विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/शब

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शब
संज्ञा स्त्री० [फा०] रात। रात्रि। रजनी। निशा। उ०—मौका पाकर एक शब उसको सोते हुए गिरफ्तार कर लाना।— भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ५२१।

शबकोर
वि० [फा़०] जिसे रात में दिखाई न दे। रतौंधी का रोगी [को०]।

शबकोरी
संज्ञा पुं० [फा़०] रतौंधी [को०]।

शबखून
संज्ञा पुं० [फा़० शबखून] सेना का रात के अँधेरे में अचानक हमला। वह आक्रमण जो रात को असावधान शत्रु पर किया जाय [को०]।

शबख्वाँ
संज्ञा पुं० [फा० शब्ख्वाँ] बुलबुल नाम का पक्षी [को०]।

शबगर्द (१)
वि० [फा़०] रात को घूमने या पहग देनेवाला [को०]।

शबगिर्द
संज्ञा पुं० [फा़०] १. चंद्रमा। २. पहरेदार। चौकीदार।३. कोतवाल। ४. चोर [को०]।

शबगीर (१)
वि० [फा०] रात को जागनेवाला। उ०—सो आशक के नालए शबगीर में देखो।—कबीर मं०, पृ,० ४६७।

शबगीर (२)
संज्ञा पुं० १. पिछली रात की यात्रा। २. झोंगुर।

शबचिराग
संज्ञा पुं० [फा़० शबचिराग] १. एक बहूमूल्य रत्न जो रात में दीप सा चमकता है। २. रात में चमकनेवाला या प्रकाशति होनेवाला, चाँद [को०]।

शबताब
संज्ञा पुं० [फा़०] १. रात का प्रकाश। २. खद्योत। जुगुनू। ३. दीपक। ४. चंद्रमा। ५. वह जो रात में चमकता हो। ६. काली बिल्ली।

शबनम
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. ओस। तुषार। २. एक प्रकार का सफेद रंग का बहुत ही बारीक कपड़ा। मुहा०—शबनम का रोना=ओस गिरना।

शबनमी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. चारपाई के ऊपर का वह ढाँचा जिसपर रात के समय ओस से बचने के लिये मसहरी टाँगी जाती है। मसहरी। छपरखट। २. दे० 'शबनम।

शबमनी (२)
वि० [फा०] शबनम या ओस जैसी। उ०—पुलकित पलकों की प्रिय पाँखुरियों पर, लो सहसा ढलक गई शबनमी नजर, अँगड़ाई ली बह चले पवन, गुँजें भँवरों के गान।—ठंड़ा०, पृ० ३२।

शबबरात
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मुसलमानों के आठवें मास की चौदहवीं अथवा पंद्रहवी रात। विशेष—इस रात को मुसलमानों के विश्वास के अनुसार फरिश्ते परमात्मा की आज्ञा से भोजन बाँटते और आयु का हिसाब लगाते हैं। इस दिन मूसलमान अपने मृत पूर्वजों के उद्देश्य से प्रार्थना करते, हलुआ पूरी बाँटते, रोशनी करते और आतिश- बाजी छोड़ते हैं।

शबबाश
वि० [फा़०] १. रात में टिकने या निवास करनेवाला। २. सहवास करनेवाला [को०]।

शबबेदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] [वि० शबबेदार] रतजगा [को०]।

शबमेराज
संज्ञा स्त्री० [फा़० शब + अ० मेराज] वह रात जब हजरत पैगंबर साहब ने अर्श पर जाकर अल्लाह का साक्षत्कार किया था। यह समय अरबी रजब महोने की २६ और २७ तारीखों के बीच पड़ता है [को०]।

शबरंग
संज्ञा पुं० [फा़०] वह जो रात के रंगवाला अर्थात् काला हो। सियाह। काला। २. काला घोड़ा [को०]।

शबर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण में रहनेवाला एक जंगली या पहाड़ी जाति। २. जंगली। वहशी। ३. शूद्र तथा भोल से उत्पन्न संतान। ४. लोध नामक वृक्ष। ५. शिव। ६. हस्त। हाथ (को०)। ७. मोमांसा के एक प्रसिद्ध आचार्य (को०)। ८. जल (को०)।

शबर (२)
वि० १. चितकबार। २. रंग बिरंगा।

शबरकंद
संज्ञा पुं० [सं० शबरकन्द] एक प्रकार का मीठा कंद।

शबरक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शबरिका] जंगली। वहशी।

शबरचंदन
संज्ञा पुं० [सं० शबर + चंदन] एक प्रकार का चंदन जो लाल और सफेद दोनों दोनों मिले हुए रंगों का होता है। विशेष—वैदिक के अनुसार यह शीतल तथा कड़वा, और वात, पित्त, कफ, विस्फोटक, खुजली, कुष्ठ, मोहादि को नष्ट करनेवाला माना जाता है।

शबरजंबु
संज्ञा पुं० [सं० शबरज्मबु] एक प्राचीन नगर का नाम।

शबरबल
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतीय जातियों की सेना [को०]।

शबरलोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद लोध।

शबरावलय, शबरावास
संज्ञा पुं० [सं०] शंबर लोगों का निवास। पकव्रण [को०]।

शबरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शबर जाति की स्त्री। २. रामायण में वर्णित शबर या किरात जाति की एंक रामभक्त स्त्री [को०]।

शबल (१)
वि० [सं०] १. चितकबरा। २. रंग बिरंगा। चित्र विचित्र। २. अनेक हिस्सों में विभक्त (को०)। ३. किसी की अनुकृति पर बना हुआ। अनुकृत (को०)। ३. घालमेल किया हुआ। मिश्रित (को०)! ४. विकृताकार। विकृत। विवर्ण (को०)। ५. आत। दुःखेत। पीड़ित (को०)।

शबल (२)
संज्ञा पुं० १. एक नाग का नाम। २. बौद्धों का एक प्रकार का धार्मिक कृत्य। ३. अगिया घास। गंधतृण। ४. चित्रक चितउर वृक्ष। ५. अनेक प्रकार का रंग। विवधं वर्ण (को०)। ६. जल (को०)।

शबलक
वि० [सं०] १. चितकबरा। २. रंग बिरंगा। चित्र विचित्र।

शबलचेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार की पीड़ा या कष्ट आदि के कारण बहुत घबराया हुआ हो। जो संतप्त या व्यथित होने के कारण अन्यमनस्क हो।

शबलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. शबल का भाव या धर्म। २. रंग- बिरंगापन। ३. मिलावट।

शबलाहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शबलचेतन' [को०]।

शबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चितकबरी गौ। २. कामधेनु।

शबलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक ऋषि का नाम।

शबलाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. दक्ष के एक पुत्र का नाम।

शबलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।

शबलित
वि० [सं०] चितकबरा। रंग बिरंगा।

शबलिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० शबलिमन्] रंग बिरंगा या शबल होने की क्रिया या भाव [को०]।

शबली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामधेनु। २. चितकबरी गाय।

शबान
संज्ञा पुं० [फा़०] वह जो ढोर चराता हो। चरवाहा [को०]।

शबाना
वि० [फा़० शबनहु] १. रात का। रातवाला। २. रात्रि संबंधी। ३. बासी। पयुषित [को०]। यौ०—शबाना रोज = अहर्निश। रात दिन।

शबाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. यौवन काल। जवानी। २. किसी वस्तु की वह मध्य की अवस्था जिसमें वह बहुत अच्छा या सुंदर जान पड़े। ३. बहुत अधिक सौंदर्य। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—जाना। मुहा०—शबाब फट पड़ना = जवानी की पूरी तरह खिल उठना या जोर पर होना।

शबाहत
स्त्री० [अ०] १. समानता। अनुरुपता। २. मूरत। शक्ल। आकृति।

शबीना
वि० [फा़० शबीनहू] १. रात संबंधी। रात का। २. जो ताजा नहो हो। बासी। दे० 'शबाना' [को०]।

शबीह
स्त्री० [अ०] १. वह चित्र जो किसी व्यक्ति की सूरत शक्ल के ठीक अनुरुप बना हो। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना। २. समानता। अनुरुपता।

शबेइंताजार
संज्ञा स्त्री० [फा़० शबे इंतजार] प्रतीक्षा की रात [को०]।

शबेऔवल
संज्ञा स्त्री० [फा०] सुहागरात [को०]।

शबेकद्र
संज्ञा स्त्री० [फा़०] रमजान की २७ वीं रात जो अति पवित्र मानी जाती है [को०]।

शबेजवानी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] युवावस्था का उन्माद [को०]।

शबेतार, शबेतारीक, शबेदैजुर
संज्ञा स्त्री० [फा़०] तमिस्त्रा। कुहु- निशा। अँधेरी रात [को०]।

शबेबरात
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'शब बरात'।

शबेमहताब, शबेमाह
संज्ञा स्त्री० [फा़०] ज्योत्स्ना या राकायुक्त रात्रि। चाँदिनी रात [को०]।

शबेवस्ल
संज्ञा स्त्री० [फा़०] नायिका और नायक के मिलने की रात।

शबेहिज्र
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वियोगरात्रि। जुदाई की रात [को०]।

शबेशबादत
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मुर्हरत की नवीं रात जिसके बीत जाने पर इमाम हुसेन मारे गए [को०]।

शबोरोज
अव्य० [फा़० शब = (रात) + रोज (= दिन)] १. अहर्निश। रातदिन। २. हर समय। हरदम। ३. निरंतर। लगातार।

शब्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु में होनेवाला वह कंप जो किसी पदार्थ पर आघात पड़ने के कारण अथवा स्वयं वायु पर आघात पड़ने के कारण उत्पन्न होकर कान या श्रवणेंद्रिय तक पहुँचता औऱ उसमें एक विशेष प्रकार का क्षोभ उत्पन्न करता है। ध्वनि। आवाज। विशेष—प्रायः सभी पदार्थों से, उनपर आघात आदि करके या उनमें जल्दी जल्दी गति उत्पन्न करके, शब्द उत्पन्न किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, मृदंग, ढोलस, घंटा, कुरसी, किवाड़, कलम, थाली, जूता, हथौड़ा आदि। जब किसी पदार्थ पर दूसरा कोई पदार्थ आकर गिरता है अथवा किसी पदार्थ में बार- बार गति उत्पन्न की जाती है, तब वायु में एक प्रकार की ठेस लगती है जो सब और कुछ दूर तक जाती है; और जहाँ कान या श्रवणेंद्रिय होती है, वहाँ वह उसे ग्रहण करके मस्किष्क को उसकी सूचना देती है। वायु तो शब्द का वहन करता ही है, पर इसके अतिरिक्त और अनेक प्रकार की गैंर्सें, जल तथा अनेक लचीले ठओस पदार्थ भी शब्द वहन करते हैं। पर इनमें से मुख्य वाहक वायु ही है। तो भी वायु की अपेक्षा जल में शब्द बहुत अधिक दूर तक जाता है। जिस स्थान में वायु बिलकुल नहीं होती, वहाँ शब्द का वहन भी किसी प्रकार नहीं हो सकता। वायु की अपेक्षा जल में शब्द की गति और भी अधिक होती है। शब्द धीमा या हलका भी होता है, और भारी या तेज भी। यदि वायु में कंप बहुत अधिक होता है तो शब्द भी तेज या ऊँचा होता है। यदि वायु या शब्द के वाहक दूसरे साधन का घनत्व कम हो, तो भी शब्द हलका या धीमा हो जाता है। इसके अतिरिक्त दूरी भी शब्द को हलका या धीमा कर देती है। प्रकाश की भाँति शब्द का भी परिवर्तन होता है। अर्थात् शब्द एक स्थान से उत्पन्न होकर किसी ओर जाता है, और मार्ग में अवरोध पाकर फिर पीछे की ओर लौट आता है। पहाड़ के नीचे या गुबदों आदि में बोलने के समय शब्द की जो गुँज या प्रतिध्वनि होती है, वह इसी परावर्तन के कारण होती है। यदि वातावरण का तापमान ६२. हो तो शब्द की गति प्रति सेकँड ११२५ फुंट या प्रति मिनट प्रायः १२ मील होती है। यदि प्रायः एक ही तरह के बहुत से शब्द लगातार रह रहकर हों, तो उनसे 'शोर' पैदा होता है। शब्द के दो मुख्य भेद होते हैं—वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। ध्वन्यात्मक शब्द वह है जो कंठ और तालु आदि की सहायता से उत्पन्न होता है। इसको भी दो भेद हैं— व्यक्ति और अव्यक्त। जो शब्द सुनने में स्पष्ट हो और जिसका कोई अर्थ हो वह व्यक्त सहलता हैस, (दे० 'शब्द'—२) और जो स्पष्ट सुनाई न दे और जिसका कोई अर्थ न हो, वह अव्यक्त कहलाता है। जैसे, हाँ, ऊँ, खों। वर्णात्मक शब्द के अतिरिक्त और जितने प्रकार के शब्द होते हैं, वे ध्वन्यात्मक कहलाते हैं। जैसे, मृदंग या घंटे आदि से अथवा जोर से हवा चलने के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द। 'मीमांसाकार' ने शब्द को नित्य और सांख्यकार ने उसे आकाश का गुण माना है। न्याय आदि ने शब्द को आकाश का गुण माना है। भारतीय वैयाकरणों ने उसे द्रव्य माना है। व्याकरण दर्शन में शब्द को नित्य, कूटस्थ—यहाँ तक कि शब्दब्रह्म भी कहा है जो स्फोटात्मक है। विशेष दे० 'ध्वनि'। पर्या०—निनाद। रव। राव। निर्घोष। नाद। घोष। निनद। ध्वनि। ध्वान। स्वन। स्वान। निर्हाद। आरव। आराव। निःस्वन। निःस्वान। संरव। संराव। विराव। २. वह स्वतंत्र, व्यक्त और सार्थक ध्वनि जो एक या अधिक वर्णों के संयोग से, कंठ और तालु आदि के द्वारा, उत्पन्न हो और जिससे सुननेवाले को किसी पदार्थ, कार्य या भाव आदि का बोध हो। लफ्ज। जैसे, मैं, क्य, सोना, घोड़ा, मोटाई, काला आदि। ३. अमृतोपनिषद् के अनुसार 'ओम्' जो परमात्मा का मुख्य नाम है। ४. किसी साधु या महात्मा के बनाए हुए पद या गीत आदि। जैसे, गुरु नानक के शब्द, कबीर के शब्द। ५. नाम। संज्ञा (को०)। ६. व्याकरण (को०)। ७. ख्यात। मशहूर (को०)। ८. केवल नाम। शुद्ध नाम। जैसे, शब्दपति में (को०)।

शब्द अतीत
संज्ञा पुं० [सं० शब्दातीत] जिसका वर्णन शब्दों के द्वारा न हो सके। शब्दातीत। उ०—शब्द अतीत शब्द सा अपना बूझै बिरला कोई।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५४।

शब्दकार
वि० [सं०] १. वह जो सार्थक शब्दों को किसी छंद के लय ताल पर क्रमबद्ध करता हो। गीतकार या कवि। उ०— ह्लस्व दीर्घ की घट बढ़ के कारण पूर्ववर्ती गवैए शब्दकारों पर जो लांछन लगता है, उससे भी बचने का प्रत्यन किया है।—गीतिका (भू०), पृ० ६। २. वह जो शब्द या ध्वनि उत्पन्न करे। शब्द करनेवाला।

शब्दकारी
वि० [सं० शब्दकारिन्] शब्द करनेवाला [को०]।

शब्दकोश, शब्दकोष
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा ग्रंथ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पात्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सनिवेश हो। अभिधान। लुगत। (अं०) डिक्शनरी।

शब्दगत
वि० [सं०] शब्द में निहित या स्थित [को०]।

शब्दग्रह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान, जिससे शब्द का ग्रहण होता है। २. एक प्रकार का काल्पानिक बाण।

शब्दग्रह (२)
वि० शब्द को ग्रहण करनेवाला।

शब्दग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दसमूह [को०]।

शब्दचातुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दो के प्रयोग करने की चतुरता। बोल चाल की प्रवीणता। वाग्मिता।

शब्दचालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नृत्य।

शब्दचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुप्रास नामक अलंकार। २. एक शब्दालंकार जिसमें प्रयुक्त वर्णों का इस प्रकार से रखते हैं कि किसी न किसी वस्तु का रूप बन जाता है। ३. काव्य के तीनभेदों में अंतिम श्रेणी के दो उपभेदों में से एक जिसे मम्मट ने अवर या अधम माना है। इस प्रकार के काव्य में सौंदर्य उन शब्दों या अक्षरों के बारबार प्रयोग करने में होता है और वे श्रुतिमधुर होते हैं। ४. शब्दों के माध्म से किसी स्थान, व्यक्ति, घटना आदि का ऐसा वर्णन प्रस्तुत करना जिससे उसका रूप- चित्र भासित हो उठे। (अँ० स्केच)।

शब्दचोर
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों की कविता में प्रयुक्त विशिष्टता- मूलक शब्दों या पदों को अपनी कविता में रख लेनेवाला कवि या रचनाकार। राजशेखर, क्षेमेंद्र आदि ने अपने ग्रंथ में इस प्रकार के कवियों की कई श्रेणियाँ निर्धारित की हैं [को०]।

शब्दता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शब्दत्व'।

शब्दत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द का भाव या धर्म। शब्दता।

शब्दन (१)
वि० [सं०] शब्द या ध्वनि करनेवाला। ध्वननशील।

शब्दन (२)
संज्ञा पुं० शब्द या ध्वनि करना। २. ध्वनि। ३. शब्द। ४. नाम लेना। ५. पुकारना। बुलाना। आह्वान [को०]।

शब्दनृत्य
संज्ञा पुं० [ ] एक प्रकार का नृत्य।

शब्दनेता
संज्ञा पुं० [सं० शब्दनेतृ] पाणिनि का एक नाम [को०]।

शब्दपति
संज्ञा पुं० [सं०] नाम मात्र का नेता। वह नेता जिसके अनुयायी न हों। जिसमें शब्द के अलावा पति या रजा का कोई भाव न हो।

शब्दपाती
वि० [सं० शब्दपातिन्] किसी प्रकार का शब्द या ध्वनि का सुनकर उसी के आधार पर दिशा और दूरी का अदांज करते हुए शब्द करनेवाले पर निशाना मारनेवाला। विशेष दे० 'शब्दबेधा' [को०]।

शब्दप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रमाण जो किसी के केवल शब्द। या कथन के ही आधार पर हो। आप्त या विश्वासपात्र पुरुष की बात जो प्रमाणस्वरूप मानी जाती हो। विशेष दे० 'प्रमाण'। मौखिक प्रमाण।

शब्दप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द के अर्थों का अनुसधान। शब्दार्थ का जिज्ञासा।

शब्दबिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] वह विरोध जो वास्तविक या भाव में न हो बल्कि केवल शब्दो में जान पड़ता हो।

शब्दबोध
संज्ञा पुं० [सं०] शाब्दिक शीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान। वह ज्ञान जो जबानी गवाही से प्राप्त हो।

शब्दब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेद जो अपरुषिय ओर इश्वर का कहा हुआ माना जाता है। २. ब्रह्मज्ञान जो शब्दरूप हो (को०)। ३. शब्द का एक गुण जिसका संज्ञा स्फोट हो (को०)।

शब्दभेद
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण के अनुसार शब्द का वह विवेचन जो उनके कार्य, स्थिति और संबंध आदि के आधार पर किया गया हो। इससे शब्द के संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रिया- विशेषण, सबंधसूचक, अव्यय, सयोजक, विस्मयादिबोधक आदि रूपी का ज्ञान होता है।

शब्दभेदी (१)
वि० [सं० शब्दभेदिन्] दे० 'शब्दवेधी'।

शब्दभेदी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन का एक नाम (को०)। २. एक प्रकार का बाण (को०)। ३. गुदा। मलद्वार।

शब्दमहेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। विशेष—कहते हैं, पाणिनि को व्याकरण का आदेश शिव ने ही। किया था। आरंभिक चौदह सूत्रों को महेश्वर सुत्र (इति माहेश्वराणि अर्थांत् महेश्वर प्रणीत सूत्र) कहा गया है। इसी से शिव का यह नाम पड़ा।

शब्दमाधुर्य
संज्ञा पुं० [सं० शब्द + माधुर्य] शब्द की मधुरता। शब्दों की विशेष योजना से निष्पन्न सौंदर्य या माधुर्य। उ०—रूप- सौंदर्य से मध्यम कोटि की वस्तु नादसौंदर्य या शब्दमाधुर्य है।—रस०, पृ० ७२।

शब्दमाल
संज्ञा पुं० [सं०] पोला बाँस।

शब्दयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जड़। मूल। २. धातु। ३. शब्द को उत्पत्ति। ४. वह शब्द जो अपने मूल अथवा प्रारंभिक रूप में हो।

शब्दरोचन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास।

शब्दवारिधि
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दों का सागर। शब्दकोश [को०]।

शब्दविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्याकरण। शब्दशास्त्र।

शब्दविधान
संज्ञा पुं० [सं० शब्द + विधान] शब्दों की क्रमबद्ध योजना। पदयोजना। उ०—हृद्वय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।—रस०, पृ० ६।

शब्दवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साहित्य में शब्द का कार्य या प्रयोग। २. शब्द की शक्ति। द्यातक शक्ति। अभिधा, लक्षण, व्यंजना आदि [को०]।

शब्दवेध
संज्ञा पुं० [सं० शब्द + वेधस] शब्द सुनकर ही निशाना लगाना। उ०—देखा चाहो शब्दवेध तुम, तो कहो।— साकेत, पृ० १३८।

शब्दवेधी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शब्दवेधिन्] १. वह मनुष्य जो आँखों से बिना देखे हुए केवल शब्द से दिशा का ज्ञान करके किसी व्यक्ति या वस्तु को बाण से मारता हो। विशेष—हमारे यहाँ प्राचीन काल में ऐसे धनुर्धर हुआ करते थे जो आँखों पर पट्टी बाँधकर किसी व्यक्ति का शब्द सुनकर या लक्ष्य पर की हुई टंकार सुनकर ही यह समझ लेते थे कि वह व्यक्ति अथवा वस्तु अमुक ओर है, और तब ठीक उसी पर बाण चलाते थे। २. अर्जुन। ३. दशरथ। ४. एक प्रकार का बाण (को०)। ५. धनुष्क। धनुर्धर व्यक्ति (को०)।

शब्दवेधी (२)
वि० दे० 'शब्दपाती'।

शब्दशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शब्द की वह शक्ति जिसके द्वारा उसका कोई विशेष भाव प्रदर्शित होता है। विशेष—जब शब्द किसी वाक्य या वाक्यांश का अंग होता है, तब उसका अर्थ या तो साधारण और या वाक्य के तात्पर्य के अनुसार और अपने साधारण अर्थ से कुछ भिन्न होता।उसकी जिस शक्ति के अनुसार वह साधारण या उससे कुछ भिन्न अर्थ प्रकट होता है, वह शब्दशक्ति कहलाती है। यह शब्दशक्ति तीन प्रकार की मानी गी है—अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। विशेष दे० ये तीनों शब्द इन तीनों से प्रकट होनेवाले अर्थ क्रमशः वाक्य, लक्ष्य और व्यग्य कहे गए हैं तथा इन्हें प्रकट करनेवाले शब्द वाचक, लक्षक और व्यंजक कहलाते हैं।

शब्दशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें भाषा के भिन्न भिन्न अगों और स्वरूपों का विवेचन तथा निरूपणा किया जाय। व्याकरण।

शब्दज्ञः
अव्य० [सं०] अक्षर अक्षर। किसी के कहे या लिखे हुए प्रत्येक शब्द के अनुसार। किसी के शब्दों का ठीक ठीक अनुकरण करते हुए। जैसा किसी ने कहा या लिखा हो ठीक वैसा ही। अक्षरशः।

शब्दश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेश अलंकार का एक भेद। वहु शब्द जो दो या अधिक अर्थों में प्रयुक्त किया जाय। विशेष—साहित्यशास्त्रियों ने श्लेषालंकार के दो भेद कहे हैं। एक शब्दश्लेष और दूसरा अर्थश्लेष। शब्दश्लेष में श्लिष्ट शब्द को समानार्थक शब्द रखकर हटाया नहीं जा सकता। वह परिवृत्तिसह नहीं होता क्योंकि इससे उसकी श्लिष्टता नष्ट हो जाती है। अर्थश्लेष शब्द की परिवृत्ति सह सकता है अर्थात् समानार्थ शब्द द्वारा हटाया भी जा सकता है।

शब्दसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० शब्दशड़्ग्रह] शब्दों का संचयन। शब्दकोश [को०]।

शब्दसंभव
संज्ञा पुं० [सं० शब्दसम्भव] वायु जो शब्द की उत्पत्ति का कारण है; अथवा जिससे शब्द का अस्तित्व संभव होता है।

शब्दसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण का वह अंग जिसमें शब्दों की व्युत्पत्ति, भेद और रूपांतर आदि का विवेचन होता है। शब्दों के संज्ञा, क्रिया, विशेषण, क्रियाविशेषण, सर्वनाम आदि जो भेद होते हैं, वे भी इसी के अंतर्गत है।

शब्दसौंदर्य
संज्ञा पुं० [सं० शब्दसौन्दर्य] शब्दों के उच्चारण की सुगमता। दे० 'शब्दसौष्ठय'।

शब्दसौकर्य
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दों के उच्चारण की सुगमता।

शब्दसौष्ठव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी लेख या शैली आदि में प्रयुक्त किए हुए शब्दों का कोमलता या सुंदरता।

शब्दहीन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दों का वह रूप या प्रयोग जिसे आचार्यों ने नप्रयुक्त किया हो।

शब्दहीन (२)
वि० [सं०] शब्दरहित। निःशब्द। [को०]।

शब्दांतर
संज्ञा पुं० [सं० शब्दान्तर] शब्द का ही अंतर या परिवर्तन। ऐसी उक्ति या रचना जो किसी उक्ति या रचना को समानार्थक शब्द संबंधी परिवर्तन करके रखती हो।

शब्दांतरकरण
संज्ञा पुं० [सं० शब्दान्तर + करण] शाब्दिक परि वर्तन करना। उ०—डान्टे की 'डिवाइना कोमेडिया' तो सेंट टामस की केथौलिक नीति पर कहीं कहीं तो केवल शब्दांतरकरण है।—पा० सा० सि०, पृ० ८।

शब्दाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनिपूर्वक उच्चरित 'ओम्' शब्द।

शब्दाख्येय
वि० [सं०] १. जोर से या चिल्लाकर कहा जानेवाला। २. शब्द द्वारा कहा जाने योग्य। जिसे शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सके। ३. (संदेश या समाचार आदि) जो मौखिक वा शाब्दिक हो (को०)।

शब्दाडंबर
संज्ञा पुं० [सं० शब्दाडम्बर] बड़े बड़े शब्दों का ऐसा प्रयोग जिसमें भाव की बहुत ही न्यूनता हो। केवल शब्दों की सहायता से खड़ा किया जानेवाला आडंबर। शब्दजाल।

शब्दाढय
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा नाम की धातु।

शब्दातिग
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

शब्दातीत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शब्द से परे हो; अर्थात् ईश्वर।

शब्दातीत (२)
वि० शब्दों द्वारा जिसका वर्णन न हो सके। जो शब्दों द्वारा व्यक्त न हो सके। वर्णनातीत [को०]।

शब्दात्मक
वि० [सं०] शब्द संबंधी। शाब्दिक। उ०—केवल शब्दात्मक साम्य को लेकर यदि हम किसी पहाड़ को कहें कि वह बैल है क्योंकि इसे भी 'शृंग' है, तो वह काव्यकला नहीं होगी।—आचार्य०, पृ० १२४।

शब्दाधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णा। कान।

शब्दाध्याहार
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्य को पूरा करने के लिये उसमें अपनी ओर से शब्द जोड़ना।

शब्दानुकरण
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द या पदयोजना का अनुकरण करना [को०]।

शब्दानुकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'शब्दानुकरण'।

शब्दानुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण। जैसे, हिंदी शब्दानुशासन।

शब्दायमान
वि० [सं०] शब्द करता हुआ। शब्दित। शब्द या ध्वनि- युक्त [को०]।

शब्दार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द का अर्थ या अभिप्राय। वाच्य। मानी [को०]।

शब्दालंकार
संज्ञा पुं० [सं० शब्दाल्ङ्कार] साहित्य में वह अलंकार जिसमें केवल शब्दों या वर्णों के विन्यास से भाषा में लालित्य उत्पन्न किया जाय। जैसे,—अनुप्रास, यमक आदि।

शब्दाल
वि० [सं०] ध्वनिकारक। शब्द करनेवाला [को०]।

शब्दावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी कथन या रचना में प्रयुक्त होनेवाला शब्दसमूह [को०]।

शब्दित (१)
वि० [सं०] १. ध्वनियुक्त। शब्दायमान। ध्वनित। उ०— (क) सतत शब्दित गेह समूह में, विजनता परिवर्धित थी हुई।—प्रिय०, पृ० २२। (ख) मुझे प्रेम का नीरव मानस सुंदर शब्दित करने दो।—वीणा, पृ० २७। २. बजाया हुआ या बजता हुआ। ३. पुकारा हुआ। आहूत। ४. व्याख्या किया हुआ। व्य़ाख्यात। ५. घोषित। प्रचारित [को०]।

शब्दित (२)
संज्ञा पुं० कोलाहल। शोर। हल्ला [को०]।

शब्दी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शब्द] १. सबद। आध्यात्मिक भजन या पद। २. उपदेश। शिक्षा। उ०—सतगुरु शब्दी सेल है सहै धमूका साध।—चरण० बानी, पृ० ३।

शब्देंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० शब्देन्द्रेय] कर्ण। कान।

शब्दोद्भावक
वि० [सं०] शब्दों की उद्भावना करनेवाला। शब्द का निर्माता। शब्दस्रष्टा। उ०—इस दिशा में समालोचक ही न रहकर वे शब्दोद्भावक भी हुए—आचार्य०, पृ० २०९।

शम
संज्ञा पुं० [सं०] १. शांति। उ०—सतिगुरु शरन महाँ शम पाई औसो आकुल रिदै पियारा।—प्राण०, पृ० २३२। २. मोक्ष। ३. कर। हस्त। हाथ। ४. उपचार। रोगमुक्ति। सुस्थता। ५. अंतःकरण तथा अंतर इंद्रिय को वश में करना। ६. बाह्य इंद्रियों का निग्रह। ७. निवृत्ति। निःसंगता। निरपेक्षता। ८. साहित्य में शांत रस का स्थायी भाव। ९. क्षमा। १०. तिरस्कार। ११. मनःस्थैर्य। मन की स्थिरता। मानसिक स्थिरता (को०)।

शमई (१)
वि० [अ० शम्अ] १. शमा संबंधी। शमा का। मोमबत्ती या दीपक संबंधी। २. शमा के रंग का [को०]।

शमई (२)
संज्ञा स्त्री० दीपाधार। शमादान। उ०—सप्तशती के पाठ के लिये १४ ब्राह्मण, दुर्गा के मंदिर में चाँदी की शमईयों में धा के दिए जलाए।—झाँसी०, पृ० ३२२।

शमक
वि० [सं०] १. शांत या शांति करानेवाला। २. संधि या समझोता करनेवाला [को०]।

शमठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का तूत या शहतूत। २. गंडीर नामक शाक।

शमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शम का भाव या धर्म। शमत्व।

शमत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शमता'।

शमथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शांति। मनःशांति। २. वह जो मंत्रणा वा सलाह देता हो। मंत्रि।

शमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ के लिये होनेवाला पशुओं का बलि- दान। २. यम। ३. एक प्रकार का मृग। ४. हनन। हिंसा। ५. शम। शांति। जैसे,—रोग का शमन। ७. अन्न। ८. मटर। ९. वह ओषधि जो वातादि दोषों का वमन, विरेचनादि द्वारा दूर करे। जैसे—गिलोय। १०. तिरस्कार ११. आघात। चोट। १२. वैद्यक में एक प्रकार का धूम्रपान। विशेष—इस धूम्रपान में इलायची, तगर, कुड़ा, जटामासी, गंधतृण, दालचीनी, तेजपत्ता, नागकेशर, नखी, सरल, बाला, शिलारस आदि कई ओषधियों का मिश्रण किया जाता है, इसका धूआँ नली या सटक आदि के द्वारा पीते हैं। इससे वात आदि दोषों का नाश होना माना जाता है। १३. एक प्रकार का वस्ति कर्म जो मोथा और रसांजन आदि मिले हुए दूध से किया जाता है। १४. रात्रि। रात। १५. शांत करना। बुझाना (को०)। १६. प्रसन्न करना (को०)। १७. अंत।ठहराव। समाप्ति। विनाश (को०)। १८. निगल जाना। चबाना (को०)।

शमनवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वस्ति कर्म जिसमें फूल प्रियंगु मुलंठी, नागरमोथा और रसौत को दूध मे पीसकर मलद्वार से पिचकारी देते हैं।

शमनस्वसा
संज्ञा स्त्री० [सं० शमनस्वसृ] यम की भगिनी अर्थात् यमुना।

शमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। रावि।

शमनीय
वि० [सं०] शमन करने योग्य। दबाने या शांत करने योग्य।

शमनीषद्, शमनीसद
संज्ञा पुं० [सं०] निशाचर। राक्षस।

शमधर
वि० [सं०] शांतिपरायण। शांत [को०]।

शमप्रधान
वि० [सं०] जिसमें शम की प्रधानता हो। जो शम को ही मुख्य मानता हो। शांत। विषयराग से रहित [को०]।

शमर पु
संज्ञा पुं० [अ० समर] फल। उ०—सरसब्ज हुआ फज्ले सनम से शमर आया।—कबीर म०, पृ० ३८९।

शमल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्ठा। मल। गुह। २. पाप। गुनाह। ३. अशुचिता। अपवित्रता (को०)। ४. अभाग्य। बदकिस्मती। दुर्भाग्य (को०)।

शमल (२)
वि० पापत्मा। पापी [को०]।

शमला
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक चोटी शाल जिसे कंधों पर डालते या सिर पर लपेटकर पगड़ी की तरह बाँधते हैं। उ०—मुंशी जी की सज धज निराली। सिर पर एक हरा शमला था, देह पर एक अबा।—काया०, पृ० १३२। २. पुराने वकीलों के पहनने की पगड़ी जिसे वे गाऊन के ऊपर पहन लेते थे। ३. तुर्रा। पगड़ी का सिरा या छोर। ४. एक प्रकार की बनी हुई गोल पगड़ी जिसे सिर पर टापी की तरह पहना जाता है।

शमशम
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।

शमशाद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सव या सरो का वृक्ष जो सीधा होता है और अपनी लंबाई और सुंदरता के लिये प्रसिद्ध है, इसकी उपमा माशूक के कद से दी जाती है। उ०—चमन पर देख कर उस दुख का पहाड़; दिया है खोल बालाँ सर्व शमशाद।— दक्खिनी०, पृ० १९१।

शमशीर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दे० 'शमशेर'। (क) उधर शमशीर खींची हो इधर गर्दन झुकाई हो।—श्यामा०, पृ० ७३। (ख) जानता हूँ पंखुरी, शमशार की भी; जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।—मिलन०, पृ० ४८।

शमशेर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. वह हथियार जो शेर की पूँछ अथवा नख के समान हो अर्थात तलवार, खड्ग आदि। २. तलवार। मुहा०—शमशेर का खेत = युद्धक्षेत्र। यौ०—शमशेरजन = तलवार चलानेवाला। असिवाही। शमशेर- जनी = (१) सिपाही का पेशा। (२) तलवार की लड़ाई। असियुद्ध। शमशेरदम = तलवार की तरह बाढ़ रखनेवाला।तलवार जैसी काट करनेवाला। शमशेरजंग = वीरतासूचक उपाधि। शमशेर वक्फ = शस्त्रपाणि। जिसके हाथ में तलवार हो। शमशेर बहादुर = तलवार चलाने में कुशल।

शमश्रु पु †
संज्ञा पुं० [सं० श्मश्रु] दाढ़ी। श्मश्रु। उ०—अरु शमश्रु जो दाड़ी है सो चाँदीवत चमत्कार करती है।—प्राण०, पृ० २६२।

शमांतक
संज्ञा पुं० [सं० शमान्तक] वह जो शम को, मनःशांति को नष्ट कर दे, अर्थात् कामदेव।

शमा
संज्ञा स्त्री० [अ० शमअ] १. मोम। २. मोम या चर्बी की बनी हुई बत्ती जो जलाने के काम में आदी है। मोमबत्ती। उ०— झिलमिलाकर और जलाकर तन शमाएँ दो, अब शलभ की गोद में आराम से सोई हुई।—ठंडा० पृ० १२। ३. दीपक। दीया। उ०—सुबह तक शमा सर को धुनती रही। क्या पतंगे ने इल्तमाश किया।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १७२। यौ०—शमादान।

शमादान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह आधार जिसमें मोम की बत्ती लगाकर जलाते हैं। यह प्रायः धातु का बना हुआ अनेक आकार प्रकार का होता है।

शमामचा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शमामचह्] सूँघने का कोई सुगंधित पदार्थ [को०]।

शमामा
संज्ञा पुं० [अं० शमामह्] सुगंध। खुशबू। महक [को०]।

शमारुख, शमारुखसार
वि० [फ़ा० शमारुख, शमारुखसार] १. शमा की तरह प्रकाशमान चेहरा। २. सुंदर। उ०—शमारुख का तेरे ये गुल कोई परवाना नहीं, और अगर हूँ तो महीं।—श्यामा०, पृ० १०२।

शमारू
वि० [फ़ा०] दे० 'शमारुख'।

शमि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शिंबी धान्य। विशेष—इस धान्य में मूँग, मसूर, मोठ, उड़द, चना, अरहर, मटर, कुलथा, लोबिया इत्यादि वे अन्न आते हैं, जिनमें छीमियाँ लगती हैं। २. सफेद कीकर। विशेष दे० 'शमी'।

शमि (२)
संज्ञा पुं० १. भागवत के अनुसार उशीनर के पुत्र का नाम। २. यज्ञ।

शमिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शमी वृक्ष।

शमिज
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कुलथी।

शमिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाल कुलथी। २. शिबी धान्य।

शमित
वि० [सं०] १. जिसका शमन किया गया हो। २. शांत। ठहरा हुआ। ३. विश्रमित। आराम किया हुआ (को०)। ४. मारा हुआ। नष्ट या विध्वस्त किया हुआ (को०)।

शमिता (१)
संज्ञा पुं० [सं० शमितृ] वह जो य़ज्ञ में पशु का वलिदान करता हो।

शमिता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौरेठा। चावल का चूर्ण [को०]।

शमिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में होनेवाली लजालू नाम की लता।

शमिपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'शमिपत्र'।

शमिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शमी वृक्ष। २. बकुची। सोमराजी।

शमिरोह
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

शमिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमेली की जाति का एक प्रकार का पौधा।

शमी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कर्म। क्रिया (को०)। (२). एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। सफेद कीकर। छिकुर। छोँकर। विशेष—शमी का वृक्ष पंजाब, सिंध, राजपूताना, गुजरात, और दक्षिण के प्रांतों में पाया जाता है। इसे बागों में भी लगाते हैं। इसका वृक्ष ३०-४० फुट तक ऊँचा होता है; परंतु सिंघ में यह ६० फुट का भी होता है। इसकी शाखें पतली, खाकी रंग की, चित्तीदार और भूमि की ओर लटकती हुई होती हैं। इसकी जड़ कहीं कहीं ६० फुट तक भूमि के भीतर नीचे चली जाती है, और चारों ओर बहुत दूर तक बढ़ती है, जिससे नए अंकुर निकलकर और पौधे उत्पन्न होते हैं। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इसके वृक्ष पर काँटे होते हैं। डालियों पर विषमवर्ती सींके रहते हैं। इन सींकों पर ७ से १२ जोड़े तक छोटे छोटे पत्ते रहते हैं। शाखों के अंत में ३-४ इंच लंबे सींकों पर नन्हें नन्हें पीले तथा गुलाबी रंग के फूल आते हैं। इसकी फलियाँ ५ से १० इंच तक लंबी और चिपटी होती हैं। प्रत्येक फली में १०-१५ बीज रहते हैं जो अंडाकार और भूरे रंग के होते हैं। इसकी छाल और फलियाँ ओषधि के काम आती हैं। लोग इसकी फलियों का अचार और साग बनाकर खाते हैं। दुर्भिक्ष के समय इसकी छाल के आटे की रोटी बनाकर भी खाई जाती है। इसका भस्म बुद्धि, केश तथा नखों का नाश करनेवाला होता है। अतिसार में इसका काढ़ा लाभदायक होता है। गठिया पर इसकी छाल पींसकर गरम करके लगाने से लाभ होता है। लोग विजयादशमी आदि कुछ विशिष्ट अवसरों पर इसका पूजन भी करते हैं। पर्या०—शक्तुफला। शिवा। केशहंत्री। केशहंत्री। शांता। हविर्गंधा। मेध्या। ईशानी। लक्ष्मी। तपनतनया। शुभदा। पवित्रा। बागुजि। पापनाशिनी। शंकरी। पापशमनी। इष्टा। तुंगा। शिवाफला। सुपत्रा। सुखदा।

शमी (२)
वि० [सं० शमिन्] शांत।

शमीक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध क्षमाशील ऋषि का नाम। विशेष—कहते हैं, परीक्षित ने उनके गले में एक बार मरा हुआ साँप डाल दिया, परंतु ये कुछ न बोले। इनके लड़के भृंगी ऋषि ने अपने पिता की दुर्दशा देखकर क्रुद्ध हो शाप दिया कि आज के सातवें दिन मेरे पिता के गले में सर्प डालनेवाले को तक्षक नाग डसेगा। कहा जाता है, इसी शाप के द्वारा तक्षक के काटने से राजा परीक्षित की मृत्यु हुई थी।

शमीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। २. अग्नि।

शमीजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शमीधान्य।

शमीधान, शमीधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिंबी धान्य। मूँग, मसूर, उड़द आदि।

शमीपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालू नाम की लता।

शमीम (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० शमीमह्] सूँघने की वस्तु। सुगंध। उ०— मगजे जाँ को जँचती राहत का शमीम। याद उसका दिल के गुंचे को नसोम।—दक्खिनी०, पृ० २०१।

शमीम (२)
संज्ञा पुं० [अ०] सुगंध। खुशबू।

शमीर
संज्ञा पुं० [सं०] शमी वृक्ष।

शमीरकंद
संज्ञा पुं० [सं०] [शमीरकन्द] बाराही कंद। चमार आलू। शूकर कंद।

शमीरमा
संज्ञा स्त्री० [सं० शमी + रमा] लक्ष्मीदेवी जो शमी वृक्ष में निवास करती हैं। उ०—शमी वृक्ष में शमीरमा रानी की पूजा पीरपूजा ही का जाज्वल्य प्रमाण है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०६।

शमीरोह
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

शम्मा
सं० पुं० [अ०] किंचिन्मात्र वस्तु। बहुत थोड़ा सामान।

शम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लगुड। यष्टि। लाठी। २. काठ का स्तंभ। ३.३६ अंगुल लंबा एक परिमाण या मानदंड। ४. जुए का सैला। ५. झाँझ। ६. एक यज्ञपात्र। ७. वैद्यों का एक यंत्र या औजार। ८. संगीत में तालविशेष [को०]। यौ०—शम्याक्षेप। शम्याग्राह = झाँझ बजानेवाला। झालर बनानेवाला। श्यापात = दे० 'शभ्याक्षेप'।

शम्याक
संज्ञा पुं० [सं०] आरग्वध वृक्ष। अमलतास।

शम्याक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दूरी जहाँ तक घुमाकर तेजी से फेंकी हुई छड़ी गिरे। २. एक यज्ञ जिसका मंडप बलिष्ठ पुरुष द्वारा। क्षिप्त छड़ी गिरने की दूरी तक हो [को०]।

शम्श पु
संज्ञा पुं० [अ० शभ्स] १. सूरज। रवि। सूर्य। उ०—तकरीम को शम्शो महे अलवार झुका।—कबीर मं०, पृ० ४६८।

शम्शी पु
वि० [अ० शम्सी] १. सूर्य का। सौर। २. सूर्य संबंधी। उ०—आखिर कुछ धन मोह न दीना, शम्शी कमरी घटा महीना।—दक्खिनी०, पृ० ३११।

शम्स
संज्ञा पुं० [अ०] १. सूर्य। जैसे, शम्स-उल-उलेसा अर्थात् विद्वानों में सूर्यवत्। २. सुमिरनी का फुँदना जो तसवीह (माला) में लगाया गया हो। [को०]।

शम्सा
संज्ञा पुं० [अ० शम्सछ्] गवाक्ष। झरोखा। रोशनदान [को०]।

शम्सी (१)
वि० [अ०]दे० 'शम्शी'।

शम्सी (२)
संज्ञा स्त्री० छमाही वेतन।

शयंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० शयण्ड] १. एक प्राचीन जनपद का नाम। २. इस देश का निवासी।

शयंड (२)
वि० सोनेवाला। निद्रालु [को०]।

शयंडक
संज्ञा पुं० [सं० शयण्डक] गिरगिट।

शय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शय्या। २. सर्प। साँप। ३. निद्रा। नींद। उ०—दृगों में ज्योति है, शय है, हृदय में स्पंद है, भय है।— अर्चना, पृ० १०७। ४. पण। ५. हाथ। ६. लंबाई की एक माप (को०)। ७. बद्दुआ। शाप (को०)। ८. भर्त्सना (को०)।

शय (२)
वि० लेटनेवाला। सोनेवाला (विशेषतः समास में, जैसे दिवा- शय, उत्तानशय)।

शय (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०, फ़ाशै] १. वस्तु। पदार्थ। चीज। २. भूत। प्रेत। आसेब। जैसे,—इस मकान में कोई शय है।

शय (४)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शह]दे० 'शह'।

शयत
संज्ञा पुं० [सं०] १. निद्रालु व्यक्ति। वह जिसे नींद आई हो। २. चंद्रमा (को०)।

शयतान
संज्ञा पुं० [अ० शैतान] दे० 'शैतान'।

शयतानी
संज्ञा स्त्री० [अ० शैतानी] दे० 'शैतानी'।

शयथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप। सर्प। अजगर। २. सूअर। सूकर। वाराह। ३. मछली। मीन। ४. गाढ़ी नींद। ५. मृत्यु। मौत। ६. यम। ७. शयनीय स्थल (को०)।

शयथ (२)
वि० सोया हुआ। सुषुप्त [को०]।

शयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निद्रा लेने या सोने की क्रिया। सोना। २. शय्या। बिछौना। ३. मैथुन। स्त्रीप्रसंग। संभोग।

शयनआरती
संज्ञा स्त्री० [सं० शयन + आरती]। देवताओं की वह आरती जो रात को सोने के समय होती है।

शयनकक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का कमरा या घर। शयनगार।

शयनगृह
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का स्थान। शयनमंदिर। शयनागार।

शयनतलगत
वि० [सं०] शय्या पर लेटा हुआ [को०]।

शयनपाल
संज्ञा पुं० [सं०] निद्राकाल में पहरा देनेवाला व्यक्ति या अंतरंग अंगरक्षक।—वर्ण०, पृ० ९।

शयनपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो शजय्या की रक्षिका हो शयनकक्ष की रक्षा करनेवाली [को०]।

शयनबोधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगहन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी। उ०—अगहन असित एकादसि केरा, शयनबोधिनी नाम निबेरा।—रघुनाथ (शब्द०)।

शयनभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शयनमंदिर। शयन का स्थान [को०]।

शयनमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० शयनमन्दिर] सोने का स्थान। सोने का कमरा। शयनगृह। शयनागार।

शयनरचन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शयनरचना] ६४ कलाओं में से एक कला। सेज तैयार करना या सजाना [को०]।

शयनवास
संज्ञा पुं० [सं० शयनवासस्] वे कपड़े जो सोने के समय पहने जायँ।

शयनशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] शयनगृह। शयनागार। उ०—इन क्षत्रियों को आलस्य की शयनशाला से उठाओ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ६६।

शयनसखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शय्या पर साथ सोनेवाली सहेली [को०]।

शयनस्थ
वि० [सं०] बिछौने पर बैठा या सोया हुआ [को०]।

शयनस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सोने की जगह [को०]।

शयनागार
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का स्थान। शयनमंदिर। शयनगृह।

शयनीय (१)
वि० [सं०] सोने के योग्य।

शयनीय (२)
संज्ञा पुं० १. सेज। शज्या। २. शयनगृह। शयना- गार (को०)।

शयनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शयनीय'।

शयनैकादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी। विशेष—विष्णु भगवान् के शयन का प्रारंभ इषी दिन से माना जाता है।

शयांड
संज्ञा पुं० [सं० शयाण्ड] १. एक प्राचीन देश या जनपद का नाम। २. इस देश का निवासी।

शयांडक
संज्ञा पुं० [सं० शयाण्डक] गिरगिट। कृकलास।

शयातीन
संज्ञा पुं० [अ० शैतान का बहु व०] शैतान। उ०—बस है यह उसको अज उफूरे अयाल, के शयातीन हों उसके माला- माल।—दक्खिनी०, पृ० २१९।

शयान (१)
वि० [सं०] सोया हुआ। स्थित। पड़ा हुआ। उ०—कुंद के शेष पूज्यार्धदान, मल्लिका प्रथमयौवन शयान।—अनामिका, पृ० २२।

शयान (२)
संज्ञा पुं० दे० 'शयानक'।

शयानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। साँप। अजगर। २. गिरगिट। कृकलास।

शयालु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसे नींद आई हो। निद्रालु। २. अजगर। ३. कुत्ता। ४. श्रृगाल। गीदड़। सियार।

शयालु (२)
वि० निद्रालु। निद्राशील। शयित [को०]।

शयित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अजगर। २. लिसोड़ा। श्लेष्मांतक। ३. निद्रा। नींद (को०)। ४. सोने का स्थान (को०)।

शयित (२)
वि० १. सोया हुआ। निद्रित। २. लेटा हुआ (को०)।

शयिता
संज्ञा पुं० [सं० शयितृ] वह जो सोया हुआ हो। सोनेवाला।

शयु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अजगर। २. एक प्राचीन वैदिक ऋषि का नाम।

शयुन
संज्ञा पुं० [सं०] अजगर। साँप।

शय्यांत
संज्ञा पुं० [सं० शय्यान्त] शयनकक्ष [को०]।

शय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बिछी हुई वस्तु जो सोने के काम में लाई जाय। बिस्तर। विछौना। बिछावन। २. पलंग। खाट। खटिया। ३. बाँधना। नत्थी करना (को०)।

शय्याकाल
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का समय। शय्या पर जाने का काल [को०]।

शय्यागत
वि० [सं०] १. जो बीमार होने के कारण खाट पर पड़ा हो। रोगी। २. सोया या लेटा हुआ (को०)।

शय्यागृह
संज्ञा पुं० [सं०] शयनगृह। शयन का कक्ष या स्थान [को०]।

शय्याच्छादन
संज्ञा पुं० [सं०] पलंग पर बिछाने की चादर।

शय्याद
वि० [अ०] छली। धूर्त। मक्कार। वंचक [को०]।

शय्यादान
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु के अनंतर मृतक के संबंधियों का महापात्र को चारपाई, बिछावन आदि दान देना। सज्जादान।

शय्याध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शय्यापाल'।

शय्यापाल, शय्यापालक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो राजाओं के शयनागार की व्यवस्था करता हो।

शय्यामूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जो प्रायः बालकों को होता है। इसमें उन्हें निद्रावस्था में ही शय्या पर पड़े पड़े पेशाब हो जाता है।

शरंड
संज्ञा पुं० [सं० शरण्ड] १. पक्षी। विहंग। चिड़िया। २. कामुक। ३. धूर्त। चालाक। ४. एक प्रकार का गहना। ५. छिपकली। ६. गिरगिट। ७. चतुष्पद। चतुष्पाद। चौपाया (को०)।

शर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाण। तीर। नाराच। २. सरकंडा। सरई। ३. सरपत। रामशर। ४. दूध की मलाई। ५. दही की मलाई। ६. सामुद्रिक के अनुसार शरीर में का एक चिह्न। ७. उशीर। खस। ८. भाले का फल। उ०—मूआ है मरि जाहुगे, बिन शर थोथे भाल।—कबीर (शब्द०)। ९. चिता। उ०—सूहो पैन्हि पी सँग सुहागिन बधू ह्वै लीजो सुख के समूहै बैठि सेज पै कि शर पै।—देव (शब्द०)। १०. हिंसा ११. पाँच की संख्या। १२. पुराणानुसार एक असुर का नाम। १३. जल (को०)। १४. कुश नाम की घास (को०)।

शर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. उपद्रव। शरारत। झगड़ा। बखेड़ा। २. बदी। बुराई। उ०—रहो कायम अपस इकरार ऊपर; खयाले कतल में लिए दीन का शर।—दक्खिनी०, पृ० ३४०।

शरअ
संज्ञा स्त्री० [अ० शरअ] १. वह सीधा रास्ता जो ईश्वर ने भक्तों के लिये बतलाया हो। २. सीधा राह। राजमार्ग (को०)। ३. कुरान में दी हुई आज्ञा। ४. दीन। मजहब। धर्म। ५. दस्तूर। तौर। तरीका। ६. मुसलमानों का धर्मशास्त्र।

शरई (१)
वि० [अ०] शरअ के अनुसार। मुसलमानी धर्म के अनुसार। यौ०—शरई पैजामा = ऊँचा पैजामा। शरई दाढ़ी = बहुत लंबी दाढ़ी। शरई शादी = बिना बाजे गाजे का विवाह (मुसल०)।

शरई (२)
संज्ञा पुं० शरअ पर चलनेवाला मनुष्य।

शरकांड
संज्ञा पुं० [सं० शरकाण्ड] १. सरपत। सरकंडा। २. बाण की लकड़ी।

शरकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो तीर बनाता हो।

शरक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण का लक्ष्य स्थान। वाणप्रहार। तीर का चलाना। उ०—देखता रहा मैं खड़ा अपल वह शरक्षप, वह रणकौशल।—अनामिका, पृ० १२०।

शरखंगक
संज्ञा पुं० [सं० शरखङ्गक] उलूक तृण। उलप।

शरगा
संज्ञा पुं० [अ० शरगा] बादामी रंग का घोडा़ [को०]।

शरगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरकंडा। २. रामायण के अनुसार एक यूथपति बंदर का नाम।

शरधात
संज्ञा पुं० [सं०] बाण चलाने का कार्य। तीरंदाजी [को०]।

शरच्चंद्र
संज्ञा पुं० [सं० शरत् + चन्द्र] शरद ऋतु का चंद्रमा।

शरच्चंद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शरत् + चन्द्रिका] शरत् की चाँदनी।

शरज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मक्खन। नवनीत। २. कार्तिकेय। शरजन्मा (को०)।

शरज (२)
वि० सरकंडे से उत्पन्न या बना हुआ।

शरजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० शरजन्मन्] कार्तिकेय।

शरजाल, शरजालक
संज्ञा पुं० [सं०] बाणों का जाल। बाणसमूह [को०]।

शरज्ज्योत्स्ना
संज्ञा स्त्री० [सं० शरत् + ज्योत्सना] शरद् ऋतु की चाँदनी। शरद की जुन्हाई [को०]।

शरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुसुंभ नाम का साग। २. कृकलास। गिरगिट। ३. करंज। ४. प्रागैतिहासिक काल का एक भयावना जानवर।

शरटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लज्जालुक। लाजवंती। लजाधुर।

शरटु
वि० [सं०] भयानक। भीषण। रौद्र [को०]।

शरण (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रक्षा। आड़। आश्रय। पनाह। जैसे,— अव तो मैं आपकी ही शरण में आया हूँ। उ०—(क) वपु कृष्ण कृष्ण करुना करण जग व्यापक हम तव शरण।—गिरधर (शब्द०)। (ख) जिनकी शरण विश्व बुध जिनको निरभिलाष बतलाते हैं।—द्विवेदी (शब्द०)। क्रि० प्र०—में आना।—जाना।—पाना।—लेना। २. आश्रय का स्थान। बचाव की जगह। ३. घर। मकान। ४. जो शरण में आवे, उसके वैरी को मारना। ५. अधीन। मतिहत। ६. शाहाबाद के उत्तर सारन नाम का जिला।

शरण (२)
वि० [सं०] दे० 'शरण्य' [को०]।

शरणद
वि० [सं०] शरण देनेवाला। रक्षा करनेवाला। रक्षक।

शरणदाता
वि० [सं० शरणदातृ]दे० 'शरणद' [को०]।

शरणप्रद
वि० [सं०] दे० 'शरणद'।

शरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधप्रसारिणी नाम की लता।

शरणागत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरण में आया हुआ व्यक्ति। किसी के भय से अपने पास रक्षा के लिये आया हुआ मनुष्य। २. शिष्य। चेला।

शरणागत (२)
वि० शरण में आया हुआ।

शरणागति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरण में जाने का कार्य या स्थिति [को०]।

शरणापन्न
वि० [सं०] शरण में आया हुआ। शरणागत।

शरणार्थी
वि० [सं० शरणार्थिन्] १. शरण माँगनेवाला। अपनी रक्षा की प्रार्थना करनेवाला। २. विस्थापित। एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जा बसनेवाला। उ०—शरणार्थी, नवभू जीवन के शरणार्थी हैं।—रजत०, पृ० २८।

शरणार्पक
वि० [सं०] शरणारपन्न। शरणागत [को०]।

शरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रास्ता। मार्ग। पथ। २. पृथ्वी। जमीन। ३. हिंसा। ४. पंक्ति [को०]।

शरणि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधप्रसारिणी नाम की लता। २. पथ। मार्ग। रास्ता। ३. जयंती लता। ४. पृथ्वी (को०)। ५. पंक्ति, अवली (को०)। ६. इंद्र की पुत्री, जयंती (को०)।

शरणी (२) पु
वि० शरण देनेवाली।

शरण्य (१)
वि० [सं०] १. शरण में आए हुए की रक्षा करनेवाला। उ—रक्षण करिहैं अवशि हमारा। प्रभु ब्रह्मण्य शरण्य उदारा।—भक्तमाल (शब्द०)। २. रक्षणीय। शरण देने़ योग्य (को०)। ३. दुःखी। अवलंबहीन (को०)।

शरण्य (२)
संज्ञा पुं० १. आश्रयस्थान। २. रक्षा। त्राण। ३. हिंसा। ४. वह जो रक्षा कार्य करे। ५. शिव [को०]।

शरण्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरण्य का भाव।

शरण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

शरण्यु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. वायु। हवा। ३. वह जो पालन वा रक्षण करे अथवा शरण दे। रक्षक। ४. दे० 'भरण्यु'।

शरण्यु (२)
संज्ञा स्त्री० सूर्य की पत्नि।

शरण्यु (३)
वि० [सं०] रक्षक। पालक। त्राता।

शरत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वर्ष। साल। २. एक ऋतु जो आजकल आश्विन और कार्तिक मास में मानी जाती है। पहले वैदिक काल में यह ऋतु भाद्रपद और आश्विन मास में मानी जाती थी। उ०—वर्षा बिगत शरत् ऋतु आई।—तुलसी (शब्द०)। पर्या०—शारदा। कालप्रभात। मेघांत। वर्षावसान।

शरत (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०]दे० 'शर्त'।

शरत (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शरत्]दे० 'शरत्'।

शरततल्प
संज्ञा पुं० [सं०] वाणों की शय्या। शर पंजर।

शरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाण फेकने की क्रिया। तीरंदाजी।

शरत्कामी
संज्ञा पुं० [सं० शरत्कामिन्] कुत्ता। कुक्कुर। श्वान।

शरत्काल
संज्ञा पुं० [सं०] कन्या संक्रांति से तुला संक्रांति तक का अथवा आश्विन और कार्तिक का समय। शरद् ऋतु।

शरतत्रियामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरत् ऋतु की रात [को०]।

शरत्पद्म
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत पद्म।

शरत्पर्व
संज्ञा पुं० [सं० शरत्पर्वन] आश्विन मास की पूर्णिमा। कोजागर। शरद्पूर्णिमा।

शरत्पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप। आहुल्य।

शरदंड
संज्ञा पुं० [सं० शरदण्ड] १. चाबुक। २. सरकंडा।

शरदंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० शरदण्डा] १. एक प्राचीन नदी का नाम। २. एक प्राचीन देश का नाम।

शरदंत
संज्ञा पुं० [सं० शरदन्त] शरद ऋतु का अंत अर्थात हेमंत ऋतु।

शरद
संज्ञा स्त्री० [सं० शरद्] दे० 'शरत्'।

शरदई
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'सरदई'।

शरदपूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० शरत्पूर्णिमा] कुआर मास की पूर्णमासी। शरद् पूनो।

शरदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरद ऋतु। २. वर्ष। साल।

शरदिंदु
संज्ञा पुं० [सं० शरदिन्दु] शरद् ऋतु का चंद्र। उ०—प्रतनु शरदिंदु वर।—गीतिका, पृ० १२।

शरदिज
वि० [सं०] जो शरत् ऋतु में उत्पन्न हो।

शरदुद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्तपत्र नाम का साग।

शरदुर्दिन
संज्ञा पुं० [सं०] बाणों की वर्षा या झडी [को०]।

शरदेदु
संज्ञा पुं० [सं० शरदिन्दु, हिं० शरद + इंदु] शरद ऋतु का चंद्रमा। शरच्चंद्र।

शरद्धन
संज्ञा पुं० [सं०] शरद् ऋतु के मेघ। शरत्काल के बादल [को०]।

शरदचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० शरच्चन्द्र] शरद् ऋतु का चंद्रमा। उ०— शरदचंद्र की चाँदनी मंद परत सी जान।—पद्याकर (शब्द०)।

शरद्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरत् ऋतु। २. एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शरद्वसु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शरद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक द्वीप का नाम जो जलद्वीप भी कहलाता है।

शरधा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रद्धा]दे० 'श्रद्धा'। उ०—यदि शरधा हो तो।—मैला०, पृ० ८८।

शरधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम। २. इस देश का निवासी।

शरधि
संज्ञा पुं० [सं०] तीर रखने का चोंगा। तूणीर। तरकस।

शरनाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शरण]दे० 'शरण'। उ०—यहि मुर्दा को लेहु हँकराई। हम सब तब रहें तुव शरनाई।—कबीर सा०, पृ० १५१५।

शरनी पु (१)
वि० स्त्री० [सं० शरण] शरण देनेवाली। उ—अशरण शरनी भवभय हरनी वेद पुरान बखानी।—सूर (शब्द०)।

शरनी पु † (२)
संज्ञा० स्त्री० [सं० शरण]दे० 'शरण'। उ०—तीरथ व्रत कीन्ह बहु करनी। रूपदास गुरु की गहि शरनी।—कबीर सा०, पृ० ४२०।

शरन्मुख
संज्ञा पुं० [सं०] शरद् ऋतु का आरंभ।

शरन्मेघ
संज्ञा पुं० [सं०] शरत्काल के बादल।

शरपंख
संज्ञा पुं० [सं० शरपङ्ख] जवासा। हिंगुआ। धमासा।

शरपट्टा पु
संज्ञा पुं० [सं० शर + हिं० पट्टा] एक प्रकार का शस्त्र। उ०—असि शर भिंडिपाल शरपट्टा।—गिरधर (शब्द०)।

शरपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा।

शरपुंख
संज्ञा पुं० [सं० शरपुङ्ख] १. नील की तरह का एक प्रकार। े का पौधा। सरफोंका। २. वाण या तीर में लगा हुआ पंख। ३. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का यंत्र।

शरपुंखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शरपुङ्खा]दे० 'शरपुंख' [को०]।

शरप्रवेग
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्रगामी या तीक्ष्ण वाण [को०]।

शरफल
संज्ञा पुं० [सं०] वाण का पल या नोक [को०]।

शरबत
संज्ञा पुं० [अ०] १. पीने की मीठी वस्तु। रस। २. चीनी आदि में पका हुआ किसी ओषधि का अर्क जो दवा के काम आता है। जैसे,—शरबत बनफशा, शरबत अनार। ३. पानी में घोली हुई शक्कर या खाँड़। ४. मुसलमानों की एक रस्म जो विवाह के पश्चात् शरबत पिलाकर पूरी की जाती है और उसके बदले में वधू के पक्षपालों को कुछ धन दिया जाता है। ५. सगाई की रस्म। (मुसल०)। मुहा०—शरबत पिलाना = व्याह के पहले या बाद में शरबत पिलाने की रीति। शरबत के प्याले पर निकाह पढ़ाना या करना = बिना कुछ भी खर्च किए ब्याह करना।

शरबत पिलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० शरबत + पिलाना] वह धन जो वर और कन्या पक्ष के लोग एक दूसरे को शरबत पिलाकर देते हैं। (मुसल०)।

शरबती (१)
संज्ञा पुं० [हिं० शरबत + ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का हल्का पीला रंग जिसमें साधारण लाली भी होती है। यह प्रायः हरसिंगार के फूल और शहाब मिलाकर बनाया जाता है। २. एक प्रकार का नगीना जो पीलापन लिए लाल रंग का होता है। ३. एक प्रकार का नीबू जिसे मीठा नीबू भी करते हैं। ज्वर में लोग प्रायः इसका रस चूसते हैं। चकोत्तरा। मधुक- र्कटी। ४. एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा जो तनजेब से कुछ मोटा और अद्धी से कुछ पतला होता हैं। ५. एक प्रकार का फालसा जो बड़ा और मीठा होता है।

शरबती (२)
वि० १. रसीला। रसदार। रस भरा हुआ। २. हलका गुलाबी।

शरबती डाँक
संज्ञा पुं० [हिं० शरबती + डाँक] नगीने के नीचे रखने का शरबती रंग का बहुत पतला चाँदी या ताँबे का पत्तर विशेष दे० 'डाँक'।

शरबती नीबू
संज्ञा पुं० [हिं० शरबत + नीबू] १. चकोतरा। २. गलगल। ३. जँबारी नीबू। मीठा नीबू।

शरबती फालसा
संज्ञा पुं० [हिं० शरबती + फालसा] एक प्रकार का फालसा जो बड़ा और मीठा होता है।

शश्बान
संज्ञा पुं० [सं० शर + बान] भूतृण। अगिया घास।

शरबीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरपत्ते के बीज। चारुक। २. भद्रमुंज।

शरभंग
संज्ञा पुं० [सं० शरभङ्ग] एक प्राचीन महर्षि जो दक्षिण में रहते थे। वनवास के समय रामचंद्र इनके दर्शन करने गए थे।

शरभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. राम को सेना का एक यूथ- पति बंदर। उ०—ऋषभ शरभ अरु नील गवाक्षहु गँधमादन हू पाँची।—रघुराज (शब्द०)। २. टिड्डा।३. हाथी का बच्चा। ४. विष्णु। ५. ऊँट। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. आठ पैरोंवाला एक कल्पित मृग। कहते हैं, यह सिंह से भी अधिक बलवान् होता है। ८. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ४ नगण और १ सगण होता है। इसे 'शशिकला' और 'पणिगुण' भी कहते हैं। ९. दोहे का एक भेद जिसमें बीस गुरु और आठ लघु मात्राएँ होती हैं १०. शेर। सिंह। ११. दनुज के एक पुत्र का नाम। १२. महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम।

शरभता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरभ का भाव या धर्म। शरभत्व।

शरभलील
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ताल का एक भेद [को०]।

शरभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुष्क अवयवोंवाली और विवाह के अयोग्य कन्या। २. लकड़ी एक प्रकार का यंत्र।

शरभू
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।

शरभृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाण की नोक [को०]।

शरभेद
संज्ञा पुं० [सं०] बाण का घाव [को०]।

शरभेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक शिवलिंग का नाम।

शरम
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शर्म] १. लज्जा। हया। गैरत। क्रि० प्र०—आना।—करना।—रखना।—होना। मुहा०—शरम से गड़ना = मारे लज्जा के दबे या झुके जाना। बहुत लज्जित होना। शरम से पानी पानी होना = बहुत लज्जित होना। २. लिहाज। संकोच। ३. प्रतिष्ठा। हज्जत। मुहा०—शरम रखना = इज्जत रखना। लाज रखना। शरम रहना = प्रतिष्ठा रनहा। आबरू रहना।

शरमनाक
वि० [फ़ा० शर्मनाक] लज्जाजनक। शर्मनाक।

शरमल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. शारिका पक्षी। मैना। २. वह जो तीर चलाने में निपुण हो। धनुर्धारी।

शरमसार
वि० [फ़ा० शर्मसार] १. जिसे शर्म हो। लज्जावाला। हयादार। २. लज्जित। शरमिंदा। ३. पछतानेवाला (को०)।

शरमसारी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शर्मशारी] १. शरमिंदा होने का भाव या क्रिया। २. लज्जा। शरमिंदगी। ३. पछतावा। पश्चात्ताप (को०)।

शरमसारी (२)
संज्ञा पुं० वह जो वास्तव में लज्जा या मुरव्वत न करता ही, केवल किसी के सामने आ जाने पर लज्जा जा मुरव्वत करता हो। मुँह देखे की लज्जा करनेवाला।

शरमहुजूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० शर्म० + फ़ा० हुजूर] ऐसा लज्जा या मुरव्वत जो वास्तविक न हो, केवल किसी के सामने आ जाने से उत्पन्न हो। मुँह देखे का लाज।

शरमाऊ †
वि० [हिं० शरम + आऊ (प्रत्य०)] जिसे बहुत लज्जा मालूम होती हो। शरमीला।

शरमाना (१)
क्रि० अ० [अ० शर्म + हिं० आना (प्रत्य०)] शरमिंदा होना। लज्जित होना। लाज करना। हया करना। जैसे,—वे तुम्हारे सामने शरमाते हैं। उ०—वह न शरमावे कब तलक आखिर। दोस्ती यारी आशनाई हैं।—कविता कौ०, भा० ४, पृ०, १६६।

शरमाना (२)
क्रि० स० शरमिंदा करना। लज्जित करना। जैसे—अब उन्हें ज्यादा मत शरमाओ।

शरमालू ‡
वि० [फ़ा० शर्मआलूद अथवा हिं० शरम + आलु (प्रत्य०)] दे० 'शरमाऊ'।

शरमा शरमी
क्रि० वि० [फ़ा० शर्म] लज्जा के कारण। शरमिंदा होकर। जैसे,—आप शरमा शरमी साथ हो लिए हैं।

शरमिंदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] शरमिंदा या लज्जित होने का भाव या धर्म। नदामत। लाज। झेंप। मुहा०—शरमिंदगी उठाना = ऐसा काम करना जिसमें लज्जित होना पड़े।

शरमिंदा
वि० [फ़ा० शरमिंदह्] जिसे शरम या लज्जा आई हो। लज्जित।

शरमीला
वि० [फ़ा० शर्म + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० शरमीली] जिसे जल्दी शरम या लज्जा आवे। शरम करनेवाला। लज्जालु।

शरयंत्रक
संज्ञा पुं० [सं० शरयन्त्रक] वह डोरी जिससे प्राचीन काल में लिखे हुए ताड़पत्रों को ग्रंथित किया जाता था। लिखे हुए ताड़पत्रों को नत्थी करने की डोरी [को०]।

शरयु, शरयू
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'सरयू'।

शरर
संज्ञा स्त्री० [अ०] अग्निकण। चिनगारी। स्फुलिंग। उ०— क्या आग की चिनगारियाँ सीने में भरी हैं। जो आँसू मेरी आँख से गिरता है शरर है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १६४।

शररबार
संज्ञा पुं० [अ० शरर + फ़ा० बार] चिनगारी बरसानेवाला। उ०—दरबार में वह तेगे शररबार न चमके।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, तृ० ५२२।

शरल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सरल (२)'।

शरल (२)
वि० १. वक्र। टेढ़ा। कुटिल। २. दे० 'सरल' (१)।

शरलक
संज्ञा पुं० [सं०] जल। पानी।

शरलोमा
संज्ञा पुं० [सं० शरलोमन्] एक प्राचीन ऋषि जिन्होंने कई ऋषियों के साथ भारद्वाज जी से आयुर्वेद संहिता लाने के लिये प्रार्थना की थी।

शरवण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शरवन' [को०]।

शरवणी †
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रवण + ई] कान में पहनी जानेवाली छोटे छोटे दानों की माला। उ०—माला ताहि गले महँ दीन्हा। श्रवण शरवणी बाँधन लीन्हा।—कबीर सा०, पृ० २७०।

शरवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरसल या नरकुलों का झुरमुट। २. कुश की चटाई [को०]।

शरवनोद्भव
स्त्री० पुं० [सं०] कार्तिकेय।

शरवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वाणवृष्टि। वाणों की बौछार [को०]।

शरवाणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शर का अगला भाग। तीर काफल। २. वह जो शर चलाकर जीविका निर्वाह करता हो। तीर चलानेवाला सिपाही। ३. पैदल सिपाही। ४. वाण बनानेवाला (को०)।

शरवारण
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म या ढाल जिससे तीरों की बौछार रोकी जाती है।

शरवृष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणों की वर्षा [को०]।

शरवृष्टि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक मरुत्वान् [को०]।

शरव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसपर शर का संधान किया जाय। वह जो तीर का निशाना बनाया जाय। लक्ष्य।

शरव्यीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] निशाना ठीक करना [को०]।

शरव्रात
संज्ञा पुं० [सं०] वाणो का समूह [को०]।

शरशोर
संज्ञा पुं० [अ० शरी, शर + फ़ा० शोर] झगड़ा। फसाद। शोर गुल। उ०—फिर न बाकी रहे कोई शरशोर। मेह कर जब कबीर बंदिछोर।—कबीर म०, पृ० ३७४।

शरसंधान
संज्ञा पुं० [सं० शरसन्धान] निशाना लगाना [को०]।

शरसंबाध
वि० [सं० शरसम्बाध] वाणों से ढँका हुआ [को०]।

शरस्तंब
संज्ञा पुं० [सं० शरस्तम्ब] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन स्थान का नाम। २. एक प्राचीन प्रवरकरा ऋषि का नाम। ३. नरकुलों का संचय वा समूह (को०)।

शरह
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वह कथन या वर्णन जो किसी बात को स्पष्ट करने के लिये किया जाय। २. टिका। भाष्य। व्याख्या। यौ०—शरहनवीस, शरहनिगार = व्याख्याकार। टीकाकार। ३. दर। भाव। ४. दे० 'शरह लगान'। यौ०—शरहनामा = दर या भाव की सूची। निर्खनामा। शरहबदी = दर या भाव निश्चित करना। मूल्य पर कंट्रोल करना। शरह मुअय्यन। शरह लगान।

शरहमुअय्यन, शरहमुऐयन
संज्ञा पुं० [अ०] वह काश्तकार जो दवामी बंदोबस्त के समय से मुकर्रर एक ही लगान देता हो। विशेष दे० 'काश्तकार'।

शरह लगान
संज्ञा स्त्री० [अ० शरह + हिं० लगान] भूकर की दर। जमीन की पड़ती। बिघौती।

शरा ‡
संज्ञा स्त्री० [अ० शरअ या शरीअत का बहु व० 'शराए'] दे० 'शरअ'। उ०—शरा का खेल मुहम्मद से कर कहैं, यही बिध तुरक तकरीर लावा। तुरसी० श०, पृ० १५।

शराकत
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. शरीक या सम्मिलित होने का भाव। २. साझा। हिस्सेदारी। यौ०—शराकनतामा = हिस्सेदारी की शर्तोवाला दस्तावेज।

शराटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टिटिहरी।

शराटिका, शराति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टिटिहरी। २. लज्जालुक। लजालू। लाजवंती।

शराडि, शराति
संज्ञा स्त्री० [सं०] टिटिहरी। टिट्टिभ।

शराध
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्ध] दे० 'श्राद्ध'।

शराप †
संज्ञा पुं० [सं० शाप] दे० 'शाप'।

शरापना पु †
क्रि० स० [सं० शाप+ना (प्रत्य०)] किसी को शाप देना। सरापना।

शराफ
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ, गुज० श्राफ] दे० 'सराफ'।

शराफत
संज्ञा स्त्री० [अ० शराफ़त] १. शरीफ या सज्जन होने का भाव। भलमनसी। सज्जनता। २. कुलीनता। कुल की शुद्धता (को०)। यौ०—शराफत पनाह=शराफत की रक्षा करनेवाला। शरीफ जनों को शरण देनेवाला। शरापत पेशा=उच्च वंश का। कुलीन। शरीफ।

शराफा
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ़ह्] दे० 'सराफा'।

शराफी
संज्ञा स्त्री० [अ० सर्राफ़ी] दे० 'सराफी'।

शराब
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मदिरा। सुरा। वारुणी। मद्य। दारू। विशेष दे० 'मदिरा'। क्रि० प्र०—खींचना। —ढालना। —पिलाना।—पीना। मुहा०—शराब का दौर चलना=मदिरा पीने का क्रम चालू रहना। शराब पीते जाना। २. हकीमों की परिभाषा में, शरबत। जैसे—शराब बनफशा।

शराबखाना
संज्ञा पुं० [अ० शराब + फ़ा० खानह्] शराब बनने तथा बिकने की जगह। वह स्थान जहाँ शराब मिलती हो।

शराबखोर
वि० [अ० शराब + फ़ा० खोर] शराब पीनेवाला। मद्यप (को०)।

शराबखोरी
संज्ञा स्त्री० [अ० शराब + फ़ा० खोर + ई (प्रत्य०)] १. शराब पीने का कृत्य। मदिरापान। २ शराब पीने की लत।

शराबख्वार
संज्ञा पुं० [अ० शराब + फ़ा० ख्वार] वह जो शराब- पीता हो। मदिरा पीनेवाला। मद्यप। शराबी।

शराब ख्वारी
संज्ञा स्त्री० [अ० शराब + फ़ा० ख्वारी] शराब पीने की लत [को०]।

शराबजदा
वि० [अ० शराब + ज़दह्] मत्त। मतवाला।

शराबी
संज्ञा पुं० [हिं० शराब + ई (प्रत्य०)] वह जो शराब पीता हो। शराब पीनेवाला। मद्यप।

शराबेतहूर
संज्ञा स्त्री० [अ०] स्वर्ग की पवित्र शराब [को०]।

शराबोर
वि० [फ़ा०] जल आदि से बिल्कुल भीगा हुआ। लथपथ। तरबतर। जैसे—रंग से शराबार, पानी से शराबोर।

शरायुध
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष [को०]।

शरारत
संज्ञा स्त्री० [अ०] शरीर या पाजी होने का भाव। पाजी- पन। दुष्टता। बदमाशी। नटखटी।

शरारती
वि० [अ० शरारत + ई (प्रत्य०)] पाजी। दुष्ट। नटखट।

शरारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. राम की सेना का एक यूथपति बंदर। २. 'शरारिमुख'।

शरारिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] टिटिहरी नाम की छोटी चिड़िया जो जलाशयों के पास रहती है।

शरारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] टिटिहरी नाम की छोटी चिड़िया।

शरारीमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कैंची जैसा एक प्राचीन औजार।

शरारु (१)
वि० [सं०] १. हानिकारक। २. आघात या चोट पहुँचानेवाला [को०]।

शरारु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चोट या हानि पुहँचानेवाला जानवर [को०]।

शरारोप
संज्ञा पुं० [सं०] जिसपर शर चढ़ाया जाता है, धनुष। जिसपर रखकर तीर चलाते हैं, कमान।

शरालि, शराली
संज्ञा स्त्री० [सं०] टिटिहरी नाम की छोटी चिड़िया।

शराव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी का एक प्रकार का पुरवा। कुल्हड़। २. वैद्यक में एक प्रकार का परिमाण या तौल जो चौंसठ तोले या एक सेर की होती थी। (वैद्यक में सेर चोंसठ तोले का ही माना जाता है)। ३. ढकना। ढक्कन (को०)।

शरावक
संज्ञा पुं० [सं०] ढकना। ढक्कन [को०]।

शरावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी जो आजकल वाण- गंगा कहलाती हैं। २. एक प्राचीन नगरी जो लव की राजधानी थी।

शरावर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढाल। २. कवच। वर्म। ३. तरकश। भाथा। तूणीर (को०)।

शरावरण
संज्ञा पुं० [सं०] ढाल जिससे तीर का वार रोकते हैं।

शरावाप
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष। कमान। ३. तूणीर। भाथा (को०)।

शराविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह फुंसी जो ऊपर से ऊँची और बीच में गहरी हो। २. एक प्रकार का कोढ़।

शराश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तरकस। भाथा। तूणीर [को०]।

शरास
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष। उ०—दीखते उनसे विचित्र तरंग हैं, कोटि शक्रशरास होते भंग हैं।—साकेत, पृ० ६। यौ०—शक्रशरास=इंद्रधनुष।

शरासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष। कमान। चाप। २. महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।

शरास्य
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष। कमान।

शरियत
संज्ञा स्त्री० [अ० शरीअत] दे० 'शरीअत'। उ०—उसको छोड़ राह विचार शरियत जिसइँ कहना। इन्साफ उपर सभी काम फरमूद के सूँ रहना।—दक्खिनी०, पृ० ५५।

शारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का प्रासाद।

शरिष्ठ पु
वि० [सं० श्रेष्ठ०> शरिष्ठ (वरिष्ठ के वजन पर)] दे० 'श्रेष्ठ'। उ०—कन्या कहउ सुनौ मतिमंता। जो शरिष्ठ सोई मम कंता। —सबल (शब्द०)।

शरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एरका या मोथा नाम का तृण।

शरी (२)
वि० [सं० शरिन्] वाणधारी। वाणयुक्त [को०]।

शरीअत
संज्ञा स्त्री० [अ० शरीअत] १. मुसलमानो के अनुसार वह पथ जो परमात्मा ने अपने भक्तों के लिये निश्चित किया हो। २. धर्मशास्त्र। (मुसल०)। ३. खुला हुआ और चौड़ा रास्ता। राजमार्ग (को०)। यौ०—शरीअते मुहम्मदी= मुहम्मद साहब के चलाए हुए नियम वा कानून।

शरीक (१)
वि० [अ०] शामिल। संमिलित। मिला हुआ।

शरीक (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो किसी बात में साथ रहता हो। साथी। २. साझी। हिस्सेदार। पट्टीदार। ३. सहायक। मददगार। ४. रिश्तेदार। संबंधी। (पश्चिम)। यौ०—शरीके जलसा=सभा में उपस्थित लोग। शरीके राय= सहमत। शरीके हाल सुख दुःख का साथी।

शरीफ (१)
संज्ञा पुं० [अ० शरीफ़] १. ऊँचे घराने का व्यक्ति। कुलीन मनुष्य। २. सभ्य पुरुष। भला मानुस। भला आदमी। ३. मक्के के प्रधान अधिकारी की उपाधी।

शरीफ (२)
वि० १. पाक। पवित्र जैसे,—मिजाज शरीफ। कुरान शरीफ। २. भला। नेक (को०)। ३. शिष्ट। सभ्य (को०)। ४. प्रतिष्ठित। संमानित (को०)। यौ०—शरीफजादा=कुलीन व्यक्ति। शिष्ट एवं कुलीन परिवार का। शरीफजादी=कुलान महिला। ऊँचे खानदान की स्त्री।

शरीफ (३)
संज्ञा पुं० [अ० शेरिफ] ब्रिटिश शासनकाल में कलकत्ते, बंबई और मद्रास में सरकार की ओर से नियुक्त किए जानेवाले एक प्रकार के अवैतनिक अधिकारी। विशेष—प्रायः नगर के बड़े बड़े रईस और प्रतिष्ठित व्यक्ति कुछ निश्चित समय के लिये 'शराफ' बनाए जाते हैं। इनके सुपुर्द शांतिरक्षा तथा इसी प्रकार के और कुछ काम होते हैं। यूरोप और अमेरिका आदि में भी इस प्रकार के अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं जिन्हें कुछ शासन संबंधी कार्य भी सौंपे जाते हैं। इनके अधिकार प्रायः मजिस्ट्रेटों से कुछ मिलते जुलते होते हैं।

शरीफा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीफल या सीताफल] १. मझाले आकार का एक प्रकार का प्रसिद्ध फलवाला वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष प्रायः सारे भारतवर्ष में फल के लिये लगाया जाता है और मध्य तथा पश्चिमी भारत के जंगली प्रेदशों में बहुत अधिकता से पाया जाता है। कहते है, यह वृक्ष वेस्ट- इंडीज से यहाँ आया है। इस वृक्ष की छाल पतली और खाकी रंग की, और लकड़ी कुछ मटमेलापन लिए सफेद रंग की होती है। इसके फल अमरूद के फल के सदृश, अंडकार तथा अनीदार होते हैं। इसमें एक प्रकार के त्रिदल फूल लगते हैं जो नीचे की और झुके हुए होते हैं। ये फूल तरकारी बनाने के काम में आते हैं। यह वृक्ष गरमी के दिनों में फूलता है और कार्तिक अगहन में इसमें अमरूद के आकार के खाकी रंग के गोल फल लगते हैं। यह वृक्ष बीजों से उगता है और बहुत जल्दी बढ़कर फूलने लगता है। इसके पौधे जब कुछ बड़े हो जाते हैं, तब उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपे जोते हैं। इसकी छाल, जड़ और पत्तियों का व्यवहार औषोधों में होता हैं। इसकी छाल बहुत दस्तावर होती है। इसके बीज में से एक प्रकार का तेल भी निकलता है और इसमें तीन तरह के गोंद भी लगते हैं।२. इस वृक्ष का फल जो अमरूद के सदृश गोल और खाकी रंग का होता है। श्रीफल। सीताफल। रामसीता। विशेष—इसके तल पर आँख के आकार के बड़े बड़े दाने होते हैं जिनके अंदर सफेद गूदे में लिपटे हुए काले लंबोतरे बीज होते हैं। इसका गूदा बहूत मीठा होता है; और इसी के लिये यह फल खाया जाता है। अकाल के दिनों मे गरीब लोग प्रायः जंगली शरीफे के फल खाकर निर्वाह करते हैं। वैद्यक में इसे मधुर, हृदय के लिये हितकारी, बलवर्धक, वातकारक, शक्तिवर्धक, तृप्तिकारक, मांसवर्धक और दाह, पित्त, रक्तपित्त, प्यास, वमन, रुधिरविकार आदि के लिये लाभदायक माना है।

शरीर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य या पशु आदि के समस्त अंगों की समष्टि। सिर से पैर तक के सब अंगों का समूह। देह। तन। बदन। जिस्म। विशेष—'शरीर' शब्द से प्रायः आत्मा से भिन्न और सब अंगों या अवयवों का ही भाव ग्रहण किया जाता है। पर हमारे यहाँ शास्त्रों में शरीर के दो भेद किए गए हैं-सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर। बुद्धि, अहंकार, मन, पाँचा ज्ञानेंद्रियां, पाँचों कर्मेंद्रियों और पंच तन्मात्र के समूह को सूक्ष्म या लिंगशरीर कहते हैं। और, हाथ, पैर, मुँह, सिर, पेट, पीठ आदि अंगों का समूह स्थूल शरीर कहलाता है। इसी स्थूल शरीर में सूक्ष्म या लिंगशरीर का वास होता है। कहते हैं, जब जीव मर जाता है, तब उसका सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर उसके स्थूल शरीर में से निकलकर परलोक को जाता है। पर्या०—कलेवर। गात्र। विग्रह। काय। मूर्ति। तनु। क्षत्र। पिंड। स्कंध। पंजर। करण। बंव। मुदगल। २. शारीरिक शक्ति (को०)। ३. जीवात्मा (को०)। ४. शव (को०)।

शरीर (२)
वि० [अ० संज्ञा शरारत] पाजी। दुष्ट। नटखट।

शरीरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर। तन। गात्र। २. लघु या छोटा शरीर। ३. आत्मा [को०]।

शरीरकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० शरीरकर्तृ] १. शरीर को बनानेवाला, परमेश्वर। सृष्टिकर्ता। २. पिता। जनक (को०)।

शरीरकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर। २. पिता [को०]।

शरीरग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] शरीरयुक्त होना या जन्म लेना [को०]।

शरीरज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोग। बीमारी। २. कामदेव। ३. कामवासना। कामेच्छा (को०)। ४. पुत्र। लड़का। बेटा।

शरीरज (२)
वि० शरीर से उत्पन्न।

शरीरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर का भाव या धर्म।

शरीरत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु। मौत।

शरीरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का भाव या धर्म। शरीरता।

शरीरदंड
संज्ञा पुं० [सं० शरीरदण्ड] १. शारीरिक दंड। काय- क्लेश [को०]।

शरीरदेश
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का कोई अवयव या अंग [को०]।

शरीरधर्म
संज्ञा पुं० [अ० शरीर + धर्म] चेष्टा। शरीरगत लक्षण। अनुभाव। (अं० लिम्टम्स)। उ०—वह एक वृत्तिचक्र है, जिसके अंतर्गत प्रत्यय, अनुभूति, इच्छा, गति या प्रवृत्ति, शरीरधर्म सबका योग रहता है।—चिंतामणि, भा० २, पृ० ८८।

शरीरधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का घटक एक मुख्य तत्व। २. बुद्ध के शरीर का अवशेष (जैसे दाँत, हड्डी, बाल आदि)।

शरीरनिपात
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु [को०]।

शरीरपतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का धीरे धीरे क्षीण होना। २. मृत्यु। मौत।

शरीरपाक
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का धीरे धीरे क्षीण होना।

शरीरपात
संज्ञा पुं० [सं०] देह का अंत या नाश। शरीरांत। देहा- वसान। मृत्यु। मौत।

शरीरप्रभव
संज्ञा पुं० [सं०] पिता। जनक [को०]।

शरीरबंध
संज्ञा पुं० [सं० शरीरबन्ध] शरीर की बनापट शरीर का गठन या ढाँचा [को०]।

शरीरबंधक
संज्ञा पुं० [सं० शरीरबन्धक] ओल या प्रतिभू [को०]।

शरीरबद्ध
वि० [सं०] शरीरधारी [को०]।

शरीरभाज्
वि० [सं०] शरीरी। शरीरधारी। जीवधारी।

शरीरभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो शरीर धारण किए हो। शरीरी। २. विष्णु। ३. जीवात्मा।

शरीरभेद
संज्ञा पुं० [सं०] (आत्मा या जीव का) शरीर से भिन्न या अलग होना। मृत्यु [को०]।

शरीरयष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का आकार। २. पतला या क्षीण शरीर [को०]।

शरीरयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जीवननिर्वाह के साधन। वे साधन जिससे जीवन का पोषण हो। उ०—वहाँ वे शरीरयात्रा के स्थूल स्वार्थ मे संश्लिष्ट होकर कलुषित नहीं होते।—रस०, पृ० १४७। २. जीवन। जिंदगी।

शरीररक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो राजा आदि के साथ उसके शरीर की रक्षा करने के लये रहता हो। अंगरक्षक।

शरीररत्न
संज्ञा पुं० [सं०] भव्य एवं आकर्षक शरीर [को०]।

शरीरवान्
संज्ञा पुं० [सं० शरीरवत्] शरीरवाला। देहधारी।

शरीरविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० शरीर + विज्ञान] शरीररचना के सभी अगों और उपांगों के विवेचन से संबंध रखनेवाला विज्ञान। शरीरशास्त्र।(अं० एनाटमी)। उ०—पशुओं के शरीर विज्ञान को भी वे भली भाँति जानते थे।—पू० म० भा०, पृ० २७१।

शरीरविमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा का शरीर से अलग होना। शरीरत्याग [को०]।

शरीरवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] वे पदार्थ जो शरीर का सौंदर्य बढ़ाने के लिये आवश्यक हों।

शरीरवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जीवन निर्वाह करने की वृत्ति। जीविका। २. दे० 'शरीरस्थिति'।

शरीरवेग
संज्ञा पुं० [सं० शरीर + वेग] शरीर की प्राकृतिक आवश्य- कता या माँग। उ०—'भाव' मन की वेगयुक्त अवस्थाविशेष है वह क्षुत्पिपासा कामवेग आदि शरीरवेगों से भिन्न है। रस०, पृ० १६४।

शरीरवैकल्य
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर की विकलता। अस्वस्थता [को०]।

शरीरशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें शरीर के सब अवयवों नसों, नाड़ियों आदि का विवेचन होता है और जिससे यह जाना जाता है कि शरीर का कौन सा अंग कैसा है और क्या काम करता है। शरीरविज्ञान।

शरीरशुश्रूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर की सेवा करना। अपनी देह की सेवा करना। व्यिक्तिगत सेवा [को०]।

शरीरशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह औषध जो कुपित मल, पित्त, तथा कफ हो हटाकर उदर्ध्व अथवा अधोमार्ग से निकाल दे।

शरीरसंपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० शरीरसम्पत्ति] शरीर की समृद्धि। अच्छा स्वास्थ्य। विशेष—शरीरसंपत्ति के भीतर शरीर का सौंदर्य, गठन, उसकी महाप्राणता, स्वास्थ्य एवं आकर्षक व्यक्तित्व आदि शरीररचना के सभा उत्तमोत्तम गुण आते हैं।

शरीरसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० शरीरसम्बन्ध] १. विवाह का संबंध। २. नरनारी का परस्पर लैंगिक संबंध [को०]।

शरीरसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक के मनुष्य के वेदविहित सोलह संस्कार। २. शरीर की शोभा तथा मार्जन। नाना प्रकार के अनुष्ठानों द्वारा शरीर को निर्मल करना [को०]।

शरीरसाद
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर की क्लांति या थकान। शारीरिक थकावट [को०]।

शरीरस्थ
वि० [सं०] १. शरीर में रहनेवाला। २. जीवित। जीता हुआ।

शरीरस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर संबंधी सिद्धांत या तत्व [को०]।

शरीरस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर का पालन पोषण या वृत्ति। २. भोजन करना। खाना [को०]।

शरीरांत
संज्ञा पुं० [सं० शरीरान्त] १. देह का अंत अथवा नाश। मृत्यु। देहांत। मौत। २. रोम। बाल। केश (को०)।

शरीरांतर
संज्ञा पुं० [सं० शरीरान्तर] १. दूसरा शरीर। दूसरा जन्म लेना। २. शरीर का भीतरी भाग [को०]।

शरीराधीन
वि० [सं०] देह के वश में रहनेवाला। शरीर का वश- वर्ती उ०—रणु वह किस दिगंत में लीन। वेणु ध्वनि सी न शरीराधीन। —अपेरा, पृ० १२१।

शरीरार्पण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कार्य के निमित्त अपने शरीर को इस प्रकार लगा देना मानो उसपर अपना कोई स्वत्व ही न हो। उ०—कियो शरीरार्पण परकाजा। संतन सेवन कियो दराजा। —रघुराज (शब्द०)।

शरीरावरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाल। चमड़ा। २. वर्म। ढाल। ३. शरीर को ढकने की कोई चीज।

शरीरास्थि
संज्ञा पुं० [सं० शरीर + अस्थि] कंकाल। पिंजर।

शरीरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शरीरिन्] [वि० स्त्री० शरीरिणी] १. वह जो शरीर धारण किए हो। शरीरवाला। शरीरवान्। २. आत्मा। जीव। ३. प्राणी। जीवधारी। ४. मनुष्य (को०)।

शरीरी (२)
वि० १. शरीरधारी। शरीरयुक्त। २. जीवित। जीता हुआ [को०]।

शरीष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़। विशेष—संस्कृत व्याकरण के अनुसार यह शब्द साध्य नहीं है। इसका साधु रूप शरेष्ट है।

शरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रोध। गुस्सा। २. वज्र। ३. बाण। तीर। ४. आयुध। शस्त्र। हथियार। ५. हिंसा। हत्या। मार डालना। ६. वह जो हिंसा करता हो। हिंसक। ७. महाभारत के अनुसार एक गंधर्व का नाम। ८. विष्णु (को०)। ९. बाण चलाने का अभ्यास (को०)।

शरु (२)
वि० १. बहुत पतला। २. जिसका अगला भाग बहुत ही छोटा या नुकीला हो।

शरेज
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।

शरेष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आम। आम्र।

शरेष्ट पु (२)
वि० [सं० श्रेष्ठ] दे० 'श्रेष्ठ'।

शरै ‡पु
संज्ञा स्त्री० [अ० शरअ] दे० 'शरअ'। उ०—परदे पैगंबर की सुनी, कायम करी साबित शरै। —तुरसी० श०, पृ०, २६।

शर्क
संज्ञा पुं० [अ० शर्क] पूर्व। पूरब दिशा।

शर्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंकड। २. बालू का कण। ३. जल में उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का प्राणी। ४. पुराणानुसार एक देश का नाम। ५. इस देश का निवासी। ६. दे० 'शर्करा'। ७. एक तरह का ढोल (को०)।

शर्करक
संज्ञा पुं० [सं०] मीठा नीबू। शरबती नीबू।

शर्करकंद
संज्ञा पुं० [सं० शर्करकन्द] दे० 'शर्करकंद'।

शर्करजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीनी।

शर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शक्कर। चीनी। खाँड़। २. बालू का कण। ३. पथरी नामक रोग। ४. कंकड़। ५. ठीकरा। ६. कंकरीली मट्टी। कंकड़ से युक्त मिट्टी (को०)। ७. खंड। टुकड़ा (को०)। ८. पुराणानुसार एक देश का नाम जो कूर्म्म चक्र के पुच्छ भाग में है। ९. एक प्रकार का रोग। विशेष—इसमें त्रिदोष के कारण मांस, शिरा और स्नायु में गाँठ उत्पन्न होती है। गाँठ के फूटने से शहद, घी और चर्बी के समान पोब निकलता है और वायु के बढ़ने से अनेक गाँठें उत्पन्न होती है।

शर्कराकर्षी
वि० [सं० शर्कराकर्षिन्] बालुकायुक्त। बालू, कंकड़ आदि को उड़ाने या खींचनेवाला [को०]।

शर्कराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] चरक के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शर्कराचल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार चीनी का वह पहाड़ जो दान करने के लिये लगाया जाता है।

शर्कराधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार चीनी की वह गौ जो दान करने के लिये बनाई जाती है।

शर्कराप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार एक नरक का नाम।

शर्करा प्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र का रंग मिस्त्री का सा हो जाता है और उसके साथ शरीर की शर्करा निकलती है।

शर्करार्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग। विशेष दे० 'शर्करा'—९।

शर्कराल
वि० [सं०] जो कंकड़ से भरी हुई हो (हवा)। कंकड़ीली (आँधी) [को०]।

शर्करावत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग। विशेष दे० 'शर्करा'—९।

शर्करावत् (२)
वि० कँकरीला। कर्कर से युक्त। बालुकामय [को०]।

शर्करा सप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख शुक्ला सप्तमी। विशेष—पुराणानुसार उस दिन सुवर्ण का पूजन किया जाता है और उसके आगे घड़े में चीनी भरकर रखी जाती है।

शर्करासव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मद्य या शराब।

विशेष
यह चीनी से तैयार की जाती है। चरक के अनुसार यह स्वादिष्ट, सुगंधित, पाचक और वायुरोगनाशक है।

शर्करासुरभि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शर्करासव'।

शर्करिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शर्करिकी] १. शर्करायुक्त। शर्कर सहित। २. कँकड़ीला [को०]।

शर्करिल
वि० [सं०] दे० 'शर्करावत्'।

शर्करी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वर्णवृत्त के अंतर्गत चौदह अक्षरों का एक वृत्त। इसके कुल १६, ३८४ भेद होते हैं जिनमें १३ मुख्य हैं। २. नदी। दरिया। ३. मेखला। ४. लिखने की कलम। लेखनी।

शर्करी (२)
वि० [सं० शर्करिन्] पथरी नामक रोग से आक्रांत। शर्करा रोग से ग्रस्त [को०]।

शर्करीय
वि० [सं०] शर्करा संबंधी। चीनी का।

शर्करोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीनी घोला हुआ पानी। शरबत। २. वह शरबत जिसमें इलायची, लौंग, कपूर और गोल मिर्च मिली हो। विशेष—वैद्यक में इसे बलवर्धक, रुचिकारक, वायु, पित्त तथा रक्तदोष का नाशक और वमन, मूर्छा, दाह और तृष्णा आदि को शमन करनेवाला माना गया है।

शर्की
वि० [अ० शर्क़ी] पूरब का। पूर्वीय [को०]।

शर्कुर
वि० [सं०] तरुण। युवक। जवान [को०]।

शर्कोटि
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। साँप।

शर्जा
संज्ञा पुं० [फा० शरजह्] चीता। शेर। उ०—कमर के क्यों कहूँ इसके यो शर्जा। कमर को किए सामने शर्जा भी हु्र्जा।— दक्खिनी०, पृ० २८०।

शर्ट
संज्ञा स्त्री० [अं०] पहनने का सिला हुआ एक कपड़ा। कमीज।

शर्णचापिलि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रर्वतक ऋषि का नाम।

शर्त
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. दो व्यक्तियों या दलों में होनेवाली ऐसी प्रतिज्ञा कि अमुक बात होने या न होने पर हम तुमको इतना धन देंगे, अथवा तुमसे इतना धन लेंगे। बाजी जिसमें हार जीत के अनुसार कुछ लेन देन भी हो। बाजी। दाँव। बदान। क्रि० प्र०—जीतना।—बदना।—बाँधना।—रहना।—लगना।—हारना। २. किसी कार्य की सिद्धि के लिये आवश्यक या अपेक्षित होनेवाली बात या कार्य जिसके न होने से उस काम में बाधा उपस्थित हो। जैसे,—मैं चलने के लिये तैयार हूँ; पर शर्त यह है कि आप भी मेरे साथ चलें।(ख) हम इस शर्त पर रुपया देंगे कि आप उसके जिम्मेदार हों। (ग) उन्होंने कई ऐसी शर्तें लगाई हैं कि जिनके कारण काम होना बहुत कठिन है। ३. संधि या समझौता आदि के अंगभूत नियम। जैसे,—भारत और रूस की संधि की शर्तें इस प्रकार है। क्रि० प्र०—रखना।—लगना। मुहा०—शर्त बदकर सोना=देर तक या लंबी नींद सोना। शर्त बदना या बाँधना=बाजी रखना या लगाना। शर्त होना= शर्त या बाजी करना।

शर्तबंद
वि० [अ० शर्त + फा० बंद] १. शर्त से युक्त या बँधा हुआ। २. प्रतिज्ञापत्र के अनुसार निश्चित समय तक अनिवार्य मज- दूरी करनेवाला। दे० 'गिरमिटिया'।

शर्तिया (१)
क्रि० वि० [अ० शर्तियह्] शर्त बदकर। बहुत ही निश्चय या दृढ़तापूर्वक। जैसे,—मैं शर्तिया कहता हूँ कि आपका काम जरूर हो जायगा।

शर्तिया (२)
वि० १. बिलकुल ठीक। निश्चित। जैसे,—यह तो इस बीमारी की शर्तिया दवा है। २. अनिवार्य। लाजिम।

शर्ती (१)
वि० [अ०] १. शर्तवाला। २. शर्तसंबंधी [को०]।

शर्ती (२)
क्रि० वि० दे० 'शर्तिया'।

शर्दि
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक प्राचीन नगर का नाम।

शर्द्धजह, शर्धंजह
संज्ञा पुं० [सं० शर्द्धञ्जह] १. वह जो वायुकारक हो। २. माष। उरद [को०]।

शर्द्ध, शर्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेज। शक्ति। २. सेना। फौज। ३. अपान वायु का त्याग करना। पादना।

शर्द्धन, शर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधोवायु। पाद। २. पादने की क्रिया। पादना (को०)।

शर्बत
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'शरबत'।

शर्बती
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'शरबती'।

शर्म (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'शरम'। उ०—मुद्रा संतोष शर्म पति झोली। गुरमुखि जोगी तत्तु विरोली।—प्राण०, पृ० १०९। मुहा०—शर्म आना, शर्म करना=लाज या लिहाज करना। शर्म की बात= लज्जाकारक कार्य। शर्म से गठरी हो जाना= (१) नई बहू का लाज से सिकुड़कर बैठना। (२) लज्जा से गड़ जाना। शर्म और दया भून खाना= शर्म को जान बूझकर छोड़ देना। उ०—उस छोकरी ने तीखी चितवन करके कहा—ओ मरदूये शर्म और हय भून खाई। आँखें बंद कर ले।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १४६। यौ०—शर्मगाह=(१) गोपनीय या आवृत किए जानेवाले अंग। भग। योनि। शर्मानाक= लज्जाजनक। शरमिंदा करनेवाला। उ०—प्रत्येक शर्मनाक और जलील स्थिति में वह मनुष्य की निकृष्ट से निकृष्ट भावनाओं का एक कलाकार की पैनी दृष्टि से विश्लेषण करता था।—प्रेम० और गोर्की, पृ० १०। शर्मसार= लज्जित। शरमिंदा। उ०—हव्वा और होर आदम कहे यूँ पुकार। हमें तो मेरे मुक सूँ है शर्मसार।—दक्खिनी०, पृ० ३३४। शर्मेहजूर, शर्महुजूरी= दे० 'शरम हजूरी'।

शर्म (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुख। आनंद। २. वह जो सुखी हो। ३. गृह। घर। ४. आशीर्वाद। दुआ। (को०)। ५. रक्षण। रक्षा। आश्रय (को०)।

शर्मण्य
वि० [सं०] भाला। रक्षक। शरण देनेवाला [को०]।

शर्मद, शर्मप्रद (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शर्मदा] आनंद देनेवाला। सुखदायक। उ०—कृष्णचंद को प्रिय अधिकारी। शर्मद धरा धर्म धुरधारी।—कबीर (शब्द०)। (ख) तीर शर्मदा नर्मदा करत भयो नृप वास।—(शब्द०)।

शर्मद, शर्मप्रद (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम।

शर्मन्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शर्मा'।

शर्मर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वस्त्र वा पहनावा।

शर्मरा, शर्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारु हल्दी।

शर्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० शर्मन्] ब्राहमणों की उपाधि। जैसे,— ब्रह्मदेव शर्मा।

शर्मा (२)
वि० आनंदित। प्रसन्न। सुखी।

शर्माऊ †
वि० [फा० शर्म + हीं० आऊ (प्रत्य०)] शर्मानेवाला। शर्मीले स्वभाव का।

शर्माख्य
संज्ञा पुं० [सं०] मसूर।

शर्माना
क्रि० अ०, क्रि० स० [फा० शर्म + हिं० आना] दे० 'शरमाना'।

शर्मालू
वि० [फ़ा० शर्म + हिं० आलू (प्रत्य०)] शर्मानेवाला। शरमीला।

शर्माशर्मी
क्रि० वि० [फा० शर्म] लज्जावश। लज्जापूर्वक।

शर्मिदा
वि० [फा० शर्मिदह्] दे० 'शरमिंदा'।

शर्मिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या का नाम जो शुक्राचार्य की कन्या देवयानी की सखी थी। विशेष दे० 'देवयानी'।

शर्मीला
वि० [फ़ा० शर्म + हिं० ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० शर्मीली] दे० 'शरमीला'।

शर्य (१)
वि० [सं०] हिंस्र। हिंसक। घातक [को०]।

शर्य (२)
संज्ञा पुं० १. शत्रु। योद्धा। २. वाण।

शर्यण
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक जनपद का नाम जो कुरुक्षेत्र के अंतर्गत था।

शर्यणावत्
संज्ञा पुं० [सं०] शर्यण नामक जनपद के पास का एक प्राचीन सरोवर जो तीर्थ माना जाता था।

शर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि। रात। २. उँगली। अँगुली। ३. तीर इषु। बाण।

शर्यात
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य। आदमी।

शर्याति
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राजा का नाम जिसकी कन्या 'सुकन्या' महर्षि च्यवन को ब्याही गई थी। २. भागवत के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र का नाम।

शर्र
संज्ञा पुं० [अ०] १. झगड़ा। कलह। २. दुष्टता। बुराई [को०]। यौ०—शर्रोफसाद=कलह। झगड़ा।

शर्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। शंकर। महादेव। उ०—यों थल के बिनु कष्ट सों नाचत शर्व हरौ दुख सर्व तुम्हारे।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १३५। २. विष्णु।

शर्वक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शर्वपत्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. लक्ष्मी।

शर्वपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास।

शर्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकार। अँधेरा। २. कामदेव। ३. संध्या।

शर्वरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। रात्रि। निशा। २. साँझ। संध्या। शाम। ३. हल्दी। दरिद्रा। ४. स्त्री। औरत।

शर्वरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० शर्वरिन्] बृहस्पति के साठ संवत्सरों में से चौंतीसवाँ संवत्सर। कहते हैं, इस संवत्सर में दुर्भिक्ष का भय होता है।

शर्वरीक
वि० [सं०] नुकसान करनेवाला। हानिकारक।

शर्वरीकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. चंद्रमा (को०)।

शर्वरीदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शर्वरीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

शर्वरीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. शिव। महादेव।

शर्वरीश, शर्वरीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शर्वला, शर्वली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तोमर नामक अस्त्र। लौहदंड [को०]।

शर्वाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्राक्ष। शिवाक्ष।

शर्वाचल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास।

शर्वाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती।

शर्शरीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसक। २. खल। दुष्ट। पाजी। ३. घोड़ा। ४. अग्नि।

शर्शरीक (२)
वि० दुष्ट [को०]।

शलंकट
संज्ञा पुं० [सं० शलङ्कट] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शलंकु
संज्ञा पुं० [सं० शलङ्कु] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शलंग
संज्ञा पुं० [सं० शलङ्ग] १. लोकपाल। राजा। प्रभु। २. एक प्रकार का नमक।

शलंदा
संज्ञा पुं० [देश०] पाताल गारुड़ी। जल जमुनी। छिरेंटा। छिरइटा।

शल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंस के एक मल्ल का नाम। उ०—और मल्ल मारे शल तोशल बहुत गए सब भाज।—सूर (शब्द०)। २. ब्रह्मा। ३. ऊँट। ४. एक प्रकार का वृक्ष। ५. शल्यराज का एक नाम। विशेष दे० 'शल्यराज'। ६. भाला। ७. साही का काँटा। उ०—ठीक, यहाँ पर शल्य छोड़कर शल गया। नाम रहे पर काम बराबर चल गया।—साकेत, पृ० १३७। ८. शृंगी या भृंगी जो शिव के परिषद् हैं। ९. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ११. वासुकी के वंश के एक नाग का नाम।

शल (२)
वि० [अ० शल्ल] निश्चेष्ट। सुन्न। जो हिलाया न जा सके। उ०—हाथ लट जाय, शल हथेली हो। उँगलिया पोर पोर कट जावें।—चुभते०, पृ० ३९।

शलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकड़ी। २. ताल। ताड़ वृक्ष। ३. साही का काँटा। ४. पक्षी (को०)।

शलकर
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम।

शलगम
संज्ञा पुं० [फ़ा० शलगम] दे० 'शलजम'।

शलजम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गाजर की तरह का एक प्रकार का कंद शलगम। विशेष—यह कंद प्रायः सारे भारत में जाड़े के दिनों में होता है। यह गाजर से कुछ बड़ा और प्रायः गोल होता है और तरकारी, अचार और मुरब्बे आदि बनाने के काम आता है। यूरोप में इससे चीनी भी निकाली जाती है।

शलजमी
वि० [फा० शलजम] १. शलजम जैसा या शलजम से मिलता जुलता। २. शलजम के समान (रंग)। यौ०—शलजमी आँखें= बड़ी आँखें।

शलभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. टीड़ी। टीड्डी। शरभ। २. एक असुर का नाम। ३. पतंग। फतिंगा। उ०—किंतु शलभवर ! उसे न छेड़ो, सोने दो उसको उस पार। वहीं स्वप्न में पा लेगी वह, अपने प्रियतम का उपहार।—वीणा, पृ० ३३। विशेष—कविता में यह प्रेमी का प्रतीक माना जाता है। ४. छप्पय के ३१ वें भेद का नाम। इसमें ४० गुरु और ७२ लघु, कुल ११२ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं।

शलभता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शलभ का भाव या धर्म।

शलभत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शलभ का भाव या धर्म। शलभता।

शलल
संज्ञा पुं० [सं०] १. साही। २. साही का काँटा।

शललचंचु
संज्ञा पुं० [सं० शललचञ्चु] शल्लकीलोम या साही के काँटे की लेखनी [को०]।

शलाकधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो शलाकाओं आदि की महायता से पक्षियों को पकड़ता हो। चिड़ीमार। बहेलिया। २. बेईमान जुआड़ी (को०)।

शलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लोहे या लकड़ी आदि की लंबी सलाई। सलाख। सीख। २. वह सलाई जिससे घाव की गहराई आदि नापी जाती है। ३. बाण। शर। तोर। ४. अस्थि। हड्डी। ५. मदनवृक्ष। मैनफल। ६. तिनका। तृण। ७. शारिका पक्षी। मैना। ८. सलई। शल्लकी वृक्ष। ९. सुरमा लगाने की सलाई। १०. खेलने का पासा। ११. बच। वचा। १२. रामायण के अनुसार एक प्राचीन नगरी का नाम। १३. नली की हड्डी। १४. मतदान के लिये पर्चियों की भाँति काम में आनेवाली लकड़ी की सलाइयाँ। —उ०—एक पुरुष सदस्यों को रंग रंग को लकड़ी की सलाकाएँ बाँट देता था और समझा देता था कि प्रत्येक रंग का अर्थ क्या है।—हिंदु० स०, पृ० २५६। १५. साँग। नेजा। भाला (को०)। १६. तीली। जैसे, छत्रशलाका (को०)। १७. तूलिका। कूँची (को०)। १८. साही नामक जानवर (को०)। १९. अंकुर। अँखुवा (को०)। २०. उँगली। जैसे, शलाकानख(को०)। २१. दाँत साफ करने की कूँची (को०)। २२. शासक। शास्ता (को०)। २३. कील। खूँटी (को०)। २४. पिंजड़े या खिड़की आदि का छड़ (को०)। २५. रेखा खींचने की नोकदार सिलाई (को०)।

शलाका ग्राहापक
संज्ञा पुं० [सं०] मतदान के लिये बँटी हुई शलाकाओं को एकत्रित करनेवाला अधिकारी। उ०—जो अधिकारी शलाकाओं को फिर एकत्रित करते थे उनका नाम शलाका ग्राहापक होता था। —हिंदु० स०, पृ० २१०।

शलाकाधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शलाकधूर्त'।

शलाका परीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्यार्थी की वह परीक्षा जिसमें ग्रंथ में शलाका डालने जो पृष्ठ सामने आ जाय उसी की परीक्षा ली जाती थी।

शलाका पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्धों जैनों के तिरसठ अवतारी पुरुष। देवपुरुष। जैसे, त्रिषाष्ठ शलाकापुरुष चरित्र। उ०— कभी किसी शलाकापुरुष ने ब्राह्मण कुल में जन्म नहीं लिया।—हिंदु० स०, पृ० २७३। विशेष—इस शलाकापुरुषों में १२ चक्रवर्ती, २४ जिन, ९ वासु- देव, ९ बलदेव और ९ प्रतिवासुदेव माने जाते हैं। इस प्रकार ६३ शलाकापुरुष माने गए हैं।

शलाकायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० शलाकायन्त्र] एक नोकदार शल्योपकरण [को०]।

शलाख
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सलाख] दे० 'सलाख'।

शलाट
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार दो हजार पल का परिमाण। शकट।

शलाटु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कच्चा फल। २. बेल। बिल्व। ३. एक प्रकार का कंद (को०)।

शलाटु (२)
वि० जो पका न हो। कच्चा। अपक्व [को०]।

शलातुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम जो पाणिनि का निवासस्थान था।

शलाथल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शलाभोलि
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।

शलालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सुगंधिद्रव्य।

शली
संज्ञा स्त्री० [सं०] साही नामक जंतु जिसके सारे शरीर पर काँटे होते हैं।

शलीता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वस्त्र। दे० 'सलीता'।

शलूका
संज्ञा पुं० [फ़ा०] आधी या पूरी बाँइ की एक प्रकार की कुरती जो प्रायः स्त्रियाँ पहना करती हैं।

शल्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. टुकड़ा। खंड। २. छिलका। ३. वृक्ष की छाल। वल्कल। ४. मछली के ऊपर का छिलका।

शल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मछली का छिल्का। २. वृक्ष की छाल। ३. छिलका। ४. खंड। टुकड़ा।

शल्कली
संज्ञा पुं० [सं० शल्कलिन्] मछली। मत्स्य। मीन।

शल्की
संज्ञा पुं० [सं० शल्किन्] मत्स्य। मीन [को०]।

शल्प
संज्ञा पुं० [लश०] १. बाढ़। २. बौछार। भरमार। ३. धड़ाका। कड़ाका।

शल्पदा, शल्पपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेदा नामक अष्टवर्गीय औषध।

शल्मलि
संज्ञा पुं० [सं०] शाल्मली वृक्ष। सेमल।

शल्मली
संज्ञा स्त्री० [सं०] शाल्मली वृक्ष।

शल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्र देश के एक राजा का नाम। विशेष—राजा पांडु की दूसरी स्त्री माद्री (जिसके पुत्र नकुल और सहदेव थे) के ये भाई थे और इस संबंध से ये पांडवों के मातुल होते थे। द्रौपदी के स्वयंवर के समय ये भीमसेन के साथ मल्लयुद्ध में हार गए थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में ये पांडवों की ओर से लड़ने के लिये जा रहे थे पर दुर्योधन ने अपनी चातुरी से इन्हें अपनी ओर कर लिया था। फलस्वरूप इन्होंने दुर्योधन का ही पक्ष ग्रहण किया था। युद्ध के १६ वें और १७ वें दिन महावीर कर्ण के ये सारथी हुए थे। कर्ण की मृत्यु के अनंतर १८ वें दिन ये सेनापति बनाए गए थे और युधिष्ठिर द्वारा मारे गए थे। २. एक प्रकार का बाण। ३. अस्त्रचिकित्सा। चीरफाड़ का इलाज।(अँ०) सर्जरी। उ० सुश्रुत में शल्यचिकित्सा का चरम उत्कर्ष देखने को मिलता है।—पू० म० भा०, पृ० २६७। ४. छप्पय के ५६ वें भेद का नाम। इसमें १५ गुरु और १२२ लघु, कुल १३७ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ५. हड्डी। अस्थि। ६. अंजन लगाने की सलाई। शलाका। ७. मैनफल। मदन वृक्ष। ८. सफेद खैर। ९. शिलिंद मछली। १०. लोध। लोध्र वृक्ष। ११. बेल। बिल्व वृक्ष। १२. साही नामक जंतु। उ०— ठीक, यहाँ पर शल्य छोड़कर शल गया। नाम रहै पर काम बराबर चल गया।—साकेत, पृ० १३७। १३. साँग नामक अस्त्र। १४. दुर्वाक्य। १५. पाप। १६. जमीन में गड़ी हुई जानवरों आदि को हड्डियाँ जो मकान बनाने के समय निकालकर फेंकी जाती हैं। १७. जैन सिद्धांत के अनुसार वे भ्रमात्मक धारणाएँ जिनसे बचना धर्मा- चरण के लिये अनिवार्य माना गया है। उ०—व्रत या धर्म के पालन के लिये तीन तीन शल्यों का अभाव आवश्यक है।—हिंदु० स०, पृ० २३२। १८. वे पदार्थ जिनसे शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा या रोग आदि उत्पन्न होता है। विशेष—सुश्रुत के अनुसार ये शल्य दो प्रकार के होते हैं—शरीर और आगंतु। यदि वात, पित्त आदि के दोष से रोएँ, नाखून, शरीर के धीतु, अन्न, मल आदि कुपित होकर पीड़ा या रोग उत्पन्न करें तो उसे शारीर शल्य कहते हैं। और इनके अतिरिक्त जो और बाहरी पदार्थ (लोहा, लकड़ी, सींग आदि) शरीर में पीड़ा या रोग उत्पन्न करें, तो उन्हें आगंतु शल्य कहते हैं। १९. काँटा। खपची। २०. कील। मेख। खूँटी (को०)। २१. घेरा। बाड़ (को०)।

शल्यकंठ
संज्ञा पुं० [सं० शल्यकण्ठ] साही नामक जंतु।

शल्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साही नामक जंतु। २. मैनफल। मदन। वृक्ष। ३. सफेद खैर। ४. लाल खैर। ५. एक प्रकार की मछली। ६. लोध वृक्ष। ७. बेल। बिल्व। ८. भाला (को०)। ९. काँटा (को०)। १०. ब्याध। बहेलिया (को०)।

शल्यकर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] रामाय़ण के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम।

शल्यकर्त्ता
संज्ञा पुं० [सं० शल्यकर्तृ] वह जो शस्त्रचिकित्सा करता हो। चीरफाड़ का इलाज करनेवाला।

शल्यकी
संज्ञा स्त्री० [सं० शल्लकी? या सं० शल्यक (=साही) + ई (स्त्री० प्रत्य०)] साही नामक जंतु। उ०—रोम रोम बेध्यो तनु बाणन। भयो शल्यकी सरिस दशानन।—रघुराज (शब्द०)।

शल्यक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीरफाड़ का इलाज। शस्त्रचिकित्सा।

शल्यचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शल्यक्रिया'।

शल्यज
वि० [सं०] व्रण या घाव आदि से उत्पन्न।

शल्यज नाडीव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] नाड़ी में होनेवाला एक प्रकार का व्रण या घाव। विशेष—जब किसी घाव में काँटा या कंकड़ आदि पड़कर किसी नाड़ी में पहुँच जाता और वहीं रह जाता है, तब जो व्रण होता है, वह शल्यज नाड़ीव्रण कहलाता है। इसमें घाव में से गरम खून के साथ मवाद निकलता है।

शल्यज मूत्रकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मूत्रकृच्छ। विशेष दे० 'मूत्रकृच्छ'।

शल्यतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० शल्यतन्त्र] सुश्रुत के अनुसार आठ प्रकार के तंत्रों में से एक तंत्र जिसमें चीरफाड़ के यंत्रों, शस्त्रों, क्षारों और अग्निकर्म आदि के प्रयोगों का वर्णन होता है।

शल्यदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेदा नाम की ओषधि।

शल्यपर्णिका, शल्यपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेदा नाम की ओषधि।

शल्यपर्व
संज्ञा पुं० [सं० शल्यपर्वन्] महाभारत का नवाँ पर्व [को०]।

शल्यप्रोत
वि० [सं०] जिसके शरीर में बाण घुसा हो।

शल्यलोम
संज्ञा पुं० [सं० शल्यलोमन्] साही नामक जंतु का काँटा।

शल्यविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीरफाड़ की चिकित्सा। सर्जरी।

शल्यशालक
संज्ञा स्त्री० [सं०] फोड़ों आदि की चीरफाड़ का काम।

शल्यशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिकित्सा शास्त्र का वह अंग जिसमें शरीर में गड़े हुए काँटों आदि के निकालने का विधान रहता है। २. दे० 'शल्यक्रिया'।

शल्यहृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो कुश कंटक आदि को कटकर साफ कर दे। २. शल्यचिकित्सक। चीरफाड़ करनेवाला चिकित्सक। (अं०) सर्जन।

शल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेदा नाम की ओषधि। २. नागवल्ली नाम की लता। ३. विकंकत वृक्ष। ४. एक प्रकार का नृत्य (को०)।

शल्यारि
संज्ञा पुं० [सं०] शल्य को मारनेवाले युधिष्ठिर।

शल्याहरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शल्योद्धार'।

शल्यित
वि० [सं०] शल्ययुक्त। विद्ध [को०]।

शल्योद्धरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शल्योद्धार'।

शल्योद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर में लगे हुए वाण या काँटे आदि निकालने की क्रिया। २. वास्तुविद्या के अनुसार नया मकान बनवाने के समय जमीन को साफ करना और उसमें की हड्डियाँ आदि निकलवाकर फेंकवाना।

शल्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमड़ा। २. वृक्ष की छाल। ३. मेंढक।

शल्ल (२)
वि० [अ०] १. (अंग) जो दुर्बलता या थकावट आदि के कारण बिल्कुल शिथिल, सुस्त या सुन्न हो गया हो। २. काहिल। आलसी (को०)।

शल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शोण वृक्ष। सलई। २. साही नामक जंतु। ३. चमड़ा।

शल्लकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साही नामक जंतु। २. सलई का वृक्ष।

शल्लकीद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस। सल्हक।

शल्लकीरस
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस। सिल्हक।

शल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाव। नौका।

शल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साही नामक जंतु। २. शल्लकी का वृक्ष। सलई।

शल्व पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शाल्व'। उ०—निराकरन जब भीष्म किय, तब अंबिका उदास। लौट गई अपने भवन, शल्व भूप के पास।—रघुराज (शब्द०)।

शव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत शरीर। प्राणरहित देह। लाश। मुर्दा। विशेष—इस शब्द का प्रयोग केवल मनुष्य के मृत शरीर के लिये होता है।

२. जल। पानी।

शवकर्म
संज्ञा पुं० [सं० शवकर्मन्] मृतक कर्म। दाह आदि मृतक संस्कार।

शवकाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुर। कुत्ता।

शवकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का एक नाम।

शवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्प्राणता। निर्जीवता। उ०—जिसमें सब कुछ ले लेना हो हत ! बची क्या शवता। —बी० श० महा०, पृ० १७३।

शवदहन, शवदाह
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य के मृत शरीर को जलाने की क्रिया या भाव। यौ०—शवदहन स्थान, शवदाह स्थान=मरघट। मसान।

शवधान
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रदेश का नाम जिसे शरधान भी कहते हैं।

शवभस्म
संज्ञा पुं० [सं०] चिता का भस्म। मरघट की राख। उ०—शवभस्म विभूषित भूरि गण।—रघुनाथ (शब्द०)।

शवमंदिर
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट।

शवयान
संज्ञा पुं० [सं०] अरथी जिसपर शव ले जाते हैं। टिकठी।

शवर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शवरी] १. एक पहाड़ी जंगली जाति। विशेष—इस जाति के लोग मोरपंख से अपने को सजाते हैं। ये लोग अब तक मध्यप्रदेश और हजारीबाग आदि जिलों में रहते और 'सौर' कहलाते हैं। २. शव। ३. जल।

शवरथ
संज्ञा पुं० [सं०] शवयान। अरथी। टिकठी।

शवरलोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद लोध।

शवरालय
संज्ञा पुं० [सं०] शवरों का गृह। पक्कण [को०]।

शवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शवर जाति की श्रमणा नाम की एक तपस्विनी। विशेष—सीता जी को ढूँढ़ते हुए रामचंद्र जी इस तपसी के आश्रम में पहुँचे थे। इसने राम की अभ्यर्थना की थी और उन्हीं की अनुमति से उनके सामने ही चिता में प्रविष्ट होकर यह स्वर्ग को सिधारी थी। २. शवर जाति की स्त्री।

शवल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीता। चित्रक। २. जल। पानी।

शवल (२)
वि० [वि० स्त्री० शवली] चितकबरा। चित्तल। चीतल।

शवला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चितकबरी गाय।

शवलित
वि० [सं०] १. मिश्रित। मिला हुआ। २. चित्रविचित्र। चित्रकर्बुर। चितकबरा।

शवली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चितकबरी गाय।

शवली (२)
वि० चितक्बरी। उ०—अथवा मधुकरों की शवली अवली नवली नलिनी के चारों ओर गूँजती जान पड़ती थी।— श्यामा०, पृ० २५।

शवशय
संज्ञा पुं० [सं०] कमल [को०]।

शवशयनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

शवशयन
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट।

शवशिविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरथी [को०]।

शवस्
संज्ञा पुं० [सं०] शक्ति। बल। ताकत [को०]।

शवसमाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शव को मिट्टी में गाड़ना या पानी में डुबो देना।

शवसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० शवसाधना] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का साधन। विशेष—यह तांत्रिक साधन है जो श्मशान में किसी व्यक्ति के शव या मृत शरीर पर बैठकर अथवा उसे सामने रखकर किया जाता है। कहते हैं, इस प्रकार के साधन से साधक को सिद्धि और अनंत पद प्राप्त होता है।

शवसान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथिक। यात्रि। २. मार्ग। पथ (को०)। ३. श्मशान। कबरिस्तान (को०)। ४. अग्नि (को०)।

शवाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिता की आग [को०]।

शवाच्छादन
संज्ञा पुं० [सं०] कफन [को०]।

शवान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अन्त जो बिलकुल खराब हो गया हो और किसी काम का न रह गया हो। २. मनुष्य के शव या मृत शरीर का मांस।

शवाश
वि० [सं०] शव का मांस खानेवाली। शवभक्षी [को०]।

शव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह कृत्य या उत्सव जो शव को अंत्येष्टि क्रिया के लिये ले जाने के समय होता है।

शव्य (२)
वि० शव संबंधी [को०]।

शव्वाल
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानों का दसवाँ महीना। हिजरी का दसवाँ महीना।

शश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरहा। खरगोश। २. चंद्रमा का लांछन या कलंक। ३. लाध्रवृक्ष। लोध। ४. कामशास्त्र के अनुसार मनुष्य के चार भेदी में से एक भेद। विशेष—रतिमंजरी के अनुसार जो मनुष्य मृदु वचन बोलता हो, सुशील, कामलांग, सुंदर केशोंवाला, सत्यवादी और सकल- गुण-निधान हो, वह शश जाति का माना जाता है । ५. बाल नामक गंध द्रव्य। गंध रस। ६. मृग। हरिण (को०)।

शश (२)
वि० [फ़ा०] छह्। षट्। यौ०—शशखाना= मकान जिसमें छह कोठरियाँ हों। शशदर= (१) चौसर के खेल में एक घर जहाँ गोटी बंद हो जाती है। (२) चोकत। शशपंज=संकोच। उधेड़बुन। शशपहलू=षट्कोण। शशपाया=जिसमें छह पाए हों। शशमाहा=छह मास का। शशमाही=षाण्मासिक। छमाही।

शशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरगोश। खरहा। २. कामशास्त्रा- नुसार पुरुष का एक भेद। विशेष दे० 'शश' [को०]।

शशगानी
संज्ञा पुं० [फ़ा० शश (=छह् + गानी) ] चाँदी का एक प्रकार का सिक्का जो फिरोजशाह के राज्य में प्रचलित था। यह लगभग दुअन्नी के बराबर होता था।

शशघातक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'शशघाती'।

शशघाती
संज्ञा पुं० [सं० शशघातिन्] बाज या श्येन नामक पक्षी। हरगोला।

शशदर
वि० [फ़ा०] हक्का बक्का। चकित। आश्चर्यपूर्ण। उ०— देख लेगा अगर वह रुख की तजल्ली तेरे, आइना खानए मायूसी में शशदर होगा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ०८५७।

शशधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर। कर्पूर। यौ०—शशधरमुखी= चंद्रमा की तरह नुंदर मुखवाली। चंद्रमुखी। शशधरमौलि=शिव। शंकर [को०]।

शशपद
संज्ञा पुं० [सं०] खरगोश के पैरों का चिह्न [को०]।

शशप्लुतक
संज्ञा पुं० [सं०] नखक्षत [को०]।

शशबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० शशबिन्दु] १. विष्णु। २. चित्ररथ के एक पुत्र का नाम। ३. चंद्रमा (को०)।

शशभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर। यौ०—शशभृतभृत्=शिव। चंद्रमौलि।

शशमाही
वि० [फ़ा०] हर छह महीने पर होनेवाला। छमाही। अर्धवार्षिक।

शशमुंड
संज्ञा पुं० [सं० शशमुण्ड] वैद्यक में एक प्रकार का रस।

शशमौलि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव, जिनके मौलि पर चंद्रलांछन है।

शशयान
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।

शशरज
संज्ञा पुं० [सं० शशरजस्] एक प्रकार की विशेष माप।

शशलक्षण, शशलक्ष्मण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शशलांछन
संज्ञा पुं० [सं० शशलाञ्छन] १. चंद्रमा। २. कपूर [को०]।

शशविंदु
संज्ञा पुं० [सं० शशविन्दु] दे० 'शशबिंदु'।

शशविषाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शशश्रृङ्ग'।

शशशिंविका
संज्ञा स्त्री० [सं० शशशिम्विका] जीवंती। डोडी।

शशशृंग
संज्ञा पुं० [सं० शशश्रृङ्ग] कोई असंभव और अनहोनी बात। वैसा ही असंभव कार्य जैसा खरगोश को सींग होना होता है। आकाशकुसुम की सी असंभव बात।

शशस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा और युमुना के मध्य का प्रदेश। दोआब।

शशांक
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्क] १. चंद्रमा। २. कपूर। ३. हर्षवर्धन का समकालीन गुप्तवंशीय एक प्रतापी राजा जो गौड़ देश का अधिपति था।

शशांकज
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कज] बुध जो चंद्रमा का पुत्र माना जाता है।

शशांकमुकुट
संज्ञा पुं० [सं० शशङकमुकुट] शिव। महादेव।

शशांकमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कमूर्ति] चंद्रमा का एक नाम [को०]।

शशांकलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं० शशङ्कलेखा] चंद्रमा की रेखा या कला [को०]।

शशांकशत्रु
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कशत्रु] राहु [को०]।

शशांकशेखर
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कशेखर] महादेव। शिव।

शशांकसुत
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कसत] बुध ग्रह जो शशांक या चंद्रमा का पुत्र माना जाता है।

शशांकार्ध
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कार्ध] १. शिव। २. अर्ध चंद्र।

शशांकार्धमुख
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कार्धमुख] अर्धचंद्र के आकार का वाण [को०]।

शशांकित
संज्ञा पुं० [सं० शशांङ्कि] १. वह जिसमें शश का चिह्न हो। चंद्रमा। २. वह जो शशांक से युक्त हो।

शशांकोपल
संज्ञा पुं० [सं० शशाङ्कोपल] चंद्रकांत मणि।

शशांडुलि, शशांडुली
संज्ञा स्त्री० [सं० शशाण्डुलि, शशाण्डुली] कड़ुवी ककड़ी।

शश पु
संज्ञा पुं० [सं० शशक] दे० 'शश'।

शशाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाज। श्येन पक्षी। २. भागवत के अनुसार इक्ष्वाकु के एक पुत्र का नाम।

शशादन
संज्ञा पुं० [सं०] बाज नाम का पक्षी।

शशि
संज्ञा पुं० [सं० शशिन्] १. चंद्रमा। इंदु। २. छप्पय के ५४ वें भेद का नाम। इसमें १७ गुरु और ११८ लघु, कुल १३५ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ३. रगण के दूसरे भेद (/?/) की संज्ञा। ४. मोती। ५. एक की संख्या। उ०—एहि भाँति कीन्हयाँ युद्ध शिव शशि मास तब हहरयो हियो।—रघृ- नाथ (शब्द०)।

शशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम। २. इस जनपद में रहनेवाली जाति।

शशिकर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की रश्मि या किरण।

शशिकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंद्रमा की कला। २. एक प्रकार का वृत्त। इसके प्रत्येक चरण में चार नगण और एक सगण होता है। इसका 'मणिगुण' और 'शरम' भी कहते हैं।

शशिकांत
संज्ञा पुं० [सं० शशिकान्त] १. चंद्रकांत मणि। २. कुमुद। कोईं। बघाला।

शशिकुल
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रवंश। उ०—शशिकुल छत्र शिरोमणि आहीं। —गर्गसंहिता (शब्द०)।

शशिकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।

शशिकोटि
संज्ञा पुं० [सं०] द्वितीया के चंद्रमा के दोनों नुकीले कोण या कोटि। चंद्रशृंग [को०]।

शशिक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] द्वितीया का नया चाँद [को०]।

शशिखंड
संज्ञा पुं० [सं० शशिखण्ड] १. शिव। महादेव। २. चंद्रमा की कला। ३. एक विद्याधर का नाम।

शशिखंडिक
संज्ञा पुं० [सं० शशिखण्डिक] पुराणानुसार एक देश का नाम।

शशिगुह्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुलेठो।

शशिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रग्रहण [को०]।

शशिज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का पुत्र, बुध ग्रह। उ०—प्रथम शुक्र दूजे रवि शशजहु राहु चतुर्थ गवाई।—रघुराज (शब्द०)।

शशितनय
संज्ञा पुं० [सं०] बुध ग्रह [को०]।

शशितिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।

शशिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] राजा रंतिदेव का एक नाम [को०]।

शशिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता देवता चंद्रमा माने जाते हैं।

शशिधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २.एक प्राचीन नगर का नाम। उ०—शशिधर नगर जाहु प्रियकारी।—शं० दि० (शब्द०)।

शशिध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक असुर का नाम।

शशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की सोलह कलाओं में से एक का नाम [को०]।

शशिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] परवल। पटोल।

शशिपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बुध ग्रह जो चंद्रमा का पुत्र माना जाता है।

शशिपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। पद्य।

शशिपोषक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का पोषण करनेवाला, शुक्ल पक्ष।

शशिप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसकी प्रभा चंद्रमा के समान हो। २. कुमुद। कोई। ३. मुक्ता। मोती।

शशिप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योत्सना। चाँदनी।

शशिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमुद। कोई। २. मुक्ता। मोती।

शशिप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सत्ताइसों नक्षत्र जो चंद्रमा की पत्नियाँ माने जाते हैं।

शशिभागा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा मुचकुंद की कन्या का नाम। उ०—सुनत कहेउ पति ते शशिभागा।—रघुनाथ (शब्द०)।

शशिमाल
संज्ञा पुं० [सं०] मस्तक पर चंद्रमा धारण करनेवाले, शिव। महादेव। उ०—जय सज्जन रिपुकाल, जयति पाल शशिमाल अज। रघुराज (शब्द०)।

शशिभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

शशिभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

शशिमंडल
संज्ञा पुं० [सं० शशिमणडल] चंद्रमा का घेरा या मंडल। उ०—सब नक्षत्र को राजा दीन्हों शशिमंडल में चाप।—सूर (शब्द०)।

शशिमणि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रकांत मणि।

शशिमुख
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शशिमुखी] (वह व्यक्ति) जिसका मुख चंद्रमा के सदृश सुंदर हो। अति सुंदर। उ०—(क) राग सुनि भक्तन को भयो, अनुराग वश शशिमुख लाल जू को जाइके सुनाइये।— नाभादास (शब्द०)। (ख) शशिमुख पर घूँघट डाले।

शशिमौलि
संज्ञा सं० [सं०] शिव। महादेव।

शशिरस
संज्ञा पुं० [सं०] अमृत।

शशिरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की एक कला।

शशिलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंद्रमा की कला। २. बकुची। सोमराजी। ३. गिलोय। गुरूच।

शशिवदना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण (/?/) और एक यगण (/?/) होता है। इसे चौवंसा, चंडरसा और पादांकुलक भी कहते हैं। उ०—पिक द्विज देखे। कुपित विशेषे। नयन निराते। बचन निताते।— गुमान (शब्द०)।

शशिवदना (२)
वि० स्त्री० चंद्रमा के समान सुंदर मुखवाली। शशिमुखी।

शशिवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुनर्नवा। गदहपूरना।

शशिशाला पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शशि + सं० शाला (=आलय)] वह घर जो बहत से शीशीं का बना हुआ हो या जिसमें बहुत से शीशे लगे हुए हों। शीशमहल। उ०—(क) अति उतंग सुंदर शशिशाला सात मरातिब बोर।—रघुराज (शब्द०)। (ख) पूरति सस्य प्रमोद मही सब शशि भूपति शशिशाला।— रघुराज (शब्द०)। (ग) शशिशाला अंतःपुरशाला शाला सभा सदन के।—रघुराज (शब्द०)।

शशिशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। उ०—(क) शिला एक बिच लसत चिह्न तहँ पद सशिशेखर। —लक्ष्मण (शब्द०)। (ख) अंबर में हुँ दिगंबर अर्पित शशिशेखर।—अपरा, पृ० ८०। २. एक बुद्ध का नाम।

शशिशोषक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की क्षीण करनेवाला, कृष्ण पक्ष।

शशिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का पुत्र, बुध ग्रह।

शशिहासिनी
वि० स्त्री० [सं० शशि + हासिनी] चंद्रमा की तरह हँसनेवाली या हासयुक्त (स्त्री)। उ०—मेरा मानस तो शशिहासिनि तेरी क्रीड़ा का स्थल है।—वीणा, पृ० ८।

शशिहीरा पु
संज्ञा पुं० [सं० शशि + हिं० हीरा] चद्रंकात मणि। उ०—शशिहीरा की एक बात। कलीन कील तब लजानौं गात।—रत्नपरीक्षा (शब्द०)।

शशी
संज्ञा पुं० [सं० शशिन्] चंद्रमा। उ०—सहजी दसवें दार की कथा सुनीजै संत। तहँ प्रगास अति धना तहँ शशी अर सूर अनंत।—प्राण०, पृ० १८।

शशीअर पु †
संज्ञा पुं० [सं० शशघर] चंद्रमा।

शशीकर
संज्ञा पुं० [सं० शशिकर] चंद्रमा की किरण।

शशीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. कार्तिकेय।

शश्वत् (१)
अव्य० [सं०] १. सर्वदा। हमेशा। अनादि काल से। २. पुनः पुनः। बार बार [को०]।

शश्वत् (२)
वि० [सं० शश्वत्] दे० 'शाश्वत'।

शाष्कुल
संज्ञा पुं० [सं०] करंज।

शष्कुलि, शष्कुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूरी, पक्वान्न आदि। २. कान का छेद। ३. सौरी मछली। ४. माँड़ (को०)। ५. करंज (को०)। ६. कर्णरोग। कान का रोग (को०)।

शष्प
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नई घास। नीली दूब। ३. बौद्विक चेतना न रहना। प्रतिभाक्षय (को०)। ४. पशम। रोयाँ (बोलचाल)। यौ०—शष्पबृसी=कुश की चटाई। शष्पभुक्, शष्पभोजन=घास खानेवाला। पशु।

शसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ के लिये पशुओं की हत्या करना। २. वह स्थान जहाँ पशुओं का बलिदान होता हो। ३. बध। हिंसा। हत्या (को०)।

शसा पु
संज्ञा पुं० [सं० शशक] खरगोश। खरहा।

शसि पु
संज्ञा पुं० [सं० शशि] दे० 'शशि'।

शसी पु
संज्ञा पुं० [सं० शशि] दे० 'शशि'।

शस्कुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शष्कुली' [को०]।

शस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर। बदन। जिस्म। २. कल्याण। मंगल। भलाई। ३. अंगुलित्राण (को०)। ४. उत्कृष्टता। प्रशस्तता। उत्तमता (को०)। ५. बाँधक। हत्यारा (को०)।

शस्त (२)
वि० १. जिसकी प्रशंसा की गई हो। २. अच्छा। उत्तम। श्रेष्ठ। ३. प्रशस्त। ४. जो मार डाला गया हो। निहत। ५. घायल। जख्मी। चुटैल (को०)। ६. कल्याणयुक्त। मंगल- युक्त। ७. बार बार कहा गया (को०)।

शस्त (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. वह हड्डी या बालों का छल्ला जो तीर चलाने के समय अँगूठे में पहना जाता है। अँगुलित्राण। २. वह जिसपर तीर या गोली आदि चलाई जाती है। लक्ष्य। निशाना। मुहा०—शस्त बाँधना या लगाना = निशाना बेधने के लिये सीध या ताक लगाना। ३. जमीन की पैमाइस करनेवालों की दूरबीन के आकार का वह यंत्र जिसको सहायता से जमीन की सीध देखी जाती है। ४. मछली पकड़ने का काँटा।

शस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में पहनने का चमड़े का दस्ताना। अंगुलित्राण।

शस्तर पु †
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्र] शस्त्र। हथियार। उ०—दरिया शस्तर बाँधकर बहुत कहावै सूर।—दरिया० बानी, पृ० ११।

शस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्तुत्ति। स्तोत्र। २. प्रशंसा। तारीफ। ३. अंगुलित्राण (को०)।

शस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हथियार। आयुध। लोहा। २. उपकरण। औजार। ३. इस्पात। ४. स्तोत्र। ५. बार बार कथन। पाठ [को०]।

शस्त्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा। लौह। २. इस्पात। चित्रायस। पिंडायस। सारलोह (को०)। ३. औजार। शस्त्र (को०)।

शस्त्रकर्म
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्रकर्म्मन] घाव या फोडों में नश्तर लगाना। फोड़ों आदि की चीर फाड़ का काम।

शस्त्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] हथियार वनानेवाला। शस्त्रों का निर्माण करनेवाला कारीगर [को०]।

शस्त्रकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का केतु जो पूर्व में उदय होता है। कहते हैं, इसके उदय होने पर महामारो फैलती है।

शस्त्रकोप
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।

शस्त्रकोश
संज्ञा पुं० [सं०] म्यान [को०]।

शस्त्रकोशतरू
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा मैनफल।

शस्त्रकोष
संज्ञा पुं० [सं०] हथियार रखने का खाना। म्यान [को०]।

शस्त्रक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] फोड़ों आदि की चीरफाड़। नशतर लगाने की क्रिया।

शस्त्रक्षार
संज्ञा पुं० [पुं०] सोहागा [को०]।

शस्त्रगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के शस्त्र आदि रहते हों। शस्त्रशाला। हथियार घर। सिलहखाना।

शस्त्रग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई [को०]।

शस्त्रग्राही
वि० [सं० शस्त्रग्राहिन्] हथियार धारण करनेवाला। शस्त्रपाणि [को०]।

शस्त्रचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शस्त्र द्वारा उपचार करना।

शस्त्रचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] भंडूर।

शस्त्रजीवी
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्रजीविन्] योद्धा। सैनिक। सिपाही।

शस्त्रत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] आयुधों का परित्याग। हथियार डालना [को०]।

शस्त्रधर
वि, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शस्त्रधारी' [को०]।

शस्त्रधारी
वि० [सं० शस्त्रधारिन्] [स्त्री० शस्त्रधारिणी] शस्त्र धारण करनेवाला। हथियारबंद।

शस्त्रधारी (२)
संज्ञा पुं० १. योद्धा। सिपाही। सैनिक। २. एक प्रकार का जंतु जिसे सिलहपोश भी कहते हैं। ३. एक प्राचीन देश का नाम।

शस्त्रनिपातन
संज्ञा पुं० [सं०] शल्यक्रिया। चीरफाड़ [को०]।

शस्त्रन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रत्याग। हथियार डाल देना [को०]।

शस्त्रपाणि (१)
वि० [सं०] हथियारबंद [को०]।

शस्त्रपाणि (२)
संज्ञा पुं० योद्धा। सिपाही।

शस्त्रपूत
वि० [सं०] शस्त्रों द्वारा पवित्रीकृत। युद्ध क्षेत्र में मारे जाने से मूक्त [को०]।

शस्त्रप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] हथियार की चोट [को०]।

शस्त्रबल
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्र, सेना आदि की शक्ति। सैन्यबल उ०—अगर हम आपको स्वेच्छा से यह करोड़ों रूपया न दें तो आप हमसे शस्त्रबल के जरिये छीन सकते हैं।—अखबार।

शस्त्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शस्त्र धारण करता हो। शस्त्रधारी।

शस्त्रमार्ज
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो हथियार की सफाई करता हो। सिकलीगर [को०]।

शस्त्रवार्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम।

शस्त्रवार्त्त
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रजीवी। दे० 'शस्त्रवृत्ति' [को०]।

शस्त्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हथियार चलाने की विद्या। २. यजुर्वेद का उपवेद्र, धनुर्वेद, जिसमें सब प्रकार के अस्त्र चलाने की विधियों और लड़ाई के संपूर्ण भेदों का वर्णन दिया गया है।

शस्त्रविधान
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्र + विधान] सूरक्षा के लिये शरीर के किसी अंग का शस्त्र जैसा होना। प्रकृतिदत्त आंगिक शस्त्रयुक्तता या शस्त्र जैसी स्थिति। उ०—जिन क्षुद से क्षुद जीवों के शरीर में बचाव के लिये शस्त्रविधान होता है वे बाधा पहुँचने पर आपसे आप संस्कारवश जिधर से बाधा आती हुई जान पड़ती है उस ओर झपट बड़ते हैं।—रस०, पृ० १६२।

शस्त्रवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शस्त्र आदि चलाकर अपना निर्वाह करता हो। योद्धा। सैनिक। सिपाही।

शस्त्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ बहुत से शस्त्र आदि रखे हों। शस्त्रगृह। शस्त्रागार। सिलहखाना।

शस्त्रशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शास्त्र जिसमें हथियार चलाने आदि का निरूपण हो। २. धनुर्वेद।

शस्त्रहत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी हत्या शस्त्र द्वारा हुई हो।

शस्त्रहत चर्तुदशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौण आश्विन कृष्ण चतुर्दशी और गौण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी। विशेष—इन दोनों चतुर्दशियों को उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है, जिनकी हत्या शस्त्रों द्वारा हुई रहती है।

शस्त्रहस्त
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शस्त्रधारी'।

शस्त्रांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० शस्त्राङ्गा] खट्टी लोनी या अमलोनी जिसका साग होता है। चांगेरी।

शस्त्राख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार का केतु। २. लौह। लोहा (को०)।

शस्त्रागार
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रों के रखने का स्थान। शस्त्रशाला। शस्त्रालय। सिलहखाना।

शस्त्राजीव
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रजीवी। योद्धा [को०]।

शस्त्राभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] शस्त्रास्त्र चलाने का अभ्यास। सैनिक शिक्षा में निपुणता [को०]।

शस्त्रायस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लोहा जिससे शस्त्र बनाए जाते हैं। इस्पात। फौलाद। २. लोहा (को०)।

शस्त्रास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में रहनेवाले (शस्त्र) और फेंककर मारे जानेवाले (अस्त्र) हथियार।

शस्त्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छुरिका। कृपाणी। असिपुत्रिका। [को०]।

शस्त्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्रिन्] १. वह जो शस्त्र आदि चलाना जानता हो। २. वह जिसके पास शस्त्र हों। शस्त्रसज्ज व्यक्ति।

शस्त्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छुरी। चाकू।

शस्त्रीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] सैनिकों को विविध शस्त्रास्त्रों से सज्जित करना। युद्ध वा शांति के नाम पर सेना और युद्ध सामग्री की प्रवृद्धि। उ०—आज के शस्त्रीकरण में वे भी धीमे धीमे लोप हो रही हैं।—अखबार।

शस्त्रोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० शस्त्रोपजीविन्] दे० 'शस्त्रजीवी' [को०]।

शस्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शष्प' [को०]।

शस्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नई घास। कोमल तृण। २. वृक्षों काफल। ३. खेती। फसल। ४. प्रतिभा की हानि या नाश। ५. धान्य। अन्न। ६. सदगुण।

शस्य (१)
वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। अच्छा। २. प्रशंसा के योग्य। तारीफ के लायक। ३. काटकर गिराने योग्य (को०)।

शस्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रत्न। २. असि। तलवार (को०)।

शस्यक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज का खेत [को०]।

शस्यघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोरहुली। चोर पुष्पी।

शस्यध्वंसी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शस्यध्वंसिन्] तून का पेड़। तूर्णवृक्ष।

शस्यध्वंसी (२)
वि० जिससे शस्य का नाश हो।

शस्यपाल
संज्ञा पुं० [सं०] खेत का रखवाला [को०]।

शस्यभक्षक
वि० [सं०] अनाज या खेत खानेवाला [को०]।

शस्यमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शस्यमञ्जरी] १. गेहूँ, जौ आदि अनाज की बाली। २. फल का वह अँस जिससे वे डाल से लगे रहते हैं। वृंत। फल। कांड [को०]।

शस्यमारी
संज्ञा पुं० [शस्यमारिन्] एक प्रकार का बड़ा भूषक या चूहा [को०]।

शस्यमाली
वि० [सं० शस्यमालिन्] फसल से हरा भरा। लहलाता हुआ [को०]।

शस्यरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] खेती का रखवाला। शस्यपाल [को०]।

शस्यवेद
संज्ञा पुं० [सं०] कृषि संबंधी ज्ञान। कृषि शास्त्र [को०]।

शस्यशाली
वि० [सं० शस्यशलिन्] अन्न से युक्त। धान्य से परिपूर्ण [को०]।

शस्यश्रूक
संज्ञा पुं० [सं०] धान, यव की बाली का नुकीला अगला भाग [को०]।

शस्यसंपन्न
वि० [सं० शस्यसम्पन्न] दे० 'शस्यशाली' [को०]।

शस्यसंपद्
संज्ञा स्त्री० [सं० शस्यसम्पद्] शस्य वा अन्न रूपी संपत्ति। धान्य की अधिकता [को०]।

शस्यसंवर
संज्ञा पुं० [सं० शस्यसम्वर] १. शालवृक्ष। २. अश्वकर्ण वृक्ष।

शस्यहंता (१)
वि० [सं० शस्यहन्तृ] फसल या खेती को नष्ट करनेवाला [को०]।

शस्यहंता (२)
संज्ञा पुं० एक दैत्य का नाम [को०]।

शस्यहा
वि०, संज्ञा पुं० [सं० शस्यहन्] दे० 'शस्यहंता'।

शस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद की ऋचा [को०]।

शस्यागार
संज्ञा पुं० [सं०] खलिहान [को०]।

शस्यारू
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी शसी।

शहंशा
संज्ञा पुं० [सं०] राजाधिराध। शाहंशाह।

शहंशाह
संज्ञा पुं० [फ़ा०] बादशाहों का बादशाह। सम्राट। महारजा- धिराज। शाहंशाह।

शहंशाही (१)
वि० [फ़ा०] शाहों का सा। शाही। राजसी।

शहशाही (२)
संज्ञा स्त्री० १. शाहंशाह का भाव या धर्म। २. शाहंशाह का पद। ३. लेने देने में खरापन। (बाजारू)। क्रि० प्र०—दिखालाना।—रखना।

शह (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाह का संक्षिप्त रूप] १. बहुत बड़ा राजा। बादशाह। २. बर। दूल्हा। यौ०—शहबाला।

शह (२)
वि० बढ़ा चढ़ा। श्रेष्ठतर। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल यौगिक शब्द बनाने के समय उसके आरंभ में होता है। जैसे,—शहजोर, शहबाज, शहसवार।

शह (३)
संज्ञा स्त्री० १. शतरंज के खेल में कोई मुहरा किसी ऐसे स्थान पर रखना चहाँ से विपक्षी बादशाह उसकी मार में हो। किश्त। उ०—राजा पील देइ शह माँगा। शह दै चाहि मरे रथ खागा।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—बचाना।—लगाना। २. गुप्त रूप से किसी के भड़काने या उभारने की क्रिया या भाव। बढ़ावा। हुशकारी। जैसे,—ये तुम्हारी शह पाकर ही तो इतना उछलते हैं। क्रि० प्र०—देना= बढ़ावा देना। उभारना। उ०—मिर्जा साहब ने मुहम्मद अस्करी को अब मैदान खाली पाकर और भी शह दी और चंग पर चढाया।—सैर०, भा० १, पृ० २३।— पाना।—मिलना। ३. गुड्डी, पतंग या कलकौवे आदि को धीरे धीरे, डोर ढीली करते हुए, आगे बढ़ाने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।

शहकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] किसी कलाकार की सर्वोत्कृष्ट कृति [को०]।

शहकारा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बदचलन औरत।

शहखर्च
वि० [फा़०] बहुत अधिक व्यय करनेवाला। शाह की तरह खर्च करनेवाला [को०]।

शहचाल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शह + हिं० चाल] शतरंज में बदशाह की वह चाल जो और मोहरों के मारे जाने पर चली जाती है।

शहजादगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शहजादगी] शहजादा होने का भाव। राजकुमारपन [को०]।

शहजादा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शहजादहु] [स्त्री० शहजादी] १. राजपुत्र। राजकुमार। २. राज्य का उत्तराधिकारी। युवराज।

शहजादी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शहजादी] दे० 'शाहजादी'। उ०—आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ ऐसा बेकाबू मन, क्या जादू कर गया नया किस शहजादी का भोलापन।—ठंडा०, पृ० २५।

शहजोर
वि० [फ़ा० शहजोर] बली। बलवान। ताकतवर।

शहजोरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शहजोरी] बल। ताकत। जबरदस्ती।

शहत
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'शहद'।

शहतरा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पितपापड़ा। शाहतरा [को०]।

शहतीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] लकड़ी का चीरा हुआ बहुत बड़ा और लंबा लट्ठा जो प्रायः इमारत के काम में आता है।

शहतूत
संज्ञा पुं० [फ़ा०] तूत नाम का पेड़ और उसका फल। विशेष दे० 'तूत'।

शहद
संज्ञा पुं० [अ०] शीरे की तरह का एक बहुत प्रसिद्ध मीठा, गाढ़ा, तरल पदार्थ जो कई प्रकार के कीड़े और विशेषतः मधु- मक्खियाँ अनेक प्रकार के फूलों के मकरंद से संग्रह करके अपने छत्तों में रखती हैं। मधु। विशेष—शहद अनेक रंग के होते हैं। यह जब अपने शुद्ध रूप में रहता है, तब इसका रंग सफेदी लिए कुछ लाल या पीला होता है। यह पानी में सहज में घुल जाता है। यह बहुत बलवर्धक माना जाता है और प्रायः औषधों के साथ, दूध में मिलाकर अथवा यों ही खाया जाता है। इसमें फल आदि भी रक्षित रखे जाते हैं; अथवा उनका मुरब्बा डाला जाता है। योरप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि अनेक देशों में इसका जलपान के साथ पर्याप्त प्रयोग होता है। कभी कभी ऐसा शहद भी मिलता है जो मादक या विष होता है। वैद्यक में यह शीतवीर्य, लघु, रुक्ष, धारक, आँखों के लिये हितकारी, अग्निदीपक, स्वास्थ्यवर्धक, वर्णप्रसादक, चित्त को प्रसन्न करनेवाला, मेधा और वीर्य बढ़ानेवाला, रूचिकारक और कौढ़, बवासीर, खाँसी, कफ, प्रमेह, व्यास, कै, हिचकी, अतीसार, मलरोध और दाह को दूर करनेवाला माना गया है। मुहा०—शहद लगाकर चाटना=किसी निरर्थक पदार्थ को यों ही लिए रहना और उसका कुछ भी उपयोग न कर सकना। (व्यंग्य)। जैसे—उसका दिवाला हो गया, अब आप अपना तमस्सुक शहद लगाकर चाटिए। शहद लगाकर अलग होना = उपद्रव का सूत्रपात करके अलग होना। आग लगाकर दूर होना। यौ०—शहद की छुरी = जो जवान का मीठा पर दिल का बुरा हो। शहद की मक्खी = (१) मधुमक्षिका। (२) वह जो लोभ के कारण पीछे लगा रहे।

शहनगी
संज्ञा पुं० [अं० शहनहु + गी] १. शस्त्ररक्षक का कार्य। २. वह धन जो चौकीदार को देने के लिये असामियों से वसूल किया जाता है। चौकीदारी।

शहना
संज्ञा पुं० [अ० शहनह्] १. खेत की चौकसी करनेवाला। शस्यरक्षक। २. वहु व्यक्ति जो जमींदार की ओर से असामियों को बिना पोत दिए, खेत की उपज उठाने से रोकने और उसकी रक्षा के लिये नियुक्त किया जाता है। ३. कोतवाल। नगररक्षक।

शहनाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बाँसुरी या अलगोजे के आकार का, पर उससे कुछ बड़ा, मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो प्रायः रोशनचौकी के साथ बजाया जाता है। नफीरी। २. दे० 'रोशनचौकी'।

शहनाज
वि० [फ़ा० शहनाज] दुलहन। नवविवाहिता।

शहनामा पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाहनामहू] दे० 'शाहनामा'।

शहपर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पक्षी का डैना जिसमें पंख या पर होते हैं [को०]। मुहा०—शहपर झाड़ना = कमजोर और खराब पर गिराने के लिये पक्षियों का अपने डैनों को हिलाना।

शहबाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० शहबाज्] एक प्रकार का शिकारी बाज। बड़ा बाज० उ०—किस पर छोड़े निगाह का शहबाज, क्या करे है शिकार को बातें। —कविता कौ०, भा० ४, पृ० २४। २. बीर। बहादुर। योद्धा।

शहबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शहबाजी] वीरता। बहादुरी।

शहबाला
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह छोटा बालक जो विवाह के समय दूल्हे के साथ पालकी पर अथवा उसके पीछे घोड़े पर बैठकर जाता है। यह प्रायः वर का छोटा भाई या उसका कोई निकट संबंधी हुआ करता है।

शहबुलबुल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] एक प्रकार की बुलबुल। विशेष—इसका सारा शरीर लाल होता है, केवल कंठ काला होता है, और सिर पर सुनहले रंग की चोटा होती है।

शहमात
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. शतरंज के खेल में एक प्रकार की मात। विशेष—इसमें बादशाह को केवल शह या किश्त देकर इस प्रकार मात किया जाता है कि बादशाह के चलने के लिये और कोई घर ही नहीं रह जाता। उ०—राजा चहे बुर्दभा, शाह चहै शहमात।—जायसी। २. निरूत्तर या चुप कर देनेवाली बात।

शहर
संज्ञा पुं० [फ़ा० शहर, शह्ल] मनुष्यों की वह बड़ी बस्ती जो कस्बे से बहुत बड़ी हो, जहाँ हर पेशो के लोग रहते हों और जिसमें अधिकतर पक्के मकान हों। उ०—रघुराज गरीब नवाज दोऊ अवलोकन काज चले शहरै।—रघुराज (शब्द०)। मुहा०—शहर की दाई = सबके घर का हाल चाल जानने या रखनेवाली स्त्री।

शहरग
सं० पुं० [फ़ा० शाहरग का संक्षिप्त रूप] शरीर की सबसे बड़ी रग या नाड़ा जो हृदय में मिलता है। सुषुम्ना। सुखमना। उ०—क्या भटकता फिर रहा तू है तलाश यार में। रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिये।—तुलसी० श०, पृ० ५। यौ०—शहरखवरा = घर घर की या पूरे नगर का हाल चाल रखनेवाला। शहरगश्त, शहरगिर्द = (१) पतरौल। (२) शहर में घूमनेवाला। शहरदार = नगर का निवासी। शहरपनाह। शहरबंद। शहरबदर = दे० 'शहर बदल'। शहह व शहर = (१) एक से दूसरे नगर तक। (२) स्थान स्थान में। जगह जगह। शहरबाश = शहरी। नागरिक। शहरयार। शहरयारी। शहरशमला = जहाँ न्याय की जगह अन्याय होता हो। अँधेर नगरी।

शहरपनाह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] नगर के चारों ओर बनी हुई पक्की दीवार। वह दीवार जो किसी नगर के चारों ओर रक्षा केलिये बनाई जाय। शहर की चारदीवारी। प्राचीर। नगर- कोटा। उ०—गमनत बरात सुहात ऐहि विधि निकट शहरपनाह के।—रघुराज (शब्द०)।

शहरबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. जेल। कारा। २. दुर्ग। कोट। किला। ३. वह व्यक्ति जिसे राज्य की ओर से शहर से बाहर जाने की आज्ञा न हो। ४. किसी शुभ अवसर पर होनेवाली शहर की सजावट [को०]।

शहरबदल
वि० [फ़ा०] जिसे शहर से निकाले जाने का दंड मिला हो। निर्वासित। क्रि० प्र०—करना।—होना।

शहरयार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] नृपति। बादशाह। शासक। उ०—तो फिर उसका क्या पूछना है ऐ यार। ओ दोनों जहाँ का हुआ शहरयार।—दक्खिनी०, पृ० २३२।

शहरयारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बादशाहत। शहंशाही। शाही दबदबा [को०]।

शहराती
वि० [फ़ा० शहर + हिं० आती (प्रत्य़०)] नागरिक। शहर का निवासी। शहरी। उ०—आज हम शहरातियों को, पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से। हरी घास०, पृ० ५८।

शहरी
वि० [फ़ा०] १. शहर से संबंध रखनेवाला। शहर का। २. शहर का रहनेवाला। नगर का निवासी। नागरिक। ३. सभ्य शिष्ट [को०]।

शहवत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कामानुरता। काम का उद्रेक। स्त्री- प्रसंग की प्रबल आकांक्षा। उ०—ना जोरू ना मर्द है ना शहवत ना साख। ना माय ना बाप है ना बेटा ना आख।—दाक्खिनी०, पृ० ३८४। क्रि० प्र०—उठाना।—होना। २. भाग विलास। विषय। मैथुन। यौ०—शहवतपरस्त = कामुक। भागा। विषया। शहवतपरस्ता = कामुकता। ऐयाशी।

शहवात
संज्ञा स्त्री० [अ० शहवत का बहुवचन] इच्छाएँ। कामवासनाएँ। उ०—यह कहन का ही है सब आदमे जाद। किया शहवात न अक्ल उनका बरबाद।—कबार म०, पृ० २०८।

शहसवार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो घोड़े पर अच्छी तरह सवारी कर सकता हो। अच्छा सवार। सवारो म चतुर। उ०—यह अच्छे अच्छे शहसवारों का मात करता है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २।

शहादत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. गवाही। साक्ष्य। क्रि० प्र०—गुजरना।—देना।—मिलना।—लेना। २. सबूत। प्रमाण। ३. धर्म या देश के लिये लड़ाई आदि मे मारा जाना। शहीद होना (मुसल०)। यौ०—शहादतकदा, शहादतगाह = शहीद होने का स्थान। शहदतनाम = (१) वह ग्रंथ जिसमें धर्म के लिये शहीद होने का वर्णन हो। (२) शहादत का कलमा जो वस्त्र पर लिखा रहता और कफन के साथ रखा जाता है। (३) प्रमाणपत्र। सनद।

शहाना (१)
संज्ञा पुं० [देश० या फ़ा० शाह] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। विशेष—यह राग फरोदस्त और कान्हड़ा को मिलाकर बनाया गया है और इसका व्यवहार प्रायः उत्सवों तथा धर्म् संबंधी कार्यों में होता है। शास्त्र के अनुसार यह मालकोश राग की रागिनी है। इसके गाने का समय ११ दंड से १५ दंड तक है।

शहाना (२)
वि० [फ़ा० शहानड्] शाहों या बादशाहों का सा। राजाओं के योग्य। शाही। राजसी। २. बहतु बढ़िया। उत्तम।

शहाना (३)
संज्ञा पुं० वह जोड़ा जो विवाह के समय दूल्हे को पहनाया जाता है। यौ०—शहाना जोडा़ = (१) लाल रंग का पहनावा या पोशाक। (२) दूल्हे का जोड़ा जामा जो लाल रंग का होता है। शहाना वक्त = सायंकाल। सुहावना समय। शहाती चूड़ी = विवाह के समय दुलहन के हाथ को लाल रंग की चूड़ियाँ। शहानी मेहँदी = गहरे लाल रंग की मेहँदी। विवाह के अवसर पर दुलहन के हाथों में लगाई मेहँदी।

शहाना कान्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० शहाना + कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक प्रकार का कान्हड़ा राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

शहाब
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का गहरा लाल रंग। उ०—त्योरी में बल बलों के ताब के बदले। खून में रँगना कपड़ा शहाब के बदले।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०३। विशेष—यह रंग कुसुम के खूब अच्चे और गहरे लाल रंग में आम या इमली की छाल मिलाकर बनाया जाता है।

शहाबा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शहाब = (गहरा लाल)] दे० 'अगिया बैताल'—२।

शहाबी
वि० [फ़ा० शहाब + ई (प्रत्य०)] शहाब के रंग का। गहरा लाल।

शहाबुद्दीन (गोरी)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] गजनी का एक शाह जिसने चौहान नरेश पृष्वीराज (११९७ ई० में) को पराजित कर भारत में मुसलिम साम्राज्य कायम किया।

शहिजदा पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० शाहजादह्] [स्त्री० शहिजादी] दे० 'शहजादा'। उ०—(क) पठ्यो कबरू नाम जेह, शाहजादा को शाह।—रघुराज (शब्द०)। (ख) रहो शाह की एक शाह- जादी। लखि सो मूरत छबी मरयादा। रघुराज (शब्द०)।

शही
वि० [फ़ा०] शाही। राजा का। राजा संबंधी [को०]।

शहीद
संज्ञा पुं० [अं०] वह व्यक्ति जो धर्म या इसी प्रकार के और किसी शुभ कार्य के लिये युद्ध आदि में मारा गया हो। न्यौछावर या बलिदान होनेवाला व्यक्ति।

शहीद मर्द
संज्ञा पुं० [अ० शहीद + फ़ा० मर्द] धर्म या ईश्वर के नाम पर जान देनेवाली [को०]।

शहीदाना
वि० [फ़ा० शहीदानह्] शहीद के ढग का। शहीदों जैसा। उ०—शहीदाना तंतुओं से भरा हुआ, विधायकता से रहित व्यक्ति, अपना शहीद प्रवृत्ति के लिये, काल और पात्र की उपयुक्तता अनुपयुक्तता के लिये नहीं ठहरता। शुक्ल अभि० ग्रं० (जी०), पृ० ५५।

शहीदी
वि० [फ़ा०] १. जो शहीद होने को तैयार हो। रक्त (वर्ण)। लाल। यौ०—शहीदी जत्था = शहीद होने को तैयार लोगों का समूह। शहीदी तरबूज = एक प्रकार का गहरा लाल तरबूज। उ०— तुम आप जाओ और एक अच्छा सा शहीदो तरबूज देख कर लाओ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २६१।

शहीदेकर्बला
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कबंला के युद्ध में शहीद होनेवाले, हजरत इमाम हुसेन।

शहना
संज्ञा पुं० [अ०] १. चौकीदार। २. कोतवाल। ३. शस्यपाल [को०]।

शह् नाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दे० 'शहनगी'।