विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ब
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ब
⋙ ब
हिंदी का तेईसवाँ व्यंजन और पवर्ग का तीसरा वर्ण। यह ओष्ठय वर्ण है और दोनों होठों के मिलाने से इसका उच्चारण होता है। इसलिये इसे स्पर्श वर्ण कहते हैं। यह अल्पप्राण है और इसके उच्चारण में संवार, नाद और गोष नामक बाह्य प्रयत्न होते हैं।
⋙ बं
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] 'बं' की ध्वनि। मुहा०—बं बोलना = केवल ध्वनि करना। हिम्मत छोड़ बैठना। उ०—शिमला छाँड़ि बिलायत भागे लाट लिटिन बं बोल।— प्रेमघन०, भा०२, पृ० ३६१।
⋙ बंक (१)
वि० [सं० वक्र, वङ्ग] १. टेढ़ा। तिरछा। उ०—कोउ झिझकारें कोउन, बंक जुग मौंह मरोंरैं।—प्रेमघन०, भाग १, पृ० १०। २. पुरुषार्थी। विक्रमशाली। ३. दुर्गम। जिस तक पहुँच न हो सके। उ०—(क) जो बंक गढ़ लंक सो ढका ढकेलि ढाहिगो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लंक से बंक महागढ़ दुर्गम ढाहिबे दाहिबे को कहरी है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बंक (२)
संज्ञा पुं० [अं० बैंक] वह कार्यालय या संस्था जो लोगों का रुपया सूद देकर अपने यहाँ जमा करती अथवा सूद लेकर लोगों को ऋण देती है। लोगों की हुंडियाँ लेती और भेजती है तथा इसी प्रकार के दूसरे महाजनी के कार्य करती है।
⋙ बंकट पु (१)
वि० [सं० वङ्क, प्रा० बंकुड] १. वक्र। टेढ़ा। उ०— (क) ठठकति चले मटकि मुँह मोरै बंकट भौंह मरोरै।— सुर (शब्द०)। (ख) भृकुटि बंकट चारु लोचन रही युवती देखि।—सुर (सब्द०)। २. तिरछा। बाँका। उ०—निपट बंकट छबि अटके मेरे नैना।—संतवाणी०, भाग२, पृ० ७६। ३. विकट। दुर्गम। उ०—जंतुम बंकट ठौरं।—पृ० रा०, ६।१७३।
⋙ बंकट (२)
संज्ञा पुं० [?] हनुमान। (ड़िं०)।
⋙ बंकनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंक + नाल] सुनारों की एक नली जो बहुत बारीक टुकड़ों की जुड़ाई करने के समय चिराग की लौ फुँकने के काम आती है। बगनहा। २. शरीर की एक नाड़ी। सुषुम्ना। उ०—बंकनाल की औघट घाटी, तहाँ न पग ठहराई।—कबीर० श०, भा० ३ पृ० ७८।
⋙ बकनालि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बंकनाल'—२। उ०—मूल सहस्त्र पवनाँ बहै। बंकनालि तब बहत रहै।—गोरख०, पृ० १८१।
⋙ वकबला †
संज्ञा पुं० [हिं०] बाँह पर का एक आभूषण। उ०— बहान में बाजु बँद बंकबला बाँहन पर साधे।—भक्ति०, पृ० ९।
⋙ बंकम
संज्ञा पुं० [सं० वङ्किम] कष्ट। दुःख। घुमाव। मोड़। उ०—जहँ जहँ सुदेव बंकम परिय करिय अभय तुम देब तब।—पृ० रा०, ६। ६२।
⋙ बंकराज
संज्ञा पुं० [सं० वङ्क + राज] एक प्रकार का सर्प। उ०— पातराज, दुधराज, बंकराज, शंकरचुर और मणिचुर आदि साँप बड़े फनवालें हैं।—सर्पाघात चिकित्सा (शब्द०)।
⋙ बंकवा †
संज्ञा पुं० [सं० वङ्क] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है। इसका चावल सैकड़ों वर्ष तक रह सकता है।
⋙ बंकसाल
संज्ञा पुं० [देश०] जहाज का वह बड़ा कमरा जिसमें मस्तुलों पर चढ़ानेवाली रस्सियाँ या जंजीरें आदि तैयार या ठीक करके रखी जाती हैं।
⋙ बंका (१)
वि० [सं० वङ्क] [स्त्री० बंकी] १. टेढ़ा। तिरछा। उ०— गढ़ बंका बंको सुधर।—ह० रासो, पृ० ५०। २. बाँका। ३. पराक्रमी। बलशाली। उ०—बंका राव हमीर।—ह० रासो, पृ० ५०।
⋙ बंका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] हरे रंग का एक कीड़ा जो धान के पौधों को हानि पहुँचाता हैं।
⋙ बंकाई
संज्ञा स्त्री० [सं० बंक + आई (प्रत्य०)] टेढ़ापन। तिरछा- पन। वक्रता।
⋙ बंकिम
वि० [सं० वङ्किम] टेढ़ा। तिरछा। उ०—उर उर में बंकिम धनु द्दग द्दग में फुलों के कुटिल विशिख।—द्वं द्व०, पृ० २३। (ख) रीढ़ बंकिंम किए, निश्चल किंतु लोलुप, वन्य बिलार।—हिं० का० प्र०, पृ० २५८।
⋙ बंकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाँक'।
⋙ बंकुड़ा
वि० [सं० चक्र० प्रा० बंकुड़] उ०—घर में सब कोई बंकु़ड़ा मारहिं गाल अनेक। सुंदर रण मैं ठाहरै सूर बीर को एक।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७३८।
⋙ बंकुर †
वि० [सं० वक्र, प्रा० बकुड़] दे० 'बंक' (१)।
⋙ बकुरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वक्रता अथवा सं० वक्र, प्रा० बंकुड़, हिं० बंकुर + ता (प्रत्य०)] टेढ़ाई। टेढ़ापन। तिरछापन। वक्रता। उ०—आनन में मुसकानि सुहावनि, बंकुरता अँखियान छई हैं।—भिखारी० ग्रं०, भा०२, पृ० १३।
⋙ बंकुस
वि० [सं० वक्र, हिं० बंकुर] वक्र। टेढ़ा। तिरछा। उ०— चढयो घन मत्त हाथी, पवन, महावत साथी, चपला को अंकुस दै बंकुस चलाए।—नंद ग्रं०, पृ० ३७३।
⋙ बंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वङ्क] दे० 'वंग'।
⋙ बंग (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० बाँग] अजान की आवाज। उ०—(क) मुसलमान कलमा पढ़ै तीस रोजा रहै, बगं निमाज घुनि करत गाढ़ी।—कबीर० रे०, पृ० १६। (ख) एकादशी न ब्रतहिं विचारौं। रौजा धरौं न बंग पुकारौं।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३०४।
⋙ बंग (३)
संज्ञा स्त्री० [फा़०। तुल० हिं० भंग] भाँग। विजया। एक मादक बुटी। यौ०—बंगनोश = भाँग पीनेवाला। भँगेड़ी।बंगफरोश =भाँग बेचनेवाला दुकानदार। भाँग का ठेकेदार।
⋙ बंगई
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्ग] एक प्रकार की बढ़िया कपास जो सिलहट में बहुत पैदा होती है।
⋙ वंगड़
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बंगर'। उ०—कुँमाथल मोताहलाँ भरिया वप गिर माँत। चंद्रवदन गज रतन में बंगड़ वणिया दाँत।—बाँकी० ग्रं०, भा०३, पृ० ७१।
⋙ बंगनापाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक देशी मुसलमानी रियासत।
⋙ बंगर पु
संज्ञा पुं० [सं० वक्र, हिं० वंकुर या देश०] हाथी के दातों पर जड़ा हुआ आभूषण। हाथी के दाँतों पर जड़े जानेवाले चाँदी, सोने, पीतल आदि के बंद। उ०—सिर दिघ्घ दिघ्घ दंतह सुभग, जरजराइ बंगरि जरिय। लष लष्ष दाम पावहि पटै कनक साज हाजरु करिय।—पृ० रा०, ६। १५५।
⋙ वगलिया
संज्ञा पुं० [हिं० बंगाल] १. एक प्रकार का धान। २. एक प्रकार का मटर।
⋙ बंगली
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ा (ड़िं०)।
⋙ बंगसार
संज्ञा पुं० [देश०] पुल की तरह बना वह चबुतरा जो दुर तक समुद्र में चला जाता है और जिसपर से लोग जहाज पर चढ़ते या उतरते हैं। वनसार।
⋙ वंगा †
वि० [सं० वङ्क] १. टेढ़ा। २. मूर्ख। वेवकूफ। उ०—राम मनुज कस रे सठ बंगा।—मानस, ६।२६। ३. लड़ाई झगड़ा करनेवाला। उद्दंड।
⋙ बगारी
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कारि] हरताल (ड़िं०)।
⋙ बंगाल
संज्ञा पुं० [सं० वङ्क] १. वंग देश जो भारत का पूर्वी भाग है। २. एक राग का नाम जिसे कुछ लोग मेघराग का और कुछ भैरव राग का पुत्र मानते हैं।
⋙ बंगाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० वग] बंगाल देश।
⋙ बंगाला पु (२)
संज्ञा स्त्री० बंगालिका नाम की रागिनी।
⋙ बंगालिका
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक रागनी जिसे कुछ लोग मेघ राग की स्त्री मानते हैं।
⋙ बंगाली (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बंगाल + ई (प्रत्य०)] १. बंगाल देश का निवासी। २. संपुर्ण जाति का एक राग।
⋙ बंगाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बग] बंग देश की भाषा। बँगला।
⋙ बंगू
संज्ञा पुं० [देश०] १. प्रकार की मछली जो प्रायः दक्षिण तथा बंगाल की नदियों में होती है। २. भौंरा यो जंगी नामक खिलौना जिसे बालक नचाते हैं।
⋙ बंगोमा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कछुआ जो गंगा और सिंधु में होता है। इसका मांस खाने योग्य होता है।
⋙ बंचक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वन्चक] धुर्त। पाखंडी। ठगनेवाला। उ०—बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।—मानस, १। १२।
⋙ बंचक (२)
संज्ञा पुं० [देश०] जीरे के रुप रंग तथा आकार प्रकार की एक घास का दाना जो पहाड़ी देशों में पैदा होता है और जीरें में मिलाकर बेचा जाता है।
⋙ बंचकता
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्चकता] छल। धुर्तता। चालबाजी।
⋙ बंचकताई
संज्ञा स्त्री० [सं० बञ्चकता + ई (प्रत्य०)] दे० 'बंचकता'।
⋙ बंचन
संज्ञा पुं० [सं० वञ्चन] छल। ठगपना।
⋙ बंचनता
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्चनता] ठगी। छल। उ०—दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता पर बंचनताति घनी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बंचना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वच्चना] ठगी। धुर्तता।
⋙ बंचना पु † (२)
क्रि० स० [सं० वच्चन] ठगना। छलना। उ०— बंचेहु मोहि जौन धरि देहा। सोइ तनु धरहु साप मम एहा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बंचना पु (३)
क्रि० स० [सं० वाचन] बाँचना। पढ़ना।
⋙ बंचर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वनचर'।
⋙ बंचित
वि० [सं० वच्चित] दे० 'वंचित'।
⋙ बंछना पु
क्रि० स० [सं० वान्छन] अभिलाषा करना। इच्छा करना। चाहना। उ०—कडढौ हुसैन तुम देस अंत। बंछी जो पेम मानो सुमत।—पृ० रा०, ९। ३२।
⋙ बंछनीय पु
वि० [सं० वाञ्छनीय] दे० 'वांछनीय'।
⋙ बंछा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा] इच्छा। वांछा। चाह। उ०— न तहाँ प्रकृति पुरुष नहिं इच्छा। न तहाँ काल कार्य नहिं बंछा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ११३।
⋙ बंछित पु
वि० [सं० वाञ्छित] दे० 'वांछित'।
⋙ बंज (१)
संज्ञा पुं० [हिं०वनिज] दे० 'बनिज'।
⋙ बंज (२)
संज्ञा पुं० [देश०] हिमालय प्रदेश का एक प्रकार का बलुत का पेड़ जिसकी लकड़ी का रंग खाकी होता है। इसको सिल और मारु भी कहते हैं।
⋙ बंजर
संज्ञा पुं० [सं० वन + ऊजड़] वह भूमि जिसमें कुछ उत्पन्न न हो सके। ऊसर। उ०—ज्ञान कुदार ले बंजर गोड़ैं।— कबीर०, श०, भा०१, पृ० १३६।
⋙ बंजा पु
वि० [सं० वन्ध्या, हिं० बाँझ] बंध्या। बाँझ। उ०— ब्यावर की पीर कूँ बंजा करै क्या ज्ञान कूँ गंजा।— राम० धर्म०, पृ० ३७।
⋙ बंजारा
संज्ञा पुं० [हिं० बनज + औरा (प्रत्य०)] दे० 'बनजारा'।
⋙ बंजुल
संज्ञा पुं० [सं० वज्जुल] अशोक का पेड़। स०—मंजुल बंजुल मंजरी दरसाई जदुराय। पीर भई ही सुधि गई तई मरोरे खाय।—स० सप्तक, पृ० २७५।
⋙ बंजुलक
संज्ञा पुं० [सं० वञ्जुलक] दे० 'बंजुल'।
⋙ बंझा (१)
वि० [बन्ध्या] (वह स्त्री) जिसके संतान न हो। बाँझ।
⋙ बंझा (२)
संज्ञा स्त्री० वह स्त्री जिसके संतान पैदा करने की शक्ति न हो बाँझ औरत।
⋙ बंटना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बाँटना'। उ०—मंस अंस तुट्टई बीर बंटई जु राज्यौ।—पृ० रा०, १२।१०७।
⋙ बंटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वटक, हिं०, बटा (=गोला)] [स्त्री० अल्पा० बंटी] गोल अथवा चौकोर कुछ छोटा डब्बा। जैसे, पान का बंटा ठाकुर जी के भोग का बंटा। उ०—(क) कोऊ बंटा कोऊ चादर लिए ठाड़े हैं।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ३३। (ख) बंटा जमल जोत के मानहु।— इंद्रा०, पृ० ९१।
⋙ बंटा (२)
वि० छोटे कद का। छोटे आकारवाला।
⋙ बंटा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बट्टा] दाग। ऐब। कलंक। दोष। उ०— जो भौतिक वस्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका है।—कंकाल, पृ० ७७।
⋙ बंटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हिरन आदि पशुओं को फँसाने का जाल या फंदा।
⋙ बंटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अंटी। दे० 'बंटा'। उ०—तब रेंड़ा ने श्री ठाकुर जी को अपनी स्त्री के माथे पधराय कै माला बंटी में करि कै दियो।—दो सौ बावन०, भा०२, पृ० ७३।
⋙ बंड †
वि० [हिं० बाँड़ा] दुमकटा। पुच्छहीन। बाँड़ा।
⋙ बंडल
संज्ञा पुं० [अं०] कागज या कपड़े में बँधी हुई छोटी गठरी। पुलिंदा। जैसे, अखबारों का बंडल, किताबों का बंडल, कपड़ों का बंडल।
⋙ बंडा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० वंटा] एक प्रकार का कच्चु या अरुई जो आकार में गोल, गाँठदार और कुछ लंबोतरी होती है।
⋙ बंडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० बन्ध] छोटी दीवार से घिरा हुआ वह स्थान जिसमें अन्न भरा जाता है। बड़ी बखारी।
⋙ बडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँड़ा (=कटा हुआ) १. बिना आस्तीन की मिरजई। फतुही। कुरती। २. बगल बंदी नामक पहनने का वस्त्र।
⋙ बंडैला †
संज्ञा पुं० ]हिं० बंडा + ऐला (प्रत्य०)वा हिं० बनैला] जगली सूअर। उ०—खुदा की कसम आपके काले कपड़ों से मैं समझा कि बंडैला कुसुम के खेत से निकल पड़ा।— फिसाना०, भा० १, पृ० २।
⋙ बंद
संज्ञा पुं० [फा़०, तुल० सं० बन्ध] १. वह पदार्थ कोई वस्तु बाँधी जाय बंधन। उ०—चौरासी को बंद छुड़ावन आए सतगुर आप री। कबीर श०, पृ० ८६। २. पानी रोकने का धुस्स। रोक। पुश्ता। मेड़। बाँध। विशेष—दे० 'बाँध'। ३. शरीर के अंगों का कोई जोड़। क्रि० प्र०—जकड़ जाना।—ढीले होना। ४. वह पतला सिला हुआ कपड़े का फीता जिससे अँगरखे, चोली आदि के पल्ले बँधे जाते हैं। तनी। ५. कागज का लंबा और बहुत कम चौड़ा टुकड़ा। ६. उर्दु कबिता का टुकड़ा या पद जो पाँच या छह चरणों का होता है। ७. बंधन। कैद। ८. चौसर में के वे घर जिनमें पहुँचने पर गोटियाँ मारी नहीं जाती।
⋙ बंद (२)
वि० १. जिसके चारों ओर कोई अवरोध हो। जो किसी ओर से खुला न हो। जैसे,—(क) जो पानी बंद रहता है, वहसड़ जाता है। (ख) चारो ओर से बंद मकान में प्रकाश या हवा नहीं पहुँचती। २. जो इस प्रकार घिरा हो कि उसके अंदर कोई जा न सके। ३. जिसके मुँह अथवा मार्ग पर दर- वाजा, ढकना या ताल आदि लगा हो। जैसे, बंद संदुक, बंद कमरा, बंद दुकना। ४. जो खुला न हो। जैसे, बंद ताला। ५. जिसका मुँह आगे का मार्ग खुला न हो। जैसे,—(क) कमल रात को बंद हो जाता है। (ख) शीशी बंद करके रख दो। ६. (किवाड़, ढकना, पल्ला आदि) जो ऐसी स्थिति में हो जिससे कोई वस्तु भीतर से बाहर न जो सके और बाहर की चीज अंदर न आ सके। जैसे,—(क) किवाड़ आप से आप बंद हो गए। (ख) इसका ढकना बंद कर दो। ७. जिसका कार्य रुका हुआ या स्थगित हो। जैसे,—कल दफ्तर बंद था। ८. जो चला न चलता हो। जो गति या व्यापार युक्त न हो। रुका हुआ। थमा हुआ। जैसे, मेह बंद होना, घड़ी बंद होना, लड़ाई बंद होना। ९. जिसका प्रचार, प्रकाशन या कार्य आदि रुक गया हो। जो जारी न हो। जिसका सिलसिला जारी न हो। जैसे,—(क) इस महीने में कई समाचारपत्र बंद हो गए। (ख) घाटा होने के कारण उन्होंने अपनो सब कारबार बंद कर दिया। १०. जो किसी तरह की कैद में हो।
⋙ बंद (३)
प्रत्य० १. बँधा हुआ। जैसे, पाबंद। २. जोड़ने या बाँधनेवाला। जैसे, नाल बंद [को०]।
⋙ बंद (४)
वि० [सं० वन्द्य] दे० 'वंद्य'।
⋙ बंदगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. भक्तिपूर्वक ईश्वर की बंदना। ईश्वराराधन। २. सेवा। खिदमत। ३. आदाब। प्रणाम। सलाम। ४. नम्रता। विनम्रता (को०)।
⋙ बंदगोभी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंद + गोभी] करमकल्ला। पात गोभी।
⋙ बंदन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वन्दनी (गोरोचन)] १. रोचन। रोली। उ०—अंग अंग चरचे अति चंदन। मुंडन भुरके देखिय बंदन।—राम चं०, पृ० ५। २. ईंगुर। सिंदुर। सेंदुर। उ०—बंदन भाल नयन बिच काजर।—गीत (शब्द०)। ३. बंदनार।
⋙ बंदन (२)
संज्ञा पुं० [सं० वन्दन] दे० 'वंदन'। उ०—कियो रणर्थभहि बंदन धीर।—ह० रासो, पृ० ९३।
⋙ बंदनता
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनता] बंदनीयता। आदर या बंदना किए जाने की योग्यता। उ०—चंद्रहि बंदत हैं सब केशव ईश ते बंदनता अति पाई।—केशव (शब्द०)।
⋙ बंदनमाल पु
संज्ञा पुं० [सं० वन्दनमाल] [स्त्री० वंदनमाला] दे० 'वंदनवार'। उ०—(क) मुक्ता बंदनमाल जुलसैं। जनु आनंद भरे घर हँसैं।—नंद० ग्रं०, पृ० २३५। (ख) मालनि सी जहँ लछिमी लोले। बंदनमाला बाँधति डोले।—नंद० ग्रं०, पृ० २३१।
⋙ बंदनवार
संज्ञा पुं० [सं० वन्दनमाल या वन्दन + द्वार (प्रा० वार)] फुल, पत्ते, दुब इत्यादि की बनी हुई वह माला जो मंगल कार्यों के समय द्वार आदि पर लटकाई जाती है। फुलों या पत्तों की झालर जो मंगल के सूचनार्थ द्वार पर या खभों और दिवारों आदि पर बाँधी जाती है। तोरण। उ०—गज रथ बाजि सजे नहीं, बँधी न बंदनवार।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १७६।
⋙ बंदना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दना] दे० 'वंदना'।
⋙ बंदना (२)
क्रि० स० [सं० वन्दन] प्रणाम करना। नमस्कार करना। वंदना करना। उ०—(क) बंदउ सबहिं धरणि धरि माथा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सिव सिव सुत हिमिगिरि सुता, विसुन दिवाकर बंद।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १९।
⋙ बंदना पु
क्रि० स० [सं० वन्धन] वाँधना। उ०—उद्दार चित्त दातार अति, तेग एक बँदे विसव।—पृ० रा०, ९। २।
⋙ बंदनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्दनी(=माथे पर बनाया हुआ चिह्न)] स्त्रियों का एक भूषण जो आगे की ओर से सिर पर पहना जाता है। इसे बंदी या सिरबंदी भी कहा जाता है।
⋙ बंदनी (२)
वि० [सं० बन्दनीय] दे० 'वंदनीय'। उ०—गौरीसम जग बंदनी, नारि सिरोमणि आप।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बंदनीमाल
संज्ञा० स्त्री० [सं० वन्दनीमाल] वह लंबी माला जो गले से पैरों तक लटकती ही। उ०—अंजन होइ न लसत तौ ढिग इन नैन विसाल। पहिराई जनु मदन गुहि श्याम बंदनी- माल।—स० सप्तक, पृ० १९१।
⋙ बंद बंद
संज्ञा पुं० [फा़०] शरीर का एक एक जोड़।
⋙ बदर
संज्ञा पुं० [सं० वानर] एक प्रसिद्ध स्तनपायी चौपापा जो अनेक बातों में मनुष्य से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है। पर्या०—कपि। मर्कट। वलीमुख। शाखामृग। विशेष—इसकी प्रायः पैतीस जातियाँ होती है जिनमें से कुछ एशिया और योरप और अधिकांश उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका में पाई जाती है। इनमें से कुछ जातियाँ तो बहुत ही छोटी होती हैं। इतनी छोटी कि जेब तक में आ सकती हैं। कुछ इतनी बड़ी होती हैं कि उनका आकार आदि मनुष्य के आकार तक पहुँच जाता है। छोटी जातियों के बंदर चारो हाथों पैरों और बड़ी जातियों के दोनों पैरों से चलते हैं। प्रायः सभी जातियाँ पेड़ों पर रहती हैं। पर कुछ ऐसी भी होती हैं जो वृक्षों के नीचे किसी प्रकार की छाया आदि का प्रबंध करके रहती और जंगलों आदि में घुमती हैं। प्रायः सभी जातियों के बंदरों की शारीरिक गठन आदि मनुष्यों की सी होती है। इसलिये ये वानर (आधे मनुष्य) कहे जाते हैं। ये केवल फल और अन्न आदि ही खाते हैं। मांस बिल्कुल नहीं खाते। कुछ जातियों के बंदरों के मुख में ३२ और कुछ के मुँह में ३६ दाँत होते हैं। इनमें बहुत कुछ बुद्धि भी होती है और ये सहज में पाले तथा सिखाए जा सकते हैं। प्रायः सभी जातियों के बंदर झुड़ों में रहते हैं, अकेले नहीं। ये एक वार में केवल एक ही बच्चा देते है। इनमेंशक्ति भी अपेक्षाकृत बहुत होती है। चिंपैजी, औरगउटैंग, गिबन, लंगुर आदि सब इसी जाति के हैं। यौ०—बंदर की दोस्ती = ऐसी दोस्ती जिसमें हरदम होशियार रहना पड़े। उ०—जिससे बिगड़े उसको तबाह कर डाला। उनकी दोस्ती बंदर की दोस्ती थी।—फिसाना० भा० ३, पृ० ८०। बंदरखत या बदरघाव = घाव या चोट जो कभी न सुखे (बंदरों का घाव कभी नहीम सूचता क्योंकि वे उसे बारबर खुजलाते रहते हैं)। बंदरघुडकी = ऐसी धमकी या डाँट डपट जो केवल डराने या धमकाने के लिये ही हो। ऐसी धमकी जो द्दढ़ या बलिष्ठ से काम पड़ने पर कुछ भी प्रभाव न रख सकती हो। बंदरबाँट = किसी वस्तु को आपस में छीन झपटकर बाँट लेना।
⋙ बंदर (२)
संज्ञा पुं० [फा़०] समुद्र के किनारे जहाजों के ठहरने के लिये बना हुआ स्थान। बंदरगाह।
⋙ बंदरगाह
संज्ञा पुं० [फा़०] समुद्र के किनारे का वह स्थान जहाँ जहाज ठहराते हैं।
⋙ बंदरवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० बदरवार] दे० 'बंदनवार'। उ०— बिराजत मुत्तित बंदरवार। मनों भुअ आँन मयुष प्रचार।—पृ० रा०, २१।३८।
⋙ बंदरकी, बंदरी
संज्ञा स्त्री० [फा० बंदर (=समुद्रतट)] एक प्रकार की तलवार। उ०—(क) बिज्जुल सी चमकै घाइन घमकै तीखन तमकै बंदरकी।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७। (ख) बंदरी सुखग्गै जगमग जग्गैं लपकत लग्गैं नहिं बरकी।— पद्माकर ग्रं०, पृ० २७।
⋙ बदली
संज्ञा पुं० [देश०] रुहेलखंड में पैदा होनेवाला एक प्रकार का धान जिसे रायमनिया और तिलोचंदन भी कहते हैं।
⋙ बदवान
संज्ञा पुं० [सं० बन्दी + वान] बंदीगृह का रक्षक। कैदखाने का अफसर।
⋙ बदसाल †
संज्ञा पुं० [सं० वन्दिशाल] वव स्थान जहाँ कैदी रखे जाते हो। बदीगृह। कैदखाना। जेल।
⋙ बदा (१)
संज्ञा पुं० [फा़० बंदह्] १. सेवक। दास। जैसे ये सब खुदा के बंदे हैं। २. शिष्ट या विनीत भाषा में उत्तम पुरुष, पुंलिंग 'मैं' के स्थान पर आनेवाला शब्द। जैसे,—बंदा हाजिर हैं, कहिए क्या हुकुम है ?
⋙ बदा (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० वन्दी] बंदी। कैदी। बँधुआ। उ०— छदहि छंद भएउ सो थंदा। छन एक माँहि हँसी रोवँदा। जायसी (शब्द०)।
⋙ बंदाजादा
संज्ञा पुं० [फा़० बंदाजादह्] [स्त्री० बंदाजादी] सेवक- पुत्र। दासपुत्र। गुलामजादा। उ०—खड़ा हुँ दरबार तुम्हारे ज्यों घर का वंदाजादा।—मलुक०, पृ० ६।
⋙ बंदानिवाज
वि० [फा़० वंदानिवाज] सेवकों पर कृपा करनेवाला।
⋙ बंदानिवाजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बंदानिवाजी] कृपा। अनुग्रह। दया।
⋙ बदानी
संज्ञा पुं० [देश०] १. गोलदाज। तोप चलानेवाला। (लश्करी)। २. एक प्रकार का गुलाबी रंग जो पियाजी रंग से कुछ गहरा और असली गुलाबी रंग से बहुत हलका होता है।
⋙ बदापरवर
वि० [फा़० बंदापर्वर] दीनबंधु।
⋙ बंदापरवरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बंदापवरी] दे० 'बंदानिवाजी'। उ०— टुक वली को सनम गले से लगा। तुझको है बंदापरवरी की कसम।—कविता को०, भा०४, पृ० ५।
⋙ बंदारु (१)
वि० [सं० वंदारु] १. वंदनीय। वंदन करने योग्य। २. पूजनीय। आदरणीय। उ०—देव ! बहुल वृंदारका वृंद बंदारु पद वदि मदार मालोरधारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बदारु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बंदाल'।
⋙ बदालू
संज्ञा पुं० [देश०] देवदालो। धधरवेल।
⋙ बदि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दि] १. कैद। कारानिवास। उ०—बेद लोक सबै साखी, काहु की रती न राखी, रावन की बंदि लागे अमर मरन।—तुलसी (शब्द०)। २. कैदी। बंधुआ।
⋙ बदि पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वन्दिन्] भाट। चारण। उ०—बँदि मागधन्हि गुन गन गाए।—मानस, १। ३५८।
⋙ बदि (३)
संज्ञा पुं० [फा़० बंदी] बंदी। कैदी। यौ०—वँदिखाना = बंदीखाना। कैदीखाना। उ०—पाँचि जने पर- बल परपंची उलचि परे बँदिखाने।—संतवाणी०, भा०२, पृ० १२८। बँदिगृह = बंदीखाना। उ०—भरतु बदिगृह सइहहि लखनु राम के नेव।—मानस, २।१९। बंदिछोर = दे० 'बंदिछोर'। उ०—उथपे थपन थपे उथपन पन बिबुध वृंद बदिछोर को।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४००।
⋙ बदिग्राह
संज्ञा पुं० [सं० बंदिग्राह] सेंध मारनेवाला चोर। लुटरा [को०]।
⋙ बंदित्व
संज्ञा पुं० [सं० बन्दत्व] कैद होने की स्थिति। बधन में होना। उ०—न हष है, है केवल शक्तिनाशक श्रम। बंदित्व है।—गोदान, पृ० ४।
⋙ बदिपाल
संज्ञा पुं० [सं० बन्दिपाल] कारागार का अधिकारी। जेलर [को०]।
⋙ बंदिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंदिनी] बंदी नामक भूषण जो स्त्रियाँ सिर पर पहनती है। उ०—हाथ गहे गहिहौं हठ साथ जराय की बदिया बेस दुसाला।—(शब्द०)।
⋙ बंदिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. प्रबध रचना। योजना। जैसे,—शब्दों को कैसी अच्छी बंदिश है। ३. षड्यंत्र। साजिश। ४. रुकावट। रोक (को०)। ५. ग्रंथि। गाँठ (को०)। क्रि० प्र०—बाँधना।जैसे,—उन्हें फँसाने के लिये बड़ी बड़ी बंदिश बाँधी गई हैं।
⋙ बदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्दिन्] १. चारणों की एक जाति जो प्राचीनकाल में राजाओं का कीर्तिगान किया करती थी। भाट। चारण।
⋙ बंदी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दी (=कैदी)] बंदी होने की दशा। कैद।
⋙ बंदी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० वंदिनी] एक प्रकार का आभुषण जिसे स्त्रियाँ सिर पर पहनती हैं। दे० 'बंदनी'। उ०—चटकीले चेहरे पर बंदी छवि दै दी त्यौ।—नट०, पृ० ११०।
⋙ बंदी (४)
संज्ञा स्त्री० [फा़० बंद + हिं० ई (प्रत्य०)] दुकान आदि बंद होने, काम काज स्थगित होने या किसी कार्य के रुक जाने की स्थिति।
⋙ बंदी (५)
संज्ञा पुं० [फा़०] कैदी। यौ०—बदीघर। बंदीखाना। बंदीछोर।
⋙ बंदी (६)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] [बंदा का स्त्री०] दासी। चेरी।
⋙ बंदीखाना
संज्ञा पुं० [फा़० बंदीखानह्] कैदखाना। जेलखाना।
⋙ बंदीघर
संज्ञा पुं० [सं० बन्दीगृह] कैदखाना। जेलखाना।
⋙ बंदीछोर पु †
संज्ञा पुं० [सं० बन्दी + हिं० छोर] १. कैद न छुड़ानेवाला। २. बंधन से मुक्त करानेवाला। उ०—(क) बिनवै दोउ कर जोर, सतगुरु बंदीछोर हैं।—कबीर सा०, सं०, पृ० १२। (ख) वेद जस गावत विवुध बंदीछोर को।— तुलसी ग्रं०, पृ० २४८।
⋙ बंदीजन
संज्ञा पुं० [सं० वन्दी + जन] बंदी। चारण। उ०—प्रथम विधाता ते प्रकट भये बदीजन।—अकबरी०, पृ० ११४।
⋙ बंदीवान
संज्ञा पुं० [सं० वन्दि + वान्] कैदी। उ०—(क) मुआ को क्या रोइए जो अपने घर जाय। रोइय बदीवान को जो हाटै हाट बिकाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) दादू बंदीवान है, बंदीछोर दिवान।—दादू (शब्द०)।
⋙ बंदुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बँधुआ'। उ०—तब बीरा ने विनती करि कै श्री सत्या जी सों कही, जो महाराज ये राजद्वार के बदुवा है।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० १२६।
⋙ बंदूक
संज्ञा पुं० [अ० बदूक] नली के रुप का एक प्रसिद्ध अस्त्र जो धातु का बना होता है। एक आग्नेय अस्त्र। विशेष—इसमें लकड़ी के कुदे में लोहे की एक लबी नली लगी रहती है। इसके पीछे की ओर थोड़ा सा स्थान बना होता है जिसमें गोली रखकर बारुद या इसी प्रकार के किसी औऱ विस्फोटक पदार्थ की सहायता से चलाई जाती है। इसमें से गोली निकलती है जो अपने निशाने पर जोर से जा लगती है। इसका उपयोग मनुष्यों को ओर दुसरे जीवों को मार डालने अथवा घायल करने के लिये होता है। आजकल साधारणतः सैनिकों को युद्ध में लड़ने के लिये यही दी जाती हैं। यह कई प्रकार की होती है। जैसे, कड़ाबीन, राइफल, गन, मशीनगन, (यंत्रचालित), स्वचालित, आटोमेटिक गन, स्टेनगन, आदि। क्रि० प्र०—चलाना।—छोड़ना।—दागना।—भरना। मुहा०—बंदुक भरना = बंदुक चलाने के लिये उसमें गोली रखना। बंदूक चलाना, छोड़ना, मारना या लगाना = बंदूक में गोली भरकर उसका घोड़ा दबाना जिससे गोली निकलकर निशाने पर जा लगे। बंदूक छतियाना =(१) बंदूक को छाती के साथ लगाकर उसका निशाना ठीक करना। बंदूक को ऐसी स्थिति में करना जिससे गोली अपने ठीक निशाने पर जा लगे। (२) बदूक चलाने के लिये तैयार होना।
⋙ बंदूकचो
संज्ञा पुं० [फा० बंदूकची] बंदूक चलानेवाला सिपाही।
⋙ बदूख †
संज्ञा स्त्री० [बंदूक] दे० 'बंदूक'।
⋙ बंदूवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बँधुआ'। उ०—तासों नारायण- दास ने सगरे बदूवा छोरि दिए हैं।—दो सो बावन०, भा० १, पृ० १२८।
⋙ बंदेरो
संज्ञा स्त्री० [फा० बंद + ऐरी (प्रत्य०)] दासी। चेरी।
⋙ बंदोबस्त
संज्ञा पुं० [फा०] १. प्रबध। इंतिजाम। २. खेती के लिये भूमि को नापकर उसका राज्यकर निर्धारित करने का काम। यौ०—बंदोबस्त इस्तमरारी = भूमि संबंधी वह करनिर्धारण जिसमें फिर कोई कमी, बेशी न हो सके। मालगुजारी का इस प्रकार ठहराया जाना कि वह पिर घट बढ़ न सके। ३. वह महकमा या विभाग जिसके सुपुर्द खेतों आदि को नापकर उनका कर निश्चित करने का काम हो। ४. लगान तय करके किसी को जोतने बोने के लिये खेत देना।
⋙ बंध
संज्ञा पुं० [सं० बन्ध] १. बंधन। उ०—तासु दूत कि बंध तर आवा। प्रभु कारज लगि आपु बँधावा।—तुलसी (शब्द०)। २. गाँठ। गिरह। उ०—जेतोई मजबूत कै हिच बध बाँधो जाय। तेतोई तामें सरस भरत प्रेम रस आय।—रसनिधि (शब्द०)। ३. कैद। उ०—कृपा कोप बध बंध गोसाई। मोपर करिय दास की नाई।—तुलसी (शब्द०)। ४. ४. पानी रोकने का धुस्स। बाँध। ५. कोकशास्त्र के अनुसार रति के मुख्य सोलह आसनों में से कोई आसन। उ०—परिरभन सुख रास हास मृदु सुरति केलि सुख साजे। नाना बंध विविध क्रीड़ा खेलन स्याम अपार।—सूर (शब्द०)। विशेष—मुख्य सोलह आसन ये हैं—(१) पदमासन। (२) नागपाद। (३) लतावेष्ट। (४) अधंसंपुट। (५) कुलिश। (६) सुंदर। (७) केशर। (८) हिल्लोल। (९) नरसिंह। (१०) विपरीत। (११) क्षुब्धक। (१२) धेनुक। (१३) उत्कंठ। (१४) सिंहासन। (१५) रतिनाग। (१६) विद्याधर। रतिमजरी में सोलह आसनों का उल्लेख किया गया है। पर अन्य लोग इसकी संख्या ८४ तक ले जाते हैं। ६. योगशास्त्र के अनुसार योगसाधन की कोई मुद्रा। जैसे, उड्डिपानबंध, मुलबंध, जालंघरबंध, इत्यादि। ७. निर्बंध- रचना। गद्य या पद्य लेख तैयार करना। उ०—ताते तुलसी कृत कथा रचित महर्षि प्रवंध। बिरचौं उभय मिलाय कै राम स्वयंवर बंध।—रघुराज (शब्द०)। ८. चित्र- काव्य में छंद को ऐसी रचना जिससे किसी विशेष प्रकार कीआकृति या चित्र बन जाय। जैसे, छत्रबंध, कमलबंध, खड्गबंध, चमरबंध इत्यादि। ९. जिससे कोई वस्तु बाँधी जाय। बंधन जैसे, रस्सी, फीता इत्यादि। १०. लगाव। फँसाव। उ०—बेधि रही जग बासना निरसल मेद सुगंध। तेहि अरघान भँवर सब लुबुधे तजहिं न बंध।—जायसी (शब्द०)। ११. शरीर। १२. बननेवाले मकान की लंबाई और चौड़ाई का येग। १३. गिरवी रखा हुआ धन। १४. बधन (मोक्ष का उलटा)। १५. पट्टी किनारा (को०)। १६. परिणाम। फल (को०)। १७. एक नेत्ररोग (को०)। १८. केश बाँधने का फीता (को०)। १९. प्रदर्शन (को०)। २१. पकड़ना। बंधन में डालना (को०)। २२. स्नायु (को०)। २३. शरीर की स्थिति। अंगन्यास (को०)। २४. पुल (को०)।
⋙ बंधक (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धक] १. वह वस्तु जो लिए हुए ऋण के बदले में धनी के यहाँ रख दी जाय। रेहन। विशेष—ऐसी वस्तु ऋण चुकाने पर वापस हो जाती है। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—धरना। २. विनमय। बदला। परिवर्तन। ३. वह जो बाँधता हो। बाँधनेवाला। ४. बंधन (को०)। ५. पानी रोकने का धुस्स। बाँध (को०)। ६. वादा (को०)। ७. अंगों की स्थिति। अंगन्यास (को०)।
⋙ बंधक (२)
संज्ञा पुं० [सं० बन्ध] कोकशास्त्र के अनुसार स्त्रीसंभोग का कोई आसन। दे० 'बध'—५। उ०—चौरासी आसन पर जोगी। खटरस बधक चतुर सो भोगी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बंधकरण
संज्ञा पुं० [सं० बन्धकरण] बाँधना। बधन में करना [को०]।
⋙ बंधकिपोषक
संज्ञा पुं० [सं०] रंडियों का दलाल। विशेष—चाणक्य के समय में इनपर भी भिन्न भिन्न कर लगते थे।
⋙ बंधकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यभिचारणी स्त्री। बदचलन औरत। २. वेश्या या रंडी। ३. हस्तिनी। हथिनी (को०)। ४. बाँझ औरत। बध्या (को०)।
⋙ बंधतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० बन्धतन्त्र] पूरी चतुरंगिणी सेना [को०]।
⋙ बंधन (१)
संज्ञा पुं० [अं० बन्धन] १. बाँधने की क्रिया। २. वह जिससे कोई चोज बाँधी जाय। जैसे,—इसका बधन ढीला हो गया है। ३. वह जो किसी की स्वतंत्रता आदि में बाधक हो। प्रतिबध। फँसा रखनेवाली वस्तु। जैसे,—संसार में बाल बच्चों का भी बड़ा भारी बंधन होता है। ४. वध। हत्या। ५. हिंसा। ६. रस्सी। ७. वह स्थान जहाँ कोई बाँध कर रखा जाय। कारागार। कैदखाना। ८. शिव। महादेव। ९. शरीर का संधिस्थान। जोड़। मुहा०—बंधन ढीला करना = बहुत अधिक मारना पीटना। १०. पकड़ना। वशीभूत करना (को०)। ११. निर्माण। बनाना (को०)। १२. पुल (को०)। १३. संयोग (को०)। १४. स्नायु (को०)। १५. वृंत या डंठल (को०)। १६. जंजीर। सिकड़ी (को०)।
⋙ बंधन (२)
वि० १. बाँधनेवाला। २. जाँचनेवाला या रोकनेवाला। ३. (किसी पर) अवलंबित या निर्भर (समासांत मे)।
⋙ बंधनकारी
वि० [सं० बन्धनकारिन्] १. बाँधनेवाला। २. भुजपाश में लेनावाला (को०)।
⋙ बंधनग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धनग्रन्थि] १. शरीर में वह हड्डी जो किसी जोड़ पर हो। २. पट्टी की गाँठ या गिरह (को०)। २. जानवरों को बाँधने को रस्सी (को०)। ४. फाँस (को०)।
⋙ बंधनपालक
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनपालक] वह जो कारागार का रक्षक हो।
⋙ बंधनरक्षी
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनरक्षिन्] जेलर [को०]।
⋙ बंधनवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनवेश्मन्] कारागार। जेल [को०]।
⋙ बधनस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनस्तम्भ] जानवरों (विशेषतः) हाथी के बाँधने का खूँटा [को०]।
⋙ बधनस्थान
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनस्थान] घुड़साल। वाजिशाला। अस्तबल [को०]।
⋙ बंधनागार, बंधनालय
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनागार, बन्धनालय] कारागार। जेलखाना [को०]।
⋙ बंधनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धनी] बाँधने या फँसानेवाली वस्तु।
⋙ बंधनिक
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनिक] बंधनरक्षी। जेलर [को०]।
⋙ बंधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धनी] १. शरीर के अंदर की वे मोटी नसें जो संधिस्थान पर होती हैं और जिनके कारण दो अवयव आफस में जुड़े रहते हैं। शरीर का बंधन। २. वह जिससे कोई चीज बाँधी जाय। जैसे, रस्सी, सिक्कंड़ आदि।
⋙ बंधनीय (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनीय] सेतु। पुल।
⋙ बंधनीय (२)
वि० जो बाँधने योग्य हो।
⋙ बंधनृत्य
संज्ञा पुं० [सं० बन्धनृत्य] नृत्य का एक प्रकार [को०]।
⋙ बंधमोचनिका, बंधमोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्धमोचनिका, बन्ध- मोचनी] एक योगिनी का नाम।
⋙ बंधयिता
संज्ञा पुं० [सं० बन्धयितृ] बंधन या कैद में डालनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ बंधव
संज्ञा पुं० [सं० बान्धव, प्रा० बंधव] बांधव। उ०—मात- पिता बधव दौलत मद, सुत त्रिय जोड़ सँधाणी।—रघु० रू०, पृ० १६।
⋙ बंधा †
संज्ञा पुं० [सं० बन्धक] पानी रोकने का धुस्स। बाँध।
⋙ बंधाकि
संज्ञा पुं० [सं० बन्धाकि] पर्वत। भूधर [को०]।
⋙ बंधान
संज्ञा पुं० [हिं० बँधना] १. किसी कार्य के होने अथवा किसी पदार्थ के लेने देने आदि के संबंध में बहुत दिनों से चला आया हुआ निश्चित क्रम या नियम। लेन देन आदि के संबंध की नियत परिपाटी। जैसे,—यहाँ फी रुपया एक पैसा आढ़त लेने का बंधान है। २. वह पदार्थ या धन जो इस परिपाटी के अनुसार दिया या लिया जाता है। ३. पानी रोकने का धुस्स। बाँध। ४. ताल का सम (संगीत)। उ०— उगटहिं छद प्रबंध गीत पद राग तान बंधान। सुनि किन्नर गंधर्व सराहत विधके हैं बिबुध विमान।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बंधाल
संज्ञा पुं० [हिं० बँधान] नाव या जहाज में वह स्थान जिसमें रसकर या छेदों में से आया हुआ पानी जमा होता है और जो पीछे उलीचकर बाहर फेक दिया जाता है। गमत- खाना। गमतरी।
⋙ बधिका
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बधिका'।
⋙ बंधित (१)
वि० [सं० बन्ध्या] बंध्या। बाँझ। (डिं०)।
⋙ बंधित (२)
वि० [सं० बन्धित] १. बँधा हुआ। आवद्ध। २. बंधन- ग्रस्त। कैद किया हुआ [को०]।
⋙ बधित्र
संज्ञा पुं० [सं० बन्धित्र] १. कामदेव। अनंग। २. चमड़े का पंखा। चर्मव्यजन। २. शरीर पर का तिल या चिह्न [को०]।
⋙ बंधी (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धिन्] वह जो बँधा हुआ हो। जिसमें किसी प्रकार का बधन हो।
⋙ बंधी (२)
वि० बाँधनेवाला। पकड़नेवाला [को०]।
⋙ बधी † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० वँधना (=नियत होना)] बँधा हुआ क्रम। वह कार्यक्रम जिसका नित्य होना निश्चित हो। बंधेज। जैसे,—(क) उनके यहाँ रोज सेर भर बंधी का दूध आता है। (ख) आप भी बंधी लगा लीजिए तो रोज की झझट से छूट जाइएगा। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।
⋙ बधी पु (४)
संज्ञा पुं० [देशी बंध (=नौकर) भृत्य। नौकर। दास। उ०—घरी एक बंधी सुनी पै मुक्कलि प्रथिराज।—पृ० रा०, २६। ५१।
⋙ बंधु
संज्ञा पुं० [सं० बन्धु] १. भाई। भ्राता। २. वह जो सदा साथ रहे या सहायता करे। सहायक। ३. मित्र। दोस्त। ४. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन भगण और दो गुरु होते हैं। इसे दोधक भी कहते हैं। जैसे,— बाण न बात तुम्हैं वहि आवे। सोई कहौं जिय तोहिं जो भावे। का किरहौ हम यों हि बरैंगे। हैहयराज करी सु करैगे।—केशव (शब्द०)। ५. पिता। ६. बधूक पुष्प। ७. पति। स्वामी (को०)। ९. शासक। नियंता। यौ०—बंधुकाम = भाई बंधुओं से प्रेम रखनेवाला। बंधुकृत्य = स्वजनों का कर्तव्य। बन्धुदग्ध = संबंधियों द्वारा त्यक्त। बंधुदायाद, बंधुबांधव, बंधुवर्ग = भाईबंधु। बंधुभाव = बंधुतः। बंधुहीन = असहाय।
⋙ बंधुक
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुक] १. दुपहरिया का फूल जो लाल रंग का होता है। २. दुपहरिया फूल का पौधा। ३. अवैध। जारज (को०)।
⋙ बंधुका, बंधुकी
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धुका, बन्धुकी] पुंश्चली। स्वैरिणी। वधकी [को०]।
⋙ बंधुजन
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुजन] स्वजन। आत्मीय [को०]।
⋙ बंधुजीव, बंधुजीवक
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुजीव, बन्धुजीवक] १. गुलदुपहरिया का पौधा। २. दुपहरिया का फुल। उ०— बंधुजीव लागैं मलिन भागैं बिंब प्रबाल। बाल अधर कों लाल लखि नलिन कृसित कृस लाल।—स० सप्तक, पृ० २७०।
⋙ बंधुजीवी
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुजीविन्] एक प्रकार का माणिक [को०]।
⋙ बंधुता
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धुता] १. बंधु होने का भाव। २. भाईचारा। ३. मित्रता। दोस्ती।
⋙ बंधुत्व
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुत्व] १. बंधु होने का भाव। बंधुता। २. भाईचारा। ३. मित्रता। दोस्ती।
⋙ बंधुदत्त
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुदत्त] वह धन जो कन्या को विवाह के समय माता पिता या भाइयों से मिलता हे। स्त्रीधन।
⋙ बधुदा
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धुदा] १. दुराचारिणी स्त्री। बदचलन औऱत। २. वेश्या। रडी।
⋙ बधुमान्
वि० [सं० बन्धुमत्] भाई बंधुओंवाला। जो बंधुहीन न हो [को०]।
⋙ बंधुर
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुर] १. मुकुट। २. दुपहरिया का फूल। ३. बहरा मनुष्य। ४. हंस। ५. बिडग। ६. काकड़ासिंगी। ७. बक। बगला नामक पक्षी। ८. पक्षी। ९. भग (को०)। १०. खली (को०)।
⋙ बंधुर (२)
वि० १. रम्य। मनोहर। सुंदर। उ०—विधु बंधुर मुख भा बड़ी बारिज नैन प्रभाति। भौंह तिरीछी छबि गड़ी रहति हिये दिन राति।—स० सप्तक, पृ० २३३। २. नम्र। ३. बक्र। टेढ़ा। ४. ऊबड़खावड़। ऊँचा नीचा। उ०—विकट मेरी दूर मंजील, राह बंधुर, निपट पकिल।—अपलक, पृ० ४। ५. हानिकारक (को०)।
⋙ बंधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धुरा] पुंश्चली। कुलटा [को०]।
⋙ बंधुरित
वि० [सं० बन्धुरित] झुका हुआ। नम्र [को०]।
⋙ बंधुल (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुल] १. दुराचारिणी स्त्री से उत्पन्न पुरुष। बदचलन औरत का पुत्र। अवैध संतान। २. बेश्यापुत्र। रंडी का लड़का। ३. वेश्या का परिचारक या सेवक (को०)।
⋙ बंधुल (२)
वि० १. सुंदर। २. खूबसूरत। २. नम्र। भुका हुआ।
⋙ बंधूक
संज्ञा पुं० [पुं० बन्धूक] १. दे० 'बंधुक'। उ०—फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बधूक सुहाये।—साकेत, २७९। २. दीधक नामक वृत्त का एक नाम। इसे 'बधु' भी कहते हैं। दे० 'बधु'।
⋙ बधूर (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धुर] विवर। छिद्र [को०]।
⋙ बधूर (२)
वि० दे० 'बधुर'।
⋙ बधूलि
संज्ञा पुं० [सं० बन्धूलि] बंधुजीव। बंधुक [को०]।
⋙ बंधेज
संज्ञा पुं० [हिं० बँधना + एज(प्रत्य०)] १. नियत समय पर और नियत रूप से मिलने या दिया जानेवाला पदार्थ या द्रव्य। २. नियत समय पर या नियत रूप से कुछ देने की क्रिया या भाव। ३. किसी वस्तु को रोकने या बाँधने की क्रिया या युक्ति। ४. रुकावट। प्रतिबंध। उ०—सावंतन सह छिद्र करि नार कनैरा आय। विरसिंध दे बंधेज करि गढ़ गाँजर मह जाय।—प० रासो, पृ० १३९। ५. नियंत्रण। बंधन। मर्यादा। उ०—वर्णाश्रम बधेज करि अपने अपनेधर्म।—सुंदर० ग्रं० भा० १. पृ० १६८। ६. वीर्य को जल्दी स्खलित न होने देने की युक्ति। बाजीकरण।
⋙ बंध्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० बन्ध्य] ऐसा पुल जिसके नीचे से पानी न बहता हो। पानी रोकने के लिये बनाया हुआ धुस्स। वाँध।
⋙ बध्य (२)
वि० १. बाँधने योग्य। २. जोड़ने योग्य। २. बंध में आया हुआ। ४. व्यर्थ। बेकार। ५. न फलनेवाला (वृक्षादि)। ६. बाँझ [को०]। यौ०—वध्यफल = फलयुक्त न होनेवाला। न फलनेवाला।
⋙ बंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्ध्या] १. वह स्त्री जो संतान न पैदा कर सके। बाँझ। यौ०—बंध्यातनय = बध्यापुत्र। बध्यादुहिता। बंध्यासुत। बंध्यासुता। २. गाय जो बाँझ हो (को०)। ३. एक सुगंधि द्रव्य (को०)। ४. योनि का एक रोग (को०)।
⋙ बंध्याकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्याकर्कटी] कड़वी या तिक्त ककड़ी [को०]।
⋙ बध्यापन
संज्ञा पुं० [सं० बन्या + हिं० पन] दे० 'बाँझपन'।
⋙ बंध्यापुत्र
संज्ञा पुं० [सं० बन्ध्यापुत्र] कोई ऐसा भाव या पदार्थ जिसका अस्तित्व ही असभव हो। ठीक वैसा ही असंभव भाव या पदार्थ जैसे बध्या का पुत्र। कमी न होनेवाली चीज। अनहोनी बात।
⋙ बंपुलिस
संज्ञा स्त्री० [ब? + अं० पुलिस] मलत्याग के लिये म्युनिसिपैलिटी आदि का बनवाया हुआ वह स्थान यहाँ सर्व- साधारण बिना रोक टोक जा सकें।
⋙ बंब
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. बं बं शब्द। ब, शिव, शिव, हर हर, इत्यादि शब्दों की ऊँची ध्वनि जो शैव लोग भक्ति की उमंग में आकर किया करते हैं। २. युद्धारभ में बीरों का उत्साहवर्धक नाद। रणनाद। हल्ला। उ०—कूदत कबध के कदंब वंब सी करत धावत दिखावत है लाघो राघो बान के।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—बोलना।—देना। उ०—ठिल्यो बुँदेला बंब दै बासा घेस्यो जाप।—लाल (शब्द०)। ३. नगारा। दुदुभी। डका। उ०—(क) कब नारद बंदूक चलाया। ब्यासदेव कब बंब बजाया।—कबीर (शब्द०)। (ख) त्यों बहलोलखान रिस कीन्हीं। तुरतहि बंब कूच को दीन्ही।—लाल (शब्द०)।
⋙ बबा
संज्ञा पुं० [अ० मंबा] १. जलजल। पानी की कल। पंप। २. सोता। स्त्रोत। ३. पानी बहाने का नल।
⋙ बंबार (१)
संज्ञा पुं० [अं० बाम्ब] बम की वर्षा करनेवाले विमान। बमवर्षक यान। उ०—लाखों घर टैंकों बंबारों के हो गए हवाले।—हंस०, पृ० ४१।
⋙ बंबार (२)
वि० [सं० बर्बर, प्रा० बब्वर] बर्बर। क्रूर। उ०—सीस लग्गि असमान खिज्यौ लंगा बंबारौ।—पृ० रा०, ७। ३।
⋙ बंबी †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नक्कारा। उ०—ब्रज तबल तूर निधोष बंभी, सराँ सोक असंक।—रघु० रू०, पृ० २२१।
⋙ बंबुर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बबूल'।
⋙ बंबू
संज्ञा पुं० [मलाया० बम्बू(=बाँस)] चंडू पीने की बाँस की छोटी पतली नली। क्रि० प्र०—पीना।
⋙ बंभ पु
संज्ञा पुं० [सं० व्रह्म, प्रा० बंभ] ब्रह्मा। उ०—चवं वेद बंभं हरी कित्ती भाखी। जिनै ध्रम्म साध्रम्म संसार राखी।—पृ० रा०, १। ५।
⋙ बंभण पु †
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० बंभण] विप्र। ब्राह्मण। उ०—बंभण भाट तेड़ावीया। दीधा ताजी ताजी उतिम ठाई।— बी० रासो०, पृ० २५।
⋙ बंभणी
संज्ञा स्त्री० [देशी] हालाहल। विष [को०]।
⋙ बंभर
संज्ञा पुं० [सं० बम्भर] भ्रमर। भौंरा [को०]।
⋙ बंभराली
संज्ञा स्त्री० [सं० बम्भराली] मक्खी। मक्षिका [को०]।
⋙ बंस
संज्ञा पुं० [सं० वंश] १. कुल। खानदान। उ०—(क) सोइ सुनो स्रवण तिहिं बंस जाँम।—ह० रासो, पृ० ६६। (ख) मालूम होता है, छत्तरी बंस है।—मान०, भा० ५, पृ० ६। मुहा०—बंस के बजाना = वंश या कुल, खानदान की मर्यादा का निर्वाह करना। उ०—दारुन तेज दिलीस के बीरनि काहू न वंस के बाने बजाए। छोड़ि हथ्यारनि हाथनि जोरि तहाँ सब ही मिलि मूँड़ मुड़ाए।—मति० ग्रं०, पृ० ४०५। २. बाँस। उ०—मिश्री माँहैं मेल करि मोल बिकाना बंस। यौं दादू महिंगा भया पारब्रह्म मिलि हंस।—दादू०, पृ० ११९। दे० 'वंश'।
⋙ बंसकार
संज्ञा पुं० [सं० वंश] [स्त्री० बंसकारी] बाँसुरी। उ०— सिंह संख डफ बाजन बाजे। बंसकार महुअरि सुर साजे।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बंसरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वंश + हिं० री (प्रत्य०)] दे० 'बंसी'।
⋙ बंसलोचन
संज्ञा पुं० [सं० वंशलोचन] बाँस का सार भाग जो उसके जल जाने के बाद सफेद रंग के छोटे छोटे टुकड़ों के रूप में पाया जाता है। विशेष—यह रंगपूर, सिलहट और मुरशिदाबाद में लंबी पोरवाले बाँसों की गाँठों मे से उनको जलाने पर निकलता है। इसे बसकपूर भी कहते हैं।
⋙ बसार
संज्ञा पुं० [देश०] बंगसाल। भंडार। (लश्करी)।
⋙ बसावरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वंशावलि] दे० 'वंशावली'। उ०— बंसावरि बरतन सु सुनि, तँवर राज मति घीर।—प० रासो, पृ० ३४।
⋙ बसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बंशी] १. बाँस की नली का बना हुआ एक प्रकार का बाजा। बाँसुरी। वंशी। मुरली। विशेष—यह बालिश्त सवा बालिश्त लंबा होता है और इसमेंसात स्वरों के लिये सात छेद होते हैं। यह बाजा मुँह से फूँककर बजाया जाता है। २. मछली फँसाने का एक औजार। उ०—ज्यों बंसी गहि मीन लीन में मारि काल ले खाई।—जग० श०, पृ० ११६। विशेष—एक लंबी पतली छड़ी के एक सिरे पर डोरी बँधी होती है और दूसरे सिरे पर अंकुश के आकार की लोहे की एक कंटिया बँधी रहती है। इसी कँटिया में चारा लपेटकर डोरी को जल में फेंकते हैं और छड़ी को शिकारी पकड़े रहता है। जब मछली वह चारा खाने लगती है तब वह कँटिया उसके गले में फँस जाती है और वह खींचकर निकाली जाती है। ३. मागधी मान में ३० परमाणु की तौल। त्रसरेणु। ४. विष्णु, कृष्ण और राम जी के चरणों का रेखाचिह्न। ५. एक प्रकार का तृण। विशेष—यह धान के खोतों में पैदा होता है। इसको 'बाँसी' भी कहते हैं। इसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों के आकार की होती हैं। इससे धान को बड़ी हानि होती है।
⋙ बसी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गेहूँ।
⋙ बसीधर
संज्ञा पुं० [सं० वंशीधर] श्रीकृष्ण।
⋙ बंहिमा
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० बंहिमन्] अधिकता। प्राचुर्य [को०]।
⋙ बंहिष्ठ
वि० [सं०] १. अत्यधिक। बहुत ज्यादा। २. अत्यंत गहरा या नीचा [को०]।
⋙ बहीय
वि० [सं० बंहीचस्] १. अत्यधिक। बहुत। बहुल। २. अत्यधिक तगड़ा या मोटा [को०]।
⋙ बँउखा ‡
संज्ञा पुं० [सं० वाहुक या हिं० बहूँटा] काले धागे का एक बध जिसमें झब्बे लगे रहते हैं और जिसे स्त्रियाँ बाँह में कोहनी के ऊपर बाँधती हैं।
⋙ बँकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंक + आई (प्रत्य०)] वक्रता। तिरछापन। उ०—(क) गढ़रचना बरुनी अलक चितवन भौँह कमान। आघु बँकाई हीं बढ़ै वरुनि तुरंगम तान।—बिहारी र०, दो० ३१६। (ख) कुंजर हंस सौं छीनि लई गति भौंह कमान सों लीन्ह बँकाई।—मोहन०, पृ० ६७।
⋙ बँकार †
वि० [सं० वक्र] वक्र। तिरछा। उ०—नासा मोती जगमग जोती लोचन बंक बँकार।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५१।
⋙ बँकैत
वि० [सं० कङ्ग + हिं० ऐत (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बँकैती] बाँका। तिरछा। उ०—कामिनी को नीको विधुवदन बँकैत, कैधों मैनसकर काटे नैन पलक बँकैती सो।—पजनेस०, पृ० १०।
⋙ बँकैती
संज्ञा स्त्री० बाँकापन।
⋙ बँकैयाँ
क्रि० वि० [सं० वक्र?] घुटनों के बल।
⋙ बँगरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक आभूषण। दे० 'बँगली'। उ०— मोरी वँगरी मुरकाइ डारी झट पकर निडर नटवर।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३८।
⋙ बँगला (१)
वि० [हिं० बंगाल] बंगाल देश का। बंगाल संबंधी जैसे, बँगला मिठाई, बँगला जूड़ा।
⋙ बँगला (२)
संज्ञा पुं० १. एकतला कच्चा मकान जिसपर फूस ओर खपड़ों का छप्पर पड़ा हो। २. वह छोटा हवादार और चारों ओर से खुला हुआ एक मंजिल का मकान जिसके चारों ओर बरामदे हों। विशेष— पहले इस प्रकार के मकान बंगाल में अधिकता से होते थे। उन्हीं की देखादेखी अंग्रेज भी अपने रहने के मकान बनाने और उन्हें बँगला कहने लगे। ३. वह छोटा हवादार कमरा जो प्रायः मकानों की सबसे ऊपरवाली छत पर बनाया जाता है। उ०— बैठे दोउ उसीर बँगल में ग्रीषम सुख विलसत दंपति बर।— ब्रजनिधि० ग्रं०, पृ० १५६। ४. बंगाल देश का पान।
⋙ बँगला (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगल] स्त्रियों का एक आभूषण जो हाथों में चूड़ियों के साथ पहना जाता है। उ०— सदा सुहा- गिनि पहिरे चूरी। सुबक पछेली बँगली रूरी।—ब्रज वर्णन, पृ० ९।
⋙ बँगुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बँगली'।
⋙ बंचना पु †
क्रि० सं० [हिं० बाँचना] बांच लेना। पढ़ लेना। सभझ जाना। उ०— ननदी ढिग आय नचाय कै नैन कछू कहि बैन भ्रुवैं कसि गी। बँचिगी सब मैं बिपरीत कथा नटनागर फदन मै फँसिगी।— नट०, पृ० ६१।
⋙ बँचवाना
क्रि० सं० [हिं० बाँचना] पढ़वाना। दूसरे को पढ़ने में प्रवृत्त करना। दूसरे से पढ़वाना।
⋙ बँचुई
संज्ञा स्त्री० [देश०] सालपान नाम की झाड़ी जो भारत के प्रायः सभी गरम प्रदेशों में होती है और वर्षा ऋतु में फूलती है।
⋙ बँटना (१)
क्रि० अ० [सं० बण्टन या वर्तन] १. विभाग होना। अलग अलग हिस्सा होना।जैसे,—यह प्रदेश तीन भागों में बँटा है। २. कई व्यक्तियों को अलग अलग दिया जाना। कई प्राणियों के बीच सवको प्रदान किया जाना। जैसे,— (क) वहाँ गरीबों को कपड़ो बँटता है। (क) अब तो सब आम बँट गए, तुम्हारे लिये एक भी न बचा। सयो० क्रि०—जाना।
⋙ बँटना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटना'।
⋙ बँटवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ बाँट + वाई (प्रत्य०)] बाँटने की मजदूरी।
⋙ बँटबाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाटना] पिसवाने की मजदूरी।
⋙ बटवाना (१)
क्रि० सं० [सं० वण्टन या वितरण] बाँटने का काम दूसरे से कराना। सबको अलग अलग करके दिलवाना। वितरण कराना।
⋙ बँटवाना (२)
क्रि० सं० [सं० वर्तन(=प्रेपण पीसाना)] पिसवाना।
⋙ बँटवारा
संज्ञा पुं० [हिं० बाँट + वारा (प्रत्य०)] १. बाँटने या भाग करने वी क्रिया। किसी वस्तु के दो या अधिक भाग या हिस्से करना। विभाग। तकसीम। २. अलग अलग होना। अलगोझा।
⋙ बँटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँट + आई (प्रत्य०)] १. बाँटने का काम।वितरण करना। २. बाँटने की मजदूरी। २. बाँटने का भाव। ४. दूसरे को खेत देने का वह प्रकार जिसमें खेत जोतनेवाले से मालिक को लगान के रूप में धन नहीं मिलता बल्कि उपज का कुछ अंश मिलता है। जैसे,— अब की बार सब खेत बँटाई पर उठा दो।
⋙ बँटाना
क्रि० सं० [हिं० बाँटना] १. भाग करा लेना। हिस्सा कराकर अपना अश ले लेना। २. किसी काम में हिस्सेदार होने के लिये या दूसरे के बोझ हलका करने के लिये शामिल होना। जैसे, दुःख बँटाना। मुहा०— हाथ बँटाना = दे० 'हाथ' के मुहा०।
⋙ बँटावन पु †
वि० [हिं० √ बँट + श्रावन (प्रत्य०)] बँटनेवाला। हिस्सा करानेवाला। बोझ हलका करानेवाला। उ०— बोलत नहीं मौन कह साधी बिपति बटावन वीर।—सूर (शब्द०)।
⋙ बँटैया ‡
संज्ञा पुं० [हिं० √ बँट + ऐया (प्रत्य०)] बँटा लेनेवाला। बँटानेवाला। हिस्सा लेनेवाला।
⋙ बँड़वा ‡
वि० [हिं०] दे० 'बाँड़ा'।
⋙ बँडेर, बँडेरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बँडे़री'।
⋙ बँड़ेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरेड़ा (=बड़ा) या सं० वरदण्ड़] वह लकड़ी जो खपरैल की छाजन में मँगरे पर लगाती है। यह दोपलिया छाजन में बीचोबीच लंवाई में लगाई जाती है। उ०— ओरी का पानी बँड़ेरी जाय। कंडा डूबे सिल उतराय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बँदरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बनरा'।
⋙ बँदरिया †, बँदरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] वानर की मादा।
⋙ बँदूख पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बंदूक'। उ०— चले तीर नेजा बँदूखै बरच्छी।—पृ० रासी०, पृ० १८४।
⋙ बँदेरा पु
संज्ञा पुं० [सं० बन्दी या हिं० बद + एरी (प्रत्य०)] [स्त्री० बँदेरी] बंदी। कैदी। बँदुआ। उ०— परा हाथ दसकंदर बैरी। सो कित छाड़ी कै भई बँदेरा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बँधना (१)
क्रि० अ० [सं० बन्धन] १. बंधन में आना। डोरी तागे आदि से घिरकर इस प्रकार कसा जाना कि खुल या बिखर न सके या अलग न हो सके। बद्ध होना। छूटा हुआ न रहना। बाँधा जाना। २. रस्सी आदि द्वारा किसी वस्तु के साथ इस प्रकार संबंध होना कि कहीं जा न सके।— जैसे, घोड़ा बँधना, गाय बँधना। संयो० क्रि०— जाना। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग अन्यान्य अनेक क्रियाओं की भाँति उस चीज के लिये भी हीता है जो बाँधी जाती है और उसके लिये भी जिससे बाँघते है। जैसे,— सामान बँधना, गठरी बँधना, रस्ती बँधना। ३. कैद होना। बंदी होना। मुहा०— बँधे चले आना = चुपचाप कैदियों की तरह या स्वामि- भक्त सेवक की तरह जिधर लाया जाय उधर आना। उ०— अगर यही हथकंडे हैं तो दस पाँच दिन में जवानाने तुर्क बँधे चले आएँगे।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १९२। ४. स्वच्छंद न रहना। ऐसी स्थिति में रहना जिसमें इच्छानुसार कहीं आ जा न सकें या कुछ कर न सकें। प्रतिबंध रहना। फँसना। अटकना। ४. प्रतिज्ञा या वचन आदि से बद्ध होना। शर्त वगैरह का पाबंद होना। ६. गँठना। ठीक होना। दुरुस्त होना। जैसे, मजमून बँधना। ७. क्रम निर्धा- रित होना। कोई बात इस प्रकार चली चले, यह स्थिर होना। चला चलनेवाला कायदा ठहराना। जैसे, नियम बँधना, बारी बँधना। उ०— तीनहुँ लोकन की तरुणीन की बारी बँधी हुती दंड दुहू की।— केशव (शब्द०)। ८. प्रेमपाश में बद्ध होना। मुग्ध होना। उ०—अली कली ही तें बँध्यो आगे कौन हवाल।— बिहारी (शब्द०)। विशेष— दे० 'बाँधना'।
⋙ बँधना (२)
संज्ञा पुं० [सं० बन्धन] १. वह वस्तु (कपड़ा या रस्सी आदि) जिससे किसी चीज को बाँधें। बाँधने का साधन। २. वह थैली जिसमे स्त्रियाँ सीने पिरोने का सामान रखती है।
⋙ बँधनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धन, हिं० बँधना] १. बंधन। जिसमें कोई चीज बँधी हुई हो। २. जो किसी चीज की स्वतंत्रता आदि में बाधक हो। उलझाने या फँसानेवाली चीज। उ०— मीता मन वा बँधनि ते कौने सके अब छोरि।— रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बँधवाना
क्रि० सं० [हिं० बाँधना प्रे० रूप०] १. बाँधने का काम दूसरे से करवाना। दूसरे को बाँधने में प्रवृत्त करना। २. देना आदि नियत कराना। मुकर्रर कराना। ३. कैद कराना। ४. तालाव, कुआँ पुल आदि बनवाना। तैयार कराना।
⋙ बँधान पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बंधान'। उ०—(क) नागर नट चितवाहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।— मानस, १। ३०२. (ख) मिथिलापुर के नर्तक नाना। नाचै डगै न ताल बँधाना।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ बँधाना
क्रि० सं० [हिं० बाँधना का प्रे० रूप] १. बाँधने के लिये प्रेरण करना। बाँधने का काम दूसरे से कराना। बँधवाना। २. धारण कराना। जैसे, धीरज बँधाना, हिम्मत बँधाना। ३. कैद कराना। दे० 'बँधवाना'। ४. स्वयं किसी का जान बूझकर बंधन में पड़ जाना।
⋙ बँधिका
संज्ञा स्त्री० [हिं० बधन] वह डोरी जिससे ताने की साँची बाँधी जाती है।(जुलाहा)।
⋙ बँधुआ
संज्ञा पुं० [हिं० बँधना + उआ (प्रत्य०)] कैदी। बंदी। उ०— बँधुआ को जैसे लखत कोइ कोइ मनुष सुतंत।—लक्ष्मण- सिंह (शब्द०)।
⋙ बँधुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बँधुआ'।
⋙ बँबाना †
क्रि० अ० [अनुध्व०] गौ आदि पशुओं का बाँ बाँ शब्द करना। रँभाना।
⋙ बँभनई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बँभनाई'।
⋙ बँभनाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० ब्राह्मण, प्रा०, बंभण, + हिं० आईँ (प्रत्य०)] १. ब्राह्मणत्व। ब्राह्मणपन। २. हठ। जिद्द। दुराग्रह (कव०)।
⋙ बँसरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंसरी] १. बंसी। कँठिया। उ०—जनु पीतम मन मीन गहन कों बँसरी दई लटकाय।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८९। २. दे० बाँसुरी'।
⋙ बँसवरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० वंश (=बाँस) + अवलि + हिं० या (प्रत्य०)] वह जगह जहाँ अनेक बाँस उगे हों।
⋙ बँसुरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँसुरी + या (स्वा० प्रत्य०)] दे० 'बाँसुरी'। उ०— बिच बिच बजत, बँसुरिया सबको नेह पाग बप कीने।— नंद०, ग्रं० पृ० ३८८।
⋙ बँसुरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बंसी', 'बाँसुरी'। उ०— मोहन बँसुरी लेत है बजि कै बसुरी जीत।— सं० सप्तक पृ० १८७।
⋙ बँसोर †
संज्ञा पुं० [सं० वंश, हिं० बाँस + ओर (प्रत्य०)] बाँस के डाले आदि बनानेवाला निम्न जाति का व्यक्ति। उ०— होरी ने देखा, दमरी बँसोर सामने खड़ा है।—गोदान, पृ० ३४।
⋙ बँहगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाह + अङ्गिका] भार ढोने का एक उपकरण। काँवर। विशेष— एक लंबे बाँस के टुकड़े के दोनें सिरों पर रस्सियों के बड़े बड़े छीके लटका दिए जाते है। इन्ही छीकों में बोझ रख देते हैं और लकड़ी की बीच में से कंधे पर रखकर ले चलते है। क्रि० प्र०—उठाना।—ढोना।
⋙ ब (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण। २. सिंधु। ३. भग। ४. जल। ५. सुगंधि।६. वयन। बुनना। ७. ताना। ८. कुंभ। ९. दे० 'गंधन'।
⋙ ब (२)
प्रत्य० [फा०] १. से। साथ। जैसे, बखुद, बखुदी। २. वास्ते। लिये। जैसे, बखुदा। ३. पर। जैसे, दिन ब दिन।
⋙ बइटठाना पु ‡
क्रि० [सं० √ विश् या/?/उपविश, प्रा० बइट्ठ] दे० 'बैठना'। उ०— दरबार बइट्टे दिवस भइट्ठे।—कीर्ति० पृ० ४६।
⋙ बइर पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बैर, प्रा०, वइर] शत्रुता। दुश्मना। बैर।
⋙ बइर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० वदर, शौ, प्रा०, बउर] बेर। बगरीफल।
⋙ बइर ‡ (३)
वि० [सं० वधिर, प्रा० बहिर] बहरा। बधिर।
⋙ बइरी †
संज्ञा पुं० [सं० बैरी] शत्रु। दुश्मन।
⋙ बइरीसाल पु
संज्ञा पुं० [देश०?] एक किस्म का घोड़ा। घोड़े की एक नस्ल का नाम। उ०— बइरिसाल दोयी अषईराज।— बी० रासी०, पृ० ५७।
⋙ बइसना † (१)
संज्ञा पुं० [सं० उप √ विश्; प्रा० बेस, अप० धात्वा० बइस; गुज बेसबुँ] बैठना। उ०—(क)खेलाँ मेल्ह्या माँड़ली बइस सभा माँहि मोहेउ छइ रा़ड़।-वी० रासी०, पृ० ३। (ख) बन खंड़ काली कोईली। बइसती अंब कह चंप की डालि।—बी० रासो०, पृ० ६५।
⋙ बइसना † (२)
संज्ञा पुं० बैठने की क्रिया। उपवेशन। बैठना।
⋙ बइसाना, बइसारना
क्रि० सं० [अप० वइसारणा] दे० बैसारना उ०— आँचलो गैहती बइसाड़ी छई आँण।—वी० रासो, पृ० ४५।
⋙ बइसुरी †
संज्ञा पुं० [देश०] खर पतवार।
⋙ बइहनड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणिआ] भगिनी। बहन। उ०— भूली है बइहनड़ी इणी बीसास।—वी० रासी०, पृ० ७६।
⋙ बईठना पु †
क्रि० अ० [अप० बइट्ठ] दे० 'बैठना'। उ०— सखी सरेखी साथ बईठी। तपै सूर ससि आव न दीठी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बउर पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बौर' वा 'मौर'।
⋙ बउरा पु †
वि० [हिं० सं० बातुल] दे० 'बावला'।
⋙ बउराना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बौराना'।
⋙ बउलाना पु †
क्रि० सं० [प्रा० बोल्ल, बुल्ल] बुलाना। उ०— मान अधिक तिहा आपीयो। कुँवर बउलावी बीसलराइ।— बी० रासी० पृ० १०७।
⋙ बउहारी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'बुहारी'।
⋙ बऊ †
संज्ञा स्त्री० [सं० बधु, प्रा० बहु, बहुँ बँग० बऊ] बधू। बहू। पत्नी। उ०— पंजाबी बऊ के निये आशुन (=पंजाबी बहू को ले आइए)।—भस्मावृत०, पृ० ७१।
⋙ वएस पु
संज्ञा पुं० [सं० वयस] उम्र। अवस्था। उ०— बारि बएस गो प्रीति न जानी। तरुनी भइ मैमंत भुलानी। जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२५।
⋙ बक (१)
संज्ञा पुं० [सं० बक] १. बगला। २. अगस्त नामक पुष्प का वृक्ष। ३. कुवेर। ४. बकासुर जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था। ५. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ६. एक ऋषि का नाम। ७. धोखा। छल। फेरब (को०)। ८. दे० 'बकयंत्र'।
⋙ बक (२)
वि० बगले सा सफेद। उ०— अहहिं जो केश भँवर जेहि बसा। पुनि बक होंहि जगत सब हँसा।— जायसी।(को०)।
⋙ बक (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वच, हिं० बकना] घबड़ाहट। प्रलाप। बकवाद। क्रि० प्र०—लगना। यौ०—बकबक वा बकझक = बकवाद। प्रलाप। व्यर्थ बाद। उ०— ऐसे बकझक खिझलायकर सुरपति ने मेघपति को बुलाय भेजा।—लल्लू (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।
⋙ बकचदन
संज्ञा पुं० [सं० बकचन्दन] एक वृक्ष का नाम जिसकी पत्तियाँ गोल और बड़ी होती हैं।विशेष— इसका पेड़ ऊंचा और लकरी दृढ़ होती है। इसका फल लबा और पतला होता है जिसमें छह से आठ नौ अंगुल लबे तीन चार दल होते हैं। यह ऊपर कुछ ललाई लिए और भीतर पीलापन लिए भूरे रंग का होता है। फल सिर के दाद में पीसकार लगाए जाते है। इसे भकचंदन भी कहते हैं।
⋙ बकचक पु
संज्ञा पुं० [सं० वक्र + चक्र?] एक प्रकार का शस्त्र। उ०— बकचकैं चलावै दूहूँ दिसि घावैं हयन कुदावैं फूल भरे।—पद्माकर ग्र०, पृ० २८।
⋙ बकचन
संज्ञा पुं० [सं० बकचन्दन] दे० 'बकचंदन'।
⋙ बकचर
संज्ञा दे० [सं०] ढोंगी व्यक्ति। वह जो बक की सी वृत्तिवाला हो [को०]।
⋙ बकचा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकुचा'।
⋙ बकचिंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० बकचिञ्चका] एक प्रकार की मछली। इस मछली के मुँह की जगह लंबी चोंच सी होती है। कौवा मछली।
⋙ बकची
संज्ञा स्त्री० [सं० बकाची] १. एक प्रकार की मछली। २. दे० 'बकुची'।
⋙ बकचुन
संज्ञा पुं० [सं० बाकुची] एक प्रकार का फूलनेवाला पौधा। उ०— जाही जूही बकचुन लावा। पुहुप सुदरसन लाग सोहावा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५।
⋙ बकजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण। २. भीम [को०]।
⋙ बकठाना †
क्रि० [सं० विकुण्ठन] किसी बहुत कसैली चीज, जैसे कटहल के फूल या तेदू आदि के फल, खाने से मुँह का सूख जाना, उसका स्वाद बिगड़ जाना और जीभ का सुकड़ जाना।
⋙ बकतर
संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार का जिरह या कवच जिसे योद्धा लड़ाई में पहनने है। उ०— कबिरा लोहा एक है गढ़ने में है फेर। ताही का बकतर बना, ताही का शमशेर।— कबीर (शब्द०)। विशेष— यह लोहे की कड़ियों का बना हुआ जाल होता है तथा इससे गोली और तलवार से वक्षस्थल की रक्षा होती है। यौ०— बकतरपोश = कवचधारी।
⋙ बकता पु
वि० [सं० वकृत, वक्ता] दे० 'वक्ता। उ०— (क) श्रोता बकता ज्ञाननिधि कथा राम कै गूढ़।—मानस, १। ३०। (क) कथता बकता मरि गया, मूर्ख मूढ़ अजान।—कबीर सा० सा०, पृ० ८८।
⋙ बकताई पु
संज्ञा स्त्री [हिं० बकता + ई(प्रत्य०)] वक्तृता। बकवाद। बकवास। ऊलजलूल बातें। उ०— नाम नाहि अंतर मँह चोन्है, बहुत कहै वकताई।— जग०, श० भा०, पृ० ९०।
⋙ बकतिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली जो उत्तर प्रदेश, बंगाल और आसाम की नदियों में होती है।
⋙ बकधूप
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धूप या सुगंधित द्रव्य [को०]।
⋙ बकध्यान
संज्ञा पुं० [सं० बकध्यान] ऐसी चेष्ठा या मुद्रा या ढंग जो देखने में तो बहुत साधु और उत्तम जान पड़े पर जिसका वास्तविक उद्देश्य बहुत ही दुष्ट और अनुचित हो। उस बगले की सी मुद्रा जो मछली पकड़ने के लिये बहुत ही सीधा सादा बनकर ताल के किनारे खड़ा रहता है। पाखंडपूर्ण मुद्रा। बनावटी साधुभाव। उ०—रण ते भागि निलज गृह आवा। इहाँ आइ बकध्यान लगाला।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगाना।—लागाना। विशेष— इस शब्द का प्रयोग ऐसे समय होता है जब कोई व्यक्ति अपना बुरा। उद्देश्य सिद्ध करने के लिये अथवा झूठ मूठ लोगों पर अपनी साधुता प्रकट करने के लिये बहुत सीधा सादा बन जाता है।
⋙ बकध्यानी
वि० [सं० बक + ध्यानिन्] बगले की तरह बनावटी ध्यान करनेवाला। जो देखने मे सीधा सादा पर वास्तव में दुष्ट और कपटी हो। वंचक भक्त। बगला भगत।
⋙ बकनख
संज्ञा पुं० [सं०बकनख] महाभारत के अनुसार विश्वा- मित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ बकना
क्रि० सं० [सं० बचन] १. ऊटपटाँग बात कहना। अयुक्त बात बोलना। व्यर्त बहुत बोलना। उ०— (क) जेहि धरि सखी उठावहिं सीस बिकल नहि डोल। घर कोई जीव न जानइ मुखरे बकत कुबोल।— जायसी (शब्द०)। (ख) बाद ही बाढ़ नदी के बकै मति बोर दे वज विषय विष ही को। पद्माकर (शब्द०)। २. प्रलाप करना। बड़बड़ाना। उ०—(क) काजी तुम कौन किताब बखाना। झंखत बकत रह्यो निशि बासर मत एकी नहि जाना।—कबीर (शब्द०)। (ख) नाहिन केशव साख जिन्हें बकि के तिनसों दुखवै मुख कोरी।— केशव (शब्द०)। सयो० क्रि—चलाना।—जाना।—डालना। मुहा०— बकना झकना = बड़बडाना। बिगड़कर व्यथ की बातें करना। †३. कहना। वर्णान करना। उ०— वकूँ जिका ज्यारी विगत, अवर न कोय उपाय।—रघु रू०, पृ० १३।
⋙ बकनिपूदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण। २. भीष्म (को०)।
⋙ बकनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बकना] बकवास। उ०— सूरत मिली जाय ब्रह्म सो, दो मन बुध को पूठ। जन दरिया जहाँ देखिए कथनी बकनी झूठ।—दरिया० बानी, पृ० २०।
⋙ बकपंचक
संज्ञा पुं० [सं० बकपञ्चक] कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णमासी तक का समय जिसमें मांस, मछली आदि खाना बिल्कुल मना है।
⋙ बकबक
संज्ञा स्त्री० [हिं बकना] बकने की क्रिया या भाव। व्यर्थ की बहुत अधिक बातें। जैसे,—तुम जहाँ बैठते हो वहीं बकबक करते हो। मुहा०— बकबक झकझक = बकवाद। प्रलाप। उ०— इस खुशगपी ने आज सितम ढाया, लेक्चर सुनने में न आया, मुफ्त की बकबक झकझक।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७।
⋙ बकम
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'बक्कम'।
⋙ बकमौन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वक + मौन] अपना दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करने के लिये बगले की तरह सीधे बनकर चुपचाप रहने की क्रिया या भाव।
⋙ बकमौन (२)
वि० चुपचाप अपना काम साधनेवाला। उ०— मुख में, कर में काख में हिय में चोर बकमौन। कहै कबीर पुकारि के पंडित चीन्हो कौन।— कबीर (शब्द०)।
⋙ बकयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वकयंत्र] वैद्यक में एक यंत्र का नाम। विशेष— यह काँच की एक शीशी होती हे जिसका गला लवा होता है और सामने बगले के गले की तरह झुका होता है। इस यंत्र से काम लेने के समय शीशी को आग पर रख देते हैं और झुके हुए गले के सिरे पर दूसरी शीशी अलग लगा देते है जिसमें तेल या अरक आदि जाकर गिरता है।
⋙ बकर (१)
संज्ञा पुं० [अ०] गाय या बैल [को०]। यौ०— बकर ईद = मुसलमानों का एक त्योहार जिसे बकरीद कहते है।
⋙ बकर (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] समस्त शब्दों में बकरा का रूप। जैसे, बकरकसाई, बकरकसाव।
⋙ बकरकसाई
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकरकसाव'।
⋙ बकरकसाव
संज्ञा पुं० [हिं० बकरी + आ० कस्साब(=कसाई)] [स्त्री० बकरकसाविन] बकरों का मांस बेचनेवाला पुरुष। चिक।
⋙ बकरदाढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बकर + दाढ़ी] बकरे की तरह दाढ़ी केवल ठुड़्डी पर उगी दाढ़ी। उ०— अपनी बकरदाढ़ी को थामे दरोगा साहब प्रकट में ध्यान से मेरी बात सुन रहे थे।— अभिशप्त, पृ० १०३।
⋙ बकरना
क्रि० स० [हिं० बकार अथवा बकना] १. आपसे आप बकना। बड़बड़ाना। उ०— दही मथत मुख से कछु बकरति गारी दै दै नाम। घर घर डोलत माखन चोरत षटरस मेरे धाम।— सूर (शब्द०)। २. अपना दोष या करतूत आपसे आप कहना। कबूल करना। जैसे,— जब मत्र पढ़ा जायगा तब जो चोर होगा वह आपसे आप बकरेगा।
⋙ बकर बकर
वि० [अनुघ्व०] आश्चचर्यचकित। उ०— ऐसे अवसरों पर पडिताइन गम खा जातीं, बकर बकर ताकती रह जातीं अपने पतिपरमेश्वर की और।—नई०, पृ० ५।
⋙ बकरा
संज्ञा पुं० [सं० बर्कर] [स्त्री० बकरी] एक प्रसिद्ध चतु- ष्पाद पशु। उ०— बकरी खीती घास है ताकी काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात है तिनको कवल हवाल।— कबीर (शब्द०)। पर्या०— अज। छाग। बकर मुहा०— बकेर की माँ कब तक खैर मनाएगी = दोषी या अप- राधी कब तक छिपा रह पाएगा। उ०— बस आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी।— मान०, भा० १, पृ० ६। विशेष— इस पशु के सींग तिकोने, गठीले और ऐंठनदार तथा पीठ की ओर झुके हुए होते है, पूँछ छोटी होती है, शरीर से एक प्रकार की गंध आती है और खुर फटे होते है। यह जुगाली करके खाता है। कुछ बकरों को ठोड़ी के नीचे लबी दाढ़ी भी होती है और कुछ जातियों के बकरे बिना सींग के भी होते हैं। कुछ बकरों के गले में नीचे या दोनों ओर स्तन की भाँति चार चार अंगुल लंबी और पतली थैली होती है जिसे गलस्तन या गलथन कहते हैं। बकरों की अनेक जातियाँ होती हैं। कोई छोटी, कोई बड़ी कोई जंगली, कोई पालतू, किसी के बाल छोटे और किसी के लंबे और बड़े होते हैं। आर्य जाति को बकरों का ज्ञान बहुत प्राचीन काल से है। वेदों में 'अज' शब्द गो के साथ ही साथ कई जगह आया है। बकरे की चर्बी से देवाताओं को आहुति देने का विधान अनेक स्थलों में हैँ। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक और प्रायः आज तक अनेक स्थानों में, भारतवर्ष में, यह प्रथा थी कि जब किसी के यहाँ कोई प्रतिष्ठित अतिथि आता था तो उसके सत्कार के लिये गृहपति बड़े बकरे को मारकर उसके मांस से अतिथि का आतिथ्य सत्कार करता था। बकरे के मांस, दूध और यहाँ तक कि बकरे के संग रहने को भी वैद्यक में यक्ष्मा रोग का नाशक माना है। बकरी का दूध मीठा और सुपाच्य तथा लाभदायक होता है पर उसमें से एक प्रकार की गंध आती है जिससे लोग उसके पीने में हिचकते हैं। वदों में 'आज्य' शब्द घी के लिये आता है जिससे जान पड़ता है, आर्यों, ने पहले पहले बकरी के दूध से ही घी निकालना प्रारंभ किया था। यद्यापि सब जाति की बकरियाँ दुधार नहीं होती, फिर भी कितनी ऐसी जातियाँ भी हैं जो एक सेर से पाँच सेर तक दूध हैं। बकरियों के अयन में दो थन होते हैं ओर वे छह महीने में एक से चार तक बच्चे जनती है। बच्चों के मुँह में पहले चोभर को छोड़कर नीचे के दाँत नहीं होते पर छठे महीने दाँत निकल आते है। ये दाँत प्रतिवर्ष दो दो करके टूट जाते है। उनके स्थान पर नए दाँत जमते जाते हैं ओर पाँचवे वर्ष सब दाँत बराबर हो जाते हैं। यही अवस्था बकरे की मध्य आयु की है। बकरों की आयु प्रायः १३ वर्ष की होती है, पर कभी कभी वे इससे अधिक भी जीते हैं। इनके खुर छोटे और कड़े होते हैं और बीहड़ स्थानों में, जहाँ दूसरे पशु आदि नहीं जा सकते, बकरा अपना पैर जमाता हुआ मजे में चला जाता है। हिमालय में तिब्बती बकरियों पर ही लोग माल लादकर सुख से तिब्बत से भारत की तराई में लाते और यहाँ से तिब्बत ले जाते है। अगूरा, कश्मीरी आदि जाति की बकरियों के बाल लबे, अत्यंत कोमल और बहुमुल्य होते हैं और उनसे पश्मीने, शाल, दुशाले आदि बनाए जाते हैं। बकरा बहुत गरीब पशु होता है और कड़ुवे, मीठे, कटीले सब प्रकार के पेड़ों की पत्तियों खाता है। यह भेड़ की भाँति डरपोक और निर्बुद्धि नहीं होता बल्कि साहसी और चालाक होता है। बधिया करने पर बकरे बहुत बढ़तेऔर हृष्टपुष्ट होते हैं। उनका मांस भी अधिक अच्छा होता है।
⋙ बकरम
संज्ञा पुं० [अ० बक् रम] प्रक प्रकार का कड़ा किया हुआ वस्त्र जो आस्तीन, कालर आदि में कड़ाई के लिये लगाया जाता है।
⋙ बकरवाना
क्रि० सं० [हिं० बकरना का प्रेरणार्थक] किसी से अपराध कबुलवाना। बकराना।
⋙ बकराना
क्रि० सं० [हिं० बकरना] दोष या करतूत कहलाना। कबूल करना।
⋙ बकरिपु
संज्ञा पुं० [सं० वकरिपु] भीमसेन का एक नाम।
⋙ बकरीद
संज्ञा स्त्री० [अं बकर + ईद] मुसलमानों का एक त्यौहार।
⋙ बकल
संज्ञा पुं० [सं० बल्कल] दे० 'वकला'। उ०— बकल बसन, फल असन करि, करिहौं बन बिस्राम।—ब्र० ग्रं०, पृ० ११८।
⋙ बकलस
संज्ञा पुं० [अं० बकल्स] एक प्रकार की चौकोर या लंबोतरी विलायती अंकुसी या चौकोर छल्ला जो किसी बंधन के दो छोरों को मिलाए रखने या कसने के काम में आता है। बकसुआ। विशेष— यह लोहे, पीतल या जर्मन सिल्वर आदि का बनता है और विलायती बिस्तरबंद या वेस्टकोट आदि के पिछले भाग अथवा पतलून की गोलिस आदि में लगाया जाता है। कहीं कहीं जैसे, जूतों पर, इसे केवल शोभा के लिये भी लगाते हैं।
⋙ बकला
पु० [सं० वल्कल] १. पेड़ की छाल। २. फल के ऊपर का छिलका। उ०— निगम कल्पतरु को सुफल, बीज न बकला जाहि। कहन लगे रस रँगमगे, सुंदर श्री सुक ताहि।— नंद० ग्र०, पृ० २२०।
⋙ बकलो (१)
संज्ञा स्त्री० [को०] एक वृक्ष जो लंबा और देखने में बहुत सुंदर होता है। गुलरा। धबरा। खरधवा। विशेष— इसकी छाल सफेद और चिकनी होती है। इसकी लकड़ी चमकीली और अत्यंत दृढ़ होती है। यह वृक्ष बीजों से उगाता है तथा इसके पेड़ मध्य भारत और हिमालय पर तीन हजार फुठ को ऊँचाई तक होते हैं। इसकी लकड़ी से आरायशी और खेती के सामान बनाए जाते हैं तथा इसके लट्ठे रेल की सड़क पर पठरी के नीचे बिछाए जाते हैं। इसका कोयला भी इच्छा होता है और पत्ते चमड़ा सिझाने के काम आते हैं। इस पेड़ से एक प्रकार का गोंद निकलता है जो कपड़े छापने के काम में आता है। इसे धावा, धव, आदि भी कहते हैं। २. फल आदि का पतला छिलका।
⋙ बकलो (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] अधोरी नाम का वृक्ष जिसकी लकड़ी से हल और नावें बनती है। वि० दे० 'अधोरी'।
⋙ बकवती
संज्ञा स्त्री० [सं० बकवती] एक नदी का प्राचीन नाम।
⋙ बकवाद
संज्ञा स्त्री० [हिं०बक + वाद] व्यर्थ की बात। बकबक। सारहीन वार्ता। उ०— (क) खलक मिला खाली रहा किया बकवाद। बाँझ झुलावे पालना तामे कौन सवाद।— कबीर (शब्द०)। (ख) कहि कहि कपट सँदेसन मधुकर कत बकवाद बढ़ावत। कारो कुटिल निठुर चित अतर सूरदास कवि गावत।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।—होना ।
⋙ बकवादी
वि० [हिं० बकवाद + ई (प्रत्य०)] बकवाद करनेवाला। बक बक करनेवाला। बहुत बात करनेवाला। बक्की।
⋙ बकवाना
क्रि० सं० [हिं० बकना का प्रेरणार्थ रू०] बकने ते लिये प्रेरणा करना। किसी से बकवाद कराना।
⋙ बकवास
संज्ञा स्त्री० [हिं० बकना + वास (प्रत्य०)] १. बकवाद। व्यर्थ की बातचीत। बकबक। क्रि० प्र०—करना।— मचाना।—होना। २. बक बक करने की लत। बकबाद मचाने का स्वभाव। ३. बकवाद करने की इच्छा। क्रि० प्र०—लगना।
⋙ बकवृत्ति (१)
संज्ञा पुं० [सं० वकवृत्ति] वह पुरुष जो नीचे ताकनेवाला, शठ और स्वार्थ साधने में तत्पर तथा कपटयुक्त हो। बकध्यान लगानेवाला मनुष्य।
⋙ बकवृत्ति (२)
वि० कपटी। धोखेबाज।
⋙ बकव्रती
वि० [सं० वकव्रतिन्] वकवृत्तिवाला। कपटी।
⋙ बकस
संज्ञा पुं० [अ० बॉक्स] १. कपड़े आदि रखने के लिये बना हुआ चौकार संदूक। २. घड़ी, गहने आदि रखने के लिये छोटा डिब्बा। खाना। जैसे, घड़ी का बक्स गले के हार का बक्स।
⋙ बकसनहार पु
वि० [हिं० बकसना + हार (प्रत्य०)] क्षमा करनेवाला। उ०— बदा भूला बदगी, तुम बकसनहार।— धरनी०, श० पृ० २३।
⋙ बकसना पु
क्रि० स० [फा० बख्श + हिं० ना(प्रत्य०)] १. कृपापूर्वक देना। प्रदान करना। उ०— (क) प्रभु बकसत गज बाजि बसन मनि जय घुनि गगन निसान हये।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नासिक ना यह सुक है व्याइ अनंग। वेसर को छवि बकसत मुकुतन संग।— रहीम (शब्द०)। २. छोड़े देना। क्षमा करना। माफ करना। उ०— (क) तब देवकी अधीन कह्यो यह मैं नहिं बालक जायो। यह कन्या मोहि बकस बीर तू कीजै मो मन भायो।— सूर (शब्द०)। (ख) पूत सपूत भयो कुल मेरे अब में जानी बात। सूरश्याम अव लौ तोहि बकस्यों तेरी जानी घात।—सूर (शब्द०)।
⋙ बकसवाना †
क्रि० सं० [हिं० बकसना का प्रेरणार्थ रू०] दे० 'बकसाना'।
⋙ बकसा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो पानी में या जलाशायों के किनारे होती है। चौपाए इसे बड़े चाव से खाते हैं।
⋙ बकसाना पु †
क्रि० स० [हिं० बख्शना] 'बकसना' का प्रेरणार्थक' रूप। क्षमा कराना। माफ कराना। उ०— (क) चूक परी मोतें मैं जानी मिलैं श्याम बकसाऊँ री। हा हा करि दसनन तृण घरि लोचन जलनि ढराऊँ री।—सूर (शब्द०)। (ख) पूजि उठे जब ही शिव को तब ही विधि शुक्र बृहस्पति आए। कै बिनती मिस कश्यप के तिन देव अदेव सबै बक- साए।— केशव (शब्द०)।
⋙ बकसी
संज्ञा पुं० [फा० बख्शी] दे० 'बख्शी'। उ०— बकसी के बचन सुनि साह कियो अति सोच।—ह० रासो०, पृ० ८६।
⋙ बकसीला †
बि० [हिं० बकठाना] जिसके खाने में मुँह का स्वाद बिगाड़ जाय और जीभ ऐठने लगे।
⋙ बकसीस पु
संज्ञा स्त्री० [फा० बखशिश] १. दान। उ०— प्रेम समेत राय सब लीन्हा। भइ बकसीस जाँचकन्ह दीन्हा।—तुलसी (शब्द०)। २. इनाम। पारितोषिक। उ०— (क) केशौदास तेहि काल करोई है आयो काल सुनत श्रवण बकसीस एक देश की।—केशव (शब्द०)। (ख) निकले असीस दै दै के लै बकसीसैं देव अंग के बसन मीन मोती मिले मेले लै।—देव (शब्द०)। ३. प्रदान। देना। उ०— पिछले निमक की दोस्ती, करी जान बकसीस— ह० रासो, पृ० ११३।
⋙ बकसुआ, बकसुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकलस'।
⋙ बकसैया पु
वि० [हिं० बकसना + ऐसा(प्रत्य०)] बख्शनेवाला। देनेवाला। उ०— समर के सिंह सत्रुसाल के सपूत, सहजहि बकसैया सदसिंधुर मंदध के।— मति० ग्रं० पृ० ३९६।
⋙ बका
संज्ञा स्त्री० [अ० बका] अस्तित्व। अनश्वरता। जिंदगी। उ०— नहिं काम आएगा यह हिसं आखिर, बका जान फानी तेरा यो समझ घर।—दक्खिनी०, पृ० २५५।
⋙ बकाइन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकायन'।
⋙ बकाउ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बकावली'। उ०— सुनु बकाउ तजि चाहुँ न जूही।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बकाउर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बकावली'।
⋙ बकाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०]।
⋙ बकाना
क्रि० सं० [हिं० बकना का प्रेरणार्थक रूप] १. बक बक करने पर उद्यत करना। बक बक कराना। २. कहलाना। रटाना। उ०— बार बार वकि श्याम सों कछु बोल बकावत। दुहुंघा द्वै दैतली भई अति मुख छबि पावत।—सूर (शब्द०)।
⋙ बकायन
संज्ञा पुं० [हिं० बड़का + नीम ?] नीम की जाति के एक पेड़ का नाम जिसकी पत्तियाँ नीम की पत्तिय़ों के सदृश पर उनसे कुछ बड़ी होती है। पर्या०—महानिब। द्रेका। कार्मुक। कैटय्यै। केशमुष्टिक। पवनेष्ट। रस्यकक्षीर। काकेड़। पार्वत। महातिक्त। विशेष— इसका पेड़ भी नीम के पेड़ से बड़ा होता है। फल नीम की तरह पर नीलापन लिए होता है। इसकी लकड़ी हलकी और सफेद रंग की होती है। इससे घर के संगहे और मेज कुरसी आदि बनाई जाती है। इसपर बारनिश और रंग अच्छा खिलाता है। लकड़ी नीम की तरह कड़ुई होती है। इससे उसमें दीमक घुन आदि नहीं लगते। वैद्यक में इसे कफ, पित्त और कृमि का नाशक लिखा है और वमन आदि के दूर करनेवाला तथा रक्तशोधक माना है। इसके फूल, फल, छाल और पत्तियाँ औषध के काम आती हैं। बीजों का तेल मलहम में पड़ता है। इसके पेड़ समस्त भारत में और पहाड़ो के ऊपर तक होते हैं। बीज से उगता है।
⋙ बकाया
संज्ञा पुं० [अ० बकायह्] १. बचा हुआ। बाकी। शेष। २. बचत।
⋙ बकार (१)
संज्ञा पुं० [अ० बकार] अक्ष। धुरी। केंद्र। उ०— अगर आप हिंदू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें तो यकीनन इसलाम के वकार में फर्क न आएगा।—काया०, पृ० ४७।
⋙ बकार † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बकारी] बकारी। आवाज। शब्द।
⋙ वकारना पु
क्रि० सं० [हिं० बकार + ना (प्रत्य०)] आवाज देना। बुलाना।
⋙ बकारि
संज्ञा पुं० [सं० वकारि] १. बकासुर को मारनेवाले, श्रीकृष्ण। २. भीमसेन।
⋙ बकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० 'ब' कार या वाक्य] वह शब्द जो मुँह से प्रस्फुटित हो। मुँह से निकलनेवाला शब्द। क्रि० प्र०—निकलना। मुहा०—बकारी फूटना = मुँह से शब्द वा वर्णों का उच्चारण होना। शब्द निकलना। बात निकलना।
⋙ बकावर, बकावरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गुलबकावली'। उ०— तुम जो बकावरि तुम्ह सों भर ना। बकुचन गहै चहै जो करना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बकावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वकपंक्ति।
⋙ बकावली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गुलबकावली'।
⋙ बकासुर
संज्ञा पुं० [सं० बकासुर] एक दैत्य का नाम जिसे कृष्ण ने मारा था।
⋙ बकी
संज्ञा स्त्री० [सं० बकी] बकासुर की बहन पूतना का एक नाम जो अपने में विष लगाकर कृष्ण को मारने के लिये गई थी। कृष्ण ने उसका दूघ पीते समय ही उसे मार डाला था। उ०—बकी कपट करि मारन आई। सो हरि जू बैकुंठ पठाई।—सूर० १। ३।
⋙ बकीया
वि० [अ० बकी़यह्] बाकी। शेष। अवशिष्ट [को०]।
⋙ बकुचन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बिकुञ्चन या हिं० बकुचा] १. हाथ जोड़ने की अवस्था। बद्धांजलि। उ०— बकुचन विनवौं रोस न मोही। सुनु बकाउ तजि चाहु न जूही।—जाय़सी (शब्द०)। २. हाथ या मुट्ठी से पकड़ने की क्रिया। उ०— तुम्ह जो बकावरि तुम्ह सों भर ना। बकुचन गहै चहैं जो करना।—जायसी (शब्द०)। ३. गुच्छा। गुच्छ। स्तवक।
⋙ बकुचना पु
क्रि० अ० [हिं० बकुचा < सं० विकुञ्चन] सिमटना। सुकड़ना संकुचित होना। उ०— लाज के भार लची तरुनी बकुची बरुनी सकुची सतरानी।— देव (शब्द०)।
⋙ बकुचा
संज्ञा पुं० [हिं० बकुचना] [स्त्री० बकुची] छोटी गठरी। बकचा। उ०—(क) कमरी थोरे दाम की आवै बहुतै काम। खासा। मखमल बाफता उनकर राखै मान। उनकर राखै मान बुंद जँह आड़े आवै। बकुचा बांधै मोट राति को झारि बिछावै।— गिरधरराय (शब्द०)।
⋙ बकुचाना †
क्रि० सं० [हिं० बकुचा + ना (प्रत्य०)] किसी वस्तु को बकुचे में बाँधकर कधे पर लटकाना या पीछे पीठ पर बाँधना।
⋙ बकुची (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बाकुची] औषध के काम में प्रयुक्त होनेवाले एक पौधे का नाम। पर्या०—सोमराजी। कृष्णफल। वाकुची। पूतिफला। बेजानी। कालमेषिका। अबल्गुजा। ऐंदवी। शूलोत्था। कांबोजी। सुपर्णिका। विशेष— यह पौधा हाथ, सवा हाथ ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ एक अगुल चौड़ी होती हैं और डालियाँ पृथ्वी से अधिक ऊँची नहीं होतीं तथा इधर उधर दूर तक फैलती हैं। इसका फूल गुलाबी रंग का होता है। फूलों के झड़ने पर छोटी छोटी फलियाँ घोद में लगती हैं जिनमें दो से चार तक गोल गोल चौड़े और कुछ लबाई लिए दाने निकलते हैं। दानों का छिलका काले रग का, मोटा और ऊपर से खुरदार होता है। छिलके के भीतर सफेद रंग की दो दालें होती हैं जो बहुत कड़ी होती हैं और बड़ी कठिनाई से टूटती हैं। बीज से एक प्रकार की सुगंध भी आती है। यह औषध में काम आता है। वैद्यक में इसका स्वाद मीठापन और चरपरापन लिए कड़ुवा बताया गया है और इसे ठंढ़ा, रुचिकर, सारक, त्रिदोषध्न और रसायन माना है। इसे कुष्टनाशक और त्वग्रोग की औषधि भी बतलाया है। कहीं कहीं काले फूल की भी बहुत होती है।
⋙ बकुची (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बकुचा] छोटी गठरी। उ०— देवी ने कपड़ों की एक छोटी सी बकुची बाँधी।—मान०, भा० ५, पृ० १३९। मुहा०—बकुची बाँधना या मारना = हाथ पैर समेटकर गठरी ले आकार का बन जाना। जैसे,— वह बकुची मारकर कूदा।
⋙ बकुचौहाँ ‡
वि० [हिं० बकुचा + औहाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बकुचौहीं] बकुचे की भाँति। बकुचे के समान। उ०— राखी सचि कूबरी पीठि पै ये बातैं बकुचौही। स्याम सो गाहक पाय सयानी खोलि देखाइहै गौहीं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बकुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भास्कर। सूर्य। २.तूर्ण वाद्य। तुरही। ३. बिजली।
⋙ बकुर (२)
वि० भयदायक। भयावना [को०]।
⋙ बकुर † (३)
संज्ञा पुं० [सं० √ वच्, वक् + हिं० वार (प्रत्य०)] बोल। दे० 'बकारी' या 'बक्कुर'। उ०— दुहूँ हाथ गाहि सीस उठावा। पूँछत बात बकुर नहिं आवा।— चित्रा०, पृ० ६४।
⋙ बकुरना
क्रि० अं० [हिं०] दे० 'बकरना'।
⋙ बकुरना ‡
क्रि० सं० [हिं० बकुरना का प्रेरणार्थक रूप] कबूल कराना। मंजूर कराना। कहलाना। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसी अवस्था में होता है जब किसी को भूत लगा होता है। लोग उससे भूत का नाम पता आदि कहलाने के लिये प्रयोगादि द्वारा बाध्य करते हैं और उससे नाम पता आदि कहलवाते हैं।
⋙ बकुल
सज्ञा पुं० [सं०] १. मौलमिरी। उ०— देखी पवन के झोंकों से बकुल के पत्ते कैसे हिलते हैं।— शकुंतला, पृ० १५। २. शिव। महादेव। ३. एक प्राचीन देश का नाम। ४. एक प्रकार की औषधि (को०)।
⋙ बकुलटरर
सज्ञा पुं० [हिं० बकुला + अनु्ध्व० टर] बगला। पानी की एक चिड़िया जिसका रंग सफेद होता है और जो डील डौल में आदमी के बराबर ऊँचा होती है।
⋙ बकुला †
सज्ञा पुं० [हिं० बगला] दे० 'बगला'।
⋙ बकुली
सज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ओषधि [को०]।
⋙ बकुल
सज्ञा पुं० [सं०] मौलसिरी का पेड़ [को०]।
⋙ बकेन, बकेना †
सज्ञा स्त्री० [सं० बष्कयणी] वह गाय या भैस जिसे बच्चा दिए साल भर से अधिक हो गया हो और जो बरदाई न हो और दूध देती हो। ऐसी गाय का दूध अधिक गाढ़ा और मीठा होता है।— लवाई का उलटा।
⋙ बकेरुका
सज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा बक पक्षी। २. वायु से झुरी वृक्ष की शाखा [को०]।
⋙ बकेल ‡
सज्ञा स्त्री० [हिं० बकला] पलास की जड़ जिसे कूटकर रस्सी बनाते हैं।
⋙ बकैयाँ
सज्ञा पुं० [सं० वक्र + हिं० ऐयाँ (प्रत्य)] बच्चों के चलने का वह ढंग जिसमे वे पशुओं के समान अपने दोनों हाथ और दोनों पैर जमीन पर टेककर चलतै हैं। घुटनों के बल चलना।
⋙ बकोट (१)
सज्ञा पुं० [सं०] एक नाम का पक्षी। बगुला उ०— लाजालू गुल चिमन मै, खगकुल माँह बकोट। मावांडिया मिनखाँ महीं याँ तीनों में खोट।—बाँकी०, ग्रं० भा० २, पृ० १७।
⋙ बकोट (२)
सज्ञा स्त्री० [सं० प्रकोष्ठ, पा० पक्कोठ्ट या सं० अभीकोष्ठ] १. पजे की वह स्थिति जो किसी वस्तु को ग्रहण करने या नोचने आदि के समय होती है। हाथ की अंगुलियों की संपुटाकार मुद्रा। किसी पदार्थ की उतनी मात्रा जो एक बार चँगुल में पकड़ी जा सके। जैसे, एक बकोट आँटा। ३. बकोटने या नोचने की क्रिया या भाव।
⋙ वकोटना
क्रि० सं० [हिं० बकोट + ना (प्रत्य०)] बकोट से किसी को नीचना। नाखूनों से नोचना। पँजा मारना। निखोटना।उ०— होती जु पै कुबरी ह्याँ सखी, मारि लातन मूका बको टती केती।—रसखान०, पृ० २७।
⋙ बकोटा
सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकोट'।
⋙ बकोरी पु
सज्ञा स्त्री० [हिं० बकावर] दे० 'गुलबकावली'। उ०— कोई सो वोलसर पुहुप बकोरी। कोई रूपमंजरी गोरी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बकोंड़ा ‡
सज्ञा पुं० [हिं० बक्कल] पलाश की कूटी हु जड़ जिससे रस्सी बटी जाती है।
⋙ बकौँड़ा (२)
सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बकौंरा'।
⋙ बकौंरा ‡
सज्ञा पुं० [हिं० बाँका अथवा सं० वङ्क + हिं० औंरा (प्रत्य०)] वह टेढ़ी लकड़ी जो बैलगाड़ी के दोनों ओर पहिए के ऊपर लगाई जाती है। इसी के बीच में छेद करके धुरी लग जाती है और दोनों छोर पहिए के, दोनों ओर की पटरी साले या बैठाए हुए होते हैं। पैगनी। पैंजनी।
⋙ बकौरी पु
सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गुलबकावली'। उ०— सु/?/गुलाल कदम औ कूजा। सुंगध बकौरी गंघ्रब पूजा।/?/जायसी (शब्द०)।
⋙ बक्कम
सज्ञा पुं० [अं० बक़म] एक वृक्ष। पतंग। विशेष— यह वृक्ष भारतवर्ष में मद्रास और मध्यप्रदेश में बर्मा में उत्पन्न होता है। इसका पेड़ छोटा और कैट होता है। लकड़ी काले रंग की तथा दृढ और टिकाऊ होती यह फटती या टेढ़ी नहीं होती। इससे मेज, कुर्सी आदि सकती है। रग और रोगन से इसपर अच्छी चमक/?/है। इसकी लकड़ी, छिलके और फलों से लाल रंग निकलता है जिससे सूत और ऊन के कपड़े रंगै जाते हैं और जो/?/को छपाई में भी काम आता है। इसके बीज बरस/?/बोए जाते हैं।
⋙ बक्कर पु
सज्ञा पुं० [सं० बर्कर, प्रा० बक्कर] बकरा।/?/उ०—(क) पंद्र सेर रइभोग एक सीरावन बक्कर।— रा०, ६४। २२०।(ख) बक्कार का हलाली षांण सूकर षाणों।—शिखर०, पृ० ३।
⋙ बक्कल
सज्ञा पुं० [सं० बल्कल, पा० प्रा० वक्कल] १. छिलका बोकला। २. छाल।
⋙ बक्का †
सज्ञा पुं० [देशज] सफेद या खाकी रंग के एक प्रकार छोटे छोटे कीड़े जो धान की फसल में लगते हैं ओर पत्ते और वालों को खाकर उसे निर्जीव कर देते हैं। जहाँ चाटते हैं वहाँ सफेद हो जाता है।
⋙ बक्कारना पु
क्रि० सं० [हिं० बकार या बकारी] पुकारना। आवाज देना। ललकारना। उ०— वर कन्ह बीर सो/?/चाहुआन बक्कारिऐ।—पृ० रा० ७। ३२।
⋙ बक्काल
सज्ञा पुं० [अं०] वह जो आटा, दाल, चावल या और/?/बेचता हो। वर्णिक्। बनिया। उ०— न जर्फो मतवर/?/न गल्ल वो बक्काल।—कविता को० भा० ४, पृ०/?/
⋙ यौ०—बनिया बक्काल।
⋙ बक्की (१)
वि० [हिं० बकना] बकवाद करनेवाला। बहुत बोलनेवाला या बकबक करनेवाला।
⋙ बक्की (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] एक प्रकार का धान जो भोदों के महीने के अंत में पकता है। इसके धान की भूसी काले रंग की होती है और चावल लाल होता है। यह मोटा धान माना जाता है।
⋙ बक्कुर †
संज्ञा पुं० [सं० वाक्य] मुँह से निकला हुआ शब्द। बोल। वचन। क्रि० प्र०—फूटना।—निकलना।
⋙ बक्खर (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. एक प्रकार की घास। दे० 'बाखर'। २. पशुबंधन का स्थान।
⋙ बक्खर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कई प्रकार के पौधों की पत्तियों और जड़ों के कूटकर तैयार किया हुआ वह खमीर जो दूसरे पदार्थों में खमीर उठाने के लिये डाला जाता है। यह प्रायः खोए आदि में डाला जाता है। बंगाल में इसका प्रयोग अधिक होता है।
⋙ बक्तर
संज्ञा पुं० [फा० बकतर] दे० 'बकतर'। उ०— कबीर दादू धने, पहिर बक्तर बने, कामदेव सारिखे बहुत कूदे।—चरण० वानी०, पृ० ९३।
⋙ बक्र (१)
वि० [सं० वक्र] टेढ़ा। तिरछा। उ०— बक्र चंद्रमहि ग्रसै न राहू।— मानस, १। १८१।
⋙ वक्र पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० बक्रच] वक्रता। टेढ़ापन। उ०— कलि कुंचालि सुभमति हरनि सरलै दडै चक्र। तुलसी यह निश्चय भई, बाढ़ि लेति नब बक्र।—तुलसी० ग्रं०, पृ० १४९।
⋙ बक्राब ‡
संज्ञा पुं० [?] एक पक्षीविशेष। उ०— परंतु साघु गृदध, गरूड़, बक्राव आदि पक्षी केवल मुरदे जोवों के मांस से अपनी उदरपूर्ति करते है। —प्रेमघन०, भा०, २, पृ० २१।
⋙ बक्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० बक्रिमा] वक्रता। टेढ़ापन। वाँकपन। उ०— गति न मंद कछु भई सुहाई। नैनन नहिंन बक्रिमा आई।— नंद० ग्र०, पृ० १५७।
⋙ बक्षी
संज्ञा पुं० [फा० बख्शी] सेनापति। उ०— सेना का सेनापति किलेदार या बक्षी कहलाता था।— शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ५४।
⋙ बक्षीस
संज्ञा पुं० [फा० बख्शिश] दे० 'बकसीस'। उ०— काजी मुल्ला बिनती फर्माय; बक्षीस हिंदू मैं तेरी गाय।— दक्खिनी०, पृ० ३१।
⋙ बक्षोज पु
संज्ञा पुं० [सं० वक्षीज] स्तन। उरोज।
⋙ बक्स
संज्ञा पुं० [अं० बाँक्स] १. दे० 'बकस'। २. थियेटर, सिनेमा आदि में अलग घिरा हुआ स्थान जिसमें तीन चार व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था रहती है।
⋙ थक्सना †
क्रि० सं० [फा० बख्श] दे० 'बख्शना'। उ०—साहबकबीर बक्स जब दीन्हा। सुर नर मुनि सब गुदरी लीना।—कबीर मै०, पृ० ३९१।
⋙ बखत † (१)
संज्ञा पुं० [अं० वक्त] समय। मौका। अवसर। उ०— हर बखत रोजा निमाज और वाँग दे। खुदा दीदार नहिं खोज पाई।— तुलसी० श०, पृ० १९।
⋙ बखत (२)
संज्ञा पुं० [अ० बख्त] दे० 'बख्त'।
⋙ बखतर
संज्ञा पुं० [फा० बकतर] दे० 'बकतर'। उ०— बखतर पहिरे प्रेम का घोड़ा है गुरु ज्ञान। पलटू० सुरति कमान लै जीत चले मैदान।—पलटू०, भा० ३, पृ० १०४।
⋙ बखतावर पु
वि० [फा० बख्तावर] [वि० स्त्री० बखतावरी] दे० 'बख्तावर'। उ०— माइ बाप तजि धी उमदानी हरखत चली खसम के पास। बहू बिचारी बड़ बखतावरि जाके कहै चलत है सास।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५४१।
⋙ बखर
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बाखर'। २. दे० 'बक्खर'। ३. † एक प्रकार की चौड़ी जुताई करनेवाला हल जिसका फाल चौड़ा होता है।
⋙ बखरा (१)
संज्ञा पुं० [फा० बखरह्] १. भाग। हिस्सा। बाँट। दे० 'बाखर'। यौ०—बाँट बखरा।
⋙ बखरा पु (२)
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़े की पीठ पर पलान आदि के नीचे रखने के लिये फाल या सूखी घास आदि का दोहरा किया हुआ वह मुठ्ठा जिसपर टाट आदि लपेटा रहता है। यह घोडे़ की पीठ पर इसलिये रखा जा जाता है जिसमें घाव न हो जाय। बाखर। सुड़की।
⋙ बखरा पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बखार] पशुबंधन का स्थान। ठाँव। ठिकाना। उ०— अति गति पग डारनि हुँकारनि। सींचत धरवि दूध की धारनि। बखरे बछारनि पै चलि आई।— मिली धाइ, कछु नहिं कहि आई।— नंद० ग्रं० पृ० २६६।
⋙ बखरी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बखार का स्त्री० अल्पा०] एक कुटुंब के रहने योग्य बना हुआ मिटठी या इंटो आदि का अच्छा माकन। (गाँव)।
⋙ बखरैत ‡
वि० [हिं० बखरा + ऐत (प्रत्य०)] हिस्सेदार साझीदार।
⋙ बखशिंदा पु
वि० [फा० बख्शिदह] १. देनेवाला। २. कृपा करनेवाला। ३. मुक्ति देनेवाला। उ०— वही बँदा आसी का बखशिंदा है।—कबीर मं०, पृ० ३८६।
⋙ बखसाना पु
क्रि० सं० [हिं० बख्शाना] माफ कराना। दे० 'बकसाना'। उ०— हुइए दोन अधीन चूक बखसाइए—कबीर श०, पृ० ४१।
⋙ बखसीस पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० बखशिश] दे० 'बकसीस'। उ०— नाचँ फू यो अँगनाई, सूर बखसीस पाई, माथे को चढ़ाइ लीनी लाल को बगा।—सूर (शब्द०)।
⋙ बखसीसना पु ‡
क्रि० सं० [फा० बखशीशा + हिं० ना (प्रत्य०)] देना। बख्शना। उ०— त्यों वे सब वेदना खेद पीड़ा दुखदाई। जिन बखसीसति सदा घमंडहि मूरखताई।—श्रीधर पाठक (शब्द०)।
⋙ बखाँन पु
संज्ञा पुं० [सं० विषाण] सींग। शृंग। सेंगी। उ०— बंसी बेत बखाँन बन गेंद हींगुरी जोरि।— पृ० रा०, २५५०।
⋙ बखान
संज्ञा पुं० [सं०व्याख्यान, पा० बक्खान] १. वर्णन। कथन। उ०— बपु जगत काको नाउँ लीजै हो जदु जाति गोत न जानिए। गुणंरूप कछु अनुहार नहिं कहि का वखान बखानिए।— सूर (शब्द०)। २. प्रशंसा। गुणकीर्तन। स्तुति। बड़ाई। उ०—(क) तेहि रावन कँह लघु कहसि, नर कर करासि बखान। रे कापि बर्बर खर्व खल अब जाना तब ज्ञान।—तुलसी (शब्द०)। (ख) दिन दस आदर पाय के कै करि ले आपु बखान।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ बखानना
क्रि० सं० [हिं० बखान + ना (प्रत्य०)] १. बर्णन करना। कहना। उ०— (क) ताते मैं अति अल्प बखाने। थोरहि मँह जानिहैं सयाने।— तुलसी (शब्द०)। (ख) यहि प्रकार सुक कथा बखानी। राजा सो बोले मृदु बानी।—(शब्द०)। २. प्रशंसा करना। सराहना। तारीफ करना। उ०—(क) नागमती पद्मवति रानी। दोऊ महा सतसती बखानी ।— जायसी (शब्द०)। (ख) ते भरतहिं भेंटत सनमाने। राज सभा रघुबीर बखानै।— तुलसी (शब्द०)। ३. गाली गलौज देना। बुरा भला कहना। जैसे,—बात छिड़ने ही उसने उसके सात पुरखा बखानकर रख दिए।
⋙ बखार †
संज्ञा पुं० [सं० प्राकार] [स्त्री० अल्पा० बखारी] दीवार या टट्टी आदि से घेरकर बनाया हुआ गोल और विस्तृत घेरा जिसमें गावों में अन्न रखा जाता है। यह कोठिले के आकार का होता है पर इसके ऊपर पाट नहीं होता और यह बिल्कुल खुले मुँह का होता है।
⋙ बखारी † (१)
संज्ञा० स्त्री० [हिं० बखार] छोटा बखार।
⋙ बखारी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की रागीनी जिसे कुछ लोग मालकोस राग की रागिनी मानते हैं।
⋙ बखिया
संज्ञा पुं० [फा० बख्यह्] एक प्रकार की महीन और मजबूत सिलाई। विशेष— इसमें सुई को पहले कपड़े में से टाँका लगाकर आगे निकालते हैं, फिर पीछे लौटाकर आगे की ओर टोक मारते हैं जिससे सुई पहले स्थान से कुछ आगे बढ़कर निकलती है। इसी प्रकार बार बार सीते हैं। बखिया दो प्रकार का होता है।—(१) उस्तादाना या गाँठी जिसमें ऊपर की लौठ सिलाई के टाँके एक दूसरे से मिले हुए दानेदार होते हैं और (२) दौड़ या बया जिसमें दो चार दानेदार उस्तादी बखिया के अनंतर कुछ थोड़ा अवकाश रहता है। मुहा०—बखिया उधेरना = भेद खोलना। कलई खोलना। भंडा फोड़ना। वखिए उखेड़ना = दे० 'बखिया उधेड़ना'। उ०—हम बड़े ही बखेड़िए होवें। आप यों मत उखेड़िए बखिए।— चुभते०, पृ० २। यौ०— बखियागर = बखिया करनेवाला।
⋙ बखियाना
क्रि० सं० [हिं० बखिया + ना (प्रत्य०)] किसी चीज पर बखिया की सिलाई करना। बखिया करना।
⋙ बखीर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खीर का अनु०] वह खीर जिसमें दूध के स्थान पर गुड़ या चीनी या ईख का रस डाला गया हो। मोठे रस में उबाला हुआ चावल।
⋙ बखील
वि० [अ० बखील] [संज्ञा बखीली] कृपण। सूप। कंजूस। उ०— के बंदा है जिस दर क हातिम सखी। बखीलों को जग से किया है नफी।— दक्खिनी०, पृ० २१२।
⋙ बखुदा
क्रि० वि० [फा० बखुदा] १. ईश्वर के लिये। २. खुदा की सौगंध।
⋙ बखुषी
क्रि० वि० [फा० बखुशी] खुशी से। प्रसन्नतापूर्वक।
⋙ बखूबी
क्रि० वि० [फा० बखूबी] अच्छे प्रकार से। भली भाँति। अच्छी तरह से। जैसे,— कागज भेजने के पहले आप उसे बखूबी देख लिया करें। २. पूर्ण रूप से। पूर्णतया। पूरी तरह से। जैसे,— यह दावात बखूबी भरी हुई है।
⋙ बखेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बखेरना] १. उलझाव। झझट। उलझन। जैसे,— इस काम में बहुत बखेड़ा होगा। २. झगड़ा। टंटा। विवाद। जैसे,— अब उन लोगों में भारी बखेड़ खड़ा होगा। ३. कठिनता। मुशकिल। ४. व्यर्थ विस्तार। आडंबर। भारो आयोजन। क्रि० प्र०—करना।—फैलाना।—मचाना।—होना।
⋙ बखेड़िया
वि० [हि, बखेड़ा + इया (प्रत्य०)] बखेड़ा करनेवाला। जो बखेड़ा या झगड़ा खड़ा करे। झगड़ालू। उ०—हम बड़े ही बखेड़िए होवें। आप मत यों उखेड़िए बखिए।—चूभते०, पृ० २।
⋙ बखेरना
क्रि० सं० [सं० विकिरण] चीजों को इधर उधर या दूर दूर रखना। फैलाना। छितराना। जैसे, खेत में बीज बखेरना। उ०— (क) कहों दससीस भुज बीसन बखेरों आगे कहो जाय घेरों गढ़ विनती पतीजिए।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। (ख) काटि दस सीस भुज बीस सीस धरि राम यश दसो दिसि सौगुनों बखेरिहै।—हनुमान्नाटक (शब्द०)। (ग) तमाशा है मजा है सैर है क्या क्या अहा ! हा ! हा ! मसब्बिर ने अजब कुछ रंग कुदरत का बखेरा है।— नजीर (शब्द०)।
⋙ बखेरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटे कद का एक प्रकार का कँटीला वृक्ष जिसके फल रँगने और चमड़ा सिझाने के काम में आते हैं। यह पूर्वीय बंगल, आसाम और बर्मा आदि में होता है। इसे कुंती भी कहते हैं।
⋙ बखोरना ‡
क्रि० सं० [हिं० बक्कुर] टोकना। छोड़ना। उ०— साँकरी खोरि बखोरि हमैं किन खोरि लगाय खिसैबी करो कोई।— देव (शब्द०)।
⋙ बख्त
संज्ञा पुं० [फा०] भाग्य। किस्मत। तकदीर। उ०— बड़े बख्त महाराज राजै तुम्हारौ।—प० रासो०, पृ० ८५। यौ०— बदबख्त। कंबख्त।
⋙ बख्तर
संज्ञा पुं० [फा० बक्तर] लोहे के जाल का बना हुआ कवच। सन्नाह। बकतर। उ०— चारि मास धन बरसिया, अति अपूर्व शर नीर। पहिरे जड़तर बख्तर चुभै न एकौ तीर।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बख्तरी
वि० [हिं० बख्तर + ई (प्रत्य०)] कवचधारी। जो बख्तर पहने हुए हो। उ०— ऐसी मुहकम बख्तरी लगा न एकी तीर।—संतवाणी०, भा० १, पृ० १०२।
⋙ बख्तवार
वि० [फा० बख्तय० या फा, बख्त + हिं० वार(= वाला)] भाग्यवान। खुशनसीब। उ०— उत्तम भाग का भोगनी बख्तवार, घर उसका सो था बंदर के सार।— दक्खिनी०, पृ० ७७।
⋙ बख्तावर
वि० [सं० बख्तावर] भाग्यवान। बख्तवार [को०]।
⋙ बख्श (१)
प्रत्य० [फा० बख्श] १. देनेवाला। २. क्षमा करनेवाला।
⋙ बख्श (२)
संज्ञा पुं० १. अंश। खंड। २. हिस्सा। विभाग [को०]।
⋙ बख्शना
क्रि० सं० [फा० बख्श + हिं० ना(प्रत्य०)] १. देना। प्रदान करना। २. त्यागना। छोड़ना। जाने देना। क्षमा करना। माफ करना। उ०— कामी कबहुँ न हरि भजै मिटै न संशय मूल। और गुनह सब बख्शिहै। कामी डाल न भूल।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बख्शवाना, बख्शाना
क्रि० सं० [हिं० बख्शना का प्रेरणार्थक] बख्शने का प्रेरणार्थक रूप। किसी को बख्शने में प्रवृत्त करना।
⋙ बख्शिश
संज्ञा स्त्री० [फा० बख्शिश] १. उदान्ता। दानशीलता। २. दान। ३. क्षमा। ४. पुरस्कार। इनाम (को०)। यौ०—बख्शिशानामा, बख्शीशनामा = दानपत्र।
⋙ बख्शी
संज्ञा पुं० [फा० बख्शी] १. वेतन बाँटनेवाला कर्मचारी। खजांची। २. कर वसूल करनेवाला। मुंशी [को०]।
⋙ बख्शीस
संज्ञा पुं० [फा० बख्शिश] दे० 'बख्शिश'।
⋙ बग †
संज्ञा पुं० [सं० बक] बगुला। उ०— उज्वल देखि न धीजिए बग ज्यों माँड़े ध्यान। घोरे बैठि चपेटसी, यों लै बूड़ै जान।—कबीर (शब्द०)।(ख) बग उलूक झगरत गए, अवध जहाँ रघुराउ। नीक सगुन निबरहि झगर, होइहिं धरम निआउ।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बगई ‡
संज्ञा स्त्री० [देशज] १. एक प्रकार की मक्खी जो कुत्तों पर बहुत बैठती है। कुकुरमाछी। २. एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ बहुत पतली और लंबी होती हैं। विशेष— यह बाध बनाने के काम में आती है और सूखने पर'पंसारियों की पुड़ियाँ आदि बाँधने के काम आती है। कहीं कहीं लोग इसे भाँग के साथ पीस कर पीते हैं जिससे उसका नशा बुहत बढ़ जाता है।
⋙ बगछुट, बगटुट
क्रि० वि० [हिं० वाग + छूटना वा टूटना] सरपट। बेतहाशा। बड़े वेग से। जैसे, बगछुट भगाना वा भागना। उ०— (क) वहाँ जो मेरे सामने एक हिरनी कनौ- तियाँ उठाए गई थी, उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका था।—इंशा (शब्द०)। (ख) इस वक्त आप ऐसे बदहवास कहाँ बगटुट भागे जाते थे, सच कहिएगा।—फिसाना, भा० १, पृ० २। विशेष— इस शब्द का प्रयोग बहुधा घोड़ों की चाल के संबंध में ही होता है। पर कभी कभी हास्य या व्यंग्य में लोग मनुष्यों के संबंध में भी बोल देते है।
⋙ बगड़ †
संज्ञा पुं० [राज० बाघड़ या गुज० बगाड़ (=बदमाश)] बिना बस्ती का देश, मरुभूमि आदि जहाँ लुटेरे रहते हों। उ०— मारु तड़ाँ सँदेसड़ा, बगड़ विचाहू खाई।— ढोला०, दू० ८२।
⋙ बगड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बगिया।
⋙ बगतर पु, बगत्तर †
संज्ञा पुं० [फा० बक्त़र] दे० 'बक्तर'। उ०—(क) बगतर पक्खर टोप सु सज्जिय।—ह० रासो, पृ० ८१। (ख)हुअंत खड घाउ सुगन्नरं बगत्तरं।— पृ० रा०, ५८। २४४।
⋙ बगदई पु ‡ (१)
वि० [हिं० बगदना + हा(प्रत्य०)] [स्त्री० बगदई] दे० 'बगदहा'। उ०— घेरे न घिरत तुम बिनि माघो जू मिलत नहीं बगदई। बिड़रत फिरत सकत बन महिवाँ एकई एक गई।— सूर (शब्द०)।
⋙ हगदई ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० बगदने की स्थिति, भाव, क्रिया।
⋙ बगदना †
क्रि अ० [सं०विकृत गुज० बगड़(=बदमाश), हिं० बिगड़ना] १. बिगड़ना। क्रुद्ध होना। २. नष्ट होना। खराब होना। ३. बहकना। भूलना। ४. च्युत होना। ठीक रास्ते से हट जाना। ५. लौटना। वापस होना। उ०— (क) आगे करि दै गौधन वृंद। बदन चूमि व्रज बगदे वंद। नंद० ग्रं०, पृ० २७५। (ख) कछु दिन रहें बगदि ब्रज आवनि। ब्रज पर आनंदघन बरसावनि।— घनानंद, पृ० ३१७।
⋙ बगदर ‡
संज्ञा पुं० [देशज] मच्छर।
⋙ बगदवाना †
क्रि० सं० [बगदना का प्रे० रूप] १. बिगड़ावाना। २. खराब कराना। ३. भुलवाना। भ्रम में ड़ालना। ४. लुढ़काना। गिरा देना। ५. प्रतिज्ञा भंग कराना। अपने वचन से हटाना।
⋙ बगदहा पु †
वि० [हिं० बगदना + हा (प्रत्य०)] [स्त्री० बगदही] चौंकने या बिगड़नेवाला। बिगड़ैल।
⋙ बगदाना †
क्रि० सं० [हिं० बगदना] १. बिगड़वाना। क्रुद्ध कराना। २. खराब करना। बिगड़ना। ३. च्युत करना। ठीक रास्ते से हटाना। ४. भुलाना। भटकाना। उ०— पाप कै मोटरी बाम्हन भाई। इन सबही जग को बगदाई।—पलटू०, भा० ३, पृ० ९१।
⋙ बगना पु †
क्रि० अ० [सं० वक्(=गति] घूमाना फिरना। उ०— नब रु यशोदा के लड़ाइते कुँअर हिय, हेरे ग्वार गोरिन के खोरिव बगे रहै। चैन न परत देव देखे बिनु बैन सुने मिलत बनै न तव नैन उमगे रहैं।—देव (शब्द०)।
⋙ बगनी (१)
संज्ञा स्त्री० [देशज] एक प्रकार की घास जिसे कहीं कहीं लोग भाँग के साथ पीते हैं। इससे उसका नशा बहुत बढ़ जाता है। दे० 'बगई'। उ०—(क) बगनी भंगा खाइ कर मतवाले माजी।—दादू (शब्द०)। (ख) जी भाँग भुजाना हगनी छाना भए दिवाना सँताना।—सुंदर ग्रं०, भाँ० १, पृ० २३७।
⋙ बगनी ‡ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बाग + मेल] १. दूसरे के घोड़े के साथ बाग मिलाकर चलना। पाँत बाँधकर चलना। बराबर बराबर चलाना। उ०— जो गज मेलि हौद सँग लागे। तो बगमेल करहु सँग लागे।—जायसी (शब्द०)। २. बराबरी। समानात। तुलना। उ०— भूधर भनत ताकी बास पाय सोर करि कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेवला में।—भूधर (शब्द०)।
⋙ बगमेल (२)
क्रि० वि० पत्तिबद्ध। बाग मिलाए हुए। साथ साथ। उ०—(क) आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुमठ। तुलसी बगमेल। जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बगर पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रघण०, पा पघण] १. महल। प्रासाद। २. बड़ा मकान। घर। उ०—(क) आस पास वा बगर के जहँ बिहरत पशु छद। ब्रज बड़े गोप परजन्य सुत नोके श्री मव नंद।—नाभा (शब्द०)। (ख) गोपिन के अँसुवन भरी सदा उसोस अपार। डगर डगर नै ह्वै रही बगर बगर के बार।— बिहारी (शब्द०)। ३. घर। कोठरी। उ०— (क) टटकी धोई धोवती, चटकीली मुख जोति। फिरति रसोई के बगर जगर मगर दुति होति।—बिहारी (शब्द०)। (ख) जगर जगर दुति दूनी केलि मंदिर में, बगर बगर धूप अगर बगारे तू।— पद्माकर (शब्द०)। १. द्वार के सामने का सहन। आँगन। उ०—(क) नंद महर के बगर तन अब मेरे को लाय। नाहक कहुँ गड़ि जायगो हित काँटो मन पाय।—रसखान (शब्द०)। (ख) राम डर रावन के बगर डगर घर बगर बगर आजु कथा भाजि जानकी।— हनुमान (शब्द०)। ५. वह स्थान जहाँ गाएँ बाँधी। जाती है। बगार। घाटी। उ०—(क) नगर बसे नगरे लगे सुनिए लागर नारि। पगरे रगरे सुमन के डारे बगर बहारि।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) भोर उठि नित्य प्रति मोंसों करत है झगरो। ग्वाव बाल संग लिए सब घेरि रहै बगरी।—सूर (शब्द०)। ‡ ६. पशुसमूहा। पशुओं का झुंड।
⋙ बगर (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'बगल'। उ०— तसवा की सरिया में सोने कै किनरिया सजरिया करत मुख जोति। अगर बगर जरतरवा लगाल बाँड़े जगर मगर दुति होति।—बिरहा (शब्द०)।
⋙ बगरना पु †
क्रि० अ० [सं० विकिरण] १. फैलना। बिखरना। छितराना। उ०—(क) तनपोषक नारी नरा सिगरे। परिनिंदक ते जग मों बगरे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रीझे श्याम नागरी रूप। तैसी ये लठ बगरीं ऊपर स्रवत नीर अनूप।—सूर (शब्द०)। (ग) वीथिन में, व्रज में, नवेलिन में, वेलिन में, वनन में बागन में बगरो बसंत है।—पद्माकर (शब्द०)। २. घूमना फिरना। परिभ्रमण करना। उ०— कबीर देश हम बगरिया ग्राम ग्राम सब खौर।— कबीर मं०, पृ० ३२४।
⋙ बगरा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली जो संयुक्त प्रांत और बंगल में होती है। विशेष— यह छह सात अंगुल लंबी होती है और जमीन पर उछलती या उड़ान भरती है। यह खाने में ख्वादिष्ट होती है। इसे शुभा भी कहते हैं।
⋙ बगराना †
क्रि० सं० [हिं० बगरना का सक० रूप] फैलाना। छितराना। छिटकाना। उ०—(क) ते दिन बिसरि गए ह्याँ आए। अति उन्मत्त मोह मद छाए फिरत केश बगराए।— सूर (शब्द०)। (ख) जानिए न आली यह छोहर जसोमति को बाँसुरी बजाइगो कि विष बगराइगो।— रसखानि (शब्द०)। (ग) सजनी इहि गोकुल में बिष सो बगरायो है नंद के सावरियाँ।— रसखान (शब्द०)।
⋙ बगराना (२)
क्रि० अ० बगरना। फैलना। बिखरना। उ०— कहाँ लों बरनों सुंदरताई। अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन मोहन मृख बगाराई।— सूर (शब्द०)।
⋙ बगरिया
संज्ञा स्त्री० [देशज] एक प्रकार की कपास जो कच्छ और काठियावाड़ में पैदा होती है।
⋙ बगरी † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बगरना] एक प्रकार का धान जो भादों के अंत में पकता है। विशेष— यह काले रंग का होता है। इसका चावल लाल और मोटा होता है। इसे तैयार करने में विशेष परिश्रम नहीं करना होता केवल बीज बिखेरकर छोड़ दिए जाति हैं।
⋙ बगरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगर] बखरी। घर। मकान। उ०— घाट बाठ सब देखत आवत युवती डरन मरति हैं सिगरी। सूर श्याम तेहि गारी दीनो जो कोई आवै तुमरी बगरी।— सूर (शब्द०)।
⋙ बगरूरा
संज्ञा पुं० [सं० वातघूर्ण, वायुघूर्ण, हिं० बघूरा, अथवा हिं० वाउ + गोला] बवंड़र। बगूला। उ०— चित्र की सी पुत्रिका कै रूरे बगरूरे महिं, शंबर छड़ाइ लई कामिनी कै काम की।—केशव (शब्द०)।
⋙ बगल
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. बाहुमूल के नीचे की ओर का गढ्ढा। काँख। उ०— उसके अस्तबल का दरोगा एक हबशी गुलाम था। वही उसको बगल में हाथ देकर घोडे़ पर सवार कराता था।—शिवप्रसाद (शब्द०)। यौ०—बगलगंध। २. छाती के दोनों किनारों का भाग जो बाँह गिरने पर उसके नीचे पड़ता है। पार्श्व। उ०— जोऊन बीस दिनदधे धावथि, बगल के रोटी दिवस गमावथि।— कीर्ति०, पृ० ९०। यौ०— बगलबंदी। मुहा०— बगल गरम करना = सहवास करना। प्रसंग करना। यगल में दबाना =(१) किसी को बाहु के नीचे छाती के किनारे रखना या लेना। (२) धाखा देकर वा बलात् किसी वस्तु को अपने अधिकार में लाना। अधिकार करना। ले लेना। उ०— लैगे अनूप रूप संपति बगल दाबि उचिके अचान कुच कंचन पहार से।—देव (शब्द०)। बगल में धरना =(१) बगल में छिपाना। बगल में दबाना। उ०— बूंदे सुहावनी री लागत मत भोजै तेरी चूनरी। मोहिं दे उतारि धर राखों बगल में तू न री।— हरिदास (शब्द०)। (२) अधिकार में लाना। छीन लेना। बगलें बजाना = बहुत प्रसन्नता प्रकट करना। खूब खुशी मनाना। ३. सामने और पीछे को छोड़कर इधर उधर का भाग। किनारे का हिस्सा। मुहा०— बगलें झाँकना = इधर उधर भागने का यत्न करना। बचाव का रास्ता ढूंढ़ना। उ०—थोड़ी देर में उनका दम टूट गया अब आजाद बगलें झाँकने लगे।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १३७। ४. कपड़े का वह टुकड़ा जो अँगरखे या कुरते आदि की आस्तीन में कंधे के जोड़ के नीचे लगाया जाता है। यह टुकड़ा प्रायः तीन चार उंगुल का और तिकोना या चौकोना होता है। ५. समीप का स्थान। पास की जगह। जैसे,—सड़क की बगल में ही वह नया मकान बना है।
⋙ बगलगंध
संज्ञा पुं० [हिं० बगल + गंध] १. वह फोड़ा जो बगल में होता है। कंखावार। २. एक प्रकार का रोग जिसमें बगल से बहुत बदबूदार पसीना निकलता है।
⋙ बगलगीर
वि० [फा०] १. पार्श्ववती। सहचरी। २. प्रेमपात्र। प्रेमिका। क्रि० प्र०— करना।—बनाना। —होना।
⋙ बगलबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगल + फा० बंद] एक प्रकार की मिरजई जिसके बंद बगल के नीचे लगते हैं।
⋙ बगला (१)
संज्ञा पुं० [सं० बक, प्रा० बग + ला (प्रत्य०)] [स्त्री० बगली] सफेद रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी। उ०—(क) बगली नीर बिचारिया सायर चढ़ा कलंक। और पखेरू पीबिया हंस न बोरे चंच।—कबीर (शब्द०)। (ख) बद्दलनि बुनद बिलोको बगलान बाग बँगलान बेलिन बहार बरसा की है।— पद्माकर (शब्द०)। विशेष—इस पक्षी की टांगें चोंच ओर गला लंबा ओर पूँछ नाम मात्र की, बहुत छोटी होती है। इसके गले पर के पर अत्यंत कोमल होते हैं और किसी किसी के सिर पर चोटी भी होती है। यह पक्षी झुंड़ में या अलग अलग दिन भर पानी के किनारे मछली, केकड़े आदि पकड़ने की ताक में खड़ा रहता है। इसकी कई जातियाँ होती हैं। जिनके वर्ण और आकार भिन्न भिन्न होते हैं।— (क) अंजन नारी वा सेन जिसका रंग नीलापन लिए होता है। (ख) बगली, खोच बगला वा गड़हबगलिया जो छोटी और मटमैले रंग की होती है और धान के खेतों, तालों और गड़हियों आदि में रहती है।(ग) गैबगला वा सुरखिया बगला जो डंगरों के झुंड के साथ तालों में रहता है और उनके ऊपर के छोटे छोटे कीड़ों को खाता है। (घ) राजबगला जो तालों और झीलों में रहता है और जिसका रग अत्यत उज्वल होता है। यह बड़ा भी होता है और इस जाति के तीन वर्ष से अधिक अवस्था के पक्षियों के सिर पर चोटी होती है। बगलों का शिकार प्रायः उनके कोमल परों के लिये किया जाता है। वैद्यक में इसका मांस, मधुर, स्निग्ध, गुरु और अग्निप्रकोपक तथा श्लेष्मवर्धक माना गया है। मुहा०— बगला भागत =(१) धर्मध्वजी। वंचक भगत। (२) कपटी। धोखेबाज।
⋙ बगला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बगल] थाली की बाढ़। अँवठ।
⋙ बगला (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक झाड़ीदार पौधा जो गमलों में शोभा के लिये लगाया जाता है।
⋙ बगला (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी। दे० 'बगलामुखी'।
⋙ बगलामुखी
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार एक देवी जिसकी आराधना करने से आराधक अपने विरोधी की वाक्शक्ति को स्थगित, स्तंभित या बंद कर सकता है।
⋙ बगलियाना (१)
क्रि० अ० [हिं० बगल + इयाना (प्रत्य०)] बगल से होकर जाना। राह काटकर निकालना। अलग हठ कर चलना या निकलना।
⋙ बगलियान (२)
क्रि० स० १. अलग करना। पृथक् निकालना। २. बगल में लाना या करना।
⋙ बगली (१)
वि० [हिं०बाल + ई (प्रत्य०)] बगल से सबंध रखनेवाला। बगल का। मुहा०— बगली घूँसा = वह घूँसा जो बगल में होकर मारा जाय। वब वार जो आड़ में छिपकर या धोखे से किया जाय।
⋙ बगली (२)
संज्ञा स्त्री० १. ऊँटों का एक दोष जिसमें चलते समय उनकी जाँघ की रग पेट में लगती है। २. मुगदर हिलाने का एक ढंग। विशेष— इस पद्धति में पहले मुगदर को ऊपर उठाते हैं, फिर उसे कधे पर इस प्रकार रखते हैं कि हाथ मुठिया को पकड़े नीचे को सीधा होता है और मुगदर का दूसरा सिरा कधे पर होता है। फिर एक हाथ को ऊपर ले जाकर मुगदर को पीछे सरकाते जाते है यहाँ तक कि वह पीठ पर लटक जाता है। इसी बीच में दूसरे हाथ के मुगदर को उसी प्रकार ले जाते हैं जिस प्रकार पहले हाथ के मुगदर को पीठ पर झुलाया था और तब फिर पहले हाथ का मुगदर, हाथ नीचे ले जाकर, कंधे पर इस प्रकार लाते हैं कि उसका दूसरा सिरा फिर कधे पर आ जाता है। इसी प्रकार बराबर करते रहते हैं। ३. वह थैली जिसमें दर्जी सुई, तागा रखते हैं और जिसको वे चलते समय कधे पर लटका लेते हैं। तिलादानी। विशेष— यह चौकोर कपड़े की होती है जिसके तीन पाट दोहर दोहरकर सी दिए जाते हैं और चौथे में एक डोरी लगा दी जाती है जिसे थैली पर लपेटकर बाँधते हैँ। यह थैली चौकोर होती है और इसके दो और एक फीता वा डोरी के दोनों सिरे टाँके रहते हैं जिसे बगल में लटकाते समय जनेऊ की तरह गले में पहन लेते हैं। ४. वह सेंध जो किवाड़ की बगल में सिटकिनी की सीध में चोर इसलिये खोदते हैं कि उसमें से हाथ डालकर सिटकिनी खसकाकर किवाड़ खोल लें। क्रि प्र०— काटना। — मारना। ५. वह लकड़ी जिसमें हुक्केवाले ग़डगड़े को अटकाकर उनमें छेद करते हैं। ६. अंगे, कुरते आदि में कपड़े का वह टुकड़ा जो आस्तीन के साथ कंधे के नीचे लगाया जाता है। बगल।
⋙ बगली (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०बगला] स्त्री बक। बगला नामक पक्षी की मादा।
⋙ बगलीटाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगली + टाँग] कुश्ती का एक पेच जिसमें प्रतिपक्षी के सामने आते ही उसे अपनी बगल में लाकर और उसकी टाँग पर अपना पैर मारकर उसे गिरा देते हैं।
⋙ बगलीबाँह
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगली + बाँह] एक प्रकार की कसरत जिसमें दो आदमी बराबर बराबर खड़े होकर अपनी बाँह से दूसरे की बाँह पर धक्का देते हैं।
⋙ बगलीलँगोट
संज्ञा पुं० [हिं० बगली + लँगोट] कुश्ती का एक पेच।
⋙ बगलेदी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बगली] ताल की चिड़िया। उ०— वोलहि सोन ढेक बगलेदी। रही अबोल मीन जलभेदी।— जायसी ग्रं०, पृ० १३।
⋙ वगलौहाँ †
वि० [हिं० बगल + औहाँ] [स्त्री० बगलौहीं] बगल को और झुका हुआ। तिरछा। उ०— सकुचीली क्वरिन की पुरुषन पै बगलोहीं। चाह भरी देर लों चारु चितवन तिरछौहों।—श्रीधर पाठक (शब्द०)।
⋙ बगसना पु †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'बख्शाना'। उ०— (क) बगसि वितुंड दिए सुंडन के झुंड रिपु मुँडन की मालिका दई ज्यों त्रिपुरारी को।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) बिल- हान कन्ह चहुआन कौ बगसि भट्ट सिर नाइ चढ़ि।—पृ० रा०, ६१। १९०१।
⋙ बगसीस पु
संज्ञा स्त्री० [फा० बखशिश, हिं० बकसीस] दे० 'बकसीस'। उ०—सिंगारि पील नरिंद, बगसीस कीन सु चद।—प० रासो, पृ० ५७।
⋙ बगा पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बागा] जामा। बाना। उ०— नंद उदौ सुनि आयो हो वृषभानु को जगा। नाखे फूल्पो आँगनाई सूर बखसीस पाई माथे को चढ़ाइ लीने लाल को बगा। सूर (शब्द०)।
⋙ बगा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० बक] बगला। उ०— शूरा थोरा ही भला, सत का रोपै पगा। घना मिला केहि काम का, सावन का सा बना।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बगाना पु (१) ‡
क्रि० सं० [हिं० बगना का प्रे० रूप] १. टहलाना। सैर कनाना। घुमाना। फिराना। उ०— लघु लघु कंचन के हय हाथी स्यदन सुभग बनाई। तिन मँह धाय चढ़ाय कुमारन लावहिं अजिर बगाई।—रघुराज (शब्द०)। २. फैलाना। बिखेरना। छितरा देना। उ०—(क) टूटि तार अगर बगाबै। कामभून जनु मोहि छरावै।—नदं० ग्रं०, पृ० १३४। (ख) चोरि चोरि दधि माखन खाइ। जौ हम देहि तो देइ बगइ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४६।
⋙ बगाना पु (२)
क्रि० अ० भागना। जल्दी जल्दी जाना। उ०— बार बार बैल को निपट ऊँचो नाद सुनि, हूँकरत बाघ बिरुझनों रस रेला में। 'भूधर' भनत ताकी बास पाय सोर करि कृत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला में।— भूषर (शब्द०)।
⋙ बगार
संज्ञा पुं० [देश०] वह स्थान जहाँ गाएँ बाँधी जाता हुए। धाटी।
⋙ बगारना
क्रि० सं० [सं० विकिरण, हिं० बगरना] फैलाना। छिटकना। पसारना। बिखेरना। उ०—(क) चौक में चौकी जराय जरी तेहि पै खरी वार बगरत सौंधे।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) गौने की चुनरी वैसिय है, दुलही अबही से ढिठाई बगारी।—मति० ग्र०, पृ० २९९।
⋙ बगारो पु
संज्ञा पुं० [हिं० बगरना] फैलाव। विस्तार। प्रचार। प्रसार। उ०— बाल बिहाल परी कब की दबकी यह प्रीति कि रिति निहारी। त्यौं पद्माकर है न तुम्हे सुधि कीनों जो बैरी बसंत बगारी।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ बगावत
संज्ञा स्त्री० [अं० बगावत] १. बागी होने का भाव। बलवा। विद्रोह। २. राजद्रोह।
⋙ बगिया पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० बाग + हिं० इया (प्रत्य०)] बागीचा। उपवन। छोटा बाग। उ०—(क) बन घन फूलहि टेसुवा बगियन बेलि। चले बिदेस पियरवा फगुवा खेलि।—रहीम (शब्द०)। (ख) हँसी खुसी गोइयाँ मोरी। बगिया पधरी तन जोतिया बरत महताब। देखतै गोरी क मुँह रँगवा उड़ल बलबिखा के हथवा गुलाब।— बिरहा (शब्द०)।
⋙ बगीचा
संज्ञा पुं० [फा० बाग्चह्] [स्त्री० अल्पा० बगीची] बाटिका। उपवन। छोटा बाग। उ०—(क) लैके सब संचित रतन मंथन को भय मानि। मनों बगीचा बीच गृह बस्यो छीरनिधि आनि।— गुमान (शब्द०)। (ख) शिरोमणि बागन, बगीचन बनन बीच हुते रखबारे तहाँ पँछी की न गति है।— हनुमान (शब्द०)।
⋙ बगीछा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बगीचा] दे० 'बगीचा'। उ०— बलसौ रस बस जाय बगीछा राधाजनक तणा ब्रजराज।— बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२२।
⋙ बगुचा †
संज्ञा पुं० [फा० बुगचा, हिं० बकुचा] दे० 'बकुचा'। उ०— कौड़ी लभे देनचा बगुचा घाऊ घप्य।—संतबानी०, भा० १, पृ० १५४।
⋙ बगुर पु
संज्ञा पुं० [सं० बग्गुरा, प्रा० बग्गुरा] जाल। फंदा। उ०— बगुर घेरि बिप्पंन अप्प मुलन में मंडिप।—पृ० रा०, ६। ९७।
⋙ बगुरदा
संज्ञा पुं० [सं० बल्गुल या वागुरा] एक शस्त्र। उ०— गुरदा, बगुरदा, छुरी, जमधर, दम तमंचे कटि कसे।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १६।
⋙ बगुला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बगला'। यौ०— बगुलभागत = बगला भगत। वंचक भगत।
⋙ बगूरा पु
संज्ञा पुं० [सं० वायु + हिं० गँडूरा] दे० 'बगूला'। उ०— अगर के धूप धूप उठत जहाँई तहाँ उठत बगूरे अब अति ही अमाप हैं।— भूषण ग्रं०, पृ० ५४।
⋙ बगूला
संज्ञा पुं० [हिं० बाउ + गोला] वह वायु जो गरमी के दिनों में कभी कभी एक ही स्थान पर भंवर सी घूमती हुई दिखाई तेती है और जिससे गर्द का एक खभा सा बन जाता है। बवंडर। बातचक्र। विशेष—यह वायुस्तंभ आगे को बढ़ता जाता है। इसका व्यास और ऊँवाई कभी कम और कभी अधिक होती है। इसे गवाँर लोग 'भवानी का रथ' कहते हैं। कभी कभी बड़े व्यासवाले बगूले में पड़कर बड़े पेड़ और मकान तक उखड़कर उड़ जाते हैं। यह बगूला जब समुद्र या नदियों में होता है तब उसे 'सूँड़ी' कहते हैं। इससे पानी नल की भाँति ऊपर खिंच जाता है।
⋙ बगेड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक चिड़िया। दे० 'बगेरी'। उ०— धरी परेबा पाँड़ुक हांरी। केहा कदरौ अउर बगेरी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बगेदना †
क्रि० सं० [अनु देश०] धक्का देकर दूर करना। भगा देना।
⋙ बगेरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] सारे भारत में पाई जानेवाली खाकी रंग की एक छोटी चिड़िया। बगौधा। बघेरी। भरुही। विशेष— यह डीलड़ौल में गौरैया के समान होती है औरमैदानों में जलाशयों के पास पाई जाती है। यह जमीन के साथ इस तरह चिमट जाती है कि सहज में दिखाई नहीं देती। यह झुंड़ों में रहती है। इसे संस्कृत में भरद्वाज कहते हैं। इसे कहीं कहीं उसरबगेरी भी कहा जाता है।
⋙ बगैचा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बगीचा'।
⋙ बगैर
अव्य० [अ० बगैर] बिना। सिवा।
⋙ बगौधा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० बगौधी] बगेरी नाम की चिड़िया।
⋙ बग्ग पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वक, प्रा० बग] दे० 'बक'। उ०—भेष दरियाव में हंस भी होते हैं, भेष दरियाव में बग्ग होई।— कबीर०, रे०, पृ० ९।
⋙ बग्ग पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बल्गा, प्रा० बग्ग] बाग। लगाम। उ०— गहि बग्ग हथ्थ फेरत तुरंत नट नत्य निपुन धावत कुंरग।—पृ० रा०, १। ७२३।
⋙ बग्ग (३)
संज्ञा पुं० [फा० बाग] बगीचा। बाग। उ०— बग्ग मग्ग गोपिक गमन।—पृ० रा०, २। ३५४।
⋙ बग्गड़ †
वि० [प्रा० गुज० बगड़] शरारती। चिलबिला। बंगड़। बिगड़ा हुआ। बदमाश। उ०— ऐसे बग्गड़ का क्या ठिकना। जो आदमी स्त्री का न हुआ, वह दूसरे का क्या होगा।—मान०, भा० ५, पृ० ९३।
⋙ बग्गना पु
क्रि० अ० [सं० √ वक्ष्, प्रा० बग्ग] शब्द करना। बजना। उ०— बग्गि आनंद निसान।—पृ० रा०, ७। १८१।
⋙ बग्गाना पु
क्रि० सं० [सं० बल्गन, प्रा० बग्गण] बाँ बाँ करना। रँभाना। चिल्ला उठना। उ०— बाउ छता कै छैरि गाय व्यानी बग्गनिय।— पृ० रा०, १३। २८।
⋙ बग्गी
संज्ञा स्त्री० [अं० बोगी] चार पहिए की पाटनदार गाड़ी जिसे एक वा दो घोड़े खींचते हैं।
⋙ बग्गु पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बल्गा। लगाम।
⋙ बग्गुर पु
संज्ञा पुं० [सं० बागुरा, प्रा० बग्गुर, बग्गुरा] जाल। फंदा। उ०— बग्गुर अगिनत परत कितिक फंदन पग विद्धत।— पृ० रा० ६। १०४।
⋙ बग्घी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बग्गी'।
⋙ बघंबर
संज्ञा पुं० [सं० ब्यघ्राम्बर] १. बाघ की खाल जिसपर साधु लोग बैठकर ध्यान लगाते हैं। उ०—(क) बरुनी बघबर में गूदरी पलक दोऊ कोए राते बसन भगौहैं भेष रखियाँ।— देव (शब्द०)। (ख) सार की सारी सी भारी लगै धरिबे कह सीस बघंबर पैंया। हाँसी सो दासी सिखाइ लई है वेई जो बई रसखानि कन्हैया।— रसखान (शब्द०)। २. बाघ की खाल की तरह बना हुआ कवल।
⋙ बघंमरि पु
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्राम्बर] दे० 'बघंबर'। उ०— कहिं साखिया खाक बघमरि है कहि पाँव उलठि के रोकता है।— संत० दरिया, पृ० ६६।
⋙ बघ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] बाघ का समास में प्रयुक्त रूप। जैसे, बघनखा। यौ०— बघछाल, बघछाला = व्याघ्रचर्म। बाघ की खाल। उ०— कर उदपान काँध बघछाला।— जायसी गं० (गुप्त), पृ० २०५। बघनखना = बाघ के नख का आभूषण। उ०— कंठ कठूला सोहै औ बघनखना।— नंद० अं०, पृ० ३४०। बघनखा = दे० 'बघनहाँ'। बघनहा = बघनहा = व्याग्रनख का आभूषण। उ०— एक बघनहा इसके गले में पड़ा रहे तो अच्छा है।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ५७२।
⋙ बघनहाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० बाघ + नहँ (= नाखून)][स्त्री० अल्पा० बघनहीं] १. एक प्रकार का हथियार जिसमें बाघ के नहँ के समान चिपटे टेढे़ काँटे निकले रहते हैं। यह उँगलियों में पहना जाता है और इससे हाथपाई होने पर शत्रु को नोच लोते हैं। शेरपंजा। २. एक आभूषण जिसमें बाघ के नाखून चाँदी या सोने में मढे़ होते हैं। यह गले में तागे में गूँथकर पहना जाता है। उ०— कठुँला कंठ बधनहाँ नीके। नयन सरोज अयन सरसी के।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बघनहियाँ पु
[हिं० बाघ + नह + इया +(प्रत्य०)] बघनहाँ आभूषण। ड०— बड़े बड़े मोतिन की माला बड़े बड़े नैन नान्ही नान्ही भृकुटी कुटिल बघनहियाँ।— केशव (शब्द०)।
⋙ बघना पु
संज्ञा पुं० [हिं० बघनहाँ] बघनहाँ आभूषण। उ०— सीप जैमाल श्याम उर सोहै बिच बघना छबि पावै री। मानो द्विज शशि नखत सहित है उपमा कहत न आवै री।—सूर (शब्द०)।
⋙ बघरूरा †
संज्ञा पुं० [हिं० वायु + गँड़ूरा] बगूला। चक्रवात। बवंडर। उ०—चित्र की सी पुत्रिका की रूरे बधरूरे माँह शंबर छोड़ाय लई कामिनी की काम की।— केशव (शब्द०)।
⋙ बघार
संज्ञा पुं० [अनु० हि० बघारना] १. वह मसाला जो बघारते समय घी में ड़ाला जाय। तड़का। छौंक। क्रि० प्र०—देना। २. बघारने की मँहक। क्रि० प्र०—आना।—उठना।
⋙ बघारना
क्रि० स० [सं० अवधारण (वधारण) या हिं० अनु०] १. क्लछी या चम्मन में घी को आग पर तपाकर ओर उसमें हींग, जीरा आदि सुगंधित मसाले छोड़कर उसे दाल आदि की बटलोई में मुँह ढाँककर छोड़ना जिसमें वह दाल आदि भी सुगंधित हो जाय। छौकना। दागना। तड़का देना। २. अपनी योग्यता से अधिक, बिना मौके या आवश्यकता से अधिक चर्चा करना। जैसे, वेदांत बधारना। अँग्रेजी बघारना। मुहा०— शेखी बघारना = बहुत बढ़ बढ़कर बातें करना। शेखी हाँकना।
⋙ बघुरा, बघूरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० वायु + गँड़ूरा] बगूला। बवंड़र। उ०— (क) बघुरे को पात ज्यौं जमीन आसमान कौ।— ब्रज० ग्र० पृ० १३४ (ख) वाटु बघूरा पुनि ध्वजा यथा चक्र कौ फेर।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७२८। (ग) मेरो मन भँवै भठू पात बघरे ह्वै बघरे को।— घनानंद, पृ० ६२।
⋙ बघूला ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] 'बगूला'। उ०— जित जित फिरै भटकतौ यों ही जैसे बायु बघूल्यौं रे।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९३०।
⋙ बघूली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बघनखा। उ०— जटित बघूली छतियन लसै। द्वै द्वै चंद कलनि कहुँ हँसै।— नंद० ग्रं० २४५।
⋙ बघेर, बघेरा
संज्ञा पुं० [हिं० बाघ + एर (प्रत्य०)] लकड़बग्घा।
⋙ बघेल
संज्ञा पुं० [?] राजपूतों की एक शाखा का नाम।
⋙ बघेलखंड
संज्ञा पुं० [हिं० बघेल (जाति) + खंड़] मध्य भारत में एक प्रदेश जिसमें किसी समय बघेल राजपूतों का राज्य था। अंग्रेजी शासन में यह प्रदेश मध्य भारत की एजेंसी के अंतर्गत रहा। अब इसका नाम मध्य प्रदेश है और इसमें रीवाँ, नागोर, मैहर इत्यादि राज्य अंतभूँत हैं।
⋙ बघेलखंडी
संज्ञा स्त्री० [बघेलखंड़ + ई (पत्य०)] १. बधेलखंड से संबंधित व्यक्ति या वस्तु। २. बघेलखंड की भाषा।
⋙ बघेली ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाघ + एली (प्रत्य०)] बरतन खरादने- बालों का वह खूँटा जिसका ऊपरी सिरा आगे की ओर कुछ बढ़ा होता है। इस सिरे को धाई या नाक कहते हैं और इसी पर रखकर बरतन खरादा या कूना जाता है।
⋙ बघैरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बगेरी'।
⋙ बघ्घ पु
संज्ञा पुं० [सं० ब्याघ्र, प्रा० वघ्घ] बाघ। व्याघ्र। उ०— तहाँ सिह बघ्घानहू ने ग्रसे हैं।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १०।
⋙ बच पु
संज्ञा पुं० [सं० वचस्] वचन। वाक्य। बात। उ०— (क) जौं मोरे मन बच अरु काया। प्रति राम पदकमल अमाया।— तुलसी (शब्द०)। (ख) जइओं समीर सीतल बहु सजनी मन बच उड़ल सरीर।— विद्यापति , पृ० ५०८। (ग) नैनन ही बिहँसि बिहँसि कौलों बोलिहौ जू बच हूँ तो बोलिए बिहँसि मुख बाल सों।— केशव (शब्द०)। यौ०— बचपाल = वचन पालना। कही बात पर दृढ़ रहना। उ०— द्विज सनमान दान बचपालन दृढ़ ब्रत को हठि नाहिं टरै।— भारर्तेदु ग्रं०, भाग २, पृ० ४६५।
⋙ बच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वचा] एक प्रकार का पौधा जो ओषधि के काम में आता हैं। पर्य्या०—उग्रगधा। षड़्ग्रंथा। गोलोमी। शतपर्विका। मगल्या। जटिला। तीक्ष्णा। लोमशा। भद्रा। कांगा। विशेष— यह पौधा काशमीर से ऐ आसाम तक तथा मनीपुर और बर्मा में दो हजार से छह हजार फुट तक ऊँचे पहाड़ों पर पानी के किनारे होता है। इसकी पत्ती सौसन की पत्ती के आकार की पर उससे कुछ बड़ी होती है। इसके फूल नरगिस के फूल की तरह पीले होते हैं। पत्तियों की नाल लंबी होती है। पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो खुला रहने से उड़ जाता है। इसकी जल लाली लिए सफेद रंग की होती है जिसमें अनेक गाँठें होती हैं। पत्तियाँ खाने में कड़ुवी, चपंरी और गरम होती हैं और उनमें से तेज गंध निकलती है। वैद्यक में इसे वमनकारक, दीपन, मल और मूत्रशोधक और कंठ को हितकर माना है, तथा शूल, शोथ, वातज्वर, कफ, मृगी ओर उन्माद का नाशक लिखा है। यह गठिया में ऊपर से लगाई भी जाती है। भावप्रकाश में बच तीन प्रकार की लिखी गई है— (१) बच, (२) खुरासानी बच और (३) महाभरी बच। खुरासानी बच सफेद होती है। इसे मीठी बच भई कहते हैं। यह मति ओर मेधावर्धक तथा आयुवर्धक होती है। महाभरी को कुलीजन भी कहते हैं। यह कफ और खाँसी को दूर करती है, गले को साफ करती है, रुचि को बढ़ाती तथा मुख को शुद्ध करती है।
⋙ बचका पु ‡
संज्ञा पुं० [देशज] १. एक प्रकार का पकवान जो किसी प्रकार के साग या पत्तों आदि को बेसन में लपेटकर और घी या तेल में छानकर बनाया जाता है। २. एक प्रकार का पकवान जो बेसन और मैदे को एक में मिलाकर और जलेबी की तरह टपकाकर घी में छाना जाता है तब दूध में भिगोकर खाया जाता है। उ०— खँडरा बचका औ ड़ुभ- कौरी। बरी एकोतर सै कोंहड़ौरी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बचकाना ‡
वि० [हिं० बच्चा + कान (प्रत्य०)] [स्त्री० बचकानी] १. बच्चों के योग्य। बच्चों के लायक। जैसे, बचकाना जूता। २. बच्चों का सा। थोड़ी अवस्था का।
⋙ बचत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बचना] १. बचने का भाव। बचाव। रक्षा। उ०— होती जो पै बचत कहुँ, धीरज ढालन ओट। चतुरन हिये न लागती नैन बान की चोट।—रसनिधि (शब्द०)। २. बचा हुआ अंश। वह भाग दो व्यय होने से बच रहे। शेष। ३. लाभ। मुनाफा।
⋙ बचन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वचन] १. वाणी। वाक्। उ०— तुलसी सुनत एक एकनि सों जो चलत विलोकि निहारे। मूकनि बचन लाहु मानों अंधन गहे हैं बिलोचन तारे।— तुलसी (शब्द०)। २. वचन। मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द। उ०— (क) रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाहु बरु बचन न जाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) कत कहियत दुख देन को, रचि रचि बचन अलीक। सबै कहाउर है लखै, लाल महाउर लीक।— बिहारी (शब्द०)। मुहा०—बचन ड़ालना = माँगना। याचना करना। बचन तोड़ना वा छोड़ना = प्रतिज्ञा से विचलित होना। कहकर न करना। प्रतिज्ञा भंग करना। बचन देना = प्रतिज्ञा करना। बात हारना। उ०—निदान यशोदा ने देवकी को बचन दे कहा कि तेरा वालक मैं रखूँगी।— लल्लू (शब्द०)। बचन पालना वा निभाना = प्रतिज्ञा के अनुसार कार्य करना। जो कुछ कहना वह करना। बचन बँधाना = प्रातिज्ञा कराना। वचन- वद्ध करना। उ०— नंद यशोदा बचन बँधायो। ता कारण देही धरि आयो।— सूर (शब्द०)। बचन लेना = प्रातिज्ञा कराना। बचन हारना = प्रतिज्ञाबद्ध होना। बात हारना।
⋙ बचनविदग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं० वचनविदग्धा] एक प्रकार की नायिका। दे० 'बचनविदग्धा'।
⋙ बचना (१)
क्रि० अ० [सं० वञ्चन] (= न पाना)] १. कष्ट याविपत्ति आदि से अलग रहना। रक्षित रहना। संभावना होने पर भी किसी बुरी या दुःखद स्थिति में न पड़ना। जैसे, शोर से बचना, गिरने से बचना, दंड़ से बचना। उ०—(क) अक्षर त्रास सबन को होई। साधक सिद्ध बचै नहि कोई।— कबीर (शब्द०)। (ख) घन घहराय घरी घरी जब करिहै झरनीर। चहुँ दिसि चमकै चंचला केयों बचिहै बलबीर।— शृं० सत० (शब्द०)। २. किसी बुरी आदत से अलग रहना। जैसे, बुरी संगत से बचना। ३. किसी के अंतर्गत न आना। छूट जाना। रहा जाना। जैसे,— वहाँ कोई नहीं बचा जिसे रंग न पड़ा हो। ४. खरचने या काम में आने पर शेष रह जाना। बाकी रहना। उ०— मीत न नीत गलीत यह जो धरिए धन जोरि। खाए खरचे जो बचे जोरिए करोरि।— बिहारी (शब्द०)। ५. अलग रहना। दूर रहना। परहेज करना। जैसे,— तुम्हें तो इन बातों से बहुत बचना चाहिए। ६. पीछे या अलग होना। हटना। जैसे, गाड़ी से बचना।
⋙ बचना पु (२)
क्रि० स० [सं० वचन] कहना। उ०— अबल प्रहलाद बल देत सुख ही बचत गास ध्रुव चरण चित्त सीस नायो। पांड़ु सुत विपतमोचन महादास लखि द्रोपदी चीर नाना बढ़ायो।— सूर (शब्द०)।
⋙ बचन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० बचन] दे० ' बचन'। उ०— येह बचन्न प्रभु उच्चरे; भए सु अंतरध्यान —प० रासो, पृ० १०।
⋙ बचपन, बचपना †
संज्ञा पुं० [हिं० बच्चा + पन (प्रत्य०)] १. लड़कपन। बाल्यावस्था। २. बच्चा होने का भाव।
⋙ बचवा †
संज्ञा पुं० [हिं० बच्चा + वा (प्रत्य०)] १. प्यार से छोटे बच्चे का संबोधन। २. पुत्र के लिये प्रयुक्त। वत्स। पुत्र। उ०— बचवा का व्याह तो अबके साल न होगा।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८६।
⋙ बचवैया पु †
संज्ञा पुं०— [हिं० बचाना + वैया (प्रत्य०)] बचानेवाला। रक्षक।
⋙ बचा पु
संज्ञा पुं० [फा० बचह्, तुल, सं० वत्स, प्रा० वच्छ, हिं० बच्चा] [स्त्री० बची] लड़का। बालक। उ०— (क) तुलसी सूर सराहत हैं जग में बलसालि है बालि बचा।— तुलसी (शब्द०)। (ख) दस षान और तुम दव्बिले, में चंद बचा तुम ते ड़रों।— पृ० रा०, ६४। १४०। (ग) मारू देस उपन्निया तिहाँ का दंत सुसेत। कूझ हबची गोरंगियां खंजर जहा नेत।— ढोला०, दू० ६६६। २. लघुत्व एवं उपेक्षासूचक संबोधन। उ०— क्रुद्धित हों तो कह दें कि बचा तुम जानते नहीं।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७९।
⋙ बचाउ पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बचाव'। उ०— द्रुम लतानि तर ठाढे़, भयो है बचाउ पातनि में।— छीत०, पृ० २९।
⋙ बचाना
क्रि० स० [हिं० बचना] १. आपत्ति या कष्ट में न पड़ने देना। रक्षा करना। उ०— (क) बिन गुरु अक्षर कौन छुड़ावै, अक्षर जाल के कौन वचावै।— कबीर (शब्द०)। (ख) लाठी में गुण बहुत है सदा राखिए संग। गहरी नदि नारा जहाँ तहाँ बचावे अंग।— गिरधर (शब्द०)। (ग) चहूँ ओर अवनीस घने घेरे छवि छवै। महाराज को शुत्रुघात से सजनग वचावै।— गोपाल (शब्द०)। २. प्रभावित न होना देना। अलग रखना। ३. व्यय न होने देना। खर्च न होने देना। खर्च करके कुछ रख छोड़ना। ४. छिपाना। चुराना। जैसे, आँख बचान। उ०— पीठि दै लुगाइन वी ड़ीठहि बचाय, ठकुराइन सुनाइन के पायल रखना। दूर रखना। जैसे,—बच्चों को सिगरेट, तंबाकू आदि से बचाना चाहिए। ६. ऐसे रोग से मुक्त करना मरने की आशंका हो। ७. पीछे करना। हटाना।
⋙ बचाव
संज्ञा पुं० [हिं० बचाना] १. बचने या बचाने का भाव। २. रक्ष। त्राण। उ०— कहा कहति तू भई बावरी। ऐसे कैसे होय सखी री घर पुनि मेरी है बचाव री।— सूर (शब्द०)। ३. बाद में सफाई। सफाई पक्ष।
⋙ बचिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बच्चा (छोटा)] कसीदे के काम में छो़टी छोटी बूटियाँ।
⋙ बचीता
संज्ञा पुं० [देश०] दो तीन हाथ ऊँची एक प्रकार की झाड़ी। विशेष— इसके तने और टहनियों पर अधिक रोएँ होते है। यह गरम प्रदेशों की पड़ती भूमि में अधिकता से पाई जाती है। इसमें चमकीले पीले रंग के छोटे छोटे फूल लगते है जो बीच में काले होते हैं। इसके तने से एक प्रकार का मजबूत रेशा निकलता है।
⋙ बचुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली। विशेष— यह सिंध, उड़ीसा, बंगाल और आसाम की नदियों इस जाति की कोइ कोई बड़ी मछली हाथ ड़ेढ हाथ तक भी लंबी होती है।
⋙ बचून †
संज्ञा पुं० [हिं० बच्चा] भालू का बच्चा। (कलंदर)।
⋙ बचो
संज्ञा सं० [देश] एक बारहमासी लता। विशेष— यह लता काशमीर, सिंध और काबुल में होती है। इसकी जड़ से मजीठ की तरह का रग निकलता है। यह बीज और जड़ दोनो से उत्पन्न होती है। तीन बर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक में इसकी जड़ पककर तैयार होती है। इसकी पत्तियाँ पशु और विशोषतः ऊँट बड़े चाव से खाते हैं।
⋙ बच्चा (१)
संज्ञा पुं० [फा० बच्चह्, तुल० सं० वत्स, प्रा० बच्छ] [स्त्री० बच्ची] १. किसी प्राणी का नवजात ओर असहाय शिशु। जैसे, गाय का बच्चा, हाथी का बच्चा, मुर्गी का बच्चा इत्यादि। मुहा०— बच्चा देना = प्रसव करना। गर्भ से उत्पन्न करना। २. लड़का। बालक। मुहा०— बच्चों का खेल= बहुत सुगम कार्य। सहज काम। ३. बेटा। पुत्र। उ०— चंगाह चंद बच्चा बचन इह सलाम करि कथ्थिया।— पृ० रा० ६४। १५४।यौ०—बच्टे कच्चे = बाल बच्चे। बड़े छोटे लड़के लड़कियाँ। बच्चेबाज = समलैंगिक मैथुन करनेवाला।
⋙ बच्चा (२)
वि० अज्ञान। अनजान। जैसे,— अभी तुम इस कार्य में बच्चे हो।
⋙ बच्चाकश
वि० [फा० बच्वह् कश] (स्त्री) बहुत बच्चे जननेवाली। (विनोद में)।
⋙ बच्चादान
संज्ञा पुं० [फा० बच्चह दान] गर्भाशय। कोख।
⋙ बच्ची
संज्ञा स्त्री० [हिं० बच्चा + ई (प्रत्य०)] १. वह छोटी घोड़िया जो छत या छाजन में बड़ी घोड़िया के नीचे लगाई जाती है। २. वह बाल जो होंठ नीचे बीच में जमता है। ३. दे० 'बच्चा'।
⋙ बच्चेदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बच्चादान] गर्भाशय। बच्चा। बेटा। उ०— बहुरि बच्छ कहि लाल कहि रघुपति रघुबर तात। कबहिं बोलाइ लगाइ हिय हरषि निरखिहऊँ गात।— तुलसी (शब्द०)। २. गाय का बच्चा। बछड़ा। उ०— (क) राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छ जिमि धेनु लबाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बच्छ पुच्छ लै दियो हाथ पर मंगल गीत गवायो। जसुमति रानी कोख सिरानी मोहन गोद खेलायो।— सूर (शब्द०)।
⋙ बच्छनाग
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० ' बछनाग'।
⋙ बच्छल पु
वि० [सं० वत्सल, प्रा० बच्छल] माता पिता के समान प्यार करनेवाला। वत्सल। उ०— सुनि प्रभु बचन हरिखि हनुमान। सरनागत बच्छल भगवान।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बच्छलता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वत्सलता] वात्सल्य भाग। उ०— निपट श्रमित जननी कहुँ जानि। निरवधि बच्छलता पहि- चानि।— नंद ग्र०, पृ० २५०।
⋙ बच्छस पु
संज्ञा पुं० [सं० बक्षस्] छाती। वक्षस्थल। उ०—जानत सुभाव ना प्रभाव भुजदंड़न को, खंडन को छत्रिन के बच्छस कपाट को।— तुलसो (शब्द०)।
⋙ बच्छा †
संज्ञा पुं० [सं० वत्सक, प्रा० बच्छ] [स्त्री० बाछेया] १. गाय का बच्चा। बछड़ा। बछवा। २. किसी जानवर का बच्चा। (क्व०)।
⋙ बच पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० चत्स, प्रा० बच्छ] गाय का बच्चा। बछड़ उ०— बाल बिलख मुख गो न चरति तृण बछ पय पियन न धावैं। देखत अपनी आँखियेन ऊघो हम कहि कहा जनावैं।— सूर (शब्द०)। (ख) राक्षस तहाँ धेत बछ भष्णं।— पृ० रा०, ६१। १७९९। यौ०—बछपाल = वत्सल। बच्छल। उ०— बरषि कदम्म सुब्रन्न चढि, लज्जित बहु बर बाल। हथ्थ जोरि सम सो भई, प्रभु बुल्ले बछपाल।— पृ० रा० २। ३७७।
⋙ बछ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वच'।
⋙ बछ (३)
संज्ञा पुं० [सं० वक्षस् प्रा० बच्छ] छाती। वक्ष। यौ०—बछस्थल = हृदय। वक्ष। उ०— जदपि बछस्थल रमति रमा रमनी बर कामिनि।— नंद०, ग्रं०, पृ० ४७।
⋙ बछड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बच्छ + ड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० बछड़ी, बछिया] गाय का बच्चा। उ०— माँ, मैं बछडे़ चराने जाऊँगा।— लल्लू (शब्द०)।
⋙ बछनाग
संज्ञा पुं० [सं० बत्सनाभ] एक स्थावर बिष। पर्या०—काकोला। गरल। विप। दारद। विशेष— यह नेपाल के पहाड़ों में होनेवाले पौधे की जड़ है। इसे सीगिया, तेलिया और मीठा विष भी कहते हैं। यह देखने में हिरन की सींग के आकार का होता है। इसका रंग कड़ुवे तेल की तरह कानापन लिए पीला होता है और स्वाद मीठा होता है। इसकी जड़ के रेशों के बीचे गोंद की तरह गूदा होता है, जो गीला रहने पर तो नरम रहता है पर सूखने पर बहुत कड़ा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक प्रकार का और बछनाग होता है जो काला और इससे बड़ा होता है और जिसके ऊपर छोटे छोटे दाग होते हैं जो गाँठ की तरह मालूम पड़ते है। इसे काला बछनाग या कालकूट कहते हैं। यह शिकम (सिक्किम) की पहाड़ियों में होता है। ये दोनों ही विष हैं और के खाने से प्राणियों की मृत्यु होती है। वैद्यक में बछनाग का स्वाद मीठा, प्रकृति गरम और गुण वात एवं कफनाशक तथा कंठरोग और सन्निपात को दूर करनेवाला बतलाया गया है। इसका प्रयोग औषघों में होता है। निघटु में इसके वत्सनाभ, हारिद्र, सवतुक, प्रदीपन, सौराष्ट्रक, शृंगक, कालकूट और ब्रह्मपुत्र, ये नौ भेद बतलाए गए हैं।
⋙ बछरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बछड़ा'। उ०— (क) कब की हौं हेरति न हेरे हरि पावति हौं बछरा हिरानौ सो हिराय नैक दीजिए।— मति० ग्रं०, पृ० २८७।
⋙ बछरुआ, बछरुवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बछड़ा'। उ०—(क) ब्रह्मा बाल बछरुआ हरि गयौ सो ततछन सारिखे सबाँरी।— सूर०,१ ३९। (ख) असमैं देइ बछरुवनि छोरि। ठाड़ौ हँसै खरिक की खोरि।— दंद० ग्रं, पृ० २४६।
⋙ बछरू †
संज्ञा पुं० [सं० वत्सरूप, प्रा० बच्छ + रूअ] बछड़ा। गाय का बच्चा। उ०— (क) भोजन करत सखा इक बोल्यो बछरू कतहूँ दूरि गए। यदुपति कह्यो घेरि हौं आनौ तुम जेंबहु निश्चित भए।— सूर (शब्द०)। (ख) हंसा संशय छूटी कहिया। गैया पियै बछरू को दुहिया।— कबीर (शब्द०)।
⋙ बछल पु †
वि० [सं० वत्सल] दे० 'वत्सल'। उ०— भगत बछल कृपाल रघुराई।— मानस, ७। ११।
⋙ बछलता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चत्सलता, प्रा० बच्छलता] वात्सल्य। उ०— भगत बछलता प्रभु कै देखी।— मानस ७। ८३।
⋙ बछवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बच्छ] [स्त्री० बछिया] बछेड़ा। गाय का बच्चा। उ०— (क) बैल बियाय गाय भइ बाँझा। बछबै दुहिया तिन तिन साँझा।— कबीर (शब्द०)। (ख) —जबछोटे छोटे बछड़ों और बछियाओं की पूँछे पकड़कर उठे और गिर पड़े।— लल्जू (शब्द०)। मुहा०— बछिया का बाबा या ताऊ = मूखै। अज्ञान। निर्बुदिध बेबकूफ। उ०— आपके नबाव भी बछिया के ताऊ हैं।— सैर०, पृ० ४२।
⋙ बछा †
संज्ञा पुं० [सं० वत्सक] दे० 'बच्छा'।
⋙ बछेड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बत्स, प्रा० बन्छ, पुं० हिं० बन्छ बछ + एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० बछेड़ी] घोड़े का बच्चा।
⋙ बछेरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० बछेरा] दे० 'बछेरा'। उ०— सुरँग बछेरे नैन तुब जद्यपि हैं नाकंद। मन सौदागर ने कह्यो हैं बहुतहि परसंद।— रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बछेरू पु
संज्ञा पुं० [हिं० बछरा] दे० 'बछड़ा'।
⋙ बछाटा †
संज्ञा पुं० [हिं०बाछ + औटा (प्रत्य०)] वह चंदा जो हिस्से के मुताबिक लगाया या लिया जाय।
⋙ बजंत्री
संज्ञा पुं० [हिं० बाजा] १. बाजा बजानेवाला। बज- नियाँ। उ०— बजंत्री बजाने लगे।— लल्लू (शब्द०)। २. मुसलमानी राज्यकाल का एक प्रकार का कर जो गाने बजाने का पेशा करनेवालों से लिया जाता था।
⋙ बजकंद
संज्ञा पुं० [सं० बज्रकन्द] एक बड़ी लता जो भारत के जंगलों में पैदा होती है। इसकी जड विषैली और मादक होती है परंतु उबालने से खाने योग्य हो सकती है।
⋙ बजकना †
क्रि० अ० [अनुध्व०] किसी तरल पदार्थ का सड़कर या बहुत गंदा होकर बुलबुले फेंकना। बजबजाना।
⋙ बजका †
संज्ञा पुं० [हिं० बजकना] १. चने की दाल या बेसन की बनी हुई बड़ी बड़ी पकौड़ियाँ जो पानी में भिगोकर दही में डाली जाती है। २. दे० 'बचका'।
⋙ बजट
संज्ञा स्त्री० [अं०] आगामी वर्ष या मास आदि के लिये भिन्न भिन्न बिभागों में होनेवाले आय और व्यय का लेखा जो पहले से तैयार करके मंजूर कराया जाता है। भविष्य में होनेवाली आय और व्यय का अनुमित लेखा। आयव्ययक।
⋙ बजड़ना †
क्रि० स० [?] १. टकराना। २. पहुँचना।
⋙ बजड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बजरा'। २. दे० 'बाजड़ा'।
⋙ बजनक
संज्ञा पुं० [पश्तो] पिस्तो का फऊल जो रेशम रँगने के काम आता है।
⋙ बजना (१)
क्रि० अ० [हिं० बाजा] १. किसी प्रकार के आघात या हवा के जोर से बाजे आदि में से शब्द उत्पन्न होना। बोलना। जैसे, ड़ंका बजना, बाँसुरी बजना। उ०— (क) परी मेरी ब्रजरानी तेरी बर बानी किधौं बानी हीं की बीणा सुख मुख में बजत है।— केशब (शब्द०)। (ख) मोहन तू या बात को, अपने हिये बिचार। बजत तँबूरा कहुँ सुने, गाँठ गठील तार।— रसनिधि (शबेद०)। २. किसी वस्तु का दूसरी वस्तु पर इस प्रकार पड़ना कि शब्द उत्पन्न हो। आघात पड़ना। प्रहार होना। जैसे, सिर पर डंडा या जूता बजना। उ०— लोलुप भ्रमत गृहप ज्यों जहाँ तहँ सिर पदत्राण बजै। तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै।—तुलसी (शब्द०)। ३. शस्त्रों का चलना। जैसे, लाठी बजना, तलवार बजना। ४. अड़ना। हठ करना। जिद करना। उ०— (क) प्रीति करी तुमसों बजि के सुबिसारि करी तुम प्रीति घने की।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) घरी बजी घरियार सुनि, बजि कहत बजाइ बहुरि न पैहै यह घरी, हरि चरनन चित लाइ।— रसनिधि (शब्द०)। ५. प्रख्याति पाना। प्रसिद्ध होना। कहलाना। उ०— गुन प्रभुता पदवी जहाँ तहाँ बनै सब कार। मिलै न कछु फल आक ते बजै नाम मंदार।— दीनदयाल (शब्द०)।
⋙ बजना † (२)
संज्ञा पुं० [सं० वादन, वा हिं० बाजा] १. वह जो बजता हो। बजनेवाला बाजा। २. रुपया। (दलाल)।
⋙ बजना † (३)
संज्ञा पुं०, स्त्री० [हिं० बजना + इया (प्रत्य०)] बाजा बजानेवाला। उ०— सेवक सकल बजनियाँ नाना। पूरन किए दान सनमान।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बजनियाँ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बजनियाँ'।
⋙ बजनी (१)
वि० [हि० बजना] बजनेवाला। जो बजता हो। उ०— घुघरू बजनी, रजनी उजियारी।— (शब्द०)।
⋙ बजनी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बजना] लड़ाई। झगड़ा। संघर्ष। उ०— कहै सहेलिन सों हो सजनी। रजनी बीच करत दुख बदनी।— इंद्रा०, पृ० १४७।
⋙ बजनू ‡
वि० [हिं० बजना] बजनेवाला। जो बजता हो।
⋙ बजबजाना †
क्रि० अ० [अनु०] किसी तरल पदार्थ का सड़ने या गंदा होने के कारण बुलबुले छोड़ना।
⋙ बजमार पु †
वि० [हिं० बज्र + मारा] [स्त्री० बजमारी] बज्र से मारा हुआ। जिसपर बज्र पड़ा हो। उ०— (क) दान लेहु देहु जान काहे को कान्ह देत हो गारो। जो कोऊ कह्यो करै रीहठ याही मारग आवै बजमारी।— सूर (शब्द०)। (ख) ये अलि इकंत पाइ पायन परै हैं आय हौं न तंब हेरी या गुमान बजमारे सों।— पद्माकर (शब्द०)। (ग) जा बजमारे अब मैं तो सों भूलि कछू नहि कहिहौं।— अयौध्या० (शब्द०)। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः स्त्रियाँ गाली या शाप के रूप में करती हैं।
⋙ बजरंग (१)पु
वि० [सं० बज्राड़्ग] बज्र के समान दृढ़ शरीरवाला। उ०— सजि बुधुव पायक संग। रन मध्य मह बजरंग।— प० रासो, पृ० १३४।
⋙ बजरंग (२)
संज्ञा पुं० हनुमान।
⋙ बजरंगबली
संज्ञा पुं० [सं० बज्राड़्ग + बली] हनुमान। महावीर।
⋙ बजरंगी
वि० [सं० बज्राड़्गिन्] बज्र की तरह शरीरवाला। उ०— पवननंद परचंड जीत दारुण खल जंगी। अजर अमर अणभंग बजर आयुध बजरंगी।— रघु० रू०, पृ० ३।
⋙ बजरंगी बैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं० बजरंग + बैठक] एक प्रकार की बैठक। कसौरत।
⋙ बजर पु †
संज्ञा पुं० [सं० बज्र, हि० बज्र] दे० 'बज्र'। उ०—(क) गोट गोट सखी सब गेलि बहराय। बजर किवाड़ पहु देलन्हि लगाय।— विद्यापति०, पृ० २०४। (ख) अजर अमर अणभंग बजर आयुध बजरंगी।— रघु० रू०, पृ० ३।
⋙ बजरबट्टू
संज्ञा पुं० [हिं० बज्र + बट्टा] एक वृक्ष के फल का दाना वा बीज जो काले रंग का होता है ओर जिसकी माला लोग बच्चों को नजर से बचाने के लिये पहनाते हैं। उ०— माजूफल शंख रुद्रअक्ष त्यों बजरबट्टू तुलसी की गुलिका सुधारे छवि छाजे हैं।— रघुराज (शब्द०)। विशेष— इसका पेड़ ताड़ की जाति का है और मलाबार में समुद्र के किनारे तथा लंका में उत्पन्न होता है। बंगाल और वरमा में भी इसे लोग बोते ओर लगाते हैं। इसकी पत्तियाँ बहुत बड़ी और तीन साढे़ तीन व्यास की होती हैं और पखे, चटाई, छाते आति बनाने के काम में आती हैं। योरप में इसकी नरम और कोमल पत्तियाँ से अनेक प्रकार के कटावदार फीते बनाए जाते हैं। तथा इसके रेशे से बुरुश बनाए और जालं बुने जाते हैं। इसकी रस्सियाँ भी बटी जा सकती है। इसके फल बहुत कड़े होते हैं ओर योरप में उनसे बटगे, माला के दाने और छोटे छोटे पात्र बनाए जाते हैं। मलाबार में इसके पेड़ों को लोग समुद्र के किनारे बागों में लगाते हैं। यह पेड़ चालीस बयालीस बर्ष तक रहता है और अंत में पुराना होकर गिर पड़ना है। इसे नजरबद्टू और नजरबटा भी कहते हैं।
⋙ बजरबोंग †
संज्ञा पुं० [हिं० बज्र + (अनु०)] १. एक प्रकार का धान जो अगहन महीन में पककर तैयार होता है। इसका चावल बहुत दिनों तक रह सकता है। २. बाँस का मोटा और भारी डंडा।
⋙ बजरहड़्ड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बज्र + हड़्ड़ी] घोड़े का एक रोग जो उसके पैरों की गाँठों में होता है। विशेष— इसमें पहले एक फोड़ा होता है जो पक्कर फूट जाता है और गाँठ की हड़्ड़ी फूल आती है। इससे घोड़ा बेकाम हो जाता है। यह रोग बड़ी कठिनाई से अच्छा होता है।
⋙ बजरा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार की बड़ी और पटी हुई नाव जिसमें नीचे की ओर एक छोटी कोठरी और एक बड़ा कमरा होता है और ऊपर खुली छत होती है। २. दे० 'बाजरा'।
⋙ बजराग, बजरागी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बज्राग्नि] दे० 'बजरागी'। उ०— बिरह बड़ो बजराग, जकि उर ऊपर परे।— नट०, पृ० १०४।
⋙ बजरागी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बज्राग्नि] बज्र की अग्नि। बिजली। उ०— पानी माँझ उठै बजरागी। कहाँ से लौकि बीजु भुइँ लागी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बजरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बजार + इया (प्रत्य०)] दे० 'बाजार'। उ०— मुँसी है कुतवाला ज्ञान को, चहुँ दिस लगी बजरिया।—कबीर० श०, पृ० ५५।
⋙ बजरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बज्र] १. कंकड़ के छटे छोटे टुकडे़ जो गच के ऊपर पीटकर बैठाए जाते हैं और जिनपर सुरखो और चूना डालकर पलस्तर किया जाता है। कंकड़ी। २. ओला। वर्षोपल। बनौरी। ३. छोटा नुमाइशी कँगूरा जो किले आदि की दीवारों के ऊपरी भाग में बराबर थोडे़ थोडे़ अंतर पर बनाया जाता है और जिसकी बगल में गोलियाँ चलाने के लिये कुछ अवकाश रहता है। उ०— है जो मेघगढ़ लाग अकासा। बजरी कटी कोट चहुँ पासा।— जायसी (शब्द०)। ४. दे० 'बाजरा'।
⋙ बजरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बज्रोली] बज्रोली नामक मुद्रा। वि० दे० 'बज्रोली'। उ०— बजरी करंता अमरी राषै अमरि करंता बाई। भोग करता जो व्यंद राखे ते गोरख का गुरभाई।— गोरख०, पृ० ४९।
⋙ बजवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बज्रवाना + ई (प्रत्य०)] वह पुरस्कार जो बाजा आदि बजाने के बदले में दिया जाता है। बजाने की मजदूरी।
⋙ बजवाना
क्रि० स० [हिं० बजाना का प्रे० रूप] बजाने के लिये किसी को प्रेरणा करना। किसी को बजाने मे प्रवृत्त करना। उ०— जहाँ भूप उतरत गतशंका। तहाँ प्रथम बजवावत डंका।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ बजवैया †
वि० [हिं० बजाना + वैया (प्रत्य०)] बजानेवाला। जो बजाता हो। उ०— बंसी हूँ में आप ही सप्त सुरन मे आपु। बजवैया पुनि आपु ही रिझवैया पुनि आपु।— रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बजहा †
वि० [हिं० बजना (लडाई होना)+ हा (प्रत्य०)] झगड़ालू।
⋙ बजहाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बजहा + ई (प्रत्य०)] वादविवाद। झगड़ा। उ०— तुलह न तोली गजह न मापी, पहजन सेर अढ़ाई। अढ़ाई में जे पाव घटे तौ, करकस करे बजहाई।— कबीर ग्रं०, पृ० १५३।
⋙ बजा
वि० [फा०] उचित। वाजिब। जैसे, — आपका फरमाना बिल्कुल बजा है। उ०— शीशा उसी के आगे बजा है कि रुख सेती। प्याले को जब ले हाथ में रश्के परी करे।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० २४। मुहा०—बजा लाना = (१) पूरा करना। पालन करना। जैसे, हुकुम बजा लाना। (२) करना। जैसे, आदाब बजा लाना।
⋙ बजागि, बजागी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बज्र + अग्नि] बज्र की आग। विद्युत्। बिजली। उ०— (क) आगि लगै तेरे काल के शीश परो हर जाय बजागि परौ जू। आजु मिलौ तो मिलौ व्रजराजहि नाहिं तो नीके ह्वै राज करौ जू।—केशव (शब्द०)। (ख) बिरह आगि पर मेलै आगी। बिरह घाव पर घाउ बजागी।—पदमावत, पृ० २८६।
⋙ बजाज
संज्ञा पुं० [अ० बजाज, बज्जाज] [स्त्री० बजाजिन] कपडे़ का व्यापारी। कपड़ा बेचनेवाला। उ०— (क) वैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुवेर ते।— तुलसी (शब्द०)।(ख) अपने गोपाल लाल के मैं बागे रति लेऊँ। बजाजिन ह्वै जाऊँ निरखि नैनन सुख देऊँ।— सूर (शब्द०)।
⋙ बजाजा
संज्ञा पुं० [फा० बज्जाजह्] बजाजों का बाजार। वह स्थान जहाँ बजाजों की दूकानें हों। कपड़े बिकने का स्थान।
⋙ बजाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० बज्जाजी] १. कपड़ा बेचने का व्यापार। बजाज का काम। २. बजाजा की दूकान का सामान। बिक्री के लिये खरीदा हुआ कपड़ा (क्व०)।
⋙ बजाना (१)
क्रि० स० [हिं० बाजा] १. किसी बाजे आदि पर आघात पहुँचाकर अथवा हवा का जोर पहुँचाकर उससे शब्द उत्पन्न करना। जैसे, तबला बजाना, बाँसुरी बजाना, सीटी बजाना, हारमानियम बजाना, आदि। उ०— (क) मुरली बजाई तान गाई मुसकाइ मंद, लटकि लटकि माई नृत्य में निरत है।— पद्माकर (शब्द०)। २. किसी प्रकार के आघात से शब्द उत्पन्न करना। चोट पहुँचाकर आवाज निकालना। जैसे, ताली बजाना। मुहा०—बजाकर = डंका पीटकर। खुल्लम खुल्ला। उ०— (क) सुदिन सीधि सब सजाई। देउ भरत कह राज बजाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) सूरदास प्रभू के अधिकारी एही भए बजाइ।—सूर (शब्द०)। ठोकना बजाना = अच्छी प्रकार परीक्षा करना। देख भालकर भली भाँति जाँचना। विशेष— यह मुहाविरा मिट्टी के बरतन के ठोकने बजाने से लिया गया है। जब लोग मिट्टी के बरतन लेते हैं तब हाथ में लेकर ठोंककर और बजाकर उसके शब्द से फूटे टूटे या साबित होने का पता लगाते हैं। ३. किसी चीज से मारना। आघात पहुँचाना। चलाना। जैसे, लाठी बजाना, तलवार बजाना, गोली बजाना। उ०— हरी भूमि गहि लेइ दुवन सिर खड़ग बजावै। पर उपकारज करै पुरुष में शोभा पावै।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ बजाना (२)
क्रि० स० [फा० बजा + हिं० ना (प्रत्य०)] पुरा करना। जैसे, हुकुम बजाना।
⋙ बजाय
अव्य० [फा०] स्थान पर। जगह पर। बदले में। जैसे,— अगर आपके बजाय मैं वहाँपर होता तो कभी यह बात न होने पाती।
⋙ बजार पु †
संज्ञा पुं० [फा० बाजार] वह स्थान जहाँ बिक्री के लिये दुकानों में पदार्थ रखे हों। हाट। पैंठ। बाजार। उ०— (क) हीरा परा बजार में रहा छार लपटाय। बहुतक मूरख चलि गए पारिख लिया उठाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) छूटे दृग गज मीत के बिच यह प्रेम बजार। दीजै नैन दुकान के मुहकम परक केवार।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बजारी
वि० [हिं० बजार + ई (प्रत्य०)] १. बाजार से संबंध रखनेवाला। बजारू। २. साधारण। सामान्य। उ०— कीर्ति बड़ी करतूति बड़ी जन बात बड़ी सो बड़ोई बजारी।—तुलसी (शब्द०)। ३. दे० 'बजारी'।
⋙ बजारु, बजारू
वि० [हिं० बजार + ऊ० (प्रत्य०)] दे० 'बजारू'।
⋙ बजावनहार †
वि० [हिं० बजाना + हार (प्रत्य०)] बजानेवाला। बजवैया। उ०— यंत्र बजावत हौ सुना टूटि गए सब तार। यंत्र विचारा क्या करै गया बजावनहार।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बजुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाजू'।
⋙ बजुज
अव्य० [फा० बजुज] सिबा। अतिरिक्त। जैसे,—बजुज आपके और कोई वहाँ न जा सकेगा।
⋙ बजुल्ला
संज्ञा पुं० [फा० बाजू + उल्ला (प्रत्य०)] बाँह पर पहनने का बिजायठ नाम का आभूषण।
⋙ बजूखा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिजूखा'।
⋙ बज्जना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बजना'।
⋙ बज्जर पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बज्र'। उ०— तेहि बज्रागि जरै हौं लागा। बज्जर अग जरत उठि भागा।—जायसी ग्रं०, पृ० २५९।
⋙ बज्जात †
वि० [फा० बदजात] दुष्ट। बदमाश। पाजी।
⋙ बज्जाती
संज्ञा स्त्री० [फा० बदजाती] दुष्टता। बदमाशी। पाजीपन।
⋙ बज्रंगी पु
वि० [सं० बज्राङ्गिन्] बज्र के समान अगवाला। उ०— उदित अक दिसि पुब्व पहुँ जगे सेन दोइ जंग। अश्व अप्प बल बड्ढए बल बज्रंगी अंग।—पृ० रा०, २४। १२४।
⋙ बज्र
संज्ञा पुं० [सं० बज्र] दे० 'बज्र'।
⋙ बज्रागि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बज्राग्नि] दे० बजरागि। उ०— परि है बज्रागि ताकै ऊपर अचानचक धूरि उड़ि जाइ कहुँ ठोहर न पाइहै।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५००।
⋙ बज्री
संज्ञा पुं० [सं० बज्रिन्] इंद्र।
⋙ बझना पु †
क्रि० अ० [सं० बद्ध, प्रा० बज्झ + हिं० ना (प्रत्य०)] १. बंधन में पड़ना। बँधना। उ०— जीव परयो या ख्याल मे अरु गए दसा दस। बझे जाय खगवृंद ज्यों प्रिय छबि लटकनि लस।—सूर (शब्द०)। (ख) सुने नाना पुरान मिटत नहिं अज्ञान पढै़ न समुझै जिमि खग कीर। बझत बिनहि पास सेमर सुमन आस करत चरत तेऊ फल बिनु ही।—तुलसी (शब्द०)। २. अटकना। उलझना। फैसना। जैसे, काम में बझना। ३. हठ करना। टेक करना। उ०— उपरोहित निमिवंश को शतानंद मुनिराय। लियो नेग बझि राम सो, सम हिय वसो सदाय।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बझवट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँझ + वट (प्रत्य०)] १. बाँझ स्त्री। २. गाय, भैंस या कोई मादा पशु जो बाँझ हो। ३. अन्न के पौधों के डठल जिनसे वालें तोड़ ली गई हों।
⋙ बझाउ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बझना] दे० 'बझाव'।
⋙ बझान
संज्ञा स्त्री० [हिं० बझना] बझने की क्रिया या भाव। बझाव।
⋙ बझाना पु ‡
क्रि० स० [हिं० बझना का सकर्मक रूप] बंधन में लाना। उलझाना। फँसाना। उ०— (क) नाथ सों कौन विनती कहि सुनावौं। नाम लगि लाय लासा ललित बचन कहि व्याध ज्यों विषय विहंगन बझावों।— तुलसी (शब्द०)। (ख) जनु अति नील अलकिया बंसी लाय। यो मन बार बधुअवा मीन बझाय।—रहीम (शब्द०)।
⋙ बझाव
संज्ञा पुं० [हिं० बझाना] १. बझने का भाव। फँसने की क्रिया या भाव। २. उलझाव। अटकाव। उ०— काँट कुरोय लपेटनि लोटनि ठाँवहि ठाँव बझाव रे। जस जस चलिप दूरि तस निज बास न भेट लगाव रे।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बझावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बझना + आवट (प्रत्य०)] १. बझने की क्रिया या भाव। २. उलझाव। अटकाव।
⋙ बझावना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बझाना'। उ०— रूप प्रवाह नदी तट खेलत मैन सिकारी बझावत मीन है।— प्रवीन (शब्द०)।
⋙ बट (१)
संज्ञा पुं० [सं० वट] १. दे० 'वट' (वृक्ष)। उ०— बठ पीपर पाकरी रसाला।—मानस, ७। ५६। २. बड़ा नाम का पकवान। बरा। उ०— तिमि बतासफेनी बासौंधी। बिबिध बटी टट माँड़ी ओधी।— रघुराज (शब्द०)। (ख) पायस चद्र किरन सम सोहै। चंद्राकार बिविध बट जोहै।—रघुराज (शब्द०)। ३. गोला। गोल। वस्तु। उ०— नट बट तेरे दृगन को कौन सकत है पाय।— रसनिधि (शब्द०)। ४. बट्टा। लोढ़िया। ५. बाट। बटखरा। ६. बखरा। हिस्सा। बाँट।
⋙ बट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्त] रस्सी की ऐठन। बटाई। बल।
⋙ बट (३)
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्म, प्रा० वट्ट, हिं० बाट] मार्ग। रास्ता। उ०— छूटी घुँघरारी लट, लूटी हैं बधूटी बट, टूटी चट लाज तें न जूटी परी कहरै।—दीनदयाल (शब्द०)।
⋙ बटई
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्त्तक] बटेर नाम की चिड़िया। उ०— तीतर बटई लवा न बाँची। सारस गूँज पुछार जो नाची—जायसी (शब्द०)।
⋙ बटखर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटखरा'।
⋙ बटखरा
संज्ञा पुं० [सं० वटक] नियत गुरुत्व का पत्थर, लोहे आदि का टुकड़ा जो वस्तुओं को तौल निश्चित करने कें का आता है। तौलने का मान। बाट। जैसे, सेर भर का बटख उ०— ज्ञान बटखरा चढ़ाइ कै पूरा करु भाई।—कहै श०, भा० ३, मृ० ९१।
⋙ बटन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटना] रस्सी आदि बटने या ऐंट का क्रिया या भाव। ऐठन। बल। बट।
⋙ बटन (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. चिपटे आकार की कड़ी गोल घुंडी जो कुरते, कोट, अगे आदि में टँकी रहती है और जिसे छेद में डाल देने से खुली जगह बंद हो जाती है और कपड़ा बदन को पूरी तरह ढँक लेता है। बुताम। २. एक प्रकार का बादले का तार। ३. बिजली, मशीन, आदि का स्विच या घुंडी।
⋙ बटनरोज
संज्ञा पुं० [अं०] गुलाब की जाति का एक छोटा फूल जो कोट के बटन के आकार का होता है। उ०— बटनरोज बहु लाल, ताम्र, माखनी रंग के कोमल।—ग्राम्या, पृ० ७६।
⋙ बटना (१)
क्रि० स० [सं० यट(=बटना)] कई तंतुओं, तागों या तारो को एक साथ मिलाकर इस प्रकार ऐठना या घुमाना कि वे सव मिलकर एक हो जाँय। ऐंठन देकर मिलाना। जैसे, तागा बटना। रस्सी बटना। उ०— तेकर बट के भाँज भाँज के बरतै रसरा।—पलटू० बानी, पृ० ९२। २. उमेठना। ऐंठना। उ०— सुन देख हुई विभोर मैं, बटती थी परिधान छोर मैं।—साकेत, पृ० ३५७। सयो० क्रि० —देना।—डालना।—लेना।
⋙ बटना (२)
संज्ञा पुं० रस्सी बटने का औजार।
⋙ बटना (३)
क्रिया अ० [हिं० बट्टा(=पीसने का पत्थर)] १. सिल पर रखकर पीसा जाना। पिसना। उ०— हिकमत जो जानो चहौ सीखौ याके पास। बटै कुटै न तनै तऊ केसर रंग सुवास।— रसनिधि (शब्द०)। २. बहक जाना। बँट जाना। ३. खत्म होना। चुक जाना। खलास होना। संयो क्रि०—जाना।
⋙ बटना (४)
संज्ञा पुं० [सं० उद्वर्तम, प्रा० उव्वटन] उबटन। सरसो, चिरौंजी आदि का का लेप जो शरीर की मैल छुड़ाने के लिये मला जाता है।
⋙ बटपरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटपार'। उ०— (क) चित वित वचन न हरत हठि लालन दृग बरजोर। सावधान के बटपरा वे जागत के चोर।—बिहारी (शब्द०)। (ख) नेह नगर मैं कहु तुहीं कौन बसै सुख चैन। मनधन लुटत सहज मैं लाल बटपरा नैन।—स० सप्तक, पृ० १९१।
⋙ बटपार
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + पड़ना] [स्त्री० बटपारिन] राह, बाट में डाका डालनेवाला। डाकू। लुटेरा। उ०— छबि मुकता लूटन बगे आय जरा बटपार। बैठि बिसूरैं सहर के बासी कर कटतार।— रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बटपारा
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + पड़ना] दे० 'बटपार'। उ०—(क) मैं एक अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बिच बिच नदी खोह और नारा। ठाँवहिं ठाँवँ बैठ बटपारा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बटपारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटपार] बटपार का काम। डकैती। ठगी। लूट।
⋙ बटपारी † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटपार'।
⋙ बटम
संज्ञा पुं० [देश०] पत्थर गढ़नेवाले का एक औजार जिससे कोना साधते हैं। कोनिया।
⋙ बटमार
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + मारना] मार्ग में मारकर छीन लेनेवाला। ठग। डाकू। लुटेरा।
⋙ बटमारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटमार + ई (प्रत्य०)] दे० 'बटपारी'। उ०— एकहि नगर बसु माधव हे जनु कर बटमारी।— विद्यापति, पृ० २६२।
⋙ बटला
संज्ञा पुं० [सं० वर्तुल, प्रा० वट्टुल] चावल, दाल आदि पकाने का चौडे़ मुँह का गोल बरतन। बड़ी बटलोई। देग। देगचा। उ०— तँबिया कलसा कूँड़ि ततहरा बटली बटला। टुकार और परात डिवा पीतर के चकला।—सूदन (शब्द०)।
⋙ बटली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटला] बटलोई।
⋙ बटलोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटला] दाल, चावल आदि पकाने का चौडे़ मुँह का गोल बरतन। देग। देगची। पतीली।
⋙ बटवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० बटुवा] दे० 'बटुवा'। उ०— झोली पत्र विभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै। माँगि न खाइ न भूखा सोवै घर अंगना फिरि आवै।— कबीर ग्रं०, पृ० १५८।
⋙ बटवाना
क्रि० स० [हिं० बाँट] दे० 'बँटवाना'।
⋙ बटवायक
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + पायक] रास्ते में पहला देनेवाला। चौकीदार। (पुराना)।
⋙ बटवार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + सं० पाल, या हिं० वार, वाला] १. राह बाट की चौकसी रखनेवाला कर्मचारी। पहरेदार। २. रास्ते का कर उगाहनेवाला।
⋙ बटवार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बटपार] बटपार। बटमार। उ०— इश्क प्रेम पथ बड़ कठिनाई। ठग बटवार लगै बहु भाई।—संत० दरिया, पृ० ३३।
⋙ बटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वटक] [स्त्री० अल्पा० बटिया] १. गोल। वर्तुलाकार वस्तु। २. गेंद। कंदुक। उ०— (क) झटकि चढ़ति उतरति अटा नेकु न थाकति देह। भई रहति नट को बटा अटकी नागरि नेह।— बिहारी (शब्द०)। (ख) लै चौगान बटा कर आगे प्रभु आए जब बाहर।— सूर (शब्द०)। ३. ढोंका। रोड़ा। ढेला। उ०—तैं बटपार बठा करयो बाट को बाट में प्यारे की बाट बिलोकी।—देव (शब्द०)। ४. बटाऊ। वटोही। पथिक। राही। उ०— लै नग मोर समुद भा बटा। गाढ़ परै तौ लै परगटा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बटा (२)
वि० [हिं० बँटना] विभक्त। बटा हुआ।
⋙ बटा (३)
संज्ञा पुं० विभाग सूचित करनेवाला शब्द। अंशद्योतक शब्द और चिह्नविशेष। (विशेषतः गणित में प्रयुक्त)। जैसे, चार बटे पाँच ४/५ का अर्थ है किसी वस्तु के पाँच बराबर भाग में बाँटने पर चार भाग या अंश। उ०— पूरा कब है जब लगा बठा। रुपया न रहा तो आने क्या?— आरा धना, पृ० ३०।
⋙ बटाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटना] १. बटने या ऐंठन डालने का काम। बटने की मजदूरी।
⋙ बटाई † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँटना] दूसरे को खेत देने का एक प्रकार जिसमें मालिक को उपज का कुछ अंश मिलता है। दे० 'बँटाई'। उ०— सारे खेत बटाई पर लगे हुए थे।—रति०, पृ० ३१।
⋙ बटाऊ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० वाट(=रास्ता) + आऊ (प्रत्य०)] बात चलनेवाला। बटोही। पथिक। मुसाफिर। राही। उ०— (क) राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बीर बठाऊ पंथी हो तुम कौन देस तें आए। यह पाती हमरी लै दीजै जहाँ साँवरे छाप।—सूर (शब्द०)। मुहा०— बटाऊ होना = राही होना। चलता होना। चल देना। उ०— भए बटाउ नेह तजि बाद बकति बेकाज। अब अलि देत उराहनो इर इपजति अति लाज।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बटाऊ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बाँटना] बँटानेवाला। भाग लेनेवाला। हिस्सा लेनेवाला।
⋙ बटाक पु ‡
वि० [हिं० बड़ाक] बड़ा। ऊँचा। उ०—कौन बड़ी बात त्रयी ताप के हरनहार राम के कटाक्ष ते बटाक पद पायो है।— हनुमान (शब्द०)।
⋙ बटाना ‡
क्रि० अ० [पू० हिं० पटाना(=बंद होना)] बंद हो जाना। जारी न रहना। उ०— सात दिवस जल बरषि बटान्यो आवत चल्यो ब्रजहि अत्रावत।— सूर (शब्द०)।
⋙ बटालना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'विटारना'।
⋙ बटालियन
संज्ञा स्त्री० [अं०] पैदल सेना का एक दल जिसमें १००० जवान होते हैं।
⋙ बटाली
संज्ञा स्त्री० [लश०] बढ़इयों का एक औजार। रुखानी।
⋙ बटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वटिका] दे० 'बटी (१)'।
⋙ बटिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटा(=गोला)] १. छोटा गोला। गोल मटोल टुकड़ा। जैसे, शालग्राम की बटिया। २. कोई वस्तु सिल पर रखकर रगड़ने या पीसने के लिये पत्थर का लंबोतरा गोल टुकड़ा। छोटा बट्टा। लोढ़िया।
⋙ बटिया † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० वाट का अल्पा०] पगडंडी। पतला रास्ता। उ०— (क) बटिया न चलत उबट देत पाँय तजि अमृत विष ही फल खाय।— गुलाल०, पृ० २०। (ख) सिर- धरे कलेऊ की रोटी ले कर में मट्ठा की मटकी। घर से जंगल की ओर चली होगी बटिया पर पग धरती।— मिट्टी०, पृ० ४४।
⋙ बटिया† (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँट + इया (प्रत्य०)] दे० 'बँटाई'।
⋙ बटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बटी] १. गोली। २. बड़ी नाम का पकवान। उ०— ओदन दुदल बटी बट व्यंजन पय पकवान अपारा।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ बटी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाटी] वाटिका। उपवन। बगीचा। उ०— सूर्पनखा नाक कटी रामपद चिह्न पटी सोहै बैकुंठ की बटी सी वंचवटी है।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बटु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वटु'। उ०— (क) मुनि वटु चारि संग तव दीन्हे।—मानस, २। १०९। (ख) धरि बटु रूप देखु तैं जाई।— मानस, ४। १।
⋙ बटुआ (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटुवा'। उ०— सिंगी सेल्ही भभृत और बटुआ साई स्वाँग से न्यारा हो।—कबीर० श०, पृ० १६।
⋙ बटुआ (२)
वि० [हिं० बटना] बटा हुआ। जैसे,—बटुआ सूत, बटुआ रस्सा।
⋙ बटुआ (३)
वि० [हिं० बाँटना] सिल आदि पर पीसा हुआ। उ०— कटुआ बटुआ मिला सुवासू। सीका अनवन भाँति गरासू।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बटुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वटुक'। उ०— हा ! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोधभरी और रानी ने करुणा-भरी दृष्टि से जो मेरी ओर देखा था वह अबतक नहीं भूलती।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९४। २. बदमाश व्यक्ति (को०)।
⋙ बटुकभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] भैरव का एक स्वरूप।
⋙ बटुरना †
क्रि० अ० [सं० वर्तुल, प्रा० बट्टुल, बट्टुड + हिं० ना (प्रत्य०)] १. सिमटना। फैला हुआ न रहना। सरककर थोडे़ स्थान में होना। २. इकट्ठा होना। एकत्र होना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ बटुरा †
संज्ञा पुं० [देशज] दे० 'बटुरी'। उ०— मूँग मौठ बटुरा बहु ल्यावहु। राजमाष औ माष मँगावहु।— प० रासो, पृ० १७।
⋙ बटुरी
संज्ञा स्त्री० [देशज] एक कदन्न। खेसारी। मोट।
⋙ बटुला †
संज्ञा पुं० [सं० वर्तुल, प्रा० बट्टुल ] [स्त्री० बटुली] चावल दाल पकाने का चौडे़ मुँह का बरतन। बड़ी बटलोई।
⋙ बटुवा
संज्ञा पुं० [सं० वर्तुल] १. एक प्रकार की गोली थैली जिसके भीतर कई खाने होते हैं। विशेष— यह कपडे या चमडे़ की होती है और इसके मुँह पर डोरे पिरोए रहते हैं जिन्हें खींचने से मुह खुलता और बंद हो जाता है। इसे यात्रा में प्रायः साथ रखते हैं। क्योंकि इसके भीतर बहुत सी फुटकर चीजें (पान का सामान, मसाला आदि आ जाती है। २. बड़ी बटलोई या देग। ३. दे० 'बटुआ'।
⋙ बटेर
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्त्तक, प्रा० बट्टा] तीतर या लावा की तरह की एक छोटी चिड़िया। विशेष— इसका रंग तीतर का सा होता है पर यह उससे छोटी होती है। इसका माँस बहुत पुष्ट समझा जाता है इससे लोग इसका शिकार करते हैं। लड़ाने के लिये शौकीन लोग इसे पालते भी हैं। यह चिड़िया हिंदुस्तान से लेकर अफगाणिस्तान, फारस और अरब तक पाई जाती है। ऋतु के अनुसार यह स्थान भी बदलती बै और प्रायः झुंड में पाई जाती है। यह धूप में रहना नहीं पसदं नहीं करती, छाया ढूढ़ती है। मुहा०—बटेर का जगाना = रात को बटेर के कान में आवाज देना। (बटेरबाज)। बटेर का बह जाना = दाना न मिलने के कारण बटेर का दुबला हो जाना। बटेरों की पाली = बटोरों की लड़ाई। उ०— परसों तो नवाब साहब के यहाँ बटेरों की पाली है, महीनों से बटेर तैयार किए हैं। दो दो पंजे तो कसा लें।— फिसाना०, भा० १, पृ० ३।
⋙ बटेरबाज
संज्ञा पुं० [हिं० बटेर + फा० बाज] बटेर पालने या लड़ानेवाल।
⋙ बटेरबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटेर + फा० बाजी] बटेर पालने या लड़ाने का काम।
⋙ बटेरा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बटा] कटोरा।
⋙ बटेरा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटेर] तीतर पक्षी। उ०— गेहूँ में एक बटेरा, कर उठता है विट विट वी।— दीप०, पृ० १२७।
⋙ बटोई †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बटोही'।
⋙ बटोर
संज्ञा पुं० [हिं० बटोरना] बहुत से आदमियों का इकट्ठा होना। जमावड़ा। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. वस्तुओं का ढेर जो इधर उधर से बटोरकर या इकट्ठा करके लगाया गया हो। ३. कूडे़ करकट का ढेर। (पालकी के कहार)।
⋙ बटोरन
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटोरना] वस्तुओं का ढेर जो इधर उधर से झाड़ बटोरकर लगाया गया हो। २. कूडे करकट का ढेर। ३. खेत में पड़ा हुआ अन्न का दाना जो बटोरकर इकट्ठा किया जाय।
⋙ बटोरना
क्रि० स० [हिं० बटुरना] १. फैली या बिखरी हुई वस्तुओं समेटकर एक स्थान पर करना। जैसे, गिरे हुए दाने बटोरना, कूड़ा बटोरना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. दूर तक गई वस्तुओं को समेटकर थोडे़ स्थान में करना। समेटना। फैला न रहने देना। जैस,— अपनी चद्दर बटोर लो। ३. इधर उदर पड़ी चीजों को बिन बिनकर इकट्ठा करना। चुनकर एकत्र करना। जैसे, सड़क पर दाने बटोरना। ४. इकट्ठा करना। एकत्र करना। जुटाना। जैसे, रुपया बटोरना, पंचायत के लिये आदमी बटोरना।
⋙ बटोहिया ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बटोही= इया (प्रत्य०)] दे० 'बटोही'। उ०— बट रे बटोहिया कि तुहु मोरा भाई, हमरो समाद नैहर लेने जाउ।—विद्यापति, पृ० ३९४।
⋙ बटोही
संज्ञा पुं० [हिं० बट + वाह (प्रत्य०)] रास्ता चलनेवाला। पथिक। राही। सुसाफिर—उ० (क) ए पथ देखल कहँ बूढ़ बटोही।—विद्यापति , पृ० ५१४। (ख) लिए चोरि चित राम बटोही।— मानस, २। १२३।
⋙ बट्ट ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बटा] १. बटा। गोला। २. गेंद। उ०— प्रेम रंग लट्टपट्ट आवै जाँय झट्टपटट् देव वृंद देखे परै मानो नट्ट बट्ट हैं।—रघुराज (शब्द०)। ३. ऐंठन। मरोड़। बटाई। ४. बल। शिकन। ५. बाट। वटखरा।
⋙ बट्टलोहक
संज्ञा पुं० [सं०] दमिश्क का जौहरदार फौलाद। दमिश्क का सा पानीदार या जड़ाऊ फौलाद (को०)।
⋙ बट्ट पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्म, प्रा० बट्ट, बट्ट] बाट। रास्ता। उ०— तब प्रथिराज विचार कार चष आरोह्यो पट्ट। बहुरि कोइ भर भोरही धरत परै इह बट्ट।— पृ० रा०, ५। ५५।
⋙ बट्टन
संज्ञा पुं० [हिं० बटना] बादले से भी पतला तार जो एक तोले में ८०० वा ९०० गज होता है।
⋙ बट्टा
संज्ञा पुं० [सं० वार्त्त, प्रा० वाट्ट (=बनियाई)] १. कमी जो व्यवहार या लैनदेन में किसा वस्तु के मूल्य में हो जाती है। दलाली। दस्तूरी। डिसकाउंट। जैसे,—माल बिक जानेपर बट्टा काटकर आपकी दाम दे दिया जायगा। उ०— बट्टा काटि कसूर भरम को फेरन लै लै डारै।— सूर (शब्द०)। यौ०—ब्याज बट्टा। मुहा०—बट्टा काटना = दस्तूरी आदि निकाल लेना। २. पूरे मूल्य में वह कमी जो किसी सिक्के आदि को बदलने या तुड़ाने में हो। वह घाटा जो सिक्के के बदले में उसी सिक्के की धातु अथवा छोटा या बड़ा सिक्का लेने में सहना पडै़। वह अधिक द्रव्य जो सिक्का भुनाने या उसी सिक्के की धातु लेने में देना पडे़। भाँज। जैसे,— (क) रुपया तुड़ाने में यहाँ एक पैसा बट्टा लगेगा। (ख) आज कल चाँदी लेने में दो आना वट्टा लगेगा। क्रि० प्र०—देना।—लगना।—लेना। ३. खोटे सिक्के धातु आदि के बदलने या बेचने में वह कमी जो उसके पूरे मूल्य में हो जाती है। जैसे,— रुपया खोटा है इसमें दो आना बट्टा लगेगा। मुहा०—बट्टा लगाना = दाग लगाना। कलंक लगना। ऐब हो जाना। त्रुटि या कमर हो जाना। जैसे, इज्जत या नाम में बट्टा लगेना, साख में बट्टा लगना। बट्टा लगाना = कलंक लगाना। ऐव लगना। दूषित करना। बदनाम करना। जैसे, बड़ों के नाम पर बट्टा लगाना। ४. टोटा। घाटा। नुकसान। हानि।
⋙ बट्टा (२)
संज्ञा पुं० [सं० बटक, हिं० बटा(= गोला)] [स्त्री० अल्पा० बट्टी, बटिया] १. पत्थर का गोल टुकड़ा जो किसी वस्तु को कूटने या पीसने के काम में आवे। कूटने या पीसने का पत्थर। लोढ़ा। यौ०—सिलवट्टा। २. पत्थर आदि का गोल टुकड़ा। ३. गोल डिब्बा जिसमें पान या जवाहिरात रखते हैं। ४. कटोरा या प्याला जिसे औंधा रखकर बाजीगर यह दिखाते हैं कि उसमें कोई वस्तु। आ गई या उसमें से कोई वस्तु निकल गई। यौ०—बटट्टेबाज। ५. एक प्रकार की उबाली हुई सुपारी।
⋙ बट्टाखाता
संज्ञा पुं० [हिं० बट्टा + खाता] वह बही या लेखा जिसमें नुकसान लिखा जाय। डूबी हुई रकम का लेखा या वही। मुहा०— बट्टेखाते लिखना = नुकसान के लेखे में डालना। घाटा या नुकसान मान लेना। गया हुआ समझना। जैसे,— अब यह दो रुपए बट्टेखाते लिखिए।
⋙ बट्टाढाल
वि० [हिं० बट्टा + ढालना] इतना चौरस और चिकना कि उसपर कोई गोला लुढ़काया जाय तो लुढ़कता जाय। खूब समतल और चिकना। उ०— यह भी जानना आवश्यक है कि जमीन अर्थात् थल सभी जगह बराबर एक सी वट्टाढाल मैदान। नहीं है, किसी जगह बहुत ऊँची हो गई है।—शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ बट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बट्टा] १. छोटा बट्टा। पत्थर आदि का गोल छोटा टुकडा़। २. कूटने, पीसने का पत्थर। लोढ़िया। ३. समडोल कटा हुआ टुकडा़। बडी़ टिकिया। जैसे,—साबुन की बट्टी, नील की वट्टी। ४. (गुड़ की) भेली।
⋙ बट्टू (१)
संज्ञा पुं० [देशज] १. धारीदार चारखाना। २. ताली। बजरबट्टू। एक प्रकार का ताड़ जो सिंहल में और मलाबार के तट पर होता है।
⋙ बट्टू (२)
संज्ञा पुं० [सं० बर्वट] बजरजट्टू। बोडा़। लोबिया।
⋙ बट्टेबाज
वि० [हिं० बट्टा + फा़० बाज] १. नजरबंद का खेल करनेवाला। जादूगर। २. धूर्त। चालाक।
⋙ बठाना ‡
क्रि० सं० [हिं० बैठाना] दे० 'बैठाना'। उ०—कोसाँ कोस ऊपरि डाकछानै से बठाया।—शिखर०, पृ० १४।
⋙ बठिया †
संज्ञा स्त्री० [देशज] पाथे हुए सूखे कंडों का ढेर। उपलों का ढेर।
⋙ बठ्चना
क्रि० अ० [हिं० बैठना] बैठना। (दलाल)।
⋙ बठूसना
क्रि० अ० [हिं० बैठना] बैठना। (दलाल)।
⋙ बड़ंगा
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + अंग] लंवा बल्ला जो छाजन के बीचोबीच लंबाई के बल आधार रूप में रहता है। बँडे़री।
⋙ बड़ंगी †
संज्ञा पुं० [हिं० बडा + अंग] घोडा़। (डिं०)।
⋙ बड़ंगू
संज्ञा पुं० [देशज] दक्षिण का एक जंगली पेड़। विशेष—यह पेड कोंकन, मलाबार,ञावंकोर आदि की ओर बहुत होता है। इसमें से एक प्रकार का तेल निकलता है।
⋙ बड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० बड़ बड़] बकवाद। प्रलाप। जैसे, पागलों की बड़।
⋙ बड़ † (२)
संज्ञा पुं० [सं० बट] बरगद का पेड़। यौ०—बडकौला। बड़बट्टा।
⋙ बड़ † (३)
वि० [हिं०] दे० 'बडा़'। उ०—को बड छोट कहत अपराधू।—मानस।
⋙ बड़कंधी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बडी + कंधी?] दो तीन हाथ ऊँचा एक प्रकार का पौधा जो प्रायः सारे भारत में पाया जाता है। विशेष—इसकी टहनियों पर सफेद रंग के लंबे रोएँ होते हैं। इसके पौधे में से कडी़ दुर्गंध आती है। इसके तने से एक प्रकार का रेशा निकलता है और जड, पत्तियाँ तथा बीज ओषधि रूप में काम में आते हैं।
⋙ बड़का †
वि० [हिं० बड़ + का (प्रत्य०)] [स्त्री० बड़की] दे० 'बडा़'। उ०—ले जाती है मटका बड़का।—कुकुर०, पृ० ३२।
⋙ बड़कुइयाँ
संज्ञा पुं० [देशज] कच्चा कुआँ।
⋙ बड़कौला
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ + कोपल] बरगद का फल।
⋙ बड़गुल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ + बगुला] एक प्रकार का बगला।
⋙ बड़त्तनु पु
संज्ञा पुं० [वै० वृद्धत्वन्] दे० 'बड़प्पन'। उ०—सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहि न सुसंग बडत्तनु पावा।— मानस, १।१०।
⋙ बडदंता
वि० [हिं० बडा + दाँत] बडे़ बडे़ दाँतोंवाला।
⋙ बड़दुमा
संज्ञा पुं० [हिं० बडा़ + फा़० दुम] वह हाथी जिसकी पूँछ की कँगनी पाँव तक हो। लंबी दुम का हाथी।
⋙ बड़प्पन
संज्ञा पुं० [हिं० बडा़ + पन] बडा़ई। श्रेष्ठ या बड़ा होने का भाव। महत्व। गौरव। जैसे,—तुम्हारा बड़प्पन इसी में है कि तुम कुछ मत बोलो। विशेष—वस्तुओं के विस्तार के संबंध में इस शब्द का प्रयोग नहीं होता। इससे केवल पद, मर्यादा, अवस्था आदि की श्रेष्ठता समझी जाती है।
⋙ बड़फन्नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ा + फन्नी] बहुत चौडी़ मठिया।
⋙ बड़बट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० बड + बट्टा] बरगद का फल।
⋙ बड़बड़
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] बकवाद। व्यर्थ का बोलना। फिजूल की बातचीत। प्रलाप। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।—लगाना।
⋙ बड़बड़ाना
क्रि० अ० [अनुध्व० बड़बड़] १. बक बक करना। बकवाद करना। व्यर्थ बोलना। प्रलाप करना। २. डींग हाँकना। शेखी बघारना। ३. कोई बात बुरी लगने पर मुँह में ही कुछ बोलना। खुलकर अपनी अरुचि या क्रोध न प्रकट करके कुछ अस्फुट शब्द मुँह से निकालना। बुड़बुड़ाना। जैसे,—मेरे कहने पर गया तो, पर कुछ बड़बड़ाता हुआ।
⋙ बड़बड़िया
वि० [अनुध्व० बड़बड़] बड़बड़ानेवाला। बकवादी।
⋙ बड़बेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + बेरी] जगली बेर। झड़बेरी। उ०—जो कटहर बड़बेरी। तोहि अस नाही कोका- बेरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बड़बोल
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ा + बोल] १. बहुत बोलनेवाला। अनर्गल प्रलाप करनेवाला। बोलने में उचित अनुचित का ध्यान न रखनेवाला। उ०—का वह पंखि कूट मुँह फोटे। अस बड़बोल जीभ मुख छोटे।—जायसी (शब्द०)। २. वढ़ वढ़कर बोलनेवाला। शेखी हाँकनेवाला। सीटनेवाला।
⋙ बड़बोला
वि० [हिं० बड़ा + बोल] बड़ी बड़ी बातें करनेवाला। बढ बढ़कर बातें करनेवाला। लंबी चौडी़ हाँकनेवाला। सीटनेवाला। शेखी बघारनेवाला। उ०—उनका तो ख्याल है कि मैं बड़बोला और काहिल हूँ।—वो दुनियाँ, पृ० १५८।
⋙ बड़भाग
वि० [हिं०] दे० 'बड़भागी'। उ०—अहो अमरवर हो वड़- भाग। मैं मेटयौ जु रावरौ जाग।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१३।
⋙ बड़भागी
वि० [हिं० बड़ा + भागी< सं० भागिन्] [स्त्री० बड़- भागिन, बड़भागिनि] बड़े भाग्यवाला। भाग्यवान्। उ०— अहह तात लछिमन बड़भागी। राम पदारविंद अनुरागी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बड़म †
वि० [हिं०] बड़ा। श्रेष्ठ। उ०—(क) तेजवंत उद्दार बड़म विवहार ग्रंथ भर।—पृ० रा०, १४।७८। (ख) बड़म बिदेह री जी बेल कुशलात पूछी बेस।—रघु० रू०, पृ० ८१।
⋙ बड़रा
वि० [हिं० बड़ा + रा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बड़री] बड़ा। उ०—फेरि चलीं बड़री अँखियान ते छूटि बड़ी बड़ी आँसू की बूँदैं।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ बड़राना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'बर्राना'।
⋙ बड़लाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० राई] राई नाम का पौधा या उसके बीज।
⋙ बड़वा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बडवा] १. घोडी़। उ०—अम्मदान जी नैं फेरि बड़वा भी न दीनाँ।—शिखर०, पृ० ६७। २. अश्विनी रूपधारिणी। सूर्य की पत्नी संज्ञा। ३. अश्विनी नक्षत्र। ४. दासी। ५. नारीविशेष। ६. वासुदेव की एक परिचारिका। ७. एक नदी। ८. वड़वाग्नि।
⋙ बड़वा † (२)
संज्ञा पुं० [देशज] १. एक प्रकार का धान जो भादों के अंत में और कुआर के आरंभ में हो जाता है।
⋙ बड़वाकृत
संज्ञा पुं० [सं० बडवाकृत] वह व्यक्ति जो दासी से विवाह करने के कारण दास बना हो [को०]।
⋙ बड़वाग, बड़वागि
संज्ञा स्त्री० [सं० बड़वाग्नि] दे० 'बड़वाग्नि'। उ०—(क) सोहै फिर सामुद्र मैं ज्वालवती बड़वाग।—रा० रू०, पृ० ३१। (ख) वै ठाढे उमदाहु उत, जल न बुझै बड़वागि। जाही सौं लाग्यौ हियौ ताही कै हिय लागि।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ बड़वाग्नि
संज्ञा पुं० [सं० बड़वाग्नि] समुद्रग्नि। समुद्र के भीतर की आग या ताप। विशेष—भूगर्भ के भीतर जो अग्नि है उसी का ताप कहीं कहीं समुद्र के जल को भी खौलाता है। कालिका पुराण में लिखा है कि काम को भस्म करने के लिये शिव ने जो क्रोधानल उत्पन्न किया था उसे ब्रह्मा ने बडवा या घोडी के रूप में करके समुद्र के हवाले कर दिया जिसमें लोक की रक्षा रहे। पर वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि बड़वाग्नि और्व ऋषि का क्रोधरूपी तेज है जो कल्पांत में फैलकर संसार को भस्म करेगा।
⋙ बड़बानल
संज्ञा पुं० [सं० बडवानल] दे० 'बड़वाग्नि'।
⋙ बड़वानलचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं० बड़वानलचूर्ण] वैद्यक में एक चूर्ण जिसके सेवन से अजीर्ण का नाश और क्षुधा की वृद्धि होती है।
⋙ बड़वानरल रस
संज्ञा पुं० [सं० बड़वानल रस] १. बड़वाग्नि। २. एक रसौषध जो कई धातुओं के भस्म के योग से बनती है। इसका मधु के साथ सेवन करने से मेद रोग जाता रहता है।
⋙ बड़वामुख
संज्ञा पुं० [सं० बडवामुख] १. बड़वाग्नि। २. शिव का मुख। ३. कूर्म के दक्षिण कुक्षि में स्थित एक जनपद। ४. एक विशेष समुद्र। ५. एक रसौषध। विशेष—पारा, गंधक, ताँबा, अभ्रक, सोहागा, कर्कच लवण, जवाखाल, सज्जीखार, सेंधा नमक, सोंठ, अपामार्ग, पलाश, और वरुणक्षार सम भाग लेकर और अम्लवर्ग के रस में बार बार सौंदकर लघुपुट पाक द्वारा तैयार करे। इसके सेवन से ज्वर ओर संग्रहणी रोग दूर होते हैं।
⋙ बड़वार †
वि० [हिं० बड़ + वार] दे० 'बड़ा'। उ०—सकल बरातिन बसन अपारा। रह्यो जौन जस लघु बड़बारा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बड़वारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़वार + ई (प्रत्य०)] १. बड़प्पन। महत्व। २. बड़ाई। प्रशंसा।
⋙ बड़वाल
संज्ञा स्त्री० [देशज] हिमालय के उस पार की तराई की भेडों की एक जाति।
⋙ बड़वासुत
संज्ञा पुं० [सं० बडवासुत] अश्विनीकुमार।
⋙ बड़वाहृत
संज्ञा पुं० [सं० बडवाहृत] स्मृति के अनुसार पंद्रह प्रकार के दासों में से एक। वह जो किसी दासी से विवाह करके दास हुआ हो। बड़वाकृत।
⋙ बड़हंस
संज्ञा पुं० [हिं० बडा़ + हंस] एक राग जो मेघराग का पुत्र माना जाता है। विशेष—कुछ लोग इसे संकर राग मानते हैं जो रुद्राणी, जयंती, मारू, दुर्गा और घनाश्री के मेल से बनता है। कहीं कहीं यह मधुमाधव, शुद्ध हम्मीर और नरनारायण के मेल से बना कहा गया है।
⋙ बड़हंससारंग
संज्ञा पुं० [हिं० बड़हस + सारग] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब स्वर शुद्ध लगते हैं।
⋙ बड़हंसिका
संज्ञा स्त्री० [सं० बडहंसिका] एक रागिनी जो हनुमत् के मत से मेघराग की स्त्री कही गई है।
⋙ बड़हन
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ + धान] एक प्रकार का धान। उ०—कोरहन, बड़हन, जड़हन मिला। औ संसार तिलक खँडबिला।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बड़हर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बड़हल'।
⋙ बडहल
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + फल] एक बडा़ पेड़ और उसका फल। विशेष—यह वृक्ष संयुक्त प्रदेश, पश्चिमी घाट, पूर्व बंगाल और कुमाऊँ की तराई में बहूत होता है। इसके पत्ते छह सात अंगुल लंबे और पाँच छह अंगुल चौडे़ और कर्कश होते हैं। फूल बेसन की पकौडी़ के समान पीले पीले गोल गोल होते हैं। उनमें पंखड़ियाँ नहीं होती। फल पकने पर पीले और छोटे शरीफे के बराबर पर बड़े बेडौल होते हैं। वे गोल गोल उभार के कारण बट्टों से मिलकर बने मालूम होते हैं। खाने में खट- मीठे लगते हैं। पके गूदे का रंग पीलापन लिए लाल होता है। इसके फूल और कच्चे फल अचार और तरकारी के काम आते हैं। वड़हल के हीर की लकड़ी कड़ी और पीली होती है और नाव तथा सजावट के सामान बनाने के काम की होती है। आसाम में इसकी छाल से दाँत साफ करते हैं। वैद्य लोग इसके फल को बहुत बादी मानते हैं।
⋙ बड़हार
संज्ञा पुं० [हिं० वर + आहार] विवाह हो जाने के पीछे वर और बरातियों की ज्योनार।
⋙ बड़ा
वि० [सं० वृद्ध, प्रा० बड्ढ, बड्ढन या बड्र] [स्त्री० बड़ी] १. खूब लंबा चौडा। अधिक विस्तार का। जिसका परिमाण अधिक हो। दीर्घ। विशाल। वृहत्। महान्। जैसे, बड़ा मकान, बड़ा खेत, बड़ा पहाड़, बड़ी नदी, बड़ा घोड़ा, बड़ा डील, बड़ा गोला। मुहा०—दीया बड़ा करना = दीया बुझाना। (बुझना शब्द अमंगलसूचक है इससे उसके स्थान पर बड़ा करना या बढ़ाना बोलते हैं)। बड़ा घर = कैद खाना। कारागार। व्यग। २. अवस्था में अधिक। जिसकी उम्र ज्यादा हो। अधिक वयस् का। जैसे,—दोनों भाइयों में कौन बड़ा है ? बड़ा बेटा। ३. परिमाण, विस्तार या अवस्था का। मान, माप या वयस् का। जैसे,—(क) वह घर कितना बड़ा है ? (ख) वह लड़का कितना बड़ा होगा ? ४. पद, शक्ति, अधिकार, मान मर्यादा, विद्या, बुद्धि आदि में अधिक। गुरु। श्रेष्ठ। बुजुर्ग। जैसे,—(क) बड़े लोगों के सामने नम्र रहना। चाहिए। (ख) बड़े अफसरों के सामने वह कुछ नहीं बोल सकता। (ग) बड़ी अदालत। मुहा०—बड़ा घर = प्रतिष्ठित और धनी घराना। ५. गुण, प्रभाव आदि में अधिक या उत्तम। जिसका असर या नतीजा ज्यादा हो। महत्व का। भारी। जैसे,—(क) अपनी जिंदगी में उन्होंने बड़े बड़े काम किए हैं। (ख) यह बड़ी भारी बात हुई। (ग) साहित्य में उनका बड़ा नाम है। (घ) यह तुमने बड़ा अपराध किया। मुहा०— बड़ा आदमी = (१) धनी मनुष्य। (२) ऊँचे पद या अधिकार का आदमी। प्रसिद्ध मनुष्य। ६. किसी बात में अधिक। वढ़कर। ज्यादा। जैसे, बड़ा कार- खाना, बड़ा बेवकूफ। मुहा०—बड़ी बड़ी बातें करना = डींग हाँकना। शेखी बघारना। विशेष—इस शब्द का प्रयोग विवाद या झगडे में लोग व्यंग से भी बहुत करते हैं। जैसे,—(क) बड़े बोलनेवाले बने हो। (ख) बड़े धन्नासेठ आए हैं। मात्रा या संख्या में अधिक के लिये भी इस शब्द का प्रयोग 'बहुत' के स्थान पर कर देते हैं। जैसे,—वहाँ बड़ी भेंटें इकट्ठी हैं। (ख) उसके पास ब़ड़ा रुपया है।
⋙ बड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० वटक, प्रा० वड़ग, वडअ, हिं० बटा] [स्त्री० अल्पा० बड़ी] १. एक पकवान जो मसाला मिली हुई उर्द की पीठी की गोल चक्राकार टिकियों को घी या तेल में तलकर बनता है। २. एक बरसाती घास जो उत्तरीय भारत के पटपरों में सर्वत्र होती है। इसे सुखाकर घोड़ों और चौपायों को खिलाते हैं।
⋙ बड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ा + ई (प्रत्य०)] १. बड़े होने का आव। परिमाण या विस्तार का आधिक्य। घेरे, डील डौल, फैलाव, वगैरह की ज्यादती। २. पद, मान मर्यादा, वयस्, विद्या, बुद्धि आदि का आधिक्य। इज्जत, दरजा, उम्र वगैरह की ज्यादती। बड़प्पन। श्रेष्ठता। बुजुर्गी। जैसे,—(क)छोटाई बडा़ई का ध्यान रखकर बातचीत करना चाहिए। (ख) अपनी बड़ाई अपने हाथ है। ३. परिमाण या विस्तार घेरा, फैलाव, डील डौल आदि। जैसे, जितना बड़ा कमरा हो उतनी बड़ी चटाई बनाओ। ४. महिमा। प्रशंसा। तारीफ। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—बड़ाई देना = आदर करना। प्रतिष्ठा प्रदान करना। इज्जत बरूशना। उ०—यहि बिधि प्रभु मोहिं दीन बड़ाई।—तुलसी (शब्द०)। बड़ाई मारना = शेखी हाँकना। झूठो तारीफ करना।
⋙ बड़ाकुँवार
संज्ञा पुं० [हिं० बाँस + कुवार] केवड़े के आकार का एक पेड़ जिसके पत्ते किरिच की तरह बहुत लंबे लबे निकले होते हैं।
⋙ बड़ाकुलंजन
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + कुलजन] मोथा कुलंजन। बृहत्कुलंज।
⋙ बड़ादिन
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + दिन] १. वह दिन जिसका मान बड़ा हो। २. पचीस दिसंबर का दिन जो ईमाइयों के त्योहार का दिन है। इस दिन ईसा के जन्म का उत्सव मनाया जाता है।
⋙ बड़ापीलू
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + पीलू] एक प्रकार के रेशम का कीड़ा।
⋙ बड़ाबोल
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + बोल] अहंकार का शब्द। घमंड की बात।
⋙ बड़ारू †
वि० [हिं०] अवस्था आदि में अधिक। वड़ा। दे० 'बडे़रा'।
⋙ बड़ाल पु †
वि० [फा़० बड्डाल] बड़ा। श्रेष्ठ। उ०—बीर बड़ालाँ बरुण रचै बरमाला रंभा।—रघु० रू०, पृ० ४७।
⋙ बड़ासबरा
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + सवरी] वह औजार जिससे कसेरे टाँका लगाते हैं। बरतन मे जोड़ लगाने का औजार।
⋙ बडिस पु
संज्ञा पुं० [सं० बडिश, प्रा० बडिस] बंसी। कटिया। अनेकार्थ०, पृ० ६२।
⋙ बडिश
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बडिशा, बडिशी] १. मछली पकड़ने की कँटिया। बंसी। २. शल्य चिकित्सा का एक औजार (को०)।
⋙ बड़ी (१)
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'बड़ा'।
⋙ बड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वटी, हिं० बड़ा] १. आल्, पेठा आदि मिली हुई पीठी की छोटी छोटी सुखाई हुई टिकीया जीसे तलकर खाते हैं। बरी। कुम्हड़ौरी। २. मांस की बोटी। (डिं०)।
⋙ बडीइलायची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'इलायची'।
⋙ बड़ीकटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + कटाई] बड़ी जाति की भटकठैया। बनभंटा। बड़ी कंटकारी।
⋙ बड़ीगोटी
संज्ञा स्त्री० [देश०?] चौपायों की एक बीमारी।
⋙ बड़ीदाख
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + दाख] बड़ी जाति का अगूर। जिसमें बीच होते हैं जिसे सुखाकर मुनक्का बनाते हैं। दे० 'अंगूर'।
⋙ बड़ीमाता
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + माता] शोतला। चेवक।
⋙ बड़ीमैल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया जो बिलकुल खाकी रंग की होती है।
⋙ बड़ोमौसली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + मौसली] थाली में नक्काशी बनाने के लिये लोहे का एक ठप्पा जिससे तीसी के आगे नक्काशी बनाते हैं।
⋙ बड़ोराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी + राई] एक प्रकार की सरसों जो लाल रंग की होती है। लाही।
⋙ बडूजा पु †
संज्ञा पुं० [सं० बिडौजा] दे० 'बिड़ौजा'।
⋙ बड़ेमोती का फूल
संज्ञा पुं० [हिं०] थाली में नक्काशी करने का लोहे का ठप्पा जिसे ठोंककर तीसी के आगे नक्काशी बनाते हैं।
⋙ बड़ेरर
संज्ञा पुं० [देशज] ववंडर। चक्रवात। वेग से घूमती हुई वायु। उ०—जब चेटकी कुटी नियरायो। तब एक घोर बड़ेरर आयो।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बड़ेरा पु (१)
वि० [हिं० बड़ा + रा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बड़ेरी] १. बड़ा। उ०—छोटे औ बडेरे मेरे पूनऊ अनेरे सब।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७२। २. श्रेष्ठ। बृहत्। महान्। उ०—सबहि कहत हरि कृपा बड़ेरी अब ही परिहि लखाई।—भारतेंदु ग्र०, भा० २, पृ० ५८०। ३. प्रधान। मुख्य। ४. प्रधान पुरुष। मुखिया।
⋙ पड़ेरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० बडभि, प्रा०, बडहिं + रा] [स्त्री० अल्पा० बड़ेरी] १. छाजन में बीच की लकडी़ जो लबाई के बल होती है और जिसपर सारा ठाट होता है। २. कुएँ पर दो खभों के ऊपर ठहराई हुई वह लकडी जिसमें घिरनी लगी रहती है।
⋙ बड़े लाट
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + अं० लार्ड] हिंदुस्तान में अँग्रेजी शासन कालीन साम्राज्य का प्रधान शासक।
⋙ बड़ौंखा
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा + ऊख] एक प्रकार का गन्ना जो बहुत लबा और नरम होता है।
⋙ बड़ौना †
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ापन] बड़ाई। महिमा। प्रशंसा। तारीफ। उ०—सुनि तुम्हार संसार बडौ़ना। योग लीन्ह तन कीन्ह गड़ौना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बड़डपु
वि०[प्रा० बड्ड] दे० 'बड़ा'।
⋙ बड्डा पु
वि० [सं० वर्ध, प्रा० बड्ड चा देशी] [वि० स्त्री० बड्डी] दे० 'बडा' उ०—(क) निपट अटपटो चटपटो ब्रज को प्रेम वियोग। सुरझाए सुरझे नहीं, अरुझे बड्डे लोग।—नंद० ग्रं०, पृ० १६४। (ख) बड्डी रैनि तनक से दिना। क्यों भरिए पिय प्यारे बिना।—नंद० ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ बड्ढना
वि० अ० [सं० वर्धन, प्रा० बड्ढण] दे० 'बढ़ना'। उ०—अरु कहो साहि हम्मीर वैर। किहिं भाँति कंक बड्ढयो सुफेरे।—ह० रासो, पृ० ३।
⋙ बढ़ंती †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बढ़ती'।
⋙ बढ़ (१)
वि० [हिं० बढ़ना] बढ़ा हुआ। अधिक। ज्यादा। यौ०—घटबढ़ = छोटा बड़ा।
⋙ बढ़ (२)
संज्ञा स्त्री० बढ़ती। ज्यादती। यौ०—घटबढ़। विशेष—इस शब्द का प्रयोग अकेले नहीं होता है।
⋙ बढ़ई
संज्ञा पुं० [सं० वर्द्वकि, प्रा० बढ्ढ़इ] काठ को छीलकर और गढ़कर अनेक प्रकार के समान बनानेवाला। लकडी़ का काम करनेवाला।
⋙ बढ़ईगिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ई + फा़ गिर + ई] बढ़ई का पेशा।
⋙ बढ़ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ना + ती(प्रत्य०)] १. तोल या गिनती में अधिकता। मान या संख्या में वृद्धि। मात्रा का आधिक्य। जैसे, अनाज की बढ़ती, रुपए पैसे की बढ़ती। विशेष—विस्तार की वृद्धि के लिये अधिकतर बाढ़' शब्द का प्रयोग होता है। जैसे, पौधे की बाढ़ आदमी की बाढ़, नदी की बाढ़ आदि। २. धन धान्य की वृद्धि। धन संपत्ति आदि का बढ़ना। उन्नति। जैसे,—दाता, तुम्हारी बढ़ती हो। मुहा०—बढ़ती का पहरा = निरंतर उन्नति होना। अनवरत समृद्धि के दिन।
⋙ बढ़दार †
संज्ञा स्त्री० [देशज] टाँकी। पत्थर काटने का औजार।
⋙ बढ़न †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ना] वृद्धि। बाढ़। आधिक्य।
⋙ बढ़ना
क्रि० अ० [सं० वर्द्धन, प्रा० बड्ढन] १. विस्तार या परिमाण में अधिक होना। डील डौल या लंबाई चौड़ाई आदि में ज्यादा होना। वर्धित होना। वृद्धि को प्राप्त होना। जैसे, पौधे का बढ़ना, बच्चे का बढ़ना, दीवार का बढ़ना खेत का बढ़ना, नदी बढ़ना। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—बात बढ़ना = (१) विवाद होना। झगड़ा होना। (२) मामला टेढ़ा होना। २. परिमाण या संख्या में अधिक होना। गिनती या नाप तौल में ज्यादा होना। जैसे, धन धान्य का बढ़ना, रुपए पैसे का बढ़ना, आमदनी बढ़ना, खर्च बढ़ना। संयो० क्रि०—जाना। ३. अधिक व्यापक, प्रबल या तीव्र होना। बल, प्रभाव, गुण आदि में अधिक होना। असर या खासियत वगैरह में ज्यादा होना। जैसे, रोग बढ़ना, पीड़ा बढ़ना। प्रताप बढ़ना, यश बढ़ना, किर्ति बढ़ना, लालच बढ़ना। ४. पद, मर्यादा, अधिकार विद्या बुद्धि, सुख संपत्ति आदि में अधिक होना। दौलत रुतवे या इख्तियार में ज्यादा होना। उन्नति करना। तरक्की करना। जैसे—(क) पहले उन्होंने बीस रुपए की नौकरी की थी, धीरे धीरे इतने बढ़ गए। (ख) आजकल सब देश भारतवर्ष से बढ़े हुए हैं। संयो क्रि०—जाना। मुहा०—बढ़कर चलना = इतराना। घमंड करना। बढ़ बढ़कर बात बनाना = डींग मारना। शेखी बघारना। गुस्ताखी करना। उ०—जरा शेख जी बढ़ बढ़कर बातें न बनाया कीजिए।—फिसाना०, भा०, १, पृ० १०। बढ़कर बोलना या बढ़ बढ़कर बोलना = दे० 'बढ़ बढ़कर बातें बनाना'। यौ०—बढ़ा बढ़ी = बढ़ बढ़कर बातें करना। अपनी सीमा भूलकर कुछ कहना या करना। गुस्ताखी करना। उ०—यह तुम्हारी बढ़ा बढ़ी मैं सहन नहीं कर सकता।अजात०, पृ० २४। ५. किसी स्थान से आगे जाना। स्थान छोड़कर आगे गमन करना। अग्रसर होना। चलना। जैसे,—(क) तुम बढ़ो तब तो पीछे के लोग चलें। (ख) बढ़े आओ, बढ़े आओ। संयो क्रि०—आना—जाना। मुहा०—पतग बढ़ना = पतंग का और ऊँचाई पर जाना। ६. चलने में किसी से आगे निकल जाना। जैसे,—दौड़ने में वह तुमसे बढ़ जायगा। संयो० क्रि०—जाना। ७. कीसी से किसी बात में अधिक हो जाना। जैसे,—पढ़ने में वह तुमसे बढ़ जाएगा। यौ०—बढ़ चढ़कर, या बढ़ा चढ़ा = अधिक उन्नत। विशेषतर। ८. भाव का बढ़ना। खरीदने में ज्यादा मिलना। सस्ता होना। जैसे,—आजकल अनाज बढ़ गया है। संयो० क्रि०—जाना। ९. लाभ होना। मुनाफे में मिलना। जैसे,—कहो, क्या बढ़ा। १०. दुकान आदि का समेटा जाना। बंद होना। जैसे, पुजापा बढ़ना, दुकान बढ़ना। विशेष—'बंद होना' अमंगलसूचक समझकर लोग इस क्रिया का व्यवहार करने लगे हैं। ११. दीपक का निर्वाप्त होना। चिराग का वुझना। उ०—ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कुपूत गति सोय। बारे उजियारी लगै, बढ़े अँधेरो होय।—रहीम (शब्द०)।
⋙ बढ़नी †
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्द्धनी, प्रा० बड्ढनी] १. झाड़ू। बुहारी। कूचा। मार्जनी। २. पेशगी अनाज या रुपया जो खेती या और किसी काम के लिये दिया जाता है।
⋙ बढ़वन पु †
वि० [हिं० बढ़ना] बढ़ानेवाला। उ०—सुनि देसांतरा बिरह विनोद। रसिक जनम मन बढ़वन मोद।—नंद० ग्र०, पृ० १६३।
⋙ बढ़वारि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ + वारि (प्रत्य०)] दे० 'बढ़ती'। उ०—मोहन मोहे मोहनी, भई नेह बढ़वारि।—ब्रज० ग्रं० पृ० ९।
⋙ बढ़ान
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ना] बढ़ने का भाव। वृद्धि। बढ़ती। उ०—शास्त्र की लंबाई की कटान या बढान कला की ऊँचाई निचाई पर निर्भर है।—काव्य०, पृ० ९।
⋙ बढ़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० बढ़ना का सकर्मक अथवा प्रेर०] १.विस्तार या परिमाण में अधिक करना। विस्तृत करना। डीलडौल, आकार या लंवाई चौड़ाई में ज्यादा करना। वर्धित करना। जैसे, दीवार बढ़ाना, मकान बढ़ाना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। मुहा०—बात बढ़ाना = झगड़ा करना। बात बढ़ाकर कहना = अर्त्युक्ति करना। २. परिमाण, संख्या या मात्रा में अधिक करना। गिनती, नाप तौल आदि में ज्यादा करना। जैसे आदमी बढ़ाना, खर्च बढ़ाना, खुराक बढ़ाना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ३. फैलाना। लंबा करना। जैसे, तार बढ़ाना। ४. बल, प्रभाव गुण आदि में अधिक करना। असर या खासियत वगैरह में ज्यादा करना। अधिक व्यापक, प्रबल या तीव्र करना। जैसे दुःख बढ़ाना, क्लेश बढ़ाना, यश बढ़ाना, लालच बढ़ाना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ५. पद, मर्यादा, अधिकार, विद्या, वुद्धि, सुखसंपत्ति आदि में अधिक करना। दौलत या रुतवे वगैरह का ज्यादा करना। उन्नत करना। तरक्की देना। जैसे,—राजा साहब ने उन्हें खूब बढ़ाया। ६. किसी स्थान से आगे ले जाना। आगे गमन कराना। अग्रसर करना। चलाना। जैसे, घोड़ा बढ़ाना, भीड़ बढ़ाना। मुहा०—पतंग बढ़ाना = पतंग और ऊँचे उडा़ना। ७. चलने में किसी से आगे निकाल देना। ८. किसी बात में किसी से अधिक कर देना। ऊँचा या उन्नत कर देना। ९. भाव अधिक कर देना। सस्ता बेचना। जैसे,—बनिए गेहूँ नहीं बढ़ा रहे हैं। १०. विस्तार करना। फैलाना। जैसे, कारबार बढाना। ११. दूकान आदि समेटना। नित्य का व्यवहार समाप्त करना। कार्यालय बंद करना। जैसे, दूकान बढ़ाना, काम बढ़ाना। १२. दीपक निर्वाप्त करना। चिराग बुझाना। उ०—अंग अंग नग जगमगत, दीपसिखा सी देह। दिया बढ़ाए हू रहै बड़ो उजेरो गेह।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बढ़ाना (२)
क्रि० अ० चुकना। समाप्त होना। बाकी न रह जाना। खतम होना। उ०—(क) मेघ सबै जल बरखि बढा़ने विवि गुन गए सिराई। वैसोई गिरिवर ब्रजवासी दूनो हरख बढ़ाई। सूर (शब्द०)। (ख) राम मातु उर लियो लगाई। सो सुख कैसे बरनि बढ़ाई।—रघुराज (शब्द०)। (ग) गिनति न मेरे अघन की गिनती नहीं बढाइ। असरन सरन कहाइ प्रभु मत मोहि सरन छुड़ाइ।—स० सप्तक, पृ० २२६।
⋙ बढ़ाली †
संज्ञा स्त्री० [देश० बड्ढाली] कटारी। कटार।
⋙ बढ़ाव
संज्ञा पुं० [हिं० बढ़ना + आव (प्रत्य०)] बढ़ने की क्रिया या भाव। २. फैलाव। विस्तार। अधिक्य। अधिकता। ज्यादती। ३. उन्नति। वृद्धि। तरक्की।
⋙ बढ़ावन
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ावना] गोबर की टिकिया जो बच्चों की नजर झाड़ने में काम आती है। २. खलिहान में अन्न की राशि पर रखी जानेवाली गोमय की पिडिका जो वृदिधजनक मानी जाती है।
⋙ बढावना †
क्रि० स० [हिं० बडा़व] दे० 'बढा़ना'। उ०—मल मूत्र भरै लहु माँस भरै आप अपना अंस वढा़वता है।— कबीर० रे०, पृ० ३६।
⋙ बढा़वा
संज्ञा पुं० [हिं० बढा़व] १. किसी काम की ओर मन बढा़नेवाली बात। होसला पैदा करनेवाली बात जिसे सुनकर किसी को काम करने की प्रबल इच्छा हो। प्रोत्साहन। उत्तेजना। जैसे—पहले तो लोगों ने बढा़वा देकर उन्हें इस काम में आगे कर दिया, पर पीछे सब किनारे हो गए। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—बढा़वे में आना = उत्साह देने से किसी टेढे़ काम में प्रवृत हो जाना। २. साहस या हिम्मत दिलानेवाली बात। ऐसे शब्द जिनसे कोई कठिन काम करने में प्रवृत हो। जैसे—तुम उनके बढावे में मत आना।
⋙ बढ़िया (१)
वि० [हिं० बढ़ना या देश०] उत्तम। अच्छा। उम्दा।
⋙ बढ़िया (२)
संज्ञा पुं० १.एक प्रकार का कोल्हू। २. एक तौल जो डेढ़ सेर कि होती है। ३. गन्ने, अनाज आदि की फसल का एक रोग जिससे कनखे नहीं नेकलते और दाब बंद हो जाती है।
⋙ बढ़िया (३)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की दाल।
⋙ बढिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाढ + इया (प्रत्य०)] दे० 'बाढ़'।
⋙ बढ़ेल
संज्ञा स्त्री० [देश०] हिमालय पर की एक भेड़ जिससे ऊन निकलता है।
⋙ बढ़ेला
संज्ञा पुं० [सं० वराह] बनेला सूअर। जंगली सूअर।
⋙ बढ़ैया † (१)
वि० [हिं० बढा़ना, बढ़ना] १. बढा़नेवाला। उन्नति करानेवाला। २. बढ़नेवाला।
⋙ बढै़या (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बढ़ई'। उ०—अति सुंदर पालनो गड़ि ल्याव, रे बढै़या।—सूर(शब्द)।
⋙ बढो़तरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाढ़ + उत्तर] १. उत्तरोत्तर वृदि्ध। बढ़ती। २. उन्नति। ३. बढा़या हूआ अंश या भाग।
⋙ बढ्ढाली पु
वि० [देश०] दे० 'बढा़ली'। उ०—उभ्भारै विभ्भार बीर बाहै बढ़्ढाली।—पृ० रा०, ७। १४२।
⋙ बणज †
संज्ञा० पुं० [सं० वाणिज्य] दे० 'बनिज'। उ०—(क) अब के चिट्ठी आई कि तूँ घबरा मत में जरूर आऊँगा और लाहोर में बणज करूँगा।—पिंजरे०, पृ० ६३। (ख) तहैं पोथी पाठ न पूजा अरचा। तँह खेती बणजु नहीं को परचा।—प्राण०, पृ० १८६।
⋙ बणि †
संज्ञा स्त्री० [?] रुई का झाड़। कपास का पेड़।
⋙ बणिक पु
संज्ञा पुं० [सं० बणिक्] दे० 'बणिक्'—२। उ०— शाकबणिक मणिगुण गण जैसे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बणिक्, बणिग्
संज्ञा पुं० [सं०] १.वाणिज्य करनेवाला। व्यापार व्यवसाय करनेवाला। बनियाँ। सौदागर। २. बेचनेवाला। विक्रेता। ३. ज्योतिष में छठा करण। यौ०—बणिक्कटक = व्यापारियों का दल। कारवाँ। बणि- ग्ग्राम = व्यापारियों का समूह या मडल। बणिक्पथ। बणिग्वीथी। बणिग्वृत्ति = व्यापार। बणिक् का काम। बणिक् सार्थ = दे० बणिक्कटक'।
⋙ बणिक्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] बाणिज्य। व्यापार की चीजों की आमदनी रफ्तनी। २. व्यापारी। सौदागर। ३. दूकान (को०)। ४. तुलाराशि (को०)।
⋙ बणिग्बंधु
संज्ञा पुं० [सं० बणिग्वन्धु] नील का पौधा।
⋙ बणिग्वह
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।
⋙ बणिग्वाथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाजार। हाट [को०]।
⋙ बणिज्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बणिक्'।
⋙ बत (१)
अव्य० [सं०] शब्दों पर, विचारों पर जोर देने के लिये प्रयुक्त शब्द। विशेष—संस्कृत में इसका प्रयोग दुःख, पीडा़, दया, कृपा, आह्वान, आनंद, आश्वर्य, प्रतिबंध और सत्यार्थप्रतिपादन में होता है। हिंदी में इसका प्रयोग नहीं मिलता। हिंदी का 'तो' अव्यय इसके स्थान पर कहीं कहीं दो एक अर्थों में प्रयुक्त मिलता है।
⋙ बत (२)
अव्य० [हिं०] कि। पर।
⋙ बत (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० 'बात' का संक्षिप्त रूप] बात। वार्ता। विशेष—इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों में ही होता है। जैसे, बतकही,बतबढा़व, बतरस।
⋙ बत (४)
संज्ञा स्त्री० [अ०] बतख।
⋙ बतक
संज्ञा स्त्री० [अ बतख] दे० 'बतख'।
⋙ बतकहा †
वि० [हिं० बात + कहना] [वि० स्त्री० बतकही] बातें करनेवाला। बड़बड़िया। उ०—रूपवादी बहुत कुछ उस बतकहे की तरह हैं।—इति०, पृ० १८।
⋙ बतकहाव
संज्ञा पुं० [हिं० बात + कहाव] १. बातचीत। २. कहासुनी। विवाद। बातों का झगडा़।
⋙ बतकही
संज्ञा स्त्री० [हिं० बात + कही] बातचीत। वार्तालाप। उ०—(क)करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लुभान। मुखसरोज मकरंद छवि करत मधुप इव पान।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मतहु हर डर युगल मारध्वज के मकर लागि स्रवननि करत मेरु की बतकही।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४०८।
⋙ बतख
संज्ञा स्त्री० [अ बत] हंस की जाति की पानी की एक चिड़िया। विशेष—इसका रंग सफेद, पजे झिल्लीदार और चोंच आगे की और चिपटी होती है। चोंच ओर पजे का रंग पीलापन लिए हुए लाल होता है। यह चिड़िया पानी में तैरती है और जमीन पर भी अच्छी तरह चलती है। इसका डीलडौल भारी होता है, इससे यह न तेज दौड़ सकती है, न उड़ सकती है। तालों और जलाशयों में यह मछली आदि पकडकर खाती है। शहरों में भी इसे लोग पालते हैं। वहाँ नालियों के कीडे़ आदि चुगती यह प्रायः दिखाई पड़ती है।
⋙ बतचल
वि० [हिं० बात + चलाना] बकवादी। बक्की। उ०—जानी जात सूर हम इनकी बतचल चंचल लोल।—सूर (शब्द)।
⋙ बतछुट †
वि० [हिं० बात + छूटना] १. बकवादी। अपने को सगझकर बोलनेवाला। २. अविश्वसनीय। विश्वास के अयोग्य।
⋙ बतबढा़व
संज्ञा पुं० [हिं० बात + बढा़व] बात का विस्तार। व्यर्थ बात बढा़ना। झगडा़ बढा़ना। विवाद। उ०—अब जनि बतबढा़व खल करई। सुनि मम बचन मान परिहरई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बत्तर पु
वि० [अ० बद + तर] दे० 'बदतर'।
⋙ बतरस
संज्ञा पुं० [सं० वार्ता + रस, हिं० बात + रस] बातचीत का आनंद। बातों का मजा। उ०—(क) बतरस लालच लाल की बसी वरी लुकाइ। सोंह करै भौंहन हसैं दैन कहे नठि जाइ।—बिहारा र०, दो० ४७२। (ख) कनरस बतरस और सबै रस झुँठहि मूड़ डोलै है।—रै० बानी, पृ० ७०।
⋙ बतरान †
संज्ञा स्त्री [हिं० बतराना] बातचीत।
⋙ बतराना (१)
क्रि० अ० [हिं० बात + आना (प्रत्य०)] बातचीत करना। उ०—छिनक छबीले लाल वह जो लगि नहिं बतराय। ऊख महूख पियूख की तौ लगि भूख न जाय।— बिहारी (शब्द)।
⋙ बतराना पु (२)
क्रि० स० बतलाना। बताना।
⋙ बतरावना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बतराना'। उ०—सुरति न टरै बतरावत सबसे।—धर्म० श०, पृ० ७४।
⋙ बतरौहाँ पु †
वि० [हिं० बात, बतर + औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० अतरौहीं] बातचीत की ओर प्रवृत्त। वार्तालाप का इच्छुक।
⋙ बतलाना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बताना'।
⋙ बतलाना † (२)
क्रि० अ० बातचीत करना।
⋙ बतवन्हा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की नाव। इस नाव में लोहे के काँटे नहीं लगाए जाते। यह केवल बेंत से बाँधी जाती है। यह नाव चटगाँव की ओर चलाई जाती है।
⋙ बताऊ †
संज्ञा पुं० [सं वार्ताक, वृन्ताक, गुज० वंताक] वैगन। भंटा।
⋙ बताना (१)
क्रि० स० [हिं बात + ना (प्रत्य०) या सं० वदन (= कहना)] १. कहना। कहकर जानकार करना। जानकारी कराना। अभिज्ञ करना। जताना। कथन द्वारा सूचित करना। जैसे,—(क) रखी हुई वस्तु बताना, भेद बताना, युक्ति बताना, कोई बात बताना। (ख) बताओ तो मेरे हाथ में क्या है। संयो० क्रि०—देना। २. किसी की बुद्धि में लाना। समझाना। बुझाना। हृदयंगम कराना। जैसे,अर्थ बताना, हिसाब बताना, अक्षर बताना।संयो०क्रि०—देना। ३. किसी प्रकार सूचित कराना। जताना। निर्देश करना। दिखाना। प्रदर्शित करना। जैसे,—(क)उँगली से बताना, हाथ उठाकर रास्ता बताना। (ख) सुखा नाला यह बता रहा है कि पानी इधर नहीं बरसा है। संयो० क्रि०—देना। ४. कोई काम करने के लिये कहना। किसी कार्य सें नियुक्त करना। कोई कार्य निर्दिष्ट करना। कोई काम धंधा निकालना। जैसे,—मुझे भी कोई काम बताओ, आजकल खाली बैठा हूँ। ५. नाचने गाने में हाथ उठाकर भाव प्रकट करना। भाव बताना। उ०—कभी नाचना और गाना कभी। रिझाना कभी और बताना कभी।—मीर हसन(शब्द)। ६. दंड देकर ठीक रास्ते पर लाना। ठीक करना। मार पीटकर दुरुस्त करना। जैसे,—बडी़ नटखटी कर रहे हो आता हूँ तो बताता हूँ। उ०—कोई बराबर का मर्द होता तो इस वक्त बता देता।—सेर०, पृ० १४। मुहा०—अब बताओ = (१) अब कहो, क्या करोगे ? अब क्या उपाय है ? जैसे,—पानी तो आ गया, अब बताओ ? (२) अब तो मेरे वश में हो, अब क्या कर सकते हो ? अब तो फँस गए हो, अब क्या कर सकते हो ? जैसे,—वहाँ तो बहुत बढ़ बढ़कर बोलते थे, अब बताओ।
⋙ बताना (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्तक(= एक धातु)] हाथ का कड़ा। कडे़ का ढाँचा।
⋙ बताना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बरतना] फटी पुरानी बगडी़ जो नीचे रहती है और जिसके ऊपर अच्छी पगडी़ बाँधी जाती है।
⋙ बताशा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बतासा'।
⋙ बतास ‡
संज्ञा स्त्री [सं० बातसह] १. वात का रोग। गठिया। क्रि० प्र०—धरना।—पकड़ना। २. वायु। हवा। उ०—केवल आह की बतास मात्र भर गई।—श्यामा०, पृ० १३७।
⋙ बतासफेनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बतासा + फेनी] टिकिया के आकार की एक मिठाई।
⋙ बतासा
संज्ञा पुं० [हिं० बतास(= हवा)] १. एक प्रकार की मिठाई। उ०—कच्चे घडे़ ज्यों नीर, पानी के बीच बतासा।—पलटू० बानी, भा० १, पृ० २२। विशेष—यह चीनी की चाशनी को टपकाकर बनाई जाती है। टपकने पर पानी के वायुभरे बुलबुले से बन जाने हैं जो जमने पर खोखले और हलके होते है और पानी में बहुत जल्दी घुलते हैं। मुहा०—बतासे सा घुलना = (१) शीघ्र नष्ट होना। (शाप)। (२) क्षीण और दुबला होना। २. एक प्रकार की आतशबाजी जो अनार की तरह छूटती है और जिसमें बडे़ बडे़ फूल से गिरते हैं। ३. बुलबुला। बुद्- बुद। बुल्ला।
⋙ बतिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्तिका, प्रा० बतिया(= बत्ती)] थोडे़ दिनों का लगा हुआ कच्चा छोटा फल। छोटा, कोमल और कच्चा फल। उ०—इहाँ कुहँड़ बतिया कोउ नाहीं। जो तर्जनि देखत मरि जाहीं।—तुलसी (शब्द)।
⋙ बतिया ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बात + इया] दे० 'बात'। उ०—कहो उस देश की बतिया जहाँ नहिं होत दिन रतिया।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ७।
⋙ बतियाना
क्रि० अ० [हिं० बात से नामिक धातु] बातचीत करना।
⋙ बतियार
संज्ञा स्त्री [हिं० बात + यार(स्वा०)] बातचीत। उ०— सतसंगन की वतियारा। सो करत फिरत हुसियारा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ बतीसा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बत्तीसा'।
⋙ बतीसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बत्तीसी'। उ०—तोरे दँतवा कै बति- सिया जियरा मारै गोदना।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५९।
⋙ बतू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कलाबत्तू'। उ०—चोली चुनावट चिन्ह चुभै चपि होत उजागर चिन्ह बतू के।—घनानंद (शब्द)।
⋙ बतोला †
संज्ञा पुं० [सं० वार्तालु, हिं० बातुल अथवा बात + ओला] बतंगड। बकवास। उ०—कब नहीं बूझ से गए तोले। है वतोले बहुत बुरे लगते।—चोखे०, पृ० ५८।
⋙ बतोलिया
वि० [हिं० बात + औलिया] बात बनानेवाला। वातूनी। उ०—फँसाऊ और बतोलिये उपदेशक की ओर। प्रेमघन० भा० २, पृ० २७५।
⋙ बतौत कुंती
संज्ञा स्त्री [हिं० बात] कान में बातचीत करने की नकल जो बंदर करते हैं। (कलंदर)।
⋙ बतौर (१)
क्रि० वि० [अ०] १. तरह पर। रीति से। तरीके पर। जैसे,—बतोर सलाह के यह बात मैने कही थी। २ सद्दश्य। समान। मानिंद।
⋙ बतौर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बात, पुं हिं० बतउर] बातचीत उ०— जामें सुख रंच है विसाल जाल दुख ही की लूटि ज्यों बतौरन की बरछी की हूल है।—दीन० प्र०, पृ० १४०।
⋙ बतौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० बात + हिं० औरी (प्रत्य०)] एक प्रकार का रोग। विशेष—इसमें शरीर के ऊपर गोलाकार उभार हो आता है। इस रोग में प्रायः चमडे़ के नीचे एक गाँठ सी हो आती है जिसमें प्रायः मज्जा भरी रहती है। यह गाँठ बढ़ती रहती है, पर इसमें पीडा़ नहीं होती।
⋙ बत्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता, प्रा० बत्त] दे० 'बात'। उ०— (क) रज्जि मत्ति नादान कन्ह उच्चरिय बत्त इह।—पृ० रा०,४।२। (ख) उच्चारिय बत्त इमि मत्ति करि।—पृ० रा०, ४।१।
⋙ बत्तडो़ पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा०] वार्ता। उ०—डेरां डेरां बत्तडी, डेराँ डेराँ जोस।—रा० रू०, पृ० ७४।
⋙ बत्तरी पु
संज्ञा स्त्री [प्रा० बत्तडी़] वार्ता। बात। उ० रही जुगें जुग बत्तरिय।—पृ० रा०, १।६८८।
⋙ बत्तक
संज्ञा पु० [हि० बतक] दे० 'बतख'।
⋙ बत्तर †
वि० [हिं०] बे० 'बदतर'।
⋙ बत्तिस
वि० [हिं०] दे० 'बत्तीस'।
⋙ बत्ती (१)
संज्ञा स्त्री [सं० वर्ति वर्तिका, प्रा० बत्ति] १. सूत,रूई,कपडे़ आदी की पतली छड़। सलाई या चौडे़ फीते के आकार का टुकड़ा जो बट या बुनकर बनाया जाता है ओर जिसे तेल में डालकर दीप जलाते हैं। चिराग जलाने के लिये रूई या सूत का बटा हुआ लच्छा। यौ०—अगरबत्ती। धूपबत्ती। मोमबत्ती। मुहा०—बत्ती लगाना = जलती हुई बत्ती छुला देना। जलाना। आग लगाना। भस्म करना। संझाबत्ती = संध्या के समय दीपक जलाना। २. मोमबत्ती। मुहा०—बत्ती चढा़ना = शमादान में मोमबत्ती लगाना। ३. दीपक। चिराग। रोशनी। प्रकाश। मुहा०—बत्ती दिखाना = उजाला करना। समने प्रकाश दिखाना। यौ०—दियाबत्ती। ४. लपेटा हूआ चीथड़ा जो किसी वस्तु में आग लगाने के लिये काम में लाया जाय। फलीता। पलीता। ५. पलती छड़ या सलाई के आकार में लाई हूई कोई वस्तु। बत्ती की शकल की कोई चीज। जैसे, लाह की बत्ती, मुलेठी के सत की बत्ती, लपेटे हूए कागज की बत्ती। ५. फूस का पूला जिसे मोटी, बत्ती के आकार में बाँधकर छाजन में लगाते हैं। मूठा। उ०—अचरज बँगला एक बनाया। ऊपर नींव, तले घर छाया। बाँस न बत्ती बंधन घने। कहो सखी ! घर कैसे बने।—(शब्द०)। ७. कपडे की वह लंबी धज्जी जो घाव में मवाद साफ करने के लिये भरते हैं। क्रि० प्र०—देना। ८. पगड़ी या चीरे का ऐंठा हूआ कपड़ा। ९. कपडे़ के किनारे का वह भाग जो सीने के लिये मरोड़कर पकडा़ जाता है।
⋙ बत्तो पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता, प्रा० बत्त] दे० 'बात'। उ०— सुनि बत्ती नृप भर किलकानं। राका चंद उदधि परमानं।— पृ० रा०, १८।३३।
⋙ बत्तोस (१)
वि० [सं० द्वात्रिंशत् प्रा० बत्तीसा] तीस से दो अधिक। जो गिनती में तीस से दो ज्यादा हो।
⋙ बत्तीस (२)
संज्ञा पुं० १. तीस से दो अधिक की संख्या। २. उक्त संख्या का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है —३२।
⋙ बत्तीसा
संज्ञा पुं [हिं० बत्तीस] एक प्रकार का लड्डू जिसमें पुष्टई के बत्तीस मसाले पड़ते हैं। यह लड्डू विशेषतः नव- प्रसूता को खिलाया जाता है।
⋙ बत्तीसी
संज्ञा स्त्री [हिं० बत्तीस] १. बत्तीस का समूह। २. मनुष्य के नीचे ऊपर के दाँतों की पंक्ति(जिनकी पूरी संख्या बत्तीस होती है)। मुहा०—बत्तीसी खिलना = प्रसन्नता से हँस पड़ना। बत्तीसी झढ़ पड़ना = दाँत गिर पडना। बत्तीशी दिखाना = दाँत दिखाना। हँसना। बत्तीसी बजना = जाडे के कारण दाढ़ों का कँपना। गहरा जाड़ा लगना।
⋙ बत्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० बत्त या वस्ति] दे० 'बाथ'। उ०—देहु समत्थ बणावियो, बाघ डाच जम वत्थ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २६।
⋙ बथान †
संज्ञा पुं० [सं वत्स + स्थान, गु० हिं० बच्छथान] गो- गृह। गायों के रहने का स्थान।
⋙ बथुआ
संज्ञा पुं० [सं० वास्तुक, प्रा० वात्थुआ] एक छोटा पौधा जो जो गेहूँ आदि के खेतों में उपजता है और जिसका लोग साग बनाकर खाते हैं। विशोष—इसकी पत्तियाँ छोटी छोटी और फूल घुंडी के आकार के होते हैं जिनमें काले दाने के समान बीज पडते हैं। वैद्यक में बहुधा जठराग्निजनक, मधुर, पित्तनाशक, अर्श और कृमि- नाशक, नेत्रहितकारी स्निग्ध, मलमूत्रशोधक और कफ के रोगियों को हितकारी माना गया है।
⋙ वथुवा पु
संज्ञा पुं० [सं० वास्तुक] दे० 'बथुआ'। उ०—कोस पचीस इक बथुवा नीचे जड़ से खोद वहावै।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० १३६।
⋙ बथूआ
संज्ञा पुं० [सं० वास्तूक] रिड्डा या रिडुक छंद का एक भेद जिसमें ६७ मात्राएँ होती हैं और अंत में दोहा रहता है।— पृ० रा० १।२ (टिप्प) पृ० ८।
⋙ वथ्थ पु०
संज्ञा पुं० [सं वस्सि या वक्ष] वक्षस्थल। उ०—(क) मिल्यौ बत्थ आनं दुश्र मल्ल जानं।—पृ० रा०, १।६४५। (ख) छाको बाँके बीर हथ्थ बथ्थन भरी जुट्टे।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २०।
⋙ बदंमली
संज्ञा स्त्री० [फा़ बद + अमली] दे० 'बंद अमली'।
⋙ बद (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०बर्ध्म(= गिलटी)] गरमी की बीमारी के कारण यों ही सूजी हुई जाँघ पर की गिलटी। गोहिया। बाघी। क्रि० प्र०—निकलना। २. चौपायों का एक छूत का रोग जिसमें मुँह से लार बहती है, उनके खुर और मुँह में दाने पड़ जाते हैं और सींग से लेकर सारा शरीर गरम हो जाता है।
⋙ बद (२)
वि० [फ़ा०] १. बुरा खराब। २. अधम। निकृष्ट। यौ०—बदअमली। बदइंतजामी। बदकार। बदकिस्मत। बदखत। बदरुवाह। बदगुमान। बदगोई। बदचलन। बदजबान। बदजात। बदतमीज। बददुश्रा। बदनसीब। बदनाम। बदनीयत। बदनुमा। बदपरहेज। बदवख्त। बदधू। बदमजा। बदमस्त। बदमाश। बदमिजाज। बदरंग। बदलगाम। बदशकल। बदसूरत। बदहजमी। बदहवास। ३. बुरे आचरण का (मनुष्य)। दुष्ट। खल। मीच। जैसे, बद अच्छा, बदनाम वुरा।
⋙ बद (३)
संज्ञा स्त्री [सं वर्त(= पलटा, बदला)] पलटा। बदला। एवज। उ०—तब इक मित्रहि कहयो बुझाई। तुम हमरी बद पहरे जाई।—रघुराज (शब्द)।मुहा०—बद में = एवज में। बदले में। स्थान पर। उ०— गुरु गृह जब बन को जात। तुरत हमारे बद में लकरी लावत सहि दुख गात।—सूर (शब्द)।
⋙ बदअमली
संज्ञा स्त्री [फ़ा० बद + अ० अमल] राज्य का कुपबंध। अशांति। हलचल। क्रि० प्र०—फैलाना।—मचना।
⋙ बदइंतजामी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा बदइंतजामी] कुप्रबंध। अव्यवस्था।
⋙ बदकार
वि० [फा़०] १. बुरे काम करनेवाला। कुकर्मी। २. व्यभिचारी। परस्त्री या परपुरुष में रत। जैसे, बदकार आदमी, बदकार औरत।
⋙ बदकारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. कुकर्म। व्यभिचार।
⋙ बदकिस्मत
वि० [फ़ा० बद + अ० किस्मत] बुरी किस्मत का। मदभाग्य। अभागा।
⋙ बदखत (१)
वि० पुं० [फ़ा़ बदखत] बुरा लेख। बुरी लिपि बुरे अक्षर।
⋙ बदखत (२)
वि० बुरा लिखनेवाला। वह जिसका लिखने में हाथ न बैठा हो।
⋙ बदख्वाह
वि० [फा० बदख्वाह] बुरा चाहनेवाला। अनिष्ट चाहनेवाला। खैरख्वाह का उलटा।
⋙ बदगुमान
वि० [फ़ा०] बुरा संदेह करनेवाला। संदेह की दृष्टि से देखनेवाला।
⋙ बदगुमानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] किसी के ऊपर मिथ्या संदेह। झूठा शुवहा। उ०—आखिर बदगुमानी की भी एक हद है।—वो दुनिया, पृ० २५।
⋙ बदगो
वि० [फ़ा०] निंदक। चुगलखोर।
⋙ बदगोई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. किसी के संबंध में बुरी बात कहना। निंदा। २. चुगली।
⋙ बदचलन
वि० [फ़ा०] कुमार्गी। बदराह। बुरे चाल चलन का। लपट।
⋙ बदचलनी
संज्ञा [फ़ा०] १. बदचलन होने की क्रिया या भाव। दुश्चरित्रता। २. व्यभिचार।
⋙ बदजबान
वि० [फ़ा बदजबान] १. बुरा बोलनेवाला। गाली गलोज करनेवाला। २. कटूभाषी।
⋙ बदजात
वि० [फ़ा० बद + अ० जात] १. बुरी असलियत या खासियत का। २. खोटा। ओछा। नीच।
⋙ बदजायका
वि० [फ़ा० बद + अ० जायकह] बुरे स्वाद का। स०—एक एक बीडे़ बजारु बदजायका पान के लीजिए।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५४।
⋙ बदतमीज
वि० [फा़० बदतमोज] १. जिसे अच्छी बुरी चाल की पहचान न हो। जो शिष्टाचार न जानता हो। २.गँवार। बेहूदा।
⋙ बदतर
वि० [फा़०] और भी बुरा। किसी की अपेक्षा बुरा। जैसे,—यह तो उससे भी बदतर है।
⋙ बददुआ
संज्ञा स्त्री० [फ़० बद + अ० दुआ] शाप। अहितकामना जो शब्दों द्वारा प्रकट की जाय। क्रि० प्र०—देना।
⋙ बदन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] शरीर। देह। यौ०—तन बदन। मुहा०—तन बदन की सुध न रहना = (१) अचेत रहना। बेहोश रहना। (२) किसी ध्यान में इतना लीन होना की किसी बात की खबर न रहे। बदन टूटना = शरीर की हड्डियों में पीड़ा होना। जोड़ों में दर्द होना जिससे अंगों को तानने और खींचने की इच्छा हो। बदन तोडना = पीडा़ के कारण अंगों को तानना और खींचना।
⋙ बदन (२)
संज्ञा पुं० [सं बदन] मुख। चेहरा। दे० 'वदन'।
⋙ बदनसीव
वि० [फ़ा०] अभागा। जिसका भाग्य बुरा हो।
⋙ बदनसीबी
संज्ञा [फ़ा०] दुर्भाग्य।
⋙ बदनतौल
संज्ञा स्त्री [फ़ा० बदन + हिं० तौल] मलखंभ की एक कसरत जिसमें हत्थी करते समय मलखंभ को एक हाथ से लपेटकर उसी के सहारे सारा बदन ठहराते या तौलते हैं। इसमें सिर नीचे और पैर सीधे ऊपर की ओर रहते हैं।
⋙ बदननिकाल
संज्ञा पुं० [फ़ा० बदन + हिं० निकालना] मलखंभ की एक कसरत जिसमें मलखंभ के पास खडे़ होकर दोनों हाथों की कैची बाँधते हैं। इसमें खेलाडी़ का मुँह नीचे, कमर मलखंभ से सटी हुई ओर पैर ऊपर होता है।
⋙ बदना पु
क्रि० स० [सं० √ बद(= कहना)] कहना। वर्णन करना। उ०—(क) विष्णु शिवलोक सोपान सम सर्वदा दास तुलसी बदत बिमल बानी।—तुलसी(शब्द)। (ख)पानि जोरि कैमास बदै तब राज प्रति। उर अवलोकित उलसत सामंत राज अति।—पृ० रा०,६।२४०। २. मान लेना। स्वीकार करना। सकारना। जैसे,किसी को साखी बदना, गवाह बदना । उ०—हाथ छुड़ाए जात हो निबल जानि कै मोहि। हिरदय में से जाइयो मर्द बदौंगी तोहि।—(शब्द०)। ३. नियत करना। ठहराना। पहले से स्थिर करना। ठीक करना। निश्चित करना। कहकर पक्का कर लेना। जैसे, कुश्ती का मुकाम बदना, दाँब बदना। उ०—(क)श्याम गए वदि अवधि सखी री।—सूर(शब्द)। (ख) दूती सों संकेत बदि लेन पठाई आप।—केशव(शब्द०)। मुहा०—बदा होना = भाग्य में बदा होना। भाग्य में लिखा होना। प्रारब्ध में होना। जैसे—अब तो चलते हैं, जो बदा होगा सो होगा। बदकर (कोई काम करना) = जान बुझकर। पूरी दृढ़ता के साथ। पूरे हठ के साथ। टेक पकड़कर। जैसे,—जिस काम को मना करते हैं वह बदकर करता है। (२) बेधड़क। ललकारकर। छेड़कर। आप अग्रसर होकर। जैसे,—न जाने क्यों वह मुझसे बढकरझगडा करता है। बदकर कहना = दृढ़ता के साथ कहना। पूरे निश्चय के साथ कहना। जैसे,—हम बदकर कहते हैं कि तुग्हारा यह काम हो जायगा। ४. सफलता पर जीत और असफलता पर हार मानने की शर्त पर कोई बात ठहराना। बाजी लगाना। होड़ लगाना। शर्त लगाना। जैसे,—आज उस मैदान में पहलवानों की कुश्ती बदी है। (ख) हम उससे कुश्ती बदेंगे। ५. गिनती में लाना। लेखे में लाना। कुछ समझना। कुल ख्याल करना। बडा़ या महत्व का मानना। जैसे,—वह लड़का इतना धृष्ट हो गया है कि किसी को कुछ नहीं बदना। उ०—(क)बदत काहू नहीं निधरक निदरि मोहिं न गनत। बार बार बुझाय हारी भौंह मो पै तनत।— सूर, (शब्द०)। (ख) जोबन दान लेऊँगो तुम सों। जाके बल तुम बदति न काहुहि कहा दुरावति मों सो।—सूर (शब्द)। (ग) तौ बदिहौं जो राखिहौ हाथनि लखि मन हाथ।—बिहारी(शब्द०)।
⋙ बदनाम
वि० [फ़ा०] जिसका बुरा नाम फैला हो। जिसकी कुख्याति फैली हो। जिसकी निंदा हो रही हो। कलंकित। जैसे,—बद अच्छा, बदनाम दुरा।
⋙ बदनामी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] अपकीर्ति। लोकनिंदा। कलंक। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ बदनीयत
वि० [फ़ा० बद + अ० नीयत] १. जिसकी नीयत बुरी हो। जिसका अभिप्राय दुष्ट हो। नीचाशय। २. जिसके मन में धोखा आदि देने की इच्छा हो। बेईमान।
⋙ बदनीयती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बेईमानी। दगाबाजी।
⋙ बदनुमा
वि० [फ़ा०] जो देखने में बुरा लगे। कुरूप। भद्दा। भोंडा।
⋙ बदपरहेज
वि० [फ़ा० बदपरहेज] कुपथ्य करनेवाला। जो खाने पीने आदि का संयम न रखता हो।
⋙ बदपरहेजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बदपरहेजी] कुपथ्य। खाने पीने आदि में असंयम।
⋙ बदफैल (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बदफेल] बुरा काम। कुकर्म। उ०— (क) उसे करोगे बदफैल बुरी होयगी नक्कल।—दक्खिनी०, पृ० ४७। (ख) करि बदफैल सो गए बदी में सभ मिलि बदन निहारा।—संत० दरिया पृ० १५३।
⋙ बदफैली
संज्ञा [फ़ा० बदफे़ली] कुकर्म। बुरा काम। उ०— जोवन धन मित्त न आखीए बदफैली क्या हाल।—प्राण०, पृ० २५५।
⋙ बदबखत पु
वि० [फ़ा० बदबख्त] अभागा। उ०—बेअदव बदबखत बोरा बेअकल बदकार।—रै० बानी, पृ० २०।
⋙ बदबख्त
वि० [फ़ा बदवखत] [संज्ञा स्त्री० बदबख्ती] बदकिस्मत। आभागा। उ०—दरवाजे से आज ये बदबख्त मायूस होकर जायगी।—श्रीनिवास प्रं०, पृ० ४७।
⋙ बदबाछा
संज्ञा पुं० [फा़०बद + हिं०बाछ] वह हिस्सा जो बेईमानी करने से मिला हो।
⋙ बदबू
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दुर्गंध। बुरी बास। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—फैलना।
⋙ बदबूदार
वि० [फ़ा०] दुर्गधयुक्त। बुरी गंधवाला। जिसमें से बुरी वास आती हो।
⋙ बदबोय †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०बदबु] दे० 'बदवू' उ०— खुदी खुद खोय बदबोय रुह ना रखो।—तुलसी० श०, पृ०१३।
⋙ बदयोह †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०बदबू] दुर्गंध। बदबू। उ०—कांटाँ सूँ भूँडो क्रपण, बय अपजस बदबोह। — बाँकी प्रं० भा० ३, पृ० ४८।
⋙ बदमजा
वि० [फ़ा० बदमजह्] [संज्ञा बदमजगी] १. दुःस्वाद। बुरे स्वाद का। खराब जायके का। २. आनदरहित। जैसे,— तबीयत बदमजा होना।
⋙ बदमस्त
वि० [फ़ा०] १. नशे में जूर। अति उन्मत्त। नशे में बावला। उ०—जहाँ ओ कारो जहाँ से हूं बेखवर बदमस्त। किधर जमीं है जिधर प्रसमँ नहीं मालुम। —कविता को०, भा० ४, पृ० ३८०। २. कामोन्मत्त। लाट।
⋙ बदमस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मतवालापन। उन्मत्तता। २. कामोन्मत्तता। कामुकता। लंपटता।
⋙ बदमाश
वि० [फ़ा०बद + अ० मआश(=जीविका)] १. बुरे कर्म से जीविका करनेवाला। दुर्वृत्त। २. खोटा। दुष्ट। पाजी। लुच्चा। नटखट। ३. दुराचारी। बदचलन।
⋙ बदमाशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०बद + अ०मआश] १. बुरी बृत्ति। जघन्य वृत्ति। दुष्कर्म। खोटई। २. निचता। दुष्टता। पाजीपन। नटखटी। शरारत। ३. व्यभिचार। लंपटता।
⋙ बदमिजाजं
वि० [फ़ा० बदमिजा़ज] दु स्वभाव। बुरे स्वभाव का। जो जल्दी अप्रसन्न हो जाय़। चिड़चिड़ा।
⋙ बदमिजाजी
स्त्रीं० [फ़ा० बदमिज़ाजी] बुरा स्वभाव। चिड़- चिड़ापन।
⋙ बदरंग (१)
वि० [फ़ा०] १. बुरे रंग का। जिसका रंग अच्छा न हो। भद्दे रंग का। २. जिसका रंग बिगड़ गया हो। विवर्ण। उ०—ललार की खाल सिकुड़ गई थी। दात ओठ दोनों बदरंग पड़ गए थे।— श्यामा०, पृ० १४५।
⋙ बदरंग (२)
संज्ञा पुं० ताश के खेल में जो रंग दाव पर गिरना चाहिए उससे मिन्न रंग। २. चोसर के खेल रमें एक एक खिलाड़ी की दो गोटियों में वह गोटी जो रंग न हो।
⋙ बदरंगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] रंग का फीकापन या भद्यपन।
⋙ बदर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेर का पेड़ या फल। २. कपास। ३. कपास का बीज। बिनोला। यौ०—बदरकुण=बेर के फल के पकने का समय।
⋙ बदर (२)
क्रि वि० [फ़ा०] बाहर। जैसे, शहर बदर करना। मुहा०—बदर निकालना=जिम्मे रकम निकालना। किसी के नाम हिसाब में बाकी बताना।
⋙ बदर (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बद्र] चंद्रमा। यौ०—बदरे मुनीर=प्रकाशमान चंद्रमा। उ०—बदरे मुनीर बेनजीर सीरी खुसरु में।—नट०, पृ० ७८।
⋙ बदरनवोसी
संज्ञा स्त्रीं० [फ़ा०] [संज्ञा बदरनवीस़] १. हिसाब किताब की जांच। २. हिसाब में गड़गड़ रकम अलग करना।
⋙ बदरा ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं वारिद ,प्रा० बद्दल ,हि० बादल, बादर] बादल। मेघ। उ०—कौन पुनै कासों कहीं सुरति बिसारी नाह। बदाबदी जिय लेत है ये बदरा बदराह।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बदरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बराहपाती का पौधा।
⋙ बदरामलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा। पानी आमला। बिशेष—इसके पौधे जलाशयों के पास होते है। पत्ते लंबे लंबे ओर फल लाल लाल बेर के समान होते है। टहनियों में छोटे छोटे कांटे भी होते हैं।
⋙ बदराह
वि० [फ़ा०] १. कुमार्गी। कुमार्गगामी। बुरी राह पर चलनेवाला। २. दुष्ट। बुरा। उ०—बदाबदी जिय लेत हैं। ये बदरा बदराह।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बदरि
संज्ञा पुं० [सं०] बेर का पौधा या फल। उ०—जिनहि बिश्व कर बदरि समान।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बदरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर का पेड़। २. बेर का फल। ३. गंगा के उदगम स्थानों में से एक ओर उनके समीप का आश्रम [को०]।
⋙ बदरिकाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] तीर्थविशेष जो हिमालय पर है। यहां नर नारायण तथा व्यास का आश्रम है। विशेष—यह तीर्थ श्रीनगरव (गढ़वाल) के पास अलकनंदा नदी के पश्चिमी कीनारे पर है। कहते हैं। भृगुतुंग नामक शृंग के ऊपर एक बदरी वृक्ष के कारण बदरिकाश्रम नाम पड़ा। महाभारत में लिखा हैं, पहले यहा गगा की गरम और ठंढो दी घाराएँ थीं, ओर रेत सोने की थी। यहां पर देवताओं ने तप करके विष्णु को प्राप्त किया था। गधमादन, बदरी, नरनारायण ओर कुबेरश्रृग इसी तीर्थ के अंतर्गत हैं। नर- नारायण अर्जुन ने यहा बड़ा तप किया था। पांडव महाप्रस्थान के लिये इसी स्थान पर गए थे। पद्यपुराण में बैष्णवों के सब तीर्थों में बदरीकाश्रम श्रेष्ठ कहा गया है।
⋙ बदरिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बदरी (२)','बदली (१)'।
⋙ बदरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर का पेड़ या फल। २. कपास का पौधा (को०)।
⋙ बदरी पुं (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० बादली] दे० 'बदली'।
⋙ बदरीच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बैर। २. एक सुगंध द्रव्य जो शायद किसी समुद्री जंतु का सूखा मांस हो।
⋙ बदरोछद
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधद्रष्य। बदरीच्छदा।
⋙ बदरीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] बदरीकाश्रम नाम का तीर्थ।
⋙ बदरीनारायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बदरिकाश्रम के प्रधान देवता। २. नारायण की मुर्ति जो बदरिकाश्रम में है।
⋙ बदरीपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक सुगंध द्रव्य।
⋙ बदरीफल
संज्ञा पुं० [सं०] बेर का फल।
⋙ बदरीफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील शेफालिका का पौधा।
⋙ बदरीवन
संज्ञा पुं० [सं० बदरीवन] १. बैर का जंगल।२. बदरीवाश्रम। उ०—बदरीवन बह सो गई, प्रभु अज्ञा घीर सीस। मानम,४।२५।
⋙ बदरीवासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०]।
⋙ बदरुन
संज्ञा पुं० [? या देशज] पत्थर की जाली की एक प्रकार की नक्काशी जिसमें बहुत से कोने होते हैं।
⋙ बदरौह † (१)
वि० [फा़० बद + रौ(=चाल)] कुमार्गी। बदचलन उ०—इंद्री उदर बडा़ई कारन होत जात बदरोंहा।—देव स्वामी (शब्द०)।
⋙ बदरौह † (२)
संज्ञा पुं० [हि० बादर + श्रौंह (प्रत्य०)] बदली का आभास।
⋙ बदल
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक के स्थान पर दुसरा होना। परिवर्तन। हेर फेर। यौं०—अदल बदल। रदबदल। २. पलटा। एवज। प्रतिकार।
⋙ बदलगाम
वि० [फ़ा० बद + लगाम] १. जिसे भला बुरा मुँह से निकालते संकोच न हो। बदजबाब। २. सरकश। उद्दंड मुँहजोर (अश्व)।
⋙ बदलना (१)
क्रि० अ० [अ० बदल + हि० ना (प्रत्य०)] १. और का ओर होना। जैसा रहा हो उससे भिन्न हो जाना। परिवर्तन होना। जैसे—(क) इतने ही दिनों में उसकी शकल बदल गई। (ख) इसका रंग बदल गया। सयो० क्रि०—जाना। २. एक स्थान पर दुसरा हो जाना। जहां जो वस्तु रही हो वहां वह न रहकर दूसरी वस्तु आ जाना। जैसे,—(क) मेरा छाता बदल गया। (ख)फाटक पर पहरा बदल गया। मुहा०— किसी से बदल जाना=किसी के पास अपनी चीज चली जाना ओर अपने पास उसकी चीज आ जाना। जैसे,— यह मेरा छाता नहीं है, किसी से बदल गया है। (वास्तव में 'किसी' से अभिप्राय किसी की वस्तु से है)। ३. एक स्थान से दूसरे स्थान पर नियुक्त होना। एक जगह से दूसरी जगह तैनात होना। जैसे,—वह कलक्टर यहाँ से बदल गया। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ बदलना (२)
क्रि० स० १. और का और करना। जैसा रहा हो उससे भिन्न करना। परिवर्तन करना। संयों० क्रि०—डालना।— देना। २. एक के स्थान पर दूसरा करना। जिस स्थान पर या जिस व्यवहार में जो बस्तु रही हो उसे न रखकर दूसरी रखनाया उपस्थित करना। एक वस्तु के स्थान की पूर्ति दूसरी वस्तु से करना। जैसे, घर बदलना, कपड़ा बदलना। संयों० क्रि०—डालना।— देना। मुहा०—बात बदलना=पहले एक बात कहकर फिर उसके विरुद्ध दूसरी बात कहना। ३. एक वस्तु देकर दूसरी वस्तु लेना या एक वस्तु लेकर दूसरी वस्तु देना। विनिमय करना। जैसे—(क) खोटा रुपया बदलना। (ख) चादी बदलकर सोना लेना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।
⋙ बदलवाई
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बदलाई'।
⋙ बदलवाना
क्रि० स० [हि० बदलना का प्रे० रुप] बदलने का काम कराना।
⋙ बदला
संज्ञा पुं० [अ० बदल ,हि० बदलना] १. एक वस्तु देकर दूसरी वस्तु लिया जाना या एक वस्तु लेकर दूसरी वस्तु दिया जाना। परस्पर लेने ओर देने का व्यवहार। विनमय। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. एक पक्ष की वस्तु के स्थान पर दूसरे पक्ष वी वस्तु जो उपस्थित की जाय। एक वो वस्तु के स्थान पर दूसरा जो दूसरी वस्तु दे। एक वस्तु को हानी या स्थान की पूर्ति के लिये उपस्थित की हूई दूसरी वस्तु। जैसे,—चिज खो गई तो खो गई उसका बदला लेकर क्या आए हो ? ३. किसी वस्तु के स्थान वी दूसरी वस्तु से पूर्ति। किसी चीज की कमी या नुकसान दूसरी चीज से पूरा करना या भरना। पलटा। एवज। जैसे,—दूसरे की चीज है, खो जायगी तो बदला देना पड़ेगा। संयो० क्रि०—देना। लेना। मुहा०—बदले=(१) बदले में। स्थान वी पूर्ति में। जगह पर। एवज में। जैसे,—इस तिपाई को हटाकर इसके बदले एक कुरसी रखो। (२) हानि की पूर्ति के लेये। नुकसान भरने के लिये। जैसे—घड़ी खो जायगी तो इसके बदले दूसरी घड़ी देनी होगी। ४. एक पक्ष के किसी व्यवहार के उत्तर में दूसरे पक्ष का वैसा ही व्यवहार। एक दूसरे के साथ जैसी बात करे दूसरे का उसके साथ वैसी ही बात करना। पलटा। एवज। प्रतीकार। जैसे,—(क) बुराई का बदला भलाई से देना चाहिए। (ख) मैंने तुम्हारे साथ जो इतनी भलाई की उसका क्या यही बदला है। मुहा०—बदला देना=उपकार के पलटे में उपकार करना। प्रत्युपकार करना। किसी से कूछ लाभ उठाकर उसे लाभ पहुँचाना। बदला लेना=अपकार के पलटे में आकार करना। किसी के बूराई करने पर उसके साथ वुरीई करना। जैसे,— तुमने आज उसे मारा है, इसका बदला वह जरुर लेगा। ५. किसी कर्म का परिणाम जो भोगना पड़ै। प्रतिफल। नतीजा। जैसे,—तुम्हें इसका बदला ईश्वर के यहां मिलेगा।
⋙ बदलाई
संज्ञा स्त्री० [हि० बदला + ई या आई(प्रत्य०)] बदलने की क्रिया। परिवर्तन। उ०—भारतमाता। क्यों हो इतनी घबराई। की है उसने केवल कर की बतलाई। —सूत०, पृ०३७।
⋙ बदलाना
वि० स० [बदलना का प्रे० रुप] बदलवाना।
⋙ बदली (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० बादल का अल्पा०] फैलकर छाया हूआ बादल। घनविस्तार। जैसे,—आज बदली का दिन है।
⋙ बदली (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० बदलना] १. एक स्थान पर दूसरी वस्तु की उपस्थिति। यौ०—अदला बदली। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर नियुक्ति। तवदीली। तबादला। जैसे,—यहां से उसकी बदली दूसरे जिले में हो गई। ३. एक के स्थान पर दुसरे की तैनाती। जैसे,—अभी पहरे की बदली नहीं हुई है।
⋙ बदलौवल ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० बदलना] अदल बदल। हेर फेर। परिवर्तन।
⋙ बदशकल
वि० [फ़ा०] कुरुप। बेडोल। भद्दी सुरत का।
⋙ बदशगून
वि० [फ़ा०] अशुभ। मनहूस।
⋙ बदशगूनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] अमंगल। बदकिस्मती। उ०—न जाने लोगों को अपनी नाक काटकर औरों की बदशगूनी करने में क्या मजा आता है। — श्रीनिवास प्रं०, पृ० १७४।
⋙ बदसलूकी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बद + अ० सलुक] १. बुरा व्यव- हार। अशिष्ट व्यवहार। २. अपकार। बूराई। कि० प्र०—करना।—होना।
⋙ बदसूरत
वि० [फ़ां० बद + सुरत] [संज्ञा बदसूरती] कुरुप। भद्दी सुरतवाला। बैडोल।
⋙ बदस्तुर
क्रि० वि० [फ़ा०] मामुली तौर पर। जैसा था या रहता है बैसा ही। जैसे का तैसा। ज्यों का त्यों। बिना फेरफार। जैसे,—जो बाते पहले थीं अब भी बदस्तुर कायम है।
⋙ बदहजमी
स्त्री० [फ़ा० बदहज़मी] अपच। अजीर्ण।
⋙ बदहवास
वि० [फ़ा०] [संज्ञा बदहवासी] १. बेहोश। अचेत। २. व्याकुल। विकल। उद्विग्न। ३. श्रांत। शिथिल। पस्त।
⋙ बदहाल
वि० [फ़ा०] बुरी हालत का। दुर्दशाग्रस्त।
⋙ बदहालि
संज्ञा० [फ़ा०] तंगी। गरीबी। उ०—भूख ओर बदहाली ने उनकी आत्मा को कुचल दिया है।—गोदान, पृ०३।
⋙ बदा
संज्ञा पुं० [हि० बदना] वह जो कुछ भाग्य में लिखा हो। नियत। विपाक। जैसे,— वह अपना अपना बदा है।
⋙ बदाऊँ †
वि० [फ़ा० बद + आहू(=ऐव, दीप)] ठग। वटमार। लुटेरा। उ०—साहू थे सो हूए बदाऊँ लूटन लगे घर बारा।— कबीर० श०, पृ० ४७।
⋙ बदान
संज्ञा स्त्री० [हि० बदना] बदे जाने की क्रिया या भाव। प्रतिज्ञापूर्वक पहले से किसी बात का स्थिर किया जाना।किसी बात के होने का पक्का। जैसा,—आज कुश्ती की बदान है।
⋙ बदाबदी
संज्ञा स्त्री० [हि० बदना] दो पक्षों की एक दुसरे के विरुद्ध प्रतिज्ञा या हठ। लाग डाट। होड़ा होड़ी। होड़। उ०—कौन सुनै कासों कहीं सुरति बिसारी नाह। बदाबदी जिय लेत हैं ये बदरा बदराह—'बहारी (शब्द०)।
⋙ बदाम
संज्ञा पुं० [फ़ा० बादाम] दे० 'बादाम'।
⋙ बदामी (१)
वि० [फ़ा० आदामी] दे० 'बादामी'।
⋙ बदामी (२)
संज्ञा पुं० कोड़ियाले की जाति का एक पक्षी। एक प्रकार का किलकिला।
⋙ बदि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्त(=पलटा)] बदला। एवज। स्थानापत्र करने या होने का भाव।
⋙ बदि (२)
अव्य० १. बदले में। एवज में। पलटे में। उ०—(क) एक कोर लीजै पितु की बादि एक कोर बदि मोरा। एक कोर कैकेयी की, बदि एक सुमित्रा कोरा।—रघुराज (शब्द०)। (ख) बोले कुरुपति वचन मुहाए। हम नरेश सबकी बदि आए। रघुराज (शव्द०)। २. लिये। वास्ते। खातिर। उ०—इनकी बदि हम सहत यातना। हरिपार्षद अब आन बात ना। रघुराज (शब्द०)।
⋙ बदि पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बादी' उ०—बदि भादों आठै दिना, अरघ नेसा बुध बार। नेद प्रं०, पृ० ३३६।
⋙ बदो (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बद(=बुरा,खराब)] कृष्ण पक्ष। अंघेरा पाख। सुदी का उलटा। जैसे,सावन बदी तीज।
⋙ बदी (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बुराई। अपकार। अहित। जैसे,—नेकी बदी साथ जाती है। क्रि० प्र०— करना।—होना।
⋙ बदीत पु
वि० [मं० व्यतीत] व्यतीत। बीता हूआ। बीता। उ०—वर्ष बदीन भए कलिकाल के जैसे चमालीस चार हजारा। सुंदर० प्रं० (जी०), भा० १, पृ० १२९।
⋙ बदुख पु †
संज्ञा [स्त्री०] दे० 'बंदूक'।
⋙ बदे †
अव्य [सं० वर्त(=पलटा)] १. वास्ते। लिये। खातिर। अर्थ। उ० —तुम्हारे बदे तो नकर बना है अग्लिकुंड में डारी। —कबीर० श०, भा० ३, पृ० ३४। २. दलाली समेत दाम। (दलाल)।
⋙ बदौलत
के० वि० [फ़ा०] १. आसरे से। द्वारा। अवलंब से। कृपा से। जैसे,—जिसकी बदौलत रोटी खाते हो, उसी के साथ ऐसा। २. कारण से। सबब से। बजह से। जैसे,— तुम्हारी बदौलत यह सुनना पड़ता है।
⋙ बद्दर पु ‡
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'बादल'। उ०—बद्दर की छाहों, वैसो जीवन जग माहाँ। (शब्द)।
⋙ बद्दल पु
संज्ञा पुं० [से० वारिद, प्रा० बद्दल] दे० 'बादल'। उ०— बढ़ि बढ्ढि घनं घट सीस जरे। जनु बद्दल बद्दल बोज अरे।—पृ० रा०, २४। २९०। (ख) बद्दल समान मुगलद्दल उडे फिरे।—भुषण (शब्द०)।
⋙ बद् दुआ
संज्ञा स्त्री० [फा़० बददुआ] दे० 'बददुआ'।
⋙ बद् दु (१)
संज्ञा पुं० [देशज] अरब की एक असभ्य जाति जो प्रायः लूट पाट किया करती है।
⋙ बद् दू (२)
वि० बदनाम।
⋙ बद्ध
वि० [सं०] १. बँधा हुआ। जो या जिससे बांधा गया जो। बंधन में पड़ा हुआ या बांधने सें काम आया हुआ। यौ०—बद्धपरिकर। बद्धशिख। २. अज्ञान में फैसा हुआ। संसार के बंधन में पड़ा हूआ। जो मुक्त न हो। जैसे, बद्ध जीव। ३. जिसपर किसी प्रकार का प्रतिबंध हो। जिसके लिये कोई रोक हो। ४. जिसकी गति, क्रिया, व्यवहार आदि परिमित और व्यवस्थि हो। जो किसी हद हिसाब के भीतर रखा गया हो। जैसे, नियमबद्ध, मर्यादाबद्ध। ४. निर्धारित। निर्दिष्ट। स्थिर। ठहराया हुआ। ६. बैठा हुआ। जमा हुआ। यौ०—बद्धभूल। ७. सटा हुआ। जुड़ा हुआ। एक दूसरे से लग हुआ। यौ०—श्रंद्धाजलि।
⋙ बद्धक
संज्ञा पुं० [सं०] बंधुआ। कैदी।
⋙ बद्धकक्ष
वि० [सं०] दे० 'बद्धपरिकर' [को०]।
⋙ बद्धकोप
वि० [सं०] १. क्रोध को रोकनेवाला। २. क्रोध पालनेवाला क्रोधी [को०]।
⋙ बद्धकोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] मल अच्छी तरह न निकलने की अवस्था या रोग। पेट का साफ न होना। कब्ज। कब्जियत।
⋙ बद्धगुदोदर
संज्ञा पुं० [सं०] पेट का एक रेग जिसमें हृदय ओर नाभि के बीच पेट कूछ बढ़ आता है ओर मल रुक रुककर थोड़ा थोड़ा निकलता है। विशेष— वैद्यक के अनुसार जब अँतड़ियों में अन्न मिट्टी, बालू आदि जमते जमते बहुत सी इकट्ठी हो जाती हैं तब मल बहुत कष्ट से थोड़ा निकलता है। चिकनी, चिपचिपी चीजें अधिक खाने से यह रोग प्रायः हो जाता है और इसमें वमन में मल की सी दुर्गंध आती है। इसे बद्धगुद भी कहते हैं।
⋙ बद्धदृष्टि
वि० [सं०] लगातर वा टकटकी लगाए हुए [को०]।
⋙ बद्धना पु
क्रि० अ० [सं० बर्द्धन, प्रा० बर्द्धन, बढ्ढणा,हि० बढ़ना] दे० बढ़ना'। उ०—(क) बरष बधै विय वाल पिथ्थ बद्धै इक मासह।—पृ० रा०,१। ७१७। (ख) क्रम क्रम फल गुन बद्धइय, बेली नमें सुतेम।— पृ० रा०,११। ३१।
⋙ बद्धनिश्चय
वि० [सं०] दृढ़निश्चय। दृढ़प्रतिज्ञ [कों०]।
⋙ बद्धपरिकर
वि० [सं०] कमर बाधे हूए। तैयार। उ०—जिनकी दशा के सुधार के अर्थ वह बद्धपरिकर हुई है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७०।
⋙ बद्धपुरीष
वि० [सं०] कब्ज का रोगी [को०]।
⋙ बद्धप्रतिज्ञ
वि० [सं०] वचनबद्ध [को०]।
⋙ बद्धफल
संज्ञा पुं० [सं०] करंज का फल [को०]।
⋙ बद्धभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीचे की जमीन या फर्श। २. मकान के लिये तैयार की हुई भूमि। ३. गच। कुट्टिम। पक्की जमीन [को०]।
⋙ बद्धमुष्टि
वि० [सं०] १. जिसकी मुठ्ठी बँधी हो अर्थात् देने के लेये न खुलतीं हो। कृपण। कंजूस। २. बँधी मुट्ठीवाला।
⋙ बद्धमूल
वि० [सं०] जिसने जड़ पकड़ ली हो। जो दृढ़ ओर अटल हो गया हो। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ बद्धमौन
वि० [सं०] चुप्पी साधे हुए। मौन [को०]।
⋙ बद्धयुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] (संगीत में) वंशी बजाने में उसके छिद्रों पर से उँगली हटाकर उमे खोलने की क्रिया।
⋙ बद्धरसाल
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तम जाति का एक प्रकार का आम।
⋙ बदधराग
वि० [सं०] दृढ़ प्रेमवाला। दृढ़ अनुरागयुक्त। आसक्त [को०]।
⋙ बदधराज्य
वि० [सं०] जिसे राज्य मिला हो। राज्यारूढ़ [को०]।
⋙ बदधवर्चस
वि० [सं०] मलरोधक।
⋙ बदधवैर
वि० [सं०] किसी से शत्रुता साधे हुए [को०]।
⋙ बदधशिख (१)
वि० [सं०] जिसकी शिखा या चोटी बँधी हो। विशेष—बिना शिखा बाँधे जो कुछ कार्य किया जाता है वह निष्फल होता है।
⋙ बदधशिख (२)
संज्ञा पुं० शिशु। बच्चा।
⋙ बदधशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उच्चटा। भूम्यामलकी।
⋙ बदधसूत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बदधसूतक'।
⋙ बदधसूतक
संज्ञा पुं० [सं०] रसेश्वरदर्शन के अनूसार बदध रस या पारा। विशेष—यह अक्षत, लघुद्रावी, तेजोविशिष्ट, निर्मल और गुरु कहा गया है। रसेश्वरदर्शन में देह को स्थिर या अमर करने पर मुक्ति कही गई हैं। यह स्थिरता रम या पारे की सिद्धि द्वारा प्राप्त होती है।
⋙ बदधस्नेह
वि० [सं०] आसक्त। अनुरक्त [को०]।
⋙ बदधांजलि
वि० [सं० बदधाञ्जलि] करबदध। अंजलिबदध। उ०—बोले गुरु से प्रभु साश्रुबदन, बदधांजली।— साकेत, पृ० २२३।
⋙ बदधानंद
वि० [सं० बदधानन्द] आनंदयुक्त [को०]।
⋙ बदधानुराग
वि० [सं०] आसक्त। बदधराग [को०]।
⋙ बदधायुध
वि० [सं०] शस्त्रसज्ज। शस्त्रास्त्रयुक्त [को०]।
⋙ बदधाशंक
वि० [सं० बदधाशड्क] अशंकायुक्त। अशंकित। शंका- युक्त [को०]।
⋙ बदधाश
वि० [सं०] आशान्वित। आशायुक्त [को०]।
⋙ बद्धी
संज्ञा स्त्री० [सं० बद्ध] १. वह वस्तु जिसमे कुछ कसें या बाँधें। डोरी। रस्सी। तसमा। जैसे, तबले की बद्धी उ०—माची पर उलटा हल रवखा, बद्धी हाथ, अघेड़ पिता जी, माता जी, सिर गट्ठल पक्का।—आराधना, पृ० ७४। २. माला या सिकड़ी के आकार का चार लड़ों का एक गहना जिसकी दो लड़ें दोनों कंधों पर से होती हुई जनेऊ की तरह छाती और पीठ तक गई रहती हैं।
⋙ बद्धोत्सव
वि० [सं०] उत्सव में संलग्न। उत्सव का आनंद लेनेवाला [को०]।
⋙ बद्धोदर
संज्ञा पुं० [सं०] बद्धगुदोदर रोग।
⋙ बद्धोद्यम
वि० [सं०] प्रयत्नशील। चेष्टारत [को०]।
⋙ बध
संज्ञा पुं० [सं० बध] वह व्यापार जिसका फल प्राणवियोग हो। मार डालना। हनन। हत्या। दे० 'वध'।
⋙ बधक
वि० [सं०] बध करनेवाला।
⋙ बधगराड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० बाध + गराड़ी] रस्ती बटने का औजार।
⋙ बधत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्र।
⋙ बधना (१)
क्रि० स० [सं० बध + हिं० ना (प्रत्य०)] मार डालना। बध करना। हत्या करना। उ०—(क) खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा।—मानस, ३। २२।(ख) ताहि बधे कछु पाप न होई।—मानस,४। ९।
⋙ बधना पु (२)
क्रि० अ० [सं० बर्द्धन, प्रा० वद्धण] दे० 'बढ़ना'। उ०—(क) बरष बधै बिय बाल पिथ्थ बद्धै इक मासह।— पृ० रा०,१। ७१७। (ख) मंत्र जंत्र धारंत मन, आकरषे जब चंद। प्रगट दरस दिने सबन, कवि उर बध्यौ अनंद।— पृ० रा०,६। ३३। (ग) दया धर्म का रूंखड़ा, सतसों बधता जाइ।—दादू० बा०, पृ०४६२।
⋙ बधना (३)
संज्ञा पुं० [सं० बद् र्धन(=मिट्टी का गढुवा)] १. मिट्टी या धातु का टोंटीदार लोटा जिसका व्यवहार अधिकतर मुसलमान करते है। २. चूड़ीवालों का औजार।
⋙ बधभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ अपराधियों को प्राण- दंड दिया जाना है।
⋙ बधाई
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्द्धापन, पि० बढ़ना बढ़ती, बढ़ाई] १. बृदि्ध। बढ़ती। २. पुत्रजन्म पर होनेवाला आनंद मंगल। बेटा होने का उत्सव या खुशी। ३. मंगल अवसर का गाना बजाना। मंगलाचार। उ०—नंद घर बजति अनंद बधाई।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—बजना। ४. आनंद। मंगल। उत्सव। खुशी। चहल पहल। ५. किसी संबंधी, इष्ठ मित्र आदि के यहाँ पुत्र होने पर आनंद प्रकट करनेवाला वचन या संदेशा। मुबारकबाद। क्रि० प्र०—देना। ६. इष्ट मित्र के शुभ, आनंद या सफलता के अवसर पर आनंदप्रकट करनेवाला वचन या संदेसा। मुबारकबाद। जैसे, (क) जीत होने की बधाई। (ख) तुम्हें इसकी बधाई। क्रि० प्र०—देना। ७. उपहार जो मंगल या शुभ अवसर पर दिया जाय। मुहा०—बधाई या बधाय बँटना=परस्पर खुशी में एक दूसरे को बधाई देना। उ०—बाँटि बधाय दिल्ली सहर जीते आवत राज। द्रव्य पटंबर विविध दिय बज्जा जीत सु बाज।—पृ० रा०,१९। २५०।
⋙ बधाईदार
वि० [हि० बधाई + फ़ा० दार] मुबारकबादी देनेवाला। बधाई देनेवाला। उ०—नृप मेले आया नगर, दोड बधाईदार।—रघु० रू०, पृ०,९२।
⋙ बधाना
क्रि० स० [हि बधना का प्रे० रूप] बध कराना। दूसरे से मरवाना।
⋙ बधाया
संज्ञा पुं० [हि० बधाई] बधाई। बधावा। उ०—जबते राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाये।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बधाव पु
संज्ञा पुं० [पा० बद्धव, प्रा० बद्धाव] दे० 'बधावा'। उ०—अवध बधाव विलोकि सूर बरसत सुमन सुगंध।—तुलसी ग्र०, पृ० ८२। मुहा०—बधाव बजना=पुत्रजन्म आदि मांगलिक ओर प्रसन्नता के समय शहनाई आदि बाजों का बजना। उ०—गृह गृह बाज बधाव सुम प्रगटे सुखायकंद।— मानस, १। १९४।
⋙ बधावन पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्द्धापन, प्रा० बद्धावण] दे० 'बधावा'। उ०—गावहिं गीत सुवासिनि, बाज बधावन।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६।
⋙ बधावना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बधावा'। —उ०—गगन दमामा बाजिया, हनहनिया केकान। सूरा धरे बधावना, कायर तज परान।—कबीर० सा० सं०, भा० १, पृ० २३।
⋙ बधावर †
संज्ञा पुं० [हि० बधाव] दे० 'बधावा'। उ०—सहित बधावर नगर कहँ, आए दोऊ भूप।—इंद्रा०, पृ० १४५। (ख) आजु मेरे मंगल बधावर आरसि करहो।—गुलाल०, पृ० १२१।
⋙ बधावा
संज्ञा पुं० [हि० बधाई] १. बधाई। २. आनंद मंगल के अवसर का गाना बजाना। मंगलाचार। उ०—(क) तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।—मानस, २। ११। (ख) गरीबों के घर में बधावा बजने लगता है।—किन्नर०, पृ० ७०३। क्रि० प्र०—बजना। ३. उपहार (मिठाई, फल, कपड़े गहने आदि) जो संबंधियों या इष्ट मित्रों के यहाँ से पुत्रजन्म, विवाह, आदि मंगल अवसरों पर आता है। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—भेजना।
⋙ बधिक
संज्ञा पुं० [सं० बधक] १. बध करनेवाला। मारनेवाला। हत्यारा। २. प्राणदंड पाए हूए का प्राण निकालनेवाला। जल्लाद। ३. व्याध। बहेलिया।
⋙ बधिया
संज्ञा पुं० [हिं० बध(= भारना) + इया(प्रत्य०)] १. वह बैल या और कोई पशु जो अडकोश कुचल या लिकालकर' षंड' कर दिया गया हो। नपुसक किया हुआ चोपाया। खस्सी। आख्ता। चौपाया जो आँडू न हो। उ०—दौलत दुनिया माल खजाने बधिया बैल चराई।—कबीर० श०, पृ० १५। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—बधिया बैठना = (१) घाटा होना। टोटा होना। दिवाला निकलना। (लश०)। (२) हिम्मत पस्त होना। कमर टूटना। उ०—ईश्वर न करें कि रोज आएँ, यहाँ तो एक ही दिन में बधिया बैठ गई।—मान०, भा० ५, पृ० १६२। २. एक प्रकार का मीठा गन्ना।
⋙ बधियाना †
क्रि० स० [हिं० बधिया + ना (प्रत्य०)] बधिया करना। बधिया बनाना।
⋙ बधिर
संज्ञा पुं० [सं०] जिसमें श्रवण शक्ति न हो। जिसमें सुनने की शक्ति न हो। बहरा।
⋙ बधिरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रवण शक्ति का अभाव। बहरापन।
⋙ बधिरित
वि० [सं०] जिसे बहरा किया या बनाया गया हो [को०]।
⋙ बधिरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बधिरता' [को०]।
⋙ बधू
संज्ञा स्त्री० [सं० बधू] दे० 'बधू'।
⋙ बधूक
संज्ञा पुं० [सं० बन्धूक] दे० 'बंधूक'।
⋙ बधूटी
संज्ञा स्त्री० [सं० वधूटि] १. पुत्र की स्त्री। पतोहू। २. सुवासिनी। सुहागिन स्त्री। सौभाग्यवती स्त्री। उ०—भई मगन सब गाम बधूटी।—मानस, २।११७। ३. नई आई हूई बहू।
⋙ बधूरा
संज्ञा पुं० [हिं० बहु + धूर] अंध। बगूला। बवंडर। चक्रवात। उ०—(क) ज्यों बधूरा बाव मध्य मध्य बधूरा बाव। त्योंही जग मध्ये ब्रह्म है ब्रह्म मध्ये जगत सुभाव।—कबीर (शब्द०)। (ख) चढ़ै बधूरे चंग ज्यों ज्ञान ज्यों सोक समाज। करम धरम सुख संपदा, त्यों जानिबे कुराज।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बधैया ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बधाई'।
⋙ बधैया † (२)
वि० [हिं० बधाई] बधाई देनेवाला। बधाईदार। उ०— तब पहिले ही नारायणदास के पास श्री गुसाई जी कौ बधैया आयो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ १०९।
⋙ बध्य
वि० [सं०] मारने के योग्य। बध के योग्य।