
⋙ जनाचार
संज्ञा पुं० [सं०] देश या समाज आदि की प्रचलित रीति । लोकाचार ।
⋙ जनाजा
संज्ञा पुं० [अ० जनाजह्] १. मृतक शरीर । मुर्दा । शव । लाश । उ०—खुदी खूब की खोइ जनाजा जियतै करना ।— पलटू०, पृ० १४ । २. अरथी या वह संदूक जिसमें लाश को रखकर गाड़ने, जलानै या और किसी प्रकार की अंतिम क्रिया करने के लिये ले जाते है । उ०—छुटेंगे जीस्त के फंदे से कौन दिन् आतिश । जनाजा होगा कब अपना रवाँ नहीं मालूम ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३८१ । क्रि० प्र०—उठना । निकलना ।—रवाँ होना ।
⋙ जनतिग
वि० [सं०] असाधारण । असामान्य । लोकोत्तर [को०] ।
⋙ जनधिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. राजा ।
⋙ जनाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । नरेश । २. विष्णु का एक नाम [को०] ।
⋙ जनाती †
संज्ञा पुं० [अथवा हिं० जन (= यज्ञ = विवाह) + आती (= पत्रा के)] कन्या पक्ष के लोग । घराती ।
⋙ जनानखाना
संज्ञा पुं० [अ० जनान + फ़ा० खानह्] घर का वह भाग जिसमें स्त्रियाँ रहती हों । स्त्रियों के रहने का घर । अंतःपुर उ०—अब उन्हीं की संतान, जनानखानों में पतली छड़ी लिए अंग्रेजी जूता को ऐड़ी खडखडाते कुतों से भुकवाते ऐंठे चलै जा रहे हैं ।—प्रेमघन०, पृ० ७६ ।
⋙ जनाना (१)
क्रि० अ० [हिं० जानमा का प्रे० रूप] मालूम कराना । जताना । उ०—सोइ जानइ जेहिदेहु जनाई । जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।—मानस, २ ।१२७ । संयो० क्रि०—देना ।—रखना ।
⋙ जनाना (२)
क्रि० स० [हिं० जनना का प्रेरणार्थक रूप] उत्पन्न कराना । जनन का काम कराना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ जनाना (३)
वि० [फ़ा० जनानह्] [वि० स्त्री० जनानी] १. स्त्रियों का स्त्री संबंधी । जैसे, जनाना काम, जनानी सूरत, जनानी बोली । २. नामर्द । नपुंसक । हींजड़ा । ३. निर्बल । डरपोक । ४. औरत । स्त्री । पत्नी ।
⋙ जनाना (४)
संज्ञा पुं० १. जनखा । मेहरा । २. अंतःपुर । जनानखाना । मुहा०—जनाना करना = पर्दा करना । स्थान को पर्देवाली स्त्रियों के आने जाने योग्य करना ।
⋙ जनानापन
संज्ञा पुं० [फ़ा० जनानह् + पन (प्रत्य०)] मेहरापन । स्त्रीत्व ।
⋙ जनानी
वि० स्त्री० [फा़ जनानह] दे० 'जनाना' (३) ।
⋙ जनाब
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० जनाबा] १. बड़ों के लिये आदर सूचक शब्द । महाशय । महोदय । जैसे, जनाब मौलवी साहब । २. पार्श्व । पहलू (को०) । ३. आश्रम (को०) । ४. चौखट । देहली । ड्योढ़ी । ५. उपस्थिति । मौजूदगी (को०) ।
⋙ जनाबआली
संज्ञा पुं० [अ०] मान्यवर । महोदय । प्रतिष्ठित पुरुषों के लिये आदरसूचक संबोधन ।
⋙ जनार्दन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. शालग्राम की बटिया का का एक भेद । ३. कृष्ण (को०) ।
⋙ जनार्दन
वि० लोगों को कष्ट पहुँचावेवाला । दुःखदायी ।
⋙ जनाव
संज्ञा पुं० [हिं० जबाना] जनाने की क्रिया । सूचना । इत्तिला । उ०—चलत व काहुहि कियौ जनाव । हरि प्यारी सो बाढ़्यो भाव । रास रसिक गुण गाइ हो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ जनावना †
क्रि० स० [हिं० जनाना] सूचित करमा । विदित करना । जताना । ज्ञापित करना । उ०—तातें आप आगे कहा जनावनो? जो कोई न जानतो होइ ताकों जनाइए । दो—सौ बावन०, भा० १, पृ० २३१ ।
⋙ जनावर †
संज्ञा पुं० [हिं० जानवर] दे० 'जानवर' । उ०—घास में कोई जनावर न रहन पावे ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २१० ।
⋙ जनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेड़िया । २. मनुष्यभक्षक । वह जो आदमियों को खाता हो । ३. आदमियों को खाने का काम ।
⋙ जनाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] ठहरने का स्थान । धर्मशाला । सराय [को०] ।
⋙ जनाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्मशाला या सराय आदि जहाँ यात्री ठहरते हों । २. वह मकान या मंडप आदि जो किसी विशेष कार्य या समय के लिये बनाया जाय । ३. साधारण घर । मकान ।
⋙ जनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पति । जन्म । पैदाइश । २. जिससे कोई उत्पन्न हो । नारी । स्त्री । ३. माता । ४. जनी नामक गंघद्रव्य । ५. पुत्रबघु । पतोहू । ६. भार्या । पत्नी । ७. जतुका । ८. जन्मभूमि ।
⋙ जनि † (२)
क्रि० वि० [हिं० जानना] जनु । मानी । उ०—पीन पयोधर अपरुब सुंदर ऊपर मोतिव हार । जमि कनकाचल उपर विमल जल दुइ बह सुरसरि धार ।—विद्यापति, पृ० ३६ ।
⋙ जनि (३)
अव्य० [हिं०] मत । नहिं । न (नषेधार्थक) । उ०—जनि लेहु मातु कलंक करुना परिहरहु अवसरु नहीं ।—मानस, १ ।९७ ।
⋙ जनि (४)
सर्व० [हिं०] दे० 'जिस' । उ०—जनि का जन्म होइत हम गेलहुँ ऐलहुँ तनिकर अंते ।—विद्यापति; पुं० २५२ ।
⋙ जनिक
वि० [सं०] उत्पन्न करनेवाला । जन्म देनेवाला [को०] ।
⋙ जनिका (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जनाना] पहेली । मुअम्मा । बुझौवल ।
⋙ जनिका (२)
वि० [सं०] दे० 'जनि' [को०] ।
⋙ जनित
वि० [सं०] १. उत्पन्न । जन्मा हुआ । उपजा हुआ । २. उत्पन्न किया हुआ ।
⋙ जनिता (१)
संज्ञा पुं० [सं० जनितृ] पैदा करनेवाला । उत्पन्न करनेवाला । पिता ।
⋙ जनिता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० जनितृ] उत्पन्न करनेवाली । माता । प्रसूति । उ०—उद्दित अधान सुभ गातनह, जेम जलधि पुन्निम बढ़हि । हुलसंत हीय जे प्रीय त्रिय, जिम सु जोति जनिता चढ़हि ।—पृ० रा०, १ ।१८४ ।
⋙ जनित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्मस्थान । जन्मभूमि । २. मूल । आधार (को०) ।
⋙ जनित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्पन्न करनेवाली । माता । माँ ।
⋙ जनित्व
संज्ञा पुं० [सं०] पिता [को०] ।
⋙ जनित्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माता [को०] ।
⋙ जनिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० जनिमन्] १. उत्पत्ति । जन्म । २. संतान । संतति [को०] ।
⋙ जनिनीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का बड़ा पेड़ ।
⋙ जनियाँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जानि] प्रियतमा । प्राणप्यारी । प्रिया । प्रेयसी ।
⋙ जनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० जन] १. दासी । सेविका । अनुचरी । उ०— धाइ, जनी, नाइन, नटी प्रगट परोसिनि नारि ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ६८ । २. स्त्री । ३. उत्पन्न करनेवाली । माता । ४. जन्माई हुई । कन्या । लड़की । पुत्री । उ०—प्यारी छबि की रासि बनी । जाहि विलोकि निमेष न लागत श्री वृषभानु जनी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४५ ।
⋙ जनी (३)
वि० स्त्री० उत्पन्न की हुई । पैदा की हुई । जनमाई हुई ।
⋙ जनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० जननी] एक प्रकार की ओषधि जिसे पर्पटी या पानड़ी भी कहते हैं । विशेष—यह शीतल, वर्णकारक, कसैली, कड़वी, हलकी, अग्नि- दीपक, रुचिकारक तथा रक्त, पित्त, कफ, रुधिरविकार, कोढ़, दाह, वमन, तृषा, विष, खुजली और व्रण का नाश करनेवाली कही गई है ।
⋙ जनीयर
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ का नाम ।
⋙ जनु (१)
क्रि० वि० [हिं० जानना] [अन्य रूप—जनि, जनुक, जनू, जानो आदि] मानो । उ०—(क) छुटत गिलोला हथ्थ तैं पारत चोट पयल्ल । कमलनयन जनु कांमिनी करत कटाछ छयल्ल ।—पृ० रा०, १ ।७२८ । (ख) कामकंदला भई वियोगिनि । दुर्बल जनू वर्स की रोगिनि ।—माधवानल०, पृ० २०३ ।
⋙ जनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म । उत्पत्ति ।
⋙ जनुक
क्रि० वि० [हिं० जनु + क (प्रत्य०)] जैसे । मानो ।
⋙ जनूँ पु
संज्ञा पुं० [जुनून] पागलपन । उन्माद । उ०—इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ए दस्ते जनूँ ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २४९ ।
⋙ जनू
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्पत्ति । जन्म [को०] ।
⋙ जनून
पुं० [अ० जुमून] [वि० जनूनी] पागलपन । सनक । उन्माद । खब्त [को०] ।
⋙ जनूनी
वि० [अ० जुनूनी] पागल । उन्मादी [को०] ।
⋙ जनूब
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० जनूबी] दक्षिण । दक्खिन [को०] ।
⋙ जनूबी
वि० [अ०] दक्षिण संबंधी । दक्खिनी । दक्षिण का [को०] ।
⋙ जनेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० जनेन्द्र] राजा ।
⋙ जने
संज्ञा पुं० [सं० जन] व्यक्ति । आदमी । प्राणी । उ०—हममें दो जने का साझा तो निभता ही नहीं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८२ । यौ०—जने जने । जैसे, नाऊ की बरात में जने जने ठाकुर ।
⋙ जनेऊ
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञोपवीत, प्रा० जन्नोवईय, अथवा सं० जन्म] यज्ञोपवीत । ब्रह्मसूत्र । उ०—बामन को जनम जनेऊ मेलि जानि बूझि, जीभ ही बिगारिबे को याच्यो जन जन में ।—अकबरी०, पृ० ११५ । मुहा०—जनेऊ का हाथ=पटेबाजी या तलवार का एक हाथ जिसमें प्रतिद्वंद्वी की छाती पर ऐसा आघात लगाया जाता है जैसे जनेऊ पड़ा रहता है । इसे जनेव या जनेवा का हाथ भी कहते हैं । २. यज्ञोपवीत संस्कार । उ०—छीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ।—मानस, १ ।२०४ ।
⋙ जनेत
संज्ञा स्त्री० [सं० जन + हिं० एत (प्रत्य०)] वरयात्रा । वरात । उ०—बीच बीच बर बास करि, मग लोगन सुख देत । अवध समीप पुनीत दिन, पहुँची आय जनेत ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जनेता
संज्ञा पुं० [सं० जनयिता या जनिता] पिता । बाप ।— (डिं०) ।
⋙ जनेरा
संज्ञा पुं० [हिं० जुआर] एक प्रकार का बाजरा जिसके पेड़ बहुत लंबे होते है । इसमें बालें बालों भी बहुत लंबी आती हैं । जोन्हरी ।
⋙ जनेव
संज्ञा पुं० [हिं० जनेऊ] दे० 'जनेऊ' ।
⋙ जनेवा
संज्ञा पुं० [हिं० जनेऊ] १. लकड़ी आदि में बनाई या पड़ी हुई लकीर या धारी । २. एक प्रकार की ऊँची घास जिसे घोड़े बहुत प्रसन्नता से खाते हैं । ३. बाएँ कंधे से दाहिनी कमर तक शरीर का वह अंश जिसपर जनेऊ रहता है । ४. तलवार या खाँड़े का वह वार जो जनेऊ की तरह काट करे । दे० मु० 'जनेऊ का हाथ' ।
⋙ जनेश्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । नरेश । भूपति ।
⋙ जनेष्ट
वि० [सं०] [वि० स्त्री० जनेष्टा] जनप्रिय । लोकप्रिय [को०] ।
⋙ जनेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हल्दी । २. चमेली का पेड़ । ३. पपड़ी । पर्पटी । ४. वृद्धि नाम की औषधि ।
⋙ जनेस पु
संज्ञा पुं० [सं० जनेश] दे० 'जनेश' । उ०—गौतम की तीय तारी मेटे आघ भूरि भारी, लोचन अतिथि भए जनक जनेस के ।—तुलसी ग्रं०, पु० १६० ।
⋙ जनैया
वि० [हिं० जानना + ऐया (प्रत्य०)] जाननेवाला । जानकार । उ०—(क) बदले कौ बदलौ लै जाहु । उनकी एक हमारी द्वै तुम बड़े जनैया आहु ।—सूर०, १० ।४००१ । (ख) तृण के सयान घनधाम राज त्याग करि पाल्यो पितु बचन जो जानत जनैया है ।—पद्माकर (शब्द०) (ग) जो आयसु अब होइ स्वामिवी त्यावहुँ ताहि लेवाई । योगी बाबा बड़ो जनैया सखै कुँवर सूखदाई ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जनो † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जनेऊ] दे० 'जनेऊ' ।
⋙ जनो † (२)
क्रि० वि० [हिं० जानना] मानो । गोया । उ०—(क) तैही जनो पतिदेवत के गुन गौरि सबै गुनगौरि पढ़ाई ।— मति० ग्रं०, पृ० २७५ (ख) कुंकुम मंडित प्रिया वदन जनो रंजित नायक । —नंद० ग्रं०, पृ० ३९ ।
⋙ जनोपयोगी
वि० [सं० जनोपयोगिन्] जनसाधारण के व्यवहार या उपयोग की ।
⋙ जनौ पु
क्रि० वि० [हिं० जानना] मानो । जनो । उ०—(क) जव भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौ सोइ उठि जागा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) नर तौ जनौं अनुत ही पगे ।— नंद० ग्रं०, पृ० २३२ । (ग) उनं तेग कढ्ढी । जनौ बज्र टट्टी ।—पृ० रा०, १० ।२० ।
⋙ जनौघ
संज्ञा पुं० [सं० जन + ओघ] भीड़ । जनसमूह [को०] ।
⋙ जन्नत
संज्ञा पुं० [अ०] १. उद्यान । वाटिका । बाग । २. विहिश्त । स्वर्ग । देवलोक । उत्तम लोक । उ०—हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन । दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४७४ । (ख) जन्नत से कढ़वा दिया शुरू में ही बेचारे आदम को ।—धूप०, पृ० ७३ ।
⋙ जन्नती
वि० [अ०] १. स्वर्गवासी । स्वर्गीय । २. सदाचारी । पुण्यात्मा । स्वर्ग के योग्य [को०] ।
⋙ जन्म
संज्ञा पुं० [सं० जन्मन्] १. गर्भ में से निकलकर जीवन धारण करने की क्रिया । उत्पत्ति । पैदाइश । यौ०—जन्माध । जन्माष्टमी । जन्मतिथि । जन्मभूमि । जन्मपंजी जन्मपत्री । जन्माष्टमी । जन्मदिवस= जन्मदिन । जन्म- कुंडली । जन्ममरण । जन्मदाता । जन्मदात्री । जन्मनाम । जन्मलग्न, आदि । पर्या०—जनु । जन । जनि । उद्भव । जनी । प्रभव । भाव । भव । संभव । जनू । प्रजनन । जाति । क्रि० प्र०—देना ।—धारना ।—लेना । मुहा०—जन्म लेना = उत्पन्न होना । पैदा होना । २. अस्तित्व प्रास करने का काम । आविभवि । जैसे,—इस वर्ष कई नए पत्रों ने जन्म लिया है । ३. जीवन । जिंदगी । मुहा०—जन्म बिगड़ना = बेधर्म होना । धर्म नष्ट होना । जन्म बिगाड़ना=(१) अशोभन और अनुचित कामों मों लगे रहना । (२) दे० 'जन्म हारना' । जन्म जन्म = सदा । नित्य । जन्म जन्मांतर=सदा । प्रत्येक जन्म में । जन्म में थूकना † = घृणापूर्वक धिक्कारना । जन्म हारना = (१) व्यर्थ जन्म खोना । (२) दूसरे का दास होकर रहना । ४. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली का वह लग्न जिसमें कुंडलीवाले जातक का जन्म हुआ हो ।
⋙ जन्मअष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्माष्टमी] दे० 'जन्माष्टमी' ।
⋙ जन्मकील
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु । विशेष—पुराणानुसार विष्णु की उपासना करने से मनुष्य का मोक्ष हो जाता है और उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता । इसी से बिष्णु को जन्मकील कहते हैं ।
⋙ जन्मकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्मकुण्डली] ज्योतिष के अनुसार वह चक्र जिससे किसी के जन्म के समय में ग्रहों की स्थिति का पता चले ।
⋙ जन्मकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] पिता । जन्मदाता ।
⋙ जन्मक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मभूमि । जन्मस्थान [को०] ।
⋙ जन्मगत
वि० [सं० जन्म + गत] जन्म से ही प्रास । जन्मना प्रास [को०] ।
⋙ जन्मग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] उत्पत्ति ।
⋙ जन्मजात
वि० [सं०] जन्म से ही प्रास या उत्पन्न ।
⋙ जन्मतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जन्म की तिथि । जन्मदिन । २. वर्षगाँठ ।
⋙ जनूमतुआ †
वि० [हिं० जन्म + तुआ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० जन्मतुई] थोड़े दिनों का पैदा हुआ । नवोत्पन्न । दुधमुहाँ ।
⋙ जन्मद
वि० [सं०] दे० 'जन्मदाता' ।
⋙ जन्मदाता
संज्ञा पुं० [सं० जन्मदातृ] [स्त्री० जन्मदात्री] जन्म देनेवाला । पिता [को०] ।
⋙ जन्मदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] जननी । माता [को०] ।
⋙ जन्मनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जन्म समय का नक्षत्र । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार किसी को अपने जन्मनक्षत्र में यात्रा न करनी चाहिए और हजामत न बनवानी चाहिए, उस दिन उसे कुछ दानह पुण्य आदि करना चाहिए ।
⋙ जन्मना (१)
क्रि० स० [सं० जन्म हिं० ना (प्रत्य०)] १. जन्म लेना । जन्म ग्रहणा करना । पैदा होना । २. आविर्भूत होना । अस्तित्व में आना ।
⋙ जन्मना (२)
क्रि० वि० [सं० जन्मन् का करण कारक] जन्म से । जन्म द्वारा ।
⋙ जन्मनाम
संज्ञा पुं० [सं० जन्मनामा] जन्म के १२ वें दिन रखा गया नाम [को०] ।
⋙ जन्मप
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष में जन्मलग्न का स्वामी । २. फलित ज्योतिष में जन्मराशि का स्वामी ।
⋙ जन्मपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंडली में जन्मराशि का मालिक । २. जन्मलग्न का स्वामी ।
⋙ जन्मपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्मपत्री । २. जन्म का विवरण । जीवनचरित् । ३. किसी चीज का आदि से अंत तक विस्तृत विवरण ।
⋙ जन्मपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्मपत्री ।
⋙ जन्मपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पत्र या खर्रा जिसमें किसी की उत्पत्ति के समय के ग्रहों की स्थिति, उनकी दशा, अंतर्दशा, आदि और फलित ज्योतिष के अनुसार उनके फल आदि दिए हों ।
⋙ जन्मपादप
संज्ञा पुं० [सं०] वंशवृक्ष [को०] ।
⋙ जन्मप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माता । माँ । २. जन्म होने का स्थान ।
⋙ जन्मभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्म समय का लग्न । २. जन्म समय का नक्षत्र । ३. जन्म की राशि । ४. जन्मनक्षत्र के सजातीय नक्षत्र आदि ।
⋙ जन्मभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म की भाषा । मातृभाषा [को०] ।
⋙ जन्मभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जिस स्थान पर किसी का जन्म हुआ हो । जन्मस्थान । २. वह देश जहाँ किसी का जन्म हुआ हो ।
⋙ जन्मभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] जीव । प्राणी ।
⋙ जन्मयोग
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मपत्रिका । जन्मकुंडली [को०] ।
⋙ जन्मराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह लग्न जिसमें किसी के उत्पन्न होने के समय चंद्रमा उदय हो ।
⋙ जन्मरोगी
वि० [सं० जन्मरोगिन्] जन्म से रुग्ण । जन्म से ही रोगग्रस्त [को०] ।
⋙ जन्मलग्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जन्मराशि' [को०] ।
⋙ जन्मवर्त्म
संज्ञा पु० [सं० जन्मवर्त्मन्] योनि । भग ।
⋙ जन्मविधवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो बचपन में विवाह होने पर विधवा हो गई हो और अपने पति के साथ जिसका संपर्क न हुआ हो । अक्षतयोनि विधवा ।
⋙ जन्मवृत्तांत
संज्ञा पुं० [सं० जन्म + वृत्तांत] दे० 'जन्मपत्र' ।
⋙ जन्मशोधन
संज्ञ पुं० [सं०] जन्म से ही प्राप्ति ऋणों या कर्तव्यों का परिशोधन [को०] ।
⋙ जन्मसिद्ध
वि० [सं० जन्म + सिद्ध] जिसकी प्राप्ति जन्म से ही सिद्ध या मान्य हो । जैसे,—स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधि— कार है । उ०—बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि, मेरे स्वर की रागिनी बह्नि ।—अपरा, पृ० १७७ ।
⋙ जन्मस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्मभूमि । २. माता का गर्भ । ३. कुंडली में वह स्थान जिसमें जन्म समय के ग्रह रहते हैं ।
⋙ जन्मांतर
संज्ञा पुं० [सं० जन्मान्तर] दूसरा जन्म । अन्य जन्म । उ०—कारन ताको जानिए सुधि प्रगटी है आय । जन्मांतर के सखन को जो मन रही समाय ।—शकुंतला, पू० ८२ । यौ०—जन्मांतरवाद=पुनर्जन्म संबंधी विचारधारा ।
⋙ जन्मांध
वि० [सं० जन्मान्ध] जन्म का अंधा । जन्म से अंधा ।
⋙ जन्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० जन्मन्] वह जिसका जन्म हो । जन्मवाला । जैसे,—द्विजन्मा, शूद्रजन्मा । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार प्रायः समासांत में होता है ।
⋙ जन्मा (२)
वि० उत्पन्न । जो पैदा हुआ हो ।
⋙ जन्माधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम । २. जन्मराशि का स्वामी । ३. जन्मलग्न का स्वामी ।
⋙ जन्माना
क्रि० स० [हिं० जन्मना] जन्मने का सकर्मक रूप । उत्पन्न करना । जन्म देना ।
⋙ जन्माष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों की कृष्णाष्टमी, जिस दिन आधी रात के समय भगवान श्रीकृष्णचंद्र का जन्म हुआ था । इस दिन हिंदू व्रत तथा श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव करते हैं । विशेष—विष्णुपुराण में लिखा है कि श्रीकृष्णचद्र का जन्म श्रावण मांस के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था । इसका कारण मुख्य चांद्रमास और गौण चांद्रमास का भेद मालूम होता है, क्योंकि जन्माष्टमी किसी बर्ष सौर श्रावण मास में होती है । और किसी वर्ष सौर भाद्र मास में होती है ।
⋙ जन्मास्पद
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मभूमि । जन्मस्थान ।
⋙ जन्मी (१)
संज्ञा पुं० [सं० जन्मिन्] प्राणी । जीव ।
⋙ जन्मो (२)
वि० जो उत्पन्न हुआ हो ।
⋙ जन्मेजय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुरुवंशी प्रसिद्ध राजा परीक्षित के पुत्र का नाम । विशेष—यह बड़ा प्रतापी राजा था । इसने तक्षक नाग से अपने पिता का बदला लिया था और एक अश्वमेध यज्ञ भी किया था । वैशंपायन ने इसे महाभारत सुनाया था । यह अर्जुन का प्रपौत्र और अभिमन्यु का पौत्र था । २. विष्णु । ३. एक प्रसिद्ध नाग का नाम ।
⋙ जन्मेश
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मराशि का स्वामी ।
⋙ जन्मोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के जन्म के स्मरण का उत्सव तथा नवग्रह, अष्टचिरंजीवी और कुलदेवता आदि का पूजन । बरसगाँठ । २. जातक के छठे दिन या बारहवें दिन होनेवाला उत्सव या समारोह ।
⋙ जन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जन्या] १. साधारण मनुष्य । जनसाधा— रण । २. किंवदंती । अफवाह । ३. राष्ट्र या किसी देश के वासी । ४. लड़ाई । युद्ध । ५. हाट । बाजार । ६. निंदा । परिवाद । ७. वर । दूलह । ८. वर के संबंधी जन । वर पक्ष के लोग । ९. बराती । १०. जामाता । दामाद । ११. पुत्र । बेटा । उ०—अतुल अंबुकुल सा अमल भला कौन है अन्य । अंबुज जिसका जन्य तू धन्य धन्य ध्रुव धन्य ।—साकेत, पृ० २९३ । १२. पिता । १३. महादेव । १४. देह । शरीर । १५. जन्म । १६ जाति । १७. जन्म के समय होनेवाला शकुन या अप— शकुन (को०) ।
⋙ जन्य
वि० १. जन संबंधी । २. जो उत्पन्न हुआ हो । उदभूत । ३. किसी जाति, देश, वंश या राष्ट्र से संबंध रखनेवाला । ४. दैशिक । राष्ट्रीय । जातीय । ५. साधारण । सामान्य । गँवारू (को०) । ६. (समासांत में) किसी से या किसी के द्वारा उत्पन्न । जैसे, तज्जन्य, दुःखजन्य ।
⋙ जन्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म होने का भाव ।
⋙ जन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वधू की सहैली । २. वधू । ३. माता की सखी । ४. प्रीति । स्नेह । ५. सुख । आनंद (को०) ।
⋙ जन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. ब्रह्मा । विधाता । ३. प्राणी । जीव । ४. जन्म । उत्पत्ति । ५. हरिवंश के अनुसार चौथे मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम ।
⋙ जप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० जपतव्य, जपनीय, जपी, जप्य] १. किसी मंत्र या वाक्य का बार बार धीरे धीरे पाठ करना । २. पूजा या संध्या आदि में मंत्र का संख्यापूर्वक पाठ करना । विशेष—पुराणों में जप तीन प्रकार का माना गया है—मानस, उपांशु और वाचिक । कोई कोई उपांशु और मानस जप के बीच 'जिह्वाजप' नाम का एक चौथा जप भी मानते हैं । ऐसे लोगों का कथन है कि वाचिक जप से दसगुना फल उपांशु में, शतगुना फल जिह्वा जप में और सहस्त्रगुना फल मानस जप में होता है । मन ही मन मंत्र का अर्थ मनन करके उसे धीरे धीरे इस प्रकार उच्चारण करना कि जिह्वा और ओंठ में गति न ही, मानस जप कहलाता है । जिह्वा और ओठ को हिलाकर मंत्रों के अर्थ का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ सुनाई पड़े, उपांशु जप कहलाता है । जिह्वाजप भी उपांशु के ही अंतर्गत माना जाता है, भेद केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर ओठ में गति नहीं होती और न उच्चारण ही सुनाई पड़ सकता है । वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करना वाचिक जप कहलाता है । जप करने में मंत्र की संख्या का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये जप में माला की भी आवश्यकता होती है । यौ०—जपमाला । जपयज्ञ । जपस्थान । ३. जापक । जपनेवाला । जैसे, कर्णेंजप ।
⋙ जपजी
संज्ञा पुं० [हिं० जप] सिक्खों का एक पवित्र धर्मग्रंथ, जिसका नित्य पाठ करना वे अपना मुख्य धर्म समझते हैं ।
⋙ जपतप
संज्ञा पुं० [हिं० जप + तप] संध्या, पूजा, जप और पाठ आदि । पूजा पाठ । उ०—जपतप कछु न होइ तेहि काला । है विधि मिलइ कवन विधि बाला ।—मानस, १ ।१३१ ।
⋙ जपत पु
संज्ञा पुं० [अ० जब्त] दे० 'जब्त' । उ०—अपत करी बन की लता, जपत करी द्रुम साज । बुध बसंत कौ कहत हैं कहा । जानि ऋतुराज ।—सं सप्तक, पृ० ३८२ ।
⋙ जपतव्य
वि० [सं०] दे० 'जपनीय' ।
⋙ जपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जप करने का काम । २. जप करने का भाव ।
⋙ जपन
संज्ञा पुं० [सं०] जपने का काम । जप ।
⋙ जपना (१)
क्रि० स० [सं० जपन] १. किसी वाक्य या वाक्यांश को बराबर लगातार धीरे धीरे देर तक कहना या दोहराना उ०—राम राम के जपे ते जाय जिय की जरनि ।—तुलसी (शब्द०) । २. किसी मंत्र का संध्या, यज्ञ या पूजा आदि के समय संख्यानुसार धीरे धीरे बार बार उच्चारण करना । ३. खा जाना । जल्दी निगल जाना (बाजारू) ।
⋙ जपना पु (२)
क्रि० स० [सं० यजन] यजन करना । जज्ञ करना । उ०—चहत महामुनि जाग जपो । नीच निसाचर देत दुसह दुख कृस तनु ताप तपो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जपनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जपना] १. माला । २. वह थैली जिसमें माला रखकर जप किया जाता है । गोमुखी । गुप्ती ।
⋙ जपनीय
वि० [सं०] जप करने योग्य । जो जपने योग्य हो ।
⋙ जपमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह माला जिसे लेकर लोग जप करते हैं । विशेष—यह माला संप्रदायानुसार, रुद्राक्ष, कमलाक्ष, पुत्रजीव, स्फटिक, तुलसी आदि के मनकों की होती है । इनमें प्रायः एक सौ आठ, चौवन या अट्ठाईस दाने होते हैं और बीच में जहाँ गाँठ होती है वहाँ एक समेरु होता है । हिंदुओं के अतिरिक्त बौद्ध, मुसलमान और ईसाई आदि भी माला से जप करते हैं ।
⋙ जपयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] जपात्मक यज्ञ । जप । इसके तीन भेद वाचिक, उपांशु और मानसिक हैं । विशेष—दे० 'जप—२' ।
⋙ जपहोम
संज्ञा पुं० [सं०] जप । मंत्र का होमात्मक रूप में जप ।
⋙ जपा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवा पुष्प । अड़हुल । उ०—को इनकी छबि कहि सकै, को इनकी छबि लाल । रेचन तै रोचन कहा, जावक, जपा, गुलाल ।—स० ससक, पृ० ३८७ । यौ०—जपाकुसुम=अंड़हुल का फूल ।—अनेकार्थ०, पृ० ४१ । जपालक्त, जयालक्तक=जपाकुसुम सा गहरा लाल महावर ।
⋙ जपा पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० जप] वह जो जप करता हो । जप करनेवाला व्यक्ति । उ०—मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ।—जायसी ग्रं०, पृ० १२ ।
⋙ जपाना †
क्रि० स० [हिं० जपे या जपना] जपने का प्रेरणार्थक रूप । जप कराना ।
⋙ जपिया पु
वि० [हिं०] जप करनेवाला ।
⋙ जपी
संज्ञा पुं० [सं० जपिन् हिं० जप + ई (प्रत्य०)] जप करनेवाला । वह जो जप करता हो ।
⋙ जप्त
संज्ञा पुं० [अ० जब्त] दे० 'जब्त' ।
⋙ जप्तव्य
वि० [सं०] जो जपने योग्य हो । जपनीय ।
⋙ जप्ती
संज्ञा स्त्री० [अ० जब्ती] दे० 'जब्ती' ।
⋙ जप्य (१)
वि० [सं०] जपने योग्य । जपनीय ।
⋙ जप्य (२)
संज्ञा पुं० मंत्र का जप ।
⋙ जफर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० जफ़र] जय । विजय । सफलता । उ०—दो तीन गरातिब वह लश्कर । जंग उससे किए नई पाए जकर ।—दक्खिनी०, प० २२१ ।
⋙ जफर (२)
संज्ञा पुं० [अ० जफ्र] एक विद्या जिससे परोक्ष ज्ञान प्राप्त होता है [को०] ।
⋙ जफा
संज्ञा स्त्री० [फ्रा० जफ़ा] अन्याय और अत्याचारपूर्ण ब्यव- हार । सख्ती । उ०—गया बहाना भूल जफा में मूर गँवाया ।—पलटू०, पृ० २० । यौ०—जफाकार, जफाकेश, जफाशिआर=अत्याचारी । अन्यायी । क्रूर । जालिम ।
⋙ जफाकश
वि० [फ्रा० जफ़ाकश] १. सहिष्णु । सहनशील । २. मेहनती । परिश्रमी ।
⋙ जफाकशी
संज्ञा स्त्री० [फ्रा० जफ़ाकशी] सहिष्णु और परिश्रमी स्वभाव का होना [को०] ।
⋙ जफीर
संज्ञा स्त्री० [अ० जफ़ीर] दे० 'जफील' ।
⋙ जफीरी
संज्ञा स्त्री० [अ० जफ़ीर + फा० ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार की कपास जो मिस्र देश में होती है । २. सीटी (को०) ।
⋙ जफील
स्त्री० संज्ञा पुं० [अ० जफ़ीर] १. सीटी का शब्द, विशेषतः उस सीटी का शब्द जो कबूतरबाज कबूतर उड़ाने के समय मुँह में दो उँगलियाँ रखकर बजाते हैं । २. वह जिससे सीटी बजाई जाय । सीटी । क्रि० प्र०—बजाना ।—देना ।
⋙ जफीलना
क्रि० अ० [हिं० जफील] सीटी बजाना । सीटी देना ।
⋙ जब
क्रि० वि० [सं० यावत्, प्रा० याव, जाव] जिस समय । जिस वक्त । उ०—जबते राम ब्याहि घर आए । नित नव मंगल मोद बधाए ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—जब कभी=जब जब । जिस किसी समय । जब कि= जब । जब जब= जब कभी । जिस जिस समय । उ०—जब जब होइ धरम की हानी । बाढै असुर अधम अभिमानी । तब तब प्रभु धरि मनुज शरीरा । हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।—तुलसी (शब्द०) । लग तब = कभी कभी । जैसे,—जब तब वे यहाँ आ जाया करते है । जब होता है तब = प्रायः । अकसर । बराबर । जैसे,—जब होता है, तब तुम मार दिया करते हो । जब देखो तब = सदा । सर्वदा । हमेशा । जैसे,— जब देखो तब तुम यहीं खड़े रहते हो ।
⋙ जवई †
क्रि० वि० [हिं० जब + ही] जिस किसी समय । उ०— जबई आनि परै तहाँ तवई ता सिर देहि ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३५ ।
⋙ जबड़ा
संज्ञा पुं० [सं० जम्भ] मुँह में दोनों ओर ऊपर और नीचे की वे हड्डियाँ जिनमें डाढ़े जड़ी रहती हैं । कल्ला । मुहा०—जबड़ा फाड़ना = मुँह खोलना । मुँह फाड़ना । जबड़े की तान=गवैयों की एक तान जो उत्तम नहीं मानी जाती । यौ०—जबड़ातोड़=जबरदस्त । बलवान । मुँहतोड़ ।
⋙ जबदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धान जो रुहेलखंड में पैदा होता है ।
⋙ जबर (१)
वि० [फ़ा० जबर] १. बलवान । बली । ताकतवर । २. मजबूत । दृढ़ । ३. ऊँचा । ऊपरी ।
⋙ जबर (२)
क्रि० वि० ऊपर । उपरि ।
⋙ जबर (३)
संज्ञा पुं० सर्दू में ह्रस्व अकार का बोधक चिह्न ।
⋙ जबरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जबर + ई (प्रत्य०)] अन्याययुक्त सख्ती । अत्याचार । ज्यादती ।
⋙ जबरजंग †
वि० [हि० जबर + जंग] दे० 'जबरदस्त' ।
⋙ जबरजद, जबरजद्द
संज्ञा पुं० [अ० जबरजद] एक प्रकार का पन्ना जो पीसापन लिए हरे रंग का होता है । पुखराज ।
⋙ जबरजरत †
वि० [फ़ा० जबरदस्त] दे० 'जबरदस्त' ।
⋙ जबरजस्ती †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबरदस्ती] दे० 'जबरदस्ती' । उ०— किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते, जबरजस्ती जो चाहे निकाल दे ।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ७९४ ।
⋙ जबरदस्त
वि० [फ़ा० जबरदस्त] [संज्ञा जबरदस्ती] १. बलवान् बली । शाक्तिवाला । २. दृढ़ । मजबूत । पक्का ।
⋙ जबरदस्ती (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबरदस्ती] आत्याचार; सीनाजोरी । प्रवलता । जियादती । अन्याय ।
⋙ जबरदस्ती (२)
क्रि० वि० बलपूर्वक । दबाव डालकर । इच्छा के विरुद्ध ।
⋙ जबरन
क्रि० वि० [अ० जब्रन्] बलात् । जबरदस्ती । बलपूर्वक । उ०—एक तरह से जबरन ही उसे गाड़ी में बैठा लिया ।— भस्मावृत०, पृ० ११ ।
⋙ जबरा (१)
वि० [हिं० जबर] वलवान । बली । प्रबल । जबरदस्त । जैसे,—जबरा मारे रोने न दे ।
⋙ जबारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जबर (=दृढ़)] चौड़े मुँह का एक प्रकार का कुठला या अनाज रखने क मिट्टी का बड़ा बरतन ।
⋙ जबरा (२)
संज्ञा पुं० [अ० जेबरा] घोड़े और गदहे के मध्य का एक' बहुत सुंदर जंगली जानवर जो मटमैले सफेद रंग का होता है और जिसके सारे शरीर पर लंबी सुंदर और काली धारियाँ होती है । विशेष—यह कंधे तक प्रायः तीन हाथ ऊँचा और छरहरे, पर मजबूत बदन का होता है । इसके कान बड़े, गरदन छोटी और दुम गुच्छेदार होती है । यह बहुत चौकन्ना, चपल, जंगली और तेव दौड़नेवाला होता है और बड़ी कठिनसा से पकड़ा या पाला जाता है । यह कभी सवारी या लादने का काम नहीं देता । दक्षिण अफ्रिका के जंगलों और पहाडों में इसके झुंड के झुड पाए जाते हैं । जहाँ तक हो सकता है, यह बहुत ही एकांत स्थान में रहता है और मनुष्यों आदि की आहट पाकर तुरंत भाग जाता है । इसका शिकार बहुत किया जाता है जिससे इसकी जाति के शीघ्र ही नष्ट हो जाने की आशंका है ।
⋙ जबराइल
संज्ञा पुं० [अ० जिब्रील] एक फरिश्ता या देवदूत ।
⋙ जबरूत
संज्ञा पुं० [अ०] प्रतिष्ठा । श्रेष्ठता । बुजुगीं [को०] ।
⋙ जबर्दस्त
वि० [हिं०] दे० 'जबरदस्त' ।
⋙ जबर्दस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'जबरदस्ती' ।
⋙ जबल
संज्ञा पुं० [अ०] पर्वत । पहाड़ । उ०—तन दुख नीर तड़ाग, रोग बिहंगम रूखड़ो । बिसन सलीमुख बाग, जरा बरक ऊतर जबल ।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ४१ ।
⋙ जबह
संज्ञा पुं० [अ० जब्ह, जिब्ह] गला काटकर प्राण लेने की क्रिया । हिंसा । उ०—भोले भाले मुसलमानों को वर्गला कर जबह न कीजिए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८९ । मुहा०—जबह करना=बहुत कष्ट देना । अत्यंत दुःख देना ।
⋙ जबहा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जीव] जीवट । साहस । हिम्मत । जैसे,— उसवे बड़े जबहे का काम किया ।
⋙ जबहा (२)
संज्ञा पुं० [अ० जवहह्] १. दसवाँ नक्षत्र । मघा । २. ललाट । पेशानी । माथा । यौ०—जबहासाई—माथा रगड़ना या धिसना । दैन्य प्रदर्शन ।
⋙ जबाँ
सज्ञा स्त्री० [फा० जबाँ] दे० 'जबान' । उ०—जबा सदके गाली ही भला आशिक को तुम दे दो ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४२२ । यौ०—जबाँगोर । जबाँजद । जबाँदराज । जबाँदराजी । जबाँवाँ= भाषाविज्ञ । जबाँदानी । जबाँबंदी ।
⋙ जबाँगीर
वि० [फ़ा० जबँगीर] जासूस । गुप्तचर । भेदिया [को०] ।
⋙ जबाँजद
वि० [फ़ा० जबाँजद] जो सबकी जबान पर हो । जन- प्रसिद्ध । विख्यात [को०] ।
⋙ जबाँदराज
वि० [फ़ा० जबाँदराज] दे० 'जबानदराज' ।
⋙ जबाँदराजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबाँदराजी] दे० 'जबानदराजी' ।
⋙ जबाँदानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबाँदानी] किसी भाषा का पांड़ित्य या पूर्णदान । उ०—लखनऊवाले, जिन्हें अपनी जबाँदानी का अभिदान है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४०६ ।
⋙ जबान
संज्ञा स्त्र [फ़ा० जबान] [वि० जबानी] १. जीभ । जिह्वा । यौ०—जबानदराज । जबानबंदी । मुहा०—जबान कतरनी की तरह चलना=धृष्टतापूवँक अनुचित अनुचित बातें कहना । उ०—ऐसी ढिठाई से खुदा समझे कि दोनों की जबान कतरनी की तरह चल रही है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३६९ । जबान को लगाम देना=अपना कथन समाप्त करना । चुप हो जाना । उ०—बस बस जरी जबान को लगाम दी ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३ । जबान आना= किसी चुप्पे आदमी का बढ़कर बातें करना । उत्तर प्रत्युत्तर करना । उ०—शान खुदा, बेजबानों को भी हमारे लिये जबान आई ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २७४ । जबान खींचना= बहुत अनुचित या धृष्टतापूर्ण बातें करने के लिये कठोर दंड देना । जबान खुलना=(१) मुँह से बात निकालना । (२) बच्चों का बोलने लगना । बोलने में समर्थ होना । जबान खुलवाना=टेढ़ी सीधी कुछ कहने को विवश करना । जबान खुश्क होना=पिपासित होना । प्यास से आकुल होना । जबान खोलना=मुँह से बात निकालना । बोलना । जबान घिस जाना या घिसना=कहते कहते हार जाना । बार बार कहना । जबान चलना=(१) मुँह से जल्दी जल्दी शब्द निकलना । (२) मुँह से अनुचित शब्द निकलना । (३) खाया जाना । मुँह चलाना । जबान चलाना=(१) बोलना, विशेषतः जल्दी जल्दी बोलना । (२) मुँह से अनुचित शब्द निकलना । जबान चलाए की रोटी खाना=खुशामद या चापलूसी द्वारा जीवनयापन करना । जबान चाटना= दे० 'ओंठ चाटना' । जबान टूटना=(बालक का) स्पष्ट उच्चारण आरंभ करना । †जबान डालना=(१) माँगना याचना करना । (२) पूछना । प्रश्न करना । जबान तक न हिलना=मौन रह जाना । कुछ न कहना । उ०—इतनी फिरंगिनें बैठी हैं किसी की जबान तक नहीं हिली और हम आपस में कटे मरते हैं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३ । जबान थामना या पकड़ना=बोलने न देना । कहने से रोकना । जबान पर आना=कहा जाना । मुँह से निकलना । जबान पर या में ताला लगना=चुप रहने को विवश होना । जबान पर मुहर लगाना=बोलने या कहने पर रुकावट होना । जबान पर रखना=(१) किसी चीज को थोड़ो मात्रा में खाकर उसका स्वाद लेना । चखना । (२) स्मरण रखना । याद रखना । जबान पर लाना=मुँह से कहना । बोलना । उ०—मरहबा वगैरह जबान पर लाते थे और खुद ही झुक झुक कर सलाम करते थे ।—फिसाना०, भा० १, पृ० १ । जबान पलटना=कहकर बदल जाना । वचन भंग करना । जवान पर होना=हर दम याद रहना । स्मरण रहना ।जबान बंद करना=(१) चुप होना । (२) बोलने से रोकना । (३) विवाद में हराना । जबान बंद होना=(१) मुँह से शब्द न निकलना । (२) विवाद में हार जाना । निग्रह स्थान में आना । जबान बिगड़ाना=(१) मुँह ले अपशब्द निकलने का अभ्यास होना । ३. मुँह का स्वाद इस प्रकार खराब होना कि खाने की कोई चीज अच्छी न लगे । (३) जबान चटोरी होना । जबान में काँटे पड़ना=(१) जबान फरना । निनाबाँ होना । (२) किसी बात को रुककर रुक कहना । जबान में कीड़े पड़ना=अनुचित कथन या मिथ्या भाषण पर अशुभ कम्मना । जबान में खुजली होना=झगड़े की अभिलाषा होना । जबान में लगाम न होना=अनुचित बासें कहने का अभ्यास होना । सोच समझकर बोलने के अयोग्य होना । जबान रौंकना=(१) जबान पकड़ना । (२) चुप करना । जबान सँभालना मुँह से अनुचित शब्द न निकलने देना । सोच समभकर बोलना । जबान सीना । दे० 'मुँह सीना' । जवान निकालना=उच्चारण होना । बोला जाना । जबान से निकलना=उच्चारण करना । कहना । जबान हिलाना= बोलने का प्रयत्न करना । मुहँ से शब्द निकालनना । दवी जबान से बोलना या कहना=कमजोर होकर बोलना । अस्पष्ट रूप से बोलना । इस प्रकार से बोलना जिससे सुनने— वालों को उस बात के संबंध में संदेह रह जाय । बदजबानी= अनुचित और अशिष्ट बात । बरजबान=जो बहुत अच्छी तरह याद हो । कंठस्थ । उपस्थित । बेजबान=जो अधिक न बोलता हो । बहुत सीधा । २. जबान से निकला हुआ शब्द । बात । बोल । जौसे—मरद की एक जबान होती है । मुहा०—जबान बदलना=कही हुई बात से फिर जाना । दे० 'जबान पलटना' । ३. प्रतिज्ञा । वादा । कौल । करार । मुहा०—जबान देना या हारना=प्रतिज्ञा करना । वचन देना वादा करना । ४. भाषा । बोलचाल । जैसे, उर्दू जबान ।
⋙ जबानदराज
वि० [फ़ा० जबानदराज] [संज्ञा जबानदराजी] १. जो बहुत सी न कहने योग्य और अनुचित बातें कहे । बहुत धृष्टतापूर्वक अनुचित बातें करनेवाला । २. बढ़ बढ़कर बातों करनेवाला । शेखी या डींग हाँकनेवाला ।
⋙ जबानदराजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबानदराजी] बहुत धृष्टतापूर्वव अनुचित बातें करने की क्रिया या भाव । धृष्टता । ढिठाई । गुस्ताखी ।
⋙ जबानबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० जबानबंद] १. ताबीज या यंत्र । वा ताबीज जो शत्रु की जबान को रोकने के लिये लिखा जाय । २. वह साक्षी या इजहार जो लिखा हुआ हो ।
⋙ जबानबंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जबानबंदी] १. किसी घटना आदि के संबंध में साक्षी स्वरूप वह कथन जो लिख लिया जाय । लिखा जानेवाला इजहार । २. मौन । चुप्पी ।
⋙ जबानी
वि० [हिं० जबान] जो केवल जबान से कहा जाया, पर कार्य अथवा और किसी रूप में परिणत न किया जाय । मौखिक । जैसे, जबानी जमाखर्च, जबानी संदेसा ।
⋙ जबाब
संज्ञा पुं० [अ० ज्रवाब] दे० 'जवाव' । यौ०—जवाबदेह=उत्तरदाता । जिम्मेदार । उ०—इस नूतन कविता आंदोलन के साथ मैं आज अपनी रचनाओं के लिये आलोचक के सामने पहले से कहीं अधिक जवाबदेह हूँ ।—बंदन०, पृ० २१ ।
⋙ जबार †
संज्ञा पु० [अ० जवार] दे० 'जवार' । उ०—जबार में ही हाई स्कूल खुल गया था ।—नई०, पृ० ८ ।
⋙ जबाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सत्यकाम जाबाल ऋषि की माता का नाम जो एक दासी थी । इसकी कथा छांदोग्य उपनिषद् में है । विशेष—दे० 'जाबाल' ।
⋙ जबुर †
वि० [अ० जब्र] बुरा । खराब । अनुचित ।
⋙ जबून
वि० [तु० जबून] बुरा । खराब । निकम्मा । निकृष्ट । उ०—करत है राम जबून भला, हम बपुरा कौन सवारै ।— जग० श०, पृ० ११४ ।
⋙ जबूर
संज्ञा पुं० [अ० ज़बूर] वह आसमानी किताब जो हजरत दाऊद पर उतरी थी । एक मुसलमानी धर्मग्रंथ । उ०—जैसे तौरीत ऋग्वेद है वैसा ही जबूर सामवेद है ।—कबीर मं०, पृ० २८८ ।
⋙ जब्त
संज्ञा पुं० [अ० जब्त] १. अधिकारी या राज्य द्वारा दंड- स्वरूप किसी अपराधी की संपत्ति का हरण । किसी अपराधी को दंड देने के लिये सरकार का उसकी जायदाद छीन लेना । २. अपने अधिकार में आई हुई किसी दूसरी की चीज को अपना लेना । कोई वस्तु किसी के अधिकार से ले लेना । ३. धैर्य धारण करना । धीरतायुक्त होना । सहना (को०) । ४. प्रबंध । इंतजाम । व्यवस्था (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ जब्ती
संज्ञा स्त्री० [अ० जव्त] दब्त होने की क्रिया । कुकीं । मुहा०—जब्ती में आना=जब्त हो जाना ।
⋙ जब्बर पु †
वि० [फ़ा० जबर] शक्तिशाली । भारी । उ०—लालच लोटहि पोट चो़ट जब्बर उर लागी । कियो हियो दुःसार पीर प्राननि मैं पागी ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १५ ।
⋙ जब्बार
वि० [अ०] जबदस्ती करनेवाला । ताकतवर । शक्तिशाली । उ०—छुनकारा हुआ आज दस्ते जब्बार ।— कबीर मं०, पृ० ४७ ।
⋙ जब्भा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जबहा' ।
⋙ जब्र
संज्ञा पुं० [अ०] १. कठोर व्यवहार । ज्यादती । सख्ती । २. लाचारी । मजबूरी (को०) ।
⋙ जब्रन
क्रि० वि० [अ० जब्रन्] बलात् । बलपूर्वक । जबर- दस्ती ।
⋙ जब्री
वि० [अ०] जबरदस्ती, बलपूर्वक या अनिवार्यतः कराया जानेवाला [को०] ।
⋙ जब्रीया (१)
क्रि० वि० [अ० जब्रीयह्] जबरदस्ती से ।
⋙ जब्रीया (२)
संज्ञा पुं० वह जो ईश्वरेच्छा या नियति को सर्वोपरि मानता हो [को०] ।
⋙ जब्रील
संज्ञा पुं० [अ०] दे० जिब्रील ।
⋙ जब्ह
संज्ञा पुं० [अ० जब्ह] दे० 'जबह' । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ जभन
संज्ञा पुं० [सं० यभन] मैथुन । स्त्री—प्रसंग ।
⋙ जम पु
संज्ञा पुं० [सं० यम] दे० 'यम' । उ०—दरसन ही ते लागै जम मुख मसी है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १८१ । यौ०—जम अनुजा=यमुना । जमकातर । जमघंट । जमधर । जमदिसा । जमपुर ।
⋙ जमई
[फ़ा०] जो जमा हो । नगदी । जमा संबंधी । विशेष—यह शब्द उस भूमि के लिये आता है जिसका लगान नगद लिया जाता है । जैसे, जमई खेत । अथवा इसका व्यवहार उस लगान के लिये होता है जो जिंस के रूप में नहीं बल्कि नगद हो । जैसे, जमई लगान, जमई बंदोबस्त ।
⋙ जमक (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० यमक] दे० 'यमक' ।
⋙ जमक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चमक] दे० 'चमक' ।
⋙ जमकना
क्रि० अ० [हिं० चमकना] दे० 'चमकना' ।
⋙ जमकात पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चमकातर' । उ०—बिजुरी चक्र फिरै चहुं फैरी । औ जमकात फिरै जम केरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जमकातर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० यम + हि० कातर] भँवर ।
⋙ जमकातर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यम + कर्त्तरी] १. यम का छुरा या खाँड़ा । २. एक प्रकार की छोटी तलवार ।
⋙ जमकाना
क्रि० सं० [हिं० जमकना] जमकना का सकर्मक रूप । चमकाना ।
⋙ जमघंट
संज्ञा पुं० [सं० यम + घण्ट] दे० 'यमघंट' । उ०—सब कछु जरि गयो होरी में । तब धुरहि धूर बचो री, नाम जमघंट परो री ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०५ ।
⋙ जमधट
संज्ञा पुं० [हिं० जमना + घट(=समूह)] मनुष्यों की भीड़ जिसपें लोग ठसाठस भरे हों और जिसे कोई आदमी सुगमता है पार व कर सके । बहुत से मनुष्यों का भीड़ । ठट्ठ । जमावड़ा । मजमा । उ०—और नतंकियों का जमघट जमता था ।—प्रेमघन०, भा० २, पू० ३३२ । कि० प्र०—जमना ।—लगना ।—लगाना ।—होना ।
⋙ जमघटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जमधट' ।
⋙ जमघट्ट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जमधट' ।
⋙ जमधर पु
संज्ञा पुं० [यम + गृह] यमालय । उ०—दुनिया में भरमो मति हीना । जमघर जावगे नाम विहोना ।—कबीर सा०, पृ० ८१४ ।
⋙ जमज पु
वि० [सं० यमज] दे० 'यमज' ।
⋙ जमजम
संज्ञाग पुं० [अ० जमजम] मक्का का एक कुआँ जिसका पानी मुसलमान लोग बहुत पवित्र मानते हैं । उ०— में तेरे मुझ चाहे जमजम का असर दिसता ।—कविता को०, भा० ४, पृ० ९ ।
⋙ जमजोहरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो ऋतुपरिवर्तन के समय रंग बदलती है । विशेष—यह चिड़िया जाड़े के दिनों में उत्तरपश्चिम भारत में दिखाई पड़ती है और गरमी में फारस और तुर्किस्तान को चली जाती है । यह प्रायः एक बालिश्त लंबी होती है और ऋतुपरिवर्तन के समय रंग बदलती रहती है ।
⋙ जमडाढ़
संज्ञा स्त्री० [सं० यम + दंष्ट्र, प्रा० दङ्ढ, डढ्ढ, हिं० डाढ़] कटारी की तरह का एक हथियार जिसकी नोक बहुत पैनी और आगे की और झुकी हुई होती है । इसे शत्रु के शरीर में भोंकते है । जमधर ।
⋙ जमदग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रकार वैदिक ऋषि जिनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है । भृगुवंशी ऋचीक ऋषि के पुत्र । विशेष—वेदों में जमदग्नि के बहुत से मंत्र मिलते हैं । ऋग्वेद के अनेक मंत्रों से जाना जाता है कि विश्वामित्र के साथ ये भी वशिष्ठ के विपक्षी थे । ऐतरेय ब्राह्मण हरिश्रंद्रोपाख्यान में लिखा है कि हरिश्चंद्र के नरमेघ यज्ञ में ये अध्वर्यु हुए थे । जमदग्नि का जिक्र महाभारत, हरिवंश और विष्णुपुराण में आया है । इनकी उत्पति के संबंध में लिखा है कि ऋचीक ऋषि ने अपनी स्त्री सत्यवती, जो राजा गाधि की कन्या थी, तथा उनकी माता के लिये भिन्न गुणोंवाले दो चरु तैयार किए थे । दोनों चरु अपनी स्त्री सत्यवती को देकर उन्होंने बतला दिया था कि ऋतुस्नान के उपरांत यह चरु तुम खा लैना और दूसरा चरु अपनी माता को खिला देना । सत्यवती ने दोनों चरु अपनी माता को देकर उसके संबंध में सब बातें बतला दीं । उसकी माता ने यह समझकर कि ऋचीक ने अपनी स्त्री के लिये अधिक उत्तम गुणोंवाला पुत्र उत्पन्न करने के लिये चरु तेयार किया होगा, उसका चरु स्वयं खा लिया और अपना चरु उसे खिला दिया । जब दोनों गर्भवती हुई, तब ऋचीक ने अपनी स्त्री के नक्षत्र देखकर समझ लिया कि चरु बदल गया है । ऋचीक ने उससे कहा कि मैंने तुम्हारे गर्भ से ब्रह्मविष्ठ पुत्र और तुम्हारी माता के गर्भ से महाबली और क्षात्र गुणोंवाला पुत्र उत्पन्न करने के लिये चरु तैयार किया था; पर तुम लोगों ने चरु बदंल लिया । इसपर सत्यवती ने दुःखी होकर अपने पति से कोई ऐसा प्रयत्न करने की प्रार्थना की जिसमें उसके नर्भ से उग्र क्षत्रिय न उत्पन्न हो; और यदि उसका उत्पन्न होना अनिवार्य ही हो तो वह उसकी पुत्रवधू के गर्भ से उत्पन्न हो । तदनुसार सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि और उसकी माता के गर्भ से विश्वामित्र का जन्म हुआ । इसीलिये जमदग्नि में भी बहुत से क्षत्रियोचित गुणा थे । जमदग्नि ने राजा प्रसेनजित् की कन्या रेणुका से विवाह किया था और उसके गर्भ से उन्हें रुमण्वान्, सुषेण, वह, विश्वाबहु और परशुराम नाम के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए थे । ऋचीक के चरु के प्रभाव से उनमें सेपरशुराम में सभी क्षत्रियोचित गुण थे । जमदग्नि की मृत्यु के संबंध में विष्णुपुराण में लिखा है कि एक बार हैहय के राजा कार्तवीर्य उनके आश्रम से उनकी कामधेनु ले गए थे । इस पर परशुराम ने उनका पीछा करके उनके हजार हाथ काट डाले । जब कातंवीर्य के पुत्रों को यह बात मालूम हुई, तब लोगों ने जमदग्नि के आश्रम पर जाकर उन्हें मार डाला ।
⋙ जमदिसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यम + दिशा] दक्षिण दिशा जिसमें यम का निवास माना जाता है । उ०—मेष सिंह धन पूरुब बसै । बिरिख मकर कन्या जम दिसै ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जमधर
संज्ञा पुं० [हिं० जमडाढ़] १. जमढाढ़ नामक हथिथार । उ०—गहि द्दथ्थ एकन को गिराए मारी जमधर कमर में ।— हिम्मत०, पृ० २१ ।२. एक प्रकार का बदामी कागज ।
⋙ जमधार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जम + धार] यम की सेना । काल की सेना । उ०—जमधार सरिस निहारि सब नर नारि चलिहहिं भाजि के ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४ ।
⋙ जमन (१)
संज्ञा पुं० [सं० जमन] १. भोजन करना । भक्षण । २. भोजन । भोज्य वस्तु [को०] ।
⋙ जमन पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यमुना, तुल०, फ़ा० जमन] दे० 'यमुना' । उ०—सुर थान निगमबोधह सुरंग । जल जमन आइ राषिस स्वमंग ।—पृ० रा०, १ ।६५८ ।
⋙ जमन (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० यवन] म्लेच्छ । मुसलमान । धवन । ड०—(क) ब्याध सुरिच्छव मृग चरम, चरन दिए पहिराय । जमन सेन भेद कहँ, बिदा किए नृपराय ।—प० रासो, पृ० १०४ । (ख) दोऊ नृप मिलि मंत्र करि जमन मिट्टवहु आस ।—प० रासो, पृ० १०४ ।
⋙ जमन (४)
संज्ञा पुं० [अ० जमन] जमाना । काल । जगत् । संसार [को०] ।
⋙ जमना (१)
क्रि० अ० [सं० यमन(=जकड़ना), मि० अ० जमा] १. किसी द्रव पदार्थ का ठंढक के कारण समय पाकर अथवा और किसी प्रकार गाढ़ा होना । किसी तरल पदार्थ का ठोस हो जाना । जैसे, पानी से बरफ जमना, दूव से दही जमना । २. किसी एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ पर दृढ़तापूर्वक बैठना । अच्छी तरह स्थित होना । जैसे, जमीन पर पैर जमना, चौकी पर आसन जमना, बरतन पर मैल जमना, सिर पर पगड़ी या टोपी जमना । मुहा०—दृष्टि जमना=दृष्टि का स्थिर होकर किसी और लगना । नजर का बहुत देर तक किसी चीज पर ठहरना । निनाह जमना=दे० 'दृष्टि जमना' । मन में बात जमना=किसी बात का हृदय पर भली भाँति अंकित होना । किसी बात का मन पर पूरा पूरा प्रभाव पड़ना । रंग जमना=प्रभाव दृढ़ होना । पूरा अधिकार होना । ३. एकत्र होना । इकठ्ठा होना । जमा होना । जैसे, भीड़ जमना, तलछट जमना । ४. अच्छा प्रहार होना । खूब चोट पड़ना । जैसे, लाठी जमना, थप्पड़ जमना । ५. हाथ से होनेवाले काम का पूरा पूरा अभ्यास होना । जैसे,—लिखने में हाथ जमना । ६. बहुत से आदमियों के सामने होनेवाले किसी काम का बहुत उत्तमतापूर्वक होना । बहुत से आदमियों के सामने किसी का इतनी उत्तमता से होना कि सबपर उसका प्रभाव पड़े । जैसे, व्याख्यान जमना, गाना जमना, खेल जमना । ७. सर्वसाधारण से संबंध रखनेवाले किसी काम का अच्छी तरह चलने योग्य हो जाना । जेसे, पाठशाला जमना, दूकान जमना । ८. घोड़े का बहुत ठुमक ठुमककर चलवा । उ०—जमत उड़त ऐंड़त उछरत पैंजनी बजावत ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११ ।
⋙ जमना (२)
क्रि० अ० [सं० जन्म, प्रा० जम्म > जम + हिं० ना (प्रत्य०)] उगना । उपजना । उत्पन्न होना । फूटना । जैसे, पौधा जमना, बाल जमना ।
⋙ जमना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० जमना(=उत्पन्न होना)] वह घास जो पहली वर्षा के उपरांत खेतों में उगती है ।
⋙ जमना † (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० यमुना] दे० 'यमुना' ।
⋙ जमनिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जवनिका] १. जवनिका । परदा । २. काई । उ०—हृदय जमनिका बहुबिधि लागी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जमनोत्तरी
संज्ञा स्त्री० [सं० यमुना + अवतार] गढ़वाल के निकट हिमालय की वह चोटी जहाँ से यमुना निकलती है ।
⋙ जमनौता
संज्ञा पुं० [अ० जमानत + हिं० औता (प्रत्य०)] वह रकम जो कोई मनुष्य अपनी जमानत करने के बदले में जमानत करनेवाले को दे । विशेष—सुसलमानी राज्यकाल में इस प्रकार की रकम देने की प्रथा प्रचलित थी । यह रकम प्रायः ५. रुपए प्रति सैकड़े के हिसाब से दी जाती थी ।
⋙ जमनौतो †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमनौता] दे० 'जमनौता' ।
⋙ जमपुर पु
संज्ञा पुं० [सं० यमपुर] दे० 'यमपुर' । उ०—स्वामी कौ संकट परै, जो तजि भाजै कूर । लोक अजस, परलोक मैं जमपुर जात जरूर ।—हम्मीर०, पृ० ४७ ।
⋙ जमरस्सी
संज्ञा स्त्री० [सं० यम + हिं०रस्सी] चौरी नाम का वृक्ष जिसकी जड़ साँप के काटने की बहुत अच्छी ओषधि ससझी जाती है ।
⋙ जमरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० यमराज] दे० 'यमराज' । उ०—विष्णु ते अधिक और कोउ नाहीं । जमरा विष्णु कौ चेरा आहीं ।—कबीर सा०, पृ० ३९५ ।
⋙ जमराई †
संज्ञा पुं० [सं० यमराज] दे० 'यमराज' । उ०—जो कोई सत्त पुरुष गहे भाई । ता कहँ देख डरे जमराई ।—कबीर सा०, पृ० ७१५ ।
⋙ जमराणा पु
संज्ञा पुं० [सं० यमराज] दे० 'यमराज' । उ०—जमराँणा साँहो कराँ वानेइ लेज्यों मेल ।—ढोला०, दू० ६१० ।
⋙ जमरूद
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का छोटा लंबोतरा फल ।
⋙ जमल पु
वि० [सं० यमल, प्रा० जमल] दे० 'यमल' । उ०— अमल कमल कर पद बदन जमल कमल से नैन ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७४८ । यौ०—जमलतरु=दे० 'यभलार्जुन' । उ०—सुनि सराप तै भए जमलतरु तिन्ह आपु बँधाए हो ।—सूर०, १ ।७ ।
⋙ जमवट
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमना] पहिए के आकार का लकड़ी का वह गोल चक्कर जो कुआँ बनाने में भगाड़ में रखा जाता है और जिसके ऊपर कोठी की जोड़ाई होती है ।
⋙ जमवार पु
संज्ञा पुं० [सं० यमद्वार] यम का द्वार । उ०—(क) सिहल द्वीप भए औतरू । जंबूदीप जाइ जमवारू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) उ०—भरि जमवार चहै जहँ रहा । जाइ न मेटा ताकर कहा ।—पदमावत, पृ० २९२ ।
⋙ जमशेद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ईरान का एक प्राचीन शासक । विशेष—कहा जाता है, इसके पास एक ऐसा प्याला था जिससे उसे संसार भर का हाल ज्ञान होता था ।
⋙ जमहूर
संज्ञा पुं० [अ० जुमहूर] जनता । सर्वसाधारण [को०] ।
⋙ जमहूरियत
संज्ञा स्त्री० [अ० जुम्हुरियत] जनतंत्र । प्रजातंत्र [को०] ।
⋙ जमहूरी
वि० [अ० जुम्हूरी] सार्वजनिक [को०] ।
⋙ जमाँ
संज्ञा पुं० [अ० जमा] जमाना । काला । समय । संसार । दुनिया [को०] ।
⋙ जमा (१)
वि० [अ०] १. जो एक स्थान पर संग्रह किया गया हो । एकत्र । इकट्ठा । मुहा०—कुल जमा या जमा कुल=सब मिलाकर । कुल । सब । जैसे,—वह कुल जमा पाँच रुपए लेकर चले थे । २. जो अमानत के तौर पर या किसी खाते में रखा गया हो । जैसे,—(क) उनका सौ रुपया बैंक में जमा है । (ख) तुम्हारे चार थान हमारे यहाँ जमा है ।
⋙ जमा (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मूल धन । पूँजी । २. धन । रुपया पैसा । जेसे,—उसके पास बहुत सी जमा है । यौ०—जमाजथा । जमापूंजी । मुहा०—जमा मारना=अनुचित रूप से किसी का धन ले लेना । बेइमानी से किसी का माल हजम करना । जमा हजम करना=दे० 'जमा मारना' । उ०—चुरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६२ । ३. भूमिकर । मालगुजारी । लगान । यौ०—जमाबंदी । ४. संकलन । जोड़ (गणित) । ५. बही आदि का वह भाग या कोष्ठक जिसमें आए हुए धन या माल आदि का विवरण दिया जाता है । यौ०—जमाखर्च ।
⋙ जमाअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. दे० 'जमात'—१ । उ०—यह खबर हमको झूंझणू की नागा जमाअत के वयोवृद्ध भंडारी बाल- मुकुंद जी से मिली ।—सुंदर ग्रं० (भू०), भा० १, पृ० ४ ।
⋙ जमाअती
वि० [अ०] जमात संबंधी । सामुदायिक [को०] ।
⋙ जमाई (१)
संज्ञा पुं० [सं० जामातृ] दामाद । जँवाई । जामाता ।
⋙ जमाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमना] १. जमने की क्रिया । २. जमने का भाव ।
⋙ जमाई (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमाना] १. जमाने की क्रिया । जमाने का भाव । ३. जमाने की मजदूरी ।
⋙ जमाखर्च
संज्ञा पुं० [अ० जमअ + फ़ा० खर्च] आय और व्यय ।
⋙ जमाजथा
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमा + गथ (=पूँजी)] धनसंपत्ति । नगदी और माल । जमापूँजी ।
⋙ जमात
संज्ञा स्त्री० [अ० जमाअत] १. बहुत से मनुष्यों का समूह । आदमियों का गिरोह या जत्था । जैसे, साघुओं की जमात । उ०—लालों की नहिं बोरियाँ साधु न चलै जमात । संत- वाणी०, पृ० २८ । २. कक्षा । श्रेणी । दरजा । जैसे,—वह लड़का पाँचवी जमात में पढ़ता है । ३. पंक्ति । कतार । लाइन । जैसे, सिपाहियों की जमात । यौ०—जमातबंदी= गिरोहबंदी । दलबंदी । उ०—जिसके कारण समाज की जमातबंदी भी बदलती गई ।—भा० इ० रू०, पृ० ४२२ ।
⋙ जमादार
संज्ञा पुं० [फ़ा० या अ० जमाअत + दार] [संज्ञा जमादारी] १. कई सिपाहियों या पहरेदारों आदि का प्रधान । वह जिसकी अधीनता मे कुछ सिपाही, पहरेदार या कुली आदि हों । २. पुलिस का वह बड़ा सिपाही जिसकी अधीनता में कई और साधारण सिपाही होते हैं । हेड कांस्टेबल । ३. कोई सिपाही या पहरेदार । ४. नगरपालिका का वह कर्मचारी जो भंगियों के काम का निरीक्षण करता है ।
⋙ जमादारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमादार + ई (प्रत्य०)] १. जमादार का पद । २. जमादार का काम ।
⋙ जमानत
संज्ञा स्त्री० [अ० जमानत] वह जिम्मेदारी जो कोई मनुष्य किसी अपराधी के ठीक समय पर न्यायालय में उपस्थित होने, किसी कर्जदार के कर्ज अदा करने अथवा इसी प्रकार के किसी और काम के लिये अपने ऊपर ले । वह जिम्मेदारी जो जबानी या कोई कागज लिखकर अथवा । कुछ रुपया जमा करके ली जाती है । प्रतिभूति । जामिनी । जैसे,—(क) वे सौ रुपये को जमानत पर छूटे है । (ख) उन्होंने हमारी जमानत पर उनका सब माल छोड़ दिया है । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—होना । यौ०—जमानतदार=प्रतिभू । जामिनी । जिम्मेदार । जमा- नतनामा ।
⋙ जमानतनामा
संज्ञा पुं० [अ० जमानत + फ़ा० नामह्] वह कागज जो जमानत करनेवाला जमानत के प्रमाणस्वरूप लिख देता है ।
⋙ जमानती
संज्ञा पुं० [अ० जमानत + फ़ा० ई (प्रत्य०)] जमानत करनेवाला । वह जो जमानत करे । जामिन । जिम्मेदार (क्व०) ।
⋙ जमानवीस
संज्ञा पुं० [अ० जमअ + फ़ा० नवीस] कचहरी का एक अहलकार ।
⋙ जमाना (१)
क्रि० स० [हिं० 'जमना' का स० रूप] १. किसी द्रव पदार्थ की ठंढा करके अथवा किसी और प्रकार से गाढ़ा करना । किसी तरल पदार्थ को ठोस बनाना । जेसे, चाशनी से बरफी जभाना । २. किसी एक पदार्थ को दूसरे पर दृढ़ता- पूर्वक बैठाना । अच्छी तरह स्थित करना । जेसे, जमीनर पर पैर जमाना । मुहा०—द्दाष्ठि जमाना = द्दष्टि को स्थिर करके किसी औरलगाना । (मन में) बात जमाना=हृदय पर बात को भली भाँति अंकित करा देना । रंग जमाना = अधिकार दृढ़ करना । पूरा पूरा प्रभाव डालना । ३. प्रहार करना । चोट लगाना । जैसे, हथौड़ा जमाना, थप्पड़ जमाना । ४. हाथ से होनेवाले काम का अभ्यास करना । जैसे,—अभी तो वे हाथ जमा रहे हैं । ५. बहुत से आदमियों के सामने होनेवाले किसी काम का बहुत उत्तमतापूर्वक करना । जैसे,—व्याख्यान जमाना । ६. सर्वसाधारण से संबंध रखनेवाले किसी काम के उत्तमतापूर्वक चलाने योग्य बनाना । जैसे, कारखाना जमाना, स्कूल जमाना । ७. घोडे़ को इस प्रकार चलाना जिससे वह ठुमुक ठुमुककर पैर रखे । ८. उदरस्थ करना । खा जाना । जैसे, भंग का गोला जमाना । ९. मुँह में रखना । मुखस्थ करना । जेसे, पान का बीड़ा जमाना ।
⋙ जमाना (२)
क्रि० स० [हिं० जमाना (=उत्पन्न होना)] उत्पन्न करना । उपजाना । जैसे, पौधा जमाना ।
⋙ जमाना (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा० जामानह्] १. समय । काल । वक्त । २. बहुत अधिक समय । मुद्दत । जैसे,—उन्हें यहाँ आए जमाना हुआ । २. प्रताप या सौभाग्य का समय । एकबाल के दिन । जैसे,—आजकल आपका जमाना है । ४. दुनिया । संसार । जगत् । जैसे,—सारा जमाना उसे गाली देता है । ५. राज्य- काल । राज्य करने की अवधि (को०) । ६. किसी पद पर या स्थान पर काम करने का समय । कार्यकाल (को०) । ७. निलंब । देर । अतिकाल (को०) । मुहा०—जमाना उलटना=समय का एकबारणी बदल जाना । जमाना छानना=बहुत खोजना । जमाना देखना=बहुत अनुभव प्रास करना । तजरबा हासिल करना । जैसे—आप बुजुर्ग हैं, जमाना देखे हुए हैं । जमाना पलटना या बदलना= परिवर्तन होना । अच्छे या बुरे दिन आना । यौ०—जमानासाज । जमानासाजी । जमाने की गर्दिश=समय का फेर ।
⋙ जमानासाज
वि० [फ़ा० जमानह् + साज] १. जो अपने स्वार्थ के लिये समय समय पर अपना व्यवहार बदलता रहता है । अपना मतलब साधने के लिये दूसरों को प्रसन्न रखनेवाला । २. मुतफन्नी । धूर्त । छली (को०) ।
⋙ जमानासाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जामानह् साजी] अपना मतलब साधने के लिये दूसरों को प्रसन्न रखना । अपने स्वार्थ के लिये समयानुसार अनुचित रूप से अपना व्यवहार बदलना ।
⋙ जमापूँजी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'जमाजथा' ।
⋙ जमाबंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] पटवारी का एक कागज जिसमें असामियों के नाम और उनसे मिलनेवाले लगान की रकमें लिखी जाती हैं ।
⋙ जमामरद पु †
संज्ञा पुं० [फ़ा० जवाँमर्द] दे० 'जवाँमर्द' । उ०—आए है जमामरद ग्यान कर करद लै, दरद न जान्यौ अब जिन दिन पार रे ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १३३ ।
⋙ जमामार
वि० [हिं० जमा + मारना] अनुचित रूप से दूसरों का धन दबा रखने या ले लेनेवाला ।
⋙ जमाल
संज्ञा पुं० [अ०] सौंदर्य । शोभा । छवि । रूप । उ०— कनक विंदु सुरकी रुकुम, चंदन मिलत जमाल । बंदन तिलक दिए भई, तिलक चौगुनी भाल ।—स० ससक, पृ० २५३ ।
⋙ जमालगोटा
संज्ञा पुं० [सं० जयमाल(=जमाल) + गोटा] एक पौधे का बीज जो अत्यंत रेचक है । जयपाल । दंतीफल । विशेष—यह पौधा करोटन की जाति का और समुद्र से ३००० फुट की ऊँचाई तक परती भूमि में होता है । यह पौधा दूसरे वर्ष फलने लगता है । इसका फल छोटी इलायची के बराबर होता है जिसके भीतर सफेद गरी होती है । गरीं में तेल का अंश बहुत अधिक होता है और उसे खाने से बहुत दस्त आते हैं । गरी से एक प्रकार का तेल निकलता है जो बहुत तीक्ष्ण होता है और जिसके लगाने से बदन पर फफोला पड़ जाता है । तेल गाढ़ा और साफ होता है और औषध के काम में आता है । इसकी खली चाह के खेत की मिट्टी में मिलाने से पौधों में दीमक और दूसरे कीड़े नहीं लगते । इसके पैड़ कहवे के पेड़ के पास छाया के लिये भी लगाए जाते हैं ।
⋙ जमाली
वि० [अ०] सुंदर रूपवाला । स्वरूपवान् । सौंदर्य- युक्त [को०] ।
⋙ जमाव
संज्ञा पुं० [हिं० जमाना] १. जमने का भाव । २. जमाने का भाव । ३. भीड़ भा़ड़ । जमावड़ा ।
⋙ जमावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमाना] जमने का भाव । दे० 'जमाव'
⋙ जमावड़ा
संज्ञा पुं० [हि० जमाना (=एकत्र होना)] बहुत से लोगों का समूह । भीड़ । उ०—इन लोगों का भारी जमावड़ा वहीं हुआ करता है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७३० ।
⋙ जमीं
संज्ञा स्त्री० [फा़ जमीं] दे० 'जमीन' । उ०—गिरकर न उठे काफिरे बदकार जमीं से, ऐसे हुए गारत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ५३० ।
⋙ जमींकंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० जमीन + कंद] सूरन । ओल ।
⋙ जमींदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० जमीनदार] जमीन का मालिक । भूमि का स्वामी । विशेष—मुसलमानों के राजत्वकाल में जो मनुष्य किसी छाट प्रांत, जिले या कुछ गावों का भूमिकर लगाने और सरकारी खजाने में जमा करने के लिये नियुक्त होता था, वह जमींदार कहलाता था और उसे उगाहे हुए कर का दसवाँ भाग पुरस्कार स्वरूप दिया जाता था । पर, जब अंत में मुसलमान शासक कमजोर हो गए तब वे जमींदार अपने अपने प्रांतों के स्वतंत्र रूप से प्रायः मलिक बन गए । अंगरेजी राज्य में जमीदार लोग अपनी अपनी भूमि के पूरे पूरे मालिक समझे जाते थे और जमींदारी पैतृक होती थी । ये सरकार को कुछ निश्चित वार्षिक कर देते थे और अपनी जमीदारी का संपत्ति की भाँति जिस प्रकार चाहें, उपयोग कर सकते थे । काश्तकारों आदि को कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार वे अपनी जमीन स्वयं ही जोतने बोने आदि के लिये देते थे और उनसे लगान आदिलेते थे । भारत के स्वतंत्र हो जाने पर लोकतांत्रिक सरकार ने जमींदारी प्रथा का वैधानिक उंन्मूलन कर दिया है ।
⋙ जमींदारा
संज्ञा पुं० [फ़ा० जमींदारी] दे० 'जमीदारी' ।
⋙ जमींदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जमीन् दारी] जमींदार की वह जमीन जिसका वह मालिक हो । २. जमींदार होने की दशा या अवस्था । ३. जमींदार का हक या स्वत्व ।
⋙ जमींदोज
वि० [फ़ा० जमींदोज] १. जो गिरा, तोड़ा या उखाड़कर जमीन के बराबर कर दिया गया हो । २. दे० 'जमीनदोज' ।
⋙ जमी
वि० [सं० यमिन्] इंद्रियनिग्रही । उ०—देखि लोग सकुचात जमी से ।—मानस, २ ।२१४ ।
⋙ जमीन
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जमीन] १. पृथ्वी (ग्रह) । जैसे,—जमीन बराबर सूरज के चारों तरफ घूमती है । २. पृथ्वी का वह ऊपरी ठोस भाग जो मिट्टी का है और जिसपर हम लोग रहते हैं । भूमि । धरती । मुहा०—जमीन आसमान एक करना=किसी काम के लिये बहुत अधिक परिश्रमं या उद्योग करना ।—बहुत बड़े बड़े उपाय करना । जमीन आसमान का फरक=बहुत अधिक अंतर । बहुत बड़ा फरक । आकाश पाताल का अंतर । उ०—मुकाबिला करते हैं तो जमीन आसमान का फर्क पाते हैं ।—फिसाना०, भा० ३. पृ० ४३९ । जमीन आसमान के कुलावे मिलाना= बहुत डींग हाँकना । बहुत शेखी मारना । उ०—चाहे इधर की दुनियाँ उधर हो जाय, जमीन आसमान के कुलावे मिल, जाँय, तूफान आए, भूचाल आए, मगर हम जरूर आएँगे ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ५१ । जमीन का पैरों तले से निकल जाना=सन्नाटे में आ जाना । होश हवास जाता रहना । जमीन चूमने लगना=इस प्रकार गिर पड़ना, कि जिसमें जमीन के साथ मुहँ लग जाय । जैसे,—जरा से धक्के से वह जमीन चूमने लगा । जमीन दिखाना=(१) गिराना । पटकना । जैसे, एक पहलवान का दूसरे पहलवान को जमीन दिखाना । (२) नीचा दिखाना । जमीन देखना=(१) गिर पड़ना । पटका जाना । (२) नीचा देखना । जमीन पकड़ना=जमकर बैठना । जमीन पर चढ़ना=(१) घोड़े का तेज दौड़ने का अभ्यास होना । (२) किसी कार्य का अभ्यस्त होता । जमीन पर पैर या कदम न रखना=बहुत इतराना । बहुत अभिमान करना । उ०—ठाकुर साहब ने बारह चौदह हजार रुपया नकद पाया तो जमीन पर कदम न रखा ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १९६ । जमीन पर पैर न पड़ना=बहुत अभिमान होना । जमीन में गड़ जाना=अत्यंत लज्जित होना । ३. सतह, विशेषकर कपड़े, कागज या तख्ते आदि की वह सतह जिसपर किसी तरह के बेल बूटे आदि बने हों । जैसे,—काली जमीन पर हरी बूटी की कोई छोंट मिले तो लेते आना । ४. वह सामग्री जिसका व्यवहार किसी द्रव्य के प्रस्तुत करने में आधार रूप से किया जाय । जैसे, अतर खीचनें में चंदन की जमीन, फुलेल में मिट्टी के तेल की जमीन । ५. किसी कार्य के लिये पहले से निश्चय की हुई प्रणाली । पेशबंदी । भूमिका । आयोजन । मुहा०—जमीन बदलना=आधार का परिवतंन होना । स्थिति का बदल जाना । जैसे,—अब जमीन ही बदल गई ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४० । जमीन बाँधना = किसी कार्य के लिये पहले से प्रणाली चिश्चित करना ।
⋙ जमीनदोज
वि० [फ़ा० जमीनदोज] १. धरती के नीचे या भीतर । भूगर्भिक । उ०—और तब जमीनदोज किले बनने लगे ।—भा० इ० रू०, पृ० १४१ । २. दे० 'जमींदोज' ।
⋙ जमीनी
वि० [फ़ा० जमीनी] जमीन संबंधी । जमीन का ।
⋙ जमीमा
संज्ञा पुं० [अ० जमीमह्] १. क्रोड़पत्र । अतिरिक्त पत्र । २. पूरक । परिशिष्ट [को०] ।
⋙ जमीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० जम्ईयत] योष्ठी । दल । परिषद् । जमाअत । समुदाय । उ०—प्रत्येक सरदार के अपनी जमीयत के सांथ प्रतिवर्ष तीन महीने तक दरबार की सेवा में उपस्थित रहने की जो रीति चली आ रही है वह जारी रखी जायगी ।—राज० इति०, पृ० १०४६ ।
⋙ जमीर
संज्ञा पुं० [अ० जमीर] १. अंतःकरणा । हृदय । मन । २. विवेक । ३. (व्या०) सर्वनाम [को०] । यौ०—जमीरफरोश=आत्मविक्रेता । अवसरवादी ।
⋙ जमील
वि० [अ०] [वि० स्त्री० जमीला] रूपवान । सुंदर । हसीन [को०] ।
⋙ जमुआ (१) †
संज्ञा पुं० [सं० जम्बूक] दे० 'जामुन' ।
⋙ जमुआ (२) †
संज्ञा पुं० [सं० यम, हिं० जम + उआ (पत्य०), अथवा हिं० जमना (=पैदा होना)] एक प्रकार का घातक बालरोग ।
⋙ जमुआर †
संज्ञा पुं० [हिं० जमुआ + आर(प्रत्य०)] जामुन का जंगल ।
⋙ जमुकना †
क्रि० अ० [?] पास पास होना । सटना । उ०—जब जमुक्यो कछु पृथु तनय, तब तरंग तहँ छोड़ि । भयो पुरंदर अलख उर, सक्यो न सन्मुख दौड़ि ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जमुन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जमुना] दे० 'यमुना' । उ०—(क) उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ।—मानस, २ ।१०१ (ख) मनु ससि भरि अनुराग जमुन जल लोटत डोलै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५५
⋙ जमुना
संज्ञा स्त्री० [सं० यमुना, प्रा० जमुणा, जऊँणाँ] यमुना नदी । वि० दे० 'यमुना' ।
⋙ जमुनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० यवनिका] दे० 'यवनिका' । उ०— जाग्रत स्वप्न सु जमुनिका सुषुपति भई पिटार सुंदर । बाजीगर जुदौ खेल दिखावन हार ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७८५ ।
⋙ जमुनियाँ † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जामुन + ईया (प्रत्य०)] १. जामुन का रंग । जामुनी । २. जामुन का वृक्ष । ३. यम का भय । यमपाश (लाक्ष०) । उ०—जमुनियाँ की डार मोरी तोड़ देव हो ।—धरम० श०, पृ० २९ ।
⋙ जमुनियाँ (२)
वि० जामुन के रंन का । जामुनी रंग का ।
⋙ जमुरका †
संज्ञा पुं० [फ़ा० जंबूर] कुलाबा ।
⋙ जमुरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जंबूर] १. चिमटी के आकार का नालबंदोंका एक औजार जिससे वे घोड़ों के नाल काटते हैं । २. चिमटी । सँड़सी ।
⋙ जमुर्दी
वि० [अ० जमुर्रंदीन, हिं० जमुर्रदी] १. दे० 'जमुर्रदी' । उ०—जमुर्दी जरी के काम.... ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९ ।
⋙ जमुर्रद
संज्ञा पुं० [अ०] [अ०] पन्ना नामक रत्न ।
⋙ जमुर्रदी (१)
वि० [अ० जमुरंदीन] जमुर्रद के रग का हरा । जो मोर की गर्दन की तरह नीलापन लिए हुए हरे रंग का हो ।
⋙ जमुर्रदी (२)
संज्ञा पुं० जमुर्रद का रंग । नीलापन लिए हुए हरा रंग ।
⋙ जमुवाँ
संज्ञा पुं० [हिं० जमुआ] जामुनी । जामुन का रंग ।
⋙ जमुहाना
क्रि० अ० [सं० जृम्भण] दे० 'जम्हाना' ।
⋙ जमूरक पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० जंबूरक] एक प्रकार की छोटी तोप जो घोड़े या ऊँट पर रहती है । उ०—सबके आये सुतर सवार अपार सिंगार बनाए । धरे जमूरक तिन पीठन पर सहित निशान सुहाये ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जमूरा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० जबूरक, हिं० जमूरक] दे० 'जमूरक' ।
⋙ जमूरा † (२)
संज्ञा पुं० [अ० जह्र, + फ़ा० मुह्रह्] दे० 'जहर- मोहरा' । उ०—जुगति जमूरा पाइ कै, सर पे लपटाना । बिष वा के बेधे नहीं, गुरु गम्म समाना ।—कबीर० श० भा० ३, पृ० १४ ।
⋙ जमैयत
संज्ञा स्त्री० [अ० जमूईयत] १. दल । समुदाय । २. सभा । गोष्ठी । परिषद् [को०] । यौ०—जमैयतुल उलेमा=विद्वानों की सभा या गोष्ठी ।
⋙ जमोग †
संज्ञा पुं० [हिं० जमोगना] १. जमोगने अर्थात् स्वीकार कराने की क्रिया । सरेख । २. किसी दूसरे की बात का किसी तीसरे के द्वारा समर्थन । सामने का निश्चय । तसदीक । ३. देहाती लेनदेन की एक रीति जिसके अनुसार कोई जमींदार किसी महाजन से ऋण लेने के समय उसके चुकाने का भार उस महाजन के सामने अपने काश्तकारों पर छोड़ देता है और काश्तकारों से लगान के मद्धे उसका स्वीकार करा देता है । यौ०—सही जमीग ।
⋙ जमोगदार
संज्ञा पुं० [अ० जमा + सं० योग] वह व्यक्ति जो जमोग की रीति से जमीदार को रुपया देता है ।
⋙ जमोगना †
क्रि० स० [अ० जमा + सं० योग] १. हिसाब किताब की जाँच करना । २. ब्याज को मूल धन में जोड़ना । ३. स्वयं किसी उत्तरदायित्व से मुक्त होने के लिये किसी दूसरे को उसका भार सौंपना और उससे उस उत्तरदायित्व को स्वीकृत कराना । सरेखना । ४. किसी को किसी दूसरे के पास ले जाकर उससे अपनी बात का समर्थन कराना । तसदीक कराना ।
⋙ जमोगवाना †
क्रि० स० [हिं० जमोगना] जमोगने का काम किसी दूसरे से कराना । सरेखवाना ।
⋙ जमोगा †
संज्ञा पुं० [हिं० जमोगना] दे० 'जमोगा' । यौ०—सही जमोगा ।
⋙ जमौआ
वि० [हिं० जमाना] जमाया हुआ । जमाकर बनाया हुआ ।
⋙ जम्म (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० यम] दे० 'यम' । यौ०—जम्मराजा=यमराज । उ०—मनौ जीव पापीन कौ जम्मराजा दियौ दंड सोई सबै धूम धोटै ।—हम्मीर०, पृ० ५
⋙ जम्म (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० जन्म, प्रा० जम्म] जन्म । उत्पत्ति ।
⋙ जम्मण पु †
संज्ञा पुं० [सं० जन्मन्, प्रा० जम्मण] उत्पत्ति । जन्म । पैदाइश । उ०—तन माहि मनूआ जो ठहिरावै । जम्मणा मरण भिश्त अरु दोजख ताके निकट न आवै ।— प्राण०, पृ० ६० ।
⋙ जम्मना पु †
क्रि० अ० [हिं०] उत्पन्न होना । पैदा होना । जम्मै मरै न विनसै सौइ ।—प्राण०, पृ० २ ।
⋙ जम्मभूमि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० जन्म, प्रा० जम्म + सं० भूमि] दे० 'जन्मभूमि' । उ०—पन्नाविअ जम्मभूमि को मोह छोड्डिय, धनि छोड्डिय ।—कीर्ति०, पृ० २२ ।
⋙ जम्मू
संज्ञा पुं० [सं० जम्बू] काश्मीर का एक प्रसिद्ध नगर । जंबू ।
⋙ जम्हाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'जँभाई' ।
⋙ जम्हाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'जँभाना' । उ०—बार बार छपि जात जम्हात, लगत, नीकै ताकी चौपनि धुकन न पाए हौ । घनानंद०, पृ० ४८८ ।
⋙ जम्हूर
संज्ञा पुं० [अ०] जनता । जनसमूह । उ०—कर उसकी बुजुगीं खड़े जम्हूर के आगी ।—कबीर मं०, पृ० ४६६ ।
⋙ जयंत (१)
वि० [सं० जयन्त] [वि० स्त्री० जयंती] १. विजयी । २. बहूरूपिया । अनेक रूप धारण करनेवाला ।
⋙ जयंत (२)
संज्ञा पुं० १. एक रुद्र का नाम । २. इंद्र के पुत्र उपेंद्र का नाम । ३. संगीत में ध्रुवक जाति में एक ताल का नाम । ४. स्कंद । कार्तिकेय । ५. धर्म के एक पुत्र का नाम । ६. अक्रूर के पिता का नाम । ७. भीमसेन का उस समय का बनावटी नाम जब वे विराट नरेश के यहाँ अज्ञातवास करते थे ।८. दशरथ के एक मंत्री का नाम । ९. एक पर्वत का नाम । जयंतिका की पहाड़ी । १०. जैनों के अनुचर देवों का एक भेद । ११. फलित ज्योतिष में यात्रा का एक योग । विशेष—यह योन उस समय पड़ता है जब चंद्रमा उच्च होकर यात्री की राशि से ग्यारहवें स्थान में पहुंच जात है । इसका विचार बहुधा युद्धादि के लिये यात्रा करने के समय होता है, क्योंकि इस योन का फल शत्रुपक्ष का नाश है ।
⋙ जयंतपुर
संज्ञा पुं० [सं० जयन्तपुर] एक प्राचीन नगर का नाम जिसी निमिराज ने स्थापित किया था और जो गौतम ऋषि के आश्रम के निकट था ।
⋙ जयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० जयन्तिका] दे० 'जयंती' ।
⋙ जयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० जयन्ती] १. विजय करनेवाली । विज- यिनी ।— २. ध्वजा । पताका । ३. हलदी । ४. दुर्गा का एक नाम । ५. पार्वती का एक नाम । ६. किसी महात्मा की जन्मतिथि पर होनेवाला उत्सव । वर्षगाँठ का उत्सव । ७. एक बड़ा पेड़ जिसे जैत या जैता कहते हैं ।विशेष—इस पेड़ की डालियाँ बहुत पतली और पत्तियाँ अगस्त की पत्तियों की तरह की, पर उनसे कुछ छोटी होती हैं । फूल अरहर की तरह पीले होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर बित्ते सवा बित्ते लंबी पतली फलियाँ लगती हैं । फलियों के बीज उत्तेजक और संकोचक होते हैं और दस्त की बीमारियों में औषध के रूप में काम में आते हैं । खाज का मरहम भी इससे बनता है । इसकी पत्तियाँ फोड़े या सूजन पर बाँधी जाती हैं और गिलटियों को गलाने का काम करती हैं । इसकी जड़ पीसकर बिच्छू के काटने पर लगाई जाती है । यह जंगली भी होता है और लोग इसे लगाते भी हैं । इसका बीज जेठ असाढ़ में बोया जाता है । इसकी एक छोटी जाति होती है, जिसे 'चक्रभेद' कहते हैं । इसके रेशे से जाल बनता है । बंगाल में इसी लोग अप्रैल, मई में बोते हैं और सितंबर, अक्टूबर में काटते हैं । पौवा सन की तरह पानी में सड़ाया जाता है । पान के भीढों पर भी यह पेड़ लगाया लाता है । ८. बैजंती का पौधा । ९. ज्योतिष का एक योम । जब श्रावण मास के कृष्णापक्ष की अष्टमी की आधी रात के समय और शेष दंड में रोहिणी नक्षत्र पड़े, तब यह योग होता है । ११. जो के छोटे पौधे जिन्हें विजयादशमी के दिन ब्राह्मण लोग यजमानों को मंगल द्रव्य के रूप में भेट करते हैं । जई । करई । १२. अरणी ।
⋙ जय
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध, विवाद आदि में विपाक्षियों का परा- भव । विरोधियों को दमन करके स्वत्व या महत्व स्थापन । जीत । विशेष—संस्कृत में जय शब्द पुंलिंग है कितु 'जीत' विजय अर्थ में हिंदी में इसका प्रयोग स्त्रीलिंग में ही मिलता है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—जय मनाना = विजय की कामना करना । समृद्धि चाहना । जय हो = आशीर्वाद जो ब्राह्माण लोग प्रणाम के उत्तर में देते हैं । विशेष—आशीर्वाद के अतिरिक्त इस शब्द का प्रयोग देवताओं की अभिवंदना सूचित करने के लिये भी होता है और जिसमें कुछ याचना का भाव मिला रहता है । जैसे, जय काली की, रामचंद्र जी की जय । उ०—जय जय जगजननि देवि, सुरनर मुनि असुर सेव्य, भुक्ति भुक्ति दायिनी जय हरणि कालिका ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—जय गोपाल । जय श्रीकृष्ण । जय राम, आदि (अभिवादन वचन) । २. ज्योतिष के अनुसार वृहस्पाति के प्रौष्ठपद नासक छठे युग का तीसरा वर्ष । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इस वर्ष में बहुत पानी बरसता है और क्षत्रिय, वैश्य आदि को बहुत पीड़ा होती है । ३. विष्णु के एक पार्षद का नाम । विशेष—पुराणों में लिखा है कि सनकादिक ने भगवान के पास जाने से रोकने पर क्रोध करके इसे और इसके भाई विजय को शाप दिया था । उसी से जय को संसार में तीन बार हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल का अवतार तथा विजय को हिरण्यकशिपु, कुंभकर्ण और कंस का जन्म ग्रहण करना पड़ा था । ४. महाभारत या भारत ग्रंथ का नाम । ५. जयंती या जैत के पेड़ का नाम । ६. लाग । ७. युधिष्ठिर का उस समय का बनाबटी नाम जब वे विराट के यहाँ अज्ञातवास करते थे । ८. अयन । ९. वशीकरण । १०. एक नाग का नाम जिसका वर्णन महाभारत में आया है । ११. भागवत के अनुसार दसवें सन्वंतर के एक ऋषि का नाम । १२. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम । १३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । १४. राजा संजय के एक पुत्र का नाम । १५. उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न परुवसु के एक पुत्र का नाम । १६. वह मकान जिसका दरवाजा दक्खिन की तरफ हो । १७. सूर्य । १८. अरणी या अग्निमंथ नाम का पेड़ । १९. इब्र । २०. इंद्र का पुत्र जयंत । विशेष—पुराणों आदि में और भी बहुत से 'जय' नामक पुरुषों के वर्णन आए है ।
⋙ जय (२)
वि० (समास में प्रयुक्त) विजयी । जीतनेवाला । जैसे, मृत्युंजय (=मृत्यु को जीतनेवाला) ।
⋙ जयकंकण
संज्ञा पुं० [सं० जय + कङ्कण] वह कंकण जो प्राचीन काल में बीर पुरुषों को किसी युद्ध आदि के विजय करने की दशा में आदरार्थ प्रदान किया जाता था ।
⋙ जयक
वि० [सं०] विजेता । जीतनेवाला [को०] ।
⋙ जयकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौपाई नामक एक छंद का नाम ।
⋙ जयकार
संज्ञा पुं० [सं० जय + कार] जयघोष । यौ०—जयजयकार ।
⋙ जयकोलाहल
संज्ञा पुं० [स०] प्राचीन काल का जूआ खेलने का एक प्रकार का पासा ।
⋙ जयचंद
संज्ञा पुं० [हिं० जय + चंद] १. कान्यकुब्ज का एक प्रसिद्ध राजा । २. देशद्रीही व्यक्ति (लाक्ष०) । विशेष—यह गहड़वालवंश का अंतिम नरेश था । इसका राज्य- काल सन् ११७० से ११९३ ई० तक रहा । अपने राज्यकाल के आखिरी वर्ष में यह शहाबुद्दीन गीरी से पराजित होकर मारा गया ।
⋙ जयखाता
स्त्री० पुं० [हिं० जय (=लाभ) + खाता] बनियों की एक वही जिसमें वे नित्य अपना मुनाफा या लाभ आदि लिखा करते है ।—(क्व०) ।
⋙ जयघोष
संज्ञा पुं० [सं०] [जय + घोष] जय जय की आवाज उ०—पा गया जयघोष अगणित पंख ।—साकेत, पृ०१९५
⋙ जयजयवंती
संज्ञा स्त्री० [हिं० जय + जयवंती] संपूर्ण जाति की एर संकर राहिनी जो धूलश्री, विलावल और सोरठ के योग से बनती हैं । विशेष—इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं और यह रात को ६ दंड से १० दंड़ तक गाई जाती है; पर वर्षाऋतु में लोग इसे सभी उमय गाते हैं । कुछ लोग इसे मेघ राग की भार्या मानते हैं और कुछ लोग मालकोश का सहचरी भी बताते हैं ।
⋙ जयजीव पु
संज्ञा पुं० [हिं० जय + जी] एम प्रकार का अभिवादन जिसका अर्थ है—जय हो और जियो । इसका प्रयोग प्रणाम आदि के समान होता था ।—उ० कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए । भूप सुमंगल वचन सुनाए ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ जयढक्का
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बड़ा ढोल । जोत का डंका ।
⋙ जयत्
संज्ञा पुं० [सं० जयेत्] दे० 'जयति' ।
⋙ जयतवल्याण
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो कल्याण और जयतिश्री को मिलाकर बनता है । यह रात के पहले पहर में गाया जाता है ।
⋙ जयताल
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक । विशेष—वह सातताला ताल है और इसमें क्रम से एक लघु, एक गुरु, दो लघु, दो द्रुत और एक प्लुत होता है । इसका बोल यह है—वाहँ । तत्थरि थरिथा ताहँ । ताहं । तत० था० तत्था ताथरि थरिर्थों ।
⋙ जयति
संज्ञा पुं० [सं० जयेत्] एक संकर राग जो गौरी और ललित के मेल से बनता है । कोई कोई इसे पूरिया और कल्याण के योग से बना भी मानते है । वि० दे० 'जयेत्' ।
⋙ जयतिश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो दीपक राग की भार्या मानी जाती है ।
⋙ जयती
संज्ञा स्त्री० [सं० जयेती] श्री राग की एक रागिनी । विशेष—यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । कोई कोई इसे टोड़ी, विभास और शाहाना के योग से बनी हुई बताते हैं । कितने लोग इसे पूरिया, सामंत और ललिन के मेल से बनी मानते हैं । वि० दे० 'जयेती' ।
⋙ जयतु
क्रि० वि० [सं०] जय हो (आशीर्वादसूचक) ।
⋙ जयत्सेन
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञातवास के समय नकुल का नाम [को०] ।
⋙ जयदुंदुभी
संज्ञा स्त्री० [सं० जय + दुन्दुभी] जीत का डंका । विजय की भेरी ।
⋙ जयदुर्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार दुर्गा की एक मूर्ति ।
⋙ जयदेव
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के प्रसिद्ध काव्य 'गीतगोविंद' के रचयिता प्रसिद्ध वैष्णव भक्त एवं कवि । विशेष—इनका जन्म आज से प्रायः आठ नौ सौ वर्ष पहले बंगाल के वर्तमान बीरभूम जिले के अंतर्गत केदुविल्व नामक ग्राम में हुआ था । ऐसा प्रसिद्ध है कि ये योड़ के महाराज लक्षमणसेन की राजसभा में रहते थे । इनका वर्णन भक्तमाल में भी आया है ।
⋙ जयद्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार सिंघुसौवीर या सौराष्ट्र का राजा जो दुर्योधन का बहनोई था । विशेष—इसमे एक बार जगल में द्रैपदी को अकेली पाकर हर ले जाने का प्रयत्न किया था । उस समय भीम और अर्जुन ने इसकी बहुत दुर्दशा की थी । यह महाभारत के युद्ध में लड़ा था और चक्रव्यूह के युद्ध में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का बध इसी ने किया था । दूसरे दिन भयकर युद्ध के अनंतर सायंकाल यह अर्जुन के हाथों मारा गया ।
⋙ जयद्वल
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञातवास के समय सहदेव का नाम [को०] ।
⋙ जयध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. तालजंघा के पिता का नाम जो अवंती के राजा कार्तवीर्याजुन का पुत्र था । २. जयपताका । जयंती ।
⋙ जयध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जयघोष' ।
⋙ जयन
संज्ञा पुं० [सं० जयनम्] १. जय । जीत । २. हाथी, घोड़े आदि की सुरक्षा के लिये एक प्रकार का जिरहबख्तर [को०] ।
⋙ जयना पु
क्रि० अ० [सं० जयन] जीतना । उ०—(क) भरत धन्य तुम जग जस जयऊ । कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) लै जात यवन मोहि करिकै जयन ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०२ ।
⋙ जयनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की कन्या ।
⋙ जयपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जो पराजित पुरुष अपने पराजय के प्रमाण में विजयी को लिख देता है । विजयपत्र । उ०— मम जयपत्र सकारि पुनि सुंदर मुहि अपनाय ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०, १. पृ० ६०८ । २. वह राजाज्ञा जो अर्थी प्रत्यर्थी के बीच विवाद के निबटारे के लिये लिखी जाय । वह कागज जिसपर राजा की ओर से किसी विबाद का फैसला लिखा हो । विशेष—प्राचीन काल में ऐसे पत्र पर वादी और प्रतिवादी के कथन, प्रमाण और धर्मशास्त्र तथा राजसभा के सभ्यों के मत लिखे हुए होते थे और उसपर राजा का हस्ताक्षर और मोहर होती थी ।
⋙ जयपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] जावित्री ।
⋙ जयपराजय
संज्ञा स्त्री० [सं० जय + पराजय] दे० 'जयाजय' ।
⋙ जयपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमालगोटा । २. ब्रह्मा का एक नाम (को०) । ३. विष्णु । ४. राजा ।
⋙ जयपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का जुआ खेलने का एक प्रकार का पासा ।
⋙ जयाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा विराट के भाई का नाम । २. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक । विशेष—इसमें एक लघु, एक गुरु और तब फिर एक लघु होता है । यह तिताला ताल है औरग इसका बोल यह है,—ताहं । धिधिकिट ताहं गन थों ।
⋙ जयफर
संज्ञा पुं० [हिं० जायफल] दे० 'जायफल' । उ०—जयफर लौंग सुपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न भारा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ जयभेरी
संज्ञा पुं० [सं०] विजय डंका । जीत का नगाड़ा [को०] ।
⋙ जयमंगल
संज्ञा पुं० [सं० जयमङ्गल] १. वह हाथी जिसपर राजा विजय करने के उपरांत सवार होकर निकले । २. राजा के सवार होने योग्य हाथी । ३. ताल के साठ भेदों मे एक । विशेष—यह शृंगार और बीर रस में बजाया जाता है । यह चौताला ताल है और इसका बोल यह है—तकि तकि । दांतकि । धिमि धिमि । थों । ४. ज्वर की चिकित्सा में प्रयुक्त आयुर्वेदीय जयमंगल नामक रस (को०) ।५. विजय की खुशी । जय का आनंद (को०) ।
⋙ जयमल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।
⋙ जयमार †
संज्ञा स्त्री० [सं० जय + माल्य] दे० 'जयमाल' । उ०— का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जथमार जीति रन लोन्हा ।—जायसी ग्रं, पृ० १२२ ।
⋙ जयमाल
संज्ञा स्त्री० [सं० जयमाला] वह माला जो विजयी को विजय पाने पर पहनाई जाय । २. वह माला जिसे स्वयंवर के समय कन्या अपने बरे हुए पुरुष के गले में डालती है । उ०— उ०—गावहि छबि अवलोकि सहेली । सिय जयमाल राम उर मेली ।—मानस, १ । २६४ ।
⋙ जयमाला
संज्ञा स्त्री० [हिं० जयभाल] दे० 'जयमाल' । उ०—सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ।— मानस, १ । २६४ ।
⋙ जयमाल्य
संज्ञा पुं० [सं० जय + माल्य] दे० 'जयमाल' ।
⋙ जययज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध यज्ञ ।
⋙ जयरात
संज्ञा पुं० [सं०] कलिंग देश के एक राजकुमार का नाम जो कौरवों की और से महाभारत के युद्ध में लड़ा था और भीम के हाथ से मारा गया था ।
⋙ जयलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जयश्री' ।
⋙ जयलेख
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जयपत्र' ।
⋙ जयवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्राणी । शची । २. विजय करनेवाली सेना [को०] ।
⋙ जयशाली
संज्ञा पुं० [सं० जय + शाली] यादव वंश के प्रसिद्ध राजा जिन्होंने जैसलमेर नगर बसाया और वहाँ का किला बनवाया था । विशेष—अपने पिता के सबसे बड़े पुत्र होने पर भी पहले इन्हें राजसिंहासन नहीं मिला था । पर अपने छोटे भाई के मर जाने पर इन्होंने शाहाबुद्दीन गोरी से सहायता लेकर अपने भतीजे भोजदेव को मारा और राज्याधिकार प्राप्त किया था । सिंहासन पर बैठने के बाद संवत् १२१२ में इन्होंने जैसलमेर नगर बसाया और किला बनवाया था ।
⋙ जयशृंग
संज्ञा पुं० [सं० जयश्रृङ्ग] विजय की घोषण के निमित्त बजाया जानेवाला सींग का बादा [को०] ।
⋙ जयश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विजय की अधिष्ठातृ देवी । विजयलक्ष्मी २. विजय । जीत । ३. ताल के मुख्य साठ भेदों में से एक । ४. देशकार राग से मिलती जुलती संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो संध्या के समय गाई जाती है । कुछ लोग इसे देशकार राग की रागिनी मानते हैं ।
⋙ जयस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० जयस्तम्भ] वह स्तंभ जो विजयो राजा किसी देश का विजय करने के उपरांत अपनी विजय के स्मारक स्वरूप बनवाता है । विजयसूचक स्तंभ ।
⋙ जयस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० जयस्वामिन्] १. शिव का एक नाम । २. छाँदोग्य सूत्र तथा आश्वलायन ब्राह्मण के व्याख्याता [को०] ।
⋙ जया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम । २. पार्वती का एक नाम । ३. हरी दूब । ४. अरणीं नामक वृक्ष । ५. जयंती या जत का पेड़ा । ६. हरीतकी । हड़ा । ७. दुर्गा की एक सहचरी का नाम । ८. पताका । ध्वजा । ९. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दौनों पक्षीं की तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी तिथियाँ । १०. सोलह मातृकाऔ में से एक । ११. माघ शुक्ल एकादशी । १२. एक प्राचीन बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते थे । १३. जया पुष्प । गुड़हल का फूल । अड़हुल । १४. भाँग । १५. शमीवृक्ष । छौंकर ।
⋙ जया (२)
वि० [सं०] जय दिलानेवाली । विजय करानेवाली । उ०— तीज अष्टमी तेरसि जया । चौथी चतुरदसि नौमी रखया ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जयाजय
संज्ञा पुं० [सं०] जय और पराजय । जीत हार [को०] ।
⋙ जयादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन राजा का नाम जो काशिकावृत्ति के कर्ता थे ।
⋙ जयाद्वय
संज्ञा स्त्री० [सं०] जयंती और हड़ ।
⋙ जयानीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्रुपदा राजा के एक पुत्र का नाम । २. राजा विराट के एक भाई का नाम ।
⋙ जयापीड़
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्रसिद्ध राजा जो ईसवी आठवों शताब्दी में हुए थे । विरोष—ये एक बार दिग्विजय करने के लिये निकले थे; पर रास्ते में सैनिक इन्हें छोड़कर भाग गए । इसपर ये प्रयाग चले गए थे जहाँ इन्होंने ९९९९९ घोड़ो दान किए थे ।
⋙ जयावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम । २. एक संकर रागिनी जो धवलश्री, बिलावल और सरस्वती के योग से बनती है ।
⋙ जयावह
वि० [सं० जय + आवह] जय प्राप्त करानेवाला [को०] ।
⋙ जयावहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भद्रदंती का वृक्ष ।
⋙ जयाश्रया
संज्ञा स्त्री० [सं०] जरड़ी घास ।
⋙ जयाश्र्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा विराट के एक भाई का नाम ।
⋙ जयाह्वया, जयाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जयावहा' ।
⋙ जयिष्णु
वि० [सं०] जयशील । जो जीतता हो ।
⋙ जयी (१)
वि० [सं० जयिन्] [वि० स्त्री० जयिनी] विजयी । जयशील ।
⋙ जयी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यव] दे० 'जई' ।
⋙ जयेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० जयेन्द्र] काश्मीर के राजा विजय के पुत्र का नाम जो आजानुबाहु थे ।
⋙ जयेतू
संज्ञा पुं० [सं०] षाड़व जाति के एक रान का नाम जो पूरिया और कल्याण के योग से बनता है । इसमें पंचम स्वर नहीं लगता ।
⋙ जयेदगौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० सं० जयेत् + गौरी=जयेदगौरी] एक संकर रागिनी जो जयेत् और गौरी के मेल से बनती है ।
⋙ जयेती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी जो गौरी और जयत्श्री के मेल से उत्पन्न होती है । यह सामंत, ललित और पूरिया अथवा टोड़ी, सहाना और विभास राग के योग से भी बन सकती है ।
⋙ जय्य
वि० [सं०] जय करने योग्य । जो जीतने योग्य हो ।
⋙ जरंड
वि० [सं० जरठ] क्षीण । वृद्ध । पुराना [को०] ।
⋙ जरंत
संज्ञा पुं० [सं० जरन्त] १. वृद्ध व्यक्ति । बूढ़ा आदमी । २. महिष । भैंसा [को०] ।
⋙ जर (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० जरा] जरा । वृद्धावस्था ।
⋙ जर (२)
वि० [सं०] १. क्षय होने या जीर्ण होनेवाला । २. क्षीण । वृद्ध । पुराना । ३. क्षय या जीराँ करनेवाला [को०] ।
⋙ जर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश या जीर्ण होने की क्रिया । २. जैन दर्शन के अनुसार वह कर्म जिससे पाप, पुण्य, कलुष, राग- द्वेषादि सब शुभाशुभ कर्मों का क्षय होता है ।
⋙ जर (४)
संज्ञा पुं० [सं० ज्वर] दे० 'ज्वर' । उ०—खने संताप सीत जर जाड़ । की उपचरथ संदेह न छाँड़ । —विद्यापति०, पृ० १३७
⋙ जर (५)
संज्ञा पुं० [देश०] एक तरह का समुद्री सवार । कचहरा ।— (लश०) ।
⋙ जर (६)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़] दे० 'जड़' ।
⋙ जर (७)
संज्ञा पुं० [फा० जर] १. सोना । स्वर्ण । यौ०—जरकम=दे० 'जरकश' । जरकार= (१) स्वर्णकार । सुनार । (२) सोने का काम की हुई वस्तु । जरगर । जरदोजो । जरनिगार । जरनिगारी । जरवपत । जरवाफता । जरदोज । २. धन । दौलत । रुपया । उ०—जर ही मेरा अल्लाह है जर राम हमारा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५१५ । यौ०—जरआस्ल=मूलधन । जरखरीद । जरगर । जरडिगरी= डिगरी की रकम । जरदार । जरनक्द=रोकड़ा । नकद । रुपया । जरनोलाम=नीलामी से प्रास धन । जरपेशगी= अग्रिम धन । बयाना ।
⋙ जरई
संज्ञा स्त्री० [हि० जड़] धान आदि के वे बीज जिनमें अंकुर निकले हों । विशेष—धान को दो दिन तक दिन में दो बार पाना से भिगोते हैं, फिर तीसरे दिन उसे पयाल के नीचे ढककर ऊपर से पत्थर्रों से दबा देते है जिसे 'मारना' कहते हैं । फिर एक दिन तक उसे उसी तरह पड़ा रहते देते हैं, दूसरै या तीसरे दिन फिर खोलते है । उस समय तक बीजों में से सफेद सफेद अंकुर निकल आते है । फिर उन्हें फैला देते हैं और कभी सुखाते भी हैं । ऐसे बीजों को जरई और इस क्रिया को 'जरई करना' कहते हैं । यह जरई खेत में बोने के काम आती है और शीघ्र जमती है । कभी कभी धान की मुजारी भी बंद पानी में डाल दी जाती है और दौ तीन दिन तक वैसे ही पड़े रहती हैं, चौथे दिन उसे खोलते है । उस समय वे बीज जरई हो जाते हैं । कभी कभी इस बात की परीक्षा के लिये कि बीज जम गया या नहीं, भिन्न भिन्न आनों की भिन्न भिन्न रीति से जरई की जाती है । २. दे० 'जई' ।
⋙ जरकटी
संज्ञा पुं० [देश०] एक शिकारी पक्षी । उ०—जुर्रा बाज बाँसे कुहो बहरी लगर लोने, टोने जरकटी त्यों शचान सान पार है ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जरकस, जरकसी
वि० [फ़ा० जरकश] १. जिसपर सोने आदि के तार लगे हों । उ०—(क) छोटिए धनुहियाँ पनहियाँ पगन छोटी, छोटिए कछोटी कटि छोटिए तरकसी । लसत झँगूली झीनी दामिनि की छबि छीनी सुंदर बदन सिर पगिया जरकसी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) अब झकि झाँकि झमकि झुकी उझकि झरोखे ऐन । कसे कंचुकी जरकसी लसी बंसी ही नैन ।—शृं० सत० (शब्द) ।
⋙ जरकसि पु
वि० [हिं०] दे० 'जरकसी' । उ०—पहिरै जरकसि पर आभूषण अँग अँग नौति रिझाय ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४६ ।
⋙ जरखरीद
वि० [फ़ा० जरखरीद] नक्द दाम देकर खरीदी हुई जमीन जायदाद जिसपर खरीददार का पूर्ण अधिकार हो । उ०—जब देखो तब तू तैं—चुप ! गोया बेटा नहीं जरखरीद गुलाम है ।—शराबी; पृ० १७१ ।
⋙ जरखेज
वि० [फ़ा० जरखेज] उपजाऊ । जिसमें खूब अन्न पैदा होता है । उर्वरा (जमीन का विशेषण) ।
⋙ जरखेजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जरखेजी] उर्वरता । उपजाऊपन ।
⋙ जरगर
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरगर] स्वर्णकार । सुनार [को०] ।
⋙ जरगह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जर + जियाह] एक धास जिसे चौपाये बड़े स्वाद से खाते हैं । विशेष—यह धास राजपूताने आदि में बहुत बोई जाती हैं । किसान इसे खेतों में कियारियाँ बनाकर बोते हैं और छठे सातवें दिन पानी देते हैं । पंद्रह बीस दिन में यह काटने लायक हो जाती है । एक बार बोने पर कई महीनों तक यह बराबर पंद्रहवें दिन काटी जा सकती है । यह दाने की तरह दी जाती है और बैल घोड़े इसके खाने से जल्दी तैयार हो जाते है ।
⋙ जरगा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जर + जियाह] दे० 'जरगह' ।
⋙ जरज
संज्ञा पुं० [देश०] एक कंद जिसकी तरकारी बनाई जाती है । विशेष—यह दो प्रकार का होता है । एक की जड़ गाजर या मूली की तरह होती है और दूसरे की जड़ शलजम की तरह होती है ।
⋙ जरजर पु
वि० [सं० जर्जर] [वि० स्त्री० जरजरी] दे० 'जर्जर' । उ०—(क) सविषम खर शरे अँग मैल जरजर कहइते के पतियाइ ।—विद्यापति, पृ० ४८२ । (ख) नाव जरजरी भार बहु खेवनहाँर गँवार ।—दीन० ग्रं०, पृ० ११३ ।
⋙ जरजराना
क्रि० अ० [सं० जर्जर] जर्जरित होना । जीर्ण होना ।
⋙ जरजरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़ + जड़ी] जड़ी बूटी । सुनहरी जड़ी । उ०—नाग दबनि जरजरी, राम सुमिरन बरी, भनत रैदास चेत निमैता ।—रै० बानी, पृ० २० ।
⋙ जरछार †
वि० [हिं० जरना + सं० क्षार] १. भस्मीभूत । २. नष्ट ।
⋙ जरजाल
संज्ञा पुं० [अ० जर + फ़ा० जलूक(=गोली, छर्रा)] लोहे के तारों में बँधे हुए बहुत से फल छुरी इत्यादि जो तोप में भर के छोड़े जाते है । उ०—लिए तुपक जरजाल जमूरे । लै भरि बान बल पूरे ।—हम्मीर०, पृ० ३० ।
⋙ जरठ (१)
वि० [सं०] १. कर्कश । कठिन । २. वृद्ध । बुड्ढा । उ०— जरठ भयउँ अब कहै रिछेसा ।—मानस, ४ ।२९ । ३. जीर्ण । पुराना । ४. पांडु । पीलापन लिये सफेद रंग का ।
⋙ जरठ (२)
संज्ञा पुं० बुढ़ापा ।
⋙ जरठाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जरठ] बुढ़ापा । वृद्धावस्था । जीर्ण अवस्था ।
⋙ जरडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक घास का नाम जिसे खाने से गाय भैंस अधिक दूध देती हैं । विशेष—वैद्यक में इसे मधुर, शीतल, दाहनाशक, रक्तशोधक और रुचिर माना है । पर्या०—गर्मोटिका । सुनाला । जयाश्रया ।
⋙ जरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हींग । २. जीरा । ३. काला नमक । सौवर्चल । ४. कासमर्द । कसौजा । ५. जरा । बुढ़ापा । ६. दस प्रकार के ग्रहणों में से एक जिसमें पश्चिम से मोक्ष होना प्रारंभ होता है । ७. सुफेद जीरा ।
⋙ जरणद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. साखू का वृक्ष । सागौन का पैड़ ।
⋙ जरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काला जीरा । २. वृद्धावस्था । बुढ़ापा । ३. स्तुति । प्रशंसा । ४. मोक्ष । मुक्ति ।
⋙ जरत् (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० जरना] १. बुड्ढा । वृद्ध । २. बहुत दिनों का ।
⋙ जरत् (२)
संज्ञा पुं० वृद्ध व्यक्ति । पुराना आदमी [को०] ।
⋙ जरत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्ध व्यक्ति । पुराना आदमी । २ साँड़ [को०] ।
⋙ जरता बलता †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जलना' के अंतर्गत 'जलता बलता' ।
⋙ जरतार पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० जर + तार] सोने या चाँदी आदि का तार । जरी । उ०—बीच जरतारन की हीरन के हार की जगमगी ज्योतिन की मोतिन की झालरैं ।—देव (शब्द०) ।
⋙ जरतारा †
वि० [हिं० जरतार] [वि० स्त्री० जरतारी] जिसमें सुनहले या रुपहले तार लगे हों । जरी के काम का । उ०— जरतारी मुख पै सरस सारी सोहत सेत । सरद जलद भिद जलज पर सहज किरन छबि देत ।—स० सप्तक, पृ० ३४५ ।
⋙ जरतुआ †
वि० [हिं० जलना] जो दूसरों को देखकर बहुत जलता या बुरा मानता हो । ईर्ष्या करनेवाला ।
⋙ जरतिका, जरती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृद्धा स्त्री । बूढ़ी महिला ।
⋙ जरतुश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरतुश्त] दे० 'जरदुश्त' ।
⋙ जरत्करण
स्त्री० पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम ।
⋙ जरत्कारु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जिन्होंने वासुकि नाग की कन्या से ब्याह किया था । आस्तिक मुनि इनके पुत्र थे ।
⋙ जरत्कारु (२)
संज्ञा [सं०] जरत्कारु ऋषि की स्त्री जो वासुकि नाग की कन्या थी । इसका नाम मनसा भी था ।
⋙ जरद
वि० [फ़ा० जर्द] पीला । जर्द । पीत । उ०—ओढ़े जरद दुसाला याराँ केसर की सी क्यारी हैं ।—घनानंद, पृ० १७६ ।
⋙ जरद अंछी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जर्द, हिं० जरद + पंछी] काली अंछी की तरह की एक प्रकार की बड़ी झाड़ी जिसकी लंबी टहनियों के सिरों पर काँटे होते हैं । विशेष—यह देहरादून से भूटान और खसिया की पहाड़ी तक ७००० फुट की ऊँचाई तक पाई जाती है । दक्षिण में कनाडा (कनारा, कन्नड़) और लंका तक भी होती है । इसमें फागुन चैत में फूल लगते हैं जो कच्चे भी खाए जाते हैं और अचार डालने के काम आते हैं ।
⋙ जरदक
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरदक] जरदा या पीलू नाम का पक्षी ।
⋙ जरदष्टि (१)
वि० [सं०] १. वृद्ध । बुड्ढा । २. दीर्घजीवी । बहुत दिनों तक जीनेवाला ।
⋙ जरदष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुढ़ापा । वृद्धावस्था । २. दीर्घ- जीवन ।
⋙ जरदा (१)
संज्ञा पुं० [फ्रा० जर्दह्] १. एक प्रकार का व्यंजन जिसे प्रायः मुसलमान लोग खाते हैं । विशेष—इसके बानाने की विधि यह है कि चावल में पहले हल्दी डालकर इसे पानी में उबालते हैं । फिर उसमें से पानी पसा लेते है और उसे दूसरे बर्तन में धी डालकर शक्कर के शर्बत में पकाते हैं । पीछे से इसमें लौंग, इलायची आदि सुगंधित द्रव्य और मसाले छोड़ दिए जाते हैं । २. एक विशेष क्रिया से बनाई हुई खाने की सुगंधित सुरती । विशेष—यह प्रायः काले रंग की होती है और पान दोहरा, आदि के साथ खाई जाती है । यह पीले और लाल रंग की भी बनाई जाती है । वाराणसी इसका एक प्रमुख व्यापार- केंद्र हैं । यौ०—जरदाफरोश=जरदा बेचनेवाला । ३. पीले रंग का का घोड़ा । उ०—जरदा जिरही जाँग सुनौची ऊदे खंजन ।—सुजान०, पृ० ८ । ४. पीली आँख का कबूतर । ५. पीले रंग की एक प्रकार की छींट ।
⋙ जरदा (२)
संज्ञा पुं० [फ्रा० जरदक] एक प्रकार का पक्षी । पीलू । विशेष—इसकी कनपटी पीली, पीठ खाली, पेट सफेद और चोंच तथा पैर पीले होते हैं । इसे पीलू भी कहते हैं ।
⋙ जरदार
वि० [फ्रा० जर + दार] अमीर । धनवान । उ०—हुआ मालूम यह गुंचे से हमको । जो कोई जरदार है सो र्तग दिल हौ ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३० ।
⋙ जरदालू
संज्ञा पुं० [फ्रा० जरदालू] खूबानी नाम का मेवा । विशेष—दे० 'खूबानी' ।
⋙ जरदी
संज्ञा स्त्री० [फ्रा० जरदी] पिलाई । पीलापन । मुहा०—जरदी छाना=किसी मनुष्य के शरीर का रंग बहुत दुर्बलता, खून की कमी या किसी दुर्घटना आदि के कारण पीला हो जाना । २. अंड़े के भीतर का वह चेप जो पीले रंग का होता है ।
⋙ जरदुश्त
स्त्री० पुं० [फ़ा० जरदुश्त; मि० सं० जरदष्टि (=दीर्घजीवी, वुद्ध); अथवा सं० जरत्त्वष्ट्ट (=एक ऋषि)] फारस देश के प्राचीन पारसी धर्म के प्रतिष्ठाता एक आचार्य ।विशेष—ये ईसा से ६ सौ वर्ष पूर्व ईरान के शाह गुश्ताश्प के समय में हुए थे । इन्होंने सूर्य और अग्नि की पूजा की प्रथा चलाई थी और पारसियों का प्रसिद्ध धर्मग्रंथ 'जंद अवस्था' (जंद अवेस्ता) बनाया था । ये 'मीनु चेह्न' के वंशज और यूनान के प्रसिद्ध हकीम 'फीसा गोरस' के शिष्य थे । शाहनामे में लिखा है कि जरदुश्त तूरानियों के हाथ से मारे गए थे । इनको जरतुश्त और जरथुस्त्र भी कहते हैं ।
⋙ जपदोज
संज्ञा पुं० [फ्रा० जरदोज] [संज्ञा जरदोजी] वह मनुष्य जो कपड़ों पर कलाबत्तू और सलमे सितारे आदि का काम करता हो । जरदोजी का काम करनेवाला ।
⋙ जरदोजी
संज्ञा पुं० [फ्रा०] एक प्रकार की दस्तकारी जो कपड़ों पर सुनहले कलाबत्तू या सलमें सितारे आदि में की जाती है । उ०—सुबरन साज जीन जरदोजी । जगमगात तन अगनित ओजी ।—हम्मीर०, पृ० ३ ।
⋙ जरदगव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुड्ढा बैल । २. बृहत्संहिता के अनुसार एक वीथी जिसमें विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र हैं । यह चंद्रमा की वीथी है ।
⋙ जरदगव
वि० जीर्ण । प्राचीन ।
⋙ जरद्विष
संज्ञा पुं० [सं०] 'जल' ।
⋙ जरन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'जलन' ।
⋙ जरनल (१)
संज्ञा पुं० [अं०] वह सामयिक पत्र या पुस्तक जिसमें क्रम से किसी प्रकार की घटनाएँ आदि लिखी हों । सामयिक पत्र ।
⋙ जरनल
संज्ञा पुं० [अं० जेनरल] दे० 'जनरल' ।
⋙ जरनलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं० जर्नलिस्ट] दे० 'पत्रकार' ।
⋙ जरना (१)
क्रि० अ० [हिं० जलना] दे० 'जलना' । उ०—देखि जरनि जड़ नारि की रे जरति प्रेत के संग ।—सूर०, १ ।३२५ ।
⋙ जरना (२)पु
क्रि० अ० [सं० जटन, हिं० जड़ना] दे० 'जड़ना' । उ०—नग कर मरम सो जरिया जाना । जरै जो अस नग हीर पखाना ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४१ ।
⋙ जरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जरना (=जलना)] १. जलने की पीड़ा जलन । उ०—पानी फिरै पुकारतौ उपजी जरनि अपार । पावक आयौ पूछनै सुंदर वाकी सार—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७२८ । २. व्यथा । पीड़ा । उ०—(क) तातै हौं देत न दूखन तोहूँ । राम बिरोधी उर कठोर ते प्रगट कियो है विधि मोहूँ । सुंदर सुखद सुसील सुधानिधि जरनि जाय जेहि जोए । बिष वारुणी बंधु कहियत विधु नातो मिटत न धोए ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) आपनि दारुन दीनता कहउँ सबर्हि सिर नाइ । देखे बिन रघुनाथ पद जिय की जपनि न जाइ—तुलसी (शब्द०) । (ग) देखि जरनि जड़ नारि की रे जरति प्रेत के संग । चिता न चित फोकौ भयौ रे रची जु पिय के रंग ।—सूर०, १ ।३२५ ।
⋙ जरनिगार
वि० [फ़ा० जरनिगार] सुनहरे कामवाला । सुनहरे रंग का ।
⋙ जरनिगारी
संज्ञा [फ़ा० जरनिगारी] सुनहरा काम । सोने का पानी । मुलम्मा ।
⋙ जरनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्वलन] जलन । ताप । अग्नि । ज्वाला । उ०—बिछुरी मनौं संग तैं हिरनी । चितवत रहत चरित चारौं दिसि उपजि बिरह तन जरनी ।— सूर०, ९ ।७३ ।
⋙ जरनैल (१)
संज्ञा पु० [अं०] दे० 'जनरल' ।
⋙ जरनैल (२)
संज्ञा पुं० [अं० जर्नल] दे० 'जर्नल' ।
⋙ जरपरस्त
वि० [फ़ा० जरपरस्त] अर्थपिशाच । सूम । लोभी । कंजूस [को०] ।
⋙ जरपोस
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरपोश] जरी का कपड़ा । जरी की पोशाक । उ०—सबज पोस जरपोस करि लीनौ लाल लुगाइ । भाइ भाइ फिर भाइ करि करति धाइ पर घाइ ।—स० ससक, पृ० ३८३ ।
⋙ जरफ
वि० [अं० जरफ़] साफ । स्वच्छ । निर्मल उ०—सब सहर नारि शृंगार कीन । अप अप्प झुंड मिलि चलि नवीन । थपि कनक थार भरि द्रव्य दूब । पटकूल जरफ जरकसी ऊब ।—पृ० रा०, १ ।७१३ ।
⋙ जरब
संज्ञा स्त्री० [अं० जरब] आघात । चोट । यौ०—जरब खफीफ=हलकी चोट । जरब शदीद=भारी चोट । मुहा०—जरब देना = चोट लगाना । आघात करना । पीटना । उ०—दगा देत दूतन चुनौती चित्रगुप्तै देत जम को जरब देत पापी लेत शिवलोक ।—पद्माकर (शब्द०) । २. तबले मृदंग आदि पर का आघात । थाप जो दो तरह की होती है, एक खुली और दूसरी बंद । ३. गुणा (गणित) । कपड़े पर छपी या काढ़ी हुई बेल ।
⋙ जरबकस
वि० [फ़ा० जर + बख्श] उदार । दाता । दानी । धन देनेवाला । उ०—तुम जरबकस जराब मोती हौ लाल जवाहिर नहिं गनता ।—स० दरिया, पृ० ६४ ।
⋙ जरबफ्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० जपबफ्त] वह रेशमी कपड़ा जिसकी बुनावट में कलाबत्तू देकर कुल बेल बूटे बनाए जाते हैं ।
⋙ जरबाफ
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरबाफ़] सोने के तारों से कपड़े पर बेलबूटे बनानेवाला कारीगर । जरदोज ।
⋙ जरबाफी (१)
वि० [फ़ा० जरबाफ़ी] जरबाफ के काम का । जिस— पर जरबाफ का काम बना हो ।
⋙ जरबाफी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'जरदोजी' ।
⋙ जरबीला पु †
वि० [फ़ा० जरब + हिं० ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० जरबीली] जो देखने में बहुत झड़कीला और सुंदर हो ।— उ०—श्रवण झुकै झुमका अति लोल कपोल जराइ जरै जरबीले ।—गुमान (शब्द०) । (ख) आयो तहँ भावतो कहँ पायो सीर सोरह में पीठ पीछै चीन्हें चीन्हें पोति जरबीली कौ ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जरबुलंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरबुलंद] कोफ्त का एक भेद जिसके गुलबूटे, जिनपर सोने या चाँदी की कलई होती है, बहुत उभड़े रहते हैं ।
⋙ जरब्बी पु
वि० [अ० जरब] घाव करनेवाला । चोट पहुँचानेवालाउ०—लियै रुंड तेगं सुघल्लै जरब्बी । कटे सेन चहुवान मानहु करब्बी ।—प० रासो, पृ० ८४ ।
⋙ जरबुलमसल
संज्ञा स्त्री० [अ० जरबुलमसल] कहावत । लोकोक्ति ।
⋙ जरमन (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. जरमनी देश का निवासी । वह जो जरमनी देश का हो ।
⋙ जरमन (२)
संज्ञा स्त्री० जरमनी देश की भाषा ।
⋙ जरमन (३)
वि० जरमनी देश संबंधी । जरमनी का । जैसे, जरमन माल, जरमन सिलवर ।
⋙ जरमन सिलवर
संज्ञा पुं० [अं०] एक सफेद ओर चमकीली यौगिक धातु जो जस्ते, ताँबे और निकल के संयोग से बनती है । विशेष—इसमें आठ भाग ताँबा, दो भाग निकल और तीन से पाँच भाग तक जस्ता पड़ता है । निकल की मात्रा बढ़ा देने से इसका रंग अधिक सफेद और अच्छा हो जाता है । इस धातु के बरतन और गहने आदि बनाए जाते हैं ।
⋙ जरमनी
संज्ञा पुं० [अं०] मध्य यूरोप का एक प्रसिद्ध देश ।
⋙ जपमुआ †
वि० [हिं० जरना + मुअना] [वि० स्त्री० जरमुई] जल- मरनेवाला । बहुत इर्ष्या करनेवाला ।
⋙ जरर
संज्ञा पुं० [अ० जरर] १. हानि । नुकसान । क्षति । उ०— जब जुल्मो जरर मुल्क सुलेमान में देखा ।—कबीर मं०, पृ० ३८८ । २. आघात । चोट । क्रि० प्र०—आना । पहुंचना ।—पहुँचाना । ३. आफत । मुसीबत ।
⋙ जरल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक बारहमासी घास जो मध्य प्रदेश और बुदेलखंड़ में बहुत होती है । इसे 'सेवाती' भी कहते हैं ।
⋙ जरवाना पु
क्रि० स० [हि० जलना] दे० 'जलवाना' । उ०—न जोगी जोग से घ्यावै । न तपसी देह जरवावै ।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ७ ।
⋙ जरवारा पु
वि० [फ़ा० जर + हिं० वाला (प्रत्य०)] रुपए पैसेवाला । धनी । उ०—ते धन जिनकी ऊँची नजर हैं । कइक बनाय दिए जरवारे जिनकी कतहुँ नजर है ।—देवस्वामी (शब्द०) ।
⋙ जरस (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] घटा । घड़ियाल । उ०—जघ जी पर टँगाती हूँ मैं एक जरस । फिर आए सफर कर तूँ जब हो सरस । —दक्खिनी० पृ०, १४६ ।
⋙ जरस (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की समुद्र की घास ।—(लश०)
⋙ जरहरि पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] जल का खेल । जलक्रीडा । उ०— रुहिरि तरंगिणि तोर भूत गरा जरहरि खेल्लह ।—कीर्ति०, पृ० १०८ ।
⋙ जरांकुश
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञकुश] मूंज के प्रकार की एक सुगंधित घास जिसमें नीबू की सी सुगंध आती है । विशेष—यह कई प्रकार की होती है । दक्षिण भारत में यह बहुत अधिकता से होती है । इससे एक प्रकार का तेल निक- लता है जिसे नीबू का तेल कहते हैं और जो साबुन तथा सुगंधित तेल आदि बनाने में काम आता है ।
⋙ जरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुढ़ापा । वृद्धावस्था । यौ०—जराग्रस्त । जरामरण । २. पुराणानुसार काल की कन्या का नाम । विस्त्रसा । ३. एक राक्षसी का नाम जो मगध देश की गृहदेवी थी । इसी को षष्ठी भी कहते हैं । जरा नाम की एक राक्षसी जिसने जरासंध को जो़ड़ा था । दे० 'जरासंध' । उ०—जरा जरासंध की संधि जोरयौ हुतौ भीम ता संघ कौ चीर डरचौ ।—सूर०, १० ।४२१५ । ४. खिरनी का पेड़ । ५. प्रार्थना । प्रशंसा । श्लाघा । यौ०—जराबोध । ६. पाचन शाक्ति (को०) । ७. वृद्धावस्था की शिथिलता (को०) ।
⋙ जरा (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्याध का नाम । विशेष—इसी के बाण से भगवान् कृष्णचंद्र देवलोक सिधारे थे ।
⋙ जरा (१)
वि० [अ० जर्रह] थोड़ा । कम । जैसे,—जरा से काम में तुमने इतनी देर लगा दी । यौ०—जरा जरा=थोड़ा थोड़ा । जरामना=कमबेश । थोड़ा बहुत । जरा सा ।
⋙ जरा (२)
क्रि० वि० थोड़ा । कम । जेसे,—जरा दौड़ो तो सही । मुहा०—चरा चलैगी=जरा बात बढ़ेगी । तकरार होगी । उ०— मैं तो समझी थी कि जरा चलेगी ।—सैर० कु०, पृ० २४ ।
⋙ जराअत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० जिराअत] दे० 'जिराअत' ।
⋙ जराअत
संज्ञा स्त्री० [अ० जराअत] १. रुदन । क्रंदन । २. विनती । मिन्नत [को०] ।
⋙ जराऊ पु
वि० [हिं०] दे० 'जड़ाऊ' । उ०—पाँवरि कवम जराऊ पाऊँ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ जराकुमार
संज्ञा पुं० [पुं०] जरासंध ।
⋙ जराग्रस्त
वि० [सं०] बुड्ढा । वृद्ध ।
⋙ जराजीर्ण
वि० [सं० जरा + जीर्ण] बुढ़ापे के कारण दुर्बल । बुड्ढा वृद्ध । उ०—हो मलते कलेजा पड़े, जरा जीर्ण, निर्निमेष नयनों से ।—अपरा, पृ० १५२ ।
⋙ जराति पु
संज्ञा स्त्री० [अ० जिराअत] खेती । फसल । समृद्धि । उ०—रेती बादशाहाँ की जराति उजड़ैगा । देवीसिंघ तेरा जोर देषना पड़ेगा ।—शिखर०, पृ० ९४ ।
⋙ जराती
संज्ञा पुं० [हिं० जलना] वह शोरा जो चार बार उड़ाया गया हो ।
⋙ जरातुर
वि० [सं०] जरा से जर्जर । जराग्रस्त । वृद्धा बूढ़ा [को०] ।
⋙ जराद
संज्ञा पुं० [अ०] टिड्डी ।
⋙ जराना पु
क्रि० सं० [हिं० जरना] दे० 'जलाना' । उ०—पवन कौ पूत महाबल जोधा पल मैं लंक जराई ।—सूर०, ९१४० ।
⋙ जरापुष्ट
संज्ञा पुं० [स०] जरासंध का एक नाम ।
⋙ जराफत
संज्ञा स्त्री० [अ० जराफत] जरीफ होने का भाव । मस- खरापन । परिहासाप्रियता । उ०—उसके मिलाज में जराफत ...जियादा है ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० १०२ । २. हँसी- मजाक । परिहास ।यौ०—जराफतपसंद=विनोदप्रिय । हँसोड़ । जराफत की पोट= हँसी की पोटली । हंसोड़ ।
⋙ जराफा
संज्ञा पुं० [अ० ज़राफ़] दे० 'जिराफा' ।
⋙ जराबोध
संज्ञा पुं० [सं०] वह अग्नि जो स्तुति करके प्रज्वलित की गई हो ।—(वैदिक) ।
⋙ जराबोधीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम ।
⋙ जराभीत, जराभीरु
संज्ञा पु० [सं०] कामदेव [को०] ।
⋙ जरार्भस
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव ।
⋙ जरायणि
संज्ञा पुं० [सं०] जरासंध का एक नाम ।
⋙ जराय पु
वि० [हिं०] दे० 'जराव' ।
⋙ जरायम
संज्ञा पुं० [अ० 'जरीमह्' का बहु व०] पार । दोष । गुनाह । अपराध [को०] ।
⋙ जरायमपेशा
वि० [फ़ा० जरायम पेशह्] जो अपराधी स्वभाव का हो । अपराधी । दोष या गुनाह करनेवाला । जुर्म करनेवाला ।
⋙ जरायु
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० जरायुज] १. वह झिल्ली जिसमें बच्चा बँधा हुआ उत्पन्न होता है । आँवल । खेढ़ी । उल्व । २. गर्भाशय । ३. योनि । ४. जटायु । ५. अग्निजार या समुद्र- फल नामक वृक्ष । ६. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम । ७. साँप की केचुल (को०) ।
⋙ जरायुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्राणी जो आँवल या खेड़ी में लिपटा हुआ अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न हो । पिंडज ।
⋙ जरार
वि० [अ० जरर] क्रूर । हानि पहुँचानेवाला । उ०—बड़ा जरार आदमी है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १२५ ।
⋙ जराव पु
वि० [हिं० जड़ना] जड़ाऊ । जिसमें नगीने आदि जड़े हो । जड़ा हुआ । उ०—(क) बैंदे जराव लिलार दिए गाहि डोरी दोऊ पटिया पहिराई ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । (ख) सुंदर सूधी सुगोल रची बिधि कोमलता अति ही सर- सात है । त्यौं हरिऔध जराव जरे खरे कंकन कंचन के दरसात है ।—अयोध्या० (शब्द०) ।
⋙ जराशोष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शोष रोग जो लोगों को वृद्धावस्था में हो जाता है । विशेष—इस शोष रोग में रोगी दुर्बल हो जाता है, उसे भोजन से अरुचि हो जाती है और बल, वीर्य तथा बुद्धि का क्षय हो जाता है ।
⋙ जरासंध
पुं० [सं० जरासन्ध] महाभारत के अनुसार मगध देश का एक राजा । यह बृहद्रथ का पुत्र और कंस का श्वसुर था । विशेष—पुराणों के अनुसार यह दो टुकड़ों में उत्पन्न हुआ और 'जरा' नाम की राक्षसी द्वारा दोनों टुकड़ों को जो़ड़कर सजीव किया गया । इसलिये इसका नाम जरासंध, जरासुत आदि पड़ा । कुष्ण द्वारा अपने श्वसुर कंस के मारे जाने पर इसने मथुरा पर अठारह बार आक्रमण किया था । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अर्जुन और भीम को साथ लेकर कृष्ण इसकी राजधानी गिरिब्रज में ब्राह्मण के वेश में गए और उन राजाओं को छोड़ देने के लिये कहा जिन्हें उसने परास्त कर कैद कर लिया था, कितु जरासंध ने नहीं माना । अंततः भीम के साथ युद्ध करने की माँग स्वीकार कर ली । कहते हैं कई दिनों तक मल्ल युद्ध होने के बाद भी जब यह पराजित नहीं हुआ तब एक दिन कृष्ण का संकेत पाकर भीम ने द्वंद्व युद्ध में जरा राक्षसी द्वारा जोड़े गए अंग के दोनों विभागों को चीरकार इसे मार डाला था ।
⋙ जरासिंध पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जरासंध' ।
⋙ जरासुत
संज्ञा पुं० [सं०] जरासंध । यौ०—जरासुतजित्=जरा राक्षसी के पुत्र जरासंध को जीतनेवाला । भीम ।
⋙ जराह
संज्ञा पुं० [अ० जरहि] दे० 'जरहि' ।
⋙ जरिणी
वि० स्त्री० [स्त्री० जरिन्] वृद्धा । बूढ़ी [को०] ।
⋙ जरित (१)
वि० [सं०] १. वृद्ध । जईफ । २. क्षीण । दुर्बल । कृश [को०] ।
⋙ जरित (२)
वि० [हि० जड़ना, प्र० हिं० जरना] दे० 'जड़ित' ।— उ०—पहुँची करनि कंठ कठुआ बन्यो, केहरि नख मनि जरित जराए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २८६ ।
⋙ जरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० जरिमन्] बुढ़ापा । जरा । बृद्धावस्था ।
⋙ जरिया (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० जडिया] दे० 'जड़िया' । उ०—नग कर मरम सो जरिया जाना । जरै जो अस नग हीर पखाना ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४१ ।
⋙ जरिया
वि० [हि० जरना] जो जलाने से उत्पन्न हो । जलाकर बनाया या तैयार किया हुआ । जैसे, जरिया शोरा, जरिया नमक । यौ०—जरिया शोरा=एक प्रकार का शोरा जो भाफ उड़ाकर बनाया जाता है । जारिया नमक=वह खारा नमक जो आँच से तैयार किया जाता है ।
⋙ जरिया (१)
संज्ञा पुं० [अ० जरियह् या जरीअह्] १. संबंध । लगाव । द्वार । जैसे,—उनके यहाँ अगर आपका कोई जरिपा हो तो बहुत जल्दी काम हो जायग । २. हेतु । कारण । सबब । ३. उपाय । साधन । तदबीर । उ०—तौ पाई जरिया सिर पर धरिया, विष ऊषरिया तन तिरिया ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २३१ ।
⋙ जरिश्क
संज्ञा पुं० [फ़ा० ज़रिश्क] दारुहलदी ।
⋙ जरी (१)
वि० पुं० [सं० जरिन्] [वि० स्त्री० जरिणी] बुड़्ढा । वृद्ध ।
⋙ जरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० जड़ी] जडी । बूटी । उ०—तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ जरी (३)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जरी] १. ताश नामक कपड़ा जो बादले से बुना जाता है । २. सोने के चारों आदि से बना हुआ काम ।
⋙ जरी (४)
वि० सोने का । स्वर्णिम । स्वर्णमय ।
⋙ जरीद
संज्ञा पुं० [अ०] १. पत्रवाहक । कासिद । २. जासूस । गुप्तचर [को०] ।
⋙ जरीदा
संज्ञा पुं० [अ० जरीदह्] १. एकाकी व्यक्ति । अकेला आदमी २. समाचारपत्र । अखबार [को०] ।
⋙ जरीनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० जरी + नाल (=ठोकर)] कहारों की बोलचाल में वह स्थान जहाँ इँटें और रोड़े पड़े हों ।
⋙ जरीफ
वि० [अ० जरीफ़] परिहास करनेवाला । मसखरा । ठट्ठे- बाज । मखौलिया ।
⋙ जरीब
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] माप जिससे भूमि नापी जाती है । विशेष—हिंदुस्तानी जरीब ५५ गज की और अग्रेजी जरीब ६० गज की होती है । एक जरीब में २० गट्ठे होते हैं । यौ०—जरीबकश । जरीबकशी=(१) जरीब द्वारा खेतों की पैमाइश । (२) जरीब खींचने का काम । मुहा०—जरीब डालना=भूमि को जरीब से नापना । २. लाठी । छड़ी ।
⋙ जरीबकश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह मनुष्य जो भूमि नापने के समय जरीब खोंचने का काम करता है ।
⋙ जरीबफ्त पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० जरबफ्त] दे० 'जरबफ्त' । उ०— जरीबफ्त औ ओढ़े तासे, ताहि समुझि के धरना ।—सं० दरिया०, पृ० १४५ ।
⋙ जरीबाना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जुरमाना' । उ०—आगे तो जरी- बाना, फेर जहलखाना रे हरी ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५९ ।
⋙ जरीबी
वि० [फा०] (भूमि) जी जरीब से नापी हुई हो ।
⋙ जरीमाना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जुरमाना' ।
⋙ जरीली
वि० स्त्री० [हिं० जड़ना + ईला (प्रत्य०)] सोने के तारों से निर्मित । जड़ावदार । जिसपर जड़ाव का काम हो । उ०— कहूँ प्रभा श्यामल इंद्रनीली । मोती छरी सुंदर ही जरीली ।—श्यामा०, पृ० ३८ ।
⋙ जरुआ †
संज्ञा पुं० [सं० जरा] जरावस्था । वृद्धावस्था । बुढ़ापा । उ०—जोबन बाल बृद्ध अवस्ता । जोवन हारिआ जरुआ जित्ता ।—प्राण०, पृ० २४२ ।
⋙ जरूथ (१)
संज्ञा पुं० [स०] १. मांस । गोश्त ।
⋙ जरूथ (२)
वि० कटुवादी । कटुभाषी ।
⋙ जरूर (१)
क्रि० वि० [अ० जरूर] [वि० जरूरी । संज्ञा जरूरत] अवश्य । निःसंदेह । निश्चय करके । यौ०—जरूर जकर=अवश्यमेव ।
⋙ जरूर (२)
संज्ञा पुं० [अ० जरूर] दवा की बुकनी जो जख्म या आँख में छोड़ी जाय [को०] ।
⋙ जरूरत
संज्ञा स्त्री० [अ० जरूरत] आवश्यकता । प्रयेजन । क्रि० प्र०—पड़ाना ।—होना । यौ०—जरूरतमंद=(१) इच्छुक । आकांक्षी । (२) दीन । दरिद्र । मुँहताज । (३) भिक्षुक । भिखारी ।
⋙ जरूरतन्
क्रि० वि० [अ० जरूरतन] आवश्यकतावश । कारणवश । जरूरत से ।
⋙ जरूरियात
संज्ञा स्त्री० [अ० जरूरी का बहुव०] आवश्यक चीजें ।
⋙ जरूरी
वि० [फ़ा० जरूरी] १. जिसकी जरूरत हो । जिसके बिना । काम न चले । प्रयोजनीय । २. जो अवश्य होना चाहिए । आवश्यक । सापेक्ष्य ।
⋙ जरूला पु †
वि० [सं० जटा + हिं० वाला (प्रत्य०); अथवा हिं० झड़ + ऊला (प्रत्य०)] १. गर्भकालीन केशोंवाला । गभोंत्पन्न केश या जटा से युक्त । उ०—नित हो ब्रजजन हित अनुकूलौ । जसुदा जीवन लला जरूलौ ।—घनानंद०, पृ० २३२ । २. जटुल । जन्मजात लक्षण चिह्नों से युक्त ।
⋙ जरोटन
संज्ञा स्त्री० [सं० जलाटनी] जोंक । उ०—कोर कजरारी कैधों फरकत फेर फेर, सूकत जरोटन की थिरक थकैसी सी ।—पजनेस०, पृ० ९ ।
⋙ जरोल
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है । विशेष—यह इमारत, जहाज और तोपों के पहिए बनाने के काम आती है । यह बंगाल में, विशेषकर सिलहट के कछार में, चटगाँव औक उत्तरी नीलगिरि में बहुत होता है ।
⋙ जरौट पु †
वि० [हिं० जड़ना] जड़ाऊ । उ०—कोऊ कजरौट जरौट लिए कर कोउ मुरछल कोऊ छाता ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ जर्कबर्क
वि० [फा० जर्क बर्क] जिसमें खूब तड़क भड़त हो । भड़कीला । चमकीला । भड़कदार ।
⋙ जर्जर (१)
वि० [सं०] १. जीर्ण । जो बहुत पुराना होने के कारण बेकाम हो गया हो । २. फूटा । टूटा । खंडित । ३. वृद्ध । बुड्ढा । ४. (ध्वनि) जो किसी पात्र के टूटने से हो (को०) ।
⋙ जर्जर (२)
संज्ञा पुं० १. छरीला । बुढ़ना । पत्थरफूल । २. इंद्र की पताका (को०) ।
⋙ जर्जरानना
संज्ञा स्त्री० [सं० जर्जराना] एक मात्रिका का नाम जो कार्तिकेय की अनुचरी हैं ।
⋙ जर्जरता
संज्ञा स्त्री० [सं० जर्जर + हिं० ता (प्रत्य०)] पुरानापन । जीर्णता । उ०—स्मृति चिह्नों की जर्जरता में । निष्ठुर कर की बर्बरता में ।—लहर, पृ० ३४ ।
⋙ जर्जारित
वि० [सं० जर्जरित] १. जीर्ण । पुराना । २. टूटा । फूटा । खंडित । ३. पूर्णतः आक्रांत या अभिभूत ।
⋙ जर्जरीक
वि० [सं०] १. बहुत वुद्ध । बुड्ढा । २. जिसमें बहुत से छेद हो गए हों । अनेक छिद्रवाला ।
⋙ जर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. (घटता हुआ या कृष्ण पक्ष का) चंद्रमा । २. वृक्ष । पेड़ ।
⋙ जर्ण (२)
वि० जीर्ण । पुराना । क्षीण ।
⋙ जर्णा
संज्ञा, स्त्री० [हिं० जलना, पृ० हिं० जरना] विरह । वियोग । जलन । जैसे, जर्णा को अंग ।
⋙ जर्त्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी । २. योनि ।
⋙ जर्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन वाहीक देश का एक नाम । २. उक्त देश का निवासी ।
⋙ जर्तिल
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली तिल । बनतिलवा ।
⋙ जर्त्तु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जर्त' ।
⋙ जर्द
वि० [फा० जद] पीला । पीले रंग का । पीत ।यौ०—जर्दगोश=छली । धूर्त । मक्कार । जर्दचश्म=(१) श्येन जाति के शिकारी पक्षी । (२) पीली आँखोंवाला । जर्दचोब = हरिद्रा । हल्दी ।
⋙ जर्दा
संज्ञा पुं० [फ़ा० जर्दह्] दे० 'जरदा' ।
⋙ जर्दालू
संज्ञा पुं० [फ़ा० जर्दालू] एक मेवा । जरदालू । खुबानी । विशेष—दे० 'खूबानी' ।
⋙ जर्दी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] पीलापन । पीलाई । वि० दे० 'जरदी' ।
⋙ जर्दोज
संज्ञा पुं० [फ़ा० जारदोज] दे० 'जरदोज' ।
⋙ जर्दोजी
संज्ञा स्त्री० [जरदीजी] दे० 'जरदोजी' ।
⋙ जर्नल
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'जरनल' ।
⋙ जर्नलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'पत्रकार' ।
⋙ जर्फ
संज्ञा पुं० [अं० ज़र्फ़] १. बरतन । भाजन । पात्र । २. योग्यता । पात्रता । ३. सहनशीलता । गंभीरता [को०] ।
⋙ जर्रा (१)
संज्ञा पुं० [अं० जर्रह्] १. अणु । २. वे छोटे छोटे कण जो सूर्य के प्रकाश में उड़ने हुए दिखाई देते हैं । ३. जौ का सौवाँ भाग । ४. बहुत छोटा टुकड़ा या खंड ।
⋙ जर्रा (२)
वि० दे० 'जरा' ।
⋙ जर्रा (३)
संज्ञा स्त्री० सपत्नी । सौत । सौकन ।
⋙ जर्राक
वि० [अं० जर्राक] धूर्त । मुहदेखी कहनेवाला । द्विजिह्व । यौ०—जर्राकखाना=धूर्तावास । धूर्ते की बैठक ।
⋙ जर्राद
वि० [अ० जर्राद] जिरहबख्तर बनानेवाला । शस्त्र निर्माता । यौ०—जर्रादखाना=शस्त्रागार ।
⋙ जर्राफ
वि० [अ० जर्राफ़] १. हँसोड़ । दिल्लगीबाज । २. प्रतिभाशील [को०] ।
⋙ जर्रार
वि० [अ०] [संज्ञा जर्रारी] १. बलिष्ठ । प्रबल । २. लड़ाका । बहादुर । बीर । ३. विशाल । भारी (सेना या भीड़) ।
⋙ जर्रारा
संज्ञा पुं० [अ० जररिह्] १. बहुत विशाल सेना । २. एक भयंकर विषैला बिच्छू जिसकी पूँछ जमीन पर घिसटती चलती है [को०] ।
⋙ जर्राही
संज्ञा स्त्री० [अ० जर्रार + ई (प्रत्य०)] बहाँदुरी । वीरता । सूरमापन ।
⋙ जर्राह
संज्ञा पुं० [अ०] [संज्ञा जर्राही] चीर फाड़ का काम करनेवाला । फोड़ो आदि को चीरकर चिकित्सा करनेवाला । शस्त्रचिकित्सक । शल्याचिकित्सक ।
⋙ जर्राही
संज्ञा स्त्री० [अ०] चीर फाड़ का काम । चीर फाड़ की सहायता से चिकित्सा करने का काम । शस्त्रचिकित्सा । शल्यचिकित्सा ।
⋙ जर्वर
संज्ञा पुं० [सं०] नागों के एक पुरोहित का नाम जिसने एक बार यज्ञ करके साँपों की रक्षा की थी ।
⋙ जर्हिल